Book Title: Madhyam vrutti vachuribhyamlankrut Siddhahemshabdanushasan Part 01
Author(s): Kshamabhadrasuri, Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितं मध्यम वृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतं श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनम् भाग-१ Oo * प्रकाशक * श्री रंजनविजयजी जैन पुस्तकालय मालवाडा जि. - जालोर (राज.) 343039 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहं . श्री बुद्धितिलक शान्ति कनक रत्नशेखर सद्गुरुभ्यो नमः आचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितं मध्यम वृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतं श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनम् . * शुभाशिर्वाद दाता * कलिकुंड तीर्थोदारक आ. वि. श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. . * प्रथम संपादक * आ.वि.क्षमाभद्रसूरीश्वरजी म.सा. * पुन: संपादक * स्व.आ.वि. श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य रत्न आ.वि. रत्नाकर सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य मुनि श्री रत्नज्योतविजयजी - का * प्रेरणा * स्व. साध्वीजी श्री सौभाग्य श्रीजी के विदषी शिष्या सा. श्री सूर्यप्रभाश्रीजी * प्रकाशक * श्री रंजनविजयजी जैन पुस्तकालय मालवाडा जि. - जालोर (राज.) 343039 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत भक्ति श्री वासुपूज्य जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ श्री सत्यपुर गच्छ 'सांचोर' (सत्यपुर) राज. |: प्राप्तिस्थान : * श्री रंजन विजयजी जैन पुस्तकालय मालवाडा जि. - जालोर (राज.) 343039 . शारदाबेन चीमनलाल एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर "दर्शन" राणकपुर सोसायटी के सामने शाहीबाग - अहमदाबाद - 4. फोन :- 7868939 मूल्य :- 100=00 रु. मुद्रक :- श्री पार्श्व कोम्प्युटर्स, 33, जनपथ सोसायटी, घोडासर केनाल, घोडासर, अहमदाबाद - 380 050. फोन :- 396246. ये पुस्तक ज्ञान द्रव्य में से प्रिन्टींग करवाइ है, इस हेतु श्रावक वर्ग किंमत देकर पुस्तक प्राप्त करे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण परमोपकारी ! विचक्षणमतिमान् ! अनुशासन व निरतिचार चारित्र पालन कराने में अग्रेसर ! चारित्र चित्र को संगीन व रंगीन बनाने के मशहूर कलाकार ! पदार्थ प्रवीण ! प्रमाद प्रजेता ! कलिकुंड तीर्थोद्धारक ! आचार्यदेवश्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलो में यह प्रकरण पुष्प समर्पित करता हुआ आनंद का आस्वाद पा रहा हूँ। ___- मुनि रत्नज्योत Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुसारिणी पृष्ठ संख्या. विषय पृष्ठ संख्या प्रथमाध्याय 13-21 1. प्रथम पाद... 2. द्वितीय पाद 3. तृतीय पाद..... 4. चतुर्थ पाद ............ द्वितीयाध्याय 22-39 39-63 ... 5. प्रथम पाद... 6. द्वितीय पाद 7. तृतीय पाद. 8. चतुर्थ पाद .. तृतीयाध्याय 103-146 147-179 ..... 179-209 9. प्रथम पाद..... ... 210-262 .. 263-301 10. द्वितीय पाद ............... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः प्राकट्य के प्रांगण में जगत में अनादिकाल से व्यवहार धर्म को प्रधानता प्राप्त हुई है / भाषा व्यवहार का मुख्य कारण है / भाषा के अनुसार ही व्यक्ति का मूल्यांकन होता है / भाषा की नीव व्याकरण है / दुनिया में संस्कृत व्याकरण सबसे अग्रेसर है, क्योंकि शब्द की अर्थानुसार व्युत्पत्ति अन्यत्र पूर्ण रुप से प्राप्त नहि होती, इस व्याकरण के नियम हमेशा अटल रहे है / "भवति" का अर्थ जो हजार साल पहेल था वहीं आज है / आर्य संस्कृति के सभी ग्रंथ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में पाये जाते है। अतःपूर्व महर्षिओ के हार्द को समझने के लिये व्याकरण अत्यंत आवश्यक बनता है / . सिद्धराज की विनंती व इच्छा से कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यने 1,25,000 श्लोक प्रमाण व्याकरण की रचना की / उसमें से. काल राक्षस न्यास का बडा भाग कवल कर गया / लेकिन आज भी लघुवृत्ति। मध्यमवृत्ति / बृहद्वृत्ति विद्यमान है / उसके आधार से अनेक संस्था में व्याकरण का पठन पाठन चल रहा है / लेकिन लघुवृत्ति से पूर्वापर का संकलन मध्यमबुद्धिवर्ग को दुःशक है और बृहद्वृत्ति में प्रवेश शक्य नहि है / इसलिए ज्यादातोरसे मध्यमवृत्ति की मांग रहती है / . इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन हेतु विद्वद्वर्य क्षमाभद्रसूरीश्वरजीने अज्ञातकृत अवचूरि के साथ प्रारंभ किया था / लेकिन अफसोस कार्य काल दीर्घ बन गया. परन्तु आयु काल दीर्घ न बन सका / आचार्यश्री अपूर्ण कार्य को छोडकर स्वर्गवासी बन गये / बाद में विक्रमविजयजीने कार्य पूर्ण करके प्रकाशित किया। प्रकाशित पुस्तके अल्प संख्या में तथा जीर्ण अवस्था में है / पाठक वर्ग की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है / पं. वसंतलाल (महेसाणा), पं. चन्द्रकान्तभाई (पाटण) एवं अन्य विद्वान वर्गने इस ग्रंथ को पुनः प्रकाशन करने हेतु प्रेरणा दी / इन सभी बातो को ध्यान में रखकर मुनिश्रीने शंकाशील स्थानो का अन्य अवचूरि व बृहद्वृत्ति एवं हस्तप्रतो के आधार से आंशिक स्पष्टीकरण करके पुनः प्रकाशन का कार्य हाथ में लिया / इस ग्रंथ में 10 पाद समाविष्ट है / अग्रिम अध्याय का प्रकाशन हेतु प्रयास जारी है / प्रभु से प्रार्थना है कि शीघ्र ही प्रकाशन कार्य सिद्ध बनें / - अन्त में इतना ही चाहता हूं कि पाठक वर्ग व्याकरण से भाषा शुद्धि ओर परंपरा में आत्मशुद्धि को प्राप्त करें / आ.वि. रत्नाकरसूरि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहं // बुद्धितिलकशान्तिकनकरत्नशेखरसद्गुरुभ्यो नमः / आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृतं श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनम् // श्रीश्रुतदेवतायै नमः // प्रणम्य परमात्मानं श्रेयः शब्दाऽनुशासनम् / आचार्यहेमचन्द्रेण स्मृत्वा किञ्चित् प्रकाश्यते // 1 // अ० प्रणम्य, परमात्मानं, श्रेयः शब्दानुशासनं, आचार्यहेमचन्द्रेण, स्मृत्वा, किश्चित्, प्रकाश्यते, इति श्लोकेऽष्टौ पदानि / अर्थ पदार्थ उच्यते / ‘णमं प्रहत्वे' णम् / 'पाठे धात्वादेर्णो नः' (2 / 3 / 97) इत्यनेन नम्। प्रः पूर्वम् / प्रणमनं पूर्वं प्रणम्य / 'प्राक्काले' (5 / 4 / 47) इत्यनेन क्त्वा, ‘अनञः क्त्वो यप्' (3 / 2 / 154) इत्यनेन क्त्वास्थाने यप्, ‘अदुरूपस०' (2 / 3 / 77) इति नस्य णः, ततः प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति सेर्लोपः प्रणम्य / 'पृश् पालनपूरणयोः' पृ पृणोति पूरयति तान् 2 भावानिति परमः, 'सृपृप्रथिचरिकडिकदेरमः' (347) इत्युणादिसूत्रेण अमप्रत्ययः, 'नामिनो गुणो०' (4 / 3 / 1) इति गुणः, 'लोकात्' (1 / 1 / 3) इति परगमनम्। 'अत सातत्यगमने' अत् / अतति सातत्येन गच्छति तान् 2 पर्यायानिति आत्मा ‘सात्मनात्मन्छ' (916) इति निपातः मन्प्रत्ययः, अतेर्दीर्घश्च / परमश्चासावात्मा च, तम् / द्वितीयाऽम् ‘नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' (1 / 3 / 14) इति म् इत्यस्यानुस्वारः परमात्मानं / 'शंसू स्तुतौ च' शंस् प्रः पूर्वम् / प्रशस्यत इति प्रशस्यः ‘कृवृषिमृजिशंसिगुहिदुहिजपो वा' (5 / 1142) इति क्यप् / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इति [क्पावितौ] यः तिष्ठति / 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः' (4 / 2 / 45) इति न्लोपे प्रशस्य इति / इदं पूर्वाचार्यप्रणीतं व्याकरणजातं प्रशस्यं / इदं च सम्प्रति प्रारभ्यमाणं सिद्धहेमचन्द्राभिधानं शब्दानुशासनं प्रशस्यं / अनयोर्मध्ये इदमतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः / 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (7 / 3 / 9) इति ईयस्, ‘प्रशस्यस्य श्रः' (7 / 4 / 34) इति अनेन श्र आदेशः, 'अवर्णस्येर्णादिनै०' (1 / 2 / 6) इत्येत्वं ईता सह / प्रथमासिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति सेल्प् ‘सोरुः' (2 / 1 / 72) इति सस्य रः, 'रः पदान्ते०' (1 / 3 / 53) इति रस्य विसर्गः श्रेयः / 'शपी आक्रोशे' शप्, शपति दुरुच्चारकमिति शब्दः, 'शाशपिमनिकनिभ्यो दः' (237) इति दः। 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इत्यनेन पस्य बः / 'शासूक् अनुशिष्टौ' शास् / अनुपूर्वम् / अनुशिष्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेत्यनुशासनं 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) इत्यनट् / शब्दानामनुशासनं शब्दानुशासनं, प्रथमासिः / ‘अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) इति सेरम्। 'समानादमोऽतः' (1 / 4 / 46) इति अमोऽस्य लुप्। 'चर भक्षणे' चर्, आयूर्वम् / आचर्यते सेव्यते विनया) विद्याग्रहणार्थं वा शिष्यरित्याचार्यः / 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण' (5 / 1 / 17) / अथवा आचरणं आचारः ‘भावाकोंः' (5 / 3 / 18) घञ् 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः / आचारे साधुः 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) इति यः। 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति अस्य लोपः / आचार्यश्चासौ हेमचन्द्रश्च आचार्यहेमचन्द्रः / तेन टा / ‘टाडसोरिनस्यौ' (1 / 4 / 5) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इति टास्थाने इन, 'अवर्णस्येवर्णा०' (1 / 2 / 6) इति ए, 'रघुवर्णान्नो ण एकपदे०' (2 / 3 / 63) इत्यादिना नस्य णः आचार्यहेमचन्द्रेण / ‘स्मृ आध्याने' स्मृ स्मरणं पूर्वम् 'प्राक्काले' क्त्वा स्मृत्वा / 'टुक्षुरुकुंक् शब्दे' कुः / कौतीति किम् ‘कोर्डिम्' (939) / 'चिंग्ट् चयने' चि / किम्पूर्वम् / किमप्यल्पं चिनोति क्विप् ‘ह्रस्वस्य तः पित्कृति' (4 / 4 / 113) इति तोऽन्तः, ‘अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इति विप्लोपः 'तौ मु०' इति किञ्चित् / किश्चिदिति क्रियाविशेषणमतो द्वितीयाऽम्, अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति अम् लुप्यते / अथवा 'किमः सर्वविभक्त्यन्तात् चित् चनौ' इति किञ्चित् इति सिद्धम् / किञ्चिदित्यखण्डमव्ययं वा तदा प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' (3 / 27) इति लुप् / 'काशृङ् दीप्तौ' / प्रः पूर्वम् / प्रकाश्यते शब्दानुशासनं कर्तृ, तत्प्रकाशमानं शब्दानुशासनमाचार्यहेमचन्द्रेण प्रयुज्यते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) इति णिग्, अप्रयोगीत् इः / वर्तमानाते। 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) इति क्यः ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) इति णिगो लुप् प्रकाश्यते / अथ श्लोकार्थ उच्यते / परमात्मानं श्रीअर्हन्तं प्रणम्य शब्दानुशासनं व्याकरणं श्रेयः प्रशस्यं प्रधानं शिवहेतुत्वाद्वा श्रेयः / यतः, 'व्याकरणात् पदसिद्धिः पदसिद्धेरर्थनिश्चयो भवति / अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः // 1 // ' ईदृशं शब्दानुशासनं आचार्यहेमचन्द्रेण किञ्चित् पाणिन्यादिकमुपयुज्य अथवा 'किञ्चिद् गुर्वाम्नाय-तत्त्वं ध्यात्वा किश्चित् अल्पं वा प्रकाश्यते शिष्याणां प्रदर्श्यते इति भावः // 1 // अर्ह // 11 // 1 // अहमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकं मङ्गलाऽर्थ शास्त्रस्यादौ प्रणिदध्महे [ध्यायामः]॥१॥ अ० 'अर्ह मह पूजायाम्' / अर्ह / अर्हति अष्टप्रातिहार्यपूजामित्यहँ / 'अः' (2) इत्युणादिसूत्रेण अं। 'पृषोदरादयः' (3 / 2 / 155) इति सानुनासिकत्वं कलाबिन्दुः ? / अथवा अर्हमिति मान्तोऽप्यस्ति अव्ययम् / सिः, 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुप् / अहँ इति अक्षरं पदं परमेश्वरस्य जगन्नाथस्य एकस्यैव परमेष्ठिनोऽर्हद्भगवतो वाचकम् / अहँकारेण अर्हनैव ध्यायते इति भावः // 1 // सिद्धिः स्याद्वादात् // 11 // 2 // स्याद्वादादऽनेकान्तवादात् प्रकृतानां शब्दानां सिद्धिनिःपत्ति प्तिश्च [परिज्ञानं वा] वेदितव्या॥२॥ ___ अ० 'षिधू गत्यां' षिध् / 'षः सोऽष्टयैष्ठिवष्वष्कः' (2 / 3 / 98) इति सिध् / सेधनं सिद्धिः, 'स्त्रियां क्तिः' (5 / 3 / 91) 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) ति, 'अधश्चतुर्थात्तथोर्धः' (2 / 1 / 79) इति तकारस्य धः / तृतीयस्तृतीय०' (1 / 3 / 49) इति धस्य दः सिद्धिः / स्यात् इति विभक्त्यन्तप्रतिरूपकमव्ययं अनेकान्तमार्गद्योतकं ज्ञेयम्। 'वद व्यक्तायां वाचि' वदनं वादः ‘भावाकोंः ' (5 / 3 / 18), घञ् ‘ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः / स्यात् इत्येतस्य वादः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः / तस्मात् / प्रकृतानां प्रस्तुतानां व्यावहारिकशब्दानाम् // 2 // लोकात् // 11 // 3 // __ अनुक्तानां संज्ञानां न्यायानां च लोकाद्वैयाकरणादेः सिद्धिर्निष्पत्ति प्तिश्च वेदितव्या / वर्णसमाम्नायस्य च // 3 // तत्र - ___ अ० 'लोकङ् दर्शने' / लोक् / लोक्यते तत्त्वनिश्चयायेति लोकः घञ् / अनुक्तानामिति क्रियागुणद्रव्यजातिकाललिङ्गस्वाङ्गसङ्ख्यावीप्सालगादीनां संज्ञानां, न्यायानां परान्नित्यं नित्यादन्तरङ्गादीनां च / ज्ञप्तिः परिज्ञानं। वर्ण Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाम्नायस्य मातृकापाठस्य- लोकरूढस्यैव इति भावः / / 3 / / औदन्ताः स्वराः // 11 // 4 // औकाराऽवसाना वर्णाः स्वरसंज्ञाः स्युः (भवन्ति) / अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ 14 // 4 // अ० औत् अन्तेऽन्तो वा येषां ते / जस् / 'अत आ०:' (1 / 4 / 1) इति दीर्घः औदन्ताः / ‘राजृग् टुभ्राजि दीप्तौ' / स्वयंपूर्वम् / स्वयं राजन्ते शोभन्ते इति स्वराः 'कचित्' (5 / 1 / 171) इति डः / 'डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) / 'पृषोदरादयः' (3 / 2 / 155) इति स्वभावः / / 4 / / . एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः // 15 // मात्रा कालविशेषः / एकद्वित्र्युच्चारणमात्रा औदन्ता वर्णा यथासङ्ग्यं ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञाः स्युः। एकमात्रो ह्रस्वः - अ इ उ क ल 5 / द्विमात्रो दीर्घः - आ ई ऊ ऋ ल ए ऐ ओ औ 9 / त्रिमात्रः प्लुतः - आ 3 ई 3 ऊ 3 3 ३.लू 3 ए 3 ऐ 3 ओ 3 औ 3 // 5 // अ० एका च द्वे च तिम्रश्च एकद्वितिम्रः / एकाद्वितिम्रो मात्रा येषां ते एकद्वि० / 'सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) एकेत्यत्र पुंवद्भावः / मात्रेत्यत्र ‘गोश्वान्ते ह्रस्व०' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः / ततो जस् / ‘एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते / प्लुतः स्वरस्त्रिमात्रः स्याव्यञ्जनं चार्द्धमात्रकम्' // 1|| ||5|| अनवर्णा नामी // 11 // 6 // अवर्णवर्जा औदन्ता वर्णा नामिसंज्ञाः स्युः / इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ 12 // 6 // अ० अनवर्णेति / अवर्ण नञ्पूर्वं / न विद्यतेऽवर्णो येषु तेऽनवर्णाः, 'अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) नस्य अन्, ततो जस् / नमनं नामः / नामोऽस्यास्तीति नामी 'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6) इति इन् / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति अस्य लोपः / सिः / ‘इन्हन्पूषा०' (1 / 4 / 87) इति दीर्घः / ईः / 'दीर्घड्या०' (1 / 4 / 45) इति सिलोपः। 'नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इति नलोपः // 6 / / लृदन्ताः समानाः // 1 // 17 // टुकारावसाना वर्णाः समानाः स्युः / अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु 10 // 7 // _ अ० लुत् अन्ते येषां ते लृदन्ताः / समानमानं समानं तुल्यं मानं परिणाममेषां ते समानाः / 'समानस्य धर्मादिषु' (3 / 2 / 149) इति समानस्य सः / / 7 / / ए ऐ ओ औ सन्ध्य क्षरम् // 1 // 1 // 8 // - ए ऐ ओ औ इत्येते वर्णाः सन्ध्यक्षराणि स्युः // 8 // अ० एश्च ऐश्च ओश्च औश्च, जस् / सूत्रत्वाल्लोपः / 'डुधांग्क् धारणे' धा / सम् / सन्धानं सन्धिः / 'उपसर्गादः किः (5 / 3 / 87) 'इडेत्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) न क्षरति न चलति प्रधानत्वादक्षरम् / सन्धौ सत्यक्षरं सन्ध्य क्षरम् // 8 // ___ अं अः अनुस्वारविसर्गौ // 19 // अकारावुच्चारणार्थों / अं इति नासिक्यो वर्णः / अः इति च कण्ठ्यः / तौ यथासङ्ग्यमनुस्वारविसर्गों Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते स्याताम् // 9 // अ० अं च अश्च अंअः / 'औस्वं शब्दोपतापयोः' स्वृ / अनु / अनुस्वर्यते संलीनमुच्चार्यते इत्यनुस्वारः / वञ् / 'नामिनोऽकलिहलेः' (4 / 3 / 51) वृद्धिः / 'सृजंत् विसर्गे' सृज् / वि / विसय॑ते विरम्यते विरतिभूतोऽर्थः प्रतीयते / घञ् / 'क्तेऽनिटश्चजोः कगौ घिति' (4 / 1 / 111) जस्य गः / 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) गुणः / / 9 / / कादिर्व्यञ्जनम् // 1 // 110 // कादिवर्णो हपर्यन्तो व्यञ्जनं स्यात् / क ख ग घ ङ / च छ च झ ञ / ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न / प फ ब भ म / य र ल व / श ष स ह 33 // 10 // अ० 'डुदांग्क् दाने' आपूर्वम् / आदीयते गृह्यतेऽर्थोऽस्मात् इत्यादिः / 'उपसर्गादः किः' (5 / 3 / 87) 'इडेत्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) इत्याकारलुक् / क आदिरवयवो यस्य वर्णसमुदायस्य सः / 'अंजूप् व्यक्तिम्रक्षणगतिषु' अञ् / विपूर्वम् / व्यञ्जते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेन, 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) अनट् // 10 // ___अपञ्चमान्तस्थो धुट् // 11 // 11 // वर्गपञ्चमान्तस्थावर्जः कादिर्वणो धुट् स्यात् / क ख ग घ / च छ ज झ / ट ठ ड ढ। त थ द ध। प फ ब भ / श ष स ह / 24 // 1 // अ० 'पचुङ् व्यक्तीकरणे' / 'उदितः स्वरान्नोन्तः' (4 / 4 / 98) इति पञ्च् / पञ्चते निजसङ्ख्यामिति पञ्च / 'उक्षितक्षिअक्षिईशिराजिधन्विपश्चिपूषिक्लिदिस्निहिनुमस्जेरन्' (900) इति अन् / पञ्चानां पूरणः पञ्चमः / 'नो मट्' (7 / 1 / 159) इति मट् / 'नाम्नो नोऽनह्नः (2 / 1 / 91) इति नलोपः / पञ्चमाश्चान्तस्थाश्च पञ्चमान्तस्थं / न विद्यते पञ्चमान्तस्थं यस्य सोऽपञ्चमान्तस्थः / 'नञत्' (3 / 2 / 125) इति अः // 11 // पञ्चको वर्गः // 1 / 112 // कादिषु वर्णेषु यो यः पञ्चसङ्ग्यापरिमाणो वर्णः स स वर्गः स्यात् / क ख ग घ ङ 5 / च छ ज झ ञ 5 / ट ठ ड ढ ण 5 / त थ द ध न 5 / प फ ब भ म 5 / 25 // 12 // ___ अ० पञ्च संख्या मानमस्य ‘सङ्ख्याडतेश्वाशत्तिष्टे कः' (6 / 4 / 130) इति कः 'नाम्नो नोऽनह्नः' / (2 / 1291) / 'वृजींक् वर्जने' / वृज्यते पृथक्क्रियते विजातीयेभ्य इति वर्गः / घञ् / 'क्तेऽनिटश्चजोः कगौ घिति' (4 / 1 / 111) गः // 12 // आद्यद्वितीयशषसा अघोषाः // 111113 // वर्गाणामाद्यद्वितीया वर्णाः शषसाश्च अघोषाः स्युः / क ख / च छ / ट ठ / त थ / प फ / श ष स / 13 // 13 // ___अ० आदौ भव आद्यः / 'दिगादिदेहांशाद्यः' (6 / 3 / 124) इति यः / 'अवर्णेवर्णस्य' (74/68) इलोपः / द्वयोः पूरणः द्वितीयः 'द्वेस्तीयः' (7 / 1 / 165) / आद्याश्च द्वितीयाश्च शश्च षश्च सश्च आद्यद्वितीयशषसाः / 'घृष् शब्दे' घोषणं घोषः / पञ् / नञ्पूर्वम् / अविद्यमानो घोषो येषां तेऽघोषाः / / 13 / / अन्यो घोषवान् // 11 // 14 // Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः ___ अघोषेभ्योऽन्यो गादिवर्णो घोषवान् स्यात् / ग घ ङ / ज झ ञ / ड ढ ण / द घ न। ब भ म। य र ल व ह 20 // 14 // . अ० 'अन ष्वसक् प्राणने' / अनिति जीवति परार्थोऽनेनेति अन्यः / 'स्थाछामासासूमन्यनिकनिषसिपलिकलिशलिशकीjिसहिबन्धिभ्यो यः' (357) इति यः / घोषणं घोषः / घोषो ध्वनिर्विद्यते यस्य सः / तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' (7 / 2 / 1) इति मतुप्रत्ययः / ‘मावर्णान्तोपान्त०' (2 / 1 / 94) मस्य वः / सिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति न् / 'अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 90) इति दीर्घः / 'दीर्घड्यां०' (1 / 4 / 45) इति सिलुक् / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति तलोपः / घोषवान् इति / / 14 / / __यरलवा अन्तस्थाः // 11 // 15 // य र ल व इत्येतेऽन्तस्थाः स्युः // 15 // ___ अ० 'ष्ठां गतिनिवृत्तौ' ष्ठा / 'षः सोऽष्टयैष्ठिवष्वष्कः' (2 / 3 / 98) इति स्ठा / निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः इति स्था / अन्तपूर्वः / स्वस्य 2 स्थानस्यान्ते तिष्ठन्तीत्यन्तस्थाः / 'स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) इति कः। 'इडेत्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) इति आलोपः / 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्याप्रत्ययः / स्वभावादन्तस्थाशब्दः स्त्रीलिङ्गः बहुवचनान्तश्च // 15 // . अं अः क प श ष साः शिट् // 11 // 16 // अकपा उच्चारणार्थाः। अनुस्वारविसर्गी वज्राकृतिगजकुम्भाकृती च वर्णी शषसाश्च शिटः 7 स्युः // 16 // . तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः // 11 // 17 // स्थानं कण्ठादि / आस्ये प्रयत्नः आस्यप्रयत्नः स्पृष्टतादिः / तुल्यौ वर्णान्तरेण सदृशौ स्थानास्यप्रयत्नौ यस्य स वर्णस्तं प्रति स्वसंज्ञः स्यात् / तत्र त्रयोऽकारा उदात्तानुदात्तस्वरिताः। प्रत्येकं सानुनासिकनिरनुनासिकभेदात् षट् / एवं दीर्घप्लुतावित्यऽष्टादशभेदा अवर्णस्य / ते सर्वे कण्ठस्थाना विवृतकरणाः परस्परं स्वा भवन्ति / एवमिवर्णास्तावन्तः [अष्टादशरूपाः] तालव्या विवृतकरणाः स्वाः / उवर्णा [तावन्त एव] ओष्ठ्या विवृतकरणाः स्वाः। ऋवर्णा तावन्त एव] मूर्द्धन्या विवृतकरणाः स्वाः / लुवर्णा [तावन्त एवाष्टादशभेदाः] दन्त्या विवृतकरणाः स्वाः / सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वा न सन्तीति तानि प्रत्येकं द्वादशभेदानि / तत्र एकारास्तालव्या विवृततराः स्वाः / ऐकारास्तालव्या अतिविवृततराः स्वाः / वाः पञ्च पञ्च परस्परं स्वाः / यलवानामनुनासिकोऽननुनासिकश्च द्वौ भेदौ परस्परं स्वौ / रेफोष्मणां [रकारशषसहानां] त्वतुल्यस्थानास्यप्रयत्नत्वात् स्वा न भवन्ति [केनापि वर्णेन सह स्वसंज्ञका न भवन्ति // 17 // __अ० तुल्य / तुलामारोहति तुल्यं / 'हृद्यपद्यतुल्यमूल्य.' (7 / 1 / 11) इत्यादिना तुल्य इति निपातः / (तिष्ठन्ति वर्णा अस्मिन्निति 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) इति अनटि स्थानम् / अस्यति परिणमयत्यनेन वर्णानिति ऋवर्णव्यअनाद् इति बहुलवचनात् करणे ध्यणि आस्यम्) / 'यतैङ् प्रयत्ने' यत् / प्रपूर्वम् / प्रयतनं प्रयत्नः / 'यजिस्वपि०' (5 / 3 / 85) इति नः / यत्र प्रदेशे पुद्गलस्कन्धस्य वर्णभावापत्तिः तत्स्थानकं कण्ठादि / यदाहुः-'अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा / जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च' // 1 // अस्यति क्षिपति वर्णाननेन मुखेन कृत्वा आत्मा इति आस्यं मुखम् / ओष्ठात्प्रभृति प्राक्काकलकसंज्ञकात्कण्ठमणेघण्टेति प्रसिद्धस्य / आस्ये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते . प्रयत्नः आस्यप्रयत्नः / आत्मन आन्तरः संरम्भः / स च चतुर्धा भवति- स्पृष्टता ईषत्स्पृष्टता विवृतता ईषद्विवृतता। तत्र स्पृश्यन्ते स्म स्पृष्टा वर्णाः तेषां भावः स्पृष्टता / वर्णानां प्रवृत्तिनिमित्तं स्पृष्टताहेतुत्वात्प्रयत्नोऽपि स्पृष्टता उच्यते / करणं तु आत्मव्यापारः प्रयत्न इत्यर्थः / करणं च वर्णोत्पत्तिकाले कण्ठादिस्थानकानां आस्यप्रयत्नः च सहकारिकारणं जिह्वामूलमध्याग्रोपाग्ररूपं प्रोच्यते / अथास्यप्रयत्नः स्पृष्टताकरणम् / आस्यप्रयत्नः ईषत्स्पृष्टताकरणम्। आस्य० विवृतताकरणम् / आस्य० ईषद्विवृतताकरणम् / अथ वर्णानां किं 2 स्थानकं किं 2 स्पृष्टतादिकरणम् ? तदाह- अवर्णकवर्गहविसर्जनीयाः कण्ठ्याः / इवर्णचवर्गयशास्तालव्याः / उवर्णपवर्गोपध्मानीया ओष्ठ्याः / ऋवर्णटवर्गरषा मूर्धन्याः / लुवर्णतवर्गलसा दन्त्याः / ए ऐ कण्ठतालव्यौ / ओ औ कण्ठोष्ठया / वो दन्तोष्ठयः / अवर्णः सर्वमुखस्थानमित्येके / नासिक्योऽनुस्वारः / ङअणनमाः स्वस्थाननासिकास्थानाः इति / अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल लू इत्येतेषां स्वराणां विवृतं नाम करणम् / वर्गाणां स्पृष्टं नाम करणम् / अन्तस्थानां ईषत्स्पृष्टं करणम् / शषसहानामीषद्विवृतं करणम् / तत्र अवर्णस्याष्टादशभेदाः परस्परं स्वसंज्ञा भवन्ति / एवमिवर्णादयोऽपि मिथः स्वाः / तथा एकारऐकारौ मिथो न स्वौ / ओकारऔकारावपि मिथो न स्वौ / एकारओकारयोर्विवृततरं करणम् / ऐकारऔकारयोरतिविवृततरं करणम् / इति प्रयत्नकृतभेदः / अतोऽमी सन्ध्यक्षरा भिन्नस्थानभिन्नास्यप्रयत्नत्वात् परस्परं स्वा न भवन्ति / / इति स्वसंज्ञाप्रकारो ज्ञातव्यः // 17 // स्यौजसमौशस्टाभ्यांभिस्ङेभ्यांभ्यस्ङसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्सुपां त्रयी त्रयी प्रथमादिः // 1 // 1 // 18 // स्यादीनां प्रत्ययानां त्रयी त्रयी यथासङ्ख्यं प्रथमाद्वितीयातृतीयाचतुर्थीपञ्चमीषष्ठीसप्तमीसंज्ञा भवन्ति // 18 // अ० त्रि / त्रयोऽवयवा यस्याः सा त्रयी / 'द्वित्रिभ्यामयड् वा' (7 / 1 / 152) इति अयट् / 'अण्ञ येत्यादि' (2 / 4 / 20) डीः / 'अस्य ड्या लुक्' (2 / 4 / 86) इति अलोपः / सिः, 'दीर्घड्या०' इति लुप् 'वीप्सायाम्' (7 / 4 / 80) इत्यनेन द्वित्वं त्रयी त्रयी। 'रोदोऽर्चिषी दामगुणे त्वयट तयट्' स्त्रीपुं० इति लिङ्गानुशासने स्त्रीक्लीबत्वम् / सि औ जस् इत्यादि त्रिकत्रिकवचनं प्रथमाविभक्तिः / एवं द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी विभक्तयो ज्ञातव्याः (स्यादीनां इजशटङपा इत्यनुबन्धाः ‘सौ नवेतौ' (1 / 2 / 38) इत्यादौ विशेषणार्था ज्ञातव्याः) // 18 // स्त्यादिविभक्तिः // 11 // 19 // स इति तीति च उत्सृष्टानुबन्धस्य सेस्तिवश्च ग्रहणम् / स्यादयस्तिवादयश्च सुपस्यामहिपर्यन्ता विभक्तयः स्युः // 19 // ___ अ० स् च तिश्च स्ति स्ति आदिर्यस्याः सा स्त्यादिः / विभज्यन्ते प्रकटीक्रियन्ते कर्तृकर्मादयोऽर्था अनया 'श्वादिभ्यः' (5 / 3 / 92) इति क्तिः / / 19 / / तंदन्तं पदम् ॥११॥२०॥[पदसंज्ञाधिकारे सूत्र 6 / तत्र त्रीणि विधिविषयाणि त्रीणि प्रतिषेधकानि] स्याद्यन्तं त्याद्यन्तं च पदसंज्ञं स्यात् / धर्मो वः स्वं ददाति नः शास्त्रम् // 20 // अ० सा विभक्तिरन्ते यस्य तत् तदन्तम् / 'पदिच् गतौ' पद्यते गम्यते कारकसंसृष्टोऽर्थोऽनेनेति पदम् / 'वर्षादयः क्लीबे' (5 / 3 / 29) इति सूत्रेण अल् / सिः / अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) 'समानादमोतः' (1 / 4 / 46) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः इति अस्य लोपः / वः / युष्मद् षष्ठी आम् / ‘पदाधुगविभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे' (2 / 1 / 21) इत्यनेन विभक्त्या सह वसादेशः / नः / अस्मद् चतुर्थीभ्यस् / ‘पदाद्येति०' (2 / 1 / 21) नस् / ददाति 'डुदांगक् दाने' दा / तिव् / 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) इत्यनेन द्विः / 'ह्रस्वः' (4 / 1 / 39) इति ह्रस्वः // 20 // नाम सिदय्व्यञ्जने // 11 // 21 // __ सिति प्रत्यये यवर्जन्यञ्जनादौ च परे पूर्व नाम पदसंज्ञं स्यात् / भवदीयः / पयोभ्याम् / अयिति किम् ? वाच्यति // 21 // अ० नामेति / नमति धातवे अथवा नमति प्रह्वीभावं गच्छति अर्थं प्रति इति नाम / 'सात्मन्नात्मन्' (916) इति निपातः / सिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) 'नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इति नस्य लोपः / न य् अय् / 'नञत्' (3 / 2 / 125) / अय् च तत् व्यञ्जनं च अय्व्यञ्जनम् / सिच्च अय्व्यञ्जनं च तस्मिन् / भातीति भवान् 'भातेर्डवतु' (886) / भवतोऽयं भवदीयः ‘भवतोरिकणीयसौ' (6 / 3 / 30) इति ईयस् / अत्र पदसंज्ञत्वात् 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति तस्य दत्वम् / 'पां पाने' / पीयते तृषातैरिति पयः / ‘पाहाक्भ्यां पयह्यौ च' (953) इत्युणादिनाऽस्प्रत्ययः पय आदेशः / अथवा अयिवयिपयि इति दण्डकधातुः / पय् / पयते याति स्वभावान्निम्नप्रदेशमिति पयः / अस् (952) इत्युणादिसूत्रेणास् / पयोभ्याम् इत्यत्र पदान्तत्वात् 'सोरुः' (2 / 1 / 72) इति सस्य रः ‘घोषवति' (1 / 3 / 21) इति रस्य उः सिद्धः / वाचमिच्छति क्यन्प्रत्ययः // 21 / / . नं क्ये // 1 // 1 // 22 // ___क्य इति क्यन्क्यङ्ग्यक्षां ग्रहणम् / नान्तं नाम क्ये परे पदं स्यात् / राजीयति राजायते चर्मायति // 22 // .. अ० नं क्ये इति सूत्रार्थे नान्तं नाम इत्यत्र नामेति विशेष्यपदं नान्तं इति विशेषणपदम् / इति सूत्रे नं इत्यत्र क्लीबत्वम् / एवं 'नस्तं मत्वर्थे' (1 / 1 / 23) इत्यत्रापि ज्ञेयम् / 'राजृग् टुभ्राजि दीप्तौ' राज् / राजते शोभते छत्रचामराद्यैरिति राजा / 'उक्षितक्षिअक्षिईशिराजि०' (900) इत्यादिना कन् / राजानमिच्छति राजीयति 'अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / राजेवाचरति राजायते 'क्यङ्' (3 / 4 / 26) अचर्मवान् चर्मवान् भवति चर्मायते 'डाच लोहिताभ्यः पित्' (3 / 4 / 30) इति लोहितादिगणद्वारेण क्यङ् / अत्र पदसंज्ञात्वे नस्य लोपः ततः 'क्यनि' (4 / 3 / 112) इतीकारः राजीयति / राजायते चर्मायते इत्यत्र तु 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इति दीर्घः / चायति चर्मायते इति प्रयोगद्वयम् / 'क्यषो नवा' (3 / 3 / 43) इति आत्मने पदं वा स्यात् / / 22 / / न स्तं मत्वर्थे // 1 // 1 // 23 // [नामसिदिति प्राप्ते 'नस्तं मत्वर्थे' इत्यनेन पदसंज्ञाप्रतिषेधः] साऽन्तं ताऽन्तं च नाम मत्वर्थे परे पदं न स्यात् / यशस्वी तडित्त्वान् // 23 // अ० स् च तश्च स्तं / सिः / सूत्रत्वाल्लोपः / मतुर्मत्वर्थोऽर्थो यस्य स मत्वर्थस्तस्मिन् मत्वर्थे कोऽर्थःमत्वर्थीये प्रत्यये परे सति / मतु विन् इन् इति प्रत्ययत्रयं मत्वर्थीय इति संज्ञं स्यात् / 'अशूटि व्याप्तौ' अश् / अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगदिति यशः / 'अशेर्यश्चादिः' (958) इति अस्प्रत्ययः अस्य स्थाने य इत्यादेशः / यशो विद्यते यस्य सः 'अस्तपोमायामेधास्रजो विन्' (7 / 2 / 47) इति विन् / 'तडण् आघाते' तड् / ताडयति 1.. एकस्मिन्नर्थे एकपक्त्या निर्दिष्टा धातवः / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते . नगादिकमिति तडित् / ‘हसुरुहियुषितडिभ्य इत्' (887) / तडिद्विद्यते यस्य ‘तदस्यः' (7 / 2 / 1) इति मतुः / 'मावर्ण०' (2 / 1 / 94) इति मस्य वः / पदसंज्ञाऽभावादत्र सोरुः (2 / 1 / 72) 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1176) इति न भवति / सिः / एकत्र ‘इन्हन्० (1 / 4 / 87) इत्यादि दीर्घः / अन्यत्र 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति न् अन्तः, 'अभ्वादेर०' (1 / 4 / 90) इति दीर्घः, ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति तलोपः // 23 // . मनुर्नभोऽङ्गिरो वति // // 24 // मनुस् नभस् अङ्गिरस् इत्येतानि वति परे पदं न स्युः / मनुष्वत् / नभस्वत् / अङ्गिरस्वत्॥२४॥ अ० मनुश्च नभश्च अङ्गिराश्च मनुर्नभोऽङ्गिरः / जस् / मनुरिव मनुष्वत् / नभ इव / अङ्गिरा इव / ‘स्यादेरिवे' (7 / 1152) इति वत् // 24 // वृत्त्यन्तोऽसषे॥११॥२५॥ [अंतर्वर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदसंज्ञा प्राप्ता सती अनेन सूत्रेण वृत्तेरन्तः पदसंज्ञो न भवति] परार्थाभिधायी समासादिवृत्तिः / तस्यान्तोऽवसानं पदं न स्यात् / असषे सस्य तु षत्वे पदमेव / परमदिवौ / बहुदण्डिनौ / असष इति किम् ? दधिसेक् // 25 // अ० 'वृतङ् वर्त्तने' / वर्त्तनं वृत्तिः / 'स्त्रियां क्तिः' (5 / 3 / 91) वृत्तेरन्तो वृत्त्यन्तः / कोऽर्थः समासान्तः / वृत्तिरिति समास उच्यते / सा च त्रिधा समासवृत्तिः तद्धितवृत्तिः नामधातुवृत्तिश्च / राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः समासः / औपगव इति तद्धितः / पुत्रकाम्यति इति नामधातुवृत्तिः / परमा द्यौर्ययोस्तौ परमदिवौ / अत्र समासान्ते पदत्वाभावात् 'उः पदान्तेऽनूत्' (2 / 1 / 118) इति उत्वं नाभूत् / बहुदण्डिनावित्यत्र तु नस्य लुक् न प्रवृत्तः / सिञ्चतीति सेक्। 'मन्वन्क्वनिप्विच्' (5 / 1 / 147) इति विच् / 'अप्र०' (1 / 1 / 37) लुप् / दध्नः सेक् दध्रिसेक् / अत्र पदसंज्ञायां पदादित्वात् सकारस्य 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति षत्वं न भवति / 'नाम्यन्तस्था०' इति सूत्रे ‘पदान्तः' कोऽर्थः - पदमध्ये सकारस्य षो भवति / पदादौ न भवति इति व्यावृत्तिबलात् षो न भवति / पदमध्यद्वारेण षस्य प्राप्तिरस्ति इत्याशयः // 25 / / सविशेषणमाख्यातं वाक्यम् // 11 // 26 // साक्षात् पारम्पर्येण वा यान्याख्यातविशेषणानि तैः [कर्तृकर्मकरणादिभिः] प्रयुज्यमानैरऽप्रयुज्यमानैर्वा सहितं प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमानं वाख्यातं [साक्षात्-पारम्पर्येण गम्यमानं त्याद्यन्तं पदम्] वाक्यसंज्ञं स्यात् / धर्मो वो रक्षतु / धर्मो नो रक्षतु / लुनीहि 3 पृथुकांश्वरवाद / शीलं ते स्वम् // 26 // अ० सह विशेषणेन वर्त्तते 'सहस्य सोऽन्यार्थे' (3 / 2 / 143) इति सः / आख्यायते स्म 'तक्तवतू' (5 / 1 / 174) आख्यातम् / उच्यते स्म 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण' (5 / 1 / 17) 'क्तेऽनि०' (4 / 1 / 111) वाक्यम् / लुनीहि 'लूग्श् छेदने' / पञ्चमीहि / 'फ्यादेः' (3 / 4 / 49) श्ना / 'अप्रयोगीत्' ना तिष्ठति / 'एषामीळञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) ईकार: ‘प्वादेर्हस्वः' (4 / 2 / 105) / खाद इत्यत्र ‘अतः प्रत्ययाल्लुक्' (4 / 2 / 85) इति हेर्लुक् / शीलं ते स्वं इत्यप्रयुज्यमानाख्यातोदाहरणम् / / 26 / / अधातुविभक्तिवाक्यमऽर्थवन्नाम // 1 // 1 // 27 // (अर्थोऽभिधेयः१ स्वार्थो द्रव्यं लिङ्गं सङ्ख्या शक्तिरिति, योत्यश्च समुच्चयादिः२) / धातुविभ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः क्तिवाक्यवर्जितमऽर्थवच्छब्दरूपं नामसंज्ञं स्यात् / वृक्षः स्वः धवश्च / अधातुविभक्तिवाक्यमिति किम् ? अहन्, वृक्षान्, साधुर्धर्म ब्रूते // 27 // अ० दधाति क्रियालक्षणमर्थम् इति धातुः / 'कृसिकम्यमिगमितनिमनिजन्यसिमसिसच्यविभाधागाग्लाम्लाहन्हायाहिशिपूभ्यस्तुन् (773) इति तुन् / धातुश्च विभक्तिश्च वाक्यं च धा० / न धातु० अधातु विभक्तिवाक्यम्। 'ऋक् गतौ' / अर्यते गम्यते पुरुषैरित्यर्थः / 'कमिपुगार्तिभ्यस्थः' (225) इति थः / अर्थोऽस्यास्तीति / तदस्य०' (72 / 1) इति मतुः / 'मावर्ण०' (2 / 194) इति मस्य वः / सिः / अर्थशब्दोऽभिधेयनिवृत्तिप्रयोजनधनेषु वर्त्तते। इह चाभिधेयार्थः / 'अभिधेयं किमुच्यते तदाह- स्वार्थो द्रव्यं लिङ्ग सङ्ख्या शक्तिरिति / तत्र गोवृक्षादिशब्दानां गोत्ववृक्षत्वादिसामान्यं स्वार्थं विशेष्यम् इत्युच्यते / शाखादिमत्त्वविशेषणं द्रव्यम् / पुंस्त्वादि लिङ्गम् / एकद्वित्वादि सङ्ख्या / कादि शक्तिः / योत्यश्च समुच्चयादिः / आदिशब्दाद्विकल्पावधारणादिः / 'हनंक हिंसागत्योः' हन् ह्यस्तनीदि ‘अड्धातोरादिस्तिन्यां चा०' (4 / 4 / 29) इति अट् 'व्यञ्जनादेः सश्च दः' (4 / 3 / 78) इति दिलुप्। वृक्षान् / शस् / ‘शसोड़ता सश्च नः०' (1 / 4 / 49) इति दीर्घः सस्य न् // 27 // . शिघुट् // 11 // 28 // जस्शसादेशः शिः घुटसंज्ञः स्यात् / पद्मानि पयांसि // 28 // अ० पद्मानि अत्र जस् / पयांसि अत्र शस् / 'नपुंसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) अनेन जस्शसोः शिः / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इः / एकत्र ‘स्वराच्छौ (1 / 4 / 65) अन्यत्र 'धुटां प्राक्' (1 / 4 / 66) इति नोऽन्तः / एकत्र ‘नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) अन्यत्र 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इति दीर्घः // 28 // स्त्रियोः स्यमौजस् // 1 // 1 // 29 // सिं औ जस् अम् औ इत्येते पुंसि स्त्रियाञ्च घुटसंज्ञा भवन्ति / राजा राजानौ राजानः। राजानं राजानौ / स्त्रियाम्-सीमा सीमानं सीमानौ 2 सीमानः / [सर्वत्र ‘नि दीर्घः'] // 29 // अ० पुमांश्च स्त्री च पुंस्त्रियौ / तयोः सप्तम्योस् / 'स्त्रियाः' (2 / 1 / 54) इति इय् / सूत्रे औ इति प्रथमाद्वितीयाद्विवचनयोरविशेषेण ग्रहणम् / अतो वृत्तौ उभावपि दर्शितौ // 29 / / . : स्वरादयोऽव्ययम् // 1 // 1 // 30 // ['जस्येदोत्' (1 / 4 / 22) इति ए] - स्वरादयः शब्दा अव्ययसंज्ञाः स्युः / स्वर् / अन्तर् / प्रातर् इत्यादयः // 30 // अ० 'इण्क् गतौ' / इ न वि पूर्वम् / न व्येति न क्षयं यातीत्यव्ययम् / 'लिहादिभ्यः' (5 / 1 / 50) इत्यच् / अन्वर्थसंज्ञा चेयम् / अव्ययमिति लिङ्गविभक्तिकारकनानात्वेऽपि नानारूपतां नाश्रयते / यदुक्तम्-सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु / कारकेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् / / 1 / / अन्वर्थाश्रयणे च स्वराद्यं, स्वराद्यन्तं च (स्वराद्यव्ययमव्ययं भवतीति स्वरादेविशेषणत्वेन तदन्तविज्ञानात्) अव्ययमक्षयमेव भवति इति स्वरादेर्विशेषणत्वेन तदन्तविज्ञानात् परमोचैरित्यादावष्यव्ययसंज्ञा / स्वरादिशब्दा ह्यव्ययाः स्वार्थस्य स्वाभिधेयस्य स्वर्गादेर्वाचकाः, न तु चादिवत् द्योतकाः / स्वः इति सर्वविभक्त्यामप्येक एव रूपम् / / 30 / / चादयोऽसत्त्वे // 1 // 1 // 31 // ["जस्येदोत्' ए] असत्त्वे अद्रव्ये वर्तमानाश्चादयः शब्दा अव्ययसंज्ञा भवन्ति / वृक्षश्च प्लक्षश्च / च / वा / अह / एव। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते एवमित्यादयः [अव्ययत्वात् सर्वत्र अव्ययस्य (3 / 2 / 7) इति सेर्लोपः] // 31 // अ० च शब्द आदिर्येषां ते / सीदतस्तिष्ठतोऽस्मिँल्लिङ्गसङ्खये इति सत्त्वं लिङ्गसङ्ख्यावद्र्व्यं गोत्वादिः; इदं . तदित्यादि सर्वनामव्यपदेश्यं विशेष्यमिति यावत्, ततोऽन्यत् असत्त्वम् / असत्त्वे वर्तमानाश्चादयोऽव्ययसंज्ञा भवन्ति / निपाता इति च पूर्वेषां संज्ञा यथा 'चादयो ऽसत्त्वे निपाताः' / असत्त्वे इति किम् ? यत्र सत्त्वरूपेऽनुकार्यादावर्थे एषां चादीनां प्रवृत्तिस्तत्र माभूदव्ययत्वं यथा चः समुच्चये / एवोऽवधारणे / तुः पुनरर्थे / उपमायां इवः / इत्यादिः // 31 // अधण्तस्वाद्याशसः // 1 // 1 // 32 // धण्वर्जितास्तस्वादयः शस्पर्यन्ता ये प्रत्ययास्तदन्तं शब्दरूपमऽव्ययं स्यात् / देवा अर्जुनतोऽभवन् / ततः / तत्र / बहुशः / अधणिति किम् ? पथि द्वैधानि / संशयत्रैधानि // 32 // अ० न धण् अधण् / 'नञत्' (3 / 2 / 125) / तसुरादिर्येषां ते तस्वादयः / शस् आऽभिविधिर्येषां ते आशसः। अधण् च तस्वादयश्च आशसश्च / जस् / अर्जुनस्य पक्षे अर्जुनतः 'व्याश्रये तसुः' (7 / 2 / 81) इति तस् / तस्मात्ततः 'किमद्व्यादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः पित्तस्' (7 / 2 / 89) इति तस् / तस्मिन् तत्र ‘सप्तम्याः' (7 / 2 / 94) इति त्रप् / ततस्तत्रेत्यत्र ‘आदेरः' (2 / 1 / 41) इति दस्य अकारः / 'लुगस्यादेत्यऽपदे' (2 / 1 / 213) इति पूर्वोऽकारो लुप्यते / बहुं 2 देहि ‘बह्वल्पार्थात्कारकादिष्टानिष्टे प्रशस्' (7 / 2 / 150) इति शस् / द्वौ प्रकारौ त्रयः प्रकारा एषां 'तद्वति धण्' (7 / 2 / 108) इति धण् / 'वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादेः' (6 / 1 / 8) इति वृद्धिः / पथा संशयेन करणभूतेन द्वैधानि त्रैधानि / जस् // 32 // विभक्तिथमन्ततसाद्याभाः // 11 // 33 // , विभक्त्यन्ताभास्थमऽवसानतसादिप्रत्ययान्ताभाश्च शब्दा अव्ययसंज्ञाः स्युः / अहंयुः / शुभंयुः। अस्तिक्षीरा गौः / कुतः / कथम् // 33 // __ अ० थम् अन्ते येषां ते / तस् आदिर्येषां ते / विभक्तयश्च थमन्ताश्च तसादयश्च वि० / विभक्तिथमन्ततसादीनामाभा सादृश्यं येषां शब्दानां ते विभक्तिथमन्ततसाद्याभाः शब्दाः / अहं विद्यतेऽस्य शुभं विद्यतेऽस्य 'ऊर्णाहंशुभमो युस्' (7 / 2 / 17) इति युस् अहंयुः शुभंयुः / अस्ति विद्यमानं क्षीरं यस्याम् / कस्मात् ‘किमद्वया०' (7 / 2 / 89) इति तस् / केन प्रकारेण कथम् ‘कथमित्थम्' (7 / 2 / 103) निपातः / अहं शुभं कृतं पर्याप्तम्, येन तेन चिरेण अन्तरेण, ते मे चिराय अह्राय, चिरात् अकस्मात्, चिरस्य अन्योऽन्यस्य, एकपदे अग्रे प्रगे प्राह्ने हेतौ, इत्यादि स्यादिविभक्त्यन्ताभाः / / अस्ति, नास्ति, असि, अस्मि, विद्यते, भवति, एहि, मन्ये, शङ्के, अस्तु, भवतु, स्यात्, पूर्यते, आह, वर्त्तते, न वर्त्तते, पश्य, पश्यतेत्यादि त्यादिविभक्त्यन्ताभाः शब्दा ज्ञेयाः // 33 // वत्तस्याम् // 1 // 1 // 34 // वत् तसि आम् प्रत्ययान्तः शब्दोऽव्ययं स्यात् / मुनिवद् वृत्तम् / क्षत्रियवत् / उरस्तः / उच्चैस्तराम्। उच्चैस्तमाम् // 34 // अ० तद्धितवत्तसिसाहचर्यात् 'किंत्याद्य०' (7 / 3 / 8) इति तद्धितकृतस्यामो ग्रहणम् / मुनेरहँ मुनिवत् 'तस्यार्हे क्रियायां वत्' (7 / 1 / 51) इति वत् / क्षत्रिया इव ‘स्यादेरिवे' (7 / 1 / 52) इति वत् / उरसा एकदिग् 'यश्चोरसः' Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्प प्रथमः पादः (6 / 3 / 212) इति तस् / द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टं [उच्चैः] उचैस्तरः, बहूनां मध्ये प्रकृष्टं उच्चैस्तमः 'द्वयोर्विभज्ये तरप्' (7 / 3 / 6) 'प्रकृष्टे तमप्' (7 / 3 / 5) / ततः 'किन्त्याद्येऽव्ययादसत्वेतयोरन्तस्याम्' (7 / 3 / 8) इत्याम् // 34 / / - क्त्वातुमम् // 11 // 35 // स्त्वातुमम्प्रत्ययान्तं शब्दरूपमन्ययं स्यात् / कृत्वा / कर्तुम् / यावज्जीवमदात् ['पिबैतिदाभूस्थः सिचो लुप् परस्मै न चेट्' (1366) इति सिचो लुप / स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते // 35 // अ० कृत्क्त्वातुम्साहचर्यात् अनुबन्धरहितणम्ख्णम्सम्बन्धी अम् गृह्यते / करणाय कर्तुम् ‘क्रियायां क्रियार्थायां तुम्णकच्भविष्यन्ती' (5 / 3113) इति तुम् / यावन्तं कालं जीन्यते यावज्जीवम् ‘यावतो विन्दजीवः' (5 / 4 / 55) इति णम् / स्वादुनः करणं पूर्वम् / 'स्वाद्वाददीर्घात्' (5 / 4 / 53) इति ख्णम् / 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) इति वृद्धिः 'खित्यनव्यया०' (3 / 2 / 111) इति मोन्तः // 35 / / - गतिः // 11 // 36 // गतिसंज्ञमन्ययं स्यात् / अदः कृत्य / रः सो न स्यात् // 36 // अ० अदः करणं पूर्वम् / ‘अग्रहानुपदेशेन्तरदः' (361 / 5) इति गतिसंज्ञा / अत्राव्ययत्वे ‘अतः कृतमि०' (2 / 315) इति रकारस्य सकारो न भवति // 36 // . अप्रयोगीत् // 11 // 37 // इह शास्त्रे उपदिश्यमानो वर्णस्तृत्समुदायो वा यः शब्दप्रयोगे न दृश्यते स एत्यपगच्छतीति इत्संज्ञः स्यात् / 'एधि' एधते / 'यजीं'- यजते यजति / 'चित्र' चित्रीयते // 37 // अ० प्रयोगः शब्दस्योचारणमस्यास्ति प्र० / न प्रयो० अप्रयोगीति संज्ञिनिर्देशस्य इत्संज्ञा क्रियते / प्रयोगव्यापारस्तु धातुनामप्रत्ययविकारागमेषु कार्यार्थः / तत्र धातौ-'एधि' वृद्धौ इङित्वादात्मनेपदम् 'यजीं' इति ईगित्वादुभयपदम् / नाम्नि चित्रीयते 'चित्रङ् आश्चर्ये' 'चित्रमाश्चर्यं करोति 'नमोवरिव०' (3 / 4 / 37) इति क्यन् डित्वादात्मनेपदम् ‘क्यनि' (4 / 3 / 112) इति ईः / एवं विबादिप्रत्यये ज्ञातव्यम् // 37 / / अनन्तः पञ्चम्याः प्रत्ययः // 11 // 38 // [न अन्तः अनन्तः 'अन् खरे' (3 / 2 / 129) अन् / 'स्त्रीदूतः' (1 / 4 / 29) इति दास्] पञ्चम्यर्थाद्विहितः (कृतः) प्रत्ययसंज्ञो भवति / अनन्तः चेत्- यद्यन्तशब्दोच्चारणेन विहितो न भवति। 'नाम्नः प्रथमैकद्विबही' (2 / 2 / 31) वृक्षः वृक्षौ वृक्षाः। अनन्त इति किम् ? आगमः 'प्रत्ययो माभूत् // 38 // अं० यथा 'नाम्नः प्रथमै०' इति / अथवा 'गुपौधूपविच्छिपणिपनेरायः' (3 / 4 / 1) 'ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् ध्यण्' (5 / 1 / 17) / 'प्रत्ययः इत्यादि- यथा 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) इत्यादि // 38 // डत्यतु सङ्खयावत् // 11 // 39 // डतिप्रत्ययान्तं अतुप्रत्ययान्तं च नाम सङ्ख्याकार्यभाग् भवति / कतिकः / कतिधा / यावत्कः। कियत्कः // 39 // अ० डतिश्च अतुश्च (डत्यतु) / सङ्खयेव सङ्ख्यावत् ‘स्यादेरिवे' (7 / 1 / 52) इति वत् / कतिकः-किम् ? का सङ्ख्यामानमेषां कति –'यत्तत्किमः सङ्ख्याया डतिर्वा' (7 / 1 / 150) इत्यनेन डतिप्रत्ययः ‘डित्यन्त्य०' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 कलिकालसर्वज्ञमीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्वकारिभ्यामलते (2 / 1 / 114) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः / कतिभिः क्रीतः 'सङ्ख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः' (6 / 4 / 130) इति कप्रत्ययः कतिकः / कतिधाकतिभिः प्रकारैः 'सङ्चाया धा' (7 / 2 / 104) इति धा / यावत्-यत् प्रमाणमस्य 'यत्तदेतदो डावादिः' (7 / 1 / 149) इति डावत् / यावद्भिस्तावद्भिः क्रीतः 'सङ्ख्याड०' इति कः यावत्कः / कियत्कः-का सङ्ख्या मानमेषां कियतः 'इदंकिमोऽतुरिय् किम् चास्य (7 / 1 / 148) इति अतुप्रत्ययः किमः किय् इत्यादेशः, कियद्भिः क्रीतः 'सङ्ख्याडतेश्चा० इति कः // 39 // ....... .... बहुगणं भेदे // 1 // 40 // . बहुगणशब्दौ भेदवृत्ती सङ्ग्यावद्भवतः / बहुकः / गणकः / भेद इति किम् ? वैपुल्ये सङ्के च मा भूत् / // 40 // अ० बहुश्च गणश्च (बहुगणम्) / भेदो नानात्वमेकत्वविरोधि / तत्र वर्तमानौ बहुगणौ / बहुभिः क्रीतम् अत्रापि सङ्ग्यात्वात् 'सल्याडते.' (6 / 4 / 130) इति कः / यत्र बहुशब्दो वैपुल्ये महति वर्त्तते गणश्च सङ्के समूहे तत्र सझ्याक्नहि // 40 // कसमासेऽध्यर्द्धः // 14 // [कम समासत्र तस्मिन्] अध्यर्द्धशन्दः कात्यये समासे च कर्तव्ये सङ्ग्यावत्स्यात् / अध्यर्द्धकम् (अध्यर्थेन क्रीतम् ‘सङ्ग्याडते.' (1 / 4 / 130) (इति) कः) / अध्यर्द्धसूर्णम् // 41 // ___अ० अध्यर्द्धसूर्पमिति / अत्र अध्यर्द्धन सूर्पण क्रीतमिति वाक्ये 'कंसार्द्धात्' (6 / 4 / 135) इत्यनेन इकट् प्रत्ययः। तस्यानाम्न्येति (6 / 4 / 141) लुप् / बृहद्वृत्तौ तु 'मूल्यैः क्रीते' (64 / 150) इति क्रीतार्थे कृतस्य इकणः 'अनाम्न्यऽद्विः प्लुप्' (6 / 4 / 141) इत्यनेन लुप् इत्युक्तम् / सम्यग् (तु) वैयाकरपा विदन्ति // 41 // - अर्द्धपूर्वपदः पूरणः // 11 // 42 // ___ अर्द्धपूर्वपदः पूरणप्रत्ययान्तः शब्दः कप्रत्यये समासे च कर्त्तव्ये सङ्ग्यावत्स्यात् / अर्द्धपञ्चमकम् / अर्द्धपञ्चमसूर्णम् // 42 // अत्र पादेऽक्षरगणनया श्लोक 62 // - अ० पूर्व च तत्पदं च पूर्वपदम् / अर्द्धम् इति पूर्वपदं यत्र पूरणप्रत्ययान्तशब्दै सोऽर्द्धपूर्वपदः / अर्द्ध पञ्चमकम् / अर्द्धपञ्चमेन क्रीतं अर्द्धपञ्चमकम् 'सङ्ख्याडते.' (6 / 4 / 130) इति कः / तथापञ्चमसूर्पण / अर्द्धपञ्चमैः सूर्पः क्रीतम् अर्द्धपञ्चमसूपम् 'सूर्पाद्वान्' (6 / 4 / 137) इति अञ् / अथवा 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इतीकण्। अथवा 'कंसाात्' (6 / 4 / 135) इत्यनेन इकट्प्रत्ययः / अञ् इकण इकटां त्रयाणामपि 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' इत्यनेन लुप् इति / अनाम्न्येति' बृहद्वृत्तायुक्तमस्ति (?) // 42 // इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतः प्रथमः पादः समाप्तः / / 1 / / 1. वहन्न्यासेऽपि 'अनाम्न्यदिः प्लप' (6141) इति अनेनैव लप उक्तोऽस्ति / / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः अर्ह समानानां तेन दीर्धः // 12 // 1 // " समानसंज्ञकानां वर्णानां तेन परेण समानेन सह दी| भवति / दण्डाग्रम् / तवायुः / खट्दात्र / सागता। दधीदम् / नदीन्द्रः नद्या इन्द्रो नदीन्द्रः] // 1 // __अ० समानं तुल्यं मानमेषां 'समानस्य धर्मादिषु' (3 / 2 / 149) इति समानस्य सभावः / षष्ठी आम् 'हस्वापश्च' (1 / 4 / 32) इति नाम् 'दीर्घो नाम्यति०' (1 / 4 / 47) इत्यादिना दीर्घः // दण्डस्याग्रम् / तव / युष्मद् षष्ठीडस् / 'तव मम डंसा' (2 / 1 / 15) इति तवादेशः / आयुरिति 'इण्क् गतौ' एति अपगच्छति कालेन इत्यायुः 'इणो णित्' (998) इत्युणादिसूत्रेण उस् स च णित् 'नामिनोऽकलिहले' (4 / 3 / 51) इति वृद्धिः ऐ 'एदैतोऽयाय' (1 / 2 / 23) / सा / तद् सि / 'आद्वेरः' (2 / 1 / 41) दस्य अः 'लुगस्यादे०' (2 / 1 / 113) / 'तः सौ सः' तस्य सः (2 / 1 / 42) 'आत्' (2 / 4 / 18) इति आप् ‘दीर्घड्या०' (1 / 4 / 45) इति सेर्लोपः / आगता। अमद्रमेति धातुदण्डके 'गम्लं गतौ' गम् / आङ् / आगच्छति स्म / 'गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1 / 11) इति क्तः 'पमिरमिनमिगमिहनिमनः' (4 / 2 / 55) इति मस्य लोपः / 'आत्' इत्याप् // 1 // . . .. लुति ह्रस्वो वा // 1 // 2 // 2 // - कारे लुकारे च परे समानानां ह्रस्वो वा भवति / बाल अश्यः बालयः / महा ऋषिः / महर्षिः। एकतुं ऋषभः] कर्तुं ऋषभः कर्तृषभः / [होतु कारः] होतृ लकारः / होतृकारः / हस्वकरणसामर्थ्यादेव कार्यातरं [अन्यः संधिः] न स्यादत एव हस्वस्यापि ह्रस्वः क्रियते // 2 // .. अॅ. ऋश्च लुच तस्मिन् / महांश्वासौ ऋषिश्चेति. 'जातीयैकार्थेऽच्चेः' (3 / 2 / 70) इति डाप्रत्ययः / अत्रायं विशेषः - कश्चिदुर्गसिंहादिर्हस्वत्वाभावपक्षे प्रकृतिभावमपीच्छति तन्मते-महा ऋषिः मह ऋषिः महर्षिः / नदी ऋष्यः नादि ऋष्पः नघृष्यः इत्यादि प्रयोगत्रयम्त्रयम् / मूलमते प्रयोगद्वयमेव // 2 // तृत ऋलू (रेल) ऋतृभ्यां वा // 1 // 2 // 3 // .: सृनः स्थाने ऋता लता च सह यथासङ्ग्यं कल (ईल) इत्यादेशौ वा स्याताम् / ऋता-कृकारः पक्षे स्तू ककारः कृकारः / लता-क्लृकारः पक्षे क्लृ लकारः कृकारः // 3 // अ० पक्षे इति / पूर्वेण 'ऋलुति ह्रस्वो वा' इत्यनेन ह्रस्वः क्रियते / तत्र क्लृ ऋकारः इति / उत्तरेण ऋस्तयोरिति सूत्रेण ऋकारः क्रियते तत्र कृकार इति प्रयोगः / पक्षे इति पक्षे दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं च / 'समानानां तेन दीर्घः' इति दीर्घः तत्र क्लृकारः / ह्रस्वत्वं च 'ऋति०' इति ह्रस्वः / तत्र क्लृ लकारः इति प्रयोगत्रयम्त्रयम् / / 3 / / ऋतो वा तौ च // 1 // 2 // 4 // - कारस्य स्थाने अता लुता च परेण सह यथासङ्ग्यं ऋल (इल) इत्यादेशौ वा भवतः // तौ च ककारलकारौ ऋता लुता च सह कारस्य वा भवतः / ऋता पितृषभः पक्षे पितृषभः पितृ ऋषभः / लताहोलूकारः पक्षे होतृकारः होतृ लकारः / तौ च पितृषभः / होत्लुकारः // 4 // अ० पक्षे दीर्घो ह्रस्वश्च / दीर्घः समानानामित्यनेन / ह्रस्व 'ऋतृती' त्यनेन / पक्षे उत्तरेण ऋ पूर्वेण ह्रस्वः / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते एवं प्रयोगत्रयम् / तौ चेति-ऋकारमध्ये एव अकारो वा भवति / एवं ऋकारस्य लुकारो वा / अत्रापि पक्षे यथाप्राप्तमिति ज्ञातव्यम् / प्रयोगयुक्तिः पूर्ववदेव दीर्घह्रस्वादिका भवति / एवं पिल्लषभः पितृषभः पितृ ऋषभः पितृ ऋषभः पितृषभः इति प्रयोगचतुष्टयम् / होतृ ऋकारः / होतृकारः // 2 // होत अग्रे लुकारः / तत्र होल्लकारः / होतृकारः / होतृ लकारः / होत्लृकार- इति प्रयोगा 4 भवन्ति / / 4 / / . ऋस्तयोः // 12 // 5 // तयोः पूर्वस्थानिनोः लकारकास्योः स्थाने यथासङ्गच लता ऋता च परेण सह ऋकार इति द्विमात्रः स्यात् / कृषभः / होतृकारः // 5 // ... __ अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल् // 12 // 6 // अवर्णस्य इ उ ल वणः सह यथासङ्ग्यं ए औं अर् अल् इत्येते आदेशाः स्युः / देवेन्द्रः / तवेहा। मालेयम् / सेक्षते / तवोदकम् / तवोढा / गङ्गोदकम् / सोढा / तवर्षिः / तवारः। महर्षिः / सर्कारः [सा ऋ] / तवल्कारः [4] / सल्कारेण [सा लू] // 6 // __ अ० देवानामिन्द्रः देवेन्द्रः / 'ईहि चेष्टायाम्' ईहनमीहा 'क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात्' (5 / 3 / 106) इति अः 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्याप् / मीयते मालाकारैरिसि माला 'श्यामाश्यावशक्यम्ब्यमिभ्यो लः' (462) इति लः / इदम् सिः 'अयमियम् पुंत्रियोः सौ' (2 / 1 / 38) इति इयम् आदेशः। वहीं प्रापणे' उह्यतेस्म ऊढः 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) इति क्त: 'यजादि वचेः किति' (4 / 1 / 79) इति प्वृत् वकारः क्रियते ‘हो धुट् पदान्ते' (2 / 1 / 82) इति हस्य ढः 'अधश्चतुर्थात्तथोर्धः' (2 / 1179) इति तस्य यः 'तवर्गस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गौ' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः 'ढस्तड्ढे' (1 / 3 / 42) इत्यनेन उकारस्य दीर्घ ऊ ढकारस्य च लोपः ऊढ इति, स्त्री चेत् ऊढा 'आत्' इति आप् / सिः / / गङ्गाया उदकं गङ्गोदकम् // 6 // ... ऋणे प्रदशार्णवसनकम्बलवत्सरवत्सतरस्यार् // 1 // 27 // प्रादीनामवर्णस्य ऋणे परे ऋता सह आर् स्यात् [अरोऽपवादः / ] प्रार्णम् / दशार्णम् / ऋणार्णम् / वसनार्णम् / कम्बलार्णम् / वत्सरार्णम् / वत्सतरार्णम् ॥णा अ० ऋणेति सूत्रेऽयं विशेषः / समानानामिति बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थेनोक्तत्वादिहोत्तरत्रसूत्रेष्वपि हस्वोऽपि भवति / प्र ऋणं दश ऋणमित्यादि / प्रगतं ऋणं प्रार्णम् / दशानामृणं दशार्णम् / ऋणस्यावयवतया सम्बन्धि ऋणं ऋणार्णम् / ‘वसिक् आच्छादने' वस्यते आच्छद्यते तत् वसनम् ‘भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने' (5 / 3 / 128) इत्यनट् / वसनानामृणम् / काम्यते / शीतात्तैरिति कम्बलः ‘कमिशमिपलिभ्यो बलः' (499) कम्बलानामृणम् / वसन्ति ऋतवोऽस्मिन्निति वत्सरं वर्षम् *मीज्यजिमामद्यशौवसिकिभ्यः सरः' (439) (इति सरः) सस्य त् / वत्सरस्य ऋणम् / वत्सतरस्य ऋणम् / 'ऋक् गतौ' / इयर्त्ति कालान्तरेऽपीति ऋणम्* 'घृवीह्वाशुष्युषितृषिकृष्यतिभ्यः कित्' (183) इति णः, स च कित् // 7 // ऋते तृतीयासमासे // 1 // 28 // अवर्णस्य ऋते परे तृतीयासमासे ऋता सह आर् स्यात् / शीतातः / दुःखातः / तृतीयासमास इति किम् ? परमतः // 8 // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्व द्वितीयः पादः अ० शीतेन ऋतः शीतार्त्तः / दुःखेन ऋतः दुःखार्त्तः / हस्वोऽपि भवति-शीत ऋतः दुःख ऋतः // परमश्वासावृतश्च // 8 // प्रत्यारुपसर्गस्य // 12 // // उपसर्गस्थस्यावर्णस्य प्रकारादी धातौ परे अता परेण सह आर् स्यात् / प्रार्छति / परार्छति // 9 // अ० आर् इति वर्तमाने पुनरार् ग्रहणम् आरेव यथा स्यादित्येवमर्थं तेन इह उत्तरत्र सूत्रयोश्च हस्वत्वं बाध्यते / / 9 / / नाम्नि वा // 1 // 2 // 10 // उपसर्गस्थस्यावर्णस्य प्रकारादौ नामावयवे थातौ परे ऋता सह आर् स्यात्, वा / प्रार्षमीयति प्रर्पभीयति // 10 // ___ अ० नाम्नि वेत्यत्र 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) इत्यमेन अनोऽकारलोपः / ऋषभमिच्छति ऋषभीयति / 'अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) यस्तिष्ठति 'क्यनि' (4 / 3 / 112) इति सूत्रेण ईकारः // 10 // . . लुत्याल्वा // 12 // 11 // . उपसर्गावर्णस्य लुकारादौ नामावयवे धातौ परे लता सह आल्वा स्यात् / [ल] उपाल्कारीयति [] उपल्कारीयति // 11 // ... ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः // 12 // 12 // . अवर्णस्य सन्ध्यक्षरैः परैः सह ऐ औ इत्येतौ स्याताम् / तवैषा / खट्दैषा / तवैन्द्री / सैन्द्री / तबौदनः। तवौपगवः // 12 // ___ अ० सन्ध्यक्षरैरिति वचनादिदं ज्ञायते-एकारऐकाराभ्यां सह ऐकारः ओकारऔकारभ्यां सह औकारो भवति -अवर्णस्येत्यर्थः / / एषा-एतत् सिः ‘आदेरः' (2 / 1 / 41) 'तः सौ सः' (2 / 1 / 42) 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः 'आत्' (2 / 4 / 18) / इन्द्रस्येयं दिग् ऐन्द्री 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यण् 'वृद्धिः स्वरे०' (7 / 4 / 1) इति वृद्धिः 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति अस्य लोपः 'अणनेयेकण्नस्नटिताम्' (2 / 4 / 20) इति डीप्रत्ययः ‘अस्य ड्यां लुक्' (2 / 4 / 86) इति अलोपः / / उपगताः समीपगता गावो यस्य स उपगुः ‘गोश्चान्ते हस्वोऽनंशि०' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः, गुः / उपगोरपत्यं औपगवः ‘डसोपत्ये' (6 / 1 / 28) ऽण् / वृद्धिः / 'अस्वयम्भुवोऽव्' (7 / 4 / 70) / / 12 / / ऊटा // 1 // 2 // 13 // अवर्णस्य परेण ऊटा सह औः स्यात् / धौतः / धौतवान् // 13 // अ० धौतः 'धावूग् गतिशुद्धयोः' धावति स्म 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / 'गत्यर्थाऽकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1 / 11) इति क्तः कर्तरि / 'अनुनासिके च च्छ्रः शूट्' (4 / 1 / 108) इति वकारस्य उट् // 13 / / प्रस्यैषैष्योढोड्यूहे स्वरेण // 12 // 14 // प्राऽवर्णस्य एषादिषु परेषु परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम् / प्रेषः / प्रेष्यः / प्रौढः / प्रौढिः / प्रौहः॥१४॥ अ० 'इषत् इच्छायाम्' एषणं एषः / ‘भावाकोंः ' (5 / 3 / 18) घञ् / एष्यते इति एष्यः 'ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते ध्यण' (5 / 1 / 17) / प्र. प्रकर्षेण एषः प्रैषः / प्र. प्रकर्षण एष्यः / प्र० ऊढः / प्र० ऊढि / प्र० प्रकर्षेण ऊहः प्रौहः // 14 // स्वैरस्वैर्यऽक्षौहिण्याम् // 12 // 15 // __ स्वैर स्वैरिन् अक्षौहिणी इत्येतेषु निःपत्स्यमानेष्ववर्णस्य परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम् / स्वैरः / स्वैरी / अक्षौहिणी सेना // 15 // अ० ईरणं ईरः स्वस्य ईरः स्वैरः / अथवा स्व ईरोऽत्र इति स्वैरमास्यताम् / अथवा स्वेन ईरति ईर्ने वा इति स्वैरः / स्वयमीरितुं शीलमस्येति स्वैरी 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) इति णिन् / 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति न्यायात् स्वैरिणी इत्यपि ज्ञातव्यम् / तथा अक्ष. ऊह. अहोऽस्यास्तीत्यूहिनी / अक्षाणामूहिनी अक्षौहिणी 'पूर्वपदस्थानाम्न्यगः' (2 / 3 / 64) इति णत्वम् / मुग्धजना अक्षौहिणीसेनाप्रमाणमेवमाहुः-‘स्यात्सेनाऽक्षौहिणी नाम खागाष्टैकद्विकैर्गजैः / रथैश्चैभ्यो हयैत्रिध्नैः पञ्चध्नैश्च पदातिभिः // 1 // (गज 21880 रथ. 21880 हय 65640 पदाति 109400) // 15 // अनियोगे लुगेवे // 1 // 2 // 16 // अनियोगो [अनिश्चयः] ऽनवधारणम् / तद्विषये एवशब्दे परेऽवर्णस्य लुक् स्यात् / अयेव गच्छ इहेव तिष्ठ [अत्र एवो वाक्यालङ्कारमात्रे] / नियोगे तु इहैव तिष्ठ-मागाः // 16 // ___ अ० गच्छ / अमद्रमेति गम्धातुः / पञ्चमीहि / 'कर्त्त-नभ्यः शव्' (3 / 4 / 71) 'गमिषद्यमश्छः ' (4 / 2 / 106) इति मस्य छः / 'स्वराच्छौ' (1 / 4 / 65) इति छस्य द्वित्वम् 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50) इति एकछस्य चः / 'अतः प्रत्ययाल्लुक्' (4 / 2 / 85) इति हेर्लुक् / 'श्रौतिकृवुधिवुपाघ्राध्मास्थाम्नादाम्०' (4 / 2 / 108) इत्यादिना स्थाधातोः तिष्ठ आदेशः / 'इण्क् गतौ' माङ् अद्यतनीस् / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) 'पिबैतिदाभूस्थः सिचो लुप् परस्मै न चेट्' (4 / 3 / 66) इति सिचो लुप् / 'इणिकोर्गाः' (4 / 4 / 23) इति गाः // 16 // वौष्ठौतौ समासे // 1 // 2 // 17 // ओष्ठौत्वोः परयोः समासेऽवर्णस्य लुग्वा भवति / बिम्बोष्ठी बिम्बोष्ठी / स्थूलोतुः स्थूलौतुः / समास इति किम् ? हे पुत्रौष्ठं पश्य ['अदेतः स्पमोलुंक्' (1 / 4 / 44) इति सेलुक् // 17 // अ० ओष्ठावयवयोगात् द्व्यात्मकः समुदायोऽप्योष्ठः / ओत्ववयवयोगात् द्वयात्मकः समुदायोऽप्योतुः। ओष्ठश्चासावोतुश्च / अथवा ओष्ठेन युक्त ओतुरोष्ठोतुः / तस्मिन् सप्तमीङिः 'डिडौँ' (1 / 4 / 25) 'डित्यन्त्य०' (2 / 1 / 114) इति उलोपः / बिम्ब-गौरादिभ्यो मुख्यान्डीः (2 / 4 / 19) इत्यनेन ङीः / 'अस्य ड्यां लुक्' (2 / 4 / 86) इत्यस्य लोपः / बिम्ब्याः फलं बिम्बम् 'हेमादिभ्योऽञ्' (6 / 2 / 45) 'फले' (6 / 2 / 58) लुप् ईकारलोपः 'ड्यादेगौणस्य.' (2 / 4 / 95) इति ङीनिवृत्तिः पुनर्बिम्बशब्दः / बिम्बाकारावोष्ठौ यस्याः सा बिम्बोष्ठी 'नासिकोदरौष्ठजवादन्तकर्णशृङ्गाङ्गगात्रकण्ठात्' (2 / 4 / 39) अनेन डीः / 'अस्य ङ्यां लुक्' इति अलोपः सिः 'दीर्घङयाब्०' (1 / 4 / 45) / इति सेलुंग् / स्थुलश्चासौ ओतुश्च स्थुलोतुः / पुत्र अदेतः स्यमोर्चेक् (1 / 4 / 44) दृश् अद्यतनीस् / 'श्रौति०' (4 / 2 / 108) इत्यादिना दृशः पश्य आदेशः // 17 // ओमाङि // 1 // 2 // 18 // Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 श्रीसिद्धहेनशब्दानुशासने प्रयनावावस्व द्वितीयः पादः ____ अवर्णस्य ओमि आङादेशे च परे लुक् स्वात् / अयोम् [अद्य ओम् / सोम् [सा ओम् / आ ऊढा ओढा। अद्योढा / सोढा // 18 // . अ० ओमाङीति सूत्रे यथा अद्योढा तथा आ ऋश्यात् अात् / अद्य अर्यात् इति वाक्ये अद्ययात् 1 / आ इहि .एहि उप एहि इति रचनायाम् उपेहि इनि प्रयोगः 2 / एवं परा एहि परेहि-३। उप एत उपेत 4 इति प्रयोगचतुष्टयमाडादेशविषयं ज्ञातव्यम् / अद्य / इदम् अस्मिनहनि अद्य 'सद्योऽद्यपरेद्यव्यह्नि' (7 / 2 / 97) इति द्यप्रत्ययः इदमोऽद्भावः / सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक् / 'अव रक्षणे' इति दण्डकधातुः अव् अवति रक्षति ध्यातारमिति ओम् / औणादिकोऽयम् ‘मव्यविश्रिविज्वरित्वरेरुपान्त्येन' (4 / 1 / 109) इति अवस्य ऊट गुणः ओम् // 18 // . उपसर्गस्याऽनिणेधेदोति // 12 // 19 // उपसर्गावर्णस्य इण्एधिवर्जे एदोदादौ धातौ परे लुक् स्यात् / प्रेलयति परेलयति / प्रोखति / परोखति। अनिणेधिति किम् ? उपैति / उपैधते // 19 // - अ० इण् च एध् च इणेध / न इणेध अनिणेध् ‘अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) नञोऽन् / अनिणेच तत् एच्च अनिणेधेत् / अनिणेधेच्च तत् ओच्च अनिणेधेदोत् / तस्मिन् / 'इलण् प्रेरणे' / उखनख इति दण्डकधातुः / 'इण्क् गतौ' 'एधि वृद्धौ' // 19 // वा नाम्नि // 12 // 20 // नामावयवे एदोदादौ धातौ परे उपसर्गावर्णस्य लुग्वा स्यात् / उपेकीयति [एकमिच्छति / ] उपैकीयति / प्रोषधीयति [औषधमिच्छति / ] प्रौषधीयति // 20 // .. इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम् // 1 // 2 // 21 // इ उ क लवर्णानामस्वे स्वरे परे यथासङ्ग्यं यवरला इत्येते स्युः / दध्यत्र / नयेषा / मध्वत्र / वध्वासनम्। पित्रर्थः / क्रादिः / लित् / लाकृतिः // 21 // ___अ० इवर्ण आदिर्येषां उवर्णादीनां स इवर्णादिः / तस्य / षष्ठीङस् / 'डित्यदितिः' (1 / 4 / 23) इति इकारस्य एकारः / “एदोद्भ्यां ङसिङसोरः' (1 / 4 / 35) अनेन ढसोरकारः क्रियतेः / केचित् इवर्णादेरिति पञ्चम्यन्तं व्याख्यान्ति / इवर्णादेः परतो यवरला भवन्तीति मतम् / तन्मते दधि यत्र / मधुवत्र / भूवादयः इत्यादयः / दधि अत्र, दधियत्र, दध्यत्र, दध्यत्र इत्यादि प्रयोगत्रयं भवति / वध्वा आसनम् / पितुरर्थः / कृ आदिर्यस्य स क्रादिः / लुकारो इत् अनुबन्धो यस्य स लित् / तृवत् आकृतिर्यस्य लाकृतिः // 21 // - ह्रस्वोऽपदे वा // 1 // 2 // 22 // . इवर्णादीनामस्वे स्वरे परे ह्रस्वो वा स्यात् / न चेत्तौ निमित्तनिमित्तिनावेकत्र पदे [पदमध्ये इत्यर्थः] स्याताम्। नदि एषा / नयेषा / मधु अत्र / मध्वत्र / अपद इति किम् ? नद्यौ / नद्यर्थः // 22 // ___अ० ह्रस्वोऽपदे वा / अनेन पदान्ते इवर्णादीनां वापि ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः क्रियते वापि दीर्घस्य ह्रस्वः क्रियते पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तेः / यथा पर्जन्यो मेघो यावदूनं सम्पूर्णं वा सर्व वृष्टया पूरयति / तथा सूत्रमपि ह्रस्वे ह्रस्वं दीर्धे ह्रस्वं प्रवर्त्तयति / ह्रस्वकरणसामर्थ्यादेव कार्यान्तरं न भवति / अत्र कश्चित्प्रकृतिभावमपि इच्छति / तथा च तन्मते कुमारी अत्र, कुमारि अत्र, कुमारि यत्र, कुमार्यत्र इति प्रयोगचतुष्टयं भवति / 'ह्रस्वोऽपदे वा' इति सूत्रं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते पदान्ते प्रवर्त्तते, नतु पदमध्ये इति भावः / नद्या अर्थो नद्यर्थः इत्यत्रान्तर्वर्त्तिविभक्त्यपेक्षया पदभेदेऽपि समासे सत्यैकपद्यमतो न ह्रस्वः / / 22 / / एदैतोऽयाय् // 1 // 2 // 23 // एत्ऐतोः स्वरे परे यथासङ्ग्यम् अय् आय् इत्येतौ स्याताम् / नयनम्, वृक्षयेव / नायकः, रायैन्द्री // 23 // अ० अस्वे परे इति अस्व इति इवर्णादिसम्बद्धं तन्निवृत्तौ निवृत्तम् / तेन स्वेऽपि स्वरे निमित्तेऽयाय् भवतः / अतो वृत्तौ स्वरे परे इत्युक्तम् / वृक्षयेव-वृक्ष सप्तमीङिः अवर्णस्येति एत्वम् / रायैन्द्री-रै ऐन्द्री / राया ऐन्द्री रायैन्द्री // 23 // ओदौतोऽवाव् // 12 // 24 // ओदौतोः स्वरे परे यथासङ्ग्यमव् आव् इत्येतौ स्याताम् / लवनम्, पटवोतुः / लावकः, गावौ // 24 // अ० पटु / आमन्त्र्यासिः / ‘ह्रस्वस्य गुणः' (1 / 4 / 41) इति सिना सह उकारस्य गुण ओ / लुनातीति लावकः ‘णकतृचौ' (5 / 1148) 'नामिनोऽकलि हलेः' (4 / 3 / 51) इति वृद्धिः / गावौ / गो औ / 'ओत औः' (1 / 4 / 74) इत्यनेन गोशब्दस्य गौः // 24 // ___य्यऽक्ये // 12 // 25 // ओदौतोः क्यवर्जे यादौ प्रत्यये परे यथासङ्ग्यमवावौ स्याताम् / गव्यति / गन्यते / नान्यति / नाव्यते / लव्यम्, अवश्यलाव्यम् / अक्य इति किम् ? उपोयते / औयत // 25 // अ० गावमिच्छति / गोरिवाचरति / नावमिच्छति / नौरिवाचरति / लूयते लव्यम् ‘य एच्चातः' (5 / 128) / अवश्यं लूयतेऽवश्यलाव्यम् ‘उवर्णादावश्यके' (5 / 1 / 19) इति ध्यण् ‘कृत्येऽवश्यमो लुक्' (3 / 2 / 138) इति अनुस्वारस्य लुग् / उपोयते 'वेग तन्तुसन्ताने' वे / उप / 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 79) यवृत् / उ / 'दीर्घश्च्चि यङ्' (4 / 3 / 108) इति दीर्घः / औयत / वे ह्यस्तनीत / क्य / वृत् / 'स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31) इति वृद्धिः औ। क्यप्रत्ययवर्जनात् / यकारादिरपि प्रत्यय एव गृह्यते तेनेह न भवति-गोयूतिः, नौयानम् / कथं गन्यूतिः क्रोशद्वयम् ? अव्युत्पन्नशब्दोऽयम् / गवां यूतिरिति व्युत्पत्तिपक्षे तु पृषोदरादित्वात् भविष्यति / / 25 / / . ऋतो रस्तद्धिते // 1 // 2 // 26 // कारस्य यादौ तद्धिते परे रः स्यात् / पित्र्यम् / तद्धित इति किम् ? कार्यम् // 26 // अ० पितरि साधुः पित्र्यम् 'तत्र साधौ' (7 / 2 / 15) इति यः / पिता देवताऽस्य पित्र्यम् 'वाय्वतुपित्रुषसो यः' (6 / 2 / 109) इति यः / पितुरागतं पित्र्यम् ‘पितुर्यो वा' (6 / 3 / 151) इति यः / पितरः प्रयोजनमस्य पित्र्यम् ‘स्वर्गस्वस्तिवाचनादिभ्यो यलुपौ' (6 / 4 / 123) यः प्रत्ययः / क्रियते इति 'ऋवर्ण०' (5 / 1 / 17) इति ध्यण् // 26 / / . एदोतः पदान्तेऽस्य लुक् // 1 // 2 // 27 // एदोभ्यां पदान्ते वर्तमानाभ्याम् परस्याकारस्य लुक् स्यात् / तेऽत्र / पटोऽत्र / पदान्त इति किम् ? नयनम् // 27 // गोर्नाम्न्यऽवोऽझे // 1 // 2 // 28 // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ___ गोरोतः पदान्तस्थस्याक्षे परे नाम्नि संज्ञायामव इत्यादेशः स्यात् / गवाक्षः। नाम्नीति किम् ? गोऽक्षाणि // 28 // अ० गो षष्ठीङस् / 'एदोद्भ्यां ङसिङसो र:' (1 / 4 / 35) / नाम्नि 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) / गोरोत इति गोशब्दओकारस्य / गो। अक्षि / गोरक्षीव गवाक्षः 'अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे" (7 / 3 / 85) इत्यनेन अत्समासान्तः 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति इकारलोपः, गवाक्षो वातायन उच्यते / गवामक्षाणि गोऽक्षाणि // 28 // स्वरे वाऽनक्षे // 12 // 29 // गोरोतः पदान्तस्थस्य स्वरे परेऽव इति वा स्यात् / स चेत्स्वरोऽक्षस्थो न स्यात् / गवाऽग्रम्, गोऽग्रम्। गवीशः, गवेशः / अनक्ष इति किम् ? गोऽक्षम् / ओत इत्येव- चित्रग्वर्थः // 29 // .... अ० गोरग्रं गवाग्रम् / गवामजिनं गवाजिनम् गोऽजिनम् इत्यपि ज्ञेयम् / गवामीशः / चित्रा गौर्यस्य 'गोश्चान्ते हस्व०' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः, 'परतः स्त्रीपुंवत् स्त्र्येकार्थेऽनूङ्' (3 / 2 / 49) इति चित्राशब्दस्य पुंवद्भावः / चित्रगोरर्थः चित्रग्वर्थः // 29 // इन्द्रे // 1 // 2 // 30 // नित्यार्थं वचनमिदम्] - गोरोतः पदान्तस्थस्य इन्द्रस्थे स्वरेऽव इति स्यात् / गवेन्द्रः [गवामिन्द्रः] // 30 // - [मवाऽत्यसन्धिः // 2 // 31 // : गोरोतः पदान्तस्थस्याऽकारे परे सन्ध्यभावो वा स्यात् / गो अग्रम् गवाग्रम् / अतीति किम् ? गवेहितम् // 32 // अ० गवामग्रम् / गो अग्रम् / तथा गो अजिनमित्यपि / गो अग्रम्, गोऽग्रम्, गवाग्रम् / गो अजिनम्, गोऽजिनम्, गवाजिनम् / इति प्रयोगत्रयंत्रयं भवति / उखनखेति दण्डकधातौ इगुधातुः / 'उदितः स्वरानोऽन्तः' (4 / 4 / 98) इन् / इङ्गनम् / इङ्गितम् / 'क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) 'स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट्' (4 / 4 / 32) इति इट् / गवामिङ्गितम् / गवेङ्गितम् // 31 // प्लुतोऽनितौ // 1 // 2 // 32 // इतिवर्ने स्वरे परे प्लुतः सन्धिभाग् न स्यात् / देवदत्त 3 अत्र वसि / अनिताविति किम् ? सुश्लोकेति // 32 // ... अ० 'दूरादामन्त्र्यस्य गुरुर्वैकोऽनन्त्योऽपि लनृत्' (7 / 4 / 99) अनेन देवदत्त 3 अत्र प्लुतसंज्ञा / न्वसि असिक भुवि' अस् / वर्तमानासिः / 'अस्तेः सिहस्त्वेति' (4 / 3 / 73) अनेन धातुसकारस्य लुक् // 32 // ई 3 वा // 12 // 33 // ई 3 इति प्लुतः स्वरे परेऽसन्धिर्वा स्यात् / लुनीहि 3 इति / लुनीहीति // 33 // अ० ई 3 / प्रथमासिः / सूत्रत्वात्सेलृक् / 'लूग्श् च्छेदने' लू / पञ्चमीहि / 'क़्यादेः' (3 / 4 / 79) इति श्रा। 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) ना / 'एषामीळञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) इति ना आकारस्य ईः / 'प्वादेर्हस्वः' (4 / 2 / 105) इति ह्रस्वः / लुः / लुनीहीति सिद्धम् // 33 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्यवरिभ्यामलते ईदेद्विवचनम् // 12 // 34 // ईत् ऊत् एत् इत्येवमन्तं द्विवचनान्तं स्वरेऽसन्धिः स्यात् / मुनी इह / साधू एतौ / माले इमे ['दो मःस्यादौ' (2 / 1 / 39) मकारः] / पचेते इति // 34 // अ० ईच्च ऊच्च एच्च ईदूदेत् / सिः / द्वि / 'वचंक् परिभाषणे' / द्वावर्थो वक्तीति द्विवचनम् / 'रम्यादिभ्यः कर्त्तरि' (5 / 3 / 126) अनेन अनट्प्रत्ययः / मुनि / साधु / प्रथमा औ / द्वितीया औ / 'इदुतोऽस्टेरीदूत्' (1 / 4 / 21) अनेन औता सह ईकारः ऊकारः मुनी साधू / माला औ / 'औता' (1 / 4 / 20) इति सूत्रेण औकारेण सह आबन्तस्य एकारः माले / पचेते पच् / वर्तमाना आत्मनेपद आते / 'कर्त्तर्य०' (3 / 4 / 71) शव् / 'आतामाते आथामाथे आदिः' (4 / 2 / 121) इत्यनेन आते आकारस्य इकारः / 'अवर्णस्येवर्णादि० ' (1 / 2 / 6) एत् // 34 / / अदोमुमी // 1 // 2 // 35 // अदस्सम्बन्धिनौ मुमी इत्येतौ स्वरेऽसन्धी स्याताम् / अमुमु ईचा / अमी अश्वाः // 35 // .. अ० अदसो मुमी अदोमुमी / एकपदम्, सिः / अमुमुईचा / अदस् / 'अञ्चू गतौ च' / अमुमश्चतीति विप् / 'सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिः कयञ्चौ' (3 / 2 / 122) अनेनाञ्चेः पूर्व अदसः परो डद्रिः / डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः 'डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) 'अप्रयोगीत्' 'क्किप्' (5 / 1 / 148) लुग् / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इति नकारस्य लोपः / तृतीयाटा / 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' (2 / 1 / 104) इत्यनेनाचः च् इत्यादेशः / अद्रि इकारस्य दीर्घः / ईः / अद्रेः इकारः पृथग् कार्यः / तदनन्तरं दीर्घः / 'वाद्रौ' (2 / 1 / 46) इत्यनेन दकारद्वयस्य मः / 'मादुवर्णोऽनु' (2 / 1 / 47) इत्यनेन मात्परस्य वर्णमात्रस्य उत्वं क्रियते अमुमुईचा / / अमी / अदस् / जस् / ‘आढेरः' (2 / 1 / 41) अः / 'मोऽवर्णस्य' (2 / 1 / 45) इति मः / 'जस इ:' (1 / 4 / 9) 'अवर्णस्ये०' (1 / 2 / 6) इति ए / 'बहुष्वेरीः' (2 / 1 / 49) इति एकारस्य ईत्वम् अमी // 35 // चादिः स्वरोऽनाङ् // 12 // 36 // आवर्जश्चादिः स्वरः स्वरे परेऽसन्धिः स्यात् / [सम्बोधने] अ, अपेहि / अनाङिति किम् ? आ इहि एहि // 36 // अ० ओदन्तेत्यत्र उत्तरसूत्रेऽन्तग्रहणात् चादिः स्वरेति सूत्रे चादिः केवल एव स्वरो गृह्यते / यथा अ अपेहि / इ इन्द्रं पश्य / ई ईदृशः संसारः / उ उत्तिष्ठ / ऊ ऊपरे बीजं वपसि / ए इतो भव / ओ श्रावय / आ एवं किल मन्यसे / आ एवं नु तत् इत्यादि / इ उ ए ओ एते वर्णा अहोऽर्थे, ई इति खेदे, ऊ इति अक्षमायाम् / चादिरिति किम् ? अ विष्णो श्रृणु / केवलचादिग्रहणादिह न भवति-चेति इतीह नन्विति वेति / तथा 'ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः / एतमातं ङितं विन्द्यात् वाक्यस्मरणयोरङित्' // 1 // मर्यादायुक्तोऽभिविधिर्मर्यादाभिविधिः तस्मिन् आतं आकारम् / ङितं डकारानुबन्धिनं विन्द्यात् जानीयात् / आ ईषदुष्णम् ओष्णम् अत्रेषदर्थे आ / आ इहि एहि अत्र आ क्रियायोगे / आ आर्येभ्य आर्येभ्यो यशो गतं गौतमस्य अत्राभिविधौ आ वर्त्तते / वाक्यविपरीतकरणे स्मरणे च य आ स अङित्, तत्राऽसन्धिः / यथा आ एवं किल मन्यसे / अस्यार्थः-पूर्वमन्यत्प्रतिज्ञातमिदानीमन्यदेवेति विपरीतवाक्यार्थे / आ एवं नु तत् / अस्यार्थोऽयम्-पूर्वं दृष्टं किमिदानी विस्मृतम् / आ स्मृतं स्मृतमेवम् इति स्मरणम् / नु वितर्के // 36 // Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओट श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्याक्स्य तृतीयः पादः ओदन्तः // 1 // 2 // 37 // ओदन्तश्चादिः स्वरे परेऽसन्धिः स्यात् / अहो अत्र // 37 // अ० अथो एवम्, हंहो आगच्छ, नो इन्द्रियम् इत्यादि ज्ञेयम् // 37 // सौ नवेतौ // 12 // 38 // सिनिमित्त ओदन्त इतौ परे असन्धिर्वा स्यात् / पटो इति ['हस्वस्य गुणः'] / पटविति // 38 // अ० पटु / सिः / ‘ह्रस्वस्य गुणः' (1 / 4 / 41) // 38 // ॐ चोञ् // 12 // 39 // [उशब्दो भर्त्सनार्थः] उशब्दाश्चादिरितिशब्दे परेऽसन्धिर्वा स्यात् / असन्धिपक्षे च उञ् ॐ इत्येवं रूपो दीर्घोऽनुनासिको वा स्यात् / उ इति / ॐ इति / विति // 39 // अञ्वर्गात्स्वरे वोऽसन् // 1 // 2 // 40 // जवर्जबर्गेभ्यः पर उञ् स्वरे परे वो [वकारः] वा स्यात् / सचासन् [अभूतवत् ज्ञातव्यः / वास्ते कुड आस्ते / असत्त्वाव्दित्वम् // 40 // - अ० नञ् / अञ् / अञ् चासौ वर्गश्च अञ्वर्गस्तस्मात् / 'कुंच गतौ' कुंचतीति क्रुङ् 'क्किप' सिः 'दीर्घङया.' (1 / 4 / 45) इति लुग् / 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति चस्य लोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) अनेन नकारस्य कुङ् / उञ् / आस्ते / उनो वकारे कृतेऽसत्त्वात् 'हस्वाद् ङणनो द्वे' (1 / 3 / 27) इति डकारस्य द्वित्वं जातम् / किम्वुष्णम् किमु उष्णम् / अत्रासत्त्वात् 'तो मुमो व्यञ्जने स्वौ' (1 / 3 / 14) इति मकारस्यानुस्वारो न भवति / तथा नत्रा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात् असत्त्वं 'हस्वाद् ङणनो द्वे' 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' इति अनयोरेव विषये द्रष्टव्यं नान्यत्र / अन्यकार्ये कर्त्तव्ये सत्त्वमेव // 40 // अइउवर्णस्यान्तेऽनुनासिकोऽनीदादेः // 12 // 41 // अ इ उ वर्णानामन्ते विरामेऽनुनासिको वा स्यात् / अनीदादेः चेदेते [इ उवर्णा] ईदूदेद्विवचनमित्यादिसूत्रसम्बन्धिनो न स्युः / साम / साम / खट्वाँ / खट्वा / दधैिं / दधि / कुमारी / कुमारी। मधु। मधु / अनीदादेरिति किम् ? अग्नी / अमी / किमु // 41 // अत्र पादे श्लोक 50 // 2 // ____ अ० अश्व इश्च उश्च / तेषां वर्णः / अ इ उ वर्णः / तस्य / यथा दधिं दधि मधु मधु विरामत्वादनुनासिकः / तथा दधि अत्र दधि अत्र, मधु अत्र मधु अत्र, वृक्षेण अत्र वृक्षण अत्रेत्यादौ अनुनासिकबलाद्विरामत्वाच्चासन्धिः // 41 / / द्वितीयपादावचूरिः / 4 0 /-- ... इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतो द्वितीयः पादः समाप्तः // 2 // यः पादः समाप्तः ||2|| Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *22 कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवप्रिभ्यामलते तृतीयस्य' पञ्चमे // 1 // 3 // 1 // वेति पदान्त इति च अनुनासिक इति चानुवर्तते / वर्गतृतीयस्य पदान्ते वर्तमानस्य पञ्चमे परेऽनुनासिको वा स्यात् [डअणनमा इत्येते भवन्तीति ज्ञेयम्] / वावते वाग्वते / वाजकारः वाग्ज्ञकारः / एवं षाणयाः / षड्नयाः / ककुम्मण्डलम् / ककुमण्डलम् // 1 // अ० त्रि / त्रयाणां पूरणः / 'त्रेस्तु च' (71 / 166) इत्यनेन तीयप्रत्ययः तृ आदेशश्च / तृतीयस्येत्युत्तरार्थं कृतमन्यथा वर्गस्येति क्रियेत / तेन प्राङ् हसति इति सिद्धम् / 'वचंक् परिभाषणे' / वक्तीति कर्तरि उच्यते इति कर्मणि वा / 'दिद्युद्ददृज्जगजुहूवाक्०' (5 / 2 / 83) इत्यादि एते निपाताः, विप् दीर्घश्चादिकं क्रियते / सिः / दीर्घङयेति लुक् / 'चजः कगम्' (2 / 1 / 86) अनेन चस्य कः / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) अनेन कस्य गः / षण्णां नयाः षण्नयाः / 'धुटस्तृतीयः' इति षस्य डः / कम् पूर्वं स्तंभ इति सौत्रो धातुः कं वायुं स्तभ्रातीति ‘ककुत्रिष्टुबनुष्टुभः' / (932) इति निपाताः / निपातनात् ककुभ् / 'मडु भूषायाम् मण्डयते भूष्यतेऽवयवैरिति मण्डलम्' 'मृदिकन्दिकुण्डिमण्डिमङ्गिपटिपाटिशकि केवृदेवृकमियमिशलिंकलिपलिगुध्वश्चिचश्चिचपिवहिदिहिकुहितृसृपिशितुसिकुस्यनिद्रमेरलः' (465) अलप्रत्ययः मण्डलम् (ककुभां मण्डलम्) तथात्र मकारे कृते 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' (1 / 3 / 14) इत्यनेनानुस्वारो न भवति लाक्षणिकत्वात् / असदधिकाराद्वेति केचित् मस्यानुस्वारं नेच्छन्ति // 1 // प्रत्यये च // 1 // 3 // 2 // .. .. पदान्तस्थस्य तृतीयस्य प्रत्ययपञ्चमे परेऽनुनासिकः स्यानित्यार्थ वचनम् / वाङ्मयम् / षण्णाम् / चकार उत्तरत्र वाऽनुवृत्त्यर्थः // 2 // अ० प्रति 'इण्क् गतौ' / प्रतीयते येनार्थः स प्रत्ययः ‘पुनाम्नि' (5 / 3 / 130) घः / वाच् वाचां विकारोऽवयवो वा 'एकस्वरात्' (6 / 2 / 48) इति मयट् / अथवा वाच आगतं 'नृहेतुभ्योरुप्यमयड् वा' (6 / 3 / 156) / षण्णाम्षष् षष्ठी आम् ‘सङ्ख्यानां र्णाम्' (1 / 4 / 33) इत्यनेन आम्स्थाने नाम् क्रियते / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति डः अनेन णः 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' (1 / 3 / 60) इति नस्य णः / / 2 / / ततो हश्चतुर्थः // 1 // 3 // 3 // पदान्ते वर्तमानात्ततस्तृतीयात्परस्य हस्य स्थाने पूर्वसवर्गश्चतुर्थो वा स्यात् / वाग्धीनः वागहीनः / अज्झलौ अज् हलौ / तद्धितम् तहितम् / ककुन्भासः ककुब्हासः // 3 // अ० चतुर् / चतुर्णाम् पूरणः 'चतुरः' (7 / 1 / 163) इत्यनेन थट् / वाचा हीनः / अच् च हल् च 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति जः / तस्मै हितं तेभ्यो वैदिकलौकिकशब्दसन्दर्भेभ्यो हितं तद्धितम् / अथवा ताभ्य औपगवादिवृत्तिभ्यो हितं तद्धितम् इति विस्तरवाक्यम् तम् / ककुभां हासः // 3 // प्रथमादधुटि शश्छः // 1 // 3 // 4 // पदान्ते वर्तमानात्प्रथमात्परस्य शस्य स्थानेऽधुटि परे छकारो वा स्यात् / वाक् च्छूरः / वाक्शूरः / 1. वर्गस्य इत्येव सिद्धे तृतीयस्योपादानं उत्तरार्थम् / अन्यथा ड्वर्णस्यापि वर्गात्मकत्वेन प्राङ् हसति इत्यत्र प्राड्यसति इति प्रयोगापत्तिः स्यात् / Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः त्रिष्टुप्च्छुतम् / त्रिष्टुप्श्रुतम् / अधुटीति किम् ? वाच्योतति // 4 // अ० अधुडिति कोऽर्थः-स्वरान्तस्थानुनासिकपरस्य शस्य छत्वं भवति / वाचा शूरः / 'चजः कगम्' (2 / 1186), 'घुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) त्रिष्टुभां श्रुतम् / श्च्योततीति / 'चुतृस्चुतृस्च्युत क्षरणे' / श्च्युत् ‘सस्य शयो' (1 / 3 / 61) अनेन सूत्रेण दन्त्यसकारस्य तालव्यशकारः क्रियते / वर्तमानातिव् / शव् / 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) गुणः // 4 // रः कखपफयोः )( पौ // 1 // 3 // 5 // पदान्तस्यस्य रेफस्य रकारस्य कखे पफे च परे यथासङ्ग्यं वित्यादेशौ वा स्याताम् / क)(रोति / कः करोति / क)(नति कः खनति / कपचति कः पचति / कमलति कः फलति / पक्षे "रः पदान्ते. (12253) इत्यनेन विसर्गः / विसर्गापवादोऽयम् [अयं योगः सूत्रम् / एवमुत्तरत्रापि // 5 // अ० कश्च खश्च कखौ / पश्च फश्च पफौ / कखौ च पफौ च तयोः / कः करोति / किम् / सिः / “किमः कस्तसादौ च' (2 / 1140) इति क आदेशः / सो रुः (2 / 1 / 72) रः // 'डुइंग् करणे' / कृ वर्तमानातिन् / 'कृरतनादेरुः' (3 / 4 / 83) इति उः / 'उश्नोः' (4 / 3 / 2) इत्यनेन गुणः / अर् / 'नामिनो गुणोऽडिति' (4 / 3 / 1) इति उकारस्य गुणः // 5 // .. शषसे शषसं वा // 1 // 3 // 6 // पदान्ते रेफस्य शषसेषु परेषु यथासङ्ग्यं श ष स इत्यादेशा वा भवन्ति / कश्शेते, कः शेते / कष्षण्डः, कः षण्डः / कस्साधुः, कः साधुः / नवाधिकारे पुनर्वाग्रहणमुत्तरत्र विकल्पनिवृत्त्यर्थम् // 6 // अ० शश्च षश्च सश्च शषसम् / तस्मिन् // 6 // चटते सद्वितीये // 1 // 3 // 7 // पदान्ते रस्य चटतेषु सद्वितीयेषु परेषु यथासङ्ग्यं शषसा भवन्ति / चछयोः शः-कश्वरः कच्छन्नः / टठयोः क-कष्टः, कष्ठः / तथयोः सः-कस्तः, कस्थः // 7 // - अ० चश्च टश्च तश्च / चटतम् / तस्मिन् / सह द्वितीयेनाक्षरेण वर्त्तते सद्वितीयः / 'सहस्य सोऽन्यार्थे' (3 / 2 / 143) सहस्य सः // 7 // . नोऽप्रशानोऽनुस्वरानुनासिकौ च पूर्वस्याधुट्परे // 1 // 3 // 8 // पदान्ते वर्तमानस्य नकारस्य प्रशान्शब्दवर्जितस्य चटतेषु सद्वितीयेषु अधुट् परेषु यथासङ्ग्यं श ष स इत्यादेशाः स्युः / अनुस्वारानुनासिकौ चागमादेशौ पूर्वस्य वर्णस्य क्रमेण स्याताम् / भवांश्चरः / भवाँश्वरः। भवांश्छ्यति। भवाँश्छ्यति। भवाष्टकः। भवाँष्टकः। भवांष्ठकारः। भवाँष्ठकारः। भवांस्तनुः [कृशः]। भवाँस्तनुः। भवांस्थुडति / भवाँस्थुडति / अप्रशान इति किम् ? प्रशाश्चरः / अधुट्पर इति किम् ? भवान्त्सरुकः // 8 // __ अ० न प्रशान् / अप्रशान् / तस्य / ‘शमूदमू च उपशमे' शम् / प्र / प्रशाम्यतीति प्रशान् 'क्विप्' (5 / 1 / 148) 'अहन्पश्चमस्य०' (4 / 1 / 107) इति दीर्घः / ‘मो नो म्वोश्च' (2 / 1 / 67) इति मस्य न् / न धुट् / अधुट् / अधुट्परोऽस्मात् चटतात् चटतात् सोऽधुट्परस्तस्मिन्निति वाक्यं कर्त्तव्यम् / न धुटपरो यस्मात् इति कृत्वा पश्चान्नञा योगः कार्यः, यतः प्रसज्यनशङ्कया वर्णाभावेऽपि स्यात् आदेशः, भवान् इत्यत्रेत्यर्थः / अनुस्वार आगमः अनु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते नासिकश्चादेशः उच्यते / 'भांक दीप्तौ' भातीति 'भातेर्डवतु' भवत् / सिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इत्यनेन त् उपरि न् न्त् / 'अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 90) दीर्घः' / 'दीर्घङया०' (1 / 4 / 45) इति सेर्लोपः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति त्लुक् / 'दों छों च् च्छेदने' च्छो / वर्तमानातिन् / 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) श्यः / 'प्रयोगीत्' य। 'ओतः श्ये' (4 / 2 / 103) इत्यनेन छो ओकारस्य लुग् / प्रशाञ्चर इत्यत्र नस्य 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' (1 / 3 / 60) इत्यनेन ञ् // 8 // पुमोऽशिट्यघोषेऽख्यागि रः // 1 // 3 // 9 // पुमिति पुंसोः कृतसंयोगान्तस्य लोपस्यानुकरणम् / अधुट्परेऽधोषे शियाग्वर्जिते परे पुमित्येतस्य रोऽन्तादेशः [आगमः] स्यात् / अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य / पुंस्कामा / पुंस्कामा / पुंस्कोकिलः पुँस्कोकिलः / पुंस्फलम् / पुंस्फलम् / अमटीति किम् ? पुंशिरः / अघोष इति किम् ? पुंगवः / अख्यागीति किम् ? पुंख्यातः / अधुट्पर इत्येव- पुंक्षारः // 9 // ___ अ० पुंस्कामेत्यादिषु सर्वत्र 'पुंसः' (2 / 3 / 3) इति सूत्रेण रकास्य सकारः क्रियते / पुंस्कामः इत्यादिषु पुम्सु पुमांसं कामयते पुमांश्चासौ कोकिलश्च पुंसः फलमित्यादि वाक्यानि कृत्वा 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सूत्रेण अन्त्यस्य सकारस्य लोपः कार्यः / तदनन्तरं 'पुमोऽशिटयघोषेऽख्यागि रः' इत्यनेन मकारस्य रकारः क्रियते 'पुंसः' इति सूत्रेण रस्य सकारः क्रियते पुंस्कामा पुंस्कोकिलः / पुंगवादय एवं साधनीयाः / पुमांश्चासौ गौश्च पुंगवः 'गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इति अट् / पुंसा ख्यातः पुंख्यातः / यत्र 'चक्षो वाचि क्शांग् ख्यांग्' (4 / 4 / 4) इति सूत्रेण चक्षुधातोः ख्यांग् आदेशस्तत्र रत्वनिषेधः यत्र तु ‘ख्यांक प्रकथने' इत्यदादिः तत्र रो भवत्येव यथा पुंख्यातः मुख्यातः / तथा 'पांक् रक्षणे' पा पाति पुरुषार्थमिति पुमान् नृ ‘पातेथुम्सु' (1002) पुम्स् इति सिद्धम् / पुमांसं कामयते ‘कमूङ् कान्तौ' कम् / कमेणिङ् (3 / 4 / 2) 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) इति वृद्धिः / पुमांसं कामयते / 'शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमो णः' (5 / 1 / 73) इति णप्रत्ययः / ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) इङ्लोपः / 'आत्' (2 / 4 / 18) आप् // 9 // नृनः पेषु वा // 1 // 3 // 10 // नृनिति शसन्तस्य नृशब्दस्यानुकरणम् / नृनः पकारे परे रोऽन्तादेशः [आगमः] स्यात् वा। अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य / नुं पाहि / नॅध्याहि / नृन् पाहि / बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वादधुट्पर इति निवृत्तम् [तेन नुं प्साति इत्यादि सिद्धम् // 10 // अ० नृ शस् / ‘शसोऽता सश्च नः पुंसि' (1 / 4 / 49) इत्येतेन ऋकारस्य दीर्घ नृ / शसः स्थाने न् / नृन् इति सिद्धम् // 10 // द्विः कानः कानि सः // 1 // 3 // 11 // ___ कानिति किमः शसन्तस्यानुकरणम् / द्विरुक्तस्य कानः कानि परे सकारोऽन्तादेशः स्यात् / अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य / कांस्कान् काँस्कान् / द्विरिति किम ? कान् कान् पश्यति / अत्रैकः किम् (कान्रूपशब्दः) प्रश्नेऽन्यस्तु क्षेपे (कानिति निन्दायामवहेलने वा) / रस्याधिकारेणैव सिद्धे सविधानं रुत्वबाधनार्थम् // 1 // Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः ___अ० द्वि / द्वौ वारौ द्विः / 'द्वित्रिचतुरः सुच्' (7 / 2 / 110) अनेन सुच् 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) स् / सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक् / 'सो रुः' (2 / 1 / 72) 'रः पदान्ते.' (1 / 3 / 53) इति विसर्गः / कान् / ततो 'वीप्सायाम्' (7 / 4 / 80) इत्यनेन कान् इति द्विरुच्यते / कान् कान् / सकारस्य ‘सो रुः' / (2 / 1172) इति रुत्वं कश्चिदाशङ्कते / तं प्रति रस्याधिकारेत्युक्तम् // 11 // ' स्सटि समः // 1 // 3 // 12 // समित्येतस्य स्सटि परे सोऽन्तादेशः (आगमः) स्यात् / अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य संस्स्कर्ता / सँस्स्कर्ता / स्सटीति किम् ? संकृतिः // 12 // अ० सम्पूर्वःकृधातुः / संस्करोति संस्स्कर्ता / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) तृच् / 'नामिनो०' (4 / 3 / 1) इति गुणः / ततः ‘संपरेः कृगः स्सट्' (4 / 4 / 91) अनेन कृग आदिः स्सट् क्रियते / तदनन्तरं 'स्सटि समः' (1 / 3 / 12) अनेन मस्य सकारः / 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) अनेन सकारत्रयमध्यात् मध्यमस्य लोपः / ततः सिः / 'ऋदुशनस्पुरुदंशो०'. (1 / 4 / 84) इति सेः स्थाने डा / संस्स्कर्ता इत्यत्र श्वस्तनीता, एवमपि सिद्धयति / संकृतिःकृधातुः सम्पूर्वः / संस्क्रियादित्याशास्यमान इत्याशीर्वाक्ये 'तिक्कृतौ नाम्नि' (5 / 1 / 71) अनेन तिक्प्रत्ययः / अत्र 'संपरेः कृगः स्सट्' (4 / 4 / 91) इति स्सट् कथं न भवति ? अत्रोत्तरमाह-गर्गादिगणपाठादिति 'संपरेः कृगः' इति सूत्रे उक्तमस्ति / ‘गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) इति तद्धितपादे प्रथमे आदौ सूत्रम् / तत्र गर्गादिगणे गर्ग वत्स वाज अज संकृतिः इत्यादयः / अतः स्सट् न स्यादिति भावः // 12 // लुक् // 1 // 3 // 13 // समित्यस्य स्सटि परे लुगन्तादेशः स्यात् / सस्स्कर्ता / पृथग्योगादनुस्वारानुनासिकेत्यत्र निवृत्तम् // 13 // तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ // 1 // 3 // 14 // मोागमस्य पदान्ते वर्तमानस्य च मकारस्य व्यञ्जने परे तस्यैव स्वौ तावनुस्वारानुनासिकौ क्रमेण स्याताम् / मग्रहणेनैव सिद्धे मुग्रहणमपदान्तार्थम् / स्वेत्यनुनासिकस्य विशेषणम् नानुस्वारस्य असम्भवात्। चंक्रम्यते चङ्क्रम्यते / बंभण्यते बम्भण्यते / वंवम्यते वञ्चम्यते / त्वं करोषि त्वङ्करोषि / त्वं चरसि त्वञ्चरसि। त्वं तरसि त्वन्तरसि / अत्र नकारस्य लाक्षणिकत्वात् 'नोऽ-प्रशान०' (1 / 3 / 8) इत्यादिनाऽत्र [त्वं तरसीत्यत्र] सकारो न स्यात् / संयतः सय्यँतः। अहंयुः अहय्युः / कंव कबः / पदान्त इत्येव-गम्यते। स्वाविति किम् ? रंरम्यते / शंशम्यते / त्वं रमसे / त्वं साधुः // 14 // - अ० मुश्च म् च मुमं / तस्य / तस्यैवेति-यः कश्चिद्धातुसम्बन्धिव्यञ्जनम् आदौ तदपेक्षया यः पञ्चमो वर्णः स एव स्व अनुनासिको भवतीत्यर्थः / तथा एकवारं प्रथमं अनुस्वारः पश्चादनुनासिक इति क्रमः / चंक्रम्यते इत्यादि 'क्रम पादविक्षेपे' क्रम् / भृशं पुनः 2 वा क्रामति 'व्यञ्जनादेरेकस्वरादृशाभीक्ष्ण्ये यङ् वा' (3 / 4 / 9) अनेन यङ्प्रत्ययः / ‘सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) अनेन द्विः क्र क्रम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) अनेन द्विरुक्तव्यञ्जने आद्यं व्यञ्जनं स्थाप्यते / शेषं सर्वं लुप्यते / ‘कङश्चन्' (4 / 1 / 46) अनेन कस्य चत्वम् / 'मुरतोऽनुनासिकस्य' (4 / 1 / 51) अनेन द्विरुक्तविचाले मुआगमः कार्यः / ततः सूत्रम् / बंभण्यते इत्यस्य चंक्रम्यतेवत्सिद्धिः, नवरं 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) इति पूर्वमकारस्य बकारः क्रियते / 'त्वमहं सिना प्राक्' चाकः' (2 / 1 / 12) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 . कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते . इति त्वम् / अहम् / संयत इति 'यमू उपरमे' यम् / सम् पूर्व संयच्छत्यात्मानमिति संयतः / 'ज्ञानेच्छाचार्थजीच्छल्यादिभ्यः क्तः' (5 / 2 / 92) 'यमिरमिनमिगमिहनिमनिवनतितनादेधुटि क्डिति' (4 / 2 / 55) इत्यादिना मस्य लुक् / अहं विद्यतेऽस्य 'ऊर्णाहंशुभमो युस्' (7 / 2 / 17) / कम्-कं सुखं ज्ञानं वा जलं वाऽस्यास्तीति कंवः / 'कंशंभ्यां युस्तियस्ततवभम्' (7/2 / 18) इत्यनेन वः प्रत्ययः / स्वाविति किम् ? रंरम्यते इत्यादि-रेफोष्मणां त्वतुल्यस्थानास्यप्रयत्नत्वात्स्वा न भवन्तीति 'तुल्यस्थाना०' (1 / 1 / 17) इति सूत्रे उक्तम् / अतोऽत्रानुनासिकाभावः // 14 / / मनयवलपरे हे // 13 // 15 // मनयवलपरे हकारे परे पदान्ते वर्तमानस्य मस्य स्थानेऽनुस्वारानुनासिकौ स्वौ क्रमात्स्याताम् / किंल. लयति किम्ललयति / किं हुते किन्हुते / किं ह्यः कियहाँः / किंहलयति किन्हँलयति / मादि पर इति किम् ? किं हसति // 15 // अ० मश्च नश्च यश्च वश्च लश्च मनयवलाः / मनयवला वर्णाः परे यस्मात् हकारात् स मनयवलपरः / तस्मिन् / हकारस्य स्वौ नास्तीति हकारव्यवहितमकाराद्यपेक्षया स्वोऽनुनासिको भवन् मकारादिरूपेण भवतीत्यर्थः / इति वृत्तौ स्वावित्युक्तम् / ‘ह्वल हल चलने' हल हल / हलति झलति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः 'ज्वलहलह्मलग्लास्नावनूवमनमोऽनुपसर्गस्य वा' (4 / 2 / 32) इति ह्रस्वः // 15 // सम्राट् // 1 // 3 // 16 // समो मस्य राजौ किबन्तेऽनुस्वाराभावः स्यात् / सम्राट्-भरतः / सम्राजौ / साम्राज्यम् // 16 // अ० सम्राट् इत्यत्रैकवचनस्यातन्त्रत्वात् द्विवचनादावपि भवति / सम्पूर्वः 'राजृग् टुभ्राजि दीप्तौ' राज् / सम् सम्यग् राजते / राजतेः किम् / सम्राट् / अत्र 'यजसृजमृजराजभ्राजभ्रस्जव्रश्वपरिव्राजः शः षः' (2 / 1 / 87) इति षः 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति ड् 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) द् / सम्राजो भावः कर्म वा साम्राज्यम् 'पतिराजान्त-गुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च' (7 / 160) अनेन ध्यण् // 16 / / णोः कटावन्तौ शिटि नवा // 1 // 3 // 17 // पदान्ते वर्तमानयोर्कणयोः शिटि परे यथासङ्ग्यं क् ट् इत्येतावन्तौ स्याताम्, वा / प्राइ शेते / प्राह छेते / प्राशेते / सुगण्टशेते / सुगण्छे ते / सुगणशेते // 17 // ___ अ० श्च णश्च णौ / तयोः / कश्च टश्च कटौ / / प्राङ्क शेते ‘अञ्चू गतौ च' / अञ्च् प्रपूर्वः / प्राश्चतीति प्राङ् 'क्विप्' (5 / 1 / 148) / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इत्यनेन नस्य लोपः / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) विप्लोपः। सिः / 'अचः' (1 / 4 / 69) इति सूत्रेण चकारात् प्राक् न् च क्रियते / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) इति सिलुक् / 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति चलोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) इति सूत्रेण नकारस्य ङ इति कार्यः / प्राङ् इति सिद्धम् // शेते / अत्र ‘शीङ् स्वप्ने' शी / वर्तमानाते / ‘शीङ ए: शिति' (4 / 3 / 104) अनेन गुणः / ए / शेते / / 'गणण् सङ्ख्याने' गण् / 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इति णस्य अकारस्य लोपः / सुगणयतीति 'विप्' सुगण् / / 17 / / ड्नः सः त्सोऽश्वः // 1 // 3 // 18 // पदान्ते वर्तमानाडुकारानकाराच्च परस्य सकारस्य स्थाने त्स इत्ययं तादिः सकारादेशो वा स्यात् / अश्च Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः -श्वसंयोगावयवः सो न भवति चेत् / षड्त्सीदन्ति, डकारनिर्देशाट्टत्वं न स्यात् / पक्षे षट् सीदन्ति / भवान्साधुः / भान्साधुः / अश्व इति किम् ? षट्भ्च्योतन्ति / भवाञ्च्योतति // 18 // . अ० डश्च नश्च ड्न / ततोऽस्वराङसिः / 'शिट्यघोषात्' (1 / 3 / 55) विसर्गः / विग्रहस्तु उच्चारणार्थं स्वरेण सह क्रियते यथा घृतमानयेत्युक्ते द्रवद्रव्यत्वात् केवलस्य दुरानेयत्वाच्च भाजने आनीयते / एवं पूर्वसूत्रेऽपि ज्ञेयम् / षष् / जस् / 'डतिष्णः सङ्ख्याया लुप्' (1 / 4/54) अनेन ज़स् लुप्यते / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति षस्य डः / सीदन्ति 'श्रौतिकृवु०' (4 / 2 / 108) इत्यादिना / / सूत्रे ड्न इति करणात् टत्वं न भवतीत्यर्थः / स्च्युतेर्दन्त्यसकारोपदेशत्वात् तालव्यशकारस्यापि सकारापदिष्टं कार्य विज्ञायते / यथा मधुग् इत्यत्र तालव्यशस्य 'संयोगस्यादौ स्कोलुंग (2 / 1 / 88) इति लुक् सञ्जातः / तथा श्च्योततीत्यत्रापी // 18 / / ‘नः शिश्च // 13 // 19 // पदान्तस्थस्य नस्य शकारे परे ञ्च् इत्यादेशो वा स्यात् / अश्व-श्वसंयोगावयवश्चेत् शकारो न भवति / भवाञ्च्छूरः / भवाञ्शूरः / भवाञ्शूरः / अश्व इति किम् ? भवाञ्च्योतति / राजा शेते इत्यत्र तु परत्वानलोपः // 19 // ___अ० भवाञ्च्छूरः / भवाञ्च्शूरः / अत्रादौ 'प्रथमादधुटि शश्छः' (1 / 3 / 4) इति छः // द्वितीये 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' (1 / 3 / 60) इत्यनेन नस्य ञ् / एवं कुर्वञ्च्छेते कुर्वञ् छेते कुर्वञ् शेते / वदञ्च्छीतलः वदञ्छीतलः वदशीतलः इत्यादयोऽपि ज्ञातव्याः / तथा भवाञ्च्छूरः भवाञ्छूरः इत्यादिषु आदेशबलात् चस्य कत्वं न भवति / व्याख्यानस्योपलक्षणत्वात् 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इत्यनेन संयोगान्तलोपोऽपि न भवतीत्यर्थः / परत्वादिति 'नाम्नो नोऽनहः' (2 / 1 / 91) इत्यनेन नकारो लुप्यते / / 19 / / अतोऽति रोरुः // 13 // 20 // वेति निवृत्तिम् / अतोऽकारात्परस्य पदान्ते वर्तमानस्य रोः स्थानेऽति अकारे परे उरादेशः स्यात् / कोऽत्र / कोऽर्थः // 20 // . अ० ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) इत्यनेन कृतस्य-सकारस्थाने रु इत्येतस्य // 20 // __ घोषवति // 1 // 3 // 21 // अतः परस्य पदान्तस्थस्य रोः स्थाने घोषवति परे उकारः स्यात् / धर्मो जयति / रोरित्येव स्वर्याति। उत्तरेण ['अवर्णभो०' इत्यनेन] लुकि प्राप्तेऽपवादोऽयम् // 21 // __ अवर्णभोभगोऽघोलुंगसन्धिः // 1 // 3 // 22 // .. अवर्णाद्भोभगोऽधोभ्यश्च परस्य पदान्तस्थस्य रो?षवति परे लुक् स्यात्, स च न सन्धिहेतुः। देवा यान्ति / भो यासि.। भगो हससि / अधो वद / अकारात्तु परस्य रोः स्थाने पूर्वेणाऽपवादत्वादुत्वमेव // 22 // __ अ० अवर्णश्च भोश्च भगोश्च अघोश्च / तस्मात् 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति डसेर्लुक् / भोस् भगोस् / अघोस् इति त्रयोऽपि सकारान्ता अव्ययाः सम्बोधनेऽर्थे / अत्र सूत्रेऽवर्णेत्युक्ते आकार एव ग्राह्यः [अपवादत्वात् निरवकाशत्वात् / / 22 / / व्योः // 13 // 23 // Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते ___अवर्णात्परयोः पदान्ते वर्तमानयोॉर्वकारयकारयोर्घोषवति परे लुक् स्यात् / वृक्षं वृश्चति किम् / वृक्षवृश्चमाचष्टे इति णावन्त्यस्वरादिलोपे वृक्षवयतीति विचि सिद्धं वृक्ष / एवं अव्यय / वृक्षयाति / अव्ययाति // 23 // ___ अ० व् च य च ब्यौ / तयोः / 'ओव्रस्चौत् च्छेदने' व्रस्च / वृश्च्यते छिद्यते कुठारादिभिः गृहार्थमिति वृक्षः / प्रथमं 'सस्य शषौ' (113 / 61) इति श् / पश्चाद्वाक्यम्। 'ऋजिरिषि०' (567) कित्सः प्रत्ययः / 'ग्रहव्रश्चभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति य्वृत् / 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' (2 / 1 / 88) इति शकारलुक् / 'यजसृजमृजराज०' (2 / 1187) इति चकारस्य षकारः / 'षढोः कस्सि' (2 / 1 / 62) इत्यनेन षकारस्य ककारः / 'नाम्यन्तस्था कवर्गात्०' (2 / 3 / 15) इत्यनेन सकारस्य षकारः / 'लोकात्' (1 / 1 / 3) परगमनम् / वृक्ष इति सिद्धम् / वृक्ष पूर्वक 'ओव्रस्चौत् च्छेदने' व्रस्च / 'सत्य शषौ' (1 / 3 / 61) सस्य श् / वृक्षं वृश्चति 'विप्' (5 / 1 / 148) 'ग्रहश्चभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति य्वृत् / वृक्षवृश्चमाचष्टे इति वाक्ये ‘णिज्बहुलं नाम्नः कृगादिषु' (3 / 4 / 42) इति णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (74 / 43) अनेनान्त्यस्वरमादौ कृत्वा सर्वव्यञ्जनलोपः कार्यः / ततो वृक्षव् इति रूपं जायते (7 / 4 / 43) अनेनान्त्यस्वरमादौ कृत्वा सर्वव्यञ्जनलोपः कार्यः / ततो वृक्षव् इति रूपं जायते / अव्ययमाचष्टे इति वाक्ये 'णिज्बहुलं.' (3 / 4 / 42) णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) अन्त्यस्वरादिलोपः / अव्ययतीति ‘किप्' (5 / 1 / 148) णिलोपे अव्यय् इति शब्दः / / 23 / / स्वरे वा // 1 // 3 // 24 // अवर्ण भो भगो अघोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वकारयकारयोः स्वरे परे लुग्वा स्यात् / स चासन्धिः। पट इह पट विह / वृक्षा इह वृक्षाविह / त आहुः तयाहुः / तस्मा इदम् तस्मायिदम् / क आस्ते कयास्ते। देवा आहुः देवायाहुः ['रोर्यः' / यः] भो अत्र भो यत्र / भगो अत्र भगो यत्र / अघो अत्र अघो अत्र // 24 // ___अ० पटु आमन्त्र्यसिः / 'हस्वस्य गुणः' / (1 / 4 / 41) 'ओदौतोऽवाव्' (1 / 2 / 24) पटव् / वृक्षौ / इह 'ओदौतो.' (1 / 2 / 24) वृक्षाव् / आहुः-‘ब्रूग्क् व्यक्तायां वाचि' / वर्तमानान्ति ! 'ब्रूगः पञ्चानां पञ्चाहश्च' (4 / 2 / 118) अनेन अन्तिस्थाने उस् / ब्रूगः स्थाने आह् / आहुरिति सिद्धम् / ते आहुः ‘एदैतोऽयाय्' / तय् / किम् / सिः / 'किमः कस्तसादौ च' (2 / 1 / 40) 'सो रुः' इति. कर् / आस्ते / ‘रोर्यः' (1 / 3 / 26) इति रस्य यत्वम् / कय् // 24 // अस्पष्टाववर्णात्त्वनुनि वा // 1 // 3 // 25 // अवर्ण भो भगोऽयोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वकारयकारयोः स्थानेऽस्पष्टावीषत्स्पृष्टतरौ वकारयकारावेव स्वरे परे स्याताम् / अवर्णात्परयोस्तु ब्योरुञ्वर्जिते स्वरे परेऽस्पष्टौ वा भवतः / पटb / असावें / कयु / देवायें / भोयत्रं / भोयँ / भगोयेंत्र / अघोपॅत्र / अवर्णात्त्वनुञि वा / पटविह। पटविंह / असाविन्दुः / असाविन्दुः / तयिह / तयिह / तस्मायिदम् / तस्मायिदम् // 25 // अ० असौ / अदस् / सिः। 'अदसो दः सेस्तु डौ' (2 / 1 / 43) इति अदसो दस्य सः / सेः स्थाने डौ आदेशः॥२५॥ - रोर्यः // 1 // 3 // 26 // अवर्ण भो भगो अघोभ्यः परस्य पदान्ते वर्तमानस्य रोः स्थाने स्वरे परे यकार आदेशः स्यात् / कया. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः स्ते / देवायासते / भो यत्र / भगो यत्र / अघो यत्र // 26 // अ० 'आसिक् उपवेशने' / आस् / वर्तमानाआत्मनेपदअन्ते / ‘अनतोऽन्तोऽदात्मने' (4 / 2 / 114) इति अन्तेर्नकारस्य लोपः / / 26 / / ह्रस्वाद् ङणनो द्वे // 1 // 3 // 27 // ह्रस्वात्परेषां पदान्ते वर्तमानानां ङ ण न इत्येतेषां स्थाने स्वरे परे द्वे रूपे भवतः / वास्ते / सुगण्णिह / कुर्वनास्ते / ह्रस्वादिति किम् ? प्राङास्ते बाणास्ते / भवानास्ते / उणादय इत्यादौ स्वरूपनिर्देशात्, अनज इत्यादौ ['अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) अनेन] त्वन्विधानबलान भवति // 27 // - अ० डश्च णश्च नश्च ङणनम् / तस्य / द्वे / द्वि / प्रथमाद्विवचनं औ / नपुंसकलिङ्गे ‘औरीः' (1 / 4 / 56) अनेन औ स्थाने ई / 'आद्वेरः' (2 / 1 / 41) इत्यनेनान्तस्य अकारः / 'अवर्णस्ये०' (1 / 2 / 6) इति एत्वम् / क्रुश्चतीति क्रुङ् विप् / सिः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति चलुक् / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) इति नस्य ङत्वम् क्रुङ् / 'डुकंग करणे' कृ / करोतीति कुर्वन् / 'शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ' (5 / 2 / 20) इत्यनेन शतृ / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) अत् इति तिष्ठति / 'कृग्तनादेरुः' (3 / 4 / 83) उः 'नामिनो गुणो०' (4 / 3 / 1) इत्यनेन गुणः करु / 'अतः शित्युत्' (4 / 2 / 89) अनेन अकारस्य उ / कुरु / ‘इवर्णादे०' (1 / 2 / 21) उकारस्य व् / प्रथमासिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति नोऽन्तः / 'दीर्घङयाब्०' (1 / 4 / 45) इति सेर्लुक् / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति त्लुक् कुर्वन् इति सिद्धम् / प्राङ् इति प्राग्वत् ज्ञेयम् / अण् रणेति दण्डकधातुः / बण् / बणतीति ‘क्किप्' (5 / 1 / 148) अहन्पञ्चमेति. दीर्घः / बाण् इति सिद्धम् // 27|| अनाङ्माङो दीर्घाद्वा छः // 1 // 3 // 28 // ___ आङ्मावर्जितपदसम्बन्धिनो दीर्घात्पदान्तस्थात्परस्य छकारस्य द्वे रूपे भवता, वा / कन्या-च्छत्रम् कन्याछत्रम् / मुनेच्छाया मुनेछाया / गोच्छाया गोछाया। आच्छायां मन्यसे / आछायां मन्यसे / आच्छाया माभूत् आछाया माभूत् / वाक्यस्मरणयोरयमाकार (अङित्) इति / अनाङ् माङिति किम् ? आच्छाया। माच्छिदत् / 'स्वरेभ्यः' (1 / 3 / 30) इति नित्यमेव / अङित्करणादेष्वपि वक्ष्यमाणेषु विकल्प एव / आच्छायां मन्यसे / आछायां मन्यसे / आच्छाया माभूत् / आछाया माभूत् / वाक्यस्मरणयोरयमाकारः / माच्छिंद्धि। माछिन्धि / पुत्रो माच्छिनत्ति पुत्रो माछिनत्ति। प्रमाच्छन्दः प्रमाछन्दः / आङ्साहचर्येणाव्ययस्य माङो ग्रहणादिहापि विकल्प एव / प्रमिमीते विच प्रमा / प्रमाच्छात्रः प्रमाछात्रः // 28 // अ० कन्यायाश्छन / कन्याच्छत्रमित्यादि / सर्वत्र छस्य द्वित्वे कृते / 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) इत्यनेन एकछस्य चकारः / भू माङ्पूर्वम् / अद्यतनीदि / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) 'पिबैतिदाभूस्थ०' (4 / 3 / 66) इति सिचो लुक् / आ ईषत् छाया आच्छाया / अत्र ईषर्थे आशब्दः / माच्छिदत् / 'छिद्रूपी द्वैधीकरणे' छिद् मापूर्वम् ‘माङद्यतनी' (5 / 4 / 39) इतिवचनाद्वर्त्तमानेऽप्यद्यतनीदि / 'ऋदिच्चिस्तंभूम्रचूम्लुचूग्लुचूग्लुञ्चूज्रो वा' (3 / 4 / 65) इति अङ् / अत्र मूलसूत्रेण निषेधः परं उत्तरसूत्रं 'स्वरेभ्यः' (1 / 3 / 30) इति प्रवर्त्तते / तेन छस्य द्वे रूपे / छिन्धि 'छिद्रूपी द्वैधीकरणे' छिद् / 'भिद्रूपी विदारणे' भिद् / पञ्चमीहि / 'रूधां स्वराच्छ्नो न लुक् च' (3 / 4 / 82) छिद् विचाले श्न / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) न / एवं भिद् / 'इनास्त्योर्लुक्' (4 / 2 / 90) नस्य Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते अकारलोपः / हौ 'हुधुटो हेधिः' इति (4 / 2 / 83) हेः स्थाने धिः / छिन्द्धि / भिन्द्धि / चादिषु मामाङौ पठितौ स्तः / अत्र माछिद्धि इति अङित् मा / अतो न प्रतिषेधः / नन्वनयोर्द्वयोरपि मामाङोर्निषेधार्थत्वान्न कोऽपि विशेष इति / न / महान् विशेषोऽस्ति / यत्र माङ् तत्र ‘माङद्यतनी' (5 / 4 / 39) इत्यद्यतनी भवति / यत्र च मा तत्र छत्वादिविधिः / पत्रो मा० / अस्मद द्वितीयाअम् / 'अमा त्वा मा' (2024) इतिविभक्त्या सह अस्मदो मा आदेशः / / प्रमा चासौ छन्दश्च प्रमाच्छन्दः / / प्रमाच्छात्रः ‘मांङ् मानशब्दयोः' मा / जुहोत्यादि / प्रमिमीते वित् / प्रमा चासौ छात्रश्च प्रमाच्छन्दः / प्रमाच्छात्रः ‘मांङ् मान-शब्दयोः' मा / जुहोत्यादि / प्रमिमीते विच् / प्रमा चासौ छात्रश्च प्रमाच्छात्रः / अत्र हि मा धातुः नत्वव्ययः / / 28 / / .. प्लुताद्वा // 1 // 3 // 29 // पदान्तस्थाहीर्घात्प्लुतात्परस्य छस्य द्वे रूपे वा स्याताम् / आगच्छभोइन्द्रभूते 3 च्छत्रमानय / छत्रमानय // 29 // स्वरेभ्यः // 13 // 30 // बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन पदान्त इति निवृत्तम् / स्वरात्परस्य छस्य पदान्तेऽपदान्ते च द्वे रूपे स्याताम् / इच्छति / गच्छति / वृक्षच्छाया // 30 // दिर्हस्वरस्यानु नवा // 1 // 3 // 31 // स्वरात्परौ यो रेफहकारौ ताभ्यां परस्याऽर्हस्वरस्यरेफहकारस्वरवर्जितस्य वर्णस्य स्थाने द्वे रूपे वा स्याताम् / अनु-यदन्यत्कार्य प्राप्नोति तस्मिन्कृते पश्चादित्यर्थः / अर्कः / अर्कः / मूर्खः / मूर्खः / अग्र्धः। अर्धः / ब्रम्म ब्रह्म / जिम्मः जिह्मः / अर्हस्वरस्येति किम् ? पद्महदः / अहः / करः / स्वरेभ्य इत्येव-अभ्यते / हुते / अन्विति किम् ? प्रोण्णुनाव / अत्र द्विवंचने कृते द्वित्वं यथा स्यात् // 31 // ___ अ० र् च हश्च / है / तस्मात् / हा॑त् / र्च हश्च स्वरश्च / ईस्वरः / न विद्यन्ते र्हस्वरा यत्र वर्णे सोऽर्हस्वरः। तस्य / 'ऊर्युग्क् आच्छादने' ऊर्गु / प्रपूर्वम् / परोक्षा णव् / ऊर् नु इति कृत्वा पश्चात् ‘स्वरादेर्द्वितीय' (4 / 1 / 4) इत्यनेन नु इत्यस्य नु इत्यस्य द्विवचनम् / नु नु / प्रथमनु इत्यस्य णत्वे कृते दिर्हेत्यनेन णस्य द्वित्वम् / र्ण। . 'नामिनोऽकलिहले०' (4 / 3 / 51) इति वृद्धिः // 31 // ___ अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने // 13 // 32 // अदीर्घात्स्वरात्परस्य रेफहकारस्वरवर्जितस्य वर्णस्य स्थाने विरामैकव्यञ्जने विरामेऽसंयुक्तव्यञ्जने च परेऽनु द्वे रूपे वा स्याताम् / त्वक् / त्वक् / त्वग्ग् / त्वम् / षट् / षट् / तत्त् / तत् / तद् / तद् / एकव्यञ्जने -दद्धयत्र दध्यत्र / मद्ध्वत्र / मध्वत्र / गो 3 त्त्रात / गो 3 त्रात / अन्वित्यधिकारात् कत्वगत्वादिषु कृतेषु पश्चाव्दित्वम् / अदीर्घादिति किम् ? वाक् / विरामैकव्यञ्जन इति किम् ? चन्द्रः / इन्द्रः / अर्हस्वरस्येत्येव -वर्या / वह्यम् / तितउः / अत एवादेशबला संयोगान्तलोपो न स्यात् // 32 // ___ अ० विरामश्च एकव्यञ्जनं च विरामैकव्यञ्जनम् / तस्मिन् / त्वक् इत्यादिषु 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) इत्यनेन सर्वत्र प्रथमः / दद्धयत्रात्रेति 'तृतीयस्तृतीय०' (1 / 3 / 49) इति एक धस्य दत्वम् / ‘वृश संभक्तौ' वृ / वियतेति वर्या 'वर्योपसर्यावद्यपण्यमुपेयर्तुमतीगर्यविक्रेये' (5 / 1 / 32) अनेन यः प्रत्ययः / तथा 'वहीं प्रापणे' / वहति तेनेति Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः ____ अ० वा शकटम् / ‘वा करणे' (5 / 1 / 34) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / 'तनूयी विस्तारे' तन् / तनोतीति 'तनेर्ड उ:' (748) स च सन्वद्भवति / द्विवचनम् / अभ्यासे च ‘सन्यस्य' (4 / 1159) इति सूत्रेण [अस्य] इत्वम् / वाक् इत्यादिषु द्वित्व इत्यादेशबलात्संयोगान्तलोपो न भवति / प्रथमादिकं तु द्वित्वस्याबाधनाद्भवत्येव इति भावः // 32 // अञ्वर्गस्यान्तस्थातः // 1 // 3 // 33 // अन्तस्थातः परस्य ञकारवर्जवर्गस्य स्थानेऽनु द्वे रूपे वा स्याताम् / उल्का / उल्का / अनिति किम् ? हल्लकारौ // 33 // अ० न ञ् ('नञत्' (3 / 2 / 125) अञ् / अञ् चासौ वर्गश्च अञ्वर्गः / तस्य // 33 / / ततोऽस्याः // 1 // 3 // 34 // ततोऽञ्वर्गात्परस्या अस्या अन्तस्थायाः स्थाने द्वे रूपे वा स्याताम् / दध्य्यत्र / दध्यत्र // 34 // अ० अस्याः / इदम् / षष्ठीडस् / 'आद्वेरः' (2 / 1 / 41) इति मस्य अः / 'आत्' (2 / 4 / 18) इति आप् / 'आपो डितां ये यास् यास् याम्' (1 / 4 / 17) डस्स्थाने यास् / 'अनक्' (2 / 1 / 36) इति सूत्रेण इदम्स्थाने अकारः / ततः 'सर्वादेर्डस्पूर्वाः' (1 / 4 / 18) इत्यनेन यासः पूर्वं डस् इति क्रियते / डोऽत्र 'डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः // 34 // शिटः प्रथमद्वितीयस्य // 13 // 35 // शिटः परयोः प्रथमद्वितीययोः स्थाने द्वे रूपे वा स्याताम् / त्वं करोषि / त्वं करोषि / त्वं क्खनसि। त्वं खनसि / कः क्खनति / कः खनति / कः प्पचति / कः पचति / क) (नति / क) (नति / क फलति। कर फलति / कश्चरति / कश्वरति / कच्छादयति / कश्छादयति / कष्टीकते / कष्टीकते / कष्टकारः कष्ठकार इत्यादि // 35 // __अ० अं अः) (क ख शषसाः शिट् (1 / 1 / 16) इति शिट्सप्तकस्यापि क्रमेणोदाहरणानि दर्शयति / / 35|| . .. ततः शिटः // 1 // 3 // 36 // * ततः प्रथमद्वितीयाभ्यां परस्य शिटः स्थाने द्वे रूपे वा स्याताम् / तच्शेते / तच्ोते / षट्पण्डे / षट्क्षण्डे / तत्स्साधुः / तत्साधुः / वत्स्सः / वत्सः / क्षीरम् / क्षीरम् / तत इति किम् ? भवान् साधुः॥३६॥ अ० तच्ोते / तद् सिः / ‘अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) इति दस्य त् / 'तवर्गस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गों' (1 / 3 / 60) इति तस्य च // 36 / / न रात्स्वरे // 1 // 3 // 37 // ___रकारात्परस्य शिटः स्वरे परे द्वे रूपे न स्याताम् / दर्शनम् / वर्षति / शिट इत्येव-अर्कः। हादर्हेति विकल्पे प्राप्ते प्रतिषेधः // 37 // __पुत्रस्यादिनपुत्रादिन्याक्रोशे // 1 // 3 // 38 // * आदिन् पुत्रादिन् शब्दे परे पुत्रसम्बन्धितकारस्याक्रोशविषये द्वे रूपे न भवतः / अदीर्घाद्विरामेति प्राप्ते प्रतिषेधः / पुत्रादिनी त्वमसि हि] पापे / पुत्रपुत्रादिनी भव / आक्रोश इति किम् ? पुत्त्रादिनी / पुत्रादिनी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते शिशुमारी / पुत्त्रपुत्त्रादिनी / पुत्रपुत्रादिनी नागी // 38 // ___ अ० आदिन् च पुत्रादिन् च / आदिनपुत्रादिन् / तस्मिन् / पुत्र ‘अदं प्सांक् भक्षणे' अद् / अभीक्ष्णं पुनः पुनः पुत्रं पुत्रपुत्रं अत्तीति 'व्रताभीक्ष्ण्ये' (5 / 1 / 157) इति सूत्रेण णिन् / 'णिति' वृद्धिः / 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः' इति ङीः / सिः / पुत्रादिनी / पुत्रपुत्रादिनी / असि / 'असिक् भुवि' वर्त्तमानासिव् / 'अस्तेः सिहस्त्वेति' (4 / 3 / 73) धातुसकारस्य लुक् / पापे / 'आमन्त्र्ये' (2 / 2 / 32) सिः / 'एदापः' (1 / 4 / 42) इति सिना सह पापा इत्यस्य ए पापे / पुत्त्रादिनी पुत्त्रपुत्त्रादिनी / पुत्रं पुत्रपुत्रं वात्तीतीत्येवंशीला 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) इत्यनेन णिन् / पुत्त्रादिनीत्यादि सिद्धम् / अत्र पुत्त्रपुत्त्रादिनीत्यत्र च 'अदीर्घाद्विरामै०' (1 / 3 / 32) इति द्वित्म् / तथा शिशुं पुत्रं मारयतीति शिशुमारी / 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) अण् / 'गौरादिभ्यो मुख्यान्डी:' (2 / 4 / 19) इति ङीः / शिशुमारी मत्सीविशेष उच्यते / नगे भवा नागी ‘भवे' (6 / 3 / 123) इति अण् ‘ञ्णिति' (4 / 3 / 50) इति वृद्धिः 'जातेरयान्तनित्यः' (2 / 4 / 54) इति ङीः / पुत्त्रादिनीत्यादिषु 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः' (2 / 4 / 1) // 38 // म्नां धुड्वर्गेऽन्त्योऽपदान्ते // 13 // 39 // ___ अन्विति वर्त्तते / अपदान्तस्थानां मकारनकाराणाम् धुड्वर्गे परे निमित्तवर्गस्यैवान्त्योऽनु स्यात् / म्। गन्ता। न् / शङ्किता / अञ्चिता नन्दिता / कम्पिता / म्नामिति बहुवचनं वर्णान्तरबाधनार्थम् / तेन कुर्वन्ति कृषन्तीत्यत्र नकारस्य णत्वं बाधित्वाऽनेन [सूत्रेण] वर्गान्त्य एव भवति / क्रान्त्वा भ्रान्त्वेत्यत्राप्यनेन [सूत्रेण] नकारे कृते णत्वबाधनार्थं पुनर्नकारः / अन्वित्यधिकारात् व्यक्ताअत्रांजेर्गत्वे कत्वे च कृते पश्चात्कवर्गान्त्यः। अन्यथा चवर्गान्त्यः स्यात् // 39 // अ० म् च न् च / म्न् / तेषाम् / धुट् चासौ वर्गश्च / तस्मिन् / अन्ते भवोऽन्त्यः / 'दिगादिदेहांशाद्यः' (6 / 3 / 124) इति यः / गन्ता / गम् / गच्छतीति गन्ता / तृच् / शङ्किता-'रेकृशकुङ् शङ्कायाम्' नन्दिता'टुनदु स्मृद्धौ' / कम्पिता / 'कपुङ् चलने' / सर्वेषाम् ‘उदितः स्वरानोन्तः' (4 / 4 / 98) इत्यनेन न् / शन्क् / नन्द् / कम्प् / शङ्कते इति नन्दतीति कम्पते इति तृच् / 'स्ताद्यशितोऽत्रोणादेः' (4 / 4 / 32) इट् / / क्रान्त्वा इत्यत्र क्रमः क्त्वा / दीर्घः / भ्रान्त्वा / अत्र 'अहन् पञ्चमस्य०' (4 / 1 / 107) दीर्घः / / विनतीति ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) व्यक्ता // 39 // शिड्हेऽनुस्वारः // 1 // 3 // 40 // अपदान्तस्थानां मकारनकाराणां शिटि हे च परेऽनुस्वारादेशोऽनु स्यात् / पुंसि / वपूंषि / धनूंषि / यशांसि / म्नामिति बहुवचनाद् बृंहणमित्यत्र णत्वम् / दंश इत्यत्र च अत्वं बाधित्वाऽनेनानुस्वार एव / शिड्ह इति किम् ? गम्यते / हन्यते / पिण्डि / षिण्ड्डि / अपदान्त इत्येव-भवान्साधुः॥४०॥ ___ अ० शिट् च हश्च / तस्मिन् / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति टस्य डत्वम् / वपूंषि / धनूंषि / जस् / 'नमुंसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) 'स्वराच्छौ' (1 / 4 / 65) न् / अनेन नस्यानुस्वारः / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / षोऽसन् / षकारस्यासत्त्वात् 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इति दीर्घः / तृह दृह बृहु वृद्धौ / 'उदितः स्वरा०' (4 / 4 / 98) न् / बृह्यते / बृंहणम् / अनट् / बृंहणम् अत्र कृतनोऽन्तस्य ‘रघुवर्ण० (2 / 3 / 63) इति णत्वं प्राप्नोति Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः तन्निषिध्यते इति परमार्थः / दश इत्यत्र 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इत्यनेन सूत्रेण अत्वं प्राप्नोति / परमनेनानुस्वार एव / शिड्हे इंति ब्यावृत्तिः / अन्वित्येवेति पिष् / शिष् / हि / धातुविचाले न / 'अप्रयोगीत्' न / 'नास्त्योर्लुक्' (4 / 2 / 90) अलोपः न् / 'हुधुटो हेर्धिः' (4 / 2 / 83) 'तृतीय०' (1 / 3 / 49) इति षस्य ङ् / 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / 'म्नां धुड०' (1 / 3 / 39) इति नस्य णः / शिडभावात् श्न इत्यस्य नस्यानुस्वारो न स्यात् / पिण्ड्डि षिण्ड्डि इति रूपं सिद्धम् / विस्तरसाधनिका अग्रेतनपत्रे (35 पृष्ठे) लिखितास्ति / / 40 // रो रे लुग्दीर्धश्वादिदतः // 1 // 3 // 41 // अपदान्त इति नानुवर्त्तते / रेफस्य रेफे परेऽनु लुक् स्यात् / अकार-इकार-उकाराणां चानन्तराणां दीर्धः स्यात् / पुना रमते / अग्नी रथेन / पटू राजा / अन्वित्येव-अहो रूपम् / अत्र पूर्वमेव रोरुत्वे रेफाभावाल्लुग्दीर्घाभावः सिद्धः // 41 // ____ अ० अच्च इच्च उच्च / अदिदुत् / तस्य / भिन्नस्थानिभिन्ननिमित्तं भणन् अपदान्त इति निवृत्तम् / प्रशस्तं अहः / अहो रूपम् ‘त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्' (7 / 3 / 10) 'अह्नः' (2 / 1 / 74) इति सूत्रेण नस्य रुः / 'घोषवति' (1 / 3 / 21) रस्य उकारः // 41 / / ___ ढस्तड्डे // 1 // 3 // 42 // तनिमित्तौ ढस्तड्डः / ढकारस्य तड्डे परेऽनु लुक् स्यात् / अइऊनां च दीर्घो भवति / माढिः / लीढम् / गूढम् / तड्ड इति किम् ? मधुलिड् ढौकते / नायं लुप्यमानढकारनिमित्तो ढः / अन्वित्येव लेढा / मोढा। अत्र गुणे कृते पश्चाङ्कलोपः, अन्यथा हि पूर्वमेव ढलोपे दीर्घत्वे च लीढा मूढेत्यनिष्ठं रूपं स्यात् // 42 // अ० तद् ढः / तनिमित्तौ ढस्तड्डः इति वाक्यम् / तस्मिन् / अत्र 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इत्यनेन दस्य डत्वम् / तड इति कोऽर्थः ? अत्र प्रकृतिढकारमाश्रित्य प्रत्ययादिवर्णस्य यो ढकार उत्पद्यते स तड्ड उच्यते / तादृशे ढकारे परे प्रकृतिढकारस्य लोपः क्रियते इति भावः / माढिः 'अर्ह मह पूजायाम्' महनं माढिः 'स्त्रियां क्तिः' (5 / 3 / 91) 'हो धुट्पदान्ते' (2 / 1 / 82) इति हस्य ढः / 'अधश्चतुर्थात्तथोर्धः' (2 / 179) इति क्तेस्तस्य धः / 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / ततः सूत्रेण अस्य दीर्घः / आ / ढलोपश्च माढिः / एवं लीढं गूढं 'लिहीक् आस्वादने' 'गुहौग् संवरणे' / लेहनं लीढम् गूहनं गूढम् / ‘क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) इति सूत्रेण क्तः / शेषं पूर्ववत् / लीढं गूढम् / लिह् / मधुं लेढीति मधुलिट् / 'विप्' (5 / 1 / 148) सिः / 'हो धुट्पदान्ते' (2 / 1982) हस्य ढः / 'अदीर्घाद्विरा०' (1 / 3 / 32) इति ढस्य द्वित्वम् / अग्रे ढौकते 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) एकः मध्यमो ढकारो लुप्यते / ततः 'धुटस्तृतीयः' (2 / 176) ढस्य ड् // 42 // सहिवहेरोच्चावर्णस्य // 13 // 43 // सहिवह्योर्दस्य तड्डे परेऽनु लुक् स्यात् / अवर्णस्य चौकारो [ओ] भवति / सोढा / वोढा उदवोढाम् / अवर्णस्येति किम् ? ऊढः // 43 // अ० 'षहि मर्षणे' षह् / 'षः सोऽष्टयै०' (2 / 3 / 98) इति सह / 'वहीं प्रापणे' वह् / सहते इति सोढा / वहतीति वोढा / तृच् / 'हो धुट्पदान्ते' (2 / 1 / 82) हस्य ढः / 'अधश्चतुर्था०' (2 / 179) इति तस्य धः / 'तवर्गस्य.' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / ततः सूत्रं प्रवर्त्तते / उदवोढामिति-वह् / उत्पूर्वम् / अद्यतनीताम् / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इति वृद्धिः' / आ / वाह् / 'धुहस्वाल्लुगनिटस्तथोः' (4 / 3 / 70) इति सिचो लुक् / 'हो धुट्०' 'अधश्चतुर्था०' 'तवर्गस्य०' ततो मूलसूत्रेण ओत्वं ढलोपश्च / अत्र ओत्वे कृते पुनर्वृद्धि प्राप्नोति / परं 'समानानां वृद्धिः' इति करणान्न भवति इति 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इति सूत्रे उक्तमस्ति // 43 // उदः स्थास्तम्भः सः // 1 // 3 // 44 // उदः परयोः स्थास्तम्भोः सकारस्य लुक् / उत्थाता / उत्तम्भिता // 44 // अ० उत्तिष्ठतीति / उत्तम्भतीति // 44 // तदः सेः स्वरे पादार्था // 1 // 3 // 45 // तदः परस्य सेः स्वरे परे लुग्भवति / सा (सिः) चेत्पादार्था पादपूरणी स्यात् / सैष दाशरथी रामः / पादार्थेति किम् ? स एष भरतो राजा // 45 // अ० पादाय इयं पादार्था / पादोऽर्थो यस्याः सा पादार्था इति वा समासः कार्यः / 'आत्' (2 / 1 / 18) इति आप् / दशरथस्यापत्यं दाशरथिः ‘अत इञ्' (6 / 1 / 31) जो वृद्धयर्थः / सिः / ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) / ‘रो रे लुग्०' (1 / 3 / 41) इति // 45 // __एतदश्च व्यञ्जनेऽनग्नञ् समासे // 1 // 3 // 46 // एतदस्तदश्च परस्य सेर्व्यञ्जने परे लुग्भवति / अकि नञसमासे च.सति न स्यात् / एष ['तः सौ सः' (2 / 1 / 42)] ददाति / स दत्ते / परमैष करोति / परम स करोति / एतदश्चेति किम् ? को दाता / यो धन्यः। अनग्नसमास इति किम् ? एषकः करोति / सको याति / तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते इति साकोऽपि प्राप्तिरिति प्रतिषेधः // अनेषो याति / असो याति // 46 // अ० नञा समासो नसमासः / अक् च नञ् समासश्च० / न अक्नसमासोऽनग्नसमासः / तस्मिन् 'अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) / 'डुदांग्क् दाने' दा / वर्तमानाति / 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) इति दाद्विवचनम् / 'ह्रस्वः' (4 / 1 / 39) / 'नश्चातः' (4 / 2 / 96) इति धातु आकार लोपः दत्ते / परमश्वासावेषश्च परमैषः / परमश्चासौ सश्च परमसः / धन्यः-धनं लब्धा 'धनगणाल्लब्धरि' (7 / 1 / 9) इति यः / एषकः सकः / अत्र 'त्यादिसर्वादेः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक्' (7 / 3 / 29) अनेन अक्प्रत्ययः कार्यः / अनेष इति न एषः अनेषः ‘अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) / न सः असः / 'नञत्' (3 / 2 / 125) // 46 / / व्यञ्जनात्पश्चमान्तस्थायाः सरूपे वा // 1 // 3 // 47 // व्यञ्जनात्परस्य पञ्चमस्यान्तस्थायाश्च सरूपे वर्णे परे लुग्वा स्यात् / हुँचो ड्डौ क्रुङौ / क्रुड्डौ / व्यञ्जनादिति किम् ? अन्नम् / भिन्नम् / स्वरूपे इति किम् ? वर्ण्यते // 47 // ___ अ० अन्नमिति / 'अन् श्वसक् प्राणने' अन् / अनिति जीवति जीवलोकोऽनेनेत्यन्नम् / ‘प्याधापन्यंनिस्वदिजपिवस्यज्यऽतिसिविभ्यो नः' (258) इत्युणादिना नप्रत्ययः / अथवा 'अदोऽनन्नात्' (5 / 1 / 150) इति ज्ञापकात् अद्यते भक्ष्यते तदित्यनम् निपातनं क्रियते / 'ज्ञानेच्छार्चार्थजीच्छील्यादिभ्यः क्तः' (5 / 2 / 92) / भिन्नं 'भिदूंपी विदारणे भिद् / भिद्यते इति भिन्नं 'क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) इति क्तः / 'रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः (4 / 2 / 69) इत्यनेन धातुदकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नकारः क्रियते // 47 // धुटो धुटि स्वे वा // 1 // 3 // 48 // व्यञ्जनात्परस्य धुटो धुटि स्वे परे लुग्वा स्यात् / प्रत्तं प्रत्त्तम् / शिण्ढि शिण्ड्डि / पिण्डि / पिण्ड्डि / धुट इति किम् ? शार्ङ्गम् / स्व इति किम् ? दर्ता / ता / व्यञ्जनादिति किम् ? बोद्धा // 48 // ___ अ० प्रः पूर्वं 'डुदांग्क् दाने' प्रदातुमारब्धं प्रत्तम् / ‘आरंभे' (5 / 1 / 10) इति सूत्रेण क्तः / 'प्राद्दागस्त्त आरंभे क्ते' (4 / 4 / 7) इति दास्थाने त्त् इति तकारद्वय आदेशः / अत्र त्रयस्तकाराः / धुटो धुटीत्यनेन मध्यमस्य तकारस्य वा लोपः / ततः प्रत्तं प्रत्त्तम् इति रूपद्वयम् / पिण्ढि / शिण्ढि / 'पिष्लंप संचूर्णने' पिष् / 'शिष्टुप् विशेषणे' शिष् / पञ्चमीहि / 'रुधां स्वराच्छ्नो न लुक् च' (3 / 4 / 82) इति धातुविचाले श्रः / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) न / 'नास्त्योर्लुक्' (4 / 2 / 90) इति नकाराकारस्य लुक् न् / 'हु घुटो हेर्घिः' (4 / 2 / 83) तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इत्यनेन षस्य ड्। 'तवर्गस्य:' (1 / 3 / 60) इत्यनेन धस्य ढः / “म्नां धुत्व 0' (1 / 3 / 39) इत्यनेन नस्य णत्वम् / 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) इति डलोपे सति पिण्ढि षिण्ढि इति रूपं भवति // 48|| - तृतीयस्तृतीयचतुर्थे // 13 // 49 // - तृतीये चतुर्थे च परे धुटः स्थाने तृतीयः स्यात् / मज्जति / पिण्डि। शिण्ड्डि / दोग्द्धा / योद्धा / लब्धा। धुट इत्येव-वल्भते / ‘पदान्ते धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इत्यपदान्तार्थं वचनम // 49 // ... अ० मज्जति 'टुमस्जोंत्' शुद्धौ' मस्ज् / तिव् शव् / 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इति सूत्रेण सस्य द् 'लुवर्णतवर्ग.' इति न्यायोत् / ततः 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति दस्य ज् / पिण्डि षिण्ढि / पिष् शिष् धातुः / हि / 'रुधां स्वरा०' इति न / 'नास्त्योटुंग्' / (4 / 2 / 90) 'हु धुटो हेर्घिः' (4 / 2 / 83) 'तृतीयस्तृ०' इति षस्य ड् / 'तवर्गस्य० (1 / 3 / 60) इति धेः स्थाने ढिः / 'म्नां धुड०' (1 / 3 / 39) इति न इत्यस्य ण् / 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) इति वा डस्य लोपः / यत्र डलोपो न क्रियते तत्र पिण्ड्डि शिण्ड्डि इति रूपम् लिपिविशेषेण पिण्डि / शिण्ढि इति रूपम् / दोग्धा 'दुहीक क्षरणे' दोग्धीति तृच् / 'भ्वादेदादेधः' इति हस्य धः 'अधश्चतुर्था०' / इति तस्य धः 'तृतीयस्तृ०' इति धस्य ग् / योद्धा 'युधिंच संप्रहारे' तृच् / 'अधश्चतुर्थात्तथोर्धः' (2 / 1 / 79) इति तस्य धः / अनेन धस्य द् / 'डुलभिंश् प्राप्तौ' लभ् / तृच् / 'अधश्चतुर्था०' इति तस्य धः / अनेन सूत्रेण भस्य ब् / लब्धा / / 49 / / ____अघोषे प्रथमोऽशिटः // 1 // 3 // 50 // शिटवर्जधुटः स्थानेऽघोषे परे प्रथमः स्यात् / वाक्पूता देवच्छत्रं लप्स्यते // 50 // विरामे वा // 1 // 3 // 51 // विरामे वर्तमानस्याशिटो धुटः स्थाने प्रथमो वा स्यात् / वाक् वाग् / षट् षड् / तत् तद् / ककुप् ककुन् / धुट इत्येव-भवान् // 51 // न सन्धिः // 13 // 52 // . उक्तो वक्ष्यमाणश्च सन्धिविरामे न भवति / दधि अत्र / ते आहुः / 'तत् लुनाति / वृक्षस्य छाया। विरामादन्यत्र तु संहितायां सन्धिरेव सा च 'संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः / नित्या समासे वाक्ये Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '36 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते तु सा विवक्षामपेक्षते // 52 // ___ अ० "लि लौ' (1 / 3 / 65) इति प्राप्ते / वर्णानां परः सन्निकर्षः संहितेत्युच्यते / विवक्षितश्च सन्धिर्भवति इति ज्ञेयम् // 52 // रः पदान्ते विसर्गस्तयोः // 13 // 53 // पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य स्थाने तयोविरामेऽघोषे च विसर्ग आदेशः स्यात् / वृक्षः / स्वः / कः कृती। कश्वरतीत्यादिषु तु शादय एवापवादत्वाद्भवन्ति / पदान्त इति किम् ? ईर्ते / कथं नृपतेरपत्यं नार्पत्यः तवर्कारः प्रार्छतीत्यादि ? 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' इति वृद्ध्यरारादेशाश्रयस्य रेफस्यासिद्धत्वाद्विसर्गो न भवति / अन्वित्यधिकारात्-गीः धूः सजूःषु इत्यादिषु दीर्घत्वे कृते पश्चाद्विसर्गः / अन्यथा हि पूर्वं विसर्गे कृते इरुरोरभावादी? न स्यात् // 53 // __ अ० नृणां पतिर्नृपतिः / नृपतेरपत्यं नार्पत्यः 'अनिदम्यणपवादे च दित्यदित्यादित्ययमपत्युत्तरपदाळ्यः ' (6 / 1 / 15) इत्यनेन ञ्यः ‘वृद्धिः स्वरेष्वादे०' (7 / 4 / 1) इति वृद्धिः नार् / 'गृत् निगरणे' गृ उर्वैरिति दण्डक धातुः / धुर्वै / गिरतीति गीः / धुर्वतीति धूः / 'क्विप्' (5 / 1 / 148) * तां ङितीर्' (4 / 4 / 116) इर् गिर् / ‘राल्लुक्' (4 / 1 / 110) इति वस्य लुक् धुर् / किप् लोपः / ततोऽग्रे सिलुक् / ‘पदान्ते' (2 / 1 / 64) इति सूत्रेण दीर्घत्वे कृते गीर् धूर् / पश्चाद्रस्य विसर्गः / 'जुषैति प्रीतिसेवनयोः जुष् / सहपूर्वं / सह जुषते इति 'विप्', सिः, लुक्, ‘सजुषः' (2 / 1 / 73) इति सूत्रेण षस्य र् / ‘पदान्ते' इति दीर्घः / सजूर // 53 // ख्यागि // 1 // 3 // 54 // पदान्तस्थस्य रस्य ख्यागि परे विसर्ग एव स्यात् / कः ख्यातः / पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम्, तेन जिह्वामूलीयोऽपि न स्यात् // 54 // शिट्यघोषात् // 1 // 3 // 5 // अघोषात्परे शिटि परतः पदान्तस्थस्य रस्य विसर्ग एव स्यात् / पुरुषः त्सरुकः / वासः क्षौमम् / सर्पिः प्साति / अद्भिः प्सातम् / इदमपि नियमार्थम् तेन सत्वषत्व) (७पा न भवन्ति] // 55 // ____ व्यत्यये लुग्वा // 1 // 3 // 56 // शिटः परोऽघोष इति व्यत्ययः / तस्मिन्सति पदान्तस्थस्य रस्य लुग्वा स्यात् / चक्षुश्च्योतति / पक्षे चक्षुश्श्च्योतति / चक्षुः च्योतति // 56 // अरोः सुपि रः // 1 // 3 // 57 // रुवर्जितस्य रेफस्य स्थाने सुपि परे रेफ एव स्यात् / गीर्षु / धूर्षु / विसर्गसकारौ न भवतः / अरोरिति किम् ? पयःसु / पयस्सु // 7 // ___ अ० न रुः / अरुः तस्य / 'शषसे शषसं वा' इत्यनेन पयःसु / पयस्सु / एवं अहःसु अहस्सु / पयस्सु इत्यत्र ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) अहस्सु इत्यत्र च 'अहः' (2 / 1 / 74) इति सूत्रेण रुः / तदनन्तरं 'शषसे शषसं वा' (1 / 3 / 6) इत्यनेन विकल्पसकारः / / 57|| Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः / - वाहपत्यादयः // 1 / 3 / 58 // __ अहर्पत्यादयो यथायोगमकृतविसर्गाः कृतोत्वाभावाश्च वा निपात्यन्ते / अहर्पतिः अहः पतिः / गीपतिः गीः पतिः / हे प्रचेता राजन् हे प्रचेतो राजन् / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 58 // ____ अ० वार्हप्पत्येति निपातनात् पदान्ताधिकारो निवृत्तस्तेन उत्तरसूत्रे पदान्ताधिकारो न याति / तथा च ख्षीरं इति सिद्धम् / अत्र अहर्पतिः-अहन् पतिः / अह्रां पतिः / अहर्पतिः / अत्र 'अहः' (2 / 1 / 74) इति सूत्रेण नस्य र् / अत्र रस्य विसर्गो न भवति / गिराम् पतिः / गीपतिः / 'हादह ' (1 / 3 / 31) इति पस्य द्वित्वम् / प्रचेतस् हेपूर्वं / आमन्त्र्यसिः / लुक् / हे प्रचेता अत्र रस्य 'घोषवति' (1 / 3 / 21) इति उत्वं न भवति ‘रो रे लुग् दीर्घश्चादिदुतः' (1 / 3 / 41) इति भवति // 58 / / . शिट्याद्यस्य द्वितीयो वा // 1 // 3 // 59 // आद्यस्य प्रथमस्य स्थाने शिटि परे द्वितीयो वा स्यात् / ख्वीरं क्षीरम् / तछ्शोभनं तच्शोभनम् / भवथ्सु। भवत्सु / अफ्सु / अप्सु / अफ्सराः / अप्सराः // 59 // तवर्गस्य श्ववर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गौ // 1 // 3 // 60 // तवर्गस्य स्थाने शकारचवर्गाभ्यां षकारटवर्गाभ्यां च योगे यथासङ्ग्यं चवर्गटवर्गावादेशौ स्याताम् / स्थान्यासन्नौ समुदायद्वयापेक्षया / यथासङ्ग्यार्थं तृतीयाद्विवचनम् / योगग्रहणं स्थानित्वाशङ्कानिरासार्थ पूर्वा- . परभावनियमार्थं च / शयोगे-सोते / भवाञ्ोते // चवर्गेण योगे सति तच्चरति / तच्छादयति / तज्जयति। तज्झाषयति / तज्ञकारेणेत्यत्र (अनेन सूत्रेण) दस्य जे कृते 'तृतीयस्य पञ्चमे' (1 // 3 // 1) इति ञकारः। प्रशाञ्चरति / प्रशाञ्छिनत्ति / भवाञ्जयति पूर्वेण चवर्गेण / [योगे सति] याञा। राज्ञः / पूर्वेण शकारेण परेण च षकारेण 'न शात्' (1 / 3 / 62) [इति पूर्वे शे सति तवर्गस्य चवर्गत्वं न स्यात् ] 'षितवर्गस्य' (1 / 3 / 64) इत्यनेन प्रतिषेधो वक्ष्यते [तवर्गात् परे शे सति भवति च चवर्गः] / पूर्वेण षकारेण-पेष्टा / पूष्णः / टवर्गेण (योगे सति)। वट्टीकते / तद्वकारेण / तड्डीनम् / अद्ड अड्डति / अट्टि अट्टते / भवाण्डीनः / पूर्वेण टवर्गेण / [योगे सति] ईट्टे // 6 // ___ अ० श् च चवर्गश्च / श्चवर्गः / ष् च टवर्गश्च ष्टवर्गः / श्चवर्गश्च ष्टवर्गश्च श्चवर्गष्टवर्गौ ताभ्याम् / तथा चश्च टश्च चटौ / चटयोर्वग्! चटवग्ौ / तवर्गो यतमो भवति तदनुसारेण चवर्गटवर्गवर्णस्तवर्गस्य स्यात् / चेत्प्रथमो वर्णस्तः तदा च / अथ तवर्गस्य द्वितीयो वर्णः थ तदा चवर्गस्य छ / एवमन्येऽपि इति स्थान्यासन्नावित्यभिप्रायः / योगग्रहणमिति-अयमर्थः-योगग्रहणं विना सहार्थतृतीयायां सत्यां 'अवर्णस्येवर्णादिना०' (1 / 2 / 6) इत्यादिवत् श्चवर्गादेरपि स्थानित्वाशङ्का स्यात्, ततः चवर्गष्टवर्गाभ्यां सह चटवग्! स्याताम् इति आशङ्कानिरासार्थम् / योगं विना श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां अत्र पञ्चम्यपि स्यात् पञ्चम्यां सत्यां ‘पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य' (7 / 4 / 104) इति न्यायात् इति सूत्रार्थकल्पना स्यात्-प्रकृतिसम्बन्धी तवर्गः स्थानी, प्रत्ययशब्दसम्बन्धिनौ चवर्गटवर्गों परत इति, परं नेयं सूत्रार्थकल्पना, तवर्गः स्थानी प्रकृतिसम्बन्धी प्रत्ययसम्बन्धी वा, चवर्गटवर्गावपि प्रकृतिप्रत्ययसम्बन्धिनौ, एवमेव उदाहरणरचना दर्शितास्ति। इति पूर्व अपर भावनियमः कोऽपि नहीति भावार्थः / याच्ञा 'डुयाच्ङ् याच्ञायाम्' याच् / याचनं याच्ञा / ‘मृगयेच्छायाच्ञातृष्णाकृपाभाश्रद्धान्त ' (5 / 3 / 101) इति निपात्यन्ते / तत्र ‘याचितृष्योः ननङौ' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इति वचनात् नप्रत्ययः / आत् (2 / 4 / 18) इति आप् / राज्ञेत्यत्र 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति अनोऽकारस्य लुप् / अद्ड इति / 'अद्ड अभियोगे' इति धातुः / अड्ड / वर्तमाना तिव् / अड्डतीति / / अट्टि हिंसातिक्रमयोः धातुः / अट्ट / वर्तमानाते अट्टते इति रूपम् // 60 // - सस्य शषौ // 1 // 3 // 6 // सकारस्य स्थाने श्ववर्गष्टवर्गाभ्यां योगे यथासङ्ख्यं शकारषकारावादेशौ स्याताम् / चवर्गेण-च्योतति वृश्चति मज्जति / षकारेण-सप्पिष्षु धनुष्षु / टवर्गेण-पापलि / बंभण्षि // 6 // अ० श्च्योततीत्यादि-स्च्युत् व्रस्च मस्ज् लस्ज् भ्रस्ज् षस्ज् इत्यादिधातूनां दन्त्यसकारोपदेशत्वं पश्चात् ‘सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) इति सूत्रेण तालव्यशकारः कार्यः / 'तृतीयस्तृतीय०' (1 / 3 / 49) इति सस्य जः / सर्पिष्षु इत्यादौ पदान्तत्वात् 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इत्यादिना प्रकृतिसस्य न षत्वं प्रत्ययसस्य भवति / प्रकृतेः सस्य 'सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) इति षः / पालि / अट पटेति धातुः / पट् / भृशं पुनःपुनर्वा 'व्यञ्जनादेरेक०' (3 / 4 / 9) इति यङ् ‘सन्यडश्च' (4 / 1 / 3) द्विवचनम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) प तिष्ठति ‘आगुणाव०' (4 / 1 / 48) इति अभ्यासे आकारः / अणरणेति (दष्डक धातुः) भण् / यङ् द्विवचनं 'मुरतोऽनुना०' (4 / 1 / 51) म् / 'तौ मुमो व्यञ्जने०' (1 / 3 / 14) अनुस्वारः 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) भस्य ब् / वर्तमानासि / 'बहुलम् लुप्' (3 / 4 / 14) इति यङ्लुप् / पठेश्च पाक्षि इति // 61 / / न शात् // 113162 // शकारात्परस्य तवर्गस्य स्थाने चवर्गो न स्यात् / अनाति / प्रश्नः // 62 // अ० प्रश्नः 'प्रच्छंत् झीप्सायाम्' प्रच्छ / प्रच्छनं प्रश्नः / 'यजिस्वपि०' (5 / 3 / 85) इति नप्रत्ययः 'अनुनासिके च च्छ्ः शूट्' (4 / 1 / 108) इति छस्य श् // 62 / / ___ पदान्ताट्टवर्गादनामनगरीनवतेः // 1 // 3 // 63 // ट) पदान्तस्थादृवर्गात्परस्य नाम्नगरीनवतिवर्जितस्य तवर्गस्य सकारस्य च स्थाने तवर्गषकारौ न स्याताम्। षट्तयम् ['अवयवात्तयट्'] षण्नयाः / षट्सु / टवर्गादिति किम् ? चतुष्टयम् / अनामनग-रीनवतेरिति किम् ? षण्णाम् षण्णगरी षण्णवतिः / नामित्यामादेशस्य ग्रहणादिह प्रतिषेधो भवत्येव-षड्नाम [षण्णां नाम] // 63 // अ० चतुष्टयम् चतुर्-चत्वारोऽवयवा 'अवयवात्तयट्' (7 / 1 / 151) इति तयट् / 'चटते सद्वितीये' (1 / 3 / 7) इति रस्य स् / ‘ह्रस्वान्नाम्नस्ति' (2 / 3 / 34) इति सस्य ष 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति तस्य ट् / षण्णां शष् आम् / 'सङ्ख्यानां ष्र्णाम् (1 / 4 / 33) इति आम्स्थाने नाम् ‘धृटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) स्य ड 'प्रत्यये च' (1 / 3 / 2) डस्य ण् / 'तवर्गस्य०' इति नस्य ण् / षण्णां नगरी षण्णगरी / षड्भिरधिका नवति षण्णवतिः // 63 / / . पि तवर्गस्य // 13 // 64 // पदान्तस्थस्य तवर्गस्य षे परे टवर्गो न स्यात् / तीर्थकृत्योडशः शान्तिः / पीति किम् ? तट्टीकतें // 6 // अ० षड्भिरधिका दश षोडशः / अथवा षडुत्तरा दश, षट् च दश च वा / 'एकादशषोडशषोउत्' (3 / 2 / 91) इति निपाताः शब्दाः / अत्र षषोऽन्तस्य उत्वं उत्तरपददकारस्य च डकारः इति षोडशः / षोडशानां पूरणः षोडशः। 