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पद्मपुराणे
अरुन्धतीव नाथस्य नित्यं पाश्र्वानुवर्तिनी । हंसीव गमने वाचि परपुष्टवधूसमा ॥ ९३ ॥ चक्राव पतिप्रीतावित्यादिसमुदाहृतम् । यां प्रति प्रतिपद्येत सर्व हीनोपमानताम् ॥९४॥ पूजिता सर्वलोकस्य मरुदेवीति विश्रुता । यथा त्रिलोकवन्द्यस्य धर्मस्य श्रुतदेवता ॥ ९५ ॥ ऊष्माभावेन या चन्द्रकलाभिरिव निर्मिता । दर्पणश्रीजिगीषेव प्रतिपाणिगृहीतिषु ॥९६॥ निर्मितात्मस्वरूपेव परचित्तप्रतीतिषु । सिद्धजीवस्वभावेव त्रिलोकव्याप्तकर्मणि ॥९७॥ पुण्यवृत्तितया जैन्या श्रुत्येव परिकल्पिता । अमृतात्मेव तृष्यत्सु भृत्येषु वसुवृष्टिवत् ॥ ९८ ॥ सखीषु निर्वृतेस्तुल्या विलासान्मदिरात्मिका । रूपस्य परमावस्था रतेरिव तनुस्थितिः ॥९९॥ मण्डनं मुण्डमालाया यस्याश्चक्षुरभूद् वरम् । असितोत्पलदामानि केवलं मारमात्रकम् ॥१००॥ अलकभ्रमरा एव भूषा मालान्तयोः सदा । दलानि तु तमालस्य पुनरुक्तानि केवलम् ॥१०१॥ प्राणेश संकथा एव सुभगं कर्णभूषणम् । डम्बरो रत्नकनककुण्डलादिपरिग्रहः ॥ १०२ ॥ कपोलावेव सततं स्फुटालोकस्य कारणम् । रत्नप्रभाप्रदीपास्तु विभवायैव केवलम् ॥१०३॥
महाभूभृत्कुलोद्गता अर्थात् उत्कृष्ट राजवंशमें उत्पन्न हुई थी और राजहंसकी स्त्री जिस प्रकार मानसानुगमक्षमा अर्थात् मानस सरोवरकी ओर गमन करनेमें समर्थ रहती है उसी प्रकार मरुदेवी भी मानसानुगमक्षमा अर्थात् नाभिराजके मनके अनुकूल प्रवृत्ति करनेमें समर्थ थी ॥९२|| जिस प्रकार अरुन्धती सदा अपने पतिके पास रहती थी उसी प्रकार मरुदेवी भी निरन्तर पति के पास रहती थी । वह गमन करनेमें हंसी के समान थी और मधुर वचन बोलने में कोयल के अनुरूप थी ॥ ९३ ॥ | वह पति के साथ प्रेम करनेमें चकवीके समान थी इत्यादि जो कहा जाता है वह सब मरुदेवी के प्रति होनोपमा दोषको प्राप्त होता है ||१४|| जिस प्रकार तीनों लोकोंके द्वारा वन्दनीय धर्मकी भार्या श्रुतदेवता के नामसे प्रसिद्ध है उसी प्रकार नाभिराजकी वह भार्या मरुदेवी नामसे प्रसिद्ध थी तथा समस्त लोकोंके द्वारा पूजनीय थी ।। ९५ ।। उसमें रंच मात्र भी ऊष्मा अर्थात् क्रोध या अहंकार
गर्मी नहीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो चन्द्रमाको कलाओंसे ही उसका निर्माण हुआ हो । उसे प्रत्येक मनुष्य अपने हाथमें लेना चाहता था- स्वीकृत करना चाहता था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो दर्पंणकी शोभाको जीतना चाहती हो || ९६ ॥ | वह दूसरे के मनोगत भावको समझने वाली थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो आत्मासे ही उसके स्वरूपकी रचना हुई हो । उसके कार्य तीनों लोकों में व्याप्त थे इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो मुक्त जीवके समान ही उसका स्वभाव था ।।९७॥ उसकी प्रवृत्ति पुण्यरूप थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनवाणी से ही उसकी रचना हुई हो। वह तृष्णासे भरे भूत्योंके लिए धनवृष्टिके समान थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो अमृत स्वरूप ही हो ॥ ९८ ॥ सखियोंको सन्तोष उपजानेवाली थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो निर्वृति अर्थात् मुक्तिके समान ही हो । उसका शरीर हाव-भावविलास सहित था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो मदिरास्वरूप ही हो। वह सौन्दर्य की परम काष्ठाको प्राप्त थी अर्थात् अत्यन्त सुन्दरी थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो रतिकी प्रतिमा ही हो ॥ ९९ ॥ उसके मस्तकको अलंकृत करने के लिए उसके नेत्र ही पर्याप्त थे, नील कमलोंकी मालाएँ तो केवल भारस्वरूप ही थीं ॥ १०० ॥ भ्रमर के समान काले केश ही उसके ललाटके दोनों भागों के आभूषण थे, तमालपुष्पकी कलिकाएँ तो केवल भार मात्र थीं ॥ १०१ ॥ प्राणवल्लभकी कथा-वार्ता सुनना ही उसके कानोंका आभूषण था, रत्न तथा सुवर्णके कुण्डल आदिका धारण करना आडम्बर मात्र था ॥ १०२ ॥ उसके दोनों कपोल ही निरन्तर स्पष्ट प्रकाशके कारण
१. प्रतिप्राणिगृहीतिषु म ।
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