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पद्मपुराणे त्रिंशञ्चतसृभिर्युक्ता राजधान्यः प्रकीर्तिताः । चतुर्दश महानद्यो जम्बूवृक्षे जिनालयः ॥३९॥ षड् भोगक्षितयः प्रोक्ता अष्टौ जिनगृहाणि च । अष्टषष्टिगुहामानं भवनानां च तत्स्मृतम् ॥४०॥ सिंहासनानि चत्वारि त्रिंशच्च गदितानि तु । विजयार्द्धनगौ द्वौ च राजतौ परिकीर्तितौ ॥४१॥ वक्षारगिरियुक्तेषु समस्तेषु नगेषु तु । भवनानि जिनेन्द्राणां राजन्ते रत्नराशिमिः ॥४२॥ जम्बूमरतसंज्ञायां क्षोण्यां दक्षिणयाशया। सुमहान् राक्षसो द्वीपो जिनबिम्बसमन्वितः ॥४३॥ महाविदेहवर्षस्य जगत्यां पश्चिमाशया। विशालः किन्नरद्वीपो जिनबिम्बोज्ज्वलः शुभः॥४४॥ तथैरावतवर्षस्य क्षित्यामुत्तरया दिशा । गन्धर्वो नामतो द्वीपः सच्चैत्यालयभूषितः ॥४५॥ मेरोः पूर्वविदेहस्य जगत्यां पूर्वयाशया। रराज धरणद्वीपो जिनायतनसंकुलः ॥४६॥ भरतैरावतक्षेत्रे वृद्धिहानिसमन्विते । शेषास्तु भूमयः प्रोक्तास्तुल्यकालव्यवस्थिताः ॥४७॥ जम्बूवृक्षस्य भवने सुरोऽनावृतशब्दितः । शतैः किल्विषकाख्यानामास्ते बहुभिरावृतः ॥४८॥ 'अस्मिँश्च भरतक्षेत्रं पुरोत्तरकुरूपमम् । कल्पपादपसंकीर्ण सुषमायां विराजते ॥४९॥ तरुणादित्यसंकाशा गव्यूतित्रयमुच्छिताः । सर्वलक्षणसंपूर्णाः प्रजा यत्र विरेजिरे ॥५०॥ युग्ममुत्पद्यते तत्र पल्यानां त्रयमायुषा । प्रेमबन्धनबद्धं च म्रियते युगलं समम् ॥५१॥
जम्बूद्वीपमें बत्तीस विदेह, एक भरत और एक ऐरावत ऐसे चौंतीस क्षेत्र हैं और एक-एक क्षेत्रमें एक-एक राजधानी है इस तरह चौंतीस राजधानियाँ हैं, चौदह महानदियाँ हैं, जम्बूवृक्षके ऊपर अकृत्रिम जिनालय है ॥३९॥ हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत, देवकुरु और उत्तरकुरु इस प्रकार छह भोगभमियां हैं। मेह, गजदन्त. कलाचल. वक्षारगिरि.विजयार्ध. जम्बवक्ष और शाल्मलीवक्ष. इन सात स्थानोंपर अकृत्रिम तथा सर्वत्र कृत्रिम इस प्रकार आठ जिनमन्दिर हैं। बत्तीस विदेह क्षेत्रके तथा भरत और ऐरावतके एक-एक इस प्रकार कुल चौंतीस विजयाध पर्वत हैं। उनमें प्रत्येकमें दो-दो गुफाएँ हैं इस तरह अड़सठ गुफाएँ हैं। और इतने ही भवनोंकी संख्या है ॥४०॥ बत्तीस विदेह क्षेत्र तथा एक भरत और एक ऐरावत इन चौंतीस स्थानोंमें एक साथ तीर्थंकर भगवान् हो सकते हैं इसलिए समवसरण में भगवान्के चौंतीस सिंहासन हैं। विदेहके सिवाय भरत और ऐरावत क्षेत्रमें रजतमय दो विजयाधं पर्वत कहे गये हैं ॥४१॥ वक्षारगिरियोंसे युक्त समस्त पर्वतोपर जिनेन्द्र भगवान्के मन्दिर हैं जो कि रत्नोंकी राशिसे सुशोभित हो रहे हैं ॥४२॥ जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रको दक्षिण दिशामें जिन-प्रतिमाओंसे सुशोभित एक बड़ा भारी राक्षस नामका द्वीप है ॥४३॥ महाविदेह क्षेत्रको पश्चिम दिशामें जिनबिम्बोंसे देदीप्यमान किन्नरद्वीप नामका विशाल शुभद्वीप है ॥४४॥ ऐरावत क्षेत्रको उत्तर दिशामें गन्धर्व नामका द्वीप है जो कि उत्तमोत्तम चैत्यालयोंसे विभूषित है ॥४५॥ मेरु पर्वतसे पूर्वकी ओर जो विदेह क्षेत्र है उसकी पूर्व दिशामें धरणद्वीप सुशोभित हो रहा है। यह धरण दीप भी जिन-मन्दिरोंसे व्याप्त ४ा भरत और ऐरावत ये दोनों क्षेत्र वद्धि और हानिसे सहित हैं। अन्य क्षेत्रोंकी भमियां व्यवस्थित हैं अर्थात उनमें कालचक्रका परिवर्तन नहीं होता ॥४७॥ जम्बूवृक्षके ऊपर जो भवन है उसमें अनावृत नामका देव रहता है । यह देव किल्विष जातिके अनेक शत देवोंसे आवृत रहता है ॥४८॥ इस भरत क्षेत्रमें जब पहले सुषमा नामका पहला काल था तब वह उत्तरकुरुके समान कल्पवृक्षोंसे व्याप्त था अर्थात् यहाँ उत्तम भोगभूमिकी रचना थी ॥४९॥ उस समय यहांके लोग मध्याह्नके सूर्यके समान देदीप्यमान, दो कोश ऊँचे और सर्वलक्षणोंसे पूर्ण-सुशोभित होते थे ॥५०॥ यहाँ स्त्री-पुरुषका जोड़ा साथ-ही-साथ उत्पन्न होता था, तीन १. जम्बूवृक्षो क. । 'विजयाद्धनगाश्चापि राजताः परिकीर्तिताः' इत्यपि पाठः टिप्पणपुस्तके संकलितः । २. च. म.। ३. सचैत्यालय म., क.। ४. 'अस्मिश्च भरतक्षेत्रं पुरोत्तरकुरूपमाम् । कल्पानां पादपाः
कीणं सुषमायां विराजिरे ॥' क.। Jain Education International
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