Book Title: Dharm Sangrahani Part 02
Author(s): Ajitshekharsuri
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Jain Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - આચાર્ય હરિભસૂરિ વિરચિત ગા અનુવાદકર્તા મુનિ અજિતશેખર વિજય Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધ મેં સ ગ્ર శ్రీ e ગુ ? એ. མ ན་ વા સ વિ શ્રી સિદ્ધાચલમંડન ઋષભદેવાય નમ: મૂળ ગ્રંથકાર પૂજ્ય સૂરિ પુરંદર ૧૪૪૪ ગ્રંથકર્તા આચાર્યદેવ શ્રી હરિભદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ ટીકાકાર પૂજ્ય સમર્થ ટીકાકાર આચાર્યદેવશ્રી મલયગિરિ સૂરીશ્વરજી મહારાજ ગુર્જર અનુવાદ પ્રેરક-કૃપાદાતા-ઉપકારીઓ પૂજ્ય સુવિશાળ ગચ્છાધિપતિ ન્યાયવિશારદ આચાર્યદેવશ્રી ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મહારાજ પરમ પૂજ્ય અધ્યાત્મયોગી આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય લાપૂર્ણ સૂરીશ્વરજી મહારાજ પૂજ્ય ગચ્છાધિપતિ આચાર્ય દેવશ્રી જયઘોષસૂરીશ્વરજી મહારાજ પૂજ્ય સહજાનંદી આચાર્યદેવશ્રી ધર્મજિતસૂરીશ્વરજી મહારાજ પૂ. સૂરિમંત્રપચપ્રસ્થાન આરાધક આચાર્યદેવ શ્રી જયશેખરસૂરીશ્વરજી મહારાજ પૂજ્ય વિદ્ધર્યું મુનિરાજશ્રી અભયશેખર વિ. ગણિવર ગુર્જર અનુવાદ સંશોધક પૂજ્ય વિર્ય પન્યાસશ્રી કુલચંદ્ર વિજયજી ગણિવર ગુર્જર અનુવાદકર્તા + સંપાદક પૂજ્ય વિર્ય મુનિરાજશ્રી અજિતશેખર વિજયજી મહારાજ વિશિષ્ટ સહાય પૂજ્ય તપસ્વી મુનિરાજશ્રી દિવ્યરત્ન વિજયજી મ. પૂજ્ય સ્વાધ્યાયમગ્ન મુનિરાજશ્રી વિમલબોધિ વિજયજી મ. પ્રકાશક श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट चिकपेट, बेंगलोर ५६० ०५३. फोन नं. २८७३६७८ Composed by Hansa Compugraphics, Bangalore. Phone: 2260655. Printed at Trishul Offsets, Banglore. Phone: 2257709 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રથમવૃત્તિ – ૨૦૫ર નકલ - ૫૦૦ મૂલ્ય રૂ. ૩૦૦/-* अध्यात्मयोगी पू. आ. श्री विजयकलापूर्ण सूरीश्वरजी म. सा. पू .पं. श्री कलाप्रभविजयजी गणिवर, पू. मुनिश्री कल्पतरुविजयजी एवं पू. मुनिश्री कीर्तिचन्द्रविजयजी की प्रेरणा से पू. आचार्य भगवंत श्री विजयकलापूर्ण सूरीश्वरजी म. सा के वि. सं. २०५१ के एवं उनके शिष्य पू. मुनिश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी-मुनिचन्द्रविजयजी के वि. सं. २०५० के यशस्वी चातुर्मास निमित्त सूरिपुरंदर श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित पू. विद्वान मुनि श्री अजितशेखर विजयजी महाराज द्वारा अनूदित धर्मसंग्रहणी ग्रन्थ भाग-२ श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट, चीकपेट - बेंगलोर की संपूर्ण आर्थिक सहायता से प्रकाशित किया । વિ. સં. ૨૦૧૨, મા. સુ-99, રૂ. સ. ૧૬૬૬ છે પૂજ્યપાદ સિદ્ધાતમહોદધિ સ્વ. આચાર્યદેવશ્રી વિ. પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજ . છે પૂજ્યપાદ સકતા શિલ્પી સ્વ. આચાર્યદેવશ્રી વિ. ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મહારાજ છે પૂજ્યપાદ અધ્યાત્મયોગી આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય કલાપૂર્ણ સૂરીશ્વરજી મહારાજ છે પૂજ્યપાદ કર્મસાહિત્યનિષ્ણાત વ. આચાર્યદેવશ્રી વિ. ધર્મજિતસૂરીશ્વરજી મહારાજ .......... છે પૂજયપાદ પરમાત્મભક્તિરસિક આચાર્યદેવશ્રી વિ.જયશેખરસૂરીશ્વરજી મહારાજ .... છે પૂજ્યપાદ ન્યાયકુશાગ્રધી મુનિરાજ શ્રી અભયશેખર વિજયજી ગણિવર ... આ સુગહીત ગુરુપરંપરાને સતત હદયમાં ધારતો, એ જ મર-જાપને જપતો, સર્વકાર્યમાં મંગલરૂપે મરતો, અખંડ ઉપાધારામાં સતત નાન કરતો અને તજજન્ય વિશિષ્ટ ચમત્કારોને અનુભવતો હું તે ભવોદપિતારકોને વારંવાર વંદુ છું....... અને વિવૈકવન્સલ કરુણામયી માતા જિનેશ્વરદેવોનો અનુગ્રહ પામવા આ ગ્રંથરત્ન એ કરુણાસાગરોની અખંડ કરુણાના વિષય બનેલા સમસ્ત જીવોને સમર્પણ કરું છું.... - મુનિ અજિતશેખર વિજય Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रकाशकीय) * जिनका हृदय एक "प्रयाग" बना है, जहाँ ज्ञानगंगा और जिनभक्ति यमुना का सुभग समागम है । * जिनका जीवन एक "नवनीत" बना है, जहाँ प्रतिसमय "प्रभुभक्ति" का मंथन चालु है । * जिनका नयन “अमृतसागर" बना है, जहाँ प्रेमामृत और करुणामृत का प्रवाह अस्खलित चालु है । ऐसे.. परम पूज्य परमशासनप्रभावक अध्यात्मयोगी आचार्यश्री विजय कलापूर्ण सूरीश्वरजी महाराज के पदार्पण से बेंगलोर शहर सचमुच धन्य बना है। श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ चिकपेट, बेंगलोर में महान शासन प्रभावक अध्यात्मयोगी आचार्यदेव श्रीमद्विजय . कलापूर्ण सूरीश्वरजी मा.सा. के शासन प्रभावक अद्वितीय चातुर्मास की झलक सं. २०५१ * अषाढवद - १० को तीरुपातुर से शा जयंतीलाल चंदुलालजी कोठारी द्वारा आयोजित छरी पालक संघ के साथ बेंगलोर में शानदार प्रवेश । * आषाढ सुद-१ को हजारों की मानव-मेदनी के भावपूर्ण स्वागत के साथ चातुर्मासार्थ चीकपेट-उपाश्रय में प्रवेश। * पूज्य आचार्य भगवंत का "पंचसूत्र" पर तथा पूज्य पंन्यास प्रवरश्री कलाप्रभ विजयजी गणिवर का "भीमसेन चरित्र" पर मधुरशैलीमें प्रवचन ! सुनने के लिए श्रोताओंकी जबरदस्त भीड़ । * प्रति शनिवार बच्चोंमें संस्कार निर्माणार्थ भव्य शिशु - शिबिर ।। * प्रति रविवार विविध विषयों पर रोचक प्रवचन एवम् प्रभुभक्ति के महापूजन आदि अनुष्ठान । * ३५० आराधकों का सामुदायिक चोविश तीर्थंकर तप । * युवा उत्कर्ष के लिए कुमारपाल बी. शाह संचालित पंचदिवसीय अविस्मरणीय शिबिर । * पर्युषण पर्वमें ५१, ४५, ३० उपवास आदि अनेक विध उग्र तपस्या । * पूज्यपाद आचार्य भगवंत के शिष्यों द्वारा बेंगलोर शहर के नगरथ पेट, मुनिसुव्रत मंदिर, दादावाडी, महावीर - मंदिर, गांधीनगर, राजाजीनगर, चामराजपेट, इत्यादि स्थानों पर पर्युषणकी भव्य आराधना । * पूज्य मुनिश्री कीर्तिचन्द्र विजयजी महाराज एवम् पूज्य मुनिश्री मुक्तिचंद्र विजयजी महाराज का भगवती योग में प्रवेश । * आसो सुद १० से जे. रायचंदजी द्वारा आयोजित उपधानतप प्रारंभ । * पूज्यपाद श्री के दर्शनार्थ बोम्बे से स्पेशयल ट्रेन द्वारा वागड - सात चोवीशा संघका तथा अन्य अनेक संघोंका आगमन । * पूज्यपाद श्री एवम् पूज्य विद्वान् मुनिराजश्री कल्पतरु विजयजी महाराज के द्वारा रात्रि तत्त्वज्ञान क्लास। * दोपहरमें पूज्य आनंदघनजी की चोवीशी पर तत्त्वपूर्ण वाचना । * भव्यातिभव्य महाराज श्री कुमारपालजी महाराजकी आरति, इत्यादि अनेक प्रकार की साधना - आराधनाओं से बेंगलोर शहर का चातुर्मास चिरस्मरणीय बना है । आबाल-गोपाल पूज्यश्री के प्रति आकर्षित बने हैं। शासनप्रभावक अध्यात्मयोगी पूज्यपाद श्री का वि.संवत् २०५१ का चातुर्मास हम कभी नहीं भूल पायेंगे। आपके इस चातुर्मास से हमारे शहरमें कुछ नया सर्जन हुआ हैं। युवापेढ़ी धर्ममें अधिक सन्मुख बनी हैं। ज्ञानद्रव्यमें से पूज्यपाद श्री की प्रेरणा और चातुर्मास की याद में अपनी संघ की ओर से पूज्य हरिभद्र सूरीश्वरजी रचित धर्मसंग्रहणी भाग-२ का पूज्य विद्वान् मुनिराजश्री अजितशेखर विजयजी महाराज ने किया हुआ गुर्जरानुवाद सहित प्रकाशित करने का लाभ प्राप्त हुआ है। अतः हम बडभागी-सद्भागी है। वि. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर संघ चिकपेट - बेंगलोर - ५६.०५३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ बेंगलोर के अंतर्गत || चल रही संस्थाएँ १. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नगर का मुख्य मंदिर, श्री आदिनाथ भगवान की परम श्रद्धेय, चमत्कारी प्राचीन प्रतिमा । २. श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नगर का सबसे विशाल शिखर बद्ध, संगमरमर का जिन प्रासाद, शांतवातावरण । ३. श्री विजय लब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला संपूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त, करीब १३०० की संख्या, अभ्यासको के लिए अनेक आकर्षक योजनाएँ। १०. श्री कपूरचंद राजमलजी जैन धर्मशाला जैनों के लिए जैन धर्मानुसार, मर्यादित समय रहने की व्यवस्था, कमरे व हाँल । ११. श्रा आदिनाथ जैन श्वेताम्बर भोजनशाला जैन धर्मानुसारी, शुद्ध सात्विक भोजन की व्यवस्था । १२. श्री आदिनाथ सेवा फंड स्थानिक साधर्मिक भाई बहनों को तात्कालिक मासिक या व्यापार निमित • ऋण के तौर पर सहायता द्वारा भक्ति । ४. श्री विजय लब्धिसूरि जैन धार्मिक बाल मंदिर शाम को ४ से ६ बजे तक ४ से ८ साल के बच्चों को मुंह जबान धार्मिक शिक्षण । १३. श्री विजय लब्धिसूरि जैन हिन्दी पाठशाला १ से १० कक्षा तक हिन्दी माध्यम से व्यवहारिक शिक्षण । ५. श्री विजय लब्धिसरि जैन संगीत मंडल बालकों एवं युवानो के लिए रात को ८ से ९ बजे तक संगीत शिक्षण । १४. भंडारी भबुतमल उमेदमल लब्धिसूरि जैन वियालय सेन्ट्रल बोर्ड मान्यता प्राप्त अंग्रेजी मिडियम व्यवहारिक शिक्षण । ६. श्री विजय लब्धिसूरि जैन संगीत महिलामंडल प्रति शनिवार एवं रविवार को दोपहर में महिलाओं के लिए संगीत शिक्षण । ७. श्री विजय लब्धिसूरि जैन संगीत बालिका मंडल बालिकाओं के लिए शायं ६ से ७ बजे तक संगीत शिक्षण । १५. श्री आदिनाथ जैन सेवा मंडल धार्मिक कार्यक्रमों में सेवा द्वारा सहयोग । १६. श्री स्थुलभद्रसूरीश्वरजी जैन साधर्मिक सेवा केन्द्र । साधर्मिक बन्धुओंको कम दाम पर राशन आदि सामग्री वितरण । १७. श्री लब्धि श्रमण विहार योजना बेंगलोर से निपाणी तक २६ उपाश्रय निर्माण । ८. श्री आत्म कमल लब्धि-लक्ष्मणसूरि जैन ज्ञानमंदिर ४५ आगम अनेक ताडपत्रीय एवं अनेक मुद्रित ग्रंथों का संग्रह । १८. श्री आदिनाथ जैन तत्त्व प्रशिक्षण केन्द्र अध्यापक तैयार करनेवाली संस्था । ९. श्री वर्धमान तप आयंबिल खाता आयंबिल, गरम पानी तथा तपस्वी पारणों की। समुचित व्यवस्था । १९. भंडारी भबुतमल चम्पकलाल जैन हाइस्कुल विशेसतोरपर अपनी कन्याओं के लिए अंग्रेजी मीडयम व्यवहारिक शिक्षण । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ के अन्तर्गत चल रही भारत भर में प्रथम स्थान | ! प्राप्त श्री विजय लब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला के विशिष्ट आयोजन ! • हर सुदी १ को प्रातः ७-०० से ८-३० बजे तक स्तोत्र पाठ द्वारा मांगलिक । हर रविवार को प्रातः ७-०० से ९-०० बजे तक मधुरवाजित्रों व सुमधुर राग - रागिणी पूर्वक स्नात्र महोत्सव द्वारा प्रभु भक्ति । हर महिने की सुदी ५, ८, १४ वदी ८, १४ को सायं प्रतिक्रमण अनुष्ठान । हर चतुर्दशी को प्रातः ७-०० से ८-०० बजे तक राई प्रतिक्रमण । हर चतुर्दशी को प्रातः ९-०० से १०-३० तक स्व - द्रव्य से अष्टप्रकारी पूजा एवं अंगरचना (प्रेक्टिकल रुप में) ज्ञान पंचमी, चौमासी, चतुर्दशी, मौन एकादशी एवं पर्युषणादि विशेष पर्व दिनों में विशेष आराधना प्रातः ५-३० बजे राईअ प्रतिक्रमण, प्रातः ७-०० से ९-०० बजे तक विशिट ठाठपूर्वक स्नात्र, ९-०० बजे व्याख्यान श्रवण, दोपहरमें देव-वन्दनादि, शाम को प्रतिक्रमण एवं भक्ति भावना । पर्वाधिराज श्री पर्युषण महापर्व व भगवान महावीर जन्म कल्याण रथयात्रा एवं पू. गुरुभगवंतो के प्रवेश आदि प्रसंगो में स्वागत जुलूस आदि में झंडी लेकर कतार बद्ध चलते हुए पाठशाला के अभ्यासक गण द्वारा रथयात्रा व शासन शोभा में अभिवृद्धि । दीपावली के दिनों अभ्यासकों द्वारा पटाखे के लिये रकम बर्बाद न करते हुए उस रकम द्वारा अनाथाश्रम, अस्पतालों आदि स्थानों में नोट बुक, फल, मिठाई, नमकीन आदि वितरण । विद्यार्थियों में वक्तृत्व, लेखन शक्ति व चित्रकला आदि का विकास हो, उसके लिए स्पर्धाओं के आयोजन व प्रोत्साहन हेतु विशिष्ट पुरस्कारों का वितरण ।। अभ्यास एवं अनुष्ठान की नोंध रखने के लिये दैनिक पत्रक का आयोजन, अभ्यास एवं अनुष्ठान के प्रति अभ्यासकों को प्रोत्साहन देने हेतु मासिक पुरस्कार की वितरण योजना । पर्युषण पर्व के आसपास पाठशाला के अभ्यासकों की चातुर्मासार्थ बिराजमान पू मुनिभगवंतो अथवा सुयोग्य पंडितों द्वारा वार्षिक परीक्षा एवं अभ्यासकों के प्रोत्साहन हेतु व श्रुतभक्ति निमित्त वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह । पढाई का स्तर बढाने के लिये बंबई, पूना, आदि शिक्षण संस्थाओं की परीक्षाओं का अयोजन । प्रसंग प्रसंग पर पू. आचार्य भगवंत आदि साधु - साध्वीगण, पंडितवर्यो एवं शिक्षण प्रेमी महानुभावों के पधारने पर विशिष्ट मुलाकातों का आयोजन । • हर सोमवार को सूत्र, अर्थ, काव्य आदि का पुनरावर्तन कक्षा में कराया जाता है । . . ( उपरोक्त विशेषताओं के फलस्वरुप) वर्तमान में संपूर्ण भारत में अद्वितीय उदाहरण रूप १३०० (तेरह सौ) से भी अधिक बालक, बालिकाएँ एवं महिलाएं सुन्दर ढंग से धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर अपने जीवन को सुसंस्कारी बना रहे हैं । याद रखिए... बच्चा आपका.. हमारा... और संघका बहुमूल्य रत्न है अतः उसको आगे पढ़ने प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दीजिए एवं नियमित पाठशाला भेजीए.... Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ भगवान - चिकपेट - बेंगलोर Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: વિષયાનુકમ : જીવના કર્તુત્વની સિદ્ધિ ભાવાત્મક સ્વભાવવાદનું ખંડન સ્વભાવમાં મૂર્નામૂર્તની ચર્ચા અમૂર્તતા સુખ-દુ:ખમાં અહેતુ સિદ્ધ જીવો ઇચ્છારહિત હોવાથી સુખી અભાવરૂપ સ્વભાવમાં દોષો તુચ્છ અભાવમાંથી કાર્ય અનુપાન અભાવમાં ચિત્ર સ્વભાવની અસિદ્ધિ કારણ કે કાર્યના સ્વભાવમાં આપત્તિઓ નિયતિઆદિ વાદોમાં ઘણો સુખેચછુકજીવદુ:ખફળક કામો કેમ કરે છે? અતીતકાળની અનાદિતા જીવની કર્મના તરીકે સિદ્ધિ ભોક્તદ્વાર કર્મફળદાતા તરીકે ઇવરવાદનું ખંડન ઇવર કર્મનો કર્તા કે કારક નથી લોક-આગમસિદ્ધિ સ્વકર્મભોક્તત્વ એકનિક વધ્યના કર્મો અને વચકનો સંક્લેશ દોષપાત્ર કર્મોનું સ્વરૂપ કર્મોના કમનિદેશના હેતુ વાતાવરણાદિ કર્મોના પેટાભો ૨૯ મૂર્ત કર્મ સાથે જીવનો સંબંધ સંગત કર્મની અમૂર્તતાનું ખંડન- આકાશથી નહીં, હવા-પાણીથી સુખ દુઃખ ૪૦. શરીરક્ત સુખાદિ જીવને ન માનવામાં દષ્ટવિરોધ અષ્ટવિરોધોષ બાલાર્થનો અભાવ-વિજ્ઞાનવાદી (a) પરમાણગ્રાહકપ્રમાણાભાવ (1) અર્થાકારસંવેદનમાં બે આપત્તિ ૪૭ (i) નિરાકારવાન અર્થીગ્રાહક (b) પરમાણુ સમુદાયનો નિષેધ (c) અવયવિતત્વનું ખંડન (1) અવયવી અવયવજન્ય એ વાત ખોટી ૫૫ (ii) અવયવીનું ભિન વજન અસિદ્ધ (iii) એકાદ અવયવના ચલનમાં અવયવિનાઘપત્તિ (iv) અવયવદર્શનથી અવયવીદર્શનમાં આપત્તિ (v) અવયવરૂપથી અવયવીરૂપમાં આપત્તિ પદ (M) વિરુદ્ધ ધર્મોની આપત્તિથી અવયવી અસંગત વાનવાદનું ખંડન-ગ્રાહકપ્રમાણાભાવ-પ્રતિબદીત (1) આકારને શાનાંગભૂત માનવામાં દોષ (A) ઝાલાદિ ચારે વિકલ્પ વાનની અસિદ્ધિ (B) ગાલ-ચાહકાકાર વચ્ચે ભેદાદિ પણે પણે શેષ (ii) વાનાકારને વિષયજન્ય માનવામાં દોષ (ii) શાનને અનાકાર-ઉભય અનુભય માનવામાં આપત્તિ ૬૯ (iv) જ જોઈ શકે, તે નિષેધ કરી શકે (v) અર્થમાં જનતભાવ (M) “આલયવિવાન વાળું ખંડન (ii) સવભાવતનો નિષેધ : (iii) વૈશિષ્ટયસર્જક ભેદકનો અભાવ (B) 4) પરમાણુઓમાં સમ્બન્યસિદ્ધિ (1) પરમાણુઓ પ્રત્યક્ષ અનુમાનસિદ્ધ (II) યોગિવાન બાલાર્થવિષયક પ્રમાણસિદ્ધ (iv) વાનને અર્થાકાર માનવામાં શેષનો નિષેધ () દિભેદથી વિભાજ્ય પરમાણુ દ્રવ્યત: અલ્પતમ (ખ) રૂપાદિ આનુવાદી બોદ્ધમત નિરાસ-પરમાણુ દ્રવ્યરૂપ (vi) રૂપાદિગુણો મૂર્નામૂર્ત (iii) પરમાણુઓનો સર્વથા સંબંધ અષ્ટ (C) અવયવી દ્રવ્યની સિદ્ધિ (D) રજજુમાં સર્પનાનાદિ જાતિ વાનવાદીમતે અસિવ (E) જાતિ બાલાર્થસાધક (F) તુચ્છાભાવ વાનગય નથી (G) વાનની સાકારતાથી બાઘાર્થસિલિ (H) ચાહક પરિણામ આકારરૂપ (I) દાનપારમિતાથી બાણાર્થસિદ્ધિ કર્મોની સ્થિતિ ભાવધર્મનું સ્વરૂપ અને પ્રાપ્તિ ગ્રચિસ્વરૂપ – ભેદ ગુણાપેક્ષ નિર્જરાની ન્યૂનાયિકતા બધાભાવની આપત્તિથી પલ્ય સૂર ઔવિક વસ્તુ ધર્મરૂપ સ્વભાવ અને ગુણસેવનથી ગ્રથિશિપ્રાપ્તિ સમ્યક્તની પ્રાણપતાની સિદ્ધિ ૧૦૩ કર્મ-પુરુષાર્થનું બળાબળ પ્રતિ જીવાશથી ભિન્ન ભિન્ન ૧૦૫ કર્મજયહેતુસ્વભાવની ચર્ચા ૧૬ કર્મ-પુરુષાર્થની મુખ્ય-ગૌણરૂપે હાજરી ન માનવામાં બાધા ૧૮ બહુ વિનોથી ગ્રથિભેદ દુર્લભ ૧૧૦ સમ્યક્વાદિ ગુણોની પ્રાર્થનીયતા ૧૧૧ કરણત્રયસ્વરૂપ ૧૧૨ સમ્યનું સ્વરૂપ ૧૧૩ (i) માયોપથમિક સમ્યક્ત ૧૧૪ (1) ઓપશમિસખ્યત્વ ૧૧૫ (iii) ભાયિકાદિ સમ્યકત્વ ૧૧૭ (iv) સમ્યકત્વના લક્ષણો ૧૧૯ (v) નિશ્ચય-વ્યવહાર સમ્યક્ત ૧ર૧ જ્ઞાનપંચક ૨૨ (A) માયોપશમનું સ્વરૂપ અને પ્રાપ્તિ ૧૨૪ (B) અધિગમગુણો- તેઓનું ફળ ર૫ (C) મતિજ્ઞાનના ભેદ્ય ૧૬ (D) વ્યુતવાન ૧૨૮ (E) અવધિવાના (F) મન:પર્યવસાન ૧૩૦ (G) કેવળજ્ઞાન ૧૩૦ (H) વાનની પંચવિધતા અસિદ્ધ-પૂર્વપક્ષ પપ ૬ કે ૬ પહ ૧૨૮ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) વિષયભેદ અસિદ્ધ (ii) પ્રતિપત્તિ (iii) આવરણભેદ અસિદ્ધ (iv) સ્વભાવભેઠમાં યુક્તિવિરોધ (v) કેવલજ્ઞાન ક્યારે ? પ્રતિ સમય કે ચરમ સમયે ? ૧૩૧ ૧૩૧ ૧૩૨ ૧૩૩ ૧૩૪ ૧૩૪ ૧૩૫ ૧૩૯ ૧૩૮ ૧૪૦ ૧૪૧ ૧૪૨ ૧૪૩ ૧૪૪ ૧૪૫ ૧૪૫ ૧૪૫ ૧૪૭ ૧૪૮ (1) વેદવિહિત હિંસા દુષ્ટ ૧૪૮ (ii) શુભબાહ્વાલંબનવિશિષ્ટ જિનાલયગત હિંસા અદુષ્ટ ૧૫૦ ૧૫૧ (III) જિનાયતનમાં ભાવાપત્તિનિતારક ગુણાન્તરો (iv) શાબ્દિક સાધર્મ્સ થઈ ૧૫૨ ૧૫૩ ૧૫૪ ૧૫૯ ૧૫૮ ૧૬૦ ૧૬૧ ૧૯૬૨ ૧૯૪ ૧૯૫ ૧૬૪ ૧૬૯ ૧૭૦ ૧૭૧ ૧૭૧ ૧૭૨ ૧૭૨ ૧૭૧ ૧૪ ૧૭૪ ૧૭૫ ૧૭૭ ૧૭. ૧૯ ૧૭ ૧૧ (I) જ્ઞાનની પંચવિધતાની સિદ્ધિ – ઉત્તરપક્ષ - (1). જીત્યેક સ્વભાવ વિશેષથી અસિદ્ધ [11] દાનોમાં કારણભૂત નિમિત્તો (III): શક્ષણાતિ સનભેદથી પતિ-ચુનમેદ (iv) જ્ઞેયવિશેષાદિથી ભેસિદ્ધિ [] શીલાવરણને મત્યાદિનો અભાવ-મતાંતર (vi) ચરાવરણીય નિરૂપણ (ડ) જ્ઞાનનો તેન (1) પાંચપ્રકારે પ્રતિત સાધર્મ (ii) અવધિ-મનપર્યવજ્ઞાનના ક્રમમાં પ્રયોજન (111) કેવળજ્ઞાન કેમ છેલ્લે ? ચારિત્રધર્મવર્ગન (A) મૂળદાણોનું સ્વરૂપ (B) વેદવિહિત હિંસાપુષ્ટિ-પૂર્વપક્ષ (C) અહિંસા સિદ્ધિ - ઉત્તરપક્ષ (v) વૈદિકહિંસામાં પ્રદાનાદિ ગુણો અસિદ્ધ (vi) વૈદિકમંત્રોમાં વ્યભિચાર (I) સૌથિ ન મુકારો વિધિવાક્ય (vi) આરોગ્ય બોહિલાભ' સફળ પ્રાર્થના વચન (x) વૈદિકહિંસા-હંસક જુગુપ્સનીય [D] [ia] મુશાસ્ત્રદોષભાષણના લાભ-પૂર્વપા (5) ધાગોયભાષણના નુક્શાન-નાપા (c) જૈન સુખનુખ ધનુર્નંગી માવાદરૂપ (d) એકાન્ત આત્મભાવાભાવવાદ ખોટો (e) અનેકાન્ત જ તસ્વરૂપ (1) સમ્યક્ત્વાદિમાં પણ અનેકાન્ત (g) જકારભાષામાં મૃષાવાદ (h) પીડાકારીવચન મુષાવાદ (E) (k) ચોરી જીવિકાપ-નિર્દોષ-પૂર્વપ (11) ચોર થવાની લાયકાતો (111) કોને ત્યાં ચોરી ન કરવી ? (iv) ચોરને વિશેષ સૂચન – ઉપદેશ (F) ચોરી ખોટી – ઉત્તરપા (1) વિધિ કર્તા કે કર્મ ? (11)દુષ્ટ મન:પરિણામને નિષ્ફળ કરવાની ગાથી [11] વાણિજ્યોચિતકળાનો જવાબ (iv) શ્રમણાદિના દૃષ્ટાંતથી અન્ય ચોરીમાં આપત્તિ [v) નાસૃષ્ટનિમાં આપત્તિ (vi) વ્યાદિને પામી કર્મના ઉદયાદિ (ન) અત્રીયંમાટે પ્રેરણા (G) (1) અસેવનમાં અદોષના કારણો – પૂર્વપક્ષ (H) મૈથુન અત્યંત હેય – ઉત્તરપત (1) મૈથુનથી ઉભયને પાપ (ડ) સુખમાયની કલ્પના મૂઢ (III) મૈથુનથી શાળવૃદ્ધિ (iv) મૈથુન શુભધ્યાનવિઘાતક (v) મૈથુનમાં અપવાદપદનો અભાવ (vi) મૈથુનમાં ઘોરવિસા (ના) મૈથુનત્યાગનિયમ સફળ [1] અધિનિસર્ગ નિર્દોષ (1x) મૈથુનત્યાગ પીડાકારી હોય, તો પણ સારો (I) (1) બુરિત્નત્રયોનુંક પરિચત દુષ્ટ (ii) સાવધવિધિથી વૈયાવચ્ચ અમાન્ય (111) બુખાનનુમત સેવનમા ઉભયને દોષ (iv) આરંભનિષ્તિોપભોક્તા ભિક્ષુ નથી (v) ચારિત્રપરિણામાનાશકોનુષ્ઠાન જ અપવાદરૂપ - (VI) ભોગી ભરત સાચો યોગી (vi) અશુભજનવચન શાસ્ત્રવચન નથી (vi) સત્યપરિવારસાધસેવનમાં દ્વેષ (૩) વસ્ત્રાદિ પરિગ્રહપ – દિગંબર (a) વસ્ત્રના પરિગ્રહમા દોષો (b) પાત્રાદિમા દોષો (K) (અ) ઉત્તરપા (a) આહારમાં પણ યાચા દોષ (b) વસ્ત્રક્ત ઉપકારો (c) શુભધ્યાન વિના પીડામરણ અધર્મપ (d) જીવોત્પત્તિઅગે આહાર / શરીર સાથે તુલ્યતા le) વિધિપૂર્વક બ દેનારો નિર્દોષ (I) દોષ પણ વિવિજયણાથી પ્રાયશેિનનો અવિષય (g) લાભાલાભ અવિચારક શાસ્ત્ર અપ્રમાણ (h) વરદાનમાં દાતાને પીડાનો અભાવ (1) પરિમન્દોષનો પરિહાર (1) વિભૂષાદોષ નિરાકરણ (k) મૂર્છાદિ દોષોનો નિષેધ (I) ભારવહનદોષનો પરિહાર (a) અધિકરણાદિ દોષાભાય (n) શોકાદિોષનિષેધ (૦) અપેક્ષાદોષાભાવ (p) વસ્ત્રના દાનથી કાર્યસિદ્ધિ (વ) પરિષયનું સ્વરૂપ (૪) બંધારણ નીયાસિમન (ડ) વસ્ત્રધારી સાધુ ગૃહસ્થ નથી (૧) વસ્ત્ર ભાવગથી નથી (બ) પાત્રાના ફાયદા (1) દિગંબર ભિન્નાચારમાં જીવહિંસા (1) પાત્ર રાખવામાં પણ જીવહિંસા – દિગંબર (111) સંસક્ત જળ પરઠવવાની વિધિ – ઉત્તરપક્ષ (iv) પાત્રત્યાગ નિર્દોષ છે ૧૮૨ ૧૮૫ ૧૫ ર ૧૮૬ ૧૮૮ ૧૮૮ ૧૯૦ ૧૯૦ ૧૯૧ ૧૯૧ ૧૯૨ ૧૯૪ ૧૯૫ ૧૯૯ ૧૯૮ ૧૯૯ ૨૦૦ ૨૨ ૨૦૩ ૨૦૩ ૨૦૫ ૨૦૭ ૨૦૭ ૨૦૭ ૨૦: ૨૦૯ ૧૦ ૧૧ ૨૧૨ ૨૧૩ ૧૪ ૨૧૪ ૧૫ ૨૧૬ ૨૧૭ ૨૧૭ ૨૧૮ ૨૧૯ ૨૨૦ ૨૨૪ ર૪ ૨૨૫ ૨૨૭ ૨૮ ૨૩૦ ૨૩૨ ૨૩૩ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ ૨૮૮ ૨૮૯ ૨૯૦ ૨A ૨૦ ૨૪ ૨૯૫ ૩૦૦ ૩૦૩ ૩૦૫ ૩૦૬ ૩૦૪ ૨૪૫ ૩૦૯ ૨૪૭ () જયાણા-વૈયાવચ્ચ-નરસંગતાસિદ્ધિ ૨૩૪ (ક) રજોહરણનો લાભ ૨૩૬ () રૂડ હથિયાર નથી, પણ ઉપકરણ છે ૨૩૭ છે સંવેગ-નિર્જન્યતાસિદ્ધિ (૧) એકાન્તગુલિંગસાધર્મ અસિદ્ધ ૨૮ (L) (a) બીજાએ તીર્થકરગુણથી રહિત (b) તીર્થકરગુણો ૨૪૦ (c) બીજાઓની તીર્થકર જેવી ચેષ્ટા હાસ્યાસ્પદ ૨૧ (d) ચારિત્રરૂપ મૂળગુણ પછી ઉત્તરગુણ ૨૪૨ (e) ચારિત્રનું મૂળ અહિંસા, ૨૨ (0 જિનકલ્પદષ્ટાન અસ્થાને છે. ૨૪૩ 0િ દેવદુષ્યગ્રહણ સવઅહેતુક ૨૪૪ (h) ગુલિંગથી ઓળખાણ-શિલિંગથી નહીં ૨૪૫ d) વેધદષ્ટાન્નની ઉપયોગિતા (0 દિગંબરોક્ત તુષદષ્ટાન વ્યર્થ ૨૪૬ રાત્રિભોજનત્યાગવતની સાર્થક્તા વિતરાગતા અસંગત - પૂર્વપક્ષ ૨૪૮ સર્વશતા અસંભવિત - પૂર્વપક્ષ ૨૫૧ (a) પ્રત્યક્ષથી સર્વતતાની અસિદ્ધિ ૨પ૧ 1) અનુપલબ્ધિહેતુ અપ્રમાણભૂત ૨૫૨ (ii) પ્રત્યક્ષાદિ પ્રમાણો અસમર્થ ૨૫૩ (ii) સર્વવવિષયક પ્રમાણાભાવ ૨૫૪ વીતરાગભાવની સિદ્ધિ-ઉત્તરપલ . ૨૫૭ (1) પ્રતિપક્ષભાવનાથી હાસ-સાયસિદ્ધિ ૨૫૭ (ii) ભાવક-ભાવ્ય-ભાવનાનું સ્વરૂપ ૨૫૮ (iii) નિદાનવિષયાદિભાવનાનું સ્વરૂપ ૨૫૯ (iv) વનતપ-સંયમભાવના (v) “નિર્વાણ અસ્તિત્વનો અભાવ મતખંડન ૨૬૨ (i) મીણદોષોની પુનસ્પત્તિનો અભાવ (ii) આત્મા નથી: ભાવનાનું ખંડન ર૬૪ (viii) ધર્મો ધર્મથી ભિનાભિન્ન ૨૬૮ (A) ધર્મોની અનેક્તા ' ૨૭૦. (B) ધર્મીની એકતા ૨૭ (C) ભેદભેદપક્ષની નિર્દોષતા ૨૨ (D) ધર્માધી કથંચિદભિન્ન રાગાોિ સર્વથા નાશ સુશકચ૨૨ (x) ચેષ્ટાથી વીતરાગતાની સિદ્ધિ ૨૪ (x) સામાન્યપેદષ્ટ અનુમાનથી વીતરાગતાસિદ્ધિ ૨૭પ . સર્વવતા સિલિ (i) તરતમભાવ તર્ક ૨૭૭ (a) અતીન્દ્રિયપ્રતિભાવાનમાં તરતમભાવ ૨૪ (aa) ઉયન-ભોજન અને વાનવચ્ચે વધર્મ ૨૭૯ (b) તાનસવભાવી જીવ આવરણયથી સર્વર c) ગમનાMિી પરિમિતવિષયતા ૨૮૧ (ii) યત્વહેતુ ૨૮૨ | (a) અભાવપ્રમાણમાં વ્યભિચારની આપત્તિ ૨૮૩ (b) વિશેષોની સિદ્ધિ (c) યત્વ હેતુમાં વિરુદ્ઘોષોનું નિરાકરણ (d) કેવળવાન સર્વવિષયક (e) માંસાદિકાનમાં દેવાભાવ (ii) વ્યવહારથી સર્વતનિર્ણય (iv) અવભાદિની સર્વવતા આગમસિદ્ધ (a) નાગમની પ્રમાણિતા (v) અસર્વતવાદી મીમાંસકમત ખંડન (a) અપાયવેને આપત્તિ (b) આગમની નિત્યાનિત્યતા c) વેદની સ્વત: પ્રમાણિતાનું ખંડન (M) અસર્વિવના અર્થની ચર્ચા (ના) પુરુષત્વાદિષેતુઓમાં દોષ (iii) વકતત્વની નિર્દોષતા (x) વાનપૂર્વકની વિવમા નિર્દોષ (x) ભગવાન તીર્થંકર નામકર્મના ઉદયથી વક્તા (i) સર્વપ્રતિષેધક પ્રમાણાભાવ (ii) વેધકાદિશાસ્ત્રોથી સર્વસિદ્ધિ (xiii) અતીતાદિભાવોનો ભાવ (xiv) અવિધમાનાતીતાદિ અગે પણ સ્પષ્ટ પ્રત્યક્ષ (v) મતાંતરીય વખાદિ દષ્ટાન્ત () છાયા પ્રતિબિમ્બનો નિષેધ (xx) “સર્વશતાવાભાસ' પદના અર્થની ચર્ચા (viii) ચંદ્રપ્રભાદિદષ્ટાન ઉપમામાત્ર (xtx) ઉપયોગદ્યચર્ચા (a) યુગપદુપયોગવાદીમત (b) કમિકોપયોગમત (1) આવરણયનો લાભ (i) લબ્ધિથી સર્વવ-દર્શી (iii) પરસ્પરાવરણદોષનો અભાવ (c) અભેદોપયોગવાદીમત અને ખંડન (૧) સામાન્ય-વિશેષ સર્વત્રતા અબાધક (૨) વાન-દર્શન પ્રત્યેક સર્વવિષયક (x) મતાનરસિદ્ધ સર્વ-દર્શિવાણું (1) જિનાગમની પ્રમાણિતામાં છિન્નમૂલાદિ અબાધક મોક્ષમાં અનંતસુખના કારણો (૧) રાગાદિ અભાવ (૨) જન્માદિ અભાવ ૩) અવ્યાબાધ મોક્ષસુખ અનુપમ કન્યાદગ્દાન ભવ્યોના અંતાભાવની સિદ્ધિ ઉપસંહાર ટીકાકારક્ત પ્રશક્તિ અનુવાદકર્તાની શુભેચ્છા ૩૧૫ ૩૧૭ ૩૨૦ ૩૧ રી કર૫ ૩ર૬ ૩૨૮ ૩૨૯ ૩૩૦ ૩ ૨૬૦ ૩૩૨ ૩૩૩ ૩૩૪ ૨૬૩ ૩૩૭ ૩૪ ૪૦ જા જર જર ૪૩ ૩૪૪ ૩૪૫ ૨ % ૪૭ ૩૪૮ કજલ ૪૯ ૨૮૦. ૨૫ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारिभद्रभारती इय मिच्छत्तुदयातो अविरतिभावाओ तह पमादाओ । जीवो कसायजोगा दुक्खफलं कुणति कम्मंति ॥ ॥ ५६९ ॥ જીવ (૧) મિથ્યાત્વના ઉદયથી (૨) અવિરતિના કારણે (૩) પ્રમાદના સેવનથી અને (૪) કષાયના યોગથી દુ:ખદાયક કર્મ બાંધે છે. सम्मत्तनाणचरणा मोक्खपहो वन्निओ जिणिदेहिं । सो चेव भावधम्मो बुद्धिमता होति नायव्वो ॥ સમ્યક્ત્વ, જ્ઞાન અને ચારિત્ર મોક્ષમાર્ગ છે, એમ જિનેન્દ્રોએ વર્ણવ્યું છે. આ મોક્ષમાર્ગ જ ભાવધર્મ છે, તેમ બુદ્ધિમાનોએ સમજવું. गंठित्ति सुदुब्भेदो कक्खडघणस्डगूढगंठिव्व । जीवस्स कम्मजणितो घणरागद्दोसपरिणाम | જીવનો કર્મથી થયેલો અતિદુર્ભેદ, કર્કશ, ગાઢ, ઢ, અત્યંત ગૂઢ-ગુચ વળેલો તીવ્રરાગદ્વેષપરિણામ ગ્રંથિરૂપ છે. जिणइ य बलवंतंपि हु कम्मं आहच्चवीरिएणेव । असइ य जियपुव्वोऽवि हु मल्लो मल्लं जहा रंगे ||||७८३ ॥ જેમ સ્પર્ધાના મેદાનમાં ઘણીવાર હારેલો મલ્લ પણ ક્યારેક (પોતાને હરાવનાર) મલ્લને હરાવે છે. તેમ જીવ પણ ક્યારેક પોતાના પરાક્રમથી બળવાન એવા પણ કર્મને જીતે છે. नाणस्स णाणिणं णाणसाहगाणं च भत्तिबहुमाणा । आसेवणवुड्डादी अहिगमगुणमो मुणेयव्वा || જ્ઞાન, જ્ઞાની તથા જ્ઞાનના સાધનોના ભક્તિ-બહુમાનપૂર્વક આસેવનવૃદ્ધિઉપાસના વગેરે જ્ઞાનાવરણીયના ક્ષયોપશમના હેતુઓ જાણવા. साहुणिवासो तित्थगरठावणा आगमस्स परिवुड्डी । एक्केक्कं भावावइनित्थरणगुणं तु भव्वाणं ॥ ગામમાં દેરાસર હોય, તો (૧) સાધુઓ ગામમાં સ્થિરતા કરે (૨) ગામમા તીર્થંકરની સ્થાપના થાય (૩) સાધુસંગથી શ્રાવકોને આગમાર્થનો વર્ધમાન બોધ થાય. આ બધા પ્રત્યેક ભવ્યજીવોને સાક્ષાત્ તીર્થંકરની ગેરહાજરીરૂપ ભાવાપત્તિને ઓળગવામાટે ઉપકારરૂપ બને છે. एवं चिय जोएज्जा सिद्धाऽभव्वादिएसु सव्वेसु । सम्मं विभज्जवादं सव्वण्णुमयानुसारेणं ॥ આ જ પ્રમાણે (પૂર્વોક્ત સમ્યક્ત્વાદિની જેમ) સિદ્ધ-અભવ્યઆદિ બધા જ ભાવો અંગે સર્વજ્ઞમતાનુસારે વિભજ્યવાદ અનેકાંતવાદને સબધ કરવો. - ||૭૪૬॥ કર્મોના (૧) ઉદય (૨) ક્ષય (૩) ક્ષયોપશમ અને (૪) ઉપશમ તીર્થંકરોએ (૧) દ્રવ્ય (૨) ક્ષેત્ર (૩) કાળ (૪) ભવ અને (૫) ભાવને પામીને બતાવ્યા છે. ૭૫૩॥ ૫૮૨૦૦ ।।૮૭૩॥ ।।૧૨૧॥ बहुविग्घो जिलोओ चित्ता कम्माण परिणती पावा । विहडइ दरजायं पि हु तम्हा सव्वत्थऽणेगंतो ॥ ॥९२३ ॥ (૧) આ જીવલોક ઘણા વિઘ્નોથી વ્યાપ્ત છે. તથા (૨) કર્મોની પાપી પરિણતિઓ ખુબ જ વિચિત્ર છે. તેથી કાક થયેલું પ્રયોજન પણ વિઘટિત થાય છે. તેથી સર્વત્ર અનેકાન્ત જ વક્તવ્ય છે. उदयक्खयक्खओवसमोवसमा एवऽत्थ कम्मुणो भणिता । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ।। ।।९४९ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणपरिणामबीयं जं न विणासेइ कज्जमाणंपि । तमणुट्ठाणं सम्मं अववादपदं मुणेतव्वं ॥ જે કરાતુ અનુષ્ઠાન ચારિત્રપરિણામબીજનો નાશ ન કરે, તે જ સમ્યગ્ અપવાદપદરૂપ સમજવું. सुहझाणस्स उ नासे मरणंपि न सोहणं जिणा बेंति । अन्नाणि (ची) वीरचरियं बालाणं विम्हयं कुणति ॥ ॥ १०२९ ॥ જો શુભધ્યાનનો નાશ થતો હોય, તો તે મરણ પણ સારું નથી’ એમ જિનો કહે છે. તેથી (તેવા મરણ માટે ઉદ્યત થયેલા) અજ્ઞાની વીરચરિત્ર અજ્ઞજીવોને જ વિસ્મય પમાડે, (નહીં કે ગુરુપરપરાથી આગમરહસ્યના જાણકારોને.) अट्ठविपि य कम्मं मिच्छत्ताविरतिदुट्ठजोगा य । एसो य भावगंथो भणितो तेलोक्कदंसीहिं ॥ (૧) જ્ઞાનાવરણીયાદિ આઠ કર્મ (૨) મિથ્યાત્વ (૩) અવિરતિ અને (૪) દુષ્ટયોગો આ ભાવગ્રથ છે, એમ ત્રૈલોક્યદર્શી ભગવાનોએ કહ્યું છે. Io ૦ ૦ ૨૫ ।।o ૦૭૬ ।। मिच्छत्ते अन्नाणे अविरतिभावे य अपरिचत्तम्मि । वत्थस्स परिच्चातो परलोगे कं गुणं कुणइ ॥ (૧) મિથ્યાત્વ (૨) અજ્ઞાન અને (૩) અવિરતિભાવના અપરિત્યાગમાં વસ્ત્રનો પરિત્યાગ પરલોકમાં શું લાભ કરશે ? नत्थि य सक्किरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाणं । चतितुं बहुदोसमतो कायव्वं बहुगुणं जमिह ॥ ॥ १०७५ ॥ સક્રિય જીવોને કોઇ પણ અનુષ્ઠાન અધિક નથી. તેથી જે બહુદોષયુક્ત હોય, તેનો ત્યાગ કરી, જે બહુગુણયુક્ત હોય તે અનુષ્ઠાન કર્તવ્ય છે. भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणम्मि परम्मि य तो वज्जे पीडमुभयोऽवि ॥ ॥११०६॥ Io ૦૭૪॥ જિનવચનથી ભાવિત થયેલા અને મમત્વથી રહિતને સ્વ અને પરમાં કોઇ વિશેષ = ભેદ નથી. તેથી સ્વ-પર ઉભયની પીડાનો ત્યાગ કરવો જોઇએ. जं चरणं पढमगुणो जतीण मूलं तु तस्स वि अहिंसा । तप्पालणे च्चिय तओ जइयव्वं अप्पमत्तेणं ।। ।।११२३॥ સાધુઓનો પ્રથમગુણ ચારિત્ર છે. અને ચારિત્રનું પણ મૂળ અહિંસા છે. તેથી તેના (= અહિંસા અને ચારિત્રના) પાલનમા જ અપ્રમત્ત થઇને પ્રયત્ન કરવો જોઇએ. सव्वण्णुविहाणम्मि वि दिट्ठट्ठाबाधितातों वयणातो । सव्वण्णू होइ जिणो सेसा सव्वे असव्वण्णू ॥ ॥१३७२ ॥ સર્વજ્ઞ છે” એમ સિદ્ધ થયે દૃષ્ટ અને ઇષ્ટને અબાધિત વચનોના કારણે જિન (=વર્ધમાનસ્વામી વગેરે) જ સર્વજ્ઞ છે, સુગતઆદિ બીજાઓ નહીં. रागादीणमभावा जम्मादीणं असंभवातो य । अव्वाबाहातो खलु सासयसोक्खं तु सिद्धाणं ॥ IK ૩૭૭ (૧) રાગ-દ્વેષાદિ દોષોનો અભાવ હોવાથી (૨) જન્મ-જરા-મરણાદિનો અસંભવ હોવાથી અને (૩) વિષયૌત્સુચનિવૃત્તિથી સતત તૃપ્તિરૂપ અવ્યાબાધ હોવાથી સિદ્ધ જીવોને શાશ્વત સુખ છે. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अंते केवलमुत्तम अंधम्मि तमम्मि अंधो वि अणंघेणं अइसकिलिकम्माणु अक्कोसाण विसहणं अमहियामिवि अमहिये गुणो अग्गहितम्मि य तम्मि अट्ठविहंपि य कम्मं अण अप्पच्च अणवगमम्मि य अणुभयस्यमभाव अणुमापि हु अणुमाणेणावि कहं अणुमा द अण्णे ण चेव वीसुं अणे तु असं अण्णे सव्वं णेयं अनिवारियहणं अन्नं अतिंदियं जं अन्नं अतिंदियं से अन्नं च गम्मइ अन्नं च दव्वलिंगं अन्नं च नज्जइ कहं अन्नं च नज्जइ ततो अन्नाणादिनिमित्तं अन्ने उ नथि अन्ने मुसावाओ अन्ने निद्दोस चिय अन्ने भांति आभि. अन्ने सागारं खलु अन्नेसिं मोहोदय अप्पस्स होति अह अपमत्तस्स न अयपिंडे भावंतरभावो अरहा वि असव्वन्नू अवयविणोविय अवबोहमादिया पुण अधियग्गहिए अविसंवादि य एतं अव्वाबाधाओ च्चिय अनादिभेदभिन्न असइ य को भावेति असुह परिणामबीजं अस्सावणत्तजुत्त अह अपरोप्पर अह अणुभवस्वं अह अत्थवादवक्कं अह अविवेकातो गाथाङ्क पृष्ठ ८५५ 145 ८९४ 160 १३१२ 316 ९३८ 175 ९०० 162 ७३९ 90 १०९८ 234 ११४५ 251 १०७१ 225 ६१४ 31 ६६९ 59 ६८८ 66 ७४१ 91 ११५५ 254 १२९६ 310 १३३७ 328 "अ" अराहि मे भूणगाथाओ अह उ अभेदो अह उ अभावोत्त अह उ निरागारं अह उ ससंवेदन अह उ अणागारं अह उ गुणसेवाए अह उ उवक्कामिज्जति अह उस्सगेसो अह उत्तमसंघयणे अह कहवि तस्स अह गाहगस्वं अह चित्तो किं अह चित्तो चेव अह जस्स एरिसो अह जागादिविहाणं अह णवि एवं तो अह णिच्छवि • अह तं विसिद्वगं अह तं न तओ अह तत्थ विसंवादो १३२४ 321 १३७० 340 ११०१ 236 १२०५ 277 ११४८ 252 १२६९ 300 १९३० 244 ११४१ 249 ११५४ 254 ११७६ 261 १९८१ 264 ८९६ 161 ९८६ 192 ८४६ 140 १३३५ 327 १११६ 240 १०४२ 213 १०५२ 218 ८६७ 148 ८३१ 132 ६५४ 51 ११९९ 273 १०८८ 231 १२११ 279 -अहवा णेगतोऽयं १३८३ 344 ८६१ 147 १९८३ 265 १०११ 201 १२८१ 304 ६५२ 50 ६८३ 64 ८८७ 156 १०४६ 215 अह ता भिन्ना अह तल्लिंगसमं अह तु असो अह तु अभावो अह तु सहावी अह तु अविना अह तु अकिंचिणु अह तु विवखाए अहदीहभवण्यासा अह देसणाणदंसण अह धम्मकाय अह धम्मसाहणं अह निच्च सव्वन्नू अह पडिवत्ति विसेसा अह पुव्वकयं ९३७ अह फलमुद्दिस्स अवघिय अह रत्थापुरिसकओ अह वट्टतित्ति अहव जओ च्चिय अह विसया आगारो अह सति वि तम्मि अह सव्वदव्व अह सागाराउ अह सो परस्स आ आउं च एत्थ आउयनामं आजमाए 1 ६८१ 63 १२७७ 303 ६८४ ६४८ 49 65 ६८६ 66 ७६५ 100 ९४८ 179 १००१ 198 १०३० 209 ६७५ 61 62 ६७८ ५५१ ५६२ 3 8 १०३९ 212 १२७२ 301 १३४२ 331 १२३९ 289 73 ७०४ १२६१ 297 ८८४ 155 ६९८ 70 १११२ 239 ५५२ 3 ५५६ 5 ७०१ 72 ७२२ 83 १२७६ 302 १२८४ 305 १०५३ 219 १३५४ 335 १०२६ 207 १०३४ 210 ११६० 256 ८२९ 131 175 ५९१ 21 ८८२ 155 ११५९ 255 ६५६ 52 ७९३ 112 ६२६ 40 ६८५ 65 आगममोक्खाओ आणूगम्मिसमीरण आतवज्जोव आदिल्लाणं तिहं आभिणियोहियनाणं आयाणे गहण ( मोक्ख) आरंभनिट्ठियं पिंडमादि आरोगबोहिलार्थ आलयगता अणेगा आवरणाभावो वि हु सेवाए एवं आसेवणाए जाय आवणाए लिसा आहागडस्स गहणे इ इच्छंतो वि य इट्ठो य वत्थुधम्मो इत्थी पुरिस इय अत्थि नाण इय अच्यंसिद्ध इय अत्थि चेव आया इय अववादपदेणवि इय अणुभवजुत्ति इयखंदविहिणा इय घणसंसत्ताए इस जुतिविरो इय तस्स अणादित्ते इस दिड विरोहो हव दोसाणावग इय निद्दोसं वत्थं इयमिच्छत्तु. इयमित्तराणिवित्ती इयरस्स उ कत्तिते इय वत्थुसहावं इय वत्थुसहावं इहरा कयवेफल्लं इहराऽऽदीणिधणत्तं उ उचियादणत्थगं९४३ उडिति के उत्तरगुणा उ चित्ता उदयक्खय ८३३ 133 उपपन्नम्मि वि णाणे उल्लंघिऊण एवं ८२७ 130 ६४५ 48 उलुगादीणं दिणगर. उक्तमेव ६९१ 68 गाधाङ्क पृष्ठ उवमागम्मा वि ण ६१६ 33 उवमाणेणऽवि तद. ६०८ 28 उवयोगो एगतरो ६२१ 37 उवसमिय सेढिगस्स ७६३ 98 ६२९ 41 ६१९ 35 ७४५ 92 ८१६ 123 ११०३ 237 ९९९ 196 ८९० 158 ६९५ 69 १२१७ 280 ९७५ 188 ९६० 183 ९७६ 188 १०४३ 214 गाथाङ्क पृष्ठ ५६८ 12 101 ७६९ ६१५ 32 ९१० ७३१ 87 908 164 165 १००५ 199 १३८५ 345 ९३५ 174 ९८१ 190 ६६३ 57 ५७६ 15 ६३२ 42 ८९९ 162 १०७७ 227 ५६९ 12 १३८४ 345 ५९६ 23 ९३१ 173 ९५२ 181 ५९८ 24 १३३९ 329 गाथाङ्क पृष्ठ 177 १२१२ 278 ११३६ 248 ९४९ 180 १२६२ 297 १०३६ 211 १२६५ 298 १३४५ 332 १२२६ 284 १२९८ 311 १३५८ 336 ७९८ 115 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसिणोदगं अह उस्सुगविणिवित्तीवि ऊसरदेसं दडिल्लयं एक्लो वि नमोक्कारो एगंतभेदपक्खे एगंतेणेव इम एगतेणऽत्थित्ते एगतेण उ णिच्चो एगंतेण सतो च्चिय एगतेण तु सत एव एगऽन्ने आरंभा एगाणेगसस्वं एगिदियादियाणं एगो धम्मी धम्मा एगो स आलयो एण्हिं पि आगमातो एतं होहिति कल्लं एतस्स एगपरिणाम एतेणऽचेतणं जं एतेणं समुदायो एतेणं आगारो. एतेण सम्मलाभे एतेणं यजमाणा एतेणं चिय सति . एतेणं पडिसिद्धा एते भावेमाणो एतेहऽभिभूयाणं एत्तोच्चिय सा सततं एत्तो च्चिय अण्णेहिं एत्तोच्चिय निद्दिट्ठा एत्थ य परिणामो एद्दहमेत्तेण इमं एय विगप्पाभावे एयमिह ओघविसयं एयस्स य पामण्णं एवं अवग्गहातो एवं इमे वि विज्जादिगा एवं किमत्थि अन्नं एवं च कुतो एवं च ठिए संते एवं च अणिच्चत्तं एवं च सव्वविसयं एवं च पयइसावज्जओ एवं च नज्जइ तओ एवं च गम्मड़ एवं च उभयस्वे एवं चिय जोएज्जा एवं चिय सव्वगता एवं जुज्जइ पगतं १०८१ 229 एवं तीताणागतस्वं ९७३ 187 एवं नियइ ८०० 116 एवं पि हंत दोण्हवि गाथाङ्क पृष्ठ एवंपि तेसिंण . ८८८ 157 एवं पुरिसत्तं वि ११८८ 268 एवंविहपरिणामो ९०५ 164 एवं विहिसक्कारो ९११ 166 एवंविहं च एतं १२४६ 291 एवंस्वं सव्वं एवं १२६० 297 एवं विवजासेणं १२६७ 299 एवं सव्वण्णुत्ते १०७९ 228 एवं सिद्धसुहस्स वि ७१९ 82 एवमिह इमं सम्म ८१९ 125 एवमिदमकातव्वं ११८९ 268 एवमिह कम्मगुरुणो ६९७ 70 एवमिह समासेणं १२४० 289 एसा य वत्थुतो ९२२ 170 एसो उ भावधम्मो ७४४ 92 ओ ५८७ 20 ओहिन्नाणं भवजं ६५० 50 ओहिन्नाणस्स तहा ७३४ 89 ओहेण दोहकालो ७७३ 103 ८९५ 161 कंदोट्टादिसु अह १२३१ 286 कण्णाण दढ पीती ११९५ 272 कत्तत्ति दार ११७३ 260 कत्ता हु चेतणो १३७९ 343 कत्तावि अह पभ १२८९ 307 कत्थइ जीवो १३८७ 346 कम्म परतंतओ चेव ७८४ 108 कम्म परतंतओ जं ८०७ 119 कम्मटिती सुरीहा । ९०२ 163 कम्म विवागातो -६७१ 60 कमकरणे पुण भणियं ७५९ 96 कम्मोदएण मणपरिणामे १२४३ 291 कयगत्ते कम्मस्सा ८५० 142 करणं अहापवत्तं १३१४ 317 कस्स व णाणुमत. ७२६ 86 कह दीसतित्ति ६०३ 26 काऊण इमं धम्म ६०४ 26 काऊण पगरणमिणं ६५८ 52 कारणगतो उ हेऊ ८४१ 138 कालाभावे लोकादि ९८३ 191 कालविवज्जय सामित्त १२०० 274 काल परिहाणिदोसा १२६८ 299 कालो उ भेदगो १३६३ 338 किं च इमोऽवयवाणं ९२१ 170 किंच इहं नीलातो १३३३ 327 किंच णियं चिय ७८७ 109 किंच तओ सद्दो १३२० 319 किंच विवेगप्पभवं ५६६१ किंचागारो ९९७ 195 किं चासिटुं नो ११९६ 272 किंची विसेसओ १२८२ 304 किंचेह सच्चपुव्वा ८१३ 121 किंचेहवाहिभेदा ८८१ 154 किन्न सहावो १०४५ 214 केई अमुत्तमेव १३२१ 319 केइ अदत्तादाणं १३६६ 339 केइ उ सहावच्चिय १३७३ 341 केइ तिसंथदुसंथा १३९१ 347 केई न वेदविहिता ६७३ 60 केइ पेच्छई ८९८ 162. केई भणंति पावा ९६४ 185 केई भणंति जगवं १३९५ 348 केहिचि परिग्गहितो ७७२ 102 कोहादिपगारेहि ११३७ 248 गाथाङ्क पृष्ठ खीणम्मि उदिन्नम्मि ८२५ 128 खीणा य तेण ८४० 136 खीणे दंसणमोहे ७७४ 103 गाथाङ्क पृष्ठ गंठित्ति सुदुब्भेदो १२६४ 298 गंथोवि होइ दुविहो १३८८ 346 गम्मइ न यागमातो ५४६ 1 गम्मति ण यागमातो ५८८ 20 गहणमणंताण ५९४ 22 गहितोवि अमोक्खाए ७८० 105 गहितो य अमोक्खाए ५८९ 20 गामादिपरिग्गहओ ५९३ 21 गाहगपमाणविरहो ७९० 111 गिहि भोगे जलमादी ५८३ 18 गिहिलिंगपि न एतं ८५१ 142 गुरुणावि न पडिकुटुं ९४० 175 गुस्लाघवचिन्ता रुला ५७२ 13 गोयं च दुविह ७९४ 112 १३५९ 337 घातिक्खयो निमित्तं ६४१ 46 घेत्तूण चाउलोदं १३७६ 342 १३९६ 348 चंदोव्व होइ ५६५ १ चउवेदो विहु ५७५ 15 चत्तघरवासाणं ८५४ 144 चरणपरिणामबीअं १०१४ 202 चरणपरिणामबीयं ७०६ -73 चरमावरणस्स खओ ६५७ 52 चरमावरणस्स खए ...६९४ 69 चारित्तं परिणामो १०२३ 206 चेतणस्वादीया १२५५ 295 चोएति कहं ९७७ 188 ६६८ 59 ९४७ 179 १२१५ 280 ७२३ 84 ८०५ 118 ५४९ 2 ६२७ 40 ९२६ 171 ७८१ 106 १२०७ 277 ८६२ 147 ६३९ 46 ९५६ 182 १३३६ 328 १३७४ 341 ८५९ 146 गाथाङ्क पृष्ठ ७९९ 115 ११७९ 263 ८०१ 117 गाथाङ्क पृष्ठ ७५३ 94 १०७० 225 ११५७ 255 १२९७ 311 ७६२ 98 ९३४ 174 ९५५ 182 १००४ 199 ६९३ 69 १०७८ 227 १०६८ 224 १०६६ 224 १०४० 212 ६२२ 38 गाथाङ्क पृष्ठ ८३९ 135 १०८६ 231 गाथाङ्क पृष्ठ ८१७ 124 १२३८ 289 १०१५ 202 १००२ 198 १००७ 200 ८३२ 133 ८४८ 141 ८५६ 145 ११९३ 271 ११३८ 248 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरो वंझापुत्तो छ छउमत्थसामिगत्ता छउमत्थस्सवि छन्नड़गामको ज जं अविचलिय सहावे जं एत्थ णिव्विसेसं जं कुचियानुयोगो जं केवलाई सादी जं गझगाहगो जं गाहनपरिणामो जं च इयमातधम्मो जं चरणं पढम. जं चैव खलु जं जह भणियं जं दंसण णाणाइ जं पुण अभिसंधीओ जं पुण तिकाल जं पुण नासे जंपति य वियरागो जं मोणं तं सम्मं जं सव्वणाणमो सामिकालकारण जं सामण्णपहाणं जं होअतक्कियं जड़ एवं धणनासे जड़ ताव एव जड़ णाम जीवधम्मा जड़ नाम हासभावो देहस्स पीडा जड़ सव्वनुकओ जच्चिय विवाग जतिवि य तीए जति वि ण विणस्सति जति वि स कुत्थियन्णू जमणादिकम्म जमवग्गा दि जमिह छउमत्थधम्मा जम्मजरामरणादी जम्माभावे ण जरा जम्हा रागभावो जम्हा पच्चक्खेण जम्हा स धिरो जम्हा पच्यक्खेवेण जम्हा पहा वि दव्वं जलहिजलपल जस्सेरिसा दसाओ जह उ किर णालिगाए जह कस्सवि सयराहं ६७० 59 जह केवलम्मि गाथाङ्क पृष्ठ जह किर खीणावरणे ८४४ 139 जह चेव कुट्ठो 240 जह चेव अप्पच्चक्खो १११५ १००६ 199 गाथाङ्क ८३७ 135 १३६४ 338 ११६९ 259 329 १३३८ ६७६ 61 ७३५ 89 १३३० 325 जायणसंमुच्छणमो ११२३ 242 ७१० 75 ८०२ 117 १३६० 337 ७८६ 108 ८२४ 128 १००३ 198 १२९१ 308 ८१४ 121 १२३२ 287 ८५२ 142 १३६८ 339 ७८५ 108 ९५१ 180 ५५० 2 १९६३ 257 ११६५ 257 १०४९ 216 ११५८ 255 ५८४ 19 ९८५ 192 १०२८ 208 १२७५ 302 ५५३ 3 ८२३ 126 ८४५ 140 ११७२ 260 १३८२ 344 १९४४ 250 ११५२ 253. ११७८ 262 १२३५ 288 १३३४ 327 १२२२ 283 जह जो सुहं पृष्ठ जह जुगवुप्पत्तीए जह तक्करणे दोण्हवि जह पासइ तह जह सव्वमुत्तविसयं जा गंठी ता पढमं जायइ य नील जायइ अतिप्पसंगो जारिस गुरुलिंग जारिसयं गुरुलिंगं जिणणियविही जिणकप्पिओ न जियलज्जो णिगिणो जीणइ य बलवंतंपि जीवो महाभिलासी जीवस्स कम्मजोगो जीवस्सवि सव्वेसुं जीवसहावातो च्चिय जुगवमजाणतो जे चेव भावस्वा जेवि य पसंत जो रज्जचायं कुणइ जो च्चिय सस्व जो चयइ सयण. जो चेव लोगिगाणं जो णिग्गतो इमाओ जो पुज विहीए जो पुन सगुणरहिओ जो विय पमाणपंच ड डंडगहणम्मिवि ण णज्जइ य तओ ण तु एवमवस्सं सहायता लेगसहायत अणु णय अवयवी ण य इह वेद. ण य इह तव. ण य इय मुच्छा. ण य उवगरणेण १३१३ 316 जय गजतसिद्धं ९८० 190 णय कुच्छिया १३३२ 326 णय कज्जमंतरेण 3 ७७५ 103 १३५२ 334 ९७४ 187 १२०३ 276 ९०६ 164 १३५० 333 ९६९ 186 १३५६ 336 ११५० 252 ७९५ 113 ७०७ 74 ८७८ 143 १०१७ 203 ११०९ 238 ११११ 239 १०३५ 210 ११२५ 243 ११३४ 247 ७८३ 101 11 ५६७ ७४८ 93 १२२१ 282 १३६९ 340 १३४७ 332 ९२० 169 ६३३ 43 ११२८ 244 ५६० 7 १०५४ 218 १२४८ 292 १०७२ 226 १०३८ 211 १११८ 241 १३०० 311 गाथाङ्क पृष्ठ १०२२ 206 णय कायवयणचेट्ठा णय गज्झमंतरेण ण य णाणापगरिसेणं ण य तस्स णेय. णय तेसिं पुवगारो यसेऽणुमाया णय ते इंदियजेणं णय देवदत्तनाणं ण य धम्मोवगरण ण य पडिवत्तिविसेसा णय पच्चक्खण ण य परिसुद्धा एसा णयमुत्ता एव ण य वीयरायचेट्ठा ण य सव्वविसयसिद्धं. ण य सव्वगयं १३२९ ण य सव्वण्णु वि इमं सामणपती ण य सामण्णेण वि णय सो सुहबज्झ णय सो तीरइ णय होंति संसयादी ण हि खरविसाण हिजं विसिट्ठ ण हि सो तुच्छ. जागा उवघायं णाणस्सवि एवं चिय णाणसहावो जीवो णाणं विसओ अण्णो णाणम्मि दंसणम्मि णाणस्स पिंडभावो जाते वि संसयादी गावरणभेदोऽवि हु णासि इह णासड़ णिच्छियमव्विवरीयं णियमा कस्सइ नियमे वि वासि न नियमेण य असुहो गाथाङ्क पृष्ठ १२३७ 288 १२३० 286 ८२८ 131 ८३६ 134 ७१७ 81 ७१८ 81 ८७९ 153 ८८९ 157 १००९ 200 ११२० तं उवसमसंवेग 241 १२२० 282 तं केवलं अमुत्तं ८९३ 160 तं जाविह संपत्ती ११०५ 237 तं दाणलाभ गंणाभावाद यत्तमप्पओज णेयप्पमेयभावो या त विसेसच्चिय तु णो वावाराभावम्मि गोवावारे सद्दो णो हे अभावो त १३०४ 313 89 304 १३२७ 324 ७३६ १२७९ ९९३ 194 १२२५ 284 १२२९ 286 १३०३ 313 ११२४ 243 ८४२ 139 ११५६ 254 १२८७ 306 ७१६ 80 ११४३ 250 १२९५ 310 325 १३८६ 345 १३११ 316 १२१८ 281 ८७१ 150 १३०१ 312 . १२६३. 298 ५५७ 6 १२४५ 291 ५५९ 6 40 ६२८ १२१३ 280 १२१६ 280 १२५८ 296 १३५७ 336 १३२८ 324 299 १२६६ ८४३ 139 ९३० 172 १२४२ 290 १२५७ 296 ९६९ 184 १०१२ 201 १०६२ 222 १२२३ 283 ११९० 270 १३७१ 340 १२५३ 294 १२५६ 295 ७६८ गाथाङ्क पृष्ठ ८०६ ७३२ ७५५ ६२३ ៖ ៖ ៖ ៈ៖៖ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 तं पुण विसयागारं तणगहणअग्गि तत्तो य तस्सऽभेदे तत्तो सुहझाणातो तत्थविय मही. तत्थवि य अत्थि तदभावम्मि य कह तदभावम्मि य कह तदभावम्मि य तदभावे ण य बंधो तदभिन्नागारत्ते तप्पडिबद्धं लिंग तब्भावम्मि वि जोगो तब्भावम्मि य नियमा तम्मत्तपदाणेणं तम्मि य वेदिज्जते तम्मि य सती अवत्ता तम्मि य सति सव्वेसिं तम्हा अवग्गहातो तम्हा असपक्खोऽयं तम्हा अभावविसया तम्हा कहंचि णिच्चो तम्हा चइउण घरं तम्हाऽतीतेणाणादिणा तम्हा न पत्तगहणं . तम्हा निग्गंथेणं तम्हा निमित्त तम्हा परिथूरातो तम्हा भोत्ता जीवो तम्हा मुत्तसंस्वा तम्हा मुत्तं कम तम्हा रागादिविवज्जिएण तम्हा सव्व परिच्छेद तव्विह खओवसमतो तव्विरहम्मि अभावो तस्स वि य तहाभावे तस्स वि य आदिभावे तस्स वि य अहेतुत्ते तस्सवि सद तस्स य खओवसमओ तस्सावगमाभावे तस्सेव य संपूयण तस्सालाभे इतरस्स तस्सेव धम्मस्वे तस्सेवऽणेगस्व. तह कम्मठितिक्खपणा तह दाहगोऽपि अग्गी तह य असव्वणुत्तं तह वनगंध ता अस्थि सस्वेणं १३२५ 322 ता आलयातो १०२७ 207 ता इय सुहबज्झ. ९१४ 167 ता इय पत्तगाहणं ९५७ 182 ता एत्थ सो निमित्तं १०९१ 232 ता एत्थ वेज्जणायं १२८६ 306 ता किं ण तं चएई ६७७ 62 ता किं वत्थरगहणं ७३८ १० ता चरमए च्चिय १०९३ 233 ता जुत्तमेव तस्सिह ११८० 263 ता जो इमस्स ६४३ 47 ता गंतसस्वा १२०२ 275 ता नियमदोसभावे ६३० 41 ता पच्चक्खेणं ७७८ 104 ता विसयगहण १०५७ 219 तित्वगरलिंगमणघं ६४६ 48 तिविहं तिविहेण जओ -७७१ 102 तीए तीए सतीए ८३० 132 तीय तीयत्तेणं ८३५ 134 तीय वि य थेवमेत्ते ११८६ 267 तीरइ य अत्तवीरिय १२२७ 285 तीरइ य अनहा १२५२ 294 तुच्छत्तं एगता १०२४ 206 तुल्लत्तं सामनं १३९४ 348 तुल्लत्थयाए किं वा १०८९ 231 तुल्ले उभयावरण. १०३२ 210 ते घेव कज्जगम्मा ५८० 17 तेणेव जतो ८३८ 135 तेणं विणावि दोसो ६०५ 27 तेणं विणा वि दोसा ६६२ 54 ते पुण ण अत्तवीरिय ७४३ 92 ते य जह णाणगम्मा ९६३ 185 ते वि अपरिमाण .१३३१ 326 तेसिंपि जओ दुक्खं ८०४ 118 तेसिं फलेण सिद्धे ११४० 249 तेसि परिच्चागातो ५५५ 5 ते सिमिह किं पमाणं ५७४ 14 तेसिमभावो तु मुसा ५७९ 16 ७१४ 78 दंडिगगह ८१८ 124 दड्डम्मि जहा बीए ६७४ 61 ददूण कंचि ६३४ 43 दद्दूण पाणिनिवहं १०४४ 214 दाणवतीणमणुमतो ९१६ 168 दिटुंतबला एवं ११९२ 271 दिवो सुओ व अत्थो ७९२ 112 दितस्स लभंतस्स ८६४ 148 दिव्यादि मेहणस्स य १३४० 330 दिसिभेयाउच्चिय ६१८ 35 दुक्खकरो चिय एवं ९१३ 166 दुक्खंपि न सोक्खस्सेव ६९६ 70 दुविहं च मोहणिज्ज ८७६ 152 दुविहं चरित्तमोहं १०९९ 235 देंतस्स हिरन्नादी ९५० 180 देवत्तं से भावंतरंति ११३१ 245 देसक्खयोऽत्थ १०५६ 219 देसेणं संबंधो १०७६ 227 देसण्णाणोवरमे ८४९ 141 देहतिणतुल्लवत्था १११७ 241 देहेणं सजोगाभावे ७०० 71 दोसाणमन्भवगमे ९२५ 171 १०८७ 231 धम्मा य धम्मिणो १२२८ 285 धम्मा य धम्मिणो ७३३ 88 धम्मा हवंति दुविहा १११३ 240 धुवभावो सिद्धाणं १००० 197 न १३१८ 318 नखणेड़ तओ १३२२ 320 नग्गत्तणमह सुत्ते ७५२ 94 नस्थिचिय खरसिंग ९३९ 175 नत्थित्तस्थि तेणं १२५१ 294 नत्थित्ते चिय एवं ७२९ 86 नत्थिय सकिरियाणं ६४७ 49 न भावी मे दोसो १२४९ 293 न य एतेसुवयारो १३४८ 333 न य णाणाण ६४० 46 नयणेतरोहि ६४९ 49 न य तं तओ १०८५ 230 न य तं सयं १०९५ 233 न य न घडइ ९४१ 176 नय भगवतावि १२३४ 287 न य भावमंतरेणं १३९३ 347 न य सुहमसुह. ९४५ 178 न य सोवलद्धि ८८५ 156 न य सोऊण पयत्थं १०६९ 225 नरविबुहेसर १२४७ 292 नवि किंचिप्पडिसिद्धं १३१६ 317 न हरंति तहाभूतं गाथाङ्क पृष्ठ नाणंतरं न इंदिय. ५९९ 24 नाणं पगासगं सोहओ १३८१ 343 नाणस्स णाणिणं ५४७ 1 नाणादि परिणति ८११ 120 नाणादिगाऽहवेसा ९९८ 196 नाणी तवम्मि निरओ ८६६ 148 नाम दुचतभेदं १२९९ 311 नामस्स य गोत्तस्स १३४४ 332 नारय तिरियनरा ८६० 146 नासि₹ इह नासइ ७१३ 77 निग्गंधया य भणिया ९०७ 165 निग्गंधो य जिणो ९०९ 165 निच्चे य तम्मि ६१२ 30 ६१३ 31 ७३७ 89 ८६८ 149 ११६६ 257 ७११ 75 १३५३ 335 ११२६ 244 ६३१ 42 ८९७ 161 गाथाङ्क पृष्ठ ११३९ 249 ११८७ 268 ११९७ 273 १३९२ 347 गाथाङ्क पृष्ठ १०९० 232 १०६१ 221 ९१७ ९१८ 169 ९१२ 166 १०७५ 226 ११८५ 266 ९८९ 193 ६९२ 68 ६११ 30 ५८५ 19 १३१० 316 ७०९ 75 ११२७ 244 ९७८ 189 ९०८ 165 ६९० 67 ८७७ 152 ८०९ 120 १०६४ 223 १०५० 217 ६६७ 58 ११७५ 260 ८२० 125 ६०६ 27 ११७४ 260 ११६७ 258 ६१७ 33 ७४६ 92 ८१० 120 ९४६ 179 ११०८ 238 १११० 239 ११६१ 256 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्दा निद्दानिद्दा नियमा पाणिवहातो निरवज्जेण विहिणा निस्संगतावि हिंसा. नीलक्खण जणगातो नीलत्ते सामने पंचविहावरणखयो पगतं वोच्छामि पगरिसगुणो य पच्चक्खमाइएहिं पच्चक्खणिवित्तीए पच्चासत्ती य डिमादिसु दिदुमिदं पडिसेवणेवि तस्सा पडिसिद्धो य तओ जं पडिसेहगं च माणं पडिवक्खभावणाओ पडिसेहगे पमाणे पडिसेहगंपि माणं पढमं नाणावरणं पढमं पंचविगप्पं पत्तम्मि वि एते पत्तुस्सठितीणं पत्तेयं साहारण. पत्तेयमवयवेसुं पयईए व कम्माणं पयईए सावज परमाणवो ण परवंचणादि जोगा परवंचणादि जोगो परिगप्पिता तु परिजुण्णमप्यमुल्लं परिणामविसेसेणं परिणामविसेसातो परिणामविसेसोवि परिणामविसेसातो परिणीता तत्थेक्का परिमियसामत्थो पल्ले महइमहल्ले पल्ले महइमहल्ले पल्ले महइमहल्ले पवणदरवियलिएहिं पाएण पुव्वसेवा पाणाइवात विरमण पाणिवहोवि य नियमा पाणुज्झणे हि हिंसा पामन्नपि सतो पामागहितस्स जहा पावइ बंधाभावो ६१० 29 पावति तस्साभावो ९६६ 185 पासंतो वि ण जाणइ ९९४ 194 पासवणाईण तहा ११०० 236 पासवणादीण जहा ७०५ 73 पुढवीखणणे काया ७०३ 72 पुत्तस्स नो भविस्सइ गाथाङ्क पृष्ठ पुरिसं तस्सुवयारं ८१५ 122 पुरिसत्तंपि असिद्धं . ७८८ 110 पुट्विं जमुवत्तं ७७६ 104: पेरइ तओ किं ११५३ 253 पेरेति हिए एवं १२९४ 310 ७१२ 76 फासुगमवि असणादि ६३५ 44 ९७१ 187 बंधड़ जहेव कम्मं - ९८२ 191 बज्झत्थाभावातो ११६२ 256 ___ बज्झत्थाभावातो भत्ती ११६४ 257 बज्झत्थे विन्नाणं १२७१ 300 बज्झत्थो परमाणू १३०७ 314 बज्झसहकारि ६०७ 27 बहुविग्यो जियलोओ घो ६०९ 29 बिंब पडिच्छाया १०२० 205 बुडइ जलि मुक्को ७७९ 105 बुद्धादिचित्तमेत्तं ६२० 36 बुद्धो पारमियाफल बोहपरिणामलक्षण ८०८ 119 ९९२ 194 भणितं पण्णसीए ६३८ 45 भणियं च सग्ग. ६०१ 25 भण्णइ अस्थित्तं ६०२ 25 भण्णइ विहिसिट्ठा ६९९ 71 भण्णति जहोहिणाणी १०४१ 213 भण्णति ण एस ५७७ 15 भण्णति भिन्नमुहत्तो. ७६६ 100 भरहस्स तत्थ ८७० 150 भारवहणंपि ८६९ 150 ___भावस्स य हेतुत्ते १३८९ 346 भावाण तहाभावेण १२१९ 281 ___ भावियजिणवयणाणं ७५६ 96 ___ भावेइ य दोसाणं ___ भावे वि न तुच्छंमि ७५८ 96 भावोवलंभओ ८२२ 126 भासा असच्चमोसा ७९१ 111 भिक्खाडणेऽवि ८५७ 145 भित्रिंदियावसेओ ९७९ 190 भिन्नम्मि तम्मि १०८२ 229 भेदाभेदो य १२५९ 296 भेदे कहमेगं ९६८ 186 भोत्ता सकडफलस्स ७६० 97 १३१९ 318 मंसनिवत्तिं काउं १३४६ 332 मंसासुइरसणाणे वि ९६२ 184 मणपज्जवनाणं ९८४ 191 मणपुश्विगा विवक्खा १०८४ 230 मतिपूव्वं जेण सुयं ११८४ 265 मन्नति तमेव सच्चं ९९५ 195 माणं किमेत्थ १२७८ 303 माणे इमीएऽभावो ६०० 25 मिडपिंडो चेव ५९० 20 मिच्छत्तमाइयाणं ५९५ 22 मिच्छत्तमादिस्वं गाथाङ्क पृष्ठ मिच्छत्तं जमुदिनं १०६५. 223 मिच्छत्ते अन्नाणे गाथाङ्क पृष्ठ मुच्छाभयाविहारा ११७७ 262 - मुणइ य घडम्मि ६३६ 45 मुत्तेणामुत्तिमतो ७४२ 91 मुत्तेणामुत्तिमओ ६६५ 58 मुत्तेणं वभिचारो । ६३७ 45 मूलाओ साहाओ ' ५८६ 19 मोक्खोऽसंखेज्जातो ९२३ 170 मोत्तूण इंदिए जं १३२६ 323 मोत्तण वत्थमेत्तं ८६३ 147 मोहग्गिसंपलित्तं ६७२ 60 मोहग्गिसंपलितं ९८८ 192 १२०६ 277 रज्जुम्मि सप्पनाणं गाथाङ्क पृष्ठ रज्जुम्मि सप्पनाणं १३५१ 334 रयणतिगं इह १२४१ 290 रयणादिविसेसकतो ९१५ 167 रयहरणम्मि पमज्जण ९३६ 174 रयहरणम्मि वि १३५५ 335 रयहरणादिसमेतं १३४९ 333 रहिया य सेसजीवा १३४१ 330 रागादिजोग्गता १००८ 200 रागादिणमभावा १०४८ 216 रागादिदूसियमणो ५६३ 8 रागादिमं न याणति ९२४ 171 रागादिवेदणिजस्स ११०६ 237 रागादिविरहतो ११६८ 258 रागो दोसो मोहो ७३० 87 राढा मुच्छा य भयं ७२८ 86 राती भोयणविरती ८९१ 158 स्टा इतरी ऊढा १०८० 228 स्वपि संकिलेसो रु ११४७ 251 रूवादि संगतो ७५४ 95 ६८२ 64 लज्जड जमित्थि ६८० 63 लद्धादिनिमित्तं जं ५८१ 18 लोगम्मि य परिवादं गाथाङ्क पृष्ठ लोगम्मि य परिवाद ९९१ 193 १२३६ 288 ८२६ 130 १२८८ 307 ८५३ 144 ८१२ 121 ७४० १० ६८९ 67 ५५८ 6 ५७० 12 ५७१ 12 ७९७ 114 १०७४ 226 १०४७ 215 १३२२ 320 ६२४ 39 ६२५ 39 ५५४ 4 ११२२ 242 ७६१ 97 १२०९ 278 १०३७ 211 ९५८ 183 ९७० 186 गाथाङ्क पृष्ठ ६६४ 57 ७२० 83 ९८७ 192 १२५० 293 १०२१ 205 ११०२ 236 ११०७ 238 १११४ 240 १२९० 307 १३७७ 342 १०५९ 220 १२५४ 295 ११९८ 273 १३८० 343 १३७८ 343 १०१८ 204 ११३५ 247 १३९० 346 ११७० 259 ७१५ 79 गाथाङ्क पृष्ठ .१०५५ 218 - ११४२ 250 ९३३ 173 ९५४ 182 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगम्मि उ णिगिणतं लोगेवि एस भोत्ता वज्झाणवि उवगारो वत्थमिह जायणाओ वत्थादिगंपि धम्मो. वनियकम्मस्स वयणं पि ण रागादी वाणिज्जुचियकलाए विधुरतं च विसेसाण विनाणमेत्तपक्खे विवरीतण्ण वि णेसो विसओ य भंगुरो विसहा मि अहं. वीवाहे तह गब्भाहाणे वुड्डपरंपरतो च्चिय वेज्जगजोतिससत्थं . वेदणीयस्स उ वेययतो पतिसमयं वोसिरिएिसु न१०५१ संजमजोगनिमित्तं संजमपालणहेतु संदिद्धा य विवक्खा संपत्ती य इमस्सा संमत्तंपि य तिविह संमुच्छणा ण जायति संयोगोऽवि य संसारविरत्तमणो सइचरणविग्धमउलं सड़ सव्वत्थाभावे सज्झायझाणकरणे सततं ण देति सति असति वावि सति तम्मि सव्व सत्ताओ अन्नत्ते सत्थत्थंमि य एवं सत्थत्थम्मिवि एवं सत्थे पडिसिद्ध चिय सपरोभयपावातो समएतरधम्माणं समणाण माहणाणं समणादीणं नो समताधम्मविसिट्ठ ११२९ 245 समवायलक्खणेणं ५९७ 23 समुदितमुभयं सव्वं गाथाङ्क पृष्ठ सम्मत्तनाणचरणा ८८० 154 सम्मत्तनाणचरणा .१०२५ 207 सम्मेतरचेट्ठाणं १०१६ 203 सयमिह मिच्छदिट्ठी ७५१ 94 सयलातीतावत्था १२८३ 305 सव्वं कयगं ९४२ 177 सव्वं च जाणइ कहं १२२४ 283 सव्वं च जाणड तओ ७२४ 84 सव्वं तिकालजुत्तं १२७४ 301 सव्वं सामण्णविसेस ११७१ 259 सव्वण्णुणो अहऽण्णो ९०१ 163 सव्वण्णुविहाणम्मि ८८३ 155 सव्वद्धा विग्धकरं १३०९ 315 सव्वन्नुभूमिगं १३०८ 315 सव्वविसयं ति माणं ७४७ 93 सव्वविसयं च एतं ७७० 102 सव्वागमपसिद्धं 217 सव्वेसिं एगत्ते गाथाह पृष्ठ सव्वेसिं फल १०६० 220 सहकारिहेतुविरहा १०९४ 233 सा किं सहावतो १२९२ 309 सागारअणागारं ७५० 93 सागारमणाभारं ७९६ 113 साणादिरक्खणट्ठा १०३१ 209 सातासाताणुभवो ६५१ 50 सामन्नमिह कहंची १०५८ 220 सावेक्खया य दाणाद. ९७२ 187 साहुणिवासो तित्थ. ८७२ 151 साहुणिवासा सद्धम्म, ८७५ 152 सिज्झंति व तुस. .१३४३ 331 सिय अवयवी ११८२ 264 सिय अघडमाण ११४९ 252 सिय अच्चित्तो उ ११९४ 271 सिय अह जो जो ८६५ 148 सिय इतरस्व स. ८८६ 156 सिय चरमए च्चिय ९०३ 163 सिय चरम चेव ९६५ 185 सिय जो ममत्तरहिओ १३६७ 339 सिय णाणुमओ एसो ९२८ 172 सिय तं उभया. ९४४ 178 सिय तकालम्मि १३६५ 338 सिय तग्गुणरहितोवि ६६१ 53 सिय तत्तुल्लागाररं १३६१ 337 सिय तब्बुद्धिनिमित्ता ७४९ १३ सिय तस्सुवासग ९१९ 169 सिय तस्सेवाभावा १२०१ 274 सिय तस्सेस ८०३ 117 सिय तहवि परिट्ठवणा १३१७ 318 सिय थोवं संमुच्छण ५७३ 13 सिय पत्तम्मिवि ११४६ 251 सिय पावई अणिद्रं १२०४ 276 सिय भंतिमेत्तमेयं १३१५ 317 सिय विहियाणदाणं १२१४ 280 सिय सव्वक्खोव १२७३ 301 सिय सुहपगरिसस्वो १३७२ 341 सुत्तस्स अथवत्ता ९५९ 183 सुविणादिसु तीए १३०६ 314 सुहझाणस्स उ नासे ११५१ 252 सुहदुक्खाणुहवातो १२३३ 287 सुहपरिणामत्तणओ ९६७ 185 सहमादी जीवाणं ११९१ 270 सेसकला रहिओ च्चिय ५७८ 16 सेसाण तु हरियव्वं ८४७ 141 सेसा अणब्भुवगमा ७६४ ११ सो इंदियदारेणं ६८७ 66 सोऊण आगमत्थं ६६६ 58 सो खलु तस्सागारो ११०४ 237 सो चिय निग्गच्छंतो ५८२ 18 सो तत्थ परिस्समति १३६२ 337 सो दव्वसंजमेणं १०१९ 204 सो पुण तस्स ८७३ 151 सो भावो त्ति ८७४ 151 सो भावो त्ति ११३३ 246 सो सव्वहेव तप्फल. ६५९ 53 सो सो चेव ण ७०८ 74 १०९२ 232 हंत अमुत्तत्तम्मि १२८० 304 हत्थप्पत्तम्मि फले ५६१ 7 हरिऊण य परदव्वं ८३४ 134 हरिएवि पुव्वगं १०६७ 224 हाणी य अणुत्तस्सा ९९० 193 हेउअभावो य तओ ९९६ 195 हेयोवादाणाओ ६७९ 63 होति य पतिभाणाणं १३०५ 313 ११२१ 242 ६४४ 47 ७२५ 85 १०१३ 202 १२९३ 309 ५९२ 21 १०९७ 234 १०३३ 210 १०८३ 230 १०६३ 222 ७२१ 83 १०१० 201 ७२७. 86 १२४४ 291 १२७० 300 १२८५ 305 १०२९ 208 ५४८ 2 ८२१ 126 ८५८ 146 ९२७ 172 ९२१ 172 १०९६ 234 १२०८ 278 १३७५ 342 ६४२ 47 १०७३ 226 ७८९ 111 ७७७ 104 ७८२ 106 ५६४१ ७०२ 72 १११९ 241 १३०२ 312 गाथाङ्क पृष्ठ ६६० 53 ११३२ 246 ९५३ 181 ९३२ 173 ६५३ 51 ७६७ 100 ८९२ 159 १२१० 279 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् । ग्रन्थकार-परिचयः । संकीर्णे नयभङ्गमौक्तिकचयैः स्याद्वादसूक्तामृते, सिद्धान्ताम्बुनिधौ नितान्तगहने धीरप्रवेशोत्सवे । सत्त्वानां सुगमावगाहनकृते यः शास्त्रसेतुं नवं, चक्रे श्रीहरिभद्रसूरिरनिशं पायादपायात् स नः ॥१॥ अथाऽत्र प्रस्तोतव्ये सर्वप्रथमतया विचारस्थानमिदमुपतिष्ठते-कियन्तो ननु हरिभद्रनामानः सूरयः समभवन्? कतमश्च तेषु प्रस्तुतप्रकरणस्य विरचयिता? तमिमं पर्यनुयोगं समाधातुमिह वक्तव्यं भवति-श्रूयन्ते किलैतन्नामानो बहवोऽपि सूरयः, तथाहि (१) याकिनीमहत्तराधर्मपुत्रत्वेन प्रख्यातः आचार्यजिनदत्तशिष्यो जिनभटाज्ञावर्ती च विरहाङ्कभूषितललितविस्तरादिग्रन्थसंदर्भप्रणेता सर्वेषु प्राचीनतमः । अयमेव प्रस्तुतग्रन्थप्रणायकः । अस्य च सत्तासमयादिकमग्रे सविस्तरमभिधास्यते ।। (२) खरतरजिनरङ्गीयपट्टावल्यादिषु बृहद्गच्छीयजिनभद्रसूरिशिष्यत्वेन निर्दिष्टः, जिनेश्वरसूरेः षष्ठः पट्टगुरू, सिद्धर्मनाक्प्राक्तनो यः सदृशनामलब्धभ्रमेण प्रबन्धकोशकृता पाडीवालगच्छीयपट्टावलीकारेण च ललितविस्तराकर्तृत्वेनोपन्यस्तः । (३) बृहद्गच्छीयश्रीजिनेश्वरसूरीणां शिष्यो नवागवृत्तिकारश्रीमदभयदेवसूरिबन्धुश्च । उक्तमिदं वाचनाचार्यचारित्रसिंहगण्युद्धतायां गणधरसार्धशतकवृत्तौ "पश्चाग्जिनेश्वरसूरिभिर्विहारक्रमं कुर्वद्भिर्जिनचन्द्रा-उभयदेव-धनेश्वर-हरिभद्र-प्रसन्नचन्द्र-धर्मदेव-सहदेव-सुमतिप्रभृतयो बहवः शिष्याश्चक्रिरे । ततो वर्धमानसूरयः श्रीसिद्धान्तविधिना समाधिना देवलोकश्रियं प्राप्ताः । पश्चात् श्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्रीजिनचन्द्राऽभयदेवौ गुणपात्रमेताविति ज्ञात्वा सूरिपदे निवेशितौ । अन्यौ च द्वौ सूरी-धनेश्वरो जिनभद्रनामा, द्वितीयश्च हरिभद्राचार्यः" अयं च सूरिः श्रीमदभयदेवसूरिपार्श्वे पठितत्वेन तच्छिष्यतयापि व्यवाहारि । तथा च चित्रकूटीयप्रशस्तौ श्रीजिनवल्लभसूरिः "सत्तर्कन्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड् देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः संचरिष्णूरकीर्ति-स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥" श्रीनेमिचन्द्रीयमहावीरचरितलिखितपुस्तकान्तभागस्थायामेकस्यां प्रशस्तौ तु नवाङ्गवृत्तिकृदभयदेवसूरिपट्टधरत्वेन वर्णितः सूरिरयम् । तथाहि आसीच्चन्द्रकुले शशाङ्कविमले सूरिर्गुणानां निधिस्त्रैलोक्येऽभयदेवसूरिसुगुरुस्सिद्धान्तविश्रामभूः । स्थानाङ्गादिनवाङ्गवृत्तिकरणप्राप्तप्रसिद्धिर्भृशं येन स्तम्भनके जिनस्य विशदा सम्यकप्रतिष्ठा कृता ॥ तत्पट्टे हरिभद्रसूरिस्दभून्निश्शेषशास्त्रार्थवित्तच्छिष्योऽजितसिंहसूरिस्दभूनिःसङ्गिनामग्रणीः । तच्छिष्योऽजनि हेमसूरिसुगुरुगीतार्थचूडामणिस्तत्पादाम्बुजषट्पदो विजयते श्रीमन्महेन्द्रः प्रभु ॥ . (४) बृहद्गच्छीयश्रीमानदेवसूरिसन्तानीयः श्रीजिनदेवोपाध्यायशिष्यः, योऽणहिलपुरे यशोनागनायकदत्तोपाश्रयस्थितः सिद्धराजराज्ये ११८५ मितविक्रमवर्षे वाचकमुख्यस्योमास्वातेः प्रशमरतिनाम्नो ग्रन्थस्य विवरणमरीरचत्, यतस्तत्प्रशस्तौ ग्रन्थकार एव - यत्यालये मन्दगुस्पशोभे सन्मङ्गले सत्कविराजहंसे । तारापथे वा सुकविप्रचारे श्रीमानदेवाभिधसूरिगच्छे ॥१॥ भव्या बभूवुः शुभशस्यशिष्या अध्यापकाः श्रीजिनदेवसंज्ञाः । तेषां विनेयैर्बहुभक्तियुक्तैः प्रज्ञाविहीनैरपि शास्त्ररागात् ॥२॥ श्रीहरिभद्राचार्य रचितं प्रशमरतिविवरणं किञ्चित् । परिभाव्य वृद्धटीकाः सुखबोधार्थं समासेन ॥३॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये । बाण-वसु-स्द्रसंख्ये विक्रमतो वत्सरे व्रजति ॥४॥ श्रीधवलभाण्डशालिकपुत्रयशोनागनायकवितीणे । सदुपाश्रये स्थितैस्तैः समर्थितं शोधितं चेति ॥५॥" इतिपद्यैर्व्यतिकरमिमं निवेदितवान् । (५) नागेन्द्रगच्छीयः कलिकालगौतमबिस्दधारी श्रीमदानन्दसूर्यमरचन्द्रसूर्योः पट्टधरः प्रसिद्धमन्त्रिवस्तुपालकुलगुरुश्रीविजयसेनसूरीणां गुरुश्च सिद्धराजराज्यकालात् किञ्चिदर्वाचीनः । तदिदं वृत्तमुदयप्रभसूरे धर्माभ्युदयमहाकाव्यप्रशस्तिसम्बन्धिनाऽनेन काव्यचतुष्टयेनाऽवगम्यते - आनन्दसूरिरिति तस्य बभूव शिष्यः पूर्वोऽपरः शमधरोऽमरचन्द्रसूरिः । धर्मद्विपस्य दशनाविव पापवृक्षक्षोदक्षमौ जगति यौ विशदौ विभातः ॥३॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्ताघवाङ्मयपयोनिधिमन्दराद्रिमुद्राजुषोः किमनयोः स्तुमहे महिनः । बाल्येऽपि निर्दलितवादिगजौ जगाद यौ व्याघ्रसिंहशिशुकाविति सिद्धराजः ॥४॥ सिद्धान्तोपनिषन्निषण्णहदयो धीजन्मभूमिस्तयोः पट्टे श्रीहरिभद्रसूरिरभवच्चारित्रिणामग्रणीः । भ्रान्त्वा शून्यमनाश्रयैरतिचिराद् यस्मिन्नवस्थानतः संतुष्टैः कलिकालगौतम इति ख्यातिर्वितेने गुणैः ॥५॥ श्रीविजयसेनसूरिस्तत्पट्टे जयति जलधरध्वानः । यस्य गिरो धारा इव भवदवभवदवथुविभवभिद ॥६॥" पण्डितहरगोविन्ददासमहाशयस्तु विवेकमञ्जर्यादिटीकाकारं कविनामा विख्यातं बालचन्द्रसूरिमप्यस्यैव सूरेः शिष्यत्वेनोल्लिखितवान्, अयं च तस्योल्लेखः→ “आसडकविकृतविवेकमञ्जरीवृत्तिकर्ता बालचन्द्रसूरिरप्यस्यैव हरिभद्रसूरेः शिष्यत्वेन निजं स्वग्रन्थप्रशस्तौ प्रत्यभिजानीते" इत्युक्त्वा स्वमन्तव्यं संसाधयितुम् - "एतामासडिजैत्रसिंहसचिवेनाऽत्यन्तमभ्यर्थितो वृत्तिं श्रीहरिभद्रसूरिसगुरोः शिष्यप्रशिष्यावधिः । वाग्देवीप्रतिपन्नसूनुरकृत श्रीबालचन्द्राख्यया विख्यातोऽधिपतिर्गणस्य गणिनीरत्रश्रियो धर्मजः ॥१३॥ नागेन्द्रगच्छार्णवपार्वणेन्दुरेतां बृहद्गच्छनभोरविश्च । श्रीमान् विपूर्वो जयसेनसूरिः श्रीपद्मसूरिः समशोधयेताम् ॥१४॥ - इति विवेकमञ्जरीवृत्तेः प्रशस्तिपद्यद्वयमुपन्यस्तवान् । एतच्च न युक्तम्, बालचन्द्रसूरेः प्रकृतहरिभद्रसूरिशिष्यत्वे मानाभावात् । प्रमाणत्वेनोद्धतपद्यद्वितयेऽपि न हरिभद्रसूरेनागेन्द्रगच्छीयत्वं कलिकालगौतमबिस्दं वोपलभ्यते इति न तदपि साधकम् । किञ्च, बालचन्द्रसूरिहि हरिभद्रसूरेः पट्टधरः शिष्य इति तदीयग्रन्थेषु प्रकटतरम् । यथा वसन्तविलासमहाकाव्ये - समाहितः श्रीहरिभद्रसूरिगुरोगिरोपात्तविवेकसंपत्कथञ्चिदेवानुमतः पितृभ्यामभ्यासदज्जैनमतव्रतं सः ॥५३॥ पूर्णः समग्राभिरसौ कलाभिः क्रमेण भावीति गुरुर्विभाव्य । तं प्रीतचेताः किल बालचन्द्र इत्याख्यया दीक्षितमभ्यधत्त ॥५४॥ अधीतविद्यं तमथ क्रमेण समारुरक्षुर्दिवमायुषोऽन्ते । न्यवीविशद्विश्वनमस्यपादः स्वस्मिन्पदे श्रीहरिभद्रसूरिः ॥"५५॥ . प्रकृतहरिभद्रसूरिपट्टधरस्तु विजयसेनसूरिरिति धर्माभ्युदयप्रशस्तिश्लोकैर्निर्धारितमेव । अयं च हरिभद्रसूरिनर्नागेन्द्रगच्छीयश्रीमदमरचन्द्रसूरेः पट्टशिष्य इत्यपि निर्दिष्ट पूर्वम् । बालचन्द्रसूरिगुस्हरिभद्रसूरिस्तु चन्द्रगच्छीयश्रीमदभयदेवसूरेः पट्टधरः शिष्य इत्यादिकमुपदेशकन्दलीवृत्त्यादिषु बालचन्द्रादिभिरेव प्रतिपादितमनेकधा । (६) चन्द्रगच्छीयश्रीभद्रेश्वरसूरिशिष्यो यः १२८९ तमे विक्रमसंवत्सरे निर्मिते उपमितिभवप्रपञ्चासारोद्धारे तत्का श्रीमता देवेन्द्रसूरिणा स्वपूर्वगुरुत्वेन वर्णितः । तथाच तत्प्रशस्तिलेख : समाश्रितो यः शरणं क्षमाभृगणेन कर्माक्षनिपातभीत्या । अवारपारश्रियमादधानः स चन्द्रगच्छो भुवि सुप्रसिद्धः ॥१॥ - भव्यारविन्दप्रतिबोधहेतुरखण्डवृत्तः प्रतिषिद्धदोषः । श्रयन्नपूर्वेन्दुतुलामिह श्रीभद्रेश्वरो नाम बभूव सूरिः ॥२॥ तत्पट्टपूर्वाचलचण्डरोचिरजायत श्रीहरिभद्रसूरिः । मुदं न कस्मै रहितं विकृत्या तपश्च चित्रं च तनोति यस्य ॥३॥" अयमेव सूरिधुर्यः १२१५ वर्षे प्रणीतायां जम्बूद्वीपसमासटीकायां श्रीचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीविजयसिंहसूरिभिरपीत्थमस्मारि - "श्रीभद्रेश्वरसूरिशिष्यहरिभद्राचार्यतः सद्गुरोः प्राप्तश्रीजिनचन्द्रसूरिचरणान्तेवासितामाश्रितः । सूरिः श्रीविजयस्त्विमा व्यरचयत्कल्याणमालाजुषां, शैक्षश्चाभयचन्द्रको लिखितवानुद्दामदाक्ष्यः पुरा ॥" (७) चन्द्रगच्छीयः श्रीभद्रेश्वरसूरिपट्टप्राप्तप्रतिष्ठानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्यो बालचन्द्रकविगुरुश्च, इत्यादि उपदेशकन्दलीवृत्तिप्रशस्तितोऽवबुध्यते । तथाहि - "श्रीचन्द्रगच्छवनकैरवकेलिचन्द्रश्चन्द्रप्रभप्रभुरभिज्ञतमस्ततोऽभूत् । यो विश्वलोकविदितां मुदिताऽन्तरात्मा प्राभातिकी जिनपतिस्तुतिमाततान ॥५॥ तस्माद्धनेश्वर इति श्रुतपारदृश्वा विश्वाभिरामचरितोऽभ्युदियाय सूरिः । यो मन्त्रमाप गुस्तः सुरभूयभाजः प्राबोधयच्च समयूपुरदेवतां यः ॥६॥ तस्याऽभितः समभवन्भुवनप्रशस्याः शिष्याः श्रुताक्षकमलोद्धरणप्रवीणाः । चत्वार ऊर्जितरुचो विदुषां निषेव्या देव्याः करा इव पुराणकविप्रसूतेः ॥७॥ श्रीवीरभद्र इति सूरिरमीषु मुख्यः श्रीदेवसूरिरिति भूरिगुणो द्वितीयः । श्रीदेवभद्र इति सूरिवरस्तृतीयः श्रीशान्तिसूरिरिति च प्रथितश्चतुर्थः ॥८॥ श्रीमण्डलीति नगरी नगरीतिक्लुप्तप्रासादसंहतिरितोऽस्त्यमरावतीव । देवेन्द्रसूरिसुगुरुर्विततान तस्यां तद्वासिनां च हदि मूर्धि च वासलक्ष्मीम् ॥९॥ 2 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातिष्ठिपन्निजपदे स विनिद्रभद्रे भद्रेश्वरं प्रभुमनश्वरकीर्तिपूरम् । आख्यामनङ्ग इति संगतवान् यदीयध्यानानले मदनवन्मदनो विलीय ॥१०॥ तत्पट्टमौलिमणितामभजद्भवार्तिभीतात्मनामभयदोऽभयदेवसूरिः । पापातपापगममन्वहमातपत्रीभूयाङ्गिनां शिरसि यस्य करश्चकार ॥११॥ तत्पट्टपर्वतमलङ्कुरते स्म कर्मव्यालावलीहरिनिभो हरिभद्रसूरिः ।। भूम्यां यदीयचरणोपनतैरशोभि मुक्ताफलोज्ज्वलतमैर्जगती यशोभिः ॥१२॥ शिष्यस्तस्य विभोर्नमस्यचरणाम्भोजस्य जज्ञे महान् साहित्योपनिषनभोङ्गणरविः श्रीबालचन्द्रः कविः । यं स्वप्रान्तस्पेत्य तद्दृढतरानुध्यानतुष्टा जगौ मत्पुत्रस्त्वमसीति शीतलगिरा देवी गिरामीश्वरी ॥१३॥" तथा, बालचन्द्रसूरिकृतकरुणावजायुधनाटकेऽप्येतदर्थक एव समुल्लापः श्रूयते, यथा - "नट :-मारिष ! श्रीदेवेन्द्रगुरुस्वहस्तस्वपट्टनिवेशितस्य भुवनभद्रङ्करस्य श्रीभद्रेश्वरसूरिसुगुरोः पट्टनभस्तलाऽलङ्करणकिरणमालिना प्रतिवादिदितितनयदमनशौरिणा श्रीमदभयदेवसूरिणा निजकरतामरसप्रतिष्ठितानप्रतिमप्रतिभाभरसौरभदुर्भगीकृतत्रिदशसूरीन् श्रीहरिभद्रसूरीनभिजानासि ? " (८) श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यस्य श्रीचन्द्रसूरेः शिष्यः, येन कुमारपालराज्ये संवत् १२१६ वर्षेऽपभ्रंशभाषायां नेमिनाथचरित्रं विरचितम् । इदं च तदन्तस्थेन “इति श्रीचन्द्रसूरिक्रमकमलभसलश्रीहरिभद्रसूरिविरचितं नवभवनिबद्धं श्रीनेमिनाथचरित्रं समाप्तम्" इति शब्दसंदर्भेण तदीयप्रशस्तिलेखेन च स्पष्टमवबुध्यते । (९) बृहद्गच्छीयश्रीमानभद्रसूरिशिष्योऽप्येकतमो हरिभद्रसूरिः, यो जयवल्लभविरचितस्य 'वज्जालग्ग' ग्रन्थस्य छायालेखकेन रत्नदेवेन तत्प्रशस्तौ स्मृतः । तथाच तत्पाठ : गच्छे पृथौ श्रीमति मानभद्रसूरिर्बभूव प्रथितः पृथिव्याम् । तदीयपट्टे हरिभद्रसूरिज॑ज्ञेऽखिलक्ष्मातललोकपूज्यः ॥१॥ तच्छिष्यलेशोऽस्ति गुणानुरक्तः श्रीधर्मचन्द्रः सकलः कलाभिः । निपीय यद्वागमृतं सुधाया मनोहरं नो विबुधाः स्मरन्ति ॥२॥ विद्यालये प्राकृतेऽस्मिन्सुभाषितमणावहो । लिलेख लेखकच्छायां रत्नदेवश्च तद्राि । शिखि-ग्रहा-ऽग्नि-चन्द्रैर्हि प्रमिते वत्सरे वरे । ग्रन्थोऽयं संख्यया ख्यातः सहस्रत्रितयं ननु ॥३॥ इत्येवं विविधप्रमाणोपलम्भेन विनिर्णीतेष्वमीषु हरिभद्रसूरिषु सर्वप्रथमो याकिनीमहत्तराधर्मपुत्रतया ख्यात इत्याद्युक्तमेव पूर्वम् । ___ अथेदमपि विचारणमत्र जागृतिमासादयनानौचितीमञ्चेद्यदुत, धर्मसंग्रहणीनामधेयस्य दार्शनिकग्रन्थस्याऽस्य विधातारः सुविहितशिरोमणयो विद्वन्मणयः सर्वप्राचीना इम आचार्यहरिभद्रपादाः कतमस्य भूभागस्यावतंसीबभूवुः ? कस्य वा गुरोः पट्टप्रभावकतामातेनुः ?, कियतो वा सर्वसंख्यया ग्रन्थान् विरचयामासुः कदा चैते त्रिदशाधिपतेरातिथ्यमाभेजुरिति । अत्र च ___ "केन?" इत्याह→ हरिभद्राचार्येण, यः किल श्रीचित्रकूटाचल'चूलानिवासी प्रथमपर्याय एव स्फुटपठिताष्टव्याकरणः सर्वदर्शनानुयायितर्ककर्कशमतिमतामग्रगण्यः प्रतिज्ञातपरपठितग्रन्थानवबोधतच्छिष्यभाव आवश्यकनियुक्तिपरावर्तनाप्रवृत्तयाकिनीमहत्तराऽऽश्रयसमीपलब्ध “चक्किदुगं हरिपणगं" इत्यादिगाथासूत्रो (विहित) निजनिपुणोहापोहयोगोऽपि कथमपि स्वयमनुपलब्धतदर्थस्तदवगमाय महत्तरोपदेशात् श्रीजिनभद्रा (टा) चार्यपादमूलमवसर्पन्नन्तरा जिनबिम्बाऽवलोकनसमुत्पन्नानुत्पन्नपूर्वबहलप्रमोदवशात्समुच्चरित “वपुरेव तवाऽऽचष्टे" इत्यादिश्लोकः सूरिसमीपोपगतावदातप्रव्रज्यो ज्यायसी स्वसमय-परसमयकुशलतामाप्य महत्प्रवचनवात्सल्यमवलम्बमानश्चतुर्दशप्रकरणशतानि चकार" इत्युपदेशपदान्त्यगाथाव्याख्यायां श्रीमुनिचन्द्रसूरिसूचितचरित्रलेशेन प्रभावकचरित्रगणधरसार्धशतकवृत्ति-प्रबन्धकोश-नानाविधपट्टावल्यादीनां विलोकनेन च इमे आचार्यवाः प्रथमावस्थायां चित्रकूटनगराधिनाथस्य जितशत्रुनानो भूमिपालस्य पुरोहिता द्विजकुलतिलकाश्चासन्नित्यत्र न कोपि विप्रतिपादनपरः । इमे खलु कोविदशेखराः सर्वतन्त्रस्वतन्त्रीभूय स्वसममन्यं मनीषिणममन्यमानाः- "येनोक्तं नाऽवबुध्येय तदन्तेवासितामाश्रयेय" इति प्रतिज्ञासूत्रेण निजमात्मानं समयीयमन् । वर्ण्यतां नाम कोविदकुलेनेयं ज्ञानाजीर्णत्वप्रभवो व्याधिरिति । निधीयतां वैषां शिरसि दृढाभिमानाख्यदोषाधिरोपः । तदपि किमिदं ज्ञानाजीर्णत्वम् ? किमुतेयमवलेपकारिता? भणन्तु किल भवन्तः समेपि समकालमेव आमिति, न भवन्मतमेतदनुकूलयितुमुत्सहतेऽस्मदीयं चेतः । कथं नूत्सहेत! हन्त! न सूक्ष्मेक्षिकया समालोच्यते स्थलमिदं भवद्भिः, किञ्चिदग्रतोऽवसर्पणीयम् । पर्यालोचनीयैतेषां जयपराजयस्थितिः, किमेतैर्भगवत्या याकिन्या समं क्वापि संसदि शास्त्रार्थः पर्यचालि ? यदि १. अत्र चित्रकूटाचलचूलानिनासित्वमभिहितम्, प्रभावकचरित्र-गणधरसार्धशतकवृत्यादिषु तु सर्वत्रैषां चित्रकूटाचलासन्नं चित्रकूटनगरमेव निवासभूमिरिति दृश्यते । सुमतिगणिकृतायां गणंधरसार्धशतकवृत्तौ तु-"एवं सो पंडित्तगव्वमुव्वहमाणो हरिभद्दो नाम माहणो" इत्यनेन ताह्मणत्वमात्रं प्रतिपादितं न पुरोहितत्वम् । एवं चित्रकूटाधिपते राज्ञो नामापि तत्र न निर्दिष्टम् । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा तया परावर्त्यमाना "चक्किदुगं हरिपणगं" इतीयं गाथा अर्थतो नावबुद्धा तैरित्यत्राप्यासीत्कोऽपि साक्षीः ? यतः "प्रतिज्ञापतितः खल्वेषः" इति भीतिमाशकमानाः स्वप्रतिज्ञातार्थपालनाय तद्विनेयीभावमुपादातुमात्मानमुपस्थापयेयुस्तत्संनिधानम् ? दुर्घटं चैतदवलेपलिप्तमनसां सुमनसामपि यन्मनःसाक्षिकमपि प्रतिज्ञाभङ्गमचिकीर्षन्तः स्वयमेव ते स्वपराजयमङ्गीकुर्युः । तदेतेन चित्रतागर्भेण व्यतिकरेणेत्थंकारमेव कथं न निर्धार्येत ?, यदुत, नाऽसीत्पूर्वनिगदिता प्रतिज्ञा गर्वनिबन्धना; अपि तु सत्यतत्त्वजिज्ञासाहेतुरिति । भवतु वा कथमपि तथापि सा हरिभद्रसूरीणां तु तत्त्वफलेनैव फलितवतीत्यत्र तु न केनापि विप्रतिपत्तव्यं भवतीति । अथैते सूरिवराः कदाचित् - "चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दुचछि केसी अ चक्की य ॥" इतीमां याकिनीसाध्वया पठ्यमानामावश्यकनियुक्तिगाथामाकापि तदर्थमनधिगच्छन्तः “सत्यप्रतिज्ञा भवन्ति सतां व्यवहाराः" इत्याभियुक्तोक्तिं सुदृढमवलम्बमानाः “स्वीकरोतु भगवती स्वशिष्यभावेन माम्" इति तस्यै गणिन्यै समयाचत, इत्यादि निगदितप्रायमेव, कथाविस्तरस्त्वन्यत्र विलोकनीयः । इह तु समालोचनमात्रमभिलषितम् । सा च एवं निगदतस्तान् जिनभटनामभृतां स्वगुरूणां पावं . प्रास्थापयत्। ते च तानदीक्षयन्निति । इदं च - - "दिवसगणमनर्थकं स पूर्व स्व (स्वक) मभिमानकदर्थ्यमानमूर्तिः । अमनुत स ततश्च मण्डपस्थं जिनभटसूरिमुनीश्वरं ददर्श ॥ अथ जिनभटसूरिरत्र कोपाद्भुतमिह शिष्यजने निजे निशम्य । उपशमनविधौ प्रवृत्तिमाधादिह हरिभद्रमुनीश्वरस्य तस्य ॥" इत्यादिना प्रभावकचरित्रस्य पद्यकदम्बकेन, . "हयकुसमयभडजिणभडसीसो सेस व्व धरियतित्थधरो ॥ जुगपवरजिणदत्तपहत्तसुत्ततत्तत्थरयणसिरो' ॥ इत्येतया गणधरसार्धशतकगाथया, आचार्यजिनभटस्य हि सुसाधुजनसेवितस्य शिष्येण । जिनवचनभावितमतेर्वृत्तवतस्तत्प्रसादेन ॥ किञ्चित्प्रक्षेपसंस्कारद्वारेणैवं कृता स्फुटा । आचार्यहरिभद्रेण टीका 'प्रज्ञापनाश्रया ॥" . इत्यादिहरिभद्रसूरिवचनेन चेहामीषां जिनभटदीक्षितत्वमुल्लिखितम् । वस्तुतस्तु जिनभटसूरीणां हरिभद्रगुरुत्वेऽपि न तद्दीक्षादायकत्वम्। "समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका । कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रर ।" इत्यनेन “अल्पमति" विशेषणान्यथानुपपत्त्या स्वस्य हरिभद्रकर्तृकतां ख्यापयता आवश्यकटीकान्तस्थेनोल्लेखेनैतेषां जिनदत्तशिष्यत्वाभिधानात् । “जिनभटनिगदानुसारिणः" इत्यनेन जिनभटसूरीणामप्याज्ञाकर्तृत्वनिवेदनाच्च "आचार्यजिनभटस्य हि" इत्यादिनोदितं जिनभटशिष्यत्वमपि न व्याहन्यते, आज्ञाकारिष्वपि गुरुत्वव्यवहारस्य दृष्टत्वात् । ततश्च "आचार्यजिनभटस्य" इत्यभिधानं सामान्यगोचरम्, इदं पुनर्विशेषविषयम् - "जिनभटनिगदानुसारिणो जिनदत्तशिष्यस्य" इति । एतत्संवादि चेदमत्रानुसंधेयं हारिभद्रमेव वच :"एयं (वं) जिणदत्तायरियस्स उ अवयवभूएण चरियमिणं । जं विरइऊण पुग्नं महाणुभावचरियं मए पत्तं ॥ तेणं गुणाणुराओ होइ (उ) सुहं सव्वलोयस्स ।" एतेन - "महत्तरोपदेशात्श्रीजिनभद्राचार्यपादमूलमवसर्पन्" - इत्यादिलेखकप्रमादसंपन्नपाठदर्शनेन कैश्चिद् जिनभद्रसूरीणां . हरिभद्रगुरुत्वमभिमन्यते तदपि निराकृतं भवति । हरिभद्रवचनानामेव तत्परिपन्थित्वात् । एते कृतिमुख्या हरिभद्रसूरयो जैनधर्मप्राप्त्यनन्तरमेव तत्त्वतः स्वं जन्म मन्यमानास्तन्निमित्तं च तां गणिनी विदन्तः “धर्ममातेयम्" इत्यभिप्रेत्य स्वं तस्या धर्मपुत्रत्वेन वर्णयन्तः समदर्शयन् निजकृतज्ञताचिह्नम् । अमुना च सूरिभिः प्रतिपन्नेन मातृ-पुत्रत्वव्यवहारेण इदमप्यनुमातुं शक्यते- 'पूर्वे वयसि ते जैनसाधुतामाचरन्' इति । पूर्वोक्तव्यवहृतेस्तत्रैव शोभास्पदत्वेन स्वीकारसंभवात् । एवं च वक्ष्यमाणसंख्याकग्रन्थरचनापि संगतिमापद्यते इति । २. "चक्रिद्विकं हरिपञ्चकं पञ्चकं चक्रिणां केशवश्चक्री । केशवश्चक्री केशवो द्वौ चक्रिणौ केशवश्च चक्री च ॥" ३. "हतकुसमयभटजिनभटशिष्यः शेष इव धृततीर्थधरः । युगप्रवरजिनदत्तप्रभूक्तसूत्रतत्त्वार्थरत्रशिराः ॥" ४. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्याप्रान्ते (किल्हा कृतकार्यविवरण [रिपोर्ट) पुस्तक पृ. ३१) । ५. पूज्यपाद पं. श्रीसिद्धिविजयगणीनामावश्यकपुस्तके -"संवत् १५४९ वर्षे श्रीमण्डपमहादुर्गे वा. सोमध्वजगणिभिः आवश्यकबृहट्टीका लेखयांचक्रे" इत्युल्लेखान्विते पाठोऽयम् । "एतद् (वं) जिनदत्ताचार्यस्य तु अवयवभूतेन चरितमिदम् । यद् विरचय्य पुण्यं महानुभावचरितं मया प्राप्तम् ॥ तेन गुणानुरागो भवति (तु) सुखं सर्वलोकस्य ।" समरादित्यकथाप्रान्तभागस्थेयं सार्धगाथा । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एते सूरिवृषभा जिनपवचनस्य किंकिंविधान्महोपकारानकृषत इति पृच्छायाः प्रतिवचने तु एतद्रचितग्रन्थगणं बौद्धपराजयं वा विमुच्य नान्यदसामान्य कारणमुपदर्शयितुं पारयामः । हन्त! महदेवास्मदुर्भाग्यविलसितमिदम्, नैतादृशामपि पुरुषरत्नानां समर्था अपि पूर्वकवयः कथेतिवृत्तलेखकाश्च यथायथमामूलचूलजीवनव्यतिकराणि चरितानि लिलिखुरिति शिलोञ्छवृत्तिरेवात्र समादरणीया भवति । जैनज्ञातिवंशवृत्तलेखकपुस्तकेषु तु एतत्कृता महत्येव शासनसेवा प्रतिपाद्यते । तत्र हि "मेदपाटदेशे हरिभद्रसूरिभिः प्राग्वाट (पोरवाड) वंशस्य स्थापना विहिता तद्वंश्याश्च जैनधर्माभिरताः" इत्यादयः समुल्लेखाः विलोक्यन्ते, ते च यदि सत्यमेव सत्यस्पर्शिनस्तर्हि जैनधर्मस्य-विशेषतश्च प्राग्वाटज्ञातीयजैनानां - बहुपकृतमेतैरित्यवश्यमेव वक्तव्यं स्यात् । केचित्तु - "सावयजणमुहपत्ति (ति) चरवलो (चरवलयं) समयसंघसंजुत्ता । हरिभद्दसूरिगुरुणा (णो) दशपुरनयरंमि ठावेइ (वेंति)" इति गाथां पठन्तः श्रावकजनस्य मुखवस्त्रिका-रजोहरणस्थापका अपि हरिभद्रसूरय इति प्रतिपादयन्ति, एतच्च न सत्यमाभाति, तत्प्राचीनेष्वपि आवश्यकचूण्ादिषु श्राद्धानां मुखवस्त्र-रजोहरणयोरुपादेयत्वस्वीकारात् । इदमप्यासीदेतद्विषयकं केषांचित् प्राचामभिमतम्-यदेते सूरयः संविग्नपाक्षिकाः समभूवन् । इदमेवाभिप्रेत्य यशोविजयगणयोऽपि दानद्वात्रिंशिकायाम् - "न च स्वदानपोषार्थमुक्तमेतदपेशलम् । हरिभद्रो हदोऽभाणीद् यतः संविग्नपाक्षिकः।" - इति पद्यमरीरचन् । तदिदं प्रमाणविरहितमसंभवप्रायं च नाऽस्मद्बुद्ध्यादर्श प्रतिफलति । प्रत्यषेधि च जिनदत्तसूरिभिरप्येतद् गणधरसार्धशतके । तथा च तत्रत्या गाथा - "जं पइ केई समनामभोलिआ भोऽलिआई जंपंति । चीया (य) वासिदिक्खिओ सिक्खिओ य गोयाणे तं न मयं ॥५७॥ सहसयोधिनौ हंस-परमहंसनामानौ हरिभद्रशिष्यावपि परामत्र चरित्रलेशे वीर-करुणात्मकस्य रसयुग्मस्य पुष्टिमादधाते । तौ हि सूरीणां भागिनेयौ' दीक्षितशिष्यौ च। अन्यदा तौ गुरुषु निराकुर्वाणेष्वपि बौद्धमततर्कानधिगन्तुमनसौ क्वापि सौगतवस"ताववाजिषातामध्यगीषातां च कियतापि समयेन तन्मतरहस्यभूतान् सिद्धान्ततर्कान् । प्रकटितायां च तत्र कथमपि स्वव्याजवृत्तौ" ततः प्रणश्यन्तौ पश्चादापतितेन ताथागतनृपबलेन सह युध्यन्तौ पञ्चत्वमापतुः, इत्यादिविविधविकल्पमेतयोश्चरितं हरिभद्रचरितस्याप्यधिकाममिरोचकतामापादयतीति विदितमेव विदुषाम् । श्रुतैतदुदन्तानां हरिभद्रसूरीणामपि बौद्धेषु कोपातिरेकः, तद्वैरप्रतीकारनिश्चयः, सूरसेनभूपालसभायां तेषामपाकरणम्, तैलकटाहे । हवनाय व्योमपथेन तेषामाकर्षणम्, गुरुप्रेषितमुनियुगलमुखतो "गुणसेण-अग्गिसम्मा" इत्यादिगाथाकदम्बकश्रवणेन सहसा कोपोपशमश्च इत्यादि वृत्तं सत्यमेवैषामलौकिकं सामर्थ्यमादर्शयतीति । तदेवमेतेषामाचार्यवाणां नानाविधेषु पुण्यावदातेषु सत्स्वपि तन्मुख्यस्थानं साहित्यसेवैव समासादयतीति श्रीमत्संपादितः साहित्यराशिरेव विशेषतो विवेचनीयो भवति । स च चतुर्दशशतप्रकरणमान इति बहवः, चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशतग्रन्थसंख्याक इत्यपि केचन, चतुश्चत्त्वारिंशदधिकचतुर्दशशतप्रकरणात्मक इति च केचित् । तत्र प्रथमपक्षसमर्थका एते - ७. "श्रावकजनमुखवस्त्रिका (कां) रजोहरणां समयसंघसंयुक्ताः । हरिभद्रसूरिगुरुणा (ख:) दशपुरनगरे स्थापयन्ति (ऽस्थापयन्) ॥" ८. "यं प्रति केचित् समनामभ्रमिता भो अलिकानि जल्पन्ति । चैत्यवासिदीक्षितः शिक्षितश्च जीतानां तन्न मतम् ॥५७॥" । गणधरसार्धशतकबृहद्वृत्तौ तु-"अन्नया तेण नियमइपगरिसनिजिअसुरगुरुणा दिक्खिआ दुवे रायपुत्ता"-इत्यनेन हंस-परमहंसयो राजपुत्रत्वमभिहितम्, एतच्च तयोः सहस्रयोधित्वश्रवणेन तत्सांगत्यापादनाय तदनुरूपत्वेन कल्पितं चेत्तदाऽनावश्यकमेव । विप्रेष्वपि युद्धकलासंभवेनेतिहासविघटिकायाः कल्पनाया निरर्थकत्वात् । १०. इयं वसतिर्भोटदेशे आसीदिति कश्चित् ।। ११. अत्रत्यं विवरणलेशं प्रबन्धकोशे तत्कर्तारः- "रेखात्रयाङ्कस्तत्कण्ठे चक्रे । 'बुद्धोऽयं जात' इति कृत्वोपरि पादो दत्तः । उपरिचटितौ । गुरुणा दृष्टौ निषण्णौ तौ गुर्वास्यच्छायापरावतं दृष्ट्वा तत्कैतवं तत्कृतमवगम्य जठरपीडामिषेण ततो निरक्रामताम् । कपालिकां लात्वा गतौ तौ चिराद् नाऽऽयातौ । विलोकापितौ । न स्तः । राजागे कथितम्-'सितपटौ उत्कटकपटौ तत्त्वं लात्वा यातः' । कपालिकानयनाय तत्पृष्ठे सैन्यमल्पं गतम् । दत्तदृष्टी द्वावपि सहसयोधौ तौ । ताभ्यां निहतं राजसैन्यम् । उद्त्तनष्टैरुपराजं गत्वा कथितं तत्तेजः । पुनर्बहुसैन्यप्रेषः । दृष्टिमेलापकः । युद्धमेकः करोति । अपरः करपरिकापाणिनष्टः । हंसस्य शिरश्छित्त्वा राज्ञे दर्शितं तैः । तेनापि गुरवे दत्तम् । गुरुराह-'किमनेन? करपरिकामानय' | आयाता भटाः । रात्रौ चित्रकूटे प्राकारकपाटयोर्दत्तयोस्तदासन्ने सुप्तस्य परमहंसस्य शिरश्छित्त्वा तैस्तत्रार्पितम् । तेषां बौद्धानां तत्सूरेश्च संतोषः । प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिष्यकबन्धो दृष्टः । कोपः । तैलकटाहाः कारिताः । अग्निना तापितं तैलम् । १४४० बौद्धा होतुं खे आकृष्टाः । गुरुभवृत्तान्तो ज्ञातः । साधू प्रहितौ । ताभ्यां गाथा दत्ताः-"गुणसेण." | बोधः । शान्तिः । १४४० ग्रन्थाः प्रायश्चित्तपदे कृताः"-इत्येवं संक्षिप्तमपि चित्रतागर्भमवर्णयन् । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) श्रीमदभयदेवसूरयः पञ्चाशकटीका"प्रान्ते- “समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामा सितपटपटलप्रधानप्रावचनिकपुरुषप्रवरचतुर्दशशतसंख्याप्रकरणप्रबन्धप्रणायिसुगृहीतनामधेयश्रीहरिभद्रसूरिविरचितपञ्चाशकाख्यप्रकरणटीकेति ।" (२) मुनिचन्द्रसूरय उपदेशपदटी कायाम्-"महत् प्रवचनवात्सल्यमवलम्बमानश्चतुर्दश प्रकरणशतानि चकार" इति । (३) वादिदेवसूरयः स्याद्वादरत्नाकरे" - "प्रकरणचतुर्दशशतीसमुत्तुङ्गप्रासादपरम्परासूत्रणैकसूत्रधारैरगाधसंसारवारिधिनिमज्जज्जन्तुजातसमुत्तारणप्रवणप्रधानधर्मप्रवहणप्रवर्तनकर्णधारैर्भगवतीर्थकरप्रवचनाऽवितथतत्त्वप्रबोधप्रसूतप्रवरप्रज्ञाप्रकाशतिरस्कृतसमस्ततीर्थिकचक्रप्रवादध्वान्तप्रचारैः प्रस्तुतनिरतिशयस्याद्वादविचारैः श्रीहरिभद्रसूरिभिः" (४) मुनिरत्नसूरयोऽममस्वामिचरित्रमहाकाव्ये प्रथमसर्गे - _ "स्तामि श्रीहरिभद्रं तं येनार्हगीमहत्तरा । चतुर्दशप्रकरणशत्याऽगोप्यत मातृवत् ॥९९॥" (५) जिनदत्तसूरयो गणधरसार्धशतके - "चउदससयपगरणगोनिरुद्धदोसो सया हयपओसो । हरिभद्दो हरिअतमो हरि व जाओ जुगप्पवरो ॥५५॥" (६) प्रद्युम्नसूरयः समरादित्यसंक्षेप"प्रशस्तौ "यावद्ग्रन्थरथाश्चतुर्दशशती श्रीहारिभद्रा इमे वर्तन्ते किल पारियात्रिकतया सिद्ध्यध्वयानेऽङ्गिनाम् । तावत् पुष्परथः स एष समरादित्यस्य मन्निर्मितः संक्षेपस्तदनुप्लवः प्रचरतु क्रीडाकृते धीमताम् ॥६९॥" । श्रीमुनिदेवसूरयः शान्तिनाथचरित्रमहाकाव्ये" "चतुर्दशशतग्रन्थग्रन्थनायासलालसम् । हारिभद्रं मनो हारिभद्रं भद्रं करोतु नः ॥४॥" (८) प्रभाचन्द्रसूरयः प्रभावकचरित्रे पुनरिह च शतोनमुनधीमान्प्रकरणसार्धसहस्रमेष चक्रे । जिनसमयवरोपदेशरम्यं ध्रुवमिति संततिमेष तां च मेने ॥२०५॥ १२. अस्या निर्माणसमयादिकं तु कर्ता तत्प्रान्ते एवमुपदिष्टम् "चतुरधिकविंशतियुते वर्षसहस्रे गते च सिद्धेयम् । धवलकपुरे वसतौ धनपत्योर्बकुलबन्दिकयोः ॥ अणहिलपाटकनगेर संघवरैवर्तमानबुधमुख्यैः । श्रीमद्रोणाचार्यैर्विद्वद्भिः शोधिता चेति ॥" १३. इयं टीका गण्यवस्थायां 'रामचन्द्र' इत्याख्याभृतां वादिदेवसूरीणां गुरुभिर्मुनिचन्द्रसूरिभिः ११७४ मितविक्रमवर्षे व्यरचीति तदीयप्रशस्तिभागेनतेन ज्ञायते "प्रायस्तत्सर्वसन्तानभक्तिमान् मुनिनायकः । अभूच्छीमुनिचन्द्राख्यस्तेनैषा विवृतिः कृता ॥५॥ प्रकृता श्रीनागपुरे समर्थिताऽणहिलपाटके नगरे । अब्धि-मुनि-स्द्रसंख्ये वहमाने वैक्रमे वर्षे ॥६॥ साहाय्यमत्र परमं कृतं विनेयेन रामचन्द्रेण । गणिना लेखनसंशोधनादिना शेषशिष्यैश्च ॥७॥ १४. दार्शनिकोऽयं महाग्रन्थः प्रमाणनयतत्त्वालोकाऽलङ्कारसूत्राणां बृहद्विवरणस्पश्चतुरशीतिसहसश्लोकप्रमाणश्च श्रीमुनिचन्द्रसूरिशिष्यैर्वादिदेवसूरिभिर्विरचितः । सोऽयमिदानीं न क्वापि संपूर्णतयोपलभ्यते । १५. एतद् भावितीर्थपतेरममनामः कथावर्णनपरं पौर्णमिकमुनिरत्नसूरिभिः १२५२ संख्ये विक्रमवत्सरे व्यरचीति प्रशस्तितोवबुध्यते । तथाहि "एतद् विक्रमतो द्वि-पञ्च-दिनकृद्वर्षे कृतं पत्तने सम्यक् शोधितवान् नृपाक्षपटलाध्यक्षः कुमारः कविः ॥ सद्वैयाकरणाग्रणीविधिर्सचः श्रीपूर्णपालो यशः-पालो बालकविस्तथा मण-महानन्दौ च सभ्याग्रिमौ ॥३०॥" पूर्वाचार्यवर्णनपराभिः सार्थशतेन गाथाभिर्निबद्धत्वेन लब्धप्रकृतख्याति प्रकरणमिदं खरतरजिनदत्तसूरिभिर्विक्रमाद्वादशाब्दशतोत्तरार्धे निर्मितम् । अस्य च जिनपत्तिसूरिशिष्येण सुमतिगणिना विस्तृतवृत्तिरपि व्यरच्यत, यस्या निर्माणसमयः १२९५ स्पः कत्रैव तत्प्रान्ते"शर-निधि-दिनकरसंख्ये विक्रमवर्षे गुरौ द्वितीयायाम् । राधे पूर्णीभूता वृत्तिरियं नन्दतात् सुचिरम् ॥" इति पद्येन व्यक्तीकृतः । १७. "चतुर्दशशतप्रकरणगोनिरुद्धदोषः सदा हतप्रद्वेषः । हरिभद्रो हुततमा हरिरिव जातो युगप्रवरः ॥५५॥" १८ एतद्विरचनाकालस्तु ग्रन्थकारेणैव प्रशस्तावित्थं निरदेशि "वर्षे वारिधि-पक्ष-यक्षगणिते श्रीवर्धमानास्थितश्चक्रेऽमुं प्रथमं लिलेख तु जगच्चन्द्रः सुधीः पुस्तके । प्राग्वाटान्वयमन्त्रिवाहटसुत श्रीराणिगस्याऽङ्गजौ ग्रन्थार्थे रणमल्ल-सेगसचिवौ स्वं प्रार्थयेतां गुरुम् ॥" १९. अस्यापि रचनासमयः श्रीप्रद्युमसूरिसत्तासमयरूप एव, तैरेवास्य संशोधितत्वात् । तथा चोक्तं ग्रन्थकारेण "काव्ये श्रीमुनिदेवसूरिकविना श्रीशान्तिवृत्ते कृते श्रीप्रद्युममुनीन्दुना शुचिचः सर्गोऽगमत् सप्तमः ॥" २०. ऐतिहासिकपुरुषाणां चरितैर्निबद्धं काव्यमिदं प्रभाचन्द्रसूरिभिः १३३४ प्रमितविक्रमसंवत्सरे व्यरचीति तत्प्रशस्तिपद्यमेवेदं निर्दिशति "वेदा-ऽनल-शिखि-शशधरवर्षे चैत्रस्य धवलसप्तम्याम् । शुक्रे पुनर्वसुदिने संपूर्ण पूर्वऋषिचरितम् ॥२२॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) श्रीगुणरत्नसूरयः तर्करहस्यदीपिकानाम्न्यां षड्दर्शनसमुच्चयबृहवृत्तौ'- “चतुर्दशशतसंख्यशास्त्ररचनाजनितजगज्जन्तुमहोपकारः श्रीहरिभद्रसूरिः” । (१०) कुलमण्डनसूरयो विचारामृतसंग्रहे"-"धर्मसंग्रहणी-अनेकान्तजयपताका-पञ्चवस्तुकोपदेशपद-लग्नशुद्धि-लोकतत्त्व निर्णय-योगबिन्दु-धर्मबिन्दु-पञ्चाशक-षोडशका-ऽष्टकादिप्रकरणानि चतुर्दशशतमितानि श्रीहरिभद्रसूरिभिर्विरचितानि"। (११) श्रीमणिभद्रः षड्दर्शनसमुच्चयलघुटीकायाम्- "इह हि श्रीजिनशासनप्रभावनाविर्भावक प्रभोदयभूरियशश्चतुर्दशशतप्रकरणकरणोपकृतजिनधर्मो भगवान्हरिभद्रसूरिः" । (१२) श्रीहर्षनन्दनगणिर्मध्याह्नव्याख्यानपद्धतौ - "पालित्तो वृद्धवादी कविकुलतिलकः सिद्धसेनो दिवाकृद् विद्यासिद्धस्तथार्यः खपुटगुरुरुमास्वातिको मल्लवादी । सूरिः श्रीहरिभद्रः स्वपरसमयविद् बप्पभट्टिः प्रसिद्धः सिद्धर्षिर्देवसूरिः कुमारनृपनतो हेमसूरिश्च जीयात् ॥१॥ इत्येतद् महर्षिकुलककाव्यं विवृण्वन् हरिभद्रपदव्याख्यायाम्-"हरिभद्रः श्रीवृद्धगच्छे चतुर्दशशतग्रन्थग्रन्थनतत्परः" इत्युदलिखत् । अथ द्वितीयपक्षं राजशेखरसूरयः प्रबन्धकोशे एवमुदलिखन्-“१४४० ग्रन्थाः प्रायश्चित्तपदे कृताः" इति । तृतीयमतनिर्देशकाः पुनरेते परिगण्यन्ते(१), श्रीरत्नशेखरसूरयः श्राद्धप्रतिक्रमणार्थदीपिकाख्यटोकायाम् – “१४४४ प्रकरणकृत् श्रीहरिभद्रसूरयोप्याहुललितविस्तरायाम्" (२) अञ्चलगच्छपट्टावल्या"म्-“२९ श्रीहरिभद्रसूरिः १४४४ प्रकरणकर्ता" । (३) श्रीविजयलक्ष्मीसूरिरुपदेशप्रासादे "तृतीयस्तम्भे-“चतुश्चत्त्वारिंशदधिकचतुर्दशशतग्रन्थान्हरिभद्रसूरिः प्रायश्चित्तपदे चकार" । (४) श्रीक्षमाकल्याणकोपाध्यायः खरतरगच्छपट्टावल्या"म्-“१४४४ पूजापञ्चाशकादिप्रकरणानि कृतानि" इति । तदेवमत्र मतत्रयं साधारणतयोपदर्शितम्। विशेषगवेषणायां तु सर्वेप्येते निदर्शितग्रन्थकारा एकमेव मतमभ्युपेताः । तथाहि-ये चतुर्दशशतप्रकरणनिर्देशनपरास्ते गौरवपरिहारेण सामान्यतया बृहत्संख्यामेवादृतवन्तः, निर्दोषश्चायं व्यवहारः । "वीराओ वयरो वासाण पणसए दससएण हरिभद्दो । तेरसहिं बप्पभट्टी अट्ठहिं पणयाल वलहिखओ ॥१॥" - इत्यादिषु तथादर्शनात् । ये तु चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशतसंख्यालेखकास्तेषामयमभिप्रायः संभाव्यते→ “संसारदावानल" इत्यादिपद्यचतुष्कात्मिका स्तुतिः हरिभद्रसूरीणामन्त्या कृतिः, सा च चतुर्भिः पद्यैश्चतुर्णा ग्रन्थानां संख्यामापूरयति, तथाकृते च हारिभद्रीयग्रन्थानां चतुश्चत्वारिंशदभ्यधिकचतुर्दशशतरूपा संख्या संपद्यते इति हि प्रसिद्धिः । एतच्च चतुष्पद्यात्मके स्तुतिमात्रे ग्रन्थव्यपदेश एव न युज्यते तिष्ठतु चतुःसंख्यापूरकत्वमिति विभाव्य राजशेखरसूरिभिः पूर्वोक्ता १४४० रूपैवैतेषां प्रकरणसंख्याभिहिता । एतदर्थमेव गगनमार्गे शिक्षार्थमाकर्षणमपि तावत्संख्याकानामेव ताथागतानामुदीरितमिति । तृतीयपक्षकारास्तु विशिष्य यथाश्रूयमाणसंख्याग्राहिण इति सुप्रतीतमेव । २१. साक्षादनुपलब्धोऽप्यस्या ग्रन्थनसमयः क्रियारत्नसमुच्चयप्रशस्तिगतेनैतत्कर्तृसमयप्रसाधकेनाऽमुना पद्येन पञ्चदशशतकरूप एव । तथाहि "काले बड्-रस-पर्ववत्सरमिते श्रीविक्रमाद् िगते गुर्वादेशवशाद् विमृश्य च सदा स्वान्योपकारं परम् । ग्रन्थं श्रीगुणरत्नसूरिरतनोत् प्रज्ञाविहीनोऽप्यमुं निहतूपकृतिप्रधानजननैः शोध्यस्त्वयं धौधनैः ॥६३॥ २२. एतन्निर्माणकालस्तु ग्रन्थकृतैवमभिहितः "निःसीमातिशया जयन्ति सततं सौभाग्यभाग्याद्भुताः सूरिश्रीगुरुदेवसुन्दरवरास्तेषां विनेयाणुकः । सूरिः श्रीकुलमण्डनोऽमृतमिव श्रीआगमाम्भोनिधेश्चक्रे चारविचारसंग्रहमिमं रामाब्धिशकाब्दके ॥२॥" २३. अस्या निर्माणसमयोऽद्यावधि न निर्णीतः । २४. एतद्रचनाकालो ग्रन्थकारेणैवं प्रत्यपादि "त्रिक-सप्त-बडेकाब्दे अक्षततृतीयादिने । ग्रन्थोऽयं पूर्णता प्राप्तः श्रीअणहिल्लपत्तने ॥१॥" २५. अस्य निबन्धनकालस्तन्निर्मात्रा तदन्ते इत्थमादिष्ट: "शर-गगन-मनुमिताब्दे ज्येष्ठामूलीयधवलसप्तम्याम् । निष्पन्नमिदं शास्त्रं श्रोत्रध्येत्रोः सुखं तन्यात् ॥१॥" २६. अस्या विनिर्माणकालः प्रान्तभागे एवं निरदिक्षद् ग्रन्थकर्ता एषां श्रीसुगुरूणां प्रसादतोऽब्दे षडङ्गविश्वमिते । श्रीरत्नशेखरगणिर्विवृतिमिमामकृत कृतितुष्टयै ॥११॥ २७. पण्डितभाण्डारकरमहाशयेन स्वरचितकार्यविवरणपुस्तके समुदलेखि । २८. अस्य रचनाकालः का ग्रन्थ प्रान्ते "गुण-गति-वसु-शशिवर्षे कार्तिकमासे समुज्वले पक्षे । गुरुपूर्णायां समजनि सफलो यत्नः सुपञ्चम्याम् ॥६॥ इति पद्येन १८४३ स्पः प्रत्यपादि । २९. अस्या निर्माणं त्रिचत्वारिंशदधिकाष्टादशशते जातमित्येतत्प्रान्तभागतोऽवबुध्यते । ३०. "वीराद् वज़ो वर्षाणां पञ्चशते दशशतेन हरिभद्रः । त्रयोदशभिर्बप्पभट्टिः अष्टाभिः पञ्चचत्वारिंशता बलभिक्षयः ॥१॥" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमेवं विपुलसंख्याकं ग्रन्थन्त्रप्रकरं विरचय्य एतैः सूरिवरैः सुतरामेवोन्नतिं प्रापितोऽयं जैनशास्त्ररत्नाकरः, परमुपकृताश्च जैनास्तदितरे च विद्वांस इति मुहुर्मुहुरावेदनीयं स्यात् । __ अथेयतां ग्रन्थरत्नानां किमद्यावधि विद्यते निरुपहता सत्ता? इति प्रश्रस्तु सत्यमेवास्महृदये कण्टकायते॥ हन्त ! नैतावत्संख्यान्ग्रन्थानद्य द्रष्टुं लभेमहि, नवा सर्वेषां नामान्यपि निशमयितुमीशाते श्रुती! तथापि येऽद्ययावद् दृष्टाः श्रुतिपथं वाऽऽयातास्त इह नामग्राहमुद्दिशामः तथाहि [१] अनुयोगद्वारलघुवृत्तिः" (२) अनेकान्तजयपताका स्वोपज्ञटीकासहिता" (३) अनेकान्तप्रघट्ट (४) अनेकान्तवादप्रवेश* (५) अर्हच्छीचूडामणि: (अर्हच्चूडामणिः) (६) अष्टकप्रकरणम् (७) आवश्यकटीका" (लघ्वी शिष्यहिता नाम द्वाविंशतिश्लोकसहसप्रमाणा) (८) आवश्यकबृहट्टीका" (चतुरशीतिसहसश्लोकमाना) (९) उपदेशपदानि" (१०) उपदेशप्रकरणम् (११) ओघनियुक्तिवृत्तिः" (१२) कथाकोशः (१३) कर्मस्तववृत्तिः (१४) कुलकानि" (१५) क्षमावल्लीबीजम् (१६) क्षेत्रसमासवृत्तिः (१७) चैत्यवन्दनभाष्यम्" (संस्कृतम्) (१८) चैत्यवन्दवृत्तिः (१९) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका" (२०) जम्बूद्वीपसंग्रहणी० (२१) जीवाभिगमलघुवृत्तिः। (२२) ज्ञानपञ्चकविवरणम् (२३) तत्त्वतरङ्गिणी (२४) तत्त्वार्थलघुवृत्तिः (२५) त्रिभङ्गीसारः (२६) दर्शनशुद्धिप्रकरणम् (३१) गणधरसार्धशतकवृत्तौ जैनग्रन्थावल्यां च निर्दिष्टनामेयम् । 'लघु' इति विशेषणं पुनर्गणधरसार्द्धशतकवृत्तौ नोपात्तम् (३२) मुद्रितेयं मूलरूपा संपूर्णा, सटीका च यशोविजयग्रन्थमालायामंशस्पा (३३) धर्मबिन्दुभाषान्तरकारेण लिखितनामाऽयम् (३४) षड्दर्शनसमुच्चयटीकायां चतुर्थाधिकारप्रान्ते जैनन्यायग्रन्थगणनायामयमपि गुणरत्नसूरिभिः परिगणितः (३५) सुमतिगणिना गणधरसार्धशतकवृत्तौ हारिभद्रीयग्रन्थेषु निर्दिष्टमिदं नाम (३६) अस्योपरि १०८० मिते विक्रमकाले मस्देशान्तर्गतजावालिपुर-(जालोरः) स्थितैर्जिनेश्वरसूरिभिष्टीका विरचिता, तथा च तत्प्रशस्तौ___ "पादाम्भोजद्विरेफेण श्रीजिनेश्वरसूरिणा । अष्टकानां कृता वृत्तिः सत्त्वानुग्रहहेतवे ॥३॥ समानामधिकेऽशीत्या सहने विक्रमाद् गते । श्रीजावालिपुरे रम्ये वृत्तिरेषा समापिता ॥४॥" (३७) इयमागमोदयसमितिप्रबन्धेन मुद्रयितुमारब्धा । अस्या लघुवृत्तित्वं तु "यद्यपि मया तथान्यैः कृतास्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् । तद्रुचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥" -इत्यनेन, “गमनिकामात्रत्वादस्य प्रयासस्य" "गमनिकामात्रमेतद्" इत्यादिकैश्चैतत्कर्तृवाक्यैरेव संसिद्धम् (३८) अस्याः सद्भावस्तु “यद्यपि मया तथान्यैः" इत्येतेन पद्येन स्पष्टमेवोन्नीयते । अञ्चलगच्छपट्टावल्याः- "आवश्यकबृहद्वृत्तिः ८४००० सहस्रकर्ता २२ सहस्रीकर्ता च"-इत्युल्लेखः, समयसुन्दरोपाध्यायकृतसामाचारीशतकम्, मलधारिहेमसूरिकृतावश्यकटिप्पनकम् इत्यादीन्यपि एतत्साधकप्रमाणान्यनुसरणीयानि । "व्यासार्थस्तु विशेषविवरणतोऽवगन्तव्य." इति द्वाविंशतिसहस्रीवचनत एवेयं "विशेषविवरणाख्या" इत्यनुमीयते (३९) अस्य प्राकृतगाथामयस्य ग्रन्थस्य मुनिचन्द्रसूरिकृता टीकाप्युपलभ्यते, तत्पूर्वतनैरपि कैश्चिदाचारस्य वृत्तिररचीत्यपि टीकान्तर्गतेनामुना काव्येन निर्धार्यते "पूर्वैर्यद्यपि कल्पितेह गहना वृत्तिः समस्त्यल्पधीर्लोकः कालबलेन तां स्फुटतया बोद्धुं यतो न क्षमः । तत्तस्योपकृतिं विधातुमनघां तस्यापि तत्त्वानुगां प्रीतिं संजनितुं सुबोधवचनो यनोऽयमास्थीयते ॥" जैनग्रन्थावल्यां तु वर्धमानसूरिकृताप्येतद्वृत्तिसल्लिखिता (४०) चतुर्थस्तुतिनिर्णयशोद्धारनानि पुस्तके हरिभद्रकर्तृकतया निर्दिष्टमिदम् । प्रमाणरहितश्चायं निर्देशो न विश्वसनीयतामासादयति (४१) गणधरसार्धशतकवृत्तौ निर्दिष्टाभिधाना (४२) अयं गणधरसार्धशतकवृत्तौ सुमतिगणिना हारिभद्रीयग्रन्थेषु दर्शितः (४३) इयं धर्मबिन्दुभाषान्तरकृता स्वपुस्तके समुपन्यस्ता । पट्टनीयभाण्डागारविशेषस्य लिखितसूच्यां तु जिनदेवशिष्यहरिभद्रसूरेः कृतिरियमित्यसूचि (४४) पट्टनभाण्डागारस्य लिखितसूचीपत्रे प्रकृतहरिभद्रकर्तृकतया समुल्लिखितमिदं नाम इतिभाण्डारकरकार्यविवरणपुस्तके (४५) "एतच्चराजशेखरसूरि प्रबन्धकोशे हरिभद्रप्रबन्धे "समरादित्यचरित्रं नव्यं क्षमावल्लीबीजं कृतम्" इत्युल्लेखे 'क्षमावल्लीबीजम्' इति समरादित्यचरित्रस्य क्रोधदारुणोदव्यावर्णनेन क्षान्तिवल्लरीबीजकल्पतया रूपकगमं विशेषणमनवबुध्यमानेन धर्मबिन्दुनुवादकेन पृथग् ग्रन्थरूपेण तत्र परिगणितमिति संभाव्यते"-इति हरिभद्रचरित्रटिप्पण्याम् । (४६) गणधरसार्धशतकवृत्तौ क्लत्ताभिधपण्डितेन जर्मनभाषायां विरचिते जैननामसंग्रहे वेबरपुस्तकादौ च निर्दिष्टेयम् । (४७) गणधरसार्धशतकवृत्तौ क्लत्तस्य जैनग्रन्थनामसंग्रहे च परिगणितमिदम् (४८) सैवेयं "ललितविस्तरा" इत्याख्यया प्रसिद्धिमती, इमामेव प्रवाच्य सिद्धर्षिः सुगतमतवासनां प्रहाय जैनप्रवचने दृढ श्रद्धोऽभूत् । यदाह स एव स्वोपमितिभवप्रपञ्चाकथायाः प्रान्ते "आचार्यहरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्ये निवेदितः ॥१५॥ विषं विनिर्धूय कुवासनामयं व्यरीरचद् यः कृपया मदाशये । अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥१६॥ अनागतां परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदथैव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥१७॥" इयं च मुनिचन्द्रसूरिभिः पञ्जिकया विभूषिता (४९) धर्मबिन्दुनुवादकेन प्रदर्शितनामा (40) इयं जम्बूद्वीपान्तर्गतशाश्वतपदार्थप्रतिपादनपरा त्रिशदाथाप्रमाणा च । क्वचित्तु द्वादशाधिकशतगाथात्मिकाऽपीयमुल्लिखिता । १३९० तमे वैक्रमवर्षे प्रभानन्दसूरिभिरेतस्याष्टीकापि व्यरचि, यतस्तत्प्रान्ते ___ “वित्ते श्रीकृष्णगच्छे श्रमणपरिवृढः श्रीप्रभानन्दसूरिः क्षेत्रादेः संग्रहिण्या अकृत समयगैः संवदन्तीं सदथैः । एतां वृत्तिं ख-नन्द-ज्वलन-विधुमिते विक्रमार्के चतुया भाद्रस्य श्यामलायामिह. यदनुचितं तद् बुधाः शोधयन्तु ॥२॥" (५१) वेबरपुस्तके जैनग्रन्थावल्यां गणधरसार्द्धशतकवृत्तौ च हारिभद्रीयग्रन्थेषु परिगृहीता (५२) अन्वर्थनामकं प्रकरणमिदं संपूर्णमेव १६८६ तमे विक्रमवर्षे समयसुन्दरगणिसमुच्चितायां गाथासहस्यामुपलभ्यते, तत्रत्येनैव-"इति ज्ञानपञ्चकविवरणप्रकरणं श्रीहरिभद्रसूरिकृतम्" इत्युल्लेखेन चेदं हरिभद्रसूरिकर्तृकमिति समवगम्यते (५३) अस्याः सद्भावो हरिभद्रकर्तृकत्वं च खरतरगच्छीयैरेव प्रख्याप्यते, धर्मसागरोपाध्यायैश्चेदं प्रत्याख्यातमित्युदासतेऽपरे (५४) अजातसमाप्तिस्त्रुटितोत्तरभागा चेयं यशोभद्रसूरिशिष्येण केनचित् पूर्णीकृतेदानीमुपलभ्यते (५५) क्लत्तपण्डितस्य जैननामसंग्रहे एवेदमभिधानमुपलभ्यते (५६) वेबरपुस्तके क्लत्तनामसंग्रहे च कथिताख्यम् Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) दर्शनसप्ततिका' (२८) दशवैकालिकलघुवृत्तिः (२९) दशवैकालिकबृहद्वृत्तिः १ (३०) दिनशुद्धिः०० (३१) देवेन्द्रनरेन्द्रप्रकरणम्।। (३२) द्विजवदनचपेटा (३३) धर्मबिन्दुः (३४) धर्मलाभसिद्धिः (३५) धर्मसंग्रहणी (३६) धर्मसार: (३७) धूर्ताख्यानम् (३८) ध्यानशतकवृत्तिः (३९) नन्द्यध्ययनटीका' (४०) नानाचित्रप्रकरणम् (४१) न्यायप्रवेशकटीका' (शिष्यहिता) (४२) न्यायविनिश्चयः (४३) न्यायावतारवृत्तिः (४४) पंचनियंठी (४५) पञ्चलिङ्गी' (४६) पञ्चवस्तुकप्रकरणं स्वोपज्ञटीकासहितम् (४७) पञ्चसूत्रविवरणम्" (४८) पञ्चस्थानकम् (४९) पञ्चाशकम्” (५०) परलोकसिद्धि:०० (५१) पिण्डनियुक्तिवृत्तिः (५२) प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या २ (५३) प्रतिष्ठाकल्प:3 (५४) बृहन्मिथ्यात्वमथनम् (५५) मुनिपतिचरित्रम् (५७) गणधरसार्धशतकवृत्त्यादावस्याः समुल्लेखः, 'सम्यक्त्वसप्ततिः'-या संघतिलकसूरिभिष्टीकया विभूषिता-इतो विभिन्ना इयमेव वा पर्यायनामा इत्यनिर्णीतमद्यापि (५८) इयमवचूरिस्पा सुप्रसिद्धा एव (५९) इयमपि नाऽप्रसिद्धा (६०) हेमहंसगणिभिः आरम्भसिद्धिवार्तिके "विशेषस्तु “सोलस १६ ड ८ दसण ३२ इग १ च ४ चोसट्ठी ६४ अद्धपहरमज्झपला । जत्ताइसु अइअहमा पुव्वाई छ? छ? दिसिं ॥" इति दिनशुद्धौ" -इत्यादावसकृत् स्मृतापि न क्वापि कर्तृनामग्राहं निर्दिष्टा, तथापि परम्परया श्रुतमस्या हरिभद्रकृतकत्वं सत्यं संभाव्यात्र समुपन्यस्ता (६१) इदं प्राकृतगाथाबद्धं प्रकरणं मुनिचन्द्रसूरिभिष्टीकितम् (६२) इयं पण्डितक्लत्तकृतजैननामसंग्रहे स्मृता (६३) प्रसिद्धोऽयं ग्रन्थः अस्य च मुनिचन्द्रसूरिभिरेका टीकापि प्राणायि (६४) सुमतिगणिना पण्डितवेबरेण च स्वस्वपुस्तकेषु स्मृतमिदं नाम (६५) अयमेव ग्रन्थः (६६) एतमेवान्ये "धर्मसारमूलटीका" इत्याख्यया व्यवहरन्ति । क्लत्तपण्डितेन "धर्मसारमालटीका' इत्युदलिखत् । अस्माभिस्तु धर्मसंग्रहणीटीकायाः-"यथा चापुरुषार्थता अर्थकामयोस्तथा धर्मसारटीकायामभिहितमतो नेह प्रतायते"-इत्युल्लेखेन धर्मसार एव हरिभद्रकर्तृकः, तट्टीका तु मलयगिरिसूरिकृता इति विभाव्य तथैवात्र समुल्लिखितम् । इदंनामक एव कोऽपि ग्रन्थः श्रीमता मलधारिदेवप्रभसूरिणापि निर्मितः यं राजशेखरसूरयः स्वन्यायकन्दलीवृत्तिप्रान्तोपनिबद्धेन “तत्क्रमिको देवप्रभसूरिः किल पाण्डवायनचरित्रम् । श्रीधर्मसारशास्त्रं च निर्ममे सुकविकुलतिलकः ॥१,३॥" -इति पद्येन संसूचयन्ति स्म । (६७) धूर्तानां कथानकद्वारेण पुराणादीनामसम्बद्धवाचकत्वप्रदर्शकमिदं प्राकृतभाषामयमाख्यानम् (६८) प्रतिकमणविधिप्रकाशे हरिभद्रसूरिकर्तृकेयमिति निर्दिष्टा (६९) गणधरसार्धशतकवृत्तावियं हारिभद्रीयटीकाग्रन्थेषु परिगणिता । मलयगिरिपादा अप्यस्याः कर्तृत्वेन हरिभद्रसूरीननेन श्लोकेनोपश्लोकयन्ति नन्दीटीकाप्रान्ते, यथा "मध्येसमस्तभूपीठं यशो यस्याभिवर्धते । तस्मै श्रीहरिभद्राय नमष्टीकात्धिायिने ॥" (७०) इदं प्राकृतगाथानिबद्धं प्रकरणं संक्षेपतोऽपि सरसशैल्या धर्मतत्त्वं प्रतिपादयति । "नाणाचित्ते लोए" इत्यादिप्रारम्भे 'नानाचित्र'-शब्दविन्यासाच प्रकरणमपि 'नानाचित्र 'मिति ख्यातम् । इदमेव केचन 'ज्ञानादित्य नामा अपरे च 'नानाचित्रिका'शब्देन व्यवहरन्ति (७१) दिग्नागाचार्यरचितस्य बौद्धमताभिमतप्रमाणादिपदार्थनिरूपकस्याऽस्य न्यायप्रवेशकनामो ग्रन्थस्य टीकैव हरिभद्रसूरिकर्तृका न मूलमपि, तथा च तदादौ-न्यायप्रवेशशास्त्रस्य सद्वृत्तेरिह पञ्जिका । स्वपरार्थ दृब्धा स्पष्टा पार्श्वदेवगणिनाम्ना ॥१॥ गृह-रस-स्ट्रैर्युक्ते विक्रमसंवत्सरे तु(नु) राधायाम् । कृष्णायां च नवम्यां फाल्गुनमासस्य निष्पन्ना ॥२॥ इति वृत्तद्वयेन प्रतिपादितवान् (७२) धर्मबिन्दुनुवादकेन परिगणितः (७३) प्रबन्धकोशे धर्मबिन्दुगूर्जरप्रस्तावनायां च निर्दिष्टनामा (७४) पण्डितहरगोविन्ददासेन हरिभद्रसूरिचरित्रे परिगृहीता (७५) प्रबन्धकोशे सूचितनामा (७६) प्रसिद्धतरमिदं सटीकमपि प्रकरणम् । पण्डितहरगोविन्ददासस्तु हरिभद्रचरित्रे पञ्चसंग्रहमपि हरिभद्रसूरिकृतकत्वेनेहोपदर्शितवान्।अथ च “पञ्चसंग्रहस्य शतक १ सप्ततिका २ कषायप्राभृत ३ सत्कर्म ४ कर्मप्रकृति ५ संग्रहात्मकस्य वृत्तिः सूत्रकारचन्द्रर्षिकृता पत्तनं विना न" इत्यादिना प्राचीनसूचीपत्रोल्लेखेन प्रसिद्धया च चन्द्रर्षिमहत्तरकृत एव स इत्यभिप्रेति नश्चेतः । हरिभद्रकर्तृकत्वे तु न किमपि प्रमाणोपदर्शनमिति नात्रोदलेखि (७७) पापप्रतिघातगुणबीजाधान १ साधुधर्मपरिभावना २ प्रव्रज्याग्रहणविधि ३ प्रव्रज्यापरिपालना ४ प्रव्रज्याफल ५ सूत्रात्मकस्यास्य ग्रन्थस्य विवरणमेव हरिभद्रसूरिभिः कृतं न तु मूलमपि । “कृतं चिरन्तनाचार्यः, विवृतं च याकिनीमहत्तरासूनुश्रीहरिभद्राचार्यः" इति प्रान्तलेखेन स्पष्टमेव मूलग्रन्थस्याऽन्यचिरन्तनाचार्यकृतकत्वाभिधानात् (७८) हर्षनन्दनगणिकृतस्य मध्याह्नव्याख्यानस्य-“अन्यैः श्रीहरिभद्रप्रमुखैादशधाऽयमुक्तः श्रीपञ्चस्थानके “उक्कोस सट्टि पन्ना चत्ता तीसा दसट्ठ पण दसगं । दस नव तिट्ठ एगद्धं च जिणुग्गहं बारसविभेयं ॥" -इत्युल्लेखात् हरिभद्रकर्तृकतया संभाव्यमानम् (७९) अस्य टीकापि नवाङ्गवृत्तिकारैरभयदेवसूरिभिर्व्यरचि, तद्रचनाकालादिकं तु पूर्वमेवोल्लिखितम् । दीक्षाविधि-चैत्यवन्दनविधि-पूजापञ्चाशकादीनि चास्यैवावयवभूतानीति न पृथग् गण्यन्ते । एकोनविंशतिपञ्चाशकात्मकस्याऽस्य ग्रन्थस्य श्रावकधर्मविधिनामः प्रथमपञ्चाशकस्य चूर्णिरपि यशोदेवसूरिकृतोपलभ्यते, तद्विधानसमयादिकं तत्कर्तव तदन्ते एवमुपन्यास्थत् ___ "मंदमईण हियत्थं एसा चुन्नी समुद्धिया सुगमा । सिरिचंदकुलनहंगणमयंकसिरिचंदसूरीणं ॥२। सिरिवीरगणिमुणीसरबंधुरसिद्धंतसिंधुसिस्साणं । अंही निसिवमाणेहि सिरिमज्जसएवसूरीहिं ॥३॥ नयण-मुणि-थाणुमाणे काले विगयम्मि विक्कमनिवाओ । संपियाय (संसोहिया य) एसा विबुहेहि समयनिउणेहिं ॥४॥" (८०) क्लत्तस्य जैननामसंग्रहे वेबरस्य पुस्तके गणधरसार्धशतकवृत्तौ च निर्दिष्टैषा (८१) इमां स्थापनाख्यदोषविवरणपर्यन्तां निर्माय देवभूयमाप्तेषु हरिभद्रसूरिषु वीराचार्यनामानः केचनाचार्यव-स्तत्परिपूर्तिमकार्षः, तदिदमनेन वीरगणिविहितपिण्डनियुक्तिटीकायाः प्रारम्भपद्येन स्फुटीभवति, तथाहि “पञ्चाशकादिशास्त्रव्यूहप्रविधायका विवृतिमस्याः । आरेभिरे विधातुं पूर्व हरिभद्रसूरिवराः ॥ ते स्थापनाख्यदोषं यावद्विवृतिं विधाय दिवमगमन् । तदुपरितनी तु कैश्चिद् वीराचार्यैः समाप्येषा ॥" (८२) मलयगिरिसूरिभिरपि प्रज्ञापनावृत्ती ___ "जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः । यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन वृत्तिकरः ॥" -इति पद्येन एतद्वयाख्याविधायित्वेन बहुमन्यन्ते स्म हरिभद्रसूरयः (८३) पं. वेबरस्य कार्यविवरणपुस्तके क्लत्तनामसंगृहे चाऽयं हरिभद्रकृतितयोपन्यस्तः (८४) गणधरसार्धशतकवृत्त्यादौ परिगाणितमिदम् (८५) क्लत्तपण्डितस्य नामसंग्रहे पिटर्सनकार्यविवरणपुस्तकादौ चेदं हरिभद्रकर्तृकतयोपसंख्यातम् । जैनग्रन्थावल्यां तु ६४४ गाथात्मकं चरितमिदं ११७२ तमे विक्रमवर्षे द्वितीयहरिभद्रसूरिभिर्विरचितमिति स्पष्टमेवोल्लिखितम् । 9 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 (५६) यतिदिनकृत्यम्" (५७) यशोधरचरित्रम् (५८) योगदृष्टिसमुच्चय:-" (५९) योगबिन्दु” (६०) योगशतकम् (६१) योगविंशतिः " (६२) लग्नकुण्डलिका” (६३) लग्नशुद्धिः ” (६४) लघुक्षेत्रसमासः * (६५) लघुसंग्रहणी" (६६) लोकतत्त्वनिर्णयः " (६७) लोकबिन्दुः” (६८) विंशिका (६९) वीरस्तव:" (७०) वीराङ्गदक था 100 (७१) वेदबाह्यतानिराकरणम् 01 (७२) व्यवहारकल्प : 102 (७३) शास्त्रवार्तांसमुच्चय: स्वोपज्ञटीकोपेतः (७४) श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति: (७५) श्रावकधर्मतन्त्रम्" (७६) षड्दर्शनसमुच्चय 100 (७७) षड्दर्शनी'07 (७८) षोडशकम् (७१) संकितपंचासी (८०) संग्रहणीवृत्तिः 10 (८१) संपञ्चासित्तरी" (८२) संबोधसित्तरी 12 (८३) संबोधप्रकरणम्" (८४) संसारदावास्तुति 114 (८५) संस्कृतात्मानुशासनम् (८६) समराइच्चकहा" (८७) सर्वज्ञसिद्धिः " सटीका (८८) स्याद्वादकुचोद्यपरिहारः ' 1 104 " " 115 118 103 उक्तसंख्याकग्रन्थनिर्माणातिरिक्तं महानिशीथसूत्रोद्धारमपि हरिभद्रसूरिभिर्विरचितम् । इदमेवाह प्रभावकचरित्रकृत् "चिरविलिखितवर्णशीर्णभग्नप्रविवरपत्रसमूहपुस्तकस्थम् । कुशलमतिरिहोदधार जैनोपनिषदिकं स महानिशीथसूत्रम् ॥ २१९॥” जिनप्रभसूरयस्तु स्वतीर्थकल्पे जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमुक्तसूत्रोद्धारकमसूसुचन्, तदेतद् द्वितीयजिनभद्रगण्यपेक्षं स्याद् हरिभद्रसूरिभिश्च तत्सांमत्येन साहाय्येन वा तदुद्धारः कृतः स्यात्तदा न विसंवादास्पदम् । “सिद्धसेन - हरिभद्रप्रमुखैरष्टाभिराचार्यैर्महानिशीथमुद्धृतम्' इत्यपि बहूनां प्रवादः, द्वितीयसिद्धसेनाऽपेक्षश्चायमपि न विसंवदति । इयं च हरिभद्रसूरीणां कृतिर्विरहादि कतैवाधिकमुपलभ्यते, कियानपि भागस्तद्रहितोऽपि । एतच्च हारिभद्रीयग्रन्थव्याख्यातुभिरप्यभिप्रेतम् । यदूचुरष्टकवृत्ती विरहशब्दं विवृण्वन्तः श्रीजिनेश्वरसूरय : - (८६) हृदमेव प्रतिक्रमणविधिप्रकाशे 'साधुदिनकृत्य-नामा निर्दिष्टम् जैनग्रन्थावल्यामप्येतद्हरिभद्रकृतकत्वेन परिगणितम् (८७) वेबरपण्डितेनैव स्वपुस्तके समुल्लखितमिदम् (८८) सटीकोपि मुद्रित (८९) प्रसिद्धः, टीकया यह मुद्रित (९०) प्रवन्धको राजशेखरसूरिनिर्दिष्टम् (९१) धर्मविन्दुभाषान्तरकारेण गृहीतनामा (९२) पिटर्सनपण्डितेन परिकथिता, इयं च लग्नशुद्धितो विभिन्ना तस्या एव वा नामान्तरमिति निर्णेतव्यमद्यापि (९३) इमामेव हेमहंसगणयो निजे आरम्भसिद्धिवार्तिके "एते कुमारयोगा अपि नेष्टाः पथासंभवं कर्कच संवर्तक काण यमघण्टायोगोत्पतेरिति श्रीहरिभद्रसूरिकृते शुद्धिकरणे" "उक्तं च हारिभद्यां लशुद्धी" - इत्यादिना मुहुर्मुहुरस्मार्षुः (९४) धर्मबिन्द्वनुवादकेनैव परिगणितः (९५) पण्डितक्लत्तजैननामसंग्रहे समुपात्ता (९६) प्रसिद्धो मुद्रितश्च (९७) पण्डितवेवरेण क्लतेन च गृहीतनामा (९८) प्राकृतभाषामयैः प्रत्येकविंशतिगाथाप्रमाणविंशतिप्रकरणैर्निरुपितोऽयं ग्रन्थः (९९) विरहशब्दलालित्वेन धर्मबिन्द्वनुवादकस्य हरिभद्रकृतत्वमुद्धावितम् । इममेव पद्यत्रयात्मकत्वेन स्तुतित्रयं, विरहोपलक्षितत्वेन च हरिभद्रसूरिकर्त्तृकमुद्धोषयन्तः स्वमतपुष्टयै समुपन्यस्यन्ति त्रिस्तुतिकाः । तदत्र विरहशब्दमृते नान्यत् प्रमाणान्तरमेतत्कृतकत्वे, विरहशब्दस्य च प्रकृताचार्यकृत्यंकत्वेऽपि नैतत्कृतकत्वसाधनता, व्याप्त्यभावात् (१००) संदिग्धैतद्हरिभद्रकर्तृकतया जैनग्रन्थावल्यादावियमुपदर्शिता (१०१) जैनग्रन्थावल्यां क्लत्तस्य जैननामसंग्रहे च समुपदर्शितमिदम् (१०२) धर्मबिन्दुगूर्जरभाषानुवादपुस्तके तत्कर्त्रा प्रदर्शितः । वायटगच्छीयजिनदत्तसूरयोऽपि निजे शकुनशास्त्रे - " यदाहुः श्रीहरिभद्रसूरयोऽपि स्वव्यवहारकल्पे "नक्षत्रस्य मुहूर्तस्य तिथेश्च करणस्य च । चतुर्णामपि चैतेषां शकुनो दण्डनायकः ॥ अपि सर्वगुणोपेतं न ग्राह्यं शकुनं विना । लग्नं, यस्मान्निमित्तानां शकुनो दण्डनायकः ॥" -इत्येवं ग्रन्थमिममस्मरन् । (१०३) अयं यशोविजयोपाध्यायैरपि 'स्याद्वादकल्पलता' भिख्यया बृहट्टीकया विभूषितः, मुद्रितश्च सटीकोऽपि (१०४) 'सावयपन्नत्ति' इति विख्यातोऽयं मूलग्रन्थः श्रीमतामुमास्वातिवाचकानां कृतिः, वृत्तिश्च हरिभद्रसूरीणामिति प्रसिद्धिः । प्रबन्धकोशे चैतत्कृतितयोपन्यस्तः 'श्रावकप्रज्ञप्तिः' इति ग्रन्थोऽप्यस्या एव संक्षिप्तं नामेति संभाव्यते (१०५) श्रावकधर्मविधिनामकं प्रथमपञ्चाशकमेवान्यगाथापरिक्षेपेण संवर्धितमिदंनाम्रा प्रख्यातम् अस्य च मानदेवसूरिभिर्वृत्तिरपि व्यरचि (१०६) अयं गुणरत्नसूरिणा पणिभद्रेण च विदुषा क्रमतो बृहत्या लघ्व्या च टीकया समलङ्कृतः, मुद्रितश्च (१९०७) धर्मबिन्दुभाषान्तरकृता निर्दिष्टेयं षड्दर्शनसमुच्चयाद्भिन्नाऽभिन्ना वेति निर्णयमपेक्षते (१०८) प्रसिद्धमिदं प्रकरणम्, यशोभद्रसूरिभिर्यशोविजयोपाध्यायैश्च टीकाभ्यामुपशोभितम् । पण्डितक्लत्तेन त्वस्य विवरणमपि हारिभद्रीयमभिमतम् । मुद्रितमेतत् श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धारे (१०९) अशुद्धं प्रतिभातीदं नाम । पण्डितक्लत्तेन पुनः "संकित पंचसि " इत्युल्लिखितम् इदमपि च न (११०) गणधरार्धशतकवृत्यादावियमुल्लिखिता (१११) भाउजीपतिय पुस्तकतः समुद्धतमिदं नाम हरिभद्रसूरिचरित्रे पण्डितहरगोविन्ददासेन पण्डितक्त्तस्तु "संपत्ति इत्येवमुपादर्शयत् (११२) इयमपि पण्डितप्रमुखैर्निरदिश्यत (११३) मुद्रितमिदं राजनगरे (११४) सुप्रसिद्धेयं पद्यचतुष्टयात्मिका वीरस्तुतिः। इयं सूरिभिः स्वावसानकाले निर्मिता इति प्रसिद्धि (११५) सुमतिगणना क्लतादिभिच निर्दिष्टमिदं स्वस्वपुस्तकेषु (११६) इयम् - "गुणसेण अगिसम्मा" इत्यादिगाथाष्टकमात्रं पूर्वाचार्यप्रणीतमवलम्ब्य निर्मिता प्राकृतभाषामयी शान्तरसप्रधाना कथा । उक्तमिदमस्या एव भूमिकायां ग्रन्थकारेण - " भणिअं च पुव्वायरिएहिं गुणसेण अगिसम्म..... १-८ । एवमेआओ चरिसंगह निगाहाओ संघर्ष एपासिं चैव गुरुवाएमाणुसारेणं वित्थरेगं भावत्यो कहिजह' महाकविना धनपालेनापि तिलकमजयनियमेवमुपश्लोकिता कलिकाल श्रीहेमचन्द्राचार्य "निरोद्धुं पार्यते केन समरादित्यजन्मनः । प्रशमस्य वशीभूतं समरादित्यजन्मनः ॥ २९ ॥” श्रीदेवचन्द्रसूरयोऽपि शान्तिनाथचरिते एतत्कर्तुत्वेन हरिभद्रसूरीनेवरमाः "वंदे सिरिहरिभदं सूरिं विउसयणणिग्गयपयावं । जेण य कहापबंधो समराइच्चो विणिम्मविओ ॥" प्रद्युम्नसूरिभिर्विक्रमतः १३२४ तमे वर्षे अस्या एव प्रतिच्छायारूपः “समरादित्यसंक्षेपः" संस्कृतभाषया पद्यबन्धेन निबद्धः । अस्याश्च टिप्पनकमप्येकं सुमतिवर्धनगणिना निरमाथि ( ११७) जैगन्धावल्यामुपात्ता "विशेषतस्तु सर्वसिद्धिटीकातोऽवसेष" इति स्वोपज्ञानेकान्तजयपताकावृतितञ्च सूचिता (११८) "अन्यत्र स्याद्वादकुचोद्यपरिहारादौ" इत्याद्यनेकान्तजयपताकाटीकावचनतोऽवबुद्धसद्भावः । 10 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : “विरहशब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितम्, विरहाङ्कत्वाद् हरिभद्रसूरेरिति ।" पञ्चाशकवृत्तौ श्रीमदभयदेवसूरयोऽपि " इह च विरहशब्देन हरिभद्रचार्यकृतता प्रकरणस्य सूचिता, विरहाङ्कत्वात्तस्य ।" ललितविस्तरापञ्जिकायां मुनिचन्द्रसूरय :- "इह विरह इति याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्य" योगबिन्दुटीकायां तत्कर्तार :- "विरह इति च भगवतः श्रीहरिभद्रसूरेः प्रकरणाङ्कयोतकः” इति । प्रबन्धकोशे राजशेखरसूरयश्चं - "तत्प्रथमं याकिनीधर्मसूनुरिति हरिभद्रग्रन्थेष्वन्तेऽभूत्, १४४० पुनर्भवविरहः" इति । तत्र–“अष्टकाख्यं प्रकरणं कृत्वा यत्पुण्यमर्जितम् । विरहात्तेन पापस्य भवन्तु सुखिनो जनाः ॥" इत्यष्टकप्रकरणे, " स तत्र दुःखविरहादत्यन्तसुखसंगतः । तिष्ठत्ययोगो योगीन्द्रवन्द्यस्त्रिजगदीश्वरः ॥” इति धर्मबिन्दौ " कृत्वा यदर्जितं पुण्यं मयैनां शुभभावतः । तेनाऽस्तु सर्वसत्त्वानां मात्सर्यविरहः परः ॥” इति ललितविस्तरायाम्, " कृत्वा टीकामेनां यदवाप्तं कुशलमिह मया तेन । मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ॥” इति पञ्चवस्तुकटीकायाम्, “कृत्वा प्रकरणमेतद्यदवाप्तं किञ्चिदिह मया कुशलम् । भवविरहबीजमनघं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥” इति शास्त्रवार्तासमुच्चये, “योग्येभ्यस्तु प्रयत्नेन देयोऽयं विधिनान्वितैः । मात्सर्यविरहेणोच्चैः श्रेयोविघ्नप्रशान्तये ॥” इति योगदृष्टिसमुच्चये, “एते प्रवचनतः खलु समुद्धृता मन्दमतिहितार्थं तु । आत्मानुस्मरणाय च भावा भवविरहसिद्धिफलाः ॥” इति षोडशकप्रकरणे, "कृत्वा प्रकरणमेतद् यदवाप्तं कुशलमिह मया तेन । मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ॥" इत्यमेकान्तजयपताकायाम्, “समुद्धत्यार्जितं पुण्यं यदेनं शुभभावतः । भवान्ध्यविरहात्तेन जनः स्ताद् योगलोचनः ॥” इति योगबिन्दौ, "वाणीसंदोहदे हे ! भवविरहवरं देहि मे देवि ! सारम्" इति संसारदावेति प्रसिद्धायां वीरस्तुतौ, "काऊण पगरणमिणं पत्तं जं कुसलमिह मया तेणं । दुक्खविरहाए भव्वा लभंतु जिणधम्मसंबोधिं" ॥” इति धर्मसंग्रहण्याम्, "जाइणिमयहरिआए रइआ एए उ धम्मपुत्तेण । हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं 20 ।।" इत्युपदेशपदेषु, "जम्हा एसो सुद्धो अनिआणो होइ भाविअमईणं । तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं 21 ॥” इति पञ्चाशकप्रकरणे, "इच्चाइगुणसमेया भवविरह पाविऊण परमपयं । पत्ता अणंतजीवा तेसिमणुमोयणा मज्झ 22 ॥” इति संबोधप्रकरणे च । इत्यादीनि निदर्शनानि विरहशब्दलाञ्छितग्रन्थानाम् । विरहाङ्ककरणकारणं च हंस- परमहंसाख्यस्वविद्वच्छिष्यद्वयवियोगसूचनमिति । यदुक्तं प्रभावकचरित्रे - "अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोर्मिभरेण तप्तदेहः । निजकृतिमिह संव्यधात्समस्तां विरहपदेन युतां सतां स मुख्यः ॥२०६॥ दशवैकालिकटीकाऽऽवश्यकवृत्ति - प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्याप्रभृतयष्टीकाः, समरादित्यकथा - षड्दर्शनसमुच्चय- लोकतत्त्वनिर्णयप्रमुखाः प्रकरणग्रन्थाश्च विरहरहितानां दृष्टान्ता इति । तदेवमेषामत्यद्भुतप्रतिभाप्राग्भारजुषां प्रभुहरिभद्रसूरीणां सैद्धान्तिकशिरोमणितया, दार्शनिकाग्रगामितया, कविकुलनेतृतया च संजातबहुमानश्रद्धा बहवोप्याचार्या, दर्शनशास्त्रप्रवीणाः, कवयश्च स्वस्वप्रबन्धेषु एनान् विषयांकृत्य स्तुतिमौखर्यमादधुः । तथाहि - "सूर्यप्रकाश्यं क्व नु मण्डलं दिवः खद्योतकः क्वाऽस्य विभासनोद्यमी । क्व धीशगम्यं हरिभद्रसद्वचः क्वाऽधीरहं तस्य विभासनोद्यतः ॥ ३ ॥" “परहिताधाननिबिड निबद्धबुद्धिर्भगवान्सुगृहीतनामधेयः श्री हरिभद्रसूरिः" "नित्यं श्रीहरिभद्रसूरिगुरवो जीयासुरत्यद्भुतज्ञान श्रीसमलङ्कृताः सुविशदाचारप्रभाभासुराः । येषां वाक्प्रपया प्रसन्नतरया शीलाम्बुसंपूर्णया भव्यस्येह न कस्य कस्य विदधे चेतोमलक्षालनम् ॥१ ॥ (- जम्बूद्वीपसंग्रहणीटीकायां श्रीप्रभानन्दसूरयः) "उइयम्मि मिहिरि भदं सुदिट्टिणो होइ मग्गदंसणओ । तह हरिभद्दायरियम्मि मद्दा (द) यरियम्मि उदयमिए 23 ५६ " ( गणधर सार्धशतके श्रीजिनदत्तसूरयः) ११९. - कृत्वा प्रकरणमिदं प्राप्तं यत् कुशलमिह मया तेन । दुःखविरहाय भव्या लभन्तां जिनधर्मसंबोधिम् ॥ १२०. - याकिनीमहत्तराया रचिता एते तु धर्मपुत्रेण । हरिभद्राचार्येण भवविरहमिच्छता ।" १२१. - यस्मादेष शुद्धोऽनिदानो भवति भावितमतीनाम् । तस्मात् कुस्त सम्यग् यथा विरहो भवति कर्मणाम् ॥” १२२. – इत्यादिगुणसमेता भवविरहं प्राप्य परमपदम् । प्राप्ता अनन्तजीवास्तेषामनुमोदना मम ॥" १२३. - "उदिते मिहिरे भद्रं सुदृष्टेर्भवति मार्गदर्शनतः । तथा हरिभद्राचार्ये भद्रा (द) चरिते उदयमिते ॥५६॥" (- अष्टकटीकायां श्रीजिनेश्वरसूरयः) (-उपदेशपदवृत्तौ श्रीमुनिचन्द्रसूरयः) 11 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः प्रसिद्धास्ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान् निबन्धान् शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥८ ॥ ( - स्याद्वादरत्नाकरे श्रीवादिदेवसूरयः) "हारिभद्रं वचः क्वेदमतिगम्भीरपेशलम् । क्व चाहं जड धीरेष स्वल्पशास्त्रकृतश्रमः ॥” ( - धर्मसंग्रहणीटीकायां श्रीमलयगिरिसूरयः) "मतिबौद्धाः ! शुद्धा प्रभवति कथं साऽद्य भवतां विचारश्चार्वाकाः ! प्रचरति कथं चारचतुरः । कृतर्कस्तर्कज्ञाः ! किमपि स कथं तर्कयति वः सति स्याद्वादे श्रीप्रकटहरिभद्रोक्तवचने ॥१॥ ग्रावग्रन्थिप्रमाथिप्रकटपटुरणत्कारवाग्भारतुष्टप्रेङ्खद्दर्पिष्ठदुष्टप्रमदवशभुजास्फालनोत्तालबालाः । यद् दृष्ट्वा मुक्तवन्तः स्वयमतनुमदं वादिनो हारिभद्रं तद् गम्भीरप्रसन्नं न हरति हृदयं भाषितं कस्य जन्तोः ॥ २ ॥ यथास्थितार्हन्मतवस्तुवेदिने निराकृताऽशेषविपक्षवादिने । विदग्धमध्यस्थनृमूढतारये नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये 24 ॥३॥” (श्रीयक्षदेवमुनिः) " श्रीहरिभद्रसूरीन्द्रः पारीन्द्र इव विश्रुतः । परतीर्थ्यास्त्रासयित्वा मृगानिव गुरुर्जयी ॥१॥" (- कश्चित्) “हारिभद्रवचः क्वेदमतिगम्भीरपेशलम् । क्वाचाऽहं शास्त्रलेशज्ञस्तादृक्तन्त्राऽविशारदः ॥२॥ येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्धविद्यामस्मिन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः । ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः सुखाय ॥३॥” (शास्त्रवार्तासमुच्चयवृत्तौ श्रीयशोविजयोपाध्यायाः) " सिरिपायलित्तकइ-बप्पभट्टि - हरिभद्दसूरिपमुहाणं । किं भणिमो उणज्ज (अज्ज) वि न गुणेहिं समो जगे सुकई25 ||" (- भुवनसुन्दरीकथायां श्रीविजयसिंहसूरयः) "भदं सिरिहरिभदस्स सूरिणो जस्स भुवणरंगम्मि । वाणी विसट्टरसभावमंथरा नच्चए सुइरं 126 ॥” (- सुपार्श्वनाथचरिते श्रीलक्ष्मणगणयः) "ये च पूर्वं पादलिप्त - शातवाहन - षट्कर्णक- विमलाङ्क - देवगुप्त - बन्दिक - प्रभञ्जन - श्रीहरिभद्रसूरिप्रभृतयो महाकवयो बभूवुः, येषामेकैकोऽपि प्रबन्धोऽद्यापि सहृदयानां चेतांस्यनुहरति, ततः कथं तेषां महाकवीनां कवित्वतत्त्वपदवीमनुभवामः । ( - संस्कृतकुवलयमालायां श्रीरत्नप्रभसूरयः) तदेवमेषामनन्यसाधरणेनाऽवदातचरितलेशेन श्रुतिपथमायातेनैवेयमभ्युदेति तत्सत्तासमयादिजिज्ञासावृत्तिः, तदुपशमश्च न तदुचितप्रमाणयुक्तिप्रतिपादनमन्तरेणोपजायते इति किंचिदिहोपन्यस्तुं योग्यम् । हरिभद्रसूरीणां हि सत्तासमयं प्रत्यपि नैकमताः सर्वेऽपि विद्वांसः । केचित् सिद्धर्षेर्दीक्षागुरुत्वं तत्समकालभावित्वं च व्याहरन्तो विक्रमस्य नवम-दशमयोरब्दशतयोर्मध्यभागमेतत्सत्ताधारत्वेन व्यञ्जयन्ति । अन्ये च स्पष्टभावेन षष्ठशतकभवत्वमेषामङ्गीकुर्वते। तत्राद्यानामिमे प्रवादाः (१) राजशेखरसूरीणां प्रबन्धकोशे - " अत्रान्तरे श्रीमालपुरे कोऽपि धनी श्रेष्ठी जैनः चातुर्मासके सपरिकरो देवतायतनं व्रजन् सिद्धाख्यं राजपुत्रं द्यूतकारं युवानं देयकनकपदे निर्दयैर्द्यूतकारैर्गर्तायां निक्षिप्तं कृपया तद्देयं दत्त्वाऽमोचयत्, गृहमानीय अभोजयत्, अपाठयत्, पर्यणाययत् । माता प्रागप्यासीत् पृथग्गृहमण्डनिका । श्रेष्ठिप्रसादाद्धनम् । सिद्धो रात्रौ अतिकाले एति, लेख्यकलेखलेखनपरवशत्वात् । श्वश्रु- स्नुषे अतिनिर्विण्णे, अतिजागरणात् । वध्वा श्वश्रुरुक्ता मातः ! पुत्रं तथा बोधय यथा निशि सकाले एति । मात्रा उक्तः स वत्स ! निशि शीघ्रमेहि, यः कालज्ञः स सर्वज्ञः । सिद्धः प्राह मातः ! येन स्वामिनाऽहं सर्वस्वदानेन जीवितव्यदानेन च समुद्धृतः तदादेशं कथं न कुर्वे ! तूष्णीकेन स्थिता माता । अन्यदाऽऽलोचितं श्वश्रुस्नुषाभ्याम् - अस्य चिरादागतस्य निशि द्वारं नोद्घाटयिष्यावः । द्वितीय अतिचिराद् द्वारमागतः स कटं (कपाटं) खटखटापयति । ते तु न ब्रूतः । तेन क्रुद्धेन गदितम् - किमिति द्वारं नोद्घाटयेथाम् ? । ताभ्यां १२४. –संगमसिंहसूरिसमीपे नागपुरे श्रुताध्ययनायाऽऽगतो जयसिंहसूरिशिष्यो यक्षदेवनामा कश्चिन्मुनिः श्रीहरिभद्रसूरिकृताऽनेकान्तजयपताकादिन्यायग्रन्थनिचयं विलोक्य जातविस्मयो हरिभद्रस्तुतिरूपं काव्यत्रितयमिदं विनिर्ममे, इदं च तदग्रतो निबद्धेनामुना काव्यद्वयेनाधिगम्यते, तथाहि " सितपटहारिभद्रं ग्रन्थसंदर्भदर्भ विदितमभयदेवं निष्कलङ्काऽकलङ्कम् । सुगतमतमथाऽलङ्कारपर्यन्तमुच्चैस्त्रिविधमपि च तर्क वेत्ति यः सांख्य- भट्टौ ॥४॥ श्रीमत्संगमसिंहसूरि सुकवेस्तस्यांहिसेवापरः शिष्यः श्रीजयसिंहसूरिविदुषस्त्रैलोक्यचूडामणेः । यः श्रीनागपुरे (र) प्रसिद्धसुपुरस्थायी श्रुतायागतः श्लोकान् पञ्च चकार सारजडिमाऽसौ यक्षदेवो मुनिः ॥५॥” १२५. –“श्रीपादलिप्तकवि - बप्पभट्टि - हरिभद्रसूरिप्रमुखाणाम् । किं भणामः पुनरद्यापि न गुणैः समो जगति सुकविः ॥" १२६. –“भद्रं श्रीहरिभद्रस्य सूरेर्यस्य भुवनरङ्गे । वाणी विकसितरसभावमन्थरा नृत्यति सुचिरम् ॥” 12 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रितपूर्विणीभ्यामुक्तम् यत्रेदानी द्वाराणि उद्घाटितानि तत्र व्रज! तत्श्रुत्वा क्रुद्धः चतुष्पथं गतः । तत्रोद्घाटे हट्टे उपविष्टान् सूरिमन्त्रस्मरणपरान् श्रीहरिभद्रान् दृष्टवान् । सान्द्रचन्द्रके नभसि देशना, बोधः, व्रतम्, सर्वविद्यता, दिव्यं कवित्वम् । हंस-परमहंसवद् विशेषतर्कान् जिघृक्षुबौद्धान्तिकं जिगमिषुर्गुनवादीत्→ प्रेषयताद् बौद्धपार्श्वे । गुरुभिर्गदितम्-तत्र मा गाः, मनःपरावर्तो भावी! ऊचे-युगान्तेऽपि नैवं स्यात् । पुनर्गुरवः प्रोचुः- तत्र गतः परावर्त्यसे चेत् तदाऽस्मद्दत्तं वेषमत्राऽऽगत्याऽस्मभ्यं ददीथाः । उररीचक्रे सः । गतस्तत्र, पठितुं लग्नः । सुघटितैस्तत्कुतः परावर्तितं मनः । तद्दीक्षां ललौ । वेषं दातुमुपश्रीहरिभद्रं ययौ । तैरपि आगच्छन् झटितः (?)। एवं वेषद्वयप्रदानेन एहिरेयाहिराः २१ । द्वाविंशवेलायां गुरुभिश्चिन्तितम्-माऽस्य वराकस्य आयुःक्षयेण मिथ्यादृष्टित्वे मृतस्य दीर्घभवभ्रमणं भूत् । पुरापि २१ वारं वादैर्जितोऽसौ, अधुना वादेनाऽलम्, ललितविस्तराख्या चैत्यवन्दनवृत्तिः सतर्का कृता । तदागमे पुस्तिकां पादपीठे मुक्त्वा गुरवो बहिरगुः । तत्पुस्तिकापरमर्शाबोधः सम्यक् । ततस्तुष्टो निश्चलमनाः प्राह - ___नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥" (२) श्राद्धप्रतिक्रमणार्थदीपिकाटीकायां श्रीरत्नशेखरसूरय : "मिथ्यादृष्टिसंस्तवे हरिभद्रसूरिशिष्यसिद्धसाधुव्रतम्-स सौगतमतरहस्यमर्मग्रहणार्थं गतः । ततस्तैर्भावितो गुस्दत्तवचनत्वान्मुकलापनायागतो गुसभिर्बोधितो बौद्धानामपि दत्तवचनत्वान्मुत्कलापनार्थं गतः । पुनस्तैर्भावितः । एवमेकविंशतिवारान्गतागतमकारीति । तत्प्रतिबोधनार्थं गुस्कृतललितविस्तराख्यशक्रस्तववृत्त्या दृढं प्रतिबुद्धः श्रीगुरुपार्श्वे तस्थौ" इति । (३) पाडीवालगच्छीयपट्टावल्याम् - 12"गग्गायरिआ य एकया सिरीमालपुरे गया । तत्थ धनी नाम सिट्ठी जिणसावओ । तस्स गिहे सिद्धो णाम रायपुत्तो । सो गग्गरिसिआयरिएण दिक्खिओ । अईवतक्कबुद्धिओ अण्णया भणइ→अओ परं तकं अत्थि ण वा? दुग्गायरिएण (गग्गायरिएण?) कहिअं-बुद्धमए अत्थि । गंतुमाढत्तो । गग्गरिसिणा कहिअं→मा गच्छ, सद्धाभंसो भावी! । तेण कहिअं→इत्थ आगमिस्सामि । गओ, समत्तहीणो आगओ । दुग्गा (गग्गा) यरिएण बोहिओ पुणो गओ । एवं पुणो पुणो गमणागमणं । तदा गग्गायरिएण विजयाणंदसूरिपरंपरासीसो हरिभद्दायरिओ महत्तरो बोहमयजाणगो बुद्धिमंतो विण्णविओ-सिद्धो ण ठाति' । हरिभद्देण कहिअं→को वि उवाओ (कमवि उवाय) करिस्सामि । सो आगओ बोहिओ ण ठाति । ताधे हरिभद्देण बोहणत्थं ललिअवित्थरा वित्ती रइआ तक्कमंथरा । हरिभद्दो णिअकालं णच्चा गग्गायरियस्स समप्पिआ (अ) अणसणेण देवलोयं पत्तो । तओ कालंतरेण आगओ । गग्गेण दिण्णा । सो वि लट्ठो→अहो! अइपंडिओ हरिभद्दगुरू । सम्मत्तं पडिवन्नो जिणवयणे भावियप्पा उग्गतवं चरमाणो विहरइ।" द्वितीयपक्षप्रसाधकानि प्रमाणानि पुनरेतानि - (१) मेस्तुङ्गसूरीणां विचारश्रेणिप्रकरणे - "पंचसए पणसीए विक्कमकालाउ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो निव्वुओ (निव्वुअओ) दिसउ सिवसुक्खं ॥" . (२) प्रद्युम्नसूरीणां विचारसारप्रकरणे - "पंचसए पणत्तीए (सीए) विक्कमभूवाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो धम्मरओ देउ मुक्खसुहं ॥३०॥" अहवा, "पणपन्नदससएहिं हरिसूरी आसि तत्थ पुवकई । तेरसवरिससएहिं अईएहिं बप्पभट्टिपहू" ॥३१॥" (३) केषाञ्चिद् जीर्णपत्रेषु - "वीराउ वयरो वासाण पणसए दससएण हरिभद्दो । तेरसहिं बप्पभट्टी अट्टहिं पणयाल वलहिखओ3० ॥" (४) समयसुन्दरगणीनां गाथासहस्रयाम् - १२७. -गर्गाचार्याश्चैकदा श्रीमालपुरे गताः । तत्र धनी नाम श्रेष्ठी जिनश्रावकः । तस्य गृहे सिद्धो नाम राजपुत्रः । स गर्गाचार्येण दीक्षितः । अतीवतर्कबुद्धिकोऽन्यदा भणति-अतः परं तर्कोऽस्ति न वा? । दुर्गाचार्येण (गर्गाचार्येण) कथितम्-बुद्धमतेऽस्ति । गन्तुमारब्धः । गर्षिणा कथितम्-मा गाः, श्रद्धाभ्रंशो भावी ! । तेन कथितम्-अत्राऽऽगमिष्यामि । गतः, सम्यक्त्वहीन आगतः । दुर्गा (गर्गा) चार्येण बोधितः पुनर्गतः । एवं पुनः पुनर्गमनाऽऽगमनम् । तदा गर्गाचार्येण विजयानन्दसूरिपरम्पराशिष्यो हरिभद्राचार्यों महत्तरो बौद्धमतज्ञायको बुद्धिमान् विज्ञप्तः- "सिद्धो न तिष्ठति' । हरिभद्रेण कथितम्-कोप्युपायः (कमप्युपायं) करिष्यामि । स आगतो बोधितो न तिष्ठति । तदा हरिभद्रेण बोधनार्थ ललितविस्तरावृत्ती रचिता तर्कमन्थरा । हरिभद्रो निजकालं ज्ञात्वा गर्गाचार्यस्य समर्पिता (समय) अनशनेन देवलोकं प्राप्तः । ततः कालान्तरेणाऽऽगतः । गर्गेण दत्ता । सोऽपि लब्धार्थः अहो ! अतिपण्डितो हरिभद्रगुरुः । सम्यक्त्वं प्रतिपन्नो जिनवचने भावितात्मा उग्रतपश्चरन् विहरति ।" १२८. -"पञ्चशते पञ्चाशीते विक्रमकालाद् झगित्यस्तमितः । हरिभद्रसूरिसूरो निर्वृतो दिशतु शिवसौख्यम् ॥" १२९. -“पञ्चशते पञ्चत्रिंशे (पञ्चाशीते) विक्रमभूपाद् झगित्यस्तमितः । हरिभद्रसूरिसूरो धर्मरतो ददातु मोक्षसुखम् ॥३०॥ अथवा, “पञ्चपञ्चाशद्दशशतैर्हरिसूरिरासीत् तत्र पूर्वकविः (कृती) । त्रयोदशवर्षशतैरतीतैर्बप्पभट्टिप्रभुः ॥३१॥" १३०. -अस्याश्छाया पूर्वमलेखि (प. १२ पृ. २) । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पंचसए पणसीए विक्कमकालाउ झत्ति अथमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो निव्वुओ (अओ) दिसउ सिवसोक्खं 31 ॥" (५) कुलमण्डनसूरीणां विचारामृतसंग्रहे - "वीरनिर्वाणाद् सहस्रवर्षे पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं, श्रीहरिभद्रसूरयस्तदनु पञ्चपञ्चाशता वर्दिवं प्राप्ताः ॥" (६) श्रीधर्मसागरोपाध्यायानां तपागच्छपट्टावल्याम् - "श्रीवीरात्पञ्चपञ्चाशदधिकसहस्रवर्षे, विक्रमात् पञ्चाशीत्यधिकपञ्चशतवर्षे याकिनीसूनुः श्रीहरिभद्रसूरिः स्वर्गभाक् ।" (७) श्रीहरिभद्रसूरीणां लघुक्षेत्रसमासवृत्तौ - _ "लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः रचिताऽबुधबोधार्थं श्रीहरिभद्रसूरिभिः ॥ "पञ्चाशीतिकवर्षे विक्रमतो व्रजति शुक्लपञ्चम्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे पुष्ये शस्ये भनक्षत्रे ॥" अर्थतन्मतद्वयमपि साधक-बाधकप्रमाणपरिचालनपुरस्सरं पर्यालोचनामुपस्थाप्यते । तत्र प्रथमोपन्यस्तं कथानकद्वितयं पट्टावलीपाठश्च हरिभद्रसूरिसमीपे सिद्धर्षेर्दीक्षाप्रतिपत्तिमनुमन्यते, ध्वनयति चैवं हरिभद्रसमयं सिद्धर्षिकालादभिन्नस्वरूपम् । एतच्च न केनापि पुराणविदुषाऽनुज्ञायते । विबाधितं च मन्तव्यमिदं सिद्धर्षिवचनेन । स हि गर्गर्षीनेवाङ्गीकरोति स्वदीक्षादातृत्वेन न तु हरिभद्रसूरीन् । तथा चेदमुपमितिभवप्रपञ्चायां तद्वच : "सद्दीक्षादायकं तस्य स्वस्य चाहं गुरुतमम् । नमस्यामि महाभागं गर्गर्षिमुनिपुङ्गवम् ॥" एवं हरिभद्रसूरीणां स्वसमकालभवत्वमपि सिद्धर्षिणैवोपन्यस्तेन - ___"अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदथैव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥" -- इत्युपमितिभवप्रपञ्चापद्येन निरस्तं भवति । अपि च, निजोपमितिभवप्रपञ्चायां प्रथमप्रस्तावे द्रमकरूपेण वर्णितं निष्पुण्यकजन्तुं निजात्मानमङ्गोकुर्वता तस्य भगवदवलोकनयोग्यत्वदर्शकं धर्मबोधकराभिधानं महानसनियुक्तं च विशिष्टज्ञानं स्वमार्गोपदेशकमादर्शयताऽपि तेन स्वधर्मबोधकराणां हरिभद्रसूरीणां स्वस्मात् पूर्वभवत्वमावेदितम् । तथा च तत्रत्यपाठलेशः- “यस्तु तत्र नगरे निष्पुण्यको नाम द्रमकः कथितः सोऽत्र संसारनगरे सर्वज्ञशासनप्राप्तेः पूर्वं पुण्यरहिततया यथार्थाभिधानो मदीयजीवो द्रष्टव्यः । यथा च तां महाराजदृष्टिं तत्र रोरे निपतन्तीं धर्मबोधकराभिधानो महानसनियुक्तो निरीक्षितवान् इत्युक्तं तथा परमेश्वरावलोकनां मज्जीवे भवन्तीं धर्मबोधकरणशीलो धर्मबोधकर इति यथार्थाभिधानो मन्मार्गोपदेशकः सूरिः स निरीक्षते स्म । तथाहि→सयानबलेन विमलीभूतात्मानः परहितैकनिरतचित्ता भगवन्तो ये योगिनः पश्यन्त्येव देशकालव्यवहितानामपि जन्तूनां छद्मस्थावस्थायामपि वर्तमाना दत्तोपयोगा भगवदवलोकनायोग्यतां, पुरोवर्तिनां पुनः प्राणिनां भगवदागमपरिकर्मितमतयोऽपि योग्यतां लक्षयन्ति, तिष्ठन्तु विशिष्टज्ञाना इति । ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव, यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैतिः समस्तोऽपि मदीयवृत्तान्तः । स्वसंवेदनसिद्धमेतदस्माकमिति ।" निर्दिष्टोपनयसंदर्भस्य हरिभद्रवर्णनपरत्वं च ग्रन्थकारेणैवोपदर्शितं तत्प्रान्तभागनिबद्धेनाऽमुना श्लोकेन - “आचार्यहरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाये निवेदितः ॥" एवं च हरिभद्रसूरीणां सिद्धर्षिसमसामयिकत्वे - 'ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैतिः समस्तोऽपि मदीयवृत्तान्त":- इत्यनेन साध्यमानं विशिष्टज्ञानवत्त्वमसंगतमेवाऽऽपद्येत, आगमपरिकर्मितमतीनामपि पुरोवर्तिप्राणिनिकरस्य योग्यताया लक्षकत्वाभिधानात् । एतेन 'अनागतम्' इत्यस्य बौद्धपुरादनागतं, जैनमतानभिज्ञं, बौद्धशास्त्रपरिभावितमतिर्भविष्यतीत्यनागतकालं, द्वाविंशवारं बौद्धलोकादनागतम्, असंपूर्णबोधं वा इत्याद्यर्थविकल्पनमपि निराकृतं भवति, "कालव्यवहितैः" इति वचनात, सर्वस्वकीयवृत्तान्तान्वयिक्रियाविशेषणत्वेनाऽनागतशब्दप्रयोगाच्च उक्तविकल्पानुपपत्तेः । एवं प्रभावकचरित्रे प्रभाचन्द्रसूरिभिः सिद्धर्षिमुखेनोपवर्णितं हरिभद्रसूरीणां पूर्वसूरित्वमप्यत्राऽनुसंधेयम्, तच्चेदम् - "का स्पर्धा समरादित्यकवित्वे पूर्वसूरिणा । खद्योतस्येव सूर्येण मादृग्मन्दमतेरिह॥" एतेन हरिभद्रसूरेः सिद्धर्षेश्चाऽभिन्नं समयं निरूपयन् पट्टावलीपाठोऽपि विबाधितो भवति । तेनोल्लिखितं विजयान्दसूरिपरम्पराशिष्यत्वमपि न घटते एतेषु । एते हि भगवन्तो विद्याधरकुलाऽलङ्काराणां जिनदत्तसूरीणां शिष्या इति पूर्वमेव साधितम् । विजया (जया)नन्दसूरिपरम्पराशिष्यत्वेन वर्ण्यमानहरिभद्रसूरयश्च चन्द्रकुलपरम्परायां लब्धप्रतिष्ठा इति स्पष्टमेव खरतरजिनरङ्गीयपट्टावल्यादिसाधनैरवबुध्यते । १०८८ मितविक्रमवर्षे विद्यमानाजिनेश्वरसूरेरधस्तनषष्ठपट्टधरतया निरूप्यमाणाश्चैते विक्रमस्य नवमशतकप्रान्तभवा इत्यनुमानमपि नाऽसंगतिमङ्गति । इत्थं च प्रबन्धकोशादिषु वर्णितं हरिभद्रसूरीणां सिद्धर्षिसमानसमयभवत्वमपि सकारणमापद्यते । अयं १३१. -पञ्चशते पञ्चाशोते विक्रमकालाद् झगित्यस्तमितः । हरिभद्रसूरिसूरो निर्वृतो दिशतु शिवसौख्यम् ॥" १३२. -जेसलमेस्दुर्गस्थबृहज्ज्ञानकोशे हरिभद्रसूरिकृतकतिपयलघुग्रन्थानां प्राचीनताडपत्राणि वर्तन्ते । तत्र हरिभद्रसूरिरचितायां लघुक्षेत्रसमासवृत्ताविदं श्लोकद्वयं दृश्यते । अस्यार्थश्च "विक्रमतः पंचशताधिकपञ्चाशीतिके वर्षे वृत्तिरियं निर्मिता' इत्येव प्रतिभाति । 14 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनस्तत्र भ्रमो यत् सिद्धर्षिकथासंबन्धित्वेन ललितविस्तरादिकृत्त्वेन च तेऽवर्ण्यन्त इति । दुर्निवारश्चाऽयं नामसादृश्यादिनिबन्धनछद्मस्थानामिति । द्वितीयपक्षे पुनरुपलभामहे विश्वसनीयप्रमाणोपसंग्रहं विबाधकप्रमाणविरहं च, तथा हि . श्रीमदभयदेवसूरयः पञ्चाशकटीकाप्रारम्भे - " इह हि विस्फुरन्निखिलातिशयधामनि दुःषमाकालविपुलजलदपटलावलुप्यमानमहिमनि नितरामनुपलक्ष्यीभूतपूर्वगतादिबहुतमग्रन्थसार्थतारतारकानिकरे पारङ्गतगदिताऽऽगमाम्बरे पटुतमबोधलोचनतया सुगृहीतनामधेयो भगवान् श्री विवक्षितार्थ हरिभद्रसूरिस्तथाविधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थिनामपट्टदृष्टीनामुन्नमितजिज्ञासाबुद्धिकन्धराणामैदंयुगीनमानवानामात्मनोपलक्ष्यमाणान् सार्थसाधनसमर्थान्कतिपयप्रवचनार्थतारतारकविशेषानुपदिदर्शयिषुः पञ्चाशद्गाथापरिमाणतया पञ्चाशकाभिधानानि प्रकरणानि चिकीर्षु ........ स्पष्टमेवाऽनेन रूपकबन्धेन भगवतां हरिभद्रसूरीणां समये पूर्वश्रुतस्य विलुप्यमानाऽवस्था, तां विप्रकीर्णदशामनुभवतस्तस्य कतिपयांशोपसंग्रहेण पञ्चाशकादिग्रन्थनिर्माणं च निवेद्यते, अथ चेदं तेषां विक्रमस्य षष्ठशतके एव विद्यमानत्वे संघटते नाऽन्यत्र । किंच, वीरप्रभोः सप्तविंशे पट्टे समारूढस्य उपरितनसमयाधारकस्य द्वितीयमानदेवसूरेर्मित्रत्वेन प्रकृतहरिभद्रसूरीन् वर्णयन्त्यनेके ग्रन्थकाराः, पट्टावल्यादिवचनान्यपि एतन्मतानुकूलानि । तथा च क्रियारत्नसमुच्चये गुणरत्नसूरय :- "ख्यातः श्रीहरिभद्रमित्रमभवत्श्रीमानदेवस्ततः " ॥ गुवाल्यां मुनिसुन्दरसूरय' 34: - अञ्चल - पौर्णमिकगच्छपट्टावल्यो: "अभूद् गुरुः श्रीहरिभद्रमित्रं श्रीमानदेवः पुनरेव सूरिः । यो मान्द्यतो विस्मृतसूरिमन्त्रं लेभेऽम्बिकाऽऽस्यात्तपसोज्जयन्ते ॥" “विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनीन्द्रमित्रं सूरिर्बभूव पुनरेव हि मानदेवः । "मान्द्यात् प्रयातमपि योऽनघसूरिमन्त्रं लेभेऽम्बिकामुखगिरा तपसोज्जयन्ते ॥" तपागच्छजीर्णपट्टावल्याम् 35 : " २७ श्रीमानदेवसूरिः, अम्बिकावचनाद् विस्मृतसूरिमन्त्रं लेभे । याकिनीसूनुहरिभद्रसूरिस्तदा जातः । तच्छिष्यौ हंस- परमहंसौ ।" अपि च, दाक्षिण्याङ्काः श्रीमदुद्द्योतनसूरयोऽपि " शालिवाहनस्य सप्तमशताब्द्यां विनिर्मितायां स्व "कुवलयमाला 37 कथायां सूरीनिमानित्थंकारं गाथाद्वयेन संसस्मरुः "जो इच्छइ भवविरहं भवविरहं को न वंधए (वंदए ) सुयणो । समयसयसत्थगुरुणो समरमिअंका (?) कहा जस्स ॥" "सो सिद्धंतगुरुपमाणनाएण जस्स हरिभदो ( ? ) । बहुगंथसत्थवित्थरपयडसव्वत्थो ( ? ) ।। 38 दिन्नगणिक्षमाश्रमणात् चतुर्थपट्टधरो भास्वामिनश्च शिष्यः सिद्धसेनगणिरपि यस्य सत्ताधारभूतः समयः पाश्चात्यैरेतद्देशीयैश्च विद्वद्भिर्विक्रमस्य षष्ठाब्दशतीप्रान्तभागोऽभ्युपगम्यते - तत्त्वार्थवृत्तौ "संज्ञिनः समनस्का: " एतत्सूत्रव्याख्याने हारिभद्रीयनन्दीव्याख्यानस्य 'हेतुः - काल- दृष्टिवादोपदेशक्रममुत्तरोत्तरविशुद्धमपहाय किं कारणं कालिक्यादौ व्यवस्थापिते" त्यादिकमंशं प्रमाणत्वेनोपन्यस्यन् सूरीणामेषां प्राचीनत्वं साधितवान् । तथा च तत्रत्यं स्थलम् - " निरूपितमिदं नन्द्यां सूत्रव्याख्याने 'हेतुकालदृष्टिवादोपदेशक्रममुत्तरोत्तरविशुद्धमपहाय किं कारणं कालिक्यादौ व्यवस्थापिते' त्येवमाक्षिप्तेऽभिहितमुत्तरं संज्ञ्यसंज्ञीति । ” पाश्चात्यदेशीयो याकोबीपण्डितस्तु हरिभद्रसूरीणां जिनभद्रशिष्यत्वं जिनभद्राणां च साध्यमानसमयादर्वाग्भवत्वमुररीकुर्वन्निदं द्वितीयमतं विप्रतिपद्यते, स्वीकरोति च सिद्धर्षिसमसमयभवत्वप्रतिपादनपरमाद्यमेव पक्षम् । तदिदं पूर्वमेव - "आचार्यजिनभटस्य हि " "विद्याधरकुलति१३३. - अस्य निर्माणकालोपदेशकं पद्यं पूर्वमुपदिष्टम् (प. ११ पृ. १) । १३४. – अस्या रचनाकालस्तु ग्रन्थकारेणेत्थमुपन्यस्तः " रस-रस- मनुमितवर्षे १४६६ मुनिसुन्दरसूरिणा कृता पूर्वम् । मध्यस्थैरवधार्या गुर्वालीयं जय श्रीदा ॥ ९३ ॥ " १३५. - कर्तृनामविरहितापि सुमतिसाधुसूरिपर्यन्ततपागच्छीयाचार्यनामावलीविभूषितत्वेन तत्समयलिखितेयमिति संभाव्यते । १३६. - एते आचार्यपुङ्गवा वटेश्वरक्षमाश्रमणपादानां प्रशिष्यास्तत्त्वाचार्याणां च शिष्या हीदेवीप्रसादभाजश्चाऽऽसन्निति कुवलयमालाप्रशस्तिगतेनाऽमुना पद्यचतुष्टयेन विज्ञायते १३८. " आगासवप्पनयरे वडेसरो आसि जो खमासमणो । तस्स मुहदंसणे च्चिय अवि पसमइ जो अहव्वो वि । तस्स य आयारधरो तत्तायरिओ त्ति नामसारगुणो । आसि तवतेयनिज्जिअपावतमोहो दिणयरो व्व ॥ जो दूसमसलिलपवाहवेयहीरन्तगुणसहस्साणं । सीलंगविउलसालो लग्गणखंभो व्व निक्कंपो । सीसेण तस्स एसा हिरिदेवीदिनदंसणमणेण । रइया कुवलयमाला विलसिरदक्खिनइंधेण ॥" १३७. - अस्या रचनाकालस्तु तत्रैव कविनैवमुपदिष्टः " संगकाले वोलीणे वरिसाण सएहिं सत्तहिं गएहिं । एगदिणेणूणेहिं एस समत्ताऽवरहम्मि ||" - य इच्छति भवविरहं भवविरहं को न बधाति (वन्दते) सुजनः । समयशतशास्त्रगुरोः समरमृगाङ्का (?) कथा यस्य । " "स सिद्धान्तगुरुप्रमाणन्यायेन यस्य हरिभद्रः । बहुग्रन्थसार्थविस्तर प्रकटसर्वार्थः ( ? ) ॥" 15 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य" "एयं जिणदत्तायरियस्स"-इत्यादिभिर्जिनभद्रशिष्यत्वनिराकरणपरैर्हरिभद्रसूरिवचनैरेव निराकृतम् । अत्र हरिभद्रसूरीणां सत्तासमयनिर्णयप्रसङ्गे बौद्धाचार्यधर्मकीर्तेः कालनिरूपणमप्यावश्यकम् । हरिभद्रसूरयो हि शास्त्रवार्तासमुच्चयाऽनेकान्तजयपताकावृत्तिप्रभृतिषु स्वीयग्रन्थेषु धर्मकीर्ते मग्रहणमनेकशोऽकार्यु: । एतद्व्यवहारवशेन पण्डितसतीशचन्द्रादिभिनिर्धारितो धर्मकीर्तेरनेहाः पट्टावल्यादिषु प्रसिद्धायां विक्रमाब्द ५८५ रूपायां हरिभद्रसूरिकालविनिश्चितौ महतीं विरोधबाधामुपढौकयति। पण्डितसतीशचन्द्रमहोदयस्य कथनानुसारेण ६३५-६५० तमख्रिष्टाब्दासन्नो धर्मकीर्तेः सत्तासमयः । परमेतन्निर्णयसत्यतायामदृढ श्रद्धा वयम् । यद्वृत्ताधारेणानन्तरोक्तः समयो विनिश्चितस्तद्वृत्तं यथार्थं स्यादिति हि मनो नाङ्गोकुस्ते । कुमारिलस्य धर्मकीर्ति प्रति पितृव्यता, सौगतवेशत्यागपूर्वकं धर्मकीर्तेाह्मणकुमारिलाभ्यणे तदीयमतशास्त्राध्ययनं, पश्चाद् वादे धर्मकीर्तिना पराजितस्य कुमारिलस्य बौद्धधर्मस्वीकारः इत्येवमादयस्तत्रोक्ताः प्रोल्लापाः केवलं बौद्धकल्पनालब्धजन्मानः प्रतिभान्ति'५० । एवंभूताच्च कर्णोपकर्णिकवृत्तान्ताद्विचारितनिश्चितो धर्मकीर्तिसत्ताकालनिर्णयोऽपि न विश्वासास्पदम् । एवं संक्षेपतो विद्याभूषणमहाशयस्य लेखं समालोच्य साम्प्रतं प्रकृतविषयोपयुक्तनि प्रमाणान्तराणि समन्वेषयामः । शंकराचार्य-कुमारिलयोः प्रयागे समापन्नस्य समागमनस्योदन्तः शंकरदिग्विजयादौ सुप्रसिद्धः । तस्यैव भट्टकुमारिलस्य शिष्यो मण्डनमिश्राख्यः शंकराचार्यपाश्वे संन्यासं संप्रतिपद्य सुरेश्वराचार्यनामा विख्यातिमाप्तवान् । स निजे बृहदारण्यकोपनिषद्वार्तिके धर्मकीर्ते मोदलिखत्" । त्र्यम्बकात्मज-पण्डितकाशीनाथतैलंगमहाशयानामन्वेषणानुसारेण पूर्णवर्मभूपतिसमसमयकत्वे शंकराचार्या ईसवीयषष्ठशताब्द्यां विद्यमाना आसन् । - स एव च समयस्तत्पट्टमधितस्थुषः सुरेश्वराचार्यस्य43 । एवं च धर्मकीर्तिस्ततोऽपि प्राचीन इति निस्संशयमसिध्यत् । 'भगवदूद्धजीवनचरित' - नाग्नि तिबेटन्पुस्तके धर्मरत्नराजः समुल्लिखति-'दिग्नागो धर्मकीर्तिश्च आर्याऽसङ्गस्य शिष्यावास्ताम, प्रमाणशास्त्रं च ताभ्यामध्यगाहि तत्पार्श्वे ।' योगाचारमतस्याऽद्वितीयो नेता आर्याऽसङ्गोऽयमभिधर्मकोषविधातुर्भदन्तवसुबन्धोरय्यबन्धुः । अस्य सत्ताकालच ख्रिष्टाब्दानां तृतीयशतकस्योत्तरभागो निर्धार्यते । यतोऽस्य लघुबन्धुना भदन्तवसुबन्धुना प्रायः स्वीयमधं वयस्तृतीयशतके व्यतिक्रम्य पश्चिमेन वयसा सह चतुर्थे शते प्रावेशि । वसुबन्धोरभिधर्मकोषः ४०४-५ तमख्रिष्टाब्देषु चीनभाषायां प्रतिफलितः । स्वस्थाने प्रचारमासाद्य दवीयःप्रदेशे तल्लाभाय वर्षाणां पञ्चाशतः षष्टेर्वाऽन्तरस्वीकारेऽभिधर्मकोषस्य निर्माणसमयः ३४५ तमख्रिष्टाब्दासन्नः समापद्यते। अस्मिंश्च समये वसुबन्धुरशीतिवर्षदेशीयः संभाव्यते । यतोऽमुं भदन्तसंघभद्रो वादाय समाजुहाव । अयं च स्ववार्धकं पुरस्कृत्य तदाह्वानं न्यषेधयत्, न्यवेदयच्च-'यद्यावयोर्वादः समापन्नः, तत्र चाहं पराजितो भवेयं तथापि ममाभिधर्मकोषस्य न लेशतोऽपि क्षतिरिति सुतरामवधेयम्।' अनेन ज्ञायते यदसौ वसुबन्धुरीसवीयतृतीयशतकस्य तृतीयचरणादारभ्य चतुर्थशतकस्य पूर्वाद्धं यावद् विद्यमान आसीत् । श्रूयते किलायमशीतिवर्षायुष्को भूत्वा परलोकमसाधयत् । १३९. -"तन्निवृत्तौ न चोपायो विनातीन्द्रियवेदनम् । एवं च कृत्वा साध्वेततत्कीर्तितं धर्मकीर्तिना ॥" (-"शास्त्रवार्तासमुच्चय-स्तबक १० श्लो. २४ पृ. ३७२) "उक्तं च धर्मकीर्तिना-न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम् ।" (-अनेकान्तजयपताका-परिच्छेद २ पृ. ९०) “आह च न्यायवादी धर्मकीर्तिर्वार्तिके-" (-अनेकान्तजयप. प. ३ पृ. १७७) १४०. –'बाहिरनिदानवण्णना-' प्रभृतिबौद्धधार्मिकग्रन्थपाठकैर्विदितचरमेव स्यात् यदुत, स्वधार्मिकोत्कर्षप्रसिद्धये निस्सीमातिशयोक्तिपूर्णकथाकल्पना स्वप्रतिहतवैदुष्या आसन् बौद्धलेखकाः । १४१. -"त्रिष्वेव त्वविनाभावादिति यद्धर्मकीर्तिना । प्रत्यज्ञायि प्रतिज्ञेयं हीयेताऽसौ न संशयः ॥" (बृहदारण्यकोपनिषद्वार्तिकम् ।) १४२. -यद्यपि तत्संप्रदायग्रन्थेषु गतकल्यब्द-३८८९ (विक्रमसंवत् ८४५, ई. स. ७८८) स्पः शंकराचार्याणां जन्मसमयो निरूपितः । यथा शंकरमन्दारसौरभे "प्रासूत तिष्यशरदामतियातवत्यामेकादशाधिकशतोनचतुःसहभ्याम् ।" अन्यत्रापि "निधिनागेभवयब्दे विभवे मासि माधवे । शुक्ले तिथौ दशम्यां तु शंकरार्योदयः स्मृतः ॥" इत्यादि, परमत्र विश्वासकारणं न लभामहे । शंकराचार्य-भट्टकुमारिलौ समकालभवाविति हि शंकरानुयायिनां दृढविश्वासः । भट्टकुमारिलश्च न कथंचनापि ई. स. सप्तमशतात्पश्चाद्भवत्वमर्हति । यतोऽस्य मतनिरसनं शान्तरक्षितस्य तत्त्वसंग्रहे कमलशीलकृतायां तत्पञ्जिकायां च पदे पदे निरीक्ष्यते । कुमारिलस्य श्लोकवार्तिकव्याख्यातुरोम्बेयकस्यापि नामोल्लेखस्तत्त्वसंग्रहपञ्जिकायाम्-"उम्बेयकस्त्वाह" (तत्त्वसंग्रहपञ्जिकापत्र २६६ पृ. २) इत्यादिस्थलेषु विलोक्यते । अपि च तत्रैव पुस्तके "ननु चेत्यादिना शंकरस्वामिनः परिहारमाशङ्कते" (तत्त्वसं. पञ्जि. पत्र ७३ पृ. १) "शंकरस्वामी प्राह न ज्ञानस्वभावाः सुखादयः" (तत्त्व. पञ्जि. प. १३९ पृ. १) इत्यादिस्थलेषु 'शंकरस्वामि' नामा व्यवहतानां शंकराचार्याणामपि नामग्राहं मतनिराकरणं विधीयते स्म । उपर्युक्तग्रन्थयोर्निर्माणसमयश्च यथाक्रम ७४९ तमः ७५० तमश्च ख्रिष्टाब्दात्मक इति स्पष्टमेव पूर्वोक्तः शंकराचार्याणामुररीकर्तव्यम् । श्रृङ्गेरीमठाधीश्वरशंकराचार्याणां पट्टावल्यां पुनरादिशंकराचार्याणां संन्यासग्रहणकालो विक्रमाब्द २२ रूपः समाधिसमयश्च ४६ वर्षात्मको निरूपितः । १४३. -पूर्वोल्लिखितपट्टावल्यनुसारेण सुरेश्वराचार्यस्य संन्यासादानसमयो विक्रमसंवत् ३०, समाधिकालस्य विक्रमसंवत् ६९५ वर्षात्मकः (१) । १४४. –द्रष्टव्यम्-पण्डित-गोपाल-रघुनाथसम्पादितरघुवंशभूमिकायाम् । 16 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'लक्षणानुसार'-शास्त्रस्य प्रणेता गुणमतिराचार्यो वसुबन्धुं नामग्राहमुल्लिखति स्म । अस्य वलभिनिवासिनो बौद्धाचार्यस्य स्थिरमतिनामा सतीर्थ्यः समभवत् । तेन स्थिरमतिना महायानमतादर्शभूतः कोऽपि ग्रन्थो विनिर्ममे । तस्य च ४०० तमख्रिष्टाब्दे चीनभाषायां प्रतिफलनमभवत् । अनयापि गणनया वसुबन्धोर्विद्यमानतासमयस्तृतीयशतक एवापतति । यश्च वसुबन्धोरस्तित्वसमयः स एवैतस्य गुस्बन्धोरार्याऽसङ्गस्य तच्छिष्ययोराचार्यदिग्नाग - धर्मकीयोश्च । केवलं वयोविशेषकृतो विभेदः संभवति । दिग्नागो हि वसुबन्धोः पश्चादस्यैव प्रमाणशास्त्रगुरुणा मनोहितेन प्रमाणशास्त्रं पाठितः । ततश्च वक्तुमिदं सुशकं, वसुबन्धुमपेक्ष्य दिग्नागो वयसा लघुरासीत्, ततोऽपि च धर्मकीर्तिरिति । यतोऽयमाचार्यदिग्नागस्य ग्रन्थान्व्याख्यातुं प्रख्यापयितुं च ततोऽपि चिरमललम्बत् स्वजीवनसूत्रम् । एतद्गणनाधारण आर्याऽसङ्गस्य २५०-३००, वसुबन्धोः २६०-३४०, दिग्नागस्य ३२०, धर्मकीर्तेश्च ३४९ तमः ख्रिष्टसमयो लभ्यते । सुबन्धुकृतौ वासवदत्तायां धर्मकीर्तिकृताऽलङ्कारनाम्नो ग्रन्थस्योल्लेखः संप्राप्यते । वासवदत्तानिर्माणकालश्च ईसवीयपञ्चमशतस्य तृतीयं चरणम् । यतोऽस्याः प्रारम्भे विक्रमादित्यस्य मरणजं रसवत्तावसानसंभवं च शोकं कविरुपवर्णयति । ___ अयं च विक्रमादित्यो न गुप्तवंशीयः प्रथमचन्द्रगुप्तः स्कन्दगुप्तो वा संभवति । विक्रमादित्योपाधिधारित्वेपि नैतयोरेतादृशी विद्यारसिकत्वप्रसिद्धिरभवत् । सा हि द्वितीयचन्द्रगुप्तेन समलभ्यत । समुद्रगुप्तकुलाम्बरशशाङ्कस्य विद्याविलासिनोऽस्य द्वितीयविक्रमादित्यस्य राजत्वकालस्तु ईसवीयचतुर्थशतकस्य चरमं चरणं निर्धारितम् । एवमपि चतुर्थशतकान्त्यभागे पञ्चमशतस्य च प्रथमपादे लब्धसत्ताकात्सुबन्धोः पूर्वभवस्य धर्मकीर्तेश्चतुर्थशतकमध्यभागे विद्यमानत्वं न विबाध्यते । न्यायवार्त्तिकप्रणेतुर्भारद्वाजोद्योतकरस्यापि नामनिर्देशः सुबन्धुकृतवासवदत्तायामुपलभ्यते । सुबन्धोः समयः पूर्वोक्तानुमानमनुसृत्य ३७५-४२५ रूपो निर्णीयते । ततश्चोद्योतकरकालः ईसवीयचतुर्थशतकमध्यभागः समापतति स एव च तत्समकालभवस्य धर्मकीर्तेरप्यस्तित्वसमय:49 । तदेवम् ई. सं. चतुर्थशतकमध्यभवस्य धर्मकीर्तेरभिधानं हारिभद्रीयग्रन्थेषूपलभ्यमानमपि न तेषां षष्ठशतात्मकस्य सत्तासमयस्य विबाधकं विरोधकं वा समुत्पश्यामः । १४५. -प्रो. के. ह. ध्रुवमतेन धर्मकीर्तीयसत्तासमयः ४५० ख्रिष्टाब्दात्मकः । १४६. -"बौद्धसङ्गतिमिवालंकारभूषिताम्" (-वासवदत्ता) "बोद्धसङ्गतिमिवालंकारो धर्मकीर्तिकृतो ग्रन्थविशेषस्तेन भूषिताम्" (वासवदत्ता-टीका) प्रो. के. ह. ध्रुवमहाशयस्तु 'अलंकार' इत्यस्य संपूर्ण नाम 'सूत्रालंकार' इत्याचष्टे । अस्य विरचयितारं चाश्वघोष प्रतिपादयति । परम् अयमलंकारोऽश्वघोषस्य 'सूत्रालंकारः' स्यादिति न श्रद्धापथमवतरति । कविना प्रयुक्तः 'सङ्गति'-शब्द एव स्फुटमिदमावेदयति यदुत-अलंकारनामकं कमपि बौद्धन्यायग्रन्थमुद्दिश्य कवेरियमुक्तिः । अश्वघोषस्य न्यायग्रन्थविनिर्माणे नाद्ययावत् किमपि प्रमाणमुपलब्धम् । ततश्च सूत्रालंकारस्यैतत्कर्तृकत्वेऽपि स धार्मिक एव ग्रन्थः स्यादित्यस्माकं मतिः । धार्मिकेण च ग्रन्थेन बौद्धदर्शनसंगतिं भूषितां कविरुपवर्णयेदित्यश्रद्धेयमिदम् । तेन शक्यमिदं वक्तुं वासवदत्ताया 'अलंकारो' नाश्वघोषस्य कृतिः 'सूत्रालंकारो' नाम धार्मिकग्रन्थः, अपि तु 'न्यायावतार'-वृत्तिटिप्पणादिषु “यद्वौद्धालंकार:-कथं तर्हि क्रमेण ग्रहणं न भवति? युगपद् विषयसंनिधानात् । नहि वर्णविकल्पकाले प्रत्यक्षप्रत्ययार्थो न संनिहित इति " (न्यायावतारवृत्तिटिप्पण पृ. ७ ) “मनसो" रित्येतत्कारिकाविवरणे “विशेषतस्त्वेतत्कारिकार्थो बौद्धालंकारादेरवसेयः ।" (-न्यायावतारवृत्तिटि. पृ. ७) इत्यादिनोल्लिखितो 'बौद्धालंकाराख्यः' प्रमाणग्रन्थ एव संभाव्यते । अस्य कर्ता च वासवदत्ताटीकाकृतः शिवरामस्य कथनानुसारेण धर्मकीतिरेव स्यादिति। . १४७. -"सा-रसवत्ता विहतान-बका विलसन्ति चरति नो कं-कः । सरसीव कीर्तिशेष गतवति भुवि विक्रमादित्ये ॥" (वासवदत्ता) १४८, -"न्यायस्थितिमिवोद्योतकरस्वरूपाम् ।" (-वासवदत्ता) १४९ -यद्यपि बहूनामितिवृत्तविदुषामयं विश्वासो यत्खलु न्यायभाष्यस्य दिमागेन प्रमाणसमुच्चयादौ खण्डनमकारि । दिमागमतं च उद्द्योतकरेण न्यायवार्त्तिके निरस्तम् । न्यायवार्तिकं पुनर्धर्मकीर्तिना स्वग्रन्थेष्वपाकृतमिति । परमत्र वयमन्यद्विजानीमः, दिग्नागेन न्यायभाष्यमपाचक्रे इति सत्यम्, दिग्नागोक्तमुद्द्योतकरेण निरासीत्यपि प्रमाणसिद्धम्, पश्यामः खल्वत्र प्रमाणं तथाहि-"मनश्च (मनसश्च) इन्द्रियभावान्न वाच्यं लक्षणान्तरमिति, तन्त्रान्तरसमाचाराच्चैतत् प्रत्येतव्यमिति । परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्रयुक्तिः ।" (न्यायभाष्यम् १-१-४) अस्य खण्डनं प्रमाणसमुच्चये- “अनिषेधादुपात्तं चेदन्येन्द्रियरुतं वृथा ।" (-प्रमाणसमुच्चयः) । अस्य निराकरणं च न्यायवार्त्तिके एवम्-"तन्त्रान्तरसमाचाराच्च तन्त्रान्तरे मन इन्द्रियमिति पठ्यते तच्चेह न प्रतिषिध्यते । अप्रतिषेधादुपात्तं तदिति । न । शेषाभिधानवैयर्थ्यात् । शेषाण्यपीन्द्रियाणि तैः परिपठितानि तस्मात् तान्यपि न वक्तव्यानि यद्यप्रतिषेधादुपात्तं स्यादिति । न । तन्त्रयुक्त्यनवबोधात् । न भवता तन्त्रयुक्तिः परिज्ञायते । परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्रयुक्तिः । न च यस्य स्वमतपरिग्रहो नास्ति तस्य स्वमतं परमतं वा भिद्यते भवता च परमतानुरोधेन सर्व स्वमतं निवार्यत इति । तन्निवारणात् स्वमतं परमतमित्येव न स्यात् । तस्मादस्ति मन इन्द्रियं चेति ।" (-न्यायवार्तिकम् १-१-४ पृ. ३९) न चैवंविधं धर्मकीर्तिग्रन्थेषु न्यायवार्तिकस्य निराकरणमुपलभामहे न्यायवार्त्तिके च धर्मकीर्तीयग्रन्थानाम् । यद्येतयोरेकतरः पूर्वभवश्चेत् स्यादेवेतरग्रन्थेषु तन्मतोद्धरणं यथोक्तं प्राक् । ततश्चैवमनुमीयते यदेनौ समकालसंभवाविति । उद्योतकरो हि स्वजन्मना मिथिलामण्डलमुद्द्योतयामास इत्यन्वेषकाणां मतम् । धर्मकीर्तिश्च प्रायोऽधिकं तिबेटदेशमध्युवास इत्यपि प्रसिद्धम् । एवं चाल्पसाधने तदानींसमये तयोस्तद्रन्थानां च समागमस्य दुर्लभतया परस्परनिराकरणाभावोऽपि यौक्तिकतामश्नुते इति । किंच, दिग्नागाभिमतस्य विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेतुत्वमनैकान्तिकत्वं च उद्द्योतकरेण न्यायवार्तिके-"एके त्वनेकधर्म इत्यन्यथा व्याचक्षते, एकस्मादन्योऽनेकधर्म इति । एवं च विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयोपनिपातो लभ्यते यं प्रति तर्कमाहुः स च संशयहेतुः यथाश्रावणत्वकृतकत्वे शब्दस्येति । तदयुक्तम् ।" (-न्यायवार्तिकम् १-१-२३ पृ. ९३) “केचित्तु विरुद्धाव्यभिचारिणमनैकान्तिकं वर्णयन्ति । तन्न, असत्त्वात् । नाऽयमस्तीत्युक्तम् ।" (-न्यायवार्तिकम् १-२-५ पृ. १६९) इत्यादिना निरस्तम् । धर्मकीर्तिनाप्यस्य हेत्वाभासत्वं न्यायबिन्दौ-" विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः स इह कस्मान्नोक्तोऽनुमानविषयेऽसंभवात् ।" (-न्यायबिन्दुपरिच्छेदः ३ पृ. ११५) इत्यनेन तिरोहितम् । अथ चेद्धर्मकीर्तिस्द्योतकरात्पश्चाद्भवस्तदपाकृतदिग्नागमतमण्डनोद्यतश्च तदा स उद्योतकरकृतनिरासं दिमागमतं मण्डयेदेव न चैवं दृश्यते, प्रत्युत स्वयमपि तत्स्थलमेव क्वचिनिराकरोति । तदेतेनानुमीयते यद् उद्द्योतकरकृतं दिग्नागमतखण्डनं नाऽदर्शि धर्मकीर्तिना, दृष्टं स्याच्चेत् स्यादेव तत्कृतं तदुद्धरणम् । “यदपि हेतुवार्तिकं बुवाणेनोक्तम्-सप्तिकासंभवे षट्प्रतिषेधादेकद्विपदपर्युदासेन त्रिलक्षणो हेतुरिति । एतदप्ययुक्तम् ।" (-न्यायवार्त्तिकम् १-१-३५ पृ. १२८) इत्यत्र न्यायवार्तिककारेण निरस्तमन्तव्यो बौद्धवार्तिककारश्च यदि अन्यस्य वार्तिककारत्वेनाऽश्रवणात् धर्मकीतिरेव स्यात्तदा तु सिद्धमेव धर्मकीर्तेस्द्योतकरप्राग्भवत्वम् । 17 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकीर्तेरभिधानमिव मल्लवादिनामपि हरिभद्रसूरिग्रन्थेष्ववलोक्यमानं तेषां प्राच्यत्वे विसंवादमुपस्थापयति'50 । कोऽयं मल्लवादी ? कदाचाऽयं बभूव? इत्यनयोरनुयोगयोरतिदुष्करमसंदिग्धोत्तरम् । यद्यपि धर्मोत्तरटिप्पणकारमल्लवादिनामितिवृत्तमुपलभ्यते जैनपुस्तकेषु'51 तथापि वीरसंवद् ८८४ रूपस्तत्रोक्तस्तत्सत्तासमयो नाधुनिकानां विश्वासस्थानम् । यस्याष्टिप्पणं मल्लवादिकृतिस्तस्या न्यायबिन्दुटीकायाः कर्तुर्धर्मोत्तराचार्यस्य समयः इ. सं. ७४७ रूपो निर्धार्यते, एतत्संबन्धेन मल्लवादिनोऽपि ई. सं. अष्टमशतके समाकृष्यन्ते स्माऽन्वेषककोविदैः। समुपस्थितमिमं विसंवादमपाकर्तुमबाध्यं साधनं यद्यपि दुर्लभं तथापि न सर्वथा तदसंभवः । हरिभद्रसूरिभिरनेकान्तजयपताकायां मल्लवादिनामग्रहणमक्रियतेति सत्यं परं तत् सम्मतिकारत्वेन न तु धर्मोत्तरीय-न्यायबिन्दुटीका-टिप्पणकृत्त्वेन । ततश्चैवमङ्गीकर्तव्यं यदनेकान्तजयपताकोल्लिखितनामा सम्मतिकारतया विख्यातो वादिमुख्यो मल्लवादी धर्मोत्तरटिप्पणकारमल्लवादितो भिन्न एव स्यात्। दिग्नाग-महादिग्नागवत्' धर्मोत्तर-वृद्धधर्मोत्तरवच्च'5मल्लवादिद्वयमपि नाऽसङ्गतिमश्रुते । परमार्थतश्चैवमङ्गीकरणमेव निस्तारो-पायः । ७४७ ईसवीयाब्दभवत्वं धर्मोत्तरस्याङ्गीकृत्य तद्ग्रन्थटिप्पणकारं च मल्लवादिनमभिप्रेत्य हारिभद्रीयग्रन्थेषु तन्नामप्रेक्षणमध्यक्षबाधितमेव। तदेवमनेकप्रमाणोपदर्शनेन बाधकनिरसनेन च विचारिते हारिभद्रीयसत्तासमये मन्ये द्वितीयमतमेव सौष्ठवमाप्नुयात् । अयं च विषयो यथा यथा विचार्यते तथा तथा विशालतामुपयाति प्रौढतां च भजते तथाप्यतिविस्तरभयात् साम्प्रतमस्मात्प्रकरणाद् विरमणमेव रमणीयम् । टीकाकाराः अथास्या धर्मसंग्रहणेष्टीकाकाराः सिद्धान्तादिवृत्तिकरणतो विख्यातकीर्तयोऽप्यविख्यातेतिवृत्ताः श्रीमन्तो मलयगिरिसूरयः कदेमं मानवलोकम्-विशेषतया जैनसमालम्-अनन्यसाधरणेन स्वजीवनेनोपाकृषत ? इति प्रश्रोऽप्यवसरप्राप्तः, एतदुत्तरार्थं च बहुकृतेऽप्यन्वेषणप्रयासे न मनस्तोषावहं कुतोऽप्यापि पुरावृत्तम्, तथापि, 'मलयगिरिव्याकरण'- नाना विश्रुते एतदीये एव शब्दानुशासने "अरुणदरातीन् कुमारपाल:'155 इति दृश्यार्थत्यादिविभक्त्यन्तोदाहरणोपन्यासेन स्वस्य कुमारपालराज्यकालभवत्वं निवेदितमेभिः । कुमारपालप्रबन्धेष्वप्येकस्मिन्कथाभागे एषां हेमचन्द्रसूरिभिः समं विहारः श्रीसिद्धचक्राधिष्ठायकविमलेश्वरदेवतः सिद्धान्तवृत्तिनिर्माणवरदानप्राप्तिश्च समुपवर्णिता, तथा च जिनमण्डनीयकुमारपालप्रबन्धे "एकदा श्रीगुरुनापृच्छ्याऽन्यगच्छयदेवेन्द्रसूरि'58-मलयगिरिभ्यां सह कलाकलापकौशलाद्यर्थं गौडदेशं प्रति प्रस्थिताः । खिल्लूरग्रामे च त्रयो जना गताः । तत्र ग्लानो मुनिर्वैयावृत्त्यादिना प्रतिचरितः । स श्रीरैवतकतीर्थे देवनमस्करणकृतार्तिः । यावद्ग्रामाध्यक्षश्राद्धेभ्यः सुखासनं तद्वाहकांश्च प्रगुणीकृत्य सुप्तास्तावतत्प्रत्यूषे प्रबुद्धाः स्वं रैवतके पश्यन्ति । शासनदेवता प्रत्यक्षीभूय कृतगुणस्तुतिर्भाग्यवतां भवतामत्र स्थितानां यते, युक्त्यातमुपति बौद्धांत १५०. -"उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना सम्मतौ-स्वपरेत्यादि" (-अनेकान्तजयप. पृ. ४८) "उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना सम्मतौ- किमित्याह-न विषयग्रहणपरिणामादृतेऽपरः संवेदने विषयप्रतिभासो युज्यते, युक्त्ययोगात् ।" (-अनेकान्तजयप. पृ. ९९) । १५१. - प्रभावकचरित-प्रबन्धामृतदीर्घिकादिजैनग्रन्थेषु मल्लवादिचरितमुपवर्णितम् । १५२. - श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धास्तव्यन्तरांश्चापि । (-प्रभावकचरितम्) १५३. -"महादिग्नागादिभेदेनाऽनेके दिग्नागाः संजाताः, वार्तिककारेण कस्य दिग्नागस्य मतं खण्डितम् ? ।" (-न्यायवार्तिकभूमिका पृ. १२) १५४. -"अत्राह धर्मोत्तरः (स्याद्वादरत्नाकर परिच्छेदः १ पृ. १०) इत्यनेन धर्मोत्तरमधिकृत्य "बलदेवबलं स्वीयं दर्शयन् न निदर्शनम् । वृद्धधर्मोत्तरस्यैव भावमत्र न्यस्पयत् ॥" (स्या. प. १ पृ. ११) “वृद्धसेवाप्रसिद्धोऽपि ब्रुवन्नेवं विशङ्कितः । बालवत्स्यादुपालभ्यस्त्रविद्यविदुषामयम् ॥ तथा हि सोऽयं वृद्धधर्मोत्तरानुसार्यप्यलोकवाचालतया तुल्यस्वस्पोरपि व्युत्पत्तिव्यवहारकालयोरतुल्यतामुपकल्पयन् बाल इवैकामप्यङ्गुलिं वेगवत्तया चालयन् द्वयीकृत्य दर्शयतीत्येवमुपालभ्यते त्रैविद्यकोविदैः ।" (स्या. पृ. १२) "सोऽयं साहित्यज्ञताभिमानात् तत्र वृद्धधर्मोत्तरमधरयति ।" (स्या. पृ. १३) इत्याद्युल्लेखैधर्मकीर्तिगन्धटीकयितारं धर्मोत्तराचार्य वृद्धधर्मोत्तरानुयायित्वेन निर्दिशन्तो भूतपूर्व वृद्धधर्मोत्तरास्तित्वमुपदिशन्ति स्याद्वादरत्नाकरकाराः । १५५. ('अदहदरातोन् कुमारपालः' इति) -पिटर्सनकार्यविवरणपुस्तके । १५६. -कुमारपालराज्यकालस्तु कुमारपालप्रबन्धादिषु-"संवत् ११९९ वर्षे मागीर्षे चतुर्थ्यां श्यामायां पुष्या सर्वग्रहोपेते मीनलग्ने सर्वे सामन्ताः कुमारं राज्येऽभ्यषिञ्चन्त ।"-इति प्रतिपादितसिंहासनप्राप्तेरारभ्य त्रिंशदधिकवर्षद्वादशशतं यावत् । १५७. -एतद्रचनासमयः प्रबन्धका तत्प्रान्तभागे एवं प्रत्यपादि "प्रबन्धो योजितः श्रीमत्कुमारनृपतेरयम् । गद्यपद्यैर्नवैः कैश्चित् कैश्चित् प्राक्तननिर्मितैः ॥१॥ श्रीसोमसुन्दरगुरोः शिष्येण यथाश्रुतानुसारेण । श्रीजिनमण्डनगणिना व्यकमनु-१४९२-प्रमितवत्सरे रुचिरः ॥२॥" १५८. -जिनप्रभसूरयस्तीर्थकल्पे-“नवंगवित्तिकारसाहासमुब्भवेहि सिरिदेविंदसूरोहिं चत्तारि महाबिंबाइं दिव्वसत्तीए गयणमग्गेण आणिआई"-इत्यनेन वचनसंदर्भेण सूरीणामेषां नवाङ्गवृत्तिकारश्रीमदभयदेवसूरिसंतानीयत्वं बिम्बचतुष्टयमात्रानयनं च प्रत्यपत्सत । 18 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व भावीति गौडदेशे गमनं निषिध्य महौषधीरनेकान्मन्त्रान् नामप्रभावाद्याख्यानपूर्वकमाख्याय स्वस्थानं जगाम । एकदा श्रीगुरुभिः सुमुहूर्ते दीपोत्सवचतुर्दशीरात्रौ श्रीसिद्धचक्रमन्त्रस्साम्नायः समुपदिष्टः । स च पद्मिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकत्वेन साध्यते ततः सिद्ध्यति, याचितं वरं दत्ते नाऽन्यथा । ततोऽन्यदा कुमारग्रामे धौतां शोषणार्थं विस्तारितां शाटिकां परिमलाकर्षितभ्रमरकुलसंकुलामालोक्य पृष्टो रजकस्तैः- 'कस्या इयं शाटिका?' इति । सोऽवग्-ग्रामाध्यक्षपन्या इयम् । ततो गतास्तस्मिन् ग्रामे । ग्रामाध्यक्षप्रदत्तोपाश्रये स्थिताः । स च प्रत्यहं समायाति, धर्मदेशनां शृणोति । तेषां ज्ञानक्रियावैराग्याऽप्रमत्तत्वादिगुणान् दृष्ट्वा तथाविधभव्यत्वपरिपाकाद्गुणानुरागरञ्जितस्वान्तः प्रमुदितः प्राह-यूयमनिच्छवः परमेश्वराः किमपि कार्य मत्साध्यं समादिशन्तु । ततस्ते तं स्वान्तनिवेदिनं गुणानुरागगम्भीरवेदिनं ज्ञात्वा प्राहुः- अस्माकं श्रीसिद्धचक्रमन्त्रः साधयितुमिष्टोऽस्ति । स च पद्मिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकत्वेन सिध्यति नाऽन्यथा, तेन तव या पद्मिनी स्त्री वर्तते तां लात्वा त्वं कृष्णचतुर्दशोरात्रौ रैवतकाचले समागच्छ, अस्माकमुत्तरसाधकत्वं कुरु । विकारदर्शने शिरच्छेदस्त्वयैव विधेयः । इत्याकर्ण्य ग्रामाध्यक्षो विस्मयस्मेरमना मनाग विमृश्य चिन्तयाञ्चकार - एते तावन्महर्षयः समतृणमणिलोष्टकाञ्चनाः परब्रह्मसमाधिसाधकास्त.तेषामिदं कार्य वयं समर्यादमनया स्त्रिया चेद् भवति तदा तथाऽस्तु, किं बहुविचारणेनेति विचिन्त्य तैरुते दिने तैः समं सस्त्रीकः सुतरां निर्भीकः स श्रीरैवताचलमौलिमलञ्चकार । ते च त्रयः कृतपूर्वकृत्याः श्रीअम्बिकाकृतसांनिध्याः शुभध्यानधीरधियः श्रीरैवतदैवतदृष्टौ त्रियामिन्यामाह्वानावगुण्ठनमुद्राकरणमन्त्रन्यासविसर्जनादिभिरुपचारैर्गुरूक्तविधिना समीपस्थितपद्मिनीस्त्रीकृतोत्तरसाधकक्रियाः श्रीसिद्धचक्रमसाधयन् । तत इन्द्रसामानिकदेवोऽस्याधिष्ठाता श्रीविमलेश्वरनामा प्रत्यक्षीभूय पुष्पवृष्टिं विधाय स्वेप्सितं वृणुतेत्युवाच । ततः श्रीहेमसूरिणा राजप्रतिबोधः, श्रीदेवेन्द्रसूरिणा निजावदातकरणाय कान्तीनगर्याः प्रासाद एकरात्रौ ध्यानबलेन सेरीसकग्रामे समानीत इति जनप्रसिद्धिः, मलयगिरिसूरिणा सिद्धान्तवृत्तिकरणवरः, इत त्रयाणां वरं दत्त्वा देवः स्वस्थानमगात् । प्रमुदितो ग्रामाधीशः प्रत्यूषे बहुवित्तव्ययेन प्रभावनां विधाय त्रयाणां ध्यानस्थैर्य ब्रह्मदाढयं देवकृतप्रशंसां वरप्रदानं च जनेषु प्रकटीकृत्य निजभायाँ गृहीत्वा स्वग्राम जगाम।" एतदतिरिक्तं च न किमप्येषामितिहासप्रकाशकं प्रमाणमुपलभामहे । तथाप्येतेन एतत्तु निश्चीयते एव यदुत-एते टीकयितारः कुमारपालभूपालराज्ये हेमचन्द्रसूरिसमसामयिकाः समभूवन् । उपरिवर्णितकथानकसूचिता सिद्धान्तवृत्तिकरणवरप्राप्तिरपि न खल्वसम्भविनी, यतो दृश्यन्त एव बहवः सिद्धान्ततत्त्वनिरूपणप्रवणाः प्रवीणहृदयहारिणष्टीकाग्रन्था एतैर्निर्मिताः । तेषु चाद्ययावत् श्रुता दृग्गोचरीभूताश्चेमे परिकथ्यन्ते - (१) आवश्यकवृत्तिः59 (२) ओघनियुक्तिवृत्तिः160 (३) कर्मप्रकृतिवृत्तिः1 (४) क्षेत्रसमासवृत्तिः162 (५) चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्तिः63 (६) . जीवाभिगमवृत्तिः14 (७) ज्यौतिषकरण्डकवृत्तिः15 (८) धर्मसंग्रहणीवृत्तिः166 (९) धर्मसारटीका' (१०) नन्दीबृहद्वृत्तिः168 (११) पञ्चसंग्रहवृत्तिः69 (१२) पिण्डनियुक्तिवृत्तिः० (१३) प्रज्ञापनावृत्तिः” (१४) बृहत्कल्पवृत्तिः (१५) भगवतीद्वितीयशतकवृत्तिः73 (१६) राजप्रश्नीयवृत्तिः74 (१७) विशेषावश्यकवृत्तिः175 (१८) व्यवहारवृत्तिः176 (१९) शब्दानुशासनं सवृत्ति” (२०) षडशीतिवृत्तिः73 (२१) संग्रहणीवृत्तिः179 (२२) सप्ततिकावृत्तिः10 (२३) सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः । एतदतिरिक्ता अप्यनेके श्रीमत्कृता ग्रन्था अविज्ञातनाम-धामानः प्रकटीभवेयुर्यदि नाम भवेद् गवेषणायासः । केचित्तु सूरीनिमान् एकादशाङ्गीवृत्तिकर्तृकतयाऽप्युदलिखन्, न चाऽत्र किमपि प्रमाणमिति जोषमास्यते । १५९. अनतिप्रसिद्धा, १८००० प्रमितश्लोका च १६०. सुलभा, ७५०० प्रमाणश्लोका च १६१. प्रसिद्धा, मुद्रिता च जैनधर्मप्रसारकसभया, इयं ८000 श्लोकसंकलिता १६२. जिनभद्रीयक्षेत्रसमासस्य विस्तृतविवरणस्पा, ७८८७ श्लोकमाना च १६३. प्रसिद्धा, ९५00 प्रमितश्लोका १६४. प्रसिद्धा मुद्रिता, १६०००-श्लोकप्रमाणा च १६५. ससूत्रायाः श्लोकसंख्या ५००० १६६. इयं प्रकाश्यमाना, एषा च नन्दीटीकानिर्माणात्पूर्वमेव जातरचना इति तत्कत्रैव नन्दीवृत्तौ-"अत्र बहु वक्तव्यं तच्च प्रायः प्रागेवोक्तमन्यत्र-धर्मसंग्रहणीटीकादाविति नोच्यते"-इति वचनेन सूचितम् । श्लोकमानं चास्याः ११००० १६७. धर्मसंग्रहणीटीकायामुपलभ्यमानेन-“यथा चाऽपुरुषार्थता अर्थकामयोस्तथा धर्मसारटीकायामभिहितमिति नेह प्रतायते"-इत्युल्लेखेन ज्ञातसद्भावा १६८. प्रसिद्धा मुद्रिता च, प्रमाणतश्च ७७३२ श्लोकात्मिका १६९. प्रसिद्धा मुद्रिता च, प्रमाणमस्याः १८८५० प्रमितश्लोकाः १७०. ६७०० संख्याक-श्लोका १७१. मुद्रिता, १४५०० संख्याकश्लोकपरिकलिता १७२. अस्याः ४२००० श्लोकमानायाः ४६०० श्लोकात्मकः पीठिकाभाग एव प्रकृतसूरिकर्तृकः, अग्रेतनस्तु तपाक्षेमकीर्तिपूरितः । तदाहुः क्षेमकीर्तिसूरयोप्येतट्टीकायाम् ___ "श्रीमलयगिरिप्रभवो यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः । सा कल्पशास्त्रटीका मयाऽनुसंधीयतेऽल्पधिया ॥" . १७३. श्लोकसंख्या ३७५० १७४. मुद्रिता ३७०० श्लोकप्रमिता च, १७५. अस्याः श्लोकसंख्या ९००० प्रमाणा १७६. प्रसिद्धा, ३३६२५ संख्याकश्लोका च, १७७. इदं कैश्चित् "मुष्टिव्याकरणम्" इति नामापि व्यवहृतं दृश्यते, "मलयगिरिव्याकरणम्" इत्यपि च केचन व्याजहुः । “मलयगिरिप्रभृतिव्याकरणप्रणीतेन लक्षणेन संस्कारमापादितं वचनं संस्कृतम् ।" (बृहत्कल्पटीका) सवृत्तिकस्याऽस्य श्लोकमानं च ४३०० रूपम् १७८. प्रसिद्धा, २००० श्लोकप्रमाणा १७९. जिनभद्रीयबृहत्संग्रहण्या विस्तृतव्याख्यानरूपा, ५००० श्लोकप्रमिता च, १८०. इयमपि सुप्रसिद्धा मुद्रिता ३७८० श्लोकमाना च, १८१. प्रसिद्धा, ९००० श्लोकसंख्याका च । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एते च सूरयः प्रायः सर्वामपि स्वकृतिं "कुशल"-शब्देन समलमकार्षः । एतादृशानि च कतिचित् स्थलानीह निदर्शनतया निर्देष्टुमुचितानि - "एतामतिगम्भीरां कर्मप्रकृतिं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाऽश्रुतां लोकः॥" इति कर्मप्रकृतिवृत्ती, "इममतिगम्भीरतरं क्षेत्रसमासं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाऽश्रुतां लोकः॥" इति क्षेत्रसमासवृत्ती, "जीवाजीवाभिगमं विवृण्वताऽवापि मलयगिरिणेह । कुशलं तेन लभन्तां मुनयः सिद्धान्तसद्बोधम्॥" इति जीवाभिगमवृत्तौ, "विषमगभीरपदार्थों यदिमा व्याख्याय धर्मसंग्रहणिम् । मलयगिरिणाऽऽपि कुशलं सिद्धिं तेनाऽश्रुतां लोकः॥" इति धर्मसंग्रहणिवृत्ती, "बह्वर्थमल्पशब्दं नन्द्यध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाऽश्रुतां लोकः॥" इति नन्द्यध्ययनवृत्तौ, "इमां च पिण्डनियुक्तिमतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाऽश्रुतां लोकः॥” इति पिण्डनियुक्तिवृत्तौ, "प्रकरणमेतद्विषमं सप्ततिकाख्यं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाऽ श्रुतां लोकः॥" इति सप्ततिकावृत्तौ च । एतेषामपि सूरिप्रवराणामप्रतिमवैदुष्यप्रख्यापका अनेके विद्वत्प्रवादाः श्रूयन्ते । निदर्शनभूताः पुनरिमे - __"आगमदुर्गमपदसंशयादितापो विलीयते विदुषाम् । यद्वचनचन्दनरसैमलयगिरिः स जयति यथार्थः॥" "शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिःपुञ्जपरमाणुघटितमूर्तिभिः श्रीमलयगिरिमुनीन्द्रर्षिपादैविवरणकरणमुपचक्रमे" (बृहत्कल्पटीकायां श्रीक्षेमकीर्तिसूरयः) "परं श्रीमलयगिरिपादै तद्विवक्षितं, द्वयोरपि वनखण्डयोरेकमेव मानमुक्तम् । तत्त्वं पुनर्बहुश्रुता विदन्ति।" (जम्बूद्वीपसंग्रहणीटीकायां प्रभानन्दसूरयः) "जयति श्रीमलयगिरिर्यत्कृतविवरणबलेन सूत्रार्थम् । गुरुादितमिव व्यक्तं बुद्धयन्ते मन्दमतयोऽपि ॥३॥" __"यद्बाढं मूढधियाऽप्यदो विवरणं मया किमपि लिखितम् । तत्र सकलः प्रसादष्टीकाकारस्य मलयगिरेः ॥२॥ . मलयगिरिवचनचन्दनतर्वनुभावेन विवरणं होतत्। गौरवपदं भविष्यति निम्बकदम्बादितुल्यमपि ॥३॥" ___ (लघुक्षेत्रसमासविवरणे रत्नशेखरसूरयः) एवमेताभ्यां सूरिपुङ्गवाभ्यां रचितटीकितस्याऽस्य शास्त्रस्य योग्यतायां प्रामाणिकतायां च किमपि प्रमाणपरितर्कणं भानुमति चित्रभानूपयोगकल्पमेव प्रतिभायादिति परित्यज्ये तद्विषया चर्चा । अत्र ग्रन्थकृता विविधयुक्तिकल्पनाप्रमाणैर्निम्नलिखिता विषयाः सविस्तरं समुपवर्णिताः__"नमिऊण वीयरागं" इत्यतः समारभ्य पञ्चत्रिंशता गाथाभिर्मङ्गलपूर्वकममिधेयप्रयोजनाद्युपवर्णनमुपादायि । "जीवो उ नत्थि केई" ३६ इति गाथामादाय १५८ तमी यावत् त्रयोविंशत्यधिकेन गाथाशतकेन चार्वाकाऽपरपर्यायाणां भौतिकपुरुषवादिनां मतं समीक्ष्य तन्निराकरणपूर्वकं 'जीवसत्ता' प्रसाधिता । "जम्हा ण कित्तिमो सो" १५९ इमां गाथामुपक्रम्य १९१ तमीपर्यन्ताभिस्त्रयस्त्रिंशता गाथाभिर्जीवस्य 'अनादिनिधनत्वम्' उपपादितम्। "कम्मविमुक्कसरूवो" १९२ इत्यादिगाथायुगलेन तस्य 'अमूर्तत्वम्' अभिहितम् । "परिणामी खलु जीवो" १९४ इत्येतामारभ्य ४७५ तमी यावद् व्यशीत्यधिकगाथाद्विशत्या तस्य 'परिणामित्वम्' संसाधितम् । "णाता संवित्तीउ" ४७६ इतीमामुपादाय ५४५ यावत् सप्तत्या गाथाभिरात्मनो 'ज्ञायकत्वम्' समर्थितम् । "कत्त त्ति दारमहुणा" ५४६ इत्यतः प्रक्रम्य पञ्चत्रिंशता गाथाभिस्तस्य 'कर्तृत्वम्' समुपपादितम् । "भोत्ता सकडफलस्स य" ५८१ एतामारभ्य ६०५ पर्यन्तया गाथापञ्चविंशत्या 'भोक्तृत्वम्' प्रसाधितम् । "नाणादिपरिणति." ६०६ इत्यादितः ७४८ यावत् त्रिचत्वारिंशदधिकगाथाशतेन जीव-कर्मणोः संयोगसिद्धिरुपपादिता । "सम्मत्त-नाण-चरणा" ७४९ इत्यतः ११३७ पर्यन्तया एकोननवत्यधिकया गाथात्रिशत्या भावधर्मः प्ररूपितः । "चोएति कहं रागादि." ११३८ इत्येतामादीकृत्य १३७५ यावद् अष्टत्रिंशदधिकेन गाथानां शतकद्वयेन 'वीतराग-सर्वज्ञसिद्धी' व्युत्पादिते । "काऊण इमं धम्म" १३७६ इमां गाथामुपक्रम्य १३९६ तमी यावद् एकविंशत्या गाथाभिः पूर्वप्रतिपादितस्य भावधर्मस्य फलनिर्वचनपुरःसरं प्रकरणमिदं परिसमाप्ति प्रापितम् । निर्दिष्टविषयेषु चानेकेऽवान्तरविषयाः प्रचर्चिताः प्रसाधिताच, तदर्थं च पृथगुपन्यस्तो विस्तृतविषयानुक्रमो विलोकनीयः । - एतत्संशोधनक्रियायां च कृतेऽपि विशेष प्रयत्ने पुस्तकद्वयमेव समासादितम् । प्रथमं श्रीमदुपाध्यायश्रीवीरविजयपादानां ज्ञानभाण्डागारसंबन्धि, १९५५ वर्षे लिखितम्, २३४ पत्रात्मकं शुद्धप्रायं च । इदमत्र 'क' संज्ञया व्यवहृतम् । द्वितीयं च श्रीमतां हंसविजयमुनिवराणां भाण्डागारीयं १९४७ तमे विक्रमवर्षे लिखितं ३१४ पत्रमयमशुद्धप्रायं च । एतच्च 'ख' संज्ञया निर्दिष्टम् । अन्यदपि 20 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैकमज्ञातस्वामिनामकं मददृष्टमपि पुस्तकमत्र साहाय्यकायाऽजनि, यदाधारेणाऽस्य मुद्रणप्रतिकृतिरकारि मुद्रणव्यवस्थाकारिभिः, इदं पुनरत्र 'गा' नामोल्लिखितम् । सत्यपाठविलोपभीत्या च पुस्तकत्रयेऽपि यो यत्र पाठभेदः समुपलब्धः शुद्धतया च प्रतिभातः स तत्रैव पुस्तकनामा सह पत्रस्याधोभागे टिप्पणरूपेण विन्यस्तः । पुस्तकत्रितयेऽपि त्रुटितपाठेषु अशुद्धतया प्रतिभातेषु च स्थलेषु मूलपाठाननुत्सार्य शुद्धपाठान् कल्पयित्वा तदने एव ( ) एतादृशकोष्टकेषु समुपावेशयम् । प्राकृतभाषाऽनभिज्ञपाठकानां सौकर्याय च टीकान्तरागता अव्याख्याताश्च प्राकृतपाठा अपि संस्कृतभाषायां प्रतिफलय्य तथैव स्थापिताः । तदेवं पुस्तकप्रदातृभिर्महात्ममिः परमुपकृतमत्र श्रेयःकर्मणि । एवं च पं. श्रीमदानन्दसागरगणिभिरपि अस्मत्सतीर्थेन विदुषा मुनि-सौभाग्यविजयेनापि च यथावसरं-विशेषतश्च विहारादिनाऽनवस्थितदशायाम्-'पुफ' शोधनादिना साहाय्यं प्रादायि । तदेतदर्थं सर्वानप्येतान्महात्मनो धन्यवादैरभिनन्द्य दृग्दोषस्थितानां वर्णनियोजकप्रमादजातानां वा स्खलनादोषाणामपनयनार्थं च विद्वर्गमभ्यर्थ्य वक्तव्यमिदं परिसमाप्ति नीयते । सैन्यपुरम्, संवत् १९७४ श्रावणशुक्लपञ्चमी आराध्यपाद-पंन्यासश्रीसिद्धिविजयगणिशिष्यमुनिसत्तम - श्रीकेसरविजयमुनिपादारविन्दमधुव्रतो (मुनि-कल्याणविजयः ।) જગતમાં જ્ઞાનવાળો, ડાહ્યો, ભણેલો તે ગણાય છે, કે જે અવિનાશકારી કોઈ પણ પ્રયાસ ન કરે. વિનાશ રોકવો હોય, તો અનુચિતનો ત્યાગ અને ઉચિતનો સ્વીકાર જોઈએ xxx રોહગુપ્ત જીવ-અજીવ-નોજીવની ત્રિરાશિની કરેલી અનુચિત સ્થાપના પકડી રાખી તો સંઘબાર મુકાયો, નિહનવ ગણાયો. આ બધામાં જ્ઞાનદશા શી ગણાય? xxx અંત:કરણ મોહના દ્રષ-ઈર્ષા–આસક્તિ-મદ-માયા-હિનતા વગેરે અશુભભાવોથી ભરેલું છે, યા એની અસરવાળ શ્રેય, તો કદાચ ધર્મવ્યાપાર થાય, તો ય સમ્યજ્ઞાનયુક્ત કયાંથી બને? xxx સાધના હાથમાં લેતા પહેલા હૃદયને એવું શુદ્ધ, સ્વચ્છ પવિત્ર કરી દેવાય કે એમાં કોઇ મેલી લાલસા, માનાકાંક્ષા, મદ, માયાદિ નહિ લેવાથી હવે જે ધર્મસાધનાની પ્રવૃત્તિ કરાય એ સમજ્ઞાનયુક્રક્રિયા બને. xx પાંડિત્ય એ સમ્યજ્ઞાન નથી. કિન્સ થો પણ શુદ્ધ વસ્ત–સમજ અંતરમાં પરિણામ પામે એ સમ્યજ્ઞાન છે. પરમ પૂજય, ભવોદધિત્રાતા ગુરુદેવશ્રી–સંવિગ્નગીતાર્થ ગચ્છાધિપતિ સ્વ. આચાર્યદેવશ્રી વિજય ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મહારાજ (“ઉચ્ચપ્રકાશના પંથેપુસ્તકમાં ચોથાસૂત્રના વિવેચનમાંથી ઉદ્ભૂત) 29975858988888 . .... 3850888 2998 100००००१२००७8908888888888888888888888888888888 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री प्रेमसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः प्रस्तावना धर्मसंग्रहणी ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखने के अवसर पर एक बात याद आ जाती है:- मेवाड (राजस्थान) के पहाड़ी प्रदेश में गरासिया जाति रहती है। जाति रिवाज़ के अनुसार लोकमेलों में हो युवक युवती अपने जीवनसाथी को ढूंढकर कुछ समय के लिए अज्ञातस्थान में चले जाते हैं । पश्चात् युवक अपनी पत्नी को लेकर घर पहुँचता है जहाँ युवक-युवती के माता-पिता ब्राह्मण को बुलवाकर शादी की विधि करा लेते हैं । यह विधि कभी २ विलंब से भी होती है यावत् परिणीत युगल के संतान को शादी की विधि का अवसर आ जाता है । इस स्थिति में एक ही मंडप में पूर्व माता-पिता की शादी - विधि, पश्चात् संतानकी विधि संपन्न होती है । ठीक यही बात प्रस्तावनालेख की है । ग्रन्थ का पूर्वांश प्रकाशित होने के बाद एक लम्बी मुदत बीते यह प्रस्तावना लिखी जा रही है। अस्तु विलंब के लिए क्षमा । ग्रन्थ नाम ग्रन्थ का नाम धर्म-संग्रहणी दो पदों से निष्पन्न है । प्रथम पद धर्म- जो दुर्गति-पात से जीव को थाम दे अथवा सदा के लिए सिद्धिगति में धारण करे। उक्त धर्म संबंधी पदार्थ - आत्मा, कर्मसंयोग, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीतरागता, सर्वज्ञता विगैरह का संग्रह प्रस्तुत प्रकरण में होने से ग्रन्थ नाम सार्थक है । -- स्वरूप : 7 मूल ग्रन्थ प्राकृतभाषा में विवरण सरल संस्कृतभाषा में और अनुवाद गुर्जरभाषा में है । अत एव सर्वजनभोग्य है । संपादन की सुकरता को लेकर ग्रन्थ दो अंशों में विभक्त है । विषयविभाग विषयानुक्रम से सुज्ञेय है फिर भी ग्रन्थ की विशेषता जो नज़र में आई उसका बयान आगे लिखा जा रहा है । मूल ग्रन्थ १३९६ गाथा, विवरणग्रन्थ ११००० श्लोकप्रमाण एवं अनुवादग्रन्थ टीकाग्रन्थ से प्रमाण में कुछ अधिक ही है । भाषा समृद्धि की तरतमता सहज है । ग्रन्थ शैली और ग्रन्थकार : ग्रन्थरचना प्राचीनन्याय की प्रौढप्रतिभासंपन्न शैली में है । 1 लेख प्रथम आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का सैद्धान्तिक ढंग से निरूपण है । तदनन्तर क्रमशः पूर्वपक्ष की विप्रतिपत्ति जिसे युक्ति, आगम और अनुभव के बलपर असंगत सिद्ध कर निरस्त करना। स्वपक्ष की सिद्धि के बाद सम्मतिदर्शक अन्य साक्षीग्रन्थों का प्रदर्शन । सारांश अत्यन्त परोक्ष पदार्थ भी इतने सुस्पष्ट कर दिये हैं कि बुद्धि के आले में शीघ्रस्थान पा जाते हैं। यह कमाल मूलग्रन्थकार आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी की है। जिनका समयविक्रम की आठवीं शती का उत्तरार्ध माना गाया है । १४४४ ग्रन्थों के रचयिता, याकिनीमहत्तरा के धर्मपुत्र और भवविरह अंक से अतीव प्रसिद्ध है । विवरणकार विवरणकार आ. श्री मलयगिरिजी ने मानो प्रतिज्ञा ही की है कि विवरण सुखबोध हो। यह झलक ग्रन्थ में आदि से अन्त तक दीखती है । आचार्य श्री का समय वैक्रमीय बारहवीं शती का उत्तरार्ध है । सरस्वतीदेवी से वरदान पाकर आपने अनेक आगम एवं प्रकरणग्रन्थों पर लाखों श्लोक प्रमाण सुखबोध टीकाग्रन्थ रचे हैं । अनुवादक बात रही अनुवादकार मुनिश्री अजितशेखर विजयजी की । ग्रन्थ पढने से अवश्य ख्याल आ जायगा कि न्यायशैली के इस जटिल ग्रन्थ को रोचक एवं सुबोधशैली में हमारे सामने प्रस्तुत करने में वे एक कुशल कलाकार सिद्ध हुए हैं। अनुवादक यद्यपि वय पर्याय और कद में लघु हैं फिर भी ज्ञानगरिमा से गरिष्ठ हैं । प्रकृति से सरल, सौम्य और मौजी हैं। इतना ही नहीं एक सफल वक्ता भी हैं। ग्रन्थ की विशेषताएं :- धर्म का स्वस्य और आतिभवि अब रही बात ग्रन्थ की विशेषता की धर्म का निरूपण द्रव्य भाव भेदों से । द्रव्यधर्म के भी प्रधान और अप्रधान दो भेद । भावधर्म स्व-पर के उपकाररूप है । यह उपकार शुद्ध आत्मपरिणामरूप ज्ञान-दर्शन- चरित्र में स्व- पर को प्रतिष्ठित करना । यही प्रस्तुत ग्रन्थका विषय है । देखें गाथा ४ से ३३ । यह भावधर्म आत्मापर लगे भिध्यात्वादि कर्मों के - - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से जब प्रकट होता है तब शम, जीव का भोक्तृत्व | संवेगादिक आत्मिकगुणों के आविर्भावरूप सम्यक्त्व, देशविरति, अनुभव (१), लोक (२) और आगमप्रमाण (३) से जीव सर्वविरति आदि व्यपदेश को पाता है । इन शम, संवेगादि के , स्वकृत कर्म का भोक्ता है । देखिये - स्वरूप को देखिये गाथा ८०८ से ८१२ में । इसी बात की संगति (१) सुख-दुःखादि का अनुभव सभी को स्वसंवेदन प्रमाण से के लिए आत्मा, उसका स्वरूप, एवं कर्मसंयोग की सिद्धिहेतु सिद्ध है। ग्रन्थकार प्रथमतः जीव और उसके स्वरूप का निरूपण छ द्वारों में ___ "यह पुण्यशाली है कि इस प्रकार सुख भोग रहा है।" से करते हैं । देखें प्रतिज्ञागाथा ३५ ॥ ऐसा लोग भी कहते हैं । तथा - |जीव और उसके स्वरूप की सिद्धि - "नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि ।" इत्यादि जीव (१) अनादिनिधन, (२) अमूर्त, (३) परिणामी, (४) आगमवचन भी प्रमाण है । देखें गाथा ५४६-५४७ तथा ज्ञाता, (५) स्वकर्म का कर्ता एवं, (६) उसके फलका भोक्ता ५९७ ॥ जीवसिद्धि और उसके स्वरूपनिरूपण में भिन्न २ पशु-पक्षी, सुख-दुःख, लाभ-हानिरूप वैचित्र्यसे अदृष्ट मतों का उल्लेख कर कहीं अकाट्य युक्तियों से, कहीं कर्म की सिद्धि होती है और यह कर्म किसी कर्ता का आक्षेप प्रतिबन्दी से तो कहीं प्रतिभा के बलपर खंडन कर स्वमत करता है । वह कर्ता परलोकगामी जीव ही सिद्ध होता है । देखें का मंडन किया है । देखें गाथा १२९ । नास्तिक के गाथा ॥१५८॥ प्रति प्रतिबन्दीसे अनुमानप्रमाणको सिद्धि आचार्यश्रीकी प्रतिभा से :| जीव की अनादिनिधनता | अनुमानप्रमाण को सिद्धि में | जीव अनादिनिधन है क्योंकि जीव का कोई उपादान कारण नहीं है तथा जिनवचन से आकाश की भाँति नास्तिक - हमने जातिस्मरणज्ञानी को नहीं देखा हैं, अतः अकृत्रिम है । देखें गाथा १५९॥ इसी द्वार में जगत्कर्तृत्ववाद टाळवाट जातिस्मरणज्ञानी नहीं है । का रोचक रीतिसे खंडन गाथा १६० से १९१॥ तक आचार्य - इस तरह तो प्रपितामह का भी अत्यन्त अवलोकनीय है। अभाव सिद्ध होगा क्योंकि 'नही देखा' हेतु उभयत्र तुल्य है । नास्तिक क्षण भर के लिए अवाक रह जाता है । देखें गाथा जीव की अमूर्तता १४९ । कर्ममुक्त जीव (१), अतीन्द्रिय, (२) अच्छेद्यभेद्य, (३) | परस्पर विरोधमात्र के उद्धावन से आत्माका अपलाप असंभव | रूपादि से रहित तथा (४) अनादि परिणामी होने से अमूर्त है । देखिये गाथा ॥१९२॥ आत्मसंबंधी मान्यताओ में परस्परविरोध का उद्भावन कर नास्तिक आत्म-तत्त्व का अपलाप करना चाहता है तब जीव की परिणामिता आचार्यश्री कहते हैं-प्रत्यक्ष दीखते पृथ्वी, पानीआदि पदार्थ सुख-दुःख, बाल्याद्यवस्था का योग, स्मृति, कर्मफल, सांख्यों को प्रकृति के विकाररूप अभिमत हैं, अणु, दूयणुक नारकादिभवभ्रमण एवं मोक्ष इन छ हेतु से जीव परिणामी आदि के क्रम से आरब्ध कार्यरूप नैयायिकोको सम्मत हैं, है । देखें गाथा ॥१९४ ॥ एवं गाथा ३३४ से ३३७॥ विज्ञानवादी बौद्धो को मात्र विज्ञानरूप से इष्ट हैं इत्यादि जीव का ज्ञातृत्व विभिन्न मान्यताएँ होने पर भी पृथ्वी, पानी आदि के अस्तित्व का कोई अपलाप नहीं कर सकता है । ठीक वैसे ही संवेदन से तथा कथञ्चित् ज्ञान से अभिन्नस्वस्पी होने से आत्म-तत्त्व का भी अपलाप नहीं हो सकता है । देखिये छात्मा ज्ञायक है । देखिये गाथा ॥४७६ ॥ गाथा ४६ । |जीव का कर्तव्य बौद्धो के प्रति शाब्दज्ञान में प्रामाण्यसिद्धि | स्वकृत कर्म से ही सुख-दुःखादिका अनुभव होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि जीव कर्मका कर्ता है । किसी विवरणकारने भी बौद्धोके प्रति शाब्दज्ञान में को दुःखी अथवा सुखी देखकर लोग भी कहते हैं - अपने किये प्रामाण्यसिद्धि उपर्युक्त प्रत्यक्षज्ञान की प्रतिबन्दी देकर की का फल भुगत रहा है । देखें गाथा ॥ ५४६ - ५४७॥ है । देखें टीकाग्रन्थ गाथा १६ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकान्त अनित्य - नित्य वाद का निरास और परिणामवाद है? समाधान देते हैं → जैसे सण अपथ्य का सेवन करता है की सिद्धि वैसे ही मिथ्यात्वरूप महाव्याधि से व्याधित जीव दुष्कर्म करता एकान्त नित्य एवं एकान्त अनित्य पक्ष में कार्यकारणभाव है । देखें गाथा ॥५६७॥ की असंगति दीखाकर निरासपूर्वक परिणामवाद की स्थापना । कर्म व्यक्तिरूप से सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है। देखें गाथा १९४ से ४७५ । इसे सुबोध करने हेतु आचार्य अतीतकाल का दृष्टान्त रखते हैं। जैसे अनुभूत वर्तमानता से काल की आदि होने पर भी अतीतकाल देह - प्रमाण आत्मसिद्धि | प्रवाह से अनादि है । देखिये गाथा ॥५७३॥ देहप्रमाण आत्मसिद्धि के अवसर पर सर्वव्यापी, अंगुष्ठ भाव-धर्म - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र। प्रमाण, अणुप्रमाण इत्यादि मान्यताओ का देहमात्र में ही चैतन्य, सुखादि लिंग के दर्शन से निरास एवं दीपप्रकाश के दृष्टान्त से जैसा कि आगे कहा - शुद्ध आत्म परिणामरूप अथवा कुंथु और हाथी प्रमाण देह में आत्मा का संकोच-विकास ।। जीवस्वभावरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही भावधर्म है । इसका आत्मस्थ-ज्ञान ही जय को विषय करता है। निरूपण करते हुए प्रथम सम्यग्दर्शन भव्य आत्मा में कब, कैसे, किस स्थिति में प्रकट होता है तथा 'जं मोणं तं सम्म' इत्यादि नैयायिकों के प्रति आत्मस्थ ही केवलज्ञान अपनी अचिन्त्य निश्चयनयसम्मत जो मुक्ति का मुख्य हेतु है तथा उक्त नैश्चयिक शक्तिद्वारा लोहचुम्बक के दृष्टान्त से सर्व ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान सम्यक्त्वका हेतु 'जैनशासन का राग' विगैरह व्यवहार कर लेता है । देखें गाथा ३७१ । नयाभिमत सम्यग्दर्शन का स्वरूपदर्शन । सम्यग्दर्शन की उपस्थिति बौद्धों के प्रति विनाश भावस्वस्य । में प्राय जीव का भाव शुभ ही होता है जो शम, संवेगादि लिंगों बौद्धों के प्रति विनाश को भावस्वरूप सिद्ध करते समाधान से व्यंग्य है इत्यादि मननीय है । देखें गाथा ७८८ से ८१४" देते हैं - जैसे घडा फुटकर कपाल कपालिका रूप में, वैसे ही ज्ञानके निरूपणमें चन्द्र, चन्द्रिका और बादल के दृष्टान्त दीपक बूझकर अंधकार और कज्जल; समुद्र, सरोवरादि का पानी से जीव में मति-श्रुत - अवधि - मनःपर्यव एवं केवलज्ञान सूखकर बादल एवं शीत वायु; तथा धूप की निवृत्ति छाया के ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से प्रकट होतो हैं । रूप में उत्पन्न भाव स्वरूप ही है । देखिये गाथा ॥४६२॥ एकेन्द्रिय विगैरह जीवों में ज्ञान का प्रादुर्भाव स्वभाव से तथा इस तरह प्रथम विभाग में आत्मस्वरूप निरूपण के चार । पंचेंद्रियजीव में उपदेश; ज्ञान-ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों की द्वारों को कुछ विशेष बातें पेश की । अब दूसरे विभाग की कुछ भक्ति-बहुमान, आसेवन, वृद्धि, पाठक और अध्यापक की अन्न विशेषता देखेंगें । - पान से भक्ति, प्रवचनवात्सत्य, बार-बार ज्ञानोपयोग आदि से होता है । देखें गाथा ८१५ से ८५५ ॥ कर्म के मूल - उत्तर भेद एवं स्थिति का निरूपण | चारित्र यह जीव का शुभभाव है जिसके लिंग मूलगुण कर्म और उसके मूल-उत्तरभेद-स्थिति विगैरहका प्राणातिपातविरमणादि पांच महाव्रत एवं छट्ठा रात्रिभोजनविरमण निरूपण । प्रसङ्गसे बौद्धो को मानी हुई अमूर्त वासना का व्रत तथा उत्तरगुण पिण्डविशुद्धि विगैरह है । मूलगुणों का निरूपण खंडन । ग्रन्थकार ने साक्षात् किया है एवं उत्तरगुणों के लिए पिण्डविशुद्धि बाहाार्थ की सिद्धि विगैरह अन्य ग्रन्थों का अतिदेश किया है । विज्ञानवादी बौद्धों के प्रति बाह्यार्थ की सिद्धि में आचार्य प्रथम महावत । कहते हैं कि ज्ञान और शब्द निर्विषयक प्रवृत्त नहीं होते हैं । प्रथम महाव्रत की सिद्धि के अवसर पर वेदविहित हिंसा वन्ध्यापुत्र जैसा असत् पदार्थ स्वविषयक ज्ञान का निमित्त भी का खंडन एवं श्री जिनमन्दिरादि के निर्माण में पृथ्व्यादि जीवो की नहीं होता है अतः एव वन्ध्यापुत्र के विषय में ज्ञान और शब्द आपात हिंसा होने पर भी निर्मापक का शुभभाव स्वपरमुक्ति (चैत्र, मैत्रादि) प्रवृत्त नहीं होते हैं । एवं संवेदन अर्थविषयक ही का साधक है । शुभभाव - श्री जिनेश्वर परमात्मा की स्थापना होता है । गौतमबुद्ध का महादान भी बाह्यार्थ की सिद्धि करता की जायगी । अत एव साधुओ का आगमन होगा । उनके उपदेश है । देखें गाथा ७३७ । ७३८॥ एवं परिचय से प्रतिदिन स्वाध्यायादि द्वारा जीवो में ज्ञानवृद्धि होगी। 'जीव कर्म का कर्ता है' आचार्य के इस कथन पर शंका परमात्मा के दर्शन से वीतरागता सर्वज्ञतादि परमात्म-गुणों का ज्ञान की जाती है कि सुखाभिलाषी जीव दुःखफलक कर्म क्यों करता होगा । इसीसे रागादि दोषों का हास होगा और अत्यन्त हास से Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों का मोक्ष होगा । यह शुभभाव स्व-पर मोक्ष का साधक तृणग्रहणादि से प्रतिबन्दी देकर अन्त में विवेकदर्शन कराया है:होने से पृथ्व्यादि की आपातहिंसा भी फलतः महती अहिंसा है। वस्त्रग्रहण और तृणग्रहण दोनों में से संयमोपकारिता किस में है सो मध्यस्थभाव से सोचो । | द्वितीय महावत । मृषावाद विरमण के निस्पण में अनेकांत बताते हैं. देखें पात्र गाथा ९०५ ॥ एकान्त वचन और अन्य वचन स्वरूप से सत्य होने पात्र के अभाव में गृहस्थके किसी एक ही घर में पाँवो पर भी जो पीडोत्पादक हो वह असत्य है । दृष्टान्त के तौरपर का प्रक्षालन तथा साधुनिमित्त आरंभ-समारंभ होनेसे षड्जीवएकान्तवचनः वेदविहित हिंसा के विरुद्ध वेदांतियों का कथन - निकाय का वध, गृहस्थ के घर भोजन करने से गृहस्थों के "सुख किये सुख होय, दुःख दिये दुःख होय । इत्यादि एकान्तवचन प्रति ममता, भिक्षाटन का त्याग होने से वीर्याचार का अपालन, भी असत्य ही है क्योंकि व्यभिचारग्रस्त है । देखिये - परस्त्री साधु की गोचरी भ्रमर के दृष्टान्त से है वह भी वचनमात्र होने भोगी स्वपर सुख का हेतु है । फिर भी वह सुखनिमित्तक शुभ की आपत्ति, आहारादि लाकर देनेरूप ग्लानसेवा का असंभव कर्म नहीं बांधता है, अपितु नरकादिगमनहेतु अशुभकर्म बांधता इत्यादि दोषों का उद्भावन किया है। है और दुःख पाता है। उपकरणों की सोपयोगिता बताते हैं → रजोहरण और दुःख देनेवाला भी एकान्त दुःख ही पावे ऐसा नियम नहीं मुहपत्ति जीवरक्षाहेतु है तथा इसके दर्शन से स्वयं को 'मुझे स्वार्थ है । लोच (केश-लुञ्चन) स्वपरदुःखहेतु होते हुए भी करने (मोक्ष) साधना है, जागरूकता रहती है । कुत्ते आदि से रक्षणहेतु कराने वाले साधु दिव्यभोगहेतु शुभ कर्म बांधते हैं और सुख दंड है । साधुओं का प्रथम गुण चारित्र है । चारित्र का मूल पाते हैं । ऐसी अनेक बातों का उल्लेख है । अहिंसा है जिसका पालन धर्मोपकरण के बिना अशक्य है । अतः निर्ममभाव से सभी को धर्मोपकरण ग्राह्य है । यद्यपि कोई | तृतीय महावत । जिनकल्पिक धर्मोपकरण के बिना भी चारित्र का पालन करते तीसरे महाव्रत अदत्तादान विरमण के निस्पण में वादी का हैं, लेकिन काल के प्रभाव से अभी. ऐसी धृति, संघयणादि का कथन है कि चोरी भी वाणिज्य की भाँति एक कला है जो अभाव है । अतः धर्मोपकरण ग्राह्य है । श्री गौतमप्रमुख आजीविकाहेतु विहित है। आचार्य श्री प्रतिविधान करते हैं धर्मोपकरण रखनेवाले सिद्ध हुए ही हैं । निष्प्रयोजन देह को चोरी करनेवाले के परिणाम सुन्दर नहीं होते हैं, जिसका धन पी पीडना भी इष्ट नहीं है । आगम में आत्म-पर उभय की पीडा चोरा जाता है उसे दुःख होता है, चोरी करने वाला इस जन्म में का वर्जन कहा है । देखें गाथा ११०६ ॥ अपयश-वध-बन्धादि को पाता है तथा परलोक में भी नरक तीर्थंकर भगवन्तों ने भी सोपकरण धर्म के विधानहेतु दुःखादि पाता है । अतः चौर्य उभयलोक के लिए अहितकर है। , देवेन्द्रदत्त देवदूष्य धारण किया था । यह भी शंका नहीं करनी चतुर्थ महावत चाहिए कि जो राज्य का त्याग करता है वह वस्त्र कैसे ग्रहण चौथे महाव्रत में मैथुनविरमण के प्रतिपादनमें भी व र करेगा ? क्योंकि भिक्षाग्रहण की भाँति वस्त्रग्रहण भी धर्मदेह का वाद-प्रतिवादों का उल्लेख किया है । निष्कर्ष २ सभी आस्तिक पोषक है । तथा - दर्शनकारों द्वारा निषिद्ध, परमसंक्लेश का कारण, गुद्धि वृद्धि, एक | आज्ञापालन से मुक्ति न कि अनुकरण से | प्रसङ्ग में नौ लाख गर्भज पंचेन्द्रिय एवं असंख्य विकलेन्द्रिय जीवों का वध, देह की क्षीणता एवं परलोक में सुगतिरूप देह का नाश, भगवान के शिष्यों के लिए भगवान् का पूर्ण अनुकरण चारित्र में विघ्न, उत्सुकता को अनिवृति, अविवेक की प्रवृत्ति, शक्य नहीं है क्योंकि भगवान् तो अनुत्तर पुण्य के स्वामी हैं, विवेक का नाश इत्यादि दोषों का दर्शन कराकर अंत्यन्त त्याज्य उत्तमोत्तम हैं । हाथी का अनुकरण सूअर कभी नहीं कर सकता . बताया है। है । अतः हमजैसे सामान्य जीवों के लिए उनकी आज्ञा ही प्रमाण होनी चाहिए, न कि सर्वथा उनका अनुकरण । वैद्यके उपदेशानुसार | पंचम महावत औषधादि लेने से रोगी रोगमुक्त है, न कि वैद्य के कपडे पहिनने पांचवें परिग्रहविरमण महाव्रत के निरूपण में प्रसंग से से अथवा उसकी नकल करने से । इसी तरह तीर्थंकर परमात्मा बौद्धो का बुद्ध, धर्म एवं संघ रूप रत्नत्रयी की वृद्धिहेतु परिग्रहपक्ष की आज्ञापालन से जीव कर्मरोग से मुक्त होता है न कि वेषादि का निरास किया है । दिगम्बर भाइयों के प्रति मूर्छा परिग्रह है, द्वारा उनका अनुकरण करने से और न उनकी आज्ञा पाले न कि धर्मोपकरण इत्यादि लम्बी चर्चा में स्थान २ पर देहधारण, बिना ही । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाग्न्य स्त्रीयों के लिए मोह का कारण है वस्त्रपात्रादि के विरह में शीतादि के अतिशय से शरीर के विनाश को भी संभावना रहती है तथा नाग्न्य स्त्रीयों के लिए मोह का हेतु है । अतः वस्त्र - पात्रादि धर्मोपकरण को ममतारहित धारण करने से परिग्रहविरमणमहाव्रत में कोई क्षति नहीं आती है । रात्रिभोजनविरमणवत वीतरागता की सिद्धि - 2 कहीं रागादिभावों का हास दीखता है, अतः इन भावों का कहीं संपूर्ण अभाव भी हो सकता है । रागादि दोषों का हास वैराग्यादि भावना से भव्यात्मामें होना अनुभवसिद्ध है । एवं रागादि के हेतु, स्वरूप, विषय और फल के चिन्तन से भी हास युक्तियुक्त है । देखिये अशुभकर्मपरमाणुओ से रागादि की उत्पत्ति होती है । रागादिका स्वरूप संक्लेशमय है । धन, स्त्री, परिवार आदि अनित्य पदार्थ इसके विषय है जन्म, जरा, मृत्यु भय और शोक इसके फल है अतः यह चिन्तन भी विवेकियों के लिए निर्वेद का हेतु है। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य की भावना एवं साधना जब प्रकर्ष को पाती है रागादि का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है और आत्मा वीतराग बन जाता है। संकल्प विकल्प स्वरूप अभ्यंतर वृत्तियों का अत्यन्त क्षय हो जाता है । इसी का नाम वीतरागता है। वीतरागता का फल सर्वज्ञता है। सर्वज्ञ सिद्धि सर्वज्ञता के विरुद्ध वादी का कथन है 'ऋषभदेव सर्वज है यद अर्थवाद है अर्थात् प्रशंसावाक्य है। आचार्यश्री वादी के कथन का निराकरण करते कहते हैं - यह सर्वज्ञता अर्थवाद नहीं अपितु नोदनाफल है । जैसे अग्निहोत्रं जुह्यात् स्वर्गकामः' का फल स्वर्ग हैं वैसे ही ‘सग्गकेवलफलत्थिणा इह तवादि कायव्वं" स्वर्ग एवं केवलज्ञान के अभिलाषी को क्रमश तप और ध्यान करना चाहिए । अतः सर्वज्ञता ध्यान का फल है । तथा ज्ञानतारतम्य से कहीं प्रकर्ष होना चाहिए और यह प्रकर्ष ही सर्वज्ञत्व है। अविसंवादी वचनस्य आगमार्थ से भी सर्वज्ञ सिद्ध होता है एवं वह सर्वज्ञ स्वयं भी उक्तागमार्थ का फल भी है देखिये यहाँ प्रतिभा निखरती है- ॥ गाथा १२७१ ॥ । - वादी ऋषभादि असर्वज्ञ हैं । आचार्य श्री असवंश में नत्र यदि अल्पार्थ विवक्षा में है तो अर्थ यह हुआ कि वह कुछ जानता है। इस पर प्रश्न उठता है कि उसने क्या नहीं जाना ? वादी यज्ञादि की विधि नहीं जानी है क्योंकि उसने यज्ञादि का उपदेश नहीं दिया है । आचार्य श्री उसने यज्ञादि को मिध्यारूप से जाना ही है, छ रात्रिभोजनविरमणव्रत से दृष्ट लाभ तो यह है कि दिन में लिया भोजन अच्छी तरह पच जाता है इत्यादि । अदृष्टफल हिंसानिवृत्ति रात्रि में सूक्ष्म प्राणी नजर नहीं आते हैं जिनकी हिंसा की पूरी संभावना है । आचार्य श्री जो सर्वज्ञ से अन्य हो अथवा सर्वज्ञ विरुद्ध इस प्रकार भावधर्म का प्रतिपादन कर वीतरागता और हो वह असर्वज्ञ है यदि ऐसी मान्यता है तो आपके कथन से ही सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं। सर्वज्ञ को सिद्धि हुई इत्यादि ग्रन्थ अवलोकनीय है । सर्वज्ञ के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग कमभावी है. सर्वज्ञसिद्धि के अनन्तर सर्वज्ञभगवन्त के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग क्रमभावी हैं यह भाष्यकार श्री जिनभद्रक्षमाश्रमण का सैद्धान्तिक मत हैं, दोनों उपयोग युगपत् है यह महामति श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरि का मत है, एवं तीसरा मत केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों एक ही हैं अतः दोनो उपयोग भी एक ही है । इन प्रतिपादन, वाद-प्रतिवादादि का न्यास कर आग और युक्तिपुरस्सर समाधानात्मक निष्कर्ष देते हैं केवलज्ञान और केवलदर्शन जीवस्वभाव से ही भिन्न है और इन दोनों का उपयोग क्रमिक है, युगपत् नहीं है । फिर भी ज्ञानोपयोग में ज्ञेयगत सामान्य गौणभावसे और विशेष मुख्यभाव से विषय बनते हैं, क्योंकि सर्व वस्तु में सामान्य और विशेष परस्परअनुविद्ध रहते हैं । इसी प्रकार दर्शनोपयोग में ज्ञेय गत विशेष गौणभाव से और सामान्य मुख्यभाव से विषय बनते हैं । श्री जिनभगवान् ही सर्वज्ञ है । अन्त में यह सिद्ध करते हैं कि दृष्ट- इष्ट अबाधित वचन से श्री जिन भगवान् हो सर्वज्ञ सिद्ध होते हैं और इन्हीं जिन भगवान् से उपदिष्ट धर्म की साधना कर विशुद्ध चित्त वाले जीव शाश्वत सुख के धाम मोक्ष को पाते हैं। - - क्योंकि यज्ञसंबंधी हिंसा नरकगति का हेतु होने से हेय है । वादी असर्वज्ञ में नञ् अल्पार्थ में नहीं किन्तु अन्यार्थ में है जैसे ब्राह्मण से अन्य अब्राह्मण । अथवा विरुद्ध अर्थ में नञ् जैसे धर्म विरुद्ध अधर्म । 5 - - - - - मुक्ति में अव्याबाध और शाश्वत सुख मुक्तात्मा में रागादि का अभाव होने पर जन्मादि का असंभव है। जन्मादि के असंभव के मुक्तात्मा का सुख शाश्वत और अव्याबाध सिद्ध होता है। जन्म के अभाव से न जरा हैं, न Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु है, न भय, न संसार है । इस स्थिति में मुक्तात्मा सदा सुखी जो पुण्य मुझे प्राप्त हुआ है उससे भव्यजीव दुःखमुक्ति के क्यों न होगी ? लिए श्री जिनधर्म का सम्यग् बोध पावे । सिद्ध भगवान् का सुख अवाच्य और अनुभवगम्य है ।। अन्त में निर्देशक प. पू. सिद्धान्तदिवाकर आचार्य श्री मद्विजय जयघोष सूरीश्वरजी म. सा तथा अनुवादक मुनिवर श्री सिद्धों का सुख अवाच्य है, मात्र अनुभवगम्य है । जैसे स अजितशेखरविजयजी ने संशोधन एवं प्रस्तावनालेख का दायित्व स्त्रीसुख कुमारी के प्रति अवाच्य है मात्र स्त्री को ही उसका मुझे सौंप कर अपूर्व स्वाध्यायलाभ प्रदान किया अतः इनके प्रति अनुभव है । यह बात दृष्टान्त से विशद की है । ___ मैं सदा ऋणी रहूंगा। प्रस्तुत ग्रन्थ को महत्ता एवं सोपयोगिता ग्रन्थ के वाचक महानुभावों को इतना ही कहना है कि मी अनेक बातें THAT Tो । एकमना मध्यस्थभाव से ग्रन्थ का अवलोकन करें । ग्रन्थकार ने सानो अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है । इतना ही नहीं ज्ञान के बल पर निर्मल और अविचल श्रद्धा प्रकटाने भी यह । । ग्रन्थ की गरिमा में चार चान्द लगा दिये हैं । हमें तो सिर्फ ग्रन्थ एक साधन है । अतः सम्मति-तर्क जैसे दर्शनप्रभावक पढकर ज्ञान - चन्द्रिका का आनन्द लेना है और आनन्द के ग्रन्थों में इस ग्रन्थ की गणना की जाय तो अतिशयोक्ति नहीं साथ साथ श्री जिन भगवान, श्री जिनशासन और उसके महान् होगी। आचार्य भगवन्तों के प्रति बहुमान का भाव जगाना है । ग्रन्थकार का असीम औदार्य और कारण्य ।। शान्तिनगर, अहमदाबाद पंन्यास कुलचन्द्र विजय गणि ग्रन्थपरिसमाप्ति में ग्रन्थकार असीम औदार्य एवं कारुण्य मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया का परिचय देते हुए अभ्यर्थना करते हैं - इस ग्रन्थरचना से वि. स. २०४९ શુદ્ધ સાધના માટે (१) सोमा अने. (२) ममत। શુદ્ધ સ્વભાવની સાધનામાટે બે तत्यो सा१श्य छे. (१) मेनु अनन्य મહત્વ આકી અહોભાવવાળી દ્રષ્ટિ અને (२) ममता. (૧) પહેલામાં એવો અહોભાવ થાય કે “આ અરિહંત ભગવાન! આવા सिवान અહો! આ શાંતિનાથા ભારે ચકવર્તીપણાનો ઠાઠ છોડી સિદ્ધ બનવા नीजी ५७॥ ! ! म ! हो! આવા અનંત અનંત ગુણોથી ભરેલા અને કર્મની બેડીથી તદ્દન મુકાયેલા સિદ્ધ ભગવાન! વાહ વાહ! ધન્ય આત્મા (૨) બીજામાં એવી મમતા થાય કે મારા અરિહંત- સિદ્ધ ભગવાન! મને પ્રેરણા આપનાર સાધનામાં બળ પૂરનાર, મારા પરમ ઉપકારી! સુલતાને ધર્મલાભનો સંદેશો ભગવાને મોલાવ્યો ત્યારે તેને આ જ થયું'मा मान महावीर નમુત્યુë બોલતી વખતે મનમાં અહોભાવથી અને મમતાથી અરિહંત રમ્યા કરે તો જ શ્રી લલિતવિસ્તરા શાસ્ત્ર કહ્યા મુજબ “મુદક્ષુ પરિપૂર્ણ લોચન' અર્થાત ચૈત્યવંદનમાં નમુત્થણે બોલતી વખતે मोहर्ष सुधी भरली बने.... - પૂજ્યપાદ ન્યાયવિશારદ સ્વ.ગચ્છાધિપતિ આચાર્યદેવશ્રી વિજય ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મહારાજ. 'न१५E USRA (Aria) पुस्तमा. SOARDER8588888 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** द्वार +++ श्री सिद्धाचलशणगार ऋषभदेवाय नमः । श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः । मोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री अरिहंत उवज्झाय गौतमस्वामिने नमः । श्री गणसंपत्समृद्धाय सुधर्मस्वामिने नमः । श्री हरिभद्र - मलयगिरि - प्रेम - भुवनभानु - धर्मजित्-जयशेखरसूरि - अभयशेखरविजय गुरुभ्यो नमः । धर्मसंग्रहणि જીવના કર્તૃત્વની સિદ્ધિ सांप्रतं. कर्त्तेति द्वारं समर्थयितुकामस्तदेवोपक्षिपति → હવે કર્તા' દ્વારનું સમર્થન કરવા કર્તાદ્વારનો ઉપક્રમ કરે છે. भाग २ कत्तत्ति दारमहुणा कत्ता जीवो सकम्मफलभोगा । अस्स य अणब्भुवगमे लोगादिविरोहदोसो ति ॥५४६ ॥ (कर्तेति द्वारमधुना कर्ता जीवः स्वकर्मफलयोगात् । अस्य चानभ्युपगमे लोकादिविरोधदोष इति 1 ) कर्त्तेति द्वारमधुना अवसरप्राप्तम् । तत्र जीवः कर्त्ता इति साध्यं, स्वकर्मफलभोगादिति हेतुः स्वकृतस्य कर्मणो यत् फलं तस्य भोगात् । न चायं स्वरूपासिद्धो यत आह- अस्य च स्वकृतकर्मफलभोगस्यानभ्युपगमे लोकादिविरोधदोषः प्रसज्यते । लोकादीत्यत्रादिशब्देन युक्तिसर्वज्ञोपदेशग्रहणम् ॥५४६॥ गाथार्थ - वेर्ताद्वार अवसरप्राप्त छे. अहीं 'वर्ता छे' जे साध्य छे भने 'स्वऽर्भजनो लोग हेतु छे. અર્થાત્ જીવ પોતે જ કરેલા કર્મોને ભોગવતો હોવાથી કર્તા છે. અહીં ‘સ્વકૃતકર્મફળભોગ’ હેતુ સ્વરૂપાસિદ્ધ નથી. કારણ કે સ્વકૃતકર્મફળના ભોગના અસ્વીકારમાં લોકાદિસાથે વિરોધનો દોષ ઊભો થાય છે. ‘લોકાદિ’પદમાં આદિથી યુક્તિ અને સર્વજ્ઞના ઉપદેશનો સમાવેશ કરવો. તેથી લોકવિરોધની જેમ યુક્તિવિરોધ અને સર્વજ્ઞોપદેશ-આગમવિરોધ પણ ઊભો થાય છે. ૫૫૪૬ના तत्र लोकविरोधं दर्शयति અહીં સ્વકર્મફળભોગની અસ્વીકૃતિમા સૌ પ્રથમ લોકવિરોધ બતાવે છે. दट्ठूण कंचि दुहियं सुहियं वा एवं जंपती लोगो । भुंजति सकयफलं ण य वडजक्खनिवासतुल्लमिणं ॥५४७॥ (दृष्ट्वा कंचित् दुःखितं सुखितं वा एवं जल्पति लोकः । भुङ्क्ते स्वकृतफलं न च वटयक्षनिवासतुल्यमिदम् II) कंचित्पुरुषं दुःखितं सुखितं वा दृष्ट्वा एवं लोको जल्पति - 'भुङ्क्ते एष स्वकृतकर्म्मफलमिति' । न च वाच्यम्-इदं लोकजल्पनं वटयक्षनिवासतुल्यम् । यथा हि किल वटे यक्षस्य निवासाभावेऽपि लोको जल्पति वटे वटे यक्षो निवसतीति, तथा अत्राप्यन्यथा लोकवादो भविष्यतीति ॥५४७॥ ગાથાર્થ:- કોઇક પુરૂષને સુખી કે દુ:ખી જોઇ લોકો એમ બોલે છે આ પોતાના કર્મના ફળ ભોગવે છે. શંકા:- લોકોની આ વાત તો વડમા યક્ષના નિવાસતુલ્ય છે. ‘વડમા યક્ષનો નિવાસ છેઃ આ લોકવચન સહજ રીતે અસંગત છે. તે જ પ્રમાણે સ્વકૃતકર્મફળભોગઅંગે પણ લોકવાદ અન્યથા-વાસ્તવથી વિપરીત-અસંગત હોઇ શકે છે. અર્થાત અજ્ઞાની લોકોનુ વચન કંઇ તત્ત્વની સિદ્ધિમાં નિર્ણાયક પ્રમાણ બની શકે નહિ. ૫૫૪૭ગા + धर्मसंशि-लाग २ - 1 + Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + ++ ++ + + ++ + ++ ++ ++ + ++ ++ ++ + + ++ + ++ ++ ++ ++ कुतः पुनरिदं न वाच्यमित्यत आहસમાધાન:- ઉપરોક્ત શંકા બરાબર નથી. કેમ બરાબર નથી? તે આચાર્યવર્ય સ્વયં બતાવે છે सुहदुक्खाणुहवातो चित्ताओ णय अहेतुगो एसो । निच्चं भावाभावप्पसंगतो सकडमो हेतू ॥५४८॥ (सुखदुःखानुभवात् चित्रात् नचाहेतुक एषः । नित्यं भावाभावप्रसङ्गतः स्वकृतं हेतुः ॥) सुखदुःखानुभवात् चित्रात्-नानारूपात् इह लोके यथासंभवं सुखं दुःखं वा चित्रमनुभूयते । ततः किमित्याह-न च एष चित्रः सुखदुःखानुभवो निर्हेतुको, नित्यं-सदा भावाभावप्रसङ्गात् । 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणा" दितिन्यायात् । तस्मादस्य सुखदुःखानुभवस्य स्वकृतमेव कर्म 'मो' निपातोऽवधारणे हेतुरिति न पूर्वोक्तो लोकवादो वटयक्षनिवासवादतुल्यः ॥५४८॥ ગાથાર્થ:- આ લોકમાં યથાસંભવ વિચિત્ર સુખ-દુ:ખનો અનુભવ થાય છે. આ વિચિત્ર સુખદુ:ખનો અનુભવ નિર્વેતક લેય, તો કાં તો હંમેશા રહે, કાં તો કયારેય ન સંભવે. કેમકે “ નિક વસ્તુ અન્યની અપેક્ષા રાખતી ન હોવાથી નિત્ય સત કે નિત્ય અસત હોય છે. તેવું વચન છે. પણ સુખદુ:ખનો અનુભવ કાદાચિત્ક=(નિયતકાળે નિયતકાળમાટે) છે. નિત્ય સત કે અસત નથી. તેથી તે (=અનુભવ) સહેતક છે. અને હેતતરીકે કૂતકર્મને છોડી અન્ય કોઇનો સંભવ નથી. તેથી સુખદુ:ખના આ અનુભવમાં કતકર્મ જ હેત છે. (મૂળમાં “મો પદ નિપાત છે. અને જકારઅર્થક છે.) તેથી કતકર્મફળ ભોગ અંગેનો લોકવાદ વડમાં યક્ષના નિવાસ અંગેના લોકવાદને તુલ્ય નથી. કારણ કે એકમાં લોકવાદ સયુનિક છે. બીજામાં નિર્યુનિક छ.).॥५४॥ ભાવાત્મક સ્વભાવવાદનું ખંડન अत्र परस्य मतमपाकर्तुमाशङ्कतेઅહીં પૂર્વપક્ષના આશયને દૂર કરવા આશંકા કરે છે. किन्न सहावो त्ति मई भावो वा होज्ज जं अभावो वा । जइ भावो किं चित्तो ? किं वा सो एगख्वो त्ति ? ॥५४९॥ ___(किन्न स्वभाव इति मतिः, भावो वा भवेद् यदभावो वा । यदि भावः किं चित्रः ? किं वा स एकरूप इति ॥) . स्यादियं मतिः परस्य-कथमुच्यते स्वकृतमेव कर्म 'सुखदुःखानुभवस्य हेतुः ? यावता स्वभाव एव किन्न भवतीति। तदयुक्तम्, कुत इत्याह- 'यत्' यस्मात्स्वभावो भावो वा स्यादभावो वा ? तत्र यदि भावस्तर्हि सोऽपि भावः किं चित्रो-नानारूपो वा स्यात् किं वा एकरूपः? ॥५४९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- એમ કેમ કહો છો કે “સ્વકુતકર્મ જ સુખદુઃખના અનુભવનું કારણ છે સુખદુ:ખના અનુભવનું કારણ સ્વભાવ કેમ ન બની શકે? ઉત્તરપક્ષ:- આ વાત વિકલ્પોથી અસંગત કરે છે. જૂઓ – આ સ્વભાવ ભાવરૂપ છે કે અભાવરૂપ છે? તેમાં જો સ્વભાવ ભાવરૂપ શ્રેય, તો તે ભાવ પણ શું અનેકરૂપ છે? કે એકરૂપ છે? ૫૪૯ जइ ताव एगरूवो निच्चोऽनिच्चो व होज्ज? जइ निच्चो । कह हेतू सो भावो? अह उ अणिच्चो ण एगो त्ति ॥