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पञ्चमं पर्व
प्रच्युत्य भरते जातो नगरे पृथिवीपुरे । यशोधरनरेन्द्रेण जयायां जयकीर्तनः ॥ १३८ ॥ प्रव्रज्य च पितुः पार्श्वे मृत्वा विजयमाश्रितः । च्युत्वा ततो भवान् जातः सगरश्चक्रलान्छनः ॥ १३९॥ रम्भस्य भवतो यस्मादावली दयितोऽभवत् । तत्पूर्वोऽयं प्रियोऽद्यापि सहस्राक्षस्ततस्तव ॥ १४०॥ अवगम्य जिनेन्द्रस्यादात्मपित्रोर्भवान्तरम् । उत्पन्नो धर्मसंवेगस्तयोरत्यन्तमुन्नतः ॥ १४१ ॥ महतो धर्मसंवेगाज्जातौ जातिस्मृतौ ततः । श्रद्धावन्तौ समारब्धौ स्तोतुं तावजितं जिनम् ॥१४२॥ वालिशानामनाथानां सत्त्वानां कारणाद् विना । उपकारं करोषि त्वमाश्चर्य किमतः परम् ॥ १४३ ॥ उपमामुक्तरूपस्य वीर्येणाप्रमितस्य ते । निरीक्षणेन कस्तृप्तो विद्यतेऽस्मिन् जगत्त्रये ॥१४४॥ लब्धार्थः कृतकृत्योऽपि सर्वदर्शी सुखात्मकः । अचिन्त्यो ज्ञातविज्ञेयस्तथापि जगते हितः ॥ १४५ ॥ "सारधर्मोपदेशाख्यं जीवानां त्वं जिनोत्तम । पततां भवपाताले हस्तालम्बं प्रयच्छसि ॥१४६॥ इति तौ गद्गदालाप वाष्पविप्लुत लोचनौ । परमं हर्षमायातौ प्रणम्य विधिवस्थितौ ॥ १४७॥ शक्राद्या देववृषभाः सगराद्या नृपाधिपाः । साधवः सिंहवीर्याद्या ययुः परममद्भुतम् ॥ १४८॥ सदस्यथ जिनेन्द्रस्य रक्षसामधिपाविदम् । ऊचतुर्वचनं भीमसुभीमाविति विश्रुतौ ॥ १४९ ॥ खेचरार्भक धन्योऽसि यस्त्वं शरणमागतः । सर्वज्ञमजितं नाथं तुष्टावावामतस्तव ॥ १५० ॥ शृणु संप्रति ते स्वास्थ्यं यथा भवति सर्वतः । तं प्रकारं प्रवक्ष्यावः पालनीयस्त्वमावयोः ॥ १५१ ॥
होकर प्राणत नामक चौदहवें स्वर्गमें देव हुआ ।। १३४ - १३७।। वहाँसे च्युत होकर भरत क्षेत्रके पृथिवीपुर नगर में राजा यशोधर और जया नामकी रानीके जयकीर्तन नामका पुत्र हुआ || १३८ ॥ वह पिता के निकट जिनदीक्षा ले विजय विमानमें उत्पन्न हुआ और वहाँसे चय कर तू सगर चक्रवर्ती हुआ है ॥१३९॥| जब तू रम्भ था तब आवलिके साथ तेरा बहुत स्नेह था । अब आवलि ही सहस्रनयन हुआ है । इसलिए पूर्वसंस्कार के कारण अब भी तेरा उसके साथ गाढ़ स्नेह है ॥१४०॥ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के मुखसे अपने तथा पिताके भवान्तर जानकर मेघवाहन और सहस्राक्ष दोनों को धर्म में बहुत भारी रुचि उत्पन्न हुई ॥ १४१ ॥ उस धार्मिक रुचिके कारण दोनोंको जातिस्मरण भी हो गया । तदनन्तर श्रद्धासे भरे मेघवाहन और सहस्रनयन अजितनाथ भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगे || १४२ || हे भगवन् ! जो बुद्धिसे रहित हैं तथा जिनका कोई नाथरक्षक नहीं है ऐसे संसारी प्राणियोंका आप बिना कारण ही उपकार करते हैं इससे अधिक आश्चर्यं और क्या हो सकता है || १४३ || आपका रूप उपमासे रहित है तथा आप अतुल्य वीर्यके धारक हैं । हे नाथ ! इन तीनों लोकोंमें ऐसा कौन पुरुष हैं जो आपके दर्शनसे सन्तृप्त हुआ हो ॥ १४४ ॥ हे भगवन् ! यद्यपि आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, कृतकृत्य हैं, सर्वदर्शी हैं, सुखस्वरूप हैं, अचिन्त्य हैं, और जानने योग्य समस्त पदार्थोंको जान चुके हैं तथापि जगत्का हित करने के लिए उद्यत हैं || १४५ || हे जिनराज ! संसाररूपी अन्धकूपमें पड़ते हुए जीवोंको आप श्रेष्ठ धर्मोपदेशरूपी हस्तावलम्बन प्रदान करते हैं ||१४६ || इस प्रकार जिनकी वाणी गद्गद हो रही थी और नेत्र आँसुओं से भर रहे थे ऐसे परम हर्षको प्राप्त हुए मेघवाहन और सहस्रनयन विधिपूर्वक स्तुति और नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये || १४७ || सिहवीर्यं आदि मुनि, इन्द्र आदि देव और सगर आदि राजा परम आश्चर्यको प्राप्त हुए || १४८ ||
अथानन्तर - जिनेन्द्र भगवान् के समवसरणमें राक्षसोंके इन्द्र भीम और सुभीम प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहने लगे कि हे विद्याधरके बालक ! तू धन्य है जो सर्वज्ञ अजित जिनेन्द्रकी शरणमें आया है, हम दोनों तुझपर सन्तुष्ट हुए हैं अतः जिससे तेरी सर्व प्रकार से स्वस्थता हो सकेगी वह बात हम तुझसे इस समय कहते हैं सो तू ध्यानसे सुन, तू हम दोनोंकी रक्षाका पात्र है ॥ १४९ - १५१ ।। १. सारं ख. ।
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