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पद्मपुराणें
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ऐषापि गृहवाप्यन्ते भानुबिम्बावलोकनात् । हृष्टाह्वयति जीवेशं चक्रवाकी कलेस्वनम् ॥१४६॥ त्वद्गतिप्रेक्षणेनैते कृतोत्कण्ठा इवाधुना । कुर्वन्ति कूजितं हंसा निद्रानिर्वासकारणम् ॥१४७|| उल्लिख्यमान कंसोत्थनिःस्वनप्रतिमो महान् । अलं सारसचक्राणां क्रेङ्कारोऽयं विराजते ॥ १४८ ॥ निशान्त इत्ययं स्पष्ट "जातो निर्मलचेष्टिते । देवि मुञ्चाधुना निद्रामिति वन्दिकृतस्तवा ॥१४९॥ अमुञ्चच्छयनीयं च समुद्भूततरङ्गकम् । सुमनोभिः समाकीर्ण साम्रतारं नभः समम् ॥ १५० ॥ वासगेहाच्च निःक्रान्ता प्रत्यात्मकृतकर्मिका । ययौ नाभिसमीपं सा दिनश्रीरिव मास्करम् ॥ १५१ ॥ भद्रासननिविष्टाय तस्मै खर्वासनस्थिता । कराभ्यां कुड्मलं कृत्वा क्रमात् स्वप्नान्यवेदयत् ॥१५२॥ इति चिन्ताप्रमोदेन परायत्तीकृतः पतिः । जगाद त्वयि संभूतस्त्रैलोक्यस्य गुरुः शुभे । १५३ || इत्युक्ता सा परं हर्षं जगाम कमलेक्षणा । मूर्तिरिन्दोरिवोदारा दधती कान्तिसंहतीः ॥ १५४॥ संभविष्यति षण्मासाज्जिने शक्राज्ञयामुचत् । रत्नवृष्टिं धनाधीशो "मासान्पञ्चदशादृतः ॥ १५५॥ तस्मिन् गर्भस्थिते यस्माजाता वृष्टिर्हिरण्मयी । हिरण्यगर्भनाम्नासौ स्तुतस्तस्मात् सुरेश्वरैः ॥ १५६ ॥ ज्ञानैर्जिनस्त्रिभिर्युक्तः कुक्षौ तस्याश्चचाल न । माभूत् संचलनादस्याः पीडेति कृतमानसः ।। १५७|| यथा दर्पणसंक्रान्तछायामात्रेण पावकः । आधाता न विकारस्य तथा तस्या बभूव सः ॥ १५८ ॥
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निद्रा के कारण ही झूम रहे हैं ॥ १४५ ॥ घरकी बावड़ी के समीप जो यह चकवी खड़ी है वह सूर्यका far देखकर हर्षित होती हुई मधुर शब्दोंसे अपने प्राणवल्लभको बुला रही है || १४६ ॥ ये हंस तुम्हारी सुन्दर चालको देखनेके लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं इसीलिए मानो इस समय निद्रा दूर करने के लिए मनोहर शब्द कर रहे हैं || १४७|| जिसकी तुलना उकेरे जानेवाले काँसेसे उत्पन्न शब्द के साथ ठीक बैठती है ऐसे यह सारस पक्षियोंका क्रेंकार शब्द अत्यधिक सुशोभित हो रहा है || १४८ || हे निर्मल चेष्टाकी धारक देवि ! अब स्पष्ट ही प्रातः काल हो गया है इसलिए इस समय निद्राको छोड़ो। इस तरह वन्दीजन जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसी मरुदेवीने, जिसपर चद्दरकी सिकुड़न से मानो लहरें उठ रही थीं तथा जो फूलोंसे व्याप्त होनेके कारण मेघ और नक्षत्रोंसे युक्त आकाश समान जान पड़ती थी, ऐसी शय्या छोड़ दी ।। १४९ - १५० || निवासगृहसे निकलकर जिसने समस्त कार्यं सम्पन्न किये थे ऐसी मरुदेवी नाभिराजके पास इस तरह पहुँची जिस तरह fa दिनकी लक्ष्मी सूर्य के पास पहुँचती है ॥ १५१ ॥ | वहाँ जाकर वह नीचे आसनपर बैठी और उत्तम सिंहासनपर आरूढ़ हृदयवल्लभके लिए हाथ जोड़कर क्रमसे स्वप्न निवेदित करने लगी ॥ १५२ ॥ इस प्रकार रानीके स्वप्न सुनकर हर्षसे विवश हुए नाभिराजने कहा कि हे देवि ! तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथने अवतार ग्रहण किया हैं || १५३|| नाभिराजके इतना कहते ही कमललोचना मरुदेवी परम हर्षको प्राप्त हुई और चन्द्रमाकी उत्कृष्ट मूर्तिके समान कान्तिके समूहको धारण करने लगी ॥१५४॥ जिनेन्द्र भगवान् के गर्भस्थ होनेमें जब छह माह बाकी थे तभी इन्द्रकी आज्ञानुसार कुबेर से बड़े आदर के साथ रत्नवृष्टि करना प्रारम्भ कर दिया था ॥ १५५ ॥ | चूँकि भगवान् के गर्भस्थित रहते हुए यह पृथिवी सुवर्णमयी हो गयी थी इसलिए इन्द्रने 'हिरण्यगर्भ' इस नामसे उनकी स्तुति
थी ॥ १५६ ॥ भगवान्, गर्भंमें भी मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंसे युक्त थे तथा हमारे हलन चलनसे माताको कष्ट न हो इस अभिप्रायसे वे गर्भ में चल-विचल नहीं होते थे । १५७ ।। जिस प्रकार दर्पण में अग्निकी छाया पड़ने से कोई विकार नहीं होता है उसी प्रकार भगवान्के गर्भ में स्थित रहते हुए भी माता मरुदेवीके शरीरमें कुछ भी विकार नहीं हुआ था ॥ १५८ ॥ १. एषा त्वद्गृहवाप्यन्ते म । २. कलस्वनैः म । ३. झंकारोऽयं म । ४. विराजितः म. । ५. ज्योति - निर्मल म. । ६. तारा म. । ७. कर्मका क. । ८. स्वप्नान्यवेदयत् म. । ९ संहितम् क। १०. पद्मास्ये जिने क. । ११. मासात्पञ्च दशादितः म. ।
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