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पद्मपुराणे
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केचित्तु तनुकर्माणो भुञ्जानास्तपसः फलम् । स्वर्गे चक्रुरवस्थानमासन्नभवनिर्गमाः ॥ १४॥ एष ते सोमवंशोऽपि कथितः पृथिवीपते । वैद्याधरमतो वंशं कथयामि समासतः ||१५|| नमेर्विद्याधरेन्द्रस्य रत्नमाली सुतोऽभवत् । रत्नवज्रस्ततो जातस्ततो रत्नरथोऽभवत् ॥ १६ ॥ रत्नचित्रोऽभवत्तस्माज्जातश्चन्द्ररथस्ततः । जज्ञेऽतो वज्रजङ्घाख्यो वज्रसेनश्रुतिस्ततः ||१७|| उद्भूतो वज्रदंष्टोऽतस्ततो वज्रध्वजोऽभवत् । वज्रायुधश्च वज्रश्च सुवज्रो वज्रभृत्तथा ॥१८॥ वज्राभो वज्रबाहुच वज्राङ्को वज्रसंज्ञकः । वज्रास्यो वज्रपाणिश्च वज्रजातुश्च वज्रवान् ॥ १९ ॥ विद्युन्मुखः सुवक्त्रश्च विद्युदंष्ट्रश्च तत्सुतः । विद्युद्वान् विद्युदामश्च विद्युद्वेगोऽथ वैद्युतः ||२०|| इत्याद्या बहवः शूरा विद्याधरपुराधिपाः । गता दीर्घेण कालेन चेष्टितोचितमाश्रयम् ॥२१॥ सुतेषु प्रभुतां न्यस्य जिनदीक्षामुपाश्रिताः । हित्वा द्वेषं च रागं च केचित्सिद्धिमुपागताः ||२२|| केचिद्विनाशमप्राप्ते समस्ते कर्मबन्धने । संकल्पकृतसांनिध्यं सौरभोगमभुञ्जत ॥ २३ ॥ केचित्तु कर्मपाशेन बद्धाः स्नेहगरीयसा । तत्रैव निधनं याता वागुरायां मृगा इव ॥ २४॥ अथ विद्युढो नाम्ना प्रभुः श्रेण्योर्द्वयोरपि । विद्याबलसमुन्नद्धो बभूवोन्नतविक्रमः ||२५|| अन्यदा स गतोऽपश्यद् विदेहं गगनस्थितः । निर्ग्रन्थं योगमारूढं शैलनिश्चलविग्रहम् ॥२६॥ स्थापितस्तेन नीत्वासौ नाम्ना पञ्चगिरौ गिरौ । कुरुध्वं वधमस्येति विद्यावन्तश्च चोदिताः ॥२७॥ प्रकार इन्हें आदि लेकर अनेक राजा इस वंशमें क्रमसे उत्पन्न हुए हैं । ये सभी राजा निर्मल चेष्टाओंके धारक थे तथा मुनिपदको धारण कर ही परमपद ( मोक्ष ) को प्राप्त हुए ।। ११-१३।। कितने ही अल्पकर्म अवशिष्ट रह जानेके कारण तपका फल भोगते हुए स्वगंमें देव हुए तथा वहाँसे आकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेंगे ||१४|| हे राजन् ! यह मैंने तुझे सोमवंश कहा अब आगे संक्षेपसे विद्याधरोंके वंशका दर्णन करता हूँ ||१५||
विद्याधरोंका राजा जो नमि था उसके रत्नमाली नामका पुत्र हुआ । रत्नमालीके रत्नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्नरथके रत्नचित्र, रत्नचित्र के चन्द्ररथ, चन्द्ररथके वज्रजंघ, वज्रजंघके वज्रसेन, वज्रसेनके वज्रदंष्ट, वज्रदंष्ट्र के वज्रध्वज, वज्रध्वजके वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्रके सुवज्र, सुवज्रके वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वस्त्राभके वज्रबाहु, वज्रबाहुके वज्रसंज्ञ, वज्रसंज्ञके वज्रास्य, वज्रास्यके वज्रपाणि, वज्रपाणिके वज्रजातु, वज्रजातुके वज्रवान् वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुखके सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युदंष्ट्र, विद्युदंष्ट्रके विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ विद्युद्वेग और विद्युद्वेग वैद्युत नामक पुत्र हुए। ये ही नहीं, इन्हें आदि लेकर अनेक शूरवीर विद्याघरोंके राजा हुए। ये सभी दीर्घ काल तक राज्य कर अपनी-अपनी चेष्टाओंके अनुसार स्थानोंको प्राप्त हुए ।।१६ - २१ ।। इनमें से कितने ही राजाओंने पुत्रोंके लिए राज्य सौंपकर जिनदीक्षा धारण की और राग-द्वेष छोड़कर सिद्धिपद प्राप्त किया ||२२|| कितने ही राजा समस्त कर्मबन्धनको नष्ट नहीं कर सके इसलिए संकल्प मात्र से उपस्थित होनेवाले देवोंके सुखका उपभोग करने लगे ||२३|| कितने ही लोग स्नेहके कारण गुरुतर कर्मरूपी पाशसे बँधे रहे और जालमें बँधे हरिणोंके समान उसी कर्मरूपी पाशमें बँधे हुए मृत्युको प्राप्त हुए ||२४||
अथानन्तर इसी विद्याधरोंके वंशमें एक विद्युदृढ़ नामका राजा हुआ जो दोनों श्रेणियोंका स्वामी था, विद्याबलमें अत्यन्त उद्धत और विपुल पराक्रमका धारी था || २५ || किसी एक समय वह विमान में बैठकर विदेह क्षेत्र गया था वहाँ उसने आकाशसे ही निर्ग्रन्थ मुद्राके धारी संजयन्त मुनिको देखा, उस समय वे ध्यानमें आरूढ़ थे और उनका शरीर पर्वतके समान निश्चल था ||२६|| विद्युदृढ़ विद्याधरने उन मुनिराजको लाकर पंचगिरि नामक पर्वतपर रख दिया और १. -माश्रमम् म. । २. विद्युष्ट्रो म. ।
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