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तृतीयं पर्व काञ्चनेन चिता भूमी रत्नैश्च मणिभिस्तथा । कालानुमावतश्चित्रैः सर्वकामफलप्रदा ॥५२॥ चतुरगुलमानैश्च चित्रैर्गन्धेन चारुभिः । विमलातिमृदुस्पर्शस्तृणश्छन्ना विराजिता ।।५३।। सर्वर्तुफलपुष्पैश्च तरवो रेजुरुज्ज्वलाः । स्वतन्त्राश्च सुखेनास्थुर्गोमहिष्याविकादयः ॥५४॥ कल्पवृक्षसमुत्पन्नं भक्षयन्तो यथेप्सितम् । अन्नं सिंहादयः सौम्या हिंसां तत्र न चक्रिरे ॥५५॥ पद्मादिजलजच्छन्नाः सौवर्णमणिशोमैनाः । सम्पूर्णा रेजिरे वाप्यो मधुश्रीरघृतादिभिः ॥५६।। गिरयोऽत्यन्तमुत्तुङ्गाः पञ्चवर्णसमुज्ज्वलाः । नानारत्नकरच्छन्नाः सर्वप्राणिसुखावहाः ॥५७॥ नद्यो निर्जन्तुका रम्याः क्षीरसर्पिमधूदकाः । अत्यन्तसुरसास्वादा रत्नोद्योतितरोधसः ॥५८॥ नातिशीतं न चात्युष्णं तीव्रमारुतवर्जितम् । सर्वप्रतिमयैर्मुक्तं नित्योद्भूतसमुत्सवम् ।।५९॥ ज्योतिर्दुमप्रमाजालच्छन्नेन्दुरविमण्डलम् । सर्वेन्द्रियसुखास्वादप्रदकल्पमहातरु ॥६०॥ प्रासादास्तत्र वृक्षेषु विपुलोद्यानभूमयः । शयनासनमद्यष्ट स्वादुपानाशनानि च ॥६॥ वस्त्रानुलेपनादीनि तूर्यशब्दा मनोहराः । आमोदिनस्तथा गन्धाः सर्व चान्यत्तरूद्भवम् ॥६२।। दशभेदेषु तेष्वेवं कल्पवृक्षेषु चारुषु । रेमिरे तत्र युग्मानि सुरलोक इवानिशम् ॥६३॥ एवं प्रोक्ते गणेशेन पुनः श्रेणिकभूपतिः । भोगभूमौ समुत्पत्तेः कारणं परिपृष्टवान् ॥६॥
कथितं च गणेशेन तंत्रत्ये प्रगुणा जनाः । साधुदानसमायुक्ता भवन्त्येते सुमानुषाः ॥६५।। पल्यकी उनकी आयु होती थी और प्रेम बन्धनबद्ध रहते हुए साथ-ही-साथ उनकी मृत्यु होती थी ॥५१॥ यहाँकी भूमि सुवर्ण तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे खचित थी और कालके प्रभावसे सबके लिए मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली थी ॥५२॥ सुगन्धित, निर्मल तथा कोमल स्पर्शवाली, चतुरंगुल प्रमाण घाससे वहाँ की भूमि सदा सुशोभित रहती थी ।। ५३ ।। वृक्ष सब ऋतुओंके फल और फूलोंसे सुशोभित रहते थे तथा गाय, भैंस, भेड़ आदि जानवर स्वतन्त्रतापूर्वक सुखसे निवास करते थे ॥५४॥ वहांके सिंह आदि जन्तु कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए मनवांछित अन्नको खाते हुए सदा सौम्य-शान्त रहते थे। कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करते थे ।।५५।। वहाँ की वापिकाएँ पद्म आदि कमलोंसे आच्छादित, सुवर्ण और मणियोंसे सुशोभित तथा मधु, क्षीर एवं घृत आदिसे भरी हुई अत्यधिक शोभायमान रहती थीं ॥ ५६ ॥ वहाँके पर्वत अत्यन्त ऊँचे थे, पाँच प्रकारके वर्गों से उज्ज्वल थे, नाना प्रकारके रत्नोंको कान्तिसे व्याप्त थे तथा सर्वप्राणियोंको सुख उपजानेवाले थे ।। ५७ ॥ वहाँ की नदियां मगरमच्छादि जन्तुओंसे रहित थीं, सुन्दर थीं, उनका जल दूध, घो और मधुके समान था, उनका आस्वाद अत्यन्त सुरस था और उनके किनारे रत्नोंसे देदीप्यमान थे ।।५८॥ वहाँ न तो अधिक शीत पड़ती थी, न अधिक गर्मी होती थी, न तीव्र वायु चलती थी। वह सब प्रकारके भयोंसे. रहित था और वहाँ निरन्तर नयेनये उत्सव होते रहते थे ॥५९॥ वहां ज्योतिरंग जातिके वक्षोंकी कान्तिके समहसे सूर्य और चन्द्रमाके मण्डल छिपे रहते थे-दिखाई नहीं पड़ते थे तथा सर्व इन्द्रियोंको सुखास्वादके देनेवाले कल्पवृक्ष सुशोभित रहते थे ॥६०॥ वहाँ बड़े-बड़े बाग-बगीचे और विस्तृत भूभागसे सहित महल, शयन, आसन, मद्य, इष्ट और मधुर पेय, भोजन, वस्त्र, अनुलेपन, तुरहीके मनोहर शब्द और दूर तक फैलनेवाली सुन्दर गन्ध तथा इनके सिवाय और भी अनेक प्रकारकी सामग्री कल्पवृक्षोंसे प्राप्त होती थी ॥६१॥ इस प्रकार वहाँके दम्पती, दस प्रकारके सुन्दर कल्पवृक्षोंके नीचे देवदम्पतीके समान रात-दिन क्रीड़ा करते रहते थे ॥ ६२-६३ ।। इस तरह गणधर भगवान्के कह चुकनेपर राजा श्रेणिकने उनसे भोगभूमिमें उपजनेका कारण पूछा ।। ६४ ।। उत्तरमें गणधर भगवान् कहने लगे कि जो सरलचित्तके धारी मनुष्य मुनियोंके लिए आहार आदि दान देते हैं वे ही इन भोग१. कार्य-ख. । २. विराजते म.। ३. रोधसः म.। ४. रत्नाकरच्छन्नाः म. । ५. ज्योतिःक्रम म. । ६. तरुः म.। ७. -मष्वव म.। ८. वान्यतरोद्भवम् ख.। ९. तत्र ये म. ।
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