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तृतीयं पर्व क्षीणेषु द्युतिवृक्षेषु समुद्भूतप्रभाविमौ । चन्द्रादित्याविति ख्यातौ ज्योतिर्देवौ स्फुटौ स्थितौ ।।८१॥ ज्यौतिषा भावनाः कल्पा व्यन्तराश्च चतुर्विधाः । देवा भवन्ति योग्येन कर्मणा जन्तवो भवे ॥८२॥ तत्रायं चन्द्रमाः शीतस्तीव्रगुस्त्येष भास्करः । एतौ कालस्वभावेन दृश्यते गगनामरौ ॥८३।। भानावस्तंगते तीव्र कान्तिर्भवति शीतगोः । व्योम्नि नक्षत्रचक्रं च प्रकटत्वं प्रपद्यते ॥८४॥ स्वभावमिति कालस्य ज्ञात्वा त्यजत भीतताम् । इत्युक्ता भयमत्यस्य प्रजा याता यथागतम् ॥८५।। चक्षुष्मति ततोऽतीते यशस्वीति समुद्गतः । विज्ञेयो विपुलस्तस्मादभिचन्द्रः परस्ततः ॥८६॥ चन्द्रामश्च परस्तस्मान्मरुदेवस्तदुत्तरः । ततः प्रसेनजिजातो नाभिरन्त्यस्ततोऽभवत् ॥४७॥ एते पितृसमाः प्रोक्ताः प्रजानां कुलकारिणः । शुभैः कर्मभिरुत्पन्नाश्चतुर्दश समा धिया ॥८॥ अथ कल्पद्रमो नाभेरस्य क्षेत्रस्य मध्यगः । स्थितः प्रासादरूपेण विभात्यत्यन्तमुन्नतः ॥८९।। मुक्कादामचितो हेमरत्नकल्पितभित्तिकः । क्षितौ स एक एवासीद्वाप्युद्यानविभूषितः॥९॥ गृहीतहृदया तस्य बभूव वनितोत्तमा । प्रचलत्तारका भार्या रोहिणीव कलावतः ॥११॥ गङ्गव वाहिनीशस्य महाभूभृत्कुलोद्गता । हंसीव राजहंसस्य मानसानुगमक्षभा ॥९२॥
उस समय उन्होंने विदेह क्षेत्रमें भी जिनेन्द्रदेवके मुखसे जो कुछ श्रवण किया था वह सब स्मरणमें आ गया। उन्होंने कहा कि तृतीय कालका क्षय होना निकट है इसलिए ज्योतिरंग जातिके कल्प वृक्षोंकी कान्ति मन्द पड़ गयो है और चन्द्रमा तथा सूर्यकी कान्ति प्रकट हो रही है। ये चन्द्रमा और सूर्य नामसे प्रसिद्ध दो ज्योतिषी देव आकाशमें प्रकट दिख रहे हैं ।।८०-८१॥ ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर और कल्पवासीके भेदसे देव चार प्रकारके होते हैं। संसारके प्राणी अपने-अपने कर्मोंकी योग्यताके अनुसार इनमें जन्म ग्रहण करते हैं ॥८२॥ इनमें जो शीत किरणोंवाला है वह चन्द्रमा है और जो उष्ण किरणोंका धारक है वह सूर्य है। कालके स्वभावसे ये दोनों आकाशगामी देव दिखाई देने लगे हैं ।।८३।। जब सूर्य अस्त हो जाता है तब चन्द्रमाकी कान्ति बढ़ जाती है। सूर्य और चन्द्रमाके सिवाय आकाश में यह नक्षत्रोंका समूह भी प्रकट हो रहा है ॥८४।। यह सब कालका स्वभाव है ऐसा जानकर आप लोग भयको छोड़ें। चक्षुष्मान् कुलकरने जब प्रजासे यह कहा तब वह भय छोड़कर पहलेके समान सुखसे रहने लगी ॥८५।। जब चक्षुष्मान् कुलकर स्वर्गगामी हो गये तो उनके बाद यशस्वी नामक कुलकर उत्पन्न हुए। उनके बाद विपुल, उनके पीछे अभिचन्द्र, उनके पश्चात् चन्द्राभ, उनके अनन्तर मरुदेव, उनके बाद प्रसेनजित् और उनके पीछे नाभिनामक कुलकर उत्पन्न हुए। इन कुलकरोंमें नाभिराज अन्तिम कुलकर थे ।।८६-८७॥ ये चौदह कुलकर प्रजाके पिताके समान कहे गये हैं, पुण्य कर्मके उदयसे इनकी उत्पत्ति होती है और बुद्धिकी अपेक्षा सब समान होते हैं ॥८८||
____ अथानन्तर चौदहवें कुलकर नाभिराजके समयमें सब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये । केवल इन्हींके क्षेत्रके मध्यमें स्थित एक कल्पवृक्ष रह गया जो प्रासाद अर्थात् भवनके रूपमें स्थित था और अत्यन्त ऊँचा था ॥८९॥ उनका वह प्रासाद मोतियोंकी मालाओंसे व्याप्त था. सवर्ण और र उसकी दीवालें बनी थीं, वापी और बगीचासे सुशोभित था तथा पृथिवीपर एक अद्वितीय ही था ॥९०।। नाभिराजके हृदयको हरनेवाली मरुदेवी नामकी उत्तम रानी थी। जिस प्रकार चन्द्रमाकी भार्या रोहिणी प्रचलत्तारका अर्थात् चंचल तारा रूप होती है उसी प्रकार मरुदेवी भी प्रचलत्तारका थी अर्थात् उसकी आँखोंको पुतलो चंचल थी ।९१॥ जिस प्रकार समुद्रकी स्त्री गंगा महाभूभृत्कुलोद्गता है अर्थात् हिमगिरि नामक उच्च पर्वतके कुलमें उत्पन्न हुई है उसी प्रकार मरुदेवी भी १. तत्रार्य ख. । २. तीव्रगुरेष म. । ३. गगनामरैः ख. । ४. भीतिताम् म. । ५. इत्युक्तास्तं समाभ्यर्च्य म. । ६. समाधियः म. । ७. नाभिरस्य क.।
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