'गब्यापूरणे टर' (0101954) // 9 // Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थों पादौ लिलौ // 1 // 3 // 65 // - पदान्तस्थस्य तवर्गस्य स्थाने लकारे परे स्थान्यासन्नावनुनासिकाननुनासिकौ लकारौ भवतः / तल्लुनाति। भवाल्हुँनाति // 65 // प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः / श्लोक 150 // इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतः तृतीयः पादः समाप्तः // 3 // अहं अतः आः स्यादौ जस्भ्यांये // 14 // 1 // स्यादौ जसि भ्यामि यकारे च परेऽतोऽकारस्याकारो भवति / देवाः / आभ्याम् / सुखाय / स्यादाविति किम् ? बाणान् जस्यतीति किस बाणजः // 1 // अ० आभ्याम् / इदम् / भ्याम् / 'अनक्' (2 / 1 / 36) इति सूत्रेण इदम्स्थाने अकारः // 1 // भिस ऐस // 14 // 2 // अकारात्परस्य स्यादेर्भिसः स्थाने ऐस् इत्यादेशः स्यात् / देवैः / अतिजरैः / एसादेशेनैव सिद्धेऐस्करणं सनिपातलक्षणन्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थं तेनातिजरसैरित्यपि सिद्धम् // 2 // . अ० जरामतिक्रान्तानि तानि / तैरतिजरैः / यो यमाश्रित्य समुत्पद्यते स संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य / 'जराया जरस् वा' (2 / 1 / 3) इति जरस् आदेशः / / 2 / / - इदमदसोऽक्येव // 1 // 4 // 3 // इदम् अदस् इत्येतयोरक्येव सति अकारात्परस्य भिस ऐस् स्यात् / इमकैः अमुकैः / अक्येवेति किम् ? एमिः अमीभिः / पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम् // 3 // - अ० सूत्रे एवकार इष्टार्थसाधकः तेन प्रकृतिनियमोऽयं न प्रत्ययनियमः इति के प्रत्ययेऽपि सति सर्वकैः इत्याद्यपि सिद्धम् / इमकैरित्यत्र ‘दो मः स्यादौ' (2 / 1 / 39) मः / अमुकैरित्यत्र ‘मोऽवर्णस्य' (2 / 1 / 45) म 'मादुवर्णोऽनु' (2 / 1 / 47) इति मकारात् पर उत्वम् / एभिरित्यत्र 'अनक्' (2 / 1 / 36) इति सूत्रेण इदमोऽत् / अमीभिरित्यत्र "बहुष्वेरीः' (2 / 1 / 49) इत्यनेन एकारस्थाने ईकारः // 3 // __ एहस्भोसि // 1 // 4 // 4 // बर्थविषये सकारादौ भकारादौ ओसि च परेऽकारस्य एत् स्यात् / एषु / एषाम् / सर्वेषाम् / एभिः। एभ्यः / देवयोः // 4 // अ० सश्च भश्च स्भौ / बहू च तौ स्भौ च बहुस्भौ / बहुस्भौ च ओस् च बहुस्भोस् तस्मिन् / एषाम्, सर्वेषाम्, इत्यत्र आम्स्थाने 'अवर्णस्यामः साम्' (1 / 4 / 15) इति सूत्रेण साम् आदेशः // 4 // टाङसोरिनस्यौ // 1 // 4 // 5 // Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते _____ अकारात्परयोष्टाङसोः स्थाने यथासङ्ग्यं इन स्य इत्यादेशौ भवतः / तेन [जरामतिक्रान्तं यत् कुलं तेन] अतिजरेण। [तस्य] अतिजरस्य / अत इत्येव-अतिजरसा अतिजरसः / अत्र परत्वान्नित्यत्वाच्च प्रागेव जरसादेशे कृतेऽकारान्तत्वाभावः // 5 // ___ अ० जरामतिक्रान्तं यत् / तत् अतिजरः / तेन अतिजरसा / तस्य अतिजरसः / 'जराया जरस् वा' (2 / 1 / 3) इति जरस् आदेशः // 5 // - डेङस्योर्यातौ // 14 // 6 // आत्परयोङस्योर्यथासङ्ख्यं य आत् इत्यादेशौ स्याताम् / देवाय अतिजराय / देवात् अतिजरात् // 6 // सर्वादेः स्मै स्मातौ // 14 // 7 // सर्वादेरकारान्तस्य सम्बन्धिनोडस्योर्यथासङ्ग्यं स्मै स्मादित्यादेशौ भवतः / सर्वस्मै / [परमश्चासौ सर्वश्च] परमसर्वस्मै / सर्वस्मात् / असर्वस्मै [न सर्वोऽसर्वः] / असर्वस्मात् / किंसर्वस्मै [किं कुत्सितः सर्वः] किंसर्वस्मात् // सर्व विश्व उभ उभयट् अन्य अन्यतर इतर डतर डतम त्व त्वत् नेम / सम सिमसर्वार्थौ / पूर्वापरावरंदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायाम् स्वमज्ञाति धनाख्यायाम् / अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोरपुरि / त्यद् तद् यद् अदस् इदम् एतद् एक द्वि युष्मद् भवतु अस्मद् किम् / सर्वेऽपि चामी असंज्ञायां सर्वादिसंज्ञा भवन्तितेनेह न स्यात्सर्वो नाम कश्चित् सर्वाय सर्वात् / सर्वादेरिति षष्ठीनिर्देशेन तत्सम्बन्धिविज्ञानादिहापि न भवति-प्रियाः सर्वे यस्य तस्मै प्रियसर्वाय सर्वानतिक्रान्ताय अतिसर्वाय / प्रियः पूर्वो यस्य तस्मै प्रियपूर्वाय इत्यपि ज्ञातव्यम्। उभयशब्दस्य द्विवचनस्वार्थिकप्रत्ययविषयत्वात् स्मैप्रभृतयो न स्युः, गणपाठस्तु हेत्वर्थप्रयोगे सर्व-विभक्त्यर्थोऽप्रत्ययार्थश्च / उभौ हेतु उभाभ्यां हेतुभ्याम् उभयोर्हेत्वोः उभयट् / अत्र टो ड्यर्थ उभयी दृष्टिः / अन्यस्मै। अन्यतरस्मै / डतरग्रहणेनैव सिद्धेऽन्यतरग्रहणं उतमप्रत्ययान्तान्यशब्दस्य सर्वादित्वनिवृत्त्यर्थम् अन्यतमाय अन्यतमे अन्यतमात् / डतरडतमौ प्रत्ययौ, तयोः स्वार्थिकत्वात् [प्रकृत्यर्थत्वात्] प्रकृतिद्वारेणैव-सिद्धे पृथगुपादानम् [भणनं] अत्र प्रकरणेऽन्यस्वार्थिकप्रत्ययान्तानामग्रहणार्थ अन्यादिलक्षणपदार्थं च [पंचतोऽन्यादे० (1 / 4 / 58) इति सूत्रप्रवृत्तिनिमित्तं च] / कतरस्मै / कतमस्मै / यतरस्मै / यतमस्मै / एकतरस्मै / एकतमस्मै / इत्यादि / इह न भवतिसर्वतमाय। [प्रकृष्टे तमप् (7 / 3 / 5) इति तमप्] / स्वाभिधेयापेक्षे चावधिनियमे व्यवस्थापरपर्याये गम्यमाने पूर्वादयः शब्दाः सर्वनामसंज्ञाः स्युःपूर्वस्मै पूर्वस्मात् इत्यादि / व्यवस्थाया अन्यत्र न स्यात्-दक्षिणाय [प्रवीणाय दक्षाय] गाथकाय देहि / दक्षिणायै [यज्ञादौ द्रव्यदानं दक्षिणा] द्विजाः स्पृहयन्ति। __ आत्मात्मीयज्ञातिधनार्थवृत्तिः स्वशब्द आत्मात्मीययोः सर्वादिः-यत्स्वस्मै रोचते तत्स्वस्मै ददाति / यदात्मने रोचते तदात्मीयाय [सुजनाय सगीनाय] ददातीत्यर्थः / ज्ञातिधनयोस्तु न भवति-स्वाय [ज्ञातयो स्वजातये] दातुं स्वाय स्पृहयति [धनाय द्रव्याय स्पृहां करोति] / बहिर्भावेन बाह्यभावेन वा योगे उपसंव्याने उपसंवीयमाने चार्थेऽन्तरशब्दः सर्वादिः, बहिर्योगऽपि चेत् पुरि न वर्त्ततेअंतरस्मै गृहाय अंतरस्मै पटाय / पुरि तु न स्यात्अंतरायै पुरे क्रुध्यति / बहिर्योगोपसंव्यानादेरन्यत्र न भवतिअयमनयोामयोरन्तरात् [मध्यादित्यर्थः] तापस आयातः / द्वियुष्मद्भवत्वस्मदां स्मैप्रभृतयो न सम्भवन्ति, गणपाठे तु सर्वविभक्त्यादयः प्रयोजनम् / भवतु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः इत्यत्र उकारो झ्यर्थो दीर्घार्थश्च-भवती भवान् // 7 // ___ अ० उभयशब्दः स्वभावादेकवचनबहुवचनान्तः / यथा उभयी दृष्टिः उभये देवमनुष्याः / उभयट्अत्र टो ड्यर्थः उभयी दृष्टिः / अन्य-अन्यतर-इतर-डतर-डतमान्तशब्दाः एवं शब्द 5 अन्यादिगणोपयोगी / 'पंचतोऽन्यादे०' (1 / 4 / 58) इत्यत्र फलम् एषां शब्दानाम् / अन्यादयः सर्वादिगणे अन्यादिगणेऽपि ज्ञातव्याः / यस्मात् शब्दात् डतर डतम इति प्रत्ययौ भवतः स शब्दः सर्वादिः, अन्यादिश्च इत्यर्थः / त्वशब्दोऽन्यार्थः / त्वत्शब्दः समुच्चयपर्यायः, तस्य स्मायादयो न भवन्ति, गणपाठे तु हेत्वर्थयोगे सर्वविभक्तित्वम्, अक्प्रत्ययश्च प्रयोजनम् / यथा त्वतं हेतुम् त्वता हेतुना / अज्ञातात् त्वतः त्वकतः 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' (7 / 3 / 33) इत्यक् / नेमशब्दोऽर्थिः / समसिमशब्दौ सर्वार्थो समस्मै, सिमस्मै / सर्वार्थादन्यत्र समाय देशाय, समाद्देशाद्धावतीति भवति / बहिर्योग इति-बहिरनावृतो देशस्तेन योगः सम्बन्धो बहिर्योगः, स च अनावृतस्य बाह्यस्य वस्तुनो भवति / त्यदादिगणे त्यद् प्रमुखशब्दा 12 द्वादशः सर्वादिसंज्ञा भवन्ति असंज्ञायाम् / इह व्याकरणे त्यदादिगणे युष्मदस्मदोर्विचाले एव भवतुशब्दः पठ्यते, न युष्मद्अस्मद्प्रान्ते। समासपादे 'त्यदादिः' (6 / 1 / 7) इति सूत्रे त्वं च भवांश्च भवन्तौ, भवांश्च अहं च आवाम्, अहं च कश्च को इति प्रयोगा यथा सिद्धयन्ति / किम्शब्दश्च त्यदादिगणप्रान्ते एव पठनीयः / सर्वादिगणे शब्दाः 35 सर्वनामसंज्ञा भवन्ति / संज्ञायां च सत्यां सर्वादिसंज्ञा न भवन्ति यथा सर्वो नामेत्यादि / 'यत्तत्किमन्यात्' (7 / 3 / 53) इति डतरप्रत्ययः / / अन्यतमेत्यत्र 'बहूनां प्रश्ने डतमश्च वा' (7/3 / 54) इति डतमप्रत्ययः / 'वैकाद् द्वयोर्निर्हार्ये डतरः' (7 / 3 / 52) 'यत्तत्किम०' 'बहूनां प्रश्ने डतम०' 'वैकात्' (73 / 55) इति सूत्रेषु डतरडतमप्रत्ययौ पठितौ स्तः, तौ ग्राह्यौ। ___ अन्यस्वार्थिकेत्यादि कोऽर्थः-'प्रकृष्टे तमप्' (7 / 3 / 5) 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' (7 / 3 / 6) 'क्वचित् स्वार्थे' (7 / 3 / 7) / अथवा 'यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) इत्यादिसूत्रैर्ये प्रत्ययाः कृतास्तेषु सत्सु सर्वादित्वं न भवति। क्प्रत्ययस्य अन्त्यस्वरात्पूर्वं क्रियमाणत्वात् ग्रहणं भवत्येव / प्रकृत्यर्थसंबद्धो हि अक् / यथा सर्वकस्मै परमसर्वके इत्यादि / पूर्वादिसप्तशब्दानां स्वामिधेयो दिग्देशकालस्वभावोऽर्थः / तम् अपेक्षते इति स्वाभिधेयापेक्षस्तस्मिन् / अयमर्थः-दिगादीनामर्थानां पूर्वादिशब्दाभिधेयानां यत्तावत्पूर्वादित्वं तदवश्यं कमप्यवधिमपेक्ष्य भवति / तथाहि पूर्वस्या दिशो देशस्य वा यत्पूर्वत्वं तदवश्यं परदिग्देशादिकमवधिमपेक्षते / तथा परस्यापि यत्परत्वं तत्पूर्वादि अवधिमपेक्षते। एवं दक्षिणोत्तरादिशब्दानां स्वाभिधेयापेक्षावधिनियमत्वं भावनीयम् / व्यवस्थाऽवधिरिति एकार्थाविति ज्ञेयम् / तथा व्यवस्थाया अन्यत्रेत्यादि--यत्र दिग्देशकालभावानां विषयो भवति तत्रैव पूर्वादयः शब्दाः सर्वनामत्वं लभन्ते / यत्र च पूर्वादिशब्दाः संज्ञायां विशेषणे वा प्रवर्त्तन्ते तत्र न सर्वादित्वम् / यथा पूर्वाय नराय / प्रियपूर्वाय / अथवा दक्षिणायेत्यादि विशेषणविषयमुदाहरणं ज्ञेयम् / स्वशब्द आत्मात्मीयज्ञातिधनेषु चतुर्थेषु वर्त्तते / तत्र आत्मात्मीय इत्यर्थद्वये स्वशब्दः सर्वादिः / ज्ञातिधनयोरर्थयोर्वर्त्तमानो न सर्वादिः / उदाहरणानि वृत्तिमध्य एव सन्ति / - बहिर्भावेन बाह्येन वा योगे इति–बहिर्योगे धर्मे बहिष्ठे धर्मिणि च बहिःशब्दो वर्त्तते / उपसंवीयतेऽनेनेति उपसंव्यानम् / उपसंवीयते यत् तत् उपसंवीयमानम् / तस्मिन्वर्तमानोऽन्तरशब्दः सर्वादिर्भवति / अन्तरस्मै गृहाय इत्यस्यार्थोऽयम्-नगरबाह्याय चण्डालादिगृहाय / अथवा चण्डालादिगृहयुक्ताय नगराभ्यन्तरगृहाय स्पृहयति इत्यर्थः / तथा अन्तरस्मै पटाय इत्यस्यायमर्थः-पटचतुष्टयमध्ये तृतीयाय, चतुर्थाय वा पटाय दृष्टिं ददाति प्रथमद्वितीयपटयो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते / बहिर्योगेनैव सिद्धत्वात् / अन्तरायै इति चण्डालादि पुर्यै क्रुध्यति / / सर्वविभक्त्यादय इत्यादि-अत्र आदिशब्दात् अक् ? एकशेष 2 पूर्वनिपात 3 पुंवद्भाव 4 डद्रि 5 आत् 6 आयनिञ् 7 मयट 8 इति प्रयोजनान्यपि यथायोगं ज्ञातव्यानि / यथा हेत्वर्थे सर्वविभक्तिः / केन हेतुना इत्यर्थे प्रयोगमाला / तथाहि को हेतुर्वसति चैत्रः / कं हेतुम् / केन हेतुना / कस्मै हेतवे / कस्माद्धेतोः कस्य हेतोः। कस्मिन् हेतौ वसति / एवं द्वौ हेतो(तू) द्वाभ्यां हेतुभ्याम् / द्वयोर्हेत्वोः / युवाभ्यां हेतुभ्याम् / युवर्योर्हेत्वोः / भवभ्यां हेतुभ्याम् / भवतोर्हेत्वोरिति सर्वविभक्तिप्रयोजनम् / 'सर्वादेः सर्वाः (2 / 2 / 119) इति सूत्रेण सर्वविभक्तयो भवन्ति / अज्ञाते द्वे द्वके स्त्रियौ कुले वा / द्वको पुरुषौ / युवकाभ्याम् / भवकान् / अत्र 'त्यादि सर्वादेः०' (7 / 3 / 29) इत्यनेन अक् 1 / स च भवांश्च भवन्तौ अत्र ‘त्यदादिः' (3 / 1 / 120) इति सूत्रेण एकशेषः 2 / भवानपुत्रोऽस्येति भवत्पुत्रः अत्र 'विशेषणं सर्वादिसङ्खचं बहवीहौ' (3 / 1150) इति भवतः सर्वादित्वात्पूर्वनिपातः 3 / भवत्याः पुत्रो भवत्पुत्रः अत्र सर्वादित्वात् ‘सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) इति पुंवद्भावः 4 / भवन्तमश्चतीति क्विपि भवाङ् अत्र ‘सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिक्व्यञ्चौ' (3 / 2 / 122) इति डद्रि आगमः 5 / भवानिव दृश्यते भवादृशः, यूयमिव दृश्यन्ते युष्मादृशः-अत्र 'त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद् व्याप्ते दृशष्टक्सको च' (5 / 1 / 152) इति टक् / ततोऽन्यत्यदादेराः' (3 / 2 / 152) इति सूत्रेण आत् आकार:६ / भवतोऽपत्यं भावतायनिः अत्र ‘त्यदादि' (6 / 1 / 7) इति त्यदादिगणस्य दुसंज्ञायां सत्याम् ‘अवृद्धाद्दोर्नवा' (6 / 1 / 110) इत्यनेन आयनिञ्प्रत्ययः / तथा भवतोयं भवदीयः / युष्माकमयं युष्मदीयःअत्र 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) इति ईयः इत्यपि ज्ञेयम् 7 / भवतः प्रभवतीति भवन्मयम् / एवं युष्मन्मयम्अत्र 'त्यदादेर्मयट्' (6 / 3 / 159) इत्यनेन मयट् 8 / एवं अष्टौ विशेषां त्यदाद्यन्तस्थानां द्वियुष्मद्भवत्वस्मदां विषये सर्वादित्वे सति ज्ञातव्याः / / 7 / / डेः स्मिन् // 1 // 48 // सर्वादेरकारान्तस्य सम्बन्धिनो के स्थाने स्मिन् इत्यादेशः स्यात् / सर्वस्मिन् // 8 // जस इः // 1 // 4 // 9 // सर्वादेरकारान्तस्य संबन्धिनो जसः स्थाने इकार आदेशो भवति / सर्वे / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-प्रियसर्वाः // 9 // __ अ० 'प्रत्ययस्य' (7 / 4 / 108) इति तद्धितप्रान्ते सूत्रम् / अस्यार्थः-प्रत्ययस्य स्थाने विधीयमान आदेशः सर्वस्य भवतीति न्यायात् जसः सर्वस्यापि स्थाने इर्भवतीत्यर्थः / / 9 / / नेमार्द्धप्रथमचरमतयायाल्पकतिपयस्य वा // 1 // 4 // 10 // नेमादीनि नामानि / तयायौ प्रत्ययौ / तेषामकारान्तानां संबन्धिनो जस इर्वा स्यात् / नेमस्य प्राप्ते [ऽर्द्धादीनां] इतरेषामप्राप्ते विभाषा। नेमे नेमाः / अर्द्ध अर्द्धाः। प्रथमे प्रथमाः। चरमे चरमाः। द्वितये द्वितयाः। द्वये द्वयाः / एवं त्रितये इत्यादि / एवं अल्पे इत्यादि // 10 // ___ अ० अर्द्ध / स्वार्थिकान्यप्रत्ययान्ताग्रहणादिह जस इन स्यात्-अर्द्धकाः-'यावादिभ्यः स्वार्थे कः' (7 / 3 / 15) / सर्वादेरित्येव-नेमा नाम केचित् / तथा व्यवस्थितविभाषाविज्ञानाद‘दीनामपि संज्ञायां न इकारः / अर्द्धा नाम (नाम इति अव्ययं अकारांतं नामनाम्ना संज्ञया ज्ञातव्यम् / अथवा नाम प्रसिद्धार्थे / किं नाम अर्द्धा नाम इति Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः तदा क्लीबे) केचित् इति विशेषः / द्वाववयवावस्य इति वाक्ये “अवयवात्तयट्' (7 / 1 / 151) इति सूत्रेण तयट् द्वितये / द्वाववयवावस्येति वाक्ये "द्वित्रिभ्यामयड् वा' (7 / 1 / 152) इति सूत्रेण अयट् / द्वये / एवं त्रितये / त्रये / त्रयोऽवयवा अस्येति पूर्ववत्तयट् अयट् / उभयट-शब्दस्य तु अयट्रहितस्य अखण्डस्य सर्वादौ पाठात् 'जस इ:' (1 / 4 / 9) इति सूत्रेण नित्यमेव इ: / उभये न तु उभयाः // 10 // द्वन्द्वे वा // 14 // 11 // द्वन्द्वे समासे वर्तमानस्य अकारान्तस्य सर्वादेः संबन्धिनो जस इर्वा स्यात् / पूर्वोत्तरे / पूर्वोत्तराः / कतरकतमे / कतरकतमाः / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-प्रियकतरकतमाः / वस्त्रान्तरवसनान्तराः / उत्तरेण निषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थो योगः [पुनरुत्पत्तिर्भवति] // 11 // ____ अ० पूर्वाश्च उत्तराश्च पूर्वोत्तरे / पूर्वे च उत्तरे च इति वा वाक्यम् / कतरकतमे इत्यादि-किम् अनयोर्योर्मध्ये को विद्वान् पटुर्वा इति निर्धार्ये अर्थे 'यत्तत्किमन्यात्' (7 / 3 / 53) इति सूत्रेण डतरप्रत्ययः / कतम इत्यत्र च / किम्एषां मध्ये कः पटुता वा इत्यर्थे 'बहूनां प्रश्ने डतमश्च वा' (7 / 3 / 54) इत्यनेन डतमः / बहुषु जनेषु उपविष्टेषु कश्चित् कश्चित् पृच्छति इति प्रश्नं किम्शब्दस्यैव विशेषणविषयम्, न यत्तत् अन्यानां विशेषणविषयं प्रश्नं घटते। तत्रेदं वाक्यम्-अनयोर्मध्ये एषां मध्ये वा यः पटुः / स पटुः / अन्योऽयं पटुः / स यत्तरः / तत्तरः / अन्यतरः / यतमः / ततमः / अन्यतमः / अत्र स आगच्छतु इति वाक्यरचना कार्या / डतरडतमप्रत्यये ज्ञेया / ततः कतरे च कतमे च (कतरकतमे) / कतरकतमाः / वस्रान्तरवसनान्तरा इति / वस्त्रमन्तरं येषां ते वस्त्रान्तराः वसनमन्तरं येषां ते वसनान्तराः / वस्त्रान्तराश्च वंसनान्तराश्च वस्त्रान्तरवसनान्तराः / अत्र वसनशब्दो गृहपर्यायः / एकोऽन्तरशब्दो व्यवधानार्थी अन्यश्च अन्तरशब्दो विशेषार्थी इति विशेषः / उत्तरेण निषेध इति-उतरसूत्रेण 'न सर्वादिः' इत्यनेन जस इत्वे प्रतिषेधे प्राप्ते सति / 'द्वन्द्वे वा' इति योगः सूत्रं प्रतिप्रसवार्थं कृतम् / प्रतिप्रसव इति कोऽर्थः ? पुनर्जस्स्थाने इत्वं उत्पद्यते इत्यर्थः // 11 // . . न सर्वादिः // 1 // 4 // 12 // द्वन्द्वे सर्वादिः सर्वादिर्न स्यात् / सर्व सर्वादिकार्य न स्यादित्यर्थः / पूर्वापराय / पूर्वापरात् / पूर्वापरे। दक्षिणोत्तरपूर्वाणाम् / अत्र 'सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) इति पुंवद्भावो भवत्येव / तत्र भूतपूर्वस्यापि सर्वादेर्ग्रहणात् // 12 // अ०, पूर्वश्च अपरश्च / दक्षिणा च उत्तरा च पूर्वा च // 12 / / तृतीयान्तात्पूर्वावरं योगे // 1 // 4 // 13 // -- तृतीयान्तात्पदात्परौ पूर्व, अवर, इत्येतौ योगे सम्बन्धे सति सर्वादी न भवतः। मासपूर्वाय / दिनाऽवराय। मासाऽवरात् / मासाऽवराः। तृतीयान्तादिति किम् ? ग्रामात्पूर्वस्मै / पूर्वस्मै मासेन / अवरस्मात्पक्षेण // 13 // अ० तृतीयाऽन्ते यस्य स्थानिवद्भावेन / अथवा तृतीयाया अन्तो अवसानं यस्मात् / पूर्वश्च अवरश्च पूर्वावरं समाहारद्वन्द्वः / योगे सम्बन्धे इत्यादि-अर्थात्तृतीयान्तेनैव पदेन सह योगे सति / योगश्चात्र एकार्थीभावो व्यपेक्षा वा / उभयमपि गृह्यते / मासेन पूर्वाय मासपूर्वाय / दिनेन अवराय लघवे / / 13 / / तीयं ङित्कार्ये वा // 1 // 4 // 14 // Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते . तीयप्रत्ययान्तं शब्दरूपं ङितां डेङसिङस्डीनां कार्ये कर्त्तव्ये सर्वादिषु भवति / द्वितीयस्मै द्वितीयाय। द्वितीयस्यै द्वितीयायै / द्वितीयस्मात् द्वितीयात् / द्वितीयस्याः द्वितीयायाः। आगतः स्वं वा / द्वितीयस्मिन् द्वितीये। द्वितीयस्यां द्वितीयायाम् / एवं तृतीयस्मायित्यादि / ङित्कार्य इति किम् ? द्वितीयकाय द्वितीयकायै। अर्थवतः प्रतिपदोक्तस्य च ग्रहणादिह न स्यात्पटुजातीयाय / मुखतो भवो मुखतीयः, गहादिपाठादीयः / मुखतीयाय / पार्श्वतीयाय // 14 // __ अ० द्वितीयकायेत्यादि / अत्र द्वितीयः कुत्सिताद्यर्थः / कुत्सितो द्वितीयः, अल्पो वा द्वितीयः, अज्ञातो द्वितीय इति त्रिष्वर्थेषु 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' (7 / 3 / 33) इति सूत्रेण कप् / कुत्सिता द्वितीया द्वितीयिका / कप् 'स्वज्ञाजभस्राधातुत्ययकात्' (2 / 4 / 108) इति सूत्रेण आकारस्य इत्वम् कप्प्रत्यये सति / अकं विनाऽन्यस्वार्थिकप्रत्ययाग्रहणादिति वचनादत्र सर्वादित्वाभावात् स्मै डस्पूर्वयै इत्याद्यादेशा न भवन्ति / पटुजातीयायेत्यादि- पटुः प्रकारोऽस्य इति वाक्ये 'प्रकारे जातीयर्' (7 / 2 / 75) इति सूत्रेण जातीयप्रत्ययः / चतुर्थीङ 'डेडस्योर्यातौ' (1 / 4 / 6) अत्र डे इत्यस्य न स्मै / सूत्रे तीय इतिस्वरूपसार्थकग्रहणात् अत्र च जातीयप्रत्यये तीय इति निरर्थकम् / तथा मुख. / मुखे मुखतः / पार्श्व. / पार्श्वे पार्श्वतः / 'आद्यादिभ्यः' (7 / 2 / 84) इति तस् / मुखतस् / पार्श्वतस् / मुखतो भवो मुखतीयः / पार्श्वतो भवो पार्श्वतीयः / 'गहादिभ्यः' (6 / 3 / 63) इति सूत्रेण ईयप्रत्ययः / 'प्रायोऽव्ययस्य' (7 / 4 / 65) इति सूत्रेण अन्त्यस्वरादिलुग् / सूत्रे तीय इति प्रतिपदोक्तस्वाभाविकग्रहणात् अत्र लाक्षणिकतीय इत्यस्य न स्मै आदेशः // 14 // अवर्णस्यामः साम् // 14 // 15 // अवर्णान्तस्य सर्वादेः सम्बन्धिन आमः स्थाने साम् इत्यादेशः स्यात् / सर्वेषाम् / सर्वासाम् / परमसर्वेषाम् / विश्वासाम् / कथं 'व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृतां' इति / अपपाठ एषः [अलीक एवायं पाठः] // 15 // ___ अ० 'सन्निपातलक्षण' न्यायस्यानित्यत्वादेत्वं भवति / 'संमूर्च्छदुच्छृङ्खल शङ्खनिःस्वनः स्वनः प्रयाते पटहस्य शाङ्गिणि / सत्त्वानि निन्ये नितरां महान्त्यपि' इति पूर्वपदत्रयं माघे // 15 // नवभ्यः पूर्वेभ्य इस्मास्मिन् वा // 1 // 4 // 16 // पूर्वादिभ्यो नवभ्यो यथास्थानं ये इ-स्मात्-स्मिन्-इत्यादेशा उक्तास्ते वा स्युः / पूर्वे पूर्वाः / पूर्वस्मात् पूर्वात् / पूर्वस्मिन् पूर्वे / एवं परे इत्यादि // 16 // (पूर्वाद्यन्तरपर्यन्ता नव, सर्वादिगणगताः] . __आपो ङितां यै यास् यास् याम् // 1 // 4 // 17 // आवन्तसम्बन्धिनां स्यादेङितां डेङसिङस्डीनां स्थाने यथासङ्ग्यं ये यास् यास् याम् इत्यादेशा भवन्ति। खट्वायै / खट्दायाः 2 / खट्वायाम् / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात् / बहुखट्वाय पुरुषाय / इह तु भवति [यै आदेशः]-बहुखट्वायै विष्टराय // 17 // अ० बह्वयः खट्दा यस्य तस्मै / 'परतः स्त्री पुंवत्स्त्र्ये कार्थेऽनू' (3 / 2 / 49) इति पुंवद्भावः / बहु इति रूपम्। 'गोश्चान्ते ह्रस्वोऽनंशि०' (2 / 4 / 96) इत्यनेन खट्दाशब्दस्य ह्रस्वः / बहुखट्वायै विष्टरायेति / खट्वा / ईषदपरिसमाप्ता खट्दा बहुखट्वा / 'नाम्नः प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) इति सूत्रेण बहुः क्रियते पूर्वम् / तस्यै / विष्टरशब्दस्य पुंल्लिङ्गत्वं बहुखट्वाय इत्यस्य न स्यात् / 'प्रकृतेर्लिङ्गवचने वा दधते स्वार्थिकाः कचित्' इति वचनात् / / 17 / / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः सर्वादेर्डस्पूर्वाः // 14 // 18 // सर्वादेराबन्तस्य सम्बन्धिनां ङितां यैयास्यास्यामास्ते डस्पूर्वा भवन्ति / सर्वस्यै / सर्वस्याः 2 / सर्वस्याम् // अस्यै / अस्याः 2 / अस्याम् / अत्र परत्वात्पूर्वमऽदादेशे पश्चाडुस् / तीयस्य विकल्पेन ङित्कार्ये सर्वादित्वात्-द्वितीयस्यै, द्वितीयायै // 18 // ___ अ० अस्यै इत्यादि / इदम् / चतुर्थीङ / 'आदेरः' (2 / 1 / 41) इति मस्य अकारः / 'आत्' (2 / 4 / 18) इति आप् / 'आपो डितां०' (1 / 4 / 17) यै आदेशः / 'अनक्' (2 / 1 / 36) इति इदम्स्थाने अत् / 'समानानां०' (1 / 2 / 1) दीर्घः / तदनन्तरं डस् / डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः / 'डित्यन्त्य०' (2 / 1 / 114) इति आकारलोपः। अस्य इति सिद्धम् / एवं अस्या इत्यादि // 18 // टौस्येत् // 14 // 19 // आवन्तस्य सम्बन्धिनोष्टौसोः परयोरेकारोऽन्तादेशः स्यात् / खट्वया / खट्वयोः / आप इत्येवकीलालपा ब्राह्मणेन // 19 // अ० कीलालं पिबतीति कीलालपा / 'मन् वन् क्वनिप् विच् क्वचित्' (5 / 1 / 147) इत्यनेन विच्प्रत्ययः / ततः तृतीयाटा // 19 // .. . औता // 14 // 20 // * आवन्तस्य सम्बन्धिना औता औकारेण सहाबन्तस्यैव एत् इत्यादेशो भवति / माले तिष्ठतः / माले पश्य // 20 // इदुतोऽत्रेरीदूत् // 14 // 21 // . स्त्रिशब्दवर्जितस्य इदन्तस्य उदन्तस्य च औता सह यथासङ्ग्यमीत् ऊत् इत्यादेशौ भवतः / मुनी तिष्ठतः पश्य वा / साधू [तिष्ठतः पश्य वा] / सख्यौ पत्यावित्यत्र तु विधानसामर्थ्यान स्यात् / अस्त्रेरिति किम् / स्त्रीमतिक्रान्तौ] अतिस्त्रियौ पुरुषौ / कथं शस्त्रीमतिक्रान्तौ अतिशस्त्री पुरुषो ? अर्थवद्हणे नानर्थकस्येति प्रतिषेथाभावात् / इदमेव चास्त्रिग्रहणं ज्ञापकम्, परेणापीयादेशेनैतत् कार्य न बाध्यते / तेनातिस्त्रयः / सहस्त्रयस्तिएंति / अत्तिस्त्रये / अतिस्त्रिणा // 21 // __अ० स्त्रिवर्जनात्तत्सम्बन्धीति न सम्बध्यते / सख्यौ पत्यौ / सखि / पति / सप्तमी एकवचनं ङि / 'केवलसखिपतेरौः' (1 / 4 / 26) इति सूत्रेण ङि स्थाने औ आदेशः, अत्र ‘इदुतोऽस्नेरीदूत्' (1 / 4 / 21) ईत् प्राप्तनोति, परं विधानसामर्थ्यात कोऽर्थः ? औ करणान भवति / सूत्रेऽर्थवत् सार्थकस्त्रीशब्दवर्जनात् शस्त्रीशब्दे च स्त्री इति अनर्थकः, अतः प्रतिषेधो न भवतिः, ईत् भवत्येवेत्यर्थः / 'इदुतोऽस्टेरीदूत्' अत्र स्त्रीवर्जनं फल्गु एव 'स्त्रियाः' (2 / 1154) " इति स्त्रीशब्दस्य परत्वात् इय् आदेशो बाधकोऽस्तीति उक्तम् / इदमेव चास्त्रीति-स्त्रीमतिक्रान्ताः सहस्त्रिया वर्त्तन्ते / 'गोश्चान्ते०' (2 / 4 / 96) इत्यादिना ह्रस्वः / 'जस्येदोत्' (1 / 4 / 22) एकारः / 'डित्यदिति' (1 / 4 / 23) एकारः / अतित्रिणा इत्यत्र 'टः पुंसि ना' (1 / 4 / 24) अनेन ना आदेशः // 21 // जस्येदोत् // 1 // 4 // 22 // इदन्तस्य उदन्तस्य च जसि परे यथासङ्ग्यं एत् ओत् इत्यन्तादेशौ भवतः / मुनयः / साधवः / बुद्धयः। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते / धेनवः / अतिस्त्रयः // 22 // अ. स्त्रियमतिक्रान्ता ये तेऽतिस्त्रयः / / 22 / / ङित्यदिति // 14 // 23 // अदिति ङिति स्यादौ परे इदन्तस्योदन्तस्य यथासङ्ग्यं एत् ओत् इत्यन्तादेशो स्याताम् / मुनये / साधवे। अतिस्त्रये / मुनेः साधोः / अतिस्त्रेः / आगतं स्वं वा / बुद्धये / धेनवे इत्यादि / अदितीति किम् ? बुद्धयै धेन्वै। बुद्धयाः 2 / धेन्वाः 2 / बुद्ध्याम् / धेन्वाम् // 23 // ___अ० अदिति इति कोऽर्थः- स्त्रियां डितां वा दै दास् दास् दाम्' (1 / 4 / 28) इति सूत्रविषयं वर्जयित्वा / स्त्रीमतिक्रान्तो चः तस्मै अतिस्त्रये / एषु 'स्त्रियां डितां वा दै दास् दास् दाम्' अनेन दै दास दास् दाम् आदेशाः // 23 // टः पुंसि ना // 1 // 4 // 24 // इदन्तोदन्तात्परस्य पुंसि पुंविषयस्य टावचनस्य तृतीयाविभक्तिएकवचनस्य] स्थाने ना इत्यादेशो भवति / मुनिना। साधुना / अतिस्त्रिणा। अमुना-अत्र “प्रागिनात्" इतिवचनात् पूर्वमुत्वं पश्चानादेशः / कथं अमुना कुलेन ? अत्र "अनामस्वरे नोऽन्तः" (1 / 4 / 64) इति भविष्यति // 24 // अ० अमुना / अदस् / टा 'आद्वेरः' (2 / 1141) इति मस्य अकारः / 'मोऽवर्णस्य' (2 / 1145) इति दस्य मकारः / 'प्रागिनात्' (2 / 1 / 48) सूत्रेण अकारस्य उकारः / ततः नाऽऽदेशः // 24 // ङिडौँ // 14 // 25 // .. इदन्तोदन्तात्परो डिः सप्तम्येकवचनं डौर्भवति / मुनौ / साधौ / अतिस्त्रौ / बुद्धौ / धेनौ / अदिदित्येव. बुद्धयाम् धन्वाम् // 25 // . अ० डिौँ इति अभेदनिर्देशश्चतुर्युकवचनशङ्कानिरासार्थः / अभेदनिर्देश इति कोऽर्थः-डिरेव डौ भवति / यदि डेडौं इति कुर्यात् तदा मुग्धशिष्यश्चतुर्थ्येकवचनं शङ्केत, अतः प्रथमान्त एव निर्देशः / तथा डौ इति डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः // 25 // केवलसखिपतेरौः // 14 // 26 // केवलसखिपतिभ्यामिदन्ताभ्यां परो डिरौः स्यात् / सख्यौ / पत्यौ / इत इत्येव-सखायमिच्छति क्यनि दीर्घत्वे सखीयतीति किपि यलोपे सखी / सख्यि। एवं पत्यि / केवलग्रहणं किम् ? / प्रियसखौ / नरपतौ। पूजितः सखः सुसखा / तस्मिन् सुसखौ / ईषदूनः सखा बहुसखा / तस्मिन् बहुसखौ / बहुपतौ / एषु पूर्वेण 'डिडौँ' इति डोरेव // 26 // ____ अ० सखि / सखायमिच्छति ‘अमाव्ययात्क्यन् च' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) यकारस्तिष्ठति / 'दीर्घवियङ्यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इति सूत्रेण दीर्घः / ईकारः / सखीयतीति सखी किप् / 'प्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) अनेन यस्य लोपः / सखीशब्दः, सप्तमीङि / 'योऽनेकस्वरस्य' (2 / 1 / 56) इति सूत्रेण यकारः / सख्यि इति सिद्धम् / प्रियः सखा यस्य स प्रियसखा / तस्मिन् प्रियसखौ / नराणां पतिर्नरपतिः। तस्मिन् / बहुसखा इत्यत्र 'नाम्नः प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) इति बहुः पूर्वः // 26 // Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः न नाङिदेत् // 1 // 4 // 27 // [डिति त् डिदेत् / नाश्च डिदेच्च] - केवलसखिपतेः परस्य टा इत्यस्य ना ङिति परे एकारश्च य उक्तः स न स्यात् / सख्या पत्या / सख्ये पत्ये / सख्युः 2 पत्युः 2 सख्यौ पत्यौ / डिदिति एतो विशेषणं किम् ? पतयः // 27 // ____ अ० डिति परे एकार इत्यादि 'डित्यदिति' (1 / 4 / 23) इति सूत्रेण एकारः / सख्युः पत्युः / अत्र पूर्व 'योऽनेकस्वरस्य' (2 / 1 / 56) इति सूत्रेण यकारः / पश्चात् 'खितिखीतीय उर्' (1 / 4 / 36) इति सूत्रेण डसिडसः स्थाने उर् आदेशः // सख्यौ / पत्यौ / अत्र विशेषविधित्वात् पूर्व 'केवलसखिपतेरौः' इति सूत्रेण औत्वे कृते 'तदादेशास्तद्वत्' इति न्यायात् पुनरेत्वं प्राप्तं 'न नाडिदेत्' इत्यनेन प्रतिषिध्यते // 27 // स्त्रिया ङितां वा दै दास् दास् दाम् // 14 // 28 // स्त्रियाःस्त्रीलिङ्गादिदन्तोदन्ताच्छब्दात्परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां वा स्यादेर्डितां डेङसिङस्टीनां स्थाने यथासङ्ग्यं दै दास् दास् दाम् इत्यादेशा वा भवन्ति / दकारो 'ङित्यदिती'ति [सूत्रे] विशेषणार्थः / बुद्ध्यै बुद्धये / बुद्ध्याः बुद्धेः, 2 / आगतं, स्वं, वा / बुद्ध्याम् बुद्धौ / एवं धेन्वै धेनवे इत्यादि / पढ्दै पटवे / पत्यै पतये / स्त्रियै ? पुंसे वा / कन्यापत्यै कन्यापतये / प्रियबुद्धयै प्रियबुद्धये / एवं प्रियधेन्वै प्रियधेनवे खियै पुरुषाय वा // 28 // _अ० कन्या पतिर्यस्य यस्या वा / स सा / तस्मै / तस्यै (कन्यापत्यै कन्यापतये) / एवं प्रिया बुद्धिर्यस्य यस्या वा / प्रिया धेनुर्यस्य यस्या वा // 28 // . स्त्रीदतः // 1 // 4 // 29 // - नित्यस्त्रीलिङ्गादीकारान्तादूकारान्ताच परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां ङितां स्थाने यथासङ्ग्यं दै दास् दास् दास् दाम् आदेशा भवन्ति / नयै / नद्याः 2 / नद्याम् / लक्ष्म्यै / लक्ष्याः 2 / लक्ष्म्याम् / वध्वै / वध्वाः 2 / वधवाम् / वर्षावै / वर्षाभ्वाः / अतिलक्ष्म्यै स्त्रिये पुरुषाय वा / कुमारीमिच्छति क्यनन्तात्, कुमारी-वाचरतीति किबन्ताद्वा कर्तरि किप् / कुमारी / तस्मै तस्यै वा / कुमार्य ब्राह्मणाय / ब्राह्मण्यै वा। स्त्रिया इत्यनुवर्तमाने पुनः स्त्रीग्रहणं नित्यस्त्रीविषयार्थम् / तेनेह न भवति-ग्रामण्ये खलप्वे स्त्रियै // 29 // अ० स्त्रियाः स्त्रीसम्बन्धिन ईत् ऊत् स्त्रीदूत् / तस्मात् / वर्षा / 'भू सत्तायाम्' भू / वर्षासु भवतीति वर्षाभूर्द१रः / 'दृनपुनर्वर्षाकारैर्भुवः' (2 / 1159) इत्यनेन वत्वम् / लक्ष्मीमतिक्रान्तोऽतिक्रान्ता वा / ग्राम / 'णींग प्रापणे' णी। 'पाठे धात्वादेर्णो नः' (2 / 3 / 97) नी / ग्रामं नयतीति ग्रामणीः / खल / 'पूंडर पवने' पू / खलं पुनातीति 'किप्' (5 / 1 / 148) इति सूत्रेण क्विप् / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) 'ग्रामाग्रान्नियः' (2 / 3 / 71) इति सूत्रेण नी इत्यस्य णत्वम् / चतुर्थीङ / 'क्किवृत्तेरसुधियस्तौ' (2 / 1 / 58) इति सूत्रेण ईकारस्य यत्वम् / ऊकारस्य वत्वम् / / 29 / / - वेयुवोऽस्त्रियाः // 14 // 30 // [ स्त्रिया' (2 / 1 / 54) इति इय] . इयुवोः सम्बन्धिनौ यौ स्त्रीदूतौ तदन्तात्परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां वा ङितां स्थाने यथासङ्ग्यं दै दास दास् दाम् वा स्युः / अस्त्रियाः-स्त्रीशब्दं वर्जयित्वा / श्रियै श्रिये / श्रियाः श्रियः, 2 / प्रियाम् नियि। एवं भुवै भुवे / भुवाः भुवः, 2 / भुवां भुवि / धियै धिये / धियाः धियः, 2 / धियां घियि / [श्रियमतिक्रान्ताय] अतिभियै अतिश्रिये नराय नाय वा / एवं पृथुश्रियै पृथुश्रिये नराय स्त्रियै वा / इयुव इति किम् ? आध्यै। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ___ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते प्रध्यै / वर्षाम्चै / पुनर्बं / पूर्वेण ['स्त्रीदूत' इत्यनेन] नित्यमेव / स्त्रीदूत इति किम् ? यवक्रिये / कटप्पुवे। अस्त्रिया इति किम् ? स्त्रियै / स्त्रियाः 2 / स्त्रियाम् ['स्त्रियाः' (2 / 1 / 54) इत्यनेन इय्] / पूर्वेण ['स्त्रीदूत' इत्यनेन] नित्य- , मेव / अस्त्रिया इति निर्देशात्परादपि इयुत् यत्वादि कार्यात् ['योऽनेकस्वरस्य' (2 / 1 / 56) इत्यनेन] प्रागेव स्त्रीदूता. श्रितं कार्य भवति / तेन स्त्रियै / स्त्रीणाम् / भ्रूणाम् / आध्यै इत्यादि सिद्धम् // 30 // ____ अ० श्रियै धियै अतिश्रियै इत्यादि उदाहरणेषु सवेषु 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुस्वरे प्रत्यये' (2 / 1 / 50) इत्यनेन ईकारस्य इय् / 'भ्रूश्नो' (2 / 1 / 53) इत्यनेन ऊकारस्य उव् आदेशः कार्यः / आध्यै प्रध्यै 'ध्य चिन्तायाम्' ध्यै। आङ्-प्र-पूर्वम् / आध्यायतीति आधीः / प्रध्यायतीति प्रधीः / 'दिद्युद्ददृज्जगजुहूवाक्प्राट्धीश्रीसूज्वायस्तूकटपूपरि- ' वाड्भ्राजादयः क्विप्' (5 / 2 / 83) इति विप् धीभावश्च / 'क्किवृत्तेरसुधियस्तौ' (2 / 1 / 58) यत्वम् / यव / 'डुक्रींग्श्' द्रव्यविनिमये' क्री / कट / 'च्युङ् ज्युङ् जुङ् पुङ् प्लुड् गतौ' / पु / यवान् क्रीणाति / कटेन प्रवते / 'दिद्युद्ददृ०' इत्यादिना क्विप् दीर्धश्च / कटपू इति सिद्धम् / चतुर्थीङ / 'संयोगात्' (2 / 1 / 52) इति सूत्रेण इय् उव् आदेशः / 'स्त्रीदूतः' (1 / 4 / 29) इति सूत्रेण दै दास् दास् दाम् आदेशाः / 'आमो नाम् वा' (1 / 4 / 31) इत्यनेन नाम् , पूर्व पश्चात् इयुव्यत्वाः कार्या इत्यर्थः // 30 // . आमो नाम् वा // 14 // 31 // ___इयुवोः सम्बन्धिनौ यौ स्त्रीदूतौ तदन्तात्परस्य तत्सम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा आमः स्थाने नाम् इत्यादेशः स्यात्, वा / अस्त्रियाः // श्रीणाम् श्रियाम् / भ्रूणाम् भुवाम् / अतिश्रीणाम् अतिश्रियाम् / स्त्रीणां पुरुषाणां वा / सुधीनां सुधियाम् // 31 // अ० शोभना धीरेषां ते सुधियः / तेषां सुधीनां / सुधियाम् / / 31 / / ह्रस्वापश्च // 1 // 4 // 32 // ह्रस्वान्तादाबन्तात् स्त्रीदूदन्ताच्च परस्यामः स्थाने नाम् इत्यादेशः स्यात् / ह्रस्व-देवानाम्, मुनीनाम्, बुद्धीनाम्, पितॄणाम् / आप्-खट्वानाम् / स्त्रीदूत्-नदीनाम्, स्त्रीणाम्, लक्ष्मीणाम् / 'स्त्रीशब्दवर्जितयोरियुवादेशसम्बन्धिनोः स्त्रीदूतोः पूर्वेण विकल्प एव / श्रीणाम् श्रियाम् / भ्रूणाम् भुवाम् // 32 // ___ अ० देवानां मुनीनां बुद्धीनां पितॄणाम् सर्वत्र ‘दी? नाम्यतिसृचतसृष्टः (1 / 4 / 47) इत्यनेन दीर्घः / 'इयुव्स्थानित्वेन विशेषविहितत्वादिति शेषः // 32 // सङ्ख्यानां ष्र्णाम् // 14 // 33 // रेफषकारनकारान्तानां सङ्ख्यावाचिनां शब्दानां सम्बन्धिन आमः स्थाने नाम् इत्यादेशः स्यात् / चतुर्णाम् / षण्णाम् / पञ्चानाम् / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-प्रियचतुराम् / बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतपूर्वनान्ताया अपि-अष्टानाम् / परमाष्टानाम् // 33 // त्रेस्त्रयः // 14 // 34 // आमः सम्बन्धिनस्त्रिशब्दस्य त्रयादेशो भवति / त्रयाणाम् परमत्रयाणाम् / आमसम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-अतित्रीणाम् / प्रियत्रीणाम् // 34 // अ० त्रीन् अतिक्रान्ता ये तेऽतित्रयः / तेषाम् अतित्रीणाम् / प्रियास्त्रयो येषां ते प्रियत्रयः / तेषां प्रियत्रीणाम्। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः स्त्रियां तु परत्वात्तिसृभावो भवति-तिसृणाम् // 34 // ‘एदोद्भ्यां ङसिङसोः रः // 1 // 4 // 35 // [एच्च ओच्च एदोत्] एदोद्भ्यां परयोर्डसिङसोः स्थाने रेफो भवति / अकार रिफे] उच्चारणार्थः / मुनेः / मुनेः / साधोः। साधोः / गोः / गोः // 35 // _अ० एदोभ्यामित्यत्र तकारः स्वरूपग्रहणार्थः / तेन लाक्षणिकयोरपि एदोतोः परिग्रहः / मुनेः / साधोः / योः / गोः / इत्यादिसिद्धम् / (वचनभेदो यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थः) // 35 // खितिखीतीय उर् // 1 // 4 // 36 // खितिखीतीसम्बन्धिन इवर्णस्थानाद्यकारात्परयोर्डसिङसोः स्थाने उर् आदेशः स्यात् / खिसख्युः / सख्युः। ति-पत्युः / पत्युः / खी ती-सह खेन वर्तते सखः / सखं, सखायं [सखिशब्दं वा] वा इच्छतीति स्पनि किपि सखीः / पततीति पतः / पतं पतिं वा इच्छतीति क्यनि किपि पतीः / सख्युः / पत्युः। ['योऽनेकस्वरस्य' (2 / 1 / 56) यकारः] / य इति किम् ? यत्र यत्वादेशस्तत्र यथा स्यात् / इह माभूत्-अतिसखेः / अतिपतेः // 36 // अ० खिश्च तिश्च खीश्च तीश्च खितिखीत्यः / खितिखीतीनां य् खितिखीतीय / तस्मात् / सख्युः / पत्युः / 'इवर्णादेरस्वे स्वरे०' (1/2 / 21) इति यत्वं कृत्वा ङसिङसोः स्थाने उर् कर्त्तव्यः / सखमिच्छति / 'अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) क्यन् / 'अप्रयोगीत् (1 / 1 / 37) य तिष्ठति / 'क्यनि' (4 / 3 / 112) इति सूत्रेण ईकारः / सखीयं इति शब्दः / सखायमिच्छति वा / 'अमाव्ययात्०' (3 / 4 / 23) इति 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इति सूत्रेण ईकारः / सखीय / यत्र अवर्णान्त शब्दात्क्यन् तत्र 'क्यनि' इति ईः / यत्र च इवर्णादेः परतः क्यन् तत्र 'दीर्घश्च्वियङ्' इति दीर्घः स्थान्यासन्नः // अतिसखेः- अत्र सखायमतिक्रान्तः अतिसखिः / पतिमतिक्रान्तः अतिपतिः / तस्मात्तस्य वा / तत्र धातुसम्बन्धी इवर्णो नहि केवलशब्दसम्बन्धी इवर्णः / अथवा समाससम्बन्धी / सखि शब्दोऽत्र गौणः / अतो न यकारः // 36 / / ऋतो डुर् // 14 // 37 // - ऋकारात्परयोः ङसिङसोः स्थाने डुर् इत्यादेशः स्यात् / पितुः / पितुः // 37 // तृस्वसृनप्तनेष्टुत्वष्टक्षत्तृहोतृपोतृप्रशास्त्रो घुट्यार् // 14 // 38 // तृच्तृन्प्रत्ययान्तस्य स्वस्त्रादिशब्दानां च सम्बन्धिन ऋकारस्य स्थाने तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे आर् आदेशः स्यात् / कर्तारम् / कर्तारौ / कर्तारः / स्वसारौ / स्वसारः / स्वसारम् / नप्तारौ / नप्तारः। नप्तारम् / नेष्टारौ। नेष्टारः। त्वष्टारम् / त्वष्टारः / क्षत्तारौ / क्षत्तारः / होतारौ होतारः। पोतारौ। प्रशास्तारौ। प्रशास्तारः / अतिकर्तारम् / अतिकर्तारौ अतिकर्तारः / सौ तु परत्वाद् डागुणौ भवतः-कर्ता / हे कर्त्तः। तृशब्दस्यार्थवर्तो ग्रहणेन प्रत्ययग्रहणानतादीनामव्युत्पन्नानां सज्ञाशब्दानां तृशब्दस्य ग्रहणं न स्यादिति तेषां पृथगुपादानम् [ग्रहणं] / इदमेव [तृशब्दग्रहणं] ज्ञापकमर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् / व्युत्पत्तिपक्षे तु तृग्रहणेनैव सिद्धे नत्रादिग्रहणं नियमार्थम् / तेनान्येषामौणादिकानां न स्यात्। पितरौ / मातरौ। भ्रातरौ / जामातरौ॥३८॥ अ० 'ऋदुशनस्पुरुदंसो०' (1 / 4 / 84) इत्यादिना सेः स्थाने डा / 'हस्वस्य गुणः' (1 / 4 / 41) इत्यनेन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते आमन्त्र्यसिना सह ऋकारस्य गुणः // 38|| अझै च // 14 // 39 // ऋकारस्य स्थानै डौ घुटि च परेऽर् इत्यादेशः स्यात् / पितरि / पितरौ / पितरः / पितरम् / एवं मातरि / मातरम् / मातरौ / मातरः // कर्तृणि कुले, कर्तृणि कुलानीत्यत्र तु परत्वात्पूर्व नोऽन्त एव / तस्मिंश्च सति व्यवधानान स्यात् // 39 // अ० कर्तृणि कुले / कर्तृ / सप्तम्येकवचनं ङि / कर्तृणि इत्यत्र जस् शश् वा / 'नपुंसकस्य शिः' / (1 / 4 / 55) अनाम् स्वरे नोऽन्तः (1 / 4 / 64) इति नकारागमः / 'नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) इति दीर्घः / कर्तृणि सिद्धम् / / 39 / / मातुर्मातः पुत्रेऽहें सिनामन्त्र्ये // 14 // 40 // मातृशब्दस्यामन्त्र्ये पुत्रे वर्तमानस्य सामर्थ्याद् बहुव्रीहौ समासे-सिना सह मात इति अकारान्त आदेशः स्यात् / अh (अहे इति कोऽर्थः ) मातृद्वारेण पुत्रप्रशंसायां गम्यमानायाम् / कचोऽपवादः / गार्गी माता यस्य तस्यामन्त्रणम् / हे गार्गीमात / मातुरिति किम् ? हे गार्ग्यपितृक / ['ऋनित्यदितः' (73 / 171) कच्] पुत्र इति किम् ? हे मातः। हे.गार्गीमातृके वत्से / अर्ह इति किम् ? अरे गार्गीमातृक [ ऋन्नित्यदितः' कच्] // 40 // __ अ० मातृशब्दात् बहुव्रीहिसमासे 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इति सूत्रेण समासान्तः कच्प्रत्ययः प्राप्नोति स प्रतिषिध्यते / मात इति आदेशो भवति / इति कचोऽपवाद इत्यस्यार्थः / गर्ग. / गर्गस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री गार्गी। 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1142) “यञो डायन् च वा' (2 / 4 / 67) इति ङी 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इति सूत्रेण यत्रो लोपः / गार्गी इति सिद्धम् / हे गार्गीमात / अत्र पुत्रप्रशंसा दृश्यते / सम्भावितोत्कर्षया श्लाघया। (सम्भावितेति / सम्भावित उत्कर्षो यस्या मातुः सकाशात् पुत्रस्येति ज्ञेयम्) तत्पुत्रव्यपदेशयोग्यतया (तत्पुत्रेति / तस्या मातुः पुत्रस्तत्पुत्रः / तत्पुत्रस्य व्यपदेशः कथनम्, तस्य योग्यता, तया) गुणवत्या मात्रा पुत्रः प्रशस्यते-हे गार्गीमात // अरे गार्गीमातृक-अत्र अज्ञातपितृनामत्वेन, अथवाऽनेकपितृत्वेन, कुशीलया निर्गुणया मात्रा निन्द्यया पुत्रो जनैर्निन्द्यतेअरे गार्गीमातृक // 40 // ___ ह्रस्वस्य गुणः // 14 // 41 // आमन्त्र्यार्थवृत्तेर्हस्वान्तस्य सिना सह श्रुतत्वात् [श्रुतो ह्रस्वो हस्वान्तत्वं त्वनुमतम्] ह्रस्वस्यैव गुणो भवति। आसनः / हे पितः। हे मातः / हे मुने / हे साधो / हे बुद्धे / सिनेत्येव-हे कर्तृकुल, हे वारि-अत्र परत्वात्पूर्व सेलृपि सेरभावान भवति / "नामिनो लुग्वा" / (2461) इति लुकि तु स्थानिवद्भावाद्भवत्येव-हे कर्तः कुल, हे वारे / हस्वस्येति किम् ? हे श्रीः // 41 // ____अ० हे कर्तृकुल, हे वारि-अत्र 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति सूत्रेण सेढुंप, क्रियते, सिलोपे सति 'लुप्ययवृल्लेनत्' (7 / 4 / 112) इति वचनात्स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्सेरभावे ह्रस्वस्य गुणो न भवति // हे कर्त्तः कुल, हे वारे-अत्र च 'नामिनो लुग्वा' इति सूत्रेण सेर्लुक् क्रियते / यत्र च प्रत्ययस्य लुग् इति भाषया लुप्यते तत्र स्थानिवद्भावो भवति / सेलुकि कृतेऽपि पुनः सिप्रत्ययाश्रितं कार्यं भवत्येव / अतोऽत्र गुणो जातः / ['श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिः बलीयान् इति न्यायः] // 41 // एदापः // 14 // 42 // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः आमन्त्र्यार्थवृत्तेराबन्तस्य सिना सह एकारोऽन्तादेशः स्यात् / हे माले // 42 // नित्यदिद्विस्वराम्बार्थस्य ह्रस्वः // 14 // 43 // नित्यं दित् दैदास्दास्दाम्आदेशा येभ्यः तेषां द्विस्वराम्बार्थानां चाबन्तानामामन्त्र्यार्थे वर्तमानानां सिना सह हस्वोऽन्तादेशः स्यात् / नित्यदित्-हे स्त्रि / हे गौरि / हे लक्ष्मि / हे करभोरु / हे श्वश्रु / हे नदि / हे वधु / हे वर्षाभु / हे पुनर्भु / हे अतिलक्ष्मि // द्विस्वराम्बार्थ-हे अम्ब / हे अक / हे अत्त / हे अल्ल / हे अनम्ब [न अम्बा] / हे प्रियाम्ब / नित्यदिदिति किम् ? हे ग्रामणीः / हे खलपूर्वधूटि / नित्यग्रहणादिह न स्यात् [विकल्पेन दित्त्वात् / हे श्रीः। हे हीः / हे भूः। हे भूः / कथं हे सुभु / हे भीरु ? स्त्रीपर्यायत्वादुङि कृते भविष्यति / अम्बार्थानां द्विस्वरविशेषणं किम् ? हे अम्बाडे हे अम्बाले हे अम्बिके // 43 // अ. नित्यं दित् येभ्यस्ते नित्यदितः / द्विस्वरश्चासौ अम्बार्थश्च द्विस्वराम्बार्थः / नित्यदिच्च द्विस्वराम्बार्थश्च नित्यदिद्विस्वराम्बार्थः / तस्य / करभ. ऊरु. / करभ इव उरू यस्याः सा करभोरूः / 'उपमानसहितसंहितसहशफवामलक्ष्मणाघुरोः' (2 / 4 / 75) इत्पनेन सूत्रेण ऊङ्, समानानां तेन दीर्घः, करभोरूः / 'आमन्त्र्ये 'नित्यदिद् इति सूत्रेण ह्रस्वः करभोरु इति सिद्धम् / 'भ्रमूच् अनवस्थाने' अथवा 'भ्रमू चलने' भ्रम् / भ्राम्यतीति भ्रुः / 'भ्रमिगमितनिभ्यो डित्' (843). इत्युणादिनिपातनात् भ्र इति सिद्धम् / शोभनं भ्र भ्रमणं यस्याः सा सुभ्रूः / 'त्रिभीक् भये' भी / बिभेतीत्येवंशीला भीरू: / ‘भियो रुरुकलुकं' (5 / 2 / 76) इति सूत्रेण रुप्रत्ययः / आमन्त्र्यसिः / / विकल्पेन दित्त्वात् हे सुभ्रूः / हे भीरू: इति प्राप्नोति इति परस्याशयः / अत्र सूरिराह-स्त्रीपर्यायत्वेत्यादि-नृजातिद्वारेण 'उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य अङ्' (2 / 4 / 73) इत्यनेन ऊङ् / ततः सिः / 'नित्यदिन्दिस्वराम्बार्थस्य स्वः' इति ह्रस्वः / हे सुभ्र / हे भीरु / इति सिद्धम् // 43 // अदेतः स्यमोर्चेक् // 14 // 44 // अकारान्तात् एकारान्ताचामन्त्र्यार्थवृत्तेः परस्य सेस्तदादेशस्यामश्च लुक् स्यात् / सि-हे श्रमण हे देव। अम्-हे वन ! हे धन ! हे उपकुम्भ // हे परमे // अदेत इति किम् ? हे गौः / +स्यादेशत्वेनैवामोऽपि मुकि सिद्धायां पृथग्वचनमन्यस्यादेशस्य लुगभावार्थम्, तेन हे कतरदित्यादौ लुग् न भवति // 44 // . अ० अच्च एच्च अदेत् तस्मात् / हे वन हे धन-अत्र आमन्त्र्यसिः, सेः स्थाने 'अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) इति सूत्रेण अम् आदेशः / तदनन्तरं 'अदेतः स्यमोलुंक्' (1 / 4 / 44) इति सूत्रेणामो लुक् कार्यः / हे उपकुम्भ। मत्र आमन्त्र्यसिः, तस्य 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' (3 / 2 / 2) इति अम् आदेशः / अदेतः स्यमोरित्यनेन अमो लुक् / परमश्चासौ इश्च परमे, आमन्त्र्यसिः / हे गौः-अत्र ‘ओत औः' (1 / 4 / 74) इत्यनेन औकारः / *स्यादेशेति-तदादेशस्तद्वदिति न्यायात् / हे कतरत्-अत्रामन्त्र्यसेः स्थाने 'पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' (1 / 4 / 58) अति. द् इत्यादेशः // 44 // . दीर्घड्याव्यञ्जनात्सेः // 14 // 45 // दीर्घाभ्यांडीआन्भ्यां व्यञ्जनाच्च परस्य सेर्लुक् स्यात् / ङी-गौरी / बहुश्रेयसी चैत्रः / कुमारीवाचरति किम् लुक् कुमारी ब्राह्मणः / आप्-माला / व्यञ्जन-राजा / हे राजन् / ड्याग्रहणं किम् ? श्रीः लक्ष्मीः आमणीः कीलालपाः / दीर्घग्रहणं किम् ? निःकोशाम्बिः ['गोश्चन्त०' (2 / 4 / 96) इति हस्वः] अतिखट्वः / नपुंसके Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते तु परत्वात् 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति लुबेव / तेन यत् कुलम्, तत् कुलम् // 45 // . अ० ङीश्च आब् च ङ्याब् / दीर्घश्वासौ झ्याब् च दीर्घड्याब्, दीर्घड्याब् च व्यञ्जनश्च० तस्मात् // श्रेयसी इत्यत्र 'अधातूदृदितः' (2 / 4 / 2) इति सूत्रेण ङीप्रत्ययः / बह्वयः श्रेयसी यस्य सः // 45 / / समानादमोऽतः // 1 // 4 // 46 // [अकारस्य] समानात्परस्यामोऽकारस्य लुक् स्यात् / वृक्षम् / खट्वाम् / मुनिर् / साधुम् / बुद्धिम् / नदीम् / पितरमित्यादिषु विशेषविधानात्प्रथममेवार् ('अझै च' +इति अर्) / स्यादेरित्येव / अचिनवम् // 46 // अ० अचिनवं 'चिंग्ट चयने' चि / ह्यस्तनी अम् / 'स्वादेः श्रुः' (3 / 4 / 75) शकारोऽप्रयोगीत् / ‘अड्धातोरादिः०' (4 / 4 / 29) 'उश्नोः' (4 / 3 / 2) इति गुणः // 46 / / +(1 / 4 / 39) दी? नाम्यतिसूचतसृष्टः // 14 // 47 // तिसृचतसृषकाररेफान्तवर्जितशब्दसम्बन्धिनः पूर्वसमानस्य आमादेशे नामि परे दीर्घो भवति / देवानाम् / मुनीनाम् / साधूनाम् / बुद्धीनाम् / धेनूनाम् / वारीणाम् वपूणाम् / पितॄणाम् मातृणाम् / अतिसृचतसृष्ट इति किम् ? तिसृणाम् / चतुसृणाम् / षण्णाम् चतुर्णाम् / अष्र इति प्रतिषेधेन नकारेण व्यवहितेऽपि नामि दीर्घो ज्ञाप्यते-पञ्चानाम् / सप्तानाम् // 47 // अ० तिसा च चतसा च षश्च रश्च० / न तिसृचतसृष्टः तस्य / 'त्रिचतुरस्तिसृचतसृ स्यादौ' (2 / 1 / 1) इति तिसृचतसृआदेशः / पञ्चानाम् इत्यादौ 'नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इति नकारस्य लोपः // 47 // नुर्वा // 1 // 4 // 48 // .. नृशब्दसम्बन्धिनः समानस्य नामि परे दी? वा भवति। नृणाम् नृणाम् / अतिनृणाम् अतिनृणाम् // 48 // अ० नृ / षष्ठीङस् / 'ऋतो डुर्' (1 / 4 / 37) / अतिशयिता नराः, अतिनरः / तेषां अतिनृणाम् // 48 // शसोऽता सश्च नः पुंसि // 14 // 49 // शसः सम्बन्धिनोऽताऽकारेण सह पूर्वसमानस्य स्थान्यासन्नो दीर्घो भवति / तत्सन्नियोगे च पुंल्लिङ्गे शसः सकारस्य नकारः स्यात् / देवान् / मुनीन् / साधून् / पितॄन् / पुंल्लिङ्गाभावे दीर्घत्वमेव-शालाः / बुद्धीः। नदीः। मातृः। दीर्घसनियोगविज्ञानादिह नो न भवति / एतान् गाः पश्य। वनानि पश्येत्यत्र परत्वाच्छिरेव // 49 // अ० अता / कोऽर्थः ? अकारेण सह / गो / द्वितीयाशस् / 'आ अम् शसोऽता' (1 / 4 / 75) इति सूत्रेण शसोऽकारेण सह आकारो गोशब्दस्य कार्यः / / वन / शस् / 'नपुंसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) इत्यनेन शसस्थाने शिः। अप्रयोगीत् शकारः / इ / 'स्वराच्छौ' (1 / 4 / 65) इति नुरन्तः / 'नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) // 49 // सङ्ख्यासायवेरहस्याहन् ङौ वा // 1 // 4 // 50 // सङ्ख्यावाचिभ्यः सायशब्दात् विशब्दाच परस्याह्नशब्दस्य डौ परे अहन् इत्यादेशो वा स्यात् / न्यहि न्यहनि न्यढे / एवं त्र्यहि व्यहनि त्र्यढे / सायाह्नि सायाहनि सायढे / व्यह्नि व्यहनि व्यते / सङ्ग्यासायवेरिति किम् ? मध्याह्ने [मध्यमह्नः] / अह्रस्येति किम् ? ब्यहे // 50 // अ० द्वि। अहन् / द्वयोरहोर्भवो व्यह्नः / 'भवे' (6 / 3 / 123) इति अण् / 'सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इत्यनेन अणः पूर्वं अट्समासान्तः अहन्शब्दस्य च अह्रादेशः / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इत्यनेन अह्रस्य अकार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः लोपः 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्धिः' (6 / 1 / 24) इत्यनेन अणो लोपः / तदनंतरं सप्तम्येकवचनं ङि / 'सङ्ख्यासायेति सूत्रेण विकल्पेन अह्र इत्यस्य अहन् इत्यादेशः / यत्र आदेशो नाभूत् तत्र व्यते इति रूपम् / यत्र च अहन्-आदेशः तत्र रूपद्वयम् 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) इति सूत्रेण अहन् इत्यत्र अनोऽकारस्य विकल्पेन लोपः / यत्र अनोऽकारो लुप्तः तत्र द्वयहि इति रूपम्, यत्र च अहन्शब्दे अनोऽकारो न लुप्यते तत्र द्वयहनि इति रूपं तृतीयम् / एवं व्यते॒ द्वयहि व्दयहनि इति रूपत्रयसिद्धिः / एवं त्र्यढे त्यहि व्यहनि इत्यादि / सायस्य विशब्दस्यापि रूपत्रयं त्रयं सिद्धम् / सायाह्न इत्यत्र सायं च तत् अहश्च सायाह्नः इति वाक्यम् / 'सङ्ख्यासाय' इति सूत्रपाठात् सायंशब्दस्य मकारलोपः, साय इति अकारान्तो वा / विगतमहो व्यहस्तस्मिन् / द्वयहे इत्यत्र द्वि अहन् / द्वयोरहोः समाहारो व्यहः / तस्मिन् ‘द्विगोरन्नोऽट्' (7 / 3 / 99) इति सूत्रेण अट्समासान्तः / 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपः / अन् लुप्यते / द्वयहे इति सिद्धम् / / 50 // निय आम् // 1 // 4 // 51 // नियः परस्य : स्थाने आम् इत्यादेशः स्यात् / नियाम् / ग्रामण्याम् // 51 // अ० ग्राम / ‘णींग प्रापणे' णी / 'पाठे धात्वादेर्णो नः' (2 / 3 / 97) इति नी / ग्रामं नयतीति ग्रामणी क्विप् / 'ग्रामाग्रान्नियः' (2 / 3 / 71) इति सूत्रेण णत्वम् / सप्तमीङि / अत्र नी साक्षानास्ति किंतु णी अत आम् न प्राप्नोति ! सत्यम् / स्यादिविधौ णत्वमसिद्धम् // 51 // वाष्टन आः स्यादौ // 1 // 4 // 52 // - अष्टन्शब्दस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे आ इत्यन्तादेशो वा स्यात् / अष्टाभिः अष्टभिः। अष्टासु / अष्टसु / प्रियाष्टाः / प्रियाष्टा प्रियाष्टौ / प्रियाष्टानौ / इत्यादि / हे प्रियाष्टाः हे प्रियाष्टन् / स्यादाविति किम् ? अष्टकः सङ्घः / अष्टता / अष्टपुष्पी // 51 // ___ अ० अष्टौ सङ्ख्या मानमस्य अष्टकः / 'सङ्ख्याडतेश्वाशत्तिष्टेः कः (6 / 4 / 130) इत्यनेन कः / अष्टानां भावोऽष्टता / अष्टौ पुष्पाणि अस्यां अष्टपुष्पी 'असत्काण्डप्रान्तशतैकाञ्चः पुष्पात्' (2 / 4 / 56) इत्यनेन ङीः / अथवा अष्टानां पुष्पाणां समाहारोऽष्टपुष्पी 'द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) इति डीः / 'अस्य यां लुक्' (2 / 4 / 86) अकारस्य लोपः // 52 // - अष्ट और्जस्शसोः // 11453 // . अष्ट इति कुतात्त्वस्याष्टन्शब्दस्य निर्देशः / अष्टाशब्दसम्बन्धिनोर्जस्शसोः स्थाने औ इत्यादेशः स्यात्। अष्टौ तिष्ठन्ति / अष्टौ पश्य / परमाष्टौ / अनष्टौ / कृतात्त्वस्य निर्देशादिह न स्यात्-अष्टौ तिष्ठन्ति पश्य वा। तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-प्रियाष्टास्तिष्ठन्ति / प्रियाष्टः पश्य ['लुगातोऽनापः' (2 / 1 / 107)] // 53 // अ० अष्टन् / षष्ठीडस् / 'वाष्टन आः स्यादौ' (1 / 4 / 52) इति आकारः। 'समानानां तेन दीर्घः' (1 / 2 / 1) / 'लुगातोऽनापः' (2 / 1 / 107) इत्याकारलोपः / अष्ट इति सिद्धम् / यत्र अष्टनोऽग्रे शसादिविभक्तिः तत्र 'वाष्टनेति' आत्त्वे कृते, शसश्च औत्वे कृते 'लुगातोऽनाप' इति आकारलोपः / अष्ट इत्यत्र 'डतिष्णः सङ्ख्या०' (1 / 4 / 54) इति जस्शसोर्लोपः // 53 // डतिष्णः सङ्ख्याया लुप् // 14 // 54 // Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते डतिषकारनकारान्तायाः सङ्ग्यायाः सम्बन्धिनोर्जस्शसोर्लुप् स्यात् / कति कति / यति यति / तति तति / षट् षट् / पञ्च पञ्च / एवं सप्त 2, नव 2, दश 2, तिष्ठति पश्य // 54 // अ० डतिश्च षश्च नश्च डतिष्णः / षष्ठीङस् / कतीत्यादि-किम् यद् तद् / का संख्या मानमेषां कति / या, सा, सङ्ख्या मानमेषां यति तति / 'यत्तत्किमः संख्यामा डतिर्वा (7 / 1 / 150) इति डतिप्रत्ययः // 54 / / . नपुंसकस्य शिः // 14 // 55 // ___ नपुंसकस्य सम्बन्धिनोर्जस्शसोः शिः स्यात् / कुण्डानि / तिष्ठन्ति पश्य वा / एवं दधीनि / मधूनि। कर्तृणि सर्वत्र ‘स्वराच्छौ' 1 / 4 / 65) न् / 'नि दीर्घः' (1 / 4 / 85)] यशांसि [‘धुटां प्राक्' (1 / 4 / 66) न् 'स्महतोः' (1 / 4 / 86) दीर्घः] / तत्संबन्धिविज्ञानादिह न स्यात्-प्रियकुण्डाः / प्रियकुण्डान् / इह तु स्यात्-परमकुण्डानि। शकारः 'शौवा' (4 / 2 / 95) इत्यादौ विशेषणार्थः // 55 // . औरीः // 14 // 56 // नपुंसकसम्बन्धी औकार ईः स्यात् / कुण्डे तिष्ठतः पश्य वा / दधिनी कर्तृणी / पयसी // 56 // अ० दधिनी / कर्तृणी / अत्र 'अनाम् स्वरे नोऽन्तः' (1 / 4 / 64) // 56 // अतः स्यमोऽम् // 14 // 57 // अतोऽकारान्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमोः स्थाने अम् इत्यादेशः स्यात् / कुण्डं तिष्ठति / कुण्डं पश्य। कीलालपम् / हे कुण्ड-अत्रामादेशे सति 'अदेतः स्यमोलुंक्' (1 / 4 / 44) इत्यमो लुक् / अमोऽकारोच्चारणं जरसादेशार्थम् / तेनाऽतिजरसं कुलं तिष्ठतीति सिद्धम् // 57 // अ० कीलालं पिबति यत्कुलं तत् कीलालपं / विच् / जरामतिक्रान्तं अतिजरसं / सिः / 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति ह्रस्वः / ‘अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) सेः स्थानेऽम् / 'जराया जरस्वा' (2 / 1 / 3) इति जरस् आदेशः / / 57 / / पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः // 114 / 58 // नपुंसकानामन्यादीनां [सर्वादिगणान्तर्वर्तिनाम्] पञ्चपरिमाणानां सम्बन्धिनोः स्यमोः स्थाने द इत्यादेशः स्यात्, एकतरशब्दं वर्जयित्वा / अकार उच्चारणार्थः / अन्यत्तिष्ठति पश्य वा / एवमन्यतरत् / इतरत् / कतरत् कतमत् / एवं यतरत् / यत्मत् / ततरत् / ततमत् / एकतमत् / हे अन्यत् इत्यादि / अनेकतरस्येति किम् ? एकतरं तिष्ठति पश्य वा // 58 // अ० पश्चन् / पञ्च सङ्ख्यामानमस्य पंचत् / ‘पञ्चद्दशद्वर्गे वा' (6 / 4 / 175) इत्यनेन अत् / 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इत्यनेन अन् इत्यस्य लुक् / पञ्चत् इति सिद्धम् / षष्ठीङस् / पञ्चतः / अन्य आदिर्यस्य गणस्य सोऽन्यादिस्तस्य / कतरत्-किम् / कोऽनयोर्मध्ये पटुर्विद्वान् वा स आयासु यातु वा इति निर्येऽर्थे 'यत्तत्किमन्यात्' (7 / 3 / 53) इत्यनेन डतरः / क एषां मध्ये पटुर्विद्वान् वा इति बहुनिभर्येऽर्थे 'बहूनां प्रश्ने डतमश्च वा' इति डतमप्रत्ययः / डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः / ‘डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) यद्. योऽनयोर्मध्ये पटुर्विद्वान् वा स आयातु यातु वा 'यत्तत्किम०' इति डतरः / य एषां मध्ये पटुरित्यादि 'बहूनां प्रश्ने डतमश्च वा (7 / 3 / 54) / तद्. स श्लाध्योऽनयोर्योदाताऽन्यतर आयातु / स एषां श्लाघ्यो यो दाता / अन्यतम आयातु / डतरडतमौ / / एकतरम्एकोऽयम् अनयोर्मध्ये दक्षः 'वैकाद्वयोर्निर्ये डतरः' (73 / 52) / एकतमत्-एकः / एक एवायमेषां गुणवान् Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः 'वैकात्' (7 / 3 / 55) इति सूत्रेण डतमप्रत्ययः / / 58 / / अनतो लुप् // 14 // 59 // .अनकारान्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमोलुप् स्यात् / दधि / दधि / मधु / कर्तृ / पयः / लुकमकृत्वा लुप्करणं स्यमोः स्थानिवद्भावेन यत्कार्य प्राप्नोति तस्य प्रतिषेधार्थम् तेन यत् तत् अत्र त्यदायत्वं न स्यात् // 59 // . अ० न अत् अनत् तस्य / प्रतिषेधार्थमित्यत्र 'लुप्यवृल्लेनत्' (7 / 4 / 112) इति सूत्रेण // 59 / / जरसो वा // 1 // 4 // 60 // - जरसन्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमोर्लुप् स्यात् वा / अतिजरः / अतिजरसं कुलं तिष्ठति पश्य वा // 6 // अ० अतिजरः-जरामतिक्रान्तं कुलं अतिजरः / प्रथमासिः / 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति ह्रस्वः / 'अतः स्यमोऽम्' (114/57) इति सेः स्थानेऽम् / 'जराया जरस्वा' (2 / 1 / 3) इति जरस् आदेशः / तदनन्तरं 'जरसो. वा' (1 / 4 / 60) इत्यनेन सिस्थानी अम् लुप्यते / अतिजरः इति सिद्धम् / पक्षे स्थानीयअम्लोपाभावे अतिजरसम् / अतिजरम् इत्यपि-अत्र जरस् न भवति इति सिद्धम् / जरामतिक्रान्तं यत् तत् अतिजरः / अतिजरसम् / द्वितीयाऽम् / 'जराया जरस्वा' इत्यनेन रस् आदेशः उभयत्र / एकत्र 'जरसो वा' इति अमो लुप् तत्र अतिजरः / पक्षेऽमो लोपाभावे अतिजरसं कुलं पश्य // 60 // नामिनो लुग्वा // 1 // 4 // 61 // - नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमो; लुक् स्यात् / हे वारे हे वारि / हे त्रपो हे त्रपु / हे कर्त्तः हे कर्तृ / प्रियत्रि प्रियतिसूकुलं तिष्ठति पश्य वा / लुपैव सिद्धे लुग्वचनं स्थानिवद्भावार्थम् // 61 // अ० हे वारे / हे त्रपो / हे कर्त्तः / एषु 'नामिनो लुग्वे'ति विकल्पेन सेलुंग / यत्र लुग् तत्र ह्रस्वस्य गुणः / यत्र च नामिनो लुग्वेति सेर्लुक् न कृतः तत्र ‘अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति सेर्लुप् क्रियते, तत्र हे वारि / हे त्रुपु / हे कर्तृ इति प्रयोगा भवन्ति / वारि / वारि / द्वितीया अम् / अम् / एकत्र 'नामिनो लुग्वा' इति अमो लुक् / विकल्पपक्षे 'अनतो लुप्' इति अमो लुप् / उभयत्रापि हे वारि हे वारि इत्येव प्रयोगो भवति / सूत्रेऽनुक्तोऽपि अम्प्रयोगो बुद्ध्या विचार्यते / प्रिय / अग्रे त्रि वार 2 / ततः प्रियास्तिस्रोऽस्य कुलस्य प्रियतिस कुलम् / पक्षे प्रियत्रिकुलम् इति भवति // 61 // वान्यतः पुमांष्टादौ स्वरे // 1 // 4 // 62 // यो नाम्यन्तः शब्दोऽन्यतो विशेष्यवशानपुंसकः स टादौ स्वरे पुंवद्वा स्यात् / यथा पुंसि नागमहस्वी न भवतः, तथात्रापि [पुंवद्भावस्थानके] न स्यातामित्यर्थः / ग्रामण्या ग्रामणिना कुलेन / ग्रामण्ये ग्रामणिने कुलाय / ग्रामण्यः ग्रामणिनः कुलात् कुलस्य वा / ग्रामण्योः ग्रामणिनोः कुलयोः / ग्रामण्यां ग्रामणीनां कुलानाम् / ग्रामण्यां ['नियआम्' (1 / 4 / 51)] ग्रामणिनि कुले / एवं क; कर्तृणा / कर्रे कर्तृणे / कर्तृः कर्तृणः / कोंः कर्तृणोः / कर्तृणाम् कर्तृणाम् / कर्तरि कर्तृणि / शुचये शुचिने / शुचेः / शुचिनः / मृदवे मृदुने / मृदोः मृदनः / मृदौ मृदुनि / चित्रगवे चित्रगुणे / अहंयवे अहंयुने / कुमार्यै कुमारिणे कुलाय। 1. 'आद्वेरः' 2 / 1141 इति अनेन स्यादि सि, अम् आश्रित्य अन्त्यस्य अत्वं न भवति / / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अन्यत इति किम् ? त्रपुणे / पीलुने फलाय // 62 // अ० नागम इत्यादि- ‘अनामस्वरे नोऽन्तः' (1 / 4 / 64) इति सूत्रेण नागमः / 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति सूत्रेण ह्रस्वः / ग्रामण्या ग्रामण्ये इत्यादिषु ग्रामणीशब्दस्यानेन सूत्रेण पुंवद्भावे कृते सति नागमह्रस्वाभावौ / पक्षे नपुंसकत्वात् नागमो भवति / ग्रामणीनामत्र 'क्लीबे' इति सूत्रेण ह्रस्वे कृते 'ह्रस्वापश्च' (1 / 4 / 32) इति नाम् आदेशः, न तु अपुंस्त्वपक्षे 'अनामस्वरे नोऽन्तः' इति नोऽन्तः; 'अनामस्वरे०' इत्यत्रामो वर्जितत्वात् द्वितीयप्रयोगो रूपनिर्णयार्थमेव दर्शितः, न तु तस्य किञ्चिदत्र फलमस्ति / चित्रा गावो यस्य कुलस्य तत् चित्रगु / तस्मै / अत्र पुंवद्भावे सति 'क्लीबे' इति न ह्रस्वः, परं 'गोश्चान्ते.' (2 / 4 / 96) इत्यनेन ह्रस्वः क्रियते / ततो 'डित्यदिति' (1 / 4 / 23) ओत्वम् / चित्रगुणे अत्र 'क्लीबे' ह्रस्वः' / 'अनामस्वरे नोऽन्तः' / कुमारीमिच्छति क्यन्, कुमारीवाचरति, क्विप् वा / कुमारीयतीति क्विप् / 'य्वोः प्वय०' (4 / 4 / 121) यलोपः / चतुर्थीङ / अत्र यद्यपि कुमारीशब्दः पुंवत्तथापि नित्यस्त्रीविषयत्वादीकारस्य 'स्त्रीदूतः' (1 / 4 / 29) इति दैः / पक्षे 'क्लीबे' ह्रस्वः / 'अनामस्वरे नोऽन्तः' // 62 / / दध्यस्थिसक्थ्यक्ष्णोऽन्तस्यान् // 1 // 4 // 63 // दधि-अस्थि-सक्थि-अक्षि इत्येषां नपुंसकानां नाम्यन्तानामन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा टादौ स्वरे परे अन् इत्यादेशः स्यात् / दध्ना। दध्ने। दनि। दधनि। एवमस्थना सक्थ्ना अक्ष्णा / अक्षिण अक्षणीत्यादि ["ईडौ वा” (2 / 1 / 109)] / परमदध्ना प्रियदना / स्थूलाक्ष्णा इक्षुणा / नपुंसकस्येत्येव-दधिना दधये // 63 // ___ अ० दधि च अस्थि च सक्थि च अक्षि च / तस्य सूत्रत्वादन् / 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इत्यनेनाऽनोऽस्य लोपः / दध्नेत्यादिषु 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति अनो लोपः / दध्नि दधनि-'इडौ वा' (2 / 1 / 109) इंति विकल्पे अनो लोपः / / परमं च तत् दधि च / प्रियं दधि यस्य / स्थूलमक्षियस्य स / तेन // 'डुधांग्क् धारणे' धा। दधातीत्येवंशीलो दधिः / 'सनिचक्रिदधिजज्ञिनेमिः' (5 / 2 / 39) इति सूत्रेण दधि इति निपातः / निपातनात्इ, द्वित्वम्, आलोपः // 63 / / __ अनाम् स्वरे नोऽन्तः // 14 // 6 // नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनि आमवर्जिते स्यादौ स्वरे नोऽन्तो भवति / वारिणी 2 / वारिणा / वारिणे / वारिणः 2 / वारिणि / कर्तृणी 2 कुले / कर्तृणा / कर्त्तणे / कर्तृणः 2 / कर्तृणोः 2 कर्तृणि। प्रियगुरुणे / प्रियतिसृणः / अनामिति किम् ? वारीणाम् कर्त्तणाम् // 6 // अ० न आम् अनाम् / अनाम् चासौ स्वरश्च अनामस्वरः / तस्मिन् / आम्वर्जनात् स्वरे लब्धे स्वरग्रहणं टादौ इत्यधिकारनिवृत्त्यर्थं कृतमित्यर्थः / / अन्त इति आगम इत्युच्यते-इह व्याकरणे आगमस्य अन्त इति शब्दव्यपदेशः॥ प्रियतिसृणः-अत्र परत्वात् पूर्वं तिसृ आदेशः पश्चान्नोऽन्तः // वारीणाम् / कर्तृणाम् / वारि / कर्तृ / षष्ठी आम्। 'हस्वापश्च' (1 / 4 / 32) इति सूत्रेण आम् स्थाने नाम् / 'दीर्घो नाम्य०' (1 / 4 / 47) इति दीर्घः // 64 // स्वराच्छौ // 1 // 4 // 65 // ___ जस्शसादेशे शो परे स्वरान्तानपुंसकात्परो नोऽन्तो भवति / वनानि / वारीणि / कर्तृणि / स्वरादिति किम् ? चत्वारि / अत इत्येव सिद्धे स्वरग्रहणमुत्तरार्थम् // 65 // धुटां प्राक् // 1 // 4 // 66 // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः __ स्वरात्परा या धुड्जातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य धुड्भ्य एव प्राक् (पूर्वम्) शौ परे नोऽन्तः स्यात् / पयांसि तिष्ठन्ति / यशांसि पश्य / सपौषि धनूंषि / अतिजरांसि ['स्महतोः' (1 / 4 / 86) इति दीर्घः सर्वत्र] / धुटामिति बहुवचनं जातिपरिग्रहार्थम् तेन काष्ठतङ्कि, गोरति कुलानि इति सिद्धम् // 66 // ___ अ० पयांसि यशांसि सपीषि धषि-अत्र नोऽन्तस्य 'शिड्हेऽनुस्वारः' (1 / 3 / 40) इति अनुस्वारः क्रियते / सपीषि धषि-'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षत्वम् / काष्ठानि तक्षन्ति यानि कुलानि तानि काष्ठतङ्क्षि / ‘गा रक्षन्ति यानि कुलानि तानि विप् / जस् / शस् / अत्र 'नपुंसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) 'धुटां प्राक्' नोऽन्तः / 'म्नां धुड्वर्गेऽन्त्योऽपदान्ते' (1 / 3 / 39) नस्य डकारः // 66 / / र्लो वा // 11467 // [रश्चलश्चतस्य] रेफलकाराभ्यां परा या धुड्जातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य धुटः प्राक् नोऽन्तः स्यात्, शौ, वा / बहूर्जि। बहूर्जि सुवल्ङ्गि / सुवल्गि // 67 // ___ घुटि // 14 // 68 // अधिकारोऽयम् / निमित्तविशेषोपादानं [कथनं] विनाऽऽपादसमाप्तेः [पादसमाप्तिं यावत् ] यत्कार्य वक्ष्यते, तद् घुटि वेदितव्यम् // 68 // __अचः // 11469 // अश्वतेर्धातोधुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे धुटः प्राक् नोऽन्तः स्यात् / प्राङ् / [प्राश्चमतिक्रान्तः] अतिप्राङ् / प्राञ्चौ / प्राञ्चि कुलानि // 69 // अ० प्राङ् / 'अञ्चू गतौ च' अञ्च् / प्रपूर्वं प्राञ्चतीति प्राङ् विप् / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) अञ्चेर्नकारलोपः / किप लुप्यते / प्रथमासिः। 'अचः' (1 / 4 / 69) इति सूत्रेण चकारात्पूर्वं नागमः / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) इति सिलोपः / पदस्य (2 / 1 / 89) इत्यनेन चकारस्य लोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) इति सूत्रेण न् इति आगमस्य डकारः क्रियते / प्राङ् इति सिद्धम् // 69 / / ऋदितः // 14 // 70 // [ऋच्च उच्च, ऋदुतौ इतौ अनुबन्धौ यस्य, स, तस्य] ऋदित उदितश्च धुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा धुटि परे धुटः प्राक् स्वरात्परो नोऽन्तः स्यात्। ऋदितः-कुर्वन् / महान् / उदितः-चकृवान् विद्वान् / गोमाम् / श्रेयान् // 7 // - अ० 'डुइंग करणे' कृ / करोतीति कुर्वन् / 'शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ' (5 / 2 / 20) इति शतृ / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) अत् तिष्ठति / 'कृग्तनादेरुः' (3 / 4 / 83) उः / 'नामिनो गुणो०' (4 / 3 / 1) कर् / 'अतः शित्युत्' (4 / 2 / 89) इति सूत्रेण क अकारस्य उकारः / 'इवर्णादेः०' (1 / 2 / 21) व / प्रथमासिः / 'ऋदुदितः' अतो न् आगमः / सिलोपः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति तलोपः / महान् ‘अर्ह मह पूजायाम्' मह / महति पूजयति लोकोत्तमान् / 'दुहिवृहिमहिपृषिभ्यः कतृः' (884) / क उच्चारणार्थः / महत् / प्रथमासिः / 'ऋदुदितः' नोऽन्तः। 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इत्यनेन दीर्घः / ततः सिलोपः / ‘पदस्य' इति संयोगान्तलोपः / चकृवान् / कृ / चकार इति वाक्ये / 'तत्र कसुकानौ तद्वत्' (5 / 2 / 2) क्वसु / 'द्विर्धातुः परोक्षा डे०' (4 / 1 / 1) द्वित्वम् / 'कङश्चञ्' (4 / 1 / 46) / 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) / प्रथमासिः / 'ऋदुदितः' / नोऽन्तः / 'न्स्महतोः' इति दीर्घः / विद्वान् Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते 'विदंक् ज्ञाने' विद् / वेत्तीति विद्वान् / ‘वा वेत्तेः कसुः' (5 / 2 / 22) प्रथमासिः / 'ऋदु०' नोऽन्तः 'न्स्महतोः' दीर्घः / ‘पदस्य' इति संयोगान्तलोपः / गोमान् / गो / गावो विद्यन्तेऽस्य गोमान् / 'तदस्यास्ति०' (7 / 2 / 1). मतुः / सिः / 'ऋदुदितः' नोऽन्तः 'अभ्वादेरत्व०' (1 / 4 / 90) दीर्घः / श्रेयान् / अयं प्रशस्यः, 2 / अयमनयोर्मध्ये प्रशस्यः श्रेयान् ‘गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (7 / 3 / 9) ईयसु 'प्रशस्यस्य श्रः' (7 / 4 / 34) श्रेयस् / प्रथमासिः / 'ऋदुदितः' नोऽन्तः 'न्स्महतोः' दीर्घः / सिलोपः / पदस्येति स्लोपः // 70 // . युज्रोऽसमासे // 11471 // ___"युनूंपी योगे" इत्यस्यासमासे धुडन्तस्य धुटः प्राक् घुटि परे नोन्तः स्यात् / युङ् / युञ्जौ / युञ्जः। युञ्जि कुलानि / ईपदपरिसमाप्ता युङ् बहुयुङ् / असमास इति किम् ? अश्वयुक् / ऋनिर्देशः किम् ? 'युजिंच् समाधौ' इत्यस्य माभूत् / युजमापन्ना मुनयः // 71 // __अ० 'युपी योगे' युज् / युनक्तीति युङ् ‘क्विप्' (5 / 1 / 148) 'अप्रयोगीत्' / प्रथमासिः / 'युज्रोऽसमासे' इति जकारात्पूर्वं नोऽन्तः / नागमः / सिलोपः / 'युजञ्चकुञ्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) इत्यनेन नोऽन्तस्य ङ् आदेशः। 'पदस्य'ति जलोपः / युङ् इति सिद्धम् / अश्वं युनक्तीति अश्वयुक् ‘किप्' इत्यनेन किप्प्रत्ययः / 'युजिच् समाधौ' युज् / योजनं युक् / तम् / 'भ्यादिभ्यो वा' (5 / 3 / 115) इत्यनेन किप् / युजमापन्नाः कोऽर्थः ? समाधि प्राप्ता * इत्यर्थः // 71 // अनडुहः सौ // 14 // 72 // अनडुड्शब्दस्य धुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा सौ परे• घुटः प्राक् नोऽन्तः [नागमः] स्यात् / अनड्वान् / प्रियानड्वान् / हे अनड्वन् [‘उतोऽनडुच्चतुरो वः' (1 / 4 / 81)] // 72 // . अ० अनस् / 'वहीं प्रापणे' वह् / अनः शकटं वहतीऽति अनड्वान् / 'अनसो वहेः क्विप् सश्च डः' (1006) इत्युणादिसूत्रेण क्विप् / सकारस्य डकारः ‘यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 79) इति वृत् / वस्य उः / 'क्विप्' / 'अप्रयोगीत्' / अनडुह् इति शब्दः / षष्ठीङस् / अनडुहः // प्रथमासिः / 'वाः शेषे' (1 / 4 / 82) इति सूत्रेण उकारस्य वा / अनड्वाह / 'अनडुहः सौ' इति नोऽन्तः / सिलोपः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) हलोपः / अनड्वान् // 72 // पुम्सोः पुमन्स् // 14 // 73 // .. पुम्सु इत्येवस्योदितस्तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे पुमंस् आदेशः स्यात् / पुमान् / पुमांसौ। पुमांसः / पुमांसम् ['न्समहतोः' (1 / 4 / 86) दीर्घः, 'शिड्हेऽनुस्वारः' (1 / 3 / 40)] / [ईषदूनः पुमान् ] बहुपुमान् / प्रिय. पुमान् / प्रियपुमांसि / हे पुमन् / पुंसोरुदित्त्वात् प्रियपुंसितरा / प्रियपुंस्तरा / प्रियपुंसीतरा इत्यादी डीहस्वपुंवद्विकल्पश्च भवति // 73 // अ० 'पांक् रक्षणे' / पाति पुरुषार्थमिति पुमान् ‘पातेथुम्सु' (1002) पुम्सुशब्दः / षष्ठीङस् / ‘डित्यदिति' (1 / 4 / 23) ओ ‘एदोद्भ्यां०' (1 / 4 / 35) र् / उदितेत्यत्र उकारानुबन्धस्य / प्रियपुमान् / प्रियाः पुमांसो यस्य स प्रियपुमान् / एकत्वे वाक्यं न कार्यम् 'पुमनडुनौपयोलक्ष्म्या एकत्वे' (7 / 3 / 173) इति कच् प्राप्नुयात् / पुंसोरुदित्त्वादित्यादि-प्रिय. पुम्स्. / प्रियः पुमान् यस्याः सा प्रियपुंसी 'अधातूदृदितः' (2 / 4 / 2) इति डीः / वारत्रयं लिख्यते / इयमनयोर्मध्येऽतिशयेन प्रियपुंसी प्रियपुंसीतरा 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' (7 / 3 / 6) इति त्रिषु शब्देष्वपि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः तरप्प्रत्ययः / पकारः पुंवद्भावार्थः / ‘आत्' (2 / 4 / 18) इति आप् / 'ऋदुदित्तरतमरूपकल्पब्रुवचेलगोत्रमतहते वा ह्रस्वश्च' (3 / 2 / 63) अनेन सूत्रेण ह्रस्वः, विकल्पेन पुंवद्भावश्च / प्रियपुंसितरा-अत्र ह्रस्वः / प्रियपुंस्तराअत्र पुंवद्भावः / प्रियपुंसीतरा-अत्र पुंवद्भावो नाभूत् इति रूपत्रयम् पुम्सु इति उकारानुबन्धफलमेव दर्शितम् / अत्र पुमन्स् आदेशो न जातः, घुटभावात् // 73 // ओत औः // 14 // 74 // ओकारस्य, ओत एव विहिते घुटि परे औ इत्यादेशः स्यात् / गौः गावौ गावः / द्यौः [द्योशब्दः स्वर्गवाची] यावौ द्यावः / शोभना गौः सुगौः / [अतिशयिता गौः] अतिगौः / हे गौः / ओत इति किम् ? चित्रगुः / विहितविशेषणादिह न स्यात् / हे चित्रगवः [चित्रागावो येषां ते चित्रगवः // 7 // आ अम्शसोऽता // 14 // 75 // [अकारेण] ओकारस्य अम्शसोऽकारेण सह आकारः स्यात् / [अम्] गाम् सुगाम् / [शस्] गाः सुगाः / द्याम् / याः / [अतिशयिता द्यौः अतिद्यौः, शोभना द्यौः सुद्यौः / ताः] अतियाः सुद्याः // 7 // पथिन्मथिन्क्रभुक्षः सौ // 11476 // पथिन्-मथिन्-ऋभुक्षिन् इत्येषां नान्तानामन्तस्य सौ परे आत् स्यात् / पन्थाः / हे पन्थाः / मन्थाः। हे मन्थाः / ऋभुक्षाः / हे ऋभुक्षाः / कथं हे सुपथिन् ? हे सुपथि कुल ? अत्र नित्यत्वानपुंसकलक्षणायां से पि सेरभावान्न भवति / नकारान्तनिर्देशादिह [आकारः] न स्यात्-पथीः / मथीः / ऋभुक्षीः // 6 // अ० पन्था च मन्था च क्रभुक्षा च / तस्य / षष्ठीङस् / ‘इन् डीस्वरे लुक्' (1 / 4 / 79) इत्यनेन इनो लुक् क्रियते / पन्थाः हे पन्थाः / पन्थेति-अत्र 'पथिन्मथिन्' इति सूत्रेण नस्य आकारं कृत्वा 'थो न्थ्' (1 / 4 / 78) इति सूत्रेण थस्य स्थाने न्थ आदेशः // हे सुपथिन् / हेसुपथि-अत्र शोभनः पन्था यस्य कुलस्य ‘क्लीबे वा' (2 / 1 / 93) इति सूत्रेण विकल्पेन नकारस्य लोपः / / पन्थीः मन्थीः ऋभुक्षीः-अत्र पथिन्. मथिन्. ऋभुक्षिन्. पन्थानमिच्छति. मन्थानमिच्छति ऋभुक्षाणमिच्छति इति ‘अमाव्ययात्' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / 'नं क्ये' (1 / 1 / 22) इति पद-सञ्ज्ञायां सत्यां 'नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इति नकारस्य लोपे कृते 'दीर्घश्च्वियङ्' - (4 / 3 / 108) इति सूत्रेण दीर्घ ईकारः। पथीय / मथीय / ऋभुक्षीय / पथीयतीत्यादि 'विप्' (5 / 1 / 148) 'य्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) इति सूत्रेण यकारो लुप्यते / प्रथमासिः / पथीः मथीः ऋभुक्षीः इति सिद्धम् / / 76 / / एः // 11477 // ... पथ्यादीनां नान्तानाम् ए:-इकारस्य घुटि परे आकारः स्यात् / पन्थाः पन्थानौ पन्थानः पन्थानम् / एवं मन्थाः / ऋभुक्षाः [इन्द्रः] / कभुक्षाणी इत्यादि / सुपन्थानि वनानि / बहुमन्थानि कुलानि / अनृभुक्षाणि बलानि / नान्तनिर्देशादिकाराभावाच्च इह न स्यात्-पथ्यौ / पथ्यः / पथ्यम् // 77 // - अ० इ / षष्ठीङस् / 'डित्यदिति' (1 / 4 / 23) इत्यनेन एकारः / ‘एदोद्भयां०' (1 / 4 / 35) डस्स्थाने र्, ए: इति सिद्धम् / शोभनाः पन्थानो येषु वनेषु तानि सुपन्थानि / बहवो मन्थानो येषु कुलेषु तानि बहुमन्थानि / न विद्यते ऋभुक्षाण इन्द्रा येषु बलेषु सैन्येषु तानि अनृभुक्षाणि बलानि / पथ्यौ इत्यादि / पन्थानमिति / 'अमाव्यया०' (3 / 4 / 23) इति क्यन् 'नं क्ये' (1 / 1 / 22) इति पदसंज्ञायां सत्यां 'नाम्नो नो नहः' (2 / 1 / 91) इति नलोपः। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते 'दीर्घश्च्वियङ्' (4 / 3 / 108) इति दीर्घः / पथीय / पथीयति किप् / 'य्वोः प्वय्०' (4 / 4 / 121) यलोपः / पथीशब्दः / औ सति पथ्यौ / जसि पथ्यः / अमि पथ्यम् इति सिद्धम् // 77 / / थो न्थ् // 14 // 78 // पथिन्-मथिन् इत्येतयोन्तियोः थकारस्य स्थाने न्य इत्यादेशो घुटि परे भवति / तथैवोदाहृतम् // 78 // अ० तथैवोदाहृतमिति / 'पथिन्मथिन्क्रभुक्षःसौ' 'ए:' एतयोः सूत्रयोरुदाहरणेषु पन्थाः पन्थानौ पन्थानः पन्थानम् पन्थानौ, मन्थाः मन्थानौ मन्थानः मन्थानम् मन्थानौ इत्यत्र 'थो न्थ्' इति सूत्रं दर्शितम् / उदाहरणानि पूर्वोक्तान्येव ज्ञेयानि इति पृथङ्नोक्तानि / 'थो न्थ' इति थकारस्य न्थ् आदेशः // 78 / / इन् ङीस्वरे लुक् // 14 // 79 // पथ्यादीनां नान्तानां ङीप्रत्ययेऽघुट्स्वरादौ च स्यादौ परे इन् अवयवो लुक् स्यात् / सुपथी स्त्री कुतं वा / पथः / पथा / पथे / पथः 2 / पथोः 2 / पथाम् / पथि / एवं सुमथी स्त्री कुले. वा / मथः / अनृभुः सेना कुले वा / ऋभुक्षः / इत्यादि // 79 // ___ अ० पूर्व निमित्तविशेषानुपादाने घुटीत्यधिकारस्य निर्णीतत्वात्, घुटि परे पथ्यादीनां आकारकरणात्, स्व इति निमित्तविशेषोपादानादघुट्स्वर इति अर्थादेव ज्ञायते / पथिन् / 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डी:' (2 / 4 / 1) इति ङी / शोभनाः पन्था यस्याः सा सुपथी / शोभनः पन्था ययोः कुलयोः ते सुपथी / प्रथमा द्वितीया वा औ 'औरीः' (1 / 4 / 56) इति ईः / न विद्यते ऋभुक्षा यस्यां सा अनुभुक्षी / ययोः कुलयोर्वेति // 79 // वोशनसो नश्यामन्त्र्ये सौ // 14 // 8 // आमन्त्र्यार्थवृत्तेः उशनस्शब्दस्य सौ परे नकारो लुक् च अन्तादेशौ वा भवतः / हे उशनन् ['न संधिः (1 / 3 / 52) इति असंधिः] / हे उशन / पक्षे हे उशनः // 8 // अ० उशनसः सकारस्य न इति आदेशः क्रियते / नकारादेशेऽकार उच्चारणार्थः // 8 // उतोऽनडुच्चतुरो वः // 11481 // . आमन्त्र्यार्थवृत्तेरनडुचतुर्शब्दयोरुकारस्य व इति सस्वरादेशः सौ परे स्यात् / हे अनड्वन् [न संधिः]। हे प्रियानड्वन् / हे अतिचत्वः // 81 // ___ अ० अनडुच्चतुरोः / अत्र ‘संसध्वंसक्वस्सनडुहो दः' (2 / 1 / 68) अनेन हकारस्य द् क्रियते / ततो 'अघोर प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) दकारस्य त् / 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' (1 / 3 / 60) इत्यनेन तस्य च / / सौ परे इत्यः आमन्त्र्यार्थे सौ परे इति व्याख्येयम् / / 81 / / वाः शेषे // 14 // 8 // आमन्त्र्यार्थे विहितात्सेरन्यो घुट् + इह शेषः। तस्मिन्परे अनडुचतुर्शब्दयोरुकारस्य वा इत्यादेशः स्यात् अनड्वान् / अनड्वाही / अनड्वाहः / अनड्वाहम् / प्रियानड्वांहि कुलानि / प्रियचत्वाः / प्रियचत्वारौ चत्वादि / चत्वारः / शेष इति किम् ? हे प्रियानड्वन् / हे प्रियचत्वः / इह शेषे घुटि वादेशविधानात्पूर्व त्रामन्त्र्यसाविति संबध्यते // 82 // अ० प्रिया अनड्वाहो येषु कुलेषु तानि प्रियानड्वांहि कुलानि / / पूर्वत्रामन्त्र्ये सौ इत्यत्र ‘उतोऽनडुच्चतुरो वः Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः इति पूर्वसूत्रेण / +अत्र सूत्रे शेषस्य घुट आघ्रातत्वात् एतत्सूत्रमुक्तः प्राक्तनसूत्रविषय इति भावः // 82|| सख्युरितोऽशावत् // 14 // 83 // - सखिशब्दस्य इत इकारान्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा शिवर्जिते घुटि शेषे परे ऐकारान्तादेशः स्यात् / सखायौ / सखायः / सखायम् / हे सखायौ / हे सखायः / सुसखायौ / प्रियसखायः / अशाविति किम् ? अतिसखीनि। प्रियसखीनि कुलानि / इत इति किम् ? इमे सख्यौ। [सखी] सखायमिच्छति [सखीयतीति वाक्ये] क्यनि किपि [सखीः] सख्यौ सख्यः / शेष इत्येव / हे सखे / इदमेव इत्ग्रहणं ज्ञापयति-'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' इति च // 83 // ___ अ० पूजितौ .सखायौ सुसखायौ / प्रियाः सखायो येषां / पूजितः सखा येषु कुलेषु / / 83 / / ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसश्च सेर्डाः // 1 // 4 // 84 // अकारान्तात्-उशनस्-पुरुदंशस्-अनेहस् इत्येतेभ्यः सख्युरितश्च परस्य शेषस्य सेः स्थाने डा इत्यादेशः स्यात् / पिता [अतिशयिता पिता] अतिपिता / कर्ता / उशना / पुरुदंशा / अनेहा / सखा / अत्युशना / किंसखा [कुत्सितः सखा किंसखा] / सुसखा [शोभनः पूजितो वा सखा सुसखा / सख्युरित इत्येव-इयं सखी / सखायमिच्छति क्यनि क्विपि सखीः / शेषस्येत्येव-हे कर्त्तः / हे उशनन् हे उशन् हे उशनः ['वोशनसो नश्चा०' इति रूपत्रयम्] / हे सखे // 8 // ____ अ० ऋच्च उशना च पुरुदंशा च अनेहा च, तस्य, षष्ठीङस् / ऋकारान्तशब्दस्य ‘अझै च' (1 / 4 / 39) इति अरि प्राप्ते, उशनस्-पुरुदंशस्-अनेहस् इति त्रयाणां ‘अभ्वादेरत्वसः सौः (1 / 4 / 90) इति दीर्घत्वे प्राप्ते, अन्त्य-सकारस्य ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) इति प्राप्ते; सखिशब्दस्य ऐत्वे प्राप्ते चायमारम्भः कृतः // 84 / / नि दीर्घः // 14 // 85 // - शेषे घुटि परे यो नकारस्तस्मिन् परे पूर्वस्य स्वरस्य दीर्घः स्यात् / राजा राजानौ राजानः राजानम्। सीमा सीमानौ सीमानः सीमानम् / वनानि। दधीनि। मधूनि / कर्तृणि। शेष इत्येव-हे राजन् / हे सीमन् // 85 // स्महतोः // 14 // 86 // न्सन्तस्य महत्शब्दस्य च सम्बन्धिनः स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घः स्यात् / श्रेयान् श्रेयांसौ श्रेयांसः श्रेयांसम् / परमश्रेयान् / अतिश्रेयान् / प्रियश्रेयान् / श्रेयांसि / यशांसि / सपौषि / धनूंषि / प्रियपुमांसि कुलानि। महान्। महान्तौ / महान्तः। महान्ति / महत्साहचर्याच्छुद्धधातोः किबन्तस्य न भवति सुहिंसौ सुहिंसः। सुकंसौ सुकंसः। नामधातोस्तु भवत्येव-श्रेयांसमिच्छति क्यनि श्रेयस्यतीति विपि श्रेयान् / एवं महान् / 86 // __ अ० न्स् च महच्च / तयोः औणादिको 'दुहिवृहिमहिपृषिभ्यः कतृः' (884) इति कतृप्रत्ययान्तो व्युत्पन्नोऽव्युत्पन्नो वा प्रतिपदोक्तो महत् शब्दो ग्राह्यः / यस्तु शत्रन्तः स महत् लाक्षणिकशब्दः / तस्य महन् इत्येव प्रयोगः / नाऽत्र दीर्घः / / प्रशस्य / अयं प्रशस्योऽयं प्रशस्यः / अयमनयोर्मध्ये प्रकृष्टः श्रेयान् ‘गुणाङ्गा०' (7 / 3 / 9) ईयस् ‘प्रशस्यस्य श्रः' (74 / 34) इति प्रशस्यस्थाने श्र आदेशः / श्रेयस् / अग्रे घुट्वचनानि / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति सूत्रेण नोऽन्तः / ततो 'न्स्महतोः' दीर्घः / / अतिशयितानि श्रेयांसि यस्य सोऽतिश्रेयान् / / श्रेयांसि यशांसि सप्पीषि धनूंषि- अत्र ‘धुटां प्राक्' (1 / 4 / 66) इति नोऽन्तः / ततो 'स्महतोः' दीर्घः // प्रिया पुमांसो येषु कुलेषु तानि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते प्रियपुमांसि 'पुंसोः पुमन्स्' (1 / 4 / 73) इति पुम्सशब्दस्य पुमन्स् / अनेन दीर्घः / 'शिड्हेऽनुस्वारः' (1 / 3 / 40) // 86 // इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः // 14 // 87 // इनन्तस्य हनादीनां च सम्बन्धिनः स्वरस्य शौ शेषे सौ च परे दीर्घः स्यात् / दण्डीनि वाग्मीनि कुलानि। दण्डी वाग्मी / भ्रूणहानि / भ्रूणहा / वृत्रहा / बहुपूषाणि / पूषा / स्वर्यमाणि / अर्यमा / 'नि दीर्घ' इति सिद्धे नियमार्थमिदम् / एषां शिस्योरेव यथा स्यात्, नान्यत्र-दण्डिनौ दण्डिनः / वृत्रहणौ वृत्रहणः / पूषणौ पूषणः / अर्यमणौ अर्यमणः / शेष इत्येव-हे दण्डिन् // 87 // अ० इन् च हन् च पूषा च अर्यमा च / तस्य / षष्ठीङस् / 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति अनोऽकारलोपः। दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी / 'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6) इन् / 'अवर्णेवर्णस्य' (74 / 68) / / वाचोऽस्यास्तीति 'ग्मिन्' (7 / 2 / 25) इति ग्मिन् // भ्रूण / ‘हनंक् हिंसागत्यो' हन् / भ्रूणं हतवन्ति इति बहुत्वे, भ्रूणं हतवान् इति एकत्वे वाक्यम् / ‘ब्रह्मभ्रूणवृत्रात् विप्' (5 / 1 / 161) अनेन क्विप् / वृत्रं हतवान् वृत्रहा / 'ब्रह्मभ्रूणवृत्रात् क्किप्' अनेन किप् / बहवः पूषाणो येषां तानि / शोभनोऽर्यमा येषु कुलेषु तानि / / 87|| . . अपः // 14 // 88 // अपः स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घः स्यात् / आपः / शोभना आपो यत्र स स्वाप् / स्वापौ / स्वापः। स्वापम् / बह्नपा इत्यत्र तु समासान्तेन व्यवधानान्न भवति // 8 // अ० बह्वय आपो येषु जलाशयेषु ते बह्वपाः' / 'ऋक्पःपथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) अनेन अत्समासान्तः / प्रथमाजस् / / 88 // नि वा // 14 // 89 // अपः स्वरस्य नागमे सति घुटि परे वा दीर्घः स्यात् / स्वाम्पि / स्वम्पि / समासान्तविधेरनित्यत्वात्बाम्पि / बहम्पि // 89 // अ० शोभना आपो येषु तानि स्वाम्पि स्वम्पि पानानि / बह्वय आपो येषु तानि बह्वाम्पि / बह्वम्पि-अत्र आत् न भवति // 89 // अभ्वादेरत्वसः सौ // 14 // 90 // अत्वन्तस्य असन्तस्य च भ्वादिवर्जितस्य स्वरस्य शेषे सौ परे दीर्घो भवति / अतु-भवान् / गोमान्। कृतवान्। एतावान् / अस्- अप्सराः / चन्द्रमाः / सुमनाः / अभ्वादेरिति किम् ? पिण्डग्रः / चर्मवः / 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इत्येव सिद्धेऽभ्वादेरिति वचनम् ‘अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्तीति' ज्ञापनार्थम् तेनात्रापि भवति / खरणाः / खुरणाः / अधातोरित्यकृत्वाऽभ्वादेरिति करणं भ्वादीनामेव वर्जनार्थम् / तेनेह स्यात्-गोमन्तमिच्छति क्यनि किपि गोमान् / अतु इति उदित्करणादृदितो न स्यात्-पचन् / जरन् // 90 // __ अ० भवान् / 'भांक् दीप्तौ' भा / भातीति भवान् / 'भातेर्डवतुः' (886) इति डवतुप्रत्ययः / / गो / गावो विद्यन्तेऽस्य 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' (7 / 2 / 1) सर्वत्र उकारोऽप्रयोगीत् / / करोतिस्म कृतवान् ‘क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) सर्वत्र 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) नोऽन्तः // एतत् / एतत्प्रमाणमस्येति वाक्ये 'यत्तदेतदो डावादिः 1. 'परतः स्त्री० ... 3 / 2 / 49' अनेन पुंवद्भावः / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः (7 / 1 / 149) अनेन डावतुप्रत्ययः / 'ऋदुदितः' नोऽन्तः // भवान् इत्यादौ सर्वत्र ‘आगमोऽनुपघाती' इति वचनात् नागमे सत्यपि दीर्घो भवत्येव / / पिण्ड / 'ग्रसूङ ग्लसूङ् अदने' ग्रस् / पिण्डं ग्रसते पिण्डग्रः / / चर्म / 'वसिक् आच्छादने' वस् / चर्मवस्ते चर्मवः किम् / / अभ्वादेरिति वचनं इति ज्ञापनार्थं कृतमिति सम्बन्धः, अयं परमार्थःतथाहि ‘अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' अस्यार्थः-सार्थके सूत्रप्रवृत्तिः निरर्थक सूत्रप्रवर्त्तनं न भवतीति न्यायार्थः / इन्प्रत्ययः साक्षात् सार्थकः, विन्मिन्प्रत्ययादौ इन् निरर्थकः / अस्प्रत्ययः साक्षात्सार्थकः, तस्प्रत्ययेऽस् निरर्थकः / यत्र सूत्रे अनंतइनंतअसंतमनंतानां कार्यं प्रोक्तमस्ति तत्र सूत्रे अन् इन् अस् मन् इति सार्थका अपि निरर्थका अपि ग्राह्याः / सार्थकनिरर्थकयोरुभयोरपि तदन्तयोः प्रत्यययोः कार्यं भवतीति अभ्वादेरिति करणेन ज्ञापितं इति भावः / खरस्येव, खुरवन्नासिका यस्य 'खरखुरानासिकायानस्' (7 / 3 / 160) अनेन नासिकाया नस् आदेशः समासान्तः, 'पूर्वपदस्थानाम्न्यगः' (2 / 3 / 64) इति णत्वम् / उदित्करणेत्यत्र उकारानुबन्धकरणात् ऋकारानुबन्धस्य प्रत्ययस्य दी? न स्यात् / 'जृष् पृष्च् जरसि' जृ / जीर्यति स्म जरन् / 'जृषोऽतृः' (5 / 1 / 173) अनेन अतृप्रत्ययः। ऋकारो दीर्घनिषेधार्थः // 90 // . क्रुशस्तुनस्तृच् पुंसि // 14 // 91 // कुशः परो. यस्तुन् तस्य शेषे घुटि परे तृजादेशः स्यात्, पुंसि / क्रोष्टा क्रोष्टारौ क्रोष्टारः / पुंसीति किम् ? कृशक्रोष्ट्रनि वनानि / शेषे इत्येव-हे क्रोष्टो / + 'क्रोष्टोः क्रोष्ट' इत्यनुक्त्वा तृज्वचनं 'तृस्वसृ०' (1 / 4 / 38) इति सूत्रेणारर्थम् // 11 // - अ० 'क्रुशं आह्वानरोदनयोः'। क्रुश् / क्रोशतीति क्रोष्टा / 'कृसिकम्यमिगमितनिमनिजन्यसिमसिसच्यविभाधागाग्लाम्लाहन्हायाहिशिपूभ्यस्तुन्' (773) इत्यौणादिकसूत्रेण तुन् / 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) गुणः / 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इति शकारस्य षकारः / 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति तस्य टः / घुटि परे सति तुन् इत्यस्य तृच् आदेशः कार्यः / 'ऋदुशन' (1 / 4 / 84) इति आत्वम् / / 'तृस्वसृ०' (1 / 4 / 38) इति आर् / / कृशाः क्रोष्टारो येषु वनेषु तानि / / +क्रोष्टु इति शब्दस्य क्रोष्ट्र आदेशः स्यात् इति सूत्रार्थे यत् न कृतं इति अक्षरार्थः // 91 / / ... टादौ स्वरे वा // 11492 // टादौ स्वरादौ परे क्रुशः परस्य तुनस्तृजादेशः पुंसि वा स्यात् / क्रोष्ट्रा क्रोष्टुना / क्रोष्ट्रे क्रोष्टवे / [डसि डस्] क्रोष्टुः क्रोष्टोः / [ओस् ] क्रोष्ट्रोः क्रोष्ट्वोः [ङि] क्रोष्टरि क्रोष्टौ / क्रोष्ट्रनाम्-अत्र नित्यत्वात् पूर्व ['हस्वापश्च' (1 / 4 / 32)] नामादेश स्वराभावान भवति / टादाविति किम् ? क्रोष्ट्रन् / पुंसीत्येव कृशक्रोष्टने बनाय / यद्यपि तृप्रत्ययान्तो मृगवाची स्यात्, तथापि प्रयोगनियमो दुर्विज्ञान इत्यादेशवचनम् // 12 // ... अ० कृशाः क्रोष्टारो यत्र // 92 / / इति प्रथमाध्यायस्यावचूरिः समाप्तः // 4 // स्त्रियाम् // 1 / 4 / 93 // घुटीति न संबध्यते-'कुशस्तुनस्तृच पुंसि' 'स्त्रियां च' इत्येकयोगाकरणात् [एकसूत्र अकरणात्] / स्त्रियां वर्त्तमानस्य क्रुशः परस्य तुनस्तृजादेशः स्यात् / निर्निमित्त एव / क्रोष्ट्री / अत्र प्रागेव तृजादेशे ऋदन्तत्वात् स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः (2 / 4 / 1)] इति ङीः। क्रोष्ट्रयौ / क्रोष्ट्रयः। क्रोष्ट्रीम् / क्रोष्ट्रया। हे क्रोष्ट्रि // 93 // ग्रं०२५५॥ इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने प्रथमस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतः चतुर्थः पादः समाप्तः / / 4 / / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते त्रिचतुरस्तिसृचतसृ स्यादौ // 2 // 1 // 1 // स्त्रियामित्यनुवर्तते / त्रि चतुर् इत्येतयोः स्त्रीलिङ्गे वर्तमानयोस्तत्सम्बंधिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ विभक्तौ यथासंख्यं तिसृ चतसृ इत्यादेशौ भवतः / तिम्रः तिष्ठन्ति पश्य वा / चतम्रस्तिष्ठन्ति पश्य वा / तिसृभिः / चतसृभिः। तिसृभ्यः / चतसृभ्यः / तिसृणाम् / चतसृणाम् / प्रियतिसा पुरुषः / प्रियतिम्रौ। प्रियतिम्रः / एवं प्रियचतसा पुरुषः / प्रियतिसृ कुलम् / प्रियतिसृणी। प्रियतिसृणि / एवं प्रियचतसृ कुलम्। स्यादाविति किम् ? प्रियत्रिकः। प्रियचतुष्कः / तिसृणां प्रियः त्रिप्रियः / चतुष्प्रियः / प्रियत्रिकुलम् / प्रियचतुष्कुलम् / कथं तर्हि प्रियतिसृ कुलम् ? 'नामिनो लुग्वा' (1 / 4 / 61) इति लुकि सति स्थानिवद्भावाद्भविप्यति / यथा हे वारे / स्त्रियामित्येव त्रयः चत्वारः / त्रीणि / चत्वारि / प्रियास्त्रयस्त्रीणि वा यस्याः सा प्रियत्रिः / प्रियत्री / प्रियत्रयः / एवं प्रियचत्वाः / अत्र त्रिचतुरावऽस्त्रियाम्, समास एव तु स्त्रियामित्यादेशौ न स्याताम् // 1 // ___ अ० प्रियास्तिस्रोऽस्य प्रियतिसा / प्रियास्तिस्रोऽनयोः प्रियतिम्रौ / प्रियास्तिस्र एषां प्रियतिस्रः पुरुषाः / प्रियाश्वतम्रोऽस्य प्रियचतसा / प्रियाश्चतस्रोऽनयोः प्रियचतम्रौ / प्रियाश्चतस्र एषां प्रियचतस्रः / तथा प्रियास्तिस्रोऽस्य कुलस्य प्रियतिसृ कुलम् / प्रियाश्चतस्रोऽस्य कुलस्य प्रियचतसृ कुलम् / प्रियास्तिस्रोऽनयोः कुलयोः प्रियतिसृणी / प्रियास्तिस्र एषु कुलेषु प्रियतिसृणि कुलानि / एवं प्रियचतसृणी, प्रियचतसृणि इति ज्ञातव्यानि / अत्र सर्वत्र त्रिचतुरौ स्त्रियाम्, समासः पुंक्लीबे च / अतस्तिसृचतसृ आदेशः सिद्धः / प्रियतिसा पुरुष इत्यादिषु उदाहरणेषु विभक्त्याश्रयत्वेन बहिरङ्गलक्षणस्य तिसृचतस्रादेशस्यासिद्धत्वात्समासान्तः कच् न भवति / / प्रियतिसृणी। प्रियतिसृणि इत्यादिषु उदाहरणेषु परत्वाच्च तिस्रादेशे कृते पश्चान्नागमः / / प्रियास्तिम्रो यस्य प्रियाश्चतस्रो यस्य ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति सूत्रेण कच् समासान्तः। प्रियचतुष्कः / अत्र च / 'निर्दुर्बहिराविष्प्रादुश्चतुराम्' (2 / 3 / 9) इंति सूत्रेण रकारस्य षकारः / चतसृणां प्रियश्चतुःप्रियः / प्रियाश्चत्वारश्चत्वारि वा यस्याः सा प्रियचत्वाः / / 1 / / ऋतो रः स्वरेऽनि // 2 // 12 // .. तिसृचतसृसम्बन्धिन अकारस्य स्थाने तत्सम्बन्धिन्य सम्बन्धिनि वा स्यादौ परे रादेशः स्यात्, अनिनकारविषयादऽन्यत्र / समानदीर्घत्वअडुरामऽपवादः। तिम्रः / [जस् शस् वा] चतम्रस्तिष्ठन्ति पश्य // प्रियतिम्रौ। [प्रथमाद्वितीया औ] प्रियचतम्रौ / प्रियतिम्रम् [अम्] प्रियचतम्रम् / प्रियतिम्रः प्रियचतम्रः [डसि डस् वा] आगतं स्वं वा / प्रियतिम्रि। प्रियचतम्रि निधेहि / अनीति किम् ? [अनाम् स्वरे नोऽन्तः / (1 / 4 / 64)] प्रियतिसृणी प्रियचतसृणी // प्रियतिसृणि [स्वराच्छौ (1 / 4 / 65) नोऽन्तः / / तिसृणाम् / ऋत [ऋत इति कृतं इति संबंधः] इति तिसृचतम्रोः प्रतिपत्त्यर्थम् / अन्यथा तदऽपवाद [तिसृचतसृबाधक] स्त्रिचतुरोरेवायमादेशो विज्ञायेत // 2 // ___ अ० समानदीर्घत्व इत्यादि / 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' (1 / 4 / 49) इति दीर्घः / 'अझै च' (1 / 4 / 39) इति अर् / 'ऋतो डुर्' (1 / 4 / 37) इति डुर् / इत्येतेषां प्राप्तौ // 2 / / जराया जरस्वा // 2 // 1 // 3 // Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः - जराशब्दस्य स्वसम्बन्धिन्यऽन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ स्वरादौ जरस् इत्यादेशो वा स्यात् / जरसौ। जरसः। जरसम् / जरसः / जरसा / जरसे / जरसः 2 / जरसोः 2 / जरसाम् / जरसि / पक्षे [औ] अरे / [जस्] जराः / [अम्] जराम् / [शस्] जराः / [टा] जरया / [3] जरायै / [डसिडस् ] जरायाः 2 / इत्यादि / एकदेशविकृतस्याऽनन्यत्वात् [औ] अतिजरसौ अतिजरौ, 2 / [जस्] अतिजरसः / अतिजराः / [अम्] अतिजरसम् अतिजरम् / [शस्] अतिजरसः / अतिजरान् / [टा] अतिजरसा। अतिजरेण / [भिस्] अतिजरसैः। अतिजरैः। कि] अतिजरसे / अतिजराय। (ङसि) अतिजरसः। अतिजरात् / (ङस) अतिजरसः। अतिजरस्य इत्यादि। नपुंसके स्यऽमोरम्भावे / [अम्] अतिजरसम् / अतिजरम् / 'जरसो वा' (11460) इति लुपि तु [सि] अतिजरः / अतिजरसी अतिजरे तिष्ठतः पश्य वा // 3 // ____ अ० एकदेशेति / जरा शब्दस्य जरस् आदेश उक्तोऽस्ति / जर इति अकारान्तस्यापि जरस् भवतीत्यर्थः / अतिजरसौ। अतिजरौ इत्यादि / जरामतिक्रान्तौ अतिजरसौ अतिजरौ / जरामतिक्रान्ताः अतिजरसः अतिजराः पुरुषाः / जरामतिक्रान्तं अतिजरसम् अतिजरम् / जरामतिक्रान्तास्तेऽतिजरसः / तान् अतिजरसः अतिजरान् / जरामतिक्रान्तः तेन अतिजरसा अतिजरेण / जरामतिक्रान्ता ये तेऽतिजरसः / तैः अतिजरसैः / अतिजरैः / एवं सर्वत्र पुंल्लिङ्गे वाक्यानि कार्याणि / तस्मै अतिजरसे अतिजराय / तस्मात् अतिजरसः अतिजरात् / सर्वत्र 'गोश्चान्ते हस्व०' (2 / 4 / 96) इत्यनेन ह्रस्वः / जरा इत्यस्य जर / 'जराया जरस्वा' इति विकल्पेन जरस् आदेशः / अतिजरसोः अतिजरयोः / अतिजरसाम् अतिजराणाम् / अतिजरसि अतिजरे / नपुंसके स्यमोरम्भावे अतिजरसम् इत्यादि / जरा. अति. / जरामतिक्रान्तं तत् अतिंजरसम् अतिजरम् / ‘क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति ह्रस्वः-अतिजर / प्रथमासिः। 'अतःस्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) अनेन सेः स्थाने अम् आदेशः / 'जराया जरस्वा' इति विकल्पेन जरस् आदेशः। यत्र जरस् तत्र अतिजरसम् इति प्रयोगः / यत्र च जरस् आदेशो न भवति तत्र अतिजरम् इति प्रयोगः / 'जरसो वे'ति लुपि तु अतिजरः / इति / जरामतिक्रान्तं अतिजरः / प्रथमासिः / ‘क्लिबे' ह्रस्वः / 'अतःस्यमोऽम्' सेः स्थानेऽम् / 'जराया जरस्वा' इति जरस् / ततो 'जरसो वा' इति अम् लुप्यते / ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) / 'रः पदान्ते विसर्गस्तयोः' (1 / 3 / 53) अतिजरः इति सिद्धम् / / 3 / / अपोऽद्भे // 2 // 1 // 4 // अप् इत्यस्य स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा भकारादौ स्यादौ परे अद् इत्यादेशः स्यात् / अद्भिः / अद्भयः। स्वद्भ्याम् / अत्यद्भयाम् / भे इति किम् ? आपस्तिष्ठन्ति / अपः पश्य / अपाम् / अप्सु // 4 // 'अ० शोभना आपो ययोः / अतिशयिता आपो ययोः / तौ स्वापौ / / ताभ्या स्वद्भ्याम् / अत्यद्भ्याम् / आपः इत्यत्र ‘अपः' (1 / 4 / 88) इति सूत्रेण दीर्घः / / 4 / / .. आ रायो व्यञ्जने // 2 // 1 // 5 // स्वसन्बन्ध्यिन्यसम्बन्धिनि वा व्यञ्जनादौ स्यादौ परे रैशब्दस्य आकार आदेशः स्यात् / राः हे राः / अतिराः / राभिः / रासु / एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् अतिराभ्यां कुलाभ्याम् / अतिरासु / व्यञ्जन इति किंम् ? रायौ / रायः / रायम् / स्भीत्येव सिद्धे व्यञ्जनग्रहणमुत्तरार्थम् // 5 // अ० रायमतिक्रान्ते ये कुले तेऽतिरिणी / ताभ्याम् / तेषु / ‘क्लीबे' इति ह्रस्वः / रैशब्दस्य रि / रि इत्यस्यापि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते आत्वं भवति / एकदेशे विकारस्यानन्यत्वात् / / 5 / / युष्मदस्मदोः // 2 // 16 // युष्मद्अस्मद्इत्येतयोः स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा व्यञ्जनादौ स्यादौ परे आ इत्यन्तादेशः स्यात् / [अम्] त्वाम् / माम् / अतित्वाम् / अतिमाम् / [औ] युवाम् आवाम् / अतियुवाम् / / युष्मान् / अस्मान्। अतियुष्मान् / अत्यस्मान् / युवाभ्याम् / आवाभ्याम् / युष्माभिः अस्माभिः / युष्मासु अस्मासु / युष्मयते. रस्मयतेश्व किपि युष्म् अस्म् / अनयोरमौभ्याम्सु परत्वात् त्वमाद्यादेशे कृते पश्चादात्वम् / व्यञ्जन इत्येवयुष्मभ्यम् / अस्मभ्यम् [‘अभ्यं भ्यसः' (2 / 1 / 18) इति अभ्यम् // 6 // ___ अ० 'युष्मदस्मदो' रितिसूत्रेण शब्दस्यान्ते स्वरस्य व्यञ्जनस्य वा आकारः क्रियते इति ज्ञेयं युष्मदस्मदोः / अस्मिन् सूत्रे अम् औ शस्भ्यां भिस् सुप् एवं 6 वचनानि / अम्-औ स्थाने म् / शस् स्थाने न् / स्यादिविषयं व्यञ्जनं निमित्तं ज्ञातव्यम् न सिभ्यस् इत्यादयो ग्राह्याः, तेषु त्वं अहम् इत्यादि आदेशा वक्ष्यन्ते / / त्वाम् माम् इत्यत्र युष्मद् अस्मद् / त्वामाचष्टे मामाचष्टे ‘णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु' (3 / 4 / 42) इति णिज् / 'अंप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इ इति तिष्ठति / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इति सूत्रेण अन्त्यस्वरादिलोपः / अद् इति लुप्यते / युष्म् अस्म् इति प्रकृतिर्जाता / युष्मयतीति अस्मयतीति क्विप् / 'अप्रयोगीत्' विप्लोपः / ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) इति णिज् लुप्यते / युष्म् अस्म् अग्रे द्वितीयाऽम् / 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' (2 / 1 / 11) इति सूत्रेण युष्म् अस्म् स्थाने त्व म इति आदेशौ यथा सङ्ख्यम् / 'अमौ मः' (2 / 1116) इति सूत्रेण अमस्थाने म् इत्यादेशः। तदनन्तरं 'युष्मदस्मदोः' इति सूत्रेण आकारः / त्वाम् माम् इति सिद्धिः / युवाम् आवाम् अत्र युष्मद् अस्मद् / युवामावामाचष्टे णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' / प्रथमाद्वितीया औ / 'मन्तस्य युवावौ द्वयोः' (2 / 1 / 10) इति सूत्रेण युव आव / 'अमौ मः' औस्थाने म् आदेशः / 'युष्मदस्मदोः' इति आत्वम् / युवाम् आवाम् इति सिद्धम् / अतित्वाम् अतिमाम् त्वामतिक्रान्तो यः मामतिक्रान्तो यः / अम् / अतियुवाम् अत्यावाम् युवामतिक्रान्तौ यौ तौ अतियुवाम्, आवामतिक्रान्तौ यौ तौ अत्यावाम् / युष्मान् अस्मान् / अत्र 'शसो नः' (2 / 1 / 17) शस् स्थाने न् आदेशः / युष्मानतिक्रान्ता ये अस्मानतिक्रान्ता ये तान् / युष्मभ्यम् अस्मभ्यम् इत्यत्र 'लुगस्यादेत्यपदे' (2 / 1 / 113) अनेन युष्मअस्मयोरकार लोपः / ‘शेषे लुक्' (2 / 1 / 8) अनेन युष्मद् अस्मद् इति दकारो लुप्यते // 6 // टायोसि यः // 2 // 17 // युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिष्वऽन्यसम्बन्धिषु वा टा ङि ओस् इति परेषु यकार [अन्त] आदेशः स्यात् / टा] त्वया / मया। अतियुवया / अत्यावया। [डि] त्वयि / मयि / अतित्वयि / अतिमयि / [ओस् ] युवयोः। आवयोः // 7 // अ० 'टाड्योसि यः' इत्यनेनापि सूत्रेण शब्दप्रान्ते स्वरभ्य व्यञ्जनस्य वा यकारोऽन्तादेशः क्रियते / युवामतिक्रान्तो यः / आवामतिक्रान्तो यः / तेन / त्वमतिक्रान्तो यः / अहमतिक्रान्तो यः स अतित्वम्, अत्यहम्। तस्मिन् // 7 // शेषे लुक् // 2 // 18 // यस्मिन् प्रत्यये [अम् औ भ्यां भिस् सुप् / टा ङि ओस् ] आत्व-यकारौ विहितौततोऽन्यः [भ्यस् ङसि आम् एवं वचन 3 शेष इति संज्ञया ज्ञातव्याः] शेषः / तस्मिन् स्यादौ परै युष्मदस्मदोरऽन्तस्य [दस्य] लुक् स्यात् / युष्म Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः भ्यम् / अस्मभ्यम् // त्वद् / मद् / अतित्वद् / अतिमद् / युष्मद् अस्मद् // (पञ्चमीभ्यस्ङसेश्चाद्)॥ युष्माकम् अस्माकम् (आम् आकम्) / शेषे इति किम् ? त्वयि / मयि // 8 // .: अ शेषे लुक्' अस्मिन् सूत्रे युष्मद् अस्मद् इति प्रकृतेर्दकारस्य लुक् क्रियते / न णिजन्तप्रकृतेः / अघटनात् / इत्यनुमीयते / पञ्चमी ङसि / त्वद् / मद् / 'शेषे लुक्' दस्य लुक् / 'त्वमौ प्रत्ययो०' (2 / 1 / 11) त्व म / ‘डसेश्चाद्' / इसि स्थाने अद् इत्यादेशः / अतित्वद् / त्वामतिक्रान्तो यः तस्मात् // युष्मद् / अस्मद् / पञ्चमीभ्यस् // 8 // मोर्वा // 2 // 1 // 9 // युष्मदस्मदोर्मकारान्तयोः स्वसम्बन्धिन्यऽन्यसम्बन्धिनि वा शेषे स्यादौ परे मकारस्य वा लुक् स्यात् / पुगं युष्मान् वा / आवां अस्मान् वाचष्टे णिचि त्र्यन्त्यस्वरादेः अलोपे युष्मयति अस्मयतीति किपि युष्म् भस्म् इति मान्तत्वम् / [चतुर्थीभ्यस् ‘अभ्यं भ्यसः' (2 / 1 / 18)] युष्मभ्यं युषभ्यम् / अस्मभ्यम् असभ्यम् // [पंचमीभ्यस् 'उसेवाद्' (2 / 1 / 19)] युष्मद् / युषद् / अस्मद् / असद् / [आम आकम् (2 / 1 / 20)] युष्माकं युषाकम् / अस्माकम् असाकम् / शेष इत्येव / युषान् / असान् / युषाभिः / असाभिः / युषासु / असासु / एषु पूर्वेण मस्यात्वम् // 9 // .. अ० 'मोर्वा' अस्मिन् सूत्रे उदाहरणेषु युष्म् अस्म् इति प्रकृतिज्ञैया / युवां युष्मान्वाचष्टे इत्येकवचनवाक्यं प्रवाहमात्रम् / वाक्यं तु युवां युष्मान्वा आचक्षाणेभ्यः आचक्षते वा इति कार्यम्, बहुत्वविषयत्वात् / पूर्वेणेति / 'युष्मदस्मदोः' (2 / 1 / 6) इत्यनेन / / 9 / / मन्तंस्य युवावौ द्वयोः // 2 // 1 // 10 // द्वित्वविशिष्टार्थवृत्त्योर्युष्मदस्मदोर्मन्तस्य मकारावसानावयवस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे यथासंख्यं युव आव इत्यादेशौ स्याताम् / [औ] युवाम् / आवाम् / [भ्याम् ] युवाभ्याम् / आवाभ्याम् / [ओस् ] युवयोः / आवयोः / [अन्यसंबंधि उदाहरण] [औ] अतिक्रान्तौ युवां अतियुवाम् / अत्यावाम् / [ऽम्] अतिक्रान्तं युवाम् अतियुवाम् अत्यावाम् पश्य / [शस्] अतियुवान् / अत्यावान् / [टा] अतियुवया / अत्यावया // अतियुवाभिः / अत्यावाभिः // [चतुर्थीभ्यस्] अतियुवभ्यम् / अत्यावभ्यम् [पंचमी डसि / भ्यस्] अतियुवत् / अत्यावत् / [आम् / ] अतियुवाकम् अत्यावाकम् / ['टायोसियः' डि] अतियुवयि / अत्यावयि / [सुप्] अतियुवासु। अत्यावासु / सि जस् ङे ङस् इत्येतेषु परेषु परत्वात् त्वम् अहम् इत्यादयः। मन्तस्येति किम् ? मान्तावधेर्यथा स्यात् न तु सर्वस्य तेन युवकाभ्याम्, आवकाभ्यामऽत्राक्श्रुतिः / द्वयोरिति युष्मदस्मद्विशेषणं किम् ? युष्मानतिक्रान्तौ [औ] अतियुष्माम् / अत्यस्माम् / अतियुष्माभ्याम् / अत्यस्माभ्याम् / अतियुष्मयोः अत्यस्मयोः। अत्र समास एव द्वित्वेऽर्थे न युष्मदस्मदी इति न युवावो / स्यादावित्येव-[युवयोः पुत्रः] युष्मत्पुत्रः / [आवयोः पुत्रः] अस्मत्पुत्रः / युष्मदीयम् / अस्मदीयम् // 10 // . अ० युवामतिक्रान्ता ये ते अतियूयम् / तान् अतियुवान् अत्र शस् / ‘शंसो नः' (2 / 1 / 17) युवामतिक्रान्तो यः / तेन / 'टाङयोसि यः' (2 / 17) / युवामतिक्रान्ता ये तेऽतियूयम् तैः अतियुवाभिः / अत्यावाभिः / 'युष्मदस्मदोः' (2 / 1 / 6) इत्यनेन आकारः / युवामतिक्रान्ता ये तेभ्यः / चतुर्थीभ्यस् 'अभ्यं भ्यसः' (2 / 1 / 18) इति 1. अत्र अतिक्रमणकारिव्यक्तिसम्बन्धि द्वित्वम्, नतु युष्मदस्मदोः सम्बन्धि / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सूत्रेण भ्यस्स्थाने अभ्यम् / युवामतिक्रान्तो यः / तस्मात् / अतियुवत् एकत्वे वाक्यम् / युवामतिक्रान्ता ये तेभ्यः / अतियुवत् बहुत्वे वाक्यमिदम् / पञ्चमी ङसिभ्यस् / ‘डसेश्चाद्' (2 / 1 / 19) / ङसिभ्यस् स्थाने अद् / युवामतिक्रान्ता ये तेषाम् / आम् / 'आम आकम्' (2 / 1 / 20) / युवामतिक्रान्तो यः तस्मिन् / युवामतिक्रान्ता ये तेषु / / युवकाभ्यां आवकाभ्याम्-अत्र युष्मद् अस्मद् / अग्रे भ्याम् / 'युष्मदस्मदोः' (2 / 1 / 6) इत्यात्वं दस्य / 'मन्तस्य युवाव०' (2 / 1 / 10) इति युवाव / 'त्यादिसर्वादेः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक्' (7 / 3 / 29) / आकारात् पूर्वं अक् / / युष्मद् / अस्मद् / युवयोरिदं युष्मदीयम्, आंवयोरिदम् अस्मदीयम् ‘दोरीयः' (6 / 3 / 32) इति ईयप्रत्ययः // 10 // त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् // 2 // 1 // 11 // एकत्वविशिष्टार्थवृत्त्योर्युष्मदस्मदोर्मान्तावयवस्य स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे प्रत्ययोत्तरपदयोश्च परयोर्यथासंख्यं त्व म इत्यादेशौ स्याताम् / त्वाम् / माम् / त्वया / मया // [डसेश्चादू (2 / 1 / 19)] त्वद् मद्॥ त्वयि / मयि / अतिक्रान्तौ त्वाम् [औ] अतित्वाम् अतिमां तिष्ठतः पश्यवा / [शस्] अतित्वान् अतिमान्। [टा] अतित्वया अतिमया। [भ्याम्] अतित्वाभ्याम् अतिमाभ्याम् / [युष्मदस्मदोः (2 / 1 / 6)] अतित्वाभिः अतिमाभिः / [चतुर्थीभ्यस्] अतित्वभ्यम् / अतिमभ्यम् / [पंचमीडसिभ्यस् ] अतित्वद् अतिमद्, 2 / [ओस्] अतित्वयोः अतिमयोः 2 / [आम्] अतित्वाकम् अतिमाकम् / [ङि] अतित्वयि अतिमयि / [सुप्] अतित्वासु अतिमासु / सि जस् ङस्सु पुनः परत्वात् त्वम् अहम् आदयः / प्रत्ययोत्तरपदयोः [उदाहरणानि निर्दिश्यन्ते इत्यर्थः] / तवायं त्वदीयः। ममायं मदीयः [दोरीयः (6 / 3 / 32)] / त्वन्मयम् / मन्मयम् / त्वद्यति मद्यति / त्वद्यते मद्यते / त्वत्कृतम् मत्कृतम् / [उदाहरणानि उत्तरपदे-तव पुत्रः, तव हितम् ] त्वत्पुत्रः मत्पुत्रः / त्वद्धितम् मद्धितम् / प्रत्ययोत्तरपदे चेति किम् ? त्वय्यधि [इदं वाक्यं] / अधियुष्मद् / अध्यस्मद् / मन्तस्येत्येव-त्वकं पितास्य [वाक्यमिदम् ] त्वकपितृकः। अत्राऽका सहितस्य माभूत् // 11 // अ० प्रत्ययश्चोत्तरपदं च प्रत्ययोत्तरपदम् तस्मिन् / त्वाम् माम् / युष्मद् अस्मद् / त्वामाचष्टे मामाचष्टे / 'णिज् बहुलं०' (3 / 4 / 42) इति णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) अद् इति लुप्यते / युष्मयति अस्मयतीति क्विपि 'णेरनिटि' (4 / 3 / 83) णौ लोपे च युष्म् अस्म् इति प्रकृतिर्जाता / द्वितीयाऽम् / 'त्वमौप्रत्यय०' (2 / 1 / 11) इति त्व म आदेशः / 'अमौ मः' (2 / 1 / 16) अम्स्थाने म् / युष्मदस्मदोः' (2 / 1 / 6) इति आकारः / अथवा युष्मद् अस्मद् / द्वितीयाऽम् / 'अमौ मः' इति म् / तदन्तरं 'युष्मदस्मदोः' इत्याकारः / पश्चात् युष्म् अस्म् इति प्रकृतेः 'त्वमौ प्रत्ययः' इति सूत्रेण त्व म आदेशः / एवमपि त्वाम् माम् इति शब्दव्युत्पत्तिर्घटते / / त्वदागतं त्वन्मयम् / मदागतं मन्मयम् / 'नृहेतुभ्यो रूप्यमयटौ वा' (6 / 3 / 156) अनेन मयट् / 'प्रत्यये च' (1 / 3 / 2) इत्यनेन दस्य नकारः // युष्मद् अस्मद् / त्वामिच्छति त्वद्यति मामिच्छति मद्यति / 'अमाव्यय०' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / युष्म अस्म इत्यस्य त्व म आदेशः / त्वद्यते-युष्मद् त्वमिवाचरति / मद्यते-अस्मद् अहमिवाचरति 'क्यङ्' (3 / 4 / 26) इति सूत्रेण क्यङ्प्रत्ययः त्वद्यते मद्यते / यावत्प्रत्यये उदाहरणानि ज्ञातव्यानि / / त्वया कृतं त्वत्कृतम् / अधियुष्मद्-युष्मद् अग्रेऽधिशब्दः, त्वय्यधि अधियुष्मद् / मय्यधि अध्यस्मद् / 'प्रथमोक्तं प्राक्' (3 / 1 / 148) इति सूत्रेण अधिशब्दस्य पूर्वनिपातः / प्रथमासिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति सेर्लुप् // 11 // त्वमहं सिना प्राक्चाकः // 2 // 1 // 12 // Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा सिना सह यथासंख्यं त्वम् अहम् इत्यादेशौ स्याताम् / तौ चाक्प्रत्ययप्रसङ्गेऽकः प्रागेव / त्वम् / अहम् / अतिक्रान्तस्त्वाम् अतित्वम् / [अतिक्रान्तो माम्] अत्यहम् / अतिक्रान्तो युवाम् अतित्वम् / अत्यहम् / अतिक्रान्तो युष्मान् अतित्वम् / अत्यहम् / प्रियस्त्वं प्रियौ युवां प्रिया यूयं वा यस्य स प्रियत्वम् प्रियाऽहम् / एषु परत्वात् त्वमौ युवावौ च बाधित्वा त्वम् अहम् एव भवतः / त्वं पुत्रोऽस्य त्वत्पुत्रः / मत्पुत्रः / अत्र सिलुपि 'लुप्ययवृल्लेनदिति (7 / 4 / 112) निषेधान भवति / एवमुत्तरेप्वपि / प्राक्चाक इति किम् ? त्वकम् / अहकम् / अत्राकः श्रुतिर्यथा स्यात्, अन्यथा पूर्वमकि सति 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इतिन्यायात्साकोरपि [युष्मदस्मदोः अक्सहितयोः] त्वमऽहमादेशः स्यात् // 12 // ___ अ० त्वम् च अहम् च त्वमहं / प्रथमा औ / सूत्रत्वात् औलोपः / त्वम् अहम् आदेशौ पूर्वम्, पश्चात् अक् क्रियते इत्यर्थः / युष्मद् / पुत्र / त्वं पुत्रोऽस्येति वाक्ये समासे 'ऐकार्ये' (3 / 2 / 8) इत्यनेन सेर्लोपः / 'त्वमौ प्रत्यय०' (2 / 1 / 11) इति त्व म आदेशः / / युष्मद् / अस्मद् / सिः / 'त्वमहं सिना०' (2 / 1 / 12) इति त्वम् अहम् / पश्चात् 'युष्मदस्मदोऽसोभादिस्यादेः' (7 / 3 / 30) इत्यनेन त्व् [अह् ] अविचालेऽक् क्रियते / अन्यथा कोऽर्थः ? यदि प्राक् चाक् इति न कुर्यात् इत्यर्थः / / 12 / / .. यूयं वयं जसा // 2 // 1 // 13 // ___ युष्मपदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा जसा सह यूयं वयं इत्यादेशौ [यथासंख्य] स्याताम्, प्राक् चाकः / यूयम् / वयम् / परमयूयम् / परमवयम् / प्रियस्त्वं प्रियौ युवां प्रिया यूयं वा येषां ते प्रिययूयम् प्रियवयम् / अतिक्रान्तास्त्वां युवां युष्मान्वा अतियूयम् अतिवयम् / जसेति किम् ? यूयं पुत्रा अस्य युष्मत्युत्रः / प्राक् चाक इत्येव / यूयकम् / वयकम् // 13 // ___ अ० यूयम् वयम्-अत्र प्रथमा औ / सूत्रत्वाल्लोपः / कुत्सिताद्यर्थे 'युष्मदस्मदोऽसोभादिस्यादेः' (7 / 3 / 30) इति सूत्रेण अक् // 13 // तुभ्यं मह्यं ड्या // 2 // 1 // 14 // - युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसंबंधिना वा उप्रत्ययेन सह [यथासंख्यं] तुभ्यं मह्यं इत्यादेशौ स्याताम्, प्राक्चाकः / तुभ्यम् / मह्यम् / प्रियतुभ्यम् / अतितुभ्यम् / ङ्येति किम् ? तुभ्यं हितं त्वद्धितम् / [मह्यं हित] मद्धितम् / प्राक्चाक इत्येव / तुभ्यकम् / माकम् // 14 // ___अ० प्रियस्त्वं प्रियौ युवां प्रिया यूयं वा यस्य स प्रियत्वम् / तस्मै प्रियतुभ्यम् / प्रियमह्यम् / अतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् वा तस्मै अतितुभ्यम् / / 14 / / तव मम ङसा // 2 // 1 // 15 // युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनान्यसम्बन्धिना वा ङसा सह तव मम आदेशौ यथासंख्यं प्राक्चाकः स्याताम् / तव / मम / प्रियतव / प्रियमम / अतितव / अतिमम / प्राक्चाक इत्येव-तवक / ममक // 15 // ___अ० प्रियस्त्वं यस्य प्रियौ युवां यस्य प्रिया यूयं वा यस्य स प्रियत्वम् / तस्य प्रियतव / एवं प्रियमम / अतिक्रान्तस्त्वाम् अतिक्रान्तो युवाम् अतिक्रान्तो युष्मान्वा तस्य अतितव / एवम् अतिमम / / 15 / / अमौ मः // 2 // 1 // 16 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते युष्मदस्मद्भ्यां परयोस्तत्सम्बन्धिनोरन्यसम्बन्धिनोर्वा अम् औ इत्येतयोर्म इत्यादेशः स्यात् / अकार उच्चारणार्थः / [अम्] त्वाम् / माम् / अतित्वात् / अतित्वाम् / [औ] युवाम् / आवाम् / अतियुवाम् / अत्यावाम् तिष्ठतः पश्य वा // 16 // अ० अमौ इत्यत्र औश्च औश्च आवौ / 'स्यादावसंख्येयः' (3 / 1 / 119) इत्येकशेषः / तदनंतरम् अम् च आवौ च अमौ / तस्य / षष्ठीडस् / सूत्रत्वात् डसो लोपः / अमौ इति निष्पत्तिः // 16 / / शसो नः // 2 // 1 // 17 // युष्मदस्मद्भ्यां परस्य तत्सम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा शसः स्थाने न इत्यादेशः स्यात् / अकार उच्चारणार्थः। युष्मान् / अस्मान् / प्रिययुष्मान् / प्रियास्मान् / प्रियत्वान् / प्रियमान् / प्रिययुवान् / प्रियावान् // 17 // अ० प्रियस्त्वं येषां तान् प्रियत्वान् / प्रियौ युवां येषां तान् प्रिययुवान् / प्रियावावां येषां तान् प्रियावान् // 17 // अभ्यं भ्यसः // 2 // 1 // 18 // युष्मदस्मद्भ्यां परस्य स्वसम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा चतुर्थीभ्यसः स्थानेऽभ्यम् स्यात् युष्मभ्यम् / अस्मभ्यम् / प्रिययुष्मभ्यम् / अतित्वभ्याम् अतिमभ्यम् / अतियुवभ्यम् / अत्यावभ्यम् / अकारादिकरणमात्वबाधनार्थम् // 18 // अ० कार्यिणः प्रथमं निर्देशे प्राप्ते कार्यस्य प्रथममुपादानं प्रत्यासत्तिसूचनार्थम् / सूत्रपाठापेक्षया चतुर्युव प्रत्यासन्ना इति तस्या एवादेशः / यद्वा ‘डसेश्चाद्' (2 / 1 / 19) इत्यत्र चकारो भ्यसोऽनुकर्षणार्थः / स च ङसिसाहचर्यात् पञ्चमीसम्बन्ध्येव भ्यस् गृह्यते इति पारिशेष्यादिह सूत्रे चतुर्थीभ्यसो ग्रहणं ज्ञातव्यम् / त्वामतिक्रान्ता ये तेऽतियूयम् तेभ्योऽतित्वभ्यम् / एवं अतिमभ्यम् / युवामतिक्रान्ता ये तेभ्योऽतियुवभ्यम् / भ्यसः स्थानेऽभ्यम् / अकारपूर्वकआदेशः 'युष्मदस्मदोः' (2 / 1 / 6) इति सूत्रोक्तम् आकारम् बाधते // 18 // . ङसेवाद् // 2 // 1 // 19 // युष्मदस्मद्भ्यां परस्य स्वसंबंधिनोऽन्यसंबंधिनो वा उसेवकारात्तत्सहचरितस्य भ्यसः [पंचमीबहुवचनभ्यसः] स्थाने अद् स्यात् / [ङसि] त्वद् / मद् / अतित्वद् / अतिमद् / अतियुवद् / अत्यावद् / अतियुष्मद् / अत्यस्मद् // भ्यस् / युष्मद् अस्मद् इत्यादि // 19 // अ० त्वामतिक्रान्तो यः सोऽतित्वम् तस्मात् अतित्वत् / युवामतिक्रान्तो यः तस्मात् अतियुवद् / युष्मानतिक्रान्तो यः तस्मात् अतियुष्मद् / भ्यसि सति अतित्वद् अतियुवद् अतियुष्मद् इति प्रयोगा अपि ज्ञातव्याः // 19 // आम आकम् // 2 // 1 // 20 // युष्मदस्मद्भ्यां परस्य तत्सम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा आमः स्थाने आकम् इत्यादेशः स्यात् / युष्माकम्। अस्माकम् / प्रिययुष्माकम् / प्रियास्माकम् / अतित्वाकम् / अतिमाकम् / अतियुवाकम् / अत्यावाकम् / अतियुष्माकम् अत्यस्माकम् / आकमित्याकारो ण्यन्तार्थः। युष्मानाचक्षाणानां णौ किपि युष्माकम्, अस्माकम् // 20 // अ० प्रिया यूयं येषां तेषां प्रिययुष्माकम् / त्वामतिक्रान्ता ये तेषाम् अतित्वाकम् / युवामतिक्रान्ता ये तेषां अतियुवाकम् / युष्मातिक्रान्ता ये तेऽतियूयम् / तेषामतियुष्माकम् / आकम् आदेशे आकारो ण्यन्तार्थः / कोऽर्थः ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः णिचि सति युष्माकमिति सिद्धयति / तथाहि-युष्मद् अस्मद् युष्मानाचक्षते अस्मानाचक्षते ‘णिज्बहुलं०' (3 / 4 / 42) इति णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) क्विपि युष्म् अस्म् षष्ठीआम् / 'आम आकम्' (2 / 1 / 20) इति कृते- युष्माकम् अस्माकमिति सिद्धम् // 20 // पदाधुग्विभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहत्वे // 2 // 1 // 21 // द्वितीया चतुर्थी षष्ठी च युग्विभक्तिः / तया बहुत्वविषयया सह पदात्परयोयुष्मदस्मदोः स्थाने यथासङ्ग्यं वस् नस् इत्यादेशौ वा स्याताम्, एकवाक्ये-तच्चेत्पदं युष्मदस्मदी च एकस्मिन् वाक्ये भवतः ['नित्यमन्वादेशे' (2 / 1 / 31) इति सूत्रेण] अन्वादेशे नित्यं विधास्यमानत्वादिह विकल्पो लभ्यते / एवमुत्तरसूत्रत्रयेऽपि / धर्मो वो रक्षतु धर्मो युष्मान् / धर्मो नः धर्मोऽस्मान् रक्षतु / तपो वो दीयते तपो युष्मभ्यम् / तपो नः तपोऽस्मभ्यं दीयते / शीलं वः स्वम् शीलं युष्माकम् / शीलं नः स्वम् / शीलमस्माकं स्वम् / पदादिति किम् ? युष्मान् धर्मो रक्षतु / युग्विभक्त्येति किम् ? ज्ञाने यूयं तिष्ठथ / शीले वयं स्थास्यामः / एकवाक्य इति किम् ? एकस्मिन् पदे निमित्त [पूर्वपदं] निमित्तिनो [निमित्तिनो युष्मदस्मदी] भावो [वस्नस् ] माभूत् / अतियुष्मान् पश्य / वाक्यान्तरे च माभूत् / ओदनं पचत युष्माकं भविष्यति / बहुत्व इति किम् ? धर्मो युवां [औ] रक्षतु / स्यायधिकारे विभक्तिग्रहणं युक्स्यादिवचननिवृत्यर्थं / तेन ज्ञाने युवां तिष्ठथः / शीले आवां तिष्ठावः / अत्रोत्तरेण वाम्नावादेशो न भवतः // 21 // अ० विभक्त्या सह सामानाधिकरण्यार्थं युनक्तीति युङ् कर्तरि विप् / अथवा योजनं युङ् / समं संख्यास्थानम् / युग्ममिति यत्संख्यायते तेन परिच्छिन्नं वस्त्वपि युगमित्युच्यते / ततः समसंख्या द्वितीया-चतुर्थी-षष्ठीरूपा विभक्तयो युग्शब्देनोच्यन्ते / युग चासौ विभक्तिंश्च युग्विभक्तिः / तया युग्विभक्त्या बहूनां भावो बहुत्वम् / 'भावे त्वतल्' (71 / 55) इति सूत्रेण त्वप्रत्ययः / 'सविशेषणमाख्यातं वाक्यम्' (1 / 1 / 26) इति वाक्यलक्षणम् / यत्र वाक्ये पृथग् पृथग्निमित्तनिमित्तिनौ, तत्र वस्नसादयः / परं एकस्मिन्नेव पदे निमित्तनिमित्तिनौ यदि स्यातां तदा न वस्नसौ / / अतिक्रान्तो युष्मानतियुष्मान् / युग्बहुत्वे इत्यपि उक्ते द्वितीया-चतुर्थी-षष्ठीबहुवचनानि लब्धानि किं विभक्तिग्रहणेन ? विभक्तिग्रहणं तूत्तरार्थं कृतम्, विभक्तिग्रहणं विना युग् इत्युक्ते स्यादिवचनानि युग्रूपेण औ भ्याम् ओस् इति मुग्धाः प्रतिपद्येरन् इति क्लिष्टतापरिहारार्थं च इह सूत्रे कृतम् इति भावः / युवां आवामित्यत्र प्रथमाद्विवचनम् औ ज्ञातव्यम् / तिष्ठावः / अत्र ‘मव्यस्याः ' (4 / 2 / 113) इति सूत्रेण दीर्घः / / 21 / / द्वित्वे वाम् नौ // 2 // 1 // 22 // पदात्परयोर्युष्मदस्मदोर्द्वित्वविषयया युग्विभक्त्या सह यथासङ्ग्यं वाम् नौ इति वा स्याताम्, तच्चेत्पदं युष्मदस्मदी चैकवाक्ये भवतः / धर्मो वां पातु धर्मो युवाम् / धर्मो नो पातु धर्म आवाम् / शीलं वां दीयते शीलं युवाभ्याम् / शीलं नौ शीलमावाभ्याम् / ज्ञानं वां स्वम् / ज्ञानं युवयोः स्वम् / ज्ञानं नौ स्वम् / ज्ञानमावयोः स्वम् // 22 // डेङसा ते मे // 2 // // 23 // पदात्परयोर्युष्मदस्मदोङस्भ्यां सह यथासङ्ग्यं ते मे इत्यादेशौ वा स्याताम्, एकवाक्ये / डेङसेत्येकवचनं स्थानिभ्यामादेशाभ्यां च यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् / धर्मस्ते दीयते धर्मस्तुभ्यम् / धर्मो मे दीयते / धर्मो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते मह्यम् / धर्मस्ते स्वम् / धर्मस्तव स्वम् / धर्मो मे स्वम् / धर्मो मम स्वम् // 23 // अ० डेडसा ते मे इति सूत्रे / कथं 'न मे श्रुता नापि च दृष्टपूर्वा' (पूर्वं दृष्टः 'नाम नाम्नै०' (3 / 1 / 18) इति समासः, स्त्री चेत्) इति केनापि कविना प्रयुक्तम् / न मे कोऽर्थः ? न मया इति विवक्षितम् / तृतीयया सह मे इति आदेशः कथं इति पृच्छा / अत्राचार्यः प्राह / असाधुरेवायं प्रयोगः / स्यादिप्रतिरूपकमव्ययं वा मे इति पदं इति समर्थना ज्ञातव्या / ते मे इति लुप्तद्विवचनान्तं पदम् / डेडसेत्येकवचनमित्यादि अक्षराणां अयं परमार्थः / युष्मदः स्थाने ते इत्यादेशः / अस्मदः स्थाने मे इत्यादेशः / इति यथासङ्ख्यं कर्त्तव्यं ज्ञातव्यम्, परं चतुर्थ्येकवचनडे इति सह युष्मदस्ते, षष्ठयेकवचनडस् इति सह अस्मदो मे इत्यादेश इति नैव यथासङ्ख्यम् / / 23 / / अमा त्वामा // 2 // 1 // 24 // पदात्परयोर्युष्मदस्मदोरमा सह यथासङ्ख्यं त्वा मा इत्येतौ वा स्याताम्, एकवाक्ये / धर्मस्त्वा पातु / धर्मस्त्वां पातु / धर्मो मा पातु / धर्मो मां पातु / एकवाक्य इति किम् ? अतित्वां पश्यतु / अतिमां पश्यतु // 24 // अ० त्वा मा इति लुप्तद्विवचनान्तं पदम् / त्वामतिक्रान्तो यः सोऽतित्वम् / तं अतित्वाम् // 24 // असदिवामन्त्र्यं पूर्वम् // 2 // 1 // 25 // आमन्त्र्यते यत्तदामन्त्र्यम् / तद्वाचिपदं युष्मदस्मभ्यां पूर्वमसदिवाविद्यमानमिव स्यात् [आमन्त्र्यपदमसदिव भवतीति सम्बन्धः] / तस्मिन् [असति] यत्कार्यं [वस्नसादिः] तन्न भवति / श्रमणा [ह श्रमणा ऋषयः] युष्मान् रक्षतु धर्मः / [हे] श्रमणा अस्मान् रक्षतु धर्मः / श्रमणा युष्माकं शीलमित्यादि / एष्वामन्त्र्यस्यासत्त्वाद् वस्नसादयो न स्युः / इवकरणं किम् ? श्रवणं यथा स्यात् / आमन्त्र्यमिति किम् ? धर्मो वो रक्षतु / पूर्वमिति किम् ? मयैतत्सर्वमाख्यातं युष्माकं / [] मुनिपुङ्गवाः // 25 / / अ० असद् / 'असिक् भुवि' अस् / अस्तीति सत् / ‘शत्रानश०' (5 / 2 / 20) इति शतृ / 'अप्रयोगीत' (1 / 1 / 37) अत् / 'नास्त्योर्मुक्' (4 / 2 / 90) इत्यस्तेरकारस्य लोपः / सत् / सिः / 'अनतो लुप्' / (1 / 4 / 59) 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति नोऽन्तः / नपुंसके सेरघुट्त्वात् / न सत् असत् / 'मन्त्रिण गुप्तभाषणे' / मन्त्र / 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) आङ्पूर्वम् / आमन्त्र्यते यत्तत् आमन्त्र्यम् / ‘य एच्चातः' / (5 / 1 / 28) यप्रत्ययः / ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) / इवकरणं विनाऽसत् इत्युक्ते श्रमणशब्दस्य ‘ते लुग्वा' (3 / 2 / 108) इत्यनेन लोपः स्यात् / इवशब्दे सति च श्रमणा इति शब्दश्रुतिर्भवति प्रयोगे // 25 // जस्विशेष्यं वामन्त्र्ये // 2 // 1 // 26 // तदतद्विषयं विशेष्यम् / तस्य व्यवच्छेदकं विशेषणम् / युष्मदस्मद्भ्यां पूर्वं जसन्तमामन्त्र्यं पदं विशेष्यम्, आमन्त्र्ये पदे सामर्थ्यात्तद्विशेषणभूते परे सति असदिव वा स्यात् / पूर्वेण ['असदिवामन्त्र्येति'] नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पः / [ह] जिनाः [ह] शरण्या युष्मान् शरणं प्रपद्ये / [ह] जिनाः ]हे] शरण्या वः शरणं प्रपद्ये। हि] जिनाः [हे] शरण्या अस्मान् यूयं रक्षत / [हे] जिनाः हि] शरण्या नो रक्षत / जसिति किम् ?- हि] साधो सुविहित वोऽथो शरणं प्रपद्य / साधो सुविहित नोऽथो रक्ष / विशेष्यमिति किम् ? शरण्याः साधवो युष्मान् शरणं [अहं] प्रपद्ये / सामर्थ्यात्तद्विशेषणभूत इति किम् ? आचार्या उपाध्याया युष्मान् शरणं प्रपद्ये // 26 // अ० जसा उपलक्षितं विशेष्यं जस्विशेष्यम् / जिना इति पूर्वं पदं जसंतं विशेष्यम् / शरण्या इति परं पदं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः विशेषणं ज्ञेयम् / तथा शरणमिति सामान्यकर्म, युष्मानिति विशेषकर्म ज्ञेयम् / यूयं नोऽस्मान् रक्षत इति सम्बन्धः / साधो सुविहितेत्यादि / अत्र द्वयोरपि पदयोः 'असदिवामन्त्र्यं पूर्वम् (2 / 1 / 25) इत्यनेनाऽसत्त्वे प्राप्ते 'नान्यत्' (2 / 1 / 25) इति सूत्रेण साधो इत्यस्य असत्त्वप्रतिषेधः / ततो 'नित्यमन्वादेशे' (2 / 1 / 31) इति सूत्रेण अत्र वस्नसौ भवत इत्यर्थः / शरण्याः साधवो इत्यत्र द्वयोरपि पदयोः 'असदिवामन्त्र्यं पूर्वम्' इत्यनेन असद्भावः / आचार्या उपाध्याया इत्यत्र भिन्नाधिकरणयोः पदयोः पूर्वं पदं न विशेष्यम् / न परं विशेषणमिति सामर्थ्यात्तद्विशेषणभूत इति भणनाद्वस् आदेशो न भवति // 26 // नाऽन्यत् // 2 // 1 // 27 // - युष्मदस्मद्भ्यां पूर्व जसन्तादन्यदामन्त्र्यं पदं [एकवचनान्तं द्विवचनान्तं वा] विशेष्यमामन्त्र्यपदे तद्विशेषणभूते परेऽसदिव न स्यात् / साधो सुविहित त्वा शरणं प्रपद्ये / साधू सुविहितौ वां शरणं प्रपद्ये / साधो सुविहित मा रक्ष / साधू सुविहितौ नौ रक्षतम् इत्यादि / विशेष्यमित्येव-सुविहित साधो तव शीलम् // 27 // ___ अ० 'रक्ष पालने' / पञ्चमीमध्यमद्विपुरुषवचनं तम् / ‘कर्त्तर्यनद्भयः शव्' (3 / 4 / 71) / विशेषणं पूर्वम्, विशेषमयं चाग्रे // 27 // . पादाद्योः // 2 // 1 // 28 // [पादस्यादी पादादी तयोः] नियतपरिमाणमात्राऽक्षरपिण्डः पाद उच्यते / पदात्परयोः पादस्यादिभूतयोर्युष्मदस्मदोर्वस्नसादिर्न स्यात् / वीरो विश्वेश्वरो देवो युष्माकं कुलदेवता / स एव नाथो भगवानस्माकं पापनाशनः // 1 // पादाद्योरिति किम् ? पान्तु वो देशना काले जैनेन्द्रा दशनांशवः [दन्तकिरणाः] / भवकूपतज्जन्तुजातोद्धरणरज्जवः // 2 // 28 // - अ० मात्राश्चतुर्मात्रो गणविशेष आर्यादिच्छन्दउपयोगिनः / अक्षराणि वर्णाः श्लोकादिसमकाव्येऽक्षरसंख्याप्रमाणाः। मात्राश्चाक्षराणि मात्राक्षराणि / नियत परिमाणानि च तानि मात्राक्षराणि च / तेषां पिण्डः / अथवा मात्राक्षराणां पिण्डः / नियतपरिमाणश्वासौं मात्राक्षरपिण्डश्च / / पापं नाशयतीति पापनाशनः / ‘रम्यादिभ्यः कर्त्तरि' (5 / 3 / 126) इत्यऽनट्प्रत्ययः / देशनं देशस्तं करोति ‘णिज् बहुलं०' (3 / 4 / 42) इति णिच् / दिश्यते इति देशना / ‘णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः' (5 / 3 / 111) इति सूत्रेण अनप्रत्ययः / जिनेन्द्राणामिमे जैनेन्द्राः / 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति सूत्रेण अण्प्रत्ययः / / 28 / / / चाहहवैवयोगे // 2 // 1 // 29 // च / अह / ह / वा / एव / एभिर्योगे पदात्परयोर्युष्मदस्मदोर्वस्नसादिर्न स्यात् / ज्ञानं युष्मांश्च रक्षतु अस्मांश्च रक्षतु इत्यादि / एवं ज्ञानं तव च स्वम् ज्ञानं मम च स्वम् / योगग्रहणं किम् ? ज्ञानं च शीलं च वो रक्षतु / ज्ञानं च शीलं च नो रक्षतु / ज्ञानं च शीलं च ते स्वम्, में स्वम् / एतेषु चशब्देन न युष्मदस्मदोर्योगोऽपि तु ज्ञानशीलयोर्योगः // 29 // _. अ० अह शब्दोऽथार्थे / हशब्दो वाक्यालङ्कारे, स्पष्टार्थे, हे इत्यर्थे वा ज्ञातव्यः / योगे इति कोऽर्थः ? चादिद्योत्यस्य समुच्चयाद्यर्थस्य साक्षात् युष्मदस्मदर्थसंबन्धे सति / / 29 / / दृश्यर्थै श्चिन्तायाम् // 2 // 1 // 30 // दृशिना [सह] समानार्था दृश्याः , तैर्धातुभिश्चिन्तायां वर्तमानर्योगे सति युष्मदस्मदोर्वस्नसादिर्न स्यात् / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते / जनो युष्मान् संदृश्यागतः / जनोऽस्मान् संदृश्यागतः / जनो युवां समीक्ष्यागतः / एवं जनस्त्वामपेक्षते / जनो मामपेक्षते / जनो युष्माकं चित्तमुपलक्षयति / जनोऽस्माकं चित्तमुपलक्षयति / गुरुस्तव कार्यमालोचयति। गुरुर्मम कार्यमालोचयति / सर्वत्र मनसा चिन्तनं दृश्यर्थानामर्थः / दृश्यर्थैरिति किम् ? जनो वो मन्यते / जनो नो मन्यते / चिन्तायामिति किम् ? जनो वः पश्यति / जनो नः पश्यति / जनस्त्वालोकयति / जनो मालोकयति / सर्वत्र चक्षुषा पश्यतीत्यर्थः // 30 // अ० दृश्यर्थैरित्यादि-'दृशं प्रेक्षणे' दृश् / ‘इकिश्तिव्स्वरूपार्थे' (5 / 3 / 138) इति सूत्रेण किप्रत्ययः स्वरूपे / अथवार्थेऽभिधेये इकिश्तिवो भवन्ति / तत्र यदि अत्र दृशेः परतः स्वरूपे भवति तदा दृशेरर्थो दर्शनमालोचनं येषां धातूनां ते दृश्यर्था इत्यर्थः / यदि च अर्थेऽभिधेये दृशेः प्रत्ययः तदा दृशिरर्थो येषां ते दृश्यर्थाः / दृश् / समीक्ष् / अपेक्ष् / उत्पश्य् / निरूप् / निध्याय् / उपलक्ष् / संपश्य् / आलोच / एते धातवो दृश्यर्था उच्यन्ते / / आगम इति 'अमद्रमहम्ममीमृगम्ळं गतौ' गम् / आङ्पूर्वम् / आगच्छति स्म आगतः / 'गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1 / 11) इति सूत्रेण क्तप्रत्ययः / 'यमिरमिनमिगमिहनिमनिवनतितनादे(टि क्ङिति' (4 / 2 / 55) इति सूत्रेण अन्त्यस्य लुक् / / 30 / / नित्यमन्वादेशे // 2 // 1 // 31 // कथितानुकथनमन्वादेशः। कस्यचिद्वस्तुनः किञ्चिक्रियादिकं विधातुं कथितस्य तेनान्येयन वा शब्देन पुनरन्यद्विधातुं कथनमित्यर्थः। तस्मिन्विषये पदात्परयोर्युष्मदस्मदोर्यदुक्तं वस्नसादिः, तन्नित्यं स्यात् / यूयं विनीताः स्तद्वो गुरवो मानयन्ति / वयं विनीतास्तन्नो गुरवो मानयन्ति / धनवांस्त्वमथो त्वा लोको मानयति // 31 // * अ० ननु अस्मिन्निषेधाधिकारे कथमिदं 'नित्यमन्वादेशे' इति विधिसूत्रमभूत् / सत्यम् / नित्यनिषेधाधिकारे यन्नित्यग्रहणं कृतं तदेवं बोधयति विधानसूत्रमिदम् / न चेदं वाच्यम् अत्र ‘नित्यमन्वादेशे' इति सूत्रे नित्यग्रहणाभावे ‘पदाधुग्विभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे' (2 / 1 / 21) इति सूत्रे कथं विकल्पः स्यादिति / तदा हि ‘पदाधुग्विभक्त्यैकवाक्ये०' सूत्रे नवा इति कुर्यादिति भावः / / अनु पश्चात् आदेशः कथनं अन्वादेशः, तस्मिन् / कस्यचिद् द्रव्यस्य कांचित् क्रियां जातिं गुणं द्रव्यं वा वक्तुं कथितस्य तेन शब्देन तदितरेण वा पौनरुक्त्यं मा भूदिति विशेषान्तरं वक्तुं पुनः कथनमन्वादेश उच्यते / तेनान्येन वेत्यादि-युष्मदस्मद्शब्दाभ्यां विनीतत्वादिकं विधाय पुनर्युष्मदस्मद्शब्दाभ्यामेव गुरुमाननादिकं विधीयते / अतोऽत्र सूत्रे तेनैव शब्देन कथनमस्ति / अन्येन तु शब्देन कथनमुत्तरसूत्रे एव ज्ञातव्यमित्यर्थः / पुनरन्येत्यादि-पुनःशब्दोपादानात्तस्यैव कथनं यदि स्यात्तदैवान्वादेशः, नह्यन्यस्य कथने पुनःशब्दार्थो घटते, तेन यत्रान्यस्य कथनं तत्र नान्वादेशः / ततश्च जिनदत्तमध्यापय एतं च गुरुदत्तमित्यत्र तस्यैव जिनदत्तस्य पुनः कथनाभावादन्वादेशाभावे सति 'त्यदामेनदेतदो द्वितीया०' (2 / 1 / 33) इत्यादि सूत्रेण एनद् आदेशो नाभूत् / अन्वादेशदर्शनार्थं यूयं विनीता इति वाक्यान्तरमिदमुपदर्शितम् नतूत्तरपदसंबद्धं बोद्धव्यम्; तेन तद् इत्यस्य पदस्य सपूर्वत्वाभावादुत्तरेण विकल्पः / तदित्यव्ययं शब्दस्तस्मादित्यर्थे / विनीततामात्रमेवात्र अनूद्यते नापूर्वं किञ्चित्क्रियते / यूयं विनीता इति प्रथमादेश उत्तरस्य वाक्यस्याऽन्वादेशख्यापनार्थम् / विनीता इति-विनीतत्वे वक्तुं यूयमित्युक्तम् / तद्वो गुरवो मानयन्तीत्ययमन्वादेशः / यूयमिति यत्प्रथममुक्तम्, तस्यैव गुरवो मॉनयन्तीति वक्तुं द्वितीयं कथनं कृतम् तत्र द्वितीयकथने वस् आदेशः / यूयं विनीतास्तद्वो गुरवो मानयन्तीत्यस्यावचूरिरियम् / एवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् / / 31 / / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः सपूर्वात्प्रथमान्तद्वा // 2 // 1 // 32 // ता/ विद्यमानāवपदात् प्रथमान्तात् पदात्परयोर्युष्मदस्मदोरन्वादेशे वस्नसादयो वा स्युः। यूयं विनीतास्तद्गुरवो वो मानयन्ति तद्गुरवो युष्मान् मानयन्ति / धनवांस्त्वं तल्लोकस्त्वा पूजयति तल्लोकस्त्वां पूजयति / धनवानहं तल्लोको मा पूजयति तल्लोको मां पूजयति / धनवानसि अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम् अथो ग्रामे कम्बलस्तव स्वम् / सपूर्वादिति किम् ? पटो युष्माकं स्वम् अथो वः कम्बलं स्वम् / प्रथमान्तादिति किम् ? पटो नगरे युष्माकं स्वम् / पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् // 32 // ___ अ० सहशब्दो विद्यमानवचनः / पूर्वशब्दो व्यवस्थार्थः / सह कोऽर्थः ? विद्यमानं पूर्वपदं यस्मात्प्रथमान्तपदात् / स / तस्मात् / धनवानसीत्यत्रान्यशब्देनं कथमन्वादेशः, तथाहि-धनवानसीत्यस्मिन् अन्वादेशदर्शके वाक्यान्तरे प्रथम असि इत्युक्तम्, अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वमित्यत्र तु ते इत्युक्तम् / / 32 / / त्यदामेनदेतदो द्वितीयाटौस्यवृत्त्यन्ते // 2 // 1 // 33 // त्यदादिसम्बन्धिन एतदित्यस्य द्वितीयायां टायामोसि च परेऽन्वादेशे एनदित्यादेशः स्यात्, अवृत्त्यन्ते। न चेदयमेतच्छब्दो वृत्तेरन्तो भवति [समासस्य न स्यात् / / [अम्] उद्दिष्टमेतदध्ययनमथो एनदनुजानीत / एतकं साधुमावश्यकमध्यापय अथो एनमेव सूत्राणि / अत्र साकोप्यादेशः [एतकस्थाने एन अक्प्रत्ययेन सह] // [औ] सुशीलावेतौ तदेनौ गुरवो मानयन्ति / [शस्] सुस्थिता एते तदेनान् देवा अपि नमस्यन्ति / [टा] एतेन रात्रिरऽधीता अथो एनेनाहरप्यधीतम् / [ओस् ] एतयोः शोभनं शीलम् अथो एनयोर्महती कीर्तिः / त्यदामिति किम् ? एतदं (कस्यचिन्नाम) सङ्ग्रहाण अथो एतदमध्यापय / सञ्ज्ञायामसर्वादित्वादत्यदादिः / अवृत्त्यन्त इति किम् ? अथो परमैतं पश्य / द्वितीयाटौसीति किम् ? एतस्मै सूत्रं देहि अथो एतस्मै अनुयोगमपि देहि। अभ्युदयनिःश्रेयसप्रदमेतच्छासनमथो एतस्मै नमो भगवते [अर्हते) / अन्वादेश इत्येव-जिनदत्तमध्यापय एतं च गुरुदत्तम् / पश्चात्कथनमात्रं नान्वादेशः // 33 // ... अ. 'ज्ञांश् अवबोधने' ज्ञा / अनुपूर्वम् / पञ्चमीमध्यमबहुवचनम् / 'क्रयादेः' (3 / 4 / 79) इति सूत्रेण ना / 'जा ज्ञाजनोऽत्यादौ' (4 / 2 / 104) इत्यनेन ज्ञा इत्यस्य जा आदेशः / 'एषामीळञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) इति सूत्रेण ना इत्यस्य ईकारः / अनुजानीत इति सिद्धम् / / उद्दिष्टमेतदध्ययनं अथो एतदनुजानीत-अत्रोदाहरणे एनद् आदेशात्पूर्वं ‘अनतो लुप्' (1 / 4/59) इति सूत्रेण अम्लोपः / अम्लोपे सति एनद् आदेशो 'लुप्यय्वृल्लेनद्' (7 / 4 / 112) इति वचनात्स्यात् / लुपि सत्यां अन्यकार्यनिषेधात् य्वृत्विधौ लुब्विधौ एनद्विधौ सति लुपा प्रतिषेधो न प्रवर्त्तते इत्यर्थः / अध्यापयेति- 'इङ् अध्ययने' इ / अधिपूर्वम् / अधीते कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते / ‘प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इ। ‘णौ क्रीजीङः' (4 / 2 / 10) इति सूत्रेण इङ आकारः / 'अर्तिरीब्लीह्रीक्नूयिक्ष्माय्यातां पुः' (4 / 2 / 21) अनेन सूत्रेण वा / णिग्विचाले पोऽन्तः / पंचमीहि / शव् / गुणः / 'अतः प्रत्ययाल्लुक्' (4 / 2 / 85) इति हेर्लोपः / / नमस्यन्ति / नमस् / नमः कुर्वन्तीति नमस्यन्ति / 'नमोवरिवश्चित्रकोऽर्चासेवाश्चर्ये (3 / 4 / 37) इति क्यन् / अधीयते स्म अधीतं 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) क्तः / अहन् / प्रथमासिः / अनतो लुप्' 'अह्नः' इत्यनेन नकारस्य रकारः / / 'संगृहाण' ग्रहीश् उपादाने पंचमीहि / 'क्रयादेः' श्रा / 'व्यञ्जनाच्छनाहेरानः' (3 / 4 / 80) अनेन नाहिस्थाने आन आदेशः / ‘ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते . इति वृत् / ऋकारः / / परमश्चासौ एषश्च परमेषः / तं परमैतम् / देहीति दाधातुः / पंचमीहि / 'हौ दः' (4 / 1 / 31) अनेन दा आकारस्य एकारः / द्विर्वचनाभावश्च / सूत्रस्यार्थ अनुयोग इत्युच्यते / प्रपूर्वो दाधातुः / प्रददातीति प्रदः / 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' (5 / 1156) इत्यनेन डप्रत्ययः / अभ्युदयश्च निःश्रेयसं च अभ्युदयनिःश्रेयसं तस्य प्रदम् / एतस्य भगवतः शासनमेतच्छासनम् / जिनदत्तेति वाक्ये समुच्चयो द्योत्ये नान्वादेशः // 33 // इदमः // 2 // 1 // 34 // त्यदादिसम्बन्धिन इदमित्यस्य द्वितीयाटीसि परेऽन्वादेशे एनद् इत्यादेशः स्यात् / अवृत्त्यन्ते [असमासान्ते] / उद्दिष्टमिदमध्ययनं अथो एनदनुजानीत / इमकं साधुमावश्यकमध्यापय अथो एनमेव सूत्राणि [अध्यापय] / सुशीलाविमौ तदेनी गुरवो मानयन्ति / सुस्थिता इमे तदेनान् देवा अपि नमस्यन्ति / अनेन रात्रिरधीता अथो एनेन अहरप्यधीतम् / [टौस्यनः] अनयोः शोभनं शीलम् अथो एनयोर्महती कीर्तिः। वृत्त्यादौ [समासस्यादौ] भवत्येव / एनं एनां वाश्रित एनच्छितकः / योगविभाग उत्तरार्थः // 34 // अ० 'दिशीत् अतिसर्जने' दिश् / उत्पूर्वम् / उद्दिश्यत इति उद्दिष्टम् / 'क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) इति क्त: 'यजसृज०' (211 / 87) इति शस्य षः 'तवर्गश्चवर्ग' (1 / 3 / 60) इति तस्य टः / उद्दिष्टमिदमध्ययनम् अथो एनदनुजानीत / अत्रापि 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति अम्लुपि 'लुप्ययवृल्लेनत्' (7 / 4 / 112) इति वचनात् एनद् आदेशो भवति / लुपि सति अन्यकार्यप्रतिषेधात् / / इदम् / टा / ‘टौस्यनः' (2 / 1 / 37) अनेन अन आदेशः 'टाङसोरिनस्यौ' (1 / 4 / 5) / अहन् / सिः / 'अनतो लुप्' इति सेर्लुप् / 'रोलुप्यरि' (2 / 1 / 75) इति नकारस्य रकारः / अधीयतेस्माऽधीतम् / 'तक्तवतू' (5 / 1 / 174) इति क्तः // 34 // अव्यञ्जने // 2 // 1 // 35 // , इदम इति षष्ठ्यन्तमपि सर्वादेशार्थं प्रथमान्ततयेह [सूत्रे] विपरिणम्यते / इदम्शब्दो व्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽन्वादेशे अत् स्यात् / अवृत्त्यन्ते [असमासान्त] / तकार उच्चारणार्थः / इमकाभ्यां शैक्षकाभ्यां रात्रीरधीता अथो आभ्याम् अहरप्यधीतम् / एवम् इमकैः अथो एभिः / इमकस्मै अथो अस्मै / इमकस्यै अथो अस्यै। इमकस्मात् अथो अस्मात् / इमकस्य अथो अस्य / इमकेषाम् एपाम् / इमकस्मिन् अस्मिन् / इमिकस्याम् अथो अस्याम् / इमकेषु एषु / इमिकासु अथो आसु / उत्तरत्रानगिति वचनादिह [सूत्रे] साक एव विधिः // 35 // अ० शैक्षकाभ्यामिति- 'शिक्षि विद्योपादाने' शिश् / शिक्षेते इति शिक्षकौ / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) इति णकः / णकारो वृद्धयर्थः / अक / शिक्षक एव शैक्षकः ‘प्रज्ञादिभ्योऽण्' (7 / 2 / 165) इति सूत्रेण स्वार्थेऽण् / वृद्धिः / शैक्षकः / 1 / अथवा शिक्ष्यतेऽभ्यस्यते इति शिक्षा ‘क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात्' (5 / 3 / 106) इत्यनेन अप्रत्ययः / 'आत्' (2 / 4 / 18) आप् / शिक्षा वित्तोऽधीयाते वा शिक्षकः ‘पदक्रमशिक्षामीमांसासाम्नोऽकः' (6 / 2 / 126) इति अकप्रत्ययः शिक्षकः / 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' शैक्षक इति / 2 / अथवा शिक्ष्यतेऽभ्यस्यते इति शिक्षा ‘क्तेटो.' (5 / 3 / 106) अप्रत्ययः / आप् / शिक्षाया व्याख्यानस्तत्र भवो वा शैक्षः / 'शिक्षादेश्वाण' (6 / 3 / 148) इति अण् / वृद्धिः / शैक्षः / शैक्ष एव शैक्षकः ‘यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) इति स्वार्थे कः / ताभ्यां शैक्षकाभ्याम् / अकि कृते आप्कृते च 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्' (2 / 4 / 111) इति सूत्रेण अकारस्य इंकारः सर्वत्र // 35 // अनक // 2 // 1136 // Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ___ अन्वादेश इति निवृत्तम् / पृथग्योगात् [पृथक्सूत्रकरणात्] / त्यदादिसम्बन्धिनि व्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽग्वर्जित इदम् अत् स्यात् / आभ्याम् / एभिः आभिः / अस्मै अस्यै / अस्मात् अस्याः अस्य अस्याः / अस्मिन् भस्याम् / एषाम् आसाम् / एषु आसु / अनगिति किम् ? इमकाभ्याम् / इमकस्मै इमकस्यै / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न स्यात् / प्रियेदंसु / इह तु स्यात्-परमाभ्याम् / परमैभिः / परमास्मै परमास्यै / परमास्मात् परमास्याः / अत्र पूर्वोत्तरयोः पदयोः पूर्वमत्कार्ये कृते पश्चात्सन्धिकार्य कार्यम् // 36 // अ० प्रियोऽयं येषां ते प्रियेदमः / तेषु प्रियेदंसु / परमौ च तौ इमौ च ताभ्याम् परमाश्च ते इमे च तैः परमैभिः / / 36 / / टौस्यनः // 2 // 1 // 37 // त्यदादिसम्बन्धिनि टा ओसि च परेऽग्वर्ज इदमः स्थाने अन इत्यादेशः स्यात् / [पुंल्लिङ्गे] अनेन / [स्त्रीलिङ्गे] अनया / [पुंल्लिङ्गे स्त्रियां च षष्ठी सप्तमी ओस् ] अनयोः स्वम् / अनयोर्निधेहि / [परमश्चासौ अयं च / तेन तयोः] परमानेन / परमानयोः // 37 // अ० निधेहीति / धाधास्तु / हि / 'हौ दः' (4 / 1 / 31) इत्यनेन एकारः / निधेहि-निक्षिप // 37 // - अयमियम् पुंस्त्रियोः सौ // 2 // 1 // 38 // त्यदां सम्बन्धिनि सौ परे पुंल्लिङ्गे स्त्रीलिङ्गे इदमो [इदमः स्थाने] यथासङ्ग्यं अयम् इयम् भवतः / अयं पुमान् / इयं स्त्री / परमायम् अनयम् / परमेयम् / अनियम् // 38 // .