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द्वितीयं पर्व
निर्बन्धूनामनाथानां दुःखाग्निपरिवर्तिनाम् । बन्धु थश्च जगतां जातोऽसि परमोदयः ॥१३१॥ कथं कुर्यात्तव स्तोत्रं यस्यान्तपरिवर्जिताः । उपमानेन निर्मुक्ता गुणाः केवलिगोचराः ।।१३२॥ ईति स्तुतिं प्रयुज्यासौ विधाय च नमस्कृतिम् । मूर्द्धजानुकराम्भोजमुकुलप्राप्तभूतलः ॥१३३॥ विस्मयं प्राप्तवान् दृष्ट्वा स्थानं तजिनपुङ्गवम् । इति यस्य समासेन कथ्यते रूपवर्णनम् ॥१३४॥ इन्द्रस्य पुरुषरस्य प्रकारत्रितयं कृतम् । नानावर्णमहारत्नसुवर्णमयमुत्तमम् ॥१३५॥ प्रधानाशामुखैस्तुङ्गैर्महावापीसमन्वितैः । चतुर्मिगोपुरैर्युक्तं रत्नच्छायापैटावृतैः ।।१३६॥ आवृतं तेन तत्स्थानमष्टमङ्गलकाचितम् । वचसां गोचरातीतामदधत् कामपि श्रियम् ।।१३७॥ तत्र स्फटिकभित्त्यङ्गा विमागा द्वादशाभवन् । प्रादक्षिण्यपथत्यतप्रदेशसमवस्थिताः ॥१३८॥ तस्थुरेकत्र निर्ग्रन्था गणनाथैरधिष्ठिताः । अन्यत्र सेन्द्र पत्नीकाः कल्पवासिसुराङ्गनाः ।।१३९।। अपरत्रार्यिकासंघो गणपालीसमन्वितः । द्योतिषां योषितोऽन्यत्र वैयन्तोऽपरत्र च ॥१४॥ एकत्र भावनस्त्रीणामन्यत्र द्योतिषां गणः । व्यन्तराणां गणोऽन्यत्र सङ्घोऽन्यत्र च भावनः ।।१४।। कल्पवासिन एकस्मिन्नपरत्र च मानुषाः । ' वैरानुभावनिर्मुक्तास्तिर्यञ्चोऽन्यत्र सुस्थिताः ।।१४२॥ ततो मगधराजोऽपि निश्चक्राम महाबलः । संपतत्सुरसंघातजात विस्मयमानसः ।।१४३।।
दिखाया है और ध्यानरूपी देदीप्यमान अग्निके द्वारा कर्मोंके समूहको भस्म किया है ॥१३०।। जिनका कोई बन्ध नहीं और जिनका कोई नाथ नहीं ऐसे दःखरूपी अग्नि में वर्तमान संसारके जीवोंके आप ही बन्धु हो, आप ही नाथ हो तथा आप ही परम अभ्युदयके धारक हो ॥१३१।। हे भगवन् ! हम आपके गुणोंका स्तवन कैसे कर सकते हैं जब कि वे अनन्त हैं, उपमासे रहित हैं तथा केवलज्ञानियोंके विषय हैं ॥१३२।। इस प्रकार स्तुति कर इन्द्रने भगवान्को नमस्कार किया। नमस्कार करते समय उसने मस्तक, घुटने तथा दोनों हस्तरूपी कमलोंके कुडमलोंसे पृथिवीतलका स्पर्श किया था ।।१३३।। वह इन्द्र भगवान्का समवसरण देखकर आश्चर्यको प्राप्त हुआ था इसलिए यहाँ संक्षेपसे उसका वर्णन किया जाता है॥१३४।।
___ इन्द्रके आज्ञाकारी पुरुषोंने सर्वप्रथम समवसरणके तीन कोटोंकी रचना की थी जो अनेक वर्णके बड़े-बड़े रत्नों तथा सुवर्णसे निर्मित थे ।।१३५।। उन कोटोंको चारों दिशाओंमें चार गोपुर द्वार थे जो बहुत ही ऊंचे थे, बड़ी-बड़ी बावड़ियोंसे सुशोभित थे, तथा रत्नोंकी कान्तिरूपी परदासे आवृत थे ।।१३६।।
गोपुरोंका वह स्थान अष्ट मंगलद्रव्योंसे युक्त था तथा वचनोंसे अगोचर कोई अद्भुत शोभा धारण कर रहा था ॥१३७।। उस समवसरणमें स्फटिककी दीवालोंसे बारह कोठे बने हुए थे जो प्रदक्षिणा रूपसे स्थित थे ॥१३८॥ उन कोठों से प्रथम कोठेमें गणधरोंसे सुशोभित मुनिराज बैठे थे, दूसरेमें इन्द्राणियोंके साथ-साथ कल्पवासी देवोंकी देवांगनाएँ थीं, तीसरेमें गणिनियोंसे सहित आयिकाओंका समह बैठा था, 'चौथेमें ज्योतिषी देवोंकी देवांगनाएँ थों पाँचवें में व्यन्तर देवोंकी अंगनाएँ बैठी थीं. छठेमें भवनवासी देवोंकी अंगनाएँ बैठी थीं. सातवमें ज्योतिषी देव थे, आठवेंमें व्यन्तर देव थे, नौवेंमें भवनवासी देव थे, दसवेंमें कल्पवासो देव थे, ग्यारहवें में मनुष्य थे और बारहवें में वैरभावसे रहित तिथंच सुखसे बैठे थे ।।१३९-१४२।। तदनन्तर सब ओरसे आनेवाले देवोंके समूहसे जिसके मनमें आश्चर्य उत्पन्न हो रहा था ऐसा महाबलवान् अथवा बहुत बड़ी सेनाका नायक राजा श्रेणिक भी अपने नगरसे बाहर निकला १. कुर्यास्तव म.। २. परिस्तुति ख.। ३. तज्जैन-म.। ४. पटैर्वृतः म.। ५. -कान्वितम् म. । ६. अन्यत्रासन् सपत्नीकाः क., ख. । ७. ज्योतिषां म.। ८. ज्योतिषां म.। ९. गणो म.। १०. वैरानुभव म. ।
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