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पद्मपुराणे
अलंकारैः समं त्यक्त्वा वसनानि महामुनिः । चकारासौ परित्यागं केशानां पञ्चमुष्टिभिः ॥२८३॥ ततो रेनपुटे केशान् प्रतिपद्य सुराधिपः । चिक्षेप मस्तके कृत्वा क्षीराकूपारवारिणि ॥२८४॥ महिमानं ततः कृत्वा जिन दीक्षानिमित्तकम् । यथा यातं सुरा धर्मनुष्याश्च विचेतसः ॥२८५॥ सहस्राणि च चत्वारि नृपाणां स्वामिभक्तितः । तदाकूतमजानन्ति प्रतिपन्नानि नग्नताम् ॥२८६॥ ततो वर्षार्द्धमानं स कायोत्सर्गेण निश्चलः । धराधरेन्द्रवत्तस्थौ कृतेन्द्रियसमस्थितिः ॥२८७॥ वातोधूता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः । धूमाल्य इव सद्ध्यानवह्निसक्तस्य कर्मणः ॥२८॥ ततः षडपि नो यावन्मासा गच्छन्ति भूभृताम् । भग्नस्ताबदसौ सङ्घः परीषहमहामटैः ॥२८९॥ केचिन्निपतिता भूमौ दुःखानिलसमाहताः । केचित् सरसवीर्यत्वादुपविष्टा महीतले ॥२९०॥ कायोत्सर्ग परित्यज्य गताः केचित् फलाशनम् । संतप्तमूर्तयः केचित् प्रविष्टाः शीतल जलम् ॥२९१॥ केचिन्नागा इबोद्धृत्ता विविशुर्गिरिंगह्वरम् । परावृत्य मनः केचित् प्रारब्धा जिनमीक्षितुम् ॥२९२॥ मानी तन मरीचिस्तु दधत्काषायवाससी । परिबाडासनं चक्रे वल्किभिः प्रत्यवस्थितः ॥२९३॥ ततः फलादिकं तेषां नग्नरूपेण गृह्यताम् । विचेरुगंगने वाचोऽदर्शनानां सुधाभुजाम् ॥२९४॥ अनेन नग्नरूपेण न वर्तत इदं नृपाः । समाचरितुमत्यर्थं दुःखहेतुरयं हि वः ॥२९५॥ ततः परिदधुः केचित् पत्राण्यन्ये तु वल्कलम् । चर्माणि केचिदन्ये तु वासः प्रथममुज्झितम् ॥२९६॥
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नमस्कार हो यह कह दीक्षा धारण कर ली ।।२८२॥ महामुनि वृषभदेवने सव अलंकारोंके साथ ही साथ वस्त्रोंका भी त्याग कर दिया और पंचमुष्टियोंके द्वारा केश उखाड़कर फेंक दिये ॥२८३।। इन्द्रने उन केशोंको रत्नमयी पिटारेमें रख लिया और तदनन्तर मस्तकपर रखकर उन्हें क्षीरसागर में क्षेप आया ।।२८४|| समस्त देव दीक्षाकल्याणक सम्बन्धी उत्सव कर जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार चले गये, साथ ही मनुष्य भी अपना हृदय हराकर यथास्थान चले गये ।।२८५।। उस समय चार हजार राजाओंने जो कि भगवान्के अभिप्रायको नहीं समझ सके थे केवल स्वामिभक्तिसे प्रेरित होकर नग्न अवस्थाको प्राप्त हुए थे ॥२८६॥ तदनन्तर इन्द्रियोंकी समान अवस्था धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेव छह माह तक कायोत्सर्गसे सुमेरु पर्वतके समान निश्चल खड़े रहे ।।२८७।। हवासे उड़ी हुई उनकी अस्त-व्यस्त जटाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो समीचीन ध्यानरूपी अग्निसे जलते हुए कर्मके धूमकी पंक्तियाँ ही हों ।।२८८॥ तदनन्तर छह माह भी नहीं हो पाये थे कि साथ-साथ दीक्षा लेनेवाले राजाओंका समूह परीषहरूपी महायोद्धाओंके द्वारा परास्त हो गया ।।२८९।। उनमें से कितने ही राजा दुःखरूपी वायुसे ताडित होकर पृथिवीपर गिर गये और कितने ही कुछ सबल शक्तिके धारक होनेसे पृथिवीपर बैठ गये ॥२९०।। कितने ही भूखसे पीड़ित हो कायोत्सर्ग छोड़कर फल खाने लगे। कितने ही सन्तप्त शरीर होनेके कारण शीतल जलमें जा घुसे ॥२९१॥ कितने ही चारित्रका बन्धन तोड़ उन्मत्त हाथियोंकी तरह पहाड़ोंकी गुफाओंमें घुसने लगे और कितने ही फिरसे मनको लौटाकर जिनेन्द्रदेवके दर्शन करनेके लिए उद्यत हुए ॥२२२।। उन सब राजाओंमें भरतका पुत्र मरीचि बहुत अहंकारी था इसलिए वह गेरुआ वस्त्र धारण कर परिव्राजक बन गया तथा वल्कलोंको धारण करनेवाले कितने ही लोग उसके साथ हो गये ॥२९३।। वे राजा लोग नग्नरूपमें ही फलादिक ग्रहण करनेके लिए जब उद्यत हए तब अदृश्य देवताओंके निम्नांकित वचन आकाशमें प्रकट हए। हे राजाओ! तुम लोग नग्नवेषमें रहकर यह कार्य न करो क्योंकि ऐसा करना तुम्हारे लिए अत्यन्त दुःखका कारण होगा ॥२९४-२९५।। देवताओंके वचन सुनकर कितने ही लोगोंने वृक्षोंके पत्ते पहन १. रत्नपटे म., क.। २. क्षीरकूपार-म. । ३. शक्तस्य म., ख., शक्तिस्य ( ? ) म. । ४. इवोद्धता म. । ५. परिवाट शासनं म.।
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