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पद्मपुराणे
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वशीकर्ता हृषीकाणां षट्कायप्राणिवत्सलः । भीतिभिः सप्तभिर्मुक्तो मदाष्टकविवर्जितः || ३१८ || साक्षादिव शरीरेण धर्मः संबन्धमागतः । सहितो यतिसङ्घन महता चारुचेष्टिना ।। ३१९ ।। स तत्र विपुले शुद्धे भूतले जन्तुवर्जिते । उपविष्टस्तनुच्छायास्थ गिताशेषदिङ्मुखः ॥ ३२० ॥ तत्रासीनं विदित्वैनं मुखेभ्यो वनरक्षिणाम् । अभीयाय महारक्षो बिभ्रदुत्कण्ठितं मनः ॥३२१॥ अथास्यातिप्रसन्नास्यकान्तितोयेन पादयोः । कुर्वन् प्रक्षालनं राजा पपात शिवदायिनोः ॥ ३२२ ॥ प्रणम्य शेषसङ्घ च पृष्ट्वा क्षेमं च धर्मंगम् । अवस्थाय क्षणं धर्मं पर्यपृच्छत् स भक्तितः ॥ ३२३|| अथोपशमचन्द्रस्य चित्तस्थस्येव निर्मलैः । दन्तांशुपटलैः कुर्वन् ज्योत्स्नां मुनिरभाषत ॥ ३२४ ॥ अहिंसा नृप सद्भावो धर्मस्योक्तो जिनेश्वरैः । परिवारोऽस्तु शेषोऽस्य सत्यभाषादिरिष्यते ॥ ३२५॥ यां यां जीवाः प्रपद्यन्ते गतिं कर्मानुभावतः । तत्र तत्र रतिं यान्ति जीवनं प्रतिमोहिताः ॥३२६॥ त्रैलोक्यैस्य परित्यज्य लाभं मरणभीरवः । इच्छन्ति जीवनं जीवा नान्यदस्ति ततः प्रियम् ॥ ३२७॥ किमत्र बहुनोक्तेन स्वसंवेद्यमिदं नैनु । यथा स्वजीवितं कान्तं सर्वेषां प्राणिनां तथा ॥ ३२८ || तस्मादेवंविधं मूढा जीवितं ये शरीरिणाम् । हरन्ति रौद्रकर्माणः पापं तैर्न च किं कृतम् ॥३२९|| जन्तूनां जीवितं नीत्वा कर्मभारगुरूकृताः । पतन्ति नरके जीवा लोहपिण्डवदम्भसि ||३३०||
मन-वचन-कायको निरर्थक प्रवृत्तिरूपी तीन दण्डोंको भग्न कर दिया था, कषायोंके शान्त करने में वे सदा तत्पर रहते थे ||३१७ || वे इन्द्रियोंको वश करनेवाले थे, छह कायके जीवोंसे स्नेह रखते थे, सात भयों और आठ मदोंसे रहित थे || ३१८ || उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् धर्मं ही शरीर के साथ सम्बन्धको प्राप्त हुआ है । वे मुनिराज उत्तम चेष्टाके धारक बहुत बड़े
संघ सहित || ३१९ || जिन्होंने अपने शरीरकी कान्तिसे समस्त दिशाओंके अग्रभागको आच्छादित कर दिया था ऐसे वे मुनिराज उस उद्यानके विस्तृत, शुद्ध एवं निर्जन्तुक पृथिवीतलपर विराजमान हो गये || ३२०|| जब राजा महारक्षको वनपालोंके मुखसे वहाँ विराजमान इन मुनिराजका पता चला तो वह उत्कृष्ट हृदयको धारण करता हुआ उनके सम्मुख गया || ३२१||
अथानन्तर - अत्यन्त प्रसन्न मुखको कान्तिरूपी जलके द्वारा प्रक्षालन करता हुआ राजा महारक्ष मुनिराज के कल्याणदायी चरणोंमें जा पड़ा || ३२२|| उसने शेष संघको भी नमस्कार किया, सबसे धर्मं सम्बन्धी कुशल-क्षेम पूछी और फिर क्षणभर ठहरकर भक्तिभावसे धर्मका स्वरूप पूछा || ३२३|| तदनन्तर मुनिराजके हृदयमें जो उपशम भावरूपी चन्द्रमा विद्यमान था उसकी किरणोंके समान निर्मल दाँतोंकी किरणोंके समूहसे चाँदनीको प्रकट हुए मुनिराज कहने लगे || ३२४ || उन्होंने कहा कि हे राजन् ! जिनेन्द्र भगवान्ने एक अहिंसाके सद्भावको ही धर्मं कहा है, बाकी सत्यभाषण आदि सभी इसके परिवार हैं || ३२५ || संसारी प्राणी कर्मोंके उदयसे जिस-जिस गतिमें जाते हैं जीवनके प्रति मोहित होते हुए वे उसी उसीमें प्रेम करने लगते हैं || ३२६ || एक ओर तीन लोककी प्राप्ति हो रही हो और दूसरी ओर मरणको सम्भावना हो तो मरणसे डरनेवाले ये प्राणी तीन लोकका लोभ छोड़कर जीवित रहनेकी इच्छा करते हैं इससे जान पड़ता है कि प्राणियोंको जीवनसे बढ़कर और कोई वस्तु प्रिय नहीं है || ३२७|| इस विषयमें बहुत कहने से क्या लाभ है ? यह बात तो अपने अनुभवसे ही जानी जा सकती है कि जिस प्रकार हमें अपना जीवन प्यारा है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना जीवन प्यारा होता है || ३२८ || इसलिए जो क्रूरकर्म करनेवाले मूर्ख प्राणी, जीवोंके ऐसे प्रिय जीवनको नष्ट करते हैं उन्होंने कौन-सा पाप नहीं किया ? || ३२९ || जीवों के जीवनको नष्ट कर प्राणी कर्मोंके भारसे इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे पानीमें लोहपिण्ड
१. - मागताः म० । २. अथास्याप्ति म० । ३. त्रैलोक्यं म० । ४. वतु म० ।
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