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पद्मपुराणे
विद्यानां यः समस्तानां परमेश्वरतां गतः । विशुद्धस्फटिकच्छायं छायामपि न यद्वपुः ||१२|| पक्ष्मस्पन्दविनिर्मुक्ते प्रशान्ते यस्य लोचने । समा नखा महानीलस्निग्धच्छायाश्च मूर्द्धजा ||१३|| मैत्री समस्तविषया विहारानुगवायुता । विहृतिश्च प्रभोर्यस्य भुवनानन्दकारणम् ॥ ९४ ॥ सर्वर्तुफलपुष्पाणि धारयन्ति महीरुहाः । यस्मिन्नासन्नमायाते धरणी दर्पणायते ||१५|| सुगन्धिमरुतो यस्य योजनान्तरभूतलम् । कुर्वते पांसुपाषाणकण्टकादिभिरुज्झितम् ॥९६॥ विद्युन्मालाकृताभिख्यैस्तदेव स्तनितामरैः । सुगन्धिसलिलैः सिक्तं सोत्साहैर्यस्य सादरैः ||९७|| अप्रमेयमृदुत्वानि यस्य पद्मानि गच्छतः । धरण्यामुपजायन्ते यस्य व्योमविहारिणः ॥ ९८ ॥ अत्यन्तफलसंपत्तिनम्रशाल्यादिभूषिता । धरणी जायते यस्मिन् समेते सस्यकारणम् ||१९|| शरत्सरःसमाकारं जायते विमलं नभः । धूमकादिविनिर्मुक्ता दिशस्तु सुखदर्शनाः ||१०० || स्फुरितारसहस्रेण प्रभामण्डलचारुणा । यत्पुरो धर्मचक्रेण स्थीयते ' जितभानुना ॥ १०५ ॥ अवस्थानं चकारासौ विपुले विपुलाह्वये । नानानिर्झरनिस्यन्दमधुरारावहारिणि ॥ १०२ ॥ पुष्पोपशोभितोद्देशे लतालिङ्गितपादपे । अधित्यकासु विस्रब्धनिर्वैरन्यालसेविते ॥ १०३ ॥ नमतीव सदायानं घूर्णितोदारपादपैः । हसतीव समुत्सर्पनिर्झरामलशीकरैः ॥ १०४॥
नहीं था ॥ ९१ ॥ जो समस्त विद्याओंकी परमेश्वरताको प्राप्त थे, स्फटिकके समान निर्मल कान्तिवाला जिनका शरीर छायाको प्राप्त नहीं होता था अर्थात् जिनके शरीरकी परछाई नहीं पड़ती थी || १२ || जिनके नेत्र टिमकारसे रहित अत्यन्त शान्त थे, जिनके नख और महानील मणिके समान स्निग्ध कान्तिको धारण करनेवाले बाल सदा समान थे अर्थात् वृद्धिसे रहित थे ||९३|| समस्त जीवोंमें मैत्रीभाव रहता था, विहारके अनुकूल मन्द मन्द वायु चलती थी, जिनका विहार समस्त संसारके आनन्दका कारण था || ९४ || वृक्ष सब ऋतुओंके फल-फूल धारण करते थे और जिनके पास आते ही पृथिवी दर्पण के समान आचरण करने लगती थी || १५ || जिनके एक योजनके अन्तरालमें वर्तमान भूमिको सुगन्धित पवन सदा धूलि, पाषाण और कण्टक आदिसे रहित करती रहती थी ||१६|| बिजली की मालासे जिनकी शोभा बढ़ रही है ऐसे स्तनितकुमारमेघ कुमार जातिके देव बड़े उत्साह और आदर के साथ उस योजनान्तरालवर्ती भूमिको सुगन्धित जलसे सींचते रहते थे ||९७|| जो आकाशमें विहार करते थे और विहार करते समय जिनके चरणोंके तले देव लोग अत्यन्त कोमल कमलोंकी रचना करते थे || १८ || जिनके समीप आनेपर पृथिवी बहुत भारी फलोंके भारसे नम्रीभूत धान आदिके पौधोंसे विभूषित हो उठती थी तथा सब प्रकारका अन्न उसमें उत्पन्न हो जाता था || १९|| आकाश शरद् ऋतुके तालाबके समान निर्मल हो जाता था और दिशाएँ धूमक आदि दोषोंसे रहित होकर बड़ी सुन्दर मालूम होने लगती थीं ॥१००॥ जिसमें हजार आरे देदीप्यमान हैं, जो कान्तिके समूहसे जगमगा रहा है और जिसने सूर्यको जीत लिया है ऐसा धर्मचक्र जिनके आगे स्थित रहता था ॥ १०१ ॥
'दुष्ट
ऊपर कही हुई विशेषताओंसे सहित भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र राजगृहके समीपवर्ती उस विशाल विपुलाचलपर अवस्थित हुए जो कि नाना निर्झरोंके मधुर शब्द से मनोहर था, जिसका प्रत्येक स्थान फूलों से सुशोभित था, जिसके वृक्ष लताओंसे आलिंगित थे, सिंह, व्याघ्र आदि जीव रहित होकर निश्चिन्ततासे जिसकी अधित्यकाओं (उपरितनभागों) पर बैठे थे, वायु से हिलते हुए वृक्षों से जो ऐसा जान पड़ता था मानो नमस्कार ही कर रहा हो, ऊपर उछलते हुए झरनों के १. मपनयद्वपुः म. । २. सभा क, ख । ३. विभूतिश्च म । ४ यत्र म । ५. कन्दकादिभिरुत्थितम् म. । ६. सप्त क्., ख. । ७. तस्मिन् म. । ८. जिनभानुना म. । ९. यात घूर्णितादरपादपैः म. । १०. निर्भरा म. ।
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