________________
५६ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
सेठ बैजनाथजीके सहयोग से एक छात्रावास स्थापित हो गया है। उसमें एक जैन मन्दिरकी अति आवश्यकता है अतः वह रुपया यदि छात्रावासको मिल जाये तो उसमें जैन मन्दिरका निर्माण हो जायेगा।" सर सेठ सा० ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप एक समझौता पत्र तैयार किया गया। उसपर सेठ सा० के और छात्रावासके संयुक्त मंत्री होनेके नाते पिताजीके हस्ताक्षर हुए बादमें सर सेठ सा० ने आकर उसकी शिलान्यास विधि सम्पन्न कर दी ।
पू० बड़े वर्णीजी के संकेत पर स्व० साहू शान्तिप्रसादजीने वहाँ एक नये छात्रावासका निर्माण और करा दिया ।
इसी बीच षट्संडागम ( धवला ) की प्रथम पुस्तकका ९२ सूत्र विवादका विषय बन गया। उसमें 'संजद' पद छूटा हुआ था। उसके सम्पादन मुद्रणके समय पिताजी तो इस पक्ष में थे कि इस सूधमें 'संजद' पद और होना चाहिये, किन्तु स्व० श्री पं० हीरालालजी इस पक्ष में नहीं थे किन्तु स्व० श्री डॉ० हीरालालजी जो इस सम्बन्ध में कुछ समझते नहीं थे। इसलिए अन्तमें पिताजी सहित उन दोनोंकी रायसे यह तय हुआ कि टिप्पणी में यह लिख दिया जाये कि यहाँ 'संजद' पद होना चाहिए ऐसा मालूम पड़ता है। फिर भी प्रूफका कार्य पिताजी ही देखते थे, इसलिए पिताजीने मूल सूत्रको तो 'संजय' पदके बिना ही रहने दिया किन्तु उसके अर्थमें 'संयत' पद जोड़ दिया। बादमें यह सूत्र विवादका विषय बन गया। इसलिए बम्बईकी समाजके आमंत्रण पर दोनों पक्ष के विद्वान् वहाँ एकत्रित हुए ।
'संजद' पदके पक्ष में पिताजी, श्री पं० कैलाशचन्द्र जी और स्व० श्री पं० वंशीधर जी न्यायालंकार थे । विरोध पक्ष में स्व० श्री पं० मक्खनलालजी शास्त्री, स्व० श्री क्षुल्लक सूर सिंह जी और स्व० श्री प० रामप्रसाद जी आदि थे। दोनों पक्ष के विद्वानोंमें तीन दिन तक लिखित चर्चा चलती रही। अन्तमें विरोधी पक्ष के विद्वानोंने रिकार्डको कॉपी रख ली और समाजसे घोषणा करा दी कि तीन दिनके लिए ही सबको आमंत्रित किया गया था अतः यह बैठक समाप्त की जाती है ।
इस प्रकार इस बैठकसे नतीजा तो कुछ नहीं निकला परन्तु स्व० डॉ० हीरालालजी 'द्रव्य स्त्री मोक्ष जा सकती है, इसके पक्षधर अवश्य बन गये । अतः इस विषयको लेकर पिताजी और डा० सा० के मध्य जैन संदेश के द्वारा लेख माला चलती रही जो श्री पिताजी को लीवर का रोग हो जानेसे रुक गई जिसे स्व० श्री पं० नाथूराम जी प्रेमीने पुस्तकाकार रूपमें छाप दिया उसे पढ़कर प्रज्ञाचक्षु स्व० श्री पं० सुखलाल जी संघवी ने एक पत्र द्वारा यह स्पष्टीकरण किया था कि अभी तक पक्ष प्रतिपक्षमें जितने वाद-विवाद चले हैं उनमें इतनी शालीनता नहीं रखी गई जितनी इस वाद विवाद में देखी गई। साथ ही पिताजी के विषय में उन्होंने यह भी लिखा कि यदि समाज पिताजीका पूरी तरहसे सदुपयोग करे तो वे समाजके लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं । स्व० पं० सुखलालजी के अभिनन्दन ग्रन्थ में यह पत्र छपा है ।
पिताजीका जहाँ तक ख्याल है कि पूर्वोक्त दोनों घटनाएं लीवर की बीमारी से पहले ही घटित हो गई थीं ।
सन् १९४५-४६ के आस पास सोनगढ़से विद्वत् परिषद्को आमन्त्रण मिलनेपर, पिताजीने कार्यकारिणी की स्वीकृति पूर्वक निद्वत् परिषद्का एक अधिवेशन सोनगढ़ में सम्पन्न कराया। वहाँ विद्वत परिषद् कार्यालय का कर्मचारी बीमार पड़नेपर, पिताजीको सोनगढ़ १५ दिन रुकना पड़ा। इस कारण पिताजी श्री कानजी स्वामी व अन्य प्रमुख सदस्योंके सम्पर्क में आये ।
जहाँतक पिताजीको स्मरण है, प्रवचनके बाद पंचाध्यायी के आधारपर शंका समाधान विशेष रूपसे चला करता था। उसमें कार्यकारण भाव मुख्य रहता था। उस समय कुछ भाइयोंका यह कहना था कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org