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५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
३. विरोध पक्षवालोंने जीर्णोद्धार, शास्त्रोद्वार और असहाय लोगोंकी सहायता आदिकी तरफ ध्यान देनेके लिए श्रीमानोंका ध्यान आकर्षित करनेकी कोशिश की है, इसमें उनकी यह सद्भावना प्रशंसनीय है । समाजोद्वार, जिनवाणी प्रचार अज्ञान निवारणके लिए जनताका विशेष रूपसे जो ध्यान आकर्षित किया है, उनकी उस अन्तःकरणसे निकली हुई भावनाका हम स्वागत करते हैं और इसलिए यह उचित प्रतीत होता है कि हमारे धर्म प्रभावक उदार श्रीमान् आगम सम्मत शास्त्रोद्धार, जीर्णोद्धार व इतर धार्मिक कार्योंकी आर ध्यान देवें ।
इस प्रकार पिताजी द्वारा अनेक गतिविधियों तो चल ही रही थीं कि उनके दूसरे साले श्री गोकुलचन्दजीने सत्याग्रह करनेका निश्चय किया । उसमें सम्मिलित होनेके लिए पिताजी भी लडवारी गए। श्री गोकुलचन्द जी उसी समय गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें ललितपुर जेल भेज दिया गया। किन्तु पिता जी उस समय बीना लौट आये। कुछ दिनों बाद श्री गोकुलचन्द जीके मुकदमेकी सुनवाई देखनेके लिए पिताजी ललितपुर गये। वहाँ पर कचहरी में ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया ।
इसी समयकी एक पटना पिताजीके जीवन के अन्य पहलूपर प्रकाश डालती है। वारंट कटनम कुछ समय लग रहा था। गर्मीका मौसम तो था ही अतः प्यास लगनेपर उन्होंने सिपाहीसे कहा। सिपाहीने जवाब दिया कि वह मुसलमान है। यह सुनकर पिताजीने कहा कि मैं काँग्रेसी हूँ। फिर भी मैं आपके तामलोरका व घड़का पानी नहीं पीऊँगा। अन्य कोई भी व्यवस्था करें तो मुझे पानी पीने में एतराज नहीं है। यह जवाब सुनकर सिपाही प्रसन्न हुआ और एक ब्राह्मणको बुलवाकर कुएँ से पानी पिलवाया ।
न्यायाधीशने पिताजीको १ माहकी कैद व एक सौ रुपया जुर्माना किया। जुर्माना न देनेपर ३ माह की सजा सुनवाई। किन्तु घरसे जुर्माना वसूल हो जानेपर पिताजीको कच्ची कैदमें १९ दिन तथा झाँसी जेलमे १ महीना ११ दिन रहना पड़ा । झाँसी जेल में रहते हुए पिताजी बीमार हो गये, इसलिए उन्हें जेलके अस्पताल में भेज दिया गया । वहाँ पर उन्हें दलिया और दूध दिया जाता था किन्तु दूधमें मिलावट होनेके कारण वे उसे पी नहीं पाते थे और बगलमें पड़े नाईको दे देते थे । इस कारण पिताजी भूखसे पीड़ित रहने लगे ।
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नाईसे पिताजीकी यह दशा नहीं देखी गयी। इसलिये वह किसी प्रकार अस्पतालसे निकलकर किसी अफसरके यहाँ गया और उनकी सेवा करके दो रोटियाँ और करेलेकी सब्जी ले आया । उन्हें पिताजीके सामने रखकर कहने लगा, “आपके लिए ही हम लाये हैं आप खा लो।" किन्तु पिताजीने मना करते उससे हुए कहा, "तुमने इनको प्राप्त करनेके लिए श्रम किया है इसलिए इन्हें तुम ही खाओ ।" अन्तमें वह रोने लगा इसलिए बाँटकर दोनोंने खाया । खाते हुए पिताजी उससे बोले, "इस चहारदीवारीके भीतर तो हम तुम भाईभाई हैं, किन्तु जेलसे बाहर जाने पर मैं जैन और तुम नाई। फिर मैं तुम्हारे हाथका नहीं खाऊँगा ।"
सजा पूरी होनेपर जेलसे छूटकर पिताजी बीना चले आये और घरपर रहने लगे । इसी बीच मथुरा संघके प्रधान मन्त्री श्री पं० राजेन्द्रकुमारजीका पत्र आया कि पिताजी बनारस आकर कषायपाहुड़ ( जयधवला) के सम्पादन में योगदान करने लगे । इसलिए पिताजी सन् १९४१ में बनारस चले गये और कषायपाहुड़ (जयधवला) के सम्पादनका भार सम्भाल लिया ।
इस कार्य में श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और स्व० श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य भी योगदान करते थे । पिताजी पूरे समय कार्य करते थे और उनका मुख्य कार्य ग्रन्थका अनुवाद करना होता था । इन अनुवादको पं० कैलाशचन्द्रजी देखते थे और पं० महेन्द्रकुमारजी टिप्पण आदि तैयार करते थे। इस प्रकार प्रथम भागका कार्य तीनोंके सम्मिलित प्रयत्नसे चलता रहा। प्रथम भागका मुद्रण हो जाने पर स्व० पं०
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