अ० परमाश्चासौ अयं च / न अयं अनयम् / परमा चासावियं च / न इयं अनियम् // 38|| : दो मः स्यादौ // 2 // 1 // 39 // त्यदां सम्बन्धिनि स्यादौ परत इदमो दकारस्य म आदेशः स्यात् / [औ] इमो परमेमौ / [जस्] इमे। [अम्] इमम् / इमौ / इमान् / इमको इमके / इमकेन // 39 // किमः कस्तसादौ च // 2 // 1 // 40 // . त्यदादिसम्बन्धिनि स्यादौ तसादौ च प्रत्यये परे किम्स्थाने क इत्यादेशः स्यात् // पुंल्लिङ्गे कः को के। कम् को कान् / केन काभ्याम् कैः / कस्मै / स्त्रियाम्-का के काः / काम् के काः / कया। कस्यै / क्लीबे / कम् के कानि। [परमश्चासौ कश्च] परमकः [न कः] अकः / अकौ / तसादौ-कदा। कर्हि / तसादाविति किम् ? किंतराम् पचतीत्यादि / आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात्तसादयस्थमवसाना ग्राह्याः // 40 // ___अ० कस्मिन् काले कदा / ‘किंयत्तत्सर्वैकान्यात्काले दा' (7 / 2 / 95) इति दाप्रत्ययः / कस्मिन्ननद्यतने काले तर्हि ‘अनद्यतने र्हिः' (7 / 2 / 101) इति हिप्रत्ययः / किम् / कोऽनयोः प्रकृष्टः किंतरः / 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' (7 / 3 / 6) इत्यनेन तरप्प्रत्ययः / इदमनयोरतिशयेन किम् पचति, किंतराम् / 'किंत्याद्येऽव्ययादसत्त्वे तयोरन्तस्याम् (7 / 3 / 8) इत्यनेन किंतर अग्रेऽम् क्रियते / ततः सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुप् / तेन किंतरामित्यादौ तदुत्तरेषु प्रत्ययेषु परेषु न भवति // 40 / / आद्वेरः // 2 // 14 // द्विशब्दमभिव्याप्य [द्विशब्दं यावत् ] त्यदादीनामन्तस्य तत्सम्बन्धिनि स्यादौ तसादौ च परे अकार आदेशः स्यात् / त्यद् / स्यः त्यो त्ये / अदस्-अमू / अमी / इदम् / इमौ इमे / एतत् एषः / द्वौ / त्यको / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते परमत्यौ / स्त्रियाम्-स्या / त्ये / सा / ते / ताः / द्वे / क्लीबे / त्ये / त्यानि / तसादौ-ततः तत्र तदा तर्हि तथा / आद्वेरिति किम् ? भवान् // 41 // अ० तद् / तस्मात्ततः / 'किमद्वयादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः पित्तस्' (7 / 2 / 89) इत्यनेन तस् / तस्मिन् / तत्र / 'सप्तम्याः' (7 / 2 / 94) इति सूत्रेण त्रप् / तस्मिन् काले तदा / 'किंयत्तत्सर्वैकान्यात्काले दा' (7/2 / 95) तस्मिन्नद्यतनकाले तर्हि / 'अनद्यतने र्हिः' (7 / 2 / 101) / तेन प्रकारेण तथा 'प्रकारे था' (7 / 2 / 102) / एवं यतः यत्र यदा यथा // 41 // .तः सौ सः // 2 // 1 // 42 // आद्वेस्त्यदादिसम्बन्धिनि सौ परे तकारस्य स इत्यादेशः / त्यद्-स्यः / स्या। स्यकः / परमस्यः // तद्-सः / ती / ते / सा / सका। परमसः / एतद्-एषः / एषा / एषकः / परमैषः / हे स / हे परमेष। त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियैतत्पुमान् / आद्वेरित्येव-भवति // 42 // . . . अ० परमश्चासौ स्यश्च / परमश्वासौ सश्च / प्रिय एष यस्य // 42 // - अदसो दः सेस्तु डौ // 2 // 1 // 43 // त्यदादिसम्बन्धिनि सौ परेऽदसो दकारस्य सकारः स्यात् सेस्तु डी इत्यादेशः / असो, असकौ / हे असौ हे असको / विद्वन् / स्त्रियाम्-असौ / असको / हे असौ / डिस्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् / तेन 'औता' (1 / 4 / 20) 'एदापः' (1 / 4 / 42) 'दीर्घङ्याब् ब्यञ्जनात्सेः' (1 / 4 / 45) 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम् (2 / 4 / 111) इति कार्याणि न भवन्ति / अन्यथा सेस्त्वीरित्येव क्रियेत // 43 // ___ अ० असाविति-अदस् / प्रधमासिः। ‘अदसो दः०' इति सूत्रेण सेः स्थाने डौ / दस्य सकारः / ‘डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) इत्येव कार्यं न तु 'आद्वेरः' (2 / 1141) इति / प्रक्रियालाघवार्थं डित्करणस्य सर्वकार्यबाधकत्वेंन व्याख्यास्यमानत्वात् / तथा हे असौ इत्यत्र च डौ इति कृतेऽपि 'तदादेशस्तद्वत्' इति न्यायाय् सेः स्थानित्वेऽपि सति ‘अदेतः स्यमोर्लुक्' (1 / 4 / 44) इत्यस्य न प्रसङ्गः / स्यादेशत्वेनैवामो लुपि सिद्धायां यत् अम्ग्रहणं कृतं तदन्यस्यादेशस्य लुग्निवृत्त्यर्थम् इति ‘अदेतः स्यमो०' वृत्तिव्याख्यानात् / सेः स्थाने डौ इति बहुकार्यबाधनार्थ कृतम् / यदि च सेः स्थाने औ इति कुर्यात्तदा असौ अत्र स्त्रियां सेः औ इति कृते 'आद्वेरः' इति अकारे ‘आत्' (2 / 4 / 18) इत्यापि कृते ‘औता' इत्यनेन औकारेण सह आबन्तस्य एकारः प्राप्नोति / 1 / तथा सेः स्थाने औ इति कृते 'आद्वेरः' 'आप्' इति कृते 'तदादेशः' इति न्यायात्सेः स्थानिवद्भावात् आमन्त्र्यसिना सह 'एदापः' इत्यनेन एकार आबन्तस्य प्रसज्येत / 2 / तथाऽनामन्त्र्ये सौ च सत्यां स्थानिवत्त्वात् 'दीर्घड्याळ्यञ्जनात्सेः' इत्यनेन सेर्लोपः स्यात् / 3 / असकौ इत्यत्र तु अकि कृते 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्' इत्यनेनाकोऽकारस्य इकारः प्राप्नुयात् / ततो अनिष्टानि रूपाणि भवेयुः / अतः सेः स्थाने डौ इति कृतम् / येन ‘औता' 'एदापः' इत्यादि सर्वकार्याणि बाध्यन्ते इति भावः // 43 // __ असुको वाऽकि // 2 // 1 // 44 // त्यदादिसम्बन्धिनि सौ परे अदसोऽकि सति असुक इति निपात्यते, वा / असुकः / पक्षे असकौ / हे असुक हे असकौ / स्त्रियाम्-असुका / [औ] असकौ // 44 // Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः मोऽवर्णस्य // 2 // 1 // 45 // अवर्णान्तस्य अदसो दकारस्य मकार आदेशः स्यात्। [औ] अमू नरौ, स्त्रियौ, कुले वा। [जस् "बहुष्वेरीः" (2 / 1 / 49)]- अमी नराः / [जस्] अमूः स्त्रियः / [जस्] अमूनि कुलानि / [अम् ] अमुं नरम् / [अम् ] अमूं स्त्रियम् / [शस] अमूः स्त्रीः [शस] अमूनरान् / [औ] / अमुकौ नरौ अमुके स्त्रियौ कुले वा / अवर्णस्येति किम् ? अदः / [अमुमिच्छति] अदस्यति // 45 // वाऽद्रौ // 2 // 1 // 46 // अद्रावन्ते सत्यदसो दस्य मः वा स्यात् / अदमुयङ् / अमुग्रङ् / अमुमुयङ् / अदाङ् // “'परतः केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति पूर्वतः / 'उभयोः केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति नोभयोः" // 1 // 46 // ___ अ० वाद्रौ इत्यत्र वाशब्दो व्यवस्थितविभाषार्थो न विकल्पार्थः / तेन क्वापि कथञ्चिद्वाशब्दः प्रवर्तते / यदि तु वा विकल्पार्थः स्यात् तदा प्रथममेव प्रयोगद्वयं स्यात्, तावतैव विकल्पस्य चरितार्थत्वात् / अदमुयङ् इत्यादिअदस् / 'अञ्चू गतौ च' अञ्च् / अमुमश्चतीति क्विप् / 'सर्वादिविष्वग्देवाद्रिः क्व्यञ्चौ' (3 / 2 / 122) इति अदस् अञ्चेर्विचाले डदिः, 'डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इत्यञ्चेर्नस्य लोपः / सिः / 'दीर्घङयाब्०' (1 / 4 / 45) इति सेर्लोपः / 'अचः' (1 / 4 / 69) इति नोऽन्तः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति चस्य लोपः / 'युजञ्चक्रुञ्चो नो ङ' (2 / 1 / 71) इति सूत्रेण नकारस्य ङ् आदेशः / अद्रेः इकारं विश्लिष्य ‘इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' (1 / 2 / 21) इति यत्वम् / 'वाद्रौ' इति यथादर्शनं मकारः / 'मादुवर्णोऽनु' (2 / 1 / 47) इति मकारात्परस्य वर्णमात्रस्य उकारः / 'परतः केचिदिच्छन्ति इत्यस्योदाहरणं अदमुयङ् इति // 1 // केचिदिच्छन्ति पूर्वत इत्यस्योदाहरणं तु अमुग्रङ् इति // 2 / / 'उभयोः केचिदिच्छन्तीत्यस्य तु अमुमुयङ् इति / / 3 / / केचिदिच्छन्ति नोभयोः इत्यस्य तु अदाङ् इति // 4 // 46 / / मावर्णोऽनु // 2 // // 47 // - अदसः सम्बन्धिनो मकारात्परस्य वर्णमात्रस्य उपकन उवर्ण आदेशः स्यात् / अनु पश्चात्कार्यान्तरेभ्यः / द्विमात्रस्य द्विमात्रः [दीर्घः], त्रिमात्रस्य त्रिमात्रः [प्लुतः], अर्धमात्रिकस्य एकमात्रिकः / [व्यञ्जनाक्षरस्य उकार एकमात्रः] अमुम् अमू अमूः 3 इति / अमुमुयङ् [सिः] / अमुमुईचः [शस्] / अदमुईचः / [डसि डस् वा] / अदमुईचा [टा] / अन्विति किमर्थम् ? अमुष्मै / अमुष्मात् / अमुष्याम् / अमूषाम् / अमुया / अमुयोरित्यादिषु स्मैप्रभृतिकार्येषु कृतेषु पश्चादुवर्णो यथा स्यादित्येवमर्थम् // 47 // अ० अमुमुईचः इत्यादि / अदस् / 'अञ्चू गतौ च' / अञ्च् / अमुमश्चतीति क्विप् / 'सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिः क्व्यञ्चौं' (3 / 2 / 122) इति अदस अञ्चेर्विचाले डद्रिः ‘डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इति अञ्चतेर्नलोपः / शस् / ङसिर्वा / डस् वा / अद्रेरिकारं विश्लिष्य 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' (2 / 1 / 104) इति. सूत्रेण अच्स्थाने च् इत्यादेशः / पाश्चात्यइकारस्य दीर्घश्च / ई / 'वाद्रौ' (2 / 1146) इत्यनेन दकारद्वयस्य मकारः / 'मादुवर्णोऽनु' (2 / 1 / 47) इत्यनेन मकारात्परस्य वर्णमात्रस्य उकारः सर्वत्र / अमुमुईचः / अदमुईचः / अदमुईचा इत्युदाहरणत्रयेषु 'अदो मुमी (1 / 2 / 35) इति सूत्रेण सन्धिनिषेधः / / 47|| प्रागिनात् // 2 // 1 // 48 // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अदसो मात्परस्य वर्णमात्रस्य इनादेशात्प्राक् उवर्णः स्यात् / अन्वित्यस्याऽपवादोऽयम् [योगः] / अमुना पुंसा कुलेन वा / इनादिति किम् ? अमुया स्त्रिया // 48 // बहष्वेरीः // 2 // 1 // 49 // बहुष्वर्थे वर्तमानस्याऽदसो मात्परस्य एकारस्य स्थाने ईकारः स्यात् / अमी / अमीभिः / अमीभ्यः 2 / अमीषाम् / अमीषु / बहुष्विति किम् ? [औ] अमू कन्ये / कुले वा / एरिति किम् ? [शस्] अमूः कन्याः। अमून् नरान् // मादित्येव / अमुके / अमुकेभ्यः // 49 // धातोरिवर्णोवर्णस्येयु स्वरे प्रत्यये // 2 // 1 // 50 // __ धातुसम्बन्धिन इवर्णस्य उवर्णस्य स्थाने स्वरादौ प्रत्यये परे यथासङ्ख्यं इय् उव् आदेशौ भवतः / नियौ। नियः / लुवौ / लुवः / स्त्रियौ / स्त्रियः / अधीयते अधीयाते अधीयन्हें / लुलुवुः / धातोरिति किम् ? लक्ष्म्याः / प्रत्यये इति किम् ? न्यर्थः / नयनम्, नायकः, लवनम्, लावकः, इत्यादौ परत्वाद्गुणवृद्धी // 50 // . अ० अधीयते इत्यत्र ‘अनतोऽन्तोऽदात्मने' (4 / 2 / 114) इति सूत्रेण अन्तस्थानेऽत् इत्यादेशः / 'स्तृग्श् आच्छादने' स्तृ, स्तृणाति पुरुषगुणानाच्छादयतीति स्त्री 'स्त्री' (450) इत्युणादिसूत्रेण स्त्री इति निपातः / निपातनात् त्रप्रत्ययः डिच्च / ततो डीप्रत्ययः / अयं ईकारो धातुसम्बन्धी नहि / अतः कारणात् स्त्रियमिच्छतीति ‘अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) स्त्रीयतीति क्विप् / 'य्वोः प्व्यव्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) / क्यनो लोपः / एवं धातुसम्बन्धी ईकारः सम्भवति / तत इयादेशः स्त्रियौ स्त्रियः / 'लक्षीण् दर्शनाङ्कनयोः' लक्ष् / लक्षयति पश्यति भाग्यवन्तमिति लक्ष्मीः 'लक्षेर्मोऽन्तश्च' (715) इत्युणादिसूत्रेण ईप्रत्ययः / मोऽन्तः / लक्ष्मीः / नायं धातुसम्बन्धी ईकारः किन्तु प्रत्ययसम्बन्धी / नियोऽर्थो न्यर्थः / नीयते नयनम्, लूयते लवनम् / अनट् / नयत्यात्मना सह जनं इति नायकः / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) / लुनातीति लावकः / णकः / / 50 // . इणः // 2 // 1 // 51 // इणो धातोः स्वरादौ प्रत्यते परे इय् आदेशः स्यात् / यत्वाऽपवादः [योऽनेकस्वरस्य (2 / 1 / 56) इति प्राप्तस्य] / (द्वित्वे कृते पश्चात् इय्) ईयतुः / ईयुः / अयनम्, आयकः, अत्रापि परत्वाद्गुणवृद्धी एव // 51 // अ० ईयते अयनम् / एतीति आयकः ‘णकतृचौ' 'नामिनोऽकलिहलेः' (4 / 3 / 51) इति वृद्धिः / / 51 / / संयोगात् // 2 / 152 // धातोरिवर्णोवर्णस्य धातुसम्बन्धिन एव संयोगात्परस्य स्वरादौ प्रत्यये इयुवादेशौ य्वोरपवादौ स्याताम् / यवक्रियौ / कटपुवौ / शिश्रियुः / धातुना संयोगस्य विशेषणादिह न स्यात्-उन्न्यः / सकृल्ल्वः // 52 // ___ अ० उन्नयन्तीति उन्न्यः / 'क्किप्' (5 / 1 / 148) 'किवृत्तेः०' (2 / 1 / 58) इति यत्वम् / सकृल्लुनन्ति सकृल्लवः / 'क्विप्' 'क्विब्वृत्तेः०' इत्यनेन वत्त्वम् // 52 / / भ्रूश्नोः // 2 / 153 // भू-भु इत्येतयोरुवर्णस्य संयोगात्परस्य स्वरादौ प्रत्यये उवादेशः स्यात् / भ्रुवौ / भ्रवः / राध्नुवन्ति / संयोगादित्येव / सुन्वन्ति / चिन्वन्ति // 53 // अ० 'पुंग्ट्-अभिषवे' 'चिंग्ट् चयने' अन्ति / 'स्वादेः श्रुः' (3 / 4 / 75) // 53 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः स्त्रियाः // 2 // 1 // 54 // स्त्रीशब्देवर्णस्य स्वरादौ प्रत्यये इयादेशः स्यात् / स्त्रियो। स्त्रियः / अतिस्त्रियौ नरौ / शस्त्रीशब्दस्याऽनर्थकत्वान्न स्यात् / प्रत्यय इत्येव-स्त्र्यर्थः / कथं अतिस्त्रयः [जस] / अतित्रिणा [टा] / अतिस्त्रये [3] / अतिस्त्रेः सि डस्] / अतिस्त्री [डि]' ? 'इदुतोऽस्ररीदूत्' (1 / 4 / 21) इत्यत्र स्त्रिशब्दवर्जनात् परोऽपीयादेशो बाध्यते / स्त्रीणामित्यत्र तु प्रागेव नाम् / एतच्च वेयुवोऽस्त्रियाः (14 / 30) इत्यत्रोक्तम् / पृथग्योग उत्तरार्थः // 54 // - अ० स्त्रिया इत्यत्र केवलस्त्रीशब्दस्यैव इयादेशः क्रियते / 'धातोरिवर्णोवर्णस्य.' (2 / 1 / 50) इति सूत्रे क्विबन्तस्य स्त्रीशब्दस्य (पुरुषवर्तिनः) इयादेशः / उभयत्र स्त्रियौ स्त्रियः इति रूपम् / / अतिस्त्रियः अतिस्त्रीन् नरान्-शसः प्रयोगो ज्ञेयः // 54 // वाऽम्शसि // 2 // 1 // 55 // स्त्रीसम्बन्धीवर्णस्याऽमि शसि च परे वा इय् स्यात् / [अम्] स्त्रियम् स्त्रीम् / [शस] स्त्रियः स्त्रीः / परमस्त्रियम् / परमस्त्रीम् / अतिस्त्रियम् / अतिस्त्रिं नरम् / क्यन्नाद्यन्तस्य च धातुत्वात् 'धातोरिवर्णोवर्ण०' (2 / 1150) इत्यनेन नित्यमिय् / स्त्रीमिच्छति स्त्रीवाचरति वा स्त्री ब्राह्मणः / तं स्त्रियम् / तान् स्त्रियः // 55 / / योऽनेकस्वरस्य // 2 // 1 // 56 // - धातोरित्यनुवर्तते / अनेकस्वरस्य धातोः सम्बन्धिन इवर्णस्य स्वरादौ प्रत्यये यकारादेशः स्यात् / चिच्युः। निन्युः / सखायमिच्छति क्यनि किपि' सखीशब्दः / सख्युः / एवं पतीशब्दः / पत्युः / सख्यि / पत्यि / अनेकस्वरस्येति किम् ? नियः / परमनियः (धातोरिवर्णो० (2 / 150) इति इय्) / “रिं पित् गती" रियति / पियति // 56 // स्यादौ वः // 2 // 1157 // अनेकस्वरधातुसम्बन्धिन उवर्णस्य स्वरादौ स्यादी प्रत्यये परे वकारादेशः स्यात् / वस्वौ / वस्वः // 57 // अः वस्वौ. / वस्वः / वसुझब्दः वसुमिच्छति / क्यन् / बसूयतीति क्विप् / 'य्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) इति यस्य लोपः / / 57 // किवृत्तेरसुधियस्तौ // 2 / 1158 // __किबन्तेनैव या वृत्तिः समासस्तस्या असुधियः-सुधीशब्दवर्जिताया धातोरिवर्णोवर्णस्थाने स्वरादी स्यादौ परे तो यकारवकारी स्याताम् / उन्न्यः / सुल्वः / ग्रामण्यः / सेनान्यः / किग्रहणादिह न स्यात् / परमनियः / स्याद्यन्तेनात्र विशेषणसमासो न तु किवन्तेन [समासः] / असुधिय इति किम् ? सुधियः / सुपूर्वस्यैव वर्जनादिह स्यादेव [यत्वं भवत्येव / / प्रध्यः / आध्यः // 58 // अ० उन्नयन्ति सुष्ठ लुनन्ति ग्रामं नयन्ति सेनां नयन्ति / क्विप् / जस् / एषु स्यादिविभक्तेरुत्पत्तेः प्रागेव किबन्तेन समासः / परमाश्च ते नियश्च परमनियः / पूर्वं नयन्तीति नियः इति कृत्वा, पश्चात्परमाश्च ते नियश्चेति / सुष्ठ दधति अथवा सुष्टु ध्यायन्तीति 'दिद्युद्ददृः' (5 / 2 / 83) इत्यादिना किप्, धीभावश्च / प्रध्यायन्तीति आध्यायन्तीति वा 'दिद्युद्ददृ०' विप्, धीभावश्च / / 8 / / 1. 'डिडौं' श४२५ इति अनेन सप्तम्येकवचनडि प्रत्ययस्य डौ आदेशः / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते दृन्पुनर्वर्षाकारैर्भुवः // 2 // 1159 // दृन्-पुनर्-वर्षा-कार इत्येतैः सह या किवृत्तिस्तत्सम्बन्धिनो भुवो धातोरुवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ प्रत्यये परे वकारादेशः स्यात् / दृन्भ्वौ / दृन्भ्वः / पुनौं / वर्षाभ्वः / कारभ्वः / दृनादिभिरिति किम् ? स्वयम्भुवौ। प्रतिभुवः / मित्रभुवः / आत्मभुवः / पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थमिदम् / एतैरेव भुवो नान्यैरिति // 59 // अ० दृन् हिंसन् भवतो भवन्तीति / दृन्भूः सविषः कीटकविशेष उच्यते / पुनर्भूः पुनरूढा स्त्री ओषधिश्च / वर्षाभूः साटडीनाम ओषधिविशेषो दर्दुरो वा / कारे कारेण वा भवन्तति कारभ्वः / करभ्वौ करभ्व इत्यन्ये / स्वयम्भवत इति स्वयम्भुवौ / प्रतिभवन्तीति प्रतिभुवः / मित्राद्भवन्तीति मित्रभुवः / आत्मना भवन्तीति आत्मभुवः / दृन्भ्व इत्यादि आत्मभुव इति पर्यन्तेषु 'दिद्युद्ददृज्जग०' (5 / 2 / 83) इत्यादिना क्विप् / अथवा 'क्विप्' (5 / 1 / 148) इति क्विप् // 19 // णषमसत्परे स्यादिविधौ च // 2 // 16 // इतः सूत्रादारभ्य यत् परं कार्यं विधास्यते तस्मिन् पूर्वस्मिंश्च स्याद्यधिकारविहिते विधौ कर्तव्ये सति णत्वं षत्वं चासदसिद्धं स्यात् / एतत्सूत्रनिर्दिष्टयोश्च णत्वषत्वयोः परे षत्वे णत्वमसद्रष्टव्यम् / णषशास्त्रं वा परे स्यादिविधौ च शास्त्रे प्रवर्तमानेऽसत् ज्ञातव्यम् / पूष्णः / तक्ष्णः / अत्र णत्वस्यासत्त्वादनोऽकारलोपः। पिपठीः, अत्र षत्वस्यासत्त्वात्सकारस्य रुः स्यात् / स्यादिविधौ च-अर्वाणी, सपौषि / अत्र णत्वषत्वयोरसत्त्वादुपान्त्यदीर्घत्वं सिद्धम् / असत्पर इत्यधिकारो 'रात्सः' (2 / 1190) इति यावत् / स्यादिविधौ चेति तु 'नोादिभ्यः' (2 / 1199) इति यावत् // 60 // अ० ‘समर्थः पदविधिः' (7 / 4 / 122) इति तद्धितान्तसूत्रं यावत् / इतः सूत्रात्पूर्व 'नि दीर्घ 0' (1 / 4 / 85) इत्यादि विधिः / पूर्वस्मिंश्चापि स्यादिविधौ कर्तव्ये सतीति योगः कर्तव्यः / पूषन् / तक्षन् / शस् / ङसि डस् वा / 'रघुवर्णान्नोण एकपदे०' (2 / 3 / 63) इत्यनेन नस्य णत्वम् / ततो ‘णषमसत्परे०' (2 / 1 / 60) इति सूत्रेण णकारोऽसन् स्यात् / असत्त्वे सति ‘अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति सूत्रेण अनोऽकारस्य लोपः सिद्धः / / पिपठीः / पठ् / पठितुमिच्छति / 'तुमर्हादिच्छायां०' (3 / 4 / 21) इति सन् / 'सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) इति द्वित्वम् / 'सन्यस्य' (4 / 1 / 59) इति अभ्यासे इकारः / स्याद्यशितोऽत्रोणादेरिट' (4 / 4 / 32) इति इडागमः / पिपठिषतीति क्विप् / 'अतः' (4 / 3 / 82) इति सनोऽकारलोपः / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) क्विप् लुप्यते 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सकारस्य षकारः / सिः / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) इति सिलोपः / ‘णषमस०' इति सूत्रेण षत्वम् / असन् / असत्त्वे सति ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) इति रकारः / ‘पदान्ते' (2 / 1 / 64) इति सूत्रेण इटो इकारस्य दीर्घः / 'र: पदान्ते' (1 / 3 / 53) / विसर्गः // अर्वाणावित्यत्र ‘नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) इति दीर्घः / सपीषि अत्र 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इत्यनेन उपान्त्यदीर्घः सिद्धः / / 60 // तादेशोऽपि // 2 // 16 // ककारेणोपलक्षितस्य तकारस्य स्थाने य आदेशः स पकारादन्यस्मिन्परे कार्ये स्यादिविधौ च कर्तव्येऽसन् स्यात् / क्षामिमान्-अत्र 'क्षैशुषिपचो मकवम्' (4 / 2 / 78) इति क्तादेशस्य मस्यासत्त्वात् मस्य वकारो न स्यात् / स्यादिविधौ च-लून्युः पून्युः अत्र क्तादेशनत्वस्यासत्त्वात्त्याश्रित उर् स्यात् / अषीति किम् ? वृषणः। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः वृषणवान्-अत्र क्तादेशस्य नत्वस्य सत्त्वात् 'यजसृज.' (2 / 1187) इत्यादिना धुनिमित्तश्वकारस्य षकारो न भवति / कत्वे तु असत्त्वात् कत्वं भवत्येव // 61 // अ० क्षामिमानिति / 'मैं मैं मैं क्षये' 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) इति आकारः / क्षायति स्म 'गत्यर्थाकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1 / 11) इति सूत्रेण क्तप्रत्ययः / कोऽप्रयोगीत् / 'क्षैशुषिपचो मकवम्' (4 / 2 / 78) इत्यनेन तकारस्य मकारादेशः / क्षामशब्दः / क्षामस्यापत्यं क्षामिः / 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) इति सूत्रेण इञ् / क्षामिरस्यास्तीति 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' (7 / 2 / 1) अथवा क्षामोऽस्यास्तीति ‘अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6) इति इन् / ततः क्षाम्यत्रास्तीति 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' / अत्र तकारस्थाने मकारोऽसन् / असत्त्वात् 'मावर्णान्तोपान्ताऽपश्चम०' (2 / 1 / 94) इत्यनेन मतोर्मकारस्य वकारो न जातः / सिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति नोऽन्तः / ‘अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 90) दीर्घः / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) सिलोपः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) // लू पू धातुः / लवनं लूनिः। पवनं पूनि / 'स्त्रियां क्तिः' (5 / 3 / 91) 'ऋल्वादेरेषां तो नोऽप्रः' (4 / 2 / 68) इति तकारस्य नकारः / पञ्चमीङसि ङस् वा / 'इवर्णादे०' (1 / 2 / 21) यकारः / नकारोऽत्रासन् असत्त्वात् 'खितिखीतीय उर्' (1 / 4 / 36) इति उर् / लून्युः / पून्युः ॥वृषणः-व्रस्च ‘सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) इति दन्त्यसस्य तालव्यशः व्रश्च / वृश्च्यते स्म। 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / ‘ग्रहव्रश्चभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति वृत् / ‘सूयत्याद्योदितः' (4 / 2 / 70) इत्यनेन तकारस्य नकारः / 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' (2 / 1 / 88) इति शकारस्य लोपः / पश्चात् तकारस्य नकारः क्रियते / 'यजसृजमृजराज' (2 / 1 / 87) इत्यादिना चकारस्य षकारः प्राप्नोति / अषीति किम् इति व्यावृत्तिबलान भवति / षकारे कर्त्तव्ये नकारः सन्नेव स्यात् / वृक्ण इत्यत्र कत्वे कर्त्तव्ये सति नकारस्यासत्त्वात् 'चजः कगम्' (2 / 1 / 86) इत्यनेन कत्वं भवत्येव वृक्ण इति सिद्धम् // 61 / / . षढोः कः सि // 2 // 1 // 62 // षकारढकारयोः स्थाने सकारे परे क इत्यादेशः स्यात् / [पिष्] पेक्ष्यति / पिपिक्षति / [दृश्] अद्राक्षीत् / ढ / लिह] लेक्ष्यति / [वह ] वक्ष्यति / सीति किम् ? पिनष्टि // 62 // _ अ० पिष् / पेष्टुमिच्छति पिपिक्षति / सन् / द्वित्वं इत्यादि / / अद्राक्षीत्-अत्र दृश्धातुः / अद्यतनीदि / 'सिज़द्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) सिच् / 'अधातोरादि०' (4 / 4 / 29) अट् / 'सः सिजस्तेर्दिस्योः ' (4 / 3 / 65) इति सिच ईकारः / 'अः सृजिदृशोऽकिति' (4 / 4 / 111) दृश्विचाले अकारः / 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45) इति वृद्धिः / आ / 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इति धातुशकारस्य षकारः / ‘षढोः कः सि' (2 / 1 / 62) इति षस्य कः / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सिचः सस्य षत्वम् / / लेक्ष्यति वक्ष्यति-अत्र ‘हो धुट पदान्ते' (2 / 1 / 82) इत्यनेन हकारस्य ढकारः / / 62 / / . भ्वादेर्नामिनो दी| र्वोwञ्जने // 2 // 1 // 63 // भ्वादेर्धातो? रेफवकारौ तयोः परयोस्तस्यैव भ्वादेर्नामिनो दीर्घः स्यात्, व्यञ्जने-ताभ्यां चेत्परं व्यञ्जनं स्यात् / हूर्छा मूर्छा / मूर्छिता / आस्तीर्णम् / पूर्तम् / कूईते / चिकीर्षति / दीव्यति / सीव्यति / भ्वादेरिति किम् ? चतुर्भिः / कुकुरीयति / नामिन इति किम् ? स्मर्यते / भव्यम् / व्यञ्जन इति किम् ? विकिरति // 63 // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते . ____ अ० रश्च वश्च au तयोर्वोः / 'हुर्छा कौटिल्ये' हुर्छ ‘हुर्छा मुर्छा मोहसमुच्छ्ययोः' मुर्छ / हूर्छनं हू / मूर्च्छन मूर्छा 'क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात्' (5 / 3 / 106) इति अप्रत्ययः ‘आत्' (2 / 4 / 18) | ‘स्तृग्श् आच्छादने' आस्तीर्यते स्म इति आस्तीर्णम् / क्तः / 'ऋतां विडतीर्' (4 / 4 / 116) / 'ऋल्वादेरेषां तो नोऽप्रः' (4 / 2 / 68) इति तस्य नत्वम् / / पूर्त्तमित्यत्र 'पृश् पालनपूरणयोः' क्तः / 'ओष्ठ्यादुर्' / (4|4|117) उर् आदेशः / / चिकीर्षति / कृ / कर्तुमिच्छति / 'तुमर्हादि०' (3 / 4 / 21) इति सन् / 'सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) द्वित्वम् 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) ऋकारस्य अकारः / 'कङश्चञ्' (4 / 1 / 46) / 'सन्यस्य' (4 / 1 / 59) इकारः / ‘स्वरहनगमोः सनि थुटि' (4 / 1 / 104) इति कृ इत्यस्य दीर्घः कृ / 'ऋतां विडतीर्' (4 / 4 / 116) / इर् / भ्वादेर्नामीति कीर् / / स्म ते 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'क्ययङाशीर्ये' (4 / 3 / 10) गुणः / भूयते भव्यम् / ‘य एच्चातः' (5 / 1 / 28) यप्रत्ययः // 63 / / पदान्ते // 2 // 1164 // पदान्ते वर्तमानयोर्ध्वादिसम्बन्धिनो रेफवकारयोः परयोस्तस्यैव भ्वादेर्नामिनो दीर्घः स्यात् / गीः / गीाम् / गीरऽर्थः / धूः / धूर्मान् / आशीः / आशीर्भिः / सजूः / सजूःषु / पिपठीः / पदान्त इति किम् ? गिरौ / गिरः / लुवौ // 6 // अ० आशीः / 'आङः शासूकि इच्छायाम्' आशास् / आशासनम् आशीः 'कुत्सम्पदादिभ्यः किप्' (5 / 3 / 114) 'आङः' (4 / 4 / 120) इति सूत्रेण शासः शिस् / सिलोपः / 'सो रु:' (2 / 1 / 72) ‘पदान्ते' (2 / 1 / 64) दीर्घः / शीर् // 6 // न यि तद्धिते // 2 // 16 // यकारादौ तद्धिते परे यो रेफवकारी तयोः परयो मिनो दी| न स्यात् / धुर्यः / गिर्यः / यीति किम् ? गीर्वत् / तद्धित इति किम् ? गीर्यति / गीर्यते / क्ये-कीर्यते / गीर्यते / इह कस्मान स्यात् ? पुर्याम् / गिर्योः / बहिरङ्गलक्षणस्य यत्वस्यासिद्धत्वेन व्यञ्जनस्याभावात् // 65 // , अ० धुरं वहति धुर्यः / 'धुरो यैयण' (7 / 1 / 3) इति यः / गिरि साधुगिर्यः / 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) इति यः / / गिर्यः / धुर्यः / इत्यस्याग्रे वकारान्तो धातु म्युपान्त्यस्तद्धिते न सम्भवति इति नोदाहृदतम् / / गीरिव गीर्वत् / ‘स्यादेरिव' (7 / 1 / 52) इतिवत् / / गिरमिच्छति गीर्यति / 'अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) इति क्यन् / गीरिवाचरति गीर्यते / क्यङ् / / इह कस्मादित्यादि-इह कोऽर्थः ? पूर्याम् गिर्योरित्यत्र ‘‘भ्वादेर्नामिनो०' (2 / 1 / 63) इति पूर्वसूत्रेण दीर्घः कथं न भवतीत्याह-बहिरङ्गेति / पुर्याम्-पुरी / सप्तमीङि, 'स्त्रीदूतः' (1 / 4 / 29) इति दाम् / 'इवर्णादे०' (1 / 2 / 21) यत्वम् / गिरि ओस् / यत्वम् // 65 // कुरुच्छुरः // 2 // 1 // 66 // कुरुच्छुरोः सम्बन्धिनोः नामिनो रेफे परे दी| न स्यात् / कुर्यात् / कुर्वः / कुर्मः / छुर्यते / कुर्वित्युकारः किम् ? 'कुरत् शब्दे' कुर्यात् // 66 // ____ अ० कुर्यात् / कुर्वः / कुर्मः / कृधातुः / सप्तमीयात् / वर्तमानउत्तमपुरुष वस् मस् / ‘कृगतनादेरुः' (3 / 4 / 83) इति कृगः परत उः / 'नामिनो गुणो' (4 / 3 / 1) इति गुणः / कर् / 'अतः शित्युत्' (4 / 2 / 89) कुर् / 'कृगो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः यि च' (4 / 2 / 88) इति सूत्रेण उकारलोपः सर्वत्र // 66 / / - मो नो म्वोश्च // 2 // 167 // मकारान्तस्य धातोरन्तस्य पदान्ते वर्तमानस्य मकारवकारयोश्च परयोर्नकारादेशः स्यात्, स चाऽसन् परे / प्रशान् / प्रतान् / प्रदान् / प्रशान्भ्याम् / नकारस्यासत्त्वानलोपाभावः / ['नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इत्यनेन प्राप्तस्य नलोपस्याभाव इत्यर्थः] म्वोः खल्वपि-जगन्मि। जङ्गन्वः / जङ्गन्मः / जगन्वान् / म्बोश्चेति किम् ? प्रशामौ // 67 // अ० शमूधातुः / प्रशब्दः पूर्वम् / 'तमूच काङ्कायाम्' तम् / प्रः पूर्वं शमू दमूच्० दम् प्रपूर्वं प्रशाम्यतीति, प्रताम्यतीति प्रदाम्यतीति क्विप् / “अहन् पश्चमस्य विङिति’ (4 / 1 / 107) इति दीर्घः / ततः सिः ( 'मो नो म्वोश्च' इति मकारस्य नकारः / / सचासन् / परे कोऽर्थः ? स्यादिविधौ सति / / खल्पपि इति शब्दोऽप्यर्थेऽखण्डमव्ययं ज्ञेयम् / ततोऽयमर्थः / मकारवकारयोरपि परयोर्मकारस्य नकारं दर्शयतीत्यर्थः / जङ्गन्मि / जङ्गन्वः / जङ्गन्मः / 'अमद्रमहम्ममीमृगम्लं गतौ' गम् भृशं पुनःपुनर्वा गच्छति / 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद्धृशा०' (3 / 4 / 9) इति यङ्प्रत्ययः। 'सन् यङश्च' (4 / 1 / 3) इति द्वित्वम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) इति म् लुप्यते / अभ्यासे / 'गहोर्जः' (4 / 1 / 40) इति गस्य जः / 'मुरतोऽनुनासिकस्य' (4 / 1151) इति अभ्यासे मोऽन्तः / 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / 14) इति यङो लोपः / मि वस् मस् / ‘मो नो म्वोश्च' (2 / 1 / 67) इति मस्य नकारः / / तथा जगन्वान् / गम् / जगाम इति वाग्ये 'तत्र वसुकानौ तद्वत्' (5 / 2 / 2) इति वसुः / 'द्विर्धातुः परोक्षा०' (4 / 1 / 1) इति द्वित्वम् / 'गहोर्जः' 'मो नो म्वोश्च' / मस्य नः / सिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) नोऽन्तः / 'अभ्वादेः० (1 / 4 / 90) / दीर्घः / सिलोपः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) सलोपः // 67 / / संस्ध्वंस्क्वस्सनडुहो दः // 2 / 1 / 68 // भ्रस्ध्वंसो क्वस्प्रत्ययान्तस्य च सकारान्तस्य अनडुहशब्दस्य च योऽन्तस्तस्य पदान्ते वर्तमानस्य दकारः स्यात् / उखाम्रद् / उखाम्रत् / पर्णध्वद् / पर्णध्वत् / विद्वद् / विद्वत्कुलम् / स्वनडुद् / स्वनडुत्कुलम् / विद्वत्सु / [विदुषो भावः] विद्वत्ता / क्वस्सिति द्विसकारपाठः किम् ? सान्तस्येव यथा स्यात् / इह मा भूत्। विद्वान् / हे विद्वन् // 68 // अ० पुते वर्तमान उखशब्दः पुंस्त्री / स्थाल्यां च नित्यं स्त्री इति वैयाकरणा मन्यन्ते / तत उखेन उखया वा संसते इति वाक्ये / 'घञ्युपसर्गस्य बहुलम्' (3 / 2 / 86) इत्यत्र बहुलग्रहणादुखस्य दीर्घः / पर्णानि ध्वंसते / _ 'विदक् ज्ञाने' विद् / वेत्तीति विद्वान् / 'वा वेत्तेः कसुः' (5 / 2 / 22) / विद्वस् इति शब्दः / शोभनोऽनड्वान् यस्मिन्कुले / / क्वस्सितीत्यादि-एतेन नपुंसकलिङ्गे सकारस्य दकारः स्यान्न पुंल्लिङ्गे // 68 / / ऋत्विग्दिश्दृश्स्पृश्म्रज्दधृपुष्णिहो गः // 2 / 1169 // - एषां पदान्ते वर्तमानानां गोऽन्तादेशः स्यात् / ऋत्विग् / ऋत्विक् / दिग् / दिक् / दृग् / दृक् / अन्यादृग् / अन्यादृक् / एवं यादृग् / यादृक् / तादृग् / तादृक् / घृतस्पृग् / घृतस्पृक् / मन्त्रस्पृग् / म्रग्। म्रक् / दधृग् / दधृक् / उष्णिग् / एवं दिग्भ्याम् दृग्भ्यामित्यादि // 69 // अ० ऋत्विक् / ऋतुं यजते / अथवा ऋतौ यजते ऋतवे यजते वा, यदि वा ऋतुप्रयोजनो वा यजते ऋत्विक् / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते / किप् / 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 79) इति यवृत् / इकारः / तत 'ऋत्विग्दिग्०' (2 / 1 / 69) इत्यादिना जकारस्य गकारः / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) विकल्पेन ककारः / ‘दिशींत् अतिसर्जने' दिश् / दिश्यते इति दिग् / पश्यतीति दृग् / दर्शनं वा दृग् / अन्य. दृश्. / अन्य इव दृश्यतेऽन्यादृग् / 'त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद्व्याप्ये दृशष्टक्सको च' (5 / 1 / 152) इति चकारात् क्विप्प्रत्ययः / ‘अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) 'अन्यत्यदादेराः' (3 / 2 / 152) इति अन्यस्य आकारः कार्यः / एवं यादृग् / तादृग् / य इव दृश्यते / स इव दृश्यते / किप् / 'अन्यत्यदादेराः' अन्त्यस्य आकारः / 'स्पृशंत् संस्पर्श' / घृतं स्पृशतीति / मन्त्रेण स्पृशतीति / स्रग् / स्रक् / 'सृजत् विसर्गे' सृज् / सृज्यते इति स्रग् / 'क्रुत्सम्पदादिभ्यः किप्' (5 / 3 / 114) / सूत्रे निर्देशात् सृज ऋकारस्य रकारः / अथवा सुं गतौ। सृ / सरति देवादिषु इति स्रक् / 'ऋधिप्रथिभिषिभ्यः कित्' (874) इत्युणादिसूत्रेण अज् स कित् / ‘इवर्णादे०' (1 / 2 / 21) रत्वम् / स्रग् / 'जिधृषाट् प्रागल्भ्ये' / धृष् / धृष्णोतीति दधृग् / अत एव निर्देशात् द्वित्वं द्विवचनम् / उष्णिग् / 'उत्पूर्वष्णिहौच प्रीतौ' / 'षः स०' (2 / 3 / 98) इति स्निह् / ऊर्ध्वं स्निह्यति नह्यति वा / अत एव निर्देशात् उदो दकारलोपः / सस्य षत्वं च / नहेर्नकारस्य च ष्णि आदेशः // 69 / / नशो वा // 2 // 17 // नशेः पदान्ते गोऽन्तादेशो वा स्यात् / जीवनम् / जीवनक् / पक्षे जीवनड् / जीवनट् // 7 // अ० 'नशौच अदर्शने' / जीवस्य नशनं जीवनम् / 'भ्यादिभ्यो वा' (5 / 3 / 115) इति क्विप् / जीवनड् इत्यत्र च / 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इत्यादिना शकारस्य षकारः / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति षकारस्य डकारः। ‘विरामे वा' (1 / 3 / 51) इति डस्य टकारः पक्षे / / 70 // . युजञ्चक्रुश्चो नो ङ // 2 / 1 / 71 // युअचुक्रुश्चां नकारस्य पदान्ते ङ इत्यादेशः स्यात् / युङ् / प्राङ् / क्रुङ् / पदान्ते इत्येव / युञ्जी। प्राञ्चौ // 71 // अ० 'युजूंपी योगे' युज् / युनक्तीति क्विप् / सिलोपे 'युज्रोऽसमासे' (1 / 4 / 71) इति नोऽन्तः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति जकारलोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' इति नकारस्य ङः / युङ् इति सिद्धम् / प्राङ् / 'अञ्चू गतौ च' अञ्च / प्रः पूर्वं / प्राञ्चतीति क्विप् / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इति नस्य लोपे / सिः / ‘अचः' (1 / 4 / 69) इति नोऽन्तः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) चलोपः / 'युजञ्च०' इति नस्य ङः / प्राङ् इति सिद्धम् / 'कुञ्च् गतौ' क्रुञ्चतीति क्रुङ् / क्विप् / अत एव निर्देशात् 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः' (4 / 2 / 45) इत्यनेन नकारो न लुप्यते / सिलोपे, 'पदस्य' इति चलोपे, 'युजञ्चक्रुञ्चो नो ङः' इति नकारस्य डकार / क्रुङ् इति सिद्धम् // 71 // सो रुः // 2 // 1 // 72 // पदान्ते सकारस्य रुरादेशः स्यात् / आशीः / मुनिर्याति / अग्निरत्र / पयः / पयोभ्याम् / उकारो 'अरोः सुपि रः' (1 // 3 // 57) इत्यत्र विशेषणार्थः // 72 // सजुषः // 2 // 1173 // सजुष इत्यस्य पदान्ते रुरन्तो भवति / सर्देवैः / साम् / / 73 // अ० 'जुषैति प्रीतिसेवनयोः' जुष् / सह पूर्वम् / सह जुषते इति सजूः / विप् / अत एव निर्देशात् सहस्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः सभावः / सजूः / कोऽर्थः ? संयुक्तः सेवितो वा // 73 / / अह्नः // 2 / 174 // अहंन्शब्दस्य पदान्ते रुरित्यादेशः / स्यात्, सचासन् परे स्यादिविधौ च / हे दीर्घाहोनिदाघः // दीर्घाहा निदाघः-अत्र रुत्वस्यासत्त्वानन्तलक्षणो दीर्घो भवति [नि दीर्घः (1 / 4 / 85) इत्यनेन] / अहोभ्याम् / अहस्सु // 74 / / ___ अ० दीर्घाणि अहानि अस्मिन्निदाघे स दीर्घाहोनिदाघः / तस्य सम्बोधनम् / 74 // . रो लुप्यरि // 2 // 1175 // __ अहन्शब्दस्य लुपि सत्याम् [विभक्तेलोंपे सति] अरेफे परे पदान्ते रोऽन्तादेशः स्यात् / रोरपवादः [रु इत्यस्य अपवादः] अहरधीते / अहर्ददाति / अहर्भुङ्क्ते / दीर्घाहर्मासः / अहर्वान् / लुपीति किम् ? हे दीर्घाहोऽत्र / अरीति किम् / अहोरूपम् / अहोरात्रः // 75 // __ अ० अरेफे कोऽर्थ ? रेफ वर्जयित्वा स्वरे व्यञ्जने वा परे सति रकारो भवति / अहन् परतः / अम् / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) दीर्घाहांश्चासौ मासश्च दीर्घाहर्मासः / समासमध्ये 'ऐकायें' (3 / 2 / 8) इत्यनेन विभक्तिलोपः / दीर्घमहो यत्र / तस्य सम्बोधनम् / सिः / 'दीर्घङयाब्०' (1 / 4 / 45) इति से क् / नलोपोऽत्र / अह्रो रूपं अहोरूपम् / अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः / 'ऋक्सामर्यजुषधेन्वनडुहवाङ्मनसाहोरात्ररात्रिंदिवनक्तंदिवाहर्दिवोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षिभ्रुवदारगवम्' (7 / 3 / 97) इत्यनेन अत् समासान्तो निपातः / 'अवर्णवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इलोपः / पूर्वसूत्रेण 'अह्नः' (2 / 1 / 74) इत्यनेन नकारस्य रुः // 7 // धुटस्तृतीयः // 2 / 1176 // धुटां पदान्ते वर्तमानानां तृतीयः स्यात् / वाग् / वाग्भिः / षड् / पड्भिः / [ककुभ् इति शब्दः] ककुब् / ककुभिः / विड् / कश्वरति-कष्टीकते-कस्तरतीत्यादिप्वादेशविधानबलान स्यात् / ['चटते सद्वितीये' (1 / 37) इति शषसकरणबलात ततीयो न भवति / षष्ठ इत्यत्र त षष्ठीति निर्देशान्न स्यात // 7 // ___अ० विट् इत्यत्र ‘विशंत प्रवेशने' विश् / विशति प्रविशति धर्मार्थसाधनगणनायां इति विट् मनुष्यः / विप् / विश्शब्दः / अत्र ‘यंजसृज०' (2 / 1187) इत्यादिना शकारस्य षकारः / पश्चात् षकारस्य तृतीयो डकारः / कार्यः / / षष् / षण्णां पूरणः षष्ठः / 'षट्कतिकतिपयात्थट्' (7 / 1 / 162) इति थट् / अत्र 'षष्ठी वाऽनादरे' (2 / 1 / 108) इति निर्देशात् षकारस्य न डकारो भवतीत्यर्थः // 76 / / . गडदबादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थः स्ध्वोश्च प्रत्यये // 2 / 1177 // .. गडदबादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्य धात्ववयवस्यादेश्चतुर्थ आसन्नः स्यात् पदान्ते सकारादी ध्वशब्दादौ च प्रत्यये परे / पर्णघुट् / पर्णघुड्भ्याम् / तुण्ढिप् / गोधुक् / धर्मभुत् / धर्मभुत्त्वम् / स्ध्वोः / [गुह] निघोक्ष्यते। न्यघूढ्वम् / [दुह] धोक्ष्यते / अधुग्ध्वम् / [बुध] भोत्स्यते / बुभुत्सते / अभुद्ध्वम् / गडदबादेरिति किम् ? क्रुत् / स्ध्वोश्चेति किम् ? धर्मबुधौ / बोद्धा / वर्णविधित्वेन स्थानिवद्भावो नास्तीति / अबुद्ध / अबुद्धाः। अत्र सिलुकि न स्यात् // 77 // * अ० गश्च डश्च दश्च बश्च गडदबाः / गडदबा आदौ यस्य धात्ववयवस्य स गडदबादिः / तस्य / चतुर्थो वर्णाऽन्ते यस्य धात्ववयवस्य स चतुर्थान्तः / तस्य / एकः स्वरो यत्र धात्ववयवे / तस्य / पर्णघुट् / पर्ण / ‘गुहौग् संवरणे'। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते गुह् / पर्णानि गूहते किप् / सिलोपः / ततो 'हो धुट पदान्ते' (2 / 1 / 82) हस्य ढः / सूत्रप्रवृत्तिः / गकारस्य घकारः / 'धृटस्तृतीयः' (2 / 1176) इति ढस्य डः / ‘विरामे वा' (1 / 3 / 51) डस्य टकारः / तुण्डिभ / तुण्डिभमाचष्टे ‘णिज्बहुलं नाम्नः कृगा०' (3 / 4 / 42) इति णिज् / तुण्डिभयतीति क्विप् / सिः / 'गडदबा०' इत्यनेन डस्य ढः / 'धुटस्तृ०' भस्य ब् / 'विरा०' बस्य प् तुण्ढिप् / गो। 'दुहीक क्षरणे' / गोर्दोग्धि क्विप् सिलोपे / 'भ्वादेर्दादेर्धः (2 / 1 / 83) इति हस्य घकारः / 'गडदवा०' इत्यनेन दस्य धकारः / 'धुटस्तृ०' घस्य गः / 'विरामे वा' क्। धर्मभुत् / धर्म / 'बुधिं मनिंच् ज्ञाने' / बुध / धर्मं बुध्यते क्विप् / सिलोपे / 'गडदबा०' इति बकारस्य भकारः। 'धुटस्तृः' इति धस्य दः / ‘विरा०' त् / / न्यध्वम् / गुह् / निपूर्वोऽद्यतनीध्वम् / ‘अड्धातोः' (4 / 4 / 29) आदावडागमः / 'हशिटो नाम्युपान्त्यादृशो०' (3 / 4 / 55) इति धातु ध्वं विचाले सक् / 'दुहदिहलिहगुहो दन्त्यात्मने वा सकः' (4 / 3 / 74) इति सको लोपः / 'हो धुट०' (2 / 1 / 82) इति हस्य ढः / 'तवर्गस्य०' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / 'ढस्तड्डे' (1 / 3 / 42) इति दीर्घः / ढलोपश्च / / ___अधुग्ध्वम् / दुह् / ध्वम् / अडागमः / ‘हशिटो नाम्युपान्तायाः' इति सक् / 'दुहदिह' इति सको लोपः। 'भ्वादेर्दादेर्घः' (2 / 1 / 83) हस्य घः / 'गडदबा०' इति दस्य धः / 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इति घस्य गः / / बुभुत्सते / 'बुध्' / बोटुमिच्छति / 'तुमर्हादि०' (3 / 4 / 21) इति सन् / इत्यादि / / अभुद्ध्वम् / बुध् / ध्वम् / अट् / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) सिच् / 'सो धि वा' (4 / 3 / 72) इत्यनेन सिच् लुप्यते / / अबुद्ध। अबुद्धाः / बुध् / अद्यतन्याः त थास् / अट् / 'सिजद्यतन्याम्' / 'धुड्ह्रस्वाल्लुगनिटस्तथोः' (4 / 3 / 70) इति सिचो लुक् / 'अधश्चतु' (2 / 1179) इति प्रत्यक्ष तस्य थस्य च धकारः / तृतीयस्तृतीयः' इति धस्य दकारः।। वर्णविधि इत्यादि अक्षरा-र्थोऽयम्-वर्णसिचो रूपे सकारे विधिर्वर्णविधिस्तस्य भावः / तेन 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' (7 / 4 / 109) इति न्यायात् सिचो लुग् एव जातः / सिचः स्थानिवद्भावत्वं न भवति इति हेतोरत्राबुद्धेत्यादौ सिचो लुकि सत्यां 'गडदबा०' इति आदिचतुर्थो भकारौ बस्य नाभूदित्यर्थः / / 77|| धागस्तथोश्व // 2 / 1178 // दधातेश्चतुर्थान्तस्य दकारादेर्दकारस्य तथोः [तकारथकारपरयोः] सध्योश्च परयोश्चतुर्थः स्यात् / धत्तः। धत्ते। धत्थः / धत्थ / धत्से / धत्स्व / धये / अत्रासद्विधित्वाद्वचनसामर्थ्याद्वाऽतो लोपस्य स्वरादेशत्वेऽपि स्थानिवद्भावो न स्यात् [असत्प्रकरणत्वात् धागस्तथोरितिकरणाच] / गकारः / किम् ? धयतेर्मा भू 'धे' यङ्लुपि दात्तः। दात्थः / तथोश्चेति किम् ? दध्वः दध्मः // 78 // __ अ० धत्तः इत्यादि / 'डुधांग्क् धारणे' धा वार 7 / यथाक्रमं तस् ते थस् थ से स्व ध्वे विभक्ति / 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) इति द्वित्वम् / धा / 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) अभ्यासे धस्य दः / ‘ह्रस्वः' (4 / 1 / 39) / 'नश्चातः' (4 / 2 / 96) इति धातु आकारस्य लोपः / 'धागस्तथोश्च' इति सूत्रेणाभ्यासदस्य धः / 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50) इति धस्य त् // धद्ध्वे इत्यत्र 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) इत्यनेन धातुधकारस्य दकारः / अत्र आतो लोपस्य कोऽर्थः ? आकारलोपस्य स्थानिवद्भावत्वं न भवतीत्यर्थः / / दात्तः / दात्थः इत्यादि 'ट्वें पाने' धा / ‘आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) इति आ / भृशं धयते 'व्यञ्जनादेरेकस्वरात्०' (3 / 4 / 9) इत्यादिना यङ् / 'सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) इति द्वित्वम् / ‘ह्रस्वः' / 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) दः / 'आगुणावन्यादेः / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः (4 / 1 / 48) अभ्यासे आकारः, अभ्यासे 'नश्चातः' (4 / 2 / 96) इति आकारलोपः / 'बहुलः लुप्' (3 / 4 / 14) / यङ्लोपः / 'अघोषे प्र०' (1 / 3 / 50) त् / तथा 'धागस्तथोश्च' (2 / 1 / 78) अत्र सूत्रे विशेषोऽयम् / दधातेरपि यङ्लुपि सत्यां आदिचतुर्थो न स्यात् / दधातेरपि यङि सति दात्तो दात्थ इति प्रयोगौ भवतः / यत उक्तम्'तिवा शवानुबन्धेन निर्दिष्टं यद्गणेन च / / एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि' // 1 // भृशं पुनः पुनर्वा धत्तः इति वाक्यम् यङ्लोपे सति इत्यर्थः // 78 // अधश्चतुर्थात्तथोर्धः // 2 // 1 // 79 // [न धा अधा तस्मात्] थ/ चतुर्थात्परयोस्तकारप्रकारयो [चतुर्थ अक्षरात् परयोः तकारथकारस्थाने] र्धारूपवर्जिताद्धातोर्विहितयोः [कृतयोः] स्थाने धकारादेशः स्यात् / दोग्धा / दोग्धुम् / अदुग्ध / लेढा / लेढुम् / अलीढ / बोद्धा / बोद्धम् / अबुद्ध। लब्धा / अलब्ध [त] / अलब्धाः [थास्] / अध इति किम् ? दधातेर्यङ्लुबन्तधयतेश्च मा भूत् / धत्तः / धत्थः। दात्तः / दात्थः // 79 // ___ अ० दुह तृच् / श्वस्तनी ता वा / दोहनाय दोग्धुम् / ‘क्रियायां क्रिया०' (5 / 3 / 13) तुम् / अदुग्ध अद्यतनीत / 'हशिटो नाम्यु०' (3 / 4 / 55) सक् / 'दुहदिह' (4 / 3 / 74) इति सग्लोपः / 'भ्वादेर्दादेर्घः' (2 / 1 / 83) हस्य घः / 'अधश्चतुर्था०' (2 / 1 / 79) इति तस्य धकारः / 'लिहीक् आस्वादने' लिह् / लेढीति तृच् / अथवा ता / 'लघो०' (4 / 3 / 4) गुणः / 'हो धुट्०' (2 / 1 / 82) इति हस्य ढः / 'अधश्च०' (2 / 1 / 79) इति तस्य धः / 'तवर्गस्य श्च 0' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / 'ढस्तड्डे' (1 / 3 / 42) इति ढलोपः / अलीढ इत्यत्र लिह् / अद्यतनीत / अडागमः / 'हशिटो ना.' (3 / 4 / 55) इति सक् / 'दुहदिहलिहगुह.' (4 / 3 / 74) इति सक्लोपः / 'हो धु०' (2 / 1 / 82) इति हस्य ढः / ढलोपश्च / अलीढ इति सिद्धम् / 'धे पाने' धा / यङ् इत्यस्य रूपं धत्तः / धत्थः / दधातेर्यङि लुपि च रूपं दात्तः, दात्थः // 79 / / ___ म्यन्तात् परोक्षाद्यतन्याशिषो धो ढः // 2 // 1180 // रेफान्तानाम्यन्ताच्च धातोः परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां विभक्तीनां यो धकारस्तस्य [धकारस्थाने] ढकारः स्यात् / [रेफ़स्य] अतीद्धम् / तीीढ्वम् / तुष्टुट्वे / चकृट्वे / अदिवम् / अधिवम् / अकृवम् / कृषीढ्वम् // 8 // ___ अ० रश्च नाम्यन्तश्च र्नाम्यन्तः / तस्मात् / पञ्चमी ङसि / अतीवं इत्यत्र / 'तृ प्लवनतरणयोः' तृ / अद्यतनीध्वम् / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) 'सो धि वा' (4 / 3 / 72) इति सिचो लोपः / 'ऋतां क्ङितीर' (4 / 4 / 116) इति इर् / अडागमः / अदिढ्वम् / अधिढ्वम् / दा धा धातुः / अद्यतनीध्वम् / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) 'इश्च स्थादः' (4 / 3 / 41) इत्यनेन सूत्रेण सिन् किद्वत्, स्था दा इत्याकारस्य इकारश्च भवति / र्नाम्यन्तेति नाम्यन्तद्वारेण धस्य ढकारः // 8 // हान्तस्थाञीडभ्यां वा // 2 // 18 // हकारान्तादन्तस्थायाश्च परात् जेरिटश्च परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां सम्बन्धिनो धकारस्य ढो वा स्यात् / वचनभेदो यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थः / [निट् उदाहरणम् 11] / अग्राहिढ्वम् / अग्राहिध्वम् / ग्राहिषीढ्वम् / ग्राहिषीध्वम् / अनायिढ्वम् / अनायिध्वम् / नायिपीढ्वम् / नायिषीध्वम् / अकारिध्वम् / अकारिद्वम् / अला Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते विवम् इत्यादि / परोक्षायां जिन सम्भवतीति नोदाहृतम् / इटः / जगृहिवे / जगृहिध्वे / अग्रहीढ्वम् / अग्रहीध्वम् / ग्रहीषीध्वम् / इत्यादि / हान्तस्थादिति किम् ? घानिपीध्वम् / आसिषीध्वम् // 81 // अ० हश्च अन्तस्थाश्च हान्तस्थम् / 'क्लीबे' (2 / 4/97) इति ह्रस्वः / तस्मात् अन्तस्थात् / निश्च इड् च / ताभ्याम् / अग्राहिढ्वम्-'ग्रहीश् उपादाने' ग्रह / अद्यतनीध्वम् / अट् / 'सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) / 'स्वरग्रहदृशहन्भ्यः स्यसिजाशी: श्वस्तन्यां जिड्वा' (3 / 4 / 69) इति सूत्रेण ग्रहसिच्विचाले जिट् / 'अप्रयो०' (1 / 1 / 37) इकारस्तिष्ठति ‘णिति' (4 / 3 / 50) इति सूत्रेण वृद्धिः / आकारः / ‘सो धि वा' (4 / 3 / 72) इति सिचो लोपः। 'हान्तस्था०' (2 / 1 / 81) इति धकारस्य ढकारः / / ग्राहिषीढ्वम् / ग्रह / आशीः सीध्वम् ‘स्वरग्रह०' (3 / 469) इति जिट् / 'ञ्णिति' 'हान्ते'ति धस्य ढः / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः // अनायित्वं पूर्ववत् ज्ञेयम् / / अकारिढ्वम् / कृ ध्वम् सिच् अट् ‘स्वरग्रहः' इति जिट् / 'नामिनोऽकलिहलेः' (4 / 3 / 51) इति वृद्धिः / कार् इति रूपम् / जगृहिढ्वे / ग्रह् / परोक्षाध्वे 'द्विर्धातुः परोक्षा०' (4 / 1 / 1) इति द्विवचनम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) अभ्यासे आदिव्यञ्जनं सस्वरं स्थाप्यते शेषो लुप्यते / ‘गहोर्जः' (4 / 1 / 40) गस्य जः / ‘स्क्रसृवृभृसुद्रुश्रुस्रोर्व्यञ्जनादेः परोक्षायाः' (4 / 4 / 81) इति इट् / ‘ग्रहश्चभ्रस्जप्रच्छ:' (4 / 1 / 84) इति य्वृत् / रस्य ऋ। 'हान्त०' इति धस्य ढः / / अग्रहीढ्वम् / ग्रह् / अद्यतनीध्वम् / अट् / सिच् / 'स्याद्यशितोऽत्रोणादेरिट्' (4 / 4 / 32) इत्यनेन इट् / ‘सो धि वा' (4 / 3 / 72) सिचो लोपः / ‘गृह्णोऽपरोक्षायां०' (4 / 4 / 34) इति सूत्रेण इटो दीर्घः क्रियते / ‘हान्त०' इति धस्य ढः / / ग्रहीषीध्वम् / अत्रापि पूर्ववन्निष्पत्तिः / / घानिषीध्वम् / ‘हनंक् हिंसागत्योः' हन् / सीध्वम् / ‘स्वरग्रहदृशहन्' (3 / 4 / 69) इति सूत्रेण जिट् / 'ञिणवि घन्' (4 / 3 / 101) इति हनेर्घन् आदेशः / 'ब्णिति' वृद्धिः / आकारः / / आसिषीध्वम् / अत्र ‘स्ताद्यशितो०' इट् // 81 / / हो धुट्पदान्ते // 2 // 1182 // [हकारस्य स्थाने] हकारस्य धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च ढो भवति / [लिह] लेढा / लेक्ष्यति / [वह] वोढा / वक्ष्यति // पदान्ते-मधुलिट् / मधुलिड्भ्याम् // असत्परे इत्येव / गुडलिण्मान् / / 82 // , ___अ० वोढा / ‘वहीं प्रापणे' वह् / तृच् ता वा / 'हो धुटपदान्ते' हस्य ढः / 'अधश्चतुर्धा०' (2 / 1179) इति तस्य धः / 'तवर्गस्य श्च०' (1 / 3 / 60) इति धस्य ढः / ‘सहिवहेरोच्चा०' (1 / 3 / 43) इति ओत्वं ढलोपश्च / वह् / स्यति / ‘हो धुट्०' इति हस्य ढः / षढोः कः सि' (2 / 1 / 62) ढस्य कत्वम् / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / गुडलिडऽस्यास्तीति ‘तदस्या०' (7 / 2 / 1) इति मत् / अन्तवर्त्तिनीविभक्तिमाश्रित्य पदान्तत्वे सति ‘हो धुट्०' इति हस्य ढः / 'धुटस्तृ०' (2 / 1 / 76) डे कृतेऽत्र असत्परे इति कोऽर्थः-परे मस्य वत्वे कर्त्तव्ये ढत्वं डत्वं च असत् स्यात् / असति ‘मावर्णान्तोपान्ता०' (2 / 1 / 94) इति मस्य वत्वं न भवति, प्राप्तेरभावात् / गुडलिण्मान् / / अस्मिन्नुदाहरणप्रस्तावे औजढत् इत्यपि उदाहरणं ज्ञातव्यम् / वह् / उह्यतेस्म / ऊढ / क्तः / 'यजादिवचेः०' (4 / 1 / 79) यवृत् / वस्य उ / 'हो धुट्०' इति धातुहस्य ढः / 'अधश्चतुर्था०' इति प्रत्ययतस्य धः / 'तवर्गस्य श्च०' इति धस्य ढः / ‘ढस्तड्डे' (1 / 3 / 42) इति दीर्घः प्रकृतिढस्य च लोपः / ऊढः / ऊढमाख्यत् ‘प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) अकारलोपो ढस्य / अद्यतनी दि। ‘णिश्रिद्रुमुकमः०' (3 / 4 / 58) इति ङप्रत्ययः / ‘स्वरादेस्तासु' (4 / 4 / 31) वृद्धिः / औ / अत्रासत्परे कोऽर्थः ? परे द्वित्वे कर्त्तव्ये Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 'हो धुट्०' इति कृतढत्वस्यासत्त्वे तदाश्रिता ‘धश्चेति कृतधत्वस्याप्यसत्त्वे णौ यत्कृतं तत्स्थानिवदितिन्यायात् अकारलोपस्य स्थानित्वे सति 'नाम्नो द्वितीयाद्यथेष्टम्' (4 / 1 / 7) इति सूत्रेण ह इति द्वित्वं कार्यम् / 'व्यञ्जनस्यानादे.' (4 / 1 / 44) इति तस्य लोपे कृते / 'गहोर्जः' (4 / 1 / 40) इति हस्य जे कृते औजढत् इति सिद्धम् / तत्र यदा परे द्वित्वे 'हो धुट्०' 'अधश्च०' इति शास्त्रासिद्धिराश्रीयते तदा पुनरपि 'हो धुट्०' इति प्रक्रिया क्रियते / ततो 'ढस्तड्डे' इति ढलोपे जकार अकारस्य दीर्घ कृते 'हस्व' (4 / 1 / 39) इत्यनेन ह्रस्वः कार्यः / औजढत् इति सिद्धम् / / 82 / / भ्वादेर्दादेर्घः // 2 / 183 // भ्वादेर्धातोर्यो दकारादिरवयवस्तदवयवस्य हकारस्य [कोऽर्थ आदौ दकारः अग्रे हकारः ईदृग्धातोर्घकारः कार्यः] धुटि प्रत्यये पदान्ते च घ इत्यादेशः स्यात् / ढस्यापवादः / [दह] दग्धा / धक्ष्यति / दोग्धा / [दुह] धोक्ष्यति। अधाक्षीत् / पदान्ते / अधोक् / [गां दोग्धीति] गोधुक् / गोधुक्षु / दादेरिति किम् ? [सह सोढा // 83 // ____ अ० अधाक्षीत् / दह अद्यतनीदि / अट् / सिच् / 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / 65) इति सिच ईकारः / 'व्यञ्जनानामनिटि' (4 / 3 / 45.) इति वृद्धिः / 'भ्वादे०' (2 / 1 / 83) हस्य घः 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50) घस्य कः / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति सस्य षः / अधोक्-दुह् / / ह्यस्तनीदिव् / सिर्वा / 'लघोरुपा०' (4 / 3 / 4) गुणः / 'व्यञ्जनाद्देः सश्च दः' (4 / 3 / 78) इति सूत्रेण दिलोपः / सिलोपे च कृते 'भ्वादे०' (2 / 1 / 83) हस्य घः / 'गडदबादेः' (2 / 1 / 77) दस्य धत्वम् / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) ग् 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) क् / / 83 / / . मुंहद्रुहष्णुहष्णिहो वा // 2 // 1184 // - एषां सम्बन्धिहकारस्य [हस्थाने] धुटि प्रत्यये पदान्ते च घादेशः स्याद् वा / द्रुहः प्राप्ते अन्येषामप्राप्ते [पूर्वेण मुहादीनां] विकल्पः / मोग्धा / मोढा / उन्मुक् / उन्मुट् / द्रोग्धा / द्रोढा / मित्रध्रुक् / मित्रध्रुट् / स्नोग्धा / स्नोढा / स्नेग्धा / स्नेढा / चेलस्निक् / चेलस्निट् / तथा / मोमोन्धि / मोमोढि / दोद्रोग्धि। दोद्रोढि // 84 // अ० 'मुहौच् वैचित्त्ये' मुह, 'दुहौच जिघांसायाम्' मुह्यतीति उन्मुह्यतीति द्रुह्यतीति / मित्रं द्रुह्यतीति / तृच् / किप् / पक्षे 'हो धुट् पदान्ते' (2 / 1 / 82) 'ष्णुहौच उद्गिरणे' ष्णिहौच प्रीतौ' तथा मोमोग्धीत्यादि / 'मुहादेः' इति सूत्रमकृत्वा धातुपरिगणनं यङ्लुप्यपि विध्यर्थम् / तेन मोमोग्धि इत्यादि सिद्धम् / अत्यर्थं मुह्यति अत्यर्थं द्रुह्यति / यङ् / द्वित्वम् / 'आगुणा०' (4 / 1 / 48) 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / 14) // 84 / / नहाहोर्धतौ // 2 // 1 // 8 // - नहे—स्थानस्याहश्च धातोः सम्बन्धिहस्य धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च यथासङ्ग्यं धकारतकारादेशौ स्याताम् / नद्धा / नत्स्यति / उपानत् / परीणत् / आह्-आत्थ / आहेर्नियतविषयत्वात्पदान्तता नास्ति / धुट् पदान्त इत्येव-उपनह्यति / आह / आहतुः / आहुः // 85 // ___ अ० 'णहींच बन्धने' 'पाठे धा०' (2 / 3 / 97) नह / तृच् ता वा / 'नहाहो.' हस्य धः / 'अधश्च०' (2 / 1 / 79) तस्य धः ‘तृतीयस्तृ०' (1 / 3 / 49) धस्य दः / उपनह्यतीति उपानत् / परिनह्यतीति परीणत् / किप् / 'गतिकारकस्य नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनौ क्वौ' (3 / 2 / 85) इति दीर्घः / ‘ब्रूगक व्यक्तायां वाचि' ब्रू वर्तमानासि / ‘ब्रूगः Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते पञ्चानां पश्चाहश्च' (4 / 2 / 118) इति ब्रूस्थाने आह् सेः स्थाने थव् / 'नहाहोर्धतौ' (2 / 1 / 85) इति हकारस्य तकारः / आत्य इति सिद्धम् / आह / आहतुः / आहुः / ब्रू / वर्तमाना तिव् / तस् / अन्ति / ‘ब्रूगः पञ्चा०' इति सूत्रेण णव् अतुस् उस् / ब्रूगश्च आह् इति // 85 / / चजः कगम् // 2 // 1 // 86 // चकारजकारयोः स्थाने धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च ककारगकारादेशौ स्याताम् / [वच्] वक्ता / वक्ष्यति। वाक् / वाग्भिः / जः / [त्यजं वयोहानौ] त्यक्त्वा / त्यक्ष्यति / धुट् पदान्ते इत्येव / वच्मि / प्रत्यय इत्येव इच्छति / [अच् च हल् च] अज्झलावत्र तु संज्ञाशब्दत्वान्न स्यात् [कत्वं न भवति] // 86 // यजसृजमृजराजभ्राजभ्रस्जवश्वपब्रिाजः शः षः // 2 / 1187 // यजादीनां धातूनां चकारजकारयोः शकारस्य च स्थाने धुटि प्रत्यये पदान्ते च ष आदेशः स्यात् / [यज्] यष्टा / देवेट् / [सृजत् विसर्गे] स्रष्टा / तीर्थसृट् / माल / [राजग्टुभ्राजि दीप्तौ] सम्राट् / विभ्राट् / राजभ्राजोः क्तिरेव धुट् / अन्यस्त्विटा व्यवधीयते / राष्टिः / [भ्रस्जीत् पाके] भ्राष्टिः / भ्रष्टा / भी / धानाभृट् / [ओवश्वौत् छेदने] व्रष्टा / मूलवृट् / परिवाट् / शकारारान्तः / [लिशिंच्ऽल्पत्वे] लिश् / लेष्टा / लिट् / छादेशोऽपि शकारो गृह्यते / प्रष्टा / प्रष्टुम् / शब्दप्राट् / यजाविधातुसाहचर्यात् शकारोऽपि धातुसम्बन्ध्येव गृह्यते / तेनेह न स्यात् / निजभ्याम् / निच्छु / अत्र [अस्मिन्नुदाहरणद्वये] परे गत्वे जकारस्यासत्त्वात् 'चजः कगम्' (2 / 1186) इति गत्वं न भवति / चज इत्येव / वृक्षः / वृश्चमाचष्टे णौ विचि वृक्ष // 8 // __ अ० 'यजी देव०' देवेभ्यो यजतीति देवेट् / क्किप् / मार्टा / 'मृजौक् शुद्धौ' मृज् / मार्टीति / तृच् ता वा / 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) गुणः अर् / 'मृजोऽस्य वृद्धिः' / (4 / 3 / 42) अकारस्य आंकारः / भर्टा / 'भ्रस्नीत् पाके' भ्रस्ज् / तृच् / ता वा / 'भृजो भर्ख (4 / 4 / 6) इति विकल्पेन भर्छ / धानाभृज्जति धानाभृट् / किम् / 'ग्रहश्चभ्रस्जप्रच्छः' (4 / 1 / 84) इति वृत् / रस्य ऋः / धानाभृट् / प्रष्टा इत्यादि / 'प्रच्छंत् ज्ञीप्सायाम्' प्रच्छ / पृच्छतीति प्रष्टा / तृच् / पृच्छनाय / प्रष्टुम् / तुम्प्रत्ययः / शब्दं पृच्छतीति शब्दप्राट्,। 'दिद्यद्ददृ०' (5 / 2 / 83) क्किप् / 'अनुनासिके च यः शूट्' (4 / 1 / 108) इति सूत्रेण छस्य शकारः / पश्चात् 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इति शकारस्य षकारः / 'धुटस्तृ०' (2 / 1 / 76) इति षस्य ड् / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) इति डस्य ट् / तथा सम्राट् विभ्राट् इत्यत्रायं विशेषः / सूत्रे राजभ्राज 'राजृग् टुभ्रातृ दीप्तौ' इत्यस्य भ्राजः षत्वम् / 'एजुङ् भ्रेजुङ् भ्राजि दीप्तौ' इत्यस्य भ्राजः षत्वं न भवति, किन्त्वस्य जकारस्य 'चजः कगम्' इति गत्वम् / विभ्राक् / अत एव सूत्रे राजभ्राजौ उभयपदिनौ इह पठितौ / / निज्भ्याम् / निच्छु / निशाभ्याम् / सुप् / ‘मासनिशासनस्य शसादौ लुग्वा' (2 / 1 / 100) इति सूत्रेण आकारलोपः / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति शकारस्य जकारः / निच्छु इत्यत्र तु जे कृते 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) इति जस्य चत्वे कृते 'सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) इति सूत्रेण सुपः सकारस्य तालव्यशकारः / ततः 'प्रथमादधुटि०' (1 / 3 / 4) इति सूत्रेण शस्य छत्वम् / निच्छु इति सिद्धम् / अत्र उदाहरणद्वयेऽव्युत्पत्त्याश्रयणान्नायं शकारो धातुसम्बन्धीति जस्य षत्वं न भवतीत्यर्थः / परे गत्वे कर्तव्ये जस्याऽसत्त्वात् 'चजः कगम्' (2 / 1 / 86) इति गत्वमपि न स्यात् / / 87 / / संयोगस्यादौ स्कोर्लुक् // 2 / 1 / 88 // Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः धुट्प्रत्यये परे पदान्ते च यः संयोगस्तस्य [संयोगस्य] आदौ वर्तमानयोः सकारककारयोर्लुक् स्यात् / लग्नः / लग्नवान् / साधुलक् / साधुमक् / वृषणः / वृक्णवान् / मूलवृट् / [भ्रस्नीत् पाके] भृष्टः / भृष्टवान्। यवभृट् / क् / तष्टः / तष्टवान् / काष्ठतट् / अष्टः / अष्टवान् / तृणाट् / आचष्टे आदाविति किम् ? शङ्केश्व यङ्लुपि शाशति / वावति / स्कोरिति किम् ? ननर्त्ति / कथं मांसं पिपक्षतीति कि / मांसपिपक् / एवं वचो विवक्षते [वाक्ये] वचोविवक् / परस्मिन् लोपे कर्तव्ये कत्वस्यासत्त्वात् [ककारलोपः] न स्यात् // 8 // अ० लग्न इत्यादि / 'ओलजैङ् ओलस्जैति व्रीडे' लस्ज् / लज्जते स्म / लग्नः / लग्नवान् / क्तक्तवतू / 'संयोगस्यादौ०' (2 / 1 / 88) इति संयोगादिसकारलोपः / 'चजः कगम्' (2 / 1 / 86) जस्य गः / ‘सूयत्याद्योदितः' (4 / 2 / 70) इति सूत्रेण प्रत्ययतकारस्य नकारः / साधु अग्रे / 'टुमस्जोंत् शुद्धौ' साधु मज्जतीति साधुमक् / कि / सिलोपः 'संयोगस्यादौ' सलोपः / 'चजः कगम्' 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) 'ओव्रश्चौत् छेदने' व्रश्च / वृश्च्यते स्म / क्तः / 'ग्रहवश्व०' (4 / 1 / 84) इति वृत् / 'संयोगस्यादौ०' सकारलोपः / 'सूयत्याद्योदितः' (4 / 2 / 70) तकारस्य नकारः / 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इति चकारस्य षत्वम् / 'क्तादेशोऽपि (2 / 1 / 61) इत्यनेन प्रतिषिध्यते / 'चजः कगम्' इति चस्य कत्वे कर्त्तव्ये तस्य नकारोऽसन् अत कः / ततः णत्वं च / मूलं वृश्चतीति क्विप् / सिलोपे 'संयोगस्यादौ०' सलुक् / 'यजसृज' इति जस्य षः / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) ड् / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) / ट्.।। तष्टः इत्यादि / 'तक्षौ त्वक्षौ तनूकरणे' तक्ष्यते स्म / क्तक्तवतू / काष्ठं तक्षतीति विप् / 'संयोगस्यादौ०' कस्य लुक् // . - अष्टः इत्यादि / ‘अक्षौ व्याप्तौ च' अक्ष्यते स्म / तृणानि अक्षति तृणाट् // आचष्टे / 'चक्षिक व्यक्तायां वाचि' चश् / आङ्पूर्वम् / वर्तमानाते / 'संयोगस्यादौ०' कस्य लुक् / / शाशक्ति इत्यादि / 'रेकृङ् शकुड् शङ्कायाम्' शक् / 'वकुङ् कौटिल्ये' वक् / 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) / भृशं पुनःपुनर्वा शकते वङ्कते / यङ् / 'सन्यडश्च' (4 / 1 / 3) 'आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48) 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / 14) वर्तमानाते / 'म्नां धुट्वर्गेन्त्योऽपदान्ते' (1 / 3 / 39) नकारस्य ङ / / ननति नृतैच् नर्तने' नृत् / अत्यर्थं नृत्यति / 'व्यञ्जनादेरेकस्वरा०' (3 / 4 / 9) इति यङ् / 'सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) इति नृत् इति द्वित्वम् / 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) 'बहुलं लुप्' यडो लुप् / 'रिरौच लुपि' (4 / 1 / 56) इति र अन्तः / वर्तमानातिव् / 'नामिनो गुणो०' (4 / 3 / 1) / मांसपिपक् / वचोविवक् / 'डुपचींश् पाके' पच् / 'वचंक भाषणे' वच् / पक्तुमिच्छति / वक्तुमिच्छति / 'तुमर्हादिच्छायां स०' (3 / 4 / 21) इति सन् / 'सन्यङश्च' इति द्वित्वम् / 'सन्यस्य' (4 / 1 / 59) इः / 'चजः कगम्' मांसं पिपक्षतीति / वचो विवक्षतीति। विप् / 'अतः' (4 / 3 / 82) अकारलोपः / मांस पिपश् / वचो विवक्ष् इति शब्दः / अत्र संयोगादिककारस्य लुक् कथं न भवतीत्याह-परस्मिन् लोपेत्यादि / अकारलोपे कर्तव्ये कत्वम् असन् इति कस्य न लोपः / पश्चात् 'पदस्य' (2 / 1 / 98) स्लुप् / मांसपिपक् इत्यादि सिद्धम् // 88 / / पदस्य // 2 / 1 / 89 // पदान्ते वर्तमानस्य पदस्य संयोगान्तस्य लुक् अन्तादेशः स्यात् / स च परे स्यादिविधौ च पूर्वस्मिन्नसन् द्रष्टव्यः / पुमान् / पुम्भ्याम् / पुंवत् // गोमान् / महान् / भूयान् / कुर्वन् इत्यादौ संयोगान्तलोपस्य परे कार्येऽसत्त्वादुत्तरसूत्रेण नलोपो न स्यात् ['नाम्नो नोऽनह्नः' (2 / 1 / 91) इत्यनेन लुप् न भवति / स्यादिविधौ च Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते कव्येऽसत्त्वादत्त्वादिलक्षणो दीर्घः स्यात् / भवाशेते इत्यादौ तु ['नः शिब्' (1 / 3 / 19)] श्चादेर्विधानसामर्थ्यान्न भवति // 8 // अ० गोमान्, महान्, श्रेयान् इत्यादि, ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सूत्रेण संयोगान्तलोपः कृतोऽपि असन ज्ञातव्यः इत्युक्तम् / तेन कारणेन उदाहरणेषु सिः। 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति नोऽन्तः / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) सिलोपे 'पदस्य' इति संयोगान्तलोपे ‘अभ्वादे०' (1 / 4 / 90) 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इति दीर्घः / इति शब्दसिद्धिः / प्रवाहत इत्थं शब्दसिद्धिः क्रियमाणास्ति / तथाहि / सिः / 'ऋदु०' (1 / 4 / 70) नोऽन्तः / 'अभ्वादे०' (1 / 4 / 90) 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) दीर्घः / पश्चात् 'पदस्य' इति संयोगान्तलोपः / भूयान् इत्यत्र बहु / अयमनयोर्मध्ये अतिशयेन बहुqयान् / 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (73 / 9) इति ईयस् प्रत्ययः / 'भू क्चेवर्णस्य' (7 / 4 / 41) इति सूत्रेण बहुशब्दस्य भू आदेशः / ईयस्प्रत्यय ईकारस्य लोपश्च / भूयस्शब्दः / सि / 'ऋदु०' नोऽन्तः / क्वापि 'न्स्महतो' इत्यनेन कापि ‘अभ्वादे०' इत्यनेन दीर्घो भवति / / 8 / / रात्सः // 2 / 1190 // ___ पदान्ते वर्तमानस्य संयोगसम्बन्धिनो रेफात्परस्य सकारस्यैव लुक् स्यात् / चिकीः। कटचिकीः। जिहीः / पटजिहीः / पूर्वेणैव ('पदस्य' इत्यनेन) सिद्धे नियमार्थं वचनम् / तेन रेफात्परस्य सस्यैव लोपो नान्यस्य [वर्णस्य] ऊर्छ / ऊग्भ्या॑म् // 10 // अ० चिकीः / कृ / कर्तुमिच्छति / 'तुमर्हादिच्छायाम्०' (3 / 4 / 21) सन् / 'स्वरहनगमोः सनि धुटि' (4 / 1 / 104) इति दीर्घः / 'ऋतां क्डितीर्' (4 / 4 / 116) इर् / 'भ्वादेर्नामिनो' (2 / 1 / 63) दीर्घ इर् / 'सन्यडश्च' (4 / 1 / 3) कीर् इति द्वित्वम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) / ह्रस्वः / 'कडश्चञ्' (4 / 1 / 46) चिकीर्षतीति क्विप् / 'अतः' (4 / 3 / 82) इति सूत्रेण अकारलोपः / 'नाम्यन्तस्था०' (2 / 3 / 15) इति. सस्य षकारः / एवं कटचिकीः / जिहीः / पटजिहीः / नवरं कटं चिकीर्षतीति / पटं जिहीर्षतीति वाक्यं कार्यम् / अत्र अकारलोपे कर्तव्ये सकारस्य षत्वं असत् स्यात् / असत्त्वात् सकारस्यैव लोपः / / उक् / 'ऊर्जण् बलप्राणनयोः' णिच् / ऊर्जयतति ऊर्छ / 'दिद्युद्ददृज्जगजुहूवाक्प्राट्वीश्रीदूंज्वायतस्तूकटपूपरिवाभ्राजादयः किप्' (5 / 2 / 83) इति सूत्रेण भ्राजादित्वात् क्विप् / ऊर्जनं ऊर्ध्व इति वा / सम्पदादित्वात्विप् ('क्रुत्सम्पदादिभ्यः क्विप्' (5 / 3 / 114) / / 9 / / नाम्नो नोऽनह्नः // 2 / 1 / 91 // पदान्ते नाम्नो नकारस्य लुक् स्यात् / अनह्नः। स [नकारः] चेदहन् शब्दसम्बन्धी न भवति / स [नकारलोपः] चाऽसन् स्यादिविधौ / पर इति निवृत्तम् / राजा / दण्डी [राज्ञः पुरुषः] राजपुरुषः / [राजानमिच्छति 'द्वितीयायाः काम्यः' (3 / 4 / 22)] राजकाम्यति / स्यादिविधावसत्त्वात् राजभ्याम् राजभिः राजसु इत्यादौ दीर्घत्व-ऐस्त्वएत्वानि अकारान्तत्वाभावान भवन्ति / अनह्न इति किम् ? अहरेति / अहरधीते / अहोरूपम् / अत्र परविधौ रेफरुत्वयोरसत्त्वानलोपः स्यात् [होयत] स्यादिविधावित्येव / राजायते / अत्र क्यविधौ सत्त्वात् 'दीर्घचियङ्यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इति क्येऽन्त्याकारस्य दीर्घः सिद्धः / नामन्त किम् ? अहन् शत्रुम् / वृक्षान् / सर्वस्मिन् // 11 // अ० नकारलोपस्य असत्त्वफलं दर्शयति-स्यादिविधावित्यादि / राजभ्याम्-अत्र ‘अत आः स्यादौ०' (1 / 4 / 1) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 95 इति दीर्घः / राजभिः-अत्र 'भिस एस्' (1 / 4 / 2) / राजसु अत्र 'एद्हु०' (1 / 4 / 4) इत्येत्वम् / एतानि न भवन्तीत्यर्थः / अहन् / प्रथमासिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) / अहन् द्वितीयाऽम् 'अनतो लुप्' / उभयत्र ‘रो लुप्यरि' (2 / 1 / 75) इति सूत्रेण रकारो नकारस्य / अहरेति / अहरधीते इति सिद्धम् / अहोरूपम्-अह्रो रूपं अहोरूपम् / ‘अह्नः' (2 / 1 / 74) इति सूत्रेण नकारस्य रु इत्यादेशः / 'घोषवति' (1 / 3 / 21) रुस्थाने उकारः / अनह्र इति किम् इत्यादि / अत्र परविधौ इत्यन्तं यावदक्षराणां अयमर्थः-अहन् / नकारलोपवर्जनं किमर्थं कृतमिति व्यावृत्तेरर्थः / यदि च अहन्शब्दस्यापि नकारलोपं कुर्यात् तदा ‘रो लुप्यरि' (2 / 1 / 75) 'अह्र' (2 / 1 / 74) इति रत्वरुत्वयोः कृतयोरसत्त्वात् परविधौ नकारलोपे कर्तव्ये 'नाम्नो नोऽनह' (2 / 1 / 91) इति सूत्रेण नकारलोपः प्राप्नुयात् / नलोपे सति अहरेति अहोरूपमिति न सिद्धयति / अनिष्टं रूपं स्यात् इति 'नाम्नो नोऽनह्न' इति सूत्रे अहन्वर्जनं कृतमित्यर्थः / स्यादिविधावित्येवेत्यादि / स्यादिविधौ कर्तव्ये एव सति नकारलोपो असन् भवति / परं राजायते / अत्र क्यप्रत्ययविधानं न स्यादिविधिविषयं इति हेतोः क्यप्रत्यये नलोपः कृतः कृत एव द्रष्टव्यः (सत्त्वाद् अस्यार्थः) / इति 'दीर्घश्च्वियङ्' (4 / 3 / 108) इत्यादिना अन्त्य अकारस्य दीर्घः प्राप्त इत्यर्थः / / अहन् / हन् / ह्यस्तनीदिव् / अडागमः / 'व्यञ्जनादेः सश्च दः' (4 / 3 / 78) इति दिलोपः // 11 // नामव्ये // 2 / 1192 // आमन्त्र्यार्थस्य नाम्नः सम्बन्धिनो नस्य लुग् न स्यात् / हे राजन् // 92 // .. क्ली वा // 2 / 193 // आमन्त्र्यविषयस्य नाम्नः क्लीबे नपुंसकलिङ्गे वर्तमानस्य नस्य वा लुग् / हे चर्म / हे चर्मन् // 13 // मावर्णान्तोपान्तापश्चमवर्गान् मतोर्मो वः // 2 / 1194 // मकारान्तात् मकारान्तोपान्ताच्च अवर्णान्तात् अवर्णोपान्ताच्च पञ्चमरहितवर्गान्ताच्च नाम्नः परस्य मतोमकारस्य वकारादेशः स्यात् / मकारान्तात् / किंवान् / [शं सुखमस्यास्तीति] शंवान् / मकारोपान्तात् / शमीवान् / लक्ष्मीवान् / अवर्णान्तात् / वृक्षवान् / मालावान् / अवर्णोपान्तात् / अहर्वान् [रो लुप्परि' (2 / 1 / 75) रकारः] / भास्वान् / अपञ्चमवर्गान्तात् / मरुत्वान् / विद्युत्वान् // 94 // अ० मश्च अवर्णश्च मावर्णौ / मावी प्रत्येकं अन्तोपान्तौ यस्य नाम्नः शब्दस्य स मावर्णान्तोपान्तः / न विद्यते पञ्चमो ङ ञ ण न म इति यस्य स चासौ वर्गश्च अपञ्चमवर्गः / तस्मात् / / किंवान् इत्यादौ सर्वत्र सिः / 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इति नोऽन्तः / ‘नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) क्वापि 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) इति सूत्रेण दीर्घः / पश्चात् 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सूत्रेण संयोगान्तलोपः कार्यः सिलोपे कृते सति // 94 // नाम्नि // 2 // 1195 // नाम्नि संज्ञायां विषये मतोर्मस्य व आदेशः स्यात् / ['नद्यां मतुः' (6 / 2 / 72) इति मतुप्रत्ययः] अहीवती / मणीवती / मुनीवती / ऋषीवती / एवंनामानो नद्यः // 9 // अ० अहीवती / अहयः सन्त्यस्याम् 1 / अहीनामदूरभवा 2 / अहीनां निवासः 3 / अहीभिर्निर्वृत्ता 4 / इति चतुरर्थेषु 'नद्यां मतुः' इति मतुः / एवं मणयः मुनयः ऋषयः सन्त्यस्याम् 1 / मणीनां मुनीनां ऋषीणाम् अदूरभवा 2 / मणीनां मुनीनां ऋषीणां निवासः 3 / मणिभिः मुनिभिः ऋषिभिः निर्वृत्ता 4 / 'नद्यां मतुः' सर्वत्र / 'अनजिरादि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते बहुस्वरशरादीनां मतौ' (3 / 2 / 78) इति सूत्रेण दीर्घः / 'अधातूददितः' (2 / 4 / 2) इति डीः / 'नाम्नि' (2 / 1 / 95) इति मतोर्मकारस्य वकारः क्रियते // 95 / / चर्मण्वत्यष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीवद्रुमण्वत् // 2 / 1196 // ___एते शब्दा मत्वन्ता नाम्नि [संज्ञाविषये] निपात्यन्ते / चर्मण्वती नाम नदी / अष्ठीवान् जबोरुसन्धिर्जानुः / चक्रीवान् खरः / चक्रीवानाम राजा वा / कक्षीवानाम ऋषिः / रुमण्वानाम गिरिः // 16 // ___ अ० चर्मण्वती च अष्ठीवांश्च चक्रीवांश्च कक्षीवांश्च रुमण्वांश्च / चर्माण्यस्यास्तीति मतुः / अत्र चर्मन्शब्दस्य नलोपाभावो णत्वं च निपात्यते / अस्थिशब्दस्य अष्ठी इति निपात्यते, चक्रशब्दस्य चक्री इति निपात्यते / कक्षे भवा कक्ष्या 'दिगादिदेहांशाद् यः' (6 / 3 / 124) इति यः / कक्षाय हिता वा कक्ष्या 'तस्मै हिते' (7/1 / 35) यः कुक्षे साधुर्वा कक्ष्या / 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) इति यः / कक्ष्याशब्दस्य कक्षी इति निपात्यते / लुनाति वैरस्यं इति लवणम् / 'नन्द्यादिभ्योऽनः' (5 / 1 / 52) इति अनः / अत एव गणपाठाण्णत्वम् / लवणस्य रुमण् इति निपात्यते मूलसूत्रेण // 16 // उदन्वानब्धौ च // 2 // 1197 // अन्धौ जलाधारे नाम्नि च / उदन्वान् इत्युदकशब्दस्य मतौ निपात्यते / उदन्वान् घटो मेघश्च / नाम्निउदन्वान् समुद्रः ऋषिविशेषश्च आश्रमो वा // 9 // अ० धा / आपो धीयन्तेऽस्मिन्स्थानके इति अब्धिः / जलाधारं घटादिस्थानकम् / 'व्याप्यादाधारे' (5 / 3 / 88) , इति किः / 'इडेत् पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) 'धुटस्तृतीयः' (2 / 176) पस्य ब् / अब्धिः // 97|| राजन्वान्सुराज्ञि // 2 // 1198 // सुराजाभिधेये मतौ राजन्वान् इति निपात्यते / राजन्वान् देशः। राजन्वती पृथ्वी / राजन्वत्यः प्रजाः। सुराज्ञाति किम् ? राजवान् देशः // 98 // अ० राजा विद्यते अस्य / राजा विद्यते अस्या वा / 'अधातूदृदितः' (2 / 4 / 2) ङी // 98 // नोादिभ्यः // 2 // 199 // ऊर्मि इत्यादिनामभ्यः परस्य मतोर्मस्य वो न भवति / ऊर्मिमान् / भूमिमान् / इत्यादि / यवमान् / क्रुश्चामान् / द्राक्षामान् इत्यादि / हरित्मान् / गरुत्मान् [गरुडः] इत्यादि / ज्योतिष्मती / गोमती / कान्तिमती / बन्धुमती / मधुमती। बिन्दुमती / इन्दुमती / भानुमती / हनूमान् ['अनजिरादि०' (3 / 2 / 78) दीर्घः] इत्यादि // 99 // ___ अ० अादिभ्योऽत्र यद्बहुवचनं सेयं शैली आचार्यस्य / कोऽभिप्रायः ? यत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थमित्यक्षराणि आचार्यो निर्दिशति तत्र इदं ज्ञातव्यम् / प्रयोगगम्यो गणोऽयम् / यत्र शब्दानां नैयत्यमेव गणविषये तत्राचार्य एक. वचनमेव निर्दिशति / यथा 'सर्वादः स्मै स्मातौ' (1 / 4 / 7) 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डी' (2 / 4 / 1) इत्यादि / ऊर्मिमान / दल्मिमान् (इन्द्र) / भूमिमान् / तिमिमान् / कृमिमान् / एभ्यो मोपान्त्यत्वान्मतोर्मकारस्य वत्वे प्राप्ते / यवमान् / क्रुश्चामान् / द्राक्षामान् / ध्रांक्षामान् / ध्रांक्षा द्राक्षाविशेषः / वासामान् / एभ्योऽवर्णान्तत्वान्मतोर्वत्वे प्राप्ते / हरित्मान् / गरुत्मान् / गरुत् पिच्छम् / ध्वजित्मान् / ककुद्मान् / ककुद् विद्यतेऽस्य / मत् / अादिगणे Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः द्विदकारपाठात् 'प्रत्यये च' (1 / 3 / 2) इति नानुनासिकः / हरित् / इत्यादिभ्योऽपञ्चमवर्गादिति प्राप्ते / ज्योतिष्मती / महिष्मान् / गोमती / कान्तिमती / हरिमती / चारुमती / इक्षुमती / बन्धुमती / मधुमती / बिन्दुमती। इन्दुमती / द्रुमती / वसुमती / अंशुमती / श्रुमती / हनूमान् / हनुरस्यास्ति / मत् / 'अनजिरादि०' (3 / 2 / 78) दीर्घः / सानुमती / भानुमती / एभ्यो ‘नाम्नीति' (2 / 1 / 95) प्राप्ते अयं प्रतिषेधः / ऊर्मि / दल्मि भूमि तिमि कृमि यव क्रुश्चा द्राक्षा ध्रांक्षा वासा हरित् गरुत् ध्वजित् ककुद् ज्योतिस् महिष गो कान्ति शिम्बी हरि (?) चारु इक्षु बन्धु मधु बिन्दु इन्दु द्रु वसु अंशु श्रु हनु सानु भानु इत्यादिगणः / ऊर्यादिभ्योऽत्र बहुवचनं आकृतिगणार्थम् / तेन यस्य शब्दस्य सति निमित्ते मतोर्वत्वं न दृश्यते स सर्वोऽपि शब्द ऊर्यादिगणे द्रष्टव्यः // 99 / / . मासनिशासनस्य शसादौ लुग्वा // 2 // 1 // 10 // एषां शसादौ परे लुगन्तादेशो वा स्यात् / [शस्] मासः / मासान् / [सप्तमीडि] मासि / मासे / [शस्] निशः / निशाः / [सप्तमीडि] निशि / निशायाम् // निज्भ्याम् / निशाभ्याम् / निच्छु / निशासु / आसनि। आसने // 10 // . ____ अ० निशाभ्याम् / 'मासनिशा' (2 / 1 / 100) इति निश् आदेश) / 'धुटस्तृतीयः' (2 / 1 / 76) इति शकारस्य ज् / अत्र जकारो असन्परे गत्वे कर्तव्ये 'चजः कगम्' (2 / 1186) इति जकारस्य गत्वं न भवति / निच्छु / निशा सुप् / 'मास'. (2 / 1 / 100) इति निश् आदेशः / 'धुटस्तृ०' ज / 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50) जस्य च् / 'सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) सुप्सकारस्य तालव्यशः / 'प्रथमादधुटि शश्छः' (1 / 3 / 4) इति शस्य छत्वम् / निच्छु इति सिद्धम् // 10 // दन्तपादनासिकाहृदयासृग्यूषोदकदोर्यकृच्छकृतो दत्पन्नस्हृदसन्यूषन्नुदन्दोषन्य कञ्शकन् वा // 2 / 1 / 101 // दन्तादीनां शसादौ परे यथासङ्ग्यं दत् पद् इत्याद्यादेशा वा स्युः / दन्त, [शस्] दतः दन्तान् / दता। दन्तेन / दत्सु / दन्तेषु / पाद् [शस्] पदः / पादान् / पदा / पादेन / पत्सु / पादेषु / [नासिकाशब्दः] नसा / नासिकया / हृदि / हृदये / [असृजशब्दस्य असन्] अस्ना / असृजा / [यूषस्य यूषन्] यूष्णा / यूषेण / उदक, / [उदन् ] उद्गा / उदकेन / दोष, [दोषन् आदेशः] दोष्णा / दोषा / [यकृत्शब्दस्य यकन्] यक्ना / यकृता। [शकृत्शब्दस्य शकन् आदेशः] / शक्ना / शकृता // 101 // . अ० अस्ना / यूष्णा उद्गा / दोष्णा / यक्ना / शक्ना / एषु आदेशानन्तरं 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति सूत्रेण अनोऽकारलोपः कार्यः // 101 / / ___यस्वरे पादः पदणिक्यघुटि // 2 // 1102 // पादन्तस्य नाम्नः पद् इत्यादेशः स्यात् णिक्यघुड्वर्जिते यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे / व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपाद् / वैयाघ्रपद्यः / द्विपदः पश्य / [तृतीयाटा] द्विपदा / त्रिपदी गाथा / व्याघ्रपदी स्त्री कुले वा। द्विपदिकां ददाति / द्विपदे हितं द्विपदीयम् / ['तस्मै हिते' (7 / 1 / 35) ईयः] / पादमाचष्टे पद्यमानं प्रयुङ्क्ते वेति पादयते / किपि पाद् / पदः पश्य / पदा / पदे / पदी कुले / अणिक्यघुटीति किम् ? पादमाचष्टे पादयति / क्येति क्यन्क्यङोर्ग्रहणम् / व्याघ्रपाद्यति / व्याघ्रपाद्यते / द्विपादौ / द्विपादः // 102 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते अ० सूत्रे पाद् इति पादशब्दस्य लुप्ताकारस्य अथवा पादयतेः कृतणिलोपस्य निर्देशः कृतः / निर्दिश्यमानानामादेशिनामादेशा' इति न्यायात् केवलस्यैव पाद् इत्यस्य पद् इत्यादेशो भवति, नतु तदन्तस्य सर्वस्य समुदायस्य / व्याघ्रस्येति वाक्ये कृते 'पात् पादस्याऽहस्त्यादेः' (7 / 3 / 148) इति सूत्रेण पादशब्दस्य पाद् / व्याघ्रपदोऽपत्यम् / 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) 'स्वः पदान्तात् प्रागैदौत्' (7 / 4 / 5) इति / वयविचाले ऐ इत्यागमः / ततो 'यस्वरे पादः०' इति सूत्रेण पाद इति स्थाने पद् इत्यादेशः / वैयाघ्रपद्य इति सिद्धम् / द्वौ पादावस्य द्विपाद् / 'सुसङ्ख्यात्' (7 / 3 / 150) इति पादस्य पाद् / शस् / त्रयः पादा अस्याः त्रिपदी / 'सुसङ्ख्यात्' पाद् / 'वा पादः' (2 / 4 / 6) इति सूत्रेण डी / व्याघ्रस्येव पादावस्याः / अनयोर्वा / स्त्रियां ‘वा पादः' (2 / 4 / 6) ङी / 'क्लीबे तु 'औरीः' (1 / 4 / 56) द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां त्रीन् पादान् ददाति त्रिपदिकां ददाति / 'सङ्ख्यादेः पादादिभ्यो दानदण्डे चाकल् लुक् च' (7 / 2 / 152) इति अकल् प्रत्ययः पादस्य अन्त्य अकारलोपश्च / आप् / 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्' (2 / 4 / 111) इकारः / द्वौ पादावस्य द्विपाद् / 'सुसङ्ख्यात्' इत्यनेन पादशब्दस्य पाद् इति व्यञ्जनान्तः / तदनन्तरं द्विपदे हितं इति वाक्यं कार्यम् / पदः इत्यत्र व्यपदेशिवद्भावेन पादन्तत्वम् / व्याघ्रपादमिच्छति क्यन् / व्याघ्रपद इवाचरति क्यङ् // 102 / / उदच उदीच // 2 / 1 / 103 // उदचो नाम्नो अणिक्यघुटि यादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे उदीच् इत्यादेशः स्यात् / उदीच्यः / उदीचः पश्य / उदीची स्त्री कुले वा / उदीचा / अणिक्यघुटीत्येव / उदयति / उदच्यति / उदच्यते / उदञ्चौ / उदञ्चि कुलानि // 10 // ___ अ० उदच् इति उत्पूर्वस्य अञ्चतेः कृतनलोपस्य निर्देशः / उदच् / उदचि भव उदीच्यः / अथवा उदग्भव उदीच्यः / 'थुप्रागपागुदक्प्रतीचो यः' (6 / 3 / 8) इति यः / उदश्चमाचष्टे ‘णिज् बहु०' (3 / 4 / 42) 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) / उदञ्चमिच्छति उदगिवाचरति // 103 / / अच्च् प्राग्दीर्घश्च // 2 / 1 / 104 // अच् इति नाम च चकारमात्रं स्यात् / अणिक्यघुटि यादौ स्वरादौ प्रत्यये परे / प्राक् [कोऽर्थः] पूर्वोsनन्तरः स्वरश्च दीर्थो भवति / प्राच्यः / प्रतीच्यः / प्राचः / दधीचा / मधूचः / पितृचः / पितृचा / प्राची। प्रतीची / स्त्री कुले वा / अन्वाचय [गौण] शिष्टत्वाहीर्घत्वस्य तदभावेऽपि [दीर्घाभावेऽपि] चादेशो भवति / दृषच्चा / दृषच्चे / अच् इति लुप्तनकारस्याञ्चेहणादिह न भवति / साध्वञ्चः / साध्वञ्चा। साध्वञ्चे // 10 // ___अ० प्राचि भवः प्राच्यः / प्राग्भवो वा प्राच्यः / प्रत्यग्भवः प्रतीच्यः / 'धुप्रागपा०' (6 / 3 / 8) इति यः / दधिअञ्चतीति मधुअञ्चतीति पितरमञ्चतीति क्विप् / प्राञ्चतीति प्राङ् / स्त्री चेत् प्राची / प्रत्यञ्चतीति प्रतीची साधुमश्चतीति पूजयतीति साध्वञ्चः / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इति अनर्चायां अपूजायां नकारलोपः / अर्चायां पूजायां नकारलोपो न भवति / यत्र च नकारलोपः तत्रैव 'अच् प्रा०' (2 / 1 / 104) इति सूत्रं प्रवर्तते इत्यर्थः / / 104|| कसुष्मतौ च // 2 // 14105 // [कस् उष् मतुः] णिक्यघुड्वर्जयादौ स्वरादौ प्रत्यये परे मतौ च परे कस् उष् भवति / विदुष्यः / विदुषः [शस् डस्] / विदुषा / विदुषी स्त्री कुले वा / वैदुषम् / पेचुषः [शस् डस्] / पेचुषा / पैचुषम् / [विद्वानस्यास्तीति मतुः] विदु Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः मान् / मतौ चेत्येव / विद्वद्भिः / अणिक्यघुटीति किम् ? विद्वांसमाचष्टे विद्वयति [विद्वांसमिच्छति,] विद्वस्यति / [विद्वानिवाचरति] विद्वस्यते / विद्वांसः / विद्वांसि कुलानि // 105 // __“अ० 'विदंक् ज्ञाने' वेत्तीति विद्वान् / 'वा वेत्तेः कसुः' (5 / 2 / 22) विदुषि साधुः विदुष्यः / 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) इति यप्रत्ययः / पश्चात् 'क्वसुष्मतौ च' (2 / 1 / 105) कस् स्थाने उष् कार्यः / विदुष्यः इति सिद्धम् / / विदुष इदं वैदुषं 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति अण् / 'वृद्धिः स्वरेष्वादेफ्रिति तद्धिते' (7 / 4 / 1) वृद्धिः / वैदुषम् / पेचुषः इति 'डुपचींष् पाके' पच् / पपाच / / पेचिवान् / 'तत्र कसुकानौ तद्वत्' (5 / 2 / 2) वसुः / 'अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्येऽतः' (4 / 1 / 24) इति सूत्रेण पचोऽकारस्य एत्वम् द्वित्वाभावश्च / 'घसेकस्वरातः कसोः' (4 / 4 / 82) इतीट् / / पेचुष इदं पैचुषम् / 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति अण् / कसुष्मतौं च' (2 / 1 / 105) इति कसःस्थाने उष् / पैचुषं इति सिद्धम् // 10 // श्वन्युवन्मघोनो ङी-स्याद्यघुट्स्वरे व उः // 2 / 1 / 106 // श्वन्युवन्मघवन् इत्येषां सस्वरो वकार उकारो भवति / ङी-स्याद्यघुट्स्वरे परे / शुनी / प्रियशुनी कुले [औ] / शुनः / शुने [अतिक्रान्ता युवानम्] / अतियूनी स्त्री। यूनः / यूना / मघोनी / मघोना / मघोनः / डी स्याद्यघुट्स्वर इति किम् ? शौवनम् / यौवनम् / माघवनम् / श्वानौ / युवानौ / नान्तनिर्देशादिह न भवति / गोष्ठश्वेन / युवतीः पश्य / युवत्या / मघवतः पश्य / अर्थवद्ग्रहणादिह न भवति / तत्त्वदृश्वना। मातरिश्वना // 106 // अ० श्वन् / शुन इदं शौवनम् / 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण् / 'द्वारादेः' (7 / 4 / 6) इति सूत्रेण शकारवकारविचाले वृद्धिरागमः / औ / शौवनमिति सिद्धम् / तथा यूनो भावो यौवनम् / 'युवादेरण' (7 / 2 / 67) / वृद्धिः / मघवा देवता अस्य माघवनम् / 'देवता' (6 / 2 / 101) इति सूत्रेण अण् / गोष्ठे श्वेव / 'गोष्ठातेः शुनः' (7 / 3 / 110) इति सूत्रेण अट् समासान्तः / 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) अन्त्यस्वरादिलोपः / गोष्ठश्च / तृतीयाटा / मघो ज्ञानं सुखं वास्यास्तीति / 'तदस्या०' (7 / 2 / 1) इति मतुः / 'मावर्णान्तो०' (2 / 1 / 94) मस्य वः / तत्त्व अग्रे ‘दृशुं प्रेक्षणे' दृश् तत्त्वं दृष्टवान् / तत्त्वदृश्वा / ‘दृशः कनिप्' (5 / 1 / 166) / टा / मातरि अन्तरिक्षे श्वयति गच्छति वर्द्धत इति मातरिश्वा / वातः / 'श्वन्मातरिश्वन्मूर्धन्प्लीहन्नर्यमन्विश्वप्सन्परिज्वन्महन्नहन्मघवन्नर्थवनिति' (902) इति उणादिसूत्रेण निपातः / अत्र 'तत्पुरुषे कृति' (3 / 2 / 20) इति सप्तम्या अलुक् / तृतीयाटा। मातरिश्वना इति सिद्धम् / / 106 / / लुगातोऽनापः // 2 / 1 / 107 // ङी-स्याद्यघुट्स्वरे परे आप्वर्जिताकारस्य लुग्भवति / [कीलालं पिबतीति] कीलालपः / कीलालपा / अनाप इति किम् ? शालाः // 107 // ___ अ० क्त्वा / अग्रे ङस् / ना डस् / 'लुगातोऽनापः' (2 / 1 / 107) क्त्वः / नः / इति रूपं ज्ञातव्यम् / लुगातोऽत्र सूत्रे // 107 // अनोऽस्य // 2 / 1 / 108 // अनोऽकारस्य ङी-स्यायघुट्स्वरे लुग्भवति / राज्ञी / राज्ञः / राज्ञा // 108 // Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ईङौ वा // 2 // 11109 // अनोऽकारस्य ईकारे डौ च परे लुग्वा भवति / [औ] साम्नी / सामनी / सुराज्ञी / सुराजनी कुले / [डि] राज्ञि राजनि / दघ्नि दधनि ['दध्यस्थि०' (1 / 4 / 63) इति अन्] // 109 // __ अ० इह तावत् सप्तमीविभक्तिसम्बन्धिङिः / तत्साहचर्यादीकारोऽपि विभक्तिरूप एव ग्राह्यः / तेन औकारस्थानिनि ईकारे परे 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) इत्यनेन अनोऽकारस्य विकल्पेन लोपः / ङीप्रत्यये तु सति राज्ञी इत्यादिषु 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इत्यनेन नित्यमेवाऽनोकारस्य लोप इति भावः // 109 / / पादिहन्धृतराज्ञोऽणि // 2 / 1 / 110 // षकारादेरनो हन्धृतराजनित्येतयोश्चाकारस्याऽणि [तद्धितविषयेऽणि] प्रत्यये परे लुक् स्यात् / ताक्ष्णः / भ्रौणप्नः / वात्रघ्नः / धार्तराज्ञः / षादीनामिति किम् ? सामनः // 110 // __ अ० ष आदिर्यस्य स षादिः / षादिश्च हन् च धृतराट् च षादिहन्धृतराजानः / तस्य / तक्षन् तक्ष्णोऽपत्यम् 'डसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) इति अण् / भ्रूण 'हनंक हिंसागत्योः' हन् / भ्रूणं हतवान् / एवं वृत्रं हतवान् वृत्रहा / 'ब्रह्मभ्रूणवृत्रात्विप्' (5 / 1 / 161) / भ्रूणघ्नोऽपत्यम् / वृत्रघ्नोऽपत्यम् / 'उसोऽपत्ये' अण् / 'षादिहन्धृते'ति हन् इति अकारस्य लोपः / ततो 'हनो हो धनः' (2 / 1 / 112) इति ह्र इत्यस्य घ्न आदेशः / णकारो वृद्धयर्थः / 'वृद्धिः स्वरे०' (7 / 4 / 1) वृद्धिः / धृतराज्ञोऽपत्यं अण् / 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' (1 / 3 / 60) इति नस्य ञ् // 110 // न वमन्तसंयोगात् // 2 / 1 / 111 // . वकारान्तात् मकारान्ताच्च संयोगात्परस्यानोऽस्य [अकारस्य] लुग् न भवति / पर्वणे [तत्त्वं दृष्टवान् ] तत्त्वदृश्वना / कर्मणा / संयोगादिति किम् ? साम्ना / वमन्तेति किम् ? मूर्ना // 111 // अ० वश्च मश्च / वमावन्ते यस्य वमन्तः / वमन्तश्चासौ संयोगश्च / तस्मात् // 111 / / हनो हो घ्नः // 2 / 1 / 112 // हन्तेर्ह इति रूपस्य घ्न इत्यादेशः स्यात् / भ्रूणघ्नी स्त्री कुले। भ्रूणघ्ना [टा] / घ्नन् / घ्नन्ति / अघ्नन् / [ह्यस्तनीअन्] / हन इति किम् ? अहः / अह्नि / ह्र इति किम् ? वृत्रहणौ / वृत्रहयति // 112 // ____ अ० भ्रूणघ्नी / भ्रूणं हतवान् / 'ब्रह्मभ्रूण०' (5 / 1 / 161) इति किप् / 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः' (2 / 4 / 1) / अथवा 'औरीः' (1 / 4 / 56) 'अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति अकारलोपः / घ्नन् / हन्तीति घ्नन् ‘शत्रानशावेष्यति०' (5 / 2 / 20) / शतृ / घ्नन्ति / हन्, वर्तमानाअन्ति / ‘गमहनजनखनघसः स्वरेऽनङि क्ङिति लुक्' (4 / 2 / 44) / अनोऽकारस्य लोपः / वृत्रं हयति / वृत्रहन् / वृत्रहणमाचष्टे / 'णिज्बहुलम्०' (3 / 4 / 42) णिग् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) अन्त्यस्वरादिलोपः / वृत्रशब्दः // 112 / / लुगस्यादेत्यपदे // 2 / 1 / 113 // [अत् एत् सप्तमीडि] अपदे अपदादौ अकारे एकारे च परे अकारस्य लुक् स्यात् / सः / तौ / ते युष्मभ्यम् पठन्ति / यजे [वर्तमानाए] अदेतीति किम् ? श्रमणे / अपद इत्येव / दण्डाग्रम् / तवैषा // 113 // डित्यन्त्यस्वरादेः // 2 / 1 / 114 // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 101 स्वराणां योऽन्त्यस्वरस्तदादेः शब्दस्य डिति परे लुग्भवति / मुनौ / साधौ / पितुः / पिता / महाकारः। महाघासः / जलजम् / त्रिंशकम् / आसन्नचताः // 114 // अ० महाकरः महतः करो महाकरः / 'महतः करघासविशिष्टे डाः' (3 / 2 / 68) / यदि च महत्याः करः महाकरः इति वाक्यं क्रियते तदा 'स्त्रियाम्' (3 / 2 / 69) इति सूत्रेण डा इत्यन्तादेशः / जले जायते जले जातं जलजम् / 'सप्तम्याः ' (5 / 1 / 169) इति डः / त्रिंशता क्रीतं त्रिंशकम् / 'त्रिंशविंशतेर्डकोऽसंज्ञायामाईदर्थे' (6 / 4 / 129) इति सूत्रेण डकप्रत्ययः / त्रिंशकं इति निष्पत्तिः / आसन्नाश्चत्वारो येषां ते आसन्नचताः / 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति डप्रत्ययः / आसन्नचताः इति सिद्धम् // 114 / / ___अवर्णादश्नोऽन्तो वाऽतुरीङयोः // 2 / 1 / 115 // [अतृ षष्ठी डस्] भावर्जादवर्णात्परस्य अतुः स्थाने [अतृस्थाने] अन्त इत्यादेशो वा भवति, ईड्यो / तुदन्ती / तुदती / कुले स्त्री वा / भान्ती / भाती / करिष्यन्ती / करिष्यती / कुले स्त्री वा / अवर्णादिति किम् ? अदती। सुन्वती / रुन्धती / तन्वती / स्त्री कुले वा / अधीयती स्त्री कुले / जरती स्त्री कुले / अन इति किम् ? क्रीणती। अवर्णादिति विशेषणात् अन इति प्रतिषेधाच लोपदीर्घाभ्यां पूर्वमेवानेनान्तः / भूतपूर्वतया वा पश्चात् / ददती स्त्री ददती कुले इत्यत्र तु कृतेऽप्यन्तादेशे 'अन्तो नो लुक्' (4 / 2 / 94) इति नलोपः॥११५॥ ____ अ० ईङयोः / कोऽर्थः / औकारस्थाने ईप्रत्यये परे डीप्रत्यये परे च / तुदति / अथवा तुदत इति / तुदती / 'शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ' (5 / 2 / 20) इति शतृप्रत्ययः / 'तुदादेः शः' (3 / 4 / 81) इति शः / 'अधातूदृदितः' (2 / 4 / 2) इति डीप्रत्ययः / अथवा / औ / औरीः / भातीति अथवा भात इति भान्ती भाती / डी औश्च / करिष्यति / करिष्यतीति अथवा करिष्यत इति करिष्यन्ती / अत्र स्यपूर्वकशतृप्रत्ययः / ङी औश्च / सर्वत्र ‘अवर्णादश्नो०' (2 / 1 / 115) इत्यनेन अतृस्थाने अन्त इत्यादेशो विकल्पेन भवति / अदतीत्यादि / 'अदंप्सांक् भक्षणे' अत्तीति अदती / 'पुंग्ट् अभिषवे' सुनोतीति सुन्वती / 'स्वादेः श्रुः' (3 / 4 / 75) 'रुबॅपी आवरणे' रुणद्धीति रुन्धती / तनोतीति तन्वती / अत्र सर्वत्र 'शत्रानशावे.' (5 / 2 / 20) शतृ / पश्चात् श्रुः / 'रुधां स्वराच्छ्नो न लुक्च / (3 / 4 / 82) इति 'रुध् विचाले' नः / 'कृगतनादेरुः' (3 / 4 / 83) इति उः / यथाक्रमं. 'अधातूदृदितः' (2 / 4 / 2) इति ङीः / 'इङ् अध्ययने' अधि सुखेनाधीते / अधीयती / 'धारीडोऽकृच्छ्रेऽतृश् (5 / 2 / 25) / इति अतृश् / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) अत् / डी / - 'जृष्ष् च जरसि' / जृ / जीर्यतिस्म जरती / 'वृषोऽतृः' (5 / 1 / 173) इत्यनेन अतृप्रत्ययः / ङी / 'ददती स्त्री इत्यादि 'डुदांग्क् दाने' ददातीति ददती / अथवा दत्त इति ददती / 'शत्रानशा०' शतृ / 'अप्र०' अत् / 'अधातू०' डी / औ / 'औरीः' (1 / 4 / 56) इति ई / अत्र 'नश्चातः' (4 / 2 / 96) इति सूत्रेण दा इति आकारलोपः प्राप्नोति / 'समानानां तेन.' (1 / 2 / 1) इति दीर्घोऽपि प्राप्नोति / उभयप्राप्ते किं विधेयम् ? तत्राह सूरिःअवर्णादिति विशेषणात् अश्नेत्यादि / सूत्रे अवर्णात् इति करणात् अश्न इति प्रतिषेधकरणाच्च / लोपदीर्घ बाधित्वा पूर्वं 'अवर्णादश्नोऽन्तो०' (2 / 1 / 115) इति सूत्रेण अत् स्थाने अन्त आदेशः / अथवा भूतपूर्वेत्यादिलोपे कृतेऽपि भूतपूर्वकत्वेन स्थानिवत्त्वेन वा अवर्णान्तसम्भवः / इति पश्चादपि अन्तादेशः सिद्ध एवेति भावः / पुनः कोऽपि पृच्छति-यदि अवर्णान्तत्वादन्तादेशोऽभवत् / तर्हि ददतीति कथं सिद्धयति ? तत्राह ददतीत्यत्र तु कृतेऽपीत्यादि / अन्तादेशे कृतेऽपि 'अन्तो नो लुग्' (4 / 2 / 94) इति सूत्रेण अन्त इत्यस्य नकारलोपो भवतीत्यर्थः / इति ददतीति Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सिद्धम् // 115 // __इयशवः // 2 / 1 / 116 // [श्यश्च शवश्च तस्मात् ] श्यात् शवश्च परस्य अतुरन्तादेशः स्यात् ईङयोः परयोः / [श्यः] दीव्यन्ती। [शव्] भवन्ती। चोरयन्ती। धारयन्ती स्त्री कुले वा / श्यशव इति किम् ? जरती // 116 // . अ० 'दिवूच् क्रीडे' इति दण्डकधातुः / दिव् / दीव्यतीति शतृ / 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) इति श्यप्रत्ययः / 'भ्वादेर्नामिनो०' (2 / 1 / 63) इति दीर्घः / भवन्ती / अग्रतो दशन्ती / सजन्ती ‘दंशसञ्जः शवि' (4 / 2 / 49) उपान्त्यनलोपः / इत्यपि उदाहरणद्वयं ज्ञातव्यम् / 'धृग् धारणे' धरन्तं प्रयुङ्क्ते णिग् धारयतीति / 'धारीडोऽकृच्छ्रेऽतृश्' (5 / 2 / 25) // 116 / / दिव औः सौ // 2 / 1 / 117 // दिवोऽन्तस्य सौ परे औः स्यात् / द्यौः / प्रियद्यौः / हे द्यौः / साविति किम् ? दिवं पश्य / द्यामिति द्यौशब्दस्य ‘आ अम्शसोऽता' (1 / 4 / 75) इत्याकारे रूपम् // 117 // अ० द्योशब्दो दिवशब्दश्च गगनस्वर्गवाचकौ स्त्रीलिङ्गौ / द्यौ / प्रथमा सिः / 'ओत औः' (1 / 4 / 74) द्यौः / दिव् / प्रथमासिः / 'दिव औः सौ' इति द्यौः / प्रथमासिविभक्तौ परे द्योदिवशब्दयोरेकसदृशं रूपं भवति / प्रिया द्यौर्यस्य स प्रियद्यौः / द्योशब्दः / अम् / 'आ अम् शसोता' / (1 / 4 / 75) इति ओकारस्य आकारः // 117|| उः पदान्तेऽनूत् // 2 / 1 / 118 // [न ऊत् अनूत् 'अन् स्वरे' (3 / 2 / 129)] पदान्ते वर्तमानस्य दिवोऽन्तस्य उकारो भवति सचानूत् / तस्य तूकारस्य न दीर्घः युभ्याम् / युभिः। [दिवं गतः] युगतः / युकामः / विमला दिनम् / पदान्ते इति किम् ? दिव्यति / दिव्यम् / दिवि / अनूदिति किम् ? अद्यौर्योर्भवति युभवति / ऊकारप्रतिषेधाद्वृद्धिर्भवत्येव द्यौकामिः / दिवाश्रयः दिवौकसः इति तु पृषोदरादित्वादकारागमे भविष्यति / वृत्तिविषये वाऽकारान्तो दिव्शब्दोऽस्ति // द्वितीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः // ग्रन्थाग्रम् 354 // ___ अ० सचानूत् इति विधिर्न धुभ्यामित्यादिषु, किन्तु युभवतीत्यत्र अनूत् इति ज्ञातव्यम् / दिव् / 'कमूङ् कान्तौ' कम् / ‘कमेर्णिङ्' (3 / 4 / 1) 'ग्णिति' (4 / 3 / 50) द्यां कामयते द्युकामः / ‘शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमो णः' (6 / 1 / 73) इति णः प्रत्ययः / ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) णिग्लोपः / 'उः पदान्ते०' (2 / 1 / 118) इति उकारः / विमला द्यौर्गगर्ने यत्र दिने तत् विमलद्युः / दिवमिच्छति क्यन् / दिवि भवं दिव्यम् / 'दिगादिदेहांशाद्यः' (6 / 3 / 124) इति यः / 'दिव् अग्रे भवति / अद्यौ?र्भवतीति वाक्ये 'कुम्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे च्विः' (7 / 2 / 126) इति च्चिप्रत्ययः / 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इति च्विलोपः / 'उः पदान्ते' इति उकारः / अत्र 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च' (4 / 3 / 108) इति दीर्घप्राप्तावपि अनूत् इति व्यावृतिबलात् दीर्घो न भवति / युकामस्यापत्यं द्यौकामिः / 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) 'वृद्धिः स्वरे०' (7 / 4 / 1) वृद्धिः औ / दिवि आश्रयो यस्य। दिवाश्रयः। दिवि ओको गृहं येषां ते दिवौकसो देवाः / 'पृषोदरादयः' (3 / 2 / 155) इति अकारो वर्णागमः // 118 / / इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतः प्रथमः पादः समाप्तः // 1|| 1,2 अत्र 'नामसिदयव्यञ्जने' इति सूत्रे यादिप्रत्ययस्यनिषेधात् पदसञ्ज्ञाऽभावात् वकारस्य पदान्तत्वं नास्ति / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः / अहँ क्रियाहेतुः कारकम् // 2 // 2 // 1 // क्रियाया हेतुः कारणं कादि कारकसंज्ञं भवति / तच्च द्रव्याणां स्वपराश्रयसमवेतक्रियानिर्वर्तकं सामय॑म् / करोतीति कारकमित्यन्वर्थसंज्ञाश्रयणाचानाश्रितव्यापारस्य निमित्तत्वमात्रेण हेत्वादेः कारकसंज्ञा न भवति / कारकप्रदेशाः 'कारकं कृता' (3 / 1 / 68) इत्येवमादयः // 1 // __ अ० कारकशब्दोऽयमव्युत्पन्नः क्रियानिमित्तपर्यायः स्वभावानपुंसकलिङ्गः / तच्च कारकं द्रव्याणां घटादीनां सामर्थ्य शक्तिरूपं भवतीति सम्बन्धः / कीदृशं सामर्थ्यम् ? स्वपरेति / स्वश्च परश्च स्वपरौ / स्वपरयोराश्रयः / स्वपराश्रये : समवेता समवस्थिता या क्रिया / क्रिया च त्रिधा भवति-चैत्र आस्ते इति स्वाश्रिता क्रिया / घटं करोति इति पराश्रिता क्रिया / अन्योऽन्यमाश्लिष्यते मित्रे इत्युभयाश्रिता क्रिया / तस्यास्त्रिविधक्रियाया निर्वर्तकं निष्पादकं एवंविधं सामर्थ्य शक्तिः कारकमुच्यते / अनुगतोऽर्थो यस्यां साऽन्वर्था / सा चासौसंज्ञा च / हेतोः / हेतुकर्तुः' / आदिशब्दात्सम्बन्धस्य सहार्थस्य कारकसंज्ञा न भवति / / 1 / / स्वतन्त्रः कर्ता // 2 // 2 // 2 // क्रियाहेतुभूतो यः क्रियासिद्धावपरायत्ततया प्राधान्येन विवक्ष्यते स कारकविशेषः कर्तृसंज्ञो भवति / देवदत्तः पचति / मित्रेण कृतम् / प्रयोजकोऽपि कर्तेव-पचन्तं देवदत्तं प्रयुङ्क्ते / देवदत्तेन पाचयति चैत्रः। कर्तृप्रदेशा 'इङितः कर्तरि' (3 / 22) इत्यादयः // 2 // ___ अ० स्व आत्मा तन्त्रं प्रधानं यस्य व्यापारकाले स स्वतन्त्रः / प्रेरयिता / प्रेरकः / हेतुरपि कर्ता भवति हेतुः कर्ता इति // 2 // कर्तृाप्यं कर्म // 2 // 2 // 3 // [कर्मसंज्ञाधिकारे ‘कर्तुाप्यं कर्मे'त्यादि आरभ्य 'कालाध्वभावदेशं वा कर्म चाकर्मणाम्' (2 / 2 / 23) इत्यन्तं यावत् एकविंशति 21 सूत्राणि ज्ञातव्यानि / ] का क्रियया यद् विशेषेणाप्नुमिष्यते तन्याप्यम्, तत्कारकं कर्मसंज्ञं भवति / प्रसिद्धस्यानुवादेनाप्रसिद्धस्य विधानं लक्षणार्थः / तेन यत्कर्म का क्रियते तत् व्याप्यसंज्ञं भवतीत्यपि सूत्रार्थः / तत्कर्म त्रेधा-निर्वयम्, विकार्यम्, प्राप्यं च / पुनरेतत् कर्म त्रिविधम्-इष्टं अनिष्टं अनुभयं च / पुनस्तत् कर्म द्विविधम्-प्रधानाप्रधानभेदात् / तच्च द्विकर्मकेषु धातुषु दुहि-भिक्षि-रुधि-प्रच्छि-चिग्-ब्रूग्-शास्वर्थेषु, याचि-जयति-प्रभृतिषु च भवति / दुह्यर्थ,-गां दोन्धि पयः [अम्] / गां म्रावयति पयः / भिक्ष्यर्थ.-पौरवं गां भिक्षते / [पौरवं गां] याचते / चैत्रं शतं मृगयते / [चैत्र शतं] प्रार्थयते / गामवरूणद्धि ब्रजम् / छात्रं पन्थानं पृच्छति / वृक्षमवचिनोति फलानि / शिष्यं धर्मं ब्रूते / शिष्यं धर्ममनुशास्ति / अविनीतं याचते विनयम् / गर्गान् शतं जयतिदण्डयति / ग्रामं शाखां कर्षति / काशान् कटं करोति / अमृतमम्बुनिधि मथ्नाति / अजां ग्रामं नयति / ग्रामं भारं हरति-वहति / सैन्धवमश्वं मुष्णाति / शतानीकं शतं गृह्णाति / तन्दुलानोदनं पचति / अप्रधानकर्म.दुहादीनामप्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवति / गौर्दुह्यते पयो मैत्रेण याच्यते। भिक्ष्यते गां पौरवः / अवरुध्यते 1. हेतुस्वरूपकर्तुः / गमनकर्ता चैत्रो मैत्रनिष्ठगमनक्रियां प्रति निमित्तमात्रमेव / / यदा तु यत्र आदेशनिर्देशादिना प्रेरयति तदा तत्र स प्रयोजककर्ता भवति / नतु तस्य दर्शनमात्रम् / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते गां व्रजः / पृच्छयते पन्थाश्छात्रम् / अवचीयते वृक्षः फलानि / उच्यते शिष्यो धर्मम् / शिष्यते शिष्यो धर्मम् / जीयते शतं चैत्रः / गर्गाः शतं दण्ड्यन्ताम् / देवासुरैरमृतमम्बुनिधिर्ममन्थ इत्यादि / नी-वहिहरत्यादीनां तु प्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययः-नीयते ग्राममजा। उह्यते भारो ग्रामम् / इत्यादि / तथा गत्यर्थानां [णिगन्तानां] अकर्मकाणां च णिगन्तानां प्रधाने एव कर्मणि कर्मजः प्रत्ययः-गमयति मैत्रं ग्रामम् / गम्यते मैत्रो ग्रामं चैत्रेण / [आस्ते मैत्रः तं चैत्रः प्रयुङ्क्ते] आसयति मासं मैत्रम् / आस्यते मासं मैत्रः / बोधाहारार्थशब्दकर्मणां तु णिगन्तानामुभयत्र-बोधयति शिष्यं धर्म गुरुः / बोध्यते शिष्यो धर्मम् / बोध्यते शिष्यं धर्मों गुरुणा / भोजयत्यतिथिमोदनम् / भोज्यतेऽतिथिरोदनम् / भोज्यतेऽतिथिमोदनः / पाठयति शिष्यं ग्रन्थ गुरुः / पाम्यते शिष्यो ग्रन्थम् / पाम्यते शिष्यं ग्रन्थो गुरुणा इत्यादि // 3 // ___ अ० यत् असत् जायते जन्मना वा प्रकाश्यते तन्निवर्यं कर्म उच्यते-घटं करोति पुत्रं प्रसूते / तथा विकार्यते - प्रकृत्युच्छेदेन गुणान्तराधानेन वा यत् विकृतिमापद्यते अन्यथात्वं लभ्यते तद्विकार्यं कर्मकाष्ठं दहति / यत्र तु क्रियाकृतो विशेषो नास्ति तत्प्राप्यं कर्म-आदित्यं पश्यति / यत् स्वरुच्याऽवाप्तुं क्रिया आरभ्यते तत् इष्टं कर्म-कलामीहते। यच्च द्विष्टं प्राप्यते तत् अनिष्टम्-अहिं लश्यति / विषं भक्षयति / यत्र च नेच्छा न च द्वेषः तत् अनुभयम्ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति / समीपेन यातीत्यर्थः / वृक्षच्छायां लक्ष्यति / दुह्यर्थ-भिक्षार्थ-रुध्यर्थ-प्रच्छयर्थचिगर्थ-ब्रूगर्थ-शास्वर्थधातुप्रयोगे / याचि-जयति-दण्डि-कृषि-कृग्-मन्थ्-नीह-वह-मुष्-ग्रह-पचि-धातुप्रयोगे प्रधानं कर्म भवति / यथाक्रमं दुहादीनां धातूनां प्रयोगान् दर्शयति / गां दोग्धि पयः इत्यादि / / गां दोन्धि पयः / गां स्रावयति पयः / गां क्षारयति पयः / इत्यादिषु कर्मद्वयं द्वयम् / परं एक प्रधानम् / यदर्थं गाढं प्रयत्नः तत् प्रधानं मुख्यं कर्म / पयोऽर्थे दोहनम् अतः पयः प्रधानं कर्म / गो इति अप्रधानं गौणं कर्म / यत् स्वार्थाय अन्यत् क्रियया व्याप्यते तत् गो इति अप्रधानम् / एवमग्रेऽपि स्वबुद्ध्या युक्त्या प्रधानाप्रधानकर्मभावना विमर्शनीया / अथवा प्रधानाप्रधानकर्मविवक्षाऽग्रेतनप्रयोगेषु गौर्दुह्यते पयो मैत्रेण इत्यादिषु आचार्यो दर्शयिष्यति, तया युक्त्या प्रधानाप्रधानकर्मद्वयविचारो ज्ञातव्यः / 'इं दुं दुं शुं सुं गतौ' सु / सवन्ती गां प्रयुङ्क्ते / अथवा स्रवत् पयः प्रयुङ्क्ते / पौरवमित्यत्र 'पुरुमगधकलिङ्गसूरमसद्विस्वरादण' (6 / 1 / 116) इति अण् / 'भिक्षि याच्ञायाम्' 'मृगणि अन्वेषणे' / व्रजं सेवमानां गां सेवते गोपाल इत्यर्थः / 'चिंग्ट् चयने' 'शासूकि अनुशिष्टौ' / याचिरिहानुनयार्थः / तेन भिक्षार्थाद्भेदः / / मोचयति / / तन्दुलान् विक्लेदयन् विकुर्वन् ओदनं करोतीत्यर्थः / / पुनरप्रधानं कर्म प्रकारान्तरेण दर्शयति। दुहादीनामित्यादि / कर्मजः प्रत्ययः क्यः / आत्मनेपदं वा यत्र भवति / तत्र क्य-आत्मनेपदादिभिः कर्म उक्तम् / उक्ते सति प्रथमा भवति / 'उक्ते सर्वत्र प्रथमा इति वचनात्' यत् उक्तं कर्म तदप्रधानं कर्म ज्ञातव्यम् / गो इति अप्रधानं कर्म / पय इति प्रधानं कर्म / एवमग्रेऽपि यत्र यत्र प्रथमाविभक्तिः तत् तत् अप्रधानं कर्म इत्यर्थः / गौटुंह्यते, गौर्दुग्धा, गौर्दोह्या पयो मैत्रेण इति प्रयोगाः कर्मजप्रत्यये ज्ञातव्याः / 'शासूकि अनुशिष्टौ' शास् ते 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) / क्यः / 'इसासः शासोऽङ् व्यञ्जने' (4 / 4 / 118) इति इसादेशः / नीयते ग्राममजा, नीता ग्राममजा, नेतव्या ग्राममजा इत्यपि प्रयोगाः कर्मजे प्रत्यये ज्ञातव्याः / अकर्मणां अस्त्यादीनां णिगन्तानामित्यर्थः; सेट्क्तयोः णिलुक् गम्यते / गमिता गम्यो वा मैत्रो ग्रामं चैत्रेण इति कर्मजप्रत्यये ज्ञातव्याः / उभयत्र इति कोऽर्थः ? प्रधाने कर्मणि वाच्ये कर्मजः प्रत्ययो भवति / अप्रधानेऽपि कर्मणि वाच्ये कर्मजः प्रत्ययो भवति / कर्मजे प्रत्यये Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः उक्तं कर्म / उक्ते प्रथमा भवति / यत्र प्रथमा तत् अप्रधानं गौणं कर्म उच्यते इति भावः // बोधयति / भोजयति / पाठयतीति प्रयोगे णिगन्तेन कर्मद्वयं दर्शयित्वा बोध्यते भोज्यते पाठ्यते इति विधिना कर्मजप्रत्ययेन उक्तं कर्म दर्शयति // 3 // वाऽकर्मणामणिक्कर्ता णौ // 2 // 2 // 4 // ___ अविवक्षितकर्मणां धातूनां प्रयोगे णिगः प्राग् यः कर्ता स णौ णिगि सति कर्मसंज्ञो वा स्यात् / पचति चैत्रः / [पाचयति चैत्रः पक्षे] / पाचयति चैत्रेण मैत्रः [मैत्रपुरुष चैत्रपुरुषकनी पचावइ इसइ अर्थि उक्ति जाणिवी] / एवं लेखयति मैत्रं मैत्रेण वा / गत्यर्थादीनां तु परत्वान्नित्य एव विधिः // 4 // अ० अविवक्षितकर्मणामित्यादि / उत्तरसूत्रे नित्याकर्मणामिति ग्रहणात् इह वाऽकर्मणामिति सूत्रे पचत्यादिधातवः सकर्मका एव / परं कर्म न विवक्ष्यते इति अविवक्षितकर्मणां धातूनां प्रयोगे इति प्रोक्तम् / पचिधातुः लिखधातुः सकर्मक एवास्ति / किं पचति / किं पाचयति / किं लिखति / किं लेखयति इत्यादि कर्म न विवक्ष्यते / / पचति चैत्रः / पचन्तं चैत्रं मैत्रः प्रयुङ्क्ते इति हेत्वर्थे णिग् प्रत्ययः / चैत्रः कर्ता आसीत् परं णिगि कृते चैत्रमिति कर्मपदं जातम् / किं पचति किं लिखति इति कर्मव्याप्यं न विवक्षितम् / इयता कृत्वा अविवक्षितकर्मणां सूत्रार्थे उक्तम् / / 4 / / गतिबोधाहारार्थशब्दकर्मनित्याकर्मणामनीखाद्यदिहाशब्दायक्रन्दाम् // 2 // 25 // गत्यर्थ-बोधाभं-आहारार्थानां शब्दकर्मणां नित्याकर्मणां च धातूनां नीखादिअदिह्वयतिशब्दायतिक्रन्दवर्जितानामणिगवस्थायां [णिगः पूर्व] यः कर्ता स णौ सति [णिगि सति] कर्मसंज्ञः स्यात् / गत्यर्थ. गच्छति मैत्रो ग्रामम् / गमयति मैत्रं ग्रामं चैत्रः / गत्यर्थादन्यत्र स्त्रियं गमयति मैत्रेण चैत्रः [प्रयोज्यकर्तरि तृतीयैव] / भजनार्थोऽत्र [सेवनार्थः] गमिः // सामान्यबोधार्थ. बुध्यते शिष्यो धर्मम् / बोधयति गुरुः शिष्यं धर्मम् / एवं जानाति ज्ञापयति उपलम्भयति ['लभः' (4 / 4 / 103) इति सूत्रेण नोऽन्तः] अवगमयतीत्यादिविशेषबोधार्थं पश्यतीत्यादि // आहारार्थ. भुङ्क्ते बटुरोदनम् / भोजयति बटुमोदनम् / एवं अनाति बटुर्भक्तम् / आशयति बटुं भक्तम् // शब्दक्रिया. [शब्दकर्म] जल्पति मैत्रौ द्रव्यम्, जल्पयति मैत्रं द्रव्यम् / एवं [आलपति मित्रं मैत्रः] आलापयंति [सम्भाषते मैत्रो भार्याम्] सम्भाषयति मैत्रं भार्याम् // ____ शब्दव्याप्य. शृणोति शब्द मैत्रः / श्रावयति शब्दं मैत्रम् / अधीते बटुर्वेदम् / अध्यापयति बटुं वेदम्। एवं जल्पयति / [मित्रं वाक्यम् ] विज्ञापयति गुरुं वाक्यम् / उपलम्भयति [शिष्यं विद्याम्] // नित्याकर्मक. आस्ते मैत्रः / आसयति मैत्रं चैत्रः / एवं शेते शाययति [शेते मैत्रः शाययति मैत्रं चैत्रः] // कालाध्वभावदेशैश्च सर्वेऽपि धातवः सकर्मका एवेत्यन्यकर्मापेक्षया नित्याकर्मका ज्ञातव्याः // गत्यर्थादीनामिति किम् ? पचत्योदनं चैत्रः। पाचयत्योदनं चैत्रेण मैत्रः [प्रयोज्यकर्त्तरि तृतीयाऽत्र भवति] / अणिकर्तेत्येव-गमयति चैत्रो मैत्रम्, तं अपरः [जिनदत्तादिः] प्रयुङ्क्ते / गमयति चैत्रेण मैत्रं जिनदत्तः / नयत्यादिवर्जनं किम् ? नयति भारं चैत्रः / नाययति भारं चैत्रेण / एवं खादयति / आदयति ओदनं मैत्रेण / ह्वाययति / शब्दाययति चैत्रं मैत्रेण / एवं क्रन्दयति // 5 // अ० गतीत्यादि / अर्थशब्दः गत्यादिभिः सह सम्बध्यते / गत्यर्थ-बोधार्थ-आहारार्थ / गतिश्च बोधश्च आहारश्च गतिबोधाहाराः, तेषामर्थो येषाम् / शब्दः कर्म येषां ते शब्दकर्माणः / नित्यं अकर्म येषां ते नित्याकर्माणः / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते गत्यर्थाश्च बोधार्थाश्च आहारार्थाश्च शब्दकर्माणश्च नित्याकर्माणश्च तेषाम् / नीश्च खादिश्च अदिश्च ह्वाश्च शब्दायश्च क्रन्दश्च ते नीखाद्यदिह्वाशब्दायक्रन्दाः / अनीखाद्येति / / गतिः देशान्तरप्राप्तिः / देशान्तरप्राप्तिरूपा एव गत्यर्था इह गृह्यन्ते / बोधो ज्ञानमात्रं सामान्यज्ञानविशेषज्ञानवृत्तयो बोधार्था धातवो ज्ञातव्याः / कर्म क्रिया एकार्थाः / शब्दः कर्म, शब्दो व्याप्यं येषां ते शब्दकर्मधातव उच्यन्ते / न कर्म येषां ते अकर्माणः / नित्यं सदा अकर्माणःयेषां धातूनां प्रायः कथमपि कर्म न भवति ते धातवो नित्याकर्माण उच्यन्ते / णिगि सति नित्याकर्माणोऽपि धातवः / कर्मत्वं आश्रयन्ति तदेव सूत्रार्थे दर्शयति-अणिगवस्थायामित्यादि / अत्र नित्यग्रहणं पूर्वसूत्रे अविवक्षितकर्मकपरिग्रहार्थम् / नित्यग्रहणं विना अकर्मकाणामित्युक्ते विभागो न ज्ञायत इति भावः / / ___ यत्र गमिर्देशान्तरप्राप्तौ न वर्तते तत्र स्त्रियं गमयतीति प्रयोगः / अत्र मैत्रं न कर्म जातम् / चेत्तु पुरुषु कन्हा स्त्री गमावइ कोऽर्थः ? मैत्रकन्हा स्त्री रहइ सेवावइ इत्यर्थः / जानातेः परे णिगि कृते ज्ञापयति इति भवति / ज्ञापयति गुरुः शिष्यं धर्मम् / विशेषबोधे विशेषज्ञाने प्रयोगाः- पश्यति रूपतर्कः कार्षापणम्, वणिग् दर्शयति रूपतर्क कार्षापणम् / एवं जिघ्रति मैत्र उत्पलम् / घ्रापयति मैत्रमुत्पलम् / स्पृशति मैत्रो वस्त्रम् / स्पर्शयति मैत्रं वस्त्रम्। शृणोति शिष्यो धर्मम् / श्रावयति शिष्यं धर्मम् / स्मरति शिष्यः शास्त्रम् / स्मारयति शिष्यं शास्त्रम् / अधीते शिष्य आगमम् / अध्यापयति शिष्यमागममिति / नित्यग्रहणं सूत्रे यत्कृतं तत् पूर्वसूत्रे वाऽकर्मणामित्यत्र अविवक्षितकर्मकपरिग्रहार्थमिति भावः / ह्वाययति / ‘ढेङ् स्पर्धायां वाचि' ह्वे / 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) ह्वा। ह्वान्तं प्रयुङ्क्ते / णिग् / 'पाशाच्छासावेव्याह्वो यः' (4 / 2 / 20) इति सूत्रेण योऽन्तः / वर्तमानातिव् शव् गुणः / . शब्दाययति / शब्द / शब्दं करोति / 'शब्दादेः कृतौ वा' (3 / 4 / 35) इति क्यङ् / ततः शब्दायते इति क्विप् / पुनः शब्दायं करोतीति 'णिज् बहुलम्०' (3 / 4 / 42) णिच् / / 5 / / भक्षेहिंसायाम् // 2 / 2 / 6 // +भक्षेहिँसार्थस्य अणिग् कर्ता णौ सति कर्मसंज्ञः स्यात् / भक्षयति सस्यं बलीवर्दान्मैत्रः / उक्ते च कर्मणि-भक्ष्यन्ते यवं बलीवर्दाः / भक्ष्यते यवो बलीवर्दान् मैत्रेण इति वा / हिंसायामिति किम् ? भक्षयति पिण्डी शिशुना / भक्षयति राजद्रव्यं नियुक्तेन मैत्रः / अत्र भक्षिराक्रोशे // 6 // अ० +स्वार्थिकण्यन्तस्य / वनस्पतीनां प्रसवप्ररोहवृद्धयादिमत्त्वेन चेतनत्वात्तद्विशेषस्य सस्यस्य प्राणवियोगस्तद्भक्षणात् स्वाम्युपाघातो वा अत्र हिंसेति भक्षेहिँसार्थता / 'भक्षण अंदने' भक्ष् / 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) भक्षयन्ति सस्यं बलीवर्दाः / बलीवर्दान् मैत्रः प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे' (3 / 4 / 20) भक्षयति पिण्डी शिशुः / तं शिशु पिता प्रयुङ्क्ते / णिग् / / भक्षयति राजद्रव्यं नियुक्तोऽधिकारी / तं भक्षयन्तं नियुक्तं मैत्रः प्रयुङ्क्ते / णिग् // 6 // वहेः प्रवेयः // 2 // 2 // 7 // वहेरणिकर्ता प्रवेयो णौ सति कर्मसंज्ञः स्यात् / वाहयति भारं बलीवान् नियन्ता / वाहयति भारस्य ['कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) इत्यनेन षष्ठी] बहीवन, वाहयिता बलीव नां भारम् / वाह्यन्ते भारं बलीवर्दाः / प्रवेय इति किम् ? वाहयति भारं मैत्रेण / अत्र मैत्रो बलीव दिवत् न प्रवेयः [न नोदनीयः // 7 // ___ अ० प्रपूर्व 'अज क्षेपणे च' अज् / प्रवीयते प्राजतिक्रियया व्याप्यते यः स प्रवेयः / 'अघञ्क्यबलच्यजेवीं' (4 / 4 / 2) इति सूत्रेण अधातुस्थाने वी आदेशः / तदनन्तरं ‘य एच्चातः' (5 / 1 / 28) इति यप्रत्ययः / 'नामिनो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः गुणोऽङिति' (4 / 3 / 1) गुणः / वहन्ति. वहन्तीति कोऽर्थः ? देशान्तरं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः / भारं बलीवर्दाः / बलीवर्दान् भारं वहतः / सारथिनियन्ता प्रयुङ्क्ते / णिग् / वाहयति / इति सिद्धम् / / 7 / / हक्रोर्नवा // 2 // 28 // ____ हरतेः करोतेश्चाणिकर्ता णौ कर्मसंज्ञो वा भवति / प्राप्ते चाप्राप्ते चायं विकल्पः / प्राप्ते-विहारयति देशमाचार्यमाचार्येण वा। आहारयत्योदनं बालकं बालकेन वा। विकारयति सैन्धवान् सैन्धवैर्वा / विकारयति स्वरं क्रोष्टारं क्रोष्टुना वा / अप्राप्ते-हारयति द्रव्यं मैत्रं मैत्रेण वा / कारयति कटं चैत्रं चैत्रेण वा // 8 // अ० विहरति देशमाचार्यः / आचार्य विहरन्तं सङ्घः प्रयुङ्क्ते 'अनतोऽन्तोऽदात्मने' (4 / 2 / 114) अत् / विकुर्वते सैन्धवाः / सैन्धवान् विकुर्वतो मैत्रः प्रयुङ्क्ते / विकुरुते स्वरं क्रोष्टा / तं प्रयुक्ते मैत्रः / विहारयति देशम् / आहारयत्योदनं० / विकारयति सैन्धवान् / विकारयति स्वरः क्रोष्टारम् / अत्र यथाक्रमं गत्यर्थ-आहारार्थनित्याकर्मक-शब्दकर्मकत्वेन पूर्वसूत्रेण प्राप्तिः / प्राप्तौ सत्यां 'हक्रोर्नवा' इत्यनेन विकल्पः कृतः कर्मणः / विहारयति देशमाचार्य-विहारयति देशमाचार्येण सङ्घ इत्यादि / हरति द्रव्यं मैत्रः / हरन्तं मैत्रं चैत्रः प्रयुङ्क्ते / करोति कटं चैत्रः / तं मैत्रः प्रयुङ्क्ते / हारयति द्रव्यं मैत्रम् / पक्षे हारयति द्रव्यं मैत्रेण / कारयति कटं चैत्रः / कारयति कटं चैत्रेण / हारयतीत्यत्र हरतिश्चौर्यार्थो न प्रापणार्थः इति अप्राप्तिः / यदि प्रापणार्थो विवक्ष्यते तदा प्राप्ते विभाषा / तथा कारयिता घटस्य देवदत्तम् / कारयिता घटस्य देवदत्तेन / कारयिता घटं देवदत्तस्य / कारयिता घटं देवदत्तेन / अत्र कर्मणि षष्ठी ‘कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) इत्यनेन / 'हक्रोर्नवा' इत्यत्र विशेषोऽयम् // 8 // दृश्यभिवदोरात्मने // 2 / 2 / 9 // दृशेरभिपूर्वस्य वदतेश्चात्मनेपदविषयेऽणिकर्ता णौ कर्मसंज्ञो वा स्यात् / दर्शयते राजा भृत्यान् भृत्यैर्वा / अभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येण वा / अथवा अभिवादयते गुरुं शिष्यं शिष्येण वा मैत्रः / एवं दर्शयमानो राजा भृत्यान् भृत्यैर्वा / अभिवादयमानो गुरुः शिष्यं शिष्येण वा / आत्मने इति किम् ? दर्शयति रूपतक कार्षापणम् / अभिवादयति गुरुं शिष्येण // 9 // अ० अभिपूर्व 'वद व्यक्तायां वाचि' वदधातुः / आत्मनेपदसप्तमीडी / सूत्रत्वात् पदेन सार्द्धं विभक्तेर्लोपः / दृशेर्बोधार्थत्वेन नित्यं कर्मत्वे प्राप्ते अभिवदतेस्तु नित्यं अप्राप्ते 'दृश्यभिवदोरात्मने' इति सूत्रेण विकल्पः कृतः / यदाभिवदिधातुः प्रणामार्थो न विवक्ष्यते किन्तु शब्दक्रियो विवक्ष्यते तदाभिवादयते गुरुं शिष्यं मैत्रः इति नित्यं कर्मत्वे प्राप्ते विभाषा ज्ञातव्या / / अभिपूर्ववदव्यक्तेति धातुना सूरिरभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येणेति साधयति / परं णिजन्तस्यापि वर्णिगि कर्मत्वमिच्छन्त्येके / तथाहि- ‘वदिण् भाषणे' इति युजादौ चुरादिधातुः / 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) / अभिवादयति आशिषं प्रयुङ्क्ते गुरुः शिष्यं तं गुरुमभिवादयन्तं शिष्यः प्रयुङ्क्ते / अभिवादयते गुरुं शिष्यः गुरुणा वा / शिष्य आत्मनि आशिषं प्रयोजयतीत्यर्थः / पश्यन्ति भृत्या राजानम् / तान् भृत्यान् राजा एवानुकूलाचरणेन प्रयुङ्क्ते णिग् / दर्शयते राजा भृत्यान् / दर्शयते राजा भृत्यैः; अत्र ‘अणिकर्मणिक्कतृकाण्णिगोऽस्मृतौ' (3 / 3 / 88) इत्यात्मनेपदम् / अभिवदति कोऽर्थः ? कायेन प्रणमति गुरु शिष्यः / तं शिष्यं गुरुः प्रयुङ्क्ते / अभिवदिः प्रणामार्थे / कायेन प्रणामोऽभिवाद उच्यते / अत्र दर्शयते दर्शमानः 'शत्रानशावेष्यति०' Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते (5 / 2 / 20) इति आनश्प्रत्ययः / 'अतो म आने' (4|4|114) मोऽन्तः / / पश्यति रूपतर्कम् कार्षापणं तमन्यः प्रयुङ्क्ते // 9 // नाथः // 2 // 2 // 10 // ___ अणिकर्ता णाविति निवृत्तं पृथग्योगात् / आत्मनेपदविषयस्य नायतेाप्यं कर्म वा स्यात् / आत्मनेपदविषयत्वं चास्याशिष्येवेति तत्रैवायं विधिः। सर्पिषो नाथते / सर्पि थते / सर्पिर्मे भूयादित्याशास्त [आशंसां करोति] इत्यर्थः / सर्पिषो नाथमानः [कर्मपक्षे सम्बन्धे षष्ठी सर्वत्र भवति] सर्पि थमानः / सर्पिषो नाथ्यते सर्पिर्नाभ्यते / आत्मन इत्येव / पुत्रमुपनाथति [उपयाचते प्रार्थयते] पाठाय // 10 // अ० अस्य नाथतेः 'आशिषि नाथः' (3 / 3 / 36) इत्यात्मनेपदत्वम् / तत्रैव आशिष्येवार्थे कर्मत्वविकल्पः न याचनार्थे // 10 // . स्मृत्यर्थदयेशः // 2 // 2 // 11 // स्मरणार्थानां दयतेरीशश्च व्याप्यं कर्म वा स्यात् / मातुः स्मरति मातरं स्मरति / मातुः 'स्मयते माता स्मर्यते / मातुः स्मर्तव्यम् माता स्मर्तव्या [मातुः स्मृतं] इत्यादि / एवं मातुरध्येति मातरमध्येति / मातुर्ध्यायति मातरं ध्यायति इत्यादि / सर्पिषो दयते सर्पिदयते / लोकानामीष्टे लोकानीष्टे / व्याप्यमित्येव / कथासु स्मरति / गुणैः स्मरति // 11 // अ० १“क्ययङाशीर्ये' (4 / 3 / 10) इति गुणः // 11 // कृगः प्रतियत्ने // 2 // 2 // 12 // पुनर्यत्नः प्रतियत्नः। सतो गुणाधानाय [सतो विद्यमानार्थस्य गुणान्तरकरणार्थः] / अपायपरिहाराय वा अशुभ उत्तारणार्थ वा समीहा प्रतियत्नवृत्तेः करोतेाप्यं कर्म वा स्यात् / एधोदकस्योपस्कुरुते / एधोदकमुपस्कुरुते / शस्त्रपत्रस्योपस्कुरुते / शस्त्रपत्रमुपस्कुरुते // 12 // ____ अ० अथवा प्रतियत्नस्यायमर्थः / सतोऽर्थस्य सम्बन्धाय वृद्धये तादवस्थ्याय वा समीहा / कोऽर्थः ? सतोऽसम्बद्धस्य सम्बन्धाय लाभाय, लब्धस्य वा वृद्धये आधिक्याय, वृद्धस्य वा तादवस्थ्याय / सा पूर्वावस्था / तदवस्थं वस्तु तस्य भावः / अपायपरिहारेणाभिमतावस्थासंरक्षणं प्रतियत्नमुच्यते / / उपस्कुरुतेऽत्र ‘उपाश्रूषासमवायप्रतियत्नविकारवाक्याध्याहारे' (4 / 4 / 92) इति सूत्रेण स्सट् / / एधांश्च उदकानि च एधोदकं 'अप्राणिपश्वादेः' (3 / 1 / 136) इति एकत्वं तत्र प्रतिययते / यत्नं करोतीत्यर्थः / देशाक (?) केशादेः सौगन्ध्यादिना / वृक्षादेः सेकादिना / कुङ्कुमादेः स्नेहनिमीलनादिना // 12 // रुजार्थस्याज्वरिसन्तापेर्भावे कर्तरि // 2 // 2 // 13 // रुजा पीडा / तदर्थस्य धातोज़रिसन्तापिवर्जितस्य व्याप्यं वा कर्म स्यात् / भावे कर्तरि भावश्चेत् रुजार्थस्य कर्ता भवति / चौरस्य रुजति रोगः। चौरं रुजति रोगः / अपथ्याशिनां रुज्यते रोगेण, अपथ्याशिनो रुज्यन्ते रोगेण / चौरस्यामयति / चौरमामयति रोगः इत्यादि / रुजार्थस्येति किम् ? 'एति जीवन्तमानन्दः' / वरिसन्तापिवर्जनं किम् ? आयूनं ज्वरयति / अत्याशिनं सन्तापयति / कर्तरीति किम् ? चैत्र रुजत्यत्यशने वातः / भाव इति किम् ? चैत्रं रुजति श्लेष्मा / अत्र श्लेष्मा द्रव्यं न भावः / रोगो व्याधिरामयः शिरोऽतिरित्यादयो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः भावरूपाः कंतर इति // 13 // ___अ० अपथ्यं 'अशश् भोजने' अश् / अपथ्यमश्नोत्येवंशीलाः अपथ्याशिनः / 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) णिन् / 'अमण रोगे' 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) / 'इंण्क् गतौ' वर्तमानातिव् / गुणः / एति-‘एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि / कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे // ' आङ् / 'दिवूच क्रीडने' दिव् / आदीव्यते स्म / 'गत्यर्थाकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः / 'पूदिव्यञ्चे शाङ्तानपादाने' (4 / 2 / 72) इत्यनेन तकारस्य नकारः। 'अनुनासिके च च्छ्ः शूट्' (4 / 1 / 108) इति वस्य ऊकारः / आयून औदरिकः / बहुजुताजीत्यर्थः (बहुभोजीत्यर्थे लोकभाषाशब्दः सम्भाव्यते) / अत्यशनशब्दो भावप्रत्ययान्तोऽस्ति परं न कर्त्ता किंतु अधिकरणे यस्तु वातः कर्ता स द्रव्यं न भावः // 13 // जासनाटक्राथपिषो हिंसायाम् // 2 // 2 // 14 // एषां हिंसायां वर्तमानानां व्याप्यं वा कर्म भवति / चौरस्योज्जासयति चौरमुज्जासयति / चौरस्योज्जा-1 स्यते चौर उज्जास्यते चैत्रेण / चौरस्योन्नाटयति चौरमुन्नाटयति चौरस्योत्क्राथयति चौरमुत्कथयति / चौरस्य / पिनष्टि / चौरं पिनष्टि // जासनाटकाथानामाकारोपान्त्यनिर्देशो यत्राकारश्रुतिस्तत्र यथास्यादित्येवमर्थम् / तेनेह भवति-दस्युमुदजीजसत् / अनीनटत् / उदचिक्रथत् // हिंसायामिति किम् ? चौरं बन्धनाज्जासयति / नटं नाटयति // अभावकर्तृकार्थं वचनम् // 14 // ___ अ० चौरस्योज्जासयतीत्यत्र ‘ब्रूसपिसजसबर्हण हिंसायाम्' 'जसण् ताडने' इति चुरादिपठितो जस् इह गृह्यते न 'जसूच मोक्षणे' इति देवादिकः / तस्य देवादिकजसोऽहिंसार्थत्वात् / चौरस्योन्नाटयतीत्यत्रापि 'नटण् अवस्यन्दने' इत्ययं चुरादिपठितो नट् गृह्यते न तु ‘णट नृतौ' इति भ्वादिः / तस्याहिंसार्थत्वात् / उदजीजसत् / 'ब्रूसपिसजसबर्हण हिंसायाम्' जस् / उत्पूर्वं / णिच् / 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः / अद्यतनीदि ‘णिश्रिद्रुसुकमःकर्तरि ङः' (3 / 4 / 58) इत्यनेनाङ्प्रत्ययः / णिचोऽग्रे ‘उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो डे' (4 / 2 / 35) इति सूत्रेण धातोर्हस्वः ततो द्विर्वचनश्च इति द्वित्वम् / 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' (4 / 1 / 44) 'असमानलोपे सन्वल्लघुनि डे' (4 / 1 / 63) इति सूत्रेण द्वित्वे सति पूर्वस्य इकारः / ‘लघोर्दीघोऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64) द्वित्वे पूर्वस्य इकारस्य ईकारः / ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83) णिग्लोपः / अट् / उदजीजसत् / / एवं अनीनटत् / उदचिक्रथत् / नवरं उदचिक्रथत् इत्यत्र 'लघोदीर्घोऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64) इति ई न क्रियते / अप्राप्तेः / चौरं रिपुं वा // मोचयन्तीत्यर्थः / नर्तयति // चौरस्योत्क्राथयतीत्यत्रापि 'क्रय अर्दिण् हिंसायाम्' इत्ययं धातुश्चरादौ यौजादिको न गृह्यते / किंतु 'स्नथ-क्नथक्रथ-क्लथ हिंसार्थाः' इति घटादिक्रथ इह गृह्यते / बृहद्वृत्तौ 'जासनाटकाथानामाकारोपान्त्यनिर्देशो यत्राकारश्रुतिस्तंत्र यथास्यादित्येवमर्थः कृतः / अत एव क्राथेः कर्मप्रतिषेधपक्षे ह्रस्वत्वाभावः / यथा चौरस्य क्राथयति कर्मत्वे च ह्रस्वत्वमेव / यथा चौरमुत्क्रथयतीति / ' उक्तमस्ति अतः क्राथो घटादिः / न तु चुरादिः / उत्क्रथन्तं प्रयुङ्क्ते णिच् ‘घटादेहस्वो, दीर्घस्तु वा ञिणम्परे' (4 / 2 / 24) इति ह्रस्वः // 14 // निप्रेभ्यो नः // 22 // 15 // [हन् षष्ठी जस्] * निप्राभ्यां परस्य हिंसायां हन्तेाप्यं वा कर्म भवति / चौरस्य निप्रहन्ति / चौरं निप्रहन्ति / चौरस्य चौरं वा निहन्ति प्रहन्ति वा / प्रणिहन्ति // चौराणां निप्रहन्यते / चौरा निप्रहण्यन्ते राज्ञा / निप्रेभ्य इति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते / किम् ? चौरं हन्ति / आहन्ति वा // 15 // ____ अ० निप्र० / अत्र द्विवचनप्राप्तौ यद्हुवचनं तत् निप्रयोः समस्तव्यस्तविपर्यस्तसङ्ग्रहार्थम् / निप्रौ द्वावपि मिलितौ समस्त इति उच्यते / निः पृथक् प्रः पृथक् इति व्यस्य इत्युच्यते / पूर्वं प्रः पश्चात् निः इति विपरीतत्वं विपर्यस्तमित्युच्यते / उदाहरणे तथा दर्शयिष्यति सूरिः / प्रणिहन्तीत्यत्र 'नेदापतपदनदगदवपीवहीशमूचिग्यातिवातिद्रातिप्सातिस्पतिहन्तिदेग्धौ' (2 / 3 / 79) इत्यनेन नेर्णकारः // निप्रहण्यते अत्र 'हनः' (2 / 3 / 82) इति सूत्रेण हनो नकारस्य णकारः // 15 / / विनिमेयद्यूतपणं पणव्यवहोः // 2 // 2 // 16 // विनिमेयः क्रेयविक्रेयोऽर्थः / यूतपणो यूतजेयं (धनम्) / पणतेय॑वपूर्वस्य च हरतेाप्यौ विनिमेयद्यू. तपणौ कर्मसंज्ञो वा भवतः / शतस्य पणायति, शतं पणायति / दशानां व्यवहरति, दश व्यवहरति / विनिमेयद्यूतपणमिति किम् ? साधून पणायति-स्तौतित्यर्थः / शलाकां व्यवहरति विगणयन् गोपायतीत्यर्थः // 16 // अ० 'पणि व्यवहारस्तुत्योः' पण् / 'गुपौधूपविच्छिपणिपनेरायः' (3 / 4 / 1) इति आयप्रत्ययः / क्रय विक्रये घूतपणत्वे वा / तद्वस्तु धनादिकं नियुक्ते इत्युदाहरणार्थः // 16 // उपसगोद्दिवः // 2 // 2 // 17 // उपसर्गात्परस्य दिवो व्याप्यो विनिमेययूतपणौ कर्म वा भवतः / शतस्य प्रदीव्यति / शतं प्रदीन्यति ['भ्वादेनोमिनो दीर्घोऊळअने' (2 / 1 / 63) इति दीर्घः] / शतस्य शतं वा प्रदीन्यते इत्यादि // 17 // अ० आदिशब्दात् शतस्य प्रद्यूतम् / शतं प्रद्यूतम् / शतस्य प्रदेवितव्यम्, शतस्य शतं वा सुप्रदेयम् // 17 // न // 2 // 2 // 18 // उपसर्गरहितदिवो व्याप्यौ विनिमेययूतपणौ कर्म न स्याताम् / शतस्य दीन्यति / निषिद्धे च कर्मणि षष्ठयेव / शतस्य दीन्यते इत्यादि / विनिमेययूतपणमित्येव / जिनं दीव्यति / भूमिं दीव्यति / यूतं दीव्यति। अक्षान् दीव्यति / अत्र क्रिया तत्साधनं च व्याप्यं न तु पणः // 18 // ___ अ० पूर्वेण उपसर्गपूर्वकस्य दिवो विकल्पविधानादत्र सूत्रार्थेऽनुपसर्ग इति प्रतिषेध उक्तः / आदिशब्दात् सहस्रस्य द्यूतं शतस्य देवितव्यम् दीव्यतेस्म द्यूतम् ‘क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) 'अनुनासिके च०' (4 / 1 / 108) इति अट्। शतस्य देवितव्यम् / दीव्यते 'तव्यानीयौ' (5 / 1 / 27) / शतस्य सुदेवमत्र / भावे आत्मनेपदक्तकृत्यखलः सिद्धाः / सुखेन दीव्यते सुदेवं 'दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' (5 / 3 / 139) तथा सुदेवमित्यत्र सु इति निपातान्तरम्, नोपसर्गः, अत एक सुस्थितं दुःस्थितमित्यादौ 'स्थासेनि०' (2 / 3 / 40) इत्यनेन षत्वं न भवति / यथा च सु इति निपातान्तरं नोपसर्गः; तथा दुर् इत्यपि निपातान्तरं नोपसर्गः / जिनं दीव्यति-जिनं स्तौतीत्यर्थः / भूमि दीव्यति-समर्थेन सह सन्धिं कृत्वाऽन्येषां हीनानां भूमिं विजिगीषते इत्यर्थः / अत्रेत्यादि-यूतं दीव्यति, अत्र द्यूतरूपा क्रिया तत्साधनं अक्षा इत्यर्थः / भावे आत्मनेपदम् // 18|| करणं च // 2 // 2 // 19 // दीन्यतेः करणं कर्मसंज्ञं चकारात् करणसंज्ञं च भवति [कर्मकरणसंज्ञे युगपदाश्रयतीत्यर्थः] अक्षान् दीव्यति। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 111 अक्षाणां देवनम् [कर्मणि च “कर्मणि कृतः" इत्यनेन षष्ठी] अक्षा दीन्यन्ते / अक्षा देवितव्याः [दीव्यन्ते देवितव्याः] अक्षाः सुदेवाः / अक्षदेवः [अक्षान् दीव्यतीति 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72)] अक्षा द्यूताश्चैत्रेण / एषु कर्मत्वे द्वितीयाषष्ठी-आत्मनेपद-तव्य-खल्-अण्-क्तप्रत्ययास्तनिमित्ताः [कर्मनिमित्ताः] सिद्धाः / अझैर्दीव्यति इत्यादि पूर्ववत्। करणमिति किम् ? गृहे दीव्यति // 19 // मत्र: BHILali/ ____ अ० अक्षा दीव्यन्ते इत्यादि उदाहरणेषु आत्मनेपदक्यादिप्रत्ययैः कर्म उक्तम् / उक्तकर्मत्वात् प्रथमा / दीव्यन्ते स्म द्यूताः / 'गत्यर्थाकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः / सुखेन दीव्यन्ते सुदेवाः / 'दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' (5 / 3 / 139) / ___ अक्षैर्दीव्यति / अत्र 'करणं च' इति सूत्रेण करणत्वम्, करणत्वे तृतीया भवति / करणत्वविषये विशेषोदाहरणानि सूरिदर्शयति-अक्षैर्देवनम् / अझैर्दीव्यति / अक्षैर्देवितव्यम् / अझैः सुदेवं मैत्रेण / अक्षैर्वृतं मैत्रेण / अक्षा देवनाः। एतेषु करणत्वे करणकार्याणि तृतीया-अनटौ तथा भावे आत्मनेपदादयश्च सिद्धाः / / 19 / / . अधेः शीस्थास आधारः // 2 // 2 // 20 // ___ अधेः सम्बद्धानां शीङ्-स्था-आस् इत्येषां य आधारस्तत्कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् / ग्राममधिशेते / ['शीङ ए: शिति' (4 / 3 / 104) इति एकारः] ग्रामस्याधिशयनम् / ग्रामोऽधिशय्यते ['क्ङिति यि शय् (4 / 3 / 105) इति-शय् आदेशः] ग्रामोऽधिशयितः। ग्राममधितिष्ठति / ग्राममध्यास्ते। *अत्राकर्मका अपि धातवः सोपसर्गाः सकर्मका भवन्तीति सकर्मकत्वं सिद्धम्, आधारवाधार्थ तु वचनम् / आधार इति किम् ? ग्रामोऽधिशयितो मैत्रेण / पौरुषेणाधितिष्ठति / कर्तृकरणे न भवतः // 20 // * अ० *अत्र-सूत्रे ग्राममधिशेते इत्यादि उदाहरणेषु // यदि सकर्मत्वं सिद्भम् तर्हि सूत्रं किमिति इत्याह आधारेति // 20 // पुरुषस्य कर्म भावो वा पौरुषम् / 'पुरुषहृदयादसमासे' (7 / 1 / 70) इति सूत्रेण अण् / उपान्वध्याङ् वसः // 2 / 2 / 21 // उप-अनु-अधि-आभिर्विशिष्टस्य वसतेराधारः कर्म स्यात् / ग्राममुपवसति / ग्राम उपोषितः / ग्रामस्योपवसनम् / ग्राम उपोष्यते / पर्वतमनुवसति / पुरमधिवसति / आवसथम् [गृहं] आवसति // 21 // .. अ० 'उपान्वध्याङ् वस' इति सूत्रे वस्धातु/दिर्गृह्यते-न तु अदादिः / उपोषितः- 'वसं निवासे' वस् / उपपूर्वम्, उपोष्यते स्म 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) 'यजादिवचेः किति' (4 / 179) वृत्, 'क्षुधवसस्तेषाम्' (4 / 4 / 43) इति इट् 'घस्वसः' (2 / 3 / 36) इति सूत्रेण षकारः / 'कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) षष्ठी // 21 // वाभिनिविशः // 2 / 2 / 22 // - अभिनिना युक्तस्य विशेराधारः कर्म स्यात्, वा / ग्राममभिनिविशते / ग्रामोऽभिनिविश्यते / ग्रामोडभिनिविष्टः / व्यवस्थितविभाषेयम् / तेन कचित् कर्मैव, कचिदाधार एव / कल्याणेऽभिनिविशते / अर्थेऽभिनिविष्टः // 22 // अ० अभिः पूर्वो यस्मात् नेः सोऽभिपूर्वः / अभिपूर्वश्चासौ निश्च अभिनिः / अभिनेः परो विट् अभिनिविट् / तस्य अभिनिविशः / 'मयूरव्यंसकेत्यादयः' (3 / 1 / 116) इति पूर्वपरयोर्लोपः / अथवा अभेनिः अभिनिः / अभिनिना युक्तो विट् तस्य इति क्रियते / अभिश्च निश्चेति द्वन्द्वो न कर्तव्यः द्वन्द्वे सति अभि-निशब्दयोः Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते प्रत्येकमभिसम्बन्धः स्यात् / यथा 'उपान्वध्याङ् वसः' इत्यत्र / 'वाऽभिनि०' इत्यत्र सूत्रे वाशब्दो व्यवस्थितविभाषार्थः / न विकल्पार्थः // 22 // कालाध्वभावदेशं वा कर्म चाकर्मणाम् // 2 // 2 // 23 // अकर्मकाणां धातूनां प्रयोगे कालादिराधारः कर्म वा भवति [अत्र कर्मसंज्ञा], अकर्म च भवति [अत्र अकर्मसंज्ञा] / काल, मासमास्ते मास आस्यते / दिवसं स्वपिति शेते वा, दिवसः शय्यते / अध्वा, क्रोशं स्वपिति क्रोशः सुप्यते / योजनमास्ते योजनमास्यते / भावः गोदोहमास्ते गोदोह आस्यते / ओदनपाकं शेते ओदनपाकः शय्यते / देश. कुरूनास्ते कुरव आस्यन्ते / ग्रामं वसति ग्राम उष्यते / सकर्मका अपि अविवक्षितकर्माणोऽकर्मकाः / मासं पचति मासः पच्यते / क्रोशमधीते क्रोशोऽधीयते / ओदनपाकं पठति ओदनपाकः पठ्यते / पक्षे रात्रौ सुप्यते / क्रोशे शय्यते / गोदोहे आस्ते / ग्रामे वसति / ग्रामेवासी। रात्रावधीतम् / दिने भुक्तम् / कालाध्वभावेति किम् ? गृहे आस्ते / अकर्म चेति किम् ? मासमास्यते, क्रोशम् सुप्यते, गोदोहमासितः इदं गोदोहमासितम्, गोदोहमास्यते, कुरून् सुप्यते; एषु 'तत्साप्यानाप्यात्' (3 / 3 / 21) 'गत्याकर्मकपिबभुजेः' (5 / 1111) 'अद्यर्थाच्चाधारे' (5 / 1 / 12) इति भावे कर्त्तर्याधारे च यथायथमात्मनेपदक्तौ भवतः / अकर्मणामिति किम् ? अह्नयध्ययनमधीतम् / कथं पचत्योदनं मासम्, भक्षयति धानाः क्रोशम्, पिबति पयो गोदोहम्, भजति सुखं कुरून् ? द्विकर्मकत्वात्कर्तुाप्यं कर्मेत्येव भविष्यति // 23 // ___अ० कालो मुहूर्तदिनपक्षमाससंवत्सरादिः / अध्वा गन्तव्यं क्षेत्रं क्रोशयोजनादिः / भावः क्रिया पाकगोदोहनादिः / देशो जनपदपुरग्रामनदीपर्वतादिः / कालश्च अध्वा च भावश्च देशश्च कालाध्वभावदेशम् / / कर्म वा भवतीत्यादियत्रैव कर्मसंज्ञा तत्रैव अकर्मसंज्ञापि भवतीत्यर्थः / स्वपितीत्यत्र 'रुत्पश्चकाच्छिदयः' (4 / 4 / 88) इति इट् / शेतेऽत्र च 'शीङ ए: शिति' (4 / 3 / 104) / शय्यतेऽत्र 'ङिति यि शय्' (4 / 3 / 105) इति शय् आदेशः / अनुक्ते अकर्मणि द्वितीया / कर्मणि भावे आत्मनेपदम् / उष्यते 'वसं निवासे' वस् / वर्तमानाते 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 79) यवृत् ‘घस्वसः' (2 / 3 / 36) इत्यनेन सस्य षकारः / इदं गोदोहमासितमित्यत्र 'अद्यर्थाच्चाधारे' (5 / 1 / 12) इत्यनेन क्तप्रत्ययः / अमुक आस्ते स्म 'गत्यर्थाकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः / आसितः / द्विकर्मकत्वात्कर्तुरित्यादि-प्रापणोपसर्जनेषु, पचनादिषु, पचभक्षादयो धातवो वर्तन्ते / मासं प्राप्य पठति। क्रोशं सस्यं भक्षयतीत्यर्थः, इत्यादिः // 23 // साधकतमं करणम् // 2 // 2 // 24 // [करणसंज्ञाधिकारसूत्रमिदमेकमेव] क्रियासिद्धौ यत्प्रकृष्टोपकारकत्वेनाव्यवधानेन विवक्षितं तत्साधकतमं कारकं करणसंज्ञं भवति / दानेन भोगानाप्नोति / दात्रेण लुनाति / अस्य च कारकान्तरापेक्षया प्रकर्षो न स्वकक्षायां (न स्ववर्गे) / तेनैकस्यां क्रियायामनेकमपि करणं भवति / नावा नदी स्रोतसा व्रजति / रथेन पथा दीपिकया याति // 24 // कर्माभिप्रेयः सम्प्रदानम् // 2 // 2 // 25 // ('सम्प्रदानसंज्ञाधिकारे कर्माभिप्रेयेत्यादि" ___ नोपसर्गात्क्रुद्रुहो इत्यन्तं चत्वारि 4 सूत्राणि ज्ञातव्यानि) कर्मणा व्याप्येन क्रियया वा करणभूतेन यमभिप्रेयते स कर्माभिप्रेयः कारकं सम्प्रदानसंज्ञं भवति / देवाय Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः बलिं दत्ते / शिष्याय धर्ममुपदिशति / याचकायार्थ प्रयच्छति / क्रियाभिप्रेयः खल्वपि [सम्प्रदानं दर्शयति / पत्ये शेते / युद्धाय सन्नह्यते / देवेभ्यो नमति / निवेद्यतां महाराजसुग्रीवाय / राज्ञे कार्यमाचष्टे / अभिग्रहणादिह न भवति-ध्नतः पृष्ठं ददाति / रजकस्य वस्त्रं ददाति / इह च भवति-वाताय चक्षुर्दत्ते / छात्राय चपेटां दत्ते / सम्प्रदानप्रदेशा 'दामः सम्प्रदाने.' (2 / 2 / 52) इत्यादयः // 25 // अ० मनोऽभिलाषे सम्प्रदानं नान्यत्र / हन् / हन्तीति नन् / शतृ / अत् तिष्ठति / षष्ठी डस् ‘अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति अनोऽकारलोपः / 'हनो ह्रो ध्नः (2 / 1 / 112) // 25 // स्पृहेाप्यं वा // 2 // 2 // 26 // स्पृहयतेप्प्यं सम्प्रदानं वा भवति / पुष्पेभ्यः पुष्पाणि वा स्पृहयति / व्याप्यमिति किम् ? पुष्पेभ्यः स्पृहयति वने // 26 // ___ अ० 'स्पृहेाप्यं वा' इति सूत्रे विशेषोऽयं ज्ञातव्यः / सम्प्रदानसंज्ञापक्षे धातोरकर्मकत्वं ज्ञातव्यम् / तेन पुष्पेभ्यः स्पृह्यते मैत्रेण, पुष्पेभ्यः स्पृहयितव्यम्, पुष्पेभ्यः सुस्पृहम्, पुष्पेभ्यः स्पृहितो मैत्रः, एषु भावे आत्मनेपदतव्यखलः कर्तरि च क्तः सिद्धः / वने इत्यत्र आधारे मा भूत् सम्प्रदानम् // 26 // . क्रुद्धहेासूयार्थैर्य प्रति कोपः // 2 // 2 // 27 // क्रोधाद्यर्थैर्धातुभिर्योगे यं प्रति कोपस्तत्कारकं सम्प्रदानं स्यात् / मैत्राय कुध्यति, कुप्यति, रुष्यति / मैत्राय छैद्यति, अपकरोति, अपचिकीर्षति / मित्रायेय॑ति, मैत्रायेयति, असूयति / मैत्रायासूयति / यं प्रतीति किम् ? 