५५०॥ (यदि तावदेकस्यो नित्योऽनित्यो वा भवेत् ? यदि नित्यः । कथं हेतुः स भावः? अथ तु अनित्यो नैक इति ॥) यदि तावदेकरूपस्ततः स किं नित्यो वा स्यादनित्यो का? यदि नित्यस्तर्हि कथं स भावो हेतुः-कारणं स्यात् ? नित्यस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । अथानित्यः स भाव इति पक्षस्ततो न एकः, प्रतिक्षणमन्यान्यरूपतया तस्य बहुत्वभावात् ॥५५०॥ ગાથાર્થ - જો તે એકરૂપ હોય, તો નિત્ય છે કે અનિત્ય? જો તે ભાવ નિત્ય હોય, તો હેત કેવી રીતે બની શકશે? કારણકે નિત્ય એકરૂપે વસ્તુમાં ક્રમશ: કે યુગપત અર્થક્રિયાનો વિરોધ છે. હવે જો, ‘તે ભાવ અનિત્ય છે એવો પક્ષ લેશો તો તે એકરૂપ નહિ રહે, કારણ કે પ્રત્યેક ક્ષણે તે અન્ય અન્યરૂપે થાય છે. અને બહુત્વને પામે છે. ૫૫ના ++++ ++++ +++ ++++ + eler- 02-2 *++++++++****** Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***र्ताद्वार + +++ સ્વભાવમાં મૂર્ખામૂર્તની ચર્ચા द्वितीयपक्षमाशङ्क्य दूषयति હવે ‘તે ભાવ અનેકરૂપવાળો છે” તેવા બીજા પક્ષની આશંકા કરી દૂષિત કરે છે. अह चित्तो किं मुत्तो किं वाऽमुत्तो ? जइ भवे मुत्तो । ता कम्मा अविसिट्ठो पोग्गलत्वं जतो तं पि ॥५५१ ॥ (अथ चित्रः किं मूर्तः किं वाऽमूर्तः ? यदि भवेन्मूर्तः । ततः कर्मणोऽविशिष्ट: पुद्गलरूपं यतस्तदपि ॥ अथ स भावरूपः स्वभावश्चित्र इति पक्षः, ननु किं मूर्ती वा स्यादमूर्त्तो वा ? तत्र यदि भवेन्मूर्त्तस्तर्हि स कर्मणः सकाशादविशिष्टः, कथमित्याह - यतो - यस्मात्तदपि कर्म पुद्गलस्पमुपलक्षणमेतत् चित्रं चास्माभिरभ्युपगम्यते, भवताऽपि च स्वभाव एवंस्वभावः ततो न कर्मणः सकाशादस्य कश्चिद्विशेषः तथा चाविप्रतिपत्तिः, नाम्नि विवादाभावात् ॥५५१ ॥ ગાથાર્થ:- હવે તે ભાવરૂપ સ્વભાવ વિચિત્ર છે' એ પક્ષઅંગે કહે છે. આ વિચિત્રસ્વભાવ મૂર્ત છે કે અમૂર્ત? જો મૂર્ત હોય તો કર્મથી ભિન્ન નથી. અર્થાત્ કર્મ જ છે. કારણ કે કર્મ પણ પૌદ્ગલિક છે, ઉપલક્ષણથી વિચિત્ર છે. એમ અમે સ્વીકારીએ છીએ. અને તમે પણ સ્વભાવને આવા (મૂર્ત અને વિચિત્ર) સ્વભાવવાળો સ્વીકારો છો. (જૈનમતે માત્ર પુદ્ગલદ્રવ્ય જ મૂર્ત છે. તેથી મૂર્ત કહેવાથી પુદ્ગલ અને પુદ્ગલ કહેવાથી મૂર્ત અર્થસિદ્ધ છે.) તેથી આવો સ્વભાવ કર્મથી ભિન્ન નથી. તેથી આ બાબતમા કોઇ વિવાદ નથી, કારણ કે માત્ર નામમાટે વિવાદ થતો નથી. ૫૫૫ अह तु अमुत्तो ण तओ सुहदुक्खनिबंधणं जहागासं । जीवेणं वभिचारो ण हि सो एगंततोऽमुत्तो ॥ ५५२ ॥ (अथ तु अमूर्त्तो न सकः सुखदुःखनिबंधनं यथाकाशम् । जीवेन व्यभिचारो न हि स एकान्ततोऽमूर्त्तः ॥) अथोक्तप्रकारेण पराभ्युपगमप्रसङ्गभयान्मूर्त्त इति पक्षमपहाय अमूर्त इत्यभ्युपगम्यते, यद्येवं तर्हि 'तउत्ति' सकः स्वभावो न सुखदुःखनिबन्धनममूर्त्तत्वात् यथा आकाशं, न ह्याकाशमसुमतामनुग्रहायोपघाताय चोपजायते, किंतु पुद्रला एव, "जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गलेहिंतो " (छा. यदनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्यः) इति वचनात् । न चामूर्त्तत्वमन्तरेणान्यदाकाशस्यानुग्रहोपघातकारित्वाभावनिमित्तम् । ततो यद्यसावपि स्वभावोऽमूर्तस्तर्हि नैव सुखदुःखनिबन्धनं भवतीति । अत्र पर आह- 'जीवेणमित्यादि' यदुक्तममूर्त्तत्वान्न स स्वभावः सुखदुःखनिबन्धनमिति तत्र जीवेन व्यभिचारः, तस्यामूर्त्तत्वेऽपि सुखदुःखनिबन्धनत्वाभ्युपगमात् । अत्राह - 'न हि सो एगंतओऽमुत्तो हि यस्मान्न सः - जीव एकान्तेनामूर्ती येन हेतोस्तेन व्यभिचारः स्यात् ॥५५२॥ અમૂર્તતા સુખ-દુખમાં અહેતુ ગાથાર્થ:- આમ પૂર્વે બતાવ્યું તેમ, મૂર્રપક્ષમાં પરમત (=જૈનમત)નો સ્વીકાર થાય છે. તેથી તેના ભયથી મૂર્રપક્ષ છોડી અમૂર્તપક્ષ સ્વીકારશો, તો તે સ્વભાવ અમૂર્ત હોવાથી જ સુખદુ:ખમાં કારણ નહિ બને. જેમકે આકાશ જીવોપર અનુગ્રહ કે ઉપધાત કરતું નથી, પરંતુ પુગળો જ કરે છે. કહ્યું જ છે કે “જીવોને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત પુદ્ગળોથી થાય છે.” આકાશ અનુગ્રહ–ઉપધાત નથી કરતુ તેમાં પણ અમૂર્તત્વને છોડી અન્ય કોઇ કારણ નથી. આમ જો આ સ્વભાવ પણ અમૂર્ત હોય, તો તે સુખદુ:ખનું કારણ બની શકે નિહ. પૂર્વપક્ષ:- તમે એમ કહો છો કે તે સ્વભાવ અમૂર્ત હોવાથી સુખદુ:ખનું કારણ ન બને. પણ આ કથન બરાબર નથી. કેમકે જીવના દૃષ્ટાન્તથી અનેકાન્ત છે. ‘જીવ અમૂર્ત હોવા છતાં સુખદુ:ખનું કારણ બને છે.' એમ બધાએ સ્વીકાર કર્યો છે. ઉત્તરપક્ષ:- સુખદુ:ખમાં કારણ બનતો જીવ એકાન્તે અમૂર્ત નથી કે જેથી તેનાદ્વારા ઉપરોક્ત કથનમા વ્યભિચાર–અનેકાન્ત બતાવી શકાય. ૫૫૫રા कुतो नैकान्तेन सोऽमूर्त्त इत्याह 'छ भ खेअन्ते अभूर्त नथी?' तेखंगे भुतासो खाये छे.जमणादिकम्मसंतइपरिणामावन्नरूव एवायं । बीयंकुरणाएणं तं चेव य तस्स हेतु त्ति ॥५५३ ॥ ( यदनादिकर्मसंततिपरिणामापन्नरूप एवायम् । बीजाङ्कुरन्यायेन तदेव च तस्य हेतुरिति ॥) + + + धर्मसंशि- भाग २ - 3 + + Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ાર +++++++++++++++++++ यत्-यस्मादयं-जीवोऽनादिकर्मसन्ततिपरिणामापन्नस्वरूप एव, क्षीरनीरवदनयोः सदा लोलीभावेनावस्थानात् । तथा च सति बीजाङ्करन्यायेन बीजमङ्कुरस्य हेतुरङ्कुरो बीजस्येत्येवंरूपेण तदेव कर्म परमार्थतस्तस्य-सुखदुःखानुभवस्य हेतुर्भवति, न तु जीवः केवलोऽमूर्तः, तथाहि-सुखदुःखानुभवनिमित्तं कर्म तन्निमित्तश्च सुखदुःखानुभव इति कुतो जीवेन વ્યમવીરઃ IIધરૂા. ગાથાર્થ:- જીવ અને કર્મ ક્ષીર–નીરની જેમ હમેશા એકમેક થઈને રહ્યા છે. તેથી અનાદિકર્મપ્રવાહના પરિણામના કારણે જીવ પણ રૂપ પામેલો જ છે. તેથી બીજઅંકુરન્યાયથી -બીજ અંકુરપ્રત્યે અને અંકુર બીજપ્રત્યે કારણ છે, એ દષ્ટાન્તથી) આ કર્મ જ વાસ્તવમાં સુખદુ:ખના અનુભવનું કારણ છે, નહિકે કેવળ અમૂર્ત જીવ. અહીં બીજાંકુર ન્યાય આ પ્રમાણે છે – સુખદુ:ખના અનુભવને કારણે કર્મ ઉદ્ભવે છે અને કર્મના કારણે સુખદુ:ખનો અનુભવ થાય છે. આમ પરમાર્થથી મૂર્ત કર્મ જ સુખદુ:ખના અનુભવનું નિમિત્ત છે, નહીં કે અમૂર્ત જીવ. તેથી જીવસાથે અનેકાન્ત વ્યભિચાર બતાવી “અમૂર્ત સુખદુ:ખમાં કારણ ન બને એ નિયમને દોષિત ઠેરવી શકાય નહિ. ૫૫વા “સિદ્ધ જીવો ચ્છારહિત હોવાથી સુખી पुनरन्यथा परो व्यभिचारमाचष्टेઅહીં પૂર્વપક્ષ અન્યપ્રકારે વ્યભિચાર દર્શાવે છે. मुत्तेणं वभिचारो ण सो वि जं चेतणासस्वो त्ति । णय सो दुक्खनिमित्तं निस्वमसुहस्वतो तस्स ॥५५४॥ (मुक्तेन व्यभिचारो न सोऽपि यच्चेतनास्वरूप इति । न च स दुःखनिमित्तं निरुमसुखरूपतस्तस्य ॥) मक्तेन-सिद्धेन(अ)मूर्त्तत्वादित्यस्य हेतोर्व्यभिचारः, नहि स सका येन संसारिवत्तस्यापि कर्मपरिणामापन्नस्पतया मूर्तता परिकल्प्येतेत्यत्राह-यदेतदनन्तरमुक्तं तन्न। यत्-यस्मात् सोऽपि-मुक्तश्चेतनास्वरूप एवेष्यते, न सुखदुःखयोरनुभविता, तदनुभवनिबन्धनसातासातवेदनीयकर्मणोरभावात् । अन्यच्च, सुखदुःखलक्षणसमुदयनिमित्तत्वममूर्तस्य निषिध्यते, न केवलं सुखनिमित्तत्वं, न च स मुक्तो दुःखस्यापि निमित्तं, तस्य सकलौत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणनिरुपमसुखस्वभावत्वात्, ततो न कश्चित्तेन व्यभिचारः । अपि च, अमूर्तस्यापरिणामिकारणतया सुखदुःखनिबन्धनता प्रतिषिध्यते न तु परिणामिकारणतया, मुक्तश्च निरुपमसुखं प्रति परिणामि कारणं, तत्कथं तेन व्यभिचारः ? यदि पुनरसावपि स्वभावो मुक्तात्मवत् इष्यते तर्हि तस्यापि जीवत्वं सदा सुखित्वं च प्रसज्येत ॥५५४॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- “અમૂર્તિત્વ હેતને સિદ્ધજીવોથી વ્યભિચાર છે. કેમકે સિદ્ધજીવ કર્મયુક્ત નથી. તેથી સંસારી જીવની - જેમ સિદ્ધજીવ કર્મપરિણામથી પ્રાપ્તરૂપવાલો નથી. તેથી તેને(સિદ્ધજીવ) મૂર્ત કલ્પી શકાય નહિ. ઉત્તરપક્ષ:- તમે આ જે કહ્યું તે બરાબર નથી. “સિદ્ધજીવ અમૂર્ત છે એ બરાબર, પણ તે માત્ર ચેતના સ્વરૂપ છે, નહિ કે સુખદુ:ખનો અનુભવ કરનાર પણ; કારણ કે તેને (સિદ્ધજીવને) સુખદુ:ખના અનુભવમાં કારણભૂત સાત-અસાત વેદનીયકર્મ જ નથી. | (શંકા:- આમ જ હોય, તો સિદ્ધજીવને આકાશની જેમ સુખ પણ ન હોવું જોઇએ, પરંતુ આગમવગેરેમાં તો તેને અનંતસુખનો સ્વામી બતાવ્યો છે, તો શું અહીં વિરોધ નથી? આવી સંભાવિત શંકાના ઉમૂલન માટે ટીકાકારશ્રી કહે છે “અન્યચ્ચ' ઈત્યાદિ). વળી, અમૂર્ત સુખદુ:ખઉભયરૂ૫સમુદાયના નિમિત્તતરીકે જ અમાન્ય છે, નહિ કે કેવળ સુખના નિમિત્તતરીકે. અર્થાત સિદ્ધજીવગત અમૂર્તતા કેવળસુખનું કારણ બની શકે છે. (શંકા-આમ તો સિદ્ધજીવગતઅમૂર્તતા માત્ર દુઃખનું જ નિમિત્ત બને તેમ કેમ કહી શકાય નહિ? કેમ કે ઉભયત્ર વિશેષનિમિત્તનો અભાવ છે. સમાધાન:-) સિદ્ધજીવ એકલા કે સુખયુક્ત દુઃખનું પણ કારણ બને નહિ; કારણ કે દુ:ખનું કારણ તે-તે વસ્તુસંબંધી ઓસ્ક્ય(=ઈચ્છા) છે. સિદ્ધજીવો તમામ ઈચ્છાઓથી રહિત છે. તેઓની આ ઇચ્છારહિત અવસ્થા જ તેઓના નિરુપમ સુખરૂપ છે. અને આ સુખ તેઓને સ્વભાવસિદ્ધ છે. (સિદ્ધઆત્મા જ્ઞાન-દર્શન–સુખસ્વભાવી હોવાથી જ અમૂર્તિ હોવા છતાં આકાશથી ભિન્ન વ્યક્તિત્વ ધરાવે છે. તેથી ઈચ્છારહિત અને અમૂર્ત આકાશ જીવની જેમ સુખી કેમ નહીં ? તેવી શંકા રહેતી નથી.) આમ અમૂર્ત સિદ્ધજીવ સ્વભાવથી સુખી હોવાથી તેનું દષ્ટાન્ત લઈ સુખદુ:ખના હેતતરીકે દર્શાવેલા મૂર્તવમાં(અથવા “આકાશાદિ સુખદુ:ખમાં કારણ નથી. કેમકે * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંવહણિ-ભાગ ૨ - 4 * * * * * * * * * * * * * * * Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܐܟܐܐܪ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ અમૂર્ત છે એવા અનુમાનમાં સુખદુ:ખના અકારણમાં ઉતતરીકે સ્થાપેલા અમૂર્તત્વમાં) વ્યભિચાર બતાવવો યોગ્ય નથી. વળી અમે જયાં અમૂર્તનો સુખદુ:ખના કારણતરીકે નિષેધ કરીએ છીએ, ત્યાં તેનો અપરિણામિકારણરૂપે જ (=ઉપાદાનભિન્ન કારણરૂપે. અથવા પરદર્શનકારે માનેલા અપરિણામીકા૨ણ એકસ્વભાવકારણરૂપે) નિષેધ કરીએ છીએ. નહિ કે પરિણામિકારણરૂપે પણ. સિદ્ધજીવ નિરૂપમસુખપ્રત્યે પરિણામિકારણ છે. (કારણ કે સ્વયં નિરુપમ સુખમય પરિણામ પામે છે.) તેથી તેને સિદ્ધજીવને) આગળ કરી વ્યભિચાર દર્શાવવો યોગ્ય નથી. જો તમે તમારા કલ્પિતસ્વભાવને પણ મુક્તઆત્મા જેવો સ્વીકારશો, તો તમારો આ સ્વભાવ જીવરૂપ બનશે અને હંમેશા સુખી રહેશે. આ પ્રસંગદોષ ઊભો છે. ૫૫૪ तथा चाहઆચાર્યવર આ જ વાત જણાવે છે तस्सवि य तहाभावे जीवत्तं चेव पावती वत्तं । ता कह णु सो सहावो? सदासुहित्तप्पसंगो य ॥५५५॥ (तस्यापि च तथाभावे जीवत्वमेव प्राप्नोति व्यक्तम् । ततः कथं नु स स्वभावः? सदा सुखित्वप्रसङ्गश्च ॥) तस्यापि च-स्वभावस्य तथाभावे-मुक्तात्मवत् निरुपमसुखं प्रति परिणामिकारणतया भावेऽभ्युपगम्यमाने व्यक्तं जीवत्वमेव प्राप्नोति, सदा सुखित्वं च । ततः कथं नु स स्वभावो भवेत् ? केवलं नामान्तरेण मुक्त एव कश्चिदभ्युपगतः स्यात्, तत्र चाविप्रतिपत्तिरिति । तदयमत्र प्रमाणार्थः-यदमूर्तं न तत् अपरिणामि कारणं सत् सुखदुःखनिबन्धनं यथाऽऽकाशम्, अमूर्तश्चासौ स्वभावः । नन्वाकाशस्याप्यपेक्षाकारणत्वेन सुखदुःखनिबन्धनत्वात् कथमयं दृष्टान्तः साध्यविकलो न भवतीति चेत, न, अपेक्षाकारणस्य निर्व्यापारतया तत्त्वतोऽकारणत्वादन्यथा निर्व्यापारत्वाविशेषतः सकलस्यापि जगतस्तत्कारणतापत्तेरिति ॥५५५॥ ગાથાર્થ:- જો સ્વભાવને પણ મકનજીવની જેમ નિરૂપમ સખ પ્રતિ પરિણામિકારણ માનશો, તો સ્પષ્ટપણે સ્વભાવ જીવરૂપ અને સદા સુખમય પ્રાપ્ત થશે. અને તો પછી તે સ્વભાવરૂપ શી રીતે રહેશે? કારણ કે આમ તો નામાન્તરથી (=સ્વભાવના નામે) કોઈક સિદ્ધ જીવ જ સ્વીકૃત થશે. અને સિદ્ધજીવના આવા સ્વરૂપને અમારે કોઇ વિવાદ જ નથી. તેથી અહિં પ્રમાણભૂત અર્થ આ છે “જે અમૂર્ત હોય, તે અપરિણામિકારણરૂપે સુખદુ:ખનું કારણ ન બને, જેમ કે આકાશ. આ કલ્પિતસ્વભાવ પણ અમૂર્ત છે. તેથી તે સુખદુ:ખનું અપરિણામિકારણ નથી.” પૂર્વપક્ષ:- આકાશ પણ અપેક્ષાકારણરૂપે સુખદુ:ખનું કારણ છે. તેથી આકાશનું દૃષ્ટાન્ત સાધ્ય (અકારણતારૂપ સાધ્ય) થી રહિત છે. ઉત્તરપક્ષ:- અપેક્ષાકારણ ચેષ્ટારહિત હોવાથી વાસ્તવમાં અકારણ જ છે. ચેષ્ટારહિતને પણ કારણ માનવામાં ચેષ્ટારહિતની સમાનતાથી આખા જગતને અપેક્ષાકારણરૂપે સુખદુ:ખના કારણ માનવાની આપત્તિ આવશે. પપપપા અભાવરૂપ સ્વભાવમાં દોષો अभावपक्षमधिकृत्याहઆમ ભાવપક્ષે દૂષણો બતાવ્યા. હવે અભાવપક્ષને આગળ કરી કહે છે अह तु अभावो सो वि हु एगसहावो व होज्ज चित्तो वा? । तुच्छेगसहावत्ते कहं तओ कज्जसिद्धि त्ति? ॥५५६॥ (अथ तु अभावः सोऽपि खु एकस्वभावो वा भवेच्चित्रो वा? । तुच्छैकस्वभावत्वे कथं ततः कार्यसिद्धिरिति ) अथ स स्वभावोऽभाव इति पक्षः, ननु सोऽप्यभावः किमेकस्वभावो वा स्यात्किंवा चित्रो? योकस्वभावस्ततस्तस्य तुच्छैकस्वभावत्वे सति कथं ततः कार्यसिद्धिः- कार्यनिष्पत्तिर्भवति? नैव भवतीति भावः ॥५५६॥ ગાથાર્થ:- ભાવપક્ષે દૂષણોથી ડરી તમે જો સ્વભાવને અભાવરૂપ સ્વીકારશો, તો તે અભાવ પણ શું એક સ્વભાવવાળો છે કે ચિત્ર અનેકસ્વભાવવાળો છે? જો એકસ્વભાવવાળો હોય, તો તે (=અભાવ) એકમાત્ર તુચ્છસ્વભાવ (=અસત્વસ્વભાવ) વાળો જ હોઈ શકે. (કેમકે અન્યસ્વભાવ માનવામાં તે અભાવરૂપ ન રહે.) અને તો તેનાથી (અભાવથી) કાર્યસિદ્ધિ કેવી રીતે થશે? અર્થાત કાર્યસિદ્ધિ નહીં જ થાય. આ૫૫દા * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગહણિ -ભાગ ૨ - 5 * * * * * * * * * Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ++ + ++ + ++ + ++ + ++ + ++ ++ ++ ++ + + + ++ + ++ ++ +++ एतदेव भावयतिઆ જ મુદાનું ભાવન કરે છે. णहि खरविसाणहेतूअभावतो जायती तयं तत्तो । तुच्छेगसहावत्ता भेगजडाभारमादी वा ॥५५७॥ (नहि खरविषाणहेत्वभावतो जायते तकत् ततः । तुच्छैकस्वभावत्वाद् भेकजटाभारादि वा ॥ न हि खरविषाणहेत्वभावतः सकाशात्तकत्-खरविषाणं जायते । कुत इत्याह-तुच्छैकस्वभावत्वात् । 'भेकजडाभारमादी वा' इति भेकजटाभारादि वा ततस्तुच्छैकस्वभावात् स्वहेत्वभावाज्जायते । भेकः-शालूर आदिशब्दात् गगनेन्दीवरादिग्रहणम् । तस्मान्न ततः कार्यसिद्धिर्युक्ता ॥५५७॥ ગાથાર્થ:- ગધેડાના શિંગડા અસત છે. તેથી તેનો હેતુ પણ અભાવ છે. અર્થાત તુચ્છરૂપ છે. આમ ગધેડાના શિંગડાનો હેતુભૂત અભાવ તુચ્છેકસ્વભાવવાળો છે. તેથી તેમાંથી ગધેડાના શિંગડા ઉત્પન્ન થતા નથી. એ જ પ્રમાણે દેડકાની રોમરાજી (જે અસત છે) પણ પોતાના હેતભૂત તુચ્છ એક સ્વભાવવાળા અભાવમાંથી ઉત્પન્ન થતી દેખાતી નથી. અહીં આકાશકુસુમ વગેરે અસતવસ્તુઓઅંગે પણ આ જ વાત સમજી લેવી. આમ જો સ્વભાવ તુચ્છએકસ્વભાવી અભાવરૂપ હોય તો તે કદી કારણભૂત બને નહિ. તેનાથી ક્યારેય કોઇ કાર્ય નિષ્પન્ન થાય નહિ. પપપળા તુચ્છઅભાવમાંથી કાર્ય અનુપપન अत्र परोऽसहमान आहઅહીં આચાર્યની યુક્તિને નહીં સહી શકતો પર્વપક્ષ કહે છે. मिइपिंडो चेव तओ जायइ तत्तो घडो य तो जुत्तं । तुच्छेगसहावत्ते कहं तओ कज्जसिद्धि त्ति? ॥५५८॥ (मृत्पिण्ड एव, सको जायते तस्माद् घटश्च तस्माद्युक्तम् । तुच्छैकस्वभावत्वे कथं ततः कार्यसिद्धिरिति ॥ 'तउ त्ति' सकोऽभावो मृत्पिण्ड एव, तस्माच्च मृत्पिण्डरूपादभावाज्जायते विषयेण विषयिणो लक्षणाद् जायमानो दृश्यते घटः । 'तो' तस्मात्तुच्छैकस्वभावत्वे सति कथं ततः कार्यसिद्धिरिति यदुच्यते तदयुक्तमेव ॥५५८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ (ઘટસંબંધી) અભાવ માટીના પિંડરૂપ જ છે. અને માટીના પિંડરૂપ અભાવમાંથી ઘડે થાય છે. વિષયના સૂચનથી વિષયીનું લક્ષણ થાય છે. “થતો ઘટ' વિષય છે. થતા ઘટનું દર્શન વિષયી છે. તેથી) ઘડો થતો દેખાય છે. તેથી “અભાવ તુચ્છ એકસ્વભાવવાળો રોય, તો તેમાંથી કેવી રીતે કાર્ય નિષ્પન્ન થાય એવું વચન અસંગત છે. ૫૫૮ अयुक्तत्वमेव भावयतिઆ અસંગતતાનું જ (પૂર્વપક્ષ) ભાવન કરે છે. ण हि सो तुच्छसहावो एगंतेणं सस्वभावातो । तद्धेतुभावरूवं पडुच्च तुच्छो मुणेयव्वो ॥५५९॥ (नहि स तुच्छस्वभावः एकान्तेन स्वरूपभावात् । तद्धेतुभावस्पं प्रतीत्य तुच्छो ज्ञातव्यः ॥) न हि-यस्मात् सः-मृत्पिण्डरूपोऽभाव एकान्तेन तुच्छस्वभावः। कुत इत्याह - स्वरूपभावात् । यद्येवं तर्हि कथमभावस्य तुच्छरूपता गीयत इति चेत् आह-'तद्धेउ इत्यादि' स विवक्षितमृत्पिण्डलक्षणो हेतुर्यस्य असौ तद्धेतुः स चासौ भावश्च-घटलक्षणस्तस्य स्पं प्रतीत्यासौ स्वभावस्तुच्छो ज्ञातव्यो, नतु स्वरूपेण, तेन न पूर्वोक्तदोषावकाशः ५५९॥ ગાથાર્થ:- આ અભાવ માટીના પિંડરૂપ છે. તેથી સ્વરૂપયુક્ત છે. નિઃસ્વરૂપે નથી.) તેથી આ અભાવ એકાન્ત તુચ્છસ્વભાવવાળો નથી. શંકા:- તો અભાવની જે તુચ્છરૂપતા કહેવાય છે, તે શી રીતે સંભવો? સમાધાન:- માટીનો પિંડ જેનો હેતુ છે–તેવા ઘટરૂપભાવને આશ્રયી આ સ્વભાવ તુચ્છ છે. (કારણ કે તેમાં ઘટપતા નથી. આમ જે અભાવથી ઘડો થાય છે, તે અભાવ મુપિંડરૂપે સત્ અને ઘટરૂપે અસત (તુચ્છ) છે.) પરંતુ ઘટરૂપતા અભાવનું પરરૂપ છે. જયારે મલ્લિંડરૂપતા સ્વરૂપ છે. આમ સ્વરૂપ તુચ્છ ન હોવાથી પૂર્વોક્ત દોષને કોઈ અવકાશ નથી. પપલા +++++++++++***** ule- २-6****+++++++++++ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ dfszܪ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ अत्राचार्य आहઅહીં આચાર્યશ્રેષ્ઠ પૂર્વપક્ષને ઉત્તર આપે છે. जो च्चिाय सस्वभावो ण तउ च्चिय इयरस्वभावो त्ति । भावाभावविरोहा भिन्नसहावम्मि चित्तत्तं ॥५६॥ (य एव स्वरूपभावो न स एवेतरस्पभाव इति । भावाभावविरोधाद् भिन्नस्वभावे चित्रत्वम् ॥ न य एव मृत्पिण्डस्य स्वरूपभावः स एवेतररूपस्य-घटस्पस्याभावः, भावाभावविरोधात्-भावाभावयोः परस्परं विरोधात् । तथाहि- यदि भावः कथमभावः अथाभावः कथं भाव इति । अथोच्येत-स्वरूपापेक्षया भावरूपता परस्पापेक्षया चाभावस्पता ततो भावाभावयोर्भिन्ननिमित्तत्वान्न कश्चिदिह विरोधदोष इति । अत्राह-'भिन्नसहावम्मि चित्तत्तं' भिन्नौ-परस्परविलक्षणौ स्वभावौ स्वपरस्पापेक्षया भावाभावलक्षणौ यस्य स तथाभूतस्तद्रूपे मृत्पिण्डादावभ्युपगम्यमाने हन्त । चित्रत्वम्-अनेकान्तात्मकत्वं स्वतन्त्रविरोधि प्राप्नोति ॥५६०।। ગાથાર્થ:- ઉત્તરપત:- માટીના પિંડનો જે સ્વરૂપભાવ છે તેજ ઘટસ્વરૂપના અભાવરૂપ નથી, કારણ કે ભાવ અને અભાવને પરસ્પર વિરોધ છે. જો એ ભાવરૂપ હોય, તો અભાવરૂપ શી રીતે બને? અને જો અભાવ જ હોય, તો ભાવ કેવી રીતે બને? - પૂર્વપક્ષ:- સ્વરૂપની અપેક્ષાએ ભાવરૂપતા અને પરરૂપની અપેક્ષાએ અભાવરૂપતા. આમ ભાવ અને અભાવના નિમિત્તો ભિન્ન છે. તેથી અહીં ભાવ અને અભાવ વચ્ચે કોઇ વિરોધદોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ જો માટીના પિડમાં સ્વરૂપે ભાવસ્વભાવ અને પરરૂપે અભાવસ્વભાવરૂપ પરસ્પર વિલક્ષણસ્વભાવો સ્વીકારશો, તો “ત્પિડરૂ૫ અભાવમાં ચિત્રતા અનેકાનપણું આવશે. (એકાન્ત એકસ્વભાવ૫ક્ષ સ્વીકાર્યો છે, અને અનેકસ્વભાવતાનું પ્રતિપાદન થાય છે. તેથી સ્વ-તત્રવિરોધદોષ છે.) ૫૬ના अत्र पराभिप्रायमाहઅહીં પૂર્વપક્ષનો અભિપ્રાય પ્રગટ કરે છે. सिय इतरस्वभावो तु कप्पितो अंजसा ततो नत्थि । कह मितिपिंडाउ घडो तब्भावे ण खरसिंगं च? ॥५६१॥ (स्यादितररूपाभावस्तु कल्पितोऽजसा ततो नास्ति । कथं मृत्पिण्डाद् घटस्तद्भावे न खरशृंगं च ॥) स्यादेतत्, इतररूपाभावो-घटस्पाभावो मृत्पिण्डस्य परिकल्पितो न पारमार्थिकस्ततोऽञ्जसा स नास्त्येव, परिकल्पितस्य तत्त्वतोऽसत्त्वात्, तन्नानेकान्तात्मकताप्रसङ्गः । अत्राह-'कह मिई इत्यादि' यदि नाम मृत्पिण्डे तत्त्वतो घटरूपाभावो न विद्यते ततः कथं ततो-मृत्पिण्डात् घटो भवति? तत्र तस्य प्रागभावाभावात् सूत्रपिण्डादाविव । अथ तत्र तस्य प्रागभावाभावेऽपि ततो मृत्पिण्डात् घट उत्पद्यमानोऽभ्युपगम्यते, तत आह-'तब्भावे न खरसिंगं चेति' तद्भावे-ततो मृत्पिण्डात्तस्य घटस्य भावे सति किन्न खरशृङ्गमपि तत उत्पद्यते?, प्रागभावाभावाविशेषात् ॥ ५६१ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- માટીના પિંડમાં સ્વરૂપભાવ પારમાર્થિક છે, અને ઘટરૂપતાનો અભાવ માત્ર ૫ના કરાયેલો છે, પારમાર્થિક નથી. અને પરિકલ્પિત વસ્તુ વાસ્તવમાં અસત હોય છે. તેથી એ અભાવાત્મક સ્વભાવ જ નથી. તેથી અનેકાત્મકતા આવવાનો પ્રસંગ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ, જો માટીના પિંડમાં વાસ્તવમાં ઘટરૂપનો અભાવ ન જ હોય, તો માટીના પિંડમાંથી ઘડે પણ કેવી રીતે બનશે? અર્થાત્ ન જ બને, કેમકે, તેમાં માટીના પિંડમાં ઘડાના પ્રાગભાવનો અભાવ છે. જેમકે સૂતરના પિંડમાં ઘડાનો પ્રાગભાવ નથી, તો તેમાંથી ઘડો બનતો નથી. જો “ઘટપ્રાગભાવ વિના પણ મૂર્લિંડમાંથી ઘડો બની શકે તેમ સ્વીકારશો, તો માટીના પિંડમાંથી ઘડાની જેમ ગધેડાના શિંગડા પણ કેમ ન બની શકે? અર્થાત બનવા જ જોઈએ. કારણ કે પ્રાગભાવનો અભાવ સમાનતયા છે. (નૈયાયિકમને ૩ પ્રકારના કારણોનો સમુદાય સકલ(સંપૂર્ણ કારણસામગ્રી છે. પ્રત્યેક કાર્ય સકલકારણસામગ્રીથી જ થાય, એકાદ કારણ કે વિકલ કારણસામગ્રીથી નહીં. (૧) સમાયિકારણ-જેમાં કાર્ય સમવાય સંબંધથી ઉત્પન્ન થાય, જેમકે તંતુઓમાં પટ (૨) અસમાયિકારણ (i) દ્રવ્યાત્મકકાર્યના સમવાયિકારણમાં સમવાય સંબંધથી રહી તે કાર્યપ્રત્યે કારણ બને, જેમકે પટમાટે તંતઓમાં સમવાયસંબંધથી રહેતો તંતુસંયોગ. (ii) ગુણ-ક્રિયાત્મક કાર્યના સમાયિકારણમાં સમાવેતસમવાય સંબંધથી રહીને તે કાર્યપ્રત્યે કારણ બને. જ * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 7 * * * * * * * * * * * * * * * Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ કર્તાદાર જેમ કે પટરૂપમાટે તંતુરૂપ. તંતુઓમાં રહેલા લાલઆદિરંગ(રૂપ) પટના લાલદિરંગના કારણ છે. તંતુરૂપ(-લાલઆદિરંગ) તંતુઓમાં સમવેત(=સમવાયસંબંધથી રહ્યા) છે. તંતુઓમા પટ સમવાયસંબંધથી રહ્યો છે. તેથી તંતુરૂપ પટમા સમવેતસમવાયસંબંધથી છે. પટરૂપ (પટના લાલઆદિરંગ) માટે પટ સમવાયિકારણ છે. (૩) નિમિત્તકારણ (૧) કાર્યસ્થળે કાર્યોત્પત્તિની પૂર્વક્ષણે રહેલા (૨) અન્યથાસિદ્ધ ન હોય અને (૩) ઉપરોક્ત બે કારણમાં સમાવેશ ન પામતા બાકીના બધા કારણો નિમિત્તકારણો છે. ઉપરોક્ત બેમાંથી એક પણ કારણના નાશમાં ઉત્પન્ન થયેલા કાર્યનો નાશ થાય, પણ આ નિમિત્તકારણના નાશમા કાર્યનાશનો નિયમ નથી. નિમિત્તકારણો બે પ્રકારે (૧)સાધારણ– બધા જ કાર્યોમાટે સમાનતયા લાગુ પડે, કારણ બને. જેમ કે દિશા-ઇશ્વરેચ્છા આદિ. (૨) અસાધારણ કારણ- તે તે કાર્યમાટે નિયત થયેલા કારણો, જેમકે ઘડામાટે ચક્ર, ચીવરઆદિ. પ્રાગભાવ-કાર્યના સમવાયિકારણમા કાર્યોત્પત્તિપૂર્વ કાર્યનો સમવાયસંબંધથી રહેવાનો અભાવ પ્રાગભાવ, કાર્યોત્પત્તિ થવાથી આ અભાવ નાશ પામે એટલે પછી કાર્યના બીજા તમામકારણો ઉપસ્થિત હોય, તો પણ ફરીથી કાર્ય ન થાય. આમ આ અભાવ અનાદિ હોવા છતાં વિનાશ્ય છે. દરેક કાર્યમાટે આવશ્યક હોવાથી પ્રાગભાવ સાધારણ નિમિત્તકારણ ગણાય. જે સમાયિકારણમાં જેનો પ્રાગભાવ મળે, તે સમવાયિકારણમા તે જ કાર્ય સમવાયસંબંધથી થાય. જેમકે મુપિંડમા લટપ્રાગભાવ છે માટે મુપિંડમાંથી ઘટ બને, રેતીમા તે ન હોવાથી ઘડો ન બને. મૃત્પિડમા ગધેડાના શિંગડાનો પ્રાગભાવ નથી તો તેમાંથી ગધેડાના શિંગડા બને નહીં. જૈનમાન્ય સ્વરૂપયોગ્યતાને કંચિત્ મળતી આવતી આ પ્રાગભાવની કલ્પના છે.) ૫૫૬ા અભાવમાં ચિત્ર સ્વભાવની અસિદ્ધિ अभावपक्ष एव द्वितीयपक्षमधिकृत्याह અભાવપક્ષમાં જ ચિત્રસ્વભાવરૂપ બીજાપક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે. ++++++++ अह चित्तो चेव ततो नाभावो चित्तया जतो लोए । भावस्स हंदि दिट्ठा घडपडकडसगडभेदेण ॥ ५६२॥ (अथ चित्र एव ततो नाभावश्चित्रता यतो लोके । भावस्य हन्त ! दृष्टा घटपटकटशकटभेदेन II) अथोच्येत सकः - अभावस्वरूपः स्वभावश्चित्र एव चित्रस्वभाव एव तेन प्रतिनियतस्वभावतया कुतश्चित्किंचिद्भवतीति न भेकजटाभारा देरप्युत्पत्तिप्रसङ्गः । नन्वेवं तर्हि सोऽभावो नाभावः स्यात्, यतो- यस्मात् 'हंदीति' परामन्त्रणे लोके चित्रता भावस्य घटपटशकटादिभेदेन दृष्टा, नाभावस्य तस्य तुच्छरूपतया सर्वत्राप्यविशेषात् । ततो यदि तस्यापि चित्रतेष्यते तर्हि नामान्तरेण भाव एव चित्रोऽभ्युपगतः स्यात्, न हि तत्तदर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणस्वभावभेदातिरेकेण चित्रतोपपद्यते, तथाभूतभेदैकस्वभावाभ्युपगमे च भावरूपतैवोपपद्यत इति ॥ ५६२ ॥ ગાથાર્થ:- હવે જો એમ કહેશો કે “એ અભાવરૂપ સ્વભાવ ચિત્ર (-ચિત્રસ્વભાવ- અનેકસ્વભાવવાળો) છે. આમ પ્રતિનિયત સ્વભાવના કારણે કોઇકમાંથી કો'ક નિયત જ ઉત્પન્ન થાય, તેથી દેડકાના રોમવગેરેની ઉત્પત્તિનો પ્રસંગ નહિ આવે." તો તે વાત બરાબર નથી; કારણ કે તો અભાવ અભાવરૂપ રહે જ નહિ. (દિ'. પદ આમન્ત્રણસૂચક છે.) કારણ કે જગતમાં ભાવપદાર્થની જ ધઘટ, પટ (=કપડું) શકટ (ગાડુ) વગેરે ભેદથી ચિત્રતાઅનેકરૂપતા દેખાય છે, અભાવની નહિ. કારણ કે અભાવ તુચ્છરૂપ હોઇ સર્વત્ર સર્વદા એકરૂપ જ હોય (કચાંય/કચારેય અભાવમાં આ ગધેડાના શિંગડાનો અભાવ, આ ખપુષ્પનો અભાવ ઇત્યાદિભેદ પડતો નથી.)તેથી જો અભાવમાં પણ ચિત્રતા સ્વીકારશો તો વાસ્તવમા અભાવના નામથી– નામાન્તરથી ભાવને જ સ્વીકારો છો. તે તે અર્થક્રિયાના સામર્થ્યરૂપ સ્વભાવભેદ વિના વસ્તુમાં ચિત્રતા સંગત થતી નથી. (ધડાની અર્થક્રિયા કપડાની અર્થક્રિયાથી ભિન્ન છે. તેથી ધટ કપડાથી ભિન્ન છે.)અને જો તેવા પ્રકારના ભેદએકસ્વભાવનો સ્વીકાર કરો અર્થાત્ જો અભાવમા પણ ઘટાભાવથી ખરશૃંગાભાવમાં ભેદ છે. ઇત્યાદિરૂપ ભેદાત્મક સ્વભાવ માનો, તો એ ભેદ અર્થક્રિયાકારિતાના ભેદ વિના સંભવતો ન હોવાથી દરેક અભાવમાં જૂદી જૂદી અર્થક્રિયા માનવી પડે. અને અર્થક્રિયાકારિતા અભાવનું નહીં પણ ભાવનું લક્ષણ છે. તેથી અભાવની ભાવરૂપ થવાની આપત્તિ છે. ૫૫૬૨ા यद्येवं ततः किमित्याह આમ ભાવરૂપતા થવાથી શું થાય, તે બતાવે છે.— भावस्य हेतुत्ते नामविवज्जासमेत्तमेवेदं । हंदि सहावो हेतू जम्हा कम्मं पि भावो तु ॥ ५६३॥ (भावस्य च हेतुत्वे नामविपर्यासमात्रमेवेदम् । हंदि स्वभावो हेतु र्यस्मात्कर्मापि भावस्तु II) भावस्य च चित्रतान्यथाऽनुपपत्त्या अभ्युपगतभावरूपस्य च स्वभावस्य हेतुत्वेऽभ्युपगम्यमाने नामविपर्यासमात्रमेवेदम्। * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 8 * * Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ alam+++++++++++++++++++ तदेवाह-'हंदि सहावो हेतू' 'हंदीति' नामविपर्यासमात्रतोपप्रदर्शने, स्वभावो हेतुरिति । कथमिदं नामविपर्यासमात्रमेवेदमिति चेत् । अत आह-यस्मात् कर्मापि-वेदनीयादिकं भाव एव, उपलक्षणमेतच्चित्रं च, स्वभावोऽपि चैवंरूप इति नामविपर्यासमात्रमिदम् ॥ ५६३॥ ગાથાર્થ:- ભાવની ચિત્રતા પૂર્વોક્ત અર્થક્રિયાભેદરૂપ સ્વભાવની વિચિત્રતા વિના સંભવતી નથી. અને તેવા ભાવરૂપે સ્વભાવને ઉતતરીકે સ્વીકારો તો માત્ર નામથી જ વિ૫ર્યાસ છે, વપરીત્ય છે, તત્વથી નહિ. અર્થાત સ્વભાવહત માત્ર नामविपरीततायी छे. (E. ५६ नाममात्रथा विपर्यासनुसूय छे.) શંકા - નામમાત્રથી વિપર્યાય છે. તેમ કહેવામાં કારણ શું છે? સમાધાન:- વેદનીયવગેરે કર્મ પણ ભાવરૂપ અને વિચિત્ર છે. તથા તમે કલ્પેલો સ્વભાવ પણ આવો છે. તેથી અમે અહીં “નામમાત્રથી વિપર્યાસ છે એમ કહીએ છીએ. પ૬૩ કારણ કે કાર્યના સ્વભાવમાં આપત્તિઓ अन्यच्च पणी . सो भावो त्ति सहावो कारणकज्जाण सो हवेज्जाहि । - कज्जगओ कह हेऊ निवित्तीओ उ कज्जस्स? ॥ ५६४॥ (स्वो भाव इति स्वभावः कारणकार्ययोः स भवेत् । कार्यगतः कथं हेतु निवृत्तेस्तु कार्यस्य ॥ स्वः-आत्मीयो भाव इति स्वभावशब्दव्युत्पत्तिः । ततश्च स स्वभावः कारणस्य वा स्वभावो भवेत् कार्यस्य वा (नान्यस्य) । तत्र कार्यगतः स्वभावः कथं हेतुर्भवेत् ? कथं न भवेदित्याह-'निवित्तीओ उ कज्जस्स' कार्यस्य निवृत्तेः । यो हि यस्यालब्धात्मलाभसंपादनाय प्रभवति स तस्य हेतुर्भवति, कार्य च निष्पन्नतया न अलब्धात्मलाभं, कथमन्यथा तदभावे सोऽपि तदात्मस्वभावो भवेत. तस्मान्नवासौ स्वभावः कार्यगतः कार्यस्य हेतरिति ॥५६४॥ यार्थ:- 'स्व-स्पीय (=पोतानो)मा -स्वला, मावी 'स्पा' शनी व्युत्पत्ति छ. तेथी मा स्वमा तो, કારણનો સ્વભાવ હોય, કાં તો કાર્યનો. તે બે સિવાય અન્યનો તો સંભવે જ નહિ. હવે જો આ સ્વભાવ કાર્યનો હોય, તો હેતુ બની શકે નહિ. કારણ કે કાર્ય નિવૃત્ત ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યું છે. અનુત્પન્ન અવસ્થામાં નથી. જે વસ્તુ જેની અપ્રાપ્ત સત્તા (વિમાનતા) ને પ્રાપ્ત કરાવે, તે વસ્તુ તેનો હેતુ બને. કાર્ય સ્વયં નિષ્પન્ન છે. અર્થાત સ્વસત્તાને પામી ચુક્યું છે. તથા જે કાર્ય સત્તાને પામ્યું ન હોત, હજી અસત અવસ્થામાં જ છે, તો પણ તે સ્વભાવ કાર્યનો સ્વભાવ બની શકત જ નહીં, કેમકે અભાવભત વસ્તુને સ્વભાવ હોતો નથી. તેથી આ સ્વભાવ કાર્યમાં રહી કાર્યનો હેત બની શકે નહિ. પ૬૪ मा भूत्कार्यगतः कारणगतो. भविष्यतीति चेत् ? अत आह“આ સ્વભાવ કાર્યમાં ભલે ન હોય, કારણમાં રહીને તો જરૂર હેત બનશે” આવી શંકાને ટાળવા કહે છે. कारणगतो उ हेऊ केण व गेट्ठो त्ति णिययकज्जस्स । ण य सो तओ विभिन्नो सकारणं सव्वमेव तओ ॥ ५६५॥ (कारणगतस्तु हेतुः केन वा नेष्ट इति निजककार्यस्य । न च स ततो विभिन्नः सकारणं सर्वमेव ततः ॥ कारणगतस्तु स्वभावो निजककार्यस्य हेतुः केन वा नेष्टः? सर्वैरपीष्ट एवेत्यर्थः । न च सः-कारणगतः स्वभावस्ततः-तस्मात्कारणाद्विभिन्नः किंत्वभिन्नः, तस्मात् यत् किंचिदिह जगति कार्य तत्सर्वं सकारणमेवेति स्थितम् ॥५६५॥ ગાથાર્થ:- “કારણગત સ્વભાવ સ્વકાર્યમાં હેત છે. એ વાત બધાને ઈષ્ટ છે. પણ આ કારણગત સ્વભાવ તે કારણથી ભિન્ન નથી, પણ અભિન્ન છે. તેથી જગતની બધી વસ્ત સકારણ જ છે, એમ નિશ્ચય થાય છે. પ૬પા उक्तातिदेशेन वादान्तराण्यपि दूषयन्नाह સ્વભાવવાદના અતિદેશથી બીજા વાદોને પણ દૂષિત કરતા કહે છે. एवं नियइ, जइच्छा, कालो, दिव्वं, पधाणमादी वि । सव्वे वि असव्वाया एगंतेणं मुणेयव्वा ॥५६६॥ (एवं नियति र्यदृच्छा कालो दैवं प्रधानमित्यादयोऽपि । सर्वेऽपि असद्वादा एकान्तेन ज्ञातव्याः ॥) ++ + + + + + + ++ ++ + ++ + e-GIR -9 +++++++++++++++ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************* ******************* एवं-स्वभाववादवत् नियतिर्यदृच्छा कालो दैवं प्रधानमित्यादयोऽपि ये वादा लोके श्रूयन्ते ते सर्वेऽप्येकान्तेनासद्वादा ज्ञातव्याः, उक्तदूषणानां प्रायः समानत्वात् । अपि च, नियतेरेकरूपत्वाभ्युपगमादखिलानामपि तन्निबन्धनकार्याणामेकरूपता प्राप्नोति । नहि कारणभेदमन्तरेण कार्यस्य भेदो युज्यते, निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात् । अथ कार्यविचित्रतान्यथाऽनुपपत्त्या नियतिरपि विचित्ररूपाऽभ्युपगम्यते, ननु तस्या अपि विचित्रता न तदन्यविचित्रभेदकमन्तरेणोपपद्यते, न खल्विहोषरेतरादिधराभेदमन्तरेण विहायसः पततामम्भसामनेकरूपता भवति । “विशेषणं विना यस्मान्न तुल्यानां विशिष्टते" ति वचनात् । तेषां च तदन्येषां भेदकानां चित्रता किं तत एव नियतेः स्यात् तदन्यतो वा? तत्र यदि नियतेस्तर्हि तस्याः स्वत एकरूपत्वात् कथं तन्निबन्धना तदन्यभेदकानां चित्ररूपता? अथ विचित्रतदन्यभेदरूपकार्यान्यथानुपपत्त्या तस्या अपि विचित्ररूपताऽभ्युपगम्यते, ननु तर्हि सा तस्या विचित्ररूपता न तदन्यभेदकमन्तरेणोपपद्यत इत्यादि तदेवावर्तत इत्यनवस्था । अथ मा भूदेष दोष इति न तदन्यभेदकानां चित्ररूपता नियतेः सकाशादभ्युपगम्यते, किंत्वन्यत इति । तदप्ययुक्तम्, नियत्यतिरेकेणान्यस्य तव समये हेतुत्वेनानभ्युपगमादिति यत्किंचिदेतत् । यदपि च यदृच्छावादिभिरुच्यते-“यथा घटादीनां स्वकृतकर्मविपाकमन्तरेणाऽपि यदृच्छया विचित्रघृततैलसुराद्युपभोगो भवति तद्वद्देहिनामपि सुखदुःखोपभोगो भविष्यतीति" । तदपि मिथ्यादर्शनमोहनीयविलसितम्, घटादीनामपि तदुपभोक्तृदेवदत्तादिकर्मपरिपाकसामर्थ्यादेव तथा तैलाद्युपभोगसंभवात्। समानमृदाधुपादानानां समानकुम्भकारादिकर्तृकाणां समानस्थानस्थितानां समानतैलाद्याधेयानां समानविनाशहे तूपनिपातानामपि के षांचिदेव 'भङ्गभावात् । यदि पुनरुपभोक्तृदेवदत्तादिकर्मपरिपाकसामर्थ्याद् घटादीनां न तथा तैलाधुपभोग इष्येत तर्हि सर्वेषामपि युगपद्विनाशो भवेत, न केषांचिदेव, तद्विबन्धककारणान्तराभावात् । तस्मात् घटादीनामपि उपभोक्त-देवदत्तादिकर्मविपाकसामर्थ्यसमद्भवो विचित्रतैलाद्युपभोगः । उक्तं च कर्मनिमित्तं मुद्गपाकमधिकृत्य-"न च तत्कर्मवैधुर्ये, मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिभङ्गभावेन, यत्क्वचिन्नोपपद्यते ॥१॥ इति" ॥ 'तत्कर्मवैधुर्ये' इति उपभोक्तृकर्मवैधुर्ये । तथा कालोऽपि यदि समयावलिकादिरूपो लोक प्रसिद्धोऽभ्युपगम्यते तर्हि नासौ सुखदुःखाद्यनुभवनिबन्धनं, तुल्यकालानामपि सुखदुःखाद्यनुभववैचित्र्यदर्शनात्, अथान्यः कश्चित् तदा स्वभाववत् दूषयितव्यः । एवमन्यत्रापि यथायोगं दूषणं वाच्यम् । तस्मात्स्थितमेतत्-सुखाद्यनुभवस्य स्वकृतमेव कर्म हेतुरिति सिद्धो जीवः कर्मणां कर्तेति ॥५६६॥ નિયતિઆદિવાદોમાં દોષો ગાથાર્થ:- નિયતિ, યદેચ્છા, કાળ, દેવ, પ્રધાન વગેરે જે બધા વાદો લોકોમાં સંભળાય છે, તે બધા જ વાદો આમ સ્વભાવવાદની જેમ સર્વથા અસવાદ સમજવા, કારણ કે સ્વભાવવાદમાં બતાવેલા દૂષણે પ્રાય: સમાનતયા આ બધા વાદોમાં લાગુ પડે છે. હવે નિયતિવાદવગેરેના વ્યક્તિગત દૂષણ બતાવે છે. નિયતિવાદીઓએ નિયતિને એકરૂપે સ્વીકારી છે. અને સર્વકાર્યોમાં એકમાત્ર કારણરૂપે સ્વીકારી છે. તેથી નિયતિથી જન્ય બધા જ કાર્યો એકરૂપ થવાનો પ્રસંગ છે. કારણ કે કારણના ભેદ વિના કાર્યનો ભેદ નિર્દેતુક બનવાથી અસંગત છે. હવે જો કાર્યની વિચિત્રતાની અન્યથાઅનુ૫૫ત્તિથી કારણભૂત નિયતિને પણ વિચિત્રરૂપે સ્વીકારો તો એ નિયતિગતવિચિત્રતા પણ એ વિચિત્રતાના કારણતરીકે વિચિત્રતાભેદકતરીકે અન્યની ઉપસ્થિતિ વિના સંભવે નહિ. આકાશમાંથી પડતા પાણીમાં જે અનેકરૂપતા (ખારાશ, મીઠાશ ઇત્યાદિ) ઊભી થાય છે, તે ધરતીના ખારપાટઆદિ ભેદો વિના સંભવે નહીં. કહ્યું જ છે કે “તુલ્ય વસ્તુઓમાં વિશેષણ વિના વિશિષ્ટતા (=અસમાનતા) ઉદ્દભવતી नथी. नियतिथी भिन्नामेोभा हे वियित्रता छ,तेशु नियतिथी छ? न्यथी? (नियतिथी अन्य थेवी स्तुथी?) જો નિયતિથી છે એમ કહેશો, તો નિયતિ પોતે સ્વરૂપથી એકરૂપ છે. તેથી કેવી રીતે નિયતિના કારણે તદન્યભેદકોમાં વિચિત્રતા સંભવે? તે પ્રશ્નનો જવાબ આપવો પડશે. હવે જો એમ કહેશો કે “તો તદન્યભેદરૂપ કાર્યની અન્યથાઅનુપપત્તિથી નિયતિને પણ વિચિત્રરૂપ સ્વીકારવી પડશે." તો આ કથન તો અન્યોન્યાશ્રયદોષથી ઉદ્ભવતી અનવસ્થામાં ફસાઈ જશે. કારણ કે નિયતિની આ વિચિત્રતા પણ તદન્યભેદક અને તેની વિચિત્રતા વિના સંભવે નહિ. આમ એકની એક વાતનું ચક્કર ફર્યા કરશે અને અનવસ્થા ઊભી થશે. *************++ + सं.deu-लास -10 + + + + + + ++ + + + + + + + Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્તાકાર જ જ * * * * * * * * * * * * * * * પૂર્વપક્ષ:- આ દોષ ટાળવા એક જ ઉપાય છે. અને તે એ કે, તદન્યભેદકગત વિચિત્રતા નિયતિના કારણે ન સ્વીકારવી પણ કોઈક અન્યથી જ સ્વીકારવી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ તો અન્યકો'કને પણ હેતતરીકે સ્વીકારવો પડે. પણ તે યોગ્ય નથી. કેમકે તમારા સિદ્ધાન્ત મુજબ તો નિયતિને છોડી બીજું કોઈ હેતતરીકે માન્ય નથી. તેથી નિયતિવાદ કસ વિનાનો છે. હવે યદેચ્છાવાદને ખંડિત કરે છે. યદેચ્છાવાદી:- ઘડાવગેરે નિર્જીવ છે, તેથી તેઓને કંઈ કૂતકર્મ કે તેનો વિપાક સંભવતો નથી. (આ વાત ઉભયપક્ષ માન્ય છે.) આમ સ્વકૃત શુભ-અશુભકર્મના વિપાક વિના પણ ઘડાવગેરેને ધી, તેલ, દારૂ વગેરેનો વિચિત્ર ઉપભોગ દેખાય છે. (અહીં ઘીથી ભરેલા ઘડાને ધીનો, તેલથી ભરેલા ઘડાને તેલનો ઈત્યાદિરૂપે ઉપભોગ સમજવાનો) ધી તેલવગેરેનો ઉપભોગ શુભ ગણાય છે. દારૂવગેરેનો ઉપભોગ અશુભ ગણાય છે. છતાં તેમાં કોઈ શુભાશુભકર્મનો વિપાક ભાગ ભજવતો નથી. માત્ર દેચ્છાથી જ આમ થાય છે. આ જ પ્રમાણે જીવોને પણ થતો સુખ-દુ:ખનો ઉપભોગ શુભાશુભકર્મના વિપાકથી નહિ પણ યદચ્છાથી જ છે, તેમ સ્વીકારવું જોઈએ. ઉત્તરપક્ષ:- આ વચન પણ મિથ્યાત્વમોહનીયના પ્રભાવ હેઠળ છે, કારણ કે ઘડાવગેરેમાં પણ જે તેલવગેરેનો ઉપભોગ દેખાય છે, તે તે-તે ઘડાવગેરેના મુખ્ય ઉપભોક્તા દેવદત્તવગેરેના તેવા કેવા કર્મના વિપાકથી જ સંભવે છે. દેખાય છે કે (૧) માટી વગેરે ઉપાદાન એકસરખા હોવા છતાં (૨) કુંભારવગેરે કર્તાઓ તુલ્ય હોવા છતાં (૩) એક જ સ્થાને રહ્યા હોવા છતાં (૪) તેલઆદિઆધેય (= રહેનારાપદાર્થો) સમાન હોવા છતાં અને (૫) વિનાશકારણો સમાનરૂપે હાજર થવા છતાં, ઘણા ઘડાઓમાંથી બધા ઘડા નથી માંગતા પણ કેટલાક ઘડા જ ભાંગે છે. આમ થવામાં તે-તે ઘડાના માલિકનો શુભા-શુભ કર્મવિપાક જ મુખ્ય ભાગ ભજવે છે. જો દેવદત્તવગેરે ઉપભોક્તાના કર્મવિપાકના સામર્થ્યના કારણે ઘડા વગેરેમાં તેલ વગેરેનો ઉપભોગ ઈષ્ટ ન હોય, તો નાશના કારણની હાજરીમાં ઉપરોક્ત બધા જ ઘડા સમાનતયા નાશ પામવા જોઇએ, નહીં કે કેટલાક જ. કારણ કે નાશમાં પ્રતિબંધક અન્ય કોઈ કારણ હાજર નથી. તેથી ઘડાવગેરેનો પણ તેલવગેરેનો ઉપભોગ મુખ્ય ઉપભોક્તાભૂત દેવદત્તવગેરેના કર્મના ઉદયના સામર્થ્યથી જ સંભવે છે. મગ = કઠોળવિશેષ) ના કર્મનિમિત્તક પાકને ઉદ્દેશી આ વાત કરી જ છે. કહ્યું જ છે કે જે મગપાક(મગનું સીઝ૬) વાસણ આદિના ભાંગી જવાથી કયારેક સંભવતો નથી, તે મગપાક જે દેખાય છે તે પણ તેના ઉપભોક્તાના કર્મની વિકલતામાં સંભવે નહિ” હવે કાળવાદને દૂષિત કરે છે. કાળવાદીઓ સર્વત્ર કાળ સમયને કારણતરીકે સ્થાપે છે. અહીં જો “કાળ તરીકે લોકમાં પ્રસિદ્ધ સમય–આવલિકાવગેરરૂપ કાળ ઈષ્ટ હોય, તો કાળવાદ ભાંગવા આ તર્ક છે કાળ સુખદુ:ખવગેરેના અનુભવનું કારણ નથી, કારણ કે સમાનકાલીન જીવોમાં પણ સુખદુ:ખવગેરેના અનુભવરૂપે વિચિત્રતા દેખાય છે. (કાળ જ કારણ હોય તો આ વિચિત્રતા સંભવે નહીં, કેમકે સમકાલીનતારૂપે કારણ એક જ છે. કારણભેદ નથી.) હવે જે “કાળ તરીકે કોઈ અન્ય પદાર્થ જ ઈષ્ટ હોય, તો સ્વભાવવાદની જેમ કાળવાદમાં દોષો દેખાડવા. (જેમકે કે આ કાળ ભાવાત્મક છે કે અભાવાત્મક ભાવાત્મક હોય તો મૂર્ણ છે કે અમૂર્ત? ઈત્યાદિ.). આ જ પ્રમાણે દેવવગેરેવાદોમાં યથાયોગ્ય દૂષણો બતાવવા. તેથી નિશ્ચય થાય છે કે સખવગેરેના અનુભવમાં સ્વકૃતકર્મ જ હેત છેતેથી જીવ કર્મના કર્તા તરીકે સિદ્ધ થાય છે. પપ૬૬ સુખેચ્છક જીવ દુ:ખફળક કામો કેમ કરે છે? अत्र पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે. जीवो सुहाभिलासी दुक्खफलं कह करेति सो कम्मं? । मिच्छत्तादभिभूओ अपत्थकिरियं व सरुउ त्ति ॥५६७॥ (जीवः सुखाभिलाषी दुःखफलं कथं करोति स कर्म? | मिथ्यात्वाद्यभिभूतोऽपथ्यक्रियामिव सरुज इति ॥ नन्वयं जीवः सुखाभिलाषी न कदाचनाप्यात्मनो दुःखमाशास्ते, ततो यदि स्वकर्मणामेष कर्ता ततः कथं कर्म , दुःखफलं करोतीति ? उच्यते-'मिच्छत्तादभिभूओ' "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति" वचनात् अत्र हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः- यस्मादयं जीवो मिथ्यात्वाद्यभिभूतस्तस्मात् कथंचिज्जानन्नपि दुःखफलं कर्म करोति । अत्र * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 11 * * * * * * * * * * * * * * * Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ++ ++ + ++ + ++ + ++ + ++ ++ + ++ +++ + + ++ + ++ + +++++ दृष्टान्तमाह-अपथ्यक्रियामिव सरुजः, यथा हि सरुजो रूजाऽभिभूतत्वात्तन्निबन्धनं भाविनमपायं जानन्नपि अपथ्यक्रियामासेवते, तद्वदेषोऽपि मिथ्यात्वाद्यभिभूतो दुःखफलं कर्म करोतीति ॥५६७॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ જીવ હંમેશા સુખનો જ ઈચ્છુક છે. ક્યારેય પણ પોતાને દુ:ખ થાય તેવું ઇચ્છતો નથી. તેથી જો આ જીવ જ પોતાના કર્મનો કર્તા હોય, તો શું કામ એ પોતાને દુ:ખ આપે તેવા કર્મો ઊભા કરે? અર્થાત તે હંમેશા સુખફળક જ કર્મ કરે અને તેના વિપાકથી હંમેશા સુખી જ થવો જોઈએ. પણ તેમ દેખાતું નથી. તેથી કર્મવાદ ગ્રાહ્ય નથી. નિમિત્ત, કારણ અને હેતુઅંગે સંસ્કૃતપ્રાકૃતમાં પ્રાય: બધી વિભક્તિઓ લાગતી દેખાય છે. તેથી અહીં મૂળમાં મિચ્છરાદભિભૂઓ સ્થળે હેતઅંગે પ્રથમા વિભક્તિ છે.). ઉત્તરપક્ષ:- આ જીવ મિથ્યાત્વવગેરેથી અભિભૂત છે. તેથી કંઇક જાણીને પણ દુ:ખદાયક કર્મો કરે છેઃબાંધે છે. અહીં દષ્ટાન્ન આ છે – રોગી રોગથી પીડિત થાય છે, ત્યારે ભવિષ્યકાલીન નુકસાનને જાણતો હોવા છતાં રોગની પીડાને વશ થઇ અપધ્ય– અહિતકર ક્રિયા કરે છે. આ જ પ્રમાણે જીવ પણ મિથ્યાત્વવગેરેથી પીડાઈને દુ:ખજનક કર્મો કરે છે. તેથી એના કારણે કર્મવાદ કે કર્મના કર્તા તરીકે જીવની અસિદ્ધિ થતી નથી. પ૬૭ एतदेव भावयति - આ જ વાતનું ભાન કરે છે. इच्छंतो वि य सरओ वाधिणिवित्तिं जहेव मोहातो । .. चित्तातो पडिकूलं तीए किरियं समारभइ ॥५६८॥ (इच्छन्नपि सरूजो व्याधिनिवृत्तिं यथैव मोहात् । चित्रात् प्रतिकूला तस्याः क्रियां समारभते ॥) यथैव सरुजो व्याधिनिवृत्तिमिच्छन्नपि चित्रान्मोहात्तस्याः-व्याधिनिवृत्तेः प्रतिकूलां क्रियां समारभते ॥५६८॥ ગાથાર્થ:- રોગી વ્યાધિ મટે એમ ઇચ્છતો હોવા છતાં વિચિત્ર મોહના કારણે વ્યાધિના નાશથી પ્રતિકૂળ-વ્યાધિ વધે તેવી ક્રિયા આરંભે છે. પ૬૮ इय मिच्छत्तुदयातो अविरतिभावाओ तह पमादाओ । जीवो कसायजोगा दुक्खफलं कुणति कम्मं ति ॥५६९॥ (इति मिथ्यात्वोदयादविरतिभावात् तथा प्रमादात् । जीवः कषाययोगात् दुःखफलं करोति कर्मेति ॥ इतिरेवं, तथा मिथ्यात्वोदयादविरतिभावात् तथा प्रमादात् कषाययोगाच्च जीवो दुःखफलं कर्म करोतीति ॥५६९। यार्थ:- आ.०४ प्रभारी (१) मिथ्यात्वना यथी (२) अवितिनी थी (3) प्रमाथी अने (४) पायना યોગ સંબંધથી અથવા (૪) કષાય અને (૫) યોગથી જીવ દુખફળક કર્મ કરે છે. હેપલા पर आह - પૂર્વપક્ષકાર કહે છે मिच्छत्तमाइयाणं को हेतू? कम्मएव जति एवं । इतरेतरासयो खल दोसो अणिवारणिज्जो त ॥५७०॥ (मिथ्यात्वादीनां को हेतुः? कर्म एव यदि एवम् । इतरेतराश्रयः खलु दोषोऽनिवारणीयस्तु ॥ ननु मिथ्यात्वादीनामुद्भवे को हेतुः ? यदि तावत्कम्मैवेष्यते तत एवं सति इतरेतराश्रयः खलु दोषोऽनिवारणीयः प्राप्नोति । तथाहि-मिथ्यात्वाद्यभिभवात् कर्मादानं कर्मोदयसामर्थ्याच्च मिथ्यात्वोदय इति ॥५७०॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- મિથ્યાત્વવગેરેના ઉદ્ભવમાં કોણ કારણ છે? જો કર્મ જ કારણતરીકે ઈષ્ટ હોય, તો અન્યોન્યાશ્રયદોષ લાગુ પડતો અટકાવી શકાશે નહિ. તે આ પ્રમાણે) મિથ્યાત્વવગેરેના અભિભવથી કર્મ ગ્રહણ થાય અને ગ્રહણ થયેલા કર્મના ઉદયના સામર્થ્યથી મિથ્યાત્વનો ઉદયવગેરે થાય. આમ અન્યોન્યાશ્રય છે. ૫૭૦ आचार्य आहઅહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. मिच्छत्तमादिस्वं कम्मं कम्मंतरस्स हेउत्ति । बीयंकुरणाएणं इयभावे कह णु दोसो उ? ॥५७१॥ (मिथ्यात्वादिरूपं कर्म कर्मान्तरस्य हेतुरिति । बीजांकुरन्यायेनेतिभावे कथं नु दोषस्तु ॥ ++++++++++++++++ सं Eि -MIL - 12+++++++++++++++ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++ ****र्ताद्वार **** इह मिथ्यात्वादिरूपं कर्म्म स्वविपाकेन वेद्यमानं कर्म्मान्तरस्य - मिथ्यात्वादिरूपस्य बीजाङ्कुरन्यायेनबीजमङ्करस्याङ्कुरो बीजस्येत्येवंरूपेण हेतुर्भवति ता 'इय भावे' कर्म कर्मान्तरस्य हेतुरिति भावे कथं नु दोषः पूर्वोक्त इतरेतराश्रयलक्षणो? नैव कथंचनेति भावः । बीजाङ्कुरादौ तथादर्शनात् ॥ ५७१ । ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- મિથ્યાત્વઆદિરૂપ કર્મ પોતાના વિપાકથી જયારે વેદાય છે=અનુભવમાં=ઉદયમાં આવે છે, ત્યારે તે કર્મ મિથ્યાત્વઆદિરૂપ બીજા કર્મઅંગે બીજાંકુરન્યાયથી કારણ બને છે. (બીજાકુરન્યાય-બીજ અંકુરમાટે અને અંકુર બીજમાટે કારણ છે. આમ પરસ્પર કાર્યકારણભાવ.) આમ એક કર્મ બીજા કર્મમાટે કારણ બને છે. આમ હોવામા પૂર્વોક્ત અન્યોન્યાશ્રયોષ શી રીતે સંભવે? અર્થાત્ ન જ સંભવે, કારણ કે બીજાંકુરવગેરેમા પણ આ પ્રમાણે દેખાય छे॥७१॥ पुनरप्यत्र पर आह અહીં ફરીથી પૂર્વપક્ષકાર કહે છે. कयगत्ते कम्मस्सा आदिमभावातो तव्विउत्तस्स । मिच्छत्तमादिऽभावे कहमादो करणमेवऽस्स ? ॥ ५७२ ॥ (कृतकत्वे कर्मण आदिमभावात् तद्वियुक्तस्य । मिथ्यात्वाद्यभावे कथमादौ करणमेवास्य || ननु यदि कृतकं कर्मेष्यते ततः कृतकत्वे सति तस्य कर्मण आदिमभावः प्राप्नोति । तस्माच्चादिमभावात् पूर्वं तद्वियुक्तस्य- कर्म्मवियुक्तस्य सतो मिथ्यात्वाद्यभावे सति कथमादावस्य कर्म्मणः करणमेव प्राप्नोति ? नैव कथंचन प्राप्नोतीत्यर्थः । कर्म्म हि कर्म्मान्तरस्य कारणं तच्च प्राक् न विद्यत इति ॥५७२ ॥ गाथार्थ:- पूर्वपक्ष:- खाम मे अर्भ त5 (अर्थ) ईष्ट होय, तो अर्मनो हिलाव = सरंललाव स्वीअश्वो पडशे. અને એ આદિભાવની પૂર્વે આત્મા કર્મથી વિયુક્ત હોવાથી મિથ્યાત્વવગેરેનો અભાવ માનવો પડશે. આ મિથ્યાત્વવગેરેના અભાવમા આત્મા પહેલીવહેલીવાર કર્મનો કર્તા શી રીતે બન્યો? અર્થાત્ આત્મા કોઇપણ હિસાબે પ્રથમકર્મનો કર્તા બની ન શકે. કારણકે કર્મ જ અન્ય કર્મનું કારણ બને, અને તે (-કર્મ) પૂર્વે છે જ નહિ. ૫૫૭૨ા અતીતકાળની અનાદિતા अत्राह અહીં આચાર્યવર્ય ઉત્તર આપે છે. सव्वं कयगं कम्मं ण यादिमंतं पवाहवेण । अणुभूयवत्तमाणातीतद्धासमय मो णातं ॥ ५७३ ॥ (सर्वं कृतकं कर्म न चादिमत् प्रवाहरूपेण । अनुभूतवर्तमानातीताद्धासमयो मो ज्ञातम् II) सर्वं कर्म्म कृतकं न तु किमप्यकृतकं, क्रियत इति कर्मेत्यन्वर्थात्, नैवं प्रागुक्तदोषावकाशो, यत आह-न च तत्कर्म्म कृतकत्वेऽप्यादिमत् । कथमित्याह - प्रवाहरूपेण । ननु नियतव्यक्त्यपेक्षया प्रवाहतोऽपि कृतकत्वे सति कथमनादितेति चेत् । अत आह- 'अणुभूयेत्यादि' अनुभूतवर्त्तमानः भावप्रधानोऽयं वर्त्तमानशब्दः अनुभूतवर्त्तमानभावः, न हि अप्राप्तवर्त्तमानताकोऽतीतः कालो भवति । यदुक्तम्- " भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ॥ १ ॥” इति ॥ अतीताद्धासमयो 'मो' निपातः पूरणे, समयशब्दश्चेह कालसामान्यवाची न तु प्रतिनियततन्निर्विभाग[ विभाग]वाची, तस्यैकस्य प्रवाहरूपत्वायोगेन दृष्टान्तत्वानुपपत्तेः। समयश्चेह संकेतादिरपि भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमद्धेति विशेषणम् । अद्धेत्युक्तावपि विवक्षितार्थगतौ यत्समयशब्दोपादानं तदेकपदव्यभिचारेऽपि क्वचिद्विशेषणं प्रयोक्तव्यमिति प्रदर्शनार्थम् । तथा च प्रयोगः- पृथ्वी द्रव्यमापो द्रव्यमिति । अतीतश्चासावद्धासमयश्च अतीताद्धासमयः, अतीतकाल इत्यर्थः स इह ज्ञातम् - उदाहरणम् । तथाहि - यथा अतीतकालोऽनुभूतवर्त्तमानभावोऽपि प्रवाहतोऽनादिमान्भवति तद्वत् कर्मापि भविष्यतीति ॥ ५७३ ॥ गाथार्थ:-उत्तरपक्ष:- ? राय ते अर्भ 'दुर्भाग्यहनी खा अन्वर्थव्युत्यत्ति छे. तेथी जधा ४ अर्भों मॄत5 =डार्य३५ छे. આમ છતાં તમારા પૂર્વોક્તદ્વેષને અવકાશ નથી. કારણ કે કર્મ કાર્યરૂપ હોવા છતા પ્રવાહરૂપ આદિમાન નથી. + + + + धर्मसंशि-लाग २ - 13 + + Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્તાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * * શંકા:- પ્રવાહરૂપે પણ તે-તે નિયત વ્યક્તિની અપેક્ષાએ-વૈયક્તિકરૂપે કર્મ કૃતક જ છે. તેથી કેવી રીતે અનાદિપણું આવી શકે? (અહીં કર્મરૂપ વ્યક્તિની વાત છે, જીવરૂપ નહીં, તે ખ્યાલમાં રાખવું.) સમાધાન:- અહીં સમય-કાળનું દૃષ્ટાન્ન છે. (મૂળમાં “અનુભૂતવર્તમાન પદ ભાવપ્રધાનનિર્દેશવાળું છે. તેથી અનુભૂતવર્તમાનભાવ' તાત્પર્ય છે.) ભૂતકાળ બધો વર્તમાનકાળને અનુભવી-વર્તમાનભાવને અનુભવી અતીતરૂ૫ થયો છે. કારણકે વર્તમાનભાવને પામ્યા વિના અતીતકાળ સંભવે નહિ. કહ્યું જ છે-“તે જ અતીત થાય છે કે જેણે વર્તમાનપણાને પ્રાપ્ત કર્યું છે. તે જ ભવિષ્ય છે કે જે વર્તમાનપણાને પામવાનું છે” “અતીતાબાસમય' (“મો નિપાત વાક્યપૂરણાર્થે છે.) માં સમય ૫દ કાળસામાન્યનું જ સૂચન કરે છે, નહિ કે કાળના પ્રતિનિયત નિર્વિભાગ અંશનું; કારણ કે એ નિરંશ પ્રતિનિયત સમય એકરૂપ જ લેવાથી પ્રવાહરૂપ બની ન શકે. અને તો પ્રસ્તુતમાં જે અર્થે તેનું દૃષ્ટાન્નતરીકે ઉપાદાન છે, તે અર્થમાં તેનું દૃષ્ટાન્ન અસંગત બની જાય. વળી, ‘સમય’ શબ્દથી “સંકેતવગેરે અર્થો પણ નીકળી શકે. તેથી તે બધાનો વ્યવચ્છેદ કરવા કાળવાચી “અદ્ધા'પદને વિશેષણરૂપે મુક્યું છે. તેથી અહીં કાળસૂચક જ ‘સમય’ શબ્દ સમજવાનો છે. અલબત્ત, “અદ્ધા પદથી કાળસામાન્યનું સૂચન થઇ જાય છે. તેથી સમય'પદનો ઉપયોગ અપ્રસ્તુત છે એવી આશંકા જન્મ.પણ તે આશંકા કરવી નહિ. કારણ કે આમ ‘સમય’પદના ઉપાદાનથી સૂચવવું છે કે કયારેક એકપદ વ્યભિચારસ્થળે વિશેષણ વિશેષ્યને અવ્યભિચારી હોય પણ વિશેષ્ય વિશેષણને વ્યભિચારી હોય તેવા સ્થળે પણ) વિશેષણ અને વિશેષ્યનો પ્રયોગ થવો જોઇએ. તેથી જ આવા પ્રયોગ દેખાય છે કે – પૃથ્વી દ્રવ્ય, પાણી દ્રવ્ય ઈત્યાદિ. (આ સ્થળે પૃથ્વીત્વ, જળવવગેરે દ્રવ્યત્વને અવ્યભિચારી છે. જયારે દ્રવ્યત્વ પૃથ્વીત્વવગેરેને વ્યભિચારી છે, કેમકે તેજ વગેરેમાં પણ રહે છે.) તેથી “અદ્ધાસમય પ્રયોગ નિર્દોષ છે. અતીત અને અદ્ધાસમયપદના કર્મધારય સમાસથી બનેલા “અતીતઅદ્ધાસમય' પદથી અતીકાલનું સૂચન થાય છે. આ દેષ્ટાન્ન છે. તાત્પર્ય:- જેમ અતીતકાળે વર્તમાનભાવ અનુભવ્યો હોવા છતાં પ્રવાહથી અનાદિ છે. તેમ કર્મ વ્યક્તિરૂપે કૃતક (કાર્યરૂપ) હોવા છતાં પ્રવાહથી અનાદિ હોઈ શકે છે.–હોય છે તેથી દોષ નથી. પ૭૩ अथोच्येत-तस्याप्यतीतकालस्य कथमनादिमत्ताऽवगम्यत इति? अत आहશંકા:- આ અતીતકાળનું પણ અનાદિપણું કેવી રીતે જાણી શકાય? આના સમાધાનમાં કહે છે. तस्सवि य आदिभावे अहेतुगत्ता असंभवो चेव परिणामिहेतुरहियं न हि खरसिंगं समुब्भवइ ॥५७४॥ (तस्यापि चादिभावेऽहेतुकत्वादसंभव एव । परिणामिहेतुरहितं न हि खरशृङ्गं समुद्भवति ॥ तस्यापि च-अतीताद्धासमयस्य आदिभावे इष्यमाणे सति पूर्वं परिणामिकारणाभावेनाहेतुकत्वादसंभव एव प्राप्नोति। न हि परिणामिहेतुरहितमिह जगति खरशृङ्गं समुद्भवन्नु(दुपलभ्यते । यदि पुनः परिणामिहेतुमन्तरेणाप्ययमतीतः कालो भवेत्ततो विशेषाभावात् तदपि समुद्भवेदिति । स्यादेतत्, यदि कालो नाम कश्चिद्भवेत् तदा तस्यादिमत्त्वमनादिमत्त्वं वा चिन्त्येत, यावता स एव न विद्यते, तत्कथमतीतकालो ज्ञातमिति ॥५७४ ॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- જે, અતીતકાળસમયનો પણ આદિભાવ આરંભભાવ ઈચ્છશો, તો એ આરંભકાળપૂર્વે તેના પરિણામિકારણનો અભાવ હોવાથી આરંભભાવ અeતક સ્વીકારવો પડશે. અને અહેતકઉત્પત્તિ અસંભવિત હોવાથી અતીતકાળ અને તેના આરંભનો અસંભવ જ આવીને ઊભો રહેશે. આ જગતમાં ક્યાંય પરિણામિકારણ વિના વસ્તુની ઉત્પત્તિ દેખાતી નથી. ગધેડાના શિંગડાનું પરિણામિકારણ ન હોવાથી તેઓ ક્યાંય ક્યારેય ઉત્પન્ન થતાં દેખાતા નથી. વળી જો, અતીતકાળ હોઈ શકે, તો ગધેડાના શિંગડા પણ હોવા જોઈએ, કેમકે બન્ને સ્થળે પરિણામિકારણનો અભાવ સમાનતયા છે. અહીં કાળ' તત્વ જ પરિણાધિકારણતરીકે ઇષ્ટ છે, કેમકે તે જ અતીતાધિરૂપે પરિણામ પામે છે. અતીતનો આરંભ માનો તો કાળનો આરંભ માનવો પડે, તો કયા પરિણામિકારણમાંથી અતીતરૂપે પરિણત કાળ ઉદ્ભવ્યો તે વિચારવું પડે. તેવું કોઈ કારણ મળતું ન હોવાથી પરિણામકારણનો અભાવ માનવાની આપત્તિ છે. આમ કાળનો અતીતપર્યાય અનાદિ છે, પણ વર્તમાનક્ષણની પૂર્વેક્ષણ સુધી જ છે, તેથી સાત છે. વર્તમાનપર્યાય એક ક્ષણિક જ હોવાથી સાદિ સાત છે, અને અનાગતપર્યાય વર્તમાનક્ષણની ઉત્તરક્ષણથી શરુ થવાથી સાદિ છે, પણ તેનો અંત ન હોવા થી અનંત છે.) પૂર્વપક્ષ:- જો “કાળ' જેવી કોઈ વસ્તુ હોય, તો તેના આદિભાવ-અનાદિભાવ વગેરેઅંગે વિચાર યોગ્ય ગણાય.પણ કાળનામની કોઈ વસ્તુ જ જગતમાં વિદ્યમાન નથી. તેથી અતીતકાળનું ઉદાહરણ કેવી રીતે યોગ્ય ગણાય? પ૭૪ જ જે * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 14 * * * * * * * * * * * * * * * Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܐܬܟܬܐܪ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ तदयुक्तम्, यत आहઉત્તરપક્ષ:- પૂર્વપક્ષની આ વાત અસંગત છે, કારણ કે ..कालाभावे लोकादिविरोधो तीयमादिववहारा । - अह सो दव्वावत्था सावि ण पुव्विं विणा दिट्ठा ॥५७५॥ (कालाभावे लोकादिविरोधस्तीतादिव्यवहारात् । अथ स द्रव्यावस्था सापि न पूर्वां विना दृष्टा ॥) कालाभावेऽभ्युपगम्यमाने सति लोकादिविरोध आदिशब्दात्प्रतिनियतसमयभाविशीतोष्णवनस्पतिपुष्पादिसंभवान्यथानुपपत्तिलक्षणप्रमाणविरोधग्रहणम् । कथं लोकविरोध इत्याह - 'तीयमादिववहारा' मकारोऽलाक्षणिकः, तीतादिव्यवहारात्-अतीतादिव्यवहारदर्शनात् । अथ (पर)परिकल्पितो जीवादिद्रव्यव्यतिरिक्तो यो द्रव्यभूतः कश्चित् स कालो नाभ्युपगम्यते, यस्तु द्रव्यावस्थालक्षणः सोऽभ्युपगम्यत एव, तदपेक्षया चातीतादिव्यवहार इति कथं लोकादिविरोध इत्यत आह- 'सावि न पुट्विं विणा दिट्ठा' साऽपि-द्रव्यावस्था न पूर्वामवस्थां विना दृष्टा, सर्वस्यापि वस्तुनः परिणामित्वात्, परिणामस्य च कथंचित् पूर्वावस्थात्यागेनावस्थान्तरापत्तिरूपत्वात् । ततो द्रव्यावस्थालक्षणोऽपि कालः प्रवाहतोऽनादिमानेवेति न ज्ञातमसंगतमिति ॥५७५ ॥ - ગાથાર્થ – “કાળ' નામની વસ્તનો અભાવ સ્વીકારવામાં લોકઆદિસાથે વિરોધ આવશે. આ જ પ્રમાણે ચોક્કસ સમયે સંભવતી ઠંડી, ગરમી, વનસ્પતિમાં કુલ આવવા વગેરે બનાવો ‘સમય’ નામના તત્વની ગેરહાજરીમાં સંભવે નહિ. આમ આ બધાની અન્યથાઅનુ૫૫ત્તિનામના પ્રમાણથી કાળતત્વ સિદ્ધ છે. તેથી કાળનો અભાવ માનવામાં આ પ્રમાણ સાથે વિરોધ આવશે. લોકવિરોધ કેવી રીતે આવશે? તે બતાવે છે. (મૂળમાં “તીયમાદિ માં “મ'કાર અલાક્ષણિક છે.) લોકોમાં અતીતઆદિ વ્યવહાર થતો દેખાય છે. કાળતત્વના અસ્વીકારમાં આ વ્યવહારસાથે વિરોધ આવે. પૂર્વપક્ષ:- બીજાઓએ જીવવગેરે દ્રવ્યથી ભિન્ન અને દ્રવ્યભૂત જે “કાળ'તત્વની કલ્પના કરી છે, તે જ અમારે અમાન્ય છે. પણ જે “કાળ' તત્વ દ્રવ્યની અવસ્થારૂપે છે તે તો અમારે માન્ય જ છે. અને આ અવસ્થારૂપ “કાળ'તત્વના કારણે જ અતીતવગેરે વ્યવહાર સંભવે છે. તેથી લોકઆદિસાથે વિરોધ કેવી રીતે સંભવે? ઉત્તરપક્ષ:- આ દ્રવ્યઅવસ્થા પણ પૂર્વઅવસ્થા વિના દેખાતી નથી, કારણ કે દરેક વસ્તુ પરિણામી છે. અને પરિણામ સ્વયં કંઇકઅંશે પૂર્વઅવસ્થાના ત્યાગદ્વારા ઉત્તરઅવસ્થાની પ્રાપ્તિરૂપ છે. આમ અહીં પણ કોઈ અવસ્થાનો પૂર્વાવસ્થા વિના પ્રથમવાર જ આરંભ નથી. તેથી દ્રવ્યની અવસ્થારૂપ પણ “કાળ' પ્રવાહથી અનાદિ જ છે. તેથી તેનું દષ્ટાન્ન અસંગત નથી. પ૭પા જીવની કર્મના કૉંતરીક સિદ્ધિ उपसंहारमाहહવે ઉપસંહાર બતાવે છે. ___इय तस्स अणादित्ते सिद्धे परिणामकरणजोएण । - जीवोवि तस्स कत्ता सिद्धो च्चिय भवइ नायव्वो ॥५७६॥ (इति तस्यानादित्वे सिद्धे परिणामकरणयोगेन । जीवोऽपि तस्य कर्ता सिद्ध एव भवति ज्ञातव्यः ॥) इतिः-एवमुक्तेन प्रकारेण प्रवाहतस्तस्य-कृतकस्य कर्मणोऽनादिमत्त्वे सिद्धे सति परिणामकरणयोगेनशुभाशुभाध्यवसायलक्षणकरणसंबन्धेन जीवोऽपि तस्य-कर्मणः कर्ता सिद्ध एव भवति ज्ञातव्यः ॥५७६।। ગાથાર્થ:- આમ કહ્યું તે પ્રમાણે કાર્યરૂપ કર્મ પ્રવાહથી અનાદિ સિદ્ધ થાય છે. તેથી શુભાશુભઅધ્યવસાયરૂપ કરણના સંબંધથી જીવ પણ તે કર્મના કતરીકે સિદ્ધ થાય છે, એમ સમજવું. ૫૭૬ાા कथमित्याहજીવ કર્તા કેવી રીતે સિદ્ધ થાય છે? તે બતાવે છે. परिणामविसेसेणं करेइ कम्मम्मि वीरियं चित्तं । जं सो ण उ तं सत्तामेत्तेणं होइ फलदं ति ॥५७७॥ (परिणामविशेषेण करोति कर्मणि वीर्य चित्रम् । यत्स न तु तत् सत्तामात्रेण भवति फलदमिति ॥ ++++++++++++++++ 6 -लास २ - 15 *************** Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ +++++++++++++++++++ यद्- यस्मात्स-जीवः परिणामविशेषेण-शुभाशुभाध्यवसायविशेषेण करणभूतेन करोति कर्मणि-ज्ञानावरणीयादौ वीर्य-ज्ञानावारकत्वादिसामर्थ्य चित्रं-नानाप्रकारम् । एतदेव समर्थयते-'ण उ तमित्यादि' तुशब्दो हेतौ, यस्मान्न तकत्-कर्म सत्तामात्रेण फलदं भवति, किंतु प्रतिनियतवीर्योपेतम् ॥५७७॥ ગાથાર્થ:- જીવ કરણભૂત શુભાશુભઅધ્યવસાયવિશેષરૂપ પરિણામવિશેષથી જ્ઞાનાવરણીયવગેરે કર્મમાં અનેકપ્રકારનું शानापारवाहि सामर्थ्य उत्पन्न २ छे. आ४ पातसमर्थन २ छे. 'ण उ तम्' इत्याशि०६ त्वर्थ छे.) કર્મ પોતાની હાજરીમાત્રથી ફળ દેતું નથી, પરંતુ ચોક્કસપ્રકારના સામર્થ્યથી યુક્ત હોવાથી જ તેવું તેવું નિયત ફળ આપે છે. પ૭૭ कुत इत्याह - आम भ? ते तावे छे. सव्वेसिं फलभावाणिययसहावा ण सव्वफलदत्तं । निययसहावत्तं चिय तग्गयपरिणामसावेक्खं ॥५७८॥ (सर्वेषां फलभावानियतस्वभावान्न सर्वफलदत्वम् । नियतस्वभावत्वमेव तद्गतपरिणामसापेक्षम् ॥ यस्मान्न सर्वेषां-कर्मणां फलभावानियतस्वभावात्-फलभावविषयानियतस्वभावभावात् सर्वफलदत्वं- सकलफलदातृत्वमस्ति, ततो न सत्तामात्रेण फलदम् । एतदुक्तं भवति-यदि हि सत्तामात्रेण सव्वं कर्म स्वफलमुपयच्छेत् तर्हि प्रतिनियतफलविषयप्रतिनियतस्वभावाभावात्सर्वस्यापि कर्मणः सर्वफलदातृत्वं भवेत्। तथाच सति युगपत्सदा सातासातमनुष्यदेवायुराद्यनुभवः स्यात्, न चैष संवेद्यते, तस्मान्न कर्म सत्तामात्रेण फलदं किंतु किंचित्तथाविधप्रतिनियतस्वभावतया कस्यचित्फलस्य प्रदायकं, तच्च कर्मणां तथाविधप्रतिनियतस्वभावत्वं तद्तपरिणामापेक्षं-स्वसंबन्धिजीवगतशुभाशुभपरिणामसापेक्षं, ततः सिद्धः(द)परिणामविशेषकरणयोगेन जीवः कर्मणां फलविषयप्रतिनियतस्वभावताऽऽपादनेन कर्तेति ॥५७८॥ ગાથાર્થ:- બધા કર્મોનો ફળભાવવિષયક અનિયત સ્વભાવ નથી. તેથી તે કર્મોવ્યક્તિગત) બધા પ્રકારના ફળના દાતા નથી. તેથી કર્મ પોતાની સત્તામાત્રથી ફળદતાતરીકે સિદ્ધ નથી. તાત્પર્ય:- જો બધા કર્મ પોતાની હાજરીમાત્રથી જ પોતાનું ફળ આપતા હોત, તો એકસાથે હંમેશા સાતા અને અસાતા, મનુષ્પઆયુ અને દેવઆયુષ્યવગેરેનો અનુભવ થાત. પરંતુ તેમ થતું અનુભવાતું નથી. અર્થાત નિશ્ચિત પ્રકારના અમુક આકારના જ અનુભવ થાય છે. તેથી કર્મ પોતાની સત્તામાત્રથી ફળ આપનારા નથી. પરંત કંઇક તેવા પ્રકારના ચોક્કસ સ્વભાવવાળા થઈને કો'ક અમુક જ ફળ જ આપે છે. કર્મોનો આ પ્રતિનિયત સ્વભાવ પોતાના (કર્મના) સબંધિત જીવના શુભાશુભઅધ્યવસાયપર અવલંબે છે. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે પરિણામવિશેષરૂપ કરણ(=સાધન) ના યોગથી જીવ જ કર્મમાં ફળસંબંધી ચોક્કસ-નિયત સ્વભાવ પેદા કરતો હોવાથી. કર્તા છે. પ૭૮ अत्रैव विपक्षे बाधामाह - આ સ્થળે વિપરીત ૫નામાં બાધ બતાવે છે. तस्सवि य अहेतुत्ते असंभवो चेव पावती नियमा । परिणामेतरकारणरहितं न य सव्वहा कज्जं ॥५७९॥ (तस्यापि चाहेतुत्वेऽसंभव एव प्राप्नोति नियमात् । परिणामीतरकारणरहितं न च सर्वथा कार्यम् ॥ तस्यापि च-जीवस्य कर्मणां प्रतिनियतस्वभावापादनं प्रति अहेतुत्वे-अकर्तृत्वे सति असंभव एव नियमात्तस्य कर्मणां प्रतिनियतस्वभावस्य प्राप्नोति, यस्मान्न सर्वथा परिणामीतरकारणरहितमिह कार्यं भवति, तथादर्शनाऽभावात् ॥५७९॥ ગાથાર્થ:- વળી, તે જીવ પણ કર્મમાં પ્રતિનિયત સ્વભાવનું આપાદન કરવા અંગે હેત ન બને-કર્તા ન બને તો અવશ્ય તે કર્મનો પ્રતિનિયત સ્વભાવ અસંભવિત બને, કારણકે પરિણામી અને ઈતર નિમિત્તકારણના સર્વથા અભાવમાં કાર્ય થતું ક્યારેયે દેખાતું નથી. ૫૭લા ++++++++++++++++lice- २ - 16 + + + + + + + + + + + + + + + Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * કર્તાકાર જ જ જ ન જ ન જ કે જે એ જ જ तम्हा निमित्तकारणभूओ कत्तत्ति जुत्तिओ सिद्धो । ___ जीवो सव्वन्नुवदेसओ य तह लोगओ चेव ॥५८०॥ (तस्माद् निमित्तकारणभूतः कर्तेति युक्तितः सिद्धः । जीवः सर्वज्ञोपदेशतश्च तथा लोकत एव ) तस्मात् प्रतिनियतस्वभावापेक्षया कर्मणामयं जीवो युक्तितो निमित्तकारणभूतः सन् कर्तेति सिद्धः । आस्तां युक्तितः सर्वज्ञोपदेशतश्च सिद्धः । तथाच सर्वज्ञोपदेशः- “जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुब्भइ तं तं भावं परिणमइ ताव णं एस सत्तविहबंधए वा" इत्यादि । तथा लोकतश्चैव सिद्धो जीवः कर्मणां कर्ता, यथोक्तं પ્ર િષિ૮૦ II તિ ત્વસિદ્ધિઃ || ગાથાર્થ:- આમ કર્મોના પ્રતિનિયત સ્વભાવની અપેક્ષાએ જીવ કર્મોના નિમિત્તકારણતરીકે યુનિથી સિદ્ધ થાય છે. તેથી જ જીવ કર્મોના કર્તાતરીકે પણ સિદ્ધ થાય છે. યુક્તિની વાત જવા દો, સર્વજ્ઞના ઉપદેશથી પણ જીવ કર્તા તરીકે સિદ્ધ છે. સર્વજ્ઞનો ઉપદેશ આવો છે– “જાવ ણં એસ જીવે ઈત્યાદિ જયાં સુધી આ જીવ કંપે છે, ધ્રુજે છે, ચાલે છે, સ્પંદન કરે છે, ઘઠન કરે છે, લોભ પામે છે, તે તે ભાવમાં પરિણામ પામે છે, ત્યાં સુધી આ જીવ સાત પ્રકારના કર્મ બાંધે છે અથવા' ઇત્યાદિ. આમ જીવ કર્મના કર્તા તરીકે આગમસિદ્ધ છે. આ બાબતમાં લોકપ્રમાણથી સિદ્ધિ તો પૂર્વે જ બતાવી દીધી છે. આમ કર્તુત્વની સિદ્ધિ થઈ. ૫૮ના મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને યોગથી અભિભૂત જીવ જાણતો હોવા છતાં દુ:ખનિમિત્તક કર્મો બાંધે છે. જીવે જ બાંધેલા આ કર્મો જ જીવના સુખદુ:ખના કારણ બને છે. અમૂર્ત દ્રવ્ય કોઇના અનુગ્રહ-ઉપઘાતના અપરિણામી કારણ નથી. ઇચ્છાઓથી રહિત હોવાથી સિદ્ધજીવો પોતાના માત્ર સુખના જ પરિણાધિકારણ છે. તેઓ પોતાના કે બીજાના કેવળ દુ:ખના કે સુખમિશ્રિત દુ:ખના કારણ નથી. તેઓ બીજાના કેવળ સુખના નિમિત્ત કારણ બને છે. આમ જીવકૃત કર્મથી જ સુખ દુઃખાદિની સિદ્ધિ છે. આ માટે માત્ર નિયત્તિ=ભવિતવ્યતા, માત્ર કાળ, માત્ર દૈવ ભાગ્ય, માત્ર સ્વભાવ અને માત્ર યદચ્છા ની વાતો કરનારાઓ ખોટા છે. આગમમર્મજ્ઞ સૂરિપુરંદર હરિભદ્રસૂ મ. * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 17 જ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** लोसावार ****************** 'मोस्तुत्दार' सांप्रतं क्रमप्राप्तं भोक्तृत्वं समर्थयितुमाहહવે કમપ્રાપ્ત ભોકતત્વનું સમર્થન કરવા કહે છે भोत्ता सकडफलस्स य अणुहवलोगागमप्पमाणातो । कतवेफल्लपसंगो पावइ इहरा स चाणिट्ठो ॥५८१॥ (भोक्ता स्वकृतफलस्य चानुभवलोकागमप्रमाणात् । कृतवैफल्यप्रसंगः प्राप्नोति इतरथा स चानिष्टः ॥ भोक्ता चासौ जीवः 'सकडफलस्सेति' स्वकृतकर्मफलस्य, चशब्दो भिन्नक्रमः, स चादावेव योजितोऽनुभवलोकागमप्रमाणतो ज्ञातव्यः। विपक्षे बाधामाह - इतरथा स्वकृतकर्मफलभोक्तृत्वानभ्युपगमे कृतवैफल्यप्रसङ्गः- प्रागुपात्तकर्मनिष्फलताप्रसङ्गः प्राप्नोति, स च कृतवैफल्यप्रसङ्गोऽनिष्ट इति ॥५८१॥ ગાથાર્થ:- તથા આ જીવ સ્વયં કરેલા કર્મના ફળનો ભોક્તા ( ભોગવનાર) છે. (મૂળમાં “ચ પદનો સંબંધ ભોક્તા સાથે છે.) આ તત્વ અનુભવપ્રમાણ, લોકપ્રમાણ અને આગમપ્રમાણથી સિદ્ધ છે. જો જીવને સ્વકૃતકર્મના ફળના ભોક્તાતરીકે નહીં સ્વીકારો. તો પોતે પૂર્વે ઉપાર્જેલા (કૃત) કર્મો નિષ્ફળ થવાની (=વૈફલ્યની) આપત્તિ છે. અને આ કૃતવૈફલ્યપ્રસંગ અનિષ્ટ છે. પ૮૧ अन्यच्चवणी, सातासाताणुभवो तक्कारणभोगविरहओ ण सिया। मुत्तागासाण जहा अत्थि य सो तेण भोत्तत्ति ॥५८२॥ (सातासातानुभवस्तत्कारणभोगविरहतो न. स्यात् । मुक्ताकाशयोर्यथाऽस्ति च स तेन भोक्तेति ) यदि स्वकृतकर्मफलभोक्तृत्वं जीवस्य नाभ्युपगम्यते ततः सातासातानुभवो मुक्ताकाशयोरिव तस्य न स्यात् । कुत इत्याह - तत्कारणभोगविरहतः-सातासातानुभवकारणसातासातवेदनीयकर्मभोगविरहतः । अस्ति चासौ सातासातानुभवः प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात्, तेन कारणेनासौ जीवः स्वकर्मणां भोक्तेति ॥५८२॥ ગાથાર્થ - જો જીવ સ્વકુતકર્મના ફળનો ભોક્તા છે તેમ સ્વીકારશે નહિ તે મુક્તજીવ અને આકાશની જેમ તેને (-જીવને) પણ શાતા અને અશાતાનો અનુભવ નહીં માની શકાય, કારણ કે શાતા અને અશાતાના અનુભવમાં કારણભૂત શાતા-અશાતા વેદનીયકર્મના ભોગનો (વિપાકઉદયનો) અભાવ છે. પરંતુ, દરેક જીવને સ્વસંવેદનરૂપ પ્રમાણથી શાતા અને અશાતાનો અનભવ સિદ્ધ છે. તેથી જીવ વેદનીયવગેરે તેને કૂતકર્મના ભોક્તાતરીકે સિદ્ધ થાય છે. પ૮રા अत्र पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે कम्मविवागातो च्चिय तदणुहवो जं तओ कहं भोत्ता? । सो चेव तहापरिणति(वि)रहियस्स ण संगतो जेण ॥५८३॥ (कर्मविपाकत एव तदनुभवो यत्ततः कथं भोक्ता? । स एव तथा परिणति(वि)रहितस्य न संगतो येन ॥) यत्-यस्मात् कर्मविपाकत एव जीवस्य सातासातानुभवस्ततः-तस्मात्कथमसौ भोक्ता? तस्य स्वयमदासीनत्वादिति भावः । अत्राह-'सो चेवेत्यादि' येन कारणेन स एव-सातासातानुभव स्तथापरिणतिरहितस्य सातासातानुभवात्मकत्वलक्षणपरिणामरहितस्य सतो मुक्तावस्थायामिव न संगतस्तस्मादवश्यमसौ भोक्ता एष्टव्यः ॥५८३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જીવને શાતા અને અશાતાનો અનુભવ કર્મના વિપાકથી છે તેથી એ અનુભવઅંગે જીવ સ્વયં તો ઉદાસીન જ છે; તેથી જીવ કેવી રીતે ભોક્તા બને? ઉત્તરપક્ષ:- જો જીવ શાતા અને અશાતાના અનુભવની પરિણતિથી રહિત હોય, તે-તે અનુભવસ્વરૂપ પરિણામથી રહિત હોય તો મુક્તઅવસ્થાની જેમ સંસારિઅવસ્થામાં પણ તેને શાતા–અશાતાનો અનુભવ થવો જોઈએ નહિ. પણ અનુભવ થતો દેખાય છે. તેથી જીવની તે અંગેની પરિણતિ નક્કી થાય છે. અને તેના બળપર જીવ અવશ્ય ભોક્તાતરીકે સિદ્ધ થાય છે. ૫૮૩ ++++++++++++++++ Eि-MIN२-18+++++++++++++++ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************लोद्वार ++++++++++++++++++ एतदेव भावयतिઆ જ વાતનું ભાવન કરે છે जच्चिय विवागवेदणस्वा तप्परिणई हवति चित्ता। __ सच्चिय भोयणकिरिया नायव्वा होइ जीवस्स ॥५८४॥ (यैव विपाकवेदनरूपा तत्परिणतिर्भवति चित्रा । सैव भोजनक्रिया ज्ञातव्या भवति जीवस्य ) यैव तत्परिणतिः-तस्य-जीवस्य परिणतिः-विपाकवेदनरूपा सातासातवेदनीयादिकर्मविपाकानुभवनस्पा चित्रा भवति सैव जीवस्य भोजनक्रिया-सातासातवेदनीयादिकर्मभोगक्रिया ज्ञातव्या ॥५८४॥ ગાથાર્થ:- તે જીવની શાતા–અશાતા વેદનીયવગેરે કર્મવિપાકના અનુભવરૂપ જે વિચિત્ર પરિણતિ છે, તે જ જીવની શાતાશાતવેદનીયઆદિ કર્મના ભોગની ક્રિયા સમજવી. અર્થાત જીવની તેવી પરિણતિ જ ભોગક્રિયારૂપ છે. ૫૮૪ सैव सातासातवेदनीयादिकर्मविपाकवेदनक्रिया कथमात्मनः सिद्धेति चेत् ? अत आह શંકા:- આ સાતાસાતવેદનીયઆદિ કર્મના વિપાકની વેદનકિયા આત્માની કેવી રીતે સિદ્ધ છે? આ આશંકાના સમાધાનમાં કહે છે न य तं तओ अणण्णं तस्सोदासीणभावओ चेव । चलणाइ कुणइ जम्हा वेदणकिरिया तओ सिद्धा ॥५८५॥ (न च तत्ततोऽनन्यं तस्योदासीनभावत एव । चलनादि करोति यस्माद्वेदनक्रिया ततः सिद्धा ) न च यस्मात् कारणात्तत्-कर्म ततः-आत्मनः सकाशादनन्यत्,यथा कैश्चिदुच्यते-“शक्तिरेवात्मनः कर्मेति" किंत्वन्यत् भिन्नमित्यर्थः । न च तत्कर्म भिन्नं सत् तस्य-आत्मन उदासीनभावतः-उदासीनभावे सति उदासीनस्य सत इतियावत् चलनादिक्रियां करोति-चलनादिक्रियानिमित्तं भवति, किंतु तथापरिणतिभावे सति, ततः-तस्माद्वेदनक्रियास्वकृतकर्मविपाकानुभवनक्रिया जीवस्य सिद्धेति ॥५८५॥ ગાથાર્થ:- વળી, કેટલાક “આત્માની શક્તિ જ કર્મ છે એમ કહીને કર્મને આત્માથી અભિન્ન માને છે, પણ વાસ્તવમાં કર્મ આત્માથી અભિન્ન નથી, પણ ભિન્ન જ છે. હવે છે, આત્મા ઉદાસીનભાવમાં જ રહેતો હોય, તો ઉદાસીનભાવમાં રહેલા આત્મામાં આ કર્મ ચલનઆદિ ક્રિયાઓ કરાવી શકે નહિ-કયાઓમાં નિમિત્ત બને નહિ. આત્મા તથા પરિણતિ પામે, તો જ કર્મ ચલનાદિક્રિયામાં નિમિત્ત બને એક હાથે તાલી ન પડે. તેથી સ્વકૃતકર્મના વિપાકની વેદનક્રિયા જીવની જ ક્રિયારૂપે सिप छ. ॥५८५ . स्यादेतत्, यदि स्वकृतसातासातवेदनीयादिकर्मविपाकानुभवनक्रियैव कर्मभोगक्रियोच्यते ततः कथं लोकेऽङ्गनादियोग एव 'एष भोक्तेति' प्रसिद्धिरित्यत आह શંકા- જો, સ્વકૃતસતાસાતવેદનીયઆદિકર્મના વિપાકના અનુભવની ક્રિયા જ કર્મભોગક્રિયા કહેવાતી હોય, તે લોકોમાં સ્ત્રી વગેરેના સંબંધમાં જ “આ ભોક્તા છે. તેવું કેમ પ્રસિદ્ધ છે? અહીં સમાધાન બતાવે છે. बज्झसहकारिकारणसावेक्खा सा य पायसो जेणं । ता अंगणादिजोगे भोगपसिद्धी इहं लोगे ॥५८६॥ (बाह्यसहकारिकारणसापेक्षा सा च प्रायो येन । ततोऽङ्गनादियोगे भोगप्रसिद्धिरिह लोके ॥ सा च-स्वकृतवेदनीयादिकर्मविपाकवेदनक्रिया येन कारणेन प्रायो-बाहुल्येन बाह्यस्रक्चन्दनादिसहकारिकारणसापेक्षा 'ता' तस्मादङ्गनादियोगे सति भोगप्रसिद्धिरिह लोके जातेति न कश्चिद्दोषः ॥५८६॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- તે સ્વકતવેદનીયઆદિ કર્મના વિપાકથી અનુભવાતી ક્રિયા પ્રાય: સ્ત્રી, માળા, ચંદન વગેરે બાહ્ય સહકારિકારણોની અપેક્ષા રાખે છે. તેથી લોકોમાં સ્ત્રી વગેરેના યોગમાં ભોગની પ્રસિદ્ધિ થાય છે. તેથી એ પ્રસિદ્ધિથી - સિદ્ધાન્તને કોઈ દોષ નથી. પ૮ ++++++++++++++++ kale-MIRR - 19 + ++++++++++++++ १८६॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + HIR + + + + + + + + + + + + + + + + + + કર્મફળદાતા તરીકે વરવાદનું ખંડન एतेणऽचेतणं जं कम्मं तं णियमितं कहं फलति? । ता पेरगो पह किल परिहरियमिदं पि दट्ठव्वं ॥५८७॥ (एतेनाचेतनं यत् कर्म तन्नियमितं कथं फलति । ततः प्रेरकः प्रभुः किल परिहतमिदमपि दृष्टव्यम् ॥) एतेन पूर्वोक्तेनाचेतनं यत् कर्म तत् नियमितं कथं फलति?, 'ता' तस्मात् कर्मणः फलदाने प्रेरकः प्रभुः-ईश्वरः किल द्रष्टव्य इति । तदिदमपि कैश्चिदुच्यमानं परिहृतं द्रष्टव्यम् ॥५८७॥ ગાથાર્થ:- અહીં કેટલાક એમ કહે છે કે “અચેતન કર્મ કેવી રીતે નિયમિત ફળ આપે? અર્થાત જડ કર્મ સ્વયં તેને નિયત ફળ દેવા સમર્થ નથી. તેથી ફળ દેવાની બાબતમાં કર્મના પ્રેરક તરીકે પ્રભુ ઈશ્વરની કલ્પના કરવી આવશ્યક છે.” કેટલાકની આ વાત પણ પૂર્વોક્ત ચર્ચાથી પરિવાર પામે છે. પ૮૭ कथमित्याहકેવી રીતે પરિવાર પામે છે? તે બતાવે છે. कत्ता हु चेतणो जं हंदि हु ता पेरगोवि सो जुत्तो । इहरा य दिट्ठहाणी अदिट्ठपरिगप्पणा चेव ॥५८८॥ (कर्ता हु चेतनो यद् हंदि हु ततः प्रेरकोऽपि स युक्तः । इतरथा च दृष्टहानिरदृष्टपरिकल्पनां चैव " यत्-यस्मात् 'ह' निश्चितं कर्ता चेतनोऽस्ति, 'हंदीति' परामन्त्रणे, 'ता' तस्मात् प्रेरकोऽपि कर्मणः फलदानप्रवृत्ती स एव कर्ता हुरेवकारार्थः, युक्त उपपन्नो, न तु तदन्यः कश्चित्परपरिकल्पितः प्रभुः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा दृष्टहानिरदृष्टपरिकल्पना चेति दोषद्वयं प्रसज्येत ॥५८८॥ थार्थ:- (भूगमा प्रथम नियतसर्थमा छ. Eि५६ सामंत्ररामर्थ छे.जी.५६°४२मर्थ छ.)भनी કર્તા અવશ્ય ચેતન (=સંસારિજીવ) છે. તેથી ફળ દેવાની બાબતમાં કર્મના પ્રેરકતરીકે પણ તે જ કર્તા ( ચેતન જ) યોગ્ય છે. તેનાથી ભિન્ન બીજાએ કલ્પેલા ઇશ્વરને પ્રેરક માનવાની જરૂર નથી. અર્થાત ચેતન જ કર્મનો કર્તા, ફળ બાબતમાં પ્રેરક અને ફળના ભોક્તા તરીકે યોગ્ય છે, ત્યાં પ્રેરકતરીકે ઇવરની કલ્પના નિરર્થક છે. આ બાબતમાં જો આ તત્વનો (“ચેતન જ પ્રેરક છે તેવા તત્વનો) સ્વીકાર નહીં કરો તો દેટ ચેતનને ન સ્વીકારવાથી દષ્ટહાનિ અને અદષ્ટ ઇશ્વરની કલ્પના કરવાથી અદેટની પરિકલ્પના આ બે દોષનો પ્રસંગ ઊભો થાય છે. ૫૮૮ परमाशङ्कमान आह-... અહીં પૂર્વપક્ષની આશંકા કરતાં કહે છે कम्मपरतंतओ चेव पेरणसामत्थविरहिओ एस । कम्मरहिओ य ईसो ता सो च्चिय पेरगो जुत्तो ॥५८९॥ (कर्मपरतन्त्रतः एव प्रेरणसामर्थ्यविरहित एषः । कर्मरहितश्चेशः तस्मात् स एव प्रेरको युक्तः ॥) एष कर्ता यस्मात् कर्मपरतन्त्रत्वादेव प्रेरणसामर्थ्यविरहित ईशश्च कर्मरहितः 'ता' तस्मात्स एवेश्वरः कर्मणां प्रेरको युक्तो, नतु कर्तेति चेत् ॥५८९॥ यार्थ:-५५R:-आयेतन भने ५२तन्त्रछ.तेथीत (5)ना सामर्थ्य विनानो छ. (अभे रूपतो) ઈશ્વર સ્વયં કર્મરહિત છે. તેથી તે ઈશ્વર જ કર્મના પ્રેરક તરીકે યોગ્ય છે, નહિ કે કર્મનો કર્ના. પટલા अत्र आहઅહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. पेरइ तओ किं फलमुद्दिस्स तयं? न किंचि जइ एवं । . फलरहियपवत्तीओ नालोच्चि (चि) यकारिता तस्स ॥५९०॥ (प्रेरयति सकः किं फलमुद्दिश्य तकत्? न किञ्चिद् यद्येवम् । फलरहितप्रवृत्तेः नालोचितकारिता तस्य ॥) तउ त्ति' सक ईश्वरस्तकत्-कर्म फलदाने प्रेरयति किं फलमुद्दिश्य? यदु(धु)च्यते न किंचित्तस्य कृतकृत्यत्वात्, तत एवं सति तस्य नालोचितकारिता-न प्रेक्षापूर्वकारिता स्यात्। कुतः? इत्याह-फलरहितप्रवृत्तेः, प्रवृत्तेर्निष्फलत्वादित्यर्थः ॥५९०॥ + + + + + + + + + + + + + + + + Axelee-ALI 2 - 20 * * * * * + + + + + + + + + + Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + मोसावार + + + + + + + + + + + + + + + + ++ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- આ ઇશ્વર કયા ફળના ઉદ્દેશથી ફળ દેવાઅંગે કર્મને પ્રેરણા કરે છે? पूर्वपक्ष:- ६१२ कृतकृत्य छे. तेथी भने प्रे२॥ 5२ती १५ तेने (६°१२) शुग मवानो ७६श नथी. ઉત્તરપક્ષ:- જો એમ જ હોય, તો ઈશ્વર સ્વયં પ્રેક્ષાકારી= વિચાર કરીને પ્રવૃત્તિ કરવાવાળો નથી. કારણકે તે ફળ વિનાનીફળના ઉદેશ વિના પ્રવૃત્તિ કરે છે. અર્થાત નિષ્ફળ પ્રવૃત્તિ કરે છે. પ૯૦ના अह फलमुद्दिस्स तयं धम्मादीणं हवेज्ज अन्नतरं । तस्सावेक्खत्तणओ जइवणिकामी व अकयत्थो ॥५९१॥ (अथ फलमुद्दिश्य तकत् धर्मादीनां भवेदन्यतरम् । तत्सापेक्षत्वाद् यतिवणिक्कामिन इवाकृतार्थः ॥ अथ मा निपप्तदयं दोष इति फलमुद्दिश्य तकत्-कर्म प्रेरयतीत्यभ्युपगम्यते । ननु तर्हि तकत्-फलं धर्मादीनां धर्मार्थकामानामन्यतमं भवेत्, तथा च सति तत्सापेक्षत्वात्-धर्माद्यन्यतमफलसापेक्षत्वात् यतिवणिक्कामिन इव यथासंख्यं धर्मार्थकामानपेक्षमाणः अकृतार्थः स्यात्, कृतार्थश्चासावभ्युपगम्यत इत्यभ्युपगमविरोधः ॥५९१॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ દોષ આવવો જોઈએ નહિ. તેથી ઇશ્વર કોક ફળના ઉદ્દેશથી તે કર્મને પ્રેરે છે. એમ સ્વીકારશું. * ઉત્તરપક્ષ:- આ ફળ ધર્મ, અર્થ અને કામ આ ત્રણમાંથી એક સંબંધી હોવાનો સંભવ છે. અને ઇશ્વર આ ત્રણમાંથી એકાદ ફળની અપેક્ષાવાળો છે. જો ધર્મપફળની અપેક્ષાવાળો છે, તો સાધુની જેમ, જો અર્થરૂપફળની અપેક્ષાવાળો છે, તો વેપારીની જેમ, જો કામરૂપફળની અપેક્ષાવાળો છે, તો કામીપુરૂષની જેમ તે-ઇશ્વર અકૃતાર્થ છે તેમ માનવું પડશે. અને તો, ઈશ્વરને કૃતાર્થ માનવાના તમારા સિદ્ધાન્તસાથે વિરોધ આવવાથી તમને અભ્યપગમવિરોધદોષ આવશે. ૫૯૧ अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आहઆ સ્થળે પૂર્વપક્ષના મતની આશંકા વ્યક્ત કરે છે सिय तस्सेस सहावो फलनिरवेक्खोवि पेरणं कुणति । ण तु एसो मुत्तत्ता चिट्ठइ एमेव किं माणं? ॥५९२॥ (स्यात् तस्यैष स्वभावः फलनिरपेक्षोऽपि प्रेरणं करोति । न तु एष मुक्तत्वात् तिष्ठति एवमेव किं मानम् ॥ स्यादेतत्-तस्य ईश्वरस्य एष एव स्वभावो यत्फलनिरपेक्षोऽपि कर्मणः फलदाने प्रेरणं करोति । ततो न फलरहितप्रवृत्तित्वादनालोचितकारितादोषो, नापि फलसापेक्षत्वेनाकृतार्थत्वप्रसङ्गः । अत्राह-'ण उ इत्यादि' न तु-नैव एषः- ईश्वरो मुक्तत्वात् एवमेव-निर्व्यापार एव तिष्ठति, किंतु तथास्वभावत्वात्कर्मणः प्रेरणं करोतीति, अत्र किं मान-प्रमाणं? नैव किंचिदित्यर्थः । न चाप्रमाणकमाद्रियन्ते वचो विपश्चितः ॥५९२॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ ઇશ્વરનો સ્વભાવ જ આવો છે, કે જેથી તે ફળની અપેક્ષા રાખ્યા વિના જ જીવને ફળ દેવાની બાબતમાં કર્મને પ્રેરણા કરે છે. તેથી ફળરહિતપ્રવૃત્તિ લેવાથી ઇશ્વર અનાલોચિતકારી છે. તેવા દોષને અવકાશ નથી. તેમ જ ઇશ્વરને ફળસાપેક્ષ ( ફળની અપેક્ષાવાળો) માની અકૃતાર્થ સમજવાનો પણ પ્રસંગ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- “આ ઇશ્વર મુક્ત છે. તેથી અન્ય મુક્તજીવોની જેમ કોઈ પણ પ્રવૃતિ કરતો નથી' એમ ન માનવું, અને તથાસ્વભાવથી જ કર્મને પ્રેરણા કરવાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તેમ માનવું; એમ કયા પ્રમાણથી કહો છો? અર્થાત આમ કહેવામાં કોઇ પ્રમાણ નથી. અને સમજુ માણસ અપ્રમાણભૂત વચનનો આદર કરે નહિ. ૫૯રા अत्र परः प्रमाणमाहઅહીં પૂર્વપક્ષ પોતાનો પક્ષ મજબૂત કરવા પ્રમાણ દર્શાવે છે. कम्मपरतंतओ जं पेरणसामत्थविरहितो कत्ता । .. एयमसिद्धं तस्सवि दिटुं जं करणसामत्थं ॥५९३॥ । (कर्मपरतन्त्रो यत् प्रेरणसामर्थ्यविरहितो कर्ता । एतदसिद्धं तस्यापि दृष्टं यत् करणसामर्थ्यम् ॥) - यत्-यस्मादेष कर्ता कर्मपरतन्त्रः, कर्मपरतन्त्रत्वादेव च कर्मणः फलदाने प्रेरणसामर्थ्यविरहितो, न चाप्रेरितं सत् कर्म नियतफलदानाभिमुखं भवति, अचेतनत्वात्, तेन कर्मणो नियतफलदानप्रवृत्त्यन्यथानुपपत्तिवशात् ईश्वरस्तथास्वभावत्वात् ++ + + + + + + + + + + + + + + ele-मास २ - 21 +++++++++++++++ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** लोडताद्वार ++**** off **** प्रेरकोऽनुमीयत इति अत्राह - 'एयमित्यादि' एतत्कर्त्ता प्रेरणसामर्थ्यविरहित इतीदमसिद्धम् । कुतः ? इत्याह-यत्यस्मात्तस्यापि कर्मपरतन्त्रस्यापि कर्तुर्दृष्टं करणसामर्थ्यं - कर्मनिष्पादनसामर्थ्यं ततः प्रेरणेऽपि तस्य सामर्थ्यं भविष्यतीति न प्रेरणान्यथानुपपत्तिरीश्वरसिद्धौ प्रमाणमिति ॥५९३॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષ:- આ કર્તા કર્મને પરતન્ત્ર છે. અને કર્મને પરતન્ત્ર હોવાથી જ કર્મને ફળ દેવાઅંગે પ્રેરણા કરવા સમર્થ નથી. (નોકર શેઠને કે ગુલામ માલિકને પ્રેરણા કરી શકે નહિ.) અને અપ્રેરિત કર્મ નિયતફળ દેવા તૈયાર થતું નથી, કારણ કે સ્વયં જડ છે. પણ કર્મ નિયતફળ દેતું દેખાય છે. તેથી કર્મની આ ફળદાનપ્રવૃત્તિની અન્યથા અનુપપત્તિથી તેના પ્રેરકતરીકે (અન્ય કોઇ ઇષ્ટ ન હોવાથી) તથાસ્વભાવથી ઇશ્વર જ યોગ્ય છે તેમ અનુમાન થાય છે. ઉત્તરપક્ષ:– કર્મના કર્રાભૂત જીવ કર્મને પ્રેરણા કરવા સમર્થ નથી' આ વાત જ અસિદ્ધ છે. કારણ કે કર્મને પરતન્ત્ર એવા પણ એ કર્તાનું કર્મ કરવાનું સામર્થ્ય તો દૃષ્ટ જ છે. તેથી તે કર્રામા કર્મના પ્રેરણનું સામર્થ્ય પણ હોવુ જોઇએ. તાત્પર્ય:- જો કર્મને પરાધીન પણ જીવ કર્મનો કર્તા બની શકતો હોય, તો કર્મનો પ્રેરક પણ કેમ બની ન શકે? તેથી પ્રેરણાની અન્યથાઅનુપપત્તિથી ઇશ્વરની સિદ્ધિ કરવી યોગ્ય નથી. ઇશ્વરનું પ્રામાણ્ય સિદ્ધ થતું નથી. ઘપા ઈશ્વર કર્મનો કર્તા કે કારક નથી पराभिप्रायमाह અહીં પૂર્વપક્ષનો અભિપ્રાય દર્શાવે છે. कत्तावि अह पभु च्चिय विचित्तकरणम्मि रागमादीया । पेरगपगप्पणाए वि पुव्वुत्ता चेव दोसा उ ॥ ५९४॥ (कर्त्ताऽपि अथ प्रभुः एव विचित्रकरणे रागादयः । प्रेरकप्रकल्पनायामपि पूर्वोक्ता एव दोषास्तु ॥) अथोच्येत मा भूदेष दोष इति कर्त्तापि कर्मणः प्रभुरेवेष्यते न जीव इति । आह- 'विचित्तकरणम्मि रागमाईया' यदि हि प्रभुरेव कर्मणां कर्त्ता स्यात् तर्हि स वीतरागत्वात्सर्वदा सर्वेषामपि शुभमेव कर्म कुर्यात् न कदाचित्कस्यचिदप्यशुभम्, अथ तदपि करोति तर्हि विचित्रकरणे सत्यवश्यं तस्य रागादयो दोषाः प्राप्नुवन्ति तानन्तरेण विचित्रकर्मकरणानुपपत्तेः, अथ नासौ स्वयं शुभाशुभकर्मणां कर्त्ता किंतु जन्तून् तत्तत्कर्मकरणे प्रेरयति ततो न कश्चिद्दोषः । अत्राह - 'पेरगेत्यादि ' प्रेरकप्रकल्पनायामपि पूर्वोक्ता एव रागादयो दोषाः प्राप्नुवन्ति ॥५९४॥ गाथार्थ:- पूर्वपक्ष:- खा द्वेष न खावे, तेथी दुर्मना उर्तातरी भए। ईश्वर ४ ष्ट छे; व नजि ઉત્તરપા:- જો ઇશ્ર્વર જ કર્મનો કર્તા હોય, તો તે હંમેશા બધાના પણ શુભકર્મો જ કરશે, કારણ કે સ્વયં વીતરાગ છે. અને વીતરાગ કચારેય પણ કોઇનુ પણ અશુભ કરે નહિ. પણ ઘણાનુ અશુભ થતું દેખાય છે. તેથી જો ઇશ્વરને અમુકના સારા અને ઘણાના અશુભકર્મના કર્તાતરીકે સ્વીકારશો, તો આવી વિચિત્રતાના સર્જક ઇશ્વરમાં રાગદ્વેષવગેરે દોષો બતાવવા પડશે. કારણ કે રાગદ્વેષ વગર આમ પક્ષપાતપૂર્વક વિચિત્ર કર્મકરણ સંભવે નહિ. પૂર્વપક્ષ:- ઇશ્ર્વર સ્વયં કંઇ જીવોના કર્મ કરતો નથી. પણ જીવને તે–તે કર્મ કરવા= બાંધવા પ્રેરણા કરે છે. અર્થાત્ ઇશ્ર્વર કર્મકરણમાં જીવનો પ્રેરક છે. તેથી રાગઆદિ દોષની આપત્તિ નથી. ઉત્તરપા:– આમ ઇશ્ર્વરને પ્રેરક કલ્પવામાં પણ તેનામાં રાગવગેરે દોષો પ્રાપ્ત થાય ૪ છે. तथाहि આ જ મુદ્દાને સ્પષ્ટ કરે છે. पेरेति हिए एक्कं अन्नं इतरम्मि किं इमं जुत्तं ? | अह तक्कम्मकयमिणं तं पि य णणु तक्कयं चेव ॥५९५ ॥ (प्रेरयति हिते एकमन्यमितरस्मिन् किमिदं युक्तम् । अथ तत्कर्मकृतमिदं तदपि च ननु तत्कृतमेव II) प्रेरयति हिते - शुभे कर्मणि हितकर्मनिमित्ते प्राणातिपातनिवृत्त्यादावेकं पुरुषम्, अन्यमितरस्मिन् - अहिते कर्मणि अहितकर्मनिमित्ते प्राणिहिंसादौ इतीदं वीतरागस्य सतः कथं युक्तं ? नैव कथंचनेति भावः । इत्थं चेत् प्रेरयति ततो नूनमस्य रागादिदोषप्रसङ्गः । अथोच्येत - तत्कर्मकृतं - प्रेर्यमाणजन्तुकर्मकृतमिदं विचित्रतया प्रेरणं, तथाहि - यस्याशुभं कर्म हिंसादिफलं तमशुभे हिंसादौ व्यापारे प्रेरयति, यस्य पुनः शुभं हिंसानिवृत्त्यादिफलं तं शुभे इति न तस्य + + धर्मसंल-लाग २ - 22 ++++ +++++++ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * ભોક્તાકાર * * * * * * * * * * * * * * * * रागादिदोषप्रसक्तिरिति । अत्राह-'तं पियेत्यादि' तदपि च शुभाशुभव्यापारनिमित्तं कर्म ननु तत्कृतमेव-प्रभुकृतमेव, तस्य शुभाशुभव्यापारनिमित्तकरणेऽपि रागादिदोषप्रसक्तिस्तदवस्थैवेति यत्किंचिदेतत् ॥५९५॥ ગાથાર્થ:- “ઈશ્વર એક વ્યક્તિને પ્રાણાતિપાત વગેરે પાપોમાંથી નિવૃત્તિવગેરેરૂપ હિતકર્મના કારણમાં પ્રેરણા કરે છે. અને બીજાને અહિતકારી કર્મના પ્રાણિહિંસા વગેરે કારણમાં પ્રવૃતિ કરાવે છે. એવી કલ્પના વીતરાગ ગણાતા ઈશ્વર અંગે કરવી કેવી રીતે યોગ્ય ગણાય? અર્થાત જરા પણ યોગ્ય ન ગણાય. કેમકે જો ઈશ્વર ઉપર-પ્રમાણે પ્રેરણા કરતો હોય, તો તેને રાગી-બી માનવાની જ આપત્તિ છે. પૂર્વપક્ષ:- આમ વિચિત્રપ્રેરણા કરવામાં ઇવરના રાગ-દ્વેષ કામ નથી કરતા. પણ પ્રેરાઇ રહેલા જીવોના કર્મોની જ તેવી વિચિત્રતા છે કે જેથી ઇશ્વર જીવોને આમ વિચિત્રરૂપે પ્રેરણા કરે છે. જેમકે જેના હિંસાદિફળ દેતા અશુભ કર્મો ઉદયમાં હોય, તેને ઇશ્વર હિંસાવગેરેમાં પ્રવૃત્ત કરે. અને જેના હિસાનિવૃત્તિવગેરે ફળ દેનારા શુભકર્મો ઉદયમાં હોય તેને ઇશ્વર હિંસાનિવૃત્તિવગેરે શુભમાં પ્રવૃત્ત કરે છે. તેથી આ ઇશ્વર તો જીવના તેવા કેવા કર્મોને આધારે જ પ્રેરણા કરતો હોવાથી તટસ્થ જ છે, નહિ કે રાગઆદિ દોષયુક્ત છે. ઉત્તરપક:- આ શુભાશભપ્રવૃતિ કરાવનારું કર્મ ખરેખર ઇશ્વરકૃત જ છે. શુભાશુભ પ્રવૃત્તિના નિમિત્તો ઊભા કરવામાં પણ રાગાદિદોષોનો પ્રસંગ છે જ. તેથી ઇશ્વરમાં રાગઆદિ દોષ માનવાનો પ્રસંગ ઊભો જ રહેશે. તેથી તમારી આ બધી વિચારણાઓ સાવ મુફલીસ છે. પ૯પા अथ मा भूदेष दोष इति शुभाशुभव्यापारनिमित्तं कर्म न प्रभुकृतमिष्यते किन्तु जन्तुकृतमेवेत्यत आह પૂર્વપક્ષ:- આ દોષ ન આવે, એ હેતુથી શુભાશુભ પ્રવૃત્તિમાં નિમિત્તભૂત કર્મો ઈશ્વરકૃત નહિ પણ જીવકૃત છે તેમ સ્વીકારીએ છીએ. इयरस्स उ कत्तित्ते सिद्धे सामत्थसत्तिसिद्धीओ । पहुकप्पणा अविसया भत्तीए नत्थि वाऽविसयो ॥५९६॥ (इतरस्य तु कर्तृत्वे सिद्धे सामर्थ्यशक्तिसिद्धेः । प्रभुकल्पनाऽविषया भक्तेर्नास्ति वाऽविषयः॥) इतरस्य-जन्तोः कर्तृत्वे सिद्धे सति सामर्थ्यशक्तिसिद्धेः-सामर्थ्य प्रतिबन्धवैकल्यासंभवेन परंपरया कार्यकरणयोग्यता शक्तिस्त्वव्यवधानेन तयोः सिद्धेः या प्रभुकल्पना परैः क्रियते सा अविषया-निर्विषया, विषयस्य कर्मप्रेरणलक्षणस्यान्यत एव कर्तजन्तोः सिद्धत्वात् । तस्य हि सामर्थ्य तावत्करणे सिद्धमतः प्रेरणेऽपि तद्भविष्यतीति प्रभुकल्पना निर्विषयैव । यद्वा नैवास्ति भक्तेः कश्चनाप्यविषय इति-भक्तितरलितचित्ततया त्वयैवं परिकल्प्यते इत्यलं स्वदर्शनानुरागाकृष्टचेतसा सह प्रसङ्गेन ॥ तदेवं युक्तिबलप्रवृत्तानुभवसामर्थ्यादात्मा भोक्ता सिद्धः ॥५९६॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જે જીવ કર્તા સિદ્ધ થાય, તો જીવમાં જ કર્મઅંગેનું સામર્થ્ય અને શક્તિ સિદ્ધ થાય છે. અહીં પ્રતિબન્ધ અને વિકલતાના અસંભવથી પરંપરાએ કાર્ય કરવાની યોગ્યતા સામર્થ્ય છે. અને અવ્યવધાનથી= તરતમાં જ કાર્યકરયોગ્યતા શક્તિ છે. જીવમાં જ જો સામર્થ્ય અને શક્તિ સિદ્ધ હોય, તો ઈશ્વરની ક૯૫ના નિર્વિષય બની જશે. કારણ કે કર્મપ્રેરણારૂપ જે અર્થમાટે ઇશ્વરની કલ્પના કરવી છે તે તો ઇશ્વરથી ભિન્ન એવા કર્તા જીવથી જ સિદ્ધ છે. કારણ કે જીવનું જો કર્મકરણમાં સામર્થ્ય હોય, તો પ્રેરણામાં પણ તેનું જ સામર્થ્ય હેઈ શકે. તેથી ઇશ્વરકલ્પના નિર્વિષય છે. અથવા તો ભક્તિનો કોઈ અવિષય નથી. ભક્તિના ભાવમાં તો અકથ્ય કલ્પના પણ સંભવી શકે. પ્રસ્તુતમાં પણ તમે ઈશ્વરને કર્તાતરીકે ૫ો છો, તેમાં તમારું ઈશ્વરપ્રત્યેની ભક્તિથી છલકાયેલું ચિત્ત જ પ્રતિબિંબિત થાય છે. અર્થાત તમારી આ કલ્પના ભક્તિપ્રેરિત છે. તેથી પોતાના મત/સિદ્ધાંત/દર્શનના અનુરાગથી આકર્ષાયેલા ચિત્તવાળા એવા તમારી સાથે વાદપ્રસંગથી સર્યું. આમ યુક્તિબળથી પ્રવૃત અનુભવના સામર્થ્યથી આત્મા ભોક્તાતરીકે સિદ્ધ થાય છે. પા૫૯૬ાા લોક આગમસિદ્ધ સ્વકર્મભોકતત્વ એકાનિક सांप्रतं लोकत आगमतश्च भोक्तृत्वं साधयन्नाहહવે લોકપ્રમાણથી અને આગમથી ભોકતૃત્વની સિદ્ધિ કરતા કહે છે. लोगेवि एस भोत्ता सिद्धो पायं तहागमेसुं च । अविगाणपवित्तीओ णय एतेसिं अपामन्नं ॥५९७॥ (लोकेऽप्येष भोक्ता सिद्धः प्रायस्तथागमेषु च । अविगानप्रवृत्तितो न च एतेषामप्रामाण्यम् ॥) છે કે જે જે જ * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 23 * * * * * * * * * * * * * * * Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** लोSAIR ++++++++++++++++++ लोकेऽप्येष-जीवः प्रायो भोक्ता सिद्धः । तथाहि-सुखितं कंचन पुरुषं दृष्ट्वा लोके वक्तारो भवन्ति- 'पुण्यवानेष यदित्थं सुखमनुभवतीति' । तथा आगमेषु च जैनेतरादिषु भोक्ता सिद्धः । “सव्वं च पएसतया भुंजइ कम्ममणुभावओ इयरं(भज्ज)" (सर्वं च प्रदेशतया भुज्यते कर्मानुभावत इतरत् छा.) । तथा, "नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपी" त्यादिवचनात् । न चैतेषां लोकागमानामित्थं प्रवर्त्तमानानामप्रामाण्यम् । कुत इत्याह- 'अविगानप्रवृत्तितः' अविगानेन प्रवृत्तेः । नह्येवं लोकप्रतीतावागमेषु वा प्रवर्त्तमानेषु कस्यचिद्विवेकचक्षुषो विप्रतिपत्तिरस्तीति ॥५९७॥ ગાથાર્થ:- લોકમાં પણ આ જીવ પ્રાય: ભોક્તાતરીકે સિદ્ધ છે. તે આ પ્રમાણે- કોક સુખીપુરૂષને જોઈ લોકો બોલે છે– “આ પુણ્યશાલી છે કે જેથી આમ સુખ ભોગવે છે આમ લોકવચનથી જીવ ભોક્તા સિદ્ધ થાય છે. આ જ પ્રમાણે જૈન જૈનેતરઆદિ આગમોના વચનથી પણ જીવ ભોકતા સિદ્ધ થાય છે. “જીવે દરેક કર્મને પ્રદેશરૂપે તો ભોગવે જ છે. વિપાકઉદયરૂપે વિકલ્પ ભોગવે છે. (અર્થાત બંધાયેલા–સત્તામાં રહેલા બધા કર્મો પ્રદેશઉદયરૂપે તો ભોગવાયા પછી જ નષ્ટ થાય. તેમાંથી કેટલાક કર્મોને જીવ રસોદયથી અસરકારકફળવાળારૂપે ભોગવે છે. જયારે કેટલાક કર્મોને તે રૂપે ભોગવતો નથી.) આ જૈનાગમમાન્ય વચન છે. જેનેતર આગમમાન્ય વચન આ છે. -સેક કરોડ પે ( યુગે) પણ કર્મ ભોગવાયા વિના ક્ષય ન પામે.” આ પ્રમાણે પ્રવૃત્ત થતા લોકવચન અને આગમવચનને અપ્રમાણભૂત તો ઠેરવી શકાય જ નહિ, કારણ કે આ વચનો વિવાદાસ્પદ નથી. આ પ્રમાણે પ્રવર્તતી લોકપ્રતીતિમાં કે આગમમાં કોઈ વિવેકીને વિવાદ નથી. ૫૯માં इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्આ પદાર્થને આ પ્રમાણે સ્વીકારવામાં જ ડહાપણ છે. इहरा कयवेफल्लं तब्भावे हंदि दिट्ठबाधा तु । वाणियकिसीबलादी दिट्ठा जं सकयभोइ ति ॥५९८॥ (इतरथा कृतवैफल्यं तद्भावे हंदि दृष्टबाधा तु । वणिक्कृषीबलादयो दृष्टा यत् स्वकृतभोगिन इति ॥) इतरथा-लोकागमसिद्धभोक्तृत्वानभ्युपगमे कृतवैफल्यं-पूर्वकृतकर्मनैष्फल्यं प्राप्नोति । प्राप्नोतु का नो हानिरिति चेत् ? अत आह-तद्भावे' पूर्वकृतकर्मवैफल्यभावे 'हंदीति' परामन्त्रणे दृष्टबाधा प्राप्नोति। कथमित्याह- यत्-यस्मात्वणिक्कृषीबलादयः स्वकृतशुभाशुभफलभोगिनो दृष्टाः, तन्न स्वकृतकर्मवैफल्यम् । तथा च सति सिद्धो जीवः कर्मणां भोक्तेति ॥५९८॥ ગાથાર્થ:- જો આમ લોક અને આગમથી સિદ્ધ ભોકતૃત્વ ન સ્વીકારો તો પૂર્વકૃતકર્મ નિષ્ફળ જવાનો પ્રસંગ છે. st:- म नि य, मां अमारे शुधो छ? સમાધાન:- જો પૂર્વકૃતકર્મ નિષ્ફળ જાય, તો દેટબાધાની આપત્તિ છે. કારણ કે વેપારી, ખેડૂતવગેરે પોતે કરેલા શુભ-અશુભ કર્મના ફળ ભોગવતા દેખાય છે. તેથી પૂર્વકૃત કર્મને નિષ્ફળ જનારા માની શકાય નહિ. તેથી જ જીવ કર્મોના - ભોક્તાતરીકે સિદ્ધ થાય છે. પપ૯૮ पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષ કહે છે. __दंडिगगहमरणादो ण सगडभोइत्तणं अणेगंतो । आयासेणुवभोगा एगन्तो चेव नायव्वो ॥५९९॥ (दण्डिकग्रहमरणादौ न स्वकृतभोगित्वमनेकान्तः । आयासेनोपभोगादेकान्त एव ज्ञातव्यः ॥ दण्डिकग्रहेण-राजग्रहेण यन्मरणं तदादौ सति न स्वकृतभोगित्वं-न पूर्वोपात्तशुभकर्मफलभोक्तृत्वं, अपान्तराल एव तस्य मरणादिभावात् । यदि हि स जीवेत् न वा सर्वथा म्रियेत(मुष्येत)ततः पूर्वोपात्तशुभकर्मफलमुपभुञ्जीतापि इति अनेकान्तो-व्यभिचारो जीवः स्वकृतभोक्तेत्यस्य संगरस्य । आचार्य आह-'आयासेत्यादि' आयासेन-क्लेशेन तस्य स्वकृतकर्मफलस्योपभोगादेकान्त एव-अव्यभिचार एव ज्ञातव्यः ॥५९९।। ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- રાજગ્રહ (=રાજચતરફથી ગુનાઅંગે બંધન)ના કારણે થતાં મોતવગેરે સ્થળે પૂર્વે ઉપાર્જ લા શુભકર્મના ફળનું ભોકતૃત્વ રહેતું નથી, કેમ કે અધવચ્ચે મોતવગેરે આવી જાય છે. જો તે જીવતો રહેત અથવા સર્વથા ન મરત (न मुष्येत = ढूंटाईन)तो पूर्व रेखा शुभना ने भोगवी पर शत. प राना र भोतवारे थाय, તો શુભકર્મના ફળને ભોગવવાનો અવસર રહેતો નથી. જીવના સ્વકર્મફળભોકતૃત્વવાદમાં આ અનેકાન્ત છે. ++++++++++++++++ u e- २- 24+++++++++++++++ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** ભોક્તાદ્વાર * ઉત્તરપક્ષ:- આ દંડ પામેલી વ્યક્તિ ક્લેશદ્વારા સ્વકૃતકર્મના ફળને ભોગવી રહ્યો છે. તેથી સ્વકૃતકર્મફળ-ભોતૃત્વવાદ એકાન્તિક=અવ્યભિચારી છે એમ જ સમજવું. ઘપા एतदेव भावयति આ જ અર્થનું ભાવન કરે છે– पुव्विं जमुवत्तं खलु कम्मं तं सगडमो जिणा बिंति । तं च विचित्तं आयासभोगफलभेदओ नेयं ॥ ६०० ॥ (पूर्वं यदुपात्तं खलु कर्म तत् स्वकृतं जिना बुवते । तच्च विचित्रमायासभोगफलभेदतो ज्ञेयम् II) पूर्व - पूर्वस्मिन् भवे काले वा यत् उपात्तं खलु कर्म तत्स्वकृतं जिना ब्रुवते, तच्च स्वकृतमायासफलभोगफलभेदेन વિચિત્ર જ્ઞેયમ્ II૬૦૦ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વના ભવમાં અથવા એ જ ભવમા પૂર્વના કાળમાં જે કર્મ ઉપાજર્યું હોય, તે કર્મને જિનેશ્ર્વરો સ્વકૃતકર્મ કહે છે. આ સ્વકૃતકર્મમા કેટલાક આયાસફળવાળા હોય છે, અને કેટલાક ભોગફળવાળા હોય છે. આમ એ કર્મ વિચિત્ર (=અનેકસ્વરૂપવાળુ) છે. ૬૦ના कथमित्याह - આ વિચિત્રતા કેવી રીતે છે? તે બતાવે છે– परवंचणादिजोगा जं कयमिहइं किलेसभोगं तं । इतरातो भोगफलं बज्झं सहकारिमो तस्स ॥ ६०१ ॥ (परवंचनादियोगाद् यत् कृतमिह क्लेशभोगं तत् । इतरतो भोगफलं बाह्यं सहकारि तस्य ॥) परवञ्चनादियोगात् यत् कृतमिह जगति कर्म, इकारः पादपूरणे, तदाह - "इजेराः पादपूरणे" इति, तत् क्लेशभोगं क्लेश एव आयास एव भोगो यस्य तत्तथा, इतरस्मात् - परवञ्चनापरिहारादेर्यत्कृतं कर्म तद्भोगफलं- विशिष्टाह्लादख्यसातानुभवफलम् । यत्पुनर्बाह्यं - राजग्रहस्रक्चन्दनादि तत्तस्यैव कर्मणो भोगफलस्य फलदानाभिमुखीभूतस्य सहकारिकारणम् । मो इति निपातः पूरणे । तदन्तरेण प्रायः स्वफलदातृत्वायोगात्, बन्धकाले तथास्वभावतयैवावबद्धत्वादिति ॥ ६०१ ॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ‘ઇ, વર્ણ પાદપૂર્તિઅર્થે છે. ઇજેરા: પાદપૂરણે” સૂત્રથી આ વાત સિદ્ધ છે. ઇ, જે અને ૨ પાદપૂર્તિઅર્થે આવે છે.) જગતમાં બીજાને ઠગવાવગેરે કારણે જે કર્મબંધ થાય છે. તે સ્વકૃતકર્મ ક્લેશાત્મક ભોગવાળું હોય છે. અને આ પરવંચનાઆદિના ત્યાગવગેરેથી જે કર્મબંધ થાય છે, અથવા પરવંચનાવગેરે અશુભથી ઇતર=ન્યાયપૂર્વકના વ્યવહાર, દાનવગેરે શુભપ્રવૃત્તિના યોગથી જે કર્મબંધ થાય છે તે સ્વકૃતકર્મ વિશિષ્ટઆહ્લાદરૂપ શાતાના અનુભવાત્મક ભોગફળવાળું હોય છે. રાજગ્રહ, માળા, ચંદનવગેરે બાહ્યવસ્તુઓ પોતાના ફળને દેવા ઉધૃત થયેલા ભોગફળક તે–તે કર્મના સહકારી કારણરૂપે ભાગ ભજવે છે. (મૂળમા ‘મો' પદ પૂરણાર્થે નિપાત છે.)કારણ કે આ બાહ્યવસ્તુઓ વિના કર્મ પ્રાય: પોતાનુ ફળ આપી શકે નહીં. કારણ કે બન્ધકાળે તે કર્મ તેવા સ્વભાવવાળું જ (તે બાહ્યસહકારીને પામી ઉદયમાં આવવું ઇત્યાદિ સ્વભાવયુક્તરૂપે જ) બંધાયું હોય છે. (અહીં આ વચનથી માત્ર સ્વભાવવાદી બૌદ્ધ અને સ્વભાવયોગ્યતાને નહિ સ્વીકારનાર માત્ર સહકારીકારણવાદી અને પ્રાગભાવની કલ્પના કરનારા નૈયાયિકમતનું ખંડન થાય છે. કારણ કે દરેક વસ્તુ તેવા સ્વભાવ, તેવી યોગ્યતાને કારણે અને સહકારીઓની સહાયથી જ અમુક કાર્ય કરે છે.) ૫૬૦૧ વેંચ્યના કર્મો અને વંચનો સંક્લેશ દોષપાત્ર परवञ्चनादियोगोऽपि जीवस्य कथं भवतीति चेत् ? अत आह જીવને પરવંચનાદિવગેરેનો યોગ પણ શી રીતે થાય છે? આ શંકાના સમાધાનમા કહે છે. परवंचणादिजोगो कम्माओ वंचणा य इतरस्स । तत्तो च्चिय विनेया इहरा जाइच्छियपसंगो ॥ ६०२ ॥ (परवंचनादियोगः कर्मतो वञ्चना चेतरस्य । तत एव विज्ञेया इतरथा यादृच्छिक प्रसङ्गः ॥ परवञ्चनादियोगो वञ्चकस्य कर्मतः - पूर्वस्वकृततथाविधकर्मणः सकाशाद्भवति, इतरस्यापि - वञ्च्यस्य वञ्चनावञ्च्यमानता तत एव-कर्मणः पूर्वस्वकृताद्विज्ञेया । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमितरथा स्वकृतकर्मत एव वञ्च्यस्य वञ्चना- ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ -25 + Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * ભોક્તાકાર જ ન ક ક ક કે જે જ જે જે જ છે नभ्युपगमे यादृच्छिकप्रसङ्गः-यादृच्छिकवञ्चनायोगप्रसङ्गः । यदृच्छातो यस्य कस्यचित् ततो वञ्चकाद्वञ्चनाप्रसक्तिरित्यर्थः li૬૦૨ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- પંચક-ઠગ જે બીજાને ઠગે છે તેમાં તેના (ગના) પૂર્વે કરેલા કર્મો ભાગ ભજવે છે. તેમ જ જે જ્ઞાય છે, તેના ગાવામાં પણ તેના (જ્ઞાનારના) પૂર્વે કરેલા કર્મો જવાબદાર હોય છે. આ હકીકતને આ પ્રમાણે સ્વીકારવી જ રહી. જો ઠગાનારના પૂર્વેના સ્વભૂતકર્મ એમાં કામ ન કરતા હેય, તો ઠગાવાની બાબતમાં યાદેચ્છિકતાનો પ્રસંગ છે. અર્થાત યદેચ્છાથી (કોઈ નિયંત્રણ વિના) કોઈ પણ વ્યક્તિ પેલા વચકથી ઠગાવાની આપત્તિ આવે. ૬રા अत्र पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે. एवं च कुतो दोसो ? तत्तो चिय संकिलेसओ सो य । असुहाणुबंधिकम्मोदयाउ भणितो जिणिंदेहिं ॥६०३॥ (एवं च कुतो दोषः? तत एव सङ्क्लेशात् स च । अशुभानुबंधिकर्मोदयाद् भणितो जिनेन्द्रैः ॥ यदि वञ्च्यस्य वञ्चना पूर्वस्वकृतकर्मत एवोपजायते न तु वञ्चकवशात्तत एवं सति वञ्चकस्य कुतो दोषःपरलोकप्रतिपन्थिकर्मोपचयलक्षणो? नैव कुतश्चित्, नहि वन्यस्य वञ्चना वञ्चकेन क्रियते येन तस्य दोषः स्यात्, किंतु पूर्वस्वकृतकर्मणैवोदितेनेति । अत्र सूरिराह-तत्तो चिय संकिलेसओ' तत एव वञ्चनाकरणप्रवृत्तिनिबन्धनात् संक्लेशाद्वञ्चकस्य दोषः, स हि वञ्चनाकरणप्रवृत्तिनिबन्धनं संक्लेश एकान्तेनाशुभश्चाशुभोऽशुभकर्मनिबन्धनमिति दोष एव वञ्चकस्य । 'सो य इत्यादि' स च वञ्चनाकरणप्रवृत्तिहेतुभूतः संक्लेशो जिनेन्द्रैर्भणितोऽशुभानुबन्धिकर्मोदयंतस्ततः 'परवञ्चणादिजोगो कम्माओ' इत्यादि समीचीनमेव ॥६०३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જ વંચ્ય (ગાનાર) ના જ પૂર્વના રૂકતકર્મના કારણે તે (વંચ્ય) ઠગાતો હોય, નહિ કે વંચકના દોષથી, તો વંચકનો પરલોક બગાડે તેવો કર્મના બંધરૂપ દોષ શી રીતે ગણાશે. (બલ્ક કર્મ ખપાવવામાં સહાયક બન્યાનો લાભ મળવો જોઇએ) અર્થાત વંચક નિર્દોષ સિદ્ધ થશે. કારણ કે વચ્ચેની પંચના (ગાઇ) વંચકે નથી કરી, પરંતુ તેના પોતાના જ પૂર્વના સ્વકૃત કર્મે કરી છે. તેથી વંચકનો કોઈ દોષ નથી. - ઉત્તર૫ક્ષા:- અલબત્ત, વંચનામાં વંચ્યના પૂર્વના સ્વકૃતકર્મનો હાથ છે જ. છતાં પણ વંચક પોતે વંચનાની પ્રવૃત્તિ કરે છે, ત્યારે તે ખરાબ પ્રવૃત્તિમાં કારણભૂત (અથવા એ પ્રવૃત્તિના કાર્યભૂત) સંકલેશ તેના મનપર છવાયો હોય છે. (કારણ કે સંકલેશ અશુભભાવ વિના આ ઠગવાની પ્રવૃત્તિ થાય નહિ. અથવા ઠગવાની પ્રવૃત્તિકાળે અશુભભાવ આવ્યા વિના રહે નહિ.)અને આ સંકલેશના કારણે જ વંચક દોષપાત્ર ઠરે છે, કારણ કે વેચના કરવાની પ્રવૃત્તિકાળે પંચકને જે સંકુલેશ છે, તે સંકલેશ અવશ્ય અશુભ જ છે. અને આ અશુભસંકલેશ અશુભકર્મના બંધમાં કારણ બને છે. આમ વચનાથી વંચકને દોષ છે જ. પંચનાકરણની પ્રવૃતિમાં કારણભૂત આ સંકલેશ અશુભાનુબંધિકર્મ (અશુભની પરંપરા ચલાવતા કર્મ) ના ઉદયથી ઊભો થાય છે, એવું જિનેન્દ્રવચન તદ્દન યુક્તિસંગત જ છે. ૬૦૩ एवं च ठिए संते धम्माधम्माण जह उ संपत्ती । जुज्जइ सवित्थरं तह फुडवियडं उवरि वोच्छामि ॥६०४॥ (एवं च स्थिते सति धर्माधर्मयोः यथा तु संप्राप्तिः । युज्यते सविस्तरं तथा स्फुटविकटमुपरि वक्ष्यामि ॥) एवं च स्थिते सति स्वपरिणामविशेषभावादेव दोषाभावे सति यथा धर्माधर्मयोः संप्राप्तिर्युज्यते तथा सविस्तरं स्फुटविकटमुपरि वक्ष्यामीति। तन्न दण्डिकग्रहमरणादौ स्वकृतभोक्तृत्वव्यभिचारस्तथा च सति सिद्ध एष जीवो भोक्तेति स्थितम् ॥६०४॥ ગાથાર્થ:- આમ વસ્તસ્વરૂપ નિર્મીત થાય છે. તેથી દોષના અભાવમાં રૂપરિણામવિશેષથી જ ધર્મ અને અધર્મની પ્રાપ્તિ યુક્તિસંગત છે. આ યુક્તિસંગતતા આગળ ઉપર સ્પષ્ટપણે વિસ્તારથી બતાવશું. તેથી રાજગ્રહ, મરણ વગેરે સ્થળે કુતકર્મના ભોગમાં અનેકાન્તિકતા આવતી નથી. તેથી જીવ ભોક્તા તરીકે નિર્વિરોધ સિદ્ધ થાય છે. ૬૦૪ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 26 * * * * * * * * * * * * * * * Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + भानु १३५ + + + + + + + + + + + + + + + + ++ કર્મોનું સ્વરૂપ एतदेवोपसंहरन्नाहઆ જ અર્થનો ઉપસંહાર કરતા કહે છે तम्हा भोत्ता जीवो पसाहिओ कम्मजोगमेतस्स । वोच्छं पुव्वुवइटुं धम्मादिनिबंधणं कमसो ॥६०५॥ (तस्माद् भोक्ता जीवः प्रसाधितः कर्मयोगमेतस्य । वक्ष्ये पूर्वोपदिष्टं धर्मादिनिबंधनं क्रमशः ॥) तस्माद्भोक्ता जीवः स च भोक्ता यथा भवति तथाऽनुभवलोकागमप्रमाणैः प्रसाधितः । सांप्रतमेतस्य जीवस्य 'जीवम्मि कम्मजोगे य तस्सेति' वचनेन पूर्वोपदिष्टं कर्मयोगं-कर्मसंबन्धं धर्मादिनिबन्धनं-धर्माधर्मनिबन्धनं क्रमशो वक्ष्ये इति ॥६०५॥ ગાથાર્થ:- આમ અનુભવ, આગમ, અને લોકપ્રમાણથી જીવ ભોક્તા સિદ્ધ થયો. હવે પૂર્વે જીવલ્સ કમ્મરોગે ય' ગા.૩૪) વચનથી જીવના ધર્મ અને અધર્મના કારણે થતા કર્મ સાથેના સંબંધનો પૂર્વે જે ઉપદેશ કર્યો હતો. તે હવે કમશ: કહીશું. ૬૦પા प्रतिज्ञातमेवाहપ્રતિજ્ઞાતનું (ધર્માદિનિમિત્તક કર્મસંબંધકથન પ્રતિજ્ઞાત છે.) જ કથન કરે છે. नाणादिपरिणतिविघायणादिसामत्थसंजुयं कम्मं । ___ तं पुण अट्ठपगारं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥६०६॥ (ज्ञानादिपरिणतिविघातनादिसामर्थ्यसंयुतं कर्म । तत्पुनः अष्टप्रकारं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥ ज्ञानादिपरिणतिविघातनादिसामर्थ्यसंयुतं-ज्ञानदर्शनादिपरिणतिविघातसातासातानुभवादिसामोपेतं कर्म । तत्पुनः कर्म प्रतिनियतस्वभावभेदादष्टप्रकारं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥६०६॥ ગાથાર્થ:- કર્મ જીવની જ્ઞાન, દર્શનઆદિપરિણતિનો વિઘાત કરવાના અને જીવને સાત, અસાતનો અનુભવ, આદિ કરાવવાના સામર્થ્યવાનું છે. આ કર્મ પ્રતિનિયત સ્વભાવના ભેદને કારણે આઠપ્રકારનું છે એમ વીતરાગોએ પ્રરૂપ્યું છે. ૬૦%ા तानेव प्रकारानाह - કર્મના આઠ પ્રકાર બતાવે છે - पढमं नाणावरणं बितियं पुण होइ दंसणावरणं । ततियं च वेयणिज्जं तहा चउत्थं च मोहणियं ॥६०७॥ (प्रथमं ज्ञानावरणं द्वितीयं पुनर्भवति दर्शनावरणम् । तृतीयं च वेदनीयं तथा चतुर्थं च मोहनीयम् ॥ प्रथमम-आद्यं ज्ञानावरणं ज्ञायतेऽर्थों विशेषरूपतयाऽनेनेति ज्ञानं-मतिज्ञानादि. आवियतेऽनेनेति आवरणं "करणाधारे वाऽनडि" त्यनट्, आवृणोतीति वा "कृद्बहुलमिति" वचनात्कर्त्तर्यनद् ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणं, द्वितीयं तु पुनर्भवति दर्शनावरणं, दृश्यते-सामान्यरूपतयाऽवगम्यतेऽर्थोऽनेनेति दर्शनं चक्षुर्दर्शनादि, तस्यावरणं दर्शनावरणं, तृतीयं च वेदनीयं सातासातरूपेण वेद्यते इति वेदनीयं, तथा चतुर्थं च मोहनीयं मोहयति-विपर्यासमापादयतीति मोहनीयम् ॥६०७॥ થ:- પહેલું જ્ઞાનાવરણીય. બીજું દર્શનાવરણીય, ત્રીજું વેદનીય અને ચોથે મોહનીય કર્મ છે. જેનાથી અર્થ (“વષયભૂતપદાર્થ) નો વિશેષરૂપે બોધ થાય તે જ્ઞાન. આમાં મતિજ્ઞાનવગેરે આવે. જેનાથી ઢંકાય તે આવરણ. (અહીં કરણાધારે વાનર સૂત્રથી કરણઅર્થે “અન' પ્રત્યય લાગ્યો. તેથી “આવરણ શબ્દ બન્યો.) અથવા તો જે આવરે (ઢાંકે) તે આવરણ (કર્મ) (અહીં ભકત બહલમ સૂત્રથી કર્તાઅર્થમાં “અન" પ્રત્યય લાગ્યો, તેથી જ્ઞાનનું આવરણ જ્ઞાનાવરણ કે શાનાવરણીય કહેવાય. જેનાથી જે સાધનથી) વસ્તનો સામાન્યરૂપે બોધ થાય તે દર્શન. આમાં ચક્ષદર્શન વગેરે આવે. આ ઈનનું આવરણ દર્શનાવરણ કે દર્શનાવરણીય કહેવાય. જે કર્મ સાત કે અસાતરૂપે વેદાય (=અનુભવાય છે) તે વેદનીયકર્મ. છવમાં મોહ = વિપર્યાસનું આપાદન કરે, તે મોહનીય કર્મ. ૬૦ાા ' ++++++++++++++++M er-MIRR-27+++++++++++++++ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * * * * * * * * * * * * * * * | "आउयनाम गोत्तं चरिमं पुण अंतराइयं होइ ।। मूलप्पगडीउ एया उत्तरपगडी अतो वोच्छं ॥६०८॥ (आयुष्कं नाम गोत्रं चरमं पुनरंतरायं भवति । मूलप्रकृतय एताः, उत्तरप्रकृतीरतो वक्ष्ये ॥ आयुष्कं नाम गोत्रं, तत्र एति याति चेत्यायुः अननुभूतमेति अनुभूतं च यातीत्यर्थः, यद्यपि च सर्व कर्म एवंभूतं तथापि पङ्कजादिशब्दवत् रूढिविषयत्वात् आयुःशब्देन पञ्चममेव कर्माभिधीयते । तथा नामयति-गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम । तथा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात्कर्मणस्तद्गोत्रम् । चरमं-पर्यन्तवर्ति पनरन्तरायं भवति. - अन्तरा-दातप्रतिग्राहकयोरन्तर्विघ्नहेतुतया अयते-गच्छतीत्यन्तरायम् । मूलप्रकृतय एताः, सामान्यविशेषरूपाः प्रकृतय इत्यर्थः । उत्तरप्रकृती:-एतद्विशेषरूपा अतो वक्ष्ये-अत ऊर्वमभिधास्ये इति । इदानीमित्थं क्रमोपन्यासे प्रयोजनमभिधीयते- इहायमात्मा ज्ञानदर्शनस्वरूपस्तत्रापि सर्वा अपि लब्धयो ज्ञानोपयोगे सति भवन्ति नान्यथेति ज्ञानलक्षणप्रथमगुणविघातित्वात् प्रथमं ज्ञानावरणमुपन्यस्तं, तदनु स्थितिसाम्यादुपयोगलक्षणगुणविघातित्वसाम्याच्च दर्शनावरणं, तदनन्तरं च केवलिनमपि यावत् बन्धसद्भावेन बहुबन्धकालत्वात् समानस्थितिकत्वाच्च वेदनीयं, तदनु च सर्वेभ्योऽपि कर्मभ्यः सकाशात् प्रभूतस्थितिकत्वान्मोहनीयं, तदनु च सर्वकर्माधारत्वादायुस्ततोऽपि च प्रभूतप्रकृतिकतया बहवक्तव्यत्वान्नाम, तत ऊर्वं च समानस्थितिकतया गोत्रं, तदनु च पारिशेष्यादन्तरायमिति ॥६०८॥ ગાથાર્થ:-પાંચમું આયુષ્ય, છછું નામ, સાતમું ગોત્ર અને આઠમેં અંતરાયકર્મ છે.આવે અને જાય તે આયુષ્ય, અનનુભૂત (ઉદયમાં) આવે અને અનુભૂત જાય( ક્ષય પામે) તેવું કર્મ. અલબત્ત, બધા જ કર્મો આવા જ છે. એટલે કે અનનુભૂત કર્મો જ ઉદયમાં આવે છે, અને અનુભૂત કર્મો નાશ પામે જ છે. છતાં પણ આયુષ્યમાટે જ આવો પ્રયોગ કરવામાં રૂઢિ જે બળ વાન છે. જેમ કે કાદવમાંથી કમળની જેમ કીડા પણ ઉદ્દભવે છે. છતાં “પંકજ શબ્દથી ‘કમળ અર્થ પ્રાપ્ત થાય છે તેમાં એવી રૂઢિ જ બળવાન છે. (કુદત કે તદ્ધિતાદિ પ્રત્યયોથી જે શોની વ્યુત્પત્તિ મળતી ન હોય અથવા લોકવ્યવહારમાં જે અર્થે શબ્દપ્રયોગ થતો હોય, તે અર્થસાથે શબ્દની વ્યુત્પત્તિને સંબંધ ન હોય તે શબ્દો રૂઢિથી ગણાય છે, જેમ કે ઈન્દ્રમાટે “આમંડલ' શબ્દ. અથવા ભિખારીના છોકરાનું નામ ઇન્દ્ર. ઉપરોક્ત વ્યુત્પત્તિથી અભિધેયઅર્થને જણાવતા શબ્દો યૌગિક કહેવાય, જેમકે દીપક (પ્રકાશે છે માટે) વ્યુત્પત્તિથી સૂચિત અભિધેય ઘણા અર્થોનેક સાંકળતું હોય, ત્યારે એ બધામાંથી એક ચોક્કસ અર્યમાટે જ જયારે શબ્દપ્રયોગ થાય ત્યારે તે યોગરૂઢ કહેવાય. જેમકે પ્રસ્તુતમાં પંકજ, આયુવગેરે. જે શબ્દ કયાંક વ્યુત્પત્તિસૂચિત્ત અભિધેયનો વાચક બને અને કયાંક તભિન્નનો તે યૌગિકરૂઢ કહેવાય. જેમકે ઉર્ભિદ્ વનસ્પતિઆદિ (પૃથ્વીને ભેદીને પ્રગટે) માટે યૌગિક અને યજ્ઞવિશેષ માટે રૂઢ છે.) તેથી આયુષ્ય શબ્દથી પાંચમું કર્મ જ નિર્દેશ પામે છે. જે કર્મ જીવને ગતિવગેરે અનેક ભાવોના અનુભવ તરફ નમાવે, તત્પર કરે તે નામકર્મ. જે કર્મના કારણથી આત્મા ઊંચ, નીચ શબ્દોથી વ્યપદેશ પામે તે ગોત્રકર્મ. છેલ્લે-આઠમું અંતરાયકર્મ છે. દાતા અને ગ્રહણ કરનારની (અંતરન) વચ્ચે વિપ્નના કારણતરીકે આવે તે અંતરાયકર્મ. આ બધી મૂળપ્રવૃતિઓ-સામા વિશેષરૂપે પ્રકૃતિઓ છે. (બધા જ કર્મોનો કર્મ તરીકે નિર્દેશ સામાન્યરૂપ છે. “જ્ઞાનાવરણીય આદિરૂપે નિર્દેશ ને અપેક્ષાએ વિશેષરૂપે છે. તથા મતિજ્ઞાનાવરણીયાદિ પેટાભેલ્વેની અપેક્ષાએ સામાન્યરૂપ છે.) આ પ્રકૃતિઓના વિશેષરૂપે ઉત્તરપ્રવૃતિઓ હવે પછી બતાવશું. હમણાં કર્મની આઠ પ્રકૃતિઓના આ ક્રમથી નિર્દેશ કરવામાં પ્રયોજન બતાવીએ છીએ. કર્મના કમનિર્દેશના હેતુ આત્મા જ્ઞાન, દર્શનસ્વરૂપવાળો છે. તેમાં પણ આત્મા જયારે જ્ઞાનોપયોગમાં રહ્યો હોય છે, જયારે વિશેષબોધમાં મગ્ન હોય છે ત્યારે જ બધી લબ્ધિઓ ઉત્પન્ન થાય છે, નહીં કે સામાન્ય-દર્શનોપયોગવખતે. તેથી આત્માનો જ્ઞાનગુણ સૌથી મહત્ત્વનો–મુખ્ય છે. તેથી જ તેનું આવરણ કરતું કર્મ જ્ઞાનાવરણકર્મ પ્રથમ દર્શાવ્યું. એ પછી સ્થિતિની સમાનતાના કારણે અને ઉપયોગસ્વરૂપગુણના વિઘાતાત્મકકાર્યની સમાનતાના કારણે બીજા ક્રમે દર્શનાવરણ દર્શાવ્યું. તે પછી આ બન્ને સાથે (જ્ઞાનાવરણ-દર્શનાવરણ) સાથે સ્થિતિની સમાનતાના કારણે અને કેવળીને પણ તેનો બંધ લેવાથી બંધકાળ દીધું હોવાના કારણે ત્રીજા નંબરે વેદનીયકર્મ દર્શાવ્યું. તે પછી બધા જ કર્મોમાં સૌથી વધુ સ્થિતિવાળું હોવાથી ચોથા નંબરે મોહનીયકર્મ બતાવ્યું. તે પછી બધા જ કર્મોના આધારભૂત લેવાથી પાંચમાં નંબરે આયુષ્યકર્મ દેખાડ્યું. તે પછી સૌથી વધુ પ્રકૃતિ (=ઉત્તરભેદ)વાળું અને બહુવક્તવ્યયુક્ત(જેનું વિવરણ અધિકતમ) હેવાથી છઠ્ઠા નંબરે નામકર્મ દેખાડ્યું. નામકર્મની સ્થિતિને સમાન સ્થિતિ હોવાથી સાતમાક્રમે ગોત્રકર્મ સૂચવ્યું. અને પરિશેષન્યાયથી બાકી રહેલા અંતરાયકર્મને આઠમો નંબર આપ્યો. (અહીં કર્મચન્થટીકાદિમાંઆ કમઅંગે આવી પ્રરૂપણા પણ મળે છે.-જ્ઞાન-દર્શન આત્માના પ્રધાન ગુણ છે સર્વકાળભાવી છે, માટે પ્રથમ આવે, તેમાં + + + * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ ના 28 * * * * * * * * * * * * * * * Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************ौन २१३५***************** પણ સાકારઉપયોગ જ લખ્યિપ્રાપ્તિવગેરેકારણે પ્રધાન છે, તેથી જ્ઞાન અને જ્ઞાનાવારકકર્મ પ્રથમ. અને દર્શન તથા દર્શનાવારક કર્મ બીજા નંબરે. સૂક્ષ્માર્થના બોધથી આનંદ-સુખ ઉપજે છે, અને બોધ ન થવાથી દુ:ખ ઉપજે છે, તેથી ત્રીજા નંબરે વેદનીયકર્મ. સુખ-દુ:ખમાં જીવ પ્રાય: રાગદ્વેષ કરતો હોવાથી ચોથાનંબરે મોહનીયકર્મ.રાગ-દ્વેષ અને મોહથી પીડાતો જીવ જૂદા જૂધ ભવરૂપ સંસારમાં ભમે છે. તેથી તે-તે ભવમાં લઈ જનાર અને જકડી રાખનાર આયુષ્યકર્મ પાંચમાં નંબરે આવે. તેને ભવમાં જતાં જીવને ગતિ, જાતિ વગેરે કર્મો ઉદયમાં આવે. તેથી છ નામકર્મ. તેને ગતિ જાતિને પામેલો જીવ સહજરીતે ઊંચ-નીચગોત્ર પામે છે. તેથી સાતમાં નંબરે ગોત્રકર્મ. અને ઉચ્ચગોત્રમાં રહેલા જીવને સહજ ઘનઆદિનો કયોપશમ અને નીચગોત્રના જીવને દાનઆદિમાં અંતરાય દેખાય છે, તેથી તે પછી અંતરાયકર્મના નિર્દેશ કર્યો..) ૬૦૮ જ્ઞાનાવરણાદિકર્મોના પેટા ભેદો तत्र तेमां, पढम पंचविगप्पं मतिसुयओहिमणकेवलावरणं । बितियं च नवविगप्पं निद्दापणदसणचउक्कं ॥६०९॥ (प्रथमं पञ्चविकल्पं मतिश्रुतावधिमनःकेवलावरणम् । द्वितीयं च नवविकल्पं निद्रापंचकदर्शनचतुष्कम् ॥ प्रागुक्तक्रमप्रामाण्यानुसरणात् प्रथमं ज्ञानावरणं पञ्चविकल्पं-पञ्चभेदम् । तानेव भेदानाह- मतिश्रुतावधिमन केवलावरणम्, आवरणशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणमित्यादि । मतिज्ञानादीनां च स्वरूपमुपरिष्टात्प्रपञ्चतः स्वयमेव वक्ष्यति । द्वितीयं च दर्शनावरणं नवविकल्पं निद्रापञ्चकं दर्शनचतुष्कं चेति ॥६०९॥ આ ગાથાર્થ:- ઉપર કહેલા ક્રમના અનુસારે પ્રથમ જ્ઞાનાવરણ છે. આ જ્ઞાનાવરણ પાંચ ભેદવાળું છે. આ ભેદો આ પ્રમાણે છે. (મૂળમાં પાંચના દ્વન્દ્રસમાસ પછી “આવરણ' શબ્દ છે. તેથી દરેક સાથે “આવરણ' શબ્દ જોડાશે) (१) भनिशाना१२९॥ (२) श्रुतशान।१२॥ (3) अपयशाना१२५॥ (४) मन:पर्यायाना१२९॥ अने (५) १२९.. મતિજ્ઞાનવગેરેનું સ્વરૂપ આગળ ઉપર મૂળાકાર સ્વયં વિસ્તારથી બતાવશે. બીજું દર્શનાવરણ નવપ્રકારે છે. તેમાં પાંચ નિદ્રાપંચક છે. અને ચાર દર્શનચતુષ્ક છે. ૬૦લા तत्र निद्रापञ्चकमाहતેમાં અહીં પ્રથમ નિદ્રાપંચક બતાવે છે. निद्दा निद्दानिद्दा पयला तह होति पयलपयला य । थीणद्धी य सुरोद्दा निद्दापणगं जिणाभिहितं ॥६१०॥ (निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला तथा भवति प्रचलाप्रचला च। स्त्यानगृद्धिः (स्त्यानर्द्धिः) च सुरौद्रा निद्रापञ्चकं जिनाभिहितम् ॥) नितरां द्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा । “उपसर्गादातोऽङि" ति करणेऽङ्, सुखप्रबोधा स्वापावस्था, यत्र नखच्छोटिकामात्रेणापि पुंसः प्रबोधः संपद्यते, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कारणे कार्योपचारान्निद्रा । एवमन्यत्रापि यथायोगमुपचारभावना कार्या । तथा निद्रानिद्रा-निद्रातोऽभिहितस्वरूपाया अतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादिवत् मयूरव्यंसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, दुःखप्रबोधात्मिका स्वापावस्था, अस्यामस्फुटीभूतचैतन्यभावतो दुःखेन प्रभूतैर्घोलनादिभिः प्रबोधो जन्यत इति । उपविष्ट ऊर्वं स्थितो वा प्रचलति यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला सा हि उपविष्टस्य ऊर्वं स्थितस्य वा स्वप्नुर्भवतीति । प्रचलातोऽभिहितस्वरूपाया अतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा पुनरध्वानमपि गच्छतो भवति, अत एव स्थानस्थितस्वप्तप्रभवप्रचलाऽपेक्षया अस्या अतिशायित्वमिति । उक्तं च-"सुहपडिबोहा निद्दा दुहपडिबोहा उनिद्दनिद्दा य । पयला होइ ठियस्स उ पयलापयला तु चंकमणे ॥१॥" (छा. सुखप्रतिबोधा निद्रा दुःखप्रतिबोधा तु निद्रानिद्रा च । प्रचला भवति स्थितस्य तु प्रचलाप्रचला तु चंक्रमणे ) इति । स्त्याना-अतिबहुत्वेन संघातमापन्ना उपचितेतियावत् गृद्धिः-जाग्रदवस्थाध्यवसितार्थसंसाधनविषया अभिकाङ्क्षा यस्यां सा स्त्यानगृद्धिः, त आर्षत्वाच्च 'थीणद्धीति' भवति, यद्वा स्त्याना-पिण्डीभता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा यस्यां सा स्त्यानद्धिः सूरौद्रा तस्यां सत्यां प्रथमसंहननिनः स्वप्नुः केशवार्द्धबलसदृशी शक्तिर्भवति, प्रबलरागद्वेषोदयश्च तदोपजायते, तदुक्तम् - “अइसंकिलिट्ठकम्माणुवेयणे होइ थीणगिद्धी उ । महनिद्दा दिणचिंतियवावारपसाहणी पायं ॥१॥" (छा. अतिसंक्लिष्टकर्माणुवेदने भवति स्त्यानगृद्धिस्तु । महानिद्रा दिनचिन्तिप्तव्यापारप्रसाधनी प्रायः) इति तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानगृद्धिः स्त्यानर्द्धिा उच्यते । एतन्निद्रापञ्चकं जिनैः-सर्वज्ञैरभिहितम् ॥६१०॥ ++++++++++++++++ धर्म I -RIER- 29+++++++++++++++ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * ગાથાર્થ:- (૧) નિદ્રા (૨) નિદ્રાનિદ્રા (૩) પ્રચલા (૪) પ્રચલાપ્રચલા અને (૫) સ્ત્યાનગૃદ્ધિ કે સ્થાનદ્ધિ, આ પાંચને જિનેશ્વરો નિદ્રાપંચક કહે છે. તેમા નિતરા દ્રાતિ–નિદ્રા અર્થાત્ જેનાથી ચૈતન્ય અવિસ્પષ્ટત્વ(=અસ્પષ્ટપણા)રૂપ કુત્સિતપણાને પામે તે નિદ્રા. અહીં ‘૩૫સવિાતોજ્' સૂત્રથી કરણઅર્થે ‘અ' પ્રત્યય થયો છે. નખોના આસ્ફાલનરૂપ ચપટી વગાડવામાત્રથી ઉંઘતી વ્યક્તિ જાગી જાય. સરળતાથી ઉઠાડી શકાય તેવી ઉંધની અવસ્થા નિદ્રા કહેવાય. આવી નિદ્રરૂપ વિપાકથી વેદાતી (=ઉદયરૂપતાને પામતી) કર્મપ્રકૃતિ પણ કારણમા કાર્યના ઉપચારથી ‘નિદ્રા” કહેવાય. આ જ પ્રમાણે બીજે પણ યથાયોગ્ય ઉપચારનો ખ્યાલ રાખવો. ઉપરોક્ત નિદ્રાથી અતિશાયિની-ચઢીયાતી નિદ્રા નિદ્રાનિદ્રા કહેવાય. અહીં શાકપાર્થિવવગેરે પદોની જેમ મયૂરવ્યસકાદિમાં સમાવેશ હેવાથી મધ્યમપદલોપી સમાસ છે. નિદ્રાતિશાયિની નિદ્રા-નિદ્રાનિદ્રા. આ ઉધની અવસ્થામા દુ:ખે કરીને જાગૃતિ આણી શકાય છે. ચૈતન્ય અસ્પષ્ટતર બનતું હોવાથી આ ઉંધમાંથી ખૂબ ઢંઢોળવાવગેરેથી માંડ માંડ જગાડી શકાય છે. જે ઉંધઅવસ્થામાં વ્યક્તિ ઊભા ઊભા કે બેઠા બેઠા ઉંધ ખેંચી કાઢે તે ઉંધઅવસ્થા પ્રચલા કહેવાય. આ નિદ્રા ઊભા કે બેઠા બેઠા ઉધનારને હોય છે. આ ઉપરોક્તસ્વરૂપવાળી પ્રચલાથી વિશિષ્ટતર પ્રચલા =પ્રચલાપ્રચલા. માર્ગમા ચાલતા ચાલતા ઉંધી જનારને આ નિદ્રા હોય છે. તેથી જ આ નિદ્રામા ઊભા ઊભા સૂઇ જનાર કરતા વિશિષ્ટતા છે. કહ્યું જ છે “સુખપ્રબોધ (=સરળજાગૃતિ વાળી નિદ્રા છે. દુ:ખપ્રબોધવાળી નિદ્રાનિદ્રા છે. ઊભેલાને પ્રચલા હોય છે. ચાલનારને પ્રચલાપ્રચલા હોય છે.” ગૃદ્ધિ-જાગૃતઅવસ્થામાં ચિંતવેલા અર્થને સિદ્ધ કરવાઅંગેની આકાંક્ષા. જે ઉંધઅવસ્થામાં આવી વૃદ્ધિ અતિબહુરૂપે સંધાત –ઉપચયભાવ પામે છે, તે સ્ત્યાનગૃદ્ધિ કહેવાય. પ્રાકૃતભાષામાં અને આર્ષ(-આગમિક)પ્રયોગ હોવાથી ‘થિણદ્ધી' કહેવાય છે. અથવા તો જે નિદ્રાવખતે આત્માની શક્તિરૂપ ઋદ્ધિ સ્થાન-પિણ્ડીભૂત-પિણ્ડમય બને છે–એકઠી થાય છે, તે નિદ્રા સ્યાનદ્ધિ કહેવાય. આ નિદ્રા અત્યંત રૌદ્ર હોય છે; કેમકે આ નિદ્રાવખતે જો તે વ્યક્તિ ૧લાસંધયણવાળી હોય તો, તેનું બળ વાસુદેવના અડધા બળ જેટલું થાય છે. આ નિદ્રાવખતે પ્રબળ રાગદ્વેષનો ઉદય થાય છે. કહ્યું છે → “અત્યંતસલિષ્ટ કર્મના અનુવેદન વખતે સ્ત્યાનગૃદ્ધિ નામની મહાનિદ્રા હોય છે. અને પ્રાય: દિવસે ચિતવાયેલા વ્યાપાર-કાર્યની પ્રસાધિકા હોય છે.” આ નિદ્રારૂપ વિપાકથી ઉદયરૂપે ભોગવાતી કર્મપ્રકૃતિ પણ સ્થાનગૃદ્ધિ કે સ્ત્યાનદ્ધિ કહેવાય છે. ૫૬૧મા दर्शनचतुष्टयमाह - હવે દર્શનચતુષ્ક બતાવે છે→ नयणेतरोहिकेवलदंसणावरणं चउव्विहं होइ । सातासातदुभेदं च वेयणिज्जं मुणेयव्वं ॥ ६११॥ (नयनेतरावधिकेवलदर्शनावरणं चतुर्विधं भवति । सातासातद्वि-भेदं च वेदनीयं ज्ञातव्यम् II) 'नयनेतरावधिकेवलदर्शनावरणं चतुर्विधं भवति' दर्शनावरणशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नयनं-चक्षुस्तद्दर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं, चक्षुर्निमित्तसामान्योपयोगावरणमित्यर्थः । इतरदर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणं चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोदर्शनावरणमितियावत् । अवधिदर्शनावरणमंवधिसामान्योपयोगावरणं, एवं केवलदर्शनावरणमपि वाच्यम् । सातासातद्विभेदं च वेदनीयं ज्ञातव्यं - सातवेदनीयमसातवेदनीयं चेति । तत्राह्लादरूपेण यद्वेद्यते तत्सातवेदनीयं, यत् पुनः परितापरूपेण वेद्यते तदसातवेदनीयम् ॥६११ ॥ ગાથાર્થ:- અહીં દર્શનાવરણશબ્દ નયનઆદિ ચારેસાથે સંબંધિત છે. તેથી (૧) ચક્ષુદર્શનાવરણ (૨) અચક્ષુદર્શનાવરણ (૩)અવધિદર્શનાવરણ અને (૪)કેવળદર્શનાવરણ. આમ ચાર પ્રકારે દર્શનાવરણ છે. ચક્ષુદર્શનાવરણ એટલે આંખના નિમિત્તથી થતા સામાન્યબોધને અટકાવતું કર્મ. આંખસિવાયની ઇન્દ્રિયો અને મનથી થતા સામાન્યબોધને અટકાવતું કર્મ અચક્ષુદર્શનાવરણ. અવધિદર્શન (રૂપીદ્રવ્યસંબંધી આત્માને થતા સાક્ષાત્ સામાન્યબોધ) ને રોકતુ કર્મ અવધિદર્શનાવરણ છે. આ જ પ્રમાણે કેવળદર્શન (જગતના તમામ પદાર્થોના આત્માને થતા સામાન્યબોધ) ને રોકતુ કર્મ કેવળદર્શનાવરણ છે. આમ નિદ્રા (૫) + દર્શન (૪) = ૯ દર્શનાવરણની પ્રકૃતિ છે. હવે વેદનીયકર્મઅંગે કહે છે. વેદનીયકર્મ સાત અને અસાત એમ બે પ્રકૃતિવાળું છે. તેમા જે કર્મનો ઉદય આહ્લાદરૂપે અનુભવાય તે સાતવેદનીય કર્મ. અને જે કર્મનો ઉદય પરિતાપરૂપે અનુભવમાં આવે તે અસાતવેદનીય કર્મ. ૫૬૧૧॥ दुविहं च मोहणिज्जं दंसणमोहं चरित्तमोहं च । दंसणमोहं तिविहं सम्मेतरमीसवेदणीयं ॥६१२ ॥ (द्विविधं च मोहनीयं दर्शनमोहं चारित्रमोहं च । दर्शनमोहं त्रिविधं सम्यक्त्वेतरमिश्रवेदनीयम् ॥) - ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 30 * * * Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++भानु १३५++++++++++++++++++ द्वे विधे यस्य तत् द्विविधं, चः समुच्चये, मोहनीयं प्राङ्निरूपितशब्दार्थम्। द्वैविध्यमेवाह-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च । दर्शनं-सम्यग्दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् । एवं चारित्रमोहनीयमपि वाच्यम् । चारित्रंसावद्येतरयोगनिवृत्तिप्रवृत्तिलिङ्गमात्मपरिणामरूपम्। चः समुच्चये। तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिप्रकारम्- 'सम्यक्त्वेतरमिश्रवेदनीयम्' वेदनीयशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, तत्र सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यते तत्सम्यक्त्ववेदनीयम्, इतरत्-मिथ्यात्वं तेन रूपेण यद्वेद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयं, मिश्रग्रहणात् सम्यक्त्वमिथ्यात्वग्रहणं तेन रूपेण यद्वद्यते तत्सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीयम् । ननु सम्यक्त्ववेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयं ? न हि तत् दर्शनं मोहयति, तस्य दर्शनहेतुत्वात्, उच्यते, इह यतो निर्मदीकृतमदनकोद्रवकल्पमपगतमिथ्यात्वभावं मिथ्यात्ववेदनीयमेव सम्यक्त्ववेदनीयमुच्यते ततो मिथ्यात्वप्रकृतित्वात्कदाचिदतिचारसंभवेन तदपि दर्शनं मोहयत्येव, औपशमिकादिरूपं वा दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयमच्यत इत्यदोषः ॥१२॥ ગાથાર્થ:- (જેના બે પ્રકાર , તે દ્વિવિધ કહેવાય. મૂળમાં “ચ પદ સમુચ્ચયઅર્થક છે.) પૂર્વે સૂચવેલા રૂપવાળું મોહનીયકર્મ બે પ્રકારે છે. (૧) દર્શનમોહનીય અને (૨) ચારિત્રમોહનીય. તેમાં તત્વાર્થપર શ્રદ્ધારૂપ દર્શનને મોહ પમાડે તે સંબંધી મોહ પમાડે) તે દર્શનમોહનીયકર્મ. આ જ પ્રમાણે–ચારિત્રને મોહ પમાડે તે ચારિત્રમોહનીયકર્મ. અહીં ચારિત્ર સાવધેયોગમાંથી નિવૃત્તિથી અને નિરવધેયોગમાં પ્રવૃત્તિથી સૂચવાતા આત્મપરિણામરૂપ છે. (મૂળમાં બીજો “ચ” પણ સમુચ્ચયાર્થક છે) અહીં દર્શનમોહનીયકર્મ ત્રણ પ્રકારે છે. (૧) સમ્યકત્વવેદનીય (૨) મિથ્યાત્વવેદનીય અને (૩) મિશ્રવદનીય. તેમાં જે દર્શનમોહનીયકર્મ સમ્યકત્વરૂપે વેદાય છે– ઉદયમાં આવે છે તે સમ્યકત્વવેદનીય, જે મિથ્યાત્વરૂપે ઉદયમાં આવે, તે મિથ્યાત્વવેદનીય, અને જે મિશ્ર–સમ્યકત્વ-મિથ્યાત્વરૂપે ઉદયમાં આવે, તે સમ્યકત્વમિથ્યાત્વવેદનીય. શંકા:- સમ્યકત્વવેદનીય દર્શનમોહનીય કેવી રીતે ગણી શકાય? કેમ કે તે (સમ્યકત્વવેદનીય) કંઇ દર્શનમાં મોહ પમાડે નહિ બલ્ક દર્શનમાં કારણભૂત છે. સમાધાન:- જેમ, મદ વિનાના કરાયેલા મદનકોદ્રવ (મદઉત્પાદક કોદ્રવ) જ શુદ્ધકોદ્રવ કહેવાય છે, તેમ જેમાંથી મિથ્યાત્વભાવ દૂર કરાયો હોય તેવા મિથ્યાત્વવેદનીય કર્મલિકો જ સમ્યકત્વવેદનીય નામ પામે છે. તેથી મૂળભૂત મિથ્યાત્વપ્રકૃતિ હોવાના કારણે કદાચિત અતિચારનો સંભવ હોવાથી સમ્યકત્વવેદનીય પણ દર્શનમોહનીય જ છે. અથવા તો આ કર્મનો (સમ્યકત્વવેદનીયનો) ઉદય ઔપથમિક અને સાયિક સમ્યગ્દર્શનને અવરોધે છે. તેથી પણ તેને =સમ્યકત્વવેદનીયને) દર્શનમોહનીય કહી શકાય તેમાં કોઈ દોષ નથી.૬૧રા . दुविहं चरित्तमोहं कसाय तह णोकसायवेयणियं । सोलसनवभेदं पुण जहसंखं तं मुणेयव्वं ॥६१३॥ (द्विविधं चारित्रमोहं कषायस्तथा नोकषायवेदनीयम् । षोडशनवभेदं पुनर्यथासङ्ख्यं तद् ज्ञातव्यम् ॥ द्विविधं-द्विप्रकारं चारित्रमोहनीयं प्राङ्निरूपितशब्दार्थ-कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं च । तत्र क्रोधादिकषायस्पेण यद वेद्यते तत्कषायवेदनीयं. तथा स्त्रीवेदादिनोकषायस्पेण यद्वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयम । अनयोरेव भेदानाह'सोलसेत्यादि' षोडशभेदं कषायवेदनीयं नवभेदं नोकषायवेदनीयमिति ॥६१३॥ ગાથાર્થ:- પુર્વે સુચવેલા સ્વરૂપવાળું ચારિત્રમોહનીયકર્મ બે પ્રકારે છે. (૧) કષાયવેદનીય અને (૨) નોકષાયવેદનીય. તેમાં ક્રોધવગેરે કષાયરૂપે ઉદયમાં આવતું કર્મ કષાયવેદનીય છે. અને સ્ત્રીવેદઆદિ નોકષાયરૂપે ઉદયમાં આવતું કર્મ નોકષાયવેદનીય છે. આમાં કષાયવેદનીય સોળપ્રકારે અને નોકષાયવેદનીય નવપ્રકારે છે. ૬૧૩ तत्र कषायभेदानाहતેમાં કષાયના ભેદો બતાવે છે. अणअप्पच्चक्खाणपच्चक्खाणावरणा य संजलणा । कोहमाणमायलोभा पत्तेयं चउविकप्पत्ति ॥६१४॥ (अनंताप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणाश्च संज्वलनाः । क्रोधमानमायालोभाः प्रत्येकं चतुर्विकल्पा इति ॥) सूचनात् सूत्रमितिकृत्वा 'अण इति' अनन्तानुबन्धिनो गृह्यन्ते, तत्र पारम्पर्येण अनन्तं भवमनुबन्धन्तिअनुसंदधतीत्येवंशीला इत्यनन्तानुबन्धिनः, यद्यप्येतेषामन्यकषायरहितानामुदयो नास्ति तथाप्यवश्यमनन्तभवभ्रमणमूलकारणमिथ्यात्वोदयाक्षेपकत्वात्ते(देते)षामेवैतन्नाम, न पुनः सहभाव्युदयानामन्यकषायाणामपि, तेषामवश्यं मिथ्यात्वोदयाक्षेपकत्वा+++ * * * * * * * * * * * * * धर्मबल-ला३ - 31 * * * * * + + + + + + + + + + Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * * * * * * * * * * * * * * * भावात् । अविद्यमानप्रत्याख्याना अप्रत्याख्यानाः, देशप्रत्याख्यानं सर्वप्रत्याख्यानं च नैषामदये लभ्यते इतियावत । प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः, आङ् मर्यादायामीषदर्थे वा, तत्र मर्यादायां सर्वविरतिमावण्वन्ति न देशविरतिं, ईषदर्थे ईषत् सर्वविरतिलक्षणं प्रत्याख्यानं वृण्वन्ति न भूयो देशविरतिलक्षणं, भूयांसि हि देशविरतिप्रत्याख्यानानि, स्तोकादपि विरतस्य देशविरतिभावात् । चः समुच्चये । 'संजलणा' इति सम्शब्द ईषदर्थे, परीषहोपसर्गादिसंपाते चारित्रिणमपि ईषत् ज्वलयन्तीति संज्वलनाः । एवं क्रोधमानमायालोभाः प्रतीतस्वरूपाः प्रत्येकं चतुर्विकल्पा भवन्ति । क्रोधोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदाच्चतुर्विकल्पः, एवं मानादयोऽपीति । पश्चानुपूर्व्या च स्वरूपमेतेषामित्थमाहुः समयविदः"जलरेणुपुढविपव्वयराईसरिसो चउब्विहो कोहो। तिणिसलयाकट्ठट्ठियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ मायाऽवलेहिगोमुत्तिमिंढसिंगघणवंसिमूलसमा। लोहो हलिहखंजणकद्दमकिमिरागसारिच्छो ॥२॥ पक्खचउम्माससंवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो #મો | વનરતિરિયનાયડ્રહાદેયવો માયા //રૂ II” (છા. નતરેyપૃથિવીપર્વતરાનશશ્ચતુર્વિધ શોધઃ | નિશलताकाष्ठास्थिकशैलस्तम्भोपमो मानः ॥१॥ मायावलेखिकागोमूत्रिकामेषशृङ्गघनवंशीमूलसमा । लोभो हरिद्राखञ्जनकर्दमकृमिरागसदृक्षः ॥२॥ पक्षचतुर्माससंवत्सरयावज्जीवानुगामिनः क्रमशः । देवनरतिर्यग्नारकगतिसाधनहेतवो भणिताः ॥३॥ इति ॥६१४॥ ગાથાર્થ:- (સૂત્ર સૂચનાત્મક હોય છે. તેથી મૂળમાં “અણ' શબ્દથી “અનંતાનુબન્ધી’ ગ્રહણ થાય છે.) પરંપરાથી અનંત ભવોનું અનુસંધાન કરવાના સ્વભાવવાળા કષાય અનંતાનુબંધી કહેવાય. અલબત્ત, આ કષાયનો અપ્રત્યાખ્યાનાવરણવગેરે બીજી કષાયોથી રહિત ઉદય નથી–એ બધાની સાથે જ ઉદય છે. છતાં પણ અનન્તભાવોમાં ભ્રમણના મૂળકારણભૂત મિથ્યાત્વના ઉદયમાં આ જ (અનંતાનુબંધી) જ કારણ છે. તેથી આ કષાયો જ અનંતાનુબંધીતરીકે ઓળખ પામે છે, નહિ કે સાથે ઉદય પામેલા બીજા કષાયો પણ. કેમકે બીજા કષાયો મિથ્યાત્વમોહનીયના ઉદયના આક્ષેપક નથી. (ઉપશમસમકતના કાળમાં અનંતાનુબંધીનો ઉદય થાય, તો બીજા સાસાદનગુણસ્થાને અલ્પકાળ રહ્યું અવશ્ય મિથ્યાત્વ ઉદયમાં આવે. અનંતાનુબંધીની વિસંયોજના અને સાસાદનગણસ્થાને અનંતાનુબંધીનો ઉદય આ બેને અપેક્ષીને અતિઅલ્પકાળને છોડી બાકી હંમેશા મિથ્યાત્વ અને અનંતાનુબંધીનો બંધ અને ઉદય સાથે હોય છે. જયારે બીજી કષાયોના બંધ અને ઉદય મિથ્યાત્વસિવાયની અવસ્થાઓમાં પણ લાંબાકાળમાટે હોય છે.). જેમાં અલ્પ પણ પ્રત્યાખ્યાન નથી તે અપ્રત્યાખ્યાન. આ કષાયના ઉદયે દેશવિરતિ કે સર્વવિરતિ પામી શકાતી નથી. પ્રત્યાખ્યાનનું જે આવરણ કરે તે કષાય પ્રત્યાખ્યાનાવરણકષાય. ‘આ’ ઉપસર્ગ મર્યાદાઅર્થ અથવાઅલ્પતાસૂચક છે. તેમાં “આવું ધાતુથી બનેલા “આવરણ' શબ્દમાં જ “આ મર્યાદાસૂચક અર્થમાં લઇએ, તો આ કષાય સર્વવિરતિને રોકે છે, દેશવિરતિને નહિ એવો મર્યાદાસુચક અર્થ કરવો. અને જો “આનો અર્થ અલ્પ કરીએ, તો સર્વવિરતિરૂ૫ અલ્પ પ્રત્યાખ્યાનને રોકે, નહીં કે દેશવિરતિરૂપ અનલ્પ પ્રત્યાખ્યાનને તે પ્રત્યાખ્યાનાવરણકષાય. દેશવિરતિસંબંધી પ્રત્યાખ્યાનોના અનેક પ્રકાર છે. અત્યંત અલ્પપાપથી વિરત થયેલા પણ દેશવિરત ગણાય છે. (અહીં અલ્પતા-અધિકતા પ્રત્યાખ્યાનોની સંખ્યાને અપેકીને છે. સર્વવિરતિપચ્ચખ્ખાણ સર્વથા સંયમરૂપ હોવાથી એક પ્રકારે જ છે. જયારે દેશવિરતિપચ્ચખાણ અનેકાનેક વિકલ્પોવાળું છે. મૂળમાં “ચ પદ સમુચ્ચયઅર્થે છે.) સંજવલના' અહીં ‘સમ' શબ્દ અલ્પતાધોતક છે. પરિષહ, ઉપસર્ગો વગેરે આવવાથી સાધુને પણ કંઇક અંશે સળગાવે છે (=કષાયયુક્ત કરે છે) તે સંજવલનકષાય કહેવાય. ક્રોધ, માન, માયા અને લોભનું સ્વરૂપ પ્રતીત છે. આ ક્રોધ, અનંતાનુબંધી, અપ્રત્યાખ્યાન, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ અને સંજવલન એમ ચાર પ્રકારે છે. આ જ પ્રમાણે માન, માયા, અને લોભ આ પ્રત્યેક પણ અનંતાનુબંધીઆદિ ચાર પ્રકારે છે. સિદ્ધાન્તજ્ઞો ક્રોધ આદિના ચાર વિકલ્પનું પશ્ચિમાનપૂર્વથી આવું સ્વરૂપ બતાવે છે. કષાય ' કોંધ માન માયા કાળ પ્રાપક સંજવલન પાણીમાં રેખા નેતરની સોટી વાંસની છોળ હળદરનો રંગ ૧૫ દિવસ દેવગતિ પ્રત્યાખ્યાનાવરણ રેતીમાં રેખા લાકડાનો સ્તંભ ગોમૂત્રિકા કાજળનો રંગ ચારમાસ મનુષ્યગતિ અપ્રત્યાખ્યાન પૃથ્વીમાં ફાટ હાડકાનો થાંભલો ઘેટાના શિંગડા ગાડાની મસી ૧ વર્ષ તિર્યંચગતિ અનંતાનુબંધી પર્વતમાં ફાટ શિલાનો સ્તંભ વાંસના મૂળ કૃમિરાગ માવજજીવ નરક ગતિ. अधुना नोकषायभेदानाहહવે નોકષાયના ભેદો બતાવે છે. इत्थीपुरिसनपुंसगवेदतिगं चेव होइ नायव्वं ।। हासरतिअरतिभयं सोगदुगुंछा य छक्कंति ॥६१५॥ (स्त्रीपुरूषनपुंसकवेदत्रिकं चैव भवति ज्ञातव्यम् । हास्यरत्यरतिभयं शोकजुगुप्से च षट्कमिति ॥ લોભ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 32 * * * * * * * * * * * * * * * Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + + + + + + + + + + + + + + + + + र्भानु ५१३५ + + + + + + + + + + + + + + + + + + स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदत्रिकं चैव भवति ज्ञातव्यं नोकषायभेदत्वेन, तत्र यदुदयेन स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः पित्तोदये मधुरद्रव्याभिलाषवत् स फुफुकाग्निसमः स्त्रीवेदः, यदुदयाच्च पुंसः स्त्रियामभिलाषः श्लेष्मोदये अम्लद्रव्याभिलाषवत् स तृणज्वालासमानः पुंवेदः, यदुदयेन पण्डकस्योभयोरपि स्त्रीपुंसयोरभिलाषः श्लेष्मपित्तोदये मज्जिकाभिलाषवत् स महानगरदाहसदृशो नपुंसकवेदः । हास्यं रतिररतिर्भयं शोको जुगुप्सा चेति षट्कं, एतेऽपि नोकषायभेदाः, तत्र यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्यवेदनीयं, यदुदयेन बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिरुपजायते तद् रतिवेदनीयम्, एतेष्वेव यदुदयादप्रीतिरुपजायते तद् अरतिवेदनीयं, यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा भयमुपगच्छति तत् भयवेदनीयं, यद्वशाच्च प्रियविप्रयोगादिपीडितचित्तः सन् परिदेवनादि करोति तत् शोकवेदनीयं, यस्योदयेन पुनः पुरीषादिबीभत्सपदार्थेषु जुगुप्सावान् भवति तत् जुगुप्सावेदनीयम् । नोकषायता चामीषामाद्यकषायद्वादशकसहचरितत्वात् इष्टव्या, नोशब्दस्येह सहचरार्थत्वात्, न हि क्षीणेषु द्वादशसु कषायेष्वमीषां भावो विद्यत इति ॥६१५॥ - ગાથાર્થ:- સ્ત્રી, પુરૂષ અને નપુંસક વેદ-આ વેદત્રિક નોકષાયના ત્રણ ભેદ છે. જેના ઉદયથી સ્ત્રીને પુરૂષઅંગે અભિલાષ થાય, તે સ્ત્રીવેદ. જેમકે પિત્તના ઉદયવખતે મધુરદ્રવ્યનો અભિલાષ થાય છે. આ વેદ કુંકુમ (લીંડીમાં રહેલા) અગ્નિ જેવો છે. જે વેદના ઉદયથી પુરુષને સ્ત્રીઅંગે અભિલાષ થાય તે પુરૂષવેદ, જેમકે કફના ઉદયે આસ્લ= ખાટાદ્રવ્યની અભિલાષા થાય છે. આ વેદ નુણના અગ્નિસમાન છે. જે વેદના ઉદયથી નપુંસકને સ્ત્રી-પુરુષ ઊભયઅંગે અભિલાષ થાય, તે નપુંસકવેદ, જેમકે પિત્ત અને કફ ઉભયના ઉદયવખતે મજિજકાનો અભિલાષ થાય છે. આ વેદ મોટી નગરીના દહાલ્ય છે. (१) खस्य, (२)ति (3) सशत (४)मय (५) शो अने (६) शुशुप्सा सस्य५२६ नामे प्रसिप छे. अने નોકષાયના ભેદ છે. તેમાં જે કર્મના ઉદયથી કારણે કે કારણ વિના હસવું આવે, તે હાસ્યવેદનીયકર્મ. જે કર્મના ઉદયથી બાહ્ય અને આત્યંતર વસ્તુઓ પર પ્રીતિ ઉત્પન્ન થાય, તે રતિવેદનીયકર્મ. જે કર્મના ઉદયથી એ જ બાહ્ય-આત્યંતર વસ્તુઓ પર અપ્રીતિ ઊભી થાય, તે અરતિવેદનીયકર્મ. જે કર્મના ઉદયે કારણે કે કારણ વિના ભય પામે, તે ભયવેદનીયકર્મ. જે કર્મના વશથી જીવ ઈષ્ટવિયોગવગેરેથી દુભાયેલા ચિત્તવાળો થઈને પરિદેવનવગેરે (ધીમું રોવું વગેરે) કરે તે શોકવેદનીય. જેના ઉદયે વિષ્ઠા વગેરે ગન્દાપદાર્થો પ્રતિ જીવ જગપ્સાવાળો થાય તે જગસાવેદનીયકર્મ. આ નવ (ત્રણ વેદ+ હાસ્યષટક), આધે બાર કષાય (અનંતાનુબંધી, અપ્રત્યાખ્યાન, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કોધ, માન, માયા, લોભ) ના સહચારી હોવાથી નોકષાયતરીકે ઓળખાય છે. કેમકે અહીં નો શબ્દ સહચરઅર્થમાં છે. આ બાર કષાય ક્ષય પામે પછી આ બધા ( નોકષાય) રહેતા नथी. ॥१॥ ___ आउं च एत्थ कम्मं चउव्विहं नवरि होति नायव्वं । नारयतिरियनरामरगतिभेदविभागतो जाण ॥६१६॥ (आयुः चात्रे कर्म चतुर्विधं नवरं भवति ज्ञातव्यम् । नारकतिर्यनरामरगतिभेदविभागतो जानीहि ॥ आयुः प्राग्निरूपितशब्दार्थम् अत्र-विचार प्रक्रमे कर्म चतुर्विधं नवरं भवति ज्ञातव्यम्, नवरमिति निपातः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः। चातुर्विध्यमेव कथयति- 'नारगेत्यादि नारकतिर्यङ्नरामरगतिविभागभेदतो 'जाणत्ति' जानीहि तच्चातुर्विध्यम, तद्यथा-नारकायुस्तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्देवायुश्चेति ॥६१६॥ ગાથાર્થ:- “આયુષ્ય શબ્દનો અર્થ પૂર્વે બતાવ્યો છે. પ્રસ્તુત તે-તે કર્મના ભેદોના વિચારમાં આ આયુષ્યકર્મ ચાર પ્રકારે छ. (न१२' २०६ नि छे. अने प्रत्येउन अने पेटमेनुसूय छे.) आयुध्यना यार घर बतावे छे. - ना२३ त्याहि. (१) ना२४ (२)तियय (3) मनुष्य अने (४)११ आम आयुष्यभ यार प्रहार छे. ॥६१६॥ नाम दुचत्तभेदं गतिजातिसरीरअंगुवंगे य । बंधण संघायणसंघयणा संठाण णामं च ॥६१७॥ (नाम द्विचत्वारिंशभेदं गतिजातिशरीरांगोपाङ्गानि च । बंधनसंघातनसंहननाः संस्थाननाम च ॥ नाम प्रागुक्तशब्दार्थं द्विचत्वारिंशत्प्रकारम्, तानेव प्रकारानाह- 'गइइत्यादि' गतिनाम गम्यते तथाविधकर्मसचिवैर्जीवैः प्राप्यत इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्युपचाराद्गतिः सैव नाम गतिनाम । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् । जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिजात्युत्पत्तिः । ननु च स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमादेकेन्द्रियादित्वं तत्कथं जातिनामहेतुकं तदुच्यत इति · ? नैष दोषः, स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमस्य स्पर्शनादीन्द्रियोपयोगं प्रत्येव हेतुत्वात्, ++++++++++++++++life- - 33+++++++++++++++ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * * * * * * * * * * * * * * * जातिनाम्नस्तु एकेन्द्रियादिसंज्ञाप्रवृत्तिनिमित्तभूततथास्पसमानपरिणतिलक्षणसामान्यहेतुत्वादिति। शरीरनाम यदुदयाद् औदारिकादिशरीरभावः । अङ्गोपाङ्गनाम यदुदयादङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिः । तत्र शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि, अङ्गुल्यादीनि उपाङ्गानि, अङ्गुलिपर्वरेखादीनि चाङ्गोपाङ्गानि, उक्तं च- "सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊस्या य अटुंगा । अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाई सेसाइं ॥१॥" (छा. शीर्षमुरउदरपृष्ठानि द्वौ बाहू ऊरू को चाष्टाङ्गानि । अङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानि अङ्गोपाङ्गानि शेषाणि ॥) बन्धननाम : यत्सर्वात्मप्रदेशैर्गृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानामन्योऽन्यमन्यशरीरैर्वा संबन्धजनकं जतुकल्पम् । संघातननाम यदुदयादौदारिकादिशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणे सति शरीररचना भवति । संहनननाम यदुदयाद् वज्रर्षभनाराचादिसंहनननिष्पत्तिर्भवति । संस्थाननाम समचतरसादिसंस्थानकारणम । चः समच्चये ॥१७॥ ગાથાર્થ:- “નામ શબ્દનો અર્થ પૂર્વે દર્શાવ્યો છે. આ નામકર્મ બેતાલીસપ્રકારે છે. તે આ પ્રમાણે (૧) ગતિનામકર્મ તેવા પ્રકારના કર્મના સહકારથી જીવવડે પ્રાપ્ત કરાતો નારકત્વઆદિ પરિણામ ગતિ કહેવાય. આ ગતિરૂપ વિપાકથી વેદાતી (ગતિરૂ૫ ફળ આપતી) કર્મપ્રકતિ પણ ઉપચારથી “ગતિ તરીકે ઓળખાય છે. આ ગતિ જ જેનું નામ છે તે ગતિનામકર્મ. આમ અન્યત્ર પણ સમજવું. (૨) જાતિનામ- જે કર્મના ઉદયથી એકેન્દ્રિયવગેરે જાતિમાં ઉત્પત્તિ થાય તે જાતિનામકર્મ. શંકા:- એકેન્દ્રિયપણું વગેરે સ્પર્શનઆદિ ઇન્દ્રિયાવરણના ક્ષયોપશમથી પ્રાપ્ત થાય. (સ્પર્શનાદિ ભાવેદ્રિયોના લયોપશમથી એકેન્દ્રિય આદિપણું પ્રાપ્ત થાય. આ ક્ષયોપશમ મતિજ્ઞાનાવરણના કયોપશમરૂપ છે તેથી એકેન્દ્રિયપણુંઆદિની પ્રાપ્તિમાં જ્ઞાનાવરણનો લયોપશમ કારણ છે, નહિ કે જાતિનામકર્મનો ઉદય. આવો શંકાનો આશય છે.) તેથી એકેન્દ્રિયપણુંઆદિની પ્રાપ્તિમાં જાતિનામકર્મ હેત કેવી રીતે કહેવાય? સમાધાન:- અહીં દોષ નથી. સ્પર્શઆદિઇન્દ્રિયના આવરણનો કયોપશમ સ્પર્શનઆદિઇન્દ્રિયના ઉપયોગ પ્રત્યે જ કારણ છે. જયારે એકેન્દ્રિયઆદિ સંજ્ઞામાં પ્રવૃત્તિનિમિત્ત (તેવી તેવી સંજ્ઞા પડવામાં કારણભૂત) તેવા પ્રકારની સમાનપરિણિતિરૂપ સામાન્ય છે. અને આ સામાન્યમાં જતિનામકર્મ કારણભૂત છે. (ઈન્દ્રિયના બે પ્રકાર (૧)દ્રવ્યેન્દ્રિય અને (૨) ભાવેદ્રિય. તેમાં દ્રવ્યેન્દ્રિય પુળમય છે. એના બે ભેદ. (૧) નિવૃત્તિ-ઈન્દ્રિયની બાહરચનાદિરૂપ (૨) ઉપકરણ- એ ઇન્દ્રિયની સ્વવિષયને પકડવાની શક્તિરૂપ. ઇન્દ્રિયના નિવૃતિભેદની પ્રાપ્તિ માટે ગતિ, જાતિ, શરીર, અંગોપાંગાદિ નામકર્મોના તેવાતેવા ઉદયની અપેક્ષા રહે છે. ઉપકરણેન્દ્રિયનો મુખ્યઆધાર પર્યાપ્તિનામકર્મપર છે. આમ દ્રવ્યેન્દ્રિયની પ્રાપ્તિ નામકર્મપર અવલંબિત છે. ભાવેન્દ્રિય મતિજ્ઞાનરૂપ છે. તેના (૧) લક્ષિયોપશમ અને (૨) ઉ૫યોગ- વિષયાવબોધરૂપ બે ભેદ છે. દ્રવ્યેન્દ્રિય ભાવેન્દ્રિયનો ઉપષ્ટભક છે. બેન્દ્રિય બાહ્યરચનાદિ અને બાલવ્યવહારમાં ઉપયોગી છે. ભાવેદ્રિય આંતરિક છે. વ્યક્તિગત છે. દ્રવ્યેન્દ્રિય ભાવેન્દ્રિયમાટે સહાયક હોવા છતાં બન્ને વચ્ચે સાહચર્યરૂપ કે કાર્યકારણભાવરૂપ વ્યાપ્તિ નથી. ઘણા આંખ, કાનઆદિ દ્રવ્યેન્દ્રિયથી યુક્ત હોવા છતાં આધળા-બહેરા હોય છે. તો વનસ્પતિ એક જ દ્રવ્યેન્દ્રિય ધરાવતી હોવા છતાં પાંચેય ભાવેદ્રિયોનો અલગ-અલગ વનસ્પતિની અપેક્ષાએ સદ્ભાવ શાસ્ત્રમાન્ય છે. વનસ્પતિમાં આમ પાંચે ભાવેન્દ્રિય સંભવિત હોવા છતાં તે એકેન્દ્રિયતરીકે વ્યવહાર પામે છે, અને આંધળો–બહેરો માનવ પાંચેય ભાવેદ્રિય ન હોવા છતાં પંચેન્દ્રિયનો વ્યવહાર પામે છે. આ મુદ્દાથી નિશ્ચિત થાય છે કે એકેન્દ્રિયાદિવ્યવહારમાં મતિજ્ઞાનાવરણના કયોપશમાદિરૂપ ભાવેન્દ્રિય કારણ નથી. એ જ પ્રમાણે “ગતિ નામકર્મ પણ કારણ નથી. કેમકે “ગતિ નામકર્મ તો પંચેન્દ્રિય પશુથી માંડી એકેન્દ્રિય પૃથ્વી સુધી બધાને તિર્યંચગતિ રૂપે ઓળખાવે છે. ઔઘરિકશરીરાદિ નામકર્મ તો માનવમાટે પણ છે. પર્યાપ્તિ' નું કાર્ય ઉપકરણઅંગે છે. અને કાનવગેરેની ઉપકરણશક્તિથી હણાયેલો પણ પંચેન્દ્રિય માનવ ગણી શકાય છે. ઘણાને આંખ, કાનાદિ નિર્વત્તિરૂપ દ્રવ્યેન્દ્રિય પણ કર્મોની તથા વિચિત્રતાના કારણે મળતી નથી.- આકાર પણ ન મળે. છતાં તે પંચેન્દ્રિય ગણાય છે. તેથી અંગોપાંગનામકર્મ પણ અહીં ઉપેક્ય છે. એટલે માનવું પડશે કે પૃથ્વી આદિરૂપે ભિન્ન પડતા એકઈન્દ્રિયવાળા જીવોમાં પ્રાયઃ સામનપે અપકષ્ટ ચૈતન્ય ધરાવવાના કારણે “એકેન્દ્રિય' તરીકેના સમાનબોધમાં કારણભૂત અને “બે ઇન્દ્રિય' આદિ જીવોથી ભિન્નતાનો અનુભવ કરાવતો જે નિશ્ચિત બોધ અને વ્યવહાર થાય છે, એમાં કારણભૂત કો'ક કર્મ હોવું જોઇએ. આ કર્મ એટલે જ પતિનામકર્મ. માનવમાં આંધળા બહેરા તરીકે ઓળખ-વ્યવહારમાં મુખ્યતયા ભાવેન્દ્રિયની ખામી અને ઉપકરણેન્દ્રિયની અશક્તિ કારણ બને છે.) (૩) જે કર્મના ઉદયથી ઔદારિકઆદિ શરીરની પ્રાપ્તિ થાય તે શરીરનામકર્મ.(૪) જે કર્મના ઉદયથી અંગોપાંગની નિષ્પત્તિ થાય તે અંગોપાંગનામકર્મ છે. તેમાં મસ્તકવગેરે અંગો છે. આંગળીવગેરે ઉપાંગ છે. અને આંગળીના પર્વ અને રેખાવગેરે અંગોપાંગ છે. કઈ છે કે અમાથું છાતી, પેટ, પીઠ બે હાથ અને બે સાથળ આ આઠ અંગ છે.આંગળી વગેરે ઉપાંગ છે. અને બાકીના અંગોપાંગ છે (૫) સર્વઆત્મપ્રદેશોથી ગ્રહણ કરેલા અને ગ્રહણ કરાતા પુગળોનો અન્યોન્ય અથવા અન્ય શરીરો સાથે (ઔદારિકશરીરનું તેજસશરીર સાથે ઇત્યાદિ સમજવાનું. દરેક જીવને બે, ત્રણ આદિ શરીર સંભવે છે.) સમ્બન્ધનું જનક લાખતુલ્ય બન્ધનનામકર્મ છે. (૬) સંઘાતનનામકર્મ:- જે કર્મના ઉદયથી ઔદારિકઆદિ શરીરયોગ્ય પુગળો ગ્રહણ થવાથી શરીરરચના થાય છે, તે સંઘાતનનામકર્મ. (૭) સંવનનનામકર્મ- જે કર્મના ઉદયથી વજૂઋષભનારાચઆદિ સંઘયણ નિષ્પન્ન થાય તે સંધયણનામકર્મ. (૮) સંસ્થાનનામકર્મ:- જે કર્મના ઉદયથી સમચતુરઐઆદિસંસ્થાન પ્રાપ્ત થાય તે સંસ્થાનનામકર્મ. (ચપદ સમુચ્ચયઅર્થક છે.) ૬૧ળા * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨, - 34 * * * * * * * * * * * * * * * Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++ ++++++++ + भा १३५++++ + + + + ++ + + + + + + ++ तह वन्नगंधरसफासणाममगुस्लघू य बोद्धव्वं । . उवघायपराघाताणुपुव्विउस्सासनामं च ॥६१८॥ (तथा वर्णगन्धरसस्पर्शनाम अगुस्लघु च बोद्धव्यम् । उपघातपराघातानुपूर्विउच्छ्वासनाम च ॥ तथा वर्णनाम यदुदयात्कृष्णवर्णादिनिष्पत्तिर्भवति । गन्धनाम सुरभिगन्धदुरभिगन्धनिबन्धनम् । रसनाम तिक्तादिरसकारणम् । स्पर्शनाम यद्वशात् कर्कशादिस्पर्शनिष्पत्तिः । अगुरुलघु च बोद्धव्यमिति, अगुस्लघुनाम यदुदयात् स्वजात्यपेक्षया नैकान्तेन गुापि लघुर्देहो भवति, एकान्तगुस्त्वादिसद्भावे हि सदा निमज्जनोर्ध्वगमनप्रसङ्गः । उपघातनाम यदुदयात् स्वशरीरावयवैरेव प्रतिजिह्वालम्बकगलवृन्दचोरदन्तादिभिः प्रवर्त्तमानैर्जन्तुरुपहन्यते । पराघातनाम यदुदयादोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति । आनुपूर्वीनाम यदुदयादपान्तरालगतौ नियतदेशमनुसृत्य अनुश्रेणिगमनं भवति, नियत एवाङ्गविन्यास इत्यन्ये । उच्छासनाम यदुदयादुच्छासनिःश्वासौ भवतः । ननु यदि उच्छासनामकर्मोदयाद् उच्छासनिःश्वासौ तत उच्छासपर्याप्तिनाम्नः क्वोपयोग इति? उच्यते. उच्छासपर्याप्तिर्हि उच्छासनामकर्मोदयस्य उच्छासनिःश्वासौ निष्पादयतः सहकारिकारणमिषक्षेपणशक्तिमतो धनुर्ग्रहशक्तिवत्, ततो भिन्नविषयतेति न कश्चिद्दोषः । एवमन्यत्रापि भिन्नविषयता सूक्ष्मधिया यथायोगमायोजनीया । चः समुच्चये ॥६१८॥ थार्थ:- (C) पनाम:- धन यथी श्यामहिवर्ष (३५)नी प्राप्ति थाय ते वर्णनाम. (१०) आन्धनम:જે કર્મ સગન્ધ કે દુર્ગન્ધમાં કારણ બને છે. (૧૧) રસનામ:- કડવાદિ રસમાં કારણભૂત કર્મ. (૧૨) સ્પર્શનામ:- કર્કશાદિ સ્પર્શમાં કારણભૂત કર્મ. (૧૩) અગુરુલઘુનામ- જેના ઉદયથી સ્વાતિની અપેક્ષાએ અત્યંત ભારે પણ નહિ અને અત્યંત હલકો પણ નહિ એવો દેહ મળે. એકાન્ત ભારે હૈય, તો સદા અધોગતિ થાય, અને એકાત્તે હલકો દેહ હોય, તો સઘ ઊર્ધ્વગતિ થાય, જે બન્ને અનિષ્ટપ્રસંગરૂપ છે. (૧૪) ઉપઘાતનામ:- જે કર્મના ઉદયથી પ્રતિજીભ, આલમ્બક, ગળવુ, ચોરદાંત વગેરે પ્રવૃત થયેલા પોતાના શરીરના અવયવોથી જ જીવ પીડા પામે, તે ઉપધાતનામકર્મ. (૧૫) પરાઘાત:- જેના ઉદયથી ઓજસ્વી બને, અને મોટારાજાની સભામાં પણ રાજસભ્યોને પણ પોતાના દર્શન માત્ર કે વાણીની ચતરાઇથી લોભ પમાડે અને પ્રતિવાદીની પ્રતિભાનું ખંડન કરે તે પરાઘાતનામકર્મ. (૧૬) આનુપૂર્વીઝ જે કર્મના ઉદયથી વિગ્રહગતિમાં (એકભવમાંથી બીજા ભવમાં જતાં) નિયતદેશને અનુસાર આકાશપ્રદેશોની શ્રેણિને અનુરૂપ ગમન થાય, તે આનપૂર્વનામકર્મ. બીજાઓના મતે નિયત પ્રકારની અંગરચના જ આનપૂર્વી છે. (૧૭) ઉચ્છ વાસ:- જે કર્મના ઉદયથી ઉચ્છવાસ-નિસ્વાસ થાય, તે ઉચ્છવાસ नाम. શંકા:- જો ઉચ્છવાસનામકર્મના ઉદયથી ઉચ્છવાસ-નિશ્વાસ હોય, તો ઉચ્છવાસપર્યાપ્તિનામકર્મનો (પર્યાખનામઅંતર્ગત એક પર્યાપ્તિ) નો ઉપયોગ કર્યો થશે? સમાધાન:- ઉચ્છવાસનામકર્મનો ઉદય ઉચ્છવાસ–નિસ્વાસનું નિષ્પાદન કરે છે અને ઉચ્છવાસપર્યાપ્તિ તેમાં સહકારી કારણ બને છે. જેમકે, બાણ ફેંકવાની શક્તિવાળાને ધનુષ્ય ગ્રહણ કરવાની શક્તિ ધ્યેય છે. (અર્થાત ઉચ્છવાસપર્યાપ્તિથી ઉચ્છવાસનિગ્લાસશક્તિ ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉચ્છવાસનામકર્મના ઉદયથી ઉચ્છવાસ નિસ્વાસકિયા થાય છે.) આમ બન્નેના વિષયો જૂદા છે, તેથી દોષ નથી. આ જ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ ભિન્નવિષયતા સૂક્ષ્મબુદ્ધિથી યથાયોગ્ય વિચારવી. (ચ પદ સમુચ્ચયઅર્થક છે.)u૬૧૮ आतवउज्जोव (त) विहागती य तसथावराभिहाणं च । बायरसुहमं पज्जत्तापज्जत्तं च नायव्वं ॥६१९॥ (आतपोद्योतविहायोगतयश्च त्रसस्थावराभिधानं च । बादरसूक्ष्मं पर्याप्तापर्याप्तं च ज्ञातव्यम् ॥) आतपनाम यदुदयात् जन्तुशरीरं स्वयमनुष्णं सत् आतपं करोति, तदुदयश्च पार्थिवशरीरेष्वेव आदित्यमण्डलगतेष। उद्योतनाम यदुदये जन्तुशरीरमनुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं करोति, यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रग्रहनक्षत्रताराविमानमणिरत्नौषधिप्रभृतयः । विहायोगतिनाम यदुदयाच्चङ्करमणं प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधं भवति, तत्र प्रशस्तं हंसगजादीनामप्रशस्तमुष्ट्रादीनाम् । त्रसनाम यदुदयाच्चलनस्य(प?)न्दने भवतः, चङ्क्रमणमेवान्ये । स्थावरनाम यदुदयादचलनस्य(प?) न्दनो भवति, चङ्करमणरहित एवान्ये । चः समुच्चये । बादरनाम यदुदयाद्वादरो भवति स्थूर इत्यर्थः । सूक्ष्मनाम यदुदयात् ++++++++++++++++ de-M २-35+++++++ 44444 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * सूक्ष्मो भवति । पर्याप्तकनाम यदुदयात्सर्वपर्याप्तिनिष्पत्तिर्भवति । अपर्याप्तकं च ज्ञातव्यमिति, अपर्याप्तकनाम उक्तविपरीतं, यदुदयात्संपूर्णपर्याप्त्यनिष्पत्तिर्भवति, अपर्याप्तका अपि च आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिभिः पर्याप्ता एव म्रियन्ते यस्मात्सर्व एव देहिन आगामिभवायुर्बद्ध्वा म्रियन्ते नाबद्ध्वा तच्चायुर्बध्यते आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेवेति ॥ ६१९ ॥ ગાથાર્થ:- (૧૮) આતપનામ:- જે કર્મના ઉદયથી જીવનું સ્વયં શીતશરીર પણ ઉષ્ણ તાપ ફેલાવે તે આતપનામકર્મ. આ કર્મનો ઉદય સૂર્યમંડળના પૃથ્વીકાયિક જીવોને જ હોય. (૧૯) ઉદ્યોતનામ:- જે કર્મના ઉદયમા જીવનું શરીર અનુષ્ણ (=શીતલ) પ્રકાશાત્મક ઉદ્યોત કરે તે ઉદ્યોતનામકર્મ છે. જેમકે સાધુ અને દેવનુ ઉત્તરવૈક્રિય શરીર, ચન્દ્ર, ગ્રહ, નક્ષત્ર અને તારાના વિમાનના મણિ, રત્ન, ઔષધિવગેરે. (૨૦)વિહાયોગતિનામ:- જે કર્મના ઉદયથી ચાલવાની ઢબ સારી-નરસી એમ બે પ્રકારે થાય છે. તેમા હંસ, જીથી, વગેરેની ચાલ સારી છે. ઊંટવગેરેની ખરાબ. (૨૧) ત્રસનામ:-જે કર્મના ઉદયથી ગતિ અને સ્પન્દન (ઝરવુંઅથવા સ્પંદન-ફરકવું) થાય, બીજાના મતે માત્ર ગમન જ થાય. (૨૨) સ્થાવર:- જે કર્મના ઉદયથી ચલન કે સ્પંદન (કે સ્પંદન) ન થાય, બીજામતે માત્ર ગમન ન થઇ શકે તે સ્થાવરનામકર્મ. (ચ' સમુચ્ચયઅર્થક છે.) (૨૩) બાદર:–જે કર્મના ઉદયથી બાદર-સ્થૂળ શરીર મળે (એક કે સમુદાયરૂપે ઇન્દ્રિયગોચર બનતું શરીર બાદર કહેવાય.) (૨૪) સૂક્ષ્મ:-જે કર્મના ઉદયથી સૂક્ષ્મ શરીર બને તે. (આ નામકર્મના ઉદયવાળા અસંખ્યશરીર ભેગા થાય, તો પણ ઇન્દ્રિયગોચર બને નહિ. (૨૫) પર્યાપ્તનામ:- જે કર્મના ઉદયથી જીવ સ્વયોગ્ય બધી પર્યાપ્તિઓ પૂર્ણ કરે, તે પર્યાપ્તનામકર્મ. (એકેન્દ્રિયને સ્વયોગ્ય ચાર, વિકલેન્દ્રિય તથા અસશીપંચેન્દ્રિયને સ્વયોગ્ય પાંચ અને સશીપંચેન્દ્રિયને સ્વયોગ્ય છ પર્યાપ્તિ છે.) (૨૬) અપર્યાપ્તનામ:- અપર્યાપ્તનામકર્મ ઉપરોક્તથી વિપરીત છે. અર્થાત્ જે કર્મના ઉદયથી સ્વપ્રાયોગ્ય બધી પર્યાપ્તિઓ પૂર્ણ કર્યા વિના જ જીવ મોત પામે. અપર્યાપ્તજીવો પણ આાર, શરીર અને ઇન્દ્રિય આ ત્રણ પર્યાપ્તિ પૂર્ણ કરીને જ મરે. કારણ કે બધા જ જીવો પછીના ભવનું આયુષ્ય બાંધીને જ મરે, અને આયુષ્યનો બંધ આહાર, શરી૨, ઇન્દ્રિય આ ત્રણ પર્યાપ્તિથી પૂર્ણ થયેલાને જ હોય. ૫૬૧૯લા पत्तेयं साहारणथिरमथिरसुभासुभं च नायव्वं । सुभगदूभगनामं सूसर तह दूसरं चेव ॥ ६२०॥ (प्रत्येकं साधारणस्थिरमस्थिरशुभाशुभं च ज्ञातव्यम् । सुभगदुर्भगनाम सुस्वरं तथा दुःस्वरं चैव ॥) प्रत्येकनाम यदुदयादेको जीव एकं शरीरं निर्वर्त्तयति । साधारणनाम यस्योदयादनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति । स्थिरनाम यदुदयात् शरीरावयवानां दन्तास्थिप्रभृतीनामचलता भवति । अस्थिरनाम यदुदयात्तदवयवा जिह्वाकर्णादीनां चपलता भवति । शुभाशुभं च ज्ञातव्यमिति, शुभनाम यदुदयेन शरीरावयवानां शिरःप्रभृतीनां शुभता भवति, अशुभनाम यदुदयात् शरीरावयवानामेव पादादीनामशुभता भवति, तथाहि - शिरसा स्पृष्टः सन् तुष्यति पादादिभिस्तु रुष्यति, कामिनीव्यवहारेण व्यभिचार इति चेत्, न, तस्य मोहनीयनिबन्धनत्वात्, वस्तुस्थितेश्चेह चिन्त्यमानत्वात् । यदुदयादुपकारक्रियारहितोऽपि प्रभूतजनानां प्रियो भवति, तद्विपरीतं दुर्भगनाम, उक्तं च- " अणुवकओवि बहूणं जो हु पिओ तस्स सुभगनामुदओ । उवकारकारगोवि हु ण रुच्चई दुब्भगस्सुदए ॥१॥ (छा. अनुपकृतोऽपि बहूनां यः खलु प्रियस्तस्य सुभगनामोदयः । उपकारकारकोऽपि खलु न रुच्यते दुर्भगस्योदये II) इति" । सुस्वरनाम यदुदयवशात् स्वरः श्रोत्रप्रीतिकरो भवति । दुःस्वरनाम यदुदयात्काकोलूकस्वरकल्पः स्वरो भवति ॥ ६२० ॥ ગાથાર્થ:- (૨૭)પ્રત્યેક:- જે કર્મના ઉદયથી એક જીવ એક શરીર પ્રાપ્ત કરે તે (અહીં આ વાત ઔદારિક અને વૈક્રિય શરીર અપેક્ષાએ છે. દરેક જીવને તૈજસ કાર્યણ શરીર પોતપોતાના સ્વતંત્ર જ હોય.. આહાકશરીર લબ્ધિપ્રાપ્ય છે, તેથી તે તો પ્રત્યેક જ હોય, ભવપ્રાપ્ય ઔદારિક-વૈક્રિયશરીરઅંગે જ આ વાત છે. તેમા પણ દેવ અને નરકને જ ભવપ્રાપ્ય, અને બીજાઓને માત્ર લબ્ધિપ્રાપ્ય હોવાથી વૈક્રિયશરીર પ્રત્યેકરૂપે જ પ્રાપ્ત થાય છે. માત્ર સાધારણવનસ્પતિકાયને છોડી બાકીના બધા તિર્યંચ-મનુષ્યોને ઔદારિકશરીર પણ પ્રત્યેકરૂપે જ હોય.) (૨૮) સાધારણનામ:-જે કર્મઉદયથી નિગોદના અનંતા જીવોનુ એક સાધારણશરીર હોય, તે સાધારણનામકર્મ. (૨૯) સ્થિરનામ:-જે કર્મના ઉદયથી દાંત, હાડકાવગેરે શરીરઅવયવો અચલ-સ્થિર થાય, તે સ્થિરનામકર્મ. (૩૦) અસ્થિરનામકર્મ:-જે કર્મના ઉદયથી શરીરના જીભ, કાનવગેરે અવયવો અસ્થિર બને તે અસ્થિરનામકર્મ. (૩૧) શુભનામ:-જેના ઉદયથી શરીરના મસ્તકવગેરે અવયવો શુભ બનેં.. (૩૨) અશુભનામ:-જે કર્મના ઉદયથી શરીરના પગવગેરે અવયવો અશુભ બને તે અશુભનામકર્મ છે. દેખાય જ છે.કે મસ્તકવગેરેથી સ્પર્શાયેલો ખુશ થાય છે અને પગવગેરેથી સ્પર્શાયેલો ગુસ્સે થાય છે. ++ * * * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 36 * * * Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * * * * શંકા:- સ્ત્રી લાત મારે તો પણ પતિદેવો ખુશ થતા દેખાય છે. આમ અહીં અનેકાન્ત દેખાય છે. સમાધાન:- આ ખુશી મોહનીયના ધરની છે. કામની વિડ્વલતાના કારણે છે. જયારે અહીં વસ્તુસ્થિતિનો વિચાર છે. તેથી અનેકાન્ત નથી. (૩૩) સુભગનામ:- જે કર્મના ઉદયથી ઉપકારની પ્રવૃતિ ન કરી હોય, તો પણ અનેકજીવોને પ્રિય થાય છે. (૩૪) દુર્ભાગનામકર્મ:- અહીં સુભગથી વિપરીત સમજવું. કહ્યું જ છે કે “અનુકૃત પણ જે અનેકને પ્રિય હોય તેને સુભગનામનો ઉદય. અને ઉપકારક પણ જે ગમે નહિ તેને દુર્ભગનો ઉદય હોય છે.” (૩૫)સુસ્વરનામ:- જે કર્મના ઉદયને કારણે સ્વર કર્ણપ્રિય થાય તે સુસ્વરનામ. (૩૬)દુ:સ્વરનામ:- જે કર્મના ઉદયથી કાગડા અને ઘુવડ જેવો કર્ણઅપ્રિય સ્વર થાય, તે દુ:સ્વરનામકર્મ. ૫૬૨ના ++++ आएज्जमणाज्जं जसकित्तीनाममजसकित्तिं च । निम्माणनाममतुलं चरिमं तित्थगरनामं च ॥ ६२१॥ (आदेयमनादेयं यशकीर्तिनामायशः कीर्ति च । निर्माणनामातुलं चरमं तीर्थकरनाम च ॥) आदेयनाम यदुदयादादेयो भवति, यद्भाषते चेष्टते वा तत्सर्वं लोकः प्रमाणीकरोतीत्यर्थः । तद्विपरीतमनादेयनाम । यशः कीर्त्तिनाम यदुदयात् यशः कीर्ती भवतः । ननु च कथमेते यशःकीर्ती तन्नामोदयनिबन्धने, तद्भावेऽपि क्वचित् तयोरभावात्, तदुक्तम्- "तस्सेव केइ जसकित्तिकित्तया अजसकित्तया अन्ने । पायाराई जं बेंति अइसए इंदयालत्तं॥१॥” (छा. तस्यैव केचित् यशःकीर्तिकीर्त्तका अयशः कीर्त्तका अन्ये । प्राकारादीन् यद् ब्रुवतेऽतिशयान् इन्द्रजालत्वम् ) इति । नैष दोषः । सद्गुणमध्यस्थपुरुषापेक्षयैव यशः कीर्त्तिनामोदयस्याभ्युपगतत्वात्, उक्तं च- " जई कहवि धाउवेसम्मयाए दुर्द्धपि जायए कडुयं । निंबो महुरो कस्सइ न पमाणं तहवि तं होइ ॥ १ ॥ (छा. यदि कथमपि धातुवैषम्येन दुग्धमपि जायते कटुकम् । नम्ब मधुरः कथंचित् न प्रमाणं तथापि तद्भवति ॥) अपि तु - विवरीयदव्वगुणभासणाए अपमाणताओ तस्सेव । सग्गुणविसयं तम्हा जाह जसकित्तीनामं तु ॥ १ ॥ (छा. विपरीतद्रव्यगुणभाषणया अप्रमाणतया तस्यैव । सद्गुणविषयं तस्माद् जानीहि यशःकीर्तिनाम तु I) ઞયં ચ યશઃજીĪવિશેષ:-વાનમુખ્યતઃ સાધુવાદ્ ીતિ:, પરામતસ્તુ યજ્ઞરૂતિ । અયશઃીર્ત્તિનામ उक्तविपरीतम् । निर्माणनाम यदुदयात् स्वस्वजात्यनुसारेण जन्तुशरीरेष्वङ्गोपाङ्गानां प्रतिनियतस्थान (नं वृत्तिता इति ख पुस्तके) प्रवृत्तिता भवति, जातिलिङ्गाकृतिव्यवस्थानियम इत्यन्ये। अतुलं - प्रधानं चरमं - प्रधानत्वात् सूत्रक्रमप्रामाण्याच्चान्तिमं तीर्थकरनाम यदुदयात्सदेवमनुजासुरस्य जगतः पूज्यो भवति । चः समुच्चये । इह च गत्यादिकर्मावान्तरप्रभेदरूपव्यावर्णनं ग्रन्थगौरवभयान्न कृतमित्यन्यतोऽवधार्यम् ॥६२१ ॥ ગાથાર્થ- (૩૭) આદેયનામ:- જે કર્મના ઉદયથી આદેય થાય છે-પોતે જે કંઇ પ્રવૃતિ કરે તેને લોકો પ્રમાણ કરે, તે આદેય નામકર્મ છે. (૩૮) અનાદેયનામકર્મ → ઉપરોક્તથી વિપરીત અનાદેયનામકર્મ છે. (અર્થાત્ પોતાના ન્યાયી અને વ્યાજબી વચન-ચેષ્ટાને પણ લોકો અપ્રમાણભૂત ઠેરવે, એમાં અનાદેયનામકર્મ ભાગ ભજવે છે.) (૩૯-૪૦) યશ-કીર્તિનામકર્મ અને અયશકીર્તિનામકર્મ:- જે કર્મના ઉદયથી યશ અને કીર્તિ થાય, તે યશકીર્તિનામકર્મ. શંકા:- આ યશ અને કીર્તિનામકર્મને કારણે શી રીતે કહી શકાય? કારણ કે કયારેક આ નામકર્મનો ઉદય હોય તો પણ યશ, કીર્તિ હોતા નથી. કહ્યું જ છે કે “તેની (તીર્થંકરની) કેટલાક યશકીર્તિ ગાય છે. અને કેટલાક અયશકીર્તિ ગાય છે. કેમકે તેઓ ત્રણ ગઢ વગેરે અતિશયોને ઇન્દ્રજાલ માને છે.” સમાધાન:- અહીં દોષ નથી. કેમકે સદ્દગુણયુક્ત મધ્યસ્થપુરૂષની અપેક્ષાએ જ યશકીર્તિનામકર્મનો ઉદય સ્વીકાર્યો છે. કહ્યું જ છે “જો કે કદાચિત્ કો'કને ધાતુની વિષમતાથી દૂધ પણ કડવું લાગે, અને લીમડો પણ મીઠો લાગે, પણ તેટલામાત્રથી કંઇ તે પ્રમાણભૂત ન બને” પરંતુ “વિપરીત દ્રવ્ય, ગુણ ભાષણથી તે અપ્રમાણ છે. તેથી યશકીર્તિનામ સદ્ગુણવિષયક જ જાણવા.” અહીં યશ અને કીર્તિ વચ્ચે આ ભેદ છે.- ‘દાનપુણ્યથી જે પ્રશંસા થાય, તે કીર્તિ, અને પરાક્રમથી જે પ્રશંસા થાય, તે યશ છે.” આ યશકીર્તિથી વિપરીત અયશકીર્તિ છે. (૪૧) નિર્માણનામકર્મ:- જે કર્મના ઉદયથી પોતપોતાની જાતિને અનુસારે જીવોના શરીરમા અંગોપાંગ તે તે નિયત સ્થાને જ બને તે નિર્માણનામકર્મ. કેટલાકના મતે આ નામકર્મથી જાતિ, લિંગ, અને આકૃતિની વ્યવસ્થા નિયંત્રિત થાય છે. (૪૨) તીર્થંકરનામકર્મ:- પ્રધાનભૂત, અને પ્રધાન હોવાથી જ સૂત્રક્રમના પ્રમાણથી છેલ્લુ તીર્થંકરનામકર્મ છે. આ કર્મના ઉદયથી વ્યક્તિ દેવ, અસુર અને મનુષ્યોમાં પૂજ્ય બને છે. (મૂળમાં ‘' સમુચ્ચયઅર્થક છે.) પ્રસ્તુત ગ્રન્થમા ગ્રન્થ મોટો થઇ જવાના ભયથી ગતિવગેરે કર્મોના અવાન્તરપ્રભેદોનુ વર્ણન કર્યુ નથી. તેથી એઅંગેનું જ્ઞાન અન્યગ્રન્થોમાથી મેળવી લેવુ u૬૨ા જૈ જૈ જૈ ધર્મસગ્રહિણ-ભાગ ૨ - 37 * * +44 +++ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મોનું સ્વરૂપ * * * * * * * * * * * गोयं च दुविहभेदं उच्चागोयं तहेव णीयं च । चरिमं च पचंभेदं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥६२२॥ (गोत्रं च द्विविधभेदमुच्चैगोत्रं तथैव नीचैश्च । चरमं च पञ्चभेदं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥) गोत्रं च प्राग्निरूपितशब्दार्थम् (द्विविधभेदम्) उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं चेति । तत्रोच्चैर्गोत्रं यदुदयादज्ञानी विस्पो निर्धनोऽपि सुकुलमात्रादेव पूज्यो भवति, नीचैर्गोत्रं यदुदयाद् ज्ञानादिगुणयुक्तोऽपि दुष्कुलोत्पन्नत्वेन निन्द्यते, चरम ૪-પૂર્વનર્સ 1 qખે-પષ્યyi yTH વીતરા પાદરા ગાથાર્થ:- “ગોત્ર શબ્દનો અર્થ પુર્વે દર્શાવ્યો છે. તે બે પ્રકારે છે. (૧) ઉચ્ચગોત્ર અને (૨) નીચગોત્ર. તેમાં જેના - ઉદયથી અજ્ઞાની, કદરૂ૫ અને નિર્ધન પણ સકળમાં જન્મમાત્રથી જ પૂજય થાય છે, તે ઉચ્ચગોત્ર છે. તથા જેના ઉદયથી જ્ઞાનઆદિ ગુણયુક્ત પણ ખરાબ કુળમાં ઉત્પન્ન થવાથી નિન્દાય તે નીચગોત્ર. છેલ્લું અંતરાયકર્મ પાંચ પ્રકારનું વીતરાગોએ કહ્યું છે. દરરા तं दाणलाभभोगोवभोगविरियंतराइयं जाण । चित्तं पोग्गलस्वं विन्नेयं सव्वमेवेदं ॥६२३॥ (तद् दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायकं जानीहि । चित्रं पुद्गलरूपं विज्ञेयं सर्वमेवेदम् ॥ तत्-दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायकं जानीहि, अन्तरायशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, दानान्तरायं लाभान्तरायमिति (त्यादि) । तत्र यदुदयात् सति दातव्ये पात्रविशेषे च प्रतिग्राहके स्वर्गाङ्गनोपभोगसंप्राप्त्यादि च दानफलं जानन्नपि दातुं नोत्सहते तत् दानान्तरायम् । विशिष्टेऽपि दातरि विद्यमानेऽपि देये वस्तुनि याञ्चाकुशलोऽपि याचको यदुदयवशान्न लभते तल्लाभान्तरायम् । सति विभवे संपद्यमाने चाहारमाल्यादौ विरतिपरिणामरहितोऽपि यदुदयवशात् तत् आहारमाल्यादिकं न भुङ्क्ते तत् भोगान्तरायम् । एवमुपभोगान्तरायमपि द्रष्टव्यम् । कः पुनर्भोगोपभोगयोर्विशेष इति चेत्, उच्यते, सकृत् भुज्यत इति भोगः-आहारमाल्यादि, पुनः पुनरुपभुज्यत इति उपभोगो-भवनवनितादि । यदुदयवशात् पुनर्नीरोगोऽपि स्वस्थोऽपि चाल्पवीर्यो भवति तद्वीर्यान्तरायमिति । 'चित्तमित्यादि' इदं ज्ञानावरणीयादिकं कर्म चित्रम्-अनेकरूपं चित्रफलनिबन्धनत्वात्, सर्वं पुद्गलरूपमेव विज्ञेयं न तु किंचित् । एवकारो भिन्नक्रमः स च यथास्थानं योजित एव । विजेयमिति पनः क्रियाभिधानं भिन्नालम्बनत्वाददष्टमेव ॥६२३॥ ગાથાર્થ:- આ અંતરાયકર્મ પાંચ પ્રકારે આ પ્રમાણે છે – (૧) ઘનાંતરાય (૨) લાભાંતરાય (૩) ભોગાંતરાય (૪) ઉપભોગવંતરાય અને (૫) વીર્યંતરાય. તેમાં જેના ઉદયથી દેવાયોગ્ય વસ્તુ હાજર હોય, ગ્રહણ કરનાર પાત્ર પણ વિશિષ્ટ હેય. તથા સ્વર્ગ, સ્ત્રીઉપભોગવગેરેની સંપ્રાપ્તિવગેરે દાનનું ફળ છે, તેમ જાણતો હોય છતાં પણ દાન દેવા ઉત્સાહિત ન થાય તે દાનાન્તરાયકર્મ છે. વિશિષ્ટ (ઉદાર) દાતા શ્રેય, આ૫વાયોગ્ય વસ્તુ હાજર હેય, અને યાચક પણ યાચના કરવામાં કુશળ હોય છતાં જેના ઉદયથી ઘનઆદિ મેળવી ન શકે, તે લાભાંતરાય. (આ લાભારાયના સ્વરૂપનો સામાન્ય નિર્દેશ છે લક્ષણ નથી. અન્યથા વેપારઆદિમાં ધાર્યો લાભ ન થવામાં પણ આ કર્મ કારણ છે. અન્યત્ર પણ યથાયોગ આ પ્રમાણે સમજવું) વૈભવ હોય, આહાર, માળા વગેરે ભોગ્યવસ્તુ હાજર હોય, વિરતિ(ત્યાગ)નો પરિણામ પણ ન હૈય, છતાં જે કર્મના ઉદયથી આહારઆદિનો ઉપયોગ ન કરી શકે, તે ભોગાન્તરાયકર્મ. આ જ પ્રમાણે ઉપભોગાન્તરાયકર્મ પણ સમજવું. શંકા:- ભોગ અને ઉપભોગામાં શું ભેદ છે? સમાધાન:- જે એકવાર ભોગવી શકાય, તે ભોગ, જેમકે આહાર કૂલમાળા વગેરે. અને જે વારંવાર ભોગવી શકાય, તે ઉપભોગ જેમકે મહેલ, સ્ત્રી વગેરે. જે કર્મના ઉદયથી નિરોગી અને સ્વસ્થ પણ અલ્પવીર્ય (કપરાક્રમ–ઉત્સાહ) વાળો થાય તે વીર્યાન્તરાયકર્મ. આ જ્ઞાનાવરણવગેરે કર્મો ચિત્ર વિચિત્ર અનેક ફળોઅનુભવોમાં કારણભૂત હોવાથી વિચિત્ર સ્વરૂપવાળાં છે. તથા આ બધા જ કર્મો પુદગળદ્રવ્યમય સમજવા, નહિ કે કોક જ કર્મ. (અહીં જ કારનો અન્વય “સર્વ પદ પછી છે. જે તે મુજબ દર્શાવ્યો છે. પૂર્વાર્ધમાં જાનીહિ' ક્રિયાપદદ્વારા “તુ જાણ એમ સૂચવ્યું. ઉત્તરાર્ધમાં વિજ્ઞય' પદથી ફરીથી જાણવાનું સૂચન કર્યું, પણ પુનરુક્તિ નથી, કેમકે પૂર્વાર્ધમાં અંતરાયકર્મના ભેદને અપેક્ષીને સૂચન છે. ઉત્તરપદમાં બધા જ કર્મોના સામાન્યસ્વરૂપને અપેક્ષી સૂચન છે. આમ બન્ને સ્થળે ભિન્નઆલંબન લેવાથી બેવાર જાણવાનું સૂચન અદુષ્ટ છે.) ૬૨ઢા * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 38 * * * * * * * * * * * * * * Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++************ संयोगसिलि***************** . મૂર્ત કર્મ સાથે જીવનો સંબંધ સંગત. अत्र परस्यावकाशमाहઅહીં પૂર્વપક્ષની આશંકા દર્શાવે છે. मुत्तेणामुत्तिमतो जीवस्स कहं हवेज संबंधो ? । सोम्म । घडस्स व णभसा जह वा दव्वस्स किरियाए ॥६२४॥ (मूर्तेणामूर्तिमतो जीवस्य कथं भवेत् सम्बन्धः ? । सौम्य ! घटस्येव नभसा यथा वा द्रव्यस्य क्रियया ॥) यदि कर्म पौगलिकं ततः कथं तेन मूर्तेन कर्मणा सह अमूर्त्तिमतो जीवस्य संबन्धः-संश्लेषो भवेत् ? नैव कथंचनापीत्यर्थः, तदुक्तम्- “जीवो मूतैः कर्मभिर्न बध्यते, स्वयममूर्तत्वात्, यः पुनः मूर्बध्यते नासावमूर्तो यथा रज्ज्वादिना बध्यमानो घटादिरित" । अत्रोत्तरमाह-अहो सौम्य ! यथा नभसा-आकाशेनामूर्तेन सह घटस्य यथा वा द्रव्यस्य-अमुल्यादेः क्रियया-आकुञ्चनादिलक्षणया अमूर्तत्वेनाभ्युपगतया संबन्धो भवति तथा कर्मात्मनोरपि भविष्यति, तथा चोक्तम्- “मलैनिसर्गाद्वध्येत, चेतनोऽचेतनैः स्वयम् । जीवोऽमूर्तो न वै मूर्तिः, कर्मबन्धस्य कारणम् ॥१॥' अपि च इह देहे स्पृष्टे ताडिते वा पुंसः संवित्तिरुपजायते, सा च संवित्तिरात्मधर्मः, "चेतनाऽस्ति च यस्येयं स एवात्मेति" वचनात् । अतोऽवश्यं तावदेहात्मनोरन्योऽन्यव्याप्तिभावेन कथंचिदितरेतररूपापत्तिरेष्टव्या, तथा कर्मात्मनोरपि भविष्यति ततः कथं न संबन्ध इति ? ॥६२४ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જો કર્મ પૌદ્ગલિક હોય, તો તે મૂર્ત છે. અને મૂર્ત કર્મ સાથે અમૂર્ત જીવનો સંબંધ શી રીતે થાય? અર્થાત ન જ થવો જોઈએ. કહ્યું જ છે કે “જીવ મૂર્ત કર્મથી બંધાતો નથી, કારણ કે સ્વયં અમૂર્ત છે. અને જે મૂર્તિથી બંધાય છે તે અમૂર્ત ન હોય, જેમકે દોરડીથી બંધાતો ઘ”. ઉત્તરપક્ષ:-હે સૌમ્યા જેમ અમૂર્તઆકાશ સાથે મૂર્તધડાનો સમ્બન્ધ છે. (અહીં ઘડા-આકાશને પરસ્પર સમ્બન્ધ હોવા છતાં તેથી એકબીજાને કોઈ વિશેષ અસર નથી, જયારે જીવ-કર્મના સંબંધમાં અનુગ્રહાદિઅસર ઈષ્ટ છે, તેથી જેમાં તેની અસર સંભવિત છે તેવા મૂર્ત-અમૂર્તનો સબંધ બતાવવા બીજું દષ્ટાન્ન આપે છે.) અથવા આંગળીઆદિ દ્રવ્યનો અમૂર્તતરીકે માન્ય સંકોચનઆદિ ક્રિયા સાથે સંબંધ થાય છે. તેમ કર્મ અને આત્માનો પણ સંબંધ સમજવો. કહ્યું જ છે કે “અચેતન એવા મળ(કર્મથી ચેતન સ્વયં સ્વભાવથી જ બંધાય છે. જીવ અમૂર્ત છે. મૂર્તિ=રૂપિપણું) કંઈ કર્મબન્ધનું કારણ નથી. વળી, શરીરને અડકવાથી કે મારવાથી તેવું તેવું જે સંવેદન પુરુષને થાય છે, તે આત્માનો ધર્મ છે – આત્માને થાય છે. કારણ કે જેને આવી ચેતના છે, તે જ આત્મા છે” એવું વચન છે. તેથી જ, દેહ અને આત્મા પરસ્પરમાં વ્યાપ્ત થયા છે. અને કથંચિત પરસ્પરના સ્વરૂપને (3ना-यैतन्य) पाभ्या छ, तेस्वीर ५. ॥ ४ पार्भसनेमात्मा सणे ५ ता ५ छे. तेथीते (धर्भ-मात्मा) બન્ને વચ્ચે સંબંધ સંભવે જ છે. પ૬૨૪ पुनरप्यन्यथा पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષ ફરીથી બીજી રીતે આશંકા કરે છે. मुत्तेणामुत्तिमओ उवघाताणुग्गहा कहं होज्जा ? । जह विन्नाणादीणं मदिरापाणोसहादीहिं ॥६२५॥ (मूर्तेनामूतिमत उपघातानुग्रहौ कथं भवेताम् । यथा विज्ञानादीनां मदिरापानौषध्यादिभिः ॥) ननु मूर्तेन कर्मणा हेतुभूतेन कथममूर्तिमतो जीवस्यानुग्रहोपघातौ स्याताम्? न ह्याकाशस्य मुद्रादिनोपघातादि भवति। अत्राह- 'जहेत्यादि' यथा विज्ञानादीनाममूर्तानामपि मदिरापानौषध्यादिभिः-सुरापानब्राझ्यादिभिर्मूर्तरुपघातानुग्रहो भवतस्तथाऽऽत्मनः कर्मणाऽपि भविष्यतः, तथाहि-मदिरापानहृत्पूरविषपिपीलिकाभक्षणात् विज्ञानस्योपघात उपलभ्यते, ब्राह्मीसपिर्वचाद्युपयोगाच्चानुग्रह इति ॥६२५॥ - ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- મૂર્ત કર્મના કારણે –હેતુથી જીવને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત કેવી રીતે સંભવે? આકાશને મુદગર (મગદલ) વગેરેથી ઉપઘાત થતો દેખાતો નથી. ઉત્તરપક્ષ:- જેમ વિજ્ઞાન-બુદ્ધિ અમૂર્ત છે. છતાં મૂર્ત શરાબપાન અને બ્રાહ્મી આદિ ઔષધના સેવનથી અમૂર્ત ++++ + + + + * * * * * * * * धर्मब -मा-२ - 39 * * * * * * * * * * * * * * * Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++ संयोगसिद्धि + + + + ++++++++ વિજ્ઞાનને ક્રમશ: ઉપધાત અને અનુગ્રહ થતો દેખાય છે. તે જ પ્રમાણે અમૂર્ત આત્માને મૂર્ત કર્મથી અનુગ્રહ–ઉપઘાત થાય, તેમાં દોષ નથી. દેખાય છે કે મદિરા, ધંતુરો, ઝેર, કીડી આદિના ભક્ષણથી બુદ્ધિને ઉપઘાત થાય છે, અને બ્રાહ્મી, ધી, વજ (ઔષધિવશેષ) વગેરેના સેવનથી અનુગ્રહ થાય છે. u૬૨પા तदेवमन्योऽन्यव्याप्तितः कथंचिदितरेतररूपापत्तिं सतीमप्युपेक्ष्य कर्मणः सकाशादात्मनोऽनुग्रहोपघातभावे दोषाभाव उक्तः । सांप्रतं तामाश्रित्य दोषाभावमाह - કર્મ અને આત્મા પરસ્પર વ્યાપીને રહ્યા છે. તેથી કંચિત્ એકમેકતા-પરસ્પરસ્વરૂપને પામ્યા છે. આ વાત હકીકતરૂપ હોવા છતા એની ઉપેક્ષા કરી કર્મથી આત્માપર અનુગ્રહ–ઉપધાત થવામા ઉપરપ્રમાણે દોષાભાવ બતાવ્યો. હવે કર્મ-આત્મા પરસ્પર કથંચિત્ એકમેકતા પામ્યા છે આ હકીકતને આશ્રયી દોષાભાવ બતાવે છે→ अहवा गतोऽयं संसारी सव्वहा अमुत्तोत्ति । जमणादिकम्मसंततिपरिणामावन्नस्वो सो ॥ ६२६॥ (अथवा नैकान्तोऽयं संसारी सर्वथाऽमूर्त्त इति । यदनादिकर्मसंततिपरिणामापन्नरूपः सः II ) अथवा नायमेकान्तो यदुत संसारी आत्मा सर्वथा अमूर्त इति, कुत इति चेत् ? आह- 'जमणेत्यादि' यत् - यस्मादसौ संसारी अनादिकर्मसंततिपरिणामापन्नरूपस्ततस्तद्रूपत्वान्नायमेकान्तेनामूर्त्तः, किंतु कथंचिन्मूर्तोऽपि ततो नामूर्त्ति - मत्त्वात्तस्यानुग्रहोपघाताभाव इति ॥६२६ ॥ ગાથાર્થ:- અથવા એવો એકાન્ત નથી કે, સંસારી જીવ સર્વથા અમૂર્ત છે. શંકા:- કેમ સર્વથા અમૂર્ત નથી? સમાધાન- આ સંસારી જીવ અનાદિકર્મપ્રવાહના પરિણામને પામેલા સ્વરૂપવાળો છે. (અર્થાત્ અનાદિકર્મપ્રવાહથી સંલગ્ન એવો જીવ કચિત્ તત્સ્વરૂપને પામેલો છે.) તેથી તે એકાન્તે અમૂર્ત નથી, પરંતુ કચિત્ મૂર્ત પણ છે. તેથી આત્મા અમૂર્ત હોવાથી તેને અનુગ્રહ–ઉપઘાત હોય નહિ' એવી માન્યતા રાખવી નહિ. ૫૬૨૬ા अर्मनी अभूर्ततानुं मंडन - आअशथी नहीं, उषा पाएगीथी सुभ-छुःम अत्रैव मतान्तरमपाकर्तुमुपदर्शयन्नाह - આ જ બાબતમાં મતાન્તરને અયોગ્ય ઠેરવવા તેનો નિર્દેશ કરે છે. केई अमुत्तमेव तु कम्मं मन्नंति वासणास्॑ । रुवं तं च न जुज्जइ तत्तो उवघायाणुग्गहाभावा ॥६२७॥ (केचिदमूर्त्तमेव तु कर्म मन्यन्ते वासनारूपम् । तच्च न युज्यते तत उपघातानुग्रहाभावात् ॥) केचिद्वादिनो मन्यन्ते - कर्म अमूर्त्तमेव । तुः पूरणे । कुत इत्याह-वासनारूपं हेतौ प्रथमा, यतो वासनारूपं कर्म ततोऽमूर्त्तमेव तत् । अत्राह - 'तं च नेत्यादि' तच्चैतत् परैरुच्यमानं न युज्यते, कुत इत्याह- ततो वासनारूपादमूर्त्तात् कर्मणः सकाशादात्मनोऽनुग्रहोपघाताभावात् - अनुग्रहोपघाताभावप्रसङ्गात् ॥६२७॥ કેટલાક વાદીઓ એમ માને છે કે કર્મ અમૂર્ત જ છે કેમકે તે વાસનારૂપ છે. (મૂળમા ‘તુ’પદ પૂરણઅર્થે છે. અને • वासगावं' मा त्वर्थे प्रथमा छे.) પણ તેઓની આ વાત બરાબર નથી. કારણ કે વાસનારૂપ અમૂર્ત કર્મથી આત્માને અનુગ્રહ અને ઉપધાત થઇ શકે નહિ. અનુગ્રહ–ઉપધાતના અભાવનો પ્રસંગ આવે.દરા एतदेव दृष्टान्तेन द्रढयति આ જ અર્થને દ્રેષ્ટાન્તથી દૃઢ કરે છે. णागासं उवघायं अणुग्गहं वावि कुणइ सत्ताणं । दिट्ठमिह देभेदे सुहदुक्खं अन्नहेऊ तं ॥ ६२८ ॥ (नाकाशमुपघातमनुग्रहं वापि करोति सत्त्वानाम् । दृष्टमिह देशभेदे सुखदुःखमन्यहेतुकं तत् II) न ह्याकाशमुपघातमनुग्रहं वाऽपि सत्त्वानां करोति, न च तत्रामूर्त्तत्वादन्यदकरणनिमित्तमस्ति, किंत्वमूर्त्तत्वमेव * * * धर्मसंग्रह - लाग - 40 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મસંયોગસિદ્ધિ + + + * * * * * * * * * * तच्चेहाप्यविशिष्टमिति कथमतो नानुग्रहोपघाताभावप्रसङ्गः? परो दृष्टान्तस्य साध्यविकलतामुद्भावयन्नाह-'दिवेत्यादि' दृष्टमिह -जगति देशभेदे सुखं दुःखं च, तथाहि-क्वचित् देशे सुखं भवदनुभूयते, क्वचिच्च दुःखं, न च तत्राकाशादन्यदित्थं भेदेन सुखदुःखनिमित्तमस्ति तथाऽनुपलम्भात् किंत्वाकाशमेव, ततः साध्यविकलो दृष्टान्त इति । अत्राह-'अन्नहेऊ तं तत् देशभेदेन सुखं दुःखं च नाकाशनिमित्तं किंत्वन्यहेतुकम्-आकाशव्यतिरिक्तजलादिनिमित्तम् ॥६२८॥ ગાથાર્થ:- આકાશ જીવોપર અનુગ્રહ કે ઉપઘાત કરતું નથી. અહીં અનુગ્રહાદિઅકરણમાં આકાશના અરૂપિપણાને છોડી બીજું કોઈ કારણ નથી. માત્ર અરૂપિપણું જ કારણ છે. અને આ અરૂપિપણું કર્મઅંગે પણ તમને ઈષ્ટ છે. તેથી એ અરૂપી કર્મથી પણ અનુગ્રહ અને ઉપધાતનો અભાવ આવવાનો પ્રસંગ કેમ નહિ આવે? અર્થાત કર્મને જે અરૂપી માનશો, તો તેનાથી જીવપર થતા અનુગ્રહ અને ઉપઘાત અસંભવિત ઠરશે. પૂર્વપક્ષ:- અહીં આકાશનું ષ્ટાન્ન અનુગ્રહ-ઉપઘાતના અભાવરૂપ સાધ્યથી રહિત છે. જગતમાં દેખાય જ છે કે જીવોને દેશભેદથી સુખ-દુ:ખ થાય છે. કો'ક સ્થાને તે સુખ અનુભવે છે, અન્યત્ર દુઃખ. અને સ્થાનમાત્રના કારણે થતાં સુખદુ:ખમાં આકાશને છોડી બીજું કોઈ કારણ નથી. કેમકે બીજી કોઈ કારણ દેખાતા નથી, માત્ર આકાશ જ ઉપલબ્ધ થાય છે. તેથી અરૂપી આકાશ જીવને સુખદુ:ખનું નિમિત્ત બને છે, તેમ સિદ્ધ થાય છે. તેથી આકાશરૂપ દેષ્ટાન્ન સુખદુ:ખનિમિત્તતાઅભાવરૂપ સાધ્યથી રહિત છે.-સાધ્યવિરુદ્ધની સિદ્ધિમાં સહાયક છે. ઉત્તરપક્ષ:- દેશના ભેદથી જે સુખ અને દુઃખનો અનુભવ થાય છે, તેમાં આકાશ કારણભૂત નથી જ. પરંતુ આકાશથી ભિન્ન એવા પાણી–હવા વગેરે કારણ છે. કોકને કોક સ્થળની હવા કે પાણી માફક આવતા હોય, તો ત્યાં સુખ ઉપજે, અન્ય સ્થળના હવા-પાણી સદતા નહિ હોય, તો દુ:ખ ઉપજે. પણ તેમાં આકાશને કારણ બનાવવાની જરૂર નથી. આમ દષ્ટાન્ન સાધ્યવિકલ નથી. ૬૨૮ તથાહઆ જ વાતને વિસ્તારથી બતાવે છે. ____ आणूगम्मिऽसमीरणपउरस्स सुहं विवज्जए दुक्खं । तं जलमादिनिमित्तं न सुद्धखेत्तुब्भवं चेव ॥६२९॥ (अनूपेऽसमीरणप्रचुरस्य सुखं विपर्यये दुःखम् । तद् जलादिनिमित्तं न शुद्धक्षेत्रोद्भवमेव ॥ असमीरणप्रचुरस्य-अवातबहुलस्य पुंसः ‘आणूगम्मि' अनूपे सजले देशे सुखं, विपर्यये-निर्जले देशे दुःखं, न च तत्-सुखं दुःखं वा शुद्धक्षेत्रोद्भवं, तस्योभयत्राप्यविशेषात् । चेवशब्दो भिन्नक्रमः स चानन्तरमेव योक्ष्यते, किंतु जलादिनिमित्तमेव, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानदर्शनादिति न साध्यविकलो दृष्टान्तः ॥६२९॥ ગાથાર્થ:- જે વ્યક્તિ વાતબહુલ (=વાયુપ્રકૃતિવાળી)નથી તેને પાણીથી ભરપુરસ્થળે સુખ ઉપજે છે, અને પાણી વિનાના સ્થળે દુ:ખ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી ત્યાં સુખ કે દુ:ખ શુદ્ધક્ષેત્રના કારણે નથી, કારણ કે તે તો બન્ને (પાણીવાળા-પાણીવિનાના) સ્થળે સમાન છે. (મૂળમાં ચેવ શબ્દનો કમ જલાદિનિમિત્ત પદ પછી છે.) અહીં સુખ કે દુઃખ પાણીઆદિ કારણે જ છે. કારણ કે સુખ-દુ:ખ પાણીઆદિસાથે અન્વયવ્યતિરેક ધરાવતા દેખાય છે. તેથી આકાશ દષ્ટાન સાધ્યવિકલ નથી. ૬૨લા अपि च, मूर्तामूर्तयोः स्वस्वभावनियतत्वेन कथं संबन्ध इति दोषभीतेरमूर्त कर्माभ्युपजग्मे, स च मूर्तामूर्तयोः संबन्ध एवमप्यपरिहार्य एवेति दर्शयन् स्वाभ्युपगमसमीचीनतां दर्शयति- - વળી, “મૂર્ત અને અમૂર્ત આ બન્ને પોતપોતાના સ્વભાવમાં નિયત છે. તેથી તે બન્ને વચ્ચે સમ્બન્ધ કેવી રીતે સંભવે? આવા કલ્પિતદોષના ભયથી તમે (પૂર્વમક્ષ) કર્મને અમૂર્ત સ્વીકારવા ઉદ્યત થયા છો. પરંતુ એમ કર્મને અમૂર્ત સ્વીકારશો તો પણ મૂર્ત-અમર્સ વચ્ચેનો સમ્બન્ધ તો અપરિહાર્ય જ રહેશે, તેથી અમે કર્મને મૂર્ત કહીએ છીએ તે જ બરાબર છે. આ વાત દર્શાવતા આચાર્યવર્ટ કહે છે. तब्भावम्मिवि जोगो मुत्तिमता विग्गहेण जीवस्स । अब्भवगंतव्वो च्चिय कम्मम्मिवि एवं को दोसो ? ॥३०॥ (तद्भावेऽपि योगो मूर्तिमता विग्रहेण जीवस्य । अभ्युपगन्तव्य एव कर्मण्यपि एवं को दोषः ॥) ++++++++++++++++ ધર્મસંશવણિ-ભાગ ૨ - 41 +++++++++++++++ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ संयोfile + + + + + + + + + + + + + + ++ तद्भावेऽपि-अमूर्तकर्माभ्युपगमभावेऽपि योगः-संबन्धो मूर्त्तिमता विग्रहेण-शरीरेण सह जीवस्याभ्युपगन्तव्य एव, अनभ्युपगमे वक्ष्यमाणदोषप्रसङ्गात् । एवं शरीरवत्कर्मण्यपि मूर्तिमति जीवेन सह संबन्धाभ्युपगमे को दोषः? नैव कश्चनेतिभावः, उभयोरपि मर्तत्वेनाविशेषात ॥६३०॥ * ' . ગાથાર્થ:-કર્મને અમૂર્ત સ્વીકારવામાં આવે, તો પણ મૂર્તિમાન શરીરનો તો અમૂર્ત જીવસાથે સમ્બન્ધ સ્વીકારવો જ પડવાનો છે, કેમકે નહિ સ્વીકારવામાં નીચે કહેલા ઘેલો લાગવાનો સંભવ છે. આમ શરીરની જેમ મૂર્ત કર્મ સાથે પણ જીવનો સમ્બન્ધ સ્વીકારી લેવામાં શો દોષ છે? અર્થાત કોઇ દોષ નથી, બલ્ક ગુણ છે. કારણ કે શરીર અને કર્મ આ બને સમાનતયા મૂર્ત છે. તો બન્નેનો અમૂર્ત જીવસાથે સંબંધ પણ સમાનતયા થવો જ જોઇએ. ૬૩ના શરીરકત સુખાદિ જીવને ન માનવામા દષ્ટવિરોધ विग्रहेण सह सम्बन्धानभ्युपगमे दोषमाहશરીર સાથે જીવનો સમ્બન્ધ ન સ્વીકારવામાં આવતા દોષો બતાવે છે. देहेणं संजोगाभावे उवघायमादिओ तस्स ।। अण्णस्स जह न दुक्खादि देहिणोऽवि तहा ण भवे ॥६३१॥ (देहेन संयोगाभावे उपघातादितस्तस्य । अन्यस्य यथा न दुःखादि देहिनोऽपि तथा न भवेत् ॥) -शरीरेण सह संयोगाभावेऽभ्युपगम्यमाने यथा देहस्योपघातादितः-उपघातादिभावतो मकारोऽलाक्षणिकोऽन्यस्य-तदतिरिक्तस्य जनस्य दुःखादि न भवति, तेन देहेन सह तस्य संबन्धाभावात्, तथा देहिनोऽपि- विवक्षितदेहवत् . आत्मनो दुःखादि न भवेत्, संबन्धाभावाविशेषात् ॥६३१॥ - ગાથાર્થ:- જેમ એક માણસના દેહને ઉપઘાતવગેરે થવાથી તેનાથી બીજા માણસને દુ:ખવગેરે થતું નથી કારણ કે ઉપધાતાદિવાળા તે શરીરની સાથે બીજા માણસને સંબંધ નથી. તે જ પ્રમાણે શરીરની સાથે જીવનો સંબંધ નહી સ્વીકારવામાં આવે તો જીવને પણ દુઃખાદિ નહી થાય, કારણ કે સમ્બન્ધનો અભાવ બન્ને સ્થાને સમાન છે. ૬૩૧ ततः किमित्याहજીવને દુખાભાવ આવે, તો શું થાય? તે જણાવે છે. इय दिटेट्ठविरोहो अणुहवगम्मा सुहादयो दिट्ठा । न य ते अन्ननिमित्ता तब्भावे चेव भावातो ॥६३२॥ (इति दृष्टेष्टविरोधोऽनुभवगम्याः सुखादयो दृष्टाः । न च तेऽन्यनिमित्तास्तद्भाव एव भावात् ॥ इतिः-एवं सति दृष्टेष्टविरोधः प्राप्नोति, तत्र दृष्टविरोधं भावयति- 'अणुहवेत्यादि' देहानुग्रहादिनिमित्ततया अनुभवगम्याः सुखादयो दृष्टाः, न च ते-सुखादयो देहानुग्रहादिनिमित्तातिरेकेणान्यनिमित्ताः कल्पयितुं शक्यन्ते । कत इलाह-'तब्भावे चेव भावाओं तद्भावे एव-देहानुग्रहादिभावे एव सुखादीनां भावाद्, न तदभावे, व्यतिरेकस्य चान्वयाविनाभूतत्वादेतदपि द्रष्टव्यं, देहानुग्रहादिभावे सुखादीनां भावादेवेति । यदि पुनरित्थं देहानुग्रहाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानेऽपि सुखादीनां निमित्तान्तरमुपकल्प्येत तर्हि सर्वत्र प्रतिनियतकार्यकारण भावोच्छेदप्रसङ्गः, यदाह-“यस्मिन्सति भवत्येव, यत्ततोऽन्यस्य कल्पने । तद्धेतत्वेन सर्वत्र, हेतूनामनवस्थितिः ॥१॥ इति ॥६३२॥ ગાથાર્થ:-આમ જીવને દુ:ખાભાવ થવામાં દષ્ટ અને ઇષ્ટસાથે વિરોધ છે. ત્યાં દષ્ટવિરોધ આ પ્રમાણે છે - શરીરપર અનુગ્રહદિના નિમિત્તે જીવને સખવગેરેનો અનુભવ થાય છે તે પ્રત્યક્ષ અનુભવગમ્યતરીક દષ્ટ છે. આ સુખવગેરેમાટે દેહપરના અનુગ્રહદિને છોડી અન્યની નિમિત્તતરીકે કલ્પના કરવી શક્ય નથી. કારણ કે શરીર પરના અનુગાદિની હાજરીમાં જ તે સખવગેરે હોય છે, નહિ કે ગેરહાજરીમાં. અર્થાત દેહના અનુગ્રહાદિના અભાવમાં સુખવગેરે લેતા નથી. આ વ્યતિરેક છે. અને વ્યતિરેક અન્વયને અવિનાભાવી હોય છે. તેથી આવો અન્વયે પણ સમજી લેવો કે દેહના અનુગ્રહાદિની હાજરીમાં આત્માને સુખ વગેરે હેય જ છે. આમ દેહના અનુગ્રહાદિસાથે આત્માના સુખ વગેરે અવય-વ્યતિરેક ધરાવે છે. તે છતાં સખાદિન નિમિત્તતરીકે દેહના અનુગાદિને છોડી અન્યની ૫ના કરશો, તો દરેક સ્થળે પ્રતિનિયત કાર્યકારણભાવનો ઉચ્છેદ +++ + + + + + + + + + + ++ + Miage-MIR - 42 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ of ++ મન બી * કર્મસંયોગસિદ્ધિ ન થશે. અર્થાત્ જે તેથી જે તે ઉત્પન્ન થવાની આપત્તિ આવશે. કહ્યું જ છે કે જેની હાજરીમા અવશ્ય થાય, તેને છોડી અન્યને તેના હેતુત૨ીકે કલ્પવામા' સર્વત્ર હેતુની અવસ્થિતિ રહે નહિ”. ૫૬૩૨ા ननु च देहानुग्रहाद्यतिरेकेणापि प्रशान्तमनोयोगादिभावतः सुखादयो दृष्टास्तत्कथमुच्यते - देहानुग्रहादिभाव एव सुखादीनां भाव इति ? अत आह પૂર્વપક્ષ:- દેહના અનુગ્રહાદિ ન હોવા છતા પ્રશાન્તમનોયોગ(-પ્રશમભાવ)વગેરેના કારણે યોગીઓને સુખવગેરે થતા દેખાય છે. તેથી દેહના અનુગ્રહાદિની હાજરીમાં જ સુખવગેરે થાય' એવું કહેવું બરાબર નથી. અહીં આચાર્યપુરંદર ઉત્તર આપે છે. जेवि य पसंतचित्तादिभावतो तेऽवि तक्कया चेव । सुह्मणादिजोगे अणुग्गहादी धुवा तस्स ॥६३३ ॥ (येऽपि च प्रशान्तचित्तादिभावतस्तेऽपि तत्कृता एव । यत् शुभमन आदियोगेऽनुग्रहादयो ध्रुवास्तस्य II) येऽपि च प्रशान्तचित्तादिभावतः आदिशब्दादप्रशान्तचित्तपरिग्रहः तेऽपि सुखादयस्तत्कृता एव-देहानुग्रहादिकृता एव । कथमिति चेत् ? अत आह— 'जमित्यादि' यत् - यस्मात् शुभमन आदियोगे आदिशब्दादशुभमनःपरिग्रहः तस्य - देहस्य ध्रुवा - निश्चिता अनुग्रहादयो भवन्त्येव । "इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे होंति वुड्डिहाणीओ । जह तह मणसो ताउ” (छा. इष्टानिष्टाहाराभ्यवहारे भवतो वृद्धिहानी । यथा तथा मनसस्ते) इतिवचनात् । ततो न तद्भाव एव भावादिति व्यभिचारि ॥६३३ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- પ્રશાન્તચિત્તાદિથી જે સુખવગેરે તથા અપ્રશાન્તચિત્તાદિથી જે દુ:ખવગેરે અનુભવાય છે. તે સુખ દુ:ખવગેરે. પણ શરીરના અનુગ્રહવગેરેથી જ છે. કારણ કે પ્રશાન્તચિત્તઆદિવખતે જે શુભમન હોય છે, તથા અપ્રશાન્ત ચિત્તાદિવખતે જે અશુભમન હોય છે, તે શુભ-અશુભમનઆદિના યોગમાં શરીરને અવશ્ય અનુગ્રહવગેરે થાય જ છે. કહ્યું જ છે કે “જેમ ઇષ્ટ–અનિષ્ટ આારના ભોજનથી શરીરની ક્રમશ: વૃદ્ધિ—હાનિ થાય છે, તેમ શુભ-અશુભમનના કારણે પણ શરીરની વૃદ્ધિ–હાનિ થાય છે.” તેથી શરીરના અનુગ્રહાદિની હાજરીમા જ સુખાદિ હોય છે” તેવો નિયમ વ્યભિચારયુક્ત નથી. u૬૩ા ઇષ્ટવિરોધદોષ तदेवं दृष्टविरोधमुपदर्श्य इष्टविरोधमुपदर्शयन्नाह - આમ શરીર–આત્માનો અત્યંતભેદ માનવામા ઉપરોક્ત પ્રત્યક્ષસિદ્ધ દેહના અનુગ્રહાદિથી આત્માના સુખાદિનિયમ ખંડિત થવાથી દૈવિરોધ છે, તેમ બતાવ્યું. હવે આ મતલબમાં ઇવિરોધ દર્શાવે છે. तस्सेव य संपूयणवावत्तीओ सुहासुहनिमित्तं । इट्ठाओ अच्वंतं भेदे एतंपि हु न जुत्तं ॥६३४ ॥ (तस्यैव च संपूजनव्यापत्ती सुखासुखनिमित्तम् । इष्टे अत्यन्तं भेदे एतदपि न युक्तम् II) तस्यैव-देहस्य सुखासुखनिमित्तम् - आत्मनः सुखासुखोत्पत्तिहेतोः संपूजनव्यापत्ती इष्टे । अत्यन्तं चेदात्मदेहयोर्भेद इष्यते ततस्तस्मिन् सति एतदपि न युक्तं यद् आत्मनः सुखासुखनिमित्तं संपूजनव्यापत्ती देहस्येष्येते ॥ ६३४ ॥ ગાથાર્થ:–વળી, આત્માને સુખ કે દુ:ખ પહોંચાડવાના હેતુથી શરીરની જ પૂજા થાય કે પીડા આપવામાં આવે તે ઇષ્ટ છે. અર્થાત્ કો'ક જીવને સુખ પહોંચાડવા તેના શરીરને પૂજવામાં આવે છે, અને કો'ક જીવને દુ:ખી કરવા તેના શરીરને મારવામાં આવે છે. હવે જો આત્મા અને દેહ વચ્ચે અત્યન્તભેદ જ ઇષ્ટ હોય, તો આત્માના સુખદુ:ખમાટે જે દેહની પૂજા-પીડા ઇષ્ટ છે, તે બરાબર ન ઠરે કેમકે દેહની પૂજાવગેરેથી આત્માને કશું થાય નહિ. ૫૬૩૪૫ अत्र परः सिद्धसाध्यतामभिमन्यमान आह . અહીં સિદ્ધસાધ્યતા (અનુમાનપ્રમાણથી સાધ્ય વસ્તુ જયારે અન્યપ્રમાણથી સિદ્ધ જ હોય, ત્યારે ત્યા સિદ્ધસાધ્યતા દોષ આવે.)નું અભિમાન (=ભ્રાન્તકલ્પના) કરતો પૂર્વપક્ષકાર કહે છે. डिमादिसु दिट्ठमिदं तं खलु अज्झत्थियंति अविगाणं । जं पुण जंतुसरीरे उभयजमेत्थंपिमं चेव ॥६३५॥ (प्रतिमादिषु दृष्टमिदं तत्खलु आध्यात्मिकमित्यविगानम् । यत्पुनर्जन्तुशरीरे उभयजमित्थमपीदमेव II) * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 43 * Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મસંયોગસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * प्रतिमादिषु आदिशब्दात् कामावेशादिपरिग्रहः दृष्टमिदं यदुत-देहस्य संपूजनव्यापत्ती नात्मनः सुखदुःखनिमित्ते भवत इति । प्रतिमाप्रतिपन्नस्य देहव्यापत्तावपि ध्यानबलेनैकान्तसुखोपेतत्वात्, कामार्तस्य सकन्दनादिसन्निधानभावेऽपि कामोदेकवशतो महादुःखदर्शनादिति। अत्राह-'तं खलु इत्यादि' तत् खलु-प्रतिमादिषु सुखादि आध्यात्मिकमित्य विगानंविगानाभावः, अनाध्यात्मिकस्यैव सुखदुःखस्य देहादिनिमित्ततया साधयितुमिष्टत्वात् । यत् पुनर्जन्तुशरीरे सुखदुःखम उभयजं-संपूजनव्यापत्तिजं संपूजनव्यापत्तिनिमित्तमनाध्यात्मिकं प्रतिमाद्यवस्थायामपि इदमपि इत्थमेव-अविगानमेव, तस्थापि तथाभावतोऽनुभवसिद्धतया प्रतिषेधुमशक्यत्वात् । तदेवं विपक्षे दृष्टेष्टविरोधदर्शनाद् अवश्यमात्मशरीरयोः संबन्ध एष्टव्यः, तथा सति कर्मण्यपि मूर्तिमत्यस्तु विशेषाभावात्, ततः कर्म मूर्तमिति स्थितम् ॥६३५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પ્રતિમામાં રહેલાઓને અને કામના આવેશથી પીડાતાને ક્રમશ: દેહની પીડા અને દેહના સંપૂજન દુ:ખ અને સુખના નિમિત્ત બનતા દેખાતા નથી. પ્રતિમા સ્વીકારીને રહેલા મુનિવરો ધ્યાનના બળે એવા એકાન્તસુખમાં મસ્ત હોય છે કે, કોઈ તેના દેહને મારે, મૂડે કે ટુકડે ટૂકડા કરી નાખે, તો પણ તેને અંગે પણ દુ:ખનો અનુભવ થતો નથી. તો સામે પક્ષે કામના આવેગથી પીડાતી વ્યક્તિ ફૂલની માળા કે ચંદનના લેપ હાજર હોય, તો પણ કામના આવેગથી ભયંકર દુ:ખી થતો જ દેખાય છે. આમ અહીં દેહના સંપૂર્જનાદિથી વિપરીત દુ:ખ-સુખઆદિનો અનુભવ જીવ કરે છે. ઉત્તરપક્ષ-પ્રતિમામાં રહેલા સાધુને કે કામથી પીડાતા પુરૂષને જે સુખ-દુ:ખનો અનુભવ છે, તે આધ્યાત્મિક છે. આત્મામાંથી જ ઉદ્ભવેલો છે; તેથી તે અંગે શરીરના સંપૂજનાદિને કંઈ લેવા દેવા નથી તે બધાને સંમત જ છે. અમે અહીં આધ્યાત્મિક ન હોય, તેવા સુખ-દુઃખઅંગે શરીર કારણ છે એમ જ સિદ્ધ કરવા ઇચ્છીએ છીએ. જીવના શરીર પર સંપૂજન-વ્યાપત્તિ-પીડાથી જીવને જે અનાધ્યાત્મિક-આત્મજન્ય નહિ) સુખ-દુ:ખ થાય છે, તે તો પ્રતિભાવગેરેઅવસ્થા વખતે પણ નિર્વિવાદ સંભવે જ છે. અર્થાત પ્રતિમાદિઅવસ્થામાં રહેલી વ્યક્તિને પણ અનાધ્યાત્મિક સુખ-દુઃખ તો દેહનમિત્તક જ છે. કારણ કે તેને પણ સંપૂજનાદિવખતે સુખાદિનો અનુભવ અનુભવસિદ્ધ છે. તેથી તેનો પ્રતિષેધ કરવો શક્ય નથી. આમ શરીર-આત્માનો એકાન્તિકભેદ સ્વીકારવામાં દષ્ટ અને ઈષ્ટસાથે વિરોધ આવતો દેખાય છે. તેથી અવશ્ય આત્મા–શરીરવચ્ચે સમ્બન્ધ અને કથંચિત અભેદ સ્વીકારવો જ રહ્યો. અને જો અમૂર્ત આત્મા સાથે મૂર્તશરીરનો આમ સમ્બન્ધ થઇ શકતો હોય, તો મૂર્તકર્મ સાથે પણ અમૂર્ત આત્માનો સમ્બન્ધ થવો જોઇએ, કેમકે શરીર અને કર્મ બન્ને મૂર્તસ્વરૂપે સમાન છે. તેથી કર્મ મૂર્ત જ સિદ્ધ થાય છે. ૬૩પા મૂર્ત કર્મ અમૂર્ત આત્માના જ્ઞાનાદિ પરિણતિનો વિઘાત કરવામાં સમર્થ છે. આ કર્મ પૌદ્ગળિક છે, અને અમૂર્ત આત્માપર ઉપઘાત-અનુગ્રહ કરવા સમર્થ છે. મૂર્ત કર્મ અમૂર્ત આત્માસાથે આંગળીના ફિયાસાથેના સમ્બન્ધના દષ્ટાનથી જોડાઈ શકે છે. અનાદિકર્મપ્રવાહથી પરિણત સંસારી જીવ એકાને અમૂર્ત નથી, એને જુદા-જુદા દેશના હવા-પાણીથી સુખ-દુ:ખ સંભવે છે. શરીરની પીડા-પૂજાથી આત્માને સુખ-દુ:ખ થાય છે. પ્રતિમાસ્થિત સાધુને - અધ્યાત્મભાવમાં રહેલા સાધુને શરીરની પીડા-પૂજાથી શોક-હર્ષ થતાં નથી. -૧૪૪ ગ્રંથપ્રણેતા શ્રીહરિભદ્રસૂરિજી મહારાજ જ જ કે જ કે જે આ ધર્મસંહણિ-ભાગ ૨ - 44 * * * * * * * * * Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + +ार्थसिद्धि + + + બાહ્યાર્થનો અભાવ - વિજ્ઞાનવાદી यत्पुनरुक्तं-यदपि जन्तुशरीरे उभयजं तत्राप्यविगानमेवेति, तत्र ज्ञानवाद्याह→ અહીં ‘જીવના શરીરમાં સંપૂજનવ્યાપત્તિ-ઉભયથી પ્રતિમાદિસ્થિત જીવને અનાધ્યાત્મિક સુખાદિ નિર્વિવાદ થાય છેઃ ઇત્યાદિ જે કહ્યું ત્યાં જ્ઞાનવાદી સ્વમત દર્શાવે છે. बज्झत्थाभावातो भत्ती एसा इमो तु देहोत्ति । विन्नाणमेत्तमेव उ परमत्थो कह णु अविगाणं ? ॥६३६ ॥ (बाह्यार्थाभावाद् भक्तिरेषाऽयं तु देह इति । विज्ञानमात्रमेव तु परमार्थः कथं नु अविगानम् ॥) ननु विज्ञानमात्रमेव परमार्थः न तु बाह्योऽर्थः, तस्य वक्ष्यमाणयुक्त्या अनुपपद्यमानत्वात्, ततो बाह्यार्थाभावात् यदेतदुच्यते - 'अयं देह' इति, भक्तिरेषा - स्वदर्शनानुराग एषः । ततः कथं नु अविगानम् ? येनोच्यते 'जं पुण जंतुसरीरे उभयजमित्थंपिमं चेवत्ति' ॥६३६ ॥ ગાથાર્થ:-વિજ્ઞાનવાદી:-માત્ર વિજ્ઞાન જ પરમાર્થ છે. બાહ્યધટવગેરેઅર્થ પરમાર્થસત્ નથી, કારણ કે તેઓ યુક્તિથી ઉપપન્ન થતા નથી. આમ બાહ્માર્થનો અભાવ છે. તેથી આ શરીર છે' ઇત્યાદિવચનો માત્ર સ્વદર્શનરાગરૂપ જ છે. તેથીજ પુણ જંતુશરીર ઉભયજમિત્યપિમ ચેવ (ગા. ૬૩૫)' ઇત્યાદિકથન નિર્વિવાદ નિર્દોષ શી રીતે કહી શકાય? અર્થાત વિવાદાસ્પદ જ છે. ૫૬૩૬॥ कथं पुनर्बाह्यार्थाभावः सिद्धो येन विज्ञानमात्रमेव परमार्थः स्यादिति चेत् ? अत आह શંકા:- બાહ્યાર્થનો અભાવ કેવી રીતે સિદ્ધ થયો? કે જેથી વિજ્ઞાનમાત્રને જ પરમાર્થસત કહી શકાય. અહીં વિજ્ઞાનવાદી સમાધાન આપે છે. बज्झत्थो परमाणू समुदायो अवयवी व होज्जाहि ? । गाहगपमाणविरहा सव्वोऽवि ण संगतो एस ॥६३७॥ (बाह्यार्थः परमाणवः समुदायोऽवयवी वा भवेत् । ग्राहकप्रमाणविरहात् सर्वोऽपि न संगत एषः ॥) बाह्योऽर्थो हि परमाणवो वा समुदायो वा- परमाणुसमुदायः अवयवी वा भवेत् ? न च एष सर्वोऽपि संगतः, कुत इत्याह-तग्राहकप्रमाणाभावात् । न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयव्यवस्था युक्ता, मा प्रापदतिप्रसङ्ग इति ॥६३७॥ गाथार्थ:- सभाधान:- जाह्यार्थ ( १ ) परमाणुओ३य छेडे (२) परभागुखोना समुहाय३य छे पछी (3) खवयवी ३य છે? આ ત્રણે વિલ્પ યુક્તિસંગત નથી. કારણ કે એકેય વિકલ્પનુ ગ્રાહક પ્રમાણ નથી. અને પ્રમાણ વિના પ્રમેયનો નિશ્ચય થઇ શકે નહિ, અન્યથા અતિપ્રસંગ આવવાનો વખત આવે. ૫૬૩ના પરમાણુગ્રાહક પ્રમાણાભાવ तत्र यथा परमाणुषु ग्राहकप्रमाणाभावस्तथोपपादयन्नाह હવે સૌપ્રથમ (૧) પ્રથમવિકલ્પભૂત પરમાણુઓઅંગે ગ્રાહકપ્રમાણનો અભાવ ઘટાવતા કહે છે → परमाणवो ण इंदियगम्मा तग्गाहकं कुतो माणं ? | अविगाणाभावातो ण जोगिनाणंपि जुत्तिखमं ॥६३८॥ ( परमाणवो नेन्द्रियगम्यास्तद्ग्राहकं कुतो मानम् । अविगानाभावान्न योगिज्ञानमपि युक्तिक्षमम् ॥) परमाणवो नेन्द्रियगम्या- न चक्षुरादीन्द्रियगोचराः ततस्तग्राहकं प्रत्यक्षं प्रमाणं कुतो भवेत् ? न कुतश्चिदिति भावः, अतीन्द्रियत्वात्। स्यादेतत् मा भूदस्मदादिप्रत्यक्षं तद्वाहकं प्रमाणं, योगिप्रत्यक्षं तु तद्वाहकं भविष्यतीति आह - 'अविगाणेत्यादि' न योगिज्ञानमपि - न योगिप्रत्यक्षमपि परमाणुसिद्धौ युक्तिक्षमम्, कुत इत्याह- अविगानाभावात् विग़ानादित्यर्थः ॥६३८ ॥ ગાથાર્થ:- પરમાણુઓ ચક્ષુવગેરે ઇન્દ્રિયોના વિષય બનતા નથી. તેથી અતીન્દ્રિય હોવાથી પરમાણુઓના ગ્રાહકતરીકે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ બની શકે નહિ. શંકા:- આપણા જેવાનુ ઇન્દ્રિયપ્રત્યક્ષજ્ઞાન ભલે પરમાણુઓનુ ગ્રાહક પ્રમાણ બની ન શકે. પરંતુ યોગીઓનું પ્રત્યક્ષજ્ઞાન તો જરૂર પરમાણુઓનુ ગ્રાહક પ્રમાણ બની શકે. સમાધાન:- યોગીઓનું પ્રત્યક્ષજ્ઞાન પરમાણુની સિદ્ધિમા પ્રમાણભૂત છે' એવું વચન પણ યુક્તિયુક્ત નથી. કારણ કે યોગીઓના પ્રત્યક્ષજ્ઞાનનો વિષય જ વિવાદાસ્પદ છે. ૫૬૩૮૫ + + धर्मसंशि-लाग २ - 45 + + * * * ++ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ounसिबि++++++++++++++++++ विगानमेव दर्शयतिविवाद छ केई पेच्छइ जोगी परमाणू सुन्नतं तहा अन्ने । एगप्पवायगहणे को णु पदोसो तु इतरम्मि ? ॥६३९॥ (केचित् प्रेक्षते योगी परमाणून् शून्यतां तथाऽन्ये । एकप्रवादग्रहणे को नु प्रद्वेषस्तु इतरस्मिन् ॥ केचिद् ब्रुवते-योगी परमाणून् प्रेक्षते, तथा अन्ये ब्रुवते-शून्यतां प्रेक्षत इति । एकप्रवादग्रहणे च ‘परमाणून् योगी प्रेक्षत' इत्येवंलक्षणे प्रवादाभ्युपगमे च को नु इतरस्मिन्-'शून्यतां योगी प्रेक्षत' इत्येवंलक्षणे प्रवादे द्वेषो? येनासावपकर्ण्यते, नैवासौ युक्तः, तन्निबन्धनप्रमाणाभावादिति भावः ॥६३९॥ ગાથાર્થ:- કેટલાક કહે છેયોગીઓ પરમાણુઓને જુએ છે તો બીજા કેટલાક કહે છે યોગીઓ શૂન્યતા જૂએ છે. આમ પરસ્પરવિરુદ્ધ બે પ્રવાદ પ્રવર્તે છે. ત્યાં યોગીઓ પરમાણુઓને જૂએ છે એવા પ્રવાદને સ્વીકારવામાં યોગીઓ શુન્યતા જૂએ છે એવા પ્રવાદ પર શો દ્રય છે? કે જેથી તેને સ્વીકારવાને બદલે તેની ઉપેક્ષા કરો છો. આવો દ્રય રાખવો યોગ્ય નથી. પ્રથમપ્રવાદપર પક્ષપાત રાખવો યોગ્ય નથી, કારણ કે તેવા પક્ષપાત-દ્વેષમાં કારણભૂત પ્રમાણનો અભાવ છે. ૬૩લા अर्थवादिनो मतमाशङ्कमान आहઅહીં અર્થવાદી (બાલાર્થને સ્વીકારવાવાળા ) ના મતની આશંકા કરે છે. ते चेव कज्जगम्मा दीसति य घडाइयं इहं कज्जं । ण य दुयणुमादिजोगं विहाय सत्ता इमस्स भवे ॥६४०॥ (त एव कार्यगम्याः दृश्यते च घटादिकं इह कार्यम् । न च व्यणुकादियोगं विहाय सत्ता अस्य भवेत्॥ त एव-परमाणवो बाह्योऽर्थः कथंभूतास्ते इत्याह-कार्यगम्या:-कार्यान्यथानुपपत्तिलक्षणप्रमाणगम्याः, न च तत्कार्यमसिद्धम, यत आह-दृश्यते च घटादिकमिह परमाणूनां कार्य, चो हेतौ, यस्मान्न खलु अस्य-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानस्य घटादिकार्यस्य व्यणुकादियोगं विहाय-व्यणुकत्र्यणुकादिव्यतिरेकेण सत्ता भवति, ततो घटादिकमवश्यं परमाणूनां कार्यमित्यवगन्तव्यम् । तथा च सति परमाणवः कार्यगम्याः सिद्धा एव ॥६४०॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- પરમાણુઓ બાહ્યાર્થરૂપે છે જ. આ પરમાણુઓ પોતાના કાર્યની અન્યથા અનુપમનિદ્વારા કાર્યના ચિહનથી કાર્યલિંગકઅનુમાન પ્રમાણથી સિદ્ધ છે. અનુમાનપ્રયોગ:- પરમાણુઓ બાહ્યાર્થરૂપે સત છે, કેમકે તેના ઘટવગેરે કાર્યો અન્યથાઅનુ૫૫ન્ન છે. અહીં “પરમાણુના કાર્યો અસિદ્ધ છે, તેમાં અસિદ્ધિદોષ છે તેવું નહિ કહેવું; કારણકે પરમાણુઓનાં ઘટવગેરે કાર્યો પ્રત્યક્ષથી દેખાય જ છે. (મૂળમાં “ચ પદ હેત્વર્થક છે.) પ્રત્યક્ષથી દેખાતા આ ઘટવગેરે કાર્યો દ્વચક, સણક વગેરેના યોગ વિના સંભવી શકે નહિ (બે પરમાણના યોગથી કણક બને, ત્રણ ચણકના યોગથી મણુક બને.) તેથી ઘટવગેરે કાર્યો અવશ્ય પરમાણઓના કાર્ય છે. તેમ સ્વીકારવું જોઇએ. અને તો પરમાણુઓ પોતાના કાર્યદ્વારા જ્ઞાત થાય જ છે. તેથી પરમાણુરૂપ બાહ્યર્થ છે જ. ૬૪ત્રા अत्र ज्ञानवादी दूषणमाहઅહીં જ્ઞાનવાદી દૂષણ બતાવે છે. कह दीसतित्ति वच्चं? जायइ संवेदणं तदागारं । दोण्हवि एगत्तं इय तस्साणागारभावो वा ॥६४१॥ (कथं दृश्यत इति वाच्यम् ? जायते संवेदनं तदाकारम् । द्वयोरपि एकत्त्वमिति तस्यानाकारभावो वा ) कथं घटादिकं दृश्यते इति वाच्यं? किमत्र वाच्यं? यतो जायते संवेदनं तदाकारं-घटादिस्पार्थाकारं ततस्तत् दृश्यत इत्युच्यते इति चेत् ? आह- 'दोण्हवि एगत्तं इयत्ति' इति-एवं सति संवेदनस्यार्थाकारत्वे सतीतियावत् द्वयोरपिज्ञानार्थयोरेकत्वं प्राप्नोति, तथाहि-संवेदनमकारमभ्युपगम्यते ततोऽर्थस्याकारो यस्मिन्वेदने तत् अर्थाकारमिति संवेदनस्यार्थाकाराभिन्नत्वात् द्वयोरप्येकत्वं प्राप्नोत्येवं तस्साणागारभावो वत्ति' यद्वा तस्यार्थस्यानाकारभावः प्राप्नोति, तदाकारस्य संवेदने संक्रान्तत्वात् ॥६४१॥ ગાથાર્થ – જ્ઞાનવાદી:- ઘડા વગેરે દેખાય છે એમ કેવી રીતે કહે છો? ++++++++++++++++ ule-un2-46+++++++++++++++ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ uarसwि++++++++++++++++++ અર્થવાદી:- લે વળી, અહીં શું કહેવાનું હોય? ઘડાવગેરરૂપ અર્થના આકારવાળું સંવેદન થાય જ છે. તેથી ઘડાવગેરે पाय छ, म . नाही:- संवेदन अर्थातर (अर्थन मारा )ोय, तो तो शान अने अर्थमा त मावी शे-पले એક થઇ જશે. જઓ - તમે સંવેદનને અર્થકાર કહે છે. અહીં અર્થાકાર એટલે “જે સંવેદનમાં અર્થનો આકાર હોય, તે અર્થકાર' એવો અર્થ છે. આમ સંવેદન અર્થકારથી અભિન્ન સિદ્ધ થશે. તેથી બન્ને એક થઇ જશે. અથવા તો અર્થ સ્વયં અનાકાર બની જશે. કારણ કે અર્થનો જે આકાર હતો, તે તો સંવેદનમાં સંક્રાન્ત થઈ ગયો. u૬૪ના અર્થાકારસંવેદનમાં બે આપત્તિ एतदेव दूषणद्वयं सप्रपञ्चं भावयन्नाहસમજ ન પડી? કાંઈ નહિ જૂઓ આ બન્ને દૂષણ વિસ્તારથી સમજાવવામાં આવે છે सो खल तस्सागारो भिन्नोऽभित्रो व होज्ज? जति भिन्नो । तस्सत्ति को णु जोगो? इतरम्मि तु उभयदोसोत्ति ॥६४२॥ - (स खलु तस्याऽऽकारो भिन्नोऽभिन्नो वा भवेद् ? यदि भिन्नः । तस्येति को नु योगः? इतरस्मिंस्तूभयदोष इति ॥ अर्थस्याकारस्ततोऽर्थाद्भिन्नो वा. भवेद् अभिन्नो वा? यदि भिन्नस्ततस्तस्यार्थस्यायमाकार इति को नु योगः-संबन्धो? नैव कश्चित्, भेदे सति तादात्म्यायोगात्, तदुत्पत्तेश्चानभ्युपगमात्, । इतरस्मिंस्तु-अभेदपक्षे उभयदोषःपूर्वोक्तः प्राप्नोति ॥६४२॥ ' ગાથાર્થ:- અર્થનો આ આકાર અર્થથી ભિન્ન છે? કે અભિનં? જે ભિન્ન હોય, તો તે અર્થનો આ આકાર છે' એવો સમ્બન્ધ શી રીતે થશે? અર્થાત્ નહિ જ થાય, કારણ કે એ ભેદ હેય, તો તાદાત્મ સંભવે નહિ. (બે અભિન્ન વચ્ચે તાદમ્ય હેય) અને તદુત્પત્તિ સમ્બન્ધ તો સ્વીકાર્ય જ નથી. (આકાર અને અર્થવચ્ચે પરસ્પર કાર્યકારણભાવ અસિદ્ધ છે. તદુત્પત્તિસંબંધ કાર્ય-કારણવચ્ચે હેય.) હવે જો બન્ને વચ્ચે (અર્થ અને આકાર વચ્ચે) અભેદ સ્વીકારશો, તો પૂર્વોક્ત બન્ને ઘેષ (અર્થ અને સંવેદન વચ્ચે એકતા અને અર્થનો અનાકાર બનવાનો દોષ) પ્રાપ્ત થશે. ૬૪રા तमेव विततीकर्तुमाहઆ જ વાતને પહોળી કરે છે - तदभिन्नागारत्ते दोण्हवि एगत्तमो कहं ण भवे? । नाणे व तदागारे तस्साणागारभावोत्ति ॥६४३॥ (तदभिन्नाकारत्वे दूयोरपि एकत्वं कथं न भवेत् । ज्ञाने वा तदाकारे तस्यानाकारभाव इति ॥ तदभिन्नाकारत्वे-अर्थाभिन्नाकारत्वे सति [संवेदनस्य] द्वयोरपि-संवेदनार्थयोरेकत्वं कथं न भवेत् ? भवेदेवेति भावः, द्वयोरप्येकस्मादाकारादभिन्नत्वात् । ज्ञाने वा-ज्ञान एव वा तदाकारे-विवक्षिताकारसहिते सति तस्य-अर्थस्यानाकारभावः प्राप्नोति, तदाकारस्य ज्ञाने संक्रान्तत्वात् ॥६४३॥ ગાથાર્થ:- જે સંવેદન અર્થકારથી અભિન્ન હોય, તો સંવેદન અને અર્થ વચ્ચે એકત્વ કેમ ન આવે? અર્થાત આવે જ. કારણ કે અર્થ અને સંવેદન આ બન્ને એક જ આકારથી અભિન્ન છે. (પ્રથમથી અભિન્ન બીજે હેય, અને બીજાથી અભિન્ન કીજે હેય, તો ત્રીજો પ્રથમથી પણ અભિન્ન હેય) અથવા, જ્ઞાન=સંવેદન છે એ વિવલિત આકારથી યુક્ત હેય, તો અર્થ સ્વય અનાકારભાવ પામી જાય, કારણ કે તેનો આકાર જ્ઞાનમાં જ સંક્રમ પામી ગયો છે. ૬૪ષા अत्रार्थवादिमतमाशङ्कमान आहઅહીં અર્થવાદીના મતની આશંકા કરતા કહે છે. सिय तत्तुल्लागारं जं तं भणिमो अओ तदागारं । तग्गहणाभावे णणु तुल्लत्तं गम्मई कह णु? ॥६४४॥ (स्यात्, तत्तुल्याकारं यत् तत् भणामः अतस्तदाकारम् । तद्ग्रहणाभावे ननु तुल्यत्वं गम्यते कथं नु I) स्यादेतत्, न बूमोऽर्थगताकारक्रोडीकरणेन संवेदनं तदाकारं, किंतु यत्-यस्मात् तत्-संवेदनं तत्तुल्याकारम्अर्थाकारसदृशाकारमितियावत्, अतः-अस्मात्कारणात् तदाकारम्-अर्थाकारं ब्रूमः, ततो न कश्चिद्दोष इति, ++++++++++++++++ e- -47+++++++++++++++ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે જે ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક બાલાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * अत्राह-'तग्गहणेत्यादि' तद्वहणाभावे तस्यार्थस्य ग्रहणाभावे सति ननु संवेदनाकारस्यार्थीकारेण सह तुल्यत्वं कथं गम्यते ? नैव कथंचनेति भावः सादृश्यनिश्चयस्योभयग्रहणाधिष्ठानत्वात् ॥६४४ ॥ ગાથાર્થ- અર્થવાદી:- અમે એમ નથી કહેતા કેબઅર્થમાં રહેલા આકારને સ્વીકારતું હોવાથી જ્ઞાન અર્થના, આકારવાળું છે. અમે એમ કહેવા ઇચ્છીએ છીએ કે-સંવેદન=જ્ઞાન અર્થના આકારના તત્ય આકારવાળું હોવાથી અર્થાકારરૂપ છે. તેથી ઉપરોક્ત દોષોનો સંભવ નથી. જ્ઞાનવાદી:- આમ જ્ઞાન અર્થને ગ્રહણ કરતું નથી તેમ સિદ્ધ થશે. અને જો જ્ઞાન અર્થનું ગ્રાહક ન હોય, તો જ્ઞાનાકારની અર્થાકારસાથેની તત્યતાનો બોધ કેવી રીતે થશે? અર્થાત નહિ જ થાય, કારણ કે નિયમ છે કે જે બે વચ્ચે તુલ્યતાનો વિચાર કરવો હોય, તે બન્નેનું ગ્રહણ-જ્ઞાન થવું જોઈએ” જયારે અહીં તો અર્થકારનું ગ્રહણ જ નથી. ૬૪૪ अह सागाराउ च्चिय तत्तुल्लो दीसती तु सो जेणं । तम्मत्ताणहवणमो विहाय किं दंसणं अन्नं? ॥६४५॥ (अथ स्वाकारादेव तत्तुल्यो दृश्यते तु स येन । तन्मात्रानुभवनं विहाय किं दर्शनमन्यत् ॥ अथोच्येत स्वाकारादेव-नीलादिरूपात् स्वसंवेदनप्रमाणेनानुभूयमानात् सकाशात् तत्तुल्यो-ज्ञानाकारतुल्योऽर्थो गम्यते । यदप्युक्तम्- 'तग्गहणाभावे णणु इत्यादि' तदप्ययुक्तम्, येन कारणेन स्वाकारादनुभूयमानात्सोऽर्थो दृश्यत एव । तुशब्द एवकारार्थः । तथा च लोके वक्तारो भवन्ति- 'नीलाकारं मे ज्ञानं समुत्पन्नमतो बाह्येनापि नीलेन भवितव्यमिति' । अत्राह-'तम्मत्तेत्यादि' तन्मात्रानुभवनं-ज्ञानगतस्वरूपमात्रानुभवनं 'मो' निपातः पूरणार्थः, विहायपरित्यज्य किमन्यत दर्शनं? येनोच्येत 'दीसई उ सो जेणंति', नैव किंचित, किंत ज्ञानगतस्वरूपमात्रानभवनमेव ॥४५॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- સ્વસંવેદનપ્રમાણથી જ્ઞાનના જ અનુભવાતા નીલાદિરૂપઆકારથી જ જ્ઞાનાકારતુલ્ય બાહ્યર્થનોં બોધ થાય છે. તથા “ત...હણાભાવે ણણ' વગેરે જે કહ્યું(=અર્થના ગ્રહણના અભાવમાં સાદૃશ્યનું ગ્રહણ શી રીતે થશે? ઈત્યાદિ) તે પણ બરાબર નથી. કારણ કે અનુભવાતા સ્વાકાર(Gજ્ઞાનાકાર) થી તે અર્થ પણ જ્ઞાત થાય જ છે. (મૂળમાં ‘પદ જકારઅર્થક છે.)લોકોમાં પણ એવો વચનપ્રયોગ થતો દેખાય છે. મને નીલાકાર જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું, તેથી બાહ્યાર્થ પણ નીલ જ હોવો જોઈએ જ્ઞાનવાદી:- જ્ઞાનગત સ્વરૂપમાત્રના અનુભવને છોડી બીજું શું દર્શન થાય છે? કે જેથી કો છો કે તે અર્થ દેખાય છે અર્થાત તેવા પ્રકારના જ્ઞાનાકારના અનુભવને છોડી અન્ય કશાનું દર્શન થતું જ નથી. તેથી “અર્થ દેખાય છે તેમ કહેવું વ્યાજબી નથી. ૬૪પા अथ मन्येथाः एतदेवार्थदर्शनं यज्ज्ञानस्य स्वाकारानुभवनमित्यत आहઅર્થવાદી કદાચ એમ માનતો હોય કે “જ્ઞાન આકારનો અનુભવ કરે એ જ અર્થદર્શન છે તો તે બરાબર નથી. એમ દર્શાવતા જ્ઞાનવાદી કહે છે तम्मि य वेदिज्जते पडिवत्तीए कहं न अन्नस्स? । जायइ अइप्पसंगो तुल्लत्ताओ तयमसिद्धं ॥६४६॥ (तस्मिंश्च वेद्यमाने प्रतिपत्त्या कथं नान्यस्य । जायतेऽतिप्रसंगस्तुल्यत्वात् तदसिद्धम् ॥ तस्मिंश्च-नीलाद्याकारोपेतज्ञानस्वरूपमात्रे वेद्यमाने कथमन्यस्यापि पीतस्य प्रतिपत्त्या हेतुभूतया न जायते अतिप्रसङ्गः? जायत एवेति भावः, नियामकाभावात् । 'तुल्लत्ताउत्ति' स्यादेतत्, तत् ज्ञानं न पीतेनार्थेन तुल्यं किंतु नीलेन ततस्तेनैव सह तुल्यत्वात् तस्यैव प्रतिपत्तिर्भविष्यति न पीतस्येति नातिप्रसङ्गः । अत आह-'तयमसिद्धति' तत्-तुल्यत्वमसिद्धं, तुल्यत्वसिद्धेरुभयग्रहणनिबन्धनत्वात्, तस्य चोभयग्रहणस्याभावादिति ॥६४६॥ ગાથાર્થ:- જો જ્ઞાનના સ્વાકારના અનુભવમાત્રથી નહિ અનુભવાતા અર્થનો નિર્ણય થઈ શકતો હોય, તો નીલાદિ. આકારથી યુક્ત જ્ઞાનસ્વરૂપમાત્રના સંવેદનમાં આ જ પ્રમાણે પીતરૂપ બાહ્યર્થનો પણ નિર્ણય થવારૂપ પ્રતિપત્તિથી અતિપ્રસંગ કેમ ન આવે? અર્થાત એના એ જ નીલાકારજ્ઞાનસંવેદનના આધારે નીલબાધાર્થની જેમ પીતાદિ બધા જ બાહ્યર્થનો નિર્ણય થવાનો અતિપ્રસંગ છે. કારણ કે કોઈ એવો નિયામક નથી કે જેના આધારે કહી શકાય કે બહાર નીલઅર્થ જ છે અને પીતઅર્થ નથી. તેથી જ્ઞાનના નીલાકારસંવેદનથી બાહ્ય નીલઅર્થનો નિર્ણય કરવો યોગ્ય નથી. અર્થવાદી:- નીલજ્ઞાન પીતબાધાર્થને તત્ય નથી, પરંત નીલબાહ્યર્થને જ તલ્ય છે. આમ જ્ઞાનની નીલાર્થસાથેની તત્યતા જ અહીં નિયામક છે, તેથી બાહ્ય નીલાર્થનો જ નિર્ણય થશે, નહિ કે પીતાર્થનો. તેથી અતિપ્રસંગ આવશે નહિ. જે આ જ ક ક ક ક ક ક જે જ ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 48 * * * * * * * * * * * * Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ounसिदि + + + + + + + + + + + + + + + + + + જ્ઞાનવાદી:- નીલજ્ઞાનની નીલાર્થસાથે તત્યતા જ અસિદ્ધ છે. કારણ કે પૂર્વે કહ્યું તેમ તત્યતાનો નિર્ણય બને તલનીય અર્થોના ગ્રહણમાં જ સંભવે છે. પણ બાહ્યાર્થીનું ગ્રહણ ન હોવાથી જ્ઞાન–બાહ્યાર્થઉભયનું ગ્રહણ નથી. ૬૪૬ાા अपि च, पणी, तुल्लत्तं सामन्नं एगमणेगासितं अजुत्ततरं ।। तम्हा घडादिकज्जं दीसइ मोहाभिहाणमिदं ॥६४७॥ (तुल्यत्वं सामान्यमेकमनेकाश्रितमयुक्ततरम् । तस्माद् घटादिकार्यं दृश्यते मोहाभिधानमिदम् ॥) तुल्यत्वं-तुल्यरूपत्वं सामान्यं, तच एकम्-एकरूपं सत् अनेकाश्रितं-ज्ञानार्थोभयाश्रितमित्ययुक्ततरम्, एकस्यानेकाश्रितत्वायोगात्, अन्यथैकत्वक्षतेः । तस्मात् परमाणूनां कार्यं घटादि दृश्यत इति मोहाभिधानमिदम् ॥६४७॥ ગાથાર્થ:- તુલ્યરૂપપણાનો અર્થ છે સામાન્ય. આ સામાન્ય સ્વયં એક છે. તેથી એકરૂપ તત્યતાને જ્ઞાન અને અર્થ એમ ઉભયમાં રહેલી સ્વીકારવી પડશે, જે તદ્દન અસંગત છે; કારણ કે એક વસ્તુ અનેકમાં રહી શકે નહિ. જો રહે તો તેના એકત્વને ક્ષતિ પહોંચે–એકરૂપ ન રહે. આમ અર્થવાદીની બાહ્યાર્થસાધક દલીલો ધૂળભેગી થાય છે. તેથી “પરમાણુઓના ઘડવગેરે કાર્યો દેખાય છે તેવું વચન મૂઢતાથી બોલાયું છે. ૬૪છા નિરાકાર જ્ઞાન અર્થારાહક अह उ निरागारं चिय विनाणं गाहगं कहं सिद्धं? । भावम्मिवि तस्सेव उ ण उ अन्नस्सत्ति को हेतू? ॥६४८॥ (अथ तु निराकारमेव विज्ञानं ग्राहकं कथं सिद्धम् । भावेऽपि तस्यैव तु न तु अन्यस्येति को हेतुः? |) अथैतद्दोषभयाद् एवमुच्येत-न साकारं ज्ञानं किंत निराकारमेव सत् बाह्यस्य घटादेः परिच्छेदकमिति । अत्राह 'गाहगं कहं सिद्धं' यद्यर्थाकारपरिस्फूर्त्तिाने नाभ्युपगम्यते ततः कथं तत् ज्ञानमर्थस्य ग्राहकं सिद्धं? नैव सिद्धमितिभावः । अर्थग्राहकत्वनिबन्धनविशेषाभावात् । अस्तु वा निराकारमपि सत् अर्थस्य ग्राहकं तथापि तत्तस्यैवार्थस्य ग्राहकं नत्वन्यस्येत्यत्र को हेतुः? नैव कश्चनेत्यर्थः, तत्सत्तामात्रस्य सर्वानर्थान् प्रति अविशिष्टत्वात् ॥६४८॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- જ્ઞાનને સાકાર માનવામાં આ બધી પંચાત ઊભી થાય છે. આના કરતાં નિરાકાર જ્ઞાન જ બાધાર્થનું બોધક છે, તેમ સ્વીકારવું બહેતર છે. જ્ઞાનવાદી:- જો જ્ઞાનમાં અર્થકારની પરિસ્કૂરણા નહિ સ્વીકારો જ્ઞાનને નિરાકાર સ્વીકારશો, તો એ જ્ઞાન અર્થના ગ્રાહકતરીકે કેવી રીતે સિદ્ધ થશે? અર્થાત સિદ્ધ નહીં જ થાય. કારણ કે જ્ઞાનની નિશ્ચિતઅર્થની ગ્રાહકતામાં કારણભૂત કોઈ વિશેષ હાજર નથી. તેથી કાંતો કોઈ અર્થ ગ્રહણ નહીં થાય, કાતો એક જ જ્ઞાનથી તમામ અર્થો ગ્રહણ થશે. અથવા તો, માની લો કે નિરાકાર એવું પણ જ્ઞાન અર્થનું ગ્રાહક છે. છતાં, આ જ્ઞાન તે જ અર્થનું ગ્રાહક છે અને અન્ય અર્થનું નથી, એમ કહેવામાં શું કારણ છે? અર્થાત કશું કારણ નથી. કારણ કે તે નિરાકાર જ્ઞાનની હાજરી તમામ અર્થોમાટે સમાન છે. કારણ કે તમામ અર્થોનું એક જ સરખું નિરાકાર જ્ઞાન સંભવે છે.) ૬૪૮ अत्र परो विशेषमाहઅહીં અર્થવાદી વિશેષ બતાવે છે. तेणेव जतो जणितं किमेत्थ माणं? तदत्थपडिवत्ती । सा किं नाणा भिन्ना? आममपुव्वो इमो मोहो ॥६४९॥ (तेनैव यतो जनितं किमत्र मानम् ? तदर्थप्रतिपत्तिः । सा किं ज्ञानाद् भिन्ना? आममपूर्वोऽयं मोहः ॥ यतो-यस्मात्तेनैव अर्थेन तत् ज्ञानं जनितं नत्वन्येन, तत्कथमन्यस्यापि तद्भाहकं भवेत् ? अत्राह-ननु तेनैवार्थेन इदं विज्ञानं जनितं नत्वन्येनेत्यत्र किं मान-प्रमाणं? नैव किंचनेति भावः। अथोच्येत तदर्थप्रतिपत्तिरेव प्रमाणम्, तथाहि-सोऽर्थस्तेन ज्ञानेन प्रतिपद्यते न च सा प्रतिपत्तिस्ततोऽर्थादत्पत्तिमन्तरेणोपपद्यत इति। अत्राह-'सा किं नाणेत्यादि' नन सा-प्रतिपत्तिः किं ज्ञानाद्भिन्ना? येनैवमुच्यते अर्थप्रतिपत्त्या ज्ञानस्य तजनितत्वं गम्यते तस्माच्च प्रतिकर्मव्यवस्थेति, नैव भिन्ना, किंतु सा ज्ञानमेव, तच्चाद्यापि दुःस्थितमित्यामम्-अतिशयेनापूर्वो मोहो येन प्रेक्षावानपि भवानित्थमसंबन्धं भाषत इति ॥६४९॥ ++++++++++++++++घर्भसं -मास २-49+++++++++++++++ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * બાહ્વાર્થસિદ્ધિ * * * ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- તે જ અથૅ તે નિરાકાર જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કર્યું છે. તેથી આ જ્ઞાન એ જ અર્થનું ગ્રાહક બનશે. એ જ્ઞાનના જનક નથી, એવા અન્ય અર્થો શી રીતે તે જ્ઞાનથી ગ્રાહ્ય બને? અર્થાત્ ન જ બને. તાત્પર્ય:- ‘નિરાકાર એવું પણ જ્ઞાન નિશ્ચિતઅર્થનું જ ગ્રાહક બને' એવા નિયમમાં આ નિયામક છે- જે અર્થથી જ્ઞાન ઉદ્દભવે, જ્ઞાન તે જ અર્થનું ગ્રાહક બને અન્યનું નહિ. તેથી કોઇ દોષ સંભવતો નથી. જ્ઞાનવાદી:- તે જ અર્થે આ નિરાકાર જ્ઞાન ઉત્પન્ન કર્યું છે, તેવા નિર્ણયમાં અર્થાત્ અમુક જ્ઞાનનો જનક અમુક જ અર્થ છે, તેવા નિર્ણયમા કર્યું પ્રમાણ છે? અર્થાત્ કોઇ પ્રમાણ નથી. અર્થવાદી: તે જ અર્થની પ્રતિપત્તિ જ અહીં પ્રમાણ છે. તાત્પર્ય:- તે અર્થ તે જ જ્ઞાનથી પ્રતિપન્ન (=સંવેદિત) થાય છે. આ પ્રતિપત્તિ (=સંવેદન) તે અર્થમાથી જ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ વિના સંભવે નહિ. જ્ઞાનવાદી:- શું આ પ્રતિપત્તિ જ્ઞાનથી ભિન્ન છે? કારણ કે જો આ પ્રતિપત્તિ જ્ઞાનથી ભિન્ન હોય, તો જ અર્થની તે પ્રતિપત્તિથી જ્ઞાન અર્થથી ઉત્પન્ન થયુ' તેવો નિર્ણય થાય, અને તેના આધારે તે–તે બાહ્યાર્થના તે-તે ગુણનો નિર્ણય થઇ શકે. પરંતુ આ પ્રતિપત્તિ કંઇ જ્ઞાનથી ભિન્ન નથી, કિન્તુ અભિન્ન જ છે. ( અને તે જ્ઞાન તે અર્થનું જ છે, એ તો હજી અસિદ્ધ છે.) તેથી ખરેખર આ તમારી અપૂર્વ મૂઢતા છે કે, વિચારશીલ થઇને પણ આવુ અસમ્બદ્ધ બોલો છો (અહીં મૂળકારશ્રીના આમમ્’ પદનો અર્થ ‘હા” એવો કરીએ, તો જ્ઞાનવાદી:- આ પ્રતિપત્તિ જ્ઞાનથી ભિન્ન છે? અર્થવાદી:- હા! (કેમકે અભિન્ન માનવામાં તો જ્ઞાન–પ્રત્તિવૃત્તિ એક જ થઇ જવાથી પ્રતિપત્તિ માનવાથી કોઇ અર્થ સરે નહીં) જ્ઞાનવાદી:- આ તમારો અપૂર્વ મોહ છે. કેમકે એ ભિન્ન પ્રતિપત્તિ માનવામાં ઘણા દોષો છે. જેમકે નિરાકાર જ્ઞાનથી થતી તે પ્રતિપત્તિ સ્વયં સાકાર છે કે નિરાકાર? ઇત્યાદિ પ્રશ્નોનુ ચક્ર ચાલે) ૫૬૪૯લા પરમાણુસમુદાયનો નિષેધ → एतेणं समुदायो पडिभणिओ चेव होइ नायव्वो । जंणुमादिजोगं विहाय णो जुज्जए सोऽवि ॥ ६५० ॥ (एतेन समुदायः प्रतिभणित एव भवति ज्ञातव्यः । यद् द्व्यणुकादियोगं विहाय नो युज्यते सोऽपि II) एतेन परमाणुनिराकरणेऽपि समुदायोऽपि प्रतिभणित एव-निराकृत एव भवति ज्ञातव्यः, समुदाय्यभावे समुदायाभावात् । अन्यच्च सोऽपि परमाणुसमुदायो यस्मान्न द्व्यणुकादियोगं - द्व्यणुकत्र्यणुकादिसंबन्धं विना युज्यते ॥ ६५० ॥ ગાથાર્થ:- આમ પરમાણુરૂપે બાહ્યાર્થના અસ્તિત્વનો નિષેધ કર્યો, તેથી પરમાણુસમુદાયરૂપે પણ બાહ્યાર્થના અસ્તિત્વનો નિષેધ સમજી લેવો, કારણ કે સમુદાયી (=સમુદાયમાં રહેનાર) ના અભાવમાં સમુદાયનો પણ અભાવ આવે. વળી, આ પરમાણુસમુદાય પણ ચણુક, ઋણુકવગેરેના સમ્બન્ધ વિના સંભવે નહિ. ૫૬૫ના તતઃ નિમિત્યાદ– તેથી શું? તે બતાવે છે....... संयोगोऽवि य तेसिं देसेणं सव्वहा व होज्जाहि ? । देसेण कहमणुत्तं ? अणुमेत्तं सव्वहाभवणे ॥६५१॥ (संयोगोऽपि च तेषां देशेन सर्वथा वा भवेत् ? । देशेन कथमणुत्वम् ? अणुमात्रं सर्वथाभवने ॥) संयोगोऽपि च तेषां परमाणूनां किं देशेन भवेत् सर्वात्मना वा ? यदि देशेन ततः कथं तेषां परमाणुत्वं ? निरंशस्यैव परमाणुत्वाभ्युपगमात्, देशाभ्युपगमे सांशताप्रसङ्गात् । अथ सर्वथेति पक्षस्तत्राह - 'अणुमेत्तं सव्वहाभवणे' सर्वथा- सर्वात्मना संयोगस्य भवनेऽभ्युपगम्यमाने अणुमात्रं प्राप्नोति, परमाणोः परमाण्वन्तरे सर्वात्मना प्रवेशात् ॥६५१॥ ગાથાર્થ:- તે પરમાણુઓનો સંયોગ પણ શુ દેશથી (-એકભાગથી) છે કે સર્વાશે છે ? જો દેશથી હોય, તો તેઓમાં (=પરમાણુઓમા ) પરમાણુત્વ (=પરમાણુપણું) શી રીતે સંભવશે? કારણ કે જેઓ અંશ વિનાના હોય, તેઓને જ પરમાણુ તરીકે સ્વીકાર્યા છે. જયારે અહીં પરમાણુઓમા દેશથી સયોગની કલ્પના કરી પરમાણુઓને અંશયુક્ત જાહેર કર્યા. તેથી આ વાત અસંગત છે. હવે જો પરમાણુઓનો સર્વાંગે સયોગ સ્વીકારશો, તો સમુદાય પણ પરમાણુરૂપ જ રહેશે, કેમકે એક પરમાણુ બીજા પરમાણુમા સર્વાંશે સમાવેશ પામી ગયો. ૫૬૫ા अह अपरोप्परपच्चासन्नत्तणमो उ होइ संजोगो । पत्तेयं व अगहणं पावइ इय समुदिताणंति (पि पा.) ॥ ६५२ ॥ (अथ परस्परप्रत्यासन्नत्वं तु भवति संयोगः । प्रत्येकमिवाग्रहणं प्राप्नोतीति समुदितानामपि ॥) * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 50 * * * * Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * બાલાર્યસિદ્ધિ જે જ ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક જ જે જે अथ मन्येथा न परस्परस्पप्रवेशलक्षणः परमाणूनां संयोगः, किंतु परस्परप्रत्यासन्नत्वमेव, तथा च सति न पूर्वोक्तदोषावकाश इति। अत्राह-'पत्तेयं वेत्यादि' वशब्द उपमायाम, यदाह वररुचिः- "पिव-गिव-विव-इवार्थे वश्चेति। प्रत्येकमिव-केवलानामिव समदितानामपि स्वस्वरूपनियतत्वात् तेषामग्रहणं प्राप्नोति ॥६५२॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- પરમાણુઓનો પરસ્પરમાં પ્રવેશરૂપ સંયોગ અમે માનતા નથી. બલ્ક અમે એમ કહીએ છીએ કે પરમાણુઓનું પરસ્પર સમીપવર્તી હોવું એ જ તેઓનો સંયોગ છે. તેથી પૂર્વોક્તદોષને અવકાશ નથી. જ્ઞાનવાદી:- જો આમ હોય, તો પણ પરમાણુઓ જેમ અલગ-પ્રત્યેક ઉપલબ્ધ નથી, તેમ તેઓ ભેગા થાય, તો પણ ઉપલબ્ધ થશે નહિ. કારણ કે ભેગા થવા છતાં તેઓ અનુપલબ્ધિરૂપ પોતપોતાના સ્વરૂપમાં તો રહ્યા જ છે. (મૂળમાં “વ' પદ ઉપમાઅર્થે છે. વરચિએ કહ્યું જ છે કે પ્રાકૃતમાં “પિવ-વિ-વિવ-તથા વ અવ્યયો ઇવ(=ઉપમા) અર્થ વપરાય છે.).૬૫રા ગપિ – વળી हाणी य अणुत्तस्सा दिसिभेदातो णयन्नहा घडति । - तेसिमिहो पच्चासन्नतत्ति परिफग्गुमेयंपि ॥६५३॥ (हानिश्चाणुत्वस्य दिग्भेदतो नान्यथा घटते । तेषां मिथः प्रत्यासन्नत्वमिति परिफला एतदपि ॥) . यदि परस्परं प्रत्यासन्नत्वं संयोग इष्यते ततो दिग्भागभेदतोऽवश्यं दिग्भागभेदसंभवतो हानिश्चाणुत्वस्य प्राप्नोति । 'नयेत्यादि' चो हेतौ। यस्मान्न अन्यथा-दिग्भागभेदमन्तरेण तेषामणूनां मिथ:-परस्परं प्रत्यासन्नता घटते । तथाहि-एकस्य . परमाणोः सर्वासु दिक्षु तदपरपरमाणुभावेन मिथस्तेषां प्रत्यासन्नत्वं तथाच सत्यवश्यं दिग्भागभेदसंभवस्तस्माच्च परमाणुत्वक्षितिरित्येतदपि समुदायपरिकल्पनं परिफल्गु असारमिति ॥६५३॥ ગાથાર્થ:- જો “પરમાણઓનું પરસ્પર સમીપવર્તી હોવું' એ જ સંયોગ હોય, તો દિશાભેદના કારણે અણત્વની ઘનિનો પ્રસંગ આવશે. (ચ પદ હેત્વર્થ છે.) કારણ કે દિશાના ભેદ વિના (વિભિન્ન દિશાસ્પર્શિપણું વિના) પરસ્પરની સમીપતા સંભવે નહિ. જૂઓ-એક પરમાણની બધી દિશાઓમાં બીજા પરમાણુઓ રહ્યા હોય, તો તેઓ વચ્ચે પરસ્પર સમીપતા સંભવે. આમ પરમાણુ એક દિશાથી એક પરમાણને સ્પર્શ, બીજી દિશાથી બીજા પરમાણુને. આમ એક જ પરમાણને આશ્રયી દિશાભેદ (દિશાઓનું વિભાજન) સંભવશે. તેથી જૂદી જૂદી દિશાને એ પરમાણુના જૂદા જૂદા અંશ સ્પર્યા છે, તેમ સ્વીકારવાનું રહેશે. પણ તેમ સ્વીકારશો, તો પરમાણુ પરમાણુરૂપે જ નહિ રહે, કેમકે નિરંશપણું જ પરમાણનું સ્વરૂપ છે. આમ પરમાણની અસિદ્ધિ થવાથી સમુદાય પણ અસિદ્ધ થશે. તેથી આ સમુદાયકલ્પના પણ રસકસ વિનાની છે. ૬૫ડા અવયવિતત્વનું ખંડન अवयविपक्षमधिकृत्याहહવે અવયવીપક્ષને ઉદેશી કહે છે. अवयविणोवि य गहणं समुदायअगहणओ णिसिद्धं तु । वित्तीवि अवयवेसुं न सव्वहा जुज्जती तस्स ॥६५४॥ (अवयविनोऽपि च ग्रहणं समुदायाग्रहणतो निषिद्धं त । वत्तिरपि अवयवेष न सर्वथा युज्यते तस्य ॥ अवयविनोऽपि च ग्रहणं समुदायाग्रहणतो निषिद्धमेव द्रष्टव्यम् । तुशब्द एवकारार्थः । नहि स्वारम्भकाणुद्वयग्रहणमन्तरेण द्विप्रदेशिकावयविनो ग्रहणमुपपद्यते, तस्य च स्वारम्भकाणुद्वयस्य ग्रहणं "पत्तेयं व अगहणमित्यादिना प्रागेवापास्तमिति, अन्यच्च-वृत्तिरपि तस्यावयविनः स्वारम्भकेष्ववयवेषु सर्वथा न घटते ॥६५४॥ ગાથાર્થ:- સમુદાયનું જ્ઞાન (ગ્રહણ જ્ઞાન) થતુ નથી, એમ કહેવાથી જ અવયવીના જ્ઞાનનો પણ નિષેધ થાય જ છે. (મૂળમાં 'પદ જકારઅર્થક છે.) દ્ધિપ્રદેશી અવયવીના જનક બે પરમાણુઓના જ્ઞાન વિના દ્વિપ્રદેશી અવયવીનું જ્ઞાન સંભવે નહિ. અને “પયંત અગહણં' (ગા. ૬૫ર) સૂત્રથી જ પૂર્વ દ્વિપ્રદેશી અવયવીના જનક પરમાણુઓનું પ્રત્યેકનું જ્ઞાન નિષિદ્ધ કર્યું છે. આમ કારણભૂત પરમાણઓના અજ્ઞાનમાં તેઓના કાર્યભૂત અવયવીનું જ્ઞાન સંભવે નહિ) વળી, અવયવી પોતાના જનક અવયવોમાં રહે તે પણ સર્વથા સંભવતું નથી. ૬૫૪ તથાદિતે આ પ્રમાણે * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 31 * * * * * * * * * * * * * * * Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++ ouiffe + + + + + पत्तेयमवयवेसुं देसेणं सव्वहा व सो होज्जा ? | देसेणं सावयवोऽवयविबहुत्तं अदेसेणं ॥६५५॥ (प्रत्येकमवयवेषु देशेन सर्वथा वा स भवेत् । देशेन सावयवोऽवयविबहुत्वमदेशेन II ) प्रत्येकमवयवेषु सः-अवयवी देशेन वा भवेत् सर्वथा - सर्वात्मना वा ? यदि देशेन ततः सोऽवयवी सावयवः - सदेशः प्राप्नोति, तथा च सति स्वाभ्युपगमविरोधः । अथादेशेन - कात्र्त्स्न्येनेति पक्षस्ततोऽवयविबहुत्वं प्राप्नोति, यावन्तोऽवयवास्तावन्तोऽवयविन: प्राप्नुवन्ति, तथा च प्रतीतिविरोधः ॥६५५॥ ગાથાર્થ:- આ અવયવી પોતાના પ્રત્યેક અવયવમા અંશે-દેશથી રહે છે કે સર્વાશે રહે છે? જો દેશથી રહેતો હોય, તો તે અવયવી અંશયુક્ત સિદ્ધ થશે. અને તો તમારે સ્વમતસાથે વિરોધ આવશે. હવે જો અવયવી પોતાના અવયવોમા અદેશ =સંપૂર્ણતયા રહે છે” તેવો પક્ષ સ્વીકારશો, તો અનેક અવયવી થવાનો પ્રસંગ છે. કારણ કે જેટલા અવયવો હોય, તેટલા અવયવી થવાની આપત્તિ છે. આમ અવયવિબહુત્વનો પ્રસંગ છે, જે પ્રતીતિથી વિરુદ્ધ છે. ૫૬૫મા अह वट्टतित्ति भणिमो जुज्नति एतं विहाय पक्खदुगं । जइ होइ कोइ अवरो वित्तिपगारो स तु ण दिट्ठो ॥६५६ ॥ (अथ वर्त्तत इति भणामो युज्यते एतद् विहाय पक्षद्विकम् । यदि भवति कोऽपि अपरो वृत्तिप्रकारः स तु न दृष्टः ॥ ) अथोच्येत न भणामो वयमवयवी देशेन कार्त्स्न्येन वा वर्त्तते, एकस्य देशकात्र्त्स्यविकल्पायोगात्, किंतु स तत्र वर्त्तत इत्येव भणामः, ततः कुतः पूर्वोक्तदोषावकाश इति । अत्राह - 'जुज्जइ इत्यादि' युज्यते एतत् पूर्वोक्तं यदि देशकार्यलक्षणपक्षद्विकं विहाय अपरः कोऽपि वृत्तिप्रकारो भवेत्, स तु न दृष्ट इति वचनमात्रमेतत् ॥६५६ ॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- અમે એમ નથી કહેવા માંગતા કે અવયવી અવયવમા દેશથી કે સંપૂર્ણતયા રહે છે કારણ કે જે એક જ છે તેમાં દેશ કે સંપૂર્ણતાનો વિકલ્પ સંભવે નહિ. અમે તો માત્ર એટલું જ કહીએ છીએ કે અવયવી અવયવમાં રહે છે” તેથી પૂર્વોક્ત દોષોને અવકાશ ક્યાંથી હોય? અર્થાત્ અવકાશ નથી. જ્ઞાનવાદી:- તમારી વાત યોગ્ય તો ઠરે, જો રહેવામાટે (=વૃત્તિમાટે) દેશ અને સંપૂર્ણતાને છોડી અન્ય કોઇ વિક્લ્પ સભવતો હોય, પણ તે તો કયાંય દેખાતો જ નથી. અર્થાત્ એક વસ્તુ બીજામાં રહેતી હોય, તો કાં તો દેશથી રહે અને કા તો સર્વથા રહે, એ સિવાય અન્ય કોઇ રીતે તો રહેવાપણું સંભવે જ નહિ, તેથી આ બેમાંથી એકેય પ્રકારે રહે નહિ અને છતા રહે છે” એવું કહેવું એ માત્ર વાણીવિલાસ છે સત્ય નહિ. ૫૬૫ા किं च इमोऽवयवाणं अभिनदेसो व्व होज्ज इतरो वा ? । जति तावऽभिन्न सो भिन्ना दुपदेसिए ण अणू ॥६५७॥ एवं च अणिच्चत्तं सपदेसत्तं च पावइ अणूणं । तब्भेदासति तदभिन्नदेसताऽवयविणो जुत्ता ॥ ६५८ ॥ (किञ्चायमवयवानामभिन्नदेशो वा भवेदितरो वा ? । यदि तावदभिन्नदेशो भिन्नौ द्विप्रदेशिके नाणू II) (एवं चानित्यत्वं सप्रदेशत्वं च प्राप्नोति अणूनाम् । तदभेदासति तदभिन्नदेशताऽवयविनो युक्ता II) किंच-अयम्-अवयवी स्वारम्भकाणामवयवानामभिन्नदेशो वा भवेत् इतरो वा भिन्नदेशः ? तत्र यदि तावद् अभिन्नदेश इति पक्षस्ततो द्विप्रदेशिकेऽवयविनि न भिन्नौ तावणू । कुत इति चेदत आह- 'तब्भेदासइ इत्यादि' उत्तरार्द्धम् । यस्मात्ताभ्याम्-अणुभ्यां सह भेदासति - भेदासत्त्वे भेदाभावे सति तदभिन्नदेशता - स्वारम्भकाणुद्वयाभिन्नदेशता अवयविनो युक्ता नान्यथा, ततो नाभिन्नदेशतायां तावणू भिन्नौ भवितुमर्हतः ॥ ६५७ ॥ पूर्वार्द्धम्, एवं च सति अण्वोरवयविनः सकाशाद्भेदाभावे सति द्विप्रदेशिकावयविवद् अण्वोरपि अनित्यत्वं सप्रदेशत्वं च स्वतन्त्राभ्युपगमविरोधि प्राप्नोतीति ॥६५८॥ ગાથાર્થ:–વળી, આ અવયવી પોતાના જનક અવયવોથી અભિન્નદેશવાળો છે કે ભિન્નદેશવાળો? જો અભિન્ન દેશવાળો છે. એવો પક્ષ લેશો, તો તે બેપ્રદેશવાળા અવયવી કરતાં તેના કારણભૂત બે અણુઓ ભિન્ન થશે નહીં. (મૂળમાં કારણ બીજી ગાથાના ઉત્તરાર્ધમાં છે.) કારણ કે એ બન્ને અણુસાથે જો તે દ્વિપ્રદેશી અવયવીની અભિન્નતા હોય, તો જ તે અવયવી પોતાના જનક બન્ને અણુઓથી અભિન્નદેશવાળો થઇ શકે, અન્યથા નહિ (નહિતર અવયવીના દેશ અને અણુ અભિન્ન થાય, પણ અવયવી એ બન્નેથી ભિન્ન થઇ જાય, અને તો એ દેશ અવયવીના કે અણુના? ઇત્યાદિ આપત્તિઓ આવે) તેથી અભિન્નદેશપક્ષે અણુઓ અવયવીથી ભિન્ન +++ धर्मसंशि-लाग २ - 52 +++ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ सिदि++++++++++++++++++ થઈ શકે નહિ. (હવે બીજી ગાથાનો પૂર્વાદ્ધ બતાવે છે.) આમ અણુઓ અવયવીથી અભિન્ન થયા, તેથી અણઓ પણ દ્ધિપ્રદેશી અવયવીની જેમ અનિત્ય અને સંપ્રદેશ સિદ્ધ થશે. આમ તમારે સ્વમતવિરોધી સિદ્ધિ થવાનો અવસર આવશે. ૬૫૭-૬૫૮ાા अत्रार्थवादिनां मतमपाकर्तुमाशङ्कमान आह→ અહીં અર્થવાદીના આશયને દૂર કરવા, આશંકા કરતાં કહે છે. सिय अवयवी अमत्तो जं ता तदभिन्नदेसयाए वि । आगासेण व दोसा अणिच्चमादी कुतो नूणं? ॥६५९॥ (स्याद्, अवयवी अमूर्तो यत् तत् तदभिन्नदेशतायामपि । आकाशेनेव दोषा अनित्यत्वादयः कुतो नूनम् ॥ स्यादेतत्, यत्-यस्मादमूर्तोऽवयवी 'ता' तस्मात् तदभिन्नदेशतायामपि-आकाशेनेव तेनावयविना सह अभिन्नदेशतायामपि अणुद्वयस्य कुतो नूनमनित्यत्वादयो दोषाः प्राप्नुवन्ति ? नैव कुतश्चिदिति भावः ॥६५९॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- અવયવી અમૂર્ત છે. તેથી આકાશની જેમ અવયવીની સાથે અભિન્નદેશતા લેવા છતાં બને અણઓમાં અનિત્યતા વગેરે દોષ કેવી રીતે આવશે? અર્થાત એ દોષ નહિ આવે. ૬૫લા अत्राहઅહીં જ્ઞાનવાદી ઉત્તર આપે છે हंत अमुत्तत्तम्मिवि आगासस्सेव अणुवलंभो से । पावति तदभेदातो इतरस्सवि अहव उवलंभो ॥६६०॥ . (हन्त! अमूर्तत्वेऽपि आकाशस्येवानुपलम्भस्तस्य । प्राप्नोति तदभेदादितरस्यापि अथवा उपलम्भः ॥) . यद्यप्यनित्यत्वादिदोषप्रसङ्गभयादमूर्तोऽवयवी अभ्युपगम्यते तथापि अमूर्त्तत्वेऽपि 'हन्तेति' परामन्त्रणे 'से तस्यावयविन आकाशस्येवानपलम्भः प्राप्नोति, अथवा इतरस्यापि-आकाशस्य अवयविन इव उपलम्भः प्राप्नोति तदभेदात्-तयोरमूर्त्तत्वाभिन्नदेशत्वयोरुभयत्राप्यभेदात-अविशेषात् ॥६६०॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- અલબત્ત, આમ અણમાં અનિત્યત્વવગેરે દોષોના ભયથી તમે અવયવીને અમૂર્ત સ્વીકાર્યો, છતાં પણ તેથી વિસ્તાર નથી, કેમકે એ દોષ દૂર થવા છતાં નવા દોષો તો ઊભા થાય જ છે. જૂઓ! આમ અવયવીને અમૂર્ત સ્વીકારશો, તો તેનો (અવયવીનો) આકાશની જેમ અનુપલક્ષ્મ પણ સ્વીકારવો પડશે. અને જો તમારો અવયવી અમૂર્ત હોવા છતાં ઉપલભ્ય હોય, તો આકાશનો પણ અવયવીની જેમ ઉપલક્ષ્મ સ્વીકારવો પડશે, કારણ કે અવયવી અને આકાશ આ બન્નેમાં અમૂર્તવ અને અભિન્નદેશતા સમાનતયા છે. ૬૬ના अत्रार्थवादिनो मतमाहअर्थवाहीनो मत जावे छे....... . समवायलक्खणेणं संबंधेणं ण तंपि संबद्धं । तदभिन्नदेसताए को अन्नो एस समवायो? ॥६६१॥ (समवायलक्षणेन सम्बन्धेन न तदपि सम्बद्धम् । तदभिन्नदेशतायाः कोऽन्य एष समवायः ॥ अवयव्येष स्वावयवैः सह समवायलक्षणेन संबन्धेन संबद्धो न तदपि-आकाशं, ततो नामूर्त्तत्वाभिन्नदेशत्वाविशेषेऽपि तस्योपलम्भप्रसङ्ग इति । अत्राह-'तदभिन्नेत्यादि' ननु तदभिन्न देशतायाः-स्वावयवाभिन्नदेशतायाः सकाशात् अन्यः क एष समवायोऽवयविनः स्वावयवेषु? नैव कश्चिदित्यर्थः, किंतु तदभिन्नदेशतैव, सा चाकाशेऽप्यविशिष्टेति तस्याप्युपलम्भः प्राप्नोति, न च भवति, तस्मादवयविनोऽपि मा भूदिति ॥६६१॥ ગાથાર્થ:- અર્થવાદી:- આ અવયવી પોતાના અવયવો સાથે સમવાયરૂપ સંબંધથી સંબદ્ધ છે, જયારે આકાશનું એમ નથી. અર્થાત આકાશ પોતાના અવયવો સાથે સમવાયસંબંધથી સંબદ્ધ નથી. તેથી અમૂર્તત્વ અને અભિન્નદેશવરૂપે સમાન લેવા છતાં આકાશ ઉપલબ્ધ થવાનો પ્રસંગ નીં આવે. જ્ઞાનવાદી:- અવયવીનો પોતાના અવયવોમાં “સ્વઅવયવ-અભિનદેશતા' (પોતાના અવયવોથી અભિન્ન દેશવાળાપણું) ને છોડી અન્ય વળી કયો સમવાય છે? અર્થાત નવો કોઇ સમવાય નામનો સમ્બન્ધ નથી, તઅભિન્નદેશના જ છે. આ તદભિન્નદેશતા તો આકાશમાં પણ સમાનતયા છે જ. તેથી આકાશ પણ ઉપલબ્ધ થવાનો પ્રસંગ છે. પણ આકાશ ઉપલબ્ધ થતું નથી. તેથી અવયવીઓએ પણ ઉપલબ્ધ થવું જોઈએ નહિ. ૬૬૧ ++++++++++++++++घर्भसंजलि -२२ -53++++ + + + + + + + + + + + Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ + anal+++++ ++++++++++++ तम्हा मुत्तसस्वानुगमं मोत्तण णत्थऽमत्तस्स । गहणं तब्भावम्मि य एगंतेणं कहं भेदो? ॥६६२॥ (तस्मान्मूर्तस्वरूपानुगर्म मुक्त्वा नास्त्यमूर्तस्य । ग्रहणं तद्भावे च एकान्तेन कथं भेदः? II) तस्मान्मूर्तस्वरूपानुगम-मूर्तिमत्स्वारम्भकावयवस्वरूपानुगमनं मुक्त्वा नास्त्यमूर्तस्यावयविनो गृहणं, तद्भावे च मूर्तस्वारम्भकावयवस्वरूपानुगमभावे च कथमेकान्तेन द्विप्रदेशिकावयविपरमाणुद्वयोर्भेदः? किंत्वभेद एव, तथा च सति पूर्वोक्तानित्यत्वादिदोषप्रसक्तिरव्याहतप्रसरेति यत्किंचिदेतत् । किं च, तस्यावयविनः स्वारम्भकावयवेभ्यो जन्मापि न युक्त्योपपद्यते । तथाहि-परमाणव आकालमप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावाः । “सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुरित्यादिवचनात्,” ततश्च यदि प्रागवयविनो व्यणुकादेर्न जनकास्ततः पश्चादपि तत्स्वभावानिवृत्तेरजनका एव, अन्यथा प्रागपि ते जनयेयुरिति । अपि च, यदि स्वारम्भकावयवेभ्योऽवयवी भिन्नः समुत्पद्यते ततः पञ्चपलपरिमाणसूत्रपिण्डादेः पटादिस्पार्थान्तरावयविनिष्पत्तौ तस्यापि महत्त्वेनाभ्युपगमात् तोलने तुलानतिविशेषो गृह्येत, न च गृह्यते, तत्कथमास्था तत्र विदुषाम् ? अथोच्येत-यथा जलान्मत्स्यस्य काष्ठाद्वा घुणस्यार्थान्तरभूतस्योत्पत्तावपि न जलादितोलने तुलानतिविशेषो भवति, जलादिना मत्स्यादिगुस्त्वस्य प्रतिबन्धात्, तथा पटादिस्पावयविगुरुत्वस्यापि सूत्रपिण्डादिना प्रतिहतत्वात् न तत्तोलने तुलानतिविशेषो भवतीति, तदप्ययुक्तम्, दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यात् मत्स्यादयो हि न सकलं जलादिकमभिव्याप्यावतिष्ठन्ते त तदेकदेशं ततोऽपान्तरालस्खलनेन जलादिना तद्स्त्व प्रतिबन्धसंभवात् तत्र तलानतिविशेषों न भवति, अयं च पुनरवयवी सर्वानपि स्वावयवानभिव्याप्यावतिष्ठते ततः स्वावयवैरपान्तरालस्खलनाभावेन तद्गुस्त्वप्रतिबन्धायोगादवश्यं तोलने तुलानतिविशेषो भवेत्, न च भवति, तस्मान्नावयवी कश्चिदर्थान्तरभूतः स्वावयवेभ्यः समुत्पद्यत इति । अन्यच्च, असौ पटादिकोऽवयवी एकोऽभ्युपगम्यते ततस्तदेकदेशचलने सर्वस्यापि पटादेश्चलनप्रसङ्गः, तस्यैकस्वरूपत्वात्, अचलने वा चलाचलतदेकदेशयोर्विरुद्धधर्मसंसर्गाढ़ेदप्रसङ्गः, न च वाच्यमत्रावयवश्चलनक्रियावान् नावयवी, ततो नोक्तदोषावकाश इति, अवयविनो विनाशप्रसङ्गात्, तथाहि-अवयवेषु चलनक्रियावत्सु विभागो जायते, तेन च विभागेन संयोगोऽसमवायिकारणं निवर्त्यते, तस्मिंश्च निवर्तिते सति अवयविनो विनाशप्रसङ्गः, निमित्तकारणं हि तन्तुवायादिकं निवर्तमानं पटादिकं न निवर्तपति, यत्त असमवायिकारणं संयोगः समवायिकारणं तु तन्त्वादि तन्निवर्तमानमवश्यं निवर्तयतीति । तथा एकस्यावयवस्यावरणे सर्वस्याप्यावरणप्रसङ्गः, आवृतैकावयवस्थावयविरूपादवयवान्तरस्थस्यावयविरूपस्याभिन्नत्वात्, अथानावृतावयवस्थमवयविरूपमनावृतमिव दृश्यते इति मन्येथाः, ननु तर्हि दृश्यमानावयविरूपाव्यतिरेकादावृतावयवस्थमप्यवयविस्पं दृश्येत, अन्यथा तयोर्भेदप्रसङ्गात्, अवयवस्यावरणं नावयविन इति यथोक्तदोषाभाव इति चेत् ? एवं तर्हि प्रभूतावयवावरणेऽपि तस्यानावृतत्वात् अनावरणावस्थायामिव सर्वात्मना दर्शनप्रसङ्गः । अथोच्येत-अवयद्वारे दर्शनमित्यदृष्टावयवस्याप्रतिपत्तिरिति, तदयुक्तम्, आवृतावयवस्थानावृतावयवस्थावयविस्मयोरभेदेन सर्वात्मना प्रतिपत्तिप्रसङ्गस्य परिहर्तुमशक्यत्वात् । न चार्वाग्भागापरभागादयः सर्वेऽप्यवयवा युगपदुपलब्धुं शक्यन्ते, ततोऽवयवदर्शनद्वारेणावयविनो दर्शनाभ्युपगमे सर्वदैवास्यादर्शनप्रसङ्गः, रक्ते चैकस्मिन्नवयवे तत्स्थस्यावयविरूपस्यावयवान्तरेऽप्यभेदेन भावात् सर्वत्रापि रागप्रसङ्गो न वा क्वचिदपि । अवयवस्य रागो नावयविन इति चेत् ? नन्वेवं तर्हि अवयवरूपं रक्तमवयविस्पं चारक्तमित्येवं रक्तारक्ततयोपलम्भः स्यात्, न चासावस्तीति बालिशजल्पितमेतत् । अपि च, चतुरश्रा(सा)वयवि द्रव्यं येन प्राग्देशेन व्याप्तं तं प्राग्देशं परिच्छिन्दता प्रत्यक्षेण तस्याभावो व्यवच्छिद्यते, अन्यथा स एव परिच्छिन्नो न भवेत्, यदपि च प्रत्यग्लक्षणं देशान्तरं तदपि तेन व्यवच्छिद्यते, तस्य तदभावाव्यभिचारित्वात्, चतुरश्रा(सा)वयवि द्रव्यस्मं चैकमभ्युपगम्यते ततो यदेव तद्रपं प्राग्देशेन व्याप्तं तदेव तदभावेनापि व्याप्तमित्यायातं, तस्य प्रत्यगदेशेनापि व्याप्त्यभ्युपगमात, अन्यथा तस्यावयविद्रव्यरूपस्य चतुरश्र(स)स्य एकत्वाभ्युपगमक्षितिप्रसङ्गात्, प्रत्यगदेशस्य च प्राग्देशाभावोपेतत्वात, न चैतद्युक्तम्, एकत्र विधिप्रतिषेधयोर्युगपदसंभवात् । तन्न कश्चित्परपरिकल्पितोऽवयवी घटते इति ॥६६२॥ . ગાથાર્થ:- તેથી મૂર્તસ્વરૂપના અનુગમ વિના અમૂર્તઅવયવીનો બોધ સંભવે નહિ. અને તે હોય, તો એકાત્તભેદ કેવી રીતે હોય? આમ ઉપરોક્ત ચર્ચાથી પોતાના કારણભૂત એવા મૂર્તઅવયવોના સ્વરૂપના બોધ વિના અમૂર્ત અવયવીનો બોધ ++++++++++++++++ AGE-GUR२ . 54 + + + + + + + + + + + + + * * Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * બાલાર્થસિદ્ધિ જ * * * * * * * * * * * * * થાય નહીં એમ નક્કી થાય છે. અને જો અમૂર્તઅવયવીના બોધમાં તેના ઉપાદાનકારણભૂત અવયવોના સ્વરૂપનો અનુગમ ઇષ્ટ હોય, સંભવિત હોય, તો દ્વિપ્રદેશી ( બે પ્રદેશવાળા) અવયવી અને તેના અવયવભૂત બે પરમાણુઓનો પરસ્પર એકાન્તભેદ કેવી રીતે સંભવી શકે? અર્થાત ન જ સંભવે. તેથી અભેદ સ્વીકારવો જ રહ્યો. અને અભેદ સ્વીકારશો એટલે પૂર્વે કહેલા અનિત્યત્વવગેરે દોષોનો ગા.૬૫૮) પ્રસંગ અડચણ વિના ઊભો જ રહેશે, તેથી અર્થવાદીનો તર્ક કસ વિનાનો છે. પરમાણુસ્વભાવતર્કથી “અવયવી અવયવજન્ય' એ વાત ખોટી વળી, “તે અવયવી પોતાના જનકઅવયવોમાંથી ઉદ્દભવે છે. એ વાત પણ યુક્તિસંગત નથી. તે આ પ્રમાણે – “પરમાણ સૂક્ષ્મ અને નિત્ય છે. આવું વચન છે. તેથી પરમાણુઓ હંમેશા નાશ નહીં પામનારા, ઉત્પન્ન નીં થનારા અને સ્થિર એક સ્વભાવવાળા નિશ્ચિત થાય છે. તેથી જે પરમાણુઓ શરુઆતમાં ચણકવગેરેના જનક ન હોય તો શરૂઆતનો આ અજનકસ્વભાવ કાયમ રહેવાથી પછી પણ તેઓ ચણકઆદિના જનક બની શકે નહીં, નહીંતર તો જ પરમાણઓ પાછળથી ચણકવગેરેના જનક બનતા હોય, તો તેઓ પૂર્વે પણ ચણકવગેરેના જનક બનવા જ જોઈએ. અવયવીનું ભિન વજન અસિદ્ધ - તથા જો અવયવી પોતાના જનકઅવયવોથી ભિન્ન જ ઉત્પન્ન થતો હોય, તો પાંચ પળ (ભારવિશેષ) જેટલા વજનવાળા સુતરના પિંડવગેરેમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા કપડાઆદિરૂપ ભિન્ન અવયવી પોતે પણ મહત્પરિમાણવાળા તરીકે ઈષ્ટ છે. તેથી એ કપડા વગેરેનું વજન કરીએ, ત્યારે માત્ર સૂતરના વજનવખતે ત્રાજવું જેટલું નમેલું એના કરતા વધુ નમવું જોઈએ. કારણ કે સૂતરના વજનમાં નવા આવેલા અવયવીભૂત કપડાનું વજન પણ ઉમેરાશે.) પણ ત્રાજવું વધુ નમેલું દેખાતું નથી. તેથી વિજ્ઞ પુરૂષોને ભિન્ન અવયવી ઉત્પન્ન થયો એ બાબતમાં શ્રદ્ધા કેવી રીતે બેસે? અર્થાત ન જ બેસે. પૂર્વપક્ષ:- પાણીમાં પોતાનાથી ભિન્ન એવા માછલાં કે લાકડામાં પોતાનાથી ભિન્ન એવા ઘણા (=ઉધઈ) ઉત્પન્ન થાય છે. છતાં પાણી કે લાકડાનું વજન કરવામાં આવે, તો કોઈ ફેર દેખાતો નથી. કારણ કે પાણી વગેરેદ્વારા માછલી વગેરેની ગુસ્તા પ્રતિબંધ પામે છે. (અર્થાત પાણીનું વજન પોતાનામાં રહેલી અન્ય વસ્તુના વજનના બોધમાં પ્રતિબંધક બને છે.)આ જ વાત તન્ત-પટઅંગે પણ લાગુ પડે છે. સૂતરના પિંડવગેરેદ્વારા પટઆદિ અવયવીઓની ગુરુતા પ્રતિબંધ પામે છે. તેથી કપડાને તોલવામાં ત્રાજવું વિશેષ નમતું નથી. જ્ઞાનવાદી:- તમારી વાત બરાબર નથી. કારણ કે દેટાન્ન અને દાર્ટોન્સિક વચ્ચે સમાનતા નથી. માછલી વગેરે કંઈ પાણીને સંપૂર્ણતયા વ્યાપીને રહેતા નથી, કિન્ત પાણી વગેરેમાં એકદેશ=એકભાગને વ્યાપીને રહ્યા હોય છે. તેથી માછલીથી અવ્યાખદેશરૂપ જે અપાત્તરાલ જળભાગ છે. તેનાથી માછલીની ગુરુતા જ્ઞય થવામાં સ્કૂલના પહોંચે છે. તેથી માછલીની ગુરુતામાં પ્રતિબન્ધનો સંભવ હોવાથી ત્રાજવાના નમનમાં ફરક પડતો નથી. પરંતુ આ અવયવી દ્રવ્ય તો પોતાના બધા અવયવોમાં સંપૂર્ણતયા વ્યાપીને રહ્યું છે. આમ તે (અવયવી) પોતાના અવયવોથી અપાત્તરાલે સ્કૂલના પામે તેમ બનતું નથી. તેથી જ એવયવીના તે અવયવો તે અવયવીની ગુરુતાના પ્રતિબન્ધક બની શકે નહીં. તેથી એકલા સૂતરના પિંડના વજનવખતે ત્રાજવું જેટલું નમે, કપડારૂપ અવયવીના વજનવખતે તેથી વધુ નમવું જ જોઈએ. પણ વધુ નમતું દેખાતું નથી. તેથી અવયવી પોતાના અવયવોથી કોઈ અન્ય સ્વતંત્રરૂપે ઉત્પન્ન થતો નથી તેમ સિદ્ધ થાય છે. એકાદ અવયવના ચલનમાં અવયવિનાશાપતિ વળી, તમે પટઆદિપ અવયવને ઘણા અવયવોમાં રહેતા એકઅવયવી તરીકે સ્વીકાર્યો છે. તેથી જયારે એ કપડાઆદિ અવયવીનો એકભાગ ચલાયમાન થાય છે, ત્યારે આખા કપડાઆદિ અવયવી ચલાયમાન થવાનો પ્રસંગ છે. કારણ કે તે (કપડો) એક સ્વરૂપ છે. (અર્થાત જો કપડાના એક ભાગમાં પણ ચલનસ્વભાવ ઊભો થાય, તો તે સ્વભાવ આખા કપડાનો છે, કેમકે કપડો એકરૂપ છે. તેથી આખા કપડામાં ચલનક્રિયા થવી જોઈએ. પણ ઘણીવખત તેમ દેખાતું નથી.) જો કપડાનો એકભાગ ચલન (ફરકવું આદિ) ક્રિયા કરતો હોય, ત્યારે બીજોભાગ ચલનક્રિયા ન કરે તો કપડાના એક દેશમાં ચલધર્મ અને બીજા દેશમાં અચલધર્મ એમ બે વિરદ્ધધર્મોના સંસર્ગના કારણે ભેદ આવવાનો પ્રસંગ છે. પૂર્વપક્ષ:- આ સ્થળે ચલનક્રિયાવાન અવયવ છે, અવયવી નથી. તાત્પર્ય:- ચલ–અચલ એમ બે વિરુદ્ધધર્મોનો સંસર્ગ બે અલગ અલગ અવયવોને છે, અવયવીને નથી. તેથી ઉપરોક્ત દોષને અવકાશ નથી. જ્ઞાનવાદી:- આમ સ્વીકારવામાં અવયવીના વિનાશનો પ્રસંગ છે. તથાતિ- ચલનક્રિયાવાળા અવયવોમાં પરસ્પર વિભાગ ઉત્પન્ન થાય છે. આ વિભાગથી અવયવીભૂત પટના અસમાયિકારણ બનેલા અવયવસંયોગની નિવૃત્તિ થાય છે. આમ અવયવસંયોગ નિવૃત્ત થવાથી અવયવીના વિનાશનો પ્રસંગ ઊભો થાય છે. કેમકે તમારા મતે તન્વાય(વણકર) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 55 * * * * * * * * * * * * * * * Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * બાલાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * * વગેરે નિમિત્તકારણોની નિવૃત્તિમાં પટઆદિ અવયવીભૂત કાર્યોનો નાશ નથી થતો. પરંતુ સંયોગરૂપ અસમાયિકારણ અને તત્તવગેરે સમાયિકારણો નિવૃત્ત થાય ( નાશ પામે) ત્યારે પોતાના કાર્યભૂત અવયવીનો વિનાશ કરે છે. આમ અવયવીનાશનો પ્રસંગ છે. (ગુણાત્મક અને ક્રિયાત્મક કાર્યોમાં પણ સમવાયી-અસમવાયીકારણના નાશમાં જ કાર્ય નાશ પામે. ન્યાયમતે. અવયવિદ્રવ્ય, ગુણ અને ક્રિયા આમ ત્રણ જ કાર્યાત્મકભાવ છે.) અવયવદર્શનથી અવયવિદર્શન સિદ્ધાન્તમાં આપત્તિ વળી, એક અવયવના આવરણમાં (=ઢંકાવામાં) સંપૂર્ણ અવયવીના બધા જ અવયવોના આવરણનો પ્રસંગ છે. કારણ કે ઢંકાયેલા અવયવમાં રહેલા અવયવિરૂપથી બીજા અવયવમાં રહેલું અવયવિરૂપ અભિન્ન છે. પૂર્વપક્ષ:- અહીં વાસ્તવમાં નહીં ઢંકાયેલા અવયવમાં રહેલા અવયવીનું રૂપ જાણે કે અનાવૃત્ત ન હોય તેમ ભાસે છે. જ્ઞાનવાદી:- આ તમારી ઉભેલા બરાબર નથી. કેમકે દેખાતા અવયવિરૂપથી ઢંકાયેલા અવયવમાં રહેલા અવયવીનું રૂપ અભિન્ન છે. તેથી એ રૂપ દેખાવાનો પણ પ્રસંગ છે. નહીંતર તે બન્નેમાં (દષ્ટઅવયવી અદષ્ટઅવયવીમાં અથવા દષ્ટઅવયવરૂપ અને અષ્ટઅવયવિરૂપમાં) પરસ્પર ભેદનો પ્રસંગ છે. પૂર્વપક્ષ:- હકીકતમાં આવરણ અવયવોનું છે, નહીં કે અવયવીનું. તેથી અવયવીનું રૂપ દેખાઈ શકે છે, તેથી ઉપરોક્ત દોષને અવકાશ નથી. જ્ઞાનવાદી:- તો-તો ઘણા અવયવો ઢંકાઇ જાય, તો પણ અવયવી તો અનાવૃત્ત જ (=ઉઘા) જ રહે છે. તેથી અનાવૃત્ત અવસ્થાની જેમ તેનું (=અવયવીનું) સંપૂર્ણતયા દર્શન થવાનો પ્રસંગ આવશે. પૂર્વપક:- અવયવદ્વારા અવયવીનું દર્શન થાય છે. તેથી અદેટઅવયવાળા અવયવીનો બોધ નહીં થાય. (તાત્પર્ય - અવયવીનું સીધું જ આખથી દર્શન નથી થતું. આંખ તો અવયવોનું જ દર્શન કરે છે. એ અવયવોના દર્શનથી અવયવીનું જ્ઞાન થાય છે. જે અવયવો સ્વયં આવૃત્ત હેય, તો તેઓનું દર્શન ન થવાથી અવયવીનું પણ જ્ઞાન થતું નથી.) જ્ઞાનવાદી:- આ વાતમાં પણ દમ નથી. કારણ કે સમગ્ર અવયવોને વ્યાપીને એક અવયવી સ્વીકૃત છે. તેથી ઢંકાયેલા અવયવમાં રહેલા અવયવીના રૂપ અને અનાવૃત્ત અવયવોમાં રહેલા અવયવીના રૂ૫ વચ્ચે અભેદ છે. તેથી અનાવૃત્તઅવયવો દ્વારા માત્ર ત્યાં રહેલા અવયવીના રૂપનો બોધ નહીં, પણ અવયવીના રૂપનો સમગ્રતયા જ બોધ થવાનો પ્રસંગ ટાળી શકાય એમ નથી. વળી, એવું તો બનતું જ નથી કે આગળ રહેલા અને પાછળ રહેલા બધા અવયવોનું એકસાથે દર્શન થઈ શકે. એટલે કે અમુક અવયવોના દર્શન વખતે બીજ અવયવોનું દર્શન થતું નથી. આમ બધા અવયવો એકસાથે દર્શનપાત્ર બનત્ય નથી. તેથી “અવયવોન દર્શનદ્વારા અવયવીન દર્શન' આવો સિદ્ધાન્ત સ્વીકારશો, તો ક્યારેય અવયવીના દર્શન નહીં થવાથી આપત્તિ છે. અવયવરૂપથી અવયવીના રૂપમાં આપત્તિ વળી, એક અવયવમાં રહેલું અવયવિરૂપ બીજા અવયવમાં રહેલા અવયવિરૂપથી અભિન્નતયા રહેતું હેવાથી એક અવયવ રંગાય (અથવા લાલ થાય) ત્યારે બધા જ અવયવોમાં રહેલું અવયવિરૂપ રંગાવું (અથવા લાલ થવું) જોઇએ. અથવા એક અવયવના રૂપથી અન્યઅવયવગત અવયવિરૂપમાં ફેરફાર નહીં થાય, કેમકે બીજા અવયવમાં રહેલું અન્યરૂપ ત્યાં પ્રતિબંધક બને છે. આમ અન્યઅવયવગત અવયવિરૂપમાં રક્તતા નહીં આવે એવું કહેશો એ બરાબર નથી, કેમકે તો તો ક્યાંય (રક્તઅવયવમાં રહેલા અવયવિરૂપમાં પણ) રક્તતા નીં થવાનો પ્રસંગ છે. કારણ કે એક અખંડ અવયવીમાં રહેલું રૂપ સર્વત્ર અભિન્ન-અખંડિત છે. તેથી કાંતો એક ભાગમાં થતો ફેરફાર સર્વવ્યાપી બનશે, અને કાંતો કશે (તે ભાગમાં પણ) નીં થાય. પૂર્વપક્ષ:- જયારે એકાદ અવયવમાં રક્તતા જોય છે, ત્યારે તે માત્ર અવયવપૂરતી જ મર્યાદિત હોય છે, એટલે કે માત્ર તે રકત્તતા અવયવમાં જ આવશે. અવયવીમાં નહીં. જ્ઞાનવાદી:- આનો અર્થ એ થયો કે અવયવરૂ૫ રક્ત છે અને અવયવીરૂપ અરક્ત છે. આમ ત્યાં રક્તતા અને અરાતા ઉભયનું દર્શન થવું જોઈએ. પણ થતું નથી. તેથી આ વાત બાલીશ છે. વિદ્ધ ધર્મોની આપત્તિથી અવયવી અસંગત વળી, એક ચોરસ અવયવી દ્રવ્ય છે. એનો અમુક ભાગ પૂર્વભાગઆગળોભાગ (પ્રાગ્દશ) છે. જયારે એ પૂર્વભાગ દેખાય છે, પ્રત્યક્ષ થાય છે. ત્યારે (i) એ પૂર્વભાગનો અભાવ દેખાતો નથી. (એટલે કે “પૂર્વભાગ નથી દેખાતો' એવો બોધ થતો નથી. કેમ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંહણિ-ભાગ ૨ - 56 * * * * * * * * * * * * * * Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - તે જ જે જ જ કે જે બાળાર્યસિદ્ધિ કે જે ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક ક જ કે જે પૂર્વભાગનો અભાવ દેખાય “આ પૂર્વભાગ નથી એવો બોધ થાય, અથવા ‘પૂર્વભાગ દેખાતો નથી એવો બોધ થાય, તો પૂર્વભાગ દેખાય છે એવો બોધ ન થાય.) એ જ પ્રમાણે (ii) પાછળો ભાગ પણ દેખાતો નથી, કેમકે એ પૂર્વભાગના અભાવને અવ્યભિચારી છે. (કેમકે જે પાછળો ભાગ છે તે પૂર્વભાગ નથી. પાછળો ભાગ હોય, ત્યારે પૂર્વભાગનો અભાવ હોય. અને પૂર્વભાગનો અભાવ ન હય, તો પાછળે ભાગ પણ ન જ હોય. અહીં શ્રેય જ્ઞાનના વિષયતરીકે લેવાનું સમજવું) હવે આ જે ચોરસ અન્વયી દ્રવ્યરૂપ છે તે એક જ તરીકે સ્વીકૃત છે. એટલે કે પૂર્વભાગ અને પાછળોભાગ એમ બે ભાગ જ્ઞાનના વિષયતરીકે નિર્દયા લેવા છતાં બન્ને દેશથી વ્યાપ્ત દ્રવ્ય તો એક જ છે. એટલે એક જ અન્વયી ચોરસ દ્રવ્ય જયારે પૂર્વદેશથી વ્યાપ્ત છે, ત્યારે જ તેના પાછળાભાગને આશ્રયી પૂર્વદેશના અભાવથી પણ વ્યાપ્ત છે, તેમ આવીને ઊભું રહ્યું. જો પૂર્વદેશથી વ્યાપ્ત દ્રવ્યરૂપને પાછળાદેશથી વ્યાખ દ્રવ્યરૂપથી અલગ કરો તો, એ ચોરસ અન્વયી દ્રવ્યતરીકેની સ્વીકૃતિને ક્ષતિ પહેંચશે. (પ્રાદેશ=પૂર્વભાગ-પૂર્વદેશ આગળોભાગ. પ્રત્યદેશ પાછળ ભાવ-પાછળો દેશ= ઉત્તરભાગ) આમ એક જ અન્વયી દ્રવ્યમાં પૂર્વભાગ અને પૂર્વભાગનો અભાવ આ બન્ને આવ્યા. પણ આ યોગ્ય નથી. કેમકે એક સ્થાને એક સાથે એક જ ધર્મનો ભાવ-અભાવ ન મળી શકે–અસંભવિત છે. તેથી અર્થવાદીઓએ ઘેલો અવયવી અસંગત છે. ઘ૬૬રા उपसंहारमाहહવે ઉપસંહાર કરે છે. _ इय जुत्तिविरहतो खलु बुहेण बज्झत्थसत्तमिति मोहो । ___ संसारखयनिमित्तं वज्जेयव्वो पयत्तेणं ॥६६३॥ (इति युक्तिविरहतः खलु बुधेन बाह्यार्थसत्त्वमिति मोहः । संसारक्षयनिमितं वर्जयितव्यः प्रयत्वेन ॥ - इतिः-एवं प्रदर्शितप्रकारेण युक्तिविरहतः खलु बाह्यार्थसत्त्वमिति-बाह्यार्थोऽस्तीति विज्ञानं मोहः, स च बुधेन संसारक्षयनिमित्तं 'संसारक्षयो मम भवतु' इत्येवमर्थं प्रयत्नेन वर्जयितव्यः, मोहस्य संसारनिबन्धनत्वात् ॥६६३॥ " ગાથાર્થ:- આમ ઉપર દર્શાવ્યું તેમ બાલાર્થના સત્વ (=અસ્તિત્વ) માં કોઈ યુક્તિ નથી. તેથી ‘બાહ્યર્થ છે એવું વિજ્ઞાન માત્ર મોહરૂપ જ છે. અને મારા સંસારનો ક્ષય થાઓ એવા પ્રયોજનના અર્થી બુધપુરૂષે આ મોહનો પ્રયત્નપૂર્વક ત્યાગ કરવો આવશ્યક છે. કારણ કે મોહ સંસારનું કારણ છે. ૬૬૪ તથા પીર - આ જ વાત કરે છે...... रज्जुम्मि सप्पणाणं मोहो भयमादिया ततो दोसा । ते चेव उ तन्नाणे ण होन्ति तत्तो य सहसिद्धी ॥६६४॥ (रज्जौ सर्पज्ञानं मोहो भयादयस्ततो दोषाः । त एव तु तज्ज्ञाने न भवन्ति ततश्च सुखसिद्धिः ॥) रज्जौ-दर्भादिदवरके यत् सर्पज्ञानमुपजायते तस्मान्मोहस्तस्माच्च मोहात् भयादयो दोषाः । मकारोऽलाक्षणिकः । आदिशब्दात्तत्संस्पर्शनेन हृदयोत्कम्पविह्वलतादिदोषपरिग्रहः । त एव-भयादयो दोषाः तज्ज्ञाने-'रज्जुरियं न सर्प' इति विज्ञाने न भवन्ति। 'तत्तो यत्ति' तस्माच्च भयादिदोषाभावात् सुखसिद्धिरेष दृष्टान्तः ॥६६४॥ ગાથાર્થ:- ઘાસવગેરેથી બનેલા દોરડામાં સાપનું જે જ્ઞાન થાય છે, તે વાસ્તવિક નથી, પણ મોહરૂપ છે. અને આ મોહથી ભય વગેરે દોષો ઊભા થાય છે. (મૂળમાં “મકાર અલાક્ષણિક છે.) (ઘરડું ભયજનક નથી. પણ તેમાં “આ સાપ છે તેવું ખોટું જ્ઞાન ભયપ્રેરક છે.) અહીં ભય વગેરેમાં ભય ઉપરાંત તેનાં (સાપમાનેલા દોરડાના) સ્પર્શથી હૃદયમાં કંપ થવો, વિહવલ થવું, વગેરે દોષો પણ સમજી લેવા. “આ દોરડું છે, સાપ નથી' એવું સત્યજ્ઞાન થાય ત્યારે આ જ ભય વગેરેોષો રહેતા નથી. અને ભય વગેરેદોષો જવાથી સુખ સિદ્ધ થાય છે. આ દષ્ટાન્ન બતાવ્યું ૬૬૪ अमुमेवार्थं दान्तिके योजयन्नाहઆ જ ભાવાર્થની દાન્તિકમાં (પ્રસ્તુત સાધ્યમાં) ઘટના કરતાં કહે છે बज्झत्थे विन्नाणं मोहो रागाइया तओ दोसा । ते चेव उ तन्नाणे न होन्ति तत्तो य मोक्खसुहं ॥६६५॥ (बाह्यार्थे विज्ञानं मोहो रागादयस्ततो दोषाः । त एव तु तज्ज्ञाने न भवन्ति ततश्च मोक्षसुखम् ॥) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - S1 • • • • • • • • • • • • • • • Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ mangal ++++++++++++++++++ बाह्यार्थे यद्विज्ञानं तत्सत्त्वसाधनप्रवणमुपजायते तत् मोहो, बाह्यार्थस्य युक्त्याऽनुपपद्यमानत्वात्, तस्माच्च मोहात्तद्विषया रागादयो दोषाः प्रादुष्ष(य)न्ति । “मोहो निदानं दोषाणामि" तिवचनात् । त एव तु रागादयो दोषाः तज्ज्ञाने बाह्योऽर्थ इति बाह्यार्थयाथात्म्यपरिज्ञाने न भवन्ति, मोहाभावात्, ततश्च तस्माच्च-रागादिदोषाभावात् मोक्षसुखम् । तस्मान्मोहस्यैव संसारनिबन्धनत्वात् तत्परिक्षयनिमित्तं सोऽवश्यं वर्जयितव्यः ॥६६५॥ ગાથાર્થ:- બાધ્યાર્થમાં તેના અસ્તિત્વની સિદ્ધિમાં કુશળ એવું જે વિજ્ઞાન થાય છે તે માત્ર મોહરૂપ જ છે; કારણ કે બાઘાર્થ યુક્તિથી સંગત કરતો નથી. અને આ મોહથી બાહ્યાર્થસંબંધી રાગવગેરે દોષો ઊભા થાય છે. કેમકે “દોષોનું મુળ મોહ છે.' એવું વચન છે. જયારે “એ બાઘાર્થ સત નથી' એવું બાહ્યાર્થસંબંધી યથાસ્વરૂપ જ્ઞાન થાય છે, ત્યારે મોહ રહેતો નથી, વિલય પામે છે. તેથી રાગવગેરે દોષો પણ રહેતા નથી. અને આ રાગવગેરે દોષોના અભાવથી મોક્ષ સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. આમ મોહ જ સંસારનું કારણ હોવાથી સંસારના લયમાટે અવશ્ય મોહનો ત્યાગ કરવો જોઇએ. ૬૬પા જ્ઞાનવાદનું ખંડન-પ્રતિબન્ધી તર્ક -વાહકપ્રમાણનો અભાવ तदेवं ज्ञानवादिनाऽभिहिते सत्याचार्योऽभिहितपरमाण्वादिविकल्पेषु दोषाभावं विवक्षुरपि परपक्षस्यातीवासारतामुपदर्शयितुकामो यथाभ्युपगमं परस्य प्रतिबन्दि(न्दी) ग्रहेण तावद्दूषणमाह→ આમ જ્ઞાનવાદીએ વિસ્તારથી અપક્ષ સ્થાપ્યો. હવે જ્ઞાનનિધિઆચાર્યવર્ય જ્ઞાનવાદીએ દર્શાવેલા પરમાણવગેરે વિકલ્પોમાં દોષનો અભાવ દર્શાવવાની ઇચ્છાવાળા લેવા છતાં જ્ઞાનવાદી પક્ષની અત્યંત અસારતા દેખાડવાં અભ્યગમને અનુરૂપ પ્રતિબદિ તર્કથી જ્ઞાનવાદીના પક્ષમાં દૂષણ દેખાડે છે. सागारमणागारं उभयाणुभयं व होज्ज णाणंपि? । गाहगपमाणविरहा ण संगतं सव्वपक्खेसु ॥६६६॥ (साकारमनाकारमुभयानुभयं वा भवेद् ज्ञानमपि ? । ग्राहकप्रमाणविरहान्न संगतं सर्वपक्षेषु ॥) आस्तां तावदन्यत्, यद्विज्ञानं त्वयाऽभ्युपगम्यते तत्किं साकारमनाकारम् उभयं-साकारानाकारम् अनुभयं वा न साकारं नाप्यनाकारं भवेदिति विकल्पचतुष्टयं, गत्यन्तराभावात् । नचैतेषु सर्वेष्वपि पक्षेषु तत् ज्ञानं संगतम् । कुत इत्याह-तद्वाहकप्रमाणाभावात् ॥६६६॥ यार्थ:- त्त२५ ():- श्री धी पात २ ॥णी. पता तो जावो त हे विज्ञान स्वीरो छो, તે સાકાર છે કે અનાકાર છે? કે ઉભય (સાકાર-અનાકાર) છે? કે અનુભય (સાકાર પણ નહિ અને અનાકાર પણ નહિ આમ અહીં ચાર વિકલ્પ સંભવે છે. કારણ કે આ સિવાય બીજા વિકલ્પ સંભવતા નથી. અને આ ચારેયમાંથી એક પણ વિકલ્પમાં તે જ્ઞાન સંગત બનતું નથી, કારણ કે તેના ગ્રાહકપ્રમાણનો અભાવ છે. ૬૬૬ सोऽपि कथं सिद्ध इति चेत् अत आह શાનવાદી:- ગ્રાહક પ્રમાણનો અભાવ છે તે પણ શી રીતે સિદ્ધ થશે? અહીં સમાધાન બતાવે છે. नाणंतरं न इंदियगम्मं तग्गाहगं कुतो माणं? । " एमादि हंदि तुल्लं पायं विन्नाणपक्खे वि ॥६६७॥ (ज्ञानान्तरं नेन्द्रियगम्यं तद्ग्राहकं कुतो मानम्? । एवमादि हंदि तुल्यं प्रायः विज्ञानपक्षेऽपि ॥) प्रमाणं प्रमेयत्वेन विवक्षितं ज्ञानमेव ग्राहकज्ञानापेक्षया ज्ञानान्तरं तच्चातीन्द्रियत्वान्नेन्द्रियगम्यं तत्कथं तदाहक प्रत्यक्षं प्रमाणं भवेदित्येवमादिकमादिशब्दाद 'अविगाणाभावाओ न जोगिनाणंपि जत्तिखममित्यादि' परिगृह्यते, 'हंदीति' परामन्त्रणे प्रायो :विज्ञानपक्षेऽपि तुल्यमतो ज्ञानेन सह तुल्ययोगक्षेमत्वात् ज्ञानवत् बाह्योऽप्यर्थोऽभ्युपगन्तव्यो न वा ज्ञानमपि ॥६६७॥ | ગાથાર્થ:- પ્રમેયતરીકે વિવક્ષા પામેલું ગ્રાહક પ્રમાણજ્ઞાન જ ગ્રાહકજ્ઞાનની અપેક્ષાએ જ્ઞાનાન્સર (બીજુ જ્ઞાન) છે. (અર્થાત ગ્રાહકજ્ઞાનનું વિષય બનતું ગ્રાહ્ય જ્ઞાન ગ્રાહકજ્ઞાનની અપેક્ષાએ જ્ઞાનાન્તર છે.) જ્ઞાનવાદીના મતે બાધાર્થનો અભાવ હોવાથી આ જ્ઞાનાન્સર અતીન્દ્રિય છે. તેથી ઇન્દ્રિયગમ્ય નથી. તેથી આ જ્ઞાનનું ગ્રાહકજ્ઞાન શી રીતે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ હોઈ શકે? વગેરે (-વગેરે थी 'अपिलावामी (1. ९3८) इत्यादि पातनो पा समावेश थाय छे. “E५६ ५२५क्षने सामंत्र३ छे.)पातो प्राय: ++ + + + + + + + + + + + + + + life-MAR - 58 * * * * * * * * * * * * * * * - - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બાઘાર્થસિદ્ધિ જ ન વિજ્ઞાનપક્ષે પણ સમાન છે. તેથી બાહ્યાર્થ જ્ઞાનસાથે તુલ્ય યોગક્ષેમ ધરાવે છે. તેથી જેમ જ્ઞાનનો સ્વીકાર કર્યો તેમ બાહ્યાર્થ પણ સ્વીકારવો જોઇએ. અથવા બાહ્માર્થની જેમ જ્ઞાનનો પણ સ્વીકાર કરવો જોઇએ નહીં. ૫૬૬૭u જ્ઞાનના સાકારવિકલ્પમાં આકારને જ્ઞાનાંગભૂત માનવામાં દોષ अभ्युच्चयेन प्रतिविकल्पं दोषान्तरमभिधित्सुराह - હવે અમ્યુચ્ચયદ્વારા દરેક વિકલ્પમા અન્ય અન્ય દોષો દેખાડવાની ઇચ્છાથી કહે છે. किं चागारो तस्सा किमंगभूतो उआहु विसयातो ? । जति ताव अंगभूतो कहं णु णाणंतरावगमो ? ॥ ६६८ ॥ (किं चाकारस्तस्य किमङ्गभूत उत विषयात् ? । यदि तावदङ्गभूतः कथं नु ज्ञानान्तरावगमः ? ॥) किञ्च तस्य - ज्ञानस्याकारः किमङ्गभूत उत विषयादुत्पन्नः ? इति विकल्पद्वयम् । तत्र यदि तावदङ्गभूतस्ततः कथं नु तेन ज्ञानेन ज्ञानान्तरस्यावगमः ? नैव कथंचनेति भावः, तस्य स्वाकारमात्रसंवेदनप्रवणत्वात् ॥६६८॥ ગાથાર્થ:- વળી, તે જ્ઞાનનો આકાર જ્ઞાનનું અંગભૂત છે કે વિષયથી ઉત્પન્ન થયો છે? જો અંગભૂત હોય તો તે જ્ઞાનથી જ્ઞાનાન્સરનો અવગમ શી રીતે થશે? અર્થાત્ કોઇપણ રીતે નહીં થાય, કારણ કે જ્ઞાન તો પોતાના જ આકારમાત્રના સંવેદનમાં વ્યગ્ર રહેશે. કારણ કે જ્ઞાનનો આકાર જ્ઞાનનાં જ અંગભૂત-સ્વરૂપભૂત છે. ૫૬૬ા अणवगमम्मि य परमोहविउट्टणं केण सत्थमुवदिट्ठे ? । तदभावे सम्ममिदं मिच्छा इतरं तु को मोहो ? ॥६६९ ॥ (अनवगमे च परमोहविकुट्टनं केन शास्त्रमुपदिष्टम् ? । तदभावे सम्यगिदं मिथ्या इतरत्तु को मोहः ? ॥) अनवगमे च ज्ञानेन ज्ञानान्तरस्य केन 'परमोहविउट्टणंति' परमोहविकुट्टनं शस्त्रमुपदिष्टं ? नैव केनचिदुपदिष्टं प्राप्नोति, परस्यैवाप्रतिपत्ति (त्ते ) रितिभावः । तदभावे - शास्त्राभावे सम्यगिदं तन्निमित्तं विज्ञानमितरच्च-अतन्निबन्धनं मिथ्येति यो मोहः स को नाम ? अपूर्वोऽयमेकान्तेनासंभवी जात इत्यभिप्रायः ॥ ६६९ ॥ ગાથાર્થ:- અને જો જ્ઞાનથી જ્ઞાનાન્તરનો બોધ થતો ન હોય, તો બીજાના મોહનો નાશ કરનાર શાસ્ત્રનો ઉપદેશ કોણે આપ્યો? અર્થાત્ કોઇએ ઉપદેશ આપ્યો નથી, તેવું જ આવીને ઊભુ રહેશે; કારણ કે જ્ઞાનાન્તરનો બોધ જ ન હોવાથી પર(= તે જ્ઞાનથી ભિન્ન અન્ય કોઇનો બોધ કે અસ્તિત્વરૂપે સ્વીકાર જ રહેતો નથી, તેથી પર=બીજાના મોહનો પણ નિર્ણય શી રીતે થઈ શકશે? અર્થાત્ ન જ થઇ શકે, તો તે મોહ દૂર કરવા ઉપદેશઆદિ દેવાની તો વાત જ કયાં રહી? આવો ભાવ છે. અને શાસ્ત્રના અભાવમા પરમોહનાશક (તે શાસ્ત્રજન્ય)વિજ્ઞાન સાચુ અને તે શાસ્ત્રથી અજન્ય પરમોહનુ અનાશક વિજ્ઞાન ખોટું” આવો તે કેવો તમારો (-જ્ઞાનવાદીનો) મોહ=અજ્ઞાનજન્યઆગ્રહ છે? અર્થાત્ આવો મોહ થવો એકાંતે અસંભવિત છે, અને છતાં તમને થયો એ આશ્ચર્યની વાત છે. ૫૬૬૯ના एकान्तेनासंभवित्वमेव दृष्टान्तेन भावयति હવે દૃષ્ટાન્તદ્વારા જ એકાન્તે અસંભવિપણું બતાડે છે. चोरो वंझापुतो अतो असाहुत्ति किमिह विन्नाणं । जायंइ तिक्खं च जओ खरसंगं तेण साहुत्ति ? ॥६७० ॥ (चौरो वन्ध्यापुत्रोऽतोऽसाधुरिति किमिह विज्ञानम् । जायते तीक्ष्णं च यतः खरशृङ्गं तेन साधु इति॥) यतश्चारो वन्ध्यापुत्रोऽतोऽसाधुः यद्वा यतः खरशृङ्गं तीक्ष्णं तेन कारणेन साधु इति किमिह विज्ञानं जायते ? नैव जायत इत्यर्थः, वन्ध्यापुत्रादेरसत्त्वात् । तथा शास्त्रस्यैवाभावात् कथं तदुत्थं विज्ञानं सम्यक् इतरच्च मिथ्येति विज्ञानमिहोपजायत इति ? ॥६७० ॥ ગાથાર્થ:- વન્ધ્યાપુત્ર ચોર છે તેથી ખરાબ છેઃ અથવા ગધેડાના શિંગડા તીક્ષ્ણ હોવાથી સારા છે.” આવું વિજ્ઞાન શું થાય છે? નથી જ થતું, કારણ કે વન્ધ્યાપુત્રવગેરે સર્વથા અસત્ છે. તે જ પ્રમાણે શાસ્ત્રનો જ અભાવ હોવાથી તેનાથી (-શાસ્ત્રથી) ઉદ્ભવતુ વિજ્ઞાન બરાબર છે, અને તે સિવાયનું વિજ્ઞાન મિથ્યા-ખોટું છે” એવું વિજ્ઞાન કેવી રીતે થશે? અર્થાત્ નહીં જ થાય. ૫૬૭ના * * * ધર્મસંગ્રહિણ-ભાગ ૨ - 59 + Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** બાવાર્થસિદ્ધિ જૈન ન एयविगप्पाभावे कुतो विवादोत्ति ? कुणसि य मंति । खंधाढो उलुगो विसुमरितो तं इमं णायं ॥६७१॥ (एतद्विकल्पाभावे कुतो विवाद इति ? करोषि च तवेति । स्कन्धारूढ उलुको विस्मृतस्तदिदं ज्ञातम् ॥) एतद्विकल्पाभावे च सम्यगिदमितरच्च मिथ्येति विकल्पाभावे च कुतोऽयं विवादो युज्यते ? तत इत्थं त्वन्नीत्या सर्वथा विवादानुपपत्तौ तमेवेदानीं कुर्वन् यदिदं ज्ञातं लोके श्रूयते - 'तव स्कन्धारूढोप्युलु (लू) को विस्मृत इति, ' तत्सत्यं ત્યં ોષીતિ II૬૭૬ ॥ ગાથાર્થ:–અને ‘આ સમ્યગ્ અને બીજું મિથ્યા' એવા વિકલ્પના જ અભાવમાં આ વિવાદ પણ કેવી રીતે યોગ્ય ગણાય? અર્થાત્ ન જ ગણાય. આમ તમારા નીતિ-સિદ્ધાન્ત મુજબ તો વિવાદ જ સર્વથા અનુપપન્ન છે. અને છતા વિવાદ કરવા બેસો એ તો અલ્યા! તારા ખભાપર આરુઢ થયેલું ધુવડ પણ ભૂલાઇ ગયું• ઇત્યાદિ જે દૃષ્ટાન્ત લોકોમા સંભળાય છે, તેને સાચું ઠેરવવા જેવું છે. અને તે તમે કરી રહ્યા છો. તાત્પર્ય:- જેમ ખભાપર ઘુવડનું બેસવું જ જો શકય નથી, તો તે બેઠેલું એ યાદ છે કે ભૂલાયુ ઇત્યાદિ ચર્ચા કરવી વ્યર્થ છે. તેમ જો શાસ્ત્રવગેરે સંભવતા જ ન હોય, તો તેના આધારે જ્ઞાનને સાચું-ખોટું ઠેરવવાની ચેષ્ટા પાણીમા વલોણુ કરવાની જેમ વ્યર્થ જ ઠરે. તેથી તેવી ચર્ચા કરનારા તમે હકીકતમાં આ દૃષ્ટાન્તની જેમ આંધળુકીયા જ કરો છો. ૫૬૩૧u अत्र पर आह અહીં જ્ઞાનવાદી કહે છે बुद्धादिचित्तमेत्तं पडुच्च सिय तारिसं हवति नाणं । जं सद्दओऽवमन्नइ बज्झत्थासत्तमादीयं ॥६७२॥ (बुद्धादिचित्तमात्रं प्रतीत्य स्यात् तादृशं भवति ज्ञानम् । यत् शब्दतोऽवमन्यते बाह्यार्थासत्त्वादिकम् ॥) स्यादेतत् बुद्धादिचित्तमात्रम् आदिशब्दात्तदन्यप्रज्ञापकादिपरिग्रहः प्रतीत्य- आश्रित्य तादृशमस्मादृशां ज्ञानं भवति, यत् भवान् बाह्यार्थासत्त्वादिकं शब्दतः - शब्देभ्यो बुद्धाद्यभिहितेभ्यः सकाशात् प्रतीयमानमवमन्यते । साक्षात्बुद्धादिना एवमभिहितं यथा - 'बाह्योऽर्थो नास्ति किंतु ज्ञानमात्र' मित्यवमन्यते इत्यर्थः ॥६७२ ॥ ગાથાર્થ:-જ્ઞાનવાદી:-બુદ્ધવગેરેના (આદિશબ્દથી બીજા પણ પ્રજ્ઞાપકવગેરેનો સમાવેશ થાય છે.) ચિત્તમાત્રને આશ્રયીને જ અમારા જેવાઓને તેવા પ્રકારનું જ્ઞાન થાય છે કે “બુદ્ધાદિ પ્રજ્ઞાપકોએ કહેલા શબ્દોથી પ્રતીત થતા બાહ્માર્થના અભાવાદિ તત્ત્વોની તમે અવમાનના-અવજ્ઞા કરો છો.” બુદ્ધવગેરેએ સાક્ષાત્ એમ કહ્યું છે કે બાહ્યાર્થ નથી, પરંતુ જ્ઞાનમાત્ર જ છે. તમે બુદ્ધના આવા વચનોની અવજ્ઞા કરો છો. ૬૭૨ા एवमिह इमं सम्मं मिच्छा इतरं तु होइ पडिवत्ती । बज्झत्थाभावम्मिवि एवं सेसोवि ववहारो ॥६७३ ॥ ( एवमिहेदं सम्यग् मिथ्या इतरत्तु भवति प्रतिपत्तिः । बाह्यार्थाभावेऽपि एवं शेषोऽपि व्यवहारः II) एवम् अनेन प्रकारेण इदं सम्यक् बुद्धादिना साक्षादेवमभिहितत्वात्, इतरत् मिथ्या तीर्थान्तरीयैरभिहितत्वात् इति प्रतिपत्तिर्भवति । एवं शेषोऽपि त्यागादानादिको व्यवहारो बाह्यार्थाभावेऽपि द्रष्टव्यः । तस्यापि परादिचित्तमात्रं प्रतीत्य तथाभावात्ततो न किंचिन्नः क्षूणमिति ॥ ६७३ ॥ ગાથાર્થ:- આ પ્રમાણે બુદ્ધવગેરેએ સાક્ષાત્ કહ્યું હોવાથી આ વિજ્ઞાન સમ્યગ છે, અને બીજું વિજ્ઞાન તીર્થાન્તરીયો (=અન્ય તીર્થિકોએ) કહ્યું હોવાથી મિથ્યા છે. એમ નિર્ણય થઇ શકે છે. આમ બાહ્માર્થ ન હોવા છતાં બુદ્ધના વચન અને અન્યના વચનના આધારે ઉદ્ભવતા વિજ્ઞાનમાં સમ્યગ્–મિથ્યા એવો ભેદ પડે છે. આ જ પ્રમાણે ત્યાગ—ગ્રણવગેરે શેષવ્યવહાર પણ બાહ્માર્થના અભાવમાં પણ થઇ શકતો સમજવો. કારણ આ બધો વ્યવહાર પણ અન્યવગેરેના ચિત્તમાત્રને આશ્રયીને જ તે રૂપે પ્રવર્તે છે. તેથી અમને (=અમારા સિદ્ધાન્તને) કોઇ દોષ નથી. ૫૬૭૪ા अत्राह અહીં આચાર્યવર્ય ઉત્તર આપે છે * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 60 * * +++ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++ ++++ ++++++ सिदि + ++ + + + + + + + + + + + + + ++ । तस्सावगमाभावे तस्सत्तामेत्तहेतुगो एस । इच्छिज्जइ ववहारो जति ता अत्थेवि तुल्लमिदं ॥६७४॥ . (तस्यावगमाभावे तत्सत्तामात्रहेतुक एषः । इष्यते व्यवहारो यदि ततोऽर्थेऽपि तुल्यमिदम् ॥) यदि तस्य-बुद्धादिचित्तमात्रस्यावगमाभावेऽपि तत्सत्तामात्रहेतुको-बुद्धादिचित्तमात्रहेतुक एष व्यवहार इष्यते 'ता' तत इदमर्थेऽपि तुल्यम्, तथाहि-अत्राप्येवं वक्तुं शक्यत एव यथा→अर्थस्यावगमाभावेऽपि तत्सत्तामात्रनिबन्धन एव सर्वोऽपि लौकिको व्यवहार इति ॥६७४।। यार्थ:-6१२५५ () :- ते सुद्धपोरेना वित्तमात्रना सराम (शान) विना ५ तेनी (बुधवगेरेना ચિત્તની) સત્તા ( હાજરી) માત્રના નિમિત્તથી જ આ આખો વ્યવહાર તમને ઇષ્ટ હોય, તો આ તો અર્થમાટે પણ સમાન જ છે. જૂઓ - અર્થસ્થળે પણ એમ કહેવું શક્ય જ છે કે, અર્થના જ્ઞાન વિના પણ અર્થની હાજરીમાત્રના કારણે જ આ બધો લૌકિકવ્યવહાર થાય છે. ૬૭૪ - -- अह कहवि तस्सवगमो तहेव अत्थम्मि मच्छरो को णु? । __ सो नत्थि अजुत्तीओ नाणम्मिवि हंत तुल्लमिदं ॥६७५॥ . (अथ कथमपि तस्यावगमस्तथैवार्थे मत्सर: को नु? । स नास्ति अयुक्तितो ज्ञानेऽपि हन्त तुल्यमिदम् ॥) अथ कथमपि पूर्वोक्तदोषभया त्तस्य-बुद्धादिचित्तमात्रस्यावगम इष्यते, ननु तर्हि तथैव यथा बुद्धादिचित्ते तथा अर्थे ऽप्यवगमो भविष्यति, ततः को न भवतस्तत्र मत्सरो? येनासौ नेष्यते, नैवासौ युक्तो, भवदुक्तन्यायस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् । अथोच्येत-सोऽर्थः सर्वथा नास्ति अयक्तितः-तत्साधकयुक्त्यभावत इत्यत आह - 'णाणम्मि वोत्यादि' 'हन्तेति' प्रत्यवधारणे तदुक्तम्- "हन्त संप्रेषणप्रत्यवधारणविषा(वा पाठा)देष्विति" ज्ञानेऽ पीदं-तत्साधकयुक्त्यभावलक्षणं (प्रमाणं) तुल्यमेव ॥६७५॥ ગાથાર્થ:-હવે, અમે ઉપર બતાવેલા દોષના ભયથી તમે જો કોઈપણ હિસાબે બુદ્ધવગેરેના ચિત્તમાત્રનો અવગમ =જ્ઞાન) સ્વીકારશે તો તે જ રીતે – જેમ બદ્ધાદિના ચિત્તમાત્રમાં બોધ સ્વીકાર્ય છે તેમ-અર્થમાં પણ–અર્થવિષયક પણ બોધ થઇ શકશે, તેથી અર્થઉપર તમને એવો કેવો દ્રષ છે? કે જેથી અર્થને સ્વીકારતા નથી. આ બરાબર નથી. તમે જ કહેલો ન્યાય તો અર્થ અને બુદ્ધાદિનું ચિત્ત ઉભયસ્થળે સમાન જ છે. તમે કહેશો કે “અહીં પક્ષપાતની વાત નથી, પરંતુ તે અર્થ તો છે જ નહિ કેમકે પૂવે બતાવ્યું તેમ અર્થના અસ્તિત્વની સાધક યુક્તિ જ નથી. તેથી અર્થના બોધને અવકાશ જ નથી.” પણ તમારું આ કથન બરાબર નથી, કેમકે તમારી આ જ વાત જ્ઞાનને પણ લાગું પડે છે. અર્થાત જ્ઞાનસાધક યુક્તિના અભાવરૂપ પ્રમાણ તુલ્યરૂપે હાજર હોવાથી જ્ઞાનના અવગમનો પણ અવકાશ નથી. (મૂળમાં ‘હત્ત' પદ અહીં પ્રત્યવધારણપ્રત્યુત્તરઅર્થે છે. કહ્યું જ છે કે સંપ્રેષણ, પ્રત્યધારણ અને વિષા(વા)દ અર્થોમાં “હન્ત' પદ પ્રયુક્ત છે.) ૬૭પા બ્રાનની રાહ્યાદિ ચારે વિધે અસિદ્ધિ कथमित्याहमाम भ? ते तावे छ जं गज्झगाहगोभयमणुभयरूवं व होज्ज विन्नाणं? । जति गज्झस्वमो ता ण गाहगं अत्थि भुवणेऽवि ॥६७६॥ (यद् ग्राह्यग्राहकोभयानुभयरूपं वा भवेद् विज्ञानम् । यदि ग्राह्यरूपं ततो न ग्राहकमस्ति भुवनेऽपि ॥) यत्-यस्मादिदं विज्ञानं किं ग्राह्यरूपं भवेत् उत ग्राहकरूपम् आहोश्वि(स्वि)त् उभयरूपम् अनुभयरूपं वा-न ग्राह्यरूपं नापि ग्राहकरूपमिति ? तत्र यदि ग्राह्यरूपमिति पक्षो 'मो' निपातः पूरणे, 'ता' ततो न ग्राहकं ज्ञानमस्ति, भुवनेऽपि सकले सर्वेषामपि ज्ञानानां घटादिवत् सर्वथा ग्राह्यरूपैकस्वभावत्वाभ्युपगमात् ॥६७६ ।। . ગાથાર્થ:- આ વિજ્ઞાન શું છે? ગ્રાહ્યરૂપ? ગ્રાહકરૂપ? ગ્રાહ્ય–ગ્રાહક ઉભયરૂ૫? કે અનુભયગ્રાહ્યરૂપ પણ નહીં, ગ્રાહકરૂપ પણ નહીં? (મૂળમાં મો: નિપાત પૂરણાર્થક છે.) આ ચાર વિકલ્પોમાં જો વિજ્ઞાન ગ્રાહ્યરૂપ છે એવો વિકલ્પ સ્વીકારશો, તો આખા જગતમાં કોઈ ગ્રાહક જ્ઞાન નથી, તેમ આવશે; કારણ કે ઘડાની જેમ જગતના બધા જ જ્ઞાનો સર્વથા ગ્રાહ્યરૂપ એકસ્વભાવવાળા જ સ્વીકાર્યા છે. આ૬૭૬ ****************घर्भ -लाग२-61 *************** Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ &]lld ܀ » ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ તતઃ ક્રિમિત્સાહજ્ઞાન ગ્રાહકરૂપ ન થવાથી શું થશે? તે બતાવે છે तदभावम्मि य कह गज्झस्वता अह सरूवगज्झाओ? । नियस्वगाहगत्तेवि कहं णु तं गज्झस्वं तु? ॥६७७॥ (तदभावे च कथं ग्राह्यरूपताऽथ स्वरूपग्राह्यात् । निजरूपग्राहकत्वेऽपि कथं नु तद् ग्राह्यरूपं तु? ) तदभावे च-सर्वथा ग्राहकज्ञानाभावे च कथं ग्राह्यरूपता भवेत् ? ग्राहकापेक्षं हि ग्राह्यं तत्कथं तदभावे ग्राह्यरूपता : भवेदिति । अथोच्येत 'सरूपगज्झाओत्ति' भावप्रधानोऽयं निर्देशः, स्वरूपग्राह्यत्वाद् ग्राह्यरूपता, तद्धि स्वसंवेदनस्वभावं, ततस्तस्य स्वस्वरूपमेव ग्राहकं, स्वरूपग्राहकापेक्षया च ग्राह्यरूपतेति । अत्राह-'नियरूवेत्यादि' निजं रूपं ग्राहकं यस्य तस्य भावस्तस्मिन्नपि अभ्युपगम्यमाने सति कथं नु तत् ज्ञानं ग्राह्यरूपमेव? तुरवधारणे, नैवेतिभावः । ग्राहकरूपत्वस्यापीदानीमभ्युपगमादिति ॥६७७॥ ગાથાર્થ:-ગ્રાહકજ્ઞાનના સર્વથા અભાવમાં ગ્રાહ્યરૂપતા પણ કેવી રીતે સંભવે? કારણ કે ગ્રાહ્ય અર્થ ગ્રાહક અર્થને સાપેક્ષ છે. અર્થાત એક ગ્રાહક હોય, તો જ અન્ય ગ્રાહ્યરૂપે સંભવે, અન્યથા નહીં, તેથી ગ્રાહકજ્ઞાનના અભાવમાં જ્ઞાનની ગ્રાહ્યરૂપતા પણ સંભવે નહીં. જ્ઞાનવાદી:-પ્રાધાજ્ઞાનમાં સ્વરૂપગ્રાહ્યતા હોવાથી જ તેની ગ્રાહ્યરૂપતા રહે છે. તાત્પર્ય:-જ્ઞાન સ્વસંવેદન સ્વભાવવાળું છે. અર્થાત પોતે જ પોતાનું સંવેદન કરે છે. તેથી તેનું સ્વરૂપ જ ગ્રાહક જ છે. અને આ સ્વરૂ૫ગ્રાહકની અપેક્ષાએ જ જ્ઞાન ગ્રાહ્ય છે. જ્ઞાનમાં ગ્રાહ્યરૂપતા છે. (મૂળમાં “સવજ્ઞાન' આ પદ ભાવપ્રધાન નિર્દેશવાળું છે. તેથી ‘સ્વરૂપગ્રાહ્ય' પદનો અર્થ સ્વરૂપગ્રાહ્યત્વ કરવાનો છે.). ઉત્તરપલ જૈન):-“જ્ઞાનનું સ્વરૂપ જ ગ્રાહક છે.' તેમ સ્વીકારશો, તો તે જ્ઞાન ગ્રાહ્યરૂપ જ કેવી રીતે બની શકશે? અર્થાત નહીં જ બને. (મૂળમાં ‘ત જકાર અર્થક છે.) કારણ કે હમણા તમે ગ્રાહકરૂપનો પણ સ્વીકાર કર્યો. ૬૭૭ द्वितीयं पक्षमाशङ्कय दूषयतिહવે બીજા વિકલ્પની આશંકા કરી દોષ દેખાડે છે अह गाहगरूवं चिय इय वि गज्झस्सऽभावतो णेयं । विवरीयं सव्वं चिय जं भणितं गज्झपक्खम्मि ॥६७८॥ (अथ ग्राहकरूपमेव इत्यपि ग्राह्यस्याभावाद् ज्ञेयम् । विपरीतं सर्वमेव यद् भणितं ग्राह्यपक्षे ॥ अथ मन्येथास्तत् ज्ञानं ग्राहकरूपमेवेति पक्षो न ग्राह्यरूपमिति । अत्राह-'इयवीत्यादि' इत्यपि अस्मिन्नपि पक्षे ऽभ्युपगम्यमाने ग्राह्यस्याभावात् सर्वथा ग्राह्यरूपस्य ज्ञानान्तरस्याभावाद्यद्भणितं ग्राह्यपक्षे दूषणं तत्सर्वं विपरीतं ज्ञेयम्, तथाहि-यदि तत् ज्ञानं ग्राहकरूपमेवेत्यभ्युपगमस्तर्हि समस्तेऽपि भुवने सकलज्ञानानां ग्राहकरूपैकस्वभावत्वाभ्युपगमात सर्वथा न समस्ति ग्राह्यं विज्ञानं, तदभावे च कथं ग्राहकरूपता? ग्राह्यापेक्षयैव तस्याः संभवात् । अथ स्वरूपग्राह्यापेक्षया ग्राहकरूपता न तर्हि तद्विज्ञानं ग्राहकमेव, ग्राह्यरूपत्वस्यापीदानीमभ्युपगमादिति ॥६७८॥ ગાથાર્થ:- હવે તમે (જ્ઞાનવાદી) એમ કહેશો કે “જ્ઞાન ગ્રાહકરૂપ જ છે ગ્રાહ્યરૂપ નહી એવો પક્ષ અમને મંજૂર છે, તો એ પણ બરાબર નથી. કારણ કે આ પક્ષના સ્વીકારમાં ગ્રાહ્યરૂપ જ્ઞાનાન્સરનો સર્વથા અભાવ થશે. તેથી ગ્રાહ્યપક્ષમાં (પ્રથમવિકલ્પમાં) જે દૂષણ કહ્યું તે બધું જ વિપરીતરૂપે અહીં સમજવું. તથાતિ- જો ‘એ જ્ઞાન માત્ર ગ્રાહકરૂપ જ છે.' એવો સિદ્ધાન્ત હોય, તો આખા જ જગતમાં બધા જ જ્ઞાન ગ્રાહકરૂપ એક જ સ્વભાવવાળા સ્વીકારવાથી ગ્રાહ્મવિજ્ઞાનનો સર્વથા અભાવ આવશે. અને ગ્રાહ્મવિજ્ઞાનના અભાવમાં ગ્રાહકરૂપતા પણ શી રીતે રહે? કારણ કે ગ્રાહકઅર્થ ગ્રાહ્યઅર્થને સાપેક્ષ લેવાથી, ગ્રાહ્મજ્ઞાનના અસ્તિત્વમાં જ ગ્રાહકજ્ઞાન સંભવે. હવે જો ‘સ્વરૂપગ્રાહ્યતાની અપેક્ષાએ જ ગ્રાહકરૂપતા છે એમ કહેશો, તો તે વિજ્ઞાન ગ્રાહકરૂપ રહેશે જ નહીં, કેમકે હવે તમે ગ્રાહ્યરૂપતાનો પણ સ્વીકાર કરો છો. ૬૭૮ - तृतीयं पक्षमधिकृत्याहહવે ત્રીજા પક્ષને ઉદેશી કહે છે જ જ ન જ ક ક ક ક જ * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ -ભાગ ૨ - 62 * * * * * * * * * * * * * * Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ouanसिलि * * + ++ + + + + + + + + + + + + + सिय तं उभयागारं विरोहभावा ण संगतमिदंपि । तेसिंपि मिहोभेओऽभेदो उभयं व होज्जाहि? ॥६७९॥ (स्यात् तदुभयाकारं विरोधभावान्न संगतमिदमपि । तेषामपि मिथो भेदोऽभेद उभयं वा भवेत् ॥ स्यादेतत्, तत्-विज्ञानमुभयाकारं-ग्राहकस्मं ग्राह्यस्मं च, ततो न कश्चिदिह पूर्वोक्तदोषावकाशः । अत्राह'विरोहेत्यादि' इदमपि उभयाकारत्वं न संगतम् । कुत इत्याह-विरोधभावात् । तथाहि-तत् ज्ञानमेकस्वभावं तद्यदि ग्राहकस्सं कथं ग्राह्यरूमं? ग्राह्यरूपं चेत् कथं ग्राहकरूपमिति । अन्यच्च, तयोरपि-ग्राह्याकारग्राहकाकारयोमिथ:-परस्परं भेदो वा स्यादभेदो वा उभयं वेति? पक्षत्रयम् ॥६७९॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ વિજ્ઞાન ઉભયાકાર-ગ્રાહ્યરૂ૫ ગ્રાહકરૂપે ઉભયરૂપ છે. તેથી પૂર્વે કહેલા કોઈ દોષને સ્થાન નથી. ઉત્તરપt:-આ ઉભયાકારપણું પણ બરાબર નથી કેમકે વિરોધદોષ છે. તે આ પ્રમાણે – જ્ઞાન એક સ્વભાવવાળું ઇષ્ટ છે. તેથી જો તે ગ્રાહકરૂપ હેય, તો ગ્રાહ્યરૂપ કેવી રીતે બને? અને જો ગ્રાહ્યરૂપ હોય, તો ગ્રાહકરૂપ કેવી રીતે બને? કેમકે એ તો શકય જ નથી કે એકસ્વભાવથી બને કામ ચાલે) વળી, આ ગ્રાહ્યાકાર અને ગ્રાહકાકારવચ્ચે પરસ્પર ભેદ છે? અભેદ છે? કે ઉભય( ભેદભેદ) છે? આમ ત્રણ પક્ષ સંભવે છે, ૬૭૯લા વાહા-રાહક આકારવચ્ચે ભેદાદિ ત્રણે પક્ષે દોષ तत्राद्यपक्षमधिकृत्याहતેમાં પ્રથમ વિકલ્પને આગળ કરી કહે છે भेदे कहमेगं णणु उभयागारं? णहेगवावित्तं । दोण्ह विरुद्धाण जतो दिटुं इटुं च समयम्मि ॥६८०॥ (भेदे कथमेकं ननु उभयाकारम् ? नहि एकव्यापित्वम् । द्वयोर्विरुद्धयोः यतो दृष्टमिष्टं च समये ॥) हि तस्मिन् सति कथ नन्वेकं सत् उभयाकारं भवेत् ? नैव भवेदिति भावः। कृत इत्याह-यतो यस्मान्न हि-खलु द्वयोर्विरुद्धयोरेकव्यापित्वमेकस्वभावमर्थमभिव्याप्यावस्थानमिह लोके दृष्टं नापि भवतः स्वसमये इष्टमिति ॥६८०॥ ગાથાર્થ:- જો ભેદ હોય, તો એક જ જ્ઞાન પરસ્પર ભિન્ન એવા ઉભયાકારવાળું કેવી રીતે હોઈ શકે? અર્થાત્ ન જ હોય, કારણ કે બે વિરુદ્ધધર્મો એકસ્વભાવવાળી વસ્તુને વ્યાપીને રહે એ વાત લોકોમાં જોવાઇ પણ નથી, અને તમારા સિદ્ધાન્તમાં સ્વીકારાઇ પણ નથી. ૬૮ના अह उ अभेदो ता एगभावतो चेव णोभयागारं । • परिगप्पणम्मि एवं अतिप्पसंगो पमासिद्धो ॥६८१॥ (अथ त्वभेदस्तस्मादेकभावादेव नोभयाकारम् । परिकल्पने एवं अतिप्रसङ्गः प्रमासिद्धः ॥ अथ तयोर्णाह्याकारग्राहकाकारयोरभेद इति पक्षः । अत्राह-'ता' ततोऽन्यतराकारस्यान्यतराकाराव्यतिरिक्ततया तत्स्वस्पतापत्तेरेकभावत एव-एकस्यैवान्यतरस्याकारस्य भावतो न तत् ज्ञानमुभयाकारम् । अथोच्येत स्वभावतस्तत् अन्यतरात्मकमेव, द्वितीयं तु रूपं तत्र परिकल्पितमिति यथोक्तदोषाभाव इति । अत आह-'परिकप्पेत्यादि' परिकल्पने चैवं क्रियमाणेऽतिप्रसङ्गः प्रमासिद्धो-न्याय(ज्ञान)सिद्धः प्राप्नोति । यत् किंचित् दृष्ट्वा षष्ठस्कन्धस्याप्येवं परिकल्पनाप्रसक्तेः, तस्याः पुरुषेच्छामात्रानुरोधित्वात्, पुरुषेच्छायाश्चैवमप्यनिवारितप्रसरत्वात् ॥६८१॥ ગાથાર્થ:- હવે જો “તે ગ્રાહ્યાકાર અને ગ્રાહકાકાર આ બન્ને વચ્ચે અભેદ છે એવો વિકલ્પ સ્વીકારશો, તો એક આકાર બીજાઆકારથી અભિન્ન થશે. તેથી કાં તો ગ્રાહઆકાર ગ્રાહકાકારનું કાં તો ગ્રાહકાકાર ગ્રાહ્યઆકારનું સ્વરૂપ પામશે. કેમકે એક ભાવ(=અભેદભાવ) હોવાથી બેમાંથી એક જ આકાર રહેશે. તેથી જ્ઞાન ઉભયાકાર રહેશે નહીં, , , - જ્ઞાનવાદી:- જ્ઞાન સ્વભાવથી તો બેમાંથી (ગ્રાહ્ય-ગ્રાહક આ બેમાંથી) એક જ રૂપે છે. બીજું રૂપ તો ત્યાં માત્ર પરિકલ્પિત હેય છે. તેથી ઉપરોક્તદોષને અવકાશ નથી. . ઉત્તર૫:- આવી પરિકલ્પના કરવામાં ન્યાયસિદ્ધ અતિપ્રસંગની પ્રાપ્તિને અવકાશ છે, કેમકે આમ તો, જે કંઈ ચીજ જોઈને છઠ્ઠા સ્કન્ધતરીકે કલ્પના કરવાનો પ્રસંગ છે. કેમકે કલ્પના પુરૂષની ઈચ્છાને આધીન છે, અને પુરૂષની ઈચ્છા તો છઠ્ઠા સ્કન્ધવગેરેઅંગે પણ નિવાબાધ પ્રવની શકે છે. પ૬૮૧ *** * * * * * * * * * * * * * धर्मulga-MIA 2 - 8 * * * * * * * * + + + + + + + Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++બાવાર્થસિદ્ધિ + + ++++++++++++++ भेदाभेदपक्षमधिकृत्याहહવે ભેદભેદ પક્ષને આશ્રયી કહે છે. भेदाभेदौ(दो)य विरोधदोसतो समयकोवतो चेव । बज्झत्थावत्तीए य सम्मं जुत्तिं न संसहइ ॥६८२॥ (भेदाभेदौ च विरोधदोषतः समयकोपत एव । बाह्यार्थापत्तेश्च सम्यग्युक्तिं न संसहते ॥ भेदाभेदौ च विचार्यमाणौ न सम्यक् युक्तिं संसहेते । कुतः? इत्याह-विरोधदोषात् । तथाहि-यदि भेदः कथमभेदः अथाभेदः कथं भेद इति ? अथ कथंचिदितरेतरानुवेधेन नायं भेदाभेदपक्षो विरुद्ध इत्युच्येत तत्राह-समयकोपतश्चैव न सम्यग् युक्तिं संसहेते इति संबन्धः । एकान्तकस्वभावाभ्युपगमपरो हि युष्मद्राद्धान्तस्तत्कथमितरेतरानुवेधतो जात्यन्तरात्मकभेदाभेदपक्षोऽभ्युपगम्यते, परसिद्धान्ताभ्युपगमप्रसङ्गात । तथा बाह्यार्थापत्तेश्च न भेदाभेदौ युक्तिं संसहेते । तथाहियदि ग्राह्यग्राहकाकारयोर्भेदाभेदावभ्युपगम्येत तर्हि बाह्यार्थेऽपि तुल्यांशातुल्यांशयो(तुल्यांशयोरिति पाठा.) रवयव्यवयवशब्दवाच्ययोर्भेदाभेदावभ्युपगन्तव्यौ, दोषाभावात् । तथा च सति न कश्चिद्वक्ष्यमाणनीत्या उक्तवृत्त्ययोगादिदोषाणामवकाश इति बाह्यार्थापत्तिरव्याहतैवेति ॥६८२ ।। ગાથાર્થ:- ભેદભેદનો વિચાર કરીએ તો દેખાઈ આવે છે કે ભેદભેદ સમ્યગ યુક્તિસમર્થ નથી, કારણ કે વિરોધદોષ છે. તે આ પ્રમાણે - જો ભેદ હોય, તો અભેદ શી રીતે સંભવે? અને જો અભેદ હોય, તો ભેદ શી રીતે સંભવે? હવે જે આ દોષ ટાળવા ‘પરસ્પરનો અનુવેધ હોવાથી– ભેદાનુવિદ્ધઅભેદ અને અભેદાનવિદ્ધભેદ હોવાથી આ ભેદભેદપક્ષમાં વિરોધદોષ નથી' એમ કહેશો, તો આગમકોપ (=અભ્યપગતસિદ્ધાન્તવિરોધી હોવાથી સમગ્ર યુનિસંગત ન ઠરે. તમારા સિદ્ધાન્ત એકાન્ત એકસ્વભાવના સ્વીકારમાં તત્પર છે. પરસ્પરાનુધના કારણે જાત્યન્તરરૂપ બનેલ ભેદભેદપક્ષ તમારે માટે પરજૈન)સિદ્ધાન્તરૂપ છે. તેથી તમે કેવી રીતે પરસ્પરાનુવિદ્ધ ભેદભેદને સ્વીકારી શકો? કેમકે તેમાં પરસિદ્ધાન્તના સ્વીકારનો પ્રસંગ છે. વળી બાધાર્થની આપત્તિ હોવાથી ભેદભેદ યુક્તિસંગત નથી. તથાપિ ન જ તમે ગ્રાહ-ગ્રાહકઆકારવચ્ચે ભેદભેદ સ્વીકારી શકો છો, તો સમાનતયા બાઘાર્થમાં પણ “અવયવ-અવયવી' શબ્દથી વાચ્ય એવા તત્યાંશ-અતુલ્યાંશ વચ્ચે ભેદભેદ સ્વીકર્તવ્ય છે, કેમકે તેમાં પણ દોષ નથી. તેથી હવે પછી બતાવાશે તેવી યુક્તિથી તમે કહેલા વૃત્યયોગવગેરે ઘેષોને કોઈ અવકાશ રહેતો નથી. તેથી બાધાર્થની આપત્તિ નિર્વિઘ્નતયા હાજર રહેશે. ૬૮રા चरममवान्तरमूलपक्षमधिकृत्याहહવે છેલ્લા અવાજર મૂળ વિકલ્પને ઉદ્દેશી કહે છે. अह अणुभयस्वं चिय नत्थि तयं हंदि खरविसाणं व । एवं च ठिए संते नाणम्मिवि तुज्झ का जुत्ती? ॥६८३॥ (अथानुभयस्पमेव नास्ति तकद् हंदि खरविषाणमिव । एवं च स्थिते सति ज्ञानेऽपि तव का युक्तिः? " अथानुभयरूपमेव तत् ज्ञानमिति पक्षः, हन्त तर्हि तकत्-ज्ञानं खरविषाणमिव सर्वथा नास्त्येव । किं हि तत् सद्भवेत् यत् सर्वथा न ग्राह्यरूमं नापि ग्राहकस्पमिति । एवं च स्थिते सति ज्ञानेऽपि तवाभ्युपगते શા ?િ , નૈવ काचिदित्यर्थः, ततश्चैवमुभयोरपि ज्ञानार्थयोर्युक्त्यभावेऽविशिष्टे सति को नु मत्सरो? येनार्थो नाभ्युपगम्यते किंतु केवलं ज्ञानमेवेति ॥६८३॥ ગાથાર્થ:- “આ જ્ઞાન ગ્રાહ્ય કે ગ્રાહક બેમાંની એકરૂપ નથી–અનુભયરૂપ છે; એવો વિકલ્પ તદન બોગસ છે, કેમકે ગધેડાના શિંગડાની જેમ સર્વથા અસત થવાની આપત્તિ આવશે. આ જગતમાં એવી કઈ ચીજ છે કે જે સર્વથા ગ્રાહ્યરૂપ પણ ન હોય, અને ગ્રાહકરૂપ પણ ન હોય? અર્થાત કોઈ ચીજ નથી. વસ્તુતત આવું છે. તેથી તમે સ્વીકારેલા જ્ઞાનમાં પણ કઈ યુક્તિ છે? (અર્થાત અનુભયાત્મક જ્ઞાનને સત માનવામાં કઈ યુક્તિ કામ કરે છે? અથવા ચારે વિકલ્પથી સંગત ન કરતાં જ્ઞાનને સત માનવામાં કઈ યુક્તિ કામ કરે છે?) અર્થાત કોઈ યુક્તિ નથી. આમ જ્ઞાન અને અર્થ બન્નેઅંગે યુક્તિનો અભાવ સમાનતયા છે. તેથી તમને એવો કેવો મત્સરભાવ છે કે જેથી અર્થનો સ્વીકાર કરતા નથી અને એકલા જ્ઞાનને જ સ્વીકારો છે? ૬૮૩ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 64 + + + + * * * * * * * * * * * Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह અહીં જ્ઞાનવાદીના મતની આશંકા કરતાં કહે છે + + मार्थसिद्धि अह उससंवेदणसिद्धमेव णणु णिययमित्थ विन्नाणं । अत्थस्स दंसणं इय सिद्धं नणु सयल (ले) लोगेवि ॥ ६८४ ॥ (अथ तु स्वसंवेदनसिद्धमेव ननु नियतमत्र विज्ञानम् । अर्थस्य दर्शनमिति सिद्धं ननु सकले लोकेऽपि ॥) अथाभिदधीथाः ननु नियतं - निश्चितमत्र - जगति विज्ञानं स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धमेव तत्कथमस्य प्रतिक्षेपः क्रियते ? प्रतिक्षेपयुक्तीनामध्यक्षसिद्धविषयतया युक्त्याभासत्वात् । अत्राह- 'अत्थस्सेत्यादि' ननु इतिः - एवं ज्ञानस्येवेत्यर्थः अर्थस्यापि दर्शनं सकलेऽपि लोके सिद्धं ततो न तस्याप्यर्थस्य प्रतिक्षेपो युक्तः, अभिहितयुक्तीनामध्यक्षसिद्धविषययतया युक्त्याभासत्वादिति ॥ ६८४ ॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ જગતમા વિજ્ઞાન સ્વસંવેદનપ્રત્યક્ષથી નિશ્ચિત સિદ્ધ થયુ છે. તેથી તેનો વિરોધ શી રીતે કરી શકાય? કારણ કે નિષેધકયુક્તિઓનું જે લક્ષ્ય(=જ્ઞાનાત્મક વિષય) છે તે તો પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ જ છે. તેથી આ નિષેધયુક્તિઓ ખરેખર તો યુક્તિઆભાસસ્વરૂપ જ છે. તેથી એવી યુક્તિના બળપર જ્ઞાનનો નિષેધ થઇ શકે નહિ. ઉત્તરપા:–એમ તો જ્ઞાનની જેમ અર્થનું પણ દર્શન સકલલોકમા સિદ્ધ જ છે. તેથી અર્થનો પણ નિષેધ કરવો યોગ્ય નથી. કેમકે નિષેધયુક્તિઓ હકીકતમા યુક્તિઆભાસરૂપ છે. કારણ કે એ યુક્તિઓનો વિષય(=અર્થરૂપ લક્ષ્ય ) પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે. ૫૬૮૪૫ જ્ઞાનાકારને વિષયજન્ય માનવામાં દોષ यदुक्तम्- 'किंचागारो तस्सा किमंगभूतो' इत्यादि, तत्र द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह - ‘કિચાગારો તસ્સા’ (ગા. ૬૬૮) ઇત્યાદિ ગાથામાં બતાવ્યા મુજબના વિકલ્પમાંથી ‘જ્ઞાનનો આકાર વિષયમાંથી ઉત્પન્ન થયો छे.' तेवा जीभ विडल्यने उद्देशी छे छे. अह विसया आगारो स उ णाणं अत्थभणियदोसातो । सो कह णु तओ जुत्तो ? तहेव किंवा न बज्झाओ ? ॥ ६८५ ॥ (अथ विषयादाकारः स तु ज्ञानमर्थभणितदोषात् । स कथं नु ततो युक्तः ? तथैव किं वा न बाह्यात् ॥ ) अथ मन्येथाः - नासावाकारो ज्ञानस्याङ्गभूतः किंतु विषयादुपजायते, स तु विषयो ज्ञानं ज्ञानान्तरं न पुनः परपरिकल्पितो बाह्योऽर्थ इति । अत्राह - ' अत्थभणिएत्यादि' अर्थभणितदोषात्-अर्थपक्षभणितदोषप्रसङ्गात्, सः आकारस्ततो- ज्ञानरूपाद्विषयात् कथं नु युक्तो ? नैव कथंचनेतिभावः । 'तहेव किंवा न बज्झाउत्ति' वाशब्दः पक्षान्तरसूचने । ततो यथा ज्ञानरूपाद्विषयात् असावाकारोऽभ्युपगम्यते तथैव बाह्यादप्यर्थात्किन्नाभ्युपगम्यते ? उभयत्रापि विशेषाभावात् ॥ ६८५ ॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ આકાર જ્ઞાનનો અંગભૂત નથી. કિન્તુ વિષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ વિષય જ્ઞાનાન્તરરૂપ જ છે, બીજાઓએ કલ્પેલા બાહ્માર્થરૂપ નથી' એમ અમે માનીએ છીએ. ઉત્તરપક્ષ:- આ આકારને જ્ઞાનરૂપવિષયમાંથી ઉત્પન્ન થતો માનવો યોગ્ય નથી, કારણ કે તેમ માનવામા તમે અર્થઅંગે બતાવેલા દોષો આવવાનો પ્રસંગ છે. (મૂળમાં ‘વા' શબ્દ પક્ષાન્તરસૂચક છે.) અથવા જેમ જ્ઞાનરૂપ વિષયમાંથી આ આકાર ઉત્પન્ન થતો સ્વીકારો છો, તેમ બાહ્માર્થમાંથી ઉત્પન્ન થતો કેમ સ્વીકારતા નથી? અર્થાત્ સ્વીકારવો જોઇએ કારણ કે ઉભય (જ્ઞાન અને અર્થ) સ્થળે સમાનતા છે. ૫૬૮૫ા જ્ઞાનને અનાકાર-ઉભય-અનુભય માનવામાં આપત્તિઓ अनाकार पक्षमधिकृत्याह હવે વિજ્ઞાન અનાકાર છે' એવા પક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે. अह उ अणागारं चिय विन्नाणं तहवि गाहगं तेसिं । अत्थस्सवि एवं चिय गाहगभावम्मि को दोसो ? ॥६८६ ॥ (अथ तु अनाकारमेव विज्ञानं तथापि ग्राहकं तेषाम् । अर्थस्यापि एवमेव ग्राहकभावे को दोषः ? 1) + धर्मसंगल-लाग २ - 65 + Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++uarशिल++++++++++++++++++ अथ, तुः पूरणे, विज्ञानमनाकारमेव न साकारं तथापि कुतश्चित् प्रतिनियतस्वभावविशेषात्तेषां ज्ञानान्तराणां ग्राहकमिति मन्येथाः? अत्राह-अत्थस्स वीत्यादि' अर्थस्यापि ग्राह्यभावमापन्नस्य एवमेव-ज्ञानान्तरस्येव विषये विवक्षितज्ञानस्य ग्राहकभावे सति को दोषो? नैव कश्चनेति भावः, अभिहितयुक्तेरत्रापि समानत्वात् ॥६८६॥ यार्थ:- (भूगमा 'तु' ५६ पूरार्थ छ.) बानी :- मा विज्ञान सा नथी, ५ अनार छ. छत पर કોક પ્રતિનિયત સ્વભાવવિશેષથી એ વિજ્ઞાન જ્ઞાનાન્સરોનું ગ્રાહક છે. ઉત્તરપક્ષ:- તમારી આ માન્યતા પણ બરાબર નથી. કારણ કે અર્થઅંગે પણ આ વાત લાગુ પડશે. જ્ઞાનાન્સરની જેમ ગ્રાહ્યભાવને પામેલા અર્થને અંગે પણ એ વિવક્ષિતજ્ઞાન ગ્રાહકભાવ પામે તેમાં શો દોષ બતાવશો? અર્થાત કોઇ દોષ બતાવી શકશો નહીં. કારણ કે તમે કહેલી યુક્તિ તો અર્થગ્રાહકભાવમાં પણ સમાન છે. ૬૮૬ાા तृतीयं पक्षमधिकृत्याह - वेग स्पिने देशी छ. सागारअणागारं तु विरोहा कह णु जुज्जती नाणं ? । भावेवि तदंतरगहणमो फुडं अत्थतुल्लं तु ॥६८७॥ (साकारानाकारं तु विरोधात्कथं नु युज्यते ज्ञानम् ? । भावेऽपि तदंतरग्रहणं स्फुटं अर्थतुल्यं तु ) साकारानाकारं तु ज्ञानं कथं नु युज्यते? नैव कथंचनेति भावः । कुत इत्याह-विरोधात्-विरोधदोषात् । तथाहि, यदि साकारं कथमनाकारम् ? अथानाकारं कथं साकारमिति ? अस्तु वा यथाकथंचनापि तत्साकारानाकारं तथापि यत् तस्य तदन्तरग्रहणं 'मो' निपातः पूरणे, तत् स्फुटमर्थतुल्यमेव-अर्थग्रहणतुल्यमेव । तुरेवकारार्थः । अर्थस्याप्येवं ग्रहणमनिवार्यमिति भावः । उभयोरपि-ज्ञानान्तरार्थयोस्तत्त्वतस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् ॥६८७॥ ગાથાર્થ:- તથા જ્ઞાન સાકાર-અનાકાર ઉભયરૂછ્યું હોય, એ વાત તો કેવી રીતે યોગ્ય ઠરે? અર્થાત જરા પણ ન કરે. કારણકે વિરોધદોષ છે. તથાતિ - જો વિજ્ઞાન સાકાર છે? તો અનાકાર કેવી રીતે હોય? અને જો અનાકાર છે? તો સાકાર શી રીતે શ્રેય? અથવા તો માની લો કે કોઇપણ હિસાબે જ્ઞાન સાકાર-અનાકારઉભયરૂપે છે. તો પણ તે ( જ્ઞાન) જ્ઞાનાન્સરનું જે ગ્રહણ કરે છે, તે અર્થગ્રહણતુલ્ય જ છે. (“મો નિપાત પૂરણાર્થક છે. તથા “તુ જકારઅર્થક છે.) તેથી આમ તો અર્થનું પણ ગ્રહણ અનિવાર્ય ઠરશે. એવો ભાવ છે. કારણ કે જ્ઞાનાન્સર અને અર્થ આ બન્નેઅંગે આક્ષેપ અને પરિહારસંબંધી યુક્તિઓ સમાન છે. તાત્પર્ય:- જો જ્ઞાન જ્ઞાનાન્સરનું ગ્રહણ કરવા સમર્થ છે. તો અર્થને ગ્રહણ કરવા સમર્થ કેમ ન બને? ૬૮૭ા तुरीयं पक्षं दूषयन्नाह - હવે ચોથા પક્ષને દૂષિત કરતાં કહે છે अणुभयरूवमभावो तब्भावे सव्वसुन्नतावत्ती । सा अणुहवसिद्धेणं विरुज्झती निययनाणेणं ॥६८८॥ (अनुभयरूपमभावस्तद्भावे सर्वशून्यतापत्तिः । साऽनुभवसिद्धेन विरुध्यते निजकज्ञानेन ॥ अनुभयरूपं-न साकारं नाप्यनाकारमिति यदि विज्ञानमभ्युपगम्यते ततः खरविषाणस्येव तस्याभावः प्राप्नोति। किं हि तत्सद्भवेद्यन्न साकारं नाप्यनाकारमिति ? ततः किमित्याह - 'तद्भावे इत्यादि' तद्भावे-ज्ञानाभावभावे सर्वशून्यतापत्तिः प्राप्नोति, ज्ञानार्थव्यतिरेकेण वस्त्वन्तरस्याभावात् । भवत्वेवं का नो हानिरितिचेत् ? अत आह- 'सा अणुहवेत्यादि' सा-सर्वशून्यतापत्तिरनुभवसिद्धेन स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धेन निजकज्ञानेन विरुध्यते, यदि हि सर्वशून्यता स्यात्ततः कथमिदमात्मीयमपि ज्ञानमनभयेतेति? अपि च, इयमपि सर्वशून्यता प्रमाणतो वा व्यवस्थाप्येत अप्रमाणतो वा? किंचातः? यदि प्रमाणतस्ततः सर्वशून्यताया अभावः, प्रमाणस्य विद्यमानत्वात् ॥६८८॥ ગાથાર્થ:-હવે જો વિજ્ઞાન સાકાર પણ નથી અને નિરાકાર પણ નથી એવો અનુભયપક્ષ સ્વીકારશો, તો વિજ્ઞાનનો ગધેડાના શિંગડાની જેમ અભાવ પ્રાપ્ત થશે. એવી કઈ વસ્તુ સત છે કે જે સાકાર પણ ન હોય અને નિરાકાર પણ ન હૈય, અર્થાત એવી કોઈ વસ્તુ નથી. અને જે જ્ઞાનનો અભાવ હોય, તો સર્વશૂન્યતાની આપત્તિ છે. કેમકે અર્થભાવનો + + + + + + + + + + + + + + + + Ge-मा२ - 66 + + + + + + + + + + + + + + + Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * બાલાર્થસિદ્ધિ ને જ * * * * * * * * * * * * * * * * તો નિષેધ તમે કર્યો જ છે, અને હવે જ્ઞાનાભાવ પણ આવ્યો. અને દુનિયામાં જ્ઞાન અને અર્થને છોડી અન્ય કોઈ વસ્તુ હોવાનો સંભવ નથી. જ્ઞાનવાદી:- ભલે ને સર્વશુન્યતા આવી પડે! અમને શો વાંધો છે? ઉત્તરપક:- આ સર્વશન્યતાઆપત્તિ સંવેદનપ્રમાણસિદ્ધ નિજજ્ઞાન (આત્મીયજ્ઞાન) સાથે વિરોધ ધરાવે છે. જે સર્વશૂન્યતા ધેય, તો આ આત્મીયજ્ઞાન પણ કેવી રીતે અનુભવી શકાય? અર્થાત ન જ અનુભવી શકાય. વળી, આ સર્વશૂન્યતા પણ પ્રમાણથી નિશ્ચિત કરો છો કે અપ્રમાણથી? જો પ્રમાણથી નિશ્ચિત કરવાનું કહેશો, તો વદતો વ્યાઘાત છે; કારણ કે પ્રમાણ વિદ્યમાન છેવાથી સર્વશૂન્યતા સંભવે જ નહીં.૬૮૮ तथाचाहઆ જ વાત કરે છે माणे इमीऍऽभावो विणा तयं जइ इमीएँ सिद्धित्ति । तत्तोच्चिय अत्थस्सवि सिद्धीएँ निवारणमजुत्तं ॥६८९॥ (मानेऽस्या अभावो विना तकत् यदि अस्याः सिद्धिरिति । तत एव अर्थस्यापि सिद्धेर्निवारणमयुक्तम् ॥) माने-प्रमाणे साधके अभ्युपगम्यमाने सर्वशून्यताया अभावः प्राप्नोति । अथाप्रमाणत इति पक्षस्तर्हि कथं तस्याः सिद्धिः ? प्रमाणमन्तरेण प्रमेयसिद्ध्योगात् । अन्यथा यदि तकत्-प्रमाणं विनाऽपि अस्याः-सर्वशून्यतायाः सिद्धिरिष्यते तर्हि तत एव-प्रमाणाभावात् अर्थस्यापि सिद्धेर्भवन्त्या निवारणमयुक्तं, प्रमाणाभावस्य प्रमेयसिद्ध्यभावानिबन्धनत्वात् । ततश्च यो ग्राहकप्रमाणविरहादिभिर्बाह्यार्थाभावसाधने हेतुरुपन्यस्तः सोऽनैकान्तिक इति ॥६८९॥ ગાથાર્થ:-જો સર્વશૂન્યતાસાધક પ્રમાણ સ્વીકારશો, તો સર્વશૂન્યતાનો અભાવ પ્રાપ્ત થશે. હવે જો અપ્રમાણથી સર્વશન્યતાની સિદ્ધિ કરવા પ્રયત્ન કરશો, તો કેવી રીતે સર્વશન્યતાની સિદ્ધિ થશે? કારણ કે પ્રમાણ વિના પ્રમેયની સિદ્ધિ થઈ શકે નહિં. જે પ્રમાણ વિના પણ સર્વશૂન્યતાની સિદ્ધિ થઈ શકે, તો પ્રમાણાભાવથી જ અર્થની પણ સિદ્ધિ થતી કોણ અટકાવી શકે? કારણ કે એ અટકાવવી યોગ્ય નથી, કારણ કે હવે પ્રમેયની સિદ્ધિને રોકવા માટે પ્રમાણાભાવને આગળ કરી શકાય તેમ નથી. તેથી ગ્રાહકપ્રમાણનો અભાવવગેરે તર્કોથી બાહ્યર્થના અભાવની સિદ્ધિ કરવા જે હેતુ મુક્યો હતો, તે અનેકાન્તિક સિદ્ધ થાય છે. આ૬૮લા વળી, न य सो (उ)वलद्धिलक्खणपत्तो जमदरिसणे वि ता तस्स । . तदभावनिच्छयो णणु एगंतेणं कुतो सिद्धो? ॥६९०॥ (1 ૨ ૩ ૩પત્નગ્ધતક્ષપ્રાણો થઈનેfપ તર્મારણ્ય / તદ્માવનિશ્ચયો ન ોિન છdઃ સિદ્ધઃ ? I) न च यत्-यस्मात्सः-बाह्योऽर्थ उपलब्धिलक्षणप्राप्तः, 'ता' तस्मात्तस्य-बाह्यार्थस्यादर्शनेऽपि नन्वेकान्तेन तदभावनिश्चयो-बाह्यार्थाभावनिश्चयः कुतः सिद्धो? नैव कुतश्चिदितिभावः । दर्शनाभावमात्रस्यानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेष्वभावसाधकत्वायोगात् । तत एवमपि पूर्वोक्तो हेतुरनैकान्तिक एव ॥६९०॥ જે જોઈ શકે, તે નિષેધ કરી શકે. ગાથાર્થ:-વળી, આ બાહ્યર્થ ઉપલબ્ધિલક્ષણ પ્રાપ્ત નથી. (જે વસ્તુનું અસ્તિત્વ પ્રત્યક્ષપ્રમાણનો વિષય બનવા યોગ્ય હેય તે વસ્તુ ઉપલબ્ધિલક્ષણ પ્રાપ્ત બને) તેથી બાધાર્થના અદર્શનમાં એકાને તેના=બાહ્યર્થના અભાવનો નિશ્ચય શી રીતે થઈ શકે? અર્થાત ન જ થઇ શકે. કારણ કે ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત ન હોય, તેવી વસ્તઅંગે દર્શનના અભાવમાત્રથી અભાવની સિદ્ધિ થઇ શકે નહીં. (જે વસ્તુ ઉપલબ્ધિલક્ષણ પ્રાપ્ત દેખાવા યોગ્ય હોય, તેના જ ન દેખાવાથી તેના અભાવનો નિર્ણય થઈ શકે. જે સ્વયં ઉપલબ્ધિલક્ષણ પ્રાપ્ત ન હોય, તેનો અભાવ પણ ઉપલબ્ધ ન થાય. તેથી તેવી વસ્તુના ન દેખાવા માત્રથી તેના અભાવનો નિર્ણય ન થઈ શકે.) તેથી પણ તમારો પૂર્વોક્ત હેત અનેકાન્તિક ઠરે છે. ૬૯ના ___ अह सो परस्स एवं तदभावो तस्स चेव सज्झोऽत्ति । तुह आयनिच्छयो कह ? अजुत्तितो सा समा णाणे ॥६९१॥ (अथ स परस्य एवं तदभावस्तस्यैव साध्य इति । तवात्मनिश्चयः कथम् ? अयुक्तितः सा समा ज्ञाने ॥) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગહણિ-ભાગ ૨ - 67 * * * * * * * * * * * * * * * Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * બાઘાર્થસિવિ * * * * * * * * * * * * * * * * * * अथ सः-बाह्योऽर्थः परस्य-अर्थवादिन एवम्-उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽभिमतस्तत्कथं तस्यादर्शनादभावनिश्चयो न भवतीति ? अत्राह-'तदभावो' इत्यादि, यदि परस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थोऽभिमतस्ततस्तस्यैव-परस्य तदभावो बाह्यार्थाभावः साध्यः स्यात्, तव पुनरात्मनिश्चयो-बाह्यार्थाभावविषयः कथमुपजायते? पर आह- 'अजुत्तिउत्ति' अयुक्तेःयुक्त्यभावात्। यद्यपि हि नोपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थस्तथापि नासौ युक्त्या युज्यत इति तदभावनिश्चयः कर्तुं शक्यत एवेति । अत्राह-'सा समा णाणे' सा-अयुक्तिर्ज्ञानेऽपि समा-तुल्या यथाऽभिहितं प्राक्, ततो नायुक्तेरप्यर्थाभावनिश्चयः ॥६९१ ॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ બાધાર્થ અર્થવાદીને ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્તતરીકે અભિમત છે. તેથી તેના અદર્શનથી અભાવનો નિશ્ચય કેમ નહીં થાય? અર્થાત થશે જ. ઉત્તરપક્ષ:- જો બાહ્યર્થ અર્થવાદીને ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્તતરીકે અભિમત છે, તો તેને (અર્થવાદને) જ બાહ્યર્થનો અભાવ સાધ્ય બનશે, તમને કેવી રીતે બાહ્યર્થના અભાવઅંગે આત્મીયનિચય થશે? (જે વસ્તુ જે વ્યક્તિને દેખાવાયોગ્ય (=ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત) હોય, તે જ વ્યક્તિ કે વસ્તુના અદર્શનથી તેના અભાવનો નિશ્ચય કરી શકે, અન્ય નહીં. જેમકે અતીન્દ્રિયવસ્તુ યોગીઓને પ્રત્યક્ષયોગ્ય છે. તેથી તેના અપ્રત્યક્ષથી અભાવનો નિર્ણય યોગી જ કરી શકે, આપણા જેવા નહીં. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ બાધાર્થ પ્રત્યક્ષ યોગ્ય છે એમ અર્ધવાદી માને છે, તેથી તેના અદર્શનથી તેના અભાવનો નિર્ણય પણ અર્થવાદી કરે તે યોગ્ય ગણાય. પ્રત્યયોગ્ય એકને હોય અને અદર્શનથી અભાવનો નિર્ણય અન્ય કરે તે બરાબર નથી.) જ્ઞાનવાદી:- અમે બાહ્યર્થના હોવામાં યુક્તિ ન હોવાથી તેના અભાવનો નિર્ણય કરીએ છીએ. તેથી જો કે અમારા મતે અર્થ ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત નથી, છતાં અર્થ યુક્તિસંગત નથી, તેથી જ તેના અભાવનો નિશ્ચય કરી શકાય છે. ઉત્તરપક્ષ:- આ યકૃત્યભાવ તો જ્ઞાનપક્ષે સમાન છે. તે પૂર્વે કહ્યું જ છે. તેથી અયુક્તિથી પણ અર્થના અભાવનો નિશ્ચય કરવો યોગ્ય નથી. ૬૯૧ વિ - વળી न य णाणाण विरोहो सिद्धो अस्थस्स जणयतब्भावे । गम्मति इहराभावो सिद्धीए य कह तओ नत्थि ? ॥६९२॥ . (न च ज्ञानानां विरोधः सिद्धोऽर्थस्य जनकतद्भावे । गम्यते इतरथाभावः सिद्धौ च कथं सकः नास्ति ॥) न च ज्ञानानां विषये अर्थस्य यो जनकतद्भाव:- स चासौ भावश्च तद्भावो जनकश्चासौ तद्भावश्च जनकतद्भावो, जनकस्वभावत्वमितियावत् तस्मिन् कश्चिद्विरोधः सिद्धः, तत्साधकप्रमाणाभावात्, अपितु (तथा)तथाविचित्राकारोपेतज्ञानप्रबन्धदर्शनाद् गम्यते अर्थस्य जनकतद्भावः इतरथा-एवमनभ्युपगमे ज्ञानस्याभावः प्राप्नोति, आकाराधानसमर्थस्य कारणान्तरस्याभावात् । सिद्धौ च-भावे च ज्ञानस्य तत्तत्तथाविधविचित्राकारोपेतस्य कथं 'तउत्ति' सकः-अर्थो नास्तीत्युच्यते इति । स्यादेतत्, यद्यर्थो भवेत् ततस्तद्ग्राहकं प्रमाणमपि प्रवर्तेत, न च प्रवर्तते, तस्मात्स नास्त्येवेति ॥६९२॥ અર્થમાં જનક્ત ભાવ ગાથાર્થ-જ્ઞાનના વિષયઅંગે અર્થનો જે જનHદ્ભાવ છે. (જનકતભાવ જનક એવો તભાવ અર્થાત જનકસ્વભાવ) તે અંગે કોઈ વિરોધ સિદ્ધ નથી. કેમકે વિરોધસાધક પ્રમાણનો અભાવ છે. ઉલ્યું તેવા તેવા અનેક વિચિત્રકારોથી યુક્ત જ્ઞાનપ્રવાહના દર્શનથી અર્થમાં જ્ઞાનજનકસ્વભાવનું જ અનુમાન થાય છે. કારણ કે અર્થને છોડી અન્ય કોઈ જ્ઞાનમાં આકારનું આધાન કરવા સમર્થ નથી. અર્થાત જ્ઞાનમાં આકારનું આધાન કરી શકે તેવા કારણોત્તરનો અભાવ છે. અને જ્ઞાન ને તે તેવા પ્રકારના વિચિત્રકારોથી યુક્તરૂપે સિદ્ધ છે. તેથી “અર્થ નથી' તેવું કથન કેવી રીતે યુક્તિસંગત બને? અર્થાત ન જ બને. જ્ઞાનવાદી:- જે બાધાર્થ સત શ્રેય તો બાલાર્થગ્રાહક પ્રમાણ પણ પ્રવર્તવું જોઈએ. પણ પ્રવર્તતું નથી. તેથી બાહ્યાર્થ નથી, તેમ સિદ્ધ થાય છે. છેલ્લા મત શાહ – અહીં ઉત્તર આપે છે गाहगपमाणविरहो एवं साधारणो उ नाणेवि । अस्थि य तं अत्थस्सवि सत्ता तह चेव अणिसेज्झा ॥६९३॥ (ग्राहकप्रमाणविरह एवं साधारणस्तु ज्ञानेऽपि । अस्ति च तदर्थस्यापि सत्ता तथैवानिषेध्या |) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંરહણિ-ભાગ ૨ - 68 * * * * * * * * * * * * * * Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ सिदि++++++++++++++++++ ५४॥ ग्राहकप्रमाणविरह एवम्-अनन्तरोक्तेन प्रकारेण ज्ञानेऽपि साधारण एव । तुशब्द एवकारार्थः । अथ च तत् ज्ञानमस्ति तथा अर्थस्यापि सत्ता अनिषेध्यैव ॥६९३॥ " ગાથાર્થ:- ( મૂળમાં ‘તુ પદ જકારઅર્થક છે.) ઉત્તર૫:- અર્થની જેમ જ્ઞાનઅંગે પણ ગ્રાહકપ્રમાણનો અભાવ પર્વોક્તયક્તિથી સમાન જ છે. છતાં પણ “જ્ઞાન છે એમ તમને ઇષ્ટ છે, તો સમાનતયા અર્થની સત્તાનો પણ નિષેધ થઈ શકે તેમ નથી જ. ૬૯ अत्रैवोपचयमाह - અહીં પુષ્ટિ બતાવે છે किंच इहं नीलातो जायइ पीतादणेगधा णाणं । णय तं अहेतुगं चिय को हेतू तस्स वत्तव्वं ? ॥६९४॥ (किञ्चेह नीलाद् जायते पीताद्यनेकधा ज्ञानम् । न च तदहेतुकमेव को हेतुस्तस्य वक्तव्यम् ? ॥) किंच इह-जगति नीलात-नीलाकारात् विज्ञानादनन्तरं जायते पीतादि-पीताकारादि ज्ञानमनेकधा-अनेकप्रकारं, न च तत्-पीतादिकज्ञानमहेतुकं, सदाभावादिप्रसङ्गात्, ततो यदि बाह्योऽर्थस्तथा तथा विचित्राकाराधायकत्वेन नाभ्युपगम्यते तर्हि तस्य पीतादिज्ञानस्य को हेतुरिति वक्तव्यम् ? ॥६९४॥ ગાથાર્થ:- વળી, આ જગતમાં નીલાકાર જ્ઞાન પછી તરત પીતવગેરે આકારવાળું અનેક પ્રકારનું જ્ઞાન થાય છે. અને આ પવિગેરે આકારવાળું જ્ઞાન અeતક તો નથી જ, કેમકે અeતક માનવામાં હંમેશા હોવા- ન હોવાની આપત્તિ છે. તેથી જો જ્ઞાનમાં તેવા તેવા વિચિત્ર આકારોના આધાયકતરીકે બાહ્યર્થ સ્વીકારવામાં ન આવે, તો તે પીતવગેરે જે જ્ઞાન થાય છે, તેમાં કોણ હેતુ છે? તે કહેવું પડશે. આ૬૯૪ આલયવિજ્ઞાન' વાદનું ખંડન पर आह - અહીં જ્ઞાનવાદી કહે છે. आलयगता अणेगा सत्तीओ पागसंपउत्ताओ । जणयंति नीलपीतादिनाणमन्नो न हेतुत्ति ॥६९५॥ . (आलयगता अनेकाः शक्त्यः पाकसंप्रयुक्ताः । जनयन्ति नीलपीतादिज्ञानमन्यो न हेतुरिति ॥) आलयगता-आलयविज्ञानगता अनेकाः शक्तयः 'पागसंपउत्तत्ति' पाकसंप्रयुक्ता विपाकप्राप्ताः सत्यो जनयन्ति नीलपीतादिकं-नीलपीताद्याकारं ज्ञानमतस्ता एव हेतवो न पुनरन्यो बाह्योऽर्थ इति ॥६९५॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આલયવિજ્ઞાનમાં અનેક શક્તિઓ રહેલી છે. આ શક્તિઓ જયારે વિપાક પામે છે ત્યારે નીલ' “પીત આદિ અનેકપ્રકારવાળા જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરે છે. તેથી આ શક્તિઓ જ કારણભૂત છે, નહીં કે અન્ય કોઈ બાહ્ય અર્થ. ૧૯૫ા अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્યદેવ ઉત્તર આપે છે. ता आलयातो भिन्नाऽभिन्ना वा होज्ज ? भेदपक्खम्मि । ता चेव उ बज्झत्थोऽभेदे सव्वाणमेगत्तं ॥६९६॥ (ता आलयाद् भिन्ना अभिन्ना वा भवेयुः ? भेदपक्षे । ता एव तु बाह्यार्थोऽभेदे सर्वासामेकत्वम् ॥) ता:-शक्तयो नीलपीताद्याकारज्ञानहेतवः आलयात्-आलयविज्ञानात्सकाशात् भिन्ना वा भवेयुरभिन्ना वा? तत्र यदि भेदपक्षस्ततस्ता एव-शक्तयो बाह्योऽर्थः, ज्ञानादन्यस्य सर्वस्यापि वस्तुसतो बाह्यार्थत्वेनाभ्युपगमात् । अभेदे-अभेदपक्षे चाभ्युपगम्यमाने सर्वासामपि शक्तीनामेकत्वं प्राप्नोति, एकस्मादालयादनन्यत्वात्, तत्स्वरूपवत् ॥६९६॥ ગાથાર્થ:-ઉત્તરપક્ષ:-નીલ, પીતવગેરે આકારવાળા જ્ઞાનમાં હેતુભૂત આ શક્તિઓ આલયવિજ્ઞાનથી ભિન્ન છે કે અભિન્ન છે? તેમાં જો ભેદપક્ષ સ્વીકારશો-શક્તિઓને ભિન્ન માનશો, તો આ શક્તિઓ જ બાધાર્થતરીકે સિદ્ધ થશે, ++++++++++++++++ र्भसंशि -मा२ - 9 + + + + + ++ + + + + + + + + Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * બાદશાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * કારણ કે જ્ઞાનથી ભિન્ન બધી જ વસ્તુઓ બાહ્યાર્થતરીકે સ્વીકૃત છે. જો અભેદ૫ક્ષ સ્વીકારશો–શક્તિઓને આલયવિજ્ઞાનથી અભિન્ન માનશો, તો બધી શક્તિઓમાં એકત્વ ( એકરૂપતા) આવી જશે, કારણ કે એકભૂત આલયથી અભિન્ન છે. (-આલયવિજ્ઞાન એક હોવાથી એમાં એકત્વ છે. હવે જો શક્તિઓ અનેક હોય, તો તેઓમાં આલયથી અભેદ ન આવે. જો અભેદ લાવવો હોય, તો શક્તિઓમાં પણ એકત્વ સ્વીકારવું પડે. અને જે એકત્વ હોય, તો શક્તિઓ એકરૂપ થાય.) જેમકે આલયનું સ્વરૂપ આલયથી અભિન્ન છે, તો એકરૂપ છે. ૬૯૬ાા एतदेव भावयति - આ જ મુદાનુ ભાવન કરે છે एगो स आलयो जं तत्तोऽभिन्नाण णत्थि नाणत्तं । नाणत्तेवि य पावति तदभेदा आलयबहुत्तं ॥६९७॥ (एकः स आलयो यत्तस्मादभिन्नानां नास्ति नानात्वम् । नानात्वेऽपि च प्राप्नोति तदभेदादालयबहुत्वम् ॥ यत्-यस्मात्स आलय एक स्ततः-तस्मादालयादभिन्नानां शक्तीनां नैव नानात्वमस्ति-नैव नानात्वमुपपद्यते, नानात्वे वा तासां शक्तीनामिष्यमाणे तदभेदात्-शक्त्यभेदादालयस्य बहत्वं प्राप्नोति, तथा च सत्यभ्युपगमविरोधः ॥६९७॥ ગાથાર્થ:- આ આલયવિજ્ઞાન ( અહં - ‘દુ" હું એવા વિજ્ઞાનરૂપે નિદ્રાદિકાલે પણ સતત પ્રવૃત રહેતું વિજ્ઞાન આલયવિજ્ઞાન. પીતાદિ વિજ્ઞાન પ્રવૃત્તિવિજ્ઞાન છે. આ વિજ્ઞાનનું આધારભૂત હોવાથી તે “આલયવિજ્ઞાન' તરીકે બૌદ્ધજગતમાં પરિભાષા પામેલ છે.) એક છે, તેથી આલયથી અભિન્ન એવી શક્તિઓમાં નાનાત્વ(અનેકપણું) સંભવતું નથી. અને જો શક્તિઓમાં નાના– ઈષ્ટ ધેય, તો તે શક્તિઓથી અભિન્ન હોવાથી આલયમાં પણ બહુત્વ–આલય પણ અનેક થવાની આપત્તિ છે. અને તો અભિમતસિદ્ધાન્તસાથે વિરોધ આવશે. ૬૯૭ पक्षान्तरं दूषयितुमाशङ्कते - હવે પક્ષાન્તરને દૂષિત કરવા આશંકા કરે છે. अह ता भिन्नाभिन्ना विरोहतो णेस संगतो पक्खो । ण य एगंतावच्चा अवच्चसद्दप्पवित्तीओ ॥६९८॥ (अथ ता भिन्नाभिन्ना विरोधान्नैष संगतः पक्षः । न चैकान्तावाच्या अवाच्यशब्दप्रवृत्तेः ॥ अथ ताः-शक्तय आलयात्सकाशान्न भिन्ना नाप्यभिन्नाः किंतु भिन्नाभिन्नास्ततो न कश्चिद्दोषः इति मन्येथाः । अंबाहविरोहे त्यादि' विरोधतो-विरोधदोषप्रसङ्गान्नैष पक्षः संगतः । तथाहि यदि भिन्नाः कथमभिन्नाः अथाभिन्ना कथं भिन्ना इति ? कथंचिद्वादाभ्युपगमेन चाविरोधे स्वदर्शनपरित्यागप्रसङ्गः । अथोच्येत-न ताः शक्तयो भिन्ना नाप्यभिन्ना नापि भिन्नाभिन्नाः, किं त्वेकान्तेनावाच्यास्तत्कथमुक्तदोषावकाश इति । अत आह-'नये त्यादि, न च ताः शक्तय. एकान्तेनावाच्याः, कुत इत्याह-अवाच्यशब्दप्रवृत्तेः, यदि हि एकान्तेनावाच्याः शक्तयस्ततः कथमवाच्यशब्दस्यापि तत्र प्रवृत्तिर्भवेदिति? ॥६९८॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ શક્તિઓ આલયવિજ્ઞાનથી ભિન્ન પણ નથી અને અભિન્ન પણ નથી, પરંતુ ભિન્નભિન્ન છે. તેથી કોઈ દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- તમારી આ માન્યતા પણ બરાબર નથી. કારણ કે આ પક્ષમાં વિરોધદોષનો પ્રસંગ છે. તે આ પ્રમાણેનું જે ભિન્ન હોય, તો અભિન્ન કેવી રીતે થાય? અને અભિન્ન હોય, તો ભિન્ન કેવી રીતે બને? કથંચિત્ ભિન્નભિન્ન સ્વીકારવાથી અવિરોધ આવે, પણ ત્યાં સ્વસિદ્ધાન્સત્યાગનો પ્રસંગ છે. (તમારો સિદ્ધાન્ત એકાન્તવાદનો છે, કથંચિવાદ અનેકાંતવાદનો નથી.) રાનવાદી:- આ શક્તિઓ આલયવિજ્ઞાનથી ભિન્ન પણ નથી, અભિન્ન પણ નથી, કે ભિન્નભિન્ન પણ નથી, કિન્તુ એકાને અવાઓ (શબ્દાતીત) છે. તેથી તમે કહેલા દોષને અવકાશ નથી. ઉત્તરપt:-આ શક્તિઓ એકાને અવાચ્ય પણ નથી, કારણ કે “અવાચ્ય' એવા શબ્દનો પ્રયોગ તો થઈ શકે છે. અર્થાત “અવાચ્ય' શબ્દથી તો અભિધેય છે જ. જો એકાન્ત અવાચ્ય હોય, તો અવાચ્યશબ્દથી પણ શી રીતે વાચ્ય(=અભિધેય) બને? “અવાચ્ય શબ્દની પ્રવૃત્તિ(=ઉલ્લેખ પામી શકતી) હોવાથી જ શક્તિઓ એકાન્ત અવાચ્ય પણ નથી. ૬૯૮ જ જ આ જ જે જ * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 70 * * * * * * * * * * * * * * * Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ uetudܗ ܀ ܀ ܀ ܣ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पनरपि परस्य मतमाशङ्कमान आह - ફરીથી જ્ઞાનવાદીના મતની આશંકા કરતાં કહે છે – परिगप्पिता तु अह ता विसिट्ठफलकारणं कहन्नु मता ? । तब्भावा फलभावे अतिप्पसंगो स चाणिट्ठो ॥६९९॥ (परिकल्पितास्तु अथ ता विशिष्टफलकारणं कथं नु मताः । तद्भावात्फलभावेऽतिप्रसङ्गः स चानिष्टः ॥ अर्थताः शक्तयो न वस्तुसत्यो येन भेदाभेदादयो भवेयुः, किंतु परिकल्पिता एव, ततो न कश्चित्पूर्वोक्तो दोषः । अत्राह- 'विसिडेत्यादि' यदि परिकल्पितास्ततः कथं नु विशिष्टफलकारणं-वस्तुसद्विशिष्टपीतादिज्ञानलक्षणफलनिबन्धनं मताः? परिकल्पितं हि परमार्थतोऽसत्, तत्कथं ता विशिष्टफलनिबन्धनं भवेयुरिति? यदि पुनरस्तद्भावात् परिकल्पितभावात् फलभावोऽभ्युपगम्येत ततस्तस्मिन् सति अतिप्रसङ्गः प्राप्नोति, स चानिष्ट इति यत्किंचिदेतत् ॥६९९॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ શક્તિઓ વાસ્તવિક નથી. પરંતુ પરિકલ્પિત જ છે. તેથી ભેદભેદવગેરેની સંભાવના ન હોવાથી હવે કોઈ પૂર્વોક્ત દોષ નથી. ઉત્ત૨૫:-જો શક્તિઓ પરિકલ્પિત હોય, તો કેવી રીતે વિશિષ્ટફળનું કારણ બને? પીતવગેરે જ્ઞાનો વાસ્તવિક તરીકે ઈષ્ટ છે. આ જ્ઞાનરૂપફળનું કારણ કલ્પિતશક્તિ બને તે કેવી રીતે માની શકાય? કારણ કે પરિકલ્પિત વસ્તુ પરમાર્થથી તો અસત જ છે. તેથી કેવી રીતે વિશિષ્ટફળમાં કારણ બની શકે? જો પરિકલ્પિતભાવમાંથી વાસ્તવિક ફળનો ભાવ સ્વીકારશો, તો તેમાં અતિપ્રસંગ દોષ પ્રાપ્ત થશે. અને તે અનિષ્ટ છે. તેથી આ વાત વાતમાત્ર છે. ૬૯લા उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે. ता जो इमस्स हेतू सो च्चिय बज्झत्थमोऽवसेणावि । अब्भुवगंतव्वमिदं एवं बज्झत्थसिद्धीओ ॥७०० ॥ ___(तस्माद् योऽस्य हेतुः स एव बाह्यार्थोऽवशेनापि । अभ्युपगन्तव्यमिदमेवं बाह्यार्थसिद्धितः ॥ 'ता' तस्मात् योऽस्य-पीतादिज्ञानस्य हेतुः स एव बाह्योऽर्थः इतीदमवशेनापि-अकामेनापि अभ्युपगन्तव्यम् । एवं च सति बाह्यार्थसिद्धिरव्याहतप्रसरेति स्थितम् ॥७००॥ ગાથાર્થ:- તેથી પીતવગેરે જ્ઞાનનો જે હેત છે તે જ બાહ્યર્થ છે એમ અનિચ્છાએ પણ સ્વીકારવું જોઈએ. અને આમ થવાથી બાધાર્થની વિના રોકટોક સિદ્ધિ થાય છે તેમ નિશ્ચય થાય છે. ૭૦ગ્યા સ્વભાવહેતુનો નિષેધ अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह - અહીં જ્ઞાનવાદીના મતની આશંકા કરતા કહે છે . अह तु सहावो हेऊ भावोऽभावो व होज्ज ? जति भावो । सो चेव उ बज्झत्थो अह तु अभावो ण हेउत्ति ॥७०१॥ (अथ तु स्वभावो हेतु र्भावोऽभावो वा भवेत् ? यदि भावः । स एव तु बाह्यार्थः अथ तु अभावो न हेतुरिति ॥ अथ न बाह्योऽर्थो हेतुः किंतु स्वभाव एव । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च स चेह योजित एव । अत्राह-'भावो इत्यादि' भावो वा स स्वभावो भवेदभावो वा ? तत्र यदि भावस्ततः स एव बाह्योऽर्थः केवलं स्वभावशब्देनाभ्युपगतः । अथाभावस्तर्हि न हेतुः, अभावस्य हेतुत्वायोगात्, अन्यथा तत एव कटककुण्डलाद्युत्पत्तेर्विश्वस्यादरिद्रताप्रसङ्गः।।७०१ ॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- બાહ્યઅર્થ હેત નથી, પણ સ્વભાવ જ હેત છે. (“ત' પદ જકારઅર્થક છે, અને સ્વભાવ પદ साथे संबन छे.) ઉત્તરપક્ષ:- આ સ્વભાવ ભાવાત્મક છે કે અભાવાત્મક? જો ભાવાત્મક હોય, તો તે જ બાહ્યર્થ છે, માત્ર “સ્વભાવ શબ્દથી તેનો બાધઅર્થનો) સ્વીકાર કર્યો. હવે એ સ્વભાવ અભાવાત્મક હોય, તો તે હેતુ બની શકે નહીં, કારણ કે અભાવ હેતુતરીકે સંભવે નહીં. નહીંતર તો અભાવમાંથી જ કડાં, કુંડળવગેરે ઉત્પન્ન થવાથી જગતમાં કોઈ દરિદ્ર જ ન રહે. ૭૦ના ++ ++ + + + + + + + + + + + + A-ला-२ - 71 +++++++++++++++ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************ounसिबि * * ** * * * + + + + ++ + + ++ पुनरप्यत्र परमारेकमान(ण) आह - ફરીથી અર્વ જ્ઞાનવાદીની આશંકા વ્યક્ત કરતાં કહે છે सो भावोत्ति सहावो तस्सेव जमायस्वमो अह उ । तं चेव कारणंतरविगलं पीतादिहेउत्ति ॥७०२॥ (स्वो भाव इति स्वभावस्तस्यैव यदात्मस्वरूपमथ तु । तदेव कारणान्तरविकलं पीतादिहेतुरिति ॥) अथ मन्येथाः स्वः-आत्मीयो भावः-सत्ता स्वभाव इति व्युत्पत्तेः तस्यैव नीलज्ञानस्य यदात्मरूपं तदेव च कारणान्तरविकलं-बाह्यार्थादिहेत्वन्तरविरहितं-पीतादिज्ञानहेतुरिति न कश्चिद्दोषः ॥७०२॥ थार्थ:-जानाही:-स्व-पोतानो भासता(मस्तित) स्वभाव. सावी समापनी व्युत्पत्ति छे. तेथी ते નીલજ્ઞાનનું જ જે આત્મસ્વરૂપ છે, તે જ સ્વરૂપ બાહ્યર્થવગેરે અન્ય હેતની અપેક્ષા વિના પીતઆદિજ્ઞાનમાં હેતુ છે. તેથી કોઇ દોષ નથી. ૭૦રા अत्राह અહીં આચાર્યદેવ ઉત્તર આપે છે नीलत्ते सामन्ने कारणविगलत्तणे य किन्नेवं ? । अन्नंपि नीलहेऊ जायइ पीतादिहेउत्ति ॥७०३॥ (नीलत्वे सामान्ये कारणविकलत्वे च किन्नैवम् ?। अन्यदपि नीलहेतुः जायते पीतादिहेतुरिति ॥) नीलत्वे-नीलज्ञानत्वे सामान्य कारणविकलत्वे च-बाह्यार्थादिकारणान्तररहितत्वे च सामान्ये सति किन्नैवमन्यदपिनीलज्ञानं नीलहेतुः-विवक्षितनीलज्ञानहेतुभूतं जायते पीतादिहेतुः? इदमुक्तं भवति-इह कदाचित् प्रबन्धवन्त्यपि ज्ञानानि जायन्ते, तथानुभवात, यदि नीलज्ञानस्यात्मरूपमेव कारणान्तरविकलं पीतादिज्ञानहेतरिष्यते तर्हि यथा चरमं नीलज्ञानं पीतादिज्ञानान्तरहेतुस्तथा ततः प्राचीनमपि कस्मान्न भवति ? विशेषाभावादिति ७०३॥ ગાથાર્થ:- નીલજ્ઞાનત્વ સામાન્ય અને “બાલાર્થકારણવિક્તત્વ"સામાન્ય આ બને તો અન્ય વિવણિતનીલશાનમાં કારણભૂત નીલજ્ઞાનમાં પણ છે, તો તે (કારણભૂતનીલજ્ઞાન) પણ કેમ પીતઆદિજ્ઞાનમાં હેત નીં બને? તાત્પર્ય:- અહીં ક્યારેક પ્રબન્ધ-પ્રવાહાત્મક–પરંપરાત્મક જ્ઞાન પણ થાય છે કેમકે તેવો અનુભવ થાય છે. હવે જે નીલશાનનું સ્વરૂપ જ કારણાન્તરથી વિક્લ થઈને પીતાદિજ્ઞાનનાં હેતતરીકે ઇષ્ટ હોય, તો જેમ પ્રબન્ધ નીલજ્ઞાનનું છેલ્લું નીલશાન પીતાદ જ્ઞાનાન્સરનું કારણ બને છે, તેમ ચરમ નીલજ્ઞાનની પૂર્વનું નીલજ્ઞાન પણ પીતાદિજ્ઞાનાન્તરનું કારણ બનવું જોઇએ. કેમકે નીલજ્ઞાનત અને કારણોત્તરવિકલત્વ સમાનતયા હાજર છે. ૭૦ વેશિયસર્જક ભેદકનો અભાવ अह तं विसिट्टगं चिय वइसिटुं हंत किंकयं तस्स? ।। अह तु सहेतुकयं चिय ण तेसि तत्ताविसेसातो ॥७०४॥ (अथ तद्विशिष्टकमेव वैशिष्ट्यं हन्त किंकृतं तस्य ? । अथ तु स्वहेतुकृतमेव न तेषां तत्त्वाविशेषात् ॥) अथ तत्-नीलज्ञानं विशिष्टमेव पीतदिज्ञानहेतुरिष्यते न यत्किमपि, न च नीलज्ञानहेतुर्नीलज्ञानं विशिष्टमिति नततोऽपि पीतादिज्ञानभाव इति । अत्राह-'वइसिट्ठमित्यादि' वैशिष्ट्यं हन्त किंकृतं तस्य-पीतादिज्ञानान्तरहेतोर्विवक्षितनीलज्ञानस्य ? अथोच्येत किमत्र हेत्वन्तरेण ? स्वहेतकतमेव तस्य वैशिष्टयमिति । अत आह-'न तेसि तत्ताविसेसाओ' यदेतदनन्तरमुक्तं तन्न, तयोः-नीलज्ञानहेतुपीतादिज्ञानान्तरहेतुनीलज्ञानयोस्तत्त्वाविशेषात्-स्वरूपाविशेषात् ७०४॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- એ વિશિષ્ટ નીલજ્ઞાન જ પીતાદિ જ્ઞાનનાં હેતુતરીકે ઈન્ટ છે, નહીં કે જે- તે નીલશાન. અને નીલજ્ઞાનમાં કારણભૂત નીલજ્ઞાન વિશિષ્ટ નથી. તેથી એ અવિશિષ્ટ નીલજ્ઞાનથી પીતાદિજ્ઞાન થશે નહીં. ઉત્તરપક:- પીતાદિ જ્ઞાનાન્સરમાં કારણભૂત નીલજ્ઞાનમાં વૈશિષ્ટય કરનાર કોણ? વૈશિzયનું કારણ શું? શાનવાદી:- એમાં બીજા કારણોથી સર્ય. નીલજ્ઞાનનો હેતુ જ નીલજ્ઞાનમાં વૈશિસ્ય પણ ઉત્પન્ન કરે છે. અર્થાત નીલજ્ઞાનગત વિશિષ્ટટ્ય હેતલત છે. ++++++++++++++++ aalee-MIR -72+++++++++++++++ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ક ક ક ક ન + * * * * * * * * બાઘાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * ઉત્તરપક્ષ:- આ કથન યોગ્ય નથી. નીલજ્ઞાનમાં કારણભૂત નીલજ્ઞાન અને પીતાદિજ્ઞાનાન્તરમાં કારણભૂત નીલજ્ઞાન આ બને જ્ઞાનમાં કોઈ સ્વરૂપભિન્નતા નથી. અર્થાત બને એકસરખા છે. તેથી સ્વયેતકૃત વૈશિષ્ટટ્ય અસિદ્ધ છે. પ૭૦૪ આ જ અર્થનું વિવરણ કરે છે. नीलक्खणजणगातो जाओ तस्सेव जुज्जई हेऊ । भेदगभावाभावा अतीतनीलक्खणा जह उ ॥७०५॥ (नीलक्षणजनकाद् जातास्तस्यैव युज्यते हेतवः । भेदकभावाभावादतीतनीलक्षणा यथा तु ॥) यथा अतीतनीलक्षणा-अतीतनीलज्ञानक्षणा नीलज्ञानक्षणजनकाद्धेतोर्जाताः सन्तस्तस्यैव-नीलज्ञानक्षणस्य हेतवोऽभवन् तथा विवक्षितो नीलज्ञानक्षणो नीलज्ञानक्षणजनकाद्धेतोर्जातः सन् तस्यैव नीलज्ञानक्षणस्य हेतुर्युज्यते, न पीतादिज्ञानस्य । कुत इत्याह-'भेदकभावाभावात्' भेदकं यद्भावान्तरं तस्याभावात् ॥७०५॥ ગાથાર્થ:- જેમ અતીતનીલજ્ઞાનક્ષણો નીલજ્ઞાનક્ષણજનક હેતુથી ઉત્પન્ન થાય છે, અને તે નીલજ્ઞાનક્ષણનાં જ હેતુઓ થાય છે. તે જ પ્રમાણે વિવક્ષિત નીલજ્ઞાનક્ષણ પણ નીલજ્ઞાનક્ષણજનક હેતુથી જ ઉત્પન્ન થઇ છે. તેથી તે નીલજ્ઞાનક્ષણના જ હેતતરીકે યોગ્ય છે. પીતવગેરેજ્ઞાનના હેત તરીકે નહીં. કારણ કે ભેદ પાડનાર ( ભેદક) કોઇ અન્ય ભાવ હાજર નથી. અર્થાત વિવક્ષિત નીલજ્ઞાનક્ષણમાં પૂર્વનીલજ્ઞાનક્ષણોથી ભેદ ઊભો કરનાર(=વૈશિષ્ટયજનક) કોઈ અન્ય હેતુ સ્વીકાર્યો નથી કે જેથી એ વિવણિતનીલજ્ઞાનક્ષણ જ પીતજ્ઞાનનો હેત બને અને અન્ય નીલજ્ઞાનક્ષણ નહીં' એવો ભેદભાવ ઊભો થાય. ૭૦પા कालो उ भेदगो चेव तब्भावे कह ण बज्झसिद्धित्ति ? । नाणंतरंपि भिन्नाभिन्नद्धमजुत्तमेजत्तं (मेगंता) ॥७०६॥ (कालस्तु भेदक एव तद्भावे कथं न बाह्यसिद्धिरिति ?। ज्ञानान्तरमपि भिन्नाभिन्नाद्धमयुक्तमेकान्तेन ॥ कथमुच्यते भेदकभावाभावो ? यावता अस्ति कालो भेदकः, तथाहि-विवक्षितं चरमं नीलज्ञानमिदानीतनक्षणवर्ति ततः पीतादिज्ञानहेतुः, शेषाणि तु तदन्यक्षणवर्तीनि ततो नीलज्ञानस्यैव तानि कारणानि इति चेत् ? ननु तद्भावे कथं न बाह्यार्थसिद्धिः ? तस्यापि (कालस्यापि) बाह्यार्थत्वात् । स्यादेतत्, न कालो भेदकः, किंतु ज्ञानान्तरमेव, ततो नोक्तदोषप्रसङ्ग इति । अत आह– 'णाणंतरंपीत्यादि' ज्ञानान्तरमपि तद्भेदकत्वेनाभ्युपगम्यमानं भिन्नाद्धं-भिन्नकालमभिन्नाद्धम्-अभिन्नकालं वा एकान्तेनायुक्तमेव । तथाहि-नाभिन्नाद्धं ज्ञानान्तरं भेदकं युक्तं, समकालभावितया परस्परमुपकार्योपकारकत्वाभावात्। भिन्नाद्धमपि ज्ञानान्तरं यावद्विवक्षितनीलज्ञानोपादनस्य वैशिष्ट्यं नाधत्ते तावन्न विवक्षितनीलज्ञानस्य भेदकं युक्तम, उपादानस्य ततः सकाशात् विशेषाभावे फले विशेषायोगात्, उपादानस्य च ततो ज्ञानान्तराद्विशेषो न युक्तः, समकालभावित्वादिति, एतच्च 'वइसिटुंपि न जुज्जइ खणिगत्ते कारणस्सेत्यादिना' ग्रन्थेन विस्तरतः प्रागभिहितमिति नेह पुनः प्रतायते । तन्न ज्ञानान्तरमपि भेदकं युक्तमिति कथं विवक्षितं नीलज्ञानं पीतादिज्ञानहेतुरुपपद्यते? ॥७०६॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- કાલ ભેદકતરીકે હાજર છે. જુઓ વિલિત ચરમ નીલજ્ઞાન વર્તમાનક્ષણે રહ્યું છે. તેથી તે પીતાદિ જ્ઞાનમાં હેત છે. જયારે શેષ નીલજ્ઞાનો તો વર્તમાનક્ષણથી ભિન્ન ક્ષણો (Fપૂર્વક્ષણોમાં) રહેલા છે. તેથી તેઓ નીલજ્ઞાનમાં જ હેતુઓ છે. આમ કાલ ભેદકરૂપે હાજર છે તેથી ભેદકનો અભાવ કહેવો યોગ્ય નથી. ઉત્તરપt:- જો કાલનો ભાવ (=અસ્તિત્વ) હોય, તો બાહ્યર્થ કેમ ન હોય? અર્થાત બાહ્યર્થ હોવો જ જોઈએ. કેમ કે કાલ પણ જ્ઞાનક્ષણોથી ભિન્ન હોવાથી હકીકતમાં બાધ્યાર્થરૂપ જ છે. જ્ઞાનવાદી:- કાલ ભેદક નથી. પરંતુ જ્ઞાનાન્સર જ ભેદક છે. તેથી કથિત દોષને અવકાશ નથી. * ઉત્તરપક્ષ:-ભેદકતરીકે સ્વીકારેલું આ જ્ઞાનાન્સર પણ સમકાલીન હોય કે ભિન્નકાલીન હોય, તો પણ એકાને અયોગ્ય જ છે. જૂઓ સમકાલીન જ્ઞાનાન્તર ભેદકતરીકે સમર્થ નથી, કારણ કે સમકાલે રહેલું હોવાથી પરસ્પર ઉપકારી(ઉપકાર કરનાર) ઉપકાર્ય(ઉપકારયોગ્ય) ભાવ સંભવે નહીં. કારણ કે સમકાલીન બે વસ્તુવચ્ચે ઉપકાર્ય–ઉપકારભાવ અસિદ્ધ છે. ભિન્નકાલીન જ્ઞાનાન્નર જયાં સુધી વિવક્ષિતનીલજ્ઞાનના ઉપાદાનમાં વૈશિટ્સનું આધાન ન કરે, ત્યાં સુધી તે વિવલિત નીલજ્ઞાનના ભેદક તરીકે યોગ્ય નથી. કારણ કે જો ઉપાદાનમાં તેનાથી (=ભેદકજ્ઞાનાન્તરથી) વિશેષની પ્રાપ્તિ ન થાય, તો ઉપાદાનના ફળમાં પણ વિશેષનો વૈશિસ્યનો) યોગ સંભવે નહીં. તેથી ઉપાદાનમાં પણ વિશેષનું આધાન આવશ્યક છે. પરંતુ એ ભેદકથી ઉપાદાનમાં * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 73 * * * * * * * * * * * * * * * Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + +मार्थसिद्धि + + + + + વિશેષનું આધાન થઇ શકે નહીં, કારણ કે એ ભેદકશાનાન્તર અને વિવક્ષિતનીલજ્ઞાનનુ એ ઉપાદાન આ બન્ને સમકાલીન છે. (ભેદકતરીકે અભિમત જ્ઞાનાન્તર વિવક્ષિતનીલજ્ઞાનથી ભિન્નકાલીન હોય, તો પૂર્વકાલીન જ સંભવે છે. આ પૂર્વકાળે વિવક્ષિતનીલજ્ઞાનનું ઉપાદાનશાન હોય છે. આમ એ ભેદકશાન અને ઉપાદાનશાન બન્ને સમકાલીન થયા)આ વાત વઇસિપિ ન જુજઇ॰ ઇત્યાદિ શ્લોકદ્વારા પૂર્વે (જૂઓ ધર્મસંગ્રહણિ સાનુવાદ ભાગ-૧ ગા. ૨૭૧) ખુબ વિસ્તારથી કહી છે. તેથી અહીં ફરીથી કહેતા નથી. તેથી જ્ઞાનાન્તર પણ ભેદકતરીકે યોગ્ય નથી. માટે વિવક્ષિતનીલજ્ઞાન પીતાદિજ્ઞાનનું હેતુ કઇ રીતે ધટી શકે? અર્થાત્ ન જ ઘટી શકે. ૫૭૦ા जायइ य नीलसंवेदणाउ (तो) पीतादि तुह मतेणावि । सा जो इमस्स हेतू सो च्चिय बज्जत्थमो नेओ ॥७०७ ॥ (जायते च नीलसंवेदनात् पीतादि तव मतेनापि । तस्माद् योऽस्य हेतुः स एव बाह्यार्थी ज्ञेयः ॥) जायते च विवक्षितान्नीलसंवेदनात्पीतादि - पीताद्याकारोपेतं ज्ञानं तव मतेनापि 'ता' तस्माद् योऽस्य पीताद्याकारवैचित्र्यस्य हेतुः स एव बाह्यार्थी ज्ञेयः । मो निपातः पूरणे ॥७०७ ॥ ગાથાર્થ:- વિવક્ષિત નીલજ્ઞાનથી પીતાદિઆકારયુક્ત જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, એ તમારા મતે પણ માન્ય છે. તેથી પીતાદિઆકારવૈચિત્ર્યમાં જે કારણ છે, તે બાહ્યાર્થ છે એવો નિશ્ચય કરવો જોઇએ. (મો'પદ પૂરણાર્થક છે.) ૫૭૦ા अत्र परस्याभिप्रायमाह અહીં જ્ઞાનવાદીનો અભિપ્રાય બતાવે છે सिय अघडमाणभावे तुल्ले दोण्हंपऽभावओ होउ । नीसेससुण्णयच्चिय ( सूरि :-) पडिहणिया अणुभवेसा ॥७०८ ॥ (स्यादघटमानभावे तुल्ये द्वयोरपि अभावतो भवतु । निःशेषशून्यतैव (सूरिः) प्रतिभणिता अनुभवेन एषा ॥) स्यादेतत्, इत्थमघटमानभावे तुल्ये सति द्वयोरपि - ज्ञानार्थयोरभावतो निःशेषशून्यतैव भवतु, अस्या एव संप्रति युक्तियुक्ततया प्रतिभासमानत्वात् । अत्राह - 'पडिहणिएत्यादि' एषा - निःशेषशून्यता स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धेनात्मीयेनानुभवेन प्रतिभणिता - निराकृता प्राक्, 'सा अणुहवसिद्धेणं विरुज्झई निययनाणेणं' इत्यादिना ग्रन्थेन ॥७०८ ॥ જ્ઞાનવાદી:- આમ અસંગતતા સમાન હોવાથી જ્ઞાન અને અર્થનો-બન્નેનો અભાવ સિદ્ધ થાય છે. તેથી નિ:શેષ શૂન્યતા—સર્વથા શૂન્યતા જ હો. કેમકે તે જ યુક્તિયુક્ત પ્રતિભાસે છે. ઉત્તરપક્ષ:- પૂર્વે` જ સ્વસંવેદનપ્રમાણથી સિદ્ધ એવા અનુભવથી આ સર્વશૂન્યતાનો નિષેધ કર્યો છે. જૂઓં સા અણુહવસિષ્ઠેણ' ઇત્યાદિ શ્લોક ૫૭૦૮૫ પરમાણુઓમા સમ્બન્ધસિદ્ધિ न चार्थस्याघटमानभावो यत आह વળી, અર્થ અઘટમાન-અસંગત છે તે બરાબર નથી, કેમકે न य न घडइ बज्झत्थो जमणू तुल्लेतरादिरुवा उ । संसा णंसा य तओ जुत्ता संबंधसिद्धित्ति ॥७०९ ॥ (न च न घटते बाह्यार्थी यदणवस्तुल्येतरादिरूपास्तु । सांशा अनंशाश्च ततो युक्ता सम्बन्धसिद्धिरिति ॥) न च न घटते बाह्योऽर्थ किंतु घटत एव । यत् - यस्माद् अणवः - परमाणव स्तुल्येतरादिरूपाः- साधारणासाधारणादिस्वभावाः तथा सांशा अनंशाश्च कथंचित्सांशा कथंचिच्चानंशाः, ततो युक्ता तेषां संबन्धसिद्धिः ॥७०९ ॥ ગાથાર્થ:- બાહ્યાર્થ અસંગત છે, એમ નથી; અર્થાત્ સંગત જ છે. કારણ કે પરમાણુઓ સાધારણ, અસાધારણાદિ સ્વભાવવાળા છે, અને કથંચિત્ અંશવાળા તથા કથંચિત નિરશ છે. તેથી તેઓના સમ્બન્ધની સિદ્ધિ યોગ્ય જ છે. ૫૭૦૯ના एनामेव भावयन्नाह — આ જ સિદ્ધિનું ભાવન કરતા કહે છે. जं चैव खलु अणूणं पच्चासन्नत्तणं मिहो एत्थ । तं चेव उ संबंधो विसिट्ठपरिणामसाविक्खं ॥ ७१० ॥ (यदेव खलु अणूनां प्रत्यासन्नत्वं मिथोऽत्र । तदेव तु सम्बन्धो विशिष्टपरिणामसापेक्षम् ॥) ** + धर्मसंशि-लाग २ - 74**** Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + + + + + + + + + + + + + + + + + auntfelt + + + + + + + + + + + + + + + + + + यदेव खल्वत्र-जगति मिथ:-परस्परमणूनां प्रत्यासन्नत्वं विशिष्ट परिणामसापेक्षं तत्तथास्वभावतासंपादितसत्ताकं कथंचिदपृथग्भूतापरिकल्पिततथाविधैकत्वरूपविशिष्ट परिणामसापेक्षं, तदेव नस्तेषां परमाणूनां संबन्ध इति कथमर्थस्यायुक्तता? ॥१०॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં પરમાણુઓનું વિશિષ્ટ પરિણામને સાપેક્ષ એવું જે પ્રયાસનપણું=સંબંધિતપણું છે તે જ તે પરમાણઓનો સંબંધ છે. તેથી અર્થની અસંગતતા કેવી રીતે આવશે? અર્થાત અર્થ અસંગત નીં બને. અહીં તેવા તેવા પ્રકારના સ્વભાવથી પ્રાપ્ત થયેલી વિદ્યમાનતાવાળા અને કથંચિદ અપૂથભૂત =અભિન) તથા અપરિકલ્પિત (=વાસ્તવિક) એવું જે તથાવિધ એકત્વરૂપ છે તે જ વિશિષ્ટપરિણામતરીકે ઇષ્ટ છે. અર્થાત પરમાણુઓમાં જ એક એવો વિશિષ્ટસ્વભાવ છે કે જેના કારણે પરસ્પર સંકળાયેલા તેઓ કંઇક અભિન્નતા અને એકરૂપતા પરિણામને પામે છે. આ એકતા સ્વભાવજન્ય હોઈ વાસ્તવિક છે, અને તેઓના પરસ્પર સંબંધમાં અપેક્ષણીય છે. ઘ૭૧ના अत्र पर आह - અહીં જ્ઞાનવાદી કહે છે. देसेणं संबंधो इय देसे सति य कहमणुत्तं ति? । . . . अप्पतराभावातो णहप्पतरयं तओ अस्थि ॥७११॥ .. (देशेन सम्बन्ध इति देशे सति च कथमणुत्वमिति? । अल्पतराभावात् न हि अल्पतरं ततोऽस्ति ) - ननु इतिः-एवममुना प्रकारेण देशेन परमाणूनां संबन्धोऽभ्युपगतः स्यात्, अन्यथा मिथस्तेषां प्रत्यासन्नत्वांनुपपत्तेरित्युक्तं प्राक् पूर्वपक्ष एव, सति च देशे परमाणूनामभ्युपगम्यमाने कथमणुत्वं-परमाणुत्वं भवेत् ?। अत्राहअल्पतराभावात्-ततोऽधिकृतात्परमाणोरन्यस्याल्पतरस्याभावात् । एतदेव स्पष्टयति- 'नहप्पतरयं तओ अत्थि,' न हि यस्मात् ततः-अधिकृतात्परमाणोरन्यदल्पतरमस्ति, ततस्तस्य परमाणुत्वं न व्याहन्यत इति ॥७११॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આમ તો પરમાણુઓનો પરસ્પર દેશથી સંબંધ સ્વીકારવો પડશે. નહીંતર તો તેઓનું પરસ્પર સામીપ્ય અસંગત ઠરે. આ વાત પૂવે પૂર્વપક્ષમાં કરી જ છે. અને આમ જો પરમાણુઓના દેશ(=અંશનો સ્વીકાર કરશો, તો પરમાણુઓ પરમાણુરૂપ રહેશે જ શી રીતે? (કારણ કે પરમાણુરૂપ નિરંથનિર્દેશ ઈષ્ટ છે.) ઉત્તરપક્ષ:- પરમાણુ પરમાણુતરીકે એટલા માટે ઈષ્ટ છે કે અધિકત પરમાણથી બીજું કોઈ સૂક્ષ્મતર દ્રવ્ય નથી. આ જ વાત સ્પષ્ટ કરતાં આચાર્ય કહે છે – “નખતરયં તઓ અસ્થિ ઈત્યાદિ. પરમાણુથી અધિક સૂક્ષ્મ-અલ્પ અન્ય કોઈ નહીં હોવાથી અધિકત પરમાણનું પરમાણપણું સુસ્થ રહે છે. ૭૧૧ાા . पच्चासत्ती य मिहो तेसिं धम्मंतराणवेधातो । - धम्मंतरभावातो गहणं इय समुदियाणं तु ॥७१२॥ (प्रत्यासत्तिश्च मिथस्तेषां धर्मान्तरानुवेधात् । धर्मान्तरभावाद् ग्रहणमिति समुदितानां तु ॥ प्रत्यासत्तिश्च मिथः-परस्परं तेषां भवति, धर्मान्तरानुवेधात्-इन्द्रियग्राह्यतालक्षणस्वभावान्तरानुवेधात्, न तु स्वस्वरूपावस्थितानामेव, ततो धर्मान्तरानुवेधभावादभिहितलक्षणात् समुदितानां सतां इतिः-एवं यथा-सकलजनैरनुभूयते तथा ग्रहणमुपपद्यत एव । उक्तं च-"परमाणूनामेवायं स्वभावो येन तत्तत्कालाद्यपेक्षया तत्र तत्र देशे तैस्तैस्तदन्यपरमाणुभिः सह परस्परं नैरन्तर्येण घटादिलक्षणसंस्थानवता(वन्तो)ऽवतिष्ठन्ते बादरीभवन्ति च, बादरत्वं च समुदितानामिन्द्रियग्राह्यस्वभावतेति"एतेन यदुक्तं प्राक् – 'परमाणवो न इंदियगम्मा' इत्यादि तत्प्रत्युक्तमवसेयं तथासमुदितानां चक्षुरिन्द्रियग्राह्यत्वाभिधानात् । यदप्युक्तम्-अविगानाभावान्न ‘योगिज्ञानमपि युक्तिक्षममिति' तदप्ययुक्तम्, तस्य सद्भूत वस्तुतत्त्वपरिच्छेदप्रवणत्वात् । बाह्यस्य चार्थस्य तत्साधकप्रमाणभावतो बाधकाभावाच्च सद्भूतवस्तुरूपत्वात् । तत्र तत्साधकं प्रमाणं ज्ञानाकारवैचित्र्यान्यथानुपपत्तिलक्षणं प्रागुपन्यस्तं,वक्ष्यति च-'बाधकाभावश्चेदानीमेवोपदय॑मानोऽस्तीति' । यदप्याशङ्कितम्-'ते चेव कज्जगम्मा' इत्यादि तदपि न समीचीनमेव, यतो न खल्विह पूर्वपरिणामिकारणमन्तरेण किंचिदपि कार्यमुपजायते, "न तथाभाविनं हेतुमन्तरेणोपजायते किंचिदिति' वचनात् । अन्यथा खर विषाणास्याप्युत्पत्तिप्रसङ्गादित्युक्तमनेकधा प्राक् । ततो विशिष्टसंस्थानोपेतपरमाणुनैरन्तर्यात्मकघटादिकार्यदर्शनात् प्रत्येकावस्थाभाविनोऽपि तत्कारणभूताः परमाणवोऽनुमीयन्त ++ + + + + + + + + + + + + + + lilei-MIR२ - 75 +++++++++++++++ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + ++++++++++++++++બાલાર્થસિદ્ધિ++++++++++++++++++ एव । यदपि 'कह दीसइत्ति वच्च' मित्याद्यभिहितं तदप्येकान्तेनापेशलमेव, विषयग्रहणपरिणामलक्षणस्यैव प्रतिप्राणि प्रसिद्धस्याकारस्य ज्ञानेऽभ्युपगमात्, न चैतदभ्युपगममात्रं किंतु वस्तुतत्त्वमेव, यदाहुः श्रीमल्लवादिनः- “न विषयग्रहणपरिणामादृतेऽपरः संवेदने विषयप्रतिभासो युक्तो युक्त्ययोगादिति” । ततो नार्थस्यानाकारभावो नापि ज्ञानार्थयोरैक्यं, न चार्थस्याग्रहणं येन 'तग्गहणाभावाओ तुल्लत्तं गम्मई किह णु' इत्यादिदोषप्रसक्तिर्भवेत् । न च तन्निराकारमभ्युपगम्यते येन तत्पक्षभावी प्रतिकर्मव्यवस्थानुपपत्तिलक्षणो दोषः स्यात्, विषयग्रहणपरिणामलक्षणस्याकारस्याभ्युपगमादिति सर्वं सुस्थमेव। एतच्च प्रस्तावानुरोधादिहोक्तमन्यथा पुनरेतदाचार्यः स्वयमेव 'ता विसयगहणपरिणामओ य सागारया हवइ तस्से त्यादिना प्रपञ्चतोऽभिधास्यतीति ॥१२॥ પરમાણુઓ પ્રત્યક્ષ-અનુમાનસિક ગાથાર્થ:- વળી, પરમાણુઓની આ પરસ્પર પ્રયાસત્તિ (=સંબંધ) જે થાય છે, તે માત્ર પોતાના જ સ્વરૂપમાં રહેલા પરમાણુઓની નથી પરંતુ ઇન્દ્રિયગ્રાહ્યતા (ઇન્દ્રિયના વિષય થવાપણું) રૂપ સ્વભાવાન્તરના અનુવેધથી થાય છે. આમ કથિત ધર્માન્તરના અનુવેધના કારણે ભેગા થયેલા એ પરમાણુઓ બધા લોકો અનુભવી શકે (ઇન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ કરી શકે તેવી રીતે જ્ઞાનના વિષય બને છે. કહ્યું જ છે કે “પરમાણુઓનો જ એવો સ્વભાવ છે કે, જેથી તે તે કાળવગેરેની અપેક્ષાએ તે તે દેશમાં તે તે બીજા પરમાણઓસાથે પરસ્પર નિરંતરરૂપે ઘડાવગેરરૂપ આકારવાળા થઈને રહે અને બાદર (સ્થૂળ) થાય છે. અહીં ‘બાદરપણું એટલે ભેગા થયેલા પરમાણુઓનો ઈદ્રિયગ્રાહ્યસ્વભાવ' એમ સમજવું. આમ કહેવાથી હવે પૂર્વપક્ષે જે ‘પરમાણુઓ ઈન્દ્રિયગમ્ય નથી એવું કહેલું તેનો પ્રતિકાર થાય છે. કારણ કે તેવા વિશિષ્ટપરિણામથી યુક્ત સમુદિત થયેલા પરમાણુઓ આંખથી દર્શનીય બને છે, તેમ અહીં કહ્યું. યોગિન્નાન બાઘાર્થવિષયક પ્રમાણસિહ વળી યોગિજ્ઞાનમાં વિવાદ હોવાથી યોગિજ્ઞાન પણ પરમાણની સિદ્ધિમાં યુક્તિસંગત નથી” (ગા. ૬૩૮)આ મુદ્દાને છેડતાં બૌદ્ધોએ કહ્યું કે યોગીઓ પરમાણુ જૂએ છે કે શૂન્યતા એવા વિવાદમાં એક પક્ષનું સાધક નિર્ણાયક પ્રમાણ નથી. તેથી એ વિવાદ ઊભો હોવાથી યોગિજ્ઞાનને પરમાણુની સિદ્ધિમાં પ્રમાણ બનાવી શકાય નહીં. બૌદ્ધોની આ દલીલ વજૂદ વિનાની છે. તે આ પ્રમાણે યોગિજ્ઞાન પણ જ્ઞાનરૂપ છે. અને જ્ઞાનરૂપ હોવાથી જ સદ્દભૂત(વિદ્યમાન) વસ્તુને જ વિષય બનાવે. (આમ જ્ઞાનની નિર્વિષયતા અને એકાંતતુચ્છઅભાવરૂપ વિષયની ગ્રાહકતાનો નિષેધ કર્યો. તેથી યોગિશાન શૂન્યતાને વિષય બનાવે એવી સંભાવના રહેતી નથી. તેથી જ વિવાદમાં ‘શૂન્યતાદર્શન મુદો ખોટો ઠરે છે.) પરમાણુરૂપ કે તેનાથી બનતી સ્થૂળ વસ્તુઓરૂપ બાહ્યાર્થ સદભૂતવડુતરીકે સિદ્ધ જ છે. તેથી તેઓ યોગિજ્ઞાનના વિષય બની શકે છે. (આમ યોગીઓ પરમાણુઆદિરૂપ બાવાર્થ એ કે શૂન્યતા? એવા વિવાદમાં જ્ઞાન સદ્દભૂતવસ્તુવિષયક જ હોય, એવા પ્રયોજકતર્કના આધારેક શૂન્યતા સદ્દભૂતવસ્તુ ન લેવાથી અને બાલાર્થ સદ્ભૂતવસ્તુ હોવાથી ભોગીઓ બાલાર્થને જ જૂએ છે, શૂન્યતાને નહીં' એવો નિર્ણય નિર્વિવાદ સિદ્ધ થાય છે.) શંકા:- બાહ્યર્થ સદ્ભાવસ્તૃરૂપ છે તેવો નિર્ણય કેવી રીતે થયો? સમાધાન:- બૌદ્ધોને પણ એ માન્ય છે કે જ્ઞાનાકારો એકરૂપ નથી પણ નીલ-પીતાદિ અનેક વિચિત્ર આકારોરૂપ છે. આકારોની આ વિચિત્રતા તેના વિષય બનતા વિભિન્ન બાહ્યાર્થી વિના અનુપન્ન છે. કેમ કે અન્ય કોઈ હેતુ નથી.) એટલે કે અહીં આ વિચિત્રતાની અન્યથાઅનુપપત્તિરૂપ હેતુ બાહ્યાર્થસાધક છે. આ વાત પૂર્વે કરી જ છે. તેમ જ “હવે બાધકાભાવનું ઉપદર્શન કરાવાઇ રહ્યું છે' ઇત્યાદિ વચનથી હવે પછી આ સિદ્ધિમાં કોઈ બાધક નથી તે પણ બતાવાશે. આમ બાધકના અભાવથી અને પ્રમાણની હાજરીથી બાધાર્થ સદ્ભુતવસ્તતરીકે સિદ્ધ થાય છે, અને યોગીઓ એ બાધાર્થને જ જુએ છે, શુન્યતાને નહીં તે નિર્વિવાદ સિદ્ધ થાય છે. જ્ઞાનને અર્થાકાર માનવામાં બતાવેલા દોષોનો નિષેધ તથા ‘તે ચેવ કજજગમ્મા (ગા.૬૪૦)' ઇત્યાદિ ગાથાથી જ્ઞાનવાદીએ અર્થવાદીતરફથી જે આશંકા ઊઠાવી તે પણ બરાબર નથી. કેમકે અમે પરમાણુઓને પોતાના કાર્યથી એકાંતે ભિન્ન માનતા નથી. અમારા મતે કોઇપણ કાર્ય પૂર્વપરિણામવાળા કારણ વિના ઉત્પન્ન થતાં નથી. કેમકે તેવા ભાવને પામવાવાળા હેતુ વિના કશું ઉત્પન્ન થતું નથી એવું વચન છે. જો હેતુમાં તેવા તેવા ભાવને પામવાનો સ્વભાવ ન હોય, તો તેમાંથી ગધેડાના શિંગડા પણ ઉત્પન્ન થઈ શકેઇત્યાદિ વાત પૂર્વે અનેકવાર કરી છે. તેથી પરમાણુઓ જ તેવા વિશિષ્ટસંસ્થાનથી યુક્ત બને તેવા પરિણામને પામે) અને નિરન્તરતાને (=અખ્ખલિતરૂપતા-અખંડિતરૂપતા અથવા અંતરહીનતાને) પામે ત્યારે ઘટાદિ કાર્ય બને અને તે ઘટાદિકાર્યો દેખાય જ છે. તેથી ધટાદિકાર્યોના દર્શનથી તેઓના પરિણામી કારણભૂત પરમાણુઓ પ્રત્યેકઅવસ્થામાં પણ અનુમાનના વિષય બની શકે છે. * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 76 * * * * * * * * * * * * * * * Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે કે જે જ ક ક ક ક ક ક ક ક જ જ ક જ બાઘાર્થસિદ્ધિ છે કે જે જે જ જ કે આ જ જે જે તે કે અર્થનો આકાર કે પરિણામ તાઓ તલ્લાં ગમ્મઈ કિર્થ શું છે એ એવી અર્થવાદીની અહીં બૌદ્ધોએ “કઈ દીસઈ (ગા.૬૪૧) દ્વારા ઉપરોક્ત આશંકાનું ખંડન કરતાં કહેલું કે “ઘટાદિઆકાર સંવેદન થતું hય તો જ્ઞાન–અર્થ એક થવાની આપત્તિ છે, અથવા અર્થનો આકાર સંવેદનમાં સંક્રાંત થવાથી અર્થ અનાકાર બનશે. આમ બે આપત્તિ છે. પરંતુ આ બધું અત્યંત બાલીશ છે. કેમકે “આકારનો અર્થ સમજયા વિના ફેંકાફેંક કરી છે. અહીં આકાર એટલે રૂપાદિ અર્થ નહીં પરંત જ્ઞાનનો વિષય (અર્થ) ગ્રહણનો જે પરિણામ (Fપરિણામી સ્વભાવ) છે તે પરિણામ જ જ્ઞાનાકાર છે, અને આ જ દરેક જીવને અનુભવસિદ્ધ છે. આવો આકાર જ્ઞાનમાં સ્વીકાર્ય છે. પણ માત્ર સ્વીકાર્ય છે તેમ નહીં પરંતુ વસ્તુતત્વ પણ આમ જ છે. મલ્લવાદી સૂરિએ કહ્યું જ છે-“સંવેદનમાં વિષયગ્રહણ પરિણામને છોડી અન્ય કોઇરૂપે વિષયપ્રતિભાસ યોગ્ય નથી કેમકે તે અંગે કોઈ યુક્તિ નથી. તેથી સંવેદનમાં અર્થાકાર સ્વીકારવાથી અર્થ સ્વયં આકાર વિનાનો બનતો નથી (કેમકે અર્થનો આકાર કે પરિણામ તો અર્થમાં જ છે.) તેમ જ જ્ઞાન–અર્થવચ્ચે એકતા પણ સિદ્ધ થતી નથી (કેમ કે બન્નેના પરિણામ અલગ-અલગ છે.) તથા “તગ્રણાભાવાઓ તુલ્લત્ત ગમ્મઈ કિહ ણ' (ગા. ૬૪૪) ઈત્યાદિ ગાથાથી “અમે અર્થાકારને ગ્રહણ કરવાથી સંવેદન અર્થાકારને સદેશ આકારવાળું હોવાથી અર્થાકારરૂપ છે એમ કહીએ છીએ એવી અર્થવાદની શંકા ઉઠાવી બૌદ્ધોએ આપત્તિ આપેલી કે જા અર્થાકારનું ગ્રહણ ન હોય, તો સંવેદનાકારની અર્થાકારસાથે તવ્યતા કેવી રીતે આવશે પણ હવે આ બધી શંકા-આપત્તિ કચરાપેટીયોગ્ય છે, કેમકે આકારનો અર્થ જ અર્થગ્રહણ પરિણામ છે. તેમાં તુલ્યતા-અતુલ્યતાઆદિ કોઈ વિચારને અવકાશ નથી અને સંવેદનમાં ઉપરોક્ત પરિણામ સંભવે જ છે. નિરાકારપક્ષ તો સ્વીકાર્યો જ નથી. તેથી એ જ્ઞાન કયા અર્થનું ઇત્યાદિરૂપ પ્રતિનિયત વ્યવસ્થાના અસંભવનો દોષ પણ હવે આવતો નથી. કારણ કે અમે વિષયગ્રહણ પરિણામરૂપ આકાર સ્વીકાર્યો છે. તેથી બધું જ સમે સુતરું પાર પડે છે. આ બધી વાત અહીં પ્રસ્તુત પ્રસ્તાવને નજરમાં રાખી કરી છે, બાકી તો આચાર્યવર્ય સ્વયં જ “તા વિષયગણપરિણામ......' ઇત્યાદિ ગાથાઓથી વિસ્તારથી કહેવાના જ છે.૭૧રા દિભેદથી વિભાજય પરમાણુ દ્રવ્યત: અલ્પતમ तत्र यदुक्तम्- 'नहप्पतरयं तओ अत्थित्ति, तत्र पर आहપૂવે પરમાણથી અલ્પતર કોઈ નથી ઈત્યાદિ જે કહ્યું ત્યાં પૂર્વપલકાર કહે છે– दिसिभेयाउ च्चिय सक्कभेदओ कह ण अप्पतरगंति? । दव्वेण सक्कभेदं विवक्खितं ता कुतो तमिह? ॥७१३॥ . (दिग्भेदादेव शक्यभेदतः कथं नाल्पतरमिति । द्रव्येनाऽशक्यभेदं विवक्षितं ततः कुतस्तदिह ॥) ननु दिग्भेदात्-पूर्वादिदिग्भेदात्खलु शक्यः परमाणोर्भेदः कर्तुं ततः कथमुच्यते-नहि ततोऽल्पतरमन्यदस्तीति। नैष दोषः । यतः परमाणुरिति द्रव्यतोऽशक्यभेदं विवक्षितं, न च तस्य द्रव्यतो भेदः कर्तुं शक्यते, 'ता' तस्मात्कुत इह जगति तत्-विवक्षितपरमाणोरपि सकाशादन्यदल्पतरं भवेत् ? नैव कुतश्चिदिति भावः । ननु च यदि द्रव्यतोऽशक्यभेदं तत् परमाणुद्रव्यं तर्हि तस्य दिग्भागभेदोऽपि न स्यात्, सोऽपि हि द्रव्यरूपस्य सतस्तस्य परमाणोरंशेन भवति, तथा च सति भगवन्मुनीन्द्रवचनविरोधः, एगप्रदेशावगाढं परमाणुद्रव्यं सप्तप्रदेशा च तस्य स्पर्शनेति ॥७१३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પૂર્વવગેરે દિશાના ભેદથી પરમાણનો ભેદ કરવો શક્ય છે તેથી એમ કેમ કહો છો કે પરમાણથી કોઇ અલ્પતર નથી? અર્થાત પરમાણનો દિશાના ભેદથી ભેદ શક્ય હોવાથી પરમાણથી અલ્પતરની સિદ્ધિા થાય છે. ઉત્તરપક્ષ:- અહીં દોષ નથી. અમે “પરમાણ' એમ કહીએ છીએ ત્યારે દ્રવ્યથી ભેદ કરવો અશકય છે. એવી વિવલાથી કહીએ છીએ. અને એ પરમાણુઓનો દ્રવ્યથી ભેદ કરવો શક્ય નથી. (અર્થાત એ પરમાણનું ટૂકડામાં વિભાજન કરવું શકય નથી. વૈજ્ઞાનિકો જે અણવિભાજન કરે છે, તે અણ આ વિવક્ષિત અણથી ઘણો મોટો છે અને વિભાગયોગ્ય છે તે વાત ખ્યાલમાં રાખવી) તેથી આ જગતમાં વિલિત પરમાણથી પણ અલ્પતર કોઇ હોઈ શકે તે શી રીતે સંભવે? અર્થાત ન જ સંભવે. પૂર્વપક્ષ:- જો પરમાણુનો દ્રવ્યથી ભેદ કરવો શક્ય નથી, તો તેનો દિશાના ભેદથી પણ ભેદ પડવો શકય ન બને; કારણ કે દિશાભેદ પણ દ્રવ્યાત્મક પરમાણના અંશથી જ સંભવે. આમ કાં તો પરમાણનો દ્રવ્યાત્મક ભેદ સ્વીકારવો પડેકાં તો દિભેદથી ભેદ અસ્વીકાર્ય બને. પણ બન્ને સ્થળે ભગવાનના વચન સાથે વિરોધ છે, કેમ કે ભગવાનનું એવું વચન છે કે પરમાણુદ્રવ્ય એક આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે અને તેને સાત (આકાશ) પ્રદેશની સ્પર્શના છે. ૭૧૩ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 77 * * * * * * * * * * * * * * Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * બાવાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * अत आहઆ પૂર્વપક્ષના નિરાકરણઅર્થે કહે છે तस्सवि सदवत्थाणा दिसभेदो सो य तस्स धम्मोत्ति । तदभावेऽभावातो अपदेसो दव्वताए तु ॥७१४॥ (तस्यापि सदवस्थानात् दिग्भेदः स च तस्य धर्म इति । तदभावेऽभावादप्रदेशो द्रव्यतया तु ॥) तस्यापि-द्रव्यतोऽशक्यभेदस्यापि आस्तां तावदन्यस्येत्यपिशब्दार्थः, दिग्भेदः-पूर्वादिदिग्भेदः । कत इत्य 'सदवस्थानात्' सतोऽवश्यं क्वचिदवस्थानं सदवस्थानं तस्मात्, तद्धि द्रव्यतोऽशक्यभेदमपि सत्, सच्चावश्यं क्वचिदवतिष्ठत इति । स च दिग्भागभेदो न कल्पनामात्रं, नापि द्रव्यरूपतया अंशेन, किंतु तात्त्विको धर्मो यत आह- 'सो य तस्स धम्मो त्ति' स च-दिग्भागभेदस्तस्य-परमाणोधर्म:- पर्यायः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा तदभावे - यथोदितदिग्भागभेदाभावेअवस्थानस्याभावेनाभावप्रसङ्गात् । ननु यदि तात्त्विको दिग्भागभेदः परमाणोरभ्युपगम्यते तर्हि तस्य सप्रदेशता बलात प्रसज्येत, तथा च सति “परमाणुरप्रदेश इति" पारमेश्वरवचनविरोधप्रसङ्ग इति । अत आह-'अपदेसो दव्वयाए उ' परमाणुरप्रदेशो भगवद्भिरभिहितो द्रव्यतयैव-द्रव्यस्पतयैव, तुरवधारणे, न तु पर्यायतः, पर्यायतस्तस्य सप्रदेशतयाभ्युपगमात्। तदुक्तं प्रज्ञप्तौ द्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षया सप्रदेशाप्रदेशत्वचिन्तायाम्- "भावओ सप्पदेसे" (छा. भावतः सप्रदेशः) इति। दिग्भागभेदश्च तस्य परमाणोः पर्यायः, ततस्तदपेक्षया सप्रदेशतायां न कश्रिद्विरोधः ॥७१४॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જેઓનો દ્રવ્યથી ભેદ પડવો શક્ય છે તેઓનો તો દિગ્મદથી ભેદ સંભવે જ છે. પણ (fપ' શબ્દનો આ ભાવાર્થ છે.) દ્રવ્યથી જેનો ભેદ પડવો શક્ય નથી તેવા પરમાણનો પણ દિશાના ભેદથી ભેદ સંભવે છે કારણ કે જે વિદ્યમાન છે, તેનું ક્યાંક તો અવસ્થાન હોય જ. પરમાણ દ્રવ્યથી અશક્યભેદવાળો હોવા છતાં સતવિધેમાન તો છે જ. અને વિદ્યમાન હોવાથી જ ક્યાંક તો અવસ્થાન પામે છે. અને ક્યાંય પણ રહેલાને અલગ-અલગ દિશાનો સંપર્ક હોય જ. દિભેદ હોય જ. આ દિભેદ પણ કંઇ કલ્પનામાત્ર નથી. પરંતુ વાસ્તવિક છે. અને દ્રવ્યરૂપતાથી અંશાત્મક નથી. કારણ કે કહ્યું જ છે કે “સો ય તસ્ય ધમ્મોનિ આ દિભાગભેદ તેનો પરમાણનો ધર્મ=પર્યાય છે. આ તત્વ આ પ્રમાણે સ્વીકારવું જોઈએ, નહીંતર-ઉપરોક્તદિભાગભેદનો અભાવ હોય તો પરમાણનું અવસ્થાન સંભવે નહીં, અને અવસ્થાનના અભાવમાં પરમાણનો અભાવ થવાનો પ્રસંગ આવે છે. પૂર્વપક્ષ:- જો પરમાણનો દિભાગભેદ તાત્વિક સ્વીકારશો, તો અનિચ્છાએ પણ પરમાણને સપ્રદેશ માનવો પડશે. કેમકે અલગ અલગ પ્રદેશ વિના અલગ અલગ દિશાની સ્પર્શના સંભવે નહીં) અને તો “પરમાણુ અપ્રદેશ છે એવા ભગવદ્રવચન સાથે વિરોધ આવવાનો પ્રસંગ છે. ઉત્તરપક્ષ:- તમારા આ તર્કને બો કરવા જ મૂળમાં આચાર્યવરે કહ્યું- “અપદેશો દબયાએ ઉ” ભગવાને પરમાણુને જે અપ્રદેશ કહ્યો છે, તે દ્રવ્યરૂપતાને આગળ કરીને જ કહ્યો છે, નહીં કે પર્યાયરૂપથી (મૂળમાં “તુ' જકારઅર્થક છે.) કારણ કે દિભાગભેદઆદિ પર્યાયને અપેક્ષીને તો તેને (પરમાણન) સપ્રદેશ જ સ્વીકાર્યો છે. વ્યાખ્યાપ્રાપ્તિ (=ભગવતીસૂત્ર) માં દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર વગેરેની અપેક્ષાએ સપ્રદેશત્વ, અપ્રદેશત્વવિચારના પ્રકરણમાં કહ્યું જ છે કે “(પરમાણુ) ભાવથી (પર્યાયથી) સપ્રદેશ છે. (અહીં પરમાણને દ્રવ્યથી અપ્રદેશ અને ભાવથી સપ્રદેશ કહ્યો છે આમ અનેકાન્તના બળથી ઉભયસિદ્ધિ થાય છે) દિમ્ભાગભેદ તે પરમાણનો એક પર્યાય છે તેથી એ પર્યાયની અપેક્ષાએ પરમાણ સપદેશ હોવામાં કોઇ વિરોધ નથી. ૭૧૪ પાદિઆણવાદી બૌદ્ધમત નિરાસ-પરમાણુ દ્રવ્યરૂપ. अथ कथं तस्य द्रव्यरूपता सिद्धा येनोच्यतेऽप्रदेशो द्रव्यतयेति । अत आह - પૂર્વપક્ષ:- તમે પરમાણને દ્રવ્યરૂપથી અપ્રદેશ કહો છો, પણ પહેલા એ તો બતાવો કે તે (પરમાણ) ની દ્રવ્યરૂપતા જ કેવી રીતે સિદ્ધ થઈ? અહીં આચાર્યવર્ટ કહે છે स्वादिसंगतो जं ण य स्वाणूवि केवलो अत्थि । तस्स रसादणुवेहा तेसिपि य तदणुवेधातो ॥७१५॥ (रूपादिसंगतो यन्न च रूपाणुरपि केवलोऽस्ति । तस्य रसाद्यनुवेधात् तेषामपि च तदनुवेधात् ॥) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 78 * * * * * * * * * * * * * * Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ वार्थसिद्धि + + + यत्-यस्माद् रूपादिभिः संगतो - युक्तोऽयं परमाणुरन्यथा तदभावप्रसङ्गात् । किं हि तन्मूर्त्तमस्ति यत् रूपादिमन्न भवतीति। ततो रूपादिमत्त्वात् गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणतः परमाणुर्द्रव्यमेव । इह सुगतमतानुसारिणः प्राहुः"प्रत्येकं रूपादिरूपाः परमाणवः, ” ततस्तन्मतविकुट्टनार्थमाह- 'नय रूवाणूवि केवलो अत्थित्ति' न च रूपाणुरपि केवलो - रसादिविकलोऽस्ति, उपलक्षणमेतत् नापि रसाद्यणवः केवलाः सन्तीति । कुत इत्याह- तस्य- रूपाणोः रसाद्यनुवेधात्। तथाहि -य एव घृतपरमाणवश्चक्षुषोपलभ्यन्ते त एव रसनया मधुररसतया आस्वाद्यन्ते, मृदुस्पर्शविशेषस्वभावतया च स्पृश्यन्ते, ततोऽस्ति ख्पाणूनां रसाद्यनुवेधः, तथा तेषामपि रसाद्यणूनां तदनुवेधात् - रूपाद्यनुवेधात्, तथा प्रत्यक्षत एवोपलम्भात्। -य एवेक्षुरसपरमाणवो मधुररसतया आस्वाद्यन्ते य एव च कठिनकामिनीकुचकलशपरमाणवः करादिना स्पृश्यन्ते तव रूपगुणानुषक्ता उपलभ्यन्ते, अन्यथा तेषां चक्षुषोपलम्भो न स्यात्, तेषां तदविषयत्वात्, तथाच प्रत्यक्षविरोध इति ॥७१५॥ ગાથાર્થ:- વળી, આ પરમાણુ રૂપવગેરેથી યુક્ત જ છે. અન્યથા તો પરમાણુનો જ અભાવ આવવાનો પ્રસંગ છે. કારણ કે જગતમાં એવી કઇ મૂર્ત વસ્તુ છે કે જે રૂપવગેરેવાળી ન હોય ? અર્થાત્ જગતની બધી જ મૂર્ત વસ્તુઓ રૂપાદિમાન છે. આમ પરમાણુ રૂપાદિમાન છે. તેથી જે ગુણ-પર્યાયવાન હોય તે દ્રવ્ય' આવું દ્રવ્યનું લક્ષણ પરમાણુમા પણ ધટે છે. તેથી પરમાણુ દ્રવ્ય જ છે. અહીં બૌદ્ધમતને અનુસરનારા કહે છે ‘રૂપઆદિ પ્રત્યેકરૂપ જ પરમાણુઓ છે” અર્થાત્ રૂપ સ્વતંત્ર પરમાણુ છે. એ જ પ્રમાણે ૨સ સ્વતંત્ર પરમાણુ છે ઇત્યાદિ. આ મતને પિષ્ટપેષ પીસી નાખવા કહે છે નય રુવાવિ' ઇત્યાદિ, રૂપાણુ પણ રસાદિથી રહિત એકલો નથી. આ ઉપલક્ષણ છે. આ જ પ્રમાણે રસવગેરે અણુઓ પણ કેવલ-રૂપાદિથી રહિત એકલા નથી. કારણ કે રૂપાણુ ૨સવગેરેથી અનુવિદ્ધ છે. તે આ પ્રમાણે → જે ધીપરમાણુઓ આંખથી દેખાય છે. તે જ ધીપરમાણુઓ જીભથી મધુ૨૨સરૂપે આસ્વાદ્યે બને છે. અને એ જ ધીપરમાણુઓનો મૃદુસ્પર્શવિશેષસ્વભાવ હોવાથી તેવો સ્પર્શ પણ અનુભવી શકાય છે. આમ રૂપાણુઓ રસવગેરેથી અનુવિદ્ધ છે. તેમ જ તે રસવગેરે અણુઓ રૂપાદિથી અનુવિદ્ધ છે, તેમ નિશ્ચિત થાય છે. કેમકે તે જ પ્રમાણે પ્રત્યક્ષ અનુભવાય છે. જે શેરડીના રસપરમાણુઓ મધુરરસરૂપે સ્વાદના વિષય બને છે, તથા જે ટપરમાણુઓ હાથવગેરેથી સ્પર્શના વિષય બને છે, તે જ પરમાણુઓ રૂપગુણથી યુક્ત પણ છે જ, નહીંતર તેઓ આંખથી દેખી શકાત નહીં. કારણ કે રસ કે સ્પર્શ આંખના વિષય નથી. અને તેમને (શેરડી-ઘટના ૨સ-સ્પર્શ પરમાણુઓ) આખના અવિષય માનવામા પ્રત્યક્ષ-વિરોધ છે. (કારણ કે આંખથી દેખાય છે તે પ્રત્યક્ષસિદ્ધ છે.) ૫૭૧પપ્પા રૂપાદિગુણો મૂર્રામૂર્ત अत्रैवाशङ्काशेषं परिहरन्नाह - આ જ વિષયમાં બાકી રહેતી આશંકા દૂર કરતા કહે છે मुत्ता एव गुणाएते खस्सेव तदणुवेहेवि । अद्दरिसणप्पसंगा मुत्तामुत्तेक्कभावो वा ॥७१६॥ (नचामूर्त्ता एव गुणा एते खस्येव तदनुवेधेऽपि । अदर्शनप्रसङ्गान् मूर्त्तामूर्तैक्यभावो वा ॥ ) न च एते रूपादयो गुणा अमूर्त्ता एव । कुत इत्याह- अदर्शनप्रसङ्गात् । अथ कथमदर्शनप्रसङ्गो यावता मूर्त्तिमता द्रव्येण सहानुवेधात् दर्शनं भविष्यतीत्यत आह- 'खस्सेव तदणुवेहेवि' तेन - मूर्त्तिमता द्रव्येण सहानुवेधेऽपि आस्तामननुवेधे इत्यपिशब्दार्थः, खस्येव- आकाशस्येव अदर्शनप्रसङ्गः । आकाशस्यापि हि रूपादीनामिव तेन मूर्त्तिमता द्रव्येण सहानुवेधोऽस्ति, तस्य सर्वगतत्वात्, न च तदुपलभ्यते, स्वयममूर्त्तत्वात्, तद्वत् रूपादयोऽप्यमूर्त्तत्वे सति नोपलभ्येरन् । अथोच्येत न रूपादीनामिवाकाशस्यापि मूर्त्तिमता द्रव्येण सह इतरेतरस्वरूपप्रवेशात्मकोऽनुवेधोऽस्ति, किंतु तदभिन्नदेशतामात्रलक्षणस्ततो नाकाशस्येव स्पादीनामदर्शनप्रसङ्गः । अत आह— 'मुत्तामुत्तेक्कभावो वा' इति । वाशब्दः पक्षान्तरसूचने । यदि इतरेतरप्रवेशात्मकोऽनुवेधो रूपादीनामिष्यते तर्हि मूर्त्तद्रव्यस्यामूर्त्तानां च रूपादीनां परस्परमैक्यभावः प्राप्नोति इतर इतरस्मादव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत्, ततो द्रव्यं वा केवलं भवेत् न रूपादयो, रूपादयो वा भवेयुर्नतु द्रव्यं, तथा च सति प्रतीत्यादिविरोध इति कथंचिदितरस्वरूपप्रवेशात्मकोऽनुवेध एष्टव्यो न तु सर्वात्मना तथा च सति नामूर्त्ता एव रूपादयो गुणाः किंतु कथंचिदिति स्थितम् ॥७१६ ॥ + धर्मसंग्रह - लाग २ - 79 * * Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * બાઘાર્થસિદ્ધિ જ * * * * * * ગાથાર્થ:- વળી “આ રૂ૫વગેરે ગુણો અમૂર્ત જ છે એમ પણ નથી, કારણ કે જો અમૂર્ત જ હોય, તો જોઇ શકાય નહીં. આમ અદર્શનનો પ્રસંગ છે. શંકા - આ ગુણો મૂર્તિમાન (મૂર્ત) દ્રવ્યસાથે અનુવેધ ધરાવે છે. તેથી દ્રવ્યના દર્શનની સાથે સાથે તેઓનું પણ દર્શન થશે જ. તેથી અદર્શનનો પ્રસંગ કેવી રીતે આવશે ? અર્થાત નહીં આવે. સમાધાન:- મૂર્ત દ્રવ્ય સાથે અનુવેધ ન હોય, ત્યારે તો આકાશનું દર્શન થતું જ નથી. પણ આટલું “અપિ =પણ શબ્દનું તાત્પર્ય છે.) મૂર્ત દ્રવ્યસાથે અનુવેધ હોય, ત્યારે પણ આકાશનું દર્શન થતું નથી. આકાશનો રૂપવગેરેની જેમ મૂર્ત દ્રવ્ય સાથે અનુવેધ તો છે જ, કેમકે તે ( આકાશ) સર્વવ્યાપી છે. છતાં દ્રવ્યના પ્રત્યક્ષવખતે આકાશ પ્રત્યક્ષ થતું નથી, કેમકે તે (આકાશ) સ્વયં અમૂર્ત છે. આ જ પ્રમાણે રૂપવગેરે પણ જો અમૂર્ત હોય, તો તેઓના અદર્શનનો અનુપલબ્ધિનો પ્રસંગ ઊભો જ છે. શંકા-રૂપવગેરેનો મૂર્તિમાનદ્રવ્યસાથે પરસ્પરના સ્વરૂપમાં પ્રવેશાત્મક અનુવેધ છે. તેથી તેઓ (=રૂપવગેરે)અમૂર્ત હોય, તો પણ દ્રવ્યના દર્શનવખતે તેઓના (=રૂપવગેરે ગુણોના) દર્શનમાં વાંધો નથી આવતો, પણ આકાશનો મૂર્ત દ્રવ્યસાથે આવો પરસ્પરસ્વરૂપ પ્રવેશાત્મક અનુવેધ નથી, કિન્તુ તદભિન્નદેશતામાત્રરૂપ જ સંબંધ છે. અર્થાત આકાશ અને તે વસ્તુ અભિન્નદેશમાં રહેલી છે. બન્ને સમાનસ્થાને છે. બસ આટલો જ એ બેવચ્ચે સંબંધ છે. તેથી મૂર્ત દ્રવ્યના દર્શનવખતે તેના (આકાશના) દર્શનનો પ્રસંગ નથી. સમાધાન - તમારી આ શંકા ટાળવા જ આચાર્યવયે “મુત્તામુક્કભાવો વા' ઇત્યાદિ કહ્યું છે. મૂળમાં “વા પદ પક્ષાજરનું સૂચક છે.) જો રૂપવગેરેનો મૂર્ત દ્રવ્યસાથે ઇતરેતરપ્રવેશાત્મક અનુવેધ ઈષ્ટ હોય, તો મૂર્તદ્રવ્ય અને અમૂર્ત રૂપે પરસ્પર એકતા પામવાનો પ્રસંગ છે, કારણ કે રૂપવગેરે ગુણો દ્રવ્યથી દ્રવ્યના સ્વરૂપની જેમ અભિન્ન છે. તેથી કાં તો એકલું દ્રવ્ય જ રહેશે, રૂપવગેરે નહિ, અને કાંતો રૂ૫વગેરે જ રહેશે, દ્રવ્ય નહિ. અને તેમ થાય, તો પ્રતીતિવિરોધવગેરે દોષ આવશે. (કારણ કે પ્રતીતિ તો દ્રવ્ય-ગુણ ઉભયની જ થાય છે, નહીં કે માત્ર બેમાંથી એકની) તેથી રૂપવગેરે ગુણોનો દ્રવ્યસાથે કાંક ઇતરેતર સ્વરૂ૫પ્રવેશરૂપ અનુવેધ સ્વીકારવો જ યોગ્ય છે, સર્વથા નહિ. તેથી રૂપવગેરે ગુણો સર્વથા અમૂર્ત નહીં, પણ કાંક અમૂર્ત જ સિદ્ધ થાય છે. તેથી જ ગુણો કથંચિત મૂર્ત પણ સિદ્ધ થાય છે. ૭૧૬ પરમાણુઓનો સર્વથા સંબંધ અદુષ્ટ तदेवं देशसंबन्धपक्षे दोषाभावमभिधाय सांप्रतं कात्य॑पक्षेऽपि तं भावयन्नाहઆમ, પરમાણુઓના પરસ્પર દેશથી સંબંધપક્ષમાં દોષનો અભાવ બતાવ્યો. હવે કુસ્ન (=સર્વતયા) સંબંધમાં પણ દોષનો અભાવ બતાવે છે. णय अणुमेत्तं जुत्तं सत्ताओ सव्वहावि संजोगे । बादरमुत्तत्ताणासभावतो उवचयविसेसा ॥७१७॥ (न च अणुमात्रं युक्तं सत्त्वात् सर्वथापि संयोगे । बादरमूर्तत्वानाशभावाद् उपचयविशेषात्॥) न च सर्वथापि-सर्वात्मनापि संयोगेऽभ्युपगम्यमाने अणुमात्रं युक्तम्। कुतइत्याह-उपचयविशेषात्-' उपचयविशेषभावात् । सोऽपि कथमितिचेत् ? अत आह-'बायरमुत्तत्ताणासभावओ' अनाश इत्युत्पादोऽभिधीयते न स्थितिः, तदभावे तस्या एवाभावात्, बादरमूर्तत्वेन स्थूरमूर्तत्वेन अनाशात् - उत्पादात् तावणू सूक्ष्ममूर्त्तत्वमपहाय तथास्पचित्रस्वभावतया तथाविधैकबादरमूर्त्तत्वेनाभूतामितियावत् । कुत एतदित्थमवगम्यत इति चेत् । आह- ‘सत्ताउत्ति' सत्त्वात्, इह हि न सतः सर्वथा विनाशो नाप्यत्यन्तासत उत्पादः । यदाह- "नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत इति" । तद्यदि परमाणोः परमाण्वन्तरेण सह सर्वात्मना संयोगे सति अणुमात्रता भवेत्तर्हि तस्य- परमाण्वन्तरस्याभाव एवाभ्युपगतः स्यात, न च सतः सर्वथा विनाशो भवति, तस्मात्सत्त्वादनुमीयते न सर्वात्मनापि संयोगे सत्यणुमात्रता भवति, किंतूपचयविशेष इति न कश्चिद्दोषः ॥७१७॥ ગાથાર્થ:- (ગા. ૬૫૧ માં જ્ઞાનવાદીએ સર્વથા સંયોગમાં “પરમાણુ બીજા પરમાણમાં સર્વરૂપે પ્રવેશ પામતો હોવાથી અણુમાત્ર જ રહેશે આવી આપત્તિ આપેલી. અને તેના આધારે ગમે તેટલા પરમાણુ ભેગા થાય અણુમાત્રતા જ રહેતી હોવાથી બેપરમાણુઆદિના યોગથી પરમાણસમુદાય થવાની સંભાવનાને અસંગત ઠેરવેલી, તેનો અહીં જવાબ છે.) પરમાણુઓના સર્વથા સંયોગના સ્વીકારમાં પણ અણમાત્રની કલ્પના યોગ્ય નથી. કેમકે પરમાણુઓના એ સંબંધથી ઉપચય પુષ્ટિવિશેષ થાય છે. કેમકે તેઓ બાદરમૂર્તરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. અહીં મૂળમાં “અનાશ' પદનો જે પ્રયોગ છે, તેનો અર્થ સ્થિતિ ન કરતાં •ઉત્પાદકઉત્પત્તિ' એવો કરવો. * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 80 * * * * * * * * * * * * * * Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ મા બાાર્યસિદ્ધિ મ કારણ કે ઉત્પાદ વિના સ્થિતિ સંભવે નહિ. બે પરમાણુઓ જયારે સર્વથા સંબંધ પામે છે, ત્યારે તેવા પ્રકારનું એકીભૂત થયેલ બાદરમૂર્ત્તત્વરૂપ ધારણ કરે છે. અને આમ ઉપચય થવાથી અણુરૂપતાને છોડે છે. શંકા:- આવો તાત્પર્યબોધ શી રીતે થઇ શકે? સમાધાન:- અહીં એક નિયમ સમજી રાખો. → જે સત્ વસ્તુ છે, તેનો કચારેય સર્વથા નાશ થતો નથી. અને જે અત્યન્ત અસત્ છે તે કયારેય ઉત્પન્ન થાય નહિ” કહ્યું જ છે કે “અસત્નો કયારેય ભાવ (=વિર્ધમાનતા) થતો નથી. અને સત્નો કયારેય (સર્વથા) અભાવ થતો નથી.” હવે જો પરમાણુનો બીજા પરમાણુસાથે સર્વથા સંબંધ થાય ત્યારે પણ અણુમાત્ર જ રહે, તો એનો અર્થ એ થાય કે બીજા પરમાણુનો અભાવ સ્વીકારવો પડે, પણ તે યોગ્ય નથી. કેમકે ઉપરોક્ત નિયમમુજબ સત્ વસ્તુનો કયારેય સર્વથા વિનાશ થતો નથી. તેથી બીજા પરમાણુની પણ સત્તા સ્વીકારવી જ રહી. અને તેની સત્તા રહી તેથી જ અનુમાન થઇ શકે છે કે → સર્વથા સંયોગમા પણ અણુમાત્રતા રહેતી નથી, પરંતુ ઉપચયવિશેષ (=પરિણામવિશેષ) થાય જ છે. તેથી આ પક્ષે પણ કોઇ દોષ નથી. ૫૭૧૭ગા અવયવી દ્રવ્યની સિદ્ધિ अवयविपक्षे निर्दोषतामुद्भावयन्नाह હવે અવયવી દ્રવ્યના સ્વીકારપક્ષમા નિર્દોષતાનુ ઉભાવન કરે છે. णय अवयवी विभिन्नो एगतेणऽवयवाण जइणेहिं । इच्छिज्जइति दोसा तदणुगता तेण णो जुत्ता ॥७१८॥ (न चावयवी विभिन्न एकान्तेनावयवेभ्यो जैनैः । इष्यते इति दोषास्तदनुगतास्तेन न युक्ताः ॥ ) न चावयवी जैनैरेकान्तेन स्वावयवेभ्यो विभिन्न इष्यते, किंतु तेभ्यः कथंचिदनन्यः - तदेकत्वपरिणामलक्षणस्तेन कारणेन ये दोषास्तदनुगता - अवयविपक्षानुगताः प्रागभिहितास्ते सर्वेऽपि न युक्ताः, परपरिकल्पितादवयविनोऽस्य सर्वथा जात्यन्तरत्वात् । तथाहि - नात्र देशकार्यवृत्त्याऽयोगलक्षणदूषणमुपढौकते, तस्यावयवेभ्योऽर्थान्तरभूते एवावयविनि संभवात् । यदप्युक्तम्- 'जइ तावऽभिन्नदेसो भिन्ना दुपएसिए न अणू' इत्यादि, तदपि न नो बाधायै, तयोरेव परमाण्वोस्तथारूपविचित्रस्वभावतया तथाविधैकत्वपरिणामभावाभ्युपगमेन कथंचित्सप्रदेशत्वादेरपीष्टत्वात् । यच्च 'सिय अवयवी अमुत्तो' इत्याद्यभिहितं तदपि यथोक्तेऽवयविनि सर्वथाऽनवकाशमेव । यदप्युक्तम्- 'न च स्वारम्भकावयवेभ्यो ऽस्य जन्मोपपद्यते इत्यादि, तदप्यपरेषामेव दोषाय, नास्माकं, परमाणूनामपि तथारूपचित्रस्वभावतया तथातथापरिणामित्वाभ्युपगमात्, तथाविधैकत्वपरिणामस्य चावयवित्वेनाभ्युपगमात् । न चैवं तुलानतिविशेषाग्रहणमपि दोषकृत्, द्रव्यान्तरभूतस्यावयविनोऽनभ्युपगमात् । योऽपि स्वरूपविकारज्ञानविषयत्वार्थान्तरसंसर्गयुगपद्विधिप्रतिषेधविषयश्चतुर्द्धा विरुद्धधर्म्मसंसर्गः कम्पाकम्पादिरुक्तः सोऽपि न नो बाधायै, यतः परमाणूनां तथा चित्रस्वभावतया यः कथंचिदेकत्वपरिणामः सोऽवयवी, एकत्वपरिणामश्च नाम समानपरिणामो नचासावेकान्तेन तेषामभेदे भवति तत्कथं विरुद्धधर्मसंसर्गे दोषाय ? एकस्य हि स विरुध्यते नानेकेषाम्, तन्न पूर्वोक्तदोषाणामिह मनागप्यवकाशः ॥७१८॥ ગાથાર્થ:- જૈનો અવયવીને પોતાના અવયવોથી અત્યન્ત ભિન્નરૂપે સ્વીકારતા નથી. જૈનમતે તે(=અવયવી) પોતાના અવયવોથી કાક અભિન્ન છે. તેઓના (=અવયવોના)એકત્વપરિણામરૂપ અભેદને પામે છે. તેથી જ્ઞાનવાદીએ (ગા. ૬૫૪ થી ૬૬૨) પૂર્વ અવયવિપક્ષે જે દોષો બતાવ્યા તે બધા દોષો પણ યોગ્ય નથી, કારણ કે બીજાઓએ કલ્પેલા અવયવીદ્રવ્ય કરતાં આ અવયવીદ્રવ્ય સર્વથા અલગ જાતિરૂપ છે, તે આ પ્રમાણે→ પૂર્વે જે દોષ બતાવ્યો કે અવયવી સ્વઅવયવોમા દેશથી કે સર્વથા રહી શકે નહીં” (ગા. ૬૫૫) તે દોષ હવે નથી આવતો, કેમકે જો અવયવી પોતાના અવયવોથી સર્વથા ભિન્ન હોય, તો જ એ દ્વેષ લાગુ પડે પણ અમે તો કથંચિદ્ અભેદ સ્વીકાર્યો છે. તેથી એ દોષને અવકાશ નથી. (કારણ કે અહીં અભેદમાં દેશથી કે સર્વથા જેવા વિકલ્પો સંભવતા નથી. કારણ કે અપૃથભાવરૂપ અભેદ ઇષ્ટ છે) વળી બૌદ્ધોએ જે કહ્યુ કે જઇ તાવ ભિન્ન દેસો.... (જો અભિન્નદેશ હોય, તો... ઇત્યાદિ–ગા.૬૫૭)એ પણ અમને બાધા પમાડે તેમ નથી. કેમકે તે બે પરમાણુઓનો જ તેવો વિચિત્ર સ્વભાવ હોવાના કારણે તે બન્ને પરમાણુઓ તેવા પ્રકારના એકત્વપરિણામને પામે છે” એવો અમારો સિદ્ધાંત છે, (આમ *અભિન્નદેશતામાં પરમાણુય ભિન્ન નહીં રહે” એ આપત્તિ પરમાણુદ્રયમાં કથંચિદ્ એકત્વપરિણામ સ્વીકારતા અમારામાટે દોષરૂપ નથી. ) તેથી કચિત્ સપ્રદેશનાવગેરે ધર્મો પણ સંભવે છે. (તેથી અનિત્યતા અને સપ્રદેશતાની આપત્તિ બાધારૂપ નથી.) તથા તેઓએ * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 81 * * * Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બાઘાર્થસિદ્ધિ જૈ +++++++ જો અવયવી અમૂર્ત હોય.. (ગા. ૬૫૯) ઇત્યાદિ જે કહ્યું તે પણ અમે સ્વીકારેલા અવયવીને આશ્રયી સર્વથા નિરવકાશ છે. તથા *પોતાના જનક અવયવોમાથી આની (અવયવીની) ઉત્પત્તિ થવી વગેરે વાત બરાબર નથી (ગા. ૬૬૨) ઇત્યાદિ જે બીજાઓ (=બૌદ્ધો) એ કહ્યુ તે પણ અન્યોને દોષરૂપ બની શકે છે, અમને નહીં.કારણ કે પરમાણુઓ પણ તેવા પ્રકારના વિચિત્રસ્વભાવવાળા હોવાથી તેવા તેવા રૂપે પરિણામ પામે છે (=પરિણામી છે.) તેવુ અમે સ્વીકાર્યું છે. અને તે પરમાણુઓનો જ તેવા પ્રકારનો જે એકત્વપરિણામ છે, તે જ અવયવીતરીકે માન્ય છે. આમ હોવાથી જ ‘તુલાના નમવામા વિશેષનું ગ્રહણ ન થવું' એ પણ દોષરૂપ નથી. અર્થાત કેવલ અવયવોના પ્રત્યેકઅવસ્થાના વજનમા અને અવયવીના હાજરીવખતના વજનમા તફાવત નજરે ન ચડવો એ દોષરૂપ નથી, કેમકે અમે અહીં અવયવીને કંઇ અવયવોથી ભિન્ન-અલગ દ્રવ્યરૂપ માનતા નથી. તેથી અવયવોની પ્રત્યેકઅવસ્થામા જે વજન હોય, તે જ વજન અવયવીની હજીની અવસ્થામા હોય, તે દોષરૂપ નથી, બલ્કે અમે જે અવયવોના તથાપરિણામરૂપ અવયવીને સ્વીકારીએ છીએ, તેને જ પુષ્ટ કરતું હોવાથી ગુણરૂપ છે. તથા, જ્ઞાનવાદીએ (૧) સ્વરૂપમાં વિકાર (૨)જ્ઞાનના વિષય (૩)અર્થાન્તરનો સંસર્ગ અને (૪)એકસાથે વિધિ (=વિધાન) અને પ્રતિષેધના વિષય થવું આમ ચારપ્રકારે કમ્પ (=ચલન) અકમ્પ (સ્થિરતા) આદિરૂપ વિરુદ્ધધર્મનો સંસર્ગ જે કહ્યો છે તે પણ અમને બાધારૂપ નથી કારણ કે પરમાણુઓનો જ તેવો વિચિત્રસ્વભાવ હોવાથી તેઓનો જે કથંચિત એકત્વપરિણામ છે તે અવયવી છે, અહીં એકત્વપરિણામ એટલે સમાનપરિણામ સમજવું. આ સમાનપરિણામ પરમાણુઓના એકાન્તા ભેદમાં સંભવે નહીં, અર્થાત તેઓમા (પરમાણુઓમા ) એકાન્તઅભેદ ઉદ્ભવતો નથી, પરંતુ કથંચભેદભાવ ઊભો રહે છે. તેથી જ અલગ અલગ પરમાણુઓને આશ્રયી વિરુદ્ધધર્મનો સંસર્ગ દોષરૂપ નથી, કેમ કે એકમાં જ વિરુદ્ધધર્મનો સંસર્ગ વિરુદ્ધરૂપ છે, નહીં કે અનેકમાં. તેથી પૂર્વે કહેલા દોષોનો અહીં થોડો પણ અવકાશ નથી. ૫૭૧૮ા તથા પાઘ - તેથી જ આચાર્ય કહે છે → रु एगाणेगसस्वं वत्थु च्चिय दव्वपज्जवसहावं । जह चेव फलनिमित्तं तह भणियं जिणवरिंदेहिं ॥७१९ ॥ (एकानेकस्वरूपं वस्तु एव द्रव्यपर्यायस्वभावम् । यथैव फलनिमित्तं तथा भणितं जिनवरेन्द्रैः ॥) 'चियेति' निपातोऽवधारणार्थः, स च भिन्नक्रमः । वस्तु द्रव्यपर्यायस्वभावम् - अनुगमव्यावृत्तिस्वभावम् एकानेकस्वरूपमेव- साधारणासाधारणस्वरूपमेव सत् यथैव फलनिमित्तं भवति - विशिष्ट परिदृश्यमानवत्तदर्थक्रियासमूहकारि भवति तथैव भणितं जिनवरेन्द्रैः- क्षीणसकलरागादिदोषजालैस्तीर्थकरैः, तत्कथमिहानन्तरोक्ततुच्छशठोक्तीनामवकाशः ?, तस्मात् घटत एव बाह्योऽर्थ इति स्थितम् ॥७१९ ॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ‘ચિય’પદ જકારઅર્થમાં નિપાત છે, અને તેનો અન્વય એકાનેકસ્વરૂપની સાથે કરવાનો છે) દરેક વસ્તુ (૧) દ્રવ્ય અનુગમ અને પર્યાય-વ્યાવૃત્તિ સ્વભાવવાળી છે. તેથી જ (૨) એક-સાધારણ અને અનેક= અસાધારણ સ્વરૂપવાળી છે. આવી વસ્તુ (૩) નિમિત્ત=જેવી રીતે દેખાતી વિશિષ્ટ તે તે અર્થક્રિયાઓના સમુદાયને કરનારી છે. તેવા જ પ્રકારે સકળરાગાદિદોષોના સમુદાયથી રહિત એવા જિનવરેન્દ્રો-તીર્થંકરોએ પ્રરૂપણા કરી છે. અર્થાત્ ભગવાને વસ્તુને દ્રવ્ય-પર્યાયઉભયાત્મક એકાનેક સ્વરૂપવાળી કહી છે. અને ઉભયને અનુગત અર્થક્રિયાઓથી યુક્ત બતાવી છે, અને હકીકતમાં વસ્તુ એ જ પ્રમાણે દેખાય છે. આમ તીર્થંકરપ્રણીત વસ્તુતત્વ એકદમ વ્યવસ્થિત છે. તેથી અહીં જ્ઞાનવાદીઓના તુચ્છ ઠગનારા વચનોને બિલ્કુલ અવકાશ નથી. આમ બાહ્ય અર્થ ઘટી શકે છે. એવો નિર્ણય થાય છે. ૫૭૧૮૫ મા સર્પજ્ઞાનાદિ ભ્રાન્તિ જ્ઞાનવાદીમતે અસિદ્ધ रज्जुम्मि सप्पणाणं एमादि जमुत्तमेयमवि मोहो । बज्झत्थाभावे रज्जूसपो कुतो एयं ? ॥७२० ॥ (रज्जौ सर्पज्ञानमेवमादि यदुक्तमेतदपि मोहः । बाह्याथीभावे यद् रज्जुः सर्पः कुत एतद् ? II) यदपि प्रागुपसंहरता 'रज्जुम्मि सप्पनाण' मित्याद्युक्तमेतदपि विचार्यमाणं परेषां मोह एव - मोहसूचकमेव । कुत इत्याह- 'बज्झत्थेत्यादि' यत् - यस्माद्वाह्यार्थाभावे सति 'रज्जुरियमयं सप्र्प इत्येतदपि कुतो ? नैव कुतश्चिदित्यर्थः । ततो बाह्यार्थानभ्युपगमे यदेतदुच्यते तत्केवलं मोह इति ॥ ७२० ॥ * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 82 * * * * Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * બાલાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદીએ પૂર્વે પક્ષના ઉપસંહારવખતે “રજજુમેિ સપનાણ' (ગા. ૬૬૪) દોરડામાં સાપના જ્ઞાનની જે વાત કરી એ વાત પણ વિચાર કરતા તેઓના ( જ્ઞાનવાદીઓના) મોહનું સૂચન કરતી લાગે છે. કારણકે જો બાહ્યર્થનો જ અભાવ હોય, તો “આ દોરડું છે” અને “આ સાપ છે તેવો વચનપ્રયોગ પણ કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત ન જ સંભવે. તેથી બાધાર્થના સ્વીકાર વિના આવું કહેવું એ મૂઢતા જ છે. ૭૨ના अत्र परस्याभिप्रायमाशङ्कमान आह - અહીં જ્ઞાનવાદીના અભિપ્રાયની આશંકા કરતા કહે છે. सिय भंतिमेत्तमेयं वत्तव्वं को इमीए हेउत्ति? । निरहेउगा ण जुत्ता सइभावाभावदोसाओ ॥७२१॥ (स्याद्, भ्रान्तिमात्रमेतद वक्तव्यं कोऽस्या हेतुरिति ? । निर्हेतुका न युक्ता, सदा भावाभावप्रसङ्गात् ॥ स्यादेतत्'रज्जुरियमयं सर्प' इति यद्विज्ञानं तत्भ्रान्तिमात्रं-न तात्त्विकं, रज्ज्वादोर्बाह्यार्थस्याभावात्, ततो न कश्चिन्नो दोषः, तात्त्विकत्वाभ्युपगमे हि दोषो भवति, नान्यथा। अत्राह-ननु तर्हि वक्तव्यं कोऽस्या-अनन्तरोदिताया भ्रान्तेर्हेतुः? न खलु सा निर्हेतुका युक्ता, सदा भावाभावप्रसङ्गात् "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणादिति" न्यायात् ॥७२१॥ - ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- “આ દોરડું છે અને આ સાપ છે એવું જે વિજ્ઞાન છે તે માત્ર ભ્રાન્તિરૂ૫ છે તાત્વિક નથી. કારણ કે દોરડું વગેરે બાધાર્થનો અભાવ છે. તેથી અમને કોઈ દોષ નથી. અમે જો તે વિજ્ઞાનને તાત્વિક માનીએ તો જ દોષ લાગે, અન્યથા નહીં. ઉત્તરપક્ષ:- તો હવે એ બતાવો કે આવી ભ્રાન્તિનો હેત શો છે? કેમકે આ ભ્રાન્તિ નિહે તક તો હોઈ ન જ શકે, કેમકે નિહેતુક માનવામાં હંમેશા ભાવાભાવ માનવાનો પ્રસંગ આવે. કારણ કે નિત્ય સત્વ અથવા નિત્ય અસત્વ અહેતુથી હોય છે, કેમકે અન્યની અપેક્ષા નથી રાખતા' એવો ન્યાય છે. u૭૨૧ ___ अह तु अविज्जाहेतू सावि ण णाणा पुढो तुहं काई । तंपि इह हेउ नाणं तओ विसेसो य पडिभणिओ ॥७२२॥ (अथ तु अविद्या हेतुः, सापि न ज्ञानात् पृथक् तव काचित् । तदपि इह हेतु ऑनं ततो विशेषश्च प्रतिभणितः ॥) अथ पुनरुच्येत-अविद्या नाम पूर्वोक्ताया भ्रान्तहे तुरिति । तदप्ययुक्तम्, यतः साप्यविद्या तव मतेन न ज्ञानात्पृथग्भूता काचिदस्ति, बाह्यार्थसिद्धिप्रसङ्गात्, किंतु ज्ञानमेव, तदपि च ज्ञानमिह हेतुः-हेतुभूतमुपादानभूतं 'ततो विसेसो यत्ति' ततो-ज्ञानात्सहकारिभूतात् यो विशेष उपादानहेतोः सोऽपि 'आलयगया अणेगा सत्तीओ पागसंपउत्ताओ' इत्यादिना प्रबन्धेन प्राक्प्रतिभणितो-निराकृत इति नेह पुनरुच्यते ॥७२२॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- પૂર્વોક્ત ભ્રાન્તિનું કારણ અવિધા છે. ઉત્તરપક:- આ પણ બરાબર નથી. કારણ કે તમારા મતે આ અવિધા પણ જ્ઞાનથી કોઇ અલગભૂત વસ્તુ નથી. કેમકે જ્ઞાનથી અલગ વસ્તુની સિદ્ધિ થાય, તો બાહ્યર્થની સિદ્ધિ થવાનો પ્રસંગ આવે. તેથી જ્ઞાનાદ્વૈતવાદી તમારા મતે અવિદ્યા પણ જ્ઞાન જ છે. અને તે જ્ઞાન અહીં ઉપાદાનભૂત આવશે. અર્થાત અવિદ્યાત્મકજ્ઞાનને ભ્રાન્તિ માટે ઉપાદાનકારણ માનવું પડશે. અને ઉપાદાનકારણમાં સહકારિભૂત જ્ઞાનથી જે વિશેષ છે તે તો પૂર્વ “આલયગયા અનેગા સતીઓ..' ઇત્યાદિ (ગા. ૬૯૫) (આલયરત પાકમાં સંપ્રયુક્તવિપાકપ્રાપ્ત અનેક શક્તિઓ છે) ઈત્યાદિ ગાથાઓ દ્વારા વિસ્તારથી નિરાકૃત કરાયો છે. તેથી અહીં ફરીથી કહેતા નથી. પ૭રરા ભાનિ બાઘાર્થસાધક अत्रैवाभ्युच्चयेन दूषणमाह - અહીં અમ્યુચ્ચયથી દૂષણ બતાવે છે. किंचेह सच्चपुव्वा दिट्ठा भंती मरीयिमादीसु । तं पुण किमेत्य विन्नाणमेत्तमेतंपि पडिसिद्धं ॥७२३॥ (किञ्चह सत्यपूर्वा दृष्टा भान्तिः परोचिकादिषु । तत्पुनः किमत्र ? विज्ञानमात्रमेतदपि प्रतिषिद्धम् ॥ + + + + + + + + + + + + + + + + ધર્મસંગ્રહણિ -ભાગ ૨ - 83 + + + + + + +++++++++ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ounसिलि++++++++++++++++++ किंच इह-जगति या काचन भ्रान्तिः सा सर्वापि सत्यपूर्वा-सत्यार्थदर्शनपूर्विका दृष्टा, यथा-मरीचिकासु जलभ्रान्तिः । तदुक्तम्- “साधर्म्यदर्शनाल्लोके, भ्रान्ति मोपजायते । अतदात्मनि तादात्म्यव्यवसायेनेति" । तत इयमपि भ्रान्तिरवश्यं किंचन तथाभूतं सत्यमवलम्बते, तत्पुनः सत्यं किमत्र भवेत् ? विज्ञानमात्रमितिचेत् ? नन्वेतदपि विज्ञानमात्रं केवलं प्राक प्रपञ्चेन प्रतिषिद्धम्। ततः सत्यतथाभूतबाह्यार्थनिबन्धनैवेयमपि भ्रान्तिरिति बाह्यार्थसिद्धिः ॥७२३॥ ગાથાર્થ:- વળી, આ જગતમાં જે કોઈ ભ્રાન્તિ ય છે, તે બધી સત્યવસ્તુના દર્શનપૂર્વક જ હોય છે. જેમકે મૃગજળમાં પાણીની ભ્રાન્તિ. કહ્યું જ છે કે “લોકમાં સાધર્મના દર્શનથી જે તેવું નથી, તેમાં તેવા પ્રકારનો અધ્યવસાય થવાથી ભ્રાન્તિ ઉદ્દભવે છે. તેથી આ ભ્રાન્તિ પણ જરુર કોક તેવા પ્રકારના સત્યને અવલંબીને જ ઉદ્ભવે. તો પ્રસ્તુતમાં એ સત્ય शुबो ? જ્ઞાનવાદી:- આ સત્ય વિજ્ઞાનમાત્ર છે, કોઈ બાહ્યાર્થરૂપ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ કેવલ વિજ્ઞાનમાત્રનું પૂર્વે વિસ્તારથી ખંડન કરેલું જ છે. તેથી આ ભ્રાન્તિ તેવા પ્રકારના સત્ય બાહ્યર્થને અવલંબીને જ છે. તેથી બાહ્યર્થ સિદ્ધ થાય છે. ૭૨૩ अन्यच्चवणी विनाणमेत्तपक्खेवि जं व रागादिया धुवं दोसा । ता ते ण तन्निमित्ता को णु पओसो तुहऽन्नत्थ? ॥७२४॥ (विज्ञानमात्रपक्षेऽपि यच्च रागादिका ध्रुवं दोषाः । तस्मात्ते न तन्निमित्ताः को नु प्रद्वेषस्तवान्यत्र ) विज्ञानमात्रपक्षेऽपि यत्-यस्माद् रागादय आदिशब्दात् द्वेषमोह परिग्रहः दोषा ध्रुवं-निश्चिताः सन्ति । तदुक्तम्- "चित्तमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं, भवान्त इति कथ्यते" ॥१॥ इति । ततः किमित्याह-'ता ते न तन्निमित्तेति' 'ता' तस्मात्ते-तव मते न तन्निमित्ता-न विज्ञानमात्रनिमित्ता भ्रान्तिः किंतु रागादिदोषनिमित्ता, रागादिदोषाभ्युपगमे च को नु प्रद्वेषस्तवान्यत्रार्थे येन स नाभ्युपगम्यते? नैवासौ युक्तः, उभयोरपि तुल्ययोगक्षेमतया तस्य निष्कारणत्वात् इति भावः ॥७२४॥ ગાથાર્થ:- વળી, વિજ્ઞાનમાત્રપક્ષે પણ રાગ, દ્વેષ, મોહઆદિ દોષો તો અવશ્ય માન્ય છે જ. કહ્યું જ છે કે “રાગાદિથી યુક્ત ચિત્ત જ સંસાર છે. રાગાદિથી વિમુક્ત ચિત્ત જ ભવાજો મોક્ષ કહેવાય છેતેથી તમારા મતે આ ભ્રાન્તિ કંઇ વિજ્ઞાનમાત્રના નિમિત્તે નથી, પરંતુ રાગાદિદોષોના નિમિત્તે છે. અને જો વિજ્ઞાનથી ભિન્ન એવા રાગાદિ દોષો સતતરીકે સ્વીકારી શકાતા હોય, તો તમારો બીજા બાધાર્થપર શો દ્વેષ છે? કે જેથી તેનો સ્વીકાર નથી કરતા. આ બરાબર નથી. કેમકે રાગ/ષ અને બાહ્યર્થ આ બન્ને વિદ્યમાનતાની અપેક્ષાએ સમાન યોગક્ષેમ ધરાવે છે. તેથી બાઘાર્થનો અસ્વીકાર નિષ્કારણ હોવાથી, અયોગ્ય છે. ૫૭૨૪ पुनरपि परस्य मतमाशङ्कमान आह - ફરીથી જ્ઞાનવાદિમતની આશંકા કરતાં કહે છે– सिय तब्बुद्धिनिमित्ताऽसंतो सो बुद्धिकारणं किह णु? । । जह वंझापुत्तादि ण तत्थ संबंधपडिसेहा ॥७२५॥ (स्यात् तद्बुद्धिनिमित्ताऽसन् स बुद्धिकारणं कथं नु?। यथा वन्ध्यापुत्रादयो न तत्र सम्बन्धप्रतिषेधात्॥) स्यादेतत्, नासौ भ्रान्तिर्विज्ञानमात्रनिमित्ता नापि रागादिदोषनिमित्ता किंतु तद्बुद्धिनिमित्ता-अर्थबुद्धिनिमित्ता, ततो न कश्चिदनन्तरोक्तदोषावकाशः । अत्राह-'असंतो' इत्यादि, सः-अर्थोऽ सन्-अत्यन्ताविद्यमानः सन् कथं नु बुद्धेः कारणं भवेत् ? नैव कथंचनापीतिभावः । असतः सर्वसामर्थ्यरहिततया कारणत्वायोगात् । पर आह- 'जह वंझापुत्ताई' यथा वन्ध्यापुत्रादय आदिशब्दात् खरशृङ्गग्रहणम् । एतदुक्तं भवति-यथा वन्ध्यापुत्रादयः स्वस्ोणासन्तोऽपि नास्ति वन्ध्यापुत्र इत्येवमादेर्विज्ञानजातस्य हेतवो भवन्ति तथाऽर्थोऽपि स्वरूपेणासन्नपि स्वबुद्धेनिमित्तं भविष्यतीति । अत्राह- 'नेति' यदेतदुक्तं तन्न। कुत इत्याह -संबन्धप्रतिषेधात् 'नास्ति वन्ध्यापुत्र' इत्यादौ संबन्धप्रतिषेधनात् । न हि तत्र वन्ध्यादयः प्रतिषिध्यन्ते, ++++++++++++++++ 6 -In -84+++++++++++++++ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * બાઘાર્થસિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * तेषामध्यक्षत एवोपलभ्यमानत्वात्, नापि पुत्रादयस्तेषामपि सामान्यतोऽन्यत्रोपलब्धेः, किंतु वन्ध्यादेः पुत्रादिना सह यः संबन्धः स प्रतिषिध्यते, संबन्धाभावोऽपि च नैकान्तेन तुच्छरूपो यतस्तेन व्यभिचारः स्याद्, अपि तु वन्ध्यादेरेव पुत्रजनकत्वादिधर्मवैकल्यपरिणतिलक्षणः स्वभावविशेषः, ततो नासौ तथाप्रतिषेधबुद्धेनिमित्तं भवन् विरुध्यते ॥७२५॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- આ ભ્રાન્તિ વિજ્ઞાનમાત્રનિમિત્તક નથી, તેમ જ રાગાદિદોષનિમિત્તક પણ નથી. પરંતુ અર્થબુદ્ધિનિમિત્તક છે. તેથી પૂર્વોક્ત દોષને કોઈ અવકાશ નથી. ઉત્તર૫ક્ષ:- જો અર્થ અત્યન્ત અસત શ્રેય, તો તે કેવી રીતે બુદ્ધિનું કારણ બની શકે ? અર્થાત બુદ્ધિનું કારણ બની ન શકે. કારણ કે અસત્ વસ્તુ બધા પ્રકારના સામર્થ્યથી રહિત હોવાથી તેમાં કશાનું કારણ પણું સંભવતું નથી. જ્ઞાનવાદી:- વધ્યાપુત્ર અને ગધેડાના શિંગડાની જેમ આ પણ સંભવે છે. તાત્પર્ય:- જેમ વધ્યાપુત્રાદિ સ્વરૂપથી અસત્ હોવા છતાં “વધ્યાપુત્ર નથી' વગેરે પ્રકારના જ્ઞાનસમુદાયના કારણ બને છે. તેમ અર્થ પણ સ્વરૂપથી અસન હોવા છતાં સ્વ-અર્થ) વિષયક બુદ્ધિ થવામાં કારણ બની શકે છે. ઉત્તરપક્ષ:- આ તર્ક યોગ્ય નથી, કેમકે ત્યાં સંબંધનો પ્રતિષેધ છે. અર્થાત “વધ્યાપત્ર નથી' વગેરે સ્થળે વધ્યા વગેરેનો પ્રતિષેધ નથી, કારણ કે તેઓ પ્રત્યક્ષથી જ દેખાય છે. તેમજ પુત્રવગેરેનો પણ પ્રતિષેધ નથી, કેમકે તેઓ પણ સામાન્યથી બીજે ઉપલબ્ધ થાય છે. પરંતુ અહીં વધ્યાવગેરેનો પુત્ર સાથેના સંબંધનો જ પ્રતિષેધ થાય છે. અર્થાત આ સંબંધના અભાવનું જ સૂચન થાય છે. વળી, આ અભાવ પણ તદ્દન તુચ્છ અસતરૂપ નથી કે જેને આગળ કરીને વ્યભિચાર આપી શકાય (કે આ અભાવ તુચ્છ અસત હોવા છતાં બુદ્ધિનું કારણ બને છે.) પરંત આ અભાવ સ્વયં વધ્યાદિના પુત્રજનકલ્વાદિ ધર્મની વિકલતાપરિણતિરૂપ સ્વભાવવિશેષ છે. તેથી આ (અભાવ વગેરે) પ્રતિષેધ બુદ્ધિનું કારણ બનવા છતાં વિરુદ્ધરૂપ નથી. ૭૨પા अथ कदाचित्परस्य स्वपक्षसिसाधयिषुतातरलितमतित्वादेवमपि श्रद्धा भवेत्-यथा वयमप्येवमर्थस्य प्रतिषेधं करिष्याम ફત માહ – હવે, સ્વપક્ષને સિદ્ધ કરવાની ઇચ્છાથી ચંચલ થયેલી બદ્ધિવાળો જ્ઞાનવાદી કદાચ એવી શ્રદ્ધા રાખતો હોય કે “અમે પણ અર્થનો પ્રતિષધ આ પ્રમાણે જ કરીએ છીએ તો આની સામે સમાધાન બતાવતા કહે છે एवं किमत्थि अन्नं? जमेत्थ उद्दिस्स अत्थजोगस्स । कीरइ पडिसेहो सति च तम्मि अत्थो कहं नत्थि? ॥२६॥ (एवं किमस्ति अन्यत् ? यदत्र उद्दिश्य अर्थयोगस्य । क्रियते प्रतिषेधः सति च तस्मिन् अर्थः कथं नास्ति ॥) — एवं यथा-'नास्ति वन्ध्यापुत्र' इत्यादौ पुत्रादिस्तथा किमन्यदस्ति विज्ञानातिरिक्तं यत् उद्दिश्य अत्र-विज्ञाने अर्थयोगस्य-अर्थसंबन्धस्य प्रतिषेधः क्रियते? अस्तीति चेदत आह-'सइ य' इत्यादि, सति च तस्मिन्-विज्ञानादन्यस्मिन् वस्तुभूते कथमुच्यते-'अर्थो नास्तीति' । विज्ञानातिरिक्तस्य सर्वस्याप्यन्यस्य वस्तुभूतस्यार्थशब्दवाच्यत्वात् ॥७२६॥ ગાથાર્થ:- “વૃધ્યાપુત્ર નથી' ઇત્યાદિસ્થળે જેમ પુત્રવગેરે બીજે સ્થલે વિદ્યમાન છે, તેમ શું વિજ્ઞાનથી ભિન્ન એવી કોઈ વસ્તુ છે કે જેને ઉદ્દેશીને આ વિજ્ઞાનમાં અર્થના સંબંધનો પ્રતિષેધ કરાય છે? જો એમ કહેશો કે વિજ્ઞાનથી અન્ય વસ્તુ છે તો વિજ્ઞાનથી અન્ય ચીજ વસ્તરૂપ હોવા છતાં એમ કહેવું કે “વિજ્ઞાનથી અન્ય એવો અર્થ નથી. તે કેવી રીતે વ્યાજબી ઠરે? કારણ કે વિજ્ઞાનથી ભિન્ન હોય, અને વસ્તરૂપે હોય, એ બધું જ “અર્થ શબ્દથી વાચ્ય બને છે. ૭ર૬ પર ગાઢ – અહીં જ્ઞાનવાદી કહે છે सिय सव्वक्खोवक्खारहिओ वंझासुओ मओ एत्थ । कह तम्मि हंत नाणं अभिहाणं वावि पुव्वुत्तं ? ॥७२७॥ (स्यात् सर्वा सर्वाख्योपाख्यारहितो वन्ध्यासुतो मतोऽत्र । कथं तस्मिन् हन्त! ज्ञानमभिधानं वापि पूर्वोक्तम् ॥) स्यादेतत्, अत्र 'नास्ति वन्ध्यापुत्र' इत्यादौ प्रतिषेधे न संबन्धाभावमात्रं विषयत्वेन मतं, किंतु सर्वाख्योपाख्याविरहितो वन्ध्यासुतः, उपलक्षणत्वादेतस्य खरशृङ्गादिरपि, ततस्तदवस्थ एव असन् सोऽर्थः कथं बुद्धेः कारणं भवतीत्यस्य व्यभिचारः। अत्राह-'कह तम्मीत्यादि'यदि वन्ध्यासुतादिरेव तत्र विषयत्वेनाभिमतस्ततः कथंतस्मिन्-वन्ध्यासुतादौ सर्वाख्योपाख्याविरहिते * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 85 * * * * * * * * * * * * * * Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * બાઘાર્થસિદ્ધિ + + + * * * * * * * * * * * * * * हन्त ज्ञानमभिधानं वा नं वा पर्वोक्तस्वरूपं पवर्तते। नैव कथंचनापि पवर्तते इति भावः । सर्वाख्योपाख्याविरहितत्वेन तस्य विषयत्वशक्तेरप्ययोगात् ॥७२७॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનવાદી:- અહીં “વવ્યાપુત્ર નથી' વગેરે પ્રતિષધમાં માત્ર સંબંધીભાવ જ વિષય છે, એમ નથી. બલ્ક બધી જ આખ્યા-ઉપાખ્યા (વાચકશબ્દ અને સ્વરૂપ) થી રહિત એવો વધ્યાસત પ્રતિષેધનો વિષય છે. “વધ્યાસુત ના ઉપલક્ષણથી ગધેડાના શિંગડા વગેરે સ્થળે પણ આ વાત સમજી લેવી. તેથી અર્થની અવિદ્યમાનતા તદવસ્થ (=અડીખમ જ ઊભી છે. વધ્યાસતવગેરે તદ્દન અસતવસ્તુ બુદ્ધિનું કારણ બને છે. તેથી એ અર્થ બુદ્ધિનું કારણ શી રીતે બની શકે? (અર્થાત તદ્દન અસતવસ્તુ બુદ્ધિનું કારણ ન જ બને,) તેવા સિદ્ધાન્ત (જૈનમત)માં વ્યભિચાર આવે છે. ઉત્તરપક:- જો, ત્યાં વધ્યાપુત્રવગેરે જ જ્ઞાનના વિષયતરીકે અભિમત હોય તો સર્વઆખ્યોપાખ્યાથી રહિત વધ્યાપુત્ર વગેરેમાં પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળા જ્ઞાન કે અભિધાન કેવી રીતે પ્રવતે? અર્થાત ન જ પ્રવર્તી શકે. કારણકે સર્વાખ્યોપાખ્યાથી રહિત હોવાથી તે (=વધ્યાપુત્રવગેરે)માં વિષયતાશક્તિ પણ સંભવે નહીં. ૭૨૭ તુચ્છાભાવ જ્ઞાનગણ્ય નથી अत्रैव प्रतिषेधविचारावसरे सौगतविशेषान्तरस्यापि मतमपनिनीषया निर्दिशति - અહીં જ પ્રતિષેધવિચારના અવસરે બૌદ્ધમતમાં જ એક વિશેષમતાન્તરને ખંડિત કરવાની ઇચ્છાથી નિદેશ કરે છે. भावोवलंभओ च्चिय केइ अभावोऽवि गम्मती तुच्छो । एयमिह उवलभामि एयं तु न (नेव) त्ति विन्नाणा ॥७२८॥ तुच्छत्तं एगंता एतं तु णेवत्तिसद्दवित्तीउ । कह सिज्झतित्ति? तम्हा वत्थुसहावो अभावो (उ) वा ॥७२९॥ (भावोपलम्भादेव केचिदभावोऽपि गम्यते तुच्छः । एतदिह उपलभे एतत्तु न (नैव) इति विज्ञानात् ॥ (तुच्छत्वमेकान्तादेतत्तु नैवेति शब्दवित्तिभ्याम् । कथं सिध्यति? तस्माद्वस्तुस्वभावोऽभावो(तुवा ॥) केचिदर्थनयप्रधानाः सन्तो धर्मकीर्त्यादय एवं ब्रुवते,यथा भावोपलम्भादभावोऽप्येकान्तेन तुच्छरूपोऽपि गम्यते । कथमित्याह - एतत्-घटादिक मिह- भूतलादौ उपलभे एतत्तु-पटादिकं नैवेति शब्दप्रवृत्तेवित्तिप्रवृत्तेश्च (अभावस्यैकान्तात्सर्वथा सकलाख्योपाख्याविरहितरूपतया सिद्धिः, तन्न, नैवेतिशब्दप्रवृत्तेर्विज्ञानप्रवृत्तेश्च) कथमेकान्तेन पटाद्यभावस्य वन्ध्यापुत्राद्यभावस्य च तुच्छत्वमेकान्तात् ? एकान्तेन तुच्छत्वं सकलाख्योपाख्याविरहरूपत्वं (कथं) सिध्यति? नैव सिध्यतीति भावः । एकान्ततुच्छस्य ज्ञेयत्वादिस्वभावायोगतस्तत्र यथोक्तवित्तिप्रवृत्त्यादेरसंभवात् । तस्मादभावो वस्तुस्वभाव एव यथोक्तोऽवगन्तव्यो नत्वेकान्तेन तुच्छरू पः । तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योजित एव I૭૨૮-૭૨૧/ ગાથાર્થ:- ધર્મકીર્તિ વગેરે કેટલાક અર્થનયને આગળ કરી ચાલનારા (બાધાર્થને સ્વીકારવાવાળા) બોદ્ધો આમ કહે છે '- ભાવ-અર્થનો ઉપલભ્ય થાય છે. તેથી તેનાથી વિરુદ્ધભૂત એકાત્તતુચ્છ એવો પણ અભાવ ગમ્ય બને છે. કેવી રીતે? તો આ રીતે - “આ ભૂમિપર હું ઘડાનો ઉપલંભ કરું છું, આ કપડા વગેરેનો નહિ જ આવો શબ્દપ્રયોગ થાય છે. અને એવું જ્ઞાન પ્રવૃત્ત થાય છે.( તેથી જ અભાવની સર્વથા સકળઆખ્યોપાખ્યાથી વિરહિત તુચ્છરૂપે સિદ્ધિ થાય છે. પક્ષ:- આ બરાબર નથી. કારણ કે નૈવત નહીં જ) એવા શબ્દ અને જ્ઞાનની પ્રવૃત્તિ થાય છે.) તેથી પટાદિઅભાવ અને વધ્યાપુત્રાદિઅભાવ એકાન્તતુચ્છ (અર્થાત તેઓમાં સકળાખ્યોપાખ્યાવિરહિતરૂપ એકાન્ત તુચ્છત્વ) કેવી રીતે સિદ્ધ થાય ? ન જ સિદ્ધ થાય. કારણ કે એકાન્તતુચ્છવાસ્તમાં યત્વવગેરેસ્વભાવ સંભવતા ન હોવાથી યથોક્ત જ્ઞાનપ્રવૃત્તિ કે શબ્દપ્રવૃત્તિ વગેરે સંભવે નહિં. તેથી અભાવને પણ યથોwવસ્તુસ્વભાવરૂપ જ સમજવો, નહીં કે એકાન્ત તુચ્છરૂપ. (મૂળમાં ત' પદ જકારઅર્થક છે. અને “વસ્તુસ્વભાવ' પદસાથે સંબંધિત જાણવું) ૭૨૮/૩૨લા भावेवि न तुच्छंमि (तम्मि य भावेऽवस्स न तुच्छे) नाणं सद्दो य सव्वहा कमति। ता वंझासुतणातं न संगयत्थं ते (स) विन्नाणा ॥७३०॥ (भावेऽपि न तुच्छे (तस्मिंश्च भावेऽवश्यं न तुच्छे) ज्ञानं शब्दश्च सर्वथा क्रमते । तस्माद् वन्ध्यासुतज्ञातं न संगतार्थं ते (स) विज्ञानात्।।) * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંહણ-ભાગ ૨ - 86 * * * * * * * * * * * * * * * Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++aunसिलि++++++++++++++++++ भावेऽपि-सद्भावेऽप्येकान्तेन तुच्छरूपस्याभावस्य न तच्छे तस्मिन्नभावे ज्ञानं शब्दो वा क्रमते, तद्विषयत्वशक्त्ययोगात्, अन्यथा तुच्छत्वानुपपत्तेः, अस्ति चाविगानेन सकलजनप्रसिद्धं तद्विषयं क्रममाणं ज्ञानादि, ततो 'नास्ति वन्ध्यापुत्र' इत्येवंविज्ञानादुपलक्षणमेतत् एवंरूपशब्दप्रवृत्तेश्च यत् प्राक् उदीरितं वन्ध्यासुतनिदर्शनं 'जह वंझापुत्ताई' इति तन्न संगतार्थ-न समीचीनाभिधेयं, तत्राप्येकान्ततुच्छरूपस्याभावस्य विषयत्वाभावात् । तन्नार्थोऽसन्स्वबुद्धिनिमित्तं भवति, किंतु सन्नेव, अनुभूयते चाविगानेनार्थबुद्धिस्ततस्तदन्यथानुपपत्त्या बाह्योऽर्थोऽभ्युपगन्तव्यः ७३०॥ ગાથાર્થ:- એકાને તુચ્છરૂપ અભાવનો સદ્ભાવ હોય, તો પણ તુચ્છ એવા તે અભાવના વિષયમાં જ્ઞાન કે શબ્દ પ્રવૃત્ત થતાં નથી, કેમકે તુચ્છઅભાવમાં જ્ઞાન અને શબ્દના વિષય બનવાની શક્તિ નથી, કેમકે તેવી શક્તિ માનવામાં તે અભાવનું તથ્યપણું ઉડી જાય. તથા નિર્વિવાદ સર્વજનવિદિત છે કે અભાવના વિષયમાં જ્ઞાનાદિની પ્રવૃત્તિ થાય છે. તેથી વધ્યાપુત્ર નથી એવું વિજ્ઞાન અને ઉપલક્ષણથી તેવો વાક્યપ્રયોગ થતો હોવાથી પૂર્વે “જહ વંઝાપુરાઈ” (ગા. ૭૨૫થી જે વધ્યાપુત્રાદિનું દેષ્ટાન્ત પૂર્વપક્ષે બતાવ્યું તે યોગ્ય અર્થસૂચક નથી. કેમકે ત્યાં પણ જે તુચ્છરૂપ અભાવ હોય, તો તે વિષય બની શકે જ નહીં. તેથી બાઘાર્થ અસતરૂપે રહીને અર્થબુદ્ધિનું કારણ બની ન શકે. પરંતુ સત રૂપે રને જ અર્થબુદ્ધિમાં કારણ બને છે. અને અર્થવિષયકબુદ્ધિ અનુભવાય છે તે નિર્વિવાદ છે. તેથી નિર્વિવાદ અનુભવાતી અર્થબુદ્ધિ અન્યથાઅનુ૫૫ન્ન થવાદ્વારા બાહ્યર્થનો અભ્યપગમ કરાવે છે. ૭૩૦ જ્ઞાનની સાકારતાથી બાહ્યાર્થસિદ્ધિ एतदेवोपसंहरन्नाह - આ અર્થનો ઉપસંહાર કરતાં કહે છે. इय अत्थि नाणगम्मो बज्झो अत्थो न अन्नहा णाणं । जुज्जइ सागारं तह बुद्धस्स य दाणपारमिता ॥७३१॥ . (इति अस्ति ज्ञानगम्यो बाह्योऽर्थो नान्यथा ज्ञानम् । युज्यते साकारं तथा बुद्धस्य च दानपारमिता ||) इति:-एवमुपदर्शितेन न्यायेन अस्ति ज्ञानगम्यो बाह्योऽर्थः । कथमित्याह - यस्मान्न अन्यथा-बाह्यार्थमन्तरेण ज्ञानं युज्यते साकारम्-अर्थाकारोपेतं, ततोऽर्थाकारान्यथानुपपत्त्या बाह्योऽर्थो ज्ञानगम्य इति प्रतिपत्तव्यम् । न केवलमसौ ज्ञानगम्यः किंवागमगम्योऽपि । तथा चाह-'तह बुद्धस्स य दाणपारमिया' बुद्धस्य च या आगमाभिहिता दानपारमिता सापि बाह्यार्थसद्भावमन्तरेण सर्वथा न युज्यते, पुष्कलचित्तेन वित्तातिसर्जनस्पत्वात् दानपारमितायाः । तस्मादागमप्रामाण्यमपीच्छता अवश्यमेव बाह्योऽर्थोऽभ्युपगन्तव्यः ॥७३१॥ ગાથાર્થ:- આમ બતાવેલા ન્યાયથી જ્ઞાનગમ બાહ્યર્થ છે, કેમકે બાહ્યર્થ વિના જ્ઞાન અર્થના આકારથી યુક્ત= સાકાર તરીકે યુક્તિયુક્ત બની ન શકે. આમ જ્ઞાનમાં અર્થાકાર અન્યથાઅનુ૫૫ન્ન થતો હોવાથી બાહ્યર્થ જ્ઞાનગણ્ય છે, તેમ સ્વીકારવું જોઈએ. આમ બાઘાર્થ જ્ઞાનગમ્ય છે, એટલું જ નહિ પણ આગમગમ્ય પણ છે. તેથી જ મૂળકારે કહ્યું “તહ બુખસ્સ’ ઈત્યાદિ....બૌદ્ધઆગમમાં બુદ્ધની જે દાનપારમિતા કહી છે. તે પણ બાઘાર્થની હાજરી વિના સર્વથા સંભવે નહિ. કારણ કે પુષ્કળચિત્ત (વિશદ=ઉદારચિત્ત) થી ધનનો જે ત્યાગ છે, તે જ દાનપારમિતા છે. તેથી આગમપ્રામાયને સ્વીકારનારે અવશ્ય બાહ્યર્થ પણ સ્વીકારવો જોઈએ. પ૭૩૧ एतदेव क्रमेणोपपिपादयिषुराह - આ જ મુદ્દાને ક્રમશ: યુક્તિસંગત ઠેરવવા કહે છે तं केवलं अमुत्तं न य आगारो इमस्स जुत्तोत्ति । तदभावम्मि य पावइ वत्तं संवेयणाभावो ॥७३२॥ (तत्केवलममूर्तं न चाकार एतस्य युक्त इति । तदभावे च प्राप्नोति व्यक्तं संवेदनाभावः ॥) तत्-ज्ञानं केवलं स्वरूपेण चिन्त्यमानममूर्त-मूर्तिविरहितं,न चामूर्तस्य स्वरूपत आकारो युज्यते, तथाऽनुपलम्भात्, तदभावे च-आकाराभावे च स्वसंवेदनसिद्धस्य घटपटादिसंवेदनस्य व्यक्तं-स्फुटमभावः प्राप्नोति । आकारविशेषमन्तरेण प्रतिकर्म व्यवस्थानाभावात् ॥७३२॥ ++++++++++++++++ प शि -ला -87 + + + ++ + + + + + + + ++ + Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** सिद्धि + +* * * ** * * * * ** **+++ ગાથાર્થ:- માત્ર જો જ્ઞાનનો જ વિચાર કરીએ તો તે સ્વરૂપથી અમૂર્ત છે. અને જે અમૂર્ત હોય, તેનો સ્વરૂપથી આકાર હોતો નથી. કેમ કે તેવું દેખાતું નથી. અને આકારના અભાવમાં જે ઘટસંવેદન પટસંવેદનવગેરે સ્વસંવેદનસિદ્ધ સંવેદનો ( જ્ઞાનો) છે, તે બધાનો સ્પષ્ટઅભાવ આવી જાય, કારણ કે આકારવિશેષના અભાવમાં ઘટ, પટ આદિ કર્મ ( જ્ઞાનના વિષય) સંબંધી કોઈ નિશ્ચિત વ્યવસ્થા રહે નહિ અર્થાત આ જ્ઞાન ઘટવિષયક જ છે અને આ જ્ઞાન પટવિષયક જ છે એવો નિશ્ચિત વિશેષ રહે નહીં. પ૭૩રા ता विसयगहणपरिणामतो तु सागारता भवइ तस्स । तदभावे तदभावो न य सो तम्हा तओ अत्थि ॥७३३॥ (तस्माद्विषयग्रहणपरिणामतस्तु साकारता भवति तस्य । तदभावे तदभावो न च स तस्मात्सकोऽस्ति ) ___ 'ता' तस्मादनुभवसिद्धघटपटादिसंवेदनान्यथानुपपत्तितो ध्रुवमेतदभ्युपगन्तव्यं यथा विषयग्रहणपरिणामतोविषयग्रहणपरिणामलक्षणाकारसद्भावतस्तस्य-ज्ञानस्य साकारता भवतीति । विषयग्रहणपरिणामतः साकारता नत्वन्यथेत्येतत्कथमवसीयत इति चेत् ? अत आह-'तदभावे तदभावो' यस्मात्तदभावे-विषयग्रहणपरिणामाभावे तदभाव:तस्याः साकारताया अभावः, तमन्तरेण तस्याः सर्वथानुपपद्यमानत्वात्, यथोक्तं प्राक भौतिकपुरुषवादिमतपरीक्षायाम् । 'न य सोत्ति' न च सः-साकारताया अभावोऽस्ति, तस्याः स्वसंवेदनसिद्धतया अपह्रोतुमशक्यत्वात्, अन्यथा प्रतिकर्म व्यवस्थानुपपत्तेश्च । तस्मात्सको-विषयग्रहणपरिणामोऽस्तीति गम्यते ॥७३३।। ગાથાર્થ:- આમ જ્ઞાનની સાકારતા વિના અનુભવસિદ્ધ ઘટસંવેદન, ૫ટસંવેદનવગેરે અનુપન થાય છે. તેથી જ તે સંવેદનોના બળ પર આટલું અવશ્ય સ્વીકારવું જોઇએ કે વિષયગ્રહણ પરિણામરૂપ આકાર હોવાથી જ્ઞાન સાકાર છે. પ્રશ્ન:જ્ઞાનની સાકારતા તેના વિષયગ્રહણ પરિણામને કારણે જ છે અન્યથા નથી, તેવો નિશ્ચય કેવી રીતે થાય? ઉત્તર:- જ્ઞાનના વિષયગ્રહણ પરિણામ વિના સાકારતા તદન અનુ૫૫ન બને છે. આ મુદ્દો પૂર્વે ભૌતિકપુરૂષવાદિમત (નાસ્તિકમત) ની પરીક્ષા વખતે સિદ્ધ કર્યો છે. અને “સાકારતાનો અભાવ છે તેમ કહી શકાય નહીં કેમકે સાકારતા દરેકને સ્વાનુભવસિદ્ધ હોવાથી તેનો નિષેધ કરવો શક્ય નથી. નહીંતર પ્રતિકર્મ નિશ્ચિત વ્યવસ્થા અનુપપન્ન બને. માટે વિષયગ્રહણ પરિણામ છે, : તે સ્વીકાર્ય છે. પ૭૩૩ एतेणं आगारो भिन्नोऽभिन्नोत्ति एवमादीयं । जं भणियं तं सव्वं पडिसिद्ध होइ दट्ठव्वं ॥७३४॥ (एतेनाकारो भिन्नोऽभिन्न इति एवमादिकम् । यद्भणितं तत्सर्वं प्रतिषिद्धं भवति द्रष्टव्यम् ) 'एतेन' विषयग्रहणपरिणामलक्षणाकारव्यवस्थापनेन 'सो खलु तस्सागारो भिन्नोऽभिन्नो वे' त्येवमादिकं यद्भणितं तत्सर्वं प्रतिषिद्धं भवति द्रष्टव्यम् ॥७३४ ॥ ગાથાર્થ:- આમ જ્ઞાનમાં વિષયગ્રહણ પરિણામરૂપ આકારની વ્યવસ્થા સ્થાપી-નિશ્ચિત કરી. તેથી “એ આકાર જ્ઞાનથી ભિન્ન છે કે અભિન્ન છે” (ગા. ૬૪૨) ઈત્યાદિ જે પૂર્વે કહ્યું તેનો નિષેધ થાય છે. પ૭૩૪ ગ્રાહકપરિણામ આકારરૂપ कथमित्याह - કેવી રીતે નિષેધ થાય છે? તે બતાવે છે जं गाहगपरिणामो णियतो नाणम्मि होइ आगारो । न विसयगतसंकमतो जहत्तदोसप्पसंगातो ॥७३५॥ (यद्ग्राहकपरिणामो नियतो ज्ञाने भवति आकारः । न विषयगतसंक्रमतो यथोक्तदोषप्रसङ्गात् ॥ यत्-यस्माद्य एव नियतो ज्ञाने ग्राहकपरिणामः स एव भवत्याकारो न विषयगतसंक्रमतो-न विषयसंबन्धाकारसंक्रमतो ज्ञातव्यः। कुत इत्याह- यथोक्तदोषप्रसङ्गात्-पूर्वाभिहितसकलदोषजालप्रसङ्गात् ॥७३५॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનમાં જે નિયત ગ્રાહક પરિણામ છે, તે જ તેનો આકાર છે. વિષયના સંબંધથી વિષયગતઆકારના સંક્રમથી જ્ઞાનમાં આકાર આવતો નથી, કેમ કે એ સંક્રમથી આકાર માનવામાં પૂર્વે કહેલા તમામ દોષો આવવાનો અવસર છે. ૭૩પા ****************घर्भ लि -लाग२-88+++++++++++++++ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + ouade + + + + + + + + + + + + + + ++ ++ स्यादेतत्, यदि विषयग्रहणपरिणामलक्षणो ज्ञाने आकारस्ततः किमित्याहશંકા:- જો જ્ઞાનમાં વિષયગ્રહણ પરિણામરૂપ આકાર જ હોય, તો તેથી શું સિદ્ધ થશે? આ શંકાનો ઉત્તર આપતા કહે છે. __ण य गज्झमंतरेणं सो जायइ जेण तेण तस्सिद्धी । तत्तो तु संगया बज्झदंसणाणुभवतो चेव ॥७३६॥ (नच ग्राह्यमन्तरेण स जायते येन तेन तत्सिद्धिः । ततस्तु संगता बाह्यदर्शनानुभवत एव ॥ न च सः-विषयग्रहणपरिणामलक्षण आकारो येन कारणेन ग्राह्यमर्थमन्तरेण जायते तेन कारणेन तत एवआकारादन्यथानुपपद्यमानात, तुरवधारणे, यो बाह्यस्यार्थस्यानुभवस्तस्मादेव तत्सिद्धिः-बाह्यार्थसिद्धिः संगता-युक्त्युपपन्नेति स्थितम् ७३६॥ ગાથાર્થ:- આ વિષયગ્રહણપરિણામરૂપ આકાર બાાર્થ વિના થવો સંભવતો નથી, અને આ આકાર બાલાર્થ વિના અસિદ્ધ થવાથી જ બાહ્યર્થનો અનુભવ થાય છે. (મૂળમાં “ત' જકારઅર્થક છે.)તે અનુભવથી જ બાલાર્થની સિદ્ધિ યુક્તિસંગત ઠરે છે, તેમ નિશ્ચિત થાય છે. પ૭૩૬ દાનપારમિતાથી બાધાર્થ સિદ્ધિ 'बुद्धस्स य दाण पारमिये' त्येतद्व्याचिख्यासुर्दानपारमितां तावद् व्याचष्टेગા. નં ૭૩૧ માં બાધાર્થસાધક તરીકે બદ્ધની દાનપારમિતાની જે વાત કરી, તેની વ્યાખ્યા કરવાની ઇચ્છાવાળા આચાર્ય પ્રથમ नपारमितानी व्याध्या २ छे....... देंतस्स हिरन्नादि अब्भासा देहमादियं चेव । अग्गहविणिवित्ती जा सेट्ठा सा दाणपारमिया ॥७३७॥ (ददतो हिरण्यादि अभ्यासाद्देहादिकमेव । आग्रहविनिवृत्तिर्या श्रेष्ठा सा दानपारमिता ॥ . ददतो-ददानस्य हिरण्यादिकमभ्यासात् प्रकर्षप्राप्तात् देहादिकमपि ददतो या हिरण्यादिविषया आग्रहविनिवृत्तिःमूर्छानिवृत्तिः श्रेष्ठा-अत्यन्तविशुद्धा सा दानपारमिता भवति ॥७३७॥ ગાથાર્થ:- સોનંવગેરે આપતા આપતા પ્રકર્ષ પામેલા અભ્યાસથી દેહવગેરે પણ આપી દેનારની સોનાવગેરે અંગે જે મૂચ્છની નિવૃત્તિ છે, તે જ શ્રેષ્ઠ અત્યંતવિશુદ્ધ દનપારમિતા છે. u૭૩૭ ततः किमित्याह - દાનપારમિતાની આ વ્યાખ્યાનું તાત્પર્ય શું છે? તે બતાવે છે ' तदभावम्मि य कह सा ? चित्ताओ चेव दाणरूवाओ । तं पऽगहिते ण जुत्तं अथिम्मि गहोवि गह(जह) पुट्विं ॥७३८॥ . (तदभावे च कथं सा? चित्तादेव दानरूपात् । तदपि अगृहीते न युक्तमर्थिनि ग्रहोऽपि कथं पूर्वम् ॥ तदभावे च-हिरण्यादिलक्षणबाह्यार्थाभावे च कथं सा-दानपारमिता भवेत् ? नैव भवेदितिभावः, तस्यास्तदतिसर्जनरूपत्वात् । अथोच्येत चित्तादेव दानरूपात्सा दानपारमितेष्यते यथा- 'मया स्वदेहादिकमपि दत्त्वा परेषामप-. कर्तव्य' मित्यत्राह-'तंपीत्यादि' ननु तदपि दानरूपं चित्तमर्थिन्यगृहीते सति सर्वथा न युक्तं, तथानुभवाभावात्, ग्रहश्चार्थिनः कथमुपपद्यते? नैव कथंचनेत्यर्थः । कथमित्याह- 'जह पुट्विं' यथाभिहितं प्राक् प्रपंचेन तथा नोपपद्यते ॥७३८॥ ગાથાર્થ:- સોનવગેરે બાલાર્થના અભાવમાં આ દાનપારમિતા કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત ન જ સંભવે. કારણ કે દનપારમિતા સોનાવગેરેના ત્યાગરૂપ છે. (બાલાર્થ જ ન હોય, તો તેનો ત્યાગ કેવી રીતે થઈ શકે અને તે ત્યાગના અભાવમાં ઘનપારમિતા पीत संलवे?) પૂર્વપક્ષ:- દાનરૂપ જે ચિત્ત છે, તે ચિત્તથી જ દાનપારમિતા ઈષ્ટ છે. જેમકે “મારે મારો દેહવગેરે આપીને પણ - બીજાઓ પર ઉપકાર કરવો જોઈએ. તેથી કોઈ દોષ નથી. - ઉત્તર૫:- આ દાનરૂપ ચિત્ત પણ અર્થી યાચકનો બોધ ન થાય, તો અત્યંત અસંગત છે. કેમ કે યાચકના અભાવમાં“આ યાચક છે. તેવા જ્ઞાનના અભાવમાં દાન અંગેની બુદ્ધિ થવાનો અનુભવ થતો નથી. આમ અર્થીનું જ્ઞાન આવશ્યક છે. ++ + + + + + + + + + + + + + + AAGM-GAR - 89 + + + + + + + + + + + ++ + + Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + ouanlae+ + + + + + + + + + + + + ++ ++. અને અર્થીનું જ્ઞાન કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત તમારા પક્ષે અર્થીનું જ્ઞાન સંભવે નહીં. કેમ ન સંભવે? તે પૂર્વ વિસ્તારથી बतायुछे. 193eu अत्र पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે अग्गहियम्मिवि जायइ चित्तुप्पातो तहाविहो तस्स । नियहेतुसहावातो इतरस्सवि लुद्धचित्तस्स ॥७३९॥ (अगृहीतेऽपि जायते चित्तोत्पादस्तथाविधस्तस्य । निजहेतुस्वभावादितरस्यापि लुब्धचित्तस्य ॥ अगृहीतेऽप्यर्थिनि तस्य-बुद्धस्य भगवतो निजहेतुस्वभावतः-तथाभूतस्वकारणकलापसामग्रीसद्भावतः तथाविधश्चित्तोत्पादो जायते यथा- 'मयैतस्मायुपकर्तव्यमिति' । इतरस्यापि च लुब्धचित्तस्य हिरण्यग्रहणाभिमुखीभूतमानस्य निजहेतुस्वभावतस्तथाविधचित्तोत्पादो जायते यतोऽस्माकमयं भगवानुपकारक इति प्रतीतिरुपजायते, ततो नेह कश्चित्पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः ॥७३९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- યાચકનો ગ્રહ(=બોધ) ન થાય, તો પણ તે બુદ્ધભગવાનને તેવા પ્રકારના પોતાના કારણસમુદાયરૂપ સામગ્રીના કારણે જ તેવા પ્રકારના ચિત્તનો ઉત્પાદ થાય છે કે મારે આનો ઉપકાર કરવો એ જ પ્રમાણે સુવર્ણગ્રહણ તરફ આકર્ષાયેલા લોભી ચિત્તનો પણ પોતાના કારણસમુદાયથી જ એવો ચિનોત્પાદ થાય છે કે જેથી “આ ભગવાન અમારા ઉપકારી છે. તેવી પ્રતીતિ થાય છે. તેથી અહીં કોઈ પૂર્વોક્ત દોષને અવકાશ નથી. પ૭૩લા अत्राहઅહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. माणं किमेत्थ तुझं? पच्चक्खं ताव ण घडई चेव । अविगप्पगं जमिटुं अगाहगं तह य अन्नस्स ॥७४०॥ (मानं किमत्र तव? प्रत्यक्षं तावन्न घटत एव । अविकल्पकं यदिष्टमग्राहकं तथा चान्यस्य ॥) . 'अत्र' अनन्तराभिहितकल्पनायां 'मानं' प्रमाणं तव किं? प्रत्यक्षमनुमानं वा? तत्र प्रत्यक्षं तावन्न घटते, यत्यस्मात्तत्प्रत्यक्षमविकल्पकं-कल्पनापोढमिष्टम्, 'तद्यदपि गृह्णाति तन्न निश्चयेन, किंतु तत्प्रतिभासेने तिवचनात्, ततो न तद्विवक्षितार्थनिश्चायकम्। अथोच्येत मा घटिष्ट प्रत्यक्षमविकल्पकं सविकल्पकं घटिष्यत एवेति । तदप्ययुक्तम, तस्या- प्रमाणत्वात्, भवतु वा प्रमाणं तथापि न तत् अन्यस्य-आत्मव्यतिरिक्तस्य ग्राहकम् । तथा चाह-अगाहगं तह य अन्नस्स' सर्वस्यापि ज्ञानस्य स्वाकारमात्रवेदनमिष्टं, तथाऽ(मिष्टतयाऽ पाठा.)भ्युपगमात्, अन्यथा अर्थस्यापि तद्वद्ग्रहणप्रसङ्गात् ७४०॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- તમે જે આવી કલ્પના કરી, તે સત્ય હોવામાં પ્રમાણ શું છે? પ્રત્યક્ષપ્રમાણ છે કે અનુમાન? એમાં પ્રત્યક્ષપ્રમાણ તો સંભવે નહીં, કેમકે તે અવિકલ્પક-કલ્પનાથી રહિત ઈષ્ટ છે. કેમ કે એવું વચન છે કે પ્રત્યક્ષ જે કાંઈ ગ્રહણ કરે છે તે નિશ્ચયથી નહીં, પરંતુ તેના પ્રતિભાસથી ગ્રહણ કરે છે. તેથી પ્રત્યક્ષજ્ઞાન વિવલિતઅર્થનો નિશ્ચય કરાવવા સમર્થ નથી. પૂર્વપક્ષ:- અવિકલ્પક પ્રત્યક્ષ ભલે અર્થનિશ્ચાયક ન હોય પરંતુ સવિકલ્પક પ્રત્યક્ષ તો તે માટે સમર્થ છે. ઉત્તરપક્ષ:- આ પણ બરાબર નથી. કેમકે સવિકલ્પક પ્રત્યક્ષ પ્રમાણભૂત નથી. અથવા તે પ્રમાણભૂત હોય, તો પણ સ્વને છોડી અન્યનું ગ્રાહક નથી. તેથી સવિકલ્પક પ્રત્યક્ષથી પણ કલ્પનાને બળ મળે નહીં. તેથી જ મૂળકારે પણ કહ્યું કે અગાહä તહ ય અન્નસ્સ' બધું જ જ્ઞાન માત્ર સ્વાકારનું જ વેદન કરે તે તમને ઈષ્ટ છે. કેમકે તમારો સિદ્ધાન્ત છે. અન્યથા તો અન્ય આકારની જેમ અર્થના ગ્રહણનો પણ પ્રસંગ આવે. પ૭૪ના अणुमाणंपि हु तप्पुव्वगं ति णो गाहगं अहिगतस्स । णय अन्नमत्थि माणं एतममाणं कहं हवतु? ॥७४१॥ (अनुमानमपि हु तत्पूर्वकमिति नो ग्राहकमधिकृतस्य। न चान्यदस्ति मानमेतदमानं कथं भवतु? ॥) ++ ++ ++ ++ + + + + + + + + Aucle-11 २ - 90 + + + + + + + + + + + + + + + Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + * * * * * रासबि+ + + + + + + + + + + + + ++++ अनुमानमपि यस्मात् तत्पूर्वकम् इति, तस्मान्न ग्राहकमधिकृतस्य-कल्प्यमानस्यार्थस्य, न चान्यत्तव मते किंचिदस्ति 'प्रत्यक्षमनुमान च प्रमाणे" इति वचनात् । तत एतत् पूर्वोक्तं कल्प्यमानमप्रमाणं कथं समीचीनं भवेत् ? नैव भवेदितिभावः। प्रमाणमन्तरेण प्रमेयव्यवस्थाया अयोगात्, अन्यथा सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसक्त्या अतिप्रसङ्गात् ॥७४१॥ - ગાથાર્થ – અનુમાન પણ પ્રત્યક્ષપૂર્વક હોવાથી અધિકૃત- તમે ઘેલા અર્થનું ગ્રાહક બનવા સમર્થ નથી. અને તમારા ' મતે પ્રત્યક્ષ અને અનુમાનને છોડી અન્ય કોઇ પ્રમાણ નથી. કહ્યું જ છે કે પ્રત્યક્ષ અને અનુમાન આ બે પ્રમાણ છે. તેથી તમારી પૂર્વોક્ત કલ્પના પ્રમાણહીન છે અને યોગ્ય નથી. કેમકે પ્રમાણ વિના પ્રમેયનો નિર્ણય- નિશ્ચય થઈ શકતો નથી. નહીંતર તો બધાના બધા જ ઈષ્ટ સિદ્ધાંતો સિદ્ધ થવાના અતિપ્રસંગરૂપ આપત્તિ આવશે. પ૭૪૧ उपसंहारमाह - ઉપસંહાર કરતાં કહે છે - बज्झत्थाभावातो भत्ती एसा इमो तु देहोत्ति । विनाणमेत्तमेव उ परमत्थु (थो) विहाडिओ एवं ॥७४२॥ (बाह्यार्थाभावाद् भक्तिरेषा अयं तु देह इति । विज्ञानमात्रमेव तु परमार्थो विघटित एवम् ॥) . - यदुक्तम्-'विज्ञानमात्रमेव परमार्थो नतु बाह्योऽर्थः, ततस्तदभावादयं देह इति भक्तिरेषा-कल्पनामात्रमिदमिति', तत्र स विज्ञानमात्रलक्षणः परमार्थः ‘एवं' प्रदर्शितेन न्यायेन विघटितः, तस्मादस्ति बाह्यो देहस्तद्भावे च तदनुग्रहोपघातनिमित्ततया आत्मनः सुखदुःखान्यथानुपपत्त्या तेन मूर्तिमताऽपि सह संयोगोऽभ्युपगन्तव्यः, तथा च सति कर्मणापि मर्तिमता सह भविष्यतीति सिद्धं नः कर्म मूर्तिमत् ॥७४२॥ ગાથાર્થ:- ઉપરોક્ત ચર્ચાથી એવી તારવણી નીકળે છે કે વિજ્ઞાનવાદીઓનું વિજ્ઞાનમાત્ર જ પરમાર્થ છે નહીં કે બાલાર્થ, તેથી બાલાર્થના અભાવમાં “આ શરીર છે” ઈત્યાદિવાતો માત્ર કલ્પના જ છે” (ગા. ૬૩૬) આવું વચન અને વિજ્ઞાનમાત્રની પરમાર્થતા આ બન્ને વિઘટિત થાય છે. અને “બાહ્યદેહ સત છે તેમ સિદ્ધ થાય છે. આ બાહ્યદેહ હેવાથી જ તેના અનુગ્રહ અને ઉપઘાતના નિમિત્તતરીકે (અથવા નિમિત્તથી થતાં) આત્મગત કમશ: સુખ અને દુઃખની અન્યથાઅસિદ્ધિની આપત્તિ હેવાથી આત્માનો મૂર્તિમાન્ દેહસાથે સંયોગ સ્વીકારવો જ રહ્યો. આમ અમૂર્તનો મૂર્ત સાથે સંયોગ સિદ્ધ થવાથી આત્માનો મૂર્તિ કર્મ સાથે સંયોગ પણ સિદ્ધ થાય છે. તેથી કર્મને મૂર્ત સ્વીકારવામાં દોષ નથી. તેથી જ મૂર્ત કર્મ છે તેવો અમારો સિદ્ધાન્ત સિદ્ધ થાય છે. ૭૪રા एतदेवोपसंहरन्नाह -. આ જ મુદ્દાનો ઉપસંહાર કરતા કહે છે तम्हा मुत्तं कम्मं सिद्धमिदं जुत्तिओ इहं ताव । - परमत्थपेच्छगेहिं जिणवयणाओ य विन्नेयं ॥७४३॥ (तस्मान्मूर्तं कर्म सिद्धमिदं युक्तित इह तावत् । परमार्थप्रेक्षकै र्जिनवचनतश्च विज्ञेयम् ॥ यत एवं तस्मादिदं कर्म तावन्मूर्त-मूर्तिमत् सिद्धं-प्रतिष्ठामुपगतं युक्तितोऽनन्तराभिहितायाः सकाशात् । परमार्थप्रेक्षकैः पुनर्जिनवचनत एव, चोऽवधारणे, परमार्थतो विज्ञेयम् । अर्वाग्दर्शिनः केवलज्ञानावसेयभावस्वभावसम्यक्परिज्ञानाभावात्, "नो केवलिए भावे जं छउमत्थो मुणइ सम्ममिति" (छा. नो कैवलिकान् भावान् यत् छद्मस्थो जानाति सम्यगिति) पूर्वसूरिवचनात् ॥७४३॥ ગાથાર્થ:- આમ લેવાથી પૂર્વોક્ત યુક્તિદ્વારા કર્મ મૂર્તિ તરીકે પ્રતિષ્ઠા પામે છે. બાકી પરમાર્થપેલી પુરુષો તો જિનવચનના આધારે જ કર્મને મૂર્ત તરીકે પરમાર્થથી સ્વીકારે છે. કેમકે છદ્મસ્થ જીવો કેવળજ્ઞાનના પ્રકાશથી જ જાણી શકાતા ભાવોને સ્વયં જાણી શકતા નથી, કેમકે પૂર્વાચાર્યનું વચન છે કે કેવળીગમ્ય ભાવો છદ્મસ્થ જાણી શકતા નથી. તેથી ડાહ્યા માણસો જિનેશ્વરના વચનને જ આધાર માને છે. ઘ૭૪૩ ++++++++++++++++ Ge-int - 91 +++++++++++++++ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ोनीवति++++++++++++++++++ કર્મોની સ્થિતિ एतस्स एगपरिणामसंचियस्स तु ठिती समक्खाया । .. उक्कोसेतरभेदा तमहं वोच्छं समासेणं ॥७४४॥ (एतस्य एकपरिणामसंचितस्य तु स्थितिः समाख्याता । उत्कृष्टेतरभेदात् तामहं वक्ष्ये समासेन ॥) - एतस्य-अनन्तरोदितस्य कर्मण एक परिणामसंचितस्य, तुर्विशेषणे, स च प्रायः क्लिष्टै कपरिणामसंचितस्येति विशेषयति, स्थितिः-सांसारिकशुभाशुभफलदातृत्वेनावस्थितिस्त्कृष्टेतरभेदभिन्ना, उत्कृष्टा जघन्या चेत्यर्थः, समख्याता तीर्थकरगणधरैः, तामहं समासेन-संक्षेपेण, न तत्तरप्रकृतिभेदस्थितिप्रतिभेदस्थितिप्रतिपादनप्रसङ्गेन वक्ष्ये-अभिधास्ये ७४४॥ ગાથાર્થ:- આત્મામાં ઊભા થયેલા એકપરિણામથી સંચિત (અહીં “તુ'પદ વિશેષણસૂચક છે, તેથી ‘પ્રાય: કિલષ્ટ એકપરિણામથી સંચિત' એવો વિશેષ ધ્વનિ પ્રગટે છે.) પૂર્વોક્ત કર્મની ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્ય સ્થિતિ તીર્થકરો અને ગણધરોએ જે બતાવી છે, તે હું સંક્ષેપથી કહીશ. સ્થિતિ–સાંસારિક શુભ/અશુભ ફળ દેવા માટેનો કાળ. આ સ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્ય એમ બે ભેદવાળી છે. અહીં સંક્ષેપથી' એમ કહીને નિર્દેશ કર્યો કે દરેક કર્મની ઉત્તરપ્રવૃત્તિઓને આશ્રયી સ્થિતિ તેમ જ તેઓના પેટા ભેદને આશ્રયી સ્થિતિનું કથન કરવામાં નહીં આવે. પ૭૪૪ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति - કર્મસ્થિતિના કથનની કરેલી પ્રતિજ્ઞાન નિર્વાહ (પાલન) કરતા કહે છે. ' आदिल्लाणं तिण्हं चरिमस्स य तीस कोडिकोडीओ। अतराण मोहणिज्जस्स सत्तरी होंति विनेया ॥७४५॥ नामस्स य गोत्तस्स य वीसं उक्कोसिया ठिती भणिया । तेतीस सागराइं परमा आउस्स बोद्धव्वा ॥७४६॥ (आद्यानां त्रयाणां चरमस्य च त्रिंशत् कोटीकोट्यः । अतराणां मोहनीयस्य सप्ततिः भवन्ति विज्ञेया ॥ . नानश्च गोत्रस्य च विंशतिस्त्कृष्टा स्थितिः भणिता । त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि परमा आयुषो बोद्धव्या |) आद्यानां त्रयाणां-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाना चरमस्य च-उक्तक्रमप्रामाण्यानुसरणादन्तरायस्य च अतराणां सागरोपमाणां त्रिंशत् कोटीकोटयः स्थितिः, मोहनीयस्य च सप्ततिः कोटीकोटयो भवन्ति विज्ञेयाः । नाम्नश्च गोत्रस्य च विंशतिरतराणां कोटीकोट्य उत्कष्टा-सर्वोत्तमा स्थितिर्भणिता, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परमा-उत्कृष्टा स्थितिरायुषो बोद्धव्या ॥७४६॥ ગાથાર્થ:- આત્રણ-જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, વેદનીય અને અંતિમ-કહેલા ક્રમના પ્રમાણથી અંતિમ-અંતરાય આ ચાર કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૩૦ કોડાકોડી સાગરોપમ છે. મોહનીયની ૭૦ કોડાકોડી સાગરોપમ અને નામ તથા ગોત્રની ૨૦ કોડાકોડી સાગરોપમ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે. આયુષ્યની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૩૩ સાગરોપમ છે. ૭૪૬ अधुना जघन्यां स्थितिमाह - वे धन्य स्थिति मा छ- - वेदणियस्स उ बारस नामगोयाण अट्ठ तु मुहुत्ता । सेसाण जहन्नठिती भिन्नमुहत्तं विणिद्दिट्ठा ॥७४७॥ (वेदनीयस्य तु द्वादश नामगोत्रयोरष्टौ तु मुहूर्ताः । शेषाणां जघन्यस्थितिः भिन्नमुहूर्तं विनिर्दिष्टा ) वेदनीयस्य मुहूर्ता द्वादश, नामगोत्रयोः पुनरष्टौ जघन्या स्थितिः, शेषाणां ज्ञानावरणीयादीनां जघन्या स्थितिर्भिन्नमहतम-अन्तर्महत्तं विनिर्दिष्टा ७४७॥ ગાથાર્થ:-વેદનીયની ૧૨ મહુર્ત, નામ-ગોત્રની આઠ મુહૂર્ત અને બાકીના કર્મોની અંતર્મુહૂર્ત જઘન્યસ્થિતિ બતાવી छ. ॥१४॥ ભાવધર્મનું સ્વરૂપ અને પ્રાપ્તિ उपसंहारमाह - ++++++++++++++++ livele-MIN 2 - 92++++ + + + + + + + + + + + Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + ++ ++ ला ++++++++++++++++++ जीवस्स कम्मजोगो इति एसो दंसिओ समासेणं । एत्तो पुव्वुद्दिटुं वोच्छामि अहक्कम धम्मं ॥७४८॥ (जीवस्य कर्मयोग इति एष दर्शितः समासेन । इतः पूर्वमुद्दिष्टं वक्ष्ये यथाक्रमं धर्मम् ॥ इतिः-एवमुपदर्शितेन प्रकारेण जीवस्य कर्मयोगो दर्शितः समासेन-संक्षेपेण न तु सकलोत्तरभेदस्वरूपादिप्रदर्शनेन। इतः- ऊर्ध्वं 'जीवाण भावधम्मो' इत्यादिना ग्रन्थेन पूर्वमुद्दिष्टं धर्म यथाक्रममहं वक्ष्यामि ॥७४८॥ ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્ત પ્રકારે સંક્ષેપથી જીવનો કર્મયોગ બતાવ્યો. (બધા ઉત્તરભેદસ્વરૂપ બતાવ્યા નથી, તેથી સંક્ષેપથી કહ્યું) હવે, જીવોનો ભાવધર્મ....' ( ગા. ૩૩) ઈત્યાદિ પંક્તિથી પૂર્વે જે ધર્મનો નિર્દેશ કર્યો હતો. તે ધર્મનો હવે યથાક્રમ નિર્દેશ કરશું ૭૪૮ तत्र स्वरूपं तावत्तस्यैवोपदर्शयन्नाह - તેમાં સૌ પ્રથમ ધર્મનું જ સ્વરૂપે વર્ણવતા કહે છે. सम्मत्तनाणचरणा मोक्खपहो वन्निओ जिणिंदेहिं । सो चेव भावधम्मो बुद्धिमता होति नायव्वो ॥७४९॥ ' (सम्यक्त्वज्ञानचरणानि मोक्षपथो वर्णितो जिनेन्द्रैः । स एव भावधर्मो बुद्धिमता भवति ज्ञातव्यः ॥) - . यतः सम्यक्त्वज्ञानचरणानि जिनेन्द्रैर्मोक्षपथो वर्णितस्ततः स एव बुद्धिमता भावधर्मो भवति ज्ञातव्यः । तस्यैव शिवगतिधारणादिलक्षणान्वर्थयुक्तत्वात् ॥७४९॥ ગાથાર્થ:- જિનેન્દ્રોએ સમ્યકત્વ, જ્ઞાન અને ચારિત્રના સમુદાયને મોક્ષમાર્ગ તરીકે બતાવ્યો છે. તેથી તેને જ (એ સમુદાય) મોક્ષગતિમાં ધારી રાખવા(સ્થિર રાખવા) આદિરૂપ ધર્મ શબ્દના અન્વર્થથી યુક્ત હોઈ બુદ્ધિમાનોએ ધર્મરૂપ સમજવો. ૭૪લા संपत्ती य इमस्सा कम्मखयोवसमभावजोगातो । जह जायइ जीवस्सा वुच्छामि तहा समासेणं ॥७५०॥ (संप्राप्तिश्चास्य कर्मक्षयोपशमभावयोगतः। यथा जायते जीवस्य वक्ष्यामि तथा समासेन ॥) संप्राप्तिश्चास्य-भावधर्मस्य यथा-येन प्रकारेण कर्मक्षयोपशमभावयोगतो जायते जीवस्य तथा अहं वक्ष्यामि समासेन-संक्षेपेण, संक्षिप्तसंचसत्त्वानुग्रहफलत्वादस्य प्रयासस्य ॥७५०॥ ગાથાર્થ:- આ ભાવધર્મની પ્રાપ્તિ જીવને કર્મના લયોપશમરૂપ ભાવના કારણે જે પ્રકારે થાય છે તે અમે સંક્ષેપથી કહીશું, કારણ કે અમારો આ પ્રયત્ન ખાસ કરીને સંક્ષિપ્તચિવાળા જીવોપર અનુગ્રહના ઉદ્દેશથી યુક્ત છે. u૭૫ના प्रतिज्ञातमेवाह - હવે આ પ્રતિજ્ઞાનો નિર્વાહ કરતા કહે છે. वन्नियकम्मस्स जया घसणघोलणनिमित्ततो कहवि । खविता कोडाकोडी सव्वा एक्वं पमोत्तूणं ॥७५१॥ (वर्णितकर्मणो यदा घर्षणघूर्णननिमित्ततः कथमपि । क्षपिताः कोटीकोट्यः सर्वा एका प्रमुच्य ) वर्णितकर्मणः-प्रागभिहितस्थितिकस्य कर्मणः यदा घर्षणघूर्णननिमित्ततो नानायोनिषु विचित्रसुखदुःखानुभवनेनेतियावत् कथमपि-केनचिदनिर्देश्यस्वरूपेण प्रकारेण क्षपिताः-प्रलयं नीता भवन्ति कोटीकोटयः सर्वा अपि ज्ञानावरणीयादिसंबन्धिन्यः । किं सामस्त्येन? नेत्याह-एकां सागरोपमकोटीकोटी प्रमुच्य ॥७५१॥ ગાથાર્થ:- જીવ અનેકયોનિઓમાં ભમતાં ભમતા વિચિત્ર સુખ-દુ:ખના અનુભવદ્વારા ઉદયમાં આવેલા કર્મોને ખપાવે છે. આમ ઇચ્છા વિના પણ-અકામનિર્જરાથી ઘર્ષણધૂર્ણનન્યાયથી નદીમાં રહેલા પથ્થરોને ગોળ થવાનો કોઈ આશય નથી, છતાં પરસ્પર અથડાતા કૂટાતા સમય પસાર થયે સહજ ગોળાકારરૂપ ધારણ કરે છે. તથા લાકડામાં રહેલી ઉધઈ લાકડાને એવી રીતે કોરી ખાઈ કે જેથી તેમાં ઉધઈના કોઈ તેવા ઇરાદા વિના જ “અ” વગેરે વર્ણાક્ષરો ઉપસી આવે. આ બે દષ્ટાન્તને આશ્રયી ઘર્ષણવૃર્ણનન્યાય છે.) જીવ પૂર્વે બતાવેલી સ્થિતિવાળા જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મની કોક અનિવાર્ચનીયસ્વરૂપે (કે અનિયત સ્વરૂપે) સ્થિતિદ્દાસ કરે છે, અને એક કોટાકોટી સાગરોપમ જેટલી સ્થિતિને છોડી ઉપરની તમામ કોટાકોટી સાગરોપમ જેટલી સ્થિતિનો ક્ષય કરે છે. ૭૫૧ ++++++++++++++++ A-लास -93 +++++++++++++++ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************* ******न्यिश ** * * * * * * * * ++ + + ++ ++. વર્થિસ્વરૂપ-ભેદ तीयवि य थेवमेत्ते खविए तहिमंतरम्मि जीवस्स । भवति हु अभिन्नपुव्वो गंठी एवं जिणा बेंति ॥७५२॥ (तस्या अपि च स्तोकमात्रे क्षपिते तस्मिन्नन्तरे जीवस्य । भवति हु अभिन्नपूर्वो ग्रन्थिरेवं जिना ब्रुवन्ति ॥ तस्या अपि चैकस्याः सागरोपमकोटीकोट्याः स्तोकमात्रे-पल्योपमासंख्येयभागलक्षणे क्षपिते सति तस्मिन्नन्तरे जीवस्याभिन्नपूर्व एव, हरवधारणे भिन्नक्रमश्च, ग्रन्थिरिव ग्रन्थिरेवं तीर्थकरगणधराः प्रतिपादयन्ति ॥७५२॥ ગાથાર્થ:- આ એક કોટાકોટી સાગરોપમની પણ પલ્યોપમના અસંખ્ય ભાગ જેટલી સ્થિતિનો ક્ષય થાય, તે વખતે જીવે પૂર્વે કયારેય નહીં ભેદેલી ગ્રન્થિગાંઠ આવે છે. તેમ તીર્થકર ગણધરો પ્રતિપાદન કરે છે. (મૂળમાં ‘હુ પદ જકારઅર્થક છે અને અભિન્નપૂર્વ સાથે સંલગ્ન છે.) ૭૫રા तस्यैव ग्रन्थे: स्वरूपमाह - હવે તે ગ્રન્થિનું સ્વરૂપ બતાવે છે गंठित्ति सुदुब्भेदो कक्खडघणरूढगूढगंठिव्व । जीवस्स कम्मजणितो घणरागदोसपरिणामो ॥७५३॥ (ग्रन्थिरिति सुदुर्भेदः कर्कशघनरूढग्रन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः ॥ ग्रन्थिरिति ज्ञातव्यं जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः, किंविशिष्ट इत्याह-सुदुर्भेदः सुदुस्द्वेष्टनः, किंवदित्याह'कर्कशघनरूढगूढग्रन्थिवत्' कर्कशः-अतिनिबिडः-परुषपलाशमूलवल्कलप्रतिबद्धत्वात्, स च शिथिलोऽपि भवतीति विशेषयति-घन :-सर्वतो निबिडः आकृष्याकृष्य परिपीडित इत्यर्थः, स चार्द्रः सन् कथंचित् सूद्वेष्टनोऽपि स्यादत आहरूढः-शुष्कः, असावपि अयःशलाकादिभिस्द्वेष्टयितुं शक्यतेति विशेषयति- गूढः-अनेकशस्तत्रैवानुविद्धव्याविद्ध इति ॥७५३॥ ગાથાર્થ:- જીવનો કર્યજનિત જે ગાઢ રાગદ્વેષનો પરિણામ છે, તે ગ્રન્થિ સમજવી. આ ગ્રન્થિ કેવી છે? તે બતાવે છેસુદુર્ભેદ–જેને ખોલવી-ઉખેડવી અતિ કઠીણ પડે તેવી. કોની જેમ સુદુર્ભેદ? તે કહે છે કર્કશાનરૂઢગૂઢ ગ્રન્થિની જેમ. કઠોર પલાશના મૂળની છાલથી પ્રતિબદ્ધ હોવાથી કર્કશ. એ કદાચ ઢીલી પણ હોય, તેથી વિશેષતા બતાવે છે ઘન-ચારે બાજુથી ખેંચી ખેંચીને અતિ ટાઇટ કરેલી..એ પણ કદાચ આÁ થવાથી જલ્દી ખુલી જાય... તેથી કહે છે - 8 શુષ્ક... એ પણ કદાચ લોખંડના ખીલાવગેરેથી ખુલી જાય, તેથી વધુ વિશેષતા બતાવે છે ગૂઢ- ત્યાં જ વારંવાર આરપાર પરોવાયેલી... આવી ગ્રન્થિ જેવી જીવને ગાઢ રાગદ્વેષના પરિણામરૂપ ગ્રન્થિ છે. ૭૫૩ भिन्नम्मि तम्मि लाभो जायइ परमपयहेतुणो नियमा । सम्मत्तस्स पुणो तं बंधेण न वोलइ कयाइ ॥७५४॥ (भिन्ने तस्मिन् लाभो जायते परमपदहेतो नियमात् । सम्यक्त्वस्य पुनस्तं न बन्धेन व्यवलीयते कदाचित् ॥ भिन्ने-अपूर्वकरणेन विदारिते सति तस्मिन्-ग्रन्थौ लाभ:-प्राप्तिः परमपदहेतोः-मोक्षकारणस्य सम्यक्त्वस्य नियमाद-अवश्यतया जायते. तल्लाभसमये च सर्वथा प्रागननभतोऽतीवानन्दविशेषो जीवस्य जायते । यथाह: समयविदः-"तथा च भिन्ने दर्भेदे, कर्मग्रन्यौ महाबले । तीक्ष्णेन भाववजेण, तीव्रसंक्लेशकारिणि ॥१॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सद्व्याध्यपगमे यद्व्याधितस्य सदौषधात् ॥२॥" इति, अवाप्तसम्यग्दर्शनश्चासौ न पनरपि तं-ग्रन्थिं बन्धेन व्यवलीयते-अतिक्रामति, तथारूपपरिणामाभावात्, कदाचिदपि नैवासावुत्कृष्टस्थितीनि कर्माणि बध्नातीतियावत्, तदुक्तम्-"सम्यग्दृष्टेरधोऽ[हीन? पतितस्याप्य] बन्धो, ग्रन्थिमुल्लङ्घ्य देशितः । एवं सामान्यतो ज्ञेयः, परिणामोऽस्य शोभनः ॥१॥ मिथ्यादृष्टेरपि सतो, महाबन्धविशेषतः । सागरोपमकोटीनां, कोटयो मोहस्य सप्ततिः ॥२॥ अभिन्नग्रन्थिबन्धोऽयं नत्वेकापीतरस्य तु" इति ७५४॥ ગાથાર્થ:- અપૂર્વકરણરૂપ કુહાડીથી આ ગ્રન્થિને ચીરી નાખ્યા પછી મોક્ષમાં કારણભૂત સમ્યકત્વનો અવશ્ય લાભ થાય છે. સમ્યકત્વના આ પ્રથમ લાભ વખતે જીવને પૂર્વે નીં અનુભવેલો-અકય અત્યન્ત આનંદનો અનુભવ થાય છે. શાસ્ત્રજ્ઞો કહે છે - “દુભેદ, મહાબળવાળી અને તીવ્રસેકશ કરનારી એવી કર્મગ્રન્થિ તીક્ષ્ણ ભાવવધૂથી ભેદાયે છતે રોગીને સારા ++++++++++++++++ संजलि-ला12 - 94+++++++++++++++ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અગન્ધિદેશ જ ન ન મ ઔષધથી રોગ દૂર થાય ત્યારે જેમ આનંદ થાય તેમ આ મહાત્માને અત્યન્ત તાત્વિક આનંદ થાયછે.” રા. એકવાર સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત કર્યા પછી આ જીવ ફરીથી બન્ધ(=કર્મબન્ધ) દ્વારા આ ગ્રન્થિને ઓળગતો નથી; અર્થાત્ આ જીવ પછી કચારેય ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિવાળા કર્મો બાંધતો નથી. કેમકે તેવા પ્રકારનો તીવ્રપરિણામ આવતો નથી. કહ્યું છે કે ‘સમ્યગ્દષ્ટિને ગ્રન્થિ ઓળંગીને અધ=નીચે (=ઉપરની સ્થિતિનો) બંધ નથી. (અર્થાત્ અંત:કોડાકોડી સાગરોપમને ઓળંગી જાય તેવો ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિવાળો બંધ નથી) આમ સામાન્યત: એને (=સમ્યગ્દષ્ટિને) સારો પરિણામ જ હોય છે.' મિથ્યાષ્ટિને પણ મહાબન્ધના વિશેષથી મોહનીયકર્મની જે ૭૦ કોડાકોડી સાગરોપમ જેટલી બન્ધસ્થિતિ કહી છે, તે અભિનગ્રન્થિને (=જેને કચારેય ગ્રંથિભેદ કર્યો નથી તેને) અપેક્ષીને જ છે. ભિન્નગ્રંથિ(-ગ્રંથિભેદ કરનાર) ને તો એક કોડાકોડી સાગરોપમ જેટલો પણ બંધ થતો નથી. (અર્થાત્ એકવાર ગ્રન્થિભેદ્વારા સમ્યક્ત્વ પામ્યા પછી ફરી મિથ્યાત્વ પામેલો જીવ પણ કદી અંત:કોડાકોડી સાગરોપમથી વધુ કર્મ બાંધે નહીં આવો આશય છે.) ૫૭૫૪ા अत्र पर आह ગુણાપેક્ષ બંધ-નિર્જરાની ન્યૂનાધિક્તા-મિથ્યાત્વી નિર્ગુણ અહીં કો'ક પૂર્વપક્ષ સ્થાપે છે तंजाविह संपत्ती ण जुज्जई तस्स निग्गुणत्तणओ । बहुतरबंधातो खलु सुत्तविरोधा जओ भणियं ॥७५५॥ (तं यावदिह संप्राप्तिर्न युज्यते तस्य निर्गुणत्वात् । बहुतरबन्धात् खलु सूत्रविरोधाद्यतो भणितम् ॥) तं-ग्रन्थिं यावदिह-विचारप्रक्रमे तस्य संप्राप्तिर्न युज्यते, निर्गुणत्वात् सम्यक्त्वादिगुणरहितत्वात् । यदि निर्गुणत्वं ततः किमित्याह – ‘बहुतरबंधाओ खलुत्ति' खलुशब्दोऽवधारणे - निर्गुणस्य सतो बहुतरबन्धादेव । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमन्यथा सूत्रविरोधात्, यतो भणितं सूत्रे ॥७५५ ॥ ગાથાર્થ:- પ્રસ્તુત વિચારમા જીવને ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ થવી યોગ્ય નથી. કેમકે એ જીવ અનાદિમિથ્યાત્વી બ્રેઇ સમ્યક્ત્વઆદિ ગુણોથી રહિત છે. અને નિર્ગુણ હોવાથી જ બહુતરકર્મનો બંધ કરે છે.(ગ્રન્થિપ્રદેશ અત:કોડાકોડી સાગરોપમ સ્થળે છે, જયારે નિર્ગુણ જીવ તો ધણા કોડાકોડી સાગરોપમની સ્થિતિ બાંધે, તેથી તેનો તેના પરિણામનો ગ્રન્થિપ્રદેશપર આવવાનો સંભવ નથી.) આ વિચાર આ પ્રમાણે જ સ્વીકર્તવ્ય છે. અન્યથા સૂત્રસાથે વિરોધ આવશે. કેમકે સૂત્રમાં કહ્યું છે કે- ૫૭૫મા पल्ले महइमहल्ले कुंभं पविखवइ सोधए नालिं । अस्संजए अविरए बहु बंधइ निज्जरे थोवं ॥७५६॥ (पल्ये अतिशयमहति कुम्भं प्रक्षिपति शोधयति नालिम् । असंयतोऽविरतो बहुबध्नाति निर्जरयति स्तोकम् II) पल्यवत् पल्यः तस्मिन् ‘महइमहल्लेत्ति' अतिशय (येन पा.) महति कुम्भं देशविशेषप्रसिद्धं प्रक्षिपति धान्यस्येति गम्यते, शोधयति-ततः समाकर्षति नालिं- सेतिकाम्, एष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयः - असंयतः - सकलसम्यक्त्वादिगुणलाभेष्वसंयतत्वादप्रयतत्वान्मिथ्यादृष्टिः अविरतः - काकमांसादेरप्यनिवृत्तः बहु बध्नाति कर्म्म निर्जरयति स्तोकं, गुणनिबन्धना हि વિશિષ્ટા નિષ્નરતિકૃત્વા I૭૬ || ગાથાર્થ:- પલ્ય (માપવિશેષ) જેટલું ધાન્યવગેરે જેમા માઇ શકે તે પલ્ય... એવા અતિમોટા પલ્ય (કોઠી?) માં કુંભ= ધડા જેટલું (=દેશવિશેષપ્રસિદ્ધ માપ) ધાન્ય નાખે છે અને સેતિકા (નાનું માપવિશેષ) જેટલું કાઢે છે. આ દૃષ્ટાન્તનો ઉપનય બતાવે છે. સમ્યક્ત્વવગેરે ગુણોના લાભના વિષયમાં અસંયત હોવાથી મિથ્યાત્વી, અને કાગડાના માંસાદિઅંગે પણ ત્યાગની પ્રતિજ્ઞા વિનાનો હોવાથી અવિરત. આવો અવિરત મિથ્યાત્વી ઉપરોક્ત દૃષ્ટાન્તની જેમ બહુ મોટા પ્રમાણમાં કર્મબન્ધ કરે છે અને ખુબ જ ઓછા પ્રમાણમાં કર્મનિર્જરા કરે છે કેમકે વિશિષ્ટ નિર્જરા ગુણના આધારે થાય છે. ૫૭૫૬ા पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोधेइ पक्खिवे नालिं । जे संजये पत्ते बहु निज्जरे बंधई थोवं ॥७५७॥ (पल्ये महातिमहति (अतिमहति) कुम्भं शोधयति प्रक्षिपति नालीम् । य संयतः प्रमत्तः बहु निर्जरयति बध्नाति स्तोकम् ॥) पल्ये अतिशयमहति कुम्भं शोधयति प्रक्षिपति नालीं, एष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयः - यः संयतः - सम्यग्दृष्टिः પ્રમત્તઃ−ષપ્રમાવવાન, પ્રમત્તસંપત શ્વેત્યન્ગે, વદુ નિર્ણયતિ, વાતિ સ્તો સમુળત્વાત્ I૭૧૭|| ++++++++++ * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 95 * * * * Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ +++ +++++++++++ बिहेश+++++++++++++++++++ ગાથાર્થ:- અતિમોટા પલ્પમાંથી ઘડા જેટલું કાઢે છે, અને નાલી જેટલું નાખે છે. આ દેષ્ટાન્તનો ઉપાય આ છે - જે કાંક પ્રમાદવાળો સમદૃષ્ટિ છે. અન્યમને જે પ્રમત્ત સાધુ છે; તે ઘણા કર્મોની નિર્જરા કરે છે, અને અલ્પ કર્મ બાંધે છે, કેમકે તે ગુણવાન છે. ૭૫ पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवे ण किंचि । जे संजए अपमत्ते बहु निज्जरे बंधति न किंचि ॥७५८॥ (पल्येऽतिशयमहति (महातिमहति) कुंभं शोधयति प्रक्षिपति न किंचित् । यः संयतोऽप्रमत्तो बह निर्जरयति बध्नाति न किञ्चित् ॥ पल्येऽतिशयमहति कुम्भं शोधयति प्रक्षिपति न किंचित्, एष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयः-संयतोऽप्रमत्तःसर्वथाप्रमादरहितः साधुरित्यर्थः बहु निर्जरयति बध्नाति न किंचित, विशिष्टतरगुणोपेतत्वेन बन्धकारणाभावात् ७५८॥ ગાથાર્થ:-અતિમોટા પલ્યમાંથી ઘડા જેટલું કાઢે છે, અને કશું નાખતો નથી. આ દષ્ટાન્તનો ઉપનય આ છે–અપ્રમત્તસંયત અર્થાત સર્વથા પ્રમાદરહિત સાધુ ઘણી નિર્જરા કરે છે અને અલ્પ પણ કર્મબંધ કરતો નથી. કારણ કે આ સાધુ વિશિષ્ટતર ગુણયુક્ત હોવાથી તેને બંધના કારણનો અભાવ છે. આ વિસ્તૃતપૂર્વપક્ષદ્વારા એ સિદ્ધ કરવાનો આશય છે કે અનાદિમિથ્યાત્વી જીવ નિર્ગુણ હોઈ તેને ઘણા મોટા પ્રમાણમાં કર્મબંધ થાય છે જયારે નિર્જરા નજીવી થાય છે, તેથી તે કયારેય ગ્રંથિપ્રદેશ પર આવી શકે નહીં) ૭૫ટા घालावी. आपत्तिथी •ueय...' सूत्र आधि गुरुराहઅહીં ગુરુ જવાબ આપે છે एयमिह ओघविसयं भणियं सव्वे ण एवमेवत्ति । अस्संजतो उ एवं पडुच्च उस्सन्नभावं तु ॥७५९॥ (एतदिह ओघविषयं भणितं सर्वे न एवमेवेति । असंयतस्तु एवं प्रतीत्योत्सन्न (बाहुल्य) भावं तु ॥) इह-अस्मिन् विचारप्रक्रमे यदेतत् 'पल्ले महइमहल्ले' इत्यादिसूत्रं तत् ओघविषयं भणितं द्रष्टव्यं, न पुनः सर्वेऽप्येवमेव बध्नन्ति । अस्यैव विषयमुपदर्शयति- 'अस्संजओ उ' इत्यादि । तुरवधारणे । असंयत एव-मिथ्यादृष्टिरेव कोऽप्येवं-यथोक्तेन प्रकारेण कर्म बध्नाति, न तु सर्वेऽप्येवं नियोगतः ॥७५९॥ ગાથાર્થ:- પ્રસ્તુત વિચારમાં “અતિમોટા પલ્યમાં ઇત્યાદિ જે સૂત્ર છે, તે માત્ર સામાન્યવિષયક છે નિયમરૂપ નહીં, તેથી બધા જ એમ બંધ કરતા નથી. આ જ વિષયનું ઉપદર્શન કરે છે. “અસંયત તુ' ઇત્યાદિ. ‘તુ' જકારઅર્થક છે. કોક મિથ્યાદેષ્ટિ જ પૂર્વોક્તરીતે કર્મ બાંધે છે, અને આ મિથ્યાત્વી પણ બહુલતાથી જ-બહુલતાભાવને આશ્રયી કર્મ બાંધે છે, નહીં કે બધા અવશ્યમેવ જ બાંધે તાત્પર્ય:- આવો કર્મબંધ કયારેક કો'ક મિથ્યાત્વી અને કયારેક કોક મધ્યાત્વી કરે, પણ બધા જ મિથ્યાત્વીઓ હમેશા કરે તેવો નિયમ નહીં, અને સમ્યકત્વીઓ તો ક્યારેય કરે જ નહીં.) u૭૫લા तथानियोगे दोषमाहબધા જ મિથ્યાષ્ટિઓ આમ સતત ઉત્કૃષ્ટ કર્મબંધ કર્યા કરે તો દોષ આવતો બતાવે છે. पावइ बंधाभावो उ अन्नहा पोग्गलाणऽभावातो । इय वुड्गिहणतो ते सव्वे जीवेहिं जुज्जन्ति ॥७६०॥ - (प्राप्नोति बन्धाभावस्तु अन्यथा पुद्गलानामभावात् । इति वृद्धिग्रहणतस्ते सर्वे जीवैर्युज्यन्ते । . अन्यथा-एवमनभ्युपगमे सर्वे असंयता एवमेव बजन्तीत्यभ्युपगमे इतियावत प्राप्नोति संसारिजीवानां कर्मबन्धाभावः। कुत इत्याह- पुद्गलानामभावात्-बन्द्धव्यकर्मपुद्गलानामभावात् । एषामभावे उपपत्तिमाह-'इय इत्यादि' इतिः-एवं निर्जरामपेक्ष्य अनन्तगुणस्पत ग्रहणतो-वृद्धिग्रहणेन ते बध्यमानाः कर्मपुद्गलाः कालान्तरे सर्वेऽपि जीवैयुज्यन्तेसंबध्यन्ते, प्रभूततरस्य ग्रहणादल्पतरस्य च मोक्षणात्, यथा-सहसं प्रतिदिवसं पञ्चरूपकग्रहणे एकरूपमोक्षे च दिवसत्रयमध्य एव पुरुषशतेन सर्वमुपयुज्यते इति ॥७६०॥ ગાથાર્થ:- જો અમે ઉપર બતાવેલો વિવેક સ્વીકારશો નહીં, અર્થાત્ જો બધા જ અસંયતો સતત કુંભષ્ટાન્તથી કર્મ બાંધતા હોય, તેમ સ્વીકારશો તો એક વખત એવો આવે કે તમામ સંસારીજીવોને કર્મબન્ધનો અભાવ આવી જાય. આ ++++++++++++++++ ल-ला -96 +++++++++++++++ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : - * * * * * * * * * * * * * * * વિદેશ * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મબન્ધાભાવમાં તર્ક આ છે.નિર્જરાની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિગ્રહણથી બંધાતા કર્મો અનન્તગુણ લેવાથી એક સમય એવો આવે કે દુનિયાભરમાં રહેલા બધા જ કર્મયુગલો જીવો સાથે બંધાઈ ગયા હોય, કારણ કે ઘણા મોટા પ્રમાણમાં ગ્રહણ છે અને અતિઅલ્પ પ્રમાણમાં છોડવાનું છે. જેમકે ૧૦૦૦ રૂ. માંથી રોજ સો પુરુષો પાંચ રૂ. લે, અને એક રૂ. છોડે, તો ત્રણ દિવસની અંદર જ બધા વપરાઈ જાય. ૭૬ના अत्र पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે. मोक्खोऽसंखेज्जातो कालाओ ते य जं जिएहितो । भणियाणंतगुणा खलु ण एस दोसो ततो जुत्तो ॥७६१॥ (मोक्षोऽसंख्येयात् कालात् ते च यद् जीवेभ्यः । भणितानंतगुणाः खलु न एष दोषस्ततो युक्तः ॥ मोक्षः-परिशाटः कर्मपुद्गलानामसंख्येयात्कालात् तत-ऊवं कर्मस्थितेः प्रतिषिद्धत्वात्, ते च परिशटिताः कर्मपरमाणवः सर्वेभ्योऽपि जीवेभ्योऽनन्तगुणा एव । खलुशब्दोऽवधारणे । तत एषः-अनन्तरोदितो दोषो बन्धाभावलक्षणो न युक्तः, सत्यपि कर्मपुद्गलानां प्रभूततराणां ग्रहणे अल्पतराणां च मोक्षे तेषामनन्तत्वात् स्तोककालादूर्दध्वं चावश्यं मोक्षात् तेषां च मुक्तानां सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणत्वात् । नहि शीर्षप्रहेलिकान्तस्य राशेः प्रतिदिवसं रूपकपञ्चकग्रहणे अल्पतरमोक्षे च सति वर्षशतेनापि पुरुषशतेन निःशेषतो योगो भवति, प्रभूतत्वाद्, एवमिहापीति ॥७६१॥ :- જીવસાથે બંધાયેલા કર્મપુદગળો અસંખ્યકાળે જીવથી છૂટા પડે છે. કેમકે એ પછી કર્મસ્થિતિનો નિષેધ કર્યો છે. (બંધાયેલા કર્મો વધુમાં વધુ ૭૦ કો.કો સાગરોપમ સુધી જ જીવ સાથે ચોંટેલા રહે) આ છૂટા પડેલા કર્મપરમાણુઓ બધા જીવોની સંખ્યાથી અનંતગુણ જ હોય છે. (“ખલ ૫દ જકારઅર્થક છે)તે છૂટા પડેલા કર્મો ફરીથી બંધમાટે ઉપયુક્ત થશે. તેથી પૂર્વોક્ત કર્મબન્ધાભાવનામનો દોષ બતાવવો યોગ્ય નથી. કર્મયુગલોનું ગ્રહણ અતિમોટાપ્રમાણમાં હોય, અને છોડવાનું અતિઅલ્પ પ્રમાણમાં હોય તો પણ કર્મો અનન્ત છે, અને થોડા કાળમાં અવશ્ય છૂટા થાય છે. અને છૂટા થયેલા કર્મો બધા જીવોથી છે, તેથી કોઈ દોષ નથી. શીર્ષપ્રહેલિકા (એક ઘણી મોટી સંખ્યા દર્શાવતું મા૫) જેટલી રાશિમાંથી સો પુરૂષો રોજ પાંચ રૂ. લે, અને એકાદ છોડે તો પણ સો વર્ષને અંતે પણ ખાલી ન થાય. કેમકે એ સંખ્યા ઘણી મોટી છે. તેમ અહીં પણ સમજવું. પ૭૬૧ મત્ર પુત્ર૬અહીં ગુરુ જવાબ આપે છે गहणमणंताण किं ण जायइ समएण? ता कहमदोसो । : મામસંસાર તણાતા હિતુ ll૭૬ ૨ા (ग्रहणमनन्तानां किं न जायते समयेन? ततः कथमदोषः । आगमसंसारान्न तथाऽनन्तानां ग्रहणं तु ॥) ग्रहणम्-आदानमनन्तानाम्-अत्यन्तप्रभूतानां पुद्गलानां समयेन-प्रतिसमयं किन्न जायते? जायत एवेति भावः । 'ता' ततः कथमदोषो? दोष एव, शीर्षप्रहेलिकान्तस्यापि राशेः प्रतिदिवसं रूपकशतसहसलक्षणमहाराशिग्रहणे अल्पतरमोक्षे च वर्षशतादारत एव पुरुषशतेन निःशेषीकरणोपपत्तेः। पर आह-'आगमेत्यादि' आगमात्संसाराच्च न तथा पुद्गलानामनन्तानां ग्रहणं यथाबन्द्धव्यकर्मपुद्गलानामभावतो बन्धाभावो भवति । तत्रागमस्तावत्-"जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ताव णं एस जीवे सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा" इत्यादि । संसारस्तु प्रतिसमयबन्धकसत्त्वसंसृतिरूपः प्रतीत एव ॥७६२॥ ગાથાર્થ:- જેમ પ્રતિસમય સર્વજીવથી અનન્તગુણ કર્મપુગળો છૂટા થાય છે, તેમ શું પ્રત્યેક સમયે અનન્તાનન કર્મ પુદગળો ગ્રહણ થતાં નથી? અર્થાત થાય જ છે. હકીકતમાં તો પૂર્વપક્ષના વિચાર મુજબ તો જેટલા છૂટે છે તેનાથી પણ ઘણા મોટા પ્રમાણમાં પ્રતિસમય ગ્રહણ થાય છે. કેમકે એકસમયે ગ્રહણ કરેલા કર્મો પ્રતિસમય છૂટતાં છૂટતાં અસંખ્યકાળ પૂરેપૂરા છૂટે છે. અને તે પ્રતિસમય છૂટતાં કર્મથી કંઇક ગણા વધુને વધુ કર્મ ગ્રહણ થતાં જાય છે.) તેથી પૂર્વપક્ષ ભલે કર્મ પુદગળો ખાલી થવાનો છેષ નથી એમ કહે, પણ એ દોષ ઊભો છે જ. કેમકે શીર્ષપ્રહેલિકા જેવડી મોટી રાશિ પણ રોજ સો માણસ એકલાખ રૂ ગ્રહણ કરે અને અત્યંત અલ્પ છોડે તો સો વર્ષ પહેલા જ ખાલી થઈ જાય. * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 97 * * * * * * * * * * * * * * Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જગન્ધિદેશ કે પૂર્વપક્ષ:- આગમથી અને સંસારથી અનન્ત પુદ્ગળોનુ ગ્રહણ સિદ્ધ નથી, જેથી બાંધવાયોગ્ય કર્મપુદ્ગળોના અભાવમા બન્ધાભાવ આવે. અહીં આગમાર્થ આ પ્રમાણે છે→ જયાં સુધી આ જીવ એજન કરે છે, વેપન (=કંપન) ક૨ે છે, ચાલે છે, સ્પંદન કરે છે, ધન ક૨ે છે, ક્ષોભ પામે છે, ઉદીરણા કરે છે, તે–તે ભાવે પરિણામ પામે છે, ત્યા સુધી આ જીવ સપ્તવિધકર્મ બાંધે છે (આયુષ્ય સિવાય) અથવા અવિધ કર્મબાંધે છે અથવા ષવિધ કર્મ (મોહનીય-આયુષ્ય સિવાય) બાંધે છે, અથવા એકવિધ (=વેદનીય ) કર્મ બાંધે છે.” ઇત્યાદિ... કર્મ બાંધતા જીવોનો સંસરણરૂપ સંસાર તો પ્રતીત જ છે. અર્થાત્ જો કર્મબંધ અટકી જાય, તો સંસાર અટકી જાય, પણ સંસાર ચાલુ છે, માટે કર્મબંધ ચાલુ છે, અને કર્મબંધ ચાલુ તો જ રહે, જો અનન્તકર્મનો બંધ ન હોય. (કર્મપુદ્ગળોનો જથ્થો સર્વજીવથી અનંતગુણ છે. પણ દરેક જીવ પ્રતિસમય છુટતાં છુટતાં અસંખ્યકાળે પૂરા છૂટી જાય એ પ્રમાણે જ પુદ્ગળો ગ્રહણ કરે, અનતાનંત નહીં. આ ગ્રહણ કુલ જથ્થાની અપેક્ષાએ એટલુ નાનુ છે કે બધા જીવો આમ કરે તો પણ જથ્થો ખાલી ન થાય. આમ બહુતર બંધ અને કર્મબંધાભાવનો પરિહાર બન્ને સિદ્ધ થાય. પૂર્વપક્ષનો આ આશય છે.) ૫૭૬૨ા अत्र गुरुराह - અહીં ગુરુવર જવાબ આપે છે– आगममोक्खाओ (न) किं ? विसेसविसयत्तणेण सुत्तस्स । तं जाविह संपत्ती न घडइ तम्हा ण दोसो तु ॥