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पक्रम पर्व
स्त्रीरत्न तदसौ लब्ध्वा परं तोषमुपागतः । षट्खण्डाधिपतिः सर्वैः पार्थिवैः कृतशासनः ॥८॥ प्राप्तविद्याभृदैश्येन पुरं पौर्णधनं ततः । रुद्धं सहस्रनेत्रेण प्राकारेणेव सर्वतः ॥४५॥ ततो महति संग्रामे प्रवृत्ते जनसंक्षये । नीतः सहस्रनेत्रेण पूर्णमेघः परासुताम् ॥८६॥ पुत्रः पूर्णघनस्याथ नाम्ना तोयदवाहनः । परैरुद्वासितश्चक्रवालाद् भ्राम्यन् नमोऽङ्गणे ॥७॥ खेचरैर्बहुभिः क्रुद्धरनुयातः सुदुःखितः । अजितं शरणं यातस्त्रैलोक्यसुखकारणम् ॥४८॥ ततो वज्रधरेणासौ प्रष्टस्वासस्य कारणम् । अब्रवीत् सगरं प्राप्य मम बन्धुक्षयः कृतः ॥८९॥ अस्मत्पित्रोरभूद् वैरं नैकजीवविनाशनम् । तेनानुबन्धदोषेण नितान्तकरचेतसा ॥१०॥ सहस्रनयनेनाहं वासितः शत्रुणा भृशम् । हंसैः समं समुत्पत्य प्रासादादागतो द्रुतम् ॥११॥ ततो जिनसमीपे तं गृहीतुमसहैन पैः। निवेदिते सहस्राक्षः संप्रतस्थे स्वयं रुषा ॥१२॥ कोऽपरोऽस्ति मदुद्वीर्यो येनासौ परिरक्ष्यते । इति संचिन्तयन् प्राप्तो जिनस्य धरणीमसौ ॥१३॥ प्रभामण्डलमेवासौ दृष्ट्वा दूरे जिनोद्भवम् । सर्व गवं परित्यज्य प्रणनामाजितं विभुम् ॥१४॥ जिनपादसमीपे तो मुक्तवैरौ ततः स्थितौ । तत्पित्रोश्चरितं पृष्टो गणिना च जिनाधिपः ॥१५॥
इदं प्रोवाच भगवान् जम्बूद्वीपस्य मारते । पुरे सदृतुसंज्ञाके भावनो नाम वाणिजः ॥१६॥ सगर चक्रवर्ती के लिए प्रदान कर दी। चक्रवर्तीने भी पूर्णधनको विद्याधरोंका राजा बना दिया।।८३।। जो छह खण्डका अधिपति था तथा समस्त राजा जिसका शासन मानते थे ऐसा चक्रवर्ती सगर उस स्त्रीको पाकर बहुत भारी सन्तोषको प्राप्त हुआ ||८४|| विद्याधरोंका आधिपत्य पाकर सहस्रनयनने पूर्णघनके नगरको चारों ओरसे कोटके समान घेर लिया ||८५।। तदनन्तर दोनोंके बीच मनुष्योंका संहार करनेवाला बहुत भारी युद्ध हुआ जिसमें सहस्रनयनने पूर्णमेघको मार डाला ।।८।। तदनन्तर पूर्णघनके पूत्र मेघवाहनको शत्रुओंने चक्रवाल नगरसे निर्वासित कर दिया सो वह आकाशरूपी आंगनमें भ्रमण करने लगा ॥८७॥ उसे देखकर बहुत-से कुपित विद्याधरोंने उसका पीछा किया सो वह अत्यन्त दुःखी होकर तीन लोकके जीवोंको सुख उत्पन्न करनेवाले भगवान् अजितनाथकी शरणमें पहुंचा ।।८८॥ वहां इन्द्रने उससे भयका कारण पूछा। तब मेघवाहनने कहा कि हमारे पिता पूर्णधन और सहस्रनयनके पिता सुलोचनमें अनेक जीवोंका विनाश करनेवाला वैर-भाव चला आ रहा था सो उसी संस्कारके दोषसे अत्यन्त क्रूरचित्तके धारक सहस्रनयनने सगर चक्रवर्तीका बल पाकर मेरे बन्धुजनोंका क्षय किया है। इस शत्रुने मुझे भी बहुत
त्रास पहुँचाया है सो मैं महलसे हंसोंके साथ उडकर शीघ्र ही यहाँ आया हैं॥८९-९१॥ तदनन्तर जो राजा मेघवाहनका पीछा कर रहे थे उन्होंने सहस्रनयनसे कहा कि वह इस समय भगवान् अजितनाथके समीप है अतः हम उसे पकड़ नहीं सकते। यह सुनकर सहस्रनयन रोषवश स्वयं ही चला और मन ही मन सोचने लगा कि देखें मुझसे अधिक बलवान् दूसरा कौन है जो इसकी रक्षा कर सके। ऐसा सोचता हुआ वह भगवान्के समवसरणमें आया ।।९२-९३।। सहस्रनयनने ज्यों ही दूरसे भगवान्का प्रभामण्डल देखा त्यों ही उसका समस्त अहंकार चूर-चूर हो गया। उसने भगवान् अजितनाथको प्रणाम किया। सहस्रनयन और मेघवाहन दोनों ही परस्परका वैरभाव छोड़कर भगवान्के चरणोंके समीप जा बैठे। तदनन्तर गणधरने भगवानसे उन दोनोंके पिताका चरित्र पूछा सो भगवान् निम्न प्रकार कहने लगे ॥९४-९५।।
जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें सदृतु नामका नगर था। उसमें भावन नामका एक वणिक् रहता था। उसकी आतकी नामक स्त्री और हरिदास नामक पुत्र था। वह भावन यद्यपि चार करोड़
भारी त्रास
१. मेघवाहनः । २. सदुःखितः म.। ३. वासक म.। ४. बन्धुः क्षयं कृतः म.। ५. कोपरेऽस्ति म. ।
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