'मनसा क्रुध्यति, मनसा द्रुह्यतीत्यादि / कोप इति किम् ? *शिष्यस्य कुप्यति विनयार्थम्, धनिनो द्रुह्यति धनार्थी // 27 // ____ अ० शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् क्रुध-दुहधातूपसर्गरहितौ अकर्मकावेव / सम्बन्धषष्ठयां प्राप्तायां सम्प्रदानसंज्ञा विधीयते इति भावः / अमर्षः क्रोधः / विनाशबुद्धिोहः / ईर्ष्या परसम्पत्तौ चेतसः कालुष्यम् / गुणेषु दोषाविष्करणं असूया / क्रोधार्थ-द्रोहार्थ-ईर्ष्यार्थ-असूयार्थैर्धातुभिर्योगे // 'क्रुधंच् कोपे' 'दुहौच जिघांसायाम्' अशुभं करोति चिन्तयति / असु इति सौत्रो धातुः . कण्ड्वादौ / असु / 'धातो कण्ड्वादेर्यक्' (3 / 4 / 8) इति यक् / 'दीर्घश्च्वियङ्' (4 / 3 / 108) इति असूयति / 'करणस्य सम्प्रदानं मा भूत् / तृतीयाटा *अत्र अविनयस्योपरि कोपो न शिष्यस्य / धनस्योपरि क्रोधो नतु धनिनः // 27 / / नोपसर्गात्क्रुद्रुहा // 2 // 2 // 28 // _ उपसर्गात्पराभ्यां क्रुध्द्रुहिभ्यां योगे यं प्रति कोपस्तत्सम्प्रदानं न स्यात् / मैत्रमभिक्रुध्यति / अभिद्रुह्यति वा // 28 // अ० क्रुद्रुहौ सोपसर्गौ स्वभावतः सकर्मकौ इति द्वितीया / / 28 / / अपायेऽवधिरपादानम् // 2 // 2 // 29 // सावधिकं गमनं अपायः / तत्र यदवधिभूतं तत्कारकमपादानसंज्ञं भवति / ग्रामादागच्छति / पर्वतादवरोहति / वृक्षात्पर्ण पतति / धावतोऽश्वात्पतितः / अपादानं च त्रिविधम्-निर्दिष्टविषयम् 1 उपात्तविषयम् 2 अपेक्षितक्रियं च 3 / तथा अपायश्चापि कायसंसर्गपूर्वको बुद्धिसंसर्गपूर्वको वा विभाग उच्यते / अधर्मा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ज्जुगुप्सते / अधर्माद्विरमति / धर्मात्प्रमायति / अत्र बुद्धिसंसर्गपूर्वकोऽपायः / चौरेभ्यो विभेति, उद्विजते / चौरेभ्यस्त्रायते, रक्षति / तथा अध्ययनात्पराजयते यवेभ्यो गां रक्षति / यवेभ्यो गां निषेधयति / कूपादन्धं वारयति / उपाध्यायादन्तर्धत्ते / तथा शृङ्गाच्छरो जायते / गोमयाद्वृश्चिको जायते गोलोमाविलोमभ्यो [गोलोमानि अविलोमानि वा तेभ्यः] दूर्वा जायते / बीजादडरो जायते / हिमवतो गङ्गा प्रभवति / चैत्रान्मैत्रः पटुः / अयमस्मादधिकः ऊनो [अयमस्मादून इति] वा / विवक्षान्तरे त्वपादनत्वाभावे यथायोगं विभक्तयो भवन्ति / बलाहके विद्योतते, बलाहकं विद्योतते [बलाहकं मेघं प्राप्य विद्योतते विद्युत् अन्तर्भूतण्यर्थो वा बलाहकं विद्योतयतीत्यर्थः]। अधर्म जुगुप्सते / अधर्मेण जुगुप्सते मौख्येण प्रमाद्यति / चौरैर्भयम्, चौरैर्बिभेति, चौरेषु बिभेति, चौराणां बिभेति / भोजनेन पराजयते / शत्रून् पराजयते / यवेषु गां वारयति / शृङ्गे शरो जायते // 29 // अ० 'इण्क् गतौ' अपपूर्वम्, अपायनं अपायः / 'युवर्णवृदृवशरणगमृद्ग्रहः' (5 / 3 / 28) इति अल् / अपवर्जयित्वा। आ मर्यादायां मर्यादीकृत्य दीयते खं म्वतेअस्मादित्यपादानम् / 'भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने' (5 / 3 / 128) अनट् / विवक्षावशात् कारकान्तरस्पृष्टम् / उप समीपे धातुना धात्वन्तरस्यात्तः स्वीकृतो विषयोऽर्थो यत्र तत् उपात्तविषयम् / यत्र प्रयोगे धातुनाऽपायलक्षणो विषयो निर्दिश्यते तन्निर्दिष्टविषयं अपादानम् / यथा ग्रामादागच्छति वृक्षात्पर्णं पततीत्यादि / यत्र तु धातुर्धात्वन्तरार्थाङ्गं (धात्वन्तरार्थोऽङ्ग विशेषणं यस्य धात्वन्तरार्थस्य वाङ्गम्) स्वार्थमाह तदुपात्तविषयमपादानम् यथा कुशूलात्पचति / अत्रापादानाङ्गे पाके पचिर्वर्तते / यत्र तु क्रियावाचि पदं न श्रूयते केवलं स्वयमेव क्रिया प्रतीयते तदपेक्षितक्रियं अपादानम्-यथा माथुरेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः / अभिमतं रूपं येषां ते प्रकृष्टा अभिरूपतराः, निर्धार्यन्ते इति क्रियापदमत्र प्रतीयते / अथवा चैत्रान्मैत्रः पटुरिति-दृश्यते क्रियापदं प्रतीयते / इति त्रिविधमपादानम् / / बुद्धिसंसर्गपूर्वके-अधर्माज्जुगुप्सतीत्यादि उदाहरणत्रयम्- अत्र प्रेक्षापूर्वकारी विवेकी भवति, स दुःखहेतुमधर्म पापं कुबुद्धया प्राप्यापि अनेन न मे कार्यमिति बुद्ध्याऽधर्मानिवर्तते; नास्तिकंस्तु धर्मं श्रुत्वापि प्राप्यापि न एनं धर्मं करिष्यामीति ततो निवर्तते इति निवृत्त्यङ्गेषु जुगुप्साविरामप्रमादरूपेषु एते धातवो वर्तन्ते इति बुद्धिसंसर्गपूर्वकोऽपायाऽत्र ज्ञातव्यः / प्रमाद्यतीत्यत्र 'शम्सप्तकस्य श्ये' (4 / 2 / 111) इति सूत्रेण दीर्घः। चौरेभ्यो बिभेत्यादिषु इयं भावना-कश्चित् बुद्धिमान् वधबन्धपरिक्लेशकारिणश्चौरान् बुद्धया ज्ञात्वा प्राप्य वा तेभ्यो बिभेति तेभ्यो निवर्तते / तथा चौरेभ्यस्त्रायते-अत्रापि कश्चित् सुहृद् यदि इमं चौराः पश्येयुस्तदा नूनमस्य धनमपहरेयुरिति बुद्धया उपायेन चौरेभ्यो निवर्तयतीति बुद्धिसंसर्गपूर्वोऽपायोऽत्रापि / अध्ययनात्परेति / अत्र अध्ययनं असहमानस्ततो निवर्तत इत्यपाय एव // यवेभ्यो गामित्यादि / इहापि गो- अन्धयोर्यवादिसम्पर्कबुद्ध्या दृष्ट्वा अन्यतरस्य विनाशं पश्यन् अन्धौ यवकूपान्निवर्तयतीत्यपाय एव / / उपाध्यायादन्त० मा उपाध्यायो मा द्राक्षीदिति प्रच्छन्नो भवतीत्यत्राप्यपाय एव ज्ञेयः // शृङ्गाच्छरो० इत्यादि उदाहरणेषु शृङ्गादिभ्यः शरादयो निःक्रामन्ति निःसरन्तीति प्रकट एवापायः / / हिमवतो गङ्गेति / अत्रापि आपः सङ्क्रामत्यपायोस्ति / कश्चिदाह-यथा मैत्रः पुरात् सर्वथा निर्गत एव पुरं मुक्तं तथा शरादयोऽपि यदि निःक्रामन्ति तदा किं अत्यन्तं न निःक्रामन्तीति पृच्छा / सूरिराह-सन्ततत्वात् अन्यान्यप्रादुर्भावाद्वा निःक्रामन्त एव सन्ति कोऽर्थः ? निःक्रमणस्य सन्ततत्वादिति / कोऽभिप्रायः। एके अवयवा निःक्रान्ताः अन्ये निष्क्रामन्तः सन्तीति भावः / 'गुपि गोपनकुत्सनयोः' 'गुतिजो०' (3 / 4 / 5) सनि ‘सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) 'गहोर्जः' (4 / 1 / 40) प्रमाद्यति / 'मदीच् हर्षे' प्रपूर्वः / 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) 'शम्सप्तकस्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 115 श्ये' इति दीर्घः / अन्तर्धत्ते-अन्तर् धाधातुः वर्तमानाते 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) धा इति द्वित्वम् 'हस्वः' (4 / 1 / 39) 'धागस्तथोश्च' (2 / 1 / 78) इति आदितस्य धत्वम् 'भश्चातः' (4 / 2 / 96) अकारलोपः / 'अघोषे प्रथमो०' (1 / 3 / 50) धस्य त् / जायते- 'जनैचि प्रादुर्भावे'ऽतो 'दिवादेः श्यः' 'जा ज्ञाजनोऽत्यादौ' (4 / 2 / 104) इत्यनेन जनेर्लादेशः / चैत्रान्मैत्रः पटुः इत्यादि उदाहरणेषु मैत्रादयः पुंस्त्वादिना संसृष्टाः, पटुत्वादिधर्मेण चैत्रादिभ्यो विभक्ताः प्रतीयन्ते इति सर्वत्रापायविवक्षा ज्ञातव्या / / 29 / / / क्रियाश्रयस्याधारोऽधिकरणम् // 2 // 2 // 30 // क्रियाश्रयस्य कर्तुः कर्मणो वा य आधारस्तत्कारकमधिकरणसंज्ञं भवति / अत्रापि प्रसिद्धानुवादेनाप्रसिद्धस्य विधानमिति लक्षणार्थ इति यत्क्रियाश्रयस्याधिकरणं तदाधारसंज्ञं स्यादित्यपि सूत्रार्थः / कटे आस्ते। स्थाल्यां पचति / तच्चाधिकरणं षोढा-वैषयिकं 1 औपश्लेषिकं 2 अभिव्यापकं 3 सामीप्यकं 4 नैमित्तिकं 5 औपचारिकं 6 च यथाक्रमं उदाहरणानि दिवि देवाः, नभसि तारकाः, भुवि मनुष्याः, पाताले पन्नगाः 1 कटे आस्ते, पर्यङ्के शेते, गृहे तिष्ठति 2 तिलेषु तैलम्, दध्नि सर्पिः, तन्तुषु पटः, गवि गोत्वम् 3 गङ्गायां घोषः, गुरौ वसति, बन्धुष्वास्ते 4 युद्धे सन्नह्यते, शरदि पुष्यन्ति, आतपे क्लाम्यति, छायायामाश्वसिति 5 अङ्गुल्यग्रे करिशतमास्ते / स मे मुष्टिमध्ये तिष्ठति / यो यस्य द्वेष्यः स तस्याक्ष्णोः प्रतिवसति / यो यस्य प्रियः स तस्य हृदये वसति / अधिकरणाधारप्रदेशाः "सप्तम्यधिकरणे" (2 / 2 / 95) “अद्यर्थाचाधारे" (5 / 1 / 12) इत्यादयः // 30 // . . - अ० प्रसिद्ध- आधारभणनेन अप्रसिद्धस्य अधिकरण इति संज्ञालक्षणस्य / कटे आस्ते; अत्राधारकारकत्वभावनेयम्मैत्रसम्बद्धायामासिक्रियायां आसिक्रियाश्रयं मैत्रं धारयन् कटादिर्हेतुतां कट आधारत्वं आश्रयति / स्थाल्यां पचतीत्यत्र-तन्दुलसम्बद्धायां उत्कलनक्रियायां तदाश्रयान् तन्दुलान् धारयन्ती स्थाली हेतुत्वं स्थाली आधारत्वं भजतीत्यर्थः / / यस्यान्यत्र न भवनं अन्यत्र न विषयः तद्वैषयिकम्। विषयासक्तं वैषयिकम् 'तस्मै योगादेः शक्ते' (6 / 4 / 94) इतीकण् / वैषयिकोदाहरणम्-दिवि देवादयः 1 / एकदेशमात्रसंयोग उपश्लेषः / उपश्लेषे भवं औपश्लेषिकं 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' (63 / 78) कटे आस्ते इत्यादि उदाहरणमत्र 2 / यस्य आधेयेन सह सर्वावयवसंयोगः तदभिव्यापकम् / कृत् 'बहुलं' (5 / 122) इति कर्मण्यपि णकः / आधेयमभिव्याप्नोत्याधारस्तिलादिकर्त। अत्रोदाहरणानि]० तिलेषु तैलमित्यादि 3 / यत् आधेयसन्निधिमात्रेण क्रियाहेतुः तत्सामीप्यकम् / समीपमेव सामीप्यं 'भेषजादिभ्यष्टयण' समीप्यमेव सामीप्यकम् ‘यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) / अत्र गङ्गायां घोष इत्यादि उदाहरणम् 4 // निमित्तमेव नैमित्तिकम् 'विनयादिभ्य' (7 / 2 / 169) इकण् अत्र युद्धे सन्नह्यते इत्यादि उदाहरणानि 5 / उपचारे भवऔपचारिकम् / . 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' / 6 / 3 / 78 / अत्रोदाहरणानि ‘अङ्गुल्यग्रे करिशतादीनि यदा तु कर्तृकर्मान्तरितक्रियाधारत्वं न विवक्ष्यते तदा हेतौ तृतीयैव / आतपेन क्लाम्यति / छाययाऽऽश्वसितीत्यादि इति भोज आह // 30 // नाम्नः प्रथमैकद्विबहौ // 2 // 2 // 31 // [एकः इत्यत्र सिविभक्त्या एकत्वसङ्ख्या नाभिधीयते, एकत्ववतो यत् एकत्वं तदभिधीयते, तस्मिन् एकत्वे विभक्तिः प्रवर्तते] * एकत्वद्वित्वबहुत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानानाम्नः परा यथासङ्ग्यं सि-औ-जस्लक्षणा प्रथमाविभक्तिर्भवति / कर्मादिशक्तिषु द्वितीयादिविभक्तिनां विधास्यमानत्वादिह सूत्रे विशेषानभिधानाच परिशिष्टे [उद्धरिते]ऽर्थमात्रे Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते प्रथमेति विज्ञायते / [एवं स्थिते] तत्र द्वितीयादिविमुक्तः स्वार्थद्रव्यलिङ्गसङ्ग्याशक्तिलक्षणोऽसमग्रः [एकैको द्वयं वा] / समग्रो वा पञ्चको नामार्थोऽर्थमात्रमुच्यते (घटादि नाम) / तेषु यथाक्रममुदाहरणानि / डित्थः / डवित्थः / गौः / अश्वः / शुक्लः / पाचकः / दण्डी / राजपुरुषः / औपगवः / पश्चालाः 1 // इयं जातिः / अयं गुणः / इदं कर्म 2 / स्त्री / पुमान् / नपुंसकम् / एकः / द्वौ / बहवः / वृक्षः / वृक्षौ / वृक्षाः 3 // क्रियते कटः / कृतकटः / पचति चैत्रः / स्नानीयं चूर्णम् / दानीयो ब्राह्मणः / प्रश्रवणो गिरिः / भयानको व्याघ्रः / स्थानीयं नगरम् / गोदोहनी पारी / गोमान् मैत्रः / चित्रगुश्चैत्रः // तथा उपचरितमप्यर्थमात्रं ज्ञायते / यथा साहचर्यात् / स्थानात् / तादात् / वृत्तात् / मानात् / धरणात् / सामीप्यात् / योगात् / साधनात् / आधिपत्यात् / अलिङ्गमप्यर्थमात्रम्-त्वं / अहं / पञ्च / कति / अलिङ्गसङ्ग्यमप्यर्थमात्रम् नीचैःस्वः / शक्तिप्रधानमप्यर्थमात्रम्-यतः / यत्र / यथा / यदा / द्योत्यमपि-प्रपचति / प्रतिष्ठति / प्रति पालयति / तदयं वस्तुसङ्केपस्त्याद्यन्तपदसामानाधिकरण्ये प्रथमा / यत्रापि त्यायन्तं पदं न श्रूयते-वृक्ष इति, तत्रापि गम्यते / यदाह-'यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्रास्तिभवन्तीतिपरः प्रयुज्यते' // 31 // . .. अ० स्वार्थस्वरूपमुच्यते / शब्दस्यार्थे विशेष्ये प्रवृत्तिनिमित्तं विशेषणं स्वरूपजातिगुणक्रियाद्रव्यसम्बन्धादिरूपं त्वतलादिप्रत्ययाभिधेयं स्वार्थः उच्यते / स च स्वार्थो भावो विशेषणं गुण इति पर्यायेण आख्यायते / स्वार्थे उदाहरणानि-डित्थः / डवित्थः इत्यादि 1 / यत्पुनः इदं तत् इत्यादिना वस्तूपलक्षणेन सर्वनाम्ना व्यपदिश्यते / स्वार्थेन विशेषणेन व्यवच्छेद्यं लिङ्गसङ्ख्याशक्त्याद्याश्रयः सत्त्वभूतं तत् द्रव्यमुच्यते, विशेष्यमिति लोकरूढम् / अत्रोदाहरणानि-इयं जातिः / अयं गुणः / इदं कर्मेति / जातिर्नित्यत्वएकत्वे सति अनेकत्वसमवेतत्वं स्वार्थः, तेन द्रव्यादिभ्यो व्यवच्छिद्यते / रूपरसगन्धादयो द्रव्यगुणत्वं स्वार्थः, तेन कर्मादिभ्यो व्यवच्छिद्यते / इदं कर्मेति कर्मत्वं प्रवृत्तिनिमित्तम्, तेन गुणादिभ्यो व्यवच्छिद्यते द्रव्यम् / यतोऽर्थे विशेष्ये वस्तुनि सद् असद् वा शब्दत एवावसीयते तत् ड्याबादिसंस्कारहेतुः स्त्रीपुमान्नपुंसकमिति लिङ्गमुच्यते / स्त्री पुमान् नपुंसकम् // यस्यां एकवचनद्विवचनबहुवचनानि भवन्ति सा भेदप्रतिपत्तिहेतुरेकत्वादिका सङ्ख्या उच्यते-एकः / द्वौ / बहवः। वृक्षः / वृक्षौ / वृक्षाः / इति / यस्यां त्यादिविभक्तिआख्यातकृत्प्रत्ययतद्धितवृत्तिसमासैरनभिहितायां द्वितीयाद्या व्यतिरेकविभक्तयः षष्ठी च भवति, सा स्वपराश्रयाश्रितक्रियोत्पत्तिहेतुः कारकरूपा तत्पूर्वकसम्बन्धरूपा च शक्तिरुच्यते / सा च शक्तिरभिहिता सती अर्थमात्रं भवति / अत्रोदाहरणावली / / क्रियते कट इत्यादि / कृधातुः / वर्तमानाते / 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'रिः शक्याशीर्ये' (4 / 3 / 110) इत्यनेन रि आदेशः / स्नात्यनेन स्नानीयं 'बहुलं' (5 / 1 / 2) इति सूत्रेण अनीयः / दीयते तस्मै वा इति दानीयो ब्राह्मणः / अत्रापि 'बहुलं' / / प्रस्रवतीति प्रस्रवणः अनट् / / 'त्रिभीक् भये' बिभेत्यस्माज्जन इति भयानकः / ‘शीभीराजेश्चानकः' (71) इति आनकप्रत्यय औणादिकः // तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रजाः इति स्थानीयं नगरम् // गावो दुह्यन्ते अस्यां गोदोहनी / 'करणाधारे' (5 / 3 / 129) इति अनट् / साहचर्योदाहरणम् कुन्ताः प्रविशन्ति / कुन्तसेल्लसहिताः पुरुषाः कुन्ता उच्यन्ते / छत्रिणो गच्छन्ति-छत्रसहचरिताः पुरुषा गच्छन्ति // स्थानोदाहरणम्-मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थाः पुरुषा अपि मञ्चाः / गिरिर्दह्यते गिरिस्थितो वृक्षादिरपि गिरिः / तादोदाहरणम्-इन्द्रः स्थूना, प्रदीपो मल्लिका / वृत्तेदाहरणम्-यमोऽयं राजा, यम इव वर्तमानत्वात् राजापि यमः / कुबेरोऽयं राजा दानशीलत्वात् / मानोदाहरणम्-प्रस्थो व्रीहिः, प्रस्थेन मितो व्रीहिरपि प्रस्थः / धरणोदाहरणम्-तुलाचन्दनम् / तुलया धृतं चन्दनं-तुलाचन्दनमित्यर्थः / सामीप्यात् गङ्गातटं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 117 गङ्गा / गङ्गायां घोषः / योगोदाहरणम्-रक्तः कम्बलः, रक्तेन रागेण युक्तः कम्बलोऽपि रक्त इति भावः / साधनोदाहरणम्-अन्नं प्राणाः, आयुर्घतम् आधि-पत्योदाहरणम्-ग्रामधिपतिामः / ननु उच्चैः नीचैः इत्यादि अव्ययेभ्यः परत एकत्वादिसङ्ख्याऽभावादनेन नाम्नः प्रथमेति लक्षणेन प्रथमा न प्राप्नोति ? सत्यम्-वक्ष्यमाण 'अव्ययस्य' (3 / 27) इति सूत्रे विभक्तीनां लुप् विधाना-द्विधिर्ज्ञायते, विभक्तिमध्यवर्तित्वात् प्रथमाया अपि विधिर्भवति / तस्य फलम् / अथो स्वस्ते गृहम् अथो स्वस्तव गृहमित्यादि ‘सपूर्वात्प्रथमान्ताद्वा' (2 / 1 / 32) इति विकल्पेन ते-मे आदेशौ भवतः / विभक्तिविधानात्पदसंज्ञापि सिद्धेति सर्वमव्ययस्येति सूत्रे वक्ष्यत इत्यर्थः / नन्ता सङ्ख्या डतिर्युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गकाः / तथाव्ययाश्चादयश्च निपाता लिङ्गसङ्ख्यां च नाश्रयन्ति इति अलिङ्गसङ्ख्यमिति / अत्रापि प्रथमेति भावः / प्रादीत्युपसर्गा धातोः प्राक् धात्वर्थं द्योतयन्ति इति द्योत्यमर्थमात्रं भवति / त्याद्यन्तं पदं अस्तीत्यादिकं ज्ञेयम् // 31 // - आमन्त्र्ये // 22 // 32 // प्रसिद्धतत्सम्बन्धस्य किमप्याख्यातुमभिमुखीकरणमामन्त्रणम् / तद्विषय आमन्त्र्यः। तस्मिन्नर्थे वर्तमानात् नाम्न एकद्विवही यथासङ्ग्यं प्रथमाविभक्तिर्भवति / हे देव / हे देवौ / हे देवाः / हे पचन् / आमन्त्र्य इति किम् ? राजा भव षष्ठीप्राप्तौ वचनम् [सूत्रम्] // 32 // अ० प्रसिद्धेन आमन्त्र्यवाचिना देवदत्तादिशब्देन सह सम्बन्धः तत्सम्बन्धः / प्रसिद्धतत्सम्बन्धो यस्य स प्रसिद्धतत्सम्बन्धः / तस्य देवदत्तादिः आमन्त्र्य इत्युच्यते / आमन्त्र्यार्थे आमन्त्र्यामन्त्रणभावे विषयविषयिभावे वा सम्बन्धेऽत्र षष्ठी प्राप्नोति / तद्बाधनार्थमिदं 'आमन्त्र्ये' इति सूत्रं कृतम् / / तुं राजा होउ इत्यर्थः / राजा भवेत्यत्र राजा नामन्त्र्यः किंतु राजा एव विधीयते त्वमस्य लोकस्य राजा स्वामी भवति // 32 // - गौणात्समयानिकषाहाधिगन्तरान्तरेणातियेनतेनैर्द्वितीया // 2 // 2 // 33 // [गौणात्समयेत्यारभ्य 'कालाध्वनोळप्तौ' (2 / 2 / 42) इत्यन्तं यावत् द्वितीयाविभक्त्यधिकारे सूत्रदशकं 10 ज्ञेयम्] आख्यातपदेनासमानाधिकरणं गौणम्, गौणानाम्नः समयादिभिर्निपातैर्युक्तादेकद्विवहौ यथासङ्ग्यं अम्औ-शस्-रूपा द्वितीया विभक्तिः स्यात्, षष्ठ्यापवादः / समया पर्वतं नदी [पर्वतसमीपे नदी इत्यर्थः] / निकषा गिरिं वनम् [गिरिसमीपे वनम्] / हा मैत्रं व्याधिः / धिक् जाल्मम् / अन्तरा [मध्ये] निषधं नीलं च विदेहाः। अन्तरेण धर्म सुखं न भवति [विनार्थेऽन्तरेणशब्दः] / अतिवृद्धं कुरून्महदलम् / येन पश्चिमां गतः / तेन पश्चिमां नीतः // हा तात धिग् जाल्म हा सुभु इत्यादावामन्यतया विवक्षा, न हादियुक्तत्वेनेति न भवति / बहुवचनादन्येनापि युक्ताद्भवति-न देवदत्तं प्रति भाति किञ्चित् / बुभुक्षितं न प्रति भाति किञ्चित् / वृणीष्व भद्रे प्रति भाति यस्त्वाम् / धातुसम्बद्धोऽत्र प्रतिस्तेन 'भागिनि चे' त्यनेन सिद्धयति / गौणादिति किम् ? अन्तरा गार्हपत्यमाहवनीयं च वेदिः / अत्र प्रधानाद्वेदिशब्दान भवति // 33 // ___ अ० तथा अन्तरेण गन्धमादनं माल्यवन्तं चोत्तराः कुरवः इति अन्तरेण शब्दस्य मध्यार्थस्य उदाहरणं ज्ञातव्यम् / विदेह इत्यस्याग्रे अन्तराशब्दो निपातोऽव्ययो मध्यं आधेयप्रधानमर्थमाचष्टे, अन्तरेणशब्दस्तु निपातोऽव्ययो मध्यं आधेयप्रधानमर्थं विनार्थं च आचष्टे / अन्तरेण गन्धमादनं माल्यवन्तं चोत्तराः कुरवोऽत्र मध्यार्थे, अन्तरेण धर्मं सुखं नहि-अत्र विनार्थे अन्तरेणशब्दः, तेनेह न भवति-राजधान्या अन्तरायां पुरि वसति, बहिरर्थोऽन्तरशब्दः / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते किं ते केशवार्जुनयोरन्तरेण गतेन / विशेषणज्ञातेन ? / अतिवृद्धं कुरून्महद्वलमित्यस्यार्थोऽयम्-कुरूणामतिक्रमण पाण्डवानां महद् बृहदलं वर्तते इत्यर्थः / येन पश्चिमेति / अत्र येनतेनशब्दौ लक्ष्यलक्षणभावं द्योतयतः / तथाहि / पश्चिमां दिशं प्रति लक्ष्यीकृत्य गत इत्यर्थः / अयं मैत्रः कां प्रति गतः ? पश्चिमाम् / पश्चिमया लक्षणेन मैत्रस्य अप्रसिद्धं गमनं लक्ष्यते / / अत्र सूत्रे बहुवचनं विशेषार्थं सूचयति / अन्येनापीति द्विधा व्याख्येयम्-समयादिव्यतिरिक्तेन यावत्तावच्छब्दादिना नाम्ना, नामव्यतिरिक्तेन धात्वादिनापि योगे गौणानाम्नो द्वितीया भवतीति / देवदत्त रहइ कनभावइ ‘भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः' (2 / 2 / 37) इति सूत्रे प्रतिशब्दो गौणो गृह्यते / प्रतिभाति इत्यत्र क्रियासम्बद्धो न गौण इति न प्राप्तिः / अतोऽनेन सूत्रेण द्वितीया विधीयते / / 33 / / द्वित्वेऽधोऽध्युपरिभिः // 2 // 2 // 34 // ___ अधस्-अधि-उपरिभिर्युक्ताद्गौणानाम्न एषामेव द्वित्वे सति द्वितीया स्यात्, षष्ठ्यपवादः। अधोऽधो ग्राम ग्रामाः / अध्यधिग्रामं [क्षेत्राणि] / उपर्युपरि ग्रामं ग्रामाः। द्वित्वे इति किम् ? अधः प्रासादस्य / हर्म्यस्योपरि प्रासादः // 34 // ___ अ० सूत्रे बहुवचनं एकद्विबहाविति यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थं कृतम् / अधोऽधो ग्रामं इत्यादिषु अधस्-अधिउपरिशब्दानां 'सामीप्येऽधोऽध्युपरि' (7 / 4 / 79) इति सूत्रेण द्वित्वम् / गौणात्समयेति बहुवचनबलेन / अधोऽधो ग्रामं ग्रामाः सन्ति / अध्यधि ग्रामं क्षेत्राणि / उपर्युपरि ग्रामं ग्रामाः सन्ति इति ज्ञातव्यानि / एषां अधस्-अधि-उपरि-शब्दानाम् / अधः प्रासादेभ्य इत्यादिषु उत्तराऽधर्यमात्रं विवक्षितम्, न सामीप्यम्, इति द्वित्वाभावः // 34 // सर्वोभयाभिपरिणा तसा // 2 // 2 // 35 // सर्वादिभिस्तसन्तैर्युक्तागौणानाम्नो द्वितीया स्यात् / सर्वतो ग्रामम्, उभयतो ग्रामम् वनानि / अभितो ग्रामं क्षेत्राणि // 35 // ___ अ० तसा-तस्प्रत्यययुक्तात् / / सर्वतो ग्रामं वनातीति ज्ञेयम् / सर्वस्मात् / सर्वतः-'किमन्यादि०' (7 / 2 / 89) इति तस् / उभययोरुभयतः- 'आद्यादिभ्यः' (7 / 2 / 84) तस् / तथा अभिशब्दात् 'पर्यभेः सर्वोभये' (7 / 2 / 83) इति सूत्रेण तस् / अभितः, कोऽर्थः ? उभयतः / परितः, कोऽर्थः ? सर्वतः // 35 // लक्षणवीप्स्येत्थम्भूतेष्वभिना // 2 // 2 // 36 // एष्वर्थेषु वर्तमानादभिना युक्ताद्गौणानाम्नो द्वितीया भवति / वृक्षमभि विद्योतते विद्युत् / अत्र वृक्षो लक्षणम् / विद्योतमाना विद्युल्लक्ष्यम् / अनयोश्च लक्षणलक्ष्यभावः सम्बन्धोऽभिना द्योत्यते / वृक्षवृक्षमभिसेकः। साधुमैत्रो मातरमभि। लक्षणादिष्विति किम् ? यदत्र ममामि स्यात्तदीयताम् / अत्राभिना भागसम्बन्धो योत्यते / योऽत्र मम भागः स्यादित्यर्थः // 36 // ___ अ० इत्थम्भूतः किश्चित्प्रकारमापन्नः / लक्षण-वीप्स्य-इत्थम्भूतेषु अर्थेषु / लक्ष्यते दर्यते येन तल्लक्षणं चिदं वृक्षादि अवयवशः समुदायस्य क्रियया गुणेन द्रव्येन जात्या वा / युगपत्प्रयोक्तुः साकल्येन व्याप्तुमिच्छा वीप्सा तत्कर्म वीप्स्यम् / केनचिद्विवक्षिते विशेषेण भाव इत्थम्भावः तद्विषय इत्थम्भूतः किश्चित्प्रकारमापन्नः सेकः साध्यः वृक्षः साधनं इति साध्यसाधनलक्षणः सम्बन्धो ज्ञातव्यः एकैकस्य वृक्षस्य सेक इत्युदाहरणार्थः / साधुमैत्रो मातरमभि इत्यत्र विषयविषयिसम्बन्धो द्योत्यते / यथा माता विषयः, मैत्रो विषयी, तयोः सम्बन्धः साधुत्वप्रकारजनितोऽभिना Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ज्ञाप्यते मातृविषये साधुत्वप्रकारं मैत्रः प्राप्त इत्युदाहरणार्थः / / स्यात्- 'असक् भुवि' अस् / सप्तमीयात् 'नास्त्योर्लुक्' (4 / 2 / 90) इति सूत्रेण असो अकारस्य लोपः // दीयताम्-दा धातुः / पञ्चमीताम् / 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' (4 / 3 / 97) इति सूत्रेण दा-आकारस्य ईकारः / अत्र-एतद् / एतस्मिन्नत्र / 'सप्तम्याः' (7 / 2 / 94) इति सूत्रेण त्रप्प्रत्ययः 'ककुत्रानेह' (7 / 2 / 93) इति सूत्रेण एतद्स्थाने अकारः / यो भागो मम आयाति स मम भवत्वित्यर्थः / यदत्र मां प्रति स्यात्तद्दीयताम्, यदत्र मां परि स्यात्तद्दीयतां, यदत्र मामनु स्यात्तद्दीयतामित्युदाहरणत्रयम् / त्रयस्यापि यो मम भाग आभवति स मे दीयतामित्यर्थः // 36 / / __भागिनी च प्रतिपर्यनुभिः // 2 // 2 // 37 // - स्वीक्रियमाणोंऽशो भागः / तत्स्वामी भागी [भागस्वामी] / तत्र [भागिनि अर्थे], लक्षणादिषु चार्थेषु वर्तमानात्प्रति-परि-अनुभिर्युक्ताद्रौणानाम्नो द्वितीया स्यात् / भागिनि-यदत्र मां प्रति मां परि मामनु स्यात्तहीयताम् / लक्षणे-वृक्षं प्रति वृक्षं परि वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् / वीप्स्ये-वृक्षं वृक्षं प्रति परि अनुसेचनम् / इत्थंभूते-साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति परि अनु / एष्विति किम् ? अनु वनस्याशनिर्गता // 37 // __ अ० वृक्षं वृक्षं परि वृक्षं वृक्षमनुसेचनम् / मातरं परि / मातरमनु / समीपे इत्यर्थः // 37 // __ हेतुसहार्थेऽनुना // 22 // 38 // हेतुर्जनकः, सहार्थस्तुल्ययोगो विद्यमानता च; तद्विषयोऽपि सहार्थ उपचारात् / तयोर्वर्तमानादनुना युक्ताद्गौणानाम्नो द्वितीया स्यात् / जिनजन्मोत्सवमन्वागच्छन्सुराः / देवेन्द्रोपपाताध्ययनमन्वागच्छद्देवेन्द्रः / तेन हेतुनेत्यर्थः / पर्वतमन्ववसिता सेना। नदीमन्ववसिता पुरी। गिरिनदीभ्यां सह सम्बद्धेत्यर्थः / तृतीयापवादो योगः // 38 // ___ अ० निमित्तं / ननु तुल्याद्यर्थयोगे सहादय एव शब्दा वर्तन्ते, न पर्वतादिशब्दा इति कथं पर्वतादिभ्यो द्वितीया इत्याह-तद्विषयोऽपीति / जिनजन्मोत्सवः / तेन हेतुना तेन कारणेन निमित्तेन सुरा आगता इत्यर्थः / देवेन्द्रोपपाताध्ययनध्यानं वर्त्तते, तेन हेतुना तेन निमित्तेन देवेन्द्रः शक्र आगत इत्यर्थः / देवेन्द्रं उप समीपे पातयति कोऽर्थः ? आनयति, अध्ययनध्याता मुनिरिति देवेन्द्रोपपातः / 'कर्मणोऽण्' (5 / 3 / 14) / / अवसितेति-'षोंच अन्तकर्मणि' षो 'षः सो०' (2 / 3 / 98) इति सो / अवपूर्वम्, अवस्यति स्म / अवसिता / गत्यर्थाकर्मक० (5 / 1 / 11) इति क्तः / 'दोसोमास्थ इ.' (4 / 4 / 11) इति सूत्रेण सोन्तस्य इकारः // 38 // उत्कृष्टेऽनूपेन // 2 // 2 // 39 // उत्कृष्टेऽर्थे वर्तमानादनु-उपाभ्यां युक्ताद्गौणानाम्नो द्वितीया स्यात् / अनुसिद्धसेनं कवयः। उपोमास्वाति सङ्ग्रहीतारः / उपजिनभद्रक्षमाश्रमणं व्याख्यातारः [कवयः] तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः // 39 // ___ अ० सङ्ग्रहीतीति सङ्ग्रहीतारः / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) / ‘स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट्' (4 / 4 / 32) 'गृलोऽपरोक्षायां दीर्घः' (4 / 4 / 34) / / 39 / / कर्मणि // 2 // 2 // 40 // * गौणानाम्नो द्वितीया स्यात्, कर्मणि कारके / घटं करोति / ओदनं पचति / रविं पश्यति / गां दोन्धि पयः [अजां नयति ग्रामम्] / अथेह कथं न भवति ? क्रियते कटः / कृतः कटः / शत्य पटः / आरूढवानरो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते वृक्षः / त्यादिकृत्तद्धितसमासैरभिहितत्वात् लोकशास्त्रयोश्चाभिहितेऽर्थे शब्दप्रयोगायोगात् / यत्र पुनरेकद्रव्याधारा प्रधानाप्रधानक्रियाविषयाऽनेका शक्तिर्भवति तत्र प्रधानक्रियाविषयायां शक्ती प्रत्ययैरभिहितायामप्रधानक्रियाविषया शक्तिः / प्रधानशक्त्यनुरोधात् [सामर्थ्यात्] अभिहितवत्प्रकाशमाना विभक्त्युत्पत्ती निमित्तं न भवति / यथा ओदनः पक्त्वा भुज्यतें देवदत्तेन / अत्र भावाभिधायिना क्त्वाप्रत्ययेन ओदनाधिकरणा[ओदनाश्रया] प्रधानपचिक्रियाविषया कर्मशक्तिरनभिहिताऽपि प्रधानभुजिक्रियाविषयात्मनेपदेनाभिहिता [प्रधानभुजिक्रियाविषया तेन आत्मने पदं भवति] इति [इति हेतोः] तद्वत् [अभिहितवत्] प्रकाशमाना द्वितीयोत्पत्तौ निमित्तं न भवति। यथा च ग्रामो गन्तुमिष्यते देवदत्तेनेत्यत्र ग्रामस्य प्रधानेषिक्रियाविषयां कर्मशक्तिमात्मने पदेनाभिदधताऽ. प्रधानगमिक्रियाविषयापि कर्मशक्तिरुपभुक्तेति हितोः कर्मशक्ति] तदभिधानाय [उक्तये] द्वितीयाचतुर्थ्यो न भवतः। गौणत्वं क्रियापेक्षं नाम्नो ज्ञातव्यम्, तेन अजां नयति ग्राममित्यादौ द्विकर्मकप्रयोगे ग्रामाद्यपेक्षयाऽजादेः प्रधानत्वेऽपि गौणत्वं न विहन्यते / इह तु कृतपूर्वी कटम् / भुक्तपूर्वी ओदनम् / व्याकरणं सूत्रयतीत्यादौ यः कृतादिभिः कटादेरभिसम्बन्धः स प्रत्ययेऽर्थान्तराभिधायिन्युत्पन्ने कृतादीनामुपसर्जनत्वानिवर्तते / क्रियया तु सह सम्बन्धोऽस्तीति व्याप्यत्वाव्दितीया भवति // 40 // ___अ० शतेन क्रीतः पटः शत्यः / ‘शतात्केवलादतस्मिन्येको' (6 / 4 / 131) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) अकारलोपः / आरूढो वानरो यं वृक्षं स आरूढवानरो वृक्षः / / त्यादिनिष्पन्ना क्रिया प्रधाना शुद्धा इत्युच्यते / कृत्निष्पन्ना क्रिया अशुद्धा अप्रधानक्रिया इत्युच्यते कर्तृकर्मादिकारकरूपाः। एवं स्थिते ग्रामस्य द्वितीयचतुर्हो न भवत इति सम्बन्धः / 'गतेर्नवानाप्ते' (2 / 2 / 63) इति सूत्रेण. द्वितीयचतुर्थ्यां प्राप्नुतः / ग्रामं ग्रामाय गन्तुमिष्यते देवदत्तेन इति प्रयोगो न भवतीति भावः / अयमभिप्रायः-प्रधानाप्रधानक्रियाद्वयस्यापि युगपत्प्रयोगे प्रधानत्यादिक्रियापेक्षयैव विभक्तिर्भवति नाप्रधानकृतक्रियाविषया विभक्तिः / इति ओदनं पक्त्वा भुज्यते देवदत्तेन इति प्रयोगो न भवत्येव / एवं घटः कृत्वा दीयते इति भवति, न तु घटं कृत्वा दीयते इत्यर्थः / कृतपूर्वमनेन इति वाक्ये 'पूर्वमनेन सादेश्चन्' (7 / 1 / 167) इति सूत्रेण इन्प्रत्ययः / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) सि, ‘इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः' (1 / 4 / 87) इति दीर्घः / कं कृतपूर्वीकटं इति कटादिसम्बन्धः / एवं भुक्तपूर्वी / भुक्तं पूर्वमनेन इत्यादि / व्याकरणं. अग्रे सूत्रम् / व्याकरणस्य सूत्रं करोतीति वाक्ये 'णिज्बहुलं०' (3 / 4 / 42) णिच्प्रत्ययः। ननु व्याकरणशब्दाद्वाक्ये षष्ठी दृश्यते / उत्पन्ने च णिच्प्रत्यये कथं द्वितीया विभक्तिर्जाता ? उच्यते / योऽसौ सूत्रव्याकरणयोः सम्बन्धः स उत्पन्ने प्रत्यये निवर्तते / सूत्रयतिक्रियासम्बन्धी तु द्वितीयैव भवतीत्यर्थः / सम्बन्धः इनरूपे / गौणत्वात् / क्रियया सहेत्यादि कोऽभिप्रायः ? क्रियावता तद्धितादिप्रत्ययवाच्येन का कटादिसम्बद्धयमानस्तत्क्रियया व्याप्यते इति कर्मत्वं कटस्य सिद्धम् // 40 // क्रियाविशेषणात् // 2 // 2 // 41 // क्रियाया यद्विशेषणं तद्वाचिनो गौणानाम्नो द्वितीया स्यात् / स्तोकं पचति / मन्दं याति / सुखं तिष्ठति / दुःखं जीवति / साधु भाषते / द्वितीयार्थं वचनं न कर्मसंज्ञार्थम् / तेन कृयोगे कर्मनिमित्ता षष्ठी न भवति / ओदनस्य शोभनं पक्ता / सुखं स्थाता / चिरमासिता // 41 // अ० शोभनम् इत्यत्र // 41 // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः कालाध्वनोाप्तौ // 2 // 2 // 42 // स्वेन सम्बन्धिना द्रव्येण गुणक्रियारूपेण कात्स्न्येन सम्बन्धो व्याप्तिः / अत्यन्तसंयोग इति यावत् / व्याप्तौ द्योत्यायां काले अध्वनि च गौणानाम्नो द्वितीया भवति / [काले] मासं गुडधानाः / मासं कल्याणी। मासमधीते / [अध्वनि] क्रोशं गिरिः / क्रोशं कुटिला नदी / क्रोशमधीते / व्याप्ताविति किम् ? +मासस्य मासे वा ब्यहं गुडधानाः // 42 // - अ० स्वेन कालाध्वनोरित्यपेक्षया आत्मीयेन द्रव्यगुणक्रियारूपेण / कालाध्वनोाप्ताविदं सूत्रं षष्ठयाः सप्तम्या वा बाधकम् / तेन मासम् अधीते क्रोशमधीते इत्यकर्मत्वे उदाहरणद्वयं सूत्रे दर्शितम् / कर्मत्वे पुनः कर्मणीत्यनेन द्वितीया सिद्धा / भावादपीच्छन्त्यन्ये / गोदोहं बुद्धदाः / +मासस्य मासे वा व्यहमित्यस्याग्रे मासस्य मासे वा एकरात्रं कल्याणी / मासस्य मासे वा द्विरधीते / क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेशे पर्वतः / क्रोश० कुटिला नदी इत्यादि / कालाध्वभावदेशानामिति द्वितीया / अध्वनि // गुडेन मिश्रा धानाः गुडधानाः / द्वि. अहन्. द्वयोरहोः समाहारे 'द्विगोरनहोऽट्' (7 / 3 / 99) इत्यनेन अट् समासान्तः। 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61) इत्यनेन अन्त्यस्वरादिलोपः / / न्यहम् अत्र समाहारेऽपि 'अहनिर्वृहकलहाः' इति पाठात्पुंस्त्वम् / / 42 / / - सिद्धौ तृतीया // 2 // 2 // 43 // ['सिद्धौ तृतीया' इत्यारभ्य ‘दामः सम्प्रदानेऽधर्म्य आत्मने च' - (2 / 2 / 52) इत्यन्तं यावत् दशसूत्राणि तृतीयाविभक्त्यधिकारे ज्ञातव्यानि] सिद्धौ क्रियाफलनिष्पत्तौ द्योत्यायां कालाध्ववाचिनो गौणानाम्नो यथासङ्ग्यमेकद्विबही टाभ्याम्-भिस्लक्षणा तृतीया [विभक्ति] भवति / व्याप्ती गम्यमानायाम् / मासेन मासाभ्यां मासैर्वाऽऽवश्यकमधीतम् / क्रोशेन क्रोशाभ्यां क्रोशैर्वा प्राभृतमधीतम् / सिद्धाविति किम् ? मासमधीत आचारो नचानेन गृहीतः / द्वितीयापवादो योगः // 43 // __ अ० ‘वशक् कान्तौ' वश्, वशनं वशः 'युवर्णवृदृवशरण गमृद्ग्रहः' (5 / 3 / 28) इत्यनेनाल् / वशं गतं वश्यम् 'हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यधर्म्यम्' (7 / 1 / 11) इति तद्धितसूत्रेण वश्यमिति निपातः, निपातनाद् यः / न वश्यमवश्यम् 'नञत्' (3 / 2 / 125) अवश्यस्य भाव आवश्यकम् ‘योपान्त्याद्गुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकञ्' (7 / 1 / 72) इति सूत्रेण, अथवा 'चौरादेः' (7 / 1 / 73) इति सूत्रेण अकञ्प्रत्ययः 'प्रायोऽव्ययस्य' (7/4/65) इति अन्त्यस्वरादिलोप इति आवश्यकशब्दसिद्धिः / अध्ययनविशेषम् / / मासमधीते इत्यत्र व्याप्तिमात्रमेव गम्यते न सिद्धिः / पठितः, परमार्थो न गृहीतो न शिक्षितः / / 43 / / _ हेतुकर्तृकरणेत्थम्भूतलक्षणे // 2 // 2 // 44 // हेत्वादिष्वर्थेषु वर्तमानाद्गौणानाम्नस्तृतीया भवति / हेतौ-धनेन कुलम्, अन्नेन वसति विद्यया यशः। कर्त्तरि-चैत्रेण कृतम्, मैत्रेण भुज्यते / करणे-दात्रेण लुनाति, मनसा मेरुं गच्छति / +समेन धावति, +विषमेण धावति, आकाशेन याति / आधारविवक्षायां तु सप्तम्यपि-समे धावति, विषमे धावति, आकाशे याति / इत्थम्भूतलक्षणे-अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत्, चूलया पब्रिाजकमपश्यत् / तता धान्येनार्थः, धान्येनार्थी, मासेन पूर्वः वाचा निपुणः, गुडेन मिश्रः, गिरिणा काणः इत्यादी हेतौ [अर्थे] कृतभवत्यादिगम्यमानक्रियापेक्षया कर्तरि करणे वा तृतीया // 44 // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते ___ अ० फलसाधनयोग्यः पदार्थो हेतुरुच्यते / कर्त्ता क्रियाकारकः / करणं कार्यसाधने प्रकृष्टोपकारकम् / इमं किश्चित् छात्नत्वादिप्रकारम्भूत आपन्न इत्थम्भूत उच्यते, स इत्थम्भूतो येनाभिज्ञानेन लक्ष्यते स इत्थम्भूतलक्षण इत्यर्थः / अपिः सम्भावने / कमण्डुलना उपलक्षितं छात्रम्, चूलया उपलक्षितं परिव्राजकमद्राक्षीदित्यर्थः / छात्रत्वादिकं प्रकारमापन्नस्य मनुष्यस्य कमण्डल्वादिलक्षणम्, छात्रहस्ते कमण्डलुभवति इति कमण्डलुना, छात्र उपलक्ष्यते / / अथवा कर्तृकारके करणकारके वा / +समेन मार्गेण ग्रामं धावतीत्यर्थः +विषममार्गेण धावति ग्राममित्यर्थः // 44 // सहार्थे // 2 // 2 // 45 // सहार्थे तुल्ययोगे शब्दादर्थाद्वा गम्यमाने विद्यमानताया च सत्यां गौणानाम्नुस्तृतीया स्यात् / [सहायें] पुत्रेण सहागतः / पुत्रेण सह स्थूलः [पुत्रसमान इत्यर्थः] पुत्रेण सह गोमान् / सहैव दशभिः पुत्रैर्भार वहति गर्दभी / अर्थग्रहणात्-पुत्रेण साकम्, समम्, सार्धम्, अमा। पुत्रेण युगपत् / अर्थाद्गम्यमाने-पुत्रेणागतः, तथा सुखेनास्ते, दुःखेन जीवति, अनायासेन करोतीत्यादौ आस्यादिक्रियाभिः सह सुखादेः सहार्थोऽस्ति। गौणादित्येव-सहोभी चरतो धर्मम् / चैत्रमैत्राभ्यां सह कृतम्, अत्र तु कर्तर्येव तृतीया // 46 // अ० सहार्थस्तुल्ययोगो विद्यमानता च उच्यते / विद्यमानतायाम्-पुत्रेण समम्, पुत्रेणामा। 'आसिक् उपवेशने' आस् / जीवत्यादिभिः क्रियाविशेषणत्वविवक्षायां तु द्वितीयैव भवति-यथा सुखमास्ते, दुःखं जीवति, अनायासं करोतीत्यादि // 45 // यद्भेदैस्तद्वदाख्या // 2 // 2 // 46 // : ___ यस्य भेदिनः प्रकारवतोऽर्थस्य भेदैः प्रकारैर्विशेषैस्तद्वतस्तत्प्रकारवदर्थयुक्तस्य आख्या [कोऽर्थः] निर्देशो भवति, तद्वाचिनो गौणानाम्नस्तृतीया स्यात् / अक्ष्णा काणः, पादेन खञ्जः, हस्तेन कुणिः [टूटउ], शिरसा खल्वाटः [टालीउ], प्रकृत्या दर्शनीयः, प्रायेण वैयाकरणः, गोत्रेण काश्यपः, जात्या विप्रः, स्वभावेनोदारः, निसर्गेण प्राज्ञः, वर्णेन गौरः, बाहुभ्यां दृढः / एषु सर्वत्र पुरुषः [स काणादिः] तद्वान् सम्बद्धयते / यद्ग्रहणं प्रकृतिनिर्देर्शार्थ तत इत्याक्षेपात् / भेदग्रहणं किम् ? यष्टीः प्रवेशय, कुन्तान् प्रवेशय / तद्भहणं किम् ? अक्षि काणं पश्य / आख्याग्रहणं प्रसिद्धिपरिग्रहार्थम् / तेन अक्ष्णा दीर्घ इति न भवति // 46 // ___ अ० यस्य भेदिनश्चक्षुरादेः, प्रकारवतः काणत्वादियुक्तस्य अर्थस्य, भेदैः काणत्वादिभिः, तद्वतः चक्षुरादिमतः पुरुषादेः कीदृशस्य तत्प्रकारवदर्थयुक्तस्य / कोऽर्थः ? स प्रसिद्धः प्रकारः काणत्वादिर्विद्यतेऽस्य चक्षुरादेः / स प्रकारवान् / तत्प्रकारवांश्वासावर्थश्च / तेन युक्तः / तस्य सकाणचक्षुषो मैत्रादेः, कोऽभिप्रायः ? येन भेदिना चक्षुरादिना कृत्वा स काणः पुरुष आख्यायते, तस्य चक्षुरादिशब्दवाचिनोऽक्षिपादहस्तादिरूपस्य नाम्नः परतो विभक्तिः तृतीया भवतीत्यर्थः / ननु अक्ष्णा काण इत्यादिषु यथासम्भवं कृतभवत्यादिक्रियाध्याहारेण कर्तृकरणयोस्तृतीया भविष्यति, किमनेन य दैरिति सूत्रेण ? सत्यम् / सम्बन्धे षष्ठयपि प्रापुयात् इति सम्बन्धषष्ठीनिवृत्त्यर्थमिदं वचनं कृतम् ? यदि पुनर्भेदग्रहणं न क्रियेत तदा 'येन तद्वदाख्या' इति सूत्रे क्रियमाणे यष्टीः प्रवेशय, कुन्तान् प्रवेशय इत्यत्रापि स्यात् / अत्र हि यष्टयादिना तद्वान् उपचारेणाख्यायते / / 46 / / कृतायैः // 2 / 2 / 47 // कृत इत्येवं प्रकारैर्निषेधार्थैर्युक्ताद्गौणानाम्नस्तृतीया स्यात् / कृतं तेन, भवतु तेन, अलमतिप्रसङ्गेन, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः किं गतेन / कृतं भवतु अलं किं इत्यादि कृतादयः // 47 // ____ अ० सर्वत्र कृतादीनां सृतमित्यर्थः // 47 // काले भानावाधारे // 2 // 2 // 48 // - काले वर्तमानानक्षत्रवाचिनो गौणानाम्न आधारे तृतीया स्यात्, नवा / पुष्येण पुष्ये पायसमश्रीयात् / काले इति किम् ? पुष्येऽर्कः / भादिति किम् ? तिलपुष्पेषु यत्क्षीरम् / तिलच्छेदेषु यद्दधि / आधार इति किम् ? अद्य पुष्यं विद्धि // 48 // __ अ० पुष्ये-पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः पुष्यः ‘चन्द्रयुक्तात्काले लुप्त्वऽप्रयुक्ते' (6 / 2 / 6) इति सूत्रेण अण्प्रत्ययः / ‘चन्द्रयुक्ता' दित्यनेनैव सूत्रेण कृतस्य अणो लोपः कार्यः, पुष्य इति सिद्धम् / पुष्येण पायसमश्नीयात्, पुष्ये पायसमश्नीयात् / पयस्शब्दः-पयसि ‘संस्कृते भक्ष्ये' (6 / 2 / 140) इति सूत्रेण अण्प्रत्ययः वृद्धिः / अश्नीयात् 'अशश् भोजने' अश् सप्तमीयात् 'क्यादेः' (3 / 4 / 79) इति ना 'एषामीय॑ञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) इति ना इत्यस्य ईकारः, अश्नीयात् / / स्थाल्या पचते इत्यादिवत् आधारस्य करणविवक्षायां तृतीया सिद्धयत्येव किं सूत्रेण ? सम्बन्धषष्ठयपि प्राप्ता इति षष्ठी मा भूदिति वचनम् / काले भेति सूत्रं कृतमिति भावः / तिलपुष्पेषु इत्यादि-अत्र स्वेनात्मनाऽवच्छिद्यते विशिष्यते यस्तिलच्छेदतिलपुष्पविशिष्टः कालः कोऽर्थः 1 यत्र काले तिलाः पुष्पन्ति तिलानामुच्छेदाश्च भवन्ति स कालः तिलपुष्प इति तिलच्छेद इत्युच्यते / कालो वाच्योऽस्ति परं नक्षत्रं वाच्यम् / 48|| प्रसितोत्सुकावबद्धैः / / 2 / 2 / 49 // एतैर्युक्तादाधार वर्तमानाद्गौणांनाम्नस्तृतीया वा स्यात् / केशैः प्रसितः, केशेषु प्रसितः / एवं गृहेणोत्सुकः, गृहे उत्सुकः / केशैः केशेषु वावबद्धः / आधार इत्येव-मनसा प्रसितः उत्सुकः अवबद्धः // 49 // ___ अ० इदमपि सूत्रं षष्ठीबाधनार्थं कृतम् / सूत्रे बहुवचनम् एकद्विबहाविति यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थमिति भावः / / प्र. प्रकर्षेण सितो बद्धः प्रसितः नित्यप्रसक्त इत्यर्थः / प्रसितशब्दस्य शुक्लगुण. क्रियार्थ. उभयार्थवाचित्वेऽपि, अत्र सूत्रे अवबद्धोत्सुकसाहचर्यात् क्रियार्थो बद्धलक्षण एव प्रसितो गृह्यते न शुक्लवाची // 49 // . व्याप्ये द्विद्रोणादिभ्यो वीप्सायाम् // 2 // 2 // 50 // व्याप्ये वर्तमानेभ्यो द्विद्रोणादिभ्यो गौणनामभ्यो वीप्सायां तृतीया वा स्यात् / द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति, द्विद्रोणं द्विद्रोणं क्रीणाति / द्विद्रोणादयः प्रयोगगम्याः // 50 // अ० द्विद्रोणेनेत्यादि-वीप्सायां तृतीयाविभक्तिः कृता इति तृतीयान्तस्य पदस्य द्विर्वचनं न भवति / द्विद्रोणं द्विद्रोणमत्र तु कर्मणि द्वितीया कृता न वीप्सायाम्, अतो द्वितीयान्तस्य द्विर्वचनं भवति-द्विद्रोणं द्विः क्रीणाति इति भावः। द्विद्रोणौ मानमस्य धान्यस्य द्विद्रोणं 'मानं' (6 / 4 / 169) इति सूत्रेण इकण्, 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (6 / 4 / 141) इति सूत्रेण इकण लुप्यते / अथवा द्वौ द्रोणौ मेयावस्य धान्यस्य, कोऽर्थः ? अनेन धान्येन द्वौ द्रोणौ मीयेते इति वाचित्वाद् द्रोणस्य / अथवा द्वयोनॊणयोः समाहारो द्विद्रोणम् / पात्रादित्वात्स्त्रीत्वाभावः / सहस्रेणाश्वान् क्रीणाति सहस्रं क्रीणातीत्यपि ज्ञेयम् // 50 // समो ज्ञोऽस्मृतौ वा // 2 // 2 // 51 // अस्मृतौ वर्तमानस्य सम्पूर्वजानातेर्यव्याप्यं तत्र वर्तमानानाम्नः [गौणात्] तृतीया वा स्यात् / मात्रा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते / सञ्जानीते, मातरं सञ्जानीते। ज्ञ इति किम् ? मातरं संवेत्ति / अस्मृताविति किम् ? मातरं सञ्जानाति मातुः सञ्जानाति-स्मरतीत्यर्थः // 51 // अ० सञ्जानीते / 'ज्ञांश् अवबोधने' ज्ञा सम्पूर्वः / 'सम्प्रतेरस्मृतौ' (3 / 3 / 69) इत्यात्मनेपदम्, वर्तमानाते 'क्यादेः' (3 / 479) ना 'एषामीळञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) इति ई, 'जाज्ञाजनोऽत्यादौ' (4 / 2 / 104) इत्यस्य जा इत्यादेशः / व्याप्येति किम् ? मातरं स्वरेण सञ्जानीते-करणे विकल्पो न भवति / मातुः संज्ञाता इत्यत्र परत्वात् कृति षष्ठयेव / नवाधिकारे पुनर्वाशब्दकरणमुत्तरत्र वानिवृत्त्यर्थम् // 51 // दामः सम्प्रदानेऽधर्ये आत्मने च // 2 // 2 // 52 // सम्पूर्वस्य दामः सम्प्रदानेऽधर्म्यरूपे वर्तमानानाम्न [गौणात्] स्तृतीया भवति / तत्सन्नियोगे च दाम आत्मनेपदं स्यात् / दास्या सम्प्रयच्छते, कामुकः सन्द्रव्यं दास्यै ददातीत्यर्थः / दाम इति किम् ? दास्यै सन्ददाति / अधर्म्य इति किम् ? पत्न्यै सम्प्रयच्छति // 52 // अ० 'दामः सम्प्रदाने०' इति सूत्रे प्रशब्दोपसर्ग विना केवलसम्पूर्वकस्य दामः प्रयोगो न घटते अतः सम् प्र इति उपसर्गद्वयपूर्वको दाम् गृह्यते, तस्यैव दामः सम्पूर्वस्य अधर्म्यरूपं सम्प्रदानं प्रवर्त्तते इत्यर्थः / धर्म. धर्मेण प्राप्यं धर्म्यम्, अथवा धर्मादनपेतं धयं 'हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यधर्म्यम्' इति निपातः, निपातनात् यः / अथवा न धर्म्यम्, अधर्म्यम् / तस्मिन् / 'दाम् दाने' सम्प्रपूर्वः, ते, 'श्रौतिकृवुधिवुपा०' (4 / 2 / 108) इति दामस्थाने यच्छ आदेशः // 52 // __चतुर्थी // 2 // 2 // 53 // [चतुर्थी विभक्ति अधिकारे सूत्राणि 16] सम्प्रदानकारके गौणानाम्न एकद्विवहौ यथासङ्ग्यं डे-भ्यां-भ्यस्-लक्षणा चतुर्थी विभक्तिः स्यात् / द्विजाय गां दत्ते / शिष्याभ्याम् धर्ममुपदिशति / मुनिभ्यो भिक्षां ददाति / पत्ये शेते। राज्ञे विज्ञपयति // 53 // अ० दत्ते 'डुदांग्क् दाने' दा, वर्तमानाते ‘हवः शिति' (4 / 1 / 12) द्वित्वम्, ‘ह्रस्वः' (4 / 1 / 39) 'भश्चातः' (4 / 2 / 96) इति धातोराकारलोपः 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) दस्य त् / शेते- 'शी स्वप्ने' 'शीङ ए: शिति' (4 / 3 / 104) इति एकारः / विज्ञपयति- 'ज्ञांश् अवबोधने' विपूर्वम्, विजानन्तं प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृ०' (3 / 4 / 20) णिग् 'अतिरीब्ली.' (4 / 2 / 21) इति पोऽन्तः ‘मारणतोषणनिशाने ज्ञश्च' (4 / 2 / 30) इति ह्रस्वः // 53 // तादर्थे // 2 // 2 // 54 // तस्मै इदं यत् प्रवृत्तं तत्तदर्थम् तस्य भावे तादर्थ्य सम्बन्धविशेषे द्योत्ये गौणानाम्नः षष्ठ्यपवादश्चतुर्थी स्यात् / यूपाय दारु / रन्धनाय स्थाली // 54 // अ० अथवा कार्यस्य कारणं प्रति प्रयोजकता तादर्थ्यमुच्यते // 54 // - रुचिकृप्यर्थधारिभिः प्रेयविकारोत्तमणेषु // 2 // 2 // 55 // रुच्यर्थः कृप्यर्थैर्धारिणा च धातुना योगे यथाक्रमं प्रेये विकारे उत्तमणे च वर्तमानानाम्न चतुर्थी स्यात्। रुच्यर्थेः प्रेये [कोऽर्थः] प्रीयमाणे-मैत्राय रोचते धर्मः, च्छात्राय स्वदते दधि / [मैत्रादेः] / तस्याभिलाषमुत्पादयती. त्यर्थः / कथं रोचते मम घृतं सह मुद्रैः, शालयो [रोचन्ते शालयः] दधिशरं कुकुराश्च' ? [विवक्षातः कारकानि भवन्तीति वचनात्] सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठ्येव / कृप्यर्थैर्विकारे-मूत्राय कल्पते यवागूः, उच्चाराय सम्पयते Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 125 यवानम्, श्लेष्मणे जायते दधि, तद्विकाररूपमापद्यते इत्यर्थः / विकार इति किम् ? चैत्रस्य कल्पन्ते धनानि+ सिम्पद्यन्ते शालयः] / धारिणोत्तमणे-मैत्राय शतं धारयति // 55 // ... अ० रुचिकृप्येत्यत्र वचनसाम्यं यथासङ्ख्यार्थम् / बहुवचनं तु एकद्विबहाविति यथासङ्ख्याऽभावार्थं ज्ञातव्यम् / उत्तम! धनिको द्रव्यपतिर्द्रव्यदाता उच्यते, अधमर्णो ग्राहको व्याजार्पक उच्यते / प्रेयसम्बन्धादभिलाषकरणार्थस्य रुचेर्ग्रहणम् तेनेह न भवति-सर्वेषामेतद्रोचते तव कथम् ? अत्र रोचते कोऽर्थः-प्रतिभाति / किं तव विचार आयातीत्यर्थः / तथा शृणाति पित्तमिति शरम्-सतरं दधि / ईदृशं सतरं दधि मम रोचते / अथवा कुकुरा अर्द्धस्विनमापादयो मम रोचन्ते / ‘रोचते कविकथा सुविचित्रा लम्बहेमवसनाश्च युवत्यः' इति काव्यं सम्पूर्णम्, क्वापि रोचते कापि रोचन्ते इति ज्ञेयम् / अथवा 'घृतमेव ममापि रोचते शृत (पक्कम्) शीतं च सशर्करं पयः' इत्यपि ज्ञेयम् / कल्पते 'कृपौङ् सामर्थ्य' कृप वर्तमानातेः शव् 'लघोरुपा०' (4 / 3 / 4) गुणः 'ऋरल्लं कृपोऽकृपीटादिषु' (2 / 3 / 99) इति सूत्रेण रेफस्य लकारः / यत्र क्लृप्यते इति क्रिया तत्र 'ऋरल्लं०' इत्यनेन ऋकारस्य लुकारः / तथा मूत्रं सम्पद्यते यवागूः, शृङ्गाच्छरो जायते, गोमयाद्वृश्चिकः प्रभवतीत्यादयः / कृप्यर्थत्वाच्चतुर्थ्यां प्राप्तायामपि विवक्षातः कारकानीति वचनादपायविवक्षायां पञ्चम्या कृत्वा सिद्धयन्तीति भावः / इयमवचूरिः *तद्विकाररूपमापद्यते इत्यत्र ज्ञातव्या / गौणादित्येव-मूत्रमिदं सम्पद्यते यवागूः / इयं व्यावृत्ति+र्धनान्यग्रे ज्ञेया / अत्र मूत्रस्य विशेष्यार्थम्, क्रियया सह मूत्रं प्रथमं सम्बन्धनीयमिति मूत्रस्य मुख्यता न गौणता // 55|| . प्रत्याङः श्रुवार्थिनि // 2 // 2 // 56 // प्रत्याङ्मयां परेण शृणोतिना युक्तादर्थिन्यभिलाषुके वर्तमाना [गौणात्] नाम्नश्चतुर्थी स्यात् / द्विजाय गां प्रतिशृणोति आशृणोति वा // 56 // . अ० द्विजाय गां प्रतिशृणोति, द्विजाय गामाशृणोति / कोऽर्थः ? दाता, याचितो वा अयाचितो वा, याचकद्विजनिमित्तं गोदानमङ्गीकरोतीत्यर्थः / 'श्रृंट् श्रवणे' श्रु, वर्तमानातिव् ‘स्वादेः भुः' (3 / 4 / 75) 'श्रौतिकृवु०' (4 / 2 / 108) इत्यादिना श्रुस्थाने श्रृआदेशः // 56 / / - प्रत्यनोगुणाख्यातरि // 2 / 2 / 57 // . प्रत्यनुभ्यां परेण गृणातिना योगे आख्यातरि वर्तमानानाम्न [गौणात्] चतुर्थी भवति / गुरवे प्रतिगृणाति अनुगृणाति वा, गुरूक्तमनुवदति, प्रशंसन्तं वा प्रोत्साहयतीत्यर्थः // 57 // अ० 'गृश् शब्दे' गृधातुः, गृणाति ‘प्वादेर्हस्वः' (4 / 2 / 105) इति ह्रस्वः // 57 // यद्वीक्ष्ये राधीक्षी // 2 / 2 / 58 // - वीक्ष्यं विमतिपूर्वकं निरूपणीयम् / विप्रश्नविषय [लाभालाभादिविचार इत्यभिप्रायः] इति यावत् / तद्विषया क्रियापि [पर्यालोचनादिका क्रियापि वीक्ष्यमित्युच्यते] वीक्ष्यम् / यत्सम्बन्धिनि वीक्ष्ये राधि-ईक्षी वर्तेते, तस्मिन्नर्थे वर्तमानानाम्नः [गौणात्] सामर्थ्याद्राधीक्षीभ्यामेव युक्ताचतुर्थी स्यात् / मैत्राय राध्यति, मैत्रायेक्षते / यद्ग्रहणं किम् ? मैत्रस्य शुभाशुभमीक्षते / वीक्ष्यग्रहणं किम् ? मैत्रमीक्षते // 58 // अ० यत्सम्बन्धिनि इत्यादि-यस्य कस्य देवदत्तमैत्रादेः सम्बन्धे लाभादिकं वीक्ष्यं दैवज्ञस्य प्रवर्त्तते / तस्मिन्नर्थे वीक्ष्यार्थे कोऽर्थः ? शुभाशुभविचारे इत्यर्थः / एतेन मैत्रादिशब्दात् परतश्चतुर्थी भवति न शुभाशुभात् परतः / मैत्रा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलते येक्षते शुभाशुभम् इति प्रयोगः, न तु मैत्रस्य शुभाशुभाय ईक्षते // ‘राधं साधं च संशुद्धौ' 'ईक्षि दर्शने' इति धातुद्वयम् / मैत्राय राध्यति मैत्राय ईक्षते कोऽर्थः ? मैत्रस्य दैवं शुभाशुभं कर्म दैवज्ञः पर्यालोचयतीत्यर्थः / मैत्राय ईक्षते / अत्र स्त्रीभ्य ईक्षते इत्यपि उदाहरणं ज्ञातव्यम् / अस्यार्थः-स्त्रीणां कीदृशोऽभिप्राय इति विमतिपूर्वकं रागी निरूपयति / राधीक्ष्यर्थधातुयोगेऽपि चतुर्थीमिच्छन्त्येके / मैत्राय राधयति साधयति पश्यति जानाति इति प्रयोगं दर्शयन्ति / अयं विशेषो ज्ञातव्यः-शुभाशुभशब्दात् चतुर्थी मा भूत् तर्हि मैत्रशब्दात् चतुर्थी कथं न भवति ? उच्यते राधीक्षीभ्यां योगाभावात् / एवं तर्हि मैत्राय राध्यतीत्यादावपि सम्बन्धाभावाचुतुर्थी न / न / सूत्रोदाहरणे मैत्रेणैव सह राधीक्ष्योः सम्बन्धो विवक्षितः / अन्यस्य शुभाशुभादेरनुक्तत्वात् // 58 // उत्पातेन ज्ञाप्ये // 2 / 2 / 59 // ___उत्पातं आकस्मिकं निमित्तम्, तेन ज्ञाप्ये ज्ञाप्यमानेऽर्थे गौणानाम्नश्चतुर्थी भवति / वाताय कपिला [अतिरिक्ता] विद्युदातपायातिलोहिनी / पीता वर्षाय विज्ञेया दुर्भिक्षाय सिता भवेत् // 59 // ____ अ० वातायेत्यादि-वात-आतप-वर्षा-दुर्भिक्षाणि स्वकारणेभ्यः स्वभावादेवोत्पद्यन्ते / परं विद्युता उत्पातनिमित्तेन ज्ञाप्यन्ते इति तादर्थ्यं नास्त्येव अत उत्पातेनेति सूत्रं कृतम् / इदमपि सूत्रं षष्ठयपवादकमित्यर्थः / ज्ञाप्यज्ञापकलक्षणसम्बन्धविवक्षया षष्ठी प्राप्नोति इति भावः / / 59|| श्लाघहस्थाशपा प्रयोज्ये // 2 // 2 // 6 // ज्ञाप्ये इत्यनुवर्तते / श्लाघादिभिर्धातुभिर्युक्तात् ज्ञाप्ये प्रयोज्येऽर्थे वर्तमानानाम्नश्चतुर्थी स्यात् / मैत्राय श्लाघते, मैत्राय हुते, मैत्राय तिष्ठते, मैत्राय शपते / प्रयोज्य इति किम् ? मैत्रायात्मानं श्लाघते // 6 // ___ अ. 'श्लाघृङ् कत्थने' 'हुंङ् अपनयने' मैत्राय श्लाघति इत्यादीनामयमर्थः-श्लाघाह्रवस्थानशपथान् कुर्वाणो देवदत्तः स्वं परं वा जानन्तं ज्ञापनीयं मैत्रं ज्ञापयति प्रवर्त्तयति प्रयोजयतीत्यर्थः / कः परमार्थः ? किश्चिद्वस्तु गोप्यादिकं जानन्तमपि मैत्रं तत्सूचकेन स्थानेन देवदत्तो ज्ञापयतीत्यर्थः / आत्मशब्दात्परतश्चतुर्थी न भवति / मैत्रमात्मने श्लाघते इति प्रयोगो मा भूत् // 60 // तुमोऽर्थे भाववचनात् // 2 // 2 // 6 // तुमोऽर्थे ये भाववाचिनो घञादयः प्रत्यया विधास्यन्ते, तदन्ताद्गौणानाम्नः स्वार्थे चतुर्थी भवति। पाकाय व्रजति / एवं पक्तये [ब्रजति] पचनाय [व्रजति] इज्यायै व्रजति पक्तुं यष्टुं वा व्रजतीत्यर्थः / तुमोऽर्थ इति किम् ? पाकस्य पाकेन वर्तते अध्ययनेन वसति [अत्र तुमो विषयता नहि व्रजतीत्युपपदाभावात्] भाववचनादिति किम् ? पक्ष्यतीति पाचकस्य / गां दास्यतीति गोदायस्य परिसर्या / तुम् इति व्यस्तनिर्देश उत्तरार्थः // 61 // ' अ. भावं वक्तीति भाववचनः 'रम्यादिभ्यः कर्त्तरि' (5 / 3 / 126) इति अनट् / 'क्रियायां क्रियार्थायां तुम्णकच् भविष्यन्ती' (5 / 3 / 13) इति सूत्रेण तुम्. वक्ष्यते / तुमोऽर्थे सति यत्र प्रयोगे पाकाय व्रजतीत्यादिवत् भावप्रत्ययान्तशब्दात्परतो व्रजति याति पचति भवति इत्यभिप्रायः सूच्यते तत्रैव भावप्रत्ययान्तशब्दाच्चतुर्थी भवति इत्यभिप्रायः आदिशब्दात् क्ति अनट् क्यप् इति = तीत्यादिकं उपपदं भवति / तत्र तुमोऽर्थो भवति / तत्र तुम्प्रत्ययार्थो गम्यते / पाकाय व्रजति-अत्र पच् पक्ष्यते इति व्रजति इति वाक्ये 'भावाऽकोंः ' (5 / 3 / 18) घञ् / पक्तये अत्र पचा पक्ष्यते इति व्रजति इति वाक्ये ‘गापापचो भावे' (5 / 3 / 95) इति सूत्रेण क्तिः / पचनाय व्रजति अत्रापि पक्ष्यते इति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः व्रजति इति वाक्ये अनट् / इज्यायै अत्र पक्ष्यते इति व्र० आस्यटि व्रजयजक्यप् / / परिसरणं परिसर्या ‘परेः सृचरेर्यः' (5 / 3 / 102) इति यः / पाकेनेत्यादौ तु भावमात्रमस्ति परं क्रियार्थोपपदप्रत्ययो नहि / क्रिया सह सम्बन्धोऽपि पश्चाद्भवति इति हेतौ तृतीयाऽत्र भवति / / ‘क्रियायां क्रियार्थायां तुम्णकच् भविष्यन्ती' इति तुम्प्रत्ययेनैव तादर्थ्यस्योक्तत्वाच्चतुर्थी न प्राप्नोतीति शेषषष्ठीप्रसङ्गः, हेतुहेतुमद्भावादिविवक्षायां वा हेतुतृतीयाऽपि प्राप्नोति इति चतुर्थ्यर्थं तुमोऽर्थो भावेति सूत्रं कृतम् // 61 / / गम्यस्याप्ये // 2 // 2 // 12 // यस्य [तुमः] अर्थो गम्यते न च शब्दः प्रयुज्यते स गम्यः, तस्य तुमो यदाप्यं तन्याप्यम्, आप्ये [व्याप्ये] वर्तमाना [गौणात्] नाम्नश्चतुर्थी स्यात्; द्वितीयापवादः / एधेभ्यो ब्रजति फलेभ्यो ब्रजति, एधादीनाहर्तु ब्रजतीत्यर्थः [एधान् फलानि चाहत्तुं व्रजतीत्यर्थः] / गम्यस्येति किम् ? एधानाहतुं व्रजति / तुम इत्येव-प्रविश पिण्डी द्वारम् // 62 // ___ अ० प्रविश पिण्डीमित्यस्यार्थोऽयम्-गृहे प्रविश पिण्डी भक्षय द्वारं पिधेहि इति गम्यपदानि ज्ञातव्यानि अत्रोदाहरणे // 62 / / गतेर्नवाऽनाप्ते // 2 / 2 / 63 // . गतिः पादविहरणम् [पदाभ्यां चङ्कमणम्] / गतेराप्येऽनाप्ते [कोऽर्थः]ऽसम्प्राप्ते वर्तमानानाम्नश्चतुर्थी वा स्यात् / ग्रामाय गच्छति ग्रामं गच्छति / नगराय व्रजति, नगरं व्रजति / उत्पथेन पथे पन्थानं वा गच्छति। गतेरिति किम् ? रविं पश्यति, तथा स्त्रियं गच्छति [जानातीत्यर्थः] मनसा मेरुं गच्छति [जानातीत्यर्थः] इत्यत्र गमिर्ज़ापनार्थः / आप्य इत्येव-ग्रामादागच्छति / अनाप्त इति किम् ? पन्थानं गच्छति / कृयोगे परत्वात्पठयेव-ग्रामस्य गन्ता // 63 // अ० उत्क्रान्तः पन्थानमुत्पथः 'ऋक्तः पथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) इति अत्समासान्तः // 63 // मन्यस्यानावादिभ्योऽतिकुत्सने // 2 // 2 // 6 // अतिकुत्सने मन्यतेराप्ये वर्तमानानाम्नो नावादिगणवर्जिताचतुर्थी वा भवति / न त्वा तृणाय मन्ये [न मन्ये] न त्वां तृणं मन्ये / एवं न त्वा बुसाय बुसम्. न त्वा लोष्टाय लोष्टम्, न त्वा शुने श्वानं मन्ये / तृणादपि न मन्ये / तृणादेरपि निकृष्टं मन्ये इति कुत्सयते / मन्यस्येति किम् ? न त्वा तृणं चिन्तयामि। श्यनिर्देशः किम् ? न त्वा तृणं मन्चे / अनावादिभ्य इति किम् ? न त्वां नावं मन्ये, न त्वा अनं मन्ये, न त्वा शुकं शृगालं काकं मन्ये / कुत्सन इति किम् ? न त्वा रत्नं मन्ये, न ते मुखं चन्द्रं मन्ये / तथा न त्वा तृणस्य मन्ता-अत्र कृयोगो परत्वात्पष्ठी // 6 // - अ० कुत्सयते 'कुत्सिण अवक्षेपे निन्दायाम्' कुत्स् 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) / अति कोऽर्थः ? अतीव अतिशयेन कुत्स्यते अनेन इति अतिकुत्सनम् अतिनिन्दायामित्यर्थः / मन्ये इत्यत्र 'बुधिं मनिं च ज्ञाने' वर्तमानाए 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) 'लुगस्यादेत्यपदे' (2 / 1 / 113) 'बुसच् उत्सर्जने' बुस्यति त्यजति उपादेयभावमिति बुसः 'नाम्युपान्त्य०' (5 / 1 / 54) इति कप्रत्ययः / ननु नावानयोरत्यन्तोपकारकत्वात् कथं नावानयोरतिकुत्सनत्वं गम्यते इत्याह-नावानयोरपि परप्रणेयताऽनायासोच्छेद्यताऽचेतनताविनश्वरत्वैरतिकुत्सनत्वं भवति / परप्रणेयता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते कोऽर्थः ? परेण स्वेच्छयाभिमतं स्थानं परायत्तवृत्तित्वात् प्रकर्षेण नीयते इति परप्रणेयः, तस्य भावः परप्रणेयता, अतोऽतिकुत्सनत्वम् / कुत्स्यतेऽनेनेति करणाश्रयणात् न त्वां तृणाय मन्ये इत्यादौ युष्मदः परतश्चतुर्थी न भवति। मन्वे इत्यत्र 'मनूयि बाधने' मन् वर्तमानाए ‘कृन्तनादेरुः' (3 / 4 / 83) न त्वा रत्नं मन्ये इत्यादिनाऽतिप्रशंसा प्रख्यायते तथाहि-त्वां रत्नादप्यधिकगुणं मन्ये / रत्नं हि पाषाणप्रायं नच त्वं पाषाणः इति प्रशंसा / चन्द्रादपि त्वन्मुखं निष्कलङ्क निर्मलं मन्ये / रत्नं हि पाषाणप्रायं नच त्वं पाषाणः इति प्रशंसा / चन्द्रादपि त्वन्मुखं निःकलई निर्मलं मन्ये / चन्द्रो हि सकलङ्कः कदाचिन्मेघादिना विच्छाय इति रत्नचन्द्रादिभ्यस्त्वां गुणाधिकं मन्ये इति प्रशंसा। उक्तकर्मणि तु न त्वं बुसो मन्यसे मया, न चैत्र, श्वा मन्यते मया / अत्र विशेष्यविशेषणभावेन उभयमपि कर्म उक्तम् / यथा कटः क्रियन्ते वीरणानि-इयमवचूरिः परत्वात्षष्ठी इत्यक्षर अग्रतो ज्ञातव्या // 64 // हितसुखाभ्याम् // 2 // 2 // 65 // हितसुखाभ्यां युक्ता [गौणात् नाम्नश्चतुर्थी वा स्यात् / आतुराय [रोगातय] आतुरस्य वा हितम् / चैत्राय चैत्रस्य वा सुखम् // 65 // तद्भद्रायुष्यक्षेमार्थार्थेनाशिषि // 2 // 2 // 66 // ___ अर्थशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते / तच्छब्देन हितसुखपरामर्शः / हिताद्यधैर्युक्ता[गौणात्]नाम्न आशिषि गम्यमानायां चतुर्थी वा भवति / हितार्थ.-हितं जीवेभ्यो भूयात् [आशीर्यात् ] हितं जीवानां भूयात् / एवं पथ्यं मैत्राय मैत्रस्य भूयात् / सुखार्थ. सुखं प्रजाभ्यो भूयात् सुखं प्रजानाम्, शर्म भवताद्भव्येभ्यः भव्यानां वा। भद्रार्थ. भद्रं भद्रं कल्याणमस्तु जिनशासनाय जिनशासनस्य वा। आयुष्यार्थ.-आयुष्यं दीर्घमायुः चिरञ्जीवितमस्तु मैत्राय मैत्रस्य वा / क्षेमार्थ. क्षेमं शिवं कुशलं भूयात्सङ्घाय सङ्घस्य वा / अर्थार्थ.-अर्थः प्रयोजनं कार्य भूयाच्चैत्राय चैत्रस्य वा / आशिषीति किम् ? आयुष्यं प्राणिनां घृतम् // 66 // ____ अ० तच्च भद्रं च आयुष्यं च क्षेमं च अर्थश्च तद्भद्रायुष्यक्षेमार्थाः तेषामर्थो यस्य सः, तेन हितार्थ-सुखार्थभद्रार्थ-आयुष्यार्थ-क्षेमार्थ-अर्थार्थशब्दोंगे इत्यर्थः / हितसुखाभ्यां पूर्वेण विकल्पः सिद्ध एव, अत्र तु सूत्रे तदर्थार्थहितार्थैः सुखार्योगैरित्युक्त्या हितसुखशब्दग्रहणं कृतमिति भावः / भद्रक्षेमार्थयो ममालायामेकार्थत्वेऽपि क्षेममापदोऽभावः भद्रं तु सम्पदामुत्कर्ष इत्यर्थभेदात् सूत्रे द्वयोरपि पृथगुपादानम् / पथानपेतं पथ्यम् 'हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यधर्म्यम्' (7 / 1 / 11) इति निपातः / दीर्घमायुर्देवदत्ताय देवदत्तस्य वा, आयुष्यमस्तु मैत्राय मैत्रस्य वा, क्षेमं भूयात्सङ्घाय सङ्घस्य वा, एवं शिवमस्तु जगते जगतः इति, भद्रमस्तु जिनशासनाय जिनशासनस्य, अर्थो भूयाद्भव्याय भव्यानाम् / भूधातुः पञ्चमी तु 'आशिषि तुह्योस्तातङ्' (4 / 2 / 119) / आयुष्यमिति / आयुस्शब्दः / आयुः प्रयोजनमस्येति वाक्ये 'स्वर्गस्वस्तिवाचनादिभ्यो यलुपौ' (6 / 4 / 123) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / आयुष्यं घृतादि-उपचारादायुरपि घृतमुच्यते / यदा तु आयुरेवायुष्यं 'भेषजादिभ्यष्टयण' (7 / 2 / 164) इति युक्त्या आयुष्यं निष्पाद्यते तदा निर्विवादं सिद्धमेव.। अत्र तत्त्वाख्यानमात्रमस्ति इति न भवति चतुर्थी // 66|| परिक्रयणे // 2 / 2 / 67 // परिक्रयणे वर्तमाना(गौणात्)नाम्नश्चतुर्थी वा स्यात् / शताय शतेन वा परिक्रीतः / शतादिना नियतकालं स्वीकृत इत्यर्थः // 17 // Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 129 ___ अ० यत् कर्मकरपरगृहादिकं कियत्कालं द्रव्यदानेन क्रीयते स्ववशं क्रियते तत्परिक्रयणमित्युच्यते, सर्वथास्वीकारस्तु क्रय इति उच्यते / परिक्रयणे इति-परि कोऽर्थः ? समन्तात्क्रीयते स्वीक्रियते नियतकालं येन तत्परिक्रयणम् / वेतनं मूल्यं भाटकादिकमुच्यते // 67 / / शक्तार्थवषड्नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाभिः // 2 / 2 / 68 // . शक्तार्थैर्वषडादिभिश्च शब्दैर्युक्ता गौणात् नाम्नश्चतुर्थी स्यात् / पृथग्योगाद्वेति [वा इति] निवृत्तम् / शक्तार्थेशक्तो मैत्रश्चैत्राय, प्रभुमल्लो मल्लाय, एवमलं मल्लो मल्लाय, समर्थो मल्लो मल्लाय, प्रभवति मैत्रश्चैत्राय, वषट्वघडग्नये / नमस्-नमोऽर्हद्भ्यः, नमः सिद्धेभ्यः / स्वस्ति प्रजाभ्यः / इन्द्राय स्वाहा / पितृभ्यः स्वधा / तृतीयया योगाभिधानादिह न भवति-नमो जिनानामायतनेभ्यः, नात्र जिनानां नमसा योगः / नमस्यति जिनानित्यत्रापि नमस्यधातुना योगो न नमसा // 68 // _____ अ० स्वस्तिशब्दः क्षेमार्थः / स्वस्तियोगे आशीर्विषयेऽपि परत्वान्नित्यमेव चतुर्थी भवति-स्वस्ति सङ्घाय भूयात्, स्वस्ति प्रजाभ्यो भूयात् / नमः करोति नमस्यति 'नमोवरिवश्चित्रकोऽर्चासेवाश्चर्ये' (3 / 4 / 37) इति क्यन् / यदि नमसा सह योगे सति चतुर्थी तदा 'स्वयम्भुवे नमस्कृत्य' इत्यत्र कथं चतुर्थी ? सूरिराह-अत्र शक्तार्थवषडित्यनेन न चतुर्थी किन्तु नमस्कृतिलक्ष(ण)या क्रिययाऽभिप्रेयमानत्वात्सम्प्रदानत्वे 'चतुर्थी' (2 / 2 / 53) इति सूत्रेणैव चतुर्थी भवति / 'स्वयम्भुवं नमस्कृत्य' अत्र तु क्रियाभिप्रेयत्वाविवक्षायां द्वितीया एव भवति / इयमवचूरिनमस्यधातुना योगो न नमसा इत्यक्षर अग्रे ज्ञातव्या // 68 / / पञ्चम्यपादाने // 2 / 2 / 69 // [पञ्चम्यपादाने इति सूत्रादारभ्य स्तोकाल्पकृच्छ्रकतिपयेति यावत् पञ्चमी विभक्ति-अधिकारे एकादशसूत्राणि ज्ञातव्यानि] अपादाने कारके गौणानाम्नो यथासङ्ग्यमेकद्विबही उसि-भ्यां-भ्यस्लक्षणा पञ्चमीविभक्तिर्भवति // ग्रामादागच्छति, गोदाभ्यामागच्छति, यवेभ्यो गां वरायति // 69 // अ०. गोद इति द्विवचनान्तं ह्रदविशेषनाम // 69 / / आङावधौ // 2 / 2 / 70 // अवधौ वर्तमानादाङायुक्तागौणानाम्नः पञ्चमी स्यात् / आ पाटलिपुत्रादृष्टो मेघः-पाटलिपुत्रमवधीकृत्य तद्व्याप्य वा वृष्ट इत्यर्थः / आकुमारेभ्यो [अभिविधौ अर्थे] यशो गतं गौतमस्य // 70 // अ० अवधिर्मर्यादा / अभिविधिरप्यवधिविशेष एवेति अभिविधिरप्यत्र गृह्यते / अभिविधिरभिव्याप्तिरुच्यते // 70 // ___ पर्यपाभ्यां वर्षे // 2 / 271 // वर्ये वर्जनीयेऽर्थे [अपपरी वर्जनेऽर्थे] पर्यपाभ्यां युक्ता[गौणात्] नाम्नः पञ्चमी भवति / परि पाटलिपुत्रादृष्टो (मेघ]देवः / परि परि पाटलिपुत्राद्वृष्टो देवः / अप पाटलिपुत्रादृष्टः, पाटलिपुत्रं वर्जयित्वेत्यर्थः / वर्ण्य इति किम् ? अपशब्दो मैत्रस्य // 7 // अ०. 'वाक्यस्य परिवर्जने' (74 / 88) इति सूत्रेण परिशब्दस्य द्वित्वम् / अपगतः शब्दात् अपशब्दः // 71 / / यतः प्रतिनिधिप्रतिदाने प्रतिना // 2 // 2 // 72 // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते प्रतिना योगे यतः [यस्मात्] प्रतिनिधि यतश्च प्रतिदानं तद्वाचिनो [गौणात्] नाम्नः पञ्चमी स्यात् / प्रद्युम्नो वासुदेवात्प्रति [वासुदेवसदृशः प्रद्युम्नः] / अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति // प्रतिदानेतिलेभ्यः प्रति माषानस्मै प्रयच्छति, तिलान् गृहीत्वा माषान् दत्ते इत्यर्थः / प्रतिनिधिप्रतिदाने इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते विद्युत् // 72 // ___अ० प्रतिनिधीयते इति प्रतिनिधिः-मुख्यसदृशोऽर्थः / प्रतिदीयते प्रतिदानम्-गृहीतस्य प्रत्यर्पणं विशोधनमिति यावत् / श्रेणिकसदृशोऽभयकुमारः / श्रेणिकात् श्रेणिकतः ‘प्रतिना पञ्चम्याः' (7 / 2 / 87) इति तस् 'तुल्याथै - स्तृतीयाषष्ठ्यौ' (2 / 2 / 116) इति प्राप्ते वचनमिदम् // 72 // / आख्यातर्युपयोगे // 2 / 2 / 73 // आख्याता प्रतिपादयिता / तत्र वर्तमानानाम्नः पञ्चमी स्यादुपयोगे-नियमपूर्वकविद्याग्रहणविषये। उपाध्यायदधीते, आचार्यादागमयति / उपयोग इति किम् ? नटस्य शृणोति / उपयोगविवक्षायां त्वत्रापि स्यात् [भवति]-नटाद्भारतं शृणोति / अपादानत्वेनैव सिद्धे उपयोग एव यथा स्यादित्येवमयं वचनम् // 73 // अ० विद्यादिदाता आख्यातरि / अमद्रमहम्ममीमृगम्लं गतौ आङ्पूर्वः / आगम्यते इत्यागमः 'युवर्णवृदृवशरणगमृद्ग्रहः' (5 / 3 / 28) इति अल् / आगमं गृह्णाति आगमयति ‘णिज्बहुलं०' (3 / 4 / 42) इति णिज् ‘त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) // 73 // गम्ययपः कर्माधारे // 2 / 2 / 74 // [गम्यस्य यपः] गम्यस्याप्रयुज्यमानस्य यपो यबन्तस्य यत्कर्म आधारश्च तत्र वर्तमाना[गौणात्] नाम्नः पञ्चमी स्याम्हिती. यासप्तम्योरपवादः [योगोऽयम्] / प्रासादात्प्रेक्षते, आसनात्प्रेक्षते, प्रासादमारुह्य आसने चोपविश्य प्रेक्षते इत्यर्थः / गम्यग्रहणं किम् ? प्रासादमारुह्य शेते, आसने उपविश्य भुङ्क्ते / यग्रहणं किम् ? प्रविश पिण्डीम् [भक्षय] / प्रविश तर्पणम् [कुरु], वृक्षे शाखा [आस्ते], ग्रामे चैत्रः [वसति], अत्र हि भक्षय-कुरु-आस्ते-वसतीनां गम्यता न तु यपः // 7 // ___ अ० प्रासादमारुह्य शेते आसने उपविश्य भुङ्क्ते–अत्र यबन्तस्याप्रयोगे-यप्प्रयोगं विना प्रासादमारुह्य शेतेऽयमर्थो न गम्यते अतो यप्योगोऽवश्यं प्रयोज्य एव / / 74 / / प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्दबहिरारादितरैः // 2 / 2 / 75 // [आरात्] प्रभृत्यर्थैरन्या/र्दिक्शब्दैहिस् आरात् इतर इत्येतैः शब्दैर्युक्ता[गौणात्] नाम्नः पञ्चमी भवति / प्रभृत्यर्थततः [तस्मात् ] प्रभृति / कार्तिक्याः प्रभृति, ग्रीष्मादारभ्य / अन्य भिन्न अर्थान्तर व्यतिरिक्त विलक्षण पृथग् हिरुक् एते शब्दा अन्यार्थाः / अन्यो मैत्रादित्यादि / दिक्शब्द-ग्रामात्पूर्वस्यां दिशि वसति / दिशि दृष्टाः शब्दा दिक्शब्दा इति देशकालादिवृत्तिनाऽपि [दिक्शब्देन] पञ्चमी भवति-पूर्व उज्जयिन्या गोनर्दः, पूर्वो ग्रीष्माद्वसन्तः, पश्चिमो रामायुधिष्ठिरः / एतदर्थमेव शब्दशब्दोपादनं तेन गम्यमानेनापि दिक्शब्देन पञ्चमी / क्रोशाल्लक्ष्यं विध्यति कमेर्णिङ्, प्राग्ग्रामात्, +प्राचीनं ग्रामादाम्राः, दक्षिणाहि ग्रामात्, उत्तराहि ग्रामात् दक्षिणा ग्रामात्, उत्तरा ग्रामात् / बहिस्-बहिर्गामात् / आरात् ग्रामात् क्षेत्रम् / इतरश्चैत्रात् [चैत्रेतरः चैत्रात् इतरो मैत्रः] तस्य द्वितीयो मैत्रादिरित्यर्थः // 7 // अ० सूत्रे इतरशब्दो द्वयोरुपलक्षितयोर्दश्यमानयोरन्यतरवचनः तेनान्यशब्दार्थादितरशब्दो भिद्यते / अन्यशब्दस्य Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 131 प्रकृतिविलक्षणोऽर्थः, इतरशब्दस्तु दृश्यमानप्रतियोगी स्पर्धी / यथा शुभेतरः शुभादितरोऽशुभः, धर्मेतरः धर्मादितरः पापः इत्यादि, अतोऽन्य-इतरयोर्मियो विशेष इति सूत्रे पृथगुपादानमन्य-इतरयोः / अन्यो मैत्रात्, भिन्नो मैत्रात्, अर्थान्तरं घटात्, व्यतिरिक्तः पटात्, विलक्षणोऽश्चात् पृथग्गजात्, हिरुक् चैत्रात्; एवं प्रयोगा ज्ञातव्या अन्यार्थे / पूर्वो देशः, पूर्वः कालः, पश्चिमः पुरुष इति प्रकारेण दिगा कृत्वा देशकालादिग्रहणार्थं सूत्रे दिक् अग्रे शब्द इति शब्द-उपादानं ग्रहणमं कृतम् / 'व्यधत् ताडने' व्यध् वर्तमानाति 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) 'ज्याव्यधः डिति' (4 / 1 / 81) इति य्वृत् इकारः / क्रोशाल्लक्ष्यमिति कोऽर्थः ? क्रोशात्परेण लक्ष्यं वेध्यं विध्यति, अत्र परशब्दो गम्यः / 'कर्मेणिङ्' (3 / 4 / 2) अत्र कमेः परो णिङ् भवतीति परशब्दो गम्यः / प्राग्ग्रामात् प्रत्यग्ग्रामात् उदग्ग्रामादित्युदाहरगानि ज्ञेयानि / +प्राचीनम्-प्रागेव प्राचीनं इति वाक्ये ‘अदिस्त्रियां वाञ्चः' (7 / 1 / 107) इति सूत्रेण ईनः / अत्र कोऽर्थः ? पूर्वदिशि ग्रामात् आम्रा वर्त्तन्ते / नपुंसकत्वं सामान्यभावेन, तथा च वर्त्तते किं तत्कर्तृ ? प्राचीनम्, किं तत् ? आम्रा इति / दक्षिणाशब्दः अथवा दक्षिणं इति-ग्रामाद्दूरे दक्षिणा दिग् रमणीया, ग्रामाद्दूरे दक्षिणो देशो वा रमणीयः, 'आही दूरे' (7 / 2 / 120) इति सूत्रेण आहिप्रत्ययः, स चाव्ययः, प्रथमासिः ‘अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक् / उत्तरशब्दः-उत्तरो देशो रमणीयो ग्रामात् इति वाक्ये 'वोत्तरात्' (7 / 2 / 121) इति सूत्रेण आहिप्रत्ययः स च अव्ययः / उत्तरशब्दः उत्तरो ग्रामात् रमणीय इति वाक्ये 'वोत्तरात्' इत्यनेन आप्रत्ययः स चाव्ययः / दक्षिणा ग्रामातू-अत्र दक्षिणा अथवा दक्षिण इति शब्दः / ग्रामाद्दूरे दक्षिणा दिग् रमणीया, ग्रामाद्दूरे दक्षिणदेशो वा रमणीयः ‘आही दूरे' इत्यनेन आप्रत्ययः स चाव्ययः / आरात् इति शब्दोऽव्ययो दूरसमीपयोर्वाचकः, तेन आरात् इति शब्दयोगे नित्यं पञ्चमी भवति / 'आरादर्थं' (2 / 2 / 78) इति उत्तरसूत्रेण आरात्शब्दस्य ये पर्याया अन्तिकादयः तेषु सत्सु विकल्पेन पञ्चमी भवतीत्यर्थः // 7 // ऋणाद्धेतोः // 2 / 2 / 76 // [तृतीयापवादो योगः] फलसाधनयोग्यः पदार्थो हेतुः, हेतुभूतं यदृणं तद्वाचिनो नाम्नः पञ्चमी स्यात् / शताबद्धः, सहस्राबद्धः। हेतोरिति किम् ? शतेन बद्धः, शतेन बन्धितः, शतेन चैत्रेण बन्धित इत्यर्थः // 76 // अ० तृतीयापवादो योगः शत-सहस्र द्रम्मऋणबद्धः / बन्धित इति 'बन्धश् बन्धने' बन्ध्, बध्नाति शतं देवदत्तः, तत् बध्नन् चैत्रः प्रयुङ्क्ते / / 76 / / गुणादस्त्रियां नवा // 2 / 2 / 77 // अस्त्रीवृत्तेर्हेतुभूतगुणवाचिनो[गौणात्] नाम्नः पञ्चमी वा स्यात् / जाड्याद्रद्धः [जडस्य भावो जाड्यम् ‘वर्णदृढादिभ्यष्टयण च वा' (7 / 1 / 51)] / जाड्येन बद्धः / ज्ञानात् ज्ञानेन मुक्तः, मोहात् मोहेन बद्धः / गुणादिति किम् ? धनेन कुलम् / अस्त्रियामिति किम् ? बुद्ध्या मुक्तः, प्रज्ञया मुक्तः, विद्यया यशः // 77 // . अ० 'अत्रास्ति अग्निः धूमात्' / अत्र प्रयोगे गुणरूपो हेतुर्नास्ति / तथा इह नास्ति अनुपलब्धे-अत्र गुणोऽपि अस्त्रियां न वर्त्तते / तथा 'सर्वं वस्तु अनेकान्तात्मकम् सत्त्वान्यथानुपपत्तेः' कोऽर्थः ? अर्थक्रियाकारित्वानुपपत्तेः; इत्यादि प्रयोगत्रयेऽग्न्यादेर्न धूमादिर्हेतुः, कस्य तर्हि हेतुः ? अग्न्यादिज्ञानस्य, तस्मात् / अत्र प्रयोगत्रये कथं पञ्चमी ? सूरिराह- 'गम्ययपः कर्माधारे' (2 / 274) इत्यनेन पञ्चमी भविष्यति, तताहि धूमादिकमुपलभ्य अग्न्यादितिव्यः इति हि अत्रार्थः / ज्ञानहेतुत्वविवक्षायां तु हेतुत्वलक्षणा तृतीया भवति / धूमेनाग्निः, अनुपलब्ध्या घटाभावः, सत्त्वा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते न्यथानुपपत्त्या सर्वं वस्तु अनेकान्तात्मकं प्रतिपत्तव्यमिति भावः // 77 // . आरादर्थैः // 2 / 2 / 78 // आरादूरान्तिकयोः, तन्त्रेणोभयग्रहणम् [आरात् इति शब्दो दूरेऽन्तिके वा वर्त्तते / सूत्रेण द्वयस्याप्यर्थस्य ग्रहणम्] / दूरार्थैरन्तिकाथैः [समीपाथैः] शब्दैर्युक्ता [गौणात् ]नाम्नः पञ्चमी वा स्यात् / दूरं ग्रामात् / दूरं ग्रामस्य / अन्तिकं ग्रामात् [समीपे] अन्तिकं ग्रामस्य / एवं विप्रकृष्टं [दूरे] सन्निकृष्टं [समीपे] ग्रामादित्यादि / आराच्छब्दयोगे तु [पत्र आरादिति शब्दः प्रयज्यते तत्र] 'प्रभृत्यन्यार्थ०' (2 / 2 / 75) इत्यादि सूत्रेण नित्यमेव पञ्चमी // 78 // स्तोकाल्पकृच्छ्रकतिपयादसत्त्वे करणे // 2 // 2 // 79 // यतो द्रव्ये शब्दप्रवृत्तिः स पर्यायो गुणोऽसत्त्वम् / तेनैव वा रूपेणाभिधीयमानं द्रव्यादि तस्मिन् [असत्त्वे सति] करणे वर्तमानेभ्यः स्तोकादिभ्यः पञ्चमी वा भवति / स्तोकान्मुक्तः स्तोकेन मुक्तः। एवं अल्पात् कृच्छ्रात् कतिपयान्मुक्त [कतिपयेन मुक्तः] इति। असत्त्व इति किम् ? स्तोकेन विषेण हतः, अल्पेन मधुना मत्तः, विषादिद्रव्यसामानाधिकरण्यादत्र सत्त्ववृत्तिता / करण इति किम् ? क्रियाविशेषणे मा भूत्-स्तोकं चलति / इह च +स्तोकादीनामसत्त्ववाचित्वात् द्वित्वबहुत्वासम्भवे एकवचनमेव // 79 // ___ अ० यतो यस्मात् स्तोकत्वादेनिमित्तात् द्रव्ये विशेष्ये स्तोकादिशब्दप्रवृत्तिर्भवति सगुणोऽसत्त्वं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमित्यर्थः / तेनैवेत्यादि, तेनैवेव कोऽर्थः ? असत्त्वरूपेण, अयमर्थः-तिरोहितधनादि विशेष्यं स्तोकादिरूपेणैव सामान्यात्मनाऽभिधीयमाणं धनादिरूपव्यावृत्तं स्तोकादिरूपापन्नं द्रव्यं गुणः क्रिया वायदा प्रतीयते तदा द्रव्यादिकम् असत्त्वमुच्यते इत्यर्थः / विषादिद्रव्येत्यादि-विषमधुलक्षणद्रव्येण सह यत् सामानाधिकरण्यं कोऽर्थः ? विशेष्यविशेषणभावः, तस्मात् / विषेण कीदृशेन ? स्तोकेन / मधुना मद्येन कथम्भूतेन ? अल्पेन / एवं सामानाधिकरण्यम्, तेन सामानाधिकरण्येन स्तोकादयः शब्दाः सत्त्ववृत्तयो भवन्ति / असत्त्वे न वर्त्तन्ते / +स्तोकादिक्रियाविशेषणशब्दानामित्यर्थः / एतेन क्रियाविशेषणशब्दानामेकत्वं कर्मत्वं नपुंसकत्वं च ज्ञातव्यमित्यर्थो घटते // 79 / / अज्ञाने ज्ञः षष्ठी // 2 // 2 // 80 // [अस्मात्सूत्रादारभ्य 'एष्यदृणेन' इति यावत् षष्ठी अधिकारे सूत्राणि पञ्चदश] अज्ञानार्थे वर्तमानस्य जानातेः सम्बन्धिनि करणे वर्तमानाद्गौणानाम्न एकद्विबही यथासङ्ग्यं उस्ओस्-आम्-लक्षणा षष्ठी विभक्तिर्भवति / वेति निवृत्तम् / सर्पिषो जानीते एवं सर्पिषोः सर्पिषां जानीते। तृतीयापवादो योगः // 8 // अ० भिन्नविभक्तिविदानादत्र सूत्रे वा इति निवृत्तम् / जानीते 'ज्ञांश् अवबोधने' ज्ञा, वर्तमानाते 'क्यादेः' (3 / 4 / 79) ना 'जा ज्ञाजनोत्यादौ' (4 / 2 / 104) जा आदेशः / 'एषामीळञ्जनेऽदः' (4 / 2 / 97) जानीते कोऽर्थः ? प्रवर्त्तते इत्यर्थः / सर्पिषा करणभूतेन प्रवर्त्तते / ज्ञाधातुरत्र न ज्ञाने वर्त्तते / अथवा सर्पिषि घृते रक्तो विरक्तो वा चित्तभ्रान्त्या सर्वमेव जलादिकं सीरूपेण प्रतिपद्यते इति मिथ्याज्ञानवचनोऽत्र जानातिधातुः / मिथ्याज्ञानं च अज्ञानमेव भवति अतोऽज्ञानेऽर्थे जानाति // 8 // . शेषे // 2 / 2 / 81 // कर्मादिभ्योऽन्यः क्रियाकारकपूर्वकः कर्मायविवक्षालक्षणोऽश्रूयमाणक्रियः श्रूयमाणक्रियो वा अस्येदं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः मावरूपः स्वस्वामिभावादिः सम्बन्धविशेषः शेष उच्यते / शेष[गौणात्]नाम्नः षष्ठी स्यात् / राज्ञः पुरुषः, उपगोरपत्यम्, पशोः पादः, क्षीरस्य विकारः, गवां समूहः, कुम्भस्य समीपम्, भुवः स्वामी, न माषाणामभीयात् (अशश् भोजने], सुभाषितस्य शिक्षते, अक्षाणां दीव्यति, घ्नतः पृष्ठं ददाति, वृक्षस्य पर्ण पतति, महतां विभापते, प्रथमापवादो योगः // 8 // ... अ० घ्नतः 'हनंक हिंसागत्योः' हन्, हन्तीति वाक्ये 'शत्रानशावेष्यति०' (5 / 2 / 20) इति शतृ 'गमहनजनखन०' (4 / 2 / 44) इति हनोऽकारस्य लोपः, ह्र इति रूपम् / 'हनो हो घ्नः' (2 / 1 / 112) इति घ्न आदेशः / शेषे इति सूत्रे कर्मादिकारके प्राप्ते षष्ठी विधीयते पर आह-कर्मादयः कथं न विवक्ष्यन्ते ? सूरिराह-सतामपि कर्मादीनां न विवक्षा यथाऽनुदरा कन्या, अलोमिका एडका / तथा गौणादिति किम् ? राज्ञः पुरुषः-अत्र सम्बन्धस्य उभयस्थभावेऽपि प्रधानपुरुषशब्दान्न षष्ठी। पुरुषस्य प्राधान्यं च आख्यातपदसामानाधिकरण्यम् / तेन पुरुषात् प्रथमैव भवति / पदा तु पुरुषो राजानं प्रति गुणत्वं प्रतिपद्यते तदा पुरुषस्य राजा इति भवत्येव / कथं राज्ञः पुरुषस्य कम्बल इति ? राजापेक्षया पुरुषस्य प्राधान्येऽपि कम्बलापेक्षया पुरुषस्य गौणत्वमेव इति पुरुषशब्दात् षष्ठी भवत्येव // 81 // रिरिष्टात्स्तादस्तादसतसाता // 2 // 2182 // .. 'रि-रिष्टात्-स्यात्-अस्तात्-अस्-अतस्-आत्प्रत्ययान्तैर्युक्ताद्गौणानाम्नः षष्ठी स्यात् / उपरि ग्रामस्य [रिप्रत्ययस्योदाहरणम्] / रिष्टाल-उपरिष्टाद्ग्रमस्य / स्तात्-परस्तात् / अस्तात्-पुरस्तात् ग्रामस्य / अस्-पुरो ग्रामस्य / अतस्-दक्षिणतो ग्रामस्य, उत्तरतो ग्रामस्य, परतो ग्रामस्य / आत्-अधराद्ग्रामस्य, दक्षिणात् उत्तरात् पश्चात् ग्रामस्य / पञ्चम्यपवादो योगः // 82 // ___ अ० पुरस्तात् इत्यादिषु पश्चात् ग्रामस्य इत्यन्तेषु 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति अकारलोपः / उपरि उपरित् इत्यादि-ऊर्ध्वशब्दः, ऊर्ध्वा दिक् ऊों देशो वा ऊर्ध्वः कालो वा रमणीय इति वाक्ये 'उद्ध्वादिरिष्टावुपश्चास्य' (7 / 2 / 114) इति सूत्रेण रिप्रत्ययः रिष्टात्प्रत्ययश्च ऊर्ध्वशब्दस्य च उप आदेशः, उपरि उपरिष्टात् इति गद्धम् / सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लोपः / अथवा ऊद्ध्वादागत ऊर्श्वे वसति इति वाक्येऽपि रिरिष्टा त्ययौ ऊर्ध्वाद्रीतिसूत्रेण कार्यों / / परस्ताद्ग्रामस्य एवं अवरस्ताद्ग्रामस्येति पर, अवर, शब्द / परा दिक्, परो देशो वा, परः कालो वा / एवं अवराभिलापेन / वाक्ये रमणीयः परस्मात् अवरस्मात् आगतः / परस्मिन् अवरस्मिन् वसतीति वाक्ये 'परावरात्स्तात्' (7 / 2 / 116) इति सूत्रेण स्तात्प्रत्ययः, परस्तात् अवरस्तात् इति प्रयोगः / पुरस्तात् इत्यादि-पूर्व, अवर-अधर-शब्द. / पूर्वा दिक् रमणीया, अथवा पूर्वो देशः पूर्वः कालो वा रमणीयः / यदि वा पूर्वस्मादागतः; पूर्वस्यां दिशि देशे काले वा ग्रामस्य वसति / ___ एवं अवर अधर अभिलापेन वाक्यं कार्यम् 'पूर्वावराधरेभ्योऽसस्तातौ पुरवधश्चैषाम्' (7 / 2 / 115) इति सूत्रेण अस्तात्प्रत्ययः, पूर्वस्य पुर् अवरस्य अव् अधरस्य अध् आदेशः; पुरस्तात् अवस्तात् अधस्तात् ग्रामस्य रमणीयमिति। पुरो ग्रामस्य अवो ग्रामस्य अधो ग्रामस्येत्यत्रापि प्राग्वद्वाक्यानि, पूर्वावरेति अस्प्रत्ययः, पुर् इत्याद्यादेशाश्च / दक्षिणत इत्यादि-दक्षिण. उत्तर. पर. अवर. / दक्षिणा दिग्, दक्षिणो देशो वा रमणीयो ग्रामस्य; कालविषयं वाक्यं न कार्यमसम्भवात् / एवं उत्तरा दिग्, देशो कालो वा इति / एवं पर अवरवाक्यमपि / 'दक्षिणोत्तराच्चातस्' (7 / 2 / 117) इति सूत्रेण अतस्प्रत्ययः ‘सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) पुंवद्भावः / दक्षिणत आगतः दक्षिणस्या दिशि वसति Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ग्रामस्य / एवमन्येऽपि / अधरात् ग्रामस्य दक्षिणात् ग्रामस्य, उत्तरात् ग्रामस्य, पश्चात् ग्रामस्य-अत्र अधर-दक्षिण -उत्तर-अपर-अधरादिदेशः कालो वा ग्रामस्य रमणीय इति वाक्ये 'अधरापराच्चात्' (7 / 2 / 118) इति सूत्रेण आत्प्रत्ययः / एवं दक्षिणात् उत्तरादत्रापि / अपरशब्दात् आत्प्रत्यये कृते ‘पश्चोऽपरस्य दिक्पूर्वस्य चाति' (7 / 2 / 124) इति सूत्रेण अपरशब्दस्य पश्च इति आदेशः, पश्चाद्ग्रामस्य इति प्रयोगः / / 82 / / कर्मणि कृतः // 2 / 2 / 83 // कृतः कोऽर्थः] कृदन्तस्य सम्बन्धिनि कर्मणि गौणानाम्नः षष्ठी भवति, +द्वितीयापवादः / अपां स्रष्टा, पुरां भेत्ता, पुत्रपौत्राणां दर्शकः, ओदनस्य भोजकः, विश्वस्य ज्ञाता, तीर्थस्य कर्ता, ग्रामस्य गमनम्, गवां दोहः / कर्मणीति किम् ? शस्त्रेण भेत्ता / क्रियाविशेषणस्यापि कर्मत्वाभावान भवति-साधु ब्रुते, स्तोकं पक्ता / कृत इति किम् ? कटं करोति, कृतपूर्वी कटम्; त्यादितद्धितयोः कर्मणि [कृतः पूर्वमनेन इति वाक्ये 'पूर्वमनेन सादेश्चेन्' (7 / 1 / 167) इन् / 'अवर्णेवर्णस्य' (74 / 68) कृतपूर्वी कटं कृति कर्म भवति] मा भूत् षष्ठी / कथं अर्थस्य त्यागी, सुखस्य भोगी, विषयाणां जयी वीराणां प्रसविनी ? अत्र ताच्छीलिकयोर्घिनणिनोः कर्म इति भवति // 83 // ___ अ० पुत्रस्यापत्यमनन्तरं पौत्रः ‘पुनर्भूपुत्रदुहितृननान्दुरनन्तरेऽञ' (6 / 1 / 39) इति सूत्रेण अञ् / पुत्रस्य पौत्राः पुत्रपौत्राः / अथवा पुत्रसहिताः पौत्राः पुत्रपौत्राः इति कार्यम्, न द्वन्द्वः, / / कर्मणि (2 / 2 / 40) इत्यनेन प्राप्ताया +द्वितीयायाः // अर्थस्य त्यागी इत्यादि 'त्यजं वयोहानौ' त्यज्, 'भुजंप पालनाभ्यवहारयोः' भुज्, त्यजतीत्येवंशीलस्त्यागी, भुनक्तीत्येवंशीलो भोगी 'युजभुजभजत्यजरञ्जद्विषदुषद्रुहदुहाभ्याहनः' (5 / 2 / 50) इति सूत्रेण घिनण, घकारः कत्वगत्वार्थः णकारो वृद्धयर्थः / जयीति-'जिंजिं अभिभवे' जि, जयतीत्येवंशीलो जयी / प्रसविनीतिषूत् प्रेरणे' षु 'षः सोऽष्टयैः' (2 / 3 / 98) सु, प्रसुवतीत्येवंशीला प्रसविनी 'प्रात्सूजोरिन्' (5 / 2 / 71) इति सूत्रेण इन्, गुणः ङी च / अत्र त्याग इत्याद्यस्यास्तीति वाक्ये तद्भित इनि सति अर्थस्येत्यादौ षष्ठी न प्राप्नोति कृतोऽभावात् इति पराशङ्का / तत्राह सूरिः-अत्र ताच्छीलिकेति / / 83 / / द्विषो वाऽतृशः // 2 / 2 / 84 // अतृश्प्रत्ययान्तस्य द्विषः कर्मणि [गौणात्] नाम्नः षष्ठी वा स्यात् / चौरस्य द्विषन् द्विष्ठीति] चौरं द्विषन् // 84 // __अ० 'सुद्विषार्हः सत्रिशत्रुस्तुत्ये' (5 / 2 / 26) इति अतृश्प्रत्ययः / चौरं द्विषन् कोऽर्थः ? शत्रुरित्यर्थः / 'तृनुदन्ता०' (2 / 2 / 90) इत्यादि सूत्रेण प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पार्थोऽयं द्विषो वेति योगः // 84 // वैकत्रद्वयोः // 2 // 2 // 85 // द्विकर्मकेषु धातुषु द्वयोः कर्मणोरेकत्रैकस्मिन् [कर्मणि] षष्ठी वा स्यात् / अन्यत्र पूर्वेण नित्यमेव [षष्ठी] / पयसो दोहको गाम्, पयसो दोहको गोः; यदि वा गोर्दोहकः पयः, गोर्दोहकः पयसः // 85 // . अ० अन्यत्र पूर्वेणेति कोऽर्थः ? अन्यत्र विकल्पपक्षे पूर्वेण 'कर्मणि कृतः' इति सूत्रेण नित्यं षष्ठी / गो अग्रे पयोऽग्रे च षष्ठी वा भवति / / 85 / / कर्तरि // 2 // 2 // 86 // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 135 * कृदन्तस्य कर्तरि [गौणात्] नाम्नः षष्ठी भवति, तृतीयापवादः / भवत आसिका, भवतः शायिका, वतः स्वापः, भवत आसना, भवतोऽग्रगामिका // 86 // IF अ० आसना आस्-आसनं आसना ‘णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः' (5 / 3 / 111) इति अन्प्रत्ययः स्त्रियामाप् / कर्तरीति किम् ? गृहे शायिका / आसिका- 'आसिक् उपवेशने' आस्, आसितुं पर्यायः आसिका / ‘शीङ्क स्वप्ने' शी, शयितुं पर्यायः शायिका 'पर्यायाहणोत्पत्तौ च णकः' (5 / 3 / 120) इत्यनेन णकप्रत्ययः, णो वृद्धयर्थः ‘आत्' / (2|4|18) इति आप् ‘अस्यायत्तत्०' (2 / 4 / 111) इति इकारः / अग्रगामिका अग्रे गमनं अग्रगामिका 'पर्याय.' इति णक् // 86 // दिहेतोरस्त्र्यणकस्य वा // 2 / 2 / 87 // स्त्र्यधिकारविहिताभ्यामकारणकाभ्यामन्यस्य द्वयोः कर्तृकर्मषष्ठयोः प्राप्तिहेतोः कृत कर्तरि षष्ठी वा / स्यात् / नित्यं प्राप्ते विभाषेयम् / विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्यस्य, विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्येण / साधुः प्रधानं] खल्विदं शब्दानामनुशासनं [व्याकरणं] आचार्यस्याचार्येण वा / साध्वी प्रधाना] सङ्ग्रहिण्याः कृतिः समाश्रमणस्य [जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्य] क्षमाश्रमणेन वा / गम्यमानेऽपि कर्मणि-अन्तर्बी येनादर्शनमिच्छति यस्या-दर्शनमिच्छतीति वा / अत्रात्मन इति कर्म गम्यते। अस्त्र्यणकस्येति किम् ? चिकीर्षा मैत्रस्य काव्यानाम्, मेदिका चैत्रस्य काष्ठानाम्, णिगन्तभिदेसु भेदिका चैत्रस्य मैत्रस्य काष्ठानाम् // 87 // . अ० कर्तुमिच्छति 'तुमर्हादिच्छायां०' (3 / 4 / 21) 'स्वरहन०' (4 / 1 / 104) दीर्घः ‘सन्यडश्च' (4 / 1 / 3) द्वित्वम् 'अतोऽत्' (4 / 1 / 38) ['सन्यस्य' (4 / 1 / 59) इति अनेन अभ्यासे इत्वम् / ] 'कश्चञ्' (4 / 1 / 46) 'ऋतां डितीर्' (4 / 4 / 116) ईर् चिकीर्षणं चिकीर्षा 'शंसि प्रत्ययात्' (5 / 3 / 105) इति सूत्रेण आप्रत्ययः आप् 'कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) 'कर्तरि' (2 / 2 / 86) इति सूत्रद्वयेन नित्यं प्राप्तौ सत्यामियं विभाषा विकल्पसूत्रम् / भेदनं भेदिका 'भावे' (5 / 3 / 122) इति सूत्रेण णकप्रत्ययः / / 87 // कृत्यस्य वा // 2 // 2 // 88 // कृत्यस्य कर्तरि गौणानाम्नः षष्ठी वा स्यात् / भवतः कार्य्यः कटः, भवता कार्य्यः कटः / एवं कर्तव्यः करणीयः कृत्यो वा / कर्तरीति किम् ? प्रवचनीयो गुरुभदशाङ्गस्य // 8 // . अ० ध्यण तव्य अनीय य क्यप् इत्येताः पञ्च प्रत्यया कृत्यप्रत्यया इत्युच्यन्ते / ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण्' (5 / 1 / 17) इत्यादि बहुसूत्रैर्ध्यण् / 'तव्यानीयौ' (5 / 1 / 27) इति सूत्रैण तव्य-अनीयौ / “य एच्चातः' (5 / 1 / 28) इत्यादि बहुसूत्रैर्यप्रत्ययः 'नाम्नो वदः क्यप् च' (5 / 1 / 35) इत्यादि बहुसूत्रैः क्यप् प्रत्ययः / एवं 5 कृत्यप्रत्ययसंज्ञा भवन्ति / क्रियते इति कृत्यः / ‘कृवृषिमृजिशंसिगुहिदुहिजपो वा' (5 / 1 / 42) इति क्यप् कृत्यः। कार्य इत्यत्र ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण' / प्रवक्ति प्रब्रूते प्रवचनीयः 'प्रवचनीयादयः' (5 / 1 / 8) इति सूत्रेण अनीयप्रत्ययः कर्तरि / / 88 / / नोभयोर्हेतोः / / 2 / 2189 / / उभयोः कर्तृकर्मणोः षष्ठीहेतोः कृत्यस्य सम्बन्धिनोरुभयोरेव षष्ठी न भवति / नेतव्या ग्राममजा मैत्रेण // 89 // तृन्नुदन्ताव्ययकस्वानातृश्शतृङिणकच्खलर्थस्य // 2 / 2 / 90 // Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते तृनः उदन्तस्य अव्ययस्य कसोः आनस्य अतृशः शतुः डेः णकचः खलर्थस्य च कृतः सम्बन्धिनोः कर्मकोंः षष्ठी न स्यात् / तृन्-वदिता जनापवादान् / उदन्त-कन्यामलङ्करिष्णुः ओदनं बुभुक्षुः देवान् वन्दारुः, श्रद्धालुस्तत्त्वम् / अव्यय-कटं कृत्वा [करणं पूर्वं 'प्राक्काले' (5 / 4 / 47)] पयः पायं पायं याति, ओदनं भोक्तुं व्रजति / कसु-ओदनं पेचिवान्, तत्त्वं विद्वान् / आन-कटं चक्राणः [कान] वचनमनूचानः; मलयं पवमानः [शान] कतीह वपुर्भूषयमाणः [भूषतसण् अलङ्कारे], ओदनं पचमानः, चैत्रेण पच्यमानः, कटं करिष्यमाणः / अतृश्-अधीयंस्तत्त्वार्थम्, धारयन्नाचाराङ्गम् / शतृ-कटं कुर्वन् / ङि-परीषहान् सासहिः, कटं चक्रिः / णकच-कटं कारको याति / खलर्थईषत्करः कटो भवता, सुज्ञानं तत्त्वं त्वया // 10 // अ० वन्दारुः ‘वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः' वद् ‘उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) वन्द् वन्दते इत्येवंशीलः 'शृवन्देरारुः' (5 / 2 / 35) इति सूत्रेण आरुप्रत्ययः / श्रुतपूर्वो धा श्रद्धत्ते इत्येवंशीलः 'शीश्रद्धानिद्रातन्द्रादयिपतिगृहिस्पृहेरालुः' (5 / 2 / 37) इति सूत्रेण आलुः / 'भुजंप पालनाभ्यवहारयोः' भुज् / भोक्तुमिच्छति तुम इति सन् द्वित्वम् 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) भस्य ब् बुभुक्षतीत्येवंशीलः ‘सन् भिक्षाशंसेरुः' (5 / 2 / 33) इति सूत्रेण उप्रत्ययः ‘अतः' (4 / 3 / 82) इति सूत्रेण अकारलोपः / वदिता 'वद व्यक्तायां वाचि' वद् / वदतीत्येवंशील इति वाक्ये 'तृन् शीलधर्मसाधुषु' (5 / 2 / 27) इति सूत्रेण तृन्प्रत्ययः / अलम्, कृधातुः, अलङ्करोतीत्येवंशीलः 'भ्राज्यऽलङ्कग्निराकृग्भूसहिरुचिवृतिवृधिचरिप्रजनापत्रप इष्णुः' (5 / 2 / 28) इति सूत्रेण इष्णुप्रत्ययः / पयः पायं. पायं याति पयस् अग्रे द्वितीयाऽम् ‘पां पाने' पा, आभीक्ष्णं पानं पूर्वं इति वाक्ये ‘ख्णं चाभीक्ष्ण्ये' (5 / 4 / 48) इति सूत्रेण ख्णम् खण् ‘अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) अम् तिष्ठति ‘आत ऐः कृौ' (4 / 3 / 53) इति सूत्रेण धातु आकारस्य ऐ ‘एदैतोऽयाय' (1 / 2 / 23) पाय इति सिद्धम् 'भृशाभीक्ष्ण्याऽविच्छेदे द्विः प्राक्तमबादेः' (7 / 4 / 73) इति सूत्रेण पायं इति द्विरुच्यते पायं पायमिति सिद्धम् / वेत्तीति विद्वान् ‘वा वेत्तेः कसुः' (5 / 2 / 22) चक्रिकृ करोतीत्येवंशीलः चक्रिः ‘सनिचक्रिदधिजज्ञिनेमिः' (5 / 2 / 39) इति सूत्रेण डिप्रत्ययः द्विवचनं च निपात्यते चक्रि इति सिद्धम् / आनेति मुक्तानुबन्धनिर्देशात् कान-शान-आनशां ग्रहणम् / ' ___चक्रे चक्राणः 'तत्र कसुकानौ तद्वत्' (5 / 2 / 2) / अनूवाचेत्यनूचानः 'वेयिवदनाश्चदनूचानम्' (5 / 2 / 3) इति कानः / एवमानः-पवमानः- 'पूङ् पवने' पवते पवमानः 'पूयजः शानः' (5 / 2 / 23) 'अतो म आने' (4 / 4 / 114) इति मोऽन्तः / भूषयितुं शक्ताः इति वाक्ये 'वयःशक्तिशीले (5 / 2 / 24) इति सूत्रेण शानः ‘अतो म आने' आनश् पचतीति शत्रानशेति आनश्प्रत्ययोदाहरणम् / करिष्यते करिष्यमाणः ‘शत्रानशा०' (5 / 2 / 20) इति स्ययुक्त आनश् / सुखेन ज्ञायते सुज्ञानं 'शासूयुधिदृशिधृषिमृषातोऽनः (5 / 3 / 141) इति सूत्रेण अनप्रत्ययः। अधीते इति अधीयन् ‘धारीडोऽकृच्छ्रेऽतृश्' (5 / 2 / 25) धारयतीति ‘धारीङो०' अतृश् / 'षहि मर्षणे' षह 'षः सोष्टयै०' (2 / 3 / 98) सह, अत्यर्थं सहते 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद्' (3 / 4 / 9) इति यङ्, द्वित्वम् ‘आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48) आकारः, सासह्यते इत्येवंशीलः सासहिः ‘डौ सासहिवावहिचाचलिपापतिः' (5 / 2 / 38) इति सूत्रेण डिप्रत्ययः ‘अतः' (4 / 3 / 82) इति सूत्रेण यकारमध्येऽकारलोपः ‘योऽशिति' (4 / 3 / 80) इति सूत्रेण य्लोपः सासहिः / चक्रि कृ करोतीत्येवंशीलः चक्रि ‘सम्रिचक्रिदधिजज्ञिनेमिः' (5 / 2 / 39) इति सूत्रेण ङिप्रत्ययः, द्विवचनं Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 137 च निपात्यते चक्रि इति सिद्धम् / + क्रियायां क्रियार्थायां तुम्णकच् भविष्यन्ती' (5 / 3 / 13) च् इति निर्देशात् णकप्रत्ययस्य न भवतीत्यर्थः / ईषत्कर इति ईषत् कृ ईषत् अनायासेन क्रियते ईषत्करः 'दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात्खल्' (5 / 3 / 139) खकारो मागमार्थः लकारो विशेषणार्थः अकारस्तिष्ठति // 90 // क्तयोरसदाधारे // 2 // 29 // [न सत् असत् असच आधारश्च तस्मिन्] ... सतो वर्तमानादाधाराचऽन्यस्मिन्नर्थे विहितौ यो क्तक्तवतू तत्सम्बन्धिनोः कर्मकोंः षष्ठी न स्यात् / कटः कृतो मैत्रेण कटं कृतवान्, गतो गतवान् ग्रामं चैत्रः [गतवान् / असदाधार इति किम् ? राज्ञां ज्ञातः, बुद्धः / [राज्ञां] मतः [राज्ञां] इष्टः [राज्ञां], राज्ञां पूजितः। आधारे-इदमोदनस्य भुक्तम्, इदमेषामासितम्, इदं सक्तूनां पीतम् / कथं शीलितो मैत्रेण ? भूतेऽयं क्तः // 11 // अ० क्रियतेस्म 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174). इति सूत्रेण क्तक्तवतू / करोति स्म कृतवान् / गत इत्यत्र ‘यमिरभिनमिगमिहनिमनिवनतितनादेधुटि क्डिति' (4 / 2 / 55) इत्यनेन अन्त्यमकारस्य लोपः / ज्ञायते ज्ञातः, बुद्धयते बुद्धः, मन्यते मतः, 'यमिरमिनमिग़मिहनिमनिवनतितनादेधुटि क्डिति' इति अन्त्यलोपः / इष्यते इष्टः / सर्वत्र ‘ज्ञानेच्छार्थिनीच्छील्यादिभ्यः क्तः' (5 / 2 / 92) इति सूत्रेण सत्यर्थे क्तः / पूज्यते स्म 'ज्ञानेच्छा० इति क्तः / भुज्यते अस्मिन् भुक्तम् / आस्यतेऽस्मिन्नासितम् / पीयतेऽस्मिन् ‘अद्यर्थाच्चाधारे' (6 / 1 / 12) इति सूत्रेण आधारे क्तः पीतम् अत्र 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' (4 / 3 / 97) इति सूत्रेण आकारस्य ईकारः / शील्यते स्म इति वाक्ये भूतेऽर्थे 'क्तक्तवतू' इति सूत्रेण क्तप्रत्ययः / शीलितोऽभ्यस्तो ग्रन्थादिरित्यर्थः // 11 // . वा क्लीबे // 2 / 2 / 92 // क्लीवे यः क्तस्तस्य कर्तरि षष्ठी वा भवति / च्छात्रस्य च्छात्रेण हसितम्, मयूरस्य नृत्यम् [नृत्यते क्लीबे क्तः नृत्तम्] मयूरेण / क्लीब इति किम् ? चैत्रेण कृतम् [क्रियते स्म / क्तक्तवतू इति भावे क्तः / पूर्वेण निषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् // 92 // ___अ० पूर्वेण क्तयोरसदेत्यनेन प्रतिषेधे प्राप्ते 'वा क्लीबे इति सूत्रं विकल्पार्थं कृतमिति भावः / च्छात्रस्य हस्यते हसितं. 'क्लीबे क्तः'. (5 / 3 / 123) इति सूत्रेण क्तप्रत्ययः // 92 / / अकमेरुकस्य // 2 / 2 / 93 // कमेरन्यस्य उकप्रत्ययान्तस्य कर्मणि षष्ठी न भवति / भोगानभिलाषुकः / अकमेरिति किम् ? दास्याः कामुकः // 13 // अ० कमौधातुं उक्तप्रत्ययान्तं वर्जयित्वाऽन्यधातोरुकप्रत्ययान्तस्य कर्मणीत्यर्थः / 'लषी कान्तौ' लष् अभिपूर्वम् / अभिलषतीत्येवंशीलः 'लषपतपदः' (5 / 2 / 41) इति सूत्रेण उकण् / 'कमौङ् कान्तौ' 'कमेर्णि' (3 / 4 / 2) कामयते इत्येवंशीलः 'कमगमहनवृषभूस्थ उकण्' (5 / 2 / 40) // 93 / / एष्यदृणेनः: // 2 / 2 / 94 // एष्यत्यर्थे ऋणे च कृतस्य [विहितस्य] इनः कर्मणि षष्ठी न स्यात् / इन इति इन्णिनोर्ग्रहणम् / [एष्यत्यर्थे] ग्रामं गमी, ग्राममागामी / [ऋणेऽर्थे] शतं दायी, कारी मेऽसि कटम् [कारी मे शकटमसि इति वा] / हारी मेऽसि भारम् / एष्यदृणेति किम् ? अवश्यङ्कारी कटस्य / साधुदायी वित्तस्य // 9 // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते ___अ० एष्यच्च ऋणं च एष्यदृणम्, एष्यदृणेऽर्थे इन् एष्यदृणेन् तस्य एष्यदृणेनः / गमी-अत्र गम् गमिष्यतीति गमी 'गमेरिन्' (919) उणादिसूत्रेण इन्, आगामी इत्यत्र च गम् आगमिष्यतीति आगामी 'आङश्च णित्' (920) उणादिसूत्रेण णिन्, णकारो वृद्धयर्थः; गमी आगामी इति सिद्धः / शतं दायी दास्यतीति दायी ‘णिन् चावश्यकाधमर्थे' (5 / 4 / 36) इति सूत्रेण आधमर्थेऽर्थे णिन् 'आत ऐः कृौ ' (4 / 3 / 53) धातु आकारस्य ऐ। करिष्यतीति कारी हरिष्यतीति हारी-अत्रापि ऋणेऽर्थे णिन् णकारो वृद्धयर्थः / अवश्यम् इति शब्दो मकारान्तः, अथवा अवश्य इति अकारान्तोऽप्यस्ति, स च अनव्ययः, तत्र अवश्यकारी; मकारान्ते तु अवश्यङ्कारी / अवश्यं करोतीति वाक्ये 'णिन् चावश्यकाधमर्ये' इति सूत्रेण णिन् / साधु ददातीति साधुदायी ‘साधौ' (5 / 1 / 155) इति सूत्रेण णिन् // 94 // सप्तम्यधिकरणे // 2 / 2 / 95 // [सप्तम्यधिकरणे इति सूत्रादारभ्य ‘गते गम्येऽध्वनोऽन्तेनैकार्थ्यं वा' (2 / 2 / 107) इति यावत् सप्तमी अधिकारसूत्राणि त्रयोदश] . गौणानाम्न एकद्विबही यथासङ्ग्यं ङि-ओस्-सुप्लक्षणा सप्तमीविभक्तिरधिकरणे स्यात् / दिवि देवाः, तिलेषु तैलम्, गुरौ वसति // 15 // नवा सुजथैः काले // 2 / 2 / 96 // सुचोऽर्थो वारलक्षणो येषां प्रत्ययानां ते सुजाः] तत्प्रत्ययान्तैर्युक्तात् कालेऽधिकरणे वर्तमाना[गौणात् नाम्नःसप्तमी वा स्यात् / द्विरह्नि भुङ्क्ते द्विरह्रो भुङ्क्ते / पञ्चकृत्वो मासे मुक्त] मासस्य [पञ्चकृत्वो] भुङ्क्ते / बहुधाहि अह्नो भुङ्क्ते / सुजथैरिति किम् ? अह्नि भुङ्क्ते / काल इति किम् ? द्विः कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते / अधिकरण इत्येव-द्विरह्ना भुङ्क्ते // 96 // ____ अ० अधिकरणे आधारकारके सप्तमी नित्यं सिद्धैवास्ति, पक्षे षष्ठीविधानार्थमिदं नवासुज^ति सूत्रं कृतम् / द्वौ वारावस्य द्विः 'द्वित्रिचतुरः सुच्' (7 / 2 / 110) इति सूत्रेण सुच् / अहन् सप्तमीङि षष्ठीङस् ‘अनोऽस्य' (2 / 1 / 108) इति सूत्रेण अनोऽकारलोपः / पक्षे शेषे षष्ठी। पञ्च वारा अस्य पञ्चकृत्वः 'वारे कृत्वस्' (7 / 2 / 109) / बहव आसन्ना वारा अस्य बहुर्धा 'बहोर्धाऽऽसन्ने' (7 / 2 / 112) इति सूत्रेण धाप्रत्ययः // 16 // कुशलायुक्तेनासेवायाम् // 2 / 2 / 97 // कुशल आयुक्ताभ्यां युक्ता[गौणात्] नाम्न आधारे [वर्तमानात्] सप्तमी वा स्यात्, आसेवायां तात्पर्ये गम्यमाने। कुशलो [निपुणः] विद्याग्रहणे विद्याग्रहणस्य वा। आयुक्त[सोद्यमः]स्तपसि तपसो वा / आसेवायामित्येवकुशलचित्रकर्मणि न च करोति / आयुक्तो गौ शकटे आकृष्ट युक्त इत्यर्थः // 9 // अ० 'युजृम्पी योगे' युज् / आङ्पूर्वम् / आयुङ्क्ते 'गत्यर्थाऽकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः / अथवा 'युजिंच् समाधौ' युज् / युज्यते स्म 'क्तक्तवतू' ( / 1 / 174) / कुशलो निपुणः, आयुक्तो व्यापृत्त उच्यते / / 97|| स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैः // 2 / 2 / 98 // एभिर्युक्ताद्गौणानाम्नः सप्तमी वा स्यात्, पक्षे शेषे षष्ठी / गोषु स्वामी गवां स्वामी / एवं गोषु गवां ईश्वरः अधिपतिः दायादः साक्षी प्रतिभूः प्रसूतः / षष्ठ्येव भवति / सप्तम्यर्थं वचनम् // 98 // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ____ अ० स्वामीश्वरेति सूत्रे स्वामीश्वराधिपतीति एकपर्यायशब्दग्रहणात् पतिराजनाथादिपर्यायान्तरयोगे सप्तमी न भवतीति विशेषार्थः; तेन ग्रामस्य पतिः, ग्रामस्य राजा-अत्र षष्ठयेव भवति / / 98 // व्याप्ये तेनः // 2 / 2 / 99 // , - क्तप्रत्ययान्ताद् य इन् तदन्तस्य व्याप्ये [कर्मकारके वर्तमाना[गौणात्]नाम्नः सप्तमी स्यात् / वेति निवृतम् / अधीती व्याकरणे, परिगणिती ज्योतिषे / क्तेन इति किम् ? कटं करोति / क्तग्रहणं किम् ? कृतपूर्वी कटम् / व्याप्य इति किम् ? मासमधीती व्याकरणे [मासान् मा भूत् // 19 // अ० तद्धिते 'इष्टादेः' (7 / 1 / 168) इति सूत्रेण क्तप्रत्ययान्तइष्टादिशब्दाद् इन् वक्ष्यते, तस्मात् क्तान्तात् य इन् तदन्तस्येत्यर्थः / अधीतं व्याकरणमनेनाधीती 'इष्टादेः इति सूत्रेण इन् / परिगणितं ज्योतिरनेन परिगणिती 'इष्टादेः' इन्, प्रथमासिः, ‘इन्हन०' (1 / 4 / 87) इति दीर्घः / अत्र कृतपूर्वी कटमित्यादिवत् व्याकरणस्य द्वितीयायां प्राप्तायां द्वितीयाया बाधनार्थं सप्तमी विहितेत्यर्थः / कृतं पूर्वमनेन इति वाक्ये 'पूर्वमनेन सादेश्चन्' (7 / 1 / 167) इति सूत्रेण इन् / मासस्य न कर्मत्वं, द्वितीया तु 'कालाध्वनोाप्तौ' (2 / 2 / 42) इति सूत्रेण भवतीत्यर्थः // 99 / / तद्युक्ते हेतौ // 2 // 2 // 10 // हेतुर्निमित्तं कारणम्, तेन व्याप्येन युक्ते संयुक्ते हेतौ वर्तमाना[गौणात् ] नाम्नः सप्तमी स्यात् / हेतुतृतीयापवादः / चर्मणि द्वीपिनं [चित्रकम्] हन्ति, दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् / केशेषु चमरी हन्ति, सीम्नि पुष्पलको / हतः // 1 // तयुक्त इति किम् ? +वेतनेन धान्यं लुनाति, धनेन वसति // 10 // ___अ० तेन व्यापेन युक्तं तद्युक्तम्, तस्मिन् / पुष्प. 'लांक् आदाने' ला / पुष्पं लातीति पुष्पलः 'आतो डोऽहावामः' (5 / 1 / 76) इति सूत्रण डप्रत्ययः / अज्ञातः पुष्पलः पुष्पलकः 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' (7 / 3 / 33) इति सूत्रेण कप् / पुष्पलक आरण्यको बिलाडः, तस्य सीमा वृषणस्तत्र / अथवा पुष्पलको मर्यादायां कीलक उच्यते // +अत्र वेतनं धान्येन न. संयुक्तम् // 10 // . अप्रत्यादावसाधुना // 2 / 2 / 101 // आसाधुशब्देन युक्ता[गौणात्नाम्नोऽप्रत्यादौ प्रत्यादिप्रयोगाभावे सप्तमी स्यात् / असाधुमैत्रो मातरि / अप्रत्यादाविति किम् ? असाधुमैत्रो मातरं प्रति परि अनु अभि // 101 // ___अ० मातरं परि, मातरमनु, मातरमभि // 101 / / साधुना // 2 / 2 / 102 // * साधुयुक्ता[गौणात्] नाम्नोऽप्रत्यादौ सप्तमी भवति / साधुमैत्रो राजनि [मातरि] / अप्रत्यादाविति किम् ? साधुर्मैत्रो मातरं प्रति / कथं साधु त्यो राज्ञ इति ? भृत्यापेक्षात्र षष्ठी न साध्वपेक्षा, साध्वपेक्षायां च सप्तम्येव // 102 // अ० राजानं प्रति,-राजानं परि / षष्ठयपवादो योगः // 102 // . निपुणेन चार्चायाम् // 2 // 2 // 103 // निपुणेन साधुना च युक्ता(गौणात्)नाम्नोऽप्रत्यादौ सप्तमी स्यात्, अर्चायां गम्यमानायाम् / मातरि निपुणः, पितरि साधुः / अर्चायामिति किम् ? निपुणो मैत्रो मातुः, साधुः पितुः / मातैव निपुणं मन्यते, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्वरिभ्यामलङ्कृते पितैव साधुः [मन्यते], नान्य इत्यनर्चायां न भवति // 10 // स्वेशेऽधिना // 2 / 2 / 104 // स्वे ईशितव्ये ईशे च स्वामिनि वर्तमानादधिशब्देन युक्ता[गौणात्] नाम्नः सप्तमी स्यात् / स्वेअधि मगधेषु श्रेणिकः / अध्यवन्तिषु [उज्जयिन्याम्] प्रद्योतः / ईशे-अधिश्रेणिके मगधाः // 10 // ____ अ० यथेष्टं विनियोज्ये / अधिशब्दः स्वस्वामिसम्बन्धं द्योतयति / तत्र स्वस्वामिवाचिनोः शब्दयोर्मध्ये यत् गौणत्वेन विवक्ष्यते ततः परात् सप्तमी भवतीति भावः / षष्ठीबाधनार्थोऽयं योगः // 104 // उपेनाऽधिकनि // 2 / 2 / 105 // उपेन युक्तादधिकिनि वर्तमानानाम्नः सप्तमी स्यात् / उपखार्या द्रोणः-द्रोणोऽधिकः खार्या इत्यर्थः / उपेनेति किम् ? खार्या उपरि द्रोणः [अधिकः // 10 // . अ० उप इतिशब्दोऽधिकाधिकिसम्बन्धं द्योतयति // 10 // यद्भावो भावलक्षणम् // 2 / 2 / 106 // भावः क्रिया, प्रसिद्धं लक्षम्, अप्रसिद्धं लक्ष्यम् / यस्य सम्बन्धिना भावेन क्रियया भावो[कोऽर्थः]ऽपरा क्रिया लक्ष्यते तस्मिन् भाववति वर्तमानागौणानाम्नः सप्तमी स्यात् [तृतीयापवादोऽयं योगः] / गोषु दुह्यमानासु गतः, दुग्धास्वागतः / गम्यमानेनापि भावेन [क्रियया भावलक्षणे भवति / आमेषु कलायमात्रेषु गतः, पकेष्वागतः, [आम्रफलेषु सम्पूर्णजातेषु / अत्र जातेष्विति गम्यते / भाव इति किम् ? यो जटाभिः [उपलक्षितः]तस्य भोजनम् // 106 // __ अ० गोषु दुह्येत्यत्र कालतः प्रसिद्धेन गवां दोहेन भावेन अन्यगमनमप्रसिद्धं लक्ष्यते / एवं देवार्चनायां क्रियमाणायां गतः कृतायामागत इत्यप्युदाहरणं ज्ञातव्यम् / कलायो मालवप्रसिद्धोऽधमधान्यविशेषः / कलायो मानमेषां ‘मात्रट्' (7 / 1 / 145) इति सूत्रेण मात्रट् / कलायमात्रेषु कोऽर्थः ? काचेषु कयरीरूपेषु जातेषु आम्रफलेषु इत्यर्थः / / 106 // गते गम्येऽध्वनोऽन्तेनैकार्थ्यं वा // 2 / 2 / 107 // कतश्चिदवधेर्विवक्षितस्याध्वनोऽन्तः [प्रान्तः] / 'यद्भावो भावलक्षणम्' तस्याध्वनोऽध्ववाचिशब्दस्याध्वन एवान्तेन अन्तवाचिना सह [शब्देन सप्तरज्जुरूपेण सह] ऐकायें सामानाधिकरण्यं वा स्यात्तद्विभक्तिः द्वितीयाविभक्तिः] तस्माद्भवतीत्यर्थः / गते गम्ये [गतशब्दो गम्यो भवति]-गतशब्देऽप्रयुज्यमाने इत्यर्थः / लोकमध्याल्लोकान्तमुपरि [ऊर्ध्वम्] अधश्च सप्तरज्जूः [द्वितीया शस्] आमनन्तिसप्तरज्जुषु गतेषु भवतीत्यर्थः / पक्षे पूर्वेण सप्तमी / अध्वन इति किम् ? कार्तिक्या आग्रहायणी मासे / अन्तेनेति किम् ? अद्य नश्चतुर्पु गव्यूतेषु भोजनम् // 107 // ___ अ० कुतश्चिदवधेर्लोकमध्यादित्यादिरूपात् विवक्षितस्य इयत्तापरिच्छेदाद्यगृहीतस्य लोकान्त इति रूपस्य अध्वनप्रान्तः = यस्य लोकमध्यस्य अध्वनः सप्तरज्जुरूपस्य भावेन गमनरूपेण अपरो भावो लोकान्तभवनरूपो लक्ष्यते इति परिणा सूत्रार्थो व्याख्येयः / गम्यते इत्यस्याग्रेऽयं विशषः-गम्यमानमपि हि विभक्तेर्निमित्तं भवति, यथा वृक्षे शाखा, ग्रामे चैत्रः, अत्र भवति वसति चेत्याधारनिमित्तं गम्यते / एकोऽर्थोद्रव्यम् अनेकभेदाधिष्ठानं यस्य स एकार्थः, तस्य भाव ऐकार्यम् / कोऽर्थः ? सामानाधिकरण्यम् / ययोर्द्वयोः शब्दयोरेका विभक्तिः एका सङ्ख्या एकं लिङ्गं 1. 'पुरुमगध०'... / 6 / 1 / 116 / अनेन विहितअण्प्रत्ययस्य ‘बहुष्वत्रियाम्' / 6 / 1 / 124 // इति अनेन लोपः / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 141 स्यात् तत् एकार्थ्यम् / तस्मात् सप्तरन्जुरूपात् शब्दात् ऐकार्थ्यात्सामानाधिकरण्यात् परतो द्वितीयाविभक्तिर्भवतीति भावः / यदा एकविभक्तिर्न स्यात्तदा ऐकार्थ्यं न घटते / पक्षे लोकमध्याल्लोकान्तमुपर्यधश्च सप्तरजुषु आमनन्ति इति प्रयोगो ज्ञातव्यः / आग्रहायणी इति अग्रहायनस्य अग्रहायणम् 'पूर्वपदस्थानाम्न्यगः (2 / 3 / 64) इति सूत्रेण नकारस्य णत्वम् अग्रहायण एव आग्रहायणम् इति वाक्ये स्वार्थे 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' (7 / 2 / 165) इति सूत्रेण अण् 'वृद्धिः स्वरेष्वा०' (74 / 1) इति वृद्धिः, आ ‘अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) अकारलोपः ‘गौरादिभ्यो मुख्यान्डीः' (2 / 4 / 19) इति सूत्रेण डी, आग्रहायणी मार्गशीर्षमासस्यान्त(अन्त्य)तिथिः पूर्णमासी उच्यते / मासे इत्यत्र ऐकायाभावात् 'यद्भावो भावलक्षणम्' (2 / 2 / 106) इति सूत्रेण सप्तमी भवति / गव्यूतिरत्रास्ति इति वाक्ये 'अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति सूत्रेण मत्त्वर्थे अप्रत्ययः ‘अवर्णेवर्णस्य' गव्यूतं क्रोशमेकम् // 107 / / - षष्ठी वाऽनादरे // 2 // 2 // 108 // भावे वर्तमाना[गौणात्] नाम्नोऽनादरे गम्यमाने षष्ठी वा स्यात्, पक्षे पूर्वसूत्रेण [यद्भावेत्यनेन] सप्तमी / रुदतो लोकस्य रुदति लोके वा प्राब्राजीत् / रुदन्तं गोत्रजनमनादृत्य प्रव्रजित इत्यर्थः // 108 // ___ अ० प्राव्राजीत् 'धृजध्रजवजव्रजषस्ज गतौ' व्रज् / प्रपूर्वम्, अद्यतनीदि ‘सिजद्यतन्याम्' (3 / 4 / 53) इति सूत्रेण सिच् ‘स्ताद्यशितो०' (4 / 4 / 32) इत्यादिना इट् ‘वदव्रजरः' (4 / 3 / 48) इति सूत्रेण वृद्धिः आ ‘सः सिजस्तेर्दिस्योः' (4 / 3 / 65) इति सूत्रेण सिच ईत् ‘इट ईति' (4 / 3 / 71) इति सूत्रेण सिच्लोपः 'अड्धातो.' (4 / 4 / 29) अट्; प्राव्राजीत् इति सिद्धम् / / 108 / / सप्तमी चाविभागे निर्धारणे // 2 // 2 // 109 // जातिगुणक्रियादिभिः समुदायादेकदेशस्य [पुरुषलक्षणात्क्षत्रियादेः] बुद्धया पृथकरणं निर्धारणम् / तस्मिन् / निर्धारणे] गम्यमाने [गौणात्] नाम्नः षष्ठी सप्तमी च स्यात् / अविभागे- निर्यमाण-स्यैकदेशस्य समुदायेन सह कथञ्चिदैक्ये शब्दाद्गम्यमाने / क्षत्रियः पुरुषाणाम् पुरुषेषु वा शूरः, कृष्णा गवां गोषु वा बहुक्षीराः, भवन्तो गच्छतां गच्छत्सु शीघ्रतमाः, युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः [अति उत्तमः] कुरूणाम् कुरुषु / अविभाग इति किम् ? माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य आढ्यतराः, मैत्रश्चैत्रात्पटुः; अत्र हि शब्दाढ़ेद एव प्रतीयते नतु कथञ्चिदैक्यमिति न षष्ठी // 109 // ___ अ० आदिशब्दात् युधिष्ठिरप्रभृतिसंज्ञया च / अविभागे-कोऽर्थः ? ऐक्ये गम्यमाने सति / अविभागस्वरूपं दर्शयति निर्येत्यादि / मथुरायां भवा माथुराः 'भवे' (6 / 3 / 123) इति सूत्रेण अण् वृद्धिः / पाटलिपुत्रे भवाः पाटलिपुत्रकाः 'रोपान्त्यात्' (6 / 3 / 42) इति सूत्रेण अकञ् / पाटलिपुत्रादिशब्दात् / पटुः इत्यग्रे, अयमस्मादधिक इत्यपि ज्ञेयम् 'सप्तमी चाविभागे निर्धारणे' इति सूत्रं पञ्चमीबाधनार्थं कृतम्गोभ्यः कृष्णाः सम्पन्नक्षीराः इति प्रयोग प्राप्ते सति // 109 // क्रियामध्येऽध्वकाले पञ्चमी च // 2 // 2 // 110 // ___क्रिययोर्मध्ये योऽध्वः कालश्च तस्मिन्वर्त्तमाना[गौणात्] नाम्नः पञ्चमी चकारात् सप्तमी च स्यात् / अध्वनिइहस्थोऽयमिष्वासः [धनुः] क्रोशात् क्रोशे वा लक्ष्यं विध्यति / काले-अद्य भुक्त्वा मुनिद्वर्यहात् द्वयहे वा भोक्ता // 110 // Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलते अ० क्रिययोर्मध्यं क्रियामध्यम् तस्मिन् / अध्वा च कालश्च अध्वकालः तस्मिन् / इहस्थोऽयमित्यादि-इह धानुष्कावस्थानम् इषुमोक्षो वा, एका क्रिया लक्ष्यव्यधश्च द्वितीया क्रिया, तयोर्मध्ये क्रोशोऽध्वा / अद्य भुक्त्वा मुनीत्यादिअत्र द्वयोर्भुक्तिक्रिययोर्मध्ये ब्यहः कालः / 'व्यधंच ताडने' व्यध् / वर्तमानाति 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) इति सूत्रेण श्यः प्रत्ययः ‘शिदऽवित्' (4 / 3 / 20) इति सूत्रेण ङित् भावे इति (अस्माद्) हेतोः 'ज्याव्यधःक्ङिति' (4 / 1 / 81) इत्यनेन वृत् इकारः विध्यतीति सिद्धम् / ननु क्रोशे स्थितं लक्ष्यं विध्यति, व्यहे पूर्णे सति भुङ्क्ते इत्यधिकरण एव सप्तमी प्राप्नोति, क्रोशान्निसृत्य स्थितं लक्ष्यं विध्यति इति अपादाने पञ्चमी 'गम्ययपः कर्माधारे' (2 / 2 / 74) इत्यनेनापि पञ्चमी सिद्धैव ‘क्रियामध्येऽध्वकाले' इति सूत्रं कथं कृतम् ? सत्यम्- यदा तु अपादानस्य आधारस्य च क्रियाकारकसम्बन्धस्य यल्लक्ष्यं क्रोशे तिष्ठति तल्लक्ष्यं क्रोशसम्बन्धि, या च पूर्णे द्वये भुजिः सा व्यहस्य कालस्य सम्बन्धि, तथा क्रोशान्निसृत्य यल्लक्ष्यं स्थितं तत्क्रोशस्यैव, यावद्वयतिक्रमेण भुजिः सापि द्वयहस्येव इति युक्त्या फलभूता उत्तरावस्था शेषसम्बन्धलक्षणा विवक्ष्यते, यथा द्विरह्रो भुङ्क्ते, योजनस्य शृणोतीति, तदापि क्रियामध्ये षष्ठी मा भूदिति सूत्रम् / द्वि अहन्, द्वयोरहोः समाहारः व्यहः 'द्विगोरनहोऽट्' (7 / 3 / 99) इति सूत्रेण अट्समासान्तः ‘नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः / अत्र अद्य भुक्त्वोदाहरणे द्वयोर्भुक्तिक्रिययोर्मध्ये द्वयहः कालः / द्वयहे पूर्णो दिनद्वये गते सति भुङ्क्ते इत्यर्थः // 110 // __ अधिकेन भूयसस्ते // 2 / 2 / 1111. अधिरूढ इत्यर्थेऽधिकशब्दो निपात्यते, तत्र सामर्थ्यादल्पीयोवाचिनाऽधिकशब्देन युक्ताद् भूयसो भूयों [प्रभूत] वाचिनो गौणानाम्नः ते सप्तमीपञ्चम्यौ भवतः / अधिको द्रोणः खार्याम् अधिको द्रोणः खार्याः [द्वितीयाषष्ठयोरपवादोऽयम् // 111 // ____ अ० अधिरूढ इत्यत्र अधिरोहति स्म इति कर्त्तरि, अधिरुह्यते स्म इति कर्मणि 'ज्ञानेच्छार्चा०' (5 / 2 / 92) इति क्तप्रत्ययः / तत्र यदा कर्तरि अधिरूढः तदाऽधिक इति शब्देन अल्पीयान् उच्यते; यदा तु कर्मणि अधिरूढस्तदाऽधिक इत्यनेन भूयान् उच्यते तत्र सामर्थ्यादित्यादिसूत्रार्थः-खारी मध्ये द्रोणोऽधिकः कोऽर्थः ? अल्पीयान् इत्यर्थो घटते सम्भाव्यते // 111 / / तृतीयाल्पीयसः // 2 / 2 / 112 // ___ अधिकशब्देन [सामर्थ्यात्] भूयोवाचिना युक्तादल्पीयोवाचकाद्गौणानाम्नस्तृतीया स्यात् / अधिका खारी द्रोणेन [द्रोणेन कृत्वा खारी अधिका कोऽर्थः ? प्रभूता बह्वी इत्यर्थः] // 112 // __ पृथग् नाना पञ्चमी च // 2 / 2 / 113 // पृथग्नानाशब्दाभ्यां युक्ता[गौणात् ]नाम्नः पञ्चमी तृतीया च भवति / पृथग्मैत्रात् पृथग्मैत्रेण / नाना चैत्रात् [नाना] चैत्रेण वा // 113 // __अ० यदा पृथग्नानाशब्दौ अन्यार्थी विवक्ष्येते तदा 'प्रभृत्यन्यार्थ०' (2 / 2 / 75) इति सूत्रेण पञ्चमी सिद्धैवास्ति, तृतीतैवानेन सूत्रेण भवति / यदा पुनः पृथग्नानाशब्दौ असहायार्थौ तदा पञ्चमीविधानार्थं सूत्रमिदम् // 113 // ऋते द्वितीया च // 2 // 2 // 114 // ऋते इति शब्देन युक्ता[गौणात्]नाम्नो द्वितीया पश्चमी च स्यात् / नाङ्गं विक्रियते रोगमृते, ऋते धर्मात् Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 143 कुतः सुखम् // 114 // अ० ऋते इति शब्दोऽव्ययो वर्जनार्थो ज्ञेयः // 114 / / - विना ते तृतीया च // 2 / 2 / 115 // - विनाशब्देन युक्ता[गौणात् ] नाम्नः ते-द्वितीयापञ्चम्यौ, तृतीया च भवति / विना वातं विना वातात् विना चातेन // 115 // तुल्यार्थस्तृतीयाषष्ठ्यौ // 2 / 2 / 116 // __तुल्यार्थैर्युक्ताद्गौणानाम्नस्तृतीयाषष्ठ्यौ भवतः। मात्रा तुल्यः मातुस्तुल्यः / पित्रा समानः पितुः समानः। अर्थग्रहणं पर्यायार्थम् / उपमा नास्ति कृष्णस्य, तुला नास्ति सनत्कुमारस्य इत्यादौ उपमादयो न तुल्यार्था इति न भवति / तृतीयामविकल्प्य षष्ठीविधानं सप्तमीबाधनार्थम्, तेन गवां तुल्यः स्वामी, गोभिस्तुल्यः; 'स्वामीश्वराधि०' (2 / 2 / 98) इत्यादिना न. सप्तमी // 116 // अ० तुल्यसमानसदृशादयो हि धर्मिदेवदत्तवाचकाः, उपमातुलासमतादयस्तु शब्दा धर्मवचनाः; एतावता धर्मिवाचकैः शब्दैस्तुल्यादिभिः तृतीयाषष्ठयौ भवतः, न धर्मवाचकैरुपमानादिभिरिति भावः / तुल्यार्थेस्तृतीया वा इति सूत्राकरणात् 'तृतीयाषष्ठयौ' इति विधानं यत्, तत्सप्तमीबाधनार्थमित्यर्थः / उपमादयो न तुल्यार्था इति न भवति इत्यस्याग्रेगौणाधिकाराच्च गौरिव गवयः इत्यादौ न भवति // 116 / / _ द्वितीयाषष्ठयावेनेनानश्चेः // 2 / 2 / 117 // एनप्रत्ययान्तेन युक्ताद्गौणानाम्नो द्वितीयाषष्ठ्यौ भवतः, चेत् स एनोऽश्चेः परो न कृतः स्यात् / पूर्वेण ग्रामं पूर्वेण ग्रामस्य, दक्षिणेन विजयाई विजयार्द्धस्य, उत्तरेण हिमवन्तं हिमवतः / अनश्चेरिति किम् ? प्राग्ग्रामात् प्रत्यग्ग्रामात् उदग्ग्रामात् // 117 // . अ० पूर्व = अस्मात् पूर्वा दिग् अदूरे रमणीया / अथवा अस्मात् ग्रामात् पूर्वो देशः कालो वा अदूरे रमणीयः। पूर्वेण- ‘अदूरे एनः' (7 / 2 / 122) इति सूत्रेण एनप्रत्ययः स च अव्ययः ‘अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) सिः 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक् / अस्मात् दक्षिणा दिग् दक्षिणो देशः कालो वाऽदूरे रमणीया रमणीयो दक्षिणेन 'अदूरे एनः' / अस्मात् हिमवतः पर्वतात् उत्तरा दिग् अदूरे रमणीया उत्तरो देशः कालो वा अदूरे रमणीयः ‘अदूरे एनः' / अञ्च प्रः पूर्व प्राञ्चतीति प्राङ् 'क्किप्' (5 / 1 / 148) 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) नस्य लोपः स्त्री चेत् प्राची 'अचः' (1 / 4 / 69) इति सूत्रेण ङी, प्राच्यामदूरायां वसति / एवं प्रतीच्याम् उदीच्यामदूरायां वसति 'अदूरे एनः' इति एनप्रत्ययः 'लुबञ्चेः' (7 / 2 / 123) इति सूत्रेण नस्य लोपः, लोपे कृते ‘ड्यादेर्गौणस्याक्विपस्तद्वितलुक्यगोणीसूच्योः' (2 / 4 / 95) इति सूत्रेण ङीप्रत्ययस्य लोपः, प्राच् इति पुनःशब्दः, सिः, 'अव्ययस्य' इति लुप् / प्राग्ग्रामात् इत्यत्र च 'प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्दबहिरारादितरैः' (2 / 2 / 75) इति सूत्रेण पञ्चमी भवति // 117 / / हेत्वर्थेस्तृतीयाद्याः // 2 / 2 / 118 // हेतुर्निमित्तं कारणमिति पर्यायाः, एतदर्थैः शब्दैर्युक्तात् प्रत्यासत्तेस्तैरेव समानाधिकरणा[गौणात्]नाम्नस्तृतीयाद्याः-तृतीयाचतुर्थीपञ्चमीषष्ठीसप्तम्यो भवन्ति / धनेन हेतुना धनाय हेतवे धनाद्धेतोः धनस्य हेतोः धने हेतौ वसति / एवं धनेन निमित्तेन, धनेन कारणेन इत्यादयोऽपि / प्रत्यासत्तेस्तैरेव समानाधिकरणादिति किम् ? Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अन्नस्य हेतुः // 118 // अ० आदिशब्दात् धनेनोपदेशेन धनेन प्रयोजनेन इत्यपि ज्ञेयम् / तत्सामानाधिकरण्याच्च हेत्वर्थशब्देभ्योऽपि ता एव तृतीयाद्या भवन्ति इति भावः // 118|| सर्वादेः सर्वाः // 2 / 2 / 119 // हेत्वधैर्युक्तात् प्रत्यासत्तेस्तत्समानाधिकरणात् सर्वादेर्गीणानाम्नः सर्वा विभक्तयो भवन्ति / को हेतुः, कं हेतुम्, केन हेतुना, कस्मै हेतवे वसतीत्यादयः / एवं यो हेतुः यं हेतुम् इत्यादि / स हेतुः तं हेतुम् / सर्वो हेतुः, सर्व हेतुम् / भवान् हेतुः भवन्तं हेतुम् / एवं किं कारणम्, किं निमित्तम्, किं प्रयोजनमित्यादयः // 119 // ____ अ० कस्माद्धेतोः, कस्य हेतोः, कस्मिन् हेतौ वसति चैत्रः / हेत्वर्थैः सह = वसति चैत्रः / को हेतुरित्यादिसर्वोदाहरणेषु केन हेतुना, केन कारणेन इत्येवार्थः सर्वत्र ज्ञातव्यः / यो हेतुरित्यादिष्वपि येन हेतुना कारणेन इत्यर्थः सम्भावनीयः / स हेतुः तेन हेतुना कारणेन वसति चैत्र इत्यर्थः / भवता हेतुना भवता कारणेन इत्यर्थः / उभौ हेतू, उभाभ्यां हेतुभ्यामित्यपि ज्ञातव्यम् // 119 / / असत्त्वारादर्थाट्टाङसिङ्यम् // 2 / 2 / 120 // [असत्त्वे आरादर्थः असत्त्वारादर्थः, अथवा ___ असत्त्वश्चासावारादर्थश्च असत्त्वारादर्थः तस्मात्] सत्त्वं द्रव्यम्, ततोऽन्यदसत्त्वम् / आरादूरान्तिकयोः / तन्त्रेणोभयोर्ग्रहणम् / गौणादिति निवृत्तम् / असत्त्ववाचिनो दूरार्थादन्तिकार्थाच्च टा-सि-ङि-अम् इत्येते [प्रत्ययाः] 'स्युः / दूरार्थे-दूरेण दूरात् दूरे दूरं वा ग्रामस्य ग्रामाद्वा वसति / एवं विप्रकृष्टेन [दूरे] ग्रामस्य ग्रामाद्वा तिष्ठति / अन्तिकार्थे अन्तिकेन ग्रामस्य ग्रामाद्वा वसति / [एवं] अभ्याशेनेत्यादि / असत्त्वे इति किम् ? दूरः पन्थाः, अन्तिमः पन्थाः / दूराय पथे, दूरस्य पथः स्वम् / कथं चिरं चिरेण चिराय चिरात् चिरस्येति ? विभक्तिप्रतिरूपका निपाता एते-यथा परस्परं परस्परेण परस्परस्येत्यादयः // 120 // अ० लिङ्गसङ्ख्यावद्रव्यं गोत्वादि, 'इदंतदित्यादिपदैर्यदन्यद्वापदिश्यते / गुणजात्यादिकं सर्वं द्रव्यं स्यात् पारिभाषिकम् / / 1 / / इदं तत् इत्यादि सर्वनामव्यपदेश्यं सत्त्वमित्युच्यते, ततोऽन्यत् असत्त्वमुच्यते / आराद्रेति-आरात् इति शब्दोऽव्ययो दूरार्थे अन्तिकार्थे च वर्त्तते / तन्त्रेण कोऽर्थः ? सूत्रेण / आरादर्थ इति शब्देन उभयोरपि ग्रहणं विहितम् / कोऽभिप्रायः ? दूरार्थ-शब्दात् अन्तिकार्थशब्दाच्च परतः टा-सि-ङि-अम्-विभक्तयो भवन्ति इति सूत्रे आरात् इति शब्देन द्वयेऽपि दूरार्थ-अन्तिकार्थाः शब्दाः गृह्यन्ते इत्यर्थः / ग्रामात् इत्यत्र ‘आराद! H' (2 / 2 / 78) इति सूत्रेण विकल्पेन पञ्चमी, पक्षे षष्ठी-ग्रामस्य / ग्रामस्य त्वं दूरे इत्यर्थे षष्ठी / अभ्यश्यते इत्यभ्याशम् ‘भावाकोंः' (5 / 3 / 18) इति पञ् / क्लीबे चायं शब्दः तालव्यशकारान्तः / यस्तु दन्त्यसकारान्तोऽभ्यासः स पुंल्लिङ्गे वर्त्तते / आरादर्थत्वाऽभावात् चिरंशब्दात् कथं द्वितीयाद्या विभक्तय इति पराशङ्का ? सूरिराह-विभक्तीत्यादि / / 120 // जात्याख्यायां नवैकोऽसङ्ख्यो बहुवत् // 2 / 2 / 121 // . जातेरेकत्वादेकवचन एव प्राप्ते पक्षे बहुवचनार्थ बहुवद्भाव उच्यते / जातेराख्याऽभिधानं जात्याख्या, तस्यामेकोऽर्थो जातिलक्षणोऽसङ्ग्यः सङ्ख्यावाचिविशेषणरहितो बहुवरा भवति / सम्पन्नो यवः सम्पन्ना यवाः, Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 145 सम्पनो व्रीहिः सम्पन्ना व्रीहयः / जातिग्रहणं किम् ? चैत्रः / आख्यायामिति किम् ? काश्यपप्रतिकृतिः सदृशः] काश्यपः / एक इति किम् ? *सम्पन्नौ व्रीहियवौ / असङ्ख्य इति किम् ? +एको व्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति // 121 // ____ अ० काश्यपोऽयं जातिशब्दोऽस्ति परं अनेन जाति ख्यायते किं तर्हि ? प्रतिकृतिः ख्यायते / *सम्पन्नौ व्रीहियवौ इति उदाहरण अग्रे- 'मगधेषु स्तनौ पीनौ कलिङ्गेष्वक्षिणी शुभे / बाहू प्रलम्बावङ्गेषु, वङ्गेषु चरणौ दृढौ' // 1 // इत्यत्र सव्येतरलक्षणाऽवान्तरत्वजातिद्वयोपाधियोगादेकत्वं नास्ति इति बहुवद्भावो न भवति / जातिमात्रविवक्षायां तु बहुवद्भावो भवत्येव-मगधेषु स्तना पीनाः स्तनः पीनः / कलिङ्गेषु अक्षीणि शुभानि अक्षि शुभम् इत्यादि / +एको व्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोतीत्यत्र विशेषणभूत एक इति सङ्ख्याप्रयोग उदाहरणमध्येऽस्तीति एके व्रीहयः सम्पन्नाः सुभिक्षं कुर्वन्तीति प्रयोगो न भवति / / 121 / / __ अविशेषणे द्वौ चास्मदः // 2 // 2 // 122 // [दः-षष्ठी] ___ अस्मदो द्वावेकश्वार्थो बहुवद्वा स्यात्, अविशेषणे-यद्यस्मदो विशेषणं न प्रयुज्यते / आवां ब्रूवः, वयं ब्रूमः / अविशेषण इति किम् ? आवां गार्यो ब्रूवः, अहं पण्डितो ब्रवीमि / कथं नाट्ये च दक्षा वयं, 'त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः', 'सा बाला वयमप्रगल्भे' त्यादि ? दक्षत्वादीनां विधेयत्वेनाविशेषणत्वाद्भविष्यति // 122 // ___अ० एकानेकस्वभावस्यात्मनोऽनेकस्वभावविवक्षायां बहुवचनं युष्मदस्मदः सिद्धमेव, परं अष्मदः सविशेषणस्य प्रतिषेधार्थं 'अविशेषणे द्वौ चास्मदः' इति सूत्रं कृतमिति भावः / ब्रू वर्तमानामिव् / 'ब्रूतः परादिः' (4 / 3 / 63) इति सूत्रेण ईत् / 'नामिनो गुणोऽक्डिति' (4 / 3 / 1) इति गुणः / श्रीहर्षो निपुणः कविः परिषदप्येषा गुणग्राहिणी, लोके हारि च वत्सराजचरितं नाट्ये च दक्षा वयम् / वस्त्वेकैकमपीह वाञ्छितफलप्राप्तेः पदं किं पुनर्मद्भाग्योपचयादयं समुदितः सर्वो गुणानां गणः / / 1 / / त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः, ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः / इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं, यद्यस्मासु पराङ्मुखोऽसि वयमप्येकान्ततो निस्पृहाः / / 2 / / सा बाला वयमप्रगल्भमनसः सा स्त्री वयं कातराः, सा पीनोन्नतिमत्कुचद्वयभरं धत्ते सखेदा वयम् / साऽऽक्रान्ता जघनस्थलेन गुरुणा, गन्तुं न शक्ता वयम्, दोषैरन्यजनाश्रयैरपटवो जाताः स्म इत्यद्भुतम्' // 3 // नटानामिदं नृत्तं नाट्यम् ‘नटान्नृत्ते ज्यः' (6 / 3 / 165) इति सूत्रेण ज्यप्रत्ययः, ञो वृद्धयर्थः ‘वृद्धिः स्वरे०' (7 / 4 / 1) / दक्षाः के ? वयम्, इति दक्षा विशेष्यपदं वयमिति विशेषणम् / अज्ञातज्ञापनीयत्वेन = यत् अनूद्यमानमवच्छेदकं तत् विशेषणमुच्यते / / 122 / / - फल्गुनीप्रोष्ठपदस्य भे // 2 / 2 / 123 // [पूर्वफाल्गुनी पूर्वाभद्रपदानक्षत्रद्वयम्] फल्गुनीप्रोष्ठपदाशब्दयोर्भे नक्षत्रे वर्तमानयोञवौँ वा बहुवद्भवतः / कदा पूर्वे फाल्गुन्यौ, कदा पूर्वाः फल्गुन्यः / कदा पूर्वे प्रोष्ठपदे,कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदाः / उदिते पूर्वे फल्गुन्यौ, उदिताः पूर्वाःफल्गुन्यः / उदिते पूर्वे प्रोष्ठपदे, उदिताः पूर्वाः प्रोष्ठपदाः / भ इति किम् ? फल्गुनीषु जाते फाल्गुन्यौ कन्ये / द्वावित्येव +दृश्यते फल्गुनी // 123 // अ० फल्गुनीप्रोष्ठपदस्य इति शब्दपरो निर्देशः किमर्थं कृतः ? सूरिराह-तत्पर्यायस्य मा भूत्, अद्य पूर्वे भद्रपदे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इत्येव प्रयोगः, पूर्वा भद्रपदाः इति न भवति; इयमवचूरिः +दृश्यते फल्गुनी इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या // 123 / / गुरावेकश्च // 2 / 2 / 124 // गुरौ गौरवार्हेऽर्थे वर्तमानस्य शब्दस्य द्वावेकश्वार्थो वा बहुवत् स्यात् / त्वं गुरुः यूयं गुरवः, युवां गुरू यूयं गुरवः / एष मे पिता एते मे पितरः / अयं तपस्वी इमे तपस्विनः / गुरुशिष्यौ +गुरुशिष्याः / आपः, दाराः, गृहाः, वर्षाः, पञ्चालाः जनपदः, गोदौ ग्रामः, खलतिकं वनानि, हरीतक्यः फलानि, पञ्चालमथुरे चञ्चाभिरूपो मनुष्य इति सर्वलिङ्गसङ्ग्ये वस्तुनि स्याद्वादमनुपतति / मुख्योपचरितार्थानुपातिनि च शब्दात्मनि रूढितस्तत्तल्लिङ्गसङ्ख्योपादानव्यवस्थानुसतव्या // 124 // द्वितीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ग्रं० 451 // ____ अ० +गुरुशिष्या इत्यस्याग्रे इमे विशेषप्रयोगा ज्ञातव्याः, यथा इह भवान् आह, इह भवन्त आहुः / तत्र भवान् आह, तत्रभवन्तः आहुः / अत्रभवानाह, अत्रभवन्त आहुः / इहायुष्मानाह अत्रायुष्मानाह, इहायुष्मन्तः आहुः अत्रायुष्मन्तः आहुः / इह दीर्घायुः अत्र दीर्घायुः अत्र दीर्घायुराह, इह दीर्घायुषः अत्र दीर्घायुषः आहुः / एते सर्वेऽपि गुरौ पूज्यजने वर्तन्ते / इहशब्दः ‘क्ककुत्रात्रेह' (7 / 2 / 93) इति सूत्रेण इदम अकारादेशः, त्रप् प्रत्ययस्य च हकारादेशः, अस्मिन्निह इति वाक्यम् / / तत्र-तस्मिन् तत्र 'त्रप् च' (7 / 2 / 92) इति सूत्रेण त्रप् / अत्रएतद् एतस्मिन् अत्र 'ककुत्रात्रेह' इति निपातः / / एवं इह भवन्तौ, तत्र भवन्तौ, अत्र भवन्तौ इहायुष्मन्तौ इत्यादि, पक्षे इह भवन्तः अत्र भवन्तः तत्र भवन्तः आहुः / / आप इत्यादिषु कथं बहुवचनं, पश्चाला जनपद इत्यादिषु कथं वचनव्यत्ययः, खलतिकं वनानि हरीतक्यः फलानि इत्यत्र कथं लिङ्गव्यत्ययः इति पराशङ्का / सर्वलिङ्गेत्यादिसर्ववस्तुनि स्याद्वादमनुपतति स्याद्वादमवतरति / 'सिद्धिः स्याद्वादात्' इति मुनीन्द्रवचनात् स्याद्वादादनेकान्तवादात् सर्वनयमयात् एक एव शब्द एकलिङ्गं द्विलिङ्गं त्रिलिङ्गं वा भजते, एक एव शब्द एकवचन द्विवचनं बहवचनं वा आश्रयति / लिङ्गसङ्ख्याव्यत्ययोऽपि स्याद्वादात्, अत एव वैयाकरणैः प्रामाणिकलोकैश्च लोकरूढः शब्दस्वभाव आश्रीयते / एतच्च हैमव्याकरणारम्भे बृहद्वृत्तौ ‘सिद्धिः स्याद्वादात्' (1 / 1 / 2) 'लोकात्' (1 / 1 / 3) इति सूत्रद्वये . दर्शितमस्ति / अपशब्दः स्वभावात् स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तः, गृहशब्दोऽपि बहुवचनान्तः, एवमन्येऽपि / चीयते उपचीयते तृणैरिति चञ्चा, अभिमतं रूपं यस्य सोऽभिरूपः / अकिञ्चित्करः पुरुषः चञ्चा उच्यते उपचारात् / लिङ्गानि च सङ्ख्याश्च लिङ्गसङ्ख्याः ताश्च ता लिङ्गसङ्ख्याश्च / तासामुपादानं ग्रहणम् / तत्र या व्यवस्था मर्यादा / मुख्यश्च उपचरितश्च स चासौ अर्थश्च तत्रानुपातिनि // 124 / / इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतो द्वितीयः पादः समाप्तः // 2 / / व्याउ परिउर्मित वयन लोडने रंशन आपे छे, वैराग्य परिउर्मित भन आत्भाने रंशन आपे छ: व्यारा डाव्यने भठारे छे, वैराग्य मात्भाने भठारे छे. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 147 नमस्पुरसोः गतेः कखपफि रः सः // 2 // 3 // 1 // [नमस्पुरसोरित्याद्यारभ्य ‘रोः काम्ये' (2 / 3 / 7) इति सूत्रं यावत् सप्तसूत्राणि रेफस्य सकारादेशे ज्ञातव्यानि] गतिसंज्ञकयोर्नमस् पुरस्-इत्येतयोः सम्बन्धिनो रेफस्य [रकारस्य] कखपफेषु परेषु सकारादेशः स्यात् / नमस्कृत्य नमस्करोति, पुरस्कृत्य पुरस्करोति, पुरस्खादः [पुरः स्खदनं पुरस्खादः] पुरस्पातः [पुरस्पतनं पुरस्पातः], पुरस्फकः / गतेरिति किम् ? नमः करोति-नमः शब्दमुच्चारयतीत्यर्थः // 1 // __ अ० नमस्कृत्येत्यादौ सर्वत्र सूत्रोदाहरणे ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) इत्यनेन रकारं कृत्वा पश्चात् रकारस्य सकारः // नमस्कृत्येति-नमस् 'डुकंग करणे' कृधातुः 'साक्षादादिश्च्च्य र्थे' (3 / 1 / 14) इति सूत्रेण नमस्शब्दस्य गतिसंज्ञा, गतिसंज्ञत्वेन धातोः पूर्वं प्रयुज्यते; नमस् इत्यस्याग्रे प्रथमासिः ‘गतिः' (1 / 1 / 36) इति सूत्रेण गतिसंज्ञकस्य अव्ययसंज्ञा भवति, ततः ‘अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति सिलुक् / अनमो नमः करणम् / पूर्वं नमस्कृत्येति वाक्ये 'प्राक्काले' (5 / 4 / 47) क्त्वा 'अनञः क्त्वो यप्' (3 / 2 / 154) / / एवं पुरस्कृत्यस्य साधनिका, नवरमत्र 'पुरोऽस्तमव्ययम्' (3 / 1 / 7) इति सूत्रेण गतिसंज्ञा, पूर्वपर्यायोऽग्रतःपर्यायो वा पुरस्शब्दः // नमः करोतीत्यत्र नमःशब्दान्तरम्, न त्वव्ययमिति ‘अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) इति सूत्रेण अम् लुप्यते / नमः करोतीत्यस्याग्रे तिस्रः पुरः करोति इति-पुरस्शब्दस्य ज्ञेयम् / त्रि. शस्. 'त्रिचतुरस्तिसृ०' (2 / 1 / 1) इति तिसृ आदेशः 'पृश् पालनपूरणयोः' पृ, पालय(तीति ?) पुर् नगरम् 'दिद्युद्ददृ०' (5 / 2 / 83) इति भ्राजादिद्वारेण क्विप् 'ओष्ठ्यादुर्' (4|4|117) इति उर् ततः शस् पुरस् इति सिद्धम् / 'पृश् पालनपूरणयोः' पृणाति इत्येवंशीलः इत्येव ज्ञेयं न तु 'पृक् पालने'ऽदादिः / पुर्-त्रिलिङ्गः // 1 // तिरसो वा // 2 // 3 // 2 // गतिसंज्ञकस्य तिरःशब्दस्य सम्बन्धिनो रेफस्य कखपफेषु सकारादेशो वा स्यात् / तिरस्कृत्य तिरःकृत्य, तिरस्करोति तिरःकरोति // 2 // अ० तिरस्कृत्येत्यत्र 'कृगो नवा' (3 / 1 / 10) इति सूत्रेण गतिसंज्ञा तिरस्शब्दस्य // 2 / / पुंसः // 2 // 2 // 3 // पुम्स्शब्दसम्बन्धिरेफस्य कखपफेषु सो भवति / पुंस्कोकिलः, पुंस्खननम्, पुंस्पाकः, पुंस्फलम् // 3 // अ० पुम्स्. कोकिल. पुमांश्चासौ कोकिलश्च पुं० 'पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सकारस्य लोपः 'पुमोऽशिट्यघोषेऽख्यागिरः' (1 / 3 / 9) इति मकारस्य रकारः अनुस्वारपूर्वकः, 'पुंसः' इत्यनेन रेफस्य सकारः / एवं पुंस्खननं पुंस्पाकः पुंस्फलमिति सिद्धिः / पुंसः खननम्, पुंसः पाकः, पुंसः फलमिति वाक्यानि कार्याणि // 3 // शिरोऽधसः पदे समासैक्ये // 2 // 3 // 4 // शिरस्-अधस्-सम्बन्धिरेफस्य पदशब्दे परे सः स्यात्, समासैक्ये-तौ चेनिमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते भवतः / शिरस्पदम्, अधस्पदम् / पद इति किम् ? [शिरसः खण्डम्] शिरःखण्डम् / समासे इति किम् ? शिरः पदम् / ऐक्य इति किम् ? परमशिरः पदम् // 4 // अ० शिरसि पदं शिरस्पदम् अथवा शिरसः पदम् / / एवं अधोऽव्ययः / अधः पदम् इत्येवं वाक्यम् / परमं च तत् शिरश्च परमशिरः, तस्मिन् तस्य वा पदम् / परमशिरश्च तत्पदं च इति वा कार्यम् // 4|| ____ अतः कृकमिकंसकुम्भकुशाकर्णीपात्रेऽनव्ययस्य // 2 // 3 // 5 // अकारात्परस्य अनव्ययस्य रेफस्य कृकम्यादिस्थेषु कखपफेषु परेषु सो भवति, चेनिमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे स्याताम् / कृ-अयस्कृत् अयस्कारः / कमि-यशस्कामः / कंस-[अयसा मिश्रः कंसः] अयस्कंसः / कुम्भ[पयसः कुम्भः] पयस्कुम्भः। कुशा-[अयसः कुशा] अयस्कुशा / कर्णी-अयस्की / पात्र-[पयसः पात्रम्] पयस्पात्रम् / पीयतेऽस्मादिति पात्रम् // अत इति किम् ? गीः कारः, वाः पात्रम् / भास्कर इति तु कस्कादिः [शुनस्कर्ण इत्यपि 'भ्रातुष्पुत्रकस्कादयः'] / अनव्ययस्येति किम् ? स्वः कारः [स्वः करोति स्वःकारः] / समास इत्येव-यशः करोति / ऐक्य इत्येव-पयःपात्रखण्डनम् [अयःकुम्भपानम् / कमिग्रहणात् कामयतेन स्यात्-पयःकामा / कमेस्त्वणि ['कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72)] पयस्कामीति भवति / कथं पयस्कामा ? कमनं कामः, पयसि कामोऽस्या इति बहुव्रीहिना भविष्यति // 5 // अ० अयस्कर्णी इत्यत्र अय इव कर्णौ यस्या इति बहुव्रीहौ 'नासिकोदरोष्ठजवादन्तकर्ण०' (2 / 4 / 39) इत्यादिना विकल्पेन डीः, अयस्कर्णी अयस्कर्णा इति रूपद्वयम् / समुदायस्य तु जातिवाचित्वे प्रतिपाद्ये अयसः कर्ण इव कर्णौ यस्या इति वाक्ये 'पाककर्णपर्ण०' (2 / 4 / 55) इति नित्यं डीः अयस्कर्णी इत्येकमेव रूपम् / अय इव कर्णोऽस्य इत्यपि कृते 'गौरादिभ्यो मुख्यान्डीः' (2 / 4 / 19) इति ङीः / कमिग्रहणात्कामयतेन स्यात्, पयःकामा इत्यादि-पयस्-अग्रे 'कमूङ कान्तौ' 'कमेर्णिङ्' (3 / 4 / 2) 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः / कामि / पयः कामयते पयःकामा इति वाक्ये 'शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमो णः' (5 / 173) इति सूत्रेण णप्रत्ययः, ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 83), 'आत्' (2 / 4 / 18) यत्र कमिपरतो णिङ् क्रियते तत्र रेफस्य सकारो न भवति, विसर्ग एव भवति / यत्र कमिधातुपरतो घञादयः, तत्र रकारस्य सकारः-पयस्कामा पयस्कामी इत्यादि प्रयोगा ज्ञातव्याः / अयः करोति अयस्कृत् 'क्विप्' (5 / 1 / 148) 'हस्वस्य तः पित्कृति' (4 / 4 / 113) इति तोऽन्तः / अयः करोति अयस्कारः 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) / 'कमूङ् कान्तौ' कमनं कामः ‘भावाकोंः ' (5 / 3 / 18) इति सूत्रेण घञ् यशसि कामोऽस्य / पात्रस्य खण्डं पात्रखण्डम् पयसः पात्रखण्डं पयः पात्रखण्डम्-अत्र हि निमित्तनिमित्तिनौ नैकसमासवर्त्तमानौ / यदा तु एवं समासः-अयसः कुम्भोऽयस्कुम्भः, अयस्कुम्भस्य कपालम्, तदा भवत्येव / पयसः पात्रं पयस्पात्रम्, तस्य खण्डं पयस्पात्रखण्डम्, इति तदा भवत्येव / / 5 / / प्रत्यये // 2 // 3 // 6 // अनन्ययस्य रेफस्य प्रत्ययविषये कखपफे सः स्यात् / पयस्पाशम् पयस्कल्पम् पयस्कम् यशस्कम् / अनव्ययस्येत्येव-प्रातः कल्पम् / प्रत्यय इति किम् ? पाशो बन्धः, कल्पो विधिः, कं शिरः, पयःपाशः, पयःकल्पः, पयःकम् // 6 // अ० पयस्, निन्द्यं पयसः पयस्पाशं निन्द्ये पाशप्' इति सूत्रेण पाशप्प्रत्ययः / पयस्, ईषदसमाप्तः पयः पय Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः स्कल्पम् ‘अतमंबादेरीषदसमाप्ते कल्पप्-देश्यप्-देशीयर्' (7 / 3 / 11) इति सूत्रेण कल्पप्प्रत्ययः / पय एव पयस्कं 'यावा-दिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) पाशकल्पका इति प्रत्यया ज्ञातव्या नतु पाशकल्पका इति शब्दाः / प्रातःकल्पम् -ईषदसमाप्तं प्रातः प्रातःकल्पम् / पयसि पाशः, बन्धः / पयसः कल्पः, आचारः पयसि कम्, शिरः / / 6 / / रोः काम्ये // 2 // 3 // 7 // अनव्ययस्य रेफस्य रोरेव काम्यप्रत्यये सः स्यात् / पयस्काम्यति [पय इच्छति] / यशस्काम्यति / रोरिति किम् ? अहः काम्यति / द्वाः काम्यति / वाः काम्यति / प्रत्यय इत्येव-नरैः काम्यम् / पूर्वेणैव सिद्धे रोरेवेति नियमार्थं वचनम् // 7 // अ० 'सो रुः' (2 / 1 / 72) इत्यादि सूत्रैर्यत्र सकारादिस्थाने रुआदेशस्तत्र च ‘रोः काम्ये' इति सूत्रेण रुस्थाने सकारः क्रियते, नतु केवलरकारस्य इत्यर्थः / अहरिच्छति अहःकाम्यति, 'द्वितीयायाः काम्य' (3 / 4 / 22), 'रो लुप्यरि' (2 / 1 / 75) इत्यनेन नकारस्य रकारः / / 7 / / नामिनस्तयोः षः // 2 // 3 // 8 // [इत आरभ्य ‘भ्रातुः पुत्रकस्कादयः' (2 / 3 / 14) इति यावत् रेफस्य षकारादेशे सप्तसूत्राणि ज्ञातव्यानि] तयोः-'प्रत्यये' 'रोः काम्ये' इति सूत्रद्वयोपात्तयोः [गृहीतयोः], पाशकल्पक-काम्यप्रत्यययोः, परयो मिन उत्तरस्य रेफस्य ष इत्यादेशः स्यात् / सर्पिष्पाशम् [निन्धं सर्पिः] / गीष्पाशा [निन्द्या गी:] / सर्पिष्कल्पम् [ईषदसमाप्तं सर्पिः] / गीष्कल्पा [ईषदसमाप्ता गीः] / साप्पिष्कः, धानुष्कः / सर्पिष्काम्यति [सपिरिच्छति / तयोरिति किम् ? मुनि)(करोति / रोः काम्य इत्येव-ग)(काम्यति // 8 // अ० प्रत्यये इति सूत्रे पाशकल्पका इत्युपलक्षणत्वादिकणोऽपि ग्रहणम् / 'सृपं गतौ' सृप, सर्पति गच्छति पिण्डे सबलभावमिति सर्पितम् ‘रुच्यर्चिशुचिहुसृपिच्छादिबृदिभ्य इस्' (989) इत्युणादिसूत्रेण इस्, ततो गुणः / सर्पिः पण्यमस्य सार्पिष्कः 'तदस्य पण्यम्' (6 / 4 / 54) इति सूत्रेण इकण, वृद्धिः, 'ऋवणोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात् इकस्येतो लुक्' (7 / 471) इति सूत्रेण इकणः सम्बन्धिन इकारस्य लोपः ‘प्रत्यये' इति सूत्रेणात्र रकारस्य सकारस्तस्य 'नामिनस्तयोः षः' इति षः / धानुष्क इत्यत्र 'स्तनधनेति दण्डकधातुः' 'रुद्यर्ति०' (997) इत्युणादित्वात् उस्, धनुःप्रहरणमस्य धानुष्कः 'प्रहरणम्' (6 / 4 / 62) इति सूत्रेण इकण, वृद्धिः ‘ऋवर्णोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक्' इति इकण इकारस्य लोपः, 'सो रुः' 'नामिनस्तयोः षः' इति रस्य षः // 8 // निर्दुर्बहिराविःप्रादुश्चतुराम् // 2 // 3 // 9 // निरादीनां रेफस्य कखपफेषु षः स्यात् / निष्कृतम् निष्पीतम् / दुष्कृतम् दुष्पीतम् / बहिष्कृतम् बहिष्पीतम् / आविष्कृतम् / प्रादुष्कृतम् / चतुष्करः / चतुष्पात्रम् // 9 // ___ अ० सूत्रे बहुवचननिर्देशो निस्दुसोः निर्दुरोश्च परिग्रहार्थम् / निःष कोऽर्थः ? नितरां क्रियते निष्कृतम् 'क्लीबे क्तः' (5 / 3 / 123) इति क्तः / नितरां पीयते 'गत्यर्थाऽकर्मकपिबभुजेः (5 / 1 / 11) इति क्तः / एवं दुष्कृतमित्यादि / आविस्प्रादुस्शब्दौ प्राकाश्ये प्रकटीकरणे / चत्वारः करावस्य चतुष्करः // 9 // ___ सुचो वा // 2 // 3 // 10 // सुजन्तानां सम्बन्धिनो रेफस्य कखपफेषु षकारः स्यात्, वा / द्विष्करोति, त्रिष्खनति, चतुष्पचति / निदुखाए। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते पक्षे द्वि)(करोति द्विः करोति, चतु. पचति चतुःपचति // 10 // सुचो वा // 2 // 3 // 10 // सुजन्तानां सम्बन्धिनो रेफस्य कखपफेषु षकारः स्यात्, वा / द्विष्करोति, त्रिष्खनति, चतुष्पचति / पक्षे द्वि)(करोति द्विः करोति, चतु..