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पञ्चमं पर्व
अथ वक्त्रे त्रियामायाः परं संकोचमीयुषि । राजीवसंपुटेऽपश्यद् द्विरेफं स निपीडितम् ॥ ३०५ ॥ दृष्ट्वा चास्य समुत्पन्ना चिन्तेयं मवनाशिनी । कर्मणो मोहनीयस्य याते शिथिलतां गुणे ॥ ३०६ ॥ मकरन्दरसासक्तो मूढस्तृप्तिमनागतः । मृर्ति मधुकरः प्राप्तो विगिच्छामन्तवर्जिताम् ॥३०७॥ यथायमत्र संसक्तः' प्राप्तो मृत्युं मधुव्रतः । प्राप्स्यामो वयमप्येवं संक्ताः स्त्रीमुखपङ्कजे ॥ ३०८ ॥ यदि तावदयं ध्वस्तो घ्राणेन रसनेन च । कैत्र वार्ता तदास्मासु पञ्चेन्द्रियवशात्मसु ॥३०९ || तिर्यग्जातिसमेतस्य युक्तं वास्येदमीहितुम् । वयं तु ज्ञानसंपन्नाः सङ्गमत्र कथं गताः ॥ ३१० ॥ मधुदिग्धा सिधाराया लेने कीदृशं सुखम् । रसनं प्रत्युतायाति शतधा यत्र खण्डनम् ॥३११॥ विषयेषु तथा सौख्यं कीदृशं नाम जायते । यत्र प्रत्युत दुःखानामुपर्युपरि संततिः || ३१२ || किम्पाकफल तुल्येभ्यो विषयेभ्यः पराङ्मुखाः । ये नरास्तान्नमस्यामि कायेन वचसा धिया ||३१३ || हा कष्टं वञ्चितः पापो दीर्घकालमहं खलैः । विषयैर्विषमासङ्गैर्विषवन्मारणात्मकैः ॥ ३१४ ॥ अथा समये प्राप्तस्तदुद्यानं महामुनिः । अर्थानुगतया युक्तः श्रुतसागरसंज्ञया ॥३१५॥ पूर्णः परमरूपेण द्वेपयन् कान्तितो विधुम् । तिरस्कुर्वन् रविं दीप्त्या जयं स्थैर्येण मन्दरम् ॥ ३१६ ॥ धर्मध्यानप्रसक्तात्मा रागद्वेषविवर्जितः । भग्नस्त्रिदण्डसंपर्कः कषायाणां शैमे रतः ॥ ३१७||
राजा रतिरूप सागरके मध्य में स्थित होता हुआ प्रमदवनमें इस प्रकार क्रीड़ा करता रहा जिस प्रकार कि नन्दन वनमें इन्द्र क्रीड़ा करता है || ३०४||
अथानन्तर सूर्य अस्त हुआ और रात्रिका प्रारम्भ होते ही कमलोंके सम्पुट संकोचको प्राप्त होने लगे । राजा महारक्षने एक कमल सम्पुटके भीतर मरा हुआ भौंरा देखा || ३०५ || उसी समय मोहनीय कर्मका उदय शिथिल होनेसे उसके हृदयमें संसार - भ्रमणको नष्ट करनेवाली निम्नांकित चिन्ता उत्पन्न हुई ||३०६|| वह विचार करने लगा कि देखो मकरन्दके रसमें आसक्त हुआ यह मूढ़ भौंरा तृप्त नहीं हुआ इसलिए मरणको प्राम हुआ । आचार्यं कहते हैं कि इस अन्तरहित अनन्त इच्छाको धिक्कार हो ||३०७ || जिस प्रकार इस कमलमें आसक्त हुआ यह भौंरा मृत्युको प्राप्त हुआ है उसी प्रकार स्त्रियों के मुखरूपी कमलोंमें आसक्त हुए हम लोग भी मृत्युको प्राप्त होंगे || ३०८ || To fo यह भौंरा घ्राण और रसना इन्द्रियके कारण ही मृत्युको प्राप्त हुआ है तब हम तो पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हो रहे हैं अतः हमारी बात ही क्या है ? || ३०९ ॥ अथवा यह भौंरा तियंच जातिका है - अज्ञानी है अतः इसका ऐसा करना ठीक भी है परन्तु हम तो ज्ञानसे सम्पन्न हैं फिर भी इन विषयोंमें क्यों आसक्त हो रहे हैं ? || ३१० || शहद लपेटी तलवारकी उस धारके चाटने में क्या सुख होता है ? जिसपर पड़ते ही जीभके सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ||३११ || विषयों में कैसा सुख होता है सो जान पड़ता है उन विषयोंमें जिनमें कि सुखकी बात दूर रही किन्तु दुःखकी सन्तति ही उत्तरोत्तर प्राप्त होती है || ३१२ ॥ किपाक फलके समान विषयोंसे जो मनुष्य विमुख हो गये हैं मैं उन सब महापुरुषोंको मन-वचन-कायसे नमस्कार करता हूँ || ३१३|| हाय-हाय, बड़े खेद की बात है कि मैं बहुत समय तक इन दुष्ट विषयोंसे वंचित होता रहा- धोखा खाता रहा । इन विषयोंकी आसक्ति अत्यन्त विषम है तथा विषके समान मारनेवाली है ||३१४||
अथानन्तर उसी समय उस वनमें श्रुतसागर इस सार्थक नामको धारण करनेवाले एक महामुनिराज वहाँ आये || ३१५ || श्रुतसागर मुनिराज अत्यन्त सुन्दर रूपसे युक्त थे, वे कान्ति चन्द्रमाको लज्जित करते थे, दीप्तिसे सूर्यंका तिरस्कार करते थे करते थे ||३१६|| उनकी आत्मा सदा धर्मंध्यानमें लीन रहती थी,
और धैर्यंसे सुमेरुको पराजित वे राग-द्वेषसे रहित थे, उन्होंने
१. संशक्तः म० । २. शक्ताः म० । ३. दग्धा - म० । ४ समे म० ।
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