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द्वितीयं पर्व पिदधे सान्ध्यमुद्योतं सकलं बहलं तमः । पटलं धूमसंबन्धि प्रशाम्यन्तमिवानलम् ॥२०॥ चैम्पकक्षारकाकारप्रदीपप्रकरोऽगमत् । कम्पितो मन्दवातेन यामिनीकर्णपुरताम् ॥२०९॥ तृप्ता रसेन पद्मानां धूतपक्षा मृणालकैः । कृत्वा कण्डूयनं निद्रां राजहंसाः सिषेविरे ॥२१०॥ धम्मिल्लमल्लिकाबन्धग्राही सायंतनो मरुत् । वातुं प्रववृते मन्दं निशानिःश्वाससंनिमः ॥२११।। उच्चकेसरकोटीनां संकटेषु कदम्बकैः । कुशेशयकुटीरेषु शिश्ये षट्पदसंहतिः ॥२१२।। नितान्तविमलेश्चक्रे रम्यं तारागणैर्नमः । त्रैलोक्यं जिननाथस्य सुभाषितचयैरिव ॥२१३॥ तमोऽथ विमलेमिन्नं शशाङ्ककिरणाङ्करैः । एकान्तवादिनां वाक्यं नयैरिव जिनोदितैः ।।२१४॥ उज्जगाम च शीतांशुर्लोकनेत्राभिनन्दितः । वपुर्बिभ्रत् कृताकैम्पं ध्वान्तकोपादिवारुणम् ॥२१५।। चन्द्रालोके ततो लोकः करग्राह्यत्वमागते । आरेभे तमसा खिन्नः क्षीरोदाङ्क इवासितुम् ॥२१६।। आमृष्टानि करैरिन्दोर्वहन्त्यामोदमुत्तमम् । सहसातीव यातानि कुमुदानि विकासिताम् ॥२१७॥ इति स्पष्टे समुद्भूते प्रदोषे जनसौख्यदे। प्रवृत्तदम्पतिप्रीतिप्रवृद्धसमदोत्सवे ॥२१॥
तरङ्गभङ्गराकारगङ्गापुलिनसंनिभे । रत्नच्छायापरिष्वक्तनिःशेपभवनोदरे ॥२१९।। सकता था ऐसा अन्धकार प्रकटताको प्राप्त हुआ। जिस प्रकार दुर्जनकी चेष्टा उच्च और नीचको एक समान करती है तथा विषमताके कारण उसका निरूपण करना कठिन होता है उसी प्रकार वह अन्धकार भी ऊंचे-नीचे प्रदेशोंको एक समान कर रहा था और विषमताके कारण उसका निरूपण करना भी कठिन था ।२०७।। जिस प्रकार धूमका पटल बुझती हुई अग्निको आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार बढ़ते हुए समस्त अन्धकारने सन्ध्या सम्बन्धी अरुण प्रकाशको आच्छादित कर लिया था ।।२०८।। चम्पाकी कलियोंके आकारको धारण करनेवाला दीपकोंका समूह वायुके मन्द-मन्द झोंकेसे हिलता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो रात्रिरूपी स्त्रीके कर्णफूलोंका समूह ही हो ।।२०९|| जो कमलोंका रस पीकर तृप्त हो रहे थे तथा मृणालके द्वारा खुजली कर अपने पंख फड़फड़ा रहे थे ऐसे राजहंस पक्षी निद्राका सेवन करने लगे ।।२१०।। जो स्त्रियोंकी चोटियोंमें गुथी मालतीकी मालाओंको हरण कर रही थी ऐसी सन्ध्या समयकी वाय रात्रिरूपी स्त्रीके श्वासोच्छ्वासके समान धीरे-धीरे बहने लगी ।।२११।। ऊंची उठी हुई केशरकी कणिकाओंके समूहसे जिनकी संकीर्णता बढ़ रही थी ऐसी कमलकी कोटरोंमें भ्रमरोंके समूह सोने लगे ॥२१२।। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के अत्यन्त निर्मल उपदेशोंके समूहसे तीनों लोक रमणीय हो जाते हैं उसी प्रकार अत्यन्त उज्ज्वल ताराओंके समूहसे आकाश रमणीय हो गया था ॥२१३।। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए नयसे एकान्तवादियोंके वचन खण्ड-खण्ड हो जाते हैं उसी प्रकार चन्द्रमाकी निर्मल किरणोंके प्रादुर्भावसे अन्धकार खण्ड-खण्ड हो गया था ।।२१४|| तदनन्तर लोगोंके नेत्रोंने जिसका अभिनन्दन किया था और जो अन्धकारके ऊपर क्रोध धारण करनेके कारण ही मानो कूछ-कुछ काँपते हए लाल शरीरको धारण कर रहा था ऐसे चन्द्रमाका उदय हुआ ।।२१५॥ जब चन्द्रमाकी उज्ज्वल चांदनी सब ओर फैल गयी तब यह संसार ऐसा जान पड़ने लगा मानो अन्धकारसे खिन्न होकर क्षीरसमुद्रकी गोदमें ही बैठनेकी तैयारी कर रहा हो ।।२१६।। सहसा कुमुद फूल उठे सो वे ऐसे जान पड़ते थे मानो चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श पाकर ही बहुत भारी आमोद-हर्ष ( पक्षमें गन्ध ) को धारण कर रहे थे ॥२१७।। इस प्रकार स्त्री-पुरुषोंकी प्रीतिसे जिसमें अनेक समद-उत्सवोंको वृद्धि हो रही थी और जो जनसमुदायको सुख देनेवाला था ऐसा प्रदोष काल जब स्पष्ट रूपसे प्रकट हो चुका तब राजकार्य निपटाकर जिनेन्द्र भगवान्की कथा करता हुआ श्रेणिक राजा उस शय्यापर सुखसे सो गया जो कि तरंगोंके १. विदधे ख., म.। २. चम्पक: कारिकाकार-म.। ३. कम्प-म. । ४. लोककरग्राह्यत्व म. । ५. मदनोत्सवे म.। ६. भवनोदरे म.।
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