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पद्मपुराणे
एते हि तृष्णया मुक्ता निर्जितेन्द्रियशत्रवः । विधायापि बहून् मासानुपवासं महागुणाः ॥९६॥ frri re movi निर्दोषां मौनमास्थिताः । भुञ्जते प्राणष्टत्यर्थं प्राणा धर्मस्य हेतवः ॥९७॥ धर्मं चरन्ति मोक्षार्थं यत्र पीडा न विद्यते । कथंचिदपि सत्त्वानां सर्वेषां सुखमिच्छताम् ॥९८॥ श्रुत्वा तद्वचनं सम्राड़चिन्तयदिदं चिरम् । अहो वत महाकष्टं जैनेश्व रमिदं व्रतम् ॥ ९९ ॥ तिष्ठन्ति मुनयो यत्र स्वस्मिन् देहेऽपि निःस्पृहाः । जातरूपधरा धीराः सर्वभूतदयापराः ॥१००॥ इदानीं भोजयाम्येतान् सागारव्रतमाश्रितान् । लक्षणं हेमसूत्रेण कृत्वैतेन महान्धसा ॥१०१॥ प्रकाममन्यदप्येभ्यो दानं यच्छामि भक्तितः । कनीयान् मुनिधर्मस्य धर्मोऽमीभिः समाश्रितः ॥ १०२॥ सम्यग्दृष्टिजनं सर्वं ततोऽसौ धरणीतले । न्यमन्त्रयन् महावेगैः पुरुषैः स्वस्य संमतैः ॥ १०३ ॥ महान् कलकलो जातः सर्वस्यामवनौ ततः । मो मो नरा महादानं मरतः कर्तुमुद्यतः ।। १०४ ।। उत्तिष्ठताशु गच्छामो वस्त्ररत्नादिकं धनम् । आनयामो नरा ह्येते प्रेषितास्तेन सादराः ।। १०५ || उक्तमन्यैरिदं तत्र पूजयत्येष संमतान् । सम्यग्दृष्टिजनान् राजा गमनं तत्र नो वृथा ॥ १०६ ॥ ततः सम्यग्दृशो याता हर्षं परममागताः । समं पुत्रैः कलत्रैश्च पुरुषा विनयस्थिताः ॥ १०७॥ मिथ्यादृशोऽपि संप्राप्ता मायया वसुतृष्णया । भवनं राजराजस्य शक्रप्रासादसन्निभम् ॥१०८॥ अङ्गणोप्तयवब्रीहिमुद्माषाङ्कुरादिभिः । उच्चित्य लक्षणैः सर्वान् सम्यग्दर्शनसंस्कृतान् ॥ १०९॥
र || ९५|| ये मुनि तृष्णासे रहित हैं, इन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है, तथा महान् गुणोंके धारक हैं । ये एक-दो नहीं अनेक महीनोंके उपवास करनेके बाद भी श्रावकोंके घर ही भोजन के लिए जाते हैं और वहां प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौन से खड़े रहकर ग्रहण करते हैं । उनकी यह प्रवृत्ति रसास्वाद के लिए न होकर केवल प्राणोंकी रक्षाके लिए ही होती है क्योंकि प्राण धर्मके कारण हैं ॥९६ - २७॥ ये मुनि मोक्ष - प्राप्ति के लिए उस धर्मका आचरण कर रहे हैं जिसमें कि सुखकी इच्छा रखनेवाले समस्त प्राणियोंको किसी भी प्रकारकी पीड़ा नहीं दी जाती है ||१८|| भगवान् के उक्त वचन सुनकर सम्राट् भरत चिरकाल तक यह विचार करता रहा और कहता रहा कि अहो ! जिनेन्द्र भगवान्का यह व्रत महान् कष्टोंसे भरा है । इस व्रत के पालन करनेवाले मुनि अपने शरीर में निःस्पृह रहते हैं, दिगम्बर होते हैं, धीरवीर तथा समस्त प्राणियोंपर दया करनेमें तत्पर रहते हैं ।।९२ - १००॥ इस समय जो यह महान् भोजन-सामग्री तैयार की गयी है इससे गृहस्थका व्रत धारण करनेवाले पुरुषोंको भोजन कराता हूँ तथा इन गृहस्थोंको सुवर्णसूत्र से चिह्नित करता ||| १०१ || भोजन के सिवाय अन्य आवश्यक वस्तुएँ भी इनके लिए भक्तिपूर्वक अच्छी मात्रामें देता हूँ क्योंकि इन लोगोंने जो धर्मं धारण किया है वह मुनि धर्मका छोटा भाई ही तो है ॥ १०२ ॥
तदनन्तर — सम्राट् भरतने महावेगशाली अपने इष्ट पुरुषोंको भेजकर पृथिवीतलपर विद्यमान समस्त सम्यग्दृष्टिजनोंको निमन्त्रित किया || १०३ || इस कार्यंसे समस्त पृथिवीपर बड़ा कोलाहल मच गया । लोग कहने लगे कि अहो ! मनुष्यजन हो ! सम्राट् भरत बहुत भारी दान करने के लिए उद्यत हुआ है ॥ १०४ ॥ इसलिए उठो, शीघ्र चलें, वस्त्र-रत्न आदिक धन लावें, देखो ये आदरसे भरे सेवकजन उसने भेजे हैं ॥ १०५ ॥ यह सुनकर उन्हीं लोगों में से कोई कहने लगे कि यह भरत अपने इष्ट सम्यग्दृष्टिजनों का ही सत्कार करता है इसलिए हम लोगों का वहाँ जाना वृथा है || १०६ || यह सुनकर जो सम्यग्दृष्टि पुरुष थे वे परम हर्षको प्राप्त हो स्त्री -पुत्रादिकों के साथ भरत के पास गये और विनयसे खड़े हो गये || १०७ || जो मिथ्यादृष्टि थे वे भी धनकी तृष्णासे मायामयी सम्यग्दृष्टि बनकर इन्द्रभवनकी तुलना करनेवाले सम्राट् भरत के भवन में पहुँचे || १०८ || सम्राट् भरतने भवनके आँगनमें बोये हुए जो, धान, मूँग, उड़द आदिके अंकुरोंसे १. शान्तप्रशममूर्तयः म । २. न्यामन्त्रयन् क. । २. जाताः क., ख. ।
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