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पद्मपुराणे परमाणोः परं स्वल्पं न चान्यनमसो महत् । धर्मादन्यश्च लोकेऽस्मिन् सुहृन्नास्ति शरीरिणाम् ॥३९॥ मनुष्यभोगः स्वर्गश्च सिद्धसौख्यं च धर्मतः । प्राप्यते यत्तदन्येन ग्यापारेण कृतेन किम् ॥४०॥ अहिंसानिर्मलं धर्म सेवन्ते ये विपश्चितः । तेषामेवोर्द्धवगमनं यान्ति तिर्यगधोऽन्यथा ॥४॥ यद्यप्यूवं तपःशक्त्या व्रजेयुः परलिङ्गिनः । तथापि किङ्करा भूत्वा ते देवान् समुपासते ॥४२॥ देवदुर्गतिदुःखानि प्राप्य कर्मवशात्ततः । स्वर्गच्युताः पुनस्तिर्यग्योनिमायान्ति दुःखिनः ॥४३॥ सम्यग्दर्शनसंपन्नाः स्वभ्यस्तजिनशासनाः । दिवं गत्वा च्युता बोधि प्राप्य यान्ति परं शिवम् ॥४४॥ सागाराणां यतीनां च धर्मोऽसौ द्विविधः स्मृतः । तृतीयं ये तु मन्यन्ते दग्धास्ते मोहवहिना ॥४५॥ अणुव्रतानि पञ्च स्युस्त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् ॥४६॥ सर्वारम्भपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहाः । कालधर्मेण संयुक्ता गतिं ते यान्ति शोभनाम् ॥४७॥ महाव्रतानि पञ्च स्युस्तथा समितयो मताः । गुप्तयस्तिस्र उदिष्टा धर्मोऽयं व्योमवाससाम् ॥४८॥ धर्मणानेन संयुक्ताः शुमध्यानपरायणाः । यान्ति नाकं च मोक्षं च हिस्वा पूतिकलेवरम् ॥४९॥ येऽपि जातस्वरूपाणां परमब्रह्मचारिणाम् । स्तुतिं कुर्वन्ति भावेन तेऽपि धर्ममवाप्नुयुः ॥५०॥ तेन धर्मप्रभावेण कुगतिं न व्रजन्ति ते । लमन्ते बोधिलामं च मुच्यन्ते येन किल्विषात् ॥५१॥ इत्यादि देवदेवेन भाषितं धर्ममुत्तमम् । श्रुत्वा देवा मनुष्याश्च परमामोदमागताः ॥५२॥
और अन्धा मनुष्य देखनेकी इच्छा करे उसी प्रकार धर्मके बिना सुखप्राप्त करना है ॥३८॥ जिस प्रकार इस संसारमें परमाणुसे छोटी कोई चीज नहीं है और आकाशसे बड़ी कोई वस्तु नहीं है उसी प्रकार प्रागियोंका धर्मसे बड़ा कोई मित्र नहीं है ॥३९।। जब धर्मसे ही मनुष्य सम्बन्धी भोग, स्वर्ग और मुक्त जीवोंको सुख प्राप्त हो जाता है तब दूसरा कार्य करनेसे क्या लाभ है ? ॥४०॥ जो विद्वज्जन अहिंसासे निर्मल धर्मकी सेवा करते हैं उन्हींका ऊध्वंगमन होता है अन्य जीव तो तिर्यग्लोक अथवा अधोलोकमें ही जाते हैं ।।४१|| यद्यपि अन्यलिंगी-हंस-परमहंस-परिव्राजक
आदि भी तपश्चरणकी शक्तिसे ऊपर जा सकते हैं-स्वर्गों में उत्पन्न हो सकते हैं तथापि वे वहाँ किंकर होकर अन्य देवोंकी उपासना करते हैं ॥४२॥ वे वहां देव होकर भी कर्मके वश दुर्गतिके दुःख पाकर स्वर्गसे च्युत होते हैं और दु:खी होते हुए तिर्यंच योनि प्राप्त करते हैं ॥४३॥ जो सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न हैं तथा जिन्होंने जिनशासनका अच्छी तरह अभ्यास किया है वे स्वर्ग जाते हैं और वहाँसे च्युत होनेपर रत्नत्रयको पाकर उत्कृष्ट मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥४४॥ वह धर्म गहस्थों और मुनियोंके भेदसे दो प्रकारका है। इन दोके सिवाय जो तीसरे प्रकारका धर्म मानते हैं वे मोहरूपी अग्निसे जले हुए हैं ॥४५॥ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, यह गृहस्थोंका धर्म है ॥४६॥ जो गृहस्थ अन्त समय सब प्रकारके आरम्भका त्याग कर शरीरमें भी निःस्पृह हो जाते हैं तथा समता भावसे मरण करते हैं वे उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं ॥४७॥ पांच महाव्रत, पाँच समितियां और तीन गुप्तियां यह मुनियोंका धर्म है ॥४८॥ जो मनुष्य मुनि धर्मसे युक्त होकर शुभ ध्यानमें तत्पर रहते हैं वे इस दुर्गन्धिपूर्ण बीभत्स शरीरको छोड़कर स्वर्ग अथवा मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥४९।। जो मनुष्य उत्कृष्ट ब्रह्मचारी दिगम्बर मुनियोंकी भावपूर्वक स्तुति करते हैं वे भी धर्मको प्राप्त हो सकते हैं ॥५०॥ वे उस धर्मके प्रभावसे कुगतियोंमें नहीं जाते किन्तु उस रत्नत्रयरूपी धर्मको प्राप्त कर लेते हैं जिसके कि प्रभावसे पापबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ॥५१॥ इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् वृषभदेवके द्वारा कहे हुए उत्तम धर्मको सुनकर देव और मनुष्य सभी परम हर्षको प्राप्त हुए ॥५२॥ १. शरीरिणः म. । २. गृहसेविनाम् म. । ३. शोभताम् म. । ४. देवमनुष्याश्च म. । ५. परमं मोद- म. । For Private & Personal Use Only
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