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पञ्चमं पर्व सर्वदा युगपत्सर्वे मां नमन्ति स्म देहजाः । अद्य द्वौ दीनवदनौ नूनं शेषा गताः क्षयम् ॥२७८॥ एते चान्यापदेशेन कथयन्ति समागताः । नृपाः कथयितुं साक्षादुदारं दुःखमक्षमाः ॥२७९॥ ततः शोकोरगेणासौ दष्टोऽपि न समत्यजन् । प्राणान् सभ्यवचोमन्त्रः प्रतिपद्य प्रतिक्रियाम् ॥२८॥ कदलीगर्भनिःसारमवेत्य भवजं सुखम् । भगीरथे श्रियं न्यस्य दीक्षा स समशिश्रियत् ॥२८१॥ त्यजतोऽस्य धरित्रीयं नगराकरमण्डिता । मनस्युदात्तलीलस्य जरत्तणसमाभवत् ॥२८२॥ साद्ध भीमरथेनासौ प्रतिपद्याजितं विभुम् । केवलज्ञानमुत्पद्य सिद्धानां पदमाश्रयत् ॥२८३॥ तनयः सागरेजह्वोः कुर्वन् राज्यं भगीरथः । श्रुतसागरयोगीन्द्रं पृष्टवानेवमन्यदा ॥२८॥ पितामहस्य मे नाथ तनया युगपत्कुतः । कर्मणो मरणं प्राप्ता मध्ये तेषामहं तु न ॥२८५॥ अवोचद् भगवान् संघो वन्दनार्थ चतुर्विधः । संमेदं प्रस्थितोऽवापदन्तिकग्रामदर्शनम् ॥२८६॥ दृष्ट्वा तमन्तिकग्रामो दुर्वचाः सकलोऽहसत् । कुम्भकारस्तु तत्रैको निषिध्य कृतवान् स्तुतिम् ।।२८७॥ तद्ग्रामवासिनैकेन कृते चौर्ये स भूभृता । परिवेष्ट्याखिलो दग्धो ग्रामो भूर्यपराधकः ॥२८८।। भस्मसाद्भावमापन्नो यस्मिन् ग्रामोऽत्र वासरे। कुम्भकारो गतः क्वापि मध्यचेता निमन्त्रितः ॥२८९।। कुम्मकारोऽभवन्मृत्वा वाणिजः सुमहाधनः । वराटकसमूहस्तु ग्रामः प्राप्तश्च तेन सः ॥२९॥
कुम्भकारोऽभवद्राजा ग्रामोऽसौ मातृवाहकाः । हस्तिना चूर्णितास्तस्य ते चिरं भवमभ्रमन् ॥२९॥ ॥२७७|| कि हमेशा सब पुत्र मुझे एक साथ नमस्कार करते थे पर आज दो ही पुत्र दिख रहे हैं और उतनेपर भी इनके मुख अत्यन्त दीन दिखाई देते हैं। जान पड़ता है कि शेष पुत्र क्षयको प्राप्त हो चुके हैं ॥२७८॥ ये आगत राजा लोग इस भारी दुःखको साक्षात् कहने में समर्थ नहीं है इसलिए अन्योक्ति-दूसरेके बहाने कह रहे हैं ॥२७२।। तदनन्तर सगर चक्रवर्ती यद्यपि शोकरूपी सर्पसे डॅसा गया था तो भी सभासदजनोंके वचनरूपी मन्त्रोंसे प्रतिकार-सान्त्वना पाकर उसने प्राण नहीं छोड़े थे ।।२८०|| उसने संसारके सूखको केलेके गर्भके समान निःसार जानकर भगीरथको राज्यलक्ष्मी सौंपी और स्वयं दीक्षा धारण कर ली ॥२८॥ उत्कृष्ट लीलाको धारण करनेवाला राजा सगर जब
र जब इस पृथ्वीका त्याग कर रहा था तब नाना नगर और सवर्णादिकी खानोंसे सुशोभित यह पृथ्वी उसके मनमें जीर्णतृणके समान तुच्छ जान पड़ती थी॥२८२॥ तदनन्तर सगर चक्रवर्ती भीमरथ नामक पुत्रके साथ अजितनाथ भगवान्की शरणमें गया। वहाँ दीक्षा धारण कर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया और तदनन्तर सिद्धपदका आश्रय लिया अर्थात् मुक्त हुआ ।।२८३।।
सगर चक्रवर्तीका पुत्र जह्न का लड़का भगीरथ राज्य करने लगा। किसी एक दिन उसने श्रुतसागर मुनिराजसे पूछा ।।२८४॥ कि हमारे बाबा सगरके पुत्र एक साथ किस कमके उदयसे मरणको प्राप्त हुए हैं और उनके बीचमें रहता हुआ भी मैं किस कर्मसे बच गया हूँ ॥२८५।। भगवान् अजितनाथने कहा कि एक बार चतुर्विधसंघ सम्मेदशिखरकी वन्दनाके लिए जा रहा था सो मार्गमें वह अन्तिक नामक ग्राममें पहुंचा ॥२८६|| संघको देखकर उस अन्तिक ग्रामके सब लोग कुवचन कहते हुए संघकी हँसी करने लगे परन्तु उस ग्राममें एक कुम्भकार था उसने गांवके सब लोगोंको मना कर संघकी स्तुति की ।।२८७॥ उस गाँवमें रहनेवाले एक मनुष्यने चोरी की थी सो अविवेकी राजाने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है इसलिए घेरा डालकर साराका सारा गाँव जला दिया ।।२८८।। जिस दिन वह गाँव जलाया गया था उस दिन मध्यस्थ परिणामोंका धारक कुम्भकार निमन्त्रित होकर कहीं बाहर गया था ।।२८९।। जब कुम्भकार मरा तो वह बहुत भारी धनका अधिपति वैश्य हआ और गांवके सब लोग मरकर कौड़ी हए । वैश्यने उन सब कौड़ियोंको खरीद लिया ॥२९०।। तदनन्तर कुम्भकारका जीव मरकर राजा हुआ और गाँवके जीव मरकर १. अथ म.।
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