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पञ्चमं पर्व
विधाय सिद्धबिम्बानां वन्दनां प्रश्रयान्विताः । गिरेस्ते दण्डरत्नेन परिक्षेपं प्रचक्रिरे ॥ २५० ॥ आरसातलमूलां तां दृष्ट्वा खातां वसुंधराम् । तेषामालोचनं चक्रे नागेन्द्रः क्रोधदीपितः ॥ २५१|| क्रोधवह्नेस्ततस्तस्य ज्वालाभिलढविग्रहाः । भस्मसाद्भावमायाताः सुतास्ते चक्रवर्तिनः ॥ २५२ ॥ तेषां मध्ये न दग्धौ द्वौ कथमप्यनुकम्पया । जीवितात्मकया शक्त्या विषतो जातया यथा ॥ २५३॥ "सागरीणामिमं मृत्युं दृष्ट्वा युगपदागतम् । दुःखितौ सगरस्यान्तं यातौ भीमभगीरथौ ॥ २५४॥ अकस्मात् कथिते मायं प्राणांस्त्याक्षीत्क्षणादिति । पण्डितैरिति संचिन्त्य निषिद्धौ तौ निवेदने ॥२५५॥ ततः संभूय राजानो मन्त्रिणश्च कुलागताः । नानाशास्त्रविबुद्धाश्च विनोदज्ञा मनोषिणः ॥ २५६॥ अविभिन्नमुखच्छायाः पूर्ववेषसमन्विताः । विनयेन यथापूर्वं सगरं समुपागताः ॥ २५७ ॥ नमस्कृत्योपविष्टैस्तैर्यथास्थानं प्रचोदितः । संज्ञया प्रवयाः कश्चिदिदं वचनमब्रवीत् ।। २५८ ॥ राजन् सगर पश्य त्वं जगतीमामनित्यताम् । संसारं प्रति यां दृष्ट्वा मानसं न प्रवर्तते ॥ २५९ ॥ राजासीद्भरतो नाम्ना त्वया समपराक्रमः । दासीव येन षट्खण्डा कृता वश्या वसुंधरा ॥ २६०॥ तस्यादित्ययशाः पुत्रो बभूवोन्नतविक्रमः । प्रसिद्धो यस्य नाम्नायं वंशः संप्रति वर्तते ॥ २६१॥ एवं तस्याप्यभूत् पुत्रस्तस्याप्यन्योऽपरस्ततः । गतास्ते चाधुना सर्वे दर्शनानामगोचरम् ॥२६२॥
पर्वत पर गये । उस समय वे चरणोंके विक्षेपसे पृथिवीको कँपा रहे थे और पर्वतोंके समान जान पड़ते थे |२४९ || कैलास पर्वतपर स्थित सिद्ध प्रतिमाओं की उन्होंने बड़ी विनयसे वन्दना की और तदनन्तर वे दण्डरत्नसे उस पर्वतके चारों ओर खाई खोदने लगे ॥२५०॥ उन्होंने दण्डरत्नसे पाताल तक गहरी पृथिवी खोद डाली यह देख नागेन्द्रने क्रोधसे प्रज्वलित हो उनकी ओर देखा || २५१ || नागेन्द्रकी क्रोधाग्निकी ज्वालाओंसे जिनका शरीर व्याप्त हो गया था ऐसे वे चक्रवर्तीके पुत्र भस्मीभूत हो गये || २५२ || जिस प्रकार विषकी मारक शक्तिके बीच एक जीवक शक्ति भी होती है और उसके प्रभावसे वह कभी-कभी औषधिके समान जीवनका भी कारण बन जाती है इसी प्रकार उस नागेन्द्रकी क्रोधाग्निमें भी जहाँ जलानेकी शक्ति थी वहां एक अनुकम्पारूप परिणति भी थी । उसी अनुकम्पारूप परिणतिके कारण उन पुत्रोंके बीच में भीम, भगीरथ नामक दो पुत्र किसी तरह भस्म नहीं हुए || २५३॥ सगर चक्रवर्तीके पुत्रों की इस आकस्मिक मृत्युको देखकर वे दोनों ही दुःखी होकर सगर के पास आये || २५४ ॥ सहसा इस समाचारके कहने पर चक्रवर्ती कहीं प्राण न छोड़ दें ऐसा विचारकर पण्डितजनोंने भीम और भगीरथको यह समाचार चक्रवर्तीसे कहने के लिए मना कर दिया || २५५ ॥ तदनन्तर राजा, कुल क्रमागत मन्त्री, नाना शास्त्रोंके पारगामी और विनोदके जानकार विद्वज्जन एकत्रित होकर चक्रवर्ती के पास गये । उस समय उन सबके मुखकी कान्तिमें किसी प्रकारका अन्तर नहीं था तथा वेशभूषा भी सबकी पहले के ही समान थी । सब लोग विनयसे जाकर पहले ही के समान चक्रवर्ती सगर के समीप पहुँचे ।। २५६ - २५७ || नमस्कार कर सब लोग जब यथास्थान बैठ गये तब उनके संकेतसे प्रेरित हो एक वृद्धजनने निम्नांकित वचन कहना शुरू किया || २५८ ||
हे राजन् सगर ! आप संसारकी इस अनित्यताको तो देखो जिसे देखकर फिर संसारकी ओर मन प्रवृत्त नहीं होता || २५९ || पहले तुम्हारे ही समान पराक्रमका धारी राजा भरत हो गया है जिसने इस छखण्डको पृथ्वीको दासीके समान वश कर लिया था || २६० || उसके महापराक्रमी अर्ककीर्ति नामक ऐसा पुत्र हुआ था कि जिसके नामसे यह सूर्यवंश अब तक चल रहा है ||२६१|| अर्ककीर्ति के भी पुत्र हुआ और उसके पुत्र को भी पुत्र हुआ परन्तु इस समय वे सब दृष्टिगोचर "अत इञ् इतीन्प्रत्ययः । २. कथितेनायं म., ख. 1
१. सगरस्यापत्यानि पुमांसः सागरयस्तेषाम् ३. प्रचोदिताम् म. ।
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