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तृतीयं पर्व न विना पीठबन्धेन विधातुं सन शक्यते । कथाप्रस्तावहीनं च वचनं छिन्नमूलकम् ॥२८॥ यतः शृण ततस्तावक्षेत्रकालोपवर्णनम । महतां पुरुषाणां च चरितं पापनाशनम् ॥२१॥ अनन्तालोकनमसो मध्ये लोकस्त्रिधा स्थितः । तालोलूखेलसंकाशो 'वलयस्विमिरावृतः ॥३०॥ तिर्यग्लोकस्य मध्येऽस्मिन् संख्यातिक्रममागतः । वेष्टितो वलयाकारद्वीपैरम्मोधिमिस्तथा ॥३१॥ कुलालचक्रसंस्थानो जम्बूद्वीपोऽयमुत्तमः । लवणाम्भोधिमध्यस्थः सर्वतो लक्षयोजनः ॥३२॥ तस्य मध्ये महामेरुर्मूले वज्रमयोऽक्षयः । ततो जाम्बूनदमयो मणिरत्नमयस्ततः ॥३३॥ संध्यानुरक्तमेघौघसदृशोत्तुङ्गशृङ्गकः । कलाप्रमात्र विवरास्पष्टसौधर्मभौमिकः ॥३४॥ योजनानां सहस्राणि नवतिर्नव चोच्छ्रितः । सहस्रमवगाइश्च स्थितो वज्रमयः क्षितौ ॥३५|| 'विपुलं शिखरे चैकं धरण्यां दशसंगुणम् । राजते तिर्यगाकाशं मातुं दण्ड इवोच्छ्रितः ॥३६॥ द्वौ च तत्र कुरुद्वी क्षेत्रैः सप्तमिरन्विते । षट् क्षेत्राणां विभक्तारो "राजन्ते कुलपर्वताः ॥३७॥ द्वौ महापादपौ ज्ञेयौ विद्याधरपुरीशतम् । अधिकं दशमिस्तत्र विजयाद्धेष्वथैकशः ॥३०॥
मनुष्योंको ही खाता था। मिथ्यावादी लोग जो कहते हैं सो सब मिथ्या ही कहते हैं ।।२७।। जिस प्रकार नींवके बिना भवन नहीं बनाया जा सकता है उसी प्रकार कथाके प्रस्तावके बिना कोई वचन नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि इस तरहके वचन निर्मूल होते हैं और निर्मूल होनेके कारण उनमें प्रामाणिकता नहीं आती है ॥२८॥ इसलिए सबसे पहले तुम क्षेत्र और कालका वर्णन सुनो। तदनन्तर पापोंको नष्ट करनेवाला महापुरुषोंका चरित्र सुनो |२९||
अनन्त अलोकाकाशके मध्यमें तीन वातवलयोंसे वेष्टित तीन लोक स्थित हैं। अनन्त अलोकाकाशके बीच में यह उन्नताकार लोक ऐसा जान पड़ता है मानो किसी उदूखलके बीच बड़ा भारी तालका वृक्ष खड़ा किया गया हो ॥३०॥ इस लोकका मध्यभाग जो कि तिर्यग्लोकके नामसे प्रसिद्ध है चूड़ीके आकारवाले असंख्यात द्वीप और समुद्रोंसे वेष्टित है ॥३१॥ कुम्भकारके चक्रके समान यह जम्बूद्वीप है। यह जम्बूद्वीप सब द्वीपोंमें उत्तम है, लवणसमुद्रके मध्यमें स्थित है और सब ओरसे एक लाख योजन विस्तारवाला है ॥३२।। इस जम्बद्वीपके मध्य में सुमेरु पर्वत है। यह पर्वत कभी नष्ट नहीं होता, इसका मूल भाग वज्र अर्थात् हीरोंका बना है और ऊपरका भाग सुवर्ण तथा मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित है ।।३३। इसकी ऊँची चोटी सन्ध्याके कारण लाल-लाल दिखनेवाले मेघोंके समूहके समान जान पड़ती है। सौधर्म स्वर्गको भूमि और इस पर्वतके शिखरमें केवल बालके अग्रभाग बराबर ही अन्तर रह जाता है ॥३४॥ यह निन्यानबे हजार योजन ऊपर उठा है और एक हजार योजन नीचे पृथिवीमें प्रविष्ट है। पृथिवीके भीतर यह पर्वत वज्रमय है ॥३५॥ यह पर्वत पृथिवीपर दस हजार योजन और शिखरपर एक हजार योजन चौड़ा है और ऐसा जान पड़ता है मानो मध्यम लोकके आकाशको नापनेके लिए एक दण्ड ही खड़ा किया गया है ॥३६॥ यह जम्बूद्वीप भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत इन सात क्षेत्रोंसे सहित है। तथा इसीके विदेह क्षेत्र में देवकुरु और उत्तरकुरु नामसे प्रसिद्ध दो कुरु प्रदेश भी हैं। इन सात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले छह कुलाचल भी इसी जम्बूद्वीपमें सुशोभित हैं ॥३७॥ जम्बू और शाल्मली ये दो महावृक्ष हैं । जम्बूद्वीपमें चौंतीस विजया पर्वत हैं और प्रत्येक विजयाध पर्वतपर एक सौ दस एक सौ दस विद्याधरोंकी नगरियाँ हैं ॥३८॥
१. वनं च. क. । २. तालोदूखल ख. । ३. वलिभिस्त्रिभि -म.। ४. हीरकमयः । ५. भूमिकः म. । भौमिक विमानमिति यावत् । ६. विपुल: म., क. । ७. संगतम् म.। ८. मानदण्ड म.। ९. द्वीपो क., ख.। १०. -रन्विती क., ख. । ११. राजते क., ख. । १२. -ध्वनैकशः म. ।
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