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पद्मपुराणे
व्रतप्राप्तेन रामेण सौवर्णो रुरुराहतः । सुग्रीवस्याग्रजः स्त्र्यर्थं जनकेन समस्तथा ||२४८|| अश्रद्धेयमिदं सर्वं वियुक्तमुपपत्तिभिः । भगवन्तं गणाधीशं श्वोऽहं पृष्टास्मि गौतमम् ॥२४९॥ एवं चिन्तयतस्तस्य महाराजस्य धीमतः । वन्दिभिस्तूर्यनादान्ते जयशब्दो महान् कृतः || २५० ॥ कुलपुत्रेण चासन्नस्वामिनो बोधमीयुषा । निसर्गेणैव पठितः श्लोकोऽयं जरठायुषः || २५१ ।। प्रष्टव्या गुरवो नित्यमर्थं ज्ञातमपि स्वयम् । स तैर्निश्चयमानीतो ददाति परमं सुखम् ॥ २५२॥ एतदानन्दयँश्चारु निमित्तं मगधाधिपः । शयनीयात् समुत्तस्थौ स्वस्त्रीभिः कृतमङ्गलः ॥२५३॥ मालिनीच्छन्दः
अथ कुसुमपटान्तःसुप्तनिष्क्रान्तभृङ्ग-प्रहितमधुरवादात्येन्त रम्यैकदेशात् । जडपवनविधूताकम्पितापाण्डुदीपान् निरगमदवनीशः श्रीमतो वासगेहात् ॥ २५४॥ रदनशिखरदष्टस्पष्टबिम्बौष्ठपृष्ठ - प्रतिहतजये नादं श्रीसमानद्युतीनाम् । करमु कुल निबद्धव्यक्तपद्माकराणां श्रवणपथमनैषीच्चैष वाराङ्गनानाम् || २५५|| अतिशयशुभचिन्तासङ्गनिष्कम्प भावान्नरपतिरुपनीताशेषतत्कालभावः । धवलकमलभासो वासगेहादपेतो रविरिव शरदभ्रोदारवृन्दादभासीत् ॥ २५६ ॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मचरिते श्रेणिकचिन्ताभिधानं नाम द्वितीयं पर्व ॥२॥
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रामचन्द्रजीने सुवर्णं मृगको मारा था, और स्त्रीके पीछे सुग्रीवके बड़े भाई वालीको जो कि उसके पिता के समान था, मारा था || २४८ || यह सब कथानक युक्तियोंसे रहित होने के कारण श्रद्धान करनेके योग्य नहीं है । यह सब कथा मैं कल भगवान् गौतम गणधर से पूछूंगा ||२४९ || इस प्रकार बुद्धिमान् महाराज श्रेणिक चिन्ता कर रहे थे कि तुरहीका शब्द बन्द होते ही वन्दीजनोंने जोरसे जयघोष किया ॥२५०।। उसी समय महाराज श्रेणिकके समीपवर्ती चिरजीवी कुलपुत्रने जागकर स्वभाववश निम्न श्लोक पढ़ा कि जिस पदार्थको स्वयं जानते हैं उस पदार्थको भी गुरुजनोंसे नित्य ही पूछना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा निश्चयको प्राप्त कराया हुआ पदार्थ परम सुख प्रदान करता है ।। २५१ - २५२ ॥ इस सुन्दर निमित्तसे जो आनन्दको प्राप्त थे तथा अपनी स्त्रियोंने जिनका मंगलाचार किया था ऐसे महाराज श्रेणिक शय्या से उठे ।। २५३ ||
तदनन्तर—पुष्परूपी पटके भीतर सोकर बाहर निकले हुए भ्रमरोंकी मधुर गुंजारसे जिसका एक भाग बहुत ही रमणीय था, जिसके भीतर जलते हुए निष्प्रभ दीपक प्रातःकालको शीत वायुके झोंकेसे हिल रहे थे और जो बहुत ही शोभासम्पन्न था ऐसे निवासगृह से राजा श्रेणिक बाहर निकले || २५४ || बाहर निकलते ही उन्होंने लक्ष्मीके समान कान्तिवाली तथा करकुड्मलोके द्वारा कमलों की शोभाको प्रकट करनेवाली वारांगनाओंके नुकीले दाँतोंसे दष्ट श्रेष्ठ बिम्बसे निर्गत जयनादको सुना ।। २५५।। इस प्रकार अत्यन्त शुभ ध्यानके प्रभावसे निश्चलताको प्राप्त हुए शुभ भावसे जिन्हें तत्कालके उपयोगी समस्त शुभ भावोंकी प्राप्ति हुई थी ऐसे महाराज श्रेणिक, सफेद कमलके समान कान्तिवाले निवासगृहसे बाहर निकलकर शरद ऋतुके मेघों के समूह से बाहर निकले हुए सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे || २५६॥
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इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्यविरचित पद्म-चरितमें महाराज श्रेणिककी चिन्ताको प्रकट करनेवाला दूसरा पर्व पूर्ण हुआ ||२||
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१. नादाभ्यन्तरस्यैकदेशात् म. । २. जयनाद म. ।
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