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आत्मविलास ]
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माधारण मनुष्य अपने सुख-दुखको भली-भाँति पहिचानते है । किस प्रकार सासारिक सुख सम्पादन किया जाय ? किस प्रकार मांसारिक दुखो छुटकारा पाया जाय ? इनके सामान्य साधन भी वह जानता है और करता है । यहाँ वह अनेकानेक सांसारिक विद्याओ का मंग्रह करके बुद्धिके विचित्र-विचित्र आविष्कार निकालता है । बुद्धिवलसे भाप व विद्युत आदि पर भी अपना अधिकार जमाता है और देश कालका उच्छेद करता है । अब वह साढ़े तीन हाथके अन्दर ही परिच्छिन्न नहीं रह जाता, चरन निराधार-तार (Wireless Telegraphy) के जरिये अपने फानोंसे हजारो मीलके शब्द सुनता है। वायुयान आदि के
रिये अपने पॉच सैंकडो मीलकी रफ्तारके बना लेता है, जो पूर्ण सत्त्वगुण व पूर्ण बौद्धिक विकासका परिचय देते हैं।
इस प्रकार पापारण योनिसे आरम्भ करके जीवभावका विकास प्रकृति के तले पलटा खाता हुआ मनुष्नयोनि पर्यन्त विकसित हो आया । नोचेकी योनियांमे जीव अपनी-अपनी प्रकृतिके अधीन था। उसकी खान-पान, रहन-सहन, सोनाजागना, मैथुनादि सर्व चेष्टा प्रकृतिके अधीन होती थी। कोई चेष्टा श्रपनी प्रकृतिके विरुद्ध करनेमे वह समर्थ नही था और न अपनी चेष्टाश्रमे उसका कर्तृत्व अकार ही विकसित हुआ था । इसलिये उसकी सव चेष्टाएँ प्रकृति के अनुकूल ही होती थीं, इमोलिये उन योनियां मे अपने किसी कर्मको जुम्मेवारी भी उस पर लागू नही हो सकती थी और वह अपनी चेष्टाओं के लिये किसी प्रकार पाप-पुण्यका भागी भी नहीं बनाया जा सकता था । दृष्टान्तस्थल पर समझ सकते है कि सिंहका भोजन केवल मां है, इसके लिये वह किसी जीव-हिमाका उत्तरदाता नहीं ठहराया जा सकता प्राकृतिक रूपसे उसके अगोंकी रचना ही
मनुष्ययोनि मे पुण्य-पाप का बन्धन क्योंकर हुआ
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