पचति चतुःपचति // 10 // अ० द्वौ वारौ, त्रीन् वारान्, चतुरो वारान् करोति इति वाक्यानि 'द्वित्रिचतुरः सुच्' (7 / 2 / 110) इति सूत्रेण सुच्प्रत्ययः / सिः 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) लुप्, 'रात्सः' (2 / 1 / 90) इति सकारलोपः ‘र: कखपफयोः )(क पौ' (1 / 3 / 5) इति जिह्वामूलीय-उपध्मानीय-विसर्गाश्च भवन्ति / चतुर् इति परतो यत्र सुच् क्रियते, तत्र ‘सुचो वा' (2 / 3 / 10) इति सूत्रेण विकल्प एव, षकारविषये कर्तव्ये 'निर्दुर्बहि०' इत्यादिपूर्वसूत्रेण नित्यं षत्वं न कर्तव्यम्, परत्वात् विशेषविधित्वाच्च // 10 // वेसुसोऽपेक्षायाम् // 2 // 3 // 11 // इस्-उस्प्रत्ययान्तस्य रेफस्य कखपफेषु षो वा भवति / अपेक्षायाम्-चेत् स्थानिनिमित्ते [प्रथमा औ] पदे परस्पररापेक्षे भवतः / सर्पिष्करोति, सर्पिष्पिबति, धनुष्करोति / पक्षे सर्पिः करोति सर्पि (रोतीत्यादि / इसुसोः प्रत्यययोर्ग्रहणादिह न भवति-मुनि रोति, मुहु. पचति / अपेक्षायामित्येव तिष्ठतु सर्पिः पिब त्वमुदकम् // 11 // ___ अ० इह ‘प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्यये कार्यम्' 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम्' 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति न्यायबलात् इस्-उसोः प्रत्यययोरेव ग्रहणम्, तेन इह मुनिस् मुहुस् इत्यादौ न भवति / मुहुरित्यव्युत्पन्नमव्यम् / / 11 / / . नैकार्थेऽक्रिये // 2 // 3 // 12 // एकार्थे [कोऽर्थः]-समानाधिकरणेऽक्रिये पदे परे कखपफेषु इसुस्सम्बन्धिरेफस्य षकारो न स्यात् / सर्पि)(कालकम् / यजुः पीतकम् / एकार्थ इति किम् ? सर्पिष्कुम्भे 2, धनुष्पुरुषस्य 2, [प्रथमासिः, 'वेसुसोऽपेक्षायाम्' इति षत्वम्] / अक्रिय इति किम् ? सर्पिष्क्रियते 2, धनुष्प्राप्तम् 2, ['वेसुसो०'] इति षत्वम् // 12 // ___ अ० काल एव कालकम् ‘कालात्' (7 / 3 / 19) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / सर्पिः कीदृशम् ? कालकम् / सर्पिष्कुम्भे धनुष्पुरुषस्येत्यत्र 'वेसुसोऽपेक्षायाम्' इति षत्वम् / न विद्यते क्रियाप्रवृत्तिनिमित्तं कोऽर्थः ? क्रियारूपम्क्रियते पच्यते प्राप्तमित्यादिशब्दरूपं यस्य एकार्थस्य सोऽक्रियः ‘गोश्चान्ते' (2 / 4 / 96) इत्यादिना हस्वः / 'वेसुसोऽपेक्षायाम्' (2 / 3 / 11) इति कृतस्य विषयेऽयं 'नैकार्थेऽक्रिये' प्रतिषेधः, नान्यस्य सूत्रस्य विषये / विशेषश्चायम्'वेसुसो०' इति सूत्रं क्रियापदे परे सति प्रवर्त्तते, यथा सर्पिष्करोति इति, 'नैकार्थेऽक्रिये' इति सूत्रं क्रियावर्जितशब्दे परे प्रवर्त्तते इति भावः / / 12 / / समासेऽसमस्तस्य // 2 // 3 // 13 // पूर्वपदेनासमस्तस्य इसुस्प्रत्ययान्तस्य रेफस्य कखपफे परे षकारो भवति, समासे-तौ चेनिमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे भवतः। सर्पिष्कुम्भः, सर्पिष्कृत्य / सर्पिष्पानम्, धनुष्पृष्ठम्, धनुष्फलम् / समास इति किम् ? तिष्ठतु सर्पिः पिब त्वमुदकम् / असमस्तस्येति किम् ? परमसप्पिः कुण्डम्, इन्द्रधनुः खण्डम् [अत्र 'वेसु Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः सोऽपेक्षायाम्' इत्यनेन षत्वं न भवति, समासे सत्यऽपेक्षाभावात्] / कथं बहुसर्पिष्कुण्डम् बहुसर्पिष्पात्रम् ? अत्र बहुप्रत्ययादेरप्यसमस्तत्वादनेन नित्यं षकारः // 13 // अ० पूर्वपदेन सह असमासीकृतस्य कोऽर्थः ? केवलस्यैव सर्पिस्-धनुस् इति रूपस्य / सर्पिषः कुम्भः। सर्पिषः पानम् / धनुषः पृष्ठम् / असर्पिः सर्पिः कृत्वा सर्पिष्कृत्य / 'कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे च्विः' (7 / 2 / 126) इति सूत्रेण च्चिप्रत्ययः, 'अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) च्चिलोपः / 'प्राक्काले' (5 / 4 / 47) क्त्वा “अनञः क्त्वो यप्' (3 / 2 / 154) बहुसर्पिष्कुण्डम्, बहुसर्पिष्पात्रम् / अत्र सर्पिस् ईषदसमाप्तं सर्पिर्बहुसर्पिः, 'नाम्नः प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) इति सूत्रेण बहु पूर्वं क्रियते नाग्रतः / बहुना सह समासः / कथं षत्वमिति पराशयः ? सूरिराह - अत्र बहुप्रत्ययेति-बहुप्रत्यय आदिर्यस्य इसन्तशब्दस्य, तस्य बहुसर्पिषः कुण्डम्, बहुसर्पिषः पात्रम् इति षष्ठीसमासः कार्यः / परमं च तत् सर्पिश्च परमसर्पिः / परमसर्पिषः कुण्डम् / एवं इन्द्रस्य धनुः, इन्द्रधनुषः खण्डम् // 13 // भ्रातुष्पुत्रकस्कादयः // 2 // 3 // 14 // भ्रातुष्पुत्रादयः, कस्कादयश्च शब्दाः कखपफे परे रेफस्थाने यथासङ्ग्यं कृतषत्वसत्वाः साधवो भवन्ति / प्रातुष्पुत्रः / परमसर्पिष्कुण्डिका / [परमं च तत् बर्हिश्च तस्य पूलः] परमबर्हिप्पूलः / कस्कः कौतस्कुतः / शुनस्कर्णः / भ्रातुष्पुत्रसर्पिष्कुण्डिकाधनुष्कपालबर्हिःपूलयजुष्पात्रमिति [पश्चशब्दाः] भ्रातुष्पुत्रादिगणः / कस्कादि आकृतिगणः / सर्वत्र नामिपररेफस्य षत्वम्, अन्यत्र [कस्कादिगणे] सत्वं द्रष्टव्यम् // 14 // ____ अ० कुण्ड. कुण्डस्य तुल्या कुण्डिका 'तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः' (7 / 1 / 108) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / 'आत्' (2 / 4 / 18) 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्' (2 / 4 / 111) इति इत्वम् / परमं च तत्सर्पिश्च / परमसर्पिषः कुण्डिका / किमः सिः 'किमः कस्तसादौ च' (2 / 1 / 40) 'वीप्सायाम्' (7 / 4 / 80) इति किम् / कस्मात् कुतः 'किमन्यादिसर्वाद्यऽवैपुल्यबहो' (7 / 2 / 89) इति तस् ‘इतोऽतः कुतः' (7 / 2 / 90) इति कुआदेशः 'वीप्सायाम्' इति कुतद्वित्वं कुतस् कुतस् / कुतः कुतः आगतः 'तत आगते' (6 / 3 / 149) इति गणसामर्थ्यात् अण्प्रत्ययः, वृद्धिः / द्वित्वं सिः ‘अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक 'सो रुः' (2 / 1 / 72) रेफस्य भातुष्पुत्रेति षत्वम् / भातुप्पुत्रादिगणे कस्क कौतस्कुत शुनस्कर्ण सद्यस्काल सद्यस्क्री भास्कर अहस्कर अयस्काण्ड तमस्काण्ड अयस्कान्त अयस्कुण्ड मेदिस्पिण्ड अयस्पिण्ड इति 14 शब्दा कस्कादयः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन यथादर्शनमेतत्सदृशा अन्येऽपि ज्ञातव्याः / कस्कादिगणे रेफस्य सकारो भवति निपातनात् / अहः किरतीति अहस्करः // 14 // नाम्यन्तस्थाकवर्गात् पदान्त कृतस्य सः शिड्नान्तरेऽपि // 2 // 3 // 15 // नामिनोऽन्तस्थायाः कवर्गाच्च परस्य पदान्तः [कोऽर्थः] पदमध्ये कृतस्य विहितस्य कृतसम्बन्धिनो वा सः कोऽर्थः] सकारस्य षः स्यात्, शिटा नकारेण चान्तरेऽपि व्यवधानेऽपि / नामिनःआशिषा अग्निषु नदीषु इत्यादि, जेष्यति अनैषीत् सर्पिष्मान् दोष्मान् इत्यादि / अन्तस्थायाः-धीर्षु धूर्षु गीर्षु / कवर्गात्-वाक्षु शक्ष्यति / शिड्नान्तरेऽपि / सर्पिष्षु सर्पिःषु सपीषि धनूंषि बह्वाशींषि कुलानि / नकारस्यावश्यमनुस्वारभवनात् शिग्रहणेनैव सिद्धे नकारोपादानं नकारस्थानेनैवानुस्वारेण यथा स्यादित्येवमर्थम् / तेन मकारानुस्वारेण न भवति-पुंसु / पदान्तरिति किम् ? पदादौ पदान्ते च मा भूत्-दधिसेक् बहुसेक्, पदान्ते-अग्निस्तत्र / 1. 'गतिकन्यस्०' 3 / 1142 / अनेन तत्पुरुषसमास अत एव. 2. अनेन क्त्वाप्रत्ययस्य यप् आदेशः / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलते कृतस्येति किम् ? बिसम्, मुसलम् / तिसृभिरित्यत्र विधानबलात् (पत्वं) न भवति // 15 // अ० आदिशब्दात् वायुषु वधूषु पितॄषु एषा गोषु तेषु सिषेवे शिष्यते सुष्वाप लुलूषति / सर्पिष्मान् दोष्मान् इत्यत्र 'न स्तं मत्वर्थे (1 / 1 / 23) इति पदसंज्ञाप्रतिषेधात् पदस्य मध्यत्वमित्थं ज्ञेयम् // शक्ष्यामि ‘शक्लँट् शक्तौ' शक् / भविष्यन्तीस्यति / एवं पिपक्षति-पच् पक्तुमिच्छति सन् / / सर्पिष्षु धनुष्षु-सर्पिस् धनुस्, सुप् ‘सो रुः' (2 / 1 / 72) इति सस्य रुत्वम् ‘शषसे शषसं वा' (1 / 3 / 6) इति रस्य सत्वम् 'नाम्यन्तस्था०' इति सुपः षकारस्य षत्वम्, तदन्तरं 'सस्य शषौ' (1 / 3 / 61) इति सूत्रेण प्रकृतिसकारस्य षकारः सर्पिष्षु धनुष्षु इति साध्यते / सर्पिःषु धनुःषु-अत्र 'रः पदान्ते०' (1 / 3 / 53) इति विसर्गः / शषसे०' इति विकल्पेन प्रवर्त्तते / / सर्पिस् धनुस् जस् 'नपुंसकस्य शिः' (1 / 4 / 55) 'धुटां प्राक्' (1 / 4 / 66) इति नोऽन्तः 'न्स्महतोः' (1 / 4 / 86) दीर्घः / / सिञ्चतीति सेक् 'मन्वन्क्वनिप्वच् क्वचित्' (5 / 1 / 147) / दध्नः सेक् दधिसेक्, ईषदूनः सेक् बहुसेक् 'नाम्नः प्रागबहुर्वा' (7 / 3 / 12) पूर्वं बहुः क्रियते / अत्र 'वृत्त्यन्तोऽसषे' (1 / 1 / 25) इति सूत्रेण पदसंज्ञायां कृतायां पदादित्वात् सस्य षत्वं न भवति / दधिसेक् बहुसेक् इत्युदाहरणद्वयं पदादौ विषये दर्शितम्-अत्र अन्तर्वर्त्तिन्यां विभक्त्या सेक्शब्दस्य पदत्वात्सकारस्य पदादित्वम् / तिसृभिः त्रिचतुरस्तिसृ० (2 / 1 / 1) इति तिसृ-आदेशकरणान्न षत्वम् / / 15 / / समासेऽग्नेः स्तुतः // 2 // 3 // 16 // अग्नेः परस्य स्तुत्सम्बन्धिसकारस्य समासे पः स्यात् / अग्निष्टुत् // 16 // अ० 'वृत्त्यन्तोऽसषे' (1 / 1 / 25) अत्र असष इति वचनात् सकारस्य पदमध्यत्वं नास्ति इति समासेऽग्नेरिति सूत्रं कृतम् / ‘टुंग्क् स्तुतौ' ष्टु 'षः सोऽष्टयै 0' (2 / 3 / 98) 'स्टु निमित्ताभावे०' स्तु / अग्निं स्तौति ‘किप्' (5 / 1 / 148) 'हस्वस्य तः पित्कृति' (4 / 4 / 113) इति तोऽन्तः // 16 / / __ ज्योतिरायुभ्यां च स्तोमस्य // 2 // 3 // 17 // ___ज्योतिरायुरग्नेश्च परस्य स्तोमसम्बन्धिनः सस्य [सकारस्य] षः स्यात्, समासे / ज्योतिष्टोमः, आयुष्टोमः, अग्निष्टोमः / समास इत्येव-ज्योतिः स्तोमं दर्शययति // 17 // अ० ज्योतिषां स्तोमः, आयुषः स्तोमः, अग्नेः स्तोम इति षष्ठीसमासः / स्तोमशब्दः समूहार्थः / स्तोमं वस्तुसमूहम्, वस्तुराशिः // 17 // मातृपितुः स्वसुः // 2 // 3 // 18 // [स्वसृ भगिनी] मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृसकारस्य समासे षः स्यात् / मातृष्वसा [मासी] / पितृष्वसा [भूया // 18 // अलुपि वा // 2 // 3 // 19 // मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृसकारस्यालुपि समासे षो वा स्यात् / मातुःष्वसा, मातुःस्वसा, / पितुः प्वसा, पितुः स्वसा // 19 // अ० पूर्वेण प्राप्ते विभाषार्थं अलुपि वेति सूत्रं कृतम् // 19 / / निनद्याः स्नाते कौशले // 2 // 3 // 20 // निनदीशब्दाभ्यां परस्य स्नातः सस्य [सकारस्य] समासे षः स्यात्, कौशले-नैपुण्ये गम्यमाने निष्णः, निष्णातो वा पाके / नदीष्णः, नदीष्णातो वा प्रतरणे, कुशल इत्यर्थः / कौशल इति किम् ? निस्नातः Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः नदीस्नः, यः स्रोतसा ह्रियते // 20 // ___ अ० 'ष्णांक् शौचे' ष्णा, “षः सोऽष्टयै' (2 / 3 / 98) स्ना / निपूर्वं निष्णातीति निष्णः ‘स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) इति सूत्रेण कप्रत्ययः ‘इडेत्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) इति आकारलोपः / निष्णातीति निष्णातः 'कतरि' (5 / 1 / 3) अथवा 'गत्यर्थाकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः, निष्णातः / नद्यां स्नाति, नद्या स्नाति स्म, नदीपूरेण योऽपह्रियमाणोऽस्ति स एवम् // 20 // प्रतेः स्नातस्य सूत्रे // 2 // 3 // 21 // - प्रतेः परस्य स्नातसकारस्य समासे षः स्यात्, सूत्रे वाच्ये / प्रतिष्णातं सूत्रम् / सूत्र इति किम् ? प्रतिस्नातमन्यत् / प्रत्ययान्तोपादानं प्रत्ययान्तरनिवृत्त्यर्थम् / प्रतिस्नातृ सूत्रम् / प्रतिस्नायकं सूत्रम् // 21 // ___ अ० विशेषाभणनादत्र ऊर्णादिसूत्रं व्याकरणसूत्रं वा गृह्यते सूत्रशब्देन इत्युक्तम् सूत्रे वाच्ये / प्रतिस्नातीति ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) इतिसूत्रेण तृच्णकप्रत्ययौ / प्रतिष्णातं सूत्रं कोऽर्थः ? ऊर्णादिसूत्रं प्रक्षालनेन शुद्धम् उज्ज्वलम्, व्याकरणादिसूत्रं तु अतिव्याप्त्यादिदोषाभावेन शुद्धं निर्दूषणमित्यर्थः / पूर्वसूत्रे स्नाते, प्रतेः स्नातस्येत्यत्र स्नात इति प्रत्येकं सूत्रे स्नातस्नात इति करणात् प्रत्ययान्तर तृणकेति निषेधार्थम् / अन्यथा पूर्वसूत्रात् स्नातिरनुवतिष्यते एव, किं पुनरपि स्नात इति करणेन / / 21 / / . स्नानस्य नाम्नि // 2 // 3 // 22 // प्रतेः परस्य स्नानसंकारस्य समासे षः स्यात्, सूत्रविषये नाम्नि / प्रतिष्णानं सूत्रमित्यर्थः // 22 // . अ० नाम्नि, कोऽर्थः ? समुदायश्चेत्संज्ञाविषयो भवति प्रतिस्नातीति प्रतिष्णानम् ‘नन्द्यादिभ्योऽनः' (6 / 1 / 53) इति अनः / / 22 // वेः स्त्रः // 2 // 3 // 23 // वेः परस्य स्तृणातेः सस्य [सकारस्य] समासे षः स्यात्, नाम्नि। विष्टरो वृक्षः, विष्टरमासनम् / नाम्नीत्येव-विस्तरो वचसाम्, विस्तारः पटस्य // 23 // ___अ' विस्तरणं विष्टरः 'युवर्णवृदृवशरणगमृद्ग्रहः' (5 / 3 / 28) इत्यनेन अल् / विस्तरणं विस्तारः 'वेरशब्दे प्रथने' (5 / 3 / 69) इति सूत्रेण घञ् / / 23 / / - अभिनिष्टानः // 2 // 3 // 24 // अभिनिस् इत्यस्मात् परः स्तानशब्दः समासे कृतषत्वो निपात्यते, नाम्नि / अभिनिष्टानो वर्णः / नाम्नीत्येव-अभिनिःस्तन्यते अभिनिःस्तानो मृदङ्गः // 24 // ... अ० निस् इति उपलक्षणम्, तेन निरोऽपि गृह्यते / विसर्जनीयस्य एषा संज्ञा / स्तनधनध्वनेति स्तन्धातुः / अभिनिःस्तननम् 'भावाकोंः ' (5 / 3 / 18) घञ् // 24 / / गवियुधेः स्थिरस्य // 2 // 3 // 25 // गवियुधिपरस्य स्थिरस्य सस्य षः स्यात्, नाम्नि / गविष्ठिरः / युधिष्ठिरः // 25 // अ० गविष्ठिर इत्यत्र गवियुधेः स्थिरस्येति निर्देशात्, अथवा 'बिदादेवृद्धे' (6 / 1 / 41) इति तद्धिते बिदादिगणपाठसामर्थ्यात् सप्तम्या अलुप्समासो भवति / युधिष्ठिर इत्यत्र च 'अव्यञ्जनात्सप्तम्या बहुलम्' (3 / 2 / 18) इति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते सूत्रेण सप्तमी अलुप्समासो ज्ञातव्यः / / 25 / / ___एत्यकः // 2 / 3 / 26 // . ककारवर्जितानाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य सस्य [कोऽर्थः-सकारस्य] एति एकारे परे समासे षः स्यात्, नाम्नि / हरिषेणः श्रीषेणः वायुषेणः मातृषेणः [इतिनामानो राजानः] / एतीति किम् ? हरिसिंहः / अक इति किम् ? विश्वक्सेनः / नाम्नीत्येव-पृथ्वी सेनाऽस्य पृथुसेनः // 36 // अ० स्वरिविशेषो राजा वा / विष्वक् इत्यव्ययं सामस्त्ये वर्त्तते // 26 // भादितो वा // 2 // 3 // 27 // भं नक्षत्रम्, तद्वाचिन इकारान्तात्परस्य सस्य [सकारस्य] एकारे परे समासे षो वा स्यात्, नाम्नि / रोहिणिषेणः रोहिणिसेनः / रेवतिषेणः रेवतिसेनः / भरणिषेणः भरणिसेनः / इत इति किम् ? पुनर्वसुषेण। शतभषक्सेनः [राजा] // 27 // ___ अ० रेवत. रोहिण. 'रेवतरोहिणाऽ' (2 / 4 / 26) इति सूत्रेण ङीप्रत्ययः; 'अस्य ड्यां लुक्' (2 / 4 / 86) इति अकारलोपः, रेवती रोहिणी / तथा भरणि. 'इतोऽक्त्यर्थात्' (2 / 4 / 32) इति डीः / रेवत्य इव, रोहिण्य इव, भरण्य इव कल्याणिनी सेना यस्य इति ‘ड्यापो बहुलं नाम्नि' (2 / 4 / 99) इति सूत्रेण ईकारस्य ह्रस्व इकारः / इतिनामानो राजानः सर्वे / 'एत्यकः' इति षकारः // 27 // विकुशमिपरेः स्थलस्य // 2 // 3 // 28 // वि-कु-शमि-परिभ्यः परस्य स्थलसकारस्य समासे षः स्यात् / विष्ठलम् / कुष्ठलम् / शमिष्ठलम्सूत्रे शमिशब्दस्य ह्रस्वस्योच्चारणाहीर्घान्न भवति-शमीस्थलम् / परिष्ठलम् // 28 // .. ___ अ० विकुशमीति सूत्रे नाम्नि इति निवृत्तम्, उत्तरसूत्रे गोत्रग्रहणात् / / विगतं स्थलं यत्र, अथवा वीनां पक्षिणां स्थलं विष्ठलम् / कुत्सितं स्थलम्, अथवा कोः पृथिव्याः स्थलं कुष्ठलम् / शमीनां स्थलं शमिष्ठलम्, शमीस्थलमित्यत्र 'गौरादिभ्यो मुख्यान्डीः' (2 / 4 / 19) इति ङीः, ‘ड्यापो बहुलं नाम्नि' (2 / 4 / 99) इति ह्रस्वः / तथा परिगतम्, आम्रादिभिर्व्याप्तं स्थलं परिष्ठलम् / शमीस्थलमित्यत्र न ह्रस्वः-संज्ञाया अभावात् // 28 // कपेर्गोत्रे // 2 // 3 // 29 // कपेः परस्य स्थलस्य समासे षः स्यात्, गोत्रे वाज्ये / कंपिष्ठलो मुनिः [कपीनां स्थलमिव स्थलं यस्य / गोत्र इति किम् ? कपिस्थलम् // 29 // अ० गोत्रमिह लौकिकं गृह्यते / लोके च ये आद्यपुरुषा अपत्यसन्ततेः प्रवर्त्तयितारः / यन्नाम्नाऽपत्यसन्ततिळपदिश्यते ते गोत्रपुरुषा अभिधीयन्ते / कपिष्ठलो नाम ऋषिः, यन्नाम्ना कपिष्ठलमिति गोत्रं प्रसिद्धम् // 29 // गोम्बाम्बसव्यापद्वित्रिभूम्यग्निशेकुशङ्कुक्कङ्गुमञ्जिपुञ्जिबर्हिःपरमेदिवेः स्थस्य // 2 // 3 // 30 // ___गो-अम्बा-अम्ब-सन्य-अप-द्वि-त्रि-भूमि-अग्नि-शेकु-शङ्क-कु-अङ्गु-मञ्जि-पुञ्जि-बर्हिस्-परमे-दिविभ्यः परस्य स्थशब्दसम्बन्धिसकारस्य समासे षः स्यात् / गोष्ठम् / अम्बाष्ठः, झ्यापो बहुलं नाम्नि इति ह्रस्वत्वे अम्बष्ठः, श्लिष्टनिर्देशादुभाभ्यामपि भवति / आम्बष्ठः / सव्यष्ठः / अपष्ठः / द्विष्ठः / त्रिष्ठः / भूमिष्ठः, अनिष्ठः [भूमौ अग्नौ तिष्ठतीति / शेकुष्ठः, शङ्कुष्ठः / कुष्ठः / अङ्गुष्ठः / मञ्जिष्ठः / पुञ्जिष्ठः / बर्हिष्ठः / परमेष्ठः [परमे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः पदे तिष्ठतीति / दिविष्ठः // 30 // अ० गोष्ठ इति 'ठांक् गतिनिवृत्तौ' 'षः सोऽष्टयै०' (2 / 3 / 98) स्ठा 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः' स्था। गोशब्दः पूर्वम् / गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति गोष्ठं गोकुलम् ‘स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82) इति सूत्रेण कप्रत्ययः त्पुसि चातो लुक्' (4 / 3 / 94) इति आकारलोपः / अम्बायां तिष्ठतीति अम्बाष्ठः ‘स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) इति कः 'इडेत्पुसि.' 'ड्यापो बहुलं नाम्नि' (2 / 4 / 99) इति ह्रस्वे सति अम्बष्ठ इति प्रयोगो भवति / अम्बष्ठो मातृमुखः / सव्ये तिष्ठतीति सव्यष्ठः / आम्बष्ठ इति ‘अबुङ् रबुङ् शब्दे' 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) अन् / अम्ब्यते अपह्नवकारितया इति अम्बः ‘भावाकोंः ' (5 / 3 / 18) घञ् / अम्बस्यायं कार्यभूतः 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति सूत्रेण अण, वृद्धिः, आम्बशब्दः, आम्बे तिष्ठतीति आम्बष्ठः / द्वयोः त्रिषु तिष्ठतीति // 30 // ... निर्दस्सोः सेधसन्धिसाम्नाम् // 2 // 3 // 32 // निर दुर सु. एभ्यः परेषां सेधादीनां सस्य समासे षः स्यात् / निःषेधः / दुःषेधः / सुषेधः / निःषन्धिः। पन्धिः / सुषन्धिः / निःषाम / दुःषाम / सुषाम // 31 // ' अ० निष्क्रान्तः सेधात्, दुष्टो दुर्गो वा सेधः, शोभनः सेधः / निष्क्रान्तः सन्धेः, दुष्टो दुर्गो वा सन्धिः दुःषन्धिः, शोभनसन्धिः // 31 // . प्रष्ठोऽग्रगे // 2 // 3 // 32 // प्रात्परस्य स्थसस्य षो निपात्यते, अग्रगे-अग्रगामिन्यार्थे / प्रष्ठ [प्रतिष्ठते प्रष्ठः 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' (5 / 1 / 56)] अग्रगामी / प्रस्थोऽन्यः // 32 // भीरुष्ठानादयः // 2 // 3 // 33 // भीरुष्ठानादिशब्दाः समासे कृतषत्वा भवन्ति / भीरुष्ठानम् / अङ्गुलिषङ्गः // 33 // अ० भीरुष्ठान अङ्गुलिषङ्ग सव्येष्ठ परमेष्ठिन् सुष्ठ दुष्ठु अपष्ठ वनिष्ठ गौरिषक्थ प्रतिष्णिका नौषेचिका दुन्दुभिषेवण इति भीरुष्ठानादिगणः / सूत्रे बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / भीरूनां स्थानं भीरुष्ठानम् / अङ्गुलीनां सङ्गोऽङ्गुलिषङ्गः / अङ्गुलिषङ्गा यवागूः / सव्ये तिष्ठतीति सव्येष्ठ 'सव्यात् स्थः' (855) इत्युणादिसूत्रेण ऋप्रत्ययः, स च डित् / परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी ‘परमात् कित्' (925) इति इन् / सु शोभनम् / दुः प्रतिकूलम् / अप / वने तिष्ठतीति 'दुःस्वपवनिभ्यः स्थः' (732) इत्युणादित्वात् उप्रत्ययः / गौर्या इव सक्थि अस्य ‘सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' (7 / 3 / 126) इति टः / नावं सिञ्चतीति नौषिचिका ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) / दुन्दुभिं सेवते दुन्दुभिषेवणः // 33|| ह्रस्वानाम्नस्ति // 2 // 3 // 34 // नाम्नो विहिते तकारादौ प्रत्यये परे ह्रस्वान्नामिनः परस्य सस्य षः स्यात् / तल् त्व तस् त्य तय तरप् तमप् एते तकारादिप्रत्ययाः / सर्पिष्टा / सर्पिष्ट्वम् / सर्पिष्टः यजुष्टः / निष्टयः / चतुष्टयम् / सर्पिष्टरम् / सर्पिष्टमम् / वपुष्टरम् / ह्रस्वादिति किम् ? गीस्त्वम् / उच्चैस्तराम् / नामिन इति किम् ? तेजस्ता / पयस्त्वम् / नाम्न इति किम् ? भिन्युस्तराम् / विहितविशेषणं किम् ? सर्पिस्तत्र / [सर्पिषः] सर्पिस्तरणम् // 34 // ___ अ० सर्पिषो भावः सर्पिष्टा सपिष्ट्वम् ‘भावे त्वतल्' (7 / 1155) / सर्पिषः सर्पिष्टः 'अहीयरुहोपादाने' (7/2 / 88) इति सूत्रेण तस् / निष्टयः-निस्शब्दः, निर्गतो वर्णाश्रमेभ्य इति निष्टयः चण्डालः पुलिन्दो वा 'निसो गते (6 / 3 / 18) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते इति सूत्रेण त्यच् / चतुष्टयम्-चतुर्, चत्वारोऽवयवा अस्य चतुष्टयम् 'अवयवाऽत्तयट्' (7 / 1 / 151) इति सूत्रेण तयट् 'चटते सद्वितीये' (1 / 3 / 7) इति रस्य सकारः / सर्पिष्टरम्-सर्पिस्, इदं सर्पिः इदं सर्पिः इदमनयोर्मध्ये प्रकृष्टं सर्पिः इदमेषां प्रकृष्टं सर्पिष्टमम् ‘प्रकृष्टे तमप्' (7 / 3 / 5) / उच्चैरेव उच्चैस्तराम् ‘कचित् स्वार्थे' (73 / 7) इति सूत्रेण तरप्, पश्चात् 'किन्त्याद्येऽव्ययांदसत्त्वे तयोरन्तस्याम्' (7 / 3 / 8) इति सूत्रेण तर, अग्रे आम्प्रत्ययः // 34|| निसस्तपेनासेवायाम् // 2 // 3 // 35 // निसः सकारस्य तकारादौ तपतौ परे षः स्यात्, अनासेवायामर्थे / निष्टपति सुवर्णम्-सकृत् [एकवारं] अग्निं स्पर्शयतीत्यर्थः / अनासेवायामिति किम् ? निस्तपति सुवर्ण स्वर्णकारः-पुनःपुनस्तपतीत्यर्थः / कथं निष्टप्तं रक्षः, निष्टप्ता अरयः ? अत्र सदप्यासेवनं न विवक्ष्यते [किन्तु अनासेवनं विवक्ष्यते / तीत्येव-निरतपत् // 35 // ___ अ० पुनःपुनः करणमासेवा, तदभावोऽनासेवा उच्यते / तपतेरित्यत्र शनिर्देशो भौवादिक 'तपिं धूप सन्तापे' इति परिग्रहार्थम् / यङ्लुपि कृते च षत्वनिषेधार्थं च / 'तपिंच ऐश्वर्ये' वा इति देवादिको न ग्राह्यः / निस्, ‘तपं धूप' / अत्यर्थं तपति 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद्' (3 / 4 / 9) इति यङ् ‘सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) द्वित्वम् 'व्यञ्जनस्या०' (4 / 1 / 44) अन्त्यलोपः 'आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48) इति दीर्घः 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / 14) इति सूत्रेण यङ्लोपः / यत्र यङ् लुप्तः तत्र निस्तातप्ति, यत्र तु 'यङ्तुरुस्तो बहुलम्' (4 / 3 / 64) इति यङि लुप्ते ईकारः तत्र निस्तातपीति / नितरां तपसि स्म पीडयति निष्टप्तम् / नितरां तपन्ति पीडयन्ति इति निष्टप्ताः / क्तः / अत्र अटा तकारो व्यवहितः // 35 // ___घस्वसः // 2 // 3 // 36 // नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य घसेर्वसेश्च धातोः सस्य षः स्यात् / जक्षतुः जक्षुः / ऊषतुः ऊषुः / उषितः उषितवान् / शिड्वान्तरेऽपि-बहूंषि नगराणि // 36 // ___अ० घस्वसेः इत्यत्र ‘घस्लूं अदने' इति ग्राह्यः, 'अदेर्घसादेशस्य 'नाम्यन्तस्थाकव०' (2 / 3 / 15) इति षत्वस्य सिद्धत्वात् अकृतसकारार्थं वचनं कृतम् / जक्षतुः जक्षुः-‘घस्लूं अदने' परोक्षाअतुस् उस् ‘द्विर्धातुः परोक्षा०' (4 / 1 / 1) द्वित्वम् 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) इति घस्य गः 'गहोर्जः' (4 / 1 / 40) इति गस्य जः ‘गमहनजनखनघसः स्वरेऽनङि क्डिति लुक्' (4 / 2 / 44) इति सूत्रेण धातुघसोऽकारस्य लुक्, 'घस्वसः' इति सस्य षत्वम् 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' (1 / 3 / 50) इति घस्य कत्वम् / यदि च ‘अदं प्सांक भक्षणे' अद्, परोक्षा-अतुस-उस् 'परोक्षायां नवा' (4 / 4 / 18) इति सूत्रेण अद्स्थाने घस् आदेशः, द्वित्वादिकं प्राग्वत्, ‘गमहनेति उपान्त्यलोपः 'अघोषे० घस्य कः तदा 'नाम्यन्तस्थाकवर्ग' इत्यनेन षत्वम् इत्थमपि जक्षतुः जक्षुरिति सिद्धयतः / उपतुरित्यादि'वसं निवासे' वस् 3, परोक्षाऽतुस्, उष्यते स्म, वसति स्म, 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) 'यजादिवचेः किति' (4 / 1 / 79) इति धातुवकारस्य यवृत् उकारः ‘घस्वसः' इति धातुसस्य षत्वम्, ततो द्वित्वम् / बहूंषि-वस् / वसन्तीति उषः 'किप्' (5 / 1 / 148) इति किप्, 'यजादिवचेः किति' यवृत्, उष् / बहव उषवो वास्तव्या येषु तानि बहूंषि // 36 / / णिस्तोरेवास्वदस्विदसहः पणि // 2 // 3 // 37 // स्वदस्विदसहवर्जितानां ण्यन्तानां स्तोरेव सकारस्य नाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य षणि [कोऽर्थः] षत्वभूते सनि 1. घस्लृ सनद्यतनी० 4 / 4 / 17 / अनेन / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 157 परे षः स्यात्, नान्येषाम् / [ण्यन्त] सिषेवयिषति / सुष्वापयिषति / [स्तोतुमिच्छति] तुष्टषति / स्वदादिवर्जन किम् ? सिस्वादयिषति / सिस्वेदयिषति / सिसाहयिषति / षणीति किम् ? सिषेवे / सुष्वाप [भूस्वपोरदुतौ (4 / 1 / 70), उत्वम् ] / षत्वभूत इति किम् ? सुषुप्सति [स्वपेर्यङ्डे च (4 / 1 / 80) उत्वं धातोः] / तिष्ठासति / एवेति किम् ? सुसूषति / सिसिक्षति / सिसेविषति / कथं प्रतीषिषति, अधीषिषति ? षणिनिमित्ते धातोः षत्वनियम उक्तः, इह तु सन एव द्विरुक्तस्य षत्वम्, न धातोः, इति न प्रतिषेधः // 37 // - अ० णिस्तोरेव षत्वभूते षणि परे षत्वं भवति, नान्यस्य, तेनेह न भवति सुसूषति / सिसिक्षति / सिसेविषति / तथा सूत्रे एवकारशब्दः षण्येव णिस्तो र्धातोरिति विपरीतनियमनिवृत्त्यर्थं कृतः, तेनेहापि पूर्वसूत्रेण षत्वं सिद्धम्असीषिवत् / तुष्टाव-‘षिवूच् उतौ' षिव्, 'जिष्वपंक् शये' स्वप्; सीव्यति स्वपिति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः, स्वापयितुमिच्छति 'तुमर्हादिच्छायां०' (3 / 4 / 21) सन्, द्वित्वादिकं प्राग्वत्, 'स्वपो णावुः' (4 / 1 / 62) इति सूत्रेणाभ्यासे वस्य उत्वम् / 'ध्वदि स्वदि स्वादि आस्वादने' ष्वद्, निष्विदाङ् मोचने च विद्, 'षहि मर्षणे' षह, सर्वत्र 'षः सो०' (2 / 3 / 98) / स्वादमानम्, स्वेदमानम्, सहमानं प्रयुक्ते, णिग्, / स्वादयितुम्, स्वेदयितुम्, साहयितुमिच्छति 'तुमर्हादिच्छायां०' सन् ‘सन्यस्य' (4 / 1 / 59) इति सूत्रेणाभ्यासे इत्वम् / / प्रतीषिषति--अत्र ‘ई दुं दुं श्रृं मुं गतौ' इ, प्रति अधि पूर्वं प्रतीतुम् अधीतुमिच्छति सन् 'स्वरादेर्द्वितीयः' (4 / 1 / 4) सन् इत्यस्य पर्युदासेन सदृग्ग्रहणात् स्तौति साहचर्यात् ण्यन्तानामपि षोपदेशानामेव धातूनां ग्रहणम्, तथा च सति नाम्यन्तस्थेति सूत्रेणैव कृतसकारस्य षत्वे सिद्धे नियमार्थं णिस्तोरेवेति नियमात् षत्वं नहि // 37 // सञ्जेर्वा // 2 // 3 // 38 // सञ्जयतेय॑न्तस्य नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य षणि परे सस्य षो वा स्यात् / सिषञ्जयिषति / सिसञ्जयिपति // 38 // अ० इकारान्तनिर्देशात् ‘सञ्जि' इह ण्यन्तो ग्राह्यः, ततो वृत्तौ ण्यन्तस्येत्युक्तम् / 'पञ्ज सङ्गे' सञ्जन्तं प्रयुङ्क्ते णिज् / सञ्जयितुमिच्छति // 38 // . उपसर्गात् सुगसुवसोस्तुस्तुभोऽट्यप्यद्वित्वे // 2 // 3 // 39 // अद्वित्वे द्विवचनाभावे सति सुनोति-सुवति-स्यति-स्तौति-स्तोभतीनां सस्य उपसर्गानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य षः स्यात्, अट्यपि-अडागमेऽपि सति / सुग्-अभिषुणोति, शिड्नान्तरेऽपीत्यधिकारात्निःषुणोति, दुःषुणोति / [अभिषुण्वन्तं प्रयुङ्क्ते] अभिषावयति-अत्रोपसर्गसम्बन्धे सति णिग् / ण्यन्तानां तूपसर्गसम्बन्धे सति न भवति-अभिसावयति / अट्यपि [अटि सति] अभ्यषुणोत् / सुव-अभिषुवति, अव्यपिअभ्यषुवत्, पर्यषुवत् / सो-अभिष्यति, परिष्यति, अट्यपि-अभ्यष्यत् / स्तु-अभिष्टौति / सुष्टुतम्, दुःष्टवम्। अव्यपि-अभ्यष्टौत् / स्तुभ् [सौत्रो धातुः] अभिष्टोभते / [अटि] अभ्यष्टोभत // उपसर्गादिति किम् ? दधि सुनोति / पूजायां सोः, पूजातिक्रमयोश्चातेरुपसर्गाभावादिह न भवति-सुस्तुतम्, अतिस्तुतम् // शिड्नान्तरेऽपीत्यधिकारात् अटा व्यवधाने सति न प्राप्नुयात् इत्यट्यपीति कृतम् // अद्वित्व इति किम् ? अभिसुसूषति इत्यादि [आदिशब्दात् अभ्यसुषत् अभिसिषासति अभ्यासिषासत् परिसुसूषति पर्यसुसूषत्] // पदादौ [नाम्यन्तस्थेत्यनेन] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् // 39 // ____ अ० सुग् इति सूत्रनिर्देशात् 'पुंग्ट् अभिषवे' -अयमेव स्वादिर्गृह्यते / 'कुंक् प्रसवैश्वर्ययोः' अदादिः, 'सु प्रसवैश्वर्ययोः' भ्वादिर्न गृह्यते-तयोः अभिसौति, अभिसवति इति प्रयोगः / ण्यन्तानामिति-धातोर्हेत्वर्थे णिग् तिव् शत् / यत्र एवं णिग् स धातुर्यन्त उच्यते-यथा सावयति, पश्चात् अभि उपसर्गयोगः, अभिसावयति तत्र षकारो न भवतिधात्वन्तरत्वात् / उपसर्गपूर्वधातोर्णिग् तत्र षत्वं यथा अभिषावयति // सुव इति निर्देशात् 'घूत् प्रेरणे' इति तौदादिकः, शप्रत्ययदर्शनात् / / 'धूडौक् प्राणिगर्भविमोचने' इति अदादिः ‘धूडौच् प्राणिप्रसवे' इति देवादिकः, द्वयमपि न गृह्यते तयोः अभिसूयते इति प्रयोगः, नात्र षत्वम् / / सो इति 'षोंच् अन्तकर्मणि' इति देवादिकः / / स्तु इति ‘टुंगक् स्तुतौ' 'षः सोऽष्टयैः' (2 / 3 / 98) 'उत और्विति व्यञ्जनेऽद्वेः' (4 / 3 / 59) इति औत्वम् // सुष्टुतम् इत्यत्र सातिशयं स्तूयते स्म इति वाक्यम् ‘क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / अत्र सुशब्दोमतिशये उपसर्गसंज्ञः, यत्र च सुशब्दः पूजावाची विवक्ष्यते तत्र सुपूजितं स्तूयते स्म सुस्तुतम् अतिक्रमं अतिपूजितं स्तूयते स्म अतिस्तुतम् -नात्र षत्वम् / / दुःखेन स्तूयते 'दुःस्वीषतः कृच्छाकृच्छ्रार्थात् खल्' (5 / 3 / 139) इति खल् / येन धातुना सह सम्बद्धाः प्रादयस्तमेव धातुं प्रत्युपसर्गसंज्ञा इति धात्वन्तरयोगे न भवति / निर्गताः सावका अस्मादसौ निःसावको देशः अत्र निस् गतेन सम्बन्धो नतु सावकेन सह / अभिसावकीयति-अत्र तु सावकीय इति निःपाद्य पश्चात् अभियोगः / अतिस्तुतम् इत्यस्याग्रे इयमवचूरिः / / अट्यपीत्यत्र अपि अभावार्थः, अन्यथा अटि सत्येव षत्वं स्यात्। एतेन अटि सति असति वा षत्वम् / अभिसुसूषति- 'पुंग्ट् अभिषवे' अभिसिनोतुमिच्छति 'तुमर्हा०' (3 / 4 / 21) सन् द्वित्वम् / अत्र द्वित्वे सति पूर्वसकारस्य षत्वम् न सातम् / परं मूलधातोरपि णिस्तोरेवेति नियमात् षत्वं नहि // 39 // स्थासेनिसेधसिचसञ्जां द्वित्वेऽपि // 2 // 3 // 40 // उपसर्गानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परेषां स्थादीनां सस्य षः स्यात्, द्वित्वे द्विवंचने कृतेऽपि]ऽटा व्यवधानेऽपि [सति] / स्था-अधिष्ठास्यति, प्रतिष्ठास्यति, प्रतितष्ठौ, अध्यष्ठात्, सेनि-अभिषेणयति अभिषेणयिषति / अभ्यघेणयत् / सि[से] [षिधू गत्याम्] प्रतिषेधति, प्रतिषिषेधिषति, प्रत्यषेधत् / सिच-अभिषिञ्चति, अभिषिषिक्षति, अभ्यषिश्चत् / सञ्ज-अभिषजति / ण्यन्तानामपि भवति-प्रतिष्ठापयति, प्रतिषेधयति / उपसर्गादित्येव-अधिस्थास्यति-गतार्थत्वानात्राधिरुपसर्गः / वृक्षं वृक्षं परिसिञ्चति-अत्र [वृक्ष इति रूपस्य] वीफ्स्यसम्बद्धस्य परेर्धातुना सह सम्बन्धाभावानोपसर्गत्वम् / निर्गताः सेचका अस्मात् ] निःसेचको देशः-येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तं प्रत्येवोपसर्गसंज्ञा इति न षत्वम् / सेधेति कृतगुणस्य निर्देशः सिद्धयति [षिधूच् संराद्धौ इत्यस्य] निवृत्त्यर्थः -अभिसिध्यति / अकारस्तूचारणार्थो नतु शनिर्देशः, तेन यङ्लुप्यपि षत्वम्-प्रतिषिषेधीति [शवा निर्देशे सति शवि सत्येव षत्वं स्यात्, यङ्लुपि सति षत्वं न स्यात् // 40 // ___ अ० सेनेरषोपदेशार्थम्, स्थासअधात्वोः (अभिषषञ्ज अत्र) अवर्णान्तव्यवधानेऽपि षत्वविधानार्थं का, सिचसञ्जसेधां षणि नियमबाधनार्थं च, सर्वेषामड्व्यवधाने पदादौ च षत्वार्थं स्थासेनीति सूत्रं कृतम् / ‘आतो णव औ' (4 / 2 / 120) इति सूत्रेण परोक्षाणव्स्थाने औ / अध्यष्ठात्-अत्र 'पिबैतिदाभूस्थः सिचोलुप् परस्मै न चेट्' (4 / 3 / 66) इति सूत्रेण सिच्लोपः / सेना. / अभि / सेनया अभियाति अभिषेणयति ‘णिज्बहुलं नाम्नः०' Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः (42) इति सूत्रेण णिच् 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इत्यन्त्यस्वरलोपः / तथा अभिषेणयितुमिच्छति अभिविष्णयिषति स् / सन् इति द्विरुच्यते / अभ्यषजतीत्यत्र 'पंजं सङ्गे' षंज् ‘षः सो०' (2 / 3 / 98) संज् ‘दंशसञ्जः शबि' (12 / 49) इति उपान्त्यनकारस्य लुक् / प्रतितिष्ठन्तं प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) णिगः प्रागेवोपसर्गसम्बन्धोऽतः-इति हेतोः षत्वम् / प्रतिषेषिधीति-अत्र प्रतिपूर्व 'षिधू गत्याम्' अत्यर्थं प्रतिषेधति 'धातोरनेकस्वरादृशा०' (3 / 4 / 9) इति यङ्, द्वित्वादिकम्, तिन् ‘बहुलं लुप्' / 3 / 4 / 14 / 'यतुरुस्तोर्बहुलम्' (4 / 364) इति ईकारः 'स्थासेनीति' मूलधातोः षत्वम् / द्वित्वस्य 'नाम्यन्तस्थे ति सस्य षत्वम् // 40 // अप्रतिस्तब्धनिस्तब्धे स्तम्भः // 2 // 3 // 41 // उपसर्गस्थानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य स्तम्भः सस्य द्वित्वेऽट्यपि षः स्यात्, यद्यसौ स्तम्भित्रै प्रतिस्तब्धे निस्तब्धे च विषये न भवति // विष्टभ्नाति / [गव्] वितष्टम्भ / [यङ्] प्रतिताष्टभ्यते / व्यष्टभ्नात् / अझतीति किम् ? व्यतस्तम्भत् / प्रत्यतस्तम्भत् / प्रतिस्तब्धः / निस्तब्धः // 41 // ____ अ० डश्च प्रतिस्तब्धश्च निस्तब्धश्च० / न / अप्रतिस्तब्धनिस्तब्धम्, तस्मिन् / यद्यसौ स्तम्भिरित्यादिप्रति निस्पूर्वकः स्तम्भधातुः क्तप्रत्ययान्तयुक्तो भवति, तत्र षत्वं न भवति; यत्र स्तम्भेः परो ङप्रत्ययः तत्रापि न षत्वमित्यर्थः / विष्टभ्नाति-अत्र 'स्तम्भि स्तम्भे' इति सौत्रो धातुः, वर्तमानातिव्, 'स्तम्भूस्तुम्भूस्कम्भूस्कुम्भूस्कोः भा च' (3 / 4 / 78) इति सूत्रेण भा // 41 / / / - अवाच्चाश्रयोर्जाविदूरे // 2 // 3 // 42 // , अघोपसर्गात्स्तम्भः सस्याश्रयायथैषु गम्यमानेषु द्वित्वेऽप्यऽट्यपि षः स्यात्, अडे-विषयेश्चत्स्तम्भिर्न अवति / दुर्गमवष्टभ्नाति / [णव] अवतष्टम्भ दुर्गम् / दुर्गमवाष्टभ्नात् / ऊर्ज. अहो वृषलस्यावष्टम्भः / अविदूरेअवष्टन्धा शरत् / अवष्टन्धे सेने / चकारोऽङ इत्यस्यानुवृत्त्यर्थः, अनुक्तसमुच्चयार्थश्च; तेन उपष्टम्भः, उपष्टम्भकः उपष्टन्धः / आश्रयादिष्विति किम् ? अवस्तब्धो वृषलः शीतेन // 42 // ___ अ० आश्रय आलम्बनम्, उर्ज और्जित्यं सबलत्वम् / अविदूरम्-विदूरम् अतिविप्रकृष्टमुच्यते, ततोऽन्यदविदूरम्; कोऽर्थः ? आसन्नम् अविदूरासन्नं च गृह्यते / अवष्टब्धो रिपुः शूरेण इत्यपि अत्र ज्ञेयम् / उपष्टम्भेत्यादौ चकारबलात् उपशब्दादपि षत्वं भवति / 'उपावात्' इति सूत्रमकृत्वा चकारेण यद् उपशब्दस्य सूचनं कृतम् तदनित्यार्थं ज्ञातव्यम्, तेन उपस्तब्ध इत्यपि भवति / / 42 / / व्यवात्स्वनोऽशने // 2 // 3 // 43 // - वेरवाचोपसर्गात्परस्य स्वनो धातोः सस्याशने भोजनेऽर्थे द्वित्वेऽप्यट्यपि षो भवति / विष्वणति / भवष्वणति / भुङ्क्ते इत्यर्थः / सशब्दं भुङ्क्ते इत्यर्थः / व्यवादिति किम् ? अतिस्वनति, अत्यसिस्वनत् / भशन इति किम् ? विस्वनति अवस्वनति मृदङ्गः, विविधं शब्दं करोतीत्यर्थः // 43 // - अ० 'स्तनधनध्वनचनस्वनवन शब्दे' इति स्वनधातुः / भुआनः कश्चित् शब्दं करोतीत्यर्थः; अवाच्चाश्रयेत्यादि पूर्वसूत्रे चकारेण अङ इत्यनुवर्तितः, इह तु अङ् नानुवर्तते;-व्यवात्स्वनेति सूत्रं ङप्रत्ययेऽपि सति प्रवर्त्तते-यथा व्यषिष्वणत् अवाषिष्वणत् इति सिद्धम् / विषष्वाण अवषष्वाण / विषंष्वण्यते' अवर्षष्वण्यते / विषिष्वणिषति अवषिष्वणिषति / व्यष्वणत् अवाष्वणत् / इत्यपि प्रयोगा ज्ञेया // 43 // 1. 'मुरतोऽनुनासिकस्य' श५१। इति अनेन अभ्यासे मुआगमः / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सदोऽप्रतेः परोक्षायां त्वादेः // 2 // 3 // 44 // प्रतिवर्जितोपसर्गस्थानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य सदो धातोः सस्य द्वित्वेऽप्यव्यपि षः स्यात्, परोक्षायां तु द्वित्वे सत्यादेः पूर्वस्यैव सस्य षत्वम् / ['षद् विशरणगत्यवसादनेषु' 'षट्ठेत् विसादने' इत्यस्य च ग्रहणम्] निषीदति विषीदति [श्रौतिकृयु० (4 / 2 / 108) इत्यादिना सीद्] // निषापद्यते / विषाषयते // परोक्षायां त्वादेरेव-निषसाद्, विषसाद् / अप्रतेरिति किम् ? प्रतिसीदति / प्रत्यसीषदत् / प्रतिसिषत्सति // 44 // अ० परोक्षायां तु इत्यत्र तुशब्दो विशेषणार्थः, परोक्षायामेव विशेषोऽयम्; अन्यत्र उभयत्रापि प्रकृतिसस्य द्वित्वसस्यापि षत्वं स्यात् / यथा न्यषीषदत् इत्यादिषु / विषिषत्सति, निषिषत्सति, न्यषीषदत् व्यषीषदत् इति विशेषप्रयोगाः / प्रत्यसीषदत् प्रतिसिषत्सति इत्यत्र प्रतेः परस्य आद्यसकारस्य व्यावृत्तिबलान भवति, प्रकृतिसस्य नाम्यन्तस्थेति सूत्रेण षत्वं भवत्येव // 44 // स्वञ्जश्च // 2 // 3 // 45 // उपसर्गस्थानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य स्वोः सस्य द्वित्वेऽप्यट्यपि षः स्यात्, परोक्षायां द्वित्वे आदेरेव सस्य षः। अभिष्वजते प्रतिष्वजते / अभिषिष्वङ्क्षते प्रतिषिष्वङ्क्षते // परोक्षायां त्वादे:-अभिषस्वजे अभिषस्वओ. // 45 // __ अ० अभिष्वजते इत्यत्र ‘ष्वञ्जित् सङ्गे' ध्वञ् / वर्त्तः आत्मने० ते / शव् 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः' (4 / 2 / 25) इति न्लोपः / अभिषस्वजे-अत्र 'स्वञ्जर्नवा' (4 / 3 / 22) इति विकल्पेन किवद्भावात् 'नो व्यञ्जनस्ये'ति न्लोपः। ननु अभिषिष्वसते इत्यत्र ‘णिस्तोरेव०' (2 / 3 / 37) इति सूत्रनियमात् धातुषकारस्य षत्वं न प्राप्नोतीत्याह-परत्वादिदमेव स्वञ्जश्चेति सूत्रं प्रवर्त्तते // 45 // परिनिवेः सेवः // 2 // 3 // 46 // ___ परि-नि-वि-उपसर्गस्थानाम्यन्तस्थाकवर्गात्परस्य सेवतेः सस्य द्वित्वेऽट्यपि षः स्यात् / परिपेवते निषेवते विषेवते / परिषिषेविषते परिषिषेवे पर्यषेवत / परिनिवेरिति किम् ? प्रतिसिषेवे प्रतिसेषेव्यते प्रतिसिषेवत् / अङ्-सेवते प्रत्यसिषेवत् // 46 // ___अ० 'षेवृङ् सेवृङ् केवृङ् खेवङ् गेवृङ् ग्लेवृङ पेवृङ् मेवृङ् म्लेखङ् सेवने' इति सेवधातुः / प्रतिसिषेवे इत्यादिषु त्रिषु उपसर्गाश्रितं न षत्वं व्यावृत्तिबलात्, परं धातोत्विाश्रितं षत्वं सूत्रेण भवत्येवेत्यर्थः // 46 // सयसितस्य // 2 // 3 // 47 // परि-नि-विभ्यः परस्य सय-सितयोः सस्य षः स्यात् / योगविभागाद्वित्वेऽप्यट्यपीति निवृत्तम् / परिषयः निषयः विषयः / परिषितः निषितः / विषितः / कथं मापरिषिषयत् ? [सूरिराह] द्वित्वे सत्युपसर्गात्परस्य पूर्वसकारस्य अनेन ['सयसितस्य' इत्यनेन] षत्वम्, उत्तरस्य तु सस्य नाम्यन्तस्थेत्यनेनेति न दोषः // 47 // ___ अ० योगविभागात् द्वित्वेऽटि सति षत्वं निवारितम्, तेन मा विषसयत् इत्यत्र न षत्वम्-विषयामाख्यत् 'णिज्बहुलं०' (3 / 4 / 42) णिच् 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (74 / 43) अद्यतनीदि 'णिश्रुद्रु०' (3 / 4 / 58) प्रत्ययः ‘णेरनिटि' (4 / 3 / 81) णिच्लोपः ‘सन्यडश्च' (4 / 1 / 3) इति सय् इति द्विवचनम् अत्र द्वित्वे कृते सति पूर्वसकारस्य नाम्यन्तस्थेति षत्वम् उत्तरसकारस्य धातुसम्बन्धिनः पूर्वसकारेण व्यवधानात् षत्वं न भवतीत्यर्थः / / 'सयसितस्य' Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः इति सूत्रे सय इति सिनोतेर्धातोरल् तस्य, अजन्तस्य घान्तस्य वा प्रयोगः / सित इति सिनोतेः क्तान्तस्य सिद्धिः'पिंग्ट बन्धने' 'षः सो०' (2 / 3 / 98) सि / परि सयनं परिषयः 'अच्' (5 / 1149) इति सूत्रेण अच्, परिसिनोत्यस्मिन्निति परिषयः, 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / 130) इति सूत्रेण घप्रत्ययः / एवं विषयः विषय इत्यपि // यदि परि सीयते स्म परिषितः ‘क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) एवं निषितः विषितः / परिषित इत्यादि रूपं स्यतिधातुना साध्यते तदा परिनिविउपसर्गात्परस्यैव स्यतेः क्तान्तस्य षत्वम्, उपसर्गान्तरपूर्वस्य स्यतेः 'उपसर्गात्सुगसुव०' (2 / 3 / 83) इत्यनेनापि न षत्वम् / तत्र प्रतिसितः निसितः विसितः इत्येव रूपम् / / मापरिषिषितत् इत्यत्र परिषित इति शब्दः मापरिषितमाख्यत् ‘णिज्बहुलं' णिच् / 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' अद्यतनीदि 'णिश्रुद्रु०' इति ङप्रत्ययः 'णेरिनिटि' (4 / 3 / 83) णिच्लोपः ‘सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) इति द्वित्वम् / सित् इत्यस्य अत्र सन्वदीर्घो न क्रियते समानलोपत्वात् / अत्रोदाहरणे उभयसकारयोर्मध्ये कस्य सस्य षत्वमिति पराशङ्का // 47 / / असोङसिवूसहस्सटाम् // 2 // 3 // 48 // - परि-नि-विभ्यः परस्य सिवूसहोर्धात्वोस्सडागमस्य च सस्य षः स्यात्, चेत् सिवूसही सोडविषयौ न स्याताम् / [षिवूच् उतौ] परिषीव्यति निषीव्यति विषीव्यति / परिषहते निषहते विषहते / परिष्करोति विष्किरः, नेस्तु परस्सड् नास्तीति नोदाहियते / असोङेति किम् ? परिसोढः परिसोढव्यः / डे. मापरिसीषिवत् मापरिसीषहत्, मूलधातोस्तु षत्वं स्यादेव / सोप्रतिषेधस्तु सहेरेव न सिवः तस्य सोरूपासम्भवात् // 48 // ___अ० सिवू च सहश्च स्सट् च सिवूसहस्सटः / सोश्च ङश्च सोङः / न सोङः असोङः / असोडश्च ते सिवूसहस्सटश्च तेषाम् / / षहि मर्षणे' आत्मनेपदी, 'षह षुह च शक्तौ' परस्मैपदी, 'षहण् मर्षणे' इति युजादौ, अत्र त्रयोऽपि गृह्यन्ते / परिष्करोतीत्यत्र 'सम्परेः कृगः स्सट्' (4 / 4 / 91) इति स्सट् / / ‘कृत् विक्षेपे' विकिरतीति 'नाम्युपान्त्यपृकृगृज्ञः कः' (5 / 1 / 54) इति कः 'ऋतां क्ड़ितीर्' (4 / 4 / 116) इति इर् 'वौ विष्किरो वा' (4 / 4 / 96) इति स्सट् विष्किरः पक्षी / परिसोढ इत्यादि- 'षहि मर्षणे' परिसह्यते स्म क्तः / परिसह्यते स्म परिसोढव्यः 'तव्यानीयौ' (5 / 1 / 127) 'हो धुट्पदान्ते' (2 / 1 / 82) हस्य ढः 'सहिवहेरोच्चावर्णस्य' (1 / 3 / 43) इति प्रकृतिढस्य लुक् सकारस्य ओत्वम्, सो इति रूपं जातम्; ईदृशसो इत्यस्य षत्वं प्रतिषिद्धम् / 'षिवूच् उतौ' सीव्यन्तं प्रयुङ्क्ते / सह. परि सहमानं प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) माङ्पूर्वम् 'माङयद्यतनी' (5 / 4 / 39) अनेनाद्यतनी, 'णिश्रिद्रुसु०' ङप्रत्ययः / सह इत्यत्र 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः, पश्चात् 'उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो डे' (4 / 2 / 35) इति धातोर्हस्वः, पश्चात् ‘णेरनिटि' सिच् णिग्लोपः ‘सन्यङश्च' इति द्विवचनम्, सह इति द्वित्वम् 'असमानलोपे सन्वल्लघुनि डे' (4 / 1 / 63) इति अभ्यासे इत्वम् ‘लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64) इति दीर्घ ई // 48 // . स्तुस्वाश्चाटि नवा // 2 // 3 // 49 // - परि-नि-विभ्यः परस्य स्तुस्वोरसोङसिवूसहस्सटां च सस्याटि सति षो वा स्यात् / पर्यष्टौत् पर्यस्तोत् / इत्यादि / पर्यष्वजत पर्यस्वजत इत्यादि / पर्यषीन्यत् पर्यसीन्यत् / पर्यषहत पर्यसहत ['सम्परेः कृगः स्सट्' (4 / 4 / 91)] पर्यष्करोत् पर्यस्करोत् / असोङसिवूसहेति किम् ? पर्यसोढयत् पर्यसीषिवत् पर्यसीषहत् // 49 // अ० आदिशब्दात् न्यष्टौत् न्यस्तौत्, व्यष्टौत् व्यस्तौत् / पर्यस्वजतेत्यत्राप्यादिशब्दात् न्यष्वजत न्यस्वजत, व्यष्वजत Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते व्यस्वजत; पर्यषीव्यत पर्यसीव्यत, न्यषीव्यत् न्यसीव्यत्, व्यषीव्यत् व्यसीव्यत्, पर्यषहत पर्यसहत, न्यषहत न्यसहत, व्यषहत व्यसहत इति प्रयोगा ज्ञातव्याः / परिसोढमाख्यत् 'णिज्बहुलं०' ह्यस्तनीदिव्, गुणः / तथा परिसीव्यन्तं परिषहमानं प्रयुक्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' 'ञ्णिति' वृद्धिः ‘उपान्त्यस्यासमान०' इति ह्रस्वः, अद्यतनीदि, 'णिश्रुद्रु०' 'णेरनिटि' द्वित्वं सन्वद्भावः, दीर्घश्च प्राग्वत्सर्वं कार्यम् / अत्र व्यावृत्तिबलात् पूर्वसस्य न षत्वम्, प्रकृतिसस्य षत्वं भवत्येवेत्यर्थः // 49 // निरभ्यनोश्च स्यन्दस्याप्राणिनि // 2 // 3 // 50 // निर्-अभि-अनुभ्यश्चकारात् परि-नि-विभ्यश्च परस्य स्यन्देः सस्याप्राणिकर्तृकार्थविषये पो वा स्यात् / निःष्यन्दते निःस्यन्दते तैलम् / अभिष्यन्दते अभिस्यन्दते, अनुष्यन्दते इत्यादि / शनिर्देशात् यङ्लुपि न भवति ['यङ् तुरुस्तो०' (4 / 3 / 64)] अभिसास्यन्दीति तैलम् / अप्राणिनीति किम् ? परिस्यन्दते जले मत्स्यः // 50 // ___ अ० निरभ्यनोश्च स्यन्दस्येति सूत्रे ‘स्यन्दौङ् श्रवणे' इत्ययं धातुः, आदिदन्त्यसकारः ततोऽन्तस्थायकारईदृशः पठनीयः नतु षकारान्त्यः, अभिसास्यन्दीति प्रयोगदर्शनात् / अप्राणिनीत्यत्र नञ् पर्युदासोऽयम्, न प्रसज्यार्थः, तेन यत्र प्राणी चाप्राणी च द्वयमपि कर्तृपदं भवति तत्राप्राण्याश्रयो विकल्पो भवति न तु प्राण्याश्रयः प्रतिषेधः, यथा अनुष्यन्देते अनुस्यन्देते वा मत्स्योदके इति भावः // 50 // वेः स्कन्दोऽक्तयोः // 2 // 3 // 51 // : विपूर्वस्य स्कन्दे सस्य षो वा स्यात्, स्कन्दे परौ तक्तवतू चेन स्यांताम् [स्कन्, गतिशोषणयोः] विष्कन्ता विस्कन्ता / अक्तयोरिति किम् ? विस्कनः विस्कनवान् // 51 // __ अ० विस्कनः विस्कनवान् इत्यत्र विस्कन्द्यते स्मेति 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174), 'नो व्यञ्जनस्या०' (4 / 2 / 25) इति न् लुक् ‘रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च' (4 / 2 / 69) इति सूत्रेण धातुदकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नकारः क्रियते // 51 // परेः // 2 // 3 // 52 // . परिपूर्वस्य स्कन्देः सस्य षो वा स्यात् / परिष्कन्ता परिस्कन्ता / योगविभागादक्तयोरिति नानुवर्तते, तेन क्तयोरपि विकल्पः-परिष्कण्णः परिस्कन्नः, परिष्कण्णवान् परिस्कनवान् // 52 // __ अ० परिष्कण्ण इत्यादिषु- 'रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च' (4 / 2 / 69) इति सूत्रेण धातुदस्य प्रत्ययतकारस्य च नकारः, 'रघुवर्णान्नो ण एकपदे०' (2 / 3 / 63) इति सूत्रेण धातुनकारस्य णकारः 'तवर्गस्य श्चवर्ग०' इत्यनेन प्रत्ययनकारस्य णत्वम् // 52 // निर्नेः स्फुरस्फुलोः // 2 // 3 // 53 // निर्निभ्यां परयोः स्फुरस्फुलोः सस्य षो वा स्यात् / निःष्फुरति निःस्फुरति / निष्फुरति निस्फुरति / एवं निःप्फुलतीत्यादि // 53 // ___ अ० निर्नेः स्फुरस्फुलोरिति सूत्रे वचनभेदो यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थः, एतेन स्फुरस्फुल्योर्निर्नि इत्युपसर्गद्वयमपि प्राग्भवतीत्यर्थः / आदिशब्दात् निःस्फुलति, निष्फुलति, निस्फुलति इति प्रयोगः // 53 // . 1. अत्रोदकमाश्रित्य विकल्पे षत्वं, न तु मत्स्यमाश्रित्य निषेधः / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 163 वेः // 2 // 3 // 54 // वेः परयोः स्फुरस्फुलोः सस्य षो वा स्यात् / विष्फुरति विस्फुरति, विष्फुलति विस्फुलति / योगविभाग उत्तरार्थः // 54 // स्कभ्नः // 2 // 3 // 55 // वेः परस्य स्कभ्नातेः सस्य षो नित्यं स्यात् / योगविभागाद्वेति निवृत्तम्, अन्यथा हि वेः स्कभ्नश्च इति क्रियेत / विष्कभ्नाति, विष्कम्भकः, विष्कम्भयति / भानिर्देशः किम् ? सश्नोर्मा भूत्-विस्कभ्नोति // 55 // ____ अ० स्कम्भू सौत्रो धातुः / 'स्तम्भूस्तम्भूस्कम्भूस्कुम्भूस्कोः श्रा च' (3 / 4 / 78) इति सूत्रेण भानुप्रत्ययौ, यत्र भाप्रत्ययस्तत्र स्कभ्न इति सूत्रं प्रवर्तते; यत्र च श्रुप्रत्ययस्तत्र सूत्रं न प्रवर्तते, विस्कभ्नोति इति प्रयोगः // 55 / / निःसुवेः समसूतेः // 2 // 3 // 56 // निर्-दुर्-सु-विभ्यः परस्य समसूत्योः सस्य षः स्यात् / निःषमः दुःषमः सुषम्ः विषमः / एवं निःषति इत्यादि / समसूतीति नाम्नोर्ग्रहणाद्धातोर्वैरूप्ये च न भवति-निःसमति दुःसमति, निःसूतमित्यादि // 56 // अ० सह मया लक्ष्म्या समः / निर्गतो निश्चितो वा समात् निःषमः / एवं दुःष्टः, सुष्ठ, वि विशेषेण च गतो समात् दुःषम इत्यादि वाक्यानि कार्याणि // आदिशब्दात् दुःषतिः सुषूतिः विषूतिरिति प्रयोगाः // 56 // __ अवः स्वपः // 2 / 3 / 57 // नि-र्दुः-सु-विपूर्वस्य वकाररहितस्य स्वपेर्धातोः सस्य षः स्यात् / निःषुषुपतुः दुःषुपुपतुः इत्यादि एवं निःषुप्तः दुःषुप्तः / अव इति किम् ? दुःस्वप्नः सुस्वप्नः विसुष्वापः // 17 // __ अ० निःषुषुपतुः दुःषुषुपतुः सुषुषुपतुः विषुषुपतुः इति प्रयोगाः; 'स्वपेर्यड्डे च' (4 / 1 / 80) इति सूत्रेण स्वपधातोर्वकारस्य य्वृत् उकारः, ततो द्वित्वं कार्यं सर्वत्र / / निःस्वपितीति निःषुप्तः, दुःस्वपितीति दुःषुप्तः, 'ज्ञानेच्छाईर्थात् जीच्छाल्यादिभ्यः क्तः'. (5 / 2 / 92) / दुःस्वपनं दुःस्वप्नः, सुस्वपनं सुस्वप्नः ‘यजिस्वपिरक्षियतिप्रच्छो नः' (5 / 3 / 85) इति सूत्रेण नप्रत्ययः / विसुष्वाप इत्यत्र द्वित्वे कृतेऽभ्यासे वकारस्य उकार: ‘भूस्वपोरदुतौ' (4 / 1 / 70) इत्यनेन // 57|| प्रादरपसर्गादयस्वरेऽस्तेः // 2 // 3 // 58 // प्रादुःशब्दादुपसर्गस्थाच नाम्यादेः परस्यास्तेः सस्य यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे षः स्यात् / प्रादुःष्यात् निष्यात् अभिष्यात्, प्रादुःषन्ति विषन्ति अभिषन्ति / प्रादुरुपसर्गादिति किम् ? मधूनि सन्ति, यदत्र मां प्रति' स्यात्तद्दीयताम् / यस्वर इति किम् ? प्रादुःस्तः अनुस्तः ['नास्त्योर्लुक्' (4 / 2 / 90)] // 58 // - अ० नाम्यन्तस्थाकवर्गेति ज्ञेयम् / प्रादुर्, प्रथमासिः, 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुक् / 'असिक् भुवि' अस्, सप्तमीयात् / / प्रादुःषन्तीत्यादौ तु वर्तमानान्ति 'नास्त्योर्लुक्' इति अस्तेः अकारलुक् सर्वत्र कार्यः / प्रादुःशब्दस्य कुम्वस्तिष्वेव प्रयोगात् प्रत्युदाहरणं न भवति // 58 / / न स्सः // 2 // 3 // 59 // कृतद्वित्वस्य सकारसम्बन्धिनः सस्य षो न स्यात् / सुपिस्स्यते / सुतुस्स्यते // 19 // 1. अत्र 'प्रति' धातुसम्बन्धत्वाभावात् उपसर्गसङ्घको न भवति / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ___अ० 'पिसृपेसृवेसृ गतौ' पिस्, ‘तुसहसहसरसशब्दे' इति तुस् वर्तमाना ते। 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'अदी द्विरामैकव्यञ्जने' (1 / 3 / 32) इति धातुसकारस्य द्वित्वम् / सकारादिः स्, स्स्; तस्य स्सः / ननु दधि भक्षितुमिच्छति दधिस्यति, मधु भक्षितुमिच्छति मधुस्यति ‘अमाव्ययात् क्यन् च' (3 / 4 / 23) इति क्यन् ‘अस् च लौल्ये' (4 / 3 / 115) इति सूत्रेण दधि क्यन् अन्तरे सोऽन्तः / परं एकःसकारः कार्यः / तथा समविस्करन् ‘सम्परेः कृगः स्सट्' (4 / 4 / 91) इत्यनेन स्सट्, परं एकः सकारः कार्यः / अग्निसात्करोतीत्यत्र 'व्याप्तौ स्सात्' (7 / 2 / 130) इति सूत्रेण स्सात्प्रत्ययः परं एकः सकारः कार्यः / दधिस्यति समविस्करत् अग्निसात्करोतीत्यत्र प्रतिषेधाभावात् नाम्यन्तस्थेति षत्वं कथं न भवति ? उच्यते-स्स स्सट् स्सात्' इत्येषां द्विःसकारपाठः ‘अस् च लौल्ये' 'सम्परेः कृगः स्सट्' 'व्याप्तौ स्सात्' सूत्रेषु षत्वप्रतिषेधार्थं वक्ष्यते इति अत्र षत्वं न भवतीत्यर्थः / / 59 / / . सिचो यङि // 2 // 3 // 60 // सिञ्चतेः सस्य यङि प्रत्यये परे षो न स्यात् सेसिच्यते अभिसेसिच्यते / परत्वादुपसर्गलक्षणमपि ['स्थासेनिसेधसिचसआं द्वित्वेऽपि' (2 / 3 / 40) इति प्राप्तं) इति प्राप्तं] षत्वं बाधते, एवमुत्तरत्रापि // 6 // गतौ सेधः // 2 // 3 // 6 // गत्यर्थस्य सेधतेः [षिधू गत्याम्] सस्य षो न स्यात् / अभिसेधति अनुसेधति गाः / अभिगच्छति अनुगच्छतीत्यर्थः / अभिसेधयति अनुसेधयति-गमयतीत्यर्थः / गताविति किम् ? प्रतिषेधति निषेधति पापात्-निवारयतीत्यर्थः // 61 // अ० गतौ सेधः' -अत्र सूत्रे अभिसिसेधिषते अनुसिसेधिषते-अभिजिगमिषतीत्यर्थः / अत्रापि 'स्थासेनिसेधसिचेति उपसर्गसम्बन्धि प्राप्तं षत्वं न भवतीत्यर्थः // 61 // . सुगः स्यसनि // 2 // 3 // 62 // सुनोतेः ['पुंग्ट् अभिषवे'] सस्य स्ये सनि च प्रत्यये परे षो न स्यात् / अभिसोष्यति परिसोष्यति / अभ्यसोष्यत् / सनि-सूसूषतेः किप् सुसूः / स्यसनीति किम् ? सुषाव, अभिषुणोति // 62 // अ० 'धुंग्ट् अभिषवे' 'षः सोऽष्टयैः' (2 / 3 / 98) सु / सिनोतुमिच्छति 'तुमर्हादिच्छायां सन्नतत्सनः' (3 / 4 / 21) सन् / द्वित्वादिकं पूर्ववत् / / सुसूषतीति ‘क्किप्' (5 / 1 / 148) 'अतः' (4 / 3 / 82) इति सूत्रेण सनोऽकारलोपः / प्रथमासिः, सुसूः इत्युदाहरणं सिद्धम् / सुसूषतीत्युदाहरणं न दर्शितम्, णिस्तोरेव षणि षत्वं नान्यस्य इति नियमात् // 62 // ___ इति सकारस्य षकाराधिकारः समाप्तः / / रघुवर्णान्नो ण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे // 2 // 363 // [न अन्त्यः अनन्त्यः, तस्य] रेफषकारऋवर्णेभ्यः परस्यानन्त्यस नकारस्य रघुवर्णैः सहैकपदे वर्तमानस्य णकारो भवति, यदि निमित्त निमित्तिनोरन्तरे [विचाले] लकारचवर्गटवर्गतवर्गशकारसकारा न स्युः, शेषवर्णान्तरेऽपि सति णत्वं स्यात् / चतुर्णाम् पुष्णाति, नृणाम् नृणाम् [नुर्वा (1 / 4 / 48) इति नि विकल्पदीर्घः) / शेषवर्णव्यवधानेऽपि-करणमि Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः त्यादि बृंहणम् अर्केणेत्यादि / एकपद इति किम् ? अग्निर्नयति / पदे इत्येतावतैकपदे लब्धे एकग्रहणं नियमार्थम्-एकमेव यनित्यं तत्र यथा स्यात्, यदेकं चानेकं च तत्र मा भूत्-चर्मनासिकः, मेषनासिकः / अनन्त्यस्येति किम् ? वृक्षान् / लादिवर्जनं किम् ? विरलेन इत्यादि // 63 // ___ अ० चश्च टश्च तश्च चटताः, चटतां वर्गः चटतवर्गः, लश्च चटतवर्गश्च शश्च सश्च लचटतवर्गशसाः / अन्तरं व्यवधानं यस्य एकपदस्य तत् / न लचटतवर्गशसान्तरं अलचट० तस्मिन् / / 'रघुवर्णान्नोण.' इत्यधिकारसूत्रं णकारविधिसूत्राणि यावत् ज्ञातव्यम् / णकारविधिसूत्राणि 27, तथा णकारनिषेधसूत्राणि 7; एवं णकारसूत्र 34 / करणम् वृक्षाणाम् करीणाम् ऋषीणाम् गुरुणा गुरूणाम् करेण इति स्वर-अन्तरे सति णत्वम् / बृंहणम् अर्केण मूर्खेण स्वर्गेण अर्पण दर्पण रेफेण दर्भेण अर्येण सर्वेण अhण; एषु उदाहरणेषु कवर्गपवर्गयकारवकारहकारैर्व्यवधाने सति णत्वं दर्शितम् // चर्ममयी नासिका यस्य, मेषवन्नासिका यस्य; अत्र उत्तरसूत्रेणापि न णत्वम्; नामसंज्ञाया अभावात् / विरलेन; आदिशब्दात् अर्चनम् मूर्च्छनम् अर्जनम् ऊर्जनम् किरीटेन कर्मठेन मृडेन दृढेन कर्णेन कीर्तनम् तीर्थेन नर्देन क्रोधेन रसना. रशना; एतेषु यथाक्रमं लचवर्गटवर्गतवर्गशसा इत्यन्तरे सन्तीति न णत्वम् // 63 / / पूर्वपदस्थानाम्न्यगः // 2 // 3 // 64 // पूर्वपदस्थाद्रवर्णादगकारान्तात् एव वर्णात् परस्य सामर्थ्यादुत्तरपदस्थस्य नकारस्य णकारः स्यात्, नाम्नि संज्ञाविषये / गुणसः खरणाः खुरणाः शूर्पणखा चन्द्रणखा वार्षीणसः हरिवाहणः पुष्पणन्दी श्रीणन्दी स्त्री। अग इति किम् ? ऋगयनम् / एकस्मिन्नेव पदे इति पूर्वसूत्रेण णत्वविज्ञानात् [णत्वविधानात् ] उत्तरपदस्थनकारस्य समासे णत्वं न प्राप्नोतीत्ति इदं सूत्रं कृतम् / मातृभोगीणः / गर्गभगिणीत्यादौ तूत्तरपदसम्बन्धी नकारो न भवति [प्रत्ययः प्रकृत्यादेरिति न्यायात् ] इत्येकपदत्वात् एकपदसम्बन्धित्वात् पूर्वसूत्रेणैकत्र णत्वम् / यदा तु गर्गाणां भगिनीति विग्रहः [समासः] तदैकपदत्वाभावाद्र्गभगिनीत्येव / देवदारुवनम् कुबेरवनम् मनोहरवनमित्यादौ संज्ञायां कथं न णत्वम् ? उच्यते-'कोटरमिश्रक०' (3 / 2 / 76) इति सूत्रेण निपातनस्य नियमार्थत्वेन व्याख्यास्यमानत्वात् संज्ञायां कोटरादिभ्यः एव वनस्य णत्वं नान्येभ्य इति // 6 // --- अ० खरा खरस्येव नासिकाऽस्य खरणाः, खुर इव नासिकाऽस्य खुरणाः ‘खरखुरान्नासिकाया नस्' (7 / 3 / 160) इति सूत्रेण नासिकाया नस् इति समासान्तः, प्रथमासिः, 'अभ्वादेरत्वसः सौ' (1 / 4 / 90) इति दीर्घः / सूर्पाकारा नखा यस्याः सा शूर्पणखा, चन्द्राकारा नखा अस्याः सा चन्द्रणखाः; राक्षसी / 'टुनदु स्मृद्धौ' 'उदितः स्वरानोऽन्तः' (44 / 98) नन्द; पुष्प श्रीपूर्वम् / पुष्पाणि नन्दयति पुष्पणन्दी, श्रियं नन्दयति श्रीणन्दी 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) 'अणजेयेकण्०' (2 / 4 / 20) इति सूत्रेण ङीः 'अस्य ङ्यां लुक्' (2 / 4 / 86) इत्यकारलोपः, पुष्पणन्दी श्रीणन्दी इति आचार्यनाम / दुरिव द्रुम इव नासिकाऽस्य द्रुणसः ‘अस्थूलाच्च नसः' (7 / 3 / 161) इति सूत्रेण नासिकाशब्दस्य नस इत्यादेशः / गर्गाणां भगो गर्गभगोऽस्या अस्तीति गर्गभगिणी 'अतोऽनेकस्वरात्' (7 / 2 / 6) इन् ‘स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः' (2 / 4 / 1) इति ङीः यथा गर्गभगिणीत्यत्रोत्तरपदसम्बन्धिनकाराभावात् पूर्वपदस्थानाम्न्यगेत्यनेन णत्वं न भवति, तथा गर्गभगिनीत्यत्र 'वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुवपक्काह्नः' (2 / 3 / 75) इति सूत्रेण विकल्पेन णत्वं न स्यात् / मातृभोगाय हितो मातृभोगीणः ‘भोगोत्तरपदात्मभ्यामीनः' (7 / 1 / 40) इति ईनः 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) / वनशब्दस्य पूर्वपदस्थेत्यनेन णत्वमाकाराप्राप्तावेव स्यात्, आकारप्राप्तिस्तु कोटरमिश्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते कसिध्रकपुराग]सारिकाणामेव, नान्येषाम् देवदारुवनम् कुबेरवनादिशब्दानामिति देवदारुवनादीनां न णत्वम् // 64 // नसस्य // 2 // 3 // 65 // पूर्वपदस्थाद्रपुवर्णात्परस्य नससम्बन्धिनकारस्य णः स्यात् / प्रणसः / निर्णसः। प्रणसं मुखम् // 65 // अ० प्रगता प्रवृद्धा वा नासिका यस्य पुरुषस्य स पुरुषः प्रणसः / निर्गता नासिकाऽस्य स निर्णसः / प्र प्रकृष्टा नासिकाऽस्य मुखस्य तत्, प्रणसं मुखम् एवं निर्णसं मुखम् / सर्वत्र ‘उपसर्गात्' (7 / 3 / 162) इति तद्धितसूत्रेण नासिकाशब्दस्य नस इत्यादेशः // 65 // निष्प्राग्रेऽन्तःखदिरकार्याम्रशरेक्षुप्लक्षपीयुक्षाभ्यो वनस्य // 2 // 3 // 66 // __ [पीयुक्षाशब्दोऽव्युत्पन्न आबन्तः] निरादिभ्यः परस्य वनशब्दनकारस्य णः स्यात् / निर्वणम्, प्रवणम्, अग्रेवणम्, अन्तर्वणम् / खदिरवणम्, कार्यवणम् आम्रवणम् / शरवणम्, इक्षुवणम्, प्लक्षवणम्, पीयुक्षावणम् // 66 // अ० निष्प्राग्रेऽन्तः सूत्रे यद्बहुवचनम्, तद्व्याप्त्यर्थम्, तेन संज्ञायामसंज्ञायां वा गम्यमानायां णत्वं भवति; अन्यथा हि कोटरमिश्रकसिध्रकेत्यादि वक्ष्यमाणनियमबलेन संज्ञायां णत्वं न स्यादित्यर्थः / निर्गतं वनं यस्मात् तत् निर्वणम् / प्रकृष्टं प्रगतं वा वनं यत् तत् प्रवणम् // अग्रं वनस्य अग्रे वणम्-अत्र ‘पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठया वा' (3 / 1 / 30) इति सूत्रेण अग्रशब्दस्य एकारः, अग्रेवणमिति सिद्धम् / / अन्तर्वणस्य अन्तर्वणम् // 66 // . द्वित्रिस्वरौषधिवृक्षेभ्यो नवाऽनिरिकादिभ्यः // 2 // 3 // 67 // द्विस्वर-त्रिस्वर-औषधिवाचि-वृक्षवाचिशब्देभ्यः परस्य वनशब्दनकारस्य इरिकादिवर्जितेभ्यो णो वा स्यात् / ओषधि. दूर्वावणम् दूर्वावनम्; मूर्वावणमित्यादि। त्रिस्वर. नीवारणमित्यादि // द्विस्वरवृक्ष. शिगवणम् शिगुवनम्, दारुवणम् दारुवनम्; त्रिस्वर. करीरवणम् करीरवनम्, बदरीवणम् बदरीवनमित्यादि / ओषध्यः फलपाकान्ता लता गुल्माश्च वीरुधः / फली वनस्पतियो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः // 1 // इति यद्यपि भेदस्तथाप्यतिबहुत्वार्थबहुवचनबलाढक्षशब्देन सर्ववनस्पतीनां ग्रहणं भवति, अत एव न यथासङ्ग्यमपि, संज्ञायामसंज्ञायां च णत्वं स्यात् / ओषधिवृक्षेभ्य इति किम् ? विदारीवनम्, पितृवनम् शिरीषवनम् / अनिरिकादिभ्य इति किम् ? इरिकावनम् / इरिका तिरिका तिमिर चीरिका कर्मार खीर हरि; इरिकादिराकृतिगणः / इरिकादिविशेषवर्जनाद्विशेषाणामेव वृक्षाणामयं विधिः, तेनेह न भवति णत्वम्-द्रुमवनम् वृक्षवनम् / एतेन विशेषवृक्षाणामेव णत्वं न सामान्यवृक्षाणाम्; वृक्षगुमशिखरि-इत्यादिनामपरस्य वनस्य न णत्वम् // 67 // ___ अ० द्वौ च त्रयश्च द्वित्रयः, द्वित्रयः स्वरा येषां ते द्वित्रिस्वराः / ओषधयश्च वृक्षाश्च ओषधिवृक्षाः / द्वित्रिस्वराश्च ते ओषधिवृक्षाश्च / तेभ्यः / इरिका आदिपेषां ते न विद्यन्ते इरिकादिशब्दा येषु ओषधिवृक्षेषु ते / तेभ्यः ‘अन् स्वरे' (3 / 2 / 129) // द्विस्वरऔषधिवाचिशब्दप्रयोगा इमे-दूर्वावणम् मूर्वावणम् व्रीहिवणम् शालिवणम् माषवणम् / त्रिस्वर ओषधिशब्दाः-नीवारवणम् कोद्रववणम् प्रियङ्गुवणमित्यादि / पक्षे दूर्वावनं मूर्वावनमित्यादि / / द्विस्वरवृक्षशब्दप्रयोगा इमे-दारुवणम् शिवणम् / त्रिस्वरवृक्षशब्द. करीरवणम् बदरीवणम् शिरीषवणमिति / / पक्षे दारुवनमित्यादि / फलपाकेन अन्तो विनाशो येषाम् ये फलपरिपाकेन विनश्यन्ति ते ओषधय इति नाम्ना वनस्पतय उच्यन्तेयथा व्रीहियुगन्धरीगोधूममुद्गमाषादि अन्नौषधयः / तथा लताः केतक्याद्याः, गुल्मा वंशेक्षुदर्भतृणाद्याः; एता वीरुध Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 167 इति नाम्ना उच्यन्ते / ये च पुष्पैर्विनाऽपि फलवन्तो भवन्ति ते फली इति वनस्पतय उच्यन्ते यथा पञ्चुम्बरी / शेषाश्च ये पुष्यन्ति फलन्ति; पुनः पुनः स्वऋतौ पुष्पफलान्याश्रयन्ति ते वृक्षा इत्युच्यन्ते // विदारी लताविशेषः कन्दविशेषः / शिरीषाणामदूरभवो ग्रामोऽपि शिरीषास्तेषां वनं शिरीषवनम् / / इरिकावनम्, तिरिकावनम्, तिमिरवनम्, चीरिकावनम्, करिवनम्, खीरवनम्, हरिवनमिति प्रयोगा ज्ञातव्याः // 67|| गिरिनद्यादीनाम् // 2 // 3 // 68 // - गिरिनद्यादिशब्दनकारस्य वा णः स्यात् / [गिरेर्नदी] गिरिणदी गिरिनदी। वक्रणदी वक्रनदी। [गिरेनितम्बः] . गिरिणितम्बः गिरिनितम्बः / वक्रनितम्बेत्यादि // 68 // ___ अ० गिरिनदी गिरिनख गिरिनद्ध गिरिनितम्ब वक्रनदी वक्रनितम्बा माषोन तूर्यमान आगर्यन; बहुवचनाद्यथादर्शनमन्येऽपि ज्ञेयाः // 68 // पानस्य भावकरणे // 2 // 3 // 69 // पूर्वपदस्थरघुवर्णेभ्यः परस्य भावे करणे च पानशब्दस्य नस्य [नकारस्य] णो वा स्यात् / क्षीरपाणम् क्षीरपानं वर्त्तते इत्यादि / करणे-क्षीरपाणम् क्षीरपानं भाजनमित्यादि [आदिशब्दात् कषायपाणः कंसः-पीयतेऽस्मिन्निति पानः] / भावकरण इति किम् ? क्षीरपानो घोषः [क्षीरस्य पानो यत्र स क्षीरपानः] // 69 // ___ अ० 'पां पाने' पीयते क्षीरस्य पीतिः क्षीरपाणम् / 'अनट्' (5 / 3 / 124) भावे / अथ करणे क्षीरं पीयतेऽनेन क्षीरपाणम् ‘करणाधारे' (5 / 3 / 129) इति अनट् करणे / / आदिशब्दात् कषायपाणम् कषायपानम् वर्त्तते / सौवीरपाणम् सौवीरपानम् इति भावे // 69 / / देशे // 2 // 3 // 7 // पूर्वपदस्थरपृवर्णात्परस्य पाननस्य [पानशब्दनकारस्य] णो नित्यं स्यात्, देशे-समुदायेन चेद्देशो गम्यते / योगविभागानवेति निवृत्तम् / क्षीरपाणा उशीनराः॥ सुरापाणाः प्राच्याः। सौवीरपाणा वाहीकाः [सुरा पानमेषां सौवीरं पानमेषाम्] // तात्स्थ्यान्मनुष्याभिधानेऽपि देशो गम्यते // 7 // अ० पीयते इति पानम्, क्षीरं पानमेषां ते क्षीरपाणा उशीनराः / देश इति किम् ? क्षीरपाना गोपालकाः, क्षीरं पानमेषां ते क्षीरपानाः // 70 // ग्रामाग्रानियः // 2 // 3 // 71 // ग्रामाग्राम्यां परस्य नियो नस्य [नकारस्य] णः स्यात् / ग्रामणीः / अग्रणीः // 71 // वाह्याद्वाहनस्य // 2 // 3 // 72 // वाह्यवाचिनः पूर्वपदस्थरपृवर्णात्परस्य वाहनस्य सम्बन्धिनस्य [नकारस्य] णः स्यात् / इक्षुवाहणम् शरवाहणम् / वाह्यादिति किम् ? सुरवाहनम् / नरवाहनः // 72 // अ० वोढव्यम् वाह्यम्, तस्मात् / 'वहीं प्रापणे' उह्यतेऽनेनेति वहनम् ‘करणाधारे' (5 / 3 / 129) अनट्, वहनमेव वाहनम् प्रज्ञादिभ्योऽण्' (7 / 2 / 165) इति अण् / अतो वा निपातनात् उपान्त्यदीर्घत्वम् / सुराणां वाहनं सुरवाहनम्-अत्र सम्बन्धमात्रमेव विवक्षितम् / नरो वाहनं यस्य धनदस्य स नरवाहनो धनदः // 72 / / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते - अतोऽहस्य // 2 // 3 // 73 // पूर्वपदस्थवर्णादकारान्तात्परस्याहशब्दसम्बन्धिनकारस्य णः स्यात् / पूर्वाह्नः / अपराह्नः // अह्न इत्यकारान्तनिर्देशादिह न भवति-दीर्घाह्री शरत् // 73 // ___ अ० पूर्वमह्नः पूर्वाह्नम् / अपरमह्नों अपराह्नम् ‘सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इति सूत्रेण अट्समासान्तः, अहन्शब्दस्य च अह्न इति आदेशः 'अतोऽहस्य' इति अह्रनकारस्य णत्वं कार्यम् / अत इति किम् ? निरहः, दुरह्नः, अत्रापि निःक्रान्तोऽहः, दुष्टत्वमह्नः 'सर्वांशः' इति अट्, अह्रादेशश्च / / दीर्घ. अहन् दीर्घाणि अहानि यस्यां शरदि सा दीर्घाही 'अनो वा' (2 / 4 / 11) इति सूत्रेण डीप्रत्ययः / ‘ईडौ वा' (2 / 1 / 109) इत्यनेन अनोऽकारस्य लोपः // 73 // चतुस्नेहयनस्य बयसि // 2 // 3 / 74 // चतुर्बिभ्यां पूर्वपदाभ्यां परस्य हायननकारस्य वयसि गम्यमाने णः स्यात् / [चत्वारो हायना यस्य] चतुर्दायणो वत्सः / त्रिहायणी वडवा [तुरङ्गी] / वयसीति किम् ? चतुर्हायना त्रिहायना शाला // 7 // अ० वयसीति किम् ? कालकृता प्राणिनां शरीरावस्था वय इत्युच्यते / चत्वारो हायना यस्याः, एवं त्रयोहा०अत्र शालाया निष्पत्तियिनैत्रिभिः, चतुर्भिः / अथवा अस्याः शालायाश्चत्वारो हायना जाता इति वयो नास्ति / वयोऽभावात् 'सङ्ख्यादेर्हायनाद्वयसि' (2 / 4 / 9) इति ङीप्रत्ययोऽपि नाभूत् // 74 / / वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुवपक्काह्नः // 2 // 3 // 75 // पूर्वपदस्थरपृवर्णात्परस्य उतरपदान्तभूतस्य नागमस्य स्यादेश्च नकारस्य णो वा स्यात्, स नकारो यदि युवन्-पक-अहन् सम्बन्धी न स्यात् / उत्तरपदान्त. व्रीहिवापिणी व्रीहिवापिनी इत्यादि / नागम. व्रीहिवापाणि' व्रीहिवापानि कुलानि [स्वराच्छौ (1 / 4 / 65) इति नोऽन्तः] इत्यादि / पुरुषवारिणी इत्यत्र तु परमपि विकल्पं बाधित्वाऽन्तरङ्गत्वादेकपदाश्रितं 'रफुवर्णे'ति सूत्रेण नित्यमेव णत्वम् / स्यादि. ब्रीहिवापेण व्रीहिवापेन इत्यादि / ब्रीहिवापानित्यत्र त्वनन्त्यस्येत्यधिकारान णत्वम् / अयुवपक्काह्न इति किम् ? आर्ययूना / प्रपक्कानि, परिपका. नाम् / दीर्घाह्री / दीर्घाहा [तृतीयाटा] निदाघेन / त्यह्नि / चतुरहनि // 5 // ____ अ० उत्तरं च तत् पदं च उत्तरपदम्, उत्तरपदस्य अन्तः उत्तरपदान्तः / उत्तरपदान्ते नञ्च स्यादिश्च उत्तरपदान्तनस्यादिः / उत्तरपदान्तविषयोदाहरणानि व्रीहिवापिणौ व्रीहिवापिनौ, आंदिशब्दात् माषवापिणौ माषवापिनौ, व्रीहिवापिणः, माषवापिणः / व्रीहिवापिणी व्रीहिवापिनी कुले, व्रीहिवापीणि व्रीहिवापीनि कुलानि / व्रीहिवापिणा व्रीहिवापिना // अथ नागमोदाहरणानि-व्रीहिवापाणि व्रीहिवापानि कुलानि / एवं माषवापाणि / 'इबु व्याप्तौ च' इन्, ‘उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) इन्व् / प्रपूर्वम् / प्रेन्व्यते प्रेण्वनम् प्रेन्वनम् ‘अनट्' (5 / 3 / 124) ततो नागमस्य वोत्तरपदेति णत्वम् / प्रेण्वनम् इति सिद्धम् / एवं 'हिवु प्रीणने' 'पिवु सेचने' हि पिव्, 'उदितः स्वरान्नोन्तः' हिन्व् पिन् / हिन्वतीति पिन्वतीति ‘शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ' (5 / 2 / 20) इति शतृप्रत्ययः, वोत्तरपदेति नागमस्य णत्वम्, प्रथमासिः, प्रहिण्वन् प्रहिन्वन्, प्रपिण्वन् प्रपिन्वन् इति विशेषप्रयोगाः // युवा च पक्वश्च अहश्च० / न युवपक्काहोऽयुवपक्काहः, तस्य० / व्रीहीन् पुनःपुनर्वपन्तीति व्रीहिवापी 'व्रताभीक्ष्ण्ये' (5 / 1 / 157) इति सूत्रेण णिन्, तौ व्रीहिवापिणौ, माषवापिणावत्राप्येवं कार्यम् वोत्तरपदेति सूत्रेण क्रियमाणं णत्वं परम्, अत उक्तम्-परमपि 1. व्रीहीन्वपति 'कर्मणोऽण्' / 5 / 172 / इति अनेन अण् / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 169 विकल्पमिति / पुरुषश्च वारि च पुरुषवारिणी 'औरीः' (1 / 4 / 56) 'अनामस्वरे नोऽन्तः' (1 / 4 / 64) / आदिशब्दात् माषवापेण भाषवापेन, व्रीहिवापाणाम् व्रीहिवापानाम्, माषवापाणाम्, माषवापानाम् // आर्यश्चासौ युवा च आर्ययुवा / तृतीयाटा 'श्वन्-युवन्-मघोनो ङी स्याद्यघुट्स्वरे व उः' (2 / 1 / 106) इत्यनेन वकारस्य उत्वम् आर्ययू / / प्रपक्वेत्यत्र 'झैशुषिपचो मकवम्' (4 / 2 / 78) इत्यनेन क्तस्य वकारः / / वोत्तरपदेति सूत्रे अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव-गर्दभवाहिनः इति व्यावृत्त्युदाहरणं ज्ञातव्यम् / / गर्गाणां भगः / गर्गभगोऽस्यास्तीति इन् / ङी / अत्रोत्तरपदस्यान्ते नकारो नहि-एकपदत्वात्, इति नित्यमेव रघुवर्णेत्यनेन णत्वम्, यदि च गर्गाणां भगिनीति समासः, तदापि न णत्वम्, अन्ते नकाराभावात्, अन्ते च ङीः, नतु नकारः / उत्तरपदेति किम् ? अन्तादिग्रहणं किम् ? इति व्यावृत्तावयं विशेषः-त्रि अहन्, चतुर् अहन् त्रिषु अहस्सु भवः त्र्यह्नि, चतुर्षु अहस्सु भवः चतुरहनि 'सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) अट् अह्लादेशश्च ‘भवे' (6 / 3 / 123) अण् ‘द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः' (6 / 1 / 24) अणो लुक्, सप्तमीङि, 'सङ्ख्यासाय०' (1 / 4 / 50) इति अहन् 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) // 75 / / कवगैकस्वरवति // 2 // 3 // 76 // पूर्वपदस्थरघुवर्णात्परस्य कवर्गवति एकस्वरवति चार्थादुत्तरपदे सति उत्तरपदान्तस्य नागमस्य स्यादेश्व नकारस्यणः स्यात्, पकसम्बन्धी नकारो यदि न स्यात् / स्वर्गकामिणी, स्वर्गगामिणी, वृषगामिणौ / स्वर्गगामिणी। स्वर्गकामाणिं 'कुलानि [जस् शस् वा 'स्वराच्छौ' (1 / 4 / 65) नोऽन्तः)। उरःकेण, गुरुमुखेण / एकस्वरब्रह्महणी, क्षीरपाणि, क्षीरपेण, यूषपेण उरःपेण / अपकस्येत्येव-क्षीरपकानि, यूषपकेन, क्षीरपकानाम् / अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव-द्रव्यत्यागेन; माषत्यागिनः // 76 // अ० कवर्गश्च एकस्वरश्च कवर्गकस्वरौ / कवर्गकस्वरौ विद्यतेऽस्य उत्तरपदस्य / 'तदस्य०' (7 / 2 / 1) इति मत् / 'मावर्णान्त०' (2 / 1 / 94) इति मस्य व / तस्मिन् / अथवा उत्तरपदे आदौ अन्ते वा एकस्वरः, कोऽर्थः ? एकस्वरसंयुक्तं व्यञ्जनं भवति ईदृशे उत्तरपदान्ते नकारस्य णत्वं इत्यर्थः / तथा स्वर्गकामिणौ इत्याद्यारभ्य गुरुमुखेन इत्यन्तं यावत् कवर्गसंयुक्तोत्तरपदान्तनकार उदाहरणानि ज्ञातव्यानि / स्वर्ग कामयते इत्येवंशीलो 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) णिन् वृषे गच्छन् इत्येवंशीलो स्वर्गं गच्छतीत्येवंशीला 'अजातेः शीले णिन्' / मोक्षकामाणि' इत्यपि ज्ञेयम् / / उरस्. के - रै शब्दे' के, ‘आत् सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) का / उरः कायतीति उरः कः ‘आतोडोऽहावामः' (5 / 1176) इति डः / जस् शस् वा / / गुरुमुखेण इत्यस्याग्रे ऋषिमुखेण क्षीरमेघाणामित्यपि ज्ञातव्यानि / / ब्रह्म हतवन्तौ ब्रह्महणौ 'ब्रह्मभ्रूणवृत्रात् किप्' (5 / 1 / 161) औ / क्षीरं पिबन्ति यानि तानि क्षीरपाणि 'आतो डोऽह्वावामः' इति डः / जस् शस् वा / क्षीरं पिबतीति यूषं पिबतीति डः उरस्. "पै ओ शोषणे' 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' पा, उः पायतीति ‘आतो डो ह्वा०' डः, तेन // क्षीरे पच्यन्ते स्म क्षीरपक्कानि / पच्यन्ते स्म पक्कानि 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / एवं यूषपक्केनेति / / 'त्यजं वयोहानौ' त्यज्, त्यजनं त्यागः ‘भावाकोंः ' (5 / 3 / 18) घञ् 'क्तेऽनिटश्चजोः कगौ घिति' (4 / 1 / 111) जस्य गः 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः, त्यागः द्रव्यस्य त्यागः तेन / पाषाणां त्यागो विद्यते येषां ते माषत्यागिनः // 76 / / __ अदुरुपसर्गान्तरो णहिनुमीनानेः // 2 // 3 // 77 // दुर्व|पसर्गस्थादन्तःशब्दाच रघुवर्णात्परस्य णकार-हिनु-मीना-आनिसम्बन्धिनकार स्य णः स्यात् / 1, 2 स्वर्ग/मोक्षं कामयन्ते ‘शीलिकामिभक्ष्या०' / 5 / 1 / 73 // इति अनेन णः / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते णेति णोपदेशा धातवो गृह्यन्ते // उपसर्गाण्णत्वविधानात्-प्रणमति / परिणमति। (णीग् प्रापणे) प्रणयति // अन्तर्-अन्तर्णयति // [हिंट् गतिवृद्धयोः] हिनु-प्रहिणोति // [मींग्श् हिंसायाम्] मीनोः-प्रमीणाति // आनिप्रयाणि प्रापयाणि // अदुरिति किम् ? दुर्नयः // येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्गसंज्ञा भवन्ति इह न स्यात्-प्रगता नायका यस्मात् स प्रनायको देशः / प्रनृत्यतीत्यत्र अणोपदेशत्वान णत्वम् // 77 // अ० नदुः अदुः / अदुश्चासावुपसर्गश्च अदुरुपसर्गः / अदुरुपसर्गश्च अन्तश्च, तस्मात्-अदुरुपसर्गान्तरः // 'यांक प्रापणे' पञ्चमी उत्तमपुरुष एकवचनम् आनिव् ‘प्रपूर्व आप्लँट् व्याप्तौ' प्राप्नुवन्तं प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) पञ्चमी आनि / / सूत्रे आनि इत्यर्थवतो ग्रहणात् अनर्थकस्य आनेन णत्वम् / यथा प्रवपानि / वपनं वपा मेदोविशेषः / प्रवृद्धा वपा येषां तानि प्रवपानि 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति ह्रस्वः / शस् / 'नपुंसकस्य शिः' (1 / 4/55) 'स्वराच्छौ' (1 / 4 / 65) नोऽन्तः / अत्र लाक्षणिक आनि / 'नृतौच नर्तने' इति धातुपठनकाले णकारो न पठ्यत इत्यर्थः // 77|| नशः शः // 2 // 3 // 78 // अदुरुपसर्गान्तःस्थरवर्णात्परस्य नशेः शकारान्तस्य सम्बन्धिनो नस्य णः स्यात् / प्रणश्यति, परिणाशः, अन्तर्णश्यति / श इति किम् ? प्रनष्टः // 7 // अ० नशः श इत्यत्र नशेरणोपदेशत्वात् 'नशौच अदर्शने' इति पाठात्पूर्वेण ‘अदुरुपसर्गान्तरो णही'ति सूत्रेण णकारस्याप्राप्तेः णत्वविधानार्थमिदं सूत्रं कृतम् // 78 // नेमादापतपदनदगदवपीवहीशमूचिग्यातिवातिद्रातिप्सातिस्यतिहन्तिदेग्धौ // 2 // 3 // 79 // अदुरुपसर्गान्तःस्थरघुवर्णात्परस्य नेरुपसर्गस्य माङादिधातुषु परेषु णः स्यात् / [मेङ् प्रतिदाने] प्रणिमिमीते प्रणिमयते प्रणिददाति परिणिददाति / दिङ् त्रैङ् पालने] प्रणिदयते / [दाम् दाने] प्रणियच्छति / [दों छोंच् छेदने] प्रणियति / प्रणिदधाति प्रणिधयति / पत-प्रणिपतति / पद-प्रणिपद्यते / प्रणिनदते / प्रणिगदति / प्रणिवपति / प्रणिवहति / प्रणिशाम्यति / प्रणिचिनोति / परिणियाति / प्रणिवाति / परिणिद्राति / प्रणिप्साति। प्रणिष्यति। प्रणिहन्ति परिणिहन्ति / प्रणिदेग्धि / अन्तर्णिमिमीते॥ अडागमस्य धात्ववयवत्वेन व्यवधानत्वाभावात् प्रण्यमिमीत इत्यादावपि णः स्यात् / वप्यादीनामनुबन्धेन तिवा च निर्देशो यङ्लुपि णत्वनिवृत्त्यर्थः, तेन प्रनिवावपीतीत्यादौ न णत्वम् / पूर्वेषु माङादिषु यङ्लुपि णत्वं स्यादेव-प्रणिमामाति प्रणिमामेतीत्यादि // 79 // ___ अ० प्रणिदधाति-अत्र 'डुधांग्क् धारणे' 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' (4 / 1 / 42) / प्रणिधयतीत्यत्र 'ट्धे पाने' / प्रणिदेग्धि 'दिहींक लेपे' वर्तमानाति 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) गुणः 'भ्वादेर्दादेर्घः' (2 / 1 / 83) हस्य घः 'अधश्चतु०' (2 / 1 / 79) तस्य धः 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) घस्य ग् / / सूत्रे दा इत्युक्ते चत्वारो दारूपा द्वौ धारूपौ एवं 6 धातवो दासंज्ञको ग्राह्याः, तथाहि-'दां दाने' 'देङ् त्रैङ् पालने' इति भू(भ्व ?)वादिको 2 / 'डुदांग्क् दाने' इत्यदादिः 1 / 'दों छोंच् च्छेदने' इति देवादिकः 1 / 'धे पाने' इति भू(भ्व ?)वादिकः 1 / 'डुधांग्क् धारणे' इत्यदादिः एवं धारूपः 2 / एताः षडप्यत्र गृह्यन्ते / सर्वेषामुदाहरणानि 'वृत्तौ-प्रणिददातीत्यादि / / डकारोपलक्षितो मा मा, तेन 'माङ्क मानशब्दयोः' इत्यस्य 'मेङ् प्रतिदाने' इत्यस्य च धातोर्ग्रहणम् / 'मांक माने' माति, 'मींग्श् हिंसायाम्' मीनाति 'डुमिंग्ट् प्रक्षेपणे' मिनोति; एते त्रयोऽत्र Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 171 न गृह्यन्ते // सूत्रे हि मा इति निर्देशो न अनुबन्धार्थः, किन्तु मातिमीनातिमिनोतीनां निवृत्त्यर्थः / यया रीत्या धातुपाठे माङित्यपाठि, तया रीत्या यदि सूत्रेऽपि क्रियेत तदानुबन्धार्थः स्यादित्यर्थः / / प्रणिपतति 'पत्नं पथे गतौ' / प्रतिपद्यते 'पदिंच् गतौ' / प्रणिनदति ‘णदनिविदा अव्यक्ते शब्दे' / प्रणिगदति 'गद व्यक्तायां वाचि' / प्रणिवपति 'टुवपी बीजसन्ताने' / प्रणिवहति 'वहीं प्रापणे' / 'प्रणिशाम्यति' 'शमू दमूच् उपशमे' / प्रणिचिनोति 'चिंग्ट चयने' / प्रणियाति ‘यांक प्रापणे' / प्रणिवाति ‘वांक् गतिबन्धनयोः' / प्रणिद्राति 'द्रांक् कुत्सितगतौ' / प्रणिप्साति ‘अदं प्सांक् भक्षणे' / प्रणिष्यति 'षोंच् अन्तकर्मणि' 'ओतः श्ये' (4 / 2 / 103) / प्रणिहन्ति ‘हनंक् हिंसागत्योः' / प्रतिपूर्व 'माङ् मानशब्दयोः' इति जुहोत्यादिः, मा, वर्तमानाते 'हवः शिति' (4 / 1 / 12) द्वित्वम्, 'पृभृमाहाङामिः' (4 / 1 / 58) इत्यनेन अभ्यासे इकारः ‘एषामीwळेऽदः' (4 / 2 / 97) इति धातु आकारस्य ईकारः // 'श्रौतिकृवु' (4 / 2 / 108) इति यच्छत्यादेशः / वपीवहीशमूचिग्यातिवातिद्रातिप्सातिस्यतिहन्तिदेग्धीनां केषाश्चिद्धातूनां य ईकार-उकार-गकार अनुबन्धः, केषाश्चित् यात्यादिधातूनां तिवा निर्देशश्च कृतः, स एतेषां धातूनामग्रे यङि यङ्लुपि च सति णत्वं प्रतिषेधयतीत्यर्थः इति ज्ञापितम् / 'बहुलं लुप्' यङ्लोपः ‘यतुरुस्तोर्बहुलम्' (4 / 3 / 64) ई। अत्यर्थं मिमीते 'व्यञ्जनादेरेकस्वर०' (3 / 4 / 9) इति यङ्, उभयत्र 'बहुलं लुप्' 'यङ्तुरुस्तोर्बहुलम्' बहुलबलाद्विकल्पेन ईकारः / यंत्र न ई तत्र प्रणिमामाति / यत्र च ई तत्र प्रणिमामेति // 79 / / . अकखाद्यषान्ते पाठे वा // 2 // 3 // 8 // धातुपाठे यो धातुः ककारखकारादिः, यो धातुः षान्तः षकारान्तश्च ताभ्यामन्यधातौ परेऽदुरुपसर्गान्तः स्थरघुवर्णात्परस्य नेरुपसर्गस्य वा णः स्यात् / प्रणिपचति प्रनिपचति / प्रणिभिनत्ति प्रनिभिनत्ति / प्रणिपापच्यते प्रनिपापच्यते / प्रणिपापचीति 2 // प्रण्यपीपचत् 2 / अकखादीति किम् ? प्रनिकरोति प्रनिखनति / पान्ते-[द्विषींक् अप्रीतौ] प्रनिद्वेष्टि / तथा ['विशंत् प्रवेशने'] प्रणिवेष्टा प्रनिवेष्टा / प्रणिदेष्टा इत्यादौ णत्वं वा भवत्येव पाठेऽषान्तत्वात् // 8 // ___ अ० कश्च खश्च कखौ कखावादी यस्य धातोः स कखादिः, न कखादिः अकखादिः / षोऽन्ते यस्य धातोः स षाऽन्तः, न षाऽन्तः अषाऽन्तः / अकखादिश्व अषान्तश्च तस्मिन् / / प्रनिपूर्वं पच् / पचन्तं प्रयुङ्क्ते णिग् / अद्यतनीदि ‘णिश्रुद्रु०' (3 / 4 / 58) इति ङः 'द्विर्धातुः परोक्षा०' (4 / 1 / 1) द्वित्वम् 'असमानलोपे सन्वल्ल०' (4 / 1 / 63) अभ्यासे इ 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' (4 / 1 / 64) दीर्घ ई 'ञ्णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः 'उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो डे' (4 / 2 / 35) इत्यनेन ह्रस्वः, पश्चात् द्वित्वादिकं सर्वं कार्यम् / 'अकखाद्यषान्ते पाठे वा' इत्यस्य तत्र विषयः, यत्र पूर्वसूत्रं 'नेमादापतपदे'ति न प्रवर्तते नेमदित्यस्य विषयो यत्र न भवति इति प्रणिमयते प्रणिदयते इत्यादौ नेकदित्यनेन नित्यणत्वम् / इयमवचूरिः प्रण्यपीपचदित्यस्याग्रे ज्ञेया // 80 // द्वित्वेऽप्यन्तेऽप्यनितेः परेस्तु वा // 2 // 3181 // __ अदुरुपसर्गान्तःस्थरपृवर्णात् परस्य अनितेर्नकारस्य द्वित्वे च अद्वित्वे च अन्ते च अनन्ते च वर्तमानस्य णः स्यात् / परिपूर्वस्य त्वनितेर्वा णत्वम् / द्वित्वे-प्राणिणिषति प्राणिणत् / अद्वित्वे-प्राणिति [रुत्पञ्चकाच्छिदयः (4 / 4 / 88) इति इट्] / अन्ते-हे प्राण [अन श्वसक् प्राणने' प्राणितीति किप्] / परेस्तु द्वित्वे-पर्यणिणिषति पर्यनिनिषति / अद्वित्वे-पर्यणिति पर्यनिति / परेरन्ते-हे पर्यण हे पर्यन्, अनन्त्यस्येत्यधिकारादन्ते णत्वं न Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते प्राप्नोतीति अन्तवचनम् / अनिति-अत्र तिवा निर्देशो देवादिकनिवृत्त्यर्थः [अनिच् प्राणने' इत्यस्य निषेधः, न तु यङ्लुन्निवृत्त्यर्थः // 81 // अ० 'अन श्वसक् प्राणने' इति अदादिधातुनकारस्य / प्राणिणिषति-अत्र पूर्वम् 'अन श्वसक् प्राणने' अन् / प्राणितुमिच्छति 'तुमर्हादि०' (3 / 4 / 21) इति सन् ‘स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट' (4 / 4 / 32) इट् 'लोकात्' (1 / 1 / 3) परगमनम् अनि / तदनन्तरं 'स्वरादेर्द्वितीयः' (4 / 1 / 4) इति सूत्रेण नि इति द्वितीय अवयवस्य द्वित्वं कार्यम्, द्वयोरपि नकारयोर्णत्वम् / / प्राणिणत्-प्राणिति कश्चित्तं प्रयुङ्क्ते इति णिग्, दि / 'णिश्रि०' (3 / 4 / 58) ङः इकारे नकारपरगमनं कृत्वा नि इति द्वित्वम्', ततो निद्वयस्यापि णत्वम् ('उपान्त्यस्यासमानलोपि०' (4 / 2 / 35)?) इति इकारलोपः प्राणिणत् इति सिद्धम् // यो देवादिक अन् धातुः स द्वित्वेऽप्यन्तेऽप्यनितीति सूत्रे न गृह्यते, तस्य यङोऽसम्भवात् व्यञ्जनादेरभावात्, इत्यदादिः अन् गृह्यते-तत्र प्रपूर्वस्य यङो घटनात् यङि यङ्लुपि च कृते णत्वं भवतीत्यर्थः // 81 // हनः // 2 // 3 // 82 // अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रपुवर्णात्परस्य हन्तेर्नस्य णः स्यात् / प्रहण्यते अन्तर्हण्यते प्रहणनम् / प्रध्नन्ति प्राधानीत्यादौ तु हनो घीति प्रतिषेधान णत्वम् ('हनो घि' (2 / 3 / 94) इति वक्ष्यमाणसूत्रबलात्) // 82 // अ० प्रध्नन्ति / हन् प्रपूर्वम्, वर्तमानाअन्ति ‘गमहनजनखनघसः स्वरेऽनङि क्डिति लुक्' (4 / 2 / 44) इत्यनेन हनोऽकारलोपः, ह्र इति रूपम् ‘हनो हो घ्नः' (2 / 1 / 112) इति सूत्रेण ध्न आदेशः // प्राघानि-अत्र प्राइन् अद्यतनीत्, अधात्वादिः 'भावकर्मणोः' (3 / 4 / 68) इति सूत्रेण जिच् ‘अप्रयोगीत्' (1 / 1 / 37) इ / तकारलोपश्च 'त्रिणवि घन्' (4 / 3 / 101) इति सूत्रेण हनो घन् आदेशः ‘णिति' (4 / 3 / 50) वृद्धिः // 82 // वमि वा // 2 // 3183 // अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रपृवर्णात् परस्य हन्तेर्नस्य वकारे मकारे च परे वा णः स्यात् / प्रहण्वः प्रहन्वः / प्रहण्मः प्रहन्मः / प्रहण्मीत्यादि // 83 // ____ अ० आदिशब्दात् प्रहण्मि प्रहन्मि / प्राहण्वहे प्राहन्वहे / प्राहण्महे प्राहन्महे / अन्तर्हण्वः अन्तर्हन्वः / अन्तर्हण्मः अन्तर्हन्मः इति ज्ञेयानि // 83 // _निसनिक्षनिन्दः कृति वा // 2 // 3 // 8 // +अदुरित्यादिपरस्य निसनिक्षनिन्दधातुनकारस्य कृत्प्रत्यये परे णो वा स्यात् / प्रणिंसनम् प्रनिसनम् / प्रणिक्षणम् प्रनिक्षणम् / प्रणिन्दनम् प्रनिन्दनम् / कृतीति किम् ? प्रणिस्ते प्रणिक्षति प्रणिन्दति-अत्र णोपदेशत्वान्नित्यं णत्वम् // 8 // ___अ० +दुर् उपसर्गवर्जितं उपसर्गात् अन्तर्शब्दाच्च ये रकार-षकार-ऋवर्णाः, तेषां परस्य इति सर्वत्र सर्वसूत्रवृत्तौ व्याख्यानं ज्ञेयम् // ‘णिसुकि चुम्बने' 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98) णिंस् / प्रणिंसनम् प्रनिसनम् / . तथा प्रणिक्षणम्-अत्र ‘णिक्ष् चुम्बने' / प्रणिन्दनम्-अत्र 'णिदु कुत्सायाम्' 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' निन्द् ‘अदुरुपसर्गान्तरो णहिनुमीनानेः' (2 / 3 / 77) इति सूत्रेण // 84 / / स्वरात् // 2 // 3 // 85 // 1. स्वरसहितस्यैव दित्वविधानात् / 2. 'णेरनिटि' अनेन णिप्रत्ययगत इकार लोपः / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः 173 अदुरित्यादिपरस्य कृत्प्रत्ययनकारस्य स्वरादुत्तरस्य णः स्यात् / प्रहाणः प्रहाणवान् / एवं प्रहीणः परिहीणः, प्रयाणम् परियाणम्, प्रयायमाणम् / [णिन्] प्रयायिणौ / अप्रयाणिः अपरियाणिः / [अनीय] प्रयाणीयम् / क्तक्तवतू अन [अनट्]-आन [आनश्]-इन् अनि-अनीय इत्येते एव प्रत्ययाः प्रयोजयन्ति / स्वरादिति किम् ? प्रभुनः / अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव-प्रक्लृप्यमानम् परिक्लृप्यमानम् प्रदानम् प्रधानम् // 85 // अ० प्रहाण-इत्यत्र 'ओहां गतौ' हा; प्रहायते स्म प्रजिहीते स्म 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / प्रहीण इत्यत्र च 'ओहांक् त्यागे' हा, प्रहीयते स्म प्रजिहाति स्म 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' (4 / 3 / 97) इत्यनेन ईकारः / प्रयाणाम् परियाणम्-अत्र प्र-परिपूर्वं 'यांक प्रापणे' प्रयायते प्रयाणम् 'अनट्' / प्रयायते प्रयायमाणम् ‘शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ' (5 / 2 / 20) / शव् / 'अतो म आने' (4 / 4 / 114) / प्रवहणीयं परिवहणीयम् इत्यपि ज्ञेयम् / नञ्प्रपूर्वो याधातुः, न प्रयाणम्, अथवा न प्रयायतेऽनेन 'नञोऽनिः शापे' (5 / 3 / 117) इत्यत्र अनिप्रत्ययः / प्रभुनः प्रभुग्नवान्-भुज् 'क्तक्तवतू' 'सूयत्याद्योदितः'. (4 / 2 / 70) इति तस्य नकारः / प्रक्लृप्यमानम्- 'कृपौङ् सामर्थ्य' प्रकृप्यते आनश् / शव् / अतो म आने' 'ऋरल्लं कृपोऽकृपीटादिषु' (2 / 3 / 99) इति सूत्रेण ऋकारस्य लुकारादेशः, 'वर्णैकदेशस्य वर्णग्रहणेन ग्रहणात्, समुदायव्यापारे च अवयवस्यापि स्वव्यापारनुच्छेदेन व्यापारात्, लुकारे उच्चार्यमाणे तदवयवस्य लकारस्याप्युच्चारणमिति अलचटेति व्यावृत्तिः प्रवर्त्तत एव / / 85 / / .. नाम्यादेरेव ने // 2 // 3 // 86 // ____ अदुरित्यादिपरस्य नागमे सति नाम्यादेरेव धातोः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृनकारस्य [कृत्प्रत्ययनकारस्य णः स्यात् / प्रेङ्गणम् प्रेङ्गणम् / नाम्यादेरेवेति किम् ? प्रकम्पनम् / एवकार इष्टावधारणार्थः / न एव सति नाम्यादेरिति हि नियमे इह न णत्वम्-प्रेहणम् प्रोहणम् / पूर्वेण सिद्धे नियमार्थ वचनम् / न ग्रहणं नागमोपलक्षणार्थम्-नकारव्यवधाने हि णस्य प्राप्तिरेव नास्ति // 86 // ___ अ० प्रेङ्खणमित्यादिषु उखनखेत्यादि दण्डकधातुः इख् इग् प्रपूर्वम् / प्रेङ्ख्यते अनट् / कापि आनः णिन् अनि अनीय यथासम्भवं प्रत्ययाः / नाम्यादेरेव ने इति सूत्रेण सर्वत्र प्रत्ययनकारस्य णत्वम् 'वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुव०' (2 / 3 / 75) इत्यनेन विकल्पेन णत्वं न स्यात्, ‘म्नां धुड्वर्गऽन्त्योऽपदान्ते' (1 / 3 / 39) इत्यत्र म्नां बहुवचनेन बाधित्वात् म्नां धुटेत्यत्र सूत्रे म्नामिति बहुवचनं वर्णान्तरणत्वबाधनार्थमित्युक्तमिति नोऽन्त्यस्य सर्वत्रान्त्यो वर्णोऽकारः कार्यः / नकारस्य णत्वं न कार्यमिति भावः / प्रेहणम् प्रोहणम्-'ईहि चेष्टायाम्' 'ऊहि वितर्के' प्रेह्यते प्रेहणं प्रोह्यते प्रोहणम् अनट् / अत्र ‘रवर्णे'त्यनेन णत्वम् / 'नाम्यादेरेव ने' इति सूत्रेण न भवति णत्वम्, नान्ताभावात् / नकारान्तरे सति रघुवर्णेत्यनेन णत्वं न प्राप्नोति यथा प्रेन्वनम्-प्र ‘इबु व्याप्तौ' 'उदितः स्वरान्नोन्तः' (4 / 4 / 98) / अनट् न णत्वम् / / 86 / / .. व्यञ्जनादे म्युपान्त्याद्वा // 2 // 3 // 87 // अदुरित्यादिपरो यो व्यञ्जनादिर्नाम्युपान्त्यो धातुस्ततः परस्य कृद्विषयस्य स्वरादुत्तरस्य नकारस्य णो वा स्यात् / [मिह सेचने] प्रमेहणम् प्रमेहनम् / ['कुपंच क्रोधे'] प्रकोपणम् प्रकोपनम् / [नञोऽनिः शापे] अप्रकोपणिः अप्रकोपनिः / प्रकोपणीयम् प्रकोपनीयम् / व्यञ्जनादेरिति किम् ? प्रेहणम् प्रोहणम् [ईहि चेष्टायाम्' 'उहि वितर्के'] / 1. नाम्यादिव्यञ्जनान्तादेवायं नियमः / ण्यन्तात् तु ‘णेर्वे'ति परत्वात् विकल्प एव / / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते नाम्युपान्त्यादिति किम् ? प्रवहणम् / 'स्वरात्' (2 / 3 / 95) इत्यनेन नित्यं प्राप्ते विभाषेयम् // 8 // अ० व्यञ्जनादे म्युपान्त्याद्वेति सूत्रे अलचटतवर्गशसान्तरे इत्येव-प्रभेदनम् प्रभोजनम् इति व्यावृत्तिर्ज्ञातव्या // 87 . . र्वा // 2 // 3 // 88 // अदुरित्यादिपरस्य ण्यन्तधातोर्विहितस्य स्वरपरकृनकारस्य णो वा स्यात् / प्रमङ्गणा प्रमङ्गना, प्रयापण प्रयापनम् / विहितविशेषणं किम् ? प्रयाप्यमाणः प्रयाप्यमानः इति क्यप्रत्ययव्यवधानेऽपि यथा स्यात् / अल चटतादि किम् ? प्रदापनम्, प्रतियापनम् // 8 // अ० प्रमंगणा प्रमंगना इत्यत्र 'उख नख णखे' ति दण्डकधातुमध्ये मगु / 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' (4 / 4 / 98 मंग् / प्रमङ्गन्तं प्रयुङ्क्ते णिग् / प्रमंग्येव प्रमंगणा / ‘णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः' (5 / 3 / 111) इति सूत्रेण अन प्रत्ययः / / प्रयापणं इत्यस्याग्रे प्रयापिणौ प्रयापिनौ / अप्रयापणिः अप्रयापनिः / प्रयापणीयं प्रयापनीयं इत्युदाहरणाति ज्ञेयानि // प्रयाप्यमाणः / प्रयाप्यमानः / प्रयाप्यमान इत्यत्र प्रपूर्वयाधातुः / णिग् / 'अत्तिरीब्लीह्रीक्नूयिक्ष्माय्यात पुः' (4 / 2 / 21) इति प अन्तः / ततो आनश् / 'क्यः शिति' (3 / 4 / 70) 'अतो म आने' (4 / 4 / 114 विहितविशेषणबलात् ण्यन्तात्पर आनश्प्रत्ययो विहितः पश्चात् क्यप्रत्ययो विहितः / ण्यन्तात्परो यदि कृत्प्रत्य यनकारोऽभूत् / तस्य क्येन व्यवधानं न भवति / इति विकल्पो न स्याद् णत्वम् / / 88 / / निर्विण्णः // 2 // 3 // 89 // निपूर्वाद् विदेः सत्तालाभविचारार्थात्परस्य क्तनकारस्य णत्वं निपात्यते / निर्विण्णः // 89 // अ० विदिच् सत्तायाम्' / 'विद्लैंती लाभे' / 'विदिं प्रविचारणे' इति त्रयोऽपि ज्ञेयाः / निर्विष्णः प्रावाजीन्मुनिः / / 89 // न ख्यापूरभूभाकमगमप्यायवेपोऽणेश्च // 2 // 3 // 90 // अदुरित्यादि परे ये ख्यादयोऽण्यन्ता ण्यन्ताश्च धातवस्तेभ्यः परस्य कृत्प्रत्ययनकारस्य णकारो न भवति प्रख्यानम् / पूग् / प्रपवनम् / भू / प्रभवनम् / भा। प्रभानम् / कम् / प्रकमनम् / गम् / प्रगमनम् / प्रगम्यमा नम् / प्रप्यानः / प्रवेपनम् / ण्यन्तेभ्योऽपि प्रख्यापनम् / प्रपावनम् / प्रभावना / प्रकामनेत्यादि // 10 // ___ अ० अथ नकारप्रतिषेधाधिकारः / न णिः / अणिः / तस्मात् / पूर्व णेरधिकारोऽस्ति इति अत्र णेश्च अणेक इति योज्यम् / सूत्रे पूग् इत्यत्र गकारः ‘पूग्श् पवने' इति क्यांदिग्राहकः / तेन 'पूङ् पवने' इति भ्वादिको न ग्राह्यः / तथा ख्यापूग्भूभेत्यादिधातूनां क्रमेण विशेषोदाहरणाली एवं बोद्धव्या / तथाहि प्रख्यानम् / प्रख्यायमानम्। प्रख्यायिनौ / अप्रख्यानिः / प्रख्यानीयम् / अत्र अनट्-आनश्-णिन्-अनि-अनीय-एवं पञ्चप्रत्यया वैयाकरणैः प्रायः प्रयुज्यन्ते / / एवं पूग् / प्रपवनम् / प्रपूयमानम् / प्रपाविनौ / अप्रपवनिः / प्रपवनीयम् / भू / प्रभवनम् / प्रभूयमानम् / प्रभाविनौ / अप्रभवनिः / प्रभवनीयम् / / भा / प्रभानम् / प्रभायमानम् / प्रभायिनौ / अप्रभानिः / प्रभानीयम् / / कम् / प्रकमनम् / प्रकम्यमानम् / प्रकामिनौ / अप्रकमनिः / प्रकमनीयम् / / गम् / प्रगमनम् / प्रगम्यमानम् / प्रगामिनौ अप्रगमनिः / प्रगमनीयम् / / प्याय् / प्रप्यानः / प्रप्यानवान् / प्रप्यायनम् / प्रप्यायमानम् / प्रप्यायिनौ / अप्रप्यायनिः / प्रप्यानीयम् / / वेप् / प्रवेपनम् / प्रवेपमानम् / प्रवेपिनौ / अप्रवेपनिः / प्रवेपनीयम् // अथ ण्यन्तेभ्योऽपि णत्वनिषेधः / प्रख्यापनम् / प्रपावनम् / प्रभावना / प्रकामना / प्रगमना / प्रप्यायना / प्रवेपना। इति सर्वत्र णत्वनिषेधः / / अण्यन्तख्यादिधातुभ्यो नकारस्य ‘स्वरात्' (2 / 3 / 85) इत्यनेन नित्यं णत्वे प्राप्ते, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः ण्यन्तेभ्यश्च ख्यादिभ्यो नस्य ‘णेर्वा' (2 / 3 / 88) इत्यनेन वा णत्वे प्राप्ते, वेपः परस्य नस्य 'व्यञ्जनादे म्युपान्त्याद्वा' (2 / 3 / 87) इत्यनेन वा णत्वे प्राप्त सति 'न ख्यापूगि'ति प्रतिषेधसूत्रं कृतं इत्यर्थः / प्रप्यान इत्यत्र 'स्फायैङ् ओप्यायैङ्क वृद्धौ' / प्याय् / प्रप्यायते स्म / कर्तरि क्तः / 'वोः प्व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) यलुक् / 'सूयत्याद्योतितः' (4 / 270) इति क्तस्य नकारः // 90 / / देशेऽन्तरोऽयनहनः // 2 // 3 // 91 // - अन्तर्शब्दात्परस्य अयनशब्दस्य हन्तेश्च नकारस्य देशेऽभिधेये णो न स्यात् / अन्तरयनो देशः। एवमन्तईननो देशः / देश इति किम् ? अन्तरयणम् / अन्तर्हणनं वर्तते / अन्तर्घणो देशः इति तु निपातनात् // 11 // . अ० 'स्वरात्' 'हनः' (2 / 3 / 82) आभ्यां यथासङ्ख्यं प्राप्तौ ‘देशेऽन्तरो०' इति सूत्रं प्रतिषेधकं कृतम् / अन्तरय्यतेऽस्मिन्निति अन्तरयनः / अन्तर्हन्यतेऽस्मिन् अन्तर्हननः / अन्तरपूर्व हन अन्तहण्यतेऽस्मिन्निति अन्तर्घणः / 'हनोऽन्तर्घनाऽन्तर्घणौ देशे' (5 / 3 / 34) इति सूत्रेण अल्, घण् आदेशो निपात्यते / वाहीकेषु देशविशेषोऽन्तर्पण इत्युच्यते // 11 // षात्पदे // 2 / 3 / 92 // पदे परतो यः षकारस्ततः परस्य नकारस्य णो न स्यात् / [सर्पिषः पानम् ] सर्पिष्पानम् / दुष्पानम् / अत्र ‘पानस्य भावकरणे' (2 / 3 / 69), निष्पानमत्र 'स्वरात्' (2 / 3 / 85) इति, निःपिबन्तं प्रयुङ्क्ते णिग्, 'आत ऐः कृऔ' (4 / 3 / 53.) निष्पायनमित्यत्र ‘णेर्वा' (2 / 3 / 88) सूत्रेण णत्वे प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् / पद इति किम् ? पुष्णातिं / सर्पिष्केण // 92 // पदेऽन्तरेऽनाङ्यतद्धिते // 2 / 3 / 93 // आङन्तं तद्धितान्तं च मुक्त्वाऽन्यस्मिन् पदे निमित्त[निमित्तिनोः]कार्यिणोरन्तरे [सति] नस्य णो न स्यात् / प्रावनद्धम् / ब्रीहिकुम्भवापेन / चतुरङ्गयोगेन / रोषभीममुखेन / अनाङीति किम् ? प्राणद्धम् [प्र आङ् पूर्वः] / पर्याणद्धम् / अतद्धित इति किम् ? आर्द्रगोमयेण / परमापूपमयेण / यूषयावण // 93 // अ० निमित्तं प्रादि उपसर्गः / व्रीह्यादिपदं वा पूर्वम् / निमित्ती कार्यो नकारः / नकारस्य हि णत्वनिषेधः करिष्यते इति भावः / / व्रीहीणां कुम्भः व्रीहिकुम्भः / व्रीहिकुम्भस्य वापः / तेन // एवं माषकुम्भवापेन चतुरङ्गयोगेन रोषमीममुखेनेत्यादिषु समासः / अथवा व्रीहयः कुम्भो वापोऽस्य / एवं माषाः कुम्भो वापोऽस्य इति समासस्तदा 'वोत्तरपदान्त०' (2 / 3 / 75) इत्येनन णत्वे वा प्राप्ते, यदा तु कुम्भस्य वापः व्रीहीणां कुम्भवापः, तदा 'कवर्गकस्वरवति' (2 / 3 / 76) इत्यनेन नित्यं णत्वे प्राप्ते 'पदेऽन्तरे०' इति प्रतिषेधसूत्रं कृतम् / / ‘णहीच बन्धने'। प्राव / प्रावनह्यते स्म क्तस्य ते हस्य धः / 'अधश्चतुर्था०' (2 / 1 / 79) इति तस्य धः / 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे' (1 / 3 / 49) धस्य दः / प्रावनद्धम् इति सिद्धम् // गोः पुरीषं गोमयम् / 'गोः पुरीषे' (6 / 2 / 50) इति सूत्रेण मयट् / आर्द्र च तन् गोमयं च आर्द्रगोमयं तेन / / यवानां विकारो यावः 'विकारे' (6 / 2 / 30) इति सूत्रेण अण्। याव एव यावकः ‘यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) इति कः // युषेण मांसमुद्रादिरसेन मिश्रो यावकोऽलत्कतो यूपयाक्कस्तेन // 93 // 1. यत्र णत्वस्य निमित्तद्वयं भवति तत्र प्रत्यासत्त्याऽनन्तरमेव गृह्यते, अतो न रेफाश्रितं णत्वम् / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -176 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते हनो घि // 2 // 3 // 94 // हन्तेर्नकारस्य धकारे निमित्तकार्यिणोरन्तरे सति णो न स्यात् / वृत्रघ्ना [टा] / वृत्रघ्नः [शस् डस् वा] / प्रघ्नन्ति / प्राघानि / [भिणवि घन्' (4 / 3 / 101)] प्राघ्नन् / प्रघानिष्यते / हन इति किम् ? अर्पण / परिघेण / घीति किम् ? वृत्रहणौ // 94 // ___ अ० वृत्रं हतवान् / 'ब्रह्मादिभ्यः' (5 / 1 / 85) इति सूत्रेण टक् / शत्रु हन्ति हतवान्वा 'ब्रह्मा०' टक् / 'गमहनजनखन०' (4 / 2 / 44) इत्यादिना उपान्त्यस्य लोपः / 'हनो हो घ्नः' (2 / 1 / 112) इति सूत्रेण घ्नआदेशः, पश्चात् टा, डस् / / 94 / / नृतेर्यङि // 2 // 3 // 95 // नृतेर्धातोर्नस्य [नकारस्य] यविषये णो न स्यात् / नरीनृत्यते / नरिनर्त्ति / ननर्ति / नरीनृतीति / यङीति किम् ? हरिणी नाम कश्चित् [हरिणत्ती अत्र हरिवन्नृत्यतीति हरिणर्ती 'कर्तुणिन्' (5 / 1 / 153) इति णिन् // 95 // अ० नरीनृत्यते इत्यादि उदाहरणानां प्रक्रिया लिख्यते / 'नृतैच् नर्त्तने' नृत् / भृशं पुनःपुनर्वा मृत्यति / 'व्यञ्जनादे०' (3 / 4 / 9) यङ् / 'सन्यङश्च' (4 / 1 / 3) 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) 'क्रमतारी' (4 / 1 / 55) इति सूत्रेण अभ्यासे री, नरीनृत्यते इति सिद्धम् 1 / नरिनर्ति इत्यत्र 'बहुलं लुप्' (3 / 4 / 14) यङ् लुप्यते, 'रिरौच लुपि' इत्यनेनाभ्यासे रि, र / / नरिनर्त्ति नर्त्ति इति सिद्धम् / नरिनति ननर्ति उभयत्र 'लघोरुपान्त्यस्य' (4 / 3 / 4) इति गुणः / 2, 3 नरीनृतीति यङ् द्वित्वम् / अत् / यङ्लुप् पूर्ववत् / रिरौ चेति अन्तः, 'यङ्तुरुस्तोर्बहुलम्' (4 / 3 / 64) . इत्यनेन ईत्वे नरीनृतीति सिद्धम् 4 / अत्र सर्वत्र 'रघुवर्ण०' (2 / 3 / 63) इति णत्वे प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् // 15 // क्षुभ्नादीनाम् // 2 // 3 // 96 // क्षुभ्ना इत्यादिनां नस्य णो न स्यात् / ['शुभश् संचलने' 'श्रश्चात्' (4 / 2 / 96)] क्षुभ्नाति / क्षुभ्नन्ति। ['तृपट् प्रीतौ'] तृप्नोति तृप्नुवन्ति / तृप्नुवन् / ['स्वादेः श्रु' (3 / 4 / 75) 'भूनोः' (2 / 3 / 53) उत् / ] तृप्नुवानः / आचार्यानी [आचार्य / आचार्यस्य भार्या आचार्यानी / 'मातुलाचार्योपाध्यायाद्वा' (2 / 4 / 63) इत्यनने ङीअन्तः / ] आचार्यभोगीनः [आचार्यस्य भोगः / आचार्यभोगाय हितः ‘भोगोत्तरपदात्मभ्यामीनः' (7 / 1 / 40) इति ईनः क्षुम्नातीत्यादि आचार्यभोगीन इत्यन्तं ‘रवर्ण०' इत्यनेन णत्वे प्राप्ते] // सर्वनाम / नृनमनः / परिनृत्तम् / गुरुनृत्तम् / परिनर्तनम् / ग्रामनटः। शरनदः। शरनदी। गिरिनगरम् / परिनिवेशः। श्रीनिवासः / शबराग्निः। दर्भानूपः / हरिनन्दी। हरिनन्दनः / गिरिगहनम् / अत्र 'पूर्वपदस्था०' (2 // 3 // 64) इत्यनेन णत्वे प्राप्ते, परिनदनम् ‘अदुरुपसर्ग०' (2 / 3 / 77) इत्यनेन णत्वे प्राप्ते, सुप्रख्येन इत्यत्र 'कवर्गक०' (2 / 3 / 76) इत्यनेन णत्वे प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् / क्षुम्ना / तृप्नु / आचार्यानी / आचार्यभोगीन / सर्वनाम / इत्यादि क्षुभ्नादिगणः // 16 // ____अ० क्षुम्ना / तृप्नु / आचार्यानी / आचार्यभोगीन / सर्वनाम / नृनमन / नृत्त / नर्तन / नट / नद (नड इत्येके) / नदी / नगर / निवेश / निवास / अग्नि / अनूप / नन्दिन् / नन्दन / नदन / गहन / ख्याग् / इति शब्द 21 क्षुभ्रादिगण उच्यते / सूत्रे बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 96 / / पाठे धात्वादेो नः // 2 / 3 / 97 // पाठविषये धात्वादेर्णकारस्य नकार आदेशः स्यात् / नयति ['णींग् प्रापणे'] / नमति [गमं प्रहृत्वे] / पाठ इति किम् ? णकारीयति / धात्विति किम् ? णकारः / आदेरिति किम् ? भणति / सर्वे च नादयो धातवो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 177 नृति, नन्दि, नर्दि, नशि, नाटि, नकि, नाथ, नाधृ नृवर्जा णोपदेशाः / धातूनां णोपदेशश्च ‘अदुरुपसर्गान्तरो गहि.' (2 / 3 / 77) इति सूत्रे विषयव्यवस्थार्थः // 9 // ___ अ० "नटण् अवस्यन्दने' इति चुरादेर्वर्जनम् / ‘णट नृत्तौ' इति भ्वादिकस्य, प्रणटति प्रणाटयतीति प्रयोगो णोपदेशे ज्ञातव्यः / ये धातुपाठे धातवो णोपदेशाः पठ्यन्ते, तेषां नकारस्य णकारो ‘रवर्ण०' (2 / 3 / 63) इत्यनेन / 'अदुरुपसर्गान्तरोणहिनुमीनानेः' (2 / 377) इत्यनेन क्रियते / इति णोपदेशधातुपाठफलं ज्ञातव्यम् // 97|| षः सोऽष्ठयैष्ठिवष्वष्कः // 2 // 3 // 98 // पाठे धात्वादेः षकारस्य सकारादेशः स्यात् / षकारश्चेत् ष्टयैष्ठिवष्वष्कसम्बन्धी न भवति / सहन्ते / पाठ इत्येव / [षण्ढमिच्छति] षष्टीयति / आदेरित्येव / लपति / ट्यादिवर्जनं किम् ? ट्यायति / ष्ठीव्यति। प्वष्कते / सृपि, सृजि, स्त्या, स्तु, स्तृ, सेकृवर्ज स्वरदन्त्यपरसकारादयः स्मिस्विदिस्वदिस्वञ्जिस्वपयश्च पोपदेशा उच्यन्ते / षोपदेशश्चैषां षत्वविषयार्थः // 98 // ___अ० 'ष्टौं स्त्य सङ्घाते च' 'ष्ठिवू क्षिबूच् निरसने' कुकुङ् श्वकुङ् इत्यादिदण्डकधातौ ष्वष्किधातुः / स्मिप्रभृतिभिः साहचर्यात् एकस्वराणामेव षोपदेशस्मृतिः / अतएव सूत्र-सत्र-संग्राम-साम-सभाज-स्थूल-स्तन-स्तेनस्ताम-मुखानां अषोपदेशत्वात् सासूत्र्यते इत्यादि / / 98|| . करलुलं कृपोऽकृपीटादिषु // 2 // 3 // 99 // [ऋश्च रश्च लश्च लश्च कर लुलं] कृपेर्धातो:कारस्य लुकारो रेफस्य च लकार आदेशः स्यात् / नतु कृपीटादि ऋकारस्य ['कृपौङ् सामर्थ्य'] क्लृप्तः / क्लृप्यते / अचीक्लुपत् / रस्य लः / कल्पते / कल्पयति / कल्पकः / कल्पः / चलीक्लृप्यते / चलीक्लृप्ति / अकृपीटादिष्विति किम् ? कृपीटम् / कृपणः / कृपाणः / कृपः / कर्पूरः / कर्पटः / कर्पटिः // 99 // _ अ० अत्यर्थं कल्पते / यङ् / द्वित्वम् / 'ऋतोऽत्' (4 / 1 / 38) 'ऋमतां रीः' (4 / 1 / 55) इति सूत्रेण री अन्तः / 'करलुलं०' इति सूत्रेण रीकारस्य लकारः / ऋकारस्य लुकारश्च / चलीक्लुप्यते इति सिद्धम् / चलीक्लुप्ति / अत्र यङ् लुप्यते शेषं पूर्ववत् / कृपेर्गुणे कृते रस्य लकारः / अकृपीटादिष्वत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / कृपीट इत्यादिषु सर्वत्र ‘कृपौङ् सामर्थ्य'. / कृप्' / 'तृकृकृपिकम्पिकृषिभ्यः कीटः' (151) इति कीट / कृपीटः / 'गृपृकृपिवृषिभ्यः कित्' (188) 'कृपिविषिवृषिधृषिमृषियुषिद्रुहिग्रहेराणक्' (191) कृपाणः / कृपःकृपाप्रयोगयोः' प्रत्ययो न ज्ञायते सम्यग् / 'मीमसिपशिखटिखडिखर्जिकर्जिसर्जिकृपिवल्लिमण्डिभ्यः ऊरः' (427) इति ऊरः कर्पूर इति सिद्धम् / 'दिव्यविश्रुकुकर्विशकिकङ्किकृपिचपिचमिकम्येधिकर्किमर्किकक्खितृकृसृभृवृभ्योऽटः' (142) कर्पटः / 'कृपिशकिभ्यामटिः' (630) कपटिः इति सिद्धम् // 19 // उपसर्गस्यायौ // 2 // 3 // 10 // उपसर्गरेफस्य अयि धातो परे लकारः स्यात् / [प्र-अय] प्लायते / पलायते / पल्ययते / निलयनम् [नितरामय्यते अनट्] / दुलयनम् / उपसर्गस्येति किम् ? [परं च तत् अपनं च / ] परायनम् / अयि इति इकारनिर्देशोऽयि गतावित्यस्य परिग्रहार्थः // 10 // ___ अ० 'प्र-पूर्व. अयिवयिपयिमयिनयिचयिरयि गतौ' / परायते अत्र परा-पूर्वोऽयधातुः / पल्ययते परिपूर्व-अय् // 10 // 1. कल्पते इति कृपः 'नाम्युपान्त्य० / 5 / 154 / इत्यनेन कः / क्लृप्यते कृपा इत्यत्र ‘मृगयेच्छा० / 5 / 3 / 101 / अनेन अङ्, 'आत्' / 2 / 4 / 18 / अनेन आप् / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ग्रो यङि // 2 / 3 / 101 // यङि परे गिरते रेफस्य लः स्यात् / निजेगिल्यते / गृणातेस्तु यडेव नास्ति // 101 // अ० निजेगिल्यते. 'गृत् निगरणे' गृi निपूर्वम् / गर्हितं निगिरति ‘गृलुपसदचरजपजभदशदहो गर्ये' (3 / 4 / 12 इति सूत्रेण यङ् / 'ऋतां विडतीर्' (4 / 4 / 116) इति इर् / द्वित्वम् / 'आगुणावन्यादेः' (4 / 1 / 48) अभ्यारं गुणः / ‘गहोर्जः' (4 / 1 / 40) इति गस्य जः / 'ग्रो यङि' इति रस्य लत्वम् / 'गृश् शब्दे' इत्यस्य न लत्वम् 'न गृणाशुभरुचः' (3 / 4 / 13) इत्यनेन यनिषेधात् // 101 / / नवा स्वरे // 2 // 3 // 102 // गिरते रेफस्य स्वरादौ प्रत्यये परे विहितस्य लो वा स्यात् / गिरति गिलति / ['ऋतां विडतीर्' (4 / 4 / 116 इर्] / निगरणम् / निगलनम् [निगीर्यते अनट् / गुणः] / विहितविशेषणादिहापि लत्वम् / निगाल्यते / निगा यते' / [निगिरन्तं प्रयुङ्क्ते / णिग् / 'नामिनोऽकलि०' (4 / 3 / 51) वृद्धिः क्यः] अत्र तु मा भूत् / गिरी. / गिरः // 102 // परेर्घायोगे // 2 // 3 // 103 // परिसम्बन्धिरेफस्य घ-अङ्क-योग इति शब्देषु परेषु लो वा स्यात् / पलिघः / परिघः / पल्यङ्कः / पर्यटः परियोगः / पलियोगः // 10 // ___ अ० परिहन्यतेऽनेनेति परिघः / ‘परेघः' (5 / 3 / 40) इति अल् घादेशश्च / अङ्कपरिगतोऽङ्केन वा परिगत पर्यङ्कः / योगपरिगतो योगेन वा परिगतो परियोगः // 10 // . ऋफिडादीनां डच लः // 2 // 3 // 104 // . ऋफिड इत्यादीनां ऋकारस्य लकारः, रकारस्य लकारः, डकारस्य तु लकारो वा स्यात् / लृफिल ऋफिडः / तृतकः ऋतकः / कं सुखं परं यस्यां सा कपरिका कपलिका / लोमानि रोमानि / पुलुषः पुरुषः डस्य लः-चूला चूडा / इला इडा / पोलशः षोडशः। पीला पीडा / ऋफिडादयो यथादर्शनं द्रष्टव्याः / संयुक्तस आदेश्च डस्य लत्वं न दृश्यते [संयुक्तडकारस्य आदिडकारस्प] पाण्डुः कण्डूः / डामरः [गमरः], डिण्डिमः [डिम्भः डिम्भः] // 10 // __ अ० ऋफिड / ऋतक / कपरिका / पुण्डरीकम् / कपिरकम् / रोम / अङ्गुलिः / पुरुषः / तरुणः / तलुनः सरिरम् सलिलम् / अरम् अलम् / मूरम् मूलम् / करीरः कलीलः / कर्म कल्म / मुकुरम् मुकुलम् / पांसुर पांसुलः / रेखा लेखा / रिक्षा लिक्षा / रोहितम् लोहितमित्यादि / अर्थभेदेऽपि रकारस्य लकारो दृश्यते / यथ इरा अमृतम् इला भूमिः / तर्परः पशूनाम् कण्ठघण्टः, तल्पलो गजपृष्ठैकदेशः / करभ उष्ट्रः, कलभो बालहस्ती शरभोऽष्टापदः, शलभः पतङ्गः / कारो रक्षानिवेशः, कालो वर्णः / वारः क्रियाभ्यावृत्तिः, वालः केशः / रघु राजा, लघुरपचितपरिणामः / गरो विषम्, गलः कण्ठः / मुद्गरः प्रहरणम्, मुद्गलः प्रेतः / मण्डरः, मण्डलो देशः कन्दरो गुफा, कन्दलो नवकुमलः / कलिर्वा / ऐकार्थेऽपि रस्य लकारः, डकारस्य लकारो दृश्यते-यथा गरम् गलम्, ऋफिडः, ऋफिलः / वडभी, वलभी / चूडा, चूला / इडा, इला / व्याडः, व्यालः / पुरोडाशः, पुरोलाशः 1. अत्र णिनिमित्त रेफत्वात् णि लोपेऽपि लत्वम् / 2. यतोऽत्र क्विप्निमित इर् / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 179 षोडशः, षोलशः / बडिशम्, बलिशम् / पुडिनम्, पुलिनम् / पीडा, पीला / यथादर्शनमन्येऽपि ऋफिडादौ द्रष्टव्याः // 104 // जपादीनां पो व // 2 / 3 / 105 // जपादिशब्दानां पकारस्य वकारादेशो वा स्यात् / जवा जपा [जातिपुष्पम् / पारावतः पारापतः। त्रिविष्टपम् त्रिपिष्टपम् [जगत् ] / पारावारः पारापारः [समुद्रः] / कवाटः / कपाटः / अवाची अपाची / जपादयः प्रयोगतोऽनुसतव्याः // 105 // द्वितीया० तृतीयः पादः ॥ग्रं.३११॥ इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतस्तृतीयः पादः समाप्तः // 3 // अहँ . . स्त्रियां नृतोऽस्वम्रादेमः // 2 // 4 // 1 // __ स्त्रियां वर्तमानानक्रारान्तात् ऋकारान्ताच्च नाम्नः स्वम्रादिवर्जात् ङीप्रत्ययो भवति / नकारान्त-राज्ञी अतिराज्ञी दण्डिनी। ऋदन्त-की / स्त्रियामिति किम् ? / पञ्च सप्त [जस्] नद्यः / अस्वम्रादेरिति किम् ? स्वसा दुहिता इत्यादि / तिम्रः चतम्रः इत्यन्तं स्वम्रादिगणः // 1 // - अ० अथ डीप्रत्यय अधिकारः / डीसूत्राणि द्वादश 12 विधिमयानि / सूत्र 2 निषेधकानि एवं सूत्र 14 डीसम्बन्धे / पूजितो राजा अतिराजा / स्त्री चेत् अतिराज्ञी / 'नन्तासङ्ख्या डतिर्युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गका' इति वचनात् नकारान्तसङ्ख्याशब्दस्याऽलिङ्गत्वात् नकारलोपेऽपि 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्यनेन आप्प्रत्ययोऽपि न भवतीत्यर्थः / / स्वसा अतिस्वसा परमस्वसा दुहिता ननान्दा याता माता तिस्रः चतस्रः इति स्वस्रादिगणः / / तिस्रः चतस्रःअत्र तिसृचतस्रादेशस्य विभक्त्यनन्तरनिमित्तत्वात् सन्निपातलक्षणत्वेन तद्विघातकत्वाभावादेव ङीनिवृत्तौ सिद्धायां स्वस्रादिषु तिसृचतसृपाठः सन्निपातन्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थः / तेन अतिदन्या कन्यया इत्यादौ विभक्तिनिमित्ते अनादेशे सति डीः सिद्धो भवति / एवं या सा इत्यादिष्वपि आकारादेशे कृते आप्प्रत्ययोऽपि भवतीत्यर्थः // 1 // . अधातूदृदितः // 2 // 4 // 2 // 'धातुवर्जितो य उदित् उकारानुबन्धः [उकारानुबन्धो धातुर्वर्जनीय इति भावः] ऋदित् ऋकारानुबन्धश्च प्रत्ययोऽप्रत्ययो वा तदन्तात् स्त्रीवृत्तेॐ स्यात् / उदित्-भवन्ती गोमती / प्रेयसी / विदुषी / ऋदित्-पचन्ती। दीव्यन्ती। महती। अतिभवति / अतिमहती। अत्र नामाव्युत्पुत्तिपक्षे उदृदित् तदन्तं समासनाम / निर्गोमती। अतिपुंसी इत्यत्र प्रत्ययस्योदित्त्वात् गोमदादिशब्दोऽप्युदित् तेन तदन्तं समासनाम / अधात्विति किम् ? सुकन् / सुहिन् स्त्री // 2 // ___ अ० न धातोरुत् अधातूत्, अधातूच्च ऋच्च अधातूदृत् इत अनुबन्धो यस्य तस्मात् / प्रेयसी अत्र प्रियशब्दः / अतिशयेन प्रियः प्रेयान्। 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (7 / 3 / 9) इति ईयस्प्रत्ययः / 'प्रियस्थिरस्फिरोरुगुरुबहुलतृप्रदीर्घवृद्धवृन्दारकस्येमनि च प्रास्थास्फावरगरबंहत्रपद्राघवर्षवृन्दम्' (7 / 4 / 38) इति सूत्रेण प्रियशब्दस्य प्र आदेशः / स्त्री चेत् प्रेयसी / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 'कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते वेत्तीति विद्वान् ‘वा वेत्तेः क्वसुः' (5 / 2 / 22) / स्त्री चेत् विदुषी / 'कसुष्मतौ च' (2 / 1 / 105) इत्यनेन वस्स्थाने उष् / / सुकन् / 'कसुकि गतिशातनयोः' कस् / सुहिन् 'हिसु तृहप् हिंसायाम्' हिस् ‘उदित०' (4 / 4 / 98) इति नोऽन्तः / सुष्ठुक्तं सु / सुष्ठु हिनस्तीति विप् / सिलोपे च ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इति सूत्रेण सकारस्य लोपः // 2 / / अश्वः // 2 // 4 // 3 // अञ्चन्तानाम्नः स्त्रियां ङीः स्यात् / प्राची / अपाची / प्रतीची / उदीची // 3 // ___ अ० प्राची इत्यादि / प्र अप प्रति उत्पूर्वक 'अञ्चू गतौ' च अच् / प्राञ्चतीति अपाश्चतीति प्रत्यञ्चतीति उदञ्चतीति किप् / 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इत्यादिना नलोपः / 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' (2 / 1 / 104) इत्यनेन अच्स्थाने च् आदेशः पूर्वस्वरस्य दीर्घः / प्राची अपाची प्रतीची इति सिद्धम् / उदीची इत्यत्र ‘उदच उदीच' (2 / 1 / 103) इत्यनेन उदीच् आदेशः / 'अञ्चः' इति सूत्रेण ङीकृते एव / पश्चात् 'अच्च' प्राग०' इति कर्त्तव्यम् / / 3 / / णस्वराघोषाद्वनो रश्च // 2 // 4 // 4 // णकारान्तात् स्वरान्तादघोषान्ताच यो विहितो वन्प्रत्ययस्तदन्तात् ङीः स्यात् स्त्रियाम्, ङीयोगे वनोऽ. न्तस्य च रकारः / ण. अवावरी / स्वर. [धीवानमतिक्रान्ता] धीवरी / अतिधीवरी / पीवरी / सहकृत्वरी। अघोष. मेरुदृश्वरी। णस्वराघोषाति किम् ? सहयुध्वा स्त्री [सह युध्यति ‘सहराजभ्यां कृग्युधेः' (5 / 1 / 167) कनिप्]। विहितविशेषणं किम् ? शर्वरी / [सि / 'नि दीर्घः' (1 / 4 / 85)] अत्र स्वरात्कृतत्वाद्गुणे कृते घोषवतो यथा स्यात् / वन इति किम् ? शुनी / नान्तत्वादेव डीसिद्धः / तनियमार्थ रकारार्थ वचनम् // 4 // __ अ० णस्वराघोषाद्वनो रश्चेत्यत्र वात् वकारात् न् वन् / तस्य नकारस्य रः इति युक्तम् / अन्यथा वन्प्रत्ययस्य सर्वस्य रकारः स्यात् / वन् इति वनक्कनिप्वनिपामविशेषेण ग्रहणम् / अवावरी ‘ओण अपनयने' ओण् / ओणतीति 'मन्वन्क्वनिप्विच क्वचित्' (5 / 1 / 147) इत्यनेन वन्प्रत्ययः / 'वन्याङ् पञ्चमस्य' (4 / 2 / 65) इत्यनेन णकारस्य आकारः / 'ओदौतोऽवाव्' (1 / 2 / 24) अवावन्शब्दः / ‘णस्वरेति' ङी / नकारस्य रकारश्च / धीवरी इत्यत्र धाधातुः / दधातीति ‘मन्वन्०' वन् 'ईय॑ञ्जनेऽयपि' (4 / 3 / 97) इति ई / पश्चात् ङी नस्य र धीवरी // पीवरी-पिबतीति पीवरी वन् 'ईर्व्यञ्जने० (4 / 3 / 97) ई / सहकृत्वरी / अत्र सह कृ / सहंकृतवती इति वाक्ये 'सहराजभ्यां कृणुयुधेः' (5 / 1 / 167) इति सूत्रेण कनिप् ‘हस्वस्य तः पित्कृति' (4 / 4 / 113) तोऽन्तः / एवं राजकृत्वरी / राजानं कृतवती 'सहराज०' क्वनिप् तोऽन्तः / सुत्वरी / सुनोतीति 'सुयजोर्ध्वनिप्' (5 / 1 / 172) तोऽन्तः / ततो डी / नस्य च रः / मेरुदृश्वरी मेरुं दृष्टवती ‘दृशः क्वनिप्' (5 / 1 / 166) पश्चात् ‘णस्वरेति' ङी / नकारस्य च रः / शर्वरी 'कृगृशृश् हिंसायाम्' श्रृणोतीति शर्वरी / 'मन्वन्कनि०' वन् / गुणः / अत्र स्वरात्परो वन् कृतः / पश्चात् गुणः कृतः / इति सूत्रार्थयुक्तिप्राप्तेः ङी-रकारौ जातौ / शुनी इत्यत्र 'वोश्वि गतिवृद्धयोः' श्वि / 'वन्मातरिश्वन्मूर्धन्प्लीहन्नर्यमन्विश्वप्सन्परिज्वन्महन्नहन्मघवन्नथर्वनिति' (902) इत्युणादित्वात् अन् / अन्तलोपे वस्य न् नान्तत्वात् 'स्त्रियां नृतो०' (2 / 4 / 1) ङीः सिद्धः / एवं मघोनी 'श्वयुवन्मघोनो ङी०' (2 / 1 / 106) इत्यादिना वकारस्य उकारः / तन्नियमार्थमित्यादि / णस्वराघोषादेव वनो ङीर्भवति / तेन सह युध्वा इत्यादौ 'स्त्रियां नृतो०' इति ङीर्न भवतीति तन्नियमार्थं सूत्रं कृतमित्यर्थः / / 4 / / वा बहुव्रीहेः // 2 // 4 // 5 // Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 181 ___णस्वराघोषात्परो यो वन् तदन्ताद्वहुव्रीहेः स्त्रियां वा ङीः स्यात्, रोऽन्तादेशश्च / प्रियावावरी / [ओ”। ओण् / वन् / पूर्ववत्- सर्व कार्यम् / ] प्रियावावा स्त्री / स्त्रियः पूर्वं प्रियोऽवावा यस्याः सा प्रियावावरी] / बहुधीवरी बहुधीवा [बहवो धीवानो यस्यां सा बहुधीवरी बहुधीवा] // 5 // वा पादः // 2 // 4 // 6 // बहुव्रीहेस्तनिमित्तकपाद्शब्दान्तात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / द्विपदी / द्विपात् / त्रिपदी / त्रिपात् // 6 // अ० द्विपदीत्यादि-द्वौ पादौ त्रयः पादाः यस्याः सा 'सुसङ्ख्यात्' (7 / 3 / 150) इति सूत्रेण पादस्य पाद् आदेशः / ‘वा पादः' इत्यनेन वा ङीः 'यस्वरे पादः पदणिक्यघुटि' (2 / 1 / 102) इत्यनेन पाद इत्यस्य पद् यत्र डी तत्र द्विपदी / त्रिपदी / पक्षे द्विपात् / त्रिपात् // 6 // ऊध्नः // 2 // 4 // 7 // - ऊध्नन्ताद्व्रीहेः स्त्रियां डीः स्यात् / कुण्डोध्नी / महोनी / पीवरोघ्नी / घटोनी / 'अनो वा' (2 / 4 / 11) इति सूत्रेण वा ङीप्राप्ते वचनम् / 'अनो वा' (2 / 4 / 11) इति सूत्रं उपान्त्यलोपस्य सम्भवे सति प्रवर्तते इत्यर्थः // 7 // ... अ० कुण्डोध्नीत्यादि / कुण्डमिव उधोऽस्याः कुण्डोध्नी / एवं घट इव ऊधो यस्याः / महत् ऊधो यस्याः पीवरमूधो यस्या इति वाक्ये 'स्त्रियामूधसो न्' (7 / 3 / 169) इति सूत्रेण सकारस्य न् आदेशः / सूत्रे ऊधन्शब्दो गृह्यते / ततो ङी / 'ईडौ वा' (2 / 1 / 1.09) अनोऽकारलोपः / कुण्डोध्नी गौः / एवं घटोनी गौः // 7 // * अशिशोः // 2 // 4 // 8 // अशिशु इत्यस्माद्बहुव्रीहेमः स्यात् / [अविद्यमानः शिशुरस्याः सा] अशिश्वी स्त्री // 8 // सङ्ख्यादेहोयनाद्वयसि // 2 // 4 // 9 // सङ्ग्यादेर्हायनान्ताबहुव्रीहेर्वयसि गम्यमाने डीः स्यात् / [द्वौ हायनौ त्रयो हायना यस्याः सा] द्विहायनी त्रिहायनी गौः / वयसीति किम् ? द्विहायना त्रिहायना शाला [वयस्तावत् प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था / अत्र पं शाला द्विहायना द्विवर्षा जाता / नात्र वयः // 9 // दाम्नः // 2 / 4 / 10 // सङ्ख्यादेर्दामन्शब्दान्तादहुव्रीहेमः स्यात् / द्विदाम्नी / 'अनो वा' (2 / 4 / 11) इति विकल्पापवादो योगः // 10 // . अनो वा // 2 // 4 // 11 // - अन्नन्ताद्बहुव्रीहेर्वा ङीः स्यात् / उत्तरसूत्रे उपान्त्यवतः प्रतिषेधादत्र [सूत्रे] उपान्त्यलोपिन एव विधिः / बहुराज्यौ / बहुराजे [डाप्] / बहुराजानौ / दीर्घाही दीर्घाहा दीर्घाहाः शरत् // 11 // ___अ० दीर्घाणि अहानि यस्यां सा दीर्घाही / 'अनो वा' इति डी / 'ईडौ वा' (2 / 1 / 109) अनोऽकारलोपः / दीर्घाण्यहानि यस्या दीर्घाहा / 'ताभ्यां वाप डित्' (2 / 4 / 15) इति डाप् / दीर्घाण्यहानि यस्यां सा दीर्घाहाः / सिः / 'दीर्घड्याब्०' (1 / 4 / 45) सिलोपः / 'अह्नः' (2 / 1 / 74) इत्यनेन नस्य र् / स चासन् ‘नि दीर्घः' (1 / 4 / 85) // 11 // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते नाम्नि // 2 // 4 // 12 // अन्नन्ताबहुव्रीहेर्नाम्नि संज्ञाविषये नित्यं ङीः स्यात् / अधिराज्ञी सुराज्ञी इति नाम ग्रामः / बहुराज्ञीति नाम पुरी / अयमपि विधिरुपान्त्यलोपिन एव / नित्यार्थमिदम्, तेन पक्षे डाप् वा न स्यात् [विकल्पेन डाप न भवतीत्यर्थः] // 12 // अ० अधिराज्ञी / सुराज्ञी / अधिका राजानो यस्यां साऽधिराज्ञी / सु शोभनो राजा यस्यां सा सुराज्ञी // 12 // नोपान्त्यवतः // 2 // 4 // 13 // यस्योपान्त्यलोपो नास्ति स उपान्त्यवान् / तस्मादन्नन्ताद्बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीन भवति / सुपर्वा / सुपर्वाणौ / सुशर्मा / सुशर्माणौ / उपान्त्यवत इति किम् ? बहुराज्ञी [बहवो राजानो यस्यां सा] // 13 // अ० 'अनो वा' 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रा०' (2 / 4 / 1) दिसूत्रद्वयस्य बाधकमिदम् // 13 // ... - मनः // 2 // 4 // 14 // मन्नन्तात् स्त्रियां ङीन स्यात् / सीमा / सीमानौ / बहुव्रीहेरिति निवृत्तम् / योगविभागात् // 14 // अ० 'अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति' इति वचनात् महिमानमतिक्रान्ता अतिमहिमा इत्यादावपि 'मनः' इति सूत्रेण ङीप्रतिषेधो भवति / इयमवचूरिः सीमा सीमानौ इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या // 14 // ताभ्यां वाप् डित् // 2 // 4 // 15 // मन्नन्ता[मन् अन्तात् नाम्नोऽनन्ताच्च बहुव्रीहेः स्त्रियामाप् प्रत्ययो वा स्यात् / स च डित् / सीमे / सीमाः / [जस्] सुपर्वे / सुपर्वाः / [पक्षे] सीमानौ / सीमानः / सुपर्वाणौ / सुपर्वाणः / उपान्त्यलोपिनस्तु बहुव्रीहेमरपि भवति / एवमुपान्त्यलोपिनोऽनन्तस्य बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीडाविकल्पाभ्यां त्रैरूप्यम् / बहुराज्यौ / [डाप्] बहुराजे / बहुराजानौ / [डाप् विकल्पः] बहुराज्यः / बहुराजाः [डाप्] बहुराजानः [अत्र न डाप्] / उपान्त्यवतस्तु डा प्रतिषेधाभ्यां द्वैरूप्यम् / डाप् इत्यकृत्वा डित् इति करणं उत्तरत्राप एवानुवृत्त्यर्थम् // 15 // ___ अ० 'ताभ्यां वाप्०' इत्यादि आप्प्रत्ययाधिकारः / सूत्र 4 ज्ञातव्यानि / डित्करणं अन्त्यस्वरादिलोपार्थम् / औ औता आप विकल्पेन भवति / यत्राप तत्र सीमे इत्यादि / यत्र च नाप तत्र सीमानौ इत्यादि / एषु 'नोपान्त्यवतः (2 / 4 / 13) 'मनः' (2 / 4 / 14) इति सूत्राभ्यां प्रतिषेधात् डीन भवति / एवं उद्दाम्नीम् / उद्दामाम् / उद्दामान वडवां पश्य // 15 // अजादेः // 2 // 4 // 16 // अजादिभ्य आवृत्त्याजादीनामेव स्त्रियां वर्तमानेभ्य आप्प्रत्ययः स्यात् / बाधकबाधनार्थ अनकारार्थ च वचनम् / अजा / एडका / अश्वा / चटका एभ्यो जातिलक्षणस्य ङीप्रत्ययस्यापवाद आप् / अजादेरित्यावृत्त्या षष्ठीसम्बन्धः किम् ? अजादिसम्बन्धिन्यामेव स्त्रियां वाच्यायां यथा स्यात् / तेनेह न स्यात् / पञ्चानामजानां समाहारः पञ्चाजी / अत्र हि समाहारः समासार्थः स्त्री। नासावजसम्बन्धिनी / [यथा' क्रुश्चा दिवविशा उष्णिहा इत्यत्र] अत एव ज्ञापकादत्र स्त्रीप्रकरणे तदन्तादपि आप् ङी भवति / [यथा] महाज़ा / परमाजा / एवं अतिभवतीत्यादि // 16 // अ० बाधकबाधनार्थं इति कोऽर्थः ? वक्ष्यमाण ‘आत्' (2 / 4 / 18) इति सूत्रेण सर्वत्र अकारान्तात् आप Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 183 अधिकृतोऽस्ति तस्यापो बाधकानि 'जातेरयान्तनित्यत्रीशूद्रात्' (2 / 4 / 54) इत्यादिसूत्राणि वक्ष्यन्ते ङीप्रत्ययविधानेन / तस्यापि ङीप्रत्ययस्य बाधनार्थं 'अजादे' रिति सूत्रं कृतम् / अजादेः पर आप् एव न तु डी इत्येको हेतुः / 'आत्' (2 / 4 / 18) इति सूत्रेण अकारान्तात् आप् क्रियते / 'अजादे' रिति सूत्रं अकारान्तात् व्यञ्जनान्तादपि प्रवर्त्तते इति अनकारार्थं इत्यक्षरार्थः / अयं द्वितीयो हेतुः / अयं हेतुः स्वबुद्ध्या कल्पितोऽस्ति तत्त्वं वैयाकरणा विदन्ति / 'जातेरयान्तनित्यस्त्रीशूद्रात्' (2 / 4 / 54) अनेन डीप्राप्तिः / महांश्चासावजश्च महाजः / स्त्री चेत् महाजा / एवं परमश्वासावजश्च परमाजः स्त्री चेत् परमाजा / अत्र स्त्रीविवक्षायां 'अजादे' रिति तदन्तादपि शब्दात् आप् / तथा भवन्तमतिक्रान्ता अतिभवति एवं अतिमहती / अतिधीवरी / महान्तमतिक्रान्ताऽतिमहती। धीवानमतिक्रान्ता अतिधीवरी / भवतीति अतिमहती अत्र अधातू० (2 / 4 / 2) डी / अतिधीवरी ‘णस्वराघोषा०' (2 / 4 / 4) इति डी / 'जातीयैकार्थेऽच्चेः' (3 / 2 / 70) इति सूत्रेण महत्शब्दात् डा अन्तादेशः / / अजादिगणः / अजा / एडका / अश्वा / चटका / मूषिका / कोकिला / एभ्यो जातिलक्षण ङीबाधक आप् / बाला होडा / पाका / वत्सा / मन्दा / विलाता। कन्या / मध्या / मुग्धा / एभ्यो 'वयस्यन्त्ये' (2 / 4 / 21) इति ङीप्राप्तिः, तद्बाधक आप् / विलाती अपि / ज्येष्ठा / कनिष्ठा / मध्यमा एभ्यो ‘धवाद्योगादपालकान्तात्' (2 / 4/59) इति डीप्राप्तिः, तद्भाधनार्थं आप् / पूर्वापहाणा / अपरापहाणा / सम्प्रहाणा / परप्रहाणा / एषु 'अणजेयेकण०' (2 / 4 / 20) इत्यादिना डीप्राप्तिः, तद्बाधनार्थं आप् / त्रीणि फलानि समाहृतानि त्रिफला / अत्र 'द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) इति डीप्राप्तिः, तद्बाधनार्थं आप् / 'कुञ्चा / देवविशा / उष्णिहा / एषु व्यञ्जनान्तत्वात् 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्यनेन आप् अप्राप्तिरिति अजादिपाठः / अजादित्वात् व्यञ्जनान्तादपि आप् / इति अजादिगणः // 16 // - ऋचि पादः पात्पदे // 2 // 4 // 17 // कृतपाद्भावस्य पादशब्दस्य आबन्तस्य ऋच्यर्थे पात् पदेति [पदा इति] निपात्यते / त्रिपात् / त्रिपदा गायत्री / ऋचीति किम् ? द्विपात् / द्विपदी / चतुष्पात् ? चतुष्पदी // 17 // . अ० सूत्रे पाद 'आत्' (2 / 4 / 18) इति आप् / षष्ठी ङस् / सूत्रत्वात् आप्लोपः / पादः इति सिद्धम् / त्रिपात् इत्यादि त्रि अग्रे पाद / त्रयः पादा अस्यां ऋचौ सा त्रिपादा / आप् / 'सुसङ्ख्यात्' (7 / 3 / 150) इति सूत्रेण पादस्य पाद् क्रियते / तदनन्तरं 'ऋचि पादे'ति सूत्रेण पाद आप्सह पात् इति निपात्यते / त्रिपात् सिद्धम् / त्रिपदा गायत्रीत्यत्र पाद्स्थाने पदा इति निपात्यते तत्र त्रिपदा / पात्पदा इत्यादेशबलात् 'वा पादः' (2 / 4 / 6) इत्यनेन न डीः / व्यावृत्तौ..[द्विपात्, द्विपदी, चतुष्पात्, चतुष्पदी इत्या] दीनां सिद्धिः / 'वा पादः' इत्यत्र लिखितास्ति / चतुष्पात् इत्यत्र 'निर्दुर्बहिरावि०' (2 / 3 / 9) इति रस्य षकारः // 17 // आत् // 2 // 4 // 18 // ___ अकारान्तानाम्नः स्त्रियामाप् स्यात् / खट्वा / सर्वा / या / सा / 'आत्' इत्यधिकृतमुत्तरत्र यथासम्भवं योजनीयम् // 18 // ... गौरादिभ्यो मुख्याड्डीः // 2 // 4 // 19 // [गौरादिभ्य इत्यारभ्य नुर्जाते इत्यन्तं पुनः ङीप्रत्ययाधिकारे सूत्र 54] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते गौरादेर्गणान्मुख्यात् स्त्रियां डीः स्यात् / मुख्यादित्यधिकारोऽयम् / गौरी / मुख्यादिति किम् ? बहुनदा भूमिः // 19 // ___ अ० गौर / शबल / कल्माष / सारङ्ग / पिशङ्ग / हरिण / पाण्डर / अमर / सुन्दर / विकल / निष्कल पुष्कल / गौरादीनां गुणवचनत्वेनाजातिवाचित्वादप्राप्ते पाठः / / दास / चेट / विट / भिक्षुक / बन्धक / पुत्र गायत्र / आनन्द / टेट / कटेट / नट / एषामजातिवाचित्वादप्राप्ते पाठः / / काव्य / शैव्य / मत्स्य / मनुष्य मुकय / हय / गवय / ऋश्य / द्रुण / ओकण / एषां जातिवाचित्वेऽपि यान्तत्वात् द्रुणओकणयोर्नित्यस्त्रीविषयत्वादप्राप्ते पाठः / / भौरिकि / भौलिकि / भौलिङ्गि / औद्गाहमाति / आलम्बि / आलच्चि / कालच्चि / सौधर्म / आयस्थूण आरद / तथा दोटी / वरट / नाट / पाट / सृपाट / मूलाट / पेट / पट / पटल / पुट / कुट / फाण्टश घातक / केतक / तर्कर / शर्कार / बदर / कुवल / लवण / बिल्व / आमलक / मालत / वेतस / अतस आढक / कदर / कदल / गुडूच / बाकुच / नाच / कुम्भ / कुसुम्भ / यूष / मेष / सूष / मूष / करीर / शल्लक वल्लक / मल्लक / मालक / मेथ / हरीतक / कोशातक / पिप्पल / शम / तम / शृङ्ग / भृङ्ग / बिम्ब / बर्बर सुषव पाण्ड / लोहाण्ड / पिण्ड / मण्ड / मण्डर / मण्डल / यूप / सूप / शूर्प / सूर्म / मठ / पिठर / कुर्द गूर्द / सूर्द / खार / काकण / द्रोण / अरीहण / ओकण / वृस / आसन्द / अलन्द / कन्दल / सलन्द / देह देहल / शष्कुल / शव / सूव / मञ्जर / शङ्कुलि सूचिशब्दोऽपि / अलज / गण्डुज / वैजयन्त / शालूक / उपरत / सच्छेद / एषां नित्यस्त्रीविषयत्वादप्राप्ते पाठः / / क्रोष्ठु-सरस् अनयोरनकारान्तत्वादप्राप्ते पाठः / / अनड्वाही / अनडुही / प्रत्यवरोहिणी पृथिवी आग्रहायणी / तथा एहि / पर्येहि / अनयोरिदम्तत्वाद्विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थेऽत्र पाठः / सूत्रे बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन नद मह भष प्लव चर गर तर गाह देव सूद अराल उदवड चण्ड उमाभङ्ग हरीकण वटर / अधिकार / एषण इति करणे एषणी वैद्यशलाका, करणादन्यत्र एषणा / इति गौर्यादिगणः // 19 // अणजेयेकण्नस्नटिताम् // 2 // 4 // 20 // अणादिप्रत्ययानां योऽकारस्तदन्तानाम्नः प्रत्यासत्तेस्तेषामेवाणादीनां वाच्यायां स्त्रियां वर्तमानात् डीः स्यात् / अण्. औपगवी / तापसी / कुम्भकारी [उपजात] अञ्. वेदी / छात्री / चौरी / तापसी / एयण. सौपर्णेयी। वैनतेयी। एयच् / शिलेयी। एयञ् / शैलेयी। इकण्. आक्षिकी / नञ्. स्त्रैणी। स्नञ्. पौंस्नी। टित्. जानुदघ्नी। जानुद्वयसी। जानुमात्री। द्वयी। त्रयी। इत्यादि / गायनी। कुरुचरी / प्रत्ययसाहचर्यादागमटितो न भवति [इडागमस्य नञ् (न भवति)] पठिता विद्या / शुनीन्धयी। स्तनन्धयी। इत्यादौ तु धातोष्टिकरणस्यानन्यार्थत्वादटितोऽपि ङीः स्यात् / प्रत्यासत्त्या तैरेवाणादिभिः स्त्रिया विशेषणं किम् ? गौतमा कन्या // 20 // ___अ० औपगवी / उपगता गावो यस्याः / 'गोश्चान्ते०' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः / उपगोरपत्यं ‘डसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) इति अण् / 'अस्वयम्भुवोऽव्' (7 / 4 / 70) इति उकारस्य अव् / 'वृद्धिः स्वरे०' (7 / 4 / 1) वृद्धिः / औ पश्चात् ङीः / / तापसी / तपस् तपोऽस्यास्तीति 'ज्योत्स्नादिभ्योऽण्' (7 / 2 / 34) / / कुम्भं करिष्यामीति व्रजति कुम्भकारी व्रजति ‘कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) ततो ङीः / / 'अस्य ड्यां लुप्' (2 / 4 / 86) / वैदी-विदस्यापत्यं पौत्री वैदी 'विदादेवृद्धे' (6 / 1 / 41) अञ् / ततो डीः / छात्रीत्यादि च्छत्रं शीलमस्य च्छात्रः, चुरां शीलमस्य चौरः / तपस् / तपः शीलमस्य तापसः अस्थाच्छत्रादेरञ् (6 / 4 / 60) इति सूत्रेण अञ् / वृद्धिः / स्त्री चेत् च्छात्री / चौरी / तापसी / 'अणजेये.' इति ङीः / / सूत्रे एय इति अनुबन्धरहितग्रहणम्, तेन एयण, एयच्, एयञ् एषां यथा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 185 क्रमं प्रयोगाः / सुपा अपत्यं सौपर्णेयः / विनतायाः अपत्यं वैनतेयः / ‘ड्याप्त्यूङः' (6 / 170) इति सूत्रेण एयण् / शिलायास्तुल्या शिलेयी / शैलेयी / इष्टका / 'शिलाया एयच्च' (71 / 113) इति सूत्रेण एयच् / शिलेयी / चकारात् एयञ्, तत्र शैलेयी इष्टका / अक्षैर्दीव्यति आक्षिकी 'तेन जितजयद्दीव्यत्खनत्सु' (6 / 4 / 2) इति इकण् / स्त्रिया अपत्य स्त्रिया इयं वा स्त्रैणी / पुंसोऽपत्यं पुंसो वर्ग (इदं) वा पौंस्नम् / स्त्री चेत् (पौंस्नी) 'प्राग्वतः स्त्रीपुंसाबस्नञ्' (6 / 1 / 25) / जानु ऊर्ध्वं प्रमाणमस्या जानुदघ्नी / 'वोर्ध्वं दघ्नवयसट्' (7 / 1 / 142) जानुदघ्नी जानुद्वयसी / जानुनी प्रमाणमस्याः प्रमाणान्मात्रट् (7 / 1 / 140) इति मात्रट जानुमात्री / 'कै गैरै शब्दे' गायन्ति गायनी, एवं शिल्पगायनी / 'टनण्' (5 / 1 / 67) इति सूत्रेण टनण् / कुरुषु चरतीति कुरुचरी / 'चरेष्टः' (5 / 1 / 138) इति सूत्रेण टप्रत्ययः / शुनी / स्तन / ट्धे पाने / शुनी धयतीति स्तनं धयतीति 'शुनिस्तनमुञ्जकूलास्य पुष्पाट ट्धेः' (5 / 1 / 119) इति खश् / 'खित्यनव्ययाऽरुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च' (3 / 2 / 111) मोऽन्तः / ह्रस्वश्च शुनिन्धयी / स्तनन्धयी सर्पजातिः / गौतमेन प्रोक्तानीति 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) इति सूत्रेण इण् / 'अणजेये.' इत्यनेन डीः / गौतमीमधीते 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) पुनरपि अण् / 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इति सूत्रेण अणो लुप् ‘ड्यादेर्गौणस्याक्किप०' (2 / 4 / 95) इत्यनेन ङीलोपः / अणो लुपि सत्यां अणन्तत्वाभावात् पुनर्जी न भवति इति गौतमा इति प्रयोगः / आप भवति-टित् द्वारेणविशेषप्रयोगा इमे ज्ञेयाः / शक्तिः / यष्टिः / आयुधमस्याः शाक्तीकी याष्टीकी ‘शक्तियष्टेष्टीकण्' (6 / 4 / 64) ह्यस्तनी / श्वस्तनी / अद्यतनी / चिरन्तनी / परुत्तनी / भूतपूर्वा भिक्षुः भिक्षुचरी / “भूतपूर्वेप्चरट्' (7 / 2 / 78) // 20 // वयस्यनन्त्ये // 2 // 4 // 21 // ___प्राणिनां कालकृतावस्था बाल्ययौवनादि वयः तस्मिन्ननन्त्येऽचरमे वर्तमानादकारान्तात् ङीः स्यात् / कुमारी / किशोरी। तरुणी / तलुनी / कलभी / वधूटी / अनन्त्य इति किम् ? वृद्धा / स्थविरा / कथं द्विवर्षा ? नैता वयःश्रुतयः, अर्थात्तु वयो गम्यते / बाला / वत्सा इत्यादयोऽजादौ // 21 // ___ अ० कुमारी / वियोगाभावविशिष्टं वयः कुमारीशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं भवति / न तु धवयोगाभावमात्रम् / वृद्धा कुमारीव वृद्धकुमारी इत्युपमानवशात् / द्वे वर्षे भूता द्विवर्षा एवं त्रिवर्षा / 'प्राणिनि भूते' (6 / 4 / 112) इति सूत्रेण अप्रत्ययः // 21 // द्विगोः समाहारात् // 2 // 4 // 22 // समाहारद्विगुसंज्ञनाम्नोऽकारान्तात् ङीः स्यात् / [पञ्चानां पूलानां समाहारः] पञ्चपूली / [पञ्चानामजानां समाहारः] पश्चाजी / कथं त्रिफला ? अजादित्वात् // 22 // ___ परिमाणात्तद्धितलुक्यबिस्ताचितकम्बल्यात् // 2 // 4 // 23 // परितः सर्वतो मानं परिमाणम् / तच्च रूढितः प्रस्थादि / यदाहुः- 'ऊर्ध्व मानं किलोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः / [ऊर्ध्वं विना दैर्येण] आयामस्तु प्रमाणं स्यात्, सङ्ख्या बाह्या तु सर्वतः' // 1 // बिस्तादिवर्जपरिमाणान्ताद् द्विगोरकारान्तात्तद्धिते लुकि ङीः स्यात् / द्विकुडवी / न्याढकी / परिमाणादिति किम् ? पञ्चाश्चा। द्विशता / तद्धितलुकीति किम् ? द्विपण्या / अबिस्ताचितकम्बल्यादिति किम् ? द्विबिस्ता / ब्याचिता / द्विकम्बल्या // 23 // Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते अ० बिस्तः सुवर्णकर्षः / आचितो दशभारः / ऊर्णापलशतं कम्बलम् / एते परिमाणविशेषा शाकटायने उच्यन्ते / कम्बलोऽस्य स्यात् वाक्ये 'कम्बलान्नाम्नि' (7 / 1 / 34) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68 इति अलोपः / अशीतिशतं कम्बल्यमित्यन्ये / षट्षष्टिशतमित्यपरः / द्वाभ्यां कुडवाभ्यां त्रिभिः कुडवैः क्रीता द्वाभ्यामाढकाभ्यां क्रीता / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इति सूत्रेण इकण् / 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (6 / 4 / 141 इति सूत्रेण इकण् लुप्यते / ततो डीः // पञ्चभिरश्चैः क्रीता पश्चाश्चा / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण् द्वाभ्यां शताभ्यां क्रीता द्विशता / ‘सङ्ख्याडतेश्चाऽशत्तिष्टेः कः' (6 / 4 / 130) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / 'अनाम्न्यद्विः (6 / 4 / 141) इत्यनेन इकण् कप्रत्ययश्च लुप्यते / द्वाभ्यां पणाभ्यां क्रीता द्विपण्या। ‘पणपादमाषायः' (6 / 4 / 148 इति सूत्रेण यप्रत्ययः / 'अवर्णेवर्णस्य' (74 / 68) इति अकारो लुप्यते / द्वाभ्यां विस्ताभ्यां क्रीता द्विबिस्ता द्वाभ्यामाचिताभ्यां क्रीता ब्याचिता / द्वाभ्यां कम्बल्याभ्यां० 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण् ‘अनाम्न्यद्विः (6 / 4 / 141) लुप् / तत आप् / कम्बलोऽस्य स्यात् 'कम्बलान्नाम्नि' (7 / 1 / 34) इति यः / ततो द्वाम कम्बल्याभ्यां क्रीता / ऊर्ध्वत्वेन दैर्येणैव आयामं नाम प्रमाणमुच्यते // 23 / / काण्डात् प्रमाणादक्षेत्रे // 2 // 4 // 24 // प्रमाणवाचिकाण्डशब्दान्तादक्षेत्रविषयाव्दिगोस्तद्धितलुकि ङीः स्यात् / द्विकाण्डी / त्रिकाण्डी रज्जः प्रमाणादिति किम् ? द्विकाण्डा शाटी / अक्षेत्र इति किम् ? द्विकाण्डा क्षेत्रभक्तिः // 24 // अ० द्वे काण्डे प्रमाणमस्या द्विकाण्डी / त्रीणि काण्डानि प्रमाणमस्यास्त्रिकाण्डी। 'प्रमाणान्मात्रट्' (7 / 1 / 140 'द्विगोः संशये च' (7 / 1 / 144) इति सूत्रेण मात्रट् लुप्यते / तदनन्तरं 'काण्डात्प्रमाण०' इत्यनेन डी / द्वाभ काण्डाभ्यां क्रीता द्विकाण्डा / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण् / 'अनाम्न्यः' (6 / 4 / 141) इति इकण् लुप्यते अक्षेत्र इति द्विगोविशेषणं किम् ? काण्डस्य क्षेत्रविषयत्वेऽपि यथा डीः स्यात् / द्वाभ्यां काण्डाभ्यां क्षेत्रसंज्ञिताभ क्रीता द्विकाण्डी / त्रिकाण्डी वडवा / अत्र द्विगुर्न क्षेत्रविषयः किन्तु काण्डशब्दविषय इति ङीर्भवतीत्यर्थः / काण्ड परिमितं क्षेत्रमपि काण्डं इति युक्त्या / द्वे काण्डे प्रमाणमस्याः 'प्रमाणान्मात्रट्' (7 / 1 / 140), 'द्विगोः संश च' (7 / 1 / 144) इत्यनेन मात्रट लुप्यते / तत आप् / एवं त्रिकाण्डा // 24 // पुरुषाद्वा // 2 // 4 // 25 // प्रमाणवाचिपुरुषान्ताद् द्विगोस्तद्धितलुकि ङीर्वा स्यात् / द्विपुरुषी / द्विपुरुषा परिखा / प्रमाणादित्येव द्विपुरुषा वडवा / तद्धितलुकीत्येव पञ्चपुरुषी / द्विगोः समाहारादिति नित्यमेव // 25 // अ० द्वौ पुरुषौ प्रमाणमस्या द्विपुरुषी / त्रयः पुरुषाः प्रमाणमस्याः त्रिपुरुषी / 'प्रमाणान्मात्रट' (7 / 1 / 140) 'द्विगोः संशये च' (7 / 1 / 144) इति मात्रट् लुप्यते / द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां क्रीता 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150 इकण् / 'अनाम्न्यद्वि०' (6 / 4 / 141) इति लुप् / पञ्चानां पुरुषाणां समाहारः अथवा पञ्च पुरुषा रज्जुप्रमाणभूता समाहृताः पञ्चपुरुषी / / 25 / / रेवतरोहिणाझे // 2 // 4 // 26 // रेवतरोहिणाभ्यां भे नक्षत्रवृत्तिभ्यां ङीः स्यात् / रेवती / रोहिणी। भ इति किम् ? रेवता / रोहिणा कथं रोहिणी [ओषधिभेदः] कटुरोहिणी [ओषधिभेदः] ? रोहिणशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति [अर्थभेदात् प्रकृतिभेद इत्यर्थः Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ततो जातिलक्षणो डीभविष्यति // 26 // ___ अ० यदा पुनः रेवत्यां जाता रोहिण्यां जाता इति वाक्ये ‘भर्तुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) इति सूत्रेण अण् / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) 'अण्ञये०' (2 / 4 / 20) इत्यादिना ङी। 