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तृतीयं पर्व निश्चक्राम ततो गर्मात् पूर्णे काले जिनोत्तमः । मलस्पर्शविनिर्मुक्तः स्फोटिकादिव समतः ॥१५९॥ ततो महोत्सवश्चक्रे नामिना सुतजन्मनि । समानन्दितनिःशेषजनो युक्त्या यथोक्तया ॥१६॥ त्रैलोक्यं शोभमायातमैन्द्रं कम्पितमासनम् । सुरासुराश्च संजाताः किंकिमेतदितिस्वनाः ॥१६॥ अनाध्मातस्ततः शङ्खो दध्वान भवनश्रिताम् । व्यन्तराधिपगेहेषु रराट पटहः स्वयम् ॥१६२॥ ज्योतिषां निलये जातमकस्मात सिंहघंहितम् । कैल्पाधिपग्रहे स्पष्टं घण्टारत्नं रैराण च ॥१३॥ एवं विधशुभोत्पातैतितीर्थकरोद्भवाः । प्रचलनिः किरीटैश्च प्रयुक्तावधयस्ततः ॥१६॥ प्रातिष्ठन्त महोत्साहा इन्द्रा नामीयमालयम् । वारणेन्द्रसमारूढाः कृतमण्डनविग्रहाः ॥१६५।। ततः कन्दर्पिणः केचित् सुरा नृत्यं प्रचक्रिरे । चक्रुरास्फोटनं केचिद् बलानां केचिदुन्नतम् ।।१६६।। केचित् केसरिणो 'नादं मुमुचुाप्तविष्टपम् । विकुर्वन्ति बहून् वेषान् केचित् केचिजगुर्वरम् ॥१६७॥ उत्पतभिः पतनिश्च ततो देवैरिदं जगत् । महारावसमापूर्ण स्थानभ्रंशमिवागतम् ॥१६॥ ततः साकेतनगरं धनदेन विनिर्मितम् । विजयार्द्धनगाकारप्राकारेण समावृतम् ।।१६९॥ पातालोदरगम्भीरपरिखाकृतवेष्टनम् । तुङ्गगोपुरकूटाग्रदूरनष्टान्तरिक्षकम् ॥१७०॥ नानारत्नकरोद्योतपटप्रावृतसमकम् । इन्द्राः क्षणेन संप्रापुर्महाभूतिसमन्विताः ॥१७॥ पुरं प्रदक्षिणीकृत्य त्रिः शक्रः सहितोऽमरैः । प्रविष्टः प्रसवागारात् पौलोम्यानाययजिनम् ।।१७२।।
जब समय पूर्ण हो चुका तब भगवान् मलका स्पर्श किये बिना ही गर्भसे इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी स्फटिकमणि निर्मित घरसे बाहर निकले हों ॥१५९॥
तदनन्तर-नाभिराजने पुत्रजन्मका यथोक्त महोत्सव किया जिससे समस्त लोग हर्षित हो गये ॥१६०॥ तीन लोक क्षोभको प्राप्त हो गये, इन्द्रका आसन कम्पित हो गया और समस्त सुर तथा असुर 'क्या है ?' यह शब्द करने लगे ॥१६१॥ उसी समय भवनवासी देवोंके भवनोंमें बिना बजाये ही शंख बजने लगे. व्यन्तरोंके भवनोंमें अपने आप ही भेरियोंके शब्द होने लगे, ज्योतिषी देवोंके घरमें अकस्मात् सिंहोंकी गर्जना होने लगी और कल्पवासी देवोंके घरोंमें अपने-अपने घण्टा शब्द करने लगे ॥१६२-१६३॥ इस प्रकारके शुभ उत्पातोंसे तथा मुकुटोंके नम्रीभूत होनेसे इन्द्रोंने अवधिज्ञानका उपयोग किया और उसके द्वारा उन्हें तीर्थंकरके जन्मका समाचार विदित हो गया ॥१६४॥ तदनन्तर जो बहुत भारी उत्साहसे भरे हुए थे तथा जिनके शरीर आभूषणोंसे जगमगा रहे थे ऐसे इन्द्रने गजराज-ऐरावत हाथीपर आरूढ होकर नाभिराजके घरकी ओर प्रस्थान किया ॥१६५॥ उस समय कामसे युक्त कितने ही देव नत्य कर रहे थे, कितने ही तालियां बजा रहे थे, कितने ही अपनी सेनाको उन्नत बना रहे थे, कितने ही समस्त लोकमें फैलनेवाला सिंहनाद कर रहे थे, कितने ही विक्रियासे अनेक वेष बना रहे थे, और कितने ही उत्कृष्ट गाना गा रहे थे ॥१६६-१६७। उस समय बहुत भारी शब्दोंसे भरा हुआ यह संसार ऊपर जानेवाले और नीचे आनेवाले देवोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो स्वकीय स्थानसे भ्रष्ट ही हो गया हो ॥१६८।। तदनन्तर कुबेरने अयोध्या नगरीकी रचना की। वह अयोध्या नगरी विजया पर्वतके समान आकारवाले विशाल कोटसे घिरी हुई थी ॥१६९॥ पाताल तक गहरी परिखा उसे चारों ओरसे घेरे हुए थी और ऊँचे-ऊँचे गोपुरोंके शिखरोंके अग्रभागसे वहाँका आकाश दूर तक विदीर्ण हो रहा था ॥१७०।। महाविभूतिसे युक्त इन्द्र क्षणभरमें नाभिराजके उस घर जा पहुँचे जो कि नाना रत्नोंकी किरणोंके प्रकाशरूपी वस्त्रसे आवृत था ॥१७१॥ इन्द्रने पहले देवोंके साथ-साथ नगरकी तीन
१. स्फटिकादिव म. । २. व्यन्तराधिपतेर्गेहे म. । ३. रराव च ख. । ४. नृत्तं ख., म. । ५. बलानं ख., म.। ६. नादान् म. । ७. विष्टपान् म.। ८. वराम् म.। ९.-नापयज्जिनम् म.।
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