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पद्मपुराणे ततस्तं भूषितं सन्तं त्रिलोकस्य विभूषणम् । तुष्टास्तुष्टुवुरित्थं ते देवाः शक्रपुरस्सराः ॥२०१॥ नष्टधर्म जगत्यस्मिन्नज्ञानतमसावृते । भ्राम्यतां भव्यसत्त्वानामुदितस्त्वं दिवाकरः ॥२०२॥ किरणैर्जिनचन्द्रस्य विमलैस्तव वाङ्मयैः । प्रबोधं यास्यतीदानी भव्यसत्त्वकुमुदती ॥२०॥ भव्यानां सत्वदृष्टयर्थ केवलानलसंभवः । ज्वलितस्त्वं प्रदीपोऽसि स्वयमेव जगद्गृहे ॥२०४।। पापशत्रुनिघाताय जातस्त्वं शितसायकः । कर्ता भवाटवीदाहं त्वमेव ध्यानवह्निना ॥२०५॥ दुष्टेन्द्रियमहानागदमनाय त्वमुदतः । वैनतेयो महावायुः संदेहधनसंपदाम् ।।२०६॥ धर्माम्बुबिन्दुसंप्राप्तितृषिता भव्यचातकाः । उन्मुखास्त्वामुदीक्षन्ते नाथामृतमहाधनम् ॥२०७॥ नमस्ते त्रिजगद्गीतनितान्तामलकीर्तये । नमस्ते गुणपुष्पाय तरवे कामदायिने ॥२०८॥ कर्मकाष्ठकुठाराय तीक्ष्णधाराय ते नमः । नमस्ते मोहतुङ्गाद्विमङ्गवज्रात्मने सदा ॥२०९॥ विध्मापकाच दुःखाग्नेर्नमस्ते सलिलात्मने । रजःसङ्गविहीनाय नमस्ते गगनात्मने ॥२१०॥ इति स्तुत्वा विधानेन प्रणम्य च पुनः पुनः। तमारोप्य गजं जग्गुरयोध्यामिमुखाः सुराः॥२११॥ मातुरक ततः कृत्वा शक्रः शच्या जिनार्भकम् । विधाय परमानन्दं स्वस्थानं ससुरोऽगमत् ॥२१२॥ ततस्तमम्बे रैर्दिव्यैरलङ्कारैश्च भूषितम् । दिग्धं च परमामोदघ्राणहार्यानुलेपनैः ॥२१३॥
अलंकृत किया गया था ॥२००॥ इस प्रकार तीन लोकके आभरणस्वरूप भगवान् जब नाना अलंकारों से अलंकृत हो गये तब इन्द्र आदि देव उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥२०१॥
हे भगवन् ! धर्मरहित तथा अज्ञानरूपी अन्धकारसे आच्छादित इस संसारमें भ्रमण करनेवाले लोगोंके लिए आप सूर्यके समान उदित हुए हो ॥२०२॥ हे जिनराज ! आप चन्द्रमाके समान हो सो आपके उपदेशरूपी निर्मल किरणोंके द्वारा अब भव्य जीवरूपी कुमुदिनी अवश्य ही विकासको प्राप्त होगी ॥२०३।। हे नाथ ! आप इस संसाररूपी घरमें 'भव्य जीवोंको जीव-अजीव आदि तत्त्वोंका ठीक-ठीक दर्शन हो' इस उद्देश्यसे स्वयं ही जलते हए वह महान दीपक हो कि जिसकी उत्पत्ति केवलज्ञानरूपी अग्निसे होती है ।।२०४॥ पापरूपी शत्रुओंको नष्ट करनेके लिए आप तीक्ष्ण बाण हैं । तथा आप ही ध्यानरूपी अग्निके द्वारा संसाररूपी अटवीका दाह करेंगे ॥२०५।। हे प्रभो ! आप दुष्ट इन्द्रियरूप नागोंका दमन करनेके लिए गरुड़के समान उदित हुए हो, तथा आप ही सन्देहरूपी मेघोंको उड़ाने के लिए प्रचण्ड वायुके समान हो ॥२०६॥ हे नाथ ! आप अमृत प्रदान करनेके लिए महामेघ हो इसलिए धर्मरूपी जलकी बूंदोंकी प्राप्तिके लिए तृषातुर भव्य जीवरूपी चातक ऊपरकी ओर मुख कर आपको देख रहे हैं ॥२०७॥ हे स्वामिन् ! आपकी अत्यन्त निर्मल कीर्ति तीनों लोकोंके द्वारा गायी जाती है इसलिए आपको नमस्कार हो । हे नाथ! आप गुणरूपी फूलोसे सुशोभित तथा मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले वृक्षस्वरूप हैं अतः आपको नमस्कार हो ॥२०८॥ आप कर्मरूपी काष्ठको विदारण करने के लिए तीक्ष्ण धारवाली कुठारके समान हैं अतः आपको नमस्कार हो। इसी प्रकार आप मोहरूपी उन्नत पर्वतको भेदनेके लिए वज्रस्वरूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२०९।। आप दुःखरूपी अग्निको बुझानेके लिए जलस्वरूप रजके संगमसे रहित आकाशस्वरूप हो अतः आपको नमस्कार हो ॥२१०॥
__इस तरह देवोंने विधि-पूर्वक भगवान्की स्तुति की, बार-बार प्रणाम किया और तदनन्तर उन्हें ऐरावत हाथीपर सवार कर अयोध्याकी ओर प्रयाण किया ॥२१॥ अयोध्या आ जिन-बालकको इन्द्राणीके हाथसे माताकी गोदमें विराजमान करा दिया, आनन्द नामका उत्कृष्ट नाटक किया और तदनन्तर वह अन्य देवोंके साथ अपने स्थानपर चला गया ॥२१२॥ अथानन्तर
१. लेखः कृत्वा म. । २. तममरै-क. । ३. लिप्तं च म. ।
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