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पद्मपुराणे क्षत्रियाणां सहस्राणि दशानेन समं ततः । निष्क्रान्तानि परित्यज्य राज्यबन्धुपरिग्रहम् ।।६९॥ षष्टोपवासयुक्ताय तस्मै नाथाय 'पारणाम् । ब्रह्मदत्तो ददौ मक्त्या साकेतनगरोद्भवः ॥७०॥ चतुर्दशस्वतीतेषु वर्षेष्वस्य ततोऽभवत् । केवलज्ञानमार्हन्त्यं तथा विश्वस्य पूजितम् ॥७॥ ततश्चातिशयास्तस्य चतुस्त्रिंशत्समुत्थिताः । अष्टौ च प्रातिहार्याणि द्रष्टव्यानीह पूर्ववत् ॥७२॥ नवतिस्तस्य संजाता गणेशाः पादसंश्रिताः । साधूनां चोदितं लक्ष दिवाकरसमत्विषाम् ॥७३॥ कनीयान् जितशत्रोस्तु ख्यातो विजयसागरः । पत्नी सुमङ्गला तस्य तत्सुतः सगरोऽभवत् ॥७४॥ बभूवासौ शुभाकारो द्वितीयश्चक्रवर्तिनाम् । निधाननवमिः ख्याति यो गतो वसुधातले ॥७५॥ अस्मिन् यदन्तरे वृत्त श्रेणिकेदं निशम्यताम् । अस्तीह चक्रवालाख्यं पुरं दक्षिणगोचरम् ॥७६।। तत्र पूर्णघनो नाम विभुयोमविहारिणाम् । महाप्रमावसंपन्नो विद्याबलसमुन्नतः ॥७७॥ विहायस्तिलकेशं स ययाचे वरकन्यकाम् । नैमित्तिकाज्ञया दत्ता सगराय तु तेन सा ॥७८॥ युद्धं सुलोचनस्योग्रं यावत्पूर्णधनस्य च । गृहीत्वा भगिनों तावत्सहस्रनयनोऽगमत् ॥७९॥ निपूद्य च सुनेत्रं स पुरं पूर्णघनोऽविशत् । अदृष्ट्वा च स तां कन्यां स्वपुरं पुनरागतः ॥८॥ ततः पितृवधात् क्रद्धः सहस्रनयनोऽबलः । अरण्ये शरमाक्रान्ते स्थितश्छिद्रेक्षणावृतेः ॥८॥ ततश्चक्रधरोऽश्वेन हृतस्तं देशमागतः । दिष्ट्या चोत्पलमत्यासौ दृष्ट्वा भ्रात्रे निवेदितः ।।८२।।
तुष्टेन तेन सा तस्मै दत्ता सगरचक्रिणे । चक्रिणाप्ययमानीतो विद्याधरमहीशताम् ।।८३।। उन्होंने पूर्व विधिके अनुसार दीक्षा धारण कर ली ॥६८|| इनके साथ अन्य दस हजार क्षत्रियोंने भी राज्य, भाई-बन्धु तथा सब परिग्रहका त्याग कर दीक्षा धारण की थी ।। ६९ ॥ भगवान्ने तेलाका उपवास धारण किया था सो तीन दिन बाद अयोध्या निवासी ब्रह्मदत्त राजाने उन्हें भक्तिपूर्वक पारणा करायी थी-आहार दिया था॥७०॥ चौदह वर्ष होनेपर उन्हें केवलज्ञान तथा समस्त संसारके द्वारा पूजनीय अर्हन्तपद प्राप्त हुआ ।। ७१ ॥ जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेवके चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे उसी प्रकार इनके भी प्रकट हुए । ७२ ॥ इनके पादमलमें रहनेवाले नब्बे गणधर थे तथा सूर्यके समान कान्तिको धारण करनेवाले एक लाख साध थे ।। ७३ ।। जितशत्रुके छोटे भाई विजयसागर थे, उनकी स्त्रीका नाम सुमंगला था, सो उन दोनोंके सगर नामका पुत्र उत्पन्न हुआ |७४॥ यह सगर शुभ आकारका धारक दूसरा चक्रवर्ती हुआ और पृथ्वीतलपर नौ निधियोंके कारण परम प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ था । ७५ ।। हे श्रेणिक ! इसके समय जो वृत्तान्त हुआ उसे तू सुन । भरतक्षेत्रके विजयाचंकी दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नामका नगर है ।।७६।। उसमें पूर्णधन नामका विद्याधरोंका राजा राज्य करता था। वह महाप्रभावसे युक्त तथा विद्याओंके बलसे उन्नत था। उसने विहायस्तिलक नगरके राजा सुलोचनसे उसकी कन्याकी याचना की पर सुलोचनने अपनी कन्या पूर्णघनको न देकर निमित्तज्ञानीकी आज्ञानुसार सगर चक्रवर्तीके लिए दी ॥७७-७८|| इधर राजा सुलोचन और पूर्णधनके बीच जबतक भयंकर युद्ध होता है तबतक सुलोचनका पूत्र सहस्रनयन अपनी बहनको लेकर अन्यत्र चला गया ॥७९॥ पूर्णधनने सुलोचनको मारकर नगरमें प्रवेश किया परन्तु जब कन्या नहीं देखी तो अपने नगरको वापस लौट आया ॥८॥ तदनन्तर पिताका वध सुनकर सहस्रनयन पूर्णमेघपर बहुत ही कुपित हुआ परन्तु निर्बल होनेसे कुछ कर नहीं सका। वह अष्टापद आदि हिंसक जन्तुओंसे भरे वन में रहता था और सदा पूर्णमेघके छिद्र देखता रहता था ।। ८१ ॥ तदनन्तर एक मायामयी अश्व सगर चक्रवर्तीको हर ले गया सो वह उसी वनमें आया जिसमें कि सहस्रनयन रहता था। सौभाग्यसे सहस्रनयनकी बहन उत्पलमतीने चक्रवर्तीको देखकर भाईसे यह समाचार कहा ।। ८२ ।। सहस्रनयन यह समाचार सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और उसने उत्पलमती, १. पारणम् म.,ख.। २. वृते क., दृतः म. ।
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