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द्वितीयं पर्व
अथ जम्बूमति द्वीपे क्षेत्रे भरतनामनि । मगधाभिख्यया ख्याती विषयोऽस्ति समुज्ज्वलः || १|| निवासः पूर्णपुण्यानां वासवावाससंनिभः । व्यवहारैरसंकीर्णैः कृतलोकव्यवस्थितिः ||२|| क्षेत्राणि दधते यस्मिन्नुत्खातान् लाङ्गलाननैः । स्थलाब्जमूलसंघातान् महीसारगुणानिव || ३ || क्षीरसेकादिवोद्भूतैर्मन्दानिलचलद्दलैः । पुण्ड्रेक्षुवाटसंतानैर्व्याप्तानन्तरभूतलः ॥४॥ अपूर्व पर्वताकारैर्विभक्तैः खलधामभिः । सस्यकूटैः सुविन्यस्तैः सीमान्ता यस्य सङ्कटाः ॥५॥ उद्घाटक घटीसितैर्यत्र जीरकजूटकैः । नितान्तहरितैरुव जटालेव विराजते || ६ || उर्वरायां वरीयोभिः यः शालेयैरलंकृतः । मुद्गकोशीपुटैर्यस्मिन्नुद्देशाः ' कपिलत्विषैः ॥ ७॥ तापस्फुटितकोशी राजमाषैर्निरन्तराः । उद्देशा यस्य किमीरा निक्षेत्रियतृणोद्गमाः ||८|| अधिष्ठितः श्रेष्ठगोधूमधामभिः । प्रशस्यैरन्यसंस्यैश्व युक्तः प्रत्यूहवर्जितैः ॥९॥ महामहिषपृष्ठस्थगायद्गोपालपालितैः । कीटातिलम्पटोद्ग्रीववलाकानुगताध्वभिः ||१०|| विवर्णसूत्र संबद्धघण्टारटितहारिभिः । क्षरद्भिरजरत्रासात् पीतक्षीरोदवत् पयः ॥ ११ ॥
अथानन्तर—- जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्र में मगध नामसे प्रसिद्ध एक अत्यन्त उज्ज्वल देश है ॥ १ ॥ वह देश पूर्ण पुण्यके धारक मनुष्योंका निवासस्थान है, इन्द्रकी नगरीके समान जान पड़ता है और उदारतापूर्ण व्यवहारसे लोगोंकी सब व्यवस्था करता है || २ || जिस देशके खेत हलों के अग्रभागसे विदारण किये हुए स्थल-कमलोंकी जड़ोंके समूहको इस प्रकार धारण करते हैं मान पृथिवी श्रेष्ठ गुणोंको ही धारण कर रहे हों ॥ ३ ॥ जो दूधके सिंचनसे ही मानो उत्पन्न हुए थे और मन्द मन्द वायु से जिनके पत्ते हिल रहे थे ऐसे पौड़ों और ईखोंके वनोंके समूह से जिस देशका निकटवर्ती भूमिभाग सदा व्याप्त रहता है || ४ || जिस देश के समीपवर्ती प्रदेश खलिहानोंमें जुदी - जुदी लगी हुई अपूर्वं पर्वतोंके समान बड़ी-बड़ी धान्यकी राशियोंसे सदा व्याप्त रहते हैं ॥ ५ ॥ जिस देशकी पृथिवी रँहटकी घड़ियोंसे सींचे गये अत्यन्त हरे-भरे जीरों और धानोंके समूह से ऐसी जान पड़ती है मानो उसने जटाएँ ही धारण कर रखी हों ।। ६ । जहाँ की भूमि अत्यन्त उपजाऊ है, जो धानके श्रेष्ठ खेतोंसे अलंकृत है और जिसके भू-भाग मूँग और मौठकी फलियोंसे पीले-पीले हो रहे हैं ॥ ७ ॥ गर्मी के कारण जिनकी फली चटक गयी थी ऐसे रोंसा अथवा वटी के बीजोंसे वहाँके भू-भाग निरन्तर व्याप्त होकर चित्र-विचित्र दिख रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं कि वहाँ तृणके अंकुर उत्पन्न ही नहीं होंगे ॥ ८ ॥ जो देश उत्तमोत्तम गेहुँओं की उत्पत्ति स्थानभूत खेतोंसे सहित है तथा विघ्न-रहित अन्य अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम अनाजोंसे परिपूर्ण है ।। ९ ।। बड़े-बड़े भैंसों की पीठपर बैठे गाते हुए ग्वाले जिनकी रक्षा कर रहे हैं, शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में लगे हुए कीड़ों के लोभसे ऊपरको गरदन उठाकर चलनेवाले बगले मार्ग में जिनके पीछे लग रहे हैं, रंग-विरंगे सूत्रों में बँधे हुए घण्टाओंके शब्दसे जो बहुत मनोहर जान पड़ती हैं, जिनके स्तनोंसे दूध झर रहा है और उससे जो ऐसी जान पड़ती हैं मानो पहले पिये हुए क्षीरोदकको अजीर्णके भयसे छोड़ती रहती हैं, मधुर रससे सम्पन्न तथा इतने कोमल कि मुँहकी भाप मात्र से टूट जावें ऐसे सर्वत्र व्याप्त तृणोंके द्वारा जो अत्यन्त
१. न्नुद्देशान् म. । २. कपिलत्विषा म । ३. यत्र म । ४. अधिष्ठिते म. । ५. स्थली पृष्ठं म । ६. अन्यशस्यैः म । ७ युक्तप्रत्यूह म., क. । ८ गतध्वनिः म. ।
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