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पद्मपुराणे
ततः कृपासमासक्तहृदयो नाभिनन्दनः । शशास चरणेप्राप्ता बद्धाञ्जलिपुटाः प्रजाः ॥२५४॥ शिल्पानां शतमुद्दिष्टं नगराणां च कल्पनम् । ग्रामादिसन्निवेशाश्च तथा वेश्मादिकारणम् ॥२५५॥ क्षेतत्राणे नियुक्ता ये तेन नाथेन मानवाः । क्षत्रिया इति ते लोके प्रसिद्धिं गुणतो गताः ॥ २५६॥ वाणिज्य कृषिगोरक्षाप्रभृतौ ये निवेशिताः । व्यापारे वैश्यशब्देन ते लोके परिकीर्तिताः ॥ २५७॥ ये तु श्रुताद् द्रुतं प्राप्ता नीचकर्मविधायिनः । शूद्रसंज्ञामवापुस्ते भेदैः प्रेष्यादिभिस्तथा ॥ २५८॥ युगं तेन कृतं यस्मादित्थमेतत्सुखावहम् । तस्मात्कृतयुगं प्रोक्तं प्रजाभिः प्राप्तसंपदम् ॥ २५९ ॥ नाभेयस्य सुनन्दाऽभून्नन्दा च वनिताद्वयम् । भरतादय उत्पन्नास्तयोः पुत्रा महौजसः ॥ २६० ॥ शतेन तस्य पुत्राणां गुणसंबन्धचारुणा । अभूदलंकृता क्षोणी नित्यप्राप्तसमुत्सवा ॥२६१॥ तस्यानुपममैश्वर्यं भुञ्जानस्य जगद्गुरोः । प्रयातः सुमहान् कालो नाभेयस्यामितस्विषः ॥२६२॥ अथ नीलाञ्जनाख्यायां नृत्यन्त्यां सुरयोषिति । इयं तस्य समुत्पन्ना बुद्धिर्वैराग्यकारणम् ॥२६३॥ अहो जना विडम्बयन्ते परतोषणचेष्टितैः । उन्मत्तचरिताकारैः स्ववपुः खेदकारणैः ॥ २६४ ॥ अत्र कश्चित् पराधीनो लोके भृत्यत्वमागतः । आज्ञां ददाति कश्चिच्श्च तस्मै गर्वस्खलद्वचाः ॥२६५॥ एवं धिगस्तु संसारं यस्मिन्नुत्पाद्यते परैः । दुःखमेव सुखाभिख्यां नीतं संमूढमानसैः ॥ २६६॥ तस्मादिदं परित्यज्य कृत्रिमं क्षयवत्सुखम् । सिद्धू सौख्यसमावाप्त्यै करोम्याशु विचेष्टितम् ॥ २६७॥ यावदेवं मनस्तस्य प्रवृत्तं शुभचिन्तने । तावलौकान्तिकैर्देवैरिदमागत्य भाषितम् ॥ २६८ ॥
तदनन्तर - जिनका हृदय दयासे युक्त था ऐसे भगवान् वृषभदेव हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई प्रजाको उपदेश देने लगे || २५४ || उन्होंने प्रजाको सैकड़ों प्रकारको शिल्पकलाओंका उपदेश दिया । नगरोंका विभाग, ग्राम आदिका बसाना, और मकान आदिके बनानेकी कला प्रजाको सिखायी || २५५ || भगवान् ने जिन पुरुषोंको विपत्तिग्रस्त मनुष्योंकी रक्षा करनेमें नियुक्त किया था वे अपने गुणोंके कारण लोकमें 'क्षत्रिय' इस नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए || २५६ || वाणिज्य, खेती, गोरक्षा आदिके व्यापारमें जो लगाये गये थे वे लोकमें वैश्य कहलाये || २५७|| जो नीच कार्य करते थे तथा शास्त्रसे दूर भागते थे उन्हें शूद्र संज्ञा प्राप्त हुई । इनके प्रेष्य दास आदि अनेक भेद थे || २५८ || इस प्रकार सुखको प्राप्त करानेवाला वह युग भगवान् ऋषभदेवके द्वारा किया गया था तथा उसमें सब प्रकारको सम्पदाएँ सुलभ थीं इसलिए प्रजा उसे कृतयुग कहने लगी थी || २५९ || भगवान् ऋषभदेवके सुनन्दा और नन्दा नामकी दो स्त्रियाँ थीं। उनसे उनके भरत आदि महाप्रतापी पुत्र उत्पन्न हुए थे || २६० || भरत आदि सो भाई थे तथा गुणोंके सम्बन्धसे अत्यन्त सुन्दर थे इसलिए यह पृथ्वी उनसे अलंकृत हुई थी तथा निरन्तर ही अनेक उत्सव प्राप्त करती रहती थी || २६१ || अपरिमित कान्तिको धारण करनेवाले जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेवको अनुपम ऐश्वर्यंका उपभोग करते हुए जब बहुत भारी काल व्यतीत हो गया || २६२|| तब एक दिन नीलांजना नामक देवीके नृत्य करते समय उन्हें वैराग्यकी उत्पत्तिमें कारणभूत निम्न प्रकारकी बुद्धि उत्पन्न हुई || २६३ || वे विचारने लगे कि अहो ! संसारके ये प्राणी दूसरोंको सन्तुष्ट करनेवाले कार्योंसे विडम्बना प्राप्त कर रहे हैं । प्राणियों के ये कार्यं पागलोंकी चेष्टाके समान हैं तथा अपने शरीरको खेद उत्पन्न करनेके लिए कारणस्वरूप हैं || २६४ || संसारकी विचित्रता देखो, यहाँ कोई तो पराधीन होकर दासवृत्तिको प्राप्त होता है और कोई गवँसे स्खलित वचन होता हुआ उसे आज्ञा प्रदान करता है || २६५ || इस संसारको धिक्कार हो कि जिसमें मोही जीव दुःखको ही, सुख समझकर, उत्पन्न करते हैं ॥ २६६ ॥ | इसलिए मैं तो इस विनाशीक तथा कृत्रिम सुखको छोड़कर सिद्ध जीवोंका सुख प्राप्त करनेके लिए शीघ्र ही प्रयत्न करता हूँ || २६७ || इस १. शरणं प्राप्ता क. । २. क्षतित्राणे म. । ३ श्रुता ख । श्रुत्वा हृति म । ४ प्राप्तसम्मदम् म. । ५. नीलांञ्जसा- म., ख । ६. परितोषक म. । ७. सिद्धि ख ।
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