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पद्मपुराणे
ततस्ते निर्गतं धर्मं जिनवक्त्रारविन्दतः । श्रुत्वा हर्षं परं जग्मुस्तिर्य त्रिदशमानवाः ॥ १९५ ॥ अणुव्रतानि संप्राप्ताः केचित् केचिन्निरम्बरम् । तपश्चरितुमारब्धाः संसारोद्विग्नमानसाः || १९६॥ सम्यग्दर्शनमायाताः केचित् केचित्स्वशक्तितः । विरतिं जगृहुः पापसमुपार्जनकर्मणः ॥ १९७ ॥ श्रुत्वा धर्मं जिनं स्तुत्वा प्रणम्य च यथाविधि । धर्मसुस्थितचित्तास्ते याताः स्थानं यथायथम् ॥१९८॥ श्रेणिकोऽपि महाराजो राजमानो नृपश्रिया । वर्णश्रवणहृष्टात्मा प्रविवेश निजं पुरम् ।।१९९ ।। अथ तीर्थकरोदारतेजोमण्डलदर्शनात् । विलक्ष इव तिग्मांशुरन्धिमैच्छन्निषेवितुम् ॥ २००॥ अस्ताचलसमीपस्थ : सरोरुहरुचामिव । मणीनां किरणैश्छन्नो जग्गामात्यन्तशोणिताम् ॥२०३॥ अमन्दायन्त किरणा नित्यमस्यानुयायिनः । कस्य वा तेजसो वृद्धिः स्वामिन्यापद भागते ॥ २०२ ॥ ततो विलोचनैः साखैरीक्षितः कोकयोषिताम् । अदर्शनं ययौ मन्दं कृपयेव विरोचनः || २०३ ॥ धर्मश्रवणतो मुक्तो यो रागः प्राणिनां गणैः । सन्ध्याच्छलेन तेनैव ककुमां चक्रमाश्रितम् || २०४ || उपकारे प्रवृत्तोऽयमस्मा स्वप्रार्थितः परम् । इतीव चक्षुर्लोकस्य मित्रेणेव समं गतम् || २०५ || ब्रजतो दिननाथस्य रागं प्रलयगामिनम् । संकुचन्त्य र विन्दानि कवलैरिव गृह्णते || २०६ || समीकृतततोत्तुङ्गं निरूपणविवर्जितम् । तमः प्रकटत मार दुर्जनस्येव चेष्टितम् ॥ २०७ ॥
करते हैं || १९४|| इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के मुखारविन्दसे निकले हुए धर्मको सुनकर मनुष्य, तिर्यंच तथा देव तीनों गतिके जीव परम हर्षको प्राप्त हुए || १९५ || धर्मोपदेश सुनकर कितने ही लोगोंने अणुव्रत धारण किये और संसारसे भयभीत चित्त होकर कितने ही लोगोंने दिगम्बर दीक्षा धारण की || १९६ ।। कितने ही लोगोंने केवल सम्यग्दर्शन ही धारण किया और कितने ही लोगोंने अपनी शक्तिके अनुसार पाप कार्योंका त्याग किया || १९७ || इस तरह धर्म श्रवण कर सबने श्रीवर्धमान जिनेन्द्रकी स्तुति कर उन्हें विधिपूर्वक नमस्कार किया और तदनन्तर धर्ममें चित्त लगाते हुए सब यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये || १९८ ॥ धर्म श्रवण करनेसे जिसकी आत्मा हर्षित हो रही थी ऐसे महाराज श्रेणिकने भी राजलक्ष्मीसे सुशोभित होते हुए अपने नगर में प्रवेश किया || १९९ ॥
तदनन्तर सूर्य ने पश्चिम समुद्रमें अवगाहन करनेकी इच्छा की सो ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के उत्कृष्ट तेज पुंजको देखकर वह इतना अधिक लज्जित हो गया था कि समुद्र में डूबकर आत्मघात ही करना चाहता था ॥ २००॥ सन्ध्या के समय सूर्य अस्ताचलके समीप पंचकर अत्यन्त लालिमाको धारण करने लगा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे आच्छादित होकर ही लालिमा धारण करने लगा था || २०१ || निरन्तर सूर्यका अनुगमन करनेवाली किरणें भी मन्द पड़ गयीं सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी के विपत्तिग्रस्त रहते हुए किसके तेजकी वृद्धि हो सकती है ? अर्थात् किसीके नहीं ||२०२|| तदनन्तर चकवियोंने अश्रु भरे नेत्रोंसे सूर्यकी ओर देखा इसलिए उनपर दया करनेके कारण ही मानो वह धीरे-धीरे अदृश्य हुआ था || २०३ || धर्मं श्रवण करनेसे प्राणियोंने जो राग छोड़ा था सन्ध्याके छलसे मानो उसीने दिशाओंके मण्डलको आच्छादित कर लिया था ॥ २०४ || जिस प्रकार मित्र बिना प्रार्थना किये ही लोगों के उपकार करनेमें प्रवृत्त होता है उसी प्रकार सूर्य भी बिना प्रार्थना किये ही हम लोगों के उपकार करने में प्रवृत्त रहता है इसलिए सूर्यका अस्त हो रहा है मानो मित्र ही अस्त हो रहा है || २०५ ।। उस समय कमल संकुचित हो रहे थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो अस्तंगामी सूर्यके प्रलयोन्मुख राग ( लालिमा ) को ग्रास बना बनाकर ग्रहण ही कर रहे थे ॥ २०६ ॥ जिसने विस्तार और ऊँचाईको एक रूपमें परिणत कर दिया था, तथा जिसका निरूपण नहीं किया जा १. कर्मतः म. । २. तर्मच्छन्नि -म. । ३ समीपस्थसरोरुह म । ४. मित्रेणैव सुमङ्गलम् ख । ५. ततः म. ।
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