७६३ ॥ (आगममोक्षात् किम् ? विशेषविषयत्वेन सूत्रस्य । तं यावदिह संप्राप्ति र्न घटते तस्मान्न दोषस्तु ॥) इह-विचारप्रक्रमे आगमान्मोक्षाच्च सूत्रस्य 'पल्ले महइमहल्ले' इत्यादिरूपस्य विशेषविषयत्वेन - असंयतः कोऽपि प्रायोभावमाश्रित्यैवं बध्नातीत्येवंरूपेण किन्न तं ग्रन्थिं यावत् संप्राप्तिः (न) घटते ? घटत एवेति भावः, नञ्द्वयस्य प्रकृत्यर्थगमकत्वात् । तत्रागमस्तावदयम् - "सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा । चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥१ ॥ एवं अप्परिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं एगभवेणेव सव्वाई ॥२॥* (छा. सम्यक्त्वे तु लब्धे पल्यपृथक्त्वेन श्रावको भवति । चरणोपशमक्षयाणां सागरोपमाणि संख्यातान्यन्तरं भवन्ति ॥१॥ एवमपरिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मनोः । अन्यतरश्रेणिवर्जान्येकभवेनैव सर्वाणि ॥२॥) इति । मोक्षस्तु प्रकृष्टगुणानुष्ठानभावतः कर्म्मपुद्गलानां प्रसिद्ध एव, अन्यथोत्तरोत्तरदेशविरत्यादिगुणलाभानुपपत्तेः । यत एवं तस्मान्नायमनन्तरोक्तस्तं यावदिह संप्राप्तिर्न युज्यत इत्येवंरूपो दोषो भवति । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमन्यथा यत्तदधिकारे एवोक्तम्- 'पक्खिवे ण किंचीत्ति' तद्विरुध्यत एव, अप्रमत्तसंयतस्यापि बन्धकत्वात्, यथोक्तम्- "अप्पमत्तसंजयाणं बंधट्ठई होइ अट्ठ उ मुहुत्ता । उक्कोसा उ जहन्ना भिन्नमुहुत्तं तु विन्नेया ॥१॥" (छा. अप्रमत्तसंयतानां बन्धस्थितिर्भवत्यष्ट तु मुहूर्ताः । उत्कृष्टा तु जघन्या भिन्नमुहूर्तं तु विज्ञेया) इति ॥ तस्मादोघविषयमेतदिति ॥७६३ ॥ ગાથાર્થ:- પ્રસ્તુત વિચારમા આગમ અને મોક્ષના આધારપર જ ‘પલ્લે મહઇમલ્લ' ઇત્યાદિસૂત્ર સામાન્યરૂપ નથી, વિશેષવિષયવાળુ છે તેમ નિશ્ચિત થઇ શકે છે. તમે આગમ અને સંસારના બળપર કર્મબન્ધાભાવની શકગ્રતા નકારી તથાવિધ કર્મબન્ધનો નિશ્ચય કરો છો, અમે આગમ અને જીવનો દેખાતો મોક્ષ એ બેના બળપર તમે સૂચવેલા સૂત્રનો વિષય વિશેષ છે, એમ નિશ્ચય કરીએ છીએ. 'કો'ક અસંયત જ પ્રાય:ભાવને આશ્રયી આ સૂત્રાનુસાર કર્મબન્ધ કરે છે નહીં કે બધા' આવો વિશેષાર્થ એ સૂત્રનો છે. તેથી અનાદિમિથ્યાત્વીજીવને ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ કેમ ન સંભવે? અર્થાત સંભવે જ. કેમકે બે નકાર પ્રકૃત્યર્થ (=મૂળ વિધાન)નો બોધ કરાવે છે. (તાત્પર્ય મિથ્યાત્વી જીવ ગ્રન્થિપ્રદેશ પ્રાપ્ત કરી શકે નહીં એવું નથી.’ આ વાકચગત બે નિષેધથી બોધ એમ થાય કે મિથ્યાત્વી જીવ ગ્રંથિપ્રદેશ પ્રાપ્ત કરી શકે છે.) અહીં આ સંબંધી આગમાર્થ આ પ્રમાણે છે → ‘સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત થયા બાદ પલ્યોપમપૃથ (૨ થી ૯ પલ્યોપમ) જેટલી સ્થિતિનો બ્રાસ થાય ત્યારે શ્રાવક થાય છે. (પાંચમુ ગુણસ્થાન પામી શકે) તથા સંખ્યાતસાગરોપમ જેટલી સ્થિતિનો હ્રાસ થયે ચારિત્રનો ઉપશમ, ક્ષય, (–ક્ષયોપશમ) થાય છે. અર્થાત્ ચારિત્ર પામી શકે છે. પ્રા આમ દેવ-મનુષ્યજન્મોમા સમ્યક્ત્વ અખંડ રહે, એક ભવમા` અન્યતર શ્રેણિ (ઉપશમક્ષપક શ્રેણિ આ બેમાંથી એક) ને છોડી બધુ પ્રાપ્ત થઇ શકે. (અર્થાત્ એક જ ભવમાં સમ્યક્ત્વ, દેશવિરતિ, સર્વવિરતિ, ઉપશમશ્રેણિક્ષપકશ્રેણિ આ બેમાંથી એક, વીતરાગભાવ, કેવળજ્ઞાન અને અંતે મોક્ષ પ્રાપ્ત થઇ શકે. સિદ્ધાંતમતે એક ભવમાં બન્ને શ્રેણિ માડી શકાય નહીં. અર્થાત્ ઉપશમશ્રેણિ માંડનાર ક્ષપકશ્રેણિ માંડી શકે નહીં)ારા આમ આગમમાં જીવને એકભવમાં જ આ બધી પ્રાપ્તિ બતાવી છે. અને તે પ્રાપ્તિ ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ વિના સંભવે નહીં. આમ આગમબળપર ગ્રંથિપ્રદેશપ્રાપ્તિ સિદ્ધ થાય છે. એ જ પ્રમાણે પ્રકૃષ્ટગુણઅનુષ્ઠાનથી (=પ્રકૃષ્ટગુણની આરાધનાથી) કર્મપુદ્દગળોનો મોક્ષ પ્રસિદ્ધ જ છે. તે–તે ગુણોની આરાધનાથી જો * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 98 * * ++++ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * *શ્વિદેશ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * કર્મનિર્જરા થતી ન હોય, તો ઉત્તરોત્તર દેશવિરતિ, સર્વવિરતિવગેરે ગુણોની જે પ્રાપ્તિ થતી દેખાય છે, તે અનુપન્ન બને. કેમકે તે પ્રાપ્તિ કર્મનિર્જરાપર અવલંબે છે. અને એ પ્રાપ્તિ થતી દેખાય છે. તેથી પણ ગ્રન્થિપ્રદેશ પ્રાપ્તિ સિદ્ધ થાય છે. તેથી પૂર્વે બતાવેલો “ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ થવી યોગ્ય નથી એવો દોષ સંભવતો નથી. આ વાત આમ સ્વીકારવી જ રહું, નઈ તો તમે બતાવેલા સૂત્રમાં જે “અપ્રમત્તસંયત કશો પ્રક્ષેપ કરતો નથી. કર્મબંધ કરતો નથી' એમ કહ્યું છે. તેમાં પણ વિરોધ આવશે. કેમકે અપ્રમત્તસંયત પણ કર્મબન્ધ કરે છે. કહ્યું જ છે કે “અપ્રમત્તસંયતને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ મુહૂર્તની અને જઘન્યથી અંતમૂર્હતની બંધસ્થિતિ હોય, તે સમજવું.” (આ પ્રરુપણા શ્રેણિમાં અંતિમ બંધની અપેક્ષાએ હોય, તેમ લાગે છે.) તેથી કર્મબંધ અને નિર્જરાને અપેક્ષીને તમે બતાવેલું સૂત્ર ઓધવિષયક-સામાન્ય નિર્દેશરૂપ છે, અને તેનો અમે કહો તેમ વિશેષવિષય સમજવાનો છે. તેથી જ પ્રતિસમય અનઃ કર્મપુગળોના ગ્રહણમાં ય આપત્તિ નથી, કેમ કે ઉવલના-સ્થિતિઘાતપ્રક્રિયાથી એવો અવસર પણ આવે છે કે, ગ્રહણ કરાતાં પુત્રો કરતાં અસંખ્ય-અનન્તગુણ છૂટતાં હોય.) પ૭૬૩ વસ્તુધર્મરૂપસ્વભાવ અને ગુણસેવનથી વશ્વિદેશપ્રાપ્તિ पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષ કહે છે. ___सा किं सहावतो च्चिय उदाहु गुणसेवणाए इट्ठत्ति ? । जइ ता सहावओ च्चिय उड्डंपि निरत्थिगा किरिया ॥७६४॥ . (सा किं स्वभावत एव उत गुणसेवनया इष्टेति । यदि तावत्स्वभावत एवोवमपि निरर्थका क्रिया ॥ सा-तं ग्रन्थिं यावत्संप्राप्तिः किं स्वभावत एवेष्टा उत गुणसेवनयेति विकल्पद्वयम् । तत्र यदि तावत्स्वभावत एव सा प्राप्तिरिष्यते तत ऊर्द्धवपि सम्यक्त्वादिप्राप्तिः स्वभावत एव भविष्यतीति या अपूर्वकरणादिका क्रिया सा निरर्थका ७६४॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ શું સ્વભાવથી જ ઇષ્ટ છે? કે ગુણસેવનથી? અર્થાત જીવ શું સ્વભાવથી જ ગ્રન્થિપ્રદેશ સુધી આવે છે કે ગણના સેવનના બળે આવે છે? આ બે વિકલ્પ છે. અહીં જે સ્વભાવથી જ ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ ઈષ્ટ હોય, તો તે પછી પણ સમ્યકત્વવગેરેની પ્રાપ્તિ સ્વભાવથી જ થશે, તેથી અપૂર્વકરણવગેરે જે ક્રિયા સમ્યકત્વઆદિની પ્રાપ્તિ માટે બતાવી છે તે નિરર્થક ઠરશે. ૭૬૪ अह उ गुणसेवणाए मिच्छादिहिस्स के गुणा पुव्विं ? । तव्विहबंधातो चे सोवि तहा केण कज्जेण? ॥७६५॥ (अथ तु गुणसेवनया मिथ्यादृष्टेः के गुणा पूर्वे । तद्विधबन्धात् चेत् सोऽपि तथा केन कार्येण ? ) अथ तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च गुणसेवनयैव सा प्राप्तिरिष्यते, ननु तदानीं मिथ्यादृष्टेः सतः के गुणा भवेयुः? यत्सेवनातो ग्रन्थिदेशप्राप्तिर्भवेत्, नैव केचन गुणा इति भावः, मिथ्यादृष्टित्वात् । 'तव्विहबंधाओ चे इति तद्विधः- तत्प्रकारस्तथाविधक्षान्त्यादिगुणान् प्रति निमित्ततामादधानो यो बन्धस्तस्मात्केचिदव्यक्तरूपाः क्षान्त्यादयो गुणा भवेयुरिति चेत् बूषे? ननु सोऽपि-बन्धस्तथाविधोऽव्यक्तरूपक्षान्त्यादिगुणनिमित्ततामादधानः केनकार्येण-केन हेतुना भवति? न हि सोऽपि तथाविधो हेतुमन्तरेणोपजायमानो युक्तः, सदा सत्त्वासत्त्वप्रसङ्गात् ॥७६५।। ગાથાર્થ:- (મૂળમાં તપદ જકારાર્થક છે, અને ગણસેવનયાપદ સાથે સંબંધ છે) હવે, જો ગુણસેવનથી જ ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ ઈષ્ટ હોય, તો તે વખતે મિથ્યાદેષ્ટિ હોવાથી કયા ગુણો સંભવે છે? કે જેના સેવનથી ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ થાય. અર્થાત એવા કોઈ ગુણો સંભવતા નથી, કેમકે તે મિથ્યાદૃષ્ટિ છે. શંકા:- તેવા પ્રકારના સાન્નિવગેરે ગુણો પ્રતિ નિમિત્તભાવને ધારણ કરતો એવો જ જે બન્ધ થાય છે, તે બન્ધના કારણે કેટલાક અવ્યક્તશાન્તિવગેરે ગુણો સંભવે છે. તાત્પર્ય:- તેવા પ્રકારના અલ્પ અને મંદ બંધના કારણે મિથ્યાત્વીને પણ અવ્યક્ત લાન્તિવગેરે ગુણો સંભવે છે. સમાધાન:- અહીં એ સવાલ ઊભો થાય કે, અવ્યક્તસાન્નિવગેરે ગુણોમાં કારણ બનતો તેવા પ્રકારનો કર્મબન્ધ થવામાં કારણ કોણ છે? આવો બન્ધ પણ કંઈ તેવા હેતુ વિના થતો સંભવે નહીં, કેમકે અહેતુક એ બન્ધ તો સદા થવાની અથવા કયારેય ન થવાની આપત્તિ આવે. ૭૬પા * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 99 * * * * * * * * * * * * * * * Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + + aruda + + + + + + + + + + + + + + + + + + + परिणामविसेसातो तस्सवि य तहाविहस्स को हेऊ? । जइ ताव सहावोच्चिय पडिभणिओ हंत सो पुव्विं ॥७६६॥ (परिणामविशेषात् तस्यापि तथाविधस्य को हेतुः?। यदि तावत् स्वभाव एव प्रतिभणितो हन्त स पूर्व) अथोच्येत परिणामविशेषात् स तथाविधो बन्ध इति, ननु तस्यापि तथाविधस्य परिणामस्य को हेतुः? इति वक्तव्यम्। यदि तावत् स्वभाव एव हेतुरुच्येत तर्हि स स्वभावो हन्तेति प्रत्यवधारणे पूर्वमेव प्रागेव-'उड्डपि निरत्थिगा किरिये त्यनेन ग्रन्थेन प्रतिभणितो-निराकृतः ॥७६६॥ थार्थ:- :- परिणामविशेषना रोवो अन्य थाय छे. સમાધાન:- અહીં તેવા પ્રકારના એવા પરિણામમાં પણ કોણ હેત છે? તે બતાવો...જે સ્વભાવને કારણ કહેશો, તો તે સ્વભાવનું નિરાકરણ તો પહેલા જ “ઉપિ નિરસ્થિગા' (ગા.૭૬૪) થી કરી દિધું છે. (‘હત્ત પદ પ્રત્યુત્તરસૂચક છે) u૭૬૬ अपि चपणी.... हेउअभावो य तओ न पुण पयत्थंतरं मतो तुब्भ । ईसरमादिप्पसंगा एवं च स किन्न सव्वेसिं ? ॥७६७॥ (हेत्वभावश्च सको न पुनः पदार्थान्तरं मतस्तव । ईश्वरादिप्रसङ्गादेवं च स किन्न सर्वेषाम् ॥) 'तउत्ति' सकः स्वभावो हेत्वभावश्च तव मतः, न तु पदार्थान्तरमीश्वरादिप्रसङ्गात्-ईश्वराद्यभ्युपगमप्रसङ्ग -यदि हेत्वभावः स्वभावो नाभिमतः स्यादपि तु पदार्थान्तरं, तच्च सर्वेषामपि पदार्थानां तथा नियामकं तर्हि नामान्तरेणेश्वरादिरेवाभ्युपगतो भवेदिति । यदि नाम हेत्वभावः स्वभावो मतस्ततः किमित्याह-एवं सति-हेत्वभावाभ्युपगमे सति परिणामविशेषः किन्न सर्वेषामपि जीवानामविशेषेण भवति? भवेदेवेति भावः, तथा च सति तन्निबन्धना ग्रन्थिदेशसंप्राप्तिप्यविशेषेण भवेत् ७६७॥ - ગાથાર્થ:- વળી, તમને આ સ્વભાવ હેત્વભાવરૂપે જ સંમત છે, નહીં કે પદાર્થાન્તરરૂ૫. કેમકે પદાર્થાન્તરની કલ્પના કરવામાં નામાન્સરથી ઈશવરાદિને સ્વીકારવાનો પ્રસંગ આવે. તે આ પ્રમાણેજે સ્વભાવ હેત્વભાવરૂપને બદલે પદાર્થાન્તરરૂપ માન્ય હોય, અને જો તે જ બધા પદાર્થોનો તથારૂપે નિયામક હોય, તો નામાન્તરથી ઇવરાદિનો જ સ્વીકાર થયો. (કેમકે બીજાઓએ આવા સામર્થ્યવાળા તરીકે ઈશ્વરઆદિને કપ્યો છે.) હવે જો હેત્વભાવ જ સ્વભાવતરીકે સંમત હોય, તો તે પરિણામવિશેષ બધા જ જીવોને સમાનતયા કેમ ન થાય? અર્થાત થાય જ. અને તો તે પરિણામવિશેષના હેતુથી ગ્રન્યિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ પણ બધાને સમાનતયા થવી જોઈએ. ઘ૭૬થા अत्राचार्य आह& विस्तृत पूर्वपक्षनो माया उत्तर मापे छ...... ___णो हेउअभावोच्चिय तओ मओऽभावतो अहेऊओ। णेव पदत्थंतरमो जुत्तो पुव्वुत्तदोसाउ ॥७६८॥ (न हेत्वभाव एव सको मतोऽभावतोऽहेतुतः । नैव पदार्थान्तरं युक्तः पूर्वोक्तदोषात् ॥ यदुक्तं 'सा किं स्वभावतो वा भवेत् उतश्वित् गुणसेवनयेति' तत्रोभयपक्षेऽपि दोषाभावो यतो न 'तउत्ति' सकः • स्वभावो हेत्वभाव एवास्माकं मतः । कुत इत्याह-'अभावओ अहेऊओ' अहेतोः-हेत्वभावात्सकाशात्कस्यापि कार्यस्या भावात्-अभवनात्, अन्यथा तत एव कटककेयूराद्युत्पत्तिप्रसङ्गतो विश्वस्यादरिद्रताप्रसक्ते : । तथा नैवासौ स्वभावः पदार्थान्तरं युक्तः, पूर्वोक्तदोषात्-पूर्वाभिहितेश्वराद्यभ्युपगमदोषप्रसङ्गात् ॥७६८॥ ગાથાર્થ:- આચાર્ય:- તમે તે (ગન્ધિદેશપ્રાપ્તિ) શું સ્વભાવથી થાય છે કે ગુણસેવનથી' એવા જે બે પક્ષ કર્યા તે બન્ને પક્ષે અમને કોઈ દોષ નથી આવતો. એમાં સ્વભાવપક્ષે અમે હેત્વભાવને સ્વભાવરૂ૫ માનતા નથી, કેમકે હેત્વભાવ અભાવરૂપ છે, તેથી તેમાંથી કોઈ કાર્ય થઈ શકે નહીં. જે થઈ શકે, તો કુંડળ, કડા વગેરે પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય, અને તો આ જગતમાં બધાની ગરીબી દૂર થઈ જવાનો પ્રસંગ છે. તે જ પ્રમાણે આ સ્વભાવ કોઈ પદાર્થાન્તર પણ નથી, કેમકે પૂર્વે કહ્યું તેમ ઈશ્વરાદિના સ્વીકારનો દોષ આવે. પ૭૬૮ + + + + + + + + + + + + + + + + आल-ला12 - 100 + + + + + + + + + + + + + + + Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ Aan+************ * यद्येवं तर्हि किंरूपः स इष्ट इत्यत आहશંકા- આમ જો શ્રેય, તો સ્વભાવ તમને ક્યારૂપે ઈષ્ટ છે? તે બતાવો . इट्ठो य वत्थुधम्मो पतिणियतो जं च ता ण सव्वेसिं । ण य माणबाधितो सो सम्मादुवलंभभावातो ॥७६९॥ (इष्टश्च वस्तुधर्मः प्रतिनियतो यच्च तस्मान्न सर्वेषाम् । न च मानबाधितः स सम्यक्त्वाद्युपलम्भभावात् ॥) इष्टश्चासौ स्वभावोऽस्माकं वस्तुधर्मः च यत्-यस्मात्प्रतिनियत एव कतिपयजीवव्यक्तिनिष्ठ एव । चोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योजितः । 'ता' तस्मात् नासौ वस्तुधर्मलक्षणः स्वभावः सर्वेषामपि जीवानामविशेषेण भवति। न च वाच्यं तद्भावनियमे हेत्वभावादसौ स्वभावः परिकल्प्यमानो मानबाधितः-प्रमाणबाधित इति । कुत इत्याह - 'सम्मादेवलंभभावाओ' सम्यक्त्वाद्युपलम्भभावात्- सम्यक्त्वदेशविरताद्युपलम्भभावात् । नहीदं सम्यक्त्वादि सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामविशेषेणोपलभ्यते येन तत् जीवत्वमात्रनिबन्धनं भवेत्, किंतु क्वचित् कदाचित् कस्यचित्, न चैतदित्थमुपजायमानमहेतुकं, तथा सति देशकालादिनियमायोगात्, न च देशकाल(देशकालदेशना पाठा.)हेतुकमेवेदं, तदविशेषेऽपि कस्यचिदेव प्रतिनियतस्य तद्भावदर्शनात्, ततः प्रतिनियतसम्यक्त्वाद्युपलम्भान्यथानुपपत्त्या एतदनुमीयते यथा-अस्ति कश्चित्प्रतिनियतः स्वभावविशेषः केषांचिज्जीवानां यः परंपरया सम्यक्त्वादिलाभहेतुरिति ॥७६९॥ - ગાથાર્થ:-સમાધાન:-આ સ્વભાવ અમને વસ્તધર્મતરીકે ઇષ્ટ છે. અને આ વસ્તધર્મ (અસ્તતમાં જીવવસ્તનો ધર્મ) કેટલીક જીવવ્યક્તિવિશેષમાં જ રહેલો છે. (મૂળમાં ચપદ જકારાર્થક છે અને “પ્રતિનિયત પદસાથે સમ્બન્ધિત છે. ટીકાકારે એ મુજબ જ અર્થયોજના કરી છે.) તેથી આ વસ્તુધર્મરૂપસ્વભાવ સઘળાય જીવોમાં અવિશેષરૂપે–સમાનતયા સંભવે નહીં. શંકા:- “આ સ્વભાવનું અમુકમાં જ હોવું' એવા ભાવમાં નિયામક હેતનો અભાવ છે. તેથી આ ક૯૫ના કરાતો સ્વભાવ પ્રમાણબાધિત છે. સમાધાન:- આમ કહેવું બરાબર નથી. કેમકે સમ્યકત્વ દેશવિરતિવગેરેની ઉપલબ્ધિ આ પ્રમાણે જ થતી દેખાય છે. આ સમ્યકત્વ બધે જ સ્થળે બધાને હંમેશા સમાનતયા ઉપલબ્ધ થતું નથી, કે જેથી આવો સ્વભાવ જીવવમાત્રહેતુક માની શકાય. સમ્યકત્વ તો કયાંક, ક્યારેક કો'ક ને જ ઉપલબ્ધ થતું દેખાય છે. સમ્યકત્વવગેરે આમ ઉત્પન્ન થતાં હોવાથી જ અહેતુક નથી. કેમ કે અહેતુક વસ્તુને દેશ-કાળાદિનો ઉપરોક્ત નિયમ ( ક્યાંક-કયારેકરૂ૫) લાગુ પડી શકે નહીં. વળી આ સમકતાદિ માત્ર દેશ-કાળહેતુક પણ માની શકાય નહીં, કેમકે સમાન દેશ અને કાળમાં રહેલી પણ વ્યક્તિઓમાં કેટલાકને જ પ્રતિનિયતરૂપે સમ્યકતાદિનો ભાવ દેખાય છે. આમ સમ્યકત્વાદિની જે પ્રતિનિયત ઉપલબ્ધિ થતી દેખાય છે, તે અન્યથાઅનુ૫૫ન થવાદ્વારા એવું અનુમાન કરાવે છે કે કેટલાક જીવોનો એવો ચોક્કસ કોક સ્વભાવવિશેષ હોવો જોઈએ કે જે પરંપરાથી સમ્યકતાદિના લાભમાં કારણ બને.' ૭૬લા अयं च स्वभावविशेषो यथा भवति तथा दर्शयन्नाहઆ સ્વભાવવિશેષ કેવી રીતે ઉદ્ભવે, તે દર્શાવે છે वेययतो पतिसमयं चित्तं कम्मं सवीरिउक्करिसा । सो होइ जीवधम्मो जो तस्संपत्तिहेउत्ति ॥७७०॥ (वेदयमानस्य प्रतिसमयं चित्रं कर्म स्ववीर्योत्कर्षात् । स भवति जीवधर्मो यस्तत्संप्राप्तिहेतरिति ॥ चित्रं-चित्रस्वभावं कर्म-दर्शनमोहनीयादिकं वेदयमानस्य-विपाकानुभवनेन साक्षादनुभवतः सतः कस्यापि जीवविशेषस्य स्ववीर्योत्कर्षात्-स्ववीर्योल्लासविशेषात् स कोऽपि 'जीवधर्मो' जीवस्य धर्म:-स्वभावविशेषो भवति, यो भवन् तत्संप्राप्तिहेतुः-सम्यक्त्वादिनिबन्धनविवक्षितपरिणामविशेषसंप्राप्तिहेतुर्भवति ॥७७०॥ ગાથાર્થ:- વિચિત્રસ્વભાવવાળા દર્શનમોહનીયવગેરે કર્મોને વિપાકોદયથી સાક્ષાત અનુભવતા કોક જીવવિશેષને પોતાના વીર્યના ઉત્કર્ષથી (=વીર્યપ્રયોગથી) એવો કો'ક જીવધર્મવિશેષ (5જીવનો સ્વભાવવિશેષ) પ્રગટ થાય છે, કે જે (ઉત્પન્ન થતો સ્વભાવ) સમ્યકત્વવગેરેના લાભમાં નિમિત્તભૂત જીવપરિણામવિશેષની પ્રાપ્તિમાં કારણ બને. ૭૭ના ++++++++++++++++ बE-HIN२ - 101 +++++++++++++++ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ + + + + अन्थिहेश * * * * ततः किमित्याह સ્વભાવવિશેષની પ્રાપ્તિ થવાથી શું થાય? તે બતાવે છે– तम्मि य सती अवत्ता खंतादिगुणावि इतरवेक्खाए । तस्सेवणाए वि तओ संपत्ती तस्स तं जाव ॥७७१ ॥ ( तस्मिंश्च सति अव्यक्ता क्षान्त्यादिगुणा अपि इतरापेक्षया । तत्सेवनयापि ततः संप्राप्तिस्तस्य तं यावत् II) तस्मिंश्च जीवधर्मरूपे स्वभावविशेषे सति इतरापेक्षया - तथारूपपरिणामविशेषरहितजीवापेक्षया क्षान्त्यादयोऽपि गुणा अव्यक्ता-अस्पष्टलिङ्गा जीवस्य मिथ्यादृष्टेरपि सतो भवन्ति । ततश्च तत्सेवनयापि - गुणसेवनयापि तं - ग्रन्थिं यावत तस्य - जीवस्य संप्राप्तिर्न विरुध्यते । यदप्युक्तं- 'जइ ताव सहावोच्चिय उडुंपि निरत्थिगा किरियेति' तदप्ययुक्तम् तथारूपस्वभावविशेषसामर्थ्यतः स्वयमेव तस्य तथा तथा अपूर्वकरणादिक्रियासु प्रवृत्त्युपपत्तेः ॥७७१॥ ગાથાર્થ:- આ જીવધર્મરૂપ સ્વભાવવિશેષ પ્રાપ્ત થવાથી તે જીવ મિથ્યાદૃષ્ટિ હોવા છતા તેવા પરિણામવિશેષથી રહિત અન્યજીવની અપેક્ષાએ તે જીવને ક્ષાન્તિવગેરે ગુણો અવ્યક્ત (=સ્પષ્ટ ચિહ્ન વિનાના) હોય છે. તેથી એ ગુણોના સેવનથી પણ તે જીવને ગ્રન્થિપ્રદેશની પ્રાપ્તિ અવિરુદ્ધ છે. વળી પૂર્વપક્ષે જઇ તાવ સાવોચ્ચિય. (ગા.૭૬૪) પક્ષ સ્થાપી જે કહ્યુ, તે પણ બરાબર નથી. કારણ કે તથારૂપ તે સ્વભાવવિશેષના સામર્થ્યથી તે જીવ સ્વયં જ તે–તે પ્રકારે અપૂર્વકરણઆદિ ક્રિયામાં પ્રવૃત્ત થાય છે તે સુસંગત જ છે. તેથી ક્રિયાની નિરર્થકતાની આપત્તિ નથી. ૫૭૭૧ા एसा य वत्थुतो निग्गुणेति असइंपि वन्निया समए । णियमा ण सम्महेतू सम्मं पुण मोक्खहेउत्ति ॥ ७७२॥ (एषा च वस्तुतो निर्गुणेति असकृदपि वर्णिता समये । नियमान्न सम्यक्त्वहेतुः सम्यक्त्वं पुनर्मोक्षहेतुः ॥) एषा च-ग्रन्थिदेशं यावत् संप्राप्तिर्वस्तुतः - परमार्थतो निर्गुणा - सम्यक्त्वादिलाभाविकलहेतुगुणरहिता, अभव्यानामपि तस्याः संभवात्, इतिहेतोरसावसकृदपि - अनेकवारभाविनी अपि समये - सिद्धान्ते वर्णिता । यत एवं तस्मात् नियमाद्अवश्यंतया नैवासौ ग्रन्थिदेशप्राप्तिः सम्यक्त्वहेतुर्भवति, किंत्वपूर्वकरणादिकैव क्रिया । यत् पुनः सम्यक्त्वं तदवश्यं मोक्षहेतुर्भवत्येव, तथैव प्रवचने व्यावर्णनात् ॥७७२ ॥ ગાથાર્થ:- વળી, પરમાર્થથી તો આ ગ્રન્થિદેશસુધીની પ્રાપ્તિ સમ્યક્ત્વાદિના લાભમાં અવશ્યકારણભૂત ગણોથી રહિત છે, કેમકે અભવ્યોને પણ ગ્રન્થિદેશપ્રાપ્તિ સંભવે છે. તેથી જ આગમમાં ‘આ ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિ અનેકવાર પ્રાપ્ત થાય છે. એમ કહ્યું છે. આમ હોવાથી આ ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિ અવશ્યતયા સમ્યક્ત્વનું કારણ બનતી નથી, પરંતુ અપૂર્વકરણાદિક્રિયાઓ જ સમ્યક્ત્વનું અવશ્યકારણ છે. અને સમ્યક્ત્વ અવશ્યમેવ મોક્ષનું કારણ બને છે, કેમકે પ્રવચન (=આગમ)મા આ પ્રમાણે જ વર્ણન મળે છે. (પૂર્વની ગાથામાં ગુણસેવનથી ગ્રન્થિદેશપ્રાપ્તિ બતાવી, અપૂર્વકરણાદિક્રિયા પણ આ પ્રાપ્તિ પછી જ સંભવે અને પછીની ગાથામાં પણ દીર્ધકાલીન પ્રતિપક્ષભાવના કહેવા દ્વારા આ પ્રાપ્તિનું સાલ્ય બતાવશે. છતા અહીં આ પ્રાપ્તિને પરમાર્થથી નિર્ગુણ કહી. આમાં વિરોધ નથી. પૂર્વપક્ષે ગ્રન્થિપ્રાપ્તિને અતિ મહત્ત્વ આપ્યું. આ નિર્ગુણ અને અભવ્યને પણ સંભવિત છે. એટલે ઉપરના ગુણો પણ એમ જ બધાને પ્રાપ્ત થશે. તેથી ગુણસેવન અને સ્વભાવ નિષ્ફળ ઠરે. એની સામે ગ્રન્થકારને ગુણસેવના અને સ્વભાવનું મહત્ત્વ સ્થાપવું છે. ગ્રન્થિપ્રાપ્તિ અભવ્યાદિને પણ સહજ છે. પણ તેથી ઉપરના ગુણો પ્રાપ્ત થતા નથી. એ માટે ગ્રન્થિપ્રાપ્તિરૂપ ગુણસેવા કે યોગ્યતા વિશેષ ઉપયોગી નથી, પરંતુ વિશિષ્ટગુણસેવા અને તેવો સ્વભાવ-યોગ્યતા જ કારણભૂત છે. એમ બતાવતા ગ્રંથિપ્રાપ્તિને પરમાર્થથી નિર્ગુણ કહી છે. સ્યાદ્વાદ અને નયદૃષ્ટિથી સૂક્ષ્મવિચાર કરી વિરોધપરિહાર કરવો.) ૫૭૭૨ા एतेण सम्मलाभे कह णु अनंतभवभावितो सिग्घं । संसारोत्ति जिआणं नासइ ? एयंपि परिहरितं ॥७७३ ॥ (एतेन सम्यक्त्वलाभे कथं नु अनंतभवभावितः शीघ्रम् । संसार इति जीवानां नश्यति एतदपि परिहृतम् ॥) एतेन - अनेकशो ग्रन्थिदेशप्राप्त्यभिधानेन यदुच्यते- 'सम्यक्त्वलाभे सति कथं नु जीवानां संसारोऽनन्तभवभावितः शीघ्रं नश्यति? चिरकालवासिततया सात्मीभूतस्य तस्य प्रतिपक्षभावनामात्रेणोन्मूलयितुमशक्यत्वात्, नह्यनेकज्वालाशतसहस्रसंकुलः प्रबलो दवाग्निर्जलकणिकामात्रेणोपशाम्यतीति, ' एतदपि परिहृतं द्रष्टव्यम् ॥७७३॥ ગાથાર્થ:- આમ અનેકવાર ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિનું કથન કરવાથી કેટલાકની આ શંકાનો પણ પરિહાર થાય છે. + + + + + धर्मसंग लाग २ - 102 + ** Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + ++ + ++ + + + + + + + + + + न्य श * * ** * * * * * * ** * * * * * * * શંકા:- સમ્યકત્વનો લાભ થવામાત્રથી જીવોનો અનન્તભાવથી ભાવિત સંસાર શીઘ નાશ શી રીતે પામે? કેમકે લાંબાકાળથી આત્મીયભાવને પામેલો એ સંસાર પ્રતિપક્ષ (=સમ્યકત્વ-મોક્ષ) ની ભાવનામાત્રથી જ મૂળથી ઉખડી જાય, તે અશક્ય છે. અનેક લાખ જવાળાઓથી વ્યાપ્ત પ્રબળ દાવાનળ પાણીના એક બુંદમાત્રથી શાંત પડી જાય તે અશક્ય છે. ૭૭૩ાા कथमित्याहઆ શંકાનો પરિવાર શી રીતે થાય? તે બતાવે છે. ओहेण दीहकालो जम्हा पडिवक्खभावणाएवि । सम्मत्तं तीएँ फलं केवलमिव चरणकिरियाए ॥७७४॥ (ओघेन दीर्घकालो यस्मात् प्रतिपक्षभावनाया अपि । सम्यक्त्वं तस्याः फलं केवलमिव चरणक्रियायाः ॥) यस्मात्प्रतिपक्षभावनाया अपि, न केवलं संसारस्येत्यपिशब्दार्थः, ओघेन-सामान्येन दीर्घः कालो विद्यते भव्यानामपि हि प्रायोऽनन्तशो ग्रन्थिदेशसंप्राप्तिनं च सा प्रतिपक्षभावनामन्तरेणेति । यत्पुनः सम्यक्त्वं तत्तस्या एव दीर्घकालभाविन्याः प्रतिपक्षभावनायाः फलं, यथा-चरणक्रियाया दीर्घकालभाविन्याः फलं केवलं-केवलज्ञानम् । ततः केवलज्ञानलाभ इव सम्यक्त्वलाभेऽपि संसाराभावः शीघ्रमुपजायमानो न दोषाय भवति ॥७७४ ।। - ગાથાર્થ:- માત્ર સંસારભાવનાનો કાળ જ દીધું છે, એમ નથી. સામાન્યત: પ્રતિપક્ષભાવનાનો કાળ પણ દીધું છે. કારણ કે ભવ્યજીવો પણ અનન્સીવાર ગ્રન્થિદેશને પ્રાપ્ત કરે છે, અને ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિ પ્રતિપક્ષભાવના વિના સંભવે નહીં. આ દીર્ધકાલભાવી પ્રતિપક્ષભાવનાનું જ ફળ સમ્યકત્વ છે. જેમકે દીર્ધકાળભાવી ચારિત્રક્રિયાનું ફળ કેવળજ્ઞાન છે. તેથી કેવળજ્ઞાનલાભની જેમ સમ્યકત્વના લાભમાં પણ સંસારનો અભાવ શીઘ થાય, તેમાં દોષ નથી. ૭૭૪ સમ્યફ ત્વની પ્રકર્ષગુણરૂપતાની સિદ્ધિ एतदेव भावयति - આ જ અર્થનું ભાવન કરે છે जह केवलम्मि पत्ते तेणेव भवेण वन्निओ मोक्खो । पगरिसगुणभावातो तह संमत्तेऽवि सो समओ ॥७७५॥ (यथा केवले प्राप्ते तेनैव भवेन वर्णितो मोक्षः । प्रकर्षगुणभावात् तथा सम्यक्त्वेऽपि स समकः । यथा केवले-केवलज्ञाने प्राप्ते सति तेनैव भवेन मोक्षः समये वर्णितः, प्रकर्षगुणभावात्-प्रकर्षगुणरूपत्वात्तस्य केवलज्ञानस्य, तथा सम्यक्त्वेऽपि प्राप्ते सति स-मोक्षः समकः-तुल्यः, तस्यापि प्रकर्षगुणरूपतया तत्प्राप्तौ शीघ्रमुपजायमानो मोक्षो न दुष्यतीत्यर्थः ॥७७५॥ ગાથાર્થ:- કેવળજ્ઞાન પ્રકર્ષણરૂપ છે, તેથી “કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે તે જ ભવમાં મોક્ષ થાય' એમ આગમમાં કહ્યું છે. તે જ પ્રમાણે સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં પણ મોક્ષ તત્યરૂપે છે. કારણ કે સમ્યકત્વ પણ પ્રકર્ષગુણરૂપ છે. તેથી સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં શીઘ મોક્ષની પ્રાપ્તિ થવી દોષરૂપે નથી. ૭૭પા अथ कथमिदं सम्यक्त्वं प्रकर्षगुणरूपमित्यत आह - શંકા- “આ સમ્યકત્વ પણ પ્રકર્ષણરૂપ છે. તે કેવી રીતે કહો છો? અહીં આચાર્યવર સમાધાન બતાવે છે. - पगरिसगुणो य एसो जम्हा समएऽवि सव्वजीवाणं । गेवेज्जगोववातो भणितो तेलोक्कदंसीहिं ॥७७६॥ (प्रकर्षगुणश्च एष यस्मात् समयेऽपि सर्वजीवानाम् । ग्रैवेयकोपपातो भणितस्त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥) प्रकर्षगुणरूपश्च 'एष' इदं सम्यक्त्वं, गुणलिङ्गग्रहणादेष इति पुंस्त्वेन निर्देशो न विरुध्यते, यस्मात्त्रैलोक्यदर्शिभिः सर्वज्ञैः समये-प्रवचने, अपिशब्दो भिन्नक्रमः, स चैवं-सर्वजीवानामपि ग्रैवेयकोपपातो भणितः ॥७७६॥ ગાથાર્થ:-સમાધાન:-આ સમ્યકત્વ પ્રકર્ષગુણરૂપ છે. (અહીં “સમ્યકત્વપદ નપુંલિંગવાળું હોવા છતાં “ગુણ'પદ પુલિંગ છે. અને તેને આશ્રયી મૂળમાં પુલિંગ નિદેશ છે. તેથી વિરોધ નથી.) કેમકે વૈલોક્યદર્શી (=સર્વજ્ઞ) ભગવાને આગમમાં બધા જીવોને પણ રૈવેયકદેવલોકની પ્રાપ્તિ દર્શાવી છે. (મૂળમાં અપિ (પણ) શબ્દનો અન્વય “સર્વજીવોના પદસાથે છે.) ૭૭૬ *********** ***** लि-ला२ - 103 **** * * * * * * * * * * * Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તતઃ મિત્કાર - બધા જીવોને વેયકની પ્રાપ્તિ બતાવી તેનાથી કયો અર્થ સરે છે? તે બતાવે છે... सो दव्वसंजमेणं पगरिसस्वेण जिणुवदिटेणं । तब्भावेऽवि ण सम्मं एवमिदं पगरिसगुणोत्ति ॥७७७॥ (स द्रव्यसंयमेन प्रकर्षरूपेण जिनोपदिष्टेन । तद्भावेऽपि न सम्यक्त्वं एवमिदं प्रकर्षगुण इति ॥) स-ग्रैवेयकोपपातो जिनोपदिष्टेन प्रकर्षरूपेण द्रव्यसंयमेन, यत उक्तम्-सव्वजियाणं चिय जं सुत्ते गेवेज्जगेसु उववाओ । भणिओ न य सो एयं लिङ्ग मोत्तं (दव्वलिंगं पमोत्तूणं) (छा. सर्वजीवानामेव यत् सूत्रे ग्रैवेयकेषूपपातः । भणितो न च स एतल्लिङ्गं मुक्त्वा) ॥१॥ इति । न च तद्भावेऽपि-जिनोपदिष्टप्रकर्षप्राप्तद्रव्यसंयमभावेऽपि सम्यक्त्वमासीत् । तत एवम्-अनेन प्रकारेणातीव दुर्लभतया केवलज्ञानमिव सम्यक्त्वं प्रकर्षगुण:-प्रकर्षगुणरूपमिति ॥७७७॥ ગાથાર્થ:- આ રૈવેયકમાં ઉપપાત(=રૈવેયકદેવલોકની પ્રાપ્તિ) ભગવાને ઉપદેશેલા પ્રકર્ષ પામેલા દ્રવ્યસંયમના પ્રભાવે થાય છે. કેમકે કહ્યું જ છે “સૂત્રમાં બધા જીવોનો વૈવેયકમાં જે ઉપપાત બતાવ્યો છે, તે આ લિંગ દ્રવ્યસંયમ) ને છોડીને નહીં અને ભગવાને બતાવેલા આ પ્રકર્ષપ્રાપ્તદ્રવ્યસંયમકાળે પણ સમત્વ ન હતું. તાત્પર્ય:- (૧) દ્રવ્યસંયમ કરતાં સમ્યકત્વ શ્રેષ્ઠ છે, જે માત્ર દ્રવ્યસંયમથી આટલો ઊંચો દેવલોક મળતો હોય, તો સમ્યકત્વથી શીઘ મોક્ષપ્રાપ્તિ અશક્ય નથી. અને (૨) આવા પ્રકૃષ્ટ દ્રવ્યસંયમો અનંતીવાર મળવા છતાં સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ થઇ નહીં. તેથી સમ્યકત્વ કેટલું દુર્લભ છે? તે નિશ્ચિત જણાય છે. આમ અતિદુર્લભ હોવાથી સમ્યકત્વ પણ કેવળજ્ઞાનની જેમ પ્રકર્ષગુણરૂપ છે. ૭૭૭ नन् तद्भावेऽपि न सम्यक्त्वमित्यत्र का युक्तिरित्यत आहશંકા:- દ્રવ્યસંયમની હાજરી વખતે પણ સમ્યકત્વ ન હતું એમ કહેવામાં કોઈ યુક્તિ છે? અહીં આચાર્યવર સમાધાનતરીકે યુક્તિ બતાવે છે. तब्भावम्मि य नियमा परियट्टद्धणमो उ संसारो । ण य सो सव्वेसि जओ ता तब्भावेऽवि तं नत्थि ॥७७८॥ (तद्भावे च नियमात्परावर्तार्होनस्तु संसारः । न च स सर्वेषां यतस्तस्मात्तद्भावेऽपि तन्नास्ति ॥) तद्भावे-सम्यक्त्वभावे चो हेतौ, यस्मानियमाद्-अवश्यंतया उत्कर्षतोऽपि ‘परियट्टभ्रूणमो उ' इति किंचिद्ऊनार्डावशेषैकपुद्गलपरावर्त्तमात्र एव संसारो भवति । तुरवधारणे 'मो' निपातश्च पूरणे। न च स किंचिदूनपुद्गलपरावर्द्धरूपः संसारः सर्वेषामपि जीवानां, 'ता' तस्मात्तद्भावेऽपि-जिनोपदिष्ट प्रकर्षरूपद्रव्यसंयमभावेऽपि तत्-सम्यक्त्वं नास्तीति गम्यते । ततः स्थितमेतत्-सम्यक्त्वस्य प्रकर्षगुणरूपत्वात् तत्प्राप्तौ केवलज्ञानप्राप्ताविव शीघ्रमुपजायमानो मोक्षो न विरुध्यते, उभयत्रापि तन्निमित्तभूतायाः प्रतिपक्षभावनायाः सामान्येन चिरकालत्वात् । केवलज्ञानदृष्टान्तोऽपि स्वल्पकालमात्रापेक्षया द्रष्टव्यो न पुनस्तद्भवमोक्षभावापेक्षयापि ॥७७८॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં “ચપદ હેત્વર્થક છે.) સમ્યકત્વની હાજરીમાં ઉત્કૃષ્ટથી પણ કંઇક ન્યૂન અર્ધપુદ્ગલપરાવર્ત જેટલો જ સંસાર બાકી રહે છે. (મૂળમાં ‘ત'પદ જકારાર્થક છે, અને “મો પદ પૂરણઅર્થે છે.) અને બધા જીવોનો કંઇ આટલો જ ( ન્યૂન અર્ધપુદ્ગલપરાવર્ત જેટલો) કાળ બાકી રહ્યો નથી. તેથી ભગવાને બતાવેલા પ્રકરૂપ દ્રવ્યસંયમની હાજરીમાં પણ સમ્યકત્વ નથી, તેમ અર્થબોધ થાય છે. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે સમ્યકત્વ પ્રકર્ષણરૂપ છે. અને તેની પ્રાપ્તિ થવાથી કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિની જેમ શીધ્ર મોક્ષ થવો વિરુદ્ધ નથી. કેમકે ઉભયસ્થળે (સમ્યકત્વ અને કેવળજ્ઞાન–આ બે સ્થળે) પ્રતિપક્ષભાવનાનું ભાવન સામાન્યથી ચિરકાલીન છે. (આ પ્રતિપક્ષભાવના અચરમાવર્તન અને અભવ્યને પણ દુખગર્ભિત કે મોહ ગર્ભિતવૈરાગ્યની જેમ સંભવે છે. તત્કાલ સમ્યકતાદિરૂપ ફળ દેનારી ન લેવાથી અપ્રધાનભૂત અને આગંતુક ોય છે. છતાં ભવ્યને અંતે સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી ઓવ લાંબી પરંપરાએ કારણ ગણી શકાય. અભવ્યને ચરમાવર્ત અને સમ્યકત ન હોવાથી એ ભાવનાઓ નિષ્ફળ થાય છે.) અહીં કેવળજ્ઞાનનું દેષ્ટાન્ન પણ અલ્પકાળમાત્રની અપેક્ષાએ છે, નહિ કે તે જ ભવમાં મોક્ષની અપેક્ષાએ. (કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ પછી તભવમોલ નિયમત: છે. સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ પછી તેવો નિયમ નથી. તેથી શીઘમોક્ષનો તદ્દભવમોક્ષ નહીં, પણ અલ્પકાળે મોક્ષ એવો અર્થ અભિપ્રેત છે.) ૭૭૮ જ જ કે જ જ * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 104 * * * * * * * * * * * * * Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ + + + + + + + + + ++ + + + + + + + + ++ + ++ + + + + + + + + + + કર્મ-પુરુષાર્થનું બળાબળ પ્રતિજીવાશ્રયી ભિન્ન-ભિન્ન यच्च प्रागुक्तं- 'सवीरिउक्करिसा सो होइ जीवधम्मोत्ति', तत्र परस्यावकाशमाहપૂર્વ ગાથા ૭૭૦માં કહ્યું કે “વીર્યના ઉત્કર્ષથી તે જીવધર્મ છે ત્યાં પૂર્વપક્ષકાર આપત્તિ ઉઠાવે છે पत्तुक्कस्सठितीणं विचित्तपरिणामसंगयाणं च । सव्वेसिं जीवाणं कम्हा णो वीरिउक्करिसो ? ॥७७९॥ (प्राप्तोत्कृष्टस्थितीनां विचित्रपरिणामसंगतानां च । सर्वेषां जीवानां कस्मान्न वीर्योत्कर्षः ॥ प्राप्तोत्कृष्टस्थितीनाम्-अवाप्तदर्शनमोहनीयादिकर्मोत्कृष्टस्थितीनां तेषां हि प्रायः शुभोऽशुभो वा परिणामस्तीव्र एवोपजायत इति एतद्विशेषणोपादानं, विचित्रपरिणामसंगतानां च - येन येन परिणामेनोपेतानां वीर्योत्कर्षो दृष्टस्तत्तद्विचित्रपरिणामसंगतानामपि सतां सर्वेषामपि जीवानां कस्मान्न स तादृग्वीर्योत्कर्षों भवतीति? ॥७७९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- બધા જ જીવો (૧) દર્શનમોહનીયાદિ કર્મોની ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ પામેલા છે. અહીં ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટ પરિણામ વિના સંભવે નહીં. એટલે “ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પામેલા છે તેમ કહેવાથી બધા જીવોને શુભ કે અશુભ પરિણામ તીવ્ર ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. તેમ સિદ્ધ થાય છે. (આમ કહેવાથી અશુભની જેમ સમ્યકત્વ પામવાયોગ્ય તીવ્ર શુભભાવ પણ બધાને પ્રાપ્ત થઈ શકે, તેમ સિદ્ધ કર્યું. કાચ કોઈને શંકા થાય કે ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિબંધયોગ્ય તીવ્ર અશુભભાવ બધાને ભલે આવે, પણ તેવા શુભભાવ માટે તો વીર્યોત્કર્ષની જરૂર છે, તે બધાને ન હોય. આવી શંકાના સમાધાનમાં બીજું વિશેષણ બતાવે છે.) (૨) બધા જ જીવો – જે જે પરિણામયુક્ત થવાથી વિર્યોત્કર્ષવાળા બનતા દેખાય–તે-તે વિચિત્રપરિણામોથી યુક્ત છે. તેથી બધા જ જીવો તેવા વીર્યોત્કર્ષથી યુક્ત કેમ ન બને? . અર્થાત બનવા જ જોઇએ. u૭૭૯ उच्यते - અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. कत्थइ जीवो बलिओ कत्थइ कम्माइं होंति बलियाई । एएण कारणेणं सव्वेसि न वीरिउक्करिसो ॥७८०॥ (क्वचिद् जीवो बली क्वचित् कर्माणि भवन्ति बलवन्ति । एतेन कारणेन सर्वेषां न वीर्योत्कर्षः ॥ क्वचिद्देशकालादौ जीवो बली-बलवान्भवति, कथमन्यथा अत्यन्तक्लिष्टविपाकानि ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि क्षपयित्वा अनन्ता जन्तवः सिद्धिमवाप्तवन्तः? कुत्रचित् पुनर्देशकालादौ कर्माणि बलवन्ति भवन्ति, सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानां कर्मपरतन्त्राणामसुमतां भवोदधौ पर्यटतां दर्शनात् । तत एतेन कारणेन न सर्वेषां जीवानामनन्तरोक्तविशेषणोपेतानामपि अविशेषेण वीर्योत्कर्षों भवति ॥७८०॥ ગાથાર્થ:- ક્યાંક દેશકાળાદિમાં જીવ બળવાન હોય છે. જો એમ ન હોય (= જીવ કર્મ કરતાં બળવાન ન હોય) તો કેવી રીતે અનન્ત જીવો અત્યન્સકિલષ્ટવિપાકવાળા જ્ઞાનાવરણીયઆદિ કર્મોનો ક્ષય કરી સિદ્ધિ પામી શકે? “આ અનન્નજીવો કર્મોનો ક્ષય કરી મોક્ષ પામ્યા' એ જ બતાવે છે કે જીવ ક્યાંક કર્મ કરતાં બળવાન છે. પણ જેટલા સિદ્ધ થયા તેથી અનન્તગુણ જીવો કર્મને પરાધીન થઇ સંસારસાગરમાં ભટકતા દેખાય છે. તેથી કયાંક દેશકાળઆદિમાં કર્મ જીવ કરતાં બળવાન છે, એ પણ સિદ્ધ થાય છે. તેથી નિચય થાય છે કે બધા જીવોમાં ઉપરોક્તવિશેષતા (ઉત્કટ કર્મસ્થિતિ અને ઉત્કૃષ્ટ વીર્યશક્તિમાં કારણભૂત પરિણામરૂપવિશેષતા) હોવા છતાં સમાનતયા વીર્યોત્કર્ષ થતો નથી. આ૭૮ના કર્મજયહેતુ સ્વભાવની ચર્ચા एतदेव भावयति - આ જ અર્થનું ભાવન કરે છે – केइ उ सहावउ च्चिय कम्मं जेऊण चिक्कणतरंपि । णियविरियाउ पवज्जइ तं धम्मं तेण तज्जोगो ॥७८१॥ (कश्चित्तु स्वभावत एव कर्म जित्वा चिक्कणतरमपि । निजवीर्यात् प्रपद्यते तं धर्म तेन तद्योगः ॥ कश्चित्तु - कोऽप्येव, तुरेवकारार्थः, स्वभावत एव समुत्थितात् निजवीर्यात् कर्म-दर्शनमोहनीयादि चिक्कणतरमपिअतिनिबिडतरमपि जित्वा तं धर्म-स्वभावं ग्रन्थिदेशप्राप्तिहेतुभूतपरिणामविशेषनिबन्धनं प्रपद्यते, टेन कारणेन तद्योग :अनन्तरोक्तधर्मयोगो भवति जीवस्य, नान्यथा ॥७८१॥ ++++++++++++++++ E -HI12-105+++++++++++++++ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ ++++++++++++++++++ ५... ગાથાર્થ:- (“તુ"પદ જકારાર્થક છે.) કો'ક જીવ સ્વભાવથી જ સમુત્થાન પામેલા પોતાના વીર્યથી દર્શનમોહનીયાદિ અતિ ગાઢકર એવા પણ કર્મને જીતે છે, અને ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત જે પરિણામવિશેષ છે, તે પરિણામવિશેષમાં હેતુભૂત ધર્મ સ્વભાવને પામે છે. તેથી જીવને ઉપરોક્ત ધર્મયોગ પ્રાપ્ત થાય છે, નહિ કે એમને એમ. ૭૮૧ सोऽपि स्वभावः कर्मजयहेतुः कथमितिचेत् ? अत आहશંકા:- આ સ્વભાવ પણ કર્મજયનો હેત કેવી રીતે છે? અહીં સમાધાનમાં કહે છે सो पुण तस्स सहावो ण कम्महेतू ण यावि अनिमित्तो । नियधम्मत्तो ण भवति सदा य सो कम्मदोसेणं ॥७८२॥ (स पुनस्तस्य स्वभावो न कर्महेतु नं चापि अनिमित्तः । निजधर्मत्वान्न भवति सदा च स कर्मदोषेण ॥ - स पुनस्तस्य कस्यचिदेव जीवस्य कर्मजयहेतुः स्वभावो न कर्महेतुकः, तथा सति सर्वेषामपि तद्भावप्रसक्तेः । न चाप्यनिमित्तो-निर्हेतुकः कुत इत्याह-निजधर्मत्वात्-आत्मस्वभावत्वात् जीवस्य, यदा हि तस्य स्वभावस्य स एव जीवः परिणामिकारणमिष्यते तदा कथमसावनिमित्तो भवितुमर्हतीति भावः । ननु यद्ययं स्वभावो विवक्षितजीवस्वभावत्वात्तन्निमित्तोऽभ्युपगम्यते तर्हि सर्वदाऽपि कस्मान्न भवति? कारणस्य सदा सन्निहितत्वात् । अत आह-'न हवइ' इत्यादि, न भवति च सदा स-स्वभावः कर्मदोषेण- दर्शनमोहनीयादिककर्मसद्भावलक्षणदोषेण ॥७८२॥ ગાથાર્થ: સમાધાન:-કર્મને જીતવામાં હેત બનતો તે સ્વભાવ કર્મહેતુક નથી. અર્થાત કર્મથી પ્રાપ્ત થતો નથી, કેમકે આ સ્વભાવ કો'ક જીવને જ પ્રાપ્ત થાય છે. જયારે કર્મ તો બધા સંસારીજીવને લાગેલા છે. તેથી સ્વભાવને કર્મeતક માનવામાં બધાને તેવો સ્વભાવ માનવાની આપત્તિ આવે. વળી આ સ્વભાવ નિતક પણ નથી, કેમકે જીવના આત્મસ્વભાવભૂત છે. તાત્પર્ય - જીવ એ સ્વભાવ માટે પરિણામી કારણતરીકે ઈષ્ટ છે, તેથી એ સ્વભાવને નિર્દેતુક શી રીતે કરી શકાય? અર્થાત 15 शाय... શંકા:- જે આ સ્વભાવ એ અમૂક વિવલિત જીવનો ભાવ હોવાથી જીવનિમિત્તક સ્વીકારશો, તો આ સ્વભાવ ને જીવમાં હમેશા કેમ દેખાતો નથી? કારણભૂત જીવ તો હંમેશા સન્નિહિત જ છે. સમાધાન:- આ સ્વભાવ હમેશા ન દેખાવામાં દર્શનમોહનીયવગેરે કર્મોની હાજરીરૂપ દોષ કારણભૂત છે. પ૭૮૨ ननु च विवक्षितकालेऽपि अधिकृतदोषो जीवस्य तदवस्थ एव, नहि तदानीमसौ विवक्षितजीवस्वभावः त्यक्तो भवति, ततः प्रागिव नेदानीमप्यसौ स्वभावो भवितुमर्हतीति चेदत आहશંકા- એમ તો જે કાળે તમે જીવનો તેવો સ્વભાવ હોવાની વાત કરો છો, એ કાળે પણ જીવમાં અધિકૃત-દર્શનમોહનીયાદિ કર્મોની હાજરીપ દોષ એમ જ ઉભો છે. તેથી સ્વભાવના હેવામાં તે શેષ બાધક નથી. વળી, જે જીવનો તે સ્વભાવ હોય, તો દર્શનમોહનીયાદિપ દોષકાળે પણ તે સ્વભાવનો કઇ ત્યાગ થતો નથી, કેમકે સ્વભાવ કઇ આવ-જા કરનારી વસ્તુ નથી, કાયમ રહેનારી ચીજ છે. છતાં તેથી જ એ સ્વભાવ પૂર્વ ન હતો, તો હમણાં પણ લેવો યોગ્ય નથી. . અહીં સમાધાન આપે છે जिणइ य बलवंतंपि हु कम्मं आहच्च वीरिएणेव । असइ य जियपुव्वोऽवि हु मल्लो मल्लं जहा रंगे ॥७८३॥ (जयति च बलवदपि हु कर्म आहत्य वीर्येण । असकृच जितपूर्वोऽपि ह मल्लो मल्लं यथा रजे ॥ जयति चैष जीवो बलवदपि 'हु' निश्चितं कर्म-दर्शनमोहनीयादिकम्, 'आहच्चेति' कदाचित्काले वीर्येणैवात्मीयेन तथाभव्यत्वपरिपाकवशसमुत्थितेन । अत्र दृष्टान्तमाह-'असइ य इत्यादि' यथा असकृत-अनेकधा जितपूर्वोऽपि मल्लो मल्लं कदाचिद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमसामर्थ्यतः स्वभावत एवोत्थितेन निजवीर्येण रङ्गे-जयभूमौ जयति, तद्वदयमपि जीवः कर्मभिरनेकधा जितपर्वोऽपि कदाचित्स्वभावत एवोत्थितेन निजवीर्येण तानि कर्माणि जयतीति। इहायमाशयः-यद्यपि प्रागिवेदानीमपि अयं जीवो दर्शनमोहनीयादिकर्मकलुषितस्तथापि तस्येत्थंभूत एव स्वभावोऽनादिपारिणामिको वर्तते येनैतावन्तं कालं यावत् कर्मभिरसौ बाध्यो भवति, इत ऊव तु प्रायस्तेषामेव कर्मणां बाधकः, तदुक्तम- "तदूव बाध्यते दैवं, प्रायोऽयं तु विजृम्भते" इति । कापि च दर्शनमोहनीयादिकं प्राक्कालभावि पूर्व तथास्वहेतुभ्यः सकाशादित्थमुत्पन्नमासीत् येन जीवस्य सम्यक्त्वादिगुणगणावाप्तिविघातकृत् आसीत् । विवक्षितकालभावि पुनः कर्म ++ + + + + + + + + + + + + + + Alge-11 २ - 106 + + + + + + + + + + + + + + + माह Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શન્વિટેશનન स्वहेतुभ्यस्तथास्वभावमुत्पन्नं येन तदवश्यं जीवस्य बाध्यं भवति, उक्तं च- "उभयोस्तत्स्वभावत्वे, तत्तत्कालाद्यपेक्षया । बाध्यबाधकभावः स्यात् सम्यग्न्यायाविरोधतः ॥१ ॥” इति । ततः साधूक्तं कर्म्मभिरनेकधा जितपूर्वोऽपि जीवः कदाचित् स्वभावत एवोत्थितेन निजवीर्येण बलवदपि कर्म्म जयतीति ॥७८३ ॥ ગાથાર્થ:- ‘તથાભવ્યત્વ'ના પરિપાકથી ઉદ્ભવેલા પોતાના જ વીર્ય–પરાક્રમથી ક્યારેક (=આસનમોક્ષકાળે) આ જીવ બળવાન એવા પણ દર્શનમોહનીયાદિ કર્મોને અવશ્ય જીતે છે-પછાડે છે. (મોક્ષગામી જીવોનું ભવ્યત્વ સમાનતયા હોવા છતા તેઓ બધા ઍકકાળે મોક્ષમા જવાના બદલે અલગઅલગ કાળે મોક્ષમા જાય છે, તેમા તે દરેક જીવનું અલગઅલગ તથાભવ્યત્વ કારણ છે. અર્થાત્ બધાનું ભવ્યત્વ પાકવાનો–સીઝવાનો સમય અલગ અલગ છે. ભવ્યત્વપરિપાકની કાલિકયોગ્યતા ભિન્નભિન્ન છે. જેમકે દરેક કેરીમા પાકવાની યોગ્યતા સમાન હોવા છતાં તે દરેકની અંગત યોગ્યતા એવી હોય છે કે કોક જલ્દી પાકે કો'ક મોડી, તેથી અહીં તથાભવ્યત્વનો ઉલ્લેખ કર્યો) અહીં દૃષ્ટાન્ત બતાવે છે– (કોક ને શંકા થાય કે અનંતકાળથી જીવને દબાવનાર–પછાડનાર–કચડી નાખનાર કર્મને જીવ શી રીતે પછાડી શકે? તો એના સમાધાનમાં આ દૃષ્ટાન્ત છે-) કો'ક મલ્લ બીજા મલ્લથી પૂર્વે ઘણીવાર હારી ચૂક્યો હોય, છતા કચારેક પોતાના વીર્યાન્તરાયના ક્ષયોપશમના સામર્થ્યથી સ્વભાવથી જ ઉદ્ભવેલા પોતાના વીર્યથી કુસ્તીના મેદાનમા એ બીજા મલ્લને ધોબીપછાડ ખવડાવી વિજયી થાય એમ બને છે. (પૃથ્વીરાજ ચૈહાણથી સત્તરવાર હારેલા શાહબુદ્દીને અઢારમી વાર પૃથ્વીરાજને ભૂંડો પરાજય આપેલો એમ ઇતિહાસ કહે છે.) આ જ પ્રમાણે આ જીવ પણ પૂર્વ કર્મથી અનેકવાર અનેકરીતે પરાજિત થયો છે. છતા પણ કચારેક સ્વભાવથી જ પ્રગટેલા પોતાના પ્રચંડ વીર્યબળથી એ કર્મોને કચડવા સમર્થ બને છે. અહીં કહેવાનો ભાવ આ છે→ જો કે પૂર્વવત્ હમણા પણ આ જીવ દર્શનમોહનીયવગેરે કર્મોથી કલુષિત છે, છતાં પણ તેનો (=જીવનો) જ એક એવા પ્રકારનો અનાદિપારિણામિકસ્વભાવ રહેલો છે (-તથાભવ્યત્વ) કે જેથી અમુકકાળ સુધી એ (=જીવ) કર્મોથી પીડિત થાય, ત્યારબાદ તો તે જ (=જીવ જ)એ કર્મોને પીડનારો થાય. કહ્યું જ છે કે→‘ત્યારબાદ (ગ્રંથિભેદ પછી)દૈવ (-ભાગ્ય-કર્મ) બાધિત થાય છે અને આ (=પુરુષકાર) ઉછળે છે. (યોગબિંદુ ગા. ૩૩૯) પહેલા બંધાયેલા દર્શનમોહનીયવગેરે કર્યો પોતાના હેતુઓમાંથી એવા ઉદ્દ્ભવેલા કે જેથી તેઓ જીવને સમ્યક્ત્વાદિ ગુણસમુદાયની પ્રાપ્તિમા બાધક બને. જયારે વિક્ષિતકાળ ` એ જ કર્યો પોતાના હેતુઓથી એવી રીતે ઉદ્દભવે કે જેથી પોતાના સ્વભાવથી જ તે અવશ્ય જીવથી બાધિત થાય. (જીવે જયારે એ કર્મોને બાંધ્યા ત્યારે તેવો તીવ્ર અશુભઅધ્યવસાય ન હતો કે જેથી નિકાચિતરૂપને પામે અથવા તીવ્રસાનુબંધવાળા બને અથવા તીવ્ર અશુભરસથી યુક્ત બને... તેથી જયારે જીવ તેવા શુભઅધ્યવવ્યસાયમા રહે છે, ત્યારે તે કર્મો કાં તો સ્વઅશુભ ફળ બતાવ્યા વિના જ વિરામ પામે છે (-પ્રદેશોદય) અથવા નવા અશુભકર્મોનુ નિમિત્ત બન્યા વિના જ ભોગવાઇ જાય છે. અથવા પોતાનુ મંદફળ બતાવી ખપી જાય છે, જેથી જીવ ઍ કર્મપર પોતાનું આધિપત્ય સ્થાપી શકે.) કહ્યું જ છે કે→ બન્નેનો (=કર્મ-પુરુષકારનો) તે-તે સ્વભાવ (પરસ્પર બાધ્ય–બાધકસ્વભાવ) હોવાથી તે—તે કાળાદિની અપેક્ષાએ ન્યાયને (સયુક્તિને) વિરોધ ન આવે તેમ પરસ્પરનો ધ્યબાધકભાવ થાય છે. ઘા" (યોબિંદુ ગા. ૩૨૯) તેથી કર્મથી પૂર્વે અનેકવાર જીતાયેલો પણ જીવ કચારેક સ્વભાવથી જ ઉદ્ભવેલા સ્વવીર્યથી બળવાન એવા પણ કર્મને ચકચૂર કરે છે” એવું કથન યોગ્ય જ છે. (તાત્પર્ય:- જીવનો કર્મને દબાવતો ગુણપ્રાપકસ્વભાવ (-તથાભવ્યત્વ) અનાદિસિદ્ધ જ છે. આવ-જા કરતો નથી. તેથી પૂર્વે પણ હતો જ. પણ તે વખતે કાળાદિ અનુકુળ ન હોવાથી કર્મથી તે સ્વભાવ અને જીવ દબાયેલા હતા. પછી કાળાદિ અનુકૂળ થવાથી, કર્મની તીવ્રતા પણ કાંક મંદ પડવાથી અને ચતુ:શરણસ્વીકારાદિ બાહ્ય સામગ્રી પામવાથી આ સ્વભાવ અને તેથી જીવવીર્ય પ્રબળ થવાથી કર્મ બાધિત થાય અને ગુણ પ્રાપ્ત થાય.) ૫૭૮ા બાઢ एतच्चिय निद्दिट्ठा तुल्लबला दिव्वपुरिसगारावि । समयन्नूहि अन्नह पावइ दिट्ठेट्ठबाहा उ ॥७८४॥ (अत एव निर्दिष्टौ तुल्यबलौ दैवपुरुषकारावपि । समयज्ञैरन्यथा प्राप्नोति दृष्टेष्टबाधा तु ॥) यत एवेत्थं स्वस्वभावनियमादनियतः कर्म्मात्मनोर्बाध्यबाधकभावः अत एव हेतोर्दैवपुरुषकारावपि तुल्यबलौ समयज्ञैःप्रवचनार्थतत्त्वज्ञैर्निर्दिष्टौ । दैवमिति हि शुभाशुभं कर्माभिधीयते, पुरुषकारस्त्वात्मव्यापारः, उक्तं च-“दैवं नामेह तत्त्वेन, कर्मैव हि शुभाशुभम् । तथा पुरुषकारस्तु, स्वव्यापारो हि सिद्धिदः ॥ १ ॥” इति । कर्माऽऽत्मनोश्च बाध्यबाधकभावे तुल्यबलता प्रागभिहितैव । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमन्यथोदितदैवपुरुषकारस्वरूपानभ्युपगमे तयोस्तुल्यबलताऽभ्युपगमेऽपि તૂટેટવાધા પ્રપ્રોતિ I૭૮૪ ગાથાર્થ:- આમ સ્વસ્વભાવનિયમના કારણે કર્મ અને આત્માનો બાધ્યબાધકભાવ અનિયત છે. (પૂર્વે કર્મ બાધક, આત્મા બાધ્ય, પછી આત્મા બાધક, કર્મ બાધ્ય. આ અનિયતભાવ અહીં ઇષ્ટ છે.) તેથી જ પ્રવચન (જિનાગમ) ના અર્થના તત્ત્વને (=હાર્દને) સમજેલા પ્રાજ્ઞપુરૂષોએ દેવ (=ભાગ્ય) અને પુરુષાર્થને સમાન બળવાન કહ્યા છે. દૈવથી શુભાશુભ કર્મનું અભિધાન થાય છે. - ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 107 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अन्थिहेश + અને પુરુષકાર એટલે આત્મવ્યાપાર-આત્માની ચેષ્ટા. કહ્યું જ છે કે “દૈવ એટલે અહીં તત્ત્વથી શુભાશુભ કર્મ જ (નહીં કે ઇશ્વરકૃત અનુગ્રહઆદિ )છે. અને પુરુષકાર એટલે સ્વવ્યાપાર (નહીં કે ઈશ્વરવ્યાપાર) આ સ્વપુરુષાર્થ જ વિવક્ષિત કાર્યની નિષ્પત્તિરૂપ સિદ્ધિ દે છે.” (યોબિંદુ ગા. ૩૧૯)અને કર્મ તથા આત્માની બાધ્યબાધકભાવઅંગેની તુલ્યતાકાત પૂર્વે જ બતાવી छे. या पधार्थने या प्रभागे स्वीअश्वो ४ रह्यो, अन्यथा - हैव- पुरुषारना या स्वपने (= परस्पर माध्यजाधलावे प्रधानગૌણભાવે ઊભયની ઉપસ્થિતિને) ન સ્વીકારવામા (તે બેની) તુલ્યબળતા સ્વીકારો તો પણ દૃષ્ટ-ઇષ્ટ બાધા આવે. ૫૭૮૪૫ કર્મ-પુરુષાર્થની પ્રધાન-ગૌણભાવે હાજરી ન માનવામાં દૃષ્ટબાધા तत्र दृष्टबाधामुपदर्शयति તેમા પ્રથમ દૃષ્ટબાધા દર્શાવે છે. (यद्भवति अतर्कितमेव दैवकृतं तदिति तस्य प्राधान्यात् । उपसर्जनभूतः पुनरस्ति तत्र पुरुषकारोऽपि ॥) यद्भवति अतर्कितमेव-अनभिसंधितमेतत् दैवकृतमिति लोकेऽभिधीयते न च तत् केवलदैवमात्रकृतम्, यत आह‘तस्स पाहन्ना' तस्य–दैवस्य प्राधान्यात्- प्राधान्येन व्याप्रियमाणत्वात् तद्दैवकृतमित्युच्यते, यावता पुनस्तत्रोपसर्जनभूतः पुरुषकारोऽप्यस्ति । " न च व्यापारशून्यस्य फलं यत्कर्म्मणोऽपि हीति" वचनप्रामाण्यात् ॥७८५॥ ગાથાર્થ:- જે અર્દિત—અવિચારિત-અકલ્પ્ય બને તે દૈવકૃત છે, એમ લોકોમા કહેવાય છે. પણ તે માત્ર દેવથી જ કૂત નથી કેમકે તે કાર્યમા દૈવ પ્રધાનરૂપે-મુખ્યતયા પ્રવૃત્ત હોવાથી જ તે કાર્ય દૈવકૃત કહેવાય છે, વાસ્તવમાં તો ત્યા ગૌણરૂપે પુરુષાર્થ પણ હોય જ છે. અહીં “કર્મનું પણ ફળ વ્યાપારશૂન્યને તું નથી” (યોગિબંદુ ગા. ૩૨૧) એવું વચન પ્રમાણ છે. ૫૭૮૫૫ जं पुण अभिसंधीओ होइ तयं पुरिसगारसज्झति । तत्पाधनत्तणतो दिव्वे उवसज्जणं तत्थ ॥ ७८६ ॥ जं होअतक्कियं चिय देव्वकयं तं ति तस्स पाहन्ना । उवसज्जणभूओ पुण अत्थि तहिं पुरिसगारोवि ॥ ७८५ ॥ ( यत्पुनरभिसन्धितो भवति तकत्पुरुषकारसाध्यमिति । तत्प्राधान्यत्वात् दैवमुपसर्जनं तत्र II) यत्पुनरभिसंधितो भवति कार्यं तकत् लोके पुरुषकारसाध्यमित्युच्यते । न च तदपि केवलपुरुषकारमात्रसाध्यं, यत आह – ‘तत्पाहन्नत्तणओत्ति' तस्य- पुरुषकारस्य प्रधानत्वतः - प्राधान्येन व्याप्रियमाणत्वात् एवमुच्यते, यावता पुनस्तत्र दैवमपि उपसर्जनभूतं व्याप्रियमाणमस्त्येव । “न भवस्थस्य यत्कर्म, विना व्यापारसंभव” इति वचनप्रामाण्यात् । तदेवं लोके दैवपुरुषकारावन्योऽन्याश्रितौ सन्तौ तुल्यबलौ दृष्टौ, अन्यथा विवक्षितकार्यानुपपत्तेः, न चेयमन्योऽन्याश्रयेण तयोस्तुल्यबलता यथोदितदैवपुरुषकारस्वरूपमन्तरेणोपपद्यते, ततस्तदनभ्युपगमे दृष्टबाधा प्राप्नोति ॥७८६॥ ગાથાર્થ:- જે કાર્ય અભિસંધિથી(=આશયપૂર્વક) થાય, તે કાર્ય લોકોમા પુરુષકાર(=પુરુષાર્થ સાધ્યતરીકે કહેવાય છે. પરંતુ એ કાર્ય પણ માત્ર પુરુષાર્થથી જ સાધ્ય છે, એમ નથી; કારણ કે ત્યાં પુરુષાર્થ મુખ્યતયા વ્યાપારિત-પ્રવૃત્ત હોવાથી જ એ કાર્ય પુરુષાર્થસાધ્ય કહેવાય છે. બાકી તો ત્યા ગૌણરૂપે ભાગ્ય પણ પ્રવૃત્ત થાય છે જ. અહીં ‘ભવસ્થ=સંસારી જીવનો વ્યાપાર-પ્રવૃત્તિ કર્મ વિના સંભવે નહીં'' (યોબિંદુ ગા. ૩૨૧)એવા વચનનું પ્રમાણ છે. આમ લોકમા ભાગ્ય અને પુરુષાર્થ પરસ્પરને આશ્રયી રહે છે અને તુલ્યબળવાળા છે' એમ જ દેખાય છે, નહીંતર તો વિવક્ષિત કાર્ય અનુપપન્ન બને. અને અન્યોન્યના આશ્રયથી ભાગ્ય-પુરુષાર્થ આ બન્નેની તુલ્યબળપરિણતિ ભાગ્ય અને પુરુષાર્થના પૂર્વોક્ત સ્વરૂપના સ્વીકાર વિના સંભવે નહીં, તેથી એ સ્વરૂપના અસ્વીકારમાં દૈષ્ટબાધા આવીને ઊભી રહે. ૫૭૮૬ા ઈષ્ટબાધા इष्टबाधामुपदर्शयन्नाह હવે ઇષ્ટબાધાનું ઉપદર્શન કરાવતા કહે છે → - +++ एवं जुज्जइ पगतं दीसइ सम्मादियं च जं तेण । सेसा जातिविगप्पा हवंति ता किं पसंगेण ? ॥७८७ ॥ ( एवं युज्यते प्रकृतं दृश्यते सम्यक्त्वादिकं च यत्तेन । शेषा जातिविकल्पा भवन्ति तस्मात् किं प्रसंगेन ॥1) एवं प्राग्दर्शितलौकिकव्यवहारन्यायेन प्रकृतं - ग्रन्थिदेशसंप्राप्तिनिबन्धनपरिणामविशेषोत्पत्त्यादि युज्यते नान्यथा न + + + धर्मसंग लाग २ - 108+++ +++++ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * વિદેશ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * चैतत् प्रकृतं कल्पनामात्रं, यत्-यस्मात् दृश्यते च सम्यक्त्वादिकं, चो भिन्नक्रमे, न चैतत् दृश्यमानं सम्यक्त्वादिकं प्रकृतमनन्तरोक्तमन्तरेणोपपद्यते इति सम्यक्त्वाद्यन्यथानुपपत्त्या प्रकृतमवश्यमेष्टव्यं, न चैतत् प्रकृतमिष्टं यथोदितदैवपुरुषकारस्वरूपानभ्युपगमे युज्यते, ततो दृष्टेष्टबाधाभीतितो यथोदितस्वरूपावेव दैवपुरुषकारावेष्टव्यौ । तदेवं यत्-यस्मादेवमेव व्यवहारभावोपपत्ति न्यथा तेन कारणेन ये दैवादिस्वरूपाभिधानविषये विकल्पाः क्रियन्ते यथा-"दैवमात्मकृतं विद्यात्, कर्म यत् पौर्वदेहिकम् । स्मृतः पुरुषकारस्तु, क्रियते यदिहापरम् ॥१॥" इत्यादयस्ते सर्वेऽपि जातिविकल्पा-विकल्पाभासा वस्तुतत्त्वबहिर्भूता भवन्ति ज्ञातव्याः, तथाहि-नात्मव्यापारमन्तरेण कर्म स्वफलसाधनसमर्थं, “न च व्यापारशून्यस्य, फलं यत्कर्मणोऽपि ही" ति वचनात्, तत आत्मव्यापारलक्षण एव पुरुषकारो युज्यते, नत्विदानी क्रियमाणकर्मलक्षण इत्यादि सुधिया वाच्यम् । तदुक्तम्- “नेदमात्मक्रियाभावे, यतः स्वफलसाधकम् । ततः पूर्वोक्तमेवेह, लक्षणं तात्त्विकं तयोः ॥१॥ इत्यादि, 'ता' तस्मात् किमिहाधिकेन प्रसङ्गेन? विपक्षे दृष्टेष्टबाधाप्रदर्शनमात्रेणैव यथावस्थितदैवादिस्वरूपाधिगतेस्तद्विषयपरोक्तविकल्पानां जातिविकल्पावगमात् ॥७८७॥ ગાથાર્થ:- આમ પૂર્વદર્શિત લૌકિકવ્યવહારન્યાયના બળે જ ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત પરિણામવિશેષની ઉત્પત્તિ આદિ પ્રસ્તુતવાત સંભવે, અન્યથા નીં. વળી આ પ્રસ્તુતવાત માત્ર કલ્પનારૂપ નથી. કેમકે સમ્યકત્વવગેરે દેખાય છે. (મૂળમાં નો અન્વયે દેશ્યતે પદસાથે છે.) વળી આ દેખાતે સમ્યગ્દર્શન પૂર્વોક્ત પ્રસ્તુત કથિતપદાર્થ વિના મુક્તિસંગત કરે નહિ આમ સમ્યક્ત્વની અન્યથાઅનુપપત્તિ ટાળવા પ્રકૃત (ન્વિદેશપ્રાપ્તિમાં કારણભૂત પરિણામવિશેષ) અવશ્ય ઇચ્છનીય છે. પણ પ્રકૃતની ઇષ્ટતા પૂર્વોક્ત દેવ-પુરુષાર્થના સ્વરૂપના અસ્વીકારમાં સંભવે નહીં..આમ દષ્ટ અને ઈષ્ટની બાધાના ભયથી પૂર્વોક્તસ્વરૂપે જ દેવ-પુરુષાર્થ ઇચ્છનીય છે. આ જ પ્રમાણે વ્યવહારભાવની ઉપપત્તિ (=સંભાવના) થઈ શકે અન્યથા નહીં. તેથી દેવઆદિના સ્વરૂપના સૂચનઅંગે બીજા વિકલ્પો કરે છે, જેમકે “જે પૂર્વભવીય શરીરગત આત્માએ કરેલું કર્મ છે. ( આત્માએ પૂર્વભવમાં કરેલી ક્રિયા) તે જ દૈવ ( ભાગ્ય) છે. અને અહીં (આ ભવમાં) જે કરાય છે તે જ પુરુષાર્થતરીકે સમ્મત છે” (યોગબિંદુ ગા. ૩૨૫) વગેરે. આ બધા જાતિવિકલ્પો છે, માત્ર વિકપાભાસ છે. વસ્તુતત્વથી દૂર રહેલા છે, કેમ કે “કર્મનું પણ ફળ પુરુષકારરહિતને હેતું નથી” (યોગબિંદુ ૩૨૧) એવું વચન છે. તેથી પુરુષાર્થ આત્મવ્યાપારરૂપ જ છે નહીં કે ક્રિયમાણ કર્મરૂપ' તેમ માનવું જ યોગ્ય છે. આ બધી વાતો સુજ્ઞ માણસોએ સમજી લેવી. કહ્યું જ છે કે કર્મ જીવવ્યાપાર વિના પોતાનું ફળ આપી શકે નહીં. તેથી પરસ્પર ઉપષ્ટભક એવા દૈવ-પુરુષકારનું પૂર્વોક્ત (યોગબિંદુ ગા.૩૧૯માં) બતાવેલું લક્ષણ જ તાવિક છે યોગબિંદુ ગા.૩૨૬) તેથી અહીં અધિક ચર્ચાથી સર્યું, કેમકે વિપક્ષમાં દેટ-ઈષ્ટબાધા દર્શાવવા માત્રથી જ દૈવાદિના યથાવસ્થિતસ્વરૂપનો ખ્યાલ આવી જાય છે. તેથી તે અંગેના બીજાઓએ કહેલા વિકલ્પો જાતિવિકલ્પરૂપે જ્ઞાત થાય છે. (અહીં ગા. ૭૮૩ થી દૈવ-પુરુષકાર સંબંધી ચાલતી ચર્ચા પૂ. હરિભદ્ર સુ.મ. રચિત યોગબિંદુગ્રંથમાં પણ દેખાય છે. જૂઓ ગા.૩૧૮ થી૩૩૯, તેમાં અહીં ટીકાકારે ટ્રેવ...માત્મતિ વિદ્યાર્ ઈત્યાદિ જે ગાથા લીધી છે, તે યોગબિંદુની ૩૨પમી ગાથા છે. “પ્રધાનના નામે માત્ર કર્મને જ ફળદ માનવાવાળા સાંખ્યમતના પ્રતિવિધાન જવાબરૂપે આ ગાથા બતાવી છે. ત્યાં ટીકાકારે આ ગાથાનો અર્થ આવો કર્યો છે... દેવ પૂર્વદેહથી ઉત્પન્ન થયેલું (પૂર્વભવમાં) જીવે મિથ્યાત્વાદિ હેતુઓથી જે કર્યું હોય ( બાંધ્યું હોય) તેવું કર્મ. અને પુરુષકાર તેવા પ્રકારના કર્મ હોવા છતાં વ્યવહારીઓ= સંસારી જીવોએ જે વાણિજયરાજસેવાદિ કરવાના થાય તે. (ગા. ૩૨૫) પ્રસ્તુતમાં (ધર્મસંગ્રહણિમા) શ્રી મલયગિરિજીએ આ ગાથાને જાતિવિકલ્પરૂપ બતાવી છે. તેઓએ પ્રાય: એ તાત્પર્યને નજરમાં લીધું છે કે, કેટલાક પૂર્વભવના પુરુષાર્થને કુતકર્મ અને વર્તમાનકાલીન પુરુષાર્થને ક્રિયમાણકર્મ માની આ બેવચ્ચે તાવિકભેદ સ્વીકારતા નથી અને કાં તો માત્ર પુરુષાર્થને અથવા માત્ર કર્મને જ ફળદ માને છે. આ તેઓનો અતિવિકલ્પ છે. કેમ કે કર્મ અને પુરુષકારવચ્ચે ઘણા મુદ્દાને લઇ તાત્વિકભેદ છે. (૧) ભૂતકાળના પુરુષાર્થનું સારું-નરસું ફળ વર્તમાનમાં કર્મના માધ્યમથી મળે..કર્મ વિના તે શકય નથી. (૨) કર્મ આત્મવ્યાપાર વિના ફળી ન શકે, અને આત્મવ્યાપાર કર્મને અનુરૂપ હોય છે (સામાન્યથી આમ પરસ્પર ઉપષ્ટભક છે. તેથી વર્તમાનપુરુષાર્થ માત્ર ક્રિયમાણકર્મરૂપ નથી, પણ પૂર્વકર્મને ફળ દેવામાં સહાયક પણ છે. (૩) બન્ને વચ્ચે બાધ્ય- બાધકભાવ છે. કયાંક કર્મ બળવત્તર હોય, તો પુરુષકારને બાધિત કરે છે (કર્મફળથી ભિન્ન પુરુષાર્થને નિષ્ફળ કરે છે,) કયાંક પુરુષાર્થ કર્મને બાધિત કરે છે જેથી કર્મ સ્વફળનો વિપાક (અનુભવ) કરાવ્યા વિના ખરી પડે.) સામાન્યથી અચરમાવર્તમાં કર્મથી પુરુષાર્થ બાધિત થાય છે, શરમાવર્તમાં પુરુષાર્થથી કર્મ બાધિત થાય છે. આમ પણ પુરુષકાર માત્ર ક્રિયમાણકર્મરૂપ નથી. (૪) કર્મ પ્રતિમાયોગ્ય લાકડા સમાન છે. કર્મમાં તેને ફળ દેવાની યોગ્યતા છે. પણ પુરુષાર્થરૂપ શિલ્પી પ્રતિમા ઘડે. અર્થાત ફળ દેવાનું કાર્ય પુરુષાર્થથી થાય. અને પછી જેમ પ્રતિમામાં યોગ્યતા રહેતી નથી તેમ કર્મમાં એ પછી ફળદાનયોગ્યતા રહેતી નથી (ઉદિત થયા પછી નિર્જરિત થાય છે અને માત્ર કાર્મણપુદગળરૂપ રહે છે.) (૫) કર્મ બીજા કર્મ કે જીવ૫૨ ઉપઘાત-અનુગ્રહ (કર્મનો કર્મપર ઉપધાતનેનાં ઉદયાદિ રોકવા૫ છે. અનુગ્રહ સ્વોદયાદિવખતે તેઓના પણ ઉદયાદિ કરવારૂપ છે.) સ્વત: કરી ન શકે, તેવા તેવા વીર્યપરિણામરૂપે પુરુષકારના આધારે જ તે શક્ય છે. (૬) દાનાદિકિયા સમાનતયા હોવા છતાં તેમાં જે તીવ્રાતીવ્ર શુભ પરિણામરૂપ આત્મવ્યાપાર ઉમેરાય છે, તે જ તજજન્ય કર્મનાં ફળમાં તક્તમભાવરૂપ વિચિત્રતાના નિયામક છે. અને (૭) કૃમ્નકર્મક્ષયરૂપ મોક્ષ પણ પુરુષકારનું 'કાર્ય છે. જે પુરુષકાર માત્ર ક્રિયમાણકર્મરૂપ જ હોત, તો કર્મની જ પરંપરા ચાલવાથી કોઈનો મોક્ષ થાત જ નહીં. આમ અનેક રીતે કર્મ-પુરુષકાર * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ -ભાગ ૨ - 109 * * * * * * * * * * * * * Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + +न्थिहेश + + + + વચ્ચે ભેદ પડે છે, અને જગતના તેવાતેવા કાર્યોમાં બન્નેની અપેક્ષા રહે છે. તેથી પૂર્વભવિક પુરુષાર્થથી કૃતકર્મ અને વર્તમાનકાલીન પુરુષાર્થથી ક્રિયમાણકર્મને સ્વીકારી માત્ર પુરુષાર્થ કે માત્ર કર્મને જ ફળદ સ્વીકારવા તે જાતિવિલ્પરૂપ છે, તેવો ટીકાકાર આચાર્યનો આશય છે.) પ્ર૭૮ના · બહુવિઘ્નોથી ગ્રંથિભેદ દુર્લભ तस्मात् तेथी - पगतं वोच्छामि अतो गंठिब्भेदम्मि दंसणं नियमा । सोय दुल्लभो परिस्समचित्तविघायाइविग्घेहिं ॥७८८ ॥ (प्रकृतं वक्ष्यामि अतो ग्रन्थिभेदे दर्शनं नियमात् । स च दुर्लभः परिश्रमचित्तविघातादिविघ्नैः ॥) अत ऊर्द्ध प्रकृतं वक्ष्यामि । तदेवाह - 'गंठीत्यादि' नियमात् - नियमेन ग्रन्थिभेदे सति दर्शनं - सम्यक्त्वं भवति नान्यथा, न तु ग्रन्थिभेदे सति नियमाद्दर्शनमिति व्याख्येयं, अस्यार्थस्य 'भिन्नम्मि तम्मि लाभो' इत्यादिना प्रागेवाभिहितत्वात्, ग्रन्थिभेदस्य च एवमप्राधान्यमुक्तं स्यात्, तथा च सति नोत्तरो ग्रन्थः सुश्लिष्टो भवेदिति । स च ग्रन्थिभेदः परिश्रमचित्तविघातादिभिर्विघ्नैरुत्पद्यमानैरतिशयेन दुर्लभ एव ॥ ७८८ ॥ ગાથાર્થ:- હવે પ્રસ્તુત વાત કરીશું. અવશ્ય ગ્રંથિભેદ થયા બાદ જ સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. અહીં ગ્રંથિભેદ થયા બાદ અવશ્ય સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત થાય છે.' એવો અર્થ કરવો નહીં. કેમકે ભિન્નમ્મિ તમ્મિ લાભો' (ગા. ૭૫૪) ઇત્યાદિ ગાથાદ્વારા એ અર્થ બતાવી જ દીધો છે. વળી એ અર્થ કરવામાં સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ મુખ્ય બને છે, ગ્રન્થિભેદ ગૌણ બને છે. અને તો પછીની વાતસાથે સંબંધ ક્લિષ્ટ બને. તેથી અવશ્ય ગ્રન્થિભેદ થયા બાદ જ સમ્યક્ત્વનો લાભ થાય' એવો અર્થ બરાબર છે. આ ગ્રન્થિભેદ પરિશ્રમ, ચિત્તવિધાતવગેરે ઉત્પન્ન થતા વિઘ્નોના કારણે અત્યંતદુર્લભ છે. ૫૭૮૮ા तदेव ( एतदेव पाठा.) भावयति - પરિશ્રમાદિના કારણે દુર્લભતાનું ભાવન કરે છે. पर आह અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે सो तत्थ परिस्सम्मति घोरमहासमरनिग्गतादिव्व । विज्जाव सिद्धिकाले जह बहुविग्घा तहा सोवि ॥ ७८९ ॥ (स तत्र परिश्राम्यति घोरमहासमरनिर्गतादिवत् । विद्येव सिद्धिकाले यथा बहुविघ्ना तथा सोऽपि ॥) स- जीवस्तत्र - ग्रन्थिदेशे प्राप्तः सन् परिश्राम्यति । किंवदित्याह - 'घोरेत्यादि' घोरमहासमरनिर्गतादिवत्अनेकभटकोटिविनिपातलब्धजयपताकमहारोद्रसमरमध्यविनिर्गतपुरुषादिवत्, आदिशब्दात् भुजमात्रसमुत्तीर्णमहासमुद्रपुरुषादिपरिग्रहः । तदेवं परिश्रमरूपं विघ्नमभिधाय चित्तविघातादिविघ्नानाह-यथा विद्या सिद्धिकाले - सिद्ध्यवसरे चित्तविघातादिबहुविघ्ना भवन्ति (ति) तथा सोऽपि ग्रन्थिभेदो द्रष्टव्यः ॥ ७८९ ॥ ગાથાર્થ:- તે જીવ ગ્રન્થિદેશ પ્રાપ્ત થાય, ત્યારે થાકી જાય છે. જેમ અનેકકરોડ યોદ્ધાઓનો વિનાશ કરી મહાયુદ્ધમાં વિજય પામેલો પુરુષ એ યુદ્ધમાંથી બહાર નીકળે ત્યારે ખુબ થાક અનુભવે છે. (આદિશબ્દથી−) અથવા જેમ કોઇ મહાપુરુષ બાહુબળમાત્રથી મહાસમુદ્રને તરી કિનારે આવે ત્યારે ખૂબ થાક અનુભવે છે. તેમ અહીં સમજવું. (કર્મગ્રન્થાદિગ્રંથોમાં અપૂર્વકરણ કર્યા પછી થાકવાનો નિર્દેશ મળે છે.) આ પરિશ્રમરૂપવિઘ્ન બતાવ્યું. હવે ચિત્તવિધાતઆદિવિઘ્નો બતાવે છે→ જેમ સિદ્ધિકાળે વિધા ચિત્તવિધાતવગેરે (-ચંચળતાઆદિ) અનેક વિઘ્નોવાળી હોય છે તેમ એ ગ્રન્થિભેદ પણ બહુવિઘ્નવાળો સમજવો. ૫૭૮૯ા સમ્યક્ત્વાદિગુણોની પ્રાર્થનીયતા कम्मट्टिती सुदीहा खविता जड़ णिग्गुणेण सेसंपि । सखवे निग्गुणो च्चिय किंथ पुणो दंसणादीहिं ॥७९० ॥ निर्गुणेनैव (कर्मस्थितिः सुदीर्घा क्षपिता यदि निर्गुणेन शेषमपि । स क्षपयतु निर्गुण एव किमत्र पुन दर्शनादिभिः ॥) यदि तावत् कर्म्मस्थितिः सुदीर्घा - पल्योपमासंख्येयभागसमधिकैकोनसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणा सता तेन जीवेन यथाप्रवृत्तिकरणतः क्षपिता, तर्हि शेषमपि स जीवो निर्गुण एव सन् क्षपयतु किमत्र दर्शनादिभिः प्रार्थ्यमानैः कार्यमुति...? ॥७९०॥ + + धर्मसंशि-लाग २ - 110 + + + + + Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + + a an+ + + + * * * * * * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પલ્યોપમના અસંખ્યયભાગ સહિત ૬૯ કોટાકોટીસાગરોપમ જેટલી સદીર્ધ કર્મસ્થિતિ જો જીવે નિર્ગુણ રહીને યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા નાશ કરી, તો તે જીવ નિર્ગુણ રહને જ બાકીની (પ્રમાણમાં અતિઅલ્પ) કર્મસ્થિતિ ખપાવી દે. અહીં (એ બાકીની સ્થિતિના નાશ માટે) પ્રાર્થિત કરાતા (અત્યંત અભિલાષા કરાતા) સમ્યગ્દર્શનાદિની શી જરૂર છે? (તાત્પર્ય - સમ્યકત્વાદિગુણના અભાવમાં મોટી સ્થિતિનો નાશ શકય હોય, તો બાકીની અ૫સ્થિતિનો નાશ પણ કેમ શકચ ન બને?) u૭૯૦ના अत्राह - અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે – पाएण पुव्वसेवा परिमउई साहणम्मि गुस्तरिया । ___ होइ महाविज्जाए किरिया पायं सविग्घा य ॥७९१॥ (प्रायेण पूर्वसेवा परिमृद्वी साधने गुस्तरिका । भवति महाविद्यायाः क्रिया प्रायः सविघ्ना च ॥) इह यथा महाविद्यायाः पूर्वसेवा-पूर्वक्रिया परिमृद्वी-सुकरा भवति तथाविधाल्पसामग्यपेक्षत्वात् । साधने चेति -सिद्धिः साधनं तस्मिन् सिद्धिवेलायामितियावत् क्रिया जापादिलक्षणा गुर्वी भवति-अत्यन्तदुष्करा भवति, अन्तश्चित्तसुप्रणिधानादिबहिर्जापादिलक्षणसकलसामग्रीसन्निधानापेक्षत्वात्। तथा प्रायःसविघ्ना च-बिभीषिकोत्थानादिविघ्नबहुला च भवति ॥७९१॥ - ગાથાર્થ:-ઉત્તર૫:-અહીં જેમ (પ્રજ્ઞપ્તિવગેરે) મહાવિધાની પૂર્વકિયા તેવાપ્રકારની અ૫સામગ્રીની અપેક્ષા રાખતી લેવાથી સરળ હોય છે. જયારે એ વિદ્યાની સાધના-સિદ્ધિવખતે જાપવગેરરૂપ ક્રિયા અત્યન્તદુષ્કર હોય છે. કેમકે તે ચિરસપ્રણિધાનાદિ આંતરિક અને જાપવગેરે બાહા એમ સંપૂર્ણ સામગ્રીની હાજરીની અપેક્ષા રાખે છે. (સામગ્રીમાંથી એકાદની અલ્પતા, અભાવ કે અવિધિથી પણ સિદ્ધિ અટકી પડે.) વળી એ પ્રાય: ભયાવહ ઉપસર્ગ થવા વગેરે અનેક વિઘ્નોથી વ્યાપ્ત હોય છે. પ૭૯૧ાા तह कम्मठितिक्खवणा परिमउई मोक्खसाहणे गुरई। इह दंसणादिकिरिया दुलहा पायं सविग्घा य ॥७९२॥ (तथा कर्मस्थितिक्षपणा परिमृद्वी मोक्षसाधने गुर्वी । इह दर्शनादिक्रिया दुर्लभा प्रायः सविघ्ना च ) तथा इह-सुदीर्घकर्मस्थितिक्षपणे या क्रिया सा मृद्वी-अत्यन्तसुकरा भवति यथाप्रवृत्तकरणादिमात्रसामग्यपेक्षणात्, या तु मोक्षसाधने-मोक्षसिद्धिवेलायां सा गुर्वी-अत्यन्तदुष्करा भवति, सकलदर्शनलाभादिसामग्रीसन्निधानापेक्षणात् । तथा दुर्लभा-न सा येन केनचिदवाप्तुं शक्यते, अवाप्तापि च प्रायः सविघ्ना भवति, ततोऽवश्यं दर्शनादिकं तत्सामग्रीभूतं यथावस्थितं प्रार्थ्यत इति ॥७९२।। ગાથાર્થ:- આ જ પ્રમાણે પ્રસ્તુતમાં સુદીર્ધકર્મસ્થિતિ ક્ષય કરવા અંગે થતી ક્રિયા માત્ર યથાપ્રવૃત્તકરણાદિ અભ્યસામગ્રીની અપેક્ષા રાખતી લેવાથી અત્યન્ત સરળ છે. જયારે મોક્ષની સિદ્ધિવખતની ક્રિયા સમ્યગ્દર્શનાદિ સકળ સામગ્રીની હાજરીની અપેશ્વા રાખતી હેવાથી અત્યન્ત દુષ્કર છે. વળી આ દર્શનાદિયક્રક્રિયા અત્યન્ત દુર્લભ છે, જે તે કઈ પામી શકે નહીં. વળ 1 પ્રાપ્ત થયા પછી પણ પ્રાય: અનેકવિધ્વવાળી હોય છે. તેથી નિર્ગુણ જીવ એ કામ કરી શકે નહીં.) તેથી અવશ્ય અંગે સમ્યગ્દર્શનાદિ યથાવસ્થિત ગુણો પ્રાર્થનીય છે. કેમ કે તે ક્રિયાના સામગ્રીભૂત છે. પ૭૯રા अत्रैव परिहारान्तरमाह - આ જ વિષયમાં પૂર્વપક્ષના પ્રશ્નનો બીજો જવાબ બતાવે છે– अहव जओ च्चिय सुबहु खवितं तो णिग्गुणेण सेसंपि । स खवेइ लभइ य जओ सम्मत्तसुयादिगुणलाभं ॥७९३॥ (अथवा यत एव सुबहु क्षपितं तेन निर्गुणेन शेषमपि । स क्षपयति लभते च यतः सम्यक्त्वश्रुतादिलाभमिति ) अथवा यत एव सुबहु कर्म तेन जीवेन क्षपितमत एव स जीवो निर्गुण एव सन् शेषमपि कर्म क्षपयति, .. यस्मात्कर्मविवरसामर्थ्यांदवश्यं स लभत एव चोऽवधारणे सम्यक्त्वश्रुतादिलाभमिति ॥७९३॥ ગાથાર્થ:- અથવા, તે જીવે ઘણા કર્મ ખપાવી નાખ્યા. તેથી જ તે જીવ નિર્ગુણ રહીને જ બાકીના પણ કર્મ ખપાવે છે. જેથી કર્મવિવર (કર્મની અભેદ દિવાલમાં પડેલા છિદ્રના) સામર્થ્યથી તે જીવ અવશ્ય સમ્યકત્વ, કૃતવગેરે ગુણોને પ્રાપ્ત કરશે. (મૂળમાં “ચ' જ કારઅર્થે છે.) u૭૯૩ ++++++++++++++++ RA-MIN२-111+++++++++++++++ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** **** *** ******** श त्रय५३५ *+++++++++++++++++ કરણત્રયસ્વરૂપ तं च सम्यक्त्वश्रुतादिगुणलाभं करणेनैव लभते इति करणवक्तव्यतामाह - આ સમ્યકત્વ, શ્રતવગેરે ગુણોનો લાભ કરણદ્વારા જ પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી હવે ‘કરણ સંબંધી વક્તવ્ય રજૂ કરે છે. करणं अहापवत्तं अपुव्वमणियट्टिमेव भव्वाणं । इतरेसिं पढम चिय भण्णइ करणं तु परिणामो ॥७९४॥ (करणं यथाप्रवृत्तमपूर्वमनिवृत्ति एव भव्यानाम् । इतरेषां प्रथममेव भण्यते करणं तु परिणामः ॥ करणं-वक्ष्यमाणस्वरूपं, तच्च त्रिधा-यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च । तत्र यथा-एवमेव विशिष्टनिमित्तमन्तरेणेतियावत्प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं सांसिद्धिकमिति भावार्थः । तथा अप्राप्तपूर्वमपूर्व, तथा निवर्तनशीलं निवर्त्ति न निवर्ति अनिवर्ति तस्मिन् सति नियमेन सम्यग्दर्शनलाभात् । एतच्च करणत्रितयं भव्यानामेव, एवशब्दो भिन्नक्रमः, इतरेषामभव्यानां पुनः करणं प्रथममेव भवति न त्वितरे द्वे । तथा चोक्तम्-"एतत्रिधापि भव्यानामन्येषामाद्यमेव हि" । इति । किंस्वरूपं पुनरिदं करणं यदित्थं विभिद्यत (विभज्यत पाठा.) इत्याह – 'भण्णइ करणं तु परिणामो' तुः पुनरर्थे । करणं पुनर्भण्यते तीर्थकरगणधरैः परिणामो-जीवस्याध्यवसायविशेषः ॥ तदुक्तम्- "करणं परिणामोऽत्र सत्त्वानामिति" ॥७९४॥ ગાથાર્થ:- કરણનું સ્વરૂપે આગળઉપર બતાવશે. આ કરણ ત્રણ પ્રકારે છે. (૧) યથાપ્રવૃત્તકરણ (૨) અપૂર્વકરણ અને (૩) અનિવૃત્તિકરણ. અહીં, યથા એમ જ-કોઈ વિશિષ્ટનિમિત્ત વિના જ પ્રવર્તતું કરણ, અર્થાત સહજસિદ્ધકરણ યથાપ્રવૃત્ત કરણ છે. (૨) પૂર્વે ક્યારેય પ્રાપ્ત નહીં થયેલ હોવાથી અપૂર્વકરણ તથા (૩) નિવૃત્તિ પાછા ફરવાના નિષ્ફળ નિવૃત્ત થવાના) સ્વભાવવાળું જે નથી અર્થાત જે સફળ છે તે અનિવર્તિકરણ (અનિવૃત્તિકરણ). આ કરણ થયા બાદ અવશ્ય સમ્યગ્દર્શનનો લાભ થતો હોવાથી આ કરણનું “અનિવર્તિ નામ સાર્થક છે. આ ત્રણ કરણોનો સમુદાય માત્ર ભવ્યજીવોને જ પ્રાપ્ત થાય છે. (મૂળમાં “એવ'પદનો અન્વય “ભવાણં' પદ પછી છે.) ઇતર અભવ્યોને તો માત્ર પ્રથમ યથાપ્રવૃત્તકરણ જ હોય છે, બાકીના બે નહીં. કહ્યું જ છે કે “આ ત્રણે ય પ્રકારના કરણો ભવ્યોને જ હોય છે, અન્યોને (=અભવ્યોને) તો પ્રથમ જ હોય.' ‘કરણનું એવું શું સ્વરૂપ જે કે જેથી તે અંગે આવો વિભાગ ध्र्यो? मेवी शंना समाधानमा छे छे. एes...' त्याlt.... (भूगमा 'तु' ५६ पुन: (तो) मथे .) तीर्थ४२३ જીવના તેવા અધ્યવસાય-પરિણામવિશેષને કરણ કહે છે.... કહ્યું જ છે કે “જીવોનો પરિણામ અહીં કિરણ તરીકે સમજવો. પ૭૯૪ अथ कतमत् करणं क्व भवतीत्यत आहહવે, કયું કરણ ક્યાં છે? તે બતાવે છે जा गंठी ता पढमं गठिं समइच्छतो अपुव्वं तु । अणियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥७९५॥ (यावद् ग्रन्थिस्तावत् प्रथमं ग्रन्थिं समतिगच्छतोऽपूर्व तु । अनिवर्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे ॥ इहोत्कृष्टां स्थितिमारभ्य यावद् ग्रन्थिदेशावाप्तिस्तावत्प्रथमं करणं यथाप्रवृत्तिनामकं भवति । ग्रन्थिं तु पूर्वोक्तस्वरूपं समतिगच्छतः-समतिक्रामतोऽ पूर्वम्-अपूर्वनामकं द्वितीयं करणं भवति । अनिवर्तिकरणं पुनः 'सम्यक्त्वपुरस्कृते' सम्यक्त्वं पुरस्कृतम्-अभिमुखीकृतं येन तस्मिन् सम्यक्त्वाभिमुखे इतियावत्तस्मिन् जीवे भवतीति ॥८९५॥ ગાથાર્થ:- જયાં ગ્રન્થિદેશની પ્રાપ્તિ છે, ત્યાં સુધી ( ગ્રન્થિપ્રદેશ સુધી લાવતો આત્મપરિણામ) યથાપ્રવૃત્તકરણ હોય છે. જયારે ગ્રન્થિદેશને ઓળગે છે ત્યારે અપૂર્વકરણ હોય છે. (જીવને ગ્રWિદેશ ઓળંગવામાંગ્રંથિભેદ કરવામાં કારણભૂત કરણ અપૂર્વકરણ છે. જયારે જીવ સમ્યકત્વની અભિમુખ હોય છે. સમ્યકત્વ પામવાની તૈયારીમાં હોય છે. ત્યારે અનિવૃત્તિકરણ ધ્યેય છે. આ કરણ જીવને સમ્યક્ત્વની તદન સમીપ લાવી દે છે.) પ૭૯પા . . ++++++++++++++++ A RT- 1 - 112+++++++++++++++ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++सभ्यास+++++++++++++++++++ સમ્યકત્વનું સ્વરૂપ तदेवं करणवक्तव्यतामभिधाय सांप्रतं सम्यक्त्ववक्तव्यतामभिधातुकाम आह - આમ કરણ અંગેનું વકતવ્ય રજુ કર્યું. હવે સમ્યકત્વઅંગે વકતવ્ય રજૂ કરે છે. संमत्तंपि य तिविहं खवो(ओ)वसमियं तहोवसमियं च । खइयं च कारयादि य(व)पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥७९६॥ (सम्यक्त्वमपि च त्रिविधं क्षायोपशमिकं तथौपशामकं च । क्षायिकं च कारकादि वा प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥ सम्यक्शब्दः प्रशंसायामविरोधे वा,सम्यक्-जीवस्तस्य भावः सम्यक्त्वं प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा जीवस्य स्वभावविशेष इतियावत् । तदपि त्रिविधं-त्रिप्रकारम, आस्तामनन्तरोक्तं करणं त्रिविधमित्यपिशब्दार्थः । चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः। उक्तं च - "तं पंचहा सम्म-उवसमं सासाणं खयसमजं वेयगं खयगमिति" (छा. तत् पञ्चधा सम्यक्त्वम्-औपशमिकं सास्वादनं क्षयशमजं वेदकं क्षायिकमिति) । त्रैविध्यमेव दर्शयति-क्षायोपशमिकं तथा औपशमिकं क्षायिकं चेति । कारकादि वेति वाशब्दस्वैविध्यस्य प्रकारान्तरतासूचनार्थः । कारकमादिशब्दात् रोचकं व्यञ्जकं च प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥७९६॥ यार्थ:- सभ्य३० प्रशंसामर्थमा या विरोधार्थमा आवे छे. सभ्य =®, नेनो मा सभ्यत्व. अपनी પ્રશસ્ત અથવા મોક્ષને અવિરોધી સ્વભાવવિશેષ સમ્યકત્વ છે. જેમ પૂર્વોક્તકરણ ત્રણ પ્રકારે છે. તેમ સમ્યકત્વ પણ (અહીં અપિ”શબ્દનો આવો અર્થ છે.) ત્રણ પ્રકારે છે. મૂળમાં “ચ'પદ અન્તર્ગત અનેક ભેદોનું સૂચક છે, કહ્યું જ છે કે 'ने सभ्यत्व ५५५अरे छे. (१) योपशम (२)सास्वाइन (3) क्षयोपशम०४ =ायोपशम (४) ६ अने (५) us सभ्यत्वनी त्रिवियत छ (१)मायोपशम (२) मोपशम भने (3) यिs. (भूगमा ५६ अन्यारे विविधता સૂચવે છે.) કારકાધિરૂપે પણ ત્રણ પ્રકાર છે. કારક, રોચક અને વ્યંજક= આમ વીતરાગભગવાનોએ કહ્યું છે. પ૭૯૬ાા લાયોપથમિક સભ્યત્વ तत्र क्षायोपशमिकं तावदभिधित्सुराह - એમાં સૌ પ્રથમ લાયોપથમિક સમ્યકત્વનું સ્વરૂપદર્શન કરાવવાની ઇચ્છાથી કહે છે – मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुदियं च उवसंतं । ___ मीसीभावपरिणतं वेदिज्जंतं खओवसमं ॥७९७॥ (मिथ्यात्वं यदुदीण्णं तत् क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् । मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकम् ॥ मिथ्यात्वं-मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म यत् उदीर्णम्-उद्धृतशक्तिकमुदयावलिकाप्रविष्टमितियावत् तत् क्षीणंप्रलयमुपगतम्, अनुदितं च-अनुदीर्णं च उपशान्तं, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यात्वस्वभावं च, तत्र विष्कम्भितोदयं-भस्मच्छन्नाग्निरिवानुद्रिक्तावस्थम्, अपनीतमिथ्यात्वस्वभावं-मदनकोद्रवोदाहरणेनापादितसम्यक्त्वस्वभावम् । ननु यत् विष्कम्भितोदयं मिथ्यात्वं तस्यानुदीर्णता युक्ता, विपाकेन वेदनाभावात्, यत्पुनः सम्यक्त्वरूपं तद्विपाकेन वेद्यत एवेति कथं तस्यानुदीर्णता युज्यत इति ? सत्यमेतत्, किंतु तस्यापि सम्यक्त्वरूपस्यापनीतमिथ्यात्वस्वभावतया मिथ्यात्वरूपेण वेदनाऽभावादुपचारेणानुदीर्णत्वमुच्यत इत्यदोषः । यद्वा चशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगः, ततो यन्मिथ्यात्वमुदीर्णं तत्क्षीणं यत्पुनरनुदीर्णं तत् किंचित् उपशान्तं च, उपशान्तं नाम सम्यक्त्वरूपेण परिणतं, तदेवं (व पाठा.) मिश्रीभावपरिणतंक्षयोपशमस्वभावमापन्नं वेद्यमानम्-अनुभूयमानं मिथ्यात्वं प्रदेशानुभवनेन सम्यक्त्वं विपाकेन क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते, नन्वात्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वम् "खओवसमादिभेयं सुहायपरिणामरूवं त्विति" (छा. क्षयोपशमादिभेदं शुभात्मपरिणामरूपं तु) वचनप्रामाण्यात्, ततो मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यत इति विरुध्यते, मिथ्यात्वदलिकस्यैव न्नस्य वेद्यमानत्वात्, नैष दोषः, तथाविधपरिणामहेतुतया तेषामेव पुद्गलानां सम्यक्त्वोपचारात् ॥७९७॥ ગાથાર્થ:- મિથ્યાત્વમોહનીયકર્મના જે દલિકો ઉદયમાં આવ્યા હેય, અર્થાત પોતાનું સામર્થ્ય પ્રગટ કરી રહ્યા હોય, કાર્મગ્રંથિક ભાષામાં કહીએ તો ઉદયાવલિકામાં પ્રવિષ્ટ થયા છે, તે ક્ષીણ થયા હોય અને જે ઉદયમાં નથી તે ઉપશાન થયા હોય. *ઉપશાન એટલે વિકસ્મૃિતોદય-અલ્પકાળમાટે અટકાયેલા ઉદયવાળા' “અને અપની મિથ્યાત્વસ્વભાવ-દૂર કરેલાં મિથ્યાત્વસ્વભાવવાળા એમ બે અર્થે છે. તેમાં “વિષ્કસ્મિાતોદય' એટલે “રાખમાં ઢંકાયેલા અગ્નિની જેમ આવેગ વિનાની ++++++++++++++++ बलि-मा0 2 - 113 * * * * * * * * * * * + + + + Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ++ ++++++++સમ્યકત + + * * * * * * * * * * અવસ્થાવાળું.” “અપની મિથ્યાત્વસ્વભાવ' એટલે મદનકોદરા -ચોખાની. હલકી જાતવિશેષ)ના ષ્ટાન્નથી જેમાં સમકતનું આપાદાન કર્યું હોય. (મદનકોદરા સ્વભાવથી મદ પેદા કરે છે. તેને ખાંડવાઆદિથી શુદ્ધ કરવામાં આવે, ત્યારે ત્રણ વિભાગ થાય છે. કેટલાક કોદરા પોતાનો મેદસ્વભાવ ગુમાવી શુદ્ધસ્વરૂપ પામે છે. કેટલાક કોદરા અર્ધશુદ્ધ બને છે. અને કેટલાક એવા ને એવા અશુદ્ધ રહે છે. તેમાં અશક, રહેલા કોદરાતુલ્ય મિથ્યાત્વ, અર્ધશુદ્ધતુલ્ય મિશ્ર અને શુદ્ધતુલ્ય સમ્યકત્વ છે. મૂળ મિથ્યાત્વસર્જક મિથ્યાત્વમોહનીય કર્મના દલિકોપર જયારે કરણાદિ પ્રક્રિયા થાય છે, ત્યારે આમ બને છે.) શંકા:- વિષ્કસ્મિતઉદયવાળા મિથ્યાત્વને “અનુદીર્ણ કહેવું બરાબર છે, કેમકે વિપાકથી ઉદય નથી. પરંતુ મિથ્યાત્વનું જ જે સમ્યકત્વ રૂપે થયું, તે તો વિપાકથી અનુભવાય છે. તેથી તે રૂપે અનુદીર્ણ શી રીતે યોગ્ય ગણાય? સમાધાન:- તમારી વાત બરાબર છે. પણ તે સમ્યકત્વરૂપ પણ દૂર કરાયેલા મિથ્યાત્વસ્વભાવવાળું હોવાથી તેમાં મિથ્યાત્વરૂપે વેદન-અનુભવ નથી. તેથી ઉપચારથી અનુદીર્ણ કહેવામાં કોઇ દોષ નથી. અથવા “ચ પદ દૂર સંબંધિત છે. તેનો ઉપશાન્તપદ પછી અન્વય કરવો. તેથી જે મિથ્યાત ઉદીર્ણ થયું તે નાશ પામ્યું અને જે અનુદીર્ણ છે, તે કાંક ઉપશાન્ત શેય... ઉપશાન એટલે સમ્યકત્વરૂપે પરિણામ પામેલું શ્રેય.. આમ ક્ષય-ઉપશમરૂપ મિશ્રભાવે પરિણામ-સ્વભાવ પામેલું અને તે રૂપે અનુભવાતું, અર્થાત પ્રદેશોદયરૂપે મિથ્યાત્વ અને વિપાકોદયરૂપે સમ્યકત્વનો અનુભવ કરાવતું સમ્યકત્વ લાયોપથમિક સમ્યક્ત કહેવાય. શકા:- “લયોપશમાદિ ભેદવાળું શુભઆત્મપરિણામરૂપ સમ્યકત્વ છે. આવા આગમવચનના પ્રમાણથી તો સમ્યકત્વ આત્મપરિણામરૂપે સિદ્ધ છે. તેથી મિશ્રભાવરૂપે પરિણત અને વેદાતું લાયોપથમિક સમ્યકત્વ છે. આવા કથનમાં વિરોધ આવશે. કેમકે અહીં તો સમ્યકત્વરૂપને પામેલા મિથ્યાત્વના દલિકો (કર્મયુદગળો) જ તેવારૂપે વેદાઇ રહ્યા છે. સમાધાન:- અહીં દોષ (વિરોધ) નથી. કેમકે તે સમ્યકત્વરૂપે અનુભવાતા મિથ્યાત્વકર્મના પૌદ્ગળિકલિકો જીવના તેવા આત્મપરિણામમાં કારણ બનતા હોવાથી “કારણમાં કાર્યોપચાર' ન્યાયથી તેઓમાં સમ્યકત્વનો ઉપચાર કરી શકાય. પ૭૯૭ ઔપથમિક સમ્યકત્વ अधुनोद्देशक्रमानुसरणत औपशमिकं सम्यक्त्वमाह - હવે ઉદેશના ક્રમને અનુસારે ઔપશમિક સમ્યકત્વનું સ્વરૂપ બતાવે છે. उवसमियसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजी अखवियमिच्छो लभइ सम्मं ॥७९८॥ (औपशमिकश्रेणिगतस्य भवति औपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुञ्जोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्वम्॥). उपशमश्रेणिगतस्य-औपशमिकश्रेणिमनप्रविष्टस्य सतो भवत्यौपशमिकमेव सम्यक्त्वम् । तुरवधारणे । अनन्तानबन्धिनां दर्शनमोहनीयस्य चोपशमेन निर्वृत्तमौपशमिकम् । 'जोवेत्यादि' यो वाऽकृतत्रिपुञ्जः-तथाविधमन्दपरिणामोपेतत्वादनिर्वर्तितसम्यक्त्वमिथ्यात्वोभयरूपपञ्जत्रयोऽक्षपितमिथ्यात्व:-अक्षीणमिथ्यात्वः, क्षायिकसम्यग्दृष्टिव्यवच्छेदार्थं चैतद्विशेषणं, लभते-प्राप्नोति यत्सम्यक्त्वं तदौपशमिकमिति । इह हि कश्चिजन्तुस्तथाविधतीव्रपरिणामोपेतत्त्वेनापूर्वकरणमुपारूढः सन् मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकरोति । “अप्पुव्वेण तिपुंज मिच्छत्तं कुणइ कोद्दवोवमया" (छा. अपूर्वेण त्रिपुञ्ज मिथ्यात्वं करोति कोद्रवोपमया) इतिवचनात् । ततः सोऽनिवर्तिकरणसामर्थ्यात्सम्यक्त्वमुपनयन् क्षायोपशमिकमेव सम्यक्त्वमुपयाति, मिश्रीभावपरिणतस्य दलिकस्य विपाकतो वेद्यमानत्वात् । यस्तु तथाविधमन्दपरिणामोपेतत्वादपूर्वकरणमुपारुढोऽपि सन् मिथ्यात्वस्य त्रिपुञ्जीकरणासमर्थः सोऽनिवर्तिकरणसामर्थ्यादुदीर्णस्य मिथ्यात्वस्यानवयवशः क्षयात् अनुदीर्णस्य सर्वथा विष्कम्भितोदयत्वात् उषरदेशकल्पं मिथ्यात्वविवरमासाद्य औपशमिकमेव सम्यक्त्वमधिगच्छतीत्यागमोपनिषत् । तत इहोक्तं નો વા ગતિપુનીત્યાર’ I૭૧૮ . ગાથાર્થ:- ઉપશમશ્રેણિમાં પ્રવેશેલો જીવ ઔપશમિક સમ્યકત્વ જ પામે છે. (જકારઅર્થક છે.)અનન્તાનુબન્ધી ચાર (ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ) કષાય અને દર્શનમોહનીયત્રિક (સમ્યગ, મિશ્ર અને મિથ્યાત્વ) (આ ૪+૩૭ દર્શનસપ્તકતરીકે ઓળખાય છે.) ના ઉપશમથી ઉત્પન્ન થતું સમ્યકત્વ ઔપશામક છે. (આ થઈ ઉપશમશ્રેણિતની વાત, કાર્મગ્રંથિકમતે બદ્ધાયુક સાયિક સમ્યકતી પણ ઉપશમશ્રેણિ માંડી શકે. હવે પ્રથમ વખત સમ્યકત્વ પામનારની અપેક્ષાએ કહે છે.) અથવા તો તેવા પ્રકારના મંદ પરિણામના કારણે જેને સમ્યકત્વ, મિથ્યાત્વ અને સમ્યકત્વમિથ્યાત્વરૂપ ત્રણjજ કર્યા નથી (આમ તો સાયિકસમ્યકત્વી પણ અકૃત્રિપુંજ છે, પણ તેણે મિથ્યાત્વનો નાશ કર્યો છે, તેથી તેનાથી ભિન્નતા દર્શાવવા બીજું વિશેષણ કહે છે “અખયમિચ્છો'-) અને જેને મિથ્યાત્વનો * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 114 * * * * * * * * * * * * * * * Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++ ક્ષય કર્યો નથી એવો પુરૂષ જે સમ્યક્ત્વ પામે તે ઔપશષિક સમ્યક્ત્વ છે. અહીં કો'ક જીવ તેવા પ્રકારનો તીવ્ર પરિણામ પામી અપૂર્વકરણ પામે છે ત્યારે મિથ્યાત્વના દલિકોના ત્રણ પુજ કરે છે. અહીં અપૂર્વકરણથી કોદરાની ઉપમાથી મિથ્યાત્વના ત્રણ પુંજ કરે’ એવું વચન છે. આ વ્યક્તિ અનિવર્તિકરણના સામર્થ્યથી સમ્યક્ત્વ પામતીવખતે ક્ષાયોપમિક સમ્યક્ત્વ જ પામે. કેમકે મિશ્રીભાવરૂપ (પૂર્વોક્તક્ષય-ઉપશમભાવરૂપ) પરિણત થયેલા તે દલિકો જ વિપાકથી અનુભૂત થાય છે. અને જે તેવા પ્રકારના મન્દપરિણામના કારણે અપૂર્વકરણ પામવા છતા મિથ્યાત્વના ત્રણપુંજ કરવા સમર્થ બનતો નથી, તે જીવ અનિવત્તિકરણના સામર્થ્યથી ઉદયમાં આવેલા મિથ્યાત્વના ક્ષય અને ઉદયમા નહીં આવેલા મિથ્યાત્વનો સર્વથા ઉદય રોકવાથી ઉખર ભૂમિતુલ્ય બનેલા મિથ્યાત્વના આ વિવર (ગાબડું-છિદ્ર) ને પામી ઔશમિક સમ્યક્ત્વ પામે છે. આ આગમરહસ્ય છે તેથી અહીં‘જો વા અકયતિપુજ' ઇત્યાદિ કહ્યુ. ૫૭૯૮u अमुमेवार्थं स्पष्टयन्नाह - આ જ વાત સ્પષ્ટ કરતા કહે છે. → खीणम्मि उदिन्नम्म उ अणुदिज्जंते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसमसम्मं लभइ जीवो ॥ ७९९॥ (क्षीणे उदीर्णे तु अनुदीर्यमाणे च शेषमिथ्यात्वे । अन्तर्मुहूतमात्रं औपशमिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ॥ ) क्षीण एवोदीर्णे - उदयप्राप्ते अनुदीर्यमाणे च मन्दपरिणामोपपन्नरूपतया उदयमगच्छति च शेषमिथ्यात्वेअक्षीणमिथ्यात्वे किम्?- औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीवः । कियन्तं कालं यावदित्याह अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं, तत ऊर्द्धवमवश्यमवस्थानान्तराभावान्मिथ्यात्वमेव शरणीकरोति, तदुक्तम्- "आलंबणमलहंती जह सट्ठाणं न मुंचए इलिया एवं अकयतिपुंजो मिच्छं चिय उवसमी एइ ॥ १ ॥ त्ति (छा. आलम्बनमलभमाना यथा स्वस्थानं न मुञ्चतीलिका । एवमकृतत्रिपुञ्जो मिथ्यात्वमेवोपशमी एतीति) ॥७९९ ॥ ગાથાર્થ:- ઉદય પામેલા મિથ્યાત્વદલિકો ક્ષય પામે અને મંદપરિણામયુક્તસ્વરૂપ હોવાથી બાકીના મિથ્યાત્વદલિકો (અક્ષીણ મિથ્યાત્વ દલિકો) ઉદય ન પામે એવી અવસ્થાવખતે જીવ ઔપશમિકસમ્યક્ત્વ પામે છે. આ સમ્યક્ત્વ અંતર્મુહૂર્ત ટકે છે, પછી અવશ્યમેવ અન્ય અવસ્થાન ન હોવાથી મિથ્યાત્વનું જ શરણ લે છે. કહ્યું જ છે→ જેમ અન્ય આલંબન ન પામતી ઇયળ પોતાનુ સ્થાન છોડતી નથી. તેમ જેને ત્રણપુ જ કર્યા નથી તેવો ઔપમિકસમ્યક્ત્વી જીવ ફરીથી મિથ્યાત્વે આવે છે. ૫૭૯૯૫ एतदेव सम्यक्त्वं दृष्टान्तेन स्पष्टतरमभिधित्सुराह - આ જ સમ્યક્ત્વને દૃષ્ટાન્તદ્વારા વધુ સ્પષ્ટ કરે છે. → ऊसरदेसं दड्डिल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छस्स अणुदए उवसमसम्मं लभइ जीवो ॥८०० ॥ (ऊषरदेशं दग्धं च विध्यायति वणदवः प्राप्य । इति मिथ्यात्वस्य अनुदये औपशमिकं लभते जीवः ॥) ऊषरं नाम यत्र तृणादेरसंभवस्तद्रूपं देशं, दग्धं वा पूर्वमेवाग्निना प्राप्य वनदवो यथा विध्यायति तत्र दाह्याभावात्, इतिः–एवं तथाविधपरिणामवशान्मिथ्यात्वस्यानुदये सत्योपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीव इति । अत्र वनदवकल्पं मिथ्यात्वं ऊषरादिदेशस्थानीयं तथाविधपरिणामकण्डकमिति । नन्वौपशमिकसम्यक्त्वस्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्वात्को विशेषः ? उभयत्रापि ह्यविशेषेणोदितं मिथ्यात्वं क्षीणमनुदितं चोपशान्तमिति, उच्यते-अस्ति विशेषः, क्षायोपशमिके हि सम्यक्त्वे मिथ्यात्वस्य प्रदेशानुभवोऽस्ति नत्वौपशमिके सम्यक्त्वे इति । अन्ये तु व्याचक्षते - श्रेणिमध्यवर्त्तिन्येवौपशमिके सम्यक्त्वे प्रदेशानुभवो नास्ति न तु द्वितीये, तथापि तत्र सम्यक्त्वाण्वनुभवाभाव एव विशेष इति ॥ ८०० ॥ ગાથાર્થ:-જયા ધાસવગેરે ઉગવા અસંભવ હોય એવું સ્થાન ઉખરભૂમિ. અથવા પૂર્વે અગ્નિથી દુગ્ધ(=બળેલો) દેશ ઉખરભૂમિ કહેવાય. આ સ્થાનને પામી દાવાનલ બૂઝાઇ જાય છે, કેમકે ત્યા દાહ્ય ધણનો અભાવ હોય છે. તેમ તેવા પ્રકારના પરિણામના કારણે મિથ્યાત્વનો અનુદય થાય છે, ત્યારે જીવ ઔપમિકસમ્યક્ત્વ પામે છે. અહીં દાવાનળતુલ્ય મિથ્યાત્વ છે. અને ઉખરભૂમિઆદિતુલ્ય તેવાપ્રકારના પરિણામકણ્ડક છે. (કણ્ડક-અધ્યવસાય-પરિણામસ્થાનોના અમુક સમુદાયનું પારિભાષિક નામ છે.) * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 115 * * Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * સમ્યકત્વ * * * * * * * * * * * * * * * * * * (આમ સિદ્ધાંત મતે (૧) જીવ ગ્રંથિભેદ કરે છે (૨) પ્રથમ સમ્યકત્વતરીકે લાયોપથમિક અથવા ઔપથમિકસમ્યકત્વ પામી શકે છે અને (૩) પથમિક સમ્યકત્વ પ્રથમવાર પામેલો પછી (અંતર્મુહૂર્ત રહીને) અવશ્ય મિથ્યાત્વે જાય કેમકે (૪) ને અતિત્રિપુંજ છે. તથા (૫) સમ્યકત્વ પામતાં પહેલા અમુક જીવો જ (બધા નહીં) અપૂર્વકરણવખતે ત્રિપુંજ કરે. આ સામે કર્મગ્રન્થમતે (૧) જીવના ગ્રંથિભેદની પ્રક્રિયા દેખાતી નથી. (૨) જીવ પ્રથમ સમ્યકત્વતરીકે અવશ્ય ઔપથમિકસમ્યકત્વ જ પામે. (૩) ઔપથમિકસમ્યકત્વનો વધુમાં વધુ છ આવલિકા અને ઓછામાં ઓછો એકસમય બાકી રહે ત્યારે અનંતાનુબંધી કષાયનો ઉદય થાય, તો તેટલો કાળ બીજે સાસ્વાદન ગુણસ્થાને રહી મિથ્યાત્વે જાય. અન્યથા સમ્યકત્વપુંજ ઉદયમાં આવે, તો લાયોપથમિક સમ્યકત્વ પામે. મિશ્રપુંજ ઉદયમાં આવે, તો ત્રીજે ગુણસ્થાનકે જાય, મિથ્યાત્વપુંજ ઉદયમાં આવે, તો પ્રથમ ગુણસ્થાને જાય. કેમકે (૪) આ પથમિકસમ્યકત્વ પામ્યા પછી બધા જ જીવો કૃત્રિપુંજ હોય, કારણ કે (૫) આ સમ્યકત્વ પામવાના પ્રથમ સમયથી નહીં કે અપૂર્વકરણકાળ)મિથ્યાત્વના ત્રણ પુંજ બનાવવાની પ્રક્રિયા શરુ કરે.) પ્રશ્ન:- પથમિકસમ્યકત્વ અને ક્ષાયોપથમિકસમ્યકત્વ આ બન્ને સ્થળે સમાનતયા ઉદિત મિથ્યાત્વનો ક્ષય અને અનુદિત મિથ્યાત્વને ઉપશાને બતાવ્યું. તો પછી આ બન્ને સમ્યકત્વમાં શો ભેદ-વિશેષતફાવત છે? ઉત્તર:- અહીં વિશેષ આ છે – ક્ષાયોપથમિકસમ્યકત્વમાં મિથ્યાત્વના દલિકોનો પ્રદેશોદય હોય છે (મિથ્યાત્વદલિકો ઉદયમાં આવે છે પણ શુદ્ધરૂપ પામ્યા હોવાથી મિથ્યાત્વરૂપ ફળનો અનુભવ કરાવતા નથી.) જયારે ઔપશમિકસમ્યકત્વમાં મિથ્યાત્વનો પ્રદેશોદય પણ નથી. અહીં બીજાઓ આમ વ્યાખ્યા કરે છે-ઉપશમશ્રેણિમાં રહેલા ઓપશમિકસમ્યકત્વમાં જ મિથ્યાત્વનો પ્રદેશોદય નથી, બીજા (અકૃત્રિપુંજ) ઔપથમિકસમ્યકત્વસ્થળે તો મિથ્યાત્વનો પ્રદેશોદય છે જ. તો પણ ત્યાં સમ્યકત્વ પામેલા કર્માણુઓનો અનુભવ નથી, બસ એ જ વિશેષ છે. (પ્રથમમતે મિથ્યાત્વઅણુઓ શુદ્ધ-સમ્યકત્વરૂપે ઉદયમાં આવે એ જ મિથ્યાત્વનો પ્રદેશોદય છે, જયારે બીજા મતે મિથ્યાત્વનો પ્રદેશોદય અને સમ્યકત્વરૂપે ઉદય એ બે ભિન્ન વસ્તુ છે.) ૮૦ના સાયિકાદિસમ્યકત્વનું સ્વરૂપ इदानीं क्रमप्राप्तं क्षायिकसम्यक्त्वमाह - હવે ક્રમ પ્રાપ્ત ક્ષાયિકસમ્યકત્વ બતાવે છે.” खीणे दंसणमोहे तिविहम्मिवि भवणिदाणभूयम्मि । निप्पच्चवातमतुलं सम्मत्तं खाइगं होति ॥८०१॥ (क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि भवनिदानभूते । निष्प्रत्यापायमतुलं सम्यक्त्वं क्षायिकं भवति ॥ क्षीणे-क्षपकश्रेणिमनुप्रविष्टस्य सत एकान्तेनैव प्रलयमुपगते दर्शनमोहनीये त्रिविधेऽपि मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वभेदभिन्ने, किंविशिष्टे इत्याह- 'भवनिदानभूते' भवः-संसारस्तत्कारणभूते, निष्प्रत्यपायम्-अतीचाररूपापायरहितम् अतुलम्अनन्यसदृशमासन्नतया मोक्षहेतुत्वात् यत् सम्यक्त्वं भवति तत् क्षायिकमित्युच्यते। मिथ्यात्वादिक्षयेण निर्वृत्तं क्षायिकम्।।८०१॥ ગાથાર્થ:- જયારે ક્ષપકશ્રેણિમાં પ્રવેશેલા જીવના સંસારમાં કારણભૂત મિથ્યાત્વ, સમ્યશ્મિથ્યાત્વ (મિશ્ર) અને સમ્યકત્વરૂ૫ દર્શનમોહનીયની ત્રણેય પ્રકૃતિઓ નિર્મળ નાશ પામે છે ત્યારે અતિચારરૂપ અપાય(હાનિ) થી રહિત, અને મોક્ષમાટે અત્યંત નજીકનું કારણ છેવાથી અનન્યસંદેશ (=અસામાન્ય) એવું જે સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે તે સાયિક સમ્યકત્વ કહેવાય છે. મિથ્યાત્વાદિના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલું તે ક્ષાયિક એવી વ્યુત્પત્તિ છે. ૮૦ના सांप्रतमवसरप्राप्तं कारकादिसम्यक्त्वमभिधित्सुराह - હવે અવસર પ્રાપ્ત કારકાસિમ્યકત્વનું નિરૂપણ કરતાં કહે છે. __ जं जह भणियं तं तह करेइ सति जम्मि कारगं तं तु । रोयगसंमत्तं पुण स्इमेत्तकरं मुणेयव्वं ॥८०२॥ (यद् यथा भणितं तत्तथा करोति यस्मिन् कारकं तत्तु । रोचकसम्यक्त्वं पुनः संचमात्रकरं ज्ञातव्यम् ॥) यदनुष्ठानं यथा सूत्रे भणितं तद् यस्मिन् सम्यक्त्वं परमविशुद्धिरूपे सति तथा करोति तत्कारकमित्युच्यते, कारयतीति कारकमिति । रोचकसम्यक्त्वं पुनः रुचिमात्रकरं ज्ञातव्यं, रोचयति-चिं कारयति तथाविधविशुद्धिभावाद्विहितानुष्ठान રૂતિ રોવમ્ l૮૦૨ || ગાથાર્થ:- સૂત્રમાં જે અનુષ્ઠાન જેવું બતાવ્યું હોય, તે અનુષ્ઠાન તે જ રૂપે જે પરમવિશુદ્ધિરૂપ સમ્યકત્વની હાજરીમાં કરે તે સમ્યકત્વ “કારક એમ કહેવાય છે. અહીં કરાવે તે કારક’ એવી વ્યસ્પત્તિ છે. રોચકસમ્યકત્વ માત્ર રુચિ જ કરાવે * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 116 * * * * * * * * * * * * * * * Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ सभ्यत्य + + છે. તેવા પ્રકારની વિશુદ્ધિના કારણે શાસ્ત્રવિતિઅનુષ્ઠાનમાં રુચિ કરાવે તે રોચક સમ્યક્ત્વ' એવી વ્યુત્પત્તિ છે. ૫૮૦ળ્યા सयमिह मिच्छद्दिट्ठी धम्मकहाईहिं दीवति परस्स । सम्ममिणं जेण दीवगं कारणफलभावतो नेयं ॥८०३ ॥ (स्वयमिह मिथ्यादृष्टिः धर्मकथादिभिः दीपयति परस्य । सम्यक्त्वमिदं येन दीपकं कारणफलभावतो ज्ञेयम् II) यः स्वयमिह मिथ्यादृष्टिरभव्यो वा कश्चित् अङ्गारमर्द्दकवत् अथ च धर्म्मकथादिभिर्धर्म्मकथया आदिशब्दान्मातृस्थानानुष्ठानेन अतिशयेन केनचित् दीपयति- प्रकाशयति परस्य सम्यक्त्वं येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः सम्यक्त्वं दीपकमित्युच्यते । ननु च स्वयं मिथ्यादृष्टिरथ च तस्य सम्यक्त्वमिति कथमुच्यते विरोधात् ? अत आहकारणफलभावतो ज्ञेयमिदं–दीपकसम्यक्त्वं, मिथ्याग्दृष्टेरपि हि सतस्तस्य यः परिणामविशेषः स खलु प्रतिपत्तॄणां सम्यक्त्वस्य कारणं, ततः स कारणे कार्योपचारात्सम्यक्त्वमित्युच्यते, यथाऽऽयुर्धृतमित्यदोषः ॥८०३ ॥ ગાથાર્થ:- અહીં, જે મિથ્યાદૃષ્ટિ હોય, અથવા અંગારમર્દકઆચાર્યની જેમ અભવ્ય દ્ધેય, અને ધર્મકથાવગેરેથી–વગેરેથી માયાથી કોક વિશિષ્ટઅનુષ્ઠાનદ્વારા બીજાને સમ્યક્ત્વનો પ્રકાશ પાથરતો હોય, તો તે મિથ્યાત્વી જે પરિણામવિશેષથી આમ કરતો હોય, તે પરિણામવિશેષ દીપકસમ્યક્ત્વ કહેવાય છે. શંકા- સ્વયં મિથ્યાર્દષ્ટિ હોય અને તેનું સમ્યકત્વ” આમ શી રીતે કહેવાય? આ તો પરસ્પર વિરુદ્ધ છે. સમાધાન:- અહીં દીપકસમ્યક્ત્વ કારણ-ફળભાવથી સમજવાનું છે. મિથ્યાર્દષ્ટિનો પણ એક એવો પરિણામવિશેષ છે કે જે બીજા શ્રોતાવગેરેના સમ્યક્ત્વનું કારણ બને છે. તેથી કારણમાં કાર્યનો ઉપચાર કરી સમ્યક્ત્વ કહેવાયું છે. જેમકે આયુષ્યવૃદ્ધિમાં કારણભૂત ધીને જ આયુષ્ય કહેવામાં આવે. તેથી કોઇ દોષ નથી. ૫૮૦૩ા सांप्रतं समस्तस्यैव सम्यक्त्वस्य सनिबन्धनतामुपदर्शयन्नाह હવે સમસ્ત સમ્યક્ત્વની સકારણતા દર્શાવે છે→ तव्वहखओवसमतो तेसिमणूणं अभावतो चेव । एवं विचित्तस्वं सणिबंधणमो मुणेयव्वं ॥ ८०४ ॥ (तद्विधक्षयोपशमतस्तेषामणूनामभावतश्चैव । एवं विचित्ररूपं सनिबन्धनं ज्ञातव्यम् II) . तेषामणूनां - मिथ्यात्वपुद्गलानां तद्विधक्षयोपशमतः - तथाविधक्षयोपशमभावतः अभावतश्च तेषामणूनां सम्यक्त्वमिदमुपजायमानमेवं क्षयोपशमादिभेदेन विचित्ररूपं सनिबन्धनमेव-सकारणमेव ज्ञातव्यम् । तथाहि - एत एव परमाणवस्तथाविधात्मपरिणामवशात्क्वचित्तथारूपां शुद्धिमासादयन्ति यथा क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, तत्रापि कदाचित्सातिचारं कदाचित्पुनस्तथोपशान्तिमापद्यन्ते यथौपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, यदा तु निःशेषतः क्षीयन्ते तदा क्षायिकसम्यक्त्वलाभ इति ॥ ८०४ ॥ ગાથાર્થ:–મિથ્યાત્વસંબંધી કર્મદલિકોના તથાવિધક્ષયોપશમના કારણે અને તે દિલકોના અભાવના કારણે ઉત્પન્ન થતું આ સમ્યક્ત્વ ક્ષયોપશમાદિ ભેદોના કારણે વિચિત્ર છે, તે સકારણ જ છે, તેમ સમજવું. તે આ પ્રમાણે→ આ જ મિથ્યાત્વદલિકો તેવાપ્રકારના આત્મપરિણામના કારણે તથાવિધ શુદ્ધિ પામે છે કે જેથી ક્ષાયોપશમિકસમ્યક્ત્વ ઉદ્દભવે.. તેમા પણ તે સમ્યક્ત્વ ચારેક અતિચારયુક્ત હોય છે. કયારેક એ જ દલિકો તેવી રીતે ઉપશાન્ત થાય છે કે જેથી ઔપમિકસમ્યક્ત્વ પ્રગટે અને જયારે તે જ દલિકો સર્વથા ક્ષય પામે છે ત્યારે ક્ષાયિકસમ્યક્ત્વનો લાભ થાય છે. ૫૮૦૪૫ अपरेऽप्यस्य सम्यक्त्वस्य भेदाः संभवन्तीति तान् सूचयन्नाह આ સમ્યક્ત્વના બીજા ભેદો પણ સંભવે છે. આચાર્યવર્ય તે ભેદો સૂચવે છે. किं चेहुवाहिभेदा दसहावि इमं पवियं समए । ओहेण तपिमेसिं भेदाणमभिन्नत्वं तु ॥ ८०५ ॥ (किंचेह उपाधिभेदात् दशधाऽपि एतत् प्ररूपितं समये । ओघेन तदपि एषां भेदानामभिन्नरूपं तु ॥) किंच इहोपाधिभेदात्-आज्ञादिविशेषणभेदाद्दशधापि - दशप्रकारमपि एतत् सम्यक्त्वं प्ररूपितं समये । यथोक्तं प्रज्ञापनायां यथा - निस्सग्गुवएसई आणास्इबीयसुत्तरइमेव । अहिगमवित्थारस्ई किरियासंखेवधम्मई ॥१॥" (छा. धर्मसंग्रह - लाग २ - 117*********** +++ + + + + Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * સમકત* * * * * * * * * * * * * * * * * * निसर्गोपदेशरुची आज्ञासचबीजसूत्ररुचय एव । अधिगमविस्ताररुची क्रियासंक्षेपधर्मस्चयः ॥) इति । यद्येवं तर्हि तदेवेह कस्मान्नोक्तमित्यत आह-'ओहेणेत्यादि' ओघेन-सामान्येन तदपि दशप्रकारममीषां भेदानां क्षायोपशमिकादीनामभिन्नरूपमेव । तुरेवकारार्थः । एतेषामेव क्षायोपशमिकादिभेदानां केनचिपाधिभेदेन भेदविवक्षणात, संक्षेपारम्भश्चायमतो न. तेषामिहाभिधानमिति ॥८०५॥ ગાથાર્થ:- વળી, અહીં આજ્ઞાદિવિશેષણ (=ઉપાધિ)ના ભેદથી દસ પ્રકારે આ સમ્યકત્વની પ્રરૂપણા આગમમાં કરી છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કહ્યું છે (૧)નિસર્ગરુચિ (૨) ઉપદેશરુચિ (૩) આજ્ઞારુચિ (૪) બીજરુચિ (૫) સૂત્રરુચિ (૬) અધિગમરુચિ (૭) વિસ્તારરુચિ (૮) ક્રિયારુચિ (૯) સંક્ષેપરુચિ અને (૧૦) ધર્મરુચિ. શંકા:- જો આમ હોય, તો તે ભેદો અહીં કેમ કહ્યા નહીં? સમાધાન:- એમાં કારણ એ છે કે આ ભેદોના દસ પ્રકાર સાયોપશમિકાદિ ભેદોથી અભિન્નરૂપ છે. (મૂળમાં “તુ જકારઅર્થક છે.) ઉપરોક્ત માયોપથમિકાદિ જે ભેદો બતાવ્યા છે, તે ભેદોના જ આજ્ઞાદિ કો'ક ઉપાધિના ભેદથી આગમમાં દસ ભેદ બતાવ્યા છે. અહીં સંક્ષેપથી વિચાર કરવાનો છે તેથી એ ભેદો બતાવ્યા નથી. u૮૦પા સમ્યકત્વના લક્ષણો इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वात् छद्मस्थेन दुर्लक्ष्यमिति तल्लक्षणमाह - આ સમ્યકત્વ આત્મપરિણામરૂપ હોવાથી પ્રસ્થનેમાટે દુર્લક્ષ્ય છે. તેથી તેનાં લક્ષણ બતાવે છે..... तं उवसमसंवेगादिएहिं लक्खिज्जए उवाएहिं । आयपरिणामस्वं बज्झेहिं पसत्थजोगेहिं ॥८०६॥ (तदुपशमसंवेगादिभि लक्ष्यते उपायैः । आत्मपरिणामरूपं बाझैः प्रशस्तयोगैः ॥) तत्-सम्यक्त्वमात्मपरिणास्पमुपशमसंवेगादिभिः, उपशम उपशान्तिः, संवेगो मोक्षाभिलाष, आदिशब्दान्निर्वेदानुकम्पास्तिक्यपरिग्रहः, एभिरुपशमादिभिरुपायैर्बाह्यवस्तुविषयत्वात् प्रशस्तयोगैः- शोभनव्यापारसौलक्ष्यते- अधिगम्यते ॥८०६॥ ગાથાર્થ:- આ આત્મપરિણામરૂપ સમ્યકત્વ ઉપશમ, સંવેગવગેરે બાહ્યઉપાયભૂત પ્રશસ્ત-સુંદર–શુભચેષ્ટાઓથી લક્ષિત થાય છે. અહીં ઉપશાન્તિ ઉપશમ છે. મોક્ષાભિલાષ સંવેગ છે. આ બેના ઉપલક્ષણથી નિર્વેદ, અનુકમ્પા અને આસ્તિક્ય પણ આદિ શબ્દથી ગ્રાહ્ય છે. આ ઉપશમાદિ બાહ્યવસ્તુવિષયક હોવાથી બાહ્યઉપાયભૂત છે. પ૮૦૬ાા તથા વાહ - આ જ વાત કરતાં કહે છે. ___एत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ । किं मलकलंकमुक्लं कणगं भुवि झामलं होइ? ॥८०७॥ (अत्र च परिणामः खलु जीवस्य शुभस्तु भवति विज्ञेयः । किं मलकलंकमुक्तं कनकं भुवि ध्यामलं भवति? ॥) अत्र-सम्यक्त्वे सति परिणामः-अध्यवसायः, खलुरवधारणे, शुभ एव, तुरेवकारार्थः, जीवस्य भवति विज्ञेयो नत्वशुभः । अथवा किमत्र चित्रमिति प्रतिवस्तूपमामाह-'किमित्यादि' किं मलकलङ्करहितं कनकं भुवि ध्यामलं भवति? नैव भवतीति भावार्थः । एवमिहापि मलकलङ्कस्थानीयं प्रभूतं क्लिष्टं कर्म यदा क्षीणं भवति जीवस्य तदा नैव ध्यामलत्वतुल्योऽशुभपरिणामो भवतीति ॥८०७॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ખલ'અવધારણઅર્થે અને તે ઉ) જકારઅર્થે છે.) સમ્યકત્વની હાજરીમાં જીવનો અધ્યવસાય શુભ જ હોય છે અશુભ નહીં. અથવા તો આ બાબતમાં આશ્ચર્ય શું છે? તે દર્શાવવા પ્રતિવસ્તૃપમા બતાવે છે... મળકલંકથી રહિત સુર્વણ શું આ પૃથ્વીપર ક્યારેય ધ્યામલ (તેજહીન) હોઈ શકે? અર્થાત ન જ હોઈ શકે. એમ અહીં પણ મલકલંકતુલ્ય મોટા પ્રમાણમાં ક્લિષ્ટ કર્મ છે. જીવના એવા કર્મ જયારે ક્ષીણ થાય ત્યારે ધ્યામલતુલ્ય અશુભ પરિણામ હોતા નથી. (અહીં સમ્યકત્વની હાજરીમાં શુભ જ પરિણામ બતાવ્યો છે તે કઈ અપેક્ષાએ? એઅંગે વિચારતા કેટલાક મુદ્દા વિચારી શકાય. (૧) જયાં સુધી સમ્યકત રહે ત્યાં સુધી શુભ પરિણામ હેય. શુભ પરિણામ એટલે પવિત્રપરિણામ. પણ અહીં શ્રેણિક કૃષ્ણાદિના અંતિમ પરિણામોની અપેક્ષાએ દોષ આવે. એ જ પ્રમાણે અન્ય પણ સમીતીઓને વિષયાભિલાષાદિ અશુભ પરિણામ સંભવે છે. (૨) તીવ્રઅશુભકર્મબન્ધમાં કારણ ન બને તેવો પરિણામ. મિથ્યાત્વ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 118 * * * * * * * * * * * * * * * Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + सभ्यत्य + * ********** ++++++ અને અનંતાનુબંધીની હાજરીમાં જે અશુભતા હતી તે ન રહેવાથી તે અપેક્ષાએ શુભપરિણામ, (૩) શુભપરિણામ એટલે આત્માનો સમ્યક્ત્વપ્રભાવિત નિશ્ચિતઝોક (વલણ) અલબત્ત તેમા આગંતુકરૂપે અશુભઅધ્યવસાયો આવી જાય, પણ પરિણામ તો સમ્યક્ત્વમય હોવાથી શુભ જ રહે. (આ જ હેતુથી સમ્યક્ત્વની હાજરીમા કયારેય નરક તિર્યંચાદિ દુર્ગતિનું આયુષ્ય બંધાય નહીં.) અથવા (૪) મૂળમા એત્થ-અત્ર અહીંનો જે ઉલ્લેખ छे, जने टीडामा ने यदा....तदा ले छे, तेथी खेम वियारी शाय है, भ्यारे प्रभूत सिष्टर्भों क्षय पामे-खने सभ्यत्व याभे त्यारे सभ्यत्व પામતીવખતે શુભ જ પરિણામ હોય. આ બાબતમાં તત્ત્વજ્ઞો પ્રમાણ છે.) ૫૮૦ા प्रशमादीनां बाह्यप्रशस्तयोगत्वमुपदर्शयति - પ્રશમવગેરેનું બાહ્યપ્રશસ્તયોગસ્વરૂપ બતાવે છે→ पयईए व कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धेऽवि न कुप्पइ उवसमतो सव्वकालंपि ॥८०८ ॥ (प्रकृत्या वा कर्मणां विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति । अपराद्धेऽपि न कुप्यति उपशमतः सर्वकालमपि II) प्रकृत्या वा–सम्यक्त्वाणुवेदनजनितस्वभावरूपया विज्ञाय वा कर्म्मणां कषायनिबन्धनानां विपाकमशुभं यथा कषायाविष्टोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणापि यत् बध्नाति तदनेकाभिरपि सागरोपमकोटीभिर्दुःखेन वेदयते इति, ततः किमित्याह - ‘अवरद्धे इत्यादि' अपराध्यति स्मेति अपराद्धः - प्रतिकूलकारी तस्मिन्नपि न कोपं गच्छति, उपशमतः- उपशमेन हेतुना सर्वकालमपि यावत्सम्यक्त्वपरिणामोऽवतिष्ठत इति भावः ॥ ८०८ ॥ ગાથાર્થ:- સમ્યક્ત્વમય પરમાણુના સંવેદનના કારણે ઉદ્ભવેલા તેવા સ્વભાવથી જ, અથવા કષાયના નિમિત્તે બંધાતા કર્મોના અશુભ વિપાક (=ફળ)ને જાણીને કે ક્રોધાદિકષાયગ્રસ્ત જીવ અંતર્મુહૂર્ત જેટલા અલ્પકાળમા પણ એટલા બધા કર્મો બાંધે છે કે જે અનેક સાગરોપમ જેટલા કાળસુધી પણ કષ્ટપૂર્વક સહેવા પડે છે” આ બે હેતુથી સમ્યક્ત્વ પામેલો જીવ પ્રતિકૂળ વર્તનાર અપરાધી જીવપર પણ ઉપશમભાવના કારણે ક્રોધ કરતો નથી. કયા સુધી? સર્વકાળ સુધી. અર્થાત્ જયાં સુધી સમ્યક્ત્વનો પરિણામ-અધ્યવસાય ટકે ત્યા સુધી ક્રોધ કરતો નથી. ૫૮૦૮૫ तथा - હવે સંવેગનું સ્વરૂપ કહે છે. नरविबुहेसरसोक्खं दुक्खं चिय भावतो तु मन्नतो । संवेगतो न मोक्खं मोत्तूणं किंचि पत्थेइ ॥८०९ ॥ (नरविबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतस्तु मन्यमानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किञ्चित् प्रार्थयते ॥ नरविबुधेश्वरसौख्यं - चक्रवर्तीन्द्रसौख्यं कर्मजनिततया सावसानत्वेन दुःखनिबन्धनत्वात् दुःखमेव भावतः - परमार्थतो मन्यमानः संवेगतः - संवेगेन हेतुना, न मोक्षं-स्वाभाविकं जीवरूपमपर्यवसानं मुक्त्वा किंचिदन्यत् प्रार्थयते ॥८०९ ॥ ગાથાર્થ:- સમ્યગ્દર્શી જીવ “ચક્રવર્તી કે ઇન્દ્રના સુખ પણ પરિણામે દુ:ખનુ કારણ હોવાથી ભાવથી દુ:ખરૂપ જ છે કેમકે એ સુખો કર્મજનિત હોવાથી અંત પામનારા છે” એમ માનતો હોય છે. તેથી સંવેગના કારણે જીવના આત્મસ્વરૂપભૂત અને કયારેય અંત નહીં પામનાર એવા મોક્ષને છોડી બીજા કશાની પ્રાર્થના કરતો નથી. ૫૮૦૯લા नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेदतो वसति दुक्खं । अकयपरलोगमग्गो ममत्तविसवेगरहितोवि ॥ ८१० ॥ (नारकतिर्यग्नरामरभवेषु निर्वेदतो वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गो ममत्वविषवेगरहितोऽपि II) नारकतिर्यग्नरामरभवेषु सर्वेष्वेव निर्वेदतो - निर्वेदेन कारणेन वसति दुःखम् । किंविशिष्टः सन्नित्याहअकृतपरलोकमार्गः-अकृतसदनुष्ठानः । अयं हि सकलेऽपि जीवलोके परलोकानुष्ठानमन्तरेण सर्वमेवासारं मन्यते इति । पुनः कथंभूत इत्याह- ममत्वविषवेगरहितोऽपि, अपिरेवकारार्थः, प्रकृत्या ममत्वविषवेगरहित एव, विदिततत्त्वत्त्वादिति ॥ ८१० ॥ ગાથાર્થ:-સમ્યગ્દષ્ટિજીવ સકળજીવલોકમા પરલોકસંબંધી અનુષ્ઠાનને છોડી બાકી બધુ જ અસાર માને છે. તેથી સઅનુષ્ઠાનદ્વારા પરલોકમાર્ગ કર્યો ન હોવાથી નારક, પશુ, મનુષ્ય અને દેવગતિરૂપ ચારગતિસંસારમા નિર્વેદના કારણે મમત્વરૂપઝેરથી રહિત જ દુ:ખથી રહે છે. (અહીં પરલોક=મોક્ષ એવો અર્થ લઇ એં તાત્પર્ય જોવાનુ` છે કે કાળાદિસામગ્રીના *** धर्मसंग लाग २ - 119 *** + + + Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ન જ જ ન * * * * * * * * * સમ્યકત્વ * * * * * * * * * * * * * * * * * * વિકલતાને કારણે સ્વયં મોક્ષસાધકઅનુષ્ઠાન કરી શકતો નથી. તેથી ચારગતિમય સંસારમાં રહેતો હોવા છતાં રહેવા જેવું છે. તેમ માનીને નહીં, પણ નિર્વેદના પ્રભાવે “રહેવું પડે છે એમ માનીને રહેતો હોવાથી દુ:ખી થઈને રહે છે.) (મૂળમાં “અપિ"પદ જકારઅર્થક છે.) નિર્વેદયુક્ત હોવાથી જ સંસારભ્રમણથી દુ:ખી છે. અને તત્વજ્ઞાતા હેવાથી જ સ્વભાવથી મમત્વરૂપ ઝેરથી રહિત છે. ૮૧ના તથા – હવે અનુકંપાઅંગે કહે છે दट्ठण पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसतोऽणुकंपं दुहावि सामत्थतो कुणति ॥८११॥ (दृष्ट्वा प्राणिनिवहं भीमे भवसागरे दुखार्तम् । अविशेषतोऽनुकम्पा द्विधाऽपि सामर्थ्यतः करोति ॥ __दृष्ट्वा प्राणिनिवहं-जीवसंघातं दुःखार्त-शारीरमानसैर्दुःखैरभिभूतं, क्व दृष्टेत्याह - भीमे- भयानके भवसागरेसंसारसमुद्रे अविशेषतः- आत्मीयेतरविचाराभावेन अनुकम्पां द्विधापि-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः प्राशुकपिण्डादिदानेन, भावतो मार्गयोजनया, सामर्थ्यतः स्वशक्त्यनुरोधेन करोति ॥८११॥ ગાથાર્થ:- ભયાનક એવા સંસારસમુદ્રમાં શારીરિક અને માનસિક દુઃખોથી પીડાતા જીવોના સમુદાયને જોઇ સમગ્દષ્ટિ જીવ પોતાની શક્તિને અનુરૂપ સ્વ–પરના ભેદ વિના દ્રવ્ય અને ભાવથી અનુકમ્મા કરે છે. તેમાં નિર્દોષ અને અચિત્ત અનાદિના દાનથી દ્રવ્યઅનકમ્પા થાય છે. અને સમ્યગ્દર્શનાદિ મોક્ષમાર્ગમાં પ્રવેશ કરાવવાથી ભાવઅનુકમ્મા થાય છે. (આમ અનકમ્પાલક્ષણ પ્રવૃત્તિરૂપ છે, માત્ર વિચારધારારૂપ નીં. આમે ય લક્ષણોને બાલઉપાયભૂત કહ્યા છે, તેથી અનુકંપાના ઉપલક્ષણથી ઉપશમ, સંવેગ, નિર્વેદ પણ માત્ર પરિણામરૂપ કે વિચારધારારૂપ નથી પણ પ્રવૃત્તિમાં-બાહ્યવ્યવહારમાં ઝળકતા હોવા જરૂરી છે.) પ૮૧૧ તથા - હવે આસ્તિક્યઅંગે કહે છે. मन्नति तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पन्नत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंखादिविसोत्तियारहितो ॥८१२॥ (मन्यते तदेव सत्यं निःशकं यद् जिनैः प्रज्ञप्तम् । शुभपरिणामः सर्वं काङ्क्षादिविसोतसिकारहितः ॥ मन्यते-प्रतिपद्यते तदेव सत्यं निःशङ्कं यत् जिनैः प्रज्ञप्तं शुभपरिणामः-साकल्येनानन्तरोदितगुणसमन्वितः सर्वसमस्तं, न तु किंचिन्मन्यते किंचिन्नेति, भगवत्यविश्वासायोगात् । किंविशिष्टः सन् इत्याह-'काङ्क्षादिविसोतसिकारहितः' काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, आदिशब्दाद्विचिकित्साटिपरिग्रहः, शङ्का तु निःशङ्कमित्यनेनैव गता, काङ्क्षादय एव विस्रोतसिका-संयमसस्यमङ्गीकृत्य अध्यवसायसलिलस्य विस्रोतोगमनं तया रहित इति ॥८१२॥ ગાથાર્થ:- કાંક્ષાઆદિદોષોથી રહિત અને ઉપરોક્ત સર્વગુણસંપન્ન હોવાથી શુભ પરિણામવાળો તે જિનેશ્વરે જે કંઇ કહ્યું છે તે બધું જ શંકા વિના–નિ:શંકરૂપે સત્યતરીકે સ્વીકારે છે. ભગવાનપર જરા પણ અવિશ્વાસ ન લેવાથી “અમુક સ્વીકારવું અને અમુક નહીં એવું નથી, પરંતુ બધું જ માન્ય છે. સમ્યકત્વનું આ આસ્તિક્ય લક્ષણ છે. અહીં કાંક્ષા એટલે બૌદ્ધાદિ અન્ય દર્શનોપર રુચિ. આમ તો શંકા પ્રથમ નંબરનો દોષ છે. પણ નિઃશંક' કહેવાથી તે દોષનો નિષેધ ઉપર જ થઈ ગયો. તેથી કાંક્ષાદિ કહ્યું. અહીં આદિશબ્દથી વિચિકિત્સા વગેરે બીજા દોષો સમજી લેવા. શાસ્ત્રીયપરિભાષામાં “વિસ્રોતસિકા' કહેવાતા આ બધા દોષોથી રહિત લેય. વિસ્રોતસિકા એટલે પાણીનું માર્ગ છોડી ઉન્માર્ગગમન. અહીં સંયમ પાક (ધાન્યરૂ૫) છે, અને અધ્યવસાય પાણીરૂપ છે. શુભઅધ્યવસાયથી સંયમની વૃદ્ધિ થાય છે. જયારે આ અધ્યવસાય શંકાદિથી કલુષિત થાય છે, ત્યારે તે અધ્યવસાયનું વિસ્રોતગમન કહેવાય. પ૮૧રા उपसंहरन्नाह - ઉપસંહાર કરતા કહે છે – एवंविहपरिणामो सम्मादिट्ठी जिणेहिं पन्नत्तो । एसो य भवसमुदं लंघइ थोवेण कालेणं ॥८१३॥ (एवंविधपरिणामः सम्यग्दृष्टिर्जिनैः प्रज्ञप्तः । एष च भवसमुद्रं लङ्घयति स्तोकेन कालेन ॥) * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 120 * * * * * * * * * * * * * * Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * કે * * * * * * * * * * * * * * * સમ્યકત્વ જ આ જ ક ક ક ક જ છે કે જે જ જ છે કે एवंविधपरिणामः-अनन्तरोद्दिष्टप्रशमादिपरिणामः सम्यग्दृष्टिर्जिनैः प्रज्ञप्तः। अस्यैव फलमाह-एष च- सम्यग्दृष्टिर्भवसमुद्र लङ्घयति-अतिक्रामति, स्तोकेन कालेन, प्राप्तबीजत्वादुत्कर्षतोऽप्यपार्द्धपुद्गलपरावर्तेन किंचिदूनेन सिद्धि प्राप्तेः ॥८१३॥ ગાથાર્થ - જિનેશ્વરોએ અનન્તરોત પ્રશમરદિપરિણામવાળો સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ બતાવ્યો છે. સમ્યકત્વનું ફળ શું? તો કહે છે – આ સમ્યગદેષ્ટિ જીવ અલ્પકાળમાં જ સંસારસમુદ્રને ઓલંધી જાય છે. કેમકે સમ્યગ્દર્શનરૂપ બીજ પ્રાપ્ત હોવાથી ઉત્કૃષ્ટથી પણ કાંક જૂન અર્ધપુદ્ગલપરાવર્ત જેટલા કાળમાં સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે. પ૮૧યા નિશ્ચય-વ્યવહાર સમ્યકત્વ एवंविधमेव सम्यक्त्वं नान्यथेत्येतत् प्रतिपादयन्नाह - “સમ્યકત્વ આવા જ સ્વરૂપવાનું છે અન્યથારૂપ નહીં એમ પ્રતિપાદન કરતાં કહે છે जं मोणं तं सम्मं जं सम्मं तमिह होइ मोणंति । निच्छयतो इतरस्स उ सम्म सम्मत्तहेऊवि ॥८१४॥ (यद् मौनं तत्सम्यक् यत् सम्यक् तदिह भवति मौनमिति । निश्चयत इतरस्य तु सम्यक् सम्यक्त्वहेतुरपि ॥ , मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मनि:- तपस्वी तद्भावो मौनम्-अविकलं मुनिवृत्तं, यन्मौनं तत्सम्यक-तत्सम्यक्त्वं 'यत्सम्यक्-यत् सम्यक्त्वं तदिह भवति मौनं ज्ञातव्यमिति । तदुक्तमाचाराने-"जं मोणंति पासहा तं सम्मति प मंति पासहा तं मोणंति पासहा" (छा. यन्मौनमिति पश्यत, तत्सम्यक्त्वमिति पश्यत । यत् सम्यक्त्वमिति पश्यत, तन्मौनमिति पश्यत) इत्यादि । एतच्चैवमुच्यते निश्चयतो-निश्चयमतेन । “जो जहवायं न कुणइ मिच्छादिट्ठी तओ ह को अन्नो? . वड्डे य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ॥१॥" (छा. यो यथावादं न करोति मिथ्यादृष्टिस्ततः खलु कोऽन्यः । वर्धयति मिथ्यात्वं परस्य शङ्कां जनयन्) इत्यादिवचनप्रामाण्यात् । इतरस्य तु-व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वमास्तामुपशमादिलिङ्गगम्यः शुभात्मपरिणामः किंतु सम्यक्त्वहेतुरपि-अर्हच्छासनप्रीत्यादि कारणे कार्योपचारात्सम्यक्त्वमभिप्रेतं, तदपि हि पारंपर्येण शुद्धचेतसामपवर्गप्राप्तिहेतुर्भवतीति । व्यवहारनयमतमपि च प्रमाणं, तद्बलेनैव तीर्थप्रवृत्तेः, अन्यथा तदुच्छेदप्रसङ्गात्, तदुक्तम्- “जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए (नयमयं) मुयह। ववहारनउच्छेए तित्थुच्छेदो जओs- वस्सं ॥१॥" (छा. यदि जिनमतं प्रपद्यध्वे तद् मा व्यवहारनिश्चयौ मुञ्चत । व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यम्) ત ૮૧૪n. ગાથાર્થ:- જગતની ત્રણે કાળની અવસ્થાને જે જાણે છે તે મુનિ તપસ્વી); તે મુનિનો ભાવ મૌન. અર્થાત મુનિનો અખંડિત આચાર–ચરિત્ર “મૌન છે. જે મૌન છે ( મુનિનો અખંડ આચાર) જ સમ્યકત્વ છે. અને જે સમ્યકત્વ છે તે જ મૌન છે. આચારાંગ સૂત્રમાં કહ્યું જ છે કે જેને મૌનતરીકે જૂઓ, તેને જ સમ્યકત્વરૂપે જૂઓ, જેને સમ્યકત્વરૂપે જૂઓ તે ન જ મૌનતરીકે જૂઓ ઈત્યાદિ (અણ સમ્યકત અને મૌન પરસ્પરથી નિયંત્રિત થયા. તેથી સમ્યકત્વ મૌન (મુનિવૃત)ને છોડીઅન્યરૂપ સંભવે નહીં. અને મૌન સમ્યકત્વને છોડી અન્ય (મિધ્યારૂ૫) સંભવે નહીં. આમ બન્ને પરસ્પરએકરસ થાય છે. સાતમાઆદિઅપ્રમત્ત ગુણસ્થાનમાં જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્રનો અખંડઉપયોગ માનતા નિશ્ચયમતને અપેક્ષી આ યોગ્ય છે તેથી કહે છે.)નિશ્ચયમને આમ કહેવાય છે. આ મતને આશ્રયી વચન છે - “જે યથાવાદ (પ્રતિજ્ઞાને અનુરૂ૫) કરતો નથી, તેના જેવો મિથ્યાષ્ટિ બીજો કોણ છે કે જે બીજામાં શંકા પેદા કરતો મિથ્યાત્વની વૃદ્ધિ કરી રહ્યો છે.” આ વચન પ્રમાણથી જે યથાવાદ કરે તે મુનિ જ સમ્યકત્વી છે.' એમ નિશ્ચયથી ફિલિત થયું. વ્યવહારનયમતે તો ઉપશમાદિલિંગથી જ્ઞાત થતા શુભાત્મપરિણામની વાત જવા દો એ તો સમ્યકત્વ છે જ) પણ જિનશાસનપર બહુમાનાદિ સમ્યકત્વના જે કારણો છે તેમાં પણ કાર્યનો ઉપચાર કરી સમ્યકત્વ અભિપ્રેત છે. કારણ કે આ કારણો શુદ્ધચિત્તવાળા જીવોને પરંપરાએ મોક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ બને છે. આ વ્યવહારનય પણ નિશ્ચયનય તો પ્રમાણ છે જ) પ્રમાણભૂત છે. કેમકે વ્યવહારનયના બળ પર જ તીર્થની પ્રવૃત્તિ છે. અન્યથા તીર્થના ઉચ્છેદનો પ્રસંગ છે. તેથી જ કહ્યું છે જે જિનમતને સ્વીકારો છો, તો વ્યવહાર-નિશ્ચય (બન્નોન) છોડશો નહીં, કેમકે) વ્યવહારનયના ઉચ્છેદમાં અવશ્ય તીર્થનો ઉચ્છેદ છે.” નિશ્ચય તો શુદ્ધ હોવાથી છોડવાનો જ નથી.)ના... એક અપેક્ષાએ એમ કહી શકાય કે આત્મશુદ્ધિ માટે નિરચયને મુખ્ય કરવો અને પરસાથેના સંબંધમાં મૈત્રાદિભાવને ટકાવવા વ્યવહારને મુખ્ય કરવો.) u૮૧૪મા * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 121 * * * * * * * * * * * * * * * Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++ नवार + + + + + + + + + + + + + + + + + ++ શાન પંચક तदेवं सप्रपञ्चं सम्यक्त्वं व्याख्याय सांप्रतं ज्ञानं व्याचिख्यासुराह - આમ સમ્યકત્વની સવિસ્તાર વ્યાખ્યા કરી. હવે જ્ઞાનની વ્યાખ્યા કરવા કહે છે.” पंचविहावरणखयोवसमादिनिबंधणं इहं नाणं । पंचविहं चिय भणियं धीरेहिं अणंतनाणीहिं ॥८१५॥ (पञ्चविधावरणक्षयोपशमादिनिबन्धनमिह ज्ञानम् । पञ्चविधमेव भणितं धीरैरनंतज्ञानिभिः ।) पञ्चविधं यदावरणं मतिज्ञानावरणादि तस्य यः क्षयोपशम इत्यादिशब्दात् क्षयश्च तन्निबन्धनमिह ज्ञानं पञ्चविधमेव, तत्कारणस्यावरणक्षयोपशमादेरेतावद्भेदोपेतत्वात, कारणभेदनिबन्धनत्वाच्च कार्यभेदस्य, भणितं-प्रतिपादितं धीरैनन्तज्ञानिभिः-तीर्थकरैः ॥८१५॥ ગાથાર્થ:- ધીર અને અનંતજ્ઞાની તીર્થકરોએ કહ્યું છે કે મતિજ્ઞાનાવરણાદિ જે પાંચ પ્રકારના આવરણ છે, તેના ક્ષયોપશમાદિ (આદિશબ્દથી ક્ષયનો સમાવેશ થાય છે) થી ઉદ્ભવતું જ્ઞાન પાંચ પ્રકારે જ છે, કેમકે તે જ્ઞાનમાં કારણભૂત આવરણલયોપશમઆદિ પાંચ પ્રકારે જ છે. અને કાર્યભેદ કારણભેદપર આધારિત હેય છે. u૮૧પણા तदेव पंचविधत्वं ज्ञानस्य दर्शयति - જ્ઞાનના એ જ પાંચ પ્રકાર હવે દર્શાવે છે. आभिणिबोहियनाणं सुयणाणं चैव ओहिणाणं च । तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं ॥१६॥ (आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं चैवावधिज्ञानं च । तथा मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च पञ्चमयम् ॥ अर्थाभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोधः अभिनिबोध एवाभिनिबोधिकम, अभिनिबोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् "विनयादिभ्य इकणि" त्यनेन स्वार्थे इकण्प्रत्ययो यथा-विनय एव वैनयिकमिति । “अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति" वचनात्त्वत्र नपुंसकलिङ्गता । अभिनिबुध्यते वा अनेनास्मात् अस्मिन्वा अभिनिबोधःतदावरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निवृत्तमाभिनिबोधिकम् आभिनिबोधिकं च तत् ज्ञानं चेति विशेषणसमासः । तथा श्रूयत इति श्रुतं-शब्दः, श्रूयते वाऽनेन अस्मात् अस्मिन्वेति श्रुतं-तदावरणकर्मक्षयोपशमस्तन्निबन्धनं ज्ञानमप्युपचारात् श्रुतं, श्रुतं च तत् ज्ञानं चेति समासः । चशब्दस्तु अनयोः स्वाम्यादिसाम्यापेक्षया तुल्यकक्षतोद्भावनार्थः । स्वाम्यादिसाम्यं च क्रमप्रयोजनाधिकारे स्वयमेव वक्ष्यति । एवकारस्त्ववधारणार्थः, परोक्षत्वमनयोरवधारयति-आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने एव परोक्षे इति । अव-अधोऽधो विस्तृतं संपवस्तुजातं धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनास्मिन्नस्माद्वेत्यवधिः- तदावरणक्षयोपशमस्तद्धेतुकं ज्ञानमप्युपचारादवधिः, यद्वा अवधानमवधि:-रूपिद्रव्यमर्यादया परिच्छेदनम, अवधिश्चासौ ज्ञानं चेति विशेषणसमासः । चशब्दो वक्ष्यमाणस्थित्यादिसाधापेक्षया खल्वनन्तरोक्तज्ञानद्वयेन सहास्य साधर्म्यप्रदर्शनार्थः । तथा 'मनःपर्यवज्ञान' मिति, परिः-सर्वतो भावे, अवनम् अवः, 'तुदादिभ्यो न क्वा' वित्यधिकारे कितौ चेति औणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः । पर्यय इति वा पाठः, तत्र पर्ययणं पर्ययो भावेऽत् (ल्) प्रत्ययः, मनसि .मनसो वा पर्यवः पर्ययो वा मनःपर्यवः मनःपर्ययो वा, सर्वतस्तत्परिच्छेद इतियावत् । अथवा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः 'पर्यायाः भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरम्' तेषु तेषां वा संबन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । तथाशब्दो वक्ष्यमाणच्छद्यस्थस्वामिसाधाद्यपेक्षया अवधिज्ञानेन सहास्य सारूप्यप्रदर्शनार्थः ।केवलज्ञानं चे ति, केवलम्-असहायं, मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात्, शुद्धं वा के वलं, तदावरणमलकलङ्करहितत्वात्, सकलं वा केवलं, प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णस्योत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशत्वात्, अनन्तं वा के वलं, ज्ञेयानन्तत्वात्, केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं, यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासि ज्ञानमितियावत् । चशब्दो वक्ष्यमाणाप्रमत्तयतिस्वामिसाधाद्यपेक्षयानन्तरोक्तज्ञानेन सममस्य सारूप्यप्रदर्शनार्थः ॥८१६॥ ++++++++++++++++ A-MIN२ - 122+++++++++++++++ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * *વાનાર કે જે જે જે જે * * * * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:- અર્થને અભિમુખ જે બોધ તે અભિનિબોધ (વ્યાકરણમાં વિનયાદિગણમાં આ શબ્દ હોવાથી “વિનયાદિભ્ય ઇકણ આ સૂત્રથી સ્વાર્થમાં –સ્વઅર્થમાં જ) •ઈક" પ્રત્યય લાગવાથી અભિનિબોધ જ આભિનિબોધિક. જેમકે વિનય જ વનયિક. અને “સ્વાર્થમાં પ્રત્યયવાળા શો પ્રકૃતિ, લિંગ અને વચનને ઓળંગી જાય છે. આ વચનથી આભિનિબોધિકશબ્દ નપુંસકલિંગમાં છે. અથવા “આનાદ્વારા, આનાથી અથવા આ હોતે છતે અભિનિબોધ થવો તે અભિનિબોધ' એવી વ્યુત્પત્તિ લઇએ તો અભિનિબોધનો અર્થ થાય અભિનિબોધજ્ઞાનના આવારક કર્મનો જયોપશમ. (કારણ કે એવા કયોપશમથી કે એવો લયોપશમ હોય, તો જ અભિનિબોધ થાય.) આ ક્ષયોપશમથી ઉદ્ભવતું જ્ઞાન આભિનિબોધિક છે. આમ, આભિનિબોલિક એવું જ્ઞાન-અભિનિબોધિકજ્ઞાન એમ વિશેષણવિશે...કર્મધારય સમાસ થયો. જે સંભળાય તે શ્વત' આ વ્યુત્પત્તિથી શ્રતનો અર્થ થાય શબ્દ. (કેમકે શબ્દ સંભળાય છે.) અથવા “આનાદ્વારા, આનાથી કે આ હોતે છને સંભળાવું તે શ્રત' આવી વ્યુત્પત્તિ લઇએ તો શ્રતજ્ઞાનવારક કર્મનો ક્ષયોપશમ “શ્રત’ શબ્દથી અભિધેય બને. આ ક્ષયોપશમના કારણે (કે તે શબ્દના શ્રવણથી) થતું જ્ઞાન પણ ઉપચારથી “શ્રત' કહેવાય. પછી પૂર્વવત ગૃત એવું જ્ઞાન-શ્રુતજ્ઞાન' એમ વિશેષણ-વિશે...કર્મધારય સમાસ થયો. મૂળમાં “ચ'પદ આભિનિબોધિકજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનવચ્ચે સ્વામીઆદિઅપેક્ષાએ તુલ્યરૂપતા દર્શાવવા છે. સ્વામીઆદિ અપેક્ષાએ આ સમાનતાનો નિર્દેશ જ્ઞાનના કમઅંગેના પ્રયોજન દર્શાવતી વેળા આચાર્યભગવંત સ્વયં બતાવશે. “એવકાર જાકારઅર્થકે છે, જે આ બે જ્ઞાનનું પરોક્ષજ્ઞાનતરીકે નિયમન કરે છે. અર્થાત “આભિનિબોધિકજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન આ બે જ્ઞાન જ પરોક્ષ છે. (અન્ય નહીં) અવ-નીચે નીચે વિસ્તાર પામતાં રૂપમયવસ્તસમુદાય બીયતે– જેનાદ્વારા, જેનાથી કે જે હોતે છતે જ્ઞાત થાય તે અવધિ. પૂર્વવત અવધિ એવું જ્ઞાન અવધિજ્ઞાન એમ વિશેષણવિશેષ્યકર્મધારય સમાસ થયો. ચ'પદ આગળ બતાવશે એમ પૂર્વોક્ત બે જ્ઞાન સાથે કાળમર્યાદાની સમાનતાદિ અપેક્ષાએ સમાનતા દર્શાવવાઅંગે છે. મનપર્યવજ્ઞાન અહીં પર્યવ પરિ+અવ. પરિ “સર્વબાજુએથી' એવા અર્થમાં ઉપસર્ગ છે. “અવ' અવનમ અવ. અત્ ધાતને “તદાદિલ્મો ન કવો' એવા અધિકારમાં કિન એવો ઔણાદિક (ઉણાદિગણસંબંધી)"અ" પ્રત્યય લાગી “અવ' શબ્દ બન્યો. અવ-અવન ગમન-વેદનના પર્યાયવાચીરૂપે છે. તેથી સર્વબાજુએથી ગમન.. કે વેદન.. એવો અર્થ “પર્યવનો થાય. “પર્યય' એવો પાઠ પણ મળે છે. ત્યાં પર્યયણ–પર્યય' અહીં પરિ+ઇ (અય) ધાતુને ભાવઅર્થમાં અત (લ) પ્રત્યય લાગી પર્યયશબ્દ બન્યો. મનમાં કે મનના પર્યવ કે પર્યય મન:પર્યવ મન:પર્યય. સારાંશ- સર્વતયા મનનો બોધ. અથવા મનના પર્યાયો મન:પર્યાય. પયાર્ય એટલે ભેદ કહે, ધર્મ કહે કે બાહ્યવસ્તુ વિચારવાના પ્રકાર કહો એક જ અર્થ છે. તેથી મનના ભેદ, ધર્મ કે વિચારવાના પ્રકારઅંગે જે જ્ઞાન છે, તે મન:પર્યાયજ્ઞાન. મૂળમાં તથા' શબ્દ આગળ બતાવશે તેમ છદ્મસ્થસ્વામી વગેરે. અપેક્ષાએ આ જ્ઞાનનું અવધિજ્ઞાન સાથે સાધર્મ દર્શાવવાઅંગે છે. કેવળજ્ઞાન કેવલ-અસહાય. આ જ્ઞાન મતિજ્ઞાનાદિજ્ઞાનોથી નિરપેક્ષ લેવાથી અસહાય- કેવળ છે. કેવળ શુદ્ધ. આ જ્ઞાન સર્વથા આવરણરૂપ મળકલંકથી રહિત હોવાથી કેવળ શુદ્ધ છે. કેવળ સકળ. બધા આવરણો નાશ પામ્યા હોવાથી આ જ્ઞાન ઉત્પત્તિના પ્રથમક્ષણથીજ સકળસંપૂર્ણરૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે. કેવળ અસાધારણ:- બીજા ચાર જ્ઞાનોથી તદ્દન વિલક્ષણ અને અતુલ હોવાથી આ જ્ઞાન કેવળ છે. કેવળ અનંત, આ જ્ઞાનના વિષયભૂત શેયપદાર્થો અનંત લેવાથી આ જ્ઞાન અનંત-કેવળ છે. કેવળ લ) એવું જ્ઞાન કેવળલસાન. ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાલીન સઘળાય ભાવ-સ્વભાવનું યર્થાથબોધ કરાવનારું જ્ઞાન કેવળજ્ઞાન. મૂળમાં “ચ'પદ આગળ બતાડનારા અપ્રમત્તસાધવગેરે સ્વામી સાધર્મઆદિ અપેક્ષાએ આ જ્ઞાનનું મન:પર્યજ્ઞાન સાથે સાધર્મ દર્શાવવા છે. u૮૧૬ यदुक्तं- 'पञ्चविधावरणक्षयोपशमादिनिबन्धनत्वात् ज्ञानं पञ्चविधमिति', तत्र क इव किंरूपो जीवः, किमिव वा तस्य ज्ञानं, कथमिव वा तस्य ज्ञानस्यावरणमिति, एतत् दृष्टान्तेन भावयति - “પાંચ પ્રકારના આવરણના ક્ષયોપશમથી ઉત્પન્ન થતું હોવાથી જ્ઞાન પાંચ પ્રકારે છે એવું જે કહ્યું ત્યાં કોની જેમ કેવા સ્વરૂ૫વાળો જીવ છે? તેનું જ્ઞાન કોના જેવું છે? એ જ્ઞાનનું આવરણ કોના જેવું છે? આ વાત દેષ્ટાન્તથી સમજાવે છે चंदोव्व होइ जीवो पयतीए चंदिमव्व विन्नाणं । घणघणजालनिहं पुण आवरणं तस्स निद्दिढें ॥८१७॥ (चन्द्र इव भवति जीवः प्रकृत्या चन्द्रिकेव विज्ञानम् । घनघनजालनिभं पुनरावरणं तस्य निर्दिष्टम् ॥ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 123 * * * * * * * * * * * * * * * Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++बना +++++++++++++++++++ चन्द्र इव-शशाङ्क इव भवति जीवः, प्रकृत्या-स्वभावशुद्ध्या, सकलजलदविकलकौमुदीशशाङ्क इव स्वरूपेणैकान्तनिर्मलो जीव इतियावत् । 'चंदिमव्व विन्नाणमिति' चन्द्रस्य चन्द्रिकेव स्वपरप्रकाशनस्वभावं जीवस्य विज्ञानम्। यथा च चन्द्रस्य स्वरूपतो निर्मलस्यापि तज्ज्योस्नाप्रच्छादकं घनमिति-निबिडं घनजालं-मेघवन्दं भवति तन्निभं-तत्कल्पं तस्य-जीवस्य संबन्धिनो ज्ञानस्यावरणं निर्दिष्टं तीर्थकरगणधरैः ॥८१७॥ ગાથાર્થ:- જીવ સ્વભાવશુદ્ધિથી ચંદ્ર જેવો છે. સઘળાય વાદળાઓથી રહિત શરદપૂનમના ચાંદની જેમ જીવ સ્વરૂપથી એકાત્તે નિર્મળ છે. ચન્દ્રની ચંદ્રિકા જેવું જીવનું સ્વ-પરના પ્રકાશસ્વભાવવાળું વિજ્ઞાન છે. જેમ સ્વરૂપથી નિર્મળ એવા પણ ચંદ્રની ચાંદનીને ઢાંકનાર નિબિડ વાદળસમુદાય હોય છે, તેમ–એ વાદળાઓ જેવું જીવના જ્ઞાનનું આવરણ હોય છે એમ તીર્થકર–ગણધરોએ કહ્યું છે... ૮૧૭ લયોપશમનું સ્વરૂપ અને પ્રાપ્તિ तस्स य खओवसमओ नाणं सो उण जिणेहिं पन्नत्तो । कोई सहावतो च्चिय कोई पुण अहिगमगुणेहिं ॥ ८१८ ॥ (तस्य च क्षयोपशमतो ज्ञानं स पुनर्जिनैः प्रज्ञप्तः । कोऽपि स्वभावत एव कोऽपि पुनरधिगमगुणैः ॥) तस्य च-आवरणस्य क्षयोपशमतः-उदितस्य कम्शिस्य क्षयो निःशेषतोऽपगमोऽनुदितस्य भस्मच्छन्नाग्नेरिवान्द्रेकाऽवस्था उपशमः क्षयोपशमस्तस्मात् ज्ञानं जीवस्य भवति, यथा खरपवनविघटितजलदपटलैकदेशचन्द्रस्य चन्द्रिका । 'सो उण इत्यादि' स पुनः-क्षयोपशमो जिनैरेवं प्रज्ञप्तो, यथा-कोऽपि क्षयोपशमः स्वभावत एव-निसर्गत एव भवति, कोऽपि पुनरधिगमगुणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैरिति ॥ ८१८॥ ગાથાર્થ:-ઉદયમાં આવેલા કર્ભાશનો નિશેષતયા નાશ ક્ષય અને ઉદયમાં નહીં આવેલા કર્મોશની રાખમાં ઢંકાયેલા અગ્નિ જેવી દબાયેલી-શાંતઅવસ્થા ઉપશમ જ્ઞાનાવરણીયકર્મના આવા ક્ષયોપશમથી જીવને જ્ઞાન થાય છે. જેમકે તીવ્ર પવનથી વિખરાયેલા વાદળના પરદાના એક ભાગમાંથી ચંદ્રની ચાંદની પ્રસરે છે. આ ક્ષયોપશમમાં કોક ક્ષયોપશમ સ્વભાવથી જ થાય છે. અને કોક ક્ષયોપશમ હવે બતાવશે એવા અધિગમગુણોથી થાય છે. એમ જિનેવરોએ કહ્યું છે. ૮૧૮ कः पुनः क्षयोपशमः केषां भवतीत्येतद्विभजन्नाह - કયો કયોપશમ કોને હોય છે? એ અર્થનો વિભાગ કરતાં કહે છે. एगिंदियादियाणं आहेण सहावतो मुणेयव्वो । अहिगमतो तु पगिट्ठो सो उण पंचिंदियाणं तु ॥८१९॥ (एकेन्द्रियादीनामोघेन स्वभावतो ज्ञातव्यः । अधिगमतस्तु प्रकृष्टः स पुनः पञ्चेन्द्रियाणां तु ॥) एकेन्द्रियादीनां स्वस्वभावतः क्षयोपशमो ज्ञातव्यः। कथं पुनर्ज्ञातव्य इत्यत आह-ओघेन-सामान्येन, न तु विशिष्टतया। अधिगमतस्तु-पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारादधिगमगुणेभ्यः पुनरुपजायमानः क्षयोपशमः प्रकृष्टः, तुशब्दो विशेषणे, पूर्वः सामान्येन अयं तु विशिष्ट इति विशेषयति, स पुनरधिगमजः क्षयोपशमः पञ्चेन्द्रियाणामेव ज्ञातव्यः । तुरेवकारार्थः ॥८१९॥ ગાથાર્થ એકેન્દ્રિયવગેરેને આ ક્ષયોપશમ પોતાના સ્વભાવથી જ સમજવો. કેવો સમજવો? સામાન્યરૂપે અર્થાત આ સ્વભાવજન્ય લયોપશમ ઓધ-સામાન્યથી ધ્યેય છે, વિશિષ્ટરૂપે નહીં. મૂળમાં અધિગમ શબ્દ છે પદના એકદેશમાં પણ પદસમાયનો ઉપચાર થાય' આ ન્યાયથી “અધિગમગુણ અર્થ લેવાનો છે. અધિગમગુણોથી ઉત્પન્ન થતો ક્ષયોપશમ પ્રખર લેય છે. (મૂળ માં ‘પદ વિશેષણઅર્થે છે. અને “પૂર્વનો ક્ષયોપશમ સામાન્યથી છે, જયારે આ તો વિશિષ્ટ છે એવા વિશેષભાવઅર્થે વપરાયું છે.) આ અધિગમજન્ય કયોપશમ માત્ર પંચેન્દ્રિયજીવોને જ શ્રેય છે. (અંતિમ “પદ જકારઅર્થક છે.) u૮૧લા અધિગમ ગુણો- તેઓનું ફળ अधिगमगुणानेव दर्शयति - હવે અધિગમગુણો બતાવે છે. नाणस्स णाणिणं णाणसाहगाणं च भत्तिबहुमाणा । आसेवणवुड्डादी अहिगमगुणमो मुणेयव्वा ॥८२०॥ (ज्ञानस्य ज्ञानिनां ज्ञानसाधकानां च भक्तिबहुमानात् । आसेवनवृद्ध्यादयोऽधिगमगुणा ज्ञातव्याः ॥) ++ + + + + + + + + + + + + + + e-HIN२ - 124 * * * * * * * * * * * * * * * Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ + ++ ++ + ++ + ++ + ++ + ++ ++ + ++ + + ++ + + + ++ + ++ ज्ञानस्य ज्ञानिनाम्-आचार्यादीनां ज्ञानसाधकानां च-पुस्तकपट्टिकादीना, भक्तिपूर्वकं यद्बहुमानम्-आन्तरः प्रीतिविशेषस्तस्माद्ये आसेवनवृद्ध्यादय आदिशब्दात्पाठकाध्यापकभक्तपानाद्युपष्टम्भप्रवचनवत्सलताऽभीक्ष्णज्ञानोपयो गादिपरिग्रहः, अधिगमहेतवो गुणा अधिगमगुणा ज्ञातव्याः, 'मो' निपातः पूरणे ॥८२०॥ ગાથાર્થ-જ્ઞાન, જ્ઞાની આચાર્યવગેરે અને જ્ઞાનના સાધન પુસ્તક, પાટીવગેરે પ્રતિ ભક્તિપૂર્વકનો આંતરિક પ્રીતિવિશેષરૂપ જે બહુમાનભાવ છે, તે બહુમાનભાવથી થતી આસેવનવૃદ્ધિવગેરે પ્રવૃત્તિ અધિગમના કારણભૂત ગુણો સમજવા. અહીં આસેવન વૃદ્ધિવગેરેમાં વગેરેથી ભણાવનારા અધ્યાપકને ભોજન-પાણી વગેરેની વ્યવસ્થાથી સહાયક થવું, પ્રવચન (આગમ અને સંઘ પર વાત્સલ્યભાવ રાખવો, વારંવાર જ્ઞાનના ઉપયોગમાં રહેવું આદિનો સમાવેશ થાય છે. (મૂળમાં “મો પદ નિપાત છે અને છંદપૂરણાર્થે છે.) u૮૨ના अमीषां फलमाह - હવે આ ગુણોનું ફળ બતાવે છે - सुहपरिणामत्तणओ किलिट्ठपरिणामसंचितमणंतं । ___ एएहिं भव्वसत्तो नियमेण खवेइ आवरणं ॥ ८२१॥ (शुभपरिणामत्वतः क्लिष्टपरिणामसंचितमनंतम् । एतैः भव्यसत्त्वः नियमेन क्षपयति आवरणम् ॥) - एतैः-अधिगमगुणैर्भव्यसत्त्वो नियमेन-अवश्यतया क्षपयति-प्रकृष्ट प्रकृष्टतरादिरूपक्षयोपशमावस्थीकरोति, निःशेषतो वा अपगमयति आवरणम्-आवारकं ज्ञानस्य कर्म, किंविशिष्टमित्याह-क्लिष्ट परिणामसंचितं- क्रूराध्यवसायोपार्जितं, तदपि च प्रदेशापेक्षया अनन्तम्-अनन्तपरमाण्वात्मकम् । कथं पुनरेतदित्थंभूतमधिगमगुणैः क्षपयतीत्यत्राहशुभपरिप्यामत्वतः, अभिहिताधिगमगुणवतो हि परिणामः शुभ एव भवति, अन्यथा तेषामेव तत्त्वतोऽनुपपत्तेरिति ॥८२१ ॥ ગાથાર્થ:-ભવ્યજીવ આ અધિગમગુણોદ્વારા દૂરઅધ્યવસાયોથી બાંધેલા અને પ્રદેશઅપેક્ષાએ અનંતપરમાણમય જ્ઞાનઆવારક કર્મનો અવશ્ય ક્ષય કરે છે, અર્થાત પ્રકૃષ્ટ, પ્રકૃષ્ટતરઆદિરૂપ યોપશમને યોગ્ય અવસ્થાવાળા કરે છે. અથવા સંપૂર્ણતયા દૂર કરે છે. આ અધિગમગણોથી કર્મને આવી રીતે ક્ષય કેવી રીતે થઈ શકે?" આવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે “શુભ પરિણામ હોવાથી પૂર્વોક્ત અધિગમગુણોવાળા ભવ્યજીવનો પરિણામ શુભ જ હોય. જો પરિણામ શુભ ન હોય, તો વાસ્તવમાં અધિગમગુણો સંભવતા જ નથી. આ શુભપરિણામના કારણે આમ કર્મક્ષપણ સંભવે. ધ૮૨૧ ततः किमित्याह - આમ કર્મક્ષપણ થવાથી શું થશે? તે બતાવે છે – ____पवणदरवियलिएहिं घणघणजालेहिं चंदिम व्व तओ । • चंदस्स पसरइ भिसं जीवस्स तहाविहं नाणं ॥८२२॥ (पवनदरविगलितैः घनघनजालैश्चन्द्रिकेव ततः । चन्द्रस्य प्रसरति भृशं जीवस्य तथाविधं ज्ञानम् ॥ ततः- आवरणक्षयात् जीवस्य तथाविधं-क्षयानुरूपं ज्ञानं प्रसरति, यथा-पवनदरविगलितैः-खरपवनसंपर्कत ईषदपगतैर्घनघनजालैः-अतिनिबिडमेघवृन्दैश्चन्द्रस्य चन्द्रिकेति ॥८२२॥ ગાથાર્થ:- આમ જ્ઞાનાવરણનો ક્ષય થવાથી જીવનું તે ક્ષયને અનુરૂપ જ્ઞાન અત્યંત પ્રસાર પામે છે. જેમકે તીવ્ર પવનના સંપર્કથી થોડા ખસેલા અતિનિબિડવાદળોના સમુદાયમાંથી ચન્દ્રની ચન્દ્રિકા પ્રસાર પામે છે. પ૮રરા મતિજ્ઞાનના ભેદોतदेवं जीवस्वरूपतज्ज्ञानतदावरणक्षयोपशमाद्यभिहितम्, सांप्रतं यत्प्रागपन्यस्तमाभिनिबोधिकादिप्रभेदैर्ज्ञानस्य पञ्चप्रकारत्वं तान्भेदान्व्याचिख्यासुराह - આમ જીવનું સ્વરૂપ, તેનું જ્ઞાન, તે જ્ઞાનના આવરણનો ક્ષયોપશમ વગેરેનું નિરૂપણ કર્યું. હવે પૂર્વે જે ઉપન્યાસ કર્યો કે “જ્ઞાનના અભિનિબોધ આદિ પાંચ પ્રકાર છે. તેને અનુસારે જ્ઞાનના તે ભેદોની વ્યાખ્યા કરતા કહે છે जमवग्गहादिस्वं पच्चुप्पन्नत्थगाहगं लोए । इंदियमणोनिमित्तं तं आभिणिबोहिगं बेंति ॥८२३॥ (यदवग्रहादिरूपं प्रत्युत्पन्नार्थग्राहकं लोके । इन्द्रियमनोनिमित्तं तदाभिनिबोधिकं ब्रुवते ॥ ++++++++++++++++वर्भसं लिश- २-125++ + + + + ++ + + + + ++ + Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * *વાનદાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * ___ यदवग्रहादिरूपम्-अवगृहेहावायधारणात्मकं प्रत्युत्पन्नार्थग्राहकं-वर्तमानार्थग्राहकं, प्रायोवृत्तिमाश्रित्य चैवमुच्यते, यतः स्मृतिरतीतविषयैव भवतीति, इन्द्रियमनोनिमित्तं तत्-आभिनिबोधिकज्ञानं प्रागभिहितशब्दार्थ बुवते तीर्थकरगणधराः। अनेन स्वमनीषिकाव्युदासमाह । तत्रावग्रहो द्विधा, व्यंञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च । तत्र व्यज्यतेऽर्थोऽनेन प्रदीपेनेव. घट इति व्यञ्जनम्-उपकरणेन्द्रियं तेन व्यञ्जनेनोपकरणेन्द्रियेणावग्रहः प्राप्तानां शब्दादिपरिणतद्रव्याणामव्यक्तं ज्ञानमात्रं व्यञ्जनावग्रहः, एष कालतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः । व्यञ्जनावग्रहचरमसमये शब्दाद्यर्थावग्रहलक्षणोऽर्थावग्रहः । एतच्च श्रोत्रघ्राणजिह्वास्पर्शनरूपेन्द्रियचतुष्टयमधिकृत्य वेदितव्यं, चक्षुर्मनोविषये तु प्रथमत एवार्थावग्रहः, स चानिर्देश्यसामान्यमात्रावगमनरूप एकसामयिकः । अवगृहीतशब्दाद्यर्थगत(तासद्भूत) सद्भूतविशेषपरित्यागा(दाना)भिमुखं प्रायो मधुरत्वादयः शाङ्घशब्दधा अत्र घटन्ते न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शार्ङ्गशब्दधाः इति ज्ञानमीहा । अवग्रहानन्तरमीहितस्यार्थस्यावगमो-निश्चयो यथा-'शाङ्घ एवायं शब्दो न. शार्ङ्ग इति' अवायः, अवग्रहादिक्रमेण निश्चितार्थविषये तदुपयोगादभ्रंशोऽविच्युतिः, तज्जनितः संस्कारविशेषो वासना, तत्सामर्थ्यादुत्तरकालं पूर्वोपलब्धार्थविषयमिदं तदित्यादि ज्ञानं स्मृतिः, अविच्युतिवासनास्मृतयश्च धरणलक्षणसामान्यान्वर्थयोगाद्धारणेति व्यपदिश्यते । वासनाव्यतिरेकेण चेहादयः सर्वेऽपि कालतोऽन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणाः, वासना तु संख्येयवर्षायुषां संख्येयकालमसङ्ख्येयवर्षायुषामसङ्ख्येयकालमिति ॥८२३॥ ગાથાર્થ:- “આભિનિબોધિકજ્ઞાનનો શબ્દાર્થ પૂવે બતાવ્યો છે. જે જ્ઞાન (૧) અવગ્રહ, ઇહા, અપાય અને ધારણાત્મક છે, ૨)તથા વર્તમાનકાલીન અર્થનું ગ્રાહક છે (અર્થાત વર્તમાનકાલીનઅર્થને વિષય બનાવે છે.) તથા (૩) ઇન્દ્રિય અને મનને સાધન બનાવી પ્રવર્તે છે. તે જ્ઞાન આભિનિબોધિક છે એમ તીર્થંકર–ગણધરો કહે છે. વર્તમાનકાલીનઅર્થનું ગ્રાહક એવું જે કહ્યું તે પ્રાય:ભાવને =બહુલતાને આશ્રયી સમજવું, બાકી ધારણાઅન્તર્ગત જે સ્મૃતિજ્ઞાન છે, તે ભૂતકાલીનઅર્થવિષય જ હોય છે. “તીર્થકર ગણધરો કહે છે. એમ કહેવાથી “આ બધું આચાર્ય પોતાની બુદ્ધિથી કહે છે. એવી ૫ના સંભવતી નથી. અવગ્રહાદિમાં અવગ્રહ બે પ્રકારે છે. (૧) વ્યંજનાવગ્રહ અને (૨) અર્થાવગ્રહ. જેમ પ્રદીપથી ઘડો અભિવ્યક્ત થાય છે. એમ જેનાથી અર્થ અભિવ્યક્ત થાય, તે વ્યંજન' વ્યંજન'પદની આવી સુત્પત્તિ હોવાથી વ્યંજનપદથી ઉપકરણઇન્દ્રિય વાચ્ય બને છે. (ઈન્દ્રિય બે પ્રકારે (૧) ભાવ અને (૨) દ્રવ્ય. તેમાં ભાવના બે ભેદ (૧) લબ્ધિન તે-તે ઇન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાનઅંગેનો કયોપશમ. અને (૨) ઉપયોગ એ લયોપશમનો વ્યાપાર- એ ક્ષયોપશમજન્ય બોધ. દ્રવ્યન્દ્રિય બે પ્રકારે (1) નિવૃત્તિ- એટલે તે તે ઇન્દ્રિયની પૌત્રલિકરચના અને (૨) ઉપકરણેન્દ્રિય:- તે તે નિવૃત્ત ઈન્દ્રિયની વિષયગ્રાહકશક્તિ.) આ વ્યંજનભૂત ઉપકરણઇન્દ્રિયથી અવગ્રહ અર્થાત પ્રાપ્ત થયેલા -સંપર્કમાં આવેલા–શબ્દાદિરૂપે પરિણત થયેલા દ્રવ્યોનો અવ્યક્તજ્ઞાનમાત્ર બોધ વ્યંજનાવગ્રહ. આ વ્યંજનાવગ્રહ- કાળથી અન્તર્મુહૂર્તપ્રમાણ છે. વ્યંજનાવગ્રહના ચરમસમયે શબ્દાદિઅર્થનો અવગ્રહ અર્થાવગ્રહ છે. આ પ્રમાણે કાન, નાક, જીભ અને સ્પર્શરૂપ ચાર ઇન્દ્રિયમાટે સમજવું. ચલ અને મનઅંગે તો પ્રથમથી જ અર્થાવગ્રહ સમજવો. આ અર્થાવગ્રહ અનિર્દેય (શબ્દથી અનભિધેય) સામાન્યમાત્રના અવગમનરૂપ છે, અને એક સમયના કાળવાળો છે. - હવે “ઇહાનું સ્વરૂપ બતાવે છે. અવગ્રહથી અવગત કરાયેલા શબ્દાદિઅર્થોમાં રહેલા અદ્ભૂતવિશેષ ' (અવિમાનવિશેષપર્યાય)નો ત્યાગ અને સદ્ભતવિશેષ વિદ્યમાનવિશેષપર્યાય)નું ગ્રહણ આ બે તરફ પ્રવર્તતું જ્ઞાન ઇણ છે. જેમકે “અહીં સાંભળેલા (=અવગૃહીત કરેલા) શબ્દમાં શંખમાંથી ઉદ્ભવેલા શબ્દના મધુરતાઆદિ પર્યાયો ઘટે છે, જયારે શંગમાંથી ઉદભવેલા શબ્દના કર્કશ, કોર, નિષ્ફરતાવગેરે પર્યાયો ઘટતા નથી' આવું વિચારજ્ઞાન અહા છે. અવગ્રહ પછી વિચારાયેલા (=ઈહિત) અર્થનો નિશ્ચય એ “અવાય છે. જેમકે “અહીં આ શંખનો જ શબ્દ છે, શૃંગનો ની - આમ અવગ્રહાદિના કમથી નિચય કરાયેલા અર્થના વિષયમાં તદર્થગતજ્ઞાનોપયોગથી ચલિત ન થવું અર્થાત એ જ જ્ઞાનોપયોગ ચાલુ રહે તે “અવિસ્મૃતિ છે. આ અવિસ્મૃતિથી ઉત્પન્ન થતો સંસ્કારવિશેષ “વાસના છે. આ વાસનાના સામર્થ્યથી ભવિષ્યમાં પૂર્વઅનુભૂતઅર્થવિષયક “આ જ તે એવા આકારવાળું થતું જ્ઞાન સ્મૃતિ છે. આ અવિસ્મૃતિ, વાસના અને સ્મૃતિ ધારણા તરીકે ઓળખાય છે, કેમકે આ ત્રણેયમાં ધરણરૂપ સામાન્ય અન્વર્થનો યોગ સમાનતયા છે. વાસનાને છોડી ઇહવગેરે બાકીના ઉપરોક્તજ્ઞાનો અનર્મુહૂર્તપ્રમાણવાળા છે. વાસના સંખ્યયવર્ષના આયુષ્યવાળાને સંખ્યાતકાળપ્રમાણ અને અસંખ્ય વર્ષના આયુષ્યવાળાને અસંખ્યાતકાળની (અહીં કાળથી આવલિકાદિ પ્રમાણરૂપ કાળ લેવો, સમયરૂપ નહીં, કેમકે સંખ્યાત વર્ષની વાસનામાં પણ સમય અસંખ્ય હોય છે. આ માત્ર સામાન્યનિરૂપણ છે નિયમ નથી. કેમકે જાતિસ્મરણશાનવાળા સંખ્યાતવર્ષ આયુષ્યવાળાને પણ અસંખ્યવર્ષની વાસના સંભવે છે.) u૮૨૩ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 126 * * * * * * * * * * * * * * * Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + ++ नवार + + + + + + + + + + + + + + ++ ++ શુતજ્ઞાન श्रुतज्ञानमभिधित्सुराह - હવે શ્રુતજ્ઞાનનું અભિધાન કરતાં કહે છે 'जं पुण तिकालविसयं आगमगंथाणुसारि विन्नाणं । इंदियमणोनिमित्तं तं सुयनाणं जिणा बिंति ॥८२४॥ (यत् पुनस्त्रिकालविषयमागमग्रन्थानुसारि विज्ञानम् । इन्द्रियमनोनिमित्तं तत्श्रुतज्ञानं जिना बुवते ॥ यत्पुनस्त्रिकालविषयं शब्दार्थालोचनत्रिकालावलम्बिसमानपरिणामगोचरत्वात्, अस्य च ज्ञानस्य शब्दार्थालोचनात्मकत्वात् तथाचाह-आगमग्रन्थानुसारि-श्रुतग्रन्थानुसारि शब्दार्थालोचनानुसारीतियावत् विज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं तत् श्रुतज्ञानं प्रागभिहितशब्दार्थं जिना ब्रुवते ॥८२४॥ - ગાથાર્થ:- જે જ્ઞાન (૧) આગમ-શ્રતગ્રન્થાનુસારી અર્થાત શબ્દાર્થની વિચારણાને અનુસરે છે અને તેથી જ (૨) ત્રિકાળ(ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્ય) વિષયક છે, કેમકે શબ્દાર્થનું આલોચનાત્મકશાન ત્રણેય કાળને અવલંબીને રહેલા સમાનપરિણામને વિષય બનાવતું શ્રેય છે. અને (૩) ઇન્દ્રિય અને મનને નિમિત્ત ( કારણ–સાધન) બનાવી પ્રવરે છે, તે ( આ ત્રણેય યોગ્યતાવાળું) જ્ઞાન પૂવે દર્શાવેલા શબ્દાર્થવાળું શ્રુતજ્ઞાન છે. એમ જિનેશ્વરો કહે છે. u૮૨૪ અવધિજ્ઞાન अवधिज्ञानमाह - હવે અવધિજ્ઞાન બતાવે છે. ओहिन्नाणं भवजं खओवसमियं च होति नायव्वं । तेयाभासंतरदव्वसंभवं वविविसयं तु ॥८२५॥ (अवधिज्ञानं भवजं क्षायोपशमिकं च भवति ज्ञातव्यम् । तेजोभाषान्तरद्रव्यसंभवं रूपिविषयं तु ॥ - अवधिज्ञानं पूर्वोक्तशब्दार्थं भवजं-भवप्रत्ययं क्षायोपशमिकं च भवति ज्ञातव्यम् । तत्र भवजं देवनारकाणां, क्षायोपशमिक तिर्यग्मनुष्याणाम्। नन्वाभिनिबोधिकादिज्ञानचतुष्टयं क्षायोपशमिकमेव नारकादिभवश्च तदायुःकर्मोदयादिजनितत्वादौदयिकस्तत्कथमिदमवधिज्ञानं तन्निमित्तं भवेत् ? औदयिकत्वप्रसङ्गात् । नैष दोषः यतस्तदपि तत्त्वतः क्षायोपशमिकमेव, परं सोऽपि क्षयोपशमस्तस्मिन्नारकादिभवे सत्यवश्यं भवति, कर्मणां क्षयोपशमादेविचित्रनिमित्तापेक्षित्वात्, तदुक्तम्-"उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥१॥" (छा. उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा यच्च कर्मणो भणिताः । द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं च भावं च संप्राप्य) इति, ततो नारकादिभवस्यावश्यं तत्क्षयोपशमहेतुत्वात् अवधिज्ञानं तन्निमित्तमुच्यत इति । यदाह भाष्यकृत्-“ओही खलूवसमिए भावे भणिओ भवो तहोदइए । तो किह भवपच्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं ? ॥१॥ सोवि हु खओवसमिओ किंतु स एव उ खओवसमलाभो । तम्मि सइ होइवस्सं भन्नइ भवपच्चओ तो सो ॥२॥" (छा. अवधिः खल्वौपशमिके भावे भणितो भवस्तथौदयिके । तस्मात्कथं भवप्रत्ययो वक्तुं युक्तोऽवधिद्धयोः ॥१॥ सोऽपि खल्वौपशमिकः किंतु स एव तु क्षयोपशमलाभः । तस्मिन् सति भवत्यवश्यं भण्यते भवप्रत्ययस्तस्मात्सः ॥२॥ इति । किंविषयं पुनस्तदवधिज्ञानं प्रथमत उत्पद्यत इत्यत आह -'तेयेत्यादि' तैजसानि च भाषाश्च-भाषायोग्यानि द्रव्याणि च तेषामन्तरं-यानि द्रव्याणि उभयायोग्यानि तत्र संभवः-उत्पत्तिर्यस्य तत्तथा, 'रूविविसयं त्विति' तुरेवकारार्थः रूपिविषयमेव न त्वरूपिविषयम् । ननु यदि रूपिविषयमेवावधिज्ञानं तर्हि किमुक्तमागमे- “खेत्तओ णं ओहिन्नाणी जहन्नेण अंगुलासंखेज्जइभागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं असंखिज्जाइं अलोगे लोगमेत्ताई खंडाइं जाणइ पासइत्ति" (छा. क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्यनाङ्गुलासंख्येयभागं जानाति पश्यति, उत्कर्षेणासंख्येयान्यलोके लोकमात्राणि खण्डानि जानाति पश्यति ॥) इह ह्यलोकोऽप्यसंख्येयलोकमात्रखण्डात्मकोऽवधिज्ञानस्य विषय उक्त इति, तदयुक्तम, अभिप्रायापरिज्ञानात्, नहि तत्राकाशखण्डान्येव लोकप्रमाणानि असंख्येयानि विषयतया साक्षानिर्दिष्टानि, किंतु यदि तत्रापि द्रष्टव्यं रूपि वस्तुजातं भवेत्, तत एतावन्मात्रे क्षेत्रे पश्येदिति संभवमाश्रित्य सामर्थ्यमात्रयु(मुक्तम्, “न उ पेच्छइ खेत्तकाले सो" (छा. न तु पश्यति क्षेत्रकालौ सः) इतिवचनात्, तथाचाह भाष्यकृत्-सामत्थमित्तमेयं दृट्ठव्वं जइ हवेज पेञ्छेज्जा । ++++++++++++++++ sle- २ - 127+++++++++++++++ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ જે જ * * * * * * * * * * * * * વાનદાર જ જ જ જ જ જ જ ન જ છે કે જે न उ तं तत्थत्थि जओ सो रूविनिबंधणो भणिओ ॥१॥" (छा. सामर्थ्यमात्रमेतद् द्रष्टव्यं यदि भवेत् पश्येत् । नतु तत् तत्रास्ति यतः स रूपिनिबन्धनो भणितः ॥) इति। यदि तान्याकाशखण्डानि न साक्षादवधेविषयस्तर्हि किं तेन सामर्थ्यमात्रेणाप्यभिहितेन निष्फलत्वादिति चेत्। न। तस्य तथाप्रकर्षभावद्योतनेन लोकाकाशस्थसूक्ष्मसूक्ष्मतररूपिवस्तुजातविषयतासूचने सामर्थ्यमात्राभिधानस्य सफलत्वात्, तदुक्तम्- “वडतो पुण बाहिं लोगत्थं चेव पासई दव्वं । सुहुमयरं सुहुमयरं परमोही जाव परमाणु ॥१॥ इति (छा. वर्धमानः पुनर्बहिर्लोकस्थं चैव पश्यति द्रव्यम् । सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतरं परमावधिर्यावत् परमाणुम् ॥८२५॥ ગાથાર્થ:- અવધિજ્ઞાનનો શબ્દાર્થ પૂર્વે દર્શાવ્યો છે. આ અવધિજ્ઞાન બે પ્રકારે છે. (૧) ભવજન્ય અને (૨) માયોપથમિક દેવ અને નારકોને ભવજન્ય અવધિજ્ઞાન છે. મનુષ્ય-તિર્યંચને લાયોપથમિક અવધિજ્ઞાન છે. શંકા- આભિનિબોધિકઆદિ પ્રથમચારજ્ઞાનો જાયોપથમિક જ છે. જયારે નારકઆદિ ભવો તે-તે ભવના આયુષ્યકર્મના ઉદયાદિથી જન્ય હોવાથી ઔદયિક છે. તેથી ઔદયિક એવા નરક-દેવભવ લાયોપથમિક અવધિજ્ઞાનના નિમિત્ત કેવી રીતે બની શકે? જો બની શકે તો અવધિજ્ઞાનને પણ ઔદયિક માનવાનો પ્રસંગ આવે. સમાધાન:-અહીં દોષ નથી. કેમકે દેવ-નારકભવજન્ય અવધિજ્ઞાન પણ તાત્તિકરૂપે તો લાયોપથમિક છે, પરંતુ આ લયોપશમ દેવ–નારકભવ પ્રાપ્ત થયે અવશ્યમેવ થાય છે. (અહીં શંકા થાય કે અમુકભવની પ્રાપ્તિમાત્ર કયોપશમઆદિમાં કારણ શી રીતે બને? તેના સમાધાનમાં કહે છે કેમકે) કર્મનાં સોપશમાદિ વિચિત્રનિમિત્તોને અપેક્ષીને થાય છે. કહ્યું જ છે કે “કર્મના જે ઉદય, ક્ષય, ક્ષયોપશમ અને ઉપશમ બતાવ્યા; તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવને પામીને હોય છે. આમ નારક-દેવભવ અવશ્ય અવધિજ્ઞાનના ક્ષયોપશમના કારણ બને છે. તેથી અવધિજ્ઞાનને નારકાદિભવપ્રત્યયવાળું પણ બતાવ્યું છે. ભાગ્યકારે કહ્યું છે કેન્દ્ર (શંકા) અવધિ ઔપથમિક (કક્ષાયોપથમિક) ભાવમાં કહ્યું છે, અને ભવ(નારકાદિય ઔદયિકભાવમાં, તો પછી (દેવ અને નારક) બને અવધિ ભવપ્રત્યયિક છે એમ કહેવું યોગ્ય શી રીતે કહેવાય? (સમાધાન) તે પણ (નારક અને દેવસંબંધી અવધિ) છે તો લાયોપથમિક જ. પરંતુ તે ક્ષયોપશમનો લાભ તે (નારક-દેવભવ)ોય તો અવશ્ય હોય છે. તેથી તે (નારક-દેવનું અવધિ) ભવપ્રત્યયિક કહેવાય છે. તેનારા.” “પ્રથમત: ઉત્પન્ન થતા અવધિજ્ઞાનનો વિષય કયો છે? તે બતાવે છે. તેજસવર્ગણાના પગળો અને ભાષાવર્ગણાના પુગળો આ બેની વચ્ચે જે અંતર છે (અર્થાત જે પુગળો આ બેની અપેક્ષાએ સ્થૂળતર–સૂક્ષ્મતર હોવાથી) બન્ને માટે અયોગ્ય છે ત્યાં તેને વિષય બનાવી) અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. અવધિજ્ઞાન હંમેશા રૂપી દ્રવ્યોને જ વિષય બનાવે છે અરૂપી દ્રવ્યોને નહીં. શંકા:- જો અવધિજ્ઞાન રૂપિદ્રવ્યવિષયક જ હોય, તો આગમમાં એમ કેમ કહ્યું કે “ત્રથી અવધિજ્ઞાની જઘન્યથી (ઓછામાં ઓછું) અંગુલના અસંખ્યામાં ભાગ જેટલું જાણે-જૂએ. અને ઉત્કૃષ્ટથી અલોકમાં લોકજેટલા પ્રમાણવાળા અસંખ્ય ખંડોને જાણે અને “એ” અહીં અલોકમાં પણ અસંખ્ય લોકપ્રમાણ ખંડાત્મક અવધિજ્ઞાનનો વિષય બતાવ્યો છે. અને અલોક કે અલોકમાં રૂપી દ્રવ્ય બિસ્કુલ નથી.) સમાધાન:- અહીં તમને અભિપ્રાયની જાણકારી નથી. આગમમાં જે ઉપરોક્ત વાત છે, ત્યાં લોકપ્રમાણવાળા અસંખ્ય આકાશખંડો જ અવધિજ્ઞાનના સાક્ષાત વિષયતરીકે દર્શાવ્યા નથી. પરંતુ જો ત્યાં (અલોકમાં) પણ દર્શનીય-શૈય રૂપી દ્રવ્ય હોત, તો ત્યાં ઉત્કૃષ્ટથી આટલા આકાશખરૂપ ક્ષેત્રમાં રહેલા રૂપીદ્રવ્યને અવધિજ્ઞાની જોઈ શકત. આમ ત્યાં માત્ર સંભવને આશ્રયી ઉત્કૃષ્ટ અવધિજ્ઞાનનું સામર્થ્ય બતાવ્યું. (આગમપંક્તિનું આમ સામર્થ્યઆશ્રયી તાત્પર્ય કરવામાં બળ શું છે? તે આગમપંક્તિથી જ બતાવે છે) - ન ઊ પચ્છઈ ખત્તકાલે સો તે અવધિજ્ઞાની ક્ષેત્ર-કાળને જોતો નથી' એવી આગમપંક્તિ અહીં પ્રમાણભૂત છે. તેથી જ ભાણકારે પણ કહ્યું છે કે “આ સામર્થ્યમાત્રરૂપ જ સમજવું- “જો હોત તો જાત' પરંતુ તે' (રૂપીદ્રવ્ય) ત્યાં નથી. તેથી જતો નથી, કેમકે અવધિજ્ઞાન રૂપિદ્રવ્યનિમિત્તક છે.” શંકા:- જો તે આકાશખંડે અવધિના સાક્ષાત વિષય નથી, તો સામર્થ્યમાત્રને આશ્રયી પણ આમ કહેવાથી સર્ય, કેમકે નિષ્ફળ છે, નિરર્થક છે. સમાધાન:-એમ નથી. અવધિજ્ઞાનનો આવો પ્રકર્ષભાવ બતાવવાદ્વારા “લોકાકાશમાં રહેલા સૂક્ષ્મ સૂક્ષ્મતર રૂપીવસ્તુસમુદાય તે અવધિજ્ઞાનના વિષય બને છે તેમ સૂચવવાઅંગે સામર્થ્યમાત્રનું કથન પણ સાર્થક છે. કહ્યું છે કે “(અવધિજ્ઞાનનું ક્ષેત્ર) બહાર (લોકની બહાર) વધતા લોકમાં જ રહેલા સૂક્ષ્મતર સૂક્ષ્મતર દ્રવ્યને જૂએ છે, યાવત પરમાવધિ પરમાણુદ્રવ્યને જૂએ છે. (તાત્પર્ય - અવધિજ્ઞાનમાં ક્ષેત્ર-કાળની વૃદ્ધિ સાથે દ્રવ્યની સૂક્ષ્મતા અને ભાવ-પર્યાયની વૃદ્ધિ સંકળાયેલી છે. તેથી સામર્થ્યરૂપે લોકની બહારના ક્ષેત્રની વૃદ્ધિ દર્શાવી વાસ્તવમાં તો લોકમાં જ દ્રવ્ય-ભાવની વૃદ્ધિ બતાવી છે.) u૮૨પા જ આ જ ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 128 * * * * * * * * * * Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મન:પર્યવજ્ઞાન अधुना मनःपर्यवज्ञानमाह - मन:पर्यशान छ. - मणपज्जवनाणं पुण जणमणपरिचिंतितत्थपागडणं । __माणुसखेत्तनिबद्धं गुणपच्चइयं चरित्तवतो ॥ ८२६॥ (मनःपर्यवज्ञानं पुनर्जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् । मनुष्यक्षेत्रनिबद्धं गुणप्रत्ययं चारित्रवतः ॥ मनःपर्यवज्ञानं प्रागुक्तशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः वक्ष्यमाणच्छास्थस्वाम्यादिसाम्येऽपि सति अप्रमत्तयतिस्वाम्यादिभेदेन भिन्नमिदमवधिज्ञानादिति विशेषयति, जनानां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितो योऽर्थस्तं प्रकटयतिप्रकाशयतीति जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनं मानुषक्षेत्रम्-अर्द्धतृतीयद्वीपपरिमाणं तन्निबद्धं न तद्बहिर्व्यवस्थितप्राणिमनःपरिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इतियावत् । गुणाः-आमाँषध्यादिलब्धिहेतवः क्षान्त्यादयः त एव प्रत्यया :- कारणानि यस्य तत् गुणप्रत्ययम्, चारित्रं-वक्ष्यमाणस्वरूपं तद्यस्यास्ति स चारित्रवान् तस्येदं भवति नान्यस्य, एतदुक्तं भवतिअप्रमत्तसंयतस्यामर्षोषध्यादिऋद्धिप्राप्तस्य भवतीति ॥ ८२६॥ . या:- मन:पर्यवशान नो अर्थ पूर्वमताच्यो छे. भूगमा पुन:५६ मा शानमा विशेषता हा छे. અવધિજ્ઞાન સાથે મન:પર્યવજ્ઞાન છદ્મસ્થસ્વામિવગેરેરૂપે સામ્યતા રાખે છે, તે આગળ બતાવશે. આવી સામ્યતા સેવા છતાં અપ્રમત્તસાધવગેરે ભેદથી આ જ્ઞાન અવધિજ્ઞાનથી ભિન્ન છે, વિશિષ્ટ છે. તે સૂચવવા પુન:પદ છે. આ મન:પર્યવજ્ઞાન (૧) લોકોના મનથી વિચારાયેલા અર્થનો પ્રકાશબોવ કરાવે છે. (૨) માત્ર અઢીદ્વીપમાં રહેલાં જ જીવોના મનના પરિચિત્તિતઅર્થને વિષય બનાવે છે. બાર રહેલા જીવોના મનના પરિચિત્તિતઅર્થને વિષય બનાવતું નથી. (૩) આમષષધિવગેરે લબ્ધિમાં કારણભૂત જે સાન્યાદિ ગુણો છે, તે જ ગુણોના કારણે ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી ગુણપ્રત્યય છે. તથા (૪) જેનું સ્વરૂપ આગળ બતાવશે તે ચારિત્રવાળાને જ આ જ્ઞાન હોય છે. બીજાને નહીં. તાત્પર્ય:- આમ વધ્યાદિલબ્ધિવાળા અપ્રમત્ત સંયતને જ આ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. અન્યને નહીં. પ૮૨૬ાા કેવળજ્ઞાન केवलज्ञानमाह - હવે કેવળજ્ઞાનઅંગે કહે છે. अह सव्वदव्वपरिणामभावविन्नत्तिकारणमनंतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥८२७॥ (अर्थ सर्वद्रव्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणमनन्तम् । शाश्वतमप्रतिपाति एकविधं केवलं ज्ञानम् ॥ प्रागुपन्यस्तज्ञानपञ्चकक्रमप्रामाण्यानुसरणादथशब्दो मनःपर्यायज्ञानापेक्षया केवलज्ञानस्यानन्तर्यद्योतनार्थः। सर्वाणि यानि जीवादिलक्षणानि द्रव्याणि तेषां परिणामाः-प्रयोगविश्र(स)सोभयजन्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामास्तेषां भावः- सत्ता स्वलक्षणमित्यनर्थान्तरं तस्य विशेषेण ज्ञापन ज्ञप्ति:-परिच्छित्तिः तस्या विज्ञप्तेः कारणं सर्वद्रव्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणं, तच्च ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं, शश्वद्भवं शाश्वतं, तच्च प्रतिपात्यपि भवति यावत्कालं भवति तावत् शश्वद्भवनादित्यत आहअप्रतिपाति, पतनशीलं प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्रतिपाति सदावस्थितमितियावत् । न च प्रतिपातीत्येतदेवास्तु शाश्वतमित्ययुक्तं निरर्थकत्वादिति । अप्रतिपातिनोऽप्यवधिज्ञानस्य शाश्वतत्वाभावात्, तस्मादुभयमपि युक्तमेव, तथा एकविधम्-एकप्रकारं निःशेषत आवरणाभावस्यैकरूपत्वात्, केवलज्ञानं प्राङ्निरूपितशब्दार्थमिति ॥८२७॥ ગાથાર્થ:- સૂત્રકાર પૂર્વે ઉપન્યાસ કરેલા જ્ઞાનપંચકના કમને અનુસરી રહ્યા છે. તેથી મન:પર્યવજ્ઞાનની અપેક્ષાએ કેવળજ્ઞાન તરત પછી આવે છે, આમ “આનન્તર્યના ધોતનઅથે મૂળમાં “અથ' શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે. આ કેવળજ્ઞાન (૧) જીવાદિસ્વરૂપ જેટલા પણ દ્રવ્યો છે. તેઓના પ્રયોગ, વિસસા અને ઉભયજન્ય ઉત્પાદઆદિ જે પર્યાય-પરિણામો છે तमोना मान-सत्ता- -विद्यमान (मस्तित्व-ATA) ना विशेषथी हे शान छ, तेन १२भूत छे. (प्रयो३-७ri પ્રયત્નથી થતો પરિણામ પ્રયોગપરિણામ. વિગ્નસાપુળમાં જીવપ્રયત્ન વિના જ સહજ ઉત્પન્ન-નાશ થતાં પરિણામ વિસસાપરિણામ. ७१-४६३न गयी तो परिणाम भयपरिणाम छ.) (२)अनन्त छ म तेना (Bqणानना) ज्ञेय (विषय) अनन्त छे. ++ + + + + + + + + + + + + + + plugi-MIN२ - 129 +++++++++++++++ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * શાનદ્દાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * (૩) શાશ્વત છે. (૪) પોતાની કાળમર્યાદા સુધી રહેલી વસ્તુ પણ શાશ્વત કહેવાય. તેથી તે કાળમર્યાદા પછી નષ્ટ થવાની આપત્તિ રહે છે. જયારે આ (કેવળજ્ઞાન) અપ્રાતિપાતી છે. પતન-નાશ થવાના સ્વભાવવાળું પ્રતિપાતી ગણાય. કેવળજ્ઞાન હમેશા રહેવાનું હોવાથી અપ્રતિપાતી છે. શંકા:- તો પછી અપ્રતિપાતી કહેવાથી પર્યાપ્ત છે. શાસ્વત કહેવાની જરુર નથી, કેમકે નિરર્થક છે. સમાધાન:-એમ નથી. અપ્રતિપાતી એવું પણ અવધિજ્ઞાન શાશ્વતકેવળજ્ઞાન પ્રગટ થાય ત્યારે નાશ પામતું હોવાથી નથી હોતું, જયારે કેવળજ્ઞાન તો સદાકાલ ( પોતાની અનંતકાળની કાળમર્યાદા ) સુધી રહેતું લેવાથી શાશ્વત પણ છે અને (ક્યારેય પડવાનું ન લેવાથી) અપ્રતિપાતી પણ છે. તેથી બન્ને વિશેષણ સુયોગ્ય છે. તથા (૫) આ કેવળજ્ઞાન એકવિધ (એકપ્રકારવાળું છે.) કેમકે આવરણનો નિ:શેષક્ષય એક પ્રકારરૂપ જ છે. કેવળજ્ઞાન શબ્દનો અર્થ પૂર્વે બતાવ્યો છે. u૮૨૭ જ્ઞાનની વિષયભેદથી પંચવિધતા અસિદ્ધ अत्र पर आह - અહીં બીજી વ્યક્તિ કહે છે. णत्तेगसहावत्ता आभिणिबोहादि किंकओ भेदो ? । नेयविसेसाओ चे ण सव्वविसयं जतो चरमं ॥८२८॥ (ज्ञप्त्येकस्वभावत्वादाभिनिबोधादिः किंकृतो भेदः? । ज्ञेयविशेषात् चेत्, न सर्वविषयं यतश्चरमम् ) ज्ञप्त्येकस्वभावत्वात्-परिच्छेदैकरूपत्वात् ज्ञानस्याभिनिबोधिकादिभेदः किंकृतः-किंनिमित्तः? निर्निबन्धनत्वान्नैवासौ युक्त इति भावः। ज्ञेयविशेषात्-ज्ञेयभेदादाभिनिबोधिकादिको भेद इति चेत्तथाहि-वर्तमानकालभावि वस्तु आभिनिबोधिकज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकालवर्ति च शब्दगोचरः सामान्यं श्रुतज्ञानस्येत्यादि । अत्राह- 'नेत्यादि' यदेतदुक्तं तन्न । यस्मात्सर्वविषयं सर्वे-आभिनिबोधिकादिज्ञानविषया अपि विषया यस्य तत्तथा चरमं केवलज्ञानं, न च तत्र विषयभेदेऽपि भेदोऽस्ति, तन्नासौ भेदसाधनायालमिति ॥८२८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જ્ઞાનનું બોધ એકમાત્ર સ્વરૂપ છે. તેથી તેના આભિનિબોધિકાદિ ભેદોનું નિમિત્ત શું છે? અર્થાત ભેદઅંગે કોઇ નિમિત્ત ન હોવાથી આ પાંચ ભેદ પાડવા યોગ્ય નથી. શંકા:- શેય(વિષય)ના ભેદથી આભિનિબોધિકઆદિભેદ પાડ્યા છે. જેમકે વર્તમાનકાળભાવી વસ્તુ મતિજ્ઞાનનો વિષય છે, જયારે શબ્દનો વિષય બનતું ત્રિકાળવર્તી સામાન્ય શ્રુતજ્ઞાનનું શેય છે. સમાધાન:- આ કથન બરાબર નથી. કેમકે મતિજ્ઞાનઆદિ બાકીના ચારે જ્ઞાનના બધા વિષયો છેલ્લા-કેવળજ્ઞાનના વિષય બને છે. અને છતાં કેવળજ્ઞાનમાં એ વિષયોના ભેદે કોઈ ભેદ પાડવામાં આવ્યો નથી. તેથી વિષયભેદ જ્ઞાનમાં ભેદ પાડવા સમર્થ નથી. ૨૮ પ્રતિપતિ-આવરણભેદ અસિદ્ધ अह पडिवत्तिविसेसा णेगम्मि विऽणेगभेदभावातो । आवरणविभेदोवि हु सहावभेदं विणा न भवे ॥८२९॥ (अथ प्रतिपत्तिविशेषात्, न, एकस्मिन्नप्यनेकभेदभावात् । आवरणविभेदोऽपि ह स्वभावभेदं विना न भवेत् ॥) अथोच्येत न विषयभेदात् ज्ञानस्य भेदमिच्छामः किंतु प्रतिपत्तिविशेषात्-प्रतिपत्तिप्रकारभेदादिति । तदपि न युक्तम्। कुत इत्याह - एकस्मिन्नप्यनेक भेदभावात्-एकस्मिन्नपि ज्ञाने अनेकभेदभावप्रसङ्गात्, देशकालपुरुषस्वरूपभेदेन प्रत्येकमाभिनिबोधिकादिज्ञानानां प्रतिपत्तिप्रकारानन्त्यभावात् । स्यादेतत्, तदावरणीयं कर्म अनेकभेदमतस्तदावार्य ज्ञानमप्यनेकभेद(द)त्वं प्रतिपद्यत इत्यत आह-'आवरणेत्यादि' आवरणविभेदोऽपि 'ह' निश्चितं न स्वभावभेदं विना भवितुमर्हति, आवार्यापेक्षं ह्यावरणं तच्चैकस्वभावमिति कथं तदावरणमनेकधा भवेदिति ॥८२९॥ ગાથાર્થ:-શંકા-અમે વિષયભેદથી જ્ઞાનનો ભેદ ઇચ્છતા નથી. પરંતુ પ્રતિપત્તિ(=બોધ) ના પ્રકારના ભેદથી જ્ઞાનભેદ ઇચ્છીએ છીએ. (મતિજ્ઞાનમાં જે પ્રકારનો બોધ થાય છે. શ્રુતજ્ઞાનમાં તેનાથી ભિન્ન પ્રકારનો બોધ થાય છે. એમ કહેવાનું તાત્પર્ય છે.) સમાધાન:- આ પણ હેય છે. કેમકે આમ માનવાથી એક જ્ઞાનમાં પણ અનેક ભેદ ક૯૫વાની આપત્તિ આવશે. દેશ, કાળ, પુરુષ. અને સ્વરૂપના ભેદથી મતિજ્ઞાનાદિજ્ઞાનોમાં પ્રત્યેકમાં બોધનો પ્રકાર અલગ અલગ હોવાથી દરેકના અનન્ત અનન્ત * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 130 * * * * * * * * * * * * * * Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભેદ કલ્પવાની આપત્તિ છે. (મતિજ્ઞાનમાં પણ બધાને બધે સ્થળે હમેશા બધાવિષયમાં એકસરખો જ બોધ થાય તેવો નિયમ નથી, પરંતુ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવને આશ્રયી અલગ અલગ પ્રકારે બોધ થાય છે. તેથી બોધના પ્રકારના ભેદથી ભેદ પાડવામાં તો અનંતભેદ કલ્પવાની આપત્તિ છે એમ તાત્પર્ય છે.) શંકા:- જ્ઞાનાવરણીયકર્મના અનેક ભેદ હોવાથી એ કર્મથી આવાર્ય જ્ઞાનના પણ અનેક ભેદ થાય છે. સમાધાન:- જ્ઞાનાવરણીયકર્મમાં ભેદ પણ અવશ્ય જ્ઞાનના સ્વભાવમાં ભેદ વિના સંભવે નહીં, કેમકે આવાર્યને અપેક્ષીને આવરણ હોય છે નહી કે આવરણને અપેક્ષીને આવાર્ય). અહીં તો આવાર્યજ્ઞાન એક જ સ્વભાવવાળું છે. તેથી તેના આવરણ પણ અનેક પ્રકારના શી રીતે હોઈ શકે? અર્થાત આવરણીય કર્મ પણ એક જ પ્રકારનું હોવું જોઇએ. તેથી તેના ભેદથી આવાર્યજ્ઞાનમાં ભેદ પાડવો યોગ્ય નથી. u૮૨લા સ્વભાવભેદમાં યુક્તિવિરોધ अथ मा निपप्तदयं दोष इति स्वभावतोऽपि ज्ञानस्य भेद इष्यते इति, अत्राह - શંકા:- આ દોષ આવે નહીં તે માટે જ્ઞાનનો સ્વભાવથી પણ ભેદ ઇચ્છનીય છે. અહીં સમાધાનમાં કહે છે. तम्मि य सति सव्वेसिं खीणावरणस्स पावती भावो । तद्धम्मचातो च्चिय जुत्तिविरोहा स चाणिट्ठो ॥८३०॥ (तस्मिंश्च सति सर्वेषां क्षीणावरणस्य प्राप्नोति भावः । तद्धमत्वादेव यक्तिविरोधात्स चानिष्टः ॥ तस्मिन्-ज्ञानस्य स्वभावभेदे सति सर्वेषाम्-आभिनिबोधिकादिज्ञानानां भावः-सत्ता क्षीणावरणस्य सर्वज्ञस्य प्राप्नोति। कुत इत्याह - तद्धर्मत्वादेव-जीवस्वभावत्वादेव । ज्ञानं हि आत्मनो नौपाधिकं किंतु स्वभावभूतं, तस्य चेत् स्वरूपेणैवाभिनिबोधिकादिरूपतया भेदस्ततः क्षीणावरणस्यापि तद्भावः प्राप्नोति इति, स च क्षीणावरणस्याप्याभिनिबोधिकादिज्ञानभेदभावोऽनिष्टः । कुत इत्याह-युक्तिविरोधात् ॥८३०॥ ગાથાર્થ:-સમાધાન:- જો જ્ઞાનમાં સ્વભાવભેદ માનશો, તો જ્ઞાનાવરણીયકર્મનો ક્ષય કરનાર સર્વજ્ઞને મતિજ્ઞાનાદિ પાંચેય જ્ઞાનની સત્તા માનવી પડશે, કારણ કે તે જ્ઞાન જીવના સ્વભાવભૂત છે. આત્માનું જ્ઞાન પાધિક (=અન્ય રક્ત વસ્તુનો સંક્રમિત થયેલો ધર્મ) નથી, પરંતુ સ્વભાવરૂપે છે. અને એ જ્ઞાનનો સ્વરૂપથી જ આભિનિબોધિકઆદિરૂપે ભેદ હોય, તો જ્ઞાનાવરણનો ક્ષય કરનાર સર્વજ્ઞને પણ તે ભિન્ન જ્ઞાન હોવા જોઈએ. પરંતુ ક્ષીણઆવરણવાળા સર્વજ્ઞને પણ આ જ્ઞાનના મતિજ્ઞાનાદિ ચાર ભેદ હોય તે ઈષ્ટ નથી. કેમકે ત્યાં યુક્તિ સાથે વિરોધ છે. u૮૩ના तमेव दर्शयति - હવે યુક્તિવિરોધ બતાવે છે ' अरहावि असव्वन्नू आभिणिबोहादिभावतो नियमा । केवलभावातो चे(व) सव्वन्नू णणु विरुद्धमिदं ॥८३१॥ (अर्हन्नपि असर्वज्ञः आभिनिबोधिकादिभावात् नियमात् । केवलभावात् चेत् सर्वज्ञः ? ननु विरुद्धमिदम् ॥ अर्हन्नपि-अष्टमहाप्रातिहार्याद्यैश्वर्यवानपि भगवानसर्वज्ञः,आभिनिबोधिकादिज्ञानभेदभावाद्-अस्मादृश इव नियमादसर्वज्ञः प्राप्नोति । केवलभावात् सर्वज्ञ एव भगवानिति चेत् ? नन्विदं विरुद्धम् । तथाहि-यदा भगवतः केवलज्ञानोपयोगस्तदा तद्भावेन निःशेषवस्तुजातपरिच्छेदात् सर्वज्ञत्वं, यदा त्वाभिनिबोधिकादिज्ञानोपयोगभावस्तदा देशतः दस्मादृशस्येव तस्याप्यसर्वज्ञत्वं, न च भगवतः सर्वज्ञत्वमसर्वज्ञत्वं चेष्यत इति विरुद्धमेतदिति स्थितम् ॥८३१ ॥ ગાથાર્થ:-જો ક્ષીણઆવરણવાળાને પણ આભિનિબોધિકઆદિ જ્ઞાનભેદો હોય, તો આઠમહાપ્રાતિહાર્યવગેરે ઐશ્વર્યવાળા ભગવાન પણ આપણી જેમ અસર્વજ્ઞ થવાની આપત્તિ આવે. (કેમકે એ જ્ઞાનો અધુરા-અસર્વજ્ઞશાનો છે.) શંકા:- ભગવાનને તો આભિનિબોધિકઆદિભેદોની સાથે કેવળજ્ઞાન પણ હોવાથી ભગવાન સર્વજ્ઞ જ રહેશે. સમાધાન:- આ વિરુદ્ધ વાત છે. જયારે ભગવાનને કેવળજ્ઞાનનો ઉપયોગ હોય, ત્યારે કેવળજ્ઞાન હોવાથી તમામ વસ્તસમાયનો બોધ થશે. તેથી તે વખતે ભગવાન સર્વજ્ઞ હશે. અને જયારે મતિજ્ઞાનાદિનો ઉપયોગ હશે, ત્યારે આંશિક બોધ થવાથી આપણી જેમ ભગવાન પણ અસર્વજ્ઞ બનશે. આમ ભગવાનમાં સર્વજ્ઞત્વ-અસર્વજ્ઞત્વ બને આવે, પણ તે ઇષ્ટ નથી. તેથી આ કલ્પના તો વિરુદ્ધ જ છે એમ નિશ્ચિત થાય છે. પ૮૩૧ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 131 * * * * * * * * * * * * * * * Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + + + + + + * * * * * * * * * * * * aunt * * * * * * * * * * * * * * * * * કેવળજ્ઞાન ક્યારે પ્રતિસમય કે ચરમસમયે अन्यच्च, पणी, चरमावरणस्स खओ पइसमयं चरमए व होज्जहि । पतिसमये तब्भावोऽसगलो सो कस्स भेदोत्ति ? ॥८३२॥ (चरमावरणस्य क्षयः प्रतिसमयं चरमे वा भवेत् । प्रतिसमयं तद्भावोऽसकलः स कस्य भेद इति ॥ चरमावरणस्य-केवलज्ञानावरणस्य क्षयः किं प्रतिसमयं भवेत् किंवा चरमे समये? इति पक्षद्वयम् । तत्र यद्याद्यः पक्षस्ततः प्रतिसमय-समये समये स तद्भावः- केवलज्ञानसद्भावोऽसकल:- खण्डरूपः कस्याभिनिबोधिकादेर्भेदः स्यात् ? क्व पञ्चानां भेदानामन्यतरस्मिन् भेदेऽन्तर्भवेत् ? नैव क्वचिदिति भावः । तथाहि-नाभिनिबोधिकादिष, तद्विलक्षणत्वात, न केवलज्ञाने छद्मस्थस्य तदनभ्युपगमादिति ॥८३२॥ ગાથાર્થ:- કેવળજ્ઞાનાવરણનો ક્ષય શું પ્રતિસમય થાય છે કે ચરમસમયે? એમ બે વિકલ્પો છે. તેમાં જો પ્રથમપક્ષ હોય, તો તે-તે સમયના ક્ષયને આશ્રયી કેવળજ્ઞાનનો તે પ્રતિસમય ખંડરૂપે સદ્ભાવ હોવો જોઇએ, આ ખંડરૂપ કેવળજ્ઞાનનો મતિજ્ઞાનાદિ પાંચ ભેદમાંથી કયા ભેદમાં સમાવેશ થશે? અર્થાત આ પાંચ ભેદમાંથી એક પણ ભેદમાં સમાવેશ નહીં પામે. તે આ પ્રમાણે - આ ખંડરૂપ કેવળજ્ઞાન મતિજ્ઞાનાદિચારમાં સમાવેશ નહીં પામે, કેમકે તેઓથી (=મતિજ્ઞાનાદિથી) આ (ખંડકેવળજ્ઞાન) વિલક્ષણ છે. કેમકે કેવળજ્ઞાનના અંશરૂપ છે.) તેમ જ આ ખંડરૂપ કેવળજ્ઞાનનો કેવળજ્ઞાનમાં પણ સમાવેશ નહીં થાય, કેમકે આ જ્ઞાન છદ્મસ્થને છે. અને કેવળજ્ઞાન છદ્મસ્થને હોય, તે માન્ય નથી. ૮૩રા अह सतिवि तम्मि भावो ण तस्स पतिसमयमेव इद्रोत्ति । कहमाभिणिबोहादिसु तब्भावे हंत भावोत्ति? ॥८३३॥ (अथ सत्यपि तस्मिन् भावो न तस्य प्रतिसमयमेव इष्टइति । कथमाभिनिबोधिकादिषु तद्भावे हन्त! भाव इति ? |) अथ मन्येथाः सत्यपि तस्मिन्-प्रतिसमयमावरणक्षये न तस्य-केवलज्ञानस्य प्रतिसमयमेव भाव इष्टः, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात्, किंतु चरमसमय एवेति । यद्येवं तर्हि कथमाभिनिबोधिकादिष्वपि ज्ञानेषु तद्भावेप्रतिसमयमावरणक्षयभावे 'हन्त' भावो युज्यते, नैव कथंचन, न्यायस्योभयत्रापि समानत्वादिति ॥८३३॥ ગાથાર્થ:- શંકા:- ઉપરોક્ત દોષનો પ્રસંગ આવતો હોવાથી પ્રતિસમય આવરણક્ષય થવા છતાં પ્રતિસમય કેવળજ્ઞાનની હાજરી માનવી ઈષ્ટ નથી. પરંતુ અંતિમ સમયે માનવી જ યોગ્ય છે. સમાધાન - ન્યાય સર્વત્ર સમાનતયા લાગતો હોવાથી આ વાત તો મતિજ્ઞાનઆદિ ચારજ્ઞાનને પણ લાગુ પડશે. અર્થાત પ્રતિસમય મતિજ્ઞાનાવરણાદિનો ક્ષય થવા છતાં મતિજ્ઞાનાદિની પ્રતિસમય હાજરી માનવી યોગ્ય નહીં ઠરે, બલ્ક ચરમસમયે જ માનવી ઠીક રહે. પ૮૩૩ द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह - હવે બીજાપક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે. सिय चरमए च्चिय खओ कह तीरइ एत्तियस्स काउंति? । ण य पोग्गलाण समए अणंतकालं ठिती भणिता ॥८३४॥ (स्यात्, चरम एव क्षयः कथं तीर्यते एतावतः कर्तुम् । नच पुद्गलानां समयेऽनंतकालं स्थितिः भणिता ) स्यादेतत्-चरमसमये केवलज्ञानावरणस्य क्षयोऽभ्युपगम्यते नतु प्रतिसमयं ततो यथोक्तदोषानवकाश इति । नन्वेवमपि चरमसमयमात्रेण कथमेतावतोऽनन्तकालोपार्जितकेवलज्ञानावरणपरमाणुसंघातस्य क्षयः कर्तुं शक्यते ? नैव कथंचनेतिभावः, कालस्य सर्वस्तोकत्वात्, घात्यस्य च कर्माणुसंघातस्यातीवप्रभूतत्वात् । भवतु वा समयमात्रेणापि तावतः क्षयस्तथापि नैतदभ्युपगन्तुं युक्तमागमविरोधात्तथा चाह- 'नयेत्यादि' । चो हेतौ । न यस्मात्पुद्गलानामनन्तकालं स्थितिः समये-प्रवचने भणिता, किंत्वसंख्येयं कालं, चरमसमये चावरणक्षयाभ्युपगमे कर्मपुद्गलानामनन्तकालं स्थितिरभ्यनुज्ञाता भवेत्, तथा च सत्यागमविरोध इति ॥८३४॥ ગાથાર્થ:- શંકા- અમે ચરમસમયે જ કેવળજ્ઞાનાવરણનો ક્ષય સ્વીકારશે. પ્રતિસમય ક્ષય નહીં સ્વીકારીએ. તેથી પૂર્વોક્તદોષોને અવકાશ રહેશે નહીં. ++++++++++++++++ R -MIN२ - 132 +++++++++++++++ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * વાનાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * સમાધાન:-આમ ચરમસમયરૂપ એકસમયમાત્રમાં અનન્તકાળથી ભેગા કરેલા કેવળજ્ઞાનાવરણકર્મના પરમાણુ સમુદાયનો ક્ષય કરવો શી રીત શકય બને? અર્થાત કોઈ પણ રીતે શકય ન જ બને. કેમકે સમય ઘણો અલ્પ છે અને ક્ષમણીય કર્મપુત્રો અતિઘણા છે. કદાચ માની લઇએ કે એકસમયમાત્રમાં તે બધા કર્મોનો ક્ષય થઈ શકે, તો પણ આ સ્વીકારવું યોગ્ય નથી કેમકે આગમ સાથે વિરોધ છે. તેથી જ કહ્યું “નય' ઇત્યાદિ... (ચ પદ હેત્વર્થે છે.) આગમમાં કર્મયુગળોની સ્થિતિ અનંતકાળની નથી બતાવી પણ અસંખ્યકાળની જ બતાવી છે. હવે જો તમે માત્ર ચરમસમયે જ આવરણક્ષય સ્વીકારશો, તો કર્મયુદ્દગળ ની અનંતકાળ સુધી સ્થિતિ તમને માન્ય છે, તેમ નક્કી થશે. અને તો તમારી વાતને આગમ સાથે વિરોધ આવશે. u૮૩૪ उपसंहरन्नाह - હવે ઉપસંહાર કરતા કહે છે तम्हा अवग्गहातो आरब्भ इहेगमेव णाणंति । जुत्तं छउमत्थस्साऽसगलं इतरं तु केवलिणो ॥८३५॥ - (तस्मादवग्रहादारभ्येहैकमेव ज्ञानमिति । युक्तं छद्मस्थस्यासकलमितरत्तु केवलिनः ॥ तस्मादिह-विचारप्रक्रमे अवग्रहादारभ्य छद्मस्थस्य सतो यत् असकलम्-असकलविषयं ज्ञानं तत्सर्वमप्येकमेव युक्तं, इतरत्तु सकलार्थविषयं केवलिन इति सकलासकलविषयतया ज्ञानस्य भेदद्वयमेव समीचीनं न तु भेदपञ्चकमिति ॥८३५॥ ગાથાર્થ:- તેથી પ્રસ્તુત વિચારવિમર્શમાં છદ્મસ્થનું અવગ્રહથી માંડી જેટલું પણ અસકળવિષયક (=અપૂર્ણ) જ્ઞાન છે તે બધું એક જ સ્વીકારવું યોગ્ય છે. અને જે સકળાર્થવિષયક જ્ઞાન છે તે કેવળીને છે. આમ સકળવિષયક અને અસકળ વિષયક એમ જ્ઞાનના બે ભેદ જ પાડવા યોગ્ય છે. પાંચ ભેદ પાડવા નહીં. પ૮૩પા ચેકસ્વભાવ વિશેષથી અસિદ્ધ-ઉત્તરપલ अत्राचार्य आह - આ વિસ્તૃત પૂર્વપક્ષના જવાબમાં હવે આચાર્ય કહે છે णत्तेगसहावत्तं आहेण विसेसओ पुण असिद्धं । एगंततस्सहावत्तणे उ कह हाणिवुडीओ ? ॥८३६॥ (ज्ञप्त्येकस्वभावत्वमोघेन विशेषतः पुनरसिद्धम् । एकान्ततत्स्वभावत्वे तु कथं हानिवृद्धी ? " यदुक्तं ज्ञप्त्येकस्वभावत्वाद् ज्ञानस्याभिनिबोधिकादिभेदो न युक्त इति, तत्र ज्ञप्त्येकस्वभावत्वं किमोघेन-सामान्येनेष्यते विशेषतो वा ? यद्योघेन ततः सिद्धसाध्यता, सामान्यतो ज्ञानस्य एकरूपत्वाभ्युपगमात् । अथ विशेषतो ज्ञप्त्येकस्वभावत्वं तर्हि तदसिद्धम् । कथमित्याह - ‘एगंतेत्यादि' तु हेत्वर्थे यस्मादेकान्ततत्स्वभावत्वे-सर्वथा ज्ञप्त्येकस्वभावत्वे सति ज्ञानस्य ये प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धे हानिवृद्धी ते कथं स्यातां ? नैव कथंचनेतिभावः, तस्माद्विशेषतस्तदसिद्धम् ॥८३६॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપલ:- પૂર્વપલે કહ્યું કે “બોધ એકમાત્ર સ્વભાવ હોવાથી જ્ઞાનનાં આભિનિબોધિકાદિભેદો યોગ્ય નથી.’ ત્યાં તેઓ જ્ઞાનનો બોધએકમાત્ર સ્વભાવ ઓધથી (=સામાન્યથી) સ્વીકારે છે કે વિશેષથી? જો ઓઘથી સ્વીકારતા હોય તો કશું નવું નથી કહેતા. એ તો સિદ્ધઅર્થને જ ફરીથી સિદ્ધ કરવાનો વ્યર્થ પ્રયત્ન છે, કેમકે અમે પણ જ્ઞાનની તે સ્વભાવે સામાન્યથી એકરૂપતાનો સ્વીકાર કરીએ જ છીએ. જો તેઓ જ્ઞાનનો જ્ઞપ્તિએકસ્વભાવ વિશેષથી (એકાન્ત)સ્વીકારતા હોય, તો તે અસિદ્ધ છે. કેમકે તે જ્ઞાનનો એકાન્ત-સર્વથા જ્ઞપ્તિએકમાત્ર સ્વભાવ હોય, તો તે સ્વભાવ તો દરેક પ્રાણીમાં સમાનતયા સ્વીકાર્ય હોવાથી દરેક જીવને અનુભવસિદ્ધ જ્ઞાનની હાનિ-વૃદ્ધિ કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત ન જ સંભવે. (કેમકે દરેક જીવને હંમેશા તે સ્વભાવ એકસરખો રહેશે.) આમ અનુભવસિદ્ધ હાનિવૃદ્ધિ અનુ૫૫ન્ન થતી હોવાથી વિશેષથી જ્ઞપ્તિકસ્વભાવ અસિદ્ધ કરે છે. પ૮૩૬ एतदेव भावयति હવે આચાર્યવર્ય આ જ અર્થનું ભાન કરે છે. __जं अविचलियसहावे णत्ते एगंततस्सभावत्तं ।। ___ण य तं तहोवलद्धा उक्करिसापकरिसविसेसा ॥८३७ ॥ (यदविचलितस्वभावे ज्ञत्वे एकान्ततत्स्वभावत्वम् । न च तत् तथोपलब्धात् उत्कर्षापकर्षविशेषात् ॥) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 133 * * * * * * * * * * * * * * * Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***********++++++++बानद्वार++++++++++++++++++ यस्मादविचलितस्वभावे-एकान्तेनैकरूपे ज्ञत्वे सति ज्ञानस्य एकान्ततत्स्वभावत्वं-सर्वथा ज्ञप्त्येकस्वभावत्वं युज्यते नान्यथा, न च तत्-अविचलितस्वभावं ज्ञत्वमस्ति । कुत इत्याह-'तहोवेत्यादि' तथा प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धतया उपलब्धादुत्कर्षापकर्षविशेषात्, उपलभ्येते हि अभ्यासभावाभावादिना ज्ञानस्योत्कर्षापकर्षाविति ॥८३७॥ ગાથાર્થ:- જો જ્ઞપણું એકાન્ત એકરૂપે હોય, તો જ જ્ઞાનનો સર્વથા જ્ઞપ્તિએકમાત્ર સ્વભાવ યોગ્ય ઠરે, નહિતર નહીં. પરંતુ જ્ઞપણું અવિચલિત( એકરૂ૫)સ્વભાવવાનું નથી. કેમકે ઉત્કર્ષ અને અપકર્ષના વિશેષથી ફેરફારથી દરેક જીવને જ્ઞત્વનો વિચલિત સ્વભાવ જ અનુભવસિદ્ધ છે. અભ્યાસ કરવો, ન કરવો વગેરેથી જ્ઞાનનો ઉત્કર્ષ અને અપકર્ષ ઉપલબ્ધ થાય જ છે. ૮૩ળા तम्हा परिथूरातो निमित्तभेदातो समयसिद्धातो । उववत्तिसंगओ च्चिय आभिणिबोहादिगो भेदो ॥८३८॥ (तस्मात् परिस्थूरात् निमित्तभेदात्समयसिद्धात् । उपपत्तिसंगत एवाभिनिबोधादिको भेदः ॥ तस्मात्परिस्थूरात् वक्ष्यमाणलक्षणानिमित्तभेदात्समयसिद्धात्-प्रवचनप्रसिद्धादाभिनिबोधादिको भेदो ज्ञानस्योपपत्तिसंगत एव- युक्तियुक्त एव ॥८३८॥ ગાથાર્થ:- તેથી આગમમાં પ્રસિદ્ધ અને આગળ બતાવશે તેવા સ્વભાવવાળા પરિસ્થૂળનિમિત્તોના ભેદથી જ્ઞાનના आमिनिमोषिमाहि मेधे युलियस छे. ॥८॥ જ્ઞાનભેદમાં કારણભૂત નિમિતભેદો तमेव परिस्थरं निमित्तभेदमुपदर्शयति - હવે તે પરિસ્થૂળ નિમિત્તભેદો બતાવવામાં આવે છે. घातिक्खयो निमित्तं केवलनाणस्स वन्निओ समए । मणपज्जवनाणस्स उ तहावितो(हो) अप्पमादोत्ति ॥८३९॥ (घातिक्षयो निमित्तं केवलज्ञानस्य वर्णितः समये । मनःपर्यवज्ञानस्य तु तथाविधोऽप्रमाद इति ॥ घातयन्ति ज्ञानादिकं गुणमिति घातीनि-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणि तेषां क्षयः-साकल्येनोच्छेदो निमित्तं केवलज्ञानस्य वर्णितः समये । मनःपर्यवज्ञानस्य तु तथाविधः आमर्पोषध्यादिलब्धिनिमित्तभूतोऽप्रमाद इति ॥८३९॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનાદિ ગુણોનો નાશ કરે તે ઘાતી, જ્ઞાનાવરણીય, દર્શાનાવરણીય, મોહનીય અને અંતરાય આ ચાર ઘાતિકર્મ છે. આ કર્મોનો ક્ષય સંપૂર્ણત: વિચ્છેદ કેવળજ્ઞાનનું નિમિત્ત છે. અને આમર્ષીષધિવગેરે લબ્ધિઓમાં કારણભૂત તેવા પ્રકારનો અપ્રમાદ મન:પર્યવજ્ઞાનનું નિમિત્ત છે એમ આગમમાં કહ્યું છે. પ૮૩લા ओहिन्नाणस्स तहा अणिदिएसं पि जो खओवसमो । मतिसुयनाणाणं पुण लक्खणभेदादिणा भेओ ॥८४०॥ (अवधिज्ञानस्य तथाऽनीन्द्रियेष्वपि यः क्षयोपशमः । मतिश्रुतज्ञानयोः पुनर्लक्षणभेदादिना भेदः ॥ अवधिज्ञानस्य, तथेति समुच्चये, योऽतीन्द्रियेष्वपि रूपिद्रव्येषु क्षयोपशमः स निमित्तम् । मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः पुनलक्षणभेदादिना भेदो ज्ञेयो, लक्षणभेदादिको निमित्तभेदो ज्ञेय इतियावत्, आदिशब्दात् हेतुफलभावादिपरिग्रहः। यदुक्तम् - "लक्खणभेया हेतुफलभावाओ भेयइंदियविभागा । वागक्खरमुयेयरभेदा भेओ मइसुयाण ॥१॥ मिति" (छा. लक्षणभेदाहेतुफलभावतो भेदेन्द्रियविभागात् । वल्काक्षरमूकेतरभेदाढ़ेदो मतिश्रुतयोः॥ ॥ तत्र यदिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थालोचनानुसारेण प्रवर्तते तत् श्रुतज्ञानं शेषमिन्द्रियमनोनिमित्तं ज्ञानं मतिज्ञानमिति लक्षणभेदः, यदाह - "इंदियमणोनिमित्तं जं विन्नाणं सुयाणुसारेणं । निययत्थोत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं ॥१॥ ति" (छा. इन्द्रियमनोनिमित्तं यद्विज्ञानं श्रुतानुसारेण । निजकार्थोक्तिसमर्थं तद् भावश्रुतं मतिः शेषम् ॥ ॥ 'सुयाणुसारेणंति' शब्दार्थपर्यालोचनानुसारेण, शब्दार्थपर्यालोचनं च नाम वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण संस्पृष्टस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः तथा मत्युपयोगपूर्वकः श्रुतोपयोगः, न हि मतिज्ञानेनासंचेतयतः श्रुतग्रन्थानुसारिविज्ञानमुपजायते इति हेतुफलभावः । तथा चतुर्द्धा व्यञ्जनावग्रहषोढार्थावगृहेहापायधारणात्मकत्वादष्टाविंशतिभेदं मतिज्ञानम् अङ्गानङ्गादिभेदं च श्रुतज्ञानमिति भेदकृतो विभागः । इन्द्रियकृतो विभागः पुनरयम्- "सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु ॥१॥" (छा. श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्भवति श्रुतं शेषकं तु * * * * * * * * * * * * * * * * प ल -मा २ - 134 * * * * * * * * * * * * * * * Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++++शानद्वार++++++++++++++++++ मतिज्ञानम् । मुक्त्वा द्रव्यश्रुतमक्षरलाभश्च शेषेषु ॥) अस्याः पूर्वगतगाथाया अयमर्थः- श्रोत्रेन्द्रियेण श्रोत्रेन्द्रियस्य वा उपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्भवति श्रुतम्'इष्टितश्चावधारणविधिरिति' श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवेति द्रष्टव्यं, न तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेति, अतिप्रसङ्गापत्तेः, तथाहि-श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिदवग्रहेहापायस्पा मतिज्ञानं, श्रुतग्रन्थानुसारिण्या एव तस्याः श्रुतज्ञानत्वाभ्युपगमात्, ततश्च श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेत्यवधारणे मतिरूपाया अपि तस्याः श्रुतत्वं प्रसज्येतेति, उक्तं च - “सोइंदियोवलद्धी चेव सुयं न उ तई एयं चेव ॥ सोइंदिओवलद्धीवि काइ जम्हा मइन्नाण ॥१॥ मिति" (छा. श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्चैव श्रुतं न तु सका श्रुतं चैव । श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिद् यस्माद् मतिज्ञानम्) 'सेसयं तु मइनाणमिति' शेषं यच्चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं विज्ञानं तन्मतिज्ञानं भवतीति संबध्यते । तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चये । आस्तां शेषं विज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिदवग्रहेहापायरूपा मतिज्ञानमिति समुच्चिनोति, तदुक्तम्-तु समुच्चयवयणाओ काई सोइंदिओवलद्धीवि । मइरेवं सइ सोउग्गहादयो हुंति मइभेया ॥१॥ इति” (छा. तुसमुच्चयवचनात् काचित् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि । मतिरेवं सति श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः) ॥ तदेवं सर्वस्याः शेषेन्द्रियोपलब्धेस्त्सर्गेण मतिज्ञानत्वे प्राप्ते सति अपवादमाह - 'मोत्तूणं दव्वसुयंति' मुक्त्वा द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रादिन्यस्ताक्षरस्पद्रव्यश्रुतविषयां शब्दार्थपर्यालोचनात्मिकां शेषेन्द्रियोपलब्धि, तस्याः श्रतज्ञानस्वभावत्वात । यश्च द्रव्यश्रतोपलब्धिव्यतिरेकेणान्योऽप्यक्षरलाभः शब्दार्थपर्यालोचनात्मको न त केवलो मतेरपीहा कारस्पाक्षरलाभात्मकत्वात् शेषेष्विन्द्रियेषु सोऽपि श्रुतमुच्यते । ननु यदि शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतमुच्यते तर्हि यदादाववधारणमकारि 'श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवेति' तन्न घटासंटङ्कमाटीकते, शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्य श्रुतत्वेनाभ्युपगतस्याश्रोत्रेन्द्रियोपलब्धित्वादिति। नैष दोषः। यत इह शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स इह गृह्यते यः शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः, शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी चाक्षरलाभः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिकल्प इति न कश्चिद्दोषः । तथा वल्कसमं मतिज्ञानं कारणत्वात्, शुम्बसमं श्रुतज्ञानं तत्कार्यत्वात्, संचिंत्य हि मत्या श्रुतपरिपाटीमनुसरतीति, वल्कशुम्बदृष्टान्तेन मतिश्रुतयोर्भेदः॥ तथा मतिज्ञानमनक्षरं साक्षरं च, तत्रावग्रहज्ञानमनक्षरं तस्यानिर्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकतया निर्विकल्पत्वात्, ईहादिज्ञानं तु साक्षरं परामर्शादिरूपतया वर्णारूषित्वात्, श्रुतं पुनः साक्षरमेव अक्षरमन्तरेण शब्दार्थपर्यालोचनस्यानुपपत्तेरित्यक्षरानक्षरकृतो भेदः॥ तथा मूककल्पं मतिज्ञानं स्वमात्रप्रत्यायनफलत्वात्, अमूककल्पं श्रुतज्ञानं स्वपरप्रत्यायकत्वादिति मूकामूकदृष्टान्तकृतो भेदः ॥ तदेवं परिस्थूरनिमित्तभेदादाभिनिबोधादिको भेदो ज्ञानस्य युक्तियुक्त एवेति स्थितम् ॥८४०॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ‘તથા પદ સમુચ્ચયઅર્થક છે.) અતીન્દ્રિય એવા પણ રૂપી દ્રવ્યોવિષે જે ક્ષયોપશમ છે ( જે જ્ઞાનનો લયોપશમ છે.) ને અવધિજ્ઞાનનું નિમિત્ત છે. મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનના ભેદ લક્ષણાદિના ભેદથી છે. અર્થાત લક્ષણાદિના ભેદો મતિ-કૃતના નિમિત્તભેદો છે. અહીં આદિપદથી ઉત-ફળભાવવગેરેનો સમાવેશ થાય છે. કહ્યું જ છે કે “(૧) લક્ષણભેદથી (૨) तु-माथी (3) मेथी (-पोताना पेटामेहनी सध्याथी) (४)न्द्रियविमाथी (4) 4G टान्तथी (6) अक्षर (७) મૂક-ઇતર આ સાતભેદથી મતિ-શ્રુતજ્ઞાનમાં ભેદ છે.” લક્ષણાદિ સાતભેદથી મતિ-શ્રુતભેદ (૧) લસણભેદ:- જે જ્ઞાન ઇન્દ્રિય અને મનના નિમિત્તે ( સાયથી) શબ્દાર્થની વિચારણાના અનુસારે પ્રવૃત્ત થાય, તે શ્રુતજ્ઞાન, બાકીનું ઇન્દ્રિય અને મનના નિમિત્તે થતું બધું જ્ઞાન તે મતિજ્ઞાન.... આ બન્નેનો લક્ષણ (=સ્વરૂપ-વ્યાખ્યા) ભેદ બતાવ્યો. કહ્યું જ છે કે “ઈન્દ્રિય-મનના નિમિત્તે થતું જે વિજ્ઞાન ઋતાનુસારી હોય, અને સ્વઅર્થના વચનમાં સમર્થ હોય, તે ભાવકૃત, બાકીનું મતિજ્ઞાન...” શ્રુતાનુસારી શબ્દાર્થની વિચારણાને અનુસરતું. શબ્દાર્થની પર્યાલોચનાવિચારણા એટલે વાચ્યવાચકભાવને આગળ કરી તે શબ્દથી સંસ્કૃષ્ટ (=વાચ્યવાચકભાવથી સંબંધિત થતો) અર્થનો બોધ. (સ્વઅર્થના વચનમાં સમર્થ-શ્રુતજ્ઞાનથી જ્ઞાત થતા અર્થ હંમેશા શબ્દથી ઉલ્લેખ પામી શકે તેવો જ હોય. કેટલાક જ્ઞાન-બોધ એવા હોય છે જે માત્ર અનુભવી જ શકાય.. જેને શબ્દમાં વર્ણવી ન શકાય.... આવા અનુભવો અપ્રજ્ઞાપનીય કહેવાય છે. પણ શ્રુતજ્ઞાનથી થતો બોધ તો એવો જ છે કે જે શબ્દથી વર્ણવી य... अर्थात् प्रशापनीय ०४ खोय...) तेथी →स्वमर्थना क्यन (शाEिScam) मा समर्थ. . (२) तु ला :-मेशा मतिजानना 6पयोगपूर्व ४ श्रुतशाननो यो। खोय.... (AGA मेटलो या खेयो ४३ छ કે મતિ-શ્રતનો ક્ષયોપશમ-લબ્ધિ એકસાથે હોય. તેથી જ તેરૂપે બન્ને હંમેશા સાથે જ હોય-બન્નેનો કાળ સરખો હોય.... પણ ઉપયોગ લબ્ધિના સામર્થ્યથી વસ્તુનો બોધ કરવાનો વિશેષપુરુષાર્થ. બન્નેનો મતિ-શ્રતનો એકસાથે ન હોય કેમ કે આગમનિયમ છે કે બે ઉપયોગ એકસાથે ન હોય.) મતિજ્ઞાનથી સંચતિત નહીં થયેલા (=અનુભવની કોટીપર નહીં આવેલા) અર્થનો તે વ્યક્તિને શ્રતગ્રસ્થાનુસારી બોધ થઈ શકતો નથી. આમ મતિજ્ઞાન હેતુ છે, શ્રુતજ્ઞાન ફળ છે. ++ + + + * * * * * * * * * * * 8 -मा २ - 135 * * * * * * * * * * * * * * * Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * શાનદાર જ * * * * * * * * * * * * * * * * * (૩) ભેદો:- (કાન, નાક, જીભ અને સ્પર્શના) ચાર વ્યંજનાવગ્રહ,(મન અને આંખ મળીને) ૬ અર્થાવગ્રહ, છ ઇહા, છ અપાય, અને છ ધારણા મળીને મતિજ્ઞાનના અઠ્ઠાવીસ ભેદ છે. જયારે શ્રુતજ્ઞાનના અંગકૃત, અંગબાહ્યશ્રત ઇત્યાદિ ૧૪ કે પર્યાય, પર્યાયસંધાતઆદિ ૨૦ ભેદ છે. આમ પેટાભેના ભેદથી પણ બન્નેમાં ભેદ છે.. . (૪) ઇન્દ્રિયકત વિભાગ:- શ્રોત્રેદ્રિયથી થતી ઉપલબ્ધિ (બોધ) શ્રુતજ્ઞાન છે. દ્રવ્યકૃત અને શેષઇન્દ્રિયોમાં પણ થતાં અક્ષરબોધને છોડી બાકીનું બધું મતિજ્ઞાન છે. આવા અર્થવાળી પૂર્વગત (૧૪ માંથી એક પૂર્વમાં રહેલી) ગાથા છે. તેનો અર્થ આવો છે – શ્રોત્રેન્દ્રિય (કાન) થી અથવા શ્રોત્રેન્દ્રિયની ઉપલબ્ધિ ને શોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ. આ શ્રુતજ્ઞાન છે. અહીં *ઈષ્ટવિષયમાં જ અવધારણ(=જકારમું વિધાન હોય' એવા ન્યાયથી એવું અવધારણ કરવાનું છે કે શ્રુતજ્ઞાન શોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિરૂપ જ હેય. (અર્થાત અહીં શ્રતજ્ઞાનને શ્રોત્રેન્દ્રિય ઉપલબ્ધિરૂપે મર્યાદિત કરવાનું છે.)નીં કે શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ શ્રત જ છે એવું અવધારણ. કેમકે શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ =કાનથી થતો બોધ)ને માત્ર શ્રતરૂપ માનવામાં અતિપ્રસંગ છે. કારણ કે શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિમાં પણ કેટલીક ઉપલબ્ધિઓ અવગ્રહ, ઈહા, અપાય અને ધારણારૂપે મતિજ્ઞાનરૂપ છે, જે શ્રતગ્રન્થાનુસારે ઉપલબ્ધિ છે તેજ શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ ઋતતરીકે ઇષ્ટ છે. આમ “શ્રોત્રન્દ્રિયોપલબ્ધિ શ્રુત જ છે એવો જકાર કરવામાં મતિજ્ઞાનરૂપ શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ પણ ધૃતરૂપ બનવાનો પ્રસંગ છે. કહ્યું જ છે કે “ોન્દ્રિયોપલબ્ધિ જ શ્રત છે, નહીં કે શ્રોસેન્દ્રિયોપલબ્ધિ શ્વત જ છે. કેમકે કેટલીક શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ પણ મતિજ્ઞાનરૂપ છે.” હવે ‘વે ઈના' (બાકીનું મતિજ્ઞાન છે.) એ પંક્તિનો ભાવાર્થ બતાવે છે - શેષ-આખવગેરે ઇન્દ્રિયોની ઉપલબ્ધિરૂપ વિજ્ઞાન મતિજ્ઞાન થાય છે, એવો અહીં સંબંધ છે. “ત' પદ અકથિતના સમાવેશઅથે છે. તેથી “બાકીના જ્ઞાનની વાત તો જવા દો, શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ પણ અવગ્રહ ઇહા, અપાયઆદિરૂપ કેટલીક મતિજ્ઞાન છે.' એવો સમુચ્ચય કરવાનો છે. કહ્યું જ છે કે “ત' સમુચ્ચયવચન છે. તેથી કેટલીક શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિ પણ મતિજ્ઞાન છે. તેથી શ્રોત્રેન્દ્રિયઅવગ્રહવગેરે વગેરેથી શ્રોત્રક્રિયાદિ સમાવેશ પામે છે.) મતિજ્ઞાનના ભેદ છે.' આમ બાકીની ઇન્દ્રિયોની બધી ઉપલબ્ધિઓ મતિજ્ઞાનરૂપે ઉત્સર્ગથી પ્રાપ્ત થઇ. તેથી હવે અપવાદ બતાવે છે. “મોત્તર્ણ દધ્વસુયં તિ' દ્રવ્યશ્રતને છોડી) પુસ્તક, પ્રતવગેરેમાં રહેલા અક્ષરરૂપ દ્રવ્યશ્રતવિષયક જે શબ્દાર્થવિચારણાત્મક શેન્દ્રિયોપલબ્ધિ છે, તે શ્રતજ્ઞાનસ્વભાવરૂપ હોવાથી મતિજ્ઞાનમાં સમાવેશ ન પામે. (શ્રુતગળ્યાનુસારી શબ્દાર્થપર્યાલોચન ભાવશ્રત છે. તેમાં કારણ બનતા પુસ્તકઆદિના અક્ષરો આંખથી વંચાતા હોવા છતાં શ્રતગ્રન્થના બોધરૂપ ભાવકૃતમાં કારણ હોવાથી દ્રવ્યશ્રત છે.) દ્રવ્યહૃતોપલબ્ધિને છોડી બીજો પણ જે શબ્દાર્થપર્યાલોચનરૂપ અક્ષરલાભ શેષઈન્દ્રિયોમાં થાય છે. તે પણ શ્રત કહેવાય છે. પણ અક્ષ૨લાભ શબ્દાર્થની પર્યાલોચનથી યુક્ત હોવો જરૂરી છે. એ વિના તો ઇહાઆદિપ મતિજ્ઞાનમાં પણ અનર્જલ્પાકાર આદિરૂપ અક્ષરલાભ છે. પણ તેની ગણત્રી મતિજ્ઞાનમાં થાય છે, શ્રુતજ્ઞાનમાં નહીં. શંકા:- જો શેષઇન્દ્રિયનો અક્ષરલાભ પણ ગ્રુત કહેવાય, તો જે જકાર કર્યો કે શ્રુતજ્ઞાન શોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિરૂપ જ હોય તે ઘટે નહીં. કેમકે શ્રતરૂપે સ્વીકારેલો શેન્દ્રિયઅક્ષરલાભ શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિરૂપ નથી. સમાધાન:- અહીં દોષ નથી. અહીં તે જ શેન્દ્રિયઅક્ષરલાભ લેવાય છે, કે જે શબ્દાર્થની પર્યાલોચનારૂપ હોય, અને શબ્દાર્થની પર્યાલોચનાને અનુસરતો અક્ષરલાભ શ્રોત્રેન્દ્રિયોપલબ્ધિતવ્ય જ છે. તેથી દોષ નથી. (ટૂંકમાં શ્રતાનુસારી-શબ્દાર્થની પર્યાલોચનાત્મક બોધ-પછી તે કોઈ પણ ઇન્દ્રિયથી થયો હોય, બધો શ્રુતજ્ઞાનરૂપ છે. અને જે બોધ તેવો ન હોય, (પાંચેય ઈન્દ્રિયોથી થયેલો) તે બધો બોધ મતિજ્ઞાનરૂપ છે. આમ પૂર્વગત “સોઈદિયોવલી. ગાથાનું વિવરણ કર્યું) વલ્ક- મતિજ્ઞાન વહક (Eઝાડની છાલ) સમાન છે, કેમ કે કારણરૂપ છે, અને શ્રુતજ્ઞાન શુમ્બ (દોરી) સમાન છે. કેમકે મતિજ્ઞાનના કાર્યરૂપ છે. કેમકે મતિથી સંચેતન (પરિચ્છેદ) કર્યા બાદ જ શ્રુતપરિપાટીનું અનુસરણ થાય છે. આમ વલ્કશુમ્બદષ્ટાન્તથી મતિ-ઋતવચ્ચે ભેદ છે. ૬) અક્ષર:- મતિજ્ઞાન સાક્ષર અને અનફર એમ બન્નરૂપે છે. તેમાં અવગ્રહજ્ઞાન અનિર્દેશ્ય સામાન્યમાત્રના પ્રતિભાસસ્વરૂપ હોવાથી નિર્વિકલ્પક છે. તેથી અનાર છે. (=અક્ષરથી ઉલ્લેખપાત્ર નથી.) જયારે ઈહાવગેરેજ્ઞાન પરામર્શઆદિરૂપ લેવાથી વર્ણાદિમય છે તેથી સાક્ષર છે. (=અક્ષરથી ઉલ્લેખપાત્ર છે.) જયારે શ્રુતજ્ઞાન સાક્ષર જ છે. કેમકે અક્ષરના અભાવમાં (=અક્ષરરૂપતાના અભાવમાં) શબ્દાર્થની પર્યાલોચના સંભવે જ નહીં. આમ બન્ને વચ્ચે અક્ષર–અનારકુતભેદ છે. - (૭) મૂક:- મતિજ્ઞાન સ્વનો જ પ્રત્યય કરાવતું હોવાથી મૂકમૂંગા) તલ્ય છે. (અથવા મતિજ્ઞાન ગુણી આત્માને જ પ્રત્યય-બોધ કરાવે છે. બીજા આત્માને નહીં તેથી મૂકે છે.) શ્રુતજ્ઞાન વાચાલતુલ્ય છે. કેમકે તે સ્ત્ર અને પરનો પ્રત્યય કરાવવા સમર્થ છે. આમ મૂક–અમૂક દેટાન્સથી ભેદ સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાનના પરિસ્થૂળનિમિત્તોના ભેદથી મતિજ્ઞાનાદિભેદ યુક્તિસંગત જ છે. તેમ નિશ્ચિત થાય છે. u૮૪ના • * * * * * * ધર્મસંકણિ-ભાગ ૨ - 136 * * * * * * * * * * * * Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ सानद्वार + જ્ઞેયવિશેષાદિથી ભેદસિદ્ધિ-પૂર્વપક્ષીય આપત્તિઓનો પરિહાર एवं च सव्वविसयं जतिवि य चरममिह तहवि सिद्धो तु ॥ यविसेसो तेसिं धम्मंतरजुत्तसिद्धीओ ॥८४१॥ (एवं च सर्वविषयं यद्यपि च चरममिह तथापि सिद्धस्तु । ज्ञेयविशेषस्तेषां धर्मान्तरयुक्तसिद्धेः ॥ एवं च सति परिस्थूरान्निमित्तभेदाद्भेदे सति यद्यपि चरममिह केवलज्ञानं सर्वविषयं तथापि ज्ञेयविशेषस्तेषामाभिनिबोधिकादिज्ञानभेदानां सिद्ध एव । तुरेवकारार्थः । कुत इत्याह- 'धम्मंतरजुत्तसिद्धीओ' धर्मान्तरयुक्तस्य वस्तुनः सिद्धेः - प्रतीतेः । तथाहि - वर्तमानकालभावि स्पष्टरूपं च वस्त्वाभिनिबोधिकेन परिच्छिद्यते, अस्पष्टरूपं त्रिकालावलम्बि च श्रुतज्ञानेनेत्यादिरूपो ज्ञेयविशेषः सुप्रसिद्ध एव, एषोऽपि भेदस्य प्रसाधको द्रष्टव्यः, एवं प्रतिपत्तिविशेषोऽपि ॥८४१ ॥ ગાથાર્થ:-આમ જોકે, છેલ્લું કેવળજ્ઞાન સર્વવિષયક છે, છતા પણ પરિસ્થૂળનિમિત્તભેદથી ભેદ પડતો હોવાથી મતિજ્ઞાનઆદિપાચજ્ઞાનોના શેયમા વિશેષ (-ભેદ)સિદ્ધ જ છે. (મૂળમા ‘તુ’ પદ જકારઅર્થક છે.) કેમકે વસ્તુ ધર્માન્તરયુક્તરૂપે પ્રતીતિસિદ્ધ છે. જૂઓ→ વર્તમાનકાળભાવી અને સ્પષ્ટરૂપવાળી વસ્તુ મતિજ્ઞાનથી જ્ઞાત થાય છે. જયારે અસ્પષ્ટરૂપવાળી ત્રિકાળભાવી વસ્તુ શ્રુતજ્ઞાનથી જ્ઞાત થાય છે. ઇત્યાદિરૂપે શેયવિશેષ પ્રસિદ્ધ છે. આમ શેયવિશેષ પણ જ્ઞાનના પાંચભેદના પ્રસાધકતરીકે ઇષ્ટ છે. એ જ પ્રમાણે પ્રતિપત્તિ(=બોધ વિશેષ પણ ભેદનો પ્રસાધક છે. ૫૮૪ા यदपि तत्रानेकभेदभावप्रसञ्जनमुक्तं तदप्यसंगतम्, यत બોધવિશેષને ભેદપ્રસાધક માનવામાં પૂર્વપક્ષે ત્યાં અનેક ભેદો થવાનો જે પ્રસંગ બતાવ્યો તે પણ અસંગત છે, કેમકે णय पडिवत्तिविसेसा एगम्मि अणेगभेदभावोऽवि । जं ते तहाविसि ण जातिभेदे विलंघेति ॥८४३॥ ( न च प्रतिपत्तिविशेषादेकस्मिन् अनेकभेदभावोऽपि । यत्ते तथाविशिष्टान् न जातिभेदान् विलङ्घन्ते II) न च प्रतिपत्तिविशेषादेकस्मिन्नप्याभिनिबोधिकादौ ज्ञाने अनेकभेदभावः प्रसज्यतेऽपिर्भिन्नक्रमः । कुत इत्याह 'जं ते इत्यादि' यत्– यस्मात्ते प्रतिपत्तिविशेषा देशकालपुरुषस्वरूपभेदेन भिद्यमानाः तथा - परिस्थूरनिमित्तभेदलक्षणेन प्रकारेण ये विशिष्टाः-परस्परं विभिन्ना जातिभेदास्तान् आभिनिबोधिकादीन् विलङ्घन्ति (न्ते ) - नातिक्रामन्ति, ततः कुतः प्रतिपत्तिप्रका - रभेदात् भेदाभ्युपगमे सत्येकस्मिन्नप्यनेकभेदभावप्रसङ्गः ॥८४२ ॥ गाथार्थ:- (भूजमा 'अवि' (अपि) नो संबंध 'गम्भि'साथे छे.) प्रतियत्तिना विशेषथी खेड खेवा याग भतिज्ञानाहि પ્રત્યેકશાનમા અનેકભેદો આવવાનો પ્રસંગ નહીં આવે. કેમકે પ્રતિપત્તિવિશેષો(-બોધપ્રકાર) દેશ, કાળ, પુરુષ અને સ્વરૂપ ભેદથી ભેદ પામતા હોવા'છતા પરિસ્થૂળનિમિત્તરૂપ પ્રકારથી મતિજ્ઞાનાદિ જે જાતિભેદો પડે છે, તે જાતિભેદોને ઓળંગતા નથી. તેથી કેવી રીતે પ્રતિપત્તિના પ્રકારભેદથી ભેદ સ્વીકારીને એકમાં પણ અનેકભેદનો પ્રસંગ આપી શકાય? અર્થાત્ ન જ આપી શકાય. ૫૮૪રરા यदप्युक्तम् - आवरणभेदोऽपि न स्वभावभेदं विना भवेत्, तथा च सत्यात्मधर्म्मत्वात्क्षीणावरणस्यापि तेषामाभिनिबोधिकादिभेदानां भावः प्राप्नोतीति, अत्राह - વળી પૂર્વપક્ષે જે કહ્યું કે “આવરણભેદ પણ સ્વભાવભેદ વિના ન સંભવે, અને સ્વભાવભેદ સ્વીકારવામા` જ્ઞાન આત્મધર્મરૂપ હોવાથી ક્ષીણઆવરણવાળા જીવોને પણ માત્ર કેવળજ્ઞાનને બદલે મત્યાદિ પાંચે જ્ઞાનભેદોની હાજરીની આપત્તિ છે” (ગા.૮૨૯) તેઅંગે પણ આચાર્ય કહે છે.→ णावरणभेदोवि हु सहावभेदेवि दोसहेउत्ति । खीणावरणस्स तो सव्वेसि ण संगतो भावो ॥८४३ ॥ (नावरणभेदोऽपि हु स्वभावभेदेऽपि दोषहेतुरिति । क्षीणावरणस्य यतः सर्वेषां न संगतो भावः ॥) छउमत्थसामिगत्ता तब्भावागमतो य तस्सत्ति । तद्धमत्तेवि तओ जुत्तिविरोधात्ति वइमेत्तं ॥ ८४४॥ (छद्मस्थस्वामिकत्वात्तद्भावावगमतश्च तस्येति ॥ तद्धर्म्मत्वेऽपि ततो युक्तिविशेषादिति वाङ्मात्रम् II) + + + + धर्मसंशि-लाग २ - 137++++++ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ ज्ञानद्वार + + + आवरणभेदोऽपि आस्तां प्रतिपत्तिभेद इत्यपिशब्दार्थः, स्वभावभेदेऽपि सति ज्ञानस्य न दोषहेतुः । कुत इत्याह ‘खीणेत्यादि' यतो– यस्मात्तद्धर्मत्वेऽपि - जीवधर्म्मत्वेऽपि न सर्वेषामाभिनिबोधिकादिभेदानां क्षीणावरणस्य संगतो भावः तेषां छद्मस्थस्वामिकत्वात्–छद्मस्थावस्थाभावित्वात्, तस्य च क्षीणावरणस्य तद्भावापगमात्-छद्मस्थभावापगमात्, ततो युक्तिविरोधादित्यादि यदुक्तं तद्वचनमात्रमेव । यदि हिं सर्वज्ञस्यापि सत आभिनिबोधिकादिज्ञानभेदभावः प्राप्नोति ततः 'अरिहावि असव्वन्नू' इत्यादिको युक्तिविरोधः प्रसज्यमानो युज्येत, यदा तु जीवस्वभावत्वेऽपि न तदानीं तद्भावस्तदा क्वैष व्यावर्ण्यमानो घटत इति ॥८४३-८४४ ॥ ગાથાર્થ:- પ્રતિપત્તિભેદની વાત તો છોડો પણ (અપિશબ્દનો તાત્પર્યાર્થ એટલો છે.) આવરણભેદ પણ જ્ઞાનનો સ્વભાવભેદ હોવાથી દોષરૂપ નથી, કેમકે આભિનિબોધિકાદિશાનો જીવના ધર્મ હોવા છતા ક્ષીણાવરણવાળા જીવને ઘેવા સંગત નથી. કેમકે તે પહેલા ચારજ્ઞાનો છદ્મસ્થાવસ્થામાં હોય છે. અને ક્ષીણાવરણવાળા જીવનો છદ્મસ્થભાવ દૂર થયો હોય છે. તેથી આવરણભેદસ્થળે જે યુક્તિવિરોધદોષનુ ઉદ્ભાવન કરેલુ હતુ તે વચનમાત્ર છે સારભૂત નથી. જો સર્વજ્ઞને પણ મતિજ્ઞાનાદિ જ્ઞાનભેદો હોવાની આપત્તિ આવે તો અરિહંત પણ અસર્વજ્ઞ' ઇત્યાદિક દ્વેષનો પ્રસંગ સંભવે. પણ મતિજ્ઞાનાદિ જીવના સ્વભાવ હોવા છતા આવરણક્ષયકાળ હોતા જ નથી, તેથી આ દોષનુ વર્ણન ક્યા સંભવે? ૫૮ૐ૩-૮૪૪૫ अथ कथं जीवस्वभावत्वेऽपि क्षीणावरणस्य तेषामभाव इत्यत आह શંકા:- મતિજ્ઞાનાદિ ચાર જીવના સ્વભાવ હોવા છતા તેઓનો ક્ષીણાવરણવાળા જીવને અભાવ હોય તે વાત કેવી रीते संलवे? यहीं सभाधान आपता छे छे. जमिह छउमत्थधम्मा जम्मादीया ण होंति सिद्धाणं । इय केवलीणमाभिणिबोहाऽभावम्मि को दोसो ? ॥८४५ ॥ (यदिह छद्मस्थधर्मा जन्मादयो न भवन्ति सिद्धानाम् । इति केवलिनामाभिनिबोधाभावे को दोषः ? ॥) - यत् - यस्मादिह छद्मस्थधर्म्मा जन्मादय आदिशब्दाज्जरामरणादिपरिग्रहः स्वभावभूता अपि न भवन्ति सिद्धानाम्अपगतमलकलङ्कानामितिः- एवं सिद्धानां जन्मादिवत् केवलिनां सर्वज्ञानामभिनिबोधाभावे - अभिनिबोधग्रहणस्योपलक्षणत्वादाभिनिबोधश्रुताद्यभावे सति को दोषः स्यात् ? नैव कश्चिदिति भावः, न्यायस्योभयत्रापि समानत्वात् ॥८४५॥ ગાથાર્થ:-સમાધાન:- જન્મવગેરે-વગેરેથી ઘડપણ-મોતવગેરે-છદ્મસ્થધર્મો જીવના સ્વભાવભૂત હોવા છતા–જેમના મૂળ (= दुर्भखाहि ) खने 55 ( = अज्ञानतावगेरे ) नष्ट थया छे, तेवा सिद्धोने होता नथी. ग्राम प्रेम सिद्धोने ४न्माहि नथी, तेभ સર્વજ્ઞને આભિનિબોધનો અભાવ હોય તેમા શો દોષ છે? અર્થાત્ કોઇ દોષ નથી. કેમકે ન્યાય ઉભયસ્થળે (સિદ્ધ અને સર્વજ્ઞ) સમાન છે. અહીં અભિનિબોધના ઉપલક્ષણથી અભિનિબોધ, શ્રુતાદિચા૨ેજ્ઞાન સમજવાના છે. (કર્મા ધીન જીવોના કર્મની વિચિત્રતાથી સંભવિત સૌપાધિકસ્વભાવો કારણભૂત કર્મના નાશથી નષ્ટ થાય અને શુદ્ધ આત્મામા ન હોય, તે સંગત જ છે.)૫૮૪પા શ્રીણાવરણને મત્યાદિનો અલભાવ-મતાંતર इदानीमात्मधर्म्मत्वेन क्षीणावरणस्यापि तेषां भावे मतान्तरेण दोषाभावमुपदर्शयन्नाह હવે મતિજ્ઞાનાદિ ચાર આત્મધર્મરૂપ હેવાથી ક્ષીણાવરણવાળાને પણ તે હોય જ' આ સ્થળે મતાંતરથી દોષાભાવ બતાવે છે. अन्ने भांति आभिणिबोधादीणिवि जिणस्स विज्जति । अफलाणि य सूस्दए जहेव णक्खत्तमादीणि ॥८४६ ॥ (अन्ये भणन्ति आभिनिबोधिकादीन्यपि जिनस्य विद्यन्ते । अफलानि च सूर्योदये यथैव नक्षत्रादीनि ) अन्ये आचार्याः प्रवचनोपनिषद्वेदिनो भणन्ति यथा- आभिनिबोधिकादीन्यपि ज्ञानानि जिनस्य- केवलिनो विद्यन्ते, न च वाच्यम्-एवं सत्यस्मादृशस्येव तस्याप्यसर्वज्ञत्वप्रसङ्गः । कुत इत्याह- 'अफलेत्यादि, चो हेतौ यस्मादफलानि देशमात्रपरिच्छित्तिलक्षणस्वफलविकलानि तानि विद्यमानान्यपि ज्ञानानि जिनस्य । कथमिवेति दृष्टान्तमाह – 'सूरुदये' इत्यादि, यथा नक्षत्रादीनि आदिशब्दाच्चन्द्रग्रहतारकापरिग्रहः, निशि स्वफलसाधकान्यपि सन्ति सूर्योदये प्रादुर्भूते सत्यफलानि भवन्ति, तथा अमून्यपि आभिनिबोधिकादीनि ज्ञानानि प्राक् सफलान्यपि सन्ति केवलज्ञानभावे सत्यफलानि जायन्त इति ॥ ८४६ ॥ ગાથાર્થ:- બીજા પ્રવચનરહસ્યજ્ઞ આચાર્યો કહે છે કે→ કેવળજ્ઞાનીઓને મતિજ્ઞાનાદિ ચાર પણ હોય છે. અહીં ‘તો + + + + धर्मसंग्रह शि-लाग २ - 138** Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તેઓ (કેવળીઓ) પણ આપણી જેમ અસર્વજ્ઞ થવાની પૂર્વોક્ત આપત્તિ છે એવી શંકા ન કરવી, કેમકે કેવળીઓના તે (મતિઆદિ) જ્ઞાનો વિદ્યમાન લેવા છતાં અંશમાત્રબોધરૂપ પોતાના ફળ(=કાર્યશ્રી રહિત છે. (“ચ' હેત્વર્થે છે.) આ જ્ઞાનો કોની જેમ અફળ છે? તે દષ્ટાન્ત બતાવે છેજેમ નક્ષત્રવગેરે (આદિથી ચન્દ્ર, ગ્રહ અને તારાઓનો સમાવેશ થાય છે.) રાતે પોતાના (પ્રકાશવાદિરૂ૫) ફળના સાધક હોવા છતાં સૂર્યોદય થયે છત ફળ વિનાના થાય તેમ આ મતિજ્ઞાનવગેરે પૂર્વે (-છદ્મસ્થકાળે) સફળ લેવા છતાં કેવળજ્ઞાનની હાજરીમાં નિષ્ફળ થાય છે. આ૮૪દા कथं पुनः प्राक्सफलान्यपि तानि ज्ञानानि पश्चादफलानि जायन्त इत्याह - શંકા:- આ ચાર જ્ઞાનો પૂર્વે સફળ હોવા છતાં પાછળથી અસફળ કેવી રીતે થાય? અહીં સમાધાન આપે છે सहकारिहेतुविरहा तस्साभावाउ चेव नायव्वो । केवलभावातो इय सव्वन्नुत्तम्मि अविरोहो ॥८४७॥ (सहकारिहेतुविरहात् तत्स्वाभाव्याच्चैव ज्ञातव्यः । केवलभावात् इति सर्वज्ञत्वेऽविरोधः ॥ सहकारितविरहात-छास्थभावलक्षणसहकारिकारणाभावात, यथा नक्षत्रादीनि निशालक्षणसहकारिका तथा 'तत्स्वाभाव्याच्चैव' तेषां हि आभिनिबोधिकादीनां ज्ञानानामेवंभूतः स्वभावो यावन्न केवलाभिव्यक्तिस्तावत्सफलता तदभिव्यक्तौ च निष्फलतेति । तत इतिः-एवमुपदर्शितप्रकारेण केवलभावात् सर्वज्ञत्वे सत्थविरोधो ज्ञातव्य इति स्थितम् ॥८४७॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- જેમ રાતરૂપે સહકારીકારણના અભાવમાં નક્ષત્રવગેરે સ્વકાર્યમાં નિષ્ફળ જાય છે, તેમ છદ્મસ્થભાવરૂપે સહકારી કારણનો અભાવ હોવાથી મતિજ્ઞાનાદિજ્ઞાનો કેવળજ્ઞાનકાળે સ્વકાર્યમાં નિષ્ફળ જાય છે. વળી, મત્યાદિ ચારજ્ઞાનોનો તેવો જ સ્વભાવ છે કે જયાં સુધી કેવળજ્ઞાન પ્રગટ ન થાય ત્યાં સુધી કાર્યમાં સફળ થવું અને કેવળજ્ઞાન પ્રગટ થાય ત્યારબાદ નિષ્ફળ જવું. આમ ઉપરોક્તપ્રકારે કેવળજ્ઞાન હોવાથી જિનો સર્વજ્ઞ હોય તેમાં વિરોધદોષ નથી. એમ સમજવું. પ૮૪૭ના ચરમાવ૨ણમયનિરૂપણ यदप्युक्तम्-'चरमावरणस्स खओ' इत्यादि, तत्रोभयपक्षेऽपि दोषाभावमाह - હવે પૂર્વપક્ષે જે ચરમાવરણસ્સ ખઓ' (ગા. ૮૩૨) ઈત્યાદિથી કેવળજ્ઞાનાવરણકર્મના લયઅંગે જે શંકા ઉઠવેલી તેનું સમાધાન આપે છે चरमावरणस्स खए पतिसमयम्मिवि ण तस्स भावोत्ति । तस्साहव्वाउच्चिय तब्बंधातो य पतिसमयं ॥८४८॥ (चरमावरणस्य क्षये प्रतिसमयमपि न तस्य भाव इति। तत्स्वाभाव्यादेव तद्वन्धाच्च प्रतिसमयम् ) चरमावरणस्य-केवलज्ञानावरणस्य प्रतिसमयमपि क्षये सति न तस्य-केवलज्ञानस्य भावः-प्रादुर्भाव । कुत इत्याह 'तत्स्वाभाव्यादेव' केवलज्ञानस्य हीत्थंभूत एव स्वभावो यदुत निःशेषतः स्वावारककर्मपरिक्षये सति प्रादुर्भावस्तथा च सति कुतो देशतः क्षये तद्भाव इति । तथा 'तब्बंधाओ य पइसमयमिति' यद्यपि तस्य प्रतिसमयं देशतः क्षयस्तथापि प्रतिसमयमेव तावदपरतदावारककर्मपद्लसंघातबन्धनान्न तस्य केवलज्ञानस्य भावः ॥८४८॥ ગાથાર્થ:- કેવળજ્ઞાનાવરણકર્મનો પ્રતિસમય લય હોવા છતાં પ્રતિસમય કેવળજ્ઞાનના પ્રાદુર્ભાવની આપત્તિ નથી, કેમકે કેવળજ્ઞાનનો તેવો જ સ્વભાવ છે કે, પોતાના આવારક (કેવળજ્ઞાનાવરણ) કર્મના સંપૂર્ણ ક્ષય થયે જ પ્રગટ થયું. તેથી તે કર્મના દેશલયે શી રીતે કેવળજ્ઞાન સંભવે? વળી, જો કે કેવળજ્ઞાનાવરણનો પ્રતિસમય દેશત: ક્ષય છે, છતાં પણ પ્રતિસમય તેટલા જ બીજા કેવળજ્ઞાનાવરણકર્મપુદ્ગલસમુદાય બંધાવાના પણ ચાલુ જ છે. તેથી કેવળજ્ઞાનની પ્રતિસમય હાજરીની આપત્તિ નથી. પ૮૪૮ उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરતાં કહે છે ता चरमए च्चिय खओ झाणविसेसातों तीरए काउं । चिरसंचियपि हु तणं खणेण दावानलो दहति ॥८४९॥ * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 139 * * * * * * * * * * * * * * * Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तस्माच्चरम एव क्षयो ध्यानविशेषात् तीर्यते कर्तुम् । चिरसंचितमपि हु तृणं क्षणेन दावानलो दहति ॥) यस्मात्प्रतिसमयं कतिपयांशविच्युतावपि तदावारककर्मण: प्रतिसमयमेव तावत्प्रमाणापरकर्मांशबन्धसंभवस्तातस्मात्तत्त्वतश्चरम एव समये तस्य क्षयः, न च वाच्यं कथमेतावतः समयमात्रेण क्षयः कत्तुं शक्यते इति, यतो ध्यानविशेषात्तावतोऽपि क्षयः कर्तुं शक्यते एव, न हि ध्यानविशेषस्य तथाविधस्य किंचिदसाध्यमस्तीति । अत्रैव दृष्टान्तमाह-चिरसंचितमपि-प्रभूतकालोपचितमपि 'ह' निश्चितं तृणं-जातावेकवचनं तुणसंघातं क्षणेन-क्षणमात्रेण दावानलो दहति तद्वत् ध्यानविशेषदहनोऽपि कर्मेन्धनानीति ॥८४९॥ ગાથાર્થ:- આમ પ્રતિસમય કેવળજ્ઞાનાવરણના કેટલાક અંશ નાશ પામતા હોવા છતાં પ્રતિસમય તેટલા પ્રમાણમાં નવા કર્માશો બંધાય છે. તેથી કેવળજ્ઞાનાવરણનો તાત્વિકક્ષય તો ચરમસમયે જ થાય છે. અહીં ‘સમયમાત્રમાં આટલા પ્રમાણમાં રહેલા કર્માશોનો લય શી રીતે થઈ શકે એવી શંકા ન કરવી, કેમકે ધ્યાનવિશેષથી એટલા પ્રમાણમાં રહેલા કર્મોનો પણ ક્ષય કરવો શક્ય છે. કેમકે તેવા પ્રકારના ધ્યાનવિશેષમાટે કશું ય અસાધ્ય નથી. અહીં દષ્ટાન્ત બતાવે છે(હુ પદ નિશ્ચયાર્થ છે.) લાંબાકાળથી ભેગાં થયેલાં પણ ઘાસ (જાથે એકવચન હોવાથી ઘાસનો સમુદાય) ને અગ્નિ ક્ષણવારમાં બાળી નાખે છે, આ જ પ્રમાણે ધ્યાનવિશેષરૂપે અગ્નિ પણ કર્મરૂપ ઈધનને બાળી નાખે છે. ૮૪ मूलोपसंहारमाह - હવે મૂળવાતનો ઉપસંહાર કરતાં કહે છે – एवं अवग्गहातो आरब्भ इहेगमेव नाणंति । मिच्छत्तमेव अहवा णो खलु सामन्नवेक्खाए ॥८५०॥ (एवमवग्रहादारभ्य इहैकमेव ज्ञानमिति । मिथ्यात्वमेवाथवा नो खलु सामान्यापेक्षया ॥ एवम्-उपदर्शितप्रकारेण इह-विचारप्रक्रमे यदुक्तमवग्रहादारभ्य यत्किमपि छद्मस्थस्य विज्ञानं तत् सर्वमेकमेवेति तन्मिथ्यात्वमेव । अथवा सामान्यापेक्षया-बोधरूपसमानपरिणत्यपेक्षया बोधस्पं न मिथ्यात्वं, किंतु सम्यक्त्वमेव, सद्भुतवस्तुविषयत्वादिति ॥८५०॥ ગાથાર્થ:-આમ ઉપરોક્ત વિચારપ્રસ્તાવમાં પૂર્વપક્ષે જે “છઘસ્થનું અવગ્રહથી આરંભી જે કંઈ જ્ઞાન છે તે બધું જ એકરૂપ છે એવું કહ્યું તે મિથ્યાત્વ જ છે. (સ્યાદ્વાદનો ઉપયોગ કરી સમન્વય કરતાં કહે છે) અથવા બોધરૂપ સમાનપરિણતિના દૃષ્ટિકોણને આગળ કરી બધા જ્ઞાનને એકરૂપ માનવામાં મિથ્યાત્વ નથી, પરંતુ સદભૂતવસ્તુવિષયક હોવાથી સમ્યકત્વ જ છે. અર્થાત સર્વજ્ઞાન એકતાની માન્યતા બોધરૂપસામાન્યભાવને આશ્રયી સત્યરૂપ હેવાથી સમ્યગ છે. u૮૫ના શાનકમનો હેતુ नन्वेषामाभिनिबोधिकादिज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किंचित्प्रयोजनमस्ति उत यथाकथंचिदेष (व ?) प्रवृत्त इति? अस्तीति ब्रूमः, तथा चाह - શંકા - આ મતિજ્ઞાનાદિ પાંચજ્ઞાનનો આ પ્રમાણે ક્રમ ગોઠવ્યો તેની પાછળ કોઇ ઉદ્દેશ છે કે પછી સહજ-અહેતુક જ આ ક્રમ ગોઠવાયો છે? સમાધાન - ચા ક્રમરચના પાછળ ઉદ્દેશ છે, તે આ છે कमकरणे पुण भणियं पओयणं दिवसमयसारेहिं । आभिणिबोहादीणं वोच्छामि तयं समासेणं ॥८५१॥ (क्रमकरणे पुनर्भणितं प्रयोजनं दृष्टसमयसारैः । आभिनिबोधादीनां वक्ष्ये तकं समासेन ॥) क्रमकरणे-इत्थमाभिनिबोधिकादीनां ज्ञानानां परिपाटीकरणे यत्पुनर्भणितं प्रयोजनं दृष्टसमयसारैः- अवगतसकलप्रवचनसारैस्तदहं समासेन वक्ष्यामि ॥८५१॥ ગાથાર્થ:- સકલાગમરહસ્યવેદી મહાપુરુષોએ મતિજ્ઞાનાદિ જ્ઞાનોનો આવો ક્રમ ગોઠવવા પાછળ જે ઉદ્દેશ કહ્યો છે તે હું (આચાર્ય) સંક્ષેપથી કહીશ. u૮૫૧ यथाप्रतिज्ञातमेवाह - હવે આચાર્ય પ્રતિજ્ઞામુજબ કહેવાનું શરુ કરે છે ને , ++++++++++++++++ संशशि -ल - 140++ ++ + + + ++ ++ + ++ + Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જે જ જજ જ ન જ જે જ જે જે * * * * * * * શાનાર છે જે જ ક જ જે જ જે જ સ જ છે જે જ જે તે જ जं सामिकालकारणविसयपरोक्खत्तणेहि तुल्लाइं । तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मतिसुताइं ॥८५१॥ (यत्स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये । तद्भावे शेषाणि च तेनादौ मतिश्रुते ॥ यत्-यस्मात्स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये समाने मतिश्रुते-आभिनिबोधिकज्ञानश्रुतज्ञाने । प्राकृतत्वाच्च द्वित्वे ऽपि बहुवचनं, यथा “जह हत्था तह पाया" (छा. यथा हस्तौ तथा पादौ) इति । तत्र स्वामितुल्यता-य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य य एव श्रुतज्ञानस्य स एव मतिज्ञानस्य । “जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणमिति" (छा. यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं, यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानम्) वचनात् । कालतुल्यता→ यावानेव मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेव श्रुतज्ञानस्य, तत्र प्रवाहापेक्षया अतीतानागतवर्तमानात्मकः सर्व एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया तु . षट्षष्टिसागरोपमाणि साधिकानीति, उक्तं च-"दो वारे विजयाइस गयस्स तिन्निऽच्चुएउहव ताई। अइरेगं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धा ॥१॥" (छा. द्वौ वारौ विजयादिषु गतस्य त्रीनच्युतेऽथवा तानि । अतिरेकं नरभविकं नानाजीवानां सर्वाद्धा) इति । कारणतुल्यता यथा मतिज्ञानमिन्द्रियनिमित्तं तथा श्रुतज्ञानमपि, यद्वा यथा क्षयोपशमहेतुकं मतिज्ञानं तथा श्रुतज्ञानमपीति । विषयतुल्यता→ यथा मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि । परोक्षत्वतुल्यता→ यथा मतिज्ञानं परोक्षं परनिमित्तत्वात्, पराणि हि जीवस्य द्रव्येन्द्रियमनांसि पुद्गलात्मकत्वात्, तदुक्तम्- "जीवस्स पोग्गलमया जं दव्विंदियमणा परा होतित्ति।" (छा. जीवस्य पुद्गलमयानि यद्रव्येन्द्रियमनांसि पराणि भवन्ति) ततस्तन्निमित्तं ज्ञानमात्मनः समु यथा धूमादग्निज्ञानम्, एवं श्रुतज्ञानमपि परोक्षम् । तथा तद्भावे च-मतिश्रुतभावे च सति शेषाणि-अवध्यादीनि ज्ञानानि भवन्ति - तेन कारणेनादौ मतिश्रुते उपन्यस्ते । इह पूर्वार्द्धन मतिश्रुतयोरेकत्रोपन्यासे प्रयोजनमुक्तम्, उत्तरार्द्धन तु शेषज्ञानापेक्षया प्रथमत उपन्यासे इति ॥८५२॥ પાંચ પ્રકારે મતિ-શ્રુત સાધર્મ ગાથાર્થ:- મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન (૧) સ્વામી (૨) કાલ (૩) કારણ (૪) વિષય અને (૫) પરોક્ષત્વ આ પાંચથી તુલ્ય =સમાન છે. (મતિ-શ્રુતમાં દ્વિવચનને બદલે બહુવચન પ્રાકૃતના કારણે છે. જેમકે “જહ હત્યા ત૭ પાયા' અહીં હાથ અને પગ બન્ને દ્વિવચનયોગ્ય હોવા છતાં બન્નેમાં બહુવચનનો પ્રયોગ છે. પ્રાકૃતમાં એકવચન અને બહુવચન બે જ લેવાથી બે કે તેથી વધુમાટે બહુવચન વપરાય છે.) (૧)સ્વામી:- મતિજ્ઞાનના જે સ્વામી છે તે જ શ્રુતજ્ઞાનના સ્વામી છે. અને શ્રુતજ્ઞાનના જે સ્વામી છે તે જ મતિજ્ઞાનના સ્વામી છે. કહ્યું જ છે જયાં મતિજ્ઞાન છે ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન છે. જયાં શ્રુતજ્ઞાન છે ત્યાં મતિજ્ઞાન છે.' (૨) કાળ:- મતિજ્ઞાનનો જેટલો સ્થિતિકાળ છે તેટલો જ શ્રુતજ્ઞાનનો છે. ત્યાં, પ્રવાહની અપેક્ષાથી અતીત, અનાગત અને વર્તમાનરૂપ સર્વકાળ મતિ-બ્રુતનો છે. અર્થાત ત્રણે કાળે મતિ-શ્રત વિદ્યમાન છે. એક જીવની અખંડ ધારકતા (=અપ્રતિપતિતભાવ) રૂપે એ બન્નેનો કાળ સાધિક છાસઠ સાગરોપમ છે. કહ્યું જ છે કે “બે વાર વિજયઆદિમાં (સર્વાર્થસિદ્ધ સિવાયના ચાર અનુત્તરમાં–જયાં ૩૩ સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ છે.) ગયેલા અથવા ત્રણવાર અય્યતમાં (૧૨માં દેવલોકમાં- જયાં ૨૨ સાગરોપમ ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ છે.) ગયેલા જીવને મનુષ્યભવનો કાળ ઉમેરતા (સાયિક છાસઠ સાગરોપમ) તે બે (૨મતિઋત) હેય છે. ઘણા જીવોની અપેક્ષાએ સર્વકાળે હોય છે.” (૩) કારણ:- જેમ મતિજ્ઞાન ઇન્દ્રિયનિમિત્તક છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન પણ ઇન્દ્રિયનિમિત્તક છે. (આ ઉપયોગને લક્ષમાં લઇ કહ્યું. હવે લબ્ધિઅપેક્ષાએ કહે છે.) અથવા જેમ મતિજ્ઞાન ક્ષયોપશમ જન્ય છે તેમ શ્રુતજ્ઞાન પણ કયોપશમ જન્ય છે. (૪)વિષય:-જેમ મતિજ્ઞાન આદેશથી (ઓ –સામાન્ય) સર્વદ્રવ્યાદિવિષયક છે તેમ શ્રુતજ્ઞાન પણ સર્વદ્રવ્યાદિવિષયક છે. (૫) પશેષપણું:- પરનિમિત્તક હોવાથી જેમ મતિજ્ઞાન પરોક્ષ છે, એમ શ્રુતજ્ઞાન પણ પરોક્ષ છે. દ્રવ્યેન્દ્રિયો અને દ્રવ્યમન પુગળમય હોવાથી જીવથી પર (=અન્ય-ભિન્ન) છે. કહ્યું છે કે “કેમકે પુત્રળમય દ્રવ્યન્દ્રિયો અને દ્રવ્યમન જીવથી પર છે. તેથી આ ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન થતું (મતિ-કૃત) જ્ઞાન ધૂમાડાથી થતાં અગ્નિના અનુમાનજ્ઞાનની જેમ પરોક્ષ છે. અહીં મૂળમાં પૂર્વાર્ધથી મતિ-શ્રતનો એકસાથે ઉપન્યાસ કરવામાં પ્રયોજન બતાવ્યું. હવે ઉત્તરાર્ધથી બાકીના જ્ઞાનોની અપેક્ષાએ તે બેનો પ્રથમ ઉપન્યાસ કેમ કર્યો? તે બતાવે છેમતિ-શ્રુતજ્ઞાન હેય, પછી જ અવધિજ્ઞાનવગેરે હેય. આ હેતુથી મતિ-શ્રુતજ્ઞાનનો પ્રથમ ઉપન્યાસ કર્યો. u૮૫રા * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંહણ-ભાગ ૨ - 141 * * * * * * * * * * * * * * * Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * વાનર જ * * * * * * * * * * * * * * सांप्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मतेरादावुपन्यासे प्रयोजनमाह - હવે શ્રુતજ્ઞાનની અપેક્ષાએ મતિજ્ઞાનના પૂર્વનિર્દેશમાં પ્રયોજન બતાવે છે. मतिपुव्वं जेण सुयं तेणादीए मती विसिठ्ठो वा । मतिभेदो चेव सुतं तो मतिसमणंतरं भणियं ॥