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पद्मपुराणे
स्वप्ने समागमो यद्वत्तद्वद् बन्धुसमागमः । इन्द्रचापसमानं च क्षणमात्रं च तैः सुखम् ॥२३६॥ जलबुबुदवस्कायः सारेण परिवर्जितः । विद्युलताविलासेन सदृशं जीवितं चलम् ॥२३७॥ तस्मात्सर्वमिदं हित्वा संसारावासकारणम् । सहायं परिगृह्णामि धर्ममन्यमिचारिणम् ॥२३८॥ महारक्षसि निक्षिप्य राज्यमारं ततः कृती। प्राबजत् सोऽजितस्यान्ते महावैराग्यकङ्कटः ॥२३९॥ दशाधिकं शतं तेन साकं खेचरमोगिनाम् । निर्वेदमाप्य निष्क्रान्तं गेहचारकवासतः ॥२४॥ महारक्षःशशाङ्कोऽपि विश्राणनकरोत्करैः । पूरयन् बान्धवाम्भोधि रेजे लकानमोऽङ्गणे ॥२४॥ प्राप्य स्वप्नेऽपि तस्याज्ञा महाविद्याधराधिपाः । संभ्रमाद् बोधमायान्ति कृतमस्तकपाणयः ॥४२॥ प्रथिता विमलामास्य जाता प्राणसमप्रिया । यस्यानुवर्तनं चक्रे छायेव सततानुगा ॥२४३॥ अमरोदधिभानुभ्यः परां रक्षःश्रुतिं श्रिताः । तस्य तस्यां समुत्पन्नाः पुत्राः सर्वार्थसंमिताः ॥२४४॥ विचित्रकर्मसंपूर्णास्तुङ्गा विस्तारमाजिनः । प्रसिद्धास्तस्य ते पुत्रास्त्रयो लोका इवामवन् ॥२४५॥ प्रवाजितनाथोऽपि भव्यानां मुक्तिगामिनाम् । पन्थान प्राप संमेदे निजां प्रकृतिमात्मनः ॥२४६॥ सगरस्य च पत्नीनां सहस्राणां षडुत्तराः । नवतिः शक्रपत्नीनामभवन् तुल्यतेजसाम् ॥२४७॥ संपुत्राणां च पुत्राणां बिभ्रतां शक्तिमुत्तमाम् । जाताः षष्टिः सहस्राणां रत्नस्तम्भसमत्विषाम् ॥२४८॥ ते कदाचिदथो याताः कैलासं वन्दनार्थिनः । कम्पयन्तः पदन्यासैर्वसुधां पर्वता इव ॥२४९॥
सद्भावनासे आश्रय लेते हैं यह लक्ष्मी उन्हें ही धोखा देती है-ठगती है, इससे बढ़कर दुष्टता और क्या होगी? ॥२३५|| जिस प्रकार स्वप्न में होनेवाला इष्ट जनोंका समागम अस्थायी है उसी प्रकार बन्धुजनोंका समागम भी अस्थायी है । तथा बन्धुजनोंके समागमसे जो सुख होता है वह इन्द्रधनुषके समान क्षणमात्रके लिए ही होता है ।।२३६॥ शरीर पानीके बबूलेके समान सारसे रहित है तथा यह जीवन बिजलीकी चमकके समान चंचल है ।।३३७।। इसलिए संसार-निवासके कारणभूत इस समस्त परिकरको छोड़कर मैं तो कभी धोखा नहीं देनेवाले एक धर्मरूप सहायकको ही ग्रहण करता हैं ||२३८॥ तदनन्तर ऐसा विचारकर वैराग्यरूपी कवचको धारण करनेवाले बद्धिमान मेघवाहन विद्याधरने महाराक्षस नामक पुत्रके लिए राज्यभार सौंपकर अजितनाथ भगवान्के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥२३९।। राजा मेघवाहनके साथ अन्य एक सौ दस विद्याधर भी वैराग्य प्राप्त कर घररूपी बन्दीगृहसे बाहर निकले ॥२४०॥
इस महाराक्षसरूपी चन्द्रमा भी दानरूपी किरणोंके समूहसे बन्धुजनरूपी समुद्रको हुलसाता हुआ लंकारूपी आकाशांगणके बीच सुशोभित होने लगा ।।२४१।। उसका ऐसा प्रभाव था कि बड़ेबड़े विद्याधरोंके अधिपति स्वप्नमें भी उसकी आज्ञा प्राप्त कर हड़बड़ाकर जाग उठते थे और हाथ जोड़कर मस्तकसे लगा लेते थे ।।२४२॥ उसकी विमलाभा नामकी प्राणप्रिया वल्लभा थी जो छायाके समान सदा उसके साथ रहती थी ॥२४३।। उसके अमररक्ष, उदधिरक्ष और भानुरक्ष नामक तीन पुत्र हुए। ये तीनों ही पुत्र सब प्रकारके अर्थोंसे परिपूर्ण थे ॥२४४॥ विचित्र-विचित्र कार्योंसे युक्त थे, उत्तुंग अर्थात् उदार थे और जन-धनसे विस्तारको प्राप्त थे इसलिए ऐसे जान पड़ते मानो तीन लोक ही हों ॥२४५।। भगवान् अजितनाथ भी मुक्तिगामी भव्य जीवोंको मोक्षका मार्ग प्रवर्ताकर सम्मेद शिखरपर पहुँचे और वहाँसे आत्मस्वभावको प्राप्त हए-सिद्ध पदको ।।२४६।। सगर चक्रवर्तीके इन्द्राणीके समान तेजको धारण करनेवाली छयानबे हजार रानियाँ थीं और उत्तम शक्तिको धारण करनेवाले एवं रत्नमयी खम्भोंके समान देदीप्यमान साठ हजार पुत्र थे। उन पुत्रोंके भी अनेक पुत्र थे ।।२४७-२४८।। किसी समय वे सभी पुत्र वन्दनाके लिए कैलास
१. विमलाभस्य म. । २. प्रवृत्य म. । ३. प्राप्य म., क.। ४. सुपुत्राणां म., ख. । ५. कम्पयतां म. ।
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