'चित्रारेवतीरोहिण्याः स्त्रियाम्' (6 / 3 / 108) इति सूत्रेण अण् लुप्यते / 'ड्यादेौणस्या०' (2 / 4 / 95) इत्यनेन डीलृप्यते / तदापि नक्षत्रशब्दत्वात् पुनरपि 'रेवतरोहिणाद्रे' इत्यनेन ङीर्भवतीत्यर्थः / / 26 // नीलाप्राण्यौषध्योः // 2 // 4 // 27 // नीलशब्दात् प्राणिनि ओषधौ च ङीः स्यात् / नीली वडवा / नीली गौः / नीली ओषधिः / प्राण्यौषध्योरिति किम् ? नीला शाटी // 27 // / __क्ताच नाम्नि वा // 2 // 4 // 28 // नीलात् क्तान्ताच वा ङीः स्यात् / नाम्नि सञ्ज्ञायाम् / नीली / नीला / प्रवृद्धाप्रबद्धाविलूनी / प्रवृद्धप्रबद्ध]विलूना // 28 // ___ अ० प्रवृद्धश्चासौ विलूनश्च प्रवृद्धविलूनः / स्त्री चेत् इति वाक्यं कार्यम् / ओषधिविशेषः / अखण्डः संज्ञाशब्दो वा // 28 // केवलमामकभागधेयपापापरसमानार्यकृतसुमङ्गलभेषजात् // 2 // 4 // 29 // एभ्यः स्त्रियां लीः स्यानाम्नि / केवली नाम ज्योतिः / मामकी / भागधेयी। पापी [ओषधी] / अपरी [ओषधि] / समानी [छन्दः] / आर्यकृती [क्रियाविशेषः] / सुमङ्गली [ओषधी] / भेषजी [ओषधी] / नाम्नीति किम् ? केवला // 29 // अ० मामक / अस्मद् / ममायं मामकः / 'वा युष्मदस्मदोऽञीनञौ युष्माकास्माकं चास्यैकत्वे तु तवकममकम्' (6 / 3 / 67) इति सूत्रेण अप्रत्ययः / अस्मद्स्थाने ममकआदेशः / [मामक].. स्त्री चेत् मामकी मामकी मातुली / भागधेयी बलिः / मामकशब्दात् अञन्तत्वेन 'अण्ज्ञेये०' (2 / 4 / 20) इत्यादिना डीसिद्धोऽपि नाम्नि सञ्जाविषये नियम्यते / तेन मामिका बुद्धिरित्यत्र संज्ञायां अञ्लक्षणप्राप्तोऽपि डीन भवति / 'नरिका मामिका' (2 / 4 / 112) इत्यत्र वक्ष्यमाणसूत्रे मामिका, इत्वनिपाते ङीप्रतिषेधस्य वक्ष्यमाणत्वात् / अस्मद् / ममेयं मामिका / इतिवाक्ये 'युष्मदस्मदोऽजीनञौ०' (6 / 3 / 67) इत्यादिना अञ् ममकादेशश्च / असंज्ञत्वात् / 'केवलमामक०' इत्यादिनाऽत्र ङीन भवति / 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्यनेन आप् / 'नरिकामामिका' (2 / 4 / 112) इति सूत्रेण इत्वं निपात्यते / मामिका इति सिद्धम् / केवलशब्दादियं अवचूरिः ज्ञेया // 29|| भाजगोणनागस्थलकुण्डकालकुशकामुककटकबरात् पक्कावपनस्थूला कृत्रिमामत्रकृष्णायसीरिरंसुश्रोणिकेशपाशे // 24 // 30 // भाजादिभ्यो यथासङ्ग्यं पकाद्यर्थेषु स्त्रियां डीः स्यानाम्नि। भाजी पका चेत्, ततोऽन्या भाजा / गोणी आवपनं चेत्, गोणाऽन्या / नागी स्थूला चेत्, नागाऽन्या / स्थली अकृत्रिमा चेत्, स्थलाऽन्या / कुण्डी अमत्रं चेत्, कुण्डाऽन्या / काली कृष्णा चेत्, कालाऽन्या / कुशी आयसी [लोहमयी] चेत्, कुशाऽन्या / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते कामुकी रिरंसुश्चेत् (रिरंसुः रन्तुमिच्छुः), कामुकाऽन्या। कटी श्रोणी चेत् / कटाऽन्या / कबरी केशपाशश्वेत कबराऽन्या // 30 // ___ अ० 'भाजण् पृथक्कर्मणि' / भाज् / 'चुरादिभ्यो णिच्' (3 / 4 / 17) भाज्यते इति भाजी / भिक्षा (?) पब भाजी उच्यते / अन्यत्र भाजा / अत एव निपातनात् अप्रत्यक्षः / अन्यत्र ‘णिवेत्त्यासग्रन्थ०'. (5 / 3 / 111) इत्यादिन अनप्रत्यये भाजन इति प्रयोगः स्यात् / गोणीच्छाटी इति लोके रूढिः / तन्वी दीर्घा वा सर्पजातिविषये नार इत्येव प्रयोगः // 30 // नवा शोणादेः // 2 // 4 // 31 // शोणादेर्गणात् ङीर्वा स्यात् / शोणी / शोणा / चण्डी / चण्डा // 31 // अ० कल्पपाली / स्नेहभृत्वास्तण्डुलाः // 3 // शोणादिगणः / शोण / चण्ड / अराल / कमल / कृपण विकट / विशाल / विशङ्कट / भरुज / ध्वज / कल्याण / उदार / पुराण / बहु / बहुः / बह्री / एवंनामा काचित् हन् / वृत्रध्नी / वृत्रहा / चन्द्रभागो नद्यां वर्त्तते चन्द्रभागी चन्द्रभागा नदी / नद्या अन्यत्र चन्द्रभागा नाम देवत // 31 // इतोऽक्त्यार्थात् // 2 // 4 // 32 // इकारान्तानाम्नः स्त्रियां ङीर्वा स्यात्, चेत्तनाम क्त्यर्थप्रत्ययान्तं न स्यात् / भूमी भूमिः / आली आलिः धूली धूलिरित्यादि / अक्त्यादिति किम् ? कृतिः / अकरणिः इत्यादि / कथं साती सातिः ? तिग न्ताद्भविष्यति // 32 // अ० 'षणूयी दाने' / सनुतात् सातिः / 'तिकृतौ नाम्नि' (5 / 1 / 71) तिक् / 'तौ सनस्तिकि' (4 / 2 / 64 इति आकारो नस्य लुप् / तिगन्तादिति ङीर्भवत्येव / नात्र क्तिः / पराशङ्कानिवर्त्तनम् // आदिशब्दात् भूमी भूमिः / अङ्गुली / अङ्गुलिः / धूलि / धूलिः / आली / आलिः / धमनी / धमनिः / दर्वी / दर्चिः / श्रोणी श्रोणिः / राजी / राजिः / श्रेणी / श्रेणिः / आवली / आवलिः / यष्टी / यष्टिः,। शारी / शारिः / सरणी। सरणिः / अशनी / अशनिः / अशनिः / अरणी / अरणिः / शंकृत्करी / शकृत्करिः / शकृत्करोति ‘सकृत्स्तम्बाद्वत्सव्रीहौ कृगः' (5 / 1 / 100) इति इप्रत्ययः / आत्मम्भरी / आत्मम्भरिः / कपी / कपिः / अही / अहिः / तारी / तारिः / मुनी / मुनिः / अञ्चती / अञ्चतिः / अङ्कती / अङ्कतिः / अंहती / अंहतिः / शकटी। शकटिः / शस्त्री / शस्त्रिः / रजनी / रजनिः / धरणी / धरणिः / रात्री / रात्रिः / इति इकारान्तः / तथा कृतिः। अकराणिः / अज्यानिः / ग्लानिः / हानिः / इति क्त्याः / अञ्चतिः अग्निस्तद्भार्या च / अंहतिर्दाने वर्त्तते // 32 // पद्धते // 2 // 4 // 33 // पद्धतिशब्दाद्वा / स्त्रियां वा ङीः स्यात् / पद्धती / पद्धतिः / क्त्यर्थ आरम्भः // 33 // अ० पाद / ‘हनंक हिंसागत्योः' पादाभ्यां हन्यते पद्धतिः / 'वादिभ्यः' (5 / 3 / 92) क्तिः / 'यमिरमिनमिः' (4 / 2 / 55) इति नकारो लुप्यते / हिमहतिकाषिये पद्' (3 / 2 / 96) इति सूत्रेण पादस्य पद् आदेशः / 'ततो हश्चतुर्थः' (1 / 3 / 3) हस्य धः / पद्धतिः इति सिद्धम् // 33 // शक्तेः शस्त्रे // 2 // 4 // 34 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 189 शक्तेः स्त्रियां शस्त्रे ङीर्वा स्यात् / शक्ती / शक्तिः / शस्त्र इति किम् ? शक्तिः [सामर्थ्यम्] // 34 // स्वरादुतो गुणादखरोः // 2 // 4 // 35 // स्वरात्परो य उकारः सामर्थ्यादेकवर्णव्यवहितस्तदन्तागुणवचनात् खरुवर्जात् स्त्रियां कीर्वा स्यात् / पट्वी। पटुः / इत्यादि / स्वरादिति किम् ? पाण्डुर्भूमिः [धवला भूः] / गुणादिति किम् ? आखुः स्त्री / अखरोरिति किम् ? खरु(श्वेता)रियम् // 35 // - अ० पट्दी पटुः / मृद्वी मृदुः / बह्वी बहुः / साध्वी साधुः / तन्वी तनुः / लघ्वी लघुः / विभ्वी विभुः / इत्युकारान्तशब्दा आदिशब्दात् ज्ञातव्याः / गुणस्वरूपमाह ‘सत्त्वे निविशतेऽपैति पृथग्जातिषु दृश्यते / आधेयश्चाऽक्रियाजश्च सोमसत्त्वप्रकृतिर्गुणः / / 1 / / इति गुणमिह परिभाषन्ते सूरयः / विशेषं च सत्त्वं द्रव्यम् / तत्रैव निविशते / तदेवाश्रयति यः स गुण इति ज्ञेयः सम्बन्धः / यः पुनः कीदृशः ? द्रव्यादपैति अपगच्छति / यथा आम्रात् नीलता पीततायां जातायां मच्छति इति गुणः / पृथग्जातिषु भिन्नजातीयेषु दृश्यते / यथा सैव नीलताने दृष्ट्वा एतेन सर्वेण जातिर्गुणो न भवतीत्युक्तं भवेत् / आधेय उत्पाद्यो गुणो यथा कुसुमयोगाद्गन्धो वस्त्रे / अग्निसंयोगाद् घटे रक्तता / अक्रियाजो नित्यः / यथा आकाशादिषु महत्त्वादि / तदेवं गुणस्य उत्पाद्यत्व-अनुत्पाद्यत्वप्रकारद्वयदर्शनेन उत्पाद्यत्व एकप्रकारस्य कर्मणो . व्यवच्छेदः कृतः / असत्त्वप्रकृतिव्यस्वभावरहितः / एतेन द्रव्यस्य व्यवच्छेदः कृत इति गुणस्वरूपम् // 35 / / - इयतैतहरितभरितरोहिताद्वर्णात्तो नश्च // 2 // 4 // 36 // ____ एभ्यो वर्णवाचिभ्यो स्त्रियां ङीर्ष स्यात् / ङीयोगे तकारस्य नकारश्च / श्येनी / श्येता / [कुमुदा भास्वती कर्बुरा वा] एनी / एता / हरिणी / हरिता / भरिणी / भरिता / रोहिणी / रोहिता / वर्णादिति किम् ? श्येता एता [मृगी मत्सी श्येनी वा] // 36 // ___ अ० श्येतेतिसूत्रे चकारो नकारस्य ङीसन्नियोगशिष्टतार्थः / घृतवर्णा भरणी / रोहिणीशब्दस्य लत्वे लोहिनी लोहिता इति भवति // 36 / / क्नः पलितासितात् // 2 // 4 // 37 // - पलितासिताभ्यां स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / ङीयोगे तकारस्य स्नादेशश्च / पलिक्नी / पलिता / असिक्नी असिता // 37 // अ० पलिक्नी इत्यादि / पलित / पलितान्यस्याः सन्ति इति वाक्ये 'अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति अप्रत्ययः / तथा या गौर्लध्व्यपि गर्भं दधाति सा असिक्नी इत्युच्यते, अन्तःपुरदूती च असिक्नी // 37 // ___ असहनविद्यमानपूर्वपदात्स्वाङ्गादक्रोडादिभ्यः // 2 // 4 // 38 // सहनविद्यमानवर्जितपूर्वपदं यत् स्वाङ् तदन्तात् क्रोडादिवर्जादकारान्तात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / पीनस्तनी। पीनस्तना। अतिकेशी। अतिकेशा माला। असहनविद्यमानपूर्वपदादिति किम् ? सहकेशा / अकेशा। विद्यमानकेशा। स्वाङ्गादिति किम् ? बहुयवा / अक्रोडादिभ्य इति किम् ? कल्याणक्रोडा [क्रोडशब्दः स्त्रीक्लीबलिङ्गः] कथं कल्याणपाणिपादा ? अत्र ङीन स्यात् / [द्विपादी त्रिपादीत्यत्र तु 'द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) इति विशेषविधानान्नित्यमेव ङीर्भवति] स्वाङ्गसमुदायो हि न स्वाङ्गम् / बहुस्वरत्वेन वक्ष्यमाणनियमबलाद्वा न ङीः // 38 // / अ० पीनौ स्तनौ यस्याः सा पीनस्तना / अतिक्रान्ता केशान् अतिकेशी / कल्याणक्रोडा / कल्याणखुरा / पीन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते गुदा / एकशफा / दीर्घवाला। भव्यभाला / सुगला / सुभला / कल्याणोखा / कल्याणगोखा / क्रोडादिभ्योऽत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तेन किसलयकरा / मृणालभुजा इति क्रोडादिगणः / कल्याणी क्रोडा यस्याः सा / कल्याणं पाणिपादमस्याः सा कल्याणपाणिपादा / अत्र ङी किमर्थं न भवति इति पराशयः / स्वाङ्गं नास्ति इति हेतोः / वक्ष्यमाण 'नासिकोदर०' (2 / 4 / 39) इत्यत्र बहुस्वरयुक्तिबलाच्च ङीन भवतीत्यर्थः / अथ स्वाङ्गस्वरूपमुच्यते / 'अविकारोऽद्रवं मूर्तं प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते / च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं प्रतिमादिषु' // 1 // अविकार इति किम् ? बहुशोफा / अद्रवमिति किम् ? बहुकफा / मूर्त्तमिति किम् ? बहुज्ञाना / प्राणिस्थमिति किम् ? दीर्घमुखा शाला / च्युतं च प्राणिनस्थदिति किमर्थम् ? अप्राणिस्थादपि पूर्वोक्ताद्यथा स्यात् / बहुकेशी बहुकेशा रथ्या / तन्निभं च प्रतिमादिष्विति किमर्थम् ? प्राणिस्थसदृशादपि पूर्वोक्ताद्यथा स्यात्-पृथुमुखी पृथुमुखा प्रतिमा // 38 // नासिकोदरौष्ठजवादन्तकर्णश्रृङ्गाङ्गगात्रकण्ठात् // 2 // 4 // 39 // असहनविद्यानपूर्वपदेन एभ्यः स्वाङ्गेभ्यः स्त्रियां कीर्वा स्यात् / पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम् / तेन नासिकोदराभ्यामेव बहुस्वराभ्यां ओष्ठादिभ्य एव च संयोगोपान्त्येभ्यो भवति, नान्येभ्यः / तुङ्गनासिकी तुङ्गनासिका / कृशोदरी कृशोदरा / बिम्बोष्ठी बिम्बोष्ठा / एवं दीर्घजबी समदन्ती चारुकर्णीत्यादि // 39 // ___अ० पृथुजघना / सुललाटा / दृढहृदया इत्यादौ बहुस्वरत्वानियमविधानात्, सुपार्था इत्यादौ तु संयोगोपान्त्य. नियमविशेषकरणाच्च ‘असहनविद्यमानपूर्वपदात् स्वाङ्ग०' (2 / 4 / 38) इत्यनेनापि सूत्रेण ङीर्न भवति इति नान्येभ्य इत्यस्य भावार्थो ज्ञातव्यः / असहनविद्यमानपूर्वपदादित्येव-सहनासिका अनासिका विद्यमाननासिका; सोदर अनुदरा विद्यमानोदरा इति / बिम्बाकारौ ओष्ठौ यस्याः सा बिम्बौष्ठी बिम्बोष्ठी, बिम्बोष्ठा / अन्न 'वौष्ठौतौ समासे' (1 / 2 / 17) इति सूत्रेण विकल्पेन बिम्ब अकारलोपः / बिम्बौष्ठी इति सिद्धिर्विस्तरेण 'वौष्ठौतौ समासे' इत्यत्र सूत्रे लिखिताऽस्ति तत्र गवेष्या / दीर्घजङ्घा समदन्ता चारुकर्णा इति विकल्पपक्षे उदाहरणावली / तथा तीक्ष्णशृङ्ख तीक्ष्णशृङ्गा, मृद्वङ्गी मृदङ्गा, सुगात्री सुगात्रा, स्निग्धकण्ठी स्निग्धकण्ठा इति शेषाणि उदाहरणानि ज्ञातव्यानि / / 39 // नखमुखादनाम्नि // 2 // 4 // 40 // सहादि [सहनविद्यमान] वर्जपूर्वपदाभ्यां स्वाङ्गाभ्यां नखमुखाभ्यां स्त्रियां डीर्वा स्यादनाम्नि [असंज्ञायाम्।। [सूर्पाकारा नखा यस्याः सा] सूर्पनखी सूर्पनखा / [चन्द्रवन्मुखं यस्याः सा] चन्द्रमुखी चन्द्रमुखा / अनाम्नि इति किम् ? सूर्पनखा वज्रणखा गौरमुखा कालमुखा-संज्ञाशब्दाः [राक्षसीनामानि] एते // 40 // अ० सूर्पणखा अत्र नामविषये 'पूर्वपदस्थानाम्न्यगः' (2 / 3 / 64) इति णत्वम् / अनाम्नि न णत्वम् // 40 // पुच्छात् // 2 // 4 // 41 // सहादि [सहनश्विद्यमान] वर्जपूर्वपदात् स्वाङ्गात् पुच्छात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / दीर्घपुच्छी दीर्घपुच्छा // 4 // अ० असहनविद्यमानादित्येव-सपुच्छा अपुच्छा विद्यमानपुच्छा // 41 // कब[व]रमणिविषशरादेः // 2 // 4 // 42 // कबरादिपूर्वात् पुच्छात् स्त्रियां ङीः स्यात्, नित्यम् / पुनर्विधानं नित्यार्थम् / कबरपुच्छी मणिपुर्छ विषपुच्छी शरपुच्छी // 42 // अ० कबरं कर्बुरं वा पुच्छमस्याः कबरपुच्छी / मणिः पुच्छेऽस्या मणिपुच्छी / विषं पुच्छेऽस्या विषपुच्छी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः शरः पुच्छेऽस्याः शरपुच्छी // 42 // पक्षाच्चोपमा[ना]देः // 2 // 4 // 43 // उपमानपूर्वात् पक्षशब्दात्पुच्छाच स्त्रियां डीः स्यात् / उलूकपक्षी शाला / उलूकपुच्छी सेना // 43 // अ० उलूकस्येव पक्षावस्या उलूकपक्षी / उलूकस्येव पुच्छमस्या उलूकपुच्छी // 43 // क्रीतात्करणादेः // 2 // 4 // 44 // करणादेः क्रीतान्तादकारान्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् / अश्वक्रीती वस्त्रक्रीती धनक्रीती। मनसाक्रीतीत्यत्रालुप्समासः / करणग्रहणं किम् ? सुक्रीता दुष्क्रीता / कथं 'सा हि तस्य धनक्रीता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी' इति ? धनं च सा क्रीता चेति कर्मधारयोऽयम् / करणविवक्षायामपप्रयोग एव // 4 // ___अ० करणं कोऽर्थः ? तृतीयाविभक्त्यन्तं पदं आदौ यस्य स करणादिः / करणमादिरवयवो वा यस्य ? अश्वेन क्रीयतेस्म अश्वक्रीती / एवं वस्त्रेण धनेन क्रीयतेस्म ‘क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) / आदिग्रहणं किम् ? अश्वेन क्रीता। नहि अत्र करणं क्रीतान्तस्य नाम्न आदिरवयवोऽस्ति ऐकपद्याऽभावात् / इयं व्यावृत्ति-अवचूरिः दुष्क्रीता इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या / अग्रे कथं सा हि तस्येत्यादि / शोभनं क्रीयतेस्म सुक्रीता / दुष्टं च क्रीयतेस्म दुष्क्रीता'निर्दुर्बहिराविष्प्रादुश्चतुराम्' (2 / 3 / 9) इति रस्य षत्वम् // 44 // क्तादल्पे // 2 // 4 // 45 // करणादेः क्तान्तानाम्नोऽल्पेऽर्थे ङीः स्यात् / अम्रविलिप्ती द्यौः / सूपविलिप्ती स्थाली। अल्प इति किम् ? चन्दनानुलिप्ता स्त्री // 45 // अ०. अभ्रविलिप्तीत्यादि-अल्पेन अभ्रेण विलिप्यतेस्म अभ्रविलिप्ती (द्यौः) अल्पाऽभ्रमाकाशमित्यर्थः / दिवः प्रथमासिः / 'दिव औः सौ' (2 / 1 / 117) अन्त्यस्य औ आदेशः / अल्पेन सूपेन विलिप्यतेस्म अल्पसूपा इत्यर्थः / अनल्पेन चन्दनेन लिप्ता इत्यर्थः // 45 / / स्वाङ्गादेरकृतमितजातप्रतिपन्नाद्बहुव्रीहेः // 2 // 4 // 46 // स्वाङ्गादेः कृतादिवर्जक्तान्ताबहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / शङ्कभिन्नी ऊरुभिन्नी केशविलूनी गलकोत्कुत्ती। कृतादिवर्जनं किम् ? दन्तकृता दन्तमिता दन्तजाता दन्तप्रतिपन्ना / बहुव्रीहेरिति किम् ? पादपतिता // 46 // * अ० शङ्खौ भिन्नावस्याः सा शङ्खभिन्नी / ऊरू भिन्नावस्याः / केशा विलूना अस्याः / गलकं उत्कृत्तं छिन्नमस्याः / 'जातिकालसुखादेर्नवा' (3 / 1 / 152) इति सूत्रेण क्तान्तं नाम विकल्पेन प्राग् निपतति / ततः प्रयोगद्वयं भिन्नशङ्खा शकभिन्नीत्यादि ज्ञातव्यम् / पादयोः पतिता // 46 / / अनाच्छादजात्यादेर्नवा // 2 // 4 // 47 // __ आच्छादवर्जिता या जातिस्तदादेः कृतादिवर्जक्तान्तादहुव्रीहेमर्वा [स्त्रियां] स्यात् / शाङ्गरजग्धी शाङ्गरजग्धा। अनाच्छादग्रहणं किम् ? वस्त्रं च्छन्नमस्यां वस्त्रच्छन्ना / जात्यादेरिति किम् ? मासयाता इत्यादि [अत्र कालः] / अत्रास्वाङ्गादित्वात्पूर्वेणापि न डीः / अकृताद्यन्तादित्येव-कुण्डकृता इत्यादि // 47 // अ० शाङ्गरस्य वृक्षस्य विकारः फलं शाङ्गरम् ‘दोरप्राणिनः' (6 / 2 / 49) इति मयट् / ‘फले' (6 / 2 / 58) लुक् / शाङ्गरं जग्धं भक्षितमनया शाङ्गरजग्धी जग्धशाङ्गरा / 'जातिकालसुखादेर्नव (3 / 1 / 152) इति जातिद्वारेण Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते विकल्पेन क्तान्तस्य पूर्वनिपातः / यत्र क्तान्तं न पूर्वं तत्रैव ‘अनाच्छाद०' इति सूत्रेण डीर्भवति / सूत्रे क्तान्तात डीरुक्तः / यत्र तु क्तान्तं पूर्वं तत्र आप् एव जग्धशाङ्गरा / मासो यातो गतोमस्याः सा मासयाता यातमासा, मासगता गतमासा इतिवत् / अत्र 'जातिकालसुखादेर्नवा' (3 / 1 / 152) इति कालद्वारेण विकल्पेन क्तान्तं पूर्व निपतति / आदिशब्दात् संवत्सरयाता यातसंवत्सरा, बहुयाता यातबहुः, सुखयाता यातसुखेत्यादि (एषु सर्वत्र तालव्योकारो न च वर्गसम्बन्धीजः ?) कुण्डमिता कुण्डजाता वृक्षप्रतिपन्ना // 47 // पत्युर्नः // 2 // 4 // 48 // पत्यन्ताद्हुव्रीहेमर्वा स्यात् [स्त्रियाम्] / अन्त्यस्य नकारादेशश्च / दृढपत्नी दृढपतिः इत्यादि / मुख्यादित्येव-बहुस्थूलपतिः पुरी // 48 // अ० दृढपत्नीत्यादि / दृढः पतिरस्या दृढपत्नी / आदिशब्दात् स्थिरपत्नी स्थिरपतिः, स्थूलपत्नी स्थूलपतिः, वृद्धपत्नी वृद्धपतिः / स्थिर स्थूलो वृद्धः पतिरस्याः सा / तथा बहुस्थूलपतिः पुरी-अत्र स्थूलाः पतयो यासां ताः स्थूलपतयः / बह्वयः स्थूलपतयो यस्यां पूर्यां नगर्यां सा बहुस्थूलपतिः / प्रथमबहुव्रीहेः परतो विकल्पितत्वे न ङीः / डीविधानपक्षे तु बहुस्थूलपत्नीका इति प्रयोगो भवत्येव / बहुस्थूलपतिः पुरीत्यत्र च पत्यन्तो बहुव्रीहिर्मुख्यो नहि / यस्तु मुख्यः स पत्यन्तो नास्ति / यदा तु स्थूलश्चासौ पतिश्चेति कर्मधारये सति बहवः स्थूलपतयो यस्यां इति बहुव्रीहिस्तदापि स्थूलपत्यन्तो बहुव्रीहिर्न पत्यन्त इति न डीः // 48 // सादेः // 2 // 4 // 49 // सपूर्वोत्पत्यन्तात् ङीर्वा स्यात् [स्त्रियाम्] / अन्तस्य नकारादेशश्च / पूर्वेणैव सिद्धे पुनर्वचनं बहुव्रीहिनिवृत्त्यर्थम् / [ग्रामस्य पतिः] ग्रामपत्नी ग्रामपतिः / अधिपत्नी अधिपतिः / बहुपत्नी बहुपतिः / सादेरित्येव-पतिरियम् / मुख्यादिति किम् ? [अतिक्रान्ता] पतिम् अतिपतिः // 49 // अ० अधिष्ठात्री पतिः अधिपत्नी अधिपतिः / ईषदूनपतिः बहुपत्नी बहुपतिः / 'नाम्नः प्राग्बहुर्वा' (7 / 3 / 12) इति सूत्रेण बहुः पूर्वं क्रियते // 49 / / सपत्न्यादौ // 2 // 4 // 50 // सपत्न्यादिषु यः पतिशब्दस्तस्मात् स्त्रियां डीः स्यात्, नान्तादेशश्च / पुनर्विधानं नित्यार्थम् / सपत्नी एकपत्नी वीरपत्नी पिण्डपत्नी भ्रातृपत्नी पुत्रपत्नी / षडेव सपत्न्यादयः। समुदायनिपातनं समानस्य सभावार्य पुंवद्भावप्रतिषेधार्थ च / सपत्नीभार्यः // 50 // ___ अ० समानः पतिरस्याः सपत्नी / अथवा समानस्य पतिः सपत्नी / एवं एकः पतिरस्या एकपत्नी / वीरः पतिरस्या इत्यादि / 'समानस्य धर्मादिषु' (3 / 2 / 149) इत्यत्र धर्मादिगणे पत्नीशब्दो न पठित इति सभावो न प्राप्नोति इति ‘सपल्यादौ' सभावार्थं समुदायस्य निपातनं कृतम् / पुंवद्भावोऽपि प्रतिषिध्यते सपत्नी इति निपातबलात् / यथा सपत्नीभार्यः // 50 // ऊढायाम् // 2 // 4 // 51 // [परिणीता स्त्री] .. ___ पतिशब्दात्केवलाढायां परिणीतायां स्त्रियां ङीर्नान्तादेशश्च स्यात् / पत्नी। वृषलस्य पत्नी। ऊढायामिति किम् ? पतिरियम् // 51 // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ____ अ० ऊढायामिति किम् ? पतिरियम् / अत्र कोऽर्थः ? सङ्ग्रहीता स्त्री अभार्या वा / अनयोरपि कः परमार्थः ? कामार्दितेन अनग्निसाक्षिकं दारकर्मकत्वे याऽपि गृहीता सा सङ्ग्रहीता उच्यते, अथवा भार्याया अन्याऽप्रधानभूता भगिन्यादिका उच्यते // 51 // पाणिगृहीतीति // 2 // 4 // 52 // [जस् सूत्रत्वात् लुप्] इतिः प्रकारार्थः / पाणिगृहीतिप्रकाराः शब्दा ऊढस्त्रियां ड्यन्ता निपात्यन्ते / पाणिगृहीती करगृहीती। पाणी आदीयतेस्म] पाण्यात्ती / ऊढायामिति किम् ? यस्या यथाकथंचित् पाणिर्गृह्यते सा पाणिगृहीता // 52 // ___ अ० पाणौ गृह्यतेस्म इति पाणिगृहीती / “क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) 'गृह्णोऽपरोक्षायाम् दीर्घ' (4 / 4 / 34) इत्यनेन इटो दीर्घः / अथवा पाणिर्गृहीतोमस्याः पाणौ गृहीता वा / एवं करगृहीतीत्यादि // 52 / / पतिवत्न्यन्तर्वन्यौ भागर्भिण्योः // 2 // 4 // 53 // भार्या अविधवा [सभर्तृका] स्त्री / तस्यां वाच्यायां पतिमच्छब्दात् डीः, पतिवत्नादेशः, तथा गर्भिण्यां त्रियां वाच्यायां अन्तर्वच्छब्दात् ङीः अन्तर्वत्नादेशश्च निपात्यते / निपातनादेव चाधिकरणप्रधानादप्यन्तः [अन्त-मध्ये इत्येवं] शब्दान्मतुप्रत्ययः [मत्वर्थीयः] स्यात् // 53 // . अ० पतिवत्नी च अन्तर्वत्नी च / पति० औ / सूत्रे उदाहरणद्वयमपीदृशमेव / पृथग् न लिखितम् / पतिरस्यास्तीति पतितम् / अन्तरस्यास्तीति अन्तर्मत् / 'तदस्यास्ति' (7 / 2 / 1) इति मतुः। पश्चात् ‘पतिवल्यन्त०' इत्यनेन डीः पतिवत्न आदेशश्च निपात्यते / पतिवनी जीवत्पतिः सधवा उच्यते / अन्तर्वत्नी गर्भिणी उच्यते // 53 / / जातेरयान्तनित्यस्त्रीशूद्रात् // 2 // 4 // 54 // जातिवाचिनोऽकारान्तात् डीः स्यात् [स्त्रियाम्] / यदि तनाम यान्तं नित्यस्त्रीजातिवाचि शूद्रशब्दो वा न भवति / तत्र जातिस्त्रिधा 'आकृतिग्रहणा जातिर्लिङ्गानां च न सर्वभाक् / सकृदाख्यातनिर्लाह्या गोत्रं च चरणैः सह // 1 // कुकुटी सूकरी / तथा ब्राह्मणी वृषली / तथा कठी चारायणी / जातेरिति किम् ? मुण्डा शुक्ला / अयान्तेति किम् ? इभ्या क्षत्रिया आर्या / गवयी हयी मनुषी मत्सी ऋश्यी इति गौरादिपाठाद् / नित्यस्त्रीजातिवर्जनं किम् ? मक्षिका खट्वा / शूद्रवर्जनं किम् ? शूद्रा / आत् इति किम् ? तित्तिरिः, कोयष्टिः / मुख्यादिति किम् ? बहुब्राह्मणा शाला / कथं सुपर्णी ? सुपर्णशब्दस्यापि जातिवाचित्वात् // 54 // ___अ० जायेते उत्पद्यतेऽभिधानप्रत्ययौ अस्याः सकाशात् इति जातिः / जातिस्त्रिधा / कुक्कुटी सूकरी प्रथमजातिभेदे उदाहरणद्वयम् / द्वितीयजातिभेदे उदाहरणद्वयम् / तथा तृतीयजातिभेदे उदाहरणद्वयी / कठेन प्रोक्तो वेदः कठः 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) इति सूत्रेण अण् / कठप्रोक्तं वेदं वेत्त्यधीते वा 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) इति सूत्रेण पुनरण् / 'कठादिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183) इति सूत्रेण प्रथमकृतोऽण् लुप्यते, तदनन्तरं 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इति सूत्रेण द्वितीयः कृतोऽण् लुप्यते / स्त्री चेत् कठी / इभ्यमर्हति इभ्या 'दण्डादेर्यः' (6 / 4 / 178) इति यः 'अवर्णेवर्णस्य' (7/468) / क्षत्रस्यापत्यं स्त्री क्षत्रियः 'क्षत्रादियः' (6 / 1 / 93) इति इयप्रत्ययः / मनुः / मनोरपत्यं स्त्री मनुषी / 'मनोर्याणौ षश्चान्तः' (6 / 1 / 94) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, मनुशब्दात् षोऽन्तश्च / ‘गौरादिभ्यो०' (2 / 4 / 19) डीः, 'व्यञ्जनात्तद्वितस्य' (2 / 4 / 88) इत्यनेन तद्धितयकारलोपः, मनुषी / मत्स्यः / 'गौरादि०' (2 / 4 / 19) ङीः ‘मत्स्यस्य यः' (2 / 4 / 87) इति सूत्रेण मत्स्यशब्दे यकारलोपः / 'जातेरयान्त०' इत्यत्र अन्तग्रहणं Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते साक्षात् यकारान्तशब्दप्रतिपत्त्यर्थम् / तेन वतण्डस्यापत्यं वृद्धं स्त्री इति वाक्ये वतण्डी इति प्रयोगः / अत्र. हि वतण्डशब्दात् 'वतण्डात्' (6 / 1 / 45) इति तद्धितसूत्रेण यञ् / 'स्त्रियां लुप्' (6 / 1 / 46) इति तद्धितसूत्रेण यञ्प्रत्ययो लुप्यते / यत्रः पुनः स्थानिवद्भावत्वेऽपि यान्तलक्षणो ङीप्रतिषेधो न प्राप्नोति इति अन्तग्रहणं कृतम् / एतेन यत्रः साक्षात् यान्तत्वात् ङीर्न भवति / यकारे निवृत्ते ङीर्भवत्येवेति परमार्थः / कथं महाशूद्री आभीरजातिः ? नात्र शूद्रशब्दो जातिवाची / किं तर्हि ? महाशूद्रशब्दः / यत्र तु शूद्रशब्द एव जातिवाची तत्र ङीन भवत्येव / यथा महती चासौ शूद्रा च महाशूद्रा / अत्र जातिलक्षणस्य चायं निषेधः / तेन धवयोगे डीर्भवत्येव-शूद्रस्य भार्या शूद्री / न तु पर्णशब्दस्यैव जातित्वम् / तस्य च सुशब्देन सह समासे कृते सति अमुख्यत्वमिति डीन प्राप्नोतीत्याशयः / सूरिराह / सुपर्णशब्दस्यापि जातिवाचित्वात् तस्य मुख्यत्वात् // 54 // पाककर्णपर्णवालान्तात् // 2 // 4 // 55 // पाकायन्ताज्जातिवाचिनो नाम्नो ङीः स्यात् [स्त्रियाम्] / ओदनपाकी आखुकर्णी मुद्रपर्णी गोवाली अश्ववाली / एता ओषधिजातीनां संज्ञाः / जातिरित्येव-बहुपाका यवागूः // 55 // अ० ओदनस्येव पाको यस्याः ओदनपाकी / एवं क्षणं क्षणेन वा पाकोऽस्याः क्षणपाकी / आखोः कर्णी इव कर्णौ यस्याः आखुकर्णी / मुद्गस्येव पर्णान्यस्याः मुद्गपर्णी / गोरिव वालाः केशा अस्या गोवाली // 55 // . असत्काण्डप्रान्तशतैकाञ्चः पुष्पात् // 2 // 4 // 56 // . सदादिरहितशब्दपूर्वो यः पुष्पस्तदन्ताजातिवाचिनाम्नो डीः स्यात् (स्त्रियाम्) / शङ्खपुष्पी सुवर्णपुष्पी। सदादिप्रतिषेधः किम् ? सत्पुष्पा काण्डपुष्पा प्रान्तपुष्पा शतपुष्पा. एकंपुष्पा प्राक्पुष्पा प्रत्यक्पुष्पा // 56 // अ० शङ्खपुष्पीप्रभृति ओषधीनां नित्यस्त्रीजतित्वात् डीसिद्धयर्थम् 'असत्काण्डपान्त०' इति सूत्रं कृतम् / अन्यथा 'जातेरयान्त०' (2 / 4 / 54) इति पूर्वसूत्रेण नित्यस्त्रीजातित्वात् ङीर्न प्राप्नुयात् / शङ्खवर्णं पुष्पं यस्याः शङ्खपुष्पी / सुवर्णवर्णं पुष्पमस्याः सुवर्णपुष्पी / सन्ति विद्यमानानि पुष्पाण्यस्याः सत्पुष्पा / काण्डे पुष्पमस्याः काण्डपुष्पा / एवमग्रेऽपि // 56 // असम्भस्त्राजिनैकशणपिण्डात् फलात् // 2 // 4 // 57 // समादिवर्जितो यः फलस्तदन्ताजातिवाचिनाम्नो ङीः स्यात् [स्त्रियाम्] / वासीफली। पूगफली / समा. दिवर्जनं किम् ? सम्फला भस्वाफला अजिनफला एकफला शणफला पिण्डफला // 5 // ___ अ० वासीफलीप्रमुखाः पिण्डफलपर्यन्ता एता ओषधिजातिविशेषाणां सञ्ज्ञा ज्ञातव्याः / वासीफली पूगफली दाडिमफली-एषु डीसिद्धयर्थं 'असम्भस्राजिन०' इति सूत्रं कृतम् / अन्यथा 'जातेरयान्तनित्यस्त्रीशूद्रात्' इति पूर्वसूत्रेण ङीप्रतिषेधः स्यात् // 57|| __ अनञो मूलात् // 2 / 4 / 58 // नञ्चर्जात्परो यो मूलशब्दस्तदन्ताजातिवाचिनाम्नो डीः स्यात् [स्त्रियाम्] / दर्भमूली। अनत्र इति किम् ! अमूला // 58 // अ० दर्भमूली शीर्षमूली / अत्रापि ङीसिद्धये 'ऽनञो मूलादि ति सूत्रं कृतम् / अन्यथा नित्यत्रीजातिरूप. त्वाऽज्जातेरयान्ते'ति पूर्वसूत्रेण ङीप्रतिषेधः स्यात् // 58|| Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः धवाद्योगादपालकान्तात् // 2 // 4 // 59 // धववाचिनोऽकारान्ताद्योगात्सम्बन्धात् स्त्रीवृत्तेर्नाम्नः पालकान्तवर्जाद् ङीः स्यात् / प्रष्ठस्य भार्या प्रष्ठी। एवं प्रवरी गणकी। धवादिति किम् ? प्रजाता प्रसूता-विनिटुंठितगर्भा इत्यर्थः / अस्त्यत्र योगस्तेन विना विवं विना जन्म] प्रसवाभावान तु धववाचिनाम / योगादिति किम् ? देवदत्तो धवः, देवदत्ता भार्या / अपालकान्तादिति किम् ? गोपालिका / एवं पशुपालिका / कथं ज्येष्ठस्य भार्या ज्येष्ठा, कनिष्ठा मध्यमा ? अजादिपाठात् // 59 // है। अ० योगात् सम्बन्धादिति / सम्बन्धश्च सम्बन्धिनमपेक्षते स च प्रत्यासन्नत्वाद् धवस्यैव योगो गृह्यते इत्यर्थः / पालकशब्दो वय॑ते / प्रष्ठादयो हि शब्दा धववाचिनोऽपि योगात् सोऽयमित्यभेदोपचारेण भार्यायां वर्तन्ते / यदा तु 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति व्यतिरेकविवक्षा तदा तद्धितोऽण् भवति / प्रष्ठस्येयं प्राष्ठी / एवं प्रावरी / अत्र स्वत एव सम्बन्धः, न तद्योगात् / गोपालकस्य भार्या गोपालिका-पशुपालकस्य भार्या // 19 // ___ पूसक्रतुवृषाकप्यग्निकुसितकुसिदादै च // 2 / 4 / 60 // एभ्यो धववाचिभ्यस्तद्योगात् स्त्रीवृत्तिभ्यो ङीः स्यात् / ङीयोगे ऐकारश्चान्तादेशः / [पूतक्रतो र्या] पूतजतायी / [वृषाकपेर्भार्या] वृषाकपायी / [अग्रेर्भार्या] अग्रायी / कुसितायी / कुसिदायी // 6 // ___ अ० पूतक्रतु इति सूत्रे व्यावृत्तिरियम्। योगादित्येव-पूताः ऋतवो यया सा पूतक्रतुः / एवं वृषाकपि म काचित् // 60 // मनोरौ च वा // 2 / 4 / 61 // मनोर्धवनाम्नस्तयोगात् स्त्रीवृत्तेर्डीर्वा स्यात्, ङीयोगे औकार ऐकारश्चान्तादेशः / [मनोर्भार्या] मनावी मनायी मनुः // 61 // वरुणेन्द्ररुद्रभवशर्वमृडादान् चान्तः // 2 // 4 // 62 // एभ्यो धवनामभ्यस्तद्योगात्स्त्रीवृत्तेर्जीः, आन् अन्त आगमश्च स्यात् / [वरुणस्य भार्या] वरुणानी। इन्द्राणी। भिवस्य रुद्रस्य भार्या] भवानी / रुद्राणी / [शर्वस्य मृडस्य भार्या] शर्वाणी / मृडानी // 62 // मातुलाचार्योपाध्यायाद्वा // 2 // 4 / 63 // __ एभ्यो धवनामभ्यो योगात् स्त्रियां वृत्तिभ्यो ङीः स्यात् / आन् वाऽन्तश्च / [मातुलस्य भार्या] मातुलानी मातुली / आचार्यानी आचार्टी / [आचार्यानीत्यत्र 'क्षुभ्नादीनाम्' (2 / 3 / 96) इति णत्वं न भवति] उपाध्यायानी / उपाध्यायी // 63 // सूर्याद्देवतायां वा // 2 // 4 // 64 // सूर्याद्धवनाम्नस्तद्योगाद्देवतास्त्रीवृत्तेॐर्वा स्यात् / आन् चान्तः / [सूर्यस्य भार्या] सूर्याणी / पक्षे आप एव-सूर्या / देवतायामिति किम् ? सूर्यस्यादित्यस्य मनुष्यस्य वा भार्या मानुषी सूरी // 64 // अ० भगवतोऽपि हि सूर्यस्य वरप्रदानेन मानुषीया भार्या सा सूरी इत्युच्यते (यथा) कुन्ती। धवाद्योगादपालकान्तात्' (2 / 4/59) इति डीः / ‘सूर्यागस्त्ययोरीये च' (2 / 4 / 89) इत्यनेन यकारस्य लोपः / सूरी इति सिद्धम् // 64 // यवयवनारण्यहिमाद्दोषलिप्युरुमहत्त्वे // 2 // 4 // 65 // Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते धवाद्योगादिति निवृत्तम् / यवादिभ्यो यथासङ्ग्यं दोषादौ गम्यमाने स्त्रियां ङीः स्यात्, तद्योगे आन्, चान्तः / दुष्टो यवो यवानी। लिपौ यवनानी / उरुत्वे अरण्यानी। महत्त्वे हिमानी। लिपीति किम् ? यावनी वृत्तिः // 65 // ___ अ० दुष्टो यवो यवानी इति व्युत्पत्तिकरणायैव अवयवार्थ एवंविधोऽसन्नेव परिकल्प्यते / यवजातेहि जात्यन्तरं रालकाभिधानं यवानी इत्युच्यते / यवानां दोषकारि सहचरितं रालक इति नाम्ना द्रव्यान्तरमिति भावार्थः / यवनानां देशविशेषजनानां लिपिरियं यवनानीं / अत्र-उक्तार्थत्वात् (तद्विषये ङीविधानादित्यर्थः) 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इत्यनेनाण् न भवति / महद्धिमं हिमानी / यवनानामियं 'तस्येदम्' अण् / यत्र तु यवनस्य भार्या यवनी तत्र 'धवाद्योगा०' (2 / 459) इति डीः / यवारण्यहिमशब्दानां दोषाद्यभावे स्त्रीत्वमेव नास्ति, इति तेषां प्रत्यदाहरणानि न दर्शितानि / यत्र तु संज्ञा विवक्ष्यते तत्र यवा / यवना / अरण्या / हिमा / इति नाम्ना काचित् स्त्री // 65 // आर्यक्षत्रियाद्वा // 2 // 4 // 66 // . आभ्यां स्त्रियां ङीर्वा स्यात् / ङीयोगे आन् चान्तः / आर्याणी आर्या / क्षत्रियाणी क्षत्रिया / अधवयोगेऽयं विधिः [इदं सूत्रं प्रवर्त्तते], धवयोगे तु पूर्वेण 'धवाद्योगा०' (2 / 4 / 59) नित्यं डीरेव / आर्थी क्षत्रियी // 66 // ___अ० आर्यः, क्षत्रियः, पुमान्, (स्त्री)चेत् आर्याणी 2, क्षत्रियाणी 2 / आर्यस्य भार्या आर्या / क्षत्रियस्य भार्या क्षत्रियी / 'धवाद्योग०' (2 / 4 / 59) इति नित्यं ङीरेव // 66 // यत्रो डायन् च वा // 2 // 4 // 67 // यञ्प्रत्ययान्तात् स्त्रियां डीःस्यात्, ङीयोगे च डायन् अन्तो वां स्यात् / गार्गी गाायणी // 67 // अ० गर्गस्यापत्यं वृद्धं स्त्री गार्गी गाायणी / 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) इति सूत्रेण यञ् / उभयत्रापि ङीः / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) [अ लुक्] / एकत्र डायन् / [यत्र] 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इति तद्धितयलोपः। तत्र गार्ग इति रूपं यलोपे सति / गाायणी-अत्र तु यलोपो न प्राप्नोति / डायना ङीर्व्यवहितः (डित्करणमासुरायणीत्यत्र प्रयोजनार्थम्) // 67 // लोहितादिशकलान्तात् // 2 / 4 / 68 // लोहितादिभ्यः शकलान्तेभ्यो यान्तेभ्यः स्त्रियां ङीः स्याद्, ङीयोगे डायन् चान्तः / लौहित्यायनी कात्यायनी // 6 // अ० 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) इति तद्धितसूत्रे गर्गादिगणमध्ये लोहित संशित वक्र बभ्रु बभ्लु मण्डु मङ्गु मधु शस्थु शङ्कु लतु लिगु गूहलु जिगीषु मनु तन्तु मनुतन्तु मनायी सूनु सुव कच्छक ऋक्ष रुक्ष रूक्ष तरुक्ष तलुक्ष तण्डिन् वतण्ड कपि कत शकल इति लोहितादिशकलान्तशब्दाः 31 ज्ञातव्याः / लोहितस्यापत्यं वृद्धं स्त्री लौहित्यायनी / कपतस्यापत्यं वृद्धं स्त्री कात्यायनी / 'गर्गादेर्यञ्' // 68 // पावटाद्वा // 2 // 4 // 69 // षकारान्तानाम्नोऽवटशब्दाच्च यजन्तात् स्त्रियां ङीर्वा स्याद्, ङीयोगे डायन् चान्तः / पौतिमाष्यायणी पौतिमाष्या / आवट्यायनी आवट्या // 19 // अ० 'षावटाद्वा' अत्र सूत्रे ङीडायनोरुभयोरप्यनुवर्तनात् प्राधान्यात् ङीप्रत्ययेनैव सह वाशब्दस्य सम्बन्धो Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः नान्वाचीयमानेन डायना सह, अत एव सूत्रार्थे डीर्वा स्यात् / ङीयोगे डायन् इत्युक्तमिति भावः / अवटस्यामपत्यं वृद्धं स्त्री ‘गर्गादेर्यञ्” (6 / 1 / 42) // 69 / / कौरव्यमाण्डूकासुरेः // 2 // 4 // 70 // एभ्यः स्त्रियां ङीः / ङीयोगे डायन् चान्तः स्यात् / कौरव्यायणी माण्डूकायनी आसुरायणी // 70 // अ० 'कौरव्यमाण्डूकासुरे'रित्यत्रासुरिग्रहणात् ‘इञ इतः' (2 / 4 / 71) अत्र सूत्रे डायन् नानुवर्त्तते / अन्यथा इनन्तद्वारेणैव आसुरिशब्दात् ङीः सिद्धयति इति कौरव्यादिसूत्रेऽसुरिं न कुर्यात् / कौरव्यायणी कुरुः, कुरूणां राजा, कुरूणामपत्यं वा स्त्री कौरव्या इति वाक्ये 'दुनादिकुर्वित्कोशलाजादाञः' (6 / 1 / 118) इति सूत्रेण ञ्यप्रत्ययः, ततो ङी डायन्, कौरव्यायणी / मण्डूकस्यापत्यं 'पीलासाल्वामण्डूकाद्वा' (6 / 1 / 68) इति सूत्रेण (अण्) / असुरस्यापत्यं आसुरिः ‘बाह्यादिभ्यो गोत्रे' (6 / 1 / 32) इति सूत्रेण इञ् / ततो डीः, डायन्, अन्त्यस्वरलोपः // 70 // इञ इतः // 2 // 4 // 71 // इञ्प्रत्ययान्तानाम्न इकारान्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् / सौतङ्गमी। मौनिवित्ती। इत इति किम् ? इनादेशात् प्यान्मा भूत्-वाराह्या // 7 // . अ० सुतङ्गमेन निर्वृत्ता सौतङ्गमी / मुनिवित्तेन निर्वृत्ता मौनिवित्ती / 'सुतङ्गमादेरिञ्' (6 / 2 / 85) इति सूत्रेण इन् / वाराह्या-वराह. वराहस्यापत्यं वाराहि / 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) इत्यनेन इञ्, 'अनार्षे वृद्धेऽणिौ बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्तस्य ष्यः' (2 / 4 / 78) इत्यनेन अन्तस्य ष्य इत्यादेशः / आप् / एवं वालाक्या कौमुदगन्ध्या // 71 / / नुर्जातेः // 2 // 4 // 72 // [नृ षष्ठी ङस्] नुमनुष्यस्य या जातिस्तद्वाचिन इकारान्तानाम्नः स्त्रियां ङीः स्यात् / कुन्ती दाक्षी / इत इत्येव विट् दरद् / जातेरिति किम् ? निष्कौशाम्बिः कन्या // 72 // अ० कुन्तिः / अवन्तिः / कुन्ते राजापत्यं वा / एवं अवन्ते राजाऽपत्यं वा अवन्ती / 'दुनादिकुर्वित्कोशलाऽजादाभ्यः'. (6 / 1 / 118) इत्यनेन व्यः / 'कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम्' (6 / 1 / 121) इति सूत्रेण ज्यो लुप्यते / पुनः कुन्ति अवन्ति इति शब्दौ / ततो ङीः / एवं दाक्षी // विट् / विशोऽपत्यं विट् / 'राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपाद्राजाऽपत्ये दिरञ्' (6 / 1 / 114) इत्यनेन अञ्। 'द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादेः' (6 / 1 / 123) इत्यनेन अञ् लुप्यते / विश्शब्दः / सिः / 'यजसृजमृज०' (2 / 1 / 87) इति शस्य ष् / / दरद् इति नाम राजा / दरदां राजा / दरदोऽपत्यं वा / 'पुरुमगधकलिङ्गसूरमसद्विस्वरादण्' (6 / 1 / 116) इत्यनेन अण् / 'द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादेः' (6 / 1 / 123) इति अण् लुप्यते / दरद् / / 72 / / - उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य ऊ // 2 // 4 // 73 // उकारान्तानृजातिवाचिनो प्राणिजातिवाचिनश्च नाम्नः स्त्रियां ऊप्रत्ययः स्यात् / युशब्दान्तं रज्ज्वादींश्च वर्जयित्वा / कुरूः इक्ष्वाकूः / अप्राणिनश्च-अलाबूः कर्कन्धूः / उत इति किम् ? वधूः / अप्राणिनश्चेति किम् ? आखुः / जातेरित्येव-पटुः चिकीर्षुः स्त्री। [शङ्कः-सङ्ख्याभेदः] [काकुः-स्वरभेदः] अयुरज्ज्वादिभ्य इति किम् ? अध्वर्युः स्त्री / रज्जुः हनुः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 73 // ___ अ० रज्ज्वादिगणः प्रयोगगम्योऽत एव बहुवचनम् / इयमाचार्यस्य शैली-यत्र सूत्रे एकवचनं आचार्यो निर्दिशति तत्रेदं ज्ञेयम्-गणशब्दानां नैयत्यम् / गणशब्दान् सङ्ख्या प्रयुङ्क्ते इति भावः / 'उतोऽप्राणिन०' इत्यादि उप्रत्य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते याधिकारसूत्रम् / कुरुः / कुरोरपत्यं स्त्री कुरू: 1 / 'दुनादिकुर्वित्कोशला०' (6 / 1 / 118) इति ज्यः 2 / 'कुरोपि (6 / 1 / 122) इति सूत्रेण ज्यो लुप्यते 3 / तत 'उतोऽप्राणिन०' ऊङ् 4 / इक्ष्वाकोरपत्यं 'राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपा०, (6 / 1 / 114) अञ् / 'द्रेरञणोऽप्राच्य०' (6 / 1 / 123) इति अञ् लुप्यते / तत ऊङ् / कुरू: इक्ष्वाकूः इत्यस्यागे ब्रह्मबन्धूः-ब्रह्मा बन्धुरस्या जातेस्सा ब्रह्मबन्धूः / जात्येव ब्राह्मण इत्यर्थः / अत्र उङः पूर्वं शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति सूत्रेण परोऽपि कच् प्रत्ययो न भवति तत्र बहुलाधिकारात् / कथं तर्हि भीरु गतं निवर्त्तते इति / भीरुशब्दस्य हि जातिवाचित्वाजातिलक्षणस्य ऊडोऽभावे सम्बोधने ओत्वं प्राप्नोति / भीरो इति प्रयोगः प्राप्नोति / भीरु इनि च अङि सति भवति / ऊङ् प्राप्नोतीति पराशयः / नैवम् / ताच्छीलिकप्रत्ययानां संज्ञाप्रकारत्वान्मनुष्यजातिवचन भवति / इति ऊङ् भवति / ततः सिः ह्रस्वश्च / इयमवचूरिहनु इत्यक्षराग्रे ज्ञातव्या // 73 / / बाह्वन्तकद्रुकमण्डलोर्नाम्नि // 2 // 4 // 74 // बाहुशब्दान्तात् कद्रुकमण्डलुभ्यां च नाम्नि विषये स्त्रियामूङ् प्रत्ययः स्यात् / [मद्रो भद्रो वा बाहू यस्याः सा तथा] मद्रबाहूः भद्रबाहूः / कद्रूः कमण्डलूः / संज्ञा एताः / नाम्नीति किम् ? [वृत्तौ बाहू अस्यां वृत्तबाहुः वृत्तबाहुः // 74 // उपमानसहितसंहितसहशफवामलक्ष्मणायूरोः // 2 // 4 // 7 // ___ उपमानादिपूर्वपदादूरुशब्दात् स्त्रियामूङ् स्यात् / [करभ इव ऊरू यस्याः सा] करभोरूः सहितोरूः संहितोस. सहोरूः शफोरूः वामोरूः लक्ष्मणोरूः / उपमानाद्यादेरिति किम् ? वृत्तोरुः पीनोरुः // 5 // ___ अ० संहितावूरू यस्याः सा संहितोरू: सहितोरूः / 'समस्ततहिते वा' (3 / 2 / 139) इति सूत्रेण विकल्पेन समो मकारस्य लोपः / सहविद्यमानावूरू / सफौ सदोषावूरू यस्याः / / 75 // नारीसखीपश्वश्रू // 2 // 4 // 76 // [तालव्यशकारद्वयम्] ___ एते शब्दाः स्त्रियां उयन्ता ऊऊन्ताश्च निपात्यन्ते / नृनरयोङा नारादेशः / नारी / सखी / पङ्गः / [पङ्गु (शब्दात्) ऊङ् अत्रिलिङ्गतया] / श्वशुरशब्दाजातिलक्षणे धवयोगलक्षणे च ङीप्रत्यये प्राप्ते ऊङ् / उकाराकारयो. लॊपश्च / श्वश्रूः // 76 // ___ अ० निपातनात् डीः / नृशब्दस्य नरस्य वा नारी / सखिशब्दात् अथवा सखशब्दात् निपातनात् ङीः सखी इति प्रयोगः / सह खेन वर्त्तते या सापि सखी / अथवा निपातनबलात् धवयोगेऽपि सख्युः स्त्री सखी इति प्रयोगो भवति / श्वश्रूरित्यत्र द्वावपि शकारौ तालव्यौ // 76 / / यूनस्तिः // 2477 // युवन्शब्दात् स्त्रियां तिप्रत्ययः स्यात् / युवतिः / कथं युवती ? यौतेरौणादिककिदतिप्रत्ययान्ताद् डीभविष्यति / मुख्यादित्येव-अतियूनी // 77 // अ० युवा पुरुषः / स्त्री चेत् युवतिः / नकारान्तत्वाद् ङी प्रत्यये प्राप्ते तदपवादो योगः / 'युक् मिश्रणे' यु / 'योः कित्' (उ० 658) इत्युणादिसूत्रेण अतिप्रत्ययः / स च कित् / उव् आदेशः / ‘इतोऽक्त्यर्थात्' (2 / 4 / 32) इति ङीः / युवती सिद्धम् / युवानमतिक्रान्ताऽतियूनी / 'श्वन्युवन्मघोनो०' (2 / 1 / 106) इति वस्य उत्वम् // 77|| अनार्षे वृद्धेऽणिौ बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्तस्य ष्यः // 2 / 478 // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः - अनार्षे वृद्धे विहितौ यावणिञौ प्रत्ययौ तदन्तस्य सतो बहुस्वरस्य गुरूपान्त्यस्य नाम्नोऽन्त्यस्य ष्य इत्यादेशः स्यात्, स्त्रियाम् / कारीषगन्ध्या दैवदत्त्या / एवं वाराह्या / अनार्ष इति किम् ? वासिष्ठी / वैश्वामित्री। वृद्ध इति किम् ? वाराही आहिच्छत्री / बहुस्वरेति किम् ? दाक्षी / गुरूपान्त्यस्येति किम् ? औपगवी। खियामित्येव-कारीषगन्धः, वाराहिः [पुमान्] / मुख्यस्येत्येव-निर्वाराहिः / पित्करणं ष्यापुत्रपत्योरित्यत्र विशेषणार्थम् // 7 // . अ० बहवः स्वरा यत्र नामान्ते सः / गुरुरुपान्त्यो यत्र नामान्ते सः / बहुस्वरगुरुग्रहणादनेकव्यञ्जनव्यवधानेऽपि भवति / गुरुग्रहणं हि दीर्घपरिग्रहार्थं संयोगपरिग्रहणार्थं च / अन्यथा दीर्घोपान्त्यस्य इत्युच्येत / कारीषगन्ध्या -करीषः अग्रे गन्धः, करीषस्येव गन्धोऽस्य स करीषगन्धिः / 'वोपमानात्' (7 / 3 / 147) इति सूत्रेण इत्समासान्तः / करीषगन्धेरपत्यं पौत्रादि स्त्री 'डसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण् / तदनन्तरं 'अनार्षे वृद्धे०' इत्यनेन तद्धितप्रत्ययस्य स्थाने ष्य इत्यादेशः / आप् / एवं कौमुदगन्ध्या / देवदत्तस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) इञ् / वराहस्यापत्यं वृद्धं 'अत इञ्' / एवं बालाक्या / वसिष्ठस्यापत्यं 'ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्यः' (6 / 1 / 61) इति सूत्रेण अण् / तथा विश्वं मित्रमस्य विश्वामित्रः / 'ऋषौ विश्वस्य मित्रे' (3 / 2 / 79) इति सूत्रेण विश्व इत्यस्य दीर्घः / विश्वामित्रस्यापत्यं 'ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्यः' (6 / 1 / 61) इत्यण् / 'अणजेये.' (2 / 4 / 20) इति ङीः / वराहस्य प्रथमापत्यं स्त्री वाराही / ‘डसोऽपत्ये' (6 / 1 / 28) अण् / अहिच्छत्रे जाता आहिच्छत्री / 'जाते' (6 / 3 / 98) इति सूत्रेण अण् 'अणजेये.' इति ङीः / करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धः / करीषगन्धस्यापत्यं कारीषगन्धः / शोभनो धर्मोऽस्याः सा / 'द्विपदाद्धर्मादनू' (7 / 3 / 141) इत्यनेन अन् समासान्तः / 'ताभ्यां वाप डित्' (2 / 4 / 15) डाप् / सुधर्मा / सुधर्माया अपत्यं 'अदोर्नदीमानुषी नाम्नः' (6 / 1 / 67) इति सूत्रेण अण् / डापोऽभावे तु ‘डसोऽपत्ये (6 / 1 / 28) इति अण् / सौधर्मणी (सौधर्मी ?) इति प्राप्नोति / अत्र ष्यादेश ‘अनार्षे वृद्धे०' इत्यनेन कथं न भवतीति पराशयः / सूरिराह-गौरादिपाठात् डीरेव भवति न ष्यः / एवं आयस्थूणी भौलिङ्गी / आलंबी। कालम्बी इत्यादि / एषाऽवचूरिनिर्वाराहि इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या / बहुस्वरेत्यादि ष्य अधिकारसूत्राणि // 78 // . कुलाख्यानाम् // 2 // 4 // 79 // - पुणिकभुणिकमुखराद्याः कुलाख्याः शब्दाः। कुलाख्यानामनार्षवृद्धाणिजन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यो भवति / भवहुस्वरागुरूपान्त्यार्थं वचनम् / पौणिक्या मौखर्या / वृद्ध इत्येव-पौणिकी। अनार्ष इत्येव-गौतमी // 79 // अ० कुलमाख्यायते आभिरिति कुलाख्याः ‘स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82) बाहुलकात् स्त्रीत्वम् / पुणिकस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री / मुखरस्यापत्यं 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) गौतमस्यापत्यं 'ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्यः' (6 / 1 / 61) इत्यनेन अण् // 79 / / क्रौड्यादीनाम् // 2 / 4 / 80 // क्रौडि इत्यादीनामणिजन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यः स्यात् / [क्रोडस्यापत्यं क्रौडिः स्त्री] क्रौड्या / लाड्या / प्यस्यादेशत्वात् क्रौडेयः चौपयतेन इत्यादिष्वापत्यस्य यस्य लोपः सिद्धः // 8 // ___अ० अबहुस्वरागुरूपान्त्यार्थश्चारम्भः / क्रौड्यादीनामित्ययमारम्भः / क्रौडि लाडि व्याडि आपक्षिति आपिशलि सौधातकि भौरिकि भौलिकि शाल्मलि शालास्थलि कापिष्ठलि रौढि दैवदत्ति याज्ञदत्ति इत्यादय इञन्ताः / चौपयत 1. 'नोऽपदस्य तद्धिते' / 74 / 61 / इति अनेन अन्त्यस्वरादिलोपात् एतत्प्रयोगो योग्योभाति / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते चैकयत चैटयत बैल्वयत सैकयत एतेऽणन्ताः / इति क्रौड्यादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तथा क्रोडस्यापत्यं क्रौडिः / 'क्रौड्यादीनाम्' इति ध्यादेशः / क्रौड्याया अपत्यं क्रौडेयः ‘ड्याप्त्यूडः' (6 / 1 / 70) इत्यनेन एयण् / 'तद्धितयस्वरेऽनाति' (2 / 4 / 92) इति सूत्रेण ध्यादेशयकारस्य लोपः / ततः क्रौडेय इति सिद्धम् // 8 // भोजसूतयोः क्षत्रियायुवत्योः // 2 / 4 / 81 // भोजसूतशब्दयोरन्तस्य यथासङ्ग्यं क्षत्रियायुवत्योर्वाच्ययोः ष्यः स्यात् / भोज्या / भोजवंशजा क्षत्रिया। सूत्या-प्राप्तयौवना मानुषीत्यर्थः / क्षत्रियायुवत्योरिति किम् ? भोजा / सूता // 81 // ___ अ० भोजः पुरुषः / स्त्री चेत् भोज्या / सूतस्तरुणः, स्त्री चेत् सूत्या / सूतः सारथिः, तस्य सम्बन्धिनी युवतिरेव सूत्या, नान्या इति केचिदाहुः // 81 / / दैवयज्ञिशौचिवृक्षिसात्यमुनिकाण्ठेविद्धेर्वा // 2 // 4 // 82 // एषामिञन्तानां स्त्रियामन्तस्य प्यः स्यात्, वा / इअन्तमात्रनिर्देशात् पौत्रादौ प्राप्ते प्रथमापत्यादौ तु अप्राप्ते विभाषा। दैवयज्या दैवयज्ञी। शौचिवृक्ष्या शौचिवृक्षी। सात्यमुग्न्या सात्यमुग्री। काण्ठेविद्धया काण्ठेविद्धी // 2 // अ० देवयज्ञस्यापत्यं, शुचिवृक्षस्यापत्यं, सत्यमुग्रं यस्य स तथा / अत एव निर्देशात् मोऽन्तः / मान्तमव्ययं वा / सत्यमुग्रस्यापत्यम् / कण्ठेविद्धस्यापत्यम् / सर्वत्र ‘अत इञ्' (6 / 1 / 31) / यत्र ष्यादेशः तत्र आप् / पक्षे 'नुर्जातेः' (2 / 4 / 72) इत्यनेन ङीः / / 82 / / घ्या पुत्रपत्यो केवलयोरीच् तत्पुरुषे // 2 / 4 / 83 // मुख्य आबन्तः ष्यः पुत्रपतिशब्दयोः केवलयोः परयोस्तत्पुरुषे ईच् स्यात् / चकारो 'वेदूतः०' (2 / 4 / 98) इत्यादौ विशेषणार्थः / कारीषगन्धीपुत्रः कारीषगन्धीपतिः। ष्येति किम् ? इभ्यापुत्रः क्षत्रियापुत्रः। पुत्रपत्योरिति किम् ? कारीषगन्ध्याकुलम् / केवलयोरिति किम् ? कारीषगन्ध्या पुत्रकुलम् / तत्पुरुष इति किम् ? कारीषगन्ध्यापतिरयं ग्रामः // 83 // __ अ० आप् अन्ते यस्य आबन्तः / आबन्तश्चासौ ष्यश्च-ष्यप्रत्ययः / मुख्यश्चासावाबन्तष्यश्च / मुख्यः आबन्तश्च ईदृग् ष्यः ईच् भवति / ष्यास्थाने ईच् भवतीत्यर्थः / 'वेदूतोऽनव्ययय्वृदीच् डीयुवः पदे' (2 / 4 / 98) इति वक्ष्यमाणसूत्रे कार्यं ज्ञापयिष्यते / करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धिः / 'वोपमानात्' (7 / 3 / 147) इति इत्समासान्तः / करीषगन्धेरपत्यं स्त्री कारीषगन्धः / ‘डसोऽपत्ये (6 / 1 / 28) अण् / ततः ‘अनार्षे वृद्धेऽणिञौ बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्त्यस्य ष्यः' (2 / 4 / 78) इत्यनेनाणः ष्यादेशः / 'आत्' (2.4 / 18) इत्याप् / कारीषगन्ध्यायाः पुत्रः पतिर्वा इति वाक्ये 'ष्यापुत्रः' इत्यनेन ष्या इत्यस्य स्थाने ईच् / कारीषगन्धीपुत्रः / एवं कौमुदगन्धीपुत्रः, परमकारीषगन्धीपतिः पुत्र इत्यादि ज्ञेयम् / इभमर्हति ‘दण्डादेर्यः' (6 / 4 / 178) इति यः / कारीषगन्ध्यापुत्रकुलं इति पुत्रस्य कुलं पुत्रकुलम् / कारीषगन्ध्यायाः पुत्रकुलं कारीषगन्ध्यापुत्रकुलम् / अत्र कुलसहितः पुत्रः इति न ईच् / तथा कारीषगन्ध्यायाः पुत्रः कारीषगन्धीपुत्रः / ततः कुलशब्दः / कारीषगन्धीपुत्रस्य कुलम् / यदा त्वेवं समासस्तदा ईच् भक्त्येव कारीष. गन्धीपुत्रकुलमिति प्रयोगः / कारीषगन्ध्या पतिरस्य इति बहुव्रीहिः // 83 // बन्धौ बहुव्रीहौ // 2 / 4 / 84 // मुख्य आबन्त प्यो बन्धुशब्दे केवले परे बहुव्रीहौ ईच् स्यात् / कौमुदगन्धीबन्धुः / परमकौमुदगन्धी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 201 बन्धुः // 84 // अ० 'बन्धौ बहुव्रीहौ' इत्यत्रापि सूत्रे पूर्वसूत्रवत् कौमुदगन्ध्याबन्धुकुलः इति केवल इत्येवति व्यावृत्तेरुदाहरणं ज्ञेयम् / यदा कौमुदगन्ध्या बन्धुरस्य कौमुदगन्धीबन्धुः कुलमस्य कौमुदगन्धीबन्धुकुलः इति विग्रहः तदा ईच् भवत्येव / मुख्य इत्येव-अतिक्रान्तः कौमुदगन्ध्यां / अतिकौमुदगन्ध्या बन्धुरस्य अतिकौमुदगन्ध्याबन्धुः / कौमुदगन्ध्या बन्धुरस्य कौमुदगन्ध्याबन्धुः परमा चासौ कौमुदगन्ध्या च परमकौमुदगन्ध्या बन्धुरस्य // 84 / / मातमातृमातृके वा // 2 / 4 / 85 // मुख्य आबन्तः ष्यो मातादिषु केवलेषु परेषु बहुव्रीहौ वा ईच् स्यात् / कारीषगन्धीमातः कारीषगन्ध्यामातः / कारीषगन्धीमाता कारीषगन्ध्यामाता / कारीषगन्धीमातृकः कारीषगन्ध्यामातृकः / ['ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इति कच्] मात इति निर्देशान्मातृशब्दस्य पुत्रप्रशंसामन्त्र्यमन्तरेणापि पक्षे मात आदेशः / अन्यथा मातृशब्देनैव गतत्वान्मातशब्दोपादानमनर्थकं स्यात् / मातृमातृकशब्दयोश्च भेदेन ग्रहणात् ऋदन्तलक्षणः कच् प्रत्ययोऽपि विकल्पात् / / 85 // अ० कारीषगन्ध्यामाता यस्य पुत्रस्य स कारीषगन्धीमातः कारीषगन्ध्यामातः / अत्र 'मातुर्मातः पुत्रेऽर्हे सिनाऽऽमन्त्र्ये' (1 / 4 / 40) इत्यत्र पुत्रस्य आमन्त्र्ये सति मातृशब्दस्य मात इति आदेश उक्तोऽस्तिः / अत्र च 'मातमातृमातृके वा' सूत्रे मातइति निर्देशात् पुत्रामन्त्र्यं विनापि सूत्रबलात् मात इत्यादेशः पूर्वद्वयोदाहरणे सञ्जातः / एतदेव मात इति निर्देशादि अक्षरैर्वृत्तिकृद्दर्शयति / ऋदन्तलक्षण इत्यादि ‘ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इति सूत्रेण नित्यं कच् विहितोऽस्ति / परं मातृमातृक इति पाठबलात् विकल्पेन कचं भवतीत्यर्थः / / 85 / / अस्य ड्या लुक // 2 // 4 // 86 // ङीप्रत्यये परे पूर्वस्याऽकारस्य लुक् स्यात् / कुरुचरी // 86 // अ० कुरुषु चरतीति 'चरेष्टः' (5 / 1 / 138) 'अणजेये.' (2 / 4 / 20) इति ङीः // 86 // मत्स्यस्य यः // 2 / 4 / 87 // मत्स्यसम्बन्धियकारस्य यां लुक् स्यात् / मत्सी / [गौरादिभ्यो ङीः] // 87 // अ० मत्स्यो नाम कश्चित् / तस्यापत्यं स्त्री / इञ् प्रत्ययः / गौरादित्वात् ङी / ततो ञकारलोपः / मत्सी इति सिद्धम् / / 87|| व्यञ्जनात्तद्धितस्य // 2 // 4 // 88 // . व्यञ्जनात्परस्य तद्धितयकारस्य ङ्यां लुक् [स्यात्] / मनुषी, गार्गी, सौमी दिक्, औचिती, चातुरी। व्यञ्जनादिति किम् ? कारिकेयी / तद्धितस्येति किम् ? वैश्यी // 8 // * अ० मनोरपत्यं स्त्री मनुषी / 'मनोर्याणौ षश्चान्तः' (6 / 1 / 94) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / षोऽन्तश्च / 'गौरादिभ्यो मुख्यात् ङीः' (2 / 4 / 19) ततो 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' इति यप्रत्ययो लुप्यते / एवं गार्गी / तथा सोमो देवताऽस्याः / 'कसोमात् ट्यण्' (6 / 2 / 107) इति ट्यण् / 'अणञये.' (2 / 4 / 20) इति ङीः / उचितस्य भावः औचिती / चतुरस्य भावः कर्म वा 'पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च' (7 / 1 / 60) इति ट्यण् / 'अणजेये०' (2 / 4 / 20) इति ङीः / कारिकाया अपत्यं कारिकेयी / वैश्यस्य भार्या वैश्यी ‘धवाद्योगाद०' (2 / 4 / 59) इति डीः // 88 / / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते सूर्यागस्त्ययोरीये च // 2 / 4 / 89 // अनयोर्यकारस्य यां ईये च परे लुक् स्यात् / सूरी / सौरी प्रभा / आगस्ती / आगस्तीयः // 89 // अ० सूर्यस्यादित्यस्य मनुष्यस्य वा भार्या मानुषी सूरी / भगवतोऽपि हि सूर्यस्य वरप्रदानेन मानुषी या भार्या सा सूरी, इत्युच्यते ‘धवाद्योगा०' (2 / 4 / 59) इति ङीः / 'सूर्यागस्त्यः ' इति यलोपः / सौरी प्रभा-सूर्यस्येयं सौरी 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) इति सूत्रेणाण 'अणजेये' इति ङीः / अगस्त्यस्येयं आगस्ती / 'तस्येदम्' आगस्तीयः / एवं सौरीयः / अगस्त्यो देवता अस्य 'देवता' (6 / 2 / 101) इति सूत्रेणाण् / तत आगस्तस्यायं आगस्तीयः, सौर्यस्यायं सौरीयः इति वाक्ये 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) इति सूत्रेण ईयप्रत्ययः / ततः 'सूर्यागस्त्य.' इति यलोपः / / 89 // तिष्यपुष्ययोर्भाणि // 2 // 4 // 9 // भस्य नक्षत्रस्य सम्बन्धिन्यणि परे तिष्यपुष्ययकारस्य लुक् [स्यात् / तैषी रात्रिः, तैषमहः / पौषी रात्रिः, पौषमहः / तेषः पौषः संवत्सरः / भाणीति किम् ? [तिष्यो देवताऽस्य] तैष्यश्वरुः // 90 // ___ अ० भस्य नक्षत्रस्य सम्बन्धी अण् भाण् / तस्मिन् / तिष्यनाम्ना नक्षत्रेण चन्द्रयुक्तेन युक्ता रात्रिः तैषी रात्रिः / तिष्येण चन्द्रयुक्तेन (युक्तं) अहो दिनं तैषं अहः / एवं पौषी रात्रिः, पौषमहः / 'भर्तुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) इति सूत्रेणाण् / 'अणजेये.' (2 / 4 / 20) इति ङीः / 'तिष्यपुष्ययोर्भाणि' इति यलोपः / पुष्यनक्षत्रस्य तिष्यसिध्यशब्दौ वाचकौ / अहन् / सिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) 'रो लुप्यरि' (2 / 1 / 75) नस्य रः / पुष्येण तिष्येण वा उदितगुरुणा युक्तः संवत्सरः पौषः तैषः संवत्सरः / 'उदितगुरो युक्तेऽब्दे' (6 / 2 / 5) इति सूत्रेणांण् // 10 // आपत्यस्य क्यच्छ्योः // 2 // 4 // 91 // , व्यञ्जनात्परस्यापत्ययकारस्य क्ये च्वौ च परतो लुक् स्यात् / गार्गीयति गार्गीयते / चि. गार्गीभूतः // 91 // अ० नन्, 'पत्लू पथे गतौ', न पतन्ति येन जातेन पूर्वजास्तदपत्यं 'गर्गादेर्यञ् (6 / 1 / 42) गार्ग्यः / गार्ग्यमिच्छति क्यन् गार्गीयति, गार्ग्य इवाचरति क्यङ् गार्गीयते, अगार्यो गार्यो भूतो गार्गीभूतः ‘कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे च्विः' (7 / 2 / 126) // 91 / / / तद्धितयस्वरेऽनाति // 2 / 4 / 92 // व्यञ्जनात्परस्यापत्ययस्य [यकारस्य] कारादौ अकारादिवर्जितस्वरादौ च तद्धिते परे लुक् स्यात् / गार्ग्यः। गार्गकम् / गार्गीयः / आपत्यस्येत्येव-काम्पील्यकः / तद्धितेति किम् ? गार्येण / यस्वर इति किम् ? गार्यरूप्यः / अनातीति किम् ? गाायणः // 92 // __ अ० न आत् अनात् / तस्मिन् / गार्ये साधुः 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) इति यप्रत्ययः गार्ग्यः / गार्याणां समूहो गार्गकम् ‘गोत्रोक्षवत्सोष्ट्रवृद्धाजोरभ्रमनुष्यराजन्यराजपुत्रादकञ्' (6 / 2 / 12) अकञ् / गार्ग्य [स्यायं शिष्यश्चेत्] / 'दोरीयः' (6 / 3 / 32) गार्गीयः / कम्पीलेन निर्वृत्तं 'सुपन्थ्यादेर्व्यः' (6 / 2 / 84) इति ज्यः / प्रस्थपुरवहान्तयोपान्त्यधन्वार्थात् (6 / 3 / 43) इति सूत्रेण अकत्र काम्पील्यकः / गार्यादागतः 'नृहेतुभ्यो रूप्यमयटौ वा' (6 / 3 / 156) इति रूप्यप्रत्ययः / गार्ग्यस्यापत्यं युवा गाायणः / 'यञिञः' (6 / 1 / 54) इति सूत्रेण आयनण् / / 92 / / बिल्वकीयादेरीयस्य // 2 / 4 / 93 // Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः 203 ____ बिल्वादीनां कीयप्रत्ययान्तानां दशानां शब्दानामीयस्य तद्धितयस्वरे लुक् स्यात् / अनातीति नानुवर्तते। आतोऽसम्भवात् / बैल्वकाः / वैणुकाः // 13 // ____ अ. 'नडादेः कीयः' (6 / 2 / 92) इति तद्धितद्वितीयपादे नडादिगणप्रान्ते बिल्व वेणु वेत्र वेतस त्रि तक्षन् इक्षु काष्ठ कपोत कुञ्च 10 इति दशशब्दा बिल्वादिगणः / बिल्वाः सन्त्यस्यां इति बिल्वकीया / तस्यां नद्यां भवा बेल्वकाः ‘भवे' (6 / 3 / 123) इत्यण् / ततो 'बिल्वकीयादेरीयस्य' इत्यनेन कीयप्रत्यय ईय इति अवयवो लुप्यते / वैल्वका इति सिद्धम् / एवं वेणवः सन्त्यस्यां वेणुकीया नाम नदी / 'नडादेः कीयः' (6 / 2 / 92) वेणुकीयायां भवा वैणुका ‘भवे' अण् / सूत्रेण [ई]य लुप्यते / वैणुकाः / / 13 / / न राजन्यमनुष्ययोरके // 2 / 4 / 94 // राजन्यमनुष्ययकारस्याकप्रत्यये परे लुक् न स्यात् / राजन्यकम् मानुष्यकम् // 9 // अ० 'न राजन्यमनुष्ययोरके' इदं सूत्रं तद्धितयस्वरेऽनाति' (2 / 4 / 92) इत्यनेन यलोपे प्राप्ते यलोपप्रतिषेधाय कृतम् / राजन्. राज्ञोऽपत्यं राजन्यः / 'जातौ राज्ञः' (6 / 1 / 92) इति सूत्रेण यप्रत्ययः राजन्यः / मनुः / मनोरपत्यानि मनुष्याः ‘मनोर्याणौ षश्चान्तः' (6 / 1 / 94) इति सूत्रेण यप्रत्ययः / षोऽन्तश्च / राजन्यानां समूहो राजन्यकम् / मनुष्याणां समूहो मानुष्यकम् / ‘गोत्रोक्षवत्सोष्ट्रवृद्धाऽजोरभ्रमनुष्यराजराजन्यराजपुत्रादकञ्' (6 / 2 / 12) इति अकञ् // 94 // .. . ङ्यादेगौणस्याऽकिपस्तद्धितलुक्यगोणीसूच्योः // 2 / 4 / 95 // ड्यादेः प्रत्ययस्य गौणस्याकिबन्तस्य तद्धितलुकि सति लुक् स्यात् / गोणीसूच्योर्न भवति / सप्तकुमारः पञ्चेन्द्रः पञ्चाग्निः [डीः] पञ्चयुवा [तिः] त्रिकरभोरुः [ऊङ्] कुलवम् [डीः] बदरम् [डीः] आमलकम् [डीः] / गौणस्येति किम् ? कुन्ती अवन्ती कुरूः [अत्र हि तद्धितलुकि कृते पश्चात् डीऊङ् जातः इति न गौणत्वम्] / अकिप इति किम् ? पञ्चकुमारी / तद्धितलुकीति किम् ? औपगवीत्वम् / कथं हरीतकी ? अत्र लुबन्तस्य स्त्रीत्वात्पुनर्गौरादित्वाद् डीः / अगोणीसूच्योरिति किम् ? पञ्चगोणिः छाटी / पञ्चसूचिः // 95 // - अ० ङी आप् ति ऊङ् एते ङ्यादयः / सप्तकुमार्यो देवताऽस्य सप्तकुमारः 'देवता' (6 / 2 / 101) इति सूत्रेण अण् लुप्यते ‘ड्यादेhणस्य०' इति डीलोपः / तथा इन्द्रस्य भार्या इन्द्राणी 'वरुणेन्द्ररुद्र०' (2 / 4 / 62) इत्यादिना डीः, आन् आगमश्च, इन्द्राणी, पञ्चेन्द्राण्यो देवताऽस्य पञ्चेन्द्रः / अत्रापि ङीलुक्, डीनिवृत्तौ आन् आगमोऽपि निवर्त्तते पञ्चेन्द्र इति रूपम् / अग्नेर्भार्या आग्नायी 'पूतक्रतुवृषाकप्यग्नि०' (2 / 4 / 60) इति ङी), ऐ अन्त्यादेशः अग्नायी, पञ्चाग्नाय्यो देवताऽस्य 'देवता' (6 / 2 / 101) अण् ‘द्विगोरन०' (6 / 1 / 24) इति अण्लोपः / ‘ड्यादे०' डीलुक् / डीनिवृत्तौ ऐ आदेशोऽपि निवृत्तः पञ्चाग्निः इति सिद्धम् / तथा पञ्चयुवा-युवन् / 'यूनस्तिः (2 / 4 / 77), पञ्चभिर्युवतिभिः क्रीतः पञ्चयुवा / 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इति इकण् / 'अनाम्न्यऽद्विः प्लुप्' (6 / 4 / 141) इत्यनेन इकण् लुप्यते / ततो 'ड्यादे०' इत्यनेन तिप्रत्ययो लुप्यते, पञ्चयुवा इति सिद्धम् / करभ इव ऊरू यस्याः सा 'उपमानसहित०' (2 / 4 / 75) इति ऊङ् / तिसृभिः करभोरुभिः क्रीतः / 'मूल्यैः क्रीते' इकण् / 'अनाम्न्य०' इति लुप् तंतो 'ङ्यादे' रित्यनेन ऊङ्लोपः / कुवल्या विकारोऽवयवो वा कुबलम् / बदर्या विकारोऽवयवो वा बदरम् / उभयत्र 'हेमादिभ्योऽञ्' (6 / 2 / 45) इति सूत्रेण अञ् / आमलक्या विकारोऽवयवो वा आमलकम् / 'दोरप्राणिनः' Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते (6 / 2 / 49) इति सूत्रेण मयट् / सर्वत्र ‘फले' (6 / 2 / 58) इति सूत्रेण अञ्-मयट्लोपः / ततो ‘ड्यादेः' इति डीलृप्यते / कुन्तिः / कुन्तेः राजा अपत्यं वा / अवन्तिः / अवन्तेः राजा अपत्यं वा 'दुनादिकुर्वित्कोशलाजादाळ्य' (6 / 1 / 118) इति ज्यः / 'कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम्' (6 / 1 / 121) इत्यनेन ज्यो लुप्यते / 'नुर्जातेः' (2 / 4 / 72) ङीः / कुरु. कुरूणां कुरोर्वाऽपत्यमित्यादि / 'दुनादि०' इति ज्यः / कुरोर्वा' (6 / 1 / 122) इति ज्यो लुप्यते 'उतो प्रणिन०' (2 / 4 / 73) इति अङ् / हरीतक्याः फलं विकारो अवयवो वा हरीतकी / 'प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च' (6 / 2 / 31) इत्यण् / 'फले' इत्यनेन अण्लोपः / ‘ड्यादे०' डीलोपः / पुनः ‘गौरादिभ्यो०' (2 / 4 / 19) डीः / पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीतः / पञ्चभिः सूचीभिः क्रीतः 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण् / 'अनाम्न्यः' (6 / 4 / 141) लुप् / / 95 // -- गोश्वान्ते ह्रस्वोऽनंशिसमासेयोबहुव्रीहौ // 2 // 4 // 96 // गौणस्याकिपो गोशब्दस्य ङ्यायन्तस्य [डी आप् ति ऊ] च नाम्नोऽन्ते वर्तमानस्य हस्वो भवति / यद्यसौ अंशिसमासान्त इयस्वन्त बहुव्रीह्यन्तो वा न स्यात् / [चित्रा गावोऽस्य] चित्रगुः / पञ्चगुः निःकौशाम्बिः, निःश्रेयसिः अतिखट्वः अतिब्रह्मबन्धुः / गौणस्येत्येव-[शोभना गौः] सुगौः। [कुत्सिता गौः] किंगौः / राजकुमारी / [परमश्चासौ ब्रह्मबन्धूश्च] परमब्रह्मबन्धुः / नक्षत्रमाला / अकिप इत्येव-प्रियगौः, प्रियकुमारी चैत्रः / गोश्चेति किम् ? [तन्त्रीमतिक्रान्तः] / अतितन्त्रीः / [लक्ष्मीमतिक्रान्त] अतिलक्ष्मीः / अतिश्रीः / अतिभूः एते शब्दा न डीप्रत्ययान्ताः] / अन्त इति किम् ? [गवां कुलं] गोकुलम् / कन्यापुरम् / कुमारीप्रियः [परे प्राहुःहस्वः इह कस्मान भवति / बहुकुमारीकः / [सूरिराह] परत्वात्प्रथममेव कचि कृतेऽन्त्यत्वाभावात् / अनंशिसमासेत्यादि किम् ? [अर्द्धं पिपल्याः] अर्द्धपिप्पली / तुर्यभिक्षा / [बह्वयः श्रेयसो यस्य स] बहुश्रेयसी पुरुषः // 96 // अ० पञ्चभिर्गोभिः क्रीतः ‘मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इकण् ‘अनाम्न्यः ' (6 / 4 / 141) लुप् / कौशाम्ब्या निर्गतः निःकौशाम्बिः / श्रेयसा निर्गतः निःश्रेयसिः / खट्वामतिक्रान्तः अतिखट्वः / ब्रह्मबन्धुमतिक्रान्तः / सर्वत्र 'गोश्चान्ते' इति ह्रस्वः / पञ्चकुमारी / कुमारीमिच्छति क्यन् / कुमारीयतीति क्विप् / तस्य लोपः / कुमारी / पञ्चकुमार्यो देवताऽस्य पञ्चकुमारी 'देवता' (6 / 2 / 101) अण् 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः' (6 / 1 / 24) इत्यनेनाण् लुप्यते / सुशोभना गौः सुगौः / सुगौः प्रिया यस्य सः सुगौप्रियः / राज्ञः कुमारी राजकुमारी / राजकुमारी प्रिया यस्य स राजकुमारीप्रिय इत्यादौ तु यद्यपि गौशब्दान्तं याद्यन्तं च नाम अन्यपदार्थे गुणीभूतं तथापि तदपेक्षया न अन्त्यत्वम् / यदपेक्षया वान्त्यत्वम् तदपेक्षया गौणत्वं नहि इति न ह्रस्वः ‘इयमवचूरिर्गोकुलं कन्यापुरं कुमारीप्रियः इत्यस्याने ज्ञातव्या / प्रियगौः गामिच्छति क्यन् / गव्यतीति विप् / 'य्वोः प्वय् व्यञ्जने लुक्' (4 / 4 / 121) इत्यनेन यकारो लुप्यते / ततः क्किप्लोपः / प्रिया गौरस्य प्रियगौः / प्रियकुमारी चैत्रः / कुमारीमिच्छति क्यन् / कुमारीयतीति किम् / यलोपः प्राग्वत् / प्रियश्चासौ कुमारी च प्रियकुमारी। गोकुलमित्यादिषु गोशब्दो ड्याद्यन्तं च पदं समासार्थे न्यग्भूतत्वात् गौणम् / बह्वयः कुमार्यो यत्र ग्रामे बहुकुमारीको ग्रामः / 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इति सूत्रेण.कच् / पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नेनांशिना' (3 / 1 / 52) इति सूत्रे अंशितत्पुरुषलक्षणं वक्ष्यते / अर्द्धपिप्पलीत्यत्र ‘समेंऽशेऽर्द्धं नवा' (3 / 1 / 54) इति सूत्रेण अंशितत्पुरुषः / तुर्यं भिक्षाया इति वाक्ये तुर्यभिक्षा इत्यत्र ‘द्वित्रिचतुर०' (3 / 1 / 56) इत्यादिनांशिसमासः // 96 / / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ 205 . श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः क्लीबे // 2 / 4 / 97 // क्लीबे नपुंसके स्वरान्तस्य नाम्नो हस्वः स्यात् / कीलालपम् ग्रामणि नतभु अतिरि अतियु अतिनु कुलम् // 9 // ___ अ० कीलालं पिबति यत् कुलम्, ग्रामं नयति यत् कुलम्, नता भ्रू यस्य कुलस्य, रायमतिक्रान्तं अतिरि घामतिक्रान्तं यत् तत् अतिधु, नावमतिक्रान्तं अतिनु // 97 / / वेदूतोऽनव्ययम्वृदीच्ङीयुवः पदे // 2 // 4 // 98 // ईकार-ऊकारयोः पदे परतो ह्रस्वो वा स्यात् / यदि तौ अव्ययौ वृतौ ईपौ ङीरूपी इयुवस्थानो च न भवतः / लक्ष्मिपुत्रः लक्ष्मीपुत्रः / ब्रह्मबन्धुपुत्रः ब्रह्मबन्धुपुत्रः / अव्ययादिवर्जनं किम् ? ऊरीकृत्य उररीकृत्य। वृत्-इन्द्रहूपुत्रः। ई-कौमुदगन्धीपतिः। डीः-गार्गीपुत्रः / इयुक्-श्रीकुलम् भ्रूकुलम् यवक्रीकुलम् // 98 // अ० इन्द्र. ‘हेंङ् स्पर्द्धायाम् वाचि' ढे, 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) ह्वा / इन्द्रं ह्वयते इन्द्रहूः 'विप्' (5 / 1 / 148) 'यजादिवशवच०' (4 / 1 / 72) इति य्वृत् उकारः / 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' (4 / 1 / 103) इति दीर्घः इन्द्रहः / इन्द्रहूश्चासौ पुत्रश्च / / 9 / / . ङ्यापो बहुलं नाम्नि // 2 // 4 // 99 // ड्यन्तस्य आबन्तस्य च नाम्न उत्तरपदे परतो नाम्नि सञ्ज्ञाविषये ह्रस्वः स्याद्बहुलम् / रोहिणिमित्रः भरणिगुप्तः महिदत्तः शिलवहम् शिलप्रस्थम् / कचिद्विकल्पः-रेवतिमित्रः रेवतीमित्रः, पृथिविदत्तः पृथिवीदत्तः, गङ्गदेवी गङ्गादेवी, गङ्गमहः गङ्गामहः, शिंशिपस्थलम् शिंशिपास्थलम् / कचिन्नस्यात्-फल्गुनीमित्रः नान्दीमुखम् / [नान्दीघोषः] नान्दीतूर्यम् / महीफलम् लोमकागृहम् लेपिकाखण्डः गङ्गाद्वारम् / झ्याप इति किम् ? भीपुरम् / नाम्नीति किम् ? नदीम्रोतः खट्वापादः // 19 // अ० रोहिण / 'रेवतरोहिणारे' (2 / 4 / 26) इति ङीः / भरणि / 'इतोऽक्त्यर्थात्' (2 / 4 / 32) डीः // 99 / / त्वे // 2 // 4 // 10 // याबन्तस्य त्वे प्रत्यये परे बहुलं ह्रस्वः स्यात् / [रोहिण्या भावः] रोहिणित्वम् रोहिणीत्वम् / [अजाया भावः] अजत्वम् अजात्वम् // 10 // भुवोऽच्च कुंसकुट्योः // 2 / 4 / 101 // [अत् च] भूशब्दस्य कंसकुट्योः परयोर्हस्वोऽकारश्च स्यात् / सुकुंसः कुंसः) ध्रुवकुटिरिव कुटिः कौटिल्यं वा कुटिः प्रकुटिः // 10 // मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारितूलचिते // 2 // 4 // 102 // - माला इषीका इष्टकाशब्दानां केवलानामन्ते वर्तमानानां च भारितूलचितेषु परेषु यथासङ्ग्यं ह्रस्वः स्यात् / मालभारी मालभारिणी उत्पलमालभारी / [इषीकायास्तूलं] इषीकतूलम् मुञ्जेषीकतूलम् / [इष्टकाभिश्चितं] इष्टकचितम् / पकेष्टकचितम् // 102 // . अ० मालां बिभर्तीत्येवंशीलः शीला (वा) मालभारी मालभारिणी / उभयत्र 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इति णिन् 'नामिनोऽकलिहलेः' (4 / 351) इति वृद्धिः भार् / मालभारिणी इत्यत्र ‘स्त्रियां नृतो.' (2 / 4 / 1) ङी / उत्पलानां माला० / उत्पलमालां बिभर्तीत्येवंशील शीला (वा) उत्पलमालभारी उत्पलमालभारिणी // 102 / / गोण्या मेये // 2 // 4 / 103 // गोणीशब्दस्य मानवृत्ते [मानवाचिन] रुपचारान्मेयवृत्ते [मेये वर्तमानस्य] ईस्वः स्यात् / गोण्या मितो गोणिः / मेय इति किम् ? गोणी [छाटी] // 103 // यादीदूतः के // 2 // 4 / 104 // [डी आत् ईत् उत् इति रचना / ततः षष्ठी ङस् / ] डीप्रत्ययस्य आकार ईकार ऊकाराणां च के प्रत्यये परे ह्रस्वः [स्यात्] / [कुमार्येव] कुमारिका / पविका मृद्विका सोमपक. ['यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) इति कः, 'अस्यायत्त०' (2 / 4 / 111) इकारः] सोमपिका / लक्ष्मिका। तन्त्रिका वधुका / डीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थम् // 10 // ___ अ० 'ककि लौल्ये' कक् / ककते लोलो भवति इति काकः अचि पृषोदरादित्वात् आत्वं काकः, पचनं पाकः घञ्, इत्यादौ तु 'प्रत्ययाप्रत्यययोश्च प्रत्ययस्यैव ग्रहणम्' इति न्यायबलात् ड्यादीदूतः के' इत्यनेन ह्रस्वो न भवति इति विशेषो ज्ञेयः / पट्विका मृदिक इत्यत्र 'क्यङमानिपित्तद्धिते' (3 / 2 / 50) इत्यनेन पुंवद्भावः प्राप्नोति इति ‘ड्यादीदूतः के' अत्र सूत्रे ङीप्रत्ययस्य हस्वविधानात् पुंवद्भावो न प्रवर्त्तते / एतच्च ‘क्यङ्मानिपित्तद्धिते' इति सूत्रे डीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थमिति वक्ष्यते // 104 / / न कचि // 2 / 4 / 105 // ___ डी आई ऊतां कचि प्रत्यये ह्रस्वो न स्यात् / बहुकुमारीकः / बहुकीलालपांकः। ['ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) कच्, कचित् ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति च प्रवर्त्तते] बहुलक्ष्मीकः बहुब्रह्मबन्धूकः // 10 // अ० बह्वयः कुमार्यो यत्र ग्रामे कुटुम्बे वा स बहुकुमारीकः 'ऋन्नित्यदितः' (7 / 3 / 171) इति सूत्रेण कच् समासान्तः / बहवः कीलालपा यत्र ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) कच् / बढयो लक्ष्म्यो यत्र / बह्वयो ब्रह्मबन्ध्वो यत्र 'ऋन्नित्यदितः' इति सूत्रेण कच् समासान्तः / एवं खार्या क्रीतं खारीकम् / काकण्या क्रीतं काकणीकम् / ‘खारीकाकणीभ्यः कच्' (6 / 4 / 149) इति कच् / 'न कचि' (2 / 4 / 105) इति सूत्रं ‘ड्यादीदूतः के' इति पूर्वसूत्रे निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्येति न्यायस्य अभावज्ञापनार्थं कृतम् / तेन शबरोपलक्षिता जम्बूः, शबरजम्ब्वां भवः शाबरजम्बुकः / ‘उवर्णादिकण्' (6 / 3 / 39) इति सूत्रेण इकण् / 'ऋवर्णोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक्' (74/71) इति सूत्रेण इकण इकारो लुप्यते ततो ‘ड्यादीदूतः के' इति ह्रस्वः / अन्यथा निरनुबन्धस्य 'तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः' (7 / 1 / 108) इति विहितस्यैव कस्य स्यात् न कपादि अन्यस्य // 105 // नवापः // 2 / 4 / 106 // आपः कचि परे ह्रस्वो वा स्यात् / प्रियखट्सकः प्रियखट्वाकः / बहुमालकः बहुमालाकः // 106 / / अ० प्रियाः खट्या अस्मिन् / बढ्यो माला अस्मिन् / ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति सूत्रेण कच् समासान्तः / / 106 // इच्चासोऽनितक्यापपरे // 2 / 4 / 107 // आप् एव परो यस्मान्न विभक्तिः स आप्परः / अपुंल्लिङ्गार्थाच्छब्दाद्विहितस्य आपः स्थाने इकारो ह्रस्वश्च वा स्यात् / अनित् नकारानुबन्धवर्जिते, कि ककारे आप्परे परतः। खट्विका खट्वका खट्वाका। एवं परमखट्विका Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः परमखट्वका परमखट्वाका / अपुंस इति किम् ? सविका। अनिदिति किम् ? दुर्गका। कीति किम् ? [खदाया भावः ‘भावे त्वतल्' (71 / 55)] खट्वाता। आप्पर इति किम् ? प्रियखट्वाकः पुरुषः। आप इत्येव मातृका // 107 // - अ० अनित्कि-न् नकार इत् अनुबन्धो यत्र स नित्, न विद्यते नित् नकारोऽनुबन्धो यत्र कप्रत्यये स अनित् / अनिच्चासौ क् च कप्रत्ययः अनित्क्, तस्मिन् अनित्कि / 'इच्चापुंसः' इति सूत्रे चकारो ह्रस्वानुकर्षणार्थः, तेन इकारो विकल्पेन भवतीति सूत्रार्थः / खट्विका अत्र इकारः / खट्वका अत्र ह्रस्वः / इकारपक्षे ह्रस्वपक्षे च खट्दाका इति रूपम् / एवं रूपत्रयम् / परमा चासौ खट्वा च परमखट्वा / परमखट्दैव परमखट्विका 'यावादिभ्यः कः' (7 / 3 / 15) एवं प्रिया खट्वा यस्याः सा प्रियखट्विका ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति कच् / सर्व. 'त्यादिसर्वाऽऽदेः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक्' (7 / 3 / 29) इति अक् / अकारं विश्लिष्य पश्चादाप् / 'अस्यायत्त०' (2 / 4 / 111) इति इकारः / दुर्गादेवी। अनुकम्पिता दुर्गादेवी दुर्गा ‘ते लुग्वा' (3 / 2 / 108) इति सूत्रेण देवीशब्दलोपः / 'लुक्युत्तरपदस्य कप्न्' (7 / 3 / 38) इति कप्न / अत्र ककारो नकारसंयुक्तः इति अनित्कीति वर्जनात् न इत्वम् ‘ड्यादीदूतः के' (2 / 4 / 104) इत्यनेन हस्व एव / ___ मातुस्तुल्या मातृका 'तस्य तुल्ये कः सञ्ज्ञाप्रतिकृत्योः' (7 / 1 / 108) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / पश्चात् आप्। न विद्यते खट्वा अस्याः सा अखट्विका / खट्वामतिक्रान्ताऽतिखट्विका / 'गोश्चान्ते०' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वः अखट्व अतिखट्व (स्त्रीपुंससाधारणात्) पुनरपि आप् / अल्पा अखट्वा अल्पा अतिखट्वा 'कुत्सिता०' (7 / 3 / 33) कप्रत्ययः। 'ड्यादीदूतः के' (2 / 4 / 104) इत्यनेन ह्रस्वः / 'अस्यायत्त०' (2 / 4 / 111) इति अकारस्य इत्वम् / अखट्विका अतिखट्विका एकमेव रूपं न त्रैरूप्यम् / अपुंस्कात् आप् न कृत इति हेतोः / यत्र तु न विद्यते खट्वा यस्या सा अखट्विका इति वाक्ये 'शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति कच्, तत्र त्रैरूप्यं भवत्येव-अखट्विका अखट्वका अखट्वाका इति त्रैरूप्यम् / प्रिया खट्वा यस्याः सा प्रियखट्वका इति वाक्ये 'गोश्चान्ते.' (2 / 4 / 96) इति ह्रस्वो न कार्यः। परत्वात् ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति कच् क्रियते / तत 'इच्चापुंसो०' (2 / 4 / 107) इति इकारहस्वौ विकल्पेन। प्रियखट्विका प्रियखट्वका प्रियखट्वाका इति युक्त्या त्रैरूप्यं भवति / एते विशेषा 'इच्चापुंसो०' इति सूत्रे ज्ञातव्या 'इच्चापुंसो२' इति सूत्रे प्रियखट्वाकः पुरुष इति व्यावृत्तेरग्रे आप् एव परोऽस्मात् इति बहुव्रीहिः किम् ? प्रियखट्वाकमतिक्रान्ता अतिप्रियखट्वाका इति उदाहरणं व्यावृत्तेः / अत्रोदाहरणे प्रथमं द्वितीया / पश्चात् आप् इति न इत्वम् / इत्यक्षराणि ज्ञातव्यानि // 107 / / स्वज्ञाजभस्त्राऽधातुत्ययकात् // 2 / 4 / 108 // स्व ज्ञ अज भस्त्रेभ्योऽधातोप्रत्ययस्य च याववयवौ यकारककारौ ताभ्यां च परस्यापः स्थाने नकारानुबन्धवर्जिते ककारे आप्परे [परत] इकारो वा स्यात् / स्विका स्वका। अस्विका अस्वका। निःस्विका निःस्वका। ज्ञिका ज्ञका / अज्ञिका अज्ञका / अजिका अजका / अनजिका अनजका / बहजिका बह्वजका / अभस्त्रिका [इत्यादि सर्वत्र] अभस्त्रका / बहुभस्त्रिका बहुभस्त्रका / अतिभस्त्रिका अतिभस्त्रका / अत्र हि गौणस्य [आकारस्य] ह्रस्वत्वे कृते समासात् स्त्रीपुंससाधारणादाप् [पुन आप क्रियते इत्वम्] इति पूर्वेण न सिद्धयति / यदा त्वपुंस्कादाप् क्रियते तदा पूर्वेण [‘इच्चापुंसो' इत्यनेन] त्रैरूप्यमेव / भस्त्रिका भस्त्रका भस्त्राका / न भस्वा अभस्त्रा भल्पा [अ] भस्त्रा अभस्त्रिका अभस्त्रका अभस्त्राका / एवं परमभस्त्रिका 3 / यकार-इभ्यिका इभ्यका / आर्यिका आर्यका / क्षत्रियिका क्षत्रियका / ककार-चटकिका चटकका / मूषकिका मूषकका / धातुत्यवर्जनं किम् ? Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सुनयिका अशोकिका दाक्षिणात्यिका पाश्वात्यिका इहत्यिका // 108 // अ० यश्च कश्च यकम् / धातुश्च त्यश्च धातुत्यौ / न धातुत्यौ अधातुत्यौ / अधातुत्ययोर्यकं अधातुत्ययकम् स्वज्ञाजभत्रं च अधातुत्ययकं च स्वज्ञाजभत्राधातुत्ययकं तस्मात् / स्विका स्वका इत्यादि / स्वशब्दो ज्ञातौ कुत्सिताद्यर्थे स्त्री-लिङ्गोऽपि (च इति) वैयाकरणमतम् / ततः कुत्सिता स्वा ज्ञातिः स्विका स्वका 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' (7 / 3 / 33) इति कप् / न स्वा अस्विका / निर्गता स्वा यत्र निःस्विका निःस्वका / एवं कुत्सिता ज्ञा ज्ञिका ज्ञका / न ज्ञा अज्ञिका / निर्गता ज्ञा निर्शिका / अथवा न स्वा अस्वा, अल्पा अस्विका / एवं अज्ञिका / कुत्सिताऽल्पा वा अजा अजिका / तथा न विद्यमाना भस्रा यस्या सा अभस्वा / अल्पा [अ] भत्रा अभस्त्रिका / तथा अस्विका इत्यादौ तु विभक्तेः पर न आप् / किन्तु कप्रत्ययात्पर आप् इति अत्वं / ज्ञातिधनार्थयोः स्वशब्दो न सर्वादिः इति न अक् इति हेतोः स्वशब्दात् कप् कार्यः / बहूनि अपत्यानि यस्या सा बह्वपत्या / आप् ततः ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति कच् / ततः 'स्वज्ञाजभस्त्रा०' इति सूत्रेण इकारो ह्रस्वश्च / बह्वपत्यिका बह्वपत्यका बह्वपत्याका इति त्रैरूप्यं सिद्धम् / बह्वपत्यकेत्यत्र त्यप्रत्ययो नास्ति इति त्रैरूप्यम् / तथा शुष्किका अत्र कथं न विकल्पः ? सूरिराह क्तादेशस्य ककारस्य असिद्धत्वात् / इति विशेषाः 'स्वज्ञाजभस्त्रे'ति सूत्रे ज्ञेयाः / दक्षिणा. दक्षिणस्यां भवो दाक्षिणात्यः / पश्चाद्भवः पाश्चात्यः / 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण' (6 / 3 / 13) इति सूत्रेण त्यण् / स्त्री चेत् दात्रिणात्या पाश्चात्या। इह भवा इहत्यिका 'केहामात्रतसस्त्यच्' (6 / 3 / 16) इति सूत्रेण त्यच् / तत आप् / ततः स्वार्थे कः / ‘इच्चापुंस०' (2 / 4 / 107) इकारः // 108 / / द्वयेषसूतपुत्रवृन्दारकस्य // 2 / 4 / 109 // आप् इति निवृत्तं पृथग्योगात् / एषामन्तस्यानित्क्याप्परे [परत] इकारो वा सयात् / द्विके द्वके / एषिका एषका / सूतिका सूतका / पुत्रिका पुत्रका / वृन्दारिका वृन्दारका // 109 // __ अ० द्वके द्विके-अत्र द्विशब्दः प्रथमा औ 'आद्वेरः' (2 / 1 / 41) इति सूत्रेण इकारस्य अकारः / अकारं विश्लिष्य 'त्यादिसर्वादेः स्वरे०' (7 / 3 / 29) इति अक् / आप् ‘समासानां तेन दीर्घः' (1 / 2 / 1) तत ‘औता' (1 / 4 / 20) इति सूत्रेण एत्वं औकारेण सह / तदनन्तरं 'द्ववेषसूत्र०' इत्यनेन विकल्पेन इत्वम् / एषिका इत्यत्रापि एषा. एतदः सिः आनीय एषा साध्यते / ततोऽक् / इत्वम् / 'द्वयेषसूत०' इति सूत्रे द्वि-एषशब्दयोः केवलयोरेव विकल्पेन सूत्रेण इकारः / न द्वे / न एषा / न द्वके / न एषका इति युक्त्या नपूर्वकयोः अक्युक्तयोईि- एषशब्दयोर्वैयाकरणा इत्वं न प्रयोजयन्त्येव / अद्वके अनेषका इत्येव रूपं भवति / तथा द्विशब्दसाहचर्यात् एष इति सर्वादिसम्बन्धिन एतद्-शब्दस्य कृतविकारस्य निर्देशो ज्ञातव्यः / तेन 'इषत् इच्छायाम्' इषेर्धातोर्णकाणकादिप्रत्ययान्तस्य अविकृतस्य न ग्रहणम्, एतद्-शब्दस्यापि अविकृतस्य इत्वं न भवतीत्यर्थः / इच्छतीति एषिका / एता एव एतिका / अत्र उत्तरसूत्रेण इत्वं न 'द्वयेषसूत०' इत्यनेन / / 109 / / वौ वर्तिका // 2 // 4 // 110 // [वर्त्तिका चटिका उच्यते लोके चिडी इति च] . वौ पक्षिवाच्ये वर्तिका इति इत्वं वा निपात्यते / वर्तिका वर्तका-शकुनिः। [वर्तते इति वर्ततेर्णको ‘णकतृचौ (5 / 1 / 48), आप् वर्त्तिका इति शब्दः] वाविति किम् ? वर्तिका [आचार्यः, बाहुलकात् स्त्रीलिङ्गशब्दः] / भागुरिर्लोकायः तस्य व्याख्यात्रीत्यर्थः // 110 // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ___ अ० लोकायतं नाम नास्तिकमतशास्त्रम् / तत्र कर्त्ता भागुरिराचार्यः / स ग्रन्थे वर्तिका इत्युच्यते / / 11 / / - अस्यायत्तक्षिपकादीनाम् // 2 // 4 // 11 // [अकारस्य] यद्-तद्-क्षिपकादिवर्जितस्य नाम्नो योऽकारस्तस्य इत्स्यात् / अनित्कि आप्परे परतः / वा इति निवृत्तं पृथग्योगात् / कारिका पाचिका मद्रिका मुण्डिका / [बधर एव] बधरिका / अस्येति किम् ? गोका / अनित्कीत्येव-जीवका नन्दका / आप्पर इत्येव-कारकः / आप् एव परो यस्मादिति नियमः किम् ? बहुपरिव्राजका बहवः परिव्राजका यत्र सा बहुपरिव्राजका आप्] मथुरा / विभक्त्यन्तादयमाप् इति प्रतिषेधः / यत्तक्षिपकादिवर्जनं किम् ? यका सका [या सा प्रकृतिः / विचाले अक्प्रत्ययः, तत आप्] / क्षिपका ध्रुवका इत्यादि // 111 // अ० नकारानुबन्धवर्जिते कप्रत्यये आप्परे / यदि ‘अस्यायत्त०' इति सूत्रेऽपि विकल्पः स्यात्तदा स्विका स्वका इत्यादौ ‘ड्यादीदूतः के' (2 / 4 / 104) इति ह्रस्वे कृते 'अस्यायत्त०' इति सूत्रेण विकल्पेन इत्वस्य सिद्धत्वात् 'स्वज्ञाजभस्त्रा०' (2 / 4 / 108) इत्यादीनां पृथगुपादानं निरर्थकं स्यादिति वा इति निवृत्तं सूत्रे / करोतीति कारकः, पचतीति पाचकः ‘णकाँचौ' (5 / 1148) / स्त्रीचेत् कारिका पाचिका आप् / पश्चात् इत्वम् / मद्रेषु भवा मद्रिका / 'वृजिमद्राद्देशात्कः' (6 / 3 / 38) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / जीवतात् जीवका, नन्दतानन्दका 'आशिष्यकन्' (5 / 1 / 70) इति अकन् / क्षिपका शस्त्रविशेषः, ध्रुवका धुवका (आवपनविशेषौ), लहका-सविलासा स्त्री / चरका मुनिः / चटका / इष्टका / एडका अजाभेदः / एरका तृणम् / करका घनोपलः, त्रिलिङ्गः / अवका / अलका | (शेवालः) / दण्डका अलका (दण्डकारण्यम्) नगर्यो पिष्पका अश्वत्थफलम् / कन्यका / मेनका गौरीमाता अप्सराश्च / रेवका / सेवका / धारका / उपत्यका पर्वताधोभूमिः / अधित्यका पर्वतो भूमिः / इत्यादि क्षिपकादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 111 / / नरिका मामिका // 2 // 4 // 112 // नरकशब्दमामकशब्दयोरकारस्य इत्वं निपात्यते / नरिका मामिका / ककारस्याप्रत्ययसम्बन्धित्वात्पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् [उदाहरणे ककारो न प्रत्यय इति ‘अस्यायत्तेन' इत्वं न प्राप्नोति इति वचनमिदं कृतम्] // 112 // * अ० नरान् कायतीति नरिका 'आतो डोऽह्वावामः' (5 / 1 / 76) इति डः / आप् / अस्मद्. ममेयं मामिका इति वाक्ये 'वा युष्मदस्मदोऽञीनञौ युष्माकाऽस्माकं चास्यैकत्वे तु तवकममकम्' (6 / 3 / 67) इति सूत्रेण अप्रत्ययः / अस्मदो ममक आदेशश्च / तत आप् // 112 / / ___ तारकावर्णकाष्टकाज्योतिस्तान्तवपितृदैवत्ये // 2 // 4 // 113 // - तारकादिशब्दा यथासङ्ग्यं ज्योतिरादिष्वर्थेषु इकारारहिता निपात्यन्ते / तारका ज्योतिः नक्षत्रं कनीनिका चं, अन्यत्र तारिका / वर्णका तान्तवः प्रावरणविशेषः, अन्यत्र वर्णिका / अष्टका पितृदेवत्यं कर्म, अन्यत्राष्टौ द्रोणाः परिमाणमस्या इति के अष्टिका खारी // 113 // द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः // ग्रं० श्लोक 260 // - अ० तृधातोः परतो णकप्रत्यये टाप् / तारका इति रूपम् / नेत्रतापकनीनिका तारका / वर्णयतीति णके। 'अशूटि व्याप्तौ' अश् ‘इष्यशिमसिभ्यस्तकक् (77) इत्युणादिसूत्रेण तकक् / 'यजसृज०' (2 / 1 / 87) इति षत्वम् / / 113 // इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने द्वितीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृतः चतुर्थ पादः समाप्तः / / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते धातोः पूजार्थस्वतिगतार्थाधिपर्यतिक्रमाातिवर्जः प्रादिरुपसर्गः प्राक् च // 3 // 11 // [गतो ज्ञातोऽर्थोऽभिधेयो ययोः तौ च तौ अधिपरी च] धातोः सम्बन्धी तदर्थयोती चायन्तर्गतः [चादिगणमध्यवर्ती] प्रादिः शब्दगण उपसर्गसंज्ञः स्यात् / तस्माद्धातोः प्राक् प्रयुज्यते, न परो न व्यवहितः / पूजार्थो स्वती, गतार्थावधिपरी, अतिक्रमार्थमतिं च वर्जयित्वा। प्रणयति अभिषिञ्चति उपलम्भः / एषूपसर्गसंज्ञायां णत्वषत्वनागमाः सिद्धाः / धातोरिति किम् ? वृक्षवृक्षमभिसिञ्चति, ['लक्षणवीप्स्येत्थम्भूतेष्वभिना' (2 / 2 / 36) इति द्वितीया] पूजार्थस्वत्यादिवर्जनं किम् ? पूजार्थो स्वतीसुसक्तम् सुस्तुतं भवता / अतिसिक्तं अतिस्तुतं भवता / [उपसर्गेण] धात्वर्थः प्रशस्यते / अत्रोपसर्गसंज्ञाया अभावान षत्वम् / गतार्थावधिपरी-अध्यागच्छति आगच्छत्यधि, पर्यागच्छति आगच्छतिपरि, उपरिभावः सर्वतोभावश्चान्यतः प्रकरणादेः प्रतीयते इति गतार्थत्वम् / अत्र प्राक्त्वनियमाभावः। अतिक्रमार्थोऽतिः-अतिसिक्तम् अतिस्तुतं भवता / अतिक्रमेण सेकः स्तुतिश्च कृतेत्यर्थः / अत्र न षत्वम् / अतिसिक्त्वा अतिस्तुत्वा। अत्र समासाभावान यप् / प्रादिग्रहणं किम् ? पुनर्नमति / साधु सिञ्चति / 'धात्वर्थ बाधते कश्चित् [उपसर्गः] कश्चित्तमनुवर्त्तते / तमेव [धात्वर्थं] विशिनष्ट्यन्यो [अन्यः कश्चिदुपसर्गो धात्व) विशिनष्टि, कोऽर्थः ? प्रकर्षमानपति] ऽनर्थकोऽन्यः प्रयुज्यते' // 1 // बाधते यथा-प्रतिष्ठते प्रवसति दिशान्तरे याति] / प्रलीयते ['लीच् श्लेषणे' दिवादिः] प्रविश्यति / वित्रपति [धातुपाठे योऽर्थः] तमनुवर्तते यथा ['इड अध्ययने'] अधीते / अध्येति / आचष्टे / तमेव विशिनष्टि यथा / प्रार्थयते / विजयते / निमीलति एषामुपसर्गाणां चापञ्चभ्यः प्रायेण प्रयोगो भवति / यथा आहरति व्याहरति अभिव्याहरति समभिव्याहरति प्रसमभिव्याहरति / धातोरिति प्राक् चेति चाधिकारो गतिसंज्ञां यावत् // 1 // अ० प्र परा अप सम् अनु अव निस् निर् दुस् दुर् वि आङ् नि अधि प्रति परि उप अति अपि सु उद् अभि इति प्रादिः 22 उपसर्गगणः / प्रणयतीत्यत्र ‘अदुरुपसर्गान्तरो णहिनुमीनानेः' (2 / 3 / 77) इत्यनेन णत्वम् / अभिषिञ्चतीत्यत्र 'स्थासेनिसेधसिच०' (2 / 3 / 40) इत्यनेन षत्वम् 'मुचादितृफदृफगुफ०' (4 / 4 / 99) इत्यनेन नोऽन्तोनागमश्च सिद्धौ / उपलम्भ इत्यत्र ‘उपसर्गात्खल्पञोश्च' (4 / 4107) इति नोऽन्तः / प्रगता नायका यस्मात् स प्रनायको देशः / इत्यत्र तु सत्यपि धातुसम्बन्धे 'येनैव धातुना संबद्धाः प्रादयः तं धातुं प्रत्येवोपसर्गसंज्ञा' इति गमिसम्बन्धेऽपि नयतिधातुं प्रति अनुपसर्गत्वात् न णत्वम् / एवं ऋच्छन्तीति ऋच्छकाः, णक / प्रगता ऋच्छका यस्मात् स प्रर्च्छकः (देशः) / अत्रापि प्रस्यानुपसर्गत्वात् 'ऋत्यारुपसर्गस्य' (1 / 2 / 9) इत्यनेन आर् न भवति / सु कोऽर्थः ? पूजितं सिच्यतेस्म स्तूयतेस्म इति वाक्ये 'ज्ञानेच्छार्चार्थ 0' (5 / 2 / 92) इति क्तः / अत्रोपसर्गत्वाभावात् 'उपसर्गात्सुगसुवसो०' (2 / 3 / 39) इत्यादिना न प्राप्नोति षत्वम् / पूजाग्रहणं किम् ? सुषिक्तं किं तवात्र / धात्वर्थः कुत्स्यते / उपसर्गसंज्ञत्वात् षत्वं सिद्धम् / स्थाधातुः स्वभावादवस्थाने प्र उपसर्गेण प्रचलने वर्त्तते देशान्तरे याति / 'लीङ्च श्लेषणे' दिवादिः / अध्येति 'इंक् स्मरणे' / प्राणिति ‘अन श्वसक् प्राणने' अन् प्रपूर्वः / तिव् / 'रुत्पञ्च Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 211 काच्छिदयः' (4 / 4 / 88) 'इट् / द्वित्वेऽप्यन्तेप्यनितेः परेस्तु वा' (2 / 3 / 81) इति नकारस्य णत्वम् ‘अधेरुपरिभावोऽर्थः प्रस्तावादेः प्रतीयते / परेश्च सर्वतोभावो गतार्थत्वं द्वयोस्ततः' // 1 // इति श्लोकः / अतिक्रमेण सिच्यतेस्म / अतिक्रमेण स्तूयतेस्म / निष्टपतीत्यत्र 'निसस्तपेऽनासेवायाम्' (2 / 3 / 35) इत्यनेन सकारस्य षकारः / निष्टपति कोऽर्थः ? सकृदग्निं स्पर्शयति सुवर्णमित्यर्थः / ‘मील इमील स्मील क्ष्मील निमेषणे' / धातोः इत्यधिकारः प्राक्च इत्यप्यधिकारो ‘जीविकोपनिषदौपम्ये' (3 / 1 / 17) इति गतिसंज्ञाधिकारसूत्रं यावत् ज्ञातव्यः // 1 // ऊर्याद्यनुकरणविडाचश्च गतिः // 3 // 1 // 2 // ऊर्यादयोऽनुकरणानि ज्यन्ता डाजन्ताश्च शब्दाः उपसर्गाश्च धातोः सम्बन्धिनो गतिसंज्ञाः स्युः तस्माद्धातोः प्रागेव प्रयुज्यन्ते / ऊर्यादि-ऊरीकृत्य उररीकृत्य ऊरीकृतम् उररीकृतम् / अनुकरणे, खाकृत्य [खाट इत्यस्य करणं पूर्वम्] / पूत्कृत्य / ळ्यन्तः-शुक्लीकृत्य [अशुक्लं शुक्लं करोति] / डाजन्त-पटापटाकृत्य / उपसर्गप्रकृत्य प्रकृतम् पराकृतम् / ऊर्यादीनां शब्दानां चिडाच्साहचर्यात् कृभ्वस्तिधातुभिरेव योगे गतिसंज्ञा / श्रत्शब्दः [श्रद्धाय, श्रद्धां कृत्वा, शीघ्रं च] करोतिदधातिभ्यां योगे गतिसंज्ञः / प्रादुराविःशब्दौ कृग्योगे / साक्षादादिगणे च गतिसंज्ञाविकल्पार्थ पठ्यते / गतिप्रदेशा गतिरित्यादयः // 2 // अ० ऊरी उररी अङ्गीकरणे विस्तारे च / उरूरी अङ्गीकारे / एते त्रयो भृशार्थप्रशंसयोरपि / / पाम्पीशब्दो विध्वंसमाधुर्यकरुणविलापेषु / पाम्पीकृत्य विध्वंसं माधुर्यं वा, करुणविलापान्वा कृत्वेत्यर्थः / ताली आताली वर्णोत्तमार्थयोः / धूशी कान्तिकांक्षयोः (पाम्प्यादयो विस्तारेऽपि) / शकला संशकला ध्वंशकला भ्रंशकला आलम्बी केवाशी शैवाली पार्दाली मस्मसा मसमसा, एते हिंसायाम्, आद्याश्चत्वारः परिभवेऽपि, ततः परे चत्वार आविष्कारेऽपि, अन्त्यौ च द्वौ प्रत्येकं चूर्णसंवरणयोरपि, पार्दाली शब्दार्थेऽपि, मस्मसा मस मसानुकरणेऽपि / गुलुगुधाशब्दः पीडाक्रीडयोः / सजूःशब्दः सहार्थे / फलूफली विक्ली आक्ली; एते विकारे / आद्यौ द्वौ क्रियासम्पत्तिकर्मसिद्धिकण्टकरहितदेशेषु, अन्त्यौ द्वौ विचारविभागयोः / श्रौषट् वषट् वौषट् स्वाहा स्वधा देवतासंप्रदानदानमात्रयोः / वषट् पूजायामपि / स्वधा तृप्तिप्रीतिप्रत्यभिवादनेष्वपि / श्रत् श्रद्धाने शीघ्रं च / प्रादुस् आविस् प्राकाश्ये / पशू केवाली हिंसायाम् / वेताली / विस्तारे / - केचित्तु धूली-वर्षाली-पाम्पाली-विचालीशब्दचतुष्टयमप्यधीयते / श्रौषट् इत्यादिशब्दाः 6 संप्रदाने कोऽर्थः ? देवताभ्यो दीयमानवस्तुविषये / दानमात्रे कोऽर्थः ? सामान्यदाने च वर्त्तन्त इति ऊर्यादिगणः / 'ऊर्याद्यनुकरणे'त्यादि 'जीविकोपनिषदौपम्ये' (3 / 1 / 17) इत्यन्तसूत्रैः षोडशभिः गतिसंज्ञा विधीयते / गतिसंज्ञाया इदं फलम् / गतिसंज्ञकशब्दः सर्वोऽपि 'गतिः' (1 / 1 / 36) इति प्रथमपादसूत्रेण अव्ययसंज्ञको ज्ञातव्यः / अव्ययसंज्ञकत्वात् 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः' (3 / 1 / 42) इति सूत्रेण तत्पुरुषसमाससंज्ञो भवति / अव्ययसंज्ञत्वात् तत्पुरुषसमाससंज्ञत्वात् ऊरीकृत्य उररीकृत्य खाट्कृत्य शुक्लीकृत्य पटपटाकृत्य प्रकृत्य पराकृत्य प्रकृतं पराकृतम् ऊरीकृतमित्याद्युदाहरणेषु अव्ययपूर्वपदेन संह समासः / क्त्वास्थाने च ‘अनञः क्त्वो यप्' (3 / 2 / 154) इत्यनेन यप् आदेश इत्यादिकार्याणि जातानि इति फलं गतिसंज्ञाया ज्ञेयम् / एवं 'कारिकास्थित्यादौ' (3 / 1 / 3) इत्यादिसर्वसूत्रेष्वपि गतिसंज्ञाफलमिदं ज्ञेयम् / समासे च 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति सूत्रेण षष्ठ्यादीनां विभक्तीनां लोपश्च इत्यपि फलम् / पूर्वमेव ऊरीकरणम् पूर्वं पटनशब्दः, अपटत् पटद्भवतीति वाक्ये 'अव्यक्तानुकरणादनेकस्वरात् कृभ्वस्तिनाऽनितौ द्विश्च' (7 / 2 / 145) इति सूत्रेण डान्प्रत्ययः / अनेनैव पटत् इत्यस्य द्विवचनम् / पटत्पटत् / ‘डाच्यादौ' (7 / 2 / 149) इति सूत्रेण Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते पटत्शब्दतकारस्य अभ्यासे लोपः / प्रकृतिपटत्तकारस्य ‘डित्यन्त्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) अन्त्यस्वरादिलोपः / पटपटाशब्दः / अपटपटा पटपटाकरणं पूर्वं इति वाक्ये 'प्राक्काले' (5 / 4 / 47) क्त्वा / 'अनञः' (3 / 2 / 154) यप् // 2 // कारिका स्थित्यादौ // 3 // 1 // 3 // ___ कारिकाशब्दः स्थित्यादावर्थे धातोः सम्बन्धी गतिसंज्ञः स्यात् / तस्माद्धातोः प्रागेव [प्रयुज्यते / स्थितिः [कोऽर्थः] मर्यादा वृत्तिर्वा / आदिशब्दात् यत्नधात्वर्थनिर्देशौ गृह्यते / कारिकाकृत्य // 3 // .. ___ अ० करणं कारिका भावे णक / कारिका करणं पूर्वं इति वाक्येऽपि 'कारिका स्थित्यादौ' इति सूत्रेण गतिसंज्ञायां गतिसंज्ञायाश्च ‘गतिः' (1 / 1 / 36) इति सूत्रेण अव्ययसंज्ञाभावात् 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति सूत्रेण षष्ठ्या लुप् / षष्ठ्या लुप् इति वाक्यं सम्बन्धः / कारिकाकृत्य कोऽर्थः ? स्थितिं यत्नं वा क्रियां वा कृत्वा इत्यर्थः // 3 // भूषादरक्षेपेऽलंसदसत् // 3 // 1 // 4 // अलं सत् असत् इति शब्दा यथासङ्ख्यं भूषा [मण्डनं] आदरक्षेपेष्वर्थेषु+ गतिसंज्ञाः स्युः / धातोः प्राक् प्रयुज्यन्ते / भूषा-अलङ्कृत्य, अलङ्कृतम् / सत्कृत्य / असत्कृत्य / भूषादिष्विति किम् ? अलंकृत्वा मांकारीत्यर्थः / सत्कृत्वा विद्यमानं कृत्वेत्यर्थः / असत्कृत्वा अविद्यमानंकृत्वा // 4 // अ० भूषा मण्डनम् / प्रीत्यासम्भ्रम आदर उच्यते / क्षेपोऽनादरः / +धातोः संबन्धे वर्तमाना इत्यर्थः // 4 // अग्रहानुपदेशेऽन्तरदः // 3 // 15 // अन्तर् अदस् शब्दौ यथासङ्ख्यमग्रहेऽनुपदेशेऽर्थे गम्यमाने गतिसंज्ञौ, धातोः प्राक् [प्रयुज्येते] / अन्तर्हत्य मध्ये हिंसित्वा शत्रून् गत इत्यर्थः / अदःकृत्य एतत्कर्ता इति चिन्तयति / अग्रहानुपदेश इति किम् ? अन्तर्हत्वा मूषिकां श्येनो गतः / अदः कृत्वा गत इति परस्य कथयति // 5 // ___अ० अग्रहोऽस्वीकरणे / स्वयं परामर्शोऽनुपदेशः विशेषानाख्यानं वा / अन्तःशब्दो मध्येऽधिकरणभूते परिग्रहे च वर्त्तते / तत्र मध्येऽर्थे गतिसंज्ञः / परिग्रहे नो गतिसंज्ञः / व्यावृत्तौ परिग्रहार्थोऽन्तःशब्दः / अन्तर्हत्वा इत्यत्र क्त्वास्थाने यपि कृते सति ‘यपि' (4 / 2 / 56) इति सूत्रेण हनो नकारस्य लोपः / ततो 'ह्रस्वस्य०' (4 / 4 / 113) इति तोऽन्तः / स्वयंपरामर्शोऽनुपदेशः, विशेषानाख्यानं वा / विशेषानाख्याने मूलप्रयोगे चिन्तयतीत्यस्य स्थाने कथयतीतिप्रयोगो ज्ञातव्यः / अदःशब्दश्चादौ अव्ययम् // 5 // कणेमनस्तृप्तौ // 3 // 16 // ___ कणे मनस् इति शब्दौ तृप्तौ गम्यमानायां गतिसंज्ञौ [स्याताम्] / धातोः प्राक् प्रयुज्यते / तृप्तिः [वाच्छाअभाव] श्रद्धोच्छेदः / कणेहत्य मनोहत्य पयः पिबति / तावत् पिबति यावत्तृप्त इत्यर्थः / तृप्ताविति किम् ? तन्दुलावयवे कणे हत्वा गतः / मनो हत्वा गतः [मनो विनाश्य गतः // 6 // पुरोऽस्तमव्ययम् // 3 // 17 // पुरस् अस्तम् इत्यव्यये गतिसंज्ञे स्याताम् / धातोः प्राक् च [प्रयुज्येते] / पुरस्कृत्य / पुरस्कृतम् / अस्तंगत्य पुनरुदेति रविः / अस्तंगतानि दुःखानि / अव्ययमिति किम् ? पुरःकृत्वा / अस्तं कृत्वा काण्डं गतः / सकारो यप् च न भवति // 7 // अ० ‘असूच क्षेपणे' अस्यते स्म अस्तम् / क्त / अस्तं कोऽर्थः ? क्षिप्तम् / शरु लांषी(नांखी) गइओ इति Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 213 भावः / ‘नमस्पुरसो०' (2 / 3 / 1) इत्यनेन स् / पूर्वपर्यायः पुरः शब्दः / अस्तं शब्दोऽदर्शने / पुर् अग्रे शस् // 7 // गत्यर्थवदोऽच्छः // 3 // 18 // अच्छेत्यव्ययं गत्यर्थधातोर्वदश्च धातोः सम्बन्धि गतिसंज्ञं स्यात् / धातोः प्राक् [एव प्रयुज्यते] / अच्छगत्य अच्छव्रज्य / अच्छोद्य // 8 // ___अ० अच्छशब्दोऽभिशब्दार्थे दृढार्थे वर्त्तमानोऽव्ययम् / अच्छो निर्मलादौ वर्त्तमानो न अव्ययं न गतिसंज्ञश्च / अच्छशब्दोऽभिशब्दार्थे गतिसंज्ञो भवति // 8 // तिरोऽन्तौ // 3 // 19 // तिरस् [अव्ययं] अन्तझै व्यवधाने वर्तमानो गतिसंज्ञः स्यात् / धातोः प्राक् [एव प्रयुज्यते] / तिरोभूय / तिरोधाय / अन्तर्द्धाविति किम् ? तिरो भूत्वा स्थितः / तिर्यग्भूत्वेत्यर्थः // 9 // अ० तिरस् अन्त:-व्यवधाने, तिर्यग्भो च वर्त्तते / अन्तद्धौ तिरस् गतिसंज्ञः / तिर्यग्भावे गतिसंज्ञो न भवति / व्यावृत्तिश्च तिर्यग्भावविषया ज्ञेया // 9 // - कृगो नवा // 3 // 1 // 10 // तिरस् शब्दोऽन्तों कृग्धातोः सम्बन्धी गतिसंज्ञो वा स्यात् / धातो प्राक् [एव प्रयुज्यते / तिरस्कृत्य तिरःकृत्य / पक्षे तिरःकृत्वा // 10 // अ० 'तिरसो वा' (2 / 3 / 2) इत्यनेन वा सकारः / तिरःकृत्वा काष्ठं गत इति व्यावृत्तिः // 10 // मध्येपदेनिवचनेमनस्युरस्यनत्याधाने // 3 // 1 // 11 // अत्याधानमुपश्लेषः आश्चर्यं च ततोऽन्यदनत्याधानम् / अनत्याधानेऽर्थ मध्ये इत्यादीनि सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकाणि [धातोः सम्बन्धीनि] अव्ययानि गतिसंज्ञानि वा स्युः। धातोः प्राक् [एव प्रयुज्यन्ते] / मध्येकृत्य मध्येकृत्वा / [बलं कृत्वा इत्यर्थः] / पदेकृत्य पदेकृत्वा / निवेचनेकृत्य निवेचनेकृत्वा / मनसिकृत्य मनसिकृत्वा / उरसिकृत्य उरसिकृत्वाB / अनत्याधान इति किम् ? मध्ये कृत्वा धान्यराशिं स्थिता हस्तिनः / पदे कृत्वा शिरः शेते / मनसि कृत्वा सुखं गतः / उरसि कृत्वा पाणिं शेते [अव्ययमित्येव-मध्ये कृत्वा वाचं तिष्ठतीत्यादि] // 11 // . अ० मध्ये च पदे च निवचने च मनति च उरसि च / प्रथमाबहुवचनम् / सूत्रत्वात् जस् लुप्यते / निवचनेशब्दो वचनाभावे वर्त्तते / वाचं निरुध्य इत्यर्थः / [उभयत्र]Bनिश्चित्य इत्यर्थः // 11 / / उपाजेऽन्वाजे // 3 // 1 // 12 // एतेऽव्यये सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपके स्वभावार्बलस्य भग्नस्य वा बलाधाने पुष्टिकरणे]ऽर्थे गतिसंज्ञे वा भवतः / धातोः प्राक् (एव प्रयुज्यते) / उपाजेकृत्य उपाजेकृत्वा / अन्वाजेकृत्य अन्वाजेकृत्वा // 12 // ___ अ० दुर्बलजनस्य कस्मिंश्चित्कार्ये भग्नस्य वा साहाय्यं पुष्टिं कृत्वा इत्यर्थः / द्वयोरप्युदाहरणयोरर्थोऽयम् / / 12 / / स्वाम्येऽधिः // 3 // 1 // 13 // [स्वामित्वे] - अधि अव्ययं स्वामित्वे गम्यमाने कृग्योगे गतिसंज्ञं वा स्यात् / धातोः प्राक् (एव प्रयुज्यते) / चैत्रं ग्रामेऽधिकृत्य अधिकृत्वा गतः-स्वामिनं कृत्वेत्यर्थः / स्वाम्य इति किम् ? ग्राममधिकृत्य उद्दिश्येत्यर्थः Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते ['ऊर्याद्यनुकरण.' (3 / 1 / 2) इत्यनेन गतिसंज्ञा] // 13 // साक्षादादिश्ळ्य र्थे // 3 // 1 // 14 // साक्षादादिशब्दाः व्यर्थे वर्तमानाः कृग्योगे गतिसंज्ञा वा स्युः / धातोः प्राक् (एव प्रयुज्यन्ते)। साक्षात्कृत्य साक्षात्कृत्वा-असाक्षाद्भूतं साक्षाद्भूतं कृत्वेत्यर्थः / एवं मिथ्याकृत्य मिथ्याकृत्वा / व्यर्थ इति किम् ? यदा साक्षाद्भूतमेव किञ्चित्करोति तदा साक्षात्कृत्वा इत्येव भवति / अर्थग्रहणात् च्च्यन्तशब्दानां तु न विकल्पः, ऊर्यादिसूत्रेण नित्यमेव गतिसंज्ञा / यथा लवणीकृत्य // 14 // अ० साक्षात् / मिथ्या / चिन्ता [मानसिको व्यापारः] भद्रा रोचना लोचना [भद्रादित्रयः प्रशंसायाम्] अमा सहार्थे आस्था [आदरप्रतिज्ञयोः] अग्धा प्राजर्या प्राजुरा प्राजरुहा बीजर्या बीजरुहा; अग्धादिशब्दाः षट् शोभायाम् / (प्राजर्षेति रहःसमवायसंयोगसामर्थेषु बीजबीजरुहेति प्रसवनेऽपि) संसर्पा [प्रयोजनसंवरणयोः] / अर्थे / अग्नौ तैक्ष्ण्ये / वशे अस्वातन्त्र्ये / विकपने प्रकपने द्वौ वैरूप्ये / विसहने / प्रसहने / अर्थेप्रभृतयः सप्तशब्दाः स्वभावान्निपातनाद्वा सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकाः / लवणम् रुच्यर्थे / उष्णम् अनादरे अभिभवे / शीतम् / उदकं क्लेदे द्रवे च / आर्द्रम् सोदकाभिनवयोः / लवणादिपञ्चशब्दानां 'साक्षादादी'ति सूत्रेण गतिसंज्ञासंयोग एव मान्तत्वं निपात्यते नान्यथा / प्रादुस् आविस् नमस् / इति साक्षादादिगणः / / 14 / / नित्यं हस्तेपाणावुद्वाहे // 3 // 1 // 15 // हस्ते-पाणी-शब्दो सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकावव्ययौ उद्वाहे विवाहेऽर्थे कृग्योगे गतिसंज्ञौ नित्यं भवतः [नित्यग्रहणात् वानिवृत्तिः] // धातोः प्राक् (एव प्रयुज्येते) / हस्तेकृत्य पाणौकृत्य भार्या कृत्वेत्यर्थः / उद्वाह इति किम् ? हस्ते कृत्वा कार्षापणं गतः // 15 // . प्राध्वं बन्धे // 3 // 1 // 16 // प्राध्वम्-शब्दोऽव्ययमानुकूल्यार्थो बन्धे गम्यमाने कृग्योगे गतिसंज्ञः स्यात् / धातोः प्राक् च (प्रयुज्यते)। प्राध्वंकृत्य / बन्धनेनानुकूल्यं कृत्वेत्यर्थः / बन्ध इति किम् ? प्राध्वं कृत्वा शकटं गतः // 16 // __ अ० प्राध्वं कृत्वा शकटं गत इत्यत्र प्र. अध्वन्. प्रगतमध्वानं इति वाक्ये 'उपसर्गादध्वनः' (7 / 3 / 79) इति सूत्रेण अत्समासान्तः 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति सूत्रेण नकारलोपः / ततोऽम् / 'अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) / / 16 / / जीविकोपनिषदौपम्ये // 3 // 1 // 17 // जीविका-उपनिषद्-शब्दावौपम्ये गम्यमाने कृग्योगे गतिसञौ (भवतः) धातोः प्राक् प्रयुज्यते / जीविकाकृत्य / उपनिषत्कृत्य / जीविकामिव उपनिषदमिव कृत्वेत्यर्थः // 17 // अ० जीविका जीवनोपायः / (उपनिषदिव) रहस्यमिव / / 17 / / नाम माम्नैकार्थं समासो बहुलम् // 3 // 1 // 18 // नाम नाम्ना सह ऐकार्ये एकार्थीभावे सति समाससझं भवति, बहुलम् / ऐकायं च सामर्थ्य विशेषः / स च पृथगर्थानां पदानां कचित्परस्परापेक्षालक्षणं सामर्थ्यमनुभूय भवति-यथा राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः / नीलं च तत् उत्पलं च नीलोत्पलम् / कचिदननुभूयैव भवति-यथा उपकुम्भम् कुम्भकारः / वाक्यान्तरेण त्वर्थः Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः प्रदर्यते-कुम्भस्य समीपं कुम्भं करोतीति / लक्षणं चेदम् अधिकारश्च / तेन बहुव्रीह्यादिविशेषसंज्ञाभावे यत्र एकार्थता दृश्यते तत्रानेनैव समाससंज्ञा भवति / विस्पष्टपटुः इत्यादिषु गुणविशेषणस्य गुणवचनेन मह समासः। दारुणआध्यायकः अद्भुताध्यायकः इत्यादिषु क्रियाविशेषणस्य क्रियावता समासः / सर्वचर्मीणो रथः इत्यादिषु तद्धितार्थे समासः / कन्ये इव इत्यादिषु इवेन सह अलुक्समासः / ऐकपयं च समासफलम् / भूतपूर्वः दृष्टपूर्वः श्रुतपूर्वः सर्वेषु चैषु विशेषसञ्ज्ञाऽप्राप्तौ अनेनैव समासः / नाम इति किम् ? चरन्ति गावो धनमरूप / नाम्नेति किम् ? चैत्रः पचति / बहुलमिति वचनादेव कचिदनामापि समस्यते-भात्यर्क नभः / कचिदनाम्नापि-अनुव्यचलत् अनुप्रावर्षत् / समासप्रदेशा 'वौष्ठौतौ समासे' (1 / 2 / 17) इत्यादयः // 18 // ___ अ० ऐकायें इति / एकः समानोऽर्थोऽधिकरणं यस्य तत् एकार्थम्, / एकार्थस्य भावः ऐकार्थ्यम् / कोऽर्थः ? / समानाधिकरण्यम् / क्वचित् कोऽर्थः ? यत्र कुत्रचित् सर्वाणि पदानि सत्त्वाभिधायीनि भवन्ति / यत्र तु एकं पदं असत्त्वार्थाभिधायि भवति / लक्षणं चेदम् इत्यादि इदं 'नाम नाम्ना०' इति सूत्रं लक्षणं ज्ञातव्यम् / यस्य समासस्य अन्यल्लक्षणं नास्ति तस्य इदं लक्षणम् / तेन विस्पष्टादीनि गुणविशेषणानि पदानि गुणवचनेन पट्वादिपदेन सह समस्यन्ते / विस्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुः इति / ___ तथा अधिकारोऽपि सूत्रमिदम् / अधिकारस्तावत् देवदत्तः पचतीत्यादौ विशेषणसमासनिवृत्त्यर्थः / अन्यथा हि पचतीत्यनेन कर्तृसामान्यं यदुपात्तं तद्देवदत्त इत्यनेन कर्तृविशेषणेन विशेष्यत इति सामानाधिकरण्येन विशेषणविशेष्यभावोऽस्ति / नञित्यादावुत्तरपदानुपादाने उत्तरपदोपस्थापनार्थश्च / विस्पष्टपटुरित्यादिषु विस्पष्टं पटुर्विस्पष्टपटुः / एवं विचित्रं कटुको विचित्रकटुकः, विविक्तं कषायो विविक्तकषायः विविक्तकषायत्वमस्तीत्यर्थः। व्यक्तं लवणो व्यक्तलवणः / निपुणपण्डित-कुशलदक्ष-चपलवत्सल इत्याद्युदाहरणेषु गुणविशेषणस्य विस्पष्टतादिरूपस्य गुणवचनेन पट्वादिरूपेण सह समासः / पट्वादयः शब्दाः पाटवादिगुणयोगात् मुख्यतया गुणिनि वर्तमाना अपि गौणतया पाटवादावपि वर्त्तन्ते / दारुणं यथा भवति एवमध्यायको दारुणाध्यायकः / अद्भुतं यथा स्यादेवमध्यायकः अद्भुताध्यायकः / आदिशब्दात् अनाज्ञाताध्यायकः भृशाध्यायकः परमाध्यायकः स्वध्यायक इति / भूतः पूर्वं भूतपूर्वः, दृष्टः पूर्व दृष्टपूर्वः, श्रुतः पूर्वं श्रुतपूर्वं सर्वत्र 'नाम नाम्ना०' इत्यनेन समासः / उत्तरपदेन अनाम्नापि सह सर्व. चर्मन्. सर्वश्चर्मणा [सर्वकृतः केन चर्मणा इत्यर्थः] कृत इति वाक्ये 'सर्वचर्मण ईनेनौ' (6 / 3 / 195) इति सूत्रेण इन् / 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति नलोपः / यत्र च ईनञ् तत्र सार्वचर्मीण इति सिद्धम् / अत्र सर्वशब्दस्य कृतापेक्षस्य चर्मशब्देन सहाऽयोगेऽपि 'नाम नाम्ना०' इत्यनेन समासः / आदिशब्दात् अद्यश्वीना गौः, दशैकादशिकः अर्ध्वमौहूर्तिकम् कृतपूर्वीकटम् इत्यादि / अद्य. श्व. अद्य श्वो वा विजनिष्यमाणा इति वाक्ये 'समांसमीनाऽद्यश्वीनाद्यप्रातीनागवीनसाप्तपदीनम् (7 / 1 / 105) इति सूत्रेण ईन / अद्यश्वीना गौश्चेत्यासन्नप्रसवा गौरित्यर्थः / तथा दशभिरेकादश गृह्णाति इति वाक्ये 'दशैकादशादिकश्च' (6 / 4 / 36) इति सूत्रेण इक / तथा ऊर्ध्वं मूहर्ताद्भवं ऊर्ध्वमौहूर्तिकम् / 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' (6 / 3 / 78) इत्यनेन इकण् / एषु सर्वत्र 'नाम नाम्ना०' इत्यनेन तद्धितवृत्त्यां समासः / कन्ये इव, दम्पती इक, रोदसी इव इत्यादिषु इवशब्देन अलुप्समासः / भात्यर्कोऽत्र नभसि (आकाशे) तद्भात्यर्कं (नभः) / नभसा सह सामानाधिकरण्यं समासफलं ज्ञेयम् / अनुव्यचलत् इत्यादि, अनु वि अग्रे अचलत् इत्यादियुक्त्या सर्वत्र 'नाम नाम्ना०' इत्यनेन समासः / समासफलं हि ऐकपद्यम् हेतोः 'हस्वोऽपदे वा' (1 / 2 / 22) इति सूत्रोक्तसन्धेरप्रवृत्तेर्नित्यं यत्वादिसन्धिकार्यं प्राप्तम् / अथवा अनुव्यचलदित्यादिकं अखण्डं अव्ययं विभक्त्यन्त Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते त्वादेकपदत्वं च / अत एव एकपदत्वेऽव्ययत्वे वा सति अथो अनुव्यचलद्वो देवदत्तः / अथो अनुव्यचलद् युष्माकं देवदत्तः / अत्र ‘सपूर्वात् प्रथमान्ताद्वा' (2 / 1 / 32) इत्यनेन विकल्पेन वस् नस् सिद्धः / / 18 / / सुज्वार्थे सङ्ख्या सङ्ख्येये सङ्ख्यया बहुव्रीहिः // 3 // 1 // 19 // [सुच् च वा च सुज्वौ तयोरर्थः तस्मिन्] सुचोऽर्थो वारः / वाऽर्थो विकल्पः संशयो वा / सुज्वार्थे वर्तमानं सङ्ग्यावाचि नाम सङ्ख्येये वर्तमानेन सङ्ख्यावाचिना नाम्ना सहैकार्थ्ये समाससंज्ञं बहुव्रीहिसंज्ञं च स्यात् / [समस्यते इति योगः] द्विदशाः त्रिदशाः द्विविंशाः [नराः] द्वित्रा त्रिचतुराः पञ्चषाः / सुज्वार्थ इति किम् ? द्वावेव न त्रयः / संख्या इति किम् ? गावो वा दश वा (संख्यया इति किम् ? दश वा गावो वा) / सङ्ख्येये इति किम् ? द्विविंशतिर्गवाम् / बहुव्रीहिप्रदेशा ‘वा बहुव्रीहेः' (2 / 4 / 5) इत्यादयः // 19 // ___ अ० द्विर्दश त्रिर्दश इति वाक्ये द्विदशाः त्रिदशाः / द्वौ वा त्रयो वा इति वाक्ये द्वित्राः / त्रयो वा चत्वारो वा इति वाक्ये त्रिचतुराः / पञ्च वा षड् वा इति वाक्ये द्विविंशाः / एवं त्रिर्विंशतिस्त्रिविंशाः / सर्वत्र ‘प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति सूत्रेण डप्रत्ययः / 'विंशतेस्तेर्डिति' (7 / 4 / 67) इति सूत्रेण विंशतिशब्दस्य तिकारस्य लोपः / ततः सर्वत्र प्रथमाजस् / 'अत आः स्यादौ०' (1 / 4 / 1) इत्यनेन दीर्घः / द्विर्दश इति वाक्ये सुजर्थस्य समासेनैवाभिहितत्वात् सुचोऽप्रयोगः / त्रिचतुरा इत्यत्र त्रयो वा चत्वारो वा इति वाक्ये 'नसुव्युपत्रेश्चतुरः' (7 / 3 / 131) इति सूत्रेण अप् समासान्तः / पश्चात् जस् / ‘अत आः स्यादौ०' (1 / 4 / 1) इति दीर्घः // 19 // आसन्नादूराधिकाध्यर्द्धा दिपूरणं द्वितीयाद्यन्यार्थे // 3 // 1 // 20 // आसन्न अदूर अधिक अध्यर्द्ध इत्येतानि [पदानि] अर्द्धशब्दपूर्वपदं च पूरणप्रत्ययान्तं नाम सङ्ख्यानाम्ना सहैकार्थे सति समस्यते / द्वितीयाद्यन्तस्यान्तस्य पदस्यार्थे सङ्ख्येयरूपे वाच्ये / [अभिधेये सति] स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञः स्यात् / आसन्ना दश दशत्वं येषां येभ्यो वा ते आसन्नदशाः [प्रमाणीसङ्ख्याडुः' (7 / 3 / 128) जस्] / नव एकादश वा / एवमासन्नविंशा इत्यादि / अदूरदशाः अदूरविंशाः / अधिका दश येभ्यो येषु वा ते अधिकदशाः-एकादशादयः / एवमधिकविंशाः एकविंशत्यादयः इत्यादि / अध्यर्द्धा विंशतिर्येषां ते अध्यर्द्धविंशाःत्रिंशदित्यर्थः / अर्द्धपश्चमा विंशतयो येषां ते अर्द्धपञ्चमविंशाः-नवतिरित्यर्थः / अर्द्धचतुर्थविंशाः-सप्ततिः। अर्द्धतृतीयविंशाः-पञ्चाशत् / आसन्नादिग्रहणं किम् ? सन्निकृष्टदशानः / पूरणस्यार्द्धपूर्वत्वविशेषणं किम् ? पञ्चमी विंशतिर्येषां ते पञ्चमीविंशतयः। द्वितीयाद्यन्यार्थ इति किम् ? आसन्ना दश, अधिका दशभिः // 20 // अ० पूरणं कोऽर्थः / पूरणप्रत्ययान्तं पदमभिधेयत्वेनास्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति सूत्रेण अप्रत्ययः / अर्धशब्द आदि पूर्वं यस्य सोऽर्धादिः / अर्द्धादिश्चासौ पूरणश्च अर्द्धादिपूरणः / सूत्रे नाभशब्दापेक्षया क्लीबत्वम् / नाम कीदृशम् ? आसन्नादूराधिकाध्य ‘दिपूरणं प्रथमा सिः ‘अतः स्यमोमम्' (1 / 4 / 57) / द्वितीया आदिर्यासां विभक्तीना ता द्वितीयादयो विभक्तयः / द्वितीयादयश्च तत् अन्यच्च, कोऽर्थः ? अन्यपदं च / . द्वितीयाद्यन्यार्थः / तस्मिन् / आसन्नविंशा इत्यादि / आसन्ना विंशतिर्येषां ते आसन्नविंशाः / 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति डः / 'विंशतेस्तेर्डिति' (7 / 4 / 67) इति तेर्लोपः / एकोनविंशतिरेकविंशतिर्वा इत्यर्थः / एवमासन्नत्रिंशाः - एकोन-त्रिंशद् एकत्रिंशद्वा इत्यर्थः / अधिकदशा इति शब्देन एकादश द्वादश त्रयोदश एवं यावदष्टादश / अधिकत्वं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः दशानामेकाद्यपेक्षम् / एवं अधिकविंशा इत्यनेन एकविंशतिः द्वाविंशतिः यावदष्टाविंशतिः / अत्राप्यधिकत्वं विंशतीनामेकाद्यपेक्षम् / एवं अधिकत्रिंशाः एकत्रिंशदादयः / अध्यर्द्धविंशाः-त्रिंशत् / एवं अध्यर्द्धत्रिंशाः चत्वारिंशत्' 40 / अध्यर्द्धचत्वारिंशाः पञ्चाशदित्यर्थः / पञ्चन् / पञ्चानां पूरणः पञ्चम्: 'नो मट्' (7 / 1 / 159) इति सूत्रेण मट् / 'नोऽपदस्य तद्धिते' (7 / 4 / 61) इति न् लोपः / स्त्री चेत् पञ्चमी / 'अणजेये०' (2 / 4 / 20) इति ङीः / अर्द्धपञ्चमी यासां ता अर्द्धपञ्चमाः ‘पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप्' (7 / 3 / 130) इति सूत्रेण अप् समासान्तः ‘अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति सूत्रोक्तयुक्तया इलोपः / अर्द्धपञ्चम इति शब्दः / ततोऽर्द्धपञ्चमा विंशतयो येषां तेऽर्द्धपञ्चमविंशाः नवतिः 90 / ' पञ्चमीशब्दः पूरणप्रत्ययान्तः / तस्य पूर्वपदं अर्द्धमिति ज्ञेयम् / सन्निकृष्टाः कोऽर्थः ? आसन्ना दश येषां ते / अत्र ‘प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति डो न भवति / प्रतिपदोक्तस्य बहुव्रीहेरभावात् / 'एकार्थं चानेकं च' (3 / 1 / 22) इति सामन्येन बहुव्रीहिसमासोऽयम् // 20 // __ अव्ययम् // 3 // 1 // 21 // अव्ययं नाम सङ्ख्यांवाचिनाम्ना ऐकायें समस्यते / द्वितीयाद्यन्यार्थे सङ्ख्येये वाच्ये / स च बहुव्रीहिसमासः (स्यात् ) / उप समीपे दश येषां ते उपदशाः-नव एकादश वा / योगविभाग उत्तरार्थः // 21 // अ० एवं उपविंशाः (19 / 21), उपत्रिंशाः (29 / 31) // 21 // ... एकार्थं चानेकं च // 3 // 1 // 22 // एकमनेकं चैकार्थं नाम अव्ययं च नाम्ना द्वितीयाद्यन्तस्यान्यस्य पदस्यार्थे समस्यते / स च बहुव्रीहिसमास. संज्ञः स्यात् / आरूढवानरो वृक्षः / ऊढरथोऽनड्वान् / उपहृतबलियक्षिणी] / भीतशत्रुर्नृपः / चित्रगुश्चैत्रः / के सब्रह्मचारिणोऽस्य [व्रताचारपाठसहायिनो नरस्यः] किंसब्रह्मचारी / वीरपुरुषो ग्रामः // अनेकं च [बहुपदैः सह समासः / आरूढा बहवो वानरा यं सः] आरूढबहुवानरो वृक्षः। ऊढबहुरथोऽनड्वान् / एवं पञ्चगवधनः / इत्यादि। अव्ययम् / उच्चैर्मुखः / नीचैर्मुखः / कर्तुकामः / अस्ति क्षीरमस्या अस्तिक्षीरा गौः / एकार्थग्रहणं किम् ? पञ्चभि-र्भुक्तमस्य / बहुलाधिकारात् राजन्वती भूरनेन / प्राग्ग्रामोऽस्मात् / पञ्चभुक्तवन्तोऽस्येत्यादिषु (न); बहुव्रीहिः (न भवति) // 22 // - अ० 'नाम नाम्नैकार्थ्ये समासो०' (3 / 1 / 18) इत्यनेन विवक्षितसङ्ख्यत्वादनेकस्य समासो न स्यादिति अनेकग्रहणं सूत्रे कृतम् / एकः समानोऽर्थोऽधिकरणं यस्य तदेकार्थं समानाधिकरणम् / आरूढो वानरो यं वृक्षं स आरूढवानरः / ऊढो रथो येनानडुहा स ऊढरथः / अपहृतो ढौकितो बलिरस्यै यक्षिण्यै सा उपहृतबलिः / भीताः / कम्पिताः शत्रवो यस्मात् नृपात् स भीतशत्रुः / चित्रा गावो यस्य चैत्रस्य स चित्रगुश्चैत्रः / वीराः पुरुषाः सन्त्यस्मिन् ग्रामे वीरपुरुषको ग्रामः; इति द्वितीयाविभक्त्यादीनामन्यपदस्यार्थे यथाक्रमं समासः / उच्चैः शब्दादि अव्ययस्य अद्रव्यवाचित्वात् मुखशब्दस्य च द्रव्यवाचित्वादिति भिन्नाधिकरणत्वात् अव्ययशब्दस्य मुखादिना सह समासो न प्राप्नोति इति सूत्रे ‘एकार्थं चानेकं च' इत्यत्र चकारोऽव्ययानुकर्षणार्थः कृतः इति / भिन्नाधिकरणे कोऽर्थः ? व्यधिकरणेऽपि समासं दर्शयति / यथा उच्चैर्मुखमस्य उच्चैर्मुखः / नीचैर्मुखमस्य (नीचैर्मुखः) / कर्तुं कामोऽभिलाषाऽस्य कर्तुकामः / अस्ति विद्यमानं क्षीरमस्या अस्तिक्षीरा गौः / पञ्च गावो धनमस्य पञ्चगवधनः इति वाक्ये 'गोस्तत्पुरुषात्' 1. (पञ्चचत्वारिंशत् 45) 2. (षष्टिः 60) 3. श्च / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 'कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते (7 / 3 / 105) इति सूत्रेण गोशब्दात्. अट्समासान्तः / 'अस्वयंभुवोऽव्' (7/4/70) इति अव् / एवं पञ्चनावः प्रिया अस्य पञ्चनावप्रियः / 'नावः' (7 / 3 / 104) इति सूत्रेण नौशब्दात् अट्समासान्तः / मत्ता बहवो मातङ्गा यस्मिन् वने तत् मत्तबहुमातङ्गं वनम् // 22 // - उष्ट्रमुखादयः // 3 // 1 // 23 // उष्ट्रमुखादिशब्दा बहुलं बहुव्रीहिसमासा निपात्यन्ते / उष्ट्रमुखमिव मुखमस्य उष्ट्रमुखः / वृषस्कन्ध इव स्कन्धोऽस्य वृषस्कन्धः / हरिणाक्षिणी इवाक्षिणी यस्याः सा हरिणाक्षी। हंसगमनमिव गमनमस्याः हंसगमना। एवं [चन्द्रवत् मुखमस्याः] चन्द्रमुखी / [कमलमिव वदनमस्याः] कमलवदना / बिम्बोष्ठी / पितुरिव [पितुर्जनकस्येव] स्थानमस्य पितृस्थानः / पितरीव स्थानीयमस्मिन् पितृस्थानीयः / एषूपमानं [चन्द्रादिः] उपमेयेन [मुखादिना सह] सामान्यवाचिना सह समस्यते / उपमेयसरूपस्य [मुखं इव वत् इत्यादि] चोपमानपदस्य यथासम्भवं लोपः। तथा प्रपतितानि पर्णान्यस्य प्रपर्णः प्रपतितपर्णः / [प्रपतितानि पलाशान्यस्य] प्रपलाशः प्रपतितपलाशः / [उद्गत उदयंगतो रश्मिरस्य] उद्रश्मिः उद्गतरश्मिरित्यादिषु प्रादिपूर्व धातुजं पदं [पतित इत्यादिकं] समस्यते / तस्य च विकल्पेन लोपः / [पतितगतशब्दयोर्लोपः] / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 23 // अ० तथा अविद्यमानः पुत्रोऽस्य इति वाक्ये अपुत्रः अविद्यमानपुत्रः इत्युदाहरणद्वयम् / अत्र नपूर्वं अस्त्यर्थं पदं विद्यमान इति रूपं समस्यते / तस्य विद्यमान इति पदस्य विकल्पेन लोपः / इयमवचूरिर्विकल्पेन लोप इत्यक्षराग्रतो ज्ञेया // 23 // सहस्तेन // 3 // 1 // 24 // * सह इति नाम तुल्ययोगे विद्यमानार्थे च वर्तमानं तेनेति तृतीयान्तेन नाम्नाऽन्यपदार्थे समस्यते, बहुव्रीहिसमासः स्यात् / तुल्ययोगे-सहपुत्रेण सपुत्र आगतः। विद्यमानार्थे-सकर्मकः सलोमकः सपक्षकः सधनः इत्यादि / सह इति किम् ? +साकं पुत्रेण / बहुलाधिकाराद्विद्यमानार्थेऽपि कचिन भवति / 'सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी' / प्रथमान्तान्यपदार्थं योगः [सूत्रमिदं कृतम्] / एवमुत्तरोऽपि // 24 // ___अ० तेन इति तृतीयान्तप्रतिरूपकशब्दात् परतो निपातनात्तृतीया। सूत्रत्वात् तृतीया लुप्यते / क्रियागुणद्रव्यैरुभयोः पितृपुत्रयोर्गुरुच्छात्रयोः सदृशः सम्बन्धः तुल्ययोग उच्यते / अत्रागमनं उभयोस्तुल्यं सदृशम् / एवं सच्छात्रः आगतः। सह कर्मणा, सह लोम्ना, सह पक्षेण, सह धनेन, एवं सह मदेन, सह क्रोधेन, सह विद्यया वर्त्तते इति वाक्यानि / एषु सर्वत्र विद्यमानता सहार्थो न तुल्ययोगः / +एवं सार्धं पुत्रेण, सत्रा पुत्रेण, अमा पुत्रेण इत्यपि ज्ञेयम् / सहैव दशभिरित्यत्र गर्दभीपुत्राणामस्तित्वमेव विवक्षितं न तु वहनम् / सहैव धनेन भिक्षां भ्रमति इत्यपि उदाहरणं ज्ञेयम् / सकर्मकादात्मनेपदमित्युक्ते यथा धातोरात्मनेपदं न तथा कर्मणोऽपि / सलोमको भोज्यतामित्युक्ते यथा पुरुषो भोज्यते न तथा लोमान्यपि इति विद्यमानार्थभावना // 24 / / दिशो रूढ्यान्तराले // 3 // // 25 // रूढ्या प्रसिद्धया] दिशः सम्बन्धि नाम रूढ्येव दिशः सम्बन्धिना नाम्ना[सह]ऽन्तरालेऽन्यपदार्थे [वाच्ये सति] समस्यते / बहुव्रीहिसमासः / दक्षिणपूर्वा दिक् / एवं पूर्वोत्तरा उत्तरपश्चिमा दक्षिणपश्चिमा / रूढिग्रहणं यौगिकनिवृत्त्यर्थम् / तेन ऐन्द्रयाश्च कौबेर्याश्च दिशोर्यदन्तरालमिति वाक्यमेव // 25 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 219 ____अ० दक्षिणास्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं कोणकलक्षणं सा दक्षिणपूर्वा दिक्-आग्नेयी विदिक् / पूर्वस्याश्च उत्तरस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा पूर्वोत्तरा ईशानी विदिक् / उत्तरस्याश्च पश्चिमायाश्च दिशोर्यदन्तरालं सा उत्तरपश्चिमा वायवी विदिक् / दक्षिणस्याश्च पश्चिमायाश्च यदन्तरालं सा दक्षिणपश्चिमा दिक्-नैरितकोणः / सर्वत्र ‘सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) इति सूत्रेण पूर्वपदस्य पुंवद्भावः / / 25 / / ___ तत्रादाय मिथस्तेन प्रहत्येति सरूपेण युद्धेऽव्ययीभावः // 3 // 1 // 26 // तत्रेति सप्तम्यन्तं नाम, मिथ आदायेति क्रियाव्यतिहारे, तेनेति तृतीयान्तम्, मिथः प्रहत्येति क्रियाव्यतिहारे, सरूपेण समानरूपेण, नाम्ना सह युद्धविषयेऽन्यपदार्थे समस्यते / स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञः स्यात् / [मिथो गृहीत्वा इत्यर्थे प्रयोगौ] केशाकेशि / बाहूबाहवि / [मिथः प्रहृत्य इत्यर्थे प्रयोगाः] दण्डादण्डि मुष्टामुष्टि अस्यसि / तत्रेति तेनेति किम् ? केशांश्च केशांश्च गृहीत्वा कृतं युद्धम् / मुखं च मुखं च प्रहृत्य कृतं युद्धम् / आदायेति प्रहृत्येति च किम् ? केशेषु च केशेषु च स्थित्वा कृतं युद्धम् (गृहकोकिलाभ्याम्) / दण्डैश्च दण्डैश्च आगत्य कृतं युद्धमेताभ्याम् / मिथ इति क्रियाव्यतिहारः किम् ? +केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा युद्धमनेन / सरूपेणेति किम् ? हस्ते च पादे च गृहीत्वा कृतं युद्धम् / युद्ध इति किम् ? हस्ते च हस्ते च गृहीत्वा कृतम् सख्यम् [मैत्री] / अव्ययीभावप्रदेशा 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' (3 / 2 / 2) इत्यादयः // 26 // - अ० युद्धे इति विषयसप्तमीनिर्देशात् युद्धोपाधिकायामन्यस्यामपि क्रियायां सत्यां अव्ययीभावो भवति / यथा बाहूबाहवि व्यासृजेताम् / तथा माघे / 'रोषावेशादाभिमुख्येन कौचित् पाणिग्राहं रंहसैवोपयातौ / हित्वा हेतीमल्लवन्मुष्टिघातं घ्नन्तौ बाहूबाहवि व्यासृजेताम् // 18 सर्गे 12 श्लोकः / केशेषु च केशेषु च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं केशाकेशि / बाहु / बाहु / बाह्वोश्च बाह्वोश्च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं बाहूबाहवि / दण्ड दण्ड / दण्डैश्च दण्डैश्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धं दण्डादण्डि / मुष्टि मुष्टि / मुष्टिभिः मुष्टिभिश्च, एवं यष्टिभिः यष्टिभिश्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धं इति वाक्ये सर्वत्र ‘इच् युद्धे' (7 / 3 / 74) इति सूत्रेण इच्समासान्तः / ‘इच्यस्वरे दीर्घ आँच्च' (3 / 2 / 72) इति सूत्रेण नाम्यन्तानां दीर्घ आकारौ च / बाहूबाहवि बाहाबाहवि प्रयोग 2 / मुष्टिमुष्टि मुष्टामुष्टि, यष्टीयष्टि यष्टायष्टि इति प्रयोगद्वंयं द्वयम् / यत्र अकारान्तत्वं तत्र आकार एव आदेशः / यथा केशाकेशि दण्डादण्डि इति एक एव प्रयोगः / बाहाबाहविः इत्यत्र ‘अस्वयंभुवोऽव्' (7 / 4 / 70) इति अवादेशः / +अत्र एकः सकेशः अन्यश्च मुण्डः इति मिथः क्रियाव्यतिहार अभावः / / 26 / / नदीभिर्नाम्नि // 3 // 27 // नदीवाचिभिर्नामभिर्नाम समस्यते / नाम्नि संज्ञायामन्यपदार्थे अव्ययीभावसमासः स्यात् / उन्मत्तगङ्गं देशः / लोहितगङ्गं देशः / अन्यपदार्थे इत्येव / कृष्णवेण्णा // 27 // .. अ० 'नदिभिर्नाम्नि' इति सूत्रे नदीभिरिति बहुवचननिर्देशो गङ्गायमुनादिनदीविशेषग्रहणार्थः, न तु निम्नगासरित्आपगादिपर्यायाणाम् / 'सङ्ख्या समाहारे' इत्यत्र च पञ्चनदम् सप्तगोदावरमिति स्वरूपशब्दग्रहणार्थश्च / उन्मत्ता गङ्गा यत्र देशे स उन्मत्तगङ्गं देशः, एवं लोहितगङ्गम् ‘क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति सूत्रेण ह्रस्वः / ‘अतः स्यमोऽम्' (1 / 4 / 57) / तथा कृष्णा चासौ वेण्णा च / वेण्णा नाम नदी // 27 / / सङ्ख्या समाहारे // 3 // 1 // 28 // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते __अन्यपदार्थे इति निवृत्तं समाहारे इति भणनात् / सङ्ख्यानाम नदीवाचिनामभिः समस्यते, समाहारे गम्यमाने अव्ययीभावसंज्ञः समासः स्यात् / द्वियमुनम् त्रिगङ्गम् पञ्चनदम् सप्तगोदावरम् / समाहार इति किम् ? एकनदी / [द्वे इरावत्यौ यत्र] द्वीरावतीको देशः / द्विगुबाधनाथ वचनम् // 28 // ___ अ० द्वयोर्यमुनयोः समाहारो द्वियमुनम् / एवं तिसृणां गङ्गानां समाहारः त्रिगङ्गम्, पञ्चानां नदीनां समाहारः पश्चनदम्, सप्तानां गोदावरीणां समाहारः सप्तगोदावरम् / एषु अव्ययीभावत्वे द्वियमुनम् त्रिगङ्गम् अत्र ‘क्लीबे' (2 / 4 / 97) इत्यनेन ह्रस्वः / पञ्चनदम् सप्तगोदावरम् अत्र तु 'सङ्ख्याया नदीगोदावरीभ्याम्' (7 / 3 / 91) इति सूत्रेण अत्समासान्तः / सर्वत्र प्रथमा सिः 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' (3 / 2 / 2) इति सूत्रेण सिस्थानेऽम् / एतानि अव्ययीभावत्वे फलानि // 28 // वश्येन पूर्वार्थे // 3 // 1 // 29 // सङ्ख्यावाचि नाम वंश्यवाचिना नाम्ना सह समस्यते / पूर्वपदस्यार्थे [पूर्वपदस्यार्थेऽभिधेये] वाच्ये [सति] अव्ययीभावः समासः स्यात् / एकमुनि व्याकरणस्य, एवं द्विमुनि त्रिमुनि / यदा तु विद्यया तद्वतामभेदविवक्षा तदा एकमुनिव्याकरणम्, एवं द्विमुनि त्रिमुनि व्याकरणमिति सामानाधिकरण्यं भवति / सप्तकाशि राज्यस्य। त्रिकोशलं राज्यस्य / पूर्वार्थ इति किम् ? द्विमुनि द्विमुनिकं व्याकरणम् / द्विमुनिरागतः // 29 // ___ अ० वंश्य इति कोऽर्थः ? विद्यया जन्मना. वा प्राणिनामेकलक्षणः सन्तानो वंश उच्यते / वंशे भवो वंश्यः। स इहाद्यः कारणपुरषो वंश्यो गृह्यते ज्ञातव्यो वा / पूर्वस्य पदस्यार्थः पूर्वार्थः तस्मिन् / एको मुनिर्वैश्य इति वाक्यम् एवं द्वौ मुनि वंश्यौ, त्रयो मुनयो वंश्याः, इति वाक्यानि एकमुनि व्याकरणस्य, द्विमुनि व्याकरणस्य, त्रिमुनि व्याकरणस्य / पूर्वपदार्थप्राधान्याच्च यथाक्रमं मुनिशब्दात् प्रथमा सि औ सज् / 'अनतो लुप्' (3 / 2 / 6) इति सूत्रेण सि औ जस् लुप्यते / व्याकरणस्य इति भिन्नम् (पदम् [अतोऽन्यपदार्थाभावान्न बहुव्रीहिः] ?) / सप्तकाशयो वंश्या इति वाक्यम् / त्रयः कोशला वंश्या इति वाक्यम् / द्वौ मुनी वंश्यावस्य ततो द्विमुनि द्विमुनिकम्, अत्र 'शेषाद्वा' (7 / 3 / 175) इति सूत्रेण विकल्पेन कच् समासान्तः / द्वौ मुनी वंश्यावस्य स द्विमुनिः आगतः / अन्यपदार्थे बहुव्रीहिः प्रवृत्तः / / 29 / / पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा // 3 // 1 // 30 // पारे मध्ये अग्रे अन्तः इति शब्दाः षष्ठ्यन्तनाम्ना वा समस्यन्ते पूर्वपदार्थे वाच्ये अव्ययीभावः स्यात् / पारे गङ्गायाः पारेगङ्गम् / पारेसमुद्रम् / मध्येगङ्गम् / अग्रेवणम् / अन्तर्गिरेरन्तगिरम्, अन्तर्गिरि-पक्षे षष्ठीसमासोऽपि। गङ्गायाः पारं गङ्गापारम्, गङ्गाया मध्यं गङ्गामध्यम्, वनस्य अग्रं वनाग्रम्, गिरेरन्तमध्यं गिर्यन्तः // 30 // ___ अ० पारं गङ्गायाः इति वाक्ये पारेगङ्गम् / पारं समुद्रस्य इति वाक्ये पारेसमुद्रम् / मध्यं गङ्गाया इति वाक्ये मध्येगङ्गम् / एवं मध्येसमुद्रम् / अग्रं वनस्य इति वाक्ये अग्रेवणम् / एषु त्रिषु उदाहरणेषु पार-मध्य- अग्र शब्दत्रयाणां पारे मध्ये अग्रे इति सूत्रपाठबलात् एकारान्तत्वं निपात्यते / अन्तगिरेः इति वाक्ये अन्तर्गिरम् अन्तर्गिरि / 'गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायण्यपञ्चमवर्गाद्वा' (7 / 3 / 90) इति सूत्रेण अत्-समासान्तः // 30 // __यावदियत्त्वे // 3 // 1 // 31 // इयत्त्वेऽवधारणे गम्यमाने यावदिति नाम नाम्ना समस्यते पूर्वपदार्थे अव्ययीभावसमासः स्यात् / यावदमत्रं यावदोदनं यावदवकाशं अतिथीन् भोजय / इतत्त्वमिति किम् ? यावद्दत्तं तावद्भुक्तम् / कियद्दत्तम् किय Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः द्भुक्तमिति नाबधारयति // 31 // ___अ० यावत् शब्दोऽव्ययोऽपि / अव्ययपक्षे यावत् शब्दात् प्रथमा सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 2 / 7) इति लुप् / यावदमत्राणि इति वाक्यं कार्यम् / अनव्ययपक्षे तु यावच्छब्दात् प्रथमा जस् / यावन्त्यमत्राणि इति वाक्यम् / यावानोदन इति वाक्यम् / यावानवकाशः इति वाक्यम् / असमस्तमिदमत एव तावदित्युपादीयते, समासे हि गुणीभूतत्वात्तावदित्यस्योपादानाभावः स्याद्यथा यावदमत्रमित्यत्र // 31 // पर्यपाङ्बहिरच् पञ्चम्या // 3 // 1 // 32 // परि अप आङ् बहिः अञ्च् इति शब्दाः पञ्चम्यन्तनाम्ना सह पूर्वपदार्थे वाच्ये समस्यन्ते अव्ययीभावसमासः स्यात् / परित्रिगतम् अपत्रिगर्त्तम् आग्रामम् बहिर्ग्रामम् / प्राग्रामम् प्रत्यग्ग्रामम् अपारग्रामम् उदग्ग्रामं वृष्टो मेघः / प्रतिपदविहितायाश्च पञ्चम्या ग्रहणादिह नाव्ययीभावः-अपगतः शाखायाः अपशाखः // 32 // अ० अपपरिशब्दौ वर्जनार्थौ ‘पर्यपाभ्यां वर्षे' (2 / 2 / 71) इति सूत्रेणात्र पञ्चमी / परित्रिगर्तेभ्य इति वाक्यम् परित्रिगतम् इत्युदाहरणम् / एवं अपत्रिगर्तेभ्य इति वाक्यम् अपत्रिगर्त्तमुदाहरणम् / त्रिगर्त्तदेशं वर्जयित्वा मेघो वृष्टः / आग्रामात् इति वाक्यम् 'आङावधौ' (2 / 2 / 70) इत्यनेनात्र पञ्चमी, आग्राममुदाहरणम् / बहिामात् इति वाक्यम्, अत्र 'प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्दबहिरारादितरैः' (2 / 2 / 75) इत्यनेन पञ्चमी, बहिाममुदाहरणम् / प्राग्ग्रामात् प्रत्यग्ग्रामात् अपारग्रामात् उदग्ग्रामात् इति वाक्यानि / अत्रापि 'प्रभृत्यन्यार्थ०' (2 / 2 / 75) इत्यनेन पञ्चमी / प्राग्रामं इत्यादि उदाहरणानि / अत्रायं विशेषः / पर्यपाङऽव्ययसाहचर्यादञ्चतिरपि धाप्रत्यय-एनप्रत्ययलुबन्तोऽव्ययो गृह्यते / तथाहि प्र अञ्च, प्राञ्चतीति० उदश्चतीति क्विप् 'अञ्चोऽनर्चायाम्' (4 / 2 / 46) इति न्लोपः प्राच् प्रत्यच् अपाच उदच् / 'अञ्चः' (2 / 4 / 3) इत्यनेन ङीः / प्राची दिग् दूरा रमणीया / प्राग्देशः प्राक्कालो वा रमणीयः / एवं प्रतीची अपाची उदीचीत्यादि वाक्यानि 'दिक्शब्दादिग्देशकालेषु प्रथमापञ्चमीसप्तम्याः' (7 / 2 / 113) इति सूत्रेण धाप्रत्ययः / 'लुबञ्चेः' (7 / 2 / 123) इति सूत्रेण धाप्रत्ययो लुप्यते / अथवा प्राच् प्रत्यच् अपाच् उदच् 'अञ्चः' (2 / 4 / 3) इति डीः / प्राची दिग् (अ)दूराऽस्माद्रमणीया प्राग् देशः कालो वा / एवमन्यवाक्यानि / 'अदूरे एनः' (7/2 / 122) इति सूत्रेण एनप्रत्ययः / 'लुबञ्चेः' (7/2 / 123) इत्यनेन एनो लुप्यते / लुपि ‘ङ्यादेौणस्या०' (2 / 4 / 95) इत्यनेन डीलृप्यते / ततः प्रथमा सिः / 'अव्ययस्य' (3 / 27) इति लुप् / इति परिणा प्रागादयोऽव्यया गृह्यन्ते / तेनेह न स्यात् / प्राङ् ग्रामाच्चैत्रः / लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणमिति न्यायात् अपशाख इत्यत्र ‘प्रात्यवपरिनिरादय०' (3 / 1 / 47) इत्यनेन तत्पुरुषः // 32 // . लक्षणेनाभिप्रत्याभिमुख्ये // 3 // 1 // 33 // लक्षणं चिह्नम् / लक्षणवाचिना नाम्ना आभिमुख्य वर्त्तमानौ अभिप्रतिशब्दौ समस्येते पूर्वपदार्थे वाच्येऽव्ययीभावः स्यात् / अभि अग्निं [वाक्यमिदं] अभ्यग्नि, प्रत्यग्निं [वाक्यं] प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति : अग्निं लक्षीकृत्याभिमुखं शलभाः पतन्तीत्यर्थः / लक्षणेनेति किम् ? मुघ्नं प्रति गतः / पूर्वपदार्थ इत्येव / अभिमुखोऽङ्को यासां ता अभ्यङ्का गावः // 33 // अ० अभ्यग्नि प्रत्यग्नि-अत्राग्निना शलभपातो लक्ष्यते इति अग्निर्लक्षणम् / अव्ययीभावात्क्रियाविशेषणत्वादुत्पन्नस्य अमो लुप् ‘अनतो लुप्' (3 / 2 / 6) इत्यनेन / गत इति कर्तरि क्तः, सुग्नं इत्यत्र कर्मणि द्वितीया, न तु प्रतिना Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते योगे, ततोऽयमर्थः प्रतिनिवृत्त्य पुनः सुग्ध्नमेवाभिमुखं गत इत्यर्थः // 33 // दैर्येऽनुः // 3 // 1 // 34 // अनुशब्दो दैर्ये आयामविषये यल्लक्षणं तद्वाचिना नाम्ना [सह] पूर्वपदार्थे [वाच्ये] समस्यतेऽव्ययीभावसमासः स्यात् / अनुगङ्गं वाराणसी / अनुयमुनं मथुरा / दैर्घ्य इति किम् ? वृक्षमनुविद्योतते विद्युत् // 34 // अ० अनु गङ्गां दीर्घा वाराणसी इति वाक्ये अनुगङ्गं वाराणसी इति उदाहरणम् / अनु यमुनां दीर्घा मथुरा इति वाक्ये अनुयमुनं मथुरा / गङ्गाया लक्षणभूताया तथा यमुनाया लक्षणभूताया आयामेन वाराणस्या मथुराया आयाम दैर्घ्य लक्ष्यते इत्यर्थः / / 34 / / समीपे // 3 // 1 // 35 // ___ समीपार्थे वर्तमानोऽनुशब्दोऽर्थात्समीपिवाचिना नाम्ना [सह] पूर्वपदार्थे [वाच्ये सति] समस्यतेऽन्ययीभावसमासः स्यात् / अनुवमशनिर्गतःता] [अनुवनस्य इति वाक्यम्] / [अनुनृपस्य] अनुनृपं पिशुनाः / पृथग्वचनं +लक्षणेनेत्यस्य निवृत्त्यर्थम् // 35 // अ० + 'लक्षणेनाभिप्रत्याभिमुख्य' (3 / 1 / 33) इति सूत्रस्य // 35 / / तिष्ठग्वित्यादयः // 3 // 1 // 36 // तिष्ठद्गु इत्यादयः समासशब्दा अव्ययीभावसंज्ञाः स्युः / यथायोगमन्यपदार्थे पूर्वपदार्थे च वाच्ये / तिष्ठद्ग वहद् आयतीगवम् एतेऽन्यपदार्थे [काललक्षणे] / खलेयवं इत्यादयोप्यन्यपदार्थे काले। नाभेरधोऽधोनाभम् निपातनादत्समासान्तः पूर्वपदार्थप्रधानोऽयम् / समत्वं भूमेः समभूमि समपदाति / [समत्वं पदातेः समत्वं भूमेरितिवाक्यम्] / समभूमि समंपदाति अत्र मान्तत्वमपि निपात्यते / तथा सुषमम् विषमम् निष्षमम् दुष्षमम् अपरसमम् / उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु तत्पुरुष एव / शोभनाः समाः [वाक्यम्] सुषमाः / शोभने समे [वाक्यम्] सुषमे / प्ररथम् प्रमृगम् प्रदक्षिणम् / तथा एकत्वमन्तस्य [वाक्यं] एकोऽन्त [वाक्यं] इति वा एकान्तम् / एवं प्रान्तं समपक्षं समानतीर्थम् / तथा युद्धे इजन्तं च / केशाकेशि दण्डादण्डि द्विदण्डि द्विमुसलि / तिष्ठद्ग्वादिराकृतिगणः / तेन प्रसव्यं अपसव्यं यत्प्रभृति तत्प्रभृति इतःप्रभृतीत्यादि सिद्धम् // 36 // अ० तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले गर्भग्रहणाय दोहाय वाहाय वत्सेभ्यो निवासाय जलपानार्थं वा स कालः तिष्ठद्गु इत्युच्यते / वहन्ति गावो यस्मिन् काले स वहद्गु उच्यते / आयत्यो गावो यस्मिन् काले देशे वा स आयतीगवमित्युच्यते / अत्र पूर्वपदस्य पुंवद्भावाभावः समासान्तश्च निपातनात् कार्यः / समभूमि समभूमि इत्यादयः पूर्वपदार्थप्रधाना एते प्रयोगाः / उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु समाभूमिरिति वाक्ये समभूमिः समपदातिः इति कर्मधारय एव / 'निर्दुःसुवेः समसूतेः' (2 / 3 / 56) इत्यनेन षत्वम् / शोभनत्वं समस्य, अथवा शोभनत्वं समायाः, शोभना समा यत्र वा इति वाक्यत्रये सुषमम् एवं विषमत्वं समस्य, विषमत्वं समायाः, विषमा समा यत्र विषमम् / तथा निर्गतत्वं समस्य, निर्गतत्वं समायाः, निर्गता समा यत्र निष्षमम् / दुष्टत्वं समस्य, दुष्टत्वं समायाः, दुष्टा समा यत्र दुष्षमम् - / अपरत्वं समस्येत्यादि / एते 4 पूर्वपदार्थप्राधान्ये ज्ञेयाः / प्ररथं प्रभृगं प्रदक्षिणं-प्रगता रथा अस्मिन् प्ररथम्, प्रनष्टा मृगा अस्मिन् देशे प्रमृगम्, प्रकृता दक्षिणा अस्मिन् प्रदक्षिणम् / एवं प्रगतत्वं प्रकृष्टत्वं वाह्नः; अथवा प्रक्रान्तमहरस्मिन् प्राणम् / अत्र निपातनादह्रादेशः / एतेऽपि पूर्वपदार्थे / अन्यत्र प्रगता मृगा अस्माद्देशात् प्रमृगो देशः / प्रान्तमिति Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 223 प्रगतत्वमन्तस्य प्रान्तम् / अथवा प्रगतोऽन्तः प्रान्तम् / समत्वं पक्षस्य समपक्षम् / समानत्वं तीर्थस्य समानतीर्थम् / केशाकेशि इत्यादि केशेषु केशेषु गृहीत्वा कृतं युद्ध 'इच् युद्धे' (7 / 3 / 74) इच् / 'इच्यस्वरे दीर्घ आच्च' (3 / 2 / 72) इत्यनेन दीर्घः / एवं दण्डादण्डि / द्विमुसलि अत्र च द्वौ दण्डौ अस्मिन् प्रहरणे द्विदण्डि, द्वौ मुसलौ अस्मिन् तत् द्विमुसलि 'द्विदण्ड्यादिः' (7 / 3 / 75) इति सूत्रेण इच् निपात्यते / इजन्तमव्ययीभावसंज्ञं भवति / प्रगतत्वं सव्यस्य प्रसव्यम् / अपगतत्वं सव्यस्य अपसव्यम् / यस्मात् प्रभृति यत्प्रभृति / तत्प्रभृति // 36 / / नित्यं प्रतिनाल्पे // 3 // 1 // 37 // अल्पेऽर्थे वर्तमानेन प्रतिना सह नाम नित्यं समस्यते / अव्ययीभावसमासः / शाकस्याल्पत्वं [वाक्यं] शाकप्रति / अल्प इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते विद्युत् // 37 // __ अ० 'नित्यं प्रतिनाल्पे' इति सूत्रे पूर्वपदार्थे इत्यसंभवादुत्तरपदार्थप्राधान्यमिति ज्ञेयम् / अत्र नित्यमिति करणादन्यत्र वाक्यं समासश्च भवति / शाकप्रति इत्युदाहरणाग्रतः सूपस्य मात्रा इति वाक्ये सूपप्रति उदाहरणं ज्ञातव्यम् / / 37 / / सङ्ख्याक्षशलाकं परिणा द्यूतेऽन्यथावृत्तौ // 3 // 1 // 38 // सङ्ख्यानाम अक्षशलाके च द्यूतविषयेऽन्यथावृत्तौ [वर्त्तने] वर्तमानेन परिणा नाम्ना ऐकायें नित्यं समस्यते / अव्ययीभावसमासः स्यात् / एकपरि / एवं द्विपरि त्रिपरि चतुष्परि अक्षपरि शलाकापरि / सङ्ग्यादीति किम् ? पाशकेन न तथा वृत्तम् / परिणेति किम् ? अक्षेण परिवृत्तम् / द्यूत इति किम् ? रथस्याक्षेण न तथा वृत्तम् // 38 // अ० पञ्चिका नाम द्यूतं पञ्चभिरक्षैः शलाकाभिर्वा भवति / पश्चिकाङ्ते यदा सर्वेऽक्षा उत्ताना अवाञ्चो वा यदि पतन्ति तदा पातयितुर्जयो भवति, अन्यथापतने पराजयः / एकेनाक्षेण शलाकया वा न तथा वृत्तं प्रवृत्तं यथा पूर्वं जये इति वाक्ये सति एकपरि / एवं द्वाभ्यां त्रिभिः चतुर्भिरक्षैः शलाकाभिर्वा न तथा वृत्तं यथा पूर्वं जये इति वाक्ये द्विपरि त्रिपरि चतुष्परि / पञ्चसु अक्षेषु एकरूपेषु पतितेषु जय एव भवति / अक्षेणेदं न तथा वृत्तं यथा पूर्वं जये इति वाक्ये अक्षपरि / शलाकया इदं न तथा वृत्तं यथा पूर्वं जये इति वाक्ये शलाकापरि / अक्षशलाकाशब्दद्वयं च समस्यते / अक्षेण परिवृत्तमित्यत्रायं परिशब्दो वाचको न तु द्योतकः / अत्र तु द्योतक एवास्ति / 'सङ्ख्याक्षशलाकं परिणा०' इति सूत्रे परिशब्दो द्योतको गृह्यते इति भावः // 38 // विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यृद्धयर्थाभावात्ययासंप्रतिपश्चात्क्रमख्यातियुगपत्सदृक्संपत्सा कल्यान्तेऽव्ययम् // 3 // 1 // 39 // . विभक्त्याद्यर्थेषु वर्तमानमव्ययं नाम नाम्नैकार्थ्ये पूर्वपदार्थे वाच्ये नित्यं समस्यतेऽव्ययीभावः स्यात् / विभक्तिः विभक्त्यर्थः कारकम् / अधिस्त्रि निधेहि स्त्रीषु निधेहीत्यर्थः [निक्षिपः] / समीपे उपकुम्भम् / गद्धेराधिक्यं समृद्धिः / सुमद्रम् सुमगधम् सुभिक्षम् / विगता ऋद्धिः व्यृद्धिः ऋद्धयभावः / दुर्यवनम् यवनानामृद्ध्यभाव इत्यर्थः, एवं दुर्भिक्षम् / अर्थाभावे निर्मक्षिकम् निर्मशकम् निर्वातम् / अत्ययोऽतीतत्वम् सत [विद्यमानस्य] एवातिक्रान्तत्वम् अतिवर्षम् अतिशीतम् / असंप्रति साम्प्रतमुपभोगाद्यभावः अतिकम्बलम् / पश्चात् अर्थे अनुरथम्, रथस्य पश्चात् यातीत्यर्थः / क्रम आनुपूर्व्यम् अनुज्येष्ठं अनुवृद्धं साधूनर्चय [वन्दय] / ख्यातिः, प्रसिद्भिः] इति भद्रबाहु एवं तद्भद्रबाहु अहो भद्रबाहु / भद्रबाहुशब्दो लोके प्रकाशते इत्यर्थः ख्याति प्रसिद्धिं Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते गतः] / युगपत् सचक्रम् / सदृगर्थे [सदृशार्थे] सव्रतम् व्रतस्य सदृशमित्यर्थः / सदेवदत्तं, देवदत्तस्य सदृश इत्यर्थः। एवं सशीलम् [शीलस्य सदृशं] सकिखि / संपत् सिद्धिः सब्रह्म साधूनाम् संपन्नं बह्मेत्यर्थः / साकल्यमशेषता सतृणमत्ति [भक्षयति] न किञ्चित्त्यजति इत्यर्थः / अन्तः समाप्तिः सपिण्डैषणमधीते, पिण्डैषणापर्यन्तमधीते इत्यर्थः // 39 // ___अ० अधिस्त्रि / स्त्रीषु अधिकृत्य कथा प्रवृत्ता इति वाक्येऽधिस्त्रि / 'क्लीबे' (2 / 4/97) ह्रस्वः / सिः / 'अनतो लुप्' (1 / 4 / 59) / कुम्भस्य समीपं उपकुम्भम् / सिः / 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' (3 / 2 / 2) अम् / एवं उपाग्नि / सुमद्रमिति मद्राणां समृद्धिरित्यर्थः / सुमगधं मगधानां मगधदेशे सुभिक्षमित्यर्थः / भिक्षाया अभावः, भिक्षा न लभ्यते / वर्षाणां संवत्सराणामतीतत्वम् वर्षाणि गतानीत्यर्थः / एवं निशीतं निहिमं शीतं हिमं गत इत्यर्थः / साम्प्रतं वर्तमानकाले / अतिकम्बलम्, एवं अत्यामम् / अर्थः कम्बलवत् ज्ञेयः / कम्बलस्योपभोगं प्रति नायं काल. इति उदाहरणार्थः / ज्येष्ठानुक्रमेण अत्र पङ्क्तौ उपविशतु इत्यर्थः / युगपत् एककालार्थः / एककालम् / समकालम् / सह चक्रेण सचक्रम् / चक्रेण सह एककालमन्यदपि वस्तु धारय / चक्राणि वा एककालं समकालं धारय / शब्दशक्तिस्वाभाव्यादन्यपदार्थप्रधानोऽयं शब्दः सचक्रमिति / सचक्रमित्यादिषु सपिण्डेषणमिति पर्यन्तेषु सर्वत्र सहशब्देन सह समासः / 'अकालेऽव्ययीभावे' (3 / 2 / 146) इति सूत्रेण सहशब्दस्थाने स इत्यादेशः कर्तव्योऽव्ययीभावे / किखि र्जीवविशेषस्तत्सदृशी लुंकडी इत्यर्थः / संपत्शब्दः सिद्धौ निष्पन्नौ संपन्नेऽर्थे वर्त्तते / एवं सवृत्तं मुनीनाम् / सक्षत्रमिक्ष्वाकूणाम् / निःशेषत्वम् / स्वभावादन्यपदार्थप्रधानोऽयं श्रुतस्कन्धादि सपिण्डैषणमिति शब्दसमासः / पिण्डैषणाध्ययनं दशवैकालिकश्रुतस्कन्धे पञ्चममध्ययनम् // 39 / / योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये // 3 // 1 // 40 // .. एष्वर्थेष्वव्ययं नाम नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समस्यते / अव्ययीभावः / अनुरूपं चेष्टते-रूपस्य योग्यां चेष्टां करोतीत्यर्थः / वीप्सायाम् प्रत्यर्थं शब्दा अभिनिविशन्ते / अर्थानतिवृत्तिः पदार्थानतिक्रमः यथाशक्ति पठ। एवं यथाबलम् [शक्तिसारेण] / शक्तेरनतिक्रमेणेत्यर्थः / सादृश्ये-सशीलमनयोः-शीलस्य सादृश्यमित्यर्थः / एवं सव्रतमनयोः [व्रतस्य सादृश्यम्] // 40 // अ० प्रत्यर्थं कोऽर्थः ? / अर्थं अर्थ प्रति शब्दा अभिनिविशन्ते / एवं प्रतिपर्यायम् / वीप्सायां द्वितीयाया विधानाद्वाक्यमपि भवति / अर्थमर्थं प्रति इति // 40 // यथाऽथा // 3 // 1 // 41 // ____थाप्रत्ययवर्ज यथेत्यव्ययमव्युत्पन्नं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समस्यते / अव्ययीभावः स्यात् / यथारूपम् रूपानुरूपं चेष्टते / एवं यथावृद्धमर्चय ये ये वृद्धास्तानित्यर्थः / अथा इति किम् ? यथा चैत्रस्तथा मैत्रः॥४१॥ अ० यथासूत्रमनुतिष्ठति, सूत्रानतिवृत्त्या इत्यर्थः, इत्यप्युदाहरणं 'यथाऽथा' इति सूत्रे ज्ञेयम् / / 4 / / __गतिकन्यस्तत्पुरुषः // 3 // // 42 // गतिसञकाः शब्दाः कु इत्यव्ययं च नाम्ना सह नित्यं समस्यन्ते / स च समासोऽन्यो बहुव्रीह्यादिलक्षणरहितस्तत्पुरुषसंज्ञः स्यात् / ऊरीकृत्य / शुक्लीकृत्य / कु-कुत्सितो ब्राह्मणः [वाक्यम्] कुब्राह्मणः / कुपुरुषः / ईषदुष्णं [वाक्यम्] कोष्णम् कवोष्णम् कदुष्णम् / कामधुरम् / अव्ययमित्येव-कुर्विशाला [कुः पृथ्वी] / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अन्य इति किम् ? कुपुरुषकः [बहुव्रीहिः] / तत्पुरुषप्रदेशाः ‘गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इत्यादयः // 42 / / अ० कु इत्यव्ययं पापाल्पयोर्वर्त्तते / गतिश्च कुश्च सिः / ऊरीकृत्य उररीकृत्य, खाटकृत्य, शुक्लीकृत्य, पटपटाकृत्य, प्रकृत्य / एषु 'ऊर्याद्यनुकरण०' (3 / 1 / 2) इत्यादिना यथाक्रमं ऊर्यादिगण अनुकरण च्व्यन्त डाजन्त उपसर्गद्वारेण गतिसञ्ज्ञा भवति / गतिसञ्ज्ञकत्वात् 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुष' इत्यनेन तत्पुरुषसमासफलम् / गतिसझं च अव्ययं भवति / अव्ययपूर्वपदभावात् 'अनञः क्त्वो यप्' (3 / 2 / 154) इत्यनेन यप् इति द्वितीयं फलम् / कु ईषत् कुत्सितं कदुष्णम् ‘कोः कत्तत्पुरुषे' (3 / 2 / 130) इत्यनेन कद् आदेशः / कु ईषत् मधुरं कामधुरम् ‘अल्पे' (3 / 2 / 136) इति सूत्रेण का आदेशः // 42 // . दुर्निन्दाकृच्छ्रे // 3 // 1 // 43 // [दुर्] [दुर] दुरव्ययं निन्दायां कृच्छ्रार्थे च वर्त्तमानं नाम्ना समस्यते नित्यम् / समासोऽन्यस्तत्पुरुषसञ्ज्ञः / निन्दितः पुरुषो दुःपुरुषः / कृच्छ्रेण कृतं दुःकृतम् / अन्य इति किम् ? दुःपुरुषकः [बहुव्रीहिः] // 43 // सुः पूजायाम् // 3 // 1 // 44 // - सु इत्यव्ययं पूजायां वर्तमानं नाम्ना नित्यं समस्यते / तत्पुरुषोऽन्यः स्यात् / शोभनो राजा सुराजा। अन्य इति किम् ? मद्राणां समृद्धिः समुद्रम् / अत्राव्ययीभावत्वादम् // 44 // .. अतिरतिक्रमे च // 3 // 1 // 45 // ___ अति इत्यव्ययं अतिक्रमे पूजायां च वर्तमानं नाम्ना सह समस्यते नित्यम् / अन्यस्तत्पुरुषः स्यात् / अतिस्तुतं भवता अतिसिक्तं भवता / पूजायाम् अतिराजा / बहुलाधिकारादतिक्रमे कचिन भवति / अतिस्तुत्वा // 45 // __ अ० अतिक्रमेण स्तूयतेस्म / अतिक्रमेण सिच्यतेस्म / 'क्तक्तवतू' (5 // 174) अतिक्रमेण स्तुतिसेको कृतावित्यर्थः / एवमतिस्तूय अतिसिच्य / / अथ पूजार्थे अतिः कोऽर्थः ? शोभनो राजा अतिराजा // अतिस्तुत्वा अतिसिक्त्वा / समासाभावात् क्त्वास्थाने यप् न भवति / / 45 / / आङल्पे // 3 // 1 // 46 // - आङ् इत्यव्ययमल्पेऽर्थे वर्तमानं नाम्ना सह समस्यते / नित्यम् / अन्यस्तत्पुरुषसमासः / ईषत्कडारः [वाक्यम्] आकडारः। एवं आपिङ्गलः। आबद्धम् आयुक्तम् इत्यादौ तु क्रियायोगे गतिलक्षण एव समासः // 46 / / .. अ० आबद्धमित्यादिषु बन्ध्- युज्धातुः आङ्पूर्वम् / इत्थं क्रियया सह आङ् उपसर्गस्य योगः। 