८५३॥ (मतिपूर्व येन श्रुतं तेनादौ मतिर्विशिष्टो वा । मतिभेद एव श्रुतं तस्माद् मतिसमनन्तरं भणितम् ॥ मतिः पूर्व-कारणं यस्य तन्मतिपूर्वं येन कारणेन श्रुतं-श्रुतज्ञानं तेन कारणेनादौ मतिः-मतिज्ञानं भणितम् । यद्वा इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वाविशेषादुभयमप्यविशेषेण मतिस्ततश्च विशिष्ट एव कश्चिन्मतिभेदः शब्दार्थालोचनानुसारी येन कारणेन श्रुतमभिधीयते 'तो' ततो मतिसमनन्तरं मतिज्ञानानन्तरं भणितं तीर्थकरगणधरैरिति ॥८५३॥ ગાથાર્થ:- શ્રુતજ્ઞાન મતિજ્ઞાનપૂર્વક છે અર્થાત મતિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનનું કારણ છે, તેથી મતિજ્ઞાનને પ્રથમ મુક્યું. અથવા ઇન્દ્રિય-અનિદ્રિય (૩મન) રૂપ નિમિત્ત બને (મતિ-કૃત) માટે સમાનરૂપે છે. તેથી બન્ને અવિશેષરૂપે મતિ જ છે. આ મતિજ્ઞાનનો જ શબ્દાર્થની આલોચનાને અનુસરતો કોક ભેદવિશેષ જ શ્રુતજ્ઞાનતરીકે ઓળખાય છે. તેથી તીર્થકરગણધરોએ મતિજ્ઞાન પછી શ્રુતજ્ઞાન કહ્યું છે. પ૮૫૩ અવધિ-મન:પર્યાવજ્ઞાનના ક્રમમાં પ્રયોજન सांप्रतं मतिश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानोपन्यासे प्रयोजनमाह - હવે મતિ-શ્રુતજ્ઞાન પછી અવધિજ્ઞાનની સ્થાપનામાં પ્રયોજન બતાવે છે. कालविवज्जयसामित्तलाभसाहम्मतोऽवही तत्तो । माणसमेत्तो छउमत्थविसयभावादिसामन्ना (धम्मा) ॥८५४॥ (कालविपर्ययस्वामित्वलाभसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः । मानसमतः छास्थविषयभावादिसाधात् ॥ कालादिसाधयत्तितो-मतिश्रुतज्ञानतोऽनन्तरमवधिः-अवधिज्ञानमुपन्यस्तम्। तत्र कालसाधयं यावानेव हि मतिज्ञान-श्रुतज्ञानयोः कालस्तावानेवावधिज्ञानस्य । विपर्ययसाधयं यथा मिथ्यादर्शनपरिग्रहे सति मतिश्रुतयोर्विपर्यासस्तथाऽवधेरपि, “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तमिति" वचनात् । स्वामिसाधर्म्य य एव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्वामी स एव चावधिज्ञानस्य । लाभसाधर्म्य विभङ्गज्ञानसमन्वितो हि देवः सम्यक्त्वं प्रतिपा(प) द्यमानो मतिश्रुतावधिज्ञानानि युगपत्प्रतिपद्यते इति । अवधेरनन्तरं मनःपर्यवज्ञानोपन्यासे प्रयोजनमाह-'माणसेत्यादि' मनसि विषये भवं मानसंमनःपर्यवज्ञानम् अतः-अवधेरनन्तरं भणितम् । कुत इत्याह-छास्थविषयभावादिसाधात्- छद्मस्थस्वामिसाधर्म्यात् पुद्गलमात्रविषयसाधात् क्षायोपशमिकभावसाधात्, आदिशब्दात्प्रत्यक्षत्वसा-धाच्चेति ॥८५४॥ ગાથાર્થ:- ૧) કાલ (૨) વિપર્યય (૩) સ્વામી (૪) લાભ આ ચારરૂપે મતિધૃતસાથે અવધિજ્ઞાનનું સાધર્મ છે. તેથી મતિ-શ્રત પછી તરત જ અવધિજ્ઞાનનો ઉપન્યાસ કર્યો. (૧) કાલ:- મતિ, શ્રુતજ્ઞાનનો જેટલો ઉત્કૃષ્ટકાળ છે, તેટલો જ ઉત્કૃષ્ણકાળ અવધિજ્ઞાનનો છે. (એક જીવની અપેક્ષાએ સાયિક ૬૬ સાગરોપમ) (૨)વિપર્યય:- જેમ મિથ્યાદર્શનથી યુક્ત મતિ-કૃતમાં વિ૫ર્યાસ આવે છે, તેમ અવધિજ્ઞાનમાં પણ આવે છે.“આધે ત્રણ (મતિ-સુત-અવધિ) અજ્ઞાન ( મિથ્યાજ્ઞાન) પણ થાય છે. જે મિથ્યાત્વથી સંયુક્ત હોય એવું વચન છે. (૩) સ્વામી:- મતિ-શ્રુતજ્ઞાનના જે સ્વામી હોય, તે જ અવધિજ્ઞાનના પણ સ્વામી છે. (૪) લાભ:- વિર્ભાગજ્ઞાનવાળો મિથ્યાત્વયુક્ત હોવાથી વિપરીત અવધિજ્ઞાનવાળો) દેવ જયારે સમ્યકત્વ સ્વીકારે છે, ત્યારે એકસાથે મતિ-શ્રુત-અવધિ ત્રણે ય જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરે છે. (કારણ કે સમ્યકત્વના પરિણામ સાથે જ દેવના મત્યજ્ઞાન, ચુતઅજ્ઞાન અને વિભવજ્ઞાનરૂપે રહેલા ત્રણ અજ્ઞાનો જ્ઞાનરૂપે પરિણામ પામે છે.) હવે અવધિજ્ઞાન પછી મન:પર્યવજ્ઞાન સૂચવવામાં પ્રયોજન બતાવે છે- “માણસ' ઇત્યાદિ... મનના વિષયમાં ઉદ્દભવત જ્ઞાન માનસજ્ઞાન મન:પર્યવજ્ઞાન. (૧) છદ્મસ્થ (૨) વિષય (૩) ભાવ અને આદિ શબ્દથી (૪) પ્રત્યક્ષત આ ચાર સાધર્મ મન:પર્યવજ્ઞાનનું અવધિજ્ઞાન સાથે છે. (૧) છદ્મસ્થ:- અવધિજ્ઞાનની જેમ મન:પર્યવજ્ઞાનના સ્વામી છદ્મસ્થ છે. (૨) વિષય:- અવધિજ્ઞાનની જેમ મન:પર્યવજ્ઞાન પણ માત્ર પુગળને જ વિષય બનાવે છે. (૩) ભાવ:- બને જ્ઞાન લાયોપથમિકભાવે રહેલા છે. તથા (૪) પ્રત્યક્ષ:- બને જ્ઞાનો આત્મપ્રત્યક્ષજ્ઞાનરૂપ છે. ૮૫૪ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 142 * * * * * * * * * * * * * * * Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ यारिद्वार + + ++ + + + + ++ + + + + + + + કેવળજ્ઞાન કેમ છેલ્લે? मनःपर्यवज्ञानानन्तरं केवलोपन्यासे प्रयोजनमाह - હવે મન:પર્યવજ્ઞાને પછી કેવળજ્ઞાનની રજાઆતમાં હેત બતાવે છે - अंते केवलमत्तमजतिसामित्तावसाणलाभातो । एत्थं च मइसुयाइं परोक्खमितरं च पच्चक्खं ॥८५५॥ (अन्ते केवलमुत्तमयतिस्वामित्वावसानलाभात् । अत्र च गतिश्रुते परोक्षमितरच्च प्रत्यक्षम् ॥) ___ अन्ते-पर्यन्ते केवलं-केवलज्ञानमुपन्यस्तमुत्तमत्वात्, तथा यतिस्वामिसाधात, केवलज्ञानं हि मनःपर्यवज्ञानमिव परमयतेरेव भवतीति, तथा सर्वावसानलाभाच्च, तथाहि-य: सर्वाण्यपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्यः स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानं लभते ॥ तदेवं क्रमोपन्यासे प्रयोजनमभिधाय सांप्रतं किं प्रत्यक्षं किं वा परोक्षमित्येतदर्शयति-"एत्थं चेत्यादि" अत्र च-ज्ञानपञ्चके मतिश्रुते परोक्षे, परनिमित्तत्वात्, इतरच्च-अवध्यादित्रयं प्रत्यक्षमात्मनः साक्षाद्भवनात्, उक्तं च-"तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिबोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं त्ववधिमनःपर्यायौ केवलं चे ॥१॥ ति' ॥८५५॥ ગાથાર્થ:- કેવળજ્ઞાન પાંચેય જ્ઞાનોમાં ઉત્તમ હોવાથી તેનો નિર્દેશ અંતે કર્યો. વળી મન:પર્યવજ્ઞાનની જેમ કેવળજ્ઞાન પણ પરમ(=અપ્રમતમતિને જ હોય છે. આ સાધર્મ પણ મન:પર્યવજ્ઞાન પછી કેવળજ્ઞાનના નિર્દેશમાં કારણ છે. વળી આ જ્ઞાન સૌથી છેલ્લે પ્રાપ્ત થાય છે. તથાહિ- જે વ્યક્તિ બધા જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય હોય, તે અવશ્ય બધા જ્ઞાનોમાં અંતે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે. તેથી પણ કેવળજ્ઞાનનો નિર્દેશ અંતે કર્યો. આમ ક્રમિકઉપન્યાસમાં પ્રયોજન બતાવ્યું. હવે કયું જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે અને કયું પરોક્ષ? તે બતાવે છે. આ જ્ઞાનપંચકમાં મતિ-શ્રુતજ્ઞાન પરોક્ષ છે, કેમકે ઇન્દ્રિય-મનરૂપ પરના નિમિત્તે થાય છે. અવધિ–મન:પર્યવ અને કેવળજ્ઞાન આ ત્રણ પ્રત્યક્ષ છે કેમકે આત્માને સાક્ષાત અનુભૂતિ થાય છે. કહ્યું જ છે કે “અહ પરોક્ષ બે પ્રકારે છે તે (૧) શ્રત અને (૨) આભિનિબોલિક, સમજવું. પ્રત્યક્ષ તો અવધિ, મન:પર્યાય અને કેવળ છે. u૮૫પા ચારિત્રધર્મવર્ણન तदेवं सप्रपञ्चं ज्ञानमभिधाय सांप्रतं चारित्रमभिधित्सुराह - આમ સવિસ્તાર જ્ઞાનનું નિરૂપણ કર્યું. હવે ચારિત્રનો પરિચય કરાવવા કહે છે "चारित्तं परिणामो जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेऔ । - लिंग इमस्स भणियं मूलगुणा उत्तरगुणा य ॥८५६॥ (चारित्रं परिणामो जीवस्य शुभस्तु भवति विज्ञेयः । लिङ्गमस्य भणितं मूलगुणा उत्तरगुणाश्च ॥ चारित्रमिति जीवस्य शुभ एव तुरेवकारार्थः परिणामो भवति ज्ञातव्यः । अस्य तु-शुभात्मपरिणामरूपस्य चारित्रस्य लिङ्ग-चिहं भणितं तीर्थकरगणधरैर्मूलगुणा उत्तरगुणाश्च ॥८५६॥ ગાથાર્થ:- શુભ જ પરિણામ છે. તેમ સમજવું (મૂળમાં ત) જકારાર્થક છે.) આ શુભાત્મપરિણામરૂપ ચારિત્રનું લિંગ મૂળગુણો અને ઉત્તરગુણો છે. એમ તીર્થંકર-ગણધરોએ કહ્યું છે. ૮૫દા મૂળગુણોનું વરૂપ तत्र मूलगुणानुपदर्शयन्नाह - पाणाइवातविरमणमादी णिसिभत्तविरतिपज्जंता । समणाणं मूलगुणा पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥८५७॥ (प्राणातिपातविरमणादयो निशिभक्तविरतिपर्यन्ताः । श्रमणानां मूलगुणाः प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥ प्राणातिपातविरमणादयो निशिभक्तविरतिपर्यन्ताः श्रमणानां मूलगुणाः प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥८५७॥ ગાથાર્થ:-વીતરાગો પ્રાણાતિપાતવિરમણથી માંડી રાત્રિભોજનવિરતિસુધીના સાધુઓના મૂળગુણ કહ્યા છે. ઘ૮૫છા ++++++++++++++++ ele-ला - 143+++++++++++++++ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + AREER + + + + + + + + + + + + + + + +++ अमीषामेव प्रत्येकं स्वरूपमभिधित्सुराह - હવે આ દરેક મૂળગુણોનું સ્વરૂપે દર્શાવવા કહે છે सुहमादीजीवाणं सव्वेसिं सव्वहा सुपणिहाणं । पाणाइवाइ(य)विरमणमिह पढमो होइ मूलगुणो ॥८५८॥ (सूक्ष्मादिजीवानां सर्वेषां सर्वथा सुप्रणिधानम् । प्राणातिपातविरमणमिह प्रथमो भवति मूलगुणः ॥ सूक्ष्मादीनां जीवानामादिशब्दाबादरादिपरिग्रहस्तदुक्तम्-“से सुहम वा बायरं वा तसं वा थावरं वेत्यादि" (छा. स सूक्ष्मो वा बादरो वा त्रसो वा स्थावरो वा) सर्वेषां न तु केषांचिदेव सर्वथा-सर्वैः प्रकारैः कृतकारितादिभिः, सुप्रणिधानमिति क्रियाविशेषणं शुभसमाधानेनेत्यर्थः प्राणातिपातविरमणं प्राणातिपातविनिवृत्तिरिह- मनुष्यलोके प्रवचने वा प्रथमो भवति मूलगुणः । प्राथम्यं चास्य शेषव्रताधारत्वात् सूत्रक्रमप्रामाण्यानुसरणाद्वेति ॥८५८॥ ગાથાર્થ:- સૂક્ષ્માદિ જીવો-આદિશબ્દથી બાદરઆદિનો સમાવેશ થાય છે. કહ્યું જ છે કે- “સૂક્ષ્મ અથવા બાદર, ત્રસ અથવા સ્થાવર' આ તમામ જીવોના- નહીં કે કેટલાકનાં જ; કરણ, કરાવણ, અનુમોદનાદિ તમામ પ્રકારે સુપ્રણિધાનપૂર્વકના શુભઅધ્યવસાયપૂર્વક જે પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્તિ છે, તે આ માનવલોકમાં અથવા જૈનપ્રવચનમાં પ્રથમ મૂળગુણ તરીકે ઈષ્ટ છે. (અહીં સુપ્રણિધાનપદ ક્રિયાવિશેષણ છે.) આ વ્રત બાકીના તમામ વ્રતોનો આધાર(કેમકે આ વ્રતના અભાવમાં બીજા વ્રતોમાં વ્રતપણું રહે નહીં, એટલે કે બીજા વતો આ વ્રતની રક્ષા શુદ્ધિ અને સિદ્ધિઅર્થે છે.) છે. અથવા સૂત્રકમની પ્રમાણતાના અનુસાર પ્રથમ છે, તેથી આ વ્રતને પ્રથમપણે પ્રાપ્ત છે. પ૮૫૮ના कोहादिपगारेहिं एवं चिय मोसविरमणं बितिओ । एवं चिय गामादिसु अप्पबहु(अदत्त) विवज्जणं तइओ ॥८५९॥ (क्रोधादिप्रकारैरेवमेव मृषाविरमणं द्वितीयम् । एवमेव ग्रामादिषु अल्पबहुत्व (अदत्त) विवर्जनं तृतीयम् ॥ क्रोधादिभिः प्रकारैरादिशब्दाल्लोभादिपरिग्रहस्तदुक्तम्- “से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वेति" (छा. स क्रोधाद्वा लोभाद्वा भयाद्वा हासाद्वा) एवमेव सर्वस्य वस्तुनो विषये सर्वथा सुप्रणिधानपूर्वकं मृषावादविरमणं द्वितीयो मूलगुणः, द्वितीयत्वं चास्य सूत्रक्रमप्रामाण्यानुसरणात्, एवं तृतीयत्वाद्यपि द्रष्टव्यम् । ‘एवं चियेत्यादि' एवमेव-प्राग्वदेव ग्रामादिषु आदिशब्दाद् नगरादिपरिग्रहस्तथा चोक्तम्- “से गामे वा नगरे वा रन्ने वेति" (छा. तद् ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा) अदत्ताल्पबहुविवर्जनं तृतीयो मूलगुणः ॥८५९॥ ગાથાર્થ:- આ જ પ્રમાણે બધી જ વસ્તુના વિષયમાં સર્વથા સુપ્રણિધાનપૂર્વક ક્રોધાદિતમામ પ્રકારે મૃષાવાદવિરમણ બીજે મૂળગુણ છે. અહીં ક્રોધાદિમાં આદિપદથી લોભાદિનો સંગ્રહ કરવો. કહ્યું જ છે કે “કોધથી અથવા લોભથી અથવા ભયથી અથવા હસ્યથી. સૂત્રક્રમના પ્રામાણ્યના અનુસારે આ વ્રત દ્વિતીય છે. આ જ પ્રમાણે તૃતીયઆદિઅંગે પણ સમ આ જ પ્રમાણે ગામઆદિસંબંધી અદત્ત ( નહીં આપેલા) અલ્પ કે બહુનું વિવર્જન (=અગ્રહણ) અદત્તાદાનવિરમણ નામનો ત્રીજો મૂળગુણ છે. “ગામઆદિ અહીં આદિથી નગરઆદિ સમાવેશ પામે છે. કહ્યું જ છે કે- “ગામમાં અથવા નગરમાં सयतमा... ॥८५u दिव्वादिमेहुणस्स य विवज्जणं सव्वहा चउत्थो उ । पंचमगो गामादिसु अप्पबहुविवज्जणेमेव ॥८६०॥ (दिव्यादिमैथुनस्य च विवर्जनं सर्वथा चतुर्थस्तु । पंचमो ग्रामादिषु अल्पबहुविवर्जनमेवमेव ॥ दिव्यादिमैथुनस्य च आदिशब्दान्मनुष्यादिपरिग्रहः, यथोक्तम्- “से दिव्वं वा माणुस्सं वा तिरिक्खजोणियं वेति" (छा. तद् दिव्यं वा मानुषं वा तैर्यग्यौनिकं वा) विवर्जनं सर्वथा स्वयंकरणादिभिः प्रकारैश्चतुर्थो मूलगुणः । पञ्चममूलगुणो ग्रामादिषु आदिशब्दान्नगरादिपरिग्रहः, तदुक्तम्- “से गामे वा नगरे वा रन्ने वेति” (छा. तद् ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा) अल्पबहाविवर्जनमेवमेव-सर्वथा सप्रणिधानमिति ॥८६०॥ ગાથાર્થ:- દિવ્યાદિમૈથનનો સ્વયંકરણઆદિ સર્વપ્રકારે ત્યાગ ચોથો મૂળગણ છે. અહીં દિવ્યાદિમાં આદિપદથી મનુષ્ય આદિનો સમાવેશ છે. કહ્યું જ છે કે... “દિવ્ય અથવા મનુષ્ય સંબંધી અથવા તિર્યચસંબંધી'. ++++++++++++++++ lier-MIR-144+++++++++++++++ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + बारिशद्वार + ગામઆદિમા અલ્પ કે બહુપરિગ્રહનું સર્વથા સુપ્રણિધાનપૂર્વક વિવર્જન પાંચમો મૂળગુણ છે. ગામઆદિ’ અહીં ‘આદિ’ પદથી નગરવગેરેનો સમાવેશ છે. કહ્યું જ છે કે ગામમા અથવા નગરમાં અથવા જંગલમાં ૫૮૬ના असणादिभेदभिन्नस्साहारस्सा चउव्विहस्सावि । निसि सव्वहा विरमणं चरमो समणाण मूलगुणो ॥८६१ ॥ (अशनादिभेदभिन्नस्याहारस्य चतुर्विधस्यापि । निशि सर्वथा विरमणं चरमः श्रमणानां मूलगुणः ॥ ) अशनादिभेदभिन्नस्य-अशनपानखादिमस्वादिमभेदभिन्नस्य आहारस्य चतुर्विधस्यापि सर्वथा निशि विरमणं चरमःपश्चिमः षष्ठ इतियावत्श्रमणानां मूलगुण इति ॥८६१ ॥ ગાથાર્થ:- અશન, પાન, ખાદિમ, સ્વાદિમ આમ ચાર ભેદથી વિશિષ્ટ ચતુર્વિધઆહારનો રાતે સર્વથા ત્યાગ આ સાધુઓનો છેલ્લો–છો મૂળગુણ છે. ૫૮૬૧ા વેદવિહિતહિંસાપુષ્ટિ-પૂર્વપક્ષ इदानीमेषां मूलगुणानां निष्प्रतिपक्षसाधुत्वनिश्चयोत्पादनार्थं प्रतिमूलगुणमाक्षेपपरिहारावभिधित्सुः 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्पूर्वं तावत्प्रथमं मूलगुणमाश्रित्याक्षेपमुपक्षिपन्नाह હવે આ મૂળગુણો નિર્વિવાદ–નિષ્પક્ષ ઉત્તમ છે તેવો નિશ્ચય કરાવવા મૂળગુણસંબંધી આક્ષેપ અને તેનો પરિહર દર્શાવ– વાના ઇચ્છાવાળા આચાર્યપાદ ઉદ્દેશને અનુરૂપ નિર્દેશ' ન્યાયથી સૌ પ્રથમ પ્રથમમૂળગુણને આશ્રયી આક્ષેપ દર્શાવતા કહે છે. केई न वेदविहिता हिंसा दोसाय साहसक्कारा । दिट्ठे च तव्विसेसा अयपिंडादीण तरणादी ॥८६२ ॥ (केचिद् न वेदविहिता हिंसा दोषाय साधुसंस्कारात् । दृष्टं च तद्विशेषादयस्पिण्डादीनां तरणादि ॥ ) केचिद्वेदवादिनो ब्रुवते यथा वेदविहिता हिंसा न दोषाय, साधुसंस्कारात् - यथोक्तविधिना सम्यक् संस्कारात् । अथ यद्यपि साधुसंस्कारस्तथापि कथं तस्या दोषनिबन्धनत्वाभाव इत्यत आह- 'दिट्ठ चेत्यादि' दृष्टं च तद्विशेषात्संस्कारविशेषात् अयस्पिण्डादीनामादिशब्दाद्विषादिपरिग्रहः, तरणादि, आदिशब्दाद्गुणकारित्वादि, ततस्तद्वत् हिंसायाः स्वरूपेण दोषकारित्वेऽपि यथोक्तविधिकृतात् संस्कारविशेषात् न दोषकारिता भविष्यतीति ॥८६२ ॥ गाथार्थ:- डेटलाई बेवाहीगो से छे - वेदवितिहिंसा घेषश्य नथी. डेभडे (तेमां ) सभ्य संस्कार होय छे. શંકા:- સમ્યગ્સંસ્કાર હોવા છતાં તેમા (વેદહિતહિંસામા) દોષની હેતુતાનો અભાવ કેવી રીતે સંભવે? સમાધાન:- દેખાય જ છે કે સંસ્કારવિશેષથી ડૂબવાદિ સ્વભાવવાળા લોખંડના ગોળાવગેરે તરવું વગેરે કાર્યો કરે છે. અહીં વગેરેથી વિષવગેરેમા ગુણકારિતાઆદિનો સમાવેશ થાય છે. આ જ પ્રમાણે હિંસા સ્વરૂપથી દોષકારી હોવા છતા પણ વેદની યથોક્તવિધિથી સંસ્કારવિશેષ કરાયા બાદ દોષકારી રહેતી નથી. ૫૮૬૨ા एतदेव भावयति આ જ અર્થનું ભાવન કરતા કહે છે→ बुड्डइ जलि मुक्को अयपिंडो सक्कारिओ य तरइत्ति । मारणसत्तीवि विसं साधु पउत्तं गुणं कुणति ॥८६३ ॥ (निमज्जति जले मुक्तोऽयस्पिण्डः संस्कारितश्च तरतीति । मारणशक्ति अपि विषं साधुप्रयुक्तं गुणं करोति ॥) जले मुक्तस्सन्नयस्पिण्डो 'बुड्डइत्ति' निमज्जति, स एव संस्कारितः - संस्कारविशेषमापादितो वृत्ततनुपत्ररूपतया कृत इतियावत् तरति जलस्योपरि प्लवते, तथा मारणशक्तिकमपि विषं साधु- मन्त्रागदादिकृतविशेषं प्रयुक्तं सद् गुणं कुष्ठापगमादिकं करोति ॥८६३ ॥ ગાથાર્થ:- પાણીમાં મુકેલો લોખંડનો ગોળો ડૂબે છે. એ જ ગોળામાં સંસ્કારવિશેષ કરીને તેને ગોળ પાતળા પતરારૂપ કરવામા આવે છે ત્યારે તે પાણીમાં તરે છે. એ જ પ્રમાણે મારવાની શક્તિવાળા ઝેરના મન્ત્રઔષધ આદિથી વિશેષસંસ્કાર કરી આપવામાં આવે તો કોઢરોગાદિ દૂર કરવારૂપ ગુણ કરે છે. ૫૮૬૩૫ ++ धर्मसंशबलि-लाग २ - 145 + Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ पारिवार+++++++++++++++ + + तह दाहगोऽवि अग्गी सच्चादिपभावतो न दहइत्ति । इय विहिसक्कारातो हिंसावि तई न दोसाय ॥८६४॥ (तथा दाहकोऽपि अग्निः सत्यादिप्रभावान्न दहतीति । इति विधिसंस्काराद् हिंसाऽपि सका न दोषाय ॥ तथा स्वरूपेण दाहकोऽप्यग्निः सत्यादिप्रभावतः-सत्यवचस्तपःप्रभृतिप्रभावतो न दहति, इतिः- एवं प्रदर्शितेन प्रकारेण विधिसंस्कारात्-यथाभिहितविधिविशेषकृतसंस्कारविशेषात् सकाऽपि-हिंसा न दोषाय भविष्यतीति ॥८६४ ॥ ગાથાર્થ:- તથા સ્વરૂપથી દાહક એવો પણ અગ્નિ સત્યવચન, તપઆદિના પ્રભાવથી બાળતો નથી. આમ ઉપરોક્ત પ્રકારે વેદમાં બતાવેલી વિધિ વિશેષદ્વારા કરાયેલા સંસ્કારવિશેષથી હિંસા પણ દોષરૂપ નથી. ૮૬૪ अपि च - वणी, सत्थत्थंमि य एवं न होइ पुरिसस्स एत्थ किं माणं ?। न य कुच्छिता तई जं जयमाणा लोगपुज्जत्ति ॥८६५॥ (शास्त्रार्थे च एवं न भवति पुरुषस्यात्र किं मानम् ? । न च कुत्सिता सका यत्, यजमाना लोकपूज्या इति ॥ ) 'विधिसंस्काराद्धिंसा न दोषायेति' शास्त्रार्थः, शास्त्रार्थे चास्मिन् सति एवं न भवति-हिंसा न दोषायेति न भवतीत्यत्र परुषमात्रस्य किं प्रमाणं? नैव किंचित. न चाप्रमाणकं वचः प्रेक्षावतामपादेयं भवतीति यत्किंचिदेतत । न च वाच्यं-यदि हिंसा न दोषवती तर्हि कथमेषा लोके जुगुप्स्यते यथा- पापीयानयं यदेवं हिंस' इति, यत आह-'न येत्यादि'न च कुत्सितानिन्दिता 'तइत्ति' सका वेदविहिता हिंसा, यत्-यस्मात् यजमाना-अश्वमेधादियागं कुर्वाणा लोके पूज्या इति ॥८६५॥ ગાથાર્થ:- “વિધિના સંસ્કારથી હિંસા દોષમાટે બનતી નથી" એવો શાસ્ત્રાર્થ છે. આવો શાસ્ત્રાર્થ હોવાથી ‘હિંસા દોષરૂપ ન બને એવું કદી ન બને' (અર્થાત હિંસા દોષરૂપ જ હોય) એવું પુરુષમાત્રનું વચન શી રીતે પ્રમાણ બને? અર્થાત ન જ બને. અને અપ્રમાણિકવચન પ્રેસાવાન પુરૂષોને ઉપાદેય બનતું નથી, તેથી તુચ્છ છે. શંકા:-જો હિંસા દોષવાળી ન હોય, તો લોકમાં તેની જુગુપ્સા કેમ થાય છે કે“આ પાપી છે કે આવી હિંસા કરે છે . સમાધાન:- આ વાત બરાબર નથી. આ વેદવિહિત હિંસા નિન્દનીય નથી, કેમકે અશ્વમેધઆદિ યજ્ઞો કરનારા યજમાનો લોકોમાં પૂજય છે. પ૮૬૫ા વેદવિહિતહિંસા દુષ્ટ-ઉત્તરપલ अत्रोत्तरमाह - હવે અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે. दिटुंतबला एवं वदंति मुद्धजणविम्हयकरं ते । तेण समं वेधम्मं असाहगमिणं न पेच्छंति ॥८६६॥ ___ (दृष्टान्तबलादेवं वदन्ति मुग्धजनविस्मयकरं ते । तेन समं वैधर्म्यमसाधकमिदं न प्रेक्षन्ते ॥) ते तु-वेदवादिनोऽयस्पिण्डादिदृष्टान्तमात्रबलादेवम्-उपदर्शितप्रकारेण मुग्धजनविस्मयकरं वदन्ति, न तु विद्वज्जनमनःप्रह्लत्तिकरं, यतस्तेन दृष्टान्तेन समं वैधर्म्यमिदं-वक्ष्यमाणलक्षणमसाधकं यत्तन्न प्रेक्षन्ते ॥८६६।। પક્ષ:- એ વેદવાદીઓએ લોખંડના ગોળાદિ દેષ્ટાન્તમાત્રના બળપર જ બતાવ્યું તે માત્ર મધજીવોને વિસ્મય થાય એવું છે. તેથી કંઈ વિદ્વાન પુરૂષોનું મન પ્રસન્ન થતું નથી. કેમકે આ દેષ્ટાન્તો બતાવતી વખતે તે જ દેટાન્તસાથે વેદવિહિતહિંસામાં રહેલું વૈધર્યુ તેઓ જોતા નથી. હવે બતાવનારું આ વૈધર્મ જ તેઓને ઇષ્ટઅર્થની અસાધકતાનું કારણ છે. પ૮૬૬ાા तदेव वैधर्म्यमुपदर्शयति - હવે આ વૈધર્મ દર્શાવતા કહે છે __अयपिंडे भावंतरभावो पच्चक्खसंपसिद्धो उ । तणु स्वो न य दीसइ पसुम्मि सो वेदविहिणावि ॥८६७॥ (अयस्पिण्डे भावान्तरभावः प्रत्यक्षसंप्रसिद्धस्तु । तनुस्पो न च दृश्यते पशौ स वेदविधिनाऽपि ) ++++++++++++++++ बलि-ला५२ - 146+++++++++++++++ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ll ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ अयस्पिण्डे हि संस्कारविशेषात्तनुख्यो भावान्तरभाव: प्रत्यक्षसंप्रसिद्ध एव तुरेवकारार्थः । ततस्तत्र शक्त्यन्तरोपेतभावान्तरभावनिबन्धनो जलान्तर्मज्जनलक्षणदोषाभावो युक्तः, न च पशौ-छागादिलक्षणे वेदविधिनाऽपि - वेदविहितेनापि विधिना हिंस्यमाने तदन्यस्मात् हिंस्यमानात् चण्डालगृहादौ स यथोक्तविधिनिबन्धनशक्त्यन्तरोपेतो भावान्तरभावो दृश्यते, न चापश्यन्त आत्मानं विप्रलभेमहि, तत्कथं तदन्यस्यामिव हिंसायां न दोष इति ॥८६७ ॥ ગાથાર્થ:- લોખંડના ગોળામાં સંસ્કારવિશેષથી પાતળાપણારૂપ ભાવાન્તરની હાજરી પ્રત્યક્ષપ્રસિદ્ધ જ છે. (મૂળમાં ‘તુ’ પદ જકારાર્થક છે.) તેથી ત્યા શક્યન્તર (=અન્ય શક્તિ)થી યુક્ત ભાવાન્તરના કારણે પાણીમા ન ડૂબવારૂપ દોષાભાવ થવો યોગ્ય છે. જયારે બોકડાવગેરે પશુમાં વેદવિધથી હિંસા કરવા છતા-વેદવિધિથી ભિન્ન ચંડાળઆદિના ધરમા હિંસા કરાતા બોકડાવગેરે કરતાં કોઇ વિશિષ્ટ શક્તિઅન્તરથી યુક્ત ભાવાન્તર દેખાતો નથી કે જેમા એ યથોવિવિધ કારણભૂત હોય. એટલે કે જે હાલત કતલખાનામાં ચંડાળથી કતલ કરાતા બોકડાની હોય છે, એ જ હાલત વેવિવિધથી હોમાતા બોકડાની હોય છે, કોઇ જ ફેરફાર હોતો નથી. અને એવા ભાવાન્તરભાવને નહીં જોતા અમે પોતાને (=જાતને) ઠગવા માગતા નથી, (કે જેથી નહીં હોવા છતાં માની લઇએ.) તેથી અન્ય હિંસાની જેમ વેદવિહિત હિંસામા દોષ કેમ ન હોય? અર્થાત્ હોય જ. ૫૮૬૭ા देवत्तं से भावंतरंति किं तस्स गाहगं माणं ? । सिय आगमो न सो च्चिय विवादविसयो जतो एत्थ ॥८६८॥ off (देवत्वं तस्य भावान्तरमिति किं तस्य ग्राहकं मानम् ? । स्यादागमो न स एव विवादविषयो यतोऽत्र ॥) अथोच्येत-तदन्यस्मात् हिंस्यमानात् 'से' तस्य पशोर्वेदविहितविधिना हिंस्यमानस्य देवत्वलक्षणं भावान्तरमस्ति तत्कथमस्यां हिंसायां न दोषाभाव इति । अत्राह - किमि' त्यादि किं तस्य- देवत्वलक्षणस्य भावान्तरस्य ग्राहकं प्रमाणं ? नैव किंचिदितिभावः। अतीन्द्रियत्वेन तत्र प्रत्यक्षस्यानुपपत्तेस्तदनुपपत्तौ च तत्पूर्वकत्वादनुमानस्याप्यभावात्। परस्य प्रमाणमाशङ्कते -‘सिय आगमो’ त्ति · स्यादेतत् - कथमुच्यते न किंचित्तस्य ग्राहकं प्रमाणमस्ति यावताऽस्त्येवागमो - वेदलक्षणस्तद्ग्राहकं પ્રમાણમિતિ .। અન્નાહ-‘ને' ત્યાદ્રિ યવેતવુત્ત તન્ન,યતો-યસ્માત્ર-વિચારપ્રમે સ-વેતક્ષળ આમો પૃર્દવિદ્ધાभाषकतया प्रामाण्यं प्रति विवादविषयः, तत्कथमसौ स्वयमसिद्धः सन्नन्यस्य साधनायालं भवेत् । एतेन विषदहनादीनामपि मरणदाहाभावकुष्ठापगमाद्यन्यथानुपपत्तितो भावान्तरस्यानुमीयमानत्वात्तैरपि सह वैधर्म्यं प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् ॥८६८॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષ:- વેદવિહિતવિધિથી હણાતા પશુઓને દેવત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે. અન્યરીતે હણાતા પશુઓને દેવત્વની પ્રાપ્તિ થતી નથી. વેદવિહિત હિંસાથી હણાતા પશુઓને આ ભાવાન્તર છે. તેથી એ હિંસામા દોષાભાવ યોગ્ય જ છે. ઉત્તરપક્ષ:- વેદવિધિથી હણાતા પશુઓને દેવત્વની પ્રાપ્તિરૂપ ભાવાન્તર હોવામાં ગ્રાહક પ્રમાણ શું છે? અર્થાત્ કોઇ નથી. કેમકે દેવત્વની પ્રાપ્તિ અતીન્દ્રિય વાત છે. તેથી તેમા ઇન્દ્રિયપ્રત્યક્ષનું કામ નહીં અને પ્રત્યક્ષની અનુપપત્તિમાં તેને આધારે ચાલતા અનુમાનની પણ અનુપપત્તિ થાય છે. (અહીં પૂર્વપક્ષવતી પ્રમાણની આશંકા બતાવે છે) પૂર્વપક્ષ:-તમે ગ્રાહકપ્રમાણ નથી એમ કેમ કો છો, કારણ કે વેદરૂપ આગમપ્રમાણ તો તે અર્થના ગ્રાહકતરીકે મૌજુદ જ છે. ઉત્તરપક્ષ:- તમે જે કહ્યુ તે બરાબર નથી. કેમકે પ્રસ્તુત વિચારમા દૃષ્ટ અને ઇષ્ટ અર્થથી વિરુદ્ધઅર્થના ભાષક હોવાથી વેદની પ્રમાણતા જ સ્વયં વિવાદમાં ઘેરાયેલી છે. તેથી આ વેદવચનો જયા સુધી પ્રમાણરૂપે સ્વયં સિદ્ધ ન થાય ત્યાં સુધી અન્યની સિદ્ધિ કરવા સર્મથ નથી. આમ લોખંડના ગોળાની સાથે વૈધર્મ દર્શાવ્યું. આ જ પ્રમાણે ઝેર અને અગ્નિવગેરેમાં મરણ અને દાહનો અભાવ તથા કોઢનો નાશવગેરે ગુણો અન્યથાઅનુપન્ન થવાારા અન્યશક્તિથી યુક્ત ભાવાન્તરની હાજરીનુ અનુમાન કરાવે છે. અને તે ભાવાન્તરોસાથે વેદવિહિતહિંસાનું વૈધર્મ પણ પ્રતિપાદિત થયેલું સમજી લેવુ. ૫૮૬૮ા શુભ બાહ્યાલંબનથી વિશિષ્ટ જિનાલયગતહિંસા અદુષ્ટ परस्य मतमाशङ्कमान आह પૂર્વપક્ષના મતની આશંકા કરતા કહે છે. 1 परिणामविसेसातो पुढवादिवहोऽवि अह जिणातयणे ( यतए) । भणिओ गुणाय एवं वेदवहो हंत किन्न भवे ? ॥८६९ ॥ (परिणामविशेषात् पृथिव्यादिवधोऽपि अथ जिनायतने । भणितो गुणाय एवं वेदवधो हन्त । किन्न भवेत् ॥) * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 147 * * Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + + + + + + + + + + + + + + + + + शनिवार + + + + + + + + + + + + + + + + ++ अथोच्येत जिनायतने क्रियमाणे पृथिव्यादिषड्जीवनिकायवधोऽपि कारयितुः परिणामविशेषात् गुणाय भणितः, एवं-जिनायतनपृथिव्यादिवधवत् वेदवधोऽपि-वेदाभिहितविधिपशुवधोऽपि तत्कर्तुः परिणामविशेषात् हन्त किं न गुणाय भवति? भवत्येवेति भावः, न्यायस्योभयत्रापि समानत्वात् ॥८६९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જિનમંદિર બંધાવતી વખતે પૃથ્વી આદિષડજીવનિકાયનો વધ પણ બંધાવનારને પરિણામવિશેષથી ગુણકારી થાય છે એમ કહ્યું છે. આમ જિનમંદિરસંબંધી પૃથ્વી વગેરેના વધની જેમ વેદમાં બતાવેલી વિધિથી થતો પશવધ પણ તે કરનારને પરિણામવિશેષથી ગુણકારી કેમ ન થાય? અર્થાત થાય જ. કેમકે ન્યાય તો બન્ને સ્થળે સમાન જ છે. પ૮૬લા अत्राह - અહીં આચાર્યવ૨ જવાબ આપે છે ___परिणामविसेसोवि हु सुहबज्झगतो मतो सुहफलोत्ति । ण उ इतरो मेच्छस्स उ जह विप्पं घाययंतस्स ॥८७०॥ (परिणामविशेषोऽपि हु शुभबाह्यगतो मतः शुभफल इति । न तु इतरो म्लेच्छस्य तु यथा विप्रं घातयतः ॥ परिणामविशेषोऽपि 'ह' निश्चितं शुभबाह्यगतः-शुभबाह्यार्थालम्बनः सन् शुभफलो मतः नत्वितर:अशुभबाह्यार्थालम्बनो यथा म्लेच्छस्य विप्रं घातयतः ॥८७०॥ ગાથા:- ઉત્તરપક્ષ:- (“હું નિશ્ચિત અર્થે છે.) પરિણામવિશેષ પણ અવશ્ય શુભબાધાર્થને અવલંબીને જ શુભફળવાળા તરીકે સંમત છે નહિ કે અશુભબાધાર્થને અવલંબીને. જેમકે કોઇ પ્લેચ્છ બ્રાહ્મણને મારી નાખતો હોય તો તે વખતે અશુભબાધાર્થ હોવાથી પરિણામવિશેષ પણ અશુભ હોય અને અશુભફળ જ આપે. u૮૭ના यद्येवं ततः किमित्याह - જો આમ હોય, તો શું તાત્પર્ય નીકળે? તે બતાવે છે.... ण य सो सुहबज्झगतो वेदवहे हवति जो उ परिणामो । मोत्तूण आवइगुणं पंचिंदियघायहेतूओ ॥८७१॥ (न च स शुभबाह्यगतो वेदवधे भवति यश्च परिणामः । मुक्त्वा आपत्तिगुणं पञ्चेन्द्रियघातहेतुत्वात् ॥ न च यो वेदवधे-वेदाभिहितविधिविहितपशुवधे परिणामो भवति स शुभबाह्यगतः-शुभबाह्यार्थालम्बनः । कुत इत्याह-पञ्चेन्द्रियघातहेतुत्वात् । किं सर्वथा नैवासौ शुभबाह्यालम्बनः ? इत्यत आह-'मोत्तूण आवइगुणं' मुक्त्वा आपद्गुणं भावापन्निस्तरणगुणं 'न खल्विमां वेदविहितहिंसामन्तरेणान्यो भावापदो निस्तरणोपायोऽस्ति तत्किं कुर्म' इत्येवंलक्षणमपेक्ष्यसा क्रियेत यदि तदा स्यात्तस्यामपि परिणामः शुभबाह्यालम्बनः, न चासावापन्निस्तरणगुणो वेदवधेऽस्ति, तमन्तरेणैव भावापदो निस्तरणस्य भावात्, न च जिनायतनविधौ साधुनिवासादिवद्वेदविहितवधेऽपि भावापन्निस्तरणसमर्थं गुणान्तरं दृष्टं, तत्कथमिह वेदवधे परिणामः शुभबाह्यगतो भवेत् ? ॥८७१॥ ગાથાર્થ:- વેદમાં બતાવેલી વિધિથી કરાયેલા પશવધામાં પરિણામ શુભબાલાર્થના આલંબનવાળો નથી કેમકે પંચેન્દ્રિય જીવના ઘાતમાં કારણભૂત છે. “શું આ વધ સર્વથા શુભબાહ્યર્થના આલંબન વિનાનો છે? એવી શંકાના જવાબમાં કહે છે મોણ આવઇગણં' આપત્તિગણને છોડીને.. “ભાવ આપત્તિના વિસ્તરણનો ઉપાય આ વેદવિહિત હિંસાને છોડી અન્ય કોઈ નથી... તેથી શું કરીએ? અમારે આ હિંસા કરવી પડે છે. ઇત્યાદિ રૂપ કોઈ ભાવ આપત્તિ નિવારણ અર્થે જે વેદવિહિતહિંસા થતી હોત, તો જરૂર તેમાં પણ પરિણામ શુભબાહ્યર્થના આલંબનવાળો હોત. પણ વેદવિહિતહિંસામાં એવો કોઈ આપત્તિનિસ્તરણ ગુણ દેખાતો નથી, કેમકે તે વિના પણ ભાવાપત્તિનું નિસ્તરણ સંભવે છે. વળી જિનમંદિરવિધિમાં જેવો સાધનિવાસઆદિ ભાવાપતિનિસ્તરણમાં સમર્થ ગુણાન્તર છે. તેવો ગુણોત્તર વેદવિહિતવર્ધમાં દેખાતો નથી. તેથી વેદવિહિતવર્ધમાં પરિણામ શુભબાહ્યર્થને અવલંબીને નથી. ૮૭૧ાા જિનાયતનમાં ભાવાપત્તિનિસ્તારક ગુણાન્તરો जिनायतनविषये च भावापन्निस्तरणसमर्थं गुणान्तरं साधुनिवासादिकं दर्शयति - જિનાયતનસંબંધી ભાવાપરિનિસ્તારણ સમર્થ ગુણાન્તરતરીકે સાધનિવાસવગેરે દર્શાવતા કહે છે – **************** ase-लाग२ - 148*************** Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शरिदार ++++++++++++++++++ सइ सव्वत्थाभावे जिणाण भावावयाएँ जीवाणं । तेसिं नित्थरणगुणं पुढवादिवहेवि आयतणं ॥८७२॥ - (सदा सर्वत्राभावे जिनानां भावापदि जीवानाम् । तेषां निस्तरणगुणं पृथिव्यादिवधेऽपि आयतनम् ॥) सदा-सर्वकालं सर्वत्र-क्षेत्रे जिनानामभावे भावापदि जीवानां सत्यां तेषां जीवानां निस्तरणगुणं-भावापदो निस्तरणोपायभूतं पृथिव्यादिजीववधेऽपि जिनानामायतनं, ततस्तत्र पृथिव्यादिवधेऽपि परिणामः शुभबाह्यालम्बनो भवति ॥८७२॥ ગાથાર્થ:- સદા અને સર્વત્ર જિનેવરોના અભાવમાં જીવોને ભાવાપત્તિ છે. (સંપત્તિઆદિનો અભાવ દ્રવ્યાપતિ છે. જિનેવરોઆદિનો અભાવ શુભભાવને અપેક્ષીને ભાવઆપત્તિરૂપ છે.) તે જીવોને પોતાની આ ભાવાપત્તિ તરવાનો ઉપાય પૃથ્વીવગેરેનો વધ હોવા છતાં જિનમંદિર છે. તેથી જિનાયતન બનાવવા વગેરેમાં પૃથ્વીવગેરેનો વધ હોવા છતાં પરિણામ શુભબાહ્યાર્થને અવલંબીને છે. ધ૮૭રા अथ मन्येथाः कथमिदं जिनायतनं भावापन्निस्तरणगुणमित्यत आह - હવે પૂર્વપક્ષ કદાચ માને કે જિનમંદિરમાં ભાવઆપત્તિનિસ્તરણગુણ કેવી રીતે હોય?” તો તે અંગે ખુલાસો કરે છે साहुणिवासो तित्थगरठावणा आगमस्स परिवुड्डी । ___ एक्केक्वं भावावइनित्थरणगुणं तु भव्वाणं ॥८७३॥ (साधुनिवासस्तीर्थकरस्थापना आगमस्य परिवृद्धिः । एकैकं भावापनिस्तरणगुणं तु भव्यानाम् ॥ ___ यतो जिनायतने कृते सत्यवश्यं यथाविहारक्रमं तत्र ग्रामादौ साधुनिवासो भवति, तथा तस्मिन् जिनायतने तीर्थकरस्थापना, साधुसंपर्चतश्च तद्वासिनामसुमतां सर्वेषां प्रायः सदागमपरिवृद्धिः । एतच्चैकैकमपि भव्यानां प्रतनुकर्मणां भावापन्निस्तरणगुणमेव । तुरेवकारार्थः । ततो जिनायतनं पृथिव्यादिवधेऽपि भावापन्निस्तरणगुणमिति ॥८७३॥ ગાથાર્થ:-જે ગામમાં દેરાસર બનાવેલું હોય, તો (૧)વિહારક્રમને અનુરૂપ વિચરતા સાધુભગવંતો તે ગામઆદિમાં નિવાસ કરે. વળી, (૨) એ જિનમંદિરમાં તીર્થકરની સ્થાપના થાય. તથા (૩) સાધુમહારાજના સંપર્કથી ગામવાસી પ્રાય: બધા શ્રાવકોની સદાગમવૃદ્ધિ-સમ્બોધની વૃદ્ધિ થાય. આ એક એક વસ્તુ લઘુકર્મી ભવ્યજીવો માટે ભાવાપદનિસ્તરણ ગુણરૂપ જ બને છે. (મૂળ માં “તુ'પદ જકારાર્થક છે.) આમ પૃથ્વીવગેરે જીવોનો વધ હોવા છતાં જિનાયતન ભાવાપદનિસ્તરણગુણવાળું છે. ૮૭૩ अथ कथं साधुनिवासाद्येकैकमपि भावापन्निस्तरणगुणमित्यत आह - શંકા:- આ સાધુનિવાસાદિ એક એક વસ્તુ શી રીતે ભાવાપદનિવારણ ગુણરૂપ બને? . मा शंाना समाधानमा छ. . साहुणिवासा सद्धम्मदेसणा धम्मकायपरियरणं । तित्थगरठावणातो परमगुरुगुणागमो भणितो ॥८७४॥ (साधुनिवासात् सद्धर्मदेशना धर्मकायपरिचरणम् । तीर्थकरस्थापनातः परमगुस्गुणागमो भणितः ॥) साधुनिवासात्साधुसकाशमधिगतस्य सतः कस्यचिद्भव्यसत्त्वस्य सद्धर्मदेशना श्रोतव्या भवति, तथा धर्मकायस्यसाधुशरीरस्य प्रासुककल्पनीयभेषजादिना प्रतिजागरणं कर्त्तव्यं भवति । एतच्चोभयमपि दुस्तरापारसंसारसागरनिस्तरणकारणम् । तथा तीर्थकरस्थापनातस्तद्दर्शनानन्तरं परमगुरोस्तीर्थकरस्य ये गुणाः-वीतरागत्वादयस्तेषामागमः-अवबोधो भणितस्तीर्थकरस्थापनाफलत्वेन समयवेदिभिः, एषोऽपि च परमगुरुगुणागमः केषांचिल्लघुकर्मणां तथाविधशुभाध्यवसायहेततया भावापन्निस्तरणगणः ॥८७४ ।। ગાથાર્થ:- સાધુનો નિવાસ થાય, તો સાધુ પાસે ગયેલા કોક ભવ્યજીવને સદ્ધર્મની દેશના સાંભળવા મળે. તથા (સાધન શરીર ધર્મપ્રવૃત્તિમાં રત હોવાથી ધર્મકાય છે.) ધર્મકાયની પ્રાસક (=અચિત્ત) અને ક૯૫નીય (=૪૨ દોષથી રહિત) ઔષધ આદિથી પ્રતિચારણા-વૈયાવચ્ચનો લાભ મળે. આ બન્ને દુસ્તરસંસારસાગરના નિસ્તરણ માટે કારણભૂત છે. તથા તીર્થકરની સ્થાપના જિનબિંબ પધરાવવામી તેના દર્શનથી પરમગુરુ તીર્થંકરના વીતરાગતાઆદિ ગુણોનો બોધ થાય છે. જિનબિંબની સ્થાપનાનું આ ફળ છે એમ આગમવેદી મહાપુરુષોએ કહ્યું છે. પરમગુરુના આ ગુણોનો બોધ પણ કેટલાક હળુકર્મી જીવોને તેવા પ્રકારના શુભપરિણામમાં કારણ બનવાદ્વારા ભાવ આપત્તિનિસ્તરણ ગુણ ધરાવે છે. પ૮૭૪ના ++ + + + + + + + + + + + + + + धर्म - २ - 149 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ परिवार ++++++++++++++++++ सज्झायझाणकरणे आगमपरिवडणं ततो नियमा । रागादीण पहाणं ततो य मोक्खो सदासोक्खो ॥८७५॥ (स्वाध्यायध्यानकरणे आगमपरिवर्द्धनं ततो नियमात् । रागादीनां प्रहाणं ततश्च मोक्षः सदासौख्यः ॥) साधुसंपर्कतः प्रतिदिवसं स्वाध्यायध्यानकरणे सत्यवश्यमागमपरिवर्द्धनं भवति, तस्माच्चागमपरिवर्द्धनानियमाद्अवश्यंतया रागादीनां दोषाणां प्रहाणम्-अपगमः, तदुक्तम्-"मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥१॥" इति । 'ततो य'त्ति तस्माच्च-अतिरागादिप्रहाणान्मोक्षः सदासौख्य इति ॥८७५ ॥ ગાથાર્થ:- સાધુના સંપર્કથી દરરોજ સ્વાધ્યાય-ધ્યાનનો મોકો મળે છે. તેથી અવશ્ય સમ્બોધવૃદ્ધિ થાય છે. આ સદબોધવૃદ્ધિથી રાગાદિદોષોની માત્રામાં ઘટાડો થાય છે. કહ્યું જ છે કે જેમ મલિન વસ્ત્ર માટે પાણી અત્યંત શુદ્ધિકારક છે તેમ શાસ્ત્ર અન્ત:કરણ(મન) રૂપરત્નનું શુદ્ધિકારક છે તેમ વિબુધલોકો સમજે છે.” (યોગબિન્દુ ગા. ૨૨૯) અતિરાગઆદિમાં આ ઘટાડો થવાથી–તેનો ક્ષય થવાથી સદાસુખમય મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. u૮૭પા उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરતાં કહે છે ता इय सुहबज्झगतो संविग्गस्स जयणापवत्तस्स । जिणभवणकायघाते परिणामो होइ जीवस्स ॥८७६॥ .. (तस्मादेवं शुभबाह्यगतः संविग्नस्य यतनाप्रवृत्तस्य । जिनभवनकायघाते परिणामो भवति जीवस्य ।) 'ता' तस्मादितिः-एवं प्रदर्शितेन प्रकारेण जीवस्य शारीरमानसानेकदुःखोपनिपातसहनेन संविग्नस्य-संसारविमुखया प्रज्ञया मोक्षमभिलाषुकस्य यतनया-जलदलविशुद्धभूमिग्रहणादिरूपया प्रवृत्तस्य जिनभवनकायघाते-जिनभवनकरणविषयपृथिव्यादिषड्जीवनिकायवधे परिणामो भवति शुभबाह्यगत:- शुभबाह्यालम्बन इति ॥८७६॥ ગાથાર્થ:- આવી પડતા અનેક શારીરિક અને માનસિક દુઃખોને સહન કરવાથી–સંસારથી વિમુખ એવી પ્રજ્ઞાથી મોક્ષની અભિલાષાવાળો-સંવિગ્ન જીવ જિનાયતન બનાવતી વખતે જયણા રાખે છે. અર્થાત પાણી, લાકડા, શુદ્ધભૂમિનું ગ્રહણવખતે અલ્પહિંસાનો ખ્યાલ રાખી જિનાયતન બનાવવા પ્રવૃત્ત થાય છે. તેથી જિનાયતન સંબંધી પૃથ્વીવગેરે છકાયજીવના વધવખતે પણ તેનો પરિણામ ઉપરોક્ત પ્રમાણે શુભ બાહ્યઆલંબનવાળો છે. u૮૭૬ શાબ્દિક સાધર્મ વ્યર્થ सांप्रतं स्वपक्षसाधनाय जिनभवनमित्थमापन्निस्तरणगुणं दृष्टान्तीकुर्वन्तं परं शिक्षयन्नाह - હવે પોતાના પક્ષને સિદ્ધ કરવા આપત્તિનિસ્તારણગણવાળાજિનમંદિરને આમ દષ્ટાન્નતરીકે સ્થાપતા પૂર્વપક્ષને શિક્ષણ આપતા मायार्य१२ छ→ न य सोऊण पयत्थं जं किंचि जहाकहंचिसाधम्मा । चासप्पंचाससमा अवरम्मि पगप्पणा जुत्ता ॥८७७॥ (न च श्रुत्वा पदार्थं यं कञ्चिद् यथाकथञ्चित्साधात् । चासपंचाससमाऽपरस्मिन् प्रकल्पना युक्ता ॥ न च श्रुत्वा यं कञ्चित्पदार्थं जिनभवनकरणविषयपृथिव्यादिकायघातादिलक्षणं यथाकथंचित्साधयात्हिंसामात्रत्वादिसाधाद परस्मिन्-वेदवधादौ कल्पना-निर्दोषत्वादिकल्पना युक्ता । किंवन्न युक्तेत्यत आह'चासप्पंचाससमा' यथा ‘पंचास' इति शब्दं श्रुत्वा चासशब्दे चासशब्दसाधात् पंचासशब्दार्थकल्पनाऽयुक्ता तद्वदियमपि, शुभाशुभबाह्यालम्बनतयाऽत्यन्तं वैलक्ष्येण अनन्तरोक्तकल्पनया सह अस्याः समानत्वाभावात् ॥८७७॥ ગાથાર્થ:-વળી, જિનભવન બનાવવા સંબંધી પૃથ્વી વગેરે જીવોની હિંસા આદિરૂપ જે-તે પદાર્થને સાંભળી હિંસામાત્ર આદિપ જે કાંક સાધર્મ દેખાય તે પકડીને વેદવિહિતહિંસામાં પણ નિર્દોષતાની કલ્પના કરવી યોગ્ય નથી. કોની જેમ યોગ્ય નથી? તે શ્રેષ્ટાન્તથી બતાવે છે. “ચાસ (પંખીવિશેષસૂચક?) શબ્દ સાર્થક છે. હવે કોઈ આદમી પંચાસ' શબ્દ સાંભળી તેમાં ચાસશબ્દગત “ચાસ"પદનું શાબ્દિકસાધર્મ જોઈ ‘પંચાસ શબ્દના અર્થની કલ્પના કરવા બેસી જાય કે “ચાસશબ્દ પંખીકે વસ્તુવિશે ?) વાચક છે માટે પંચાસશબ્દ પણ બનતત્સ દેશવસ્તુનો અભિધાયક હશે.) તો તે યોગ્ય નથી. તેમ વેદવિહિનહિંસામાં પણ +++++++ ++++++++ afe-MIN 2 - 150 * * * * * * * Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભૂ મ મ મ મ ભૂ મૂવ મમમ મમમ જિનાયતનહિંસાની સાથે હિંસામાત્રનું સાધર્મ જોઇ નિર્દોષતાની કલ્પના કરવી યોગ્ય નથી. કેમકે જિનાયતનકરણમા શુભબાહ્યઆલંબન છે, જયારે વેહિંસામા અશુભબાહ્યઆલંબન છે. આમ બન્નેવચ્ચે જમીનઆકાશનું અંતર-વિલક્ષણતા છે. તેથી સમાનતા સંભવતી નથી. ૫૮૭ગા अत्रैव विपक्षे बाधामाह - ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ugR ܀ ܀ ܀ ܀ આમ જે કાંઇ સાંભળી જે તે સાધર્મ પકડવામા બાધા-આપત્તિ બતાવે છે. जायइ अतिप्पसंगो एवं भावाण ण य ववत्थत्ति । तदभावे सत्यंपि हु विहलंति विडंबणा सव्वं ॥ ८७८ ॥ (जायतेऽतिप्रसङ्ग एवं भावानां न च व्यवस्थेति । तदभावे शास्त्रमपि हु विफलमिति विडंबना सर्वम् II) एवं यत्किंचित्श्रुत्वा यथाकथंचित्साधर्म्यात्तदन्यस्मिन् तथाभावकल्पनायां जायतेऽतिप्रसङ्गो, न च न पुनर्भावानां व्यवस्था, तदभावे-व्यवस्थाया अभावे शास्त्रमपि विफलमेव । हुरवधारणे । तद्धि भावव्यवस्थानिबन्धनमिति कथं तदभावे तत्सफलं भवेत् इति भावः । इति तस्मात् शास्त्रस्यापि नैष्फल्यप्रसङ्गात्सर्वमिदं भवतः शास्त्रादिकं विडम्बनेति ॥८७८॥ ગાથાર્થ:- આમ જે કંઇ સાંભળી જે કંઇ સાધર્મ દેખાય તે પકડી બીજામા પણ તેવા સ્વરૂપની લ્પના કરવામાં અતિપ્રસંગ આવે છે. અને ભાવોમા કોઇ વ્યવસ્થા (યોગ્ય નિશ્ચય) રહે નહીં. (કેમકે ફાવે તેવી સમાનતા પકડી ફાવે તેવી તુલના થઇ શકે.) અને વ્યવસ્થાની અભાવમા શાસ્ત્ર પણ નિષ્ફળ જ છે. (‘હુ’ જકારાર્થક છે.) કારણ કે ભાવોમા વ્યવસ્થાના હેતુતરીકે શાસ્ત્ર માન્ય છે. પણ જો વ્યવસ્થા જ હોય નહીં, તો શાસ્ત્ર સફળ શી રીતે બને? આમ શાસ્ત્ર પણ નિષ્ફળ થવાથી તમારી શાસ્ત્રઆદિ બધી વસ્તુ માત્ર વિડંબનારૂપ જ છે. ૫૮૭૮ા વૈદિકહિંસામા પ્રદાનાદિગુણો અસિદ્ધ अपि च, प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः फलवत्तया व्याप्ता, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षितिप्रसङ्गात् न च वेदविहितपशुवधक्रियायां फलमीक्षामहे, तथाचाह વળી પ્રેક્ષવાન-વિચારક માણસોની પ્રવૃત્તિ ફળવત્તાથી વ્યાપ્ત છે. (અર્થાત્ જેમાં ફળવત્તા હોય, તેમાં જ પ્રવૃત્તિ હોય) જો ફળવત્તા વિના પણ પ્રવૃત્તિ હોય, તો તેમની વિચારકતામાં ક્ષતિ આવવાનો પ્રસંગ છે. અને વેદવિહિત પશુવધક્રિયામાં અમને કોઇ ફળવત્તા દેખાતી નથી. તેથી જ આચાર્યવર કહે છે→ ण य इह वेदवहम्मी दीसइ गुणमो पदाणमह इट्ठ । वहमन्तरेण तं किं संपति लोए ण संभवति ? ॥ ८७९ ॥ ( न च इह, वेदवधे दृश्यते गुणः प्रदानमथ इष्टम् । वधमन्तरेण तत् किं संप्रति लोके न संभवति ? II) न च इह-अस्मिन् वेदवधे गुणः - फलं दृश्यते । 'मो' इति पूरणे । तस्मान्नात्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपन्नेति भावः । पराभिप्रायमाह–‘पयाणमित्यादि' अथोच्येत यत् प्रदानं - प्रकृष्टं दानं लभ्यते तत् पशुवधक्रियायाः फलमस्माकमिष्टमिति । अत्राह - 'वहेत्यादि' वधमन्तरेण तत्प्रदानं किं संप्रति लोके न संभवति ? येनैवं नरकादिकुगतिहेतुभूतः स पशुवधः समारभ्यते इति ॥ ८७९ ॥ ++++++ વૈદિકહિંસામાં પ્રદાનાદિ ગુણો અસિદ્ધ ગાથાર્થ:- (મૂળમા ‘મો' પાદપૂર્તીથૅ છે) વળી અહીં વેદવિહિત હિંસામા કોઇ ગુણ-ફળ દેખાતો નથી. તેથી એમા વિચારકોની પ્રવૃત્તિ ઘટે નહીં. પૂર્વપક્ષ:- જે પ્રકૃષ્ટ દાન-પ્રદાન પ્રાપ્ત થાય છે એ જ અમને પશુવધ ક્રિયાના ફળ તરીકે ઇષ્ટ છે. ઉત્તરપક્ષ:-શું હમણા લોકમા વધને છોડી અન્ય રીતે પ્રદાન સંભવતું જ નથી કે, જેથી આમ નરકાદિદુર્ગતિમા કારણભૂત આવા પશુવધનો સમારંભ કરો છો. અર્થાત્ પશુવધ વિના પણ નિર્દોષપ્રકારે પ્રદાન સંભવે છે, તેથી પશુવધ યોગ્ય નથી. ૫૮૭૯ના स्यादेतत्, न प्रदानमात्रं पशुवधक्रियायाः फलं, किंतु तेषामेव वध्यानां पशूनामुपकार इत પૂર્વપક્ષ:- પ્રદાનમાત્ર કંઇ પશુવધક્રિયાનું ફળ નથી. પરંતુ તે જ વધ્ય પશુઓપર ઉપકાર પશુવધક્રિયાનું ફળ છે. અહીં આચાર્યવર ઉત્તર આપે છે→ * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 151 - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + +++ ++++++++++++++ यात्रि + + ++ + + ++ + + + + ++ ++++ वज्झाणवि उवगारो इहं अदिट्ठो उ पेच्च अपमाणो । फलमवि वभिचारातो ण पमाणं एत्थ विदुसाणं ॥४८॥ (वध्यानामपि उपकार इहादृष्टस्तु प्रेत्याप्रमाणः । फलमपि व्यभिचारान्न प्रमाणमत्र विदुषाम् ॥) वध्यानामपि पशूनामुपकार इह-पशुभवे न तावद् दृष्टः तुः पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, प्रेत्य पुनः-भवान्तरे पुनर्वध्यानामुपकारोऽ प्रमाण:-प्रमाणरहितो, न हि तत्र प्रत्यक्षं प्रवर्ततेऽतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमानं तस्यापि प्रायः प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्, नाप्यागमो-वेदलक्षणः, तस्यापि दृष्टेष्टविरुद्धार्थभाषितया प्रामाण्यायोगात् । अथ न प्रदानमात्रं नापि वध्यानामुपकारः पशुवधक्रियायाः फलं किंतु भूत्यादिकम् । यदुक्तम्-“श्वेतं वायव्यमजमालभेत भूतिकाम" इत्यादि, तत्राह - ‘फलमवी' त्यादि फलमपि च-भूत्यादिकमत्र-वेदे पशूनां हन्तुरुच्यमानं न प्रमाणं-न प्रमाणभूतम् । कुत इत्याह - व्यभिचारात्-विवाहादौ मन्त्रादिफलस्य वेदोक्तस्य तथा(5)दर्शनात् ॥८८०॥ વાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- વધ્ય પશુઓ પર પણ આ ભવસંબંધી ઉપકાર તો દેખાતો નથી (મૂળમાં “ત' તથા અથે છે.) તથા પરલોકમાં એ વધ્યજીવોપર ઉપકાર અપ્રમાણિત છે, કેમકે તે અતીન્દ્રિય લેવાથી પ્રત્યક્ષનો વિષય નથી. પ્રાય: પ્રત્યક્ષપૂર્વક હોવાથી અનુમાન પણ પ્રવર્તે નીં. વેદરૂપ આગમ પણ સમર્થ નથી, કેમકે દષ્ટ અને ઇષ્ટ અર્થથી વિરુદ્ધઅર્થના ભાષક હોવાથી પ્રમાણભૂત નથી. પૂર્વપક્ષ:- પશુવક્રિયાના ફળતરીકે અમને પ્રદાનમાત્ર પણ ઈષ્ટ નથી અને પશુઓ પર ઉપકાર પણ ઇષ્ટ નથી, પરંતુ ભૂતિ–આબાદીવગેરે જ ઇષ્ટ છે. કહ્યું જ છે કે “ભૂતિકામે (ભૂતિની ઈચ્છાવાળા) સ્વૈત વાયવ્ય અજ (=બકરા) નો આલભ (-यमा अम)२वो मे.त्यादि. ઉત્તરપક્ષ:- પશુના વધ કરનારને ભૂત્યાદિફળ મળે એવું વેદનું કથન પણ પ્રમાણભૂત નથી. કેમકે વ્યભિચાર છે. વિવાહવગેરે પ્રસંગોમાં વેદે બતાવેલા મન્ટો ફળઅંગે વ્યભિચરિત અનેકાન્તિક થતાં દેખાય જ છે. (અથવા વિવાહાદિમાં માત્રના વેદે કહેલા ફળ દેખાતાં નથી.) u૮૮બા વૈદિક મંત્રોમાં વ્યભિચાર उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે. एवं विहिसक्कारो एत्थ असिद्धो तु होति नायव्वो । तदभावम्मि य साहणविगला सव्वेवि दिटुंता ॥८८१॥ (एवं विधिसंस्कारोऽत्रासिद्धस्तु भवति ज्ञातव्यः । तदभावे च साधनविकलाः सर्वेऽपि दृष्टान्ताः ॥) एवं-प्रदर्शितेन प्रकारेण यो विधिसंस्कारो हिंसाया अहिंसाभावापादक उक्तः सोऽसिद्ध एव, तुरवधारणे, भवति ज्ञातव्यः । तदभावे च-संस्काराभावे च ये अयस्पिण्डादयो दृष्टान्ता उक्तास्ते सर्वेऽपि विवक्षितार्थसाधनविकला ज्ञातव्याः। हेतोरसिद्धौ तेषां निरास्पदत्वात् ॥८८१॥ - ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્તપ્રકારે હિંસામાં અહિંસાના ભાવનું આપાદાન કરનાર જે વિધિસંસ્કાર બતાવ્યો તે અસિદ્ધ જ સમજવો. (“ત"જકારાર્થક છે.) અને સંસ્કારના અભાવમાં પૂર્વપક્ષે લોખંડના ગોળાઆદિ જે દષ્ટાન્તો બતાવ્યા તે ઇચ્છિતઅર્થના (વેદહિંસામાં ગુણવત્તાની સિદ્ધિના) સાધનમાં અસમર્થ સમજવા. કેમકે જયાં હેતુ જ અસિદ્ધ હોય, ત્યાં तमो (टान्ती) जिया निराधार बनी य छे. ॥८॥ पुनरपि परस्य मतमाशङ्कते - ફરીથી પૂર્વપક્ષના મતની આશંકા કરે છે अह मंतपुव्वगं चिय आलभणं सव्वहा पयत्तेणं । विहिसक्कारो भन्नति तेसिपि इहेव वभिचारो ॥८८२॥ (अथ मन्त्रपूर्वकमेवालभनं सर्वथा प्रयत्नेन । विधिसंस्कारो भण्यते तेषामपि इहैव व्यभिचारः ॥).. अथ मन्येथाः-नायस्पिण्डादिसंस्कारवत् भावान्तरस्पतापत्तिलक्षणः संस्कारोऽभ्युपगम्यतेऽस्माभिर्येनासौ असिद्धः स्यात्, किंतु सर्वथा यथोक्तेन प्रकारेण प्रयत्नेन-आदरपरतया यत् मन्त्रपूर्वकमालभनमेव-विनाशनमेव चियशब्द ++++++++++++++++ लि-ला५२ - 152 +++++++++++++++ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, तत् विधिसंस्कारो भण्यते, ततो नासिद्धतादोष इति । तदप्ययुक्तम्-यतस्तेषामपि मन्त्राः નાવ્યfમારા પ્રત્યેનું શાન્ત તિ? N૮૮૨ / ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- અમે લોખંડના ગોળાઆદિમાં સંસ્કારની જેમ ભાવાત્તરની પ્રાપ્તિરૂપ સંસ્કાર સ્વીકારતા નથી કે જેથી અસિદ્ધ થવાનો પ્રસંગ આવે. પરંતુ સર્વથા વેદોકતપ્રકારે આદરપૂર્વક જે મંત્રપૂર્વક આલભન વિનાશ છે તે જ વિધિ સંસ્કાર ગણાય. (મૂળમાં ‘ચિય'પદ જકારાર્થક છે અને આલમનસાથે સંબંધિત છે.) તેથી અસિદ્ધિદોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ પણ કથન યોગ્ય નથી. કેમકે તે મત્રોનો આ લોકમાં જ જયાં વ્યભિચાર દેખાય છે, ત્યાં તે મત્રો પરલોકમાં એકાને સફળ બને એવી પ્રતીતિ કેવી રીતે થઇ શકે? અર્થાત્ ન જ થઈ શકે. પ૮૮રા यदक्तमिहैव व्यभिचार इति तत्समर्थयमान आह - હવે “આલોકમાં જ વ્યભિચાર છે એવું જે કહ્યું તેના સમર્થનમાં કહે છે ___ वीवा तह गब्भाहाणे जणणे य मंतसामत्थं । હિટું વિસંવયંત વિવિ તે સંવયંત ૮ ૮ રૂા. | (વિવારે તથા THધાને નનને મન્દસમર્થ્યમ્ ! ટૂ વિસંવત, વિનrfપ તાન સંવર્ગ II) विवाहे तथा गर्भाधाने जनने च मन्त्रसामर्थ्य दृष्टं विसंवदत्, तथाहि-विवाहादौ स्त्रीपुंसःप्रीत्यादिफलं मन्त्रसामर्थ्यमुपवर्ण्यमानमध्यक्षत एव विसंवदुपलभ्यते इति । तथा विनाऽपि तान् मन्त्रान् विवाहादौ स्त्रीपुंसःप्रीत्यादिकं संवदत् यथास्वरूपं भवत् दृष्टमिति मन्त्राणां फलेन व्यभिचार इति ॥८८३॥ ગાથાર્થ:- વિવાહ, ગર્ભાધાન અને જનન( જન્મ દેવો) વખતે મત્રનું સામર્થ્ય વિસંવાદ પામતું દેખાય છે. તથાતિવિવાહઆદિમાં મત્રનું સામર્થ્ય સ્ત્રી-પુરૂષની પ્રીતિવગેરે ફળતરીકે વર્ણિત થાય છે. પણ તે પ્રત્યક્ષમાં વિસંવાદ પામતું દેખાય છે. (પતિ-પત્ની વચ્ચે કલહઆદિ દેખાય છે.) તથા તે મંત્રો વિના પણ વિવાહવગેરેમાં પતિ-પત્ની વચ્ચે પ્રીતિઆદિ સંવાદ યથાસ્વરૂપને પામતા દેખાય છે. તેથી મન્ટો ફળઅંગે અનેકનિક છે. પ૮૮૩ પIfમપ્રાયમર્દ – અહીં પૂર્વપક્ષનો અભિપ્રાય આ છે अह तत्थ विसंवादो किरियावेगुन्नतो ण माणमिह । હિં કિરિયાવરૂTUTI કિં વા તત્સદિi ? ૮૮૪ (अथ तत्र विसंवादः क्रियावैगुण्यतो न मानमिह । किं क्रियावैगुण्यात् किं वा तदसाधकत्वेन ॥ अथोच्येत तत्र-विवाहादौ मन्त्राणां फले विसंवदनं क्रियावैगुण्यतो, यथाभिहितक्रियोपेतानां च फले सामर्थ्यमुपवर्ण्यते ततो न व्यभिचार इति । अत्राह-'ने त्यादि न इह-अस्मिन्नर्थे प्रमाणम् । तथाहि-विवाहादौ विसंवादः किं क्रियावैगुण्यात् किं वा तेषामेव मन्त्राणामसाधकत्वेनेत्यत्र न किंचित् प्रमाणमस्तीति ॥८८४॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષ:-વિવાહઆદિમાં મત્રોના ફળમાં જે વિસંવાદ દેખાય છે તે ક્રિયાની વિગુણતાથી છે. જે મત્રો બતાવેલી ક્રિયાને અનુરૂપ ક્રિયાથી યુક્ત હોય છે તેઓના ફળમાં બતાવેલું સામર્થ્ય છે. તેથી વ્યભિચાર નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ કહેવામાં કોઈ પ્રમાણ નથી. જૂઓને વિવાહાદિમાં જે વિસંવાદ થાય છે, તે ક્રિયાની વિગુણતાથી છે કે તે મત્રો સંવાદ સાધકતરીકે અસમર્થ છે? એવા વિકલ્પોમાં નિશ્ચાયકપ્રમાણ હાજર નથી. તેથી આ શંકાનો લાભ અમને મળે છે અને મત્રોમાં વિસંવાદ જ ઘોષણીય બને છે. (અન્વયસ્થળે પ્રમાણાભાવ હોય અને વ્યભિચારદષ્ટ હોય, ત્યાં કારણમાં કાર્યસામર્થ્ય અંગે ઉઠતી શંકાનો લાભ એ સામર્થ્યમાં માનનારને તો મળી શકે, જો વ્યતિરેકની સિદ્ધિ થતી હોય, પણ જો વ્યતિરેકમાં પણ વ્યભિચાર દષ્ટ હોય, તો શંકાનો લાભ વિપક્ષને મળે.) u૮૮૪ હતçવાદ – આ જ વાત કરતાં કહે છે. तेसिं फलेण सिद्धे अविणाभावम्मि जुज्जइ एयं । न य सो सिद्धो जम्हा विणावि तं तस्स भावोत्ति ॥८८५॥ (तेषां फलेन सिद्धेऽविनाभावे युज्यते एतत् । न च स सिद्धो यस्माद् विनापि तं तस्य भाव इति ॥ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 153 * * * * * * * * * * * * * * * Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐܬܟauda ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ तेषां-मन्त्राणां फलेन सहाविनाभावे सिद्धे सति एतत्-पूर्वोक्तं युज्यते, यथा-क्रियावैगुण्यात् फले विसंवादो नान्यथेति, न च सः-फलेन सहाविनाभावः सिद्धो यस्माद्विनापि तं-मन्त्रसंस्कारं तस्य-फलस्य भावोऽस्ति इति, तस्मान्न सोऽविनाभावः सिद्धः ॥८८५॥ .. ગાથાર્થ:- મત્રોનો ફળસાથે અવિનાભાવ સિદ્ધ થાય અર્થાત “મન્ન વિના ફળ મળે જ નહીંએમ નિશ્ચિત થાય તો તમે કહેલી પૂર્વોક્ત ક્રિયાવિગુણતાની વાત માન્ય બને.. કે ભઈ! ક્રિયાવિગુણતાથી ફળમાં વિસંવાદ છે નહિતર વિસંવાદ ન હોય. પણ મન્નસંસ્કારનો ફળસાથે અવિનાભાવ સિદ્ધ નથી. કેમકે માત્ર સંસ્કાર વિના પણ ફળની હાજરી દેખાય છે. આમ અવિનાભાવ જ અસિદ્ધ છે. પ૮૮પા तथा વળી, सत्थत्थम्मिवि एवं न होइ पुरिसस्स एत्थ माणमिणं । जं खलु दिट्ठविरोहो गम्मति तेणं अदितुवि ॥८८६॥ (शास्त्रार्थेऽपि एवं न भवति पुरुषस्यात्र मानमिदम् । यत्खलु दृष्टविरोधो गम्यते तेनादृष्टेऽपि ॥) यथोक्तविधिविहिता हिंसा न दोषायेति शास्त्रार्थेऽपि सति एवं न भवति-यथोक्ता हिंसा न दोषायेति न भवतीत्यत्र पुरुषमात्रस्य मान-प्रमाणमिदम्-यत्-यस्मात्खलु दृष्टविरोधो-दृष्टे विवाहादौ व्यावर्णिणतमन्त्रफलस्य विसंवादो विरोधो दृष्टविरोधोऽस्ति तेन कारणेनादृष्टेऽपि हिंसादोषाभावलक्षणे विसंवादरूपो विरोधो गम्यते इति । उक्तं च - "दृष्टबाधैव यत्रास्ति, ततोऽदृष्टे प्रवर्तनम् । असच्छ्रद्धाभिभूतानां, भूतानां (केवलं) ध्यान्ध्यसूचकम् ॥१॥” इति ॥८८६॥ ગાથાર્થ:- યથોક્તવિધિથી વિહિત હિંસા દોષરૂપ નથી' એવો શાસ્ત્રાર્થ હોવા છતા ઉપરોક્ત હિંસા દોષમાટે નથી બનતી એવું નથી, પરંતુ અવશ્ય દોષમાટે જ થાય છે, આ કથનમાં પુરૂષ માત્ર માટે અર્થાત બધા જ લોકો માટે પ્રમાણ આ છે– વિવાહવગેરેમાં વર્ણન કરાયેલા મત્રફળોનો પ્રત્યક્ષવિસંવાદ દષ્ટવિરોધ ઉપલબ્ધ થાય છે, તેના આધારે કહી શકાય કે હિંસામાં દોષાભાવરૂપ અદેટસ્થળે પણ વિસંવાદરૂપ વિરોધ લેવો જોઈએ. કહ્યું જ છે કે જયાં=જે શાસ્ત્રમાં, દેટાથે વિવાહાદિમાં મત્રાદિના ફળઅંગે જ વિરોધ છે. તત: = તે શાસ્ત્રથી શાસ્ત્રના વચનાનુસાર અષ્ટફળ અંગે વેદવિહિતહિંસાના અષ્ટફળમાટે તે હિંસામાં પ્રવૃત્તિ કરવી એ અયોગ્ય શ્રદ્ધાથી વિવલ જીવોની કેવળ બુદ્ધિની અંધતાનું સૂચક છે. (યોગબિંદુ ગા. ૨૪. ત્યાં ‘પૂતાનાં' ના બદલે તેવતં શબ્દ છે.) u૮૮૬ ઇકો વિ નમુક્કારો વિધિવાક્ય अत्र परस्यावकाशषमाह - અહીં પૂર્વપક્ષનો અવકાશ વ્યક્ત કરે છે– अह अत्थवादवक्कं एतं एक्कोवि जह नमोक्कारो । सत्थत्थो होइ विही जह मोक्खो नाणकिरियाहिं ॥८८७॥ (अथार्थवादवाक्यमेतदेकोऽपि यथा नमस्कारः । शास्त्रार्थो भवति विधि र्यथा मोक्षो ज्ञानक्रियाभ्याम् ॥) अथैतत् विवाहादिविषयमन्त्रसामर्थ्यप्रतिपादनपरं वाक्यमर्थवादवाक्यम्, यथा- 'एक्कोवि णमोकारो जिणवरवसह वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वे ॥१॥ (छा. एकोऽपि नमस्कारो जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य संसारसागरातारयति नरं वा नारों वा) त्येतत्" || अन्यथा तत एव मुक्तिपदसिद्धेः सम्यगणुव्रतमहाव्रतादिरूपचारित्रपरिपालनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् । शास्त्रार्थः पुनर्विधिर्भवति यथा-'मोक्षो ज्ञानक्रियाभ्यामिति', ततो न यथोक्तदोषावकाशः ।।८८७॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વિવાહવગેરેમાં વેદના મત્રના સામર્થ્યનું વર્ણન કરતા વાક્યો અર્થવાદવાક્યો છે. જેમ કે તમારા જ સૂત્રમાં આવે છે •જિન(=અવધિજ્ઞાનીવગેરે) વરો શ્રેષ્ઠ-કેવલીમાં વૃષભ(નેતા-તીર્થકર) એવા વર્ષમાનસ્વામીન ( મહાવીરસ્વામીને કરેલો એક પણ નમસ્કાર તે પુરુષ અથવા સ્ત્રીને સંસારસાગરથી તારે છે. તમને આ વાક્ય અર્થવાદવાક્ય તરીકે સંમત છે, નહીંતર તો એ એક નમસ્કારથી જ જો મોક્ષ થઈ જતો હોય, તો અણુવ્રત, મહાવ્રત આદિરૂપ ચારિત્રના સમગ્ર પરિપાલનાદિવિધિઓ વ્યર્થ થવાનો પ્રસંગ આવે. આ અર્થવાદવાકય વિધિરૂપ નથી પણ સ્તુતિપરક ય છે. વિધ્યર્થની પ્રશંસા અને નિષિદ્ધાર્થની નિંદા કરતું વચન અર્થવાદ છે. આ વચન વિશિષ્ટફળાદિ બતાવવાદ્વારા વિધિનિષેધમાં પ્રવૃત્તિ-નિવૃત્તિની પ્રેરણા કરે છે. આ વચનોના રચયિતા વિધિ-નિષેધસૂચક આગમને અનુસરનારા અનુયાયીઓ હોય છે. મહિમા દર્શાવેળા ફળમાં અતિશયોત્યાદિના કારણે વિસંવાદ આવવાથી અર્થવાદવાકયોમાં અનેકાંતિકતદોષ આવે, પણ તેથી મૂળ વિધિનિષેધસૂચક આગમમાં બાધ આવતો નથી એવો આશય છે.) * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 154 * * * * * * * * * * * * * * * Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܐܬܟܕ?]al ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ શાસ્ત્રાર્થભૂત વચનો જ વિધિરૂપ બને, જેમકે “જ્ઞાન-ક્રિયાથી મોક્ષ છે.' એજ પ્રમાણે મત્રફળસામર્થ્ય અભિધાયક વચનો અર્થવાદરૂ૫ છે, જયારે યજ્ઞમાં પશહોમવગેરે વાક્યો શાસ્ત્રાર્થરૂપ હોઈ વિધિરૂપ છે. તેથી માત્રફળના વિસંવાદને કારણે શાસ્ત્રાર્થવિધિરૂપ પશહિંસાવિધાનને વિસંવાદી માનવા યોગ્ય નથી. તેથી કોઈ દોષને અવકાશ નથી. ૮૮૭ તવેતકુમ્, યત – આ વચન બરાબર નથી, કેમકે एक्लोवि नमोक्कारो सम्मकतो सम्मभावतो चेव । तारेयवड्डपोग्गलमज्झे नियमेण कह णु थुती? ॥८८८॥ (एकोऽपि नमस्कारः सम्यक्कृतः सम्यग्भावत एव । तारयत्यपार्धपुद्गलमध्ये नियमेन कथं नु स्तुतिः ?|) एकोऽपि नमस्कारः सम्यग्भावत एव-प्रशस्तभावत एव सम्यक्कृतो-यथोक्तविधिकृतः सन् तारयत्यपार्द्धपुद्गलपरावतमध्ये नियमेन, तस्मात्कथं न्वियं स्तुतिः- तुतिमात्रमिदं स्यात् ? अर्थवादवाक्यमिदं भवेत्, नैव भवेदितिभावः, किंतु विधिरेवैषः। न चैवं सत्यणुव्रतादिपरिपालनवैयर्थ्यप्रसङ्ग स्तस्य सम्यगणुव्रतादिभावनिबन्धनतयैव परंपरया संसारसागरोत्तारसमर्थस्वभावत्वादिति ॥८८८॥ " ગાથાર્થ:- પ્રશસ્તભાવથી યથોક્તવિધિ મુજબ કરાયેલો એક નમસ્કાર પણ દેશોનઅર્ધપુદગળપરાવર્તકાળની અંદર અવશ્ય સંસારસાગરથી તારે છે. તેથી આ “ઇક્કોવિ નમુક્કારો કેવી રીતે સ્તુતિમાત્ર=અર્થવાદવાક્ય માત્ર બને? ન જ બને. અર્થાત આ વિધિરૂપ જ છે. શંકા:- જો એક નમસ્કાર જ દેશોનઅર્ધપુદગળપરાવર્તકાળમાં તારતો છેવાથી વિધિરૂપ હોય, તો અણુવ્રતપાલનઆદિ વ્યર્થ થવાનો પ્રસંગ છે. કેમ કે એક નમસ્કારથી કામ પતતું હોય તો કોણ વ્રતપાલનની માથાકૂટ કરે? સમાધાન:- અહીં એવો પ્રસંગ નથી, કેમકે એ નમસ્કારવિધિ અણુવ્રતઆદિભાવોની પ્રાપ્તિમાં યોગ્ય કારણ બનવાદ્વારા જ પરંપરાએ સંસારસાગરથી તારવાનાં સમર્થ સ્વભાવવાળી છે. u૮૮૮ स्यादेतत्, अस्त्विदं विधिवाक्यं परं विधिवाक्यमपि किंचिद्भवद्दर्शनेऽपि व्यभिचारि दृष्टं, यथा- 'मोक्षो ज्ञानक्रियाभ्या' मित्येतत्, न हि ज्ञानक्रियासु सम्यगभ्यस्यमानास्वपि मोक्षो दृश्यते, तथैतदपि विवाहादिविषयमन्त्रसामर्थ्याभिधायि वाक्यं व्यभिचारि भविष्यतीति न कश्चिद्दोष इत्यत्राह - પૂર્વપક્ષ:- ભલે ત્યારે આ નમસ્કાર વિધિવાક્ય હો, છતાં તમારા(જૈન) દર્શનમાં પણ કેટલાક વિધિવા અનેકાંતિક થતાં જોવાય જ છે, જેમકે “જ્ઞાન અને ક્રિયાથી મોક્ષ છે. આ વિધિવાક્ય. બરાબર અભ્યાસ કરતાં પણ જ્ઞાન-ક્રિયાથી મોક્ષ દેખાતો નથી. એ જ પ્રમાણે વિવાહાદિઅંગે મત્રનું સામર્થ્ય દર્શાવતું એ વેદવાક્ય અનેકાન્તિક હોઈ શકે, તેથી કોઈ દોષ નથી. અહીં જવાબમાં કહે છે – . ण य इह तवचरणाणं न दीसई कम्मलहुगया जेण । तेणं दिट्ठत्थेवि हु न विरुज्झइ हंत जिणवयणं ॥८८९॥ (नचेह तपश्चरणयो न दृश्यते कर्मलघुता येन । तेन दृष्टार्थेऽपि हु न विरुध्यते हन्त जिनवचनम् ॥ न च इह-जगति तपश्चरणयोः सम्यगभ्यस्यमानयोः कर्मलघुतालक्षणं फलं न दृश्यते, किंतु दृश्यते एव, तन्निबन्धनप्रशमानुविद्धपरमानन्दरूपविशिष्टोत्तरोत्तराध्यवसायविशेषानुभवभावात् कस्यचित्तदविनाभाविप्रतिभादिज्ञानातिशयदर्शनाच्च । तेन कारणेन दृष्टार्थेऽपि 'हु' निश्चितं न विरुध्यते हन्त जिनवचनमिति ॥८८९॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તર૫લા:- સારી રીતે અભ્યાસ કરાતા તપ અને ચરણ (-ચારિત્ર) ક્રિયાનું આ જગતમાં કર્મલાઘવ નામનું ફળ દેખાતું નથી, એમ નથી–અર્થાત અવશ્ય દેખાય જ છે. કેમકે એ તપસ્વી અને ચરણધર મહાત્મા કર્મલાઘવથી પ્રાપ્ત અને પ્રશમભાવથી અનુવિદ્ધ પરમાનંદરૂપ ઉત્તરોત્તર વિશિષ્ટ-વિશિષ્ટતર અધ્યવસાયોને અનુભવતા હોય છે. તથા કેટલાક મહાનુભાવો એ કર્મલાઘવને અવિનાભાવી એવા પ્રતિભઆદિ જ્ઞાનાતિશયથી યુક્ત પણ દેખાય છે. તેથી જિનવચન દષ્ટાર્થવિષયમાં પણ નિશ્ચિત જ વિરોધ પામતા નથી. તો અષ્ટાર્થવિષયમાં તેવી કલ્પના જ કેવી રીતે થઇ શકે? (મૂળમાં “હુપદ નિશ્ચિતાર્થક છે. પ૮૮લા છે જ ન જ * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -155 જ જ ન જ જે જે જ જે જ જજ જ છે કે જે Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ Li[2xqi ? ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ આરોગ્ગબોરિલાભ' સફળપ્રાર્થના વચન पुनरपि पर आह - ફરીથી પૂર્વપક્ષકાર કહે છે आरोगबोहिलाभं समाधिवरमुत्तमं च मे दिंतु । जह एत्थं तदभावो इहेव तह चेव तेसिंपि ॥८९०॥ (आरोग्यबोधिलाभं समाधिवरमुत्तमं च मे ददतु । यथाऽत्र तदभाव इहैव तथैव तेषामपि ॥) आ(अ)रोगस्य भाव आरोग्य-सिद्धत्वं तदर्थं बोधिलाभो-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिरारोग्यबोधिलाभस्तं, स चानिदानः सन् आरोग्याय घटते इति तदर्थं विशेषणमाह-'समाधिवरमुत्तमं चेति' समाधानं समाधिः, स च द्रव्यभावभेदात् द्विविधः, तत्र द्रव्यसमाधिर्यदुपयोगभावात्स्वास्थ्यं भवति येषां वा परस्परमविरोधः, भावसमाधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेवात्यन्तिकपरमस्वास्थ्ययोगात्, यतश्चायमित्थं द्विधा ततो द्रव्यसमाधिव्यवच्छेदार्थमिह वरग्रहणं, वरं-प्रधानं भावसमाधिमितियावत्, असावपि तारतम्यभेदेनानेकधेति विशेषयति- 'उत्तम' सर्वोत्कृष्टं 'मे' मह्यं 'ददतु' प्रयच्छन्तु सर्वेऽपि ऋषभादयस्तीर्थकरा इत्यस्मिन् वाक्ये यथा तदभावः-आरोग्यादिदानाभावस्तथा चैव इहैव-वेदेऽपिशब्दार्थे तेषामपि- मन्त्राणामुपवर्णितसामर्थ्याभावो भविष्यतीत्यदोषः ॥८९०॥ uथार्थ:- पूर्वपक्ष:- अरोग-शेषनो समा) नो भाव (स्१३५)आशेय. अर्थात् सि . (सायु-भावाशेश्य સિદ્ધપણું છે.)તે માટે બોધિનો લાભ. જિનેશ્વરે પ્રવર્તાવેલા ધર્મની પ્રાપ્તિ. આમ આરોગ્ય માટે બોધિલાભ આરોગ્યબોધિલાભ. આ બોધિલાભ પણ અનિદાન અન્યઆશયથી રહિત હોય, તો આરોગ્ય (મોક્ષ)માટે તેના (બોધિલાભના)કારણ ભૂત વિશેષણ તરીકે બને, તેથી ‘સમાધિવરં ઉત્તમ' ની વાત કરી. સમાધિ એટલે સમાધાન. આ સમાધિ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારે છે. તેમાં દ્રવ્યસમાધિ તે છે કે જેના સેવનથી સ્વાચ્ય (અહીં સ્વાથ્ય પણ દ્રવ્યરૂપ જ સૂચિત છે તેમ લાગે છે. તેથી અહીં શરીર સ્વસ્થતામાં કારણભૂત ઔષધાદિ દ્રવ્યસમાધિતરીકે લેવા.)ની પ્રાપ્તિ થાય તથા જે દ્રવ્યોનો એકસાથે ઉપયોગ-મિશ્રણ-સંયોજન પરસ્પર વિરુદ્ધ ન હોય, તે પણ દ્રવ્યસમાધિરૂપ છે. જેમકે દુધ અને સાકરનું મિશ્રણ. ભાવસમાધિ તો જ્ઞાનઆદિ (આદિથી દર્શનાદિ સમજવા.)સમાધાન જ છે. અર્થાત જ્ઞાનાદિનું/જ્ઞાનાદિમાં આત્મામાં/આત્માનું સમ્યગ આધાન-સ્થાપના ભાવસમાધિરૂપ છે. કેમકે જ્ઞાનાદિના ઉપયોગથી જ આત્યાજ્ઞિક (=અપૂર્વ અને અનાશ્ય)પરમ સ્વાથ્યની પ્રાપ્તિ સંભવે છે. આમ ઉપરોક્તરૂપે સમાધિ બે પ્રકારે છે. (અહીં કઇ સમાધિની વાત છે. અને કઈ સમાધિ સમજવાની નથી? તે શંકા થાય) તેથી દ્રવ્યસમાધિને બાકાત કરવા અહીં વર'પદનું ઉપાદાન છે. આ બે સમાધિમાં જે વર=શ્રેષ્ઠ સમાધિ છે તે સમાધિ અર્થાત ભાવસમાધિ. એ પણ ભાવોની તરતમતાના કારણે અનેક પ્રકારે છે. તેથી તેનું વિશેષણ બતાવે છે. જે સર્વોત્કૃષ્ટ ભાવસમાધિ છે. તે સમાધિ ઋષભાદિ તીર્થકરો મને આપે. ટૂંકાર્થ:- “ઋષભાદિ તીર્થકરો આરોગ્ય માટે બોધિલાભ અને (તે માટે) સર્વોત્કૃષ્ટ ભાવસમાધિ આપો.” આ વાક્ય થયું. છતાં કઈ તીર્થંકરો આરોગ્યાદિ આપતા નથી. આમ આ વાક્યમાં આરોગ્યાદિ દાનની માંગણી પૂરી થતી ન હોવા છતાં આ વાક્ય દોષરૂપ કે નિષ્ફળ ગણાતું નથી. તે વેદઅંગે પણ તે વાક્યના શબ્દાર્થમાં મત્રોના વર્ણવેલા સામર્થ્યનો અભાવ હોય તે દોષરૂપ નથી. ૮૯ના तदयुक्तम् यतःઉત્તરપક્ષ:- તમારી આ વાત બરાબર નથી કેમકે भासा असच्चमोसा परिणामविसुद्धिकारणं एसा । उत्ति(त्त) मफलविसया तो भणितावि तई न दोसाय ॥८९१॥ . (भाषाऽसत्यामृषा परिणामविशुद्धिकारणमेषा । उत्तमफलविषया तो भणिताऽपि सका न दोषाय ॥ एषा-अनन्तरोक्ता भाषा असत्यामृषा, उत्तमफलविषयेति, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति' न्यायादत्र हेतौ प्रथमा, ततश्च यत इयमुत्तमफलविषया ततः परिणामविशुद्धिकारणम् । ततः किमित्याह 'ता' तस्माद्भणिताऽपि सती 'तइ' त्ति सका भाषा न दोषाय, तदुक्तम्-"भासा असच्चमोसा नवरं भत्तीएँ भासिया एसा । न हु खीणपेज्जदोसा देंति समाहिं च बोहिं च ॥१॥" (छा. भाषाऽसत्यमृषा केवलं भक्त्या भाषितैषा । न खलु क्षीणप्रेमद्वेषा ददति समाधिं च बोधिं च) इति ॥८९१॥ * * * * * * * * * * * * * * * * घ e e-मास २ - 156 * * * * * * * * * * * * * * * Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ zu[?xsz ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ગાથાર્થ:- ઉપરોક્ત “આયુષ્ય બોકિલાભ સમાફિવરં ઉત્તમં દિ' આ વાક્યની ભાષા અસત્ય-અમૂષા (સત્યાસત્ય ભાવ વિનાની) છે. (વ્યવહારનયથી ભાષાના ચાર ભેદ છે. (૧) સત્યભાષા (૨) અસત્યભાષા (૩) ઉભયમિશ્ર-સત્યમૂષા-અર્ધસત્યભાષા. અને (૪) ઉભયથી રહિત આજ્ઞાદિરૂપ વ્યવહારભાષા–અસત્યઅમૃષા નિશ્ચયનય પરિણામપ્રધાન હોવાથી અને પરિણામના શુભ કે અશુભ એમ બે જ ભેદ પડતા હોવાથી નિચયનયમતે ભાષાના બે જ પ્રકાર (૧) જે શુભભાવથી કે શુભભાવ પેદા કરવા બોલાય તે સત્યભાષા અને (૨) અશુભભાવથી કે અશુભભાવમાટે બોલાય તે અસત્યભાષા. ઉપરોક્તવાક્યમાં જે “અસત્ય-અમૂષાભાષાનો નિર્દેશ છે તે વ્યવહારથી છે, નિશ્ચયનયથી આ ભાષા સત્યરૂપ છે. કેમકે શભભાવથી બોલાય છે અથવા શુભભાવમાં કારણ છે.) આ ભાષા વ્યવહારથી અસત્યામૃષા પણ એટલા માટે છે કે તે આરોગ્યાદિ ઉત્તમફળ વિષયક છે. •નિમિત્ત, કારણ અને હેતુમાં પ્રાય: બધી વિભક્તિઓ દેખાય છે એવો ન્યાય છે. (અર્થાત નિમિત્તાદિ અર્થમાં પ્રયુક્ત શબ્દને પ્રાય: સાતેય વિભક્તિના પ્રત્યયોમાંથી કોઇપણ વિભક્તિનો પ્રત્યય લાગે તો તે અસાધુ નથી.) અહીં ‘ઉત્તમફળ વિષય' શબ્દ એ ભાષાની પરિણામવિશુદ્ધિકારણતામાં હેતુ દર્શક છે. તેથી અહીં હેત્વર્થમાં પ્રથમા છે. તાત્પર્ય:- આ ભાષા ઉત્તમફળવિષયક લેવાથી પરિણામવિશુદ્ધિમાં કારણ છે. તેથી બોલાયેલી પણ આ ભાષા દોષમાટે બનતી નથી. કહ્યું જ છે કે ‘આ અસત્યામૃષાભાષા છે અને માત્ર ભક્તિથી બોલાયેલી છે. ખરેખર તો ક્ષીણરાગદ્વેષવાળા ભગવાન નથી આપતા સમાધિ કે નથી આપતા બોધિ.' u૮૯૧ न च वाच्यम्-एवं विवाहादिविषया अपि मन्त्रा विवक्षितफलजननविकला अपि परिणामविशुद्धिहेतुत्वाददुष्टा भविष्यन्तीति, થત મઠ - પૂર્વપક્ષ:- આ પ્રમાણે વિવાહઆદિવિષયક મત્રો પણ વિવક્ષિતફળ દેવા સમર્થ ન લેવા છતાં પરિણામવિશુદ્ધિમાં કારણ લેવાથી દોષયુક્ત નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ કહેવું બરાબર નથી. કેમકે – हेयोवादाणाओ संसारनिबंधणाओ वेदस्स । तह यापउरिसभावा ण य वीवाहादिया एवं ॥८९२॥ हेयोपादानात्संसारनिबंधनाद् वेदस्य । तथा चापौरुषेयभावान्न च विवाहादिका एवम् ॥) न च -नैव एवम्-आरोग्यबोधिलाभादिवाक्यवत् विवाहादयो-विवाहादिविषया मन्त्राः परिणामविशुद्धिकारणम् । कुत इत्याह- 'संसारनिबंधणाओ' भावप्रधानोऽयं निर्देशः संसारनिबन्धनत्वात्, एतदपि कथमिति चेत्, उच्यते, 'हेयोपादानात्' हेयस्य-संसारकारणतया परित्याज्यस्य विवाहादेरुपादानात् । 'वेदस्स तह याऽ पोरिसभावाउत्ति' तथा वेदस्यापौरुषेयभावाच्चअपौरुषेयत्वाच्च । चो भिन्नक्रमे । पुरुषो हि उत्तमफलार्थी सन् परिणामविशुद्धिहेतोः स्वतो निष्फलमपि भाषेत, वेदश्चापौरुषेयस्तत्कथमारोग्यादिवाक्यतुल्या तत्र मन्त्राणां कल्पना क्रियत इति । अपि च स्वतो निष्फलत्वमभ्युपगम्य एतदाचार्येण प्रौढितयोक्तं यावता नैवैतदारोग्यादिवाक्यं स्वतो निष्फलं, आरोग्यादेस्तत्त्वतो भगवद्भिरेव दीयमानत्वादवन्ध्यतथाविधशुद्धाध्यवसायहेतुत्वात्, उक्तं च-"तप्पत्थणाए तहवि हु न मुसावाओवि एत्थ विण्णेओ । तप्पणिहाणाओ च्चिय तग्गुणओ हंदि फलभावा ॥१॥ चिंतामणिरयणेहिं जहा उ भव्वा समीहियं अत्थं । पावंति तह जिणेहिं तेसिं रागादभावेवि ॥२॥ वत्थसहावो एसो अपव्वचिंतामी महाभागं । थोऊणं तित्थयरं पाविज्जइ बोहिलाभोत्ति ॥३॥" (छा. तत्प्रार्थनया तथापि खलु न मृषावादोऽप्यत्र विज्ञेयः । तत्प्रणिधानादेव तद्गुणतः सत्यं फलभावात् ॥१॥ चिन्तामणिरत्नैर्यथा तु भव्या समीहितमर्थम् । प्राप्नुवन्ति तथा जिनैस्तेषां रागाद्यभावेऽपि ॥२॥ वस्तुस्वभाव एषोऽपूर्वचिन्तामणिं महाभागम् । स्तुत्वा तीर्थकरं प्राप्यते बोधिलाभ इति ॥३॥ तथा, "भत्तीएँ जिणवराणं खिज्जती पुव्वसंचिया कम्मा। गुणपगरिसबहमाणो कम्मवणदवानलो जेण ॥१॥ त्ति" (छा. भक्त्या जिनवराणां क्षीयन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि । गुणप्रकर्षबहुमानः कर्मवनदावानलो येनेति ॥ ॥८९२॥ ગાથાર્થ:- આરોગ્યબોધિલાભાદિવાકયની જેમ વિવાહઆદિવિષયકમત્રો પરિણામવિશુદ્ધિના કારણ બની શકે નહીં કેમકે સંસારના કારણભૂત છે. (મૂળમાં “સંસારનિબંધણાઓ' નિર્દેશ ભાવપ્રધાન છે.) સંસારના કારણ કેવી રીતે? એવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે “હેયોપાદાનાત' વિવાહવગેરે સંસારના કારણ હોવાથી મુમુક્ષમાટે હેયરત્યાગપાત્ર છે. અને વેદમત્રો એ જ વિવાહઆદિવેયનું ઉપાદાન કરે છે. વેદ અપૌરુષેય છે. આ વેદમત્રો પરિણામવિશુદ્ધિમાં કારણ ન બની શકે તેમાં બીજો હેતુ એ છે કે તેઓ વેદને અપૌરુષેય માને છે. (“ચ' નો કમ “અપૌરુષેય' પછી છે.) ઉત્તમફળની ઇચ્છાવાળો પુરુષ અપરિણામની વિશક્તિમાટે કદાચ નિષ્ફળ વચન બોલે, તે સંભવિત ( ૧ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -157 * * * * * * * * * * * * * * * Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܬܟܕ?]: ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ છે. પણ તો તેવી આરોગ્યાદિવાક્યતત્ય વાણી પરિણામવિશુદ્ધિ માટે બોલાયેલી કલ્પી શકાય જ કેવી રીતે? તેથી મત્રો માટે એ કલ્પના સાર્થક નથી. વળી, આચાયવર્ષે ‘આરોગ્યવાક્યને સ્વત: નિષ્ફળતાનો સ્વીકાર કરી આ વાત પોતાની પ્રતિભાથી કરી, બાકી આ આરોગ્યાદિવાક્ય સ્વત: નિષ્ફળ નથી. કેમકે ભગવાન જ તેવા પ્રકારના અમોઘ વિશુદ્ધઅધ્યવસાયમાં આલંબનરૂપે કારણ બને છે. તેથી એ અધ્યવસાયથી પ્રાપ્ત આરોગ્યાદિ તત્વથી ભગવાન જ આપે છે. કહ્યું જ છે કે “છતાં ભગવાનની પ્રાર્થના રૂપ હોવાથી અહીં મૂષાવાદ નથી, તેમ સમજવું કેમકે ભગવાનના પ્રાણિધાનથી જ ભગવાનના ગુણથી (=ઉપકારથી) સફળ હોવાથી સત્ય છે. જેમ ભવ્યો ચિંતામણિરત્નોદ્વારા સમીહિતઅર્થ પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ જિનોને રાગવગેરેનો અભાવ હોવા છતાં જિન પાસેથી પ્રાપ્ત કરે છે. વસ્તુસ્વભાવ જ એવો છે કે અપૂર્વચિંતામણિલ્ય મહાભાગ તીર્થકરને સ્તવવાથી બોધિલાભ પ્રાપ્ત થાય છે." તથા “જિનેશ્વરની ભક્તિથી પૂર્વસંચિત કર્મો ક્ષય પામે છે. કેમકે ગુણપ્રકર્ષનું બહુમાન કર્મવનમાટે દાવાનળસમાન છે. ૮૯૨ા વૈદિકહિંસા-હિંસક જાગુપ્તનીય __णय कुच्छिया तई जं भणियं तं सव्वहा अजुत्तं तु । नाणीहिं कुच्छियच्चिय तहेव वेदंतवादीहिं ॥८९३॥ (न च कुत्सिता सका यद्भणितं तत्सर्वथाऽयुक्तं तु । ज्ञानिभिः कुत्सितैव तथैव वेदान्तवादिभिः ॥) न च कुत्सिता-जुगुप्सिता 'तई त्ति सका हिंसेति यद्भणितं तत्सर्वथा अयुक्तमेव । तुरेवकारार्थः । यस्मात् ज्ञानिभिःयथावस्थितसकलवस्तुतत्त्ववेदिभिः सा कुत्सितैव-जुगुप्सितैव, तथैव वेदान्तवादिभिरपि ॥८९३॥ ગાથાર્થ:- વળી “આ હિંસા જગુપ્સિત નથી' એવી વાત જે કહી તે તદ્દન અસંગત જ છે. (“તુજકારાર્થક છે, કારણ કે સઘળાય વસ્તુસમુદાયના યથાર્થવેદી જ્ઞાનીઓએ આ હિંસાની જુગુપ્સા કરી છે. (કદાચ તમને થાય કે અન્ય કહેવાતા જ્ઞાનીઓએ ભલે નિંદા કરી હોય, અમારા વેuતવાદી જ્ઞાનીઓએ કયાં નિંદા કરી છે? તો તેમનો પણ સમાવેશ કરે છે.) વેદાન્તવાદીઓએ પણ એ હિંસાની નિંદા કરી છે. પ૮૯૭ एतदेव भावयति - આ જ વાતનું ભાવન કરે છે– अंधम्मि तमम्मि खलु मज्जामो पसुहिं जे जयामोत्ति । एमादि बहुविहं किं भणितं वेदंतवादीहिं ॥८९४॥ (अन्धे तमसि खलु मज्जामः पशुभि र्ये यजामह इति । एवमादि बहुविधं किं भणितं वेदान्तवादिभिः ॥ यदि हिंसा न कुत्सिता ततः अन्धे तमसि खल्विति गाथापूरणे मज्जामो वयं ये पशुभिर्यजामहे इत्येवमादिकं किंकस्माद्भणितं वेदान्तवादिभिः? तथा च तद्ग्रन्थः- “अन्धे तमसि मज्जामः, पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद्धर्मों न भूतो न भविष्यती ॥१॥" ति ॥ आदिशब्दात् “अग्निर्मामेतस्मात् हिंसाकृतादेनसो मुञ्चतु" । छान्दसत्वान्मोचयतु इत्यर्थः, इत्यादिपरिग्रहः ॥८९४ ॥ ગાથાર્થ:- જો વેદહિંસા કુત્સિત ન હોય, તો વેદાન્તવાદીઓએ ‘અધે તમસિ મજજામો વયં યે પશુભિ યજામ ઇત્યાદિ કેમ કહ્યું? (મૂળમાં ‘ખલ'પદ પૂરણાર્થક છે.)તેઓએ એવું કહ્યું છે કે “જે અમે પશુઓથી યજ્ઞ કરીએ છીએ તે (અમે) ખરેખર અંધ( ભયંકર) તમ(પાપ) માં ડૂબી રહ્યા છીએ. (કેમકે) હિંસાનામની વસ્તુ ધર્મરૂપ બને એ સંભવ્યું નથી કે સંભવશે નહીં અહીં ઇત્યાદિથી “અગ્નિમનેઆહિંસાથી થયેલા પાપથી છોડાવે' ઇત્યાદિ વચનો પણ સાક્ષી તરીકે લઈ શકાય. ‘અગ્નિર્મા...ભેંચત' વાક્ય વૈદિક છે, તેમાં “મુંચત' પ્રયોગ છાંદસ છે, તેનો અર્થ “મોચય' છોડાવો એમ કરવો. u૮૯૪ एतेणं यजमाणा बुहे पडुच्चा ण लोगपुज्जत्ति । अबुहाणं पुण पुज्जा मंडलगाईवि किं तेहिं ? ॥८९५॥ (एतेन यजमाना बुधान् प्रतीत्य न लोकपूज्या इति । अबुधानां पुनः पूज्या मंडलकादयोऽपि किं तैः? ॥) . एतेन-अनन्तरोदितेन इदमप्यावेद्यते यथा-बुधान्-अवगतयथावस्थितवस्तुतत्त्वान्प्रतीत्य न यजमाना-यागं कुर्वाणा लोके पूज्याः। अथ बुधानाश्रित्य यजमाना मा भूवन् लोके पूज्या इतरानाश्रित्य भविष्यन्तीत्यत आह 'अबुहेत्यादि' अबुधानां * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -158 * * * * * * * * * * * * * * * Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ uulgl ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ આમ મ મ મ આ મક યાત્રા पूज्याः ‘मण्डलकादयोऽपि’मण्डलकः- श्वा, तदुक्तम्- " इंदमहकामुओ मंडलो य कविलो य भण्णए सुणओ” (छा. इन्द्रमहकामुको मण्डलश्च कपिलश्व भण्यते श्वा ।) इति, आदिशब्दान्मार्जारादिपरिग्रहः । तथाच केचिल्लोके वक्तारो भवन्ति - 'नैते श्वानः किंतु लोकानुग्रहकाम्यया कैलासभवनादागत्य गुह्यका इमे महीमण्डलमवतीर्णवन्तस्तत एतेषामवश्यं पूजा कर्त्तव्या', उक्तं च “कैलासभवणा एए आगया गुज्झका महीं । चरंति जक्खरूवेण पूयापूया हियाऽहिया ॥१॥” (छा. कैलासभवनादेते आगता गुह्यका मह्याम् । चरन्ति यक्षरूपेण पूजाऽपूजा हिताऽहिताः) इत्यादि । न चेत्थमबुधानां पूज्या अपि ते न कुत्सिताः, ततः किं तैरिहाबुधैः कार्यमिति कृतं प्रसङ्गेन ॥८९५॥ ગાથાર્થ:- આમ વેદહિંસા જ્ઞાનીઓથી નિંદાયેલી છે, એમ સિદ્ધ થવાથી એમ પણ નિશ્ચિત થાય છે કે સઘળા તત્ત્વના જાણકાર જ્ઞાનીપુરુષોની અપેક્ષાએ એવા યજ્ઞો કરનારા લોકોમા પૂજ્ય નથી. શંકા:- જ્ઞાનીપુરુષોને પૂજનીય ભલે ન હો, અજ્ઞાનીઓને તો પૂજનીય ખરા ને! સમાધાન:- એમ તો અજ્ઞાનીઓને મન તો કૂતરાદિ પણ પૂજનીય છે. ‘આદિ' પદથી (મડલક=શ્ર્વાન=કૂતરો. કહ્યું જ છે કે ઈદ્રમહકામુક, મંડલ, કપિલવગેરે શબ્દો શ્ર્વાનવાચી છે.) બિલાડાવગેરે પણ પૂજનીય છે. લોકમા કેટલાક એવું કહેતા ફરે છે આ કૂતરાઓ નથી, પરંતુ લોકોપ્રત્યે દયાની ઇચ્છાથી કૈલાશભવનથી આવીને આ બધા ગુહ્યક-યક્ષો પૃથ્વીપર અવતર્યા છે. તેથી તેઓની (-કૂતરાઓની)અવશ્ય પૂજા કરવી જોઇએ' કહ્યું જ છે કે ‘કૈલાશભવનથી પૃથ્વીપર આવેલા આ યક્ષો કૂતરાના રૂપે ચરે છે. તેમની પૂજા અને અપૂજા ક્રમશ: હિત અને અહિત કરનારી છે.' આમ આ કૂતરાઓ અજ્ઞોને પૂજય બને છે. પણ તેથી કંઇ તેઓ કુત્સિત નથી એમ નથી, અર્થાત્ કુત્સિત છે જ. તેથી અહીં અજ્ઞોની ચેષ્ટાથી સર્યું. અર્થાત્ મહત્ત્વભૂત નથી. ૫૮૯૫..... મૃષાવદોષભાષણના લાભ-પૂર્વપક્ષ तदेवं प्रथमं मूलगुणमाश्रित्याक्षेपपरिहारावभिधाय सांप्रतं द्वितीयं मूलगुणमाश्रित्य तावभिधातुकाम आह આમ પ્રથમમહાવ્રતઅંગે આક્ષેપ-પરિહાર થયા. હવે બીજા મૂળગુણ (=સત્યવ્રત) અંગે આક્ષેપ-પરિહાર દર્શાવતા કહે છે– अ उ मुसावाओ नियनिंदाकारणं न दोसाय । जह बंभघातगोऽहं एमादि पभासयन्तस्स ॥८९६॥ (अन्ये तु मृषावादो निजनिन्दाकारणं न दोषाय । यथा ब्रह्मघातकोऽहं एवमादि प्रभाषमाणस्य II) अन्ये वादिनः पुनराहुर्यो मृषावादो निजनिन्दाकारणं स न दोषाय भवति, यथा ब्रह्मघातको - ब्राह्मणघातकोऽहमित्येवमादि 1 प्रभाषमाणस्य ॥८९६ ॥ ગાથાર્થ:- બીજા કેટલાક કહે છે-પોતાની નિન્દામા કારણ બનતો મૃષાવાદ દોષમાટે નથી. જેમકે ‘હું બ્રાહ્મણનો ધાતક= ખુની છું' એવું મૃષાભાષણ કરનારને મૃષાવાદ દોષરૂપ નથી. ૫૮૯૬ા कथमेष निजनिन्दाकारणं स न दोषाय भवतीत्यत आह શંકા:- આ પોતાની નિંદાનુ કારણ બને તો મૃષાવાદ હોવા છતા દોષમાટે શામાટે ન બને? અહીં સમાધાનમાં કહે છે→ दोसाणमब्भुवगमे अक्कोसाणं च विसहणे सम्मं । होति जितोऽजितपुव्वो भवतस्हेतू अहंकारो ॥८९७॥ (दोषाणामभ्युपगमे आक्रोशानां च विसहने सम्यग् । भवति जितोऽजितपूर्वो भवतहेतुरहंकारः ॥) यतो दोषाणामविद्यमानानामप्यभ्युपगमे दोषांश्च ज्ञात्वा ये परैराक्रोशा वितीर्यन्ते यथा - " महापापीयान् एष ब्रह्मघातकः' इत्यादि तेषां च सम्यग्विषहने भवति जितोऽजितपूर्वो भवतस्हेतुरहंकारः ॥८९७॥ ગાથાર્થ:-અવિધમાન એવા પણ દોષો સ્વીકારવાથી તથા એ દ્વેષો જાણી બીજાઓએ કરેલા આક્રોશને સહવાથી સંસારવૃક્ષના મૂળકારણભૂત અને પૂર્વે કયારેય નહીં જિતાયેલ અહંકાર જિતાય છે. અહંકાર તૂટે છે. સહજ છે કે આપણે સ્વયં આપણી જાતને બ્રાહ્મણધાતકતરીકે ખુલ્લી કરીએ એટલે બીજાઓ તરફથી ‘આ બ્રાહ્મણધાતક મહાપાપી છે' ઇત્યાદિ જાતજાતના આક્રોશ સહેવાના આવે. તે બધા સમ્યગ (=કશા પ્રતિકાર વિના કે દુર્ભાવ વિના)સહન કરવાથી અહંકાર પરાભૂત થાય. ૫૮૯૭ના * * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ -159 * * Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ?attaxat ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ तथा - वणी, एवमिदमकातव्वं वेरग्गनिबंधणं च अन्नेसिं । जायइ सो इय सपस्वगारातो चेव कह दोसो ? ॥८९८॥ (एवमिदमकर्त्तव्यं वैराग्यनिबंधनं चान्येषाम् । जायते स इति स्वपरोपकारादेव कथं दोषः ?) एवं-यथाऽनेन कृतं तथा इदं-ब्रह्महत्यादिकमकर्त्तव्यं-न कार्यमित्येवमन्येषां च वैराग्यनिबन्धनं जायते स निजनिन्दाहेतुर्मूषावादकारी इति । तस्मात्स्वपरोपकारभावात्कथमित्थं मृषावादे दोष इति ? ||८९८ ॥ ગાથાર્થ:- “આને જેમ બ્રહ્મહત્યા કરી તેમ બ્રહ્મહત્યા કરવી જોઇએ નહીં'' એવા ભાવથી બીજાઓને પણ તે પોતાની નિંદા કરનાર મૃષાવાદી વૈરાગ્યનું કારણ બને છે. આમ આ અને પર એમ ઉભયથા ઉપકાર થતો હોવાથી આ મૃષાવાદમાં ખોટું શું છે? અર્થાત કશું નથી. u૮૯૮ મુલાસ્વદોષભાષણના નુકસાન-ઉત્તરપક્ષ अत्रोत्तरमाह - અહીં આચાર્યવ૨ એ બીજા કેટલાકોને જવાબ આપે છે – __ इय दोसाणब्भुवगमे अविज्जमाणाणमत्तदोसातो । __ अक्कोसे परबंधा इय अन्नाणा कहमदोसो ? ॥८९९॥ (इति दोषाणामभ्युपगमेऽविद्यमानानामात्मदोषात् । आक्रोशे परबन्धादिति अज्ञानात्कथमदोषः ?) इतिः-एवमुक्तेनप्रकारेणाज्ञानात्-मोहात्दोषाणामविद्यमानानामभ्युपगमे सत्यात्मदोषात्-असद्दूषणेनात्मदूषणात्आक्रोशे च परबन्धात्-परेषां तमाक्रोशतां तन्निमित्तबन्धभावात्कथमदोषो? दोष एवेति भावः, स्वपरयोरपकारकारित्वात् ॥८९९ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- આમ ઉપરોક્ત પ્રકારે અજ્ઞાન-મોહથી અવિદ્યમાનદોષોનો સ્વીકાર કરવામાં ખોટા દૂષણથી પોતાને દૂષિત કરવાથી, અને બીજા આક્રોશ કરે એટલે તેઓને પણ આક્રોશ કરવાથી કર્મબન્ધ થાય તેમાં નિમિત્ત બનવાથી પોતાને કર્મબન્ધ થવાનો જ. તેથી આ મૃષાવાદને નિર્દોષ શી રીતે કહી શકાય? અર્થાત દોષયુક્ત જ છે. કારણ કે સ્વ અને પર બન્નેપર અપકાર કરનાર બને છે. પ૮૯લા यदप्युक्तम् - आक्रोशानां सम्यग्विषहने भवतस्हेतुरहंकारोऽजितपूर्वो जितो भवतीति, तत्राह - બીજા કેટલાકોએ “આક્રોશને સહવાથી સંસારવૃક્ષના મૂળ કારણભૂત અને પૂર્વે કયારેય નહીં જિતાયેલ અહંકાર જિતાય છે.' એવું જે કહ્યું ત્યાં અમારે આ કહેવું છે. अक्कोसाण विसहणं जं सयमणुदीरणं करितस्स । उत्तरगुणचिंताए जायइ तं होइ सम्मं तु ॥९००॥ (आक्रोशानां विसहनं यत्स्वयमनुदीरणं कुर्वतः । उत्तरगुणचिन्तया जायते तद्भवति सम्यक् तु॥ आक्रोशानामपि सम्यक् सहनं तदेव भवति, तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, यत्स्वयमनुदीरणं कुर्वतः-आक्रोशभाषणं प्रति प्रोत्साहनमकुर्वत उत्तरगुणचिन्तया- 'कथं ममैवमुत्तरगुणस्पा क्षान्तिरेकान्तनिर्मला भवे' दित्यादिलक्षणया जायते नत्वन्यत् ॥९००॥ ગાથાર્થ:-(મૂળમાં ‘પદ જકારાર્થક છે અને ‘ત સાથે અન્વિત છે.) તે જ આક્રોશ બરાબર સહન કર્યા કહેવાય કે જે આક્રોશ પોતે હાથે કરીને ઊભા કરાવ્યા નહીં હેય. પોતે હાથે કરી બીજાને ચીડવે અને પછી એ ચીડાયેલાના ગુસ્સાના વચનને ઠંડે કલેજે સાંભળી લે, એ કંઈ સહનશીલતા નથી. પણ પોતે બીજાને આક્રોશના વચન કહેવા પ્રેરિત ન કરે તો પણ અજ્ઞાનાદિથી એ બીજી વ્યક્તિ આક્રોશવચન કહે, ત્યારે ‘આ સહન કરવાથી મારા ઉત્તરગુણરૂપ સમાદિભાવો કેમ એકાન્તનિર્મળ થાય? એ જ મારે તો જોવાનું' ઇત્યાદિરૂ૫ ઉત્તરગુણચિંતાથી જે સહન કરવાનું થાય તે જ સમ્યગ વિસહન છે, અન્ય નહીં. u૯૦ના यत आह - उम→ + + + + + + + + + + + + + + + + GP-RIN२ -160 * * * * * * * * * * * * * * * Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++ वारित्रद्वार + + + विसहामि अहं सम्मं अक्कोसे चिंति (यं ) उं उदीरयतो । अहिगतरो लक्खिज्जइ मोहसहावो अहंकारो ॥९०१ ॥ (विषहेऽहं सम्यगाक्रोशान् चिन्तयित्वा उदीरयतः । अधिकतरो लक्ष्यते मोहस्वभावोऽहंकारः II) विषहेऽहं सम्यक् आक्रोशानिति चिन्तयित्वा तानुदीरयतस्तस्याधिकतरो मोहस्वभावोऽहंकारो लक्ष्यते इति कथं सोऽजितपूर्वोजितो भवेत् ॥९०१ ॥ ગાથાર્થ:- ‘હું આક્રોશોને બરાબર સહન કરું' એમ વિચારીને આક્રોશોની ઉદીરણા કરાવનારને તો મોહ (=મૂઢતા)ના સ્વભાવવાળો (અથવા મોહના જ એક સ્વભાવભૂત) અહંકાર વધતો હોય, તેમ જ દેખાય છે. તેથી પૂર્વે નહીં જિતાયેલા તે અહંકારને કેવી રીતે જીત્યો ગણાય? પ્ર૦૧૫ अन्यच्च, वणी, एद्दहमेत्तेण इमं अवेइ ता आवदीएँ कायव्वं । सो चेव किं न जायइ इयबुद्धिनिबंधणंणेसिं ? ॥ ९०२ ॥ (एतावन्मात्रेण इदमपैति तस्मादापदि कर्तव्यम् । स एव किं न जायते इति बुद्धिनिबन्धनमन्येषाम् ॥) एतावन्मात्रेण - आक्रोशाधिसहनमात्रेण इदं - ब्रह्महत्यादिकं पापमपैति - विनश्यति 'ता' तस्मात् आपदि आयातायां सत्यामिदं ब्रह्महत्यादिपातकं कर्त्तव्यमाक्रोशाधिसहनमात्रेण तस्य पश्चात् स्फेटयिष्यमाणत्वादितिबुद्धिनिबन्धनमेवान्येषां स मृषाभाषी एवकारो भिन्नक्रमः स च तथैव योजितः किन्न जायते ? जायत एवेति भावः ॥ ९०२ ॥ ગાથાર્થ:- આક્રોશ સહન કરવામાત્રથી આ બ્રહ્મહત્યાદિ પાપ નાશ પામે છે. તેથી આપત્તિ આવે ત્યારે બ્રહ્મહત્યાદિ આવા પાપો કરી લેવા જોઇએ કેમકે પછી આક્રોશ સહન કરવામાત્રથી એ પાપો દૂર થઇ જશે' બીજાઓને આવી બુદ્ધિ થવામાં એ મૃષાવાદી જ કારણ કેમ ન બને? અર્થાત્ બને જ. (મૂળમાં એવ= જકાર મૃષાભાષીસાથે અન્વિત છે.) ૫૯૦ા अपिच - वणी, - सत्थे पडिसिद्धं चि कुणमाणं तह य पेच्छमाणस्स । तं चेव जायइ दढं वेरग्गनिबंधणं तस्स ॥ ९०३ ॥ (शास्त्रे प्रतिषिद्धमेव क्रियमाणं तथा च प्रेक्षमाणस्य । तदेव जायते दृढं वैराग्यनिबंधनं तस्य ॥) शास्त्रे प्रतिषिद्धमेव क्रियमाणं मृषाभाषणं तथैव च शास्त्रप्रतिषिद्धत्वेनैव च प्रेक्षमाणस्य सतस्तस्य तदेव - मृषाभाषणं दृढम्-अत्यर्थं जायते वैराग्यनिबन्धनं, यथा- ' हा धिगहं यदिदं शास्त्रप्रतिषिद्धं मृषाभाषणं करोमीति' ॥९०३॥ ગાથાર્થ:- જે વ્યક્તિ શાસ્ત્રમાં પ્રતિષેધ જ કરાયેલા મૃષાભાષણને શાસ્ત્રપ્રતિષિદ્ધરૂપે જ જૂએ, તો જ તેને તે મૃષાભાષણ વૈરાગ્યનુ દૃઢ કારણ બને કે અરેરે! ધિક્કાર છે, મને કે હું શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ મૃષાભાષણ કરી રહ્યો છું' (અને પોતાને આસત્યવાદીરૂપ રહેલા દોષથી ઘેરાયેલો જોઇ પોતાની સર્વગુણસંપન્નતા આદિની ભ્રાન્તિથી થતો અહંકાર પણ તૂટે. એ જ પ્રમાણે બીજો પણ શાસ્ત્રપ્રતિષિદ્ધભૂષાભાષણ દોષરૂપ જાણી તેનાથી વિરક્ત થાય છે. બ્રહ્મહત્યાદિ સંબધી ખોટુ બોલવાથી કોઇને વૈરાગ્ય થતો નથી.) ૫૯૩ા उपसंहारमाह હવે ઉપસાર કરતા કહે છે इय अच्छंतमसिद्धो सपस्वगारो बुहेहिं नायव्वो । नियनिंदा ऊ चिय दोसाय तओ मुसावातो ॥९०४॥ (इति अत्यन्तमसिद्धः स्वपरोपकारो बुधै र्ज्ञातव्यः । निजनिन्दाहेतुरेव दोषाय सको मृषावादः ॥ ) इतिः - एवमुपदर्शितेन प्रकारेणात्यन्तमसिद्धः स्वपरोपकारो बुधैर्ज्ञातव्यः तथा च सति 'तओत्ति' सको मृषावादो निजनिन्दाहेतुरपि दोषायैव द्रष्टव्यः । तदेवं सर्वथा मृषावादो दोषनिबन्धनमिति प्रतिपादितम् ॥ ९०४ ॥ ગાથાર્થ:- આમ મૃષાવાદથી સ્વપરોપકાર અત્યન્ત અસિદ્ધ થાય છે એમ સમજી પ્રાજ્ઞોએ પોતાની નિન્દામાટે કરાતો પણ મૃષાવાદ દોષમાટે જ બને છે' તેમ સમજવું. આમ મૃષાવાદ સર્વથા દોષનું કારણ છે તેમ પ્રતિપાદન થયું. u૯૦૪૫ + + धर्मसंशि-लाग २ -161+ + + + Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + RaR + + + + + + + + + + + + + + + + ++ એકાન સુખ-દુ:ખચતુર્ભગી અષાવાદરૂપ सांप्रतमास्तां यल्लोके सुप्रसिद्धमलीकभाषणं तन्मृषावादः किंतु यदपि तीर्थान्तरीयैरेकान्तवादाश्रयणेनोच्यते यदपि च स्वरूपेण सत्यमपि सत्प्राणिनां पीडाहेतस्तदपि मृषावाद इत्येतद्दर्शयन्नाह - લોકમાં જે અસત્યભાષણતરીકે સુપ્રસિદ્ધ છે તે તો મૂષવાદ છે જ હવે એ વાત બાજુપર રાખી અન્ય તીર્થિકોએ એકાન્તવાદનો આશ્રય કરી જે કથન કર્યું છે તે, અને જે સ્વરૂપથી સત્ય હેવા છતાં જીવોને પીડારૂપ બને છે, પણ મૃષાવાદ છે એમ દર્શાવતા एगतेणेव इमं एवं एवं च एवमादीति । वत्थुस्स तहाऽभावा पीडाहेऊ य अलियं तु ॥९०५॥ (एकान्तेनैवेदमेवमेवं च एवमादि इति । वस्तुनः तथाऽभावात् पीडाहेतुश्चालीकं तु ) एकान्तेनैव इदं-सुखादिकं क्रियमाणं एवं-तत्कर्तुः सुखादिहेतुरेवं वा-दुःखादिहेतुरित्येवमादिवस्तुनः-सुखादेस्तथा-एकान्तसुखहेतुत्वादिरूपेणाभावादलीकमेव द्रष्टव्यम्, तुरेवकारार्थः, 'पीडाहेऊ यत्ति' चः समुच्चये यदपि स्वरूपेण सत्यमपि सत् प्राणिनां पीडाहेतुर्भवति तदप्यलीकमेव द्रष्टव्यमिति ॥९०५॥ ગાથાર્થ:- આ કરાતા સુખાદિ તે સુખાદિના કર્તાને એકાત્તે સુખાદિરૂપ જ બને અથવા દુ:ખાદિના હેતુ જ બને ઇત્યાદિ વચનો સખાદિ વસ્તુઓનું એકાન્ત સુખહેતઆદિરૂપ સ્વરૂપ ન હોવાથી અસત્ય જ સમજવા. (મૂળમાં “ત' જકારાર્થક છે અને “ચ' સમુચ્ચય અર્થક છે) તથા જે સ્વરૂપથી સત્ય હોવા છતાં જીવોને પીડાનું કારણ બને તે વચન પણ અસત્ય જ સમજવા. u૯૦પા एतदेव स्पष्टतरमुदाहरणेनोपदर्शयति - આ જ વાત ઉદાહરણથી વધુ સ્પષ્ટરૂપે દર્શાવે છે जह जो सुहं करेई एगतेणेव बंधइ सुहं सो । सपरोभयतब्भावेण परिस्थिभोगेण वहिचारो ॥९०६॥ (यथा यः सुखं करोति एकान्तेनैव बध्नाति सुखम् सः। स्वपरोभयतद्भावेन परस्त्रीभोगेन व्यभिचारः ॥ यथेत्युदाहरणोपदर्शने । यः परेषां सुखं करोति स एकान्तेनैव बध्नाति सुख-सुखनिमित्तं कर्मेत्येतद्वचोऽलीकं, तथान्यदप्येवंजातीयकं द्रष्टव्यम् । कथं पुनरिदमलीकमिति चेत् आह-'स परो इत्यादि' परस्त्रीभोगेन यः स्वपरलक्षणस्योभयस्य तद्भावः- सुखभावस्तेन व्यभिचारात्, परस्त्रियं हि भुञ्जानः स्वपरयोर्मदनहुतवहजनितसंतापहारितया सुखहेतुर्भवति, न चासौ सुखनिमित्तं कर्म बध्नाति, तस्य भवान्तरे नरकादिकुगतिविनिपातभावात्तथैव प्रवचने श्रवणादिति ॥ ९०६॥ ગાથાર્થ:- (યથા પદ ઉદાહરણ દર્શાવવા છે.) જે બીજાને સુખ ઉપજાવે તે એકાન્ત સુખ જ બાંધ–સુખમાં કારણભૂત કર્મ જ બાંધે એ વચન અને એના જેવા બીજા વચનો અસત્ય સમજવા. આ વચનો કેમ અસત્ય છે? તે બતાવે છે– “સપરો’ ઇત્યાદિ..પરસ્ત્રીભોગથી જે સ્વ-પરને સુખ થાય છે તેની સાથે અનેકાન્તિકતા છે. પરસ્ત્રીને ભોગવનાર પરના કામાગ્નિ જનિત સંતાપને દૂર કરતો હોવાથી સુખમાં નિમિત્ત બને છે. પણ તેથી કંઈ તે સુખમાં કારણભૂત કર્મ બાંધતો નથી. કારણ કે તેને ભવાંતરમાં નરકાદિકુગતિમાં પતન સંભવે છે. આ જ પ્રમાણે આગમમાં સંભળાય છે. ૯૦૬ાા तथा - पणी, दुक्खकरो चिय एवं नेगंतेणेव बंधई असुहं । जं लोयादि करेंतो सपरोभयदुक्खहेऊ वि ॥९०७॥ (दुःखकर एव एवं नैकान्तेनैव बध्नाति असुखम् । यथा लोचादि कुर्वन्स्वपरोभयदुःखहेतुरपि ॥) यथा सुखकरो नैकान्तेन सुखं बध्नाति एवं दुःखकरोऽपि नैकान्तेनैवासुखम्-असुखनिमित्तं कर्म बजाति, किंतु कश्चित् सुखनिमित्तमपि, यथा लोचादि कुर्वन् स्वपरोभयदुःखहेतुरपि, स हि तथा लोचादि कुर्वन् परमदिव्यभोगादिनिमित्तमेव कर्म बनाति ॥ ९०७॥ ++++ +++++ +++++++ सं Eि -M २ -162++++ ++ + + + + + + + + + Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ यारित्रद्वार + + + ગાથાર્થ:- જેમ સુખ કરવાવાળો એકાન્તે સુખ બાંધતો નથી, એમ દુ:ખ કરવાવાળો પણ એકાન્તે દુ:ખનિમિત્તક કર્મ બાંધતો નથી, પરંતુ કોક સુખનિમિત્તક કર્મ પણ બાંધે છે. જેમકે લોચ કરનાર સ્વ-૫રને દુ:ખ-પીડામા કારણ બને છે. છતા પણ તે લોચઆદિ કરીને શ્રેષ્ઠ દેવતાઇસુખનિમિત્તક કર્મ જ બાંધે છે. u૯૦ા यदप्युच्यते सुखमेकान्तेन दुःखहेतुर्दुःखं वा सुखहेतुरिति तदप्यलीकमेवेत्येतद्दर्शयति એવુ પણ જે કથન છે કે ‘સુખ એકાન્ત દુ:ખહેતુ છે અને દુ:ખ એકાન્તે સુખહેતુ છે' તે પણ અસત્ય જ છે તેમ દર્શાવતા दुखे छे→ न य सुहमसुहस्सेव उ निबंधणं जं जतीण पसमसुहं । निव्वाणसुहनिमित्तं भणियं तेलोक्कदंसीहिं ॥ ९०८ ॥ (न च सुखमसुखस्यैव तु निबन्धनं यद् यतीनां प्रशमसुखम् । निर्वाणसुखनिमित्तं भणितं त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥ ) न च सुखमसुखस्यैव तुः पूरणे निबन्धनं कारणं यत् - यस्मात् यतीनां - साधूनां प्रशमसुखं निर्वाणसुखनिमित्तं भणितं त्रैलोक्यदर्शिभिरिति ॥ ९०८ ॥ ગાથાર્થ:- (‘તુ' પૂરણાર્થક છે.) સુખ એકાન્તે દુ:ખનું જ કારણ બને નહીં, કેમકે સાધુઓનુ પ્રશમસુખ નિર્વાણસુખનું કારણ બને છે એમ ત્રૈલોકચદર્શી ભગવાને કહ્યુ છે. u૯૦૮૫ दुक्खपि न सोक्खस्सेव कारणं जमिह तेणयादीणं । चित्ता कदत्थणा खलु नारगदुक्खस्स हेउत्ति ॥ ९०९ ॥ (दुःखमपि न सौख्यस्यैव कारणं यदिह स्तेनकादीनाम् । चित्रा कदर्थना खलु नारकदुःखस्य हेतुरिति ॥ दुःखमपि च नैकान्तेन सौख्यस्यैव कारणं किंतु किंचित् दुःखस्यापि, तथा चाह - यत् - यस्मादिह-जगति स्तेनकादीनां चित्रा कदर्थना दुःखरूपा खलु नारकदुःखस्य हेतुर्भवतीति ॥ ९०९ ॥ ગાથાર્થ:- દુ:ખ પણ એકાન્તે સુખનુ કારણ નથી, પર ંતુ કેટલુંક દુ:ખ દુ:ખનું પણ કારણ બને છે. જેમકે આ જગતમાં ચોરવગેરેને વિચિત્ર કર્થના દુ:ખરૂપ હોય છે. અને તે નારકદુ:ખના કારણ બને છે. ૫૯૦ા એકાન્તે આત્મભાવાભાવવાદ ખોટો इय अतिथ चेव आया अहवा नत्थित्ति दोवि एगंता । एगंतेणं भावाऽभावपसंगाओं अलियं तु ॥ ९१०॥ (इत्यस्ति एवात्मा अथवा नास्तीति द्वावपि एकान्तौ । एकान्तेन भावाभावप्रसङ्गाद् अलीकं तु ॥) इतिः - एवमुक्तेम प्रकारेणास्त्येवात्माऽथवा नास्त्येवेति यौ द्वावेकान्तौ तावप्यलीकमेव । तुरेवकारार्थः । कुत इत्याहएकान्तेन भावाभावप्रसङ्गात्, अस्त्येवेत्युक्ते हि सति परस्पेणापि भावप्रसङ्गः, नास्त्येवेत्युक्ते च स्वरूपेणाप्यभावप्रसङ्ग इति ॥९१० ॥ ગાથાર્થ:- આમ કહ્યું તે પ્રમાણે આત્મા છે જ' અથવા આત્મા નથી જ' એવા જે બે એકાન્ત છે, તે પણ અસત્ય જ છે. (‘તુ’ જકારાર્થક છે.) કારણ કે એકાન્તે ભાવ અથવા એકાન્તે અભાવનો પ્રસંગ છે. આત્માનું એકાન્તે અસ્તિત્વ કહેવામાં પર(=જડઆદિ) રૂપે પણ આત્માનો ભાવ માનવાનો પ્રસંગ આવે. એ જ પ્રમાણે આત્મા નથી જ' એમ કહેવામા આત્માનો સ્વરૂપે પણ અભાવનો પ્રસંગ આવે. ૫૯૧મા एतदेव भाव આ જ અર્થનું ભાવન કરે છે– एतेऽत्थित्ते अन्नोऽन्नाभावविरहतो तस्स । पर स्वेणवि भावो तेसि सख्वं व तदभावो ॥९११॥ ( एकान्तेनास्तित्वे अन्योन्याभावविरहतस्तस्य । पररूपेणापि भावस्तेषां स्वरूपमिव तदभावः ॥ ) एकान्तेनास्तित्वे सति अन्योऽन्याभावविरहतः- इतरेतराभावाभावतस्तस्य- आत्मनः पररूपेणापि भावः प्राप्नोति, ततश्च तेषां परेषां स्वरूपमिव विवक्षितमपि रूपं तदभावः - आत्माभावः स्यात् यथा परेषां स्वरूपमात्मा न भवति तद्विलक्षणत्वात् तथा विवक्षितमपि रूपं पररूपं (प) सांकर्यादात्मा न भवेदितियावत् ॥९११॥ +++++++ + + धर्मसंग लाग २ - 163+ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + AIRat२ + + + + + + + + + + + + + + + + + ગાથાર્થ:- આત્માનું એકાન્ત અસ્તિત્વ સ્વીકારવામાં આત્મપ્રતિયોગિક ( આત્માને અધિકૃત કરી)અન્યોન્યાભાવનો અભાવ આવશે. અર્થાત પરરૂપે પણ આત્માનો ભાવ(=અસ્તિત્વ) આવશે. તેથી તેઓના પરના) સ્વરૂપની જેમ વિવક્ષિત આત્મસ્વરૂપ પણ આત્માભાવરૂપે જ થશે. અર્થાત જેમ પરનું સ્વરૂપ આત્માથી વિલક્ષણ હોવાથી આત્મરૂપ નથી, તેમ આત્માનું વિવક્ષિત સ્વરૂપે પણ પરરૂપના સાંકર્મ (મિશ્રણ) થી આત્મા નહીં બને. ૯૧૧ नत्थित्ते चिय एवं चित्तादीणं अभावतो नियमा । आलोयणादभावे ण सिया पडिसेहगोवि धणी ॥९१२॥ (नास्तित्वे एव एवं चित्तादीनामभावान्नियमात् । आलोचनाद्यभावे न स्यात्प्रतिषेधकोऽपि ध्वनिः ॥ नास्तित्वेऽपि चैवमेकान्तेनाभ्युपगम्यमाने स्वरूपेणाप्यभावप्रसङ्गात् आत्माभावो द्रष्टव्यः, ततश्च तदभावे तद्धर्माणां चित्तादीनामप्यभावतो नियमादालोचनाद्यभावे सति न स्यात्प्रतिषेधकोऽपि ध्वनिः, तथा च सति स्ववचनविरोधः, तस्मान्नास्तित्ववचनसामर्थ्यादेव नैकान्तेनैवात्मनो नास्तित्वं किंतु पररूपापेक्षयैव ॥९१२॥ ગાથાર્થ:- આ જ પ્રમાણે આત્માનું એકાત્તે નાસ્તિત્વરૂપ સ્વીકારવામાં આત્માનો સ્વરૂપે પણ અભાવ થતો હેવાથી આત્માભાવનો પ્રસંગ આવે. અને આત્માના અભાવમાં આત્માના ચિત્તવગેરે ધર્મોનો પણ અભાવ આવે. આ ચિત્તાદિના અભાવમાં આલોચના (વિચારણા) આદિનો અભાવ આવે. અને તો આત્માના પ્રતિષેધક ધ્વનિનો પણ અભાવ આવવાથી સ્વવચન સાથે જ વિરોધ આવે. (કેમકે નાસ્તિત્વ સાધક વચન બોલાય છે અને તેનો અભાવ સિદ્ધ કરાય છે.)તેથી નાસ્તિત્વવચનના બળે જ આલોચનાદિ સિદ્ધ થવાથી ગુણ હોય તો ગુણી હોય ન્યાયથી સ્વરૂપે આત્મા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણે એકાને આત્માનું નાસ્તિત્વ ખંડિત થવાથી માત્ર પરરૂપે જ આત્માનું નાસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. ૧રા तथा चाह - तथा ४ छ→ ता अत्थि सख्वेणं परस्वेणं तु नत्थि सिय बुद्धी । जमिह सस्वत्थित्तं तं चिय परस्वणत्थित्तं ॥९१३॥ (तस्मादस्ति स्वरूपेण पररूपेण तु नास्ति, स्याद् बुद्धिः । यदिह स्वरूपास्तित्वं तदेव पररूपनास्तित्वम् ॥ यत एवमुभयथाप्येकान्तपक्षे दोषस्ता-तस्मादस्ति आत्मा स्वरूपेण पररूपेण नास्तीति प्रतिपत्तव्यम् । अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह-"सिय' इत्यादि, स्यादियं बुद्धिः परस्य, यदेवेह भावानां स्वरूपास्तित्वं तदेव पररूपनास्तित्वं न तु ततोऽतिरिक्तं किंचिद्धान्तरमिति नोभयकल्पना श्रेयसी ॥९१३॥ ગાથાર્થ:- આમ એકાત્તાપક્ષમાં ઉભયથા (અસ્તિત્વ-નાસ્તિત્વ બનેરૂ૫) દોષ રહેલા છે. તેથી “આત્મા સ્વરૂપે છે, અને પરરૂપે નથી' એમ સ્વીકારવું જ રહ્યું. અહીં પરમતની આશંકા કરે છે- કે પૂર્વપક્ષને એવી બુદ્ધિ થાય કે પૂર્વપક્ષ:- વસ્તુઓનું અહીં જે સ્વરૂપઅસ્તિત્વ છે, તે જ તેનું પરરૂપનાસ્તિત્વ છે; નહીં કે સ્વરૂપાસ્તિત્વથી ભિન્ન કોઇક અન્યધર્મરૂપ. તેથી સ્વરૂપઅસ્તિત્વ અને પરરૂપનાસ્તિત્વ એમ બે કલ્પના કરવી સારી નથી. u૯૧૩ अत्राह - અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે तत्तो य तस्सऽभेदे तेणं रहितं तयं तओ नियमा । पावइ परस्वपि ह तम्मी तत्तो य तदभावो ॥९१४॥ (ततश्च तस्याभेदे तेन रहितं तत्ततो नियमात् । प्राप्नोति पररूपमपि हु तस्मिन् ततश्च तदभावः ॥) यदि स्वरूपास्तित्वमेव पररूपनास्तित्वमभ्युपगम्यते तर्हि तयोरभेदोऽभ्युपगतः स्यात्, तथा च सति ततःस्वरूपसत्त्वात्तस्य-पररूपनास्तित्वस्याभेदे सति तेन-पररूपनास्तित्वेन रहितं तत्-स्वरूपसत्त्वं, ततश्च नियमाद्-अवश्यंत या तस्मिन्- स्वरूपसत्वे पररूपमपि प्राप्नोति, तथाहि-यदि स्वरूपसत्त्वादव्यतिरिक्त पररूपनास्तित्वं ततस्तदव्यतिरिक्तत्वात्स्वरूपवत् पररूपनास्तित्वं स्वरूपसत्त्वमेव जातं ततः पररूपनास्तित्वाभावस्तथा च सति बलात्तत्र पररूपास्तित्वं +++++++++++++++k ale-12-164+++++++++++++++ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિદ્ઘાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * प्रसज्यते, विधिप्रतिषेधयोरे कतरप्रतिषेधस्यापरविधिनान्तरीयकत्वात्, ततश्च परस्पेणाप्यस्तित्वप्रसङ्गात्तदभावःस्वरूपसत्त्वाभावः प्राप्नोति ॥९१४ ।। ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જો સ્વરૂપ અસ્તિત્વને જ પરરૂપનાસ્તિત્વતરીકે સ્વીકારશો, તો તે બેવચ્ચે અભેદ સ્વીકૃત થશે. અને તો સ્વરૂપે સત્વથી પરરૂપનાસ્તિત્વનો અભેદ હોવાથી સ્વરૂપસન્દ પરરૂપનાસ્તિત્વથી રહિત થવાથી અવશ્યતયા સ્વરૂપસવમાં પરરૂપ હોવાની આપત્તિ આવશે. તથાતિ- જો પરરૂપનાસ્તિત્વ સ્વરૂપસત્વથી અભિન્ન હોય, તો સ્વરૂપ સત્વથી અભિન્ન હોવાથી સ્વરૂપસર્વાના સ્વરૂપની જેમ પરરૂપનાસ્તિત્વ પણ સ્વરૂપ સત્વરૂપ જ બની જશે... અને તો પરરૂપનાસ્તિત્વનો અભાવ આવશે. અને તો બળાત્કારે પણ ત્યાં પ૨રૂપઅસ્તિત્વનો પ્રસંગ ઊભો થશે. કેમકે વિધિ અને પ્રતિષેધમાં એકના નિષેધમાં બીજાની હાજરી અવશ્ય હોય જ. આમ ૫૨રૂપે પણ અસ્તિત્વનો પ્રસંગ આવે. તેથી સ્વરૂપ સત્વનો અભાવ પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૪ भण्णइ अत्थित्तं चिय नत्थित्तं णणु विरुद्धमेयंति । - परिकप्पियं अह तयं इय इतरं सव्वस्वं तु ॥९१५॥ (भण्यतेऽस्तित्वमेव नास्तित्वं ननु विरुद्धमेतदिति । परिकल्पितमथ तदिति इतरत् सर्वरूपं तु ) . स्यादेतत्न यदेव स्वरूपास्तित्वं-पररूपासत्त्वं ततो यथोक्तदोषानवकाश इत्यत्राह-'ननु विरुद्धमेयंतित्ति' नन्वेतत्अस्तित्वमेव नास्तित्वमिति विरुद्धं, तथाहि-येनैव रूपेणास्तित्वं कथं तेनैव रूपेण नास्तित्वमिति विरोधः । अत्र पराभिप्रायमाह - 'परीत्यादि' अथोच्येत तत्-पररूपनास्तित्वं तत्र परिकल्पितं ततः पररूपेणायमात्मा नास्तीति व्यवहारस्य सिद्धत्वाददोषः । अत्राह-'इय इत्यादि' इतिः- एवं सति इतरत्-स्वरूपसत्त्वं सर्वरूपमेव-सर्वरूपानुसृष्टमेव प्राप्नोति, तुरेवकारार्थः, तथाहि-पररूपनास्तित्वं तत्र परिकल्पितं, परिकल्पितं च परमार्थतोऽसतु, ततश्च पररूपनास्तित्वाभावे पररूपास्तित्वं प्रसज्यते, यथोक्तं प्राक् ॥९१५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- અમે એમ નથી કહેતા કે જે સ્વરૂપાસ્તિત્વ છે તે જ પરરૂપનાસ્તિત્વ હોવાથી અસ્તિત્વ-નાસ્તિત્વ વચ્ચે અભેદ છે. પરંતુ અમે એમ કહીએ છીએ કે “અસ્તિત્વ સ્વરૂપસત્તા જ નાસ્તિત્વ=પરરૂપઅસત્ત્વરૂપ છે. તેથી પૂર્વોક્ત દોષને સ્થાન નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ અસ્તિત્વ એ જ નાસ્તિત્વ હોય તેમાં વિરોધ છે. કેમકે જે રૂપે અસ્તિત્વ હોય, તે જ રૂપે નાસ્તિત્વ શી રીતે હોઈ શકે? તેથી વિરોધ આવે છે. અહીં પૂર્વપક્ષનો અભિપ્રાય આ છે – - પૂર્વપક્ષ:- અહીં જે પરરૂપનાસ્તિત્વની કલ્પના કરવામાં આવે છે. તેથી “પરરૂપે આ આત્મા નથી તેવો વ્યવહાર સિદ્ધ થાય છે. તેથી કોઇ દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ જો હોય, તો સર્વરૂપને સ્પર્શીને સ્વરૂપસત્વ સ્વીકારવું પડશે. (‘ત' જકારાર્થક છે.) રો ય ઘણાગીઅહીં પરરૂપનાસ્તિત્વ પરિકલ્પિત છે. અને પરિકલ્પિત લેવાથી જ પરમાર્થથી અસત છે. આમ જગતમાં સર્વત્ર પરરૂપનાસ્તિત્વનો અભાવ થવાથી બધે જ પરરૂપઅસ્તિત્વનો પ્રસંગ છે, કે જે પૂર્વે બતાવ્યું જ છે. પ૯૧પા અનેકાન જ તત્વરૂપ उपसंहरति - ઉપસંહાર કરે છે तस्सेव धम्मस्वे नियपरस्वेहिं अत्थिणत्थित्ते । भिन्नपवित्तिनिमित्ते तम्हा तत्तं अणेगंतो ॥९१६॥ (तस्यैव धर्मरूपे निजपररूपाभ्यामस्तिनास्तित्वे । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ते तस्मात् तत्त्वमनेकान्तः ॥) यत एवमेकान्ताभ्युपगमे दोषस्तस्मात्तस्यैवात्मादेर्धर्मरूपे-निजपररूपाभ्यामस्तित्वनास्तित्वे भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तेस्वपररूपभावाभावपरिणतिनिबन्धनस्वभावभेदलक्षणभिन्न प्रवृत्तिनिमित्ते प्रतिपत्तव्ये । तथा च सति तत्त्वमनेकान्त एव न तु પપરન્વિત પ્રાન્ત ત I૧૨૬ // ગાથાર્થ:- આમ એકાન્તના સ્વીકારમાં દોષ છે. તેથી ક્રમશ: સ્વરૂપનો ભાવ અને પરરૂપનો અભાવ આ બે પરિણતિમાં * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -165 * * * * * * * * * * * * * * * Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મ મ મ મ મ મ મ +4 *** ચારિત્રદ્વ્રાર કારણભૂત સ્વભાવભેદરૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત ભિન્ન હોવાથી સ્વરૂપે અસ્તિત્વ અને પરરૂપે નાસ્તિત્વ આ બન્ને આત્માવગેરે તત્ત્વોના જ ધર્મો તરીકે સ્વીકરણીય છે. આમ હોવાથી અનેકાન્ત જ તત્ત્વભૂત છે, નહીં કે બીજાઓએ કલ્પેલો એકાન્ત. ૫૯૧૬ા अत्रापर आह — અહીં બીજી વ્યક્તિ કહે છે → नत्थि च्चिय खरसंगं एगंतो (ते न ) तन्नो बुद्धिधणिभावा । अहवा पररूवेणं नत्थि सस्वेण अथिति ॥९१७॥ (नास्त्येव खरशृंगमेकान्तस्तन्न बुद्धिध्वनिभावात् । अथवा पररूपेण नास्ति स्वरूपेणास्तीति ॥) नास्त्येव खरशृङ्गं न हि तकत् कथंचिदस्तीति वक्तुं पार्यते, तस्य सर्वथा तुच्छरूपत्वादतोऽस्ति तत्त्वमेकान्तोपीतिः । अत्राह - 'नेत्यादि' यदेतदुक्तं तन्नेति प्रतिषेधयति । कुत इत्याह- तत्रापि बुद्धिध्वनिभावात्, तदभावोऽपि हि ज्ञायते शब्देन वोच्यते न चैकान्त (तुच्छ) रूपे बुद्धिध्वनी प्रवर्त्तेते । तस्मात्खरस्य शिरसि शृङ्गसंबन्धरहितत्वलक्षणः परिणतिविशेष एव खरशृङ्गाभावः, स च परिणतिविशेषो वस्तुस्वभावस्तत्कथमेष खरशृङ्गाभा - (वोऽभा) व एवोच्यते ? स्वरूपेणास्तित्वस्यापि भावादिति । प्रकारान्तरेणामुमेकान्तं विघटयन्नाह - ' अहवेत्यादि' भवत्वेकान्तेन तुच्छरूपं खरशृङ्गं यथा परैः कल्प्यते तथापि न तदेकान्तेन नास्त्येव, यतस्तदपि पररूपेण नास्ति स्वरूपेण पुनरस्त्येव ॥९१७॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- ગધેડાના શિંગડા નથી જ. કોઇ એમ ન કહી શકે કે એ (=ગધેડાના શિંગડા) કથંચિત છે, કેમકે તેનો (ગધેડાના શિંગડાનો) સર્વથા અભાવ છે. તેથી એકાન્ત પણ તત્ત્વરૂપ છે. ઉત્તરપક્ષ:- તમે જે કહ્યુ તે બરાબર નથી. કેમકે તે (ગધેડાના શિંગડા) અંગે પણ બુદ્ધિ અને શબ્દપ્રયોગ તો છે જ. વળી ગધેડાના શિંગડાનો અભાવ જ્ઞાત થાય છે, અને શબ્દથી ઉલ્લેખ પામે છે. (આમ જ્ઞાન-શબ્દના વિષયરૂપે પ્રતિભાસ પામતા તે અભાવના પ્રતિયોગીરૂપે ગધેડાના શિંગડા ભાસે છે.) જો તે એકાન્તતુચ્છરૂપ હોય તો બુદ્ધિ કે શબ્દનો પણ વિષય બની શકે નહિ. તેથી ગધેડાના માથાપર શિંગડાના સંબંધના અભાવરૂપ જે પરિણતિવિશેષ છે, એ જ ગધેડાના શિંગડાના અભાવ રૂપ છે. અને આ પરિણતિવિશેષ વસ્તુસ્વભાવરૂપ છે. તેથી ગધેડાના શિંગડાનો એકાન્તે અભાવ શી રીતે કહી શકાય? કેમકે સ્વરૂપથી તો તેનુ અસ્તિત્વ પણ રહેલું છે. (ખરશુગરૂપે અભાવ છે પણ ખર' અને ‘શૃંગ’રૂપ સ્વ-સ્વરૂપથી તો બન્નેનુ અસ્તિત્ત્વ છે જ.) હવે બીજી રીતે આ એક એકાન્તનું ખંડન કરતા કહે છે. ભલે બીજાઓની ૫ના મુજબ ખરશૃંગ એકાન્તે તુચ્છરૂપ હોય છતા પણ તે એકાન્તે નાસ્તિત્વરૂપ તો નથી જ. કેમકે તે પણ પરરૂપે જ નથી, સ્વરૂપે તો છે જ. ૫૯૧૭ગા ननु यदि तदपि स्वरूपेणास्तीत्युच्यते ततो घटादिवत्तस्यापि भावः प्राप्नोति इत्यत आह શંકા:- જો ખરશૃંગ પણ સ્વરૂપથી છે' એમ કહેશો તો ધડાવગેરેની જેમ તેનો(ખરશૃંગનો) પણ ભાવ(=અસ્તિત્વ)પ્રાપ્ત થશે. અહીં સમાધાનમાં કહે છે - नत्थित्तत्थित्तेणं तदभावे तस्स पावती भावो । नत्थित्तत्थित्तं पुण विन्नेयमभावभावो उ ॥ ९९८ ॥ (नास्तित्वास्तित्वेन तदभावे तस्य प्राप्नोति भावः । नास्तित्वास्तित्वं पुनर्विज्ञेयमभावभावस्तु ॥) नास्तित्वास्तित्वलक्षणेन स्वरूपेण तदस्तीत्युच्यते न पुनर्घटादिवद्भावरूपेण ततो न पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः । इत्थं - चैतदङ्गीकर्त्तव्यम्, अन्यथा तदभावे - नास्तित्वरूपास्तित्वाभावे सति तस्य - खरशृङ्गस्य भावः प्राप्नोति, नास्तित्वाभावे हि बलादस्तित्वमेवापद्यते इति भावः । नास्तित्वास्तित्वं पुनर्विज्ञेयम् 'अभावभावो उत्ति अभावरूपतया यो भावः स एव । વધારાર્થ: ||૧૮ ॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:– અમે જે ખરીઁગાદિનુ અસ્તિત્વ બતાવ્યું, તે નાસ્તિત્વ-અસ્તિત્વરૂપસ્વરૂપને નજરમાં રાખી કહ્યુ છે, નહિ કે ઘડાવગેરેની જેમ ભાવરૂપને આગળ કરી. તેથી પૂર્વોક્ત દોષનો પ્રસંગ નથી. આ પ્રમાણે જ આ વાત સ્વીકારવી જોઇએ, કેમકે જો નાસ્તિત્વ-અસ્તિત્વ (નાસ્તિત્વરૂપે અસ્તિત્વ) નો અભાવ હોય, તો ગધેડાના શિંગડાનો ભાવ પ્રાપ્ત થશે, કેમક નાસ્તિત્વરૂપે અસ્તિત્વ ન હોય તેનો અર્થ એ થાય કે નાસ્તિત્વરૂપે નાસ્તિ=અભાવ આવ્યો. અને તો અનિચ્છાએ પણ અસ્તિત્વની આપત્તિ આવશે. અહીં ‘નાસ્તિત્વાસ્તિત્વ' નો અર્થ છે અભાવરૂપે ભાવ. (મૂળમાં ‘તુ’પદ જકારાર્થક છે.) ૫૯૧૮૫ * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -166* * * Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** ********* शारित्रधार * ** * * * * * * ** * * * * * સમ્યકત્વાદિમાં પણ અનેકાન पुनरपि परः प्रकारान्तरेण एकान्तमुपदर्शयति - અહીં પૂર્વપક્ષકાર ફરીથી બીજી રીતે એકાન્ત દર્શાવે છે.... सम्मत्तनाणचरणा मोक्खपहो चेव एत्थ एगंतो । ___णो णामादिसख्वा जओ तओ इहवि नत्थित्ति ॥९१९॥ (सम्यक्त्वज्ञानचरणानि मोक्षपथ एवात्र एकान्तः । न नामादिस्वरूपाणि यतस्तत इहापि नास्तीति ) ननु सम्यक्त्वज्ञानचरणानि मोक्षपथ एवेत्यत्रैकान्तो विद्यते, अन्यथा तेष्वपि मोक्षपथत्वेनानाश्वासप्रसङ्गान्न कश्चित्तत्र प्रवत्तेत, ततश्च कथमुच्यते-तत्त्वमनेकान्त एवेति ? अत्राह – 'नो इत्यादि' सम्यक्त्वादीनि हि नामादिभेदाच्चतुर्द्धा, यदुक्तं सत्रे निक्षेपाधिकारे- “जत्थ य जं जाणेज्जा. निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थवि य न जाणेज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्थे ॥१॥" (छा. यत्र च यं यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेन्निरवशेषम् । यत्रापि च न जानीयात् चतुष्ककं निक्षिपेत्तत्रे ॥१॥ ति, ततो यस्मान्नामादिरूपाणि सम्यक्त्वादीनि न मोक्षपथः किंतु भावरूपाणि तस्मादिहापि 'नत्थित्तीति' केनापि रूपेण न मोक्षपथ इति योक्तव्यम् ॥९१९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- સમ્યકત્વ, જ્ઞાન અને ચારિત્ર મોક્ષમાર્ગ જ છે. આમ અહીં તો એકાન્ત છે જ. અહીં પણ અનેકાન્તને લાવશો, તો તેઓ(=સમ્યકત્વાદિ)માં પણ મોક્ષમાર્ગ તરીકેનો વિશ્વાસ ગુમાવવાનો પ્રસંગ છે. તેથી તેમાં કોઈ પ્રવૃત્તિ નહીં કરે. (સમ્યકત્વાદિમાં અનેકાન્ત એટલે સમ્યકત્વાદિની આરાધના કરવા છતાં મોલ ન મળે એવી સંભાવના.. અને તો જે ભરોસાપાત્ર ન હોય. તેઅંગે કોણ પ્રવૃત્તિ કરે?) તેથી અનેકાન્ત જ તત્વ છે એમ શી રીતે કહી શકાય? ઉત્તરપક્ષ:- આ પણ બરાબર નથી, કેમકે સમ્યકત્વવગેરે પણું નામઆદિભેદથી ચાર પ્રકારે છે. સૂત્રમાં નિપાના અધિકારમાં કહ્યું જ છે “જયાં જેટલા નિપાનું જ્ઞાન હોય, તેટલા નિરવશેષ નિપાનો નિક્ષેપ કરવો. જયાં વિશેષજ્ઞાન ન હોય ત્યાં ચાર નિપા (નામાદિ)તો ફરવા જ.’ આમ નામાદિરૂપ સમ્યકત્વવગેરે મોક્ષમાર્ગરૂપ નથી, પરંતુ ભાવરૂપ સમ્યકત્વાદિ જ મોક્ષમાર્ગરૂપ છે, તેથી પ્રસ્તામાં પણ કોકરૂપે મોક્ષમાર્ગ નથી એમ યોજનીય છે- અર્થાત અનેકાન્ત છે. (તાત્પર્ય:- ભાવસમકતાદિરૂપે મોક્ષમાર્ગ છે. અને નામાદિ સમ્યકારિરૂપે મોક્ષમાર્ગ નથી એમ અનેકાન છે. (અથવા “ઇહવિ નરસ્થિતિ પદનો અર્થ “આમ સમ્યકત્વાદિમાં પણ (નામાદિભેદ પડતા હોવાથી) મોક્ષમાર્ગરૂપે એકાન્ત નથી.) u૯૧લા पर आह. - . અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે जे चेव भावरूवा ते चेव जहा तहा णु को दोसो?। • तस्सेव ण अन्नस्सा तेवि अणेगंतसिद्धीओ ॥९२०॥ (यान्येव भावरूपाणि तान्येव यदा(यथा) तदा(तथा)नु को दोषः?। तस्यैव नान्यस्य तान्यपि अनेकान्तसिद्धेः ॥) यान्येव भावरूपाणि सम्यक्त्वादीनि तान्येव यदा मोक्षपथ एवेत्युच्यते तदा को दोषः स्यात् ? नैव कश्चिदिति भावः। (अत्राह-) 'तस्सेवेत्यादि' तान्यपि भावरूपाणि सम्यक्त्वादीनि तस्यैव-विवक्षितपुरुषस्य मोक्षपथो नत्वितरस्येत्येवमनेकान्तसिद्धेरिति ॥९२०॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપલ:- જે ભાવરૂપ સમ્યકત્વાદિ છે તેઓ જયારે “મોક્ષમાર્ગ જ છે. એમ કહેવાતા હોય ત્યારે એકાન્તમાં શો દોષ છે? અર્થાત કોઇ દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- તે ભાવરૂપ સમ્યકત્વવગેરે પણ તે વિવક્ષિતપુરૂષમાટે જ મોક્ષમાર્ગરૂપ બને છે. બીજાઓ માટે નહીં. આમ અહીં પણ અનેકાન્તની સિદ્ધિ થાય છે. ૧૯૨ના एवं चिय जोएज्जा सिद्धाऽभव्वादिएसु सव्वेसु । सम्मं विभज्जवादं सव्वण्णुमयाणुसारेणं ॥९२१॥ (एवमेव योजयेत् सिद्धाभव्यादिकेषु सर्वेषु । सम्यग्विभज्यवादं सर्वज्ञमतानुसारेण ॥) - एवमेव सिद्धाभव्यादिकेष्वपि सर्वेषु भावेषु सर्वज्ञमतानुसारेण परस्पादिना प्रकारेण सम्यग्विभज्यवादं विकल्पनीयवादमनेकान्तवादमितियावत् योजयेत्-संबन्धयेत् ॥९२१॥ ****************धर्मसं -लस -167* * * * * * * * * * * * * * * Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** यरित्रद्वार + ગાથાર્થ:- આ જ પ્રમાણે સિદ્ધ, અભવ્યઆદિ બધા જ ભાવો વિષે પણ સર્વજ્ઞના વચનને અનુસારે પરરૂપઆદિ પ્રકાર થી વિભજયવાદ =વિકલ્પનીયવાદ=અનેકાન્તવાદનો સંબંધ જોડવો જોઇએ. ૫૯૨૧૫ જકારભાષામાં મૃષાવાદ पुनरपि मृषावाददोषपरिहारार्थमुपदेशान्तरमाह ફરીથી મૃષાવાદનો દોષ દૂર કરવા બીજો ઉપદેશ આપે છે एतं होहित कल्लं नियमेण अहं च णं करिस्सामि । एमादीवि न वच्चं सच्चपनेण जइणा उ ॥९२२॥ (एतद् भविष्यतीति कल्यं नियमेनाहं च णं करिष्यामि । एवमाद्यपि न वाच्यं सत्यप्रतिज्ञेन यतिना तु ॥) एतत्-विवक्षितप्रयोजनं नियमेन - अवश्यंतया कल्यं - श्वस्तनदिने भविष्यति । कल्यमिति "कालाध्वभावदेशं वा कर्म चाकर्म्मणामिति” द्वितीया, यथा मासमास्ते इत्यत्र । अहं च 'णमिति' वाक्यालङ्कारे एतत् - प्रयोजनं कल्ये नियमेन करिष्यामीत्येवमाद्यपि सत्यप्रतिज्ञेन यतिना सर्वथा न वक्तव्यमेव, प्रतिज्ञाव्याघातसंभवात् । 'जइणा उ इति' तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योजितः ॥९२२॥ ગાથાર્થ:- આ વિવક્ષિતકાર્ય કાલે અવશ્ય થશે જ.' ‘હું આ કાર્ય કાલે અવશ્ય કરીશ જ' ઇત્યાદિવચનો સત્યપ્રતિજ્ઞાવાળા સાધુએ સર્વથા બોલવા જોઇએ જ નહીં'. કેમકે પ્રતિજ્ઞાભંગ થવાનો સંભવ છે.‘લ્ય શબ્દમાં ‘કાલાભાવદેશ વા કર્મ ચાકર્મણામ’ આ સૂત્રથી બીજી વિભક્તિ લાગી છે. જેમકે માસમાસ્તે' સ્થળે. (સંસ્કૃતમાં કાલવાચક, માર્ગવાચક, ભાવવાચક અને દેશવાચક શબ્દ અકર્મકસ્થળે વિકલ્પે કર્મકારક બને છે અને બીજીવિભક્તિ લે છે.) મૂળમાં ‘ણ’પદ વાકચાલંકારઅર્થમાં છે. તથા મૂળમાં ‘જઇણા ઉ” આ સ્થળે જે (-g) છે, તે જકારાર્થક છે અને વાચ્ય” પદ પછી સંબંધિત છે. u૯૨૨ા प्रतिज्ञाव्याघातसंभवमेवोपदर्शयति હવે પ્રતિજ્ઞાભંગનો સંભવ કેમ છે?” તે બતાવે છે बहुविग्घो जियलोओ चित्ता कम्माण परिणती पावा । विहडइ दरजायं पि हु तम्हा सव्वत्थऽणेगंतो ॥ ९२३ ॥ (बहुविघ्नो जीवलोकश्चित्रा कर्मणां परिणतिः पापा । विघटते ईषज्जातमपि हु तस्मात् सर्वत्रानेकान्तः ॥) बहुविघ्नः - सदैव प्रत्यासन्नभूरिप्रत्यूहो जीवलोकः, ते च विघ्नाः सन्निहिता अपि कदाचित्प्राप्तिवशान्न प्रभवन्तीत्यत आह - चित्रा च कर्म्मणां परिणतिः पापा, ततश्च तद्वशात् कथमपि प्रथमतो विघ्नानामभावेन दरजातमपि - ईषज्जातमपि यतः प्रयोजनं विघटते तस्मात्सर्वत्रानेकान्त एव वक्तव्यः ॥९२३॥ ગાથાર્થ:- હંમેશા આ જીવલોક સમીપવર્તી અનેક વિઘ્નોથી વ્યાપ્ત છે. એવું કચારેક બને કે તે સન્નિહિત,વિઘ્નો પણ પ્રાપ્તિ (યોગની એક શક્તિ-સિદ્ધિવિશેષ-ઐશ્વર્યવિશેષ છે. આ સિદ્ધિથી વિષવગેરે પણ અમૃતરૂપે પરિણમાવી શકાય છે. વિઘ્નો પણ મંગલમા પરિવર્તન પામે છે.) વશથી અસરકારક ન બને. તેથી વિશેષ કહે છે. કર્મની પાપ (=ખરાબ) પરિણતિઓ વિચિત્ર છે. તેથી આરંભે વિઘ્નોનો અભાવ હોવાથી થોડું થયેલું પણ કાર્ય પાછળથી વિધટિત થાય છે, તેથી આમ થશે જ’ કે આમ કરીશ જ' એવો એકાન્ત યોગ્ય નથી, પરંતુ સર્વત્ર આમ થાય પણ અથવા ન પણ થાય' ઇત્યાદિ અનેકાન્ત જ યોગ્ય છે. ા૨ા પીડાકારીવચન મૃષાવાદરૂપ - यदुक्तम् 'पीडाहेऊ य अलियं तु' इति तद्व्याख्यानयन्नाह પહેલા જે કહ્યુ પીડાહેઊ (ગા.૯૦૫)પીડાહેતુકવચન સત્ય હોય, તો પણ અલીક-અસત્ય છે, એ વચનની વ્યાખ્યા કરતા કહે છે भावाण तहाभावेण काणमादीसु जा गिरा तत्था । तेसिं दुक्खनिमित्तं सावि अलिया विणिद्दिट्ठा ॥९२४॥ (भावानां तथाभावेन काणादिषु या गीस्तथ्या (सत्या) । तेषां दुःखनिमित्तं सापि अलीका विनिर्दिष्टा II) काणादिषु - काणकुण्टादिषु या गीः- भाषा काणस्त्वमित्यादिरूपा सा पि भावानां वाच्यानां तथाभावेन सत्या तथापि सा अलीका विनिर्दिष्टा, यतस्तेषां काणकुण्टादिप्राणिनां सा- भाषा दुःखनिमित्तमितिहेतोः ॥ ९२४ ॥ + + + धर्मसंशि-लाग २ - 168 * * * * Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* *********** शरित्रा + ++ + + + + + + ++ + + + + + + + ગાથાર્થ:- કાણા, કુબડાવગેરે અંગે ‘તું કાણો છે” ઈત્યાદિ વચનો તે-તે વ્યક્તિ વાસ્તવમાં કાણોવગેરે હોવાથી તે-તે વ્યક્તિને આશ્રયી સત્ય બન ના હોવા છતાં અલીકઃખોટા છે, એમ શાસ્ત્રકારોએ નિર્દેશ કર્યો છે. કારણકે આવા વચનો તે કાણા-કુબડા आदि प्राणीयोनेपर्नु बने छे.... ॥२४॥ उपसंहारमाह - .. હવે ઉપસંહાર બતાવે છે ता गंतसस्वा सव्वेसिमपरियावणी मधुरा । उवयोगपुव्वग च्चिय भासा भासण्णुणो सच्चा ॥९२५॥ (तस्मादनेकान्तस्वरूपा सर्वेषामपरितापनी मधुरा । उपयोगपूर्विकैव भाषा भाषाज्ञस्य सत्या ॥ यत एवमेकान्तपक्षे परपीडासंभवे च भाषा मृषा भवति 'ता' तस्मादुपयोगपूर्विकैव एवमियं सत्या अन्यथा मृषेत्यालोचनापूर्विकैव भाषाज्ञस्य-भाषास्वरूपं जानानस्य या भाषाऽनेकान्तस्वरूपा सर्वेषां च प्राणिनामपरितापनी अपीडाकरी. एतदेव स्पष्टयति-मधुरा-श्रवणपथमुपगता सती हृदयानन्दकारिणी सा सत्या नत्वन्येति ॥९२५॥ ગાથાર્થ:- આમ એકાત્તાપક્ષમાં બીજાને પીડા સંભવતી લેવાથી મૂષાવાદનું સેવન થાય છે. તેથી “આવો ભાષાપ્રયોગ સત્યરૂપ છે અને આવો ભાષાપ્રયોગ મુકાવાદરૂપ છે એવી વિચારણા-ઊપયોગપૂર્વક જ ભાષાના સ્વરૂપના જાણકારે વાપરેલો भाषाप्रयोग सत्य३५ जने छ, को ते भाषाप्रयो। (१) अनन्तस्१३५मय होय (२)जीने पी351री नय अने (3) સાંભળનારના હૃદયને આનંદ આપનારો હોય. જે આવો ન હોય તે ભાષાપ્રયોગ સત્યરૂપ નથી. u૯૨પા ચોરી જીવિકારૂપ નિર્દોષ-પૂર્વપક્ષ तृतीयं मुलगणमाश्रित्याक्षेपपरिहारौ प्रतिपिपादयिषाह - હવે ત્રીજા મૂળગુણને આશ્રયી આક્ષેપ અને જવાબનું પ્રતિપાદન કરવા કહે છે केइ अदत्तादाणं विहिसिट्ठा जीविगत्ति मोहातो । वाणिज्जुचियकलं पिव निदोसं चेव मन्नंति ॥९२६॥ (केचिददत्तादानं विधिसृष्टा जीविकेति मोहात् । वाणिज्योचितकलामिव निर्दोषमेव मन्यन्ते ॥ केचिददत्तादानं वाणिज्योचितकलामिव-क्रयाणकग्रहणदानादिच्छेकतालक्षणां निर्दोषमेव मन्यन्ते । कुत इत्याह 'विहिसिट्ठा जीविगत्ति मोहाओ' विधिना सृष्टा इयमदत्तादानलक्षणा जीविका वणिजामिव वाणिज्यकला ततो न दोष इति मोहात्-बुद्धिविपर्यासात् ॥९२६॥ ગાથાર્થ:- કેટલાકબદ્ધિનાવિપર્યાસથી એવો દાવો કરે છેકેજમવેપારીઓનીવેપાર યોગ્ય માલનાલેણ-દેનમાં હોશિયારી વગેરેરૂપ વેપારકલા નિર્દોષ છે, તેમ વિધિએ સર્જેલી આ ચૌર્યકલા જીવિકાનું સાધન હોઇ નિર્દોષ છે. ૯૨૬ ચોર થવા માટેની લાયકાતો सांप्रतमिदमेव परमतं प्रपञ्चयितुकामः कोऽस्यादत्तादानस्योचित इति तदुचितमाह - હવે આ પરમતને વિશદ કરવા આ અદત્તાદાનરૂપ ચૌર્યકલામાટે કોણ યોગ્ય છે? તે દર્શાવવા યોગ્યતા દર્શાવે છે सेसकलारहिओ च्चिय साहसजुत्तो य पयइदक्खो य । सत्तुक्कडोऽविसाई अदत्तादाणोचितो भणितो ॥९२७॥ (शेषकलारहित एव साहसयुक्तश्च प्रकृतिदक्षश्च । सत्त्वोत्कटोऽविषादी अदत्तादानोचितो भणितः ॥) शेषकलारहित एव-वाणिज्याधुचितकलारहित एव साहसयुक्तश्च प्रकृत्या-स्वभावेन दक्षश्च सत्त्वोत्कटोऽविषादी अदत्तादानोचितः भणितः स्कन्दस्द्रादिभिरिति ॥९२७॥ यार्थ:-६, रुद्रकोरे सतन( योरी)ना धामाटे (१)श्रीनी वेपारीयित दामोथी २लित (२)सास (3) स्वभावथी ०४ यतुर-२५ (४) 6.52 सत्वशाजी (५) विषा(E) विनानो सावा शुशोवा पुरुषने योग्य भयो છે. પ૨ા કોને ત્યાં ચોરી ન કરવી +++ + + + + + + ++ ++ ++ + -MIN२-169 + + + + + ++++++++++ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ ++ + +++ ++ +++ ++ ++ शरित्र ++ + + ++ + + + + + ++ + +++ इदानीं च येषां हर्त्तव्यं येषां च न हर्त्तव्यमित्येतदाह - હવે કોની વસ્તુ ચોરવી અને કોની નહીં ચોરવી? તેની ભેદરેખા બતાવે છે समणाण माहणाणं दुक्खोवज्जितधणाण किवणाणं । इत्थीय(ण य) पंडगाण य णो हरियव्वं कदाचिदवि ॥९२८॥ (श्रमणानां ब्राह्मणानां दुःखोपार्जितधनानां कृपणानाम् । स्त्रीणां पण्डकानां च न हर्त्तव्यं कदाचिदपि ॥ श्रमणानां-संयतानां माहनानां-ब्राह्मणानां तथा दुःखोपार्जितधनानां कृपणानां स्त्रीणां पण्डकानामिति नपुंसकानां संबन्धि न हर्त्तव्यं कदाचिदपि, तदपहरणे तेषामतीव दुःखसंभवादिति ॥९२८॥ गावार्थ:- (१) संयमी श्रमशो (२)श्रामगो (3): धनप्राप्त नारामओ (४)पा (५) स्त्री सने (९) नपुंसी આટલાની માલિકીની ચીજ ચોરવી નહીં, કેમકે તેમની ચીજ ચોરવાથી તેમને ઘણું દુ:ખ થવાનો સંભવ છે. ૨૮ सेसाण तु हरियव्वं परिगरविहववयकालमादीणि । णाउं णायपराणं जह दोण्हवि होइ न विणासो ॥९२९॥ (शेषाणां नु हर्त्तव्यं परिकरविभववयःकालादीनि । ज्ञात्वा न्यायपरयोर्यथा द्वयोरपि न भवति विनाशः ॥ शेषाणां तु संबन्धि धनादिकमपहर्त्तव्यं, कथमित्याह-परिकरविभववयःकालादि ज्ञात्वा, यथा द्वयोरपि न्यायपरयोर्मोष्यमोषकयोन भवति विनाश इति ॥९२९॥ यार्थ:- (१) परि७२ (परिवार)(२) वैम (3) 6भर सने (४)समय मागिएकीने 64रोज सिवायना बीमोने ત્યાં ચોરી કરી શકાય. પણ ચોરી એવી રીતે કરવી કે ન્યાયનિષ્ઠ બન્નેને (ચોર અને જેની વસ્તુ ચોરાય છે તે) ભારી નુકસાન नथाय.... जन्ननु - 281 23. ॥२॥ ચોરને વિશેષ ઉપદેશ सांप्रतमित्थं परद्रव्यापहरणे तीर्थान्तरीयाभिहिताऽऽमुष्मिकदोषश्रवणात् कश्चिन्न प्रवर्तेतापि ततस्तं प्रत्युपदेशमाह - હવે આમ બીજનું દ્રવ્ય ચોરવામાં બીજા ધર્મોએ બતાવેલા પારલૌકિકદોષ સાંભળવાથી ડરીને કોઈ ચોરી ન પણ કરે, તેથી તેવાને ઉપદેશ આપતા કહે છે – णासिटुं इह णासइ दज्झइ जलणेण जेण अहितंपि । लब्भइ नयाणुवत्तं सिप्पमिव एत्थवि अलाभो ॥९३०॥ (नासृष्टमिह नश्यति दह्यते ज्वलनेन येनाहृतमपि । लभ्यते न चानुपात्तं शिल्पमिवात्रापि अलाभः ॥) इह न परेषां धनादिकमसृष्टं नश्यति किंतु सृष्टमेव, येन कारणेन तत् अहतमपि-अनपहृतमपि ज्वलनेन दह्यते, न च तैरपि स्तेनैस्तत्र हर्त्तव्यमनुपात्तं लभ्यते किंतूपात्तमेव, यतोऽत्रापि-परधनादिकापहरणे शिल्प इव-वाणिज्यादिकर्मलक्षणे कस्यचित्कदाचिदलाभोऽपि भवति, अन्यथा सर्वस्य सर्वदा लाभ एव स्यात्, विशेषहेत्वभावात्, ततो वाणिज्यादिकलास्विव न परद्रव्यापहरणे कश्चिद्दोषः ॥९३०॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં ચોરી નિર્દોષ છે, કેમ કે (૧) નાશ માટે સર્જાયેલાનો જ નાશ છે, નહિં કે નહી સર્જાયેલાનો પણ. તેથી બીજાઓનાં એ સુષ્ટ ધનાદિ ચોરાઇ નહિ, તો અગ્નિથી બળી જાય છે. આ વાત થઇ જેઓને ત્યાં ચોરી કરવાની છે તેઓની. એજ પ્રમાણે (૨) જે ધનાદિ ચોરમાટે ઉપાત્ત સર્જાયા છે, અને ચોર ગ્રહણ કરે છે તે જ ધનાદિ ચોરને મળે છે, બીજા નહીં. તેથી જ વેપારાદિ કર્મરૂ૫ શિલ્પની જેમ ચોરીમાં નિષ્ફળતા અલાભ પણ થાય છે કેમ કે અનુપાન ધન મળે નહીં) જે આવો નિયમ ન હોય, તો દરેક ચોરી સફળ જ થવી જોઇએ. કેમકે નિષ્ફળ થવા માટે કોઈ વિશેષ હેત રહે જ નહીં. તેથી વેપાર- કળા વગેરેની જેમ પરદ્રવ્યના હરણમાં કોઈ દોષ નથી. ૯૩ના तथाचाह - તેથી આગળ કહે છે इय वत्थुसहावं जाणिऊण सुमणो उ संपयट्टेज्जा । ण य मरणा बीहेज्जा अन्नत्थवि जं तयं तल्लं ॥९३१॥ +++++++++++ + + + + + livelee-12-170+ ++ + + + + + + + + + + + + Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******+++ स्त्रिद्वार + + + + + (इति वस्तुस्वभावं ज्ञात्वा सुमनास्तु संप्रवर्त्तेत । न च मरणाद्विभीयात् अन्यत्रापि यत् तत् तुल्यम् II) इतिः - एवं प्रदर्शितेन प्रकारेण वस्तुस्वभावं ज्ञात्वा सुमना एव प्रशस्तमना एव सन्तु, रेवकारार्थः परद्रव्यापहरणे प्रवर्त्तेत, विधौ सप्तमी, ततः परद्रव्यापहरणे निःशङ्को भूत्वा प्रवृत्तिं कुर्यादितियावत् । कश्चिदैहिकमरणलक्षणापायभीत्या न प्रवर्त्तेतापि तमपि प्रति शिक्षामाह- 'नयेत्यादि' न च मरणाद्विभीयात् यस्मादन्यत्रापि - वाणिज्यादि कर्म्मणि तत्- मरणं तुल्यम्, तथाहि - समुद्रादिषु वाणिज्याद्यर्थं प्रवर्त्तमानानां मरणं लोके सुप्रतीतमेवेति ॥९३१ ॥ ગાથાર્થ:- આમ બતાવ્યું એ પ્રમાણે વસ્તુસ્વભાવ જાણી પ્રશસ્તમનવાળા થઇને (=કા'ક ખોટુ કરુ છુ' ઇત્યાદિ ખરાબ વિચારોથી રહિત થઇ)બીજાને ત્યા ચોરી કરવા પ્રવૃત્તિમાન રહેવું. (મૂળમાં ‘તુ'પદ જકારાર્થક છે.)અહીં વિધિ સૂચવવા સંપયàજ્જા મા વિધ્યર્થપ્રયોગ છે. તેથી ‘નિ:શંક થઇ પરદ્રવ્યહરણમાં પ્રવૃત્તિ કરવી જોઇએ' એમ તાત્પર્ય મળે છે. કો'ક કદાચ ચોરી કરતા પકડાઇ જઇએ તો મોતની સજા થશે' એમ વિચારી મોતના ભયે ચોરી કરવા તૈયાર ન પણ થાય, તો તેને ઉપદેશ આપતા કહેછે → મરણથી ગભરાવું નહીં, કેમકે વેપારઆદિ બીજી આજીવિકાઓમા પણ મરણનો ભય સમાન જ છે. જૂઓ→વેપારઆદિમાટે સમુદ્રઆદિ ખેડતા ઘણાના મોત થયા છે તે લોકમા પ્રસિદ્ધ જ છે. u૯૩૧મા परद्रव्यापहरण एव विधिशेषमाह - હવે ૫રદ્રવ્યહરણઅંગે જ બાકી રહેલી વિધિ બતાવે છે— हरिएवि पुव्वगं चिय खंदादी देवए य वीरे य । संपूजिऊण विहिणा पच्छा पुज्जेज्ज तं रत्थं ॥९३२॥ (हृतेऽपि पूर्वकमेव स्कन्दादिन् देवान् च वीरांश्च । संपूज्य विधिना पश्चात्पूजयेत्तां रथ्याम् ॥) हृतेऽपि परद्रव्ये पूर्वमेव स्कन्दादीन् आदिशब्दात् स्द्रादींश्च देवान् वीरांश्च पुरुषान् स्तेनगुणैरतीव प्रसिद्धान् विधिना संपूज्य पश्चाद्यया रथ्यया गन्तुमिष्यते तां रथ्यां पूजयेत् ॥९३२॥ ગાથાર્થ:- બીજાનું દ્રવ્ય ચોર્યા પછી પણ સ્કન્દ, રુદ્રવગેરે દેવો તથા ચોર્યગુણોથી પ્રસિદ્ધ થયેલા વીરપુરુષોની વિધિવત્ પૂજા કરવી. અને પછી જે શેરીમા થઇ જવું હોય, તે શેરીની પણ પૂજા કરવી. u૯૩૨ા लोगम्मि य परिवादं अकालचरियाविवज्जणादीहिं । जत्तेणं रक्खेज्ना तदभावे सव्वहा ण भयं ॥ ९३३ ॥ (लोके च परिवादमकालचर्याविवर्जनादिभिः । यत्नेन रक्षयेत्तदभावे सर्वथा न भयम् ॥) लोके च परिवादम् - अपकीर्त्तिमकालचर्याविवर्जनादिभिरादिशब्दात् स्त्रीपण्डकादिद्रव्यापहरणवर्जनेन च यत्नेन रक्षयेत्, तदभावे च लोकपरिवादाभावे च सर्वथा इह अमुष्मिन्नपि च नास्य भयम्, अपकीर्तिर्हि नरकादिकुगतिविनिपातसंभवहेतुः "अकीर्त्तिं तु निरालोकनरकोद्देशदूतिका" मित्यादिवचनात् सा चाकालचर्याविवर्जनादिना दूरतोऽपास्तेति ॥९३३॥ ગાથાર્થ:- અકાલચર્યા (=ચોરીના અવસરે ચોરી કરવા નીકળવુ)નો ત્યાગવગેરે તથા સ્ત્રી, નપુંસકઆદિના દ્રવ્યની ચોરીનુ વર્જન વગેરે નિયમો પાળી લોકમા થતી અપકીર્તિ ખાસ પ્રયત્નથી અટકાવવી. જો લોકોમાં અપકીર્તિ ન ફેલાય તો, તો આ લોકમા કે પરલોકમાં કશો ભય રહેતો નથી. કારણ કે આ અપકીર્તિ જ નરકાદિમા પડવાનુ કારણ છે. કહ્યું જ છે કે અપકીર્તિ અંધકારમય નરકતરફ લઇ જતી દૂતી છેઃ અકાલચર્યાદિના ત્યાગઆદિથી આ અપકીર્તિ દૂર કરી છે. તેથી કોઇ ભય નથી. ૫૯૩u सांप्रतमित्थं प्रवृत्तावपि कदाचिद्दैवयोगादारक्षकैर्गृह्येत ततस्तस्याश्वासनार्थमुपदेशमाह હવે આમ પ્રવૃત્તિ કરવા છતા પણ કદાચ દૈવવશાત્ કોટવાળો પકડી લે, તો તેના આશ્વાસનમાટે ઉપદેશ આપે છે गहितोवि अमोक्खाए मरणंतं जीवियं विचिंतेज्जा । कुज्जा य पुरिसगारं दोण्हवि लोगाण फलहेउं ॥ ९३४ ॥ (गृहीतोऽपि अमोक्षाय मरणान्तं जीवितं विचिन्तयेत् । कुर्याच्च पुरुषकारं द्वयोरपि लोकयोः फलहेतुः ॥ ) गृहीतोऽप्यारक्षकैरमोक्षाय यथा - 'न वयमेनं दुराचारं मुञ्चामः किंतु मारयाम (म्रियामहे) इति', मरणान्तं जीवित विचिन्तयेत् - इदं हि जीवितं मरणपर्यवसानं ततो नियमात्पश्चादपि मर्त्तव्यं तद्वरमिदानीमेव युक्तं न्यायप्राप्तत्वादिति पर्यालोचयेत्, कुर्याच्च पुरुषकारम् - अदीनत्वलक्षणं द्वयोरपि - इहपररूपयोर्लोकयोः फलहेतुभूतमिति ॥ ९३४ ॥ ++ + + धर्मसंशि-लाग २ - 171+ + Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शनिवार ++++++++++++++++++ ગાથાર્થ:- “અમે આ દુરાચારીને છોડશે નહીં પરંતુ મારશું' એમ નહીં છોડવાની બુદ્ધિથી જયારે આરક્ષકો પકડે ત્યારે પણ “આમે આ જીવન મોતપર્યત જ છે તેથી આજે નીં તો કાલે અવશ્ય કરવાનું જ છે, તો હમણાં જ મરવું શ્રેષ્ઠ છે, કેમકે ન્યાયપ્રાપ્ત છે. ( પકડાવું અને મરવું એ આ ધંધામાં સમજીલીધેલા જોખમભૂત છે, તેથી ધંધાને જોખમમાં મુકી દીનતાથી જીવન બચાવવું યોગ્ય નથી, એના કરતાં તો ધંધાને વફાદાર રહી મરવું એજ ન્યાયપ્રાપ્ત છે. એમ આશય લાગે છે.) આમ વિચાર કરવો જોઈએ અને અદીનતારૂપ પુરુષાર્થ કરવો જોઇએ કેમકે તે જ પુરુષાર્થ જ) આ લોક અને પરલોકમાં ફળ દેનારો બને છે. u૯૩૪ના उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે इय खंदरद्दविहिणा पयट्टमाणस्स सुद्धभावस्स । वाणिज्जुचियकला विव निदोसा चोरिगा केइ ॥९३५॥ (इति स्कन्दस्ट्रविधिना प्रवर्त्तमानस्य शुद्धभावस्य । वाणिज्योचितकलेव निर्दोषा चौरिका केचित् ॥) इतिः-एवं प्रदर्शितेन प्रकारेण स्कन्दस्द्रविधिना-स्कन्दस्द्राभिधानशास्त्रोक्तविधिना प्रवर्त्तमानस्य शुभभावस्य वाणिज्यो-चितकलेव निर्दोषा चौरिका-चौरक्रिया, "द्वन्द्वचौरादिभ्य" इति चौरशब्दात्कर्मणि वुञ्प्रत्ययः, इति केचिद् ब्रुवते ॥९३५॥ ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્તપ્રકારે સ્કન્દ, રુદ્રનામના (=અથવા કહેલા શાસ્ત્રમાં બતાવેલી વિધિથી શુદ્ધભાવથી પ્રવૃત્ત થનારને માટે તો ચૌર્યકલા વેપારઉચિતકલાની જેમ નિર્દોષ જ છે. ‘ન્દ્ર ચૌરાદિલ્ય' આ સૂત્રથી ચૌર શબ્દને કર્મઅર્થમાં વમ પ્રત્યય લાગવાથી ચૌરિકા' શબ્દ બન્યો. આમ કેટલાક દુષ્ટ બુદ્ધિવાળાઓ) કહે છે. ૯૩મા વિધિકર્તા કે કર્મ? ઉત્તરપલ अत्राचार्य आह - આ વિસ્તૃત ચૌર્યસમર્થકમતને ગેરવ્યાજબી ઠેરવવા હવે આચાર્યદેવ કહે છે भण्णइ विहिसिट्ठा जीविगत्ति जं भणियमेत्थ को णु विही ?। ___ जइ ताव कोइ कत्ता स णिसिद्धो पुव्वमेव इह ॥९३६॥ (भण्यते विधिसृष्टा जीविकेति यद् भणितमत्र को नु विधिः । यदि तावत् कश्चित् कर्ता स निषिद्धः पूर्वमेव इह ॥ भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते-विधिसृष्टा जीविकेति यद्भणितं अत्र को नु विधिः स्यात् ? किं कश्चित्कर्ता पुरुष आहोस्वित् कर्मेति ? तत्र यदि तावत् कश्चित्कर्ता विधिरित्यभ्युपगम्यते ततो न युक्तं, यतः पूर्वमेवेह 'कत्तावि अह पहुच्चिय विचित्तकरणम्मि रागमाईया' इत्यादिना ग्रन्थेन स - कर्ता निषिद्ध इति ॥९३६॥ ગાથાર્થ:- અહીં હવે ઉત્તર અપાય છે. પહેલા જે કહ્યું કે “આ ચોરી વિધિસર્જિત જીવિકા છે (ગા. ૯૨૬) અહીં વિધિ શબ્દથી શું ઈષ્ટ છે? શું કોઈ કર્તા પુરુષ કે પૂર્વકૃત કર્મ? જો કોક કર્તા વિધિ તરીકે ઈષ્ટ હોય તો તે બરાબર નથી. કેમકે અગાઉ જ આ ગ્રન્થમાં કર્તાવિ અહ પહુથ્યિ (૫૯૪ ગા.) ઇત્યાદિ પંક્તિથી તે કર્તાનો નિષેધ કર્યો છે. ૯૩૬ાા अह पुवकयं कम्मं तस्सुदए जो उ होइ परिणामो । __परवित्तहरणहेऊ अपसत्थो वज्जणिज्जो सो ॥९३७॥ (अथ पूर्वकृतं कर्म तस्योदये यस्तु भवति परिणामः। परवित्तहरणहेतुरप्रशस्तो वर्जनीयः सः ॥ अथ पूर्वकृतं कर्म विधिरित्युच्यते ननु तर्हि तस्य-पूर्वकृतस्य कर्मण उदये-विपाकेनानुभवे सति यो भवति परिणामः परवित्तापहरणहेतुः स एकान्तेन विवेकचक्षुषां वर्जनीय एव, अप्रशस्तत्वात् ॥९३७॥ ગાથાર્થ:- હવે જો પુર્વકત કર્મ વિધિતરીકે ઇષ્ટ હોય, તો કર્મના વિપાકોદયથી બીજાનું ધન ચોરવામાં કારણભૂત જે પરિણામ=ભાવ ઉત્પન્ન થાય, તે વિવેકી જીવમાટે એકાન્ત વર્જનીય છે, કેમકે અપ્રશસ્ત છે. u૯૩૭ . कथमसौ परिणामोऽप्रशस्त इति चेदाह - આ પરિણામ કેમ અપ્રશસ્ત છે? તેના જવાબમાં કહે છે . + + + + + + + + + + + + + + + + GP-RIN२ -172 * * * * * * * * * * * * * * * Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** पारित्रवार ************** अइसंकिलिट्ठकम्माणुवेदणे जो तु होइ परिणामो । सो संकिलिट्ठकम्मस्स कारणं जमिह पाएणं ॥९३८॥ - (अतिसंक्लिष्टकर्माणुवेदने यस्तु भवति परिणामः । स संक्लिष्टकर्मणः कारणं यदिह प्रायः ॥ हिर्यस्मादर्थे, यस्मादतिसंक्लिष्टकर्माणुवेदने यो भवति परिणामः स प्रायः संक्लिष्टकर्मणां कारणं ततोऽसावप्रशस्तः, प्रायोग्रहणं च स एव परिणामो यदा विवेकाङ्कुशवशादुद्भूतोऽपि निष्फलीक्रियते तदा न संक्लिष्टकर्मकारणं भवतीति सूचनार्थम् ॥९३८॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ‘હિ પદ કારણઅર્થક છે.) અતિસંલિષ્ટકર્મીશના વેદનમાં (વિપાકોદયમાં)જે આત્મપરિણામ હોય છે, તે પ્રાય: સંકિલષ્ટકર્મોના બંધમાં કારણ બને છે. તેથી એ પરિણામ અપ્રશસ્ત છે. અહીં એકાન્તને છોડી “પ્રાય: નો પ્રયોગ એવી સૂચનામાટે છે કે એ જ આત્મપરિણામ જયારે ઉત્પન્ન થવા છતાં વિવેકરૂપ અંકૂશથી નિષ્ફળ કરાય છે, ત્યારે સંકિલષ્ટકર્મનું કારણ બનતો નથી. પ૯૩૮ દુષ્ટ મન:પરિણામને નિષ્ફળ કરવાની ચાવી स्यादेतत्, यदि परवित्तापहरणहेतुः परिणामोऽतिसंक्लिष्टकम्मशिविपाकोदयवशादुपजायते ततः स कथं वर्जयितुं शक्यते कथं वा निष्फलीकर्तुं ? मा प्रापत्तत्कर्मणोऽबलत्वप्रसङ्गः, ततश्च ज्वरहरतक्षकचूडारत्नालंकारधारणोपदेशदानवत् अशक्यानष्ठानमदत्तादानपरिहारोपदेशदानमित्यत आह - પૂર્વપક્ષ:- જો પરધનહરણમાં કારણભૂત આત્મપરિણામ અતિસંકિલષ્ટકર્મીશના વિપાકોદયના કારણે ઉત્પન્ન થતો હોય, તો તે પરિણામનું વર્જન કરવું કેવી રીતે શક્ય બને અથવા કેવી રીતે નિષ્ફળ કરી શકાય? અર્થાત ન જ કરી શકાય, કેમકે એમ જો વર્જન કે નિષ્ફળીકરણ થઈ શકે તો કર્મની તો કોઈ તાકાત જ રહી નહીં. તેથી કર્મને નિર્બળ માનવાનો પ્રસંગ આવે (અને તે કર્મથી ડરવાની જરુર રહે નહીં એ આપત્તિ છે. આ આપત્તિ ટાળવા એ ઉદિતકર્મજન્ય પરિણામનું વર્જન શકય નથી એમ તત્વ સ્વીકારશો તોથી અદત્તાદાનના ત્યાગનો ઉપદેશ તો સાપના માથે રહેલા તાવને દૂર કરનાશ ચૂડારત્નને ધારણ કરવાના ઉપદેશની જેમ અશક્યાનુષ્ઠાનસૂચક છે. सही मायार्य उत्तर मापे छ..... तीरइ य अत्तवीरियपगरिसतो वज्जिउं तओ एवं । सति तम्मि तव्विवागं विचिंतिउं अप्पवित्तीए ॥९३९॥ (तीर्यते चात्मवीर्यप्रकर्षतो वर्जयितुं सक एवम् । सति तस्मिन् तद्विपाकं विचिन्त्याप्रवृत्त्या) . कम्मोदएण मणपरिणामे जो संकिलिट्ठस्वेवि । - संविग्गो वइकाए निरूभती सो विणासेवि ॥९४०॥ ___ (कर्मोदयेन मनःपरिणामं यः संक्लिष्टरूपेऽपि । संविग्नो वाक्कायौ निरुणद्धि स विनाशयेदपि ॥) तीर्यते च - शक्यते चात्मवीर्यप्रकर्षतो वर्जयितुं 'तउत्ति' सकः संक्लिष्टः परिणामः, ग्रन्थिभेदादूद्धर्वमात्मवीर्यस्यैव कर्मबाधां प्रति प्रायो विजृम्भमाणत्वात्, उक्तं च- “तदूर्वं बाध्यते दैवं, प्रायोऽयं तु विजृम्भते' 'तदूमिति' तस्मात् ग्रन्थिभेदात् ऊर्द्धवं, अयमिति आत्मव्यापाररूपः पुरुषकारः, एवं च सति आत्मवीर्यप्रकर्षतः संक्लिष्टपरिणामवर्जनशक्तिसंभवे सति तस्मिन्-परवित्तापहरणहेतौ कर्मोदयेन मनःपरिणामे संक्लिष्टस्पेऽपि जाते सति तद्विपाकं- विवक्षितसंक्लिष्टमनःपरिणामविपाकं नरकादिकुगतिविनिपातफलं सम्यक् विवेकहृदयेन विचिन्त्य संविग्नो-मोक्षाभिलाषी सन् अप्रवृत्त्या-प्रवृत्तिनिषेधेन यो वाक्कायौ निरुणद्धि स विनाशयेदपि संक्लिष्टं मनःपरिणाममिति ॥९३९-९४०॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપt:- આત્મવીર્ય (અપરાક્રમ)ના પ્રકર્ષથી આ સંકિલષ્ટ પરિણામનું વર્જન શક્ય છે. કેમકે ગ્રન્થિભેદ પછી આત્મવીર્ય જ પ્રાય: કર્મબાધા-કર્મની અસર) પર પ્રભાવશાળી બને છે. કહ્યું જ છે કે તદૂદ્ધ બાધ્યતે (યોગબિંદુ ગા. ૩૩૯ ઉત્તરાર્ધ) ગ્રન્થિભેદ પછી પ્રાય: ભાગ્ય બાધિત થાય છે, અને જીવવ્યાપારરૂપ પુરુષાર્થ પ્રબળ બને છે. આમ આત્મવીર્યના પ્રકર્ષથી સંલિષ્ટપરિણામનું વર્જન શક્ય હોવાથી તે અંગેની શક્તિ સંભવિત હોવાથી; કર્મોદયથી પરધનહરણમાં કારણભૂત સંકિલષ્ટ મન:પરિણામ થાય, ત્યારે એ વિવલિત સંકિલષ્ટ મનોભાવના નરકઆદિદુર્ગતિમાં પતનરૂપ વિપાકફળનો વિવેકપૂર્ણ ++************** सं हलिला २-173* ** * * * * * * * * * * * * Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * હૃદયથી વિચાર કરવો. અને મોક્ષાભિલાષથી સંવિગ્ન બની કમ સે કમ વાણી અને કાયાને તેવી પ્રવૃત્તિથી દૂર રાખવી. આમ જે કરે છે, તે પોતાના દુષ્ટ મનોભાવને હટાવવા સમર્થ બની શકે પણ ખરો. ૯૩૯/૯૪ના यद्येवंतर्हि वाक्कायनिरोधादेव संक्लिष्टमनसा मनःपरिणामो (संक्लिष्टमनःपरणिामो) विनाशयिष्यते किमुच्यते शक्यते चात्मवीर्यतः स परिणामो वर्जयितुमित्यत आह - પૂર્વપક્ષ:- આમ જો વાણી અને કાયાના નિરોધથી જ મનના સંકિલષ્ટ ભાવો દૂર કરવા શક્ય હોય, તો એમ કેમ કહો છો કે આત્મવીર્યથી તે પરિણામ દૂર કરવો શક્ય છે? અહીં આચાર્યદેવ ઉત્તર આપે છે - ते पुण ण अत्तवीरियपगरिसविरहेण थंभिउं सक्का । तम्मि य सति सुहभावा पायं अचिरेण तस्स खओ ॥९४१॥ (तौ पुनर्नात्मवीर्यप्रकर्षविरहेण स्तंभयितुं (निरोद्धं) शक्यौ । तस्मिंश्च सति शुभभावात्प्रायः अचिरेण तस्य क्षयः ॥) तौ पुनर्वाक्कायौ यतो नात्मवीर्यप्रकर्षविरहेण निरोद्धं शक्येते तत उक्तमात्मवीर्यप्रकर्षतः स मनःपरिणामो निरोढुं शक्यते इति । पर आह-यद्यप्यात्मवीर्यप्रकर्षाद्वाक्कायनिरोधः कृतः तथापि कथं तन्निरोधे सति स मनःपरिणामो विनाशयितुं शक्यते, मनो हि वाक्कायाभ्यामत्यन्तविलक्षणं भिन्नवर्गणोपादानत्वात्, ततो न वाक्कायनिरोधायत्तौ मनःपरिणामविनाशावित्यत आह'तमि य इत्यादि' तस्मिन्-वाक्कायनिरोधे कृते सति प्रायः शुभ एव भावो जायते नाशुभः । अशुभवाक्काय- प्रवृत्तिलक्षणसहकारिकारणाभावात् । परिणामो हि कर्मविपाकोदयवशादुदितोऽपि सातत्येन प्रवृत्तौ स्वानुकूलवाकायचेष्टादिसहकारिकारणमपेक्षते यथा प्रदीपो निर्वातस्थानादीनि, शुभोऽपि भावो नाशुभवाक्कायचेष्टा-निरोधमात्रनिबन्धनः किंत्वनुकूलकर्मविपाकोदयसंभवनिमित्तस्ततोऽशुभवाक्कायचेष्टानिरोधेऽपि कृते सति यदाऽनुकूलकर्मविपाकोदयो भवति तदा शुभो भाव उपजायते नत्वन्यदेत्येतत्सूचनार्थं प्रायोग्रहणमिति, तस्माच्च शुभभावादुपजायमानादचिरेण तस्यसंक्लिष्टमनःपरिणामस्य क्षयो भवति, तस्य तेन विरुद्धत्वात, ज्वलनस्येव जलादिति । इह न यतः कारणानुच्छेदे कार्यस्योच्छेदो भवति ततोऽशुभमनः परिणामनिवृत्त्यर्थं तत्सहकारिभूताशुभवाक्कायचेष्टानिरोध उपात्तः, न च पवनादिसहकारिमात्रनिरोधेऽपि कृते सति हुतवहो विध्यायति यावन्न सलिलसंपातो भवति तत इहापि तत्प्रतिपक्षभूतः शुभभाव उपात्तो, न चासावपि प्रायोऽशुभवाक्कयचेष्टानिरोधलक्षणसहकारिकारणमन्तरेणोदयते इति तदुपादानमपि सफलमेवेति स्थितम् ॥९४१॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- આ વાણી-કાયનો નિરોધ આત્મવીર્યના પ્રકર્ષ વિના સંભવે નહીં, (મન જયારે પ્રબળ દુષ્ટભાવથી પ્રાય: પોતાને અનુસરનારા વાણી-કાયાને દુષ્ટભાવમાં પ્રવૃત્ત કરવા જોર કરતું હોય, ત્યારે એ મનથી પણ વધુ પ્રબળ આત્મવીર્ય હોય અને તે મનસાથેના સંઘર્ષમાં જીની વાણી-કાયપર પ્રભાવ જમાવે, તો જ વાણી-કાયનો નિરોધ શકય બને, વાણી-કાયાની સ્વતંત્ર તો મનથી વિપરીત વર્તવાની શક્તિ જ નથી, તેથી જ “આત્મવીર્યના પ્રકર્ષથી તે મન:પરિણામનો નિરોધ શકય બને એમ કહ્યું. પૂર્વપક્ષ:- ચાલો માની લઇએ કે આત્મવીર્યના પ્રકર્ષથી વાક્કયનો નિરોધ કર્યો. પણ તે નિરોધ માત્રથી જ દુટમનોભાવનો વિનાશ શકય છે. તેમ કેવી રીતે કહી શકાય? કારણ કે મન તો વાણી-કાયાથી તદ્દન વિલક્ષણ જ છે. કેમકે મન તો મનોવર્ગણારૂપ ભિન્ન વર્ગણાના પુગળોથી બનેલું છે. (વચન-ભાષાવર્ગણાના પુણળોથી અને માનવીયશરીર ઔદારિકવર્ગણાના પુળોથી બનેલું છે. તેથી મનોભાવનો નાશ કંઇ વાણી-કાયાના નિરોધને આધીન નથી. ઉત્તરપક:- વચન-કાયાનો નિરોધ થવાથી પ્રાય: શુભભાવ જ પેદા થાય છે, નહીં કે અશુભ. કારણ કે અશુભભાવમાં સહકારી કારણરૂપ અશુભ વચન-કાયાની પ્રવૃત્તિ ગેરહાજર છે. કર્મના વિપાકોદયથી ઉદ્ભવેલો પણ પરિણામ સ્વપ્રવૃત્તિમાં સાતત્ય જાળવી રાખવા તો પોતાને અનુકૂળ વાક-કાયચેષ્ટાદિરૂપ સહકારી કારણની અપેક્ષા રાખે જ છે. અર્થાત પ્રબળ કર્મોદયના કારણે તેવાઅશુભબાલનિમિત્ત પામીને કે પાયા વિના અશુભભાવ અને બાલ તેવા નિમિત્ત પામીને કે પામ્યા વિના પ્રાય: શુભાત્મપરિણામથી શુભભાવ) કો'ક શુભાશુભભાવ ઉત્પન્ન તો થઇ જાય, પણ તે ભાવ લાંબો તો જ ટકે, જો તેને વાણી-કાયાઆદિ બાહ્યનું બળ મળે. જેમ દિવાસળીઆદિના બળપર એકવાર દીવો પ્રગટી તો જાય, પણ તેને લાંબો સમય ટકવા માટે તો પવન વિનાની જગ્યા વગેરે સહકારીની જરુર પડે જ છે. વળી શુભભાવ પણ કંઈ અશુભ વાયના નિરોધ માત્રથી પ્રગટ થતો નથી, પરંતુ સ્વાનકૂળ કર્મના વિપાકોદયના સંભવરૂપ નિમિત્તની અપેક્ષા રાખે છે. તેથી અશુભવાકાયચેષ્ટાનો નિરોધ કર્યા પછી પણ જયારે શુભભાવજનક કર્મવિપાકોદય થાય છે, * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 174 * * * * * * * * * * * * * * * Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્વાર જે જે જ * * * * * * * * * * * * * * * ત્યારે જ શુભભાવ ઉત્પન્ન થાય છે; નહીં કે જયારે ત્યારે. આ અર્થનું સૂચન કરવા જ “પ્રાયઃ પદનું ઉપાદાન કર્યું છે. અને ઉત્પન્ન થયેલા શુભમનોભાવથી સંકિલષ્ટ મનોભાવ શીવ્રતયા નાશ પામે છે, કેમકે અશુભભાવને શુભભાવસાથે સીધો વિરોધ છે. જેમકે અગ્નિને પાણી સાથે. જગતમાં કારણના નાશ–અભાવ વિના કાર્યનો નાશ થાય નહીં. તેથી અશુભભાવની નિવૃત્તિ માટે તેના સહકારી કારણભૂત અશુભવાકાર્યાનિરોધનો ઉલ્લેખ કર્યો. વળી પવનાદિ સહકારીમાત્રનો વિરોધ કરવામાત્રથી પણ કંઇ અગ્નિ જયાં સુધી પાણી ન પડે ત્યાં સુધી ઠરી જતો નથી, તેથી પ્રસ્તુતમાં પણ અશુભભાવના વિરોધી એવા શુભભાવનો ઉલ્લેખ કર્યો. વળી આ શુભભાવ પણ પ્રાય: અશુભવાકાયના નિરોધરૂપ સહકારી કારણ વિના ઉદય પામે નહીં, તેથી પણ અશુભવાકકાયનિરોધનો ઉલ્લેખ સાર્થક કરે છે. પ૯૪૧ વાણિજયોચિત કળા' નો જવાબ यच्चोक्तम्- 'वाणिज्जुचियकलं चियेति (कलंपिवेति)' तत्राह - પૂર્વપલે જે “વાણિજયોચિત કલા (ગા. ૯૨૬) ઇત્યાદિ કહ્યું તેનો હવે જવાબ આપે છે वाणिज्जुचियकलाए तु णेवमपसत्थगो मुणेयव्वो । पायमणवज्जवित्ती निच्छयओ सोवि पडिसिद्धो ॥९४२॥ . (वाणिज्योचितकलायां तु नैवमप्रशस्तको ज्ञातव्यः । प्रायोऽनवद्यवृत्तिनिश्चयतः सोऽपि प्रतिषिद्धः ॥ __वाणिज्योचितकलायां तु न एवं-चौर्योचितकलायामिवाप्रशस्तकः परिणामो ज्ञातव्यः किंतु प्रशस्तः, यतः प्रायोऽनवद्या वृत्तिरेषा, निश्चयतः पुनः सोऽपि वाणिज्योचितकलासंभवी परिणामः प्रतिषिद्धः ॥९४२॥ ગાથાર્થ:- વાણિજયસંબંધી ઉચિતકલામાં કંઈ ચોરીને યોગ્ય કલાની જેમ અપ્રશસ્ત પરિણામ હોતો નથી, પરંતુ પ્રશસ્ત પરિણામ હોય છે, કેમકે પ્રાય: આ વાણિજયવૃત્તિ નિર્દોષ હોય છે. આ વાત વ્યવહારથી થઈ. નિશ્ચયથી તો વાણિજયઉચિતકલા સંબંધી પરિણામ પણ પ્રતિષેધપાત્ર જ છે. આટલું સમજી રાખવું. ૯૪રા कथमेतदवसीयत इति चेत् ? आह - નિશ્ચયથી વાણિજયોચિત કલા પ્રતિષિદ્ધ છે એવો ખ્યાલ કેવી રીતે આવે? તેવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે उचियादणत्थगं चिय धम्मादुचितत्तणेण तस्सत्ति । पहिसेहविहाणा इय इटेयरसिद्धिकलियाई ॥९४३॥ (उचिताद्यनर्थकमेव धर्मादुचितत्वेन तस्येति । प्रतिषेधविधाने इति इष्टेतरसिद्धिकलिते ॥) यस्मान्निश्चयनयमतेन इदं वाणिज्यमुचितमादिशब्दादनुचितं सर्वथानर्थकमेव-अनर्थकरमेव इति, तस्मात्तस्य वाणिज्यस्य धर्माधुचितत्वेन ये प्रतिषेधविधाने ते इष्टेतरसिद्धिकलिते-प्रतिषेध इष्टसिद्धिकलितो विधानमनिष्टसिद्धिकलितमिति । ननु कथं धर्मोचितस्य प्रतिषेध इष्टसिद्धिकलितः? तस्य धर्मफलत्वेनोपादातुमुचितत्वात्, न, निश्चयतो धर्मार्थं तत्र प्रवृत्ताविष्यमाणायां तदभावस्यैव कर्तुमुचितत्वात्, सर्वसङ्गपरित्यागस्तत्त्वतो धर्म इति हि समयसारविदः, तदुक्तम्-“धर्मार्थयस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥१॥ इति" यदा तु कर्मोदयदोषतो न निश्चयतो धर्मे प्रवर्तितुमुत्सहते तदा वरमुचितवाणिज्यकलायामेव प्रवर्तेत, तस्याः प्रायो निरवद्यवृत्तित्वात्, न तु चौर्यादिकर्मणि, तस्य नरकादिकुगतिहेतुसंक्लिष्टपरिणामकारणत्वादत एवोच्यते 'वाणिज्जुचियकलाए तु णेवमपसत्थगो मुणेयव्वोत्ति' ॥९४३॥ ગાથાર્થ:- નિશચયનયમતથી ઊંચિત કે (આદિપદગ્રાહ્ય)અનુચિત વાણિજય સર્વથા અનર્થકર જ છે. તેથી તે વાણિજયઅંગે ધર્માદિ ઉચિતરૂપે તો પ્રતિષેધ અને વિધાન જ ઈષ્ટ-અનિષ્ટરૂપે સિદ્ધ થાય છે. અર્થાત વાણિજયાદિકલામાં ઔચિત્યનો પ્રતિષેધ ઇષ્ટસિદ્ધિરૂપ છે. અને ઔચિત્યનું વિધાન અનિષ્ટસિદ્ધિરૂપ છે. શંકા-ધર્મોચિતવેપાર ધર્મરૂપફળથી યુક્ત છે. તેથી ઉપાદેયતરીકે યોગ્ય છે. તેના પ્રતિષેધને ઇષ્ટસિદ્ધિરૂપ કેમ માનો છો? સમાધાન:- નિશ્ચયનયથી તો ધર્મ માટે વાણિજયાદિમાં પ્રવૃત્ત થવાની ઇચ્છા રાખવા કરતાં તો વેપારાદિ ન કરવા જ બહેનર છે. કારણ કે સર્વસંગનો ત્યાગ જ તાત્વિક ધર્મરૂપ છે. એમ શાસ્ત્રના રહસ્યોના જાણકાર કહે છે. કહ્યું જ છે કે “ધર્મમાટે જેને ધનની ઈચ્છા છે, તેને ઇચ્છા ન રાખવી એ જ શ્રેષ્ઠતર છે, કેમકે (ખરડાઈન) કાદવ ધોવા કરતાં કાદવનો દૂરથી સ્પર્શ જ ન કરવો વધુ સારો છે.” * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -175 * * * * * * * * * * * * * * Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ यारित्रद्वार + + જયારે કર્મોદયના દોષથી નૈશ્ચયિક ધર્મમાં પ્રવૃત્તિ કરવાનો ઉત્સાહ જાગતો નથી, ત્યારે ઉચિત વેપારકલામાં પ્રવૃત્તિ કરવી જ સારી છે, કેમકે તે જ (=ઉચિત વેપારકલા જ)પ્રાય: નિરવધુ નિર્દોષ આજીવિકા છે, ચોરીઆદિ કાર્યો તો નરકઆદિ દુર્ગતિમાં કારણભૂત સંકિલટપરિણામના જનક હોવાથી બિલકુલ યોગ્ય નથી. આ આશયથી જ ‘વાણિજયોચિતકલામા આમ (-ચોરીની જેમ) અપ્રશસ્ત પરિણામ નથી એમ જાણવું' એવું કથન છે. ૫૪૩ગા શ્રમણાદિના દૃષ્ટાંતથી અન્યચોરીમાં આપત્તિ यच्चोक्तं 'समणाणमित्यादि' तत्राह - वजी 'सभगाए।.... (जा (२८) इत्यादि ने पूर्वपक्षेऽधुं त्यां खायार्यलगवंत 5 छेसमणादीणं नो हरियव्वमियमिट्ठमेव अम्हाणं । एत्तो च्चिय णाताओ सेसविहाणं तुहाणिट्टं ॥९४४॥ ( श्रमणादीनां न हर्त्तव्यमितीष्टमेवास्माकम् । अत एव न्यायात् शेषविधानं तवानिष्टम् II) श्रमणादीनां संबन्धि न हर्त्तव्यमितीदमस्माकमिष्टमेव परं यत एव न्यायात् - तद्दुःखसंभवलक्षणात् तेषां संबन्धि द्रव्यं नापहियते तत एव न्यायात् शेषविधानं - शेषाणां संबन्धिनो द्रव्यस्यापहरणविधानं तवानिष्टं, तेषामपि द्रव्यापहरणे दुःखसंभवात् ॥९४४॥ ગાથાર્થ:- શ્રમણવગેરેના ધનઆદિની ચોરી ન કરવી' એ વાત તો અમને માન્ય જ છે. પરંતુ તેમને દુ:ખ થવાનો સંભવ” રૂપ જે ન્યાયથી તમે તેમના ધનની ચોરીનો નિષેધ કરો છો, તેજ ન્યાયથી બાકીનાનુ ધન હરવું' એવું તમારુ વિધાન અનિષ્ટ સિદ્ધ થાય છે, કેમકે એ બાકીનાઓને પણ પોતાના ધનઆદિની ચોરી થાય તો દુ:ખ થવાનો સંભવ છે જ. ૫૯૪૪૫ एतदेवाह - खा वातनुं समर्थन उरता 5खे छे...... तेसिंपि जओ दुक्खं इतरेसिंपि य ण होइ केसिंचि । न य नज्जइ भेदेणं जुत्तो ता सव्वपडिसिद्धो (सेहो ) ॥९४५॥ (तेषामपि यतो दुःखमितरेषामपि च न भवति केषाञ्चित् । न च ज्ञायते भेदेन युक्तस्तस्मात्सर्वप्रतिषेधः ॥ ) तेषामपि—श्रमणाद्यतिरिक्तानां धनिनां धनापहारे यतः केषांचिद्दुःखमुपजायते इतरेषामपि च श्रमणादीनां केषांचिन्नोपजायते, न च प्रतिपुरुषं भेदेन ज्ञातुं शक्यते यथाऽस्य धनापहारे दुःखं भविष्यति अस्य नेति, 'ता' तस्मात् सर्वस्यापि द्रव्यापहारे प्रतिषेध एव तव युक्त इति ॥ ९४५ ॥ ગાથાર્થ:- શ્રમણાદિ સિવાયના બીજાઓને પણ કેટલાકને પોતાના ધનવગેરેની ચોરીમાં દુ:ખ થાય છે, અને કેટલાક શ્રમણવગેરે એવા પણ છે કે જેઓને પોતાના ધનવગેરેની ચોરીમાં દુ:ખ નથી થતું. અને એક એક પુરુષનો વિભાગ કરી એવુ ચોક્કસરૂપે તો જાણી જ શકાતુ નથી કે ભાઇ! આનુ ધન લેવાથી આને દુ:ખ થશે, અને પોતાનુ ધન ચોરાવાથી આને દુ:ખ નહીં થાય”... તેથી તમારે બધાના જ ધનની ચોરીનો નિષેધ કરવો યોગ્ય છે. ૫૯૪પા નાસૃષ્ટનિયમમાં આપત્તિ नासि इह नासइ एमादि जमुत्तमेयमवि मोहो । नाखुट्टम्म मरिज्जइ हिंसाए तहवि जं दोसो ॥ ९४६ ॥ (नासृष्टमिह नश्यति एवमादि यदुक्तमेतदपि मोहः । नात्रुटिते म्रियते हिंसायां तथापि यद् दोषः ॥) यदुक्तं 'नासृष्टमिह नश्यती' त्यादि, तदपि मोह एव, यत् - यस्मान्न 'अखुट्टम्मित्ति अत्रुटिते आयुषि कश्चित् म्रियते किंतु त्रुटित एव तथापि हिंसायां दोषो भणितः, तथा अत्रापि यद्यपि नासृष्टमिह धनं मोष्यस्य नश्यति तथापि तद्द्रव्यापहरणे दोषो द्रष्टव्य एवेति ॥९४६॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષે નાસુષ્ટ ઈહ નશ્યતિ' (ગા. ૯૩૦) એવું જે કહ્યું, તે પણ તેમની મૂઢતાનું જ પ્રદર્શન છે. કેમકે એમ તો આયુષ્ય તૂટ્યા વિના કોઇનુ મોત આવતું નથી, છતા જે હિંસા કરે છે તેને તો હિંસાકૃતદોષ લાગે જ છે. (ત્યા એવો બચાવ ચાલતો નથી કે મેં માર્યુ તેથી મર્યો નથી, પણ આયુષ્ય પૂરુ થવાથી એ મર્યો છે, જો એનું આયુષ્ય પૂરું થયું ન હોત, તો મારા મારવા છતા + + धर्मसंगल-लाग २ - 176+ + + + ++++++++ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે કે જે જ જજ જ કે જે જ જજ જ છે કે ચારિત્રદ્ધાર છે જે તે મરત નહીં, તેથી મારવામાં મને કોઈ દોષ નથી...) એજ પ્રમાણે પ્રસ્તુતમાં પણ જેનું ધન ચોરવાનું છે તેનું અનુષ્ટ ચોરાવા માટે નહી સર્જાયેલું ધન ચોરાતું નથી, અર્થાત્ તેનું જે ધન સુષ્ટ છે (ચોરીમાટે સર્જાયું છે, તે જ ચોરાય છે તેથી એ ચોરીમાં દોષ નથી, એમ કહેવું બરાબર નથી. કેમકે જે તેનું ધન ચોરે છે તે પોતાના ચોરી કરવાના દુષ્ટભાવથી ચોરી કરે છે, તેથી એ દુષ્ટભાવપૂર્વકની પ્રવૃત્તિ લેવાથી એ પ્રવૃત્તિ સફળ થાય કે નિષ્ફળ જાય, ઘેષરૂપ બને જ. જયાં એકલો દુષ્ટભાવ પણ શેષરૂપ છે, ત્યાં એ ભાવપૂર્વકની પ્રવૃત્તિ સંતરામ દોષરૂપ બને છે.) તેથી પરદ્રવ્યની ચોરીમાં દોષ છે જ. પ૯૪ઘા अत्रैवाभ्युच्चयेन दूषणान्तरमाह - આ જ વિષયમાં અમ્યુચ્ચયથી અન્ય દૂષણ બતાવે છે किं चासिटुं नो लब्भइत्ति देन्तस्स पावइ न किंचि । इटुं च तत्थ पुन्नं तुझं ममं च तं किह णु ? ॥९४७॥ (किञ्चासृष्टं न लभ्यत इति ददतः प्राप्नोति न किञ्चित् । इष्टं च तत्र पुण्यं तव मम च तत्कथं नु ? ) किंच, नासृष्टमिह जगति किंचिदपि लभ्यते किंतु सृष्टमेव इति, तस्माद् धर्मार्थ ददतो दातुरपि न किंचित्पुण्यं प्राप्नोति, अथ च तत्र दाने दातुः पुण्यं तव मम चेष्टं, ततस्तत्पुण्यं कथं नु भवेत् , नैव कथंचनापि भवेदिति भावः, न्यायेनानुपपद्यमानत्वात् ॥९४७॥ ગાથાર્થ- જેમ અસુષ્ટનો નાશ નથી તેમ અસુષ્યની પ્રાપ્તિ નથી. પ્રાપ્ત થવા ન સર્જાયેલી ચીજ પ્રાપ્ત ન થાયપરંતુ સુષ્ટ જ પ્રાપ્ત થવા સર્જાયેલી ચીજ જ) પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી ધર્માર્થ ઘન કરનાર દાતાને કશો લાભ થવો જોઇએ નહીં. કેમકે એ તો પ્રાપ્ત કરનારને પ્રાપ્ત થવા સર્જાઇ હેવાથી જ એ ચીજ પ્રાપ્ત થાય છે, તેમાં દાતાએ કશું કર્યું નથી!) આમ દાન દેવા છતાં દાતાને પુણ્યની કમાણી ન થવાની આપત્તિ છે. જયારે તમને પૂર્વપલ) અને અમને ત્યાં ભૂદાન સ્થળે) દાતાને પુણ્ય થાય તે ઇષ્ટ છે. પણ તમારા નાસુષ્ટનિયમ મુજબ તો (ચોરીસ્થળે પાપઆદિપ દોષની જેમ) આ સ્થળે પુણ્ય પણ થવું જોઇએ નહીં. કેમકે તે ન્યાય સાથે સંગત નથી. ૯૪ળા દ્રાદિને પામી કર્મના ઉદયાદિ अत्र परस्याभिप्रायमाशङ्कमान आह - અહીં પૂર્વપક્ષના અભિપ્રાયની આશંકા કરતાં કહે છે अह उ उवक्कमिज्जति आऊ मरणम्मि इहवि तस्सेव । लाभंतराइयं जं दव्वादी पप्प उदयादी ॥९४८॥ (अथ तूपक्रम्यते आयुर्मरणे इहापि तस्यैव । लाभान्तरायं यद् द्रव्यादीन् प्राप्य उदयादयः ॥) त-मरणे क्रियमाणे मार्यमाणस्य जन्तोरायरूपकम्यते-दीर्घकालवेद्यं सत अल्पकालवेद्यतया क्रियते. डहापिदाने यस्मै दीयते तस्यैव यल्लाभान्तरायं कर्म तत दानेनोपक्रम्यते-क्षयोपशमावस्थीक्रियते. न च वाच्यं कथं दीर्घकालतया बद्धं सत् स्वल्पकालवेद्यतया क्रियते कथं वा उदितं सत् क्षयोपशमावस्थीक्रियते? यत आह-'जं दव्वाई पप्प उदयाई' यत्-यस्मात् द्रव्यादीन्प्राप्य कर्मणामुदयादयः-उदयक्षयक्षयोपशमादयो जायन्ते तस्मादायुष उपक्रमणंस्वल्पकालवेद्यतयोपस्थापनलक्षणं लाभान्तरायस्य च क्षयोपशमावस्थापादानरूपं न विरुध्यते इति ॥९४८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- હણાતા જીવને મારતી વખતે તેનું આયુષ્ય ઉપક્રમ પામે છે. અર્થાત દર્ધકાલ ચાલનારું આયુષ્ય અલ્પકાળમાં પૂરું થાય એવું કરાય છે. મારનારનો આ ગુનો છે.). - તથા ઘન દેતીવખતે જેને દાન અપાય છે, તેના લાભાાંતરાયકર્મનો દાનથી ઉપકમ કરાય છે. અર્થાત તેના લાભાંતરાય કર્મનો કયોપશમ કરાય છે. અહીં એમ ન કહેવું કે દીર્ધકાલ રહે એવી રીતે બાંધેલું કર્મ અલ્પકાળમાં વેદાય અનુભવાય જાય એવું શી રીતે કરી શકાય? અથવા ઉદયમાં આવેલા લાભાંતરાયઆદિકર્મોને લયોપશમાદિ અવસ્થામાં શી રીતે ફેરવી શકાય? કારણ કે દ્રવ્યાદિને પામી કર્મમાં ઉદય, જય, જયોપશમાદિ થાય છે. તેથી આયુષ્યનો અતિઅલ્પકાળમાં વેરૂપે કરવારૂપ ઉપકમ અને લાભાંતરાયનો કયોપશમ અવસ્થા પમાડવારૂપ કયોપશમ આ બન્નેમાં કોઈ વિરોધદોષ નથી. u૯૪૮ द्रव्यादीनेवाश्रित्य कर्मणामुदयादीन्दर्शयति - દ્રવ્યાદિને જ આશ્રયી કર્મના ઉદયઆદિ થાય છે તે વાત દર્શાવતા કહે છેકે જ જે ક ક ક ક ધર્મસંગહણિ-ભાગ ૨ ll * * * * * * * * * * * * * * Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + AIRaqार + ++ ++ ++ + + + + + + + + + + उदयक्खयक्खओवसमोवसमा एवऽत्थ कम्मुणो भणिता । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥९४९॥ (उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा एवात्र कर्मणो भणिताः । द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं च भावं च संप्राप्य ) उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा अत्र-जगति प्रवचने वा कर्मणः-आयुरादेर्भणितास्तीर्थकरगणधरैर्द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं चभावंचसंप्राप्य,यथानिद्रावेदनीयस्यद्रव्यमाहिषंदधि,क्षेत्रंजाङ्गलं,कालरात्रिलक्षणं प्रावलक्षणंवा,भवंमनुष्यतिर्यसंबन्धिनं, • भावम् आलस्यादिकं प्रतीत्योदय इति ॥९४९॥ यार्थ:- मानसनमा २- शेथे सायुध्या भान। (१) ६५ (२)१५ (3) क्षयोपशम भने (४) ७५शम, (१) द्रव्य (२) क्षेत्र (3) Sta (४) म अने (५) मा मा पांथने आश्रयी बताव्या छ. हेमा सना धना દહિરૂપ દ્રવ્ય, જંગલ જેવું ક્ષેત્ર, રાતરૂપ અથવા વર્ષાકાળરૂપ કાળ, મનુષ્ય કે પશુરૂપ ભવ અને આળસઆદિ ભાવને આશ્રયી નિદ્રાવેદનીય કર્મનો (=ઉંધનો) ઉદય થાય છે. ૯૪લા ता एत्थ सो निमित्तं दोण्हवि भावाण जेण गुणदोसा ।। जुज्जति तेण तस्सा एवं खलु संगतं उभयं ॥९५०॥ (तस्मादत्र स निमित्तं द्वयोरपि भावयो र्येन गुणदोषौ । युज्येते तेन तस्य एवं खलु संगतमुभयम् ॥ यत एवं 'ता' तस्मादत्र स-हिंसको दाता च येन कारणेन द्वयोरपि भावयोः- आयुरपवर्तनलाभान्तरायक्षयोपशमावस्थापादनलक्षणयोनिमित्तं- कारणं तेन कारणेन तस्य दातुर्हिसकस्य च यथाक्रमं गुणदोषौ युज्येते, तत एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितं संगतमुभयं-दातुः पुण्यं हिंसकस्य च पापमिति ॥९५०॥ - ગાથાર્થ:-આમ વસ્તુસ્થિતિ છે. તેથી તે–હિંસક અને દાતા આ બન્ને ક્રમશ: આયુષ્યના અપવર્તનમાં અને લાભાનરાયના લયોપશમમાં કારણ બને છે. તેથી દાતાને ગુણ લાભ અને હિંસકને ઘેષ અપરાધ પ્રાપ્ત થાય તે યોગ્ય જ છે. તેથી દાતાને પુણ્ય અને હિંસકને પાપ લાગે તે અવશ્ય સંગત જ છે. ૯૫ના अत्राह - પૂર્વપક્ષીય વાતને સ્વપક્ષના સમર્થન જોડના આચાર્યવર કહે છે जइ एवं धणनासे तओ निमित्तंति तस्स दोसो उ । अह णो निमित्तमिहई इतरत्थ तयंति का जुत्ती? ॥९५१॥ (यद्येवं धननाशे सको निमित्तमिति तस्य दोषस्तु । अथ नो निमित्तमिह इतरत्र तकदिति का युक्तिः ॥ यद्येवमभ्युपगम्यते तर्हि परेषां धननाशेऽपि 'तउत्ति सकोऽदत्तादानग्राही निमित्तं-कारणमिति, तस्मान्मार्यमाणपुरुषायुषोपक्रमणनिमित्तस्य हिंसकस्येव तस्य-परवित्तमपहर्तुर्दोष एव । तुरेवकारार्थः । अथ तस्मिन् धननाशे स न निमित्तमिष्यते किंतु विधिसृष्ट एव स परेषां धननाशस्ततो न स तत्र निमित्तमिति । अत्राह-'इयरत्थ तयंति का जुत्ती' इतरत्र-हिंसायां दाने च तकत्-निमित्तं स दाता हिंसकश्च भवतीत्यत्र का युक्तिः? नैव काचिदिति भाव, उभयोरपि तुल्ययोगक्षेमत्वात् ।।९५१॥ ગાથાર્થ:- આમ ને સ્વીકાર કરશો, તો તે અદત્તાદાનગાહ ( ચોર) બીજાના ધનના નાશમાં પણ કારણ બને જ છે. તેથી હણાતાં પુરૂષના આયુષ્યના ઉપક્રમમાં નિમિત્ત બનવાથી જેમ હિંસકને ઘેષ છે, તેમ પરધનનાશમાં નિમિત્ત બનવાથી ચોરને દોષ લાગે જ છે. (મુળમાં “ત' જકારાર્થક છે.)હવે જો તમે “તે ધનનાથમાં ચોર નિમિત્ત નથી બનતો, પરંતુ એ બીજાઓનો ધનનાથ વિધિષ્ટ (ભાગ્યસજિત) જ છે,' એમ સ્વીકારશો તો હિંસા અને દાન આ બે સ્થળે હિંસક અને દાતા નિમિત્ત બને એમ કહેવામાં કઇ યુક્તિબતાવશો? અર્થાત કોઇયક્તિ બતાવી શકશો નહીં. કેમકે ઉભયસ્થળે સમાન યોગક્ષેમ છે.(આક્ષેપ-પરિહાર • समान छे.)ueu... उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરે છે. આ इय वत्थुसहावं जाणिऊग सुमणो उ णो पयट्टेज्जा । चोरियभावे तह या बीहेज कलंकमरणातो ॥९५२॥ ++++++++++++++++ sle-11 - 178 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शरित्रवार ++++++++++++++++++ (इति वस्तुस्वभावं ज्ञात्वा सुमनास्तु न प्रवर्तेत । चौर्यभावे तथा च बिभीयात्कलंकमरणात् ॥ इतिः-एवमुपदर्शितेन प्रकारेण वस्तुस्वभावं ज्ञात्वा सुमनाः प्रशस्तमनाः सन्नैव चौर्यभावे प्रवर्तेत । तथा यदक्तं 'न य मरणा बीहेज्जत्ति' तत्प्रतिक्षेपेणोपसंहरति-'तह येत्यादि तथा बिभीयात्सर्वदा कलङ्करूपान्मरणाद येन सर्वथा चौर्ये प्रवृत्तिर्न भवतीति ॥९५२॥ ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્ત પ્રકારે વસ્તુ સ્વભાવ જાણીને શુભભાવાળા થઇ ચોરીકાર્યમાં પ્રવૃત્ત થવું નહીં. (અર્થાત જે તમારામાં શુભભાવ હૈય, તો તમારે ચોરી કરવી ન જોઈએ... ચોરી કરનાર શુભભાવમાં રહેતો જ નથી.) તથા પૂર્વપક્ષે “ન ય મરણા' (મરણથી ડરવું નહીં ગા.૯૩૧) એવું જે કહ્યું તેનાથી વિરુદ્ધ ઉપસંહાર કરતાં આચાર્ય કહે છે–કલંકરૂપ મોત (“ચોર' તરીકેનું જે કલંક લાગે છે તે જ મોતરૂપ છે.) થી હમેશા ડરવું જોઇએ, જેથી ક્યારેય ચોરી કરવાનું મન જ ન થાય. u૫રા અચૌર્ય માટે પ્રેરણા यच्चोक्तं - 'हरिएवि पुव्वगं चिय इत्यादि' तत्राह - પૂર્વપક્ષે ગા.૯૩૨માં “હરિએ વિ' (ચોરી કર્યા પછી પણ ઈત્યાદિ) જે કહ્યું તેનો જવાબ આપે છે हरिऊण य परदव्वं पूर्य जो कुणइ देवतादीणं । दहिऊण चंदणं सो करेइ अंगारवाणिज्जं ॥९५३॥ . (हृत्वा च परद्रव्यं पूजां यः करोति देवतादीनाम् । दग्ध्वा चंदनं स करोति अङ्गारवाणिज्यम् ॥) हृत्वा च परद्रव्यं यः पूजां करोति देवतादीनामादिशब्दाद्वीरपुरुषपरिग्रहः स नूनं दग्ध्वा चन्दनं करोत्यङ्गारवाणिज्यम, . एतदुक्तं भवति-यथा कश्चिदज्ञस्तुच्छाङ्गारवाणिज्यनिमित्तं महामूल्यचन्दनकाष्ठानि दहति एवमेषोऽपि तुच्छफलस्कन्दादिदेवतापूजार्थमात्मानं विशुद्धस्वभावतया चन्दनादपि महामूल्यं परवित्तापहरणहे तुसंक्लिष्टमनःपरिणामहुतवहेन भस्मसात्करोतीति ॥९५३॥ ગાથાર્થ – પરદ્રવ્યની ચોરી કરી દેવતાઆદિની–આદિશબ્દથી વીરપુરુષવગેરેની જે પૂજા કરે છે, તે ખરેખર ચંદન બાળી અંગારનો ધંધો કરે છે. તાત્પર્ય:- જેમ કોઇ અજ્ઞજીવ તુચ્છ અંગારવેપાર માટે મહામૂલ્યવાન ચંદનકાઠેને બાળે, તેમ આ ચોર પણ સ્કન્દઆદિ દેવોની તુચ્છફળવાળી પૂજા ખાતર વિશુદ્ધસ્વભાવયુક્ત હોવાથી ચંદનથી પણ મહામૂલ્યવાન આત્માને પરધનચોરીમાં કારણભૂત સંકિલષ્ટ મન:પરિણામરૂપ અગ્નિથી ભસ્મસાત કરે છે. ૯૫૩ यथैव परेण चौर्ये निःशङ्कप्रवृत्त्यर्थमन्येभ्य उपदेशो दत्तस्तेनैव प्रकारेणाचौर्येऽपि अनुकम्पया परं प्रत्युपदेशमाह - જેમ પૂર્વપક્ષકારે ચોરીમાં નિઃશંક પ્રવૃત્તિ માટે બીજાને ઉપદેશ આપ્યો, આચાર્ય પણ તે જ પ્રમાણે અનુકમ્પાથી બીજાને (પૂર્વપક્ષને) અચૌર્યઅંગે ઉપદેશ આપે છે. लोगम्मि य परिवादं कुकम्मपडिसेहणेण रक्खेज्जा । तह रक्खियम्मि नियमा परलोए नत्थि किंचि भयं ॥९५४॥ (लोके च परिवादं कुकर्मप्रतिषेधनेन रक्षयेत् । तथा रक्षिते नियमात्परलोके नास्ति किञ्चित भयम् ॥ लोकेऽपि परे(रि)वादम्-अपकीर्ति कुकर्मप्रतिषेधनेन परवित्तापहृतिलक्षणकर्मप्रतिषेधनेन रक्षयेत्, तथा रक्षिते च सति पर(रि)वादे नियमानास्ति परलोकेऽपि किंचिद्भयमिति ॥९५४॥ यार्थ:- ·५२५नयोरी३५ बुधभना प्रतिषषयी सातोमा अपयशथी र थाय छे. (तातो नथी.) અને આમ પરિવાદ રવાથી =અપયશથી બચવાથી) પરલોકમાં પણ અવશ્ય કોઇ ભય રહેતો નથી. u૯૫૪ गहितो य अमोक्खाए निच्चं चिय एत्थ मरणकेसरिणा । सव्वो जीवो तम्हा करेज सइ उभयलोगहियं ॥९५५॥ (गृहीतश्चामोक्षाय नित्यमेवात्र मरणकेसरिणा । सर्वो जीवस्तस्मात् कुर्यात् सदा उभयलोकहितम् ॥ गृहीतश्चामोक्षाय नित्यमेवात्र-जगति मरणकेसरिणा सर्वोऽपि जीवस्तस्मात्सदा कुर्यादु भयलोकहितं-सम्यग्धर्मानुष्ठानं न तु चौर्यादिकमिति ॥९५५।। ગાથાર્થ - આ જગતમાં મોતરૂપી સિંહે બધા જીવોને નહીં છોડવા માટે જ પકડ્યા છે. મોતના પંજાથી કોઇ છૂટી શકે નહ') +++++++++++++++H algi- -179+++++++++++++++ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शनिवार +++++++++++++++++M તેથી હંમેશા ઉભયલોક (આ અને પરલોક બને લોકમાં હિત થાય તેવા ધર્મનુષ્ઠાનો જ કરવા જોઇએ, નહીં કે ચોરી વગેરે. ૯૫પા અબહાસેવનપક્ષની દલીલો सांप्रतं चतुर्थमूलगुणमाश्रित्याक्षेपपरिहारावभिधित्सुराह - આમ ત્રીજા મૂળગુણ અંગે આક્ષેપ-પરિહાર બતાવ્યો...... હવે ચોથા મૂળગુણ અંગે આક્ષેપ-પરિહાર બતાવવા કહે છે. केई भणंति पावा इत्थीणासेवणं न दोसाय । सपरोवगारभावाद(द) स्सुगविणिवित्तितो चेव ॥९५६॥ .. (केचिद् भणन्ति पापाः स्त्रीणामासेवनं न दोषाय । स्वपरोपकारभावादौत्सुक्यविनिवृत्तितश्चैव ) केचित् भणन्ति पापाः यथा-स्त्रीणामासेवनं न दोषाय, अत्र हेतूनुपदर्शयति-'सपरो' इत्यादि, तस्मिन् कृते सति स्वपरोपकारभावात् औत्सुक्यविनिवृत्ति(त्ते) श्च ॥९५६॥ ગાથાર્થ:-- કેટલાક પાપીઓ કહે છે- સ્ત્રીઓની આસેવના દોષરૂપ નથી. અહીં તેઓ બતાવે છે- આ આસેવન કરવાથી પોતાને અને બીજાને (સેવાતી સ્ત્રીને) ઉપકાર થાય છે અને ઉત્સુકતા નિવૃત્ત થાય છે. પ૯૫દા तथा - વળી तत्तो सुहझाणातो पासवणुच्चारखेलणातेणं । नियमस्स निप्फलत्ता अतिप्पसंगाउ अवि य गुणो ॥९५७॥ (ततः शुभध्यानात्प्रसवणोच्चारखेलज्ञातेन । नियमस्य निष्फलत्वादतिप्रसङ्गादपि च गुणः ॥) ततः-स्त्रीणामासेवनात्सकाशात् प्रस्रवणोच्चारखेलज्ञातेन-प्रसवणादिदृष्टान्तेन प्रसवणादिपरित्यागादिवेतियावत्. शुभध्यानभावात्, तथा कस्यचित्पुनः पुरुषस्य पीडाया अभावेन नियमस्य निष्फलत्वात्, तथा शरीरस्थितित्वाविशेषेण प्रस्रवणादिष्वपि प्रतिषेधकरणप्रसक्तेरतिप्रसङ्गात् न स्त्रीणामासेवनं दोषाय अपि तु तस्मिन् कृते सति गृद्ध्यादिदोषाभावलक्षणो गुण एवोपजायते तस्मात्प्रसवणोच्चारखेलपरित्यागक्रियावदिदमुत्पन्ने वेदोदयजनिते दुःखे तदपाकर्तुमवश्यं कर्त्तव्यमिति ॥९५७॥ ગાથાર્થ:- સ્ત્રીઓના આસેવનથી એકી, બેકી અને કફઆદિના પરિત્યાગના દેષ્ટાન્તથી શુભધ્યાન સંભવે છે. વળી, કોક પુરુષને પીરના અભાવથી નિયમ નિષ્ફળ જાય છે. તથા સ્ત્રીના આસેવનની જેમ એકીવગેરે પણ શરીરની જ એક પ્રકૃતિરૂપ લેવાથી તે એકીવગેરે) અંગે પણ પ્રતિષેધ કરવાની આપત્તિરૂપ અતિપ્રસંગ આવે છે. તેથી સ્ત્રીઓનું આસેવન દોષરૂપ નથી, બલ્ક તે કરવાથી તે અંગેની ગુદ્ધિવગેરે દોષો દૂર થવારૂપ ગુણ જ થાય છે. તેથી એકી, બેકી, કફ વગેરેના પરિત્યાગની ક્રિયાની જેમ જયારે વેદોદય-સ્માદિ આસેવનઈચ્છામી દુઃખ પેદા થાય, ત્યારે (આદિના આસેવનદ્વારા) એ દુ:ખ અવશ્ય દૂર કરવું જ જોઇએ. ઘ૯૫છા तत्र सर्वानपि हेतून् विवरीषुः 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायात् प्रथमं तावत् स्वपरोपकाररूपं हेतुं विवृण्वन्नाह - હવે આ બધા હેતુઓનું વિવરણ કરવાની ઇચ્છાથી સૌ પ્રથમ વ્યથોદ્દેશ નિર્દેશ ન્યાયથી સ્વ-પરોપકારહેતનું વિવરણ કરતાં 5 छ मोहग्गिसंपलित्तं तं अप्पाणं च विज्झवेऊणं । सुहभावातो सपस्वगारो कह होइ दोसाय ? ॥९५८॥ (मोहाग्निसंप्रदीप्तां तामात्मानं च विध्याप्य । सुखभावात्स्वपरोपकारः कथं भवति दोषाय? मोहाग्निसंप्रदीप्तां ताम्-उपभोग्यां स्त्रियमात्मानं च मोहाग्निसंप्रदीप्तं मैथुनासेवनजलेन विध्याप्य सुखभावात्सुखभावसंपादनेन यः क्रियते स्वपरोपकारः स कथं दोषाय भवति ? नैव भवतीतियावत् । स्वपरोपकारस्यागमे लोके च पुण्यफलतया प्रसिद्धत्वादिति ॥९५८॥ ગાથાર્થ-તે ઉપભોગ્ય સ્ત્રી મોહાગ્નિથી પ્રદીપ્ત છે. પોતે પણ મોહગ્નિથી સંપ્રદીપ્ત છે. મૈથુનાસેવનરૂપ પાણીનો છંટકાવ કરવાથી બન્નેનો મોહાગ્નિ બુઝાય છે. તેથી બન્નેને સખભાવની પ્રાપ્તિ થાય છે. અને સ્વપરના સુખ માટે પ્રયત્ન કરવો એ જ તો સ્વ-પરોપકાર છે. આમ સ્વપરોપકાર થતો હોવાથી શો દોષ છે? આગમમાં અને લોકમાં સ્વપરોપકાર પુણ્યજનક તરીકે જ પ્રસિદ્ધ હોવાથી મૈથુનજન્ય સ્વપરોપકારમાં કોઇ દોષ નથી. u૯૫૮ : ' ++++++++++++++++ GRA- 2-180+ + + + + + + + + + + + + + + Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++ ++++++ +++ चारित्र + + + + + + + + + + + + + + + + + + द्वितीयं हेतुं व्याचिख्यासुराह - બીજી હેતની વ્યાખ્યા કરતાં કહે છે सव्वद्धा विग्धकरं चरणस्सासेवणं विणा तीए । कह णु नियत्तति पावं उस्सुगमिह सुप्पसिद्धमिणं ॥९५९॥ (सर्वाद्धा विघ्नकरं चरणस्यासेवनं विना तस्याः । कथं नु निवर्तेत पापमौत्सुक्यमिह सुप्रसिद्धमिदम् ॥) चरणस्य-चारित्रस्य सर्वाद्धा-सर्वकालं विघ्नकरमिह-अस्मिन् जगति सुप्रसिद्धमिदमौत्सुक्यं पापं-पापरूपं कथं नु नाम तस्याः- स्त्रिया आसेवनं विना निवर्तेत ? इति भावः ॥९५९॥ ગાથાર્થ:- આ (મથુનસંબંધી) ઉત્સુકતા ચારિત્રમાટે હંમેશા વિધ્ધકારકતરીકે જગતમાં પ્રસિદ્ધ છે. આમ પાપરૂપ આ ઉત્સુકતા સ્ત્રીના આસેવન વિના શી રીતે દૂર થઈ શકે? (અર્થાત ન જ થાય.) u૯૫લા तृतीयं हेतुं विवृण्वन्नाह - હવે ત્રીજા હેતનું વિવરણ કરતાં કહે છે आसेवणाएँ जायइ जं च विरागो तओ सुहज्झाणं । पासवणादि व्व तओ कायठिती होति कातव्वा ॥९६०॥ (आसेवनायां जायते यच विरागस्तस्मात्शुभध्यानम् । प्रसवणादिवत् ततः कायस्थितिः भवति कर्तव्या ॥) स्त्रीणामासेवनायां कृतायां सत्यामात्मादेर्बीभत्सतादिदर्शनेन यत्-यस्मात्कारणात् विरागो जायते, तस्माच्च विरागात् शुभं ध्यानं, ततः प्रसवणादिवत् कायस्थितिरेषा-स्त्रीणामासेवना भवति प्रेक्षावतामवश्यं कर्तव्येति ॥९६०॥ ગાથાર્થ:- સ્ત્રીઓનું આસેવન કરતી વખતે પોતાનું અને સ્ત્રીનું બીભત્સ સ્વરૂપદર્શન આદિથી વૈરાગ્ય થાય છે. અને આ વૈરાગ્યથી શુભધ્યાન થાય છે. તેથી પ્રસ્ત્રવણ(એકીવગેરેની જેમ શરીરની પ્રકૃતિરૂપ આ સ્ત્રીઆસવના વિચારશીલપુરુષોએ અવશ્ય કરણીય છે. u૯૬ના अधना 'नियमस्स निप्फलत्ते' त्येतद्व्याचिख्यासुराह - હવે “નિયમની નિષ્ફળતા એવા કથનનું વ્યાખ્યાન કરતાં કહે છે णियमेवि तासि न फलं पीडाभावातो कस्सइ तहावि । तस्स करणे ण कीरति दिक्खाणियमोवि चिंतमिदं ॥९६१॥ (नियमेऽपि तासां न फलं पीडाऽभावात् कस्यचित्तथापि । तस्य करणे न क्रियते दीक्षानियमोपि चिन्त्यमिदम् ॥) नियमेऽपि-प्रतिषेधेऽपि तासां-स्त्रीणां न फलं कस्यचिदीक्षामहे, पीडाया अभावात्, तथापि-पीडाया अभावे तस्य नियमस्य करणेऽभ्युपगम्यमाने दीक्षानियमोऽपि-दीक्षा मया न कर्त्तव्येति नियमोऽपि न क्रियते चिन्त्यमिदं, दीक्षाया अपि नियमः क्रियतामिति भावः, पीडाया अभावेऽपि नियमस्य फलवत्त्वाभ्युपगमात्, तस्य च पीडाया अभावस्य दीक्षाया नियमेऽप्यविशिष्टत्वात् ॥९६१॥ ગાથાર્થ:- અમને સ્ત્રીનો પ્રતિષેધ કરવામાં પણ મૈથુનત્યાગમાં પણ) કોઇને ફળ મળે તેમ લાગતું નથી. કેમકે પીડાનો અભાવ છે. સ્ત્રીઆસેવનમાં કોઇને પણ પીડા થતી ન લેવાથી સ્ત્રી પ્રતિષેધમાં કોઇ લાભ અમને દેખાતો નથી. તાત્પર્ય - જે પ્રવૃત્તિ સ્વ-પર કે અન્યને પીડારૂપ બનતી હોય, તેવી પ્રવૃત્તિનો નિષેધ પીડા અટકાવવાદ્વારા ધર્મ બની શકે, પણ જે પ્રવૃત્તિમાં કોઈને પીડા જ ન હોય- નિર્દોષ હોય તે પ્રવૃત્તિના નિયમ-પ્રતિષેધથી શો લાભ થવાનો?) જો પીરના અભાવમાં પણ નિયમ કરવો ઇષ્ટ હોય, તો મારે દીક્ષા ન લેવી એમ દીક્ષાઅંગે પણ નિયમ કેમ નથી કરાતો એ વિચારણીય છે. અર્થાત દિક્ષાનિયમ પણ કરવો જોઇએ. કારણ કે તમને પીડાના અભાવમાં પણ નિયમ ફળકારીરૂપે ઇષ્ટ છે. અને પીડાનો અભાવ તો દીક્ષા અંગેના નિયમમાં પણ અવિશેષરૂપે છે. દીક્ષાથી પણ કોઈને પીડા થતી નથી. ૯૬૧ सांप्रतं 'अइप्पसंगाउत्ति' एतद्भावयन्नाह - હવે “અતિપ્રસંગ' હેતનું ભાન કરતાં કહે છે ++++++++++++++++ slee-ला-२ - 181+++++++++++++++ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + Rat२ + + + + + + + + + + + + + + + + + पासवणाईण तहा किन्नो णियमोत्ति देहपीडाओ? । इतरनिवितीएँ तई किं णो तह गेहिमादीया ? ॥९६२॥ (प्रसवणादीनां तथा किन्न नियम इति देहपीडातः। इतरनिवृत्त्या सका किन्न तथा गृड्यादयः ॥ इह यथा प्रस्रवणादयः कायस्थितिः तथा स्त्रीणामासेवनमपि, ततः कायस्थितित्वाविशेषात्प्रसवणादीनां तथेतिस्त्रीणामासेवनस्येव नियमः-प्रतिषेधः किन्न क्रियते? सोऽपि क्रियतामिति भावः । 'देहपीडाउत्ति' तेषां प्रस्रवणादीनां नियमे कृते सति देहस्य पीडा भवति ततो न क्रियत इति चेत् ? ननु 'इयरनिवित्तीएत्ति' इतरस्याः- स्त्र्यासेवननिवृत्त्याः प्रतिषेधेन 'तइत्ति' सका पीडा किन्न भवति? भवत्येवेति भावः, तस्मात्तन्निवृत्तिरपि न कार्येति स्थितम् । अपि च, स्त्र्यासेवननिषेधे सत्यधिकतरा गृध्यादयो दोषाः प्रादुष्षन्ति, तथाहि - स्त्रीणामासेवनप्रतिषेधे सत्यौत्सुक्यानिवृत्तेस्तद्विषया महती गृद्धिरुपजायते, ततश्चार्तध्यानादय इति सुप्रसिद्धमेतत् ॥९६२॥ ગાથાર્થ:- અહીં, જેમ પ્રસવણ (એકી) વગેરે શરીરની પ્રકૃતિ છે, તેમ સ્ત્રીઓનું સેવન પણ શરીરની પ્રકૃતિ જ છે. આમ શરીરપ્રકૃતિરૂપે બને સમાન છે. તેથી સ્ત્રીઓના આસેવનની જેમ પ્રસવણઆદિનો પણ નિષેધ કેમ કરાતો નથી? અર્થાત તેઓને પણ નિષેધ કરવો જોઈએ. શંકા:- જો પ્રશ્રવણઆદિનો નિષેધ કરવામાં આવે, તો તે રોકવાથી શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી પ્રસવણઆદિનો નિષેધ કરાતો નથી. સમાધાન -આમ તો પ્રતિષેધ થવાથી સ્ત્રીઆસેવનની નિવૃત્તિ થશે, અને તો (સ્ત્રીઆસેવન રોકવાથી) શું પી થતી નથી? થાય જ છે. તેથી સ્ત્રીઆસેવનનિવૃત્તિ પણ કરવા જેવી નથી, એમ નિશ્ચિત થાય છે. વળી, સ્ત્રીઆસેવનનો નિષેધ કરવાથી એ વિષયમાં અધિકતર ગુડ્યાદિ દોષો ઉત્પન્ન થાય છે. તે આ પ્રમાણે સ્ત્રીઓના આસેવનના વિશ્યમાં નિષેધ કવાથી તે અંગેની ઉત્સુકતા દૂર નહીં થવાથી તે અંગે મોટી ગુદ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે. અને તેથી આર્તધ્યાનવગેરે થાય છે, આ વાત અત્યંત પ્રસિદ્ધ જ છે. ૯૬રા तदेवं सर्वानपि हेतून् समर्थ्य दृष्टान्तोपन्यासपूर्वकं साध्यमुपसंहरन्नाह - આ પ્રમાણે બધા જ હેતુઓનું સમર્થન કરી હવે દષ્ટાન્ત દેવાપૂર્વક સાધ્યનો ઉપસંહાર કરતા કહે છે तम्हा रागादिविवज्जिएण पासवणमादिकिरियव्व । __ वेदम्मि उदिन्नम्मी थीपडिसेवावि कायव्वा ॥९६३॥ (तस्माद् रागादिविवर्जितेन प्रसवणादिक्रियेव । वेदे उदीर्णे स्त्रीप्रतिसेवापि कर्त्तव्या ) यत एवं तस्माद्वेदे उदीर्णे सति रागादिविवर्जितेन प्रस्रवणादिक्रियेव स्त्रीप्रतिसेवाऽपि कर्त्तव्या ॥९६३॥ ગાથાર્થી-તેથી વોદય થાય, તો રાગાદિનો ત્યાગ કરી પ્રસવણાદિકિયાની જેમ સ્ત્રી પ્રતિસેવા પણ કરવી જોઇએ. ૯૬૩ મૈથુન અત્યંત હેય-ઉત્તરપક્ષ अत्राचार्य आह - હવે અહીં આચાર્યવર ઉત્તર આપે છે एवमिह कम्मगुरुणो मिच्छादिट्ठी अणारिया केई । इंदियकसायवसगा मग्गं नासेंति मंदमती ॥९६४॥ (एवमिह कर्मगुरवो मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः केचित् । इन्द्रियकषायवशगा मार्ग नाशयन्ति मंदमतयः ॥). एवम्-उक्तेन प्रकारेण इह-जगति कर्मगुरवो मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः केचिदिन्द्रियकषायवशगा मार्ग-मोक्षस्य पन्थानं नाशयन्ति मन्दमतयस्तदत्र प्रतिविधीयते ॥९६४॥ . - ગાથાર્થ - આ પ્રમાણે આ જગતમાં ઇન્દ્રિય અને કષાયને પનારે પડેલા કર્મગુરુ (કર્મથી ભારે થયેલ) મિથ્યાદેષ્ટિ મજબુદ્ધિવાળા અનાર્યો મોક્ષમાર્ગના નાશક બને છે. તેથી અહીં પ્રત્યુત્તર આપવામાં આવે છે. u૯૬૪ सपरोभयपावातो रागादिपसत्तिओ दढतरागं । सहझाणाभावातो जलणिंधणखेवणातेणं ॥९६५॥ (स्वपरोभयपापाद्रागादिप्रसक्तितो दृढतरकम् । शुभध्यानाभावाद् ज्वलनेन्धनक्षेपन्यायेन ॥) ++++++++++++++++NHUBA--182+++++++++++++++ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + Raate + + + + + + + + + + + + + + + + + + नियमा पाणिवहातो तप्पडिसेवातों चैव इत्थीणं । पडिसेवणा ण जुत्ता मोक्खत्थं उज्जयमतीणं ॥९६६॥ (नियमात् प्राणिवधात् तत्प्रनिसेवातश्चैव स्त्रीणाम् । प्रतिसेवना न युक्ता मोक्षार्थमुद्यतमतीनाम् ॥) मोक्षार्थमुद्यतमतीनां पुंसां स्त्रीणां प्रतिसेवा न युक्तेति साध्यनिर्देशः । हेतूनाह-स्वपरोभयपापात्-स्वपरलक्षणस्योभयस्य पापप्रसङ्गात्, तथा दृढतरं रागादिप्रसङ्गात्, तथा ज्वलनेन्धनप्रक्षेपन्यायेनाधिकतरं तद्गतरूपस्पर्शादिचिन्ताव्यापृतत्वेन शुभध्यानाभावात्, तथा नियमतस्तत्प्रतिसेवातः-स्त्रीणामासेवनातः प्राणिवधात्-प्राणिवधप्रसङ्गादिति ॥९६५-९६६॥ ગાથાર્થ:- મોક્ષમાટે પ્રયત્નશીલ બુદ્ધિશાળી પુરૂષોએ સ્ત્રીઓની પ્રતિસેવા કરવી યોગ્ય નથી- આ સાધ્યનિર્દેશ થયો. (મોક્ષાથપુરુષ પક્ષ છે. સ્ત્રીપ્રતિસેવા અકર્તવ્યતા સાધ્ય છે.) આ સાધ્યના સાધક અનેક હેતુઓ ક્રમશ: બતાવે છે. (૧) સ્વ અને પર (स्त्री)अन्नने पापनो प्रसंछे. (२)तराषिोनो प्रसंग छ. (3) अनिमा धन नासाना टान्तथा स्त्रीना રૂપ, સ્પર્શઆદિના વિચારમાં વધુને વધુ મગ્ન બનવાથી શુભધ્યાનનો અભાવ થાય છે. તથા (૪) સ્ત્રીઓના આસેવનથી અવશ્ય પ્રાણિવધનો પ્રસંગ છે. u૯૬૫/૯૬૬ાા મથનથી ઉભયને પાપ अमून् सर्वानपि हेतून् व्याचिख्यासुः 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायात् प्रथमं तावत्स्वपरोभयपापादिति हेतुं विवरीतुमाहહવે, આ બધા હેતઓની વ્યાખ્યા કરવાની ઇચ્છાવાળા આચાર્યવર યોદેશ નિર્દેશ ન્યાયથી સૌપ્રથમ “સ્વ અને પાર (સ્ત્રી) બન્નેને પાપનો પ્રસંગ છે. આ હેતુનું વિવરણ કરતાં કહે છે. सव्वागमप्पसिद्धं मेहुणभावंमि पावमच्चत्थं । तह परमसंकिलेसो अणुहवसिद्धो उ सव्वेसिं ॥९६७॥ . (सर्वागमप्रसिद्ध मैथुनभावे पापमत्यर्थम् । तथा परमसंक्लेशोऽनुभवसिद्धस्तु सर्वेषाम् ॥ सेव्यमाने स्वपरयोः पापमत्यर्थं भवतीत्येतत्सर्वागमप्रसिद्धं, तथा यः परमसंक्लेशोऽभिष्वङ्गलक्षणः सोऽपि सर्वेषामपि जन्तूनामनुभवसिद्ध एव । तुरेवकारार्थः ॥९६७॥ ગાથાર્થ:- આ વાત બધા જ આગમોમાં પ્રસિદ્ધ છે કે, “મૈથુનભાવના સેવનથી સ્ત્ર અને પર (સ્ત્રી) ઉભયને અત્યંત પાપ લાગે છે.” મૈથુન વખતે બધા અત્યાસનિરૂપ પરમ-સંકુલેશ અનુભવતા હોવાથી “મૈથુન પાપરૂપ છે એ વાત માત્ર આગમિક ન રહેતા અનુભવસિદ્ધ પણ છે જ. (મૂળમાં “તુ જકારઅર્થક છે.) u૯૬૭ સુખભાવની કલ્પના મૂઢ यदप्युक्तम् - 'सुहभावातो सपरोवयारो कह होइ दोसायत्ति' तत्रापि सुखभावोऽसिद्ध एव यत आह - पूर्वपक्षे 'अपनो माओवाथी स्व-५२ 6481२३५ ते (मैथुन)पमाटे वीरीत बने? ( ५८) तु, તેમાં પણ સુખભાવ અસિદ્ધ જ છે, કેમકે पामागहितस्स जहा कंडुयणं दुक्खमेव मूढस्स । पडिहाइ सोक्खमतुलं एवं सुरयंपि विन्नेयं ॥९६८॥ (पामागृहीतस्य यथा कण्डूयनं दुःखमेव मूढस्य । प्रतिभाति सुखमतुलमेवं सुरतमपि विज्ञेयम् ॥) यथा पामागृहीतस्य कण्डूयनं परमार्थतो दुःखमैव सत् मूढस्य प्रतिभाति सुखमतुलम्, एवं सुरतमपि स्वरूपेण दःखरूपं सत मोहवशात्कामकस्य सुखरूपं प्रतिभासमानं विज्ञेयम ॥९६८॥ ગાથાર્થ:- પામા(ખંજવાળજનક રોગવિશેષ) થી પીડિત વ્યક્તિ ખૂબ ચળ આવવાથી ખુબ ખંજવાળે છે. વાસ્તવમાં આ ખંજવાળ રોગ વધારતી હોવાથી અને લોહી કાઢની હોવાથી દુ:ખરૂપ છે, છતાં તે મૂઢ રોગીને અતુલ સુખદાયક લાગે છે. આ જ પ્રમાણે સુરત (-મેથુન) પણ સ્વરૂપથી અતિદુ:ખદ હોવા છતાં મોહપરવશ કામી જીવને સુખરૂપ લાગે છે. તેમ સમજવું. ૬૮૫ जह तक्करणे दोण्हवि तीए वुड्डी तओ य देहस्स । होइ विणासो एत्थवि तह नेओ सुगइदेहस्स ॥९६९॥ (यथा तत्करणे द्वयोरपि तस्या वृद्धिस्ततश्च देहस्य । भवति विनाशोऽत्रापि तथा ज्ञेयः सुगतिदेहस्य .. ++ + + + + + + + + + + + + + + e-HIN२ - 183 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ रिवार +++++++++++++++++ यथा तत्करणे-मैथुनप्रतिसेवाकरणे द्वयोरपि स्त्रीपुंसयोः मैथुनप्रतिसेवाया वृद्धिर्भवति, तस्याश्च मैथुनप्रतिसेवावृद्धितः सकाशात् अत्रापि-अस्मिन्नपि भवे देहस्य विनाशो भवति वीर्यत्रुटिभावतः, तथा परलोकेऽपि सुगतिरूपस्य देहस्य विनाशो ज्ञेयः ॥९६९।। ગાથાર્થ:- જેમ મૈથુનપ્રતિસેવન કરવાથી સ્ત્રી-પુરૂષ ઉભયને મૈથુન સેવનેચ્છા અને તેથી પ્રતિસેવાની વૃદ્ધિ થાય છે, અને તે ( મંથનપ્રતિસેવા) ની વૃદ્ધિથી આ ભવમાં પણ વીર્યનાશથી દેહનો વિનાશ થાય છે. તે જ પ્રમાણે પરલોકમાં પણ સુગતિરૂપ દેહનો નાશ થાય છે. અર્થાત સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી. u૯૬લા मोहग्गिसंपलित्तं तं अप्पाणं च विज्झवेऊणं । एवं सुहभावो च्चिय हंतासिद्धो मुणेयव्वो ॥९७०॥ (मोहाग्निसंप्रदीप्तां तामात्मानं च विध्याप्य । एवं सखभाव एव हन्त । असिद्धो ज्ञातव्यः । एवं च सति (यः) मोहाग्निसंप्रदीप्तां तामात्मानं च विध्याप्य सुखभावः-स्वपरयोः सुखभावः संपाद्य उक्तः, कारार्थो भिन्नक्रमश्च स हन्तासिद्ध एव ज्ञातव्यः, तथा च सति स्वपरोपकारोऽप्यसिद्ध इति कुतोऽभिप्रेतसाध्यसिद्धिः? ॥९७०॥ - ગાથાર્થ:- આમ હોવાથી મોહાગ્નિથી સંપ્રદીપ્ત સ્ત્રી અને પોતાનો એ અગ્નિ બુઝવી સ્વ–પરને સુખભાવનું સંપાદન કરાય છે. એવું જે કહ્યું તે ખરેખર અસિદ્ધ જ સમજવું. તેથી સ્વપરોપકાર પણ અસિદ્ધ જ છે. તેથી પૂર્વપક્ષકારના અભિપ્રેત સાધ્ય (સુખભાવ/પરોપકાર/અદોષ) ની સિદ્ધિ કેવી રીતે થશે? અર્થાત નહીં જ થાય. ૯૭ના મિથુનથી રાગવૃદ્ધિ द्वितीयं हेतुं विवृण्वन्नाह - હવે બીજા હેતનું વિવરણ કરતાં કહે છે पडिसेवणेवि तस्सा अहिया रागादयो उ नियमेणं । अन्नेसिं तदभावेवि पतणुया चेव दीसंति ॥९७१॥ (प्रतिसेवनेऽपि तस्या अधिका रागादयस्तु नियमेन । अन्येषां तदभावेऽपि प्रतनुका एव दृश्यन्ते ॥ प्रतिसेवनेऽपि तस्याः-स्त्रियाः कृते सत्यधिका एव रागादयो नियमेन जायन्ते । तुरेकारार्थो भिन्नक्रमश्च यथास्थानं योजितः । अन्येषां तु पुनर्महात्मनां तदभावेऽपि-प्रतिसेवनाया अभावेऽपि प्रतनुका एव रागादयो दृश्यन्ते ॥९७१॥ ગાથાર્થ:- સ્ત્રીઓની પ્રતિસેવના કરવા છતાં અવશ્ય રાગવગેરે વધતા જ જાય છે(નીં કે પૂર્વપક્ષ કહ્યું તેમ રાગાદિનો બ્રાસ થાય. મૂળમાં “ત"પદ જકારાર્થક ભિન્નકમ છે અધિક પછી અન્વય પામે છે.)જયારે અન્ય-મહાત્માઓ સ્ત્રી પ્રતિસેવના ન કરતાં હોવા છતાં તેઓમાં રાગવગેરે અત્યલ્પ જ દેખાય છે. ૯૭૧ ततश्चतेथी सइ चरणविग्घमउलं उस्सुगमेवं नियत्तइ ण जाउ । ता तन्निवित्तिपवणो वज्जेज्जा इत्थिपरिभोगं ॥९७२॥ (सदा चरणविघ्नमतुलमौत्सुक्यमेव निवर्तते न जातु । तस्मात् तन्निवृत्तिप्रवणो वर्जयेत् स्त्रीपरिभोगम् ॥ सदा चरणविघ्नभूतमतुलमौत्सुक्यमेव स्त्रीप्रतिसेवनेन क्रियमाणेन न जातु-न कदाचिदपि निवर्तते किंतु तत्प्रतिसेवनप्रतिषेधेनैव, 'ता' तस्मात्तन्निवृत्तिप्रवणः- औत्सुक्यनिवृत्तिप्रवणो वर्जयेत् स्त्रीपरिभोगमिति ॥९७२ ॥ - ગાથાર્થ:- સદાચારમાં (અથવા સદા ચરણચારિત્રમાં) અત્યંત વિપ્નભૂત ઓસ્ક્ય સ્ત્રી પ્રતિસેવન કરવાથી ક્યારેય પણ નિવૃત્ત થતું નથી. પરંતુ સ્ત્રીપ્રતિસેવનના પ્રતિષેધથી જ નિવૃત્ત થાય છે. તેથી ઔત્સર્ચ દૂર કરવા તત્પર થયેલાએ સ્ત્રીપરિભોગનું વર્જન જ કરવું જોઈએ. ૯૭રા अपि च, भवतु स्त्रीप्रतिसेवात औत्सुक्यविनिवृत्तिस्तथापि सा ततो भवन्ती न समीचीनेत्येतद्दर्शयति - વળી, માની લો કે સ્ત્રી પ્રતિસેવનથી સૂચની નિવૃત્તિ થાય છે, તો પણ સ્ત્રી પ્રતિસેવનથી ઔસુચનિવૃત્તિ સારી તો નથી ++++++++++++++++t er-MIN२-184+++++++++++++++ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शरिद्वार ++++++++++++++++++ ४, आपात पिता के छ → उस्सुगविणिवित्तीवि य जा सम्मन्नाणपुव्विगा होति । सा सुंदरा ण जाऽहियविसयपवित्तीएँ लोएवि ॥९७३॥ (औत्सुक्यविनिवृत्तिरपि च या सम्यग्ज्ञानपूर्विका भवति । सा सुंदरा न याऽहितविषयप्रवृत्त्या लोकेऽपि औत्सुक्यविनिवृत्तिरपि या सम्यग्ज्ञानपूर्विका भवति सा लोकेऽपि सुन्दरा, न पुनर्या परिणामाहितविषयप्रवृत्त्यापि ॥९७३॥ - ગાથાર્થ:- વળી, લોકમાં પણ ઔસુવિનિવૃત્તિ પણ તે જ સુંદર છે, જે સમજ્ઞાનપૂર્વક હોય. નહીં કે જે પરિણામે અહિતકર વિષયમાં પ્રવૃત્તિથી પણ થતી હોય. ૯૭૩ अत्रैव दृष्टान्तमाह - આ જ અંગે દેષ્ટાન બતાવે છે जह चेव कुट्ठिणोऽपत्थवत्थुविसयं ण तस्स जोगेणं । भदं नियत्तमाणं उस्सुगमेवं इमंपित्ति ॥९७४॥ . (यथा चैव कुष्ठिनोऽपथ्यवस्तुविषयं न तस्य योगेन । भद्रं निवर्तमानमौत्सुक्यमेवमिदमपीति ॥ - . यथा चैव कुष्ठिनोऽपथ्यवस्तुविषयमौत्सुक्यं न तस्य-अपथ्यवस्तुनो योगेन निवर्तमानं भद्रं-कल्याणं भवति, ततस्तन्निवृत्तावपायसंभवात्, एवमिदमपि स्त्रीप्रतिसेवाविषयमौत्सुक्यं न तद्योगेन निवर्तमानं भद्रं ज्ञातव्यम्, अमुष्मिन्नवश्यमपायसंभवादिति ॥९७४ ॥ ગાથાર્થ:- જેમ, કોઢીને અપથ્યવસ્તઅંગે થયેલું ઔત્સુકય(=અભિલાષ)એ અપથ્યવસ્તુના યોગથી (=સંબંધથીપરિભોગથી નિવૃત્તિ થાય, ત્યારે કલ્યાણકારી બનતું નથી. કેમકે અપધ્યસેવનથી ઔત્સચનિવૃત્તિમાં નુકસાન થવાની સંભાવના હોય છે. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ સ્ત્રી પ્રતિસેવાસંબંધી ઓસ્ક્ય, સ્ત્રી પ્રતિસેવાથી નિવૃત્ત થતું કલ્યાણકારી નથી, કેમકે પરલોકમાં અવશ્ય નુકસાન સંભવે છે. u૯૭૪ મૈથુન શુભધ્યાનવિઘાતક 'सुहझाणाभावाओत्ति' तृतीयं हेतुं विवृण्वन्नाह - હવે “શુભધ્યાનનો અભાવ હોવાથી એવા ત્રીજા હેતનું વિવરણ કરે છે. आसेवणाएँ एवं सुहझाणाभावतो अजुत्तमिणं । . पासवणादिव्व तओ कायठिती होइ कायव्वा ॥९७५॥ (आसेवनायामेवं शुभध्यानाभावादयुक्तमिदम् । प्रसवणादिवत् ततः कायस्थितिर्भवति कर्तव्या |) स्त्रीणामासेवनायां क्रियमाणायामेवम्-उपदर्शितेन प्रकारेणाधिकतररागादिदोषसंभवलक्षणेन शुभध्यानाभावादिदं प्रस्रवणादिवत् ततः कायस्थितिरेषा कर्तव्येत्येतत् पूर्वोक्तमयुक्तं ज्ञातव्यम् ॥९७५॥ | ગાથાર્થ:-સ્ત્રીઓની આસેવન કરવામાં ઉપર બતાવ્યામુજબ અધિકતરરાગાદિદોષો સંભવતા લેવાથી શુભધ્યાન સંભવતું નથી. તેથી પ્રસવણ આદિની જેમ આ (સ્ત્રીસેવન) કાયસ્થિતિરૂપ હોવાથી કર્તવ્ય છે. એવું પૂર્વપક્ષીય વચન અયોગ્ય જ સમજવું. u૯૭પા शुभध्यानाभावमेव स्पष्टतरमुपदर्शयन्नाह - શુભધ્યાનનો અભાવ જ વધુ સ્પષ્ટરૂપે દર્શાવતા કહે છે. आसेवणाएँ तिस्सा तग्गयचिंतावियावियो होइ । मोहसहावातों जओ कत्तो झाणं सुहं तस्स? ॥९७६॥ (आसेवनायां तस्यास्तद्गतचिन्ताव्यापृतो भवति । मोहस्वभावाद्यतः कुतो ध्यानं शुभं तस्य ॥) यतस्तस्या :- स्त्रिया आसेवनायां कृतायां सत्यां मोहस्वभावात् तद्गतरूपस्पर्शादिचिन्ताव्याप्तो भवति, ततस्तस्य कुतः शुभं ध्यानं भवेत् ? नैव भवेदितिभावः ॥९७६॥ ++ + + + + + + + + + + + + + + -ला३ - 185 + + + + + + + + + ++++++ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ भरिद्वार + + + + ગાથાર્થ:- સ્ત્રીનું આસેવન કરવાથી મોહસ્વભાવથી (=મોહની વિચિત્રતાના કારણે) સ્ત્રીના રૂપ, સ્પર્શ આદિના વિચારમા જ મગ્નતા રહે છે. તેથી તેને (=સ્ત્રીઆસેવકને) શુભધ્યાન શી રીતે સંભવે? અર્થાત્ નહીં જ સંભવે. પ્રા अत्रैवाभ्युच्चयेनाह — આ જ અંગે અભ્યુચ્ચયથી કહે છે किंच विवेगप्पभवं तयं ति थीविग्गहेवि य पवित्ती । कलिमलभरिए जस्स उ तस्स विवेगो कहं अस्थि ? ॥९७७॥ (किञ्च विवेकप्रभवं तदिति स्त्रीविग्रहेऽपि च प्रवृतिः । कलिमलभृते यस्य तु तस्य विवेकः कथमस्ति ? II) किंच तत् - शुभं ध्यानं विवेकप्रभवं विवेकमूलं यस्य च पुंसः स्त्रीविग्रहेऽपि कलिमलभृते प्रवृत्तिस्तस्य कथं विवेकोऽस्ति ? नैवास्तीति भावः, तदभावाच्च कुतः शुभं ध्यानमिति ? ॥ ९७७ ॥ ગાથાર્થ:- વળી, શુભધ્યાન વિવેકમૂળક છે– વિવેકજન્ય છે. જે પુરુષની અશુચિથી ભરેલા સ્ત્રીના શરીરઅંગે પ્રવૃત્તિ હોય (=આસેવનાદિ હોય) તેને વિવેક શી રીતે સંભવે? અર્થાત્ ન જ સંભવે. અને વિવેકના અભાવમાં શુભધ્યાન પણ કાથી होय? ॥९७७॥ મૈથુનમાં અપવાદપદનો અભાવ स्यादेतत्, रोगस्येव चिकित्सात औत्सुक्यस्यापि सुरतविषयस्य स्त्रीप्रतिसेवातो निवृत्तिः कर्त्तव्या, "सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खेज्जा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याविरई ॥ १ ॥ (छा. सर्वत्र संयमं संयमादात्मानमेव रक्षेत् । मुच्यतेऽतिपातात् पुनर्विशुद्धिर्नचाविरतिः) इति वचनप्रामाण्यात् । अन्यथा रोगस्यापि निवृत्त्यर्थं चिकित्सा न कर्त्तव्या, तत्करणेऽपि नियमतः षड्जीवनिकायवधसंभवात् । अथोत्सर्गतः सा प्रतिषिद्धैव, केवलमसहमानस्यार्त्तध्यान परिहाराय दीर्घकालसंयमपरिपालनाय च द्वितीयपदेनाभ्यनुज्ञाता ततो न कश्चिद्दोष इति यद्येवं तर्हि स्त्रीप्रतिसेवाप्येवं द्वितीयपदेन कर्त्तव्याऽस्तु विशेषाभावादित्यत आह — પૂર્વપક્ષ:- જેમ ચિકિત્સાથી રોગ દૂર કરાય છે. તેમ સ્ત્રીપ્રતિસેવાથી સુરત (=આસેવન) સંબંધી ઉત્સુકતાની નિવૃત્તિ કરવી જોઇએ. અહીં ‘સર્વત્ર સંયમ, સંયમથી પણ આત્મરક્ષા કરવી જોઇએ. (અર્થાત્ સામાન્યથી સર્વત્ર સંયમરક્ષા કરવાની છે, પણ જયા આત્મરક્ષાનો સવાલ હોય ત્યા સંયમના ભોગે પણ આત્મરક્ષા કરવી જોઇએ.) કેમકે (આત્મરક્ષા કરવાથી) અતિપાત(=મોત) થી બચે છે. અને (સંયમમાં લાગેલા દોષની) ફરીથી વિશોધિ થાય છે. અને (મોતના કારણે દેવાદિભવસંબંધી) અવિરતિનીં આપત્તિ રહેતી નથી.” આ વચન પ્રમાણભૂત છે. જો સંયમરક્ષા જ મહત્વની હોય, તો રોગની પણ ચિકિત્સા ન કરવી જોઇએ, કેમકે તેમાં પણ અવશ્ય છકાય જીવની હિંસા સંભવે છે. શંકા:- રોગની ચિકિત્સા પણ ઉત્સર્ગથી તો નિષિદ્ધ જ છે. માત્ર જે રોગ સહી ન શકે અને આર્તધ્યાનમા પડે, તેના આર્તધ્યાનને દૂર કરવા અને દીર્ધકાળ સુધી સંયમના પરિપાલનમાટે અપવાદપદે રોગચિકિત્સાની અનુજ્ઞા (=છૂટ) આપવામા खावी छे. तेथी खे थिङित्सामां (हे तेना सूयनभां ) डोई घोष नथी. સમાધાન:- જો આમ હોય, તો સ્ત્રીસેવા પણ અપવાદપદે કર્તવ્ય બની શકે છે. કેમકે બન્ને સ્થળે (રોગ/સ્ત્રીઓત્સેચ अथवा थिडित्सा / खासेवनस्थणे ) समानता छे. અહીં ઉત્તરપક્ષ દર્શાવતા આચાર્યવર કહે છે नय भावमंतरेणं तत्थ पवित्ती तओ धुवो रागो । तब्भावम्मि य इह इं बीयपदं नत्थि नियमेणं ॥ ९७८ ॥ (न च भावमन्तरेण तत्र प्रवृत्तिस्ततो ध्रुवो रागः । तद्भावे चेह (इ) द्वितीयपदं नास्ति नियमेन II) न च भावम्-अभिष्वङ्गलक्षणमन्तरेण तत्र - स्त्रीप्रतिसेवायां प्रवृत्तिरुपपद्यते, किंतु भावेनैव, तथा लोके अविगानेनानुभवात्, अन्यथेन्द्रियविकारस्यैवानुपपत्तेः । ततश्च तस्मिन्भावे सति ध्रुवम् - अवश्यं रागो द्रष्टव्यः, अभिष्वङ्गस्य रागस्वरू पत्वात्, तद्भावे च-रागभावे च इह-प्रवचने इः पादपूरणे, “इजेराः पादपूरणे” इतिवचनात्, नियमेन द्वितीयपदम्-अपवादपदं, यतो यदनुष्ठानमासेव्यमानं रागादिनिबन्धनं न भवति तदपवादेनाभ्यनुज्ञायते यथा चिरकालभवनं + + + धर्मसंशि-लाग २ - 186 + + + Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * संयममीहमानस्य रोगिणश्चिकित्सा । स हि "सव्वे जीवावि इच्छंति जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वजयंति ण ॥१॥" (छा. सर्वे जीवा अपीच्छन्ति जीवितुं न मत्तुं । तस्मात्प्राणिवधं घोरं निर्ग्रन्था वर्जयन्ति णं) मित्यागमं प्रतिकलममलविवेकचक्षुषा निरीक्षमाणः सर्वजन्तुषु मैत्रीभावमनुगतोऽपि कुतोऽयं प्राप्यः संयमो दुर्लभा खलु मनुष्यभवादिसामग्री असंभवी चासौ संयमो देवादिभवेष्वित्यादि परिभावयन् अरक्तद्विष्टस्सन् चिकित्सां कारयितुमुत्सहते, ततः सा चिकित्साऽपवादपदेनानुज्ञायते, चरणपरिणामविनाशासंभवात् । यत्पुनरनुष्ठानं मूलत एव रागादिप्रवृत्तिनिबन्धनं तच्चरणपरिणामविघातकारित्वान्नापवादविषयो भवति यद्वक्ष्यति- 'चरणपरिणामबीयं जन्न विणासेइ कज्जमाणंपि । तमणुट्ठाणं सम्म अववायपदं मुणेयव्व ॥१॥ मिति'॥ (गा. १००२) स्त्रीप्रतिसेवा चेयमुक्तप्रकारेण रागादिप्रवृत्तिनिबन्धना ततो नापवादविषय इति ॥९७८॥ ગાથાર્થ – ઉત્તરપક:-અભિવંગરૂપે ભાવ વિના સ્ત્રીપ્રતિસેવામાં પ્રવૃત્તિ સંભવતી નથી. અર્થાત સ્ત્રી પ્રતિસેવા ભાવપૂર્વક જ સંભવે. કેમકે આ વાત લોકમાં નિર્વિવાદ અનુભવસિદ્ધ છે. જે ભાવ વિના પ્રવૃત્તિ હોત, તો લિંગવિકાર અનુપપન્ન બનત. અભિવંગ રાગરૂપે હોવાથી આમ ત્યાં (આસેવનસ્થળે) અવશ્ય રાગ હોવાનો જ. અને જૈનપ્રવચનમાં રાગની હાજરીમાં અવશ્ય અપવાદપદ નથી. (મૂળમાં ઇજેરા: પાદપૂરણે વચનથી “ઈ પદ પાદપૂર્તિ માટે છે.) કારણ કે જે આસેવાનું અનુષ્ઠાન રાગાદિનું કારણ ન બને તે અનુષ્ઠાનની જ દ્વિતીયપદે અનુજ્ઞા આપવામાં આવે છે. જેમકે દીર્ધકાળભાવી સંયમની ઇચ્છા રાખતા રોગીને ચિકિત્સાની અનુજ્ઞા. આ રોગી “બધા જ જીવો જીવવા ઈચ્છે છે, મરવા નહીં, તેથી ઘોર પ્રાણિવધનું નિર્ઝન્ય સાધુઓ વર્જન કરે છે.” એવા આગમવચનને પ્રતિપળ નિર્મળ વિવેકચલુથી નિરખે છે. તેથી તે સાધુ બધા મૈત્રીભાવ રાખે છે. છતાં “આ સંયમ ફરીથી કચાંથી મળવાનું? કેમકે મનુષ્યભવઆદિ સામગ્રી અત્યંત દુર્લભ છે અને દેવાદિભવોમાં સંયમ અસંભવિત છે. ઈત્યાદિ ભાવનાને પરિભાવતો તે રોગી સાધુ રાગ-દ્વેષથી પર રહી ચિકિત્સા કરાવવા ઉત્સાહિત થાય છે. તેથી રોગચિકિત્સાની અપવાદ૫ અનુજ્ઞા અપાય છે. કેમકે તે ચિકિત્સાથી ચારિત્રપરિણામનો નાશ સંભવતો નથી. (આમ રોગચિકિત્સા અભિવંગથી યુક્ત નથી, પણ સંયમભાવની રક્ષા માટે છે.) પણ જે અનુષ્ઠાન મૂળથી જ રાગાદિની પ્રવૃત્તિમાં કારણભૂત હોય તે અનુષ્ઠાન ચારિત્રપરિણામનું વિધાતકારી હોવાથી અપવાદનો વિષય બની શકે નહીં. આ જ વાત આગળ “ચરણપરિણામ બીયં...' ઇત્યાદિ ગાથાથી બતાવશે. પરંતુ આ સ્ત્રી પ્રતિસેવા તો ઉપર કહ્યું તેમ રાગાદિ પ્રવૃત્તિનાં કારણે થાય છે, તેથી અપવાદનો વિષય બને નીં. ૯૭૮ પથનમાં ઘોરહિંસા चतुर्थं हेतुं विवरीषुराह - હવે ચોથા હેતુનું વિવરણ કરવાની ઇચ્છાથી કહે છે. पाणिवहोवि य नियमा इत्थीजोणी जतो अजोणीहिं । पाणिहिँ घणसंसत्ता (घणसंसत्ता भणिता पाठा.) परिभोगे तेसि वावत्ती ॥९७९॥ (प्राणिवधोऽपि च नियमात् स्त्रीयोनिः यतोऽयोनिभिः । प्राणिभिः घनसंसक्ता (भणिता) परिभोगे तेषां व्यापत्तिः ॥ प्राणिवधोऽपि च स्त्रीप्रतिसेवायां नियमतो भवति, यतः स्त्रीयोनिः अयोनिभिः-तीर्थकृद्भिश्चरमशरीरतया पुनर्योनावुत्पादाभावात्प्राणिभिः-जन्तुभिर्घनम्-अतिशयेन संसक्ता भणिता, तथा च सति तस्याः परिभोगे तेषांजन्तूनामवश्यं व्यापत्तिर्भवतीति ॥९७९॥ ગાથાર્થ-સ્ત્રીપ્રતિસેવામાં પ્રાણિવધ પણ અવશ્ય થાય છે. અયોનિ તીર્થકર. કેમકે ચરમશરીરી હોવાથી તેમનો યોનિમાં ઉત્પાદ સંભવતો નથી. તીર્થકરોએ સ્ત્રીયોનિ જીવોથી અત્યંત સંસક્ત કહી છે. સ્ત્રીપરિભોગમાં અવશ્ય તે જીવોનો નાશ થાય છે. ૯૭૧ अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन भावयति - સા જ વાતનું દષ્ટાન્નથી ભાવન કરે છે जह उ किरि(र) णालिगाए धणियं मिदुख्यपोम्हभरियाए । तदभावं कुणमाणो तत्तो कणगो तहिं विसइ ॥९८०॥ (यथा तु किल नालिकायां धणियं (अत्यर्थ) मृदुस्तपक्ष्मभृतायां । तदभावं कुर्वन् तप्तः कणकस्तम्यां विशति ॥ +++ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 187-+ +++++++++++++ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + Raip + + + + + + + + + + + + + + + + ++ यथैव, तुरवधारणे, किल न(ना)लिकायां धणियं-अत्यर्थं मृदुरूतपक्ष्मभृतायां सत्यां तदभावं-मृदुरूतपक्ष्माभावं कुर्वन् तप्तो लोहमयः कणकस्तस्यां विशति ॥९८०॥ ગાથાર્થ:- (“તપદ જકારાર્થક છે.) જેમ અત્યંત કોમળ રૂના પુમડાઓથી ભરેલી નાલિકામાં પ્રવેશતો લોખંડનો સળીયો તે પુમડાઓનો સર્વથા નાશ કરતો કરતો પ્રવેશે છે. ૯૮ના इय घणसंसत्ताए जोणीए इंदियंपि पुरिसस्स । तदभावं कुणमाणं नियमा विसइत्ति विन्नेयं ॥९८१॥ (इति घनसंसक्तायां योनाविन्द्रियमपि पुरुषस्य । तदभावं कुर्वन् नियमाद् विशतीति विज्ञेयम् ॥ इतिः-एवं नालिकादृष्टान्तेन घनसंसक्तायामतिशयेन जीवसंकुलायां योनाविन्द्रियमपि-साधनमपि पुरुषस्य विशति प्रविशति नियमात्तदभावं-तत्रत्यजीवानामभावं कुर्वदिति विज्ञेयम् । तथा च सूत्रम्-मेहुणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जइ ? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणगेणं समभिधंसेज्जा एरिसे णं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइत्ति" (छा. मैथुनं भदन्त ! सेवमानेन कीदृशोऽसंयमः क्रियते ? गौतम ! स यथानामकः कोऽपि पुरुष एकां महतीं रूतनालिकां वा बूरनालिकां वा तप्तेन कनकेन समभिध्वंसयेत् इदृशो गौतम ! मैथुनं सेवमानेनः असंयमः क्रियते इति) ॥९८१॥ ગાથાર્થ:- આમ-નાલિકાષ્ટાન્તથી અત્યંત જીવોથી સંસક્ત યોનિમાં પુરુષનું સાધન અવશ્ય એ તમામ જીવોનો નાશ કરતું કરતું જ પ્રવેશે છે. આ સંબંધી આ આગમસૂત્ર છે. “હે ભદત્ત! મૈથુન સેવન કરનારો કેવો અસંયમ કરે છે? ગૌતમ! જેમ કો'ક પુરુષ એક મોટી રૂનાલિકા (=રૂથી ભરેલી નાલિકા)અથવા બૂરનાલિકા (“બુર' કોમળ વનસ્પતિકણવિશેષથી ભરેલી નાલિકા) નો તપ્ત કણકથી નાશ કરે છે, તેવા પ્રકારનો અસંયમ મંથન સેવવાવાળો કરે છે.” u૯૮૧ મથનત્યાગનિયમ સફળ यद्येवं ततः किमित्याह આમ હોવાથી શું કરવું? તે બતાવે છે. पडिसिद्धो य तओ जं सव्वेहिवि धम्मसत्थयारेहिं । तप्पडिसेहाओं तओ सफलो नियमो भवे तासिं ॥९८२॥ (प्रतिषिद्धश्च तत् यत्सर्वैरपि धर्मशास्त्रकारैः । तत्प्रतिषेधात्ततः सफलो नियमो भवेत् तासाम्. प्रतिषिद्धश्चायं प्राणिवधो यत्-यस्मात् सर्वैरपि धर्मशास्त्रकारैस्ततस्तत्प्रतिषेधात्-प्राणिवधप्रतिषेधाद् भवति तासां-स्त्रीणां नियमः सफल इति ॥९८२॥ ગાથાર્થ:- બધા જ ધર્મશાસ્ત્રકારોએ આ પ્રાણિવધનો નિષેધ કર્યો છે. તેથી આ પ્રાણિવધનો પ્રતિષેધ હોવાથી) જ સ્ત્રીઓનો નિયમ =સ્ત્રી પ્રતિસેવનનો પ્રતિષેધ સફળ થાય છે. (પ્રાણિવધનું કારણ બનવા દ્વારા સ્ત્રી પ્રતિસેવા સદોષ છે. તેથી તેનો પ્રતિષેધ યોગ્ય છે. તેથી પૂર્વપક્ષકારની નિર્દોષના પ્રતિષેધમાં તો દિક્ષાના પ્રતિષેધનો પણ પ્રસંગ છે.' ઇત્યાદિ વાત અસંગત કરે છે.) u૯ત્રા एवं च पयइसावज्जओ इहं इत्थिभोगपडिसेहो । जुत्तो निरवज्जत्ता न तु दिक्खादीण भावाणं ॥९८३॥ (एवं च प्रकृतिसावद्यत्वादिह स्त्रीभोगप्रतिषेधः । युक्तो निरवद्यत्वात् न तु दीक्षादीनां भावानाम् । एवं च सति ‘पयइसावज्जओत्ति' भावप्रधानोऽयं निर्देशः प्रकृतिसावद्यत्वात्स्त्रीभोगस्य प्रतिषेधो युक्तो न तु दीक्षादीनां भावानां, तेषां निरवद्यत्वात् ॥९८३॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં “પયઇસાવજજઓ નિર્દેશ ભાવપ્રધાન છે. તેથી પ્રકૃતિ સાવધેતા અર્થ છે.) આમ સ્ત્રીપરિભોગ પ્રકતિ સ્વભાવથી સાવધેરૂપ હોવાથી તેનો પ્રતિષેધ યોગ્ય છે, નહીં કે દક્ષાદિભાવોનો પ્રતિષેધ, કેમકે દીક્ષાદિભાવો નિરવધે છે. u૯૮૩ અવિકતનિસર્ગ નિર્દોષ यदप्युक्तम् 'पासवणाईण तहा किन्नो नियमो' (गा. ९६२) इत्यादि तत्राह - + + + + + + + + + + + + + + + + e-ला५२ - 188 + + + + + + + + + + + + + + + Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ स्त्रिधार ++++++++++++++++++ પૂર્વપક્ષે સ્ત્રી પ્રતિસેવાની જેમ પ્રસવણવગેરેનો નિયમ કેમ નહીં?' ઇત્યાદિ આપત્તિ ઉઠાવી હતી તેને બેસાડી દેતા કહે છે पासवणादीण जहा सुक्कणिसग्गस्स णो खलु निवित्ती । अविगारनिसग्गम्मिवि वयभंगो जं न समयम्मि ॥९८४॥ (प्रसवणादीनां यथा शुक्रनिसर्गस्य न खलु निवृत्तिः । अविकारनिसर्गेऽपि व्रतभङ्गो यन्न समये ॥ न खलु प्रसवणादीनामिव निसर्गस्य रागादिप्रवृत्तिमन्तरेण प्रवर्तमानस्य शुक्रनिसर्गस्य निवृत्तिः क्रियते, किंतु रागादिप्रवृत्तिनिबन्धनस्य, ततस्तत्प्रतिषेधे प्रस्रवणादिदृष्टान्तोऽनुपपन्न एव, विषमत्वात् । अथ कथमेतदेवमवसीयते प्रसवणादीनामिव शुक्रस्यापि निसर्गस्य निवृत्तिर्न क्रियत इत्यत आह - 'अवियारेत्यादि' अविकारेण-रागादिप्रवृत्तिलक्षणविकारमन्तरेण शुक्रस्य निसर्गेऽपि सति स्वापादौ यत्-यस्मान्न समये-भागवते प्रवचने व्रतभङ्गः- चतुर्थव्रतभङ्गो देशित इति ॥९८४॥ . ગાથાર્થ:- જેમ પ્રસ્ત્રવણઆદિના ત્યાગની નિવૃત્તિ નિષેધ કરાતો નથી, તેમ રાગાદિપ્રવૃત્તિ વિના થતા શુક્રનિસર્ગ (=વીર્યસ્રાવ)નો પણ નિષેધ કરાતો નથી. પરંતુ રાગાદિપ્રવૃત્તિથી થતા શુક્રનિસર્ગનો જ નિષેધ-નિવૃત્તિ કરાય છે. તેથી રાગાદિ પ્રવૃત્તિમય શુક્રનિસર્ગના પ્રતિષેધમાં પ્રસવણઆદિનું દૃષ્ટાન્ન દેવું બરાબર નથી, કેમકે દેટાન્ન અને દાષ્ટ્રન્સિક સ્થળે રાગાદિના અભાવ અને ભાવરૂપ વિષમતા રહેલી છે. શંકા - એવો નિર્ણય શી રીતે થઈ શકે કે પ્રસવણ આદિની જેમ શુક્રના નિસર્ગની પણ નિવૃત્તિ કરાતી નથી. - સમાધાન:- નિદ્રાવગેરે વખતે રાગાદિપ્રવૃત્તિરૂપ વિકાર વિના સહજ વીર્યસ્રાવ થાય તો પણ જૈન આગમમાં ચતુર્થવ્રતના ભંગનો દોષ બતાવ્યો નથી. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે એવો વીર્યસ્રાવ સદોષ કે નિષિદ્ધ નથી. ૧૯૮૪ મૈથુનત્યાગ પીડાકારી હોય તો પણ સાથે જ यदपि 'देहपीडाओत्ति' एतदाशक्य 'इयरनिवित्तीएँ तई किन्नो' (गा. ९६२) इत्युक्तं तत्रापि परिहारमाह - તથા પૂર્વપક્ષે “દેહપીડા થતી હોવાથી' ઇત્યાદિ આશંકા કરી “ઈતર (સ્ત્રીપરિભોગ) ની નિવૃત્તિમાં પણ દેહપીડા કેમ ન હોય ઈત્યાદિ જે મો બતાવેલો તેમાં રહેલો સો બતાવે છે जतिवि य तीऍ निवित्ती कहमवि देहपीडाकरी होइ । तहवि तई कायव्वा पडिवक्खे दोसभावातो ॥९८५॥ (यद्यपि च तस्या निवृत्ति कथमपि देहपीडाकरी भवति । तथापि सका कर्तव्या प्रतिपक्षे दोषभावात् ॥) यद्यपि च तस्याः-स्त्रीप्रतिसेवाया निवृत्तिः कथमपि देहपीडाकरी भवति, कथमपीति ग्रहणं न भवत्येव तावत् प्रायः स्त्रीप्रतिसेवानिवृत्तौ संवेगादिवशतो यतेदेहपीडा, यदुक्तम्-“इह नो सुहासयाओ सुओवउत्तस्स मुणियतत्तस्स । बंभम्मि होइ पीडा संवेगाओ य भिक्खुस्स ॥१॥ त्ति" (छा. इह नो शुभाशयात् श्रुतोपयुक्तस्य ज्ञाततत्त्वस्य । ब्रह्मणि भवति पीडा संवेगाच्च भिक्षोः) तथापि प्रबलमोहोदयवशात्कस्यचिद्भवेदपीत्येवमर्थ, तथापि 'तईति' सका स्त्रीप्रतिसेवानिवृत्तिः कर्तव्यैव, कुत इत्याह-प्रतिपक्षे-अकरणलक्षणे दोषभावात्- स्वपरोभयपापप्रसङ्गादिदोषसद्भावादिति स्थितम् ॥९८ ગાથાર્થ:- જોકે, સ્ત્રી પ્રતિસેવાની નિવૃત્તિ કોક હિસાબે દેહપીડાકારી થાય છે. અહીં કમિપિ (કોક હિસાબે) એમ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે સાધુને સંવેગાદિના કારણે સ્ત્રી પ્રતિસેવાની નિવૃત્તિમાં દેહપીડા પ્રાય: થતી નથી. કહ્યું જ છે કે “અહીં શ્રુતજ્ઞાનના ઉપયોગવાળા, તત્વના જાણકાર ભિક્ષ(સાધુ) ને શુભાશયના કારણે અને સંવેગના કારણે બ્રહ્મ (Fબ્રહ્મચર્ય)માં પીડા થતી નથી. છતાં પણ પ્રબળમોદયના કારણે કોકને દેહપીડા થાય પણ ખરી. આ સ્ત્રી પ્રતિસેવાનિવૃત્તિ આમ દેહપીડાકરી થાય તો પણ કરણીય જ છે. કેમકે પ્રતિપક્ષમાં સ્ત્રી પ્રતિસેવાનિવૃત્તિઅકરણમાં–સ્ત્રી પ્રતિસેવા કરવામાં) સ્વ અને પર (સ્ત્રી) બન્નેને પાપનો પ્રસંગ વગેરે દોષોની હાજરી રહે છે. આમ નિશ્ચિત થાય છે. ૧૯૮૫ બુધાદિરત્નત્રયહેતુક પરિગ્રહ દુષ્ટ पञ्चमं मूलगुणमाश्रित्य परिहारं दित्सुराक्षेपमाह - હવે પાંચમાં મુળગણ સંબંધી આપનો પરિહાર કરવા પ્રથમ આક્ષેપ વ્યક્ત કરે છે. अन्ने निदोसं चिय गामादिपरिग्गहंपि मन्नंति । रयणतिगवुड्डिहेतुत्तणेण परिथूरबुद्धीया ॥९८६॥ ++++++++++++++++ -MIN२ - 189+++++++++++++++ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ +++++++++++++ पारिद्वार + + ++ + + + + + + ++ + + ++ ++ (अन्ये निर्दोषमेव ग्रामादिपरिग्रहमपि मन्यन्ते । रत्नत्रिकवृद्धिहेतुत्वेन परिस्थूलबुद्धयः ॥) - अन्ये परिस्थूरबुद्धयो ग्रामादिपरिग्रहमपि निर्दोषमेव मन्यन्ते। कथमित्याह-रत्नत्रिकवृद्धिहेतुत्वेनेति ॥९८६॥ ગાથાર્થ:- પરિસ્થળબદ્ધિવાળા કેટલાક રત્નત્રયીની વૃદ્ધિમાં હેત હોવાથી ગામવગેરેના પરિગ્રહને નિર્દોષ માને. છે. ઘ૯૮૬ાા अत्र दूषणमाह - અહીં આચાર્યવર દૂષણ બતાવે છે. रयणतिगं इह बुद्धो धम्मो संघो य तस्स कह वुड्डी । गामादिपरिग्गहतो ? पारमितादीण कज्जत्ता ॥९८७॥ (रत्नत्रिकमिह बुद्धो धर्मः संघश्च तस्य कथं वृद्धिः । ग्रामादिपरिग्रहतः ? पारमितादीनां कार्यत्वात् ॥ रत्नत्रिकमिह बुद्धो धर्मः संघश्च, ततश्च तस्य-रत्नत्रिकस्य कथं ग्रामादिपरिग्रहतो वृद्धिर्भवेत् ? नैव भवेदिति भावः। कुत इत्याह-पारमितादीनां कार्यत्वात् ॥९८७॥ uथार्थ:- मी (१) बुध (२) धर्म भने (3) संघ र रत्नत्रितरी 52 छ. माहिना परिया मा ૨નત્રિકની વૃદ્ધિ કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત ન જ સંભવે. કેમકે આ (=રત્નત્રિક) પારમિતાઆદિનું કાર્ય છે. પ૯૮૭ના एतदेव व्याचष्टे - . આ જ અર્થની વ્યાખ્યા કરતાં કહે છે. बुद्धो पारमियाफलमणघं तव्वयणमागमो धम्मो । धूतगुणाणुट्ठाई सत्ताणं समुदयो संघो ॥९८८॥ __(बुद्धः पारमिताफलमनघं तद्वचनमागमो धर्मः । धूतगुणानुष्ठायिनां सत्त्वानां समुदयः सङ्घः ॥" इह बुद्धः प्राणातिपातविरमणादिशिक्षाव्रतलक्षपापारमिताफलमिष्यते, यच्च तद्वचनमनघं स धर्म आगम उच्यते, 'धूयगुणाणुट्ठाइत्ति' धूतं-निर्वाणं तद्गुणा:- करुणादयः तदनुष्ठायिनां सत्त्वानां समुदयः सङ्घः ॥९८८॥ ગાથાર્થ:-પ્રાણાતિપાત વિરમણવગેરે શિક્ષાવતરૂ૫પારમિતાનું ફળ બુદ્ધ છે. (અર્થાત પ્રાણાતિપાતવિરમણવગેરે શિક્ષાવ્રતો પારમિતા છે. આ પારમિતાના શુદ્ધપાલનથી બુદ્ધત્વ પ્રાપ્ત થાય છે.) આ બુદ્ધનું જે નિષ્પાપવચન છે, તે જ ધર્મ-આગમ છે. ધૂત નિર્વાણ. આ નિર્વાણ માટે ગુણકારી (=ઉપયોગી) કરુણાવગેરે ધૂતગુણોનું અનુષ્ઠાન આચરણ કરનારા જીવોનો સમુદાય સંઘ उपाय छे. uecau ततः किमित्याह - जुमानु १३५ तो माव्यु, तथा प्रस्तुतमा शुभत छ? वे छे...... न य एतेसुवयारो गामादिपरिग्गहो (हओ) सुहप्फलदो । आरंभपवित्तीओ अवि अवयारो मुणेयव्वो ॥९८९॥ (न च एतेषामुपकारो ग्रामादिपरिग्रहः (परिग्रहतः) शुभफलदः । आरंभप्रवृत्तेरपि अपकारो ज्ञातव्यः ॥) . न च एतेषां त्रयाणामपि बुद्धधर्मसंघलक्षणानां ग्रामादिपरिग्रहत उपकारः-शुभफलदो भवति, किंत्वपकार एव । कुत इत्याह- 'आरम्भप्रवृत्तेः' आरम्भे पृथिव्यादिषड्जीवनिकायोपमईरूपे प्रवृत्तेः ॥९८९॥ , ગાથાર્થ:- બદ્ધ, ધર્મ અને સંઘરૂપ આ નત્રિકને ગામઆદિના પરિગ્રહથી શુભફળદાયક કોઇ ઉપકાર થતો નથી. પરંતુ પૃથ્વીવગેરે પટકાયજીવના વિનાશરૂપ આરંભમાં પ્રવૃત્તિના કારણે અપકાર જ થાય છે. ૯૮લા अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह - અહીં પરમતની આશંકા કરતાં કહે છે सिय जो ममत्तरहिओ रयणतिगं चिय पडुच्च आरंभे ।। वट्टइ भिक्खूवि तओ निदोसो चेव विन्नेओ ॥९९०॥ (स्याद् यो ममत्वरहितो रत्नत्रिकमेव प्रतीत्यारंभे । वर्तते भिक्षुरपि सको निर्दोष एव विज्ञेयः ॥ . . लदी। +++++++++++++++ -लासर - 190+++++++++++++++ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હું ચારિત્રદ્વાર જ स्यादेतत्, यो ममत्वरहितो रत्नत्रिकमेव- बुद्धादिलक्षणमाश्रित्यारम्भे वर्त्तते भिक्षुरपि, आस्तामुपासक इत्यपि शब्दार्थः, 'तओत्ति' सको निर्दोष एव विज्ञेयः तस्य स्वार्थं प्रवृत्त्यभावादिति ॥ ९९० ॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષ:- મમત્વથી રહિત જે કોઇ બુદ્ધાદિરૂપ રત્નત્રિકને આશ્રયી જ આરંભમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તે ભિક્ષુક પણ ઉપાસકની વાત તો જવા દો અર્થાત્ ઉપાસક તો ખરો જ, ઉપરાંતમા ભિક્ષુક પણ–આ અપિ–પણશબ્દનો અર્થ છે. નિદો ' જ સમજવો. કેમકે તેની પ્રવૃત્તિ સ્વાર્થમાટે નથી. u૯૯ના अत्राह આ પૂર્વપક્ષને પછાડતા આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. - मंसनिवत्तिं काउं सेवइ दंतिक्कगंति धणिभेदा । इय चइऊणारंभं परववएसा कुणइ बालो ॥९९९॥ (मांसनिवृत्तिं कृत्वा सेवते दंतिक्कगमिति ध्वनिभेदात् । इति त्यक्त्वारंभं परव्यपदेशात् करोति बालः ॥ ) यथा कश्चित्पुरुषो मांसनिवृत्तिं कृत्वा ततो विवेकविकलतया 'दंतिक्कगंति' ध्वनिभेदात् शब्दभेदात्तदेव मांसं सेवते, इति : - एवममुना दृष्टान्तेनारम्भं त्यक्त्वा परव्यपदेशात् - रत्नत्रिकव्यपदेशेन करोत्यारम्भं बालः - अज्ञः, मांसनिवृत्तिं कृत्वा शब्दभेदेन तदेव मांसं खादयत इवास्यापि परव्यपदेशेनारम्भं कुर्वतो ध्रुवं नियमभङ्ग इतियावत् ॥९९१॥ ગાથાર્થ:- જેમ કોઇ પુરુષ માંસત્યાગ=માંસનિવૃત્તિ કરીને વિવેક ન હોવાથી ‘તિક્કગ' (=માસવિશેષનું વિશેષ નામ?) એમ શબ્દભેદથી તે જ માંસનું સેવન કરે (તાત્પર્ય:- *મારે તો માંસનો ત્યાગ છે. માંસ નામનો ત્યાગ છે. જયારે આ તો તિક્કગ છે. તેથી આ તો કલ્પ' એમ કરી નામભેદથી માંસ સેવન કરે) તેમ− આ દૃષ્ટાન્તની જેમ આરંભનો ત્યાગ કરી રત્નત્રિકના વ્યપદેશથી અજ્ઞ જીવ આરંભ સેવે છે. (મારે તો આરંભનો ત્યાગ છે. જયારે આ તો હું રત્નત્રિકની વૃદ્ધિમાટે કરું છું' તેથી મને દોષ નથી” એમ નામાંતરે આરંભ સેવનાર અજ્ઞ છે.)માસનો ત્યાગ કરી શબ્દભેદથી માસ ખાનારની જેમ રત્નત્રિકાદિ પરવ્યપદેશથી આરંભ કરનાર અવશ્ય નિયમનો ભંગ કરે જ છે. ૫૯૯૧૫ कथमेतदेवमिति चेत् आह *આમ કેમ?” એવી શંકાના સમાધાનમા કહે છે– पयईए सावज्जं संतं णणु सव्वहा विरूद्धं तु । धणिभेदम्मिवि महुरगसीतलिगादिव्व लोगम्मि ॥ ९९२ ॥ (प्रकृत्या सावद्यं सत् ननु सर्वथा विरुद्धं तु । ध्वनिभेदेऽपि मधुरकशीतलिकादिवद् लोके ॥ ननु यस्मात्प्रकृत्या – स्वभावेन सावद्यं - सपापं सत् सर्वथा - सर्वैरपि प्रकारैः सेव्यमानं विरुद्धमेव - दुष्टमेव । तुरेवकारार्थः । ध्वनिभेदेऽपि स्वपरव्यपदेशभेदेऽपि सति । किमिव पुनः शब्दभेदेऽपि सति विरुद्धमित्यत आह- 'महुरेत्यादि' लोके मधुरकशीतलिकादिवत्, नहि विषं मधुरमित्युक्तं सत् न व्यापादयति स्फोटिका वा शीतलिकेत्युक्ता सती न तुदति, तथारम्भोऽपि क्रियमाणः परार्थमित्युच्यमानोऽपि प्रकृत्या सावद्यत्वात्परलोकं बाधत વેતિ ૧૬૨॥ ગાથાર્થ:- જે સ્વભાવથી જ સાવધ-પાપયુક્ત હોય, તે સ્વ-પરના વ્યપદેશનો ભેદ હોય, તો પણ સેવવામાં દુષ્ટ જ છે. (મૂળમા ‘તુ’ જકારઅર્થક છે.) અર્થાત્ ‘સ્વ' ‘પર' આદિ ભિન્ન-ભિન્ન શબ્દોથી ઉલ્લેખવા છતાં તે દુષ્ટતા જાય જ નહીં. (વસ્તુગત ખરાબીને શબ્દપ્રયોગ બદલવામાત્રથી દર કરી શકાય નહીં)અહીં શબ્દભેદ થવા છતા વસ્તગત ખરાબી ઊભી જ રહે છે તેમાટે દૃષ્ટાન્ત આપે છે—જેમકે લોકમા ઝેરને મધુર કેવામાત્રથી ઝેર ન મારે એમ નહીં–અર્થાત્ મારે જ. તથા રસાવાલી ફોલ્લીઓને શીતલિકા (=શીતલા) કહેવામાત્રથી તે પીડા ન આપે તેમ નહીં અર્થાત્ પીડા આપે જ. તે જ પ્રમાણે ‘પરાર્થ છે. એમ કહેવા છતા પ્રકૃતિથી સાવધ હોવાથી આરંભ પરલોકમાં બાધક બને જ છે. ૫૯૯૨ા સાવિધિથી વૈયાવચ્ચે અમાન્ય अत्रैव दूषणान्तरमाह આ જ વિષયમાં બીજું દૂષણ બતાવે છે. * * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 191 * * Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + चारित्रद्वार + + णय (बुद्धी तं पा.) तेसिंपुवगारो तत्तो पडिवादितं पुरा एतं । बालादीणं वेयावच्चं तो होइ अह बुद्धी ॥९९३॥ (न च तेषामप्युपकारस्ततः प्रतिपादितं पुरा एतद् । बालादीनां वैयावृत्यं ततो भवति अथ बुद्धिः II) न च तेषामपि - बुद्धादीनां ततः- आरम्भादुपकारो भवति किं त्वपकार एव, आरम्भस्य प्रकृत्या सावद्यत्वात्, एतच्च पुरा-प्राक् अनन्तरमेव ‘पडिवाइयंति' प्रतिपादितम् । अथ स्यादियं बुद्धिः - ग्रामादिपरिग्रहेण बालादीनां बालवृद्धादीनां वैयावृत्यं कृतं भवति ततो न कश्चिद्दोषः इति ॥९९३॥ ગાથાર્થ:- વળી, બુદ્ધવગેરેપર પણ આ આરંભથી ઉપકાર થતો નથી, બલ્કે અપકાર જ થાય છે, કેમકે આરંભ પ્રકૃતિથી જ સાવધે છે. આ વાત હમણા જ કહી ગયા. પૂર્વપક્ષ:- ગામઆદિના પરિગ્રહથી બાળ, વૃદ્ધવગેરેની વૈયાવચ્ચ થાય છે. તેથી કોઇ દોષ નથી. ૫૯૯૪ા अत्राह અહીં આચાર્ય ઉત્તરપક્ષ સ્થાપે છે– निरवज्जेणं विहिणा गुणजुत्ताणं तयंपि कायव्वं । सावज्जो य इमो खलु तेसिंपि य कुणइ गुणहाणिं ॥ ९९४॥ (निरवद्येन विधिना गुणयुक्तानां तदपि कर्त्तव्यम् । सावद्यश्चायं खलु तेषामपि च करोति गुणहानिः ॥ ) इदमपि-वैयावृत्त्यं निरवद्येनैव विधिना गुणयुक्तानामेव कर्त्तव्यं नतु यथाकथंचित् यस्य कस्यचिद्वा । अयं च ग्रामादिपरिग्रहः खलुरवधारणे, सावद्य एव, पृथिव्यादिषड्जीवनिकायोपमर्द्दहेतुत्वात्, ततस्तेषामपि - बालादीनामास्तामा - रम्भकर्तुरित्यपिशब्दार्थः करोति गुणहानिं तस्मान्न बालादीनामपि वैयावृत्त्यार्थं ग्रामादिपरिग्रहो युक्तः ॥९९४॥ गाथार्थ:-उत्तरपक्षः-वैयावय्य भए। गुणवानोनी ४ निरवद्ये= निष्याप=निर्घोषविधिथी ४ 5वी भेर्धो, नहीं } ?તેની જે–તે વિધિથી. ગામાદિનો આ પરિગ્રહ તો સાવધે જ છે. (ખલુ'પદ જકારાર્થક છે.) કેમકે પૃથ્વીવગેરે ષટ્કાયજીવોના વિનાશનું કારણ બને છે. તેથી તે બાળવગેરેના પણ (–આરમ્ભકની તો વાત જ જવા દો અર્થાત્ આરમ્ભકના તો અવશ્ય જ–અપિ શબ્દનો આ ધ્વનિ છે.