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पद्मपुराणे
गवाक्षमुखनिर्यातकुसुमोत्तमसौरभे । पाइवस्थवारवनिता कलगीतमनोरमे ||२२०|| ज्वलन्नातिसमीपस्थ स्फटिकच्छन्नदीपके । अप्रमत्तशिरोरक्षिगणकल्पितरक्षणे ॥ २२१ ॥ प्रसूनप्रकरावाप्तमण्डनक्ष्मातलस्थिते । उपधाङ्गसुविन्यस्तसुकुमारोपधानके ॥२२२॥ जिनेशपादपूतोशाकृतमस्तकधामनि । प्रतिपादकविन्यस्ततनुविस्तीर्णपट्टके ॥२२३॥ विधाय भूभुजः कृत्यं कृतजैनेन्द्र संकथः । शयनीये सुखं शिश्ये कुशाग्रनगराधिपः ॥ २२४ ॥ जिनेन्द्रमेव चापश्यत् स्वप्नेऽपि च पुनः पुनः । पर्यपृच्छच्च संदेहं पपाठ च जिनोदितम् ॥ २२५ ॥ ततो मदकलेभेन्द्र निद्राविद्रावकारिणा । गेहकक्षातिगम्भीरगुहागोचरगामिना ॥२२६॥ महाजलदसंघातधीरघोषणैहारिणा । प्रभातसूर्यवादेन विबुद्धो मगधाधिपः ॥ २२७॥ अचिन्तयच्च वीरेण भाषितं धर्महेतुकम् । चक्रवर्त्यादिवीराणां संभवं प्रणिधानतः || २२८ || अथास्य चरिते पद्मसंबन्धिनि गतं मनः । संदेह इव चेत्यासीद्रक्षःसु प्लवगेषु च ।। २२९ ।। कथं जिनेन्द्रधर्मेण जाताः सन्तो नरोत्तमाः । महाकुलीना विद्वांसो विद्याद्योतितमानसाः ।। २३०। श्रूयन्ते लौकिके ग्रन्थे राक्षसा रावणादयः । वसाशोणितमांसादिपान भक्षणकारिणः || २३१|| रावणस्य किल भ्राता कुम्भकर्णो महाबलः । घोरनिद्वापरीतः षण्मासान् शेते निरन्तरम् || २३२॥ मत्तैरपि गजैस्तस्य क्रियते मर्दनं यदि । तप्ततैलकटा हैश्च पूर्येते श्रवणौ यदि ॥ २३३ ॥ भेरीशङ्खनिनादोऽपि सुमहानपि जन्यते । तथापि किल नायाति कालेऽपूर्णे विबुद्धताम् ॥२३४॥ क्षुत्तृष्णाव्याकुलश्चासौ विबुद्धः सन्महोदरः । भक्षयत्यग्रतो दृष्ट्वा हस्त्यादीनपि दुर्द्धरः ॥२३५।।
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कारण क्षत-विक्षत हुए गंगाके पुलिन के समान जान पड़ती थी। जड़े हुए रत्नोंकी कान्तिसे जिसने महलके समस्त मध्यभागको आलिंगित कर दिया था, जिसके फूलोंकी उत्तम सुगन्धि झरोंखोंसे बाहर निकल रही थी, पासमें बैठी वेश्याओंके मधुरगानसे जो मनोहर थी, जिसके पास हो स्फटिकमणिनिर्मित आवरणसे आच्छादित दीपक जल रहा था, अंगरक्षक लोग प्रमाद छोड़कर जिसकी रक्षा कर रहे थे, जो फूलों के समूहसे सुशोभित पृथिवीतलपर बिछी हुई थी, जिसपर कोमल तकिया रखा हुआ था, जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलोंसे पवित्र दिशाकी ओर जिसका सिरहाना था, तथा जिसके प्रत्येक पायेपर सूक्ष्म किन्तु विस्तृत पट्ट बिछे हुए थे ।२१८-२२४॥ राजा श्रेणिक स्वप्न में भी बार-बार जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता था, बार-बार उन्हींसे संशयकी बात पूछता था और उन्हींके द्वारा कथित तत्त्वका पाठ करता था ।। २२५ ||
तदनन्तर - मदोन्मत्त गजराजकी निद्राको दूर करनेवाले, महलकी कक्षाओंरूपी गुफाओंमें गूँजनेवाले एवं बड़े-बड़े मेघोंकी गम्भीर गर्जनाको हरनेवाले प्रातः कालीन तुरहीके शब्द सुनकर राजा श्रेणिक जागृत हुआ || २२६ - २२७ || जागते ही उसने भगवान् महावीरके द्वारा भाषित, चक्रवर्ती आदि वीर पुरुषोंके धर्मवर्धक चरितका एकाग्रचित्त से चिन्तवन किया ।। २२८ ॥ अथानन्तर उसका चित्त बलभद्र पदके धारक रामचन्द्रजीके चरितकी ओर गया और उसे राक्षसों तथा वानरोंके विषयमें सन्देह - सा होने लगा || २२९ ।। वह विचारने लगा कि अहो ! जो जिनधर्मके प्रभावसे उत्तम मनुष्य थे, उच्चकुलमें उत्पन्न थे, विद्वान् थे और विद्याओंके द्वारा जिनके मन प्रकाशमान थे ऐसे रावण आदिक लौकिक ग्रन्थोंमें चर्बी, रुधिर तथा मांस आदिका पान एवं भक्षण करनेवाले राक्षस सुने जाते हैं ।। २३०-२३१ ।। रावणका भाई कुम्भकर्ण महाबलवान् था और घोर निद्रासे युक्त होकर छह माह तक निरन्तर सोता रहता था ।। २३२ ।। यदि मदोन्मत्त हाथियोंके द्वारा भी उसका मर्दन किया जाये, तपे हुए तेलके कड़ाहोंसे उसके कान भरे जावें और भेरी तथा शंखोंका बहुत भारी शब्द किया जाये तो भी समय पूर्ण न होने पर वह जागृत नहीं होता था ।। २३३-२३४ || बहुत बड़े पेटको १. पूताशांक. । २. निद्रां म । ३. घोषानुहारिणा म । ४. संबन्ध म । ५. विवादेऽपि म ।
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