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पद्मपुराणे
दूरादेव हि संत्यज्य वाहनादिपरिच्छदम् । स्तुतिपूर्वं जिनं नत्वा स्वदेशे समुपाविशत् ॥ १४४॥ अक्रूरो वारिषेणोऽथ कुमारोऽभयपूर्वकः । 'विजयावहनामा च तथाऽन्ये नृपसूनवः ।।१४५।। स्तुतिं कृत्वा प्रणेमुस्ते मस्तकन्यस्तपाणयः । उपविष्टा यथादेशं दधाना विनयं परम् ।।१४६ || चैर्य विपस्याधो मृदुपल्लवशोभिनः । पुष्पस्तबक भाजालव्याप्ताशस्य विलासिनः ॥ १४७ ॥ कल्पपादपरम्यस्य जनशोकापहारिणः । हरिद्वनपलाशस्य नानारत्नगिरेरिव ॥ १४८ ॥ अशोकपादपस्याधो निविष्टः सिंहविष्टरे । नानारत्नसमुद्योतजनितेन्द्र शरासने ॥१४९॥ दिव्यांशुकपरिच्छन्नैमृदु स्पर्श मनोहरे । अमरेन्द्र शिरोरत्नप्रभोत्सर्पविघातिनि ।। १५० ।। त्रिलोकेश्वरताचिह्नच्छत्रत्रितयराजिते । सुरपुष्पसमाकीर्णे भूमिमण्डलवर्तिनि ॥ १५१ ॥ यक्षराजकरासक्तचलच्चामरचारुणि । दुन्दुभिध्वनितोभूतप्रशान्तप्रतिशब्दके ॥ १५२ ॥ गतित्र्यगतप्राणिभाषारूपनिवृत्तया । घनाघनधनध्वान धीरनिर्घोषया गिरा ॥ १५३ ॥ परिभूतरविद्योतप्रभामण्डलमध्यगः । लोकायेत्यवदद् धर्मं पृष्टो गणभृता जिनः ॥ १५४ ॥
सत्तैका प्रथमं तत्त्वं जीवाजीवौ ततः परम् । सिद्धाः संसारवन्तश्च जीवास्तु द्विविधाः स्मृताः ।।१५५।।
|| १४३ | | उसने वाहन आदि राजाओंके उपकरणोंका दूरसे ही त्याग कर दिया, फिर समवसरण में प्रवेश कर स्तुतिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर अपना स्थान ग्रहण किया ॥ १४४ ॥ दयालु वारिषेण, अभयकुमार, विजयावह तथा अन्य राजकुमारोंने भी हाथ जोड़कर मस्तकसे लगाये, स्तुति पढ़कर भगवान्को नमस्कार किया । तदनन्तर बहुत भारी विनयको धारण करते हुए वे सब अपने योग्य स्थानोंपर बैठ गये । । १४५ - १४६ ।। भगवान् वर्धमान समवसरण में जिस अशोक वृक्षके नीचे सिंहासन पर विराजमान थे उसकी शाखाएँ वैडूर्य (नील ) मणिकी थीं, वह कोमल पल्लवों से शोभायमान था, फूलोंके गुच्छोंकी कान्तिसे उसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली थीं, वह अत्यन्त सुशोभित था, कल्पवृक्षके समान रमणीय था, मनुष्योंके शोकको हरनेवाला था, उसके पत्ते हरे रंगवाले तथा सघन थे, और वह नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित पर्वतके समान जान पड़ता था । उनका वह सिंहासन भी नाना रत्नोंके प्रकाशसे इन्द्रधनुषको उत्पन्न कर रहा था । दिव्य वस्त्रसे आच्छादित था, कोमल स्पर्श से मनोहारी था, इन्द्रके सिरपर लगे हुए रत्नोंकी कान्तिके विस्तारको रोकनेवाला था, तीन लोककी ईश्वरताके चिह्नस्वरूप तीन छत्रोंसे सुशोभित था, देवोंके द्वारा बरसाये हुए फूलोंसे व्याप्त था, भूमिमण्डलपर वर्तमान था, यक्षराजके हाथोंमें स्थित चंचल चमरोंसे सुशोभित था, और दुन्दुभिबाजोंके शब्दोंकी शान्तिपूर्ण प्रतिध्वनि उससे निकल रही थी ।। १४७-१५२ ।। भगवान्की जो दिव्यध्वनि खिर रही थी वह तीन गति सम्बन्धी जीवोंकी भाषारूप परिणमन कर रही थी तथा मेघोंकी सान्द्र गर्जनाके समान उसकी बुलन्द आवाज थी || १५३॥ वहाँ सूर्यके प्रकाशको तिरस्कृत करनेवाले प्रभामण्डलके मध्य में भगवान् विराजमान थे । गणधर के द्वारा प्रश्न किये जानेपर उन्होंने लोगोंके लिए निम्न प्रकार से धर्मका उपदेश दिया था ||१५४ ॥
उन्होंने कहा था कि सबसे पहले एक सत्ता ही तत्त्व है उसके बाद जीव और अजीवके भेदसे तत्त्व दो प्रकारका है । उनमें भी जीवके सिद्ध और संसारी के भेदसे दो भेद माने गये हैं ।। १५५ ।। इनके सिवाय जीवोंके भव्य और अभव्य इस प्रकार दो भेद और भी हैं । जिस प्रकार उड़द आदि अनाजमें कुछ तो ऐसे होते हैं जो पक जाते हैं-सीझ जाते हैं और कुछ ऐसे होते हैं कि जो प्रयत्न करनेपर भी नहीं पकते हैं-नहीं सीझते हैं । उसी प्रकार जीवों में २. प्रणामं च म । ३. जनितेन्द्रायुधोद्गमे म । ४. परिच्छन्ने
१. विजयवाहनामा च तथान्यनृपसूनवः म । म. । ५. सपिं म । ६. जीवाश्च म ।
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