'ऊर्याद्यनुकरणच्चिडाचश्च गतिः' (3 / 1 / 2) इत्यनेन गतिसंज्ञा / गतिसंज्ञकत्वात् 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः' (3 / 1 / 42) इत्यनेन तत्पुरुषसंज्ञसमासो भवतीत्यर्थः // 46 // प्रात्यवपरिनिरादयो गतक्रान्तक्रुष्टग्लानक्रान्ताद्यर्थाः प्रथमाद्यन्तैः // 3 // 1 // 47 // प्रादयो गताद्यर्थे वर्तमानाः प्रथमान्तेन सह समस्यन्ते / एवं अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयान्तेन नाम्ना सह समस्यन्ते / अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयान्तेन नाम्ना सह समस्यन्ते / पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्यन्तेन नाम्ना सह समस्यन्ते / निरादयः क्रान्ताद्यर्थे पञ्चम्यन्तेन नाम्ना सह समस्यन्ते / नित्यम् / अन्यस्तत्पुरुषः। 1. 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' (3 / 2 / 2) अनेन स्यादेरम् आदेशः / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते प्रादयः-प्रगत आचार्यः [वाक्यम्] प्राचार्यः इत्यादयः / अत्यादयः-अतिक्रान्तः खट्वाम् [वाक्यम् ] अतिखट्वः इत्यादयः / अवादयः-अवक्रुष्टः कोकिलया [वाक्यम्] अवकोकिल इत्यादि / पर्यादयः-परिग्लानोऽध्ययनाय [वाक्यम् ] पर्यध्ययन इत्यादि / निरादयः-निष्क्रान्तः कौशाम्ब्याः [वाक्यम्] निष्कौशाम्बिः इत्यादयः // 47 // ___अ०प्राचार्यः आदिशब्दात् प्रवृद्धो गुरुः प्रगुरुः, प्रकृष्टो वीरः प्रवीरः, सङ्गतोऽर्थः समर्थः; विरुद्धः पक्षो विपक्षः, प्रत्यर्थी पक्षः प्रतिपक्षः, प्रतिबद्धं वचः प्रतिवचः, उपश्लिष्टः पतिः उपपतिः / उपपन्नो नायकः उपनायकः, अनुकूलो नायकोऽनुनायकः, प्रतिकूलो नायकः प्रतिनायकः, इति प्रादयः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / अथ अत्यादिप्रयोगाः अतिखट्सः / उद्गतो वेलां उद्वेलः, प्रतिगतोऽक्षं प्रत्यक्षः, अनुगतो लोमानि अनुलोमः, प्रतिगतो लोमानि प्रतिलोमः, अभिप्रपन्नो मुखं अभिमुखः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / अथ अवादिप्रयोगाः अवकोकिलः / परिणद्धो वीरुद्भिः परिवीरुत्, संनद्धो वर्मणा संवर्मा, अनुगतमर्थेन अन्वर्थं नाम, सङ्गतमक्षेण समक्षं वस्तु, वियुक्तमर्थेन व्यर्थं वचः, सङ्गतमर्थेन समर्थं पदम्, बहुवचनमाकृतिगमार्थम् / अथ पर्यादिप्रयोगाः प्रयध्ययनः, उद्युक्तः सङ्ग्रमाय उत्सङ्ग्रामः, शक्तः कुमार्यै अलङ्कुमारिः, शक्तः पुरुषेभ्यः अलंपुरुषीणः / अथ निरादयो लिख्यन्ते निष्कौशाम्बिः / अपगतः / शाखायाः अपशाखः / अन्तर्गतोऽङ्गुल्या अन्तरङ्गुलो नखः, बहुलाधिकारात् षष्ठ्यन्तेनापि-अन्तर्गतोऽङ्गुलेः 6 अन्तरङ्गुलो नखः, उत्क्रान्ता कुलादुत्कुला कुलटा उत्क्रान्तो वेलायाः उद्वेलः समुद्रः, उत्क्रान्तं शास्त्रात् उच्छास्त्रं वचः, उत्क्रान्तः सूत्रात् उत्सूत्रो न्यायः, उद्गतः शृङ्खलायाः उच्छृङ्खलः कलभः, अपगतमादपार्थं वचः / अपगतं क्रमादपक्रमं कार्यम् / बहुनचनमाकृतिगणार्थम् // 47|| अव्ययं प्रवृद्धादिभिः // 3 // 1 // 48 // अव्ययं नाम प्रवृद्धादिभिः सह नित्यं समस्यतेऽन्यस्तत्पुरुषः / [उदाहरणसदृशानि वाक्यानि कार्याणि] पुनः प्रवृद्धं बर्हिः, पुनरुक्तं वचः, पुनर्नवं वयः, स्वर्यातः अन्तर्भूतः उचैर्घोषः नीचैर्गतम् प्रायश्चित्तम् पुराकल्पः श्वःश्रेयसम् श्वोवसीयसम् / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 48 // ___ अ० प्रकर्षण एति आगच्छति अस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिजनः / चिन्त्ये स्मर्यते इति चित्तम् / प्रायैर्मुनिजनैश्चित्तं चिन्तितं पापशुद्धये इति प्रायश्चित्तं उच्यते / पूर्वं वसुशब्दः / वसून्यस्य सन्ति ‘तदस्यास्त्य०' (7 / 2 / 1) इति मत् वसुमत् / अयमनयोरतिशयेन वसुमान् ‘गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (7 / 3 / 9) इयसू / 'विन्मतोर्णीष्ठेयसौ लुप्" (7 / 4 / 32) इत्यनेन मतुलृप्यते / तदनन्तरं 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) इत्यनेन वसोः उकारो लुप्यते / वसीयत् इतिशब्दः सिद्धः / श्वस् / वसीयम् / शोभनं वसीयः श्वोवसीयसम् / ‘श्वसो वसीयसः' (7 / 3 / 121) इति सूत्रेण अत् समासान्तः / तथा शोभनं श्रेयः इति वाक्ये 'निसश्च श्रेयसः' (7 / 3 / 122) इति सूत्रेणात्समासान्तः / श्वःश्रेयसम् // 48 // __ ङस्युक्तं कृता // 3 // 1 // 49 // कृत्सूत्रेषु उसिना पञ्चम्यन्तेन यदुक्तं तत् ङस्युक्तम् / ऊस्युक्तं नाम कृदन्तनाम्ना समस्यते नित्यम् / अन्यस्तत्पुरुषः स्यात् / [कुम्भं करोतीति 'कर्मणो अण्'] / कुम्भकारः [अग्निं चितवान् ‘अग्नेश्वेः' (5 / 1 / 164) किप्] / अग्निचित् / [सोमं सुतवान् ‘सोमात् सुगः' (5 / 1 / 163) सोमसुत्] / उस्युक्तमिति किम् ? कारकस्य [व्रजनं व्रज्या 'आस्पटिव्रज्यजः क्यप्' (5 / 3 / 97)] व्रज्या / अलंकृत्वा // 49 // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 227 अ० 'ङस्युक्तं कृता' इति सूत्रेऽयं विशेषो ज्ञातव्यः / गतिकारकोपपदानां कृद्भिः समासवचनं प्राक् प्रत्ययोत्पतेरिति न्यायात् गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैः सह विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव समास इष्यते / तथाहि प्र. प्रथमा सि / स्था / प्रतिष्ठतीति वाक्यम् / चर्मन् / तृतीया टा / क्रीत. चर्मणा क्रियतेस्म इति वाक्यम् / अभ्र / टा / विलिप्त. अल्पेन अभ्रेण विलिप्यतेस्म इति वाक्यम् / कच्छ / अम् / प इत्यादौ कृत्प्रत्ययान्तेन समासः / पश्चात् प्रष्टस्य प्रष्ठी ‘धवाद्योगादपालकान्तात्' (2 / 4 / 59) इति ङीः / चर्मक्रीतः इत्यत्र 'क्रीतात्करणादेः' (2 / 4 / 44) इति ङीः / कच्छप इत्यत्र 'जातेरयान्त०' (2 / 4 / 54) इति ङीः सिद्धः / यदि पुनर्विभक्त्यन्तैः कृदन्तैः सह समासः स्यात्तदान्तरङ्गत्वात् विभक्तेः प्रागेव आप प्राप्नुयात् / आपि सत्यऽकारान्तत्वाभावात् ङीप्रत्ययो न स्यात् / तथा माषान् वापिन / व्रीहीन् वापिन् इत्यादौ तु नकारान्तवापिन्शब्देन सहोपपदसमासे सति विभक्त्यन्तत्वाभावेऽपि (पद') रूपत्वादुत्तरपदत्वम् / ततश्चोत्तरपदान्तस्यान्तो नकार इति 'वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुव०' (2 / 3 / 75) इति णत्वं सिद्धम् / पश्चात् ङीः सिद्धः / विभक्त्यन्तोत्तरपदेन सह समासे तु क्रियमाणेऽन्तरङ्गत्वाद्विभक्तेः प्रागेव ङीः प्रसज्येत / डीप्रत्यये सति नान्तत्वाभावात् णत्वं न भवेत् // 49 / / / तृतीयोक्ते वा // 3 // 15 // 'दशेस्तृतीयया' इत्यारभ्य यत्तृतीयोक्तं नाम तत्कृदन्तनाम्ना समस्यते वा। अन्यस्तत्पुरुषः। मूलकेनोपदंशं [वाक्यमिदम्] मूलकोपदंशं भुङ्क्ते / दण्डेनोपघातं [वाक्यम्] दण्डोपघातम् गाः कलयति / पार्थोपपीडं शेते। वाशब्दे नित्यसमासनिवृत्त्यर्थः / तेनोत्तरेषु वाक्यमपि // 50 // ' अ०' 'दंशेस्तृतीयया' (5 / 4 / 73) इत्यादिसूत्रेः तृतीयान्त उपपूर्वकधातोः परतो यद्विहितं तत् तृतीयोक्तम / उपदशा इति वाक्ये ‘दंशेस्तृतीयया' णम् प्रत्ययः / उपहत्य / उपघातम् / 'हिंसार्थादेकाप्यात्' (5 / 4 / 74) इति सूत्रेण णम् / उपपीड्य इति वाक्ये 'उपपीडरुधकर्षस्तत्सप्तम्या' (5 / 4 / 75) इति सूत्रेण णम् / पश्चात् पार्श्वभ्यां, पार्श्वयोरुपपीडं इति वाक्यं कार्यम् / / 50 / / - नञ् // 3 // 151 // नम् इति नाम नाम्ना समस्यतेऽन्यस्तत्पुरुषः / न गौः [वाक्यम्] अगौः / अनुच्चैः / असः / निवर्त्यमानतावश्चोत्तरपदार्थः पर्युदासे नसमासार्थः / उत्तरपदार्थः / स चायं चतुर्द्धा सदृशः तद्विरुद्धः तदन्यः तदभावश्चेति / अब्राह्मणः [साम ?] अशुक्लः अधर्मः असितः। अनग्निः अवायुः अवचनम् अवीक्षणम् [पश्येत्यादि क्रियापदेन सह प्रसज्यप्रतिषेधे न नञ् पदान्तरेण सम्बध्यते इत्युत्तरपदं वाक्यवत्स्वार्थ एव वर्त्तते / तत्रासामर्थ्यपि यथाभिधानं बाहुलकात् नसमासः / असूर्यपश्या राजदाराः // 51 // - अ० पर्युदासनञ् सदृशग्राही भवतीत्यत्र न ब्राह्मणो ब्राह्मणसदृशः क्षत्रियादितिव्यः / न शुक्ल इत्यत्रापि अशुक्ल इत्युक्ते पीतादिवर्णः प्रतीयते इत्येको भेदः 1 / तद्विरुद्धश्चेत्थम् न धर्मः कोऽर्थस्तद्विरोधि पापम् असित इत्युक्ते च कृष्ण एव प्रतीयते इति द्वितीयो भेदः 2 / तदन्यस्त्वेवम्-अनग्निः अवायुः इत्युक्ते अग्निवायुभ्यामन्यः प्रतीयते इति तृतीयः 3 / तदभावश्चेति अवचनम् अवीक्षणं इत्युक्ते वचनस्य वीक्षणस्याभावो ज्ञाप्यते इति चतुर्थो भेदः 4 / सूर्यमपि न पश्यन्ति इति वाक्येऽसूर्यं पश्याः / ‘असूर्योग्रादृशः' (5 / 1 / 126) इति सूत्रेण खश् प्रत्ययः / असूर्यं पश्या 1. उत्तरपदशब्दो हि समासस्य चरमावयवे रूढ इति अत्र पारिभाषिकोत्तरपदत्वं ज्ञेयम् / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते इत्यत्र दृशिना सम्बद्धस्य नञः सूर्येण सहासामर्थेऽपि गमकत्वात् कोऽर्थः ? वाक्यार्थप्रतिपादकत्वात् समासो भवतीत्यर्थः ‘कर्त्तर्यनभ्यः शव्' (3 / 4 / 71) 'श्रौतिकृवुधिवु०' (4 / 2 / 108) इत्यादिना पश्य आदेशः / 'खित्यनव्यया०' (3 / 2 / 111) इति मोऽन्तः / असूर्यं पश्या राजदारा इत्यस्याग्रे पुनर्न गीयन्ते १अपुनर्गेयाः श्लोकाः / श्राद्धं न २भुङ्क्तेऽश्राद्धभोजी / एवं अलवणभोजी भिक्षुः / कर्णवेष्यकाभ्यां व शोभते अकर्णवेष्टकिकं मुखम् / वत्सेभ्यो न हितो ३अवत्सीयो गोधुक् / वधं नार्हति ४अवध्यो ब्राह्मणः / संतापाय न शक्तो असान्तापिकः सदुपदेशः 'तस्मै योगादेः शक्ते' (6 / 5 / 94) इति सूत्रेण इकण् / कर्णौ वेष्टते 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) कर्णवेष्ट एव कर्णवेष्टकः / अथवा कर्णौ वेष्ट्यते आभ्यां 'नाम्नि पुंसि च' (5 / 3 / 121) / णक. कर्णवेष्टकाभ्यां न शोभते 'शोभमाने' (6 / 4 / 102) इति सूत्रेण इकण् / अत्र असमर्थनसमासोऽपि अस्मिन् विषये भवति अत एव कर्णवेष्टकेन सह नञो सम्बद्धत्वान्नञोऽकारस्य न वृद्धिः / 1 ‘य एच्चातः' (5 / 1 / 28) इति यप्रत्ययः / २'व्रताभीक्ष्ण्ये' (5 / 1 / 157) . इति णिच् / 3 तस्मै हिते' (7 / 1 / 35) इति ईयः / ४'दण्डादेर्यः' (6 / 4 / 178) इत्यनेन यप्रत्ययः // 51 // . पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नांशिना // 3 // // 52 // अंश एकदेशः। तद्वानंशी। पूर्वादिशब्दा [सामर्थ्यात्] [पूर्वे पश्चालाः उत्तरे पश्चालाः इतिवत् समुदायवाचिनां शब्दानां अंशेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् सामानाधिकरण्ये सति कर्मधारयेणैव सिद्धम् / ] अंशवाचिनोऽशिना सह समस्यन्ते / चेत् सोंऽशी भिन्नो न प्रतीयते / तत्पुरुषसमासः स्यात् / पूर्वः कायस्य [वाक्यम्] पूर्वकायः / एवमपरकायः अधरकायः उत्तरकायः / पूर्वादिग्रहणं किम् ? दक्षिणः कायस्य / अंशिनेति किम् ? पूर्वो नामेः कायस्य / अभिनेनेति किम् ? पूर्व छात्राणामामन्त्रयस्व / प्रसज्यप्रतिषेध इति किम् ? [पाणी च पादौ च पाणिपादम् ] पूर्वं पाणिपादस्य // 52 // ____ अ० अंशोऽस्यास्तीति अंशी / अभिन्न इत्यत्र नञ् प्रसज्यार्थः / ततः पूर्वं पाणिपादस्प इत्यत्र समाहारस्यैकत्वेपि पाणिः पादः इति भेदः प्रतीयतेऽतो न भवति समासः // 52 // सायाह्नादयः // 3 // 1 // 53 // सायाह्लादयोऽशितत्पुरुषे साधवो भवन्ति / सायमह्नः [वाक्यम्] सायाह्नः / मध्यमह्नः [वाक्यं] मध्याह्नः। मध्यं दिनस्य [वाक्यं] मध्यंदिनम् [निपातनादलुप्] / मध्यं रात्रेः मध्यरात्रः / +बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 53 // अ० सायाह्नः अत्र निपातबलात् मकारलोपोऽहन् इत्यस्य अह्न इत्यादेशः, अथवा 'सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इत्यनेन अहन्शब्दादट्समासान्तः / एवं मध्याह्न इत्यत्रापि / + पूर्वश्चासौ कायश्च पूर्वकायः / सायं च तत् अहश्च सायाह्न इति / तत्पुरुषविधानं तु इह ‘सायाह्नादय' इति सूत्रे, पूर्वसूत्रे 'पूर्वापर०' (3 / 1 / 52) इत्यादौ च, अह्नः सायं कायस्य पूर्वं इति षष्ठीसमासबाधनार्थम् / एषाऽवचूरिः सायाह्रादय इति सूत्रप्रान्ते द्रष्टव्या // 53 // समेंऽशेऽर्धं नवा // 3 // 1 // 54 // अर्द्धमिति समेंऽशे वर्तमानमभिन्नेनांशिना सह समस्यते वा / तत्पुरुषः / अर्द्ध पिप्पल्याः [वाक्यं] अर्द्धपिप्पली / पक्षे पिप्पल्यर्द्धम् / एवमर्द्धपणः पणाई इत्यादि / समेंऽशे इति किम् ? ग्रामार्द्धः / नगसर्द्धः / समेंऽशे वर्तमानोऽर्द्धशब्द आविष्टलिङ्गो नपुंसकः, असमेंऽशे तु पुंल्लिङ्गः / अंशिनेत्येव-पिप्पल्या अर्द्ध चैत्रस्य / अत्र चैत्रेण सह न समासः॥ अर्द्धं च सा पिप्पली चेति कर्मधारयेणैव सिद्धे भेदविवक्षायां पक्षे षष्ठीसमासबाधनार्थं असमांशे च अर्द्धश्वासी ग्रामश्चेति कर्मधारयनिषेधार्थं वचनं कृतम् // 54 // Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ___अ० कथं अर्द्धपिप्पल्यः ? / अर्द्धं पिप्पल्या इति अभिन्नेन समासे सत्येकशेषात् / अर्द्धरात्रिरित्यत्र च रात्रभेदप्रतिभासात्समांसो भविष्यति // 54 // जरत्यादिभिः // 3 / 1155 // असमांशार्थ आरम्भः / अर्द्धशब्दो जरत्यादिभिरंशिभिरभिन्नैः समस्यते वा / तत्पुरुषः / अझै जरत्या अर्द्धजरती / अझैक्तम् / पक्षे जरत्यर्द्धम् उक्तार्द्धम् / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 55 // ____ अ० अझै जरत्या इति वाक्ये अर्द्धजरती / अर्द्धजरत्याः तुल्यं अर्द्धजरतीयम् / 'काकतालीयादयः' (7 / 1 / 117) इति सूत्रेणं ईयः / एवमोक्तम् / अर्द्धविलोकितम् / अवैशसम् अर्द्धमरणमित्यर्थः / 'जरत्यादिभिरित्यपि सूत्रं षष्ठीसमासबाधनार्थम् / कायस्य पूर्व इतिवत् / जरत्या अर्द्धं इति रीत्या षष्ठीसमासो न कार्य इति // 55 // द्वित्रिचतुष्पूरणाग्रादयः // 3 // 1 // 56 // द्वित्रिचतुर् इति शब्दाः [अंशवाचिनः] पूरणप्रत्ययान्ताः अग्रादिशब्दा [अंशवाचिनः] श्रांशिना सह समस्यन्ते वा / तत्पुरुषः / द्वितीयं भिक्षायाः [वाक्यं] द्वितीयभिक्षा / एवं तृतीयभिक्षा चतुर्थभिक्षा तुर्यभिक्षा तुरीयभिक्षा / अग्रं हस्तस्य [वाक्यं] अग्रहस्तः / एवं तलपादः / ऊर्ध्वकायः / पक्षे भिक्षाद्वितीयमित्यादि / एवं हस्ताग्रम् पादतलम् कायोर्ध्वम् / पूरणेति किम् ? द्वौ भिक्षायाः / अंशिनेत्येव / भिक्षाया द्वितीयं भिक्षुकस्य। अग्रादिराकृतिगणः // 56 // ... अ० द्विश्च त्रिश्च चत्वारश्च द्वित्रिचतुः / द्वित्रिचतुश्च तत् पुरणं च द्वित्रिचतुःपूरणम् / अत्र पूरणशब्दस्य द्वित्रिचतुरित्यस्य विशेषणस्यापि सूत्रत्वात् न पूर्वनिपातः / अग्र आदिर्येषां ते द्वित्रिचतुःपुरणं अग्रादयश्च / चतुर् चतुर्णां पूरणस्तुर्यः तुरीयः / 'येयौ चलुक् च' (7 / 1 / 164) इति सूत्रेण य ईयप्रत्ययौ, चकारलुक् / भिक्षाया द्वितीयं भिक्षाद्वितीयम् भिक्षुकस्य भिक्षुकेण सह न समासः / अभिन्नेनेत्येव / द्वितीयं भिक्षाणाम् / अत्र बहुत्वात् भिक्षाभिन्ना / द्वित्रिचतुष्पूरणेति सूत्रे प्राक्तननित्याधिकाराभावादेव पक्षे वाक्यस्य सिद्धत्वात् वाऽनुवृत्तिः पक्षे षष्ठीसमासार्था, तेन भिक्षाद्वितीयमित्यादिषु पूरणप्रत्ययान्तशब्देन सह 'तृप्तार्थपूरणाव्यय०' (3 / 1 / 85) इत्यादिना निषिद्धोऽपि षष्ठीसमासो भवत्येवेत्यर्थः // 56 / / कालो द्विगौ च मेयैः // 3 // 1157 // ___ अंशांशि [निवृत्तौ] वा इति निवृत्तम् / कालवाचि नाम एकवचनान्तं द्विगौ च विषये वर्तमान मेयवाचिना नाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः / मासो जातस्य (वाक्यम्) मासजातः / मासजातौ मासजाताः / मासजाता स्त्री। संवत्सरजातः। द्विगौ-एको मासो जातस्य एकमासजातः। काल इति चैकवचनं द्विगोरन्यत्र प्रयोजकम्। तेन मासौ मासा वा जातस्येत्यत्र न समासः / द्विगौ तु द्वौ त्रयो वा मासा जातस्य द्विमासजातः त्रिमासजात इत्यपि भवति / मेयैरिति किम् ? मासश्चैत्रस्य / क्तान्तेनैव च मेयेन सह प्रायेणायं समास इष्यते / तेन मासो गच्छतः, वर्षमधीयानस्य, मासो गन्तुं वर्त्तते इत्यादौ न स्यात् // 57 // ___ अ० मासो जातयोः / मासो जातानाम् / एवं मासमृतः / संवत्सरो जातस्य / संवत्सरमृतः / मासजात इत्यादिषु यद्यपि मासो जातस्येति विग्रहे जातादि कालस्य विशेषणं भवति तथापि शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् समासो जातादिप्रधानः / तेन समासे लिङ्गं सङ्ख्या च जातादिसम्बन्ध्येव भवति / मासौ जातयोः मासजातौ / मासा जातानां Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते मासजाताः इति विग्रहः कार्यः / मासौ जातस्य मासा जातस्य इति तु न समासः / एकमासजात इत्युदाहरणाग्रे एवम् व्द्यह्रसुप्तः त्र्यह्राध्यायितः इति ज्ञेयम् / अत्र तु द्वे अहनी सुप्तस्य, त्रीणि अहानि अध्यायितस्येति वाक्ये 'सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इति सूत्रेणाहन्परतोऽट्समासान्तः, अहन् इत्यस्य अह्न आदेशश्च / सूत्रे द्विगुग्रहणं त्रिपदसमासार्थम् / अन्यथा 'नाम नाम्ना०' (3 / 1 / 18) इत्यनुवृत्तेयोरेव पदयोः समासः स्यात् / सूत्रे च चकारो द्विगुरहितकालपरिग्रहार्थः / यदि च चो न स्यात्तदा द्विगौ वर्त्तमानं कालवाचि नाम इति सूत्रार्थः स्यात् / मासाश्चैत्रस्य इत्यत्र द्रव्यमात्रस्य चैत्रस्य न मेयत्वम् / जातादेरेव हि मेयत्वं भवति / जन्मादेः प्रभृति जातादिसम्बन्धित्वेनैवादित्यगतेः परिच्छेदात् / षष्ठीसमासापवादः 'काले द्विगौ च०' इति योगः कृतः // 57|| स्वयंसामी क्तेन // 3 // 1158 // स्वयं सामि इत्येतेऽव्यये क्तान्तेन सह समस्येते / तत्पुरुषः / स्वयंधौतौ पादौ / स्वयंविलीनमाज्यम् घृतम्] / आत्मनेत्यर्थः / सामिकृतम् सामिभुक्तम् अर्द्धमित्यर्थः // 58 // ___ अ० 'स्वयंसामी'ति सूत्रे विशेषोऽयम् / समासे सति ऐकपद्यं भवति / ऐकपद्यत्वादेकविभक्तिः तद्धिताद्युत्पत्तिश्च भवति / यथा / स्वयंधौतस्यापत्यं स्वायंधौतिः ‘अत इन्' (6 / 1 / 31) / सामिकृतस्यापत्यं सामिकृतायनिः ‘अवृद्धाहोर्नवा' (6 / 1 / 110) इति आयनिञ् // 58 / / द्वितीया खट्वा क्षेपे // 3 / 1159 // खट्वा इति नाम द्वितीयान्तं क्तान्तेन नाम्ना सह क्षेपे निन्दायां समस्यते / तत्पुरुषः। खट्वारूढो जाल्मः। उत्पथप्रस्थितो विमार्गप्रस्थितः सर्वोपि खट्वारूढ इत्युच्यते / क्षेपे इति किम् ? खट्वामारूढ उपाध्यायोऽध्यापयति // 59 // ___ अ० खट्वारूढो जाल्मः इत्यस्य भावार्थोऽयम्-खट्वा पल्यङ्कः आचार्यासनं वा / अधीत्य विद्यां गुरुभिरनुज्ञातेन शिष्येण खट्वा आरोढव्या इति युक्तिः / यत्र अन्यथा आरोहणं खट्वायाः / तत् उत्पथप्रस्थानं / उपलक्षणमिदम् तेन यः कश्चित् कुमार्गप्रस्थितो भवति (स) सर्वोऽपि खट्वारूढ इत्युच्यते / जाल्मो जिह्मः // 59 / / कालः // 3 // 160 // कालवाचि द्वितीयान्तं नाम क्तान्तेन सह समस्यते। तत्पुरुषः। रात्र्यतिसृताः रात्र्यारूढाः रात्रिसङ्क्रान्ताः। मासप्रमितः [मासं प्रमित इति वाक्यम्] प्रतिपच्चन्द्रः, मासं प्रमातुमारब्ध इत्यर्थः (अव्याप्त्यर्थ आरम्भः) // 6 // अ० षण्मुहूर्त्ताश्चराचराः / ते हि मुहूर्ता दक्षिणायने शीतकाले रात्रिं गच्छन्ति शीतकाले रात्रेरतिदीर्घत्वात् / तेऽत्र रात्र्यतिसृताः रात्र्यारूढाः रात्रिसङ्क्रान्ता इति प्रयोगाः / ये हि मुहूर्त्ता उत्तरायणे उष्णकाले अहर्यान्ति ते हि अहरतिसृता इत्युच्यन्ते / उष्णकाले दिनानां अतिमहत्त्वात् // 60 // व्याप्तौ // 3 / 1 / 61 // व्याप्तिर्गुणक्रियाद्रव्यैरत्यन्तसंयोगः, व्याप्ती या द्वितीया तदन्तं कालवाचि नाम व्यापकवाचिना नाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः / क्तेनेति निवृत्तम् / मुहूर्त सुखं [वाक्यं] मुहूर्त्ताध्ययनम् क्षणपाठः सर्वरात्रकल्याणी। व्याप्ताविति किम् ? मासं पूरको याति // 61 // .. अ० सर्वा रात्रिः सर्वरात्रम् ‘सङ्ख्यातैकपुण्यवर्षादीर्घाच्च रात्रेरत्' (7 / 3 / 119) इति सूत्रेण अत्समासान्तः / Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 231 सर्वरात्रं कल्याणी सर्वरात्रकल्याणी // 61 / / श्रितादिभिः // 3 // 1 // 62 // - द्वितीयान्तं नाम श्रितादिभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / धर्म श्रितो [वाक्यम्] धर्मश्रितः / शिवगतः संसारातीतः // 6 // अ० श्रित अतीत पतित गत अत्यस्त प्राप्त आपन्न गमिन् गामिन् आगामिन् इति श्रितादयः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तेन ओदनबुभुक्षुः हिताशंसुः तत्त्वबुभुक्षुः सुखेच्छुः इत्यादि सिद्धम् / श्रित इत्यत्र ‘गत्यर्थाकर्मक०' (5 / 1 / 11) इति क्तः प्राप्त्यर्थविवक्षणात् / धर्मश्रितः कोऽर्थः ? धर्मं प्राप्त इत्यर्थः / धर्मश्रित इत्यादिकानि बहुव्रीहिणापि सिध्यन्ति / परं. तत्पुरषे सूरिर्यत् साधयति तदिदं ज्ञापयति / यत्र समासेऽर्थे विग्रहभेदात्तत्पुरुषबहुव्रीही द्वावपि प्राप्नुतः तत्र तत्पुरुष एव कार्यो न बहुव्रीहिरिति ज्ञापितम् / / 62 / / प्राप्तापनी तयाऽच्च // 3 // 1163 // प्राप्त आपनशब्दी सामर्थ्यात्प्रथमान्तौ [प्रथमा एकवचनान्तौ] तया द्वितीयान्तनाम्ना सह समस्येते / तत्पुरुषः। तद्योगे चानयोरन्तस्याकारो भवति [प्राप्ता आपन्ना इतिरूपयोः अकारः] प्राप्तजीविका आपन्नजीविका स्त्री। एवं प्राप्तगवी आपनगवी स्त्री / प्राप्तो जीविकां [वाक्यम्] प्राप्तजीविकः आपनजीविकः / प्राप्तगवः आपनगवः पुरुषः। प्राप्तजीविकं कुलम् / अद्वचनं स्त्रीलिङ्गार्थम् / प्राप्तापन्नयोः प्रथमोक्तत्वात् पूर्वनिपातार्थं वचनम् // 63 // . अ० प्राप्ता जीविकां इति वाक्ये प्राप्तजीविका इति उदाहरणम् / आपन्ना जीविकां इति वाक्ये आपनजीविका / प्राप्तजीविका आपन्नजीविका इत्येतौ बहुव्रीहिणापि सिध्यतः परं प्राप्तगवी आपन्नगवी इति बहुव्रीहिणा न सिध्यतः। 'गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इत्यनेन तत्पुरुषेऽट्विधानात् / बहुव्रीहौ नाट् / प्राप्ता गा आपन्ना गा इति वाक्ये 'गोस्तत्पुरुषात्' इति सूत्रेण अट्समासान्तः 'अणञये' (2 / 4 / 20) अति ङीः / प्राप्तं जीविकां इति वाक्यम् / एवं आपन्नं जीविकामापन्नजीविकं कुलम् स्त्रीलिङ्गे अद् इत्यादेशो भवति न पुंल्लिङ्गे न क्लीबे तयोरसम्भवात् // 63 / / ईषद्णवचनैः // 3 // 1164 // ___ ईषदित्यव्ययं गुणवचनैर्नामभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / ये गुणे वर्तित्वात् [गुणयोगात् ] योगाद्गुणिनि वर्तन्ते ते गुणमुक्तवन्तो गुणवचनाः / ईषपिङ्गलः / [ईषदल्पं विकटः] ईषद्विकटः / गुणवचनैरिति किम् ? ईषत्कारकः // 64 // ___अ० 'ईषद्गुणः०' इति सूत्रे विशेषोऽयम् / समासे सति तद्धितकाम्यसमासान्तरवसाद्यादेशाभावा भवन्ति / यथा ईषदल्पं पिङ्गलः ईषत्पिङ्गलः इति तत्पुरुषः / तदनन्तरं ईषत्पिङ्गलस्येदं ऐषत्पिङ्गलम् / ऐषत्पिङ्गलमिच्छति ऐषत्पिगलकाम्यन् / कोपेन ईषद्रक्तः कोपेषद्रक्तः / ईषत्पिङ्गलं युष्माकमथो पुत्रः // 64 / / - तृतीया तत्कृतैः // 3 // 16 // तृतीयान्तं नाम तत्कृतैस्तृतीयार्थकृतैर्गुणवचनैर्नामभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / शङ्खलाखण्डश्चैत्रः [शङ्खलया कृतः खण्डः इति वाक्यम् ] गिरिकाणः [डमरु] / तत्कृतैरिति किम् ? अक्ष्णा काणः / पादेन खञ्जः। काणत्वादि हि अत्र काण्डादिना [शरादिना] कृतम् नाक्ष्यादिना, अक्ष्यादिना 'परं सम्बन्धमात्रम् / गुणवचनैरित्येव-दना पटुः पाटवमित्यर्थः // 65 // Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते ___ अ० शङ्कुलखण्ड इत्यादौ कृतार्थौ वृत्तावन्तर्भूत इति कृतशब्दो न प्रयुज्यते / एवं गिरिकाणः क्षारशुक्लः कुसुमसुरभिः / देवदत्तादौ तद्धितः 'तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण् / 'द्वितीयायाः काम्यः' (3 / 4 / 22) 'परं सम्बन्धमात्रं इत्यक्षराग्रे- यदा तत्कुतत्वविवक्षायां कर्तरि करणे वा अक्ष्णा कृतः काण इति युक्त्या तृतीया तदा भवत्येव समासः अक्षिकाण इत्यादि समासान्तरः, अन्यथा त्रिपदस्तत्पुरुषो न स्यात् / गुणवचनैरित्येव इति व्यावृत्तौ गोभिर्वपावान्, कोऽर्थः / मेदस्वी महानित्यर्थः / ततो दध्ना पटुः इति द्वितीयमुदाहरणम् / अत्र वपावान् पटुशब्दौ पूर्वं गुणमुक्त्वा तदनन्तरं द्रव्ये गोपालादिके चैत्रे वर्त्तते इति गुणवचनौ न भवतः / अत एव गुणवचनत्वाभावादेव शुद्धगुणवाचिनापि नाम्ना सह न समासः / घृतेन पाटवम् विद्यया धाष्टम् इति प्रयोगौ, घृतपाटवम् विद्याधाष्टय इत्थं न भवतः // 65 // चतम्रार्द्धम् // 3 // 1 // 66 // अर्द्धशब्दस्तृतीयान्तस्तत्कृतार्थेन चतसृशब्देन सह समस्यते / तत्पुरुषः / अर्द्धचतम्रो मात्राः / चतरोति किम् ? अर्द्धन कृताश्चत्वारो द्रोणाः // 66 // अ० अर्द्धन कृताश्चतस्र इति वाक्ये अर्द्धचतम्रो मात्रा इत्युदाहरणम् / एवं अर्द्धचतस्रः खार्यः // 66 / / ऊनार्थपूर्वाद्यैः // 3 // 167 // तृतीयान्तनाम ऊनार्थैः पूर्वाद्यैश्च नामभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / माषोनम् [माषेण ऊनं माषोनम्] / माषविकलम् / पूर्वाद्याः, मासेन पूर्वो [वाक्यम् ] मासपूर्वः संवत्सरपूर्वः / पूर्व अवर सदृश सम कलह निपुण मिश्र श्लक्ष्ण इति पूर्वादयः। पूर्वादि अष्टशब्दाः / आकृतिगणोऽयम् तेन धान्येनार्थो [वाक्यं] धान्यार्थः / आत्मनापश्चमः, आत्मनाषष्ठः, एतावलुक्समासौ इत्यादि // 65 // अ० आदिशब्दात् माषेणाधिकम् माषाधिकं कार्षापणम् / एवं द्रोणाधिका खारी, भ्राता तुल्यो भ्रातृतुल्यः, एकेन द्रव्यवत्त्वमित्यादि सिद्धम् // 67 / / कारकं कृता // 3 // 168 // कारकवाचि नाम तृतीयान्तं सामर्थ्यात्कर्तृकरणरूपं कृदन्तनाम्ना समस्यते / तत्पुरुषः। कर्तृ, आत्मकृतम् परकृतम् / कृत्सगतिकारकस्यापि-चैत्रनखनिर्भिन्नः सुजनसुलभः दुर्जनदुर्लभः अरिदुर्जयः / करण, [परशुना छिन्नः] परशुच्छिन्नः / नखनिर्भिन्नः पादप्रहारः तलाहृतिः / बहुलाधिकारात् स्तुतिनिन्दार्थतायां प्रायः कृत्यैः सह समासः / कर्तृ, काकपेया नदी एवंनामपूर्णेत्यर्थः / श्वलेह्यः कूपः एवंनामासन्नोदकः / कुक्कुटसम्पात्या ग्रामाः एवंनामासन्ना इत्यर्थः / करण, बाष्पच्छेद्यानि तृणआनि 'एवंनाममृदूनि इत्यर्थः कोमलानि // 68 // अ० आत्मना क्रियते स्म आत्मकृतम् / परेण क्रियते स्म परकृतम् ‘क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) आत्मना कृतं आत्मकृतं इति न कार्यम् / चैत्रेण नखनिर्भिन्न इति वाक्यम् / काकैः पीयते काकपेया ‘य एच्चातः' (5 / 1 / 28) / श्वभिर्लिह्यते श्वलेह्यः / कुक्कुटैः कर्तृभिः सम्पत्यन्तेस्म कुक्कुटसम्पात्याः 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण' (5 / 1 / 17) इति सूत्रेण ध्यण् / अथ करणे. च्छिद्यन्ते च्छेद्यानि, बाष्पैः च्छेद्यानि बाष्पच्छेद्यानि / तथा स्तुतिनिन्दाभ्यां अन्यत्रापि समास इष्यते / बुसोपेन्ध्यम् अत्र तेजसोऽल्पता ख्याप्यते, नात्र निन्दास्तुतिर्वा किन्तु स्वरूपस्य कथनमात्रम् / A. देवदत्तः इत्यनेन द्रव्यशब्द सामानाधिकरण्यात् खण्डशब्दस्य गुणिनि द्रव्ये वृत्ति दृश्यते / / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः / 233 तथा घनघात्यः कृच्छ्रसाध्यत्वमुच्यते / इयं अवचूरिः 'एवं नाम मृदूनि इत्यक्षराग्रे ज्ञातव्या / कारकमिति किम् ? विद्ययोषितः अन्नेनोषितः, तेन हेतुना इत्यर्थः / तथा पुत्रेण गतः छात्रेण गतः, तेन सह इत्यर्थः / कृतेति किम् ? गोभिर्वपावान्, धान्येन धनवान् // 68 // नविंशत्यादिनैकोऽच्चान्तः // 3 // 1 // 69 // एकशब्दस्तृतीयान्तो नविंशत्यादिना सह समस्यते / तत्पुरुषः / एकस्य च अद् अन्तः स्यात् / एकानविंशतिः / पक्षे एकाद् नविंशतिः / एवं एकानत्रिंशत् इत्यादि // 69 // ___अ० एकानविंशतिः / एकेन नविंशतिः एकानविंशतिः / एकशब्दस्य अन्ते अद् / अद्करणसामर्थ्यादेव 'लुगस्यादेत्यपदे' (2 / 1 / 113) इत्यनेन अकारलोपो (न भवति) / तदनन्तरं 'तृतीयस्य पञ्चमे' (1 / 3 / 1) इति सूत्रेण द् इत्यस्य न विकल्पेन / पक्षे द् एव तत्र एकाद् नविंशतिः इति प्रयोगः / एवं एकान्नत्रिंशत् पक्षे एकाद् न त्रिंशत् / एका-नचत्वारिंशत् एकाद् नचत्वारिंशत् / अत्र सर्वत्र 'नविंशत्यादिना' 0 इति सूत्रे निर्देशात् नञत् न भवति / उपलक्षणत्वात् 'नञव्ययात्सङ्ख्याया डः' (7 / 3 / 123) इति सूत्रेण विंशदादिशब्दात् डप्रत्ययोऽपि न भवति / / 69 / / - चतुर्थी प्रकृत्या // 3 // 1 // 7 // प्रकृतिः परिणामिकारणम् [परिणामोऽवस्थान्तरापत्तिः / चतुर्थ्यन्तमर्थाद्विकृतिवाचि नाम प्रकृतिवाचिनाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः। यूपाय दारु] यूपदारु / कुण्डलाय हिरण्यं कुण्डलहिरण्यम् / प्रकृत्येति किम् ? रन्धनाय स्थाली // 7 // अ० मूत्राय सम्पद्यते यवागूः इत्यादौ तु विकारस्य मूत्रादिरूपस्य अप्रधानस्य सम्पद्यते इत्यादि क्रियासापेक्षत्वान्न समासः // 70 // हितादिभिः // 3 // 1171 // चतुर्थ्यन्तं नाम हितादिभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / [गोभ्यो हितम्] गोहितम् / गोसुखम् / कृत्ययप्रत्ययान्तं चेह [हितादिगणे] पम्यते-देवाय देयं देवदेयम् / वरप्रदेया कन्या // 1 // .. अ० हित सुख रक्षित बलि इति हितादयः / आकृतिगणश्वायम् / तेन अश्वघासः श्वश्रूसुरा (श्वश्रूसुरम्) हस्तिविधानम् धर्मनियमः धर्मजिज्ञासा नाट्यशाला आत्मनेपदम् परस्मैपदमित्यादि सिद्धम् / पचते इत्येवमादीनामात्मा स्वभावस्तदर्थं पदं ते आते अन्ते इत्यादिकं आत्मनेपदम् / तथा तिवादि अवयवापेक्षया प्रकृतिप्रत्ययसमुदायः पचतीत्यादिलक्षणः परोऽर्थस्तदर्थं तिवादिकं पदं परस्मैपदम् / तव्य अनीय क्विप् घ्यण् य इति कृत्यपञ्चकम् / तत्र एक एव यप्रत्यय इह, नान्ये / यप्रत्यये समासः-वराय प्रदेया वरप्रदेया, देवाय देयम् इत्यादि हितादिगणे // 71 / / तदर्थार्थेन // 3 // 1 // 72 // तस्याश्चतुर्थ्या अर्थो यस्य स तदर्थः / चतुर्थ्यन्तं नाम तदर्थेनार्थशब्देन सह समस्यते / तत्पुरुषः / पित्रे इदं [वाक्यं] पित्र) पयः [जलाय अयम्] जलार्थो घटः / [आतुराय इयम्] आतुरार्था यवागूः / 'उऽर्थो वाच्यवत्' इति वाच्यलिङ्गता [वाच्या घट पय यवागू इत्यादिक] / नित्यसमासश्चायम् / तदर्थेति अर्थविशेषणं किम् ? पित्रेऽर्थः / मात्रेऽर्थः / [तदर्थं धनमित्यर्थः] // 72 // अ० तस्याश्चतुर्थ्या अर्थो यस्य अर्थशब्दस्य स तदर्थः / तदर्थश्चासौ अर्थश्च तदर्थार्थः / तेन / पित्र) पय Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इत्यादौ वाक्यमध्ये चतुर्थीविभक्त्यैव तदर्थस्य उक्तत्वात् अर्थशब्दप्रयोगं विना तु पित्रे इदं इति वाक्यं न सम्भवति अतोऽर्थशब्दप्रयोगः / समासस्तु वचनबलाद्भवति // 72 / / पञ्चमी भयाद्यैः // 3 // 73 // पञ्चम्यन्तं नाम भयायैः सह समस्यते / तत्पुरुषः / वृकभयम् // 73 // अ० भयादिगणोऽयम् / भय भीत (भीति) भी भीरु भीलुक निर्गत जुगुप्सुः अपेत अपोढ मुक्त पतित अपत्रस्त इति भयादयः / आकृतिगणश्वायम् / तेन द्वीपान्तरानीतः स्थानभ्रष्टः तात्परः तपर इत्यादि सिद्धम् / बहुलाधिकारादिह न समासः प्रासादात्पतितः चौरादपत्रस्त इति // 73 // तेनासत्त्वे // 3 // 1174 // __ असत्त्वे वर्तमाना या पञ्चमी तदन्तं नाम क्तान्तेन सह समस्यते / तत्पुरुषः / स्तोकान्मुक्तः / 'असत्त्वे ङसेः' (3 / 2 / 10) इति अलुप् / क्तेनेति किम् ? स्तोकान्मोक्षः। असत्त्व इति किम् ? स्तोकाद्वर्द्धितः स्तोकाद् द्रव्यादित्यर्थः // 7 // अ० यतः स्तोकत्वादेनिमित्तत्वात् द्रव्ये धने विशेष्ये स्तोकादिशब्दप्रवृत्तिः सगुणोऽसत्त्वशब्दस्य प्रवृत्तिकारणं असत्त्वमुच्यते / तस्मिन् ईदृशेऽसत्त्वे 'स्तोकाल्पकृच्छ्रकतिपयादसत्त्वे करण' (2 / 2 / 79) इत्यनेन पञ्चमीविभक्तिविहितास्ति / स्तोकान्मुक्तः अल्पान्मुक्तः कृच्छ्रान्मुक्तः कतिपयान्मुक्तः दूरादागतः विप्रकृष्टादागतः अन्तिकादागतः अभ्यासादागतः कृच्छ्राल्लब्धम् इति उदाहरणावली ‘क्तेनासत्त्वे' इति सूत्रे ज्ञातव्या / एषु सर्वत्र 'असत्त्वे डसेः' (3 / 2 / 10) इति सूत्रेण अलुप्समास एव तत्पुरुषः // 74 / / परःशतादिः // 3 // 1175 // ___ पञ्चमीतत्पुरुषे परःशतादिशब्दः साधुः स्यात् / शतात्परे [वाक्यम् ] परःशताः / सहस्रात्परे [वाक्यम्] परःसहस्राः लक्षाल्लक्षाया वा परे [वाक्यम् ] परोलक्षाः। परशब्दस्य पूर्वनिपातः सकारागमश्च निपातनात् // 7 // षष्ठ्ययत्नाच्छेषे // 3 // 1176 // शेषे या षष्ठी तदन्तं नाम नाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः / चेत् 'स शेषो 'नाथः' (2 / 2 / 10) इत्यादेर्यत्नान भवति / राजपुरुषः / राजगोक्षीरम् राजगवीक्षीरम् / अयत्नादिति किम् ? सर्पिषो नाथितम् / ['नाथः' (2 / 2 / 10)] मातृः स्मृतम् / एधोदकस्योपस्कृतम् ['कृगः प्रति०' (2 / 2 / 12)] / चौरस्योज्जासितम् / ['रुजार्थ०' (2 / 2 / 13)] / शेष इति किम् ? मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः / गवां कृष्णा संपन्नक्षीरतमा / गोस्वामीत्यादिषु तु अयत्नजा शेषे एव षष्ठी / संघस्य भद्रं भूयादित्यादौ त्वाशिषि न षष्ठ्याः समासः / असामादनभिधानाद्वा // 6 // ___ अ० स शेषो 'नाथः' (2 / 2 / 10) इत्यादेरित्यक्षराणां भावार्थोऽयम् / ‘शेषे' (2 / 2 / 81) इति सूत्रेण या षष्ठी विहिता तया षष्ठ्या सह 'षष्ठ्ययत्ना०' इत्यनेन षष्ठीतत्पुरुषसमासो भवति / परं अयत्नजे शेषे षष्ठीसमासः / अयत्ने इति किम् ? उच्यते / 'नाथः' (2 / 2 / 10) / ‘स्मृत्यर्थदयेशः' (2 / 2 / 11) 'कृगः प्रतियत्ने' (2 / 2 / 12) 'रुजार्थस्याज्वरि०' (2 / 2 / 13) 'जासनाट०' (2 / 2 / 14) / 'निप्रेभ्यो घ्नः' (2 / 2 / 15) / 'विनिमेयद्यूत०' (2 / 2 / 16) उपसर्गादिवः (2 / 2 / 17) / इति णिच्सूत्राप्यं कर्म विकल्पेन भवति / एकत्र व्याप्ये कर्मणि द्वितीया, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अन्यत्र 'शेषे' (2 / 2 / 81) षष्ठी इति व्याप्यं कर्मैव शेषरूपेण विवक्ष्यते इति व्याप्यं कर्म / पक्षे षष्ठीविधानलक्षणं यत्न इति भाषा उच्यते / न करणादिकारकं षष्ठीविधानलक्षणम् / इति 'षष्ठ्ययत्नाच्छेषे' सूत्रेण व्याप्यकर्मषष्ठी वर्जयित्वा शेषषष्ठीसमासो भवति इति अयत्नजशेष उच्यते / अयत्नात् सूत्रे इत्युक्तम् / अयत्नादिति किम् ? सर्पिषो नाथितमित्यादौ वाक्यमेव सर्पि थितम् मातृस्मृतमित्थं न समासः / तर्हि सर्पिर्ज्ञानम् मातृस्मरणमत्र कथं समासः ? कृत्प्रत्यययोगे 'कृति' (3 / 1 / 77) इति सूत्रेण उत्तरेणात्र षष्ठीसमासः / मनुष्याणां क्षत्रिय इत्यादौ अपादानपञ्चमीप्राप्तौ ‘सप्तमी चाविभागे निर्धारणे' (2 / 2 / 109) इत्यनेन षष्ठी / शेष इति किम् ? सर्पिषो ज्ञानम् / रुदतः प्राब्राजीत् इति उदाहरणद्वयम् / तदनन्तरं मनुष्याणामित्यादि ‘अज्ञाने ज्ञः षष्ठी' (2 / 2 / 80) 'षष्ठी वानादरे' (2 / 2 / 108) इत्यादिसूत्रैः करणादिष्वेव षष्ठी इति शेषो नास्ति / 'स्वामीश्वरा०' दिसूत्रस्य नित्ये षष्ठीप्राप्तौ पक्षे सप्तमीविधानार्थत्वात् / सङ्घस्य भद्रमित्यत्र सङ्घभद्रं भूयात् इति न षष्ठीसमासः / न हि सङ्घभद्रं भूयादित्युक्ते सङ्घस्य भद्रं भूयादिति प्रतीयते, अपि तु सङ्घभद्रं नाम सङ्घसम्बन्धितया प्रसिद्धं किञ्चिद्भद्रं कस्यचित् भूयात्। (तत्त्वं) भूयादिति सापेक्षत्वात्.प्रतीतेरभावात् इति न सामर्थ्यमिदम्, अनभिधानात् / न पूर्वाचार्यसम्मतं इति भावार्थः // 76 / / कृति // 3 // 1177 // कृति कृत्प्रत्ययविषये या षष्ठी विहिता तदनन्तरं नाम नाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः। सिद्धसेनकृतिः गणधरोक्तिः तत्त्वानुचिन्तनम् सर्पिर्ज्ञानम् // 77 // ____अ० 'कर्मणि कृतः' (2 / 2 / 83) 'कर्त्तरि' (2 / 2 / 86) इति सूत्रद्वयाभ्यां कृदन्तसम्बन्धिनि कर्मणि कर्त्तरि च षष्ठी विहितास्ति पूर्वम् / पलाशशातनः धर्मानुस्मरणम् चौरोज्जासनम् इत्याद्यपि उदाहरणावली अत्र ज्ञातव्या // 77|| ___ याजकादिभिः // 3 // 1178 // षष्ठ्यन्तं नाम याजकादिनामभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः / विप्रयाजकः गुरुपूजकः / 'कर्मजा तृचा च' (3 / 1183) इति प्रतिषेधापवादो योगः / 'तुल्याथैर्विध्यर्थश्च // 78 // ___अ० याजक पूजक परिचारक परिवेषक स्नापक अध्यापक उ(आ ?)'च्छादक उन्मादक उद्वर्त्तक वर्तक होतृ भर्तृ इति याजकादिगणः / आकृतिगणोऽयम् तेन तुल्यार्थादपि शब्दाद, गुरुसदृशः गुरुसमः / तथा दास्याः सदृशः, वृषल्याः समः षष्ठ्या क्षेपे' (3 / 2 / 30) इत्यनेन अलुप्समासः / तथा अन्यत्कारकम्-अन्यस्य कारकं इति वाक्ये 'ईय कारके' (3 / 2 / 121) इति सूत्रेण द् अन्तः / विश्वगोप्ता तीर्थकर्ता तत्प्रयोजको हेतुश्च / जनिकर्तुः प्रकृतिरित्यादिसिद्धं भवति / 'तुल्या!स्तृतीयाषष्ठ्यौ' (2 / 2 / 116) इति सूत्रेण या षष्ठी विहिता सा शैषिका न भवतीति अप्राप्ते षष्ठीसमासविधानार्थं च योग इति अक्षरसम्बन्धः कार्यः / / 78 // ___पत्तिरथौ गणकेन // 3 // 1 // 79 // पत्तिरथशब्दौ षष्ठ्यन्तौ गणकेन सह समस्येते / तत्पुरुषः / पत्तीनां गणकः पत्तिगणकः / रथगणकः / कथं ज्योतिर्गणकः ? 'अकेन क्रीडाजीवे' (3 / 1 / 81) इति भविष्यति // 79 // अ० 'कर्मजा तृचाच' (3 / 1 / 83) इत्यस्यापवादोऽयं योगः // 79 / / 1. बृहद्वृत्तौ उच्छादक एव दृश्यते / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सर्वपश्चादादयः // 3 // 18 // सर्वपश्चादित्याद्याः षष्ठीतत्पुरुषे साधवः स्युः / सर्वेषां पश्चात् सर्वपश्चात् पदं वर्त्तते / सर्वचिरंजीवति / बहुवचनं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् // 8 // अ० 'तृप्तार्थपूरणाव्यया०' (3 / 1 / 85) इत्यनेनाव्ययशब्देन सह प्रतिषेधं वक्ष्यति / इति तस्यापवादोऽयं योगः // 80 // अकेन क्रीडाजीवे // 3 / 1 / 81 // षष्ठ्यन्तं नाम अप्रत्ययान्तेन सह समस्यते क्रीडायां आजीविकायां च गम्यमानायाम् / तत्पुरुषः / उहालकपुष्पभञ्जिका कस्याश्चित् क्रीडायाः संज्ञा / आजीवे-दन्तलेखकः नखलेखकः / दन्तलेखनादिरस्याजीवो गम्यते // 81 // ___ अ० 'कर्मजा तृचा च' (3 / 1 / 83) इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् / एवं वारणपुष्पप्रचायिका / एवं रमणीयकारकः / भनक्ति इति भञ्जिका ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) णकः, उद्दालकपुष्पभञ्जिका / प्रचिनोतीति ‘णकतृचौ' वारणपुष्पाणां वृक्षविशेषाणां पुष्पाणां प्रचायिका / कर्तृविहिते णके 'अकेन क्रीडाजीवे' इत्यनेन षष्ठीसमासः / न तु भावाकोंर्विहिते णके षष्ठीसमासः / एतच्च 'नाम्नि पुंसि च' (5 / 3 / 121) इति सूत्रे तृतीयकृतसूत्रे सुव्यक्तं दर्शितमस्ति / / 81 / / न कर्तरि // 3 / 1 / 82 // कर्तरि विहिता या षष्ठी तदन्तं नाम अप्रत्ययान्तेन सह न समस्यते / भवतः शायिका / भवतः आसिकाः / कर्तरीति किम् ? इक्षुभक्षिकां मे धारयसि // 82 // अ० 'न कतरि' इति सूत्रादारभ्य ‘अस्वस्थगुणैः' (3 / 1 / 87) इति यावत् षष्टीसमासनिषेधसूत्राणि / 'कर्त्तरि' (2 / 2 / 86) इति सूत्रेण षष्ठी भवत्यत्र / भवतोऽग्रगामिका / शयितुम् आसितुम् पर्यायः इति वाक्ये “पर्यायाहणोत्पत्तौ०" (5 / 3 / 120) इत्यनेन णकः / भवत इत्यत्र 'कर्त्तरि' इति सूत्रेण षष्ठी / भक्ष्यन्ते यस्यां सा भक्षिका 'नाम्नि पुंसि च' (6 / 3 / 121) इति णकः / इशूणां भक्षिका ‘कृति' (3 / 1 / 77) इति सूत्रेण षष्ठीसमासः / / 82 / / कर्मजा तृचा च // 3 / 1183 // कर्मविहिता षष्ठी कर्मजा तदन्तं नाम कर्तृविहिताऽकप्रत्ययान्तेन सह तृजन्तेन च सह न समस्यते / ओदनस्य भोजकः / अपां स्रष्टा [तृच्] / पुरां भेत्ता / कर्मजेति किम् ? सम्बन्धषष्ठ्याः प्रतिषेधो मा भूत् / गुणो गुणिविशेषकः, गुणिनः सम्बन्धिविशेषक इत्यर्थः / कथं भूभर्ता वज्रभर्ता ? 'भर्तृशब्दोऽत्र पतिपर्याय इति सम्बन्धषष्ठ्या समासः // 83 // ___अ० कर्त्तरीत्यनुवर्त्तते, तच्च अकस्य विशेषणं इत्युक्तं कर्तृविहिताऽकप्रत्ययान्तेन / भुनक्तीति भोजकः ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) / अथवा 'भूभ" इत्यत्र याजकादिगणे भर्तृशब्दः पठितोऽस्ति तेन ‘याजकादिभिः' (3 / 1 / 78) इति सूत्रेण षष्ठीसमासो भवति / यदा तु बिभर्ति इति भर्ता इति भरणक्रियामात्रं विवक्ष्यते तदा ‘कर्मजा तृचा च' इत्यनेन षष्ठीसमासप्रतिषेधो भवति / यथा भुवो भर्ता / वज्रस्य भर्ता / / 83 // तृतीयायाम् // 3 // 184 // कर्तरि तृतीयायां सत्यां कर्मजा षष्ठी न समस्यते / आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन / साध्विदं शब्दानामनुशासनमाचार्येण / तृतीयायामिति किम् ? साध्विदं 'शब्दानुशासनमाचार्यस्य // 8 // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अ० आपूर्व चर् आचर्यते इत्याश्चर्यम् / 'चरेराङस्त्वगुरौ' (5 / 1 / 31) इति सूत्रेण यप्रत्ययः 'वर्चस्कादिष्ववस्करादयः' (3 / 2 / 48) इति सूत्रेण श् इति विचाले क्रियते / आश्चर्य इति सिद्धम् / आश्चर्यो गवां दोहो इत्यादिषु 'द्विहेतो-रस्त्र्यणकस्य वा' (2 / 2 / 87) अनेन कर्तरि षष्ठी विकल्पेन भवति / एकत्र षष्ठी आचार्यस्य गोपालस्य, अन्यत्र तृतीया आचार्येण गोपालेन / अयं परमार्थः-आचार्येण गोपालेन इति तृतीयायां सत्यां साध्विदं शब्दानामनुशासनमाचार्येण, षष्ठ्यां तु सत्यां साध्विदं शब्दानुशासनमाचार्यस्य / षष्ठ्या सह समासो न तृतीयायां सत्यां समासः / एवमाश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन, षष्ठ्यां तु आश्चर्यो गोदोहो गोपालस्य / कर्त्तरीत्येव-साध्विदं शब्दानुशासनमाचार्यस्य नः पुण्येन / कर्मजेत्येव-मैत्रस्य सम्बन्धी कृत इति वाक्ये मैत्रकृतश्चैत्रेण, ओदनोऽन्यो वाऽर्थः प्रकरणादिना निति इत्यर्थः, इति व्यावृत्तिद्वयं 'तृतीयायां' सूत्रे ज्ञातव्यम् / कथं गोदोहो गोपालेन / सम्बन्धषष्ठ्या भविष्यति / 'अत्र शब्दानामनुशासनं शब्दानुशासनमिति षष्ठीसमासः // 84 / / तृप्तार्थपूरणाव्ययाऽतृश्शत्रानशा // 3 // 1285 // तृप्ताथैः पूरणप्रत्ययान्तैरव्ययैरतृशन्तैः शत्रन्तैरानशन्तैश्च नामभिः सह षष्ठ्यन्तं नाम न समस्यते / तृप्तार्थ, फलानां तृप्तः / पूरण, तीर्थकराणां षोडशः चक्रधराणां पञ्चमः ['नो मट्' (7 / 1 / 159)] शान्तिः / अव्यय, राज्ञः साक्षात् / ग्रामस्य पुरस्तात् / चैत्रस्य कृत्वा / अतृश्, रामस्य द्विषन् / रावणस्य द्विषन् / शतृ, चैत्रस्य पचन् / आनश्, चैत्रस्य पचमानः // 85 // ___ अ० तृप्त सुहित पूर्ण आशित घ्रात(ण) इति तृप्तार्थशब्द 5 / फलानां तृप्तः फलानां सुहितः सक्तूनां पूर्णः ओदनस्याशितः पयसो घ्रातः(णः) इति / षष् दशन् / षडुत्तरा दश षोडश 'एकादशषोडश०' (3 / 2 / 91) इति सूत्रेण षषोऽन्तस्य उत्वम् दकारस्य च डकारः, षोडशानां पूरणः 'सङ्ख्यापूरणे डट्' (7 / 1 / 155) / द्वेष्टीति द्विषन् 'सुद्विषार्हः सत्रिशत्रुस्तुत्ये' (5 / 2 / 26) इति अतृश्प्रत्ययः ‘शत्रानशा०' (5 / 2 / 20) इत्यनेन आनश् / एषु सर्वत्र सम्बन्धे षष्ठी // 85 // ... ज्ञानेच्छाऽर्चार्थाऽऽधारक्तेन // 3 // 1 // 86 // ज्ञानार्थात् इच्छार्थात् अर्चार्थाच यो वर्तमाने [वर्तमानकाले] क्तः, यश्च ‘अद्यर्थाच्चाधारे' (5 / 1 / 12) इत्याधारे क्तः, तदन्तेन नाम्ना सह षष्ठ्यन्तं नाम न समस्यते / राज्ञां ज्ञातः, राज्ञामिष्टः राज्ञामर्चितः, इदमेषां यातम्, इदमेषां भुक्तम् / कथं राजपूजितः राजमहित राजसंमतः ? बहुलाधिकारायथाभिधानं भूतकालेऽपि क्तः, क्तान्तेन सह तृतीयासमासश्च सिद्धः // 8 // ___अ० ज्ञानार्थ-इच्छार्थ-अर्चार्थानां यथाक्रममुदाहरणानि / राजा जानाति राज्ञा ज्ञायते इति वाक्ये वर्तमानकाले 'ज्ञानेच्छार्चार्थजीच्छील्यादिभ्यः क्तः' (5 / 2 / 92) इत्यनेन क्तः, एवं राज्ञां बुद्धः / / इच्छार्थः-राजा इच्छति राज्ञा इष्यते राज्ञामिष्टः राज्ञां मतः / अर्चार्थ, राज्ञामर्चितः राज्ञां पूजितः / / आधारे क्तः-इदं एतेषां यातम् / इदं तेषामासितं / इदं तेषां भुक्तम् पीतम् / याय्यते आस्यते भुज्यते पीयते स्म इह इति वाक्यं घटते ‘अद्यर्थाच्चाधारे' (5 / 1 / 12) इति क्तः / / ननु राजपूजित इत्यादौ कथं समासः ? सूरिराह / बहुलाधिकारादित्यादि / अत्रायं भावार्थः-'ज्ञानेच्छार्चार्थ.' इत्यनेन कर्तरि कर्मणि वा भावे वा यथासंभवं क्तो विहितः परं वर्तमानकाले एव क्तो न भूते, अत्र तु बहुलाधिकारात् भूतेऽपि क्तः / राजभिः पूज्यते स्म इति वाक्यम् / यथा त्रिभुवनराजपूजितेभ्य इत्यत्र / / 6 / / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अस्वस्थगुणैः // 3 // 1187 / / ये गुणाः स्वात्मन्येवावतिष्ठन्ते न द्रव्ये ते स्वस्थाः, तत्प्रतिषेधेनास्वस्थगुणवाचिभिर्नामभिः षष्ठ्यन्तं नाम न समस्यते / पटस्य शुक्लः / काकस्य कृष्णः / गुडस्य मधुरः / चन्दनस्य सुरभिः / गुणशब्देन च इहलोकप्रसिद्धा रूपरसगन्धस्पर्शा गुणा अभिप्रेताः, ततस्तद्विशेषैरेवायं प्रतिषेधः / तेन प्रक्रियालाघवं बुद्धिकौशलम् इत्यादिषु समासप्रतिषेधो न भवति / अस्वस्थगुणैरिति किम् ? घटवर्ण कन्यारूपम् / बहुलाधिकारात् कण्टकस्य तैक्ष्ण्यमित्यादिषु न समासः, कुसुमसौरभ्यं मुखसौरमभित्यादिषु समासो भवति // 87 // __ अ० ननु द्रव्याश्रयी गुण इति गुणलक्षणम् ततः कथमिदं / सत्यम् / अभिधाव्यापारापेक्षया गुणानां स्वस्थत्वम् / पटस्य शुक्ल इत्यादौ अर्थात् प्रकरणाद्वाऽपेक्ष्यस्य॑ वर्णादेर्निर्ज्ञाने ये इमे शुक्लादयो गुणास्ते पटादेः पटादिसम्बन्धिनः इति सामोपपत्तेः षष्ठीसमासः प्राप्नोति / पटस्य शुक्ल इति / तथा पटस्य शौक्लयम्, काकस्य कार्णम्, गुडस्य माधुर्यमेतेष्वपि उदाहरणेषु शुक्लादेर्गुणस्य शुक्लः पट इत्यादौ द्रव्येऽपि वृत्तिदर्शनात् अस्वास्थ्यमस्त्येव इति षष्ठीसमासः प्रतिषिध्यते / तद्विशेषैरेवेति कोऽर्थः ? शुक्लकृष्णाद्यैः मधुरतिक्ताद्यैः सुरभ्यसुरभिभिः शीतोष्णांद्यैर्गुणैरेव प्रतिषेधः, नान्यैः कौशल्यादिगुणैः षष्ठीसमासप्रतिषेधः / प्रक्रियाया लाघवं इति वाक्यम् / प्रक्रियालाघवम् / बुद्धेः कौशलं बुद्धिकौशलम् / आदिशब्दात् यत्नगौरवम् मतिवैगुण्यम् करणपाटवम् अङ्गसौष्ठवम् पुरुषसामर्थ्यम् हस्तचापलम् वचनमार्दवम् / वचनप्रामाण्यम् उत्तरपदार्थप्राधान्यम् क्रियासातत्यम् वर्तमानसामीप्यम् सत्सामीप्यम् (अधिकरणैतावत्यम्) प्रयोगान्यत्वम् पटहशब्दः नदीघोषः शब्दाधिक्यम् वाङ्माधुर्यम् गोविंशतिः गोत्रिंशत् गोशतम् गोसहस्रम् समाहारैकत्वमित्यादयः / नु कण्टकस्य तैक्ष्ण्यमत्र तैक्ष्ण्यं स्पर्शनेन चक्षुषापि च गृह्यते ततो द्वीन्द्रियग्राह्यत्वात् गुणत्वं नास्ति इति समासनिषेधो न प्राप्नोति / किन्तु समासः कण्टकतैक्ष्ण्यमिति (च) प्रयोगः / सत्यम् / इतिहेतोबहुलाधिकारात् सूरिणोक्तम् / / 87 / / सप्तमी शौण्डायैः // 3 / 1 / 88 // सप्तम्यन्तं नाम शौण्डादिनामभिः सह समस्यते। तत्पुरुषसमासो भवति / पानशौण्डः। अक्षशौण्डः // 8 // अ० शौण्डो मद्यपः / पाने प्रसक्तः शौण्डः पानशौण्डः एवं अक्षेष प्रसक्तः शौण्ड इव अक्षशौण्डः / शौण्डशब्दोऽत्र गौणो व्यसनिनि वर्त्तते / वृत्तौ प्रसक्तिक्रियाया अन्तर्भावादप्रयोगः / शौण्ड धूत कितव व्याल सव्य आयस व्यान सवीण अंतर अधीन पटु पण्डित कुशल चपल निपुण सिद्ध शुष्क पक्क बन्ध इति शौण्डादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन शिरःशेखरः हस्तकण्टकः आपातरमणीयः अवसानविरसः, पृथिवीविहितः पृथिवीप्रणतः अन्तेगुरुः मध्येगुरुः गलेचोपकः त्वचिसारः, ऋणेऽधमः अधमर्णः, ऋणे उत्तमः उत्तमर्णः इत्यादयः सिद्धाः / / 88 // सिंहाथैः पूजायाम् // 3 // 189 // सप्तम्यन्तं नाम सिंहायैः सह समस्यते पूजायां गम्यमानायाम् तत्पुरुषः / समरे सिंह इव समरसिंहः, एवं रणव्याघ्रः भूमिवासवः कलियुधिष्ठिरः / उपमयाऽत्र पूजा गम्यते / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 89 // काकाद्यैः क्षेपेः // 3 // 19 // ___ सप्तम्यन्तं नाम काकादिनामभिः सह समस्यते क्षेपे निन्दायाम् तत्पुरुषः / तीर्थे काक इव [वाक्यं] तीर्थकाकः / अनवस्थित एवमुच्यते उपमया चात्र क्षेपो गम्यते / क्षेप इति किम् ? तीर्थे काकस्तिष्ठति / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 90 // अ० तीर्थकाकः तीर्थध्वाङ्क्षः तीर्थवायसः तीर्थबकः तीर्थश्वा तीर्थसारमेयः तीर्थकुक्कुटः तीर्थशृगालः / यथा काकादिस्तीर्थफलमजानन् तीर्थे चिरस्थायी न भवति एवं यः पुमान् कार्याणि आरभ्य कार्यनिर्वाहं न करोति स तीर्थाधारेण काकादिना उपमीयमानः क्षिप्यते निन्द्यते इति क्षेपस्य गम्यमानता इत्याह अनवस्थितेत्यादि / / 90 / / पात्रेसमितेत्यादयः // 3 // 19 // पात्रेसमितादिशब्दाः सप्तमीतत्पुरुषे निपात्यन्ते क्षेपे निन्दायाम् / पात्रे एव समिताः पात्रेसमिताः / पात्रेबहुलाः गेहेशूरः गेहेनर्दी इत्यादिष्ववधारणेन क्षेपो गम्यते / कूपमण्डूकः कूपकच्छपः अवटमण्डूकः अवटकच्छपः; अल्पदृश्वैवमुच्यते / नगरकाकः नगरवायसः नगरश्वा एतैः सदृशो धृष्ट उच्यते / गेहेमेही पिण्डीशूरः य आवश्यकार्थमपि बहिर्न निर्गच्छति भोजन एव संरभते स एवमुच्यते / [एवशब्देन निरुत्साहता गम्यते तया क्षेपो निन्दा] / पितरि शूरः मातरि पुरुषः यः सदाचारं भिनत्ति स एवमुच्यते / [अत्र प्रतिषिद्धाचरणेन क्षेपो गम्यते] / इति शब्दः समासान्तरनिवृत्त्यर्थः, तेन परमाः पात्रेसमिताः [वाक्यं], पात्रेसमितानां पुत्रः इत्यादिषु न समासः / आकृतिगणोऽयम् / तेन व्रणकृमिः गृहसर्पः गृहकलविङ्कः इत्यादिषु समासः // 91 // . अ० पात्रे एव बहुलाः पात्रेबहुलाः / गेहे एव शूरः / गेहेनर्दी / आदिशब्दात् गेहेनर्ती गेहेदाही गेहेक्ष्वेडी गेहेविजिती गेहेविचिति गेहेन्यालः गेहेपटुः गेहेपण्डितः गेहेप्रगल्भः एवं गोष्ठेशूरः गोष्ठेनर्दी गोष्ठेक्ष्वेडी गोष्ठेविजिती गोष्ठेव्यालः गोष्ठेपटुः गोष्ठेपण्डितः गोष्ठेप्रगल्भः एषु सर्वत्र वाक्ये एवकारः प्रयुज्यते / एवकारोऽवधारणे, तेन एवकारेण अवधारणार्थेन क्षेपो निन्दा गम्यते / प्रायेण पात्रेसमितादयोऽलुप्समासाः, निपातनात् सर्वत्र सप्तम्या अलुप् / कूपे मण्डूक इव कूपमण्डूकः, कूपे कच्छप इव कूपकच्छपः, गेहमेव विजितमनेन, गेहमेव विचितं गवेषितमनेन 'इष्टादेः' (7 / 1 / 168) इन् ‘व्याप्ये क्तेनः' (2 / 2 / 99) इत्यनेन सप्तमी / एवमन्यसर्वोदाहरणे, कापि एवशब्देन क्वापि उपमया क्षेपो निन्दा गम्यते / / 91 // क्तेन // 3 // 192 // -सप्तम्यन्तं नाम क्तान्तेन सह समस्यते क्षेपे तत्पुरुषः / भस्मनि हुतम्, प्रवाहे मूत्रितम् उदके विशीर्णम्, निष्फलं [कार्य] कृतं एवमुच्यते / अवतप्ते नकुलस्थितम् / कार्येऽनवस्थितत्वमुच्यते / सर्वत्रोपमानेन क्षेपो गम्यते // 12 // - अ० पात्रेसमितादयः भस्मनिहुतमित्यादयश्च नित्यसमासा एते ज्ञातव्याः / कार्यमारभ्य मुञ्चति अस्थिरत्वमित्यर्थः // 92 // तत्राहोरात्रांशम् // 3 // 1193 // पृथग्योगात्क्षेप इंति निवृत्तम् / तत्रेति सप्तम्यन्तं नाम अहरवयवा [दिनावयवाः] रात्र्यवयवाश्च सप्तम्यन्ताः तान्तेन समस्यन्ते / तत्पुरुषः / तत्रकृतम् / [तत्र भुङ्क्ते] तत्रभुक्तम् / [पूर्वाह्ने कृतम्] पूर्वाह्नकृतम् / [अपराह्ने कृतम्] अपराहकृतम् / पूर्वरात्रकृतम् / अपररात्रकृतम् / तत्राहोरात्रांशमिति किम् ? घटे कृतम् / कथं अन्यजन्मकृत्तं कर्मेति ? 'कारकं कृता' (3 / 1 / 68) इति तृतीयासमासः / अहोरात्रग्रहणं किम् ? शुक्लपक्षे कृतम् / पक्षो मासांशः। अंशग्रहणं किम् ? अहनि भुक्तम् / कथं रात्रिवृत्तम् सन्ध्यागर्जितमिति ? बहुलाधिकारात् // 93 // Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते ____ अ० अहश्च रात्रिश्चाहोरात्रम् / 'ऋक्साम→जुष०' (7 / 3 / 97) इत्यादिनाऽत् / अहोरात्रेः अंशाः अहोरात्रंशाः / ततश्च अहश्च रात्रांशाश्च इति द्वन्द्वः / पूर्वाह्नकृतमित्यादि पूर्व अहन् अपर अहन् पूर्वमहः पूर्वाह्नश्च परमह्नः अहः पूर्वम् पूर्वं च तत् अहश्चेति वा अहो अपरं अपरं च तत् अहश्चेति वा सर्वत्र ‘सङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 124) इति सूत्रेण अट्समासान्तः अहन्शब्दस्य अह्न इत्यादेशश्च ‘अतोऽह्रस्य' (2 / 3 / 73) इति सूत्रेण अह्र इत्यस्य नकारस्य णकारः पूर्वाह्न इति सिद्धम् अपराह्न इति च / पूर्वरात्रि अपररात्रि / पूर्व रात्रेः पूर्वरात्रम्, अपरं रात्रेः 'सङ्ख्यातैकपुण्यवर्षादीर्घाच्च रात्रेरत्' (7 / 3 / 119) इति सूत्रेण अत्समासान्तः, 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68), पूर्वरात्र अपररात्रं इति सिद्धम् / पूर्वरात्रेकृतम् अपररात्रेकृतम्, अन्यजन्मना कृतम् अथवा अन्यजन्मना क्रियतेस्म इति वाक्यम् // 93 // नाम्नि // 3 // 194 // सप्तम्यन्तं नाम नाम्ना सह नाम्नि संज्ञाविषये समस्यते / तत्पुरुषः / अरण्येतिलकाः / अरण्येमाषकाः। बनेकसेरुकाः / पेपिशाचिकाः // 94 // अ० तिलः प्रकार एषां तिलकाः / माषः प्रकार एषां माषकाः / 'कोऽण्वादेः' (7 / 2 / 76) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / अरण्येतिलका इत्यादिषु सप्तम्या अलुप् / नित्यसमासा एते / कसेरुको वृक्षविशेषः / पिशाचिका भट्टारिका / / 94 // - कृयेनावश्यके // 3 // 1195 // सप्तम्यन्तं नाम कृत् य प्रत्ययान्तेन सह समस्यते आवश्यके [कोऽर्थः] अवश्यं भावे गम्यमाने तत्पुरुषः। मासेऽवश्यं देयम् [वाक्यम् ] मासदेयम् / एवं पूर्वाह्नगेयम् प्रातरध्येयम् / कृदिति किम् ? मासे पित्र्यम् / य इति किम् ? मासे पाच्यम् / मासे दातव्या [भिक्षा] // 9 // ___ अ० ‘य एच्चात' (5 / 1 / 28) इति सूत्रविहितकृद्ये प्रत्यये / पच्यते पाच्यम् / 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् घ्यण्' (5 / 1 / 17) / कृत्यप्रत्ययपञ्चकं य तव्य अनीय घ्यण् क्यप् / 'य एच्चातः' इति विहितयप्रत्ययेन सह 'कृद्येनावश्यके' इत्यनेन सप्तमीतत्पुरुषः उक्तः / तत्कथं संवत्सरकर्त्तव्यम् इत्यत्र समासः ? सत्यम् / बहुलाधिकारात् / / 95 / / विशेषणं विशेष्येणैकार्थं कर्मधारयश्च // 3 // 196 // भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिरैकाय समानाधिकरण्यमिति यावत् / तद्वदेकार्थम् / विशेषणवाचि नाम एकार्थं विशेष्यवाचिना नाम्ना सह समस्यते / स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्व भवति / नीलोत्पलम् / पुङ्गवः / गुणादिशब्दानां तूभयोरपि पदयोप्रधानत्वात्कामचारेण [यथेच्छया] पूर्वापरनिपातः कर्मधारयसमासश्च भवति / खञ्जकुण्टः कुण्टखञ्जः / शुक्लकृष्णः कृष्णशुक्ल इत्यादि / एकार्थमिति किम् ? वृद्धस्योक्षा वृद्धोक्षा / अत्र कर्मधारये तु समासान्तः स्यात् / बहुलाधिकारात् कचिन समासः / रामो जामदग्न्यः। दीर्घश्चारायणः / व्यासो पाराशर्यः / कचिनित्यसमासः कृष्णसर्पः इत्यादि। चकारस्तत्पुरुषकर्मधारयसंज्ञासमावेशार्थः / कर्मधारयप्रदेशाः 'कडारादयः कर्मधारये' (3 / 1 / 158) इत्यादयः // 96 // अ० विशिष्यतेऽनेन अनेकप्रकारं वस्तु प्रकारान्तरेभ्यो व्यवच्छिद्यतेऽनेन इति विशेषणं व्यवच्छेदकम् / विशेष्यं व्यवच्छेद्यम् / एकः साधारणोऽर्थो द्रव्यलक्षणस्तदतदात्मको यस्य तत् एकार्थम् / तद् एकार्थं सामानाधिकरण्यं यस्यास्ति / मत्वर्थे मतुः / ततो मस्य वः / सूत्रे एकार्थं यदुक्तम् तद्व्याख्यानं तद्वदेकार्थमिति ज्ञेयम् / नीलं च तत् Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 241 उत्पलं च नीलोत्पलम् / पुमांश्चासौ गौश्च पुङ्गवः 'गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इति सूत्रेण अट्समासान्तः / खञ्जः पङ्गुलः / कुण्टो हस्तहीनः / खञ्जश्चासौ कुण्टश्च कुण्टश्वासौ खञ्जश्च / एवं शुक्लश्चासौ कृष्णश्च / आदिशब्दात् पूर्वा चासावुत्तरा च पूर्वोत्तरा उत्तरपूर्वा / रविचारवशाद्दिश उच्यतेऽतोऽत्रापि गुणप्रवृत्तिनिमित्तम्, दक्षिणपूर्वा पूर्वदक्षिणा विदिक् / पाचकपाठकः पाठकपाचकः / कृष्णसर्पः आदिशब्दात् लोहितशालिः गौरखरः लोहिताहिः नरसिंहः पुरुषमृगः करिमकरः नकुलसर्पः कर्कुटसर्पः जातिविशेषवाचित्वान्नित्यसमासा एते // 96 / / पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलम् // 3 / 1197 // पूर्वकाल इत्यर्थनिर्देशः / पूर्वकालवाचि नाम एकादीनि नामानि चैकार्थानि परेण नाम्ना समस्यन्ते / तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / 'पूर्वकालः सम्बन्धिशब्दत्वादपरकालेन / पूर्व स्नातः पश्चादनुलिप्तः [वाक्यम्] स्नातानुलिप्तः / एवं लिप्तवासितः / कृष्टमतीकृता भूमिः / एका शाटी [वाक्यं] एकशाटी / एकर्षयः [एकोऽन्यार्थः] / एकचौरः / एकधनुर्धरः [एकोऽद्वितीयार्थः] / सर्वशैलाः सर्वरात्रः सर्वान्नम् सर्वशुक्लः जरद्वः पुराणवैयाकरणः नवोदकम् केवलज्ञानम् / एकार्थमित्येव-स्नात्वानुलिप्तः // 97 // अ० पूर्वः कालो यस्यार्थस्य स पूर्वकालः / पूर्वकालश्च एकश्च सर्वश्च जरच्च पुराणश्च नवश्च केवलश्चेति द्वन्द्वः / पूर्वकालशब्दोऽपरकालेन कोऽर्थः ? पश्चात्कालेन सह सम्बन्धमपेक्षते इत्यर्थः / पूर्वं लिप्तः पश्चाद्वासितः लिप्तवासितः / तथा मतं लोष्टमर्दनकाष्ठमस्यास्तीति मता ‘अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति सूत्रेण अप्रत्ययः / अमता मता कृता मतीकृता 'कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां०' (7 / 2 / 126) इत्यादिना च्विः / ततः पूर्वं कृष्टा पश्चान्मतीकृता कृष्टमतीकृता भूमिः / एवं छिन्नप्ररूढो वृक्षः / एकशब्दः सङ्ख्या-अन्य-असहाय-अद्वितीयेषु वर्त्तते / एषां यथाक्रमं उदाहरणानि एकशाटी शाटशब्देन सहानभिधानान समासः / एकः शाटः / सर्वशब्दो द्रव्य-अवयव-प्रकार-गुणानां कात्स्न्र्ये वर्त्तते / यथाक्रममुदाहरणानि सर्वशैला इति / केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम् / स्नात्वा इति असत्त्ववाचिनः शब्दस्य अनुलिप्तपदेन सहानैकार्थ्यम् / 'विशेषणं विशेष्ये' (3 / 1 / 96) इति पूर्वेणैव सिद्धे पूर्वकालैक इति पुनर्वचनं 'स्पर्द्ध' (7 / 4 / 119) परमिति 'पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थं तथा पूर्वापरकालवाचिनोरद्रव्यशब्दत्वात् अनियमे प्राप्ते पूर्वकालवाचिन एव शब्दस्य पूर्वनिपातार्थं च कृतमित्यर्थः / इयमवचूरिः २पूर्वकालेति प्रान्ते ज्ञेया / 'पूर्वनिपातस्य विषयेत्याद्यक्षराणामयं भावार्थः- 'पूर्वकालैके'ति सूत्रे ये शब्दा निहिताः सन्ति तेषां मिथः समासे सति सूत्रमध्ये यः शब्दोऽग्रे निहितोऽस्ति तस्य पूर्वं निपातो भवति / यश्च पूर्वं निर्दिष्टः स परतो भवति / स्पर्द्ध परं इति न्यायात् यथा केवलजरत् केवलपुराणमित्यादिषु / / 97|| दिगधिकं सज्ञातद्धितोत्तरपदे // 3 // 198 // दिग्वाचिनाम अधिकमिति नाम च एकार्थ परेण नाम्ना सह समस्यते, सञ्ज्ञायां तद्धितप्रत्ययविषयभूते उत्तरपदे च परतः / स च समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / दक्षिणकोशलाः उत्तरकोशलाः दक्षिणपश्चालाः एवंनामानो देशाः / पूर्वेषुकामशमी / अपरेषुकामशमी एवंनामानो ग्रामाः / तद्धिते, दाक्षिणशालः औत्तरशालः / अधिकं, अधिकषाष्टिकः / अयमपि नित्यसमासः / नहि तद्धिते वाक्यमस्ति, तद्धितो हि नाम्न उत्पद्यते न तु समासारम्भकाद्वाक्यात् / उत्तरपदे दक्षिणगवधनः उत्तरगवधनः / संज्ञादिग्रहणं किम् ? उत्तरा वृक्षाः // 98 // _ अ०.दक्षिणाः कोशला दक्षिणकोशलाः / उत्तराः कोशला उत्तरकोशलाः / एवं दक्षिणपश्चालाः उत्तरपञ्चाला Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते दक्षिणकोशला इत्यादि / पूर्वेषुकामशमीत्यादिषु संज्ञायां नित्यसमासः / न हि वाक्ये संज्ञा गम्यते / पूर्वोत्तरविभागप्रदर्शनार्थं तु विग्रहवाक्यम् / पूर्वा इषु कामशमी / अपरा इषु कामशमी / दक्षिणस्यां शालायां भवो दाक्षिणशालः / उत्तरस्यां शालायां भव औत्तरशालः / 'दिक्पूर्वादनाम्नः' (6 / 3 / 23) इति सूत्रेण णप्रत्ययः / अधिकया षष्ठ्या क्रीत इति वाक्ये 'मूल्यैः क्रीते' (6 / 4 / 150) इति सूत्रेण इकण् / अथवा अधिकां षष्टिं भूतो भावी वा इति वाक्ये 'तं भाविभूते' (6 / 4 / 106) इति सूत्रेण इकण् / 'मानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्यानाम्नि' (7 / 4 / 19) इति सूत्रेण उत्तरपदवृद्धिः / एवं अधिकसाप्ततिकः / उत्तरपदेऽपि नित्यः समासः / त्रयाणामेका भाव एवोत्तरपदसम्भवात् / दक्षिणो गौर्धनमस्य दक्षिणगवधनः / उत्तरो गौर्धनमस्य ‘गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इति अट्समासान्तः // 98 // सङ्ख्या समाहारे च द्विगुश्वानाम्न्ययम् // 3 // 1199 // अनेकस्य कथञ्चिदेकत्वं समाहारः / सङ्ख्यावाचि नाम परेण नाम्ना सह समस्यते / तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / संज्ञायां तद्धिते विषयभूते उत्तरपदे परे समाहारे चाभिधेये / अयमेव च तत्पुरुषोऽनाम्नि असंज्ञायां द्विगुसंज्ञश्च स्यात् / संज्ञायाम्-पञ्चाम्राः सप्तर्षयः दशार्हाः / तद्धिते, द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरः / पञ्चकपाल ओदनः, पञ्चजनीनः, अध्यर्द्धकंसः, अध्यर्द्धशूर्पः / उत्तरपदे, पञ्चगवधनः पञ्चनावप्रियः / द्वे अहनी जातस्य व्यह्रजातः / समाहारे, पञ्चपूली दशपूली पञ्चराजी / एवं पञ्चकुमारि / समाहारे चेति किम् ? अष्टौ प्रवचनमातरः / अनाम्नीति किम् ? पश्चर्षीणामिदं ['तस्येदम्' (6 / 3 / 160) अण्] पाश्चर्षम् / एवं दाशार्हम् / द्विगुप्रदेशा 'द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) इत्यादयः // 19 // ___ अ० द्विगुश्चेत्यत्र चकारस्तत्पुरुषकर्मधारयसंज्ञासमावेशार्थः / सूत्रे अयंग्रहणमुत्तरसूत्रेषु द्विगुश्च इत्यस्य अननुवृत्त्यर्थम् / पञ्च च ते आम्राश्च पञ्चाम्राः / सप्त च ते ऋषयश्च सप्तर्षयः / दश च तेऽश्चि दशार्हाः / समुदायेषु हि वृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्त्तन्ते इति बहुसङ्ख्याकाम्रादिवाचकोऽपि पञ्चाम्रादिशब्द एकस्मिन्नपि आम्रादौ प्रयुज्यते तेन फलित एकः पञ्चाम्रः, पुष्पितौ द्वौ पञ्चाम्रौ, उदितात्रयः सप्तर्षयः, दृष्टाश्चत्वारः सप्तर्षयः, अतिसुभग एको दशार्हः इत्यादयो प्रयोगाः सिद्धाः / द्वयोर्मात्रोरपत्यमिति वाक्ये 'संख्यासम्भद्रात् मातुर्मातुर् च' (6 / 1 / 66) इति सूत्रेण अण्प्रत्ययः, मातृशब्दस्य मातुर् इत्यादेशः द्वैमातुरः। पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पश्चकपालः 'संस्कृते' (6 / 4 / 3) इति सूत्रेण इकण् / 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः' (6 / 1 / 24) इति सूत्रेण इकण् लुप्यते / पञ्चभ्यो जनेभ्यो हितं पञ्चजनीनः / पञ्च च ते जनाश्च पञ्चजनाः। ततः पञ्चजनेभ्यो हितः ‘पञ्चसर्वविश्वाज्जनात्कर्मधारये' (7 / 1 / 41) इति सूत्रेण ईनप्रत्ययः / अध्यर्द्धन कंसेन क्रीतः अध्यर्द्धन शूर्पण क्रीतः 'कंसार्धात्' (6 / 4 / 135) इति सूत्रेण इकट्प्रत्ययः / अन्यत्र ‘शूर्पाद्वाञ्' (6 / 4 / 137) इति सूत्रेण अप्रत्ययः ‘अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (6 / 4 / 141) इति सूत्रेण इकट् अञ् लुप्यते / पञ्च गावो धनमस्य 'गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) अट् समासान्तः / पञ्च नावः प्रिया यस्या 'नावः' (7 / 3 / 104) इति सूत्रेण अट्समासान्तः / तथा पञ्च च ते गावश्च इत्यपि कृते समासान्त अत्प्रत्ययविषये समासो भवत्येव इति पञ्चगव इत्यादयोऽपि प्रयोगाः / द्वे अहनी जातस्येति वाक्ये 'सर्वांशसंख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इति सूत्रेण अट्समासान्तः / अहन्शब्दस्य अह्न इत्यादेशश्च / पञ्चानां पूलानां समाहारः दशानां पूलानां समाहारः / पञ्चानां राज्ञाँ समाहारः पञ्चराजी / एवं दशराजी / 'राजन्सखेः' (7 / 3 / 106) इति सूत्रेण अट्समासान्तः / एषु सर्वत्र 'द्विगोः समाहारात्' (2 / 4 / 22) इति ङीः / पञ्चानां कुमारीणां समाहारः पञ्चकुमारि 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति सूत्रेण ह्रस्वः / एवं दशकुमारि / पाञ्चर्षं इत्यत्र द्विगुत्वेऽनपत्यप्रत्ययस्य लुप् स्यात् // 19 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ... निन्धं कुत्सनैरपापाद्यैः // 3 // 11100 // निन्धवाचि नामैकार्थ पापादिवर्जितैः कुत्सनैर्निन्दाहेतुभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः कर्मधारयश्च वैयाकरणश्चासौं खसूची च [वाक्यं] वैयाकरणखसूची / यः शब्दं पृष्टः सन्निष्प्रतिभत्वात् खं सूचयति स एवमुच्यते। याज्ञिककितवः मीमांसकदुर्दुरूढः [नास्तिकः] मुनिखेटः' ब्राह्मणचेलः ब्राह्मणब्रुवः मुनिधूतः कविचौरः पाखण्डिचाण्डालः / निन्यमिति किम् ? वैयाकरणश्चौरः / कुत्सनैरिति किम् ? कुत्सितो ब्राह्मणः / अपापावैरिति किम् ? पापवैयाकरणः इत्यादि / बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् // 10 // अ० अयाज्यानां यज्ञविधापनेऽनुचितानां शूद्रादीनां याज्यालोभात् यज्ञकारापणे य उत्साहयति स याज्ञिककितवः / अधमः / 'क्षत्रियभीरुः भिक्षुविटः राक्षसहतकः ब्राह्मणजाल्मः / ग्राम्यधृष्टः आरक्षितस्करः इति (च) प्रयोगाः / मुनिखेटोमधममुनिः / ब्राह्मणचेलो निन्द्यब्राह्मणः / एवं सर्वत्राधमता ज्ञातव्या मुन्यादीनाम् / / वैयाकरणश्चौरः / अत्रायं विशेषः / कुत्सितशब्दनैकट्यात् निन्द्यशब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायां सत्यामयं समास इष्यते, न चात्र चौर्येण वैयाकरणत्वं कुत्स्यते किं तर्हि ? तदाश्रयो द्रव्यं कुत्स्यते वैयाकरणत्वं तु तदुपलक्षणमात्रम् तेनात्र विशेषणसमास एव भवति / चौरवैयाकरणः खलवैयाकरणः / कुत्सितो ब्राह्मणः नहि ब्राह्मणः कुत्सनवाची किन्तु कुकर्मणा कुत्स्य एव / अत्र बहुलाधिकाराद्विशेषणसमासोऽपि न भवति कुत्सितो ब्राह्मण इति / एवं पापवैयाकरणः / आदिशब्दात् अणकवैयाकरणः / पापकुलालः अणकनापितः हतविधिः / एषु प्रवृत्तिनिमित्तमेव कुत्स्यते / कारणभूतव्याकरणशब्दस्य कुत्सितशब्दनैकट्यात् (प्रत्यासत्तेः) निन्द्यशब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायामयं 'निन्धं कुत्सनैरपापाद्यैरि'ति समास इष्यते / दग्धदैवम् दुष्टामात्यः क्षुद्रतापसः इति / बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् / विशेष्यशब्दानां पूर्वनिपातार्थं 'निन्द्यं कुत्सनैस्पापाद्यैः' इति सूत्रं कृतम् // 100 // उपमानं सामान्यैः // 3 // 1 // 10 // उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मः सामान्यम् / उपमानवाचिनामैकार्थं सामान्यवाचिनामभिः सह समस्यते / तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / शस्त्रीय शस्त्री, शस्त्री चासौ श्यामा च शस्त्रीश्यामा 'मृगीव मृगी मृगी चासौ चपला च मृगचपला इत्यादि / अत्र शस्त्र्यादयः श्यामादयश्च शब्दाः श्यामादिकं गुणमुपादाय यदा उपमेये वर्त्तन्ते तदा एकार्था भवन्ति / एवं च पुंवद्भावोऽपि सिद्धो भवति / उपमानमिति किम् ? देवदत्ता श्यामा / सामान्यैरिति किम् ? अग्निर्माणवकः / गौर्वाहीकः // 10 // अ० उपमीयतेऽनेनेति उपमानं चन्द्रादिकम्, आदिशब्दात् न्यग्रोधश्चासौ परिमण्डला च इति न्यग्रोधपरिमण्डला शरकाण्डगौरी शुकहरिणी कुमुदश्येनी तडित् पिशङ्गी / कुम्भकपाललोहिनी हंसगद्गदा काकवन्ध्या इति / अग्निर्माणवकः गौर्वाहीकः / फालास्तन्दुला दीर्घत्वात् विशदत्वाद्वा फाला इव तन्दुला उच्यन्ते / सिद्धे इत्यध्याहार्यम् / पर्वता बलाहकाः / एषु 'विशेषणं विशेष्येणैकार्थं०' (3 / 1 / 96) अनेनैव समास उपमानोपमेययोः साधारणधर्मप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्यैव पूर्वनिपाते च सिद्धे 'उपमानं सामान्यैरे'वेति नियमार्थमिदं वचनम् / तेन अग्निर्माणवक इत्यादौ विशेषणसमासोऽपि न भवति / अग्निमाणवकः गोवाहीक इति प्रयोगा न भवन्त्येव इति परमार्थः // 101 / / उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ // 3 / 1 / 102 // 1. अत्र शस्त्रीव शस्त्री, मृगीव मृगीति प्रदर्शनमुपमेये वृत्तिप्रदर्शनार्थम्, तत एव विशेषणविशेष्ययोः सामानाधिकरण्यं मृगीत्यस्य पुंवद्भावश्च सम्भवतीति दर्शयति / 2. एवश्चेत्यनन्तरं सिद्ध इत्यध्याहार्यम, एवञ्चैकार्थे सिद्धे सति पुंवद्भावोऽपि सिद्धो भवतीत्यर्थः / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते उपमेयवाचि नामैकार्थ सामर्थ्यादुपमानवाचिभिर्व्याघ्राद्यैः सह समस्यते, उपमानोपमेययोः साधारणधर्मवाची शब्दश्वेन प्रयुज्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / व्याघ्र इव ब्याघ्रः पुरुषः पुरुषश्चासौ व्याघ्रश्च पुरुषव्याघ्रः, एवं पुरुषसिंह इत्यादि / साम्यानुक्ताविति किम् ? पुरुषव्याघ्रः शूर इति मा भूत् / उपमानं सामान्यैरेवेत्यवधारणेन विशेषणसमासे प्रतिषिद्धे समासविधानार्थ वचनम् // 102 // अ० साम्यस्य अनुक्तिः-अकथनं तस्यां साम्यानुक्तौ इत्यस्य शब्दस्य उपमानोपमेय इति व्याख्यानं ज्ञातव्यम्, आदिशब्दात् पुरुषवृषभः वृषभसिंहः / राज्ञी चासौ व्याघ्री च राजव्याघ्री / शुनी चासौ सिंही च श्वसिंही कर्मधारयात्पुंवद्भावः / व्याघ्र सिंह ऋषभ वृषभ महिष चन्दन वृक वराह हस्तिन् कुञ्जर रुरु पृषत पुण्डरीक कुञ्चा क्रुश्चा इति व्याघ्रादिगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन वाग्वज्रः, मुखपद्म, पाणिपल्लवम्, करकिशलयः, वदनेन्दुः, पार्थिवचन्द्रः, वानरश्वा, कुचकुम्भस्तनकलशादयोऽपि भवन्ति / 'व्याघ्रपुरुष इति शब्दरचनया समासनिषेधः / पूर्वपदवर्तमानविशेष्यशब्दस्य उत्तरपदविशेषणेन सह समासो यथा स्यादित्येवमर्थम्, 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः' इति सूत्रं कृतमिति परमार्थः // 102 // पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरम् // 3 / 1 / 103 // पूर्वादिनामान्येकार्थानि परेण नाम्ना समस्यन्ते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / पूर्वपुरुषः, अपरपुरुषः प्रथमपुरुषः चरमपुरुष इत्यादि / 'विशेषणं विशेष्येण.' (3 / 1196) इत्यादिनैव सिद्धे 'स्पर्द्ध' (7 / 4 / 119) इति पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थ पूर्वापरयोरद्रव्यवाचिनोरनियमेन पूर्वापरभावप्रसक्तौ पूर्वनिपातनियमार्थं च वचनम्। तेन पूर्वजरत् वीरपूर्वः पूर्वपटुः / कथं एकवीर इत्यादौ वीरादेः परस्य 'स्पः' पूर्वनिपातो न भवति ? बहुलाधिकारात् // 103 // ___ अ० पूर्वश्चासौ पुरुषश्च / एवं अपरश्वासौ पुरुषश्च / जघन्यपुरुषः समानपुरुषः मध्यपुरुषः मध्यमपुरुषः वीरपुरुषः / पूर्वशब्दो दिग्योगेन कालयोगेन वा द्रव्यं विशिनष्टि, पटुशब्दश्च पटुत्वेन / 'कथं न स्यात् इति पृच्छा, सूरिराह बहुलाधिकारात् / / 103 / / श्रेण्यादि कृताद्यैळ्यर्थे // 3 // 11104 // श्रेण्यादि नाम एकार्थ कृतायैर्नामभिः सह समस्यते, व्यर्थे गम्यमाने, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / अश्रेयणः श्रेयणः कृताः श्रेणिकृताः पुरुषा इत्यादि / व्यर्थ इति किम् ? श्रेणयः कृताः केचित् निगृहीता अनुगृहीता वेत्यर्थः / श्रेणिकृता इत्यादौ सूत्रोदाहरणेषु क्रियाकारकसम्बन्धमात्रं न विशेषणविशेष्यभाव इति वचनम् // 10 // ___ अ० आदिशब्दात्-ऊककृताः श्रेणिमताः / श्रेणि ऊक पूग कुन्दुम कन्दुम राशि निचय विशिष्ट निर्धन कृपण इन्द्र देव मुण्ड भूत श्रमण वदान्य अध्ययक अध्यापक ब्राह्मण क्षत्रिय पटु पण्डित कुशल चपल निपुण इति श्रेण्यादिगणः / कृत मत मित भूत उप्त उक्त समाज्ञात समाख्यात समाम्नात सम्भावित अवधारित अवकल्पित निराकृत उपकृत अपाकृत अपकृत कलित उदाहृत उदीरित उदित दृष्ट विश्रुत विहित निरूपित आसीन आस्थित अवबद्ध 1. यदा शूर इति साम्यमुच्यते तदा पुरुषव्याघ्र इति समासो न भवति, मूले पुरुषव्याघ्रः शूर इति समासकल्पनैव केवलं कृतेति बोध्यम् / 2. नन्वेकश्चासौ वीरश्चेति विग्रहे 'पूर्वकालैकेति' सूत्रं 'स्पर्धे' इति न्यायाद्बाधित्वाऽनेन समासे परस्य वीरशब्दस्य पूर्वनिपातप्रसङ्गेन रिक इति कथं न स्यादिति प्रश्न इति तदर्थः / Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः इति कृतादिगणः / 'राशिस्थानीकृता इत्यर्थः / च्व्यन्तानां च्व्यर्थस्य च्चिनैवोक्तत्वात् ‘श्रेण्यादिकृता' 0 इत्यनेन न समासः यथा श्रेणीकृता इत्यादि / अत्र तु 'गतिकन्यस्तत्पुरुषः (3 / 142) इत्यनेन नित्यसमासः / 'श्रेण्यादि कृताथै' रिति सूत्रेण तत्र समासः क्रियते यत्र च्व्यर्थोऽवाच्यो गम्यमानो भवति यथा श्रेणिकृता इत्यादिषु / / 104 / / ____क्तं नत्रादिभिन्नैः // 3 / 1 / 105 // क्तं-क्तान्तं नाम सामर्थ्याद् नञ् [आदयः] नप्रकारास्तैरेव भिन्नैर्नामभिः सह समस्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / कृतं च तदकृतं च कृताकृतम् / भुक्तं च तदभुक्तं च भुक्ताभुक्तम् / क्लिष्टाक्लिशितम् पूतापवितम् / आदिग्रहणात् कृतापकृतम्, भुक्तविभुक्तम्, पीतावपीतम् / क्तमिति किम् ? कर्त्तव्यमकर्त्तव्यं च / नत्रादिभिन्नैरिति किम् ? कृतं प्रकृतम् / कृताकृतादिषु ईषदसमाप्तियोतकस्य नञः प्रयोगात्त'दादयोऽपीषदसमाप्तियोतिन एवापादयः शब्दा गृह्यन्ते / अवयवधर्मेण समुदायव्यपदेशात् कृताकृतादिष्वैकार्थ्यम् / 'विशेषणं विशेष्येण.' (3 / 196) इत्येव समासः सिद्धः। किन्तु क्रियाशब्दत्वादनियमेन पूर्वापरनिपाते प्राप्ते पूर्वनिपातनियमार्थमिदं वचनम्, तेन अकृतकृतमित्यादयः प्रयोगा [न] भवन्ति // 10 // अ० इटःक्तप्रत्ययावयवत्वात् विकारस्य तु ‘एकदेशविकृतानन्यत्वात्' न भेदकत्वम् / तेन क्लिष्टाक्लिशितं पूतापवितं शाताशितमित्यत्रापि 'तं नञादिभिन्नैः' इत्यनेन समासः सिद्धः / क्लिष्टाक्लिशितं पूतापवितमत्र 'पूङ् क्लिशिभ्यो नवा' (4 / 4 / 46) इति विकल्पेन इट् / 'छाशोर्वा' (4 / 4 / 12) इति विकल्पेन इट् / सूत्रार्थे नत्रादिभिरेव भिरित्यवधारणं किम् ? कृतं चाविहितं चेत्यत्र प्रकृतिभेदे कृतं चाकर्त्तव्यं चेति प्रत्ययभेदेः, गतश्च प्राप्तः गतश्चाज्ञात इत्यर्थभेदे, सिद्धं चाभुक्तं चेति प्रकृत्यर्थयोर्भेदे माभूत् / इयमवचूरिरपादयः शब्दा गृह्यन्ते इत्यक्षराग्रे ज्ञातव्या // 105 / / सेट् नानिटा // 3 // 11106 // सेट् क्तान्तं नञादिभिन्नेनानिटा नाम्ना सह न समस्यते, पूर्वस्यापवादः / क्लिशितमक्लिष्टम् / एवं पवितमपूतम् / सेडिति किम् ? कृताकृतम् / कथं विनावित्तम् त्राणात्रातम् ? 'क्तादेशोऽपि' (2 / 1 / 61) इति परे समासे नत्वस्यासत्त्वाद्भविष्यति // 106 // - अ० 'दैङ् 3ङ् पालने' त्रै / 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' (4 / 2 / 1) त्रा / त्रायते स्म 'क्तक्तवतू' (5 / 1104) 'विदिप विचारणे' विद् विद्यते स्म 'क्तक्तवतू' 'ऋहीघ्राध्रात्रोन्दनुदविन्तेर्वा' (4 / 2 / 76) इति सूत्रेण तकारस्य नकारो विकल्पेन / यत्र नकारः तत्र विन्नः त्राण इति रूपम् / यत्र तु न नकारस्तत्र वित्तः त्रात इति रूपम् / विन्नं च तदवित्तं च विनावित्तम्, त्राणं च तदत्राणं च त्राणात्रातम्, कथमत्र समासः ? / सूरिराह / 'क्तादे०' (2 / 1 / 61) 'क्तं नत्रादिभिन्नैः' (3 / 1 / 105) इत्यनेनात्र समासः / विन्नमित्यत्र ‘रदादमूर्छ' (4 / 2 / 69) इति दस्य नकारः // 106 // सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् // 3 / 1 / 107 // सदादीनि नामान्येकार्थानि पूजायां गम्यमानायां सामर्थ्यात् पूज्यवचनैः सह समस्यन्ते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / संश्चासौ पुरुषश्च सत्पुरुषः, महापुरुषः परमपुरुषः उत्तमपुरुषः उत्कृष्टपुरुषः। पूजायामिति किम् ? 1. इदं श्रेणिकृता इत्यस्यार्थप्रदर्शनम् / 2. तदादय इत्यस्य नञादय इत्यर्थः, अग्रिमेणापादयः शन्दा इत्यनेन सम्बध्यते तेन कृतापकृतमित्यादयो दृष्टान्ताः / 3. इदं शाताशितमित्यत्र विज्ञेयम् / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सन् 'घटः / 'उत्कृष्टो गौः / कथं महाजनः महोदधिः, ग्वैपुल्यं ह्यत्र गम्यते न पूजा, सत्यम्, बहुलाधिकाराद्भविष्यति // 107 // ___ अ० पूजायामेवेति नियमार्थम् पूर्वनिपातव्यवस्थार्थं च ‘सन्महत्परम' 0 इति सूत्रं कृतम् / तेन सच्छुक्ल इत्यादौ खञ्जकुण्टादिवत्-अनियमेन पूर्वनिपातो न भवति / तथा परमजरन्, महावीरः, परममहान् इत्यादौ ‘स्पर्द्र' इति न्यायेन यथापरं पूर्वनिपातश्च सिद्धो भवतीति भावः / / 107 / / वृन्दारकनागकुञ्जरैः // 3 / 1 / 108 // एभिर्नामभिः सह सामर्थ्यात् पूज्यवचनं नाम पूजायां गम्यमानायां समस्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / वृन्दारक इव वृन्दारकः, गौश्वासौ वृन्दारकश्च गोवृन्दारकः, अश्ववृन्दारकः, गोनागः, गोकुञ्जरः / पूजायामित्येव-शोभना सीमा-स्फटा यस्य स सुसीमो नागः, नात्र नागशब्दः पूजां गमयति किन्तु जातिमात्रम् / व्याघ्रादेराकृतिगणत्वात् 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः०' (3 / 1 / 102) इत्येव सिद्धे पूजायामेव नियमार्थं साम्योक्तावपि विधानार्थ चेदं वचनम्, तेन गोनागो "बलवानित्यादि सिद्धम् // 108 // . __ अ० वृन्दारकादीनां जातिशब्दत्वेऽपि उपमानात् पूजाऽवगतिर्भवति / नाग इव नागः, गौश्वासौ नागश्च गोनागः / नागशब्देन हस्ती ज्ञेयो न सर्पः / एवं अश्वनागः / कुञ्जर इव कुञ्जरः, गौश्वासौ कुञ्जरश्च गोकुञ्जरः, अश्वकुअरः, मैत्रो नाग इव हस्तीव मूर्ख इत्यत्र तूपमानेन निन्दैव गम्यते न पूजा // 108 / / कतरकतमौ जातिप्रश्ने // 3 // 1109 // . एतावेकार्थों जातिप्रश्ने गम्यमाने सामर्थ्याजातिवाचिना नाम्ना समस्येते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / कतरकठः कतमगार्ग्यः, जातिप्रश्ने इति किम् ? गुणक्रियाद्रव्यप्रश्ने न भवति। 'कतरः शुक्लः / कतमो गन्ता। कतरः कुण्डली // 109 // . अ० किम् द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टः कः कतरः ‘यत्तत्किमन्यात्' (7 / 3 / 53) इति सूत्रेण डतरः / किम् / बहूनां मध्ये प्रकृष्टः कः कतमः ‘बहूनां प्रश्ने डतमश्च वा' (7 / 3 / 54) इत्यनेन डतमः / कठेन प्रोक्तो वेदः कठः 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) इति सूत्रेण अण् ‘कठादिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183) इति सूत्रेण अण् लुप्यते / कठं वेत्त्यधीते इति वाक्ये 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) इति सूत्रेण अण् 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इति सूत्रेण अण् लुप्यते, पश्चात् ''कतरश्चासौ कठश्च कतरकठः / कतमश्चासौ गार्ग्यश्च कतमगार्ग्यः // 109 / / . किं क्षेपे // 3 // 11110 // क्षेपे निन्दायां गम्यमानायां किंशब्दोऽर्थात् कुत्स्यचिना नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / को राजा किंराजा यो न रक्षति, किंगौ यो न वहति भारम्, सर्वत्र तत्कार्याकरणात् क्षेपो गम्यते / कुत्सितो नरोऽश्वमुखत्वात् किन्नरः, एवं किंपुरुष इत्यादि / क्षेप इति किम् ? को राजा तत्र नगरे // 110 // __अ० क्षिप्यमाणवाचिना निन्दमानवाचिना कुत्स्यवाचिना त्रयोऽपि शब्दा एकार्थाः-एकपर्यायाः। किंगौरित्यस्याग्रे कः सखा किंसखा यो द्रुह्यति / स किंवैयाकरणो यः शब्दं न ब्रूते / कुत्सितः शुकः किश्चिन्नीलः किंशुकः -पलाशः // 110 // 1. वर्तमानो घट इत्यर्थः / 2. गत देरुद्धृत इत्यर्थः / 3. अत्र वैपुल्यशब्दो वैशाल्ये वर्त्तते नतु पूजायाम् / 4. बलवानिति साम्योक्तिः / 5. शुक्लगन्तुकुण्डलीशब्दैः सामानाधिकरण्यात्, कतरशब्देन गुणक्रियाद्रव्यविषयाः प्रश्ना अत्र भाव्याः / 6. किंसखा, अत्र क्षिप्यमाणवाची किंशब्दः, किंवैयाकरण इत्यत्र निंद्यमानवाची किंशुक इत्यत्र कुत्स्यवाची बोध्यः / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 247 पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्बष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यायकधूर्तप्रशंसा रूढेर्जातिः // 3 // 11111 // जातिवाचिनामैकार्थं पोटादिनामभिः प्रशंसारूढैश्च सह समस्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / इभ्यपोटा। नागयुवतिः / एवं वृन्दारकयुवतिः / अग्निस्तोकम् / दधिकतिपयम् / गोगृष्टिः / गोधेनुः / गोवशा गोवेहत् गोबष्कयणी कठप्रवक्ता कठश्रोत्रियः कठाध्यायकः मृगधूतः। प्रशंसायां रूढा मतल्लिकादय आविष्टलिङ्गाः, तैः गोमतल्लिका गोमचर्चिका पुरुषोद्ध इत्यादि, रूढग्रहणादिह न समासः गौः रमणीया गौ शोभनाः। जातेरिति किम् ? देवदत्ता पोटा / विशेष्यस्य जातेः पूर्वनिपातार्थं वचनम् // 11 // अ० इभ्या च सा पोटा च इभ्यापोटा / पुरुषवेषधारिणी स्त्री पोटा / गर्भ एव दास्यं प्राप्ता वा, नरस्त्रीचिह्ना वा दासी वा पोटा, दासस्य भार्या दासी प्रशंसायां रूढाः प्रशंसारूढाः, पोटायुवतिश्चेत्यादि प्रशंसारूढाश्च तैः / पुंवत्कर्मधारये (3-2-57) इति पुंवत् / नागी चासौ युवचिश्च नगायुवतिः / (अग्निश्चासौ) स्तोकं (च) दधि च तत् कतिपयं च दधि (कतिपयं) / गौश्चासौ गृष्टिश्च, गृष्टिः सकृत्प्रसूता गौः, धेनुर्नवप्रसूता गौः, वशा वंध्या गौः, वेहत् गर्भघातिनी गौः, या 'बष्कयेन-वृद्धवत्सेन दुह्यते सा बष्कयणी / अग्निस्तोकमित्यत्र भिन्नलिंगयोरपि शब्दयोः सामानाधिकरण्यं सूत्रबलात् 'वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः' इतिवत् सामान्यविशेषभावेनायं प्रयोगः / उपाध्यायः छन्दोऽध्यायी / गोमतल्लिका, गोमचर्चिका, गोप्रकाण्डम्, पुरुषोद्धः, गोकुमारी, गोतल्लजकः, तात पादाः, आर्यमिश्राः, केशपाशः, केशहस्तः, अंसभित्तिः, वक्षस्थलम्, कपोलपाली, उरःकपाटः, स्तनतटमिति आदिशब्दात् ज्ञेयाः, आविष्टं-आगृहीतं अमुकं लिङ्गं स्वकीयं यः ते आविष्टलिङ्गाः, लिङ्गान्तरशब्दसंबंधेऽपि विशेष्यलिङ्गं न स्पृशन्ति, उपलक्ष(ण)त्वादाविष्टवचनाश्च; तेन तातश्च ते पादाश्चेति वाक्यं सिद्धम् / गौश्चासौ मत्तल्लिका च // 111 / / चतुष्पाद् गर्भिण्या // 3 / 1 / 112 // चतुष्पाद्वादिजातिनामैकार्थं गर्भिणीति नाम्ना समस्यते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / गौश्चासौ गर्भिणी च गोगर्भिणी, अजगर्भिणी, अश्वगर्भिणी चतुष्पादिति किम् ? ब्राह्मणी गर्भिणी // 112 // अ० चत्वारः पादा यस्या सा चतुष्पाद् ‘सुसङ्ख्यात् (7 / 3 / 150) इति सूत्रेण पादस्य पादिति समासान्तः / जातेर्विशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थमिदं वचनम् // 112 // . युवा खलतिपलितजरद्वलिनैः // 3 // 1 // 113 // युवनिति नाम खलत्यादिनामभिः सह समस्यते, स च तत्पुरुषः कर्मधारयसञ्ज्ञश्च स्यात् / युवा चासौ खलतिश्च युवखलतिः, युवपलितः, युवजरन्, युववलिनः / नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् युवतिश्चासौ खलतिश्च युवखलतिः, एवं युवपलिता, युवजरती युववलिता // 113 // ____ अ० युवशब्दस्य विशेष्यत्वात् परनिपाते प्राप्ते, अथवा युवशब्दस्य खलत्यादिशब्दस्य च गुणवचनत्वात् खञ्जकुण्टादिवदनियमे सति पूर्वनिपातार्थं 'युवाखलतीदं' सूत्रम् / वलयोऽस्य सन्ति इति वाक्ये 'नोऽङ्गादेः' (7 / 2 / 29) इति सूत्रेण नप्रत्ययः ‘पुंवत्कर्मधारये' (3 / 2 / 57) इति पुंवत्, युवतेयुवन् // 113 / / . कृत्यतुल्याख्यमजात्या // 3 / 1 / 114 / / कृत्यप्रत्ययान्तं तुल्याख्यं च तुल्यपर्यायं नामैकार्थं अजात्याऽजातिवाचिनाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुपः Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते कर्मधारयसंज्ञश्च / भोज्यं च तदुष्णं च भोज्योष्णम्, भोज्यलवणम्, पेयाम्लम्, पानीयशीतम्-तुल्याख्यः तुल्यश्वेतः सदृशमहान् / अजात्येति किम् ? भोज्य ओदनः, तुल्यो वैश्यः सदृशी कन्या / कथं शीतपानीयम् ? पानीयशब्दोऽयमौणादिको जलवाची तस्य विशेषणसमासः // 11 // अ० शीतं च तत् पानीयं-जलं च शीतपानीयम् // 114 // कुमारः श्रमणादिना // 3 // 1 // 115 // कुमार इति नामैकार्थं श्रमणादिनाम्ना सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च / कुमारी चासौ श्रमणा च कुमारश्रमणा, कुमारप्रव्रजिता, कुमारश्चासावध्यायकश्च कुमाराध्यायकः, कुमारी चासावध्यायिका च कुमाराध्यायिका / एवं कुमाराभिरूपकः कुमाराभिरूपिका / श्रमणा प्रव्रजिता कुलटा गर्भिणी तापसी बन्धकी दासी सप्तैते शब्दाः स्त्रीलिङ्गाः, एवं अध्यापक अभिरूपक पटु मृदु पण्डित कुशल चपल निपुण इति श्रमणादिगणः / अत्र गणे ये स्त्रीलिङ्गाः शब्दास्तैः सह कुमारी इति स्त्रीलिङ्ग एव समस्यते, अध्यायकादिशब्दैः सह कुमारकुमारी इति उभयलिङ्गं समस्यते // 115 // अ० श्रमणादिगणे यदेकवचनं सेयमाचार्यशैली तत्रेयं सूचा एतावन्त एव शब्दाः / यत्र तु आचार्यो गणे बहुवचनं निर्दिशति तत्रेदं सूचयति आचार्यः, बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तत्र शब्दनैयत्यं नहि / कुमारी चासौ प्रव्रजिता च। एवं श्रमणादिगणे शब्दः / 'कुमारः श्रमणा०' इत्यत्र सुत्रे विशेषोऽयम् / श्रमणादीनां स्त्रीलिङ्गानां पाठात् पुंल्लिङ्गैः पूर्वनिपाते कामचारः / यथा कुमारश्रमणः तापसकुमारः / श्रमणादीनां पुंल्लिङ्गत्वे तु पूर्वनिपातेऽनियमः / यथा वृन्दारकश्रमणः श्रमणवृन्दारकः / नागतापसः तापसनाग इत्यादि / अध्यायकादयस्तु लिङ्गान्तरेऽपि परनिपातिन एव भवन्ति / यथा वृन्दारकाध्यायः वृन्दारिकाऽध्यायिका इत्यादि / / 115 // मयूरव्यंसकेत्यादयः // 3 / 1 / 116 // मयूरव्यंसकादयस्तत्पुरुषसमासा निपात्यन्ते / विगतावंसावस्य व्यंसः, व्यंसस्य तुल्यो व्यंसकः / अथवा व्यंसयति छलयतीति व्यंसकः / व्यंसकश्चासौ मयूरश्च मयूरव्यंसकः, एवं छात्रव्यंसकः / मुण्डश्चासौ कम्बोजश्च कम्बोजमुण्डः / व्यंसिका चासौ मयूरी च मयूरव्यंसिका / एतेषु विशेष्यपदस्य पूर्वनिपातो निपातनात् / एहि वाणिज इति जल्पो यस्यां सा एहिवाणिजा / एवं एहिस्वागता / आहारचेलमिति यस्यां सा आहारचेला क्रिया / अनीत पिवत इति सातत्येन उच्यते यस्यां सा अनीतपिबता / एवं खादतमोदता / एहिरे याहिरे इति यस्यां सा एहिरेयाहिरा क्रिया / एवं एहिरेगच्छरा / अहो अहं पुरुष इति यस्यां सा अहोपुरुषिका / अहं पूर्व इति यस्यां सा अहंपूर्विका, अहंप्रथमिका / अहमहमिति यस्यां सा अहमहमिका / या इच्छा यस्यां सा यदृच्छा। एषु सर्वेषु क्रियैवान्यपदार्थः / उचितं चावचितं च उच्चावचम् / उच्चैश्च नीचैश्च उच्चनीचम् / आचितं चोपचितं च आचोपचम् / आचितं चावचितं च आचोवचम् / आचापराचम् / न भवति किंचन न कचिदुपयुज्यते वेत्यकिंचनम् / नास्य कुतोऽपि भयमस्तीति अकुतोभयम् / यातं च तदनुयातं च यातानयातम् / महान्क्रयः, अल्पः क्रयिका, क्रयावयवयोगात् क्रयः, क्रयिकावयवयोगात् क्रयिका, क्रयश्वासी क्रयिका च क्रयाक्रयिका, समुदायः / निपातनात् दीर्घः / एवं पुटापुटिका फलाफलिका मानोन्मनिका इत्यादिषु व्यवस्थितपूर्वोत्तरपदसमासः // 116 // Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 249 ___अ० कर्मधारयस्तत्पुरुषत्वं न व्यभिचरति, यत्र तत्पुरुषस्तत्र कर्मधारय इति सूत्रार्थे तत्पुरुष इत्युक्ते कर्मधारयोऽपि ज्ञातव्यः / 'तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः' (7 / 1 / 108) इति कः / अंशण समाघाते इति चुरादौ तालव्यशकारः, मतान्तरेण दन्त्योऽपि सकार इष्यते / तेन व्यंसक इति उभयव्युत्पत्तौ सिद्धम् / मयूरव्यंसकेत्यादयः' इति सूत्रप्रान्ते विशेषप्रयोगा इमे ज्ञातव्याः / तथाहि शाकपार्थवादय शाकपार्थिवादय इति वा शाकटायनसूत्रम्, शाकप्रियः शाकभोजी शाकप्रधानो वा पार्थवः, पृथोरपत्यं पार्थवः, शाकपार्थवः / अथवा शाकपार्थिवः पृथिव्या ईश्वरः पार्थिवः / शेषं प्राग्वत् / यष्टिप्रहरणो मौद्गल्यः यष्टिमौद्गल्यः / अजापण्यस्तौल्वलिः अजातौल्वलिः, अत्र पण्यलोपः / परशुप्रहरणो रामः परशुरामः / सहस्रबाहुरर्जुनः सहस्रार्जुनः / त्र्यवयवा विद्या त्रिविद्या / एकेनाधिका दश एकादश / द्वाभ्यामधिका दश द्वादश / एवं षड्भिरधिका दश षोडश / एकविंशत्यादयः / दध्ना उपसिक्त ओदनो दध्योदनः, एवं घृतौदनः, गुडेन मिश्रा धाना गुडधानाः, तिलेन मिश्राः पृथुकास्तिलपृथुकाः, तथा अश्वेन युक्तो रथोऽश्वरथः, एवं गुजरथः, घृतेन पूर्णो घटो घृतघटः, एवं तैलघटः, वल्लघट एषु सर्वत्र शाकपार्थिवादिसूत्रेण प्रियादीनां शब्दानां मध्यवर्त्तिनां लोपः क्रियते / तथा तृतीयो भागस्त्रिभागः, तृतीयोऽशः त्र्यंशः, तृतीयं विष्टपं त्रिविष्टपमित्यादिषु शाकपार्थिवादिना पूरणप्रत्ययस्य विकल्पेंन लोपः / तथा सर्वेषां श्वेततरः सर्वश्वेतः, सर्वेषां महत्तरः सर्वमहान्, अत्र गुणेन तरप् प्रत्ययान्तेन निर्धारणषष्ठीसमासः, निपातनात् तरप्प्रत्ययो लुप्यते / एवं मयूरव्यंसकादिप्रयोगेष्वविहितलक्षणस्तत्पुरुषो द्रष्टव्यः / यच्च लक्षणेन नोपपन्नं तत् सर्वं निपातनात् सिद्धम् / इतिशब्दः स्वरूपावधारणार्थः / तेन परमो मयूरव्यंसक इति समासान्तरं न भवति / बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन विस्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुः / पुनाराजा पुना राजः, एवं पुनर्गवः / पादाभ्यां ह्रियते पादहारकः, गले चोपते गलचोपकः, सायंदुह्यते सायं दोहः, एवं प्रातर्दोहः प्रातराश इत्यादिप्रयोगा द्रष्टव्याः / प्रान्ते प्रयोगमाला ज्ञातव्याः / एहि स्वागतेति जल्पो यस्यां सा एहिरामे एहियाहीत्यर्थः, निपातनात् आकारः / निपातनात् आ० निपातनादकञ् वृद्धिरभावश्च / निपातनात् ऋकारः / कुरु कटंमित्यभीक्ष्णं यो देवदत्त आह स देवदत्त कुरुकट इत्युच्यते / प्रोष्य वियुक्तो भूत्वा पापीयान् निःस्नेहो भवति च प्रोच्यपापीयान् इत्युच्यते / अथवा उदक् च अवाक् च / उच्चितं च निचितं च इति वा, आचापराचं इत्यत्र आचितं च पराचितं च / अर्वाक् च परस्ताच्च इति वा वाक्यम् // 116 / / ... . चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ // 3 / 1 / 117 // नाम नाम्ना सह सहोक्तिविषये चार्थे वर्तमान समस्यते, स च समासो द्वन्द्वसंज्ञो भवति / प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ / नाम नाम्नेत्यनुवर्तमानेऽपि लघ्वक्षरादिसूत्रे एकग्रहणाद् बहूनामपि द्वन्द्वः / धवखदिरपलाशाः / चार्थे इति किम् ? वीप्सासहोक्तौ मा भूत् / ग्रामो ग्रामो रमणीयः / सहोक्ताविति किम् ? प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यताम् / इह समुच्चयान्वाचयेतरेतरयोगसमाहारभेदाचत्वारश्चार्थाः / द्वन्द्वप्रदेशा 'द्वन्द्वे वा' (1 / 4 / 11) इत्यादयः // 117 // ___ अ० यत्र समासे द्वयोर्धर्मयोरथवा धर्मिणोभिन्नयोः प्राधान्यं सा सहोक्तिरुच्यते / कर्मधारयसमासे तु धर्मिण आश्रयस्यैव प्राधान्यात् तस्य चैकत्वम् / अतः खञ्जकुण्टादौ न सहोक्तिः / प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यतामत्र तु प्रत्येकं क्रियया सम्बन्धीति सहोक्तेरभावः / इह समुच्चयेत्याद्यर्थोऽयम् / एकमर्थं प्रति व्यादीनां शब्दानां तुल्यबलानामविरोधिनामनियतक्रमयोगपद्यानां आत्मरूपभेदेन चीयमानता समुच्चय उच्यते / यथा चैत्रः पचति च पठति च / चैत्रो मैत्रश्च पचति / राज्ञो गौश्चाश्वश्च / राज्ञो ब्राह्मणस्य च गौः / नीलं च तदुत्पलं चेति / चशब्दं विनाप्ययं समुच्चयः सम्भवति Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 - कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते यथा 'अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुं / वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी // 1 / / गुणप्रधानभावमात्रविशिष्टः समुच्चय एवान्वाचय उच्यते / यथा वटो भिक्षामट गां चानय / स हि भिक्षामटति तावश्चेद्गां पश्यति तदा तामप्यानयति / 2 / द्रव्याणामेव परस्परसापेक्षाणामुद्भूताऽवयवभेदः समूह इतरेतरयोग उच्यते / यथा चैत्रस्य मैत्रश्च घटं कुर्वाते चैत्रमैत्रौ घटं कुर्वाते, / चैत्रश्च मैत्रश्च देवदत्तश्च पटं कुर्वन्ति, चैत्रमैत्रदेवदत्ताः पटं कुर्वन्तीत्यत्राऽवयवानां उद्भूतत्वात्तत्सङ्ख्यानिबन्धनं द्विवचन बहुवचनं च भवति / 3 / स एव समूहस्तिरोहितावयवभेदः संहतिप्रधानः समाहारः समाहारद्वन्द्व उच्यते / धवखदिरपलाशं तिष्ठति / अत्र तु समूहस्य प्राधान्यात् तस्य चैकत्वादेकवचनमेव भवति / एषु चतुषु चाद्ययोः सहोक्त्यभावात् न समासः / उत्तरयोस्तु चार्थयोः सहोक्तेविद्यमानत्वात् समासो भवतीत्यर्थः // 117 // समानामर्थेनैकः शेषः // 3 / 1 / 118 // अर्थेन समानां शब्दानां सहोक्तौ गम्यमानायामेकः शिष्यते, अर्थादन्ये निवर्तन्ते / तत्र विशेषाकथनात् पर्यायेण शेषो भवति, बहुवचनमतंत्रम्, तेन द्वयोरप्येकः शिष्यते / वक्रश्च कुटिलश्च वक्री कुटिलौ वा / एवं वक्रदण्डश्व कुटिलदण्डश्च वक्रदण्डौ कुटिलदण्डौ इति वा / सितश्व शुक्लश्च श्वेतश्च सिताः, शुक्लाः, श्वेता वा। अर्थेन समानामिति किम् ? प्लक्षन्यग्रोधौ / सहोक्ताविति किम् ? वक्रश्च कुटिलश्च दृश्यः / द्वन्द्वापवादो योगः // 118 // स्यादावसङ्खयेयः // 3 / 1 / 119 // सरूपार्थं वचनम् / सर्वस्मिन् स्यादौ विभक्तौ समानां-तुल्यरूपाणां सहोक्तौ एकः शब्दः शिष्यते, असङ्ख्येयः-न तु सङ्ख्येयवाचिशब्दः / अक्षश्च शकटाक्षः अक्षश्च पाशकः भक्षश्च बिभीतकः अक्षाः, एवं पादाः, श्येनी च श्येनी च श्येन्यौ, एवं हरिण्यौ, रोहिण्यौ, वृक्षश्च 2 वृक्षौ, वृक्षश्च 3 वृक्षाः / स्यादाविति किम्। माता च जननी, माता च धान्यस्य, मातृमातारौ / याता च देवरजाया याता च गन्ता यातृयातारौ / अत्र ह्येकत्र मातरौ, यातरौ अन्यत्र मातारौ यातारौ 'तृस्वसृ' (1 / 4 / 38) इति औकारे आनीते रूपं भिद्यते। असङ्ग्येय इति कर्मनिर्देशात्सङ्ग्यानवाचिनो भवत्येव / विंशतिश्च 2 विंशती / नवतिश्च 3 नवतयः // 119 // ____ अ० सरूपार्थमिति, यदि 'स्यादावसङ्ख्येय' इति सूत्रं न कुर्यात्, तदाऽर्थसाम्यस्य स्यादावपि अभिद्यमानत्वात्, 'समानामर्थेनैकः शेषः' (3 / 1 / 118) इत्यनेन प्राप्नुयादिति शब्दसादृश्ये एकशेषार्थं सूत्रं कृतम् / ‘अंहिश्लोकचतुर्थांशरश्मिप्रत्यन्तपर्वते-पादशब्दो वर्त्तते / एवं माने धान्यभेदे मूर्खे त्वग्दोषभिद्यपि' माशब्दः प्रवर्त्तते / पादश्व 3 पादाः / माषश्च 3 माषाः / तथा एका श्येनी श्वेतगुणयुक्ता, द्वितीया श्येनस्य भार्या श्येनी / हरितगुणयुक्ता एका हरिणी, द्वितीया हरिणी मृगी हरिणी च 2 हरिण्यौ / एका रोहिणी रोहितवर्णा स्त्री, अन्या रोहिणी चन्द्रभार्या / रोहिणी च 2 रोहिण्यौ / एकश्चेत्यादिषु 'त्यदादिः' (3 / 1 / 120) इति सूत्रेणापि शेषविधिः / व्यावृत्तेर्व्यक्तौ प्रवृत्तत्वात् / विंशत्यादयस्तु शब्दा न सङ्ख्येयप्रधानाः, विंशतिर्गाव इति सङ्ख्येयसमानाधिकरणा अपि भाक्ताः / सङ्ख्येय सङ्ख्यानरूपमेवासाद्य सङ्ख्याननिष्टा एव भवन्ति न सङ्खयेयरूपनिष्ठाः, अत एव विंशतिर्गवामिति असामानाधिकरण्यवत् सामानाधिकरण्येपि गुणलिङ्गसङ्ख्या एव, न एकादिवत् सङ्खयेयलिङ्गसङ्ख्या इति असङ्ख्येयवाचित्वादेकशेषः / / 119 / / त्यदादिः // 3 / 1 / 120 // त्यदादिनाऽन्येन च सहोक्तौ त्यादिरेवैकः शिष्यते / स च चैत्रश्च तौ / अयं च चैत्रश्चं इमौ / स्पर्द्ध Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 251 परमिति न्यायात् त्यदादीनां मिथः सहोक्तौ पाठे यद् यत् परं तत्तदेवैकं शिष्यते / स च यश्च यौ / यश्च एव च एतौ / एष च अयं च एतौ / स च त्वं च युवाम् / तवं च भवांश्च भवन्तौ / अहं च स च त्वं क्पम् / भवांश्च अहं च आवाम् / अहं च कश्च को / बहुलाधिकारात्कचित्पूर्वमपि शिष्यते स च यश्च तौ। अयं च एष च इमौ / त्वं च भवांश्च युवाम् / त्यदादेः कृतैकशेषस्य स्त्रीपुनपुंसकलिङ्गानां युगपदप्रयोगात् पर्यायप्राप्तौ शिष्यमाणलिङ्गप्राप्तौ वा 'स्त्री'नपुंसकानां सहवचने स्यात्परं लिङ्ग' मिति वचनात् (हैमलि० परलिङ्गाधिकारे श्लो० 3) परमेव लिङ्गं भवति / सा च चैत्रश्च तौ। स च देवदत्ता च तौ। तथा सा च कुण्डे पतानि। तथा स च कुण्डं च ते / तच्च चैत्रश्च ते // 120 // - अ० पाठे-सर्वादिगणप्रान्ते त्यद् तद् यद् अदस् इदम् एतद् एक द्वि युष्मद् भवतु अस्मद् किम् त्यदादिरयं गणः। ततोऽस्मिन् त्यदादिगणपाठमध्ये इत्यर्थः / तत् तत् तिष्ठति अन्ये लुप्यन्ते / अत्रोदाहरणयोः स्त्रीपुंल्लिङ्गयोः परं पुंलिङ्गमेव भवति / सा च कुण्डे च तानीत्यत्र स्त्रीनपुंसकयोः परं नपुंसकलिङ्गमेव भवति / स च कुण्डं च ते इत्यादिषु पुनपुंसकयोः परं नपुंसकलिङ्गमेव भवति // 120 // . . भ्रातृपुत्राः स्वसूदुहितृभिः // 3 // 13121 // बहुवचनं पर्यायार्थम् / स्वम्रर्थेन सहोक्तौ भ्रात्रर्थः शब्दः, तथा दुहित्रर्थेन सहोक्तौ पुत्रार्थः शब्द एकः शिष्यते / भ्राता च भ्रातरौ, एवं सौदों, भ्राता च भगिनी च भ्रातरौ, पुत्रश्च दुहिता च पुत्री, एवं (सुतश्च दुहिता च) सुतौ / पुत्रश्च सुता च पुत्रौ // 12 // अं० सोदर्यो बान्धवः, सोदर्यश्च स्वसा च सोदयौं // 121 / / पिता मात्रा वा // 3 / 1 / 122 // मातृशब्देन सहोक्तौ पितृशब्द एको वा शिष्यते / पिता च माता च पितरौ / पक्षे 'मातापितरौ // 122 // अ० मातृशब्दस्य अर्च्यत्वात् पूर्वनिपातः / / 122 / / ___ श्वशुरः श्वश्रूभ्यां वा // 3 // 11123 // श्वभूशब्देन सहोक्तौ श्वशुर एको वा शिष्यते / श्वशुरश्च श्वश्रूश्च श्वशुरौ / पक्षे श्वश्रूश्वशुरौ // 123 // वृद्धो यूना तन्मात्रभेदे // 3 / 1 / 124 // वृद्धः पौत्रादिः, युवा जीववंश्यादिः, वृद्धस्य यूना सहोक्तौ वृद्धवाच्येकः शिष्यते, तन्मात्र एव चेद्भेदो विशेषः स्यात्; यदि प्रकृतिभेदोऽर्थभेदो वाऽन्यो न भवतीत्यर्थः / गार्ग्यश्च गाायणश्च गाग्र्यो / वृद्ध इति किम् ? गर्गश्च गाायणश्च गर्गगाायणौ / यूनेति किम् ? गार्ग्यगौ / तन्मात्रभेदे इति किम् ? गार्ग्यवात्स्यायनौ अत्र प्रकृतिरन्या / भागवित्तिभागवित्तिकौ, अत्र कुत्सा सौवीरदेशत्वं चान्योऽर्थः // 124 // अ० तौ वृद्धयुवानौ मात्रं स्वभावो यस्य भेदस्य स तन्मात्रभेदः तस्मिन्, गर्गशब्दः गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः ‘गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) इति वृद्धेऽपत्येऽर्थे यञ्प्रत्ययः गार्ग्यः / तदनन्तरं गार्ग्यस्यापत्यं युवा गाायणः ‘यजिञः' (6 / 1 / 54) 1. भातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्यामित्यनुक्त्वा बहुवचनेन निर्देशो भ्रात्रादेः पर्यायग्रहणार्थमित्याह-बहुवचनमिति / भ्रातृस्वसृशब्दयोः स्त्रीपुरुषमात्रभेदाभावात् 'पुरुषःस्त्रिया' इत्यस्य न प्रवृत्तिः / 2. मातुरच॑त्वात् 'लघ्वक्षरासखीति' तस्य प्राक् प्रयोगः / 3. श्वश्रूभ्यामिति द्विवचनं जाती धवयोगे च वर्त्तमानयोःश्वश्रवोर्ग्रहणार्थम / 4. गर्गेति अस्य वृद्धप्रत्ययान्तत्वाभावाचूना सहोक्तौ नैकशेषः / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते इति सूत्रेण युवापत्येऽर्थे आयनण् गाायण इति सिद्धम् / तथा वत्सस्यापत्यं वृद्धं वात्स्यः ‘गर्गादेर्यञ्' ततो वात्स्यस्यापत्यं युवा वात्स्यायनः 'यञिञः' इत्यायनण् / भागवित्तीत्यादि, भगवित्तस्यापत्यं भागवित्ति 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) इति सूत्रेण इञ् भागवित्ति इति सिद्धम् / तथा भागवित्तेः सौवीरदेशस्यापत्यं युवा निन्दितो भागवित्तिक इति वाक्ये 'भागवित्तितार्णविन्दवाकशापेयान्निन्दायामिकण् वा' (6 / 1 / 105) इति सूत्रेण इकण् // 124 / / . स्त्री पुंवच्च // 3 / 1 / 125 // वृद्धस्त्रीवाची शब्दो युववाचिना सहोक्तावेकः शिष्यते, पुंवत् 'पुंल्लिङ्गश्चायम्, स्त्र्यर्थः पुमर्थः स्यादित्यर्थः, तन्मात्रभेदे / गार्गी च गाायणश्च गाग्र्यो / गार्गी च गाायणौ च गर्गाः गर्गान् // 125 // अ० गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्गि 'अत इञ्' (6 / 1 / 31) इति सूत्रेण इञ्, ततः स्त्री चेत् गार्गी ‘इन इतः' (2 / 4 / 71) इत्यनेन डी गार्गीति सिद्धम् / गार्गी च गाायणश्चेति वाक्ये गार्गी शिष्यते गाायणो लुप्यते, 'स्त्री पुंवच्च' इत्यनेन पुंवद्भावश्च दर्यते, तथाहि यथा गार्गी च गाायणौ च गर्गाः गर्गान् इति पुंवद्भावपक्षे वाक्यमिदं ज्ञातव्यम् / गर्गस्यापत्यं वृद्धस्त्री गार्गी 'गर्गादेर्यञ्' (6 / 1 / 42) 'यत्रो डायन् च वा' (2 / 4 / 67) इति सूत्रेण डीप्रत्ययः गार्गी इति जातः / अत्र पुंवद्भावः पुंवद्भावात् डीनिवृत्तिः ‘व्यञ्जनात्तद्धितस्य' (2 / 4 / 88) इत्यनेन, अथवा 'यञञोऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः' (6 / 1 / 126) इत्यनेन यञ् लुप्यते, ततो गर्ग इति शब्दः पुंवद्भावे जातः / ततो जस् शस् ‘शसोऽता०' (1 / 4 / 49) इत्यनेन दीर्घः नत्वं च गर्गाः गर्गान् // 125 / / .. पुरुषः स्त्रिया // 3 / 1 / 126 // ___ पुरुषशब्दोऽयं प्राणिनी पुंसि रूढः / स्त्रीशब्देन सहोक्तौ पुरुषवाच्येकः शिष्यते तन्मात्रभेदेस्त्रीपुरुषमात्रश्चेद्भवति / ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणौ / गोमांश्च गोमती च गोमन्तौ / पटुश्च पट्वी च पटू / गौश्वायं गौश्चयम् इमौ गावी / तन्मात्रभेद इत्येव ? हंसश्च वरटा च हंसवरटे पुरुषयोषितौ / तथा कुक्कुटश्च मयूरी च कुक्कुटमयूर्यो गोवत्सौ, एषु प्रकृत्यर्थयोर्भेदः // 126 // . अ० कुक्कुटश्च कुक्कुटी च कुक्कुटौ इत्यपि ज्ञेयम् / प्रकृतिभेदोऽर्थभेदश्च द्वावपि / / 126 / / ग्राम्याशिशुद्विशफसङ्के स्त्रीप्रायः // 3 // 11127 // ग्राम्या अशिशवो ये द्विशफा द्विखुरा अर्थात्पशवस्तेषां सझे स्त्रीपुरुषाणां सहोक्तौ प्रायः स्त्रीवाच्येकः शिष्यते, चेत् स्त्रीपुरुषमात्रभेदः / पूर्वेण पुरुषशेते प्राप्ते स्त्रीशेषार्थं वचनम् / गावश्च स्त्रियो गावश्च नराः इमा गावः / अजाश्चमे अजाश्वेमाः इमा अजाः, ग्राम्येति किम् ? आरण्यानां मा भूत् / रुरवंश्येमाः इमे रुरवः। अशिश्विति किम् ? वत्साश्चेमे वत्साश्चेमाः इमे वत्साः। द्विशफेति किम् ? अश्वाश्चेमे अश्वाश्वेमाः इमे अश्वाः। सङ्घ इति किम् ? गौश्वायं गौश्चयं इमौ गावौ // 127 // अ० अश्वादीनां खुरसम्बन्धेऽपि वृत्तैकखुरत्वात्, मनुष्यादीनां खुररहितत्वात् द्विखुरत्वाभावात्, पुरुष एव शिष्यते / व्यावृत्त्युदाहरणेषु दर्शयिष्यति / बर्कर्यश्च बर्कराश्च बर्करा इत्यपि ज्ञेयम् / मनुष्याश्येमाः मनुष्याश्चेमे (इमे) मनुष्याः / 1. यो हि शिष्यते शब्दः सोऽयं पुंल्लिङ्गः, बहुवचने तु पुंबद्भावात् डीनिवृत्तौ वृद्धप्रत्ययस्य यत्रो लुप् गर्गाः गर्गानिति / 2. हंसवरटे इत्यादी प्रकृतिभेदो कुक्कुटमयूर्यावित्यादौ प्रकृतिभेदोऽर्थभेदश्चेत्यर्थः / 3. बर्करशब्दस्य प्रकरणादिना शिशुपरत्व इदं प्रत्युदाहरणम्, अन्यथा 'बर्करः तरुणः पशु'रिति कोशात् प्रत्युदाहरणं न संगच्छेत / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 253 सर्वत्र व्यावृत्त्युदाहरणे पुरुषः शिष्यते पूर्वसूत्रेण / 'तन्मात्रभेद इत्येव ? इमौ बलीवर्दाविति व्यावृत्तिाम्येति सूत्रान्ते ज्ञातव्या // 127 // क्लीबमन्येनैकं च वा // 3 // 1128 // क्लीबं नपुंसकं नाम अन्येनाक्लीवेन सहोक्तावेकं शिष्यते, तन्मात्रभेदे क्लीबाक्लीबमात्र एव चेद्भेदः, तचैकं शिष्यमाणमेकार्थ वा भवति, अर्थस्यैकत्वे तद्विशेषणानामपि तथाभावः / शुक्लं च वस्त्रम्, शुक्लश्च कम्बलः तदिदं शुक्लं, ते इमे शुक्ले वा / अन्येनेति किम् ? शुक्लं च 2 शुक्ले / शुक्लं च 3 इमानि शुक्लानि। तन्मात्रभेद इत्येव ? हिमहिमान्यौ, अक्षाश्च देवनादयः, अक्षाणि चेन्द्रियाणि अक्षाक्षाणि / पद्मश्च नागः पद्मा च लक्ष्मीः पद्मं च कमलं पद्मपद्मपद्मानि // 128 // अ० एकार्थे सति नपुंसकत्वं भवतीत्यर्थः-नपुंसकलिङ्गता भवतीत्यर्थः, पक्षे द्विवचनं औ / शुक्लं च वस्त्रं शुक्ला च शाटी तदिदं शुक्लम्, ते इमे शुक्ले वा, शुक्लं च वस्त्रं शुक्लश्च कम्बलः शुक्ला च शाटी, शुक्लं च शुक्लश्च शुक्ला च इति वाक्यं तदिदं शुक्लम्, तानीमानि शुक्लानि वा इत्यपि उदाहरणावली ज्ञातव्या / 'स्यादावसङ्ख्येयः' (3 / 1 / 119) इत्येकशेषः / महद्धिमं हिमानी हिमं च हिमानी च हिमहिमान्यौ / एवं महदरण्यं अरण्यानी अरण्यं च अरण्यानी च अरण्यारण्यांन्यौ / अक्षः पाशः अक्षः शकटावयवः अक्षो बिभीतकः, एतेषु प्रवृत्तिनिमित्तलक्षणोऽर्थभेदोऽप्यस्तीति नैकशेषः // 128 // पुष्यार्थाद्धे पुनर्वसुः // 3 // 1 // 129 // - एकशेषो निवृत्तः / एकमित्यनुवर्त्तते / पुष्यार्थाच्छब्दाढ़े नक्षत्रे वर्तमानात् परो भे एव वर्तमानः पुनर्वसु सहोक्तौ गम्यमानायां सामर्थ्यात् "द्वयर्थः सन्नेकः-एकार्थः स्यात् / पुनर्वसू, तिष्यपुनर्वसू, सिध्यपुनर्वसू, समाहारे तु तिष्यपुनर्वसु इति भवति, पुष्यार्थादिति किम् ? आर्द्रापुनर्वसवः, भ इति किम् ? पुष्यपुनर्वसवो बालाः, सहोक्तावित्येव ? 'पुष्यपुनर्वसवो मुग्धाः // 129 / / अ० 'क्लीबमन्येनैकं च वा पुष्यार्थाढ़े पुनर्वसुश्च नित्यं' इत्येकयोगाऽकरणादेकशेष इति निवृत्तम् / पुष्यपुनवसवो बालका इति, पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः पुष्यः, पुनर्वसुभ्यां चन्द्रयुक्ताभ्यां युक्तः कालः पुनर्वसुः / 'चन्द्रयुक्तात्काले लुप्त्वप्रयुक्ते' (6 / 2 / 6) इति सूत्रेण अण्, चन्द्रयुक्तेत्यनेनैव अण् लुप्यते / पुष्ये जातः पुष्यः, पुनर्वस्वोर्जातो भवो वा ‘भर्तुसन्ध्यादेरण' (6 / 3 / 89) इत्यनेन पुनरपि अण् / बहुलानुराधापुष्यार्थपुनर्वसुहस्तविशाखास्वाते प् (6 / 3 / 107) इति सूत्रेण अण् लुप्यते / पुष्यार्थेत्यत्र अर्थग्रहणं पर्यायार्थम्, तेन तिष्येत्यादि सिद्धम् / समाहारे तु तिष्यपुनर्वसु इति भवति // 129 / / विरोधिनामद्रव्याणां नवा द्वन्द्वः स्वैः // 3 // 11130 // 1. तन्मात्रभेदे इत्येव, इमौ बलीवर्दी इतिपाठो ग्राम्येति सूत्रे इमौ गावावित्यनन्तरं योज्य इति भावः / 2. अक्षाश्चेत्यादौ न क्लीबाक्लीबमात्रभेदोऽपि . तुवाच्यभेदोऽप्यस्तीति नैकशेषः / 3. एकशेषेणैकप्रयोगत्वस्य सिद्धत्वादेकपदमर्थद्वारकम्, तथा च सामान्यार्थावबोधकत्वात् शिष्यमाणस्यैकार्थस्य नपुंसकलिङ्गता सेत्स्यति, सामान्ये नपुंसकत्वस्यौत्सर्गिकत्वादिति भावः / 4. एकशेषे सत्येकार्थाभावे यथा सम्भवं द्विवचन बहुवचनं वेत्यर्थः / 5. द्वयर्थ इति पुष्यश्च पुनर्वसू चेति विग्रहे पुनर्वसुशब्दस्य द्विवचनान्तत्वेन समासानन्तरं बर्थत्वाद्बहुवचने प्राप्ते द्वयर्थतां विधीयमानः एकार्थत्वमनुशास्तीति भावः / 6. पुष्यः पुनर्वसू येषान्ते पुष्यपुनर्वसवो मुग्धाः अत्र न सहोक्तिः किन्तु बहुव्रीहिरिति / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते 'द्रव्यं गुणाद्याश्रयः / विरोधिवाचिनां शब्दानामद्रव्याणां द्वन्द्वो वा एकः-एकार्थः स्यात्, स चेद् द्वन्द्र स्वैः सजातीयैरेवारभ्यते / लाभालाभम्, 'लाभालाभौ / सुखदुःखम्, सुखदुःखे / विरोधिनामिति किम् ? कामक्रोधौ / अद्रव्याणामिति किम् ? शीतोष्णे जले / स्वैरिति किम् ? बुद्धिसुखदुःखानि // 130 // ____ अ० लाभालाभमित्यत्र शीतोष्णं, शीतोष्णे, जन्ममरणं, जन्ममरणे, संयोगवियोगं, संयोगवियोगौ, हर्षविषादम्, हर्षविषादौ इत्याधुदाहरणावली अवधार्या / उपचाराच्छीतोष्णादिशब्दो द्रव्ये वर्तते / सुखदुःखाविमौ ग्रामौ / विरोधिनां हि विरोधिन एव स्वा भवन्ति / अत्र बुद्धिर्विरोधिनी न हि / / 130 / / अश्ववडवपूर्वापराधरोत्तराः // 3 / 1 / 13 / / / अश्ववडवेति पूर्वापरेति अधरोत्तरेति त्रयो द्वन्द्वा एकार्था वा स्युः स्वैः / अश्वश्च वडवा च अश्ववडवम्, अश्ववडवौ / अश्ववडवेति सूत्रे निर्देशादेवेतरेतरयोगे ह्रस्वत्वं निपात्यते / पूर्वापरम् पूर्वापरे / अधरोत्तरम्, अधरोत्तरे / स्वैरित्येव ? अजाश्ववडवाः // 131 // ___ अ० अश्ववडवमित्यक्ष एकत्वे सति क्लीबत्वं भवति इति ‘क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति सूत्रेण ह्रस्वः / “यत्र तु पक्षे इतरेतरद्वन्द्वः तत्र सूत्रपाठबलादेव ह्रस्वत्वं निपात्यते / 'पशुव्यञ्जनानाम्' (3 / 1 / 132) इति वक्ष्यमाणसूत्रेणैव पशुद्वारेण विकल्पे सिद्धे यदत्र अश्ववडवग्रहणं तत्पर्यायनिवृत्त्यर्थम् / तेन हयवडवे इत्यत्र न एकत्वम् / तथा पूर्वापरादि इति पाठबलात् पदान्तरेण सहोक्तौ एकत्वं न भवति / यथा पूर्वपश्चिमौ दक्षिणापरौ अधरमध्यमौ उत्तरदक्षिणौ / इयमवचूरिः अजाश्ववडवेत्यत्राग्रे ज्ञातव्या // 131 / / “पशुव्यञ्जनानाम् // 3 / 1 / 132 // पशूनां व्यञ्जनानां च स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो वा भवति / गोमहिषम्, गोमहिषौ / अश्वबलीवईम् अश्वबलीवर्दी / व्यञ्जन, दधिघृतम्, दधिघृते / शाकसूपम्, शाकसूपे / स्वैरित्येव ? गोनरौ दधिवारिणी // 132 // ___ अ० गोमहिषमत्र विकल्पः स्यात् / परं अश्वमहिषमत्र न विकल्पः, वक्ष्यमाण नित्यवैरस्य' (3 / 1 / 141) इति नित्यमेकत्वविधानात् / शाकविशेषः // 132 / / __ तरुतृणधान्यमृगपक्षिणां बहुत्वे // 3 / 1 / 133 // एतेषां बहुत्वे वर्तमानानां प्रत्येकं स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो वा स्यात् / तरु, प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधाः / तृण, कुशकाशम्, कुशकाशाः / धान्य, तिलमाषम्, तिलमाषाः / ब्रीहियवम्, ब्रीहियवाः / मृगः, रुरुपृषतम्, रुरुपृषताः। पक्षि, हंसचक्रवाकम्, हंसचक्रवाकाः। एकस्यापि पदस्य बहुत्वे एकार्थो भवति, प्लक्षश्च न्यग्रोधाश्च, अथवा प्लक्षौ न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधाः, एवमन्येऽपि / बहुत्वे इति किम् ? प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ / प्लक्षौ च न्यग्रोधौ च प्लक्षन्यग्रोधाः / स्वैरित्येव ? प्लक्षयवाः गोपृषताः // 133 // ___ अ० तरुरिति सामान्यवचनेऽपि तरुविशेषा एव गृह्यन्ते / तेन वृक्षाश्च तरवश्व, अथवा धवाश्च वृक्षाश्च इत्येवं 1. इदं तदिति निर्देशयोग्यं द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणमत्र न ग्राह्यं सुखदुःखादीनामपि द्रव्यत्वप्राप्तेरतोऽत्र विवक्षितं द्रव्यं दर्शयति / 2. अत्र सर्वत्र सहानवस्थानलक्षणोऽविरोधो विवक्षितः / 3. अत्र सुखदुःखयोर्विरोधेऽपि बुद्धेरविरोधित्वादसमानजातीयत्वाच्च सजातीयैरेव नारब्ध इति नैकवद्भावोऽपि त्वितरेतरयोग एव / 4. अत्रैकवद्भावे नपुंसकत्वादेव 'क्लीबे' इति सूत्रेण हस्वो भवति इतरेतरद्वन्द्वे तु अश्ववडवेति हस्वान्तनिर्देशादेव ह्रस्व इति भावः / 5. व्यञ्जनानामित्यवयवषष्ठी, तेन पशुविशेषो व्यंजनविशेषश्च ग्राह्यः, पशुपदेन ग्राम्यपशुग्रहणम्, न त्वारण्यानंकुरलादीनां ग्रहः, अग्रिमसूत्रे मृगग्रहणात, व्यञ्जनं येनानं रुचिमापद्यते तद्दधितशाकसूपादि / 6. पाणिनीयेत्वंत्र सामान्यविशेषयोनेतरेतरयोगद्वन्द्वोऽपि भवति / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 255 विग्रहे कृते इतरेतरयोग एव भवति नैकत्वरूपः समाहार इति भावः / प्लक्षाश्च न्यग्रोधाश्च इति बहुत्वे समासः / एवमग्रेपि द्वयोः पदयोर्मध्यादेकस्यापि पदस्य बहुत्वे समासे कृते / आरण्याः पशवो मृगा इति मृगाणामपि पशुत्वात् 'पशुव्यञ्जनानाम्' (3 / 1 / 132) इत्यनेनैव सिद्धे 'यत्तरुतृणधान्यमृगपक्षिणां बहुत्वे' इत्यत्र मृगोपादानं तद्यदा ग्राम्यपशूनामरण्यपशुभिः सहोक्तिर्भवति तदा एकत्वं मा भूदिति ज्ञापयति, एषाऽवचूरिः 'तरुतृणे' ति सूत्रपाठान्ते ज्ञातव्याः // 133 // सेनाङ्गक्षुद्रजन्तूनाम् // 3 / 1 / 134 // सेनाङ्गानां क्षुद्रजन्तूनां च बहुत्वे वर्तमानानां स्वैर्द्वन्द्वः एकार्थों नित्यं स्यात् / पृथग्योगानवेति निवृत्तम् / अश्वाश्च रथाश्च अश्वरथम्, 'हस्त्यश्वम्, क्षुद्रजन्तवोऽल्पकायाः प्राणिनः आनकुलमिह स्मर्यन्ते / यूकालिक्षम्, दंशमशकम्, स्वैरित्येव ? हस्तिमशकाः // 134 // फलस्य जातौ // 3 / 1 / 135 // फलवाचिशब्दानां बहुत्वे वर्तमानानां जातौ विवक्षितायां स्वैर्द्वन्द्वः एकार्थः स्यात् / बदराणि चामलकानि च बदरामलकम् / जाताविति किम् ? व्यक्तिपरोक्तौ सत्यां मा भूत्, एतानि बदरामलकानि तिष्ठन्ति / स्वैरित्येव ? बदरशृगालाः // 13 // __ अ० व्यक्तिः परं प्रधानं यस्यामुक्तौ सा व्यक्तिपरा / व्यक्तिपरा चासौ उक्तिश्च व्यक्तिपरोक्तिः तस्याम्, २'फलस्य जातौ' इति पूर्वसूत्रे फलशब्दानामेकत्वविधानम् / तच्च अप्राणिपश्चादेः' (3 / 1 / 136) इत्यनेनैव सिद्धम्, फलानामप्राणित्वात् / यत्पुनः ‘फलस्य जातौ' सूत्रं तद्बहुत्वनिवृत्त्यर्थं, बहुत्वमिति ‘फलस्य जातौ' अत्रैव स्थितं नागेतनसूत्रेषु प्रसरति इति पूर्वयोगारम्भात् इत्यक्षरपरमार्थबृहद्धृत्तौ पूर्वयोगारम्भात् जातिविवक्षायां 'अप्राणिपश्चादे' रिति सूत्रं प्रवतते, व्यक्तिविवक्षायां तु यथाप्राप्तम् / / 135 / / ___ अप्राणिपश्वादेः // 3 // 1 // 136 // बहुत्वे इति निवृत्तम् / प्राणिभ्यः पश्चादिसूत्रोक्तेभ्यश्च येऽन्ये 'द्रव्यवाचिनस्तेषां जातौ वर्तमानानां शब्दानां स्वैर्द्वन्द्रः एकार्थः स्यात् / आराशस्त्रि धानाशष्कुलि कुण्डबदरम् / जातावित्येव ? सह्यविन्ध्यौ / प्राण्यादिवर्जनं किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः, ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रम्, गोमहिषौ, गोमहिषम्, दधिघृते दधिघृतमित्यादि // 136 // अ० आराशस्त्रि, आराशस्त्र्यौ इमे / आरा च शस्त्री च, 'क्लीबे' (2 / 4 / 97) इति ह्रस्वः / धाना च शष्कुली च, युगवस्त्रमित्यपि तरुशैलं इत्यपि / प्राणिपश्वादिजातिवर्जनं किम् ? 'पशुव्यञ्जनानाम्' (3 / 1 / 132) इत्यनेन एकत्वं वा / आदिशब्दात् प्लक्षन्यग्रोधौ कुशकाशौ व्रीहियवौ रुरुपृषतौ हंसचक्रवाकौ अश्वरथौ इत्यत्र 'सेनाङ्ग.' (3 / 1 / 134) इति वा एकत्वम् / सूत्रे अप्राणि इति प्राणिनो द्रव्यस्य पर्युदासेन अप्राणिनोऽपि द्रव्यस्य ग्रहणादिह न भवति रूपरसगन्धस्पर्शाः, उत्क्षेपणावक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि, अत्र न एकत्वमितरेतरद्वन्द्वः प्रवृत्तः // 136 / / 1. अत्र पूर्वसूत्रे पशुग्रहणादेकवद्भावे प्राप्तेऽनेनैकार्थो नित्यः / 2. बदरामलकादिफलानामप्राणिद्रव्यत्वेनाप्राणिपश्वादेरित्यनेनैवैकत्वविधाने सिद्धे यत्फलस्य जाताविति सूत्रणं तदेतत्सूत्रानन्तरं न बहुत्वपदानुवृत्तिरिति सूचयितुम्, एतत्सूत्रे तु तदस्त्येव, पुनर्योगारम्भात् तस्माद्बहुत्वे वर्त्तमानानां फलवाचिनां जातौ विवक्षितायां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो भवति न व्यक्तिविवक्षायामिति प्रत्यक्षरं यथार्थभूतायां बृहद्वृत्तावुक्तमिति भावः / 3. द्रव्यवाचिन इति सदृग्ग्राहिणं पर्युदासार्थनञमङ्गीकृत्याप्राणिपश्वादेरित्युक्तत्वाल्लभ्यते, न तु गुणक्रियाजातीनामेकवद्भावः / ब्राह्मणेति जाती बहुवचनान्तानामितरेतरयोगः समाहारश्च / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते प्राणितूर्याङ्गाणाम् // 3 / 1137 // 'प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गाणां च स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् / प्राण्यङ्ग, दन्ताश्च ओष्ठौ चेदं दन्तोष्ठम्, इदं पाणिपादम्, इदं कर्णनासिकम् / तूर्याङ्ग, इदं शङ्कपटहम्, इदं भेरीकाहलम् / स्वैरित्येव पाणिगृध्रौ, पीठपटही // 137 // अ० शङ्खादीनि शाङ्खिकवादकादयः, तेषां समुदायः तूर्यमुच्यते तूर्याणां अङ्गा-अवयवाः // 137 // . चरणस्य स्थेणोऽद्यतन्यामनुवादे // 3 // 11138 // 'चरणाः कठादयः, प्रमाणान्तरप्रतिपन्नस्यार्थस्य शब्देन सङ्कीर्तनमनुवादः / अद्यतन्यां परभूतायां यौ चरणस्थेणी तयोः कर्तृत्वेन सम्बन्धिनो ये चरणास्तद्वाचिशब्दानां स्वैर्द्वन्द्वोऽनुवादविषये एकार्थः स्यात् / प्रत्यष्ठात् कठकालापम् / उदगात् कठकौथुमम् / 'एषामुदयप्रतिष्ठे कोऽप्यनुवदति // 138 // अ० कठेन प्रोक्तो वेदः 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) इत्यण् ‘कठादिभ्यो वेदे लुप्' (6 / 3 / 183) इत्यनेन अण् लुप्यते / कटं वेत्त्यधीते वा 'तद्वेत्त्यधीते' (6 / 2 / 117) अण् 'प्रोक्तात्' (6 / 2 / 129) इत्यणो लुप्, एवं 'कलापिना प्रोक्तो वेद इत्यादि / कठश्च कालापश्च कठाश्च कालापाश्चेति वा इत्यादि-वाक्यानि / प्रत्यष्ठात् स्था प्रतिपूर्वः अद्यतनी दि 'सिजद्यतन्यां' (3 / 4/53) 'पिबैतिदाभूस्थःसिचो लुप् परस्मै न चेट्' (4 / 3 / 66) सिच् लुप्यते, अट् / उदगात्इण्क् गतौ उत्पूर्वं अद्यतनी सिच् ‘इणिकोर्गा' (4 / 4 / 23) इणो गा आदेशः // 138 / / __अक्लीबेऽध्वर्युक्रतोः // 3 // 11139 // अध्वर्यवो यजुर्वेदविदः, तेषां वेदोऽप्यध्वर्युः, यजुर्वेदोक्ताः क्रतवोऽश्वमेधादयोऽध्वर्युक्रतवः, अध्वर्युक्रतुवाचिशब्दानां स्वैर्द्वन्द्र एकार्थो भवति, अक्लीबे / अध्वर्युक्रतुवाची शब्दचैन क्लीबः / अर्काश्वमेधम् // 139 // _ निकटपाठस्य // 3 / 1 / 140 // निकटः पाठो येषामध्येतॄणां ते निकटपाठाः, तद्वाचिनां द्वन्द्वः स्वैरेकार्थः स्यात् / पदकक्रमकम् / पदानन्तरं क्रमस्य पाठात्पाठयोनिकटत्वम् // 140 // अ० पदमधीते क्रममधीते ‘पदक्रमशिक्षामीमांसासाम्नोऽकः' (6 / 2 / 126) इति. अकप्रत्ययः / पदकश्च क्रमकश्च पदकक्रमकम् // 140 // नित्यवरस्य // 3 // 1 // 14 // नित्यमकारणं जातिनिबद्धं वैरं येषां तद्वाचिशब्दानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् / अहिनकुलम् ब्राह्मणश्रमणम्, अश्वमहिषम्, गोव्याघ्रम्, काकोलूकम्, नित्यवैरस्येति किम् ? देवासुराः देवासुरम् // 141 // अ० तद्वाचि(शब्दा)नां कोऽर्थः नित्यवैरवाचिनाम्, पशुविकल्पः पक्षिविकल्पश्च परत्वात्, 'नित्यवैरस्य' इत्यनेन बाध्यते / कौरवपाण्डवाः, कौरवपाण्डवम् / कौरवपाण्डवानां देवानां असुराणां च न जातिनिबद्धं वैरम्, किन्तु 1. अत्र द्वन्द्वान्ते श्रुताङ्गशब्दस्य प्रत्येकं योगात् प्राण्यङ्गानां प्राण्यङ्गैस्तूर्याङ्गाणां तूर्याङ्गैः समास एकवद्भवति न व्यतिरेकेण तेन प्राणि...- गृध्रावित्यादौ नैकत्वम्, प्राण्यङ्गं प्राण्यवयवः, तूर्याङ्गं तूर्योपकारकम् / 2. वेदशाखाध्येतारः कठादयश्चरणाः, पदा प्रतिपत्त्रा प्रमामान्तरेणावगतमप्यर्थं कार्यान्तरार्थं प्रयोक्ता प्रतिपाद्यते तदाऽनुवादो भवतीत्यर्थः / ते चरणा यदा लुङन्तस्थाधातोलुंडन्तेण्धातोः कर्तारो भवन्ति तदा तेषां द्वन्द्वोऽनुवादे एकार्थः स्यादिति भावः / 3. यदा कठेषु कालापेषु च प्रतिष्ठितेषु कठेषु कौंथुमेषु चोदितेषु आवाभ्यां तत्र गन्तव्यमिति संकेतयित्वा तत्संकेतं विस्मृत्यासीनं प्रतीदं वाक्यमुच्यत इति भावः / 4. कलापिना प्रोक्तं वेदमधीयते इत्यर्थे तेन प्रोक्तेत्यणि 'कलापिकुथुमि' (74 / 12) इत्यनेन अन्त्यस्वरादिलोपे कालापा इति भवति / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 257 राज्यदेव्याद्यपहारांदिकृतमिति नैकत्वम् / / 141 / / नदीदेशपुरां विलिङ्गानाम् // 3 // 1 // 142 // विविधलिङ्गानां नदीदेशपुरवाचिशब्दानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो भवति। नदी, गङ्गाशोणम् / देश, कुरुकुरुक्षेत्रम् / पुर, मथुरापाटलिपुत्रम् / स्वैरित्येव ? शौर्य च नगरं केतवता च ग्रामः शौर्यकेतवते / विलिङ्गानामिति किम् ? गङ्गायमुने, मद्रकेकयाः, मथुरातक्षशिले // 142 // . ___ अ० विविधं लिङ्गं येषां ते विलिङ्गाः तेषाम् / गङ्गा च शोणश्च गङ्गा स्त्रीलिङ्गः शोणश्च पुल्लिङ्ग इति विलिङ्गत्वं सर्वत्र / कुरवश्च कुरुक्षेत्रं च, मथुरा च पाटलिपुत्रं च / पुर्शब्दस्य देशाङ्गत्वाद्देशग्रहणेनैव सिद्धे पुग्रहणं ग्रामनिषेधार्थम्, जाम्बवश्च शालूकिनी च जाम्बवशालूकिन्यौ ग्रामौ, अत्र नैकत्वम् / गङ्गा च यमुना च, मद्राश्च केकयाश्च / / 142 / / पात्र्यशूद्रस्य // 3 // 1143 // यैर्मुक्ते पात्रं संस्कारेण शुद्धयति ते पात्रमहन्तीति पात्र्याः / पात्र्यवाचिनां शूद्रवाचिनां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थों भवति / तक्षायस्कारम्, रजकतन्तुवायम्, किष्किन्धगन्धिकम्, शकयवनम्, पात्र्येति किम् ? जनंगमबुकसाः। शूद्रेति किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियविशः // 143 // .. अ. पात्र्यश्चासौ शूद्रश्च / यैः-रजकादिनरविशेषैः, पात्रं-भाजनं, पात्रमर्हति (इति) पात्र्यः ‘पात्रात्तौ' (6 / 4 / 180) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, कारीषभस्मसुवर्णजादिना सूत्रधारलोहारठठाररजकादयः / किष्किन्धाः गन्धिकाः शकाः यवनाः एते चत्वारो म्लेच्छभेदाः / जनङ्गमाः-अन्त्यजाः / / 143 / / गवाश्वादिः // 3 / 1 / 144 // गवाश्वादिर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् / गौश्च अश्वश्च गवाश्वम् / गवाविकमित्यादि // 14 // अ० गवाश्चादिगणे गवाश्वादि आरभ्य अजैडकं यावत्, ‘पशुव्यञ्जनानाम्' (3 / 1 / 132) इति विकल्पे प्राप्ते, अत्र गवाश्वादिसूत्रे नित्यार्थं पाठः कृत इति भावः / ‘स्वरेऽवाऽनक्षे' (1 / 2 / 29) इति अवादेशः / आदिशब्दात् गवैडकम्, अजाविकम्, अजैडकम्, कुब्जवानम्, कुब्जकिरातकम्, पुत्रपौत्रम्, नित्यवैराभावपक्षे श्वचण्डलाम्, स्त्रीकुमारम्, दासीमाणवकम्, उष्ट्रखरम्, उष्ट्रशशम्, मूत्रशकृत्, मूत्रपुरीषम्, यकृन्मेदः, मांसशोणितम्, दर्भशरम्, दर्भपूतीकम्, अर्जुनपुरुषम्, तृणोलुपम्, तथा कुडीकुडम्, दासीदासम्, भागवतीभागवतम्, एषु त्रिषु 'पुरुषः स्त्रिया' (3 / 1 / 126) इत्येकशेषो न भवति / निपातनादिति गवाश्चादिगणः / गवाश्वादिषु यथोच्चारितशब्दरूपग्रहणादन्यत्र नायं विधिः / गोऽश्वौ गोऽश्वम्, गोअश्वौ / गोअश्वम् / गवेलकौ गवेलकम्, एषु पशुविभाषा / 'चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ' (3 / 1 / 117) इति प्राप्तो नित्यार्थोऽयं पाठः / 'चण्डालपाटके ये श्वानो वसन्ति तेऽत्र विवक्षिताः पशुत्वात् विकल्पे प्राप्ते, दर्भादिषु तृणजातित्वाद्विकल्पे प्राप्ते (नित्यार्थमत्रः पाठः) पुरुषस्तृणविशेषः / गवाश्वादिषु ‘स्वरेऽवाऽनक्षे' (1 / 2 / 29) इत्यनेन अव आदेशो वा, गो अश्वौ गोऽश्वौ अत्र तु 'वात्यसन्धिः' (1 / 2 / 31) इति असन्धिर्वा भवति // 144 / / न दधिपयआदिः // 3 / 1 / 145 // दधिपयःप्रभृतिर्द्वन्द्व एकार्थो न भवति। दधि च पयश्च दधिपयसी, सर्पिर्मधुनी, मधुसर्पिषी, शिववैश्ववणी, 1. श्वचाण्डालमित्यत्र चण्डालगृहद्वारे ये श्वानो वसन्ति ते विवक्षिता इत्याह / तथा दर्भशरमित्यादौ विशेषमाह दर्भादिष्विति / 2. अर्जुनपुरुष इत्यत्र पुरुषशब्दस्तृणविशेषर इत्याह-पुरुष इति / मूलोक्तगवाश्वादिविषये आह-गवाश्वादिष्विति / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलकृते आयवसाने, सूर्याचन्द्रमसौ, मित्रावरुणौ, अग्नीषोमौ, सोमारुद्रौ, नारदपर्वती, नरनारायणी, रामलक्ष्मणौ, भीमार्जुनौ, कम्बलाश्वतरौ, मातापितरौ, पितापुत्री, श्रद्धामेधे, शुक्लकृष्णे, वाङ्मनसी, दीक्षातपसी, श्रुततपसी, अध्ययनतपसी, उलूखलमुशले // 145 // ____ अ० दधिपयसी, मधुसर्पिषी, सर्पिर्मधुनी, 'अत्र (पशु) व्यञ्जनेति विकल्पे ‘ई:षोमवरुणेऽग्नेः' (3 / 2 / 42) इति ईत्वं षत्वं / शिववैश्रवणादिष्वन्यत्र 'चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ' (3 / 1 / 117) इति समाहारद्वन्द्वे एकत्वप्राप्तिः 'आ' द्वन्द्वे' (3 / 2 / 39) इत्याकारः / 'पुत्रे वा' (3 / 2 / 31) विरोधिनामिति प्राप्तिः / 'अप्राणिपश्वादेः' (3 / 1 / 136) इति प्राप्तिः प्रतिषेधोऽयम् // 145 // सङ्ख्याने // 3 // 1 // 146 // ___ इयत्तापरिच्छेदः सङ्ख्यानम्, 'वर्तिपदार्थानां सङ्ग्याने-गणने गम्यमाने द्वन्द्व एकार्थो न स्यात् / दश गोमहिषाः, बहवः प्लक्षन्यग्रोधाः, दश हस्त्यश्वाः, कति मार्दङ्गिकपाणविकाः, द्वौ गङ्गाशोणी, इयन्तो गवाश्वाः // 146 // वान्तिके // 3 // 11147 // वर्तिपदार्थानां सङ्ग्यानस्यान्तिके-समीपे गम्यमाने द्वन्द्व एकार्थो वा स्यात् / उपगता दश यस्य येषां वा उपदशं गोमहिषम्, गोमहिषाः // 147 // ___ अ० द्वन्द्वार्थस्यैकत्वात् तदनुप्रयोगस्य उपदशेतिरूपस्य बहुव्रीहिरेकवचनान्तत्वम् / यथा उपदशं गोमहिषम् / द्वन्द्वैकत्वशब्दस्य वचनं अनुप्रयोगस्यापि भवति / उपदशाय गोमहिषाय उपदशेभ्यो गोमहिषेभ्यः / यदा तु दशाना समीपं उपदशं इत्यव्ययीभावस्तदा उपदशं गोमहिषाय इत्येव भवतीत्यर्थः / / 147 / / / . प्रथमोक्तं प्राक् // 3 / 1 / 148 // अत्र समासप्रकरणे प्रथमान्तेन पदेन यदुक्तं-निर्दिष्टं तत्प्राक्-पूर्व निपतति / आसन्नदशाः, सप्तगङ्गम्, ऊरीकृत्य, कष्टश्रितः, पञ्चाम्राः // 148 // राजदन्तादिषु // 3 / 1 / 149 // राजदन्त इत्यादिषु समासेष्वप्राप्तपूर्वनिपातं प्राग् निपतति / दन्तानां राजा राजदन्तः, "लिप्तवासितम्, ऋणेऽधमोऽधमर्णः, ऋणे उत्तमः उत्तमर्णः, उलूखलमुशले, दारजारौ दारशब्द एकवचनान्तोऽप्यस्ति, अत्रानियमे दारार्थम्, दारार्थो / विष्वक्सेनार्जुनौ, विषयेन्द्रियाणि, गजाश्वौ एवं भार्यामती, स्वसृपती, जायापती, जम्पती, दम्पती, गणपाठाज्जायाशब्दस्य जंभावो दंभावश्च वा निपात्येते / कुबेरकेशवौ, नरनारायणौ, अWत्वानारायणस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादिबलात् नरस्य पूर्वनिपातः / एवं काकमयूरो, उमामहेश्वरौ, एवं सोमारुद्रौ, विष्णुवासवौ // 149 // 1. अत्र पशुव्यञ्जनेतीति, पशुव्यञ्जनानामितिसूत्रेण दधिपयसी सर्पिर्मधुनीत्यत्र विकल्पेन प्राप्तस्यैकार्थत्वस्य निषेध इति भावः / 2. सूर्या चन्द्रमसावित्यादौ वेदसहेत्यादिसूत्रेणाऽऽत्वम्, मातापितरावित्यत्रेत्यादिः / पितापुत्रावित्यत्र 'पुत्रे' वेत्यात्याकारः, श्रद्धामधे इत्यादी विरोधिनामद्रव्याणामित्यनेन वैकार्थः प्राप्तः, उलूखलमुसले इत्यत्राप्राणिपश्वादेरिति एकार्थताप्राप्तिः, सर्वेषामयं प्रतिषेध इति भावः / 3. समासस्याश्रयो वर्तिपदार्थस्तस्येयत्तायाः संख्यायाः परिच्छेदे गम्यमान इत्यर्थः / 4. पूर्व वासितं पश्चालिप्तमित्यत्र 'पूर्वकाले ति समासे प्रथमोक्तत्वेन वासितशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते लिप्तस्य पूर्वनिपातः / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः 259 अ० दन्तानां राजा इति वाक्ये राजदन्त इति प्रयोगः / अत्र षष्ठीति सूत्रे प्रथमान्तं पदम् / 'प्रथमोक्तं प्राक्' (3 / 1 / 148) इति सूत्रेण प्रथमान्तं पूर्वं निपततीति दन्तशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजशब्दस्य, राजदन्तादिगणबलादनेन ' पूर्वनिपातः सिद्धः / एवं सर्वत्र भावना / लिप्तवासितम्, सिक्तसंसृष्टम्, भृष्टलुञ्चितम्, नग्नमुषितमित्यादिषु 'पूर्वकालैकसर्व' 0 (3 / 1 / 97) इत्यादिना वासितादिशब्दानां 'प्रथमोक्तं प्राक्' इति पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादिबलाल्लितसिक्तभृष्टनग्नानां पूर्वनिपातः, अधमर्ण उत्तमर्ण इत्यत्र सप्तमीति प्रथमोक्तत्वेन ऋणस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते 'राज०' अनेन पूर्वनिपातः / उलूखलमुशलेत्यत्राल्पस्वरत्वात् पूर्वं मुशलः पश्चादुलूखलस्य निपातः परमनेन उलूखलस्य पूर्वनिपातः / दारार्थं दारार्थौ अत्र तु वक्ष्यमाणलघ्वक्षरासखीत्यादिसूत्रेण स्वराद्यदन्तत्वादर्थशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादिगणपाठबलात् दारशब्दस्य पूर्वनिपातो भवति / दारजारौ जारदारौ इति अनियमे सति पूर्वनिपातस्याऽनिश्चयादनेन दारः पूर्वं निपात्यते / ‘राजदन्तादिषु' अत्र बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन क्वचिद्विकल्पः पुरुषोत्तमः उत्तमपुरुषः, मध्यगृहं गृहमध्यम्, अधरबिम्बं बिम्बाधरः, ओष्ठबिम्बं बिम्बोष्ठ इत्यादि उदाहरणावली सिद्धा / इयमवचूरिः उमामहेश्वरौ इत्यस्याग्रे ज्ञातव्या / अधरो बिम्बमिव अधरबिम्बः, ओष्ठो बिम्बमिव ओष्ठबिम्बः 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः०' (3 / 1 / 102) इति समासः // 149 // _ विशेषणसर्वादिसङ्ख्यं बहुव्रीहौ // 3 // 1 // 150 // विशेषणवाचि नाम सर्वादि नाम सङ्ग्यावाचि नाम बहुव्रीही पूर्व निपतति / चित्रगुः / सर्वादिनाम, सर्वशुक्लः, सर्वसारः सर्वगुरुः / संख्या, द्वौ कृष्णौ गुणावस्य द्विकृष्णः, चतुर्हस्वः, पञ्चदीर्घः / बहुव्रीहाविति किम् ? उपसर्वम् // 150 // . . . . अ० 'विशेषणे ति सूत्रेऽयं विशेषो ज्ञेयः / षडुनतः सप्तरक्तः अत्र उन्नतरक्तशब्दौ न क्तान्तौ, अपि तु गुणशब्दो, तेन स्पर्द्ध सति क्तलक्षणो न पूर्वनिपातः / यथा त्र्यन्यः, द्वियुष्मत्कः द्वौ युवां यस्येति विग्रहः / तथा 'प्रथमोक्तं' 0 (3 / 1 / 148) इत्यनेनानियमे प्राप्ते नियमार्थमयं योगः / सर्वादिसङ्खचयोर्विशेषणत्वेऽपि शब्दपरस्पर्धार्थं इदं विशेषणेति पृथग्वचनं कृतमिति भावः // 150 / / क्ताः // 3 / 1 / 151 // ___क्तप्रत्ययान्तं सर्व बहुव्रीही पूर्व निपतति / कृतः कटोऽनेन कृतकटः / बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन कृतप्रिय इत्यत्र 'प्रिय' (3 / 1 / 157) इति सूत्रेणापि स्पर्द्ध सति क्तान्तस्य प्राग् निपातः // 151 // अ० क्तान्तस्य विशेषणत्वात् 'विशेषणं०' (3 / 1 / 96) इत्यनेनैवसिद्धयति / विशेष्यार्थं तु वचनम् / कटे कृतमनेन इति युक्त्यापि वाक्ये कृते कृतकट इति सिद्धम् / अथवा स्पर्द्ध परत्वार्थं वचनमिदम्, तेन कृतभव्यकटः कृतविश्व इति सिद्धम् // 151 / / जातिकालसुखादेर्न वा // 3 / 1152 // जातिवाचिकालवाचिशब्देभ्यः सुखादिशब्देभ्यश्च बहुव्रीही पूर्व क्तान्तं वा निपतति / जाति, शाङ्गरजग्धी जग्धशाङ्गरा / पाणिगृहीती गृहीतपाणिः / कटकृतः कृतकटः / मासयाता यातमासा / मासगतः गतमासः। 1. विशेषणविशेष्योः बहुव्रीही प्रथमोक्तत्वेऽपि विशेषणमेव पूर्व निपतति यथा चित्रगुः, विशेषणसर्वादेर्बहुव्रीही एतत् सूत्रोदितशब्दक्रमेण पर एव पूर्व निपतति यथा सर्वश्वेतः, एवं विशेषणसंख्ययोः बहुव्रीही संख्या पूर्वं निपतति यथा षडुन्नतः, सर्वादिसंख्ययोर्बहुव्रीही संख्यैव, यथा त्र्यन्यः उभयोः सर्वादित्वे बहुव्रीहावपि संख्येव यथा द्वियुष्मत्कः इत्येवं अस्मिन् सूत्रे विशेषो विज्ञेयः / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते सुखादयो दश सुखयाता यातसुखेत्यादि // 152 // अ० शाङ्गरस्य वृक्षस्य विकारः फलं 'दोरप्राणिनः' (6 / 2 / 49) इति सूत्रेण मयट्, ‘फले' (6 / 2 / 58) लुक् इति सूत्रेण मयट लुप्यते / शाङ्गरं जग्धमनया शाङ्गरजग्धी 'अनाच्छादजात्या०' (2 / 4 / 47) इति ङीः / पाणौ गृह्यते स्म इति पाणिगृहीती 'क्तक्तवतू' (5 / 1 / 174) अथवा पाणिर्गृहीतोऽस्याः पाणिगृहीती / सुखदुःख तृप्र कृच्छ्र अस्र अलीक करुण कृपण सोढ प्रतीप इति सुखादिशब्दाः / दुःखहीना हीनदुःखा // 152 / / आहिताग्न्यादिषु // 3 // 1153 // आहिताग्न्यादिषु बहुव्रीही तान्तं पूर्व वा निपतति / आहितोऽग्निर्येन स आहिताग्निः अग्न्याहितः / जातपुत्रः पुत्रजात इत्यादि // 153 // / ___अ० आहिताग्निः / आदिशब्दात् जातदन्तः दन्तजातः / जातश्मश्रुः श्मश्रुजातः / पीततैलः तैलपीतः / पीतघृतः घृतपीतः / पीतमद्यः मद्यपीतः / पीतविषः विषपीतः / ऊढभार्यः भार्योढः / गतार्थः अर्थगतः / छिन्त्रशीर्षः शीर्षच्छिन्नः इति आहिताग्निगणः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तेन पीतदधिः दधिपीतः इत्यादयोऽपि ज्ञातव्याः / 'धागः' (4 / 4 / 15) इत्यनेन दधातेर्हिरादेशः 'आः खनिसनिजनः' (4 / 2 / 60) इत्यनेन आत्वम् // 153 / / प्रहरणात् // 3 / 1 / 154 // प्रहरणवाचिशब्दात् क्तान्तं बहुव्रीही पूर्व वा स्यात् / उद्यतोऽसिरनेन 'उद्यतासिः अस्युद्यतः / आकृष्टधन्वा धनुराकृष्टः / उद्यतमुशलः मुशलोद्यतः // 154 // अ० २कलितप्रहरणः / प्रहरणकलितः // 154 // - न सप्तमीन्द्वादिभ्यश्च // 3 // 1 // 15 // . नवेति 'निवृत्तं नप्रकरणात्, इन्दु आदेः प्रहरणवाचिशब्दाच्च पूर्व सप्तम्यन्तं न निपतति बहुव्रीहौ / इन्दुहेलौ यस्य (स) इन्दुमौलिः चन्द्रमौलिः इत्यादि / प्रहरणात्, असिः पाणावस्य असिपाणिः दण्डपाणिः चक्रपाणिः पाशहस्तः / बहुलाधिकारात् पाणिवज्रः हस्तवज्रः / अत्र पूर्वनिपातोऽपि प्रयोगानुसारार्थम् / एवमुत्तरत्रापि // 155 // . अ० 'न सप्तमी'त्यादि / अत्र सप्तम्यन्तशब्दस्य विशेषणत्वात् 'विशेषणसर्वादि०' (3 / 1 / 150) इत्यनेन पूर्वनिपाते प्राप्ते पूर्वनिपातनिषेधसूत्रमिदम् / इन्दुमौलिः चन्द्रमौलिः शशिशेखरः पद्मनाभः ऊर्णनाभः / ऊर्णा नाभौ यस्य 'नाभेर्नाम्नि' (7 / 3 / 134) इत्यत् ‘ड्यापो बहुलं नाम्नि' (2 / 4 / 99) ह्रस्वः / पद्महस्तः शङ्खपाणिः दर्भपवित्रपाणिः पद्मपाणिरित्यादि / प्रहरणात्, असिपाणिः खङ्गपाणिः दण्डपाणिः शूलपाणिः चक्रपाणिः शार्ङ्गपाणिः धनुष्यपाणिः धनुहस्तः पाशहस्तः खङ्गहस्तः / वज्रहस्तः वज्रपाणिः इति प्रयोगाः // 155 / / गड्वादिभ्यः // 3 // 11156 // नवेत्यनुवर्तते पृथग्वचनात् गड्वादिभ्यो बहुव्रीहौ सप्तम्यन्तं पूर्व वा निपतति / गडुः कण्ठे यस्य कण्ठे गडुः गडुकण्ठः इत्यादि // 156 // 1. अत्र 'जातिकालेत्यनेन जातिशब्दानां अस्यादीनां पूर्वनिपाते सिद्धावपि व्यक्तेर्विवक्षायां तत् सिद्धयर्थमिदम् / 2. प्रहरणवाचिशब्दोऽस्यादिवत् प्रहरणशब्दोऽपि भवतीत्याशयेन 'कलितप्रहरणः' इत्युदाहृतम् / 3. अस्मिन्नेव सूत्रे इति शेषः / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अ० आदिशब्दात् शिरसिगडुः गडुशिराः, शिरस्यरुः, अरुशिराः, मध्येगुरुः गुरुमध्यः, अन्तेगुरुः गुर्वन्त इति गड्वादिः / / 156 / / प्रियः // 3 // 1157 // __प्रियशब्दो बहुव्रीहौ प्राग्वा निपतति / प्रियगुडः गुडप्रियः / प्रियविश्वः विश्वप्रियः / प्रियचत्वाः चतुष्प्रियः // 157 // कडारादयः कर्मधारये // 3 / 1 / 158 // कडारादिशब्दाः कर्मधारये पूर्व वा निपतन्ति / कडारजैमिनिः जैमिनिकडारः। काणद्रोणः द्रोणकाणः / गौरगौतमः गौतमगौरः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन नटबधिरादयोऽपि // 158 // ___ अ० जेमिनस्यापत्यं जैमिनिः, बाह्वादि० (6 / 1 / 32) रितीन् / कडारः-कपिलवर्णः / जैमिनिश्चासौ कडारश्च / एवं पिङ्गलमाण्डव्यः माण्डव्यपिङ्गलः / वृद्धमनुः मनुवृद्धः / बढरच्छान्दसः छान्दसबढर इत्यपि / कडारादिशब्दानां 'गुणवचनत्वात्, द्रव्यशब्दात् नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते पक्षे परनिपातार्थं 'कडारादयः कर्मधारये' इति सूत्रं कृतम् // 158|| धर्मार्थादिषु द्वन्द्वे // 3 // 1159 // धर्मार्थादौ द्वन्द्वे समासेऽप्राप्तपूर्वनिपातं पूर्व वा निपतति / धर्मायौ, अर्थधर्मों / कामार्थों, अर्थकामौ / शब्दार्थों, अर्थशब्दौ / आद्यन्तौ, अन्तादी / चन्द्रार्की, अर्कचन्द्रौ / सर्पिर्मधुनी, मधुसर्पिषी / गुणवृद्धी, वृद्धिगुणौ / दीर्घलघू, लघुदी? / चन्द्रराहू, राहुचन्द्रौ / कुशकाशम्, काशकुशम् / चन्द्रादित्यौ, आदित्यचन्द्रौ / एषु सर्वत्र लघ्वक्षरेति नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते विकल्पार्थं वचनमिदम्, बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन वसन्तग्रीष्मी, ग्रीष्मवसन्तौ / शुक्रशुची, शुचिशुक्रावित्यादयो ज्ञेयाः // 159 // ___ अ० धर्मार्थी इत्यारभ्य अर्कचन्द्रौ यावत् लघ्वक्षरेति सूत्रेण स्वरादि अदन्तद्वारेण नित्यं पूर्वनिपात प्राप्तिः / तथा सर्पिर्मधुनीत्यारभ्य राहुचन्द्रौ यावत् ‘लघ्वक्षर०' (3 / 1 / 160) इति वक्ष्यमाणसूत्रेण इदुदन्तद्वारेण नित्यं पूर्वनिपातप्राप्तिः / तथा कुशकाशेत्यत्र 'लघ्वक्षर०' इत्यनेन लघ्वक्षरद्वारेण नित्यं पूर्वनिपातप्राप्तिः / चन्द्रादित्येत्यत्र 'लघ्वक्षर०' इत्यनेन अल्पस्वरद्वारेण नित्यं पूर्वनिपातप्राप्तिः / तथा तपःश्रुते श्रुततपसी, द्रोणभीष्मी, भीष्मद्रोणौ, अत्र 'लघ्वक्षरे' त्यनेन अर्घ्यद्वारेण तपोभीष्मयोः पूर्वनिपातप्राप्तिः / तथा ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः शूद्रवैश्यक्षत्रियविप्राः / भीमसेनार्जुनौ अर्जुनभीमौ, देवापिशंतनू शंतनुदेवापी; इत्यत्र वक्ष्यमाण मासवर्ण०' (3 / 1 / 161) इत्यादिना ब्राह्मणादेरनुपूर्वं निपातप्राप्तिः / इति धर्मार्थति सूत्रं कृतम् / / 159 // लघ्वक्षरासखीदुत्स्वराद्यदल्पस्वरा~मेकम् // 3 / 1 / 160 // पृथग् योगानवेति निवृत्तम् / लघ्वक्षरं, सखिवर्जित इकारोकारान्तं, स्वरादि अकारान्तं, अल्पस्वरं, अर्यवाचि च शब्दरूपं द्वन्द्वे प्राग् निपतति / यत्र चानेकानां प्राग्निपातसम्भवः तत्रैकमेव निपतति / लघ्वक्षरतिलमाषम्, असखीदूत्- अग्निधूमम्, पतिसुतौ, वायुतोयम्, सखिवर्जनं किम् ? सुतसखायौ, सखिसुतौ, 1. गुणवचनाः ते भवन्ति ये शब्दाः गुणप्रतिपादनमुखेन गुणिनं बोधयन्ति / 2. अर्थादिशब्दानामिति शेषः, तेन धर्मादिशब्दानामप्राप्तनिपातत्वात् ___ अनेन वा पूर्वनिपातः / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते स्पर्द्ध परमेव व्रीहियवौ / असखीदुदित्यैकपद्यादिदुतोः स्पः कामचारः, पतिवसू वसुपती / स्वराद्यत्अस्त्रशस्त्रम्, इन्द्रचन्द्रौ, अश्वरथम्, उष्ट्रमेषम्, ऋष्यरौहिती, स्पर्द्ध परमेव, उष्ट्रखरम्, इन्द्राविष्णू, अर्केन्दू / अल्पस्वर- प्लक्षन्यग्रोधौ। अW- श्रद्धामेधे। स्पर्द्ध परम्, दीक्षातपसी, श्रद्धातपसी, मातापितरौ, वासुदेवार्जुनौ, रुद्रेन्द्रौ // 160 // ___अ० अक्षरशब्देन स्वर उच्यते / लघ्वक्षरेति सूत्रे एकमिति किम् ? इति व्यावृत्तिः-युगपदनेकस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते एकस्यैव यथापूर्वं निपातो भवति, शेषाणां तु कामचार इति प्रदर्शनार्थं एकमिति कृतमित्यर्थः / शङ्खदुन्दुभिवीणाः वीणादुन्दुभिशङ्खाः शङ्खवीणादुन्दुभयः / अश्वरथेन्द्रा इन्द्राश्वरथाः इन्द्ररथाश्चाः / दुन्दुभिशङ्खवीणा इति रथेन्द्राश्चा इति च न भवति / दीक्षातपसीत्यादिषु तपसो लघ्वक्षरत्वेऽपि दीक्षाश्रद्धामेधानां बहूपकारकत्वात्, मूलभूतत्वाच्च, अर्चितत्वाच्च परत्वात् पूर्वनिपातौ भवति / स्पर्द्ध परम्, स्पर्द्ध सति यत् यत् परं तत्तत् पूर्वं निपतति इत्यर्थः / / 160 // मासवर्णभ्रात्रनुपूर्वम् // 3 // 11161 // मासवाचि वर्णवाचि भ्रातृवाचि शब्दरूपं द्वन्द्वेऽनुपूर्व-यद्यत्पूर्ववाचि तत्तत् पूर्व निपतति / अनुग्रहणादेकमिति निवृत्तम् / फाल्गुनचैत्रौ, वैशाखज्येष्ठौ, ब्राह्मणक्षत्रियौ क्षत्रियवैश्यौ, वैश्यशूद्रौ, बलदेववासुदेवौ // 161 // भर्तुतुल्यस्वरम् // 3 / 1 / 162 // भं नक्षत्रम्-तद्वाचि ऋतुवाचि च तुल्यसङ्ख्यस्वरं द्वन्द्वेऽनुपूर्वं पूर्व निपतति / कृत्तिकारोहिण्यः, हेमन्तशिशिरौ / तुल्यस्वरमिति किम् ? पुष्यपुनर्वसू / ग्रीष्मवसन्तौ // 162 // अ० नक्षत्रवाचिनाम तुल्यसङ्ख्यस्वरम्, तथा ऋतुवाचिनाम तुल्यसङ्ख्यस्वरं इति योज्यम् / अश्विनीभरणकृत्तिकाः / ऋतुवाचि-एवं शिशिरवसन्ताः, हेमन्तशिशिरवसन्ताः // 162 // . सङ्ख्या समासे // 3 / 1 / 163 // सङ्ख्यावाचिनाम समासमात्रेऽनुपूर्व निपतति / बहुव्रीहौ, द्वित्राः त्रिचतुरः। द्विर्दश द्विदशाः / द्विगौ, द्विशती / द्वन्द्वे, एकादश सप्ततिशतम् // 163 // तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः / ग्रं० श्लोक० 607 / अ० द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः / 'प्रमाणी सङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः 'नसुव्युपत्रेश्वतुरः' (7 / 3 / 131) / इति सूत्रेण अप् समासान्तः / जस् / अत आः० (1 / 4 / 1) एवं पञ्चषाः / द्विर्दश इति वाक्ये 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' (7 / 3 / 128) इति डः, एवं त्रिदशाः / द्वे शते समाहृते द्विशती / त्रिशती 'द्विगोः समाहारात्' / (2 / 4 / 22) ङी / एकश्च दश च एकादश / एवं द्वादश त्रयोदश सप्ततिश्च शतं च / 'एकादश षोडशषोडत्षोढाषड्डा' (3 / 2 / 91) इति दीर्घः // 163 / / इति श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यचूरिभ्यामलङ्कृतः प्रथमः पादः समाप्तः / જે વ્યાકરણ વાકયની અશુદ્ધિનું ભાન કરાવે છે, તે જ શુદ્ધ વ્યાકરણ. જે વૈરાગ્ય આત્માની અશુદ્ધિનું ભાન કરાવે છે, તે જ શુદ્ધ વૈરાગ્ય. