________________
द्वितीय खण्ड ५३
कुरवाईमें परवार सभाका अधिवेशन होनेपर पिताजीकी ओरसे यह प्रस्ताव रखा गया कि दस्साओं को मन्दिर प्रवेश एवं पूजा प्रचालका अधिकार दिया जाये। पिताजी द्वारा यह प्रस्ताव रखे जानेपर दोनों ओर से वाद-विवाद चलता रहा । अन्तमें यह सुझाव आया कि दोनों ओर एक उपसमितिका निर्माण किया जाये और उसके अध्यक्ष पं० देवकीनन्दनजी हों और दिनमें उसकी बैठक होकर उसमें जो निर्णय हो उसको सभाके सामने रखा जाये। इस आधारपर दोनों ओरके सदस्योंकी एक उपसमिति बनी। समाजकी ओरसे स्व० सवाई सिंघई गनपतलालजी गुरहा, खुरई, सवाई सिंघई धन्यकुमारजी, कटनी स्व० श्री चौधरी पलटूरामजी, ललितपुर और श्री पं० जगन्मोहनलालजी, शा० कटनी, चुने गये, पिताजीकी ओरसे स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, स्व० श्री नन्दकिशोरजी वकील, विदिशा और पिताजी चुने गये ।
,
दूसरे दिन दोपहरको १ बजे यह सम्मिलित बैठक हुई जो तीन घंटे चली बैठक इस नतीजेपर पहुँची कि सभा यह प्रस्ताव पास करे कि 'अपने-अपने गाँवकी परिस्थितिको ध्यान में रखकर दस्साओंके लिये मन्दिर खोल दिया जाये । परवार सभा इसमें पूरी तरह सहमत है।' इस प्रस्तावको परवार सभाने स्वीकार कर लिया । फलस्वरूप पिताजीने यह आन्दोलन करना बन्द कर दिया ।
पिताजीको सदासे ही यह चिन्ता रही है कि समाजका पैसा व्यर्थ में खर्च न हो। ऐसे बहुत से कार्य हैं। जिनकी ओर समाज बिल्कुल ध्यान नहीं देती । जैसे कि समाजके बहुतसे व्यक्ति असमर्थ या आजीविका हीन हैं । ऐसी बहुतसी विधवायें हैं जिनके संरक्षण व खाने पीनेकी समुचित व्यवस्था नहीं है, ऐसे बहुत से पुराने मन्दिर हैं जो जर्जर स्थिति में हैं और उनकी मरम्मत व पूजनादिकी समुचित व्यवस्था नहीं है । देश कालके अनुसार साहित्यको प्रकाशमें लानेकी ओर भी समाज ध्यान नहीं देती है। ये और इसी प्रकारकी कई और भी जटिल समस्याएँ हैं जिनकी ओर समाजका चित्त आकर्षित करनेके लिए तथा जहाँ मन्दिरों व वेदियोंकी बहुलता है, वहाँ नये मन्दिर या वेदियों का निर्माण रोकनेके लिए, पिताजीने गजरथ विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ किया था। पिताजी जहाँ आवश्यकता हो वहां पंचकल्याणक प्रतिष्ठाके विरुद्ध नहीं थे। किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा के ख्यालसे जो भाई आवश्यक रूपसे मन्दिर या वेदीका निर्माण कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि द्वारा गजरथ चलाकर सिंघई, सवाई सिंघई आदि बनते हैं उसके विरुद्ध अवश्य है ।
इस आन्दोलनका समाजने स्वागत भी किया और विरोध भी फल स्वरूप जबलपुरमें इसपर विचार करनेके लिए परवार सभाका एक अधिवेशन बुलाया गया। उसमें पिताजी भी सम्मिलित हुए । इस समाजकी यह विशेषता है कि पिताजीका एक विरोधीके रूपमें सम्मिलित होनेपर भी उनके साथ किसी प्रकारका असदव्यवहार नहीं किया गया। किन्तु सभाका अधिवेशन प्रारम्भ होनेपर उनके बगल में श्री रज्जूलाल बरयाको अवश्य बिठा दिया गया। परिणामस्वरूप पिताजी जब गजरथ विरोधी आन्दोलनके प्रस्ताव के समर्थन में बोलनेके लिए खड़े होना चाहते थे तो श्री रज्जूलाल वरया पिताजीका कुरता पकड़कर उन्हें उठने नहीं देते थे, और कहते थे कि तुम अपने पिताजीसे पूछो कि वे इन्द्र-इन्द्राणी क्यों बने थे । अंतमें पू० पं० देवकीनन्दनजी सर्वानुमति से पंच चुने गए और सभाने यह तय किया कि देवगढ़ के गजरथमें उनके फैसलेको घ्यानमें रखा जाए। पू०प० जीने अन्तमें जो फैसला दिया उसकी मुख्य बातें इस प्रकार है
१. विरोध पक्षकी यह दलील कि समाजमें बेकारी, अशिक्षा, जीर्णोद्धार, शास्त्रोद्धार आदिमें समर्थक पक्षकी भी सहानुभूति है ।
२. विशेष पक्षने जो गजरथ प्रथाको आज अनावश्यक व अनुपयोगी सिद्ध करना चाहा था उसका खंडन करके समर्थक पक्षने उसकी आवश्यकता व उपयोगिता भली-भाँति सिद्ध की है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org