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पञ्चमं पर्व
यदा तदा समुत्पनो नाभेयो जिनपुङ्गवः । राजन् तेन कृतः 'पूर्वः कालः कृतयुगामिधः ॥१९३॥ कल्पिताश्च त्रयो वर्णाः क्रियाभेदविधानतः । सस्यानां च समुत्पत्तिर्जायते कल्पतोयतः ॥१९॥ सृष्टाः काले च तस्यैव माहनाः सूत्रधारिणः । सुतेन भरताख्येन तस्य तत्समतेजसा ॥१९५॥ आश्रमश्च 'समुत्पन्नः सागारेतरभेदतः । विज्ञानानि कलाश्चैव नाभेयेनैव देशिताः ॥१९६॥ दीक्षामास्थाय तेनैव जन्मदुःखानलाहताः । भव्याः कृतात्मकृत्येन नीताः सौख्यं शमाम्बुना ॥१९७॥ त्रैलोक्यमपि संभूय यस्यौपम्यादैपेयुषाम् । गुणानामशकं गन्तुमन्तमात्मसमुद्यतेः ॥१९८॥ अष्टापदनगारूढो यः शरीरविसृष्टये । दृष्टः सुरासुरैर्हेमकूटाकारः सविस्मयैः ॥१९९॥ शरणं प्राप्य तं नाथं मुनयो भरतादयः । महाव्रतधरा याताः पदं सिद्धेः समाश्रिताः ॥२०॥ पुण्यं केचिदुपादाय स्वर्गसौख्यमुपागताः । स्वभावार्जवसंपन्नाः केचिन्मानुष्यकं परम् ॥२०१॥ नितान्तोज्ज्वलमप्यन्ये ददृशुस्तस्य नो मतम् । कुदृष्टिरागसंयुक्ताः कौशिका इव भास्करम् ।।२०२॥ ते कुधर्म समास्थाय कुदेवत्वं प्रपद्य च । पुनस्तिर्यक्षु दुश्चेष्टा भ्रमन्ति नरकेषु च ॥२०३।। अनेकेऽत्र ततोऽतीते काले रत्नालयोपमे । नाभेययुगविच्छेदे जाते नष्टसमुत्सवे ॥२०॥ अवतीर्य दिवो मूर्ध्नः कतु कृतयुगं पुनः । उद्भतोऽस्मि हिताधायी जगतामजितो जिनः ॥२०५।। आचाराणां विघातेन कुदृष्टीनां च संपदा । धर्म ग्लानिपरिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोत्तमाः ॥२०६॥ ते तं प्राप्य पुनर्धम जीवा बान्धवमुत्तमम् । प्रपद्यन्ते पुनर्माग सिद्धस्थानामिगामिनः ॥२०७॥
राजा नाभिके पुत्र ऋषभदेव नामक प्रथम तीर्थंकर हुए थे, हे राजन् ! सर्वप्रथम उन्हीं के द्वारा इस कृत युगकी स्थापना हुई थी ॥१९२-१९३।। उन्होंने क्रियाओंमें भेद होनेसे क्षत्रिय, वैश्य और शद्र इन तीन वर्षों की कल्पना की थी। उनके समयमें मेघोंके जलसे धान्योंकी उत्पत्ति हुई थी ॥१९४।। उन्हींके समय उनके समान तेजके धारक भरतपुत्रने यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले ब्राह्मणोंकी भी रचना की थी ॥१९५।। सागार और अनगारके भेदसे दो प्रकारके आश्रम भी उन्हींके समय उत्पन्न हुए थे। समस्त विज्ञान और कलाओंके उपदेश भी उन्हीं भगवान् ऋषभदेवके द्वारा दिये गये थे ॥१९६|| दीक्षा लेकर भगवान् ऋषभदेवने अपना कार्य किया और जन्म सम्बन्धी दुःखाग्निसे पीड़ित अन्य भव्य जीवोंको शान्तिरूप जलके द्वारा सुख प्राप्त कराया ॥१९७|| तीन लोकके जीव मिलकर इकट्ठे हो जावें तो भी आत्मतेजसे सुशोभित भगवान् ऋषभदेवके अनुपम गुणोंका अन्त प्राप्त करनेके लिए समर्थ नहीं हो सकते ॥१२८।। शरीर त्याग करनेके लिए जब भगवान् ऋषभदेव कैलास पर्वतपर आरूढ़ हुए थे तब आश्चर्यसे भरे सुर और असुरोंने उन्हें सुवर्णमय शिखरके समान देखा था ॥१९९।। उनकी शरण में जाकर महाव्रत धारण करनेवाले कितने ही भरत आदि मनि निर्वाण धामको प्राप्त हुए हैं ॥२००|| कितने ही पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग सुखको प्राप्त हैं, और स्वभावसे ही सरलताको धारण करनेवाले कितने ही लोग उत्कृष्ट मनुष्य पदको प्राप्त हुए हैं ।।२०१॥ यद्यपि उनका मत अत्यन्त उज्ज्वल था तो भी मिथ्यादर्शनरूपी रागसे युक्त मनुष्य उसे उस तरह नहीं देख सके थे जिस तरह कि उल्लू सूर्यको नहीं देख सकते हैं ॥२०२।। ऐसे मिथ्यादृष्टि लोग कुधर्मकी श्रद्धा कर नीचे देवोंमें उत्पन्न होते हैं। फिर तियंचोंमें दुष्ट चेष्टाएँ कर नरकोंमें भ्रमण करते हैं ॥२०३।। तदनन्तर बहुत काल व्यतीत हो जानेपर जब समुद्रके समान गम्भीर ऋषभदेवका यग-तीर्थ विच्छिन्न हो गया और धार्मिक उत्सव नष्ट हो गया तब सर्वार्थसिद्धिसे चयकर फि कृतयुगकी व्यवस्था करनेके लिए जगत्का हित करनेवाला मैं दूसरा अजितनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुआ हूँ ॥२०४-२०५।। जब आचारके विघात और मिथ्यादृष्टियोंके वैभवसे समीचीन धर्म ग्लानिको प्राप्त हो जाता है-प्रभावहीन होने लगता है तब तीर्थंकर उत्पन्न होकर उसका उद्योत करते हैं ।।२०६।। १. पूर्व ख. । २. समुत्पन्नाः म. । ३. -दुपेयुषाम् ख. । ४. -मंशकं ख. । ५. हिताध्यायी ख. ।
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