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 263 अहें परस्परान्योन्येतरेतरस्याम् स्यादेर्वापुंसि // 3 // 2 // 1 // परस्परादीनामपुंसि-स्त्रियां नपुंसके च प्रयुज्यमानानां सम्बन्धिनः स्यादेः स्थाने आमादेशो वा स्यात् / इमे' सख्यौ कुले वा 'परस्परां परस्परं भोजयतः / एवं आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परां परस्परेण भोज्यते इत्यादि / एवं अन्योन्याम् अन्योन्यं वा भोजयतः / अन्योन्यां अन्योन्येन वा भोज्यते / इतरेतरां इतरेतरं वा भोजयत इत्यादि / अपुंसीति किम् ? इमे नराः परस्परं भोजयन्ति / नरैः परस्परेण भोज्यते / नरैः परस्परस्मै दीयते / इमे परस्परादिशब्दाः स्वभावांदेकत्वपुंस्त्ववृत्तयः कर्मव्यतिहारविषयाः। अस्मादेव च निर्देशात् परान्येतरशब्दानां सर्वनाम्नां द्विर्वचनादि निपात्यते // 1 // अ० परस्परान्योन्येति त्रयः, सूत्रार्थः प्रगट एव वृत्तौ / "द्वितीयोऽयम्-परस्परादीनामपुंसि स्त्रियां क्लीबे वा संबन्धिनः स्यादेः स्थानेऽम् वा स्यात् / आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परं परस्परेण वा भोज्यते, एवं परस्परं परस्परस्मै / तृतीयोऽयम्-परस्परादीनां संबन्धिस्यादेः स्थाने पुंसि-पुंल्लिङ्गेऽम् वा / एभिनरैः परस्परं परस्परेण वा भोज्यते / एवं परस्परं परस्परस्मै इत्यादि, इमौ सख्यौ कुले वेत्यादि, भुङ्क्ते परस्परः कर्ता, तं परस्परं भुञ्जानं सख्यौ प्रयुञ्जाते / 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) 'गतिबोधाहारार्थ०' (2 / 2 / 5) इत्यनेन कर्तुः परस्परस्य कर्मत्वम् / विधानसामर्थ्यात् न “साम् / आदिशब्दात् इमाः सख्यः परस्परां प्रयच्छन्ति परस्परस्मै वा० / परस्परां परस्परस्मात् / आभिः सखीभिः परस्परामित्यादि / अत्रोदाहरणे करणे वा तृतीया, सहार्थे वा तृतीया / तदा एकवारं णिग् क्रियते, कथं ? भुङ्क्ते जनः तं जनं भुञ्जानं सख्यः प्रयुञ्जते ‘प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' केन कृत्वा भुङ्क्ते केन वा सह परस्परेण / यदा तु कर्तरि तृतीया क्रियते तदा णिग् वारद्वयं भवति तथाहि-भुङ्क्ते जनस्तं जनं भुञ्जानं परस्परः कर्ता प्रयुङ्क्ते णिग् 1 // तं परस्परं भोजयन्तं सख्यः प्रयुञ्जते इति द्वितीयवारं णिग् 2 / ततः परस्परेण अत्र कर्तरि तृतीया / इत्थं अनुक्तस्यापि जनस्य कर्तृत्वं ज्ञातव्यम् / अन्यथा 'गतिबोधाहार०' (2 / 2 / 5) इति परस्परस्य कर्मत्वमेव स्यात् / ननु इमे सख्यौ परस्परं भोजयत इत्यांद्युदाहरणेषु द्विवचनबहुवचने कथं न भवतः ? स्त्रीलिङ्गे आप् कथं न भवति ? परस्परादीनां सर्वादिगणे अपठितानां सर्वादिकार्यं स्मैस्मादित्यादिकं कथं सञ्जातम् ? / सर्वादित्वे वा सति ‘पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' (1 / 4 / 48) इत्यनेन नपुंसके द् आदेशः कथं न भवतीति पराशये सूरिराह इमे परस्परादिशब्दा इत्यादि / परान्येतरशब्दानां सर्वनाम्नां क्रियाव्यतिहारे द्विर्वचनं पुंवद्भाव आद्ययोः सश्चान्तः इति शब्दनिष्पत्तिः॥१॥ अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः // 3 // 2 // 2 // 1. इमे परस्परां भोजयतः इत्यत्र इमे इति इदंशब्दस्य स्त्रियां नपुंसके च प्रथमा द्विवचनस्य रूपम्, यदा स्त्रियां विवक्ष्यते तदा इमे सख्यौ परस्पराम्-अन्योन्यां भोजयतः इति व्यतिहारार्थः, यदा तु नपुंसके तदा इमे कुले परस्परां भोजयतः इति / 2. परस्परमित्यत्र अम् स्थाने आम् आदेशः / 3. भोजयतः इति प्रेरकरूपम्, तेनाणिग् कर्ता परस्परः सणिगि कर्म भवतीति / 4. अत्र सूत्रे इतरस्यामित्यत्र इतरस्य आम्, इतरस्य अम् इति पदच्छेदसंभवात्, वा पुंसि इत्यत्र वा अपुंसि इति वा पुंसि इति च पदच्छेदसंभवात् त्रिधा सूत्रार्थः संपद्यते इति तत्र प्रथमार्थः वृत्तौ स्फुटीकृतः, द्वितीयतृतीयार्थी अवचूर्यां दर्शयति द्वितीयोऽयमित्यादिना / 5. 'अवर्णस्यामः साम्' इति शेण परस्मगरियाक र सामादेशो न भवति अस्मिन् सूत्रे सामिति त्यक्त्वा आमो विधानात् इत्याह / ना Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते अव्ययीभावसमासस्यादन्तस्य सम्बन्धिनः स्यादेः स्थानेऽम् स्यात्, अपञ्चम्याः-पञ्चमी वर्जयित्वा / उप'कुम्भं तिष्ठति वा पश्य वा देहि वा स्वामी वा तत्सम्बन्धि स्यादेरिति किम् ? प्रियोप'कुम्भस्तिष्ठति / अत इति किम् ? अधिस्त्रि, उपवधु, अपञ्चम्या इति किम् ? उपकुम्भात् // 2 // अ० स्त्रीषु अधिकृत्य अधिस्त्रि / वध्वा उप-समीपम्-उपवधु // 2 // वा तृतीयायाः // 3 // 2 // 3 // अदन्तस्याऽव्ययीभावस्य सम्बन्धिन्यास्तृतीयायाः स्थानेऽम्वा स्यात् / 'किं न उपकुम्भम्, किं न उपकुम्भेन / तत्सम्बन्धितृतीयाया इति किम् ? किं न प्रियोपकुम्भेन // 3 // सप्तम्या वा // 3 // 2 // 4 // अदन्ताऽव्ययीभावस्य सम्बन्धिसप्तम्या' अम् वा स्यात् / उपकुम्भम्, उपकुम्भे / योगविभाग उत्तरार्थः // 4 // ऋद्धनदीवंश्यस्य // 3 // 2 // 5 // ऋद्धयन्तस्य नद्यन्तस्य वंश्यान्तस्य चादन्तस्याव्ययीभावस्य सम्बन्धिसप्तमीस्थानेऽम् स्यात् / मगधानां समृद्धिः सुमगधं वराति / नदी, उन्मत्तगङ्गं देशे वसति / एकविंशतिभारद्वाजं वसति // 5 // अ० ऋद्धं कोऽर्थः ? समृद्धं, यस्य समृद्धिः सुशब्दादिना द्योत्यते / कोऽभिप्रायः ? मगधानां शोभना ऋद्धिः सुमगधम्, मद्राणां शोभना ऋद्धिः समुद्रमिति / पराणि यत्र वाक्यानि तत्र सप्तमीस्थानेऽम् उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन् तस्मिन् उन्मत्तगङ्गम्, एवं लोहितगङ्गम्, शनैर्गङ्गम् / द्वे यमुने यत्र द्वियमुनं देशे वसति, सप्तगोदावरम् / एकविंशति र्भारद्वाजा वंश्याः, त्रिपञ्चाशत् गौतमा वंश्याः, त्रयः कौशला वंश्याः, भारद्वाजगौतमकोशलशब्दानामग्रे सप्तमी बहुवचनं सुप्, सुपः स्थाने अम् आदेशः, एषु पूर्वार्थप्राधान्यात् बहुवचनं भवति / उन्मत्तगङ्गम्, लोहितगङ्गम्, द्वियमुनम्, इत्यादिषु 'नदीभिर्नाम्नि' (3 / 1 / 27) इत्यनेन अव्ययीभाव(समास)संज्ञा / एकविंशतिभारद्वाजम्, एवं त्रिपञ्चाशद्गौतमम्, त्रिकोशलं राज्यस्य एषु 'वंश्येन पूर्वार्थे' (3 / 1 / 29) इत्यनेनाव्ययीभावसमाससंज्ञा // 5 // ___ अनतो लुप् // 3 // 26 // अकारान्तं वर्जयित्वाऽन्यस्याऽव्ययीभावस्य सम्बन्धिस्यादेर्लुप् स्यात् / अधिस्त्रि / उपकर्तृ / अनत इति किम् ? उपकुम्भात् // 6 // अव्ययस्य // 3 // 2 // 7 // अव्ययसम्बन्धिस्यादेर्लुप् स्यात्, स्वः, प्रातः, कृत्वा, ततः, तत्र / तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न लुप्, 'अतिस्वरः, अत्युच्चैसः / अत एव लुप्करणादव्ययेभ्यः स्यादयोऽनुमीयन्ते, ततश्च अथो स्वस्ते गृहमित्यादौ सपूर्वात् प्रतमा० (2 / 1132) इत्यनेन ते मे आदेशौ पदसंज्ञा च सिद्धा // 7 // ___अ० उच्चैः, परमोच्चैः, भोजं भोजं व्रजति, कथं, ब्राह्मणवत्, पचतितराम्, द्विधा अस्तीत्यादयोऽप्यन्यया 1. उपकुम्भमिति तिष्ठतिना योगे प्रथमायाः, पश्येन योगे द्वितीयायाः, देहिना योगे चतुर्थ्याः अमादेशः / 2. अत्र प्रियोपकुम्भशब्दात् एव सिः न तु उपकुम्भशब्दात् नातोऽम् / 3. उपकुम्भेनास्माकं किं प्रयोजनमित्यर्थः 'कृताथै 'रिति सूत्रेणात्र तृतीया। 4. सप्तम्याः स्थाने इत्यर्थः / 5. स्वः अतिक्रान्ताः अतिस्वरः अत्र जसः अतिस्वःशब्दसम्बन्धित्वात् न लुप्, एवमग्रेऽपि / 6. यदि अव्ययेभ्यों विभक्तिर्नोत्पद्येत तर्हि स्वः अथो इत्यादेः विभक्त्यन्तत्वाभावेन पदत्वाप्राप्त्या, अथो स्वस्ते गृहमित्यादौ तव इत्यस्य पदात् परत्वाभावात् न ते आदेशः स्यात् इति भावः / B. स्वामिना योगे षष्ठयाः अमादेशः / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 265 ज्ञातव्याः / ‘ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये' (5 / 4 / 48) इत्यनेन ख्णम् प्रत्ययः / 'भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमबादेः' (7 / 4 / 73) इति सूत्रेण द्वित्वम् भोज-भोजम् // 7 // ऐकायें // 3 // 28 // ऐकार्यमैकपद्यम्, तनिमित्तस्य स्यादेर्लुप् स्यात् / चित्रा गावो यस्य चित्रगुः, राजपुरुषः, पुत्रीयति, कुम्भकारः, एषु-चित्र जस् गो जस् राजन् ङस् पुरुष स् इत्यादिरीत्या ऐकायें सति तनिमित्तस्य स्यादेर्लुप् / अत एव लुविधानात् 'नाम नाम्ना' (3 / 1118) इत्युक्तावपि विभक्त्यन्तानामेव समासो विज्ञायते / 'ऐकायें' इति निमित्तसप्तमीविज्ञानादैकार्योत्तरकालस्य न लुप् चित्रगुः / ऐकायें इति किम् ? चित्रा गावो यस्येत्यादिवाक्येषु न लुप् // 8 // अ० [औपगवः इत्यत्र डस् लोपः / ] ऐकार्थ्यस्य 'निमित्तत्वादैकपद्यस्य कारणे कार्योपचारादिदमुक्तम् / / 8 / / न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः // 3 // 2 // 9 // समासारम्भकमन्त्यं पदमुत्तरपदम्, नाम्यन्तादेकस्वरात्पूर्वपदात्परस्यामो लुप् न स्यात् / खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे परतः / स्त्री स्त्रियं वाऽत्मानं मन्यते स्त्रीमन्यः, स्त्रियंमन्यः, श्रियंमन्यः / नामिग्रहणं किम् ? ज्ञंमन्यः / एकस्वरादिति किम् ? वर्षामन्यः / खितीति किम् ? स्त्रीमानी // 9 // अ० 'कर्तुः खश्' (5 / 1 / 117) इत्यनेन खश् / शंमन्यः, अत्र ज्ञमात्मानं मन्यते 'कर्तुः खश्' इत्यनेन खश्, 'दिवादेः श्यः' (3 / 4 / 72) 'खित्यनव्ययारुषो. मोऽन्तो ह्रस्वश्च' (3 / 2 / 111) इत्यनेन पूर्वपदे मोन्तः / वधू इत्यत्र 'खित्यनव्यय०' इत्यनेनैव ह्रस्वः क्रियते वधुंमन्य इति सिद्धम् // 9 // असत्त्वे उसेः // 3 // 2 // 10 // ___असत्त्वे विहितस्य उसेरुत्तरपदे परे लुब् न स्यात् / स्तोकान्मुक्तः, अन्तिकादागतः, 'तेनासत्त्वे' (3 / 174) इति समासः / असत्त्वे इति किम् ? स्तोकभयम् // 10 // अ० पञ्चम्येकवचनस्य, स्तोकान्मुक्तः अल्पान्मुक्तः, कृच्छ्रान्मुक्तः, कतिपयान्मुक्त इत्युदाहरणानि / एषु 'स्तोकाल्पकृच्छ्र' (2 / 2 / 79) इत्यनेन पञ्चमी भवति, तथा अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः सविधादागतः, दूरादागतः, विदूरादागतः, विप्रकृष्टादागतः / एषु 'असत्त्वारादर्थात्०' (2 / 2 / 120) इत्यनेन पञ्चमी // 10 // ब्राह्मणाच्छंसी // 3 // 2 // 11 // ब्राह्मणाच्छंसीत्यत्र उसे बभावो निपात्यते / ब्राह्मणाद्ग्रन्थादादाय शंसति ब्राह्मणाच्छंसी // 11 // अ० आदानांगे शंसने शंसि वर्त्तते / ब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो ब्राह्मणं 'तेन प्रोक्ते' (6 / 3 / 181) इति सूत्रेण अण् 'अणि' (7/4/52) इति सूत्रेणान्त्यस्वरादिलोपो न भवति / ब्राह्मणमित्यत्र तुल्यः भागेऽर्द्धं ब्राह्मणं श्रुतौ (है.लि.न.७) इति लिङ्गपाठात् 'वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव' (6 / 2 / 130) इति सूत्रपाठाच्च नपुंसकत्वम् / / 11 / / ओजोञ्जःसहोम्भस्तमस्तपसष्टः // 3 / 2 / 12 // एभ्यः परस्य ट एकवचनस्योत्तरपदे परे लुब् न स्यात् / ओजसाकृतम्, अञ्जसाकृतम्, सहसाकृतम्, अम्भसाकृतम्, तमसाकृतम्, तपसाकृतम्, तपसाप्राप्तम् / कथं 'सततनैशतमोवृतमन्यत' इति ? उत्तरपदशब्दस्य 1. ऐकाथुनाम समासादिः, तस्मिन् जाते ऐकपद्यं भवत्यतस्तन्निमितं तत्रेकपद्यस्योपचारः / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते सम्बन्धिशब्दत्वाद् यत्र पूर्वपदीभूतस्तमः शब्दस्तत्रायं प्रतिषेधः / यत्र तु पदान्तरेण सह तमःशब्दः समस्तः तत्र नायं निषेधः // 12 // अ० 'तपनमण्डलदीपितमेकतः सततनैशतमोवृतमन्यतः / हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः शिवमिवानुगतं गजचर्मणा' // 1 // इति यत्र केवल एव तमःशब्दो भवति इति भावः // 12 / . पुंजनुषोऽनुजान्धे // 3 // 2 // 13 // पुम्स्शब्दात् जनुःशब्दाच परस्य टावचनस्य यथासङ्ग्यमनुजशब्देऽन्धशब्दे चोत्तरपदे परे लुब् न स्यात् / पुंसा-करणेनानुजः पुंसानुजः / जनुषा-जन्मनान्धः जनुषाऽन्धः / टः इत्येव ? पुमांसमनुजाता पुमनुजा // 13 // आत्मनः पूरणे // 3 // 2 // 14 // आत्मनः परस्य टावचनस्य पूरणप्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे न लुप स्यात् / आत्मनाद्वितीयः इत्यादि। 'जनार्दनस्त्वात्मचतुर्थ एव' अत्रात्मा चतुर्थोऽस्येति बहुव्रीहिः // 14 // अ० आत्मनाद्वितीयः, आत्मनातृतीयः, आत्मनाचतुर्थः, आत्मनापञ्चमः, आत्मनाषष्ठः, आत्मनैकादशः // 14 // मनसश्चाज्ञायिनि // 3 // 2 // 15 // मनःशब्दादात्मशब्दाच्च परस्य टावचनस्य आज्ञायिनि उत्तरपदे परे न लुप् / मनसा आज्ञातुं शालमस्य मनसाऽऽज्ञायी, आत्मनाऽऽज्ञायी // 15 // अ० मनसाऽऽज्ञायी, आत्मनाऽऽज्ञायी इत्यत्र, ननु टालुपि कृतेऽपि ईदृशानि रूपाणि भविष्यन्ति किं मनसश्चेति सूत्रेण इत्याह टालोपि-कृते पदान्तत्वात् रुत्वविसर्गनलोपादिकं स्यादितिं सूत्रं कृतम् / / 15|| नाम्नि // 3 // 2 // 16 // ___ मनसः परस्य टावचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि-संज्ञायां न लुप् / मनसादेवी, मनसांदत्ता, एवंनामा काचित् / नाम्नीति किं ? मनोदत्ता कन्या // 16 // परात्मभ्यां डेः // 3 // 2 // 17 // . परात्मशब्दाभ्यां परस्य डे [चतुर्थंक] वचनस्योत्तरपदे परे नाम्निविषये लुब न स्यात् / परस्मैपदम् परस्मै भावः / आत्मनेपदम् / नाम्नीत्येव ? परहितम्,' आत्महितम् // 17 // अ० आत्मने भावः / धीयते इति-हितम्, क्तः, 'धागः' (4 / 4 / 15) इत्यनेन हि आदेशः // 17 / / अव्यञ्जनात् सप्तम्या बहुलम् // 3 // 2 // 18 // अकारान्ताद् व्यञ्जनान्ताच्च परस्याः सप्तम्या बहुलं लुब् न स्यानाम्नि / अकारान्त, अरण्येतिलकाः, वनेकिंशुकाः / व्यञ्जन, युधिष्ठिरः / बहुलग्रहणात् कचिद्विकल्पः, त्वचिसारः, त्वक्सारः / कचिद् भवति लुप्, जलकुकुटः, ग्रामसूकरः / अव्यञ्जनादिति किम् ? भूमिपाशः / नाम्नात्येव ? तीर्थकाकः // 18 // अ० अरण्येतिलका इत्यत्र अरण्येमाषकाः, कूपेपिशाचकाः पूर्वाह्नस्फोटका इत्यादयोपि मन्तव्याः / नगरवायसः, अक्षशौण्डः इत्यपि // 18 // 1. परस्मैपदमिति; आत्मनेपदमिति च अनादिकालिकी व्याकरणशास्त्रप्रसिद्धा संज्ञा, तथा नेमे अनादिसंज्ञे / 2. सप्तम्या इति किम् ? गौरखरः, गविधिर इत्यादौ तु बिदादिपाठात्, ‘गवियुधेः स्थिरस्येति निर्देशात् वा ज्ञेयम् / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः प्राकारस्य व्यञ्जने // 3 // 2 // 19 // राजलभ्यो रक्षानिर्देशः कारः, प्राचां देशे यः कारस्तस्य नाम्नि-संज्ञाविषयेऽव्यञ्जनात्परस्याः सप्तम्या व्यञ्जनादावुत्तरपदे परे लुब् न स्यात् / [अकारान्त] मुकुटे मुकुटे कार्षापणो दातव्यः मुकुटेकार्षापणः / हलेद्विपदिका / हलेत्रिपदिका / व्यञ्जन, दृषदिमाषकः / प्रागिति किम् ? यूथे यूथे देयः पशुः यूथपशुः / कार इति किम् ? अभ्यर्हितपशुः / व्यञ्जन इति किम् ? अविकटोरणः // 19 // अ० 'प्राक्कारस्य व्यञ्जने' इत्यस्य सूत्रार्थे वीप्सायाः तथा दानस्य चान्तर्भावः इति, मुकुटे 2 कार्षापणो दातव्यः इत्यादौ वीप्साया अर्थे दानस्यार्थे च वाक्यानि / हले हले द्वौ ददाति ‘संख्यादेः पादादिभ्यो दानदण्डे चाकल् लुक् च' (7 / 1 / 152) इति सूत्रेण अकल्प्रत्ययः प्रकृतेरन्तस्य लुक् च' 'अस्यायत्त०' (2 / 4 / 111) इति इकारः / यूथपशुरिति, उदीचां देशे उत्तरापथेऽयं कार उपभोगविशेषः न पूर्वदेशे / अभ्यर्हिते 2 देयः पूर्वदेशे प्राचां देशे कारादन्यस्य देयस्य जनसामान्यस्य अभ्यर्हितपशुरिति नाम प्रसिद्धम्, पशुव्यञ्जनादाविति किमिति सत्यः पाठः / अवीनां-छागानां संघातः समूहोऽविकटः ‘अवेः संघातविस्तारे कटपटम्' (71 / 132) इति सूत्रेण कटः अविकटेऽविकटे ऊरणो देयः अविकटोरणः // 19 // तत्पुरुषे कृति // 3 // 2 // 20 // __ अव्यञ्जनात्परस्याः सप्तम्याः कृदन्ते उत्तरपदे परे तत्पुरुष समासे लुब् न भवति / नाम्नीति निवृत्तम् / स्तम्बेरमः, कर्णेजपः, गेहेनर्दी इत्यादि / बहुलाधिकारात् कचिदन्यतोऽपि गोषुचरः। कचिन निषेधः मद्रचरः। कचिद्विकल्पः खेचरः खचरः, वनेचरः वनचर इत्यादि / कचिदन्यदेव हृदयं स्पृशति हृदिस्पृक्, दिविस्पृक् / कृतीति किम् ? अक्षशौण्डः / अन्यञ्जनादित्येव ? "कुरुचरः रात्रिचरः // 20 // ___अ० स्तम्बेरमः, कर्णेजपः, गेहेनर्दी, गेहेशूरः, पात्रेसमिताः, प्रवाहेमूत्रितम्, उदकेविशीर्णम्, अवतप्तेनकुलस्थितम् / व्यञ्जन, भस्मनिहुतमिति प्रयोगा आदिशब्दात् बोध्याः / स्तम्बे रमते कर्णे जपति इति वाक्ये 'शोकापनुदतुन्दपरिमृजस्तम्बरमकर्णेजपं प्रियालसहस्तिसूचके' (5 / 1 / 143) इति सूत्रेण कप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते / अन्ययोऽपि कोऽर्थः ? अव्यञ्जनादन्यतोपि स्वरात् सप्तम्या न लुप् / गोषु चरति 'चरेष्टः' (5 / 2 / 138) खेचरः, खचरः, वनेचरः, वनचरः, पङ्केरुहम्, पङ्करुहम्, सरसिरुहम्, सरोरुहम्, दिविषत् द्युसत् इति / आदिशब्दात्, अन्यदेव इति कोऽर्थः ? वाक्यं द्वितीयया शब्दरूपं च सप्तम्या तत्रापि सप्तमी न लुप्यते इत्यर्थः, हृदिस्पृक्, दिविस्पृक्, अत्र द्वितीयार्थे सप्तमी ज्ञातव्या // 20 // मध्यान्ताद्गुरौ // 3 // 2 // 21 // मध्यान्तशब्दाभ्यां परस्याः सप्तम्या गुरुशब्दे उत्तरपदे परे न लुप् / मध्येगुरुः अन्तेगुरुः // 21 // . अमूर्द्धमस्तकात् स्वाङ्गादकामे // 3 // 2 // 22 // मूर्द्धमस्तकशब्दवर्जितात् स्वाङ्गवाचिनोऽव्यञ्जनान्तात् परस्याः सप्तम्याः कामशब्दादन्यस्मिन्नुत्तरपदे परे 1. अविकटे 2 उरणो देयः अविकटोरणः, अत्र उरणशब्दस्य स्वरादित्वात् सप्तम्या लुब् जातः / 2. व्यञ्जने इत्यत्र वृत्तिकारेण सूत्रापेक्षया पाठः कृतः,. अवचूरिकृता तु सूत्रार्थापेक्षयेदमुक्तमिति भावः / 3. तत्पुरुषेति किम् ? धन्वनि कारका यस्य स धन्वकारकः, अत्र कृदन्ते उत्तरपदे, व्यंजनपरत्वेऽपि तत्पुरुषसमासाभावादेव सप्तम्या लुब् जातः / 4. कुरुषु इत्यत्र रात्रिषु इत्यत्र च अव्यंजनपरत्वाभावात् सप्तम्याः लुब् भवति इति भावः / / Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते न लुप् स्यात् / कण्ठेकालः उरसिलोमा शिरसिशिखः / अमूर्द्धमस्तकादिति किम् ? मूर्द्धशिखः। स्वाङ्गादिति किम् ? अक्षशौण्डः / मुखपुरुषा शाला / अकाम इति किं ? मुखकामः / बहुलाधिकारात्-करकमलम्, गलरोग इत्यादि सिद्धम् // 22 // अ० कण्ठे कालोऽस्य स कण्ठेकालः उरसिलोमान्यस्य / (उरसिलोमा) मस्तकशिखः / मुखे पुरुषो यस्याः सा मुखपुरुषा / करकमलम् / गलरोलः / / 22 / / बन्धे पनि नवा // 3 // 2 // 23 // बन्धशब्दे घनन्ते उत्तरपदे परेऽव्यञ्जनात्परस्याः सप्तम्या वा लुब् न स्यात् / हस्ते बन्धो हस्ते बन्धोऽस्येति वा हस्तेबन्धः हस्तबन्धः / चक्रेबन्धः चक्रबन्धः / बन्ध इति किम् ? पुटपाकः मनोरोगः / घनीति किम् ? अजन्ते माभूत्, चक्रबन्धः चारकबन्धः // 23 // अ० स्वाङ्गादस्वाङ्गाचायं विकल्पः / बध्नातीति बन्धः अच् / अद्व्यञ्जनात् इति किम् ? गुप्तिबन्धः काराबन्धः / / 23 / / कालात्तनतरतमकाले // 3 // 2 // 24 // अव्यञ्जनान्तात्कालवाचिशब्दात्परस्याः सप्तम्यास्तनतरतमप्रत्ययेषु कालशब्दे चोत्तरपदे परे वा लुब् न स्यात् / तन, पूर्वाह्नेतनः पूर्वाह्नतनः / तर पूर्वाह्नेतराम् पूर्वाह्नतरे, तम, अपराह्नेतमाम् अपराह्नतमे / पूर्वाह्ने. काले पूर्वाह्नकाले // 24 // ____ अ० 'कालात्तनतरे'ति सूत्रेऽयं विशेषो ज्ञातव्यः / उत्तरपदाधिकारसूत्रेषु प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न प्रत्ययान्तशब्दग्रहणम् / वक्ष्यमाण 'न वाऽखित् कृदन्ते रात्रेः' (3 / 2 / 117) इत्यत्रान्तग्रहणज्ञापकात् / तेनात्र सूत्रे तनतरतमानां प्रत्ययानां स्वरूपेणैव ग्रहणं भवति / पूर्व अहन् पूर्वमह्नः पूर्वाह्नः 'सर्वांशसङ्ख्याव्ययात्' (7 / 3 / 118) इत्यनेन अट् अह्र इत्यादेशश्च 'अवर्णे वर्णस्य' (7 / 4 / 68) इति लोपः 'अतोऽह्रस्य' (2 / 3 / 73) इत्यनेन णत्वम् / पूर्वाह्न जातो भवो वा पूर्वाह्नेतनः 'पूर्वाह्नापराह्नात्तनट् (6 / 3 / 87) इति सूत्रेण तनट् / अयं पूर्वाह्ने 2 अयमनयोर्मध्ये प्रकृष्टे पूर्वाह्ने पूर्वाह्नेतराम् / अयमपराह्ने 2 अयमेषां मध्ये प्रकृष्टे अपराह्ने अपराह्नेलमाम् 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' (7 / 3 / 6) 'प्रकृष्टे तमप्' (7 / 3 / 5) ततः ‘किंत्याद्येऽव्ययादसत्त्वे तयोरन्तस्याम्' (7 / 3 / 8) इति सूत्रेण आम्, तर तम अग्रे क्रियते / प्रयोगेषु यत्र सप्तमी न लुप्यते तत्र तनतरतम अग्रे प्रथमा दीयते, सप्तम्यर्थस्य सप्तम्यैव उक्तत्वात्, यत्र तु सप्तम्या लुप्, तत्र सप्तम्यर्थप्रतिपादनार्थं पुनः तरतम अग्रे सप्तमी दीयते न तत्र आम् कर्त्तव्यः // 24|| शयवासिवासेष्वकालात् // 3 // 2 // 25 // अकालवाचिनोऽन्यञ्जनान्तात्परस्याः सप्तम्याः शयवासिवासेषुत्तरपदेषु वा लुब् न स्यात् / बिलेशयः' विलशयः / वनेवासी वनवासी, अन्तेवासी अन्तवासी, ग्रामेवासः ग्रामवासाः / बहुलाधिकारान्मनसिशयः कुशेशयः इति नित्यं लुवभावः, हृच्छयः चित्तशय इत्यत्र नित्यं लुप् // 25 // वर्षक्षरवराप्सरः शरोरोमनसो जे // 32 // 26 // वर्षादिभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे वा लुन् न स्यात् / संजः, संजः / क्षरेजः, क्षरजः / वरेजः 1. अकालादिति किम् ? पूर्वाह्नशयः, अद्व्यंजनादिति किम् ? भूमिशयः / 2. बिले शेते, मनसि शेते, कुशे शेते इत्यत्र 'आधारात्' . (5 / 1 / 137) इत्यनेन सूत्रेण शीङः अप्रत्ययः, तेन बिलेशयः इत्यादि शब्दनिष्पत्तिर्विज्ञेया, एवं हृच्छय इत्यादावपि बोध्यम् / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 269 वरजः। अप्सुजम् अजम् / सरसिजं सरोजम् / शरेजः शरजः / उरसिजः उरोजः / मनसिजः मनोजः // 26 // ___ अ० वर्षे जातो वर्षजः, क्षरे जातः, वरे जातः, अप्सु जातं, सरसि जातम्, एवमन्येपि, ‘सप्तम्याः' (5 / 1 / 169) इति सूत्रेण 'डप्रत्ययः // 26 / / धुप्रावृड्वर्षाशरत्कालात् // 3 // 2 // 27 // योगविभागाद्वेति निवृत्तम् / दिवप्रभृतिभ्यः सप्तम्या जे उत्तरपदे न लुप् / दिविजः', प्रावृषिजः वर्षासुजः शरदिजः, कालेजः // 27 // अपो ययोनिमतिचरे // 3 // 2 // 28 // __ अपशब्दात्परस्याः सप्तम्या यप्रत्यये योनिमतिचरेषु चोत्तरपदेषु न लुप् स्यात् / अप्सुभवः अप्सव्यः / अप्सुयोनिः, अप्सुमतिः, अप्सुचरः // 28 // अ० अप्सु भव इति वाक्ये 'दिगादिदेहांशाद्यः' (6 / 3 / 124) इत्यनेन यप्रत्ययः ‘अस्वयंभुवोऽव्' (7/4/70) इत्यनेन उकारस्य अव् आदेशः अप्सव्य इति सिद्धम् // 28 // नेन् सिद्धस्थे // 3 // 2 // 29 // इन् प्रत्ययान्ते सिद्ध-स्थ इत्येतयोश्चोत्तरपदयोः सप्तम्या लुब् न न भवति, भवत्येवेत्यर्थः / स्थण्डिलवर्ती काम्पील्यसिद्धः समस्थः // 29 // ____ अ० स्थण्डिले वर्त्तते स्थण्डिलवर्ती 'व्रताभीक्ष्ण्ये' (5 / 1 / 157) इत्यनेन णिन्, एवं स्थण्डिलशायी / काम्पील्ये सिद्धः, समे तिष्ठतीति ‘स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) एवं विषमस्थः // 29 / / षष्ठ्याः क्षेपे // 3 // 2 // 30 // क्षेपे-निन्दायामुत्तरपदे परे षष्ठ्या लुब् न स्यात् / चौरस्यकुलम्, दासस्यभार्या / क्षेप इति किम् ? राजकुलम्, अत्र लुब् भवति / कथं चौरकुलम् दासभार्या ? तत्त्वाख्यानमिदं न क्षेपः // 30 // ___ अ० व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायात्, पूर्वपदात् यदि क्षेपो गम्यते तत्र 'षष्ठ्या क्षेपे' इति षष्ठी (न) लुप्यते यथा दासस्यभार्या / यत्र पूर्वपदात् स्तुतिस्तत्र लुप् यथा भूपस्य जाल्मो भूपजाल्मः / वृषल्याः पुत्रः वृषलीपुत्र इत्यपि वृषल्याः पतिः (वृषलीपतिः) इत्यपि स्वरूपकथनमात्रमेतत् नात्र विवक्ष्यते // 30 // पुत्रे वा // 3 // 2 // 31 // पुत्रे-उत्तरपदे क्षेपे' षष्ठ्या लुब् न भवति / दास्याः पुत्रः दासीपुत्रः / वृषल्याः पुत्रः वृषलीपुत्रः इत्यपि / दासीपुत्र इति तु स्वरूपाख्यानम् / पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् // 31 // ___ पश्यद्वाग्दिशो हरयुक्तिदण्डे // 3 // 2 // 32 // पश्यद् वाग् दिग्शब्देभ्यः परस्याः षष्ठ्या यथासङ्ख्यं हरयुक्तिदण्डेषुत्तरपदेषु न लुप् / पश्यतोहरः पश्यन्तमनादृत्य हर्ता इत्यर्थः / वाचोयुक्तिः दिशोदण्डः // 32 // अदसोऽकायनणोः // 3 // 2 // 33 // 1. अत्र सर्वेषु उदाहरणेषु जनेर्भूतेऽर्थे डः प्रत्ययः इति भावः एवमग्रिमसूत्रेऽपि / 2. दिविजातः इत्येवं विग्रहवाक्यं, अग्रेऽपि तथैव विग्रह कार्यः / 3. क्षेपे इत्येव ? ब्राह्मणपुत्रः, अत्र पुत्र उत्तरपदे सत्यपि क्षेपाभावात् षष्ठीलोपः / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवप्रिभ्यामलङ्कृते ____ अदसः परस्याः षष्ठ्या अकञ् प्रत्ययविषये उत्तरपदे परे आयनण् प्रत्यये च परे लुब् न भवति / अमुष्य पुत्रस्य भावः आमुष्यपुत्रिका अमुष्यापत्यं आमुष्यायणः // 33 // अ० अमुष्य इति अदसः षष्ठ्यन्तं रूपम् / अमुष्य पुत्रस्य भावः आमुष्यपुत्रकः स्त्री चेत्। 'चौरादेः' (7 / 1 / 73) इति सूत्रेण अकञ् / अमुष्यापत्यं आमुष्यायणः, नडादेरायनण् अदसोऽनन्तरमायनणो विधानान्न तत्रोत्तरपद सम्भवः // 33 // देवानां प्रियः // 32 // 34 // अत्र षष्ठ्या लुब् न स्यात् / देवानांप्रियः // 34 // अ० कथं देवप्रियः ? / एकत्वद्वित्वयोर्बहुव्रीहौ वा भविष्यति / देवानांप्रियः ऋजुः मूल् वा उच्यते / / 34 // शेपपुच्छलाङ्गुलेषु नाम्नि शुनः // 3 // 2 // 35 // श्वन्शब्दात् परस्याः षष्ठ्याः शेपादिषूत्तरपदेषु नाम्नि संज्ञाविषये न लुप् स्यात् / शुनःशेपमिव शेपमस्य शुनःशेपः शुनःपुच्छः शुनो लालः / शेपःशब्दः सकारान्तोऽपि, इह तु अकारान्तस्य ग्रहणम् // 35 // अ० लिङ्ग पुरुषस्य शेपस् // 35 / / वाचस्पतिवास्तोष्पतिदिवस्पतिदिवोदासम् // 3 // 2 // 36 // वाचस्पत्यादिशब्दाः षष्ठीलुबभावो निपात्यन्ते नाम्नि, वाचस्पतिः, वास्तोष्पतिः, दिवस्पतिः दिवोदासः। नाम्नीत्येव ? वाक्पतिः वास्तुपतिः युपतिः युदासः // 36 // अ० वाचस्पतिः दिवस्पतिः इत्यत्र 'भ्रातुष्पुत्रकस्कादयः' (2 / 3 / 14) इत्यनेन रस्य सत्वम् / वास्तोष्पति इत्यत्र, 'भ्रातुः पुत्रे' त्यनेनाकारस्य षकारः // 36 // _ ऋतां विद्यायोनिसम्बन्धे // 3 // 2 // 37 // ऋकारान्तानां शब्दानां विद्याकृते योनिकृते च सम्बन्धे-निमित्ते सति प्रवर्त्तमानानां सम्बन्धिन्याः षष्ठ्या विद्यायोनिसम्बन्धे एव-निमित्ते सति प्रवर्त्तमाने उत्तरपदे लुब् न स्यात् / विद्यायाम्, होतुःपुत्रः-होतुरन्तेवासी। पितुःपुत्रः-पितुरन्तेवासी / तामित्येव ? आचार्यपुत्रः / ऋद्भ्य इति निर्देशे प्राप्ते षष्ठीनिर्देश उत्तरार्थः / विद्यायोनिसम्बन्ध इति किम् ? भर्तृगृहम् // 37 // अ० ऋतां सम्बन्धिन्याः विद्यायोनिसम्बन्धे इत्यत्र प्रवृत्तौ मातुलान्तेवासी / पूर्वपदविशेषणं (किम ?) भर्तृशिष्यः, भर्तृपुत्रः, अत्र भर्तृशब्दो नायकवाचको द्रष्टव्यः / यदा तु भर्तृशब्दो वल्लभवाची तदा भर्तृःशिष्य इति भवति, अत्र षष्ठ्या न लुप् / उत्तरपदविशेषणं किम् ? "होतृधनम्, पितृगृहम् इति व्यावृत्तिः 'ऋतां विद्ये'ति सूत्रप्रान्ते ज्ञातव्या // 37|| स्वसृपत्योर्वा // 3 // 2 // 38 // विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तानां कदन्तानां संबन्धिन्याः षष्ठ्याः स्वसृपत्योरुत्तरपदयो?निसम्बन्धनिमित्तयोः परयोर्वा लुब् न स्यात् / पितुःस्वसा, पितुःस्वसा, पितुःष्वसा, पितृष्वसा / एवं मातुःस्वसा 3 / दुहितुःपतिः 1. अत्र प्रत्ययविषयकोत्तरपद विधानादेव न उत्तरपदशंकावकाशः इति सूचितमिति भावः / 2. देवस्य देवयोः वा प्रियः देवप्रियः, देवः प्रियः यस्य स देवप्रियः इति भावः / 3. अत्र बहुवचनं सिंहस्य शेपंसिंहस्य पुच्छं, सिंहस्य लाङ्गलं इति अन्यमतसंग्रहार्थमिति बृहद्वृत्तौ। 4. अत्र संबंधिनीषष्ठीसद्भावेऽपि, विद्याकृते पूर्वपदे विद्यमाने उत्तरपदस्य धनशब्दस्य विद्यासंबंधाभावात् अत्र षष्ठीलोपः / Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 271 दुहितृपतिः / स्वसुःपतिरित्यादि / विद्यायोनिसम्बन्धे इति पूर्वपदविशेषणं किम् ? भर्तृस्वसा / पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् // 38 // “अ० मातृष्वसा पितृष्वसा अत्र 'मातृपितुः स्वसुः' (2 / 3 / 18) इति सूत्रेण समासे स्वसृशब्दस्य सकारस्य षकारो भवति / तथा मातुःस्वसा, मातुःष्वसा, पितुःस्वसा, पितुःष्वसा, अत्र ‘अलुपि वा' (2 / 3 / 19) इति सूत्रेण षष्ठी, अलुप् समासे स्वसृसकारस्य विकल्पेन षकारो भवति / इति प्रयोगद्वयं द्वयम् / मातुःष्वसा, मातृष्वसा इत्यपि / आदिशब्दात् स्वसुः पतिःस्वसृपतिः, ननान्दुःपतिः ननान्दृपतिः / उत्तरपदविशेषणं किम् ? होतृपतिः // 38 // आ द्वन्द्वे // 3 // 2 // 39 // ___ विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तानामृदन्तानां यो द्वन्द्वस्तस्मिन् सति उत्तरपदे परे पूर्वस्य आकारान्तादेशः स्यात् / होतापोतारौ, मातापितरौ, मातादुहितरौ, 'ननान्दायातरौ / ऋतामिति किम् ? गुरुशिष्यो / विद्यायोनिसम्बन्धे इत्येव ? कर्तृकारयितारौ // 39 // ___ अ० ऋकारान्तानां द्वन्द्वसमासः / (होता च पोता च) माता च पिता च, माता च दुहिता च, ननान्दा च याता च / विद्यायोनिसम्बन्धस्तु इह सूत्रे प्रत्यासत्तेः समस्यामानानां ऋदन्तानामेव परस्परं द्रष्टव्यः, न येन केनचित् अकारान्तादिना सह, तेन चैत्रस्य स्वसृदुहितरौ अत्र आकारो न भवति / / 39 / / - पुत्रे // 3 // 2 // 40 // पुत्रशब्दे उत्तरपदे परे द्वन्द्वे विद्यायोनिसम्बन्धे निमित्तानामृदन्तानामाकारादेशः पूर्वपदस्यान्ते स्यात् / मातापुत्रौ / पितापुत्रौ // 40 // वेदसहश्रुताऽवायुदेवतानाम् // 3 // 2 // 41 // वेदे सहश्रुतानां वायुवर्जितदेवतानां द्वन्द्वे पूर्वपदस्योत्तरपदे परे आ अन्तादेशः स्यात् / इन्द्रासोमौ, इन्द्रावरुणौ, अग्नेन्द्रौ, अग्नामारुती, सोमारुद्रौ, सूर्याचन्द्रमसौ / वेदेति किम् ? ब्रह्मप्रजापती / सहेति किम् ? विष्णुशक्रौ / श्रुतेति किम् ? चन्द्रसूर्यो / वायुवर्जनं किम् ? अग्निवायू / देवतानामित्येव ? यूपचषालौ उद्खलमुसले // 41 // ____अ० न विद्यते वायुर्यत्र देवता सोऽवायुः / वेदे सह श्रुताः वेदसहश्रुताः / वेदसहश्रुताश्च ता अवा यवश्च ते देवताश्च वेदसहश्रुतावायुदेवताः, तासां द्वन्द्वसमासे सति / इन्द्रश्च सोमश्च, इन्द्रश्च वरुणश्च, अग्निश्च इन्द्रश्च / सूर्यश्च चन्द्रमा च सूर्याचन्द्रमसौ इति प्रकारेणैव वेदे लोके श्रूयते प्रसिद्धश्च / न तु चन्द्रसूर्यौ इति रूपेण प्रसिद्धिः // 41 / / ईः षोमवरुणेऽग्नेः // 3 // 2 // 42 // वेदसहश्रुतावायुदेवतानां द्वन्द्वे षोमे वरुणे चोत्तरपदेऽग्निशब्दस्य ईकारान्तादेशः स्यात् / षोमेति निर्देशात् 1. अत्र उत्तरपदत्वं अन्त्स्यैव विज्ञेयं तेन होता च पोता च नेष्टोद्गातार इति द्वयोर्द्वयोर्द्वन्द्वो होतृपोतानेष्टोद्गातार इति भवति, यदा च होतृ च पोतृ च नेष्टोद्गातृ च इति विग्रहस्तदा होतृपोतृनेष्टोद्गातारः इति च भवति पूर्वोत्तरपदत्वाभावात्, नात्र पोतृशब्दस्य अन्तस्याकारादेशः इति विशेषो विज्ञेयः / 2. अत्रायं भावः समस्यमानानां ऋदन्तानां द्वन्द्वसमासकृतेऽपि विद्यायोनिसंबंधसत्त्वमपेक्षणीयमेव / 3. चैत्रस्य स्वसृदु-हितरौ इत्यत्र स्वसृदुहित्रोः न परस्परं संबंधः, नहि स्वसा चैत्रस्य स्वसा भवन्ती दुहितरमपेक्षते दुहिता स्वसारमिति, मातापितरौ, होतापोतारौ च इति कथं ? इति न च वाच्यम्, मात्रादीनां परस्परसंबंधात्, ते हि स्वकर्मणि प्रजने यागे च सहिता एवं प्रवर्त्तन्ते तत् कर्मनिमित्तश्चायं व्यपदेश इति, केचित्तु स्वसादहितरावित्यपीच्छन्ति / Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते सोमस्येकारसन्नियोगे षत्वं च निपात्यते / अग्नीषोमौ अग्नीवरुणौ / देवताद्वन्द्वे इति किम् ? अग्निसोमौ 'बद // 42 // अ० अग्नि (श्च) सोमश्च, अग्निश्च वरुणश्च // 42 / / ___ इर्वृद्धिमत्यविष्णौ // 3 // 2 // 43 // विष्णुवर्जिते वृद्धिमत्युत्तरपदे परे देवताद्वन्द्वेऽग्निरिकारोऽन्तादेशः स्यात् / ईकाराकारयोरपवादः / अग्नी. षोमो देवते अस्य आग्निसौमं कर्म / वृद्धिमतीति किम् ? अग्नी'वरुणौ आग्नेन्द्रं कर्म / अविष्णाविति किम् / आग्नावैष्णवं चरुं निर्वपेत् // 43 // अ० अग्नीषोमौ देवते अस्य इति सत्य / अग्नीषोमौ देवते अस्येति वाक्ये 'देवता' (6 / 2 / 101) इति सूत्रेण अण् ‘देवतानामात्वदौ' (7 / 4 / 28) इति सूत्रेण पूर्वपदस्य उत्तरपदस्य च अन्ते वृद्धिर्भवति / एवं आग्निमारुतम् अग्निश्च इन्द्रश्च आग्नेन्द्रौ, आग्नेन्द्रौ देवते अस्य 'देवता' अण् अत्र ‘आतो नेन्द्रवरुणस्य' (7 / 4 / 29) इति वृद्धिनिषेधः उत्तरपदस्य / अग्निश्च विष्णुश्च अग्नाविष्णू, देवताऽस्य 'देवता' अण् ‘देवतानामा०' इति उभयत्र वृद्धिः / / 43 / / दिवो द्यावा // 3 // 2 // 44 // देवताद्वन्द्वे दिवशब्दस्योत्तरपदे परे द्यावा इत्यादेशः स्यात् / द्यावाभूमी // 44 // अ० द्योश्च भूमिश्च / एवं द्यावाक्षमे / द्यावानक्ते नक्तशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति अनव्ययम् // 44 / / दिवस्दिवः पृथिव्यां वा // 3 // 2 // 45 // दिवशब्दस्य पृथिवीशब्दे परे देवताद्वन्द्वे दिवस् दिवः इत्यादेशौ वा स्याताम् / दिवस्पृथिव्यौ, दिवः. पृथिव्यौ, यावापृथिव्यौ // 45 // ___ अ० दिवः इति विसर्गान्तस्य निर्देशात् दिवस् इति सकारस्य 'सोरुः' (2 / 1 / 72) इत्यनेन रुत्वं न भवति आदेशबलात् / द्यौश्च पृथिवी चेति द्वन्द्वः // 45 // उषासोषसः // 3 // 2 // 46 // देवताद्वन्द्वे उत्तरपदे परे उषस् शब्दस्य उषासा इत्यादेशः स्यात् / उषाश्च सूर्यश्च उषासासूर्यम् // 46 // अ० उषस् शब्दो प्रभातवाचको नपुंसकः / सन्ध्यावाचकस्तु स्त्रीपुनपुंसकः / उषासासूर्यम्, उषासानक्तम् इति प्रयोगा ज्ञेयाः नक्तं इत्यव्ययम्, नक्त इति अनन्ययोऽकारान्तः / / 46 / / मातरपितरं वा // 3 // 2 // 47 // मातृपितृशब्दयोः पूर्वोत्तरयोर्द्वन्दे मातरपितरेति ऋकारस्य अर इति वा निपात्यते / मातरपितरौ, मातरपितराभ्याम् / पक्षे, मातापितरौ / एकशेषे तु पितरौ // 47 // अ० मातरपितरं इति शब्दरूपापेक्षो नपुंसकैकवचननिर्देश उत्तरपदस्य अरभावाभिव्यक्त्यर्थः / अन्यथा मातरपितरौ इत्यत्र ‘अझै च' (1 / 4 / 39) इत्यनेन अर् आदेशोऽपि संभाव्येत / एवं च मातरपितराभ्यामिति न सिध्येत / मातरपितरयोः / 'आ द्वन्द्वे' (3 / 2 / 39) मातृपितृभ्याम् 'पितामात्रा वा' (3 / 1 / 122) इत्यनेन पितृशेषः / / 47|| 1. तन्नामनी पुरुषौ न देवते इति भावः / 2. अग्निश्च वरुणश्च अग्नीवरुणौ देवते अस्य अण् प्रत्यये 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' इति सूत्रेण उत्तरपदस्य वरुणस्य वृद्धचभावः इत्यपि ज्ञेयम्, अग्रीवरुणो देवते अस्पआग्निवारुणीमनड्वाहीमालभेत इति तु भवति / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 273 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः वर्चस्कादिष्ववस्करादयः // 3 // 2 // 48 // वर्चस्काद्यर्थेषु अवस्करादिशब्दाः कृतशषसायुत्तरपदाः साधवो भवन्ति / वर्चस्के-अवस्करोऽनमलम्, अबकरोऽन्यः / अपस्करो रथाङ्गे, अपकरोऽन्यः / अवरस्पराः अपरस्परा वा क्रियासातत्ये, अवरस्पराः सार्था गच्छन्ति, अन्यत्रावरपराः सार्था गच्छन्ति। आस्पदं प्रतिष्ठायाम्, अन्यत्र आ ईषत् पदं आपदम् / आश्चर्यमद्भुते, अन्यत्र आचर्य कर्म शोभनम् / हरिश्चन्द्र ऋषी, अन्यत्र हरिचन्द्रो माणवकः। मस्करो वेणुवंशदण्डयोः, अन्यत्र मकरो मत्स्यः / मस्करी परिव्राजके, अन्यत्र मकरी समुद्रः / कारस्करो वृक्षे, कारकारोऽन्यः / पारस्करो देशे, पारक रोऽन्यः / वनस्पतिः पुष्पं विना फलवति वृक्षे, सर्वहरित्काये वा, वनपतिरन्यः / किष्किन्ध इति गुहापर्वतयोः। तस्करश्चौरः, बृहस्पतिर्देवतायाम्, अन्यत्र तत्करः, बृहत्पतिः। प्रायश्चित्तप्रायश्चित्ती अतिचारशोधने, शष्कुली कृताने, कृतानादन्यत्र शकुली मत्सीविशेषः / गोष्पदं गोसेविते प्रमाणे च, यत्र गावः पद्यन्ते सगोभिः सेवितो ग्रामसमीपादि देश उच्यते / प्रमाणे गोष्पदपूरं वृष्टो देवः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् // 48 // ___अ० अवकीर्यते अवस्करः / 'युवर्णवृदृवशरण०' (5 / 3 / 28) इत्यल् / सततं निरन्तरं गच्छन्तीत्यर्थः अवरे च परे च सकृदेव गच्छन्तीत्यर्थः / आपद्यते इति आस्पदम्, 'वर्षादयः क्लीबे' (5 / 3 / 29) इत्यनेन अल् / प्रतिष्ठास्थानं आत्मयापनापदं उच्यते / कोऽर्थः ? आचर्यते इत्याश्चर्यम् / 'चरेराङस्त्वगुरौ' (5 / 1 / 31) इत्यनेन यप्रत्ययः, ततः श उत्तरपदे कार्यः / मा कृग्, मा क्रियते प्रतिषिध्यतेऽनेनेति मस्करः, 'पुन्नाम्नि घः' (5 / 3 / 130) निपातनात् ह्रस्वः सकारश्च, अथवा मकरशब्दस्य अव्युत्पन्नस्य मस्कर इति रूपम् माकरणशीलो मस्करी / कारं करोतीति व्युत्पत्त्या कारस्करः, 'संख्याहर्दिवाविभानिशाप्रभाभाश्चित्रकर्नाद्यन्तानन्तकारबाह्ररुर्द्धनुनान्दीलिपिलिविबलिभक्तिक्षेत्रजङ्घाक्षपाक्षणदारजनिदोषादिनदिवसाट्टः' (5 / 1 / 102) इति टः / पारं करोतीति पारस्करः ‘हेतुतच्छीलानुकूले०' (5 / 1103) त्यादिना टः / मकरिन् शब्दस्य वा मस्करी इति रूपम् / किमप्यन्तर्दधातीति किष्किन्धा नाम गुहा, निपातनात् किमोर्द्विवचनम्, पूर्वमकारस्य षकारः / तथा किं किं दधातीति किष्किन्धो नाम पर्वतः / एतत्करोतीति बृहतां पतिः तस्कर बृहस्पति इत्यत्र उभयत्र तकारस्य सकारः / प्रायश्चित्तमित्यादि प्रकर्षण एति-आगच्छति अस्माद्विधानादांचारधर्मे इति प्रायो मुनिलोकः चिन्त्यते स्मर्यते इति चित्तम् / चित्तिश्च व्रतम्, प्रायैर्मुनिजनैश्चित्तं-चिन्तितं पापविशुद्धये इति प्रायश्चित्तम्-अतिचारशोधनम् / एवं प्रायश्चित्ते उत्पत्तिज़ैया, निपातनात् शकारः / शष्कुलशब्दात् गौरादित्वात् ङीः / गोष्पदपूरं इत्यादि, गोपदं पूरयति / इदं वाक्यं ‘वृष्टिमाने ऊलुक् चास्य वा' (5 / 4 / 57) इति सूत्रेण णम् प्रत्ययः, तदनंतरं वर्चस्कादिष्वेति षकारो विचाले // 48 / / / . परतः स्त्री पुंवत् स्त्र्येकार्थेऽनुङ् // 3 // 2 // 49 // परतो विशेष्यवशाद् यः शब्दः स्त्रीलिंगः स स्त्रियां वर्तमाने एकार्थे-तुल्याधिकरणे उत्तरपदे परे मुंवद् भवति / अनूङ्-न ऊडंतः। पटुभार्यः, कल्याणभार्यः, एनी भार्या यस्य स एतभार्यः, श्येतभार्यः, कुवजानिः। परत इति किम् ? कच्छपी, गुणीभार्यः, वरटामार्यः, वडवाभार्यः / स्त्रीति किम् ? ग्रामणि कुलं दृष्टिस्य ग्रामणिदृष्टिः / स्त्र्येकार्थे इति किम् ? कल्याणीवस्त्रम् / स्त्रीग्रहणं किम् ? गृहिणीनेत्राः / एकार्थ - ते किम् ? कल्याण्या माता कल्याणीमाता / अनूङिति किम् ? ब्रह्मबंधूभार्यः // 49 // 1. अत्र स्त्रिलिङ्गोत्तरपदं नास्ति / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते _____ अ० पट्वी भार्या यस्य, कल्याणी भार्या यस्य एवं दर्शनीया भार्या यस्य स दर्शनीयभार्य, एतशब्दः श्वेतवर्णवाचकः कर्बुरो वा / श्येतशब्दः कुमुदाभः / एताश्येतपरतः ‘श्येतैतहरितभरतरोहिताद्वर्णात्तोनश्च' (2 / 4 / 36) इत्यनेन ङीप्रत्ययः, ङीयोगे च तकारस्य नकारः एनी, श्येनी, एनी भार्या यस्य, श्येनी भार्या यस्य, पुंवद्भावे डीनिवृत्तिः, डीनिवृत्तौ नकारोपि निवृत्तः / युवन्, 'यूनस्तिः' (2 / 4/77) इत्यनेन स्त्रियां तिः युवतिर्जाया यस्य, पुंवद्भावेति निवृत्तिः 'जायाया जानिः' (7 / 3 / 164) इति जानिः / एवं कल्याणा चासौ पंचमी च कल्याणपंचमी इत्यपि ज्ञेयम् / तथा पट्वी च मृद्वीच ते भार्ये यस्य पट्वीमृदुभार्यः, अत्र द्वंद्वपदानां परस्परार्थसंक्रमात्, द्वयर्थस्य मृदुशब्दस्य, द्वयर्थेन भार्याशब्देन सामानाधिकरण्यमिति मृदुशब्दस्य पुंवद्भावो भवति, पट्वी शब्दस्य तु व्यवधानान्न पुंवद्भावः, द्रुणी भार्या इत्यादिषु पुंवद्भावेऽर्थतः प्रत्यासन्नाः कूर्म हंस अश्व शब्दा द्रुणी वरटा वडवा स्थाने प्राप्नुयुः / तथा द्रोणीभार्यः, कुटीभार्यः, पात्रीभार्यः, अत्र पुंवद्भावे शब्दतः प्रत्यासन्ना द्रोणा कुट पात्र इति शब्दाः प्राप्नुयुः, कल्याण्या वस्रं, गृहिणी नेत्रे येषां कल्याणी प्रधानाः / एवं दर्शनीया माता, ब्रह्मा बंधुरस्या / ‘उतोऽप्राऽणिनश्चे' (2 / 4 / 73) ति ऊ / ब्रह्मबंधू भार्याऽस्य // 49 / / क्यङ्मानिपित्तद्धिते // 3 // 2 // 50 // क्यङि प्रत्यये मानिनि शब्दे चोत्तरपदे पिति तद्धिते च प्रत्यये परे परतः स्त्रीलिंगः शब्दोऽनूङ् पुंवद्भवति / क्यङ्, श्येनीवाचरति श्येतायते / मानिन्, दर्शनीयां मन्यते दर्शनीयमानी, अयमस्याः, दर्शनीयमानिनी इयमस्याः। पित्तद्धिते ध्यप्, अजथ्यं यूथं / पित्तिथट्, बहुतिथी प्चरट पटुचरी। पित्तस् वाक्य-बह्वीभ्यो बहुतः। त्रप्, बहुत्रः / शस्, बहुशो देहि / पाशप्, दर्शनीयपाशा / तमप्, पकतमा / तरप्, पकतरा / रूपप्, दर्शनीयरूपा / कल्पप् दर्शनीयकल्पा / देश्यप् दर्शनीयदेश्या / कप्, दर्शनीयका / कथं पत्रिका मृद्धिका ? 'ङ्यादीदूतः के' (2 / 4 / 104) इत्यत्र ङीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थमुक्तं तेनात्र ह्रस्वः // 50 // अ० पकारानुबंधे तद्धितप्रत्यये परे सति तत्र पुंवद्भावे ङीनिवृत्तिः, डीनिवृत्तौ नकारोपि निवृत्तः / दर्शनीयां मन्यते भार्यां दर्शनीयमानी ‘मन्याण्णिन्' (5 / 1 / 116) इति णिन् / अजा अजाभ्यो हितं यूथं अजथ्यां 'अव्यजात् ध्यप्' (7 / 1 / 38) इति सूत्रेण थ्यप्, ततः पुंवद्भावः / भूतपूर्वा पट्वी पुटुचरा ‘भूतपूर्वे प्चरट्' (7 / 2 / 78) इति सूत्रेण चरट, स च पित्, ततः पुंवद्भावः / बह्वीबह्वीनां पूरणी बहुतिथी 'पित्तथट् बहुगणपूगसंघात्' (7 / 1 / 160) इति सूत्रेण तिथट् प्रत्ययः स च पित्, 'किमद्वयादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः पित्तंस्' (7 / 279) इति तस् स च पित् / बह्वीबह्वीभ्यो देहि बहुशो देहि बह्वल्पार्थात् (कारकादिष्टानिष्टे पशस्) (7 / 2 / 150) इति सूत्रेण शस् स च पित् ततः पुंवद्भावः / निन्द्या दर्शनीया इति वाक्ये 'निन्द्ये पाशप्' (7 / 3 / 4) इति सूत्रेण पाशप् / बह्वीषु बहुत्र ‘त्रप् च' (7 / 2 / 92) इति त्रप् प्रत्ययः / पक्का इयमासां अतिशयेन पक्का पक्वतमा 'प्रकृष्टेतमप्' (7 / 3 / 5) इति सूत्रेण तमप् / इयमनयोरतिशयेन पक्का पक्कतरा 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' (7 / 3 / 6) इति सूत्रेण तरप्' ततः पुंवद्भावः / पक्कतमा पक्कतरा इति सिद्धम् / प्रशस्ता दर्शनीया इति वाक्ये 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्' (7 / 3 / 10) इति सूत्रेण रूपप् प्रत्ययः, दर्शनीये 'आत्' (2 / 4 / 18) इत्याप् / ईषदसमाप्त दर्शनीया दर्शनीयकल्पा दर्शनीयदेश्या ‘अतमबादेरीषदसमाप्ते कल्पप् देश्यप् देशीय' / (7 / 3 / 11) इति सूत्रेण कल्पप् देश्यप् प्रत्ययौ 'हस्वा दर्शनीया दर्शनीयका 'प्राग् नित्यात् कप्' (7 / 3 / 28) इति सूत्रेण कप् प्रत्ययः / अत्र असन्देहार्थं इकारो न कृतः तथाहि किमत्र पुंवद्भावे सति 'अस्यायत्तेत्या (2 / 5 / 111) दिना डकारः. अथवा पंवद्भावे अकतेऽपि 'स्वज्ञाजे (2 / 4 / 108) त्यादिना आप Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः एव स्थाने इकारोऽयं इति सन्देहः स्यात् इति प्राप्तोऽपि इकारो न कृतः // 50 // - जातिश्च णितद्धितयस्वरे // 3 // 2 // 51 // अन्यापस्तः स्त्री जातिश्च णिप्रत्यये यकारादौ स्वरादौ च तद्धिते विषयभूते उत्पत्स्यमाने तद्विवक्षायामेव पुंबद्भवति अनुङ् / णि, पट्वीमाचष्टे पटयति / तद्धितय, एन्यां साधुः ऐत्यः / एन्या भाव ऐत्यं / तद्धितस्वर, भवत्या इदं भावत्कं भवदीयं / इयमासामतिशयेन पट्वी पटिष्ठा पटीयसी। जातितद्धितय' दारयः। तद्धितस्वरे, हास्तिकम् / तद्धितेति किम् ? हस्तिनीमिच्छति हस्तिनीयति हस्तिन्यः / कथं यौवतं ? भिक्षादौ युवतीति बीलिंगपाठात् / सापत्न इत्यपि 'सपन्यादावि' (2 / 4 / 50) ति सूत्रे सपत्नीसमुदायनिपातनात् / अत एव सतपत्नीभार्ये इत्यत्रापि नपुंवद्भावः / सपत्नस्यायं सापत्न इति वा भविष्यति ॥छ॥५१॥ अ० दरदां राजा दरदोऽपत्यं स्त्री 'पुरुमगधकलिङ्गसूरमसद्विस्वरादण्' (6 / 1 / 116) इति अण् / 'द्रेरञणोऽप्राच्यभादेः' (6 / 1 / 123) इति सूत्रेण अण्लुक दरत् / अणे यणेतिरी / दरत्यां साधुः 'तत्र साधौ' (7 / 1 / 15) यः पुंवद्भावः, डीनिवृत्तिः पुंवद्भावात् पुनर्दद् इति शब्दः / जातिश्चणीति सूत्रे जातिग्रहणं जातिलक्षणप्रतिषेधनिवृत्यर्थ / सति तस्मिन् चकारोऽन्यार्थः / जातिः परतः 'स्त्री' अथवा परतः स्त्री पुंवद्भवतीत्यथवा अकृते हि चकारे जातेरेव पुंवद्भावः स्यात्, न जातिविलक्षणशब्दस्य इति भावार्थः / एवं एतयति लघयति / एत / श्येतैत० (2 / 4 / 36) इत्यादिना ङीः, तस्य नः एनी' एन्यां साधुनीत्यत्र, 'तत्र साधौ' इति यः, एन्या भावः ऐत्यं वर्णदृढादिभ्य (7 / 1159) ष्टयण् भवति / भवत्या इदं भावत्कं भवदीयं. 'भवतोरिकणीयसौ' (6 / 3 / 30) इकण् ईयस् प्रत्ययौ / 'ऋवर्णोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकणस्येतो लुक्' (74 / 71) इति सूत्रेण इकण् इकारस्य लुक् / 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' (7 / 3 / 9) 'त्रन्त्यस्वरादेः' (7 / 4 / 43) हस्तिनीनां समूहो हास्तिकं हास्तिकं, हस्तिनां हस्तिनीनां वा समूहः 'कवचिहस्त्यचित्ताचेकण्' (6 / 2 / 14) इकण 'नोऽपदस्य तद्धिते' (74 / 61) इति नकारस्य लोपः / युवतीनां समूहो यौवतम्, 'भिक्षादेः' (6 / 2 / 10) इति सूत्रेण इण् / 'अवर्णेवर्णस्य' (7 / 4 / 68) इलोपः / 'अणि' (7 / 4 / 52) इति सूत्रेणऽत्र नान्त्यस्वरादेर्लोपः / यौवनं इति प्राप्नोति पुंवद्भावप्राप्तेः न यौवतं इति पराशयः / सूरिराह / भिक्षादेरिति / भिक्षादेः इति वक्ष्यमाणतद्धितसूत्रे युवितशब्दस्त्रीलिङ्गस्य युवतीनां समूहो यौवतमित्येवं साधना / समानः पतिरस्याः सपत्नी समानस्य पतिरिति वा सपत्नी ‘सपन्यादौ' (2 / 4 / 50) इति सूत्रेण ङीः, नकारान्तादेशः, समानस्य सभावश्च इति त्रयं निपात्यते / जातिश्च णीति पुंवद्भावः प्राप्नोति / सिद्धेः पुंद्भावबाधनार्थं सपन्यादौ इति सूत्रं कृतं / सपत्न्या अपत्यं अथवा सपत्नशब्दःसपत्न्यास्तुल्यः / तत्र 'अः सपल्याः ' (7 / 1 / 119) इति सूत्रेण अप्रत्ययः / औणादिको वा 'जातिश्चणितद्धितयस्वरे' इति सूत्रे तद्धितयस्वरे इत्यत्र विषयसप्तम्याआश्रयणं किम् ? पट्या भावः पाटवं / अत्र प्रत्ययोत्पत्तेः पूर्वमेव पुंवद्भावे सति लघ्वादित्वात् भावार्थे 'य्वृवर्णाल्लघ्वादे' (7 / 1 / 69) रिति सूत्रेण सिद्धः। परं सप्तम्याश्रयणे तु लघ्वादित्वाभावादण् न स्यात् इति भावः / इयमवचूरिः सूत्रान्ते // 51|| . .. एयेऽनायी // 3 // 2 // 52 // . तद्धिते एयप्रत्यये परेऽनायी एव' परतः स्त्री पुंवद्भवति / आग्नेयः स्थालीपाकः / पूर्वेण सिद्धे नियमार्थ वचनम् / तेन श्यैनेयः / रोहिणेयः / अत्र पूर्वेणापि न पुंवद्भावः ॥छ॥५२॥ अ० अग्नेर्भार्या अग्नायी 'पूतक्रतुवृषाकप्यग्नि०' (2 / 4 / 60) इत्यनेन ङीणअंतश्च / अग्नाय्या अपत्यं आग्नेयः / 1. द्विस्वरादनद्याः / 6 / 1 / 71 / इति / 2. 'ड्याप्त्यूङः' / 6 / 1170 / इति एयण् / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अथवा अग्नायी देवताऽस्येति वाक्ये 'कल्यग्नेरेयण' (6 / 1 / 17) डाः पूडः ['ड्याप्त्यूङः'] एयण् // 52 // नाप प्रियादौ // 3 // 2 // 53 // पूरण्यप् प्रत्ययान्ते स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे प्रियादौ च परे परतः स्त्रीपुंवन्न भवति / अप्, कल्याणी प्रियाऽस्य कल्याणीप्रियः एवं भव्याप्रिय इत्यादि कल्याणीभक्तिरितियावत् / कथं दृढभक्तिः ? स्थिरभक्तिः इत्यादि / दृढं भक्तिरस्य इत्येवं अस्त्रीपूर्वपदस्य विवक्षितत्वात् / अप् प्रियादाविति किम् ? कल्याणपञ्चमीकः पक्षः, कल्याणप्रमाणाः ॥छ॥५३॥ अ० पूरणप्रत्ययान्तः स्त्रीलिङ्गः शब्दोपि पूरणी उच्यते, प्रिया मनोज्ञा कल्याणी सुभगा दुर्भगा स्वाक्षान्ता कान्ता वामना समा सचिवा चपला बाला तनया दुहितृ भक्ति इति प्रियादिगणः / कल्याणीप्रियः, (भव्या प्रियास्य भव्याप्रियः) भव्या-मनोज्ञा [अस्य] [भव्यामनोज्ञः]-प्रियाकल्याणीकः, प्रियासुभगः, कल्याणीदुर्भगः, कल्याणीस्वः, प्रियाक्षान्तः, दर्शनीयकान्तः, प्रियावामनः, प्रियासमः, प्रियासविचः, प्रियाचपलः प्रियाबालः, कल्याणीतनयः, प्रियादुहितृकः, कल्याणीभक्तिः, भज्यतेऽसाविति भक्तिः / 'श्वादिभ्यः' (5 / 3 / 92) क्तिरिति प्रियादिउदाहरणावली, कल्याणी पञ्चमी आसां रात्रीणां ताः कल्याणीपञ्चमाः ‘पूरणी भ्यस्तत्प्राधान्येऽप्' / (7 / 3 / 130) इति सूत्रेण पञ्चमीशब्दात् अप् समासान्तः एके वामशब्दोपि प्रियादौ पठन्ति, तन्मते प्रियावाम इत्यादि / आदिशब्दात् शोभनभक्तिः, परिपूर्णभक्तिः, एषु भजनं भक्तिः, “स्त्रियां क्तिः' (53 / / 91) / कल्याणी पञ्चमी अस्मिन् पक्षे कल्याणी प्रमाणी येषां 'प्रमाणी संख्यात् डः' (7 / 3 / 128) // 53 // तद्धिताककोपांत्यपूरण्याख्याः // 3 // 2 // 54 // तद्धितप्रत्ययस्य अप्रत्ययस्य च यः कः स उपान्त्यो यासां तास्तद्धिताककोपान्त्याः, पूरणी प्रत्ययान्ताः आख्या-सञ्ज्ञास्तद्रूपाश्च परतः स्त्रियः पुंवन्न भवंति / तद्धित, मद्रिकाभार्यः / अक, कारिकाभार्यः / पाचिकारूपा / कारिकायते / पाचिकामानिनी / पूरणी, द्वितीयाभार्यः / पञ्चमीदेश्या / नाम-आख्या, दत्ताभार्यः। कस्य तद्धिताकविशेषणं किम् ? पाकभार्यः / कामुककल्पा / लुण्टाकायते ॥छ॥५४॥ अ० तद्धितश्च अकश्च तद्धिताकौ तद्धिताकयोः कः तद्धिताककः, तद्धिताकक उपान्त्यो येषां परतः स्त्रीरूपाणां शब्दानामिति वाक्यं कार्यम्, वृत्त्यभिप्रायेण तु यासां इति कृते ह्रस्वत्वं न स्यात् / तद्धिताककोपान्त्याश्च पूरण्यश्च आख्याश्च उपान्त्या इति प्राप्नुयात्, मद्रेषु भवा मद्रिका 'वृजिमद्राद्दशात्कः' (6 / 3 / 38) इति सूत्रेण कप्रत्ययः, आप् अस्यायेति इत्वं / प्रशस्ता पाचिका, 'त्यादेश्च प्रशस्तेरूपप्' (7 / 3 / 10) / कारिकेवाचरति ‘क्यङ्' (3 / 4 / 26) इत्यनेन क्यङ्, / एवं द्वितीयाकल्पा ईषदपरिसमाप्ता द्वितीया द्वितीयाकल्पाः / एवं पञ्चमीदेश्या, 'अतमबादेरीषदसमाप्ते०' कल्पप् / देश्यप् / दत्ता इति नाम्नी भार्या यस्य, पाका बाला यस्य, लुण्टाका इवाचरति // 54 // तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्तविकारे // 3 // 2 // 55 // स्वरस्थानीयवृद्धिहेतुर्यस्तद्धितो रक्तादिविकाराचान्यत्रार्थे विहितस्तदन्तः शब्दः परतः स्त्रीपुंवन्न स्यात् / माथुरीभार्यः। वैदर्भीभार्यः / तद्धित इति किम् ? कुम्भकारभार्यः। वृद्धिहेतुरिति किम् ? अर्द्धप्रस्थभार्यः। स्वरेति किम् ? वैयाकरण भार्यः / अरक्तविकार इति किम् ? काषायबृहतिकः / माञ्जिष्ठबृहतिकः। लौहेषः ॥छ॥५५॥ 1. अन्ये तु वृद्धिमात्रतोर्णितस्तद्धितस्य पुंवत् प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मते वैयाकरणीभार्यः इति बृहद्वत्तौ अधिकः / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 277 - अ० मथुरायां भवा माथुरी / 'भवे' (6 / 3 / 123) इति सूत्रेण अण् / अथवा मथुराया आगता माथुरी / 'तत आगते' (6 / 3 / 149) इति सूत्रेण अण् / एवं वैदर्भीः, कुम्भकारी भार्याऽस्य कुम्भकारभार्यः / परतः स्त्रीति पुंवत्, अर्द्धप्रस्थे बृहती पटी उपरितनमाच्छादनमुच्यते / बृहत्येव बृहतिका पटी / 'तनु पुत्राणु बृहती शून्यात् सूत्रकृत्रिमनिपुणाच्छादनरक्ते' (7 / 3 / 23) इति सूत्रेण कप्रत्ययः / 'ड्यादीदूतः के' (2 / 4 / 104) इत्यनेन ह्रस्वः, इकारः / बृहतिका इति सिद्धं / कषायेण रक्ता काषायी / 'रागाट्टो रक्ते' (6 / 2 / 1) इति सूत्रेण अण् / काषायी बृहतिकाऽस्य काषायबृहतिकः / / एवं माञ्जिष्ठ (बृहतिकः) अर्धप्रस्थे भवाऽर्द्धप्रस्थी'भवे' (6 / 3 / 123) इत्यण् / 'अर्द्धात् परिमाणस्यानतोवात्वादेः' (7 / 4 / 20) इति सूत्रेण उभयपदस्यापि वृद्धिप्रतिषेधः, अर्द्धप्रस्थी भार्याऽस्य अर्द्धप्रस्थभार्यः, वैयाकरणी भार्याऽस्यः, लोहस्य विकारो लौही, 'विकारेण' (6 / 2 / 30) इति सूत्रेण अण्, ततः डीः, लौही ईषाऽस्य लौहेषः // 55 // .. स्वाङ्गान् ङीर्जातिश्चामानिनि // 3 // 2 // 56 // स्वाङ्गाद् यो ङीस्तदन्तः शब्दः, जातिवाची च यः शब्दः, परतः स्त्री स पुंवन्न भवति, अमानिनिमानिशब्दश्चेत्परो न स्यात् / दीर्घकेशीभार्यः / चन्द्रमुखीभार्यः / जाति / कठीभार्यः / क्षत्रियाभार्यः / 'आकृतिग्रहणाजातिरत्रिलिङ्गा च यान्विता / आजन्मनाशमर्थानां सामान्यमपरे विदुः // 56 // अ० अत्र प्रथमजातिलक्षणानुसारेण कुमारीभार्य इति भवति / द्वितीयजातिलक्षणानुसरणे तु कुमारभार्य इति भवति। स्वाङ्गादिति किं ? पटुभार्यः / अमानिनीति किं ? दीर्घकेशमानिनी, कठमानिनी // 56 / / . पुंवत्कर्मधारये // 3 // 2 // 57 // परतः स्त्री अनूड्, कर्मधारयसमाझे स्त्रयेकार्थे उत्तरपदे परे पुंवत् स्यात् प्रतिषेधसूत्राधिकारबोधनार्थ सूत्रमिदं कृतं / प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं आरंभः / नाप् प्रियादावित्युक्तं तत्रापि भवति / कल्याणी चासौ प्रिया च कल्याणप्रिया / 'तद्धिताककोपान्त्ये' त्युक्तं तत्रापि पुंवत् / मद्रकभार्यः इत्यादि / तद्धितस्वरवृद्धित्युक्तं, तत्रापि पुंवद्भावः / माथुरवृन्दारिका / स्वाङ्गादीत्युक्तं, तत्रापि पुंवद्भावः / चन्द्रमुखवृन्दारिका / परतः स्त्रीत्येव ? खट्वावृन्दारिका / अङित्येव ? ब्रह्मबन्धूवृन्दारिका ॥छ॥५७॥ अ० ननु यदि प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं आरम्भस्तर्हि ब्रह्मबन्धूवृन्दारिका इत्यादिषु अनूङ् इत्यस्य प्रतिषेधस्या कथं न निवृत्त्यर्थः ? उच्यते, यदि अनूडोपि प्रतिषेधस्या निवृत्तिरिष्टा स्यात् तदा ‘अनूङ्' इति प्रतिषेधाधिकारसूत्रे पृथगेव कुर्यात्, यन्न कृतः, तन्नास्य प्रतिषेधस्य निवृत्त्यर्थ इत्यभिप्रायः / मद्रिका चासौ भार्या च मद्रकभार्यः, माधुरी चासौ वृन्दारिका च (माथुरवृन्दारिका) चन्द्रमुखी चासौ वृन्दारिका च (चन्द्रमुखवृन्दारिका) // 57 / / रिति // 3 // 2 // 58 // परतः स्त्री अनूङ् इति प्रत्यये पुंवत् स्यात् / पटुजातीया / पटुदेशीया ॥छ।।५८॥ अ० रिति, रकारानुबन्धप्रत्यये परे सति, पट्वी प्रकारोऽस्याः सा पटुजातीया / 'प्रकारे जातीयर्' / (7 / 2 / 75) इति सूत्रेण जातीयर् / ईषदपरिसमाप्ता पट्वी पटुदेशीया, ('अतमबादेरी) षदपरिसमाप्तौ०' देशीयर् / / 58 / / त्वते गुणः // 3 / 2 / 59 // परतः स्त्री, अनूङ् गुणवचनः शब्दः, त्वते इति [एतयोः] प्रत्यययोः परयोः पुमान् स्यात् / पट्ट्या भावः, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलकृते पटुत्वं, पटुता / एन्या भाव एतत्वं, एतता / श्येन्या भावः श्येतत्वं, श्येतता / त्वते इत्येव ? पट्वीरूप्यं / गुण इति किम् ? दत्तात्वं दत्ताता, केचित्तु जातिसञ्ज्ञावर्जितस्य विशेषणमात्रस्य पुंवद्भावमिच्छन्ति / पाचिकाया भावः पाचकत्वं / एवं द्वितीयाया भावो द्वितीयत्वं पञ्चम्या (भावः) पञ्चमत्वं / चन्द्रमुख्याः (भावः) चन्द्रमुखत्वं / सुकेश्याः (भावः) सुकेशत्वं / 'कामिनां मण्डनश्रीव्रजति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन' / रसवत्या धूमवच्च / भुवस्तृणवच्च इत्यादि // 59 // ____ अ० गुणद्वारेण गुणिनि वर्तमानो गुणवचनो गुणशब्दो गृह्यते / गुणमात्रवृत्तेषु अस्त्रीलिङ्गत्वात् पुंवद्भावाऽप्राप्तेः 'भावे त्वतल्' (7 / 1 / 55) पट्ट्या आगतं पट्वीरूप्यं नृहेतुभ्यो रूप्यमयटौ वा (6 / 3 / 156) इति रूप्यप्रत्ययः, देवदत्तात्वं केचिदिति तन्मतसङ्ग्रहार्थं ‘गुणो विशेषणमित्यपि सूत्रार्थे व्याख्येयं मद्रकत्वं / / द्वितीयत्वं / पञ्चमत्वं / एवं माथुरत्वं / 'तदवितथमवादी यन्ममत्वं प्रियेति प्रियजनपरिमुक्तं यदुकूलं दधानः / मदधिवसतिमागाः कामिनामित्यादि / सफलाया भावः सफलत्वं, धूमवत्या भावो धूमवत्वं, तृणवत्या भावः // 59 // . चौ कचित् // 3 // 2 // 60 // ___ परतः स्त्री अनूङ् च्वौ पुंवत्स्यात् / कचिल्लक्षानुसारेम / अमहती महती भूता महद्भूता कन्या, कचिद् ग्रहणाद् गोमती भूता गोमतीभूता इत्यादौ न पुंवद्भावः // 60 // अ० महती भूता इत्यपि प्रयोगं केचिदाहुः / / पट्वी भूता पटू भूता, मृद्वी कृता मृदू कृता इत्यादौ विकल्पः // 60 // सर्वादयोऽस्यादौ // 3 // 2 // 61 // सर्वादिगणः परतः स्त्री पुंवत्स्यात्, अस्यादौ-सर्वादेः परश्चेत् स्यादिर्न भवति / वाक्यं सर्वासां स्त्रियः सर्वस्त्रियः / भवत्याः पुत्रो भवत्पुत्रः / एकस्याः क्षीरं एकक्षीरं / तया प्रकृत्यां तथा / यया प्रकृत्या तथा। यया प्रकृत्या यथा / तस्यां वेलायां तदा / एवं यदा / सर्वामिच्छति सर्वकाम्यति / भवती मिच्छति भवत्काम्यति / एककाम्यति / परत्वात् प्रतिषेधविषयेऽपि पुंवद्भावः / सर्वा प्रियाऽस्य सर्वप्रियाः। सर्विका भार्याऽस्य सर्वकभार्यः / अस्यादाविति किम् ? सर्वस्यै / दक्षिणपूर्वस्यै // 61 // ___ अ० यस्यां वेलायां यदा, कस्यां वेलायां कदा, अन्यस्यां वेलायां अन्यदा / एवं, तर्हि, यर्हि, कर्हि / सर्वादयोऽस्यादौ, अत्र बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् / तेन भूतपूर्वसर्वादेरपि पुंवद्भावः / दक्षिणा च उत्तरा च पूर्वा च दक्षिणोत्तरपूर्वाः, तेषां अत्र 'न सर्वादिः' (1 / 4 / 12) इति सूत्रेण द्वन्द्वे, सर्वादिकार्यं न भवति, परं पुंवद्भावो भवत्येव, सर्वादयोऽस्या० इत्यनेन / दक्षिणोत्तरपूर्वाणां इति सिद्धं / इयमवचूरिः सूत्रप्रान्ते // 61 / / मृगक्षीरादिषु वा // 3 / 2 / 62 // मृगक्षीरादिषु समासशब्देषु परतः स्त्रीलिङ्गमनेकार्थेऽस्त्र्यर्थे चोत्तरपदे वा पुंवत्स्यात् / मृग्याः क्षीरं मृगक्षीरं, मृगीक्षीरम् / कुकुटाण्डं, कुकुट्टयण्डं / काकाण्डं, काक्यण्डं / मयूराण्डं, मयूर्यण्डं / मृगशावः मृगीशावः। मृगक्षीरादयः प्रयोगतोऽनुसर्त्तव्याः // 62 // __ अ० ननु मृग्याः पदं मृगीपदं / मृगस्य पदं मृगपदं इति कृतेपि समासे सेत्स्यति किमनेन इत्याह / पुंस्त्रीलिङ्गपूर्वपदभेदेन समासविवक्षायां सूत्राकरणे मृगक्षीरादयो न सिध्यन्ति, नहि मृगस्य क्षीरं भवति इति भावः Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 279 ऋदुदित्तरतमरूपकल्पब्रुवचेलगोत्रमतहते वा ह्रस्वश्च // 3 / 2 / 63 // ऋदित्शब्द उदिच्छब्दश्च परतः स्त्री तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादिषु च स्त्र्येकार्थेषुत्तरपदेषु ह्रस्वान्तः पुंवच्च वा भवति / पचन्तितरा, पचत्तरा, पचन्तीतरा / श्रेयसितरा, श्रेयस्तरा, श्रेयसीतरा / विदुषितरा, विद्वत्तरा, विदुषीतरा / एवं तमेपि / रूप- पचन्तिरूपा, पचद्रूपा, पचन्तीरूपा / कल्प- पचतिकल्पादि / पचन्तिब्रुवा, पचब्रुवा, पचन्तीब्रुवा / चेलट्-पचन्तिचेली, पचच्चेली, पचन्तीचेली। गोत्र-श्रेयसिगोत्रा, श्रेयोगोत्रा, श्रेयसीगोत्रा / विदुषिगोत्रा, विद्वद्गोत्रा, विदुषीगोत्र / मत- श्रेयसिमता, श्रेयोमता, श्रेयसीमता / हतापचन्तिहता इत्यादि / एवं सुदतितरेत्यादि, ब्रुवादयः कुत्साशब्दाः // 63 // अ० पचत् इति शब्दः / अधातूदृदितः ङीः (2 / 4 / 2) तदनन्तरं / 'श्यशवः' (2 / 1 / 116) इति सूत्रेण इति अत् स्थाने अन्त / इयं पचति 2 इयमनयोर्मध्ये प्रकृष्टं पचति पचन्तितरां / इयं श्रेयसी 2 इयमित्यादि / एवं इयं विदुषी 2 इयमनयोः प्रकृष्टा विदुषी / द्वयोर्विभज्ये च तरप् / यत्र तमप् तत्र बहुत्वे वाक्यं इयं पचति 2 इयमासां मध्ये प्रकृष्टं पचन्ती पचन्तितमा / एवं श्रेयसीतमा / विदुषीतमां 1 'प्रकृष्टे तमप' (7 / 3 / 5) इति सूत्रेण तमप्। रूपत्रयं त्रयं तमेपि ज्ञातव्यं / प्रशस्तं पञ्चमी पचन्तिरूपा 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप् (7 / 3 / 10) ईषदपरिसमाप्ता पचन्ती पचन्तिकल्पा / 'अतमबादेरीषदसमाप्ते कल्पप् देश्यप्' / अत्रापि रूपत्रयं सज्ञेयम् / ब्रुवादिशब्दैः कुत्सनार्थे H सह निन्द्यं कुत्सनैरपापाद्यैरिति, समासः, पचन्तीचासौ ब्रुवाच / ब्रुवशब्दो निन्द्यवाची, चेलशब्दो निन्द्यवाची टकारो ङ्यर्थः पचन्ती चासौ चेली च, श्रेयसी चासौ मता च / विदुषिगोत्रा पचन्ती चासौ हताच, सुदतितरेत्यादि / 'वयसि दन्तस्य [दतृ] दन्' (7 / 3 / 151) इति सूत्रेण दन्तस्य दत् / एकार्थेषु इति किं ? पचन्त्या हता इति वाक्ये पचन्ती हता इत्युदाहरणम् / एवं विदुष्या हता विदुषीहता / इति व्यावृत्तिः सूत्रप्रान्ते ज्ञेया // 63 / / ड्यः // 3 / 2 / 64 // ड्यन्तस्य परतः स्त्रीलिङ्गस्य तरादिप्रत्ययेषु ब्रुवादिषु चोत्तरपदेषु एकार्थेषु हस्वान्तादेशः स्यात् / गौरितरा / गौरितमा। नर्तकिरूपा / कुमारिकल्पा / ब्राह्मणिब्रुवा इत्यादि / परत्वाद् यथा प्राप्तं पुंवद्भावं बाधते / ङ्य इति किम् ? कारिकातरा / परतः स्त्रिया इत्येव ? बदरीतरा / एकार्थ इत्येव ? ब्राह्मण्या हता ब्राह्मणीहता // 64 // अ० नवैकस्वराणामित्युत्तरत्र वचनात् 'उच्च' (3 / 2 / 64) इति सूत्रं अनेकस्वरस्यैव शब्दस्य प्रवर्त्तते इति भावः। दत्तारूपा ग्रामणीकल्पा आमलकीकल्पा // 64 / / . भोगवद् गौरिमतोर्नाम्नि // 3 // 2 // 65 // भोगवत्गौरिमतशब्दयोङयन्तयोर्नाम्नि सञ्ज्ञायां तरादिषु चोत्तरपदेष्वेकार्थेषु ह्रस्वः स्यात् / भोगवतितरा / गौरिमतितमा इत्यादि / भोगवतिब्रुवा / गौरिमतिचेलीत्यादि / नाम्नीति किं ? भोगवतितरा / भोगवत्तरा / भोगवतीतरा // 65 // अ० भोगाः-सर्पकञ्चुकाः सन्त्यस्यां इति वाक्ये 'नद्यां मतुः' (6 / 2 / 72) इति सूत्रेण मत्प्रत्ययः / 'अधातूदृदितः ङीः' (2 / 4 / 1) भोगवती, अनजिरादि बहुस्वरेस्यादिना भोगस्य दीर्घान्तादेशः / भोगवतीनाम नदी अतएव 1. उदित्वात् 'ऋदुदित्तरेत्यादिनात्रहस्वत्वं ज्ञेयमिति / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 . कलिकालमतशी कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलङ्कृते 'भोगवद्' (3 / 2 / 65) इति सूत्रे निर्देशात् पूर्वपदस्य ह्रस्वत्वं, ततो भोगवती, प्रकृष्टा भोगवती भोगवतितरा। गौरी अस्या [अ] स्तीति गौरिमती, तदस्यास्ति० (7/2 / 1) मतुः ‘ड्यापो बहुलं नाम्नि' (2 / 4 / 99) इति बहुलवचनात् ह्रस्वः, गौरिमती प्रकृष्टा गौरिमतीतमा / भोगवतिब्रुवा / गौरिमतिहता इति प्रयोगावली विज्ञेया // 65 // - न वैकस्वराणां // 3 // 2 // 66 // बहुवचनात् परतः स्त्रीति निवृत्तं, सामान्येन विधिः / एकस्वरशब्दस्य ड्यन्तस्य तरादिषु ब्रुवादिषूत्तरपदेषु च स्त्र्येकार्थेषु ह्रस्वान्तो वा स्यात् / स्त्रितरा, स्त्रीतरा / ज्ञस्य भार्या ज्ञी-ज्ञितमा / ज्ञीतमा / जिब्रुवा, ज्ञीब्रुवा / स्त्रिहता, स्त्रीहता / एकस्वराणामिति किम् ? कुटीतरा, कुबलीरूपा / ड्य इत्येव ? श्रीतरा धीरूपा / एकार्थ इत्येव ? स्त्रिया हता स्त्रीहता // 66 // अ० ज्ञितमा, ज्ञीतमा इत्यत्र विकल्पेन ह्रस्वः, पश्चात् सञ्ज्ञा-विवक्षायां तद्धिताककोपान्त्येति निषेधबलात हस्वपक्षे पुंवत् तद् भवतीत्यर्थः, स्त्री चासौ हता च / नित्यदितामनेकस्वराणामपि एके ह्रस्वं इच्छन्ति, तन्मते आमलकितरा / बदरितमा / लक्ष्मिकल्पा / तन्त्रितरा इत्यादयो भवन्ति / इयमवचूरिः 'नवैकस्वराणाम्' (3 / 2 / 66) इति वृत्तिप्रान्तेऽवगन्तव्या // 66 // __ऊङः // 3 / 2 / 67 // ऊङन्तस्य तरादिषु ब्रुवाद्युत्तरपदेषु स्त्र्येकार्थेषु ह्रस्वो वा स्यात् / वामोरुतरा, वामोरूतरा / कमण्डलुकल्पा, कमंडलूकल्पा / कद्रुब्रुवा, कब्रुवा // 6 // अ० 'उतो प्राणिन०' (2 / 4 / 73) ऊङ्, पगुचेली, पशूचेली / भीरुहता, भीरूहता इत्याद्यपि // 67 / / महतः करघासविशिष्टे डाः // 3 / 2 / 68 // करादिषूत्तरपदेषु स्त्र्येकार्थेषु महच्छब्दस्य महतो डा इत्यंतादेशो वा भवति / वैयधिकरण्ये इयं विभाषा, सामानाधिकरण्ये तु परत्वादुत्तरेण नित्य एव विधिः / महतः करो महाकरः, महत्करः / कर एव कार इति महाकारः, महत्कारः / महाघासः, महद्घासः / महाविशिष्टः, महद्विशिष्टः // 68 // अ० सूत्रे डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः, स च उत्तरसूत्रार्थः / / महतो घासः / महतो विशिष्टः // 68 / / स्त्रियाम् // 3 // 2 // 69 // स्त्रियां वर्तमानस्य महतः करायुत्तरपदेषु नित्यं डा अन्तादेशः स्यात् / महत्याः करः महाकरः / महाघासः / महाविशिष्टः // 69 // अ० नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् पूर्वेणैव सिद्धे नित्यार्थमिदं 'स्त्रियामिति सूत्रं // 69 // - जातीयैकार्थेऽच्वेः // 3 // 27 // महतोऽव्यन्तस्य जातीयप्रत्यये एकार्थे चोत्तरपदे डा अन्तः स्यात् / महाजातीयः महाजातीया एकार्थे, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः / महामुनिः। महाभागः / महती चासो देवी च महादेवी एवं महाराज्ञी / महांश्वासौ करश्च महान् करोऽस्येति वा महाकरः / एवं महाघासः / महान्तमात्मानं मन्यते महामानी एवं महं१. द्वितीयाद्यन्ततत्पुरुषे इति भावः, प्रथमान्तपदसमासे कर्मधारयादौ तु नित्यंडा भवति / 2. महत इति किम् ?. राजकरः, करादिष्विति किम् ? महत् पुत्रः / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 281 मन्यः / खशि डा ह्रस्वत्वे मोन्तः / जातीयैकार्थ इति किम् ? प्रकृष्टो महान् महत्तरः / महत्याः पुत्रो भवतीपुत्रः / अच्वेरिति किम् ? अमहान् महान् सम्पन्नो महद्भूतश्चंद्रमाः / अमहती महती संपन्ना महद्भूता कन्या ॥छ।।७०॥ . ___ अ० महत्शब्दस्य 1 महान् प्रकारोऽस्य महाजातीयः / महती प्रकाराऽस्य महाजातीया / “मन्याण्णिन्' / (5 / 1 / 116) महंमन्यः अत्र महत् मनुधातुः / महान्तमात्मानं मन्यते महंमन्यः / 'कर्तुःखश्' (5 / 1 / 117) इति सूत्रेण खश् / 'दिवादेःश्यः' (3 / 4 / 72) जातीयैकार्थे० इति डा महा इति जातं / 'खित्यनव्ययारुषो मोन्तो हस्वश्च' (3 / 2 / 111) इत्यनेन महा इत्यस्य ह्रस्वः मोंतश्च महंमन्य इति सिद्धं // 70 // न पुंवनिषेधे // 3 // 2 // 7 // महतः पुंवनिषेधविषये उत्तरपदे परे डा न स्यात् / महतीप्रियः ॥छ॥७१॥ अ० महती प्रियाऽस्य महतीप्रियः / 'नाप् प्रियादौ' (3 / 2 / 53) इति पुंवनिषेधः // 71 / / - इच्यस्वरे दीर्घ आच्च // 3 // 2 // 72 // इच् प्रत्ययान्तेऽस्वरादावुत्तरपदे परे पूर्वपदस्य दीर्घ आकारश्चान्तादेशः स्यात् / बाहूबाहवि, बाहाबाहवि। केशाकेशि। मुष्टीमुष्टि / मुष्टामुष्टि / दण्डादण्डि / दीर्घत्वात्वयोरकारान्तादन्यत्र विशेषः / दीर्घसाहचर्यादात्वमपि स्वरान्तानामेव भवति / तेनेह न स्यात्, दोर्दोषि / अस्वर इति किम् ? अस्यसि // 72 // __अ० यत्र पूर्वपदं नाम्यन्तं / तत्र दीर्घ आकारश्च इति प्रयोगद्वयं / यथा मुष्टीमुष्टि / मुष्टामुष्टि / एवं यष्टी० यष्टा-यष्टि / बाहूबाहवि / बाहाबाहवि // यत्र पूर्वपदं अवर्णान्तं तत्र आकार एव इति एक एव प्रयोगः, यथा केशा-केशि / दण्डादण्डि, इति विशेषः आकारान्तत्वे // 72 / / . हविष्यष्टनः कपाले // 3 / 2 / 73 // हविष्यर्थे कपाले उत्तरपदेऽष्टनो दीर्घोऽन्तादेशः स्यात् / अष्टाकपालं हविः // 73 // अ० अष्टसु कपालेषु संस्कृतं अष्टाकपालं हविः / 'संस्कृते' (6 / 4 / 3) इत्यनेन इकण्, 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः' / (6 / 1 / 24) इत्यनेन इकण् लुप्यते // 73 // गवि युक्ते // 3 / 2 / 74 // युक्तेऽर्थे गवि उत्तरपदेऽष्टनो दीर्घोऽन्तः स्यात् / अष्टागवं शकटं / गवीति किम् ? अष्टतुरगो रथः / युक्त इति किम् ? अष्टगवं विप्रधनं / अष्टगुश्चैत्रः // 7 // ___ अ० अष्टौ गावो युक्ता यस्मिन् शकटे इति अष्टागवं शकटं ‘गोस्तत्पुरुषात्' (7 / 3 / 105) इति सूत्रेण अट्समासान्तः। दीर्घविधानबलात् युक्तार्थसम्प्रत्ययाद् गतार्थत्वात् युक्तशब्दस्य निवृत्तिर्भवति / अथवा समाहारे द्विगुः कार्यः, तत्र साहचर्यादुपचारादष्टगवेनं युक्तं शकटं अष्टागवमुच्यते / / अष्टतुरगो रथः, अत्र अष्टानां तुरगाणां समाहारः अष्टतुरगं, अष्टतुरगमत्रास्ति इति वाक्ये 'अभ्रादिभ्यः' (7 / 2 / 46) इति अप्रत्ययः / यदीदं क्रियते तदा द्वयंगविकलता स्यात् / तथात्र गवीति नास्ति तथा युक्तत्वमपि नास्तीति / अष्टानां गवानां समाहारोऽष्टगवं, अष्ट गावो यस्य / / 74 / / 1. सूत्रमिदं महामानीत्यत्र ज्ञेयम् / 2. अष्टौ तुरगा युक्ता यस्मिन् स अष्टतुरगो रथ इति विग्रहः कार्यः, तथा च युक्तार्थसद्भावेऽपि गोशब्दाभावान्न दीर्घोऽन्तो भवति, समाहारसमासे तु गोशब्दयुक्तार्थयोरुभयोरभावावयङ्गवैकल्येन प्रत्युदाहरणासङ्गतिः स्यादिति / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते नाम्नि // 3 / 2 / 75 // अष्टन उत्तरपदे परे नाम्नि सञ्ज्ञायां दीर्घः स्यात् / अष्टौ पदान्यत्र अष्टापदः-कैलासः, अष्टापदं स्वर्ण। नाम्नीति किं ? अष्टदंष्ट्रः // 7 // अ० 'अष्टसु लोहेषु पदं प्रतिष्ठा यस्य / / 7 / / __ कोटरमिश्रकसिध्रकपुरगसारिकस्य वणे // 3 // 276 // कोटरादीनां कृतणत्वे वनशब्दे उत्तरपदे दीर्घः स्यात् नाम्नि / कोटरावणं / मिश्रकावणं / सिध्रकावणं / पुरगावणं / सारिकावणं / 'पूर्वपदस्थे०' (2 / 3 / 64) त्यनेन णत्वे सिद्धे कृतणत्वस्य वणशब्दस्य निर्देशो नियमार्थः / तेन 'पूर्वपदस्थानाम्न्यग' इत्यनेन च नस्य णत्वमाकारसंनियोगे एव भवति / ततश्च कुबेरवनं, शतधारवनमित्यादौ सञ्ज्ञायामपि न णत्वं ॥छ॥७६॥ अ० कोटरावणं इत्यादिषु नकारस्य णकारो भवति / कुबेरवनमित्यादिषु नकारस्य न णकारः, कोऽयं विशेषः ? उच्यते, 'कोटरेति (3 / 2 / 76) सूत्रे वण इति निर्देशो नियमार्थः कृतः / तेन कोटरादीनां आकारविधिः (यत्र) तत्रैव वनस्य णकारः / कुबेरवनमित्यादिषु आकाराभावे णकारोऽपि न भवति // 76 / / __ अञ्जानादीनां गिरौ // 3 // 2 // 77 // ____ अञ्जनादीनां गिरावुत्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशः स्यात् नाम्नि / अञ्जनागिरिः / अञ्जनादीनामिति किं ? कृ. ष्णगिरिः / नाम्नीत्येव ? अञ्जनगिरिः / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥छ॥७७॥ अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मतौ // 3 // 2 // 78 // अजिरादिवर्जबहुस्वराणां शरादीनां च मतौ प्रत्यये दीर्घः स्यात् नाम्नि / बहुस्वरा-अमरावतीत्यादि / शरादि शरावतीत्यादि / बहुवचनमाकृतिगणार्थम् / तेन ऋषीवती, मृगावती, पद्मावती, वातावती, भोगावतीत्यादि सिद्धं / बहुस्वशरादीनामिति किम् ? मधुमती, व्रीहिमती / बहुस्वरस्यानजिरादि विशेषणं किम् ? अजिरवती / नाम्नीत्येव ? वलयवती कन्या ॥छ।७८॥ ___ अ० उदुंबरावती, मशकावती, वीरणावती, पुष्करावती, इति बहुस्वरविशेषोदाहरणावली / अथ शरादि, शरावतीवंशावती, कुशावती, (शुचीमती) धूमावती, अहीवती, कपीवती, मुनीवती, मणीवती, एषु उदुम्बरा सन्त्यस्यां नद्यां, एवं मशकाः [सन्त्यस्यां] वीरणा संत्यस्यामित्यादि, चतुरर्थे 'नद्यां मतुः' (6 / 2 / 72) इति सूत्रेण मत्-प्रत्ययः, 'नाम्नि' (2 / 1 / 95) इति सूत्रेण मतोर्वत्त्वं / शुचीमती अत्र तु 'नोादिभ्यः' (2 / 1 / 99) इत्यनेन मतोर्वत्त्वनिषेधः / अमराः संत्यत्र तदस्यास्तीति मतुः / 'वार्दावान्नामगिरिः वेटावान्नामगिरिः अत्रापि तदस्येति मतुः / शरवंशकुशशुचिधूमअहिकपिमुनिमणिवार्दवेट इति शरादि, अजिरादिगण उदाहरणावलीयं ज्ञातव्या-तथाहि-अजिरवती, खदिरवती, खजुरवती, स्थविरवती, पुलिनवती, मलयवती, हंसकारंडवती, चक्रवाकवती, अलङ्कारवती, शशाङ्कवती, हिरण्यवती इति अजिरादिराकृतिगणः / / अजिरादिगणे शब्दा 10 दश, 'शरवती तूणा इत्यपि // 78 / / ऋषौ विश्वस्य मित्रे // 3 // 2 // 79 // ऋषावर्थे मित्रे उत्तरपदे विश्वशब्दस्य नाम्नि दीर्घोऽतः स्यात् / विश्वामित्रो नामर्षिः / ऋषाविति किं ? 1. स्वर्णपक्षेऽयं विग्रहः / 2. वार्दा मेघाः संत्यत्र वेटा वृक्षाः सन्त्यत्रेति विग्रहः 3. इदं प्रत्युदाहरणम् / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 'विश्वमित्रो माणवकः ॥छ॥७९॥ नरे // 3 / 2 / 80 // विश्वस्य नरशब्दे-उत्तरपदे-नाम्नि दीर्घः स्यात् / विश्वे नरा अस्य विश्वानरो नाम कश्चित् ॥छ।।८०॥ वसुराटोः // 3 // 2 // 81 // विश्वस्य वसौ राटि चोत्तरपदे दीर्घः स्यात् / विश्वं वसु अस्य विश्वावसुः / विश्वस्मिन् राजते इति विश्वाराट् / राडिति विकृतिनिर्देशादिह न दीर्घः - विश्वराजौ ॥छ।।८१॥ वलच्यपित्रादेः // 3 / 2 / 82 // वलच् प्रत्यये परे पित्रादिवर्जस्वरान्तशब्दानां दीर्घः स्यात् / आसुतीवलः / कृषीवलः / अपित्रादेरिति किं ? पितृवलः, मातृवलः, / भ्रातुवलः ॥छ।।८२॥ अ० सूत्रे वलजिति चकारः किम् ? यत्र बलशब्द उत्तरपदवर्ती भवति तत्र वा भूत् / कायबलं / वचनबलं / नागबलं / यथा अत्र, उत्सङ्गावलः, दन्तावलः / पुत्रावलः / आसुतिः सुरा / आसुतिरस्यास्तीति 'कृष्यादिभ्यो वलच्' (7 / 2 / 27) एवं कृषिः, दन्तावस्य सः / कृष्यादि० वलच् / / 82 // चितेः कचि // 3 / 2 / 83 // चितिशब्दस्य कचिप्रत्यये परे दीर्घः स्यात् / एकचितीकः / द्विचितीकः ॥छ।।८३॥ . अ० चितिशब्दः प्रतिमावाची एका चितिरस्मिन् ‘शेषाद्वा' (7 / 3 / 125) इति कच् / / 83 / / _ स्वामिचिह्नस्याविष्टाष्टपञ्चभिन्नछिन्नछिद्रसूवस्वस्तिकस्य कर्णे // 3 // 2 // 84 // ___ स्वामिचिह्नवाचिशब्दस्य विष्टादिवर्जितस्य कर्णशब्दे उत्तरपदे दीर्घोतादेशः स्यात् / दात्राकर्णः पशुः / द्विगुणाकर्णः, द्वयङ्गुलाकर्णः / स्वामिचिह्नस्येति किम् ? लम्बकर्णः, अविद्धकर्णः शिशुः / चिह्नस्येति किं ? वाहनकर्णः / विष्टादिवर्जनं किं ? विष्टकर्णः, अष्टकर्ण इत्यादि ॥छ।।८४॥ अ० दात्रमिव दात्रं चिह्न कर्णे यस्य स दात्राकर्णः, द्विगुणं चिह्नं कर्णे यस्य स द्विगुणाकर्णः, आदिशब्दात्पञ्चकर्णः, भिन्नकर्णः, छिन्नकर्णः, च्छिद्रकर्णः, सुवकर्णः, स्वस्तिककर्णः / / 84 / / ___ गतिकारकस्य नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनौ कौ // 3 / 2 / 85 // गतिसञकस्य कारकवाचिनश्च नह्यादिषु किबन्तेषूत्तरपदेषु दीर्घः स्यात् / उपानत्, नीवृत्, प्रावृट, वावित्, नीरुक्, तुरासट, परीतत् / गतिकारकस्येति किम् ? / पटुरुक् श्वेतरुक्, 'इह किग्रहणादन्यत्र धातुग्रहणे तदादि विधिर्लभ्यते तेन अयस्कृतं अयस्कारः इत्यादौ सत्वं सिद्धं, अन्यथा हि अयस्कृत् अत्रैव स्यात् ॥छ।।८५॥ 1. अत्र मित्रशब्दो न ऋष्यर्थवाचकः तस्मात् नात्वं, विश्वं मित्रमस्य विश्वमित्रो मुनिरित्यत्र तु विश्वऋषावभिधेयेऽपि संज्ञाभावात् नात्वमिति ज्ञेयम् / 2. राडितिनिर्देशेन पत्र राडितिरूपं भवति तत्रैव दी? नान्यत्रेति सूचयति / 3. आसुतिः-सुरा अस्यास्तीति, कृषिः अस्यास्तीति विग्रहवाक्यौ / 4. स्वामी चिह्नयते येन तत् स्वामिचिह्न तत् कर्णे स्यात् तदा दीर्घत्वमाप्नुयात् किंतु तद्भिन्नावयवादी स्यात् तर्हि न आत्वं भवति इति भावः / 5. नन्वत्र विग्रहणं व्यर्थम्, अन्यप्रत्ययान्तघटिते उपनद्ध इत्यादौ नह्यादेर्धातोरभावादेव दीर्घाप्रवृत्तेः क्विबन्तस्यैव नह्यादेरर्थतो लाभादित्याशङ्कायामाह--हहेति, सत्यमाशङ्कितम्, किन्तु तद्ग्रहणं एतत्सूत्रादन्यत्र धातुग्रहणे कृते तदादिविधिर्भवतीति नियमज्ञापनाय, तेनायस्कृतमित्यादी कृधातोरभावेऽपि कृधातुरादिर्यस्य तथाविधकृतादिशब्दानामपि ग्रहणात् अतःकृकमिकंसेत्यादिना सत्वं भवत्येव अन्यथाऽत्र न स्यात् किन्त्वयस्कृदित्यत्रैव स्यादिति समाधानाभिप्रायः / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अ० 'णहीच बंधने', 'पाठे धात्वा०' (2 / 3 / 97) नह उपनाति उपानत्, एवं परिनह्यति परीणत् / अथवा उपनद्यते उपानत्, (परिनह्यते) परीणत्, ‘उपानत्' इति विप्लोपानंतरपदांतत्वे सति 'नहाहोर्धतौ' (2 / 1 / 85) इति सूत्रेण हकारस्य ध् / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) धस्य त् (आ) देशः, एवं उपावृत् / 'वृष् उक्ष सेचने' / प्रवर्षति मेघा अस्यां इति प्रावृट्, एवं परीवृट् / 'व्यधंच ताडने' / श्वानं विध्यति, एवं मर्माणि विध्यतीति, श्वावित्, मर्मावित् / नितरां रोचते नीरुक् / एवं अतीरुक् / अभीरुक् / 'षहि मर्षणे' / 'षः सो०' (2 / 3 / 98) सह, तुरं सहते 'तुरासट् / ऋतिः पीडा-ऋतिं सहते ऋतीषट्, 'भीरुष्ठानादयः' (2 / 3 / 33) इति षत्वं / परितनोतीति परीतत्, ‘गमां कौ' / (4 / 2 / 58) इति सूत्रेण तनोर्नकारस्य लोपः / सर्वत्र 'क्रुत्संपदादिभ्यः किप् (5 / 3 / 114) 'हस्वस्य तः' पित्कृती'ति, (4 / 4 / 114), 'नोतः' / (3 / 4 / 16) श्वावित्, अत्र 'ज्याव्यधःक्डिति' / (4 / 1 / 81) इति सूत्रेण वृत् संप्रसारणं तुरासट् / इत्यत्र ‘हो धुट् पदांते' / (2 / 1 / 82) इत्यनेन हकारस्य ढकारः / 'विरामे वा' (1 / 3 / 51) ढस्य टकारः / पट्वी रुक् यस्य श्वेता रुक् यस्य, अन्यत्र कोऽर्थः ? सूत्रे उदाहरणे वा-आदिविधिः प्रथमं मूलप्रतिरूपं भवति / पश्चाद् रूपान्तरे सत्यपि सूत्रोक्तं कार्यं भवतीत्यर्थः, अयंसा कृतं अयस्कृतं / अयस्करोतीति अयस्कारः / 'अतःकृकमिकंस०' (2 / 3 / 5) इत्यनेन सकारः / / 85 / / . घञ्युपसर्गस्य बहुलं // 3 // 2 // 86 // घान्ते उत्तरपदे परे उपसर्गस्य बहुलं दीर्घः स्यात् / नीवारः। प्रावारः / कचिन दीर्घः, निषादः, विषादः, प्रतापः, प्रभावः / कचिद्दी| वा प्रतिबोधः, प्रतीबोधः, परीणामः, परिणाम इत्यादि / कचिद् विषयभेदेन, प्रासादो गृहं, प्रसादोऽन्यः, प्राकारो वप्रः, प्रकारोऽन्य इत्यादि / बहुलवचनादनुपसर्गस्यापि अघञ्यपि दीर्घः दक्षिणापथः, उत्तरापथः। कचिद्वा अन्धतमः, अन्धातमः अन्धातमसं, अन्धतमसं / कचिदनुत्तरपदेऽपि वा दीर्घः, पूरुषः, पुरुषः, नारकः, नरकः, सादनं, सदनं, अतिशायनं, अतिशयनं ॥छ।।८६।। ____ अ० नियतेत्रियते इति नीवारः / 'नेषुः' (5 / 3 / 74) इति सूत्रेण घञ्, 'नामिनोऽकलिहलेः' (4 / 3 / 51) वृद्धिः। प्रवृणोति देहं इति प्रावारः-उत्तरपटः उत्तरासङ्गार्थपटः इत्यर्थः, आदिशब्दात् प्रतीवेशः, प्रतिवेशः, प्रतीहारः, प्रतिहारः, प्रतीकारः, प्रतिकारः, अतीसारः, अतिसारः, अतीचारः, अतिचार इति / अपामार्गः-ओषधिः, अपमार्गोऽन्यः, नीहारो हिमं, निहारोऽन्यः, परीरोधो मृगावरोधः, परिरोधोऽन्यः, परीहारो देशानुग्रहः परिहारोऽन्यः, वीतंसः पक्षिबंधनं, वितंसोऽन्य इति, आदिशब्देन विशेषप्रयोगाः। अन्धशब्दो अन्धं करोतीति ‘णिच् बहुलं' / (3 / 4 / 42) इति णिच् / अन्धयतीति अच्, अन्धं च तत्तमश्च अन्धतमसं 'समवान्धात्तमसः' / (7 / 3 / 80) इत्यनेनऽत् // 86 // नामिनः काशे // 3 / 2 / 87 // नाम्यन्तोपसर्गस्य अजन्ते काशशब्दे उत्तरपदे परे दीर्घः स्यात् / नीकाशः / वीकाशः / प्रतीकाशः। बहुलाधिकारानिकाश इत्यपि ॥छ।।८७॥ . अ० निकाशते निकाश्यते इति वा अच्प्रत्ययः, एवं वीकाशः, प्रतीकाशः, इत्यत्रापि 'अच्' (5 / 1 / 49) अच् प्रत्ययांते // 87|| 1. तुरेर्जुहोत्यादिपाठात् तुतोर्ति 'नाम्युपान्त्य इति सूत्रेण कः, तुरं सहते तुरासट, तुरासाडिति तु छान्दसः / 2. उपसर्गस्येति किम् ? चन्दनसारः, अत्र सारशब्दस्य घन्तत्वेऽपि चन्दनशब्दस्य उपसर्गाभावात् दीर्घान्तादेशाभावः, पन्नीति किम् ? अवसायः, अत्र अब-पदस्य उपसर्गत्वेऽपि सायशब्दस्य घनन्तत्वाभावात् अत्र दीर्घान्तादेशाभावः इति ज्ञेयम् / 3. अजन इत्यस्यार्थः / Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः / दस्ति // 3 // 2 // 8 // , दा इत्यस्य यस्तकारादिरादेशस्तस्मिन् परे 'नाम्यन्तोपसर्गस्य दीर्घः स्यात् / नीतं, वीत्तं, परीत्तवान्। द इति किं ? वितीर्ण, तीति किं ? 'निविस्वन्ववात्' (4 / 4.8) इति सूत्रेणा दा स्थाने तः सुदत्तः ॥छ।।८८॥ - अ० दाघातुः निविपूर्वः, निदीयते स्म विदीयते स्म / 'क्तक्तवतु' (5 / 1 / 174) कोऽप्रयोगी तः तिष्ठति 'निविस्वन्ववात्' (4 / 4 / 8) इति सूत्रेण दास्थाने त्त इत्यादेशो वा परीत्तं इत्यत्र परि पूर्वो दा परिददाति स्म क्तवतु / 'स्वरादुपसर्गादस्ति कित्यधः' (4 / 4 / 9) इति सूत्रेण दास्थाने त्तादेशश्च / एषु त्रिषु उदाहरणेषु 'धुटो धुटि स्वे वा' (1 / 3 / 48) इत्यनेन विकल्पेन मध्यमतकारस्य लोपः, तत्र नीतं वीतं परीतं इति, यत्र तु तः न लुप्यते / तत्र नीत्तं वीत्तं परीत्तवान् इति भवति // 88 / / . अपील्वादेर्वहे // 3 / 2 / 89 // पील्यादिवर्जितस्य नाम्यन्तशब्दस्य वहे उत्तरपदे परे दीर्घः स्यात् / ऋषीवहं, मुनीवहं, कपीवहं एवं नामानि नगराणि, घांते तु वहे-ऋषीवहः / अपील्वादेरिति किं ? पीलुवहः दारुवहं ॥छ।।८९॥ अ० वहतीति वहं 'अच्' (5 / 1 / 49) इति अच् / ऋषीणां वहं ऋषीवहं, एवं मुनीवहं इत्यादि, मुनीवहः, कपीवहः, चारुवहं / / 8 / / शुनः // 3 / 2 / 90 // श्वन् शब्दस्योत्तरपदे परे दीर्घोतः स्यात् / श्वादंतः, एवं श्वादंष्ट्रा, श्वावराहं / बहुलाधिकारात् कचिदी? वा, श्वापुच्छं, कचिद् विषयांतरे, श्वापदं व्याघ्रादिः, श्वपदं कचिन दीर्घः, श्वमुखः ॥छ॥९०॥ अ० शुनःपदमिव पदमस्य इति श्वापदं, शुनःपदं / श्ववन्मुखमस्य // 90 // एकादश षोडश षोडत् षोढा षड्ढा // 3 // 29 // एकादयः शब्दा दशादिषूत्तरपदादिषु कृतदीर्घत्वादयो निपात्यते / एकादश षोडश षोडन् षोडंती। स्त्रियां तु 'षोडती षोढा षड्ढा ॥छ॥९१॥ अ० एकादश इत्यादि / एक दशन् / एकोत्तरा दश / अथवा एकं च दश च वा एकादश / अत्र निपातनात् एकशब्दस्यान्ते दीर्घः एकादशन् / षडुत्तरा दश षट् च दश च वा षोडश, अत्र षषोऽन्तस्य उत्वं / उत्तरपददकारस्य डत्वं / / षड् दन्ता अस्य षोडन्, अत्र दन्तस्य दतृ आदेशः, दस्य च डत्वं / 'सिः, औ, जस्' 'ऋदुदितः' (1 / 4 / 70) इत्यनेन नोन्तः, ‘पदान्ते' (2 / 1 / 64) इत्यनेन अन्त्यतकारस्य लोपः / षोडन् षोडन्तौ षोडन्तः / तथा षड्भिः प्रकारै षोढा षड्ढा ‘संख्याया धा' (7 / 2 / 104) इति सूत्रेण धा, निपातनात्, वर्षातस्य उत्वं वा षोढा इति सिद्धं / धा इत्यस्य नित्यं ढत्वं / अन्यत्र 'धुटस्तृतीय' (2 / 1176) इति षस्य डत्वं // 11 // द्वित्र्यष्टानां द्वात्रयोऽष्टाः प्राक् शतादनशीतिबहुव्रीहौ // 3 / 2 / 92 // द्वि त्रि अष्टशब्दानां यथासङ्ख्यं द्वा त्रयस् अष्टा इत्यादेशाः प्राक् शतात् सङ्ख्यायामुत्तरपदे भवन्ति, 1. प्रत्तमित्यत्र नाम्यंतत्वाभावात् दीर्घत्वाभावः / 2. शुनो दन्तः श्वादन्तः, एवं शुनो दंष्ट्रा इत्यादि विग्रहः कार्यः / 3. अन्ये तु दत्रादेशे कृते षोडनिति शब्दान्तरं नकारान्तं राजन्शब्दवनिपातयन्ति, ततश्च षोडानमिच्छतीति क्यनि नकारलोपे ईत्वे च षोडीयतीति सिध्यतीति / . मन्यन्ते इति बृहद्वृत्तौ / 4. द्वित्र्यष्टानामेवोक्तत्वात् पञ्चदशेत्यत्र दीर्घत्वं न भवति / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते नत्वशीतौ बहुव्रीहिविषये च / द्वादश, द्वाविंशतिः, त्रयोदश, त्रयोविंशतिः, अष्टादश, अष्टाविंशतिः / प्राक्शतादिति किम् ? द्विशतं, त्रिशतं, अष्टशतं, द्विसहस्रं, अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् ? द्वयशीतिः, द्वित्राः। त्रिचतुराः, द्विदशाः / प्राक्शतादित्यवधेः संख्यापरिग्रहादिह नादेशः द्वैमातुरः ॥छ॥१२॥ अ० द्विदशन् द्वाभ्यामधिका दश अथवा द्वौ च दश च, एवं द्वाविंशतिः, द्वात्रिंशत् / तथा त्रिभिरधिका दश त्रयश्च दश च वा त्रयोदश, एवं त्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशत्, अष्टभिरधिका दश अष्टौ च दश चेति वा अष्टादश, एवं अष्टाविंशतिः अष्टाविंशत् / द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः / द्विर्दश द्विदशाः / 'प्रमाणी संख्यात् डः' (7 / 3 / 128) इति डः समासान्तः / त्रयो वा चत्वारो वा इति त्रिचतुराः। 'नञ् सुव्युपत्रेश्चतुरः' (7 / 3 / 131) इति अप् समासांतः, द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरः, तिसृणां मातॄणामपत्यं त्रैमातुरः अष्टानां मातृणामपत्यं आष्टमातुरः, 'संख्यासंभद्रान्मातुर्मातुश्च' (6 / 1 / 66) इत्यनेन अण् / मातृशब्दस्य मातुर् इत्यादेशः // 92 // चत्वारिंशदादौ वा // 3 / 2 / 93 // द्वित्र्यष्टानां प्राक् शताच्चत्वारिंशदादौ सङ्ख्यायामुत्तरपदे यथासङ्ख्यं द्वा त्रयस् अष्टा इति भवंति वा, अनशीतिबहुव्रीहौ / द्वाचत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत्, त्रयश्चत्वारिंशत् त्रिचत्वारिंशत्, अष्टाचत्वारिंशत् अष्टचत्वारिंशत्, एवं द्वापञ्चाशत् इत्यादि पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् ॥छ।९३॥ अ० द्वाभ्यामधिका अथवा द्वौ च चत्वारिंशच्चेति वाक्यमेवमग्रेष्वपि, आदिशब्दात् द्वापञ्चाशत्, द्विपञ्चाशत्, त्रयःपश्चाशत्, त्रिपञ्चाशत्, अष्टापञ्चाशत्, अष्टपञ्चाशत् / द्वाषष्टिः द्विषष्टिः, त्रयोषष्टिः त्रिषष्टिः, अष्टाषष्टिः अष्टषष्टिः, द्वासप्ततिः द्विसप्ततिः, त्रयःसप्ततिः, त्रिसप्ततिः, अष्टासप्ततिः अष्टसप्ततिः, द्वानवतिः, द्विनवतिः, त्रयोनवतिः, त्रिनवतिः, अष्टानवतिः, अष्टनवतिः // 93 / / हृदयस्य हृल्लासलेखाण्ये // 3 / 2 / 94 // लासलेखयोरुत्तरपदयोरणि ये च प्रत्यये परे हृदयस्य हृत् आदेशः स्यात् / हल्लास् हृल्लेखः / अण् हाईम्, हृद्यः, हृद्यं / हृदयसमानार्थेन हृत्शन्देनैव सिद्धे हृदादेशविधानं लासादिषु हृदयप्रयोगनिवृत्त्यर्थम् / अन्यत्र तूभयं प्रयुज्यते सौहार्य सौहृदय्यं इत्यादि ॥छ।९४॥ - अ० हृदयं लिखतीति हल्लेखः / अत्र 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) (इति) अण् लेखनं लेखः ‘भावाकोंः' (5 / 3 / 18) घञ् हृदयस्य लेखो हृदयलेख इति घनि हृत् न स्यात् / अण्' संनिधानाल्लेखशब्दोप्यणंतो ग्राह्यो न घनंतः / लासलेखअण्येषु परेषु हृदयशब्दस्य हृदादेश एव न हृदयप्रयोगः, हल्लास हल्लेख इति प्रयोगाः, न हृदयलास हृदयलेख इति भावः / हृदयस्येदं हाई अथवा हृदयस्य भाव कर्म वा हार्दै / पूर्ववाक्ये तस्येदं अण्, पाश्चात्यवाक्ये 'पुरुषहृदयादसमासे' (7 / 1170) इत्यनेन अण् / अथवा 'युवादेरण' (7 / 1 / 67) इति सूत्रेण अण् ततो हृद् आदेशः, एवं सौहार्द, दौहार्दै / शोभनं हृदयं यस्य, दुष्टं हृदयं यस्य, पश्चात् सुहृदयस्येदं / दुहृदयस्येदं, तस्येदं अण, हृद् आदेशः / 'हद्भगसिंधोः' (7 / 4 / 25) इति सूत्रेण उभयस्यापि वृद्धिः / हृदयस्य प्रियो बंधनो वा वशीकरणमंत्रो वा हृद्यः, 'हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यधर्म्य' / (7 / 1 / 11) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, ततो हृद् / हृदये भवं हृद्यं / 'दिगादिदेहांशाद् यः' (6 / 3 / 124) अथवा हृदयाय हितं हृद्यं / 1. अण् ग्रहणेनैवाणन्तलेखशब्दस्य लाभे पुनस्तद्ग्रहणमुत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं न भवतीति नियमज्ञापनायेति विज्ञेयम् / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 'प्राण्यंगरथखलतिलयववृषब्रह्ममाषाद्यः' / (7 / 1 / 37) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, अन्यत्रेति कोऽर्थः ? यत्र लासलेखअण्या न भवन्ति / अन्यशब्देषु उत्तरपदेषु उभयं, कोऽर्थः ? हृद्शब्दस्य हृदयशब्दस्य च प्रयोगः कार्यः, यथा सौहार्थं, सौहृदय्यं, हच्छोकः, हृदयशोकः, हृद्रोगः, हृदयरोगः, हृच्छंकुः, हृदयशंकुः, हृच्छूलं, हृदयशूलं, हृच्छल्यंः, हृदयशल्यं, हृद्दाहः, हृदयदाहः, हृदुःखं, हृदयदुःखं, हृत्कमलं, हृदयकमलं, हृत्पुंडरीकं इत्याद्यन्येऽपि / सुहृदो भावः कर्म वा सौहार्थं / सुहृदयस्य भावः कर्म वा पतिराजांतगुणांगराजादिभ्यः कर्मणि च' (7 / 1 / 60) (ट्यण्) सौहार्थं / अत्र 'हृद्भगसिंधोः' (7 / 4 / 25) उभयपदवृद्धिः // 94 // पदः पादस्याज्यातिगोपहते // 3 / 2 / 95 // आज्यादिषूत्तरपदेषु पादस्य पदः स्यात् / पदाजिः, पदातिः, पदगः, पदोपहतः, पादसमानार्थः पदशब्दोऽस्ति / आज्यादिषु पादशब्दप्रयोगनिवृत्यर्थमिदम् ॥छ।९५॥ अ० पादशब्दस्य पद इत्यादेशः, 'अज क्षेपणे' च / 'अत सातत्यगमने' / अज् / अत् / पादाभ्यामजति पादाभ्यामतति ‘पादाच्चात्यजिभ्यां' (620) इत्यौणादिक इण, पादाभ्यां गच्छति 'नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः' (5 / 1 / 131) कथं दिग्धश्चासौ पादश्च तेनोपहतो 'दिग्धपादोपहतः / अत्र कथं न पदादेशः ? उच्यते, उत्तरपदसंनिधापितेन पूर्वपदेन पादशब्दो विशेष्यते न चात्र पादशब्दः पूर्वपदं अपि तु दिग्धपादः (तेनात्र पदा) देशो न भवतीत्यर्थः // 9 // हिमहतिकाषिये पद् // 3 / 2 / 96 // हिमादिषुत्तरपदेषु ये च प्रत्यये परे पादस्य पद् स्यात् / पद्धिमं, पद्धतिः पत्काषि, ये पद्याः शर्कराः। पद्याः पाशवः / कथं पादार्थमुदकं पायं ? 'पाचार्ये' (7 / 123). इति निपातनात् / पादाभ्यां चरति पदिक इति तु 'पदिक' (6 / 4 / 13) इति निपातनात् ॥छ॥९६॥ ___ अ० हिमहतिसूत्रे विशेषोऽयं / केचित् गोपहतयोः परयोः-पद् इत्यादेशमिच्छंति तन्मते पादाभ्यां गच्छति पद्गः, पादाभ्यां कषतीत्येवं शीलः 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) इति णिन् / पुनः पुनः पादौ कषतीति 'व्रताभीक्ष्ण्ये' (5 / 1 / 157) णिन् / पादाभ्यां साधु कषतीति वा 'साधौ' (5 / 1 / 155) इति णिन् / पादौ विध्यंति पद्याः 'विध्यत्यनन्येन' (7 / 1 / 8) इति सूत्रेण यप्रत्ययः, पादयोर्भवाः पद्या 'दिगादिदेहांशाद्यः' (इति) यः, पादाभ्यां हितं पद्यं घृतं / 'प्राण्यङ्गरथखलतिले' 0 (7 / 1 / 37) हिमहति० सूत्रे विशेषोऽयं--केचित् गोपहतयोः परयोः पद इत्यादेशमिच्छन्ति तन्मते पादाभ्यां गच्छति (इति) पद्गः, पादाभ्यामुपहतः पदुपहत इति प्रयोगौ पादसम्बन्धिनि 'हिमहतीति' (3 / 2 / 96) सूत्रस्य वृत्तौ पादशब्दसम्बन्धिनि ये च प्रत्यये परे इति व्याख्येयम्, तेन द्विगुसमाससम्बन्धिनि यप्रत्यये परे न पदादेशः, यथा द्वाभ्यां पादाभ्यां क्रीतं द्विपाद्यं, एवं त्रिपाद्यं 'पणपादमाषाद्यः' (6 / 4 / 148) इति सूत्रेण 'यप्रत्ययः पादयोर्हिमं, पादाभ्यां हतिः, पादाभ्यां कषतीत्येवंशीलः 'अजातेः शीले' (5 / 1 / 154) णिन् पादाभ्यां साधु कषतीति वा साधौ (5 / 1 / 155) इति णिन् / पादौ विध्यंति पद्याः 'विध्यत्यनन्येन' (7 / 1 / 8) 1. दिग्धपादोपहत इत्यत्र तु न पदादेशः, आज्यादिषूत्तरपदेषु परतः पूर्वपदभूतस्य पादशब्दस्य पदादेशविधानेनोत्तरपद भूतोपहतशब्दनिरूपितपूर्व पदत्वस्य दिग्धपादपद एव सत्त्वात् पादशब्देऽभावादिति भावः / 2. कथं हस्तिपादस्यापत्यं हास्तिपाद इत्यत्र अपत्याणि पद्भावः ? इति न च वाच्यं, 'कौपिञ्जलहास्तिपदादण' इति निर्देशात् / 3. यद्वा आज्यादिषु करणभावः प्राण्यङ्गस्यैवेति पूर्वत्र पादशब्दः प्राण्यङ्गवचनः स एव चेहानुवर्तते इति परिमाणार्थस्य न भवति / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलते इति सूत्रेण यप्रत्ययः,-पादयोर्भवाः पद्याः ‘दिगादिदेहांशाद्यः' यः, पादाभ्यां हितं पद्यं-घृतं 'प्राण्यंगरथखलतिले ति यः // 16 // ऋचः 'इशसि // 3 // 2 // 97 // ऋचः सम्बन्धिनः पादस्य शकारादौ शस्प्रत्यये पद् स्यात् / पच्छो गायत्री शंसति ॥छ॥९७॥ अ० पादं पादं गायत्र्याः शंसति इति वाक्ये 'संख्यैकार्थाद्वीप्सायां शस्' (7 / 2 / 151) इति सूत्रेण शस् / / 97|| शब्दनिष्कघोषमिश्रे वा // 3 / 2 / 98 // ___ शब्दादिषुत्तरपदेषु पादस्य पद् स्याद्वा / पच्छब्द पादशब्दः / पनिष्कः पादनिष्कः / पद्घोषः पादघोषः। पन्मिश्रः पादमिश्रः ॥छ।।९८॥ अ० पादयोः शब्दः, पादयोः निष्कः, पादाभ्यां मिश्रः // 98 / / नस् नासिकायास्तः क्षुद्रे // 3 / 2 / 99 // तस्प्रत्यये क्षुद्रे चोत्तरपदे नासिकाशब्दस्य नस् स्यात् / नस्तः / नःक्षुद्रः ॥छ।।९९॥ अ० नासिकायाः नासिकायां वा नस्तः / 'अहीरुहोऽपादाने' (7 / 2 / 88) अथवा 'आद्यादिभ्यः' (7 / 2 / 84) तस् / / 99 / / __ येऽवणे // 3 // 2 // 10 // ये प्रत्यये परे अवर्णादन्यत्रार्थे नासिकाया नस् स्यात् / नस्यं / य इति किं ? नासिक्यं नगरं / अवर्ण इति किं ? नासिक्यो वर्णः ॥छ॥१०॥ ___ अ० नासिकायै हितं 'प्राण्यंगरथ्येति' (7 / 1 / 37) यः / नासिकायां भवं वा दिगादि० (6 / 3 / 124) (यः) नस्यं। नासिक्यं नगरमित्यत्र चातुरर्थिकः 'सुपन्ध्यादेर्व्यः' / (6 / 2 / 84) इति (ज्य) प्रत्ययः / निरनुबंधग्रहणे च न सानुबन्धकस्य ग्रहणं भवति इति वचनात् ञ्ये सानुबंधे सति न नस्' आदेशः // 100 // .. शिरसः शीर्षन् // 3 / 2 / 101 // शिरस्शब्दस्य शीर्षन् ये परे स्यात् / शीर्षण्यः / स्वरः शीर्षण्यं तैलं ॥छ॥१०॥ अ० नासिकायां भवः शिरसि भवः 'दिगादि०' (6 / 3 / 124) यः / शिरसे हितं 'प्राण्यंग०' यः / निरनुबंधेति न्यायात् इहापि शिरस्शब्दस्य न शीर्षन् यथा शिर इच्छति शिरस्यति क्यन् 'शिरसः शीर्षन्' (3 / 2 / 101) अत्रेयमवचूरिः // 101 // केशे वा // 3 / 2 / 102 // केशविषये यप्रत्यये परे शिरसो वा शीर्षन् स्यात् / शीर्षण्याः शिरस्याः केशाः ॥छ॥१०२॥ अ० शिरसि भवाः 'दिगादिदेहां०' (6 / 3 / 124) यः / / 102 / / 1. अत्र द्विशकारपाठात् विभक्तिशसि पादस्य पदादेशो न भवति यथा ऋचः पादान् पश्य / 2. वाक्यगम्यस्य गायत्र्याः कर्मत्वं पादसंबंधस्य वृत्ती निवृत्तत्वात् स्वाभाविकं शंसनक्रियापेक्षं भवति इति ज्ञेयम् / 3. पादयोः शब्दः पच्छब्दः पादयोः निष्क इत्येवंरीत्या विग्रहः कार्यः / 4. इत्येवं नःक्षुद्रः इत्यत्रापि अयमेव विग्रहो ज्ञेयः / 5. अयं भावः अत्र-मूलसूत्रे केवलं यप्रत्ययः उक्तः तेन सहितोक्ते यप्रत्यये परे सत्यपि नासिकायाः न नसादेशो जात इति भावः / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 289 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः शीर्षः स्वरे तद्धिते // 3 // 2 // 103 // कु. स्वरादौ तद्धिते परे शिरसः शीर्ष इत्यादेशः स्यात् / हास्तिशीर्षिः। स्थौलशीर्षिः। मार्गशीर्षी / औष। गर्षिकः / कथं इल्वला 'मृगशीर्षस्येति ? शीर्षशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति / अनेनैव सिद्धे उक्तविषये शिरसः योगनिवृत्त्ययं वचनं ॥छ।१०३॥ अ० हस्तिनः शिर इव शिरो यस्य हस्तिशिराः, हस्तिशिरसोऽपत्यं हास्तिशीर्षिः / एवं स्थूलशिरसोऽपत्यं स्वौलशीर्षिः / 'बाह्वादिभ्यो गोत्रे' (6 / 1 / 32) / इति सूत्रेण इञ् / ततः शीर्षः आदेशः, तथा मृगशिरसा चन्द्रयुक्तेन बुक्का मार्गशीर्षी 'चन्द्रयुक्तात्काले लुप्त्वप्रयुक्ते' (6 / 2 / 6) इति अण् शिरसिं कृतं शैष / 'तत्र कृतलब्धक्रीतसंभूते' (6 / 3 / 94) इति सूत्रेण इण् / शिरसा तरति शीर्षिकः 'नौ द्विस्वरादिकः' (6 / 4 / 10) इति इकप्रत्ययः / 'मस्तकवाची शीर्षशब्दः स्वरादितद्धिताविषयः // 10 // उदकस्योदः पेपंधिवासवाहने // 3 / 2 / 104 // पेषमायुत्तरपदेषु उदकस्य उद इत्यादेशः स्यात् / उदपेषं पिनष्टि / उदधिर्घटः / उदवासः / उदवाइनः / अनामार्थ सूत्रं, "नाम्नि उत्तरेणैव सिद्धम् ॥छ।।१०४॥ - अ० उदकशब्दस्य उदकं धीयतेऽस्मिन् इति उदधिः / 'व्याप्यादाधारे' (5 / 3 / 88) इति किः / इडेत्पुसि चातो लुक् (4 / 3 / 94) आकारलोपः उदकेन पिनष्टि इति वाक्ये ‘स्वस्नेहनार्थात् पुष्पिषः (5 / 4 / 65) इति सूत्रेण णम् / उदकेन पिनष्टीत्यर्थः, उदकस्य वासः उदकं वाहनं यस्य // 104 / / . वैकव्यञ्जने पूर्ये // 3 // 2 // 10 // 'उदकस्य पूर्यमाणार्थे एकव्यञ्जनेऽसंयुक्तव्यञ्जनादावुत्तरपदे उदो वा स्यात् / उदघटः उदकघटः / उदपात्रं उदकपात्रम् / व्यंजनादाविति किम् ? उदकामत्रम् / एकेति किम् ? उदकस्थानम् / पूर्य इति किम् ? उदकदेशः // 10 // ____ अ० उदकादिना द्रव्येण पूरणीयं घटादिकं पूर्यमुच्यते / तत्र यदुत्तरपदं वर्त्तते तस्मिन्निति वैयधिकरण्येन योजना कार्या उदकस्य घटः // 10 // मन्यौदनसक्तुबिन्दुवज्रभारहारवीवधगाहे वा // 3 / 2 / 106 // मन्याद्युत्तरपदेषु उदकस्य उदो वा स्यात् / उदमन्थः / उदकमन्थः / उदौदनः उदकोदनः / उदसक्तुः उदकसक्तुः / उदबिन्दुः उदकबिन्दुः / उदवज्रः उदकवज्रः उदभारः उदकभारः / उदहारः उदकहारः / उदवीवधः / उदकवीवधः / उदगाहः उदकगाहः ॥छ।।१०६॥ अ० अपूर्यार्थो यत्नोऽयं, उदकस्य मन्थः, वीवधशब्दः पथि भारे वर्त्तते // 106 / / . नाम्न्युत्तरपदस्य च // 3 / 2 / 107 // . उदकस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च नाम्नि उदः स्यात् / उदधिः समुद्रः / उदपानं निपानं / उत्तरपदस्य लवणोदः / कालोदः / क्षीरोदः / लोहितोदा / क्षीरोदा नाम नदी ॥छ।।१०७॥ __ अ०. पूर्वपदे उत्तरपदे (वा) वर्तमानस्य उदकशब्दस्य उदादेश इति अर्थः / पानीयं निपानम्, उत्तरपदे उदकस्य 1. भृगशिरा नक्षत्र 652 २हेब पांय तारामो. 2. अणन्तत्वात् डीप्रत्ययः स्त्रियाम् / 3. प्रकृत्यन्तरभूतं शीर्षशब्दं दर्शयति / 4. . नाम्न्युत्तरपदस्य च इति सूत्रेणेति ज्ञेयम् / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवत्रिभ्यामलङ्कृते उदं दर्शयति एते त्रयोऽपि समुद्रविशेषाः // 107 / / ते लुग्वा // 3 / 2 / 108 // नाम्नि ते पूर्वोत्तरपदे लुग् वा स्यातां / देवदत्तः-देवः, दत्तः / सत्यभामा-सत्या, भामा (शब्दसा. म्येऽपि प्रकरणादेरर्थविशेषनिश्चयः) ॥छ।१०८॥ अ० नाम्नि सञ्ज्ञाविषये, ते लुग्वेति वृत्तौ पूर्वोत्तरपदे इति कोर्थः ? चतुरक्षरशब्दस्य पञ्चाक्षरादिशब्दस्य वा पूर्वपदं उत्तरपदं च विकल्पेन लुप्यते, इत्यर्थः // सागरचन्द्रः, सागरः चन्द्र इति वा, ननु ते लुग्वेत्यनेन पूर्वपदस्य उत्तरपदस्य लुग्वा भवतीत्युक्ते यः समुदायमनुवर्तते देवदत्तादिशब्दः स एकदेशेन देव इत्युच्यमानो देवदत्तत्रिदशयोः समानार्थः सन् उभयमध्यात्कमर्थं प्रत्याययति इत्याह सूरिः शब्दसाम्येपि प्रस्तावादर्थविशेषा ज्ञायन्ते इत्यर्थः / / 108 // यन्तरनवर्णोपसर्गादप ईप् // 3 / 2 / 109 // द्वि अन्तर् इत्येताभ्यामवर्णातवोंपसर्गेभ्यश्च परस्य अप इत्युत्तरपदस्य ईप् इत्यादेशः स्यात् / द्वीपं / अन्तरीपं / नीपं / प्रतीपं / उपसर्गादिति किम् ? स्वापः / अत्यापः / अनवर्णेति किम् ? प्रापं, परापम ॥छ।१०९॥ __अ० न विद्यतेऽवर्णो यत्र सोऽनवर्णः, अनवर्णश्चासौ उपसर्गश्च, द्विश्च अन्तश्च, अनवर्णोपसर्गश्च द्वयन्तरनवर्णोपसर्गस्तस्मात् / / द्विधा गता आपोऽस्मिन् इति द्विपम् / अन्तर्गता आपोऽस्मिन्निति अन्तरीपम् / निवृत्ता आपोऽस्मिन्निति नीपम् / अन्यावृत्ता आपोऽस्मिन्निति प्रतीपं / संगता आपोऽस्मिन्निति समीपं / अनुगता आपोऽस्मिन्निति अनूपं / विगता आपोऽस्मिन्निति वीपं इति उदाहरणावली / अत्र सर्वत्र 'ऋक्पः पथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) इति सूत्रेण अकारः समासान्तः, पश्चात् ईप् आदेशः / शोभना आपः स्वापः / पूजिता आप अत्यापः / स्वती पूजायां वर्तेते इति उपसर्गसञ्ज्ञो न भवतः / अत एवात्र समासांतोऽपि न भवति / / 109 / / अनोर्देशे उप // 3 / 2 / 110 // अनोः परस्य अपो देशेऽर्थे उप इत्यादेशः स्यात् / अनूपो देशः / देश इति किम् ? अन्वीपं वनं / 'कथं सूपः, कूपः, यूपः ? पृषोदरादित्वात् ॥छ।११०॥ ___ अ० प्रकृष्टा आपो यत्र परा प्रकृष्टा आपो यत्र तत् प्रापं परापं तडागं 'ऋक्तः पथ्यपोऽत्' (7 / 3 / 76) इति अः, अनुगता आपोऽस्मिन् स अनूपः / 'ऋक्तः पथ्ये'ति अकारे अनूपो देशः तत् प्रदेशः / अनुगता आपोऽस्मिन् // 110 // खित्यनव्ययारुषो मोन्तो ह्रस्वश्च // 3 / 2 / 111 // अनन्ययस्यार्थात् स्वरान्तस्यारुषश्च खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे मोन्तः स्यात्, यथासम्भवं ह्रस्वश्चान्तादेशः। ज्ञञ्मन्यः / क्ष्ममन्यः / महंमन्यः / क्षेमंकरः / आढ्यम्भविष्णुः / सुभगङ्करणं / विहङ्गमः / कालिम्मन्या। अरुन्तुदः / अनव्ययेति किम् ? दिवामन्या रात्रिः। अरुःशब्दोपादानादनव्ययस्य व्यंजनांतस्य न मौतः गीमन्यः ॥छ।।११।। ___ अ० अरुर्ग्रहणादनव्ययस्य शब्दस्य स्वरान्तत्वं गृह्यते / क्षेमंकर इति क्षेमं करोतीति / क्षेमप्रियमद्रभद्रात् 1. ननु सूपकूपादौ अनोः परत्वाभावाद्देशार्थाभावाच कथमाप उप इत्यादेश इत्यत्रोच्यते पृषोदरादित्वादिति / Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 291 खाण्' (5 / 1 / 105) इति खप्रत्ययः एवं मेघान् करोतीति मेघंकरः ‘मेघर्त्तिभयाभयात् खः' (5 / 1 / 106) अनाढ्यो आढ्यो भवति आढ्यंभविष्णुः / 'नग्नपलितप्रियान्धस्थूलसुभगाढ्यतदंताच्च्व्यर्थेऽच्चेर्भुवःखिष्णुखुकञौ' (5 / 1128) एवं सुभगंभावुकः, अत्रानेनैव खुकञ् / तथाऽसुभगः सुभगः क्रियतेऽनेन सुभगंकरणं रूपं / ‘कृगः खनटकरणे' (5 / 1 / 129) इति खनट् / विहायसा गच्छतीति विहंगमः / 'नाम्नोगमः खड्डौच विहायसस्तु विहः' (5 / 1 / 131) इति विहायसो विहादेशः दिवा दिवसं आत्मानं मन्यते ज्ञमात्मानं मन्यते / क्ष्मामात्मानं मन्यते महांतमात्मानं मन्यते / सर्वत्र ‘कर्तुः खश्' (5 / 1 / 117) दिवादेः श्यः (3 / 4 / 72) महंमन्य इत्यत्र 'जातीयैकार्थे च्वेः' (3 / 2 / 70) इति महदग्रे डाप्रत्ययः / 'डित्यंत्यस्वरादेः' (2 / 1 / 114) ततः 'खित्यनव्ययारुषो मोन्तो हस्वश्च' (3 / 2 / 111) द्वयमपि कार्य क्रियते, काली मन्, कालीमात्मानं मन्यते कालिंमन्या / एवं हरिणिंमन्या / “कर्तुः खश्" (5 / 1 / 117) परत्वात् ह्रस्वेन पुंवद्भावो बाध्यते इति अक्षरबलात् अत्र ह्रस्वो मोंतश्च भवति न पुंवद्भावः, अरुं तुदतीति 'बहुविध्वरुस्तिलात्तुदः' (5 / 1 / 224) इत्यनेन खश् / खित्यन० (3 / 2 / 111) मोंतः नकाराग्रे 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक् (2 / 1 / 88) इत्यनेन सकारो लुप्यते / / 111 / / 'सत्यागदास्तोः कारे // 3 / 2 / 112 // सत्यादिभ्यः कारे उत्तरपदे मोन्तः स्यात् / सत्यङ्कारः / अगदङ्कारः / अस्तुङ्कारः // 112 // .. अ० सत्यं करोति सत्यस्य कार इति वा सत्यङ्कारः / एवं अगदङ्कारः / अस्तु इति निपातः क्रियाप्रतिरूपकोऽभ्युपगमे वर्त्तते // 112 // .. 'लोकम्पृणमध्यंदिनानभ्याशमित्यं // 3 // 2 // 113 // एते कृतपूर्वपदमान्ता निपात्यन्ते / लोकम्पृणः / मध्यन्दिनं अनभ्याशमित्यः-दूरात् परिहर्त्तव्यः / अनभ्याशेन इत्योऽनभ्याशमित्य इति वा दूरेण प्रायो न त्वंतिकेनेत्यर्थः // 113 // अ० लोकम्पृण० इति / "पृणत् प्रीणने" / पृण लोकपूर्वं लोकं पृणतीति / 'मूलविभुजादयः' (5 / 1 / 144) इति कः / पृणतीति पृणः 'नाम्युपान्त्यप्रीकृगृज्ञः कः' (5 / 1154) इति कः / ततो लोकस्य पृण लोकं पृणः, तथाऽनभ्याशं दूरमुच्यते / अनभ्याशं इत्यं गंतव्यमस्य अनभ्याशमित्यः / 'इरिक्गतिकम्पनयोः' / ईयते इत्यः / 'दृवृग्स्तुजुषेतिशासः (5 / 1 / 40) इत्यनेन क्यप् क्रियते, मध्यन्दिनस्य अथवा मध्यं च तदिनं च मध्यंदिनमिति // 113 // भ्राष्ट्राग्नेरिन्धे // 3 / 2 / 114 // भ्राष्ट्राग्निभ्यामिन्धे उत्तरपदे मोंतः स्यात् / भ्राष्ट्रस्येन्धः / भ्राष्ट्रमिन्धः अग्निमिन्धः // 11 // अ० त्रिइन्धैपि दीप्तौ / इन्ध् इन्धानं प्रयुङ्क्ते 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग्' (3 / 4 / 20) इन्धनं इन्धः भावेऽल् / इन्ध्यतेऽनेनेति वा 'पुंनाम्नि घः' (5 / 3 / 13) घः / इन्धयतीति वा / 'लिहादिभ्यः' (5 / 15) इति अच् // 114 / / * अगिलाद गिलगिलगिलयोः // 3 / 2 / 115 // - गिलांतवर्जितात् पूर्वपदात् परे गिले गिलगिले चोत्तरपदे मोन्तः स्यात् / तिमिङ्गिलः अपत्यङ्गिला शिशुमारी / तिमिङ्गिलगिलः / अगिलादिति किम् ? तिमिङ्गिलं गिलतीति तिमिङ्गिलगिलः // 115 // अ० तिमिङ्गिल इति / तिमि गिलतीति 'मूलविभुजात्कः' (5 / 1 / 144) / एवं बालो राक्षसः / गिरो रकारस्य 1. अन्ये तु प्रीणातेर्णिगन्तस्याचि हस्वत्वं निपात्य लोकं प्रिणिः लोकप्रीणक; इत्यर्थः इत्युदाहरन्ति इति बृहद्वृत्तौ / Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 - कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते 'नवा स्वरे' (2 / 3 / 102) इत्यनेन लकारः 'ऋतां क्ङि तीर्' (4 / 4 / 17) इर् तिमीनां गिलगिलस्तिमिङ्गिलगिलः गिलं गिलतीति गिलगिलः / गिलगिलशब्दे गिलशब्दो नोत्तरपदं भवति इति गिलगिलोपादानं पृथक् कृतम् / तथा सूत्रेऽगिलादित्यत्र गिलशब्दस्य स्वरांतस्य पर्युदासेन स्वरांतशब्दादेव मोंतो भवति / तेन व्यंजनांतान मोन्तः धूर्गिलः इति / अगिलादिति तु निषेधो गिलांतशब्दस्य निवृत्त्यर्थः, इयमवचूरिः सूत्रांते ज्ञेया // 115 / / भद्रोष्णात् करणे // 3 / 2 / 116 // भद्रादुष्णाच करणे उत्तरपदे मोन्तः स्यात् / भद्रकरणम्, उष्णंकरणं // 116 // अ० भद्रस्य करणम् / उष्णस्य करणमिति वाक्यानि // 116 / / / न वाऽखितकदन्ते रात्रेः // 3 / 2 / 117 // खिद्वर्जितकृदन्ते उत्तरपदे रात्रेर्मोन्तः स्यात् वा / रात्रिश्चरः, रात्रिचरः, रात्रिश्चरी, रात्रिचरी। कृदंत इति किम् ? रात्रिसुखम्, 'इदमेवांतग्रहणं ज्ञापकम् / इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् न तदंतस्य, तेन कालात्तनतरतम' इत्यादौ प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं सिद्धम्भ / 'न नाम्येकस्वरादि' (3 / 2 / 9) त्यादौ त्वसंभवात्तदंतग्रहणम्, केचित्तीर्थकरः, तीर्थंकरः, अत्रापि विकल्पमिच्छंति, तदर्थं न वा खित् कृदंते इति रात्रेरिति च योगो विभजनीयः // 117 // ___ अ० रात्रौ चरतीति 'चरेष्टः' (5 / 1 / 138) टप्रत्ययः / रात्रिंचरीत्यत्र 'अणजेकण्नञ०' ङीः (2 / 4 / 20) अव्युत्पन्नोऽयं सुखशब्दः / 'कृति' (3 / 1 / 77) इत्युक्तेऽपि कृदन्ते उत्तरपदे सति विधिर्भविष्यति इत्यर्थः / तीर्थंकर इति तीर्थं करोतीति तीर्थंकरः / ‘हेतुतच्छीलानुकूलेशब्दश्लोककलहगाथावैरचाटुसूत्रमंत्रपदात्' (5 / 1 / 103) इति टप्रत्ययः / / 117|| .. धेनो व्यायां // 3 / 2 / 118 // भन्योत्तरपदे धेनोर्मोतः स्याद्वा / धेनुंभव्या धेनुभव्या // 118 // अ० धेनुंभव्या इति / धेनुश्चासौ भव्या च धेनुभव्या, धेनुशब्दस्य विशेष्यत्वेऽपि अग्रे रचनायोग्ये सति अत एव सूत्रबलात् धेनोः पूर्वनिपातो भवति / / 118 / / ___ अषष्ठीतृतीयादन्याहोऽर्थे // 3 // 2 // 119 // अषष्ठीतृतीयान्तादन्यशब्दादर्थे परे दोन्तः स्याद्वा / अन्यदर्थः, अन्यार्थः, अन्यदर्थ, अन्याय / अषष्ठीतृतीयादिति किं ? अन्यार्थः // 119 // अ० अन्योऽर्थ इति वाक्यम् / अन्योऽर्थोऽस्ये तिवाक्यं सोऽन्यदर्थः / अन्यस्मै इदं अन्यदर्थम्, एवमन्यस्मिन्नर्थः, अन्यदर्थः दआदेश इत्थं कार्यः / सूत्रे अकार उच्चारणार्थः // 119 / / आशीराशास्थितास्थोत्सुकोतिरागे // 3 / 2 / 120 // वेति निवृत्तं पृथग्योगात्, अषष्ठीतृतीयांतादन्यशब्दादाशिस् आशा आस्थित आस्था उत्सुक अति रागायुत्तरपदेषु दोंतः स्यात् / अन्यदाशीः, अन्यदाशा, अन्यदास्थितः, अन्यदास्था, अन्यदुत्सुकः, अन्यदूतिः, 1. अखित् इत्युक्तिः रात्रिमन्यमहः इत्यादौ नित्यमेव मोन्तत्वात् / 2. अन्तग्रहणं किम् ? रात्रिरिवाचरति किप् लुक् तृच् रात्रपिता इत्यस्यानन्तरं विज्ञेयमिति / तत्र उत्तरपदग्रहणात् / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्यद्रागः // 12 // .. . ईयकारके // 3 // 2 // 121 // अन्यशब्दादीयप्रत्यये कारके चोत्तरपदे दोतः स्यात् / अन्यदीयः, अन्यदीयं, अन्यत्कारकं // 121 // अ० ईयकारकेति पृथग् योगादषष्ठीतृतीयेति निवृत्तम् / / 121 // सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिः क्व्यश्चौ // 3 / 2 / 122 // सर्वादेविष्वग्देवाभ्यां च परतः किबन्तेऽञ्चावुत्तरपदे डद्रिरन्तः स्यात् / सर्वव्यङ् सर्वद्रीचः सर्वद्रीचा सर्वद्रीची विष्वव्यङ् देवव्यङ् / सर्वादिविष्वग्देवादिति किम् ? अष्टाचः। कीति किम् ? विष्वगंचनम् // 122 // ___ अ० सर्वव्यङ् इत्यादि / सर्व 'अञ्चूगतौ' च अञ्च् / सर्वमश्चतीति सर्वव्यङ् देव अच् / देवमश्चतीति / देवानश्चतीति वा देवव्यङ् क्किप्, एवं अदस् अञ्च अमुमञ्चतीति अदव्यङ् क्विप्, एवं सर्वत्र ‘सर्वादिविष्वग०' (3 / 2 / 122) इत्यनेन शब्दधात्वोरन्तराले डद्रिआदेशः / 'अञ्चोऽनर्चायां' (4 / 2 / 46) इत्यनेन अञ्चेर्नकारलोपः / 'प्रथमा सिः'। दीर्घङयाब् से(१।४।४२)रिति लोपः, विप् अप्रयोगी / 'अचः' / (1 / 4 / 69) इति सूत्रेण अचोनोंतः / ‘पदस्य' (2 / 1 / 89) इत्यनेन चकारलोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 171) इत्यनेन नकार(स्य)ङकारादेशः / 'इवर्णादेरस्व०' (1 / 2 / 21) त्यनेन डनेरिकारस्य यत्वं, सर्वव्यङ्ः, देवव्यङ्, अदव्यङ् इति सिध्यति / यत्र च प्रथमा औ जस्, तत्र सर्वव्यञ्चौ सर्वव्यञ्चः / एवं देवव्यञ्चौ देवव्यञ्चः पदान्तत्वाभावात् 'युजं चेति' (2 / 1 / 104) न प्रवर्त्तते / यत्र च द्वितीयाशस्टासिङस् / अथवा 'अञ्चः' (2 / 4 / 3) इत्यनेन डी / तत्र सर्वद्रीची, सर्वद्रीचः, सर्वद्रीचः, सर्वद्रीचा, देवद्रीच इत्यादि / 'अच्च प्रागदीर्घश्चे' (2 / 11104) त्यनेन अच्स्थाने चादेशः, द्रि इकारस्य दीर्घः इति विश्वद्रबङ् / 'शूट प्रेरणे' / विमुक्तीति वियू किर दियू अय्च् / वियूमवतीति विश्वङ् / विश्वमवतीति पुनः क्विप् / अथवा विष्वग् इति शब्दोऽव्ययं विष्वगञ्चतीति विष्वद्रयङ् क्विम् / ततो डद्रि, एवं सर्वव्यङ् इतिवत् / वेष्वव्यञ्चौ विष्वव्यञ्चः विष्वद्रीचः विष्वद्रीचा विष्वद्रीची // 122 / / ...... सहसमः सध्रिसमिः // 3 / 2 / 123 // सहसमः स्थाने किंबन्तेऽचौ यथासंख्यं सध्रिसमि इत्यादेशौ भवतः / सध्यङ् सम्यङ् सध्रीचा / कीति किम् ? सहाञ्चनम् // 123 // अ० सहाञ्च, सहाञ्चतीति सध्यङ् विप् / ततः सध्रि आदेशः / विप् लोपः / 'अञ्चोऽनर्चायां' न लोपः / 'प्रथमा सिः' / 'अचः' (1 / 4 / 69) इति ‘नोंतः' (3 / 4 / 16) 'पदस्य' च् (2 / 1 / 89) लोपः / 'युजञ्चक्रुश्चो नो ङः' (2 / 1 / 71) तस्य ङ् सध्यङ् इति सिद्धम् / एवं सम्यङ् / औशस्टा ङसिङस् ङी सध्यश्चौ सध्यश्चः सध्रीचा सध्रीची एवं सम्यञ्चौ सम्यञ्चः समीचा समीचः 3 समीची अघुट् स्वरे 'अच्च प्राग् दीर्घश्चेति दीर्घः चादेशः / सध्यङ् सध्रीचीनः, सम्यङ् समीचीनः / 'अदिक् स्त्रियां वाञ्चः' (7 / 1 / 107) इति सूत्रेण सध्यन्च सम्यन्च परत इनः प्रत्ययः इति पुल्लिङ्गे एव ज्ञातव्याः // 123 / / तिरसस्तियति // 3 / 2 / 124 // 'अति-अकारादौ किवतेऽञ्चावुत्तरपदे तिरसस्तिरिः स्यात् / तिर्यङ् / अतीति किम् ? तिरश्वा // 124 // 1. सप्तम्या आदिरिति परिभाषया अतीति अकारादावित्यर्थः ! Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलते अ० तिरस् अञ्च् / तिरोऽञ्चतीति तिर्यङ् / अथवा तिरस् अञ्च् / अन्त्यस्वरात् पूर्वं 'अव्ययस्य कोऽद् (7 / 3 / 31) इति सूत्रेणाक् प्रत्ययः / तिरकोऽश्चतीति क्विप् / शेषं पूर्ववत् / सि औ जस् भ्याम् भ्यस् सुप् / तिर्यङ् / तिर्यंचौ। तिर्यंचः / तिर्यग्भ्यां, तिर्यग्भ्यः, तिर्यक्षु इत्यादि / इयमवचूरिः अघुटि स्वरे इत्यारभ्य सर्वा विद्वद्भिः शोधनीया इति / / 124 / / नञत् // 3 / 2 / 125 // नशब्दस्योत्तरपदे परे अत् स्यात् / अचौरः पन्था / अहिंसा / कारः किम् ? पामनः पुत्रः, उत्तरपदे इत्येव ? न भुङ्क्ते // 12 // त्यादौ क्षेपे // 3 / 2 / 126 // त्यायन्ते धातौ परे क्षेपे निन्दायां गम्यमानायां नमोऽत् स्यात् / अपचसि त्वं जाल्म अकरोषि त्यादाविति किम् ? न पाचको जाल्मः / क्षेप इति किम् ? न पचति चैत्रः // 126 // . नगोऽप्राणिनि वा // 3 / 2 / 127 // अप्राणिनि विषये नग इति वा निपात्यते / न गच्छतीति नगः अगः // 12 // अ० 'नञत्' (3 / 2 / 125) इत्यनेन नित्यं नञोऽकारप्राप्तौ विकल्पार्थं 'नगोऽप्राणिनि (3 / 2 / 127) वेति सूत्रं कृतं // 127 // नखादयः // 3 / 2 / 128 // . नखादयः शब्दा अकृतातो निपात्यंते / नास्य खं अस्तीति नखः / न भ्राजते किपि नभ्राट् / न पातीति नपात् / त्रिलिङ्गोऽयं न वेत्तीति नवेदाः। औणादिकोऽयम्, न सत्योऽसत्यः (न असत्यः) नासत्यः नमुचिः नकुलः नपुंसकम् नक्षत्रम् नक्रम् नाकः / नाराचः नापितः नमीयते इति नमेरुः ननांदा नांतरीयकम् बहुवचनं आकृतिगणार्थम् / तेन नास्तिकः नमः नारंगमित्यादयो ज्ञेयाः // 128 // अ० सत्सु साधुः सत्यः, तत्र साधौ यप्रत्ययः / न सत्योऽसत्यः / पुनरपि न असत्य इति वाक्ये नासत्य इति सिद्धम्, नायं नखादिगणे किंतु नासत्य इति प्रयोगसाधनार्थमत्र दर्शितः / 'नमुचि' इत्यत्र ‘शुषीषि वंधि रुषि रुचि मुची' (416) त्यादि उणादिकः कित् तथा न स्त्री न पुमान् नपुंसकम्, अत एव निपातनात् स्त्रीपुंसयोः पुंसक आदेशः / न क्षरति न क्षीयते वा इति नक्षत्रं औणादिके त्रटि क्षभावो निपात्यते / न क्रामति न क्रीणाति वा नक्रः / औणा० डत, नास्मिन्नकं दुःखमस्तीति नाकः / एवं न विद्यते नाः श्रियः छंदांसि वाऽस्येति नग्नः। न अगो नागः / न विद्यते भागोऽस्येति नभागः / अरीणां समूह आरं षष्ठ्याः समूहेऽण् (6 / 2 / 9) / नारमञ्चतीति नाराचः 'कर्मणोऽण्' (5 / 1 / 72) निपातनात्, न लोपोऽञ्चेः / नाप्यतेऽसाविति नापितः / कथं न न भ्राजते किंतु भ्राजत एवेति नभ्राट्। एवं न न पातीति नपात् / न न वेत्तीति नवेदाः / न न मुंचति नमुचिः / न न कुलमस्यास्ति नकुलः / न न खमस्यास्ति नखः इत्यादयः सिध्यंति ? पृषोदरादित्वात् एकस्य 2 नो-लोपो भवति / इयमवचूरिन|तरीयकमित्यग्रे ज्ञातव्या, नांतरेण भवतीत्यर्थकथनमानं नांतरे भव इत्यत्र गहादिभ्यः (6 / 3 / 69) ईयः, सर्वत्र निपातनात् नकारस्य न अकारः // 28 / / अन्स्व रे // 3 / 2 / 129 // Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 295 स्वरादावुत्तरपदेऽनादेशः स्यात् / अनादिः अनंतः। आदेशबलादत्र नलोपद्वित्वादिकं न भवति // 129 / / __ अ० न विद्यते आदिरस्यासौ अनादिः / न विद्यते अंतोऽस्यासौ अनंतः / एवमजाता भावोऽनजं / न अश्चोऽनश्चः / एषु सर्वत्र अन् इत्यादेशबलात् 'नाम्नो नोऽनोह्र' (2 / 1 / 91) इति सूत्रेण नकारलोपो न भवति / 'ह्रस्वाङ् ङणनो द्वे' (1 / 3 / 21) रित्यनेन नकारद्विर्वचनं भवतीत्यर्थः, नास्ति पुण्यं पापं चेति मतिर्यस्याऽसौ नास्तिकः / अस्ति पुण्यं पापं चेति मतिरस्येति आस्तिकः / निपातनात् सिद्धं यदा तु न आस्तिको नास्तिक इति वाक्यं तदा नखादिगणपाठफलमिति // 129 / / ... कोः कत्तत्पुरुषे // 3 / 2 / 130 // तत्पुरुषे स्वरादावुत्तरपदे परे कुशब्दस्य कद् इत्यादेशः स्यात् / कदश्वः / कदुष्ट्रः / तत्पुरुष इति किम् ? कूष्ट्रो देशः / स्वर इति किम् ? कुब्राह्मणः // 130 // ___ अ० कुत्सितोऽश्वः कदश्वः / कुत्सित उष्ट्रः कदुष्ट्रः / एवं कुत्सितमनं कदन्नम्, कदशनं इति / कुत्सिता उष्ट्रा यस्मिन् देशे स कूष्ट्रो देशः // 130 // . रथवदे // 3 / 2 / 131 // रथवदयोरुत्तरपदयोः कोः कद् स्यात् / कद्रथः / कद्वदः // 131 // . अ० कुत्सितो रथः केंद्रथः / कुत्सितो वदः कद्वदः कुत्सितो वदोऽस्य वा कद्वदः / तत्पुरुषे वेच्छन्त्येके / अन्यत्र कुरथो राजा / कुवदो मूर्खः / / 131 / / तृणे जातौ // 3 / 2 / 132 // जातावर्थे तृणे उत्तरपदे कोः कद् स्यात् / कत्तृणा नाम रोहिषाख्या तृणजातिः // 132 // अ० कुत्सितं तृणमस्याः सा कत्तृणा // 132 / / कत् त्रि // 3 / 2 / 133 // कुकिमो वा त्रिशब्दोत्तरपदे कद् स्यात् / कत्रयः / कत्रिः // 133 // अ० त्रावित्येव सिद्धे कत्त्रीति किमोपि परिग्रहार्थं, कुत्सितात्रयः के वा त्रयः / कत्त्रयः / कुत्सितात्रयोऽस्य के वा त्रयोस्य कत्रिः / किमो नेच्छन्त्यन्ये किंत्रयः / / 133 / / . काऽक्षपथोः // 3 / 2 / 134 // अक्षपथिनुत्तरपदयोः कोः का स्यात् / अक्षशब्दस्यादन्तस्य कृतसमासान्तस्य चाऽविशेषेण ग्रहणम् / काक्षम्, काक्षो रथः / काक्षः / कापथम् / कापथो देशः। साकोपि, ककु कुत्सितोक्षः काक्षः / एवं कापथः। अव्युत्पने पथशब्दे न भवति कुपथं वनम् // 134 // __ अ० 'सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' (7 / 3 / 126) इति ट समासान्तः / कुत्सितोऽक्षः पाशादि काक्षः / कुत्सितमक्षमिन्द्रियं काक्षम्, कुत्सितोऽक्षोऽस्य काक्षो रथः / कुत्सितमक्षमक्षि वा काक्षः / कुत्सित पन्थाः कापथं पथःसंख्येति नपुंसकत्वं / कुत्सितः पन्था अस्मिन् देशे कापथो देशः / साकोपि भवति, ककु कुत्सितोऽक्षः काक्षः, एवं कापथः, अत्र पुंस्त्वममरो गौडश्च यदाह 'व्याध्वौ विपथकापथौ' / स्वमते तु नपुंसकत्वमेव, पथिशब्दनिर्देशात्, तत्पर्यायेऽव्युत्पन्ने पथशब्दे न. भवति कुत्सितः पथः कुपथः // 134 / / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते पुरुषे वा // 3 / 2 / 135 // पुरुषे उत्तरपदे कोः का वा स्यात् / कापुरुषः, कुपुरुषः / अनीषदर्थे विकल्पोऽयं / ईषदर्थेपीच्छन्ति केचित्, ईषत् पुरुषः कापुरुषः, कु (पुरुषः) // 135 // ___ अ० कुत्सितः पुरुषः कापुरुषः, कुपुरुषः / कुत्सिता पुरुषाऽस्मिन् ग्रामे कापुरुषो ग्रामः, कुपुरुषो ग्रामः / ईषदर्थेषु परत्वादुत्तरेण नित्यमेव / तत्रापि विकल्प एवेति कश्चित् ईषदित्यादि // 135 / / अल्पे // 3 // 2 // 136 // अल्पेऽर्थे वर्तमानस्य कोः का स्यादुत्तरपदे / कामधुरम्, कालवणम्, स्वरादावपि परत्वादीषदर्थे का एव / ईषदम्लं काम्लं / एवं काच्छं // 136 // . अ० ईषन् मधुरं कामधुरं, ईषदच्छं काच्छम् // 136 / / काकवौ वोष्णे // 3 / 2 / 137 // (कोः) उष्णे उत्तरपदे काकवौ वा स्यातां / कोष्णं / कवोष्णं / पक्षे यथाप्राप्तमिति / तत्पुरुषे कदुष्णं / बहुव्रीहौ तु न कूष्णो देशः // 137 // अ० ईषत् कुत्सितं वा उष्णं कोष्णं, कवोष्णं / ईषत् कुत्सितं वा उष्णमत्र कोष्णः कवोष्णो देशः अन्यस्तु अग्नावपीच्छति काग्निः, कवाग्निः, कदग्निः // 137|| कृत्येऽवश्यमो लुक् // 3 / 2 / 138 // अवश्यमः कृत्यप्रत्ययांते उत्तरपदे लुक् स्यात् / अवश्यकार्य अवश्यस्तुत्यं / कृत्य इति किम् ? अवश्यं लावकः // 138 // अ० अवश्यं क्रियते इत्यवश्यकार्यम्, 'ऋवर्णव्यञ्जनन्ताद् घ्यण्' (5 / 1 / 17) इति घ्यण् एवं अवश्यं स्तूतयेऽवश्यस्तुत्यं / 'दृवृग्स्तुजुषेतिशासः / (5 / 1 / 40) इति क्यप् / एवमवश्यदेयं अवश्यं कर्त्तव्यंऽवश्यकरणीयमिति / अवश्यं लुनातीतिऽवश्यंलावकः / ‘णकतृचौ' (5 / 1 / 48) इति तृच् // 138|| समस्ततहिते वा // 3 // 2 // 139 // समस्तते हिते चोत्तरपदे लुग् वा स्यात् सततं संततं सहितं संहितम् // 139 // अ० सं सम्यग् ततं संततम्, सं सम्यग् हितं सहितं संहितं / / 139 / / तुमश्च मनः कामे // 3 / 2 / 140 // तुम्प्रत्ययान्तस्य समश्च मनसि कामे चोत्तरपदे लुग् स्यात् / भोक्तुमनाः, गन्तुकामः समनाः / सकामः // 140 // अ० भोक्तुं मनोऽस्य भोक्तुमनाः, गन्तुं कामोऽस्य गन्तुकामः, सम्यक् मनोऽस्य समनाः, एवं सकामः, सहशब्देनापि सिद्धौ समः श्रुतिनिवृत्त्यर्थं तुमश्चेति चकारभणनं विहितम् / / 140 // मांसस्यानड्पत्रिपचि न वा // 3 // 2 // 14 // 1. अत्र कृत्यप्रत्ययाभावात् मकारस्य लुक् न जात इति भावः / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः 297 ___मांसस्यानडते घनंते च पचावुत्तरपदे लुग् वा स्यात् / मांस्पचनं, मांसपचनम्, मांस्पचनी मांसपचनी, मांस्पाकः, मांसपाकः / अनड्यनीति किम् ? मांसपक्तिः, पचीति किम् ? मांसदाहः // 14 // अ० मांसस्य पचनं मांस्पचनम्, मांसपचनं, मांसस्य पाको मांस्पाकः, मांसपाकः, मांसदहनं / / 141 / / दिकशब्दात्तीरस्य तारः // 3 / 2 / 142 // दिक्शब्दात् परस्य तीरशब्दस्य तार इत्यादेशो वा स्यात् / दक्षिणतारम् दक्षिणतीरम्, उत्तरतारम् उत्तरतीरम्, पश्चिमतारम्, पश्चिमतीरम् / दिक्शब्दादिति किम् ? गङ्गातीरम् // 142 // ____ अ० दक्षिणस्या दिशस्तीरं, अथवा दक्षिणस्य देशस्य तीरम्, एवं उत्तरस्या दिशस्तीरम् उत्तरस्य देशस्य वा तीरम्, पूर्वस्या दिशः पूर्वस्य देशस्य वा तीरम्, स्त्रियां 'सर्वादयोऽस्यादौ' (3 / 2 / 61) इति पुंवद्भावः / पश्चिमस्य तीरं पश्चिमतारम्, स्त्रियां तु पश्चिमायास्तीरं पश्चिमातीरम्, पश्चिमातारम्, अत्र पुंवद्भावो न भवति सर्वादिशब्दाभावात् // 142 // . सहस्य सोऽन्यार्थे // 3 // 2 // 143 // अन्यार्थेऽन्यपदार्थे उत्तरपदे सहस्य स इत्यादेशो वा स्यात् / सपुत्रः आगतः सहपुत्रः / अन्यार्थे इति किम् ? सहकृत्वा, कथं सहकृत्वप्रियः, प्रियसहकृत्वा ? बहुव्रीहौ यदुत्तरपदं तस्मात् पूर्वः सहशब्दो नहीति न सादेशः // 143 // . ___इ० अन्यपदार्थे कोऽर्थः ? बहुव्रीहौ समासे, सह पुत्रेणागतः / एवं सशिष्यआगतः / सह लोम्ना वर्तते सलोमकाः, विद्यमानलोमक इत्यर्थः, सहलोमक इत्यपि, सहकृतवान् सहकृत्वा / 'सहराजभ्यां कृग् युधेः' (5 / 1 / 167) इत्यनेन क्वनिप्प्रत्ययः सिः, 'नि दीर्घः' (1 / 4 / 89) सहकृत्वन्शब्दः सहकृत्वा प्रियोऽस्य सहकृत्वप्रियः / प्रियः सहकृत्वाऽस्य प्रियसहकृत्वा उत्तरपदात् // 143 / / नाम्नि // 3 / 2 / 144 // योगारम्भाद्वेति निवृत्तम्, बहुव्रीहौ सहस्य सः स्यात्, नाम्नि-संज्ञायां / साश्वत्थं / सपलाशं एवंनाम वनम्, सरसा दूर्वा, अन्यार्थ इति किम् ? सहचरः कुरण्टकः / सहदेवः कुरुः / सहदेवा औषधिः // 144 // ___ अ० बहुव्रीहि / अन्यार्थे सह अश्वत्थेन वर्त्तते / सह पलाशेन वर्त्तते / एवं सशिंशपं नाम वनमित्यर्थः, सहचरतीति 'चरेष्टः' टः / सह दीव्यतीति 'लिहादिभ्यः' (5 / 1 / 50) अच्, सह जायते इति सहजन्या 'भव्यगेयजन्यरम्यापात्याप्लाव्यं न वा' (5 / 1 / 7) इति यप्रत्ययः / इति विज्ञेयम् // 144 / / अदृश्याधिके // 3 // 2 // 145 // अदृश्यः परोक्षम्, अधिकमधिरूढं तद्वाचिनोरुत्तरपदयोरन्यार्थे सहस्य स स्यात् / अदृश्ये, साग्निः कपोतः। सपिशाचा वात्या / अधिके, सद्रोणा खारी / समाषः कार्षापणः // 145 // - अ० 'सहस्य सोऽन्यार्थे' (3 / 2 / 143) इत्यनेनैव सिद्धे नित्यार्थं 'अदृश्याधिके' (3 / 2 / 145) इति सूत्रं विदधे, एवं सरासिका विद्युत् सकाकणीको माषः // 145 / / अकालेऽव्ययीभावे // 3 / 2 / 146 // 1. पूर्वः सहशब्दो नहीति शेषः / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवरिभ्यामलते __अकालवाचिन्युत्तरपदेऽव्ययीभावे सहस्य सः स्यात् सब्रह्म साधूनाम्, सवृत्तं सुविहितानाम्, सचक्रं धेहि, सतृणमभ्यवहरति / सलोकबिंदुसारमधीते / अकाल इति किम् ? सह पूर्वाह्नः शेते // 146 // अ० ब्रह्मणः संपत् सब्रह्म साधूनाम्, तथाहि ‘विभक्तिसमीपे' (3 / 1 / 39) त्याद्यव्ययीभाव समाससूत्रे संपत् कोऽर्थः सिद्धिः ब्रह्मणः संपत् / सवृत्तम् संपन्नं वृत्तम् इत्युदाहरणार्थः, संपत्त्यर्थेऽव्ययीभावः / तथा चक्रेण सह एककालम् चक्राणि वा युगपद्धेहि इति वाक्यम्-सचक्रम् / अत्र युगपद्यर्थेऽव्ययीभावः / तथा तृणैः सह सतृणं . अभ्यवहरति, कोऽर्थः, ? खादन् न किंचित्त्यजतीत्यर्थः / अत्र साकल्यार्थेऽव्ययीभावः / तथा सषट्जीवनिकमधीते श्रावकः / षट्जीवनिकामंतं कृत्वा अधीते इति वाक्यम् / लोकबिन्दुसारं चतुर्दशमं पूर्वं अंतमधीते / अत्रांतार्थेऽव्ययीभावः। पूर्वमह्नः पूर्वाह्न 'सर्वांशसंख्याव्ययात्' इति अट् समासांतः / अह्न आदेशः / 'अतोऽहस्य' (2 / 3 / 73) इति णत्वं / पूर्वाह्नमिति सिद्धम् // 146 / / ग्रन्थाऽन्ते // 3 // 2 // 14 // ग्रन्थान्तवाचिन्युत्तरपदेऽव्ययीभावे सहस्य राः स्यात् / सकलं ज्योतिषम् / समुहर्त्तमधीयते / कलादिशब्दाः कालविशेषवाचिनोपि तत्सहचारिषु ग्रन्थेषु वर्त्तत इति ग्रन्थान्तवाचित्वमुत्तरपदस्य // 147 // अ० ग्रन्थस्यान्ते कलार्थमारम्भोऽयं कलामन्तं कृत्वाऽधीते सकलं / मुहूर्तमन्तं कृत्वाऽधीते अत्रान्तार्थेऽव्ययीभावः // 147 // ___ नाशिष्यगोवत्सहले // 3 / 2 / 148 // . गवादिवर्जे उत्तरपदे आशिषि गम्यमानायां सहस्य सादेशो न स्यात् / स्वस्ति गुरवे सह शिष्याय / भद्रं संघायाचार्याय / अगोवत्सहले इति किम् ? स्वस्ति भवते सगवे सहगवे एवं सवत्सायेत्यादि // 18 // अ० सगवे, सवत्साय, सहलाय इति सर्वत्र सहस्य सोऽन्यार्थे इति विकल्पेन सहस्य सादेशः // 148 // समानस्य धादिषु // 3 / 2 / 149 // धादिषूत्तरपदेषु समानस्य स आदेशः स्यात् / समानो धर्मोऽस्य सधर्मः, समानं नामास्य सनामा। कथं समानोदरे जातः सोदर्यः ? समाने तीर्थे वसति सतीर्थ्यः, 'सोदर्यसमानोदयौं' (6 / 3 / 112) 'सतीर्थ्यः' (6 / 4 / 78) इति निपातनात् भविष्यति // 149 // अ० समानो धर्मोऽस्य, धर्म जातीय नामन् गोत्र रूप स्थान वर्ण वयस् वचन ज्योतिस् जनपद रात्रि नाभि बंध पक्ष गंध पिंड देश कर लोहित कुक्षि वेणि इति धर्मादयः / बहुवचनमाकृतिगणार्थं एवं समाना जातिरस्य सजातीयः, 'जातेरीयः सामान्यवति' (7 / 3 / 139) इति सूत्रेण ईयः प्रत्ययः सोदर्य इत्यत्र ‘सोदर्यसमानोदयौँ' (6 / 3 / 112) इत्यनेन यप्रत्ययः / निपातनात् समानस्य सादेशः / / 149 / / सब्रह्मचारी // 3 / 2 / 150 // सब्रह्मचारीति निपात्यते / सब्रह्मचारी // 150 // अ० समाने ब्रह्मचारी सब्रह्मचारी, अथवा समाने ब्रह्मणि समाने आगमे समाने गुरुकुले व्रतं चरतीति ब्रह्मचारी, निपातनादेवाऽत्र व्रतशब्दस्य लोपः कार्यः // 150 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः दृग्दृशदृक्षे // 3 / 2 / 151 // दृग् दृश दृक्ष इत्युत्तरपदे समानस्य सादेशो भवति / सदृक् सदृशः सदृक्षः // 151 // अ० समाना दृश्, समान इव दृश्यते सदृक्, सदृशः, सदृक्षः, 'त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद्व्याप्ये दृशष्टक् सकौ च' (5 / 1 / 152) इति सूत्रेण किप् टक् सक् प्रत्ययाः / यत्र किप् तत्र सदृक् / यत्र टक् तत्र सदृशः / स्त्रियां तु सदृशी यत्र सक् तत्र सदृक्ष इति तथा टक् सक् युक्तः क्विप् ग्राह्यः / त्यदाद्यन्ये (5 / 1 / 152) त्यनेन विहितस्यैव क्किपो विधिः प्रवर्त्तते, सूत्रांतरविहिते क्विपि न विधिः / तेन दर्शनं दृक् 'क्रुत्सम्पदादिभ्यः क्विप्' (5 / 3 / 114) समाना दृक् इति वाक्यं समानदृक् / अत्र समानस्य न सादेशः // 151 / / अन्यत्यदादेराः // 3 / 2 / 152 // अन्यशब्दस्य त्यदादेश्वदृग्दृश दृक्षेषत्तरपदेषु आकारोऽन्तादेशः स्यात् / अन्यादृक्, अन्यादृशः अन्यादृक्षः। तादृक्, तादृशः, तादृक्षः, यादृक्, यादृशः, यादृक्षः / भवादृक्, भवादृशः, भवादृक्षः / युष्मादृक्, युष्मादृशः, युष्मादृक्षः, अस्मादृक् कथं, यावान् तावान्, एतावान् ? डावत्प्रत्यये भविष्यति // 152 // अ० अन्य इव दृश्यते, एवं स इव दृश्यते, एवं य इव दृश्यते, भवानिव दृश्यते, यूयमिव दृश्यते, वयमिव दृश्यते इति वाक्ये यथाक्रम-क्किप्, टक्, सक्, 'त्यदाद्यन्य०' इत्यनेन, यद तद् एतद् यत् परिमाणमस्य यावान्, तत् परिमाणमस्य (तावान् एतत् मरिमाणमस्य) एतावान् / 'यत्तदेतदो डावादिः' (7 / 1 / 149) इति सूत्रेण डावतुप्रत्ययः // 152 / / इदंकिमीत्कीः // 3 / 2 / 153 // दृगादिषूत्तरपदेषु इदम्शब्दः किम्शब्दश्च यथासंख्यमीकाररूपः कीकाररूपश्च भवति / ईदृक् ईदृशः ईदृक्षः। कीदृक् कीदृशः कीदृक्षः / कथं इयान् कियान् ? इदं किमो०' (7 / 1 / 148) इति सूत्रेण भविष्यति // 153 // __अ० इदम्शब्दस्य ईकारः किमश्च कीकारः अयमिव दृश्यते क इव दृश्यते, इदंमानमस्य इयान् किम्, किं प्रमाणं मानं वाऽस्य कियान्, 'इदं किमोऽतुरिय् किय् चास्य' (7 / 1 / 148) इति सूत्रेण अतुप्रत्ययः / इदम्शब्दस्य इय्, किमश्च किय् आदेशः // 153 / / / अनञः क्त्वो यप् // 3 / 2 / 154 // नवर्जितादव्ययात् पूर्वपदाद् यत् परमुत्तरपदं तदवयवस्य क्त्वाप्रत्ययस्य यप् इत्यादेशः स्यात् / प्रकृत्य। उच्चैःकृत्य / अनञ इति किम् ? अकृत्वा परमकृत्वा // 154 // अ० अनत्र इति नञसदृशं अव्ययं गृह्यते इति, अकृत्वा इत्यत्र नञः परात् परमकृत्वा इत्यत्र च अनव्ययपदात् परतः किप् स्थाने न यप् इत्यर्थः / उत्तरपदस्येत्येव अलंकृत्वा // 154 / / पृषोदरादयः // 3 / 2 / 155 // पृषोदर इत्येवं प्रकाराः शब्दा विहितलोपागमवर्णविकाराः शिष्टैः प्रयुज्यमानाः साधवो भवन्ति / पृषदुदरं उदरे वाऽस्य (पृषोदरः) अथवा पृषत् उदरं पृषोदरं, अत्र तकारलोपो निपात्यते / जीवनस्य मूतः पुटबंधो जीमूतः, अत्र निपातनात् वनस्य लोपः, वारिणो वाहको बलाहकः, अत्र पूर्वपदस्य बा आदेशः उत्तरपदादेश्व लकार आदेशः / मह्यां रौति मयूरः, मह्यां शेते महिषः, पिशितमन्नाति पिशाचः, शवानां शयनं श्मशानं, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते मध्यमवृत्त्यवचूरिभ्यामलङ्कृते अत्र पूर्वपदस्य श्मादेशः उत्तरपदस्य च शान आदेशः / ब्रुवन्तोऽस्यां सीदंति वृसी, अत्र उट्प्रत्ययः पूर्वपदस्य वृभावः, ऊों खं बिलं वास्य उदूखलं उलूखलं वा, पूर्वपदस्य उदूभाव उलूभावश्च उत्तरपदस्य खलादेशः, तथा दिवि द्यौर्वा ओक एषां दिवौकसः अत्राकारागमः / अश्व इव तिष्ठत्यश्वत्थः / कपिरिव तिष्ठति कपयोऽस्मिंस्तिष्ठन्तीति वा कपित्थः / मुहुः स्वनं लाति मुहुर्मुहुर्लसतीति वा मुसलं / ऊभे कर्णावस्य उलूकः, आशु अस्य विषमस्ति आशीविषः / कौ जीर्यति कुञ्जरः / बलं वर्द्धयति बलीवर्दः / बिलं दारतीति बिडालः। मृदमालीयते डः मृणालः / असृगालीयते असृग्गिलति वा सृगालः / पुरो दाश्यते पुरोडाशः / अश्वस्याम्बा वडवा अत्रावस्याशो लोपः ड् चान्तः / अम्बाशब्दे च मो लोपः / कुलटा / अवटः / हिनस्तीति सिंहः सकारहकारयोर्विपर्ययः / भ्रमन् रौति डप्रत्यये नलोपे च भ्रमरः / एवंप्रकाराः शिष्टप्रयुक्ताः पृषोदरादयः बहुवचनमाकृतिगणार्थं तेन मुहूर्तादयोऽपि द्रष्टव्याः // 'वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ वा परौ वर्णविकारनाशौ / धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पंचविधं निरुक्तम्' // 15 // ___अ० अत्र पूर्वपदस्य ब आदेश उत्तरपदादेश्च लकार आदेशः, मह्यां रौति मयूरः, मह्यां शेते महिषः, पिशितमश्नाति पिशाचः, शवानां शयनं श्मशानं, अत्रापि शितशब्दस्यापि श इत्यादेशः / 'अश् धातोः' शकारस्य च चकार आदेशः। अच्प्रत्ययः / 'आइ पूर्वः ध्यैचिंतायां' आध्यायन्त्यर्थिन इति आद्यः [आढ्य] / 'स्थादिभ्यः कः' (5 / 3 / 82) इति कप्रत्ययः, निपातनात् ध्यस्य द्य [य] आदेशः / तथा मयूर इत्यत्र रौतेः परोऽच् अंतलोपो महीशब्दस्य मयूआदेशः, महिष इत्यत्र क्वचित्डः पूर्वपदस्य हस्वत्वं शकारस्य षकारः, पिशाच इत्यत्र पिशितस्यापि शधातौ शकारस्यं च आदेशः / ब्रुवत्। सद् ब्रुवन्तोऽत्र सीदन्ति इति वृसी वृषी वा, ऋषिपीठ वृसी उच्यते, निपातनात् डट् प्रत्ययः / ततो डी तितेः सकारस्य तकारः 'स्थापास्नात्रः कः' (5 / 1 / 142) इति कः मुहुशब्दस्य शुभावः स्वनशब्दे सभावश्च पक्षांतरे लसयोर्विपर्ययश्च मेहनस्य मेहनखम् तस्य माला मेखला अत्र मेहनखशब्दे हनशब्दस्य मालाशब्दे च माशब्दस्य लोपः इत्यपि ज्ञेयं / उलूक इत्यत्र अर्ध्वशब्दस्य उलूभावः / कर्णशब्दस्य ऊकादेशः अत्र कुशब्दात् लोपः / बलशब्दस्य ईकारोंतः वर्द्धधकारस्य च दकारः बिलशब्दस्य लकारलोपः उत्तरपदस्य च डालः / मृदो दकारस्य णकारः डप्रत्ययः। आद्यकारस्य लोपः द्वितीयपक्षेऽसृज आद्यंतलोपः अत्रोत्तरपदादेर्डकारः अटतीति अचं अटा / कुलानामटा कुलटा। तथा अव अवाक अप॒त्यस्मिन्निति बाहुलकात् 'पुंनाम्नीति' (5 / 3 / 110) घः / अवट इति सिद्धम् कुलटा निपातनादटोऽकारलोपः अन्येपि इति शेषः कार्यः मयूरमहिषादिशब्दानामुणादौ व्युत्पादितानामपि इह पुनर्यद् व्युत्पादिनां [दन] तदनेकधा शब्दव्युत्पत्तिरिति ज्ञापनार्थं / इयमवचूरिः ‘पृषोदरादय' इत्यस्याग्रे ज्ञातव्याः / मुहुरियर्त्ति इति मुहूर्तं अथवा मुहुरिच्छति स्म मुहूर्तं ‘गत्यर्थे' (5 / 1 / 11) ति क्तः शेषं निपातनात् / / सप्रसिद्धश्चासावर्थश्च तदर्थः शब्दलक्षणः, तदर्थस्यातिशयो मधुरत्वादिः तदातिशयेन योगः संबंधः मयूर इत्यत्र भावना // 155 / / वावाप्योस्तनिक्रीधागनहोर्वपी // 3 // 2 // 156 // अवोपसर्गस्य तनिक्रीणात्योः परयोः अपिशब्दस्य धाग्नहोः परयोर्यथासंख्यं व पि इत्यादेशौ-वा भवतः। वतंसः, अवतंसः / वक्रयः, अवक्रयः / पिहितम्, अपिहितम् / पिधानम्, अपिधानम् / पिदधाति, अपिदधाति / पिनद्धम्, अपिनद्धम् / पृषोदरादिप्रपंचोऽयम्, तेन शिष्टप्रयोगोऽनुसरणीयः, तृतीयस्याध्यायस्य द्वितीयपादः समाप्तः // 156 // Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ____ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते सिद्धहेमचंद्राभिधानलघुव्याकरणे चतुष्कवृत्तिर्लघ्वी परिपूर्णा ॥ग्रंथाग्रं०॥३७४।। चतुष्कव्याकरणलघुवृत्तिसर्वपादमेलने सर्वाग्रं // 2874 / / शुभम् भवतु // ___ अ० अपि धीयते स्म पिहितं अपिहितं, क्ते 'धागः' (4 / 4 / 15) इति सूत्रेण धास्थाने हि आदेशः / नहीच् बन्धने, ननु पृषोदरादित्वादेव अव अप्योर्विकल्पेन अकारलोपे वतंस इत्यादि सिद्धयत्येव किमर्थोऽयं योग इत्याह पृषोदरादिप्रपञ्चोऽयम् // 156 / / इति श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनेतृतीयस्याध्यायस्य मध्यमवृत्त्यचूरिभ्यामलङ्कृतः द्वितीयः पादः समाप्तः / / / श्रीः / / शुभम् भवतु / / श्री / / छ / / - - - - - - - - - - . . . . વ્યાકરણ શબ્દની શુદ્ધિ કરે છે, . * વૈરાગ્ય આત્માની શુદ્ધિ કરે છે. વ્યાકરણ શબ્દનો પ્રયોગ શીખવે છે, વૈરાગ્ય પ્રવૃત્તિનો ઉપયોગ શીખવે છે. ચંદ્રની જેમ સૌમ્યતાધારી હેમની જેમ આપત્તિરૂપી અગ્નિપરીક્ષામાંથી हेमजेम (सि 27) गरी तय छे." Page #309 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित पुस्तके 00-2 65-00 15.00 26-00 8 (सिद्धहेम) मध्यम वृत्ति अवचूरियुक्ता (प्रथम भाग) पोडशक प्रकरणम् (गुजराती सार्थ) 8 मूल शुद्धि भावानुवाद (गुजराती) ॐ रत्नसंचय भाग प्रथम (गुजराती) रत्नसंचय भाग द्वितीय (गुजराती) * रत्नसंचय भाग प्रथम (हिन्दी) 8 पदार्थ प्रदीप (हिन्दी) * सागर में मीठी वीरडी (प्राचीन सज्झाय) (गुजराती) * जैन तत्वसार संग्रह (सटीक) (हिन्दी) िसर्कभाषा वार्तिक (शुभविजयजी ग.) ॐ मूलशुद्धि (प्राकृत) (प्रथम-द्वितीय भाग) किंमत किंमत किमत किंमत किमत किंमत किमत किंमत किंमत किंमत 20.00 20-00 25.00 फ्री 50.00 किमत३००.०० प्रयत्नारुढ पुस्तक 8 (सिद्धहेम) मध्यम वृत्ति अवचूरियुक्ता (भाग द्वितीय) पंचमाध्याय पर्यन्त 28 (सिद्धहेम) मध्यम वृत्ति अवचूरियुक्ता (भाग तृतीय) षष्ठ-सप्तम अध्याय 8 सोम सौभाग्य काव्य 8 प्रमाण मीमांसा (सं.+ गुजराती) * प्राप्तिस्थान * श्री रंजनविजयजी जैन पुस्तकालय मालवाडा जि. जालोर (राज.) 343039