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मरणकण्डिका - ३६
स्ववशत्वमदोषत्वं, धैर्य-वीर्य-प्रकाशनम्।
नानाकारा भवन्त्येवमचेलत्वे महागुणाः ॥८६ ।। अर्थ - इस लिंग में स्ववशता अर्थात् स्वाधीनता रहती है; राग, मोह एवं लोभादि दोष नष्ट हो जाते हैं और इस निर्ग्रन्थ वेष से आत्मा के धैर्य तथा वीर्य आदि गुण प्रगट हो जाते हैं। इस प्रकार अचेलत्व वेष में नाना प्रकार के महागुण निवास करते हैं ।।८६||
सम्यक्प्रवृत्त-निःशेष-व्यापारः समितेन्द्रियः ।
इत्थमुत्तिष्ठते सिद्धौ, नाग्न्य-गुप्तिमधिष्ठितः ।।८७ ।। अर्थ - इस प्रकार नग्नता एवं गुप्ति को धारण करने वाले इस लिंग में आसन, शयन, गमन एवं आहार आदि समस्त कार्य सम्यक् अर्थात् सावधानीपूर्वक होते हैं, सर्व इन्द्रियाँ सीमित अर्थात् वशीभूत हो जाती हैं और वह साधु सदैव आत्मसिद्धि के लिए उद्यमशील रहता है ।।८७ ।।
__अपवादलिंगधारी भी शुद्ध हो सकता है आपवादिक लिङ्गोऽपि, निन्दा-गा-परायणः।
जन्दावादकः शक्त:, सन्यासी विशुद्धाति अर्थ - अपवाद लिंग में स्थित होते हुए भी अपनी शक्ति को न छिपाते हुए और निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग करने पर शुद्ध होता है ।।८८ ।।
प्रश्न - अपवादलिंगधारी कौन हैं और वे किसकी निन्दा-गर्दा करते हैं?
उत्तर - अपवादलिंगधारी क्षुल्लक, क्षुल्लिका, श्रावक और श्राविका होते हैं। ये स्वयं की निन्दा करते हैं कि मुक्ति का साक्षात् कारण तो उत्सर्ग लिंग हैं किन्तु मैंने पूर्वजन्म में अवश्य कोई ऐसा पाप संचय किया है जिससे आज मैं उत्सर्ग लिंग धारण नहीं कर सकता। मुझ पापी ने परीषहों से डरकर ये वस्त्र आदि धारण कर रखे हैं, ऐसा अन्तः सन्ताप करता हुआ अपनी निन्दा करता है। गुरुजनों से कह कर गर्दा करता है और शक्तिप्रमाण परिग्रह का त्याग कर वह विशुद्ध परिणामों द्वारा अपनी आत्मा का शोधन करता है।
प्रश्न - अपवाद लिंग में आर्यिका का ग्रहण क्यों नहीं किया गया?
उत्तर - क्योंकि मुनि की भाँति आर्यिका भी उत्सर्ग लिंगधारी है। मूलाराधना में कहा है- "परमागम में स्त्रियों का अर्थात् आर्यिकाओं का और श्राविकाओं का जो उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्याख्यान के समय समझना चाहिए अर्थात् आर्यिकाओं का भक्तप्रत्याख्यान के समय उत्सर्गलिंग विविक्तस्थान में होना चाहिए अर्थात् वह भी मुनिवत् उस समय नग्नरूपता धारण करे ऐसी आगमाज्ञा है परन्तु श्राविका का उत्सर्ग लिंग भी है और अपवाद लिंग भी है। यदि वह श्राविका संपत्तिवाली अथवा लज्जावती होगी अथवा उसके बान्धवगण मिथ्यात्वी हों तो वह अपवादलिंग धारण करे अर्थात् पूर्व वेष में ही रह कर भक्तप्रत्याख्यान से मरण करे तथा जिस श्राविका ने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकास्थान में उत्सर्गलिंग-नग्नता धारण कर सकती है।" - मूलाराधना-भगवती आराधना पृ. २१०-११ गाथा ८१ की टीका का अनुवाद :
जिनदास पार्श्वनाथ फड़कुले ॥ इस प्रकार उत्सर्ग लिंग अर्थात् अचेलगुण का वर्णन समाप्त हुआ।