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पद्मपुराणे उपर्यथ समारुह्य योजनानि पुनर्दश । गन्धर्वकिन्नरादीनां नगराणि सहस्रशः ॥३१०॥ अतोऽपि समतिक्रम्य पञ्चयोजनमन्तरम् । अर्हद्भवनसंछन्नो भाति नन्दीश्वराद्रिवत् ॥३१॥ भवनेष्वहतां तेषु स्वाध्यायगतचेतसः । मुनयश्चारणा नित्यं तिष्ठन्ति परमीजसः ॥३१२॥ दक्षिणे विजयार्द्धस्य भागे पञ्चाशदाहिताः । स्थनुपरसंध्याभ्रप्रभुतीनां पुरां ततः ॥३१३॥ उत्तरेण तथा षष्टिर्नगराणां निवेशिता । आकाशवल्लभादीनि यानि नामानि बिभ्रति ॥३१४॥ देशग्रामसमाकीर्ण बाकारसंकुलम् । सखेटकर्वटाटोपं तत्रेकैकं पुरोत्तमम् ॥३१५॥ उदारगोपुराडालं हेमप्राकारतोरणम् । वाप्युद्यानसमाकीर्ण ] स्वर्गभोगोत्सवप्रदम् ॥३१६॥ अकृष्टसर्वसस्यान्यं सर्वपुष्पफलद्रुमम् । सवौषधिसमाकीर्ण सर्वकामप्रसाधनम् ॥३१७॥ भोगभूमिसमं शश्वद् राजते यत्र भूतलम् । मधुक्षीरघृतादीनि वहन्ते तत्र निर्झराः ॥३१८॥ सरांसि पद्मयुक्तानि हंसादिकलितानि च । मणिकाञ्चनसोपानाः स्वच्छमिष्टमधूदकाः ॥३१९॥ सरोरुहरजश्छन्ना विरेजुस्तत्र दीर्घिकाः । सवत्सकामधेनूनां संपूर्णेन्दुसमविषाम् ॥३२०॥ सुवर्णखुरशृङ्गाणां संघाः शालासु तत्र च । [नेत्रानन्दकरीणां च वसन्ति यत्र धेनवः ] ॥३२॥ यासां वर्चश्च मूत्रं च शुभगन्धं तु रुष्कवत् । कान्तिवीर्यप्रदं तासां पयः केनोपमीयते ॥३२२॥
नीलनीरजवर्णानां तथा पद्मसमत्विषाम् । महिषीणां सपुत्राणां सर्वासामत्र पक्तयः ॥३२३॥ तलसे दश योजन ऊपर चलकर विजया पर्वतपर विद्याधरोंके निवास-स्थान बने हुए हैं। उनके वे निवास स्थान नाना देश और नगरोंसे व्याप्त हैं तथा भोगोंसे भोगभूमिके समान जान पड़ते हैं ॥३०९|| विद्याधरोंके निवास स्थानसे दश योजन ऊपर चलकर गन्धर्व और किन्नर देवोंके हजारों नगर बसे हुए हैं ॥३१०॥ वहाँसे पांच योजन और ऊपर चलकर वह पवंत अहंन्त भगवान्के मन्दिरोंसे आच्छादित है तथा नन्दीश्वर द्वीपके पर्वतके समान जान पड़ता है ।।३११॥ अर्हन्त भगवान्के उन मन्दिरोंमें स्वाध्यायके प्रेमी, चारणऋद्धिके धारक परम तेजस्वी मुनिराज निरन्तर विद्यमान रहते हैं ।।३१२।। उस विजयाधं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर रथनूपुर तथा सन्ध्याभ्रको आदि लेकर पचास नगरियाँ हैं और उत्तर श्रेणीपर गगनवल्लभ आदि साठ नगरियाँ हैं ॥३१३-३१४॥ ये प्रत्येक नगरियां एकसे एक बढ़कर हैं, नाना देशों और गांवोंसे व्याप्त हैं, मटम्बोंसे संकीर्ण हैं, खेट और कर्वटोंके विस्तरसे युक्त हैं ॥३१५।। बड़ेबड़े गोपुरों और अट्टालिकाओंसे विभूषित हैं, सुवर्णमय कोटों और तोरणोंसे अलंकृत हैं, वापिकाओं और बगीचोंसे व्याप्त हैं, स्वर्ग सम्बन्धी भोगोंका उत्सव प्रदान करनेवाली हैं, बिना जोते ही उत्पन्न होनेवाले सर्व प्रकारके फलोंके वृक्षोंसे सहित हैं, सर्व प्रकारको औषधियोंसे आकीर्ण हैं, और सबके मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली हैं ॥३१६-३,१७।। उनका पृथिवीतल हमेशा भोगभूमिके समान सुशोभित रहता है, वहाँके निर्झर सदा मधु, दूध, घी आदि रसोंको बहाते हैं, वहाँके सरोवर कमलोंसे युक्त तथा हंस आदि पक्षियोंसे विभूषित हैं। वहाँको वापिकाओंकी सीढ़ियाँ मणियों तथा सुवर्णसे निर्मित हैं, उनमें मधुके समान स्वच्छ और मीठा पानी भरा रहता है. तथा वे स्वयं कमलोंकी परागसे आच्छादित रहती हैं। वहाँकी शालाओंमें बछडोंसे सुशोभित उन कामधेनुओंके झुण्डके झुण्ड बंधे रहते हैं जिनकी कि कान्ति पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिनके खुर और सींग सुवर्णके समान पीले हैं तथा जो नेत्रोंको आनन्द देनेवाली हैं ।।३१८-३२१।। वहाँ वे गायें रहती हैं जिनका कि गोबर और मूत्र भी सुगन्धिसे युक्त है तथा रसायनके समान कान्ति और वीर्यको देनेवाला है, फिर उनके दूधकी तो उपमा ही किससे दी जा सकती है ? ॥३२२॥ उन नगरियोंमें नील कमलके समान श्यामल तथा कमलके समान १. कोष्ठान्तर्गतः पाठः क. ख. पुस्तकयो स्ति । २. कोष्ठकान्तर्गतः पाठः क. ख. पुस्तकयो स्ति । ३. सुगन्धं तु सरुष्कवत् म.।
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