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पद्मपुराणे महालावण्ययुक्ताश्च मधुराभाषतत्पराः । प्रसन्नोज्ज्वलवक्त्राश्च प्रमादरहितेहिताः ॥४७॥ कलवस्य पृथोर्लक्ष्मीं दधतेऽथ चे दुर्विधाः । मनोज्ञा नितरां मध्ये सुवृत्ताश्चायतिं गताः ॥४८॥ लोकान्तपर्वताकारं यत्र प्राकारमण्डलम् । समुद्रोदरनिर्मासपरिखाकृत वेष्टनम् ॥४९॥ आसीत्तत्र पुरे राजा श्रेणिको नाम विश्रुतः । देवेन्द्र इव बिभ्राणः सर्ववर्णधरं धनुः ॥५०॥ कल्याणप्रकृतित्वेन यश्च पर्वतराजवत् । समुद्र इव मर्यादालङ्घनत्रस्तचेतसा ॥५१॥ कलानां ग्रहणे चन्द्रो लोकनृत्या धरामयः । दिवाकरः प्रतापेन कुबेरो धनसंपदा ॥५२॥ शौर्यरक्षितलोकोऽपि नयानुगतमानसः । लक्ष्म्यापि कृतसंबन्धो न गर्वग्रहदूषितः ॥५३॥ जितजेयोऽपि नो शस्त्रव्यायामेषु पराङ्मुखः । विधुरेष्वप्यसंभ्रान्तः प्रणतेष्वपि पूजकः ॥५४॥ रत्नबुद्धिरभूद् यस्य मलमुक्तेषु साधुषु । पृथिवीभेदविज्ञानं पाषाणशकलेषु तु ॥५५॥
सुकुमार थीं ( पक्षमें उनके शरीर चन्द्रमाके समान कान्त--सुन्दर थे और वे शिरीषके फूलके समान कोमल शरीरवाली थीं। वे स्त्रियाँ यद्यपि भुजंगों अर्थात् सोके अगम्य थीं फिर भी उनके शरीर कंचुक अर्थात् काँचलियोंसे युक्त थे ( पक्षमें भुजंगों अर्थात् विटपुरुषोंके अगम्य थीं और उनके शरीर कंचुक अर्थात् चोलियोंसे सुशोभित थे) ॥४६|| वे स्त्रियां यद्यपि महालावण्य अर्थात् बहुत भारी खारापनसे युक्त थीं फिर भी मधुराभास-तत्परा अर्थात् मिष्ट भाषण करने में तत्पर थी ( पक्षमें महालावण्य अर्थात् बहुत भारी सौन्दर्यसे युक्त थीं और प्रिय वचन बोलनेमें तत्पर थीं)। उनके मुख प्रसन्न तथा उज्ज्वल थे और उनकी चेष्टाएँ प्रमादसे रहित थीं ॥४७।। वे स्त्रियाँ अत्यन्त सुन्दर थीं, स्थूल नितम्बोंकी शोभा धारण करती थीं, उनका मध्यभाग अत्यन्त मनोहर था, वे सदाचारसे युक्त थीं और उत्तम भविष्यसे सम्पन्न थीं। (इस श्लोकमें भी ऊपरके श्लोकोंके समान विरोधाभास अलंकार है जो इस प्रकार घटित होता है-वहाँ की स्त्रियाँ दुविधा अर्थात् दरिद्र होकर भी कलत्र अर्थात् स्त्री-सम्बन्धी भारी लक्ष्मी सम्पदाको धारण करती थीं और सुवृत्त अर्थात् गोलाकार होकर भी आयतिं गता अर्थात् लम्बाईको प्राप्त थीं। ( इस विरोधाभासका परिहार अर्थमें किया गया है)||४८।। उस राजगृह नगरका जो कोट था वह (मनुष्य) लोकके अन्तमें स्थित मानुषोत्तर पर्वतके समान जान पड़ता था तथा समुद्रके समान गम्भीर परिखा उसे चारों
१ घेरे हई थी।॥४९॥ उस राजगह नगरमें श्रेणिक नामका प्रसिद्ध राजा रहता था जो कि इन्द्रके समान सर्ववर्णधर अर्थात् ब्राह्मणादि समस्त वर्णों की व्यवस्था करनेवाले ( पक्षमें लाल-पीले आदि समस्त रंगोंको धारण करनेवाले ) धनुषको धारण करता था ॥५०॥ वह राजा कल्याणप्रकृति था अर्थात् कल्याणकारी स्वभावको धारण करनेवाला था (पक्षमें सुवर्णमय था ) इसलिए सुमेरुपर्वतके समान जान पड़ता था और उसका चित्त मर्यादाके उल्लंघनसे सदा भयभीत रहता था अतः वह समुद्रके समान प्रतीत होता था ।।५१।। राजा श्रेणिक कलाओंके ग्रहण करनेमें चन्द्रमा था, लोकको धारण करने में पृथिवीरूप था, प्रतापसे सूर्य था और धन-सम्पत्तिसे कुबेर था ॥५२॥ वह अपनी शूरवीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था फिर भी उसका मन सदा नीतिसे भरा रहता था और लक्ष्मीके साथ उसका सम्बन्ध था तो भी अहंकाररूपी ग्रहसे वह कभी दूषित नहीं होता था ॥५३।। उसने यद्यपि जीतने योग्य शत्रुओंको जीत लिया था तो भी वह शस्त्र-विषयक व्यायामसे विमुख नहीं रहता था। वह आपत्तिके समय भी कभी व्यग्र नहीं होता था और जो मनुष्य उसके समक्ष नम्रीभूत होते थे उनका वह सम्मान करता था ॥५४॥ वह दोषरहित सज्जनोंको ही रत्न समझता था, पाषाणके टुकड़ोंको तो केवल पृथ्वीका एक विशेष परिणमन ही मानता था ॥५५।। १. मधुरालाप म.। २. चतुर्विधाः म.। ३. विश्राणः । ४. इति क.। ५. तयानु-म.। नवानु-क. । ६. रत्नभूति-म.।
ओरसे
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