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मरणकण्डिका - ३५
(३) आत्मस्थिति - अपनी अस्थिर आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर करना यह आत्मस्थिति है। उत्सर्ग लिंगवाला विचार करता है कि जब मैंने वस्त्रों का ही त्याग कर दिया है तब मुझे राग, रोष, मान, माया और लोभ से क्या प्रयोजन है। लोक में सब अलंकरण वस्त्रमूलक हैं, जब वस्त्रों का ही त्याग हो गया है तब मुझे राग से क्या प्रयोजन है। परिग्रह क्रोध का कारण होने से दुखदाई है। परिग्रह का त्याग करके भी यदि क्रोध नहीं छोडूंगा तो संघ मेरी हँसी करेगा और यह क्रोधरूपी अग्नि, ज्ञान रूपी जल के सिंचन से फले-फूले मेरे तपोवन को नष्ट कर देने वाली है अतः इससे भी मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार मान, माया एवं लोभादि के प्रति चिन्तन कर वह अपनी आत्मा को रत्नत्रय में स्थिर करता है।
(४) जगत् के विश्वास का कारण - सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, इसमें यह यधाजातरूप, सहज स्वाभाविक वेष भव्य जीवों के विश्वास एवं श्रद्धा में कारण होता है कि जो वस्त्रों को भी त्याग चुका है वह हमारी वस्तुएँ नहीं चुरायेगा। जो शरीर से भी निरपेक्ष है वह लोभ के वशीभूत होकर धन आदि से प्रयोजन नहीं रखेगा, निर्विकार होने से महिलाओं की ओर आकर्षित नहीं होगा, इत्यादि ।
उत्सगं लिंग के अन्य गुण परिकर्म-भय-ग्रन्थ-संसक्ति-प्रतिलेखनाः।
लोभ-मोह-मद-क्रोधाः, समस्ता: सन्ति वर्जिताः॥८४ ॥ अर्थ - उत्सर्ग लिंग में परिकर्म, भय, ग्रन्थ, संसक्ति, प्रतिलेखन, लोभ, मद, मोह और क्रोध आदि दोषों का त्याग हो जाने से अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं।।८४ ।।
प्रश्न - इन परिकर्म आदि दोषों का नाश कैसे होता है और गुण कैसे प्रगट होते हैं?
उत्तर - निष्परिग्रही साधु को वस्त्रों की याचना, उन्हें धोना, सुखाना, उठाना एवं सीना आदि परिकर्म में समय नहीं लगाना पड़ता अतः स्वाध्याय एवं ध्यान आदि निराकुलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, अतः परिकर्म नष्ट होने से गुण उत्पन्न होता है।
परिग्रह के त्याग से चोर आदि का भय नहीं होता अत: निर्भयता प्रगट होती है। ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह के त्याग से आसक्ति का अभाव हो जाता है और छाती पर से मानों पहाड़ ही हट गया हो ऐसा लाधव गुण प्रगट हो जाता है।
वस्त्रों के सम्बन्ध से जूं, लीख आदि सम्मूर्छन जीवों का संसर्ग होता रहता है, वस्त्रत्यागी के इस संसक्ति दोष का अभाव हो जाता है। कोई पदार्थ पास में न रहने से उन्हें शोधन आदि नहीं करना पड़ता अतः अप्रतिलेखन गुण प्रगट हो जाता है। इसी परिग्रह से उत्पन्न होने वाले लोभ, मद, मोह और क्रोध आदि दोष परिग्रहत्याग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं और शौच आदि गुण प्रगट हो जाते हैं।
अङ्गाक्षार्थ-सुख-त्यागो, रूपं विश्वास-कारणम् ।
परीषह-सहिष्णुत्वमर्हदाकृति-धारणम् ॥८५।। अर्थ - उत्सर्ग लिंग शरीरसुख, इन्द्रियसुख और विषयसुख के त्याग का कारण है, विश्वास का हेतु है, परीषह सहिष्णुता का निमित्त है एवं अर्हन्त प्रभु की आकृति के अनुरूप है ।।८५ ॥