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पद्मपुराणे
एवं तेष्वप्यतीतेषु धनप्रमसुतोऽभवत् । लङ्कायामधिपः कीर्तिधवलो नाम विश्रुतः ॥ ४०३ || पद्मागमे समुद्भूतः खेचरैः कृतशासनः । संभुङ्क्ते परमैश्वयं सुनासीरो यथा दिवि ॥ ४०४ ||
वसन्ततिलकावृत्तम्
एवं भवान्तरकृतेन तपोबलेन संप्राप्नुवन्ति पुरुषा मनुजेषु भोगान् ।
देवेषु चोत्तमगुणा गुणभूषिताङ्गा निर्दग्धकर्मपटलाश्च भवन्ति सिद्धाः ||४०५|| दुष्कर्म सक्तमतयः परमां लभन्ते निन्दां जना इह भवे मरणात्परं च । दुःखानि यान्ति बहुधा पतिताः कुयोनौ ज्ञास्वेति पापतमसो रवितां भजध्वम् ||४०६ ॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्य प्रोक्ते पद्मचरिते राक्षसवंशाधिकारः पञ्चमं पर्व ॥५॥
कर्मोंको नष्ट कर त्रिलोकके शिखरको प्राप्त हुए, और कितने ही पुण्योदयके प्रभावसे स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे || ४०२ || इस प्रकार बहुत-से राजा व्यतीत हुए। उनमें लंकाका अधिपति एक घनप्रभ नामक राजा हुआ । उसकी पद्मा नामक स्त्रीके गर्भ में उत्पन्न हुआ कीर्तिधवल नामका प्रसिद्ध पुत्र हुआ । समस्त विद्याधर उसका शासन मानते थे और जिस प्रकार स्वर्गंमें इन्द्र परमेश्वर्यका अनुभव करता है उसी प्रकार वह कीर्तिधवल भी लंका में परमैश्वयंका अनुभव करता था ||४०३-४०४||
इस तरह पूर्वभवमें किये तपश्चरणके बलसे पुरुष, मनुष्यगति तथा देवगतिमें भोग भोगते हैं, वहाँ उत्तम गुणोंसे युक्त तथा नाना गुणोंसे भूषित शरीरके धारक होते हैं, कितने ही मनुष्य कर्मोंके पलटको भस्म कर सिद्ध हो जाते हैं, तथा जिनकी बुद्धि दुष्कर्ममें आसक्त है ऐसे मनुष्य इस लोक में भारी निन्दाको प्राप्त होते हैं और मरनेके बाद कुयोनिमें पड़कर अनेक प्रकारके दुःख भोगते हैं । ऐसा जानकर हे भव्य जीवो! पापरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए सूर्यकी सदृशता प्राप्त करो ||४०५-४०६||
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इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरितमें राक्षसवंशका निरूपण करनेवाला पंचम पर्व समाप्त हुआ ॥५॥
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