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पद्मपुराणे
भाकीत्यङ्गना तस्य हरिदासश्च तत्सुतः । चतुः कोटीश्वरो भूत्वा यात्रोद्युक्तः स भावनः ॥ ९७ ॥ पुत्राय सकलं द्रव्यं न्यासत्वेन समर्पयन् । द्यूतादिवर्जनार्थं च शिक्षामस्मै ददौ परम् ॥९८॥ सहेतुसर्वदोषेभ्य उपदिश्य निवर्तनम् । पुत्राय वाणिजो यातः पोतेन धनतृष्णया ॥९९॥ उपचारेण वेश्यायामासक्त्या द्यूतमण्डले । सुरायामभिमानेन चतुः कोक्योऽपि नाशिताः ॥ १०० ॥ यदासौ निर्जितो च ते तदा राज्ञो गृहं गतः । हरिदासो दुराचारो द्रविणार्थं सुरङ्गया ॥ १०१ ॥ आनीयासौ ततो द्रव्यं क्रियाः सर्वाश्चकार सः । स भावनोऽन्यदा गेहभायातो नेक्षते सुतम ॥ १०२ ॥ हरिदासो गतः क्वेति तेन पृष्टा कुटुम्बिनी । सावोचदनया यातश्चौर्याथं च सुरङ्गन्या ॥१०३॥ ततोऽसौ तस्य मरणं शङ्कमानः सुरङ्गया । प्रस्थितश्चौर्यशान्त्यर्थं गृहाभ्यन्तरदत्तया ॥ १०४ ॥ आगच्छता च पुत्रेण कोऽपि वैरी ममेत्यसौ । मण्डलाग्रेण पापेन वराको विनिपातितः ॥ १०५ ॥ विज्ञातोऽसौ ततस्तेन नखश्मश्रुसटादिभिः । स्पृष्ट्वा मम पितेत्येष प्राप्तो दुःखं च दुःसहम् ॥१०६॥ जनकस्य ततो मृत्युं कृत्वासौ भयविद्रुतः । पर्यटन् दुःखतो देशान् यातः कालेन पञ्चताम् ॥१०७॥ atment शृगालौ च वृषदंशौ वृषौ तथा । नकुलौ महिषावेतौ जातौ च वृषभौ पुनः ॥ १०८ ॥ अन्योऽन्यस्य ततो घातं कृत्वा तौ भवसंकटे । विदेहे पुष्कलावस्यां मनुष्यत्वमुपागतौ ॥१०९॥ उग्रं कृत्वा तपस्तस्मिन्नुत्तरानुत्तराह्वयौ । गत्वा सतारमायातौ जनकौ भवतोरिमौ ॥११०॥ aisi भावननामासीजातोऽसौ पूर्णतोयदः । आसीत्तस्य तु यः पुत्रः संजातः स सुलोचनः ॥ १११ ॥
द्रव्यका स्वामी था तो भी धन कमानेकी इच्छासे देशान्तरकी यात्राके लिए उद्यत हुआ ।।९६-९७।। उसने अपना सब धन धरोहरके रूपमें पुत्रके लिए सौंपते हुए, जुआ आदि व्यसनोंके छोड़ने की उत्कृष्ट शिक्षा दी । उसने कहा कि 'हे पुत्र ! ये जुआ आदि व्यसन समस्त दोषोंके कारण हैं इसलिए इनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है' ऐसा उपदेश देकर वह भावन नामका वणिक् धनकी तृष्णासे जहाज में बैठकर देशान्तरको चला गया ॥ ९८-९९ ॥ पिताके चले जानेपर हरिदासने वेश्यासेवन, जुआकी आसक्ति तथा मदिराके अहंकारवश चारों करोड़ द्रव्य नष्ट कर दिया || १०० || इस प्रकार जब वह जुआमें सब कुछ हार गया और अन्य जुवाड़ियोंका देनदार हो गया तब वह दुराचारी धनके लिए सुरंग लगाकर राजाके घरमें घुसा तथा वहाँसे धन लाकर अपने सब व्यसनोंकी पूर्ति करने लगा । अथानन्तर कुछ समय बाद जब उसका पिता भावना देशान्तरसे घर लौटा तब उसने पुत्रको नहीं देखकर अपनी स्त्रीसे पूछा कि हरिदास कहाँ गया है ? स्त्रीने उत्तर दिया कि वह इस सुरंगसे चोरी करनेके लिए गया है ॥ १०१ - १०३ ।। तदनन्तर भावनको शंका हुई कि कहीं इस कार्यमें इसका मरण न हो जावे इस शंकासे वह चोरी छुड़ानेके लिए घरके भीतर दी हुई सुरंगसे चला || १०४ || उधरसे उसका पुत्र हरिदास वापस लौट रहा था, सो उसने समझा कि यह कोई मेरा वैरी आ रहा है ऐसा समझकर उस पापीने बेचारे भावनको तलवारसे मार डाला ||१०५ ॥ पीछे जब नख, दाढ़ी, मूँछ तथा जटा आदिके स्पर्शसे उसे विदित हुआ कि अरे ! यह तो मेरा पिता है, तब वह दुःसह दुःखको प्राप्त हुआ || १०६ || पिताकी हत्या कर वह भयसे भागा और अनेक देशोंमें दुःखपूर्वक भ्रमण करता हुआ मरा ॥ १०७॥ पिता-पुत्र दोनों श्वान हुए, फिर शृगाल हुए, फिर मार्जार हुए, फिर बैल हुए, फिर नेवला हुए, फिर भैंसा हुए और फिर बैल हुए। ये दोनों ही परस्परमें एक दूसरेका घात कर मरे और संसाररूपी वनमें भटकते रहे । अन्तमें विदेह क्षेत्रकी पुष्कलावती नगरीमें मनुष्य हुए || १०८ - १०९ ।। फिर उग्र तपश्चरण कर शतार नामक ग्यारहवें स्वर्गंमें उत्तर और अनुत्तर नामक देव हुए। वहाँसे आकर जो भावन नामका पिता था वह पूर्णमेघ विद्याधर हुआ और जो उसका पुत्र था वह सुलोचन १. सोऽभयविद्रुतः ।
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