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द्वितीय खण्ड ५१
वहाँ रहते हुए पिताजीने आचार्य शान्तिसागर सरस्वती भवनकी ओरसे एक प्रेसकी स्थापना कर उसका संचालन किया और उसकी ओर से " शान्ति सिन्धु' नामक मासिक पत्रका सम्पादन भी किया । पत्र लगभग दो वर्ष चला ।
इसी बीच एक क्षुल्लक श्री विमलसागरजीको पिताजी पढ़ाते रहे। वे बेलगाँव के रहने वाले थे जहाँ उन्होंने गांवके बाहर जंगलमें एक कुटिया बना रखी थी। गर्मीमें वे वहाँ चले गये और वहाँके भाइयों द्वारा पिताजीको आमन्त्रित कर लिया। वहाँ पर पिताजी एक महीना रहे। वहाँ रहते हुए वे रात्रिमें क्षुल्लकजी के पास चले जाते थे । सेठ कल्लप्पा अन्ना लेंगड़ेका एक नोकर लालटेन लेकर पिताजीको वहाँ पहुँचा आता था, और सुबह १० बजे वे सेठजीके घर आ जाते थे और दिनमें वहीं रहते थे। रातको पुनः कुटिया पर चले जाते थे। एक दिन पता लगा कि सेठजीको पत्नी पिताजीको झूठी थाली नहीं छूती है। यह ज्ञात होनेपर पिताजीने सेठजी से कहा कि वे उनके यहां भोजन नहीं करेंगे। कारण पूछनेपर पिताजीने बताया कि आपके घरपर आपस में भी छुआ-छूत का पालन होता है । यह सुनकर सेठजी बोले कि उसे ( पत्नीको ) तो वे समझा नहीं सकते, पर जब वे नातेपुते आयेंगे तो पिताजीके घर अवश्य भोजन करेंगे। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने इस वचनका पालन भी किया ।
जैसा कि अभी-अभी लिखा जा चुका है कि सेठजीका आदमी रोज रातको पिताजीको कुटिया में पहुँचा आता था। एक दिन वह पिताजीको पहुंचाने गया तो उसने कुटियाके पीछे कुछ लोगोंको मन्त्रणा करते देखा । यह देखकर उसने पिताजी से कहा कि पंडितजी कुटियाके पीछे चोर बैठे हैं। यह सुनकर पिताजीने कहा कि होंगे हमें क्या मतलब, और भयवश लघुशंका करने लगे। इसके बाद कुटिया में पहुँचकर दरवाजा बन्द कर लिया । फिर उन लोगोंने नौकरको पकड़कर मारना शुरू कर दिया। नौकरकी चिल्लाहट सुनकर पिताजीने थोड़ा दरवाजा खोला कि उनके कुल्हाड़ी दिखानेपर दरवाजा बन्द कर लिया । फिर भी उसे पिटवा हुआ देखकर पिताजीके पुनः दरवाजा खोलनेपर, उन लोगोंने नौकरकी कमीज, पायजामा व लालटेन छुटा ली व उसे धक्का देकर कुटियाके अन्दर कर दिया। अन्त में जब पिताजी वहाँसे चलने लगे तो सेठजीने उन्हें सत्कारपूर्वक बिदा किया ।
सन् १९३६-३७ में फलटण में व्यवहारवादी और अध्यात्मवादी भाइयोंके मध्य भाव मनको लेकर वाद-विवाद चल पड़ा समस्याका हल न देखकर, "शान्ति सिन्धु" के सम्पादक होने के नाते पिताजीको लिखा गया। पिताजीने "शान्ति सिन्धु" में टिप्पणी द्वारा उसका खुलासा किया, किन्तु उससे व्यवहारवादी सन्तुष्ट नहीं हुए और पिताजीको फलटण बुलाया । वहाँ पहुँचकर पिताजीने अनेक प्रमाण देकर उन्हें समझाया फिर भी वे लोग संतुष्ट नहीं हुए। उनका कहना था कि भाव मनसे केवलज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए वह वात्माकी शुद्ध पर्याय है बहुत चर्चा होने बाद उन्होंने पिताजीको पुनः स्पष्टीकरण लिखनेको कहा। पिताजीने इस विषयको ध्यान में रखकर एक स्वतन्त्र लेख "शान्ति सिन्धु" में प्रकाशित किया। उस लेखमें पिताजीने स्पष्ट कर दिया कि "भाव-मन आत्माके ज्ञानकी विभाव पर्याय है किन्तु पुदगलके निमित्त से होने के कारण उसे आगम पौद्गलिक भी स्वीकारता है। इसलिए स्वभावके आलम्बनसे होनेवाला उपयोग ही स्वभाव पर्यायका उपादान हो सकता है, अन्यका आलम्बन करने वाला उपयोग नहीं ।" परन्तु इस चर्चाने आगे चलकर इतना तूल पकड़ा कि अन्तमें पिताजीको वहाँसे हटना ही पड़ा ।
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इस प्रकारकी घटनायें पिताजीके आ गये । इतना सब हो जानेके बाद भी चालू रखा ।
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जीवनमें भरी पड़ी है। नातेपुते छोड़कर पिताजी बीना अपने घर उन्होंने अपनी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों को बराबर
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