−)ગુણોની હાનિ કરે છે. તેથી બાળાદિના વૈયાવચ્ચના નામપર પણ ગામાદિનો પરિગ્રહ યોગ્ય નથી. u૯૯૪૫ एतदेव भावि આ જ અર્થનું ભાવન કરતા કહે છે– - पुरिसं तस्सुवयारं अवयारं चऽप्पणो य नाऊणं । कुज्जा वेयावडियं इहरा वेणइयवादो णु ( उ ? ) ॥९९५॥ (पुरुषं तस्योपकारमपकारं चात्मनश्च ज्ञात्वा । कुर्यात् वैयावृत्त्यमितरथा वैनयिकवादस्तु II) पुरुषम्-आचार्यादिकं तस्योपकारं - स्वाध्यायवृद्धिसत्त्वोपदेशादिलक्षणम् अपकारं च-वैयावृत्त्याभावे वीर्यहास श्लेष्मचयादिलक्षणम्, आत्मनश्चोपकारं गुर्वादिशुभनियोगान्निर्जरालक्षणं वैयावृत्याकरणे च तदभावलक्षणमपकारं ज्ञात्वा कुर्या - द्वैयावृत्त्यम्, इतरथा—यथाकथंचित् यस्य कस्यचिच्च वैयावृत्त्यकरणे वैनयिकवादाभ्युपगमप्रसङ्ग एव । तुरेवकारार्थः ॥९९५॥ ગાથાર્થ:- આચાર્યાદિ પુરુષ (કે જેની વૈયાવચ્ચ કરવી છે. અર્થાત્ વૈયાવૃત્યપાત્ર વ્યક્તિ કોણ છે? યોગ્ય છે કે અયોગ્ય? ઇત્યાદિ) તથા વૈયાવચ્ચ કરવાથી તેમનાપર સ્વાધ્યાયવૃદ્ધિ (=સેવા કરવાથી વધુ સ્વાધ્યાય કરી શકે) સત્ત્વોપદેશ (જીવોને સારો ધર્મોપદેશ આપી શકે) આદિરૂપ કેવો ઉપકાર થશે? અને વૈયાવચ્ચ ન કરવાથી વીર્યહાનિ (=અશક્તિ) કફ સંચયાદિ કેવો અપકાર તેમનાપર થશે? તથા આ વૈયાવચ્ચ કરવાથી ગુરુવગેરેને શુભમા સ્થાપવાનો (=સ્વાધ્યાય, ઉપદેશમાટે સમર્થ કરવાનો) મને કેવો વિશેષલાભ થશે અને વૈયાવચ્ચ ન કરવાથી એ લાભથી વંચિત રહેવાનું મને કેટલું નુકસાન થશે? ઇત્યાદિ સૂક્ષ્મવાતોને સમજીને જ વૈયાવચ્ચ કરવી જોઇએ. આવો કોઇ વિચાર કર્યા વિના જ જે તેની જેમ તેમ વૈયાવચ્ચ કરવામા તો વૈનયિકવાદ સ્વીકારવાનો અવસર આવે. જૈયિકવાદ પૂજયાપૂજયાદિ વિચાર વિના બધાનો વિનય કરવાના સિદ્ધાંતવાળો છે.) મૂળમાં ‘તુ’પદ જકારાર્થક छे. या + + धर्मसंशि-लाग २ - 192 + + Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + परिवार + + + + + + + + ++++++++++ બુવાનનુમત સેવનમાં ઉભયને દોષ अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह અહીં પૂર્વપક્ષીય મતની આશંકા કરતાં કહે છે. . सिय णाणुमओ एसो बुद्धणं किंतु अप्पणा चेव । दाणवतीहिं सम्मं पवत्तिओ कुसलमूलत्थं ॥९९६॥ (स्याद् नानुमत एष बुद्धेन किन्तु आत्मनैव । दानपतिभिः सम्यक् प्रवर्तितः कुशलमूलार्थम् ॥ स्यादेतत्-नानुमत एषः-ग्रामादिपरिग्रहो बुद्धेन, किंत्वात्मनैव दानपतिभिः कुशलमूलार्थ-कुशलकर्महेत्वर्थ सम्यक्प्रवर्तितस्ततो न कश्चिद्दोषः । अनुमत इत्यत्र अतीते काले क्तप्रत्ययो यथा शीलितो देवदत्तेनेत्यत्र, ततो बुद्धनेत्यत्र राज्ञां मत इत्यत्रेव षष्ठी न भवति, वर्तमाने काले क्तस्याविधानादिति ॥९९६॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ ગામાદિ પરિગ્રહ બુદ્ધ અનુમત કર્યો નથી. પરંતુ કુશળકર્મ પ્રાપ્ત કરવા દાનપતિઓએ સ્વયં જ પ્રવર્તાવ્યો છે, તેથી કોઈ દોષ નથી. “અનુમતમાં તે (ક) પ્રત્યય અતીતકાળના અર્થમાં છે. જેમકે શીલિતો દેવદત્તન (દેવદત્તવડે શીલન કરાયું) તેથી “બુદ્ધન અહીં રાજ્ઞા મત: (=રાજાને સંમત)ની જેમ છઠ્ઠી વિભક્તિનો પ્રયોગ ન થાય. કેમકે ત' પ્રત્યય, વર્તમાનકાળઅર્થમાં લાગ્યો નથી. ૯૯૬ાા अत्राह - અહીં આચાર્યવર પૂર્વપક્ષને ધોબીપછાડ આપતાં કહે છે एवंपि हंत दोण्हवि बुद्धेणाणणुमयम्मि वत्थुम्मि । कह ण पयट्टताणं परलोगविराहणा होइ ? ॥९९७॥ . (एवमपि हन्त द्वयोरपि बुद्धेनाननुमते वस्तुनि । कथं न प्रवर्तमानयोः परलोकविराधना भवति ॥) एवमपि हन्त द्वयोरपि-दातग्रहीत्रोर्बद्धनाननुमते वस्तुनि-ग्रामादिदानतत्फलोपभोगलक्षणे प्रवर्त्तमानयोः कथं न परलोकविराधना भवति ? भवत्येवेतियावत् ॥९९७॥ ગાથાર્થ – ઉત્તરપક્ષ:- તો પણ જેની બુદ્ધ અનુમતિ આપી ન હોય, તે ગામાદિના દાન અને તેના ફળનો ઉપભોગરૂપ વસ્તમાં પ્રવર્તતા દાતા અને ગ્રહણ કરનાર આ બન્નેને પરલોકવિરાધના કેમ ન થાય? અર્થાત થાય જ. ૯૭ अत्र पर आह - અહીં પૂર્વપક્ષ સ્વબચાવમાં કહે છે दाणवतीणमणुमतो अह भिक्खूणंपि सुद्धभावाणं । तत्फलपरिभोगो इय परलोगविराहणा किह णु ? ॥९९८॥ (दानपतीनामनुमतोऽथ भिक्षूणामपि शुद्धभावानाम् । तत्फलपरिभोग इति परलोकविराधना कथं नु ॥) अथ दानपतीनां ग्रामादिपरिग्रहो न भिक्षूणां, स च तेषां बुद्धेनानुमत एव, भिक्षूणामपि च स्वतः शुद्धभावानां सतां तत्फलपरिभोगो-ग्रामादिपरिग्रहफलपरिभोगोऽनुमत इतिः- एवमुक्तेन प्रकारेण परलोकविराधना द्वयोरपि-दातृग्रहीत्रोः कथं नु भवेत् ? नैव भवेदितिभावः ॥९९८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- ગામઆદિનો પરિગ્રહ દાનપતિઓને બુદ્ધ અનુમત કર્યો જ છે. ભિક્ષુઓને નહીં. અને સ્વત: શુદ્ધભાવવાળા ભિક્ષુઓને તે ગામાદિપરિગ્રહના ફળનો પરિભોગ અનુમત છે. આમ કહેવા મુજબ ઘતા અને ગ્રહણ કરનાર બન્નેને પરલોકવિરાધના કેવી રીતે થાય? અર્થાત ન જ થાય. ૯૯૮૫ આરંભનિષ્ઠિત ઉપભોક્તા ભિક્ષુક નથી अत्राचार्य आह -: અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે आरंभनिट्ठियं पिंडमादि भुंजंतगाण भिक्खूणं । तत्थ पवित्तिओ अणुमतीएँ भिक्खुत्तणमजुत्तं ॥९९९॥ (आरंभनिष्ठितं पिण्डादिकं भुञ्जानानां भिक्षणाम् । तत्र प्रवृत्तेरनुमतेः भिक्षुत्वमयुक्तम् ॥) ++++++++++++++++ Alilei-MIR - 193 + + + + + + + + + ++++++ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ જ ક ક ક ક ક ક ક ક જ છે જે જ જે જ ચારિષ્કાર જ જ જજ જ છે કે જે જે જ જ એ જ છે કે 'आरम्भनिष्ठितम्' आरम्भेण निष्ठां नीतं पिण्डादिकं भुञ्जानानां भिक्षुत्वमयुक्तम् । कुत इत्याह-तत्र आरम्भेऽनुमतेःअनुमतिसद्भावात् । सापि कथमवसीयते इति चेत्, उच्यते-कथमन्यथा आरम्भनिष्ठिते पिण्डादौ भोजनार्थं प्रवृत्तिरुपपद्येत ? प्रवृत्तेरन्यथानुपपत्त्या साऽनुमतिरवसीयते । ननु भवन्मतेनापि यतेरारम्भानुमतिलक्षणो दोषोऽपरिहार्य एव, तथाहि-यत्र स लभते तत्र परितोषमुपयाति, ततो लाभविषयपरितोषसंभवेन नियमतस्तस्यारम्भानुमतिप्रसङ्गः, यदाह- "कथमेषणीयमपि भिक्षुरदन् हिंसां न सोऽनुमन्येत । परितुष्यति यल्लब्ध्वा ग्रहणं नास्त्यसति तोषे ॥१॥” इति ॥ तदेतदयुक्तम्, लाभालाभयोस्तस्य परितोषवैक्लव्याभावात्, अन्यथा सम्यग्यतित्वानुपपत्तेः, तदाह- "नालाभे वैक्लव्यं न च लाभे विस्मयः कार्य इति" । भवतु वा परितोषस्तथापि नासावारम्भानुमतये, किंतु धानुष्ठानवृद्धये, 'यथाऽनेन लब्धेन सुखं मे धनिष्ठानमत्सप्र्पतीति,' ततो न कश्चिद्दोषः, उक्तं च - "इत्येष विप्रलापो न स तुष्यति येन जीवघाताय । सुखमुत्सर्पति मेऽयं धर्मोऽनेनेति तुष्यति तु ॥१॥ ननु देहेन (सामर्थ्य) समर्थेनानेन सुखं तपोऽधितिष्ठामि । इति तुष्यतोऽस्ति न यतेर्मातापितमैथुनानुमतिः ॥२॥" इति ॥ एष इति अनन्तरोक्त आरम्भा(आत्मारंभा. इति पाठान्तरम्) नुमतिप्रसङ्गापादनस्पः, न च वाच्यमेवं भिक्षुकाणामपि आरम्भनिष्ठितं भुञ्जानानां परितोषो धर्मार्थं भविष्यति ततो नारम्भानुमतिप्रसङ्ग इति, यतस्तदर्थमेव स आरम्भस्तत आत्मार्थमारम्भनिष्ठितं पिण्डादिकं भुञ्जानाः कथमेते दयालुतामश्नुवीरन् ? आह च - "औद्देशिकादिभोज्यपि तथैव ननु तुष्यतीत्यपि न युक्तम् । आत्मार्थं हि हतानां न यतिर्दयते स जीवानाम् ॥१॥ हत्वात्मार्थं सत्त्वं समक्षमुपहृतमुदीक्ष्य तन्मांसम् । न हि गृह्णाति दयालु-गृह्णन्ननु निर्दयो भवति ॥२॥” इति ॥ यतयस्त्वात्मार्थमारम्भनिष्ठितं पिण्डादिकं न भुञ्जते ततो न तेषामारम्भानुमतिप्रसङ्गः, किंतु भिक्षूणामेव, तथा च कुतस्तेषां भिक्षुत्वम् ? ॥९९९॥ ગાથાર્થ:- અગ્નિઆદિના આરંભથી તૈયાર કરેલા પિચ્છાદિનું ભોજન કરનાર ભિક્ષઓમાં ભિક્ષપણું અયોગ્ય છે. કેમકે તેમાં આરંભની અનુમતિ સંભવે છે. શંકા:- આરંભની અનુમતિનો સંભવ કેવી રીતે જાણી શકાય? સમાધાન:- જો આરંભની અનુમતિ ન હોય, તો આરંભથી બનેલા પિચ્છાદિના ભોજનની પ્રવૃત્તિ થાય નહીં. આમ આ પ્રવૃત્તિ અન્યથાઅનુપન્ન બનવાદ્વારા આ અનુમતિનું જ્ઞાન કરાવે છે. પૂર્વપક્ષ:- તમારા મતે પણ સાધુને આરંભની અનુમતિરૂ૫ ઘેષ અપરિહાર્ય જ છે. તે આ પ્રમાણે- જયાં તે (સાધુ) પિડાદિ પ્રાપ્ત કરે છે. ત્યાં તે સંતોષ પામે છે. આમ લાભના વિષયમાં પરિતોષ સંભવતો હોવાથી અવશ્યમેવ તેને (=સાધુને) આરંભની અનુમતિનો પ્રસંગ છે. કશું જ છે કે- “ષણીયનું પણ ભોજન કરતો તે ભિક્ષ કેવી રીતે હિંસાની અનુમોદના નથી કરતો? (અર્થાત કરે જ છે.) કેમકે એ ભોજન મેળવીને તે પરિતોષ પામે છે, અને જો સંતોષ ન હોય, તો ગ્રહણ ન કરે લા'... આમ તમે પણ કાચના જ ઘરમાં છો, તેથી આરંભાનુમતિનો પથરો બીજાના ઘર૫ર ફેંકવા જેવો નથી. ' ઉત્તરપક:- આ વાત બરાબર નથી. કેમકે સાધુને લાભમાં હર્ષ કે અલાભમાં વિકલતા-શોક થતા નથી. જો હર્ષ-શોક થતા હોય તો સાધુમાં સમગ્સાધુતા જ ન સંભવે. તેથી કહ્યું જ છે કે “અલાભમાં વિકલતા કે લાભમાં વિસ્મય કરવો નહીં* અથવા પરિતોષ ભલે થાય, તો પણ એ પરિતોષ આરંભની અનુમતિમાટે બનતો નથી, પરંતુ ધર્મના અનુષ્ઠાનની વૃદ્ધિ માટે હોય છે. જેમકે “પ્રાપ્ત થયેલા આનાથી પિડાદિથી) મારા ધર્માનુષ્ઠાનો સુખેથી વૃદ્ધિ પામશે તેથી એ પરતોષમાં પણ કોઈ દોષ નથી. કહ્યું જ છે કે “આ ઉપર-પૂર્વપલોક્ત એષણીયનું પણ ભોજન.. ઈત્યાદિસૂચિત આરંભાનુમતિરૂપ પ્રસંગનું આપાદાન) માત્ર વિપ્રલાપરૂપ છે. કેમકે તે (જ્ઞાધ) જીવના ઘાતથી ખુશ થતો નથી, પરંતુ “આનાથી (એષણીય પિડાદિલાભથી) મારો આ ધર્મ સુખેથી વૃદ્ધિ પામશે એવી ભાવનાથી ખુશ થાય છે.' (અહીં સાક્ષરૂપે બીજી તુષ્ટિનું ઉદાહરણ આપે છે.) “મારા આ સમર્થ શરીરથી હું સુખોથી તપોનુષ્ઠાન આરાધું છું' એમ ખુશ થતા સાધુને કંઈ મા-બાપે સેવેલા મૈથુનની અનુમતિનો દોષ લાગતો નથી." નારા... પૂર્વપક્ષ:- ભિક્ષકોને પણ આરંભનિષ્ઠિતનું ભોજન કરતી વખતે જે પરિતોષ થાય છે, તે ધર્માર્થ જ છે, તેથી તેમને પણ આરંભાનુમતિનો પ્રસંગ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- ભિક્ષકો માટે જ તે આરંભ કરાય છે. આમ પોતાને માટે જ આરંભથી કરાયેલા પિચ્છાદિના ભોજન કરનાર આ ભિક્ષકો) કેવી રીતે દયાલવાની પદવી પામી શકે? અર્થાત ન જ પામે. કહ્યું જ છે કે “ઔદેશિક ભિક્ષઓને ઉદ્દેશીને બનાવેલા)નું ભોજન કરનાર પણ તેવી જ રીતે (ધર્માર્થ જ) તોષ પામે છે. આ વાત પણ બરાબર નથી. કેમકે પોતાના માટે જે જ જ જ જ એ જ કે ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 194 * * * * * * * * * * * * * * Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** परिवार+++++++++++++++++ હણાયેલા જીવોની તે સાધુ દયા કરતો નથી. પોતાની સમક્ષ પોતાના માટે જીવને હણી લવાયેલાં જીવના માંસને જોઈ દયાલુ ગ્રહણ કરતો નથી, જે ગ્રહણ કરે તો તે નિર્દય જ થાય છે. રામ સામે પક્ષે સાધુઓ આરંભનિષ્ઠિત પિઠાદિનું ભોજન કરતો નથી, તેથી તેઓને પોતાના માટે આરંભની અનુમતિનો પ્રસંગ નથી. જયારે ભિક્ષુઓને તો તે ( આરંભાનુમતિ) છે જ. તેથી તેઓમાં ભિક્ષપણે ક્યાં રહ્યું? ૯લા यत आह - અહીં કારણ બતાવે છે तिविहं तिविहेण जओ पावं परिहरति जो निरासंसो । भिक्खणसीलो य तओ भिक्खुत्ति निदरिसिओ समए ॥१०००॥ (त्रिविधं त्रिविधेन यतः पापं परिहरति यो निराशंसः । भिक्षणशीलश्च सको भिक्षुरिति निदर्शितः समये ॥ यस्मात्रिविधं त्रिविधेन मनोवचनकायैः प्रत्येकं करणकारणानुमतिलक्षणेन निराशंसः-इहपरलोकाशंसारहितः सन्यः पापम्-अवयं परिहरति भिक्षणशीलश्च, अनेन च भिक्षुशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं दर्शयति, पूर्वार्द्धन तु प्रवृत्तिनिमित्तं, 'ततो 'त्ति सको भिक्षुरितिः-एवं निदर्शितः समये । तत आरम्भनिष्ठितं पिण्डादिकं भुञ्जानस्य भिक्षोर्भिक्षुत्वमयुक्तमिति ॥१000॥ . ગાથાર્થ - આલોક અને પરલોક સંબંધી આશંસા વિના મન, વચન, કાયારૂપ ત્રિવિધથી પ્રત્યેકથી કરણ, કરાવણ અને અનુમતિરૂપ ત્રિવિધરૂપે જે પાપનો ત્યાગ કરે અને ભિક્ષણશીલ(ભિક્ષા માટે ફસ્વા/માંગવાના સ્વભાવવાળો) હોય તે ‘ભિક્ષ છે એમ આગમમાં નિર્દેશ છે. આ વ્યાખ્યામાં ભિક્ષણશીલતા એ ભિક્ષુક શબ્દની વ્યુત્પત્તિનું નિમિત્ત છે. (ભિધાપરથી ભિક્ષુક શબ્દની સિદ્ધિની શાબ્દિકપ્રક્રિયાનું નિમિત્ત છે.) અને તિવિહુ ઇત્યાદિ પૂર્વાર્ધ ભિક્ષક' શબ્દનું પ્રતિનિમિત્ત છે. અર્થાત તાત્વિક ભિક્ષક કોણ બને? તે બતાવ્યું. આમ ભિક્ષુકશબ્દની વ્યાખ્યા હોવાથી આરંભનિષ્ઠિત પિડાદિનું ભોજન કરનાર ભિક્ષમાં ભિક્ષકપણું ઘટતું નથી (કેમકે તે આરંભજન્ય અવધે પાપની અનુમતિ આપે છે.) ૧૦૦ગ્યા ચારિત્રપરિણામાનાશક અનુષ્ઠાન જ અપવાદરૂપ अत्र परस्याभिप्रायमाह - અહીં પૂર્વપલનો અભિપ્રાય બતાવે છે अह उस्सग्गेणेसो धूतगुणासेवणेक्कतन्निट्ठो । अववादेण उ आरंभनिट्ठियं चेव सेवंतो ॥१००१॥ . (अथोत्सर्गेणैष धूतगुणासेवनैकतन्निष्ठः । अपवादेन तु आरंभनिष्ठितमेव सेवमानः अथोत्सगर्गेण एष एव धूतगुणासेवनैकतन्निष्ठः-निर्वाणकारणकरुणादिगुणासेवनैकतत्परो भिक्षुर्मतः, अपवादेन तुअपवादपदेन पुनरारम्भनिष्ठितमपि, चेवशब्दोऽपिशब्दार्थः, सेवमानो भिक्षु भिक्षुत्वेन सम्मतस्ततो न पूर्वोक्तदोषावकाश इति ॥१००१॥ ગાથાર્થ - પર્વપક્ષ:- અલબત્ત, ઉત્સર્ગથી તો નિર્વાણના કારણભૂત કરુણા વગેરે ગુણોના આસેવનમાં જ એકમાત્ર તત્પર એવો જ આ ભિક્ષ માન્ય છે. પરંતુ અપવાદપદે તો આરંભનિષ્ઠિતનું સેવન કરનાર પણ ભિક્ષતરીકે માન્ય છે. (મૂળમાં ચેવ પદ પણ અર્થમાં છે, તેથી પૂર્વોક્તદોષને અવકાશ નથી. ૧૦૦ના अत्राह - અહીં આચાર્યવર કહે છે चरणपरिणामबीयं जं न विणासेइ कज्जमाणंपि । तमणुट्ठाणं सम्मं अववादपदं मुणेतव्वं ॥१००२॥ . (चरणपरिणामबीजं यन्न विनाशयति क्रियमाणमपि । तदनुष्ठानं सम्यगपवादपदं ज्ञातव्यम् ॥) यत्-अनुष्ठानं क्रियमाणमपिरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योक्ष्यते, चरणपरिणामबीजं नैव विनाशयति तदनुष्ठानं सम्यक् अपवादपदम्-अपवादपदविषयं ज्ञातव्यम् ॥९००२॥ ++++++++++++++++ le-MIL -195+++++++++++++++ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ++++++ +++ ++ +++++ शरिर * * * ** * * * * * * ** * * *** ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- (મૂળમાં અપિકારાર્થક છે અને નકારસાથે સંબંધિત છે.) જે આચરાતું અનુષ્ઠાન ચારિત્રપરિણામ રૂપ (અથવા ચારિત્રપરિણામના) બીજનો વિનાશ કરે નહીં, તે અનુષ્ઠાન જ અપવાદનો યોગ્યવિષય બની શકે તેમ સમજવું. ૧૦૦રા जं पुण नासेइ तयं ण तयं दिट्ठमिह सत्थगारेहिं । तब्भावेवि गिहीहिं अइप्पसंगो धुवो होइ ॥१००३॥ (यत्पुन नाशयति तकन्न तकद् दृष्टमिह शास्त्रकारैः । तद्भावेऽपि गृहिभिरतिप्रसंगो ध्रुवो भवति ॥).. ष्ठानं क्रियमाणं तकत-चरणपरिणामबीजं नाशयति न तदपवादविषयं दष्टमिह शास्त्रकारैः । विपक्षे बाधामाह-'तब्भावे इत्यादि' चरणपरिणामबीजविनाशभावेऽपि यद्यनुष्ठानमपवादपदविषयमिष्यते ततो गहिभिः-गृहस्थैरतिप्रसङ्गो ध्रुवः प्राप्नोति, तेषामपि धनधान्यकनकग्रामादिपरिग्रहवतां कनकादिपरिग्रहस्यापवादपदविषय-त्वाभ्युपगमेन भिक्षुत्वप्रसक्तेरिति ॥१००३॥ ગાથાર્થ:- તથા જે આચરાતું અનુષ્ઠાન ચારિત્રપરિણામબીજનો નાશ કરે છે, તે અપવાદનો વિષય બનતું અર્વ શાસ્ત્રકારે જોયું નથી. અર્થાત તે અપવાદના વિષયતરીકે શાસ્ત્રસંગત નથી. ચારિત્રપરિણામબીજનો વિનાશ થવા છતાં પણ જે અનુષ્ઠાન અપવાદપદના વિષયતરીકે ઇષ્ટ હોય, આવો વિપક્ષ મંજૂર હોય, તો અહીં ગૃહસ્થોદ્વારા અવશ્ય અતિપ્રસંગ આવવાની બાધા છે. ધન, ધાન્ય, સુવર્ણ, ગામઆદિનો પરિગ્રહ ધરાવતા ગૃહસ્થોનો પણ સવર્ણ આદિ પરિગ્રહ અપવાદનો વિષય છે એમ સ્વીકારીને તેઓમાં ભિક્ષપણાનો પ્રસંગ. (અહીં ચારિત્રપરિણામબીજનાશક અનુષ્ઠાન અપવાદવિષયતામાટે વિપક્ષ છે. અને ગૃહસ્થોમાં જે ભિક્ષત્વ પ્રત્યક્ષબાધિત છે, તે ભિક્ષુત્વની ગૃહસ્યોને પ્રાપ્તિરૂપ અતિપ્રસંગ બાધરૂપ છે.) ૧૦૦૩ अथोच्येत - कथं ग्रामादिपरिग्रहस्य चरणपरिणामबीजविनाशकत्वमित्यत आह - પૂર્વપક્ષ:- ગામઆદિનો પરિગ્રહ ચારિત્રપરિણામબીજનો વિનાશક કેવી રીતે બને? અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે. ___गामादिपरिग्गहओ तव्वावारो तओ य चित्तस्स । नियमेण परिकिलेसो तओ य चरणस्स नासो उ ॥१००४॥ (ग्रामादिपरिग्रहतस्तद्व्यापारस्तस्माच्च चित्तस्य । नियमेन परिक्लेशस्तस्माच्च चरणस्य नाशस्तु ॥) .. परिग्रहतो-ग्रामादिपरिग्रहे सति नियमाततदव्यापारो-ग्रामादिव्यापारोऽन्यथा तत्परिग्रहनैष्फल्यापत्तेः, तस्माच्च ग्रामादि(परिग्रह)व्यापारात् चित्तस्य नियमेन परिक्लेशः-संक्लिष्टरूपता, तस्माच्च परिक्लेशा च्चरणस्य- चरणपरिणामबीजस्य विनाश इति ॥१००४॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ગામઆદિનો પરિગ્રહ ોય, તો અવશ્ય તે ગામાદિઅંગે વ્યાપાર-પ્રવૃત્તિ થાય જ, અન્યથા તેનો પરિગ્રહ રાખવાનો કોઈ અર્થ જ સરે નહીં–પરિગ્રહ નિષ્ફળ થાય. અને ગામાદિના વ્યાપારથી અવશ્ય ચિત્તમાં સંકલેશરૂપતા થાય-ચિત્ત સંકિલષ્ટ બને. આ પરિકલેશથી ચારિત્રપરિણામબીજનો નાશ થાય. ૧૦૦૪ उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે ___ इय अववादपदेणवि नरिंदलीलं विलंबमाणाणं। मग्गचुयाणं विदुसे पडुच्च भिक्खुत्तणमजुत्तं ॥१००५॥ (इति अपवादपदेनापि नरेन्द्रलीला विलंबमानानाम् । मार्गच्यूतानां विदुषः प्रतीत्य भिक्षुत्वमयुक्तम् ॥ इतिः-एवमुपदर्शितेन प्रकारेण अपवादपदेनापि आस्तामुत्सर्गविधिना भिक्षुत्वमयुक्तमिति संबन्धः। किंविशिष्टा नां विल(ड)म्बमानानामत एव सर्वथा मार्गच्यतानां-मोक्षपथपरिभ्रष्टानां, कान आश्रित्य तेषां भिक्षुत्वमयुक्तमित्याह-विदुषो यथावस्थितवस्तुतत्त्वपरिज्ञानवतः प्रतीत्य ॥१००५॥ ગાથાર્થ:- આ પ્રમાણે નરેન્દ્રલીલાનો વિલંબન કરનારા અથવા વિડંબના કરનારા અને તેથી જ મોક્ષમાર્ગથી પરિભ્રષ્ટ ભિક્ષુઓમાં યથાવસ્થિત વસ્તુતત્વના જાણકાર વિદ્વાનોને આશ્રયી અપવાદપદે પણ-ઉત્સર્ગની તો વાત જ જવા દો ભિક્ષપણું +++++++++ ब न -माज -196+++ + + + Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ पारिवार++++++++++++++++++ ઘટતું નથી– “અહીં ભિક્ષઓમાં અપવાદપદે પણ ભિક્ષપણું ઘટતું નથી' તેવો અન્વય છે. (નરેન્દ્રલીલાં વિલમ્બમાનાનાં પધેનો અર્થ ટીકાકારે દર્શાવ્યો નથી. એવો કદાચ આશય હોય કે ભિક્ષ થઈને ગામાદિના પરિગ્રહવાળા-માલિક બની મોટા રાજનની લીલા કરનારા-મોટા રાજાના વ્યવહારનો આલંબન કે નકલ કરનારા દંભીઓને ભિક્ષુ કેવી રીતે કહી શકાય?” અર્થાત “નામથી ભિક્ષુ અને પ્રવૃત્તિથી મોટા રાજાઓ અપવાદથી પણ ભિક્ષતરીકે યોગ્ય નથી.') ૧૦૦પા ભોગી ભરત સાચો યોગી अत्र पर आह - અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે छन्नउइगामकोडीपइणो भरहस्सं सुद्धभावस्स । चरणपरिणामओ भे केवलनाणं समुप्पन्नं ॥१००६॥ (षण्णवतिग्रामकोटीपते भरतस्य शुद्धभावस्य । चरणारिणामतो भो ! केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥ षण्णवतिग्रामकोटीपतेर्भरतस्य भावशुद्धस्य सतः चरणपरिणामतः सकाशात् 'भे' इति परेणाचार्यस्यामन्त्रणे केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥१००६॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- છન્ન કરોડ ગામના માલિક ભરતને ભાવશુદ્ધિના કારણે ચારિત્રના પરિણામથી કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. મૂળમાં ‘ભેપદ પૂર્વપક્ષનો આચાર્યને આમંત્રણરૂપે ઉચ્ચારરૂપ છે. તાત્પર્ય - તમારે પક્ષે ભરતને આટલા બધા ગામનો પરિગ્રહ હોવા છતાં કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ તમને માન્ય છે.) ૧૦૦% ततः किमित्याह - माम बोपाथी शु? तावे छे. चरणपरिणामबीयं गामादिपरिग्गहो ण णासेइ । इय दोण्हवि अम्हाणं सिद्धमिणं किन्न लक्खेसि ? ॥१००७॥ (चरणपरिणामबीजं ग्रामादिपरिग्रहो न नाशयति । इति द्वयोरपि आवयोः सिद्धमिदं किन्न लक्षयसि ? ॥ ) चरणपरिणामबीजं ग्रामादिपरिग्रहो न नाशयतीति द्वयोरप्यावयोः सिद्धं, तत इत्थमिदं स्पष्टतरमागमसिद्धं किन्न प्रणिधानमाधाय लक्षयसि ? येनैवमस्मान् मुधा खेदयसीति ॥१००७॥ ગાથાર્થ:- આમ ગામઆદિનો પરિગ્રહ ચારિત્રપરિણામબીજનો નાશ કરતો નથી' એ મુદ્દો આપણને બન્નેને સિદ્ધ છે. તે તમે કેમ જોતા નથી? કે જેથી ફોગટ અમને ખેદ પમાડે છો. ૧૦૦૭ अत्राचार्य आह - . અહીં આચાર્ય નક્કર ઉત્તર આપે છે. भरहस्स तत्थ मुच्छाविगमे णणु आसि चरणपरिणामो । ण य तम्मि तेण तहियं काचि पवित्ती कया आसि ॥१००८॥ (भरतस्य तत्र मूर्छाविगमे ननु आसीत् चरणपरिणामः । न च तस्मिन् तेन तस्मिन् काचित् प्रवृत्तिः कृताऽऽसीत् ॥) भरतस्य तत्र-षण्णवतिग्रामकोटीपरिग्रहविषये मूर्छाविगमे-गृड्यपगमे सति नन्वासीत् चरणपरिणामः, ततस्तत्त्वतस्तस्य ग्रामादिपरिग्रहरहितस्यैव चरणपरिणामोऽभूत्, “मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' (छा. मूर्छा परिग्रह उक्तः) इति वचनतो मूर्छाया एव परिग्रहत्वात्, तस्याश्च तस्याभावादिति । अथ कथं तस्य ग्रामादिपरिग्रहविषये मूच्र्छापगमोऽवसीयत इत्यत आह 'न येत्यादि', चो हेत्वर्थे, न यस्मात्तस्मिन्-चरणपरिणामे सति तेन-भरतेन तस्मिन्-ग्रामादिपरिग्रहे काचिदपि मतिमात्ररूपापि प्रवृत्तिः कृताऽऽसीत्, ततो नूनमवसीयते तस्य तदानीं ग्रामादिविषयमूर्छा-पगमोऽभूदिति ॥१००८॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ભરતને તે છ– કરોડ ગામના પરિગ્રહના વિષયમાં મૂચ્છ ( આસક્તિ) દૂર થયા બાદ જ ચારિત્રપરિણામ હતો. આમ વાસ્તવમાં ગામાદિના પરિગ્રહથી રહિત જ તેને (-ભરતને) ચારિત્રપરિણામ હતો. કેમકે “મુચ્છા પરિગ્રહો વત્તો આ વચનથી મૂર્છા જ વાસ્તવમાં પરિગ્રહરૂપ છે. અને ભરતને આ મૂનો અભાવ હતો. શંકા:- ભરતની ગામઆદિના પરિગ્રહ સંબધી મૂચ્છ દૂર થયેલી હતી તે શી રીતે જાણી શકાય? ++++++++++++++++घर्भसं हिश- २-197+ + ++ + + + + + + ++ + + + Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ यारित्रद्वार સમાધાન:– (મૂળમા ચપદ હેતુસૂચક છે.) ચારિત્રપરિણામ પ્રગટ થયા બાદ તે ભરતે ગામાદિપરિગ્રહ સંબધી કોઇ પણ પ્રકારની યાવત્ માત્ર અનુમતિરૂપ પણ પ્રવૃત્તિ કરી નથી. તેથી ચોક્કસ જાણી શકાય કે ભરતને એ ચારિત્રપરિણામ પ્રાપ્ત થતી વખતે ગામઆદિવિષયક મૂર્છા દૂર થઇ હતી. ૫૧૦૦૮ णय इय मुच्छाविगमो तुम्हाणं तत्थ तह पवित्तीओ। पत्तेयबुद्धणातं एवमजुत्तं मुणेयव्वं ॥१००९ ॥ (न चेति मूर्च्छाविगमो युष्माकं तत्र तथाप्रवृत्तेः । प्रत्येकबुद्धज्ञातमेवमयुक्तं ज्ञातव्यम् II) न च इतिः-एवं भरतस्येव मूर्च्छाविगमो युष्माकं तत्र - ग्रामादिपरिग्रहविषये, कुत इत्याह - "तथाप्रवृत्तेः ' तथा ग्रामादिव्यापारचिन्तनेन प्रवृत्तेः, तस्मात्प्रत्येकबुद्धज्ञातं - भरतोदाहरणमेवम्-उक्तेन प्रकारेणायुक्तं ज्ञातव्यमिति ॥ १०९ ॥ ગાથાર્થ:- પણ ભરતની જેમ તમને મૂર્છાનાશ સંભવતો નથી. કેમકે તમારી તો ગામાદિના સારસંભાળની ચિંતાસૂચિત ગામાદિપરિગ્રહઅંગે પ્રવૃત્તિ ચાલુ છે. તેથી તમે પ્રત્યેકબુદ્ધ ભરતનું આપેલું દૃષ્ટાન્ત તમારેમાટે યોગ્ય નથી તેમ સમજવું. ૫૧૦૦૯ના અશુભજનક વચન શાસ્ત્રવચન નથી. पुनरपि परस्य मतमाशङ्कते ફરીથી પૂર્વપક્ષીય મતની આશંકા કરે છે. — सिय विहियाणुट्ठाणं एयं अम्हाण ता ण दोसो उ । सत्थं एत्थ पमाणं जहेव चितिवंदणादीसु ॥ १०१०॥ (स्याद् विहितानुष्ठानमेतदस्माकं तस्मान्न दोषस्तु । शास्त्रमत्र प्रमाणं यथैव चैत्यवंदनादिषु ॥ ) स्यादेतत् एतत्ग्रामादिव्यापारचिन्तनतत्फलग्रहतत्फलभोगादिकमस्माकं विहितानुष्ठानं 'ता' तस्मान्नैव दोषस्तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, यस्मादत्र विहितानुष्ठानविषये शास्त्रं प्रमाणं, यथा चैत्यवन्दनादिषु, अस्ति च ग्रामादिपरिग्रहतत्फलपरिभोगादौ शास्त्रमस्माकमिति ॥ १०१० ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ ગામાદિના વ્યાપારચિંતન, તેના ફળનું ગ્રહણ અને પરિભોગવગેરે બાબતો અમારેમાટે શાસ્ત્રવિહિત અનુષ્ઠાન છે. તેથી દોષરૂપ નથી. (મૂળમાં ‘તુ’પદ જકારાર્થક છે અને ન સાથે સંલગ્ન છે.) કેમકે વિહિતઅનુષ્ઠાનના વિષયમાં શાસ્ત્ર જ પ્રમાણભૂત છે. (નહીં કે તર્કવિતર્ક કે વાદવિવાદ) જેમકે ચૈત્યવંદનઆદિના વિષયમા ગામાદિપરિગ્રહ તથા તેના ફળનો પરિભોગવગેરેઅંગે અમારા શાસ્ત્રમા વિધાન છે. ૫૧૦૧૦ના अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્ય સુંદર માર્ગદર્શન આપે છે. असुहपरिणामबीजं जमणुट्ठाणं विहेइ तं किह णु ? सत्यंति अतो एसो पक्खेवो होइ नायव्वो ॥१०११॥ (अशुभ परिणामबीजं यदनुष्ठानं विदधाति तत्कथं नु । शास्त्रमिति अत एष प्रक्षेपो भवति ज्ञातव्यः ॥ ) यच्छास्त्रमशुभपरिणामबीजमनुष्ठानं विदधाति तत्कथं नु शास्त्रमित्युच्यते, रागादिशासनपरं हि शास्त्रं तत्त्वतः शास्त्रमुच्यते, अन्यत्पुनः कुशास्त्रमेव, यदुक्तम्- "यस्माद्रागद्वेषोद्धतचित्तान्समनुशास्ति सद्धर्मे । संत्रायते च दुःखात् शास्त्रमिति निरुच्यते तस्माद् ॥ १ ॥” इति ॥ अतो ग्रामादिपरिग्रहतत्फलपरिभोगाद्यभिधायि यद्वचनमेष प्रक्षेपः केनापि गृद्धिमता कृतो ज्ञातव्यमिति (इति) ॥१०११ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જે શાસ્ત્ર અશુભપરિણામના બીજભૂતઅનુષ્ઠાનનું વિધાન કરે તે શાસ્ત્ર જ શી રીતે કહી શકાય? કેમકે જે શાસ્ત્ર રાગાદિપર શાસન–નિયંત્રણ કરે તે જ તાત્ત્વિક શાસ્ત્ર ગણાય. બાકીના તો (–રાગાદિપર નિયંત્રણ નહીં કરનારા) તો કુશાસ્ત્ર જ છે. કહ્યું જ છે કે - જેથી રાગદ્વેષથી ઉદ્ધત ચિત્તવાળા જીવોને સદ્ધર્મમાં સમ્યગનુશાસન કરે છે, (=સ્થાપે છે) અને દુ:ખથી રક્ષણ કરે છે તેથી તે શાસ્ત્રતરીકે નિરુક્ત થાય છે. (શાસ્ અને ૐ આ બે ધાતુના સંયોજનથી શાસન અને ત્રાણ (=રક્ષણ) નું કાર્ય કરે તે શાસ્ત્ર એમ નિરુક્તિ સર્વસંમત છે.) તેથી ગામાદિનો પરિગ્રહ, તેના ફળનો પરિભોગ આદિ સૂચવતા વચનો + धर्मसंसदशि-लाग २ -198+ *** ++++ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************ारित्रधार + + + + + + + + + + + + + + + + ++ શાસ્ત્રીય નથી પરંતુ પ્રક્ષેપભૂત છે. કોક ગૃદ્ધિવાળા (આસક્ત-લાલચ) એ એ વચનો શાસ્ત્રમાં ઉમેર્યા લાગે છે. એમ સમજવું. ૧૦૧૧ अथ कथमशभपरिणामबीजता ग्रामादिपरिग्रहतत्फलपरिभोगादेरित्यत आहશંકા:- ગામાદિ પરિગ્રહ અને તેના ફળના પરિભોગવગેરે અશુભ પરિણામના બીજ શી રીતે બને? અહીં સમાધાનમાં આચાર્યવર કહે છે – णियमेण य असुहो च्चिय परिणामो तम्मि सइ मुणेयव्वो । किं दाहगोवि अग्गी सन्निहितं न डहई कटुं ? ॥१०१२॥ (नियमेन चाशुभ एव परिणामस्तस्मिन् सति ज्ञातव्यः । किं दाहकोऽपि अग्निः सन्निहितं न दहति काष्ठम् ॥) नियमेन-अवश्यंतया अशुभ एव परिणामस्तस्मिन्-ग्रामादिपरिग्रहादौ सति ज्ञातव्यः तस्य तथास्वभावत्वात् । एतदेव प्रतिवस्तुपमया निर्दिशति-'किं दाहेत्यादि' किं दाहकोऽप्यग्निः सन्निहितं काष्ठं न दहति? दहत्येवेतिभावः । एवमत्रापि अग्निसमो ग्रामादिपरिग्रहादिर्दाहतुल्यश्चाशुभपरिणामः स कथं ग्रामादिपरिग्रहे सति न भवतीति ? ॥१०१२॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- ગામઆદિના પરિગ્રહવગેરે હોય, તો અવશ્યતયા અશુભ જ પરિણામ થાય, કેમકે તેનો (ગામાદિ પરિગ્રહનો) સ્વભાવ જ તેવો છે. આ જ વાત પ્રતિવસ્તઉપમાથી બતાવે છે. શું બાળનારો પણ અગ્નિ નજીક રહેલા લાકડાને નથી બાળતો? અલબત્ત બાળે જ છે. તાત્પર્ય:- જેમ અગ્નિને બાળવાનો સ્વભાવ છે, તો પાસે રહેલા લાકડાને તે બાળવાનો જ, તેમાં કોઈ સંદેહ નથી, તદ્દન સીધી વાત છે, તેમ ગામઆદિ પરિગ્રહનો અશુભ પરિણામજનોનસ્વભાવ છે, તેથી તેવા પરિગ્રહવાળામાં (પછી ભિક્ષુ હોય કે ગૃહસ્થ) તે ( પરિગ્રહ) અશુભ પરિણામ ઊભો કરવાનો જ. તેમાં કોઈ શંકાને સ્થાન નથી.) અહીં ગામાદિનો પરિગ્રહ અગ્નિતુલ્ય છે. અને અશુભ પરિણામ દાણતુલ્ય છે. તેથી ગામાદિના પરિગ્રહમાં અશુભ પરિણામ હોવાનો જ. ૧૦૧રા શચપરિહાસાવધસેવનમાં દોષ पुनरपि परस्य मतमाशङ्कते - ફરીથી પૂર્વપક્ષના મતની આશંકા કરે છે– सिय तस्सुवासग च्चिय करेंति पडियग्गणं न भिक्खुत्ति । तत्फलपरिभोगो वि हु आहाकम्मति तो दुट्ठो ॥१०१३॥ (स्यात्तस्योपासका एव कुर्वन्ति प्रतिजागरणं न भिक्षुरिति । तत्फलपरिभोगोऽपि हु आधाकर्मेति तस्माद्दुष्टः ॥ - स्यादेतत्-तस्य-ग्रामादिपरिग्रहस्य प्रतिजागरणमुपासका एव कुर्वन्ति न भिक्षवस्ततो न कश्चिद्दोष इति । अत्राह 'तत्फले 'त्यादि, तत्फलपरिभोगोऽपि-ग्रामादिपरिग्रहफलोपभोगोऽपि-भोजनादिलक्षणो 'हु' निश्चितमाधाकर्म, तस्य भिक्षनधिकत्य निष्पनत्वात. इति परणे. 'तो' तस्मात्कारणात्सोऽपि तत्फलोपभोगो दष्ट इति ॥१०१३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- ગામઆદિના પરિગ્રહનું પ્રતિજાગરણ (=વ્યવસ્થાદિ ચિન્તા-પ્રવૃત્તિ) ઉપાસકો જ કરે છે, ભિક્ષુઓ नही, तेथी घोष नथी. ઉત્તરપક્ષ:-ગામઆદિના પરિગ્રહના ભોજનઆદિરૂપ ફળનો ઉપભોગ પણ અવશ્ય આધાકર્મરૂપ જ છે. કેમકે ભિક્ષઓને ઉદ્દેશીને જ તે નિષ્પન્ન ( તૈયાર) થાય છે. (મૂળમાં ‘ઇતિ' પદ પૂરણાર્થ છે.) તેથી તેનો ફળોપભોગ પણ દુષ્ટ જ છે. ૧૦૧૩ कालपरिहाणिदोसा एदहमित्ते ण चे हवति दोसो । सक्कपरिहारसावजसेवणे कहमदोसो तु ? ॥१०१४॥ (कालपरिहाणिदोषादेतावन्मात्रे न चेद्भवति दोषः । शक्यपरिहारसावद्यसेवने कथमदोषस्तु॥) 'कालपरिहाणिदोषात्' नायं कालस्तादृशो यद्वशादेकान्ततः सावद्यभोजनादिपरिहारवता भवितुं शक्यते, ततः कालपरिहाणिदोषात् ‘ए।हमेत्तेत्ति' एतावन्मात्रे ग्रामादिपरिग्रह(फलोपभोग अधिकं प्रत्यन्तरे)मात्रे न भवति कश्चिद्दोष इति चेत् ? अत्राह-ननु अस्मिन्नपि काले सावधं भोजनादि शक्यपरिहारमेव, तथाहि-दृश्यन्त एवाद्यापि परमसिद्धान्तोपनिष- द्वेदिनः परलोकभीरवो निःशेषजन्तुषु मैत्रीभावमनुभजमानाः कृतकारितानुमतिभेदभिन्नसावद्यभोजनादिपरिहारेणात्मधर्म शरीरयापनां कुर्वन्तः, तत इत्थं शक्यपरिहारसावद्यभोजनासेवने कथमदोष एव, तुरेवकारार्थः, दोष एवेति भावः ॥१०१४ ॥ +++++++++++++++ eler-MIN२-199+++++++++++++++ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ન જ ક ક ક ન ક ક ન ક જ ર જ સ જ ન જ ચારિદ્વાર જ જ = * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષી-તમે પણ માનો જ છે કે આ અવસર્પિણીકાળ–કલિકાળ ચાલે છે. આ કાળ જ એવો છે કે અત્યારે એકાત્તે સાવધેભોજનઆદિનો ત્યાગ કરવો શક્ય જ નથી. આમ કાળની પરિહાણિના દોષથી (પડતો કાળ આવ્યો હેવાથી) પરિગ્રહમાત્રમાં કે તેના આધાકર્મદોષમય ભોજનાદિરૂ૫ ફળોપભોગમાત્રમાં કોઈ દોષ નથી. અર્થાત અત્યારના કાળની અપેક્ષાએ આ દોષ એટલો નગય છે કે તે કંઈ ધ્યાનમાં લેવા જેવી બાબત નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ કાળે પણ સાવધેભોજનઆદિ શક્યપરિહારરૂપ જ છે. (=જે દોષ છોડવો શકય હોય તે શકયપરિહાર કહેવાય) તથાતિ- આજે પણ સિદ્ધાન્તના શ્રેષ્ઠ રહસ્યને પામેલા પરલોકભીરુ અને સમસ્ત જીવજાતિસાથે મૈત્રીઆદિભાવોને ભાવનારા સાધુઓ કૂત-કારિત અને અનુમતિ આદિ ભેદોથી વિશિષ્ટ ભોજનાદિનો ત્યાગ કરીને જ સ્વધર્મ અને શરીરની યાપના (નિર્વાહ) કરે છે. અર્થાત જેમાં કુત, કારિત કે વાવત અનુમતિ જેટલો પણ દોષ લાગે તેવા ભોજનાદિનો ત્યાગ કરીને જ આત્મરક્ષા, શરીરરક્ષા અને ધર્મરક્ષા કરે છે. તેથી આ પ્રમાણે કાળનું આલંબન લઈ શક્યપરિહરભૂત સાવધેભોજનનું આસેવન કરવામાં કેમ દોષ ન લાગે? અર્થાત દોષ લાગે જ. તપદ જકારાર્થક છે.) ૧૦૧૪ उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરતાં કહે છે चत्तघरावासाणं गामादिपरिग्गहम्मि ता दोसो । યાં મોજૂળ નહીં યમ નેણમા/vi ૨૨' (त्यक्तगृहवासानां ग्रामादिपरिग्रहे तस्माद् दोषः । रत्नं मुक्त्वा यथा काचमणिं गृह्ण ताम् ॥ यत एवं ग्रामादिपरिग्रहफलोपभोगो दुष्टः 'ता' तस्मात्त्यक्तगृहवासानां भिक्षणां ग्रामादिपरिग्रहे दोषः । केषामिव कस्मिन्नित्याह-'रयणेत्यादि' रत्नं महामूल्यं मुक्त्वा यथा काचमणिं गृह्णतामिति । इह रत्नस्थानीयः संयमो भवशतसहसैरपि दुष्प्रापत्वादक्षेपेण मुक्तिफलसाधकत्वाच्च, काचमणिस्थानीयो ग्रामादिपरिग्रहस्तस्यैकान्ततोऽसारत्वादिति ॥१०१५॥ ગાથાર્થ:- આમ ગામાદિનો પરિગ્રહ અને ફળો૫ભાગ દુષ્ટ છે. તેથી ગૃહવાસનો ત્યાગ કરનારા ભિક્ષુઓમાટે ગામાદિના પરિગ્રહમાં દોષ છે. કયા વિષયમાં કોની જેમ? એ દૃષ્ટાન્નપૂર્વક બતાવે છે-યણ ઈત્યાદિ. જેમકે મહામૂલ્યવાન ૨નને છોડી કાચમણિ—કાચનો ટૂકડે ગ્રહણ કરનારને દોષ છે. અહીં રત્નતત્ય સંયમ છે કેમકે લાખો ભવે પણ સંયમ મળવું દુષ્કર છે. અને મળેલું સંયમ શીઘ મોક્ષરૂ૫ ઇષ્ટફળનું સાધક બને છે. ગામાદિનો પરિગ્રહ કાચતુલ્ય છે. કેમકે કાચની જેમ એ પરિગ્રહ પણ એકાજે અસાર છે. ૧૦૧પા વસ્ત્રાદિ પરિગ્રહરૂપ-દિગંબરમત तदेवं पञ्चमं मूलगुणमाश्रित्याक्षेपपरिहारावभिधाय सांप्रतं ये बोटिका धर्मोपकरणभूतस्यापि वस्त्रादेः परिग्रहत्वमनुमन्यन्ते तन्मतमपाकर्तुमुपक्षिपन्नाह - આ પ્રમાણે પાંચમાં મૂળગણ અપરિગ્રહઅંગે આક્ષેપ અને પરિહાર બતાવ્યા. બોટિકો ( દિગંબરો) ધર્મોપકરણભૂત એવા પણ વસ્ત્રાદિનું પરિગ્રહરૂપે અનુમાન કરે છે. તેથી હવે તેમના મતને દૂર કરવા તે મતનો ઉપક્ષેપ કરતાં કહે છે वत्थादिगंपि धम्मोवगरणमन्ने अदिट्ठपरमत्था । संसारहेतुभूतं परिग्गहं चेव मनंति ॥१०१६॥ ___ (वस्त्रादिकमपि धर्मोपकरणमन्येऽदृष्ट परमार्थाः । संसारहेतुभूतं परिग्रहमेव मन्यन्ते ॥) अन्ये वस्त्रादिकमपि आस्तामन्यद्धनकनकादीत्यपिशब्दार्थः धर्मोपकरणमदृष्टपरमार्थाः सन्तः परिग्रहमेव संसारहेतभतं मन्यन्ते, अनेकदोषोद्भावनेन ॥१०१६॥ ગાથાર્થ:- કેટલાક પરમાર્થને નહીં જોનારાઓ ધન, સવર્ણ વગેરેની વાત જવા દે, ધર્મોપકરણભૂત વસ્ત્ર વગેરેમાં પણ સંસારમાં કારણ બને તેવા અનેક દોષો બતાવી વસ્ત્રાદિને પરિગ્રહરૂપ માને છે. ૧૦૧૬ના વસ્ત્રના પરિગ્રહમાં દોષો तत्र तन्मतेन वस्त्रदोषांस्तावदुपदर्शयति - તેમાં સૌ પ્રથમ તેમના મતે વસ્ત્રના દોષો બતાવે છે જ ન જ જ છે કે જે જ જ ન ધર્મસંવહણિ-ભાગ ૨ - 200 જ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *++ + + + + + + + + + + + + + + + पारिद्वार * * * * * + + + + + + + + + + + + + जायणसंमुच्छणमो धुवणे पाणाण होति वावत्ती । दातारस्सवि पीडा संधणमादीसु पलिमंथो ॥१०१७॥ (याचनासंमूर्छने धावने प्राणानां भवति व्यापत्तिः । दातुरपि पीडा संधानादिषु परिमन्थः ॥) "जायणत्ति' वस्त्रपरिग्रहेऽभ्युपगम्यमाने सति कथंचित्तदभावे तदर्थिना गृहस्थेभ्यस्तत् याचनीयं भवति, सा च याञ्चा महेच्छताभावप्रतिपन्थिनीति याञ्चा महान्दोषः । तथा 'संमुच्छणत्ति' वस्त्रे परिभुज्यमाने सति शरीरमलसंपळतः षट्पदिकादिजीवसंमूर्च्छना भवति, तथा नियमतः प्रावृट्कालप्रत्यासत्तौ वस्त्रं प्रक्षालनीयमप्रक्षालनेऽनेकदोषसंभवात्, ततश्च वस्त्रस्य धावने-प्रक्षालनेऽप्कायषट्पदिकादिप्राणिनां भवति व्यापत्तिः, तथा जघन्यतोऽपि कियगव्यव्यतिरेकेण वस्त्रस्यासंप्राप्तेस्तद्दाने दातुरपि पीडा भवति, अन्यच्च प्रच्छादनपटिकादिनिमित्तं विभिन्नवस्त्रद्वयसंधानादिषु क्रियमाणेषु परिमन्थः स्वाध्यायविघातरूप उपजायते ॥१०१७॥ थार्थ:-मित:- साधुने वस्त्रोनो परिशस्वीरशो-मान्य २५शो तो (१)ध्यारे १२वनो समाथाय, ત્યારે ગૃહસ્થોપાસે તેની યાચના કરવી પડે. આ યાંચા મહેચ્છતા (=મહાન ઇચ્છા–મોક્ષેચ્છાભાવ)ની,વિરોધી છે. ક્યાં મોક્ષેચ્છા અને કયાં તુચ્છ કપડાની યાચા...? તેથી યાંચા મોટા દોષરૂપ છે. તથા (૨) વસ્ત્રનો પરિભોગ કરવાથી વસ્ત્રનો શરીરના મેળસાથે સંપર્ક થવાથી જ વગેરે જીવોની ઉત્પત્તિ થાય. તથા (૩) વર્ષાકાળ નજીક આવે ત્યારે અવશ્ય વસ્ત્ર ધોવામાં પાણી, જૂ વગેરે ઘણા જીવોનો નાશ થાય છે. તથા (૪) ઓછામાં ઓછું પણ અમુક દ્રવ્ય આપ્યા વિના વસ્ત્ર પ્રાપ્ત થતું નથી. આમ મૂલ્યથી મળેલાં વસ્ત્રનું દાન દેવામાં દાતાને પીડ (દ્રવ્યવ્યયરૂપ)થાય છે. (૫) વળી, ચાદર, કપોઆદિ નિમિત્તે અલગ-અલગ બે વસ્ત્રોને સાંધવાઆદિ ક્રિયા કરવામાં સ્વાધ્યાયવિધાત આદિરૂપ પરિમલ્થ થાય છે. ૧૦૧૭ના राढा मुच्छा य भयं अविहारो चेव भारवहणं च । तेनाहडाधिगरणं सोगो य पमायणद्वेवि ॥१०१८॥ - (राढा मूर्छा च भयमविहारश्चैव भारवहनं च । स्तेनाहृताधिकरणं शोकश्च प्रमादनष्टेऽपि अत्यन्तकमनीयमहामूल्यवस्त्रपरिधानेन चात्मनो राढा-विभूषा तेन कृता भवति, सा चात्यन्तं भगवद्भिर्गर्हिता, यदुक्तम्- "विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसागरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥१ भिक्षुः कर्म बनाति चिक्कणम् । संसारसागरे घोरे येन पतति दुरुतरे) तथाभूते च दुष्प्रापे वाससि प्राप्ते सति कुतः पुनरिदं प्राप्यमित्येवं तद्विषया मूर्छा भवति । तथा महामूल्यमिदं वस्त्रमिति इदं कश्चिदृष्ट्वा ग्रहीष्यतीत्येवं यतः कुतश्चिदाशङ्कमानस्य सर्वदैव वस्त्रपरिग्रहवतो भयमुपजायते । अत एव च ग्रामनगरादिषु मासकल्पादिरूपो विहारक्रमोऽपि न स्यात् । अपि च, वस्त्रपरिग्रहे सति विहारक्रमं कुर्वतो वस्त्रोद्वहने भारवहनं भवेत्, तच्च वपुःपीडाकरं, वपुःपीडा च स्वाध्यायादिविघातकारिणीति । अन्यच्च, कथंचित् तस्मिन्वाससि स्तेनैराहते-अपहृते सत्यधिकरणदोषो भवति, शोकश्चात्मनो जायते, एतच्च दोषद्वयं प्रमादनष्टेऽपि द्रष्टव्यम् ॥१०१८॥ ગાથાર્થ:-વળી, (૬) અત્યંતકમનીય અને મહામૂલ્યવાન વસ્ત્રોના પરિધાનથી પોતાની વિભૂષા કરી ગણાય. ભગવાને એ વિભૂષાની અત્યન્ત ગર્ણ કરી છે. કહ્યું જ છે કે “વિભૂષાને આશ્રયી ભિક્ષ ચિકણા કર્મ બાંધે છે, જેથી તે દુરુત્તર અને ઘોર સંસારસાગરમાં પડે છે.... (૭) તથા તેવા પ્રકારના દુઃપ્રાપ્ય વસ્ત્રો પ્રાપ્ત થયા બાદ ફરીથી કયાંથી આવા કપડા મળશે એમ વિચારી તે વસ્ત્રો પર મૂર્છા (=રાગ) થાય છે. તથા (૮) “આ વસ્ત્ર મહામૂલ્યવાન છે તેથી તેને (=વસ્ત્રને) જોઈ કોઈ ગ્રહણ કરી લેશે એમ જે તે તરફથી આશંકા રાખનાર વસ્ત્રના પરિગ્રહ સાધુને હંમેશા ભય રહે છે. તેથી જ (૯)ગામ-નગર વગેરેમાં માસ૫આદિરૂપ વિહારકમ પણ ન થાય- વિહાર કરવાનું મન નહીં થાય. તથા (૧૦) વસ્ત્રનો પરિગ્રહ રાખી વિહાર કરે તો વસ્ત્રોને ઉપાડવાથી ભારવહન થાય છે. આ ભારવહન શરીરને કષ્ટદાયક છે. અને આ કષ્ટ સ્વાધ્યાય આદિમાં વિઘાત કરે છે. વળી (૧૧) કોઈ પ્રકારે ચોરો એ વસ્ત્ર ચોરી જાય ત્યારે અધિકરણઘેષ (અવિરત ચોરના પોષણરૂપ અને તેનાદ્વારા જે સંસારસર્જક દુરુપયોગ થાય તે આ બન્ને અધિકરણરૂપ છે.) અને પોતાને શોક થાય છે. આ બન્ને દોષ (=અધિકરણ અને શોક) પ્રમાદથી ગુમ થાય ત્યાં પણ સમજી લેવું ગુમ થયેલું વસ્ત્ર ગુહસ્થના ઉપયોગમાં આવે એટલે અવિરતિ પોષણ અને એ વસ્ત્રનો દુરુપયોગ આ અધિકરણદોષ અને વસ્ત્ર ગુમ થવાથી શોક આ બન્ને ઘેપ વસ્ત્ર ગુમ થવામાં રહ્યા છે- એવો આશય છે.) ૧૦૧૮ +++ ++ + + + ++ + + ++ + + e- N -201+ + ++ + + + + + + + + ++ + Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ यारित्रद्वार ++++ सावेक्खया य दाणादकज्जसिद्धी परीसहासहणं । गुरुपडिकुटुं गिहिलिंगगंथमो वत्थदोसा उ ॥ १०१९॥ (सापेक्षता च दानादकार्यसिद्धिः परिषहासहनम् । गुरुप्रतिकृष्टं गृहिलिङ्गग्रन्थौ वस्त्रदोषास्तु II) वस्त्रे हि गृह्यमाणे नियमतस्तस्मिन्नपेक्षा भवति, सा च वीतरागभावप्रतिपन्थिनी, तद्भावनिमित्तं चेदं संयमानुष्ठानमिति । 'दाणादकज्जसिद्धित्ति' श्रमणस्य - निर्ग्रन्थस्य वस्त्रमनुचितमेव, तद्भावे नैर्ग्रन्थ्याभावप्रसङ्गात्, ततो यदा तस्मिन्ननुचितेऽपि वस्त्रे श्रमणस्य प्रवृत्तिस्तदा कथं नु श्रमणः स्यात् ? तस्मै वा श्रमणाय दीयमानं गृहस्थायेव न परमनिर्जराकारणमिति दातुर्दानादकार्यसिद्धिः । ‘परीसहासहणंति' वस्त्रे परिभुज्यमाने योऽचेलत्वपरीषहः सूत्रेऽभिहितः यथा - "दंसाचेलारइत्थी इति” (छा. दंशाचेलरतिस्त्रियः) स न सोढो भवेत्, अथ च परीषहसहनेन साधुना भवितव्यम् । यदुक्तम् - "परीसहरिवू - जए" (छा. परीषहरिपून् जयेत्) इति, ततो न समीचीनो वस्त्रपरिभोगः । तथा गुरुणा - भगवता वर्द्धमानस्वामिना परिग्रहमल्पं बहुं वा प्रतिषेधता वस्त्रमपि प्रतिकृष्टं - निराकृतं गुरुप्रतिकृष्टस्य च वस्त्रस्य परिग्रहे सति गुर्वाज्ञाभङ्गस्तद्भङ्गे च शेषसकलानुष्ठानविफलता, तदुक्तम्- "आणाए चिय चरणं तब्भंगे जाण किन्न भग्गन्ति ? | आणं च अइकमंतो कस्साएसा कुइ सेसं ? ॥१॥" (छा. आज्ञयैव चरणं तद्भङ्गे जानीहि किं न भग्नमिति । आज्ञां चातिक्रामन्कस्यादेशात्करोति शेषम् ॥) इति, अपि च-यदि यतिनाऽपि वस्त्रं परिधीयते ततः सोऽपि गृहस्थ एव स्यात्, न यतिः, वस्त्रपरिधानं हि गृहिलिङ्गमिति । 'गंथमोत्ति' इह यतयः समये तत्र तत्र देशे निर्ग्रन्था एव प्रशस्यन्ते वस्त्रं च ग्रन्थस्तत्कथमेतत् यतयः परिगृह्णीयुरिति ?'मो’ इति पादपूरणे । एतेऽनन्तरोक्ता वस्त्रदोषा - वस्त्रपरिग्रहाभ्युपगमे दोषाः ॥ ११९॥ ગાથાર્થ:- (૧૨) વસ્ત્ર ગ્રહણ કરવાથી વસ્ત્રઅંગે અપેક્ષા ઊભી થાય છે. આ અપેક્ષા વીતરાગભાવની વિરોધિની છે. જયારે વીતરાગભાવમાટે તો આ સંયમ-અનુષ્ઠાન છે. (૧૩) સાધુને વસ્ત્ર અનુચિત જ છે. કેમકે વસ્ત્ર હોય, તો સાધુમાં નિર્પ્રન્થતાના અભાવનો પ્રસંગ આવે છે. તેથી જયારે આવા અનુચિત એવા પણ વસ્ત્રમાટે સાધુ પ્રવૃત્તિ કરતો હોય, ત્યારે તે સાધુ કયાંથી રહ્યો? અથવા તે સાધુને દેવાતું એ વસ્ત્ર ગૃહસ્થને દેવાતા દાનની જેમ કેવી રીતે પરમનિર્જરાનું કારણ બની શકે? અને પરમનિર્જરારૂપ કાર્ય સરતું ન હોવાથી જ એ દાનથી દાતાની કાર્યસિદ્ધિ થતી નથી–નિષ્ફળ થાય છે. (૧૪) સા વસ્ત્ર વાપરે તો સૂત્રમાં કહેલા દંસાચેલારઇથીઉ (દેશ, અચેલ, અરતિ, સ્ત્રી ઇત્યાદિ) પરિષહોમાના અચેલત્વપરિષહ સહન કરવાનું થાય નહીં, અને સાધુએ તો પરિષહો સહન કરતા રહેવાનું છે. કહ્યું જ છે કે ‘સાધુ પરિષહશત્રુને જીતે' તેથી વસ્ત્ર વાપરવા યોગ્ય નથી. તથા (૧૫) ભગવાન મહાવીરસ્વામીરૂપ ગુરુએ અલ્પ કે બહુ પરિગ્રહનો નિષેધ કરતી વખતે વસ્ત્રનો પણ નિષેધ કર્યો જ છે. આમ ગુરુનિષિદ્ધ વસ્ત્રનો પરિગ્રહ કરવામાં ગુર્વાજ્ઞાભંગ થાય છે. અને ગુર્વાજ્ઞાભંગ થાય તો બાકીના બધા જ અનુષ્ઠાનો નિષ્ફળ જાય છે. કહ્યુ જ છે કે આજ્ઞાથી જ ચારિત્ર છે. આજ્ઞાભંગમા શુ` ભાગતુ નથી? તે જાણો. તથા आज्ञाने उत्संघतो (साधु) ओना आहेशथी जाडीनु १२ थे. ॥१॥ वणी (१९) भे साधु वस्त्र पहरे तो ते गृहस्थ ४ छे, साधु નહીં, કેમકે વસ્ત્રધારણ એ ગૃહસ્થનું લિંગ છે, સાધુનુ નહીં તથા (૧૭)વળી આગમમાં તે–તે સ્થાનોમા સાધુઓની નિર્પ્રન્થરૂપે જ પ્રશંસા કરાઇ છે, જયારે વસ્ત્ર તો ગ્રન્થરૂપ છે. તેથી સાધુઓ કેવી રીતે વસ્ત્ર ધારણ કરી શકે? (મૂળમાં ‘મો' પદ પાદપૂરણાર્થ છે.) આ ઉપરોક્ત દોષો વસ્ત્રના પરિગ્રહના અભ્યપગમમાં રહ્યા છે. ૫૧૦૧૯ા પાત્રાદિમા દોષો पत्तम्मिवि एते च्चिय नवरं विसेसोऽणिवारियं गहणं । आहारस्स तहच्चिय परिभोगेऽजीरगेलण्णं ॥ १०२ ॥ (पात्रेऽपि एत एव नवरं विशेषोऽनिवारितं ग्रहणम् । आहारस्य तथैव परिभोगेऽजीर्णग्लानत्वम् ॥) पात्रेऽपि एत एव - पूर्वोक्ता दोषा द्रष्टव्या नवरं - केवलमयं विशेष: यदुत पात्रे सत्याहारस्यानिवारितमधिकमित्यर्थः ग्रहणं भवति, तथा च सति तथैव यथा ग्रहणं तथैव तस्याहारस्या (स्य) दुर्लभतया विराधनाभयाद्वा त्यक्तुमशक्ता निःशेषतः परिभोगे सति अजीर्णमुपजायते अजीर्णत्वे च सति ग्लानत्वमिति ॥१०२॥ ગાથાર્થ:- પાત્રના ધારણમા આ બધા–પૂર્વોક્ત દોષો સમજવા. માત્ર આટલો વિશેષ છે કે જો પાત્ર હોય, તો આહાર અનિવારિત અત્યધિક ગ્રહણ થઇ જાય. અને તો જેમ અત્યધિક ગ્રહણ થયો તેમ દુર્લભ હોવાથી અથવા વિરાધનાના ભયથી * * * * * धर्मसंशि-लाग २ - 202*** Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *****+++++++++++++ शरिद्वार ++++++++++++++++++ આહારનો ત્યાગ અશકય હોવાથી ગ્રહણ કરેલા તમામ આહારનો સંપૂર્ણતયા અતિશય પરિભોગ થવાથી અજીર્ણ થાય, અને अ थवाथी सानी (रोग) थाय. ॥१०२०॥ रजोहरणमाश्रित्य दोषमाह - હવે રજોહરણ ઓઘાને આશ્રયી દોષ બતાવે છે. रयहरणम्मि पमज्जणदोसा कोडघरवुज्झ (छाय) णादीया । तेसिं चेव य अंडगवियोगमादी य विन्नेया ॥१०२१॥ (रजोहरणे प्रमार्जनदोषाः कीटगृहस्थगनादयः । तेषामेव चाण्डकवियोगादयश्च विज्ञेयाः ॥) रजोहरणे प्रमार्जनदोषाः 'कोडघरवुज्ज (छाय) णाईयत्ति' कीटगृहस्थगनादयः, रजोहरणेन हि प्रमार्जनं विधीयते, तस्य तदर्थत्वात्, प्रमार्जने च क्रियमाणे रजसा कीटगृहाणां स्थगनं भवति, आदिशब्दात्कीटगृहस्थगने सति तेषां कीटानां प्राणविपत्तिः केषांचिदपि चाल्पकायानां रजोहरणसंस्पर्शमात्रादपि प्राणव्यपरोपणमित्यादि परिगृह्यते । तथा तेसिमित्यादि तेषामेव च कीटानां रजोहरणेन प्रमार्जने क्रियमाणे सत्यण्डकवियोगादय आदिशब्दात्प्रबन्धगमनविनाशभोग्यसिक्थादिविरहरजःपूरितदरिसत्त्वसंसक्त्यादयो दोषा विज्ञेयाः ॥१०२१॥ ' ગાથાર્થ:- રજોહરણમાં પ્રમાર્જનદોષ રહેલા છે. તે આ પ્રમાણે (૧) કી જીવાતોના ઘર ઢંકાવાવગેરે. રજોહરણથી પ્રમાર્જન કરવાથી ધૂળથી તે જીવાતોના ઘર-દર ઢંકાઈ જાય છે. તથા તેમના ઘર ઢંકાઈ જવાથી તેમના પ્રાણપર વિપત્તિ આવે છે. અને કેટલાક નાનીકાયાવાળા જીવો તો રજોહરણના સ્પર્શમાત્રથી મરી જાય છે. (આદિશબ્દથી આ દોષો સમાવેશ પામ્યા.) તથા રજોહરણથી પ્રમાર્જન કરાતાં તે જ જીવાતોના ઈડાવિયોગ (આદિશબ્દથી) તથા પ્રબંધગમનનો =શ્રેણિબદ્ધગમનનો વિનાશ, (એક લાઈનમાં જતાં હોય, તે લાઈન તૂટી જવાથી અહીં તહીં વિખેરાઈ જવા) આહારયોગ્ય સિકથ (Eલોટ) વગેરેનો વિરહ ધૂળ થી ઢંકાયેલા દરમાં રહેલા જીવોની સંસક્તિ (એકબીજાને સંલગ્ન થવા) વગેરે દોષો લાગે છે તે સમજવું ૧૦૨૧ दण्डमधिकृत्य दूषणमाह - હવે દડને આશ્રયી દૂષણ બતાવે છે डंडग्गहणम्मिवि हथियारसावेक्खयादिया दोसा ।। ते पुण (एए) ण होंति एगंततो परं चत्तगंथस्स ॥१०२२॥ (दण्डग्रहणेऽपि हास्तिकारसापेक्षतादिका दोषाः । ते पुनः (एते) न भवन्ति एकान्ततः परं त्यक्तग्रन्थस्य ॥) । दण्डग्रहणे च क्रियमाणे 'हत्थियारसावेक्खयत्ति' हास्तिकारसापेक्षता प्रहरणसापेक्षता, सा च सकलजन्तुषु मैत्रीभावमनुसरतो यतेरेकान्तेन विरुद्धा । आदिशब्दादन्येऽप्येवंजातीया दोषा विज्ञेया इति । स्वपक्षे पुनः परो दोषाभावमाह'एए ण होंतीत्यादि' एते पूर्वोक्ता वस्त्रादिगता दोषाः सर्वेऽप्येकान्ततः परं-केवलं त्यक्तग्रस्य सतो न भवन्तीति ॥ १०२२ ।। ગાથાર્થ:- દંડ ગ્રહણ કરવામાં હથિયારની સાપેક્ષતા આવે છે. (હથિયાર જરુરી લાગવાથી સાધુ બંડારૂપ હથિયારધારી બને છે.) આ અપેક્ષા સર્વજીવો પ્રત્યે મૈત્રીભાવ રાખતા સાધુમાટે એકાન્ત વિરુદ્ધ છે. (એક બાજૂ સર્વજીવો-દુશ્મન અને પીડા આપનાર પણ જીવો મારા મિત્ર છે એમ મૈત્રીભાવ ભાવવો અને બીજી બાજૂ એવા જીવાપર પ્રહાર કરવા કે તે પ્રહાર કરતો અટકે તે માટે દાંડા જેવું શસ્ત્ર સાથે રાખવું આ પરસ્પર અત્યન્તવિરુદ્ધ છે.) મૂળમાં “આદિ શબ્દથી આવા જ પ્રકારના બીજા દોષો પણ સમજી લેવા. (દિગંબર સ્વપક્ષમાં આ બધા ઘોષોનો અભાવ બતાવે છે.) પૂર્વોક્ત વસ્ત્રઆદિસંબંધી બતાવેલા આ બધા જ દોષો માત્ર ગ્રન્થના ત્યાગી નિરૈન્યને જ હોતા નથી. ૧૦રરા किंच णियं चिय स्वं दट्ठणं तस्स हों (हो) ति संवेगो । पव्वइतोऽहमगंथो करेमि ता णिययकरणिज्जं ॥१०२३॥ (किञ्च निजमेव रूपं दृष्ट्वा तस्य भवति संवेगः । प्रव्रजितोऽहमग्रन्थः करोमि तस्माद् निजककरणीयम् ॥ किंच निजमेव रूपं दृष्ट्वा तस्य-साधोर्भवति संवेगो यथा-प्रवृजितोऽहमग्रन्थश्च, 'ता' तस्मात्किमेभिर्वस्त्रादिभिः । परिगृह्यमाणैः नैर्ग्रन्थ्यविघातकारिभिः करोमि निजं करणीयमिति ॥१०२३॥ ગાથાર્થ:- તથા પોતાનું જ (વસ્ત્રાદિથી રહિતનું રૂપ જોઈને તે સાધુને સંવેગ થાય છે કે દીક્ષિત થયેલો હું +++++++++++++++ Ge-RINR - 203 +++++++++++++++ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + स्त्रिद्वार ++++*** ++ ++ અગ્રન્થ-નિર્પ્રન્થ છું.ગ્રન્થમુક્ત છું. તેથી નિર્પ્રન્થતાના વિરોધી પરિગ્રહ કરાતા વસ્ત્રોવગેરેથી મારે શું? (અર્થાત્ પરિગ્રહભૂત અને નિગ્રન્થતાવિરોધી વસ્ત્રાદિથી મારે કોઇ પ્રયોજન નથી.) હું તો મારું કરણીય અનુષ્ઠાન કરું (અર્થાત્ મારે ભગવાને બતાવેલા સંયમપોષક વીતરાગભાવસાધક બીજા ઘણા અનુષ્ઠાનો કરવાના છે, એ અનુષ્ઠાનોમા જ હું મસ્ત રહું” ૫૧૦૨૩૫ उपसंहारमाह હવે ઉપસંહાર બતાવે છે– तम्हा चइऊण घरं तं चेव पुणो अणिच्छमाणेणं । निग्गंथेणं जइणा होयव्वं निम्ममत्तेणं ॥ १०२४॥ (तस्मात् त्यक्त्वा गृहं तदेव पुनरनिच्छता । निर्ग्रन्थेन यतिना भवितव्यं निर्ममत्वेन ॥) यत एवं वस्त्रादिपरिग्रहेऽनेकदोषसंभवस्तस्मात् त्यक्त्वा गृहं तदेव - गृहं पुनरनिच्छता सता यतिना निर्ग्रन्थेन - वस्त्रादिग्रन्थरहितेन निर्ममत्वेन - ममत्वविकलेन भवितव्यमिति ॥१०२४ ॥ ગાથાર્થ:- આમ વસ્ત્રાદિના પરિગ્રહમા અનેક દોષો સભવે છે. તેથી ઘરનો ત્યાગ કરી સાધુ થયેલા અને ફરીથી ધરને નહીં ઇચ્છતા મુનિએ વસ્ત્રાદિ ગ્રન્થરહિત-નિર્પ્રન્થ બનીને નિર્મમ ભાવે રહેવું જોઇએ. ૫૧૦૨૪૫ ઉત્તરપક્ષ-આહારમાં પણ યાંચાદોષ अत्राचार्य आह દિગંબરના આ વિસ્તૃત પૂર્વપક્ષનો હવે આચાર્યવર યુક્તિપુરસ્કર ઉત્તર આપવાનુ શરુ કરે છે वत्थमिह जायणाओ जइ मुच्चइ हंत एवं मोत्तव्वो । आहारोवि जइणा अजाइओ जं न होइत्ति ॥ १०२५ ॥ - (वस्त्रमिह याञ्चातो यदि मुच्यते हन्त एवं मोक्तव्यः । आहारोऽपि हु यतिनाऽयाचितो यन्न भवतीति ॥) यदि वस्त्रमिह याञ्चातो- याञ्चादोषान्मुच्यते हन्त एवं सत्याहारोऽपि यतिना सर्वथा मोक्तव्य एव, हुरवधारणे, तुल्यदोषत्वात् । एतदेवाह - 'अजाइओ जं न होइत्ति' यत् - यस्मात्कारणादाहारोऽपि यतेर्नायाचितो भवति । " सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयमिति" (छा. सर्वं तस्य याचितं भवति नास्ति किञ्चिदयाचितम्) वचनप्रामाण्यात् ॥ १०२५ ॥ गाथार्थ:-उत्तरपक्ष:-भे यांयाघोषभात्रथी खडी ( = नैनशासनभां ) वस्त्र छोडी हेवानुं (विधान ) होय, तो साधुखे खाज़ार પણ સર્વથા છોડી દેવો જોઇએ. કેમકે એ દ્વેષ તો સમાન છે. (મૂળમાં ‘” જકારાર્થક છે.) કારણ કે સાધુને તો આહાર પણ યાચના વિના મળતો નથી. અહીં ‘સાધુને બધું (=આહારાદિ) યાચિત જ હોય, અયાચિત કશું બ્રેતુ નથી.' એવું વચન પ્રમાણભૂત છે. ૫૧૦૨પા अत्र परस्य मतमाह - અહીં આચાર્યશ્રીના સીધા હુમલાને ખાળવા પૂર્વપક્ષ કહે છે अह धम्मकायपरिवालणेण उवगारगो तओ दिट्ठो । वत्थंपि हु एवं चिय उवगारगमो मुणेतव्वं ॥ १०२६॥ (अथ धर्मकायपरिपालनेनोपकारकः सको दृष्टः । वस्त्रमपि हु एवमेवोपकारकं ज्ञातव्यम् ॥) अथोच्येत 'तउत्ति' सक आहारो धर्म्मकायपरिपालनेन - धर्म्मार्थं कायो धर्म्मकायस्तस्य परिपालनं तेनोपकारको दृष्टस्ततश्चेत्थं महोपकारित्वादाहारस्याल्पीयान्भवन्नपि याञ्चादोषो न बाधायेति । अत्राह - 'वत्थंपीत्यादि' ननु वस्त्रमपि 'हु' निश्चितमेवमेव-आहारवदेव उपकारकमेव ज्ञातव्यम् । 'मो' इति निपातोऽवधारणे ॥१०२६॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- ધર્મમાટેની કાયા-ધર્મકાય. આ ધર્મકાયનું પરિપાલન કરવાદ્વારા આહર ઉપકારકતરીકે દૃષ્ટ છે. આહારની યાચના દોષરૂપ હોવા છતાં આહારકૂત મહોપકારની અપેક્ષાએ તે દોષ ઘણો નાનો છે, તેથી બાધક નથી. ઉત્તરપક્ષ:- વસ્ત્ર પણ નિશ્ચિતરૂપે આહારની જેમ ઉપકારક જ છે. એમ સમજવું જોઇએ. (મૂળમા ‘મો' નિપાત જકારાર્થક છે.) ૧૦૨૬ા વક્ત ઉપકારો धर्मसंशबलि-लाग २ - 204 + + Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિદ્વાર જ જ આ * * * * * * * उपकारकमेव (उपकारमेव) दर्शयति - આચાર્યવર વસ્ત્રનો ઉપકાર બતાવે છે. तणगहणअग्गिसेवणकायवहविवज्जणेण उवगारो । तदभावे य विणासो अणारिसो धम्मकायस्स ॥१०२७॥ (तणग्रहणाग्निसेवनकायवधविवर्जनेनोपकारः । तदभावे च विनाशोऽनार्षो धर्मकायस्य ॥ वस्त्रपरिग्रहाभावे हि शयनादिनिमित्तं सचित्ततृणपण्र्णादीनां परिग्रहं कुर्यात्, तथा च सति वनस्पतिकायविघातसंभवः। अथाचित्ततृणपण्र्णादिग्रहणं करिष्यति ननु तत्रापि शुषिरत्वात् कुन्थ्वाद्यनेकप्राणिगणविनाशोऽपरिहार्य एव, शिशिरकाले च शीतपरिपीडितवपुस्सन्नग्निकार्य समारभेत तत्समारंभे च पृथ्वीकायादिषड्जीवनिकायवधप्रसङ्गस्ततस्तृणग्रहणेना ग्निसेवनेन च यः कायवधप्रसङ्गस्तद्विवर्जनेन वस्त्रस्योपकारः-उपकारित्वं द्रष्टव्यं, कायवधप्रसङ्गवर्जनं वस्त्रस्योपकार इतियावत्, उपलक्षणमेतत्, तेन निशि स्वाध्यायध्यानमिच्छतः शीतवेदनाभिभूतस्य मुनेराच्छादनेन समाधानसंपादनं, सचित्तपृथ्वीरजोऽवगुण्ठितस्यात्मादेः प्रमार्जनं, हिमतुषारमहिकावर्षासारोदकप्राणित्राणकरणं सचित्तमहावाते वाति सति शरीरप्रावरणेन तद्रक्षणमित्यादिरूपोऽप्युपकारो द्रष्टव्यः । अत्रैव विपक्षे बाधामाह - 'तदभावेत्यादि' तदभावे च-वस्त्राभावे च शीतादिवेदनयाऽत्यन्ताभिभवेन विनाशोऽनार्षः-आर्षप्रवचनासम्मतो धर्मकायस्य प्राप्नोति ॥१०२७॥ :- વસ્ત્રના પરિગ્રહ (ધારણ)ના અભાવમાં શયનઆદિમાટે સચિન, લૂણ, પાંદડા વગેરેનો પરિગ્રહ કરવો પડે. અને તો તુણાદિરૂ૫ વનસ્પતિકાયના વિઘાતનો સંભવ છે. પૂર્વપક્ષ:- અમે અચિત્ત લૂણ, પાંદડાઆદિ ગ્રહણ કરશું. ઉત્તરપક:- ત્યાં પણ ખૂણાદિ શષિર (=અંદરથી પોલા) હોવાથી કુન્યવગેરે અનેક જીવસમુદાયનો વિનાશ અપરિહાર્ય જ છે. તથા વસ્ત્રના અભાવમાં શિશિરકાળ-ઠંડી ઋતુમાં ઠંડીથી ધ્રુજતા–પીડાતા શરીરના કારણે અગ્નિના સમારંભનો પ્રસંગ છે. અને અગ્નિકાયના સમારંભમાં પૃથ્વીકાયવગેરે છ આવકાયના વધનો પ્રસંગ છે. આમ તૃણગ્રહણ અને અગ્નિસેવનથી જે કાયવધપ્રસંગ છે. તેનું વિવર્જન વસ્ત્રનો ઉપકાર છે. વસ્ત્રના સંગ્રહથી આવા કાયવધનો પ્રસંગ આવતો નથી. આ જ વસ્ત્રનો મોટો ઉપકાર છે. આ તો ઉપલક્ષણ છે. આનાથી તો બીજા ઘણા ઉપકારો બતાવી શકાય, જેમકે રાતે સ્વાધ્યાય-ધ્યાનની ઇચ્છા રાખતા પણ ઠંડીથી પીડાતા સાધુને આવરણ આપીને સમાધિ આપવાનું કામ વસ્ત્રનું છે, સચિત્ત ૨જથી ખરડાયેલા પોતાના શરીરનું નિર્દોષ પ્રમાર્જન વસ્ત્રથી થાય છે. હિમ, કરા, ધુમ્મસ, વરસાદના અખાયજીવોની રક્ષાનું કામ વસ્ત્રથી થાય છે. (સીધા શરીર પર પડે, તો શરીરગત ગરમી અને કર્કશતાથી નાશ થવાનો સંભવ છે.) સચિત્ત માવાય વાય, ત્યારે વસ્ત્રથી શરીરને ઢાંકી દેવાથી શરીર અને વાયુ બન્નેની રક્ષા થાય છે. આ જ સ્થળે વિપક્ષ-વસ્ત્રાદિના અભાવમાં દોષ બતાવે છેવસ્ત્રના અભાવમાં શીતાદિ વેદનાથી અતિપીડિત થવાથી ધર્મકાયનો વિનાશ થવાનો પ્રસંગ છે. જે અનાર્ષ છે જિનેશ્વરના પ્રવચનમાં-આગમમાંશાસનમાં માન્યભૂત નથી. ૧૦૨ अथ न भवति शीतादिवेदनयाऽत्यन्तमभिभूतस्यापि धर्मकायस्य विनाशः तथापि दोष एव, तथाचाह - કદાચ શીતાદિવેદનાથી અત્યન્ત અભિભૂત થવા છતાં ધર્મકાયનો વિનાશ ન પણ થાય, તો પણ વસ્ત્રાભાવમાં દોષ છે જ. તે આ પ્રમાણે – जतिवि ण विणस्सति च्चिय देहो झाणं तु नियमतो चलति । सीतादिपरिगयस्सिह तम्हा लयणं व तं गझं ॥१०२८॥ (यद्यपि न विनश्यत्येव देहो ध्यानं तु नियमतश्चलति । शीतादिपरिगतस्येह तस्माल्लयनमिव तद् ग्राह्यम् ॥) यद्यपि न विनश्यति देहस्तथापि ध्यानं शीतादिपरिगतस्येह नियमतश्चलत्येव, चियशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, स च यथास्थानं योजितस्तस्माल्लयनमिव तत्-वस्त्रमुपकारित्वादवश्यं ग्राह्यमिति ॥१०२८॥ ગાથાર્થ:-જો કે, શરીર નાશ ન પણ પામે. (અર્થાત શીતાદિપરિષહથી શરીર નાશ પામે જ તેવો નિયમ નથી, તે સ્વીકારી લઈએ તો પણ-) શીતાદિથી પીડિતનું ધ્યાન તો અવશ્ય ચલિત થાય જ છે. (‘ચિય' શબ્દ “જકારાર્થક છે અને તેનો સંબંધ ચલતિ' સાથે જોડ્યો છે.)તેથી લયન=આવાસ/શયનસ્થાન)ની જેમ વસ્ત્ર પણ ઉપકારી હોવાથી અવશ્ય ગ્રાહ્ય છે. (અર્થાત શીતાદિથી રક્ષતું હોવાથી જેમ આવાસ ગ્રાહ્ય છે, તેમ એ જ હેતુઓથી વસ્ત્ર પણ ગ્રાહ્ય છે કેમકે અતિઠંડી, વિહારાદિ વખતે વસ્ત્ર જ સહાયક બને છે.) ૧૦૨૮ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 205 * * * * * * * * * * * * * * * Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ aquasi2 ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ શુભધ્યાન વિનાનું પીડામરણ અધર્મરૂપ स्यादेतत्, यदि शीतादिवेदनाभिरत्यन्तमभिभूतस्य तस्य मरणमुपढौकते तर्हि तदपि सफलमेव, मरणपर्यवसानं हि जीवितं, ततोऽवश्यमेव कदाचिन्मर्त्तव्यं तद्यद्यधुना धर्ममाचरतो मरणं भविष्यति किमयुक्तं स्यादित्यत आह - પૂર્વપક્ષ:-જો શીતાદિવેદનાથી અત્યન્ત પીડાવાથી તેનું મરણ પણ આવી જાય, તો તે પણ સફળ જ છે. કેમકે જીવન તો મરણ સુધી જ છે. તેથી કયારેક તો અવશ્ય કરવાનું જ છે. તો જો આજે ધર્મનું આચરણ કરતાં મરણ થાય, તો તે ખોટું શું છે? અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે – सुहझाणस्स उ नासे मरणंपि न सोहणं जिणा बेंति । अन्नाणि(ची) वीरचरियं बालाणं विम्हयं कुणति ॥१०२९॥ (शुभध्यानस्य तु नाशे मरणमपि न शोभनं जिना बुवते । अज्ञानि(ची) वीरचरितं बालानां विस्मयं करोति ॥) शीतादिवेदनापरिगतस्य हि नियमतः शुभध्यानविघातसंभव इत्युक्तं, ततः शुभध्यानस्य विनाशे सति मरणमपि न शोभनं जिना ब्रुवते, आर्तध्यानादिसंभवेन तिर्यग्योन्यादिषूपपातसंभवात् । यत्पुनरुक्त-मरणपर्यवसानं हि जीवितमित्यादि तदयुक्तमेव, अज्ञानिवीरचरितं हि बालानामेव-अज्ञानामेव विस्मयं करोति न तु गुरुपारंपर्यागतागमोपनिषद्वेदिनाम, इह परलोके वा तस्य भावतो दुःखनिबन्धनत्वादिति ॥१०२९॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપH:- શીતાદિવેદનાથી અભિભૂતને અવશ્ય શુભધ્યાનનો વિઘાત થાય છે, એમ કહ્યું. તેથી શુભધ્યાનનો વિનાશ થયે મરણ થાય તે પણ સારું નથી એમ જિનેવરો કહે છે. કેમકે આર્તધ્યાનાદિનો સંભવ હોવાથી મારીને તિર્યંગ્યોનિ આદિ દુર્ગતિમાં ઉત્પત્તિ થવાનો સંભવ છે, તેથી “મરણાત જ જીવન છે' ઇત્યાદિવચન અયોગ્ય જ છે, અને અજ્ઞાનીઓનું કે અજ્ઞાનીઓ જેને “વીરચરિત'(બહાદૂરીનું કામ) કહે તેવું આ બાલમરણરૂપ આચરણ (ા છે. આ તો મોટા મહાત્મા ઠંડી ધર્મ પામ્યા ઈત્યાદિપે) બાળ-અજ્ઞ જીવોને જ વિસ્મય પમાડે છે, નહીકે ગુરુપરંપરાથી આવેલા આગમના રહસ્યના જાણકાર જીવોને. કેમકે આ આચરણ આલોકમાં કે પરલોકમાં તેને પરમાર્થથી તો દુ:ખનું જ કારણ બને છે. ૧૦૨લા अत्र पराभिप्रायमाह - અહીં દિગંબરનો આશય વ્યક્ત કરે છે. अह उत्तमसंघयणे सुहझाणस्सवि न होइ णासोत्ति । मोत्तूण तयमजुत्ता सेसेसुं हंत पव्वज्जा ॥१०३०॥ (अथोत्तमसंहनने शुभध्यानस्यापि न भवति नाश इति । मुक्त्वा तकमयुक्ता शेषेषु हन्त प्रव्रज्या ॥) . अथोच्येत उत्तमसंहनने-वज्रर्षभनाराचलक्षणे सति शुभध्यानस्यापि आस्तां धर्मकायस्येत्यपिशब्दार्थः न भवति नाशस्ततो न कश्चिदपि पूर्वोक्तदोषावकाश इति । (अत्राह-) 'मोत्तूण इत्यादि' यद्येवमिष्यते हन्त तर्हि मुक्त्वा तकम् उत्तमसंहननोपेतमतिशायिनं शेषेषु अयुक्ता प्रव्रज्या, भणितदोषप्रसङ्गात्, न चैवमस्ति, शेषेष्वपीदानीं तस्या अभ्युपगम्यमानत्वादिति ॥१०३०॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વજુઋષભનારાચ રૂપ પ્રથમ સંધયણ હોય, તો ધર્મકાયની વાત જવા દો, શુભધ્યાનનો પણ નાશ થતો નથી. તેથી પૂર્વોક્ત દોષને અવકાશ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- એનો અર્થ તો એ જ થયો કે અતિશાયી એવા ઉત્તમ સંઘયણવાળાને છોડી બીજાઓ મોટે પ્રવજયા અયોગ્ય છે. કેમકે બીજાઓને ઉપરોક્ત દોષોનો પ્રસંગ છે. પણ આ બરાબર નથી. કેમકે વર્તમાનકાળમાં બીજાઓને પણ ઉત્તમ સંઘયણ વિનાઓને પણ) ચારિત્ર હોવું સ્વીકૃત છે. ૧૦૩ના જીવોત્પત્તિ અંગે આહાર શરીરસાથે તુલ્યતાयच्चोक्तं-वस्त्रे हि परिभुज्यमाने शरीरमलसंपर्कतः षट्पदिकादिजीवसम्मूर्च्छना भवतीत्यादि, तत्र प्रतिविधानमाह - દિગંબરોએ “વસ્ત્રના પરિભોગમાં શરીરના મળના સંપર્કથી જૂ"આદિ જીવો ઉત્પન્ન થાય છે. ઇત્યાદિ જે કહ્યું તેનો હવે ४ाल आपे छ→ ++++++++++++++++ र्भसंजलि -ल -206+ + + + + + ++ + + + ++ + + Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** यारित्रद्वार +++ संमुच्छणा ण जायति पायं विहिसेवणाएँ वत्थम्म । संभवमेत्तेणं पुण देहादीसुंपि सा दिट्ठा ॥१०३१ ॥ (संमुर्च्छना णा जायते प्रायो विधिसेवनया वस्त्रे । संभवमात्रेण पुन देहादिष्वपि सा दृष्टा ॥) प्रायो - बाहुल्येन विधिसेवनया सूत्राभिहितया वस्त्रे षट्पदिकादिजीवसम्मूर्च्छना नोपजायते । अथोच्येत तथापि संभवोऽस्तिीति तत्परिह्रियते इत्यत आह- 'संभवेत्यादि' संभवमात्रेण पुनर्देहादिष्वपि - देहे कक्षाकेशादौ आदिशब्दादाहारे च सा-सम्मूर्च्छना दृष्टा, तत्र देहे सुप्रतीतैव, आहारेऽपि चं परिभुक्ते सति संभवन्त्येवोदरकोटरे जन्तव इति ॥१०३१ ॥ ગાથાર્થ:- સૂત્રમાં બતાવેલી વિધિના સેવનથી વસ્ત્રમા પ્રાય: જૂ આદિ જીવોની સંમૂર્ચ્છના (=ઉત્પત્તિ) સંભવતી નથી. पूर्वपक्ष:- छतां पग, छवोनी उत्पत्तिनो संभव तो जरो ४. तेथी ४ तेनो (=वस्त्रनो ) त्याग राय छे. ઉત્તરપક્ષ:- સંભવમાત્રરૂપે તો શરીરઆદિમા પણ બગલ, વાળવગેરેમા તથા ‘આદિ’ શબ્દથી આહારમાં જીવોની સંમૂર્ચ્છના જોવાયેલી છે. એમા શરીરમા (કે શરીરપર) જીવોત્પત્તિ સ્પષ્ટ છે. આહારના પરિભોગમા પણ પેટમા કૃમિવગેરે જીવોની ઉત્પત્તિ સંભવે છે. ૫૧૦૩૧ા तम्हा निग्गंथेणं एवं दोसं विवज्जमाणेणं । देहो आहारोऽविय वज्जेयव्वो पयत्तेणं ॥ १०३२॥ (तस्माद् निर्ग्रन्थेनैनं दोषं विवर्जयता । देह आहारोऽपि च वर्जयितव्य प्रयत्नेना II) यत एवं तस्मादेनम् - अनन्तरोक्तं सम्मूर्च्छनालक्षणं दोषं विवर्जयता सता निर्ग्रन्थेन देह आहारोऽपि च प्रयत्नेन वर्जयितव्य इति ॥१०३२ ॥ ગાથાર્થ:- આમ હોવાથી ઉપરોક્ત સમૂર્ચ્છનાદોષના ત્યાગી નિર્પ્રન્થ શરીર અને આહાર પણ પ્રયત્નપૂર્વક છોડવા જોઇએ. ૫૧૦૩૨ા अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह અહીં દિગંબર મતની આશંકા કરતા કહે છે→ — सिय थोवं संमुच्छणमेत्थं तीरति य वज्जिउं विहिणा । तणगहणादिपगारा एत्थवि थोवादितुल्लं तु ॥१०३३ ॥ (स्यात् स्तोकं सम्मूर्च्छनमत्र शक्यते च वर्जयितुं विधिना । तृणग्रहणादिप्रकारादत्रापि स्तोकादितुल्यं तु ॥ स्यादेतत्, देहे आहारेऽपि च स्तोकं सम्मूर्च्छनं तच्च भवदपि विधिना वर्जयितुं शक्यते, तथाहि - देहे वस्त्रान्तरितहस्तषट्पदिकादिग्रहणादिविधिना, आहारेऽपि च परिमिताहारभोजनेन छायानिर्गमादिविधिना सूत्रोक्तेन पुरीषोत्सर्गेण चेति । अत्राह-'तणेत्यादि' तृणग्रहणादिप्रकारात्पूर्वोक्तात्-पूर्वोक्ततृणग्रहणाग्निसेवननिमित्तककायवधप्रसङ्गापेक्षया इत्यर्थः अत्रापि-वस्त्रे 'थोवादित्ति' स्तोकं सम्मूर्च्छनं तदपि च भवद्विधिना शक्यं वर्जयितुमित्येतत् तुल्यमेव । तुरेवकारार्थः ॥१०३३ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- શરીર અને આહારમાં અલ્પ જીવોત્પત્તિ છે. અને જે થાય, તેનો પણ વિધિથી ત્યાગ કરવો શકચ છે. તે આ પ્રમાણે→ શરીરમાં વસ્ત્રથી ઢાંકેલા હાથથી ‘જૂઆદિ ગ્રહણ કરવાઆદિવિધિથી અને આહારમાં પરિમિત આહારના ભોજનથી અને છાયામા બહાર જવું-બેસવું આદિ સૂત્રોક્ત વિધિથી મલત્યાગ કરવાદ્વારા વર્જન શકય છે. ઉત્તરપક્ષ:- પૂર્વોક્ત તૃણગ્રહણ અને અગ્નિસેવનનિમિત્તક જીવવધપ્રસંગની અપેક્ષાએ વસ્ત્રમા પણ અલ્પ જ સંમૂર્ચ્છન છે, અને વિધિથી તે જીવોત્પત્તિ ટાળવી શકચ જ છે. તેથી આ તુલ્યતા છે જ. (‘તુ’પદ જકારાર્થક છે.) ૧૦૩૩ા अत्र पर आह - અહીં દિગંબર કહે છે अह धम्मसाहणं सो वत्थंपि तहेव होइ दट्ठव्वं । भणिओववत्तिओ च्चिय जइणो तं कायठितिहेऊ ॥१०३४ ॥ (अथ धर्मसाधनं स वस्त्रमपि तथैव भवति दृष्टव्यम् । भणितोपपत्तित एव यतेस्तत्कायस्थितिहेतुः ॥ ) अथ मन्येथाः सः - देह आहारो वा धर्म्मसाधनमितिकृत्वा स्वल्पदोषस्वभावे ( सद्भावे ) ऽपि न परित्यज्यते इति । ननु +++ धर्मसंग लाग २ - 207 + * * * ++++++ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ++++ पारित्रद्वार ++++++ तर्हि वस्त्रमपि तथैव-धर्म्मसाधनतयैव भवति द्रष्टव्यं यस्मात् भणितोपपत्तितः - अभिहितयुक्तितः ‘तणगहणअग्गिसेवणे त्यादिरूपाया एवकारो भिन्नक्रमः यतेः- साधोस्तत्- वस्त्रं कायस्थितिहेतुरेवेति ॥१०३४॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આ દેહ કે આહાર ધર્મનું સાધન હોવાથી જ અલ્પદોષનો સદ્ભાવ હોવા છતાં ત્યાગ કરાતા નથી. ઉત્તરપક્ષ:–તો વસ્ત્ર પણ ધર્મસાધન જ છે, તે જોવું જોઇએ. કેમકે ઉપરોક્ત ‘તણગણગ્નિસેવન” ઇત્યાદિ યુક્તિથી વસ્ત્ર સાધુને કાયસ્થિતિ (કાય–દેહની સ્થિતિ-રક્ષા)નો હેતુ છે જ. ચિયજકારાર્થક છે અને કાયસ્થિતિહેતુસાથે સંબંધિત છે. ૫૧૦૩૪ વિધિપૂર્વક વસ્ત્ર ધોનારો નિર્દોષ ++++ तत्रापि प्रत्युत्तरमाह यदप्युक्तं 'वस्त्रधावनेऽप्कायिकषट्पदिकाप्राणिनां व्यापत्तिरिति', તથા દિગંબરોએ વસ્ત્ર ધોવામાં જૂ' આદિ જીવોનો વિનાશ થાય છે.' એવું જે કહ્યું ત્યાં સચોટ જવાબ આપે છેजिणभणियविहए ण य धुवणे पाणाण होइ वावत्ती । पडिलेहणा दपि य फासुं उवयोगमो य विही ॥१०३५ ॥ (जिनभणितविधिना न च धावने प्राणानां भवति व्यापत्तिः । प्रतिलेखनोदकमपि च प्रासुकमुपयोगश्च विधिः ॥) जिनभणितविधिना वक्ष्यमाणेन न च भवति धावने - वस्त्रस्य प्रक्षालने प्राणानाम् - अप्कायिकादीनां व्यापत्तिस्तस्मान्न धावनमपि दोषाय । अथ कोऽसौ विधिर्यद्वशान्न दोष इत्यत आह- 'पडिलेहणेत्यादि' पूर्वं षट्पदिकादीनां सप्ताहोरात्रादिकं कालं यावत् प्रतिलेखना- प्रत्युपेक्षणा कार्या, प्रक्षालनसमयेऽपि च 'दगंपियत्ति'' उदकमपि प्रासुकं विगतप्राणमचित्तमितियावत् ग्रहीतव्यं, प्रक्षालयता च शिलास्फालनादिविवर्जनपूर्वकं संपातिमसत्त्वरक्षणार्थं प्रतिक्षणमुपयोग दातव्यः, 'मो' इति पादपूरणे 'चः' समुच्चये, इत्येष विधिरिति ॥१०३५ ॥ ગાથાર્થ:- ભગવાને કહેલી નીચે બતાવેલી વિધિથી વસ્ત્ર ધોવામા અપ્લાય આદિ જીવોનો વિનાશ થતો નથી. તેથી વસ્ત્ર ધોવામાં દોષ નથી. ‘એવી કઇ વિધિ છે? કે જેના કારણે દોષ નથી' તે બતાવે છે– પ્રથમ જૂ' વગેરેની સાત અહોરાતઆદિ કાળસુધી પડિલેહણા કરવી. તે પછી ધોતીવખતે પણ પાણી પ્રાસુક–જીવરહિતનું–અચિત્ત અને નિર્દોષ ગ્રહણ કરવું. ધોનારા સાધુએ શિલાપર પછાડવાઆદિનો ત્યાગ કરવાપૂર્વક ઉડીને પડતા માખી વગેરે જીવોની રક્ષામાટે સતત-પ્રતિક્ષણ ઉપયોગ राजवो लेर्धखे. (भूणमां 'भा'यह पाहपूर्ति भाटे छे. अने ''यह समुय्ययार्थ5 छे. ) खा विधि छे. ॥१०३५॥ अत्र परस्य मतमाह અહીં દિગંબરનો મત બતાવે છે– - - ++++ उल्लंघिऊण एवं केई अह अण्णहा करेंतित्ति । एसो खु पाणिदोसो तुल्लो च्चिय होइ नायव्वो ॥१०३६॥ व હવે એ તુલ્યતા જ બતાવે છે. (उल्लङ्घ्य एनं केचिदथान्यथा कुर्वन्तीति । एष खु प्राणिदोषस्तुल्य एव भवति ज्ञातव्यः ॥) अथ केचिदेनं विधिमुल्लङ्घयान्यथाऽपि कुर्वन्ति ततो दोष एवेति तत्राह - 'एसो उ (खु)' इत्यादि, एषः - अनन्तरोक्तः 'खु' निश्चितं प्राणिदोषः - प्राण्यपराधो न तु प्रवचनस्य, स चोभयत्रापि तुल्य एव भवति ज्ञातव्यः ॥ १०३६ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- કેટલાક આ વિધિનું ઉલ્લંધન કરી અન્યથા પણ કરે છે, તેથી દોષ છે જ. ઉત્તરપક્ષ:– આ તમે કહેલો દોષ જીવનો વ્યક્તિગત અપરાધ છે. પ્રવચનનો-જૈનશાસન-આગમનો દોષ નથી. અને તે તો તે ઉભયત્ર સમાન જ સમજવો ૫૧૦૩૬ા मोत्तूण वत्थमेत्तं जं च सिहिं जीवणादिगं चेव । दीसंति गेहमाणा ण एस दोसो पवयणस्स ॥१०३७ ॥ (मुक्त्वा वस्त्रमात्रं यच्च शिखिनं जीवनादिकं चैव । दृश्यन्ते गृह्णन्तो न एष दोषः प्रवचनस्य II) मुक्त्वा वस्त्रमात्रं यत् - यस्मात् चः पूरणे शिखिनम् - अग्निं जीवनादिकं च गृह्णन्तो दृश्यन्ते, न चैष दोषः प्रवचनस्य, किंतु तेषामेव गुरुकर्म्मणां प्राणिनां एवमिहापीति ॥१०३७॥ +++++ + + + धर्मसंशि-लाग २ - 208 + + + Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં “ચ પદ પૂરણાર્થક છે.) વસ્ત્રમાત્રને છોડી અગ્નિ અને ગરમાવા માટે જીવન (કચ્યવનપ્રાશ વગેરે?) ગ્રહણ કરતાં કેટલાક દેખાય છે. પણ આ પ્રવચનનો દોષ નથી. પરંતુ તે ભારે કર્મી જીવોનો જ દોષ છે. તેમ અહીં (ધોવામાં અન્યથા કરનારાના પ્રસંગમાં) સમજવું. ૧૦૩૭ દોષ પણ વિધિ–જયણાથી પ્રાયશ્ચિતનો અવિષય अथोच्येत-पूर्वोक्तविधिनाऽपि वस्त्रं प्रक्षालयतः काचिदवश्यं षट्पदिकादिप्राणिव्यपरोपणं संभाव्यते, नहि सर्वोपाधिविशद्धः छास्थोपयोगो भवतीत्यत आह - પૂર્વપક્ષ:-પૂર્વોકતવિધિથી પણ વસ્ત્ર ધોતાં ક્યારેક અવશ્ય જૂ"આદિ જીવોનો વિનાશ સંભવે છે. કેમકે છદ્મસ્થ (=અસર્વજ્ઞ)નો જ્ઞાનોપયોગ સર્વોપાધિવિશુદ્ધ (દેશ-કાળ આદિ બધા પ્રકારની ઉપાધિઓથી વિશુદ્ધ-અબાધિતનિર્મળ અર્થાત્ સર્વથા યથાર્થ) સંભવતો નથી. અહીં આચાર્યવર જવાબ આપે છે __ जो पुण विहीएँ दोसो संसत्तग(ग्ग)हणिपुरीस]वोसिरणतुल्लो । असढस्स सोवि भणितो पायच्छित्तस्स[आविसओत्ति ॥१०३८॥ પુનર્વિધના રો: સંવતવ્યત્સર્જનતત્વઃ I મશ0થ સોડા બળતઃ પ્રાયશ્ચિત્તથવિષય: ID) ___ यः पुनर्विधिनापि प्रक्षालयतो दोषः-षट्पदिकादिप्राणिव्यपरोपणलक्षणो जायते संसक्तग्रहणिव्युत्सर्जनतुल्यःजिनप्रणीतविधिपूर्वकं संसक्तग्रहणिपुरुषस्य यत्पुरीषव्युत्सर्जनं तत्तुल्यः सोऽप्यशठस्य सतः प्रायश्चित्तस्याविषयो भणितः परममुनिभिः, तस्य शुद्धत्वात्, एतदुक्तं भवति-यथा संसक्तग्रहणेः संयतस्य “संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाएँ वोसिरइ" (छा. संसक्तग्रहणिः पुनश्छायायां निर्गतायां व्युत्सृजति) इत्याद्यागमाभिहितेन विधिना पुरीषं व्युत्सृजतः प्राणिव्यपरोपणलक्षणो दोषो भवन्नपि न प्रायश्चित्तस्य विषयो भवति, तस्य यतनया प्रवर्त्तमानत्वात्, यतनायाश्च विशेषतो धर्माभिवृद्धिहेतुत्वात्, तदुक्तम् “जयणेह धम्मजणणी जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तव्वुड्डिकरी जयणा एगंतसुहावहा जयणे ॥१॥ त्यादि (छा. यतनेह धर्मजननी यतना धर्मस्य पालनी चैव । तद्वृद्धिकरी यतना एकान्तसुखा(शुभा)वहा यतना) ॥ तद्वदिहापि विधिना वस्त्रं प्रक्षालयतो दोषो भवन्नपि न प्रायश्त्तिस्य विषय इति ॥१०३८॥ ગાથાર્થ:-ઉત્તર૫લા-સંસક્તગ્રહણ (પેટમાં કૃમિ થવા અને મળવિસર્જનવખતે પડવા) નામના રોગથી પીડિત પુરુષની ભગવાને બતાવેલી વિધિમુજબ જે મળત્યાગની ક્રિયા છે, તે ક્રિયાની જેમ વિધિપૂર્વક પ્રક્ષાલન કરનાર સાધુને જૂ આદિ જીવની વિરાધનારૂપ જે દોષ લાગે છે કે જો સાધુ અશઠ (વિધિ, ભગવદ્રવચન અને જીવપ્રત્યે અભ્રાન્ત અને અમાયાવી) હોય તો ભગવાને પ્રાયશ્ચિત્તના વિષયભૂત માન્યો નથી અર્થાત એ દોષનું પ્રાયશ્ચિત્ત તું નથી – એ દોષ દોષરૂપ ગણાતો નથી. કેમકે તે સાધુ શુદ્ધ છે. તાત્પર્ય:- સંસક્તગ્રહણિ-સંગ્રહણિરોગમાં મળસાથે કૃમિઓ પડતા હોય છે. તેથી તે રોગપીડિત સાધુએ છાયા નીકળે ત્યારે અથવા છાયાવાળી નિર્દોષભૂમિપર વિધિમુજબ મળવિસર્જન કરવું એવું “સંસત્તગણિ' ઈત્યાદિ આગમવચન છે. (છાયા ન હોય, તો મળવિસર્જન પછી પોતે એવી રીતે ઊભા રહેવાનું કે જેથી પોતાની છાયા તેનાપર પડે અને તેમાં રહેલા જીવો સ્વત: જીવનમુક્ત થાય પછી ખસવાનું અથવા તાપઆદિના કારણે ખસવું પડતું હોય તો વાદિના ટુકડાથી છાયા રહે તેવી ગોઠવણ કરવી)આ પ્રમાણે વિધિમુજબ મળવિસર્જન કરનાર એ સાધુને જીવહિંસારૂપ દોષ થાય, તો પણ પ્રાયશિચત્તનો વિષય બનતો નથી. કેમકે તે સાધુએ યતનાથી પ્રવૃત્તિ કરી છે. અને યતના ધર્મની અભિવૃદ્ધિમાં વિશેષથી હેતુ છે. કશું જ છે કે અહી (= જિનશાસનમાં) યતના-જયણા ધર્મજનની(=ધર્મની માતા) છે, જયણા જ ધર્મની પાલિકા છે. ધર્મની વૃદ્ધિ કરનારી જયણા જ છે. આ જયણા આવનારી છે. ૧ ઇત્યાદિ. આ જે વાત સંસક્તગ્રહણવાળા સાધુમાટે કરી છે, તે બધી વાત અહીં પણ વિધિપૂર્વક વસ્ત્ર ધોતા સાધુને લાગુ પડે છે. તેથી તેમાં દોષ થાય, તો પણ પ્રાયશિચત્તનો વિષય બને નહીં ૧૦૮ લાભાલાભ અવિચારક શાસ્ત્ર અપ્રમાણ अत्र परस्य मतमारेकते - અહીં દિગંબરમતની આશંકા કરે છે - अह जस्स एरिसो खलु देहो सो अणसणेण तं चयइ । एसुस्सग्गो भणितो अम्हाणं सत्थगारेहिं ॥१०३९॥ (अथ यस्येदृशः खलु देहः सोऽनशनेन तं त्यजति । एष उत्सर्गो भणितोऽस्माकं शास्त्रकारैः ।) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 209 * * * * * * * * * * * * * * Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ + + + + + + + + + + + + + Raqार + + + + + + + + + + + + + + + ++ अथोच्येत यस्य साधोरीदृशः संसक्तग्रहणिः खलु देहः स साधुरनशनेन तं-देहं त्यजति, एष उत्सर्गो भणितोऽस्मा शास्त्रकारैः, ततो न कश्चिद्दोष इति ॥१०३९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપમ:- જે સાધુનું શરીર આવું સંસદ્ધગ્રહણવાળું હોય, એ સાધુ અનશનથી પોતાના શરીરનો ત્યાર કરે, આ અમારા શાસ્ત્રકારોએ ઉત્સર્ગ બતાવ્યો છે. તેથી અમારે કોઈ દોષ નથી. ૧૦૩લા अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. गुस्लाघवचिन्ताऽभावतो तयं सत्थमेव णो जुत्तं । अववायविहाणम्मि य पुव्वुत्तो चेव दोसो उ ॥१०४०॥ (गुस्लाघवचिन्ताऽभावतस्तत् शास्त्रमेव न युक्तम्। अपवादविधाने च पूर्वोक्त एव दोषस्तु ॥ इह देशकालपुरुषापेक्षया गुणागुणावाश्रित्य यत्र गुरुलाघवचिन्ता विधीयते तत्परमार्थतः शास्त्र, सम्यग्विधिशासनात् संसक्तग्रहणेश्वाशठभावस्याल्पीयान् दोषः सोऽपि यतनया तत्प्रवर्तमानस्य प्रायश्चित्तस्याविषयः महांश्च तथाविधसंयमपरिपालनेनोपकारस्तद्यदि तस्योत्सर्गतो मरणमेव विशिष्यते तर्हि गुरुलाघवचिन्ताकारित्वाभावात्तकत् शास्त्रमेव न युक्तंनाविगीतप्रामाण्यमिति कथं तद्बलादविप्रतिपत्तिर्भवेदिति ? तदेवमुत्सर्गतोऽनशनविधाने दोषमभिधाय सांप्रतमपवादतोऽपदिशति- 'अपवादविधाने च' अपवादतोऽपि चानशनस्य विधाने पूर्वोक्त एव-गुस्लाघवचिन्ताऽभावात् शास्त्रायुक्तत्वलक्षणा दोषो द्रष्टव्यः । इदमुक्तं भवति-संसक्तग्रहणेस्त्सर्गतोऽपवादतो वा मरणमनुशासत् शास्त्रं गुरुलाघवचिन्ताकारित्वाभावादशास्त्रमेव, ततस्तद्बलान्न वस्तुव्यवस्थेति ॥१०४०॥ - ગાથાર્થ:-ઉત્તર૫:-અહીં =ધર્મજગતમાં) દેશ, કાળ, અને પુણ્યની અપેક્ષાએ ગુણ-દોષને આશ્રયી જેમાં ગુરુલાઘવ = લાભાલાભ)નો વિચાર કરવામાં આવે તે જ પરમાર્થથી શાસ્ત્ર છે. કેમકે તે જ યોગ્યવિધિનું શાસન કરે છે. અશઠભાવ વાળાને સંસક્તગ્રહણથી નાનો દોષ છે, અને તે પણ જયણાથી પ્રવૃત્ત થનારને પ્રાયશ્ચિત્તનો વિષય બનતો નથી. તથા તેવા પ્રકારના સંયમપાલનથી મહત્તર ઉપકાર લાભ થાય છે. તેથી જો આવા મોટા લાભની ઉપેક્ષા કરી અલ્પતમ અને પ્રાયશ્ચિત્તના અવિષયભૂત દોષને ખાતર ઉત્સર્ગથી મરણ જ વિશેષરૂપ સૂચિત થાય, તો એ સૂચક શાસ્ત્ર ગર-લાઘવની વિચારણાથી યુક્ત નથી, તેથી તે શાસ્ત્ર અવિગતગીતાર્થોને પ્રમાણભૂત બને નહીં. તેથી એવા શાસ્ત્રના આધારે વિવાદ સર્જવો કેવી રીતે યોગ્ય ગણાય? આમ ઉત્સર્ગથી અનશનના વિધાનમાં દોષ બતાવ્યો. હવે અપવાદથી સૂચવે છે અપવાદવિધાને ચ.' અપવાદથી પણ અનશનના વિધાનમાં ગુરુલાધવચિન્તાનો અભાવ લેવાથી શાસ્ત્રની પૂર્વોક્ત અયોગ્યતાનો , દોષ રહે જ છે. તાત્પર્ય:- સંસક્તગ્રહણવાળાને ઉત્સર્ગથી કે અપવાદથી મરણનું અનુશાસન કરતું શાસ્ત્ર ગુલાઘવની ચિન્તા નહીં કરનારું હોવાથી અશાસ્ત્ર જ છે. તેથી તેના બળ પર વસ્તુવ્યવસ્થા ન થઈ શકે. ૧૦૪ના વચ્ચદાનમાં દાતાને પીડાનો અભાવ यच्चोक्तं वस्त्रदाने दातुरपि पीडा भवतीति, तत्र तदभावमुपदर्शयति - તથા દિગંબરોએ “વસ્ત્રદાનમાં દાતાને પણ પીડા થાય છે. (ગા. ૧૦૧૭) એવું જે કહ્યું, ત્યાં પીડાનો અભાવ બતાવે છે परिजुण्णमप्पमुल्लं तमणुन्नातं जओ जिणिंदेहिं । दातारस्स वि पीडा न होइ तो तमिह दिन्तस्स ॥१०४१॥ (परिजीर्णमल्पमूल्यं तदनुज्ञातं यतो जिनेन्द्रैः। दातुरपि पीडा न भवति तस्मात्तदिह ददतः ॥ परिजीर्णमल्पमूल्यं तत्-वस्त्रमनुज्ञातं यतो जिनेन्द्रैस्ता-तस्मादिह दातुरपि वस्त्रं ददतः पीडा न भवतीति ॥१०४१॥ ગાથાર્થ:- જિનેશવરોએ સાધુને જીર્ણ અને અલ્પમૂલ્યવાળા વસ્ત્રની અનુજ્ઞા આપી છે. તેથી એવું વસ્ત્ર આપતા દાતાને પણ પી થતી નથી. ૧૦૪૧ अत्र पराभिप्राय दूषयितुमाह - અહીં દિગંબરમતને દોષ દેવા કહે છે ++++++++++++++++ xde-12-210+++++++++++++++ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++ + + + + + + + शरित्रवार + + + + + + + + + + + + + + + + + + अप्पस्स होति अह सा भोयणमेत्तेऽवि तुल्लमेवेदं । तं तारिसे ण गेझं वत्थम्मिवि एवं को दोसो ? ॥१०४२॥ (अल्पस्य भवति अथ सा भोजनमात्रेऽपि तुल्यमेवेदम् । तत् तादृशे न ग्राह्यं वस्त्रेऽपि एवं को दोषः ?). अथेत्थमभिदधीथाः-अल्पस्य-अल्पधनस्य सा-वस्त्रातिसर्जननिमित्ता पीडा भवतीति, नन्विदं-पीडाभवनं भोजनमात्रेऽपि तुल्यं, नहि तदपि कियद्व्यव्ययव्यतिरेकेण संपद्यते, ततोऽल्पस्य तद्दाने पीडा भवत्येवेति । अथ तत् भोजनं तादृशेऽल्पधने न ग्राह्यं, तस्य पीडाभावात्, ततो न कश्चित्तत्र दोष इति, यद्येवं तर्हि हन्त वस्त्रेऽपि एवमल्पधनपरित्यागेन महाधनस्य दातुः सकाशात्परिगृह्यमाणे को दोषः? नैव कश्चित् ॥१०४२॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- અલ્પધનવાળી વ્યક્તિને તો એવું જીર્ણ વસ્ત્ર દેવામાં પણ પીડા થાય છે. ઉત્ત૨૫:- પીડા થવાની વાત તો ભોજનમાત્રમાં પણ છે જ. કેમકે ભોજન પણ અમુક દ્રવ્યના ખર્ચ વિના તૈયાર થતું નથી. તેથી અલ્પધનીને તો તેના દાનમાં પણ પીડા થાય છે. " પૂર્વપક્ષ:- એવા અલ્પધનવાળાને ત્યાં ભોજન ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહીં, કેમકે તેને ( ગરીબને) પીડા થવા સંભવ છે. આમ અલ્પધનીના ભોજનનો ત્યાગ કરવાથી કોઈ દોષ રહેતો નથી. - ઉત્તરપક્ષ:- જો આમ હોય, તો આ જ પ્રમાણે અલ્પધનીને છોડી મહધનવાળાને ત્યાંથી જ વસ્ત્ર લેવામાં પણ શો દોષ છે? અર્થાત કોઈ દોષ નથી. ૧૦૪રા પરિમળ્યુદોષનો પરિહાર यदप्युक्तम्- 'संधणमाईसु पलिमंथोत्ति' तदपि दूषयितुमाहતથા દિગંબરોએ “વસ્ત્ર સાંધવાવગેરેમાં સ્વાધ્યાયમાં અવરોધ' (ગા. ૧૦૧૭) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, તેને પણ દોષિત ઘોષિત કરતા 5 छ आहागडस्स गहणे संधणमादी ण होंति दोसा तु । तदभावादनिमित्तो कहं णु पलिमंथदोसो उ ? ॥१०४३॥ (यथाकृतस्य ग्रहणे संधानादयो न भवन्ति दोषास्तु । तदभावादनिमित्तः कथं नु परिमन्थदोषस्तु ) यथाकृतस्य-स्वयंसंधितादिरूपस्य वस्त्रस्य ग्रहणे संधानादयो दोषाः सर्वथा न भवन्त्येव । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च। ततश्च तदभावात्-संधानादिदोषाभावादनिमित्तः कथं नु परिमन्थदोषो भवेत् ? नैव भवेदितिभावः तुः पूरणे ॥१०४३॥ ગાથાર્થ:- ગૃહસ્થએ સ્વયંસાધેલ આદિરૂપે જેવું રાખ્યું છે, તેવું જ વસ્ત્ર ગ્રહણ કરવામાં અને પરિકર્મ ન કરવામાં સંધાનઆદિ કોઈ દોષ સર્વથા રહેતા નથી. (મૂળમાં “તપદ જકારાર્થક છે અને હોંતિ પદસાથે સંબંધિત છે.) આમ સંધાનાદિ દોષો ન રહેવાથી તેઓના કારણે સંભવિત સ્વાધ્યાયઅવરોધોષ પણ કેવી રીતે રહે? અર્થાત ન જ રહે. ('પદ પૂરણાર્થ છે.) ૧૦૪૩ तस्सालाभे इतरस्स गहणभावोऽवि भोयणसमाणो । तं धम्मसाहणं चे वत्थंपि तहेव णणु भणितं ॥१०४४॥ (तस्यालाभे इतरस्य ग्रहणभावोऽपि भोजनसमानः । तद् धर्मसाधनं चेद्वस्त्रमपि तथैव ननु भणितम् ) तस्य-यथाकृतस्य वस्त्रस्यालाभे सति इतरस्य-संधानादिकर्मयोग्यस्य ग्रहणभावोऽपि भोजनसमानो द्रष्टव्यः । यथा हि भोजनमेकस्मिन् गृहे न लब्धमिति गृहान्तरेऽपि परिभ्रम्यते न च तत्र परिभ्रमणनिमित्तः पलिमन्थदोषो मन्यते तद्वदिहापीति भावः । तत-भोजनं शरीरोपष्टम्भकारितया धर्मसाधनमिति तत्र भवन्नपि पलिमन्थो न दोषायेति चेत् ? नन् वस्त्रमपि तथैव-धर्मसाधनतयैव प्राक भणितं 'तणगहणअग्गिसेवणकायवहविवज्जणेण उवगारो' इत्यादिना ग्रन्थेन, तत एतदपीह समानमेवेति ॥१०४४ ॥ ગાથાર્થ:- યથાકૃત વસ્ત્રની અપ્રાપ્તિમાં સંધાનઆદિ કર્મયોગ્ય વસ્ત્રગ્રહણ પણ ભોજનસમાન જ જોવું. જેમ ભોજન એક ઘરે ન મળે તો બીજા ઘરોમાં પણ પરિભ્રમણ કરવામાં આવે છે, છતાં તે પરિભ્રમણનિમિત્તે પરિમળ્યદોષ માન્ય નથી, તેજ પ્રમાણે અહીં (= વસ્ત્રઅંગે) પણ સમજવું. ++++++++++++++++ AGE-RIN२ - 211+++++++++++++++ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ स्त्रिद्वार ++++ દિગંબર:- આ ભોજન શરીરમાટે ટેકારૂપ હોવાથી ધર્મસાધન છે. તેથી એમાટે ફરતા સ્વાધ્યાયપરિમન્થ થાય તો પણ घेषय नथी. ઉત્તરપક્ષ:- વસ્ત્ર પણ આ પ્રમાણે ધર્મસાધન છે. આ વાત પહેલા જ ‘તણગણ... (ભ્રૂણગ્રહણઆદિ) ગ્રન્થથી કરી જ છે. તેથી આ વાત અહીં પણ સમાન જ છે. ૫૧૦૪૪ા વિભૂષાદોષ નિરાકરણ यत्पुनरुक्तमत्यन्तकमनीयमहामूल्यवस्त्रपरिधाने सत्यात्मनो विभूषा कृता भवेदित्यादि, तदत्यन्तमसमीचीनम्, यत દિગંબરોએ અગાઉ અત્યન્ત મનોહર મહામૂલ્યવાન વસ્ત્ર પહેરવામા પોતાની વિભૂષા કરી ગણાય’ (ગા. ૧૦૧૮) એવું જે કહ્યું ते तद्दन अयोग्य छे. डेभडे एवंविहं च एतं विहिणा परिजाइतं धरेंतस्स । भिक्खणसीलस्स तहा राढाए हंत को अत्थो ? ॥१०४५ ॥ - ( एवंविधं चैतद् विधिना परियाचितं धारयतः । भिक्षणशीलस्य तथा राढाया हन्त कोऽर्थः ? ॥) एवंविधं च - परिजीर्णमल्पमूल्यं च एतत् - वस्त्रं विधिना परियाचितं धारयतस्तथा प्रतिगृहं भिक्षणशीलस्य हन्त राढाया - विभूषायाः कोऽर्थो ? नैव कश्चित्, तन्निमित्ताभावात् । अत्यन्तकमनीयमहामूल्यवस्त्रपरिधानं हि राढाया निमित्तं तच्च नाभ्युपगम्यते इति कोऽत्र राढाया अवकाशः ? ॥१०४५ ॥ ગાથાર્થ:- વિધિથી યાચના કરાયેલા જીર્ણ અને અલ્પમૂલ્યવાળા વસ્ત્રને ધારણ કરતા અને ધરે ધરે ભિક્ષા માંગતા સાધુને વિભૂષા કરવાનો અર્થ જ શો છે? અર્થાત્ વિભૂષા કરવાનું કોઈ કારણ જ ન હોવાથી વિભુષા કરવાનો કોઈ અર્થ નથી. અત્યંત મનોહર અને અતિમૂલ્યવાન વસ્ત્ર પહેરવું, એ જ વિભૂષાનું નિમિત્ત છે, પણ એવા વસ્ત્રપરિધાનનો તો અમે સ્વીકાર જ કર્યો નથી. તેથી વિભૂષાને કોઈ અવકાશ નથી. ૫૧૦૪પપ્પા अह अविवेकात तई तम्मत्ताओवि होइ केसिंचि । तट्टिगपच्छिगकुंडिंग देहे (माई) सु तओ कहं न भवे ? ॥१०४६ ॥ (अथाविवेकात्सका तन्मात्रादपि भवति केषाञ्चित् । तट्टिकापिच्छिकाकुण्डिकादेहे (आदि) षु सकः कथं न भवेत् ॥) अथाविवेकात्तन्मात्रादपि-परिजीर्णाल्पमूल्यवस्त्रमात्रादपि केषांचित्साधूनां 'तइत्ति' सका विभूषा कर्त्तव्यतया भव सा च महान् दोष इति यद्येवं तर्हि तट्टिकापिच्छिकाकुण्डिकादिषु आदिशब्दाद् देहादिषु 'तओत्ति' सको विभूषाकारणमविवेकः कथं न भवेत् ? तत्रापि भवत्येवेति ( भवेदेवेति भावः ||१०४६ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- અવિવેક એક એવું દૂષણ છે, કે જેથી કેટલાક સાધુને આવા તુચ્છ અને જીર્ણમાત્ર કપડાથી પણ વિભૂષા કરવાનું મન થઈ જાય. આ વિભૂષા મોટો દ્વેષ છે. ઉત્તરપક્ષ:– સંસારના ઊંચા ભોગોને છોડનાર સાધુને આટલી નાની ચીજમા પણ અવિવેક વિભૂષાતરફ દોરી જાય, તો આવો અવિવેક તો તક્રિકા (ધાસનું આસન?) મોરપીંછ (-દિગબરીયસાધુઉપકરણ–પ્રમાર્જનમાં ઉપયુકત) કુંડીકા અને આદિશબ્દથી દેહવગેરેમાં પણ થવા સંભવિત છે જ. (અર્થાત્ દેહવગેરેની પણ વિભૂષા કરવાનું મન થવા સંભવે છે.) ૧૦૪૬ા મૂર્છાદિ દોષોનો નિષેધ मुच्छाभयाविहारा एतेणं चिय हवंति पडिसिद्धा । अक्खेवपसिद्धीओ जोएयव्वा सबुद्धीए ॥१०४७॥ (मूर्च्छाभयाऽविहारा एतेनैव भवन्ति प्रतिषिद्धाः । आक्षेपप्रसिद्धी योक्तव्ये स्वबुद्ध्या II) मूर्च्छाभयाऽविहारा ‘एतेनैव' विभूषानिराकरणेन प्रतिषिद्धा भवन्ति ज्ञातव्याः, समानयोगक्षेमत्वात्, ये पुनरिहाक्षेपप्रसिद्धी ते स्वबुद्ध्या योक्तव्ये, यथा मूर्च्छाहितुर्वस्त्रं क्वचित्तथादर्शनादित्याक्षेपः, अत्र परिहारो - यदि वस्त्रं कस्यचिन्मूर्च्छ - हेतुस्तर्हि देहान्नपानौषधपुस्तककपिलिकानखरदकमण्डलुप्रतिलेखनकतट्टिकापुस्तकस्थापनिकादयोऽपि कस्यचिन्मूर्च्छाहेतवो दृष्टा इति तेऽपि परिहार्याः । अथैतेषु देहादिषु मोक्षसाधनमत्या न मूर्च्छापजायते तर्हि वस्त्रेष्वपि मोक्षसाधनमत्या न मूर्च्छा भविष्यतीति । अपि च, यदि स्थूले वाससि परिजीर्णे यतः कुतश्चिदपि याचितलभ्ये मूर्च्छा संभाव्येत ततो दुर्लभतरे अक्रेये + + + + + धर्मसंशि-लाग २ - 212 *** Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * शरीरे सुतरां मूर्छा संभावनीया, ततो विवेकचक्षुषः शरीरमिव वस्त्रमपि न मूच्र्छाहेतुरिति न कश्चिद्दोषः । तथा भयहेतुर्वस्त्रं यथाऽभिहितं प्राक्तस्मादेतदपि परित्याज्यमित्याक्षेपः, अत्र परिहारः-यदि भयमात्रसंभावनाद्वस्त्रपरित्यागस्ततः शरीरविषयेऽपि श्वापदादिभ्यो भयमुपजायते ततस्तदपि भवता नियमात्परिहर्त्तव्यम् । अथ मोक्षसाधनत्वाद् भयहेतुभूतमपि शरीरं न परित्यज्यते नन्वेवं तर्हि वस्त्रमपि अनेनैव हेतुना यथोक्तविधिपुरस्सरमवश्यं धारयितव्यमिति समानः पन्थाः । एवमविहारपक्षेऽपि आक्षेपपरिहारावभिधातव्यौ ॥१०४७॥ :- વિભૂષાોષનું નિરાકરણ કરવાથી જ મુચ્છ, ભય અને અવિહર દોષોનો પ્રતિષેધ થાય છે; તે સમજી લેવું. કેમકે આ ત્રણ અંગે પણ યોગક્ષેમ સમાનતયા છે. આ બાબતમાં પૂર્વપક્ષીય આક્ષેપ અને સ્વપક્ષીય પ્રત્યુત્તર અકીય પ્રજ્ઞાના ઉન્મેષથી સ્વયં યોજવા. જેમકે“વસ્ત્ર મુચ્છનું કારણ છે કેમકે કયાંક તેમ દેખાય છે. (ગા.૧૦૧૮) એવા આક્ષેપનો આવો પરિહાર છે-જે વસ્ત્ર કોકને મૂચ્છનો હેતુ બની શકે, તો શરીર, અન્ન, પાન, ઔષધ, પુસ્તક, કપિલિકા (કપાલિકા માટેની કુંડી?) નખરદણી, કમન્ડલ, પડિલેહણનું સાધન (= પૂંજણી–મોરપીંછ) તદિકા (પૂર્વવત) પુસ્તક, સ્થાપનિકા વગેરે પણ કોકને મૂર્છાના કારણ બને છે, તેથી તે બધાનો પણ ત્યાગ કરવો જોઇએ. ‘આ શરીર વગેરેમાં મોલના સાધનની બુદ્ધિ લેવાથી મૂર્છા થતી નથી. એમ જે દિગંબર કહે, તો ઉત્તરપક્ષ એમ કહી શકે કે વસ્ત્રોમાં પણ મોક્ષના સાધનની બુદ્ધિથી જ મૂર્છા થતી નથી, વળી સ્થૂલ = જાડું, મહત્વ-મૂલ્ય વિનાના) જીર્ણ થયેલા અને તે પણ જયાં ત્યાંથી = ગમે ત્યાંથી યાચનામાત્રથી પ્રાપ્ત થઈ શકે; તેવા વસ્ત્રમાં પણ મૂચ્છ સંભવતી હેય, તો તેનાથી પણ વધુ દુર્લભ, ખરીદવા જાવ તો પણ ન મળે તેવા શરીરપર તો સુતરાં મૂર્છા થવી સંભવે છે. તેથી વિવેકચક્ષુવાળાને તો શરીરની જેમ વસ્ત્ર પણ મૂ હેતુ બનતું નથી, તેથી કોઈ દોષ નથી. - તથા પૂર્વે બતાવ્યું તેમ વસ્ત્ર ભયનું કારણ બને છે, તેથી પણ વસ્ત્ર ત્યાજય છે” (ગા. ૧૦૧૮) એવો દિગંબરીયઆક્ષેપ છે. અહીં ઉત્તરપક્ષીય પરિહાર આવો છેજે ભયની સંભાવનામાત્રથી વસ્ત્ર છોડવાનું શ્રેય, તો શરીર અંગે પણ જંગલી પશુઓ વગેરેનો ભય ઉદ્ભવે છે, તેથી શરીર પણ તમારે છોડી દેવું જોઈએ. “મોક્ષનું સાધન છેવાથી જ ભયમાં હેતુભૂત હોવા છતાં શરીરનો ત્યાગ કરાતો નથી. આવા દિગંબરીય સમાધાનની સામે ઉત્તરપક્ષીય સમાધાન પણ સમાનતયા છે કે, “ભાઈ! વસ્ત્ર પણ મોક્ષનું સાધન હોવાથી જ ભયનું કારણ હોવા છતાં યથોકતવિધિપૂર્વક અવશ્ય ધારણીય છે. આમ માર્ગ સમાન જ છે. આ જ પ્રમાણે અવિહરપક્ષે પણ આક્ષેપ-પરિહાર બતાવી દેવા. ૧૦૪ના ભારવહનદોષ પ્રતિષેધ યોd – “મારવ8 vi તિ' તન્નોત્તરમ - તથા પહેલા દિગંબરોએ “ભારવહન... (ગા. ૧૦૧૮) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, ત્યાં ઉત્તર આપતાં કહે છે મારવટoffપ પરમમાળેલું તેનું હા વદ નુાં ? | ___ कह वा न तट्टिगादिसु ? को वा तम्मत्तए दोसो ? ॥१०४८॥ (भारवहनमपि परिमितमानेषु तेषु हन्त कथं युक्तं । कथं वा न तट्टिकादिषु ? को वा तन्मात्रके दोषः ?) भारवहनमपि परिमितमानेषु तेषु-वस्त्रेषु ध्रियमाणेषु हन्त कथं युक्तं ? नैव युक्तमिति भावः, परिमितमानतया तेषां भाराभावात्। कथं वा न तट्टिकादिषु आदिशब्दात्कुण्डिकादिषु च भारवहनं? तत्रापि तदस्त्येव, न च दोषकृत् द्वदिहापीति भावः । अथ तट्टिकादीनां मुक्तिसिद्धिनिबन्धनत्वात्तद्भारवहनं न दोषायेति मन्यसे ननु तदेतन्मुक्तिसिद्धिनिबन्धनत्वं वस्त्रे ऽपि समानं, यथोक्तं प्रागिति। अपि च, 'को वेति' पक्षान्तराभ्युपगमे तन्मात्रके-भारवहनमात्रके दोषः? नैव कश्चिदितिभावः ॥१०४८॥ ગાથાર્થ:- પરિમિતિમાનવાળા તે વસ્ત્રો ધારણ કરવામાં ભારવહનદોષ પણ કેવી રીતે યોગ્ય ગણાય? અર્થાત ન જ ગણાય. કેમકે પરિમિત માનવાળા હોવાથી તેઓનો ભાર સંભવતો નથી. અથવા તઠિકા અને આદિશબ્દથી કુરિડકાદિમાં ભારવહન કયાં નથી? અર્થાત છે જ. છતાં જેમ તકિકાઆદિસ્થળે ભારવહન દોષરૂપ માન્ય નથી, તેમ વચ્ચસ્થળે પણ સમજી લેવું. પૂર્વપક્ષ:- તકિકાવગેરે મુકિતની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત છે. તેથી તેમનો ભાર ઉપાડવો દેષમાટે નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ મુક્તિની સિદ્ધિ-પ્રાપ્તિમાં કારણતા તો વસ્ત્રમાં પણ સમાનતયા છે જ. જે અગાઉ કહ્યું જ છે. તથા ભાર ઉપાડવામાત્રમાં કયો દોષ છે? અર્થાત કોઈ દોષ નથી. (મૂળમાં કોવા પદથી પાન્તરનો અભ્યપગમ કર્યો છે).૧૦૪૮ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 213 * * * * * * * * * * * * * * * Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + +++ ++ +++ ++ +++ ++++ शरिर + + + ++ + ++ + + + + ++ ++++ अत्र परस्य मतमाह - અહીં દિગંબરમત બતાવે છે– जइ देहस्सऽह पीडा निययविहारातों सा न किं होति ?। उवगारिगा तई अह एत्थवि भणिओ उ उवगारो ॥१०४९॥ (यतिदेहस्याथ पीडा नियतविहारात् सा न किं भवति ? । उपकारिका सका अथात्रापि भणितस्तूपकारः ॥ अथ मन्येथाः-यतिदेहस्य-साधुशरीरस्य या पीडा भवति सैव भारवहने दोष इति, ननु नियतविहारात्सा-पीडा किन्न भवति? भवत्येवेति भावः । अथ 'तइत्ति' सका नियतविहारनिमित्ता देहस्य पीडा उपकारिका ततो भवन्त्यपि सा न दोषवतीति प्रतिपद्येथाः, यद्येवं तर्हि अत्रापि-वस्त्रे तृणग्रहणादिकायवधविवर्जनलक्षण उपकारो ननु भणित एव । तुरवधारणे । ततो वस्त्रस्यापि भारवहनं न दोषकदिति ॥१०४९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- સાધુદેહને જે પીડા થાય છે, તે જ ભાર ઉપાડવામાં દોષ છે. ઉત્તરપક્ષ:- સાધુ નિયતવિહાર કરે, તેમાં પણ શું પીડા નથી? અર્થાત છે જ. પૂર્વપક્ષ:- આ નિયતવિહારના કારણે થતી શરીરને પીડા ઉપકારક છે. તેથી એ પીડા થતી હોવા છતાં દોષરૂપ નથી. ઉત્તરપક:- જો આમ જ હોય, તો વસ્ત્રમાં પણ તુણગ્રહણવગેરેના અને ષટકાયવધના ત્યાગરૂપ ઉપકાર બતાવ્યો જ છે. તેથી વસ્ત્રનો ભાર ઉપાડવો પણ દોષકારી નથી. (તુ પદ જકારાર્થક છે.) ૧૦૪લા અધિકરણાદિ દોષાભાવ यदप्यवादीत्-'तेनाहडाधिगरण मित्यादि तत्रापि दोषाभावमाह - તથા દિગંબરોએ ચોરો ચોરી જાય તો અધિકરણ થાય' (ગા.૧૦૧૮) ઈત્યાદિ જે કહ્યું ત્યાં પણ દોષનો અભાવ બતાવે છે न हरंति तहाभूतं वत्थं तेणा पओयणाभावा । खुद्दहरणं च तट्टिगकुंडिगमादीसुवि समाणं ॥१०५०॥ (न हरन्ति तथाभूतं वस्त्रं स्तेनाः प्रयोजनाभावात् । क्षुद्रहरणं च तट्टिकाकुण्डिकादिष्वपि समानम् ॥) . न हरन्ति तथाभूतं - परिजीर्णमल्पमूल्यं च वस्त्रं स्तेनाः- चौराः । कुत इत्याह - प्रयोजनाभावात्, नहि तथाभूतेन वाससा किंचिदपि तेषां प्रयोजनं सिद्ध्यतीति । अथ क्षुद्राः केचन तथाभूता अपि सन्ति ये तथाविधमपि वस्त्रं गृह्णन्तीत्यत आह-'खुद्देत्यादि' क्षुद्रहरणं च-क्षुद्रैरपहरणं च तट्टिकाकुण्डिकादिष्वपि समानं, सन्ति हि केचित्तथाभूता अपि क्षुद्रा ये तट्टिकाद्यप्यपहरन्तीति ॥१०५०॥ . ગાથાર્થ:- તેવા પ્રકારનું જીર્ણ અને અલ્પમૂલ્યવાળું વસ્ત્ર ચોરો ચોરતા નથી, કેમકે તેવા વસ્ત્રથી તેઓનું કોઈ પ્રયોજન સિદ્ધ થતું નથી. પૂર્વપક્ષ:- એવા કેટલાક યુદ્ધ જીવો પણ છે કે, જેઓ આવા પણ વસ્ત્રની ચોરી કરે, ઉત્તરપક્ષ:- જો શુદ્ર જીવોની વાત હોય, તો જીવો તો એવા પણ છે કે જેઓ તધિકા, કુણ્ડિકાઆદિ પણ ચોરી જાય. તેથી એ વાત ઉભયત્ર સમાન છે. ૧૦૫ના अत्र परस्य मतमाहઅહીં દિગંબરનો મત વ્યકત કરે છે वोसिरिएसु न दोसो तट्टिगमादीसु अह उ वत्थेवि । तुल्लं चिय वोसिरणं साहणभावो य परलोगे ॥१०५१॥ (व्युत्सृष्टेषु न दोषः तट्टिकादिषु अथ तु वस्त्रेऽपि । तुल्यमेव व्युत्सर्जनं साधनभावश्च परलोके ॥) अथ तट्टिकादिषु स्तेनैरपहृतेष्वपि त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृष्टेषु सत्सु न दोष:-अधिकरणलक्षणोऽस्माकमुपजायत इति मन्यसे, ननु तदेतत् त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सर्जनं वस्त्रेऽपि तुल्यमेव-समानमेव, ततस्तत्राप्यधिकरणलक्षणो दोषो न भविष्यतीति । अथ तट्टिकादीनां मोक्षसाधनत्वात्कदाचिदधिकरणदोषसंभवेऽपि न तदुपादानमन्याय्यमिति । अत्राह-'साहणेत्यादि परलोके-परलोकविषये साधनभावोऽपि वस्त्रे तुल्य एव यथोक्तं प्राक्, ततस्तदप्यवश्यमुपादातव्यमिति ॥१०५१॥ + + + + + + + + + + + + + + + + धर्म -ला २ - 214+++++++++++++++ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- ચોરો તકિકાવગેરે ચોરી જાય, તો પણ ત્રિવિધ (કરણ, કરાવણ, અનુમોદન)ત્રિવિધ (મન, વચન, કાયાથી) વોસિરાવી દેવાથી અમને અધિકરણરૂ૫ દોષ રહેતો નથી. (ચોરાયેલી કે ગુમ થયેલી વસ્તુ વોસિરાવી હોવાથી તેની સાથેનો સંબંધ પૂરો થાય છે, પછી તે વસ્તુ કોઈ અન્યના હાથમાં આવે અને તેનો દુરૂપયોગ થાય, તો પણ એ આપણા માટે અધિકરણભૂત કે પાપરૂપ બનતી નથી.) ઉત્તરપક:- આ ત્રિવિધ ત્રિવિધ વોસિરાવવાનું કામ તો વસ્ત્રમાં પણ સમાનતયા થઈ શકે છે. તેથી તે અંગે પણ અધિકરણદોષ (=સંસાર કે નરકનો અધિકાર ઊભો કરે તે અધિકરણ) નથી. પૂર્વપક્ષ:- તકિકાવગેરે મોક્ષના સાધન હોવાથી ઉપકરણભૂત છે. (= મોક્ષાર્થક સાધનામાં ઉપકારક બને તે ઉપકરણ) તેથી ક્યારેક અધિકરણદોષ સંભવે તો પણ તેનું ઉપાદાન–ગ્રહણ અન્યાયી નથી. - ઉત્તરપક્ષ:- પરલોકના વિષયમાં–મોક્ષસાધનામાં વસ્ત્રમાં પણ ઉપકરણભાવ- સાધનભાવ તુલ્ય જ છે. એ વાત અગાઉ કહી જ છે. તેથી વસ્ત્ર પણ અવશ્ય ઉપાદેય છે. ૧૦૫૧ શોકાદિ દોષનિષેધ शोकदोषाभावश्च वक्ष्यमाणनीत्या द्रष्टव्यः, यदप्युक्तम् - 'पमायनद्वेवित्ति' तत्रापि दोषाभावामाह - આગળ બતાવશે તેમ શોકરૂપ દોષનો અભાવ જોઈ લેવો, તથા દિગંબરોએ “પ્રમાદથી ગુમ થાય...' (ગા. ૧૦૧૮) ઈત્યાદિ જે કહ્યું ત્યાં પણ ઘેષનો અભાવ બતાવે છે अपमत्तस्स न नासइ नटेवि न जायती तहिं सोगो । मुणियभवसस्वस्स (उ) चत्तकलत्तादिगंथस्स ॥१०५२॥ (अप्रमत्तस्य न नश्यति नष्टेऽपि न जायते तस्मिन् शोकः । ज्ञातभवस्वरूपस्य त्यक्तकलत्रादिग्रन्थस्य " अप्रमत्तस्य सतः साधोवस्त्रं तावत्सर्वथा न नश्यत्येवाप्रमत्तत्वविरोधात्, कदाचिच्च प्रमादवशानष्टेऽपि तस्मिन् वाससि न जायते ज्ञातभवस्वरूपस्य त्यक्तकलत्रादिग्रन्थस्य शोकः, शोकहेतोः संसारस्वरूपापरिज्ञानादेरभा ગાથાર્થ:- અપ્રમત્તપણે રહેલા સાધુના વસ્ત્ર ગુમ થાય જ નહીં. કેમકે “વસ્ત્ર ગુમ થવા' એ પ્રમાદ છે જે અપ્રમત્તભાવની વિરુદ્ધ છે. ક્યારેક (કલિકાળના પ્રભાવથી) પ્રમાદના કારણે વસ્ત્ર ગુમ થાય, તો પણ સંસારના સ્વરૂપને જાણતા અને પત્ની વગેરે મોટા ગ્રન્થ (= મમત્વ) ને ત્યાગેલા મુનિવરને એવા તચ્છ વસ્ત્રમાટે શોક ન થાય, કેમકે શોકમાં કારણભૂત સંસારસ્વભાવની અજ્ઞાનતાનો સાધુમાં અભાવ છે. ૧૦૫રા अह दीहभवब्भासा सेहप्पायस्स संभवो अस्थि । सो तट्टिगादितुल्लो चोएयव्वो न बुद्धिमता ॥१०५३॥ (अथ दीर्घभवाभ्यासात् शैक्षप्रायस्य संभवोऽस्ति । स तट्टिकादितुल्यश्चोदयितव्यो न बुद्धिमता ) अथ दीर्घभवाभ्यासात् शैक्षप्रायस्य प्रमादतों नष्टे सति वस्त्रे शोकस्य संभवोऽस्ति तस्मान्न तत्परिगृह्यत इति । अत्राह'सो' इत्यादि, सः- शोकसंभवो यस्मात्तट्टिकादिष्वपि तुल्यः, तेष्वपि हि प्रमादनष्टेषु सत्सु दीर्घभवाभ्यासात् शैक्षप्रायस्य शोकः संभवत्येव, ततः सोऽस्मान् प्रति बुद्धिमता न चोदयितव्य इति । अधिकरणदोषः प्राग्वत् परिहर्त्तव्यः ॥१०५३॥ A ગાથાર્થ: પૂર્વપક્ષ:- અનાદિકાલીન દીર્ધસંસારના અભ્યાસથી નૂતન દીક્ષિત જેવા સાધુને પ્રમાદથી ગુમ થયેલા વસ્ત્રઅંગે શોક થવાનો સંભવ છે. તેથી વસ્ત્રનો પરિગ્રહ કરાતો નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આવો શોક તો તકિકાઆદિઅંગે પણ સંભવે છે. દીર્ધભવના અભ્યાસથી નૂતન દીક્ષિત સાધુને પ્રમાદથી ગુમ થયેલા તકિકાદિનો શોક થવા સંભવ છે જ. તેથી બુદ્ધિશાળીએ આવા મુદાથી અમને ટોણા મારવા જોઈએ નહીં. અહીં અધિકરણદોષનો પરિવાર પૂર્વવત સમજી લેવો. ૧૦૫૩ અપેક્ષા' દોષાભાવ વડ્યો-“સાવે+gયાત્તિ' તન્નોત્તરHE - તથા દિગંબરોએ “સાપેક્ષતા..' (ગા. ૧૦૧૮) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, તેનો જવાબ વાળે છે – जो चयइ सयणवग्गं हिरन्नजायं मणोरमे विसए । जिणवयणणीतिकुसलो तस्स अवेक्खा कहं वत्थे ? ॥१०५४॥ (यस्त्यजति स्वजनवर्ग हिरण्यजातं मनोरमान् विषयान् । जिनवचननीतिकुशलस्तस्यापेक्षा कथं वस्त्रे ॥ * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 215 * * * * * * * * * * * * * * * Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++ ++++ ++++++ + शरिर + ++ + + + + + + ++ + + ++++ यो नाम त्यजति स्वजनवर्ग हिरण्यजातं मनोरमान् विषयान् जिनवचननीतिकुशलश्च तस्य कथं परिजीर्णाल्पमूल्यवस्त्रमात्रेऽपेक्षा भवेत् ? नैव भवेदिति भावः ॥१०५४ ॥ ગાથાર્થ:-જે સાધુ સ્વજનવર્ગને છોડે છે, ધન, સોના-ચાંદી અને દાગીનાઓને ત્યજે છે; મનોરમવિષયોનો ત્યાગ કરે છે અને જિનવચનની નીતિમાં કુશળ છે, તે સાધુને જીર્ણ અને અલ્પમૂલ્યવાળા વસ્ત્રમાત્રમાં અપેક્ષા કેવી રીતે થાય? ૧૦૫૪ अत्र पर आह - અહીં દિગંબર કહે છે लज्जइ जमित्थ (त्थि) मादीण तेण तं गिण्हइत्ति सावेक्खो । लुंचियसिरस्स भिक्खं हिंडंतस्सेह का लज्जा ? ॥१०५५॥ (लज्जते यत् स्त्र्यादीनां तेन तद् गृह्णातीति सापेक्षः । लुञ्चितशिरसो भिक्षायां हिण्डमानस्येह का लज्जा ? ) यत्-यस्मात् स्त्र्यादीनां लज्जते नग्नः सन् तेन कारणेन वस्त्रं गृह्णाति इति-हेतोः सापेक्षस्तस्मिन् वस्त्रे इति चेत् ? ननु लुञ्चितशिरसः 'भिक्खं हिंडंतस्सेति' अत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया, यथा “कत्तो रत्तिं मुद्धे ! पाणियसद्धा सउणयाणं" "कुतो रात्रौ मुग्धे! पानीयश्रद्धा शकुनिकानामित्यत्र,' ततो भिक्षायां-भिक्षानिमित्तं हिण्डमानस्य-भ्राम्यत इह खलु का लज्जा? यद्वशाद्वस्त्रे सापेक्षो भवेत्, नैव काचिदिति भावः । यदि पुनर्भवेत्तर्हि नैव शिरोलुञ्चनं कुर्यात्, नापि प्रतिगृहं भिक्षार्थ भ्राम्येत्, तत्र हि भूयसी लज्जा भवतीति ॥१०५५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- નગ્ન થવાથી સ્ત્રીઓથી શરમ લાગે છે, તેથી તે ( સાધુ) વસ્ત્ર ગ્રહણ કરે છે. આમ વસ્ત્રઅંગે સાધુ સાપેક્ષ છે. ઉત્તરપક્ષ:- લોચ કરેલા મસ્તકવાળા અને ભિક્ષા માટે ભમતા સાધુને વળી લજજા કેવી? કે જેથી વસ્ત્રો ગ્રહણ કરવા પડે. અર્થાત સાધુને એવી કોઈ લજજ નથી. લજા જ હોત, તો લોચ પણ ન કરાવત અને ઘરે ઘરે ભિક્ષા માટે ભમત પણ નહીં, કેમકે આ બે કાર્યમાં ભારે લજજા લાગે એમ છે. અહીં મૂળમાં “ ભિખં' એમ જે દ્વિતીયા વિભક્તિ છે. તે સાતમી વિભક્તિના અર્થમાં છે. તેથી ભિક્ષાયાં ભિક્ષાના નિમિત્તે, એવો અર્થ થાય. પ્રાકૃતમાં સપ્તમીનાં અર્થમાં કચારેક દ્વિતીયા પણ १५२य छ, हेम, तो रात'...त्याध्य मा शित्त' ५६ 'शत्रौ अर्थमा छ, अर्थात २ भुरु! शशनि (सम ને પાણીની શ્રદ્ધા પણ કયાંથી હોય ૧૦૫પા पर आह - અહીં દિગંબર કહે છે ता किं ण तं चएई उवगारणिरिक्खणा जहाऽऽहारं । भणितो य तओ पुव्विं संजमजोगाण हेउत्ति ॥१०५६॥ (ततः किन्न तत् त्यजति उपकारनिरीक्षणाद् यथाहारम्। भणितश्च सकः पूर्व संयमयोगानां हेतुरिति ॥) पेक्षा 'ता' ततः किं न तत् त्यजति ? निबन्धनाभावात् । अत्राह-उपकारनिरीक्षणाद् यथा आहारम् आहारो हि यतिना तद्विषयासक्त्यभावेऽपि धर्मकायोपकारहेतृत्वात् गृह्यते, तद्वदिदमपि वस्त्रमिति भावः । अथोच्येतकोऽसावुकारो यन्निरीक्षणादिदं वस्त्रं गृह्यत इत्यत आह-'भणियो य' इत्यादि, भणितश्च सकः- उपकारः संयमयोगान हेतुः पूर्वं 'तणगहणअग्गिसेवणेत्यादिना' ग्रन्थेनेति ॥१०५६॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જો સર્વથા અપેક્ષા હોય જ નહીં, તો કેમ વસ્ત્ર છોડતા નથી? કેમકે વસ્ત્ર રાખવાનું કોઈ કારણ જ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- અહીં જ તમે થાપ ખાવ છો. જે વસ્તુની અપેક્ષા હોય, તે જ વસ્તુ ગ્રહણ થાય' એવી તમારી માન્યતા ખોટી છે. સાધુ વસ્ત્ર રાખે છે પણ કોઈ અપેક્ષાથી નહીં, બબ્બે વસ્ત્રના ઉપકારો જોવાથી. સાધુ જેમ આહાર અંગેની આસક્તિ વિના પણ “આહાર ધર્મકાર્યમાટે ઉપકારક છે. એવા ભાવથી જ આહાર ગ્રહણ છે, તેમ વસ્ત્ર પણ ગ્રહણ કરે છે. પૂર્વપક્ષ:- વસ્ત્રનો એવો કયો ઉપકાર જોયો કે જેથી વસ્ત્ર ગ્રહણ કરો છો. उत्तर:- अरे वा! मारता ४ ली गया.. म ४ मास त र...' (u.१०२७) ईत्याहिथी पत्र સંયમયોગોમાં ઉપકારક છે તે બતાવ્યું છે. ૧૦૫દા * * * * ** ***** ***** x ee- २-216++++++ + ++ + + + ++ 4 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** * ** * ** *** ** * ** * वारि + + + ++ + + + + + + + + + + +++ વસ્ત્રના દાનથી કાર્યસિદ્ધિ यदप्युक्तम् - 'दाणादकज्जसिद्धिति' तदप्यपाकर्तुं प्रपञ्चयन्नाह - તથા દિગંબરોએ પૂર્વે દાનથી કાર્યસિદ્ધિ થતી નથી' (ગા. ૧૦૨૭) ઇત્યાદિ જે કહ્યું તે પણ હંબગ છે તેમ વિસ્તારથી સૂચવતા छे तम्मत्तपदाणेणं जमकज्जं तस्स तत्थवि पवित्ती । इय अणिहुतचित्तस्सा न होइ समणत्तणं समए ॥१०५७॥ (तन्मात्रप्रदानेन यदकार्यम् तस्य तत्रापि प्रवृत्तिः । इति अनिभृतचित्तस्य न भवति श्रमणत्वं समये ॥) यस्मात्तन्मात्रप्रदानेन-वस्त्रमात्रप्रदानेन यद्वस्त्रग्रहणमकार्यम्-अकरणीयं यस्य साधोस्तस्य तत्राप्यकार्ये प्रवृत्तिरभूदितिः - एवमनिभृतचित्तस्य न भवति श्रमणत्वं समये-समयभणितं तस्माद्दातुर्दानादकार्यसिद्धिरिति ॥१०५७॥ ગાથાર્થ – પૂર્વપક્ષ:- જે સાધને વસ્ત્રગ્રહણ અકાર્યભત છે. તે સાધને વસ્ત્રમાત્ર દેવાથી તેની અકાર્યમાં પ્રવૃત્તિ થાય છે. તેથી તે સાધુ તથ્યચિત્તવાળો છે અને આગમમાં કહેલું સાધુપણું તેનામાં નથી. તેથી તેવા સાધને દાન આપવાથી દાતાને અકાર્યની સિદ્ધિઃપ્રાપ્તિ થાય છે. ૧૦૫ अत्र दूषणमाह - આચાર્યદેવ અહીં પૂર્વપક્ષને દૂષણ બતાવે છે संसारविरत्तमणो जोग्गो समणत्तणस्स जं भणितो । रागादिपवित्ती(एँ) य तट्टिगमादीसुवि समाणं ॥१०५८॥ (संसारविरक्तमना योग्यः श्रमणत्वस्य यद् भणितः । रागादिप्रवृत्तौ च तट्टिकादिषु अपि समानम् II) संसाराद्विरक्तमनाः सन् योग्यः श्रमणत्वस्य यत्-यस्माद्भणितस्तीर्थकरगणधरैः, न तु वस्त्रमात्रपरित्यागयुक्तः, अन्यथा वस्त्रादिरहिततया सिंहादीनां शबरादीनां वा तात्त्विकं श्रमणत्वं भवेत्, तद्भावतश्च न भवान्तरे नरकेषूत्पादो भवेत्, न चैवं, तस्मान्न वस्त्रग्रहणं न कार्यं साधोः, अपि तु कार्यमेव, धर्मकायोपष्टम्भकारित्वादाहारवत्, ततो न तस्य तत्र प्रवृत्त्याऽ(त्ताव पाठा.)श्रमणत्वमिति । स्यादेतत्, विरक्तमना एव श्रमणत्वे योग्यो, रागादिप्रवृत्तिनिदानं चेदं वस्त्रं, तत्कथं तद्युक्तः श्रमणत्वयोग्यो भवेदित्यत आह-रागादिप्रवृत्तौ च-वस्त्रविषयायां चोद्यमानायां तट्टिकादिष्वपि समानं, तत्रापि हि कस्यचित् अनिभृतात्मनो रागादिप्रवृत्तिर्भवत्येव ॥१०५८॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- એટલું સમજી લ્યોકે તીર્થકર–ગણધરોએ જે સંસારથી વિરક્ત મનવાળો હોય, તેને સાધુપણા માટે યોગ્ય ગણ્યો છે, નહીં કે વસ્ત્રમાત્રના ત્યાગીને. જો વમાત્રના ત્યાગને જ સાધુપણામાટે યોગ્ય માપદંડ ગણશો, તો સિંહવગેરે અથવા ભીલવગે જ્ઞાત્વિક સાધુ ઠરશે. અને તેટલામાત્રથી (=વસ્ત્રના ત્યાગમાત્રથી) જ ભવાંતરમાં નરકગતિથી બચી જશે. પણ આ તમને પણ ઈષ્ટ નથી. તેથી વિરક્તમનવાળા સાધુમાટે વસ્ત્રગ્રહણ અકાર્ય નથી, પરંત કાર્યરૂપ જ છે કેમકે આહારની જેમ જ ધર્મકાર્યમાટે ઉપષ્ટભક છે. તેથી સાધુ વસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ કરે તો અસાધુ બનતો નથી. પૂર્વપક્ષ:- ‘વિરક્તમનવાળી વ્યક્તિ જ સાધુ બનવા યોગ્ય છે. એ વાત બરાબર છે પરંતુ આ વસ્ત્ર રાગાદિ પ્રવૃત્તિમાં કારણભૂત છે (અથવા રાગાદિપ્રવૃત્તિનું કાર્ય છે, તેથી વસ્ત્રયુક્ત વ્યક્તિ કેવીરીતે સાધુપણાને યોગ્ય બને? ઉત્તર૫ક્ષ:- જો વસ્ત્રના વિષયમાં તમે આમ રાગાદિની પ્રવૃત્તિનું સૂચન કરશો, તો તે તો તઢિકાવગેરેમાં પણ સમાન જ છે, કેમકે તદિકાઆદિમાં પણ કો'ક તુચ્છમનવાળાને રાગાદિપ્રવૃતિ થાય જ છે ૧૦૫૮ तथा चाह - તેથી જ કહે છે रागादिदूसियमणो किं वा न करेइ अणिहतो जीवो? । __किं तेणं अणिदाणा अकज्जसिद्धित्ति वइमेत्तं ॥१०५९॥ (रागादिदूषितमनाः किं वा न करोति अनिभृतो जीवः ? । किं तेनानिदानादकार्यसिद्धिरिति वाङ्मात्रम् ॥) रागादिदूषितमनाः- रागद्वेषादिदोषकलुषितमनाः किं वा न करोत्यनिभृतो जीवः-रागादिवशगः सन् ? तन्नास्ति ++++++++++++++++ aaler- -217+++++++++++++++ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ यारिद्वार ++ + ++ + + ++ + + +++ +++4 यत्कुर्वन्न संभाव्यते इतियावत्, ततः किं तेन-रागादिवशगेनानिभृतात्मना । यस्तु संसारात् विरक्तमनास्तस्य न वस्त्रविषय रागादिप्रवृत्तिर्यथा तट्टिकादिषु इति, तस्माद्दातुर्दानादकार्यसिद्धिरिति वाङ्मात्रमेव तत् ॥१०५९॥ ગાથાર્થ:- અંકુશ વિનાનો અને રાગદ્વેષઆદિ દોષોથી કલુષિત મનવાળો તુચ્છ જીવ શું નથી કરતો? અર્થાત રાગાદિને વશ પડેલા જીવમાટે એવું કશું નથી કે જે તે ન કરે. અર્થાત તેને બધુ ય સંભવે. તેથી રાગાદિને વશ થયેલા તથ્યજીવથી (જીવની ચર્ચાથી) સર્યું. પરંતુ જેઓ સંસારથી વૈરાગ્ય પામેલા મનવાળા છે, તેઓની તો તકિકાઆદિની જેમ વસ્ત્રઅંગે પણ રાગાદિ પ્રવૃત્તિ થતી નથી. તેથી દાતાને દાનથી અકાર્યસિદ્ધિની વાત વચનમાત્ર છે, સાર્થક નથી. ૧૦૫લા પરિષહજયનું સ્વરૂપ यदप्युक्तं - 'परीसहासहणंति' तत्राप्याह - તથા દિગંબરોએ “પરિષહ સહેવાનો થતો નથી. (ગા. ૧૦૧૯) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, ત્યાં પણ આચાર્યવરનું કહેવું આ છે संजमजोगनिमित्तं परिजुन्नादीणि धारयंतस्स । कह ण परिस्स (रीस) हसहणं ? जइणो सइ निम्ममत्तस्स ॥१०६०॥ (संयमयोगनिमित्तं परिजीर्णादीनि धारयतः । कथं न परिषहसहनम्? यतेः सदा निर्ममत्वस्य ॥) संयमयोगनिमित्तं परिजीर्णादीनि-परिजीर्णाल्पमूल्यादिरूपाणि वस्त्राणि धारयतः सतो यतेः सदा निर्ममत्वस्य कथं न परीषहसहनं? सहनमेवेति भावः ॥१०६०।। ગાથાર્થ:- સંયમયોગના નિમિત્તે પરિજીર્ણ અને અલ્પમૂલ્યવાળા વસ્ત્રોને ધારણ કરતા અને સદા નિર્મમભાવે રહેલા સાધુને પરિષહસહન કેમ ન હૈય? અર્થાત પરિષહ સહેવાનો છે જ. ઘ૧૦૬ના अत्र परस्याभिप्रायमाह - અહીં દિગંબરનો અભિપ્રાય બતાવે છે नग्गत्तणमह सुत्ते भणियं ण जहोदियं तयं होइ । उवचरिए य परिस्स (रीस) हसहणंपि तहाविहं पावे ॥१०६१॥ (नग्नत्वमथ सूत्रे भणितं न यथोदितं तकत् भवति । उपचरिते च परिषहसहनमपि तथाविधं प्राप्नोति ॥ - अथोच्येत-नग्नत्वं वस्त्रपरिधाने सति न यथोदितं भवति, ततः सूत्रं प्रामाणीकुर्वता वस्त्रमवश्यं परित्यक्तव्यम् । अथेत्थमभिदधीथाः-द्विविधमिह लोके प्रसिद्ध नग्नत्वं मुख्यमुपचरितं च, तत्र मुख्यं सर्वथा वस्त्रपरित्यागेन यथा तदानीमेवोपजायमानस्य शिशोः, उपचरितम्-अल्पमूल्यजराजीर्णवस्त्रपरिभोगेन तथा च काचित्परिहितात्यन्तजीर्णवस्त्रा सती कोलिकं प्रत्याह – 'त्वर(स्व) कोलिक! नग्नाहं वर्ते' इति । तत्र मुख्यं भगवतामेव तीर्थकृतामुपपद्यते, तेषामुत्तमसंहननादिगुणोपेततया वस्त्रमन्तरेणापि यथोक्तदोषप्रसङ्गाभावेन स्वफलसाधकत्वात् । तदुक्तम्- "निस्वमधिइसंघयणा चउनाणातिसयसत्तसंपन्ना । अच्छिद्दपाणिपत्ता जियचेलपरीसहा सव्वे ॥१॥ तम्हा जहत्तदोसे पावति न वत्थपत्तरहियावि। तह(द) साहणं च तेसिं तो तग्गहणं न कुव्वंति ॥२॥"त्ति (छा. निस्यमधृतिसंहननाश्चतुर्जाना अतिशयसत्त्वसंपन्नाः। अच्छिद्रपाणिपात्रा जिताऽचेलपरीषहाः सर्वे ॥ तस्माद्यथोक्तदोषान् प्राप्नुवन्ति न वस्त्रपात्ररहिता अपि । तथा(द) साधनं च तेषां तस्मात्तद्ग्रहणं न कुर्वन्तीति) वर्तमानकाले तु विशिष्ट धृतिसंह ननादिगुणासंभवेन मुख्यमचेलत्वं न संयमोपकारि, तत उपचरितमेव अचेलत्वमिदानींतनसाधूनां द्रष्टव्यमिति । तदप्ययुक्तं, यतः 'उपचरियेत्यादि उपचरिते चाचेलत्वेऽभ्युपगम्यमाने परीषहसहनमपि तथाविधमेव-उपचरितरूपमेव प्राप्नोति, न चोपचरितरूपाद्विवक्षितार्थसिद्धिर्यदाह - "न च समारोपानविधायिन्योऽर्थे क्रियाः, न हि माणवको दहनोपचारादाधीयते पाके इति" ॥१०६१॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વસ્ત્ર ધારણ કરવાથી શાસ્ત્રોકત નગ્નતા રહેતી નથી. તેથી સૂત્રને પ્રમાણ કરનારે – સૂત્રને આગળ કરી જીવનારે વસ્ત્રનો અવશ્ય ત્યાગ કરવો જોઈએ. (पूर्वपक्षल्पत) २५-तोमा ननताले प्ररे प्रसिद्ध छ. (१) मुण्य सने (२) ५यरित. मा भुण्य नग्नता સર્વથા વસ્ત્રના પરિત્યાગથી સંભવે છે, જેમકે તત્કાળ જન્મેલા - નવજાત બાળકની નગ્નતા. અલ્પમૂલ્યવાળા અને જીર્ણ થયેલા વસ્ત્રના ધારણથી ઉપચરિત નગ્નતા આવે છે, જેમકે કોક અતિજીર્ણ વસ્ત્ર પહેરેલી સ્ત્રી કોળી (= વણકર) ને કહે કે ++++++++++++++++वर्म ल -मा -218+++++++++++++++ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિદ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * * છે કોળી! જલ્દી કર (વસ્ત્ર જલ્દી બનાવ) હું હમણાં સાવ નગ્ન છું. આ બે પ્રકારની નગ્નતામાં મુખ્ય નગ્નતા તીર્થકર ભગવાનને જ સુસંગત છે, કેમકે ઉત્તમસંધયણાદિ ગુણોથી યુક્ત હોવાથી વસ્ત્ર વિના પણ તેઓને પૂર્વોક્ત દોષો સંભવતા નથી અને સિદ્ધિરૂપ સ્વફળની સાધના કરી શકે છે. કહ્યું જ છે કે“બધા જ તીર્થકરો (૧) નિરુપમતિ અને સંધયણવાળા (૨) ચાર જ્ઞાનના ધારક (૩) અતિશયસત્વથી યુક્ત (૪) જેમના બાથરૂપી પાત્રમાં છિદ્રના અભાવનો ગુણ છે ? હાથમાંથી એક બુંદ પણ નીચે ન પડે તેવી લબ્ધિવાળા) અને (૫) અચલપરિવહન જીતવાવાળા છે. ૧ાા તેથી તેઓ વસ્ત્ર–પાત્રરહિત હોવા છતાં તેઓને યથોક્તદોષો પ્રાપ્ત થતાં નથી. વળી વસ્ત્ર-પાત્ર તેઓ માટે સાધનભૂત બનતા નથી, તેથી તેઓ તેને (=વસ્ત્રપાત્રન) ગ્રહણ કરતાં નથી. મારા” પરંતુ વર્તમાનકાળે તો વિશિષ્ટ તિ, સંધયણવગેરે ગુણો ઉપલબ્ધ નથી. તેથી મુખ્ય અચલતા સંયમોપકારી બને નહીં. તેથી વર્તમાનકાલીન સાધુઓને તો ઉપચરિતઅચલતા જ યોગ્ય છે. પૂર્વપક્ષ:- આ બરાબર નથી. આમ અચેલત ઉપચરિત માન્ય કરશો, તો તમારે પરિષહસહન પણ ઉપચરિત જ આવશે. અને ઉપચરિતરૂપથી અભીષ્ટ અર્થની સિદ્ધિ થતી નથી. કહ્યું જ છે કે “અર્થમાં (= પદાર્થમાં) સમારોપને અનુવિધાયી નહીં. માણવકમાં અગ્નિનો ઉપચાર કરવાથી ( માણવક કોપી હોવાથી ‘સાક્ષાત્ અગ્નિ છે” એવો ઉપચાર–સમારોપ કરવામાત્રથી) કંઈ પાકકિયામાટે તેનું (= માણવકનું) આધાન (= ઉપયોગ) કરાતું નથી. ૧૦૬૧ अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્યવર સ્થિત ઉત્તર આપે છે– णेगंतेणाभावादण्णादीणं खुधादियाणंपि । सहणं अणेसणिज्जादिचागतो इहऽवि तह चेव ॥१०६२॥ .. (नैकान्तेनाभावादन्नादीनां क्षुदादीनामपि । सहनमनेषणीयादित्यागत इहापि तथैव ॥ नैकान्तेनाभावादन्नादीनां क्षुदादीनामपि परीषहाणां सहनमादिशब्दात् पिपासापरिग्रहः, किंतु अनेषणीयादित्यागतः, आदिशब्दाद् प्रासुकपरित्यागतश्च । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा भगवन्तोऽपि तीर्थकृतस्तवाभिप्रायेणाजितक्षुदादिपरीषहा एव प्राप्नुवन्ति, तेषामपि तव मतेनापि आकेवलप्राप्तेरन्नादिपरिभोगात्, तदुक्तम्- “जइ चेलभोगमेत्ता न जिओऽचेलयपरीसहो तेणं । अजियदिगिंछादिपरीसहोवि भत्तादिभोगाओ ॥१॥ एवं तुह न जियपरीसहा जिणिंदावि सव्वहाऽऽवन्नमित्यादि" (छा. यदि चेलभोगमात्रान्न जितोऽचेलपरीषहस्तेन । अजितक्षुदादिपरीषहोऽपि भक्तादिभोगात् ॥१॥ एवं तव न जितपरीषहा जिनेन्द्रा अपि सर्वथाऽऽपन्नम्) । ततस्तथा चैवेति-अनेषणीयादित्यागेन क्षुदादिपरीषहसहनमिव इहापि-नाग्न्यपरीषहेऽनेषणीयकमनीयमहामूल्यवस्त्रपरित्यागेन सहनं द्रष्टव्यमिति । यदाह - "जह भत्ताइ विसुद्धं रागद्दोसरहितो निसेवंतो । विजियदिगिछादिपरीसहो मुणी सपडियारोवि ॥१॥" तह चेलं परिसुद्धं रागद्दोसरहियं (ओ) सुयविहीए होइ जियाचेलपरीसहो मुणी सेवमाणो वि ॥२॥ इति (छा. यथा भक्तादि विशुद्धं रागद्वेषरहितो निषेवमाणः । विजितक्षुदादिपरीषहो मुनिः सप्रतीकारोऽपि ॥१॥ तथा चेलं परिशुद्धं रागद्वेषरहितं(तः) श्रुतविधिना । भवति जिताऽचेलपरीषहो मुनिः सेवमानोऽपि ॥२॥१०६२॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- સુધાદિ–આદિશબ્દથી પિપાસાઆદિ પરિષહોનું સહન કંઈ એકાન્ત-સર્વથા અનાદિના ત્યાગથી સંભવે નહીં, પરંતુ અષણીયાદિ–આદિશબ્દથી અપ્રાસકના પરિત્યાગથી જ સંભવે. આ બાબત આમ જ સ્વીકારવી જોઈએ, નહીંતર તો તમારા મતે તીર્થકરો પણ સુધાદિ પરિષહ નહીં જિતનારા સિદ્ધ થશે, કેમકે તમારા મતે પણ તીર્થકરો કેવલજ્ઞાનની પ્રાપ્તિસધી અનાદિનો પરિભોગ કરે છે. કહ્યું જ છે કે “જો વસ્ત્રના ઉપભોગમાત્રથી અચલપરિષહ જિતાયો ન ગણાય, તો ભોજનના ઉપયોગથી સુધાદિપરિષહ પણ નહીં જિતાયો ગણાય. આમ તમારા મતે જિનેન્દ્રો પણ પરિષહને સર્વથા જિતેલા નથી એમ આવશે ૧–રા તેથી જેમ અનેકણીયાદિના ત્યાગથી સુધાદિ પરિષહ જિતાય છે, તેમ અષણીય મનોહર અને મહામૂલ્ય વસ્ત્રના ત્યાગથી નગ્નતાપરિષહ જિતાય છે, તેમ સમજવું. કહ્યું જ છે કે બજેમ રાગદ્વેષરહિત થઈ વિશુદ્ધ ભોજનાદિ સેવતો સાધુ પ્રતિકારયુક્ત હોવા છતાં ભોજન કરવા છતાં) સુધાપરિષહને જિવનારો ગણાય, તેમ રાગદ્વેષરહિત થઈ સૂત્રોક્તવિધિથી પરિશુદ્ધ વસ્ત્રને સેવતો પણ સાધુ અચલપરિષહને જિતેલો ગણાય.. auરા ૧૦૬રા एवमाचार्येणोक्ते सति परोऽतिप्रसङ्गमुद्भावयन्नाह - આચાર્યવરે આમ કહ્યું તેમાં દિગંબર અતિપ્રસંગ બતાવવા પ્રયાસ કરે છે * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 219 * * * * * * * * * * * * * * * Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ रित्रद्वार + + ++ + ++ + + + + ++ ++ +++ सिय पावई अणिठं एवं इत्थीपरीसहपसंगा । णो सुत्तंतरबाधा निवारणादिह पसंगस्स ॥१०६३॥ (स्यात्प्राप्नोति अनिष्टमेवं स्त्रीपरिषहप्रसङ्गात् । नो सूत्रान्तरबाधया निवारणादिह प्रसंगस्य ॥) स्यादेतत्, यदि परिजीर्णादिरूपवस्त्रपरिभोगतोऽचेलत्वपरीषहसहनमिष्यते तर्हि तवानिष्टं प्राप्नोति । कुत इत्याह - 'एवं इत्थीपरीसहपसंगा' एवं-परिजीर्णादिवस्त्रपरिभोगतोऽचेलत्वपरीषहसहनवत्काणकुण्टादिस्त्रीपरिभोगतः स्त्रीपरीषहस्याऽपि सहनप्रसङ्गादिति । गुरुराह-'नो इत्यादि' यदेतदुक्तं तन्न, सूत्रान्तरबाधयेह स्त्रीपरिभोगप्रसङ्गस्य निवारणात् ॥१०६३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પરિજીર્ણઆદિરૂપ વસ્ત્રના પરિભોગથી અચલપરિષહસહન ઈષ્ટ હોય, તો તમને અનિષ્ટની પ્રાપ્તિ છે. કેમકે આ પ્રમાણે તો પરિજીર્ણવઐઆદિના પરિભોગથી અચેલ પરિષહસહનની જેમ કાણી, લંગડીઆદિ સ્ત્રીના પરિભોગથી સ્ત્રીપરિષહ સહનનો પણ પ્રસંગ છે. - ઉત્તરપક્ષ:- આમ જે કહ્યું તે બરાબર નથી. કેમકે સુત્રાન્તરની બાધાથી સ્ત્રીપરિભોગનો પ્રસંગ નિવારવામાં આવ્યો છે. ૧૦૬૩ तदेव सूत्रान्तरं दर्शयति - આચાર્યવર આ સૂત્રાત્તર બતાવે છે न वि किंचिप्पडिसिद्धं अणुनायं वा (वि) जिणवरिंदेहिं ।' मोत्तुं मेहुणभावं न विणा सो रागदोसेहिं ॥१०६४॥ (नापि किञ्चित्प्रतिषिद्धमनुज्ञातं वा जिनवरेन्द्रैः । मुक्त्वा मैथुनभावं न विना स रागद्वेषाभ्याम् ॥ . . नापि किंचित्प्रतिषिद्धं, प्रतिषिद्धस्यापि कथंचिद्देशकालपुरुषापेक्षया संयमोपकारित्वेनानुमतत्वादनुज्ञातमपि वा सर्वथा नापि किंचित् जिनवरेन्द्रैः, संयमानुपकारितया कल्पनीयस्यापि तत्त्वतोऽकल्पनीयत्वाभिधानात् । उक्तं च→"यद् ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चये यत् तत्कल्प(ल्प्य)मकल्प(ल्प्य)मवशेषम् ॥१॥ यत् पुनरुपघातकरं सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमप्यकल्प्यं प्रवचनकुत्साकरं यच्च ॥२॥ किंचित्शुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्यं वा ॥३॥" इति, किं सर्वमप्येवमेव नवेत्यत आह-मुक्त्वा मैथुनभावं, स हि सर्वथा प्रतिषिद्धः, न तु कथंचिदप्यनुज्ञातः, यस्मात्सः-मैथुनभावो न विना रागद्वेषाभ्यां भवति तत इत्थमनेन सूत्रेण स्त्रीपरिभोगप्रसङ्गस्य निवारणात् न काणकुण्टादिपरिभोगतः स्त्रीपरीषहसहनप्रसङ्गः, ततश्च साधूक्तमनेषणीयादित्यागतः क्षुदादिपरीषहसहनमिवानेषणीयकमनीयमहामूल्यवस्त्रपरित्यागतो नाग्न्यपरीषहसहनम् । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमन्यथा क्षुदादिपरीषहसहनमपि सर्वथाऽन्नादिपरित्यागत एव प्राप्नोति ॥१०६४॥ ગાથાર્થ:- પ્રતિષિદ્ધ વસ્તુ પણ દેશ, કાલ, પુરુષની અપેક્ષાએ કોક હિસાબે સંયમોપકારી બની શકે ત્યારે શાસ્ત્રઅનુમત બને છે, તેથી કશું જ સર્વથા પ્રતિષિદ્ધ નથી. તેજ પ્રમાણે સંયમપ્રત્યે અનુપકારી હોય તેવી કલ્પનીય વસ્તુ પણ તત્વથી અકલ્પનીય કહી હોવાથી જિનેશ્વરોએ કોઈ પણ વસ્તુ સર્વથા અનુજ્ઞાત કરી નથી. કહ્યું જ છે કે જે જ્ઞાન, શીલ અને તમને ઉપકારી બેય અને દોષોનો નિગ્રહ કરે તથા નિશ્ચયથી જે કહ્યું છે, તે જ કપ્ય છે. બાકી બધું છે. તથા જે सभ्यत्व, शान, शीत योगोनो थात २ छ, तथा प्रयन (= संघ, शासन)नी सीखना २, ते लप्य खोय, તો પણ અકલ્પ્ય છે. લારા કેટલુંક શુદ્ધ કર્થ્ય પણ અકલ્પ્ય થાય અને અકથ્ય પણ કપ્ય બને છે. પછી તે પિણ્ડ શય્યા, વસ્ત્ર પાત્ર કે દવા વગેરે હોય. ફા” આમ કપ્યા-કપ્પનો વિવેક બતાવ્યો. પણ શું આ વાત બધી જ વસ્તુમાટે લાગુ ५.? वी शं थाय तेथी छ→ भोत्तुं भेगमा त्यहि... भैथुनमापने छोडन. भैथुनमा तो सर्वथा प्रतिषिद्ध छ. કોઇ હિસાબે પણ અનુજ્ઞાત નથી. કેમકે મૈથુનભાવ રાગદ્વેષ વિના સંભવે નહીં. આમ આ સૂત્રથી સ્ત્રીપરિભોગના પ્રસંગનું નિવારણ કર્યું છે. તેથી કાણી, લંગડીઆદિ સ્ત્રીના પરિભોગથી સ્ત્રીપરિષહને સહન કરવાનો પ્રસંગ નથી. તેથી અષણીય આદિના ત્યાગથી ભૂખવગેરે પરીષહ સહન થાય છે, તેવી જ રીતે અનેકણીય, મનોહર, અને મહામૂલ્યવાન વસ્ત્રના પરિત્યાગથી નગ્નતાપરીષહ સહન થાય છે. આ વાત બરાબર જ છે. અને એમ સ્વીકારવું જોઈએ, નહીંતર સુધાદિપરિષહ સહન પણ સર્વથા અન્નાદિના પરિત્યાગથી જ પ્રાપ્ત થશે. ૧૦૬૪ ++++++++++++++++ सं हि -ला २-220* * ** + + + ++ + + ++ ++ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of off of तथा चाह તેથી જ કહે છે– - * यरित्रद्वार* * फासुगमवि असणादी ण कंदाइवि अन्नहेह भोत्तव्वं । पायव्वं च परीसहसहणं तह इच्छमाणेणं ॥ १०६५ ॥ (प्रासुकमपि अशनादि न कदाचिदपि अन्यथेह भोक्तव्यम् । पातव्यं च परीषहसहनं च तथा इच्छता अन्यथा - एवमनभ्युपगमे प्रासुकमपि उपलक्षणमेतत्कल्पनीयमपि अशनादि न कदाचिदपि भोक्तव्यं पातव्यं च तथा-सर्वथा तदभावप्रकारेण परीषहसहनमिच्छता, न चैतदिष्यते, तस्मात् यत्किंचिदेतत् ॥१०६५॥ ગાથાર્થ:- જો આમ સ્વીકારશો નહીં–સર્વથા તે–તેના અભાવરૂપે જ પરિષહસહનને ઈચ્છનારે–તો પ્રાસુક પણ–આના ઉપલક્ષણથી કલ્પનીય પણ-અશનઆદિ કયારેય પણ ખાવા અને પીવા જોઈએ નહીં. પણ આ ઈષ્ટ નથી, તેથી પૂર્વપક્ષની આ વાત કસવગરની છે. ૫૧૦૬પા વસ્ત્રધારણ તીર્થંકરાદિસંમત यदुक्तं 'गुरुपडिकुट्ठमिति', तत्राह तथा हिगंजरोखे ऽधुं } 'वस्त्र गुरुप्रतिष्ट छे' (गा. १०१८ ) हत्याहि.. तेनो नवाज खापता छे छेगुरुणावि न पडिकुट्ठ उवहिपमाणं जओ सुते भणितं । = — अह उ अणारिसमेयं इतरं एवन्ति किं माणं ? ॥१०६६॥ (गुरुणापि न प्रतिकृष्टमुपधिप्रमाणं यतः श्रुते भणितम् । अथ तु अनार्षमेतदितरदेवमिति किं मानम् II) गुरुणाऽपि - भगवताऽपि वर्द्धमानस्वामिना न प्रतिकृष्टं - निराकृतं वस्त्र, यतो- यस्मादुपधिप्रमाणं श्रुते आगमे भणितं "कप्पा आयपमाणा” (छा. कल्पा आत्मप्रमाणाः) इत्यादिना ग्रन्थेन । अथ मन्येथा एतत् श्रुतमनार्षमभागवतं तस्मान्न प्रमाणमिति, ननु इतरत् - वस्त्रप्रतिषेधपरं श्रुतमेवमार्षमित्यत्र किं मानं प्रमाणं ? नैव किंचिदिति भाव ॥ १०६६॥ ગાથાર્થ:- ગુરુ = ભગવાન મહાવીરસ્વામીએ પણ વસ્ત્રનો નિષેધ કર્યો નથી. કેમકે કપ્પા આયપમાણા (કલ્પ = પોતપોતાના માપ મુજબ...) ઇત્યાદિ ગ્રન્થોથી શ્રુતમાં ઉપધિનું પ્રમાણ બતાવેલુ જ છે. વસ્ત્ર આત્મપ્રમાણ पूर्वपक्ष:- खा श्रुत-खागभ आर्ष- भगवद्दभाषित नथी, तेथी प्रभाएगभूत नथी. 'ઉત્તરપક્ષ:– વસ્ત્રનો નિષેધ કરતું શ્રુત-આગમ જ આર્ષ છે એમ કહેવામા કોઈ પ્રમાણ છે? અર્થાત કોઈ જ પ્રમાણ નથી. ૫૧૦૬૬ા अत्र परस्य प्रमाणमाशङ्कमान आह અહીં દિગંબરકલ્પિત પ્રમાણની આશંકા કરતાં કહે છે सिय चरमं चेव वयं परिग्गहो तत्थ बंधहेउत्ति । ण उ संजमजोगंगं वत्थं च पसाहियं पुव्विं ॥ १०६७॥ (स्यात् चरममेव व्रतं, परिग्रहस्तत्र बन्धहेतुरिति । न तु संयमयोगाङ्गं वस्त्रं च प्रसाधितं पूर्वम् II) स्यादेतत्, वस्त्रप्रतिषेधपरं वाक्यमार्षमितरन्नैवेत्यत्र चरममेव - परिग्रहनिवृत्तिलक्षणं व्रतं प्रमाणम् । तथाहि - वस्त्रस्य परिग्रहत्वाच्चरमव्रतमिच्छतस्तत्परित्याग एव साधोः श्रेयानिति । अत्राचार्य आह 'परिग्गहे' त्यादि, परिग्रहस्तत्र परिग्रहनिवृत्तिव्रतविषये बन्धहेतुरेवोच्यते न तु संयमयोगाङ्गं, "मुच्छाहेऊ गंथो” (छा. मूच्छहितुर्ग्रन्थः) इतिवचनात्, वस्त्रमपि चैतत् संयमयोगाङ्गं पूर्वमेव प्रसाधितं ततो न कश्चिद्दोष इति ॥ १०६७ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વસ્ત્રપ્રતિષેધક વચન આર્ષ છે, અને બીજું (ઉપધિપ્રમાણદર્શક વચન)અનાર્ય છે” એવી અમારી વાતમાં પરિગ્રહનિવૃત્તિરૂપ પાંચમું મહાવ્રત જ પ્રમાણભૂત છે. તેથી ચરમ-પાંચમા પરિગ્રહવિરમણવ્રતને ઈચ્છતા-સ્વીકારતા સાધુએ વસ્ત્ર પરિગ્રહરૂપ હોવાથી તેનો ત્યાગ કરવો જ શ્રેયસ્કર છે. - - ઉત્તરપક્ષ:- પરિગ્રહનિવૃત્તિવ્રતના વિષયમાં બન્ધહેતુ જ પરિગ્રહતરીકે નિર્દિષ્ટ છે, નહીં કે સંયમયોગનું અંગ-કારણ. કેમકે ‘મુચ્છાહેઊ ગ્રંથો' (= મૂńહેતુ જ ગ્રંથ છે.) એવુ વચન છે. વસ્ત્ર સંયમયોગનું અંગ જ છે, તે પૂર્વે જ સિદ્ધ કર્યું છે, તેથી કોઈ દોષ નથી. ૫૧૦૬૭ના ++++ ++++ धर्मसंग्रह - भाग २ - 221 *** +++ +++++++ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ વસ્ત્રધારી સાધુ ગૃહસ્થ નથી यदप्युक्तम् 'यदि यतिनापि वस्त्रं परिधीयते ततः स गृहस्थ एव स्यान्न यतिः, वस्त्रपरिधानं गृहिणो लिङ्गमिति, ' तदप्यसमीचीनम्, यत आह દિગંબરોએ વળી ‘જો સાધુ પણ વસ્ત્ર પહેરે તો તે ગૃહસ્થ જ હોય, સાધુ નહીં, કેમકે વસ્ત્ર પહેરવુ એ ગૃહસ્થનું લિંગ છે (गा. १०१८ ) खेषु ने उधुं, ते यग जराजर नथी; डेभडे गिहिलिंगंपि न एतं एगंतेणं तदन्नहाधरणे । होंति य कहंचि नियमा करचरणादीवि गिहिलिंगं ॥ १०६८ ॥ (गृहिलिङ्गमपि नैतदेकान्तेन तदन्यथाधारणे । भवन्ति च कथञ्चिन्नियमात् करचरणादिरपि गृहिलिङ्गम् ॥ ) गृहिलिङ्गमप्येतत्-वस्त्रमेकान्तेन न भवति । कुत इत्याह- 'तदन्यथाधारणात् तस्य वस्त्रस्य अन्यथा - गृहस्थधरणवैपरीत्येन धारणात् । मा भूदेकान्तेन कथंचित्तु भवत्येव गृहिलिङ्गमिति चेत् ? अत्राह - 'होंतीत्यादि' भवन्ति च कथंचिन्नियमात् करचरणादयोऽपि गृहिलिङ्गं ततो वस्त्रस्येव तेषामपि भवतः सूक्ष्मेक्षिकया विचारकस्य परित्याग एव श्रेयानिति ॥ १०६८ ॥ - + + यारित्रद्वार + + + + ગાથાર્થ:-વસ્ત્ર એકાન્ત ગૃહિલિંગ નથી. કેમકે ગૃહસ્થો વસ્ત્ર જે રીતે ધારે છે તેનાથી વિપરીત રીતે સાધુઓ પહેરે છે. પૂર્વપક્ષ:- કદાચ સર્વથા ગૃહિલિંગ ન પણ હોય, પરંતુ કચિત્ કોકઅંશે તો ગૃહિલિંગ ખરું જ ને? ઉત્તરપક્ષ:- એમ વસ્ત્રત્વ'આદિ તદ્દન સામાન્યધર્મોને આગળ કરી ગૃહિલિંગ કહેશો, તો હાથ-પગ પણ અવશ્ય કોક અંશને આગળ કરીને જ- ગૃહિલિંગ છે. તેથી તમારા જેવા સૂક્ષ્મબુદ્ધિથી(અસમાનમા સમાનતા જોવાની ચેષ્ટા નિમિત્તે આ કટાક્ષ છે.) વિચાર કરનારાઓએ તો વસ્ત્રની જેમ હાથ-પગનો પણ ત્યાગ કરવો જ શ્રેયસ્કર છે. ૫૧૦૬૮u अत्र पर आह અહીં દિગંબર કહે છે - तेसि परिच्चागातो देहाभावे कहं नु परलोगो ? | णु वत्थसवि चाए तणगहणादीहि तुल्लमिणं ॥ १०६९॥ (तेषां परित्यागाद्देहाभावे कथं नु परलोकः । ननु वस्त्रस्यापि त्यागे तृणग्रहणादिभिस्तुल्यमिदम् ॥) भवन्त्येव करचरणादयोऽपि कथंचित् गृहिलिङ्गं परं तेषां परित्यागतः - परित्यागे सति देहस्यैवाभावेन कथं नु परलोकः साध्येत? तस्मात्ते न परित्यज्यन्त इति । अत्राचार्य आह - 'नहु ( णु) इत्यादि' ननु वस्त्रस्यापि त्यागे सति तृणग्रहणादिभिरिदं - परलोकासाधनं तुल्यमेवेति निभाल्यतां सम्यगिति ।। १०६९ ।। गाथार्थ:-पूर्वपक्ष:- अलजत्त, अथ-पत्र पाए। अथंचित् शृद्धिलिंग छे. परंतु हाथ-पगखाहिना त्यागभा हेडनो योग અભાવ આવે. અને તો પરલોકની આરાધના શી રીતે થાય? તેથી હાથ-પગ આદિનો ત્યાગ કરાતો નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ જ પ્રમાણે વસ્ત્રના ત્યાગમાં પણ તૃણગ્રહણ-આદિથી પરલોકની સાધનાનો અભાવ તુલ્ય જ છે. આ વાત તમે જ બરાબર વિચારો. ૫૧૦૬૯લા વસ્ત્ર ભાવગ્રંથ નથી यदपि चोक्तं- 'गंथोत्ति' तदपि दूषयितुमाह તથા દિગંબરોએ ‘વસ્ત્રને ગ્રંથ' ( ગા. ૧૦૧૯) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, તેને દોષિત સાબિત કરતા કહે છે गंवि होइ दुवि दव्वे भावे य दव्वगंथो य । दुपयचउप्पय अपयादिगो तु णेओ अणेगविहो ॥१०७० ॥ (ग्रन्थोऽपि भवति द्विविधो द्रव्ये भावे च द्रव्यग्रन्थश्च । द्विपदचतुष्पदापदादिकस्तु ज्ञेयोऽनेकविधः II) ग्रन्थोऽपि भवति द्विविधो- द्विप्रकारः द्रव्ये - द्रव्य[व] विषयो द्रव्यरूप इतियावत् भावे - भाव[त्व]विषयों भावरूपः । तत्र द्रव्यग्रन्थो द्विपदचतुष्पदापदादिक एव, तुरवधारणे, ज्ञेयोऽनेकविधः - अनेकप्रकार इति ॥ १०७० ॥ गाथार्थ:- अन्य भाग जे प्रारे छे. (१) द्रव्यविषय- द्रव्यश्य अने (२) भावविषय- भाव३य. तेमां द्रव्यग्रन्थ द्वियह * * धर्मसंसि - लाग २ - 222** Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * Raate * * * * * * * * * * * * * * * * * * (स-सीवरे) या५६ (आय, मेंस मेरे) तथा अ५६ (-धर, पैसा, मानोरे) आदि ०४ अने: प्ररे समवो. (મૂળમાં ‘પદ જકારાર્થક છે.) ૧૦૭૦ भावग्रन्थमाह - હવે ભાવગ્રન્થ બતાવે છે अट्ठविहंपि य कम्मं मिच्छत्ताविरतिदुट्ठजोगा य । एसो य भावगंथो भणितो तेलोक्कदंसीहिं ॥१०७१॥ (अष्टविधमपि च कर्म मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । एष च भावग्रन्थो भणितस्त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥) अष्टविधमपि कर्म-ज्ञानावरणीयादि तथा मिथ्यात्वमविरतिर्दुष्टयोगाश्च एष एव, चोऽवधारणे, भावग्रन्थो भणितस्त्रैलोक्यदर्शिभिः सर्वज्ञैः ॥१०७१॥ ગાથાર્થ – જ્ઞાનાવરણીયઆદિ આઠ પ્રકારના કર્મો તથા મિથ્યાત્વ, અવિરતિ અને (મન-વચન-કાયાના) દુષ્ટયોગો- આ જ ભાવગ્રન્થ છે, તેમ વૈલોકયદર્શી સર્વજ્ઞોએ કહ્યું છે. (મૂળમાં “ચ પદ જકારાર્થક છે.) ૧૦૭ના जो णिग्गतो इमाओ सम्मं दुविहातों गंथजालाओ । सो निच्छयनिग्गंथो निग्गच्छंतो य ववहारे ॥१०७२॥ (यो निर्गतोऽस्मात् सम्यग, द्विविधाद् ग्रन्थजालात् । स निश्चयनिर्गिन्थो निर्गच्छन् च व्यवहारे ) यः सम्यग्निर्गतोऽस्मात-द्विविधादपि ग्रन्थजालात्स निश्चयनिग्रन्थो-निश्चयनयमतेन निर्ग्रन्थ उच्यते, निर्गच्छन् वाऽसम द्विविधाद् ग्रन्थजालात् निर्ग्रन्थ उच्यते व्यवहारे-व्यवहारनयमतेनेतियावत् ॥१०७२॥ ગાથાર્થ:- જે આ બન્ને પ્રકારના ગ્રન્થની જાળમાંથી સમ્યગ નીકળી ગયો હોય, તે નિશ્ચયનયથી–નિર્ઝન્ય કહેવાય... અને જે આ બન્ને પ્રકારની જાળમાંથી નીકળી રહ્યો છે, તે વ્યવહારનયથી નિર્ગસ્થ કહેવાય. ( નિચયનયમને ક્રિયાકાળ અને નિષ્પત્તિકાળ એકસમયે છે, જ્યારે વ્યવહારનયમતે ક્રિયાકાળના પછીના સમયે નિષ્પત્તિકાળ છે અને ક્રિયાકાળવખતે કાર્ય નિષ્પન્ન થયું ન હેય, તો પણ નિષ્પન્ન થવાનો નિર્દેશ થઈ શકે છે. આ મુદ્દાને લક્ષ્યમાં રાખી નિર્ચન્થની ઉપરોક્ત નિશ્ચય-વ્યવહારથી વ્યાખ્યા કરી.) ૧૦૭રા सो चिय निग्गच्छंतो तत्तो विहिणा कहंचि नीसरइ । सम्मत्तादिपभावा न वत्थमेत्तस्स चाएणं ॥१०७३॥ (स एव निर्गच्छन् ततो विधिना कथंचिन्निस्सरति । सम्यक्त्वादिप्रभावान्न वस्त्रमात्रस्य त्यागेन ॥ सोऽपि च ततो ग्रन्थान्निर्गच्छन् विधिना सूत्राभिहितेन कथंचिन्निस्सरति सम्यक्त्वादिप्रभावान्न तु वस्त्रमात्रपरित्यागेन ॥१०७३॥ ગાથાર્થ:- ગ્રન્થથી નીકળતો તે પણ (=વ્યવહારસંમત નિર્ચન્થ) સૂત્રમાં બતાવેલી વિધિથી જ ગ્રન્થની જાળમાંથી નીકળે છે. પણ તેમાં સમ્યકત્વાદિનો પ્રભાવ કામ કરે છે, નહીં કે વસ્ત્રમાત્રનો પરિત્યાગ. ૧૯૭૩ यस्मात् - આમ કહેવામાં કારણ બતાવે છે मिच्छत्ते अन्नाणे अविरतिभावे य अपरिचत्तम्मि । वत्थस्स परिच्चातो परलोगे कं गुणं कुणइ ? ॥१०७४॥ (मिथ्यात्वेऽज्ञानेऽविरतिभावे चापरित्यक्ते । वस्त्रस्य परित्यागः परलोके कं गुणं करोति ? ) मिथ्यात्वेऽज्ञानेऽविरतिभावे चापरित्यक्ते सति वस्त्रस्य परित्यागः (परलोके-भवान्तरे) कं गुणं करोति ? नैव कंचनेति भावः, शबरादौ तथादर्शनात् । तस्मान्मिथ्यात्वादिरूपग्रन्थपरित्यागे एव यत्नो विधेयो नतु वस्त्रमात्रपरित्यागे, तस्मिन्सत्यपि उपसर्गादिषु मिथ्यात्वादिस्पभावग्रन्थपरित्यागतः केवलज्ञानोत्पत्तेर्यदाह- "देहत्थवत्थमल्लाणुलेवणाभरणधारिणो केई । उवसग्गाइसु मुणओ निस्संगा केवलमुर्वेति ॥१॥' (छा देहस्थवस्त्रमाल्यानुलेपनाऽऽभरणधारिणः केचित् । उपसर्गादिषु मुनयो निःसङ्गाः केवलमुपयन्ति) ॥१०७४॥ +++ + + + + + + + + + + + + + Aale-ला2 - 223 +++++++++++++++ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * यात्रिवार + * * * * * * * * * * * * * ++++ ગાથાર્થ:- મિથ્યાત્વ, અજ્ઞાન અને અવિરતિભાવનો ત્યાગ કર્યા વિના કરેલો વસ્ત્રનો ત્યાગ પરલોકમાં શું ગુણ- ઉપકાર કરશે? અર્થાત કશો ગુણ નહીં કરે. શબર-ભીલવગેરેમાં તેવું જ દેખાય છે. (તેઓ વસ્ત્ર ન પહેરતા હોવા છતાં કોઈ ફાયદો નથી.) તેથી મિથ્યાત્વાદિરૂ૫ ગ્રન્થના પરિત્યાગમાં જ પ્રયત્ન કરવા જેવો છે, નહીં કે વસ્ત્રમાત્રના પરિત્યાગમાં. કેમકે વસ્ત્ર હોવા છતાં ઉપસર્ગદિ આવ્યું છn મિથ્યાત્વાદિરૂપ ભાવગ્રન્થના પરિત્યાગથી કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થાય છે. કહ્યું જ છે કે “દેહપર વસ્ત્ર, માળા, અનુલપન અને આભરણ ધારણ કરનારા કેટલાક મુનિઓ ઉપસર્ગદિવખતે નિ:સંગ થઈને કેવળજ્ઞાન પામે છે.” ૧૦૭૪ किंच - पणी, नत्थि य सक्किरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाणं । चतितुं बहुदोसमतो कायव्वं बहुगुणं जमिह ॥१०७५॥ (नास्ति च सक्रियाणामबन्धकं किञ्चिदिहानुष्ठानम् । त्यक्त्वा बहुदोषमतः कर्तव्यं बहुगुणं यदिह ॥ नास्ति च सक्रियाणामबन्धकमिह किंचिदप्यनुष्ठानम्→"जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ ताव णं सत्तविहबंधए वा" इत्यादिवचनप्रामाण्यात् । अतस्त्यक्त्वा बहुदोषं यदिह बहुगुणं तदिह कर्त्तव्यम् ॥१०७५॥ ગાથાર્થ:- વળી આ જગતમાં સક્રિય જીવમાટે કોઈ પણ અનુષ્ઠાન અબંધક બનતું નથી. અર્થાત એ જીવ કોઈ પણ અનુષ્ઠાન કરે, કર્મબંધ તો થવાનો જ. કહ્યું જ છે કે “જયાં સુધી આ જીવ એજન, વપન (= કંપન) સ્પંદન આદિ કરે છે, ત્યાં સુધી સખવિધ આદિ કર્મનો બંધક બને છે.” આ વચન અહીં પ્રમાણભૂત છે. તેથી અહીં જે બહુદોષવાળું હોય, તેનો ત્યાગ કરી જે બહુગણવાળું હોય તે જ કરવું જોઈએ. ૧૦૭પા ता किं वत्थग्गहणं किंवा तणगहणमादि पुव्वुत्तं । बहुगुणमिह मज्झत्थो होऊणं किन्न चिंतेसि ? ॥१०७६॥ (तस्मात् किं वस्त्रग्रहणं किं वा तृणग्रहणादि पूर्वोक्तम् । बहुगुणमिह मध्यस्थो भूत्वा किन्न चिन्तयसि ? |) यत इह प्रेक्षावता यद्बहुगुणं तदेव कर्त्तव्यं नतु बहुदोषं ततो मध्यस्थो भूत्वा किं न विचिंतयसि? किन्न सूक्ष्मबुद्ध्या पर्यालोचयसि? किमिह वस्त्रग्रहणं बहुगुणं किंवा पूर्वोक्तं तृणग्रहणादीनि । वस्त्रग्रहणमेव यथोक्तप्रकारेण संयमोपकारितया बहुगुणं न तु तृणग्रहणादि, तत्रोपदर्शितप्रकारेणानेक वनस्पत्यादिजीवव्यापत्तिसंभवादिति । वस्त्रपरित्यागे चावश्यमिदानींतनसाधूनां शीताद्यभिभवे तृणग्रहणादिसंभवस्तस्मादुचितमेव वस्त्रोपादानमिति ॥१०७६॥ ગાથાર્થ:- ખેલાવાન પુરુષોએ જે બહુગણકારી હોય, તે જ કરવું જોઈએ, નહીં કે બહુદોષયુક્ત હોય છે. તેથી તમે મધ્યસ્થ થઈને સૂક્ષ્મબુદ્ધિથી એવો વિચાર કેમ કરતા નથી, કે વસ્ત્રગ્રહણ કરવું બહુગુણકારી છે કે પૂર્વોક્ત તૃણગ્રહણાદિ? વાસ્તવમાં તો ઉપરોક્ત ગાથા ૧૦૨૭ મુજબ સંયમોપકારી હોવાથી વસ્ત્રગ્રહણ જ બહુગણકારી છે નહીં કે (સંયમાપકારી) –ણગ્રહણાદિ, કેમકે તુણગ્રણવગેરે કરવામાં બતાવ્યા મુજબ વનસ્પતિઆદિ અનેક જીવોનો નાશ થવાનો સંભવ છે. વર્તમાનકાલીન સાધુ . જો વસ્ત્રનો ત્યાગ કરે તો શીતાદિથી પીડાયેલો તે અવશ્ય જ તુણગ્રહણઆદિ પ્રવૃત્તિ કરશે જ. તેથી વસ્ત્ર ગ્રહણ કરવા જ ઊંચિત છે. ૧૦૭૬ પાત્રાના ફાયદા उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે इय निदोसं वत्थं पत्तंपि हु एवमेव णातव्वं । छज्जीवणिकायवहो जतो गिहे अन्नभोगेसु ॥१०७७॥ (इति निर्दोषं वस्त्रं पात्रमपि हु एवमेव ज्ञातव्यम् । षडूजीवनिकायवधो यतो गृहेऽन्नभोगेषु ॥) इतिः-एवमुक्तप्रकारेण निर्दोषं वस्त्रं पात्रमप्येवमेव-भणितप्रकारेणैव निर्दोषं ज्ञातव्यम् । तदभावे दोषमाह- 'छज्जीवेत्यादि' यतो गृहेऽन्नभोगेषु क्रियमाणेषु नियमतः, षड्जीवनिकायवधः प्रसज्यते, तस्मादवश्यंतया पात्रं ग्रहीतव्यमेव ॥१०७७॥ ગાથાર્થ:- આમ કહ્યા મુજબ વસ્ત્ર નિર્દોષ છે. એ જ પ્રમાણે પાત્ર પણ નિર્દોષ સમજવું. પાત્રના અભાવમાં દોષ બતાવે ++++++++++++++++ Gee-HIN२ - 224+++++++++++++++ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************** यरित्रद्वार +++**** છે- ‘છજજીવ...' ગૃહસ્થોના ધરમા ભોજન કરવામાં અવશ્ય ષડ્ડવકાયના વધનો પ્રસંગ આવે છે. તેથી અવશ્યતયા પાત્ર ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે. ૫૧૦૭૭ના कथं पुनर्गृहेऽन्नभोगेषु षड्जीवनिकायवधसंभव इत्यत आह ઘરમાં ભોજન કરવાથી છજીવનિકાયનો વધ શીરીતે સંભવે? તે બતાવે છે– - गिहे भोगे जलमादी चलणादिपहावणे विवज्जति । तदकरणे चाभोगो अलाभ (भि) परियडणपलिमंथो ॥१०७८ ॥ (गृहे भोगे जलादयश्चरणादिप्रधावने विपद्यन्ते । तदकरणे चाभोगोऽलाभे पर्यटनपरिमन्थः II) गृह एवान्नस्य भोगे क्रियमाणे जलादयः आदिशब्दात्तद्गतत्रसादयश्चरणादिप्रधावने आदिशब्दादत्र करपरिग्रहः विपद्यन्ते - विनाशमुपयान्ति, तदकरणे च- करचरणप्रधावनाकरणे चान्नस्याभोगः, यतो नग्नाटसिद्धान्ते पादादिप्रक्षालना - नन्तरमेव भुक्तिर्यतीनामनुज्ञातेति । तथा गृहस्थस्य भोजनप्रदानशक्त्यभावेन अलाभे च भोजनस्य तदर्थं पर्यटने क्रियमाणे सति पलिमन्थ:- दोषः प्राप्नोति ॥१०७८ ॥ ગાથાર્થ:- ઘરે જ ભોજન કરવાથી હાથ-પગઆદિ ધોવામાં પાણીવગેરે-વગેરેથી ત્રસઆદિ – જીવોનો વિનાશ થાય છે. અને હાથ-પગ ધૂએ નહીં, તો ભોજન કરી શકાય નહીં. કેમકે દિગંબરમતે પગવગેરે ધોયા પછી જ સાધુ ભોજન કરી શકે. વળી ગૃહસ્થ ભોજન આપવાની શક્તિવાળો ન હોય તો સાધુને ભોજન મળે નહીં, ભોજન ન મળવાથી સાધુએ તેમાટે ભટકવુ પડે.... અને આમ ભટકવા જાય, તો સ્વાધ્યાયપરિમન્થ' નામનો દોષ આવે. ૫૧૦૭૮ા अपि च - वणी - एग आरंभा कायवहो चेव तह य परि ( डि) बंधो । विरियायारपभसण भमराहरणं च वइमेत्तं ॥ १०७९ ॥ (एकान्ने आरंभात् कायवध एव तथा च प्रतिबन्धः । वीर्याचारप्रभ्रंशनं भ्रमराहरणं च वाङ्मात्रम् ॥) एकस्मिन् गृहेऽन्ने भोक्तव्ये सति आरम्भाद्- आरम्भसंभवात्कायवधप्रसङ्गः प्राप्नोति । तथा तेषु गृहस्थेषु उपरि महान्प्रतिबन्धः, वीर्याचारभ्रंसनं (प्रभ्रंशनं) च । यदपि सूत्रे भ्रमराहरणमुक्तं यथा - " जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसमित्यादि” (छा. यथा द्रुमस्य पुष्पेषु भ्रमर आपिबति रसम्) तदपि वाङ्मात्रमिति ॥१०७९॥ ગાથાર્થ:- એક જ ધરે ભોજન કરવામા આરંભનો દોષ આવે છે. અને આરંભના કારણે કાયવધનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તથા તે ગૃહસ્થોપર અત્યન્ત પ્રતિબન્ધ-રાગ-મમતા થાય, વીર્યાચારના પાલનથી ભ્રષ્ટ થવાય (ધર–ધર ફરી ભિક્ષા ભેગી કરવામા વીર્યાચારનુ પાલન થાય.) વળી સૂત્રમા જે ભમરાનું દૃષ્ટાન્ત છે કે જેમ વૃક્ષના ફૂલોમાં ભમરો રસ અલ્પાંશે પીએ છે. આ દૃષ્ટાન્તનું અનુસરણ થવાને બદલે માત્ર વચનરૂપ જ રહે છે. ૫૧૦૭૯ા દિગંબરભિક્ષાચારમાં જીવહિંસા स्यादेतन्नैवैकस्मिन्गृहे यथातृप्ति भोक्तव्यं किंतु प्रतिगृहमबाधया भिक्षामात्रं ततो न कश्चित्पूर्वोक्तदोषावकाश इत्येतदाशङ्कयाह પૂર્વપક્ષ:- એક જ ધરે પેટભરીને ખાવાનું નથી, પરંતુ ધરે ધરે બાધા ન પહોંચે તેમ ભિક્ષામાત્ર કરવાનું છે. તેથી પૂર્વોક્ત કોઇ દોષને અવકાશ નથી. આ પૂર્વપક્ષીય આશંકાના જવાબમાં કહે છે भिक्खाडणेवि अहिगो आउक्कायादिघातदोसो तु । फासुगमवि य तसेहिं णेगंतेणं असंसत्तं ॥ १०८० ॥ (भिक्षाटनेऽपि अधिकोऽप्कायादिघातदोषस्तु । प्रासुकमपि च त्रसैर्नैकान्तेनासंसक्तम् II) भिक्षाटनेऽपि करचरणप्रक्षालनमन्तरेणानभ्युपगमात्तत्करणे सति अधिक एवाप्कायादिजीवघातदोषः प्राप्नोति । तुः एवकारार्थी भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योजितः । अप्कायादीत्यत्रादिशब्दादप्कायगतत्रसादिजीवपरिग्रहः । अथोच्येत++++ ****+ धर्मसंग्रह-लाग २ - 225++++** ++ ++++ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જે જે કે જે ક ક ક ક ક ક ક જ ચારિત્રકાર છે જે જ છે જ ન જ જ ન જ જ કે જે જ છે प्रासुकजलेन करचरणान् प्रक्षालयिष्यति ततः को दोष इत्यत आह- 'फासुगेत्यादि' प्राशु(सु)कमपि तन्दुलोदकादि। नैकान्तेनैव त्रसैरसंसक्तं भवति, ततस्तद्व्याघातदोषः कथं परिहियेतेति? वस्त्रेण शोधिते सति तस्मिन् जले न कश्चिद्दोष इति चेत्, न, सूक्ष्मजन्तूनां छेदनादीनां वस्त्रेणाप्यपनेतुमशक्यत्वात् । उक्तं च - "कुसुम्भकुश्माम्भोवनिचितं सूक्ष्मजन्तुभिः । न घनेनापि वस्त्रेण, शक्यं शोधयितुं जलम् ॥१॥" इति, तत्र नोपयोगः क्रियते ततो नोक्तदोषावकाश इति चेत् ? न, अदर्शनमात्रेण तदभावनिश्चयानुपपत्तेः । न चादर्शनमात्रच्छलेन सत्त्वा न सन्तीति प्रतिपद्य तदुपभोगः क्रियमाणो न दोषाय भवेत्, नहि श्लथविषचूर्णव्यामिश्रे पयसि भुज्यमानेऽनुपलभ्यमाना अपि विषकणिका जीवितापगमाय न प्रभवन्तीति ॥१०८०॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક:- હથ– પગ ધોયા વિના ભિક્ષાટન પણ કરવાનું નથી. અને હાથ-પગ ધોવામાં વારંવાર ધોવા પડતા હોવાથી વધુ જ અપકાયવગેરે જીવોની હિંસાનો દોષ પ્રાપ્ત થાય છે. (જેટલા ઘર ફરો એટલી વાર હાથ-પગ ધોવાનો શેષ આવે. મુળમાં “ત' પદ જકારાર્થક છે અને અહિગો"પદસાથે સંયોજિત છે.) “અપ્લાયઆદિ માં આદિપદથી પાણીમાં રહેલા ત્રસકાયઆદિ જીવોનો સમાવેશ થાય છે. અર્થાત તેઓની પણ હિંસા થાય છે. પૂર્વપક્ષ:- હાથ-પગ ધોવામાટે પ્રાસક-અચિત્ત પાણીનો ઉપયોગ કરશું. પછી કયો દોષ આવશે? ઉત્તરપક્ષ:- ચોખાનું ધાવણવગેરે અચિત્ત-પ્રાસક પાણી પણ એકાન્ત ત્રસકાયથી અસંસક્ત હેતુ નથી. તેથી તેમાં સંભવિત ત્રસજીવોના વધનો દોષ શી રીતે દૂર કરશો ? પૂર્વપક:- કપડાથી–ગરણાથી ગાળીને પાણી વાપરશં, પછી કોઈ ષ રહે નહીં. ઉત્તર૫ક્ષ:- સૂક્ષ્મ જંતુઓના છેદનઆદિ તો વસ્ત્રથી પણ દૂર કરવા શક્ય નથી. કહ્યું જ છે કે “કસુંબો કે કુંકુમમય પાણીની જેમ સૂક્ષ્મજીવો પાણીમાં અત્યંત ચિક્કાર હોય છે, તેથી જાડા કપડાથી પણ તે પાણીનું શુદ્ધિકરણ શક્ય નથી. જેમ કુંકમથી રંગાયેલા પાણીને ગમે તેટલું ગાળોનો પણ તે રંગ જવાનો નિર્ણ, પાણી સાથે રહેવાનો જ. તેમ સૂક્ષ્મજીવો પાણીમાં રહે છે.) પૂર્વપક્ષ:- એ સૂક્ષ્મતમજીવોઅંગે ઉપયોગ કરાતો નથી (તાત્પર્ય - પાણીના ઉપયોગવખતે સ્થૂળજીવોની જયણા કરાય છે. જે સુક્ષ્મતમ છવો છે, તેઓનું દર્શન શકચ નથી, તેથી તેમની જયણા શકય નથી, અથવા ઉપયોગ જ્ઞાનનો વિષય બનતાં ન લેવાથી દોષ નથી, અથવા ઉપભોગ શબ્દ હોય તો સૂક્ષ્મજીવો અદેશ્ય હોવાથી તેમનો ઉપભોગ ( હિંસાદિજનક ઉપયોગી નથી. તેથી દોષરૂપ નથી. અથવા “તત્ર ઉપયોગ: ક્રિય એવો પાઠ લઈએ તો તે જીવો રહેતા નથી તેવી કાળજી લીધા પછી ઉપયોગ કરવાથી ઘેષ નથી. તેથી ઉપરોક્તદોષને અવકાશ નથી. ઉત્તરપ:- એમ જીવોનું દર્શન ન થાય, એટલામાત્રથી જીવોના અભાવનો નિર્ણય ન કરી શકાય. જીવો ન દેખાવા માત્રથી “જીવો નથી એમ સ્વીકારી લઈ કરાતો પાણીનો ઉપભોગ દોષરૂપ બનતો નથી, એમ નથી; અર્થાત દોષરૂપ જ બને છે. જેમકે અત્યંત સુક્ષ્મઝેરના ચૂર્ણથી મિશ્ર દૂધમાં ઝેરના અંશ દેખાય નહીં, એટલે દૂધ પીવાથી મોત ન થાય એમ નહીં, અર્થાત મોત થાય જ. ૧૦૮ના उसिणोदगं अह भवे ण होइ पतिगेहमेव तं लोए । पडिलेहणाह सेसे तदन्नसंसत्तगे किह णु? ॥१०८१॥ (उष्णोदकमथ भवेन्न भवति प्रतिगृहमेव तल्लोके । प्रतिलेखनाऽथ शेषे तदन्यसंसक्ते कथं नु ? " उष्णोदकमथ भवेत्तत्र ततस्तेन करचरणप्रक्षालनाददोष इति । अत्राह- 'नेत्यादि' न भवति प्रतिगृहमेव तत्उष्णोदकं लोके, तत एतदप्युत्तराभासमेव । अथ शेषे-तन्दुलोदकोष्णोदकव्यतिरिक्ते चतुर्थरसादौ प्रतिलेखनाप्रत्युपेक्षणा कर्तव्या, ततश्चतुर्थरसादिना पादादिप्रक्षालनं करिष्यत इति प्रतिपद्येथाः ? ननु तस्मिन्नपि शेषे तदन्यसत्त्वसंसक्ते सति कथं नु भविष्यति जीवव्याघाताभावः ? नैव कथंचनेति भाव इति यत्किंचिदेतत् ॥ १०८१॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- તે-તે ઘરમાં ગરમ પાણી મળે અને તેનાથી હાથ-પગ ધોવામાં કોઈ દોષ નથી. ઉત્તરપક:- લોકોમાં કઈ દરેક ઘરે ગરમ પાણી મળે જ તેવો નિયમ નથી. તેથી આ કંઇ સાચો ઉત્તર નથી. પૂર્વપક્ષ:- ચોખાનું ધાવણ, ગરમ પાણી આ બેથી અલગ ચતુર્થરસ- છાશની આસ વગેરે આરૂપાણીની પ્રપેક્ષણા કરીશું અર્થાત કોઈ ઘરમાં છાશની આસવગેરે મળી જશે. તેનાથી પગઆદિ ધોવાનું કાર્ય કરીશું. ઉત્તરપક્ષ:- છાશની આસવગેરેમાં પણ પાણી સિવાયના જીવોની સંસક્તિ સંભવે જ છે. તેથી જીવહિંસાનો અભાવ કેવી રીતે આવશે? અર્થાત અભાવ નહીં આવે... જીવહિંસા સંભવે જ છે. તેથી આ બધી વાતો ફાલત છે. ૧૦૮૧ पुनरप्यत्र दोषान्तरमाह - આચાર્યવર ફરીથી બજો દોષ બતાવે છે * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 226 * * * * * * * * * * * * * * Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ पारिभद्वार + + + + + + पाणुज्झणे हि हिंसा णेच्छइ य गिही तयं तहिं छोढुं । ण य तीरइ जत्थुचियं नेऊण करेहि कह एत्थ ? ॥१०८२ ॥ (पानीयोज्झने हि हिंसा नेच्छति च गृही तकत् तत्र क्षेप्तुम् । न च शक्यते यत्रोचितं नीत्वा कराभ्यां कथमत्र ? II) कीटकादिसत्त्वसंसक्तदेशे हि पादादिप्रक्षालनपानीयोज्झने क्रियमाणे कीटकादिसत्त्वानां हिंसाऽवश्यं भाविनी, न चेच्छति गृहीतक - पादादिप्रक्षालनजलं यतःस्थानात् प्रथमत आनीतं तस्मिन्स्थाने क्षेप्तुं न च यस्मिन् देशे कीटकादिरहिते तदुचितमुज्झितुं तत्र देशे कराभ्यां नेतुं शक्यते, तत् कथमत्र कर्त्तव्यं ? ततः पात्रग्रहणं कर्त्तव्यमेव ॥१०८२ ॥ ગાથાર્થ:- કીટકાદિજીવોથી સંસક્તસ્થળે પગઆદિ ધોયેલુ પાણી ફેંકવામા કીટકાદિ જીવોની હિંસા અવશ્ય થવાની. તથા ગૃહસ્થ પણ એવું ઇચ્છે નહીં કે પગઆદિ પ્રક્ષાલનનું પાણી જયાથી લીધું ત્યાં જ પાછું નાખવામા આવે. અને બે હાથથી એ પાણી જીવજંતુથી રહિત ઉચિતસ્થળે લઈને જવું પણ શકય નથી. તો અહીં કરવું શું? તેથી પાત્રગ્રહણ કરવું જ જોઇએ. ૫૧૦૮ા પાત્ર રાખવામાં પણ જીવહિંસા-દિગંબર अत्र परस्यावकाशमाशङ्कते - અહીં દિગંબરની સંભાવના આશંકારૂપે બતાવે છે – सिय पत्तम्मिवि गहिए संसत्ते नियमतो इमे दोसा । उचिएवि पुढविखणणादिगा उ णणु बहुतरा होंति ॥१०८३ ॥ (स्यात्पात्रेऽपि गृहीते संसक्ते नियमत इमे भवन्ति । उचितेऽपि पृथिवीखननादिकास्तु ननु बहुतरा भवन्ति ॥ ) स्यादेतत् पात्रेऽपि संसक्ते पानीयादौ गृहीते सति ननु नियमत इमे - वक्ष्यमाणा दोषाः प्राप्नुवन्ति । उचितेऽपि स्थाने तस्मिन् संसक्ते जलादौ परिस्थाप्यमाने पृथिवीखननादयो बहुतरा भवन्ति ॥ १०८३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પાત્રામા પણ સંસક્ત પાણીવગેરે ગ્રહણ કરવામા અવશ્ય આ બતાવશું એવા દોષો લાગે છે. વળી ચિતસ્થાનમા પણ તે સંસક્ત પાણી પરઠવવામા પૃથ્વી ખોદવીવગેરે ધણા જ ઘેષો લાગે છે. ૫૧૦૮ગા तथाहि - તે આ પ્રમાણે - पुढवीखणणे काया अखए य तं सुसइ मुक्कमेत्तं तु । जलउल्ले कायच्चिय भंडगचाए (वि) अहिगरणं ॥ १०८४ ॥ (पृथ्वीनने काया अखाते च तत् शुष्यति मुक्तमात्रं तु । जलार्द्रे काया एव भण्डकत्यागे ( Sपि ) अधिकरणम् II) पृथ्वीनने काया:- पृथिवीकायाः सत्त्वा व्यापाद्यन्ते, अखाते च- अखनने च तत्-संसक्तं जलं मुक्तमात्रमेव सत् शुष्यति, स्थानस्य शुष्कत्वात् । ततश्चेत्थमपि सत्त्वविराधना । अथ जलार्द्रे स्थाने तत्परिस्थापयिष्यते तेनोक्तदोषाभाव इति, तन्त्राह-‘जलेत्यादि' जलार्द्रे स्थाने संसक्तं जलं परिस्थापयतः सतः कायाः - पृथिव्यप्काया विपद्यन्ते, संसक्तजलेन तेषां विराध्यमानत्वात् । स्यादेतत् स्युरेते दोषा यद्येवं क्रियते यावता सभण्डकमेव तत् संसक्तं जलं परिस्थाप्यते ततो न कश्चिद्दोष इति अत आह— 'भंडगेत्यादि' भण्डकत्यागेऽपि तस्य गृहस्थादिना परिग्रहादधिकरणदोषसंभव इति ॥१०८४ ॥ ગાથાર્થ:- પૃથ્વી ખોદવામાં પૃથ્વીકાય જીવોની હિંસા થાય. અને જો ખોદવામા ન આવે, તો પાણી પરઠવામાત્રથી સુકાઈ જાય છે, કેમકે સ્થાન શુષ્ક હોય છે. તેથી આ પ્રમાણે પણ જીવવિરાધના થાય છે. શંકા:- પાણીથી ભીની થયેલી જમીનપર તે પરઠવશુ, તેથી તમે કહ્યો તેવો દોષ નહીં આવે. સમાધાન:- પાણીથી ભીના થયેલા સ્થાનમાં સસક્ત પાણી પરઠવવામાં પૃથ્વી-અકાય જીવો નાશ પામે છે. કેમકે સંસક્ત પાણીથી તેઓની વિરાધના થાય છે. (=શસ્ત્ર બને છે.) શંકા:– આમ પરઠવીએ તો દોષ લાગેને... પણ અમે તેમ કરશું જ નહીં. પરંતુ પાત્રસાથે જ એ સંસક્ત પાણી પરઠવી ६र्धशु. तेथी अर्ध घोष लागशे नहीं. સમાધાન:- આમ પાત્રના ત્યાગમાં પણ, જો પાત્ર ગૃહસ્થ લઈને પોતાના ઉપયોગમાં લે, તો અધિકરણોષ લાગે છે. ઘ૧૦૮૪૫ + + धर्मसंग लाग २ - 227 + + Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** यरित्रद्वार : * * * तेणं विणावि दोसो पत्थेमाणस्स अद्धखेदादि । बहुगणं उस्सुत्तं निष्फलपलिमंथदोसो य ॥ १०८५ ॥ (तेन विनापि दोषः प्रार्थयमानस्याध्वखेदादयः । बहुग्रहणमुत्सूत्रं निष्फलपरिमन्थदोषस्तु II) तेन – भण्डकेन विनाऽपि भण्डकत्यागेऽपि सतीतियावत् दोषाः अन्यद्भण्डकं प्रार्थयमानस्याध्वखेदादयः प्राप्नुवन्ति। अथोच्येत-नह्येकमेव भण्डकं येनान्यत् प्रार्थयमानस्याध्वखेदादयो दोषा भवेयुः किंतु भूयांसि सन्ति ततो यथोक्तदोषानवकाश इति, अत्राह - 'बहु इत्यादि' बहुभण्डकग्रहणमुत्सूत्र - सूत्रानभिमतं बहुभण्डककरणे च निष्फलपरिमन्थदोष आपद्यते ॥१०८५ ॥ ગાથાર્થ:- વળી આમ પાત્રત્યાગ કરવામા પાત્ર ન રહેવાથી નવું પાત્ર માગવામા માર્ગશ્રમવગેરે બીજા દોષો પ્રાપ્ત થાય છે. શંકા:- એક જ પાત્ર હોય, એવું નથી, કે જેથી બીજું પાત્ર માગવામાં માર્ગશ્રમઆદિ દોષો આવે. પરંતુ ઘણા પાત્રા હોય છે. તેથી ઉપરોક્ત દોષ લાગશે નહીં. સમાધાન:- બહુ પાત્રઓ રાખવામા ઉત્સૂત્ર પ્રવૃત્તિ થશે, કેમકે સૂત્રની અનુમતિ નથી. અને બહુ પાત્રાઓ બનાવવામાં નિષ્ફળ સ્વાધ્યાયપરિમન્થ દોષ લાગે. ૫૧૦૮પપ્પા अथोच्येत नोचितदेशे तदुज्झ्यते नापि सभण्डकं परिस्थाप्यते किंतु तत्संसक्तं जलमन्यस्मिन् जले प्रक्षिप्यते, ततो न दोष इत्यत आह - શંકા:– ચિતસ્થળે પણ તે પાણી ફેંકીશું નહીં, કે પાત્રાસહિત પરઠવશે નહીં, પરંતુ તે સંસક્ત પાણી બીજા પાણીમા નાંખીશું, તેથી કોઇ દોષ રહેશે નહીં. અહીં સમાધાનમા કહે છે– घेत्तूण चाउलोदं संसत्तं तं जलम्मि छुहमाणो । घाति बहुतरं तं तेणं परकायसत्थेणं ॥१०८६ ॥ (गृहीत्वा चाउलोदकं ससक्तं तद् जले क्षिपन् । घातयति बहुतरं तत्तेन परकायशस्त्रेण II) गृहीत्वा चाउलोदकं संसक्तं ततस्तदन्यस्मिन् तडागादिजले तत्संसक्तं चाउलोदकं क्षिपन्घातयति बहुतरं तत् तडागादिजलं संसक्ततन्दुलोदकेन परकायशस्त्रेण ॥१०८६ ॥ ગાથાર્થ:- ચોખાનું સંસક્ત ધાવણ લઈને ત્યાંથી બીજે તળાવઆદિના પાણીમા (તે ચોખાનુ સંસક્ત ધાવણ) નાખતી વ્યકિત તે ચોખાના સંસક્ત ધાવણરૂપ પરકાયશસ્ત્રથી તળાવઆદિના પાણીજીવોનો અધિકરૂપે નાશ કરે છે. ૫૧૦૮ઘા ता नियमदोसभावे जुज्जति णणु एत्थ अप्पबहुचिन्ता । णय एतम्मिवि गहिते अप्पतरा होंति दोसा उ ॥१०८७ ॥ (तस्मान्नियमदोषभावे युज्यते ननु अत्राल्पबहुत्वचिन्ता । न चैतस्मिन्नपि गृहीते अल्पतरा भवन्ति दोषास्तु ॥) 'ता' तस्मादुभयपक्षेऽपि नियमतो दोषभावे सति युज्यते ऽल्पबहुत्वचिन्ता, किमिह बहुदोषं किं चाल्पदोषमिति ? न च पात्रे गृहीतेऽपि सति अल्पतरा दोषा भवन्ति किंतु प्रभूता एव यथोक्तमनन्तरम्, तस्मात्तदग्रहणमेव समीचीनमिति ॥१०८७॥ ગાથાર્થ:- આમ પાત્રગ્રહણ-અગ્રહણ ઉભયપક્ષમા દોષ હોવાથી દોષમા અલ્પ–બહુત્વનો વિચાર કરવો જોઇએ કે અહીં શામા વધુ દોષ છે અને શેમા ઓછો દોષ છે? પાત્ર ગ્રહણ કરવા છતા દોષ ઓછા થતા નથી, પરંતુ વધે જ છે, તે ઉપર બતાવ્યું, તેથી પાત્ર ગ્રહણ કરવા ઉચિત નથી, અગ્રણ જ ઉચિત છે. ૫૧૦૮૭ગા अवियग्गहिए पइगेहमेव उवयोगमेत्तगहणातो । निस्संगभावणाओ मुणेह अप्पयरभावं तु ॥१०८८ ॥ (अपि चागृहीते प्रतृिगृहमेवोपयोगमात्रग्रहणात् । निस्सङ्गभावनातो जानीहि अल्पतरभावं तु II) अपि चागृहीते सति पात्रे प्रतिगृहमेवोपयोगमात्रग्रहणतो निस्सङ्गभावनातश्च जानीहि दोषाणामल्पतरभावमेव । तुरेवार्थः ॥१०८८ ॥ + धर्भसंगल-लांग २ - 228 + + + +++ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ 4:33 2ܬܟ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ગાથાર્થ:- વળી, પાત્ર નહીં રાખવાથી દરેક ઘરે જરુર પૂરતું જ ગ્રહણ કરવાનું રહે, અને નિઃસંગભાવ પણ જળવાઇ રહે. તેથી પાત્રાના અગ્રહણમાં અલ્પતર દોષ જ જાણવો. મૂળમાં “તુ’ પદ જકારાર્થક છે. ૧૦૮૦ उपसंहरति - . હવે ઉપસંહાર કરે છે तम्हा न पत्तगहणं जुज्जति जिणवयणमुणियसारस्स । दावभयरक्खणट्ठा तणघयगहणं व कंतारे ॥१०८९॥ (तस्मान्न पात्रग्रहणं युज्यते जिनवचनज्ञातसारस्य । दावभयरक्षणार्थं तृणघृतग्रहणमिव कान्तारे ॥) _यत एवं पात्रग्रहणे भूयांसो दोषास्तदग्रहणे चाल्पे तस्मान्न पात्रग्रहणं युज्यते जिनवचनज्ञातसारस्य, दावभयरक्षणार्थं तृणघृतग्रहणमिव कान्तारे इति ॥१०८९॥ . . ગાથાર્થ:- આમ પાત્રગ્રહણમાં ઘણા દોષો છે. અને અગ્રહણમાં અલ્પ દોષ છે. તેથી જંગલમાં દાવાનળના ભયથી રક્ષાની ઈચ્છા રાખનારે જેમ ઘાસ-ધી ગ્રહણ કરવા યોગ્ય નથી. તેમ જિનવચનથી તત્ત્વજ્ઞ બનેલા સાધુએ પાત્રા ગ્રહણ કરવા યોગ્ય નથી. ૧૦૮ સંસક્તજળ પરઠવવાની વિધિ-ઉત્તરપક્ષ अत्र सूरिराह - આ દિગંબરીય વિસ્તૃત પૂર્વપક્ષનો હવે આચાર્યદેવ જવાબ આપે છે. न खणेइ तओ पुढविं न मुयइ जहिं सुसइ मुक्कमेत्तं तु । जलउल्लं च परोप्परसंजोगाओ अचित्तं तु ॥१०९०॥ (न खनति सकः पृथ्वी न मुञ्चति यत्र शुष्यति मुक्तमात्रं तु । जला च परस्परसंयोगतोऽचित्तं तु ॥) ___ न खनति 'तओत्ति' सकः साधुः पृथ्वों, न मुञ्चति तत्र यत्र मुक्तमात्रमेव सत् तत्-संसक्तं जलं शुष्यति, किंतु जला स्थाने, तदपि च जलार्द्र स्थानं परस्परसंयोगतोऽचित्तमेव, तुरेवकारार्थः, न तु सचित्तम् । तेन 'जलउल्ले कायच्चिय' इति पूर्वोक्तो दोषो नानुषज्यत इति ॥१०९०॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- તે સાધુ પૃથ્વી ખોદતો નથી. તથા તે સંસકત જળ મુકવામાત્રથી જયાં શોષાઈ જાય ત્યાં છોડતો પણ નથી. પરંત પાણીથી આર્દૂ થયેલા સ્થાનમાં જ મુકે છે. એ સ્થાન પણ પાણી–પૃથ્વીના પરસ્પર સંયોગથી અચિત્ત જ ये य छ, न सयित्त. (भूगमा 'तु' ५६ °४॥रार्थ छे) तथाजलउल्ले (हाईस्थाने य१५....) त्या पूर्वपले બતાવેલો દોષ લાગુ પડતો નથી. ૧૦૯ના तत्थवि य महीसिचलणादिघट्ठदेसम्मि उज्झओ विहिणा । तदभावे काऊणवि अच्चित्ते हंत को दोसो ? ॥१०९१॥ (तत्रापि च महिषीचरणादिघृष्टंदेशे उज्झतो विधिना । तदभावे कृत्वापि अचित्ते हन्त को दोषः ?॥) तत्रापि च जलाट्टै स्थाने महिषीचरणादिना घृष्टे-लघुगतस्पे जाते देशे-प्रदेशे विधिना-यतनालक्षणेन सूत्राभिहितेन उज्झतः- परित्यजतः, तदभावे-महिषीचरणादिघृष्टलघुगतरूपदेशाभावे कृत्वापि गतरूपं देशमचित्ते स्थाने परित्यजतो हन्त को दोषः? नैव कश्चनेति भावः ॥१०९१॥. ગાથાર્થ:- તે જલાર્દુસ્થાનમાં પણ ભેસનો પગવગેરે પડવાથી ઘસાઇને નાના ખાડારૂપ બનેલા સ્થાનમાં જયણારૂપે સૂત્રોકત વિધિથી અને ભેંસના ચરણઆદિથી સહજ નાના ખાડારૂપ બનેલું સ્થાન ન મળે, તો ખા બનાવીને અચિત્તસ્થાનમાં તે પાણી પરઠવવામાં કયો દોષ છે? અર્થાત કોઈ દોષ નથી. ૧૦૯ના अत्र पराभिप्रायमाह - . . અહીં દિગંબરનો અભિપ્રાય વ્યક્ત કરે છે. सिय अच्चित्तो उ तओ किमेत्थ माणं ? जिणागमो चेव । काया मिहो उ सत्थं वन्नादीपरिणयमचित्तं ॥१०९२॥ (स्यादचित्तस्तु सकः किमत्र मानम् ? जिनागम एव । काया मिथस्तु शस्त्रं वर्णादिपरिणतमचित्तम् ॥) . ++++++++++++++++ E-MA२- 229 +++++++++++++++ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + Rat + + + + + + + + + + + + + + + +++ स्यादेतत्, परस्परं संयोगतः 'तओत्ति' सको जलार्दो देशोऽचित्त एवेत्यत्र किं मान-प्रमाणं? न हि प्रमाणमन्तरेणोच्यमानं प्रेक्षावतामुपादेयं भवतीत्यत आह-जिनागम एव प्रमाणम्, अतीन्द्रियार्थनिर्णीतौ निश्चयतस्तस्यैव विज़म्भमाणत्वात्, उक्तं च-"अतीन्द्रियेषु भावेषु, प्राय एवंविधेषु यत् । छद्मस्थस्याविसंवादि, मानमन्यन्न विद्यते ॥१॥" इति तमेवागमं दर्शयति- 'कायेत्यादि' काया:-पृथ्व्यादयः परस्परं शस्त्रम् । वर्णादिभिश्च परिणतमचित्तमिति ॥१०९२॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- એ જલાર્ક દેશા પરસ્પર સંયોગથી અચિત્ત જ છે, તેમ કહેવામાં પ્રમાણ શું છે? કેમકે પ્રમાણ વિનાની વાત વિચારશીલ માણસોને આદરણીય બનતી નથી. ઉત્તરપક્ષ:- અહીં જિનાગમ જ પ્રમાણ છે. કેમકે અતીન્દ્રિય વિષયોના નિર્ણયમાં નિશ્ચયથી તો જિનાગમ જ પ્રમાણ બનવા સમર્થ છે. કશું જ છે કે “પ્રાય: આવા પ્રકારના અતીન્દ્રિય ભાવોમાં (આજ-જિનાગમ જ પ્રમાણ છે.) કેમકે છદ્મસ્થપાસે અન્ય અવિસંવાદી પ્રમાણ નથી. અહીં જિનાગમ પ્રમાણ આ છે કે પૃથ્વી વગેરે પટકાયો પરસ્પર શસ્ત્ર બને છે, અને જ્યારે તેઓના વર્ણાદિઓ પરિણત-પરિવર્તિત થાય છે ત્યારે તેઓ અચિત્ત બને છે. ૧૦૯રા પાત્રત્યાગ નિર્દોષ तदभावम्मि य निद्धऽन्नभंडए महरगे सुहे खेत्ते । उज्झइ न य तदभावे भंडगचाएऽवि अहिगरणं ॥१०९३॥ (तदभावे च स्निग्धान्यभण्डके मधुरके शुभे क्षेत्रे । उज्झेद् न च तदभावे भण्डकत्यागेऽपि अधिकरणं ॥ तदभावे च-जलार्द्रदेशाभावे च स्निग्धान्यभण्डके-पात्रातिरिक्तस्निग्धभाण्डके कर्परादिस्पे मधुरके शभे-निरपाये क्षेत्रे उज्झेत् । तदभावे-कर्परादिस्पस्निग्धान्यभोण्डकाभावे पात्ररूपभण्डकत्यागेऽपि न च-नैव तस्य गृहस्थादिना परिग्रहे सत्यधिकरणमापद्यते ॥१०९३॥ ગાથાર્થ:- તેવો જલાÁ દેશ પ્રાપ્ત ન થાય, તો તે પાત્રથી ભિન્ન સ્નિગ્ધ ઠીકરા આદિમાં સ્થાપી અપાય રહિતના ક્ષેત્રમાં ત્યાગવું જોઇએ. અને તેનું નિગ્ધ પાત્ર પણ ન જ મળે, તો તે જ પાત્રનો ત્યાગ કરવો. ત્યાગેલું પાત્ર ગુહસ્થ લઇ લે તો અધિકરણદોષ લાગે એવી આપત્તિ નથી. ૧૦૯૩ कुत इत्याह - અધિકરણદોષ કેમ નથી? તે બતાવે છે - संजमपालणहेतुत्तणेण तह चेव भावसुद्धीओ । निरविक्खत्तणओ च्चिय देहच्चाए व्व विनेयं ॥१०९४॥ (संयमपालनहेतुत्वेन तथैव भावशुद्धेः । निरपेक्षत्वत एव देहत्याग इव विज्ञेयम् ॥) संयमपालनहेतुत्वेन-संयमस्फातिनिमित्तत्वात्पात्ररूपभण्डकत्यागस्य, तथा चैव भावशुद्धः-'मा मनिमित्तमेते जलसंसक्ताः प्राणिनो विपद्येरन्निति' परिणामविशुद्धः । तथा त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृष्टतया तद्विषये निरपेक्षत्वतो देहत्याग इव विज्ञेयं नाधिकरणमिति ॥१०९४॥ - ગાથાર્થ:- આ પ્રમાણે કરેલો પાત્રત્યાગ સંયમશુદ્ધિનું કારણ છે. તથા મારા નિમિત્તે આ જલસંસકત જીવો મરે નહીં એવી ભાવસદ્ધિ-પરિણામવિશક્તિનું કારણ છે. તથા ત્રિવિધ ત્રિવિધ પાત્રવિસર્જન કર્યું હોવાથી હવે એ પાત્રના વિષયમાં નિરપેક્ષતા છે, તેથી દેહત્યાગની જેમ પાત્રત્યાગ પણ અધિકરણરૂપ બનશે નહીં કેમકે હવે સાધુને પાત્ર સાથે કોઈ સંબંધ નથી, તેથી ગૃહસ્થ ગ્રહણ કરે તો પણ સાધુને કોઈ લેવાદેવા નથી.) ૧૦૯૪મા तेणं विणावि दोसा न होति संघाडभावतो चेव ।। एगागिणोवि जे ते आहारालाभतुल्ला उ ॥१०९५॥ (तेन विनापि दोषा न भवन्ति संघाटकभावत एव । एकाकिनोऽपि ये ते आहारालाभतुल्यास्तु ॥) तेन-भण्डकेन विनाऽपि ये दोषाः प्रागभिहिता अध्वखेदादयस्ते न भवन्ति, कुतः? इत्याह-संघाटकभावत एव, यदि हि यतिरेकाको भवेत् भवेयुस्तस्याध्वखेदादयो दोषाः, यावता सदैव यतीनां संघाटकभावेनैव विचरणादिक्रिया, ततः संघाटकस्थद्वितीयसाधुपात्रादिनैवेष्टक्रियासिद्धेन ध्वखेदादिदोषभावप्रसङ्गः । तथा कुतश्चिन्निमित्तादेकाकिनोऽपि सतो येऽध्वखेदादयो दोषास्ते आहारालाभतुल्या एव द्रष्टव्यास्ततो न काचिन्नो बाधेति ॥१०९५॥ ++++++++++++++++ R-MIN३ -230+++++++++++++++ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચારિત્રદ્વાર જ ગાથાર્થ:- પાત્ર વિના પણ (પાત્રત્યાગથી પાત્રના અભાવમાં પણ) પૂર્વપક્ષે બતાવેલા માર્ગશ્રમાદિ દોષો સંભવતા નથી. કેમકે સંધાટક હોય છે, જો સાધુ એકાકી હોય, તો માર્ગશ્રમાદિ દોષો સંભવે... પણ સાધુઓ હંમેશા સંધાટકભાવે જ (બે આદિ સાથે જ)વિહારાદિ કરતા હોય છે. તેથી સંધાટકરૂપે રહેલા બીજા સાધુના પાત્રાદિથી જ ગોચરીઆદિ ઇષ્ટ ક્રિયાની સિદ્ધિ થાય છે. તેથી પાત્રમાટે માર્ગશ્રમાદિ દોષ રહેતા નથી. તથા કો'ક કારણસર તેઓ (=સાધુઓ) એકાકી પણ હોય, અને માર્ગશ્રમાદિ દોષ સંભવે પણ ખરા, પણ તે તો આહારની અપ્રાપ્તિતુલ્ય જ છે. તેથી અમને કોઇ બાધા નથી. ૫૧૦૯પા सेसा अणभुवगमा विहिउत्तरमा य होंति पंडिसिद्धा । इय दोसाभावातो जुत्ता इह अप्पबहुचिन्ता ॥१०९६॥ (शेषा अनभ्युपगमाद् विहितोत्तराश्च भवन्ति प्रतिषिद्धाः । इति दोषाभावाद्युक्ता इह अल्पबहुत्वचिन्ता ॥) शेषा-बहुभण्डकग्रहणादयो दोषा अनभ्युपगमादेव विहितोत्तराः सन्तो भवन्ति प्रतिषिद्धाः । इतिः - एवमुक्तप्रकारेण यथोक्तदोषाभावत इह-पात्रग्रहणाग्रहणविचारप्रक्रमे युक्ता अल्पबहुचिन्ता, 'किमिह बहुदोषं किं चाल्पदोषमिति' । तत्र यथोक्तनीत्या पात्रग्रहणमेव निर्दोषं तदग्रहणमेव भूयोदोषमिति ॥ १०९६॥ ગાથાર્થ:- બાકીના ‘ઘણા પાત્ર ગ્રહણ કરવા' વગેરે દોષોઅંગે તો અમને અમાન્ય હોવાથી જ જવાબ મળી જાય છે. (અર્થાત્ ઘણાં પાત્ર ભેગા કરવા અમને માન્ય જ નથી કે, જેથી તેઅંગે બતાવેલા દોષો અમને અસર કરે) તેથી તે દ્વેષોનો પ્રતિષેધ થાય છે. તેથી ઉપરોક્તપ્રકા૨ે પાત્રમા દોષ ન હોવાથી જ પાત્રના ગ્રહણ-અગ્રણના વિચારસ્થળે પાત્ર રાખવા બહુદોષયુક્ત છે કે અલ્પદોષયુક્ત છે?” (અથવા પાત્રા ગ્રહણાગ્રણમાં બહુદોષ શેમાં અને અલ્પદોષ શેમા?) ઇત્યાદિ અલ્પબહુત્વ વિચાર યોગ્ય જ છે, અને તેમા ઉપરોક્તયુક્તિથી પાત્રગ્રહણ જ નિર્દોષ છે અને પાત્રઅગ્રણ જ ધણાદોષોથી યુક્ત છે. ૫૧૦૯૬ા જયણા-વૈયાવચ્ચ–નિસંગતાસિદ્ધિ पुनरप्यत्र परस्य मतमाह ફરીથી અીં દિગંબરમત બતાવે છે - - सिय तहवि परिट्ठवणा ते खलु कालंतरा विवज्जन्ति । सुद्धो जयणागारी तेसिं (सुं) साहू जहऽन्नेसु ॥१०९७॥ (स्यात् तथापि परिस्थापना (ने) ते खलु कालान्तराद् विपद्यन्ते । शुद्धो यतनाकारी तेषां (षु) साधुः यथाऽन्येषु II) स्यादेतत्-तथापि - अभिहितप्रकारेणापि परिस्थापने कृते सति ते जलसंसक्ताः प्राणिनः खलु कालान्तराद्विपद्यन्ते, ततश्च तदवस्थ एव हिंसादोष इति । अत्राह - 'सुद्धो इत्यादि' स हि साधुर्यतनया परिस्थापनं करोति, यतना च सम्यक्त्वादिगुणाराधनफला । यदुक्तम् - "जयणाएँ वट्टमाणो सम्मं सम्मत्तनाणचरणाणं । सद्धाबोहासेवणभावेणाराहओ भणिओ ॥१॥” (छा. यतनया वर्त्तमानः सम्यक् सम्यक्त्वज्ञानचरणानाम् । श्रद्धाबोधाऽऽ सेवनभावेनाराधको भणित इति) त्ति, ततश्च तेषु जलजन्तुषु कालान्तराद्विपद्यमानेष्वपि शुद्ध एव स साधुर्यथाऽन्येषु म्रियमाणेष्विति ॥१०९७॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આમ બતાવ્યા મુજબ પરિસ્થાપના કરે, તો પણ જળસંસક્ત જીવો કાળાન્તરે મરશે જ, તેથી હિંસાદોષ તો અડીખમ ઊભો જ છે. ઉત્તરપક્ષ:- એ સાધુ જયણાપૂર્વક પરિસ્થાપના કરે છે. અને આ જયણા જ સમ્યક્ત્વાદિગુણોની આરાધનારૂપ (અથવા આરાધનાથી જન્ય) ફળને દેનારી છે, કહ્યું જ છે કે ‘જયણાથી વર્તતો જીવ સમ્યક્ત્વ, જ્ઞાન અને ચારિત્રનો ક્રમશ: શ્રદ્ધા, બોધ અને આસેવનભાવથી સજ્યક આરાધક કહેવાયો છે.' તેથી કાળાન્તરે મરણ પામતા પાણીના જીવોઅંગે એ જયણાશીલ સાધુ શુદ્ધ જ છે, જેમકે બીજા મરતા જીવોઅંગે એ સાધુ શુદ્ધ છે (દોષિત નથી.) ૫૧૦૯૭ના अत्र पर आह અહીં દિગંબર કહે છે → - अग्गहिये गुणो गहितेवि अवि य गुरुस्सेह बालवुड्डाणं । वेयावच्चावायणमभावतो तस्स तं दुदुं ॥ १०९८ ॥ (अगृहीते गुणो गृहीतेऽपि अपि च गुरुशैक्षबालवृद्धानाम् । वैयावृत्त्यापादनमभावतस्तस्य तद् दुष्टम् ॥) * * * ધર્મસગ્રહણ-ભાગ ૨ - 231 * * Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્ધાર * * * * * * * * * * * * * * * * * ___अगृहीते सति पात्रे निस्सङ्गतालक्षणो गुणो भवति, ततस्तदग्रहणमेव समीचीनमिति । अत्राह-गृहीतेऽपि पात्रे गुण एव-पादादिधावनजलादिसत्त्वव्यापत्त्यभावलक्षणः प्राग्दर्शित एव, ततः कथं तदग्रहणं समीचीनं भवेत् ? अपि च, गुरुशैक्षबालवृद्धानां वैयावृत्त्यापादनं पात्रग्रहणे गुणः । तस्मात्तत्-पात्राग्रहणं तस्य-वैयावृत्त्यस्याभावप्रसङ्गतो दुष्टं ज्ञातव्यम्। अथ पात्रं विनाप्येतत्-वैयावृत्त्यं कराभ्यां करिष्यते ततो न तदभावप्रसङ्ग इति, तदप्ययुक्तम्, तत्राप्यनेकदोषप्रसङ्गात्, तथाहिवैयवृत्त्यविषयेणापि गुदिना करगतानां गोरसादिगतप्राणिनां दर्शने सति यदि तत् गोरसादि पीयते तर्हि महती विराधना, भूमिपरित्यागे च तेषां व्यापत्तिरिति । अथ गृहस्थभाजन एव तत् गोरसादि निरीक्ष्याभ्यवहारः कारयिष्यते ततो न कश्चिद्दोष इति, तदपि न समीचीनम्, न हि कश्चिदेवं कुर्वन्नुपलभ्यते, न च सर्व एव गृहस्थो भण्डकादेः स्पर्शनं ददातीति, यत्किंचिदेतत्। अन्यच्च, ग्लानस्य कथं कर्त्तव्यं ? यदि तत्रैव गृहस्थगृहे ग्लानो नीयते ततस्तस्य मरणादिदोषप्रसङ्गः। अथ श्रावकः स्वभाजन एवानयति तर्हि गृहस्थस्य गमनागमने ऐर्यापथिकविराधनाप्रसङ्गः । न च कदाचनापि गृही भिक्षामटित्वा आनयति किंतु स्वगृह एव पाकं कृत्वोपसर्पति ततश्चानेषणा समारम्भात् षड्जीवनिकायविराधनाप्रसक्तिरित्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेष्विति ॥१०९८ । ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- પાત્ર ગ્રહણ નહીં કરવામાં નિ:સંગતા ગુણ થાય છે. તેથી પાત્રનું અગ્રહણ જ યોગ્ય છે. ઉત્તરપક્ષ:- પાત્ર ગ્રહણ કરવામાં પણ ગુણ છે જ. પગઆદિ ધોયેલા પાણીઆદિ જીવોની હિંસાના અભાવઆરૂિ૫ ગુણ પૂર્વે દર્શાવ્યા જ છે. તેથી પાત્રનું અગ્રહણ કેવી રીતે યોગ્ય ઠરે? (તથા પાત્ર રાખવા છતાં શરીરની જેમ તેનાપર મમતા ન રાખવાથી અસંગતા ગુણ સિદ્ધ થાય જ છે. તથા યથાશક્ય જીવયતનાયુક્તને જ સાચી અસંગતા સંભવે છે, જીવો પ્રત્યે નિણને સાચી અસંગતા સંભ નહીં–તેથી જ જિનશાસનમાં અહિંસા અને જયણાની મુખ્ય બોલબાલા છે. આ અહિંસા-જયણાના પાલનમાં પાત્રનો ઉપયોગ મહત્વનો ભાગ ભજવે છે.) વળી, પાત્ર રાખ્યું છે, તો તેમાં ગોચરી લાવી ગુરુ, ગ્લાન, નૂતન સાધુ, બાલસાધુ, વૃદ્ધસાધુ, વગેરેની વૈયાવચ્ચભક્તિનો મહત્વનો લાભ મળે છે. (-આ લાભ પણ અસંગતા અને સમત્વની પ્રાપ્તિમાં મહત્વનો ભાગ ભજવે છે, તેથી પાત્રા નીં રાખવામાં વૈયાવચ્ચઆદિના અભાવનો પ્રસંગ આવે છે - જે દુષ્ટ છે. પૂર્વપક્ષ:- આ વૈયાવચ્ચ તો પાત્ર વિના પણ બે હાથથી થઈ શકે છે. તેથી વૈયાવચ્ચના અભાવનો પ્રસંગ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ કરવામાં ઘણા દોષો રહેલા છે. તથાતિ- જેમની વૈયાવચ્ચ કરાઈ રહી છે, તે ગુરુવગેરે તે હાથમાં રહેલા દૂધઆદિમાં રહેલા જીવોને જૂએ અને છતાં પી જાય, તો નિષ્ઠુરતાઆદિથી પ્રથમ મહાવ્રતમાં કલંકઆદિ મોટી વિરાધના થાય, અને પૃથ્વીપર છોડી દે તો પણ તેઓના વધનો દોષ રહે. (તથા ગુરુમહારાજને શ્રાવકના ઘરસુધી જવાનું થાય, તો શિષ્યને વૈયાવચ્ચનો લાભ ન મળે અને શિખ્ય બે હાથમાં લઈ ઉપાશ્રય સુધી લાવવા જાય, ત્યાં સુધીમાં રસ્તામાં જ ટીપે ટીપે બધું ઢોળાઈ જાય... કેમકે હાથ છિદ્રયુક્ત છે, ભગવાનની જેમ અચ્છિદ્ર નથી, તથા જમીન પર પડેલા બુંદની ગંધથી આકર્ષાયેલા કીડીવગેરે જીવોની વિરાધના થાય તથા ખરડાયેલા શરીરને સાફ કરવામાં વિરાધના થાય... ગુહસ્થ સાફ કરે તો પણ અનુમતિનો દોષ લાગે અને શ્રાવિકા સાફ કરે તો ચોથા વ્રતમાં અતિચાર લાગે.... આહારકિયા ગુપ્ત રાખવાની છે તે રહે નીં.... અને લોકવ્યવહારમાં પણ અતિ બિભત્સ લાગવાથી શાસનહીલનાનો મોટો દોષ લાગે.... ઇત્યાદિ દોષોનો પાર નથી.). પૂર્વપક્ષ:- ગૃહસ્થના વાસણમાં જ એ દૂધવગેરે બરાબર જોઇ પછી તેનો ઉપભોગ કરવાથી કોઇ દોષ ન રહે. ઉત્તરપક્ષ:- આ વાત પણ બરાબર નથી. કેમકે કોઇ આમ કરતું દેખાતું નથી. તથા બધા જ ગૃહસ્થો કંઇ પોતાના વાસણને હાથ લગાવવાન દે. વળી, ગ્લાનની વૈયાવચ્ચ કેવી રીતે કરશો? જો ગ્લાનને ગૃહસ્થના ઘરે લઇ જશો, તો પીડાના અતિરેકથી તેના મોતઆદિનો પ્રસંગ આવે. અને શ્રાવક જો પોતાના વાસણમાં ઉપાશ્રયમાં લઈને આવે, તો એના ગમનાગમનમાં એર્યાપથિકીવિરાધનાનો પ્રસંગ છે. ગૃહસ્થની દોડધામ અગ્નિના ગોળાસમી શાસ્ત્રોમાં બતાવી છે, જેનાથી પડકાયજીવોની વિરાધના સંભવે છે.) વળી ગૃહસ્થ કંઈ ઘર ઘરમાં ફરીને ભિક્ષા લાવે નહીં. એ તો પોતાના ઘરે જ પકાવીને લાવે, તેથી અનેષણા-સમારંભથી છજીવકાયની વિરાધનાનો પ્રસંગ આવે. તેથી દુર્બદ્ધિઓના વિકલ્પજાળોથી સર્ષ ૧૯૯૮ उपसंहरति - ઉપસંહાર કરતાં કહે છે - ता इय पत्तग्गहणं जुज्जइ जिणवयणमुणियसारस्स । दावभयरक्खणटुं जलोघगहणं व कंतारे ॥१०९९॥ (तस्मादिति पात्रग्रहणं युज्यते जिनवचनज्ञातसारस्य । दावभयरक्षणार्थं जलौघग्रहणमिव कान्तारे " . 'ता' तस्मादिति :-एवमुक्तप्रकारेण पात्रग्रहणं युज्यते जिनवचनमणितसारस्य, दावभयरक्षणार्थं जलौघग्रहणमिव कान्तार इति ॥१०९९॥ * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 232 * * * * * * * * * * * * * * Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ન જ ચારિત્રદ્વાર જજ જ ન જ એ જ છે કે ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્ત તર્કના સહારે જિનવચનના સારને જાણેલા સાધુએ પાત્રા રાખવા યોગ્ય જ છે. જેમકે જંગલમાં ઘવાનલથી બચવામાટે પાણીનો જથ્થો રાખવો યોગ્ય છે. ગો. ૧૦૮૯માં દિગંબરે ધવાનલથી બચવા ઘાસ-ધી જગલમાં સાથે ન રાખવા આ દષ્ટાન લઈ પાત્રાદિનો નિષેધ કર્યો. પણ પાત્રાદિ મોહદિ દાવાનલને વધુ ભડકાવનાર ઘાસાદિરૂપ નથી, પરંતુ સંયમોપયોગી થવાદ્રારા મોહનલને બુઝવવા પાણી સમાન છે, તેથી ઉપયોગી છે.) ૧૦૯લા यदप्युक्तं 'निस्संगभावणाओत्ति' तद्दूषयितुमाह - તથા દિગંબરે નિત્સંગભાવણાઓ (નિત્સંગભાવનાથી) ઇત્યાદિ (ગા. ૧૦૦૮) જે કહ્યું ત્યાં દૂષણ બતાવતાં કહે છે ? निस्संगतावि हिंसारक्खणहेउत्ति तस्स य अभावे । . पुत्तट्ठिसंढवरचेट्ठियं व्व सा निप्फला चेव ॥११०.०॥ (निस्संगतापि हिंसारक्षणहेतुरिति तस्य चाभावे । पुत्रार्थिशण्ढवरचेष्टितमिव सा निष्फला एव ॥ निस्सङ्गतापि हिंसारक्षणहेतुरेवेष्यते तच्च हिंसारक्षणं पात्रग्रहण एव सति युज्यते नान्यथा यथोक्तं प्राक्, ततश्च पात्राग्रहणे तस्य-हिंसारक्षणस्याभावे सति पुत्रार्थिन्याः शण्ढवरचेष्टितमिव सा-निस्सङ्गता निष्फलैवेति ॥११००॥ . . ગાથાર્થ:- નિસ્ટંગતા પણ એજ માન્ય છે કે જે હિંસાથી બચવામાં કારણભૂત હોય અને હિંસાથી બચવાનું - પાત્રગ્રહણમાં જ યોગ્ય ઠરે છે, અન્યથા નહીં, તે અગાઉ બતાવ્યું જ છે. તેથી પુત્રની ઇચ્છાવાળી સ્ત્રી માટે નપુંસકની (અથવા નપુંસકવરની) સુંદર ચેષ્ટા જેમ નિષ્ફલ છે, તેમ જ હિંસાથી બચવાનું ન થાય તો તે નિ:સંગતા પણ નિષ્ફલ છે. ૧૧વ્યા થવ્યો-“નવાં વિજેસોડryવારિયું હfમતિ' તત્રદિ - . તથા દિગંબરોએ “અનિવારિતગ્રહણ વિશેષરૂપ છે. (ગા. ૧૦૨૦) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, ત્યાં જવાબ આપે છે. अनिवारियगहणं पण परिभोगे चेव वारियं समए । पत्तम्मि य सइ करणे करेहि तुल्लं इमं होइ ॥११०१॥ - (अनिवरितग्रहणं पुनः परिभोगे एव वारितं समये । पात्रे च सकृत्करणे कराभ्यां तुल्यमिदं भवति ॥ अनिवारितग्रहण-समधिकग्रहणं परिभोगश्चैवानिवार(रित)स्य, एतच्च द्वयमपि पात्रे सति वारितं समये-सिद्धान्ते । 'सइ करणेत्ति' अनिवारितग्रहणस्य तथैव परिभोगस्य च कथंचित् सकृतकरणे कराभ्यामिदं-सकत्करणं तुल्यं भवति ज्ञातव्यम्। कराभ्यामपि हि कदाचित्केनचिन्मनोज्ञतादिकारणेनानिवारितमपि गृह्यते तथैव च परिभुज्यत इति ॥११०१॥ ગાથાર્થ:- લિપ્સાદિ કારણે આવશ્યકાદિ કરતાં વધુ ગ્રહણ કરવું. (વહોરાવતા ગૃહસ્થને વધુ વહોરાવતા અટકાવવો નહીં આ અનિવરિગ્રહણ છે.) એ જ પ્રમાણે ઉણોદરી-શક્તિઆદિથી વધુ આરોગવું એ અનિવારિતપરિભોગ છે. પાત્ર રાખવામાં આ બે દોષ ન આવે એ હેતુથી સિદ્ધાંતમાં દોષાદિ બતાવી વારણ કરેલું જ છે. (શંકા:- છતાં કો'ક સાધુ એકાદવાર તો અનિવારિત ગ્રહણ અને પરિભોગ કરશે જ. આવી સંભવિત શંકાના સમાધાનમાં કહે છે. સમાધાનઃ-) અનિવારિતગ્રહણ અને પરિભોગ તો કોક હિસાબે બે હાથથી પણ એકાદવાર થઈ શકે છે. તેથી ઉભયત્ર તલ્યતા છે. કોકથી ક્યારેક મનોજ્ઞભોજનાદિ કારણે બે હાથથી પણ અનિવારિત ગ્રહણ અને પરિભોગ થાય તેમ સંભવે છે. ૧૧૦ના રજોહરણનો લાભ रजोहरणमाश्रित्य दोषाभावमाह - હવે (ગા. ૧૦૨૧ નો જવાબ) રજોહરણને આશ્રયી દોષનો અભાવ બતાવે છે - रयहरणम्मिवि पडिलेहिऊण विहिणा पमज्जमाणस्स । कीडघरवुज्जणादी (ण) होंति दोसा गुणो होइ ॥११०२॥ (रजोहरणेऽपि प्रतिलिख्य विधिना प्रमाञ्जयतः । कोटगृहस्थगनादयो(न) भवन्ति दोषा गुणो भवति ॥ रजोहरणेऽपि पूर्वं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य विधिना यतनालक्षणेन प्रमाञ्जयतः सतो यतेः कुतः कीटगृहस्थगनादयो दोषा भवेयुः? नैव भवेयुरितिभावः किंतु गुण एव भवति ॥११०२॥ - ગાથાર્થ - પહેલાં આંખથી – દષ્ટિપાત કરીને પ્રતિલેખના કર્યા બાદ સાધુ રજોહરણથી જયણાપૂર્વક પ્રમાર્જન કરે, તો તેને કીડીના દર પુરવાવગેરે દોષો કેવી રીતે આવે? અર્થાત ન જ આવે-બલ્ક ગુણ થાય છે. ૧૧૦રા * * * * * * * * * * ધર્મસંહણિ-ભાગ ૨ - 233 * * * * * * * * * * * * * * * Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमेव दर्शयति આ ગુણ બતાવે છે. ચારિત્રકાર आयाणे गहण(मोक्ख) म्मि य कस्सइ रयणीऍ काइगादिम्मि । तेणं पमज्जिऊणं पवत्तमाणस्स वहविरती ॥११०३ ॥ (आदाने ग्रहणे (मोक्षे) च कस्यचिद् रजन्यां कायिकादौ । तेन प्रमार्ण्य प्रवर्त्तमानस्य वधविरतिः ॥ ) आदाने ग्रहणे च मोक्षे च कस्यचित् भण्डकस्य रजन्यां कायिकादौ च तेन रजोहरणेन प्रमार्ण्य प्रवर्त्तमानस्य सतो वधविरतिर्नाम गुणो भवति, अन्यथा तदा भण्डकाश्रितादिसत्त्वव्यापत्तिः प्रसज्येतेति ॥ ११०३ ॥ ગાથાર્થ:- કો'ક પાત્રને લેવા અને મુકવામા તથા રાતે પ્રસ્રવણઆદિ વખતે રજોહરણથી પ્રમાર્જીને પ્રવૃત્ત થનારને જ હિંસાવિરતિ નામનો ગુણ થાય છે. અર્થાત્ સાચી હિંસાવિરતિનું પાલન થાય છે. પ્રમાર્જન વિના પ્રવૃત્ત થવામાં ત્યારે પાત્રાદિગત જીવોની હિંસાનો પ્રસંગ આવે છે. ૫૧૧૦૩ા દણ્ડ હથિયાર નથી, પણ ઉપકરણ છે. दण्डमाश्रित्य दोषाभावामाह वे (आ. १०२२ नो भवाज) हाने आश्रयी घोषनो अभाव जतावें छे - साणादिरक्खणट्ठा विधीऍ इह डंडगं धरेंतस्स । कह हत्थियारसावेक्खयाइया होंति दोसा उ ? ॥११०४॥ (श्वादिरक्षण विधिना इह दंडकं धरतः । कथं हास्तिकारसापेक्षतादिका भवन्ति दोषास्तु ॥) श्वादिरक्षणार्थं विधिना सूत्राभिहितेन इह जगति तीर्थे वा दण्डकं धर्मोपकरणतया धरतः सतः कथं हास्तिकारसापेक्षतादयः- प्रहरणसापेक्षतादयो दोषा भवन्ति ? नैव भवन्तीतियावत् ॥११०४ ॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમા અથવા જૈન શાસનમાં કૂતરાદિથી રક્ષણાર્થ સૂત્રોક્ત વિધિમુજબ દંડ રાખવો એ ધર્મોપકરણરૂપ છે. તેથી તે રાખવામાં હથિયારની સાપેક્ષતાવગેરે દોષ કેવી રીતે આવે? અર્થાત્ ન જ આવે. ૫૧૧૦૪ા अत्रैव युक्तिमाह - આ અંગે જ યુક્તિ બતાવતા કહે છે → णय कज्जमंतरेणवि कहंचि पीडा इमस्स इट्ठत्ति । आयपरोभयविसया जं वहकिरिया सुते भणिया ॥ ११०५ ॥ (न च कार्यान्तरेणापि कथंचित्पीडाऽस्य इष्टेति | आत्मपरोभयविषया यत् वधक्रिया श्रुते भणिता II) चो हेतौ । यस्मान्न कार्यमन्तरेण 'अपि' भिन्नक्रमः कथंचिदप्यस्य देहस्य पीडा इष्टा । कुत इत्याह यत्यस्मात्कारणात् वधक्रिया श्रुते - आगमे आत्मपरोभयविषया भणिता - प्रतिपादिता ॥ ११०५ ॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં ‘ચ' હેત્વર્થમાં છે. 'અપિ'નો અન્વય કહ્યુંચિ કથંચિત્સાથે છે.) કાર્ય વિના આ શરીરને કશી પણ પીડા ઇષ્ટ નથી. કારણ કે આગમમાં વધક્રિયા સ્વ અને પર ઊભયઆશ્રયી બતાવી છે. (અર્થાત્ તપ- લોચઆદિ કારણ વિના સાધુએ સ્વદેહને પણ પીડા આપવાની નથી. દાંડો હાથમા હોવામાત્રથી કૂતરાવગેરે તેથી ડરી દૂર રહે છે. આમ સ્વદેહરક્ષા થાય છે. અને પરાક્રમણાદિભાવથી હથિયારની અપેક્ષાનો પણ કોઇ સવાલ રહેતો નથી.) ૧૧૦પા देव श्रुतं दर्शयति આ આગમપાઠ જ હવે દર્શાવે છે – भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणम्मि परम्मि य तो वज्जे पीडमुभयोऽवि ॥११०६ ॥ (भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्ति खलु विशेषः । आत्मनि परस्मिंश्च तस्माद्वर्जयेत्पीडामुभयतोऽपि II) भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां 'हु' निश्चितं नास्ति विशेष आत्मनि परस्मिन्नपि च, 'तो' तस्माद्वर्जयेत् पीडामुभयतोSपि - उभयस्मिन्नपि आत्मपरलक्षणे इति । तस्मान्नात्र हास्तिकारसापेक्षतादयो दोषा इति स्थितम् ॥ ११०६ ॥ + धर्मसंशि-लाग २ - 234 + + + Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++ ++ +++ +++++++ चारित्र + + + + + + + + ++ + + + + + + + ગાથાર્થ:- જિનવચનને ભાવિત કરેલા અને મમતા વિનાના સાધુમાટે સ્વ અને પરમાં અવશ્ય કોઈ ભેદ નથી. તેથી સ્વ અને પર બન્નેની પીડાનો ત્યાગ કરવો જોઈએ. અને જેને સ્વ–પર કોઈને પીડ આપવી જ નથી તેને વળી હથિયારની અપેક્ષા જ ક્યાંથી લેય? તેથી એવા કોઈ દોષ રહેતા નથી તેમ નિશચય થાય છે. ૧૧૦ધા સંવેગ-નિર્જન્યતાસિદ્ધિ यदप्युक्तं - 'किंच नियं चिय रूवमित्यादि', तत्रापि प्रतिविधानमाहતથા દિગંબરોએ પોતાનું જ રૂપ જોવાથી સવેગ થાય' (ગા. ૧૦૨૩) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, ત્યાં પણ સમાધાન બતાવતાં કહે છે रयहरणादिसमेतं दद्दूणं किं न होइ संवेगो ? । अप्पाणं पव्वइओ तब्भणियगुणागमातो य ॥११०७॥ (रजोहरणादिसमेतं दृष्ट्वा किं न भवति संवेगः ?। आत्मानं प्रव्रजितस्तद्भणितगुणागमाच्च ॥) रजोहरणादिसमेतमात्मानं दृष्ट्वा तथा तद्भणितगुणागमतश्च-रजोहरणादिसमेतगुणावबोधतश्च संवेगः किन्न भवति ? भवत्येवेतिभावः । 'यथाऽहं प्रव्रजितस्तस्मात् करोमि स्वार्थमिति' ॥११०७॥ ગાથાર્થ:- રજોહરણઆદિ સંયમોપકરણયુક્ત પોતાને જોઈ, અને રજોહરણઆદિયુક્ત રહેવાના આગમમાં બતાવેલા ગણોના બોધથી શું સંવેગ આવતો નથી? અર્થાત આવે જ છે. સાધને વિચાર ઉદ્ભવે જ છે કે “હું પ્રવ્રજિત- સાધુ થયો છું, તેથી મારું આત્મકલ્યાણ સાધુ ૧૧૦૭ यच्चोक्तम्-'तस्मात् यतिना निर्ग्रन्थेन भवितव्य' मित्यत्राह - તથા દિગંબરોએ “તેથી સાધુએ નિર્ગસ્થ જ રહેવું જોઈએ (ગા. ૧૦૨૪) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, ત્યાં સમાધાન આપે છે – निग्गंथया य भणिया ममत्तचाएण पुव्वमेव इहं । किमिणा विचिन्तिएणं ? तुह एयं मनसे अह उ ॥११०८॥ (निर्गन्थता च भणिता ममत्वत्यागेन पूर्वमेवेह । किं तेन विचिन्तितेन ? तव एतन्मन्यसे अथ तु निर्ग्रन्थता च पूर्वमेव भणिता ममत्वत्यागेन, स च ममत्वत्यागो वस्त्रादावप्यविशिष्टो, धर्मोपकरणतया तस्य परिगृह्यमाणत्वात् । ततः किं तेन विचिन्तितेन (तव) यथा- 'वस्त्रग्रहणे सति कथं निर्ग्रन्थतेति', किंतु यथावदवगमे मनो निवेश्यतामिति अथैतन्मन्यसे ? ॥११०८॥ ગાથાર્થ - અમે પૂર્વે જ બતાવી ગયા કે નિર્ગસ્થનાની સિદ્ધિ મમત્વત્યાગથી જ સંભવે છે, અને મમત્વત્યાગ તો વસ્ત્રાદિની હાજરીમાં પણ સમાનતયા સંભવે છે. કેમકે વસ્ત્રાદિ ધર્મોપકરણ તરીકે જ પરિગૃહીત થાય છે. તેથી તમારે વસ્ત્રના ગ્રહણમાં નિર્ચન્થતા કેવી રીતે શેય? તેવા વિચારથી શું? અર્થાત વ્યર્થ છે. તેના બદલે યથાર્થબોધમાં મન લગા: કદાચ તમને ( रोन) वो पियार आवे - ११०८॥ એકાન્તગુલિંગસાધર્મ અસિહ जारिसयं गुरुलिंगं सीसेणवि तारिसेण होयब्वं । न हु होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा ॥११०९॥ ___ (यादृशं गुलिङ्गं शिष्येणापि तादृशेन भवितव्यम् । न हि भवति बुद्धशिष्यः श्वेतपटो नग्नक्षपणको वा ) यादृशं गुरोर्लिङ्गं शिष्येणापि तादृशेन-तादृग्लिङ्गयुक्तेन भवितव्यम्, नहि भवति बुद्धस्य शिष्यः श्वेतपटो नग्नक्षपणको वेति ॥११०९॥ ગાથાર્થ:-દિગંબર:-ગુરુનું જેવું લિંગ હોય, શિષ્ય પણ તેવા જ લિંગવાળા હોવું જોઈએ. બુદ્ધનો શિષ્ય ( બૌદ્ધ) શ્વેતામ્બર સફેદવસ્ત્રધારક કે નગ્નક્ષપણકદિગંબર હોતા નથી પરંતુ પોતાના ગુરુ–બુદ્ધ જેવા જ વેશને ધારે છે.) ૧૧૦લા निग्गंथो य जिणो जं एगंतेणेव लोगसिद्धमिणं । तम्हा तस्सीसावि हु निग्गंथा चेव जुज्जति ॥१११०॥ (निर्ग्रन्थश्च जिनो यदेकान्तेनैव लोकसिद्धमिदम् । तस्मात् तच्छिष्या अपि खलु निर्ग्रन्था एव युज्यन्ते ॥ ___ निर्ग्रन्थश्च जिनो यत्-यस्मादेकान्तेनैव भवति थश्च जिनो यत-यस्मादेकान्तेनैव भवति, इदं च सकललोकप्रसिद्धम, तस्मात्तच्छिष्या अपि निर्गन्था एव युज्यन्त इति ॥१११०॥ ++++++++++++++++ 6 -मार-235+++++++++++++++ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + ++ + + + + + + + + + + + ARAR + + + + + + + + + + + + + + + ++ ગાથાર્થ - જિનેશવર ભગવાન એકાન્ત નિર્ચન્ય હોય છે, તે વાત સકલલોકમાં પ્રસિદ્ધ છે. તેથી તેમના શિષ્યોએ પણ નિર્ચન્ય રહેવું જ યોગ્ય છે ૧૧૧વા अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. जारिसयं गुरुलिंगं इच्चादसमिक्खिताभिहाणं तु । न हि तारिसेण होउं तीरइ सइ दुविहलिंगेवि ॥११११॥ (यादशं गुरुलिङ्गमित्याद्यसमीक्षिताभिधानं तु । न हि तादृशं भवितुं शक्यते सदा द्विविधलिङ्गेऽपि ॥) यादृशं गुरुलिङ्गमित्यादि असमीक्षिताभिधानं, यस्मान्न द्विविधलिङ्गेऽपि-द्विविधेऽपि लिङ्गे द्रव्यभावभेदभिन्ने सदा तादृशेनैव शिष्येण भवितुं शक्यते, सर्वेषामपि तेन सह समानधर्मताप्राप्तेरेतच्चानिष्टमिति ॥११११॥ ગાથાર્થ:-ઉત્તરપા-“ગુરુ. જેવું લિંગ હોય, તેવું જ લિંગ રાખવું જોઈએ એવું વિધાન વિચાર કર્યા વગર કરાયેલું છે. કેમકે દ્રવ્ય અને ભાવ આ બન્ને પ્રકારના લિંગને આશ્રયી શિષ્ય હંમેશા ગુરુના લિંગની સમાનતા પામવા સમર્થ નથી. કેમકે તો-તો બધા જ શિષ્યો ગુ—ભગવાનને સમાનધર્મવાળા થવાની આપત્તિ છે, જે અનિષ્ટ છે. ૧૧૧૧ अह तल्लिंगसम चिय लिंगं तेणावि होइ कायव्वं । सियवाए सिद्ध चिय एगंतेणं तु तदजुत्तं ॥१११२॥ (अथ तल्लिंगसममेव लिङ्गं तेनापि भवति कर्तव्यम् । स्याद्वादे सिद्धमेव एकान्तेन तु तदयुक्तम् ) अथोच्येत तल्लिङ्गसममेव-निर्गन्थजिनलिङ्गसमानमेव लिङ्गं तेनापि-तच्छिष्येणापि भवति कर्तव्यं, यथ रक्तचीवरधारिणः सुगतस्य विनेया अपि रक्तचीवरधारिण इति । अत्राह-'सियेत्यादि' तल्लिङ्गसम-निर्ग्रन्थजिनलिङ्गसमं लिङ्गं स्याद्वादे-कथंचिद्वादे सिद्धमेव, भगवत इव साधूनामपि शिरोलुशनभिक्षाटनकल्पनीयानपानग्रहणादिषु यतमानत्वात्, एकान्तेन तु तल्लिङ्गसमं लिङ्गं न युक्तं, तीर्थकृता सह समानधर्मताप्राप्तेः, अपिच-न भगवता पिच्छिकाद्यपि गृहीतं ततो 'यादृशं गुरोलिङ्गं शिष्येणापि तादृग्लिङ्गयुक्तेन भवितव्यमिति' वच एकान्तेन प्रमाणीकुर्वद्भिः कथं भवद्भिरपि पिच्छिकादि गृह्यते? अथ धर्मोपकरणत्वाददोष इति मन्येथास्तदेतद्वस्त्रेऽपि समानं यथोक्तं प्रागिति ॥१११२॥ ' ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- નિર્ઝન્ય જિન ભગવાનને સમાન લિંગ જ શિષ્યમાટે કર્તવ્યભૂત છે. જેમકે લાલકપડાધારી બુદ્ધના શિખ્યો પણ લાલ કપડાધારી છે. ઉત્તરપક:- નિન્ય જિનપિંગ તો શિષ્યો માટે પણ સ્યાદવાદ-કથંચિતવાદ-અનેકાન્તવાદથી તો સિદ્ધ જ છે, કેમકે સાધુઓ પણ ભગવાનની જેમ માથાનો લોચ કરે છે, ભિક્ષાટન કરે છે, કલ્પનીય અન્ન-પાણીઆદિ ગ્રહણ કરવા પ્રયત્ન કરે છે. એકાને સમાનસિંગની વાત કરવી યોગ્ય જ નથી. કેમકે સાધુ પણ તીર્થકરને સમાનધર્મવાળા થવાની આપત્તિ છે. વળી, ભગવાને તો પીછું ( મોરપિચ્છ) આદિ પણ ગ્રહણ કર્યા નથી, તેથી જેવું ગુરુનું લિંગ હોય, તેવાં જ લિંગવાળા શિષ્યોએ પણ હોવું જોઈએ એવા વચનને એકાને પ્રમાણભૂત માનતા તમો( દિગંબરો) મોરપિચ્છવગેરે કેમ ગ્રહણ કરો છો? પૂર્વપક્ષ:- મોરપિચ્છવગેરે તો ધર્મોપકરણભૂત હોવાથી દોષભૂત નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ વાત તો વસ્ત્ર માટે પણ સમાન જ છે, તે અગાઉ કહ્યું જ છે. ૧૧૧રા બીજાઓ તીર્થકરગુણથી રહિત प्रकारान्तरेण परस्यासमीक्षिताभिधायितामाह - બીજ પ્રકારે દિગંબરનું વચન વિચાર્યા વિનાનું છે. તેમ બતાવતા કહે છે. - तित्थगरलिंगमणघं तेसिं चेव अविगलं परं होई । पाययगुणजुत्ताण य अहवा ण उ सेसजीवाणं ॥१११३॥ (तीर्थकरलिङ्गमनघं तेषामेवाविकलं परं भवति । प्राकृतगुणयुक्तानां चाथवा न तु शेषजीवानाम् ॥). अथवेति प्रकारान्तरसूचने । स्याद्वादे तावत्तल्लिङ्गसमं लिङ्गं सिद्धमेव । अथवा तीर्थकरलिङ्गमनघं तेषामेव तीर्थकृतामविकलं परं भवति, प्राकृतगुणयुक्तानां तु शेषजीवानां न तल्लिङ्गसमं लिङ्गं, तद्गुणरहितत्वात् ॥१११३॥ + + + + + + + + + + + + + + + + लि-मा- २ - 236 + + + + + + + + + + + + + + + Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + usaR + + + + + + + + + + + + + + + + + + ગાથાર્થ:- (અથવા'પદ બીજા પ્રકારના સુચનાર્થે છે.) સ્યાદવાદમાં તો જિનલિંગને તલ્યલિંગ સિદ્ધ જ છે. અથવા તીર્થંકરલિંગ જિનલિંગ અનધ-નિષ્પાપ-પરમપવિત્ર છે. અને તે જિનેશ્વરોને જ શ્રેષ્ઠ–અવિકલતયા સંભવે છે. પ્રાકતગુણ– સામાન્ય ગણયુક્ત શેષ જીવોને જિનસિંગલ્યલિંગ સંભવે નહીં, કેમકે જિનેશ્વર જેવા ગુણો તેમની પાસે નથી. ૧૧૧૩ तथाचाह - આ જ વાત કરે છે - रहिया य सेसजीवा तित्थगरगुणेहिं परमपुन्नेहिं । नियमेण सिद्धमेयं दोण्हवि अम्हाण समएसुं ॥१११४॥ (रहिताश्च शेषजीवास्तीर्थकरगुणैः परमपुण्यैः । नियमेन सिद्धमिदं द्वयोरपि आवयोः समयेषु ॥ रहिताश्च शेषजीवा नियमेन तीर्थकरगुणैः परमपुण्यैः-एकान्तपवित्रैः । कथमेतदेवमवसेयमिति चेत् ? अत आह-'सिद्धमित्यादि' सिद्धमिदम-अनन्तरोक्तं द्वयोरप्यावयोः समयेषु, ततो नैतत्साधने यत्नान्तरमातिष्ठामः ॥१११४॥ ગાથાર્થ:- શેષજીવો અવશ્યમેવ તીર્થકરના એકાને પવિત્ર ગણોથી રહિત હોય છે. શંકા:- આવો નિર્ણય શી રીતે કરી શકાય ? સમાધાન:- આ વાતનો નિર્ણય અમારા (શ્વેતામ્બર) અને તમારા ( દિગંબર) બન્નેના શાસ્ત્રોમાં સિદ્ધ જ છે. તેથી આ વાતને સિદ્ધ કરવા અમે કોઈ અન્ય પ્રયત્ન કરતાં નથી. ૧૧૧૪ તીર્થકર ગુણો यैस्तीर्थकरगणै रहिताः शेषजीवास्तानेव दर्शयति - શેષ જીવો તીર્થકરોના જે ગુણોથી રહિત છે તે બતાવે છે - छउमत्थस्सवि गुरुणो नाणा संघयणमो धिती चेव । निम्ममया य परीसहविजओ दढमप्पमाओ य ॥१११५॥ . (छास्थस्यापि गुरो निानि संहननं धृतिश्चैव । निर्ममता च परीषहविजयो दृढमप्रमादश्च ॥) छद्यस्थस्यापि सतो गुरोस्त्रिभुवननाथस्य ज्ञानानि चत्वारि भवन्ति, संहननं च वज्रर्षभनाराचं, धृतिश्च संयमविषया निरुपमा, निर्ममता चैकान्तेन निर्मला, सर्वोत्तमः परीषहविजयो, दृढमतिशयेनाप्रमादश्च ॥१११५॥ __यार्थ:- गुरु ( नेश्१२)यारे छभस्थ बोय छे, त्यारे ५ तमने (१) मतिमा यार शान बोय छे. (२) प्रथम વજઋષભનારા સંઘયણ હોય છે. (૩) તેમની સંયમસંબંધી ધૃતિ નિરુપમ ોય છે (૪) એકાન્ત નિર્મળ નિર્મમતા હોય છે. (५) सर्वोत्तम परि५७१४य लोय छे. (६) तमो अत्यंत अप्रमत आय छ. ॥१११५॥ __ अन्नेसिं मोहोदयहेतुअभावो सुहाणुबंधातो । गुत्तिंदियया य गुणा अणन्नतुल्ला मुणेयव्वा ॥१११६॥ ___ (अन्येषां मोहोदयहेत्वभावः शुभानुबन्धात् । गुप्तेन्द्रियता च गुणा अनन्यतुल्या ज्ञातव्याः ॥) अन्येषां च-स्त्र्यादीनां तद्रूपदर्शनानन्तरं मोहोदयहेतुत्वाभावो (शुभानुबन्धात्-सानुबन्धपुण्यानुबन्धिपुण्यविपाकात्) गप्तेन्द्रियतेति-गुप्तलिङ्गता । चकारोऽनुक्तसमुच्चये, तेनान्येऽपि निश्छिद्रपाणिपात्रादयो द्रष्टव्यास्तथाचोक्तम्-'ते हि भगवन्तो निरुपमधृतिसंहननाः गूढेन्द्रियाः स्वप्रभामण्डलाच्छादितदेहा ज्ञानातिशयसंपत्समन्विता निश्छिद्रपाणिपात्रा जितपरीषहा इत्यादि। एवंरूपा गुणा अनन्यतुल्या ज्ञातव्याः ॥१११६॥ ગાથાર્થ:- સ્ત્રીવગેરેને ભગવાનનું રૂપ જોવાથી મોહદય પણ પ્રગટતો નથી. અર્થાત ભગવાનનું રૂપ અત્યંત વિશિષ્ટ હોવા છતાં સ્ત્રીઆદિમાં વિકારાદિયોદયનો હેતુ બને નહીં, કેમકે સાનુબન્ધપુણ્યાનુબંધી પુણ્યના ઉદયરૂપ શુભાનુબંધના કારણે ભગવાન ગુખેન્દ્રિય = ગુપ્તલિંગવાળા) હોય છે. મૂળમાં ‘ચ' નહીં કહેલા ગુણોનો પણ સમાવેશ કરે છે. તેથી નિછિદ્ર કરપાત્ર હાથરૂપ પાત્ર એવું વિશિષ્ટ કે તેમાંથી એક બુંદ કે એક કણ પણ નીચે પડે નહીં) વગેરે ગુણો સમજવા. કહ્યું જ છે કે “તે ભગવાનો નિરૂપમધતિ અને સંઘયણવાળા, ગૂઢઇન્દ્રિયવાળા, પોતાના પ્રભામંડળથી આચ્છાદિત શરીરવાળા, જ્ઞાનાતિશયરૂપ સંપત્તિવાળા, નચ્છિદ્ર કર પાત્રવાળા અને પરિષહનો જીતેલા છે. ઇત્યાદિ આ બધા ભગવાનના અતુલનીય ગુણો સમજવા ૧૧૧દા +++ +++++++++++++ ater- 02-237+++++++++++++++ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * + + + + + + + + + + + +++ शरित्रवार +++++++++++++++++ ता जुत्तमेव तस्सिह मोत्तुं वत्थादिगंपि उवगरणं । तेण विणावि स जम्हा फलमिटुं साहती चेव ॥१११७॥ (तस्माद् युक्तमेव तस्येह मोक्तुं वस्त्रादिकमप्युपकरणम् । तेन विनापि स यस्मात् फलमिष्टं साधयत्येव ॥) यस्मादेवमनन्यतुल्या भगवतो गुणाः 'ता' तस्मादिह वस्त्रादिकमप्युपकरणं तस्य-भगवतो मोक्तुं युक्तमेव। यस्मात्तेनवस्त्रादिनोपकरणेन विनापि भगवान् फलमिष्टं साधयितुं शक्नोति ॥१११७॥ ગાથાર્થ:- આમ ભગવાનના ગુણો અસાધારણ છે. તેથી ભગવાન વસ્ત્રાદિઉપકરણનો પણ ત્યાગ કરે એ યોગ્ય જ છે. કેમકે ભગવાન વસ્ત્રાદિઉપકરણો વિના પણ ઇષ્ટફળ ( વીતરાગભાવ-કેવળજ્ઞાન- મોક્ષ) સાધવા સમર્થ છે. ૧૧૧ળા બીજાઓની તીર્થકર જેવી ચેષ્ટા હાસ્યાસ્પદ जो पुण तग्गुणरहिओ तं चेव फलं कहंचि इच्छंतो । पारंपरेण तस्सेव साहगं मुयइ उवगरणं ॥१११८॥ (यः पुनस्तद्गुणरहितस्तदेव च फलं कथञ्चिदिच्छन् । पारंपर्येण तस्यैव साधकं मुञ्चति उपकरणम् ॥) यः पुनस्तद्गुणरहितः-तीर्थकरगुणरहितस्तदेव च-मोक्षलक्षणं फलं कथंचिदिच्छन् पारंपर्येण तस्यैव-मोक्षलक्षणस्य फलस्य साधकमुपकरणं मुञ्चति ॥१११८॥ .. ગાથાર્થ:- પરંતુ જે આદમી કોઇ પણ રીતે મોક્ષરૂપ ફળને ઇચ્છે છે, પણ તીર્થકર જેવા ગુણ ધરાવતો નથી, તે આદમી જો પરંપરાએ મોક્ષરૂપે ફળના સાધનભૂત ઉપકરણનો ત્યાગ કરે છે. ૧૧૧૮ सो सव्वहेव तप्फलसाहणविगलो जणम्मि अप्पाणं । वायामेत्तेणं डिंभनरवती जह विडंबेति ॥१११९॥ (स सर्वथैव तत्फलसाधनविकलो जने आत्मानम् । वाङ्मात्रेण डिम्भनरपतिर्यथा विडम्बयति ॥) स सर्वथैव तत्फलसाधनविकलो-मोक्षलक्षणफलसाधनविकलो जने-लोके वाङ्मात्रेणात्मानं विडम्बयति, यथा डिम्भनरपतिरिति ॥१११९॥ ગાથાર્થ:- મોક્ષરૂપે ફળના સાધન વિનાનો તે આદમી લોકમાં વચનમાત્રથી પોતાની વિડમ્બના કરે છે. જેમકે બાળરાજ. (રમતમાં પોતાની જાતને રાજ માનતો બાળક રાજાજેવી મોટી મોટી વાતો કરે, તેને મોટેરાઓ ગંભીર લેખતા નથી, પણ બાલિશચેષ્ટા ગણી હાસ્યાસ્પદ ઠેરવે છે, કેમકે તે બાળક પાસે રાજયોગ્ય કોઇ સામગ્રી નથી. આવી હાલત મોક્ષની વાત કરનાર પણ તેમાટેના ગુણો કે ઉપકરણ નહીં રાખનાર આદમીની છે.) ૧૧૧૯ अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह - અહીં જ બીજુ દષ્ટાન્ત બતાવે છે. - णय उवगरणेण विणा चोद्दसपुव्वी घडा घडसहस्सं । कुणइत्ति कुंभगारस्स तस्स परिवज्जणं जुत्तं ॥११२०॥ (न चोपकरणेन विना चतुर्दशपूर्वी घटाद् घटसहसम् । करोतीति कुम्भकारस्य तस्य परिवर्जनं युक्तम् !) न च उपकरणेन-चक्रचीवरादिलक्षणेन विना चतुर्दशपूर्वी घटादेकस्मात् घटसहसं करोति इतिः-एवं चतुर्दशपूर्विण इवेत्यर्थः, कुम्भकारस्यापि तस्योपकरणस्य-चक्रचीवरादिलक्षणस्य परिवर्जनं युक्तम् । एवमिहापि यदि भगवान् परमगणातिशययुक्ततया वस्त्रादिकम्पकरणमन्तरेणापि फलमिष्टं साधयति नैतावता शेषाणामपि तद्गणरहितानां वस्त्रादिरूपोपकरणपरित्यागो युज्यत इति ॥११२० ।। ગાથાર્થ:- ચૌદપૂર્વધર (પોતાની લબ્ધિવિશેષથી) ચક-વસ્ત્રાદિઉપકરણ વિના એક ઘડામાંથી હજાર ઘડા બનાવી શકે છે, પણ તેથી કુંભાર પણ ચૌદપૂર્વધરની જેમ ચક્ર-ચીવરવગેરે ઉપકરણનો ત્યાગ કરે તે યોગ્ય નથી. એમ અહીં પણ જો ભગવાન પરમગુણાતિશયવાળા હોવાથી વસ્ત્રાદિ ઉપકરણ વિના પણ ઑષ્ટફળને સાધે છે, તો તેટલામાત્રથી તેવા ગુણોથી રહિત બીજાઓ એ પણ વસ્ત્રઆદિરૂપ ઉપકરણ છોડી દેવા યોગ્ય નથી. ૧૧૨ના મૂલગુણ પછી ઉત્તરગુણ Latest ** *************घर्भसंलि -ल -238+ + ++ + + + + + ++ + ++ + Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ यारित्रद्वार +++ सियतग्गुणरहितोवि हु पव्वज्जं गेण्हती तदत्थं तु । सच्चं चऽणुक्कमेणं तेसुं पुण तेण जइयव्वं ॥ ११२१ ॥ (स्यात् तद्गुणरहितोऽपि प्रव्रज्यां गृह्णाति तदर्थं तु । सत्यमेव, अनुक्रमेण तेषु पुनस्तेन यतितव्यम् ॥) स्यादेतत्-तद्गुणरहितोऽपि - परमपुण्यतीर्थंकरगुणरहितोऽपि प्रव्रज्यां गृह्णाति तदर्थमेव - विवक्षितफलार्थमेव तुरेवकारार्थस्ततस्तेनापि तादृशेनैव भवितव्यमितिभावः । अत्राह - 'सच्चं चेत्यादि' यदुक्तं प्रव्रज्यां तदर्थमेव गृह्णातीति तत्सत्यमेव । चोऽवधारणे । तेषु-पुनरचेलत्वाद्युत्तरगुणेषु तेन - यतिनाऽनुक्रमेण परिपाट्या “पव्वज्जासिक्खावय" (छा. प्रव्रज्याशिक्षाव्रतेति) इत्यादिलक्षणया सूत्राभिहितया यतितव्यम् ॥ ११२१ ॥ गाथार्थ:- पूर्वपक्ष:- तीर्थरना परमपवित्र गुगोधी रहित सेवा छतां ते ( = साधु) विवक्षित ( =भोक्ष) इज भाटे ४ દીક્ષા ગ્રહણ કરે છે. (મૂળમાં ‘તુ’પદ જકારાર્થક છે.) તેથી તે સાધુએ પણ ભગવાન જેવા જ થવું જોઇએ. ઉત્તરપક્ષ:- સાધુ મોક્ષાર્થ જ પ્રવ્રજયા ગ્રહણ કરે છે તે વાત બિલ્કુલ સાચી છે. ('ચ'પદ અવધારણમાટે છે.) પણ અચેલતાવગેરે ઉત્તરગુણોઅંગે સાધુએ પ્રવ્રજયા, શિક્ષા (શસ્ત્રપરિક્ષા અથવા છજીવકાયઅધ્યયનવગેરે) વ્રત (ઉપસ્થાપના– મહાવ્રતારોપણ) ઇત્યાદિ સૂત્રોક્તપરિપાટીથી જ યત્ન કરવાનો છે. ૧૧૨૧॥ यतः કેમકે मूलाओ साहाओ साहाहिंतो न होइ मूलं तु । चरणं च एत्थ मूलं नायव्वं समणधम्मम्मि ॥११२२ ॥ (मूलात् शाखा: शाखाभ्यो न भवति मूलं तु । चरणं चात्र मूलं ज्ञातव्यं श्रमणधर्मे II) मूलात् सकाशात् शाखाः प्रादुर्भवन्ति, शाखाभ्यः सकाशात् पुनर्मूलं न भवति । एवमिहापि मूलगुणे सत्युत्तरगुणो भवति नतूत्तरगुणमात्रे सति मूलगुणो भवति । मूलगुणश्च विवक्षितफलसिद्धिनिबन्धनं, तस्मात्प्रथमतो मूलगुण एव यतितव्यं, क्रमेण तूत्तरगुण इति । अत्र च श्रमणधर्मे कल्पपादपसमाने मूलं चरणं - चारित्रं ज्ञातव्यम् ॥ ११२२॥ ગાથાર્થ:- મૂળમાંથી શાખાઓ પ્રાદુર્ભાવ પામે છે, નહીં કે શાખાઓમાંથી મૂળ. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ મૂળગુણ હોય, તો ઉત્તરગુણ આવે, નહીં કે ઉત્તરગુણમાત્રથી મૂળગુણ. અને મૂળગુણ મોક્ષરૂપ વિવક્ષિતફળની સિદ્ધિમાં કારણભૂત છે. તેથી સૌ પ્રથમ મૂળગુણઅંગે જ પ્રયત્ન કરવો, પછી ક્રમશ: ઉત્તરગુણમાટે. અહીં કલ્પવૃક્ષસમાન શ્રમણધર્મમાં ચારિત્રને મૂળ સમજવું. ૫૧૧૨૨ા ચારિત્રનું મૂળ અહિંસા कथमित्याह આમ કેમ તે બતાવે છે→ जं चरणं पढमगुणो जतीण मूलं तु तस्सवि अहिंसा । तप्पालणे च्चिय तओ जइयव्वं अप्पमत्तेणं ॥ ११२३ ॥ (यच्चरणं प्रथमगुणो यतीनां मूलं तु तस्यापि अहिंसा । तत्पालन एव ततो यतितव्यमप्रमत्तेन ॥ यत् - यस्मात् यतीनां चरणं- चारित्रं प्रथमगुणः, तदभावे यतित्वाभावात्, गृहस्थवत्, तस्यापि च प्रथमगुणरूपस्य मूलमहिंसा - हिंसानिवृत्तिस्ततस्तत्पालन एव यतितव्यमप्रमत्तेन सता ॥ ११२३ ॥ ગાથાર્થ:- સાધુઓમાટે ચારિત્ર જ પ્રથમગુણ છે. કેમકે ચારિત્રના અભાવમાં ગૃહસ્થની જેમ સાધુપણું સંભવે નહીં (જેમ ગૃહસ્થ ચારિત્રહીન હોવાથી સાધુ નથી, તેમ સાધુ પણ ચારિત્રહીન હોય તો સાધુ રહેતો નથી.) આ પ્રથમગુણરૂપ ચારિત્રનું પણ મૂળ છે અહિંસા-હિંસાનિવૃત્તિ. તેથી સાધુએ અહિંસાના જ પાલનમાં અપ્રમત્ત થઇને પ્રયત્ન આદરવો જોઇએ. ૫૧૧૨ા नन्वेवं सति प्रकृते किमायातं ? नह्यत्र काचिद्विप्रतिपत्तिरस्तीत्यत आह શંકા:- આ વાતમાં કંઇ અમારે વિવાદ નથી. પણ તેથી પ્રસ્તુત વિચારમાં શું સિદ્ધ થયું? અર્થાત્ કશું જ નહીં. અહીં સમાધાનમાં કહે છે.→ - ✦✦ ✦ vianalığı-cua 2 − 239 ♣ ♣ ♣ - चरणस्य Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ शनिवार ++++++++++++++++++ ण य धम्मोवगरणमंतरेण सा पालिउं जतो सक्का ।। सव्वेण तओ गेझं तं उचियं निम्ममत्तेणं ॥११२४॥ (न च धर्मोपकरणमन्तरेण सा पालयितुं यतः शक्या । सर्वेण तस्माद् ग्राह्यं तदुचितं निर्ममत्वेन ॥ यस्मात् अहिंसा धर्मोपकरणमन्तरेण पालयितुं शक्या यथाभिहितं प्राक तस्मात सर्वेणापि तीर्थकरगणरहितेन शेषेण निर्ममत्वेन सता तद्धर्मोपकरणमुचितमवस्थापेक्षया ग्राह्यमिति ॥११२४ ॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- આ અહિંસા ધર્મોપકરણ વિના પાળવી શક્ય નથી, તે વાત પૂર્વે બતાવી જ છે. તેથી તીર્થકરના ગુણોથી રહિત બધાએ જ નિર્મમ થઈને સ્વ–સ્વઅવસ્થાને અપેક્ષીને ઉચિત ધર્મોપકરણ ગ્રહણ કરવા જ જોઇએ. ૧૧૨૪ જિનકલ્પદષ્ટાન્ન અસ્થાને છે अत्र पर आह - .. . અહીં દિગંબર કહે છે जिणकप्पिओ न गिण्हइ किंची सो बहुगुणो य तुम्हाणं । तग्गुणजुत्तो उ तओ ण गेण्हती न पुण सव्वोवि ॥११२५॥ (जिनकल्पिको न गृह्णाति किञ्चित्स बहुगुणश्च युष्माकम् । तद्गुणयुक्तस्तु सको न गृह्णाति न पुनः सर्वोऽपि ॥) ननु जिनकल्पिको न गृह्णाति किंचिदप्युपकरणं बहुगुणश्च स युष्माकमिष्टस्तत एवमन्येष्वपि तथाभवत्सु किमिति विप्रतिपद्यत इत्यत आह-'तग्गुणेत्यादि' तद्गुणयुक्त एव-जिनकल्पिकगुणयुक्त एव सन्, तुरवधारणे 'तउत्ति' सकः साधुरुपकरणं न गृह्णाति न पुनः सर्वोऽपि न गृह्णाति, भणितदोषप्रसङ्गाद, एतदुक्तं भवति-यो जिनकल्पिकगुणोपेतो भवति स मा ग्रहीदुपकरणं, तद्गुणविकलाश्च भवादृशास्तत्कथं भवादृशानामुपकरणाग्रहणमिति ? जिनकल्पिकगुणाश्चोत्तमधृतिसंहननादयः, तदुक्तम्- "उत्तमधिइसंघयणा पुव्वधरातिसयिणो. सदाकालं । जिणकप्पियावि कप्पं कयपरिकम्मा पवज्जति ॥१॥" (छा. उत्तमधृतिसंहननाः पूर्वधरा अतिशयिनः सदाकालम् । जिनकल्पिका अपि कल्पं कृतपरिकर्माणः प्रपद्यन्ते ॥ ते च एवंख्या गुणा इदानी व्यवच्छिन्नाः ॥११२५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જિનકલ્પિક સાધુ એક પણ ઉપકરણ ગ્રહણ કરતો નથી. અને તમને તે બહુગુણવાળાતરીકે ઇષ્ટ છે. તો આ પ્રમાણે તેવા જ થનારા બીજાઓ માટે કેમ વિવાદ ઊભો કરો છો? ઉત્તરપક્ષ:- તે સાધુ જિનકલ્પિકને યોગ્ય ગુણોથી યુક્ત હેવાથી જ ઉપકરણ ગ્રહણ કરતો નથી. (“ત'પદ જકારાર્થક છે.) નહીં કે બધા જ સાધુ ઉપકરણ ગ્રહણ કરતા નથી. અર્થાત બીજા સાધુઓ તો કહેલા દોષો લાગવાનો પ્રસંગ હોવાથી ઉપકરણ ગ્રહણ કરે જ છે. તાત્પર્ય:- જે સાધુ જિનકલ્પિકગુણોથી યુક્ત હોય, તે ભલે ઉપકરણ ગ્રહણ ન કરે.. પણ તમારા જેવાઓ તો જિનકલ્પિકગુણોથી રહિત છે. તેથી તમારા જેવાઓએ કેમ ઉપકરણ ગ્રહણ કરવા નહીં? અર્થાત કરવા જ જોઈએ. ઉત્તમપૂતિ, સંઘયણવગેરે જિનકલ્પિક ગુણો છે. કશું જ છે કે “ઉત્તમ ધૃતિ, સંઘયણવાળા, પૂર્વધર અને અતિશયયુક્ત જિનકલ્પિકો પણ પરિકર્મ કરીને સદાકાલ માટે કલ૫ સ્વીકારે છે. પરંતુ વર્તમાનકાળમાં આવા પ્રકારના ગણો વ્યવચ્છિન્ન થયા છે. તેથી વર્તમાનમાં જિનકલ્પિક બનવું શકય નથી.) ૧૧રપા अपि च - पणी, देहति (त पा.) णतुल्लवत्था छज्जीवहिउज्जया महासत्ता । गोयमपमुहा मुणिणो न य णो सिद्धा चरित्ताओ ॥११२६॥ (देहतृणतुल्यावस्थाः षड्जीवहितोद्यता महासत्त्वाः । गौतमप्रमुखा मुनयो न च न सिद्धाश्चारित्रतः ॥ देहतृणतुल्यावस्थाः षड्जीवहितोद्यता महासत्त्वा गौतमप्रमुखा मुनयः सोपकरणा अपि सन्तो न च न सिद्धाश्चारित्रतः, किंतु सिद्धा एव । एवमस्माकमप्युपकरणं वस्त्रादि न चारित्रविघातकृद्भविष्यति किंतु गुणकार्येवेतिभावः ॥११२६॥ ગાથાર્થ:-શરીર અને ઘાસ પ્રતિ તુલ્યઅવસ્થાવાળા (અર્થાત શરીરને પણ તુણવત્ સમજનારા નિસ્પૃહ) તથા છજીવનિકાયના હિતમાં ઉદ્યત મહાસત્વશાળી ગૌતમ વગેરે મુનિઓ ઉપકરણયુક્ત લેવા છતાં ચારિત્રના બળે સિદ્ધ નથી થયા એમ નથી, અર્થાત સિદ્ધ થયા જ છે. આમ અમારે પણ વસ્ત્રાદિઉપકરણ ચારિત્રમાટે વિધાતક નહીં નીવડે પરંતુ ગુણકારી જ બનશે. ૧૧રદા ++++++++++++++++ Gee- २ - 240+++++++++++++++ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ attaxsu ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ દેવદુષ્યગ્રહણ સવસ્ત્રધર્મહતુક न य भगवतावि वत्थं ण गहितमेवत्ति सक्कदिन्नस्स । सोवगरणधम्मविधाणहेउमेवेह धरणातो ॥११२७॥ (न च भगवताऽपि वस्त्रं न गृहीतमेवेति शक्रदत्तस्य । सोपकरणधर्मविधानहेतुमेवेह धारणात् ॥ न च भगवताऽपि-तीर्थकृतापि वस्त्रं न गृहीतमेव, किंतु गृहीतम् । कथमिति चेत् ? अत आह- सोपकरणधर्मविधानहे त्वर्थं शक्रदत्तस्य वस्त्रस्य धारणात् । तथाचोक्तम्- "तब्भावगहियवत्था (तहवि गहियेगवत्था) सवत्थतित्थोवदेसणत्थंति । अभिनिखमंति सव्वे तम्मि चुएञ्चेलया होंति॥१॥त्ति" (तद्भावगृहीतवस्त्राः (तथापि गृहीतैकवस्त्राः) सवस्त्रतीर्थोपदेशनार्थमिति । अभिनिष्क्रामन्ति सर्वे तस्मिन् च्युतेऽचेलका भवन्तीति) ॥११२७॥ ગાથાર્થ:- ભગવાને પણ વસ્ત્ર ગ્રહણ કર્યું જ નથી, એમ નથી; પરંતુ ગ્રહણ કર્યું જ છે. “ભગવાને કેવી રીતે ગ્રહણ કર્યુ? એવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે- ઉપકરણયુક્ત ધર્મનું વિધાન કરવાના આશયથી ભગવાને શક્રે-ઈન્દ્ર આપેલું દેવદુષ્ય ધારણ કર્યું હતું. કહ્યું જ છે કે “સવઐતીર્થના ઉપદેશ માટે બધા જ તીર્થકરો એકવસ્ત્ર ગ્રહણ કરીને પ્રવજયા ગ્રહણ કરે છે. અને વસ્ત્ર પડી ગયા બાદ અચેલક બને છે.” ૧૧૨ના अत्र पर आहઅહીં દિગંબર કહે છે जो कुणइ रज्जचायं गेण्हति सो वत्थमो असद्धेयं । एत्तो च्चिय गुणभावा भिक्खागहणं व सद्धेयं ॥११२८॥ (यः करोति राज्यत्यागं गृह्णाति स वस्त्रमश्रद्धेयम् । अत एव गुणभावाद् भिक्षाग्रहणमिव श्रद्धेयम् ॥) यः करोति राज्यत्यागमेकान्तेन निरपेक्षतया स वस्त्रं गृह्णातीत्यश्रद्धेयमेतत् । अत्राह-'एत्तो चिय' इत्यादि, अत एव वस्त्रग्रहणतो गुणभावाद्भिक्षाग्रहणवद्वस्त्रग्रहणमपि श्रद्धेयमेवान्यथा भिक्षाग्रहणमपि न श्रद्धेयं, न्यायस्य समानत्वात् ॥११२८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જે વ્યક્તિ એકાન્તનિરપેક્ષરૂપે રાજય ત્યાગ કરે એ વ્યક્તિ વસ્ત્ર ગ્રહણ કરે એ વાત શ્રદ્ધાયોગ્ય લાગતી નથી. ઉત્તરપક્ષ:- “આ વ્યક્તિ વસ્ત્ર ગ્રહણ કરે છે. તેથી જ શ્રદ્ધા કરી શકાય છે કે વસ્ત્રગ્રહણથી ગણ થાય છે. તેથી ભિક્ષા ગ્રહણની જેમ વસ્ત્રગ્રહણ પણ શ્રદ્ધેય છે. અન્યથા તો ન્યાય સમાન હોવાથી ભિક્ષાગ્રહણ પણ શ્રદ્ધેય નહીં બને. (મોટા રાજયના ત્યાગીને વસ્ત્ર જેવી તુચ્છ ચીજ છોડવી તદન આસાન છે. અને છતાં છોડે નહીં તો તેનું કારણ વૈરાગ્યમાં કચાશઆદિ બીજું કોઈ નથી, પરંતુ એ જ છે કે વસ્ત્ર જરુર સંયમમાં ઉપકારી થતું હોવું જોઈએ. તેથી જ ભિક્ષા પ્રાપ્ત અન્ન અતિતુચ્છ હોવા છતાં, તેનો પણ ત્યાગ નથી કરાતો કેમકે તે પણ સંયમોપયોગી છે. જે સર્વસ્વના ત્યાગીએ સંયમોપકારી ચીજ પણ છોડવાની જ હોય, અને તો જ તેનો વૈરાગ્ય શ્રદ્ધેય બને, તો તો વસ્ત્રની જેમ અન્ન પણ છોડવું પડે. પણ તે દિગંબરોને પણ ઇષ્ટ નથી. ટૂંકમાં પ્રબળ વૈરાગ્યવાસિતઅત:કરણ વાળી વ્યક્તિ બધાનો ત્યાગ કરે... પણ જે સંયમોપકારી છે તેનો નહીં. તેથી વસ્ત્રના ત્યાગમાં અશ્રદ્ધા જેવી કોઈ વાત નથી.) ૧૧૨૮ ગુલિંગથી ઓળખ-શિલિંગથી નહીં लोगम्मि उ णिगिणत्तं सिद्धमवत्थागयं जिणिंदस्स । तं चेव गेण्हिडं न य जुज्जइ एत्थं असग्गाहो ॥११२९॥ (लोकेऽपि तु नग्नत्वं सिद्धमवस्थागतं जिनेन्द्रस्य । तदेव ग्रहीतुं न च युज्यते अत्रासद्ग्राहः ) लोकेऽपि च नग्नत्वं सिद्धं जिनेन्द्रस्यावस्थागतमेव, तस्मान्न तदेव नग्नत्वं ग्रहीतुमत्रासद्ग्राहः कर्तुं युज्यत इति ॥११२९॥ ગાથાર્થ:- લોકમાં પણ જિનેન્દ્રની અવસ્થાગત નગ્નત જ સિદ્ધ છે. તેથી તેવી જ નગ્નતા ધારણ કરવાનો અસદગ્રાહ કરવા જેવો નથી. (અર્થાત લોકો તીર્થકરના-નીર્થના સ્થાપકના જ વેશાદિ જોઇ તેને તીર્થને ઓળખતા હોય છે, નહીં કે શિખ્યાદિના. તેથી જિનેન્દ્રની સંયમાવસ્થા અથવા પ્રતિમા રૂપ અવસ્થાને જોઈ લોકો જિનેન્દ્રના શાસનને નગ્ન નિરૈન્યના શાસનતરીકે ઓળખે છે, પણ તેથી તેના અનુયાયી બનવાની ઇચ્છાવાળા એ શક્તિઆદિ વિચાર્યા વિના એવા બનવાની જરૂર નથી, એમના વચનને અનુસરવા માત્રથી અનુયાયિપણું સિદ્ધ થઈ જાય છે.) ૧૧૨લા अत्रैवाभ्युच्चयेनाह - અહીં અમ્યુચ્ચય કરતાં કહે છે. * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 241 * * * * * * * Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** वारिद्वार ***************** अन्नं च दव्वलिंगं एतं भावे तु चरणपरिणामो । सो उत्तमो जिणस्सा तारिसगो कह णु तुम्हाणं? ॥११३०॥ __ (अन्यच्च द्रव्यलिङ्गमेतद् भावे तु चरणपरिणामः । स उत्तमो जिनस्य तादृशः कथं नु युष्माकम् ॥) अन्यच्च द्रव्यलिङ्गमेतत्-नग्नत्वं, भावे तु भावस्पं तु लिङ्गं चरणपरिणामः, स चरणपरिणामो जिनस्यैकान्तेनोत्तमः, तादृशश्चैकान्तेनोत्तमश्चरणपरिणामः कथं नु युष्माकं भवेत् ? नैव कथंचन, अन्यथा तद्भवेनैव मुक्तिपदप्राप्तिप्रसङ्गः । ततः कथं भावलिङ्गापेक्षया भगवच्छिष्येण तादृशेन भवितुं शक्यते ? ॥११३० ।। ગાથાર્થ:- વળી, નગ્નતા (કે વસ્ત્રધારણ)દ્રવ્યલિંગમાત્ર છે. ભાવલિંગ ચરણપરિણામ છે. આ ચરણપરિણામ જિનેશ્વરને એકાને ઉત્તમ હોય છે. આવો એકાને ઉત્તમચરણ પરિણામ તમને કેવી રીતે હોઈ શકે? અર્થાત ન જ હોય. જે હેય, તો તે જ ભવે (=વર્તમાનભવે જ) મોક્ષપ્રાપ્તિનો પ્રસંગ છે. તેથી ભાવલિંગની અપેક્ષાએ ભગવાનના શિષ્ય કેવી રીતે ભગવાનનુલ્ય થઈ શકે? ૧૧૩ના વેદષ્ટાન્નની ઉપયોગિતા उपसंहरति - G५संबर छ→ ता एत्थ वेज्जणायं अवलंबिय संजमम्मि जइयव्वं । तल्लिंगधरणगाहो ण उ एगंतेण कायव्वो ॥११३१॥ (तस्मादत्र वैद्यज्ञातमवलम्ब्य संयमे यतितव्यम् । तल्लिंगधरणग्रहो न तु एकान्तेन कर्तव्यः ॥) . यत एवं द्विविधेऽपि लिङ्गे न तादृशेन भवितुं शक्यते 'ता' तस्मादत्र-प्रवचने वैद्यज्ञातमवलम्ब्य यथा-रोगी वैद्योपदेशं करोति न तु तन्नेपथ्यं तच्चरितं वा, न च तत् कुर्वन् रोगेण मुच्यते, एवमिहापि जिनोपदेशं कुर्वन् कर्मरोगेण मुच्यते न तु तन्नेपथ्यादि, तदुक्तम्- "रोगी जहोवदेसं करेइ वेज्जस्स होअरोगो य । न उ वेसं चरियं वा करेइ न य पउणइ • करितो ॥१॥ तह जिणवेज्जादेसं कुणमाणोऽवेइ कम्मरोगाओ । न उ तन्नेवत्थधरो न उ तस्सादेसमकरेंतो ॥२॥ ति" (छा. रोगी यथोपदेशं करोति वैद्यस्य भवत्यरोगश्च । न तु वेषं चरितं वा करोति न च प्रगुणो भवति कुर्वन् ॥१॥ तथा जिनवैद्यादेशं कुर्वाणोऽपैति कर्मरोगात् । न तु तन्नेपथ्यधरः न तु तस्यादेशमकुर्वन् ॥२॥) एवं वैद्यदृष्टान्तमाश्रित्य संयम एव तदुपदिष्टे यतितव्यं न तु तल्लिङ्गधारणग्रहो-भगवत्तीर्थकृल्लिङ्गधारणग्रह एकान्तेन कर्त्तव्य इति ॥११३१॥ - ગાથાર્થ:- આમ બન્ને પ્રકારના લિંગના વિષયમાં ભગવાન જેવા થવું શક્ય નથી. તેથી આ જૈનપ્રવચનમાં વેદ્યનું દેષ્ટાન્ન આલંબનભૂત છે. રોગી વૈદ્યના ઉપદેશ મુજબ કરે છે, નહીં કે તેના વેશ કે ચરિત્રમુજબ-આચરણમુજબ. અને વૈદ્યના ઉપદેશને બદલે વેશ કે આચારમુજબ કરવા જાય, તો તે(=રોગી) રોગમુક્ત બને પણ નહીં. આ જ પ્રમાણે જિનશાસનમાં ભગવાનના ઉપદેશમજબ આચરણ કરવાથી કર્મરોગથી મુક્ત થાય છે, નહીં કે તેમના વેશ-લિંગઆદિ મુજબ વર્તવાથી. કહ્યું જ છે કે જેમ રોગી વૈદ્યના ઉપદેશમજબ કરે છે અને નિરોગી થાય છે, વેશ કે આચરણમુજબ કરતો નથી, અને કરે તો સારો થતો નથી. તે જ પ્રમાણે જિનેશ્વરરૂપ વૈદ્યના આદેશ મુજબ કરતો સાધુ કર્મરોગથી મુક્ત થાય છે, નહીં કે તેમના નેપથ્યને ધારણ કરનાર અને તેમના આદેશ મુજબ નહીં કરનાર ારા' આમ વૈધદાત્તને આશ્રયી ભગવાને ઉપદેશેલા સંયમમાં જ યત્નશીલ બનવું જોઇએ. નહીં કે તીર્થંકરભગવાનના લિંગને એકાને ધારણ કરવાનો આગ્રહ કરવો જોઇએ. ૧૧૩ अनेनैवातिदेशेनान्यदपि परोक्तमपाकर्तमाह - આના જ અનિદેશથી દિગંબરે બીજા ઉપકરણો અંગે પણ જે કહ્યું તેનો નિષેધ કરતાં કહે છે हत्थप्पत्तम्मि फले रक्खग्गवलंबणं मुहेमादि । एतेणं पडिसिद्धं जं वइमेत्तं इमं ठवियं ॥११३२॥ (हस्तप्राप्ते फले वृक्षाग्रावलंबनं मुधेति । एतेन प्रतिषिद्धं यद् वाङ्गमात्रमेतत् स्थापितम् ॥ एतेन-अनन्तरोदितेन यदप्युक्तम्-'अक्षेपेण मुक्तिपदप्रसाधके सर्वसङ्गपरित्यागे शक्यक्रिये प्राप्ते सति को नाम पारंपर्येण मुक्तिपदप्रसाधकं वस्त्रादिपरिग्रहं कुर्यात् ? हस्तप्राप्ते हि फले वृक्षा(ग्रा)वलगनं मुधेति एवमादि, ++++++++++++++++ I-RIN२ - 242+++++++++++++++ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * ચારિત્રદ્વાર જ જ * तत्प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम् । यस्मादिदं सर्वं वाङ्मात्रं स्थापितं, निरतिशायिना वस्त्रपात्रादिकमन्तरेण चरणस्य प्रसाधयितुमशक्यत्वात्, यथाऽभिहितं प्राक् ॥११३२॥ ગાથાર્થ:-આમ ઉપરોક્તકથનથી દિગંબરો “સર્વસંગપરિત્યાગ શક્યક્રિયાવાળો છે (અર્થાત અશક્ય નથી.) અને એજ શીઘ મોક્ષપદનું પ્રસાધક છે, આવો સર્વસંગપરિત્યાગ પ્રાપ્ત થતો હોય, તો કોણ પરંપરાએ મોક્ષપદપ્રસાઘક વસ્ત્રાદિપરિગ્રહઅંગે પ્રયત્ન કરે? જો ફળ સીધું હાથવડે જ પ્રાપ્ત થતું હોય, તો વૃક્ષઉપર કોણ ચડે? અર્થાત કોઇ ન ચડે.' ઇત્યાદિ જે કહે છે, તે બધા વચનનો પ્રતિષેધ થાય છે. કેમકે આ બધું વચનમાત્રરૂપે જ નિશ્ચિત થાય છે. અતિશય વિનાના સાધુમાટે વસ્ત્ર–પાત્રઆદિ વિના ચારિત્રની પ્રસાધના અશક્ય બને છે તે અગાઉ કહ્યું જ છે. ૧૧૩રા દિગંબરોક્ત તુષદષ્ટાન વ્યર્થ अत्र पर आह - અહીં દિગંબર કહે છે. सिझंति ण तुससहिया साली मुग्गेहिं एत्थ वभिचारो । देहच्चागा मोक्खे असिलिटुं चेव नायव्वं ॥११३३॥ (सिध्यन्ति न तुषसहिताः शालयो मुद्वैरत्र व्यभिचारः । देहत्यागाद् मोक्षेऽश्लिष्टमेव ज्ञातव्यम् ॥) - न शालयस्तुषसहिताः सिद्ध्यन्ति तथा लोकानुभवसिद्धेः, एवं जन्तवोऽपि न वस्त्रपात्रादिपरिग्रहलक्षणतुषोपेताः सिद्ध्यन्तीति । अत्राह-'मुग्गेहिं एत्थ वभिचारो' तुषसहिता न सिद्ध्यन्तीति अत्र मुद्रैर्व्यभिचारः, ते हि तुषसहिता अपि सिद्ध्यन्तो दृष्टास्तद्वदिहापि केचिन्निरतिशायिनो वस्त्रपात्रादिपरिग्रहतुषोपेताः सेत्स्यन्तीति । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा वस्त्रपात्रादौ त्यक्ते सति स्वदेहः तेन त्यक्तः स्यात्, शीतादिवेदनातिशयपरिगतस्य तस्य विनाशसंभवात्, यथोक्तं प्राक्, तथा च सति स्वदेहपरित्यागमात्रान्मोक्ष इत्यभ्युपगतं स्यात्, स्वदेहत्यागमात्राच्च मोक्षेऽभ्युपगम्यमानेऽश्लिष्टमेव-असमंजसमेव ज्ञातव्यं, भैरवादिपतनकारिणामपि स्वदेहवैरिणां मोक्षप्रसक्तेः ॥११३३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપલા:- ફોતરાસહિત શાલી ચોખા સીઝતા નથી. તે લોકાનભવસિદ્ધ વાત છે. આ જ પ્રમાણે જીવો પણ વસ્ત્રપાત્રઆદિના પરિગ્રહરૂપ ફોતરાથી યુક્ત હોય, તો સિદ્ધ થતાં નથી. ઉત્તરપક્ષ:- “ફોતરા સહિત લેય, તે સીઝે નહીં' એવી વાતમાં મગથી વ્યભિચાર છે. મગ' કઠોળ ફોતરાસહિત પણ સીઝના દેખાય છે. તે જ પ્રમાણે અહીં પણ કેટલાક અતિશય વિનાના સાધુઓ વચ્ચપાત્રાદિના પરિગ્રહરૂપ ફોતરાથી યુક્ત હોય તો પણ સિદ્ધ થઇ શકશે. અને આ વાત આમ સ્વીકારવી જ જોઇએ. નહિતર વસ્ત્ર–પાત્રાદિ છોડનારે પોતાના શરીરનો ત્યાગ કર્યો છે, કેમકે શીતાદિ વેદનાની તીવ્રતાથી પીડિત તે શરીરનો વિનાશ થવા સંભવે છે. આ વાત પૂર્વે કરી જ છે. (અથવા મૂળગ્રંથનો અન્યથા વિચાર-વળી જે વસ્ત્રને ફોતરારૂપ ગણી મુક્તિમાં અવરોધક ગણશો, તો મોક્ષ આત્માનો છે, તેમાં વસ્ત્રની જેમ દેશો પણ અવરોધક-ફોતરારૂપ ગણાશે, એટલે દેહત્યાગનો પણ અવસર આવશે. ભલે દેહત્યાગનાશ થાય.. ખોટું શું છે? ઉલ્ટ આ તો વિશિષ્ટત્યાગ ગણાય. આવી આશંકાના સમાધાનમાં કહે છે...) જો આમ તો દેહત્યાગમાત્રથી મોક્ષ થશે, એમ સ્વીકારવાનું આવ્યું અને દેહના ભાગમાં મોક્ષ સ્વીકારવામાં અસમંજસતા ઊભી થશે. કેમકે ભૈરવાદિપતન કરનારાઓ (ભૈરવાદિના નામે કે સ્થાનથી અજ્ઞાનવશ ઝંઝાવાત કરી મોક્ષાદિમાટે સ્વદેહનો ત્યાગ કરનારાઓ) અને આમ પોતાના જ દેહના દુશ્મન બનેલાઓનો મોક્ષ માનવાનો પ્રસંગ આવશે-જે દિગંબરોને પણ ઇષ્ટ નથી. ૧૧૩૩ ગ ૨ - વળી, जियलज्जो णिगिणो किल इत्थीमादिसु मोहहेऊओ । एतंपि न जुत्तं चिय पाएण कयं पसंगेणं ॥११३४॥ (जितलज्जो नग्नः किल स्त्र्याषुि मोहहेतुकः । एतदपि न युक्तमेव प्रायः कृतं प्रसङ्गेन । ' जितलजः नग्नः किल स्त्र्यादि(षु) मोहहेतुर्भवति, ततश्चैतदपि प्रायो न युक्तमेवेति कृतं प्रसङ्गेन ॥११३४॥ ગાથાર્થ:- (ગા.૧૦૫૫ માં દિગંબરે એવો આક્ષેપ કરેલો કે નગ્નરહેવાથી સ્ત્રી વગેરેથી લજા થાય, માટે વસ્ત્ર સ્વીકારે છે, આ મુદાનો જવાબ પહેલા આપી દીધો. એમાં મોહ-લજજાને જીતેલો સાધુ તો કઘચ સ્વસ્થ રહ શકે, પણ મોહપર વશ સ્ત્રીવગેરેને સાધુની નગ્નદશા શું મોહ + + + + + + * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણ-ભાગ ૨ - 243 * * * * * * * * * * * * * * Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++ आरित्रात++++++++++++++++++ નીં ઉપજાવે?) જિતલજજ બનેલો તે નગ્ન સ્ત્રી વગેરેમાં મોહનો હેત બને છે. તેથી આ પણ પ્રાય: બરાબર નથી. તેથી આ બાબતની ચર્ચાથી સર્ય. ૧૧૩૪ રાત્રિભોજનત્યાગવતની સાર્થક્તા रात्रिभुक्तिविरतिलक्षणं षष्ठं मूलगुणमाश्रित्याह - હવે રાત્રિભોજનવિરતિરૂપ છઠ્ઠા મૂળગુણને આશ્રયી કહે છે रातीभोयणविरती दिट्ठादिट्ठप्फला सुहा चेव । दिट्ठमिह जरणमादी इतरं हिंसाणिवित्ती उ ॥११३५॥ (रात्रिभोजनविरति दृष्टादृष्टफला शुभैव । दृष्टमिह जरणादिकमितरत् हिंसानिवृत्तिस्तु ) .. रात्रिभोजनविरतिर्दृष्टादृष्टफला शुभैव ज्ञातव्या । तत्र दृष्टं फलं-भुक्ताहारजरणादिकमितरत्-अदृष्टं फलं हिंसानिवृत्तिः, तथाहि-रात्रिभोजने क्रियमाणे नियमतो हिंसा संपद्यते, तथा चागमः- “संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे ॥१॥ उदउल्लं बीयसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं । दिया ताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कहं चरे?, ॥२॥ इति" ॥ (छा. सन्तीमे सूक्ष्माः प्राणास्त्रसा यदिवा स्थावराः । यान् रात्रावपश्यन् कथमेषणां चरेत् ॥१॥ उदकार्टायां बीजसंसक्तायां (उदकाढू बीजसंसक्तं) प्राणा निपतिता मह्याम् । दिवा तान् विवर्जयेत् रत्रौ तत्र कथं चरेत् ॥२॥ ततो रात्रिभोजननिवृत्तौ हिंसानिवृत्तिर्भवतीति ॥११३५॥ ગાથાર્થ:- રાત્રિભોજનવિરતિ દષ્ટ–અષ્ટફળવાળી શુભ જ સમજવી. અહીં રાત્રિભોજન ત્યાગમાં આરોગેલા ભોજનનું જીર્ણ-પચન થવું એ દેટફળ છે. અને હિંસાનિવૃત્તિ અષ્ટફળ છે, કેમકે રાત્રિભોજન કરવાથી અવશ્ય હિંસા થાય છે. આગમ માં કહ્યું છે કે “આવા ત્રસ અથવા સ્થાવર સૂક્ષ્મજીવો હોય છે કે જેઓને રાત્રે નીં જઇ શકતો (સાધુ) કેવી રીતે એષણીય ગોચરી ચરે વાપરે?) અર્થાત ગોચરી એષણીય રહે નહીં (૧) પાણીથી આર્દ્ર અને બીજથી સંસક્ત તથા પૃથ્વી પર પડેલા જીવોની દિવસે તો જયણા થાય છે, વિવર્જન થાય-રાત્રે ત્યાં કેવી રીતે ગમન કરી શકે? (૨) તેથી રાત્રીભોજનના ત્યાગથી હિંસાની નિવૃત્તિ થાય છે. ૧૧૭પા व्याख्याता मूलगुणाः, संप्रति उत्तरगुणान् अधिकृत्याह - આમ મૂળગુણોની વ્યાખ્યા થઈ. હવે ઉત્તરગુણોને આશ્રયી કહે છે उत्तरगुणा उ चित्ता पिंडविसुद्धादिया पबंधेण (पवंचेण)। नेया सभेयलक्खण सोदाहरणा जहा सुत्ते ॥११३६॥ (उत्तरगुणास्तु चित्राः पिण्डविशुद्धयादयः प्रबन्धेन । ज्ञेयाः सभेदलक्षणाः सोदाहरणा यथा सूत्रे ) उत्तरगुणास्तु चित्राः पिण्डविशुद्धयादयः प्रपञ्चेन-विस्तरेण ज्ञेयाः, सभेदलक्षणाः सोदाहरणाश्च, यथा सूत्रे-आगमे, इह तु ग्रन्थगौरवभयानोच्यन्ते इति ॥११३६॥ ગાથાર્થ:- પિડવિશુદ્ધિવગેરે ઉત્તરગુણો અનેક પ્રકારે છે, તે આગમના અનુસારે ભેદ, લસણ અને ઉદાહરણ સહિત વિસ્તારથી સમજી લેવા. અહીં ગ્રન્થગૌરવ (ગ્રન્થ મોટો થઈ જવાના) ભયથી બતાવતા નથી. ૧૧૩૬u एष तावद्भावधर्मः संक्षेपेणोक्तो विस्तरतस्तु सूत्रतोऽवसेयस्तथाचाह - આમ ભાવધર્મ સંક્ષેપથી બતાવ્યો. વિસ્તારથી તો સૂત્રથી જ સમજી લેવો. તેથી જ કહે છે– एसो उ भावधम्मो भणिओ परमेहिं वीयरागेहिं । सव्वन्नूहिं सुत्ते पवंचतो सव्वदरिसीहिं ॥११३७॥ (एष तु भावधर्मो भणितः परमैर्वीतरागैः । सर्वज्ञैः सूत्रे प्रपञ्चतः सर्वदर्शिभिः ॥) एष तु भावधर्मः सूत्रे प्रपञ्चतो भणितः परमैर्वीतरागैः सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिस्ततस्तस्मादेव सूत्रात्प्रपञ्चेन ज्ञेय इति ॥११३७॥ ગાથાર્થ:- આ ભાવધર્મ પરમ વીતરાગ, સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી ભગવાને સૂત્રમાં વિસ્તારથી બતાવ્યો છે, તેથી તે સૂત્રથી જ વિસ્તારથી જાણી લેવો. ૧૧૩૭ ++++++++++++++++प -ला -244+++++++++++++++ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++वीद्वार++++++++++++++++++ વીતરાગતા અસંગત પૂર્વપક્ષ यदक्तं 'वीतरागैः सर्वज्ञै' रिति, तत्र परस्य चोद्यमपाकर्तुमुद्भावयन्नाह - આચાર્યએ વીતરાગ સર્વજ્ઞ' ઇત્યાદિ જે કહ્યું તે સાંભળી અકળાયેલો અવીતરાગ–અસર્વજ્ઞવાદી પ્રશ્ન ઉઠાવે છે. તેના પ્રશ્નનો જવાબ આપતા પહેલા તેની વાત રજુ કરે છે चोएति कहं रागादिदोसविरहो हविज्ज सत्तस्स ? । तद्धम्म च्चिय जम्हा अणादिमंता य ते तस्स ॥११३८॥ (चोदयति कथं रागादिदोषविरहो भवेत् सत्त्वस्य ? । तद्धर्मा एव यस्मादनादिमन्तश्च ते तस्य ॥) चोदयति परो यथा-कथं रागादिविरहः सत्त्वस्य भवेत् यद्वशाद्वीतरागता सर्वज्ञता वा भवेत् ? नैव भवेदितिभावः। कथं न भवेदित्यत आह -'तद्धम्म च्चिय जम्हा' यस्माद्रागादयो दोषास्तद्धा एव-आत्मधर्मा एव, यच्च तद्धर्मस्पं न तस्य निरन्वयो विनाशो, यथा-ज्ञानस्य, तद्धर्मभूताश्च रागादयो दोषास्तत्कथं तेषामभाव इति । द्वितीयं हेतुमाह - 'अणादिमंतो य ते तस्स' ते-रागादयो दोषास्तस्य-आत्मनोऽनादिमन्तो, यच्चानादिमन्न तन्निरन्वयविनाशि यथा आकाशम्, अनादिमन्तश्च रागादय इति न रागद्वेषमोहादिदोषाभावः ॥११३८॥ ગાથાર્થ:-પૂર્વપક્ષ:- જીવને રાગાદિનો વિરહ કેવી રીતે સંભવે કે જેના બળપર તે વીતરાગ કે સર્વજ્ઞ બને? અર્થાત જીવને રાગાદિનો વિરહ સંભવતો નથી. કેમ નથી સંભવતો? એવી શંકા ન કરવી. કેમકે રાગવગેરે દોષો જીવના જ ધર્મો છે. અને આત્મધર્મોનો નિરન્વય નાશ સંભવતો નથી જેમકે જ્ઞાનનો. આમ રાગાદિદોષો આત્મધર્મ હોવાથી તેમનો અભાવ સંભવે નહીં. અહીં બીજો હેતુ પણ બતાવે છે... રાગાદિદોષો આત્માપર અનાદિકાળથી રહ્યા છે. જે અનાદિમાન શ્રેય, તેનો નિરન્વય નાશ ન હોય, જેમકે આકાશ. રાગાદિદોષો પણ અનાદિથી છે, તેથી રાગ, દ્વેષ અને મોહવગેરે દોષોનો નાશ સંભવે નહીં ૧૧૩૮ अपिच, . पणी धम्मा य धम्मिणो किं भिन्नाऽभिन्न त्ति ? पढमपक्खम्मि । सव्वेवि वीयरागा सत्ता को तम्मि उ विसेसो ? ॥११३९॥ (धर्माश्च धर्मिणः किं भिन्ना अभिन्ना इति? प्रथमपक्षे । सर्वेऽपि वीतरागांः सत्त्वाः कस्तस्मिंस्तु विशेषः ?॥) धाश्च धर्मिणः सकाशात् किं भिन्ना वा स्युरभिन्ना वेति पक्षद्वयम् । तत्र प्रथमपक्षे-भेदलक्षणेऽभ्युपगम्यमाने सति सर्वेऽपि सत्त्वा वीतरागा एव प्राप्नुवन्ति, रागादिभ्यो भिन्नत्वात्, विवक्षितपुरुषवत् । ततश्च को नाम तस्मिन् विवक्षिते वर्द्धमानस्वाम्यादौ विशेषः ? येन तद्वच एव प्रमाणं स्यात् न रथ्यापुरुषादिवचोऽपीति ॥११३९॥ ગાથાર્થ:- ધર્મો ધર્માથી ભિન્ન છે કે અભિનં? એમ બે વિકલ્પ છે. તેમાં ભેદરૂપ પ્રથમપક્ષ સ્વીકારવામાં બધા જ જીવો વીતરાગ થવાનો પ્રસંગ છે, કેમકે બધા જ જીવો રાગાદિથી ભિન્ન છે. જેમકે વિવલિત ( વીતરાગતરીકે કલ્પિત) પુરુષ. તેથી વર્ધમાન સ્વામી આદિ તે વિવક્ષિત પુરુષમાં શું વિશેષ છે? કે જેથી તેમનું જ વચન પ્રમાણ બને, નહીં કે શેરીમાં રખડતા પુરુષઆદિનું પણ વચન? અર્થાત તેવો કોઇ વિશેષ રહેતો નથી. ૧૧૩૯ द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह - બીજા પક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે. तव्विरहम्मि अभावो पावइ सत्तस्स बितियपक्खम्मि । को व सस्वावगमे भावो तस्स ? त्ति वत्तव्वं ॥११४०॥ (तद्विरहेऽभावः प्राप्नोति सत्त्वस्य द्वितीयपक्षे । को वा स्वरूपापगमे भावस्तस्येति वक्तव्यम् ॥) द्वितीयपक्षे-अभेदलक्षणेऽभ्युपगम्यमाने सति तद्विरहे-प्रतिपक्षभावनावशेन रागाद्यभावे सत्त्वस्याप्यभावः तदभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । एतदेव स्पष्टयति-'को वेत्यादि' रागादयो हि तदभिन्नत्वादात्मस्वरूप, स्वरूपापगमे च तस्य आत्मनः को वाऽन्यो भावः-सत्ता स्यादिति वक्तव्यं ? नैव कश्चित्स्यादितिभावः ॥११४०॥ + + + + + + + + + + + + ++ + + ele-ला१२-245+++++++++++++++ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++वीतरागद्वार++++++++++++++++++ ગાથાર્થ:-અભેદરૂપ બીજે ૫ક્ષ સ્વીકારવામાં પ્રતિપક્ષભાવના(વૈરાગ્યાદિજનકભાવના) કારણે રાગાદિના નાશમાં જીવના પણ અભાવનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. કેમકે રાગાદિ જીવથી જીવના સ્વરૂપની જેમ અભિન્ન છે. આ જ વાત સ્પષ્ટ કરે છે -રાગવગેરે જીવથી અભિન્ન જીવસ્વરૂપ છે, અને સ્વરૂપના નાશમાં આત્માનો અન્ય કયો ભાવ હોઈ શકે? અર્થાત કોઈ ભાવ ન હોઈ શકે. ૧૧૪ના तदेवं स्वरूपतो वीतरागत्वाभावमुपदर्य सांप्रतं प्रमाणाभावतस्तमुपदर्शयन्नाह - આમ સ્વરૂપથી વીતરાગતાનો અભાવ બતાવ્યો. હવે પ્રમાણાભાવથી વીતરાગતાનો અભાવ બતાવે છે. अन्नं च नज्जइ कहं जह एसो रागदोसरहितो त्ति ? । चेट्ठाओ चेव मती तन्नो पडिबंधऽभावातो ॥११४१॥ (अन्यच्च ज्ञायते कथं यथा एष रागद्वेषरहित इति । चेष्टात एव मतिस्तन्न प्रतिबन्धाभावात् ॥ अन्यच्च कथमिदं ज्ञायते यथा-एषः-परिदृश्यमानः पुरुषो रागादिदोषरहित इति ? नैव कथमपि, प्रमाणाभावादितिभावः । अथ स्यान्मतिः- चेष्टात एव वीतराग इति ज्ञायते । तत्राह- 'तन्नो' इत्यादि, यदेतदुक्तं तन्न । कुत इत्याह'प्रतिबन्धाभावात्' वीतरागत्वेन सह चेष्टायाः प्रतिबन्धनियमाभावात् । न च प्रतिबन्धमन्तरेणान्यदर्शने अन्यकल्पना युक्ता, मा प्रापदतिप्रसङ्ग इति ॥११४१॥ ગાથાર્થ:- વળી, આ કેવી રીતે જાણી શકાય કે “આ દેખાતો માણસ રાગદ્વેષઆદિ દોષોથી રહિત છે?” અર્થાત પ્રમાણનો અભાવ હોવાથી આમ જરા પણ જાણી શકાતું નથી. શંકા:- એ પુરૂષની ચેષ્ટાથી જ ખબર પડી જાય કે વીતરાગ છે. સમાધાન:- આ કથન બરાબર નથી. કેમકે વીતરાગતાને ચેષ્ટા સાથે વ્યાપ્તિનો કોઇ નિયમ નથી. અને વ્યાપ્તિ વિના એકના દર્શનથી બીજાની કલ્પના કરવી બરાબર નથી. કેમકે તેમાં અતિપ્રસંગ આવવાનો દોષ છે. ૧૧૪૧ प्रतिबन्धाभावमेव स्पष्टतरमुपदर्शयति - હવે વ્યાપ્તિનો અભાવ જ વધુ સ્પષ્ટરૂપે બતાવે છે – लद्धादिनिमित्तं जं चिटुं दरिसिंति वीतराग व्व । मुद्धजणविम्हयकरिं हंदि सराग च्चिय मणूसा ॥११४२॥ (लब्ध्यादिनिमित्तं यच्चेष्टां दृश्यन्ते (दर्शयन्ति) वीतरागा इव । मुग्धजनविस्मयकरौं हंदि सरागा एव मनुष्याः । 'लब्ध्यादिनिमित्तं' लब्धिप्रशंसादिनिमित्तं सरागा अपि सन्तो मनुष्या 'हंदीति' परामन्त्रणे, वीतरागा इव चेष्टां कायवाक्कमवृत्तिलक्षणां मुग्धजनविस्मयकरौं कुर्वन्तो दृश्यन्ते, तन्न वीतरागत्वेन सह चेष्टायाः प्रतिबन्धसिद्धिः ॥११४२॥ ગાથાર્થ:- લબ્ધિ, પ્રશંસાદિપ્રયોજનથી રાગયુક્ત પણ મનુષ્યો વીતરાગ જેવી શારીરિક, વાચિક, કાર્મિક વૃત્તિરૂપ અને મુગ્ધજીવોને વિસ્મય કરનારી ચેષ્ટાઓ કરતાં દેખાય છે. (અથવા ચેષ્ટાઓ દેખાડે છે. તેથી વીતરાગતાસાથે ચેષ્ટાની વ્યાપ્તિ સિદ્ધ નથી. ૧૧૪૨ स्यादेतत्-मा भूत् चेष्टामात्रस्य वीतरागत्वेन सह प्रतिबन्धश्चेष्टाविशेषस्य तु भविष्यतीति तत आहश:- येण्टामात्रने (ये सामान्यन) वातासाथे व्याप्ति मत नहो..... ये विशेषने तो अवश्य थे. અહીં સમાધાનમાં કહે છે ? ण य वीयरायचेट्ठा विसेसतो (वीयरागस्स सओ चेट्ठा सा पाठा.) वीय(त पा.)रागपडिबद्धा। अविणाभावग्गहणाभावा सिद्धा दुवेण्हं पि ॥११४३॥ (न च वीतरागचेष्टा विशेषतो वीतरागप्रतिबद्धा । अविनाभावग्रहणाभावात् सिद्धा द्वयोरपि ॥) न च - नैव विशेषतो-विशेषरूपेण विशिष्टरूपापीतियावत् वीतरागस्य सतो या चेष्टा सा वीतरागप्रतिबद्धा द्वयोरप्यावयोः सिद्धा । कुत इत्याह-अविनाभावग्रहणाभावात् ॥११४३॥ ગાથાર્થ:-વીતરાગ થયેલાની વિશેષરૂપથી-વિશિષ્ટરૂપ પણ જે ચેષ્ટા છે, તે વીતરાગને પ્રતિબદ્ધ છે. (અર્થાત વીતરાગમાત્રમાં જ હેય) તે આપણને બન્નેને (=અસર્વજ્ઞ–સર્વજ્ઞવાદીને) સિદ્ધ નથી, કેમકે એવો અવિનાભાવ ગ્રહણ થતો નથી. ઘ૧૧૪૩ + + + + + + ++ + + + + + + + + ee- .-246+++++ + + + + + + + ++ + Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** वीवार++++++++++++++++++ अविनाभावग्रहणाभावमेव भावयति - હવે એ વાદી અવિનાભાવના ગ્રહણનો અભાવ જ ભાવિત કરે છે! जम्हा रागाभावो इच्छिज्जति आयधम्म एवेह । .. सो किं पच्चक्खेणं घेप्पइ सव्वेण वि ण तेण ॥११४४॥ (यस्माद् रागाभाव इष्यते आत्मधर्म एवेह । स किं प्रत्यक्षेण गृह्यते सर्वेणापि न तेन ॥ यस्मादिह रागाभाव उपलक्षणमयं ततोऽयमर्थः-रागद्वेषादिदोषसमूहाभाव इष्यते आत्मधर्म एव, भावान्तरभाव एव पालोत्पाद एव घटविनाश इति। यद्येवं ततः किमित्याह- 'सो इत्यादि' सः-रागाभावः किं प्रत्यक्षेण गृह्यते अनुमानेन वा? न तावत्प्रत्यक्षेण, यत आह- 'सव्वेण वि न तेण त्ति' तेन प्रत्यक्षेण सर्वेणापि नेत्रोद्भवादिभेदभिन्नेन न गृह्यते, आत्मनोऽतीन्द्रियत्वेन तद्धर्मस्याप्यतीन्द्रियत्वात् । नाप्यनमानेनानवस्थाप्रसक्ते तथाहि-तदपि लिङ्गस्य साध्याविनाभावग्रहणे . सति प्रवर्तते, ततस्तत्रापि लिङ्गस्य साध्याविनाभावग्रहणमनुमानान्तरात्कर्त्तव्यं तत्राप्यनुमानान्तरादित्यनवस्था ॥११४४ ।। ગાથાર્થ:- અહીં રાગાભાવ(ઉપલક્ષણથી રાગ, દ્વેષઆદિ દોષોના સમૂહનો અભાવ) જ આત્મધર્મ તરીકે ઇષ્ટ છે. કેમકે ભાવાન્તરનો ભાવ-ભાવાત્તરની ઉત્પત્તિ જ પૂર્વભાવના અભાવ છે. જેમકે કપાલનો ઉત્પાદ જ ઘટવિનાશરૂપ છે. આ વાતનું અહીં શું પ્રયોજન છે? તે બતાવે છે - આ રાગાભાવ પ્રત્યક્ષથી ગ્રાહ્ય છે કે અનુમાનથી? પ્રત્યક્ષથી તો શક્ય જ નથી, કેમકે ચાક્ષુષાદિ(આંખથી થતું પ્રત્યક્ષ ચાક્ષુષપ્રત્યક્ષ છે, આદિપદથી શ્રાવણપ્રત્યક્ષાદિ સમજવાના.) બધા પ્રકારના પ્રત્યક્ષોથી રાગાભાવ ગ્રાહ્ય નથી, કેમકે આત્મા અતીન્દ્રિય હોવાથી આત્માના ધર્મો પણ અતીન્દ્રિય છે. અનુમાનથી પણ રાગાભાવ ગ્રાહ્ય નથી, કેમકે ત્યાં અનવસ્થાનો પ્રસંગ છે. તે આ પ્રમાણે- અનુમાન પણ “લિંગ સાધ્યને અવિનાભાવી છે એવો નિશ્ચય થયા પછી જ પ્રવર્તે છે. તેથી અહીં *લિંગ સાધ્યને અવિનાભાવી છે તેવો નિર્ણય પણ બીજા અનુમાનથી કરવો પડશે. (કેમકે આ અતીન્દ્રિયવિષયમાં પ્રત્યક્ષે તો પોતાની અશક્તિ જાહેર કરી દીધી છે.) એ બીજા અનુમાનમાં પણ લિંગના સાધ્યાવિનાભાવનો નિર્ણય વળી બીજા અનુમાનથી કરવાનો રહેશે. આમ અનવસ્થાદોષ ઊભો થશે. ૧૧૪૪ अग्गहितम्मि य तम्मि अविणाभावग्गहो कहं होज्जा ?। अब्भुवगमम्मि य तहा अइप्पसंगादसारमिणं ॥११४५॥ (अगृहीते च तस्मिन् अविनाभावग्रहः कथं भवेत् । अभ्युपगमे च तथाऽतिप्रसंगादसारमिदम् ॥) 'अगृहीते च तस्मिन्-आत्मधर्मरूपे रागाद्यभावे कथं तेन सह चेष्टाया अविनाभावग्रहो भवेत् ? नैव भवेदितिभावः। अगृहीतेऽपि च रागाद्यभावे तेन सहाविनाभावग्रहणस्याभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गो-यस्य कस्यचित् येन तेन वा सहाविनाभावग्रहणप्रसक्तेः । तस्मात् यदुच्यते चेष्टाविशेषाद्वीतरागत्वनिश्चितिरिति तदसमीचीन मवसेयम् ॥११४५॥ ગાથાર્થ:-અને જયાં સુધી રાગાદિઅભાવ આત્મધર્મરૂપે નિશ્ચિત ન થાય ત્યાં સુધી તેની(=રાગાધેભાવની) સાથે ચેષ્ટાના અવિનાભાવનો નિર્ણય શી રીતે થશે? અર્થાત ન જ થાય. અને રાગાદિઅભાવનો નિર્ણય કર્યા વિના જ તેની (રાગાધભાવની સાથે અવિનાભાવનો નિર્ણય સ્વીકારી લેવામાં અતિપ્રસંગ છે. કેમકે જેનો તેનો જે-તેસાથે અવિનાભાવ નિશ્ચિત થવાનો પ્રસંગ છે. તેથી ચેષ્ટાવિશેષથી વીતરાગતાનો નિશ્ચય થાય' એવું કથન અયોગ્ય છે. ૧૧૪પા સર્વજ્ઞતા અસંભવિત-પૂર્વપક્ષ तदेवं वीतरागत्वं निराकृत्य संप्रति सर्वज्ञत्वं निराकर्वन्नाह - આમ વીતરાગતાનું નિરાકરણ કર્યું. હવે સર્વજ્ઞતાનું નિરાકરણ કરતાં કહે છે. सव्वं च जाणइ कहं ? किं पच्चक्खेणुदाहु सव्वेहिं ? । पच्चक्खमादिएहिं माणेहि दुहावि णणु दोसो ॥११४६॥ (सर्वं च जानाति कथम् ? किं प्रत्यक्षेणोत सर्वैः ? । प्रत्यक्षादिभिर्मानैः, द्विधापि ननु दोषः ॥) सर्वं हि वस्तु जानातीति सर्वज्ञः, सर्वं च जानाति किं प्रत्यक्षेण ? उत सर्वैरेव प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः? किंचात इत्याह-द्विधापि पक्षद्वयेऽपि नन् दोषः ॥११४६॥ ગાથાર્થ:- સર્વ વસ્તુને જાણે તે સર્વજ્ઞ. આ કલ્પિત સર્વજ્ઞ બધી વસ્તુને પ્રત્યક્ષથી જાણે છે કે પ્રત્યક્ષાદિ બધા પ્રમાણથી જાણે છે? આ બન્ને પક્ષે દોષ રહ્યા છે. ૧૧૪દા ++++++++++++++++ A-लाग२- 247+++++++++++++++ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************सर्वसिदि + ++ + + + ++ + + + + +++++ પ્રત્યક્ષથી સર્વજ્ઞતાની અસિદ્ધિ तत्र प्रथमपक्षमधिकृत्य दोषमाह - તેમાં પ્રથમ પક્ષને આશ્રયી દોષ બતાવે છે. भिनिंदियावसेओ (आ) स्वादी सुहमववहितादी य । कहमवगच्छति सव्वे जुगवं नेत्तादिणेक्केण ? ॥११४७॥ (भिन्नेन्द्रियावसेया रूपादयः सूक्ष्मव्यवहितादयश्च । कथमवगच्छति सर्वान् युगपद् नेत्रादिनैकेन ॥ भिन्नेन्द्रियावसेया रूपादयो-रूपरसगन्धस्पर्शाः सूक्ष्मा व्यवहिताश्च, अत्रादिशब्दादत्यासन्नामूर्तादयो गृह्यन्ते, ततश्च तान् सर्वानपि रूपादीन् युगपदेकेन नेत्रादिना-नेत्रोद्भवादिना प्रत्यक्षेण कथमवगच्छति ? नैव कथंचनेतिभावः । तस्य भिन्नेन्द्रियावसेये सूक्ष्मादौ च प्रवृत्त्ययोगात् ॥११४७॥ ગાથાર્થ:- રૂપવગેરે-વગેરેથી રસ, ગન્ધ અને સ્પર્શ ભિન્ન અલગ-અલગ ઇન્દ્રિયના વિષય છે- અલગ અલગ ઈન્દ્રિયોથી જ્ઞાત થાય છે. વળી તેઓ સૂક્ષ્મ, વ્યવધાનવાળા અને આદિશબ્દથી અતિસમીપ તથા અમૂર્નાદિ છે. તેથી આ રૂપવગેરે બધાનો એકસાથે ચાક્ષુષાદિ એક જ પ્રત્યક્ષથી કેવી રીતે બોધ કરી શકે? કોઈ પણ હિસાબે ન જ કરી શકે. કેમકે ચાક્ષુષાદિ પ્રત્યક્ષ અલગ અલગ ઇન્દ્રિયગમ્યવિષયોનો તથા સૂક્ષ્મ અને વ્યવહિતાદિવિષયોનો બોધ કરવા સમર્થ નથી. ૧૧૪૭ના अथ - वे अन्नं अतिंदियं से पच्चक्खं तेण जाणई सव्वं ।। तब्भावम्मि पमाणाऽभावा सद्धेयमेवेयं ॥११४८॥ (अन्यदतीन्द्रियं तस्य प्रत्यक्षं तेन जानाति सर्वम् । तद्भावे प्रमाणाऽभावात् श्रद्धेयमेवैतत् ॥) अन्यत्-ऐन्द्रियप्रत्यक्षादितरत् अतीन्द्रियं प्रत्यक्षं 'से' तस्य सर्वज्ञस्य विद्यते तेन सर्वं जानाति ततो न कश्चिद्दोष इत्यत्राह - 'सद्धेयमेवेयमिति' इदम्-अतीन्द्रियं प्रत्यक्षं श्रद्धेयमेव-श्रद्धामात्रगम्यमेव । कुत इत्याह- तद्भावेअतीन्द्रियप्रत्यक्षभावे प्रमाणाभावात् । न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयव्यवस्था, सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसक्तेः ॥११४८॥ ગાથાર્થ:- તમે “સર્વશને ઍન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી ભિન્ન અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ હોય છે. આ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી સર્વજ્ઞ બધું જાણે છે. તેથી કોઈ દોષ નથી' એમ કહેશો, તો તમારું આ કથન કે “સર્વજ્ઞને અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ હોય છે. માત્ર શ્રદ્ધાગમ જ બની રહેશે, કેમકે તેવા અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ હોવામાં કોઇ પ્રમાણ નથી. અને પ્રમાણ વિના પ્રમેયનો નિર્ણય ન થઈ શકે, અન્યથા બધા જ પોતપોતાના ઈષ્ટની સિદ્ધિ કરશે, એવો પ્રસંગ છે. ૧૧૪૮ अत्रैवाभ्युच्चयेनाह - હવે આ વિષયમાં અમ્યુચ્ચય કરતાં કહે છે सति तम्मि सव्वमेतावदेव तस्सऽत्तनिच्छओ किह णु ? । सिद्धं अतिंदियं पि हु ओहादि ण सव्वविसयं ते ॥११४९॥ (सति तस्मिन् सर्वमेतावदेव तस्यात्मनिश्चयः कथं नु ?। सिद्धमतीन्द्रियमपि हु अवध्यादि न सर्वविषयं ते " अत्र लुप्तोऽपिशब्दो दृष्टव्यः सत्यपीति । नास्त्येव तावदतीन्द्रियं प्रत्यक्षं तद्ग्राहकप्रमाणाभावात्, सत्यपि तस्मिन् सर्वमेतावदेवेति तस्य सर्वज्ञस्यात्मनिश्चयः कथं नूपजायते ? नैव जायते इति भावः । कुत इत्याह-'हः' यस्मादर्थे यस्मादतीन्द्रियमपि प्रत्यक्षमवध्यादि न सर्वविषयं - न सर्ववस्तुगोचरं 'ते' तव रा(सिद्धान्ते सिद्धम् ॥११४९॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં “અપિ' શબ્દ અધ્યાહારથી સમજવો.) અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષગ્રાહક પ્રમાણ ન હોવાથી એવું પ્રત્યક્ષ જ નથી. છતાં પણ માની લઇએ કે અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ છે, તો પણ તે સર્વજ્ઞને પોતાને એવો નિશ્ચય શી રીતે થયો કે “આ દુનિયામાં બધું મળીને આટલું જ છે, જે મને મારા અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષમાં દેખાય છે. અર્થાત સર્વને આવો નિશ્ચય થઈ શકે નહીં, કેમકે તમારા સિદ્ધાન્તમાં જ “અવધિવગેરે અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ સર્વવસ્તુવિષયક નથી' એમ સિદ્ધ થયેલું છે. ઘ૧૧૪લા ++++++++++++++++दर्भसंजलि - २-248+ ++ + + + ++ + + + ++ ++ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++सर्वसिलि + ++ + + + + + + ++ + + + + + + + ततः किमित्याह - तथा शुच्यु? तेवी शंना समाधानमा छ. जह सव्वमुत्तविसयंपि ओहिनाणं न धम्ममादीणं ।। गाहयमिय केवलमवि अन्नेसिमगाहगं किण्णो ? ॥११५०॥ (यथा सर्वमूर्तविषयमपि अवधिज्ञानं न धर्मादीनाम् । ग्राहकमिति केवलमपि अन्येषामग्राहकं किन्न ? . यथा सर्वमूर्तविषयमप्यवधिज्ञानं न धर्मादीनां-धर्मास्तिकायादीनां ग्राहकमितिः-एवं केवलमपि-केवलज्ञानमपि अन्येषां केषांचिद्वस्तूनामग्राहकमिति किन्न संदेहो जायते? जायत एवेति भावः, तन्निवृत्तिनिबन्धनाभावात् ॥११५०॥ ગાથાર્થ:- જેમ અવધિજ્ઞાન સર્વ મૂર્તવસ્તુઓને વિષય બનાવતું હોવા છતાં ધર્માસ્તિકાયાદિનું ગ્રાહક નથી. એમ કેવળજ્ઞાન પણ અન્ય કેટલીક વસ્તુનું ગ્રાહક નથી (બધી જ વસ્તુનું ગ્રાહક નથી) એવો સંદેહ કેમ ન થાય? અર્થાત થઇ શકે છે, કેમકે એવા સંદેહને દૂર કરનાર કારણનો અભાવ છે. ૧૧૫ના અનુપલબ્ધિહેતુ અપ્રમાણભૂત अत्राचार्याभिप्रायमाशङ्कते - અહીં આચાર્યના અભિપ્રાયની આશંકા કરે છે सव्वविसयं ति माणं किमेत्थ जं णोवलब्भती अन्नं । ओहीएँ अणुवलद्धेहिँ धम्ममादीहिँ वभिचारो ॥११५१॥ (सर्वविषयमिति मानं किमत्र यन्नोपलभ्यतेऽन्यत् । अवधिनाऽनुपलब्धै धर्मादिभिर्व्यभिचारः ॥ यस्मादिदं केवलज्ञानं सर्वविषयं तत् कथमन्येषामपि केषांचिद्वस्तूनामिदमग्राहकमिति संदेह उपजायते इति । अत्राह 'माणं किमेत्थत्ति' सर्वविषयं केवलज्ञानमित्यत्र किं मानं? नैव किंचिदिति भावस्ततो वाङ्मात्रमेतत् । अत्राचार्योत्तरमपाकर्तुमाह- 'जन्नोवलब्भइ अन्नं ति' यस्मादन्यन्नोपलभ्यते तस्माज्ज्ञायते सर्वविषयमिदं केवलज्ञानमिति । अत्राह-'ओहीए' इत्यादि, अवधिनाऽनुपलब्धैर्धर्मादिभिर्व्यभिचारः । इदमुक्तं भवति-→यथा अवधिज्ञाने प्रादुर्भवति सति यस्मादन्यन्नोपलभ्यते तत इदं सर्वविषयमिति निश्चेतुं न शक्यते, तदनुपलब्धानामपि धर्मास्तिकायादीनां भावात्, एवं केवलज्ञानेऽपि न सर्ववस्तुविषयताविषयो निश्चयः कर्तुं शक्यते इति ॥११५१॥ ગાથાર્થ:- આચાર્ય:- આ કેવળજ્ઞાન સર્વવરસ્તવિષયક છે, તેથી તે અન્ય કેટલીક વસ્તુનું ગ્રાહક નથી, એવો સંદેહ શી રીતે થાય? અર્થાત ન જ થાય. પૂર્વપલા:- કેવંળજ્ઞાન સર્વવસ્તુવિષયક છે.' તેમ માનવામાં પ્રમાણ શું છે? અર્થાત કોઇ પ્રમાણ ન હોવાથી આ वयनमात्र छ. અહીં આચાર્યના ઉત્તરનો નિષેધ કરવા આચાર્યનો ઉત્તર બતાવે છે આચાર્ય:- કેવળજ્ઞાનથી અનુપલબ્ધ –ની જ્ઞાત થતી) એવી અન્ય કોઈ વસ્તુ ઉપલબ્ધ થતી નથી. તેથી કેવળજ્ઞાન સર્વવસ્તીવિષયક છે. પૂર્વપક્ષ:- અવધિજ્ઞાનથી જ્ઞાત નહીં થતા ધર્માદિથી અહીં અનેકાંત છે. તાત્પર્ય:- અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયા પછી, એ અવધિજ્ઞાનથી બીજી અરૂપી દ્રવ્યો ઉપલબ્ધ થતાં નથી, પણ તેટલામાત્રથી કઈ અવધિજ્ઞાન સર્વજ્ઞયવિષયક છે એવો નિર્ણય કરી શકાતો નથી. કેમકે અવધિજ્ઞાનથી અનુપલબ્ધ એવા ધર્માસ્તિકાયાદિદ્રવ્યોનું અસ્તિત્વ તમને માન્ય છે જ. (આમ અવધિજ્ઞાનીને અવધિજ્ઞાનથી ઉપલબ્ધ દ્રવ્યોને છોડી અન્ય દ્રવ્યો ઉપલબ્ધ થતાં ન હોવા છતાં જેમ અતીન્દ્રિયઅવધિજ્ઞાન સર્વવસ્તુવિષયક નથી, તેમ કેવળજ્ઞાનીને કેવળજ્ઞાનથી ઉપલબ્ધ થતાં દ્રવ્યોને છોડી અન્ય દ્રવ્યો ઉપલબ્ધ થતાં નથી. પણ તેથી કેવળજ્ઞાનને સર્વવસ્તુવિષયક માની લેવાય નહીં. કેમકે તેનાથી અનુપલબ્ધ પદાર્થો પણ જગતમાં હોઈ શકે છે, કેમ કે એ અન્ય પદાર્થોના અભાવનું જ્ઞાપક કોઈ પ્રમાણ નથી.) ૧૧૫૧ उपसंहरति - હવે ઉપસંહાર કરે છે. जम्हा पच्चक्खेणं ण सव्वस्वावि (दि) जाणणं जुत्तं । सव्वन्नुनिच्छओ अत्तणो य तम्हाऽसपक्खोऽयं ॥११५२॥ (यस्मात् प्रत्यक्षेण न सर्वरूपादिज्ञानं युक्तम् । सर्वज्ञनिश्चय आत्मनि यस्तस्मादसत्पक्षोऽयम् II) ++++++++++++++++ ale- २ - 249 + + + + + + + + + + + + + + + Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++सर्वसिदि * ** * * * * * * * * ** ++++ यस्मादुक्तप्रकारेण न प्रत्यक्षेण सर्वरूपादिज्ञानं युक्तं, तस्मात् योऽयमात्मनि सर्वज्ञत्वनिश्चयो 'यथाहं सर्वज्ञ' इति सोऽसत्पक्ष इति स्थितम् ॥११५२॥ ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્ત મુજબ પ્રત્યક્ષથી રૂપાદિ સર્વવિષયોનું જ્ઞાન યોગ્ય નથી. તેથી જે આ આત્મામાં સર્વજ્ઞતાનો નિશ્ચય છે કે હું સર્વજ્ઞ છું તે અસત્પલ અયોગ્ય છે. તેમ નિર્ણય થાય છે. ૧૧૫રા પ્રત્યક્ષાદિ પ્રમાણો અસમર્થ द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह - હવે બીજા પક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે पच्चक्खमाइएहिं जाणइ सव्वेहिमह मतं ते तु ।। आगमकयस्समो णणु को वा एवं न सव्वन्नू ? ॥११५३॥ (प्रत्यक्षादिभिर्जानाति सर्वैरथ मतं ते तु । आगमकृतश्रमो ननु को वा एवं न सर्वज्ञः ?॥) अथ मतं ते तव, तुः पूरणे, प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः सर्वैः सर्वं वस्तु जानातीति । अत्राह-'आगमेत्यादि' नन्वेवं सति आगमविषयकृतश्रमः सन् को वा सर्वज्ञो न भवेत् ? सर्व एव कृतागमश्रमः सन् सर्वज्ञ इतियावत्, आगमस्य प्रायः सर्वार्थविषयत्वात्, तथाच सति कस्तस्मिन् विवक्षितपुरुष वर्द्धमानस्वाम्यादौ विशेषः? येन स एव प्रमाणमिष्यते न जैमिनिरिति ॥११५३॥ यार्थ:- (भगमा ५२॥र्थ छ.) वे तभारी मतोय प्रत्यक्ष प्रभाएगोथीत (स)ी १२४ જાણે છે. તો તે બરાબર નથી. કેમકે આમ તો આગમજ્ઞાનવિષયક પરિશ્રમ કરનાર કોણ સર્વજ્ઞ બની ન શકે? અર્થાત આગમમાં પરિશ્રમ કરનારા બધા જ સર્વજ્ઞ બની જાય, કેમકે આગમ પ્રાય: સર્વવસ્તુવિષયક હોય છે, તેથી વર્તમાન સ્વામી આદિ વિવક્ષિત પુરુષમાં એવી કઈ વિશેષતા રહેશે કે જેથી તે (વર્તમાનસ્વામી)જ પ્રમાણ તરીકે ઈષ્ટ બને અને જૈમિનિ જેવા બીજા નહીં ૧૧૫ડા સર્વવિષયક પ્રમાણાભાવ तदेवं स्वरूपतः सर्वज्ञत्वमपाकृत्य सांप्रतं तद्विषयप्रमाणाभावतस्तदपाकर्तुमाह - આમ સ્વરૂપથી સર્વજ્ઞતાનો નિષેધ કર્યો. હવે સર્વજ્ઞવિષયક પ્રમાણનો અભાવ હોવાથી સર્વજ્ઞતાનો અભાવ બતાવે છે अन्नं च नजइ ततो केण पमाणेण सव्वणाणि त्ति? । णो पच्चक्खेणं जं परविन्नाणं न पच्चक्खं ॥११५४॥ (अन्यच्च ज्ञायते सकः केन प्रमाणेन सर्वज्ञानीति (सर्वज्ञ इति) । न प्रत्यक्षेण यत् परविज्ञानं न प्रत्यक्षम् ) . . अन्यच्च 'तओत्ति' सको विवक्षितः पुरुषः सर्वं जानातीति सर्वज्ञ इति केन प्रमाणेन ज्ञायते? किं प्रत्यक्षेणानुमानेनागमेन वा ? न तावत् प्रत्यक्षेण यत्-यस्मात्परविज्ञानं न प्रत्यक्षं-न प्रत्यक्षस्य विषयोऽतीन्द्रियत्वात्, तत्कथं प्रत्यक्षेणायं सर्वज्ञ इति ज्ञायते ॥११५४॥ ગાથાર્થ:- વળી, ‘તે વિવલિતપુરુષ સર્વજ્ઞ છે” એવી પ્રતીતિ કયા પ્રમાણથી થશે? પ્રત્યક્ષથી, અનુમાનથી કે આગમથી? તેમાં પ્રત્યક્ષ તો સંભવે નહીં, કેમકે બીજાનું વિજ્ઞાન (જ્ઞાન) અતીન્દ્રિય હોવાથી પ્રત્યક્ષનો વિષય બને નહીં. તો પ્રત્યક્ષથી આ સર્વજ્ઞ છે એવો નિર્ણય કેવી રીતે થાય? ૧૧૫૪ अनुमानमधिकृत्याह - હવે અનુમાનને ઉદ્દેશી કહે છે– अणुमाणेणावि कहं गम्मति पच्चक्खपुव्वगं जेण । तल्लिंगलिंगिसंबंधगहणतो चेव गमगं ति ॥११५५॥ (अनुमानेनापि कथं गम्यते प्रत्यक्षपूर्वकं येन । तल्लिंग-लिंगिसम्बन्धग्रहणादेव गमकमिति ॥ अनुमानेनापि कथं गम्यते ? यथायं सर्वज्ञानीति, नैव गम्यत इतिभावः । कुत इत्याह-येन कारणेन तदनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं प्रवर्तते । एतदपि कथमवसीयत इति चेत् ? अत आह 'तल्लिंगेत्यादि' यस्मात्तदनुमानं लिङ्गलिङ्गिसंबन्धग्रहणत एव ++++++++++++++++ संxse-ला -250+++++++++++++++ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વત્ર સિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * गमकं नान्यथा, लिङ्गलिङ्गिसंबन्धग्रहणं च प्रत्यक्षत एवाभ्युपगन्तव्यं नानुमानतोऽनवस्थाप्रसक्तेरतः प्रत्यक्षपूर्वकमेवानुमानमिति ॥ ११५५॥ ગાથાર્થ – અનુમાનથી પણ કેવી રીતે જાણી શકાય કે “આ સર્વજ્ઞ છે? અર્થાત ન જ જાણી શકાય. કેમકે તે અનુમાન પણ પ્રત્યક્ષપૂર્વક જ પ્રવૃત્ત થાય છે. “આવો નિર્ણય શી રીતે થયો તેવી શંકાનો જવાબ આ છે - આ અનુમાન હંમેશા લિંગ અને લિંગીના સંબંધનો બોધ થવા પૂર્વક જ નિર્ણાયક બને છે, અન્યથા નહીં, અને લિંગ-લિંગીના સંબંધનો બોધ પ્રત્યક્ષથી જ સ્વીકર્તવ્ય છે. અનુમાનથી માનવામાં અનવસ્થાદોષ આવે છે. (અનુમાનમાં કારણભૂત લિંગલિંગીસંબંધનો નિર્ણય જે અનુમાનથી થાય, તે અનુમાનમાં કારણભૂત લિંગ-લિંગીનો નિર્ણય કયા પ્રમાણથી? પ્રત્યક્ષથી માનવામાં પૂર્વોક્ત દોષ. અનુમાનથી માનવામાં ફરી નવા અનુમાનની કલ્પના..એમ અનવસ્થા આવે.) માટે અનુમાન પ્રત્યક્ષપૂર્વક જ હોય .૧૧પપા अस्तु प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं ततः को दोष इति चेत् उच्यतेશંકા- પ્રત્યક્ષપૂર્વક અનુમાન ભલે હો! તેથી શો દોષ આવશે? અહીં સમાધાનમાં કહે છે તો પેમ્પફ નોમ ઝૂનારૂ निच्चपरोक्खत्तणओ लिंगेवि अतो च्चियानियमो ॥११५६॥ . (न च प्रत्यक्षेण सको गृह्यते लोकेऽन्यज्ञानस्य । नित्यपरोक्षत्वाद् लिङ्गेऽपि अत एवानियमः ॥ न च प्रत्यक्षेण 'तओ त्ति' सको लिङ्गलिङ्गिसंबन्धो गृह्यते । कुत इत्याह-लोकेऽन्यज्ञानस्य नित्यपरोक्षत्वात्, तथा च तस्मिन्नगृहीते कथं तेन सहाविनाभावहेतोः संबन्धस्य लिङ्गे निश्चयः? 'अतो च्चिय त्ति' अत एव च संबन्धग्रहणाभावादेव लिङ्गेऽपि लिङ्गत्वेनानियमः, 'तस्येदमेव लिङ्गमेतदेव वेति' नियमनिश्चयाभावः। तत्कथमनुमानेनापि सर्वज्ञ इति ज्ञायते ॥११५६॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- તે લિંગ-લિંગીનો સમ્બન્ધ પ્રત્યક્ષથી પણ ગ્રહણ થતો નથી. કેમકે લોકમાં અન્ય જ્ઞાન (=અન્યનું જ્ઞાન) નિત્ય પરોક્ષ છે. (અર્થાત એક વ્યક્તિ માટે બીજી વ્યક્તિનું જ્ઞાન કયારેય પ્રત્યક્ષનો વિષય બનતું નથી.) આમ તે જ્ઞાનના ગ્રહણ વિના કેવી રીતે તેની સાથેના અવિનાભાવહેતરૂપે સંબંધનો નિર્ણય લિંગમાં થઇ શકે? (જૈનમતે અનુમાનગત સાધ્ય પોતાના હેતની હાજરીમાટે અવિનાભાવરૂપ હેતુ-કારણ છે, એટલે કે સાધ્ય વિના હેત ન જ હોય. પ્રસ્તુતમાં અન્યગતસર્વજ્ઞતા સાધ્ય છે. આ સાધ્ય અવિનાભાવે કોનો હેત બને છે? તેનો નિર્ણય થાય, તો એ જે હોય, તે પોતાના અસ્તિત્વમાં કારણભૂત સાધ્યની હજરીનું અનુમાન કરાવે. આ માટે સાધ્યનું અને સાધ્યને અવિનાભૂત એવા હેતનું પ્રત્યક્ષદર્શન થવું જરૂરી છે. અને એ બેવચ્ચે આવા સંબંધનો નિર્ણય થવો જોઈએ. પરંતુ સાધ્યમાં (અન્યગત સર્વજ્ઞતા) પ્રત્યક્ષ થવાની યોગ્યતા જ નથી. એટલે અવિનાભાવ સબન્ધ ગ્રહણ જ શી રીતે થશે? એટલે એ સાધ્ય માટે જેને પણ લિંગ માનીએ તેનામાટે શંકા ઉદ્ભવે જ, કે આ એ સાધ્ય સાથે અવિનાભાવ ધરાવે છે કે નહીં? કે અન્ય અવિનાભાવ ધરાવે છે? આમ સમ્બન્ધનો નિર્ણય ન થવાથી લિંગમાં પણ લિંગતાનો નિયમ થાય નહીં દા.ત. ‘તેનું આ જ લિંગ છે, અથવા પેલું જ છે આવા નિયમનો નિશ્ચય થાય નહીં.આમ અનુમાનથી પણ સર્વજ્ઞ છે તેવો નિર્ણય નહી થાય.) ૧૧૫દા आगममधिकृत्याह - હવે આગમને ઉદ્દેશી કહે છે गम्मइ न यागमातो जं पुरिसकतो स होज्ज निच्चो वा ? । पुरिसकओ चिय सव्वन्नुरत्थपुरिसेहिँ भइयव्वो ॥११५७॥ (गम्यते न चागमाद्यत् पुरुषकृतः स भवेद् नित्यो वा ? । पुरुषकृत एव सर्वज्ञरथ्यापुरुषाभ्यां भक्तव्यः॥) न चागामात् प्रमाणादयं सर्वज्ञानीति गम्यते यस्मात्स आगमः किं पुरुषकृतः-पौरुषेयो भवेत् नित्यो वा ? पुरुषकृतोऽपि च सर्वज्ञकृतो वा स्यात् रथ्यापुरुषकृतो वा? ॥११५७॥ ગાથાર્થ:-આગમપ્રમાણથી પણ “આ સર્વજ્ઞાની છે તેવો નિર્ણય થઈ શકે તેમ નથી. બોલો આ આગમ પક્ષકૃત પૌરુષેય છે કે નિત્ય છે? જો પુરુષકત હોય, તો તેમાં પણ સર્વજ્ઞ અને રખડુ માણસથી–શેરીના સામાન્ય માણસથી ભજના : વિકલ્પ છે. અર્થાત જે આગમ પુરુષકત હોય, તો તે આગમ બનાવનાર પક્ષ કોણ છે? સર્વજ્ઞ છે કે સામાન્ય માણસ? a૧૧૫૭ વિ વાતઃઆ વિકલ્પોથી શું? તે બતાવે છે * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 251 + + * * * * * * * * * * * * * Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + + ++++++++++++++++ जइ सव्वन्नुकओ सो तदसिद्धो हंदि । तस्स कह सिद्धी ? । इतरेतरासयो इह दोसो अनिवारणिज्जो तु ॥११५८॥ (यदि सर्वज्ञकृतः स तदसिद्धो हंदि ! तस्य कथं सिद्धिः? । इतरेतराश्रय इह दोषोऽनिवारणीयस्तु ॥ यदि स-आगमः सर्वज्ञकृतोऽभ्युपगम्यते तर्हि 'हंदीति' आमन्त्रणे तदसिद्धौ-सर्वज्ञासिद्धौ तस्य-सर्वज्ञकृतस्यागमस्या, कथं सिद्धिः स्यात् ? नैव कथंचनापीति भावः । अपि चैवं अभ्युपगम्यमाने सति इहेतरेतराश्रयदोषोऽनिवारणीयः प्राप्नोति। तथाहि- सर्वज्ञसिद्धौ तत्कृतागमसिद्धिस्तत्सिद्धौ च सर्वज्ञसिद्धिरिति ॥११५८॥ ગાથાર્થ:- જો તે આગમ સર્વજ્ઞએ રચ્યા છે એમ સ્વીકારશો તો (“હદિ આમંત્રણ માટે છે.) સર્વજ્ઞની અસિમિા ! તે સર્વશકિત આગમની સિદ્ધિ કેવી રીતે થશે? અર્થાત કોઈ રીતે ન થાય? વળી આવા અભ્યપગમમાં ઇતરેતરાશ્રયદોષ પણ અનિવારણીય છે. તથાતિ- સર્વજ્ઞ સિદ્ધ થાય, તો તેણે રચેલા આગમ સિદ્ધ થાય. અને તે આગમ સિદ્ધ થાય, તે તેના પ્રમાણબળપર સર્વજ્ઞ સિદ્ધ થાય. ૧૧૫૮ द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह - બીજા પક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે अह रत्थापुरिसकओ ण पमाणं रेवणाइकव्वं व । अपमाणाओ य तओ तदवगमो सव्वधाऽजुत्तो ॥११५९॥' (अथ रथ्यापुरुषकृतो न प्रमाणं रेवणादिकाव्यमिव । अप्रमाणाच्च तस्मात्तदवगमः सर्वथाऽयुक्तः ॥) अथ रथ्यापुरुषकृतः स आगम इति पक्षस्तर्हि न प्रमाणं रेवणादिकृतकाव्यमिव । अप्रमाणाच्च तस्मात् र कृतादागमा त्तदवगमः-सर्वज्ञावगमः सर्वथाऽयुक्तःअप्रमाणस्य प्रमेयसियनङ्गत्वादन्यथा अप्रमाणत्वायोगात् ॥११५९॥ ગાથાર્થ:- હવે “શેરીના સામાન્ય માણસે આગમ બનાવ્યા છે તેવો બીજો પક્ષ લેશો તો તે આગમ રેવણાદિ રે વન રે મેધ! ઈત્યાદિ કવિકલ્પનામય કાવ્યો અથવા રેવણ કોક વ્યક્તિવિશેષ કે જેણે અત્યંત સાધારણકોટિના કાવ્ય બનાવ્યા હોય (-આ મત પાઈયા સદમહણાવોમાં છે.) કાવ્યોની જેમ પ્રમાણભૂત નહીં બને. અને સામાન્ય માણસકૃત અપ્રમાણભૂત આગમથી સર્વજ્ઞનો નિર્ણય કરવો અત્યંત અયોગ્ય છે. કેમકે અપ્રમાણ પ્રમેયની સિદ્ધિનું અંગ કારણ બને નહીં, જો અંગ બને તો તે અપ્રમાણભૂત રહે જ નહીં. ૧૧૫લા अह निच्चो सव्वन्नू उसहो एमादि अथवायो उ । अह णो अणिच्चमेसो कित्तिमभावाभिहाणाओ ॥११६०॥ (अथ नित्यः सर्वज्ञ ऋषभ एवमादि अर्थवादस्तु । अथ न अनित्य एष कृत्रिमभावाभिधानात् ॥) . अथ न स आगमः पुरुषकृतः किंतु नित्यो, नन्वेवं तर्हि ऋषभः सर्वज्ञो वर्द्धमानस्वामी वेत्येवमादि अर्थवाद एवं प्राप्नोति, तुरेवकारार्थः, नित्यस्यागमस्यानित्येन वस्तुना सह संबन्धाभावात् । तदपेक्षया तस्याप्रवृत्तेः, ऋषभादयो ह्यधुनातनकल्पभाविन आगमश्च तेभ्योऽपि प्राग्भावी, नित्यत्वाभ्युपगमात्, तत्कथं तदपेक्षया तस्य प्रवृत्तिः ? अथ ऋषभः सर्वज्ञ इत्येवमादि अर्थवादो नाभ्युपगम्यते तर्हि अनित्य एवासावागमः प्राप्नोति । कुत इत्याह - 'कृत्रिमभावाभिधानात्' अनित्यऋषभादिपदार्थाभिधानात्, तद्भावमपेक्ष्य हि तस्य वृत्तिरन्यथा संबन्धाभावेन तदभिधानानुपपत्तेः ॥११६०॥ ગાથાર્થ:- હવે જો “આગમ પુરુષકૃત નથી પણ નિત્ય છે તેમ સ્વીકારશો, તો ઋષભ સર્વજ્ઞ હતા. વર્ધમાન સર્વજ્ઞ હતા.' ઇત્યાદિવાતો માત્ર અર્થવાદરૂપ જ સિદ્ધ થશે... આગમથી પ્રમાણભૂત નહીં બને. (અર્થવાદક લાગણીથી કે લાગણી ઊભી કરવા, મહિમા વધારવા વગેરે હેતુથી બોલાતા લોકવાયકા કિંવદંતિ કે કહેવતાધિરૂપ પારિભાષિકવચનો. મૂળમાં “તુ પદ જકારાર્થક છે.)કેમકે નિત્ય આગમનો અનિત્ય વસ્તુની સાથે સંબંધ સંભવતો નથી. કેમકે અનિત્ય વસ્તુની અપેક્ષાએ નિત્યાગમની પ્રવૃત્તિ હોતી નથી. ઋષભવગેરે તો વર્તમાનક૫માં થયેલા છે, જયારે આગમ તો તેઓથી પણ પૂર્વના છે. કેમકે નિત્યતરીકે ઇષ્ટ છે. તેથી આગમની ઋષભાદિની અપેક્ષાએ પ્રવૃત્તિ-ઋષભાદિની સર્વજ્ઞતાસંબંધી વચનપ્રવૃત્તિ સંભવે નહીં. હવે જો તમે ઋષભાદિ સર્વજ્ઞ હતા' એવો અર્થવાદ સ્વીકારશો નહીં, પણ આગમથી જ સિદ્ધ માનશો, તો આગમને અનિચ્છાએ પણ અનિત્ય માનવો પડશે, કેમકે આગમ કુત્રિમ ઋષભાદિ અનિત્યપદાર્થોનું અભિધાન કરે છે. વર્ણન કરે છે. + + + + + + + + + + + + + + + + Alilei-MI 2 - 252 + ++++++++++++++ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++सर्वसिदि++++++++++++++++++ સહુજ છે કે જયારે આગમ વ્યક્તિનું નિરૂપણ કરે ત્યારે તેના અનિત્યાદિભાવોને અપેક્ષીને જ કરે. નહીંતર તો એ નિરૂપણને અનુરૂપ સંબંધ ન થવાથી તેનું નિરુપણ જ અનુપન્ન થાય.. ૧૧૬૦ अपि च, qणी, निच्चे य तम्मि सिद्धे तत्तो च्चिय धम्ममादिसिद्धीओ । सव्वन्नुकप्पणावि हु अपमाणा निप्फला चेव ॥११६१॥ (नित्ये च तस्मिन् सिद्धे तत एव धर्मादिसिद्धेः । सर्वज्ञकल्पनापि हु अप्रमाणा निष्फला एव ) नित्ये च तस्मिन्-आगमे सिद्धे सति तत एव-आगमात् धर्मादिसिद्धेः- धर्माधर्मव्यवस्थासिद्धेः सर्वज्ञकल्पना 'हु' निश्चितमुक्तेन प्रकारेणाप्रमाणा क्रियमाणा निष्फलैवेति ॥११६१॥ . ગાથાર્થ:- જો, તે આગમનિત્ય તરીકે સિદ્ધ થાય, તો તે આગમથી જ ધર્મ-અધર્મનો નિર્ણય સિદ્ધ થાય છે. તેથી અવશ્ય ઉપરોક્ત પ્રકારે અપ્રમાણભૂત સર્વજ્ઞની કરાતી કલ્પના નિષ્ફળ જ છે. ૧૧૬૧ तदेवं सर्वज्ञत्वसिद्धिनिबन्धनप्रमाणाभावमुपदर्य सांप्रतं तत्प्रतिषेधकं प्रमाणमाह - આ પ્રમાણે સર્વજ્ઞતાની સિદ્ધિમાં કારણભૂત પ્રમાણનો અભાવ બતાવ્યો. હવે સર્વજ્ઞતાપ્રતિષેધક પ્રમાણ બતાવે છે पडिसेहगं च माणं सोऽसव्वन्नुत्ति णो पइन्नाओ । पुरिसादित्ता हेऊ दिद्रुतो देवदत्तो व्व ॥११६२॥ .. (प्रतिषेधकं च मानं सोऽसर्वज्ञ इति नः प्रतिज्ञा । पुरुषादित्वाद् हेतुः दृष्टान्तो देवदत्त इव ॥) प्रतिषेधकं च मान-प्रमाणं सर्वज्ञस्य विद्यते, तद्यथा-स:-विवक्षितो वर्द्धमानस्वाम्यादिरसर्वज्ञ इति (नः) प्रतिज्ञा, पुरुषादित्वात्, आदिशब्दाद्वक्तृत्वपरिग्रह इति हेतुः, देवदत्त (इव) इति दृष्टान्तः, एष पूर्वपक्षः ॥११६२।। यार्थ:- सर्वशनु प्रतिषेधप्रभाग २ छे. ते ॥→ त- विक्षत वर्षमानस्वाभीवरे (a) अस छ (साध्य) या समारी प्रतिan (=URमा साध्यनो निश) छ. म त (मानव२) पुरुषमा छ. (हिथी पत्रे 52 छ.) अर्थात पाछे... त्यादि)सात छ. म १६त. आटान्त छ. ॥ ५५ थयो. ११९२ પ્રતિપક્ષભાવથી હ્રાસ-ક્ષયસિદ્ધિ ઉત્તરપલ अत्राचार्य आह - હવે અસર્વજ્ઞતાસાધક આ વિસ્તૃત પૂર્વપક્ષને મુદાસર પછાડવા આચાર્યવર કહે છે ... जइ णाम जीवधम्मा अणादिमंतो य एत्थ रागादी । संभवइ तहवि विरहो इह कत्थइ हासभावाओ ॥११६३॥ (यदि नाम जीवधर्मा अनादिमन्तश्चात्र रागादयः । संभवति तथापि विरह इह कुत्रचिद् हासभावात् ॥) पडिवक्खभावणाओ अणुहवसिद्धो य हासभावो सिं । ' थीविग्गहादितत्तं भावयतो होइ भव्वस्स ॥११६४॥ (प्रतिपक्षभावनातोऽनुभवसिद्धश्च हासभाव एषाम् । स्त्रीविग्रहादितत्त्वं भावयतो भवति भव्यस्य ॥) यदि नामात्र-जगति रागादयो दोषा जीवधर्मा अनादिमन्तश्च तथापि तेषां विरहः-सर्वथापगमः संभवति । कुत इत्याह-इह प्रतिपक्षभावानातः कुत्रचित् विरक्तचेतसि पुंसि तेषां रागादीनां हासभावात्-क्षयभावदर्शनात् । न च वाच्यमसौ हासभावोऽसिद्ध इति, यत आह-अनुभवसिद्धश्च एषां-रागादिदोषाणां हासभावः, यतः स्त्रीविग्रहादितत्त्वं- स्त्रीकलेवरादियाथात्म्यं भावयतः कस्यचित् भव्यसत्त्वस्य रागादिहासभावो भवत्येव, तथानुभवभावात् ॥११६३-११६४॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જો આ જગતમાં રાગવગેરે દોષો જીવના ધર્મ હોય અને અનાદિકાલીન હોય, તો પણ તેઓનો (રાગવગેરેનો) સર્વથા નાશ સંભવે છે. કેવી રીતે? જુઓ આ રીતે...આ જગતમાં પ્રતિપક્ષભાવનાથી કો'ક વિરક્તચિત્તવાળા પુરુષમાં તે રાગાદિષોનો ક્ષયભાવ દેખાય છે. એમ ન કહેશો કે આ બ્રાસ-ક્ષયભાવ અસિદ્ધ છે.” કેમકે આ લ્હાસભાવ ++++++++++++++++ CE-MIN२-253+++++++++++++++ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सर्वसिद्धि * ** * * * * * * ** * * ** *** અનુભવસિદ્ધ છે. સ્ત્રીશરીરઆદિના યથાર્થ સ્વરૂપનું ભાવન કરતા ભવ્યજીવને રાગાદિદોષોનો છૂાસભાવ થાય છે જ. કેમકે તેવો અનુભવ થાય છે. ૧૧૬૩/૧૧૬૪ अत्र पर आह - અહીં પૂર્વપલ પૂછે છે जइ नाम हासभावो सव्वाभावम्मि तेसि को हेऊ ? । पडिवक्खभावण च्चिय सम्मं अद्धाविसेसेणं ॥११६५॥ (यदि नाम हासभावः सर्वाभावे तेषां को हेतुः ?। प्रतिपक्षभावनैव सम्यगद्धाविशेषेण ॥) यदि नाम प्रतिपक्षभावनावशात् रागादीनां हासभावस्तथापि तेषां-रागादीनां निःशेषतोऽपगमे को हेतः? इति वाच्यं अत्राचार्य आह-प्रतिपक्षभावनैव सम्यक् क्रियमाणा अद्धाविशेषेण ॥११६५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આમ પ્રતિપક્ષભાવનાથી જો રાગાદિનો છૂાસભાવ સંભવતો હોય, તો પણ રાગાદિના સર્વથા નાશમાં કોણ હેત છે? તે તો બતાવવું જ પડશે. ઉત્તરપક:- કાળવિશેષથી સમભાવન કરાતી પ્રતિપક્ષભાવના જ રાગાદિના સર્વથાનાશમાં પણ હેતુ છે. ૧૧૬પા किमत्र प्रमाणमिति चेत् ? उच्यते - 'म प्रभारी शुछ?' को मेम पूछता तो ॥ प्रभा। छ. → देसक्खयोऽत्थ जेसिं दीसइ सव्वक्खयोऽवि तेसिं तु । तद्धेतुपगरिसातो कंचणमलरोगमादीणं ॥११६६॥ (देशक्षयोऽत्र येषां दृश्यते सर्वक्षयोऽपि तेषां तु । तद्धेतुप्रकर्षतः कंचनमलरोगादीनाम् ॥) देशक्षयः अत्र-जगति येषां भावानां दृश्यते तेषां सर्वक्षयोऽपि भवति, तद्धेतुप्रकर्षत:-क्षयहेतुप्रकर्षतः सकाशात, यथा काञ्चनमलरोगादीनाम् । काञ्चनमलादीनां हि क्षारमृत्पुटपाकादिसामग्रीसंपर्कतो देशक्षयदर्शनानन्तरं तत्सामग्रीपरि फर्षवशात सर्वात्मनापि क्षयो दष्टस्तद्वद्रागादीनामपीति । प्रयोगश्चायम्-ये यदुपधानापकर्षिणस्ते तदत्यन्तवृद्धौ तदभिभवान्निरन्वयविनाशधर्माणो, यथा-क्षारमृत्पुटपाकाद्युपधानात्काञ्चनमलरोगादयः, प्रतिपक्षभावनावशादपकर्षिणश्च रागादय इति ॥ ११६६॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં જે ભાવોનો દેશલય દેખાય છે, તેઓનો સર્વક્ષય-સર્વથા નાશ પણ થાય છે. અને તેમાં તે ક્ષયના હેતનો પ્રકર્ષ જ ભાગ ભજવે છે. અહીં સોનાનો મળ અને રોગવગેરે દષ્ટાન છે. ક્ષાર, મૃત્યુટપાક (કમાટીના કોડીયામાં રાખી પકાવવાનું) વગેરે સામગ્રીના સંપર્કથી મળનો દેશય (આંશિક ક્ષય) દેખાયા પછી તે જ સામગ્રીના પરિપાકના પ્રકર્ષથી સંપૂર્ણતયા ક્ષય પણ દેખાય છે. તે જ પ્રમાણે રાગવગેરે માટે પણ સંભવે છે. અનુમાનપ્રયોગ – જે વસ્તુઓ જે વસ્તુનો સંસર્ગથી અપકર્ષભાવ પામે, તે વસ્તુની અત્યન્તવૃદ્ધિમાં તેનાથી અભિભવ પામીને તે વસ્તુ નિરન્વયનાશ પામવાના સ્વભાવવાળી હોય છે. જેમકે ક્ષાર, મૂત્યુટપાકાદિના સંસર્ગથી સોનાનો મેળ, રોગાદિ. આ જ પ્રમાણે પ્રતિપક્ષભાવનાથી રાગાદિઓ અપકર્ષ પામે છે. તેથી તે ભાવનાના પ્રકર્ષથી રાગાદિ નાશ પામવાના સ્વભાવવાળા છે.) ૧૧૬૬ાા ભાવક-ભાવ્ય-ભાવનાનું સ્વરૂપ प्रतिपक्षभावनातो रागादिक्षय इत्युक्तं अतस्तस्या एव प्रतिपक्षभावनाया योग्यो यो भवति तमुपदर्शयन्नाह - પ્રતિપક્ષભાવનાથી રાગાદિષય' એમ કહ્યું, તેથી હવે એ પ્રતિપક્ષભાવનાને યોગ્ય વ્યક્તિનું ઉપદર્શન કરાવતાં કહે छ.→ नाणी तवम्मि निरओ चारित्ती भावणाएँ जोगो त्ति । सा पुण विचित्तरूवावस्थाभेदेण निद्दिठ्ठा ॥११६७॥ (ज्ञानी तपसि निरतश्चारित्री भावनाया योग्य इति । सा पुन विचित्ररूपावस्थाभेदेन निर्दिष्टा ॥). ज्ञानी-हेयोपादेयवस्तुयाथात्म्यावगमवान्, तपसि-बाह्यान्तरभेदभिन्ने यथाशक्ति निरतः-आसक्तः, चारित्रीसदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलिङ्गगम्यशुभपरिणामविशेषवान, एष इत्थंभूतो रागादिप्रतिपक्षभावनाया योग्यो भवति, नान्यः, तस्य ++++++++++++++++ BH-02-254+++++++++++++++ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܘ यथाभावन(न)प्रवृत्त्ययोगतस्तस्या मिथ्यारूपत्वात् । सा पुनर्भावना विचित्ररूपाऽवस्थाभेदेन- अप्रमत्तगुणस्थानकाद्यारोहणक्रमेणानेकावस्थाभेदेन निर्दिष्टा-कथिता तीर्थकरगणधरैरिति ॥११६७॥ ગાથાર્થ:-(૧) જ્ઞાની... હેયોપાદેયવસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપનું જ્ઞાતા. (૨) તપસ્વીઝ બાહ્યાભ્યતરભેદવાળા તપમાં યથા શક્તિ આસક્ત-ઉદ્યમશીલ. (૩)ચારિત્રી- સક્રિયામાં પ્રવૃત્તિ અને અસહિયામાંથી નિવૃત્તિરૂપ લિંગથી જણાતા શુભપરિણામ વિશેષવાળો. આવા પ્રકારનો આત્મા રાગાદિની પ્રતિપક્ષભાવનાને યોગ્ય બને છે, અન્ય નહીં, કેમકે તે અન્યની ભાવનામાં યથાભાવન(અનુરૂપભાવના)રૂપ પ્રવૃત્તિ ન લેવાથી તેની ભાવના મિથ્યારૂપ હેય છે. આ રાગાદિપ્રતિપક્ષભાવના અપ્રમત્તગુણસ્થાનકઆદિ ગુણસ્થાનકોના આરોહણના ક્રમે અનેક અવસ્થાઓના ભેદથી વિચિત્રરૂપ છે તેમ તીર્થકર–ગણધરોએ કહ્યું છે. ૧૧૬૭ तदेवं भावनायोग्यं भावनाभेदांश्चाभिधाय सांप्रतं यद्भावयति तद्दर्शयति - આમ ભાવનાયોગ્ય વ્યક્તિનું અને ભાવનાઓમાં ભેદોનું નિરૂપણ કર્યું. હવે ભાવનામાં જે ભાવન કરાય છે, તે બતાવે छ" भावेइ य दोसाणं निदाणमेसो तहा सरूवं च । विसयं फलं च सम्मं एवं च विरज्जई तेसुं ॥११६८॥ . (भावयति च दोषाणां निदानमेष तथा स्वरूपं च । विषयं फलं च सम्यग् एवं च विरज्यते तेषु ॥) . भावयति च सम्यगेष-भावको दोषाणां-रागादीनां निदानं तथा स्वरूपं विषयं फलं च प्रतिकलमवदातबुद्धिर्भावयन् तेषु दोषेषु विरज्यते-विरक्तो भवति ॥११६८॥ ગાથાર્થ:- આ ભાવક રાગાદિદોષોના નિદાન( કારણ) સ્વરૂપ, વિષય અને ફળનું સમ્યભાવન કરે છે. અને પ્રતિપળ એવું ભાવન કરતો પ્રશસ્ય બુદ્ધિવાળો તે ભાવક તે દોષો પર વૈરાગ્ય પામે છે. વિરક્ત થાય છે. ૧૧૬તા નિદાન-વિષયાદિભાવનાનું સ્વરૂપ तत्र यथा दोषाणां निदानं भाव्यं तथा दर्शयन्नाह - દોષોનું નિદાન–કારણ કેવી રીતે ભાવવું? તે બતાવે છે. जं कुत्सि(च्छि)याणुजोगो पयइविसुद्धस्स चेव जीवस्स । एतेसिमो णिदाणं बुहाण न य सुंदरं एयं ॥११६९॥ a (यत्कुत्सिताणुयोगः प्रकृतिविशुद्धस्यैव जीवस्य । एतेषां निदानं बुधानां न च सुंदरमेतत् ॥ - यत्-यस्मादेतेषां रागादिदोषाणां निदानं-कारणं प्रकृतिविशुद्धस्यैव सतो जीवस्य कुत्सिताणुयोगः- कुत्सितकाशसंबन्धस्तस्मात्, न च-नैव बुधानाम्-अवगतवस्तुतत्त्वानां सुन्दरमेतन्निदानमुपेक्षितुमिति गम्यते ॥११६९॥ ગાથાર્થ:- પ્રકૃતિ સ્વભાવથી વિશુદ્ધ જીવનો દુષ્ટ કર્માશો સાથેનો સમ્બન્ધ જ રાગાદિદોષોનું કારણ છે. તેથી વસ્તતત્વના જ્ઞાતા પ્રાજ્ઞ પુરુષોએ આ કારણની ઉપેક્ષા કરવી સારી નથી. (મૂળકારનો આશય- આ નિદાનભૂત દુષ્ટકર્મચસાથે સમ્બન્ધ જ અસુન્દર छ. यो वारे छ.) ॥११६८॥ रूवंपि संकिलेसोभिस्संगापीतिमादिलिंगो उ । परमसहपच्चणीओ एयंपि असोहणं चेव ॥११७०॥ (रूपमपि संक्लेशोऽभिष्वंगाप्रीत्यादिलिङ्गस्तु । परमसुखप्रत्यनीक एतदपि अशोभनमेव ) रूपमपि-स्वरूपमपि यस्माद्रागादिदोषाणां संक्लेश एवाभिष्वङ्गाप्रीत्यादिलिङ्गः, तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च स च यथास्थानं योजितः,परमसुखप्रत्यनीक:-परमानन्दरूपप्रशमसुखप्रत्यनीकस्तस्मादेतदपि स्वरूपमशोभनमेवेति ॥११७०॥ ગાથાર્થ:- રાગાદિદોષોનું સ્વરૂપ પણ સંકલેશ જ છે. આ સંકલેશના આસક્તિ અને અપ્રીતિ-ઈત્યાદિ લિંગ છે. (રાગાત્મક સંક્લેશનું લિંગ આસક્તિ છે, અને દ્રષદોષના સ્વરૂપભૂત સંક્લેશનું લિંગ અપ્રીતિ છે.) “'પદ જકારાર્થક છે. આ સંક્લેશ પરમાનંદરૂપ પ્રશમસુખનો વિરોધી છે. તેથી આ સ્વરૂપ પણ અશુભ જ છે. પ૧૧૭ના विषयभावनामाह - હવે વિષયભાવનાનું સ્વરૂપ બતાવે છે - ++++++++++++++++ ixeशि - 02-255+++++++++++++++ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* ***********सर्व सिबि + ++ + + + + + + ++ + ++ ++++ विसओ य भंगुरो खलु गुणरहितो तह य तहऽतहास्वो । संपत्तिनिप्फलो केवलं तु मूलं अणत्थाणं ॥११७१॥ (विषयश्च भङ्गुरः खलु गुणरहितस्तथा च तथाऽतथारूपः । संप्राप्तिनिष्फलः केवलं तु मूलमनानाम् ॥) विषयश्च-रागादिदोषाणां स्त्र्यादियौवनादिकः खलु-निश्चितं भङ्गुरः क्षणदृष्टनष्टस्वरूपस्तथा गुणरहितो- रागवत्समारोपितमनोज्ञत्वादिगुणविरहितस्तथाच तथातथारूपो (तथाच तथारूपो पाठा.) मनोज्ञामनोज्ञस्वरूपः, तथाहि-य एव विषयो रागवेदनीयोदयवशादभीष्टः प्रतिभात आसीत्स एवेदानों बुभुक्षादिवेदनीयाक्रान्तमनसोऽनभीष्टः प्रतिभाति। तदुक्तम्- "तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किंचिदिष्टं वा ॥१॥” इति, 'संपत्तिनिष्फलोत्ति' संप्राप्तिरिह परत्र च श्रेयोहेतुत्वमधिकृत्य निष्फला यस्य स तथाभूतः, केवलं मूलमेव-कारणमेवानर्थानाम्, तदुक्तम्-“रागद्वेषोपहतस्य केवलं कर्मबन्ध एवास्य । नान्यः स्वल्पोऽपि गुणोऽस्ति यः परत्रेह च श्रेयान् ॥१॥" इति ॥११७१ ॥ पार्थ:-Aulatषोना स्त्रीमासिने यौन qि५५ (१)१५ म२-A8-2-एन-2-२१३५वाणो छ. तथा (२) ગુણરહિત છે રાગી વ્યક્તિએ પોતાની કલ્પનાના રંગથી સમારોપિત કરેલા કલ્પેલા મનોજ્ઞાદિ ગુણોથી રહિત છે. તથા (૩) તથાઅતથારૂપ મનોજ્ઞ–અમનોજ્ઞસ્વરૂપવાળા છે. તે આ પ્રમાણે રાગવેદનીયકર્મના ઉદયથી જે વિષય પહેલા અભીષ્ટ લાગતો હતો, તે જ વિષય હવે બુભૂલાદિવેદનીયથી આક્રાન્તમનવાળા જીવને અનભીષ્ટઅપસંદ લાગે છે. કહ્યું જ છે કેતે જ અર્થો વિષયો) ને દ્વેષ કરતા અને તે જ વિષયોમાં રાગથી લીન થતાં જીવન નિશ્ચયથી કશું જ અનિષ્ટ કે ઈષ્ટરૂપે વર્તતું નથી. લાલા (અર્થાત કોઈ વસ્તુ કાયમમાટે ઇષ્ટ કે અનિષ્ટરૂપે રહેતી નથી.) તથા (૪) એ વિષયોની સંપ્રાપ્તિ વર્તમાનમાં અને પરલોકમાં શ્રેયસ્કરરૂપે તદ્દન નિષ્ફળ જ છે. અને (૫) માત્ર અનર્થોનું જ મૂળ છે. કહ્યું જ છે કે “રાગ-દ્વેષથી પીડાયેલા આ જીવને માત્ર કર્મબન્ધ જ થાય છે. આલોક અને પરલોકમાટે અન્ય કોઈ પ્રકારનો શ્રેયોભૂત ગુણ અતિસૂક્ષ્મરૂપે પણ થતો નથીના૧૧૭૧ जम्मजरामरणादी विचित्तरूवो फलं त संसारो । बहजणणिव्वेदकरो एसोऽवितहाविहो चेव ॥११७२॥ (जन्मजरामरणादि विचित्ररूपः फलं तु संसारः । बुधजननिर्वेदकर एषोऽपि तथाविध एव ॥ रागादिदोषाणां फलं संसारः, स च यस्माद् जन्मजरामरणादिर्विचित्ररूपो बुधजननिर्वेदकरस्तस्मादेषोऽपि तत्फलभूतस्संसारस्तथाविध एव-अशोभन एव ॥११७२।। ગાથાર્થ:-રાગાદિદોષોનું ફળ સંસાર છે. જન્મ, જરા( ઘડપણ) મોતાદિરૂપ આ સંસાર અત્યંત વિચિત્ર સ્વરૂપવાળો હોઈ સુજ્ઞ જીવોને નિર્વેદ પેદા કરે છે. તેથી રાગાદિના ફળરૂપ આ સંસાર પણ અસુંદર જ છે. ૧૧૭રા एते भावेमाणो एएसिं चेव निग्गणतणओ। एईए पगरिसम्मि विरज्जती सव्वहा तेसु ॥११७३॥ (एतानि भावयन एतेषामेव निर्गणत्वतः । एतस्याः प्रकर्षे विरज्यते सर्वथा तेष ID एतानि-निदानस्वरूपविषयफलानि प्राकृतत्वात्पुंस्त्वनिर्देशः उक्तेन प्रकारेण भावयन् एतेषां तत्त्वेन निर्गुणत्वतस्तस्याः भावनायाः प्रकर्षे सति सर्वेष्वेतेषु रागादिषु सर्वथा विरज्यते-विरक्तो भवतीति ॥११७३॥ ગાથાર્થ:- “એ' એવો મૂળમાં પુલિંગનિર્દેશ પ્રાકૃત ભાષા હોવાથી કર્યો છે. ઉપર બતાવ્યું એ પ્રમાણે રાગાદિદોષોના નિદાન, સ્વરૂપ, વિષય અને ફળ આ ચારેનું ભાવન કરતો જીવ આ ચારેની તત્ત્વથી નિર્ગુણતાના કારણે ભાવનાના પ્રકર્ષને પામે છે. (અથવા આ ચારની તાતિકનિર્ગુણતાથી-નિર્ગુણતાને આગળ કરી આ ચારની ભાવના કરતો જીવ ભાવનાને પ્રકર્ષ પામે છે.) અને ભાવનાના આ પ્રકર્ષથી રાગાદિદોષોથી સર્વથા વિરક્ત થાય છે. ૧૧૭૩ જ્ઞાન-તપ-સંયમભાવના भावनामेव प्रकारान्तरेणाह - હવે પ્રકારાન્તરથી ભાવના બતાવે છે नाणादिगाऽहवेसा सव्वच्चिय तेसि खयनिमित्ता उ । पडिवक्खभावणा खलु परमगुरूहि जतो भणियं ॥११७४॥ +++++++++++++++ प E - - 256+++++++++++++++ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * સર્વજ્ઞ સિદ્ધિ ન (ज्ञानादिकाऽथवैषा सर्वैव तेषां क्षयनिमित्ता तु । प्रतिपक्षभावना खलु परमगुरुभिर्यतो भणितम् ॥) अथवा एषा प्रतिपक्षभावना तेषां रागादिदोषाणां क्षयनिमित्तभूता सर्वैव ज्ञानादिका - ज्ञानादिस्वरूपा खलु बोद्धव्या, યતો—યસ્માત્પરમગુરુપિરન્દ્રિગિતમ્ ॥૨૬૭૪॥ ગાથાર્થ:- તે રાગાદિદોષોના ક્ષયમા કારણભૂત આ બધી જ ભાવના જ્ઞાનાદિસ્વરૂપવાળી જાણવી. કેમકે પરમગુરુઅરિહંતોએ કહ્યું છે.– ૫૧૧૭૪ા किं तदित्याह શું કહ્યું છે. તે બતાવે છે. - नाणं पगासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो । . तिहंपि समायोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ ११७५ ॥ (ज्ञानं प्रकाशकं शोधकं तपः संयमश्च गुप्तिकरः । त्रयाणामपि समायोगे मोक्षो जिनशासने भणितः ॥) अस्य व्याख्या-इह यथा कचवरसमन्वितमहागृहशोधने प्रदीपादीनां पृथग्व्यापारस्तद्वज्जीवगृहकर्मकचवरशोधने ज्ञानादीनाम् । तत्र ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति ज्ञानं तच्च प्रकाशकं प्रकाशकत्वेन ज्ञानमुपकुस्ते गृहमलापनयने प्रदीपवदिति भावः। " तथा शोधयतीति शोधकं, किं तदित्याह - 'तपः' तापयति अनेकभवोपात्तमष्टविधं कर्मेति तपः, तच्च शोधकत्वेनोपकुस्ते, गृहशोधने कर्म्मकरपुरुषवत् । संयमनं संयम - आश्रवद्वारविरमणं चशब्दः पृथक् ज्ञानादीनां विवक्षितफलसिद्धौ भिन्नोपकारकारित्वावधारणार्थः, गोपनं गुप्तिः - कर्म्मकचवरागमनिरोधस्तत्करणशीलो गुप्तिकरः, संयमोऽपि कर्मकचवरागनिरोधकरणेनोपकुरुते इति भावः, गृहशोधने पवनप्रेरितकचवरागमनिरोधकरणेन वातायनादिस्थगनवदितियावत् । उक्तं ૬ - "ज्ञानं सुमार्गदीपं सम्यक्त्वं तदपराङ्मुखत्वाय । चारित्रमाश्रवघ्नं क्षपयति कर्माणि तु तपोऽग्निः ॥ १ ॥” इति, एवं त्रयाणामेव अपिशब्दोऽवधारणे, अथवा संभावने, किं संभावयति ? त्रयाणामपि ज्ञानादीनां क्षायिकाणां न तु क्षायोपशमिकादीनामिति समायोगे - संयोगे मोक्षः - सकलकर्म्ममलविकलतालक्षणो जिनशासने भणितः - प्रतिपादितः । नन्वेवं तर्हि “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" इत्यागमो विरुध्यते, सम्यग्दर्शनमन्तरेणापि उक्तलक्षणज्ञानादिद्वयादेव मोक्षप्रतिपादनात्, न विरुध्यते, सम्यग्दर्शनस्य ज्ञानान्तर्भावात्, तदन्तरेण ज्ञानस्य ज्ञानत्वस्यैवायोगादिति ॥ ११७५ ॥ · ગાથાર્થ:- આની વ્યાખ્યા- જેમ આ જગતમાં કચરાથી ભરેલા મોટા ઘરની સફાઈક્રિયામાં દીવાવગેરે અલગ-અલગરૂપે પ્રવૃત્ત-સહાયક થાય છે. તેમ જીવના આત્મપ્રદેશોરૂપ ઘરમા લાગેલા કર્મરૂપ કચરાને સાફ કરવામા જ્ઞાનાદિની અલગ અલગ પ્રવૃત્તિ છે. તેમા જેનાથી અર્થબોધ થાય તે જ્ઞાન. આ જ્ઞાન પ્રકાશક છે. અર્થાત્ જેમ દીવો પ્રકાશ દેવાદ્ગારા ઘરના કચરાની સફાઇમા ઉપકારક બને છે, તેમ જ્ઞાન અર્થપ્રકાશદ્વારા કર્મકચરાને દૂર કરવામાં સહાયક છે. તથા શોધતિ–સાફ કરે તે શોધક. અનેક ભવોથી ઉપાર્જેલા આઠ પ્રકારના કર્મો તપાવે તે તપ. આ તપ શોધકરૂપે ઉપકારક છે. જેમકે ઘરનો કચરો દૂર કરનાર પુરૂષ. સંયમન-આશ્રવદ્વારનો અટકાવ-સંયમ છે. કર્મકચરાને આવતા અટકાવવું એ ગુપ્તિ છે. સંયમ આશ્રવદ્વારોને બંધ કરી આશ્રવદ્ગારોથી આવતા કર્મકચરાને આવતા રોકવાનું કામ કરે છે. અને તેરૂપે ઉપકારક બને છે. જેમકે બારીવાટે પવનથી ખેંચાઇને બહારથી ઘરમાં આવતા કચરાને રોકવા બારીવગેરે બંધ કરવામા આવે છે. (મૂળમા ‘સયમ'પદ પછી રહેલો *ચ’કાર જ્ઞાનાદિ વિવક્ષિતફળની સિદ્ધિમાં અલગ-અલગ ઉપકારી છે. તેવા અવધારણા માટે છે.) કહ્યું જ છે કે→ “જ્ઞાન સન્માર્ગગમનમાટે દીવાસમાન છે. સમ્યક્ત્વ એ માર્ગથી પાછા ન હઠવામાટે છે. ચારિત્ર આશ્રવનિરોધક છે. અને તપઅગ્નિ કર્મકચરાને બાળે છે. (૧) (મૂળમા ‘તિ ંપિ,’ અહીં ‘અપિ’પદ જકારાર્થક છે.) ત્રણના જ (–અથવા ‘અપિ’ સંભાવનાસૂચક છે. શી સંભાવના કરવી છે? તે બતાવે છે.) જ્ઞાનાદિ ત્રણ પણ ક્ષાયિકના નહીં કે ક્ષાયોપશમિકાદિના સંયોગમા સકલકર્મમળના અભાવરૂપ મોક્ષ જિનશાસનમાં બતાવ્યો છે. શંકા:- અહીં તમે જ્ઞાન, તપ અને સંયમની વાત કરી (તેમા તપ તો સંયમ-ચારિત્રમાં અન્તર્ભાવ પામી જાય તેમ માની લઇએ તો પણ) તમારા કહેવામુજબ જ્ઞાન-ચારિત્રથી જ મોક્ષનું પ્રતિપાદન થયું. જચારે તત્ત્વાર્થકારે તો ‘સમ્યગ્દર્શન..’ સૂત્રમા સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર આ ત્રણના સંયોગમા મોક્ષમાર્ગ બતાવ્યો છે. તેથી તમારું વચન આગમવિરુદ્ધ છે. સમાધાન:- અહીં આગવિરોધ નથી. કેમકે સમ્યગ્દર્શનનો જ્ઞાનમા અન્તર્ભાવ થઇ જાય છે, કેમકે સમ્યગ્દર્શન વિના જ્ઞાનમાં જ્ઞાનપણું જ સંભવે નહીં. (એકના એક તત્ત્વની વિવક્ષાભેદમાત્રથી જ શિષ્યબુદ્ધિપરિકર્માદિ હેતુથી અલગ અલગરીતે વિભાજનઆદિ * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 251 + 4 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++सर्वसिद्धि + + + + + ++ + + + + ++ ++++ કરવામાં આગમવિરોધ દોષ નથી. હા ! એ વિવક્ષા આગમમાન્ય મુદાને અન્તર્ભાવાદિરૂપે સ્વીકારતી હોવી જરુરી છે. જેમકે તત્વાર્થકારદર્શિત સાતતત્વ અને નવતત્વકારદર્શિત નવતત્વ.) ૧૧૭પા. अथ कथमेषा ज्ञानादिका भावना रागादिप्रतिपक्षमतेत्यत आह - શૈકા:- આ જ્ઞાનાદિક ભાવના રાગાદિના પ્રતિપક્ષભૂત કેવી રીતે છે? અહીં સમાધાન બતાવે છે अन्नाणादिनिमित्तं जं कम्मं तस्स भेदजोगाओ । ते होंति जं ततो सिं जुज्जइ एमेव खवणं तु ॥११७६॥ (अज्ञानादिनिमित्तं यत् कर्म तस्य भेदयोगात् । ते भवन्ति यत् तत एतेषां युज्यते एवमेव क्षपणं तु ॥ अज्ञानादिनिमित्तं यत् कर्म मोहनीयादि तस्य ये भेदा-लोभमोहनीयादयः तद्योगात्-तत्संबन्धतो यत्-यस्मात्तेरागादयो दोषा भवन्ति ततः-तस्मादेतेषां-रागादिदोषाणां क्षपणमेवमेव-ज्ञानादिभावनारूपेणेव प्रकारेण युज्यते ॥११७६ ।। ગાથાર્થ:- મોહનીયાદિકર્મો અજ્ઞાનાદિનિમિત્તક છે. (અજ્ઞાનાદિથી ઉદ્દભવે છે.) તે કર્મોના લોભમોહનીયવગેરે ભેદો છે. અને આ લોભમોહનીયાદિના યોગથી તે રાગાદિદોષો થાય છે. તેથી તે રાગાદિદોષોનો લય જ્ઞાનાદિભાવનારૂપ પદ્ધતિથી જ થવો યોગ્ય છે. ૧૧૭૬ાા નિર્વાણ અસ્તિત્વનો અભાવમતનું ખંડન एतदेव स्पष्टतरं भावयति - આ જ વાતનું વધુ સ્પષ્ટતાથી ભાવન કરે છે. बंधइ जहेव कम्मं अन्नाणादीहिँ कलुसियमणो तु । तह चेव तव्विवक्खे सहावतो मुच्चति तेणं ॥११७७॥ (बजाति यथैव कर्माज्ञानादिभिः कलुषितमनास्तु । तथैव तद्विपक्षे स्वभावतो मुच्यते तेन ॥ यथैवाज्ञानादिभिः कलुषितमनाः सन् जीवः कर्म-ज्ञानावरणीयादि बध्नाति तथैव तद्विपक्षे-ज्ञानादिसद्भावरूपे सति स्वभावतस्तेन कर्मणा मुच्यते, नहि कारणोच्छित्तावपि कार्यस्योद्भवो भवति, निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात्, अज्ञानादिनिमित्तं च कर्म, ज्ञानादि चाज्ञानादिप्रतिपक्षभूतं, ततो ज्ञानादिनैरन्तर्याभ्यासवशतो निर्मूलत एवाज्ञानादिव्यवच्छित्तौ कुतस्तन्निमित्तकर्मसंबन्धसंभवो ? येन तदुदयनिबन्धना रागादयो दोषा भवेयुरिति ज्ञानादिरूपा भावना रागादिप्रतिपक्षभूतेति स्थितम् । इह केचिद् मन्यन्ते-यथेह जले शुष्के सति यथा वा प्रदीपरूपे ज्वलने विध्याते सति पश्चान्न किंचिदवतिष्ठते तद्वदिहापि नारकादि- रूपसंसारस्य निर्मूलतोऽपगमे सति पश्चान्न किंचिदवतिष्ठते, उक्तं च "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ मुनिस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित, कर्मक्षयात्केवलमेति शान्तिम ॥२॥" इति ॥११७७॥ ગાથાર્થ:- અજ્ઞાનાદિથી કલુષિતમનવાળો જીવ જે રીતે જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મો બાંધે છે, તેમ તેથી વિપરીત જ્ઞાનાદિના સદ્ભાવમાં સ્વભાવથી જ તે ( જ્ઞાનાવરણીયાદિ) કર્મોથી મુક્ત થાય છે. કારણના ઉચ્છેદમાં કાર્યનો ઉદ્ભવ થાય નહીં, અન્યથા કાર્યને નિર્દેતક માનવાનો પ્રસંગ આવે. કર્મ અજ્ઞાનાદિવેતક છે. જ્ઞાનવગેરે અજ્ઞાનાદિના પ્રતિપક્ષભૂત છે. તેથી જ્ઞાનાદિના નિરન્તર અભ્યાસના કારણે અજ્ઞાનાદિનો નિર્મળ વ્યવચ્છેદ થાય છે. તેથી અજ્ઞાનાદિનિમિત્તક કર્મબંધના અભાવમાં કર્મોદય નથી. અને કર્મોદય નથી, તો રાગાદિદોષો પણ નથી. આમ જ્ઞાનાદિરૂપભાવનાઓ રાગાદિના પ્રતિપક્ષભૂત છે તેમ નિર્ણય थाय छे. અહીં કેટલાક એવી માન્યતા રાખે છે કે કેટલાક- જેમ પાણી સુકાઈ જાય પછી અથવા દવારૂપે અગ્નિ બૂઝાઈ જાય પછી પાછળ કશું બચતું નથી, તેમ અહીં પણ નારકાદિરૂપ સંસારનો સર્વથા નાશ થયા પછી પાછળ કશું રહેતું નથી. કહ્યું જ છે કે “નિવૃત્તિ (નિર્વાણ પામેલો દીવો નથી પૃથ્વી પર જતો કે નથી આકાશમાં જતો, નથી દિશામાં જતો કે નથી વિદિશામાં જતો. પરંતુ સ્નેહ (તેલઆદિમા ક્ષયથી કેવલ ઓલવાઈ જાય છે. આવા તે જ પ્રમાણે નિર્વાણ પામેલો મુનિ નથી પૃથ્વી પર આવતો કે નથી આકાશમાં જતો... નથી કોઈ દિશામાં પ્રયાણ કરતો કે નથી કોઈ વિદિશામાં ગમન કરતો. કર્મક્ષયથી માત્ર (અભાવરૂ૫) શાન્તિ પામે છે. સારા” ૧૧૭૭ ++++++++++++++++ Lalu-MIR -258* ** * * * ** * * * ** ** Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++सर्वसिGि++++++++++++++++++ तन्मतमपाकर्तुमाह - કેટલાકના આ મતનો નિષેધ કરવા કહે છે - जम्हा स थिरो धम्मी कम्मक्खयतो य वीयरागत्तं । तम्हा असोभणं चिय नेयं जलजलणणायंपि ॥११७८॥ (यस्मात् स स्थिरो धर्मी कर्मक्षयतश्च वीतरागत्वम् । तस्मादशोभनमेव ज्ञेयं जलज्वलनज्ञातमपि ) यस्मात्स-आत्मलक्षणो धर्मी स्थिरो-नित्यस्वभावो द्रव्यरूपतया अतस्तस्यैव कथंचिदवस्थितस्य (घाति)कर्मक्षयतो वीतरागत्वं (च शब्दात्) सकलकर्मापगमतो मुक्तत्वं तस्मादशोभनमेव ज्ञेयं जलज्वलनज्ञातमपि-पूर्वोक्तस्वरूपम् । न च तथापि (तेषामपि ?) एकान्तेन विनाशः, सतः सर्वथा विनाशायोगात्, केवलं ते प्रदीपरूपज्वलनादिपरमाणवस्तथाविधाभासुरसूक्ष्मरूपतामापन्नास्ततो न दृश्यन्त इति, तदुक्तम्-"न य सव्वहा विणासोऽनलस्स परिणामओ पयस्सेव । कंभस्स कवालाण व तहाविकारोवलंभाओ (छा. न च सर्वथा विनाशोऽनलस्य परिणामतः पयसइव । कुम्भस्य कपालानां वा (ला इव) तथा विकारोपलम्भात्) ॥१॥ जइ सव्वहा न नासोऽनलस्स किं दीसए न सो सक्खं ? । परिणामसुहमयाओ जं विकारंजणरउव्व ति" (छा. यदि सर्वथा न नाशोऽनलस्य किं दृश्यते न स साक्षात् ? परिणाम सूक्ष्मतया जं विकाराज्जन रजोवत् ॥२॥ ॥११७८॥ ગાથાર્થ:- “આત્મા નામનો આ ધર્મી દ્રવ્યરૂપે નિત્યસ્વભાવવાળો છે. તેથી તેરૂપે કથંચિત અવસ્થિત આત્મા ધાતિકર્મના ક્ષયથી વીતરાગ થાય છે ("ચ' શબ્દથી) અને સર્વ કર્મના નાશથી મુક્ત થાય છે. તેથી પાણી અને અગ્નિનું પૂર્વોક્ત દેટાન્ત અયોગ્ય છે. કેમકે તેઓનો પણ સર્વથા વિનાશ નથી, કારણ કે સતનો સર્વથા વિનાશ નથી. દીવારૂપઅગ્નિઆદિ સ્વરૂપને પામેલા તે પરમાણુઓ માત્ર તેવા પ્રકારના તેજહીન સૂક્ષ્મરૂપતાને પામવાને કારણે દેખાતા નથી. કહ્યું જ છે કે “પરિણામ પર્યાય હોવાથી અગ્નિનો પાણીની જેમ સર્વથા વિનાશ નથી. અથવા ઘડાના કપાલ(ઠીકરા) ની જેમ (કે કુંભના અથવા કપાલોના) તેવાપ્રકારના વિકાર ઉપલબ્ધ થાય છે. (પ્રક્ષ) જો અગ્નિનો સર્વથા નાશ નથી, તો તે વિકાર) સાક્ષાત કેમ દેખાતો નથી ? (ઉત્તર) વિકારભૂત અંજનચૂર્ણરૂપપરિણામ સૂક્ષ્મ હોવાથી.ારા ૧૧૭૮ ક્ષીણદોષની પુનરુત્પત્તિનો અભાવ स्यादेतत्, भवतु निःशेषतोऽपि रागादिदोषप्रहाणं तथापि भूयस्ते कथं न प्रादुर्भवेयुर्येन निष्प्रतिपक्षं तस्य वीतरागत्वं सिद्धयेदित्यत आह - પૂર્વપક્ષ:- ભલે ત્યારે રાગાદિ દોષોનો સર્વથા પણ નાશ થાય. છતા તે રાગાદિ દોષો ફરીથી ઉત્પન્ન કેમ ન થાય? કે જેથી તેનું વીતરાગપણે નિપ્રતિપક્ષ સિદ્ધ થાય.. અહીં ઉત્તર આપે છે • खीणा य ते ण होति पुणो वि सहकारिकारणाभावा । न हु होइ संकिलेसो तेहिँ विउत्तस्स जीवस्स ॥११७९॥ (क्षीणाश्च ते न भवन्ति पुनरपि सहकारिकारणाभावात् । न ह भवति संक्लेशस्तै वियुक्तस्य जीवस्य । क्षीणाश्च रागादयो दोषाः पुनरपि न भवन्ति । कुत इत्याह – 'सहकारिकारणाभावात्' रागादिवेदनीयकर्मलक्षणसहकारिकारणाभावात् । अमुमेव सहकारिकारणाभावं दर्शयति-'न हु इत्यादि' न हु नैव हुरवधारणे तैःरागादिदोषैर्विप्रमुक्तस्य सतो जीवस्य संक्लेशः-अशुभाध्यवसायरूपो भवति, तस्य तद्धेतुकत्वात्, अन्यथा कारणान्तराभावेनाहेतुकत्वतः सर्वत्र तद्भावप्रसङ्गात्, आकस्मिकस्य देशकालनियमायोगात् ॥११७९॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- લય પામેલા રાગવગેરે ફરીથી થતા નથી. કેમકે રાગાદિદનીય (=મોહનીયાદિ) કર્મરૂપ સહકારી કારણો રહ્યા નથી. હવે આ જ સહકારી કારણનો અભાવ બતાવે છે નહુઈત્યાદિ. (“હુજકારાર્થક છે.) રાગાદિ દોષોથી રહિત જીવને અશુભાધ્યવસાયરૂપ સંકલેશ થતો નથી, કેમકે આ સંકલેશનું કારણ રાગાદિ જ છે અન્ય નથી, અને રાગાદિને પણ જો કારણ ન માનો, તો સંકલેશ અહેતુક માનવો પડે. અને આકસ્મિક અહેતુક વસ્તુને સ્વઅસ્તિત્વ માટે દેશ-કાળનો નિયમ લાગતો ન હોવાથી અહેતુક સંકલેશને સર્વદા સર્વત્ર માનવાની આપત્તિ આવે. ૧૧૭લા तदभावे ण य बंधो तत्पाओग्गस्स होइ कम्मस्स । तदभावा तदभावो सव्वद्धं चेव विन्नेओ ॥११८०॥ + + + + + + + + + + + + + + + + liualgi-- 259 + + + + + + + + + + + + + + Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * સર્વજ્ઞ સિદ્ધિ જૈ જૈ (तदभावे न च बन्धस्तत्प्रायोग्यस्य भवति कर्मणः । तदभावात्तदभावः सर्वाद्धं एव विज्ञेयः II ) तदभावे - संक्लेशाभावे न च नैव बन्धस्तत्प्रायोग्यस्य- संक्लेशप्रायोग्यस्य भवति कर्मणो- मोहनीयादेस्तस्य तन्निमित्तत्वात्तदभावे ग्रावादौ तस्याभावदर्शनात्, ततस्तदभावात्- कर्माभावात्तदभावो - रागादिदोषाभावः सर्वाद्धमेव विज्ञेयः, तत्सहकारिभूतकर्मसंबन्धाभावस्योक्तयुक्तितः सर्वाद्धं भावात् ॥११८० ॥ ગાથાર્થ:- સક્લેશના અભાવમા સંક્લેશપ્રાયોગ્ય મોહનીયાદિકર્મનો બંધ સંભવતો નથી. કેમકે એ કર્મબંધમા અશુભાધ્યવસાયરૂપ તે સંક્લેશ કારણભૂત છે. અને પથ્થરાદિમા એવા સંક્લેશાદિના અભાવમાં કર્મબંધનો અભાવ દેખાય છે. તેથી કર્મના અભાવમાં રાગાદિદોષોનો અભાવ સર્વકાળમાટે સમજવો. કેમકે રાગાદિોષોમાટે સહકારીકારણભૂત કર્મોનો અર્થાત્ રાગદિવેદનીય કર્મના સંબન્ધનો ઉપરોક્તયુક્તિમુજબ હંમેશા અભાવ છે. (અહીં આ ચક્ર છે → રાગાદિોષોથી સંકલેશ, સકલેશથી રાગાદિવેદનીય કર્યો. એ કર્મોરૂપ સહકારી કારણથી રાગાદિોષો... આમ ચક્ર ચાલે છે. જ્ઞાનાદિરૂપ પ્રતિપક્ષભાવનાથી રાગાદિોષો નાશ થવાથી આ ચક્ર તૂટે છે. કેમકે રાગાદિોષો જવાથી સંકલેશ રહેતો નથી, સંકલેશ ટળવાથી કર્મબંધ અટકે છે. અને કર્મરૂપ સહકારી ન રહેવાથી દોષો ઊભા થતા નથી) ૫૧૧૮ના આત્મા નથી’ ભાવનાનું ખંડન तदेवं यथारूपा रागादिप्रतिपक्षभावना यथा च तद्वशाद्रागादिदोषप्रहाणं यथा च तेषामपुनर्भावस्तथा प्रतिपादितमिदानीं पुनर्ये भावनामन्यथा वर्णयन्ति तन्मतमपाकर्तुमुपन्यस्यन्नाह - આમ રાગાદિની પ્રતિપક્ષભાવનાઓનુ યથાસ્વરૂપ બતાવ્યુ, તથા તેનાથી જે રીતે રાગાદિદોષો નાશ પામે છે, અને તેઓનો અપુનર્ભાવ જે રીતે થાય છે, તે બધાનુ પ્રતિપાદન કર્યું. હવે જેઓ આ ભાવનાને અન્યથારૂપે વર્ણવે છે તેઓના મતને દૂષિત કરવા તે મતની સ્થાપના કરે છે. अन्ने उ नत्थि आया इति भावणमो सुदिट्ठ परमत्था । दोसपहाणनिमित्तं वयंति निस्संकियं चेव ॥११८१ ॥ (अन्ये तु नास्ति आत्मेति भावनां सुदृष्टपरमार्थाः । दोषप्रहाणनिमित्तं वदन्ति निःशंकितमेव ॥) अन्ये-सौगताः सुदृष्टपरमार्था वक्ष्यमाणयुक्त्या तदभ्युपगमस्यात्यन्तासारताप्रतिपादनात् उपहासपद (रं) मेतदवसेयं, नास्त्येवात्मेति भावनां दोषप्रहाणनिमित्तं निःशङ्कितमेव वदन्ति । तद्यथा - यथा ( दा ) हि मोहादात्माऽस्तीत्यभिमानो भवति तदा तत्राहमिति स्नेहो जायते, तस्माच्च स्नेहाद् यानि तत्सुखसाधनानि तानि ममेत्यादत्ते, तदुपरोधिनि च प्रतिहतिप्रणिधानं करोति, आत्माऽऽत्मीयस्नेहश्च रागस्तदुपरोधिनि प्रतिहतिप्रणिधानं च द्वेषस्तस्माद्यावदात्माभिनिवेशस्तावन्न रागादिदोषप्रहाणमिति । उक्तं च- “ यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात्सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुस्ते ॥१ ॥ गुणदर्शी परितुष्यन्ममेति तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत्तावत्स संसारे ॥२॥ इति । आत्माभिनिवेशाभावे तु 'नाहं न चेदमात्मीयं नवा कश्चिद् मम प्रतिरोद्धेति' भावयतो भवत्येव रागादिदोषप्रहाणमिति ॥ ११८१ ॥ ગાથાર્થ:- પરમાર્થને સારી રીતે જોનારા' (અહીં તેઓનો – બૌદ્ધોનો મત અત્યન્તઅસાર બતાવ્યો હોઇ, આ વિશેષણ વાસ્તવમાં તેમના ઉપહાસમાટે છે.) બૌદ્ધો આત્મા જ નથી” એવી ભાવના દોષનાશમા કારણ છે, એમ નિ:શંકપણે કહે છે. તે આ પ્રમાણે → જયારે મોહના કારણે આત્મા છે. એવું અભિમાન(=મિથ્યાભાન) થાય છે, ત્યારે આત્માઅંગે ‘હું” એવો સ્નેહરાગ પેદા થાય છે. આ સ્નેહના કારણે તે આત્માના જે સુખના સાધનો હોય, તે બધાપર મમ=મારું- મમત્વ’ થાય છે. અને તે બધાનો સ્વીકાર કરે છે. તથા જે એને (-આત્માને) પ્રતિકૂળ હોય તે બધા અંગે પ્રતિહત(-વિનાશનુ પ્રણિધાન કરે છે. અહીં આત્મા અને આત્મીયવસ્તુપર સ્નેહરાગ છે. તેના ઉપરોધક–પ્રતિકૂળ થનાર૫ર પ્રતિતપ્રણિધાન દ્વેષ છે. તેથી જયાસુધી આત્માઅંગે અભિનિવેશ–પકડ છે ત્યાં સુધી રાગાદિદોષોની હાનિ થવી સંભવતી નથી. કહ્યું જ છે કે → જે આત્માને જૂએ છે તેને તેના(=આત્મા)પર ‘હું' એવો શાશ્વતસ્નેહ થાય છે. આ સ્નેહથી સુખોઅંગે તૃષ્ણા (=ઇચ્છા) થાય છે. આ તૃષ્ણા દોષોનો તિરસ્કાર કરે છે (અર્થાત્ તૃષ્ણાના કારણે એ સુખ અને સુખના સાધનોથી સંભવિત દોષોપ્રત્યે ઉપેક્ષા થાય છે.) (૧) તથા તેમા (=સુખોમા) ગુણને જોનારો તે પરિતોષ પામે છે, 'આ જ મારા છે' એમ માની એ સુખના સાધનોનું ઉપાદાન કરે છે. તેથી (=આમ હોવાથી) જયાસુધી આત્માભિનિવેશ છે, ત્યાંસુધી તે સંસારમા ભમે છે. (૨)આ આત્માભિનિવેશ ન હોય, તો હું નથી, આ મારું નથી, અને મારો કોઇ પ્રતિરોધક નથી' એવી ભાવના કરવાથી રાગાદિદોષની હાનિ થાય જ છે. ૫૧૧૮૧ા * * * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 260 * * * * * ++++ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेतन्मतमपाकुर्वन्नाह આ મતને દૂષિત કરતા કહે છે. → સર્વજ્ઞ સિદ્ધિ सति असति वावि तम्मि एसा सइ कह णु सम्मवत्ति ? । मिच्छारूवा य कहं ? पहाणहेऊ विरोहातो ॥११८२ ॥ (सत्यसति वाऽपि तस्मिन् एषा सति कथं नु सम्यगुरूपा इति । मिथ्यारूपाश्च कथं प्रहाणहेतुः ? विरोधात् ॥) वेष भावना किं सति तस्मिन् - आत्मनि क्रियेत असति वेति विकल्पद्वयम् । तत्र यदि सतीति पक्षः कथं नु सा भावना सम्यग्रूपा भवेत् ? किंतु मिथ्यारूपैव स्यात्, सति आत्मनि असन्नयमात्मेति प्रवृत्तेः, मिथ्यारूपा चैषा भावना कथं दोषप्रहाणहेतुः? विरोधात् । तथाहि - मिथ्याभावनानिवन्धना एव दोषास्तत्कथं तत एव क्षीयेरन्निति ॥ ११८२ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- આ ભાવના આત્માના અસ્તિત્વમા છે કે આભાવમા છે? જો આત્માની હાજરીમા– અસ્તિત્વમા' એવો પક્ષ હોય તો આ ભાવના કેવી રીતે સમ્યરૂપતા પામે? અર્થાત મિથ્યારૂપ જ બને. કેમકે આત્મા હોવા છતાં આ ભાવના આત્મા નથી' એરૂપે પ્રવૃત્ત થાય છે. આમ મિથ્યારૂપ બનેલી આ ભાવના કેવી રીતે દોષના નાશમા હેતુ બને? કેમકે, અહીં વિરોધ છે. જૂઓ મિથ્યાભાવનાના કારણે જ આ રાગાદિદોષો છે. તેથી એ મિથ્યાભાવનાથી જ કેવી રીતે તેમનો ક્ષય થાય? જેનાથી ઉત્પન્ન થયા તેનાથી જ નાશ પામે એ પરસ્પરવિરુદ્ધ છે. ૫૧૧૮૨ા द्वितीयं पक्षमधिकृत्याह હવે બીજા પક્ષને ઉદ્દેશી કહે છે. → — असइ य को भावेती ? खणिगो अह सव्वा निसिद्धो सो । नो भावी मे वाही नाउं च करेइ को किरियं ? ॥११८३ ॥ (असति च को भावयेत् ? क्षणिकोऽथ सर्वथा निषिद्धः सः । न भावी मे व्याधि र्ज्ञात्वा च करोति कः क्रियाम् ॥) असति चात्मनि को नाम भावनां भावयेत् ? नैव कश्चिदितिभावः, तदतिरेकेणान्यस्य भावकत्वायोगात्, घटादौ तथा दर्शनाभावात् । अथोच्येत परपरिकल्पिताविचलितैकरूप आत्मा नास्तीत्युच्यते न पुनर्ज्ञानरूपः प्रतिक्षणनश्वरस्वभावः, ततः स भावनां भावयिष्यतीत्यदोष इति । तदयुक्तम्, यत आह- 'सव्वहा निसिद्धो सो' स - यस्मात्प्रतिक्षणविनश्वरस्वभाव आत्मा भवत्परिकल्पितः सर्वथा प्राक्परिणामित्वसिद्धौ निषिद्धो - निराकृतः, तस्मान्न स भावको युक्त इति । अपि च, 'नो इत्यादि' नो भावी न भविष्यति मे मम व्याधिरिति ज्ञात्वा 'चो' दूषणान्तरसमुच्चये, को नाम क्रियां - तदभवनप्रतिविधानलक्षणां करोति ? नैव कश्चिदन्यत्र मूढात् । एवमिहापि न मम रागादिनिमित्तः संसारो भावी अनन्तरमेव मम निरन्वयविनाशादिति ज्ञात्वा को नाम रागादिप्रहाणनिमित्तं भावनायां यतेतेति ? ॥११८३ ॥ ગાથાર્થ:- આત્માની ગેરહજરીમા કોણ ભાવનાનું ભાવન કરે? અર્થાત્ કોઇ જ નહીં. કેમકે આત્માને છોડી અન્ય કોઇ ભાવનાનુ ભાવક નથી, કેમકે ધડાઆદિ એ બીજાઓમા તેવી ભાવનાદિના દર્શન થતા નથી. બૌદ્ધ:- અમે અહીં જે આત્માનો નિષેધ કરીએ છીએ તે બીજાએ કલ્પેલા ‘અવિચલિતએકસ્વરૂપવાળા આત્મા'નો છે. નહીં કે પ્રતિક્ષણ નાશ પામવાના સ્વભાવવાળા જ્ઞાનરૂપ આત્માનો. (-અર્થાત્ ક્ષણિક, જ્ઞાનરૂપ આત્મા તો અમને ઇષ્ટ જ છે.) આ આત્મા ભાવનાનું ભાવન કરશે તેથી દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- તમે કલ્પેલા આ પ્રતિક્ષણ નાશપામવાના સ્વભાવવાળા આત્માનો સર્વથાનિષેધ તો અમે પૂર્વે જ પરિણામી નિત્ય આત્માની સ્થાપના કરતી વેળા જ કર્યો હતો. તેથી તેવો ક્ષણિકઆત્મા ભાવકતરીકે યોગ્ય નથી. વળી, મને રોગ થવાનો નથી' એમ જાણ્યા પછી કોણ એ વ્યાધિ ન થાય' એવા પ્રતિકારરૂપે ચિકિત્સા કરે? મૂઢને છોડી બીજો કોઇ ન કરે. (મૂળમા ચ’પદ દૂષણાન્તરના સમુચ્ચયમાટે છે.) એજ પ્રમાણે મારો તો અનન્તરક્ષણે જ નિરન્વય– વિનાશ–સર્વથાનાશ થવાનો છે, તેથી મારે રાગાદિદોષોથી જન્ય સંસાર થવાનો જ નથી.' એવું જાણીને કોણ રાગાદિોષોના ક્ષયમાટે ભાવનાઅંગે પ્રયત્ન કરે? (જેને રાગાદિદોષથી સંસાર ભમવાનો ભય હોય, તે રાગાદિ તોડવા ભાવના ભાવે, પણ જેને પોતાના ક્ષણિકજીવન પછી સર્વથા નાશ જ દેખાય છે, સંસાર ભમવાનો સવાલ જ નથી, એ શું કામ રાગાદિનાશક ભાવનાદિના ભાવનની પંચાતમાં પડે?)૫૧૧૮૩ા * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -261 * * Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વત્ર સિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * પર માઠું – અહીં બૌદ્ધ કહે છે. पुत्तस्स नो भविस्सइ गहणे सति तस्स जुज्जए एतं । अन्नस्स चिगिच्छाए पउणइ अन्नो न लोगम्मि ॥११८४॥ (पुत्रस्य नो भविष्यति ग्रहणे सति तस्य युज्यते एतत् । अन्यस्य चिकित्सायां प्रगुणीभवति (प्रगुणयति) अन्यो न लोके ॥) यथा इदं धनं भाविनि काले ममानुपयोगीति जानन्नपि पिता पुत्रस्य-आत्मजस्य न:-अस्माकं भविष्यतीति बुद्ध्या , तदुपार्जनं प्रति प्रयतते, तद्वदिहापि मत्संतानभावी परंपरया उत्तरः क्षणो रागादिक्लेशविमुक्तो भविष्यतीति जानन् । रागादिप्रहाणहेतुभावनायां यतत इति । अत्राह- 'गहणे सइ तस्स जुज्जए एयं' ति तस्य पुत्रस्य ग्रहणे-दर्शने सति पुत्रस्य नो भविष्यतीत्येतत्संकल्पनं पितर्यज्यते नान्यथा, लोके तथा दर्शनात्, नचेह स्वसंतानवर्त्तिनो भाविन उतरक्षणस्य विवक्षितज्ञानक्षणेन ग्रहणमस्ति, तत्कथं स तन्निमित्तं रागादिप्रहाणाय यतेतेति । अन्यच्च, लोके न अन्यस्य एकान्तविलक्षणस्य चिकित्सायां क्रियमाणायामन्यः प्रगुणीभवति, तथादर्शनाभावात्, तत्कथमिह विवक्षितक्षणचिकित्सायामुत्तरक्षण एकान्तनिर्मलो भवेत् । ननु च लोके पितुर्नीरोगतायां सत्यां तेन तथारूपेण जनितस्य पुत्रस्यापि नीरोगता दृष्टा, तथाऽविगानेन प्रतीतेः। "मिताशनं षट् सुगुणा भजन्ते आरोग्यमायुश्च वपुर्बल च । अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमायून इति क्ष(क्षि)पन्ती" त्यादिवचनाच्च । तत्कथमिह रागादिप्रहाणहेतुभूतभावनया विशद्धयमानाद विवक्षितक्षणादत्तरक्षण एकान्तनिर्मलो न भवेदिति? तदयुक्तम्, दृष्टान्तदाान्तिकयोरत्यन्त वैषम्यात्। पुत्रे हि पितृवीर्यस्यान्वयोऽस्ति तत्पुद्गलानामेव पुत्रशरीरतया परिणममानत्वात्, ततस्तत्र पितृनीरोगतया पुत्रस्य नीरोगता भवन्ती न विरुध्यते, इह तु प्राक्क्षणस्य निरन्वयविनाशितया निर्मूलत एवापगमे सति कथं तद्विशुद्धेरुत्तरस्य विशुद्धिर्भवेत् ? मा प्रापदतिप्रसङ्ग इति यत्किंचिदेतत् ॥११८४॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપલા:- “આ ધન મને ભવિષ્યમાં ઉપયોગી નહીં થાય' એમ જાણવા છતાં પિતા “અમારા પુત્રને કામ લાગશે એવી બુદ્ધિથી ધન કમાવવા મહેનત કરે છે. તે જ પ્રમાણે અહીં પણ પરંપરાએ મારી સંતાનવર્તી ઉત્તરક્ષણ રાગાદિના કલેશથી મુક્ત થશે એવું જાણીને જ રાગાદિના ક્ષયમાટે ભાવનામાં યત્ન કરે તે સંભવે છે. (ગરીબ બાપ પણ પોતાના પુત્રને કરોડપતિ બનાવવાના કોડ કરે અને પ્રયત્ન કરે તે સંભવિત છે.) ઉત્તરપક્ષ:- પિતા પોતાના પુત્રના દર્શન થાય ત્યારે “અમારા પુત્રને કામ લાગશે' એ સંકલ્પ કરે તે બરાબર છે, પણ પત્રનું મોંએ ક્યારે જોયું નથી, ને એના માટે ઉપયોગી થવાની ચિંતા કરે તે બરાબર નથી. લોકોમાં પણ એમ જ દેખાય છે. (હજી પુત્રના તો કોઈ એધાણ નથી ને અત્યારથી જ તેના ભાવીની ચિંતા કરનાર બુદ્ધિમાન ન ગણાય.. શેખચલ્લી જ ગણાય.) એજ પ્રમાણે અહીં પણ એ વિવલિત જ્ઞાનક્ષણ પોતાના સંતાનવર્તી ભાવીની ઉત્તરક્ષણને જોઈ શકતી નથી, તેથી કેવી રીતે તે ઉત્તરક્ષણ માટે રાગની હનિમાં પ્રયત્ન કરે? વળી, લોકમાં એવું દેખાતું નથી કે અત્યંત વિલક્ષણ-ભિન્ન એવી એક વ્યક્તિની ચિકિત્સા કરવાથી અન્ય વ્યક્તિ સારી-નિરોગી થાય. તેમ અહીં પણ વિવલિતક્ષણની ભાવનારૂપ ચિકિત્સાથી તેથી અત્યન્ત વિલક્ષણ ઉત્તરક્ષણ સંપૂર્ણ નિર્મળ થાય તે પણ શી રીતે બને? પૂર્વપક્ષ:- લોકમાં એમ દેખાય છે કે જે પિતા નિરોગી હોય તો એણે જન્મ આપેલો પુત્ર પણ નિરોગી હોય. આવી પ્રતીતિ વિરોધ વિના સિદ્ધ જ છે. છ સદ્ગુણો મિતાહારને વળગ્યા છે. (૧) આરોગ્ય (૨) આયુષ્ય (૩) શરીર (૪) બળ (૫) એના સંતાન નિરોગી હોય અને (૬) નબળા શરીર–પોષણવાળો માની કોઈ આક્રમણ કરતું નથી” આવું વચન છે. (અહીં મિતાહારથી નિરોગીના સંતાન પણ નિરોગી બતાવ્યા.) તો પછી રાગાદિના લયમાં હેતુભૂત ભાવનાથી વિશુદ્ધિ પામી રહેલી વિવલિત ક્ષણની ઉત્તરક્ષણ એકાન્ત નિર્મળ કેમ ન થાય? અર્થાત થાય જ. ઉત્તરપક્ષ:- આમ કહેવું બરાબર નથી. કેમકે દષ્ટાન્ત- દાન્તિકવચ્ચે સો ગજનું આંતરું છે. દેષ્ટાન્તમાં તો પુત્રમાં પિતાના વીર્યનો અન્વય થાય છે, કેમકે પિતાના વીર્યરૂપે રહેલા યુગલો જ પુત્રના શરીરરૂપે પરિણામ પામે છે. તેથી પિતા નિરોગી હોય તો પુત્ર પણ નિરોગી હોય તેમાં વિરોધ નથી. જયારે દાન્તિકમાં તો પૂર્વેક્ષણ નિરન્વયનાશ પામે છે. નિર્મળતયા દૂર થાય છે, તેથી તે ક્ષણની વિશુદ્ધિથી ઉત્તરક્ષણની વિશુદ્ધિ કેવી રીતે થાય? ન જ થાય, કે અતિપ્રસંગ આવશે. (અન્યસંતાનવર્તી ક્ષણોમાં પણ વિશુદ્ધિ આવવારૂપ અતિપ્રસંગ છે, કેમકે નિરન્વય સમાનતયા છે.) તેથી આ પક્ષ તુચ્છ છે. ૧૧૮૪ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 262 * * * * * * * * * * * * * * * Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++सर्वसिदि++++++++++++++++++ पुनरपि दूषणान्तरमाह - शिथी भी मानता छ. नो भावी मे दोसो मम चेवाभावओ त्ति ता विसए । भुंजामि किं न बुद्धी जायइ णइरातवादम्मि ? ॥११८५॥ (न भावी मे दोषो मम एवाभावादिति तस्माद् विषयान् । भुजे किं न बुद्धि जायते नैरात्म्यवादे ? " नो भावी-न भविष्यति मे-मम दोषो, विवक्षितक्षणानन्तरमेव निरन्वयविनाशितया ममैव तदानीमभावात्, 'ता' तस्माद्विषयान्-मनोज्ञरूपादिलक्षणान् भुजे इति किन्न बुद्धिनैरात्म्यवादेऽभ्युपगते सति जायते ? जायत एवेति भावः । . . अभिहितयुक्तेः समीचीनत्वात् ॥११८५॥ ગાથાર્થ:- મને કોઈ દોષ લાગવાનો નથી, કેમકે વિવક્ષિત ક્ષણ પછી તરત જ વિનાશ પામવાનો સ્વભાવ છેવાથી મારો જ ભવિષ્યકાળે અભાવ હોવાનો છે. તેથી હું નિ:શંક થઈ મનોજ્ઞ વિષયો ભોગવું આવી બુદ્ધિ નૈરાત્મવાદના સ્વીકારમાં કેમ ન ઉદ્ભવે? અર્થાત ઉદ્દભવે જકેમકે ઉપરોક્ત યુક્તિ યોગ્ય જ છે. (એકભવ જેટલું જીવનધૈર્ય સ્વીકારનારા નાસ્તિકો જીવનાને સર્વથા નાશ માની મોજ-શોખને જ જીવનનું એકમાત્ર લક્ષ્ય ગણે છે, તો જેઓ એકભવ પણ નહીં, માત્ર એક જ ક્ષણની સ્થિરતા-પછી સર્વનાશ માને, ને બીજી ઝંઝટ છોડ મોજશોખયથાશકચ ભોગવી લો. ની નીતિ અપનાવે તે સુશકર છે.) ૧૧૮પા उपसंहारमाह - वे पसंखार छ. __तम्हा असपक्खोऽयं जुत्तिविरोधा विवज्जयपसंगा । सत्ताणुगुन्नतो पुण जुज्जइ इय देसणामेत्तं ॥११८६॥ (तस्मादसत्पक्षोऽयं युक्तिविरोधाद् विपर्ययप्रसंगात् । सत्त्वानुगुण्यतः पुन युज्यते इति देशनामात्रम् ॥ तस्माद् अयं - नास्त्येवात्मेति भावना रागादिदोषप्रहाणनिमित्तमिति पक्षोऽसत्पक्ष एव । कुत इत्याह-युक्तिविरोधात् पूर्वोक्तात्, विपर्ययप्रसङ्गाच्चानन्तरमेवोक्तात् । यदि पुनरुच्येत- सत्त्वानुगुण्यतः-सांसारिकसुखासक्तजन्त्वानुगुण्यतो भगवतेदं देशनामात्रं कृतं शाश्वतभावास्थानिवृत्त्यर्थमिति, तदा युज्यत एव, देशनाया विनेयानुगुण्येनान्यथापि कथंचित्प्रवृत्तेर्ब्राह्मणमृतजायाऽमृतदेशनावत् । यदप्युक्तं 'यदा हि मोहादात्माऽस्तीत्यभिमान' इत्यादि यावत् 'यावदात्माभिनिवेशस्तावन्न रागादिदोषप्रहाणमिति' तदप्य(प्यय)क्तम, आत्मनि कथंचिन्नित्यरूपेऽपि सति तथाविधक्षयोपशमयोगेन रागादिदोषसंबन्धिनिदानादियाथात्म्यावगमतो निर्वेदभावेन विरतिपरिणामोत्पादने रागादिदोषप्रहाणोपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन यत्पुनरुक्तं- 'यत्तद्धर्मभूतं न तस्य निरन्वयविनाशो यथा ज्ञानस्येति' तत्राचार्यः स्वयमेव- 'धम्मा हवंति दुविहा' इत्यादिना प्रतिविधास्यते। यदप्युक्तम्'यदनादिमत् न तन्निरन्वयविनाशि यथाऽऽकाशमिति' तदप्ययुक्तम्, हेतोरनैकान्तिकत्वात्, प्रागभावेन व्यभिचारात् ॥११८६॥ ગાથાર્થ:- તેથી આત્મા જ નથી. એવી ભાવના રાગાદિદોષના ક્ષયમાં હેત છે એવો પક્ષ અયોગ્ય છે. કેમકે અગાઉ કહેલી યુક્તિઓથી વિરોધ આવે છે. અને હમણાં જ બતાવ્યું તેમ વિપર્યયનો પ્રસંગ આવે છે. જો તમે આ તો સાંસારિકસુખમાં આસક્તજીવના આનુણ્યથી(= તેને ઉપકારક બને તે હેતુથી) ભગવાન (બુદ્ધ) આવી દશનામાત્ર આપી છે, કે જેથી એની જીવન નિત્ય રહેશે એવી આસ્થા દૂર થાય...' એમ કહેતા હો તો તે બરાબર છે. કેમકે દેશના શિષ્યવર્ગના આનુસુયથી (યોગ્યતા, અવસ્થાઆદિ જઇ તેને અનુરૂપ ઉપકારક બને એવા હેતુથી) કયારેક-કોક રીતે અન્યથા પણ અપાય છે. જેમકે બ્રાહ્મણની મરેલી પત્નીઅંગે “નથી મરી’ એવી દેશના. (“આત્મા નિત્ય છે, એનો નાશ થતો નથી. માત્ર આ શરીરનો ત્યાગ કરી અન્ય શરીર ગ્રહણ કર્યું છે. આ દેશના શોકનાશાદિ આનુગુણ્યવાળી હોવાથી યોગ્ય છે.) “જયારે મોહથી આત્મા છે એવું અભિમાન થાય છે.' ઇત્યાદિથી માંડી “જયાં સુધી આત્માઅંગે અભિનિવેશ છે, ત્યાં સુધી રાગાદિ દોષોની હાનિ નથી' ઇત્યાદિ બૌદ્ધોએ જે કંઈ કહ્યું તે બરાબર નથી. કેમકે–આત્મા કથંચિત નિત્ય હોવા છતાં તેવા પ્રકારના સંયોપશમના કારણે રાગાદિદોષસંબંધી નિદાનાદિના યથાર્થ સ્વરૂપના જ્ઞાનથી નિર્વેદ પેદા થાય છે. આ નિર્વેદ વિરતિપરિણામને ઉત્પન્ન કરે છે. આ પ્રમાણે વિરતિપરિણામને પ્રગટાવવામાં રાગાદિદોષોની હાનિ યુનિયુક્ત બને છે. તેથી પ્રસંગથી સર્યું. (અહીં બૌદ્ધોની મિઠાભાવનાનું ખંડન સમાપ્ત થયું. હવે ફરીથી અસર્વશવાદીની બાકી રહેલી દલીલો તોડવાનું શરુ કરે છે....) +++**** **** *****घर्भ -ला -263* * * * * * * * * * * * * Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************** सर्वसिदि ** * * ** * * * * ** **++++ વળી અસર્વજ્ઞવાદીએ “આત્માના જે ધર્મભૂત હોય તેનો નિરન્વયનાશ થતો નથી જેમકે જ્ઞાનનો' (ગા. ૧૧૩૮) એવું જે કહ્યું, તેને આચાર્ય પોતે જ ધમ્મા હવંતિ' ઇત્યાદિ ગાથાથી જવાબ આપશે. - તથા જે અનાદિમાન શ્રેય તેનો નિરન્વયનાશ ન થાય, જેમકે આકાશ' (ગા. ૧૧૩૮) એવું જે કહ્યું તે પણ બરાબર નથી, કેમકે નિરન્વયવિનાશરૂપ સાધ્યમાટે અનાદિમરાહત અનેકાંતિક છે. કેમકે “પ્રાગભાવને લઇને વ્યભિચાર આવે છે. (નૈયાયિકાદિ ઘટાદિકાર્યની ઉત્પત્તિપૂર્વે તે ઘટાદિનો પ્રાગભાવ માને છે....... આ પ્રાગભાવ તેઓને મતે અનાદિકાલીન છે, અને ઘટાદિ ઉત્પન્ન થતાં એ પ્રાગભાવ નષ્ટ થાય છે. આમ, આ પ્રાગભાવ અનાદિમાનતરીકે માન્ય હોવા છતાં તેનો નાશ ઇષ્ટ છે. ૧૧૮૬ ધર્મો ધર્માધી ભિનાભિન यच्चोक्तम्- 'धम्मा य धम्मिणो किं भिन्नेत्यादि' तत्र प्रतिविधानमाह - અસર્વજ્ઞવાદીએ “ધર્મો ધર્માધી ભિન્ન છે કે અભિન' (ગા. ૧૧૩૯) એવું જે કહ્યું તેનો હવે જવાબ આપે છે धम्मा य धम्मिणो इह भिन्नाभिन्ना भवंति नायव्वा । नवि(हि) धम्मिधम्मभावो जुज्जइ एगंतवादम्मि ॥११८७॥ (धर्माश्च धर्मिण इह भिन्नाभिन्ना भवन्ति ज्ञातव्याः । नहि धर्मिधर्मभावो युज्यत एकान्तवादे ॥) T: सकाशादिह-जगति भिन्नाभिन्ना-जात्यन्तरात्मकभेदाभेदोपेता भवन्ति ज्ञातव्याः, नत भिन्ना नाप्यभिन्ना अपि तु परस्परसंलुलितभेदाभेदसमन्विताः, कुत इत्याह-हिः-यस्मादेकान्तवादेऽभ्युपगम्यमाने सति धर्मधर्मिभावो न युज्यते ॥११८७॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં ધર્મો ધર્માથી ભિન્નભિન્ન છે– ભેદ અને અભેદથી વિલક્ષણ એવી ભેદભેદજાતિથી યુક્ત છે, તેમ સમજવું. ધર્મો ધર્મીથી ભિન્ન પણ નથી, અભિન્ન પણ નથી, પરંતુ પરસ્પર અનુવિદ્ધ ભેદભેદથી યુક્ત છે. કેમકે એકાન્તવાદના સ્વીકારમાં ધર્મ-ધર્મિભાવ યુનિયુક્ત ન થાય. ૧૧૮૭ कथमित्याह - કેમ યુક્તિયુક્ત ન થાય? તે બતાવે છે. एगंतभेदपक्खे धम्मा एयस्स को णु संबंधो ? । एगंताभेदम्मिऽवि दुहाभिहाणादि कह जुत्तं ? ॥११८८॥ (एकान्तभेदपक्षे धर्मा एतस्य को नु सम्बन्धः ? । एकान्ताभेदेऽपि द्विधाऽभिधानादि कथं युक्तम् ॥ एकान्तभेदपक्षे सति ‘एतस्य धर्मिणः संबन्धिनो धर्मा' इति को नु संबन्धः स्यात् ? किं तादात्म्यलक्षणस्तदुत्पत्तिलक्षणः समवायलक्षणो वा ? नैव कश्चिदितिभावः । भेदाभ्युपगमे सति तादात्म्यायोगात्, कार्यकारणभावानभ्युपगमाच्च तदत्पत्तेरप्ययोगात, समवायस्य प्रागेव प्रतिषिद्धत्वादिति । स्यादेतत, मा भूदेकान्तभेदपक्षे धर्मधर्मिभावः, अभेदपक्षे भविष्यतीत्येतदाशङ्क्याह→ एकान्ताभेदेऽप्यभ्युपगम्यमाने द्विधाभिधानादि-धर्मधर्म्यभिधानादि कथं युक्तं? नैव कथंचनेति भावः । तथाहि-एकान्तेनाभेदे सति धर्ममात्रं वा स्यात् धर्मिमात्रं वा इतरेतराव्यतिरिक्तत्वात्, इतरेतरस्वरूपवत्, तथा च सति कथं 'धर्मी, धर्मा' इति द्वयोरभिधानमुपपद्यते? एकतरस्यैव सत्त्वात्, आदिशब्दादेकस्याप्यभिधानमयुक्तमिति परिगृह्यते, तयोरात्मलाभस्येतरेतरनान्तरीयकत्वात्, धर्मनान्तरीयको हि धर्मी धर्मिनान्तरीयकाश्च धर्माः, ततोऽनयोरेकतरस्याभावेऽन्यतरस्याप्यभाव इत्येकस्याप्यभिधानमयुक्तमिति तस्माद् भेदाभेदपक्ष एव धर्मधर्मिणोः समीचीनः । ननु भेदाभेदपक्षोऽपि कथं समीचीनो यावता तत्रापि येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव, ततश्च तदपेक्षया कथं तयोः संबन्धः स्यात् ? येन चाकारेणाभेदस्तेनाभेद एव ततश्च तदपेक्षया तयोरेकान्तेनैकत्वमिति द्वयाभिधानमयुक्तम्, तदुक्तम्- “भेदाभेदोक्तदोषाश्च, तयोरिष्टौ कथं न वा? प्रत्येकं ये प्रसज्यन्ते, द्वयोर्भावे कथं न ते ? ॥१॥ इति" || अथ येनैवाकारेण भेदस्तेनैवाभेदो येनैव चाभेदस्तेनैव भेद इति, तदप्ययुक्तम, विरोधात, तथाहि-येनाकारेण भेदः कथं तेनैवाभेदः, अथाभेदः कथं भेद इति? तदेतदसमीचीनम्, अन्योऽन्यव्याप्तिलक्षणजात्यन्तरात्मकभेदाभेदपक्षाभ्युपगतावुक्तदोषाणामनवकाशात् । धर्मा हि धर्मिणा सह परस्परं लोलीभावेनावस्थितास्ततो न तयोर्भेद एव, तद्भावे सति लोलीभावस्यानुपपद्यमानत्वात्, नाप्यभेद एव, तथा च ++ + + + + + + + ++ +++++ AGER-AIN२ - 264+++++++++++++++ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ q ܦ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ सति परस्परमिति विशेषणानुपपत्तेः, द्वयोर्हि विविक्तस्वरूपलाभे सति परस्परमित्युपपद्यते नान्यथेति, उक्त च - " अन्योऽन्यमिति यद्भेदं, व्याप्तिश्चाह विपर्ययम् । भेदाभेदे द्वयोस्तस्मादन्योऽन्यव्याप्तिसंभवः ॥ १ ॥ इति । न चात्रोभयपक्षभाविनो दोषा आपद्यन्ते, केवलभेदा भेदलक्षणोभयानभ्युपगमेन तन्निबन्धनानां तेषामिहावकाशायोगात् । धर्मिधर्मा हि स्वभावत एवेत्थमन्योऽन्यसंलुलिता येन न तेषामंशेन भेदोऽभेदो वा केवलः शक्यो व्यवस्थापयितुमिति ॥ ११८८ ॥ ગાથાર્થ:- એકાન્તભેદપક્ષમા આ ધર્મના સંબંધી આ ધર્મો” એવા વિચાર-વ્યવહારમા કયો સંબંધ હશે? શુ (૧) તાદાત્મ્યરૂપ કે (૨) તદુત્પત્તિરૂપ કે (૩) સમવાયરૂપ? અર્થાત્ આ ત્રણમાંથી એકે સંબંધ ધટતો નથી. ભેદપક્ષનો આશ્રય કર્યો હોવાથી તાદાત્મ્યસંબંધ બેસતો નથી (કેમકે બે અભિન્નવસ્તુવચ્ચે તાદાત્મ્ય ઇષ્ટ છે.) ધર્મ-ધર્માંવચ્ચે કાર્ય-કારણભાવ સ્વીકાર્યો ન હોવાથી તદુત્પત્તિસંબંધ પણ સંભવે નહીં. (કેમકે જયા કાર્ય-કારણભાવ હોય, ત્યાં જ તદુત્પત્તિસંબંધ ઇષ્ટ છે.) અને સમવાયનો તો પૂર્વે જ પ્રતિષેધ કર્યો છે. એમ થાય કે એકાન્તભેદપક્ષે ધર્મ-ધર્મિભાવ ભલે ન હો.... એકાન્ત અભેદપક્ષે તો હશે જ આવી આશંકાનો જવાબ તૈયાર છે → એકાન્તાભેદપક્ષ સ્વીકારવામાં ધર્મ-ધર્મી એવા બે પ્રકારના નામાદિ વ્યવહાર કેવી રીતે યુક્તિયુક્ત થાય? ન જ થાય. તથાહિ- એકાન્તાભેદ હોય તો કાંતો માત્ર ધર્મ જ રહે, કાંતો માત્ર ધર્માં જ રહે. કેમકે પરસ્પર તેઓ અભિન્ન છે. જેમકે પરસ્પરનું સ્વરૂપ. તેથી ધર્મી ધર્મો' એમ બન્નેના અલગ-અલગ નામ શી રીતે સંગત ઠરે? કેમકે બેમાંથી એક જ છે. અહીં ‘અભિધાનાદિ’મા આદિથી બે પ્રકારે નામ તો સંગત ન થાય, પણ એકનુ પણ નામ અસંગત થાય એમ સમજવું, કેમકે ધર્મઅને ધર્માં આ બન્નેને પોતપોતાની સત્તામાટે પરસ્પર વિના ચાલે એમ નથી. ધર્મ હોય તો જ ધર્મી હોય, અને ધર્મી હોય તો જ ધર્મ હોય. તેથી બેમાંથી એકના પણ અભાવમાં બીજાનો પણ અભાવ આવે જ. તેથી એકનું પણ અભિધાન અયોગ્ય ઠરે. તેથી ધર્મ-ધર્માંવચ્ચે ભેદાભેદપક્ષ જ યોગ્ય છે. શંકા:- ભેદાભેદપક્ષ પણ શી રીતે યોગ્ય ઠરે? કેમકે તેમાં પણ જે આકારે-રૂપે ભેદ ઇષ્ટ છે, તે રૂપે ભેદ જ છે. તેથી તે ભેદની અપેક્ષાએ કેવી રીતે ધર્મ-ધર્માંવચ્ચે સંબંધ બેસે? તથા જે આકારે અભેદ છે, તે આકારે અભેદ જ છે. તેથી બન્નેનું અભિધાન અયોગ્ય છે. કહ્યું જ છે કે → ભેદ–અભેદ બન્નેને ઇચ્છવામા ભેદાભેદના કહેલા દોષો કેમ ન આવે? જે પ્રત્યેકમા પ્રસંગ પામે, તે બન્નેના સંયોગમા કેમ પ્રસંગ ન પામે?” હવે જો તમે અમે તો જે આકાર ભેદ છે, તે જ આકારે અભેદ, અને જે આકારે અભેદ છે, તે જ આકા૨ે ભેદ એમ કહીએ છીએ' એમ કહેશો તો તે પણ બરાબર નથી. કેમકે તેમા વિરોધ છે, તે આ પ્રકારે– જે આકારે ભેદ હોય, તે જ આકારે અભેદ કેવી રીતે સંભવે? અને જો અભેદ હોય તો ભેદ કેવી રીતે હોય? સમાધાન:- આ બધો વિસ્તાર અર્થહીન છે. કેમકે ભેદાભેદને પરસ્પર અત્યંતવ્યાપ્ત થવારૂપ એક અલગ જ જાતિરૂપ માનીએ છીએ. તેથી ઉપરોક્ત દોષોને અવકાશ નથી. ધર્મો ધર્મીસાથે પરસ્પર એકમેક ભાવે રહેલા છે. તેથી તે બેવચ્ચે એકાન્તે ભેદ નથી, કેમકે એકાન્તે ભેદ માનવામાં એકમેકભાવ અસંગત થાય. તે જ પ્રમાણે એકાન્તઅભેદ પણ નથી, કેમકે તેમા ‘પરસ્પર' આ પ્રમાણે-વિશેષણ અસંગત ઠરે... ( કેમકે જે એક જ હોય તેમા ‘પરસ્પરતા’ આવે કચાથી?) કેમકે બન્ને સ્વતંત્ર રીતે સ્વરૂપલાભ પામે, તો જ ‘પરસ્પરતા' સંગત બને, નહીંતર નહીં. કહ્યું જ છે કે “અન્યોન્ય એમ કહેવાથી ભેદ અને વ્યાપ્તિ કહેવાથી અભેદ. આમ ભેદાભેદમાં બન્નેની (ધર્મ-ધર્માંની) અન્યોન્યવ્યાપ્તિ સંભવે છે.” અને ભેદાભેદરૂપ જાત્યંતરના સ્વીકારમા ભેદપક્ષ અને અભેદપક્ષ–ઉભયમા સંભવતા દોષો આવવાની આપત્તિ નથી. માત્ર ભેદરૂપ કે માત્ર અભેદરૂપ ઉભયના અસ્વીકારથી તે બન્નેના કારણે સંભવતા દોષોનો અહીં' અવકાશ જ નથી. ધર્મી અને ધર્મો સ્વભાવથી જ આ પ્રમાણે પરસ્પરાનુવિદ્ધ છે કે જેથી તે બેમા અશથી માત્ર ભેદ કે અભેદનો નિર્ણય કરવો શકચ નથી. ૫૧૧૮૮૫ अमुमेव जात्यन्तरात्मकं भेदाभेदं दर्शयति - આચાર્યવર આ જાત્યંતરાત્મક ભેદભેદનુ જ હવે દર્શન કરાવે છે– एगो धम्मी धम्माऽणेगे जं तेण होंति भिन्न त्ति । जं पुण तेऽणुविद्धा सव्वेऽवि अतो अभिन्न ति ॥११८९ ॥ (एको धर्मी धर्माऽनेके यत्तेन भवन्ति भिन्ना इति । यत्पुनस्तेनानु विद्धाः सर्वेऽपि अतोऽभिन्ना इति ॥ ) यद्यपि धर्मा धर्मिणा लोलीभावेन व्याप्तास्तथाप्ययमेको धर्मी अनेके चामी धर्मा इति यत् - यस्मात् स्वरूपवैविक्त्यपरः प्रत्यय उपजायते तेन कारणेन धर्मी धर्माश्च परस्परं भिन्ना भवन्ति । यत् - यस्मात् पुनस्तेन धर्मिणा अनुविद्धा-लोलीभावेन જ ધર્મસગ્રહણ-ભાગ ૨ - 265 * * * ી આ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याप्ता आत्मसात्कृताः सर्वेऽपि धर्मा अतः - अस्मात्कारणात्तेऽभिन्ना भवन्ति । नचेमौ भेदाभेदावत्यन्तविविक्तावन्योऽन्यं व्याप्तिभावाद्, अतो जात्यन्तरात्मक एव भेदाभेदो धर्मधर्मिणोरिति ॥११८९ ॥ ગાથાર્થ:- જો કે ધર્મો ધર્માંથી એકમેકરૂપે વ્યાપ્ત થયેલા છે, છતાં, આ એકધર્મી અને પેલા અનેકધર્મો' એવો સ્વરૂપભેદપરક પ્રત્યય ઉત્પન્ન થાય છે. તે કારણે ધર્મી અને ધર્મો પરસ્પર ભિન્ન છે. વળી, તેજ ધર્યાંથી તે બધા ધર્મો અનુવિદ્ધ छे-व्याप्त छे. खात्मसात् राया छे. तेथी तेखो (धर्भी अने धर्मो ) अभिन्न छे. वणी खा लेह खने खले अत्यंत लिन्न નથી, કેમકે અન્યોન્યમા વ્યાપ્તિ પામેલા છે. તેથી ધર્મ-ધર્માંવચ્ચેનો ભેદાભેદ અન્યજાતિરૂપ જ છે. ૫૧૧૮૯લા अमुमेव स्पष्टतरं भावयति ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ l] ܗܪ ܀܀܀܀ - આ જ વાતને વધુ સ્પષ્ટરૂપે ભાવિત કરે છે णेयप्पमेयभावोऽवत्थाभेदो य चित्तव तु । एमादि होंति धम्मा धम्मी पुण तेसिमाहारो ॥ ११९०॥ (ज्ञेयप्रमेयभावोऽवस्थाभेदश्च चित्ररूपस्तु । एवमादयो भवन्ति धर्मा धर्मी पुनस्तेषामाधारः II) यो ज्ञेयप्रमेयभावोऽवस्थाभेदश्च यो विचित्ररूप एवमादयो धर्मा भवन्ति । धर्मी पुनरेतेषां धर्माणामाधारःसमानपरिणामलक्षणः, तत एतेषां जात्यन्तरात्मक एव भेदाभेद इति ॥११९० ॥ गाथार्थ:- धर्भानो ने ज्ञेय-प्रभेयभाव छे (ज्ञेय-सामान्यथी ४ ज्ञान २वा योग्य प्रभेय-प्रभाथी निश्यय १२वा योग्य) तथा ने વિચિત્રરૂપ અવસ્થાભેદ છે. આવા બધા ધર્મો છે. આ બધા ધર્મોનો સમાનપરિણામરૂપ આધાર ધર્મી છે. (અસમાનધર્મોગત જે સમાનપરિણામરૂપતા(સામાનાધારની આધેયતારૂપ અર્થાત્ સામાનાધિકરણ્ય) ભાસે છે તે તેમના આધારભૂત ધર્મીના કારણે છે. અથવા કૃષ્ણવર્ણાદિરૂપધર્મોનું સમાન=સરખું પરિણામ (કૃષ્ણવર્ણાદિ) જે પામે તે આધારભૂત ધર્મી. ધર્મી પરિણામી છે. અને ધર્મો ધર્મીમા પોતપોતાને સમાનપરિણામ ઊભા કરે છે. આમ ધર્મને સમાનપરિણામવાળો ધર્મી હોય.) તેથી ધર્મો અને ધર્મી વચ્ચેનો ભેદાભેદ જાત્યન્તરરૂપ છે. ૧૧૯ના ધર્મોની અનેક્તા तत्र यदुक्तम्- ' एगो धम्मी धम्माणेगे' इति । तत्र धर्माणामनेकत्वं विपक्षे बाधकप्रमाणोपन्यासेन समर्थयते તેમા ગા. ૧૧૮૯માં જે કહ્યુ કે → ધર્મી એક છે અને ધર્મો અનેક છે' તેમા ધર્મોની એકતારૂપ વિપક્ષમાં બાધકપ્રમાણ બનાવવાદ્વારા ધર્મોની અનેકતાનું સમર્થન કરતાં કહે છે– सव्वेसिं एगत्ते अविसिट्ठा नेयबुद्धिमो सव्वा । ++ पावइ भिन्ना य तई अणुहवसिद्धा तु सव्वेसिं ॥११९१ ॥ (सर्वेषामेकत्वेऽविशिष्टा ज्ञेयबुद्धिः सर्वा । प्राप्नोति भिन्ना च सकाऽनुभवसिद्धा तु सर्वेषाम् ॥) सर्वेषां धर्माणामेकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सति अविशिष्टा ज्ञेयबुद्धिरेव केवला सर्वा विवक्षितवस्तुधर्मविषया बुद्धिः प्राप्नोति 'मो' निपातोऽवधारणे । अस्त्वेवं का नो हानिरिति चेत् अत आह 'भिन्ना यतइत्ति' चो हेत्वर्थे, यस्माद्भिन्नाभिन्नस्वरूपा परस्परं 'तइ त्ति' सका विवक्षितवस्तुधर्मविषया बुद्धिः । न चैतत्बुद्धिभेदप्रतिभासनं भ्रान्तिरिति वाच्यं, यत आह - 'अणुहवसिद्धा उ सव्वेसिं' सर्वेषां - देशकालावस्थाभेदभिन्नानां प्रमातॄणां तुर्हेतौ यस्मादियं विवक्षितवस्तुधर्म बुद्धिः परस्परं भिन्ना प्रतिभासमाना अनुभवसिद्धा - स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धा, सती बुद्धिरियं भ्रान्तिरिति न शक्यते वक्तुं, मा भूदतिप्रसङ्गः, तस्मान्नेदं बुद्धिभेदप्रतिभासनं भ्रान्तिमात्रं न चैषा भिन्ना बुद्धिरभ्रान्ता धर्माणां परस्परं भेदमन्तरेणोपपद्यते, विषयमन्तरेण प्रवृत्तौ भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् तस्मान्न तेषां धर्माणामेकत्वं किंत्वनेकत्वमेव । तदनेन धर्माणामनेकत्वानभ्युपगमे बुद्धिभेदविषयस्वसंवेदन प्रमाणानुपपत्तिलक्षणं बाधकं प्रमाणमुपदर्शितम् ॥ ११९१ ॥ ગાથાર્થ:- બધા જ ધર્મોનું જો એકત્વ સ્વીકારવામાં આવે તો વિવક્ષિતવસ્તુના ધર્મોઅંગે માત્ર સમાનરૂપ જ્ઞેયબુદ્ધિ જ પ્રવર્તે. અર્થાત્ વસ્તુના બધા જ ધર્મોઅંગે એકસરખી જ બુદ્ધિ થાય. (‘મો' પદ જકારાર્થક નિપાત છે.) - શંકા:- ભલેને બધા જ ધર્મોઅંગે એકરૂપ બુદ્ધિ થાય... અમને શો વાંધો છે? सभाधान:- ('य'यह बेत्वर्थ छे.) विविक्षित वस्तुना दूध भूहा धर्मोखंगे भिन्न-भिन्न स्वश्यवाणी बुद्धि थाय छे. એકસરખી–એકરૂપબુદ્ધિ થતી નથી. આ બુદ્ધિમા ભેદનો પ્રતિભાસ ભ્રાન્તિરૂપ છે. તેમ ન કહેવુ. કેમકે દેશ-કાળ –અવસ્થાભેદથી ભિન્ન એવા બધા જ પ્રમાતાઓને વિવક્ષિતવસ્તુના ધર્મોઅંગે થતી બુદ્ધિ પરસ્પરભિન્નરૂપે પ્રતિભાસ થતી ******धर्मसंग्रह- लाग २ - 266***** * * * * * * Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વત્ર સિદ્ધિ + * * * * * * * * * * * * * * * * * સ્વસંવેદનથી અનુભવસિદ્ધ છે. (“તુ'પદ હેતસૂચક છે.) તેથી આ બુદ્ધિને ભ્રાન્તિ:૫ કહેવી નહીં– અન્યથા અતિપ્રસંગ છે. તેથી આ બુદ્ધિભેદનો પ્રતિભાસ માત્ર ભ્રાન્તિરૂપે નથી. અને આ અભ્રાન્ન ભિન્નબુદ્ધિ ધર્મોના પરસ્પર ભેદ વિના યુક્તિયુક્ત બને નહીં. કેમકે તેવા વિષય વિના જો બુદ્ધિ તરૂપે પ્રવૃત્ત થાય, તો તે અભ્રાન્તન રહેતા ભ્રાન્ત થવાનો પ્રસંગ આવે. તેથી ધર્મોમાં એકતા નથી, પણ અનેકતા છે. આમ ધર્મોમાં અનેકતાના અસ્વીકારમાં બુદ્ધિભેદવિષયક સંવેદન પ્રમાણની અનુ૫પત્તિરૂપ બાધકપ્રમાણ બતાવ્યું. ૧૧૯૧ાા स्यादेतत्, ज्ञेयत्वमेव केवलमनेकस्वभावतया भिन्नबुद्धिप्रतिभासनिबन्धनं, तन्न तद्वशाद्धर्मानेकत्वव्यवस्थेत्याह - શંકા:- માત્ર યત્વ જ અનેક સ્વભાવવાળું છે. તેથી તે (જ્ઞયત્વ) ભિન્ન બુદ્ધિપ્રતિભાસમાં કારણ છે. તેથી એવી બુદ્ધિના કારણે ધર્મોની અનેકતાનો નિર્ણય કરવો વ્યાજબી નથી. અહીં સમાધાનમાં કહે છે तस्सेवऽणेगस्वत्तणम्मि सिद्धो तु धम्मभेदो त्ति । अविगाणबुद्धिसिद्धस्स निण्हवेऽतिप्पसंगो य ॥११९२॥ (तस्यैवानेकरूपत्वे सिद्धस्तु धर्मभेद इति । अविगानबुद्धिसिद्धस्य निहवेऽतिप्रसंगश्च ॥) तस्यैव - ज्ञेयत्वस्यानेकरूपत्वेऽभ्युपगम्यमाने सति सिद्ध एव धर्मभेदो, रूपाणामेव धर्मशब्दवाच्यत्वात्तेषां चानेकत्वात्, • केवलं प्रकारान्तरेणाभ्युपगतस्तद्वरं धर्मिण एवानेके धर्माः सन्तु, तथा लोकानुभवसिद्धेः, न ज्ञेयत्वस्य, विरोधात्, नहि धर्मस्य धर्मा भवन्ति, भावे वा धर्मित्वप्राप्तेधर्मत्वव्याघात इति । तदेवं युक्त्यनुभवाभ्यामविगानबुद्धिसिद्धस्य धर्मभेदस्य यदि निहवः क्रियते तर्हि तस्मिन्सति सकलशून्यतापत्त्याऽतिप्रसङ्ग एव प्राप्नोतीति यत्किंचिदेतत् ॥११९२॥ ગાથાર્થ:-સમાધાન:-તે શેયત્વની જ અનેકરૂપતાના સ્વીકારમાં ધર્મભેદ સિદ્ધ જ થાય છે. કેમકે રૂપો જ ( સ્વરૂપે જ) ધર્મ' શબ્દથી વાચ્ય છે. અને તેવા રૂપ અનેક છે. આમ તમે પ્રકારાન્તરે અનેકતા સ્વીકારી. તેથી એ જ સારું છે કે ધર્મીના જ અનેક ધર્મો છે. કેમકે તેમ જ લોકનુભવસિદ્ધ છે. (લોકસિદ્ધ અને અનુભવસિદ્ધ છે- અથવા લોકોને અનુભવસિદ્ધ છે.) નહીં કે mયત્વના અનેક ધર્મો. કેમકે યત્વના અનેક ધર્મો સ્વીકારવામાં વિરોધ છે, કેમકે ધર્મના ધર્મો હોતા નથી, તેથી જોયવાદિમાં ધર્મો હોય, તેમ માનો તો તે ધર્મરૂપ ન રહેતા ધર્મી બની જવાની આપત્તિ આવે. આમ યુક્તિ અને અનુભવથી નિર્વિરોધબુદ્ધિથી ધર્મભેદ સિદ્ધ છે. છતાં એ ધર્મભેદને છૂપાવવા પ્રયત્ન કરશો, તો એ પ્રમાણે સર્વશૂન્યતાની આપત્તિથી અતિપ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી આ તુચ્છ છે. ૧૧૯૨ાા ધર્મીની એક્તા तदेवं धर्माणामनेकत्वमभिधाय सांप्रतमेको धर्मीति समर्थयमान आह - આમ ધર્મોની અનેકતા બતાવી. હવે “ધર્મી એક છે. તેનું સમર્થન કરતાં કહે છે . चेतणरूवादीया बालकुमारादिघडकवालादी । इह भेदबुद्धिसिद्धा सत्ताधाराऽविगाणेणं ॥११९३॥ (चैतन्यरूपादयो बालकुमारादयो घटकपालादयः । इह भेदबुद्धिसिद्धाः सत्त्वाधारा अविगानेन ॥) चैतन्यरूपादयो बालकुमारत्वादयो घटकपालादयश्च सर्वे धर्मा इह-जगति भेदबुद्ध्या-भिन्नप्रतिभासया बुद्ध्या अविगानेन सिद्धाः, सत्त्वाधारा-सदितिप्रत्ययहेतुपरिणतिविशेषलक्षणधाधाराः सन्तो, नत्वन्यथा, निराश्रयाणां तेषामसंभवात् । तस्माद्यथोक्तसत्त्वलक्षणस्तदाश्रयो धर्मी प्रतिपत्तव्य इति ॥११९३॥ ગાથાર્થ:- જો સત' એવા પ્રત્યયમાં કારણભૂત પરિણતિવિશેષરૂપ સત્પાત્મક એક આધાર હોય, તો જ ચૈતન્ય-રૂપવગેરે, શૈશવ-કૌમાર્યવગેરે અને ઘટ-કપાલવગેરે ધર્મો આ જગતમાં ભિન્ન પ્રતિભાસાત્મક બુદ્ધિથી નિર્વિવાદ સિદ્ધ થાય, અન્યથા નહીં, કેમકે નિરાશ્રય ધર્મો સંભવતા નથી. તેથી યથોક્ત સત્વરૂપ ધર્મી ધર્મોના આધારતરીકે સ્વીકર્તવ્ય છે. ૧૧૯૩ इदानीं धर्मिणा सह धर्माणां भेदाभेदमपदर्शयति - હવે, ધર્મી સાથે ધર્મોનો ભેદભેદ બતાવે છે सत्ताओ अन्नत्ते असत्तमेसिं तहा अणन्नत्ते । तम्मत्तय त्ति तम्हा अन्नाणन्ना तु णियमेणं ॥११९४॥ (सत्त्वादन्यत्वेऽसत्त्वमेषां तथाऽनन्यत्वे । तन्मात्रतेति तस्मादन्यानन्यास्तु नियमेन ॥ + + * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 267 * * * * * * * * * * * * Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * સર્વ સિદ્ધિ * * * * * * * * * * * * * * * * * * सत्त्वात्सकाशादेषां ज्ञेयत्वचैतन्यादीनां धर्माणामन्यत्वे-एकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने सत्यसत्त्वमेव प्राप्नोति, सत्त्वादन्यत्वात्, खरविषाणवत् । तथा अनन्यत्वे-एकान्तेनाभेदे सति तन्मात्रता-धर्मिमात्रता धर्ममात्रता वा केवला प्राप्नोति, न तूभयम्, अथ चेदमनुभवसिद्धं यथोक्तमनन्तरं, तस्मादन्यानन्या-भिन्नाभिन्ना धर्मिणः सकाशादेते धर्मा नियमेनाभ्युपगन्तव्या, यथा दर्शितं प्राक् ॥११९४॥ ગાથાર્થ:- જો શેયત-ચૈતન્યાદિ ધર્મો સત્વથી એકાતે ભિન્ન સ્વીકારો, તો તેઓ (ચૈતન્યાદિ) અસત થવાનો પ્રસંગ આવે. કેમકે ગધેડાનાં શિંગડાની જેમ સત્વથી ભિન્ન છે. તથા જો ચૈતન્યાદિધર્મો સત્વથી એકાન્ત અભિન્ન રોય, તો કાં તો કેવલ ધર્મીમાત્ર, કાં તો કેવલ ધર્મમાત્ર જ રહેવાની આપત્તિ આવે. નહીં કે બન્ને (ધર્મ અને ધર્મી). પરંતુ હમણાં જ પૂર્વે કહ્યું, તેમ બને (ધર્મ-ધર્મા) અનુભવસિદ્ધ છે. તેથી આ ધર્મો ધર્મથી પૂર્વ બતાવ્યું તેમ ભિન્નભિન્ન છે, તેમ અવશ્ય સ્વીકારવું જોઇએ. ૧૧૯૪ ભેદભેદપક્ષની નિર્દોષતા तदेवं धर्मधर्मिभेदाभेदमभिधाय सांप्रतं यथाऽस्मिन्निर्दोषता तथा दर्शयति - આમ ધર્મ-ધર્મીવચ્ચે ભેદભેદ બતાવ્યો. હવે આ ભેદભેદની નિર્દોષતા પ્રગટ કરે છે. एएणं पडिसिद्धा भेदाभेदादिया तु जे दोसा । जम्हा एगंतातो वत्तरमो अणेगंतो ॥११९५॥ (एतेन प्रतिषिद्धा भेदाभेदादिकास्तु ये दोषाः । यस्मादेकान्ताद् वस्त्वन्तरमनेकान्तः ॥ एतेन-अनन्तरोदितेन भेदाभेदव्यवस्थापनेन ये परस्परविविक्तैकान्तभेदाभेदलक्षणमुभयपक्षमाश्रित्य दोषाः परैरभिधीयन्ते यथा-'तत्रापि येनाकारेणाभेदस्तेनाभेद एवे' त्यादयस्ते सर्वेऽपि प्रतिषिद्धा एव द्रष्टव्याः । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, स च यथास्थानं योजितः । कथं पुनस्ते दोषाः प्रतिषिद्धा इत्यत आह- 'जम्हेत्यादि' यस्मादेकान्तात् पराभ्युपगतादनेकान्तोऽस्मदभ्युपगतो वस्त्वन्तरं-जात्यन्तरं, तत्कथंतत्पक्षभाविनो दोषा इह लगेयुरिति। इदमुक्तं भवति-न परस्परविविक्तौ दाभेदावपीष्येते येन प्रत्येकभाविनो दोषाः समदायेऽपि प्रसज्येरन, किंत्वभेदानविद्धो भेदो भेदानविद्धश्चाभेदो जात्यन्तरं, ततो नोक्तदोषावकाश इति । तेन यदुक्तम्- 'पढमपक्खम्मि सव्वे वि वीयरागा' इत्यादि, तत्र न सर्वेषां वीतरागत्वप्रसङ्गो, धर्मधर्मिणोरेकान्तभेदानभ्युपगमात्, नाप्यात्मनः स्वरूपापगमप्रसङ्ग एकान्ताभेदस्याप्यभावादिति ॥११९५॥ ગાથાર્થ:- આમ ઉપરોક્તતર્કમુજબ ભેદભેદનો નિર્ણય કરવાથી હવે પરસ્પરસ્વતંત્ર એકાન્તભેદ અને એકાને અભેદરૂપ ઉભયપક્ષને આશ્રયી જે દોષો બીજા બતાવે છે-જેમકે – “તેમાં પણ જે આકારે અભેદ હોય, તે આકારે અભેદ જ હોય ઈત્યાદિ, તે બધા જ દોષોમાટે દ્વાર બંધ થાય છે, એમ સમજવું. (મૂળમાં “તુ'પદ જકારાર્થક છે અને પડિસિદ્ધા-પ્રતિષેધ પદસાથે સંબંધિત છે.) આ દોષોમાટે દ્વાર કેમ બંધ થાય છે? તે બતાવે છે જમ્યા' ઇત્યાદિ. અમે સ્વીકારેલો અનેકાન્ત બીજાઓએ સ્વીકારેલા એકાન્સ કરતાં ભિન્ન જાતીય છે. તેથી એકાન્તવાદની જાતિને લાગતા દોષો અનેકાન્તની જાતિને લાગતા નથી. તાત્પર્ય:-અમે ભેદ કે અભેદ તો ઇચ્છતા જ નથી, પણ સ્વતંત્ર હેય, તેવા ભેદભેદને પણ સ્વીકારતા નથી. તેથી પ્રત્યેકમાં રહેલા દોષોનો સમુદાયમાં પણ અવવાનો પ્રસંગ નથી. અમે તો અભેદથી અનુવિદ્ધ- પરોવાયેલો ભેદ, અને ભેદથી અનુવિદ્ધ અભેદ એવો ભેદભેદ સ્વીકારીએ છીએ. આ ભેદભેદ ભિન્નજાતીય છે. તેથી કહેલા દોષોને અવકાશ નથી. તેથી પૂર્વપક્ષે “પઢ મકખશ્મિ' (ગા. ૧૧૩૯-પ્રથમ(ભેદ પક્ષે બધા જ વીતરાગ થવાની આપત્તિ છેએવી કરેલી વાત તથ્યહીન પૂરવાર થાય છે, કેમકે બધાને વીતરાગ થવાનો પ્રસંગ નથી, કેમકે ધર્મ-ધર્મીવચ્ચે એકાન્ત ભેદ સ્વીકાર્યો નથી. એ જ પ્રમાણે ગા. ૧૧૪૦માં અભેદપક્ષે જીવના સ્વરૂપના નાશનો આપેલો પ્રસંગ પણ બરાબર નથી, કેમકે એકાન્તાભેદ પણ સ્વીકાર્યો નથી. ઘ૧૧૯પા ધમીંધી કથંચિદભિન્ન રાગાદિનો સર્વથા નાશ સુશકય अत्र पर आह - અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે.... एवं पि तेसिँ ण खयो एगंतेणेव धम्मिणो जम्हा । तेऽभिन्नावि कहंची ण य णासो सव्वहा तस्स ॥११९६॥ (एवमपि तेषां न क्षय एकान्तेनैव धर्मिणो यस्मात् । तेऽभिन्ना अपि कथञ्चिद् न च नाशः सर्वथा तस्य ॥ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંવાણિ -ભાગ ૨ - 268 * * * * * * * * * * * * * * * Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ m ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ de ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ एवमपि यद्यपि धर्मधर्मिणोर्भेदाभेदाभ्युपगमस्तथापि तेषां-रागादिदोषाणां नैकान्तेनैव क्षयः प्राप्नोति, यस्माद्धर्मिणः सकाशात्ते-धर्मा रागादिरूपा अभिन्ना अपि कथंचित् विद्यन्ते, न च तस्य-धर्मिणः सर्वथा-निर्मूलत एव नाशो, यथा सौगतैरभ्युपगम्यते, ततो धर्मिवत् रागादीनामपि धर्माणां ततः कथंचिदनन्यत्वात् नैकान्तेनैव क्षय इति ॥११९६॥ આ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- આમ જો કે ધર્મ-ધર્મીનો ભેદભેદઅભ્યાગમ સ્વીકાર્યો, છતાં રાગાદિદોષોનો એકાંતશય પ્રાપ્ત થતો નથી. કેમકે ધર્મથી તે રાગાદિધર્મો કંચિત્ અભિન્નરૂપે પણ રહેલા છે. અને ધર્માનો બૌદ્ધોએ સ્વીકાર્યો તેવો સર્વથા-નિર્મળનાશ નથી. તેથી ધર્મીની જેમ-તેનાથી કથંચિત્ અનન્ય હોવાથી રાગાદિધર્મોનો પણ એકાજો ક્ષય નથી. ૧૧૯૬ાા अत्राह - અહીં આચાર્યવર ઉત્તર આપે છે. धम्मा हवंति दुविहा सहजा सहगारिसव्ववेक्खा य । सहजेसु अत्थि एयं ण तु इतरेसुं पि तदभावा ॥११९७॥ (धर्मा भवन्ति द्विविधा सहजाः सहकारिसव्यपेक्षाश्च । सहजेषु अस्ति एतन्न तु इतरेष्वपि तदभावात् ॥ धर्मा भवन्ति द्विविधाः सहजाः सहकारिसव्यपेक्षाश्च । तत्र ये धर्माः सहजास्तेष्वेतत्-पूर्वोक्तमस्ति, यदुत धर्मिवत् धर्माणामपि ततः कथंचिदनन्यतया नैकान्तेनैव क्षयो, यथा ज्ञानस्येति, न तु इतरेष्वपि-सहकारिसव्यपेक्षेष्वेतदन्तरोक्तमस्ति । कुत इत्याह-तदभावात्-सहकार्यभावात् । ते हि सहकारिसंपर्कसंपादितसत्ताकाः, तत्कथं तदभावे ते भवेयः ? अन्यथा तत्सव्यपेक्षत्वस्यैव तेषामनुपपत्तेरिति (पत्तिरिति कपुस्तके) ॥११९७॥ थार्थ:- २५:- धर्मो प्रारना डोय छे. (१) स०४ सने (२)सारी सच्यपेक्ष. मोसंगे पूर्वो पात બરાબર છે કે, ધર્મો ધર્મથી કથંચિત અનન્ય હોવાથી ધર્મીની જેમ ધર્મોનો પણ એકાજો ક્ષય નથી, અહીં તેવા સહજ ધર્મ તરીકે “જ્ઞાન' દષ્ટાન્તભૂત છે. પણ સહકારી સવ્યપેક્ષધર્મોઅંગે આ વાત બરાબર નથી. કેમકે સહકારી કારણોનો અભાવ છે. આ ધર્મો સહકારીના સંપર્કથી જ અસ્તિત્વ પામે છે. તેથી સહકારીઓના અભાવમાં તે ધર્મો કેવી રીતે હોય? જો સહકારી વિના પણ રહેતા હોય, તો તેઓમાં સહકારી સવ્યપેક્ષતા અનુ૫૫ન્ન બને. ૧૧૯૭ यद्येवं ततः किमित्याह - साम.होय तो शु? ते तावे छ रागादिवेदणिज्जस्स कम्मुणो उदयमाइ सहकारी । रागादीणं तस्साभावे य कहं नु ते होंति ? ॥११९८॥ (रागादिवेदनीयस्य कर्मण उदयादिः सहकारी । रागादीनां तस्याभावे च कथं नु ते भवन्ति ? ) रागादिवेदनीयकर्मण उदय आदिशब्दात्तथाविधदेशकालादिपरिग्रहः सहकारी रागादीनां दोषाणामुत्पत्तौ, ततस्तस्यरागादिवेदनीयस्य कर्मणोऽभावे कथं न ते रागादयो दोषा भवन्ति? नैव कथंचनापि भवन्तीति भावः । कारणाभावे कार्याभावात् ॥११९८॥ ગાથાર્થ:- રાગાદિવેદનીયકર્મનો ઉદય-આદિશબ્દથી તથાવિધ દેશ-કાલાદિ રાગાદિદોષોની ઉત્પત્તિમાં સહકારી કારણ છે. તેથી રાગાદિદનીયકર્મના અભાવમાં તે રાગાદિદોષો કેવી રીતે સંભવે? અર્થાત કોઈ પણ હિસાબે ન સંભવે. કેમકે કારણના અભાવમાં કાર્ય ન હોય. ૧૧૯૮૧ अवबोहमादिया पुण सहजा तेसुं तु अवगतेसुं पि । तेसिं चिय सामन्नं चेतन्नं चिट्ठती चेव ॥११९९॥ (अवबोधादयः पुनः सहजास्तेषु तु अपगतेष्वपि । तेषामेव सामान्यं चैतन्यं तिष्ठत्येव ॥) अवबोधादयो धर्माः पुनः सहजाः-सहभुवस्ततस्तेषु कर्मोदयादपगतेष्वपि तेषामेव-अवबोधादीना यत्सामान्यं चैतन्यमानं किंचित्तत् तिष्ठत्येवेति, न कश्चिदिह पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः ॥११९९॥ ગાથાર્થ - અવબોધવગેરે ધર્મો તો સહજ છે. તેથી કર્મોદયના કારણે અવબોધ આદિ જાય, તો પણ તે અવબોધ આદિનું જે કિંચિત ચૈતન્યમાત્રરૂપ સામાન્યરૂપે છે, તે તો રહે છે જ. તેથી પૂર્વપક્ષે બતાવેલા શેષનો પ્રસંગ નથી. ૧૧૯૯લા ****************य नि -ला -269++ + + + + + + + + + + + + + Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ s llܪ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ચેષ્ટાથી વીતરાગતાની સિદ્ધિ यच्चोक्तम्- 'अन्नं च नज्जइ कह' इत्यादि तत्र समाधानमाह વળી પૂર્વપક્ષે ગા. ૧૧૪૧ મા ‘અન્ન ચ’ થી ‘વળી એમ શી રીતે જાણી શકાય કે આ રાગદ્વેષથી રહિત છે” ઇત્યાદિ જે કહ્યુ, ત્યાં સમાધાન આ છે एवं च नज्जइ तओ चेट्ठाओ चेव साहुसक्खि व्व । ववहारेणं निच्छि (च्छ) यभावेण उ आगमातो त्ति ॥ १२०० ॥ (एवं च ज्ञायते सकश्चेष्टात एव साधुसाक्षिवत् । व्यवहारेण निश्चयभावेन तु आगमादिति ॥) वीतरागत्वस्य तावन्निष्प्रतिपक्षं युक्त्या संभवो दर्शितः, ततश्चैवं- वीतरागत्वसंभवे सति 'तओ त्ति' सको वीतरागो व्यवहारेण चेष्टात एव ज्ञायते, साधुसाक्षिवत्, निश्चयभावेन तु आगमादन्यस्य तत्त्वतोऽतीन्द्रियार्थनिश्चयविषये प्रामाण्यायोगात् ॥૧૨૦૦ ॥ ગાથાર્થ:- આમ યુક્તિથી નિર્વિરોધરૂપે વીતરાગતાનો સંભવ બતાવ્યો. આમ વીતરાગતા સંભવતી હોવાથી વ્યવહારથી તો તેવી ચેષ્ટાથી જ તે વીતરાગ ઓળખાઇ જાય છે, જેમકે સાધુસાક્ષી. (અર્થાત્ સાચો સાક્ષી તેના વર્તનથી પરખાઈ જાય છે, તેમ વીતરાગ પણ તેની ચેષ્ટાથી ઓળખાઇ જાય છે.) અતીન્દ્રિયાર્થના નિશ્ચયના વિષયમાં તાત્ત્વિક રીતે જોઇએ તો આગમને છોડી ચેષ્ટાદિ અન્ય કોઇ પ્રમાણભૂત નથી. તેથી નિશ્ચયથી વીતરાગતાનો નિર્ણય આગમના સહારે થઇ શકે. (નિશ્ચયનય બાહ્યચેષ્ટાદિના આધારે નહીં, પણ આંતરિક પરિણતિ-પરિણામના આધારે તત્ત્વનો નિર્ણય કરે છે. અને છદ્મસ્થવ્યક્તિ બીજાના આંતરિકપરિણામનો નિર્ણય પોતાના ઇન્દ્રિયપ્રત્યક્ષાદિજ્ઞાનથી કરી શકતી નથી. તેથી તે વર્ધમાનાદિવ્યક્તિવિશેષમાં વીતરાગતાપરિણતિ છે કે નહીં? તેનો નૈયિનિર્ણય આગમના બળ પરજ કરી શકે.) ૧૨૦૦ના ननु व्यवहारतोऽपि स कथं चेष्टातो गम्यते ? तस्याः साध्येन सह प्रतिबन्धाभावात्, दृश्यन्ते हि खलु लब्ध्यादिनिमित्तं सरागा अपि वीतरागा इव चेष्टमाना इत्युक्तं प्रागित्यत आह શંકા:- વ્યવહારથી પણ વીતરાગ ચેષ્ટાથી શી રીતે જાણી શકાય? કેમકે ચેષ્ટાને વીતરાગતાસાથે વ્યાપ્તિ નથી. દેખાય જ છે કે લબ્ધિઆદિના આશયથી સરાગી જીવો પણ વીતરાગ જેવી ચેષ્ટા કરતા હોય છે. આ વાત પૂર્વે ગા. ૧૧૪૨માં કહી જ છે. અહીં સમાધાનમાં કહે છે सम्मेतरचेद्वाणं अस्थि विसेसो निमित्तभेदातो । एत्तो च्चिय ऊतो नज्जइ सो बुद्धिमंतेणं ॥१२०१॥ (सम्यगितरचेष्टयोरस्ति विशेषो निमित्तभेदात् । अत एव हेतुतो ज्ञायते स बुद्धिमता II) सम्यगितरचेष्टयोर्निमित्तभेदात् कारणात् अस्ति तावत्परस्परं स्वरूपतो विशेषो भेदः, यदि पुनर्निमित्तभेदेऽपि न तयोर्भेदो भवेत् ततो निर्हेतुकौ विश्वस्य भेदाभेदौ प्रसज्येयाताम् ! यदपि चोच्यते 'अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति' तदपि प्लवेतेति । 'एत्तो च्चिय इत्यादि' अत एव चेष्टाविशेषलक्षणाद्धेतोः स वीतराग व्यवहारेण बुद्धिमता पुंसा ज्ञायते, साधुसाक्षिवत् । दृश्यन्ते खल्वद्यापि निपुणधिषणाः समवगतसम्यगितरचेष्टाविशेषा दर्शनमात्रेणापि साध्वितरसाक्षिणोरवगन्तार इति ॥ १२०१ ॥ ગાથાર્થ:- સમ્યકચેષ્ટા અને મિથ્યાચેષ્ટા (=દાભિકચેષ્ટા) વચ્ચે નિમિત્તભેદના કારણે પરસ્પર સ્વરૂપથી વિશેષ-ભેદ રહ્યો છે. નિમિત્તભેદ હોવા છતાં તે બેમા સ્વરૂપભેદ ન હોય, તો જગતભરના ભેદ-અભેદ નિર્હુતક થવાનો પ્રસંગ આવે. અને *આ જ ભેદ અથવા ભેદહેતુ છે કે વિરુદ્ધધર્મો રહેવા અથવા કા૨ણભેદ હોવો' એવી પંક્તિ પણ નકામી થઇ જાય. તેથી સાચી અને ખોટી ચેષ્ટાવચ્ચે નિમિત્તભેદે સ્વરૂપભેદ માનવો જ જોઇએ. તેથી જ ચેષ્ટાવિશેષરૂપહેતુથી વ્યવહારથી બુદ્ધિમાન પુરુષ *તે વીતરાગ છે” તેમ જાણી જાય. અહીં સાચો સાક્ષી દૃષ્ટાન્ત છે. *સાચી-ખોટી ચેષ્ટા વચ્ચેના અંતરને જાણવાવાળા સૂક્ષ્મબુદ્ધિવાળાપુરુષો દર્શનમાત્રથી સાચા સાક્ષી અને ખોટા સાક્ષીને જાણી જાય છે એ વાત વર્તમાનમા પણ દેખાય છે. ૫૧૨૦૧ આ ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 270 * * * * Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ?]sܓ݁R ܐܬܟ ܘ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ સામાન્યતો દષ્ટ અનુમાનથી વીતરાગસિદ્ધિ यदप्युक्तम्-'न वीतरागचेष्टा विशेषतो वीतरागप्रतिबद्धा सिद्धा, यस्मादात्मधर्म एव रागाद्यभाव इष्यते, न च स प्रत्यक्षेणावगम्यते' इत्यादि, तदपि दूषयितुमाह - તથા પૂર્વપલે “વીતરાગચેષ્ટા વિશેષરૂપે પણ વીતરાગતાનો પ્રતિબદ્ધ સિદ્ધ નથી, કેમકે રાગાદિનો અભાવ આત્મધર્મતરીકે ઈષ્ટ છે. અને આ આત્મધર્મ પ્રત્યક્ષથી જ્ઞાત ન થઈ શકે. (ગા. ૧૧૪૩-૪૪) ઇત્યાદિ જે કહ્યું તેને હવે દૂષિત કરતાં કહે છે – तप्पडिबद्धं लिंगं न दिट्ठमंधेण ण य तओ नत्थि । आवरियबुद्धिचक्खू पेच्छति कहमायधम्मं तु ? ॥१२०२॥ (तत्प्रतिबद्धं लिंगं न दृष्टमन्धेन न च सको नास्ति । आवृतबुद्धिचक्षुः पश्यति कथमात्मधर्म तु? |) द्वं-वीतरागप्रतिबद्धं लिङ्गं न दष्टमन्धेन-चक्षर्विकलेन, न च तावता अन्धस्यादर्शनमात्रेण 'तओ त्ति' सको वीतरागो नास्तीति निश्चेतुं शक्यते, अतिप्रसङ्गात्, एवं भवानपि ज्ञानावरणीयकर्माणुपटलावृतबुद्धिचक्षुः कथमात्मधर्म रागाद्यभावलक्षणमतीन्द्रियं पश्यति? येन तत्प्रतिबद्धं लिङ्गं जानीयात्, ततो न तव लिङ्गादर्शनमात्रेण तस्याभाव इति । यद्येवं तर्हि कथमक्तं चेष्टातो व्यवहारेण स वीतरागोऽनमीयते, ज्ञाताविनाभावो हि हेतुः साध्यस्य गमको भवति, न सत्तामात्रेण अन्यथा नालिकेरद्वीपवासिनापि धूमदर्शनमात्रादग्निरनुमीयेत, न च चेष्टायाः सन्नपि वीतरा गत्वेन सह प्रतिबन्धो निश्चितो, यथोक्तं प्राक्, ततः कथं तद्दर्शनात्सोऽनुमीयत इति ? नैष दोषः । सामान्यतोदृष्टानुमाननीतितस्तदनुमानोपपत्तेः, यथा गतिमानादित्यो, देशान्तरप्राप्तेर्देवदत्तवदिति। तथाहि-न दिनकरगतिमत्त्वेन देशान्तरप्राप्तिरविनाभूता दृष्टा, अथ च सा तद्गमयति, एवमिह चेष्टापीति। देवदत्ते गतिमत्त्वेन देशान्तरप्राप्तिरविनाभता दृष्टा, तत आदित्येऽपि सा गमयतीति चेत् ? साधसाक्षिण्यपि तर्हि सम्यक्चेष्टा माध्यस्थ्येनाविनाभूता दृष्टेति वीतरागेऽपि सा तद्गमयिष्यतीति समानमेतत्। प्रकर्षप्राप्त माध्यस्थ्येन सह न दृष्टेति चेत्, देवदत्तेऽपि तर्हि न तथा गगनगतिमत्त्वेनाविनाभूता देशान्तरप्राप्तिर्दृष्टेति समानमेवेति ॥१२०२॥ ગાથાર્થ:- ચીન–અંધ પુરુષે વીતરાગને પ્રતિબદ્ધ લિંગ જોયું નથી, પણ અંધ પુરુષે જોયું ન લેવામાત્રથી તે વ્યકિત વીતરાગ નથી તેવો નિશ્ચય કરી શકાય નહીં. કેમકે અંધ પુરુષે ન જોવા માત્રથી ધૂમસ્થળે પણ અગ્નિનો અભાવ માનવારૂપ અતિપ્રસંગ આવે. તે જ પ્રમાણે તમે જ્ઞાનાવરણીયકર્મથી ઢંકાયેલી બુદ્ધિરૂપી આંખવાળા છો. અર્થાત તમારી બુદ્ધિપર જ્ઞાનાવરણીય કર્માંશોનો પરદો આવેલો છે, તેથી તમે શી રીતે રાગાદિઅભાવરૂપ આત્મધર્મ જોઈ શકો-જાણી શકો? ન જ જાણી શકો. તેથી જ તમે તે રાગાદિઅભાવને પ્રતિબદ્ધ લિંગ પણ જાણી શકો નહીં. તેથી જ તમે લિંગ ન જોઈ શકો, તેટલામાત્રથી વીતરાગનો અભાવ આવતો નથી. પૂર્વપક્ષ:- આમ જો જ્ઞાનાવરણીયકર્મથી ઢંકાયેલી બુદ્ધિવાળા હોવાથી અમે રાગાધભાવ અને તેને પ્રતિબદ્ધ લિંગ જોવા સમર્થ નથી, તો તમે કેમ એમ કહ્યું કે “ચેષ્ટાદ્વારા વ્યવહારથી તે વીતરાગનું અનુમાન થાય છે?" અર્થાત્ આમ કહેવું યોગ્ય નથી. કારણ કે હેતનો સાધ્ય સાથેનો અવિનાભાવ જ્ઞાત હેય, તો જ તે હેતુ સાધ્યનો નિશ્ચય કરાવે, હેતુ તેવા જ્ઞાન વિના માત્ર પોતાની હાજરીથી જ સાધ્યનો નિર્ણય કરાવી શકે નહીં. જો હેતુ સત્તામાત્રથી સાધ્યનો ગમક બનતો હોત, તો જેને ધૂમનો અગ્નિસાથેનો અવિનાભાવ ખબર નથી; એવા નાળિયેરદ્વીપવાસીને પણ ધૂમાડાના દર્શન માત્રથી અગ્નિના અનુમાનથી આપત્તિ આવત. આમ હેતુની માત્ર હજરી કે સાધ્ય સાથેના અવિનાભાવના જ્ઞાનરહિત માત્ર હેતનું સ્વરૂપજ્ઞાન સાધ્યન સાધક નથી. તેથી જ તેવી ચેષ્ટાની વીતરાગતાસાથે વ્યાપ્તિ હોવા છતાં જયાં સુધી તે વ્યાપ્તિનો નિર્ણય ન થાય, ત્યાં સુધી એ ચેષ્ટાના દર્શનમાત્રથી શી રીતે વીતરાગતાનું અનુમાન થશે? ઉત્તરપક્ષ:- અહીં કોઈ દોષ નથી. સામાન્યતોદષ્ટઅનુમાનની નીતિથી તે અનુમાન યુક્તિસંગત નીવડશે, જેમકે સૂર્ય ગતિમાન છે, કેમ કે દેશાજરની પ્રાપ્તિ છે, જેમ કે દેવદત્ત. અહીં સૂર્યની ગતિમત્તા સાથે દેશાન્તરપ્રાપ્તિનો અવિનાભાવ દૃષ્ટ નથી. છતાં આ દેશાત્તરપ્રાપ્તિ સૂર્યની ગતિમત્તાનું બોધક બને છે. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ ચેષ્ટા વીતરાગનું ગમક બને. સૂર્યની ગતિ પૂર્વે જોઈ નથી, તેથી દેશાત્તરપ્રાપ્તિરૂપ હેતલિંગ સાથે તેનો અવિનાભાવ દષ્ટ નથી, પરંતુ દેવદત્તાદિ અન્યોમાં દેશાન્તરપ્રાપ્તિનો ગતિસાથે અવિનાભાવ સુદેષ્ટ છે, તેથી તેના આધારે અહીં દેશાન્તરપ્રાપ્તિ જોવાથી સૂર્યની ગતિનો નિર્ણય જે થાય તે સામાન્યતોદષ્ટઅનુમાનરૂપ છે. એ જ પ્રમાણે વીતરાગતા અતીન્દ્રિય લેવાથી અગમ્ય છે, તેથી ચેષ્ટા સાથે અવિનાભાવ સીધો જ્ઞાત થતો નથી. પરંતુ અન્ય સ્થળે તેવી-તેવી ચેષ્ટા સાથે તેવા-તેવા આંતરિકભાવોનો સંબંધ ગમ્ય બને છે, તેથી તેના આધારે તેવા અવિનાભાવનો નિર્ણય કરી વીતરાગતાસાથે પણ તદનુરૂપ ચેષ્ટાનો અવિનાભાવ સિદ્ધ થઈ શકે, અને તેના બળે તેવી ચેષ્ટાવાળી વ્યક્તિમાં “સામાન્યતોદષ્ટ અનુમાનના બળે વીતરાગતાનો નિર્ણય કરી શકાય.) * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ -ભાગ ૨ - 271 * * * * * * * * * * * * * * Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ બમ બમ ++++++++ પૂર્વપક્ષ:- દેવદત્તમાં દેશાન્તરપ્રાપ્તિનો ગતિમત્તા સાથેનો અવિનાભાવ ષ્ટ છે, તેથી ત્યા તેના બળે સૂર્યમા પણ દેશાન્તરપ્રાપ્તિ ગતિમત્તાનો નિર્ણય કરાવે તે સમજી શકાય છે. ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܫ qall ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ઉત્તરપક્ષ:- એ જ પ્રમાણે સાચા સાક્ષીમા પણ તેવી યોગ્યચેષ્ટાનો માધ્યસ્થભાવસાથે અવિનાભાવ દૃષ્ટ છે, તેથી વીતરાગમા પણ આ યોગ્યચેષ્ટા તેવા માધ્યસ્થ્યભાવનો નિર્ણય કરાવી શકે. આ સમાન તર્ક છે. (કેમકે શિષ્ટપુરુષો સર્વત્રસમાનતયા વર્તે છે. અને વિવક્ષિતસ્થળે કાર્યકારણભાવ કે વ્યાપ્ય-વ્યાપકભાવાદિ પ્રત્યક્ષસિદ્ધ ન હોય, તો પણ બાધાદિદોષો ન હોય, તો અન્યત્ર સિદ્ધ એ ભાવને વિવક્ષિતસ્થળે પણ માન્ય રાખે છે.) પૂર્વપક્ષ:- પણ અહીં ચેષ્ટાનો પ્રકૃષ્ટમાસ્થ્યભાવસાથે અવિનાભાવ કચારે'ય જોવાયો નથી. ઉત્તરપક્ષ:- એમ તો દેવદત્તમા પણ તેવા પ્રકારની આકાશમાં ગતિમત્તાસાથે દેશાન્તરપ્રાપ્તિનો અવિનાભાવ જોવાયો નથી, તેથી બન્ને સ્થળે દલીલ સમાન જ રહેશે. (પ્રસ્તુતમાં શંકા થાય, કે સૂર્ય તો પ્રત્યક્ષ છે, તેથી ત્યા સામાન્યતોદેષ્ટથી ભલે સિદ્ધિ થાય, પણ વીતરાગ જ અપ્રત્યક્ષ છે, તેથી તદ્ગત વીતરાગતાસાથે વિશિષ્ટ ચેષ્ટાનો સંબંધ શી રીતે યુક્તિ-યુક્ત ગણાય? આવી શંકાના સમાધાન મા અપ્રત્યક્ષસ્થળે પણ સંબંધની સિદ્ધિ બતાવે છે.) ૫૧૨૦૨૫ अपि च - વળી, जह चेव अपच्चक्खो आया ईहादिएहिँ लिंगेहिं । गम्मइ तहेव भासादिलिंगओ वीयरागो वि ॥ १२०३ ॥ (यथैवाप्रत्यक्ष आत्मा ईहादिभिर्लिङ्गैः । गम्यते तथैव भाषादिलिङ्गतो वीतरागोऽपि ॥) यथैवाप्रत्यक्षः सन्नात्माऽप्रत्यक्षत्वत एव तेन सहान्वयमुखेन प्रतिबन्धग्रहणमन्तरेणापीहादिभिः - ईहापोहमार्गणादिभिर्लिङ्गैः - गम्यते - अनुमीयते तथैव भाषादिलिङ्गतो वीतरागोऽप्यनुमीयते तदन्यथानुपपत्त्या प्रतिबन्धनिश्चयस्यो - भयत्राप्यविशेषादिति ॥ १२०३ ॥ ગાથાર્થ:- આત્મા અપ્રત્યક્ષ હોવાથી જ આત્માસાથે ઇહાપોહમાર્ગણાદિ (-વિચાર) લિંગોનો અન્વયરૂપે પ્રતિબન્ધ (=વ્યાપ્તિ)પ્રત્યક્ષથી ગ્રાહ્ય થતો નથી, છતાં એ જ ઇહાદિથી આત્માનુ અનુમાન થાય છે. તે જ પ્રમાણે તેવી ભાષાઆદિ લિંગોનો વીતરાગભાવસાથે અન્વયભાવને આગળ કરી પ્રતિબન્ધ પ્રત્યક્ષથી અગ્રાહ્ય છે (કેમકે વીતરાગભાવ અપ્રત્યક્ષ છે.) છતા પણ તે લિંગોથી વીતરાગભાવનું અનુમાન થઇ શકે છે. શંકા:- આત્માસ્થળે તો આત્માના અભાવમાં ઇહાદિભાવો જ અનુપપન્ન બને-ઇહાદિભાવોની અન્યથાઅનુપપત્તિનો પ્રસંગ છે. એ પ્રસંગ જ ઇહાદિની આત્માસાથે વ્યાપ્તિ સિદ્ધ કરાવી અનુમાનમા પ્રયોજક બને છે. સમાધાન:- આ વાતતો વીતરાગભાવસ્થળે પણ સમાન છે. તેવાપ્રકારની ભાષાઆદિ ચેષ્ટા વીતરાગભાવ વિના અનુપપન્ન છે. આ અન્યથાઅનુપપત્તિનો પ્રસંગ જ ભાષાઆદિ લિંગસાથે વીતરાગભાવની વ્યાપ્તિને સિદ્ધ કરે છે. અને એ વ્યાપ્તિથી વીતરાગભાવ સિદ્ધ થાય છે. ૧૨૦૩૩ા અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી સર્વજ્ઞતાસિદ્ધિ यदपि च सर्वज्ञत्वमधिकृत्योक्तम् – 'सव्वं च जाणइ कह' मित्यादि, तत्रापि प्रतिविधानमाह તથા પૂર્વપક્ષે સર્વજ્ઞતાને ઉદ્દેશી જે ‘સવ્વ ચ... (બધુ જ કેવી રીતે જાણે? ગા. ૧૧૪૬) ઇત્યાદિ કહ્યું, ત્યાં અમારો જવાબ આ છે.→ सव्वं च जाणइ तओ पच्चक्खेणेव ण पुण सव्वेहिं । भिन्निंदियावसेयादिभणियदोसो वि ण य एत्थ ॥ १२०४ ॥ (सर्वं च जानाति सकः प्रत्यक्षेणैव न पुनः सर्वैः । भिन्नेन्द्रियावसेयादिभणितदोषोऽपि न चात्र II) सर्वं च वस्तु 'तओ त्ति' सकः सर्वज्ञः प्रत्यक्षेणैव जानाति, न पुनः सर्वैः प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः । न चात्र - प्रत्यक्षेण परिज्ञाने 'भिन्नेन्द्रियावसेया रूपादय' इत्यादिकः प्राग्भणितो दोषोऽपि लगति ॥ १२०४ ॥ ++ ગાથાર્થ:- આ સર્વજ્ઞ બધી જ વસ્તુ પ્રત્યક્ષથી જ જૂએ-જાણે છે, નહીં કે પ્રત્યક્ષાદિ બધા પ્રમાણથી. તથા પ્રત્યક્ષથી જ્ઞાન કરવામા ‘રૂપવગેરે ભિન્ન ઇન્દ્રિયોથી જ્ઞેય છે. ઇત્યાદિ પૂર્વોક્ત દોષો પણ લાગતો નથી. ૫૧૨૦૪ ********* * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 272 * * * * * * * * Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ + + + + + + + + + + + + + + + सर्वसिद्विार + + + + + + + + ++ ++ + + + + + તરતમભાવ તર્ક अन्नं अतिंदियं जं पच्चक्खं तेण जाणई सव्वं । तब्भावम्मि पमाणं पगरिसभावो उ नाणस्स ॥१२०५॥ (अन्यदतीन्द्रियं यत्प्रत्यक्षं तेन जानाति सर्वम् । तद्भावे प्रमाणं प्रकर्षभावस्तु ज्ञानस्य ॥) यस्मादतीन्द्रियं प्रत्यक्षमिन्द्रियजात प्रत्यक्षादन्यत. ततस्तेन सर्वं जानाति, इन्द्रियजे च प्रत्यक्षे प्रागक्तदोषावका यच्चोक्तम-'तब्भावम्मि पमाणाभावा सद्धेयमेवेय' मिति, तत्राह-'तब्भावम्मीत्यादि' तद्भावे तु सर्वविषयातीन्द्रियप्रत्यक्षभावे त् प्रमाणं प्रकर्षभावो ज्ञानस्य, नहि सर्वविषयातीन्द्रियप्रत्यक्षभावमन्तरेणान्यो ज्ञानस्य सर्वान्तिमप्रकर्षभावः, किंतु तदात्मक एव प्रकर्षभावः, प्रकर्षभावेन च प्रमीयमाणत्वात् प्रकर्षभाव एव प्रमाणमुक्तो, यथाग्निभावे धूमः प्रमाणमित्यत्रेति । स एव प्रकर्षभावो ज्ञानस्य कथं सिद्ध इति चेत् ?, प्रमाणादिति ब्रूमः, तच्च प्रमाणमिदम् →यदिह तारतम्यवत्तत्सर्वोत्तमप्रकर्षभाक्, यथा परिमाणं, तारतम्यवच्चेदं ज्ञानमिति ॥१२०५॥ ગાથાર્થ:- સર્વજ્ઞ બધી વસ્તુ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી જાણે છે. આ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ ઇન્દ્રિયથી ઉદ્ભવતા પ્રત્યક્ષથી ભિન્ન છે. પૂર્વોક્ત દોષો ઇન્દ્રિયજન્યપ્રત્યક્ષમાં જ સંભવે છે, નહીં કે અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષમાં તથા પૂર્વપક્ષો “તભાવસ્મિ પમાણાબાવા' (સર્વવસ્તુવિષયક અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ સેવામાં પ્રમાણ નથી. ગા. ૧૧૪૮) ઇત્યાદિ જે કહ્યું, તે બરાબર નથી. કેમકે સર્વવસ્તુવિષયક ' અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ હોવામાં જ્ઞાનનો પ્રકર્ષભાવ પ્રમાણભૂત છે. જ્ઞાનનો અંતિમપ્રકર્ષ સર્વવસ્તુવિષયકઅતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષભાવને છોડી અન્ય કોઇ રૂપ નથી. અર્થાત આ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ જ જ્ઞાનના અંતિમપ્રકર્ષરૂપ છે. પ્રકર્ષભાવથી જ આ અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષની પ્રમેયરૂપતા (અસ્તિત્વતરીકે પ્રમાણનાં વિષય બનવાપણું) હોવાથી અહીં પ્રકર્ષભાવનો જ પ્રમાણ તરીકે ઉલ્લેખ કર્યો, જેમકે અગ્નિના લેવામાં ધૂમાડો પ્રમાણ છે. અહીં ધૂમાડાથી અગ્નિ પ્રમેય લેવાથી ધૂમાડાનો જ પ્રમાણ તરીકે નિર્દેશ કર્યો. શંકા:- જ્ઞાનનો તે પ્રકર્ષભાવ કેવી રીતે સિદ્ધ થયો? સમાધાન:- પ્રમાણથી. આ પ્રમાણ આવું છે- અહીં જે કંઈ તરતમભાવવાળું હોય, તે સર્વોત્તમપ્રકર્ષને પામે છે, જેમકે પરિમાણ. (અણુથી માંડી ચણકાદિમાં તરતમભાવ પામતું પરિમાણ આકાશમાં સર્વોત્કૃષ્ટતા પામે છે.) જ્ઞાન પણ તરતમભાવવાળું છે, તેથી તે સર્વોત્કૃષ્ટ પ્રકર્ષયુક્ત લેવું જોઈએ. (અહીં અનુમાન આ છે– જ્ઞાન સર્વોત્કૃષ્ટપ્રકર્ષવાળું છે, કેમ કે તરતમભાવવાળું છે, જેમ કે પાં અહીં જ્ઞાન પણ છે. સર્વોત્કૃષ્ટપ્રકર્ષ સાધ્ય છે. તરતમભાવ હેતુ છે.) ૧૨૦પા न चायमसिद्धो हेतुर्यत आह - पनी, 'तु सिप छ तमन. भ→ बोहपरिणामलक्खणमिह सिद्धं आतदव्वसामन्नं । .. तस्साइसयो दीसइ अज्झयणादीसु किरियासु ॥१२०६॥ (बोधपरिणामलक्षणमिह सिद्धमात्मद्रव्यसामान्यम् । तस्यातिशयो दृश्यतेऽध्ययनादिषु क्रियासु ॥) बोधपरिणामलक्षणं-बोधपरिणतिस्वतत्त्वमिह-जगति सिद्धं-सकललोकप्रसिद्धमात्मद्रव्यसामान्य-आत्मद्रव्यसमानपरिणतिलक्षणं, तस्य-आत्मद्रव्यसामान्यस्यातिशयः-तरतमभावो दृश्यते अध्ययनादिषु क्रियासु ॥१२०६॥ ગાથાર્થ:- આત્મદ્રવ્યસમાનપરિણતિરૂ૫ આત્મદ્રવ્યસામાન્ય બોધપરિણતિલક્ષણવાળાતરીકે આ જગતમાં બધા લોકોને પ્રસિદ્ધ છે. અર્થાત આ જગતના દરેક આત્મામાં બોધની પરિણતિ રહેલી છે. આ બોધપરિણતિરૂપ આત્મદ્રવ્યસામાન્યનો અતિશય તરતમભાવ અધ્યયનઆદિ ક્રિયાઓમાં દેખાય છે. ૧૨૦૬ तथाहि - તે આ પ્રમાણે केइ तिसंथदुसंथा केइ बहुबहुतरन्नुणो एत्थ । संभाविज्जइ तम्हा पगरिसभावो वि णाणस्स ॥१२०७॥ (केचित् त्रिसंस्थद्विसंस्थाः केचिद्हुबहुतरज्ञा अत्र । संभाव्यते तस्मात् प्रकर्षस्वभावोऽपि ज्ञानस्य ॥ केचित् त्रिसंस्था:-अन्यतः त्रिःश्रुत्वा स्वयं पाठदाने समर्थाः, एवं केचिद् द्विः संस्थाः, केचिद्बहुज्ञाः, केचिच्च + + + + + + + + + + + + + + + + Kusle:-02 - 273 +++++++++++++++ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વસિલિ કાર જ જ * * * * * * * * * * * * * बहुतरज्ञा अत्र-जगति प्रत्यक्षत एव दृश्यन्ते, तस्मादित्थंभूतातिशयदर्शनात्परिणामस्येव ज्ञानस्यापि प्रकर्षभावः संभाव्यते । अपिर्भिन्नक्रमः, स च यथास्थानं योजित एवेति ॥१२०७॥ ગાથાર્થ:- કેટલાક બીજા પાસેથી ત્રણવાર સાંભળી પાઠ દેવા સમર્થ છેય છે, કેટલાક બીજા પાસેથી બેવાર સાંભળી પાઠ દેવા સમર્થ હોય છે. કેટલાક બહુજ્ઞ ( બહુ જાણવાવાળા) હેય છે. તો કેટલાક બહુતરજ્ઞ હેય છે. એમ આ જગતમાં પ્રત્યક્ષથી દેખાય છે. આમ આવા પ્રકારના અતિશયના દર્શનથી પરિણામ(શુભાશુભભાવ) ની જેમ જ્ઞાનનો પણ પ્રકર્ષભાવ સંભવે છે. (મૂળમાં વિ-અપેિ પદ જ્ઞાન સાથે સંલગ્ન છે.) ૧૨૦૭ા અતીન્દ્રિય પ્રતિભાશાનમાં પણ તરતમભાવ પર ગાદ – અહીં (જ્ઞાનમાં તરતમભાવને ઇન્દ્રિય–ઔપાધિક બતાવવાના પ્રયાસમાં) પૂર્વપક્ષકાર કહે છે सो इंदियदारेणं नियनियविसएसु चेव जुत्तो त्ति । पावइ अतिप्पसंगो अन्नहपरियप्पणे नियमा ॥१२०८॥ (स इन्द्रियद्वारेण निजनिजविषयेषु एव युक्त इति । प्राप्नोति अतिप्रसंगोऽन्यथापरिकल्पने नियमात् ॥ स तरतमभावो ज्ञानस्येन्द्रियद्वारेणैव दृश्यतेऽविगानेन तथानुभवात् । ततः सोऽपि सर्वोत्तमप्रकर्षभावो ज्ञानस्येन्द्रियद्वारेणैव निजनिजविषयेषु युक्तो यतोऽन्यथा-विवक्षितप्रकारमृते प्रकारान्तरेण प्रकर्षभावस्य परिकल्पने क्रियमो नियमादतिप्रसङ्ग प्राप्नोति, अनिष्ट प्रकारान्तरेणापि कल्पनाप्रसक्तेः। तत्कथं प्रकर्षभावसंभवादतीन्द्रियप्रत्यक्ष-भावानुमानमिति ॥१२०८॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:-જ્ઞાનનો એ તરતમભાવ ઇન્દ્રિયોદ્વારા જ થતો દેખાય છે, કેમકે નિર્વિવાદપણે તેવો જ અનુભવ છે. (દેખાય જ છે કે કોકને આંખથી ઓછુ દેખાય, કોકને વા ઈત્યાદિ,તેથી જ્ઞાનનો તે સર્વોત્તમપ્રકર્ષભાવ પણ ઇન્દ્રિયોના પોતપોતાના વિષયમાં ઇન્દ્રિયોદ્વારા જ થાય તે યોગ્ય છે. (અર્થાત જૂદી જૂદી વ્યક્તિને આંખના રૂપઆદિ વિષયના જ્ઞાનમાં જે તરતમભાવ છે તેમાં તેને વ્યક્તિની આંખની તેવી તેવી ઓછી-વની શક્તિઆદિ જ કારણભૂત છે. અને તે અનુભવસિદ્ધ છે. તેથી તે રૂપાદિવિષયમાં જ્ઞાનનો સર્વોત્કૃષ્ટભાવ પણ આંખની વિશિષ્ટશક્તિઆદિરૂપ ઇન્દ્રિયદ્વારા જ શકય છે.) જો આ પ્રકારે પ્રકર્ષભાવ સ્વીકારવાના બદલે બીજા પ્રકારે પ્રકર્ષભાવની કલ્પના કરશો, તો અવશ્ય અતિપ્રસંગ આવશે. કેમકે અન્ય અનિષ્ટ પ્રકારે પણ કલ્પના કરવાનો પ્રસંગ છે. તેથી પ્રકર્ષભાવના સંભવથી અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષની સત્તાનું અનુમાન શી રીતે થઇ શકે? ૧૨૦૮ अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્યવર ઉત્તર આપે છે. मोत्तूण इंदिए जं पइभाणाणस्स दीसती वुड्डी । આવિરહિણો તા સનિત્ય(લ્યો. પSિI.)પરિસો મન્નો ૨૨૦૨ (मुक्त्वा इन्द्रियाणि यत् प्रतिभाज्ञानस्य दृश्यते वृद्धिः । आवरणहासतस्तस्मात् सकलार्थप्रकर्षोऽन्यः ॥) . मुक्त्वा इन्द्रियाणि-चक्षुरादीनि यत्-यस्मात् प्रतिभाज्ञानस्य तदावरणीयकर्महासभावतो दृश्यते वृद्धिस्तातस्मात्सकलार्थगोचरप्रकर्षभावो ज्ञानस्यान्य एव-इन्द्रियजज्ञानगतप्रकर्षात् व्यतिरिक्त एवातीन्द्रियोऽवसेय इति ॥१२०९॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ચક્ષઆદિઇન્દ્રિયને છોડી પ્રતિભાશાનમાં પણ તેના આવરણભૂત કર્મના બ્રાસથી વૃદ્ધિ દેખાય છે. અર્થાત જે ઇન્દ્રિયજ્ઞાનથી ભિન્ન જ્ઞાનરૂપ છે, તેમાં પણ તરતમભાવ દેખાય છે. તેથી માત્ર ઇન્દ્રિયજ્ઞાનમાં જ તરતમભાવ હોય, તેવી વાત ઊડી જાય છે. તેથી જ સકલવસ્તવિષયકજ્ઞાનનો પ્રકર્ષભાવ પણ ઇન્દ્રિયજ્ઞાનગતપ્રકર્ષભાવથી ભિન્ન જ અતીન્દ્રિય છે, તેમ સમજવું જોઇએ. (આમ જ્ઞાનના તરતમભાવમાં ઇન્દ્રિય નહીં, જ્ઞાનાવરણીયકર્મનો બ્રાસ હેતુ છે. આ હેતુ ઍન્દ્રિયક-અતીન્દ્રિય બન્ને પ્રકારના જ્ઞાનમાં સંભવે છે.) ૧૨૦લ્લા स्यादेतत्, अस्ति प्रतिभाज्ञानं, परं न तत् सकलार्थविषयं, कतिपयविषयतयैव लोके तस्यानुभा(भ)वात्, तत्कथमतीन्द्रियज्ञानप्रकर्षः सकलवस्तुविषय इत्यत आह - પૂર્વપક્ષ:- પ્રતિભાશાન છે, એ બરાબર, પણ તે સકલાર્થવિષયક નથી. કેમકે કેટલાકઅર્થવિષયકતરીકે જ લોકમાં તેનો (પ્રતિભાશાનનો) અનુભવ છે. તેથી અતીન્દ્રિયજ્ઞાનનો પ્રકર્ષ સકલવસ્તવિષયક છે તેમ કેવી રીતે કહેવાય? અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે.* * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 274 * * * * * * * * * * * * * * * Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *++++++++++++++++स सिGिR +++++++++++++++++ होति य पतिभाणाणं असेसस्वादिवत्थुविसयं पि । पच्चक्खादधिगतरं तग्गयपज्जायगमगं तु ॥१२१०॥ (भवति च प्रतिभाज्ञानमशेषरूपादि वस्तुविषयमपि । प्रत्यक्षादधिकतरं तद्गतपर्यायगमकं तु ॥) भवति च प्रतिभाशानं मत्यादिज्ञानचतुष्टयप्रकर्षपर्यन्तोत्तरकालभावि मनाक् केवलज्ञानादधः सवितुरूदयात् प्राक् तदालोककल्पमशेषरूपादिवस्तुविषयमपि, तथा प्रत्यक्षात्-इन्द्रियजप्रत्यक्षात् स्पष्टाभतयाऽधिकतरं, तथा तद्गतपर्यायगमकंसकलस्पादिवस्तुगतकतिपयपर्यायपरिच्छेदकम्, अध्यात्मशास्त्रेषु सर्वेष्वपि तस्य तथाभिधानात्, तत्कथं तत्प्रकर्षभूतमतीन्द्रियं केवलज्ञानं सर्वार्थविषयं न संभवतीति ? ॥१२१०॥ यार्थ:- २५:- सारा प्रतिमाशान छ। (१) मतिमाहियारशान (मति, श्रुत, पिसने मन:पर्यय) ના ઉત્કૃષ્ટપ્રકર્ષના ઉત્તરકાળે થાય, અને કેવળજ્ઞાનથી કાં'ક પૂર્વે હોય (પૂર્વકાલીન હોય). આ પ્રતિભાશાન સૂર્યોદયની તત્કાળપૂર્વેના સૂર્યના પ્રકાશતુલ્ય છે. અહીં કેવળજ્ઞાનોદય સૂર્યોદય સમાન છે. સૂર્યોદયની તરત પૂર્વેનો સૂર્યપ્રકાશ કાંક ઝાંખો હોવા છતાં બધી વસ્તુને પ્રકાશિત કરે છે. તેમ કેવળજ્ઞાનની કાંક પૂર્વનું આ પ્રતિભાશાન પણ રૂપાદિ અશષવસ્તને વિષય બનાવે છે. આ પ્રતિભાજ્ઞાન ઇન્દ્રિયથી થતાં પ્રત્યક્ષ કરતાં વધુ સ્પષ્ટઆભાવાનું હોવાથી અધિકતરરૂપે રૂપાદિ સકલવસ્તગત કેટલાક પર્યાયનું જ્ઞાન કરાવે છે. કેમકે બધા જ અધ્યાત્મશાસ્ત્રોમાં આ પ્રતિભાશાનઅંગે આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે. તેથી આ પ્રતિભાજ્ઞાનના પરમપ્રકર્ષભૂત અને અતીન્દ્રિય એવું કેવળજ્ઞાન સર્વઅર્થવિષયક કેમ ન હોય? અર્થાત હોય જ. ૧૨૧ના अथोच्येत कथमेतत् प्रतिभाज्ञानमविसंवादि गम्यते येन तत्प्रकर्षभूतं केवलज्ञानमप्यविसंवादि भवेदिति ? उच्यते-लोके तथादर्शनात् । तथा चाह શંકા:- જો પ્રતિભાશાન અવિસંવાદી હોય, તો જ તેના પ્રકર્ષરૂપ કેવલજ્ઞાન અવિસંવાદી શ્રેય તેમ નિર્ણય થાય, પણ પ્રતિભાજ્ઞાન અવિસંવાદી છે તેવો નિર્ણય કેવી રીતે કરવો? સમાધાન - લોકમાં આ પ્રતિભાજ્ઞાન અવિસંવાદી તરીકે દેખાય છે, તેથી જ આચાર્યવર્ટ કહે છે अविसंवादि य एतं सुए इमं होहिइ त्ति हिययं मे । कहइ तह च्चिय णवरं तं जायइ अविवरीतातो ॥१२११॥ (अविसंवादि चैतत् श्वः इदं भविष्यतीति हृदयं मे । कथयति तथैव नवरं तद् जायतेऽवैपरीत्येन ॥ अविसंवादि च एतत्-प्रतिभाज्ञानं, यतः 'व:-कल्ये इदं भविष्यतीति हृदयं मे कथयतीति' प्रतिभावता अभिहिते सति तत्कथितं वस्तु तथैवावैपरीत्यतः-अवैपरीत्येन जायत इति ॥१२११॥ ગાથાર્થ:- આ પ્રતિભાશાન અવિસંવાદી છે. કેમકે એવી પ્રતિભાવાળી વ્યક્તિ એમ કહે કે- “કાલે આમ થશે એવું મારું હૃદય કહે છે, તો બીજા દિવસે ખરેખર જરા પણ ફેરફાર વિના) તેમ જ થતું દેખાય છે. ૧૨૧૧ાા ઉક્યન-ભોજન અને શાન વચ્ચે વધર્મ पर आहઅહીં (તરતમભાવની સર્વવસ્તુવિષયકતાથી વિરુદ્ધ પરિમિતવાસ્તવિષયકતાસાથે વ્યાપ્તિ બતાવવાના પ્રયાસમાં) પૂર્વપક્ષકાર કહે છે उडिंति केइ थोवं केइ बहुं बहुतरं तहा अन्ने । भुंजन्ति य णय एसिं पगरिसमो सव्वविसतो तु ॥१२१२॥ ___ (उड्डयन्ते केचित् स्तोकं केचिद् बहु बहुतरं तथाऽन्ये । भुञ्जते च नचैतयोः प्रकर्षः सर्वविषयस्तु ) इह केचित् पक्षिण उड्डीयन्ते (उड्डयन्ते) स्तोकं, केचिद्बहुं, केचिच्च बहुतरं, तथान्ये केचित् स्तोकं भुञ्जते, केचिद्बह, केचिच्चबहुतरं, न चैतयोरुड्डयनभोजनक्रिययोः प्रकर्षः सर्वविषयः, किंतु परिमितविषय एव ॥१२१२॥ . ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- કેટલાક પંખીઓ થોડું ઊડે છે, કેટલાક વધુ અને બીજા કેટલાક તેથી ય વધુ ઊડે છે. તે જ પ્રમાણે કેટલાક થોડું ખાય છે, બીજા કેટલાક તેથી વધુ ખાય છે, અને અન્ય કેટલાક તેથી ય વધુ ખાય છે. આમ ઊડવામાં અને ખાવામાં તરતમભાવ છે. છતાં આ બન્ને ક્રિયામાં સર્વવસ્તવિષયક પ્રકર્ષભાવ દેખાતો નથી, પરંતુ પરિમિતવિષયક જ છે. ૧ર૧રા ********* ****+++ 8 - 02-275+++++++++++++++ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिGिR * * * * * * * * * *+++++++ ततः किमित्याह - તેથી શું તે બતાવે છે णाणस्सवि एवं चिय तरतमजोगे वि दिट्ठविसओ तु । जुज्जइ पगरिसभावो वेधम्मातो. इदमजुत्तं ॥१२१३॥ (ज्ञानस्यापि एवमेव तरतमयोगेऽपि दृष्टविषयस्तु । युज्यते प्रकर्षभावो वैधादिदमयुक्तम् ॥ ज्ञानस्यापि एवमेव-उड्डयनभोजनक्रिययोरिव तरतमयोगेऽपि-तारतम्यभावेऽपि प्रकर्षों दृष्टविषय एव युज्यते, तुरेवकारार्थः, न तु सर्वविषय इति । अत्राह- 'वेधम्माओ इदमजुत्त' मिति, इदं पूर्वोक्तं सर्वमयुक्तं वैधात् दृष्टान्तदा - न्तिकयोर्वेषम्यात् ॥१२१३॥ આ ગાથાર્થ:- ઉશ્યન અને ભોજનક્રિયાની જેમ જ્ઞાનનો પણ તરતમભાવ હોવા છતાં પ્રકર્ષ તો દષ્ટવિષયક જ યોગ્ય છે. न सविषय. (तु. ५६°४२रार्थ छे.) ઉત્તરપક્ષ:- અહીં દેખાજો-દાર્ટાન્તિકવચ્ચે વૈધર્મ હોવાથી તમારા આ વચનો તદ્દન અયોગ્ય છે. ૧૨૧૩ एतदेवाह - આ જ વાત કરતા કહે છે सव्वं सामण्णविसेसस्वमिह वत्थु माणसिद्धं तु । सामन्नेण य सव्वं पायं जाणंति समयण्णू ॥१२१४॥ (सर्व सामान्यविशेषरूपमिह वस्तु मानसिद्धं तु । सामान्येन च सर्व प्रायो जानन्ति समयज्ञाः ॥ ' ' इह जगति सर्वं वस्तु सामान्यविशेषरूपं, तच्च नाभ्युपगममात्रलब्धसत्ताकं किंतु मानसिद्धं-प्रमाणसिद्धम् । तुः पूरणे तथाहि-घटो घट इति घटविषया सामान्याकारा बुद्धिरविगानेन सर्वप्रमातॄणामुपजायते, मार्तिकस्ताम्रो राजत इति विशेषाकारा च, एवमन्यविषयापीति । सामान्येन च प्रायः सर्वं वस्तु जानन्ति समयज्ञाः ॥१२१४ ॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં બધી જ વસ્તુ સામાન્ય-વિશેષરૂપ છે. આ સામાન્ય-વિશેષ કંઈ અભ્યપગમમાત્રથી સિદ્ધ નથી પરંતુ પ્રમાણસિદ્ધ છે. ('પદ પૂરણાર્થક છે.) તે આ પ્રમાણે બધા જ પ્રમાતાને ઘટસંબંધી “ઘડો' “ઘડો એમ સામાન્યરૂપ નિર્વિવાદ બદ્ધિ થાય છે. તે જ પ્રમાણે માટીનો ઘડો તાંબાનો ઘડો ચાંદીનો ઘડો' એમ વિશેષરૂપ બદ્ધિ પણ નિર્વિવાદ થાય છે. આજ પ્રમાણે અન્યવિષયકબુદ્ધિ પણ સમજી લેવી. આગમજ્ઞપુરુષો સામાન્યથી તો પ્રાય: બધી જ વસ્તુનું જ્ઞાન કરે છે. ૧૨૧૪ किंची विसेसओ वि हु सयलविसेसाणमवगमे तस्स । सामत्थमणुमिणिज्जति पच्चक्खेणं परोक्खं पि ॥१२१५॥ (किञ्चिद् विशेषतोऽपि हु सकलविशेषाणामवगमे तस्य । सामर्थ्यमनुमीयते प्रत्यक्षेण परोक्षमपि ॥) किंचिद्विशेषतोऽपि 'ह' निश्चितं जानन्ति, ततस्तस्य-समयज्ञस्य समयतः सामान्येन सर्वं वस्तु जानतः सकलविशेषाणामपि प्रत्यक्षेणावगमे-परिच्छेदे कर्तव्ये सामर्थ्य परोक्षमपि सत् अनुमीयते ॥१२१५॥ ગાથાર્થ:- તે આગમવિશો કેટલાક અંશે વિશેષને પણ અવશ્ય જાણે છે. તેથી આગમના આધારે સામાન્યથી સકળ વસ્તુના આગમજ્ઞાતામાં સકળ વિશેષોને પ્રત્યક્ષથી જાણવાનું સામર્થ્ય પરોક્ષ હોવા છતાં અનુમાનનો વિષય બને છે. અર્થાત એ સમયજ્ઞની પ્રત્યક્ષથી જ સકળવિશેષને જાણવાની શક્તિનો અનુમાનથી નિર્ણય થાય છે. ૧ર૧પો જ્ઞાનસ્વભાવી જીવ આવરણક્ષયથી સર્વ कथमित्याह - वीरीत? ते माछ णाणसहावो जीवो आवरणे असति सति य णेयम्मि । कह णु ण णाही सव्वं पगरिससामत्थजुत्तो य ? ॥१२१६॥ (ज्ञानस्वभावो जीव आवरणेऽसति सति च ज्ञेये । कथं नु न ज्ञास्यति सर्व प्रकर्षसामर्थ्ययुक्तश्च ॥) ++++++++++++++++ Slee-MIR२ - 276+++++++++++++++ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सर्वसिलिवार +++++++++++++++++ अयं हि जीवो ज्ञानस्वभावः, ततश्चासत्यावरणे सति च ज्ञेये कथं न्ववगमविषयप्रकर्षसामर्थ्ययुक्तस्सन् सर्वं न ज्ञास्यति, ज्ञास्यत्येवेतिभावः, विबन्धकाभावात् ॥१२१६॥ यार्थ:- मा® शानस्वभावाणी छे. तेथी को (१)शाना१रानो समाप लोय (२)ज्ञेय विद्यमान होय, अने (3) તે જીવ બોધસંબધી પ્રકષ્ટસામર્થ્યથી યુક્ત હોય, તો બધું જ કેમ જાણે નહીં? અર્થાત જાણે જ, કેમકે જાણકારીમાં કોઈ પ્રતિબન્ધક હાજર નથી. ૧૨૧દા अथ कथमावरणाभावोऽभूत् येनोच्यते आवरणे असतीति । अत आह - આવરણનો અભાવ કેવી રીતે થયો? કે જેથી આવરણનો અભાવ હોય એમ કહેવાય એવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે आवरणाभावो वि हु पुव्वुत्तविहीएँ ण पडिबंधा य । .. देसाइविप्पगरिसा सामण्णेणोवलंभाओ ॥१२१७॥ (आवरणाभावोऽपि ह पूर्वोक्तविधिना न प्रतिबन्धाश्च । देशादिविप्रकर्षाः सामान्येनोपलम्भात् ॥) आवरणाभावोऽपि च पूर्वोक्तविधिना 'पडिवक्खभावणाओ अणुहवसिद्धो य हासभावो सि' मित्यादिना द्रष्टव्यः । न च वाच्यं सत्यप्यावरणाभावे देशादिविप्रकर्षा विबन्धका भविष्यन्तीति कथं सर्वविशेषावगमसामर्थ्यमनुमीयत इत्यत आह --'नेत्यादि' न प्रतिबन्धा(ध पाठा.) देशादिविप्रकर्षाः, आदिशब्दात् कालस्वभावपरिग्रहः। कथं न ते प्रतिबन्धा (ध पाठा.) इत्याह-सामान्येनोपलम्भात् । यदि हि देशादिविप्रकर्षा अविशेषेण ज्ञानस्य प्रतिबन्धका भवेयुस्ततः सामान्येनापि उपलम्भं प्रतिबध्नीयुर्न च प्रतिबध्नन्ति, तथाऽप्रतीतेः ततः क्षीणसकलतदावरणस्यापि न सकलविशेषावगमनं प्रतिभंत्स्यन्तीति ॥१२१७॥ ગાથાર્થ:- “પડિવફખભાવણાઓ...” (ગા. ૧૧૬૪) પ્રતિપક્ષભાવનાથી છૂાસભાવ અનુભવસિદ્ધ છે. ઈત્યાદિ પૂર્વોક્તવિધિથી આવરણાભાવ પણ જાણી લેવો. શંકા:- આવરણનો અભાવ હોય, તો પણ દેશાદિ(આદિથી કાળ–સ્વભાવવગેરે)નો વિપ્રકર્ષ વ્યવધાન જ્ઞાનમાં પ્રતિબંધક બનશે, (તાત્પર્ય - જ્ઞાનાવરણનો અભાવ ભલે થાય, પણ જો વસ્તુ જ દેશ કે કાળથી અતિ દૂર હોય, તો જ્ઞાનમાં પ્રતિબન્ધ આવશે જ.) તેથી સર્વવિશેષના અવગમનું અનુમાન શી રીતે થશે? સમાધાન:- દેશાદિવિપ્રકર્યો પ્રતિબન્ધક નથી, કેમકે સામાન્યથી ઉપલબ્ધ થાય છે. જો દેશાદિવિપક અવિશેષરૂપે જ્ઞાનના પ્રતિબન્ધક બનતા હોય, તો સામાન્યથી જ્ઞાન થવામાં પણ પ્રતિબન્ધક બનવા જોઇએ. પણ તેવી પ્રતીતિ થતી ન હોવાથી તેઓ પ્રતિબંધક બનતા નથી. આ જ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણનો સર્વથા ક્ષય કરનારને પણ સકળ વિશેષના બોધમાં તે પ્રતિબન્ધક બનશે નહીં. ૧૨૧૭ ગમનાદિની પરિમિતવિષયતા णय सामण्णेण वि गमणभोयणं सव्वविसयमिह दिटुं । ता कह णु विसेसेणं होही तं सव्वविसयं तु ? ॥१२१८॥ (न च सामान्येनापि गमनभोजनं सर्वविषयमिह दृष्टम् । ततः कथं नु विशेषेण भविष्यति तत् सर्वविषयं तु 11) न च सामान्येनापि गमनभोजनमिह-जगति सर्वविषयं दृष्टं, किंतु परिमित विषयमेवाविगानेन तथासकललोकप्रतीतेः। 'ता' ततः कथं नु तकत्-गमनभोजनं विशेषेण सर्वविषयं भविष्यतीति ? नैव भविष्यतीति भावः ॥१२१८॥ - ગાથાર્થ:- આ જગતમાં ગમન કે ભોજન સામાન્યથી પણ સર્વવિષયક દેખાતા નથી, પરંતુ પરિમિતવિષયક જ દેખાય છે. કેમકે આ વિરોધ વિના સર્વજનપ્રતીત છે. તેથી એ ગમન-ભોજન વિશેષરૂપે શી રીતે સર્વવિષયક બની શકે? અર્થાત ન . જ બની શકે. ૧૨૧૮ एतदेव भावयति - આ જ અર્થનું ભાવન કરે છે - परिमियसामत्थो च्चिय देहो गमणादियासु किरियासु । ता जुत्तं च्चिय तासिं ण पगरिसो सव्वविसओ त्ति ॥१२१९॥ (परिमितसामर्थ्य एव देहो गमनादिषु क्रियासु । तस्माद्युक्तमेव तासां न प्रकर्षः सर्वविषय इति ॥) ++ + + + + + + + + + + + + + + - २ - 277 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिद्विार +++++++++++++++++ यस्माद्देहो-जन्तुशरीरं गमनादिकासु क्रियासु, आदिशब्दाभोजनादिक्रियापरिग्रहः, परिमितसामर्थ्य एव तथादर्शनात्। तस्मात् युक्तमेवैतत् यदुत-तासां गमनादिकानां क्रियाणां प्रकर्षों न सर्वविषय इति ॥१२१९॥ ગાથાર્થ:- જીવોનું શરીર ગમનાદિ–આદિશબ્દથી–ભોજનાદિ ક્રિયાઓમાં મર્યાદિત સામર્થ્ય જ ધરાવે છે, તેમ દેખાય છે. તેથી ‘ગમનાદિ ક્રિયાઓનો સર્વવિષયક પ્રકર્મ ન થાય' એમ કહેવું બરાબર છે. ૧૨૧લા अन्यच्चवणी, णय एगजत्तसिद्धं (गमणं) च्चिय होइ बीयजत्तम्मि । णाणे व्व हंदि गमणे तम्हा अणुदाहरणमेयं ॥१२२०॥ (न चैकयत्नसिद्धं गमनमेव भवति द्वितीययत्ने । ज्ञाने इव हंदि गमने तस्मादनुदाहरणमेतत् ॥ न च ज्ञाने इव 'हंदीति' परामन्त्रणे, गमनेऽपि एकयनसिद्धम्-एकप्रयत्ननिष्पन्नं गमनं यत्तत् द्वितीययत्नेऽपिद्वितीयपादोत्क्षेपयत्नवेलायामपि सिद्धमेव भवति, परिनिष्पन्नमेव सत् अनुवर्तत इतियावत्, किंतु निवर्तत एव, यत्नाभावे तस्याभावात् । आह च प्रज्ञाकरगुप्तो- 'न गमनं पूर्वयनलब्धं प्रयत्नान्तरनिरपेक्षमपितु प्राग्देश एव पुनर्यत्रमपेक्षते इति, ततः पूर्वयत्नलभ्य एव यत्नान्तरस्योपक्षीणशक्तिकत्वान्नोत्तरोत्तरविशेषाधानं प्रति तस्य सामर्थ्य, प्रयत्नश्च यद्यप्यभ्यासवशा प्रकर्षभाग्भवति तथापि शरीरबलापेक्षः, शारीरं च बलं स्वजात्यनुसारेण प्रतिनियतं, ततो न गमनस्य सर्वविषयता, ज्ञाने पुनरेकयत्नसिद्धो विशेषो द्वितीययत्नवेलायामप्यनुवर्तते, आत्मस्वभावत्वात्, ततो द्वितीयो यत्नः पूर्वयत्नलभ्ये विशेषेऽनुपयुक्तशक्तित्वादुत्तरोत्तरविशेषाधायको भवति, न च ज्ञानं प्रायः शारीरं बलमपेक्षते, किंतु कर्मलाघवं, ततो युक्ता तस्य सर्वविषयता । तस्मादेतद्गमनादिकमनुदाहरणमेवात्यन्तवैलक्षण्यादिति ॥१२२०॥ ગાથાર્થ:- (બંદિપદ આમત્રણ માટે છે.) જ્ઞાનની જેમ ગમનમાં પણ એકપ્રયત્નથી જે થતું ગમન બીજા પ્રયત્ન વખતે પણ –બીજી વાર પગ ઉપાડવાના વખતે પણ સિદ્ધ હોતું નથી. અર્થાત એકપ્રયત્નથી થયેલું ગમન બીજા પ્રયત્ન વખતે અનુવર્તન પામતું નથી, પરંતુ નિવૃત્ત થાય છે. કેમકે બીજા પ્રયત્નના અભાવમાં બીજા ગમનનો પણ અભાવ હોય છે. પ્રજ્ઞાકરગુખે કહ્યું છે કે “પૂર્વયત્નથી પ્રાપ્ત ગમન પ્રયત્નોત્તરને નિરપેક્ષ નથી, પરંતુ પૂર્વદેશે જ ફરીથી પ્રયત્નની અપેક્ષા રાખે છે.” તેથી પૂર્વપ્રાપ્તશક્તિ પૂર્વયનથી પ્રાપ્ત ગમનમાં જ ખર્ચાઈ જતી હેવાથી, ઉત્તરોત્તર વિશેષનું આધાન કરવામાં યત્નનું સામર્થ્ય રહેતું નથી. જો કે અભ્યાસ કરવાથી પ્રયત્ન પ્રકર્ષવાળો બને છે, છતાં તે શરીરના બળની અપેક્ષા તો રાખે છે જ, અને શરીરબળ તો પોતપોતાની જાતિઆદિને અનુસાર પ્રતિનિયત જ હોય છે. એક વ્યક્તિ ચાલવાનો અભ્યાસ કરે... પ્રથમ દિવસે ૫ માઇલ ચાલે.. બીજે દિવસે આ પાંચ માઇલ મજરે મળતા નથી, પણ ફરીથી પ્રયત્ન કરવો જ પડે.એમ પ્રયત્ન કરતા કરતા ૬.૭...૮ આદિ માઈલ ચાલી શકે. એ પણ ઘણા લાંબા ગાળે.. એ જ પ્રમાણે ભોજનાદિમાટે સમજવું. આમ જીંદગીભર પ્રયત્ન કરે તો પણ અમૂક મર્યાદાથી આગળ વધી ન શકે.) તેથી ગમનાદિ સર્વવિષયક ન બની શકે. જયારે જ્ઞાનની બાબત જુદી છે. એક પ્રયત્નથી જે જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું, તે બીજા પ્રયત્ન વખતે અનુવર્તન પામે છે. તેથી બીજો પ્રયત્ન પ્રથમ પ્રયત્નપ્રાપ્ત જ્ઞાનમાં ખર્ચાતો ન હોવાથી ઉત્તરોત્તરવિશેષનો આધાયક બની શકે છે. આમ થવાનું કારણ એ જ કે જ્ઞાન આત્માનો સ્વભાવ છે. અને પ્રાય: શારીરિકબળની અપેક્ષા નહીં; પરંત કર્મલધુતાની અપેક્ષા રાખે છે. તેથી જ્ઞાનની સર્વવિષયતા સંગત જ છે. તેથી જ્ઞાન માટે ગમનાદિ અત્યંત વિલક્ષણ હોવાથી ઉદાહરણરૂપ બની શકતા નથી. ૧રરવા યવહેતુથી સર્વશતાસિદ્ધિ पर आहઅહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે जीवस्सवि सव्वेसुं हंत विसेसेसु अत्थि सामत्थं ।। अहिगमणम्मि पमाणं किमेत्थ णणु णेयभावो तु ? ॥१२२१॥ (जीवस्यापि सर्वेषु हन्त विशेषेषु अस्ति सामर्थ्यम् । अधिगमने प्रमाणं किमत्र ननु ज्ञेयभावस्तु " 'हन्तेति' परामन्त्रणे हन्त जीवस्यापि सामान्येन समयतः सर्वं वस्तु जानतः सर्वेषु विशेषेषु विषयभूतेषु अधिगमे सामर्थ्यमस्तीत्यत्र किं प्रमाणं? नैव किंचिदितिभावः । न चाप्रमाणकं वचो विपश्चितो बहु मन्यन्ते इति । अत्राह - ‘णणु ++++++++++++++++Huae-ला2 - 278 + ++++++++++++++ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************स GिER**************** णेयभावो उ त्ति' ननु तेषां विशेषाणां ज्ञेयभाव एव तद्विषयाधिगमसामर्थ्यनिर्णये प्रमाणम् ॥१२२१ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- (હત્ત પદ પરામત્રણમાટે છે) “આગમથી સામાન્યરૂપે બધું જાણતા જીવનું વિષયભૂત સર્વ વિશેષોમાં પણ જાણવાનું સામર્થ્ય છે. એમ કહેવામાં શું પ્રમાણ છે? અર્થાત કોઇ પ્રમાણ નથી. અપ્રમાણભૂત વાણીને વિદ્વાન પુરુષો બહુ ગણકારતા નથી. 1 ઉત્તરપક્ષ:- તે વિશેષમાં રહેલો શેયભાવ જ તદ્વિષયકઅધિગમના સામર્થ્યના નિર્ણયમાં પ્રમાણ છે. ૧૨૨૧ तथाहि - दूमओ जलहिजलपलपमाणादिविसेसा सव्व एव पच्चक्खा । कस्सइ णेयत्तातो घडादिस्वादिधम्म व्व ॥१२२२॥ ...... (जलधिजलपलप्रमाणादिविशेषाः सर्व एव प्रत्यक्षाः । कस्यचिद् ज्ञेयत्वाद् घटादिरूपादिधर्मवत् ॥) जलधिजलपलप्रमाणादयो विशेषाः सर्व एव कस्यचित्प्रत्यक्षा ज्ञेयत्वात्, घटादिरूपादिधर्मवत् ॥१२२२॥ ગાથાર્થ:- સમુદ્રના પાણીનું પલાદિ (‘પલ' વજનવિશેષ) વજન, પ્રમાણ વગેરે બધા જ વિશષો કોકને પ્રત્યક્ષ છે, કેમકે શેય છે, જેમકે ઘડાદિના રૂપાદિધર્મો (અહીં સમુદ્રના પાણીનું વજનવગેરે પક્ષ છે, પ્રત્યક્ષશાન સાધ્ય છે. શેયત હેતુ છે. ઘટાદિના રૂપાદિધર્મો દષ્ટાન છે.) ૧૧રરા अत्र परो हेतोरनैकान्तिकतामुद्भावयन्नाह - અહીં પૂર્વપક્ષકાર (યત્વ) હેતમાં અનેકાન્તિકતા દોષ દર્શાવતા કહે છે – णेयत्तमप्पओजगमिह जोगत्ताए चिट्ठती जेणं । जह छेदणकिरियाए स्क्खा णो विधुरभावातो ॥१२२३॥ (इयत्वमप्रयोजकमिह योग्यतया तिष्ठति येन । यथा छेदनक्रियाया वृक्षा नो विधुरभावात् ॥ ज्ञेयत्वमप्रयोजकम्-अगमकं विवक्षितसाध्यार्थाप्रतिबद्धमितियावत्, कथमित्याह-येन कारणेन इह-जगति ज्ञेयत्वं विशेषेषु योग्यतया तिष्ठति, यदि हि भवति तद्विषयं ज्ञानं तर्हि ते ज्ञेया भवन्ति न त्ववश्यमिति, यथा छेदनक्रियाया वृक्षा इति। अत्राह-'नो इत्यादि' यदेतदुक्तं तन्न, कुत इत्याह-विधुरभावात्, दृष्टान्तदान्तिकयोर्वैषम्यादित्यर्थः ॥१२२३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- શયત્વ અપ્રયોજક છે- વિક્ષિત સાધ્યાર્થીને પ્રતિબદ્ધ નથી, કેમકે આ જગતમાં વિશેષોમાં યત્વ યોગ્યતારૂપે રહેલું છે. તે વિષયઅંગે જ જ્ઞાન થાય, તો તે શૈય બને, અવશ્ય બને તેવું નહીં, જેમકે વૃક્ષો છેદનક્રિયા માટે. (જો કોઈ છેડવા આવે, તો વૃક્ષ છેદાય વૃક્ષની આ છેદનયોગ્યતા છે. પણ આ યોગ્યતામાત્રથી કંઈ વૃક્ષ અવશ્ય છેnય તેવું બનતું નથી, તેમ દરેક વિશેષ જો કોઈ જ્ઞાન કરે, તો જ્ઞાન કરવા યોગ્ય છે. એવી શયત્વયોગ્યતા ધરાવે છે, પણ આ યોગ્યતામાત્રથી કંઇ એ વિશેષો શેય બની જાય તેવો नियम नथी.) ઉત્તરપક્ષ:- અહીં દષ્ટાન્ન દષ્ટાન્તિકવચ્ચે વિષમતા લેવાથી તમારી વાત બરાબર નથી. ૧૨૨૩ અભાવ પ્રમાણમાં વ્યભિચારની આપત્તિ कथं विधुरभाव इति चेत् ? अत आह - વિધુરભાવ કેવી રીતે આવ્યો?" એમ જો પૂછતા હો, તો જવાબ આ છે विधुरत्तं च विसेसाण णाणविसयत्तमिच्छियव्वं तु । पावेइ अण्णहा छट्ठमाणवभिचारदोसो तु ॥१२२४॥ (विधुरत्वं च विशेषाणां ज्ञानविषयत्वमेष्टव्यं तु । प्राप्नोति अन्यथा षष्ठमानव्यभिचारदोषस्तु ॥) विधुरत्वं च-वैषम्यं च दृष्टान्तदाान्तिकयोर्यस्माद्विशेषाणां ज्ञानविषयत्वमवश्यमेष्टव्यमेव । तुरवधारणार्थः । न तु वृक्षाणां छेदनक्रियेव योग्यतया, अन्यथा-एवमनभ्युपगमे षष्ठमानव्यभिचारदोष:-अभावप्रमाणव्यभिचारदोषः तुः पूरणे प्राप्नोति ॥१२२४॥ " सायार्थ:-हटान्त-घटन्तिपथ्ये विषमता तामाटे छ, विशेषोनी शानविषय (शेय)अश्य नीय छे. (“ત'પદ જકારાર્થક છે.) નહીં કે વૃક્ષોમાં રહેલી યોગ્યતારૂપે જ છેદનક્રિયાવિષયતાની જેમ વિશેષો પણ જ્ઞાનના વિષય કયારેય પણ ન બને ++++++++++++++++ le-MIL -279+++++++++++++++ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** સર્વસિદ્ધિ દ્વાર નજ તોય ચાલે. અર્થાત્ શાનના વિષય બનવા જ જોઇએ. આમ નહીં માનવામા) છઠ્ઠા અભાવપ્રમાણસાથે વ્યભિચારનો દોષ છે. (તુપદ પૂરણાર્થક છે.) ૫૧૨૨૪૫ अमुमेव षष्ठमानव्यभिचारदोषं भावयन्नाह છઠ્ઠા પ્રમાણમાં આવતા વ્યભિચારદોષનું ભાવન કરે છે. य तेऽणुमाणगम्मा लिंगाभावा ण सद्दगम्मा य । विसयाभावा विहिपडिसेहा विसओ जतो तस्स ॥९२२५॥ (न च तेऽनुमानगम्या लिङ्गाभावान्न शब्दगम्याश्च । विषयाभावाद् विधिप्रतिषेधौ विषयो यतस्तस्य ॥) न यस्मात्ते - जलधिजलपलप्रमाणादयो विशेषा अनुमानगम्या - अनुमानप्रमाणविषयाः, लिङ्गाभावात्-विषयेण विषयिणो लक्षणात् लिङ्गपरिज्ञानाभावात् । नहि विशेषप्रतिबद्धं किंचित् लिङ्गं ज्ञातुं शक्यते, विशेषाप्रत्यक्षत्वेन तत्प्रतिबद्धस्य लिङ्गस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् । अपिच, देशकालव्याप्तिग्रहणेन लिङ्गनिश्चयो भवति, न च विशेषो देशान्तरे कालान्तरे वा संभवति, तस्य प्रतिनियतदेशकालत्वात् । ततो न विशेषेण सह कस्यचित्प्रतिबन्धनिश्चय इति लिङ्गपरिज्ञानाभावः । नापि शब्दगम्याः-आगमप्रमाणगम्याः । कुत इत्याह- 'विषयाभावात्' आगमप्रमाणविषयत्वाभावात् । कथं विषयत्वाभावः ? इत्याह- यतो - यस्मात्तस्य- आगमस्य विधिप्रतिषेधावेव विषयस्तथाभ्युपगमात् ॥१२२५ ॥ ગાથાર્થ:- સમુદ્રના પાણીનુ વજન, પ્રમાણવગેરે વિશેષો અનુમાનપ્રમાણના વિષય નથી, કેમકે લિંગનો (-વિષયથી વિષયીનું લક્ષણ થાય એ ન્યાયથી)–લિંગના જ્ઞાનનો અભાવ છે. અહીં વિશેષને પ્રતિબદ્ધ કોઇ લિંગનું જ્ઞાન થવું શકય નથી, કેમકે વિશેષ જ અપ્રત્યક્ષ હોવાથી તેને પ્રતિબદ્ધ લિંગનું જ્ઞાન થવું પણ અશકય જ છે. વળી, દેશ અને કાળને આશ્રયી વ્યાપ્તિના ગ્રહણથી લિંગનિશ્ચય થાય છે. પણ ‘જલધિજલવજન' જેવા વિશેષો અન્ય દેશમા કે અન્ય કાળમાં ઉપલબ્ધ થવા શકચ નથી, કેમ કે તેઓ નિશ્ચિત દેશ અને કાળમા જ વિદ્યમાન હોય છે. તેથી આવા વિશેષની સાથે કોઇની વ્યાપ્તિનો નિશ્ચય થતો નથી. આમ લિગના પરિજ્ઞાનનો અભાવ છે. એ જ પ્રમાણે આ વિશેષો આગમપ્રમાણગમ્ય પણ નથી, કેમકે આગમપ્રમાણના વિષય નથી, કેમકે વિધિ-પ્રતિષેધ જ આગમના વિષયતરીકે સ્વીકૃત છે. ૫૧૨૨પા उवमागम्मा वि ण ते आलंबणजोगविरहतो तेसिं । अत्थावत्तएँ वि एवमेव ते णावगम्मंति ॥ १२२६॥ (उपमागम्या अपि न ते आलंबनयोगविरहतस्तेषाम् । अर्थापत्याऽपि एवमेव ते नावगम्यन्ते II) उपमागम्या अपि ते-विशेषा न भवन्ति । कुत इत्याह-आलम्बनयोगविरहतस्तेषां विशेषाणां प्रत्यक्षप्रमाणालम्बनक्रियाभिसंबन्धाभावतः । उपमाया हि 'अनेन दृश्यमानेन गवयेन सदृशो मदीयः पूर्वदृष्टो गौस्तस्य चानेन सादृश्यमित्येवं प्रवृत्तिरिष्यते, ततः प्रत्यक्षप्रमाणविषयत्वाभावे उपमानस्यापि ते गम्या न भवन्ति । अर्थापत्त्यापि एवमेव - अनुमानादिभिस्वि ते - विशेषा नावगम्यन्ते । सा हि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थो यदन्तरेण नोपपद्यते यथा काष्ठस्य भस्मविकारोऽग्नेर्दहनशक्तिमन्तरेण तद्विषया वर्ण्यन्ते (ते) । न च दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थः सकलवस्तुगताशेषविशेषानन्तरेण नोपपद्यत इति ॥ १२२६॥ ગાથાર્થ:- આ વિશેષો ઉપમાગમ્ય પણ નથી. કેમકે પ્રત્યક્ષપ્રમાણના આલંબનથી(=આધારે) ક્રિયા (ઉપમાન ક્રિયા) ના અભિસંબંધનો તેઓમા અભાવ છે. ઉપમાપ્રમાણમાં “આ દેખાતા ગવય જેવો જ મેં અગાઉ જોયેલો ગો (-બળદ/ગાય ) હતો. તે (=પૂર્વદૃષ્ટ)નીસાથે આ ગવયનું સાદૃશ્ય છે.” આવી પ્રવૃત્તિ ઇષ્ટ છે. (પૂર્વપ્રત્યક્ષનું વર્તમાનપ્રત્યક્ષસાથે સાદૈશ્યદર્શન ઉપમાની મુખ્યપ્રવૃત્તિરૂપ છે.) પરંતુ આ વિશેષો જેનીસાથે સરખાવી શકાય તેવી કોઇ વસ્તુ પ્રત્યક્ષપ્રમાણનો વિષય બનતી નથી, તેથી આ વિશેષો ઉપમાગમ્ય પણ નથી. અનુમાનાદિની જેમ અર્થપત્તિથી પણ તે વિશેષોનો બોધ થતો નથી. અર્થાપત્તિપ્રમાણ દૃષ્ટ કે શ્રુત–અર્થ જેના વિના ઉપપન્ન ન થાય, તે વિષયઅંગે હોય છે, જેમકે લાકડાનો ભસ્મ-રાખરૂપ વિકાર અગ્નિની દહનશક્તિ વિના શકય નથી, (તેથી આ દેષ્ટભસ્મની અન્યથાઅનુપપત્તિથી અગ્નિની દહનશક્તિ સિદ્ધ થાય છે.) પરંતુ પ્રસ્તુતમાં એવો કોઇ દૃષ્ટ કે શ્રુત અર્થ દેખાતો નથી, કે જે સકળવસ્તુગત સઘળા'ય વિશેષો વિના ઉ૫પન્ન ન બને. ૫૧૨૨૬॥ વિશેષોની સિદ્ધિ यद्येवं ततः किमित्याह જો આમ હોય, તો શું?” તે બતાવે છે. * * ધર્મમણિ-ભાગ ૨ - 283 * * Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********++++++सबसिनिवार ***************** तम्हा अभावविसया संति य वभिचारिमो अभावो भे । भावे अह किं पमाणं ? सामण्णविवक्खभावो तु ॥१२२७॥ (तस्मादभावविषयाः सन्ति च व्यभिचारी अभावो युष्माकम् । भावेऽथ किं प्रमाणम् ? सामान्यविपक्षभावस्तु ॥ यस्मादुक्तप्रकारेण प्रमाणपञ्चकगोचरातिक्रान्तास्तस्मादभावविषया-अभावप्रमाणगोचरास्ते-विशेषाः, तदुक्तम्"प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थ, तत्राभावप्रमाणते ॥१॥" ति । अथ च ते विशेषाः सन्ति तस्माद्रे- भवतामभावप्रमाणं व्यभिचारि प्राप्नोतीति । अथोच्येत-तेषां विशेषाणां भावे सत्तायां किं प्रमाणं ? येन तद्विषयस्याभावप्रमाणस्य व्यभिचारः प्रसज्यत इति । अत्राह-सामान्यविपक्षभाव एव । तुरेवकारार्थः । विशेषा हि सामान्यविपक्षभूताः, विपक्षभूतविशेषाविनाभावि च सामान्यं, यतो वस्तूनां समानपरिणाम एव समानधिषणाध्वनिनिबन्धनं सामान्यम्, “वस्तुन एव समानः परिणामो यस्स एव सामान्य" मितिवचनात्, समानपरिणामश्चासमानपरिणामाविनाभूतोऽन्यथैकत्वापत्तितः समानत्वस्यैवायोगात्, असमानपरिणामश्च समानपरिणामस्य विपक्षभूतः, स एव च विशेषः । "असमानस्तु विशेष" इति वचनादिति ॥१२२७॥ ગાથાર્થ:- તે વિશેષો આમ પ્રમાણપંચકના વિષય બનતા ન હોવાથી અભાવપ્રમાણના વિષય બને છે. કહ્યું જ છે કે જે વસ્તુના સ્વરૂપમાં પ્રમાણપંચક ગતિ કરતું નથી, તે વસ્તુની અસત્તા જાણવા માટે ત્યાં અભાવપ્રમાણ પ્રવૃત થાય છે. પરંતુ તે વિશેષ તો છે જ, તેથી તમારું અભાવપ્રમાણ વ્યભિચારી બને છે. (અહીં તે વિશેષ રૂપ સત્પદાર્થને વિષય બનાવવારૂપે અથવા પ્રમાણપંચકનો વિષય ન બનતી વસ્તુ વિશેષ) સત હોવાથી તેને વિષય ન બનાવવારૂપે અભાવપ્રમાણમાં વ્યભિચાર જોવો.) શંકા:- તે વિશેષોના હોવામાં શું પ્રમાણ છે? કે જેથી તેઓ અંગે અભાવ પ્રમાણને અનેકાન્તદોષનો પ્રસંગ આવે. સમાધાન:- (‘ત જંકારાર્થક છે.) વિશેષોમાં રહેલા સામાન્યનો વિપક્ષભાવ જ વિશેષના હોવામાં પ્રમાણભૂત છે. વિશેષો સામાન્યના વિપક્ષભૂત છે. સામાન્ય વિપક્ષભૂતવિશેષોને અવિનાભાવી હોય છે. “વસ્તુઓમાં રહેલો સમાનપરિણામ જ સમાન બુદ્ધિ અને ઉચ્ચારમાં કારણભૂત સામાન્યરૂપ છે.” કહ્યું જ છે કે “વસ્તુનો જ જે સમાનપરિણામ છે, તે જ સામાન્ય છે અને સમાનપરિણામ અસમાનપરિણામ વિના ન હોય, કેમકે જો અસમાનપરિણામ જ ન હોય, તો એકત્વની આપત્તિ થવાથી સમાનપરિણામ પણ ન રહે. આ અસમાનપરિણામ સમાનપરિણામથી વિપક્ષભૂત છે. અને વિશેષરૂપ છે. કહ્યું જ છે 3 'असमान विशेष छ। ॥१२२७॥ - ता पच्चक्खेणं चिय ते गम्मति त्ति इच्छियव्वमिणं । जस्स य ते पच्चक्खा सो सव्वण्णु त्ति एवं पि ॥१२२८॥ (तस्मात् प्रत्यक्षेणैव ते गम्यन्ते इति एष्टव्यमिदम् । यस्य च ते प्रत्यक्षा स सर्वज्ञ इति एतदपि ॥) यत एवं विशेषाणां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वानभ्युपगमे षष्ठ प्रमाणव्यभिचारदोषः प्रसज्यते 'ता' तस्मात्प्रत्यक्षेणैव विशेषा गम्यन्त इतीदमेष्टव्यं, तथा यस्य च ते विशेषाः साकल्येन प्रत्यक्षाः स सर्वज्ञ इत्येतदप्येष्टव्यमेवेति ॥१२२८॥ ગાથાર્થ - આમ “વિશેષો કોકને પ્રત્યક્ષ છે એમ ન સ્વીકારવામાં છઠ્ઠા પ્રમાણમાં વ્યભિચારદોષ આવે છે. તેથી એ વિશેષો પ્રત્યક્ષથી જ જ્ઞાત થાય છે એમ ઇચ્છવું જોઇએ, સાથે સાથે જે વ્યક્તિને આ વિશેષો સકળરૂપે પ્રત્યક્ષ છે, તે સર્વજ્ઞ છે. એમ પણ સ્વીકારવું જોઇએ ૧૨૨૮ “યત્વહતમાં વિરોધદોષનું નિરાકરણ स्यादेतत, ज्ञेयत्वादिति विरुद्धो हेतः । तथाहि-शक्यमिदं वक्तुम-जलधिजलपलप्रमाणादयः सर्वेऽपि विशेषाः कस्यचिदिन्द्रियजेन प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षाः, ज्ञेयत्वात्, घटादिरूपादिधर्मवत् । तथा च सति सर्वज्ञस्यापि इन्द्रियजप्रत्यक्षवत्ता प्राप्नोतीत्यनिष्टापत्तिरिति । अत्राह - પૂર્વપક્ષ:- તમે અનુમાન કરતી વખતે મુકેલો શયત્વવેત (ગા. ૧૨૨૧) વિરુદ્ધહેતુ છે. જૂઓ આમ પણ કહી શકાય કે સમુદ્રના પાણીનું વજનવગેરે બધા જ વિશેષો કોક ઈન્દ્રિયજ ( ઈન્દ્રિયથી થતા) પ્રત્યક્ષથી પ્રત્યક્ષ છે, કેમકે જ્ઞય છે, જેમકે ઘડાવગેરેના રૂપાદિધર્મો. આમ સર્વજ્ઞ પણ ઇન્દ્રિયજપ્રત્યક્ષજ્ઞાનવાળો થવાથી અનિષ્ટાપત્તિ છે. અહીં અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષની વિરુદ્ધ એયિકપ્રત્યક્ષની સિદ્ધિ દ્વારા શેયવહેતુમાં વિરુદ્ધદોષ બતાવવો છે.) અહીં આચાર્ય જવાબ આપે છે ++++++++++++++++घर्भसंnि -IN -281+ + ++ + ++ + + + + + ++ + Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વ સિદ્ધિ દ્વાર છે કે જે કે જે ક ક ક ક ક ક ક * * * * * णय ते इंदियजेणं गम्मति तयंति अन्नमेवेह ।। एवं विरुद्धदोसो ण होइ बाधाएँ भावातो ॥१२२९॥ (न च ते इन्द्रियजेन गम्यन्ते तदिति अन्यदेवेह । एवं विरुद्धदोषो न भवति बाधाया भावात् ॥ न च ते-विशेषाः साकल्यत इन्द्रियजेन प्रत्यक्षेण गम्यन्ते, तस्य तदवगमसामर्थ्यायोगादविगानेन सर्वेषां तथाप्रतीते रतस्तदपि-साकल्यतोऽशेषविशेषाधिगन्तृ प्रत्यक्षमिह-जगत्यन्यदेवेन्द्रियजप्रत्यक्षादवसेयम् । तत एवं सति विरूद्धदोषो हेतोर्न भवति, 'बाधाया भावात' विशेषाणां साकल्यतः प्रत्यक्षत्वेनैवान्यथानुपपत्त्या तद्विषयस्य प्रत्यक्षस्ये न च सति बाधने हेतुर्विरुद्धो भवति, "विरुद्धोऽसति बाधने" इति तल्लक्षणाभिधानादिति ॥१२२९॥ . ગાથાર્થ:-ઉત્તરપક્ષ:-આ વિશેષો સકળરૂપે ઈન્દ્રિયજપ્રત્યક્ષથી જ્ઞાત થતા નથી, કેમકે એ પ્રત્યક્ષનું આ વિશેષો જાણવાનું સામર્થ્ય નથી, આ વાત બધાને નિર્વિવાદપ્રતીત છે. તેથી સકળરૂપે સઘળાય વિશેષોને જાણનારું પ્રત્યક્ષ ઇન્દ્રિયજ પ્રત્યક્ષથી જુદુ જ સમજવું. તેથી જોયવહેતુમાં વિદ્ધદોષ નથી, કેમકે બાધ છે. “વિશેષોના સાકળ્યથી પ્રત્યક્ષની અન્યથાઅનુપપત્તિ થવાથી જ તે વિશેષોઅંગેનાં પ્રત્યક્ષમાં ઇન્દ્રિયથી ઉત્પન્ન થવાપણું' બાધિત થાય છે. અને વિદ્ધ થવામાં બાધ હોય, તો હેતુ વિરુદ્ધ ન બને “બાધ ન લેય તો જ વિરુદ્ધ બની શકે. એવું વિરુદ્ધનું લક્ષણ બતાવ્યું છે. પ્રત્યક્ષ બે પ્રકારના છે, ઍન્દ્રિયક અને અતીન્દ્રિય. એન્દ્રિયકપ્રત્યક્ષ સર્વસિદ્ધ છે. અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ સાધ્યદશામાં છે. તેથી જ અનુમાનપ્રયોગમાં પ્રત્યક્ષનો ઉલ્લેખ છે. “અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષગમ” આવો પ્રયોગ નથી. સમુદ્ર જળમાનવગેરે પક્ષમાં અતીન્દ્રિયપ્રત્યવિષયતા સાધ્ય છે, એવો પ્રયોગ કરવામાં સાધ્યના ઘટકભૂત “અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ અસિદ્ધ હોવાથી સાયાસિદ્ધિ દોષ આવે. નૈયાયિકો આ દોષોનો વ્યાપ્યસિદ્વિદોષોમાં સમાવેશ કરે છે. આ વાત પરવાદીને અપેક્ષીને કહી. (જૈનમોઅતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષવિષયતા સિદ્ધ લેવાથી સિદ્ધસાધનતા અને અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ જ વાસ્તવિકપ્રત્યક્ષ હોવાથી વ્યર્થવિશેષણ દોષ આવે. અલબત્ત “પ્રત્યક્ષ વિષયતા' કહેવામાં ‘ઇન્દ્રિયજ પ્રત્યક્ષવિષયતા સિદ્ધ થવાથી વિરૂદ્ધસિદ્ધિદોષ આવે, પણ એ પહેલા જ એવી વિષયતા માનવામાં આવતો બાધ બતાવ્યો છે. (આમ પક્ષમાં સાધ્યાભાવ-વિરુદ્ધસાધ્ય બાધિત નિર્ણત થયા પછી હેતુ તેની સિદ્ધિ કરવાં દ્વારા વિરુદ્ધ બની શકે નહીં) ૧૨૨લો. ण तु एवमवस्सं चिय रक्खा छेयकिरियाएँ विसओ त्ति । जोगत्ता तं जं सा भणिता इह पत्थिवेसुं तु ॥१२३०॥ (न त्वेवमवश्यमेव वृक्षाः छेदक्रियाया विषय इति । योग्यता तद् यत् सा भणिता इह पार्थिवेषु तु ॥ नत्वेवं ज्ञेयत्वस्य विशेषा इव अवश्यमेव वृक्षाः छेदनक्रियाया विषयो, यस्माद् योग्यतया सा छेदनक्रिया इह- जगति पार्थिवेषु भणिता, नत्ववश्यम् । तस्माद् यदुक्तम्-'नेयत्तमप्पओजगमित्यादि' तत् दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोवैषम्यादसमीचीनमेवेति સ્થિતમ ૨૨૩૦ . ગાથાર્થ:- જ્ઞયત્વના વિશેષોની જેમ વૃક્ષો છેદનક્રિયાના અવશ્ય વિશેષ બને એવું નથી, કેમકે આ જગતમાં પાર્થિવોમાં તે છેદનક્રિયા યોગ્યતાથી બતાવી છે, નહીં કે અવશ્ય. (અર્થાત પાર્થિવક્રિયાઓ-શરીરાદિની અપેક્ષા રાખતી ક્રિયાઓના કેટલાક વિષયો કાયમ માટે છેદનાદિ ક્રિયાયોગ્યતાધારક જ રહે-કચારેષ છેદનાદિ ન થાય, તે શરીરાદિની મર્યાદના કારણે સુસંભવિત જ છે.) તેથી “યત્તમ ગા. ૧રર૩ જોયત અપ્રયોજક છે...) ઇત્યાદિ કથન યોગ્ય નથી, કેમકે દેટાજ અને રાષ્ટ્રન્સિકવચ્ચે વિષમતા છે. ૧૨૩ના કેવળજ્ઞાન સર્વવિષયક उक्तातिदेशेनैव दूषणान्तरमपाकर्तुमाह - જે કહી ગયા' તેના અતિદેશથી અન્ય દૂષણને દૂર કરતાં કહે છે– एतेणं चिय सति तम्मि सव्वमेतावदेव एमादी । पडिसिद्धं दट्ठव्वं सव्वपरिच्छेदसिद्धीओ ॥१२३१॥ (एतेनैव सति तस्मिन्सर्वमेतावदेव एवमादि । प्रतिषिद्धं दृष्टव्यं सर्वपरिच्छेदसिद्धेः ॥) एतेनैव पूर्वोक्तेन सत्यपि तस्मिन्नतीन्द्रियप्रत्यक्षे सर्वमेतावदेवेत्यादि पूर्वपक्षग्रन्थोक्तं प्रतिषिद्धं द्रष्टव्यम् । कुत इत्याहसर्वपरिच्छेदसिद्धेः-तेनातीन्द्रियप्रत्यक्षेणाशेषद्रव्यगुणपर्यायपरिच्छेदसिद्धेर्यथोक्तं प्रागिति ॥१२३१॥ ગાથાર્થ:-આમ પૂર્વોક્તવચનથી તે અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ હોય તો પણ' ઇત્યાદિ ગા.૧૧૪) પૂર્વપક્ષે કહેલી વાત પ્રતિષેધ પામે છે. કેમકે અગાઉ બતાવ્યું તેમ “તે અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી અશષ દ્રવ્ય-ગુણ-પર્યાયનો બોધ થાય છે તેમ સિદ્ધ થાય છે. પ્ર૧ર૩૧ાા * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 282 * * * * * * * * * * * * * * * Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ ++ सर्वसिद्धि द्वार + + + एवं च 'अन्नं च नज्जइ तओ' इत्यतः प्राक्सर्वोऽपि पूर्वपक्षग्रन्थो निरवकाशस्तथापि किंचिदुच्यते-तत्र यदुक्तम्'सव्वमुत्तविसयपि ओहिणाण' मित्यादि ह આમ ‘અન્ન ચ નજઇ॰ (ગા. ૧૧૫૪) ની પૂર્વના સઘળાય પૂર્વપક્ષગ્રન્થને અવકાશ રહેતો નથી. છતા કંઇક કહીએ છીએ. પૂર્વપક્ષકારે સવ્વસુત્તવિસય (ગા. ૧૧૫૦ સર્વમૂર્તવિષયક અવધિજ્ઞાન પણ..) ઇત્યાદિ જે કહ્યું, તેનો જવાબ આ છે→ जं सव्वणाणमो इह केवलनाणं ण देसणाणेहिं । ता जुत्तो वभिचारो वोत्तुं तस्सोहिमादीहिं ॥१२३२॥ (यत् सर्वज्ञानमिह केवलज्ञानं न देशज्ञानैः । तस्माद्युक्तो व्यभिचारो वक्तुं तस्यावध्यादिभिः II) यत्-यस्मादभिहितयुक्तिभिः सर्वज्ञानं सर्ववस्तुविषयं ज्ञानं 'मो' इति पूरणे, इह जगति केवलज्ञानं 'ता' तस्मान्न देशज्ञानैः - अवधिज्ञानादिभिस्तस्य- केवलज्ञानस्य व्यभिचारो वक्तुं युज्यते, तान्येव हि देशज्ञानत्वात् कतिपयविषयाणि युज्यन्ते, नतु केवलज्ञानं, तस्य सर्वज्ञानत्वात्, तत्कथमवध्यादिभिरनुपलब्धै र्धर्मास्तिकायादिभस्तस्य व्यभिचार आशङ्क इति भावः ॥ १२३२ ॥ ગાથાર્થ:- (મો’ પદ પૂરણાર્થક છે.) આમ કહેલી યુક્તિઓથી સર્વવસ્તુવિષયકજ્ઞાનતરીકે કેવળજ્ઞાન સિદ્ધ થાય છે. તેથી અવધિજ્ઞાનવગેરે દેશજ્ઞાનોદ્વારા કેવળજ્ઞાનને અનેકાન્તિક કહેવું યોગ્ય નથી છે. કેમકે અધિવગેરે જ્ઞાનો દેશજ્ઞાન હોવાથી કેટલાક અર્થોને જ વિષય બનાવે તે યોગ્ય છે. પણ કેવળજ્ઞાન તો સર્વજ્ઞાન હોવાથી કેટલાક જ અર્થને વિષય ન બનાવે. (પણ બધા જ અર્થને વિષય બનાવે.) તેથી અવધિજ્ઞાનાદિથી અનુપલબ્ધ ધર્માસ્તિકાયવગેરેથી કેવળજ્ઞાનમાં પણ વ્યભિચારની આશંકા કરવી યોગ્ય નથી. ૫૧૨૩રા - यदप्याशङ्कितं प्राक् –‘सव्वविसयं ति माणं किमिहे' त्यादि तत्राह तथा 'सव्वविसय' (आ. ११५१ ) ते सर्वविषय छे तेभां प्रभा। शु? जेवी ने पूर्वे आशंका जतावी, ते अंत्रे हे छेसव्वविसयं च एतं ति एत्थ पुव्वोदिगा (या) तु उववत्ती । जं सामन्नविसेसे विहाय वत्थंतरं णत्थि ॥१२३३ ॥ (सर्वविषयं च एतदिति अत्र पूर्वोदिता तूपपत्तिः । यत्सामान्यविशेषौ विहाय वस्त्वन्तरं नास्ति ॥) • सर्वविषयं च एतत् - अधिकृतमतीन्द्रियं प्रत्यक्षमित्यत्र प्रमाणं पूर्वोदितैवोपपत्तिस्तुरवधारणे । तामेव बालावबुद्धये लेशतः पुनरप्यभिधत्ते - 'जमित्यादि' यत् - यस्मात् सामान्यविशेषौ विहाय - परित्यज्यान्यद्वस्त्वन्तरं नास्ति ॥१२३३॥ ગાથાર્થ:- (‘તુ’પદ જકારાર્થક છે.) અધિકૃત કેવળજ્ઞાનરૂપ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ સર્વવસ્તુવિષયક છે એમા પૂર્વોક્ત યુક્તિઓ જ પ્રમાણભૂત છે. બાલાવબોધમાટે ફરીથી અંશે એ જ યુક્તિઓ બતાવે છે→ સામાન્ય-વિશેષને છોડી વસ્ત્વંતર નથી. (અર્થાત્ સમસ્ત વસ્તુ સામાન્ય વિશેષાત્મક છે.) ૧૨૩ા ते य जह णाणगम्मा तह भणितं तस्स यऽण्णस्वत्ते । नो वत्थुत्तं तस्सऽत्तणिच्छओ कह ण एवं तु? ॥१२३४॥ (तौ च यथा ज्ञानगम्यौ तथा भणितं तस्य चान्यरूपत्वे । नो वस्तुत्वं तस्यात्मनिश्चयः कथं नैवं तु? ॥) तौ च - सामान्यविशेषौ यथा ज्ञानगम्यौ भवतस्तथा भणितम् । अथोच्येत कथमवसीयते सामान्यविशेषौ विहायान्यद्वस्त्वन्तरं नास्तीति । अत आह— 'तस्सेत्यादि' यस्मात्तस्य वस्तुनोऽन्यरूपत्वे - सामान्यविशेषाभ्यामितररूपत्वे सति नो वस्तुत्वमुपपद्यते, तथाननुभवात् । तस्मान्न सामान्यविशेषौ विहायान्यद्वस्त्वन्तरमस्तीत्यवसीयते । तदेवं यतः सर्वविषयं केवलज्ञानं तत एवं सति कथं तस्य सर्वज्ञस्य सर्वज्ञोऽहमित्यात्मनिश्चयो न भवति ? भवत्येवेतिभावः ॥१२३४ ॥ ગાથાર્થ:- આ સામાન્ય-વિશેષ જ્ઞાનગમ્ય જે રીતે થાય છે, તે બતાવ્યું. અહીં એવી શંકા થાય કે “સામાન્યવિશેષને છોડી વસ્ત્વ'તર નથી એમ શી રીતે જાણી શકાય?" આ શંકાનું સમાધાન આ છે– સામાન્ય વિશેષથી અન્યરૂપે વસ્તુનું સ્વરૂપ યુક્તિસંગત બનતુ નથી, કેમકે અન્યરૂપે કચારેય અનુભવ થતો નથી. તેથી સામાન્યવિશેષને છોડી વન્વંતર નથી તેવું જાણીત શકાય. આમ કેવળજ્ઞાન સર્વવિષયક છે. તેથી સર્વજ્ઞને હું સર્વજ્ઞ છું” એવો સ્વસંબંધી નિર્ણય કેમ ન થાય? અર્થાત્ થાય ४. ॥१२३४॥ + धर्मसंशि-लाभ 283+++ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gdal@s Gtz ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ अम्मेवार्थं परोक्तोपसंहारप्रतिपक्षभावेनोपसंहरति - આ જ અર્થને લઈ આચાર્યવ૨ પૂર્વપક્ષના ઉપસંહારને પ્રતિપક્ષભૂત ઉપસંહાર કરે છે. जम्हा पच्चक्खेणेव सव्वस्वादिजाणणं जुत्तं । सव्वन्नुनिच्छयो अत्तणो य तम्हा सपक्खोऽयं ॥१२३५॥ (यस्मात् प्रत्यक्षेणैव सर्वरूपादिज्ञानं युक्तम् । सर्वज्ञनिश्चय आत्मनश्च तस्मात् सत्पक्षोऽयम् ॥ यस्मात्प्रत्यक्षेणातीन्द्रियेण एवकारो भिन्नक्रमः स च यथास्थानं योक्ष्यते, सर्वरूपादिवस्तुज्ञानं युक्तमेव, तस्मात् योऽयमात्मनः सर्वज्ञोऽहमिति निश्चय इति पक्षः स सत्पक्ष एवेति कृतं प्रसङ्गेन ॥१२३५॥ ગાથાર્થ:- આમ અતીન્દ્રિયપ્રત્યક્ષથી સર્વે રૂપાદિ વસ્તુનું જ્ઞાન યુક્ત જ છે. (“એવ'નો અન્વય યુકત પદસાથે છે.) તેથી સર્વજ્ઞ છું' એવો સંબંધી નિશ્ચયરૂપ પક્ષ સત્પક્ષ જ છે. તેથી પ્રસંગથી સર્યું. ૧૨૩પા માંસાદિજ્ઞાનમાં દોષાભાવ स्यादेतत्, यदि सर्वज्ञस्तर्हि स मांसाशुच्यादीन्यपि जानीयात्, अन्यथा सर्वज्ञत्वानुपपत्तेः, नचैतत् युक्तं तत्स्वरूपसाक्षात्कारिज्ञानस्य लोके गर्हितत्वात्, मांसाशुच्यादीनां हि सर्वात्मना साक्षात्परिवेदनेन तदुपभोक्तृणामिवापवित्रत्वप्रसङ्गः, तथा तद्विषय द्वेषादिसंभवाच्चेति, अत आह - શંકા:- જો તે સર્વજ્ઞ હોય, તો માંસ-અશચિવગેરેને પણ જાણશે, અન્યથા સર્વજ્ઞતા ખંડિત થઈ જાય. પણ માંસાદિનું જ્ઞાન યોગ્ય નથી, કેમકે લોકમાં માંસાદિના સ્વરૂપનું સાક્ષાત્કારી જ્ઞાન ગહ પામેલું છે, કેમકે માંસ-અશુચિવગેરેના સર્વરૂપે સાક્ષાત જ્ઞાનથી તો માંસાદિ ખાનારની જેમ અપવિત્ર થવાનો પ્રસંગ છે, અને માંસાદિસંબંધી દ્રષાદિ થવાનો સંભવ છે. અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે मंसासुइरसणाणेवि तस्स दोसो ण विज्जती चेव । जमणिंदियं तयं ण य रागादीदोसहेतु त्ति ॥१२३६॥ (मांसाशुचिरसज्ञानेऽपि तस्य दोषो न विद्यत एव । यदनिन्द्रियं तकन्न च रागादिदोषहेतुरिति ॥) मांसाशुचिरसज्ञानेऽपि तस्य-भगततो दोषो न विद्यत एव, यत्-यस्मात्तकत्-ज्ञानमतीन्द्रियं, इन्द्रियाश्रितं च तत् ज्ञानं लोके गर्हितम् । यदाह प्रज्ञाकरगुप्तः- "अपवित्रत्वयोगः स्यादिन्द्रियेणास्य वेदने । कर्मजेन न चान्येन, भावनाबलभाविना ॥१॥" नापि तज्ज्ञानं भगवतो द्वेषादिदोषहेतुर्निर्मूलत एव द्वेषादीनामुन्मूलितत्वात् ॥१२३६॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- માંસ-અશુચિનું રસજ્ઞાન હોવા છતાં ભગવાનને દોષ નથી, કેમકે આ જ્ઞાન અતીન્દ્રિય છે. અને લોકોમાં ઇન્દ્રિયને આશ્રયી થતું જ માંસાદિરસજ્ઞાન ગહિત છે. પ્રજ્ઞાકરગુખે કહ્યું છે “કર્મજ ઇન્દ્રિયથી આ(અશુચિ) ના વેદન(બોધ) માં અપવિત્રતાની પ્રાપ્તિ છે. નહીં કે ભાવનાબળથી ઉત્પન્ન (અતીન્દ્રિય જ્ઞાનદ્વારા) વેદનામાં" વળી, ભગવાનનું અશચિઆદિ સંબંધી આ જ્ઞાન દ્રષાદિદોષમાં કારણ નહીં બને, કેમકે ભગવાને દ્વેષાદિ દોષોને ઉખેડીને નિર્મળ કર્યા છે. ૧૨૩૬ાા વ્યવહારથી સર્વાનિર્ણય यच्चोक्तम्- 'अन्नं च नज्जइ तओ' इत्यादि तत्राह - તથા વળી આ સર્વજ્ઞ છે તેમ જણાય શી રીતે? (ગા. ૧૧૫૪) ઇત્યાદિ જે કહ્યું ત્યાં જવાબ આપે છે.. णजइ य तओ तइया चिंतियसव्वत्थपगडणेणेव । ववहारणयमतेणं सुसंपदाओ (या) य एण्हि पि ॥१२३७॥ (ज्ञायते च सकस्तदा चिन्तितसर्वार्थप्रकटनेनैव । व्यवहारनयमतेन सुसंप्रदायाच्चेदानीमपि ॥ ज्ञायते च 'तओ त्ति' सकः सर्वज्ञस्तदा-सर्वज्ञभावकाले व्यवहारनयमतेन । व्यवहारमेव दर्शयति चिन्तितसर्वार्थप्रकटनेन- चिन्तितसकलवस्तप्रकाशनेन, इदानीमपि च ज्ञायते ससंप्रदायात ॥१२३७॥ ગાથાર્થ:- સર્વજ્ઞની હાજરીકાળે તે સર્વજ્ઞ વ્યવહારનયથી જાણી શકાય છે. વ્યવહાર આ છે– વિચારેલા બધા જ અર્થોને પ્રગટ કરવાથી આ સર્વજ્ઞ છે તેવો વ્યવહાર થાય છે. ( જે વ્યક્તિ સામી વ્યક્તિ કે બધી જ વ્યક્તિઓના મનના વિચારોને જાણીને ++++++++++++++++ ume-01-284++++++++++++ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सर्वसिनिवार +++++++++++++++++ બતાવી શકે તે વ્યક્તિઅંગે “સર્વજ્ઞ' તરીકેનો લોકવ્યવહાર થાય છે.) વર્તમાનકાળે પણ “તે વ્યક્તિ સર્વજ્ઞ હતી એમ સુસંપ્રદાય (સંવિગ્ન ગીતાર્થોની પરંપરા) થી જાણી શકાય. ૧૨૩થા अथ यदि व्यवहारतः स सर्वज्ञो ज्ञायते तर्हि परमार्थतस्तस्याभाव एव, व्यवहारस्यापारमार्थिकत्वादित्यत आह શંકા:- જો વ્યવહારથી તે સર્વજ્ઞ છે તેમ જણાતું હોય, તો પરમાર્થથી તો તેનો અભાવ સિદ્ધ થાય છે, કેમકે વ્યવહારમાં પારમાર્થિકપણું હોતુ નથી. આ શંકાના સમાધાનમાં કહે છે. चउवेदो वि हु एवं णज्जइ ववहारणयमएणेव । अचउव्वेदेहिं अह अत्थि सो एवमितरोवि ॥१२३८॥ (चतुर्वेदोऽपि हु एवं ज्ञायते व्यवहारनयमतेनैव । अचतुर्वेदैरथास्ति स एवमितरोऽपि ॥) चतुर्वेदोऽपि 'हु' निश्चितमचतुर्वेदैर्व्यवहारनयमतेनैव एवं पृष्टकतिपयपदार्थप्रकाशनेन ज्ञायते नान्यथा, अथ च स:चतुर्वेदः परमार्थतोऽस्ति न पुनर्व्यवहारतः प्रतीयमानत्वेन तस्याभावः, एवमितरोऽपि-सर्वज्ञोऽपि व्यवहारनयमतेन ज्ञायमानः पारमार्थिको भविष्यतीति ॥१२३८॥ - ગાથાર્થ:- સમાધાન - ચતુર્વેદી (ચાર વેદના જાણકાર)ને ચાર વેદને નહીં જાણનાર કેટલાક પ્રશ્નો પૂછે ત્યારે એ 'ચતુર્વેદી એ અર્થો બતાવે છે. તેના આધારે એ અચતર્વેદી પણ વ્યવહારનયના આધારે અવશ્ય “આ ચતુર્વેદી છે એમ જણે છે, આમ વ્યવહારથી જાણવા છતાં તેનો પરમાર્થથી અભાવ નથી, કેમકે તે ચતુર્વેદી છે જ. આ જ પ્રમાણે વ્યવહારથી જ્ઞાત થતા સર્વજ્ઞ પરમાર્થથી પણ શકે છે. ૧૨૩૮ .. . अह णिच्छएणवि इमो णज्जइ अन्नेण तुल्लणाणेण । इयरम्मि (वि) तुल्लमिणं संति य बहवेऽत्थ सव्वन्नू ॥१२३९॥ (अथ निश्चयेनापि अयं ज्ञायतेऽन्येन तुल्यज्ञानेन । इतरस्मिन्नपि तुल्यमिदं सन्ति च बहवोऽत्र सर्वज्ञाः ॥) अथ निश्चयेनाप्ययं चतुर्वेदोऽन्येन तुल्यज्ञानेन चतुर्वेदेनेतियावत् ज्ञायते, ततस्तस्य नाभावः परमार्थतो युक्त इति । अत्राह- 'इयरम्मीत्यादि' इतरस्मिन्नपि सर्वज्ञे इदं तदन्येन सर्वज्ञेन सर्वज्ञतया परिज्ञानं तुल्यम् । न चान्यः सर्वज्ञो न विद्यते येन सर्वज्ञेन तदन्येन परिज्ञानं न भवेत्, यत आह-सन्ति च बहवोऽत्र-जगति सर्वज्ञाः ॥१२३९॥ * ગાથાર્થ:- શંકા:- બીજા ચતુર્વેદીને તત્ય જ્ઞાનવાળો હોવાથી આ ચતુર્વેદી છે' એમ નિશ્ચયમથી પણ જાણી શકાય છે. તેથી ચતુર્વેદીનો પરમાર્થથી અભાવ હોવો યોગ્ય નથી. સમાધાન:- બીજા સર્વજ્ઞને તુલ્ય જ્ઞાન હોવાથી “આ સર્વજ્ઞ છે એવો નિશ્ચય સર્વજ્ઞમાટે પણ સમાનતયા થઇ શકે છે. અને એવું પણ નથી કે બીજો કોઈ એવો સર્વજ્ઞ જ નથી, કે જેની સાથે સરખામણીદ્વારા આનો સર્વજ્ઞતરીકે નિર્ણય ન થઈ શકે. કેમકે આ જગતમાં ઘણા સર્વજ્ઞ છે. ૧૨૩લા ઋષભાદિની સર્વજ્ઞતા આગમસિદ્ધ છે, નહીં કે અર્થવાદરૂપ अथ तदानीं सर्वज्ञस्तदन्यसर्वज्ञेन निश्चयतो ज्ञायते, ज्ञायताम्, इदानीं तु कथमित्यत आह - શંકા- સર્વજ્ઞકાળે ભલે એક સર્વજ્ઞથી બીજો સર્વજ્ઞ જણાતો હોય, તો જણાય; પરંતુ વર્તમાનમાં કેવી રીતે જાણી शाय?... અહીં સમાધાન બતાવે છે– एण्हि पि आगमातो कहंचि णिच्चो य सो मओ अम्हं । णय एस अत्थवादो फलं जतो चोदणाए उ ॥१२४०॥ (इदानीमपि आगमात् कथंचिद् नित्यश्च स मतोऽस्माकम् । न च एषः अर्थवादः फलं यतश्चोदनायास्तु ॥ इदानीमपि निश्चयतः सर्वज्ञ ऋषभादिको ज्ञायते, आगमतः-आगमप्रमाणतः । स चागमोऽस्माकं कथंचिद्व्यार्थतया नित्यो मतः । न चैष ऋषभः सर्वज्ञ इत्येवमादिकोऽर्थवादो, यस्मादिदं केवलज्ञानं चोदनायाः फलं, यथा 'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम' इत्यस्याः फलं स्वर्ग इति ॥१२४०॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- વર્તમાનમાં પણ આગમપ્રમાણથી ઋષભાદિ સર્વજ્ઞતરીકે નિશ્ચયથી જાણી શકાય છે. અને આ ++++++++++++++++ AER-HIN२ - 285+++++++++++++++ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* * * * * સર્વજ્ઞસિદ્ધિ કાર જ ન આગમ કથંચિદ્ દ્રવ્યાર્થતયા-અર્થાત્મકરૂપે નિત્ય છે.' એમ અમને સમત છે. (તેથી ઇતરેતરાયાદિોષો સંભવતા નથી.) વળી, ‘આ ઋષભ સર્વજ્ઞ છે. એ માત્ર અર્થવાદરૂપ (લોકાદિમા પ્રસિદ્ધઅર્થનું પ્રતિપાદકવચન અર્થવાદ કહેવાય. એ આગમાપ્રમાણરૂપ ન માની શકાય એવો એક મત છે.) નથી, પણ તાત્ત્વિક છે. કેમકે આ કેવલજ્ઞાન આગમીય ચોદના (-વિધિનિષેધ પ્રવૃત્તિ/નિવૃત્તિ હેતુક પ્રેરણા) નું ફળ છે, જેમકે તમને જ સ્વર્ગની ઇચ્છાવાળાએ અગ્નિહોત્ર યજ્ઞ કરવો' એવી પ્રેરણાના ફળતરીકે સ્વર્ગ માન્ય છે. ૧૨૪બા तामेव नो (चो) दनामाह આ પ્રેરણા બતાવતા કહે છે– भणियं च सग्गकेवलफलत्थिणा इह तवादि कायव्वं । सग्गो व्व फलं केवलमसेसदव्वादिविसयं तं ॥१२४१॥ (भणितं च स्वर्गकेवलफलार्थिना इह तपआदि कर्तव्यम् । स्वर्ग इव फलं केवलमशेषद्रव्यादिविषयं तु ॥ भणितं चागमे यतः स्वर्गकेवलफलार्थिना तप आदिशब्दात् ध्यानं च यथासंख्यं कर्त्तव्यमिति । ततोऽग्निहोत्रमित्यादिचोदनायाः स्वर्ग इव, फलं तत्- केवलज्ञानमशेषद्रव्यादिविषयम् - अशेषद्रव्यपर्यायप्रपञ्चविषयमधिकृतनोदनाया इति નાર્થવાદઃ ૦૬૨૪૬॥ ગાથાર્થ:- આગમમાં કહ્યું છે કે “સ્વર્ગ અને કેવળજ્ઞાનના ઇચ્છુકે યથાસખ્ય (=ક્રમશ:)તપ અને ધ્યાન કરવા જોઇએ" આમ, ‘અગ્નિહોત્ર’ઇત્યાદિપ્રેરણાવાકચના સ્વર્ગાત્મકફળની જેમ સધળા દ્રવ્ય-પર્યાયોના વિસ્તારને વિષય બનાવતું કેવળજ્ઞાન ઉપરોક્ત આગમપ્રેરણાનું ફળ છે, તેથી માત્ર અર્થવાદરૂપ નથી. (આમ ‘સ્વર્ગ–કેવળજ્ઞાનાર્થીએ તપ-ધ્યાનાદિ કરવા' એ આગમવિધિવાકય છે. તેથી ઋષભદેવ સર્વજ્ઞ હતા' ઇત્યાદિવચનોને અર્થવાદરૂપ માનીએ તો પણ દોષ નથી. કેમ કે એ વચનો વિધિવાકચસાથે એકવાકયતા ધરાવે છે. જૈનમતે જે ગૃહીતગ્રાહી હોય કે જે સિદ્ધાર્થપ્રતિપાદક હોય તે અપ્રમાણ' એવું માન્ય નથી. સ્વપરનો સત્યાત્મક નિર્ણય કરાવતું જ્ઞાન નિશ્ર્ચયથી અને તેમાં હેતુ બનતું વચન ઉપચારથી પ્રમાણભૂતતરીકે માન્ય છે. (હા, વક્તગત તેવા દોષોનો બોધ કે સંશય વક્તાના વચનમાં અપ્રમાણતાનો નિર્ણય કે સંશય કરાવે)‘ઋષભદેવ સર્વજ્ઞ હતા' ઇત્યાદિવચનો વિધિવચનોસાથે એકવાકયતા ધરાવે છે, માટે જ પ્રમાણભૂત છે. આગમગતવિધિવચનો વિષેયાર્થ (તપ ધ્યાનાદિ)ની પ્રશસ્તતા (સ્વર્ગાદિફળજનકતાદિરૂપ)ને અપેક્ષીને જીવોને તે વિધિમા પ્રેરે છે. અર્થવાદવાકય તે વિધ્યર્થમા પુરુષાર્થથી પ્રાપ્તફળનો નિર્દેશ કરવાદ્વારા વિધેયાર્થની એ પ્રશસ્તતાનું જ અંકન કરે છે. આમ ઋષભદેવ સર્વજ્ઞ હતા' ઇત્યાદિવચનો પણ પ્રમાણભૂત જ છે.) ૫૧૨૪ા જેનાગમની પ્રમાણતા अथोच्येत - स्यात्केवलं ज्ञानं नोदनायाः फलं यदि स आगमः प्रमाणं स्यात्, यावता स प्रमाणमेव न भवतीत्यत आह શંકા:- જો તે આગમ (=તપાદિથી સ્વર્ગાદિ બતાવનું જેનાગમ) પ્રમાણભૂત હોત, તો જરુર તે આગમપ્રેરણાનું ફળ કેવળજ્ઞાન હોત; પરંતુ તે આગમ જ પ્રમાણભૂત નથી... અહીં સમાધાન બતાવે છે– णिच्छियमव्विवरीयं जणेइ जं पच्चयं जहा चक्खू । ता माणमागमो सो णायव्वो बुद्धिमंतेहिं ॥१२४२॥ - (निश्चितमविपरीतं जनयति यत् प्रत्ययं यथा चक्षुः । तस्माद् मानमागमः स ज्ञातव्यो बुद्धिमद्भिः ॥) निश्चितं न संशयितं तमपि अविपरीतम् - अविपर्यस्तं यत् यस्मात् प्रत्ययं जनयति, यथा निरादीनवं चक्षुः, 'ता' तस्मात्सः - आगमो मानं-प्रमाणमेव बुद्धिमता ज्ञातव्योऽन्यथा वेदस्यापि न प्रामाण्यं प्राप्नोति, विशेषाभावात् ॥ १२४२ ॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- આ આગમ નિશ્ચિત-અસંશિયત અને તે પણ વિપર્યય વિનાનો પ્રત્યય ઉત્પન્ન કરે છે, જેમકે નિર્દોષ આંખ. તેથી આ આગમ પ્રમાણભૂત છે, એમ બુદ્ધિમાન પુરુષોએ સ્વીકારવું જોઇએ; અન્યથા તો વેદ પણ અપ્રમાણભૂત થવાની આપત્તિ છે. કેમ કે વેદને પ્રમાણરૂપ માનવામાં કોઇ વિશેષ કારણ નથી. ૫૧૨૪૨ા एयरस य पामण्णं सत एव कहंचि होइ दट्ठव्वं । एवं च ततो सग्गे व्व णिच्छओ तम्मि उववण्णो ॥१२४३॥ ( एतस्य च प्रामाण्यं स्वत एव कथञ्चिद्भवति द्रष्टव्यम् । एवं च ततः स्वर्ग इव निश्चयस्तस्मिन् उपपन्नः ॥) एतस्य च – आगमस्य प्रामाण्यं निश्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादकत्वेन कथंचित् - स्याद्वादनीत्या स्वत एवं भवति द्रष्टव्यम् । एवं च सति ततः - आगमात्कथंचित् स्वतः प्रमाणभूतात् स्वर्ग इवतस्मिन् - केवलज्ञाने निश्चय उपपन्न इति ॥१२४३॥ * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -286 + + +++ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिद्विाR+++++++++++++++++ ગાથાર્થ:- નિશ્ચિત અને અવિપરીતપ્રત્યયના જનકરૂપે આ આગમનું પ્રામાણ્ય કથંચિત-સ્યાદવાદપદ્ધતિથી સ્વત: જ સિદ્ધ છે, તેમ સમજવું. આમ હોવાથી સ્વત: પ્રમાણસિદ્ધ તે આગમથી સ્વર્ગની જેમ કેવળજ્ઞાનઅંગે પણ નિશ્ચય યુનિયુક્ત છે. ૧૨૪૩ अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह - અહીં પરમતની આશંકા કરતાં કહે છે सिय सुहपगरिसस्वो सग्गो तं चेत्थ अणुहवपसिद्धं । णय केवलं ति तं णो दोण्ह वि सामन्नसिद्धीओ ॥१२४४॥ (स्यात् सुखप्रकर्षस्पः स्वर्गस्तच्चात्रानुभवप्रसिद्धम् । न च केवलमिति तन्न द्वयोरपि सामान्यसिद्धेः ॥) स्यादेतत्-सुखप्रकर्षरूपः स्वर्गस्तच्च सुखमत्र जगति अनुभवप्रसिद्धम्, तस्मात् नोदनायाः फलं स्वर्गो युक्तो दृष्टत्वात्, केवलज्ञानं तु न दृष्टं, तत्कथमदृष्टं सत् नोदनायाः फलत्वेन कल्प्यत इति ? अत्राह-'तन्नेत्यादि' यदेतदुक्तं तन्न । कुत इत्याह-द्वयोरपि- सुखरूपस्वर्गकेवलयोस्सामान्येन सिद्धेः ॥१२४४॥ ગાથાર્થ:- શંકા:- સ્વર્ગ સુખપ્રકર્ષરૂપ છે, અને સુખ આ જગતમાં અનુભવસિદ્ધ છે. તેથી પ્રેરણાના કળતરીકે દષ્ટ હોવાથી સ્વર્ગ લેવો યોગ્ય છે. કેવળજ્ઞાન અષ્ટ હોવાથી તેને કેવળજ્ઞાનને) કેવી રીતે પ્રેરણાના ફળતરીકે કલ્પી શકાય? - સમાધાન:- આ કથન યોગ્ય નથી. કેમકે સુખરૂપ સ્વર્ગ અને કેવળજ્ઞાનની સામાન્યથી સિદ્ધિ થાય છે. a૧૨૪૪ एतदेव भावयति - આ જ અર્થનું ભાવન કરતાં કહે છે. णहि जं विसिट्ठसाहणसज्झा दीसंति सुहविसेसा वि । सामन्नेण उ दीसइ णाणं पि समाणमेवेदं ॥१२४५॥ (न हि यद् विशिष्टसाधनसाध्या दृश्यन्ते सुखविशेषा अपि । सामान्येन तु दृश्यते ज्ञानमपि समानमेवेदम् ॥) नहि-नैव यत्-यस्मात् विशिष्टसाधनसाध्याः सुखविशेषा दृश्यन्ते, किं तु सामान्येनैव सुखमात्र केवलं, तन्मात्रदर्शनात् सर्वोत्तमसुखविशेषसंभवोऽनुमीयते, स च स्वर्गशब्दवाच्यः सन् चोदनायाः फलत्वेन कल्प्यत इति, एतच्च ज्ञानमधिकृत्य समानमेव । तथाहि-यद्यपि ज्ञानप्रकर्षरूपं केवलज्ञानं नोपलभ्यते, तथापि ज्ञानसामान्यदर्शनात् सर्वोत्तमप्रकर्षस्पज्ञानविशेषसंभवोऽनुमीयते, तद्रूपं च केवलज्ञानं चोदनायाः फलत्वेन कल्प्यते इत्यदोषः ॥१२४५॥ ગાથાઈ:- વિશિષ્ટસાધનથી સાધ્ય સખવિશેષો તો હલ દેખાતા જ નથી. પરંતુ સામાન્યથી સખમાત્ર દેખાય છે. અને સુખસામાન્યમાત્રના દર્શનથી “સર્વોત્તમ સુખવિશેષ હોવા જોઈએ એવું અનુમાન થાય છે. આ સર્વોત્તમ સખવિશેષ સ્વર્ગ શબ્દથી ઓળખાય છે, અને પ્રેરણાના ફળતરીકે કલ્પિત થાય છે. આ વાત જ્ઞાનને ઉદ્દેશીને સમાન જ છે. જૂઓઝ છે કે જ્ઞાનના પ્રકર્ષરૂપ કેવળજ્ઞાન હાલમાં સાક્ષાત ઉપલબ્ધ નથી, છતાં જ્ઞાનસામાન્યના દર્શનથી ‘સર્વોત્તમપ્રકર્ષરૂપ જ્ઞાનવિશેષ હોવું જોઈએ એવું અનુમાન થાય છે. આ સર્વોત્તમપ્રાર્થરૂપજ્ઞાન કેવળજ્ઞાન છે. અને પ્રેરણાના ફળતરીકે કલ્પિત થાય છે. ૧૨૪પા અસર્વજ્ઞપુરુષવાદી મીમાંસકમત ખંડન तदेवं स्वपक्षे सौस्थ्यमास्थाय परपक्षे दोषमुद्भावयन्नाह - આમ આચાર્યવર્ષે પક્ષની સસ્થતા સિદ્ધ કરી, હવે પરપક્ષમાં રહેલા દોષો બતાવે છે एगंतेण उ णिच्चो अतिंदियत्थो य आगमो जेसिं । रागादिअविज्जाए गहिआ पुरिसा य सव्वे वि ॥१२४६॥ (एकान्तेन तु नित्योऽतीन्द्रियार्थश्चागमो येषाम् । रागाद्यविद्यया गृहीताः पुरुषाश्च सर्वेऽपि ) येषां मीमांसकानामागम एकान्तेन नित्योऽतीन्द्रियार्थः, पुरुषाश्च सर्वेऽपि रागाद्यविद्यागृहीताः ॥१२४६॥ ગાથાર્થ:- જે મીમાંસકોના મતે આગમ એકાન્ત નિત્ય તથા અતીન્દ્રિયાર્થવિષયક છે. અને બધા જ પુરુષો રાગાદિ અવિધાથી જકડાયેલા છે. ૧૨૪૬ ++++++++++++++++ uter- 02-287+++++++++++++++ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર* * * तेसिमिह किं पमाणं ? इमस्स वयणस्स एरिसो अत्थो । तु एरिसो ति णिच्छयविरहम्मि य कह पवित्ती वि ? ॥१२४७॥ ( तेषामिह किं प्रमाणम् ? अस्य वचनस्येदृशोऽर्थः । न तु ईदृश इति निश्चयविरहे च कथं प्रवृत्तिरपि ? II) तेषामिह - विचारोपक्रमे अस्य वचनस्य ईदृश एवार्थो नत्वनीदृश इत्यत्र किं प्रमाणं ? नैव किंचित्, प्रत्यक्षादीनामविषयत्वादिति भावः । तथा च सति कुतो वेदवाक्यार्थनिश्चयः ? अथ च मा भून्निश्चयः, का नो हानिरिति चेत् आहनिश्चयविरहे च - निस्संदिग्धाविपरीतप्रत्ययाभावे च कथं तत - आगमात् प्रवृत्तिः प्रेक्षावतामुपपद्यते ? नैव कथंचनेतिभावः । પ્રેક્ષાવત્તાક્ષિતિપ્રસનાત્ ॥૬૨૪૭॥ ગાથાર્થ:- તેઓને (=મીમાસકોને) પ્રસ્તુતવિચારમા ‘આ વચનનો આવો જ અર્થ છે, આવો નહીં' એવા નિશ્ચયમાં પ્રમાણ શું છે? અર્થાત્ કોઇ પ્રમાણ નથી, કેમકે તે અર્થો પ્રત્યક્ષાદિના વિષયભૂત નથી. તેથી વેદવાકયના અર્થનો નિશ્ચય કેવી રીતે થઇ શકે? એમ ન કહેશો કે ભલે નિશ્ચય ન થાય, અમને શો વાંધો છે?” કેમકે નિશ્ચયના–નિ:સંદેહ અવિપરીતપ્રત્યયના અભાવમા સુજ્ઞપુરુષ કેવી રીતે આગમના આધારે પ્રવૃત્તિ કરવી યોગ્ય ગણાય? અર્થાત્ કોઇ રીતે યોગ્ય ન ગણાય, કેમ કે પ્રેક્ષાવત્તાની હાનિનો પ્રસંગ છે. (વાચોથી શાબ્દબોધ કરવામા (૧) આત્તિ – સંબંધિતપદોનુ સાન્નિધ્ય (૨) યોગ્યતાજ્ઞાન- શ્રોતાને એક પદાર્થનો બીજા-પદાર્થસાથે સંબંધ ધટી શકે છે કે નહીં, તેનું જ્ઞાન (૩)આકાક્ષા જે પદ વિના જે પદ અર્થસ્મારક ન બને તે પદને તે પદની આકાંક્ષા છે. આવી આકાંક્ષાનું જ્ઞાન અને (૪) વક્તાના તાત્પર્યનું જ્ઞાન. આ ચાર શાબ્દબોધમાં કારણ મનાયા છે. તેમા પણ કયા કયા પદોની આત્તિ લેવી તેવા સંશયસ્થળે દા.ત. નીલો ધટ: દ્રવ્ય પટ: વગેરે સ્થળે વકતાનુ તાત્પર્ય નીલપદાર્થ અને પટપદાર્થના અન્વયમા હોય, તો ત્યાં નીલપદાર્થનો ઘટપદાર્થસાથે દેખીતી આત્તિ હોવા છતાં આત્તિ ગણાય નહીં. એ જ રીતે સાકાંક્ષાપદોમા પણ જયારે સંશયાદિ થાય દા.ત. અયમેતિ પુત્ર: રાજ્ઞ: પુરુષોપસાર્યતામ્' આ સ્થળે ‘રાશ’ પદને પુત્રપદસાથે આકાક્ષા છે કે પુરુષપદસાથે? તેવે વખતે વક્તાનું તાત્પર્ય નિયામક બને છે. એ જ પ્રમાણે ધોડો, મીઠું આદિ અનેકાર્થ ધરાવતા સૈન્ધવાદિ પદોથી કયો અર્થ લેવો? તેમા પણ વકતાનો અભિપ્રેત અર્થ જ નિયામક બને છે. આમ શાબ્દબોધમાં વક્તાનું તાત્પર્ય જ મહત્ત્વનું કારણ છે. અપૌરુષેયવેદ માનવામા વક્તાનો અભાવ આવવાથી તાત્પર્યબોધ શી રીતે થશે? અમુક જ અર્થ લેવાનો, આવી જ આસિન ઇષ્ટ છે, અને આ—આ પદોને આંકાક્ષા છે, ઇત્યાદિ નિર્ણય કરવામાં નિયામક તત્ત્વ કર્યું રહેશે? અધ્યાપકનું તાત્પર્ય લેવામાં એને આવોજ તાત્પર્યબોધ કેવી રીતે થયો? તેવા પ્રશ્નના જવાબમાં ‘એના પૂર્વના અધ્યાપકપાસેથી આવો તાત્પર્યબોધ પ્રાપ્ત થયો' એમ કહેવામા પૂર્વ-પૂર્વની અનાદિતરફ દોરી જતી અનવસ્થા છે. અથવા કો'ક સર્વજ્ઞની કલ્પના આવશ્યક છે. અનાદિપરિશોધિતલાઘવતર્કથી તાત્પર્યબોધ માનવામાં પ્રમાણ નથી, કેમકે અંધપરંપરાની શંકાનુ સમાધાન થતું નથી. અને કો'કને તો પરિશોધક કલ્પવો જ રહ્યો, અન્યથા અપૌરુષયદોષ ઊભો જ છે. ઇશ્વરની કલ્પના પણ દૂષિત છે, તે ઇશ્વરવાદના ખંડનમા જોયુ. વળી ઇશ્વરને વક્તારૂપે દેહ ધારણ કરવો જરુરી પડે. અન્યથા ઇશ્વરનામનું અપૌરુષેયતત્ત્વ આવીને જ ઊભુ ૨હે. વળી ઇશ્વરના તાત્પર્યના ગ્રાહક વ્યક્તિવિશેષની લ્પનાદિ દોષો પણ ઊભા જ છે.) ૧૨૪૭ગા अत्र परआह અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે - जो चेव लोगिगाणं पदाणमत्थो स एव तेसिं पि । ता तदणुसारतो च्चिय णज्जइ एत्थं पि णो माणं ॥१२४८ ॥ (य एव लौकिकानां पदानामर्थः स एव तेषामपि । तस्मात् तदनुसारत एव ज्ञायते अत्रापि न मानम् ॥) य एव लोकिकानां पदानामर्थः स एव तेषामपि वैदिकानाम्, 'ता' तस्मात्तदनुसारतो- लौकिकपदार्थानुसारतो ज्ञायते वैदिकानामपि पदानामर्थ इति न कश्चिद्दोषः । अत्राह - 'इत्थं पि णो माणमिति' अत्रापि य एव लौकिकानां पदानामर्थः स एव वैदिकानामपि पदानामित्यस्यामपि कल्पनायां न मानं प्रमाणम्, संशयानिवृत्तेः । तथाहि यथा शब्दरूपत्वाविशेषेऽपि एके पौरुषेया अपरे चापौरुषेयाः शब्दा इति स्वरूपभेदस्तथार्थभेदोऽपि संभाव्यत एवेति ॥ १२४८ ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- લૌકિકપદોનો જે અર્થ છે, તે જ વૈદિકપદોનો પણ અર્થ છે. તેથી લૌકિક પદાર્થોના અનુસારે વૈદિક પદોના અર્થનુ પણ જ્ઞાન થાય, તેથી દ્વેષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:– ‘લૌકિકપદનો જે અર્થ છે, તે જ વૈદિકપદનો પણ અર્થ છે” આવી કલ્પનામા કોઇ પ્રમાણ નથી, કેમકે તેઅંગે સંશય નિવૃત્ત થતો નથી (સંશય:- લૌકિકપદોનો જે અર્થ છે, શું તે જ વૈદિકપદોનો પણ અર્થ હશે કે અન્ય?)જૂઓ-જેમ શબ્દરૂપતા સમાન હોવા છતા કેટલાક શબ્દો પૌરુષેય(પુરુષથી બોલાયેલા) છે. તો બીજા અપૌરુષેય (=પુરુષ–વ્યક્તિથી નહીં બોલાયેલા) છે. આમ સ્વરૂપભેદ છે. આ જ પ્રમાણે અર્થભેદ પણ સંભવી શકે છે. ૫૧૨૪૮૫ * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 288 * * Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************+++++ सर्वसिGिR +++++++++++++++++ अपिच - १जी, तुल्लत्थयाएँ किं वा इमे अणिच्चा तओ य णिच्चो त्ति ? सव्वगयणिच्चवण्णा य कारणं तुह दुवेण्हं पि ॥१२४९॥ (तुल्यार्थतायां किं वा इमेऽनित्याः सकश्च नित्य इति । सर्वगतनित्यवर्णाश्च कारणं तव द्वयोरपि ॥) तुल्यार्थतायां सत्यां किं वा-कस्माद्वा कारणाद् वाशब्दो दूषणान्तरसमुच्चये इमे-लौकिकाः शब्दा अनित्याः, 'तओ त्ति' सको वेदो नित्य इति कल्प्यते? निबन्धनाभावान्नैवैतत्कल्पनं समीचीनमिति भावः। अथोच्येत-वेदगतवर्णानां नित्यत्वात्स नित्यो नत्वितरे इति । तदप्ययुक्तम्, यत आह- 'सव्वेत्यादि' सर्वगताश्च नित्याश्च ते वर्णाश्च ते कारणं तव मतेन द्वयोरपि-लौकिकवैदिकशब्दयोस्तथाभ्युपगमात्, ततो द्वयोरप्यविशेषेण नित्यता(ऽनित्यता) वा युक्ता नतु विभागत इति ॥१२४९॥ શશાઈ.. (વાપદ દષણાન્તરના સમચ્ચયાર્થ છે. જો લૌકિક અને વૈદિકશબ્દોમાં તલ્યાર્થતા હોય, તો આ લૌકિક શબ્દો અનિત્ય અને વેદ નિત્ય એવી કલ્પના શામાટે? આવી ૫ના માટે કોઈ હેતુ ન લેવાથી તે યોગ્ય નથી. પૂર્વપક્ષ:- વેદવાક્યોમાં ઉપયુક્ત વર્ણો નિત્ય છે, તેથી વેદ નિત્ય છે. લૌકિક શબ્દોમાં આમ ન હોવાથી તે નિત્ય નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ પણ યોગ્ય નથી. તમારા જ મતે લૌકિક અને વૈદિક-બને શબ્દોમાં કારણભૂત વર્ણો સર્વગત અને નિત્ય સ્વીકૃત છે. તેથી લૌકિકવચનો અને વેદ આ બંનેને સમાનતયા કાં તો નિત્ય માનો કાંતો અનિત્ય, તે જ યોગ્ય છે. નહિ કે એક ને નિત્ય અને અન્યને અનિત્ય. ૧૨૪લા अत्र परस्य मतमाशङ्कमान आह - અહીં પૂર્વપક્ષીય મતની આશંકા કરતા કહે છે रयणादिविसेसकतो अह तु विसेसो ण जुत्तमेयं पि । सव्वगयादिजुयाणं रयणादिविसेसविरहाओ ॥१२५०॥ ___ (रचनादिविशेषकृतोऽथ तु विशेषो न युक्तमेतदपि । सर्वगतादियुतानां रचनादिविशेषविरहात् ॥) अथ मन्येथाः-लौकिकवैदिकशब्दानां रचनादिकृतो विशेषस्तथाहि-यादृशी वैदिकवर्णानामन्यथाकर्तुमशक्या रचना न तादृशी लौकिकशब्दानामादिशब्दात् दुर्भणत्वादिपरिग्रहः । अत्राह-न युक्तमेतदपि पूर्वोक्तम् । कुत इत्याह – 'सव्वेत्यादि' भावप्रधानत्वात् निर्देशस्य सर्वगतत्वेन नित्यत्वेन च युतानां रचनादिविशेषविरहात्-रचनादिविशेषासंभवात् । क्रमविशेषेण हि वर्णानां स्थापना रचना, वर्णाश्च सर्वगतत्वादिधर्मोपेतास्तथाभ्युपगमात्, तत्कथमेषां क्रमेण स्थापनासंभवः? तथा एकान्तनित्यस्वभावतया तेषां स्वभावापगमासंभवात्, कथं पूर्वमभण्यमानस्य सतो भण्यमानतासंभवो, येन दुर्भणत्वमभ्युपपद्येतेति ॥१२५०॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- લૌકિક-વૈદિકશબ્દોમાં રચનાદિકૃત વિશેષ છે. વૈદિકવર્ગોની રચના બદલી ન શકાય તેવી છે, લૌકિકશબ્દોની એવી નથી. રચનાદિમાં આદિથી દુર્ભણત્યાદિ સંગૃહીત છે. (વૈદિકશળે કષ્ટથી બોલી શકાય તેવા–દુર્ભણ હોય છે. જયારે લૌકિક શબ્દો તેવા નથી.) ઉત્તરપક્ષ:- આ કથન પણ બરાબર નથી. (“સળગત"પદમાં ભાવપ્રધાનનિદેશ છેવાથી “સર્વગતત્વ"અર્થ છે.) સર્વગતતા અને નિયતાથી યુક્ત વર્ણોમાં રચનાદિવિશેષ સંભવતા નથી. વર્ષોની કમવિશેષથી સ્થાપનારૂ૫ રચના છે. અને વર્ષો તો તમે સર્વગરૂપે સ્વીકાર્યા છે. તેથી તેઓની ક્રમશ: સ્થાપના શી રીતે સંભવે? (દેશવ્યાપી વસ્તુઓની હેરાફેરી કરી કમબદ્ધ ગોઠવણી થઈ શકે. સર્વવ્યાપી વસ્તુમાં તો હેરાફેરી જ સંભવતી ન હોવાથી ગોઠવણી જ ન થઈ શકે.) વળી, વર્ણો એકાન્તનિત્યસ્વભાવવાળા છે, તેથી તેઓનો સ્વભાવ બદલી શકાય નહીં. તો પૂર્વે નહીં કહેવાતા વર્ષો પછી કઈ રીતે કહી શકાય? કે જેથી તેમાં દુ:ખે કરીને કહેવાપણું ઘટે? અર્થાત ન જ ઘટી શકે. ૧૨૫ના अन्यच्च - तथा तीरइ य अन्नहा वि हु काउं रयणा वि लोगिगाणं व्व । वेदवयणाण तहसंठियाण णतुः लोगिगाणं पि ॥१२५१॥ ******* ** ***** **घर्भसं स -लाय.२-289+++++ + + + + + + + + + + Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** सर्वसिद्धि द्वार ************ (शक्यते चान्यथाऽपि हु कर्तुं रचनापि लौकिकानामिव । वेदवचनानां तथासंस्थितानां न तु लौकिकानामपि II) तीर्यते च शक्यते चान्यथापि - अन्येनापि प्रकारेण रचनापि कर्तुं वैदिकवचनानां, लौकिकवचनानामिव। अथोच्येत तथैव वैदिकानि वचनानि संस्थितानि, तत्कथं तेषामन्यथापि रचना कर्तुं शक्येत्यत आह- 'तहेत्यादि' ननु लौकिकानामपि वचनानां वैदिकानामिव तथासंस्थितानां नतु - नैव रचनान्यथाकर्तुं शक्यते, तत एतदपि वचनमात्रमेव, तथा दुर्भणत्वमपि लौकिकशब्दानां वैदिकानामिव ऋप्रभृतीनां द्दश्यते, ततो रचनादिविशेषकृतोऽपि (न) विशेष इति यत्किंचिदेतत् ॥१२५१॥ ગાથાર્થ:- લૌકિકવચનોની જેમ વૈદિકવચનોની રચના પણ બદલી શકાય છે. પૂર્વપક્ષ:- વૈદિક વચનો તથારૂપે જ રહેલા લેવાથી કેવી રીતે તેઓની રચના બદલી શકાય? ઉત્તરપક્ષ:- લૌકિકવચનો પણ વૈદિકવચનોની જેમ તથારૂપે જ રહ્યા છે, તેથી તેઓની રચના પણ કેવી રીતે બદલી શકાય? તેથી આ વચનમાત્ર જ છે. તથ્યરૂપ નથી. તથા વૈદિકવચનોની જેમ લૌકિકશબ્દોમા પણ ર્ઝ વગેરે શબ્દો કષ્ટથી ઉચ્ચારી શકાય તેવા છે. તેથી ‘રચનાદિવિશેષકૃત વિશેષ' વાત તથ્યરૂપ નથી. ૫૧૨૫ા અપૌરુષેયવેદને આપત્તિ उपसंहरति उपसंहार पुरे छे. - - तम्हा कहंचि णिच्चो पुरिसपणीतो य आगमो जुत्तो । वण्णाणमतिंदियसत्तिजाणगो कोइ पुरिसो य ॥१२५२॥ (तस्मात् कथञ्चिद् नित्यः पुरुषप्रणीतश्चागमो युक्तः । वर्णानामतीन्द्रियशक्तिज्ञायकः कोऽपि पुरुषश्च ॥) तस्मात्कथंचिन्नित्यः पुरुषप्रणीतश्चागमोऽभ्युपगन्तुं युक्तः । तथा वर्णानामतीन्द्रियशक्तिज्ञायकः कोऽपि पुरुषश्चाभ्युपगन्तुं युक्तोऽन्यथाऽनेकदोषप्रसङ्गात् ॥१२५२॥ ગાથાર્થ:- તેથી પુરુષ રચેલા કથંચિત નિત્ય આગમને સ્વીકારવો યોગ્ય છે. વળી, વર્ણોની અતીન્દ્રિયશક્તિના જાણકાર કો'ક પુરુષનો અભ્યુપગમ કરવો જરુરી છે. નહીંતર ધણા દોષો આવવાનો પ્રસંગ છે. ૫૧૨૫૨ા तमेवानेकदोषप्रसङ्गं दर्शयति 'घाएगा घोषोनो खा प्रसंग' खायार्यवर्य जतावे छे. - तथाहि - लेखा प्रमाणे- . गोवावाराभावम्मि अण्णहा खम्मि चेव उवलद्धी । पावइ वेदस्स सदा तहेव अत्थापरिण्णाणं ॥ १२५३ ॥ (नृव्यापाराभावेऽन्यथा ख एवोपलब्धिः । प्राप्नोति वेदस्य सदा तथैवऽर्थापरिज्ञानम् ॥) अन्यथा - पुरुषप्रणीतत्वानभ्युपगमे नुः - पुरुषस्य व्यापाराभावे - ताल्वोष्ठपुटपरिस्पन्दाभावे सति ख एव नभस्येव केवले उपलब्धिर्वेदस्य प्राप्नोति, पौरुषेयत्वाभ्युपगमे हि नृव्यापारे, एवं सति तत्रैव च नृव्यापारदेशे तद्भाव उपपद्यते नान्यथेति । तथा सदैव वेदस्यार्थापरिज्ञानं प्राप्नोति ॥१२५३ ॥ ગાથાર્થ:- જો આગમ પુરુષપ્રણીત ન સ્વીકારો, તો વેદવચન બોલવા પુરુષના તાલુ, ઓષ્ઠસંપુટાદિની પ્રવૃત્તિ રહે નહીં. તેથી માત્ર ખાલી આકાશમા જ વેદની પ્રાપ્તિ થવી જોઇએ. જો વેદ પૌરુષય હોય, તો જ તેઅંગે પુરુષવ્યાપાર સંભવે, અને તો જયા તેઅંગે પુરુષવ્યાપાર હોય, ત્યાજ વેદવચનની પ્રાપ્તિ યોગ્ય ઠરે, અન્યથા નહીં. વળી હંમેશા અપૌરુષેયવેદના અર્થના અજ્ઞાનની આપત્તિ છે. ૧૨૫ગા रागादिमं न याति सयं नयऽण्णतों तारिसाओ तु 1 वेदत्थं ण तओ वि हु अचेतणत्तेण णावगमो ॥१२५४॥ (रागादिमान्न जानाति स्वयं न चान्यतस्तादृशात्तु । वेदार्थं न सकोऽपि हु अचेतनत्वेन नावगमः ॥) स्वयं तावदेष पुरुषो वेदस्यार्थं न जानाति, रागादिमत्त्वात्, न चान्यस्मात्तादृशात् - रागादिमतः सकाशाद्वेदस्यार्थ ++ धर्मसंग्रह- भाग २ - 290 +**** Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************** सर्वसिद्विार ***************** मवबोद्धुमलं, तस्यापि रागादिदोषपरीततया यथावस्थितार्थपरिज्ञानाभावात् । नापि सक एव-वेदो 'हु' निश्चितं स्वयम्आत्मीयमर्थं पुरुषाय निवेदयति, 'यथाऽमुमेवार्थं मम त्वं जानीहीति' । कुत इत्याह-अचेतनत्वेन हेतुना, नहि वेदस्यैवं चेतनास्ति यथाऽयमात्मीयोऽर्थोऽस्मै निवेदनीय इति । तस्मान्न कथंचिदपि वेदार्थस्यावगम इति ॥१२५४॥ ગાથાર્થ:- આ પુરુષ રાગાદિમાન હોવાથી સ્વયં વેદના અર્થને જાણતો નથી, વળી અન્યરાગાદિમાનપાસેથી પણ તે વેદના અર્થને જાણી શકે નહીં, કેમકે રાગાદિદોષોથી યુક્ત લેવાથી એ અન્યને પણ યથાર્થવેદાર્થનું જ્ઞાન સંભવે નહીં. વળી, એ વેદ સ્વયં જ પોતાના અર્થનું પુરુષને નિવેદન ન કરે કે મારા આ વચનનો તું આ જ અર્થ જાણ? કારણ કે વેદ અચેતન છે. વેદને એવી ચેતના નથી કે તે પોતાના અર્થનું પુરુષને નિવેદન કરી શકે. આમ કોઈ રીતે વેદના અર્થનો બોધ શકય નથી. ૧૨૫૪ આગમની નિત્યાનિત્યતા अत्रैवाभ्युच्चयेन दूषणमाह અહીં જ અમ્યુચ્ચયથી દૂષણ બતાવે છે. किंच तओ सद्दो वा हवेज णाणं व्व तस्स विसयो वा ? । अण्णो व कोइ णिच्चाणिच्चो सो सव्वपक्खेसु ॥१२५५॥ (किञ्च सकः शब्दो वा भवेद् ज्ञानं वा तस्य विषयो वा । अन्यो वा कोऽपि नित्यानित्यः स सर्वपक्षेषु ॥) किंच सकः-आगमः शब्दो वा भवेत् ? ज्ञानं वा विवक्षितशब्दोत्थं ? किं वा तस्य शब्दोत्थज्ञानस्य विषयः ? अन्यो वा कश्चिदिति विकल्पचतुष्टयम्। किंचात इत्याह-सर्वेष्वपि पक्षेषु सः-आगमो नित्यानित्य एव प्राप्नोति, नत्वेकान्ततो नित्यः ॥१२५५॥ यार्थ:- मामासमतो (१) श०६ मया (२)विक्षित०६°न्य ज्ञान (3)ते श०६४न्यशाननो विषय पछी (૪) અન્ય જ કોઇ.. એમ ચાર વિકલ્પોમાંથી કોક એક રૂપે સંભવે છે. અને આ ચારે પક્ષે આગમ નિત્યાનિત્ય જ સિદ્ધ થાય છે, નહિ કે એકાને નિત્ય. ૧૨૫પા एतदेव भावयति - આ જ અર્થનું ભાવન કરતાં કહે છે. णोवावारे सद्दो सुव्वइ जं तेण वण्णदव्वाइं । तेण परिणामिताइं णिच्चाणिच्चो तओ स भवे ॥१२५६॥ (नृव्यापारे शब्दः श्रूयते यत्तेन वर्णद्रव्याणि । तेन परिणामितानि नित्यानित्यस्ततः स भवेत् ॥ नृव्यापारे सति शब्दो यत्-यस्मात्कारणात्-श्रूयते नत्वन्यथा, तेन कारणेन इदं विज्ञायते यदुत-वर्णयोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा तेन पुरुषेण वर्णरूपतया परिणामितानि, ततश्च सः-आगमो वर्णात्मकोऽभ्युपगम्यमानो नित्यानित्य एव, नत्वेकान्ततो नित्य इति ॥१२५६॥ ગાથાર્થ:- મનુષ્યની (બોલવાની) ચેષ્ટા હોય, તો જ શબ્દ સંભળાય છે, અન્યથા નહીં. તેથી સ્પષ્ટ જાણી શકાય કે. તે પુરુષ વર્ણ (ભાષા) યોગ્ય દ્રવ્યો ગ્રહણ કરી વર્ણ (ભાષા) રૂપે પરિણમાવ્યા. તેથી વર્ણાત્મકરૂપે સ્વીકારાયેલા આગમને નિત્યાનિત્ય સ્વીકારવો જ યોગ્ય છે, નહીં કે એકાને નિત્ય. ૧૨૫દા अथ नित्या एव वर्णाः केवलं नव्यापारेणाभिव्यज्यन्त इति नोक्तदोषप्रसङ्ग इत्याशङ्कामपनेतुमाह - પૂર્વપક્ષ:- વર્ણો તો નિત્ય જ છે. વ્યાપારથી માત્ર તે અભિવ્યક્ત થાય છે. તેથી ઉક્ત દોષનો પ્રસંગ નથી. આ પૂર્વપક્ષીય આશંકા દૂર કરવા કહે છે. णियमा कस्सइ धम्मस्स अवगमे कस्सई य उप्पाते । होइ अभिवत्ति णो उण एगसहावस्स भावस्स ॥१२५७॥ (नियमात् कस्यचिद् धर्मस्यापगमे कस्यचिच्चोत्पादे । भवति अभिव्यक्ति न पुनरेकस्वभावस्य भावस्य ॥ यस्मात्कस्यचित् धर्मस्य-स्वभावस्यानुपलभ्यत्वलक्षणस्यापगमे-विनाशे सति कस्यचिच्च स्वभावस्योपलम्भयोग्यता ++++++++++++++ + सब-HIAR-291+++++++++++++++ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिदिवार ++++++++++++++++ लक्षणस्योत्पादे सति नियतकालमभिव्यक्तिः-उपलभ्यमानस्वरूपता भवति, न पुनरेकस्वभावस्य ततः, तस्य हि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया सदा वा भवेत् न वा कदाचिदपि, तथा च सति प्रत्यक्षविरोध इति । तस्माद्वर्णात्मक आगमो नित्यानित्य एवेति स्थितम् ॥१२५७॥ ગાથાર્થ:- અનુપલભ્યતારૂપ સ્વભાવનો વિનાશ થયે, અને ઉપલભયોગ્યતારૂપ સ્વભાવ ઉત્પન્ન થયે છતે નિયતકાળ માટે (અથવા) નિયતકાળે વર્ણાદિની ઉપલભ્યમાનસ્વરૂપરૂપ અભિવ્યક્તિ થાય છે. જો તે એકસ્વભાવવાળા જ હોય તો અભિવ્યક્તિ થાય નહીં, કેમ કે એકસ્વભાવી વસ્તુ અવિનાશ-અનુત્પન્ન સ્થિર–એકસ્વભાવવાળી હોવાથી હંમેશા રહે અથવા ક્યારેય ન સંભવે, અને તો પ્રત્યક્ષવિરોધ આવે. તેથી વર્ણાત્મક આગમ નિત્યાનિત્ય જ સિદ્ધ થાય છે. ૧૨૫૭ ज्ञानादिपक्षानधिकृत्याह - હવે જ્ઞાનાદિ પક્ષોને ઉદ્દેશી કહે છે. णाणं विसओ अण्णो व कोइ सव्वाइं उभयख्वाइं । भावातो च्चिय मिच्छा एगंतेणेव सो णिच्चो ॥१२५८॥ . (ज्ञानं विषयोऽन्यो वा कोऽपि सर्वाणि उभयरूपाणि । भावात् एव मिथ्या एकान्तेनैव स नित्यः ॥) ज्ञानं विषयोऽन्यो वा कश्चित् भवतु, सर्वाण्यपि एतानि उभयरूपाण्येव नत्वेकान्ततो नित्यरूपाणि । कुत इत्याह - 'भावाओ चिय' भावत्वादेव-वस्तुत्वादेवेतियावत् । नोकान्तनित्यं वस्तु घटते, यथाभिहितं प्राक परिणाम्यात्मसिद्धौ । तस्मादेकान्तेनैव स आगमो नित्य इति मिथ्या ॥१२५८॥ ગાથાર્થ:- તથા (આ આગમ) જ્ઞાનરૂપ, વિષયરૂપ કે અન્ય કોઇ રૂપ હો... પરંતુ આ બધા જ ઉભયરૂપવાળા જ નિત્યાનિત્યરૂપવાળા જ છે, નહિં કે એકાજો નિત્યરૂપ, કેમકે ભાવ-વસ્તુરૂપ છે. પરિણામી આત્માની સિદ્ધિવખતે બતાવ્યું તેમ કોઇ વસ્તુ એકાન્તનિત્યરૂપે સંભવે નહીં. તેથી ‘એ આગમ એકાન્ત નિત્ય છે તેમ કહેવું એ મિથ્યા છે. ૧૨૫૮ વિદની સ્વત: પ્રમાણતાનું ખંડન तदेवमेकान्ततो नित्यत्वमपाकृत्य सांप्रतं स्वत एव प्रामाण्यमपाचिकीर्षुराह - આમ “એકાન્ત નિયતા' નું ખંડન કર્યું. હવે આગમના સ્વત: પ્રામાણ્યવાદનું નિરાકરણ કરવા કહે છે. पामनं पि सतो च्चिय वेदस्स ण संगतं विगाणातो । को एत्थ सम्मवाई को वा णो? णत्थि इह माणं ॥१२५९॥ (प्रामाण्यमपि स्वत एव वेदस्य न संगतं विगानात् । कोऽत्र सम्यग्वादी को वा न ? नास्तीह मानम् ॥) प्रामाण्यमपि वेदस्य न स्वत एव संगतम् । कुत इत्याह-विगानात्-विप्रतिपत्तेः । तथा च केचिद्वेदस्य स्वत एव प्रामाण्यं मन्यन्ते, केचिदन्यथेति । स्यादेतत्, यः स्वत एव प्रामाण्यं वेदस्य न मन्यते स मिथ्यावादीति किं तेन ? ततो न कश्चिद्दोष इति । अत्राह-'को इत्यादि' नन कोऽत्र-वेदप्रामाण्यविचारविषये सम्यग्वादी? को वा न? नास्ति इह-सम्यग्वादमिथ्यावादनिर्णयविषये मान-प्रमाणमिति यत्किंचिदेतत् ॥१२५९॥ ગાથાર્થ:- વેદનું પ્રામાણ્ય પણ સ્વત: જ હોવું સંગત નથી, કેમકે તેમાં વિવાદ છે, કેમકે કેટલાક વેદનું સ્વત: પ્રામાણ્ય સ્વીકારે છે, જયારે કેટલાક નથી સ્વીકારતા. આ પૂર્વપક્ષ:- જે વેદનું સ્વત: પ્રામાણ્ય ન સ્વીકારે તે મિથ્યાવાદી છે, તેથી તેની માન્યતા નિરર્થક હોવાથી કોઈ દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- વેદની પ્રમાણતાના વિચારમાં કોણ સમ્યગ્વાદી છે અને કોણ સમ્યગ્વાદી નથી? એવો નિર્ણય કરવામાં શું પ્રમાણ છે? અર્થાત કોઇ પ્રમાણ ન લેવાથી આ વાત તુચ્છ છે. ૧૨૫લા अपिच - पणी, एगतेण सतो च्चिय पामन्ने जं ततो कुविण्णाणं । तस्स चिय पमाणत्तं पावइ जह सम्मणाणस्स ॥१२६०॥ (एकान्तेन स्वत एव प्रामाण्ये यत्ततो कुविज्ञानम् । तस्य (अपि) प्रामाण्यं प्राप्नोति यथा सम्यग्ज्ञानस्य ॥) ++++++++++++++++ 8 -लास २ - 292 +++++++++++++++ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *************++++ सर्वसिदिER +++++++++++++++++ एकान्तेन स्वत एव वेदस्य प्रामाण्ये सति यत् कुविज्ञानं तत एव वेदादुपजायते तस्यापि प्रामाण्यं प्राप्नोति, यथा सम्यग्ज्ञानस्य, उभयत्रापि विशेषाभावात् ॥१२६०॥ ગાથાર્થ:- વેદનું એકાને સ્વત: પ્રામાણ્ય સ્વીકારશો, તો વેદથી જે કુવિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, તેને પણ સમ્યજ્ઞાનની જેમ પ્રમાણભૂત માનવું પડે, કેમકે ઉભય (કુવિજ્ઞાન-સમ્યજ્ઞાન)સ્થળે વિશેષનો અભાવ છે. (વેદથી થનારા બધા જ જ્ઞાન પ્રમાણભૂત હોય, તો જ વેદને એકાન્ત પ્રમાણભૂત માની શકાય. પણ કોઈકને વિપરીતજ્ઞાન પણ સંભવે. તેથી વેદજન્ય કુવિજ્ઞાનને પણ પ્રમાણભૂત માનવાની આપત્તિ છે, તેવો મતલબ છે.) ૧૨૬ના अह तं ण तओ इतरं पि णेव वक्खाणिदोसतो तं चे । इयरं पि किन्न गुणतो ? एवं सति णिप्फलो वेदो ॥१२६१॥ (अथ तन्न तत इतरदपि नैव व्याख्यातृदोषतस्तच्चेत् । इतरदपि किन्न गुणतः? एवं सति निष्फलो वेदः ॥ अथ तत्-कुविज्ञानं न ततो-वेदादुपजायते तेनादोष इति। नन्वेवं सति इतरदपि-सम्यग्ज्ञानं नैव ततो-वेदादुपजायते। तथाहि-उभयमप्येतत् विवक्षितवेदवाक्यश्रवणान्वयव्यतिरेकानुविधायि, तद्यदि कुविज्ञानं न ततो वेदादिष्यते तर्हि सम्यग्ज्ञानमपि मा तत एषिष्ट, विशेषाभावात् । अथ तत् कुविज्ञानं व्याख्यातृदोषत उपजायते न वेदात् ततो दोषाभाव इति। यद्येवं तर्हि इतरदपि-सम्यग्ज्ञानं व्याख्यातृगुणत एवोपजायते, न वेदादिति किन्नेष्यते ? विशेषाभावात्। तत एवं सति व्याख्यातृगुणदोषभावतः सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानभावे सति स्वतः प्रमाणभूतः परिकल्प्यमानो वेदो निष्फल एव, व्याख्यातृगुणापेक्षया प्रामाण्याभ्युपगमेन स्वत एव प्रमाणत्वायोगात् ॥१२६१॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- તે કુવિજ્ઞાન વેદથી ઉત્પન્ન થતું નથી, તેથી ઘેષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- એમ તો, સમ્યજ્ઞાન પણ વેદથી ઉત્પન્ન નીં થાય. જૂઓ- વિજ્ઞાન અને સમ્યજ્ઞાન આવા બન્ને અભિપ્રેત વેદવાક્યના શ્રવણના અન્વય-વ્યતિરેકને અનુસરે છે. વેદવાકયના શ્રવણથી ઉદ્ભવે, અને શ્રવણ વિના ન ઉદ્ભવે.) તેથી આ અન્વય-વ્યતિરેક હોવા છતાં જો કુવિજ્ઞાન વેદથી ઉદ્ભવતું ન હૈય, તો સમ્યજ્ઞાન પણ વેદથી ઉદ્ભવતું ઇષ્ટ ન હોવું જોઇએ, કેમકે ઉભયત્ર વિશેષ નથી. પૂર્વપક્ષ:- વેદવાક્યના વ્યાખ્યાતાના દોષને કારણે તે કુવિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, નહિ કે વેદથી. તેથી કોઈ દોષ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- જો આમ ઈષ્ટ હોય, તો “સમ્યજ્ઞાન વ્યાખ્યાતાના ગુણથી જ ઉદ્દભવે છે, નહીં કે વેદથી' એમ કેમ ઇચ્છતા નથી? અર્થાત ઇચ્છવું જોઇએ. કેમકે સમાનતા છે. આમ વ્યાખ્યાતાના જ ગુણ-દોષથી સમ્યજ્ઞાન-મિથ્યાજ્ઞાન સંભવતા હોવાથી સ્વત: પ્રમાણ તરીકે કપાતો વેદ નિષ્ફળ જ છે, કેમકે વ્યાખ્યાતાના ગુણની અપેક્ષાથી પ્રામાયનો સ્વીકાર હોવાથી સ્વત: પ્રામાણ્ય રહ્યું નહીં. ૧૨૬૧ .. उप्पन्नम्मि वि णाणे तत्तो तह संसयादिभावातो । अण्णत्तो तेसिं च्चिय णिवित्तिओ कहं सतो चेव ? ॥१२६२॥ ' (उत्पन्नेऽपि ज्ञाने ततस्तथा संशयादिभावात् । अन्यतस्तेषामेव निवृत्तेः कथं स्वत एव ।) उत्पन्नेऽपि ज्ञाने ततो वेदात् 'तथेति' दूषणान्तरसमुच्चये, तत ऊध्वं संशयादिभावतस्तेषां च संशयदीनामन्यतः सकाशाद् निवृत्तेश्च कथं स्वत एव वेदस्य प्रामाण्यं युक्तं ? नैव युक्तमिति भावः । यथोक्तप्रकारेण परतोऽपि तस्य भावात् ॥१२६२ ।। ગાથાર્થ:- (‘તથા પદ દુષણાન્તરના સમુચ્ચયાર્થ છે.) તથા વેદથી જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયા પછી પણ સંશયાદિ તો રહેવાના જ (કે “મારું આ જ્ઞાન સમ્યગ છે કે નહીં' ઇત્યાદિ) અને બીજા પાસેથી એ સંશયાદિની નિવૃત્તિ થવાની. કેમકે વેદ સ્વત: જ સંશયાદિ દૂર કરવા સમર્થ નથી જ) તેથી વેદનું સ્વત: પ્રામાણ્ય ક્યાંથી ર? અર્થાત ન જ રહ્યું, કેમકે બતાવ્યું તેમ પરત: પણ વેદનું પ્રામાણ્ય સંભવે છે. ૧ર૬રા पुनरभ्युच्चयेनात्रैव दूषणान्तरमाह ફરીથી અહીં અમ્યુચ્ચયથી બીજું દૂષણ બતાવે છે. णय होंति संसयादी दीवादिपगासिए घडादिम्मि । णाते णय सो कस्सइ विवरीयपयासणं कुणइ ॥१२६३॥ (न च भवन्ति संशयादयो दीपादि प्रकाशिते घटादौ । ज्ञाते न च स कस्यापि विपरीतप्रकाशनं करोति ॥ ++++++++++++++++ Gee-HIN२ - 293 +++++++++++++++ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + सबसिबिद्वार +++++++++++++++++ न च भवन्ति दीपादिभिरादिशब्दाच्चन्द्रादिभिश्च प्रकाशिते घटादौ ज्ञाते सति संशयादय आदिशब्दाद्विपर्यासमोहग्रहणं, तथा लोकेऽनुभवात्, न च सः-प्रदीपादिरर्थः कस्यापि विपरीतार्थप्रकाशनं करोति, तद्यदि वेदोऽपि दीपादिवत्स्वत एवं बाह्यार्थप्रकाशने प्रमाणं तर्हि न ततो बाह्यार्थे ज्ञाते सति तदूद्ध्वं संशयादयो भवेयुर्नापि स विपरीतार्थप्रकाशनं कुर्यादिति ॥१२६३॥ ગાથાર્થ:- વળી, દીવા આદિ–આદિથી ચંદ્ર વગેરે–થી પ્રકાશિત થયેલા ઘડાવગેરેઅંગે જ્ઞાન થયા બાદ સંશય, વિપર્યય કે મોહ (અજ્ઞાન) થતા નથી, એમ લોકાનુભવસિદ્ધ છે, વળી એ દવાદિ વસ્તુ પણ કોઈને વિપરીતાર્થનું પ્રકાશન કરતાં નથી. તેથી જો વેદ પણ દીવાદિની જેમ બાહ્યર્થને પ્રકાશવામાં સ્વત જ પ્રમાણભૂત હોય, તો તેનાથી (=વેદથી) બાધાર્થનું જ્ઞાન થયા બાદ સંશયવગેરે થવા ન જોઇએ, તથા વેદે વિપરીતાર્થનું પ્રકાશન પણ કરવું જોઇએ નહીં. ૧૨૬૩ अत्र पर आह - અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે कंदोट्टादिसु अह सो पगासती रत्तयादि विवरीयं । तण्णो तज्जोगाओ तस्सेव तहापरिणतीतो ॥१२६४॥ (कंदोट्टादिषु अथ स प्रकाशयति रक्तादिकं विपरीतम् । तन्न तद्योगात् तस्यैव तथापरिणतितः ॥) कन्दोर्ट्स-नीलोत्पलम् "कंदोर्टेदीवरकुवलयाई नीलुप्पले जाण" (कन्दोद्देन्दीवरकुवलयानि नीलोत्पले जानीहि) इतिवचनात्, तदादिषु अथ सः-दीपादिः प्रकाशयति रक्ततादिकं विपरीतमादिशब्दात् शुक्लतादिपरिग्रहः । चन्द्रो हि परमकृष्णे हि मनाक् शुक्लरूपतां प्रकाशयतीति, एवं वेदोऽपि केषांचिदर्थं विपरीतमपि प्रकाशयिष्यतीत्यदोषः । अत्राह-'तन्नो' इत्यादि, यदेतदुक्तं तन्न। कुत इत्याह-तद्योगात्-प्रदीपादिप्रभायोगात् तस्य-इन्दीवरादेस्तथापरिणतिभावात्। तन्न प्रदीपादेविपरीतार्थप्रकाशनमिति ॥१२६४॥ भायार्थ:- पूर्वपक्ष:- gar, १२ अनेयुपतय (A4 मनन ४ विशेषप्रसर छे.) ने नीलोत्पल (3 ) જાણવા આ વચનથી કંદોનો અર્થ નીલકમળ થાય છે, આ બધાને તે દીવો લાલાશાદિ વિપરીત રંગવાળારૂપે પ્રકાશિત કરે છે (અહીં લાલાશાદિમાં સફેદાશાદિ સમજી લેવા) એ જ પ્રમાણે ચંદ્ર અતિશ્યામમાં પણ કાંક સફેદાશ પ્રકાશિત કરે છે. આ જ પ્રમાણે વેદ પણ કેટલાક અર્થોને વિપરીતરૂપે પણ પ્રકાશિત કરે તો દોષરૂપે નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આ કથન બરાબર નથી. કેમકે અહીં દવાદિની પ્રજાના સંગથી ઈન્દીવરવગેરે તેવી લાલાશાદિ પરિણતિ પામે છે કે જેથી તેવા રૂપે દેખાય છે. તેથી દીવાદિ વિપરીતાર્થના પ્રકાશક નથી. ૧૨૬૪ા पर आह - અહીં પૂર્વપક્ષકાર કહે છે उलुगादीणं दिणगरकिरणा भासंति जह तमोस्वा । वेदत्थो वि ह एवं पावेण ण सम्म केसिंचि ॥१२६५॥ (उलूकादीनां दिनकरकिरणा भासन्ते यथा तमोरूपाः । वेदार्थोऽपि हु एवं पापेन न सम्यक्केषाञ्चित् ॥ यथा उलूकादीनां दिनकरकिरणाः स्वतः स्वच्छा अपि स्वदोषवशात्तमोरूपा भासन्ते, एवं वेदार्थोऽपि 'ह' निश्चितं केषांचित् श्रोतृणां पापेन हेतुना न सम्यग्भासत इति ॥१२६५॥ ગાથાર્થ:- જેમ સૂર્યના કિરણો સ્વત: સ્વચ્છ હોવા છતાં ઘુવડવગેરેને દોષને કારણે અંધકારરૂપ ભાસે છે. આ જ પ્રમાણે વેદાર્થ પણ અવશ્ય કેટલાક શ્રોતાઓને સ્વીય પાપરૂપ હેતથી બરાબર-સત્યરૂપે ભાસતો નથી. ૧ર૬પા अत्राह - અહીં આચાર્ય જવાબ આપે છે णाते वि संसयादि कहं णु जायंति ? ते वि पावातो । . तदभावे तदभावा सिद्धं परतो वि पामन्नं ॥१२६६॥ (ज्ञातेऽपि संशयादयः कथं नु जायन्ते ? तेऽपि पापात् । तदभावे तदभावात् सिद्धं परतोऽपि प्रामाण्यम् ॥) किंत ज्ञातेऽपि सम्यग्बाहोऽर्थे ततो वेदात कथं न पुनः संशयादयो जायन्ते? न हि प्रदीपादिभिः ++++++++++++++++ Ri-मा२ - 294+++++++++++++++ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सबसिदिद्वार +++++++++++++++++ प्रकाशिते घटादौ ज्ञाते पुनः संशयादयः प्रादुर्भवन्तोऽनुभूयन्ते इति । अत्राह-'ते वि पावाओत्ति' तेऽपि-संशयादयः पापादिति चेत तर्हि तदभावे-पापाभावे तदभावात्-संशयादीनामभावात् सिद्धं परतोऽपि वेदस्य प्रामाण्यमिति ॥१२६६॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક:- ભલે એમ હો! છતાં બાહ્યર્થનું વેદથી બરાબર જ્ઞાન થયા પછી પણ સંશયાદિ કેમ થાય છે? પ્રદીપાદિથી પ્રકાશિત થયેલા ઘડાઓનું જ્ઞાન થયા પછી સંશયાદિ થતાં અનુભવાતા નથી. પૂર્વપક્ષ:- આ સંશયાદિ પણ પાપના કારણે થાય છે. ઉત્તરપક્ષ:- આમ ોય, તો પાપના અભાવમાં સંશયાદિ પણ ન થાય. તેથી પાપાભાવરૂપ પરથી પણ વેદના પ્રામાણ્યની સિદ્ધિ થાય છે. (આમ વેદ સ્વત: જ પ્રમાણભૂત છે, એવો જકાર ખોટો છે.) ૧૨૬૬ अन्यच्च - વળી एगतेण तु सत एव तम्मि सइ सव्वहेव सव्वेसिं । कुज्जा पमाणकज्जं सहावभेदादिविरहातो ॥१२६७॥ __(एकान्तेन तु स्वत एव तस्मिन् सति सर्वथैव सर्वेषाम् । कुर्यात् प्रमाणकार्य स्वभावभेदादिविरहात् ॥) ___ एकान्तेनैवतुरवधारणे, स्वत एव वेदस्यतस्मिन्-प्रामाण्ये सदा-सर्वदा सर्वेषामेव प्रमाणकार्य निश्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादनलक्षणं स वेदः कुर्यात्। कुतः? इत्याह - ‘स्वभावभेदादिविरहात्' नित्यतया स्वभावभेदाभावात्सदा कुर्यात्, आदिशब्दा-द्देशाद्यपेक्षया स्वतःप्रामाण्यभावाभावलक्षणस्वभावनानात्वाभावात्सर्वथा सर्वेषामेव प्रमाणकार्यं कुर्यादिति परिग्रहः । तस्मान्न स्वत एव प्रामाण्यम् । ततश्च स्थितमेतत्-कथंचिन्नित्य आगमः, स्वत एव च कथंचित्तस्य प्रामाण्यं, तस्माच्च सर्वज्ञस्यावगम इति ॥१२६७॥ uथार्थ:- (तु.५६०४१रार्थ छे.)वणी, को वहान्त स्वत:प्रामाण्य बोय, तोते वहमेशा, जयामा ४ निश्यित -અવિપરીત પ્રત્યય ઊભા કરવારૂપ પ્રમાણકાર્ય કર્યા કરશે. કેમકે નિત્ય હોવાથી વેદના સ્વભાવમાં ભેદ પડતો નથી. (સ્વભાવભેદાદિમાં “આદિ પદથી-) તેવી જ રીતે દેશાદિની અપેક્ષાએ સ્વત: પ્રામાણ્યભાવના અભાવરૂપ ભિન્નસ્વભાવ ન હોવાથી (આમ દેશ અને કાળથી સર્વવ્યાપી હોવાથી) વેદ હંમેશા–બધામાં જ સર્વથા પ્રમાણકાર્ય કરશે એમ નિશ્ચિત થાય છે. પણ તે ઇષ્ટ નથી, તેથી વેદનું સ્વત: જ પ્રામાણ્ય નથી. તેથી આગમ કથંચિત નિત્ય છે, અને તેનું કથંચિત જ સ્વત: પ્રામાણ્ય છે, અને તે આગમથી સર્વજ્ઞ હેવાનો નિર્ણય થાય છે, એમ નિશ્ચિત થાય છે. ૧૨૬૭ एतदेवोपसंहरति - આ જ વાત ઉપસંહાર કરતા કહે છે एवं च गम्मइ जदा कहंचि णिच्चातो आगमातो सो । संपइ तदा ण जुत्तं जं वुत्तं पुव्वपक्खम्मि ॥१२६८॥ (एवं च गम्यते यदा कथञ्चिद् नित्यादागमात् सः । संप्रति तदा न युक्तं यदुक्तं पूर्वपक्षे ॥) अन्नं च गम्मइ तओ केण पमाणेण एवमाइ उ । इतरेतरासओ वि हु फलभूयत्तेण नो तस्स ॥१२६९॥ (अन्यच्च गम्यते सकः केन प्रमाणेन एवमादिस्तु । इतरेतराश्रयोऽपि हु फलभूतत्वेन न तस्य ॥) गाथा सार्था(र्धा)। एवं च सति यदा कथंचिन्नित्यादागमात् सः-सर्वज्ञो ज्ञायते तदा यद्भणितं पूर्वपक्षे-'अन्नं च नज्जइ तओ केण पमाणेण इत्येवमादि' तन्न संप्रति युक्तमिति। यदप्युक्तम्- 'इयरेयरासओ वि हु दोसो अणिवारणिज्जो उ त्ति' तदप्यसमीचीनम्, यत आह-इतरेतराश्रयोऽपि दोषो 'हु' निश्चितं न तस्य-सर्वज्ञस्य फलभूतत्वेन हेतुना भवति ॥१२६८-१२६९॥ ગાથાર્થ:- આમ કથંચિતનિત્યઆગમથી સર્વજ્ઞનો નિર્ણય થાય છે. તેથી પૂર્વપક્ષે અન્ન ચ નજજઇ (ગા.૧૧૫૪ વળી તે (સર્વજ્ઞ) કયા પ્રમાણથી જાણી શકાય?) ઈત્યાદિ જે કહ્યું, તે હવે બરાબર નથી. તથા પૂર્વપક્ષે ઈયરયરાસઓ (ગા.૧૧૫૮ ઇતરેતરાશ્રયદોષ પણ અનિવારણીય છે.) એવું જે કહ્યું, તે પણ બરાબર નથી, કેમકે સર્વજ્ઞ કુલભૂત લેવાથી અવશ્ય ઇતરેતરાશ્રય દોષ નથી. ૧૨૬૮–૧ર૬લા ++++++++++++++++ user-MIL2-295+++++++++++++++ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܐܬܟ ܟ84a8 ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ एतदेव भावयन्नाह - આ જ વાતનું ભાવન કરતા કહે છે सुत्तस्स अत्थवत्ता सव्वण्णू सो य तम्मि फलभूतो । पामण्णं च सतो च्चिय इमस्स ता कह णु दोसत्ति ?॥१२७०॥ (सूत्रस्यार्थवक्ता सर्वज्ञः स च तस्मिन् फलभूतः । प्रामाण्यं च स्वत एवास्य तस्मात् कथं नु दोष इति ॥) सूत्रस्य-आगमस्य योऽर्थस्तस्य वक्ता सर्वज्ञः, न तु सूत्रस्य कर्ता, स च तस्मिन्-आगमे फलभूतः, न चास्यागमस्य तद्वक्तृत्वेनैव प्रामाण्यं किंतु कथंचित्स्वत एव, 'ता' तस्मात्कथं नु इतरेतराश्रयो दोषः ? नैव कथंचनेतिभावः ॥१२७०॥ ગાથાર્થ:- સર્વજ્ઞ આગમના અર્થના વક્તા છે, નહીં કે સૂત્રના. અને તે(=સર્વજ્ઞ) આગમમાં કુલભૂત છે. (અર્થાત આગમ દર્શિત માર્ગારાધનથી કેવળજ્ઞાન પામવારૂપ આગમનું ફળ તે સર્વજ્ઞને પ્રાપ્ત છે.) વળી, તે સર્વજ્ઞ આગમાર્યવક્તા હોવામાત્રથી આગમનું પ્રામાણ્ય છે, એમ નથી, પરંત કથંચિત સ્વત: પણ પ્રામાણ્ય છે. તેથી ઇતરેતરાશ્રય દોષ કેવી રીતે આવે? અર્થાત નહીં જ આવે. ૧૨૭૦મા અસર્વશના અર્થની ચર્ચા यच्चोक्तम्-'पडिसेहगं च माणमित्यादि' तत्र दूषणमभिधित्सुराह - पूर्वपक्षे उसे (u. ११६२ प्रतिषे५४ प्रमा... त्यादि) हे त्यां दू५९ म त छ.. पडिसेहगे पमाणे सोऽसव्वण्णु त्ति अस्स को अत्थो ? । जति किंचिण्णू णणु किं तेण ण णायं ति वत्तव्वं ? ॥१२७१॥ . (प्रतिषेधके प्रमाणे सोऽसर्वज्ञ इति अस्य कोऽर्थः ? । यदि किञ्चिज्ज्ञो ननु किं तेन न ज्ञातमिति वक्तव्यम् ॥) प्रतिषेधके प्रमाणे यदुक्तं- 'सोऽसर्वज्ञ इति' तस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? यदि किंचिज्ज्ञ इति, तथाहि-'अनुदरा कन्ये त्यादाविव नञोऽल्पार्थत्वविवक्षायां असर्वज्ञ इति, किमुक्तं भवति ?-किंचिज्ज्ञ इति । ननु तर्हि किं तेन न ज्ञातमिति वक्तव्यं ? यदज्ञानादयं किंचिज्ज्ञ इत्युच्येत, सर्वमपि तेन ज्ञातं, तथोपदेशादिति भावः ॥१२७१॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષે પ્રતિષેધક પ્રમાણમાં તે અસર્વજ્ઞ છે એવું જે કહ્યું તેમાં “અસર્વજ્ઞ' કથનનો શો અર્થ છે? પૂર્વપક્ષ:- જેમ “અનુદરા કન્યા' આ સ્થળે નિષેધ અલ્પાર્થની વિવક્ષામાં છે. એમ “અસર્વજ્ઞા'નો અર્થ અલ્પ–કાંક જાણકારકિંચિજજ્ઞ' એવો છે. ઉત્તરપક્ષ:- તો એ કિંચિજજ્ઞ એ તે શું નથી જાણ્યું કે જેના અજ્ઞાનથી તે સર્વશને બદલે કિંચિજજ્ઞ બન્યો ? એ બતાવવું પડશે. અર્થાત તેણે બધું જ જાણી લીધું છે, કેમકે તેવો જ ઉપદેશ આપે છે. તેનો ઉપદેશ જ એવો છે કે જે બતાવે છે તે બધી વસ્તુનો જાણકાર છે.) ૧૨૭૧ अत्र परस्याभिप्रायमाह - અહીં પૂર્વપક્ષકારનો આશય વ્યક્ત કરે છે अह जागादिविहाणं मिच्छास्वेण णिच्छियं चेव । भणिता य तेण हिंसादीया कुगतीऍ हेतु त्ति ॥१२७२॥ (अथ यागादिविधानं मिथ्यारूपेण निश्चितमेव । भणिताश्च तेन हिंसादयः कुगतेर्हेतव इति ॥) अथ यागादिविधानं तेन न ज्ञातं, तस्यानुपदेशादिति किंचिज्ज्ञ इति । तत्राह-'मिच्छेत्यादि' मिथ्यारूपेण तदपि यागादिविधानं हन्त निश्चितमेव-ज्ञातमेव। चो हेतौ । यस्मात्तेन-भगवता हिंसादय आदिशब्दात्तथाविधान्यङ्गाङ्ग(न्ययज्ञाङ्ग)• भूतपातकविशेषपरिग्रहः भणिता-उक्ताः कुगतेः-नरकादिगतेर्हेतवः, ततो हेयरूपतया तदपि यागादिविधानं ज्ञातमेव ॥१२७२।। ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- તેને યાગાદિનું જ્ઞાન ન હતું, કેમકે યાગાદિનો ઉપદેશ આપ્યો નહીં, તેથી તે કિંચિજજ્ઞ હતો. ઉત્તરપલ:- તેણે યાગાદિવિધાનને મિથ્યારૂપે જ નિશ્ચિત કર્યો. ('ચ' હેત્વર્થે છે.) કેમકે તે ભગવાને હિંસાદિ–આદિ શબ્દથી તેવા પ્રકારના હિંસા (અથવા યજ્ઞ) ના અંગભૂત પાતકવિશેષોને નરકાદિ કુગતિના હેતઓતરીકે બતાવ્યા છે. આમ ભગવાનને યાગાદિવિધાન હેયતરીકે જ્ઞાત જ છે. ૧૨૭૨ાા * ** *** ** *** ** * ** शि -ल -296* ** * * * * ** * *** ** Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + + + + + + + + + + + + + + + + A AGEER + + + + + + + + + + + + + + + + + स्यादेतद्, न नञोऽत्राल्पार्थता विवक्षिता, किंत्वन्यार्थता, यथा ब्राह्मणादन्योऽब्राह्मण इति, विरुद्धार्थता वा, यथा धर्मविरुद्धोऽधर्म इति, तथा चाह - પૂર્વપક્ષ:- અહીં નિષેધ અલ્પાર્થસૂચકરૂપે ઈષ્ટ નથી, પરંતુ અત્યાર્થતા-ભિન્નાર્થતાવાચકરૂપે ઈષ્ટ છે, જેમકે અબ્રાહ્મણ બ્રાહ્મણથી અન્ય. અથવા નિષેધથી વિરુદ્ધાર્થ ઈષ્ટ છે, જેમકે ધર્મવિરુદ્ધ અધર્મ. આ જ વાત કરતા કહે છે– सव्वण्णुणो अहऽण्णो तस्स विरुद्धो व सो असव्वण्णू । जत्तो अण्णो जस्स य तओ विरुद्धो स सव्वण्णू ॥१२७३॥ (सर्वज्ञादथाऽन्यस्तस्य विरुद्धो वा सोऽसर्वज्ञः । यतोऽन्यो यस्य च सको विरुद्धः स सर्वज्ञः ॥) अथ यः सर्वज्ञादन्यो यो वा तस्य सर्वज्ञस्य विरुद्धः सोऽसर्वज्ञ इति मन्येथाः । अत्राह 'जत्तो इत्यादि' यतोयस्मादवधिभूतात् 'तओ त्ति' सको विवक्षितः पुरुषोऽन्यो यस्य वा विरुद्धो ननु स एव सर्वज्ञः प्राप्नोति, तथा चास्माकमिष्टसिद्धिरिति ॥१२७३॥ ગાથાર્થ:- આમ જે સર્વજ્ઞથી અન્ય હોય, અથવા તે સર્વજ્ઞની વિરુદ્ધ હેય, તે અસર્વજ્ઞ. ઉત્તરપક્ષ:- તમારી આ માન્યતા હોય, તો જેનાથી તે વિવક્ષિત પુરુષ અન્ય કે/ અને વિરુદ્ધરૂપે ઈષ્ટ છે. તે જે સર્વજ્ઞ તરીકે પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી અમારા જ ઈષ્ટની સિદ્ધિ થાય છે. ૧૨૭૩ अथोच्येत-न नञोऽन्यार्थता विरुद्धार्थता वा, किंतु विपरीतार्थता, ततश्चासर्वज्ञ इति किमुक्तं भवति-सर्वं विपरीतं जानातीति, यथा-निशि बहलमनोहारिभासुरच्छायां प्रदीपशिखां विकसितमिदमतीव चारु चम्पकपुष्पमिति मन्यमानास्तत्र कीटपतङ्गाः पतन्तो विपरीतं जानन्तीत्यज्ञा उच्यन्ते, इत्येतदाशङ्क्याह - - પૂર્વપક્ષ:- અહીં નિષેધ અન્યાર્થતા કે વિરુદ્ધાર્થતા વાચક નથી, પરંતુ વિપરીતાર્થતાવાચક છે. તેથી “અસર્વજ્ઞ નો અર્થ બધું જ વિપરીત જાણનાર' એવો થશે. જેમકે રાતે અત્યંત મનોહર અને તેજસ્વી છાયાવાળી દીપશિખાને જોઇ “આ અત્યંત વિકસિત થયેલું સુંદર ચંપકપમ્પ છે એમ માનતા કીડા-પતંગિયાઓ તેનાપર પડે છે. આમ તેઓ વિપરીત જાણતા હોવાથી • सय छे. પૂર્વપક્ષની આવી આશંકાનો જવાબ આપે છે. विवरीतण्णु वि णेसो जमणेगंतो ण होइ विवरीयो । बाहगपमाणविरहा भवतोऽविय सिद्धमेवेयं ॥१२७४॥ - (विपरीतज्ञोऽपि नैष यदनेकान्तो न भवति विपरीतः । बाधकप्रमाणविरहाद् भवतोऽपि च सिद्धमेवेदम् ॥) . विपरीतज्ञोऽपि न एषः-भगवान्भवति, यस्मात्तेन भगवताऽनेकान्तो ज्ञातस्तस्योपदेशात्, स चानेकान्तो न भवति विपरीतो, बाधकप्रमाणविरहात्, एतच्चानेकान्तदर्शनं भवतोऽपि-मीमांसकस्य सिद्धमेवेति ॥१२७४ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- આ ભગવાન વિપરીતજ્ઞ પણ નથી, કેમકે ભગવાને અનેકાન્તનો ઉપદેશ આપ્યો હોવાથી ભગવાન અનેકાન્તવાદના જ્ઞાતા છે. અને અનેકાન્સ વિપરીત ન હોઈ શકે, કેમકે કોઇ અનેકાન્તબાધક પ્રમાણ હાજર નથી. વળી, અનેકાન્તદર્શન તો તમને–મીમાંસકોને પણ ઈષ્ટ છે. સિદ્ધ છે. ૧૨૭૪ अथोच्येत नञोऽत्र कुत्सार्थता विवक्ष्यते, यथा-कुत्सितं वचनमवचनमिति, ततो यदिह किमपि कत्सितं तत्सर्वं जानाति न तु शोभनमित्यसर्वज्ञ इति, अत्राह - પૂર્વપક્ષ:- અહીં નિષેધ કુત્સાર્થતા-ખરાબઅર્થમાં વિવક્ષિત છે. જેમકે કુત્સિત વચન અવચન. તેથી અહીં જે કંઇ કુત્સિત છે, તે બધું જાણે પણ સારું ન જાણે તે અસર્વજ્ઞ. मी पापे छ. जति वि(य) स कुत्थियण्णू णरगादी एत्थ कुत्थिया चेव । ते जाणति च्चिय तओ एवं पि ण कोइ दोसो त्ति ॥१२७५॥ (यदि च स कुत्सितज्ञो नरकादयोऽत्र कुत्सिता एव । तान् जानाति एव तत एवमपि न कोऽपि दोष इति ॥) यद्यपि च स :- भगवान्कुत्सितज्ञः साध्यते, एवमपि तथा न कश्चिद्दोषो, यतोऽत्र-जगति नरकादयो भावाःकुत्सिता ++++++++++++++++ slee-642 - 297 + + + + + + + + + + + + + ++ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सबसिबिर + + + ++ + + + + + + + + ++++ एव, तांश्च भगवान् जानात्येव, तथोपदेशात् । न च स केवलकुत्सितनरकादिभावस्वरूपज्ञ एव, स्वर्गापवर्गादीनामपि तेन परिज्ञानात्, तथा जन्तुभ्य उपदेशनादिति । स्यादेतत, किमनेन वाग्जालेन ? निषेध एव नञोऽर्थः, ततश्च न सर्वं जानातीति. किमुक्तं भवति ?-न किंचित् जानातीति ॥१२७५॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક:- જો ભગવાનને કુત્સિતજ્ઞતરીકે સિદ્ધ કરતા હો, તો પણ કોઈ દોષ નથી, કેમકે આ જગતમાં નરકવગેરે ભાવો કુત્સિત જ છે, અને આ ભાવોને ભગવાન જાણે જ છે, કેમકે ભગવાન તેવો ઉપદેશ આપે છે. વળી, ભગવાન માત્ર નરકાદિ કુત્સિતભાવોના સ્વરૂપને જ જાણે છે, તેવું નથી, કેમકે ભગવાન સ્વર્ગ–મોક્ષઆદિને પણ જાણે છે, કેમકે જીવોને તેવો ઉપદેશ આપે છે. પૂર્વપક્ષ:- આ બધા વચનાઈબરથી સર્ષે નકારનો અર્થ નિષેધ જ છે. તેથી જે બધું ન જાણે તે અસર્વજ્ઞ' અર્થાત જે કશું ન જાણે તે અસર્વજ્ઞ' એવો અર્થ છે. ૧૨૭પા एतदे. दूषयितुमाशङ्कमान आह - આ જ વાતને દૂષિત કરવા આશંકા કરતાં કહે છે. अह तु अकिंचिण्णु च्चिय एवं पुरिसादओ कहं तम्मि ? । परिगप्पियपडिसेहे अब्भुवगमबाहणं णियमा ॥१२७६॥ (अथ तु अकिंचिज्ञ एवैवं पुरुषादयः कथं तस्मिन् ?। परिकल्पितप्रतिषेधे अभ्युपगमबाधनं नियमात् ॥) (अथेति पक्षान्तरे तुः नञः कुत्सापेक्षया दोषाभावद्योतनेऽकिञ्चिज्ज्ञ इति-सर्वमेव न वेत्तीति असर्वज्ञः), अत्राचार्य आह - 'एवमित्यादि' यदि असर्वज्ञ इति मन्यते तत एवं सति 'पुरिसादओ त्ति' भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य पुरुषत्वादयः कथं तस्मिन् विवक्षिते धर्मिणि स्युः? यो हि न किमपि जानाति स सर्वथा पाषाणकल्पः सन् पुरुषो वक्ता वा कथं भवेत् ? अथ य एव परैः परिकल्पितः पुरुषः सर्वज्ञस्तस्यैव सर्वज्ञत्वप्रतिषेधः क्रियत इत्येतदाशङ्क्याह-'परीत्यादि' परिकल्पितप्रतिषेधे क्रियमाणे नियमाद्-अवश्यंतया तवाभ्युपगमबाधनं प्राप्नोति, नहि परिकल्पितवस्तुविषयास्तव मतेन शब्दाः किंतु यथावस्थितवस्तुविषयाः, परिकल्पितश्चेत्सर्वज्ञस्ततः कथं तत्र सर्वज्ञशब्दप्रवृत्तिः? एवमपि चेदिष्टिस्तर्हि स्वाभ्युपगमविरोध इति ॥१२७६ ।। ગાથાર્થ:- (અથ'પદ પક્ષાન્તરસૂચક છે. નકારનો કુત્સાઅપેક્ષામાં દોષાભાવ બતાવવાથી અસર્વજ્ઞનો અર્થ અકિંચિતજ્ઞधु नख नार... वो ६२वो) ઉત્તરપક્ષ:- જો અસર્વજ્ઞનો આ અર્થ ઈષ્ટ હોય, તો પુરુષ–(ભાવનિર્દેશ હોવાથી) પુરુષત્વવગેરે ધર્મો તે ધર્મીમાં (અસર્વજ્ઞમાં) કેવી રીતે હોય? જે કશું જ જાણતો ન હોય, તે તો પાષાણતુલ્ય છે. તે પુરુષ કે વક્તા કેવી રીતે બની શકે? અર્થાત પુરુષ કે વક્તા પાષાણતલ્ય અસર્વજ્ઞ ન હોઈ શકે. શંકા:- અહીં બીજાઓએ જેવા પુરુષને સર્વજ્ઞ તરીકે પ્યો છે. તેવા પુરુષગત સર્વજ્ઞતાનો અભાવ અહીં “અસર્વજ્ઞ ५६थी 52 छे. સમાધાન:- પરિકલ્પિતને આશ્રયી પ્રતિષેધ કરતા પૂર્વપક્ષકારને અવશ્યતયા અભ્યપગમબાંધ છે. કેમકે મીમાંસકમતે શબ્દો પરિકલ્પિતવસ્તુવિષયક નથી હોતા, પરંતુ યથાવસ્થિતવસ્તુવિષયક જ હોય છે. તેથી જો સર્વજ્ઞ માત્ર પરિકલ્પિત જ હોય તો તે અંગે “સર્વજ્ઞ શબ્દ ઉપયુક્ત ન થઈ શકે. છતાં જો સર્વજ્ઞપદ ઇષ્ટ હોય, તો અભ્યપગમેબાધ છે જ. ૧૨૭૬ા पुनरप्यत्र परस्याभिप्रायमाह - ફરીથી અહીં પૂર્વપક્ષકારનો અભિપ્રાય વ્યક્ત કરે છે – अह उ अभावो त्ति तओ तस्सेव पगासगो अयं सद्दो । एयं पि माणविरहा असंगतं चेव णातव्वं ॥१२७७॥ (अथ तु अभाव इति सकस्तस्यैव प्रकाशकोऽयं शब्दः । एतदपि मानविरहादसंगतमेव ज्ञातव्यम् ॥ अथ 'तओ त्ति' सकः सर्वज्ञोऽभाव एव तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, खरविषाणकल्प एव, तस्य चाभावरूपस्य सर्वज्ञस्य प्रकाशकोऽयमसर्वज्ञशब्दोऽस्य एवंविधार्थवाचकत्वेनैव प्रसिद्धत्वादतो न कश्चिद्दोष इति । एतदपि न समीचीनं, तथा सति पुरुषत्वादिहेतूनामनुपपत्तेरेतच्च दूषणमुक्तत्वादुपेक्ष्याचार्योऽत्र दूषणान्तरमाह - 'एयं पीत्यादि' एतदपि-अनन्तरोदितं ++++++++++++++++ valu- 12-298+++++++++++++++ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વ સિદ્ધિ કાર + * * * * * * * * * * * * * * * * मानविरहात्-प्रमाणविरहादसंगतमेव ज्ञातव्यम् । प्रमाणविरहभावना चागे स्वयमेवाचार्येणाभिधास्यते इति ॥१२७७॥ ગાથાર્થ:- (“ત' પદ જકારાર્થક છે અને અભાવ૫દસાથે સંબંધિત છે.) પૂર્વપક્ષ:- આ સર્વજ્ઞ ગધેડાના શિંગડાતત્ય અભાવરૂપ જ છે. અને આવા અભાવરૂપ સર્વજ્ઞનો પ્રકાશક “અસર્વજ્ઞ' શબ્દ છે, કેમકે આ શબ્દ એવા પ્રકારના અર્થના વાચકરૂપે જ પ્રસિદ્ધ છે. તેથી હવે કોઈ દોષ નથી. :- આ પણ બરાબર નથી. આમ અભાવરૂપ માનવામાં તેમાં પુરુષત્વાદિ હેતુઓ અનુ૫૫ન્ન બને છે. અગાઉ આ દૂષણ બતાવી ગયા હેવાથી તેની ઉપેક્ષા કરી આચાર્ય બીજું દૂષણ બતાવે છે. જૂઓ- સર્વજ્ઞને તુચ્છ અભાવરૂપ કલ્પવામાં કોઈ પ્રમાણ નથી. આ બીજા દૂષણથી પણ હોવાથી તમારી વાત અસંગત કરે છે. પ્રમાણવિરહનું વિવરણ આચાર્ય પોતે જ આગળ બતાવશે. ૧૨૭૭ પુરુષdહેતુમાં દોષો तदेवं प्रतिज्ञार्थमनेकधा दूषयित्वा हेतोर्दूषणमाह - આમ પૂર્વપક્ષની અસર્વજ્ઞતાસાધક પ્રતિજ્ઞાનું અનેક પ્રકારે ખંડન કર્યું. હવે તેમાં દૂષણ બતાવે છે. पुरिसत्तं पि असिद्धं वेदाभावात तम्मि भगवंते ।। आगारमित्ततुल्लत्तणे वि मायाणराणं व ॥१२७८॥ (पुरुषत्वमपि असिद्धं वेदाभावात्तस्मिन् भगवति । आकारमात्रतुल्यत्वेऽपि मायानराणामिव ) पुरुषत्वमपि हेतुतयोपन्यस्यमानं तस्मिन्-सर्वज्ञे भगवत्यसिद्धमेव । कुत इत्याह-'वेदाभावात्' पुरुषवेदाभावात्, पुरुषवेदाभावश्च तत्क्षय एव सर्वज्ञत्वाभ्युपगमात् । ननु कथं पुरुषत्वमसिद्धं यावता तदाकारः सर्वोऽपि तत्राभ्युपगम्यत एवेत्यत आह-आकारमात्रतुल्यत्वेऽपि मायानराणामिव, मायया हि स्त्र्यादयोऽपि पुरुषाकारधारिणो दृश्यन्ते न च तत्त्वतः पुरुषत्वं, तन्नाकारमानं पुरुषत्वनिबन्धनमिति ॥१२७८॥ ગાથાર્થ:- અસર્વજ્ઞતાસાધક અનુમાનમાં બતાવેલો પુરુષત્વહેતુ પણ ભગવાન (પક્ષમાં અસિદ્ધ છે, કેમકે ભગવાનને પુરુષવેદનો (અહીં પુરુષ–સ્ત્રી નપુંસક ત્રણે વેદ સમજી લેવા) અભાવ છે. કેમકે પુરુષાદિવેદનો ક્ષય થાય, તો જ સર્વજ્ઞ થવાય એવો અમારો સિદ્ધાન્ત છે. શંકા:- ભગવાનમાં સંપૂર્ણ પુરુષાકાર સ્વીકૃત હોવાથી પુરુષત્વ અસિદ્ધ શી રીતે થશે? • સમાધાન:- માયાવી નરની જેમ આકારની સમાનતામાં પણ પુરુષત્વાભાવ સંભવે છે. કોઈ સ્ત્રી વગેરે માયાથી પુરુષાકાર ધારણ કરતા દેખાય જ છે. છતાં તેમાં તાત્વિકપુરુષત્વ નથી. આમ પુરુષત્વમાટે પુરુષાકાર માત્ર હેત નથી. (પુરુષવેદાદિના ભયથી ભગવાન હવે માત્ર પુરુષાકારધારી જ છે, પુષત્વના પુરુષવેદાદિસ્વરૂપ અને તેના તેવા ફળથી રહિત છે. તેથી પુરુષત્વ હતુ અસિદ્ધ કરે છે. આ અપેક્ષાએ જિનાગમને જ અપૌરુષેય આગમ ગણી શકાય) ૧૨૭૮ तदेवमसिद्धत्वमभिधाय सांप्रतमनैकान्तिकत्वं दर्शयतिઆમ હેતમાં અસિદ્ધિ બતાવી. હવે અનેકાંતિકતા બતાવે છે. ण य णाणपगरिसेणं पुरिसादीणं पि कोइ वि विरोहो । वयणं तु णाणजुत्तस्स चेव उववण्णतरगं तु ॥१२७९॥ (न च ज्ञानप्रकर्षेण पुरुषादीनामपि कोऽपि विरोधः । वचनं तु ज्ञानयुक्तस्यैवोपपन्नतरकं तु ॥ न च ज्ञानप्रकर्षेण सह पुरुषत्वादीनां कश्चिदपि विरोधोऽस्ति येन पुरुषत्वादीनामसर्वज्ञत्वेन सह प्रतिबन्धः सिद्ध्येत्, ततो विपक्षेण सह विरोधाभावात् तत्रापि वृत्तिसंशीत्या हेतोरनैकान्तिकत्वमिति । अपि च, वचनं प्रकृष्टतरं ज्ञानयुक्तस्यैवप्रकृष्टतरज्ञानयुक्तस्यैव पुंस उपपन्नतरं, 'तुः' पूरणे, ततो वक्तृत्वादित्ययं हेतुर्विरुद्धोऽप्यवसेयः, यथा-यत एव हि इत्थं सम्यग्वक्ता अत एवासौ सर्वज्ञोऽन्यस्येत्थं सम्यग्वादित्वायोगादिति ॥१२७९॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનપ્રકર્ષસાથે પુરુષત્વાદિને કોઇ વિરોધ નથી, કે જેથી પુરુષત્વાદિનો અસર્વજ્ઞત્વ સાથે પ્રતિબન્ધ સિદ્ધ થાય. આમ વિપક્ષ સાથે વિરોધ ન હોવાથી વિપક્ષમાં પણ હેતની હજરીનો સંશય હેવાથી હેતમાં અનેકાન્તિકાદોષ આવે છે. વળી, પ્રકૃષ્ટતરજ્ઞાનયુક્ત જ પુરુષનું વચન પ્રકૃષ્ટતર લેવાનું સુતરાં ઘટે છે. (“ત' પદ પૂરણાર્થક છે તેથી વક્નત્વ હેતુ વિરુદ્ધ છે. તે આ પ્રમાણે- “આ (ભગવાન) આમ સમન્વક્તા (=સત્યાર્થપ્રરૂપક) છે, તેથી જ આ (Eભગવાન) સર્વજ્ઞ છે; કેમકે ૨ જ * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 299 * * * * * * * * * * * * * * * Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * + + + + + + Akalele saR + * * * * * * * * * * * * * * * બીજાઓમાં આવી સમ્યગ્વાદિતા સંભવતી નથી. (આમ વકતૃત્વ હેતુથી જ ભગવાનમાં અસર્વજ્ઞતા વિદ્ધ સર્વજ્ઞતા સિદ્ધ થવાથી વકતૃત્વહેતુમાં વિરોધષ આવ્યો.) a૧૨૭૯ पराभिप्रायमाशङ्कते - પૂર્વપક્ષના આશયની આશંકા કરે છે सिय अह जो जो पुरिसो सो सो णो णाणपगरिससमेतो । दिट्ठो त्ति ता ण जुत्तं अदिट्ठपरिगप्पणं काउं ॥१२८०॥ (स्यादथ यो यः पुरुषः स स न ज्ञानप्रकर्षसमेतः । दृष्ट इति तस्मान्न युक्तमदृष्टपरिकल्पनं कर्तुम् ॥) यादिय तव मतिः-यो यः पुरुषो दृष्ट स स न ज्ञानप्रकर्षसमेतः पुरुषश्चासावपि, ततो न युक्तमदृष्ट परिकल्पनं सर्वज्ञत्वपरिकल्पनं तस्य कर्तुमिति ॥१२८०॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- જે-જે પુરુષ જોવાયા છે, તે-તે પુરુષ જ્ઞાનપ્રકર્ષથી યુક્ત નથી. આ વિવક્ષિત વ્યક્તિ પણ પુરુષ છે. તેથી તેમાં સર્વજ્ઞત્વરૂપ અદેટની પરિકલ્પના કરવી યોગ્ય નથી. ૧૨૮ના अत्र प्रतिविधानमाह - અહીં જવાબ આપતા કહે છે अस्सावणत्तजुत्तं सत्तं सव्वेसु चेव भावेसु ।' दिटुं पि सद्दस्वे अविरोहा अण्णहा सिद्धं ॥१२८१॥ (अश्रावणत्वयुक्तं सत्त्वं सर्वेष्वेव भावेषु । दृष्टमपि शब्दरूपेऽविरोधादन्यथा सिद्धम् ॥) अश्रावणत्वयुक्तं सत्त्वं सर्वेष्वपि घटादिषु भावेषु दृष्टमथ च तत्तथा दृष्टमपि शब्दस्पे-शब्दस्वरूपे अन्यथाश्रावणत्वेन युक्तं सिद्धमविरोधात्, नहि सत्त्वस्य श्रावणत्वेन सह कश्चिदपि विरोधोऽस्ति ॥१२८१॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ઘડાદિ બધા જ ભાવોમાં અશ્રાવણયુક્ત સર્વ દેષ્ટ છે. (અર્થાત એ બધા જ ભાવો શ્રવણયોગ્ય નથી. તેથી જે જે સર્વ દષ્ટ છે, તે બધા શ્રાવણત્વથી યુક્ત નથી, એમ કહી શકાય) છતાં શબ્દસ્વરૂપમાં શ્રાવણત્વયુક્તસત્વ વિરોધ વિના સિદ્ધ ' છે. કેમકે સત્તને શ્રાવણત્વ સાથે કોઈ જાતનો વિરોધ નથી. ૧૨૮૧ एवं पुरिसत्तं पि हु जइ वि ण विण्णाणपगरिससमेतं । दिटुं तहऽवऽविरोहा तेण समेतं पि संभवइ ॥१२८२॥ (एवं पुरुषत्वमपि हु यद्यपि न विज्ञानप्रकर्षसमेतम् । दृष्टं तथाप्यविरोधात्तेन समेतमपि संभवति ॥) एवं च सत्त्ववत्पुरुषत्वमपि यद्यपि न क्वचिदिदानी ज्ञानप्रकर्षसमेतं दृष्टं, तथाप्यविरोधात्-विरोधाभावात् तेनापिज्ञानप्रकर्षण समेतं संभवतीति न कश्चिद्दोषः ॥१२८२॥ ગાથાર્થ:- એ જ પ્રમાણે, જો કે વર્તમાનમાં સત્ત્વની જેમ પુરુષત્વ પણ જ્ઞાનપ્રકર્ષથી યુક્ત ક્યાંય દેખાતું નથી, છતાં પુરુષત્વને જ્ઞાનપ્રકર્ષસાથે વિરોધ ન હોવાથી, પુરુષ જ્ઞાનપ્રકર્ષવાળો હોય, તેમ સંભવે તેમાં કોઇ દોષ નથી. (તાત્પર્ય – અન્યત્ર અસહચારમાત્રથી વિરોધની કલ્પના કરવી યોગ્ય નથી) ૧૨૮૨ાા तदेवं पुरुषत्वस्य ज्ञानप्रकर्षेण सहाविरोधमुपदर्य सांप्रतं वक्तृत्वस्य दर्शयन्नाहઆમ પુરુષત્વનો જ્ઞાનપ્રકર્ષસાથે અવિરોધ બતાવ્યો. હવે વકતત્વનો જ્ઞાનપ્રકર્ષસાથે વિરોધાભાવ દર્શાવે છે वयणं पि ण रागादीणमेव कज्जं ति तेहिं रहितो वि । पगतं पयंपइ जतो कोई मज्झत्थभावेण ॥१२८३॥ (वचनमपि न रागादीनामेव कार्यमिति तै रहितोऽपि । प्रकृतं प्रजल्पति यतः कोऽपि मध्यस्थभावेन ॥) वचनमपि न रागादीनामेवादिशब्दादद्वेषादिपरिग्रहः कार्य येन तद्भावाद्रागादिमत्त्वानमितिस्ततोऽप्यसर्वज्ञत्वं सिदध्येत् । कथं न रागादीनामेव कार्यमित्याह-यतो-यस्मात्तै-रागादिभिर्दोषैरहितोऽपि कोऽपि पुरुषो मध्यस्थभावेन प्रकृतं प्रकरणानुरोधि किमपि प्रजल्पति-विषयेण विषयिणो लक्षणात् प्रजल्पन्, दृश्यते, ततो वक्तृत्वस्यापि ज्ञानप्रकर्षेण सहाविरोध इति ॥१२८३॥ ****************धर्भ -लाभ२-300*************** Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * ****** सर्वज्ञसिद्धि द्वार ***** ગાથાર્થ:- વચન પણ રાગ-દ્વેષાદિ દોષોનું કાર્ય નથી કે જેથી વચન હોય, ત્યા રાગાદિમત્તા પણ હોય’ એવું અનુમાન કરવાનું રહે, અને તેના આધારે અસર્વજ્ઞત્વની સિદ્ધિ કરી શકાય. ‘વચન રાગાદિનુ કાર્ય કેમ નથી?” એવી શંકાના જવાબમા કહે છે→ રાગાદિદોષથી રહિત પણ કોઇ પુરુષ મધ્યસ્થભાવે પ્રકરણના અનુરોધથી કા'ક બોલતો દેખાય છે. (રસ્તે જતા સજજનને માર્ગ પૂછીએ, તો તે રાગ-દ્વેષ વિના સત્ય જવાબ આપે છે) તેથી વક્તૃત્વને પણ જ્ઞાનપ્રકર્ષસાથે વિરોધ નથી. ૫૧૨૮ા अत्र परस्याभिप्रायं प्रचिकटयिषुराह - અહીં પૂર્વપક્ષના અભિપ્રાયને પ્રગટ કરવાના આશયથી કહે છે. अह तु विवखाएँ विणा ण जंपई कोइ सा य इच्छति । रागो य तई तम्हा वयणं रागादिपुव्वं तु ॥१२५४ ॥ (अथ तु विवक्षया विना न जल्पति कोऽपि सा चेच्छेति । रागश्च सका तस्माद् वचनं रागादिपूर्वं तु II) अथ न विवक्षया विना कोऽपि जल्पति, तथा दर्शनाभावात्, सा च विवक्षा इच्छा, वक्तुमिच्छा विवक्षेति व्युत्पत्तेः, 'तई' इति सका च इच्छा रागस्तस्माद्वचनं रागादिपूर्वकमेव । तुरवधारणे । तथा च सत्यसौ वक्ता असर्वज्ञः, सति रागादौ सर्वज्ञत्वानभ्युपगमात् ॥१२८४॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વિવક્ષા વિના કોઇ બોલતું હોય, તેમ દેખાતુ નથી, તેથી વિવક્ષા વિના ઉચ્ચાર ન હ્યેય. અને કહેવાની ઇચ્છા=વિવક્ષા' એવી વિવક્ષાની વ્યુત્પત્તિ હોવાથી વિવક્ષા ઇચ્છારૂપ છે. આ ઇચ્છા રાગરૂપ છે. તેથી વચન રાગપૂર્વક જ હોય. (તુ પદ જકારાર્થક છે.) તેથી આ વક્તા અસર્વજ્ઞ જ હોય, કેમકે રાગની હજરીમા સર્વજ્ઞતા સ્વીકારી નથી. ૫૧૨૮૪૫ अत्राह - અહીં ઉત્તર આપતા કહે છે– सुविणादिसु तीऍ विणा जंपति कोई तहा विचित्तो य । अन्नम्म जंपियव्वे दीसइ अन्नं च जंपतो ॥१२८५ ॥ (स्वप्नादिषु तया विना जल्पति कोऽपि तथा विचित्तश्च । अन्यस्मिन् जल्पितव्ये दृश्यतेऽन्यच्च जल्पन् ॥) स्वप्नादिषु आदिशब्दान्मदमूर्च्छादिषु च अवस्थासु तया - विवक्षया विनापि जल्पति- जल्पन् दृश्यते, तथा विचित्तश्च विगतचित्तश्च मनस्क इतियावत् अन्यस्मिन् - घटादौ प्रजल्पितव्ये अन्यत् - पटादिकं प्रजल्पन् दृश्यते, तन्न वचनं विवक्षाऽविनाभावि ततश्च कथं रागादिपूर्वकमेव तद्भवेदिति ? ॥ १२८५ ॥ ગાથાર્થ:-ઉત્તરપક્ષ:- સ્વપ્નાદિ (આદિપદથી નશા, મૂર્છાઆદિ) અવસ્થાઓમા વિવક્ષા વિના પણ બોલતા દેખાય છે. તથા વિચિત્ત-અન્યમનસ્ક આદમી ધડાદિ બોલવાનું હોય ત્યા પટાદિ અન્ય જ બોલતો દેખાય છે. આમ વચન વિવક્ષા વિના પણ સભવતું હોવાથી વચનને વિવક્ષાસાથે અવિનાભાવ નથી. તેથી વચન રાગાદિપૂર્વક જ હોય તેવું કેવી રીતે હોય? ૫૧૨૮૫ા अत्र परस्याभिप्रायमाह અહીં પૂર્વપક્ષનો અભિપ્રાય વ્યક્ત કરે છે– तत्थवि य अत्थि सुहुमा अवंतराले य कज्जगम्मत् । दिट्ठपरिच्चाएणं अदिट्ठपरिकप्पणा एसा ॥१२८६॥ (तत्रापि चास्ति सूक्ष्माऽपान्तराले च कार्यगम्येति । दृष्टपरित्यागेनादृष्टपरिकल्पना एषा ।) तत्रापि च - स्वापाद्यवस्थासु विगतचित्तायां चापि अन्तरालेऽस्ति काचन सूक्ष्मा विवक्षा । किमत्र प्रमाणमिति चेत् ? आह-कार्यगम्या वचनलक्षणकार्यानुमानमत्र प्रमाणमिति भावः । न हि वचनस्य विवक्षामन्तरेणान्यत् कारणमस्ति, तत्कथं तामन्तरेणापि तद्भवेदिति । अत्राह - 'दिट्ठेत्यादि' यदि हि तदानीमपि सा विवक्षा भवेत्ततस्तस्याः स्वसंविदितस्वभावत्वात्तदानीमप्यनुभवो भवेत्, यथा तास्वेव स्वापाद्यवस्थासु कदाचिद्विवक्षापूर्वोक्तौ । तथा च दृश्यन्ते केचित्प्रबुद्धावस्थायां वक्तारो→ ‘यथा - ' इत्थमित्थं निशि स्वप्ने तेन सह तं तं तदभिप्रायमनुसृत्य जल्पितमिति' । अन्यैरपि उक्तम्- “न चेमाः कल्पना अप्रतिसंविदिता एवोदयन्ते व्ययन्ते वा येन सत्योऽपि अनुपलक्षिताः स्युरिति” । तस्मात्स्वसंवेदनप्रमाणदृष्टः स्वापाद्यवस्थासु कदाचिद्विवक्षाविरहः । यदप्युक्तम् - कार्यगम्येति तदप्यसमीचीनं, विवक्षाकार्यत्वेनैव वचनस्या +++ of *****धर्मसंबल-लाग २ - 301*************** Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર ન * * प्रसिद्धेस्तथाविधात्मप्रयत्न भाषाद्रव्यमात्रहेतुकत्वात् । ततो दृष्टस्य - अनुभूतस्य विवक्षाविरहस्य परित्यागेनादृष्टस्यविवक्षासद्भावस्य परिकल्पना एषा - पूर्वोक्ता, सा च निबिडजडि मावष्टब्धान्तःकरणतासूचिका । आह च “કૃષ્ટમથ विधूयान्यदृष्टं कल्पयन्ति ये । मूढाः पिण्डं परित्यज्य, ते लिहन्ति करं वृथा ॥” इति ॥१२८६॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- સ્વપ્નાદિ અવસ્થાઓમાં તથા વિચિત્તાવસ્થામાં પણ અન્તરાલમાં કાંક સૂક્ષ્મવિવક્ષા ધરબાયેલી હોય છે. ‘અહીં શું પ્રમાણ છે?” એવી શંકા ન કરવી, કેમકે વચનરૂપ કાર્યથી જ આ વિવક્ષા ગમ્ય છે” એમ કાર્યાનુમાન અહીં પ્રમાણ છે. વચનનું વિવક્ષાને છોડી અન્ય કોઇ કારણ સંભવતુ નથી, તેથી વિવક્ષા વિના પણ વચન હોય, તે કેવી રીતે સંભવે? ઉત્તરપક્ષ:– જો, સ્વપ્નાદિકાલે પણ એ વિવક્ષા હોય, તો તેનો (વિવક્ષાનો) સ્વસંવિદિતસ્વભાવ હોવાથી અવશ્ય તે કાલે (=સ્વપ્નાદિકાલે ) અનુભવ થવો જોઇએ, જેમકે એ જ સ્વપ્નાદિઅવસ્થાઓમા વિવક્ષાપૂર્વક બોલાયેલા વચનનો અનુભવ હોય છે. તેથી જ દેખાય છે કે કેટલાક જાગૃતઅવસ્થામાં કહેતા હોય છે કે રાત્રે સ્વપ્નમા મેં અમુક-તમુકસાથે તે-તે અભિપ્રાયને અનુસારે આવી આવી વાત કરી.' બીજાઓ પણ કહે છે—આ કલ્પનાઓ કંઇ પ્રતિસંવિદિત થયા વિના જ ઉદય પામતી કે વિલય પામતી નથી કે જેથી તેઓ (=કલ્પનાઓ) હોવા છતાં ઉપલક્ષિત ન થાય...(અર્થાત્ કલ્પનાઓ સંવિદિત હોવાથી ઉદ્ભવ પામે તો ઉપલક્ષિત થાય છે.) આમ સ્વપ્નાદિઅવસ્થાઓમાં પણ વિવક્ષાપૂર્વક જ કંઇ બોલાય.તે અવશ્ય સંવેદન-અનુભવમાં આવે જ. તેથી જ સ્વપ્નવગેરેઅવસ્થાઓમાં કોઇકવાર વચનો વિવક્ષા વિનાના પણ હોય છે, તેમ સ્વસંવેદનરૂપ અનુભવપ્રમાણ થી સિદ્ધ થાય છે. તથા વિવક્ષા કાર્યગમ્ય છે.' એવું કથન પણ બરાબર નથી, કેમકે વચન વિવક્ષાના કાર્યરૂપે અપ્રસિદ્ધ છે, કેમકે વચનના કારણો તો તેવા પ્રકારના આત્મપ્રયત્ન અને ભાષાદ્રવ્ય આ બે જ છે. તેથી સ્વપ્નાદિમા વિવક્ષાના અભાવરૂપ દૃષ્ટનો ત્યાગ કરી વિવક્ષાની હાજરીરૂપ અદૃષ્ટની પૂર્વોક્ત પરિકલ્પના અત્યંત જડતાથી અક્કડ થયેલા અંત:કરણની સૂચિકા છે. કહ્યું જ છે કે દૃષ્ટઅર્થને છોડી જેઓ અદૃષ્ટાર્થની કલ્પના કરે છે. તે પિંડને (=ખાવાની ચીજને)છોડી ફોગટના હાથ ચાટે છે.” ૧૨૮૬ા જ્ઞાનપૂર્વકની વિક્ષા નિર્દોષ अभ्युपगम्यापि भगवति विवक्षां दोषाभावमाह ભગવાનમા વિવક્ષાનો સ્વીકાર કરવામા પણ દોષાભાવ બતાવે છે. ण य परिसुद्धा एसा रागोऽवि वदंति समयसारण्णू । विहिताणुद्वाणपरस्स जह तु सज्झायझाणेसु ॥ १२८७ ॥ (न च परिशुद्धा एषा रागोऽपि वदन्ति समयसारज्ञाः । विहितानुष्ठानपरस्य यथा तु स्वाध्यायध्यानेषु ॥ न चाप्येषा-विवक्षा परिशुद्धा सती रागः, अपि भिन्नक्रमः स च यथास्थानं योजित इति वदन्ति समयसारज्ञाःसिद्धान्तोपनिषत्परिज्ञानकुशलाः, यथा विहितानुष्ठानपरस्य स्वाध्यायध्यानेषु वर्त्तमानस्य साधोः, तस्माद्भवन्त्यपि भगवति विवक्षा न दोषाय, परिशुद्धस्वरूपायास्तस्या रागत्वायोगात् ॥१२८७॥ ગાથાર્થ:- (‘અપિ’પદ ન ચ' પદને સંબદ્ધ છે.) સિદ્ધાન્તના રહસ્યના પરિજ્ઞાનમાં કુશળ પ્રાજ્ઞો વિશુદ્ધ વિવક્ષા રાગરૂપ નથી' એમ કહે છે. અહીં દૃષ્ટાન્ત આ છે→ સ્વાધ્યાય-ધ્યાનમા રહેલા અને વિહિતાનુષ્ઠાનમાં તત્પર સાધુની (ઉપદેશાદિવખતે ) વિવક્ષા રાગરહિત હોય છે. તેથી ભગવાનમાં સંભવતી પણ વિવક્ષા પરિશુદ્ધ હોવાથી રાગરૂપ ન હોવા થી દોષરૂપ નથી. ૫૧૨૮ગા अपि च - વળી, मणपुव्विगा विवक्खा णय केवलिणो मणस्सऽभावातो । अवि णाणपुव्विग च्चिय चेट्ठा सा होइ णायव्वा ॥ १२८८॥ (मनःपूर्विका विवक्षा न च केवलिनो मनसोऽभावात् । अपि ज्ञानपूर्विकैव चेष्टा सा भवति ज्ञातव्या ॥) न च केवलिनः–सर्वज्ञस्य मनःपूर्विका भावमनःकारणिका विवक्षा, कुत इत्याह- मनसोऽभावात् - भावमनसोऽभावात् अपि तु ज्ञानपूर्विकैव- केवलज्ञानपूर्विकैव । ततः सा - विवक्षा चेष्टा- आत्मपरिस्पन्दरूपा भवति ज्ञातव्या, न त्विच्छा, मनसा हि पर्यालोचनमिच्छा लोकेऽभिधीयते इति ॥१२८८ ॥ ***** આ ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 302 + + + + Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिद्विार +++++++++++++++++ ગાથાર્થ:- કેવળજ્ઞાનીને ભાવમનથી જન્ય વિવેક્ષા હોતી નથી. કેમકે ભાવમનનો અભાવ હોય છે. પરંતુ કેવળજ્ઞાનપૂર્વક જ વિવેક્ષા હોય છે. તેથી તે વિવક્ષા આત્મપરિસ્પાત્મક ચેષ્ટારૂપ જ ય છે, ઇચ્છારૂપ નહીં; કેમકે મનથી થતી વિચારણાને જ લોકો ઇચ્છા કહે છે, નહીં કે ઉપરોક્ત આત્મપરિસ્પન્દાત્મક ચેષ્ટાને. ૧૨૮૮ एत्तो च्चिय सा सततं ण पवत्तति तह य संगतत्थाऽवि । पत्तम्मि अवंझफला परिमियरूवा य सा होति ॥१२८९॥ (अत एव सा सततं न प्रवर्तते तथा च संगतार्थाऽपि । पात्रेऽवन्ध्यफला परिमितरूपा च सा भवति ॥) यत एव भगवतः केवलज्ञानपूर्विका विवक्षा अत एव न सा सततम्-अनवरतं प्रवर्तते, तथा संगतार्थापि-युक्त्युपपन्नाभिधेयार्थापि, सततं पात्रे च-देशनायोग्येऽवन्ध्यफला-न बीजाधानादिफलविकला, तथा परिमितरूपा च पुरुषापेक्षया सा भवति, तथाहि-भगवान् सर्वज्ञो भगवतो गणधरान् सकलप्रज्ञातिशयनिधानभूतानाश्रित्य "उप्पन्ने इति वे (0इ वेत्या0) त्यादि" पदत्रयीमेवोपदिशति, तेषां तावन्मात्रेणैव विवक्षितार्थावगमसिद्धेः, अन्येषां तु यथायोग्यं तां प्रपञ्चेन, न तु योग्यतातिरिक्तं किमपि भाषत इति ॥१२८९॥ थार्थ:- मावाननी विquqानपूर्व डोपाधी ०४ (१)(११) सतत प्रवती नथी. (२)तथा युनिया સંગત વાચ્યાર્થવાળી છે તથા (૩) દેશનાયોગ્ય જીવમાં બીજાધાનાદિફળ વિનાની લેતી નથી તથા (૪) પુરુષની અપેક્ષાએ પરિમિતરૂપવાળી છે. તે આ પ્રમાણે સર્વજ્ઞભગવાન સકળપ્રજ્ઞાતિશયના નિધાનભૂત ગણધરોને આશ્રયી ‘ઉમ્પને ઈ વા' ઈત્યાદિરૂપ માત્ર ત્રિપદીનો જ ઉપદેશ આપે છે, કેમકે તેઓને એટલામાત્રથી વિવક્ષિતઅર્થનો બોધ થઇ જાય છે. બીજાઓને તે તેઓની યોગ્યતામુજબ વિસ્તારથી તે ત્રિપદીનો ઉપદેશ આપે છે, અને અયોગ્યને બિલકુલ ઉપદેશ આપતા નથી. ૧૨૮લા इदानी परमतं दूषयितुमन्यथा शङ्कमान आह - હવે પરમતને દૂષિત કરવા અન્યથા શંકા કરતાં કહે છે रागादिजोग्गताजण्णमह(महेत्थ) तु वयणं ण संगतमिदंपि । तज्जोग्गता ण अण्णं जणेति पुव्वावरविरोहो ॥१२९०॥ (रागादियोग्यताजन्यमथ तु वचनं न संगतमिदमपि । तद्योग्यता नान्यद् जनयति पूर्वापरविरोधः ॥) अथेत्थमाचक्षीथाः-वचनं रागादियोग्यताजन्यं, यतो रागादियोग्य एव पुरुषो लोके वक्ता दृश्यते इति । अत्राह-न संगतमिदमप्यनन्तरोक्तम् । कुत इत्याह-यस्मात्तद्योग्यता-रागादियोग्यता नान्यत्-रागादिलक्षणकार्यातिरेकेण कार्यान्तरं जनयति, यद्विषया हि या योग्यता सा तदेव कार्यं कर्तुमीष्टे न कार्यान्तरं, ततो मिथ्यात्वाकुलितचेतसः परस्य खल्वेष पूर्वापरविरोधः, तथाहि-यदि सा रागादियोग्यता तर्हि रागादिलक्षणमेव कार्यं जनयतु कथमन्यत् वचनलक्षणं कार्य जनयतीति ? ॥१२९० ॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વચન રાગાદિયોગ્યતાથી જન્ય છે, કેમકે રાગાદિયોગ્ય પુરુષ જ દુનિયામાં બોલતો દેખાય છે. ઉત્તરપક્ષ:- આ કથન પણ યોગ્ય નથી, કેમકે રાગાદિયોગ્યતા રાગાદિરૂપ કાર્યને છોડી અન્ય કાર્યને ઉત્પન્ન કરે નહીં. કેમકે જે વિષયક જે યોગ્યતા હેય તે યોગ્યતા તે જ વિષયક) કાર્ય કરવા સમર્થ છે, નહીં કે કાર્યાન્તર. તેથી મિથ્યાત્વથી પીડાયેલા પૂર્વપક્ષની વાત પૂર્વાપરવિરોધવાળી છે. તે આ પ્રમાણે, જે તે રાગાદિયોગ્યતા હોય, તો તે રાગાદિરૂપ જ કાર્ય ઉત્પન્ન કરે, રાગાદિથી ભિન્ન વચનાત્મક કાર્ય કેવી રીતે કરી શકે? ૧૨૯ળા ભગવાન તીર્થંકરનામકર્મોદયથી વક્તા ननु यदि स भगवान् वीतरागः सर्वज्ञश्च ततस्तस्यैकान्तेन कृतकृत्यतया प्रयोजनाभावात्तद्वत्तया प्रेक्षावतां व्याप्तो व्याहारो न युक्तो, व्याहरन्ति(ति) चेदवश्यं प्रयोजनापेक्षा, सा च राग इति कथं व्याहारान्न रागादिमत्त्वानुमानमित्यत आह - પુર્વપક્ષ:- જો તે ભગવાન વીતરાગ અને સર્વજ્ઞ હોય, તો એકાન્ત કૃતકૃત્ય છે. તેથી તેમને બોલવા માટે કોઈ પ્રયોજન નથી. પ્રેક્ષાવાન પુરુષ પ્રયોજનપૂર્વક જ બોલે. તેથી ભગવાન બોલે-ઉપદેશ આપે તે યોગ્ય નથી. જો ઉપદેશ આપે તો જરુર કો ક પ્રયોજનની અપેક્ષા છે. આ અપેક્ષા રાગરૂપ છે. તેથી ‘ઉપદેશ દેતા હોવાથી તે (ભગવાન) રાગાદિમાન છે. એવું અનુમાન કેમ ન થાય? અહીં ઉત્તર આપતા કહે છે+ + + + + + + + + + + + + + + + A-12 - 303 + + + + + + + + + + + + + + + Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વત્રસિદ્ધિ દ્વાર જ * * * * * * * * * * * * * * जंपति य वीयरागो य भवोवग्गाहिकम्मुणो उदया । तेणेव पगारेणं वेदिजति जं तयं कम्मं ॥१२९१॥ (जल्पति च वीतरागश्च भवोपग्राहिकर्मण उदयात् । तेनैव प्रकारेण वेद्यते यत्तकत् कर्म ) जल्पति च वीतरागोऽपि सन् भगवान् भवोपग्राहिकर्मणः-तीर्थकरनामसंज्ञितस्योदयात्, यत्-यस्मात्तकत्भवोपग्राहि कर्म तेनैवाग्लान्या यथावस्थितवस्तुदेशनालक्षणेन प्रकारेण वेद्यते-अनुभूयानुभूय क्षयं नीयते, यदुक्तमा- "तं च कहं वेइज्जइ अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" (छा. तच्च कथं वेद्यते? अग्लान्यिा धर्मदेशनादिभिरिति) ति । ततो भवोपग्राहिकानुगततया कृतकृत्यताऽभावात्तत्क्षयार्थं शुद्धदेशनाप्रवृत्तिरविरुद्धेति । स्यादेतद्, न रागादिकार्यत्वाद्वचनाद्रागादिमत्त्वानुमानमपि तु वक्तर्यात्मनि रागादेवक्तृत्वसहचारिणो दर्शनादन्यत्रापि वक्तृत्वोपलम्भात्सहचारिणो रागादेरनुमानमिति, यद्येवं तर्हि आत्मनि गौरत्वसहचरितस्य वक्तृत्वस्य दर्शनादन्यत्रापि कृष्णादौ वक्तरि गौरत्वमनुमातव्यम्। अथ न येन केनचित्सह स्वात्मनि दृष्टं वक्तृत्वं तस्य सर्वस्यापि गमकं, किंतु यस्मिन् सहचारिणि दृष्टे धर्मे व्यतिरिच्यमाने वक्तृत्वमपि व्यतिरिच्यते तस्यैव गमकम्, गौरत्वे च पुरुषान्तराद्व्यतिरिच्यमाने न वचनं व्यतिरिच्यते ततो न तस्यानुमानमिति, यद्येवं तर्हि यथा कृष्णादौ वक्तरि वृत्तिदर्शनाद्वचनस्य गौरत्वव्यतिरेकेऽभावासिद्धिस्तथा रागादिरहितेऽपि जिने विरोधाभावतो वचनस्य वृत्तिसंदेहाद्रागादिमत्त्वव्यतिरेके तस्याभावासिद्धिस्तुल्या, यदाह धर्मकीर्तिः- "तुल्यावृत्तितत्संदेहाभ्यामभावासिद्धिरिति” । तदेवं विपक्षेऽपि पुरुषत्ववक्तृत्वयोवृत्तिसंदेहात् पुरुषादित्वादित्ययं हेतुरनैकान्तिक इति ॥१२९१ ॥ ગાથાર્થ – ઉત્તરપલ:- ભગવાન વીતરાગ હોવા છતાં તીર્થંકરનામકર્મનામના ભવોપગ્રાહી (=સંસારોપકારક) કર્મના ઉદયથી ઉપદેશ આપે છે. કેમકે તે ભવોપગ્રાહી કર્મને આ પ્રકારે ગ્લાન થયા વિના યથાવસ્થિતવસ્તુદર્શક ઉપદેશ દેવારૂપ પ્રયત્નથી અનુભવી અનુભવી ક્ષીણ કરે છે. આગમમાં કહ્યું જ છે કે “તે (તીર્થકરનામકર્મ) કેવી રીતે વેદાય છે? (=અનુભવીને ક્ષય કરાય છે?) (ઉત્તર:-) અગ્લાન ધર્મદેશનાથી” આમ ભગવાન ભવોપગાહી કર્મથી યુક્ત હોવાથી પૂર્ણતયા કૃતકૃત્ય નથી. તેથી એ કર્મના ક્ષયમાટે થતી શુદ્ધદેશનાપ્રવૃત્તિ વિદ્ધરૂપ નથી. પૂર્વપક્ષ:- વચન રાગાદિનું કાર્ય હોવાથી વચનથી રાગાદિમત્તાનું અનુમાન કરાતું નથી. પરંતુ વક્તા પોતાના આત્મામાં વકતૃત્વના સહચારી રાગાદિના દર્શનથી અન્યત્ર પણ વકતૃત્વ જોઈ સહચારી રાગાદિનું અનુમાન કરે છે. આમ આપણામાં રાગાદિસહકૃતવકતૃત્વ જોઈને ભગવાનમાં પણ તેવું અનુમાન થઈ શકે. ઉત્તરપક્ષ:- આમ તો વક્તાએ પોતાનામાં ગૌરવને સહચારી વકતત્વના દર્શનથી અન્યત્ર કાળાવગેરે વક્તામાં પણ ગૌરવનું અનુમાન કરવું જોઇએ. પૂર્વપક્ષ:- પોતાના આત્મામાં જે-તે સાથે જોયેલું વકતૃત્વ કંઈ તે બધાનું ગમક (અન્યત્ર વક્તામાં પણ નિશ્ચાયક) બને તેમ નથી. પરંતુ જે સહચારિભૂત જોયેલા ધર્મના અભાવમાં વકતૃત્વનો પણ અભાવ મળતો હોય, તે જ ધર્મનું નિશ્ચાયક એ વકતૃત્વ બને. અન્ય પુરુષમાં ગૌરવના અભાવમાં પણ વકતૃત્વનો (=વચનનો) અભાવ નથી, તેથી વકતૃત્વ ગૌરત્વનો નિરચાયક=અનુમાપક નથી. ઉત્તરપt:- આમ કાળાવક્તામાં વચનની વૃત્તિ (રહાજરી) દેખાય છે, તેથી ગૌરવના અભાવમાં વકતૃત્વના અભાવની અસિદ્ધિ છે (અર્થાત ગૌરવના અભાવમાં વકતૃત્વ પણ ન હોય' એમ કહી ન શકાય) તે જ પ્રમાણે રાગાદિરહિત એવા પણ જિનમાં વિરોધાભાવના કારણે (વચનને રાગાદિના અભાવ સાથે વિરોધ ન હોવાથી) વચનની વૃત્તિનો સંદેહ (વચનની વૃત્તિ એ સાધ્યમાન હોવાથી સંદેહ પદ પ્રયુક્ત છે.) હોઈ રાગાદિમત્તાના અભાવમાં વચનના અભાવની અસિદ્ધિ તુલ્યરૂપે છે. (અર્થાત “રાગાદિના અભાવમાં વચન હોય કે ન હોય એવી સંદેહાવસ્થામાં “રાગાદિના અભાવમાં વચન ન હોય' એમ કહી ન શકાય.)ધર્મકીર્તિએ કહ્યું છે “તુલ્યાવૃત્તિ-તત્સદેહ આ બેથી અભાવાસિદ્ધિ છે (બે ધર્મો વચ્ચે તુલ્યવૃત્તિ ન હોય, અર્થાત એકના અભાવમાં પણ બીજો ધર્મ રહેતો હોય તો અથવા રહેતો હોવાનો સંદેહ હોય તો એકના અભાવમાત્રથી બીજાના અભાવની સિદ્ધિ ન થાય.) આમ રાગરહિત-વીતરાગરૂપે વિપક્ષમાં પણ પુરુષત્વ-વકતૃત્વની વૃત્તિ હોવાનો સંદેહ છે, તેથી પુરુષ'આદિ હેત સંશય હેત લેવાથી અનેકાન્તિક સમજવો. (જેમાં સાધ્ય નિશ્ચિત હોય, તે સપક્ષ અને જેમાં સાધ્યનો અભાવ નિશ્ચિત હોય, તે વિપક્ષ. અનુમાનનો હેતુ સપક્ષ-વિપક્ષ બંનેમાં રહેતો હોય, તો હેતુમાં “સાધારણાનેકાન્સિક દોષ આવે. પુરુષત્વ હેતુ રાગાદિમાન્ દેવદત્તાદિ સપક્ષમાં અને રાગાભાવવાન જિનાદિ વિપક્ષમાં રહેતો સંભવતો હોવાથી આ દોષયુક્ત છે.) ૧૧૯૧ * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ -ભાગ ૨ - 304 * * * * * * * * * * * * * * * Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++ एतदेवोपसंहरन्नाह આ જ અર્થનો ઉપસંહાર કરતા કહે છે– + + + सर्वसिद्धि द्वार ++ संदिद्धा य विवक्खा वावित्तीमस्स हेतुणो जम्हा । तम्हा संसयहेतू एसो खलु होइ णायव्वो ॥१२९२॥ (संदिग्धा च विपक्षाद् व्यावृत्तिरस्य हेतो र्यस्मात् । तस्मात् संशयहेतुरेष खलु भवति ज्ञातव्यः ॥ ) यस्मादुक्तप्रकारेण पुरुषत्वादिलक्षणस्य हेतोर्विपक्षात् - सर्वज्ञत्वलक्षणात्संदिग्धा व्यावृत्तिस्तस्मादेष - पुरुषत्वादिलक्षणः संशयहेतुरनैकान्तिको भवति ज्ञातव्यः ॥ १२९२ ॥ ગાથાર્થ:- ઉપરોક્ત બતાવ્યું તેમ, પુરુષત્વાદિરૂપ હેતુની સર્વજ્ઞરૂપ વિપક્ષમાંથી વ્યાવૃત્તિ સંદિગ્ધ છે. તેથી આ પુરુષત્વાદિ હેતુ સંશયહેતુ બનવાથી અનેકાંતિક છે. ૫૧૨૯૨૨ા सिय तस्सेवाभावा ततो णिवित्ती ण णिच्छितो सोऽवि । तप्पडिसेहगमाणाभावा जं सो ण सिद्धो त्ति ॥१२९३ ॥ (स्यात् तस्यैवाभावात् ततो निवृत्ति र्न निश्चितः सोऽपि । तत्प्रतिषेधकमानाभावाद् यत् स न सिद्ध इति II) स्यादेतत् तस्यैव - सर्वज्ञत्वलक्षणस्य विपक्षस्याभावात्ततो- विपक्षात्सकाशाद्धेतोर्निवृत्तिरिति नानैकान्तिक । अत्राह - 'नेत्यादि' न निश्चितः सोऽपि सर्वज्ञत्वलक्षणविपक्षाभावोऽपि । कुत इत्याह- ' तत्प्रतिषेधकप्रमाणाभावात्' सर्वज्ञप्रतिषेधकप्रमाणाभावात् यत् - यस्मात्सर्वज्ञाभावो न सिद्ध इति ॥१२९३॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- સર્વજ્ઞતારૂપ વિપક્ષનો જ અભાવ છે તેથી તે વિપક્ષમાંથી હેતુની નિવૃત્તિ છે જ. તેથી અનૈકાંતિકતા घोष नथी. ઉત્તરપક્ષ:– સર્વજ્ઞતારૂપ વિપક્ષનો અભાવ પણ નિશ્ચિત થયો નથી, કેમકે સર્વજ્ઞપ્રતષેધક પ્રમાણનો અભાવ હોવાથી સર્વજ્ઞાભાવ સિદ્ધ નથી. ૫૧૨૯૩ા સર્વજ્ઞપ્રતિષેધક પ્રમાણાભાવ तत्प्रतिषेधकप्रमाणाभावमेवाह સર્વજ્ઞપ્રતિષેધક પ્રમાણનો અભાવ બતાવે છે– +++ पच्चक्खणिवित्तीए तस्साभावो ण गम्मती चेव । जं सोवलद्धिलक्खणपत्तो नो होइ तुम्हाणं ॥१२९४॥ (प्रत्यक्षनिवृत्त्या तस्याभावो न गम्यत एव । यत् स उपलब्धिलक्षणप्राप्तो न भवति युष्माकम् II) प्रत्यक्षनिवृत्त्या तद्विषयं प्रत्यक्षमिन्द्रियजं न प्रवृत्तमितिकृत्वा तस्य - सर्वज्ञस्याभावो न गम्यते एव, यस्मात्सर्वज्ञो न भवति युष्माकमुपलब्धिलक्षणप्राप्तः, सर्वथा तस्यानभ्युपगमात्, न चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तानां प्रत्यक्षनिवृत्त्या अभावः शक्य आपादयितुं, धर्मादीनामप्येवमभावापत्तेः । अपिच, सर्वदर्शिनो हि प्रत्यक्षं व्यावृत्तं देशादिविप्रकृष्टानामप्यभावं साधयति, तस्य सकलवस्तुविषयत्वात् ॥१२९४॥ ગાથાર્થ:- ઇન્દ્રિયજન્મપ્રત્યક્ષ સર્વજ્ઞના વિષયમાં પ્રવૃત્ત થતું નથી. આમ ઐન્દ્રિયકપ્રત્યક્ષની નિવૃત્તિમાત્રથી સર્વજ્ઞના અભાવનો નિર્ણય થઇ ન શકે, કેમકે તમારા મતે સર્વજ્ઞનો સર્વથા અસ્વીકાર હોવાથી સર્વજ્ઞ ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત નથી. અને જે ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત ન હોય, તેના અભાવનો નિર્ણય માત્ર પ્રત્યક્ષની નિવૃત્તિથી થઇ ન શકે. કેમકે એમ તો ધર્માદિના પણ અભાવની આપત્તિ આવે. વળી, સર્વદર્શીનુ પ્રત્યક્ષ જ દેશ-કાલાદિથી દૂરતમ રહેલી વસ્તુથી વ્યાવૃત્ત થવાદ્વારા તેના અભાવનો નિર્ણય કરી શકે, કેમકે એ પ્રત્યક્ષ જ સર્વ વસ્તુવિષયક છે. (ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત:- જો હોય, તો દેખાવુ જોઇએ' એવા નિયમને અનુસરનારું. જેનો સર્વથા અભાવ જ ઇષ્ટ હોય, તે ઉપલબ્ધિલક્ષણપ્રાપ્ત નથી. સર્વજ્ઞનું પ્રત્યક્ષ સર્વદેશકાલવ્યાપી સર્વવસ્તુને જોઇ શકતું હોવાથી એવા પ્રત્યક્ષમાં જે ન દેખાય, તેના જ સર્વથા અભાવનો નિર્ણય તે જ સાર્વજ્ઞપ્રત્યક્ષ જ કરી શકે. અન્યનો અન્યનું પ્રત્યક્ષ નહીં)૫૧૨૯૪૫ णय सव्वविसयसिद्धं पच्चक्खं तस्स अब्भुवगमे य । सिद्धो च्चिय सव्वण्णू पडिसेहो कह णु एतस्स ? ॥१२९५ ॥ (न च सर्वविषयसिद्धं प्रत्यक्षं तस्याभ्युपगमे च । सिद्ध एव सर्वज्ञः प्रतिषेधः कथं नु एतस्य ॥) + + + + धर्मसंग्रह लि-लाग - 305*** Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++स सिलवार ++++++++++++++++2 न च तत्सर्वविषयं प्रत्यक्षं युष्माकमिष्टम, अनभ्युपगमात्, अभ्युपगमे च तस्य-सर्वविषयस्य प्रत्यक्षस्य ननु सिद्ध एव सर्वज्ञः, तद्वतः सर्वज्ञत्वात् । ततः कथं नु तस्य सर्वज्ञ(स्य) प्रतिषेधः? ॥१२९५॥ ગાથાર્થ:- વળી, તમને આ પ્રત્યક્ષ સર્વવસ્તુવિષયકતરીકે ઇષ્ટ નથી, કેમકે તમારો એવો સિદ્ધાન્ત નથી. અને જો તમે પ્રત્યક્ષને સર્વવસ્તુવિષયકતરીકે સ્વીકારશો, તો સર્વજ્ઞ સિદ્ધ જ થાય છે. કેમકે સર્વવસ્તુવિષયક પ્રત્યક્ષવાળો પુરુષ સર્વજ્ઞ જ હોય. તેથી સર્વજ્ઞનો પ્રતિષેધ કરવો યોગ્ય નથી. ૧૨૯પા अनुमानमधिकृत्याह - અનુમાનને ઉદ્દેશી બતાવી રહ્યા છે अणुमाणेणवि तदभावणिच्छओ णेव तीरती काउं । तप्पडिबद्धं लिंगं जं णो पच्चक्खसंसिद्धं ॥१२९६॥ (अनुमानेनापि तदभावनिश्चयो नैव शक्यते कर्तुम् । तत्प्रतिबद्धं लिंग यन्न प्रत्यक्षसंसिद्धम् ॥) अनुमानेनापि प्रमाणेन तदभावनिश्चयः-सर्वज्ञाभावनिश्चयो नैव कर्तुं शक्यते, कुत इत्याह - तत्प्रतिबद्धं- सर्वज्ञाभावप्रतिबद्धं लिङ्ग यत्-यस्मान प्रत्यक्षसंसिद्धम्, तथाहि-सर्वत्र सर्वदा च सर्वज्ञाभावस्य प्रत्यक्षतो निश्चयाभावे कथं तदविनाभावि लिङ्गं प्रत्यक्षतो निश्चेतुं शक्यत इति ? अनुमानेन तु तदविनाभाविलिङ्गनिश्चयाभ्युपगमेऽनवस्थाप्रसक्तिः, तस्यापि लिङ्गबलेन प्रवृत्तेर्लिङ्गस्य च विवक्षितसाध्येन सह प्रतिबद्धस्यान्यतोऽनुमानान्निश्चेतव्यत्वात्, तस्यापि चान्यस्यानुमानस्यैवमेव प्रवृत्तिरिति ॥१२९६॥ ગાથાર્થ – અનુમાનપ્રમાણથી પણ સર્વજ્ઞના અભાવનો નિશ્ચય કરવો શક્ય નથી, કેમકે સર્વજ્ઞના અભાવ સાથે પ્રતિબદ્ધ કોઇ લિંગ પ્રત્યક્ષસિદ્ધ નથી. જુઓ સર્વત્ર અને સર્વદા સર્વજ્ઞાભાવનો પ્રત્યક્ષથી નિચય ન હોય, તો સર્વજ્ઞાભાવને અવિનાભાવી (=સર્વજ્ઞાભાવ વિના અસંભવિત) લિંગનો પ્રત્યક્ષથી નિર્ણય કેવી રીતે શક્ય બને? જો અનુમાનથી એ અવિનાભાવી લિંગનો નિર્ણય સ્વીકારો તો અનવસ્થાદોષની આપત્તિ છે. કેમકે એ અનુમાન પણ લિંગના બળથી જ પ્રવૃત્ત થાય, અને એ અનુમાનના વિવલિત સાધ્ય સાથે પ્રતિબદ્ધ અન્યલિંગનો નિર્ણય પણ અનુમાનથી કરવો પડે. વળી પાછા એ અનુમાનના લિંગના નિર્ણયમાટે ફરી પાછું અનુમાન... એમ ચક્કર ચાલ્યા જ કરે. ૧૨૯૬ઘા गम्मति ण यागमातो तदभावो जं तओ ण तव्विसओ । विहिपडिसेधपहाणो कज्जाकज्जेसु सो इट्ठो ॥१२९७॥ (गम्यते न चागमात्तदभावोयत्सको न तद्विषयः । विधिप्रतिषेधप्रधानः कार्याकार्येषु स इष्टः ॥) गम्यते न चागमात्सकाशात्तदभावः-सर्वज्ञाभावो, यद्-यस्मात् 'तओत्ति' सक आगमो न तद्विषयो-न वस्तुभावाभावनीतिविषयः । कत इत्याह-कार्याकार्येषु-कर्त्तव्याकर्तव्येषु यतो विधिप्रतिषेधप्रधानः सः-आगम इष्ट इति ॥१२९७॥ ગાથાર્થ:- આગમથી પણ સર્વજ્ઞાભાવનો નિર્ણય ન થઈ શકે, કેમકે વસ્તુના ભાવાભાવનો નિર્ણય આગમના વિષયરૂપ નથી. કેમકે કાર્યાકાર્યઅંગે વિધાન-નિષેધપ્રધાનરૂપે જ (વિધિ-નિષેધદર્શકરૂપે જ) આગમ ઈષ્ટ છે. ૧૨૯૭ उवमाणेणऽवि तदभावनिच्छओ णेव तीरती काउं । तस्सरिसगम्मि दिढे अण्णम्मि पवत्तइ तयंपि ॥१२९८॥ (उपमानेनापि तदभावनिश्चयो नैव शक्यते कर्तुम् । तत्सदृशे दृष्टेऽन्यस्मिन् प्रवर्तते तकदपि ॥) उपमानेनापि तदभावनिश्चयः-सर्वज्ञाभावनिश्चयो नैव कर्तुं शक्यते, कुत इत्याह - यस्मात्तत्सदृशे-विवक्षितपरिदृष्टपदार्थसदृशेऽन्यस्मिन् दृष्टे सति तकत्-उपमानं विवक्षितपूर्वदृष्ट पदार्थसादृश्यविषये प्रवर्तते । इदमुक्तं भवति प्रत्यक्षपरिदृष्ट एव सादृश्यविशिष्टे वस्तुनि तदुपमानं प्रमाणमिष्यते, न च तदभावः प्रत्यक्षसिद्धो, नापि सादृश्यविशिष्टः, सादृश्यस्य वस्तुधर्मत्वादिति ॥१२९८॥ ગાથાર્થ:- ઉપમાનથી પણ સર્વજ્ઞાભાવનો નિશ્ચય કરવો શક્ય નથી, કેમકે વિવક્ષિત જોયેલા પદાર્થને સમાન અન્ય વસ્તુ જોવાય છતે વિવક્ષિત પૂર્વદેટ વસ્તની તે અન્ય વસ્તમાં રહેલી સદેશતાઅંગે ઉપમાન પ્રવૃત્ત થાય છે. તાત્પર્ય:- સદેશતાથી વિશિષ્ટ એવી પ્રત્યક્ષદષ્ટ વસ્તુમાં જ ઉપમાન પ્રમાણ ઇષ્ટ છે. (પૂર્વે જોયેલી વસ્તુની સદેશતા ++++++++++++++++ u e-un -306+++++++++++++++ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिविga+++++++++++++++++ વર્તમાનદષ્ટ વસ્તુમાં જઇને ઉપમાનપ્રમાણ નિર્ણય અંગે પ્રવૃત્તિ કરે) પણ સર્વજ્ઞાભાવ પ્રત્યક્ષસિદ્ધ નથી, તેમ જ સર્વજ્ઞાભાવમાં સદેશના ધર્મ સંભવે પણ નહીં, કેમકે સદેશના વસ્તનો-ભાવનો ધર્મ છે, અભાવનો નહીં. ૧૨૯ अर्थापत्तिमङ्गीकृत्याह - હવે અર્થપત્તિનો અંગીકાર કરી કહે છે दिट्ठो सुओ व अत्थो णहि तदभावं विणा न संभवति । अत्थावत्तीऽवि तओ ण गाहिगा होइ एतस्स ॥१२९९॥ (दृष्टः श्रुतो वार्थो नहि तदभाव विना न संभवति । अर्थापत्तिरपि ततो न ग्राहिका भवति एतस्य ॥ दृष्टः श्रुतो वाऽर्थो यदन्तरेण नोपपद्यते यथा-काष्ठस्य भस्मविकारोऽग्नेर्दहनशक्तिमन्तरेण सोऽर्थापत्तिविषयः, न चेह यस्मात् दृष्टः श्रुतो वाऽर्थस्तदभावं-सर्वज्ञाभावं विना न संभवति, अपि तु संभवत्येवेत्यर्थः । तस्मान्नैतस्य सर्वज्ञाभावस्यार्थापत्तिरपि ग्राहिकेति ॥१२९९॥ ગાથાર્થ:- જોયેલો અથવા સાંભળેલો અર્થ જેના વિના સુસંગત ન બને, તે અર્થપત્તિનો વિષય બને, જેમકે લાકડાની રાખ અગ્નિની દહનશક્તિ વિના ન સંભવે, તેથી અગ્નિની દહનશક્તિ અર્થપત્તિનો વિષય છે. પ્રસ્તુતમાં એવો કોઈ જોયેલો કે સાંભળેલો અર્થ દેખાતો નથી કે જે સર્વજ્ઞાભાવ વિના ન સંભવે, અર્થાત સર્વજ્ઞાભાવ વિના પણ બધા જ અર્થો સંભવે છે. તેથી અર્થપત્તિ પણ સર્વજ્ઞાભાવની ગ્રાહિકા નથી. ૧૨૯લા अभावपक्षमाह - અભાવપક્ષઅંગે કહે છે. जोऽविय पमाणपंचगणिवित्तिस्वो मतो अभावो त्ति । सोऽविय जं णिस्वक्खो ण गमति ता णिययणेयं तु ॥१३००॥ (योऽपि च प्रमाणपंचकनिवृत्तिरूपो मतोऽभाव इति । सोऽपि च यद् निरूपाख्यो न गच्छति तस्मान्निजकज्ञेयं तु ॥) योऽपि च प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिरूपो मतोऽभावः षष्ठप्रमाणाख्यः सोऽपि यत्-यस्मानि रुपाख्यः- सकलाख्योपाख्याविकलः 'ता' तस्मान्निजं ज्ञेयं न गच्छति-न परिच्छिनत्ति, परिच्छित्तिर्हि ज्ञानस्य धर्मो नाभावस्येति । स्यादेतत्, अभावपरिच्छेदकज्ञानजनकत्वमस्येष्यते न साक्षादभावपरिच्छेदकत्वं तेनोक्तदोषाभाव इति चेत् ? न, तज्जनकत्वस्यानुपपत्तेर्न चास्य तज्जननशक्तिरस्ति एकान्ततुच्छत्वात् अन्यथा तत्तुच्छत्वविरोधात् ॥१३००॥ ગાથાર્થ:- વળી, પ્રમાણપંચકની નિવૃત્તિરૂપ અને છઠ્ઠા પ્રમાણરૂપ જે અભાવ ઈષ્ટ છે, તે અભાવપ્રમાણ પણ સર્વ વિશેષણથી રહિત હોવાથી પોતાના જ્ઞયના પરિચ્છેદ-નિર્ણયમાં સમર્થ નથી, કેમકે પરિચ્છેદ જ્ઞાનનો ધર્મ છે, અભાવનો નહીં. પૂર્વપક્ષ:- અભાવપ્રમાણ અભાવનો નિર્ણય કરાવતાં જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરે છે, નહીં કે સ્વયં સાક્ષાત અભાવનો નિર્ણય કરે છે. તેથી કહેલો દોષ આવતો નથી. ઉત્તરપક્ષ:- અભાવપ્રમાણમાં જ્ઞાનજનકતા અનુ૫૫ન છે, કેમકે અભાવ એકાન્ત તથ્થરૂપ હોવાથી તેમાં જનનશક્તિ (=ઉત્પાદનશક્તિ) સંભવતી નથી. અને જનનશક્તિ માનવામાં તુચ્છતાસાથે વિરોધ આવે છે. ૧૩૦ત્રા अपि च, सोऽभावो ज्ञातः सन् अभावपरिच्छेदकं ज्ञानं जनयेन्नाज्ञातो, नहि धूमः स्वज्ञानमन्तरेणाग्निविषयं ज्ञानं जनयति। ततः किमित्याह - વળી, તે અભાવ જ્ઞાત થાય, તો જ અભાવનો નિર્ણય કરાવતા જ્ઞાનનું જનક બને, જ્ઞાત થયા વિના નહીં. જેમકે ધૂમાડો પોતાનું જ્ઞાન કરાવ્યા વિના અગ્નિનું જ્ઞાન કરાવતો નથી. તેથી ण य सो तीरइ णाउं अक्खं व ण यऽन्नहा कुणति कज्जं । सत्तिविरहा इमीवय(अ व) भावे सो कहमभावोत्ति ? ॥१३०१॥ (न च स शक्यते ज्ञातुमक्षमिव न चान्यथा करोति कार्यम् । शक्तिविरहादस्या वा भावे स कथमभाव इति ॥ . न च स:-प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिरूपस्तुच्छोऽभावो ज्ञातुं शक्यते, तस्य निरुपाख्यतया कर्मत्वशक्ति(क्त्य)योगात् । स्यादेतत, अज्ञात एव सन् सोऽभावः स्वकार्य करिष्यतीति, यथेन्द्रियमिति । तत्राह-'नेत्यादि' न चाक्षमिव-इन्द्रियमिव ++ + + + + + + + + + + + + + + like-MIR - 307 + + + + + + + + + + + + + + + Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * સર્વ સિદ્ધિ કાર * * * * * * * * * * * * * * * * अन्यथा-अज्ञात एव सन् कार्यम्-अभावपरिच्छेदकज्ञानलक्षणं करोति । किमित्याह - शक्तिविरहात्-एकान्ततुच्छतया कार्यजननशक्त्यभावात् । भावे वा अस्या:-कार्यजननशक्तेरिष्यमाणे सोऽभावः कथमभावो भवेत् ? नैव भवेदितिभावः, शक्तिसमावेशतो भावरूपतापत्तेः । अन्यच्च, अभावादभावपरिच्छेदकं ज्ञानं भवतीति । किमुक्तं भवति ? भावान्न भवतीति, प्रसज्यप्रतिषेधस्य निवृत्तिमात्रात्मकस्य क्रियाप्रतिषेधमात्रनिष्ठत्वात् । ततश्चैवं कारणप्रतिषेधतोऽभावपरिच्छेदकस्य ज्ञानस्य निर्हेतुकत्वाभ्युपगमापत्तितः सदा सत्त्वादिप्रसङ्ग इति यत्किंचिदेतत् ॥१३०१॥ ગાથાર્થ:- પ્રમાણપંચકની નિવૃત્તિરૂપ આ તુચ્છ અભાવ જ્ઞાત થવો શક્ય નથી, કેમકે તે નિરુપાખ્ય (વિશેષણન હોવાથી અવર્ણનીય) હોવાથી તેમાં કર્મત્વશક્તિ ઘટે નીં. (જ્ઞાનક્રિયાનું કર્મકારક બનવા સમર્થ નથી.) પૂર્વપક્ષ:- અભાવ ઇન્દ્રિયની જેમ અજ્ઞાત અવસ્થામાં જ સ્વકાર્ય કરશે. (ઇન્દ્રિય જ્ઞાનકાર્યમાં પ્રવૃત્ત થાય છે ત્યારે સ્વયં જ્ઞાત હોય તે જરુરી નથી.) ઉત્તરપક્ષ:- અભાવ ઇન્દ્રિયની જેમ અજ્ઞાતઅવસ્થામાં જ અભાવના નિર્ણાયકજ્ઞાનરૂપ કાર્ય કરી ન શકે, કેમકે સ્વયં એકાન્ત તુચ્છ હોવાથી કાર્યોત્પાદકશક્તિથી રહિત છે. અને તેનામાં કાર્યોત્પાદકશક્તિ માનવામાં શક્તિનો સમાવેશના કારણે ભાવરૂ૫ બનવાની આપત્તિથી તે અભાવ અભાવરૂપ રહે નહીં. વળી, “અભાવથી અભાવનો નિર્ણય કરાવતું જ્ઞાન થાય છે.” એમ કહેવાથી “ભાવથી તે જ્ઞાન થતું નથી એવો અર્થ આવશે, કેમકે પ્રસજય પ્રતિષેધ નિવૃત્તિમાત્રરૂપ હોવાથી માત્ર ક્રિયાનો નિષેધ કરીને ચરિતાર્થ થાય છે. આમ જ્ઞાન થવાના ભાવાત્મકકારણનો પ્રતિષેધ થવાથી અભાવપરિચ્છેદકજ્ઞાન નિર્વેતક થવાની આપત્તિ આવે છે, અને તેથી ( નિર્વેતક હોવાથી) હમેશા જ તે જ્ઞાન થવાની આપત્તિ છે. તેથી તમારી વાતમાં કોઈ દમ નથી. ૧૩૦૧ प्रतिषेधक एव परोक्ते प्रमाणे हेतोर्विशेषविरुद्धतां दर्शयति - હવે, પૂર્વપક્ષોક્ત પ્રતિષેધક પ્રમાણમાં–અભાવપ્રમાણમાં હેતની વિશેષવિરુદ્ધતા બતાવે છે. सो सो चेव ण होई पुसूरि)सादित्ता तु देवदत्तो व्व । रु . एवं च विरुद्धोऽवि हु लक्खणतो होति एसो त्ति ॥१३०२॥ (स स एव न भवति पुरुषादित्वात् तु देवदत्त इव । एवं च विरुद्धोऽपि ह लक्षणतो भवति एष इति ॥) स:-विवक्षितो वर्द्धमानस्वाम्यादिः स एव न भवति-सर्वज्ञ एव न भवति, पुरुषादित्वात्, देवदत्तवत्। एवं च उक्तेनैव प्रकारेण लक्षणतो-'विरुद्धोऽसति बाधन' इति विशेषविरुद्धलक्षणतो विरुद्धोऽप्येषः-पुरुषत्वादिको हेतुर्भवति । न च वाच्यमत्र दृष्टान्तस्य साध्यविकलता, विवक्षितसाध्यविशिष्टस्यैव तस्य दृष्टान्तत्वेन विवक्षणात् ॥१३०२॥ . ગાથાર્થ:- તે વિવક્ષિત મહાવીરસ્વામીઆદિ સર્વજ્ઞ નથી જ, કેમકે પુરુષાદિત છે; જેમકે દેવદત્ત. અહીં ‘વિરુદ્ધો અસતિ બાપને બાધ ન હોય, તો વિદ્ધદોષ આવે) એવા કહેલા લક્ષણથી–વિશેષવિરુદ્ધલક્ષણથી પુરુષત્વાદિહેતુ વિરુદ્ધ પણ છે. (કેમકે પૂર્વે કહ્યું, તેમ પુરુષત્વાદિહેતુથી જ મહાવીરસ્વામીઆદિમાં સર્વજ્ઞત્વ હોવામાં કોઇ વિરોધ નથી તેમ સિદ્ધ કર્યું છે અને એ સર્વજ્ઞતા બાધિત પણ નથી.) અહીં દેવદત્તનું દૃષ્ટાન્ત સર્વજ્ઞતાભાવ રૂપ સાધ્યથી રહિત છે.” એમ ન કહેવું, કેમકે અહીં સર્વજ્ઞત્વાભાવરૂપ સાધ્યથી યક્તરૂપે જ તે દષ્ટાન્નની વિવક્ષા કરી છે. (પૂર્વપક્ષ કદાચ એમ કહે કે પુરુષત્વ હેતુ સર્વજ્ઞતાસાધક હોય, તો દેવદત્તમાં પણ સર્વજ્ઞતા આવવાથી દેવદત્તરૂપ દષ્ટાન્ન અસર્વજ્ઞતારૂપ સાધ્યથી રહિત થશે. તેના જવાબમાં કહે છે કે તમે દેવદત્તનું અસર્વજ્ઞરૂપે જ દષ્ટાન આપ્યું છે. તેથી તેમાં સર્વજ્ઞતા બાધિત થવાથી સાધ્ય-વિકલતાદોષ નથી.) ૧૩૦૨ાા अधिकृतमेव प्रतिषेधकं प्रमाणमधिकृत्य दृष्टान्तस्य संदिग्धसाध्यतामुद्भावयति - પ્રસ્તુત જ પ્રતિષેધક પ્રમાણને ઉદ્દેશી દષ્ટાન્નની સંદિગ્ધસાધ્યતાનું ઉલ્કાવન કરતાં કહે છે ण य देवदत्तनाणं पच्चक्खं जेण णिच्छयो तम्मि । एसो असव्वण्णु च्चिय णातंऽपि ण संगतं तेणं ॥१३०३॥ (न च देवदत्तज्ञानं प्रत्यक्षं येन निश्चयस्तस्मिन् । एषोऽसर्वज्ञ एव ज्ञातमपि न संगतं तेन ॥ न च देवदत्तज्ञानं प्रत्यक्षं येन तज्ज्ञानप्रत्यक्षत्वेन तस्मिन् देवदत्ते निश्चयो भवेत् यथैषोऽसर्वज्ञ इति, तेन कारणेन ज्ञातमपि- उदाहरणमपि न संगतमिति ॥१३०३॥ ગાથાર્થ:- (અમે પુરુષત્વહેતુમાં વિરોધદોષ બતાવ્યો, તે ટાળવા તમે ષ્ટાન સાધ્યવિકલ થવાની આપત્તિ આપી, તે બરાબર નથી, તેથી * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંવહણિ-ભાગ ૨ - 308 * * * * * * * * * * * * * * * - Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************** सबसिबिर + ++ + + + + + + ++ + + + + + + પુરુષત્વવેતમાં બતાવેલ છેષ તો યોગ્ય જ કરે છે. હા, તમારા દેષ્ટાન્તમાં તમે જે અસર્વજ્ઞતાની (=સાધ્યની) વિવક્ષા કરે છે, તે જરુર સંદિગ્ધ છે, તે આ રીતે) વળી, દેવદત્તનું જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ નથી કે જેથી તે જ્ઞાનના પ્રત્યક્ષ થવાથી તે દેવદત્તના વિષયમાં નિશ્ચય થાય કે આ “અસર્વજ્ઞ છે. આમ દેષ્ટાન્તમાં પણ સાધ્ય (=સર્વજ્ઞતાભાવ) સંદિગ્ધ છે, તેથી દષ્ટાન્ન પણ યોગ્ય નથી. ૧૩૦૩ स्यादेतत्, यद्यपि देवदत्तस्य ज्ञानं न प्रत्यक्षं तथापि कायवाक्कर्मवृत्त्या तस्यासर्वज्ञत्वनिश्चयो भवतीत्येतदाशङ्क्याहપૂર્વપક્ષ:- જો કે દેવદત્તનું જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ નથી, છતાં તેની કાયા અને વાણીના કર્મ–ચેષ્ટાથી તે અસર્વજ્ઞ છે તેવો નિર્ણય થઈ શકે છે. આવી આશંકાના ઉત્તરમાં કહે છે ण य कायवयणचेट्ठा गुणदोसविणिच्छयम्मि लिंगं तु ।। जं बुद्धिपुव्विगा सा णडम्मि वभिचारिणी दिट्ठा ॥१३०४॥ (न च कायवचनचेष्टा गुणदोषविनिश्चये लिङ्गं तु । यत् बुद्धिपूर्विका सा नटे व्यभिचारिणी दृष्टा " न च कायवचनचेष्टा गुणदोषविनिश्चये लिङ्गम्, किं कारणमित्याह - यत्-यस्मात्सा कायवचनचेष्टा बुद्धिपूर्विका सती व्यभिचारिणी दृष्टा, नटे इव सभायाम् ॥१३०४।। . - ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- શરીર અને વાણીની ચેષ્ટા ગુણ-દોષના નિર્ણયમાં લિંગ ન બને, કારણ કે બુદ્ધિપૂર્વક થતી કાયા -વચન ચેષ્ટા અનેકાંતિક ધ્યેય છે (હાવભાવ કાંક અલગ સૂચિત કરે અને મનના ભાવ કાંક અલગ જ હોય. વાણીમાં પણ મુખમેં રામ બગલમેં છૂરી જેવું સંભવે) જેમકે સભામાં નટ અભિનય કરે છે ત્યારે એના વાણી-વર્તન વેશને અનુરૂપ હોવા છતાં મનમાં કાં'ક જૂદુ જ ચાલતું હોય છે.) ૧૩૦૪ सिय तक्कालम्मि तओ तेणेव समण्णितो तु भावेणं । तण्णो तक्कालम्मिऽवि स्वगमादीस गेहीतो ॥१३०५॥ (स्यात् तत्काले सकस्तेनैव समन्वितस्तु भावेन । तन्न तत्कालेऽपि स्पकादिषु गृद्धेः ॥) स्यादेतत्, तत्काले-तथाविधकायवचनचेष्टाकरणकाले 'तओ त्ति' सको नटस्तेनैव भावेन गुणरूपेण दोषरूपेण वा समन्वितः तन्न कायवचनचेष्टा गुणदोषव्यभिचारिणीति । अत्राह-'तन्नो इति' यदेतदुक्तं 'तत्काले तेनैव भावेन युक्त' इति तन्न । कुत इत्याह - तत्कालेऽपि-तथाविधकायवचनचेष्टाकरणकालेऽपि रूपकादिषु आदिशब्दात्सुवर्णादिषु च गृद्धेःअभिकाङ्क्षाया भावात् ॥१३०५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- તેવા પ્રકારની શારીરિક-વાચિક ચેષ્ટા કરતી વખતે તે નટ તેવા જ ગણ–દોષમય ભાવથી યુક્ત હોય છે. તેથી કાયિક-વાચિકચેષ્ટા ગુણદોષસાથે અનેકાન્તિકતા રાખતી નથી. ઉત્તરપક્ષ:- “તે કાલે તેવા જ ભાવથી યુક્ત હોય છે. એ વાત બરાબર નથી, કેમકે તેવા પ્રકારની કાયિક-વાચિક ચેષ્ટાકાલે પણ તે નટ રૂપિયા-સુવર્ણાદિપ્રત્યે આસક્ત હોય છે. (નટ ઉત્કૃષ્ટ અભિનય ઉત્કૃષ્ટ રૂપિયાદિ ઈનામની આશા-લાલસાથી કરતા હોય છે.) ૧૩૦પા अपिच - पणी, सव्वन्नुभूमिगं पि हु नच्चंति णडा जतो ततो एवं । अब्भुवगमम्मि पावति सव्वण्णुत्तंऽपि तेसिं तु ॥१३०६॥ (सर्वज्ञभूमिकामपि हु नृत्यन्ति नटा यतस्तत एवम् । अभ्युपगमे प्राप्नोति सर्वज्ञत्वमपि तेषां तु ॥) यत्-यस्मात्कारणात्सर्वज्ञभूमिकामपि संसदि 'ह' निश्चितं नटा नृत्यन्ति, तत एवमभ्युपगमे सति तत्काले स तेन भावेनोपेत इत्यङ्गीकारे सति प्राप्नोति सर्वज्ञत्वमपि तेषां नटानां, तथा च सति तव स्वाभ्युपगमक्षितिरिति ॥१३०६॥ ગાથાર્થ:- સભાસમક્ષ અવશ્ય નટો સર્વજ્ઞની ભૂમિકા પણ અદા કરે છે. તેથી તે કાલે તે ભાવથી જ યુક્ત હોય તેમ સ્વીકારશો તો તે નટોને સર્વજ્ઞ પણ માનવા પડશે. અને તો તમને સ્વમતક્ષતિનો ભય આવશે. ૧૩૦૬ उपसंहरति - ઉપસંહાર કરતા કહે છે– ****************धर्भ वEि-लाग२-309 *************** Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सबसिदिवार++++++++++++++++ पडिसेहगंपि माणं माणाभासं तु दंसितं एवं । ता अणिवारियपसरो सिद्धो सव्वण्णुभावोऽवि ॥१३०७॥ (प्रतिषेधकमपि मानं मानाभासं तु दर्शितमेवम् । तस्मादनिवारितप्रसरः सिद्धः सर्वज्ञभावोऽपि ॥) यत एवमुक्तप्रकारेण प्रतिषेधकमपि मान-प्रमाणं प्रमाणाभासमेव दर्शितम् । तुरेवकारार्थः । 'ता' तस्मादनिवारितप्रसरः सिद्ध एव सर्वज्ञभाव इति। अपिरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च स यथास्थानं योजित इति । स्यादेतत्, कथमनिवारितप्रसरः सिद्धः सर्वज्ञभावो यावता यथा तत्प्रतिषेधक प्रमाणं न विद्यते तथा तत्साधकमपीति, तदयुक्तम् विकल्पानुपपत्ते तथाहि-तत्साधकं प्रमाणं किं भवत एव न विद्यते? उताहो सर्वप्रमातृणाम्? तद्यदि भवत एवेति तर्हि सिद्धसाध्यता, भगवत परोक्षत्वात्, भवतश्च सम्यक् प्रवचनार्थानधिगतेः। अथ सर्वप्रमातृणामिति पक्षः, सोऽप्ययुक्तः, तच्चेतसामप्रत्यक्षत्वात्तत्प्रत्यक्षतामन्तरेण तेषां तदभावनिश्चयानुपपत्तेः । तत्प्रत्यक्षताभ्युपगमे च तस्यैव सकलप्रमातृचेतःप्रत्यक्षतः सर्वज्ञत्वमिति न तत्साधकप्रमाणाभावः ॥१३०७॥ ગાથાર્થ:- આમ બતાવ્યા મુજબ પ્રતિષેધકપ્રમાણ પણ પ્રમાણાભાસ જ સિદ્ધ થાય છે. (તપદ જકારાર્થક છે.) તેથી સર્વજ્ઞભાવ વિના રોકટોક સિદ્ધ જ થાય છે. (મૂળમાં “અપિ"પદ જકારાર્થક છે અને સિદ્ધપદસાથે સંબંધિત છે.) પૂર્વપક્ષ:- અરે જેમ સર્વજ્ઞભાવ પ્રતિષેધક પ્રમાણ વિદ્યમાન નથી, તેમ સર્વજ્ઞભાવસાધક પ્રમાણ પણ વિદ્યમાન નથી. તેથી સર્વજ્ઞભાવ કેવી રીતે વિના રોકટોક સિદ્ધ થઈ શકે? ઉત્તરપલ:- આ અયુક્ત છે. કેમકે વિકલ્પો અસિદ્ધ છે. બોલો ! સર્વજ્ઞભાવસાધકપ્રમાણ(૧માત્ર તમારામાટે જ અવિદ્યમાન છે? કે(૨) બધા જ પ્રમાતાઓ માટે! જો માત્ર તમને જ અસિદ્ધ ય, તો તે તો સિદ્ધ જ હોવાથી સિદ્ધસાધ્યતા દોષ છે. કેમકે ભગવાન પરોક્ષ છે, અને તમને તેમના પ્રવચનના અર્થોનો સમ્યગ બોધ નથી. (આમ તમારે પ્રત્યક્ષથી કે આગમથી સર્વજ્ઞસાધક પ્રમાણનો અભાવ સિદ્ધ છે.) જો બધા જ પ્રમાતાઓ માટે સર્વજ્ઞભાવસાધકપ્રમાણની અવિદ્યમાનતા ઈષ્ટ હોય, તો તે બરાબર નથી, કેમકે બીજાઓના ચિત્તમાં શું છે? તે પ્રત્યક્ષથી શેય નથી, તેથી એ પ્રત્યક્ષ થયા વિના તેઓ બધામાટે સર્વજ્ઞભાવસાધકપ્રમાણના અભાવનો નિશ્ચય થઈ શકે નહીં. અને બધાના ચિત્તના પ્રત્યક્ષબોધની સ્વીકૃતિમાં સકલ પ્રમાચિત્તપ્રત્યક્ષ હોવાથી જ સર્વજ્ઞાનીની સિદ્ધિ થાય છે. તેથી સર્વજ્ઞભાવસાધક પ્રમાણનો અભાવ નથી. ૧૩૦૭ વિદ્યકાદિશાસ્ત્રોથી સર્વસિદ્ધિ नन् किमनेन वाग्जालेन? एवं हि प्रधानेश्वरादीनामपि प्रतिषेधानुपपत्तेः, तस्माद्यत्किंचिदेतत्, प्ययुक्तम, तेषां युक्तिभिरनुपपद्यमानत्वात्, अतीन्द्रियोपलम्भकपुरुषवचनतस्तत्प्रतिषेधोपपत्तेश्च, अन्यच्च - પૂર્વપક્ષ:- આવા વાણીવિલાસથી સર્ય. આમ તો પ્રધાન, ઇવરવગેરેનો પણ પ્રતિષેધ કરી શકાશે નહીં. તેથી આ બધી સાર વિનાની વાતો છે. ઉત્તરપક:- આમ કહેવું યોગ્ય નથી, કેમકે પ્રધાન-ઇવરવગેરે યુક્તિથી અનુ૫૫ન્ન બને છે. અને અતીન્દ્રિયદર્શી પુરુષના વચનથી પણ તેઓનો પ્રતિષેધ યુક્તિસંગત બને છે. વળી वेजगजोतिससत्थं अतिंदियत्थेसु संगतंऽपि कहं । जुज्जति? अतिंदियत्थण्णुपुरुसविरहम्मि वत्तव्वं ॥१३०८॥ (वैद्यकज्योतिषशास्त्रमतीन्द्रियार्थेषु संगतमपि कथम् । युज्यते? अतीन्द्रियार्थज्ञपुरुषविरहे वक्तव्यम् ॥ 'वैद्यकज्योतिषशास्त्रमपि' वैद्यकशास्त्राणि ज्योतिषशास्त्राणि च अतीन्द्रियेषु-इन्द्रियातिक्रान्तेषु अभिधेयेषु अतीन्द्रियार्थज्ञायकविरहे-सर्वज्ञाभावे इतियावत् कथं न संगतं-संगतानि निश्चितविवक्षिताभिधेयानि युज्यन्ते ? इति वक्तव्यम् । नैव कथंचनापि युज्यन्ते इति भावः, 'संगतंपीति' अपिर्भिन्नक्रमः स चादावेव योजितः ॥१३०८॥ ગાથાર્થ:- જો અતીન્દ્રિયાર્થજ્ઞાયક પુરુષ ન જ હોય, તો જયોતિષશાસ્ત્રો અને વૈદ્યકશાસ્ત્રો અતીન્દ્રિયાર્થ વિષયોમાં નિશ્ચિત વિવક્ષિત અર્થના સૂચકરૂપે કેવી રીતે સંગત બને? તે બતાવો. અર્થાત જરા પણ સંગત ન બને. (સંગતંપિ માં અપિ પદ સત્યં પદસાથે સંબંધિત છે.) ૧૩૦૮ अत्र परस्याभिप्रायमाह - અહીં પૂર્વપક્ષકારનો અભિપ્રાય વ્યક્ત કરે છે– ++++++++++++++++ ल-मा२-310+++++++++++++++ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + सर्वसिद्धि द्वार + + + वुड्डपरंपरतो च्चिय अह तं आदीएँ णिच्छियं केण ? । अंधाण परंपरओ हि स्वे मुणइ दीहो वि ॥१३०९ ॥ (वृद्धपरंपरात एवाथ तदादौ निश्चितं केन ? । अन्धानां परंपरको नहि रूपे जानाति दीर्घोऽपि II) अथ वृद्धपरंपरात एव वैद्यकादिशास्त्राणामतीन्द्रियेष्वर्थेषु संगतत्वमिति प्रतिपद्येथाः, अत्र आचार्य आह- 'तं आदीए' इत्यादि, तत्-वैद्यकादिशास्त्रमादौ - प्रथमतः केनातीन्द्रियेषु अर्थेषु निश्चितं ? नैव केनचित्, सर्वस्यापि रागादिदोषपरीततया अतीन्द्रियार्थदर्शनलक्षणलोचनाभावेनान्धतुल्यत्वात् । एतदेव प्रतिवस्तूपमया स्पष्टयति- 'अंधेत्यादि' न ह्यन्धानां परंपरको दीर्घोऽपि 'रूपे' रूपविषये किमपि 'मुणति' जानाति । "ज्ञो जाणमुणाविति" प्राकृतसूत्रतो ज्ञाधातोर्मुणादेशः । अत्रान्धतुल्याः सर्वेऽपि पुरुषास्तेषां रागादिमत्तयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनलक्षणलोचनाभावात्, रूपकल्पा अतीन्द्रिया अर्था इति ॥१३०९॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- વૃદ્ધપરંપરાથી જ વૈધકાદિ શાસ્ત્રો અતીન્દ્રિયાર્થઅંગે સંગત થાય છે. ઉત્તરપક્ષ:- એ વૈધકાદિશાસ્ત્રને અતીન્દ્રિયાર્થોમા સૌ પ્રથમ નિશ્ચિત કરનાર કોણ? તમારે હિસાબે તો કોઇ હોઇ શકે નહીં. કેમકે બધા જ રાગાદિદોષોથી યુક્ત હોવાથી અતીન્દ્રિયાર્થના દર્શનરૂપ આંખનો અભાવ હોવાથી અન્ધતુલ્ય છે. આ જ વાતને પ્રતિવસ્તુઉપમાથી બતાવે છે. ‘અંધત્યાદિ’ અન્ધોની પરંપરા ભલે ને ગમે તેટલી લાંબી હોય, તો પણ રૂપના વિષયમાં કશું જાણી શકે નહીં. (‘જ્ઞો જાણમુણાવિતિ’ આ પ્રાકૃતસૂત્રથી જ્ઞાધાતુનો ‘મુણ’ આદેશ થાય છે.) પ્રસ્તુતમા બધા જ પુરુષો રાગાદિથી યુક્ત હોવાથી અતીન્દ્રિયાર્થ જોઇ શકતા નથી. તેથી તેવા અર્થોઅંગે તેઓ આંખ વિનાના છે. –અધતુલ્ય છે. અને અતીન્દ્રિયાર્થો રૂપતુલ્ય છે. ૫૧૩૦૯ા अथ मन्येथाः- स्वत एव तत्र ज्योतिषादिशास्त्रमात्मीयमर्थं कस्मैचित् पुरुषाय निवेदितवत् स चान्येभ्यस्तमर्थं ते चान्येभ्यस्तेनादोष इति, अत्राह - પૂર્વપક્ષ:- એ જયોતિષાદિશાસ્ત્રો સ્વત: જ કો'ક પુરુષને સ્વકીય અર્થનું નિવેદન કરે છે. પછી એ પુરુષ બીજાઓને તે અર્થ जतावे छे. तेखो वर्णा जीभने... खाम घोष नथी भावतो. અહીં ઉત્તર આપતા આચાર્યવર્ય કહે છે न य तं सयं कहेई ममेस अत्थो अचेयणत्तणतो । पुरिसेण विवेचिज्जइ एसो तु मतीविसेसेण ॥१३१०॥ (न च तत्स्वयं कथयति ममैषोऽर्थोऽचेतनत्वात् । पुरुषेण विवेच्यते एष तु मतिविशेषेण ॥) न च तत् - ज्योतिषादिशास्त्रं स्वयमात्मीयमर्थं कथयति यथा - 'मम एषोऽर्थो नान्यः' इति, कस्मान्न कथयतीत्यत आह-अचेतनत्वात्, घटादिवत्, किंतु पुरुषेणैव मतिविशेषेणैव विवेच्यते, यथा 'एषोऽस्यार्थो नान्यः' इति । तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, स च यथास्थानं योजितः ॥१३१०॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જયોતિષશાસ્ત્ર ઘડાની જેમ અચેતન હોવાથી મારો આ અર્થ છે” એમ સ્વકીય અર્થ કોઇને પણ બતાવી શકે નહીં. પરંતુ પુરુષ જ પોતાની મતિવિશેષથી વિવેચન કરે છે કે આનો આ જ અર્થ છે, અન્ય નહી” (‘તુ’ પદ જકારાર્થક છે અને ‘પુરુષ' પદસાથે સંબંધિત છે.) ૫૧૩૧ના ननु यदि पुरुषेणार्थो विवेच्यते तर्हि किमत्र क्षूण्णं ? न हि पुरुषा नाभ्युपगम्यन्त इत्याह પૂર્વપક્ષ:- જો પુરુષ અર્થનું વિવેચન કરતો હોય, તો તેમા અહીં વાધાજનક છે? અમે પુરુષોને સ્વીકારતા નથી એવું તો નથી જ. અર્થાત્ અમે પુરુષતત્ત્વને સ્વીકારીએ જ છીએ... અને તે જ તેવા અર્થોનું વિવેચન કરે તે પણ માન્ય જ છે. અહીં આચાર્ય જવાબ આપે છે– - णय सामण्णमतीए विवेचितुं तीरती ततो पढमं । सुविवेचितसिट्टे उण तहा गहो होतिमीए वि ॥१३११॥ (न च सामान्यमत्या विवेचयितुं शक्यते ततः प्रथमम् । सुविवेचितशिष्टे (सुविवेच्य शिष्टे) पुनस्तथा ग्रहो भवति अस्या अपि ॥) न च सामान्यमत्या - सामान्यज्ञानेन 'तओ त्ति' सकोऽर्थः प्रथमं विवेचयितुं शक्यते, तस्य तदगोचरत्वात्, किंतु मतिविशेषेण - ज्ञानविशेषेणातीन्द्रियार्थदर्शनलक्षणेन, तेन च मतिविशेषेण सुविवेच्य शिष्टे कथिते सति पुनस्तस्मिन्नर्थे अ + + धर्मसंग्रह - लाग २ - 311** Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिद्विार +++++++++++++++++ अपि सामान्यमतेहो भवति । ननु यदि प्रथमतः सामान्यमतेर्न विषयः सोऽर्थस्तर्हि अतीन्द्रियार्थदर्शिना अपि सुविवेच्य शिष्टः सन् कथं पश्चात् विषयो भवतीति ? नैष दोषः दृष्टत्वात् ॥१३११॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપલ:- સામાન્ય મતિજ્ઞાનથી તે અર્થનું પ્રથમ વિવેચન કરવું શક્ય નથી, કેમકે સામાન્યમતિમાટે એ અગોચર છે. પરંતુ અતીન્દ્રિયાર્થદર્શનરૂપ વિશિષ્ટમતિથી પ્રથમ સારી રીતે વિવેચન કરી બતાવાય છે. તે પછી જ તે અર્થમાં આ સામાન્યમતિને પણ બોધ થાય છે. શંકા:- જે પ્રથમ સામાન્યબુદ્ધિનો વિષય ન હોય, તે અર્થ અતીન્દ્રિયદર્શીએ સારી રીતે વિવેચન કરીને બતાવ્યો છે, તો પણ શી રીતે ૫છીથી સામાન્યબુદ્ધિનો વિષય બની શકે? સમાધાન:- એમાં કોઈ દોષ નથી. કેમકે તે પ્રમાણે દેખાય જ છે. ૧૩૧૧ાા तथाचाह - આ જ અંગે કહે છે ___ अंधो वि अणंघेणं सम्मं कहियं कहंचि स्वं पि । पडिवज्जित्तु पसाहइ तहाविधं कं पि ववहारं ॥१३१२॥ (अन्धोऽपि अनंधेन सम्यग् कथितं कथञ्चिद्रूपमपि । प्रतिपद्य प्रसाधयति तथाविधं कमपि व्यवहारम् ॥ अन्धोऽपि-चक्षुर्विकलोऽप्यनन्धेन-सचक्षुषा सम्यक्कथितं सत् कथंचित्-सामान्याकारेण रूपमपि प्रतिपद्य तथाविधं कमपि व्यवहारं साधयति ॥१३१२॥ ગાથાર્થ:- અંધ નહીં તેવી વ્યક્તિએ બરાબર કહ્યું હોય, તો અધપુરુષ પણ સામાન્યરૂપે રૂપને સમજી શકે છે, અને તે પ્રમાણે તેવા પ્રકારનો કોક વ્યવહાર પણ સિદ્ધ કરે છે. ૧૩૧રા तथाहि - તે આ પ્રમાણે जस्सेरिसा दसाओ सो सुक्कपडो इमो णय इमो त्ति । एवं विणिच्छियमती दीसति लोए ववहरंतो ॥१३१३॥ (यस्येदृशा दशाः स शुक्लपटोऽयं नचायमिति । एवं विनिश्चितमति दृश्यते लोके व्यवहरन् ॥ . यस्य पटस्य खल्वीदृशा-एवंविधस्पर्शादिगुणोपेता दशाः सन्ति सोऽयं शक्लपटो न त्वयमित्येवं निश्चितमतिर्व्यवहरन लोके दृश्यते ॥१३१३॥ ગાથાર્થ:- “જે કપડાને આવા પ્રકારની સ્પર્શદિ ગુણથી યુક્ત દશીઓ છે, તે આ સફેદ કપડે છે, પેલો સફેદ કપડાં નથી' એવી નિશ્ચિત બુદ્ધિવાળો તે (=અત્પાદિ) લોકમાં વ્યવહાર કરતો દેખાય જ છે. ૧૩૧૩ एवं इमे वि विज्जादिगा इहं सम्मणाणिपुव्वातो । उवदेसतो पयट्टा पारंपरए ण तु विसेसो ॥१३१४॥ (एवमिमेऽपि वैद्यादिका इह सम्यग्ज्ञानिपूर्वतः । उपदेशात् प्रवृत्ताः परंपरके न तु विशेषः ॥ एवम्-अनन्धोपदेशात् प्रवृत्तान्ध इव इमेऽपि वैद्यादिका आदिशब्दात् ज्योतिषादय इह-जगति सम्यग्ज्ञानिपूर्वतःसम्यग्ज्ञानी-अतीन्द्रियार्थदर्शी पूर्व-प्रथमतः प्रवर्तकतया कारणं यस्योपदेशस्य तस्मादुपदेशात्प्रवृत्ताः, तत उद्ध्वं परंपरके तु न विशेषः, सर्वेषामपि रागादिदोषसचिवतयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनं प्रति तत्त्वतोऽन्धतुल्यत्वात् मूलोपदेशानुसारेणैव प्रवृत्तेः ॥१३१४ ॥ ગાથાર્થ:- અબ્ધ નહીં એવી વ્યક્તિના ઉપદેશથી પ્રવર્તેલા અન્ધની જેમ વૈધેક-જયોતિષાદિ શાસ્ત્રો આ જગતમાં અતીન્દ્રિયાર્થદર્શી–સમ્યજ્ઞાનીદ્વારા પ્રથમ પ્રવૃત્ત થાય છે. અને પછી તેમનાં ઉપદેશથી જ અન્ય અન્યમાં પણ પ્રવર્તે છે. તે પછી ચાલતી પરંપરામાં કોઈ વિશેષ હોતો નથી, કેમકે બધા જ રાગાદિદોષોથી યુક્ત હોવાથી અતીન્દ્રિયાર્થદર્શન પ્રતિ તાત્તિકરૂપે અધૂતવ્ય જ હોય છે. અને તેથી માત્ર મૂલ-ઉપદેશના અનુસારે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે. ૧૩૧૪ અતીતાદિભાવોનો ભાવ पुनरप्यत्र पर आह - ++ ++ + + ++ + + + + + + + + धर्म -मास २ - 312 + + + + + + + + + + + ++ ++ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહીં ફરીથી પૂર્વપક્ષકાર કહે છે– सव्वं तिकालजुत्तं तीयादिसु कह य तस्स पच्चक्खं ? | समभावातो च्चिय भावे तीतादिमो किह णु ? ॥१३१५ ॥ (सर्वं त्रिकालयुक्तमतीतादिषु कथं च तस्य प्रत्यक्षम् । तेषामभावादेव भावेऽतीतादयः कथं नु ? ॥) सर्वं वस्तु त्रिकालयुक्तं, ततश्च कथं तस्य भगवतः सर्वज्ञस्य प्रत्यक्षमतीतादिषु - अतीतानागतेषु भावेषु प्रवर्त्तते ? नैव प्रवर्त्तत इतिभावः । कुतः - इत्याह- तेषाम् - अतीतादीनां विवक्षितकालेऽभावात्-असत्त्वात् । भावे वा कथं नु ते भावा अतीतादयो भवेयुः ? किंतु वर्त्तमाना एव, तदन्यवर्त्तमानभाववत् ॥१३१५॥ ગાથાર્થ:- પૂર્વપક્ષ:- બધી જ વસ્તુ ત્રૈકાલિક છે. તેમાં વિવક્ષિતસમયે અતીતાદિભાવોનો અભાવ છે. (અતીતનો નાશ અને અનાગતની અનુત્પત્તિ છે.) જો તે ક્ષણે અતીતાદિભાવો પણ વિધમાન હોય, તો તે અતીતાદિ ભાવ નથી પરંતુ બીજા વર્તમાનકાલીનભાવોની જેમ વર્તમાનરૂપ જ છે, કેમકે આ સિવાય અન્યરૂપે વર્તમાનભાવ હોતો નથી. આમ અતીતાદિનો અભાવ હોવાથી તે સર્વજ્ઞ ભગવાનનું જ્ઞાન અતીતાદિવિષયમાં શી રીતે પ્રવૃત્ત થાય? અર્થાત્ ન જ થાય. ૫૧૩૧પા अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્યવર્ય ઉત્તર આપે છે. સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર समभाव तु मुसा वत्थु जतो दव्वपज्जवसहावं । भेदाभेदो य मिहो अत्थि य तं वत्तमाणे वि ॥१३१६ ॥ ( तेषामभावस्तु मृषा वस्तु यतो द्रव्यपर्यायस्वभावम् । भेदाभेदश्च मिथोऽस्ति च तद्वर्त्तमानेऽपि ॥) तेषामतीतादीनां भावानामभाव इति यदुक्तं तन्मृषैव । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च । कथं मृषेत्यत आह- 'वत्थु इत्यादि यतो- यस्मात् वस्तु द्रव्यपर्यायस्वभावम् - अनुवृत्तिव्यावृत्तिस्वरूपं, तयोर्द्रव्यपर्याययोर्मिथः - परस्परं भेदाभेदौ, अन्योऽन्यव्या - प्तिभावात्, अन्यथाऽत्यन्तवैलक्षण्यापत्तेरैक्यापत्तेर्वा वस्तुत्वायोगात्, एकान्तनित्यस्यानित्यस्य वा सर्वथा विज्ञानादिकार्यायो - गात्, यथोक्तं प्राक् । ततश्च तदतीतादिकं वस्तु वर्त्तमानेऽपि - वर्त्तमानकालेऽपि कथंचिदस्ति, ततो न कश्चिद्दोषः ॥१३१६॥ ઉત્તરપક્ષ:– તે અતીતાદિભાવોનો અભાવ છે' એવું જે કહ્યુ, તે ખોટું જ છે. (‘તુ’ પદ જકારાર્થક છે અને મૃષાપદસાથે संबंधित छे.) •डेभ जोटु छे?' तेवी शंानो भवाज खा छे 'वत्थु' ६२४ वस्तु द्रव्य-अनुवृत्तिस्वश्य खने पर्याय=व्यावृत्ति સ્વભાવ એમ ઉભયસ્વભાવવાળી હોય છે. આ દ્રવ્યરૂપતા અને પર્યાયરૂપતા પરસ્પરમાં વ્યાપ્ત હોવાથી પરસ્પરથી ભેદાભેદ ધરાવે છે. જો આમ ભેદાભેદ ન માનો તો કાંતો બન્નેવચ્ચે અત્યન્ત વિલક્ષણતા આવે (માત્ર ભેદપક્ષે) કા તો બેઉ એક જ થઇ જાય (માત્ર અભેદપક્ષે)અને તો વસ્તુતા જ ન રહે, કેમકે એકાન્તભેદ-અભેદથી દ્રવ્યરૂપતાની એકાન્ત નિત્યતા અને અથવા પર્યાયરૂપતાની એકાન્ત અનિત્યતાનું જ પ્રભુત્વ રહે અને પૂર્વે બતાવ્યું તેમ એકાન્તનિત્ય અથવા એકાન્તઅનિત્યમાં વિજ્ઞાનઆદિ કાર્ય સંભવે નહીં. તેથી દ્રવ્ય-પર્યાય વચ્ચે ભેદાભેદ જ ઇષ્ટ છે. તેથી જ અતીતાદિવસ્તુ દ્રવ્યરૂપે વર્તમાનમાં પણ કથંચિદ્ વિદ્યમાન છે. તેથી કોઇ દ્વેષ નથી. ૫૧૩૧૬ા दोषाभावमेव भावयन्नाह આ શ્રેષાભાવન ભાવન કરતા કહે છે सयलातीतावत्थाजण्णं पारंपरेण जमिदाणिं । एसाण य एवं चिय जणगं खलु होइ गातव्वं ॥१३१७॥ (सकलातीतावस्थाजन्यं पारंपर्येण यदिदानीम् । एष्यतीनां चैवमेव जनकं खलु भवति ज्ञातव्यम् ॥) यत् - यस्मात् इदानीं वर्त्तमानं वस्तु पारंपर्येण सकलातीतावस्थाजन्यं, तथा एवमेव - उक्तप्रकारेण पारंपर्येण इतियावत् सर्वासामपि एष्यतीनामवस्थानां जनकं खलु भवति ज्ञातव्यम् ॥१३१७॥ ગાથાર્થ:- વર્તમાનકાલીન વસ્તુ પરંપરાએ સકલઅતીતાવસ્થાઓથી જન્ય છે, એ જ પ્રમાણે સઘળી ય ભવિષ્યકાલીન અવસ્થાઓની જનક છે, એમ સમજવું ૫૧૩૧૭ા ************+ + + + धर्मसंशि- भाग २ - 313 + + + + Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++सर्वसिGिR ++++++++++++++++. ततश्च - तेथी तीए तीए सत्तीए (त्तिइ) पावितं जं च पाविहिति सा सा । तं तं तओ वियाणइ आवरणाभावतो चेव ॥१३१८॥ (तया तया शक्त्या प्रापितं यच्च प्राप्स्यति सा सा । तत्तत् सको विजानाति आवरणाभावादेव ॥ . तया तया शक्त्याऽवस्थारूपया पारंपर्येण यत् खल्विदानी वर्तमानं वस्तु प्रापितं-ढौकितं यच्च कर्मातापन्नमिदानीमेव वर्तमानं वस्तु सा साऽवस्था प्राप्स्यति, तां तामवस्थामतीतामनागतां च 'तओ त्ति' सकः सर्वज्ञस्तज्ज्ञानविबन्धकावरणाभावात् विजानाति, कथंचित्तासामवस्थानामिदानीमपि विद्यमानत्वात्, पर्यायस्याप्येकान्ततो विनाशाभावात् । 'तम्मि य अनियत्तंते न नियक्तइ सव्वहा सो वि' इति वचनप्रामाण्यात् ॥१३१८॥ ગાથાર્થ:- અવસ્થારૂપ તે-તે શક્તિથી પરંપરાએ હમણાં જ વર્તમાનકાલીન વસ્તુ ઉપસ્થિત કરાઈ છે, તથા કર્મરૂપતાને પામેલી પૂર્વકાલીનશક્તિરૂપ પ્રેરકકર્તાની અપેક્ષાએ કર્મકારકતાને પામેલી) આ જ-હમણાં જ રહેલી વસ્તુ ભવિષ્યમાં તેને અવસ્થાઓને પામશે. આ બધી જ ભૂતકાલીન અને ભવિષ્યકાલીન અવસ્થાઓને તે સર્વજ્ઞ જાણે છે, કેમકે તે–તે જ્ઞાનના આવારક કર્મો ક્ષય પામ્યા છે, અને તે અવસ્થાઓ વર્તમાનમાં પણ કથંચિત્ વિદ્યમાન છે, કેમકે પર્યાયનો પણ એકાન્ત વિનાશ થતો નથી, કેમકે “તેની અનિવૃત્તિમાં દ્વવ્યની અનિવૃત્તિમાં) (-પર્યાય) પણ સર્વથા નિવૃત્ત થતો નથી. એવા વચનનું પ્રમાણ છે. ૧૩૧૮ अथोच्येत-कथमेतदवसीयते द्रव्यपर्यायस्वभावं वस्त्विति ? एतदाशय विपक्षे बाधकमाह - “એમ શી રીતે જાણી શકાય કે વસ્તુ દ્રવ્ય-પર્યાય ઉભયસ્વભાવવાળી હોય છે? આવી આશંકાના જવાબમાં વસ્તુના 'ઉભયસ્વભાવના અભાવમાં બાધક બતાવે છે पावति तस्साभावो मूलाभावातों अहव एगत्तं । एगंततो त्ति एवं कहं णु अद्धादिभेदो वि ? ॥१३१९॥ (प्राप्नोति तस्याभावो मूलाभावादथवा एकत्वम् । एकान्तत इत्येवं कथं नु अद्धादिभेदोऽपि ॥) . यदि द्रव्यपर्यायस्वभावं वस्तु नेष्यते किंतु पर्यायमात्रं द्रव्यमानं वेष्येत तर्हि पर्यायमात्राभ्युपगमे तस्य वस्तुनोऽभाव एव प्राप्नोति, मूलाभावात्, पूर्वभावस्य निरन्वयविनाशाभ्युपगमे सति सर्वथा तदलाभात् । अथवा यदि केवलं द्रव्यमात्रमिष्यत इत्यर्थः एकान्ततः, एकत्वं-समयातीतत्वादिपर्यायभेदमात्रस्याभावः प्राप्नोति, सर्वथा पर्यायानभ्युपगमात् । तत एवमेकान्तत एकत्वे सति कथं न अद्धाभेदोऽपि-कालभेदोऽपि, सोऽपि भेदो न प्राप्नोतीतियावत्। तस्मात् द्रव्यपर्यायस्वभावं वस्तु ॥१३१९॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- જે વસ્તુ દ્રવ્ય-પર્યાયસ્વભાવવાળી ન હોય, પરંતુ માત્ર પર્યાયરૂપ કે માત્ર દ્રવ્યરૂપ જ ઈષ્ટ હોય, તો માત્ર પર્યાયરૂ૫વસ્ત સ્વીકારવામાં વસ્તનો અભાવ જ પ્રાપ્ત થાય, કેમકે મૂળનો અભાવ છે. પૂર્વભાવનો નિરન્વય વિનાશ સ્વીકારવામાં મૂળતત્વનો સર્વથા અભાવ થાય છે. જો વસ્તુ માત્રદ્રવ્યરૂપ જ ઈષ્ટ હોય, તો એકસમયાતીતપણું આદિ પર્યાયભેદમાત્રનો અભાવ આવવાથી એકત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે, કેમકે પર્યાયનો સર્વથા અભ્યપગમ કર્યો નથી. આમ એકાન્સથી એકત્વ પ્રાપ્ત થાય તો કાલભેદ પણ શી રીતે રહે? આ ભેદ પણ પ્રાપ્ત ન થાય, તેથી દ્રવ્ય-પર્યાયઉભયાત્મક વસ્તુ છે. ૧૩૧લા एवं तीताणागतस्वं पि कहंचि अत्थि दव्वस्स । ___णय तीतादिअभावो पज्जायावेक्खतो जुत्तो ॥१३२०॥ (एवमतीतानागतरूपमपि कथञ्चिदस्ति द्रव्यस्य । न चातीताद्यभावः पर्यायापेक्षातो युक्तः ॥ एवं सति द्रव्यपर्यायरूपत्वे सतीतियावदतीतानागतमपि रूपं कथंचित्तत्संबन्धबीजतयाऽस्ति द्रव्यस्य, ततो न यथोक्तप्रत्यक्षप्रवृत्त्यभावलक्षणदोषावकाशः, यच्चोक्तं- 'भावेऽतीतादि सो(मो)किह णु त्ति' तदपाकर्तुमाह-नयेत्यादि' न च एवं सति अतीताद्यभावः-अतीतानागताभावो युक्तः, किंत्वयुक्त एव, कुत इत्याह -पर्यायापेक्षातः । एतदुक्तं भवति-यद्यपि कथंचित्तत्संबन्धनिमित्ततयाऽतीतानागतमपि रूपं द्रव्यस्य विद्यते तथाप्यद्भततथापरिणतिलक्षणपर्यायविनाशाद्यपेक्षया अतीतादित्वव्यवहारोऽपि न विरुद्ध्यत इति ॥१३२०॥ ++++++++++++++++ ब -लाल - 314 +++++++++++++++ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વ સિદ્ધિ કાર જે જે જે જે જે જે જે જે જ ગાથાર્થ:- આમ વસ્તુ દ્રવ્ય-પર્યાયઉભયરૂપ હોવાથી જ દ્રવ્યમાં તેના સંબંધના બીજરૂપે અતીત-અનાગતરૂપ પણ સંભવે છે. તેથી પૂર્વોક્ત પ્રત્યક્ષપ્રવૃત્તિના અભાવરૂપ દોષને અવકાશ નથી. અર્થાત દ્રવ્યમાં પણ કથંચિત અતીત-અનાગતરૂપતા હોવાથી દ્રવ્ય પોતાના તે-તે અતીત-અનાગતરૂપે પણ પ્રત્યક્ષ થાય, તેમાં દોષ ન આવે. તથા પૂર્વપક્ષે જે “અતીતાદિ હોય, તો તે (=વર્તમાનરૂ૫) કેવી રીતે હોય(ગા. ૧૩૧૫) એવું કહેલું તે પણ બરાબર નથી, કેમકે “નયે..' ઇત્યાદિ. આમ પર્યાયની અપેક્ષાએ અતીત-અનાગતનો અભાવ માનવો પણ યોગ્ય નથી. તાત્પર્ય:- જે કે અતીતાદિના સંબંધીરૂપે દ્રવ્યનું અતીતઅનાગતરૂપ પણ વર્તમાનમાં વિદ્યમાન છે. છતાં પ્રગટરૂપે અને તથા પરિણતિરૂપે તેને પર્યાયના વિનાશાદિ થયા લેવાથી તે અપેક્ષાને નજરમાં લઈ અતીત–ભૂતપૂર્વઆદિ વ્યવહાર કરવો પણ વિરૂદ્ધ નથી. તેથી વર્તમાનમાં વિદ્યમાન હોય, તો વર્તમાનરૂપે માનો અતીતાદિપે નહીં... તેવી શંકા રહેશે નહીં') ૧૩૨ના उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરતા કહે છે एवं स्वं सव्वं एवं चिय गेण्हई तओ जम्हा । ताऽतीतादिसु सम्म उववण्णं तस्स पच्चक्खं ॥१३२१॥ (एवंरूपं सर्वमेवमेव गृह्णाति सको यस्मात् । तस्मादतीतादिषु सम्यगुपपन्नं तस्य प्रत्यक्षम् ॥ एवंरूपं-मिथो भिन्नाभिन्नद्रव्यपर्यायस्वभावं सर्व-सकलभवनोदरवर्ति वस्तु, एवमेव सकलातीतावस्थाजन्यतया सकलैष्यदवस्थाजनकतया च यस्मात् 'तओ त्ति' सकः सर्वज्ञो गृह्णाति 'ता' तस्मादतीतादिषु-अतीतानागतेषु भावेषु तस्यसर्वज्ञस्य प्रत्यक्षं सम्यक् उपपन्नमेवेतिस्थितम् ॥१३२१॥ ગાથાર્થ:- આ જગતમાં સમાયેલી તમામ વસ્તુઓ પરસ્પરથી ભિન્નભિન્ન એવા દ્રવ્ય-પર્યાય-ઉભયસ્વભાવવાળી છે. અને સર્વજ્ઞ સમગ્રઅતીત અવસ્થાઓથી જન્યરૂપ અને ભવિષ્યની તમામ અવસ્થાઓના જનકતરીકે જ તે વસ્તુનો બોધ કરે છે. (અહીં અત્યંતનજીકની પૂર્વાવસ્થાથી વર્તમાન અવસ્થા સાક્ષાત જન્ય જાણવી. તથા દૂર-સુદૂરની પૂર્વાવસ્થાઓથી વર્તમાન- અવસ્યા પરંપરા જન્ય જાણવી, તેમજ તરત ઉત્તરની અવસ્થા માટે સાક્ષાત અને પછી પછીની અવસ્થાઓમાટે પરંપરાએ જનકતા સમજવી.) તેથી અતીત અને અનાગત ભાવોઅંગેનું સર્વજ્ઞનું પ્રત્યક્ષજ્ઞાન સમ્યગરીતે સુસંગત છે, તેમ નિરચય થાય છે. ૧૩૨૧ અવિદ્યમાનાતીતાદિઅંગે પણ સ્પષ્ટપ્રત્યક્ષ अभ्युपगम्यापि सर्वथाऽतीतानागतानामिदानीमभावं प्रकृते दोष(षा) भावमाह - અતીત–અનાગતભાવોનો સર્વથા અભાવના સ્વીકારમાં પણ પ્રસ્તુતમાં કોઈ દોષ આવતો નથી તે બતાવતા કહે છે तीए तीयत्तेणं अणागते तेण चेव स्वेणं । . गेण्हइ जं ते दाणिं गहणे विणं तेसि तदभावो ॥१३२२॥ (अतीतान् अतीतत्वेनानागतान् तेनैव रूपेण । गृह्णाति यत्तान् इदानीं ग्रहणेऽपि न तेषां तदभावः ॥ यत्-यस्मात्तान् भावान् अतीतानतीतत्वेन, अनागतान् तेनैव-अनागतत्वलक्षणेन रूपेण गृह्णाति, अन्यथा तद्धान्तत्वप्रसङ्गात्, तस्मात् 'दाणिं ति' इदानींशब्दस्य"लोपोऽरण्ये" इति योगविभागादादेरिकारस्य लोपे, "नो ण" इति नकारस्य णत्वे च 'दाणिमिति' रूपं भवति, तदुक्तम्-"लोप इदानींशब्दे योगविभागादिहादेः स्या" दिति। तत इदानी-संप्रति तेषाम्-अतीतादीनां ग्रहणेऽपि न तदभावः-अतीतादिरूपत्वाभावः, यदि हीदानीमपि तद्भावः स्यात्तदा तदभावः प्रसज्यते नान्यथेति ॥१३२२॥ ગાથાર્થ:- સર્વજ્ઞ અતીતભાવને અતીતરૂપે જ, અને અનાગતભાવોને અનાગતરૂપે જ ગ્રહણ કરે છે. કેમકે જો અન્યથારૂપે ગ્રહણ કરે તો તે ભ્રાન્તરૂપ થવાનો પ્રસંગ છે. તેથી વર્તમાનમાં અતીતાદિના ગ્રહણમાં પણ અતીતાદિરૂપતાનો અભાવ આવતો નથી. જો વર્તમાનમાં પણ તે ભાવો હોય (=વર્તમાનરૂપે શ્રેય) અથવા એ અતીતાદિભાવોને વર્તમાનમાં પણ અતીતાદિને બદલે વર્તમાનરૂપે જ જોવામાં આવે તો અતીતાદિભાવોના અભાવનો પ્રસંગ આવે, અન્યથા નહીં. “લોપો અરણ્ય સૂત્રના યોગવિભાગથી ‘ઈદાનીં શબ્દના આરંભનાઈનો લોપ થયો અને “નો ણ' સૂત્રથી ન” કારનો ‘ણ' કાર થયો. તેથી પ્રાકૃતમાં ‘દાણિ રૂપ થાય છે. કહ્યું જ છે કે “અહીં ઈદની શબ્દમાં યોગવિભાગથી આદિનો (ઈનો) લોપ થાય'. ૧૩રરા अथोच्येत-कथमतीतानागतान् भावान् एकान्तेनाविद्यमानानपि परिच्छिन्दत्तद्विषयं ज्ञानं स्फुटाभं भवति, अत्य-- परोक्षविषयतया हि तत् ज्ञानमस्फुटाभमेव भवितुमर्हति, तथा च सति तस्य प्रत्यक्षत्वव्याघात इति, तदसमीचीनम्, अत्यन्तपरोक्षविषयस्यापि ज्ञानस्य स्फुटाभत्वेनोपलभ्यमानत्वात् यत आह - * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 315 * * * * * * * * * * * * * * * Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++स सिद्विार +++++++++++++ પૂર્વપક્ષ:- અતીત અને અનાગત ભાવો એકાન્ત અવિદ્યમાન છે. તેથી તે ભાવોનો બોધ કરતું જ્ઞાન સ્પષ્ટઆભાવાર્થ કેવી રીતે સંભવે? કેમકે એ જ્ઞાન અત્યન્તપરોક્ષ વસ્તુને વિષય બનાવતું લેવાથી અસ્ફટાભ=અસ્પષ્ટઆભાવાળું જ થવું જોઇએ. અને જો તે અસ્પષ્ટઆભાવાનું હોય તો તે પ્રત્યક્ષરૂપ નથી. ઉત્તરપક્ષ:- આમ કહેવું યોગ્ય નથી. અત્યન્તપરોક્ષને વિષય બનાવતું પણ જ્ઞાન સ્ફટાભ રૂપે ઉપલબ્ધ થાય જ છે. કેમકે मुणइ य घडम्मि दिढे पिंडकपालादिए इहं कोवि । पच्चक्खेण वि पतिभाणाणी ता संभवइ एतं ॥१३२३॥ (जानाति च घटे दृष्टे पिण्डकपालादीनिह कोऽपि । प्रत्यक्षेणापि प्रतिभाज्ञानी तस्मात् संभवति एतत् ॥) ह-जगति कोऽपि प्रतिभाज्ञानी प्रत्यक्षेणापि आस्तां परोक्षज्ञानेनेत्यपिशब्दार्थः, मणति-जानाति, घटे दष्टे सति पिण्डकपालादीन पर्यायान, आदिशब्दात् यथाक्रममतीतानागताः शिवकशर्करादयः पर्याया गृह्यन्ते, न च तत्तथापरिच्छिन्ददपि परोक्षं युज्यते, तथाऽनभ्युपगमात् । 'ता' तस्मादेतदपि केवलज्ञानं सकलातीतानागतपर्यायाणामविद्यमानानामपि ग्राहकं स्फुटाभमेव संभवतीति न कश्चिद्दोषः ॥१३२३॥ uथार्थ:- 15 प्रतिमाशानी प्रत्यक्षथी ५ए। (-परोक्षशाननी पात २ मो-सामपि।' २०६नो अर्थ छ.)यो જોઇને પિણ્ડ-કપાલાદિ પર્યાયોને જાણે છે. અહીં “આદિ' શબ્દથી યથાક્રમ અતીત અને અનાગત શિવક-શર્કરા (નાના ટૂકડા આદિ પર્યાયોને પણ જાણે છે. અને આમ પિશ્તાદિપર્યાયોના કરાતા બોધને પરોક્ષબોધ કહેવો યોગ્ય નથી, કેમકે તેવો સિદ્ધાન્ત નથી. (વિશિષ્ટજ્ઞાની વ્યક્તિ ઘડાને જોઈને જ તેના ભૂતકાલીન પિણ્ડ, શિવકાદિ પર્યાયોને તથા ભવિષ્યકાલીન ઠીકરા, ટૂકડા આદિ પર્યાયોને પણ જાણી લે છે. કેમકે તે જાણે છે કે જગતની તમામ પરિવર્તનશીલવસ્તુઓમાં ઘડાના પૂર્વપર્યાયો પિચ્છાદિ છે અને ઉત્તરપર્યાયો ઠીકરાઆદિ છે. તેથી ઘટને જોતાં જ તેના પૂર્વ-ઉત્તર પર્યાયનો પણ બોધ કરી લે છે. આ બોધ ઘટપ્રત્યક્ષપર આધારિત–સંબંધિત હોવાથી પ્રત્યક્ષરૂપ જ છે.. નૈયાયિકો પણ એક ઘટના પ્રત્યક્ષબોધથી સામાન્ય સંબંધથી તમામ ધટનો પ્રત્યક્ષબોધ “અલૌકિક પ્રત્યક્ષ' ના નામે સ્વીકારે છે. તેથી આ કેવળજ્ઞાન પણ સઘળા અતીત-અનાગત પર્યાયોને ભલે વર્તમાનમાં તેઓ અવિદ્યમાન હોય, તો પણ પ્રત્યક્ષરૂપે જ–સ્પષ્ટભરૂપે જ ગ્રહણ કરે તે સંભવે છે, તેમાં કોઇ દોષ નથી. ૧૩ર૩ મતાંતરીય સ્વખાદિ દષ્ટાન્ન अत्रैव मतान्तरं प्रतिपादयन्नाह - હવે અહીં મતાન્તરનું પ્રતિપાદન કરતાં કહે છે अण्णे तु असंतेसु वि सुविणादिसु जह फुडाभमेतं ति । एत्तो चिय पच्चक्खं भणंति तं वीयरागस्स ॥१३२४॥ (अन्ये तु असत्सु अपि स्वप्नादिषु यथा स्फुटाभमेतदिति । अत एव प्रत्यक्षं भणन्ति तद्वीतरागस्य ॥ अन्ये त्वाचार्या मायासूनवीया यथा स्वप्नादिष्वादिशब्दात्कामशोकाद्यवस्थापरिग्रहः एतत्-ज्ञानं विषयासत्त्वेऽपि स्फुटाभमितिः-एवमसत्स्वपि अतीतानागतेषु विषयेषु वीतरागस्य तत्-केवलज्ञानं स्फुटाभं भणन्ति, अत एव च-स्फुटाभत्वादेव च तत्-प्रत्यक्ष भणन्ति-प्रतिपादयन्ति, प्रत्यक्षशब्दस्य हि प्रवृत्तिनिमित्तमर्थसाक्षात्कारित्वं, यथा गोशब्दस्य खुरककुदादिमत्त्वं, तच्चार्थसाक्षात्कारित्वं वीतरागज्ञानेऽप्यविशिष्टं, ततः कथमिव न तत् प्रत्यक्षं भवेदिति। तथा च तैरुक्तम् - "भावनाबलतः स्पष्टं, भयादाविव भासते । यत्स्पष्टमविसंवादि, तत्प्रत्यक्षमकल्पकम् ॥१॥" इति, अस्यायमर्थः- स्पष्टंस्पष्टग्राह्याभासं यन्मनोविज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्, कुतस्तस्य स्पष्टाभत्वमित्यत आह- 'भावानाबलतः' भावनायां बलं सामाखु, प्रकर्षश्च भावनायाः सामर्थ्य तस्मात् भावनाबलात् स्पष्टं तन्मनोविज्ञानं भवति । 'भयादाविवेत्यनेन दृष्टान्तेन भावनानिमित्तकं स्पष्टाभत्वं प्रसिद्धं दर्शयति । तच्च भ्रान्तमपि भवति, तथाहि-असत्यविकल्परूपमपि मनोविज्ञानं भाव्यमानं स्पष्ट प्रतिभासं भवत्येव, न च तत्प्रत्यक्षमतस्तन्निवृत्त्यर्थमाह-अविसंवादि-विसंवादरहितं, तत्प्रत्यक्षमकल्पकं-निर्विकल्पकम्, अकल्पकता च स्फुटाभत्वेन तन्मतापेक्षया द्रष्टव्या, एतदुक्तं भवति-भागवतमपि ज्ञानं भावनाप्रकर्षवशाद्विशदाभं प्रमाणपरिशुद्धविषयतया चाभ्रान्तमतः प्रत्यक्षमिति । कथं पुनर्भावनाबलतो मनोविज्ञानस्य स्पष्टाभता भवतीत्येतदाशङ्कानिवृत्त्यर्थं यदुक्तं- 'भयादाविवेति' तद्व्याख्यानायैव तैरुक्तम्- "कामशोकभयोन्मादचौरस्वप्नाद्युपप्लुताः । अभूतानपि पश्यन्ति, पुरतोऽवस्थितानिव ॥१॥ * * * * * * * * * * * * * * * * - २ -316* * * * * ** * * * * * * * * Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર यथाविप्लवमावेगप्रतिपत्तिप्रदर्शनात् । परोक्षगतिसंज्ञायां, तथा वृत्तेरदर्शनात् ॥ २ ॥ तस्माद्भूतम भूतं वा, यद्यदेवातिभाव्यते । भावनापरिनिष्पत्तौ, तत् स्फुटाकल्पधीफलम् ॥३ ॥” इति, अमीषां चानुष्टभामयं संक्षेपार्थः - चौरस्वप्नो नाम यत्र स्वप्ने चौरानभिमुखमापततः पश्यति, आदिशब्दस्तदन्यैवंविधप्रकारसूचनार्थः, तैः कामादिभिरुपप्लुता अभूतानपि - अविद्यमानानपि पुरतोऽवस्थितानिव प्रियतमादीन् भावान् पश्यन्ति । कथं पुनरेतदवसीयते पुरतोऽवस्थितानिव तांस्ते पश्यन्तीत्यत आह‘યથેત્યાદ્રિ’ પ્રવેશ:-સંપ્રમઃ જાયાવસ્થાવિશેોરોમાગ્રતક્ષળમ્પતક્ષળો વા, प्रतिपत्तिः - दर्शनानुरूपमनुष्ठानं कान्ताकण्ठाकर्षणादि कस्को वेत्याभाषणं, साहंकारश्च खड्गादिपरिग्रहः, अनयोर्यथाविप्लवं - कामादिविप्लवानतिक्रमेण दर्शनात् यथाविप्लवमावेगप्रतिपत्तिदर्शनेऽपि कथं प्रत्यक्षवत् स्पष्टाभं तेषां दर्शनमित्याह - परोक्षस्य गतिः - ज्ञानं तस्याः संज्ञानिश्चयस्तस्यां सत्यां तेन प्रकारेण वृत्तेः- प्रवृत्तेरावेगादिरूपाया अदर्शनात्, तस्मात् भूतमभूतं वा यत् यदेवातिशयेन भाव्यते तत् भावनाप्रकर्षे सति स्फुटाकल्पकधीफलं स्फुटाया अकल्पिकाया धियो हेतुर्भवतीत्यर्थः । तत्र यदसत्यं तत् पूर्वविज्ञानारूढं तस्मादव्यतिरिक्तमुत्तरज्ञानस्य हेतुर्भवति, यत् पुनः सत् तत् भाव्यमानं स्वभावेनैव हेतुर्भवति, न ज्ञान તં પ્રસફેન ।।૨૩૨૪॥ ગાથાર્થ:- બીજા માયાસુનવીય(=બૌદ્ધ) આચાર્યોનો મત:- સ્વપ્ન, કામ, શોકઆદિઅવસ્થાઓમાં વિષયની ગેરહાજરીમાં પણ સ્પષ્ટઆભાવાળું જ્ઞાન છે. (સ્વપ્નમાં સ્વપ્નમાં દેખાતી વસ્તુઓ, કામાવસ્થામા-કામરાગથી પીડાતી વ્યક્તિને ભાસતી કામ્યવ્યક્તિ, શોકાવસ્થામા શોકાર્તવ્યક્તિને જે સંબધી શોક છે, કલ્પનામાં ભાસતી તે વસ્તુ/વ્યક્તિ તે કાળે હાજર ન હોવા છતાં તેની હાજરીઆદિની સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થાય છે.) એ જ પ્રમાણે અવિધમાન એવા પણ અતીત-અનાગતભાવોઅંગે વીતરાગનુ કેવળજ્ઞાન સ્પષ્ટાભાવાળુ હોઇ શકે છે. અને સ્ફુટાભાવાળું હોવાથી જ પ્રત્યક્ષ છે. કેમકે ‘પ્રત્યક્ષ’શબ્દના પ્રયોગમા ‘અર્થસાક્ષાત્કારિતા’ જ હેતુભૂત છે, જેમકે ‘ગો'શબ્દના પ્રયોગમાં ‘ખુર, સ્કન્ધાદિમત્તા’ કારણભૂત છે. વીતરાગના જ્ઞાનમા પણ તે અર્થસાક્ષાત્કારિતા સમાનતયા છે જ. તેથી વીતરાગજ્ઞાન કેમ પ્રત્યક્ષરૂપ ન હોય? અર્થાત્ પ્રત્યક્ષરૂપ જ છે. તેથી જ કહ્યું છે- ‘ભાવનાબળથી ભયાદિની જેમ સ્પષ્ટ ભાસે છે. જે અવિસંવાદી સ્પષ્ટ છે તે અકલ્પક-નિર્વિકલ્પ પ્રત્યક્ષ છે.' આનો અર્થ→ સ્પષ્ટ–ગ્રાહ્યાર્થના સ્પષ્ટાભાવાળુ જે મનોવિજ્ઞાન છે, તે પ્રત્યક્ષ છે: આ જ્ઞાનની સ્પષ્ટાભતા કેવી રીતે છે? તે બતાવે છે ભાવનાબલત” ભાવનામાં પ્રકર્ષરૂપ જે સામર્થ્ય છે, તેના બળથી તે મનોવિજ્ઞાન સ્પષ્ટ થાય છે. અહીં ‘ભયાદિમા’ એ દૃષ્ટાન્ત છે. ભયાદિવખતે સ્પષ્ટાભ મનોવિજ્ઞાન પ્રસિદ્ધ છે, તેના આધારે ભાવનાબળથી થતા મનોવિજ્ઞાનની સ્પષ્ટાભતા પ્રસિદ્ધ કરી. એમ તો અસત્યવિકલ્પરૂપ પણ ભાવિત કરાતુ મનોવિજ્ઞાન સ્પષ્ટપ્રતિભાસવાળું હોઇ શકે છે, ભ્રાન્ત બની શકે છે. અને તે પ્રત્યક્ષરૂપ નથી. તેથી તેનો નિષેધ કરવા કહે છે ‘અવિસંવાદિ’ વિસંવાદ વિનાનું. આ પ્રત્યક્ષ વિસવાદરહિતનું છે અને નિર્વિકલ્પક છે. સ્ફુટાભમય હોવાથી જ અકલ્પકતા= નિર્વિકલ્પતા સિદ્ધ છે. તાત્પર્યં:- ભગવાનનું જ્ઞાન પણ ભાવનાપ્રકર્ષના કારણે સ્પષ્ટાભાવાળું અને ‘પ્રમાણથી પરિશુદ્ધવિષયવાળુ હોવાથી અભ્રાન્ત હોય છે. તેથી એ જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે. ભાવનાબળથી મનોવિજ્ઞાન સ્પષ્ટઆભાવાળુ કેવી રીતે બને? તેવી આશંકા દૂર કરવા કહે છે ‘ભયાદો ઇવ’ આની વ્યાખ્યા તેઓએ જ આ પ્રમાણે કહી છે—કામ, શોક, ભય, ઉન્માદ, ચોરસ્વપ્નઆદિથી વિપ્લવિત થયેલાઓ અવિધમાન એવા પણ ભાવોને જાણે સામે જ રહેલા હોય, તેમ જૂએ છે. (૧) યથાવિપ્લવ આવેગની પ્રતિપત્તિ દેખાતી હોવાથી પરોક્ષગતિસંજ્ઞામા તથાવૃત્તિ દેખાતી નહીં હોવાથી (૨) તેથી સદ્ભૂત કે અસદ્ભુત જે જેની અતિભાવના થાય છે. તે તે ભાવનાની પરિનિષ્પત્તિ થયે સ્ફુટ નિર્વિકલ્પકબુદ્ધિરૂપ ફળવાળું બને છે. (૩)આ અનુષ્ટુપ શ્લોકોનો સંક્ષેપાર્થ આ પ્રમાણે છે→ ચોરસ્વપ્ન= જે સ્વપ્નમાં ચોરને સામે આવતા જૂએ. અહીં ચોરસ્વપ્નાદિમા આદિપદથી બીજા પણ આવા પ્રકારના અર્થોનું સૂચન થાય છે. આમ કામ, શોક, ભય, ઉન્માદ, ચોરસ્વપ્નાદિથી અભિભૂત થયેલો (=વિપ્લવિત) અવિધમાન એવા પણ પ્રિયતમાદિભાવોને જાણે સામે જ ઊભા ન હોય' એમ જૂએ છે. એ શી રીતે ખબર પડે કે તેઓ એ ભાવોને જાણે કે સામે ઊભા ન હોય તેમ જૂએ છે? તેથી કહે છે. શરીરની રોમાચરૂપ કે કંપનરૂપ અવસ્થાવિશેષરૂપ આવેગ=સભ્રમ, તથા દર્શનને અનુરૂપ સ્ત્રીના કંઠને ખેંચવાદિરૂપ ચેષ્ટા, કોણ છે? ઇત્યાદિ ભાષણ અને અહંકારપૂર્વક તલવારઆદિ પકડવા આવી પ્રવૃત્તિઓ. આમ કામાદિના અભિભવને અનુરૂપ (યથા) વિપ્લવ આવેગ અને પ્રવૃત્તિઓ દેખાય છે. તેથી તેઓ તેવા ભાવોને જાણે કે સામે ઊભા ન હોય તેમ જૂએ છે” તેવો ખ્યાલ આવી શકે છે. અભિભવને અનુરૂપ આવેગ-પ્રત્તિપત્તિ દેખાતી હોય, તો પણ તેઓનુ દર્શન પ્રત્યક્ષની જેમ સ્પષ્ટાભાવાળુ જ છે, તે શી રીતે જાણી શકાય? તે અંગે કહે છે- પરોક્ષના જ્ઞાનના નિશ્ચયમા અર્થાત્ તે જ્ઞાન જો પરોક્ષ હોય તો આવેગાદિ દેખાય નહિ. એક વ * * * ધર્મસગ્રહણિ-ભાગ ૨ – 317 * * * ܀ ܀ ܀ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વસિદ્ધિ દ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * સાર:- કામાદિથી અભિભૂત થયેલાને જે પ્રિયતમાદિભાવો પરોક્ષાત્મકરૂપે અનુભૂત થતા હોય, તો તેઓમાં તેવા આવેગાદિ દેખાય નહીં. તેથી વિદ્યમાન અથવા અવિદ્યમાન એવી જે-જે વસ્તુ અતિશય ભાવિત કરાય તે-તે વસ્તુ ભાવનાનો પ્રકર્ષ થયે સ્ફટ એવી અવિકલ્પકબદ્ધિમાં હેત બને છે. અર્થાત્ તેના ફળરૂપે તેવી સ્ફટ અવિકલ્પક બુદ્ધિ થાય છે. તેમાં જે અસત્ય હોય છે તે પૂર્વવિજ્ઞાનમાં આરૂઢ થયેલું હોય છે અને તેનાથી અવ્યતિરિક્ત હોય છે. અને ઉત્તરજ્ઞાનનો હેતુ બને છે. અને જે સત શ્રેય છે, ભાવન કરાતું તે સત સ્વભાવથી જ હેતુ થાય છે. નહીં કે જ્ઞાનમાં આરૂઢ થવારૂપે. અહીં પ્રસંગથી સર્યું. જેમ અતિશયિત ભાવનાથી ભાવિત પદાર્થો નિર્વિકલ્પકપ્રત્યક્ષના વિષય બને છે. તેમ કેવળજ્ઞાનના પણ વિષય બનતા પદાર્થો અતીત/અનાગત હોય, તો પણ વર્તમાનની જેમ પ્રત્યક્ષ જ હોય છે. ૧૩૨૪ तदेवं केवलज्ञानं यथोपपन्नं भवति तथाऽभिधाय सांप्रतं साकारानाकारताचिन्तया तदभिधातुमुपक्रमते - કેવળજ્ઞાનમાં છાયા-પ્રતિબિમ્બનો નિષેધ - આમ જે રીતે કેવલજ્ઞાન યુક્તિસંગત બને તે બતાવ્યું, હવે સાકાર–અનાકારતાની વિચારણા દ્વારા કેવલજ્ઞાનઅંગે પ્રકાશ પાથરવાનો આરંભ કરે છે. तं पुण विसयागारं सो य इमस्सेव गहणपरिणामो । णतु बिंबसंकमादी पोग्गलस्वत्ततो तस्स ॥१३२५॥ (तत् पुन विषयाकारं स चास्यैव ग्रहणपरिणामः । न तु बिम्बसंक्रमादि पुद्गलरूपत्वात् तस्य ॥) तत्-केवलज्ञानं पुनःशब्दो वक्तव्यतान्तरप्रदर्शनार्थः, विषयाकारं-विषयस्य परिच्छेदकतया संबन्धी आकारो यस तद्विषयाकारम् । कः पुनरस्याकार इति चेत् ? अत आह-स चाकारोऽस्यैव ज्ञानस्य विवक्षितविषयगोचरो ग्रहणपरिणामः, अन्यथा तदभावाविशेषतः सर्वस्य सर्वार्थपरिच्छित्तिप्रसक्त्या सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । अन्ये त्वाहः-"विषयबिम्बसंक्रमादिराकार" इति, तन्मतं दूषयितमाह-'न उ' इत्यादि न तु बिम्बसंक्रमादि-बिम्बसंक्रम आदिशब्दात् बिम्बसदृशबिम्बोत्पाद आकारः। कुत इत्याह-तस्य बिम्बस्य पुद्गलरूपत्वात् । बिम्बं हि चक्षुर्विषय आकार उच्यते, चक्षुषश्च विषयो रूपं, रूपं च स्पर्शाद्यविनाभावि, स्पर्शादिमन्तश्च पुद्गलाः, "रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः पुद्गला" इति वचनात् । तस्मात् पुद्गलधर्म एव बिम्ब, तत्संक्रमाद्यभ्युपगमे चानेकदोषप्रसङ्गः, तथाहि-धर्मास्तिकायादीनाममूर्ततया बिम्बं न संभवत्येवेत्यव्याप्तिः, येषामपि च घटादीनां बिम्बं संभवति तेषामपि ज्ञाने बिम्बसंक्रान्तौ निराकारताप्रसङ्गः, विषयसदृशबिम्बोत्पादाभ्युपगमे च ज्ञानस्यापि विषयस्येव पौद्गलिकत्वप्रसङ्ग इति ॥१३२५॥ ગાથાર્થ:- (મૂળમાં પુન: શબ્દ વિષયાન્તરસૂચક છે.) કેવળજ્ઞાન પરિચ્છેદકરૂપે વિષયસંબંધી આકારવાળું હોય છે. આ (કેવળજ્ઞાન) નો આકાર કેવો છે? તે બતાવે છે- આ જ જ્ઞાનનો વિવક્ષિતવિષયસંબંધી ગ્રહણપરિણામ જ આકારરૂપ છે. જો આવો ગ્રહણપરિણામરૂપ આકાર ન માનો, તો બધા જ વિષયઅંગે તેવા આકારનો અભાવ સમાનતયા હોવાથી બધાને જ બધા જ અર્થોનો પરિચ્છેદ થવાનો પ્રસંગ હોવાથી બધા જ સર્વજ્ઞ બની જવાનો પ્રસંગ છે. બીજાઓ કહે છે કે “વિષયના બિંબનો સંક્રમ થવો વગેરરૂપે આકાર છે.” આ મતને દૂષિત કરવા કહે છેબિમ્બસંક્રમાદિ આદિશબ્દથી બિમ્બતુલ્ય બિમ્બની ઉત્પત્તિરૂપે આકાર નથી, કેમકે બિમ્બ પુગળરૂપ છે. ચક્ષનો વિષયભૂત આકાર બિમ્બ કહેવાય. અને ચક્ષનો વિષય છે રૂપ. અને રૂપ સ્પર્શદિ ગુણોને અવિનાભાવી છે. અને પુગલો જ સ્પર્શદિવાળા છે. કહ્યું છે કે રૂપ, રસ, ગન્ધ, સ્પર્શવાળા પુદ્ગલો છે તેથી બિમ્બ પુદ્ગલનો જ ધર્મ છે. આવા બિમ્બના સંક્રમાદિના સ્વીકારમાં અનેક દેશો આવવાનો પ્રસંગ છે. તથાતિ- ધર્માસ્તિકાયવગેરે અમૂર્ત છે, તેથી તેઓનું બિમ્બ જ ન હોવાથી બિમ્બસંક્રમાદિ ન સંભવે.) તેથી બિમ્બસંક્રમાદિરૂપ આકાર માનવામાં ધર્માસ્તિકાયાદિમાં અવ્યાપ્તિ છે. (જ્ઞાનનો વિષય હોવા છતાં બિમ્બાદિ ન હોવાથી અવ્યાપ્તિ છે.) વળી ઘડાવગેરે જેઓના પણ બિમ્બ સંભવે છે, તેઓ પણ જ્ઞાનમાં બિમ્બસંક્રાન્તિ થવાથી સ્વયં નિરાકાર થઈ જવાની આપત્તિ છે. કેમ કે પોતાના બિમ્બ-આકાર જ્ઞાનમાં સંકાન્ત થવાથી પોતે બિમ્બરહિત બની ગયા.) આ આપત્તિ ટાળવા બિસંક્રાન્તિને બદલે વિષયના બિમ્બને સદેશ બિમ્બની જ્ઞાનમાં ઉત્પત્તિ સ્વીકારવામાં તો જ્ઞાન પણ બિમ્બવાળ બનવાથી પૌગલિક બનવાનો પ્રસંગ છે. ૧૩રપા स्यादेतत. न विषयबिम्बसंक्रमस्पो जाने आकारो मन्यते येन विषयस्य निराकारता प्रसज्येत. नापि विषयसदशबिम्बोत्पादो यतः पौगलिकत्वं ज्ञानस्याप्यापद्येत, किंत्वादर्श इवाङ्गनावदनस्य विषयस्य प्रतिच्छायासंक्रमो ज्ञाने आकार इत्यत आह - જ જ જ ન જ જ જ ન જ જ ન જ ન જ ન જ ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 318 * * * * * * * * * * Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिबिर + + + + + + + + + + + + + + + ++ પૂર્વપક્ષ:- અમે જ્ઞાનમાં આકારને વિષયના બિમ્બના સંક્રમરૂપ નથી માનતા કે જેથી વિષયને નિરાકાર બનવાનો પ્રસંગ આવે. તેમ જ અમે જ્ઞાનમાં વિષયના બિમ્બને સદેશ બિમ્બની ઉત્પત્તિ પણ નથી માનતા કે જેથી જ્ઞાન પૌદ્ગલિક બનવાની આપત્તિ આવે, પરંતુ અમારા મતે તો જેમ સ્ત્રીના મુખની પ્રતિચ્છાયા દર્પણમાં પડે છે, તેમ જ્ઞાનમાં વિષયની પ્રતિચ્છાયારૂપ જે સંક્રમ छ, १२३५ छ, तम ये छी.. અહીં આચાર્યવર્ય ઉત્તરપક્ષ સ્થાપે છે. बिंबपडिच्छाया वा पोग्गलजोगं विणा ण संभवति । अब्भुवगमे य सो च्चिय आवज्जइ गहणपरिणामो ॥१३२६॥ (बिम्बप्रतिच्छाया वा पुद्गलयोगं विना न संभवति । अभ्युपगमे च स एवापद्यते ग्रहणपरिणामः ॥ 'बिंबेत्यादि' वाशब्दोऽपास्यपक्षान्तराभ्युच्चये । बिम्बप्रतिच्छाया पुद्रलयोग-बिम्बप्रतिच्छायापरिणामयोग्यपुद्गलसंबन्धं विना-अन्तरेण न संभवति, उक्तं चाचार्येणैवान्यत्र-“न ह्यङ्गनावदनच्छायाणुसंक्रमातिरेकेणादर्शकेऽन्यस्तत्प्रति बिम्बसंभवोऽम्भसि वा निशाकरबिम्बस्येति" । परममुनिभिरप्युक्तम्- “सामा उ दिया छाया अभासुरगया निसिं तु कालाभा । सच्चिय भासुरगया सदेहवण्णा मुणेयव्वा ॥१॥ जे आयरिसंतत्तो (आरिसस्स अंतो) देहावयवा हवंति संकंता । तेसिं तत्थुवलद्धी पगासजोगा न इयरस्से ॥२॥ ति" (छा. श्यामा तु दिवा छाया अभास्वरगता निशि तु कालाभा । सैव भास्वरगता स्वदेहवर्णा ज्ञातव्या ॥१॥ ये आदर्शस्यान्तदेहावयवा भवन्ति संक्रान्ताः । तेषां तत्रोपलब्धिः प्रकाशयोगान्नेतरस्य) तथा च सति स एवाव्याप्तिदोषो, धर्मास्तिकायादीनामपौद्गलिकतया तत्प्रतिबद्धच्छायापुद्गलाभावात्। अथ विषयप्रतिच्छायापरिणाम-योग्यपुगलसंबन्धमन्तरेणापि ज्ञाने विषयप्रतिच्छायाभ्युपगम्यते, तत्राह-अभ्युपगमे च पुद्गलयोगं विनापि विषयप्रतिच्छायायाः स एवापद्यते ग्रहणपरिणामलक्षण आकारः, तदुक्तमाचार्येणैवान्यत्र-"तत्प्रतिबद्धवस्त संक्रमाभावे च प्रतिबिम्बाभावे अस्मदभ्युपगमाकारसिद्धिरेवेति" ॥१३२६॥ - ગાથાર્થ:- (મૂળમાં વા' શબ્દ ખંડનીયપણાન્તરના સમાવેશમાટે છે.) ઉત્તરપક્ષ:- બિમ્બપ્રતિચ્છાયાપરિણામને પામી શકે તેવા પુદગલના સંબંધ વિના બિમ્બપ્રતિચ્છાયા સંભવે નહીં. આચાર્યવર્ય જ (પૂ. હરિભદ્ર સૂ.મ.) અન્યત્ર (=અન્ય ગ્રન્થમાં) કહ્યું છે કે સ્ત્રીના મુખના છાયાણુઓના સંક્રમ વિના દર્પણમાં અન્યરૂપે સ્ત્રીના વદનના પ્રતિબિમ્બનો સંભવ કે પાણીમાં ચંદ્રબિમ્બના પ્રતિબિમ્બનો સંભવ નથી” પરમમુનિએ (પૂર્વધર) પણ કહ્યું છે “અભાસ્તરવસ્તુમાં ગયેલી છાયા દિવસે શ્યામ હોય છે અને રાતે કાળી આભાવાળી હોય છે. અને એ જ છાયા ભાસ્વરવસ્તુમાં ગયેલી હોય ત્યારે પોતાના દેહના વર્ણવાળી હોય છે. આવા દર્પણની અંદર દેહના જે અવયવો સંક્રાન્ત થયા હોય તે જ અવયવોની પ્રકાશનો યોગ હોય, તો તેમાં દર્પણમાં) ઉપલબ્ધિ થાય છે, અન્યની નહી. તારા આમ હોવાથી સશબિબોત્પત્તિપણે પણ પૂર્વોક્ત અવ્યાપ્તિદોષ ઊભો જ છે, કેમકે ધર્માસ્તિકાયાદિઓ અપૌગલિક લેવાથી તેઓને પ્રતિબદ્ધ છાયાપુદગલ સંભવતા નથી. પૂર્વપક્ષ:- વિષયની પ્રતિ છાયાના પરિણામને યોગ્ય પુગલના સંબંધ વિના પણ જ્ઞાનમાં વિષયપ્રતિચ્છાયા માન્ય છે. ઉત્તરપH:- આમ પુદગલના સંબંધ વિના પણ વિષયપ્રતિચ્છાયાના સ્વીકારમાં શબ્દાત્તરથી એ જ ગ્રહણપરિણામરૂપ આકાર આવીને ઉભો રહે છે. આચાર્યવરે અન્યત્ર કહ્યું જ છે કે- વિષયપ્રતિબદ્ધ વસ્તુના સંક્રમનો અભાવ હોય, તો પ્રતિબિમ્બનો અભાવ હોવાથી અમે સ્વીકારેલા આકારની જ સિદ્ધિ થાય છે.' ૧૩રવા येषामपि मूर्तानां प्रतिच्छायापरिणामयोग्यपुद्गलसंबन्धसंभवः तत्राप्यव्याप्तिदोषमाह - જે મૂર્ત પદાર્થોનો પણ પ્રતિચ્છાયાપરિણામયોગ્યપુદગલ સાથે સંબંધ થવાનો સંભવ છે, તેઓમાં અવ્યાપ્તિદોષ બતાવતા मायार्यश्री छ ण य तस्स णेयजोगो छायाहिं पि विप्पगरिसातो । अणुपभितिसुऽभावातो णेयाणंतत्तओ चेव ॥१३२७॥ (न च तस्य ज्ञेययोगः छायाणुभिरपि विप्रकर्षात् । अणुप्रभृतिषु अभावाद् ज्ञेयानन्तत्वाच्चैव ॥ णाणस्स पिंडभावो सिद्धाण य जोगसंभवाभावा । तेसावरणपसंगा सेसपरिच्छेदविरहा य ॥१३२८॥ .. (ज्ञानस्य पिण्डभावः सिद्धानां च योगसंभवाभावात् । तेषामावरणप्रसङ्गात् शेषपरिच्छेदविरहाच्च ॥) ++++++++++++++++ aslee-un2-319+++++++++++++++ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ सर्वसिद्धि द्वार + + न च तस्य—सर्वज्ञज्ञानस्य छायाणुभिरपि - छायाणुपक्षेऽपि ज्ञेययोगो - ज्ञेयसंबन्धः संभवति । कुत इत्याह - विप्रकर्षात् –देशादिविप्रकर्षभावात् । तथा अणुप्रभृतिषु च - सूक्ष्मद्रव्येषु छायापुद्गलानामभावात् न तैर्योगः । स्थूलेषु हि छायाणुसंबन्धो, न सूक्ष्मेषु, तथादर्शनादिति । तथा ज्ञेयानि पुद्गलद्रव्यरूपाण्यप्यनन्तानि ततो युगपत्तत्तत्प्रतिबद्धच्छाया - परमाणु संक्रमाभ्युपगमे तेषां छायाणूनां परस्परं पिण्डभावसंभवात् ज्ञानस्य परिच्छेदस्य पिण्डभाव एव प्राप्नोति न तु वैविक्त्यं, विषयप्रतिच्छायाधीना हि विषयपरिच्छित्तिस्तथाऽभ्युपगमात्, विषयप्रतिच्छायाश्चोक्तवत्परस्परं पिंडरुपतामापन्ना इति परिच्छेदस्य वैविक्त्येनाभावः । तथा सिद्धानां सकलकर्मविनिर्मुक्तानां ज्ञानस्य न सर्वथा छायाणुभिरपि ज्ञेययोग इति संटङ्कः । इत्याह–‘योगसंभवाभावात्' तेषामशरीरतया छायाणुभिः सहाकाशस्येव संबन्धविशेषसंभवाभावात्, अन्यथा 'तेसावरणपसंग त्ति' तेषां - सिद्धानामावरणप्रसङ्गात्, तैर्हि छायाणुभिः सहान्योऽन्यव्याप्तिसंबन्धाभ्युपगमे त एवावारका भवेयुस्तथा च सिद्धत्वक्षितिरिति । तथा शेषस्य - छायाणुव्यतिरिक्तस्यासंक्रान्तस्य ज्ञेयस्य परिच्छेदविरहप्रसङ्गात्। ज्ञानं हि संक्रान्तमेव वेदयते, संक्रान्ताश्च ज्ञाने छायाणव एव न तत्प्रतिबद्धं ज्ञेयं, तत् कथं तत् ज्ञेयं वस्तु ज्ञानमवगच्छेत् ? तथारूपछायाऽण्व - न्यथानुपपत्त्या तदपि ज्ञेयं वस्तु ज्ञानं वेदयते, तेनायमदोष इति चेत् ? नैवं, सार्वज्ञस्यापि ज्ञानस्यानुमानत्वप्रसंगादिति यत्किंचिदेतत् ॥१३२७-१३२८॥ ગાથાર્થ:- છાયાપક્ષે પણ સર્વજ્ઞજ્ઞાનનો જ્ઞેયસાથે સંબંધ સંભવતો નથી કેમકે (૧)તે જ્ઞેયો દેશાદિથી અત્યંત દૂર રહ્યા હોય છે. (૨) અણુવગેરે સૂક્ષ્મદ્રવ્યોમાં છાયાપુદ્ગલોનો અભાવ હોય છે. એવું જ દેખાય છે કે સ્ટૂલ દ્રવ્યોમા જ છાયાણુઓનો સંબંધ હોય છે સૂક્ષ્મોમા નહીં. (તેથી અણુઓસાથે પણ શેયસંબંધ ન સંભવે.)(૩) પુદ્ગલદ્રવ્યરૂપ શેયો અનન્ત છે. તે બધાને પ્રતિબદ્ધ છાયાણુઓનો એકસાથે સક્રમ સ્વીકારવામાં તે છાયાણુઓનો પરસ્પર પિંડભાવ થવાનો સંભવ છે, અને તેથી પરિચ્છેદાત્મક જ્ઞાન પણ પિણ્ડાત્મક થવાની પ્રાપ્તિ છે, નહીં કે વૈયકિતક. પૂર્વપક્ષે એવું સ્વીકાર્યું છે કે વિષયની પ્રતિચ્છાયાને આધીન જ વિષયનો પરિચ્છેદ છે. અને ઉપર કહ્યુ તેમ પરસ્પરપિંડરૂપતાને પામેલા છે. તેથી પચ્છેિદમાં વિવિક્તા-વૈયક્તિકભાવ આવતો નથી. વળી (૪)સકલ કર્મરાશિથી વિમુક્ત સિદ્ધોના જ્ઞાનનો છાયાણુઓદ્વારા પણ સર્વથા જ્ઞેયસાથે યોગ થતો નથી, કેમ કે તેઓ (=સિદ્ધોઅશરીરી હોવાથી આકાશની જેમ તેઓનો છાયાણુઓ સાથે સંબંધવિશેષ સંભવતો નથી, અન્યથા સિદ્ધોને આવરણનો પ્રસંગ છે. તે આ પ્રમાણે—તેઓનો (=સિદ્ધોનો) છાયાણુઓસાથે અન્યોન્યવ્યાપ્તિરૂપ સંબંધ સ્વીકારવામાં એ છાયાણુઓ આવારક બની રહેશે, અને આમ તો સિદ્ધોની સિદ્ધતાને ક્ષતિ પહોંચશે. (૫) છાયાણુથી ભિન્ન હોવાથી સંક્રાન્ત નહીં થયેલા શેયનો પરિચ્છેદ નહીં થવાનો પ્રસ`ગ છે. કેમકે પરમતે સંક્રાન્ત જ્ઞાન જ વેદાય છે. (=અનુભવાય છે.)અને જ્ઞાનમાં તો છાયાણુઓ જ સંક્રાન્ત થયા છે, નહીં કે તે છાયાણુઓસાથે પ્રતિબદ્ધ જ્ઞેયવસ્તુઓ. તેથી તે જ્ઞેયવસ્તુઓનુ સવેદન–જ્ઞાન કેવી રીતે કરશે? પૂર્વપક્ષ:- તેવા પ્રકારના છાયાણુઓની અન્યથા અનુપપત્તિ હોવાથી તે જ્ઞેયવસ્તુનુ પણ જ્ઞાન સંવેદન કરે જ છે. તેથી આ પક્ષ નિર્દોષ છે. ઉત્તરપક્ષ:- આ બરાબર નથી. આમ અન્યથાઅનુપપત્તિના સહાયે જ્ઞેયનું સંવેદન માનવામા સર્વજ્ઞના જ્ઞાનને અનુમાનજ્ઞાન માનવાનો (–નહીં કે પ્રત્યક્ષજ્ઞાન) પ્રસંગ છે. તેથી આ તુચ્છ છે. ૫૧૩૨૭–૨૮ા ‘સર્વગતાવભાસ’ પદના અર્થની ચર્ચા इह केचित् "सर्वगतावभास" मित्यादिवचनश्रवणतः सद्भावतो विश्वगतं केवलज्ञानमभिमन्यन्ते, तन्मतमपाचिकीर्षुराह ‘સર્વગતાવભાસ...’ ઇત્યાદિવચનના શ્રવણથી કેટલાક ‘કેવલજ્ઞાન સદ્ભાવથી વિશ્વગત છે' એવી ભ્રાન્ત માન્યતા રાખે છે. હવે આ માન્યતા દૂર કરવા આચાર્યવર્ય કહે છે णय सव्वगयं एयं सत्ताख्वेण जं अणंतो तु 1 धम्मरहितो अलोगो कह गच्छति तो तयं झत्ति ? ॥ १३२९ ॥ (न च सर्वगतमेतत् सत्तारूपेण यदनन्तस्तु । धर्मरहितोऽलोकः कथं गच्छति तस्मात्तकत् झटिति ॥) न च, चकारो मतान्तरप्रतिक्षेपसमुच्चयद्योतनार्थः, सत्तारूपेण - सद्भावेन सर्वगतं - सकलवस्तुगत मेतत्- केवलज्ञानम्। कुत इत्याह-असंभवात्, असंभवश्च यत् - यस्मादनन्त एव, तुरवधारणे, धर्म्मरहितो-धर्मास्तिकायविरहितोऽलोकोऽस्ति, 'ता' तस्मात्कथं तकत्–केवलज्ञानमलोके झटिति गच्छति ? नैव गच्छतीतिभावः । तत्र गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावात् समयमात्रेण च सामस्त्येन गमने तस्यानन्तत्वविरोधाच्च, अत एव धर्मरहित इति अनन्त इति च विंशेषणद्वयमुपादायीति ॥१३२९॥ **** धर्मसंग्रह - भाग २ - 320**** ++++ +++ of Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ data ܐ: ܟ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ગાથાર્થ:- (ચકાર મતાન્તરના પ્રતિક્ષેપનો દ્યોતક છે.) કેવલજ્ઞાન સકલવસ્તુગત નથી, કેમકે અસંભવ છે. અલોક અનન્સ લેવાથી અને ધર્માસ્તિકાયથી રહિત હોવાથી કેવલજ્ઞાન કેવી રીતે જલ્દી અલોકમાં જઇ શકે? અર્થાત ન જ જઇ શકે. આમ કેવળજ્ઞાનને સર્વગત માનવામાં અલોકમાં ધર્માસ્તિકાયનો અભાવ અને એકસમયમાં અનંત અલોકાકાશમાં વ્યાપવામાં વિરોધ આ બે દોષો છે. તેથી જ અહીં અલોકના “ધર્મરહિત’ અને ‘અનન્ત’ એમ બે વિશેષણો બતાવ્યા. ૧૩૨લા अत्रैव दूषणान्तरमाह - આ જ વિષયમાં બીજું દૂષણ બતાવે છે– जं च इयमातधम्मो परिमियमाणो य सो मतो समए । ण य अदव्वा तु गुणा संकमगा चेव जुज्जति ॥१३३०॥ (यच्चेदमात्मधर्मः परिमितमानश्च स मतः समये । न चाद्रव्यास्तु गुणाः संक्रामका एव युज्यन्ते ॥) यच्च-यस्माच्च इदं-केवलज्ञानमात्मधर्मः, स चात्मधर्मः समये परिमितमान आत्मस्थो मतः । ननु भवत्वेवं परं, किंत्विदमात्मानं विमुच्य सकलमिदं जगल्लोकालोकात्मकं गत्वाऽवगच्छति, ततः सर्वगतमिति, अत्राह-'नयेत्यादि' नच-नैव अद्रव्या-द्रव्यरहिता गुणा-ज्ञानादयः संक्रामका:-संक्रमणक्रियाविधायिनो युज्यन्ते, तथादर्शनाभावात् । एवः- पूरणे । युज्यन्तां वा तथापि कथमलोके गच्छति? तत्र गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावादित्युक्तम् ॥१३३०॥ ગાથાર્થ:-વળી, આ કેવલજ્ઞાન આત્મધર્મ છે. અને આત્મામાં રહેલો હેવાથી જ તે આત્મધર્મ પરિમિત પ્રમાણવાળો છે. પૂર્વપક્ષ:- આમ ભલે હો. પરંતુ આ જ્ઞાન આત્માને છોડી લોકાલોકાત્મક જગતમાં જઈ બોધ કરે છે. તેથી સર્વગત છે. ઉત્તરપક્ષ:- જ્ઞાનાદિ ગુણો સ્વાધારભૂત દ્રવ્યને છોડી અન્યમાં સંક્રમણ પામવાવાળા દેખાતા નથી. તેથી એ યોગ્ય નથી. (“એવ' પદ પરણાર્થક છે.) અને કદાચ એવું સંક્રમણ યોગ્ય ઠરે, તો પણ અલોકમાં કેવી રીતે જશે? અલોકમાં ગતિમાં સાયકભૂત ધર્માસ્તિકાય ન હોવાથી અલોકમાં તે જ્ઞાનની ગતિ થવી યુક્તિસંગત નથી. ૧૩૩ના उपसंहरति. - ઉપસંહાર કરે છે तम्हा सव्वपरिच्छेदसत्तिमन्तं तु णायजुत्तमिणं । एत्तो च्चिय णीसेसं जाणति उप्पत्तिसमयम्मि ॥१३३१॥ (तस्मात् सर्वपरिच्छेदशक्तिमत्तु न्याययुक्तमिदम् । अस्मादेव निःशेषं जानाति उत्पत्तिसमये ॥) .. तस्मादात्मस्थमेव सत् सर्वपरिच्छेदशक्तिमत्- एतत्-केवलज्ञानमितीदं ज्ञात(न्याय)युक्तम् । अत एव च - सर्वपरिच्छेदशक्तिमत्त्वादेव चोत्पत्तिसमय एव निःशेषं जानाति, अन्यथा समयमात्रेणालोकस्यानन्ततया सामस्त्येन गमनासंभवात् कथमुत्पत्तिसमये निःशेषं जानीयात् ? ॥१३३१॥ ગાથાર્થ:- તેથી આ કેવળજ્ઞાન આત્મામાં રહીને જ સર્વપરિચ્છેદશક્તિવાળું છે એવું જ્ઞાત-ન્યાય-નિર્ણય યોગ્ય છે. અને આવી સર્વપરિચ્છેદશક્તિ હોવાથી જ કેવળજ્ઞાન ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયથી જ નિઃશેષ જાણે છે. જો આવી શક્તિ ન હોત, તો અલોક અનંત હોવાથી સમયમાત્રમાં ત્યાં સમસ્તરૂપે જવાનો સંભવ જ ન લેવાથી કેવલજ્ઞાન પોતાની ઉત્પત્તિના પ્રથમ જ સમયે શી રીતે બધું જાણી શકત? અર્થાત ન જ જાણી શકત. ૧૩૩૧ अथोच्येत-कथमेतत्प्रत्येतुं शक्यते यथोत्पत्तिसमय एव तथापरिच्छेदशक्तियुक्ततया निःशेषं जानातीति? उपपत्त्यभावाद, अत उपपत्तिमाह - પૂર્વપક્ષ:- એવી ખાતરી કરવી શી રીતે શક્ય બને કે ઉત્પત્તિના સમયે જ કેવળજ્ઞાન સર્વપરિચ્છેદશક્તિથી યુક્ત હોવાથી નિ:શેષ જાણે છે? કેમકે અહીં કોઇ તેવી યુક્તિ તો છે નહીં. અહીં આચાર્યવ૨ ઉપપત્તિયુક્તિ બતાવે છે. जह कस्सवि सयराहं जायति पंचत्थिकायविण्णाणं । एवं केवलिणोवि हु असेसविसयं पि समए वि ॥१३३२॥ (यथा कस्यापि शोघं जायते पञ्चास्तिकायविज्ञानम् । एवं केवलिनोऽपि हु अशेषविषयमपि समयेऽपि ॥ ********+++++++ र्भसंह -लाभ२-321+++++++++++++++ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + सर्वसिद्धि द्वार + + यथा कस्यापि समयज्ञस्य - समयवशादधिगतधर्मास्तिकायादिवस्तुस्वरूपस्य कदाचित् शीघ्रं पञ्चास्तिकायविज्ञानं जायते, एवम् - अमुनैव प्रकारेण केवलिनोऽप्यशेषद्रव्यपर्यायप्रपञ्चविषयमपि समये - समयमात्रेण जायत इत्यदोषः । उक्तं चान्यैरपि - "यथा सकलशास्त्रार्थः, स्वभ्यस्तः प्रतिभासते । मनस्येकक्षणेनैव, तथाऽनन्तादिवेदनम् ॥१ ॥ इति, अनन्तादिवेदनमिति - अनाद्यनन्तवेदनम् ॥१३३२ ॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- જેમ આગમદ્વારા ધર્માસ્તિકાયાદિના સ્વરૂપના જ્ઞાતા કો'ક પુરુષને કયારેક શીઘ્ર પંચાસ્તિકાય વિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. એ જ પ્રમાણે કેવલીને પણ અશેષ દ્રવ્ય-પર્યાયના વિસ્તારઅંગે સમયમાત્રમાં જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય તેમા દોષ નથી. બીજાઓએ પણ કહ્યું છે જેમ સારીરીતે અભ્યસ્ત થયેલો સકલશાસ્ત્રાર્થ મનમા એક જ ક્ષણમા પ્રતિભાસ પામે છે. તે જ પ્રમાણે અનંતાદિનું સમજવું" અનન્તાદિવેદન- અનન્તનું વેદન. ૫૧૩૩રરા ચંદ્રપ્રભાદિદૃષ્ટાન્ત ઉપમામાત્ર यद्येवं तर्हि यत्तत्र तत्र प्रदेशे उच्यते - 'सर्वगतावभास' - मित्यादि, तथा “स्थितः शीतांशुवज्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवद् ॥१॥" इत्यादिना चन्द्रादिप्रभाज्ञातं च तत् विरुद्ध्यते एव, आत्मस्थस्यैव केवलज्ञानस्य सकलवस्तुपरिच्छेदशक्तिमत्त्वाभ्युपगमे तस्यानुपपद्यमानत्वात्, अत आह પૂર્વપક્ષ:- જો આમ હોય, તો તે–તે સ્થાનોએ જે કહેવાયું છે કે કેવળજ્ઞાન સર્વગતાવભાસ છેઃ ઇત્યાદિ તથા “ભાવશુદ્ધ પ્રકૃતિથી (=સ્વભાવથી) ચંદ્રની જેમ જીવ રહ્યો છે. તેનુ વિજ્ઞાન ચાદનીતુલ્ય છે અને તેના આવરણો વાદળ જેવા છે.” ઇત્યાદિ વાકયથી ચન્દ્રાદિની પ્રભાનુ જે દ્વેષ્ટાન્ત અપાય છે, તેની સાથે વિરોધ આવે છે, કેમકે આત્મામા જ રહેલા કેવલજ્ઞાનની સકલવસ્તુપરિચ્છેદશક્તિમત્તા સ્વીકારવામાં આ વચનો—દૃષ્ટાન્તો અનુપપન્ન બને છે. અહીં ઉત્તરપક્ષ સ્થાપતા આચાર્યવર્ય કહે છે. - एवं चिय सव्वगतावभासमिच्चादि जुज्जति असेसं । चंदादिपभाणाते (तं) उवमामेत्तं मुणेयव्वं ॥१३३३॥ (एवमेव सर्वगतावभासमित्यादि युज्यतेऽशेषम् । चंद्रादिप्रभाज्ञातमुपमामात्रं ज्ञातव्यम् II) एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'सर्वगतावभास' मित्याद्यशेषं युज्यते, अवभासशब्दस्य परिच्छेदस्पशक्तिवाचकत्वात् । यदुक्तमाचार्येणैवान्यत्र - "सर्वगतावभासमित्यादि विरूद्ध्यत इति चेत्, न परिच्छेदशक्तेरवभासत्वादिति” । यत्तु चन्द्रादिप्रभाज्ञातं तत् उपमामात्रमेव ज्ञातव्यं, न तु तदृष्टान्तावष्टम्भेन केवलज्ञानस्यापि ताथात्म्यम् ॥१३३३॥ ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ઉપર અમે કહ્યા મુજબ જ ‘સર્વગતાવભાસ' વગેરે સઘળી વાત બંધબેસતી થશે, કેમકે અહીં ‘अवलास' शब्द ‘परिच्छेद्यात्मशक्ति' नो वाय छे. खायार्यखे (पू. हरिभद्र सू.भ ) ४ अन्यत्र धुं छे} “सर्वगतावलास' ઇત્યાદિસાથે વિરોધ આવે છે એવું ન કહેવુ, કેમકે પરિચ્છેદશક્તિ જ અવભાસ છે.” તથા ચન્દ્રાદિપ્રભાનુ દૃષ્ટાન્ત તો ઉપમામાત્રરૂપ જ સમજવું, નહીં કે તે દૃષ્ટાન્તના આલંબનથી કેવળજ્ઞાનનુ પણ તથા સ્વરૂપ સ્વીકારવું. ૫૧૩૩ા कथं चन्द्रादिप्रभाज्ञातमुपमामात्रमित्यत आह - ચંદ્રાદિપ્રભાદેષ્ટાન્ત ઉપમામાત્ર કેમ છે?” તે બતાવે છે. जम्हा पहा वि दव्वं पोग्गलस्व त्ति चंदमादीणं । णय भिन्नाऽभिण्णाणं एवं जुत्तिं समुव्वहति ॥१३३४॥ (यस्मात्प्रभापि द्रव्यं पुद्रलरूपमिति चंद्रादीनाम् । न च भिन्नाऽभिन्नानामेवं युक्तिं समुद्वहति ॥ ) यस्मात् प्रभापि चन्द्रादीनां - चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकामणिप्रदीपादीनां संबन्धिनी द्रव्यम् । कुत इत्याह- 'पौद्गलस्प्रेति' यत इयं प्रभा पुद्गलख्पा, पुद्गलरूपताऽस्या घटादेरिव चक्षुर्ग्राह्यत्वात्, "तमश्छायोद्योतातपाश्चेति" वचनप्रामाण्याच्च इति, तस्मात्कारणात्सा प्रभा द्रव्यम् । अत एव चन्द्रादिभ्यो भिन्ना द्रव्यान्तरत्वादतश्चन्द्रादिकमतिक्रम्यान्यत्रापि सा गच्छन्ती न विरुद्ध्यते, न तु ज्ञानमात्मानमतिरिच्य, तस्य गुणत्वात् । तथा चाह-न च सा भिन्ना सती अभिन्नानाम् - आत्मनोऽव्यतिरिक्तानां ज्ञानानामेवं-स्वस्वरूपवत् युक्तिं समुद्वहति, नात्मसमानयोगक्षेमतामापादयतीत्यर्थः, अतश्चन्द्रादिप्रभाज्ञातमुपमामात्रमेवेति स्थितम् ॥१३३४॥ ++++ धर्मसंभबलि-लाग २ - 322+ + Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * સર્વસિદ્ધિ દ્વાર * * * * * * * * * * * * * * * * * ગાથાર્થ:- ચન્દ્ર, સૂર્ય, ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા, મણિ અને પ્રદીપવગેરેની પ્રભા દ્રવ્ય છે. કેમકે યુગલરૂપ છે, ઘડવગેરેની જેમ ચક્ષથી ગ્રાહ્યા હોવાથી તથા “તમસ (=અંધકાર) છાયા, ઉધીત (ચંદ્રાદિનો પ્રકાશ) અને આતપ ( સૂર્યપ્રકાશ) એવા વચનના પ્રમાણથી પ્રભા મુદગલરૂપ છે. (આ વચન તત્વાર્થનું છે, તમસાદિની પુદગલરૂપતાનું પ્રતિપાદક છે.) અને પુદ્ગલરૂપ હોવાથી જ પ્રભા દ્રવ્યરૂપ છે. તેથી જ તે (પ્રભા) ચન્દ્રાદિથી ભિન્ન દ્રવ્યરૂ૫ છે, અને ચન્દ્રાદિને છોડી અન્યત્ર જતી હોય તેમાં વિરોધ નથી. પરંતુ જ્ઞાન આત્માને છોડી ન જઈ શકે, કેમકે ગુણરૂપ છે. તેથી ભિન્ન એવી પ્રભા આત્માથી અભિન્ન એવા જ્ઞાનોઅંગે પોતાના સ્વરૂપની જેમ યુનિ વહન કરતી નથી. અર્થાત સ્વતલ્ય યોગ–તેમનું આપાદન કરી શકતી નથી. (-પ્રભા દ્રવ્યરૂપ છે, માટે ભિન્ન છે, માટે ચંદ્રાદિને છોડીને જઈ શકે. પણ તે જ પ્રભાનું સ્વરૂપ દ્રવ્યરૂપ નથી, ગુણરૂપ છે, તેથી તે પ્રભાને છોડીને ન જઈ શકે. જ્ઞાન પણ ગુણરૂપ છે. એટલે દ્રવ્યરૂપ પ્રભા જેમ ગુણપ પોતાના સ્વરૂપઅંગે દેષ્ટાન્નરૂપ ન બની શકે તેમ જ્ઞાન માટે પણ દષ્ટાન્નરૂપ ન બની શકે.) તેથી ચંદ્રાદિપ્રભાનું દૃષ્ટાન્ન ઉપમા માત્ર જ છે તેમ નિર્ણય થાય છે. ૧૩૩૪ अस्मिन्नेव विषये कथंचित् परमताभ्युपगमेऽपि मतान्तरेणाविरोधं दर्शयति આ જ વિષયમાં કથંચિત પરમતના સ્વીકારમાં પણ મતાન્તરે વિરોધ નથી, તે બતાવે છે अन्ने सागारं खलु सव्वगतं पि हु कहंचि जंपति । विसयादिजोगतो च्चिय सियवादसुदिट्ठपरमत्था ॥१३३५॥ (अन्ये साकारं खलु सर्वगतमपि हु कथंचिद् जल्पन्ति । विषयादियोगत एव स्याद्वादसुदृष्टपरमार्थाः ॥ - अन्ये आचार्याः स्याद्वादसुदृष्ट परमार्था-अनेकान्तनीतिनिपुणा भगवतः केवलज्ञानं कथंचित् साकारं- विषयगताकारसंगतं तथा सर्वगतमपि-सद्भावतो विश्वगतमपि खलु जल्पन्ति। कथमित्याह-विषयादियोगतः-परिच्छेद्यपरिच्छेदकभावेन विषययोगतोऽशेषवस्तुयोगतश्चेत्यर्थः तत्खलु केवलज्ञानं साकारं, विषयगतस्याकारस्य तस्य तत्परिच्छेद्यतया तत्संबन्धित्वात् । तथा परिच्छेद्यपरिच्छेदकभावत एवाशेषवस्तुयोगतः सद्भावतोऽशेषवस्तुगतमपीति ॥१३३५॥ ગાથાર્થ:- સાદવાદ–અનેકાન્તની નીતિથી પરમાર્થને સારી રીતે જોનારા કેટલાક આચાર્યો કેવળજ્ઞાનને કથંચિત સાકાર-વિષયગતઆકારને અનુરૂપ તથા સદ્ભાવથી સર્વગત પણ કહે છે. કેમકે વિષયાદિનો યોગ છે. તાત્પર્ય:- જ્ઞાનનો વિષયસાથે પરિચ્છેદ્ય-પરિચ્છેદકભાવસંબંધ છે. વિષય પરિચ્છેદ્ય, જ્ઞાન=પરિચ્છેદક) કેવળજ્ઞાનનો આ સંબંધથી સઘળી ગ્ય વસ્તસાથે યોગ છે. તેથી વિષયગતઆકાર પણ કેવળજ્ઞાનનો તત્પરિચ્છેદ્યરૂપે (ત= કેવળજ્ઞાન, કેવળજ્ઞાનથી પરિચ્છેદ્વરૂપે) સંબંધી બનતો હોવાથી કેવળજ્ઞાન સાકાર છે. (અહીં સંબંધ આમ જોડી શકાય— વિષયાકાર પરિચ્છેદક કેવલજ્ઞાન વિષયાકાર પરિચ્છેદકતાવત કેવલજ્ઞાન (એટલે કે કેવલજ્ઞાનમાં વિષયાકાક્તરપરિચ્છેદકતા ધર્મ છે. આ ધર્મ જ સંબંધરૂપ બનશે. તેથી] પરિચ્છેદકતા સંબંધથી વિષયાકારવત કેવલજ્ઞાન. આમ કેવલજ્ઞાનને વિષયાકારવાળું માની શકાય.) આ જ પ્રમાણે પરિચ્છેદ્ય- પરિચ્છેદકભાવસંબંધથી કેવલજ્ઞાનનો અશેષવસ્તુ સાથે સંબંધ છે. તેથી કેવલજ્ઞાન સર્વપરિચ્છેદકરૂપે સદ્ભાવથી અશેષવસ્તગત છે. ૧૩૩પા ઉપયોગક્યચર્ચા इह च केवलज्ञानलाभे सति केवलज्ञानदर्शनोपयोगचिन्तायां क्रमोपयोगादा(वा) चार्याणामनेकधा विप्रतिपत्तिरतः संक्षेपतो विनेयजनानुग्रहार्थं तामपि प्रदर्शयन्नाह - કેવલજ્ઞાન પામ્યા પછી કેવલજ્ઞાન-કેવલદર્શનના ઉપયોગની વિચારણામાં ક્રમિક ઉપયોગઆદિવિષયમાં આચાર્યો અનેક પ્રકારે વિવાદ ધરાવે છે. તેથી સંક્ષેપથી શિષ્યવર્ગ પ્રતિ અનુગ્રહથી આ વિવાદ બતાવતા કહે છે केई भणंति जुगवं जाणति पासति य केवली णियमा । . अण्णे एगंतरितं इच्छंति सुतोवदेसेणं ॥१३३६॥ (केचिद् भणन्ति युगपद् जानाति पश्यति च केवली नियमात् । अन्ये एकान्तरितमिच्छन्ति जानाति श्रुतोपदेशेन ॥) केचन-सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति-ब्रुवते, किमित्याह - युगपत्-एकस्मिन् काले केवली-केवलज्ञानवान्, नत्वन्यश्छद्मस्थः जानाति पश्यति चेति, नियमात्-नियमेन । अन्ये पुनराचार्या-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतय इच्छन्ति मन्यन्ते, किमित्याह-एकान्तरितं केवली जानाति पश्यति चेति-एकस्मिन् समये जानाति एकस्मिन् समये पश्यतीत्यर्थः। कथमेतदिच्छन्तीत्यत आह-श्रुतोपदेशेन-आगमानुसारेणेत्यर्थः ॥१३३६॥ ગાથાર્થ:- સિદ્ધસેનાચાર્યવગેરે કેટલાક કહે છે કે એક જ કાલે કેવલજ્ઞાની (-છદ્મસ્થ નહીં) અવશ્ય જાણે છે અને જૂએ * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 323 * * * * * * * * * * * * * * * Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ सर्वसिद्धि द्वार ++*************** છે. બીજા જિનભદ્રગણિક્ષમાશ્રમણવગેરે આચાર્યો આગમાનુસા૨ે ઇચ્છે છે– માને છે કે કેવલી એકાન્તરિત જાણે છે અને જૂએ છે. અર્થાત્ એક સમયે જાણે છે અને એક સમયે જૂએ છે. ૫૧૩૩૬ા of अण् ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलणाणं तं चिय से दंसणं बिंति ॥ १३३७॥ (अन्ये नैव विष्वग् दर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य । यदेव केवलज्ञानं तदेव तस्य दर्शनं ब्रुवते ॥) अन्ये केचित् वृद्धाचार्या न चैव ज्ञानात् दर्शनं विष्वग्- पृथगिच्छन्ति 'जिनवरेन्द्रस्य' जिना-उपशान्तरागादिदोषसमूहास्तेषां वराः - प्रधाना निर्मूलत एव क्षीणसकलरागादिदोषोद्भवनिबन्धनमोहनीयकर्म्माणः क्षीणमोहा इत्यर्थः तेषामिन्द्रो भगवानुत्पन्नकेवलज्ञानस्तस्य न त्वन्यस्य, किंतु यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं ब्रुवते । क्षीणसकलावरणस्य देशज्ञानाभाववत्केव्रलदर्शनस्याप्यभावात्तस्यापि वस्त्वेकदेशभूतसामान्यमात्रग्राहितया देशज्ञानकल्पत्वा - दिति भावना ॥ १३३७॥ ગાથાર્થ:- અન્ય કેટલાક યુદ્ધાચાર્યો “ઉત્પન્ન થયેલા કેવલજ્ઞાનવાળા જિનવરેન્દ્રોને જ (અન્યને નહીં) જ્ઞાનથી ભિન્ન દર્શન હોતું નથી. પરંતુ કેવલીનું જે જ્ઞાન છે તે જ તેનુ દર્શન છે, કેમકે સકલાવરણ ક્ષય થવાથી જેમ મત્યાદિ દેશજ્ઞાન (=આંશિકજ્ઞાન) રહેતા નથી; તેમ વસ્તુના જ એકદેશભૂત સામાન્યમાત્રનું ગ્રાહક હોવાથી કેવલદર્શન પણ દેશજ્ઞાનતુલ્ય હોવાથી રહેતુ નથી.” અહીં જિન-રાગાદિોષસમૂહને ઉપશાન્ત કરેલા જીવો-૧૧મા ગુણસ્થાને રહેલા જીવો. તેઓમાં વર-શ્રેષ્ઠ. જેઓએ રાગાદિદોષોની ઉત્પત્તિમાં કારણભૂત મોહનીયકર્મનો ક્ષય કર્યો છે, તેવા ક્ષીણમોહી-૧૨મા ગુણસ્થાને રહેલા જીવો. તેઓના ઇન્દ્ર=ભગવાન– ૧૩ માં ગુણસ્થાનને સ્પર્શ કરતા/કરેલા કેવલીઓ. ૫૧૩૩૭ાા યુગપદુપયોગવાદીમત तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमं युगपदुपयोगवादिमतप्रदर्शनायाह આ ત્રણ મતોમાં ‘ઉદ્દેશને અનુસારે નિર્દેશ' એ ન્યાયથી સૌ પ્રથમ યુગપદ્ ઉપયોગવાદીઓનો મત બતાવતા કહે છે जं केवलाई सादिअपज्जवसिताइं दोवि भणिताई । तो बेंति केइ जुगवं जाणति पासति य सव्वण्णू ॥१३३८ ॥ (यत् केवले साद्यपर्यवसिते द्वे अपि भणिते । तस्माद् ब्रुवते केचन युगपद् जानाति पश्यति च सर्वज्ञः II) यत्-यस्मात् द्वे अपि-केवलज्ञानदर्शने समये - सिद्धान्ते साद्यपर्यवसिते भणिते 'तो' ततो ब्रुवते केचन सिद्धसेनाचार्यादयः, किमित्याह - युगपद् - एकस्मिन् काले जानाति पश्यति च सर्वज्ञ इति ॥१३३८॥ ગાથાર્થ:- કેવલજ્ઞાન અને કેવલદર્શન આ બન્નેને આગમમા સાદિ-અપર્યવસિત બતાવ્યા છે, તેથી સિદ્ધસેન દિવાકર સૂરિવગેરે આચાર્યો કહે છે કે કેવલી સર્વજ્ઞ એક જ કાલે જાણે છે અને જૂએ છે. ૫૧૩૩૮૫ विपक्षे बाधामाह આમ નહીં માનવામાં બાધ બતાવે છે. इहराऽऽदीणिधणत्तं मिच्छावरणक्खओ त्ति व जिणस्स । इतरेतरावरणता अहवा णिक्कारणावरणं ॥ १३३९ ॥ (इतरथाऽऽदिनिधनत्वं मिथ्यावरणक्षय इति वा जिनस्य । इतरेतरावरणताऽथवा निष्कारणावरणम् II) इतरथा-युगपत् केवलज्ञानदर्शनभावानभ्युपगमे आदिनिधनत्वं - सादिसपर्यवसितत्वं केवलज्ञानदर्शनयोः प्राप्नोति, तथाहि - उत्पत्तिसमयभाविकेवलज्ञानोपयोगानन्तरमेव केवलदर्शनोपयोगसमये केवलज्ञानाभावः, पुनस्तदनन्तरमेव केवल - ज्ञानोपयोगसमये केवलदर्शनाभाव:, इति द्वे अपि केवलज्ञानदर्शने सादिसपर्यवसिते । तथा मिथ्या-अलीक आवरणक्षयःकेवलज्ञानदर्शनावरणक्षयो जिनस्य इति वा प्राप्नोति न हि युगपदपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपौ क्रमेण प्रकाश्यं प्रकाशयतः, तद्यदीहापि केवलज्ञानदर्शने युगपन्निर्मूलतोऽपनीतस्वस्वावरणे ततः कथं क्रमेण स्वप्रकाश्यं प्रकाशयतः ? क्रमेणेति चेदभ्युपगमस्तर्हि मिथ्या तदावरणक्षय इति । तथा इतरेतरावरणता प्राप्नोति, तथाहि यदि स्वावरणे निःशेषतः क्षीणेऽपि अन्यतरभावे अन्यतरभावो नेष्यते तर्हि ते एव परस्परमावरणे जाते, तथा च सति सिद्धान्तपथक्षतिरिति । अथवा निष्कारणावरणं, यदि हि साकल्येन स्वावरणापगमेऽप्यन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्य भावो नेष्यते तर्हि तस्यान्यतरस्यावरण *** धर्मसंग्रह - लाग २ - 324**** +++ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ?lܟ ܟ?]Ruda ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ मकारणमेव जातं, कारणस्य कर्मलक्षणस्य प्रागेव सर्वथाऽपगमात्, तथा च सति सदैव भावाभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तम्"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः ॥१॥ इति" ॥१३३९॥ ગાથાર્થ:- એકસાથે કેવલજ્ઞાન-દર્શનભાવ નહીં સ્વીકારવામાં (૧) કેવલજ્ઞાન-દર્શન સાદિ-સાત ઠરશે. તે આ પ્રમાણે કેવલીને ઉત્પત્તિકાળે કેવલજ્ઞાનનો ઉપયોગ પછી તરતના જ કેવલદર્શનના ઉપયોગ સમયે કેવલજ્ઞાનનો અભાવ આવશે. એ જ રીતે તે પછીના કેવળજ્ઞાનના ઉપયોગના સમયે કેવલદર્શનનો અભાવ આવશે. આમ બન્નેની શરુઆત અને અંત હોવાથી બને સાદિ–સાંત થશે. તથા (૨) જિનને કેવલજ્ઞાન-દર્શન આ બન્નેના કર્મરૂપ આવરણનો ક્ષય ખોટો સિદ્ધ થશે. એવું બનતું નથી કે એકસાથે આવરણ દૂર કરાયેલા બે દીવા ક્રમશ: સ્વપ્રકાશ્યને પ્રકાશે. અર્થાત બને દીવા પ્રકાશ્યને એકસાથે જ પ્રકાશે. એ જ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાન-દર્શનના સ્વ– આવરણ એકસાથે નિર્મળ દૂર કરાયા હોવાથી તે બન્ને ક્રમશ: સ્વપ્રકાશ્યને પ્રકાશે તે કેમ બને? અર્થાત ન જ બને. બન્ને સ્વપ્રકાશ્યને સાથે જ પ્રકાશે. અને છતાં જો “ક્રમશ: પ્રકાશે તેવો આગ્રહ હોય, તો તેઓના આવરણના ક્ષયનો કોઈ અર્થ ન સરવાથી વ્યર્થ છે. તથા (૩) ઇતરેતરઆવરણતાની પ્રાપ્તિ છે. તે આ પ્રમાણે જો પોતાના આવરણનો નિ:શેષરૂપે ક્ષય થવા છતાં બેમાંથી કેવલજ્ઞાન-દર્શનમાંથી) એકની હાજરીમાં બીજાની હાજરી ઈષ્ટ ન હેય તો તે બન્ને પરસ્પરના આવરણ છે. તેમ જ આવીને ઊભું રહેશે, અને તો સિદ્ધાન્તમાર્ગમાંથી ભ્રષ્ટ થવાનો દોષ છે. તથા (૪) નિષ્કારણાવરણદોષ છે. જો સ્વાવરણનો સર્વથા ક્ષય થવા છતાં (કેવલજ્ઞાન-દર્શન આ બેમાંથી) એકના ઉપયોગકાલે અન્યની હાજરી ઇષ્ટ ન હોય તો તે અન્ય૫ર નિષ્કારણઆવરણ આવ્યું ગણાશે. કેમકે આવરણમાં કર્મરૂપ કારણનો તો પૂર્વે જ સર્વથા ક્ષય કર્યો છે. અને નિષ્કારણઆવરણ માનવામાં તો એ આવરણની કાંતો હંમેશા હાજરી યા તો હંમેશા અભાવ માનવાનો પ્રસંગ છે. કહ્યું જ છે કે “અન્યની અપેક્ષા ન લેવાથી અહેતુક વસ્તુ નિત્ય સત અથવા નિત્ય અસત્ હોય. અપેક્ષાના કારણે જ ભાવોમાં કદાચિત્કતા સંભવે છે.” ૧૩૩લા तह य असव्वण्णुत्तं असव्वदरिसित्तणप्पसंगो य । एगंतरोवयोगे जिणस्स दोसा बहविहा य ॥१३४०॥ (तथा चासर्वज्ञत्वमसर्वदर्शित्वप्रसंगश्च । एकान्तरोपयोगे जिनस्य दोषा बहुविधाः ॥) तथा चेति समुच्चये । यदि क्रमेणोपयोग इष्यते तर्हि भगवतोऽसर्वज्ञत्वमसर्वदर्शित्वप्रसङ्गश्च प्राप्नोति, तथाहि यदि क्रमेण केवलज्ञानदर्शनोपयोगाभ्युपगमस्तर्हि न कदाचिदपि भगवान् सामान्यविशेषावेककालं जानाति पश्यति वा, ततोऽसर्वज्ञत्वासर्वदर्शित्वप्रसङ्गः, पाक्षिकं वा सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च प्रसज्यते, तथाहि-यदा सर्वज्ञो न तदा सर्वदर्शी, दर्शनोपयोगाभावात्, यदा तु सर्वदर्शी न तदा सर्वज्ञः, ज्ञानोपयोगाभावादिति । एवमेकान्तरोपयोगेऽभ्युपगम्यमाने सति जिनस्य दोषा बहुविधाः પ્રાકૃવન્તીતિ II રૂ૪0 I/ ગાથાર્થ:- (‘તથા ચ'પદ સમુચ્ચયાર્થક છે.) જો ઉપયોગ ક્રમિક ઈષ્ટ હોય, તો (૫) ભગવાન અસર્વજ્ઞ અને અસર્વદર્શી બનવાનો પ્રસંગ છે. તે આ પ્રમાણે- જો ક્રમશ: કેવલજ્ઞાન-દર્શનનો ઉપયોગ સ્વીકૃત હેય તો ભગવાન ક્યારેય પણ એક કાલે સામાન્ય-વિશેષને જાણી કે જોઇ શકે નહીં. તેથી અસર્વજ્ઞ–અસર્વદર્શી થવાનો પ્રસંગ છે. અથવા સર્વજ્ઞત્વ–સર્વદર્શિત પાક્ષિક (વૈકલ્પિક) થવાનો પ્રસંગ છે. તથાતિ- જયારે ભગવાન સર્વજ્ઞ હોય ત્યારે સર્વદર્શી નથી, કેમકે દર્શનનો ઉપયોગ નથી. જયારે સર્વદર્શી હશે ત્યારે સર્વજ્ઞ નથી; કેમકે જ્ઞાનનો ઉપયોગ નથી. આમ જિનને એકાન્તર ઉપયોગ માનવામાં ઘણા પ્રકારના દોષો પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૩૪૦ના કમિકોપયોગમત एवं परेणोक्ते सति आगमवादी जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आह - આમ સિદ્ધસેનાચાર્યે કહે છતે આગમવાદી શ્રી જિનભદ્રગણિ ક્ષમાશ્રમણ કહે છે. भण्णति भिन्नमुहत्तोवयोगकाले वि तो तिणाणस्स । मिच्छा छावट्ठीसागरोवमाइं खओवसमो ॥१३४१॥ (भण्यते भिन्नमुहूर्तोपयोगकालेऽपि तस्मात् त्रिज्ञानिनः । मिथ्या षट्षष्टिसागरोपमाणि क्षयोपशमः ॥) यदुक्तमितरथा आदिनिधनत्वं प्राप्नोतीति, तदसमीचीनम, उपयोगकालमनपेक्ष्य लब्धिमात्रापेक्षया केवलज्ञानदर्शनयोः साद्यपर्यवसितत्वस्याभिधानात्, मत्यादिषु षट्षष्टिसागरोपमाणामिव । यदप्युक्तम्- 'मिथ्या आवरणक्षय इति' तत्रापि * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 325 * * * * * * * * * * * * * * Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + Aalele kR + + + + + + + + + + + + + + + + + भण्यते-यदि साद्यपर्यवसितं कालमुपयोगाभावत आवरणक्षयस्य मिथ्यात्वमापद्यते 'तो त्ति' ततस्त्रिज्ञानिनो- मतिश्रुतावधिज्ञानवतो भिन्नमुहूर्तलक्षणोपयोगकालेऽपि मत्यादीनां यो नाम षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत् क्षयोपशमः सूत्रेऽभिहितः समिथ्या प्राप्नोति, तावत्कालं मत्यादीनामुपयोगाभावात्, युगपद्भावासंभवाच्चेति । यापीतरेतरावरणता पूर्वमासंजिता साऽप्यसमीचीना, यतो जीवस्वाभाव्यादेव मत्यादीनामिव केवलज्ञानदर्शनयोयुगपदुपयोगासंभवस्ततः सा कथमुपपद्यते ? मा प्रापदन्यथा मत्यादीनामपि परस्परमावरणताप्रसङ्गः। योऽपि निष्कारणावरणदोष उद्भावितः सोऽपि जीवस्वाभाव्यादेव तथोपयोगप्रवृत्तेरपास्तो द्रष्टव्यः, अन्यथा मत्यादीनामपि प्रसज्येत, तेषामप्युत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत् तत्क्षयोपशमस्याभिधानात्, तावत्कालं चोपयोगाभावादिति ॥१३४१॥ ગાથાર્થ:- (આગમવાદી શ્રીજિનભદ્રગણિલમાશ્રમણનો મત) યગપદુપયોગવાદીએ બતાવેલ “કેવલજ્ઞાન-દર્શન સાદિ-સાંત થવાની આપત્તિ' નામનો પ્રથમ દોષ બરાબર નથી, કેમકે આગમમાં કેવલજ્ઞાન-દર્શનનો જે સાદિ-અનંતકાળ બતાવ્યો છે, તે ઉપયોગની અપેક્ષાએ નહીં, પણ લબ્ધિમાત્રની અપેક્ષાએ બતાવ્યો છે, જેમકે મતિઆદિજ્ઞાનોનો ૬૬ સાગરોપમકાલ બતાવ્યો છે. (ઉપયોગની અપેક્ષાએ તો શ્રતાદિના ઉપયોગવખતે મત્યાદિનો ઉપયોગ ન હોવાથી મત્યાદિનો કાલ ઘણો અલ્પ જ છે.) તથા આવરણક્ષય મિથ્યા થવાનો બીજો દોષ પણ વાસ્તવિક નથી, કેમકે જો સાદિ-અનંતકાલ માટે ઉપયોગ ન રહેવા માત્રથી આવરણક્ષય મિથ્યા (=વ્યર્થ-ફોગટ) થવાની આપત્તિ શ્રેય, તો ત્રિજ્ઞાની–મતિ, કૃત-અવધિજ્ઞાનીને મત્યાદિનો અંતર્મુહૂર્તમાત્ર અખંડ ઉપયોગકાળ હોવાથી સૂત્રમાં મત્યાદિનો જે ૬૬ સાગરોપમ સુધીનો ઉત્કૃષ્ટ ક્ષયોપશમકાલ કહ્યો છે, તે પણ મિથ્યા થવાની આ કે તેટલો કાળ મત્યાદિનો ઉપયોગ રહેતો નથી, અને બે કે તેથી વધુ જ્ઞાનનો એકસાથે ઉપયોગ સંભવતો નથી. તથા ઇતરેતરાવરણતા' નામનો જે ઘેષ પૂર્વે બતાવ્યો, તે પણ અયોગ્ય છે, કેમકે જીવસ્વભાવથી જ મત્યાદિજ્ઞાનોનો તથા કેવલજ્ઞાન-દર્શનનો એકસાથે ઉપયોગ સંભવતો નથી. ( તાત્પર્ય - જીવસ્વભાવ જ એવો છે કે જેથી જેમ અત્યાદિજ્ઞાનો લખ્યિરૂપે હોવા છતાં તેઓમાં એક સાથે ઉપયોગ સંભવતો નથી, તેમ કેવલજ્ઞાન-દર્શન લબ્ધિરૂપે એકસાથે પ્રગટવા છતાં બન્નેનો એકસાથે ઉપયોગ સંભવતો નથી.) તેથી પરસ્પરઆવરણતા કેવી રીતે યુક્તિયુક્ત ઠરે? અન્યથા તો મત્યાદિમાં પણ આ જ પ્રમાણે પરસ્પરઆવરણતા માનવાની આપત્તિ આવે. તથા પૂર્વપક્ષે જે નિકા૨ણાવરણ દોષ બતાવ્યો તે પણ જીવસ્વભાવથી જ તથોપયોગ (ક્રમિક ઉપયોગી પ્રવૃત્તિ હોવાથી દોષરૂપ નથી. નહીંતર મત્યાદિ જ્ઞાનોમાટે પણ આમ નિષ્કારણઆવરણ માનવાની આપત્તિ ઊભી જ છે, કેમકે તેઓમાં પણ ઉત્કૃષ્ટથી ૬૬ સાગરોપમ સુધી ક્ષયોપશમ બતાવ્યો છે, પણ તેટલો કાલ ઉપયોગ તો રહેતો નથી. ૧૩૪૧ આવરણયનો લાભ वादिनो मतमाशङ्कय दूषयति - વાદીના મતની આશંકા કરી દોષ બતાવે છે– अह णवि एवं तो सुण जहेव खीणंतराइओ अरहा । संते वि अंतरायक्खयम्मि पंचप्पगारम्मि ॥१३४२॥ (अथ नैवैवं ततः शृणु यथैव क्षीणान्तरायकोऽर्हन् । सत्यपि अंतरायक्षये पञ्चप्रकारे ॥ सततं ण देति लभति व भुंजति उवभुंजती व सव्वण्णू । कज्जम्मि देइ लभति व भुंजति व तहेव इहई पि ॥१३४३॥ (सततं न ददाति लभते वा भुङ्क्ते उपभुङ्क्ते वा सर्वज्ञः । कार्ये ददाति लभते वा भुङ्क्ते वा तथैव इहापि ॥) अपिरवधारणे । अथ नैव एवम्-उक्तप्रकारेण मन्यसे क्षायोपशमिकक्षायिकयोदृष्टान्तदाान्तिकभावासंभवात्, ततः शृणु-यथा क्षयकार्यमपि ज्ञानं दर्शनं वाऽवश्यमनवरतं न प्रवर्तते इति, यथैव खलु क्षीणान्तरायकोऽर्हन् सत्यप्यन्तरायक्षये पञ्चप्रकारे, इहान्तरायकर्मणो दानान्तरायादिभेदेन पञ्चप्रकारत्वात् तत्क्षयोऽपि पंचप्रकार उक्तः, सततं न ददाति लभते वा भुक्ते उपभुङ्क्ते वा सर्वज्ञः, किंतु कार्ये उत्पन्ने सति ददाति लभते वा भुङ्क्ते वा, उपलक्षणमेतदुपभुङ्क्ते वा, तथैव इहापि-केवलज्ञानदर्शनविषये सत्यपि तदावरणक्षये न युगपत्तदुपयोगसंभवः, तथाजीवस्वाभाव्यादिति ॥१३४२-१३४३ ।। ગાથાર્થ:- (અપિ =પણ જકારાર્થક છે.) જો તમે અત્યાદિ લાયોપથમિકભાવો અને કેવલજ્ઞાનાદિક્ષાયિકભાવવચ્ચે દષ્ટાન્ત -દાર્ટોન્સિકભાવ સંભવિત ન હોવાથી મત્યાદિજ્ઞાનની તલનાથી કેવલજ્ઞાન-દર્શનમાં ક્રમિકભાવ બતાવવો કે તેમાં રહેલા દોષો ++++++++++++++++ ude-MI -326+++++++++++++++ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * સર્વરસિદ્ધિ કાર જે * * * * * * * * * * * * * * હઠાવવા યોગ્ય નથી” એમ માનતા હો તો સાંભળો- કે કર્મક્ષયથી પણ ઉદ્ભવેલું જ્ઞાન કે દર્શન અવશ્ય સતત પ્રવૃત્ત જ રહે એવું નથી. અહીં દષ્ટાન્ન બતાવે છે. અંતરાયકર્મના દાનાન્તરાયાદિ પાંચ ભેદ હોવાથી તેનો ક્ષય પણ પાંચ પ્રકારે છે. ક્ષીણાન્તરાયકર્મવાળા અરિહંતને આ અંતરાયના પાંચ પ્રકારના ક્ષય હોવા છતાં તેઓ (Fભગવાન) સતત નથી દાન દેતા નથી લાભ પામતા કે નથી ભોગવતા (એકવાર ઉપયોગમાં આવે તેવી અનાદિવસ્તુ ભોગવતા) કે નથી ઉપભોગ (=વારંવાર ઉપયોગમાં આવતી દેવજીંદાદિ વસ્તુનો ઉપયોગ) કરતા, પરંતુ કાર્ય ઉત્પન્ન થયે જ આપે છે, લે છે, ભોગવે છે, અને ઉપલક્ષણથી ઉપભોગ કરે છે. તે જ પ્રમાણે પ્રસ્તુતમાં કેવલજ્ઞાન-દર્શનના વિષયમાં પણ તે બન્નેના આવરણનો ક્ષય થવા છતાં એકસાથે બન્નેના ઉપયોગનો સંભવ નથી, કેમકે તેવો જ જીવસ્વભાવ છે. ૧૩૪૨-૧૩૪૩ - स्यादेतत्, यदि पंचविधान्तरायक्षयेऽपि भगवान्न सततं दानादिक्रियासु प्रवर्तते ततः किं तत्क्षयस्य फलमित्यत आह - શંકા:- જો પાંચ પ્રકારના અંતરાયનો ક્ષય થવા છતાં ભગવાન સતત દાનાદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત થતા ન હોય, તો તે અંતરાયક્ષયનું ફળ શું? લાભ શો? આ શંકાનું સમાધાન બતાવે છે दिंतस्स लभंतस्स य भुंजंतस्स य जिणस्स एस गुणो । खीणंतराइयत्ते जं से विग्धं ण संभवति ॥१३४४॥ • (ददतो लभमानस्य च भुञ्जानस्य च जिनस्य एष गुणः । क्षीणान्तरायत्वे यत्तस्य विजं न संभवति ॥) . जिनस्य-क्षीणसकलघातिकर्मणः क्षीणान्तरायत्वे सत्येष गुणो जायते, यदुत- 'से' तस्य जिनस्य ददतो लभमानस्य भुञानस्य चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादुपभुञ्जानस्य च यद्विघ्नो न संभवति। प्राकृतत्वाच्च विघ्नशब्दस्य नपुंसकनिर्देशः ॥१३४४।। ગાથાર્થ:- સમાધાન:- સકલ ઘાતિકર્મનો ક્ષય કરનાર જિનને અંતરાયકર્મ ક્ષીણ થવાથી એ લાભ–ગુણ થાય છે કે, તે જિનને આપતા, લેતા, ભોગવતા (ચકાર નહીં કહેલાના સમાવેશમાટે હોવાથી) અને ઉપભોગ કરતા વિપ્ન સંભવતા નથી. અર્થાત જિન દાનાદિકાર્યમાં પ્રવૃત્ત થાય, ત્યારે તે કાર્યો વિના વિપ્ન પાર પડે છે. પ્રાકૃત હોવાથી મૂળમાં “વિપ્ન' શબ્દનો નપુંસકલિંગમાં નિર્દેશ છે. ૧૩૪૪ अमुमेव गुणं प्रकृतेऽपि योजयन्नाह - આ જ લાભ પ્રસ્તતમાં પણ યોજતા કહે છે. उवउत्तस्सेमेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिणस्स । खीणावरणगुणोऽयं जं कसिणं मुणति पासति वा ॥१३४५॥ (उपयुक्तस्यैवमेव च ज्ञाने वा दर्शने वा जिनस्य । क्षीणावरणगुणोऽयं यत् कृत्स्नं जानाति पश्यति वा ॥) एवमेव-दानादिक्रियासु प्रवृत्तस्येव ज्ञाने दर्शने चोपयुक्तस्य केवलिनोऽयं क्षीणावरणगुण:- क्षीणावरणत्वे सति गुणः, यदुत-कृत्स्नं-लोकालोकात्मकं जगत् जानाति पश्यति, नतु जानतः पश्यतो विघ्नः संभवति ॥१३४५॥ ગાથાર્થ:- દાનાદિક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિની જેમ ઉપયોગ મુકનાર કેવલીને આવરણક્ષયનો લાભ–ગુણ એ છે કે, તે કેવલી લોકાલોકાત્મક આખા જગતને જાણે છે અને જૂએ છે. અને આ જાણવા-જોવામાં વિઘ્નો આવતા નથી. ૧૩૪પા લબ્ધિથી સર્વા-દશી વાદીઠ – અહીં યુગપદુપયોગવાદી કહે છે पासंतो वि ण जाणइ जाणं व ण पासती जति जिणिंदो । एवं ण कदाचि वि सो सव्वण्णू सव्वदरिसी य ॥१३४६॥ (पश्यन्नपि न जानाति जानन् वा न पश्यति यदि जिनेन्द्रः । एवं न कदाचिदपि स सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ॥) यदि पश्यन्नपि भगवान्न जानाति, दर्शनकाले ज्ञानोपयोगानभ्युपगमात्, जानन्वा यदि न पश्यति, ज्ञानोपयोगकाले दर्शनोपयोगानभ्युपगमात्, तत एवं सति न कदाचिदप्यसौ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च प्राप्नोतीति ॥१३४६॥ ગાથાર્થ:- જો ભગવાન જોતા હોવા છતાં જાણતા નથી, કેમકે દર્શનકાળે જ્ઞાનોપયોગ સ્વીકાર્યો નથી, અથવા જાણતા હોવા છતાં જોતા નથી, કેમકે જ્ઞાનકાલે દર્શનોપયોગ સ્વીકાર્યો નથી, તો આમ હોવાથી આ (=ભગવાન) કયારેય સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી નહીં બનવાની આપત્તિ છે. કેમકે જયારે સર્વજ્ઞ છે, ત્યારે સર્વદર્શી નથી અને સર્વદર્શી છે ત્યારે સર્વજ્ઞ નથી.) ૧૩૪૬ જ જ જે જ જ ક ક ન ક ક જ જ ન જ જ ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 327 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m&atas ac ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ? ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ सिद्धान्तवाद्याह - અહીં સિદ્ધાન્તવાદી કહે છે जुगवमजाणतो वि हु चउहिँ वि णाणेहिँ जह उ चउनाणी । भण्णति तहेव अरहा सव्वण्णू सव्वदरिसी य ॥१३४७॥ (युगपदजानन्नपि ह चतुर्भिरपि ज्ञानै यथा तु चतुर्ज्ञानी । भण्यते तथैवार्हन् सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ॥) यथा मत्यादिभिर्मनःपर्यायान्तैश्चतुर्भिानैर्युगपदजानन्नपि जीवस्वाभाव्यादेव युगपदुपयोगाभावात् लब्ध्यपेक्षया चतुर्ज्ञानी भण्यते, तथैवार्हन्नपि युगपत्केवलज्ञानदर्शनोपयोगाभावेऽपि निःशेषतस्तदावरणक्षयात् शक्त्यपेक्षया सर्वज्ञः सर्वदर्शी चोच्यते इत्यदोषः ॥१३४७॥ ગાથાર્થ:- જેમ મતિજ્ઞાનથી માંડી મન:પર્યવજ્ઞાન સુધીના ચાર જ્ઞાનથી એકસાથે જ્ઞાન કરતો નથી કેમકે જીવસ્વભાવથી જ એકસાથે ઉપયોગ રહેતા નથી. છતાં, ચારજ્ઞાનના ક્ષયોપશમના કારણે લબ્ધિની અપેક્ષાએ ચારજ્ઞાની કહેવાય છે. તે જ પ્રમાણે એકસાથે કેવલજ્ઞાન-દર્શનના ઉપયોગનો અભાવ હોવા છતાં સંપૂર્ણતયા તે બન્નેના આવરણનો ક્ષય થયો હોવાથી શક્તિ (Eલબ્ધિ) ની અપેક્ષાએ અહંન સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી કહેવાય છે, તેથી કોઇ દોષ નથી. ૧૩૪૭ના પરસ્પરાવરણદોષનો અભાવ पुनरप्यत्र वाद्याह - ફરીથી અહીં યુગ૫દુપયોગવાદી કહે છે तुल्ले उभयावरणक्खयम्मि पुव्वं समुब्भवो कस्स? । दुविहुवओगाभावे जिणस्स जुगवन्ति चोदेति ॥१३४८॥ (तुल्ये उभयावरणक्षये पूर्वं समुद्भवः कस्य ? । द्विविधोपयोगाभावे जिनस्य युगपदिति चोदयति. ॥) तुल्ये-समाने उभयावरणक्षये-केवलज्ञानदर्शनावरणक्षये पूर्वतरं-प्रथमतर मुद्भवः- उत्पादः कस्य भवेत् ? किं ज्ञानस्य उत दर्शनस्य? तत्र यदि ज्ञानस्य स किंनिबन्धन इति वाच्यं ? तदावरणक्षयनिबन्धन इति चेत् ? नन स दर्शनेऽपि तुल्य इति तस्याप्युद्भवप्रसङ्गः, एवं दर्शनपक्षेऽपि वाच्यम् । अतः प्रथमसमये स्वावरणक्षयेऽपि अन्यतरस्याभावेऽन्यतर-स्याप्यभाव एव विपर्ययो वा प्राप्नोतीति युगपद्विविधोपयोगाभावाभ्युपगमे जिनस्य वादी चोदयतीति ॥१३४८॥ ગાથાર્થ:- કેવલજ્ઞાન-દર્શનાવરણ આ ઉભયનો ક્ષય એકસાથે સમાનતયા થાય છે, તો પ્રથમ ઉદ્ભવ કોનો થશે? જ્ઞાન નો કે દર્શનનો? જો જ્ઞાનનો થતો હોય, તો તેમાં શું કારણ છે? “જ્ઞાનાવરણનો ક્ષય તેમાં કારણ છે તેમ કહેશો તો તે વાત તો દર્શનઅંગે પણ સમાન જ છે. તેથી તેનો પણ ઉદ્ભવ ત્યારે જ થવો જોઇએ. આ જ દલીલ દર્શનની પ્રથમ ઉત્પત્તિ માનવામાં જ્ઞાનને આગળ કરી બતાવી શકાય. તેથી પ્રથમસમયે સ્વાવરણનો(દા.ત. જ્ઞાનાવરણનો) ક્ષય થવા છતાં અન્યતરના અભાવમાં (हर्शनना सभामा)सन्यतरनो (शाननो) अमावाशे. अथवा विपर्ययो ,तो अन्यतरना (शानना)मामा અન્યતર ( દર્શન) નો પણ ભાવ આવશે. જિનને યુગપદ્ધિવિધોપયોગ નહીં માનવામાં આવી આપત્તિ આવે છે. આમ યુગ૫દુપયોગવાદી કહે છે ત્યારે- ૧૩૪૮ सिद्धान्तवाद्याह - સિદ્ધાન્તવાદી જવાબ આપતા કહે છે. भण्णति ण एस णियमो जुगवुप्पण्णेण जुगवमेवेह । __ होयव्वं उवओगेण एत्थ सुण ताव दिटुंतं ॥१३४९॥ (भण्यते नैष नियमो युगपदुत्पन्नेन युगपदेवेह । भवितव्यमुपयोगेनात्र शृणु तावद् दृष्टान्तम् ॥) भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते-न एष नियमो, यदुत-शक्त्यपेक्षया युगपदुत्पन्नेनापि ज्ञानेन युगपदेवेहोपयोगेनउपयोगरूपतयाऽपि भवितव्यमिति । कुत इति चेत् ? तथाऽदर्शनात् । आह च- 'एत्थ सुण ताव दिटुंतं' अत्र-अस्मिन् विचारप्रक्रमे शृणु तावत् दृष्टान्तम् ॥१३४९ ।। * * * * * * * * * * * * * * * * 4 G -मास २ - 328 * * * * * * * * * * * * * * * Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सर्वसिदिR + + ++ + + + + + + + ++ + + + + ગાથાર્થ –અ ઉત્તર આ છે–એવો કોઈ નિયમ નથી કે શનિ =લબ્ધિ)ની અપેક્ષાએ સાથે ઉત્પન્ન થયેલાએ ઉપયોગની અપેક્ષાએ પણ સાથે જ હોવું જોઇએ, કેમકે તેવું દેખાતું નથી. આ વિચારણાને અનુરૂ૫ દેષ્ટાન્ન સાંભળો ૧૩૪લા तमेव दर्शयति - वे साहटान्त ताछे... जह जुगवुप्पत्तीए वि सुत्ते सम्मत्तमतिसुतादीणं । णत्थि जुगवोवओगो सव्वेसु तहेव केवलिणो ॥१३५०॥ (यथा युगपदुत्त्पत्तावपि सूत्रे सम्यक्त्वमतिश्रुतादीनाम् । नास्ति युगपदुपयोगः सर्वेषु तथैव केवलिनः ॥ यथा सम्यक्त्वमतिश्रुतादीनामादिशब्दादवधिज्ञानपरिग्रहः युगपदुत्पत्तावपि सूत्रे-आगमे अभिहितायां न सर्वेष्वेव . मत्यादिषु युगपदुपयोगो भवति, "जुगवं दो नत्थि उवयोगा" (छा. युगपद् द्वौ न स्त उपयोगौ) इति वचनात, तथैव केवलिनोऽपि शक्त्यपेक्षया युगपत्केवलज्ञानदर्शनोत्त्पत्तावपि न द्वयोरपि युगपदुपयोगो भविष्यतीति ॥१३५०॥ ગાથાર્થ:- જેમ સમ્યકત્વ, મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાનવગેરે-વગેરેથી અવધિજ્ઞાન–એકસાથે ઉત્પન્ન થવા છતાં આગમમાં મતિઆદિ જ્ઞાનનો એકસાથે ઉપયોગ બતાવ્યો નથી કેમકે “એક સાથે બે ઉપયોગ નથી હોતા' એવું વચન છે. તે જ પ્રમાણે કેવલીને પણ શક્તિની અપેક્ષાએ કેવલજ્ઞાન-કેવલદર્શન સાથે ઉત્પન્ન થવા છતાં બન્નેનો એકસાથે ઉપયોગ સંભવતો નથી. ૧૩૫ના अमुमेवार्थं सूत्रेण संवादयन्नाह - આ જ અર્થનો સૂત્ર સાથે સંવાદ સાંધતા કહે છે भणितं पण्णत्तीए पण्णवणादीसु जह जिणो भगवं । जं जाणती ण पासति तं अणुरयणप्पभादीणं ॥१३५१॥ (भणितं प्रज्ञप्तौ प्रज्ञापनादिषु यथा जिनो भगवान् । यद् जानाति न पश्यति तदणुरत्नप्रभादीनाम् (दिकम्)) . भणितमपि चैतत् अनन्तरोदितं प्रज्ञप्तौ प्रज्ञापनादिषु च, यथा-यं समयं केवली जानाति अण्वादिकं रत्नप्रभादिक च न तमेव समयं पश्यतीति । 'अणुरयणप्पभाईण' मित्यत्र प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे षष्ठी । तत्र क्रमेणैव केवलज्ञानदर्शनयोरुपयोगो न युगपदिति स्थितम् ॥१३५१॥ ગાથાર્થ:- ઉપરોક્ત વાત પ્રાપ્તિ (=ભગવતીસૂત્ર) તથા પ્રજ્ઞાપના વગેરેમાં પણ આ પ્રમાણે કહે છે કે કેવલી જે સમયે અણવગેરે અને રત્નપ્રભાવગેરેને જાણે છે, તે જ સમયે જોતા નથી. “અણયણભાઈશં' આ સ્થળે પ્રાકૃત લેવાથી બીજી વિભક્તિના અર્થમાં છઠ્ઠી વિભક્તિનો પ્રયોગ છે. ઉપરોક્ત વચનથી સિદ્ધ થાય છે કે કેવલજ્ઞાન-દર્શનનો ઉપયોગ કમિક જ છે એકસાથે નથી. ૧૩૫૧ અભેદોપયોગવાદી મત અને તેનું ખંડન सांप्रतं ये केवलज्ञानदर्शनाभेदवादिनस्तन्मतमुपन्यस्यन्नाह - હવે જેઓ કેવલજ્ઞાન-દર્શનવચ્ચે અભેદ માને છે, તેઓનાં મત બતાવતા કહે છે जह किर खीणावरणे देसण्णाणाण संभवो ण जिणे । उभयावरणातीते तह केवलदसणस्सावि ॥१३५२॥ (यथा किल क्षीणावरणे देशज्ञानानां संभवो न जिने । उभयावरणातीते तथा केवलदर्शनस्यापि ) यथा किलेत्याप्तोक्तौ, क्षीणावरणे भगवति जिने देशज्ञानानां-मत्यादीनां न संभवः, तथा उभयावरणातीतेकेवलज्ञानदर्शनावरणातीते भगवति केवलदर्शनस्यापि न संभवः । कथमिति चेत् ? उच्यते-इह तावद्युगपदुपयोगद्वयं न जायते, सूत्रे तत्र तत्र प्रदेशे निषेधनात्, नचैतदपि समीचीनं, यत्तदावरणं क्षीणं तथापि तन्न प्रादुर्भवतीति, ऊद्ध्वमपि तदभावप्रसङ्गात् । ततः केवलदर्शनावरणक्षयादुपजायमानं केवलदर्शनं सामान्यमात्रग्राहि केवलज्ञाने एव सर्वात्मना सर्ववस्तग्राहकेऽन्तर्लीनमिति तदेव केवलज्ञानं चकास्ति, न ततः पृथग्भूतं केवलदर्शनमिति ॥१३५२॥ ગાથાર્થ:- (‘કિલ' શબ્દ આખોક્તિસૂચક છે.)જેમ ક્ષીણાવરણવાળા જિન–ભગવાનમાં મત્યાદિ દેશજ્ઞાનો સંભવતા નથી. ++++++++++++++++ R-AN२ - 329 +++++++++++++++ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર તેમ કેવલજ્ઞાન-દર્શનાવરણરૂપ ઉભયાવરણનો ક્ષય થયે ભગવાનમાં કેવલદર્શન પણ સંભવે નહીં. આમ કેમ? એનો જવાબ આ છે– પ્રસ્તુતમા એકસાથે બે ઉપયોગ તો સંભવે નહીં, કેમકે સૂત્રમાં તે તે સ્થાને નિષેધ કર્યો છે, અને એ પણ બરાબર નથી કે તેના (દર્શનના) આવરણનો ક્ષય થવા છતા તેનો પ્રાદુર્ભાવ ન થાય, કેમકે તો તો પછી પણ તેના અભાવનો પ્રસંગ છે. તેથી કેવલદર્શનાવરણના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થતું કેવલદર્શન સામાન્યમાત્રગ્રાહી હોવાથી સર્વવસ્તુગ્રાહક કેવલજ્ઞાનમાં જ સર્વથા અન્તર્લીન થાય છે, તેથી માત્ર કેવલજ્ઞાન જ પ્રકાશે છે, નહીં કે તેથી પૃથભૂત દારૂપે કેવલદર્શન પણ. ૫૧૩પરા अत्र सिद्धान्तवादी केवलदर्शनस्य स्वरूपतः पार्थक्यं सिसाधयिषुरिदमाह - અહીં સિદ્ધાન્તવાદી કેવલદર્શનની સ્વરૂપથી કેવલજ્ઞાનથી ભિન્નતા સિદ્ધ કરવાની ઇચ્છાથી કહે છે – देसण्णाणोवरमे जह केवलणाणसंभवो भणितो । देसदंसणविगमे तह केवलदंसणं होतु ॥ १३५३ ॥ (देशज्ञानोपरमे यथा केवलज्ञानसंभवो भणितः । देशदर्शनविगमे तथा केवलदर्शनं भवतु ॥) यथा भगवति मत्यादिदेशज्ञानोपरमे केवलज्ञानसंभवः स्वरूपेण भणितस्त्वया तथा चक्षुर्दर्शनादिदेशदर्शनविगमे सति केवलदर्शनमपि ततः पृथक् स्वरूपतो भवतु, न्यायस्य समानत्वात्, अन्यथा पृथक्तदावरणकल्पनानैरर्थक्यापत्तेः ॥१३५३ ॥ ગાથાર્થ:- ભગવાનમાં જેમ મત્યાદિદેશજ્ઞાનનો વિલય થયે છતે કેવલજ્ઞાનનો સ્વરૂપથી સંભવ કહ્યો છે, તેજ પ્રમાણે ચક્ષુર્દર્શનાદિ દેશદર્શનનો વિલય થયે છતે તેથી (=કેવલજ્ઞાનથી) અલગભૂત કેવલદર્શનનો સ્વરૂપથી સંભવ હોય, તે જ ન્યાયની સમાનતાથી યોગ્ય ગણાય, નહીંતર તો અલગ કેવલદર્શનાવરણીયની ક્લ્પના જ નિરર્થક થવાની આપત્તિ આવે. ૫૧૩૫ગા अह देसणाणदंसणविगमे तव केवलं मतं गाणं । ण मतं केवलदंसणमिच्छामेत्तं णणु तदेवं ॥१३५४॥ (अथ देशज्ञानदर्शनविगमे तव केवलं मतं ज्ञानम् । न मतं केवलदर्शनमिच्छामात्रं ननु तदेवम् ॥) अथ देशज्ञानदर्शनविगमे तव केवलज्ञानमेवैकं मतं न मतं केवलदर्शनमिति, अत्राह - ननु तदेवमिच्छामात्रम्अभिप्रायमात्रं, नत्वत्र काचनापि युक्तिः, न चेच्छामात्रतो वस्तुसिद्धिः, सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसक्तेः । यदप्युक्तम्-न चैतदपि समीचीनं (यत्तदावरणं क्षीणं तथापि तन्न प्रादुर्भवतीति, तत्र) क्षयोपशमाविशेषेऽपि मत्यादीनामिव जीवस्वाभाव्यादेव केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणक्षयेऽपि सततं तयोरप्रादुर्भावाविरोधात् ॥ १३५४॥ ગાથાર્થ:- તમને દેશજ્ઞાન-દર્શનના વિગમમાં એક કેવલજ્ઞાન જ ઇષ્ટ છે, કેવલદર્શન ઇષ્ટ નથી, પણ આ તો તમારી ઇચ્છામાત્ર છે– અભિપ્રાયમાત્ર છે, એમા કોઇ યુક્તિ નથી, અને ઇચ્છામાત્રથી કંઇ વસ્તુસિદ્ધિ ન થાય, અન્યથા તો બધાના બધા જ અર્થની એમ ઇચ્છામાત્રથી સિદ્ધિ થવાનો પ્રસંગ આવે. વળી તમે એવું જે કહ્યું કે તેના આવરણનો ક્ષય થાય છતા તે પ્રાદુર્ભાવ ન પામે' ઇત્યાદિ, તે પણ બરાબર નથી. જેમ મત્યાદિજ્ઞાનોમાં ક્ષયોપશમભાવ સમાનતયા હોવા છતા તથાજીવસ્વભાવથી જ એકસાથે પ્રાદુર્ભાવ પામતા નથી, તેમ તથા-જીવસ્વભાવથી જ કેવલજ્ઞાનાવરણ-કેવલદર્શનાવરણના સાથે ક્ષયરૂપ સમાનતા હોવા છતા સતત તે બન્નેનો પ્રાદુર્ભાવ ન થાય તેમા વિરોધ નથી. ૫૧૩૫૪ા अथोच्येत "दव्वतो णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ" (छा. द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यति) इत्यादि सूत्रं केवलज्ञानदर्शनाभेदपरं, केवलज्ञानिन एव सतो ज्ञानदर्शनयोरभेदेन विषयनिर्देशात्, सूत्रं च युष्माकमपि प्रमाणं, तत्कथमत्र विप्रतिपद्यत इति, तत्राह - અભેદવાદી:- દ્રવ્યથી કેવલજ્ઞાની સર્વદ્રવ્યને જાણે છે, જૂએ છે' ઇત્યાદિ સૂત્રો કેવલજ્ઞાન-દર્શનના અભેદના સૂચક છે, કેમકે કેવલજ્ઞાનીરૂપે જ નિર્દેશ કરી જ્ઞાન-દર્શનના વિષયનો અભેદરૂપે નિર્દેશ કર્યો છે. અને સૂત્ર તો તમને પણ પ્રમાણભૂત છે. તેથી આ બાબતમા કેમ વિવાદ કરો છો? અહીં સિદ્ધાન્તવાદી કહે છે– भण्णति जहोहिणाणी जाणति पासति य भासियं सुत्ते । य णाम ओहिदंसणणाणेगत्तं तह इमं (हं) पि ॥ १३५५ ॥ (भण्यते यथाऽवधिज्ञानी जानाति पश्यति च भाषितं सूत्रे । न च नामाऽवधिदर्शनज्ञानैकत्वं तथा इदमपि II) * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 330 * * * Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *++++++++++++++++ सर्वसिद्विार +++++++++++++++++ _ 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते-यथा अवधिज्ञानी जानाति पश्यति चेति सूत्रे भणितम्, यदुक्तम्-“दव्वओ णं ओहिणाणी उक्कोसेणं सव्वाइं रूविदव्वाइं जाणइ पासई" (छा. द्रव्यतः अवधिज्ञानी उत्कृष्टेन (उत्कर्षेण) सर्वाणि रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति) इत्यादि, न च तथा सूत्रे भणनेऽपि नामावधिज्ञानावधिदर्शनयोरेकत्वं, तथा इहापि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरेकत्वं सूत्रवशादासज्यमानं न भविष्यति, सूत्रस्य सामान्यतः प्रवृत्तेः । अपि च, जानाति पश्यति चेति नैतौ द्वावपि शब्दावेकार्थों, नापि तत्र सूत्रे एकार्थिकवक्तव्यताधिकारः, किं तु सामान्यविशेषविषयावगमाभिधानपरौ ॥१३५५॥ ગાથાર્થ:- અહીં ઉત્તર આ છે–સૂત્રમાં “અવધિજ્ઞાની જાણે છે જૂએ છે.” એવું વિધાન છે. કહ્યું જ છે કે “દ્રવ્યથી અવધિજ્ઞાની ઉત્કૃષ્ટથી સર્વ રૂપી દ્રવ્યોને જાણે છે જૂએ છે” આમ સૂત્રમાં કહેવા છતાં અવધિજ્ઞાન–અવધિદર્શન વચ્ચે એકત ઈષ્ટ નથી, તે જ પ્રમાણે અહીં પણ સૂત્રના વશથી કેવલજ્ઞાન-દર્શનવચ્ચે બતાવાતું એકત્વ યોગ્ય નથી, કેમકે સૂત્રનું વિધાન सामान्य३थे छे. वणी, नाति (गारो छ.) •५श्यति( छ.) डार्थ नथी, अनेते सूत्रमा ५ से બન્નેને એકાર્ષિકરૂપે રજુ કરવાનો પ્રસ્તાવ નથી, પરંતુ એ બને શલ્વે ક્રમશ: વિશેષરૂ૫ વિષય અને સામાન્યરૂ૫ વિષયના બોધનું અભિયાન ( સૂચન) કરનારા છે. ૧૩૫પા ततश्च - तेथी- . जह पासइ तह पासउ पासति सो जेण दंसणं तं से । जाणति य जेण अरहा तं से णाणन्ति तव्वं ॥१३५६॥ (यथा पश्यति तथा पश्यतु स येन दर्शनं तत्तस्य । जानाति च येनार्हन् तत्तस्य ज्ञानमिति ज्ञातव्यम् ॥) • यथा-येन प्रकारेण ज्ञानादभेदेन भेदेन वा पश्यति तथा पश्यतु, एतावत्तु वयं ब्रूमो-येन सामान्यावगमाकारेणअर्हन् पश्यति तत् दर्शनमिति ज्ञातव्यं, येन पुनर्विशेषावगमनिबन्धनेनाकारेण जानाति तत् से' तस्य अर्हतो ज्ञानमिति । न च युगपदुपयोगद्वयमनेकशः सूत्रे निषेधनात्, ततः सिद्धं क्रमेण भगवतो ज्ञानं दर्शनं चेति ॥१३५६॥ ગાથાર્થ:- જ્ઞાનથી ભેદ યા અભેદ જે પ્રકારે જતા હે તે પ્રકારે જૂઓ, પણ અમે તો એટલું જ કહીએ છીએ કે અર્ધન સામાન્યબોધાકારે જેનાથી જૂએ છે, તે(=અહન)નું તે દર્શન છે. અને વિશેષબોધાકારે જેનાથી જાણે છે, તે જ્ઞાન છે. અને સત્રમાં અનેકવાર નિષેધ કર્યો હોવાથી, એકસાથે બે ઉપયોગ તો નથી જ. તેથી ભગવાનનું જ્ઞાન-દર્શન ક્રમિક છે. તે સિદ્ધ જ થાય છે. ૧૩૫વા एतदेव सूत्रेण दर्शयति - આ જ વાતનું સૂત્રદ્વારા દર્શન કરાવે છે. णाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरयम्मि उवउत्तो । सव्वस्स केवलिस्सवि जुगवं दो णत्थि उवयोगा ॥१३५७॥ (ज्ञाने दर्शने च(वा) अनयोरेकतरस्मिन्नुपयुक्तः । सर्वस्य केवलिनोऽपि युगपद् द्वौ नास्ति उपयोगौ ॥) ज्ञाने तथा दर्शने, वाशब्दो विकल्पार्थः, अनयोरेकतरस्मिन् कस्मिंश्चिदुपयुक्तो, न तु द्वयोः, यतः सर्वस्य केवलिनो युगपत् द्वावुपयोगौ न स्त इति ॥१३५७॥ थार्थ:- (4। श० विपार्थ छ.)(१ ) शान यानि माया ओ मा ४ ५ य छ, નહીં કે બન્નેમાં; કેમકે બધા જ કેવલીઓને પણ એકસાથે બે ઉપયોગ લેતા નથી. ૧૩૫ अपिच - वणी, उवयोगो एगतरो पणुवीसतिमे सते सिणातस्स । भणितो वियडत्थो च्चिय छट्ठद्देसे विसेसेउं ॥१३५८॥ (उपयोग एकतरः पञ्चविंशतितमे शते स्नातकस्य । भणितो विकटार्थ एव षष्ठोद्देशे विशेष्य ॥ भगवत्याः पञ्चविंशतितमे शते अध्ययनापरपर्याये षष्ठोद्देशे स्नातकस्य-केवलिनो विशेष्य विशेषतः प्रकटार्थ एव एकतर उपयोगो भणितस्तत्कथमेवमागमार्थमुपलभ्यात्मानमन्यथा विप्रलभेमहीति ॥१३५८॥ ++++++++++++++++वाब-IAR-331+++++++++++++++ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 સર્વજ્ઞસિદ્ધિ દ્વાર ++ ગાથાર્થ:- ભગવતીસૂત્રમાં પચીસમાં શતક (=અધ્યયન)ના છઠ્ઠા ઉદ્દેશમાં સ્નાતક=કેવલીને વિશેષિત કરીને સ્પષ્ટરૂપે એકતર (જ્ઞાન–દર્શન બેમાથી એક) ઉપયોગ કહ્યો છે. તો કહ્યું, આવો સ્પષ્ટ આગમાર્થ પામ્યા પછી અન્યથા વિચારી શા માટે અમે અમારા આત્માને ઠગીએ? ૫૧૩૮૫ सांप्रतं सिद्धान्तवाद्येव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आत्मनोऽनुद्धतत्वमागमभक्तिपरं ख्यापयन्नाह હવે સિદ્ધાન્તવાદી શ્રી જિનભદ્રગણિ ક્ષમાશ્રમણ પોતાની આ અનુદ્ધતતા આગમભક્તિ૫૨ક છે, તેમ બતાવતા કહે છે– कस्स व णाणुमतमिणं जिणस्स जति होज्ज दो वि उवयोगा । णूणं ण होंति दोण्णी जतो णिसिद्धा सुते बहुसो ॥१३५९ ॥ (कस्य वा नानुमतमिदं जिनस्य यदि भवेतां द्वावप्युपयोगौ । नूनं न भवतो द्वौ यतो निषिद्धौ श्रुते बहुश: II) निगदसिद्धम् ॥१३५९ ॥ ગાથાર્થ:- અથવા જો જિનેશ્ર્વરને બન્ને ઉપયોગ એકસાથે પણ હોય તો તે કોને અનુમત ન હોઇ શકે? અર્થાત્ વસ્તુતત્વ બધા જ શિષ્ટપુરુષોને અનુમત હોય છે. (તો તમે બે ઉપયોગ સાથે હોવાની વાતનો વિરોધ કેમ કરો છો? એવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે) છતાં બે ઉપયોગ (એકસાથે) હોતા નથી, કેમકે શ્રુત-આગમમા વારંવાર તેઅંગે નિષેધ કર્યો છે. (અને આગમના બળ વિના કરેલી સારી ના પણ સાચી નથી બનતી) ૫૧૩૫૯૫ સામાન્ય-વિશેષ સર્વજ્ઞતા અબાધક अत्रापरश्चोदयन्नाह અહીં બીજી વ્યક્તિ કહે છે - जं दंसणणाणाई सामन्नविसेसगहणख्वाइं । तेण ण सव्वण्णू सो णाया ण य सव्वदरिसी वि ॥ १३६० ॥ (यद् दर्शनज्ञाने सामान्यविशेषग्रहणरूपे । तेन न सर्वज्ञः स न्यायाद् न च सर्वदर्शी अपि ॥) यत् - यस्मात् दर्शनज्ञाने यथाक्रमं सामान्यविशेषग्रहणरूपे तेन कारणेन स भगवान् न्यायात् - न्यायेन न सर्वज्ञो नापि सर्वदर्शी प्राप्नोति ॥१३६० ॥ ગાથાર્થ:– દર્શન અને જ્ઞાન ક્રમશ: સામાન્યગ્રહણરૂપ અને વિશેષગ્રહણરૂપ છે. ન્યાયથી વિચારીએ તો તે ભગવાન સર્વજ્ઞ પણ નથી અને સર્વદર્શી પણ નથી. ૫૧૩૬ના अथ कोऽसौ न्यायो यद्वशादसावसर्वज्ञोऽसर्वदर्शी च प्रसज्यत इति ? तमाह એવો કયો ન્યાય છે કે જેના કારણે ભગવાન અસર્વજ્ઞ અને અસર્વદર્શી બનવાનો પ્રસંગ આવે છે?” તેઅંગે કહે છે– समुदितमुभयं सव्वं अण्णतरेण णवि घेप्पति तयं च । भेदाभेदेऽवि महो एसो खलु होइ णातो त्ति ॥ १३६१ ॥ (समुदितमुभयं सर्वमन्यतरेण नापि गृह्यते तच्च । भेदाभेदेऽपि मिथः एष खलु भवति न्याय इति ॥ समुदितमुभयं - सामान्यविशेषलक्षणं सर्वं समस्तं वस्तु, सकलमपि वस्तु सामान्यविशेषात्मकमित्यर्थः, तच्च समुदितमुभयं - सामान्यविशेषरूपं मिथः- परस्परं भेदाभेदेऽपि सति नान्यतरेण- ज्ञानेन दर्शनेन वा गृह्यतेऽविषयत्वात्। न हि रूपरसादीनामन्योऽन्यं भेदाभेदेऽपि चक्षुराद्यन्यतमेन्द्रियोद्भवेनाध्यक्षेण सर्वेषां ग्रहो भवतीति । एष खलु भवति न्यायो ज्ञातव्य इति ॥ १३६१ ॥ ગાથાર્થ:- બધી જ વસ્તુ સામાન્ય-વિશેષરૂપઉભયથી સમુદિત છે. અર્થાત્ સામાન્ય-વિશેષાત્મક છે. આ બન્ને (=સામાન્ય-વિશેષ વચ્ચે પરસ્પર ભેદાભેદ હોય, તો પણ જ્ઞાન કે દર્શનથી ગ્રહણ થશે નહીં, કેમકે વિષયભૂત નથી. (જ્ઞાન માત્ર વિશેષગ્રાહી છે અને દર્શન માત્ર સામાન્યગ્રાહી છે.) અહીં દૃષ્ટાન્ત:-રૂપ, રસવગેરેમાં પરસ્પરભેદાભેદ હોવા છતા આંખઆદિ કો'ક એક ઇન્દ્રિયથી કંઇ એ બધાનો પ્રત્યક્ષબોધ થતો નથી. આ જ મુદ્દો ન્યાયરૂપ છે. ૫૧૩૬૧ા अत्राचार्य आह અહીં આચાર્ય જવાબ આપે છે. - - **** धर्मसंगल-लाग २ - 332** Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ सर्वसिद्धि द्वार *** सामन्नमिह कहंची णेयं अब्भंतरीकयविसेसं । ते व इतरेण एवं उभयं पि ण जुज्नई इहरा ॥१३६२॥ (सामान्यमिह कथञ्चिद् ज्ञेयमभ्यंतरीकृतविशेषम् । तेऽपि इतरेण एवमुभयमपि न युज्यत इतरथा ॥ ) सामान्यमिह—जगति कथंचित् - स्याद्वादनीत्या ज्ञेयं - ज्ञातव्यमभ्यन्तरीकृतविशेषम् । समानपरिणामो हि सामान्यं, समानश्च परिणामोऽसमानपरिणामानुविद्धः, अन्यथैकत्वापत्तितः समानत्वस्यैवायोगात् । असमानपरिणामः प्रतिव्यक्ति नियो विशेषः, तदुक्तम्-‘असमानस्तु विशेष इति' । तेऽपि च विशेषा इतरेण- सामान्येन एवं - सामान्यं विशेषैरिवानुविद्धा द्रष्टव्याः । इतरथा—एवमनभ्युपगमे उभयमपि - उभयात्मकमपि वस्तु न युज्यते ॥१३६२॥ ગાથાર્થ:–આ જગતમાં સ્યાદ્વાદની દૃષ્ટિથી સામાન્ય અત્યંતરીકૃતવિશેષ છે. (અહીં ‘અભ્યંતરીકૃતિિવશેષ' પદથી અત્યંતર -ગર્ભિત કરાયા છે વિશેષો જેનાવડે એવો અર્થ લેવો હોય તેમ લાગે છે. અર્થાત્ સામાન્ય વિશેષોથી ગર્ભિત-અનુવિદ્ધ છે.) સમાનપરિણામ જ સામાન્ય છે. આ સમાનપરિણામ અસમાનપરિણામથી અનુવિદ્ધ હોય છે, અન્યથા એકત્વ જ આવીને ઊભું રહેવાથી સમાનતા જ સંભવે નહીં. અસમાનપરિણામ પ્રત્યેકવ્યક્તિમાં રહેલા નિયત વિશેષરૂપ છે. કહ્યું જ છે કે અસમાન વિશેષ છે.’ તથા વિશેષો પણ (વિશેષોથી અનુવિદ્ધ સામાન્યની જેમ)સામાન્યથી ગર્ભિત-અનુવિદ્ધ છે. આમ ન માનો તો વસ્તુ ઉભયાત્મકરૂપે ઘટે નહીં. ૫૧૩૬૨ા જ્ઞાન-દર્શન પ્રત્યેક સર્વવિષયક ततः किमित्याह तेभवाथी शु? ते जतावे छे - एवं च उभयरूवे सिद्धे सव्वम्मि वत्थुजायम्मि । दंसणणाणे वि फुडं सिद्धे च्चिय सव्वविसए ति ॥१३६३ ॥ (एवं चोभयरूपे सिद्धे सर्वस्मिन् वस्तुजाते । दर्शनज्ञाने अपि स्फुटं सिद्धे एव सर्वविषये इति ॥) एवं च-उक्तप्रकारेण परस्पराभ्यन्तरीकृतत्वलक्षणेन उभयस्ये- सामान्यविशेषरूपे सर्वस्मिन् वस्तुजाते सिद्धे दर्शनज्ञाने अपि स्फुटं सिद्धे एव सर्वविषये, तथाहि त एव सर्वे पदार्धा दर्शनेन ज्ञानेन च यथाक्रमं समविषमतया संप्रज्ञायन्त इति ॥ १३६३॥ · ગાથાર્થ:–આમ પરસ્પરાનુવેધથી સમસ્તવસ્તુજાત સામાન્ય-વિશેષરૂપ સિદ્ધ થવાથી દર્શન-જ્ઞાન પણ સ્પષ્ટ સર્વવિષયક સિદ્ધ થાય છે. તે આ પ્રમાણે—તે જ બધા પદાર્થો દર્શન અને જ્ઞાનથી ક્રમશ: સમ અને વિષમરૂપે સંપ્રજ્ઞાત થાય છે. ૫૧૩૬ા इमामेव सर्वविषयतामनयोर्भावयति જ્ઞાન–દર્શનની આ સંર્વવિષયતાનું ભાવન કરતા કહે છે - सविसेसं पुण णाणं ता सयलत्थे तओ दो वि ॥ १३६४ ॥ (यदत्र निर्विशेषं ग्रहो विशेषाणां दर्शनं भवति । सविशेषं पुनर्ज्ञानं तस्मात् सकलार्थे तके द्वे अपि ॥) यत् - यस्मादत्र विशेषाणां घटादीनां निर्विशेषं- विशेषरूपतापरिहारेण सामान्याकारेणेतियावत् ग्रहो दर्शनं भवति । सविशेषं पुनः सामान्याकारमुत्सृज्य विशेषरूपतया पुनस्तेषामेव घटादिविशेषाणां ग्रहो ज्ञानम् । 'ता' तस्मात्तके द्वे अपि ज्ञानदर्शने सकलार्थे सिद्धे इति ॥ १३६४ ॥ अत्र पर आह - અહીં પરપક્ષ કહે છે. + जं एत्थ णिव्विसेसं गहो विसेसाण दंसणं होति । ગાથાર્થ:- અહીં, ધડાઆદિવિશેષોના વિશેષભાવને છોડી સામાન્યાકારે જે ગ્રહણ છે, તે દર્શન છે. અને તેઓના (ધડાદિ વિશેષના) સામાન્યભાવને છોડી વિશેષભાવોનો જે બોધ છે, તે જ્ઞાન છે. તેથી જ્ઞાન-દર્શન સકલાર્થક સિદ્ધ થાય છે. ૫૧૩૬૪ समताधम्मविसिट्टं घेप्पति जं दंसणेण सव्वं तु- । तु विसमताएँ ता कह सयलत्थमिणं ति वत्तव्वं ॥ १३६५॥ (समताधर्मविशिष्टं गृह्यते यद् दर्शनेन सर्वं तु । न तु विषमतया तस्मात् कथं सकलार्थमिदमिति वक्तव्यम् II) + + + + धर्मसंगल-लाग २ - 333 + + + off Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++ सर्वसिEिR + + + + ++ + + + + + + ++ +++ ननु यत्-यस्मात् दर्शनेन समताधर्मविशिष्टं सर्वं वस्तु गृह्यते, न तु विषमतया विशिष्टं, 'ता' तस्मात्कथमिदं दर्शनं सकलार्थविषयमिति वक्तव्यम् ? ॥१३६५॥ ગાથાર્થ – પૂર્વપક્ષ – દર્શન સમતાધર્મવિશિષ્ટ જ બધી વસ્તુને ગ્રહણ કરે છે, નહીં કે વિષમતાધર્મથી વિશિષ્ટ. તેથી આ દર્શન સકલાર્થવિષયક છે તેમ કેવી રીતે કહી શકાય? ૧૩૬પા एवं विवज्जासेणं णाणस्स वि असयलत्थया णेया । उभयग्गहणे (य) दोण्ह वि अविसेसो पावती णियमा ॥१३६६॥ (एवं विपर्यासेन ज्ञानस्यापि असकलार्थता ज्ञेया । उभयग्रहणे (च) द्वयोरपि अविशेषः प्राप्नोति नियमात् ॥) एवं-दर्शनस्येव ज्ञानस्यापि विपर्यासेनासकलार्थता ज्ञेया, यथा ज्ञानेन विषमताधर्मविशिष्टं सर्वं वस्तु गृह्यते, न समताविशिष्टं, तत्कथमिदं ज्ञानं सकलार्थविषयमिति । अथैतद्दोषभयादेवमिष्येत यदुत-ज्ञानेनापि सामान्यविशेषात्मकतया सर्व वस्तु गृह्यते तथा दर्शनेनापीति तत्राह-उभयग्रहणे-सामान्यविशेषग्रहणे द्वयोरपि-ज्ञानदर्शनयोरभ्युपगम्यमाने सति नियमात्तयोरविशेषः प्राप्नोति । परिच्छेद्यकृतो हि विशेषः सोऽपि चेदानीमपगत इति कथमनयोः परस्परं विशेषः?॥१३६६ ॥ ગાથાર્થ:- ઉપરોક્તવાતને જ ઉલટાવવાથી દર્શનની જેમ જ્ઞાનની પણ અસકલાર્થતા સમજવી. જ્ઞાન વિષમતા ધર્મથી વિશિષ્ટ જ બધી વસ્તુને ગ્રહણ કરે છે નહીં કે સમતા ધર્મથી વિશિષ્ટ. તેથી જ્ઞાન પણ કેવી રીતે સકલાર્થગ્રાહક બનશે? જો આ દોષના ભયથી “જ્ઞાન પણ સામાન્ય-વિશેષાત્મકરૂપે જ બધી વસ્તુનો બોધ કરશે અને દર્શન પણ એ જ રીતે બોધ કરશે એમ કહેશો તો જ્ઞાન-દર્શન બન્ને સામાન્યવિશેષ ઉભયનું ગ્રહણ કરતાં હોવાથી અવશ્ય બન્નેમાં કોઈ વિશેષ નહીં રહે. કેમકે બન્નેમાં (જ્ઞાન-દર્શનમાં) વિષયકત જ વિશેષ છે. બન્નેના બોધના વિષય અલગ-અલગ હેવાથી જ બન્નેમાં ભેદ ઈષ્ટ છે.) જો તે =વિષયકતભેદ) પણ દૂર કરશો, તો બન્નેમાં પરસ્પરવિશેષ ભેદ શું રહેશે? ઘ૧૩૬૬ अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. समएतरधम्माणं भेदाभेदम्मि ण खलु अण्णोण्णं । णिरवेक्खमेव गहणं इय सयलत्थे तओ दो वि ॥१३६७॥ (समतेतरधर्मयोर्भेदाभेदे न खल अन्योन्यम् । निरपेक्षमेव ग्रहणमिति सकलार्थे ततो द्वे अपि ॥ समतेतरधर्मयोः-सामान्यविशेषयोर्भेदाभेदे सति न खल्वन्योऽन्यं निरपेक्षमेव ग्रहणमुपपद्यते, एतदुक्तं भवतिसमानासमानपरिणामयोः सामान्यविशेषशब्दवाच्ययोस्तथा भेदाभेदो व्यवस्थितो यथा नानयोहणमन्योऽन्यनिरपेक्षमेवोपजायते, यथा स्पादीनां, किंतु प्रधानोपसर्जनभावेन परस्परसापेक्षं, तथास्वभावत्वात् । इतिः-एवमुक्तप्रकारेण द्वे अपि ज्ञानदर्शने सकलार्थे ॥१३६७॥ - ગાથાર્થ:- ઉત્તરપલ:- સામાન્ય-વિશેષવચ્ચે ભેદભેદ હોવાથી અન્યોન્યથી નિરપેક્ષરૂપે બન્નેનું ગ્રહણ સંભવતું નથી. તાત્પર્ય:- સામાન્ય અને વિશેષ શબ્દોથી ક્રમશ: વાચ્ય સમાનપરિણામ અને અસમાનપરિણામ વચ્ચે તેવા પ્રકારનો ભેદભેદ નિશ્ચિત છે કે, જેથી એ બન્નેનું રૂપાદિની જેમ પરસ્પરથી નિરપેક્ષરૂપે ગ્રહણ થાય જ નહીં. (પાદિમાં એવો ભેદભેદ ન લેવાથી રસઆદિથી નિરપેક્ષરૂપે એકલા કૃપાદિનું ગ્રહણ સંભવે છે. પરંતુ પ્રધાન-ગૌણભાવથી પરસ્પરસાપેક્ષ ગ્રહણ જ થાય. આમ હોવાથી જ્ઞાન-દર્શન આ બન્ને સકલાર્થવિષયક જ છે. ૧૩૬૭ एतदेव स्पष्टयति - આ જ વાતને સ્પષ્ટ કરે છે. जं सामण्णपहाणं गहणं इतरोवसज्जणं चेव । अत्थस्स दंसणं तं विवरीयं होइ णाणं तु ॥१३६८॥ (यत् सामान्यप्रधान ग्रहणमितरोपसर्जनमेव । अर्थस्य दर्शनं तद् विपरीतं भवति ज्ञानं तु ॥) यत् अर्थस्य-घटादेः सामान्यप्रधानमितरोपसर्जनं-विशेषोपसर्जनमेव ग्रहणं तत् दर्शनं, विपरीतं तु गृहणं यत् विशेषप्रधानमुपसर्जनीकृतसामान्यं तत् ज्ञानं भवतीति ॥१३६८॥ ++++++++++++++++ Gee-माग - 334+++++++++++++++ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++++++ सद्विार +++++++++++++++++ ગાથાર્થ – ઘડાદિ અર્થનું જે સામાન્ય પ્રધાન અને વિશેષને ગૌણ કરતું ગ્રહણ (બોધ) છે તે દર્શન છે, અને તેથી વિપરીત વિશેષને પ્રધાન કરતું અને સામાન્યને ગૌણ કરતું જે ગ્રહણ છે તે જ્ઞાન છે. ઘ૧૩૬૮ના स्यादेतद यगपदभयस्ये अर्थे अविशिष्टे सति कथमेवं प्रधानोपसर्जनभावतो विच्छेदेन ग्रहणं प्रवर्तत इति ? (आह-) પર્વપક્ષ:- એકસાથે ઉભયરૂપ હોવાથી જો અર્થ અવિશિષ્ટ હોય તો તે અંગે આમ પ્રધાન-ગૌણભાવથી સમયાન્તર રૂપે અત્તરથી ગ્રહણ કેવી રીતે થાય? અહીં ઉત્તર આપે છે जीवसहावातो च्चिय एतं एवं तु होइ णातव्वं । अविसिट्ठम्मि वि अत्थे जुगवं चिय उभयस्वे वि ॥१३६९॥ (जीवस्वाभाव्यादेवैतदेवं तु भवति ज्ञातव्यम् । अविशिष्टेऽपि अर्थे युगपदेव उभयरूपेऽपि) युगपदुभयस्पेऽप्यर्थे तथा उभय्यामपि ज्ञानदर्शनोपयोगस्पायामवस्थायामविशिष्टेऽपि यदेतत् ग्रहणमेवं क्रमशः प्रधानोपसर्जनभावेन तत् जीवस्वाभाव्याद्भवति ज्ञातव्यमित्यदोषः ॥१३६९॥ ગાથાર્થ:-ઉત્તરપક્ષ:- એકસાથે ઉભયરૂપ અર્થ હોવા છતાં, તથા જ્ઞાન-દર્શનોપયોગરૂપે ઉભયાવસ્થામાં પણ સમાન રહેવા છતાં જે આ પ્રધાન–ગૌણભાવથી કમશ: ગ્રહણ છે તે જીવસ્વભાવથી જ તેમ છે, એમ સમજવું. તેથી દોષ નથી. ૧૩૬લા મતાનરસિદ્ધ સર્વજ્ઞ-સર્વદર્શિપણું तदेवं भगवतः सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च व्यवस्थाप्य सांप्रतमत्रैव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह - આમ ભગવાનનું સર્વશપણું અને સર્વદર્શિપણું સિદ્ધ કર્યું. હવે આ જ વિષયમાં મતાંતર બતાવતા કહે છે अण्णे सव्वं णेयं जाणति सो जेण तेण सव्वण्णू । सव्वं च दरिसणिज्जं पासइ ता सव्वदरिसि त्ति ॥१३७०॥ - (अन्ये सर्व ज्ञेयं जानाति स येन तेन सर्वज्ञः । सर्वं च दर्शनीयं पश्यति तस्मात् सर्वदर्शी इति ॥) अन्ये आचार्या मन्यन्ते-येन कारणेन भगवान् सर्वं ज्ञेयं जानाति तेन कारणेन सर्वज्ञः, सर्वं च दर्शनीयं पश्यति 'ता' तस्मात् सर्वदर्शीति ॥१३७०॥ ગાથાર્થ:- અન્ય આચાર્યો એમ માને છે કે જેથી ભગવાન બધી જ ય વસ્તુને જાણે છે તેથી સર્વજ્ઞ છે. અને બધી જ દર્શનીય વસ્તુને જૂએ છે તેથી સર્વદર્શી છે. ૧૩૭ના अथ किं ज्ञेयं ? किं वा दर्शनीयं ? यत् जानन् पश्यंश्च सर्वज्ञः सर्वदर्शीति, तत आहશેય છે? અને શું દર્શનીય છે? જે જાણતા-જતા ભગવાન સર્વજ્ઞ-સર્વદર્શી કહેવાય? એવી શંકાના સમાધાનમાં કહે છે. ' णेया तु विसेस च्चिय सामण्णं चेव दरिसणिज्जं तु । ण य अण्णेयण्णाणे वि तस्स णो इट्टसिद्धि त्ति ॥१३७१॥ (ज्ञेया तु विशेषा एव सामान्यमेव दर्शनीयं तु । न चा ज्ञेयज्ञानेऽपि तस्य न इष्टसिद्धिरिति ॥) ज्ञेया विशेषा एव, न सामान्यं, तस्य ज्ञानाविषयत्वात्, तथास्वभावत्वात्, रसस्येव चक्षुष इति । दर्शनीयं च सामान्यमेव, न विशेषास्तेषां दर्शनागोचरत्वात्, स्पस्येव रसनायाः, तत्कथं न सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं वोपपद्यत इति ? अथ सामान्यमजानन् कथं सर्वज्ञो विशेषांश्चापश्यन् कथं सर्वदर्शीति? अत आह-'न येत्यादि' उक्तमिदं-न सामान्यं ज्ञेयं, नापि दर्शनीयं विशेषाः, यच्च ज्ञेयं दर्शनीयं वा तत्सर्वं जानाति पश्यति च, न चास्यभगवतोऽज्ञेयज्ञानेऽपिअदर्शनीयविशेषदर्शनेऽपि अभ्युपगम्यमाने नोऽस्माकं काचिदिष्टसिद्धिरिति कृतं प्रसङ्गेन ॥१३७१॥ ગાથાર્થ:- શેયો વિશેષરૂપે જ છે સામાન્યરૂપે નહીં, કેમકે તથાસ્વભાવથી જ સામાન્ય જ્ઞાનનો વિષય નથી; જેમકે રસ ચાનો વિષય નથી. દર્શનીયવરનું સામાન્યરૂપ જ છે, વિશેષરૂપ નથી, કેમકે વિશેષ દર્શનના વિષય નથી; જેમકે રૂપ જીભનો વિષય નથી. તેથી સર્વજ્ઞતા અને સર્વદર્શિતા કેમ યોગ્ય ન ઠરે? અર્થાત યોગ્ય ઠરે જ. શંકા:- સામાન્યને નહીં જાણતો સર્વજ્ઞ કેવી રીતે કહેવાય અને વિશેષોને નહીં તો સર્વદર્શી શી રીતે મનાય? સમાધાનઃ- કહ્યું તો ખરું કે સામાન્ય શેયરૂપ જ નથી. અને વિશેષ સ્વયં દર્શનીય જ નથી. તેથી તેઓને નહીં જાણવા + + + + + + + + + + + + + + + + aliaslee-MIRR - 335 + + + + + + + + ++ ++ + ++ . Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ક ક ક ક * * * * * * * * * સર્વસિદ્ધિ કાર જ ન * કે જોવા માત્રથી થોડે દોષ આવે? જેટલું શેય છે તેટલું તો જાણે જ છે, અને જેટલું દર્શનીય છે તેટલું તો જૂએ જ છે. અને ભગવાન અયસામાન્યનું જ્ઞાન કરે કે અદર્શનીયવિશેષોનું દર્શન કરે તેમ સ્વીકારવાથી પણ અમને કોઈ ઇષ્ટસિદ્ધિ નથી (અર્થાત અશેયના અજ્ઞાનમાં અને અદર્શનીયના અદર્શનમાં પણ સર્વજ્ઞતા-સર્વદર્શિતા સિદ્ધ જ છે. તેથી સર્વજ્ઞતા-સર્વદર્શિતા સિદ્ધ કરવા અમારે કઈ અશેયઅદર્શનીયના જ્ઞાન-દર્શન માનવાની જરુર નથી.) ૧૩૭ના स्यादेतदेवं, सुगतादिमतानुसारिणोऽपि सर्वज्ञं परिकल्पयन्ति, न च तेषां सुगतादीनां सर्वज्ञत्त्वं, तत्कथमिहापीत्यत आह - શંકા:- એમ તો સુગાદિ (=બુદ્ધાદિ) ના મતને અનુસરનારાઓ પણ આમ બુદ્ધાદિને સર્વજ્ઞરૂપે કલ્પ છે, પણ તે સગવાદિઓ સર્વજ્ઞ નથી, તેમ અહીં પણ કેમ ન કહ શકાય?- અહં સમાધાન કરે છે सव्वण्णुविहाणम्मि वि दिखेट्ठाबाधितातों वयणातो । सव्वण्णू होइ जिणो सेसा सव्वे असव्वण्णू ॥१३७२॥ (सर्वज्ञविधानेऽपि दृष्टेष्टाबाधिताद् वचनात् । सर्वज्ञो भवति जिनः शेषाः सर्वेऽसर्वज्ञाः ॥) एवं सामान्यतः सर्वज्ञविधानेऽपि-सर्वज्ञसिद्धावपि सत्यां 'दृष्टेष्टाबाधितात्' दृष्टेन-प्रत्यक्षेणानुमेयेन च इष्टेन स्वयमभ्युपगतेनाबाधितात्तद्वचनात् सर्वज्ञो भवति जिन एव-वर्द्धमानस्वाम्यादिः, न शेषाः- सुगतादयो दृष्टेष्टबाधितवचनाः सर्वज्ञा इति । तदक्तम-"दृष्टशाब्दाविरुद्धार्थ, सर्वसत्त्वसुखावहम्। मितं गम्भीरमाहादि, वाक्यं यस्य स सर्ववित ॥१॥ एवंभूतं च यद्वाक्यं, जैनमेव ततः स वै । सर्वज्ञो नान्य एतच्च, स्याद्वादेनैव गम्यते ॥२॥" ॥१३७२॥ ગાથાર્થ:- સમાધાન:- આમ સામાન્યથી (=વ્યક્તિવિશેષને આગળ કર્યા વિના) સર્વજ્ઞની સિદ્ધિ કરી. છતાં પ્રત્યક્ષથી અને અનુમાન–અનુમેયથી દષ્ટ અને સ્વયં સ્વીકારેલા આગમ-સિદ્ધાંતથી અબાધિત વચનોથી ઈષ્ટ વર્ધમાનસ્વામી વગેરે જિનો જ સર્વજ્ઞ છે. (અર્થાત જિનના વચનો દષ્ટ અને ઇટથી બાયિત ન હોવાથી જ જિન સર્વજ્ઞ છે.) સગતવગેરેના વચનો દષ્ટ અને ઈષ્ટથી બાધિત લેવાથી તેઓ સર્વજ્ઞ નથી. કહ્યું છે કે “દષ્ટ અને શબ્દ =ઋત) થી અવિરુદ્ધ અર્થવાળું બધા જ જીવોને સુખદાયી, મિત, ગંભીર અને આહલાદિજનક વાકચ જેનું હોય, તે સર્વજ્ઞ છે. (૧) આવા પ્રકારનું વાકચ જિનેશ્વરનું જ છે. તેથી તે જિનેશ્વર જ સર્વજ્ઞ છે, અન્ય નહીં. આ વાત સાધવાદથી સમજી શકાય છે. સારા" ૧૩૭રા જિનાગમની પ્રમાણતામાં છિન્નમૂલાદિ અબાધક - एतेन यदुच्यते परै :- “छिन्नमूलत्वात् कैश्चिदेव परिग्रहात् विगानाच्च नैवासावागमः प्रमाणमिति," तदप्यपास्तमवसेयम्। तथा चाह - તેથી “છિન્નમૂલક લેવાથી, કેટલાકથી જ પરિગૃહીત હોવાથી અને વિવાદાસ્પદ હોવાથી આ આગમ પ્રમાણભૂત નથી એવું જે બીજાઓનું કથન છે તે અયોગ્ય ઠરે છે. તે જ આચાર્ય કહે છે एवं सव्वण्णुत्ते सिद्धे णो छिन्नमूलदोसो वि । __पावति एवं भणंतस्स अहिगमे तुल्लदोसो तु ॥१३७३॥ (एवं सर्वज्ञत्वे सिद्धे न छिन्नमूलदोषोऽपि । प्राप्नोति एवं भणतोऽधिगमे तुल्यदोषस्तु ॥ एवम्-उक्तेन प्रकारेण सर्वज्ञत्वे सिद्धे सत्यागमस्य छिन्नमूलत्वदोषोऽपि परैरासज्यमानो न प्राप्नोति, तस्य सर्वज्ञमूलत्वात् । अपित्वेवं-सर्वज्ञमूलमन्तरेणेत्यर्थः आगमं भणतः-प्रतिपादयतः परस्यापि तदर्थाधिगमे तुल्य एव छिन्नमूलत्वलक्षणो दोषः प्राप्नोति, तथाहि-न सर्वज्ञमन्तरेण वचनस्यातीन्द्रियार्थप्रतिपादनशक्तिरवगन्तुं शक्यते, ततः सर्वज्ञानभ्युपगमे वेदार्थाधिगमः छिन्नमूल एवेति ॥१३७३॥ ગાથાર્થ:- આમ સર્વજ્ઞ સિદ્ધ થયા પછી બીજાઓએ આગમઅંગે આપેલો છિન્નમૂલક દોષ પણ લાગુ પડતો નથી, કેમકે આગમ સર્વજ્ઞમૂલક જ છે. ઊર્લ્ડ આમ સર્વજ્ઞરૂપ મૂળ વિનાના આગમનું પ્રતિપાદન કરનારા બીજાઓને પણ તે(=આગ) ના અર્થનું જ્ઞાન કરવામાં સમાનતયા જ છિન્નમૂલત્વરૂપ દોષ લાગે છે. તથાતિ-સર્વજ્ઞ વિના વચનની અતીન્દ્રિયાર્થ પ્રતિપાદન શક્તિનો બોધ કરવો શક્ય નથી, તેથી સર્વજ્ઞને નહીં સ્વીકારવામાં વેદાર્થનો બોધ પણ છિન્નમૂલક જ આવે. કેમકે વેદવચનનો યથાર્થ અર્થ કરવા–બતાવવા પણ સર્વશ તો જોઈએ જ.) a૧૩૭૩ कैश्चिदेव परिग्रहादित्यत्र प्रतिविधानमाह - કેટલાકવડે જ પરિગૃહીત હોવાથી એવા મુદાઅંગે કહે છે– * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 336 * * * * * * * * * * * * * * * Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + स द्विार +++++++++++++++++ केहिंचि परिग्गहितो पतणुयकम्मेहिं एत्थ को दोसो ? । वेदस्स वि णिच्चत्तं सव्वेसिमसंमतं चेव ॥१३७४॥ ' (कैश्चित् परिगृहीतः प्रतनुकर्मभिरत्र को दोषः ?। वेदस्यापि नित्यत्वं सर्वेषामसंमतमेव ) यदि नाम कैश्चिदेव प्रतनकर्मभिरेष आगमः परिगृहीतस्ततोऽत्र-कैश्चिदेव परिग्रहे को दोषो? नैव कश्चित, नहि कल्पपादपः सर्वैरेव प्राप्यत इति । यदपि विगानादित्युक्तं तदपि न समीचीनम्, वेदेऽपि तस्य समानत्वात् । तथा चाह-वेदेत्यादि' वेदस्यापि नित्यत्वम्-अपौरुषेयत्वं सर्वेषामसंमतमेव, कणादादीनां भूयसां तथानभ्युपगमात, तद्यदि विगानमप्रामाण्यनिमित्तं ततो वेदस्याप्यप्रामाण्यमव्याहतप्रसरमेवेत्यलमतिप्रसङ्गेन ॥१३७४ ॥ ગાથાર્થ :- જેઓના કર્મ અલ્પ થયા છે, તેવા કેટલાકોથી જ આગમ પરિગૃહીત (=સ્વીકૃત-સંમત) થાય. તેથી કેટલાકથી ' જ પરિગ્રહીત થવામાં શો ઘેષ છે? કોઈ દોષ નથી. કલ્પવૃક્ષ બધા જ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તથા •વિવાદાસ્પદ છે' તેવો મુદ્દે પણ બરાબર નથી, કેમકે વેદઅંગે પણ સમાન છે. વેદનું નિત્યવ-અપૌરુષેયત પણ કંઈ બધાને સંમત નથી. કણાદઆદિ ઘણાઓએ એ નિત્યતા સ્વીકારી નથી. જે વિવાદાસ્પદ હોવા માત્રથી અપ્રમાણતા કહેશો, તો વેદની અપ્રમાણતા પણ અખંડ પ્રસરે છે. તેથી અતિપ્રસંગથી સર્યું. ૧૩૭૪ उपसंहरन्नाह - હવે ઉપસંહાર કરે છે. सोऊण आगमत्थं एवं समयाणुसारतो सम्म । जोएज्ज सबुद्धीए सेसे वि कुचोजपरिहारे ॥१३७५॥ (श्रुत्वाऽऽगमार्थमेवं समयानुसारतः सम्यग् । योजयेत् स्वबुद्ध्या शेषानपि कुचोद्यपरिहारान् ॥) श्रुत्वा सम्यगागमार्थं समयानुसारतः- आगमानुसारेण एवमुक्तप्रकारेण योजयेत् स्वबुद्ध्या शेषानपि कुचोद्यपरिहारानिति ॥१३७५॥ ગાથાર્થ:- આ પ્રમાણે આગમાર્થનું શ્રવણ કરી સ્વબુદ્ધિથી શેષ કુશંકાઓનો પણ આગમાનુસાર સચોટ રીતે પરિહાર કરવો ૧૩૭પણા इह हि फललिप्साप्रधानाः प्रेक्षावन्तस्ततस्तेषां प्रवृत्त्यर्थमिदानीमनन्तराभिहितसम्यग्दर्शनादिरूपस्य भावधर्मस्य फलमुपदर्शयति આ જગતમાં પ્રેક્ષાવાન પુરુષ મુખ્યતયા ફળ મેળવવાની ઇચ્છાવાળા હોય છે. તેથી પ્રેક્ષાવાન પુરુષોની પ્રવૃત્તિ થાય તે હેતુથી હવે અત્યારસુધીમાં બતાવેલા સમ્યગ્દર્શનાદિ ભાવધર્મનું ફળ બતાવે છે.” काऊण इमं धम्मं विसुद्धचित्ता गुस्वएसेणं । पावंति मुणी अइरा सासतसोक्खं धुवं मोक्खं ॥१३७६॥ (कृत्वाऽमुं धर्म विशुद्धचित्ता गुरूपदेशेन । प्राप्नुवन्ति मुनयोऽचिरात् शाश्वतसौख्यं ध्रुवं मोक्षम् ॥ कृत्वा अमुमनन्तरोदितस्वरूपं धर्म विशुद्धचित्ता गुरुपदेशेन मुनयोऽचिरात्-स्तोककालेन प्राप्नुवन्ति शाश्वतसौख्यं ध्रुवं मोक्षमिति ॥१३७६॥ ગાથાર્થ:- ગુરુના ઉપદેશથી ઉપરોક્ત સ્વરૂપવાળા આ ધર્મને આદરી વિશુદ્ધચિત્તવાળા મુનિઓ અલ્પકાળમાં જ શાવત સુખના ધામભૂત, નિત્ય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૩૭૬ાા भोसमां तनो -(१) Nu Muq - शाश्वतमेव सौख्यं मोक्षे प्रतिपादयन्नाह - મોલમાં શાવિત જ સુખ છે. તેમ પ્રતિપાદન કરતાં કહે છે. रागादीणमभावा जम्मादीणं असंभवातो य । अव्वाबाहातो खलु सासयसोक्खं तु सिद्धाणं ॥१३७७॥ (रागादीनामभावाद् जन्मादीनामसंभवाच्च । अव्याबाधात् खलु शाश्वतसौख्यं तु सिद्धानाम् ॥ रागादीनामभावात् जन्मादीनामसंभवाच्च तथा अव्याबाधांतः खलु शाश्वतसौख्यमेव, तुरेवकारार्थः, सिद्धानामिति गाथासंक्षेपार्थः ॥१३७७॥ +++ +++++++++++++ aalee-MIR -337++ + + + + + + ++ + + + + + Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++भोससुमार++++++++++++++++++ वार्थ:- (१) शाहिनो समाप पाथी (२) माहिनो असंभव लोपायी तथा (3) अव्याला लोपाथी सिदाने શાશ્વત જ સુખ છે, (“ત' જકારાર્થક છે.) આ ગાથાસોપાર્થ છે. ૧૩૭૭ प्रपञ्चतः स्वयमेवार्थः (ह-) - .. આચાર્ય સ્વયં વિસ્તારથી કહે છે रागो दोसो मोहो दोसाभिस्संगमादिलिंग त्ति । अतिसंकिलेसस्वा हेतू चिय संकिलेसस्स ॥१३७८॥ (रागो द्वेषो मोहो दोषा अभिष्वङ्गादिलिगा इति । अतिसंक्लेशरूपा हेतव एव संक्लेशस्य ) रागो द्वेषो मोह इत्येते दोषा अभिष्वङ्गादिलिङ्गाः, अभिष्वङ्गलक्षणो रागोऽप्रीतिलक्षणो द्वेषः अज्ञानलक्षणो मोह इति, अतिसंक्लेशस्पास्तथानुभवभावात्, तथा हेतवोऽपि संक्लेशस्य, क्लिष्टकर्मनिबन्धनत्वात् ॥१३७८ ॥ ગાથાર્થ:- રાગ, દ્વેષ અને મોહ આ ત્રણ દોષો છે. રાગનું લક્ષણ અભિવંગ છે. દ્વેષનું લક્ષણ અપ્રીતિ છે, અને મોહનું લસણ અજ્ઞાન છે. આ ત્રણે દોષો અતિસંકલેશરૂપ છે, તે અનુભવસિદ્ધ છે. તથા આ દોષ ક્લિષ્ટકર્મબંધનું કારણ હોવાથી સંક્લેશના હેતુભૂત પણ છે. ૧૩૭૮ एतेहऽभिभूयाणं संसारीणं कतो सुहं किंचि ? । जम्मजरामरणजलं भवजलहिं परियडताणं ॥१३७९॥ . (एतैरभिभूतानां संसारिणां कुतः सौख्यं किंचित् । जन्मजरामरणजलं भवजलधिं पर्यटताम् ॥ एतैः- रागादिभिरभिभूतानाम्-अस्वतन्त्रीकृतानां संसारिणां सत्त्वानां कुतः सौख्यं किंचित् ? नैव किंचिदपीत्यर्थः। किंविशिष्टानामित्याह-जन्मजरामरणजलं भवजलधिं-संसारार्णवं पर्यटतां-भ्रमतामिति ॥१३७९॥ ગાથાર્થ:- આ રાગાદિથી અભિભૂત-પરાધીન થયેલા અને જન્મ–જરા-મરણરૂપ જળથી પરિપૂર્ણ ભવસમુદ્રમાં ભટકતા સંસારી જીવોને કાંક પણ સુખ ક્યાંથી હોય? અર્થાત ન જ હોય. ૧૩૭ एतदभावे सुखमाह - રાગાદિના અભાવમાં સુખ બતાવે છે. - रागादिविरहतो जं सोक्खं जीवस्स तं जिणो मुणति । णहि सण्णिवातगहिओ जाणइ तदभावजं सातं ॥१३८०॥ (रागादिविरहतो यत् सौख्यं जीवस्य तज्जिनो मुनति (जानाति) । नहि सन्निपातगृहीतो जानाति तदभावजं सातम् ॥) रागादिविरहतो रागद्वेषमोहाभावेन यत्सौख्यं जीवस्य संक्लेशविवर्जितं तत् जिनो मुणति-अर्हन्नेव सम्यग्विजानाति नान्यः । किमिति चेत्, अत आह - 'नहीत्यादि', हिर्यस्मादर्थे न यस्मात्सन्निपातगृहीतः सन् जानाति तदभावजंसंनिपाताभावोत्पन्नं सातं-सौख्यमिति ॥१३८०॥ ગાથાર્થ:- રાગ-દ્વેષ–મોહના અભાવથી જીવને જે સંક્લેશ વિનાનું સુખ ઉત્પન્ન થાય છે, તે તો જિન-અર્ધન કેવલી જ બરાબર જાણી શકે, અન્ય નહીં; કેમકે સન્નિપાતથી પીડાતાને સનિપાતના અભાવથી મળતા સુખનો અનુભવ નથી હોતો. (“હિ પદ કારણદર્શક છે.) ૧૩૮ના (૨) જન્માદિ અભાવ जन्मादीनामसंभवाच्चेति यदुक्तं तद्भाव्यते, तत्र जन्माद्यभावमेव तावदाह - જન્માદિનો અસંભવ હોવાથી ઇત્યાદિ જે કહ્યું, તેમાં હવે સિદ્ધોને જન્માદિનો અભાવ કેમ છે? તે બતાવે છે. दड्डम्मि जहा बीए ण होति पुणरंकुरस्स उप्पत्ती । तह चेव कम्मबीए भवंकुरस्सावि पडिकुट्ठा ॥१३८१॥ (दग्धे यथा बीजे न भवति पुनरङ्करस्योत्पत्तिः । तथैव कर्मबीजे भवाकुरस्यापि प्रतिकृष्टा ॥ यथा दग्धे बीजे-शाल्यकुरादिनिबन्धने न भवति पुनरङ्कुरस्य शाल्यादिसंबन्धिन उत्पत्तिस्तथैव कर्मबीजे दग्धे सति भवाङ्करस्याप्युत्पत्तिः प्रतिकृष्टा-निराकृता, निमित्तापगमात् ॥१३८१॥ ++++++++++++++++l uelei-RIL - 338 +++++++++++++++ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * મોક્ષસુખ દ્વાર * * * ગાથાર્થ:- શાલિ-અંકુરાદિમાં કારણભૂત બીજ બળી ગયા પછી શાલિ આદિના અંકુરની ફરીથી ઉત્પત્તિ થતી નથી, તેમ કર્મબીજ બળ્યા પછી ભવાકુરની (=સંસાર/જન્મરૂપ અંકુરની ) ઉત્પત્તિ નિષિદ્ધ છે, કેમકે કર્મરૂપ નિમિત્ત દૂર થયા છે. ૫૧૩૮૧ા जम्माभावे ण जरा ण य मरणं ण य भयं ण संसारो । एतेसिमभावातो कहं ण सोक्खं परं तेसिं ? ॥१३८२॥ (जन्माभावे न जरा न च मरणं न च भयं न संसारः । एतेषामभावात् कथं न सौख्यं परं तेषाम् ? ॥) जन्माभावे न जरा - वयोहानिलक्षणा आश्रयाभावात्, न च मरणं-प्राणत्यागलक्षणं, तदभावे न च भयमिहलोक - भयादिभेदभिन्नं तन्निबन्धनभवकारागृहावताराभावात् न च संसारो - नारकादिभवभ्रमणस्पो, जन्माभावात्, एतेषां - जन्मादीनामभावात् कथं न सौख्यं परं तेषां सिद्धानां ? सौख्यमेवेति भावः । जन्मादीनामेव दुःखरूपत्वादिति ॥ १३८२ ॥ ગાથાર્થ:- જન્મના અભાવમાં (૧) વયહાનિરૂપ ઘડપણ નથી, કેમકે જન્મરૂપ આશ્રય જ નથી. (અથવા જન્મપ્રાપ્ત શરીરજીવનરૂપ આશ્રય નથી, ) તથા (૨) પ્રાણત્યાગરૂપ મરણ નથી. અને (૩) મરણના અભાવથી ઇલોકભય પરલોકભયવગેરે ભયો નથી, કેમકે ભયોમા કારણભૂત સંસારરૂપ કારાવાસમાં ફરીથી અવતરવાનું રહ્યું નથી. તથા (૪) નારકાદિ ભવોમા ભ્રમણરૂપ સંસાર નથી કેમકે જન્મ જ નથી. આમ જન્માદિ ન હોવાથી સિદ્ધોને શ્રેષ્ઠ સુખ કેમ ન હોય? અર્થાત્ તેવું સુખ જ છે. કારણ કે જન્મવગેરે જ દુ:ખરૂપ છે. ૫૧૩૮૨ા (૩) અવ્યાબાધ 'अव्याबाधात' इति प्रपञ्चयन्नाह અવ્યાબાધ લેવાથી' એ અર્થનો વિસ્તાર કરતા કહે છે. – - अव्वाबाधाओ च्चिय सयलिंदियभोगविसयपज्जते । उस्सुगविणिवित्तीतो संसारसुहं व सद्धेयं ॥ १३८३ ॥ (अव्याबाधादेव सकलेन्द्रियभोगविषयपर्यन्ते । औत्सुक्यविनिवृत्तितः संसारसुखमिव श्रद्धेयम् II) सदा अव्याबाधात एव सिद्धानां सौख्यं श्रद्धेयम् । किमिवेत्याह- 'सकलेन्दिय भोगविषयपर्यन्ते' अशेषचक्षुरादीन्द्रियप्रकृष्टरूपादिविषयानुभवचरमकाले औत्सुक्यनिवृत्तेः- अभिलाषव्यावृत्तेरुपजायमानं संसारसुखमिव, तस्यापि मनोज्ञविषयो - भोगतः तद्विषौत्सुक्यनिवृत्तिरूपत्वात्, उक्तंच - "वेणुवीणामृदङ्गादिनादयुक्तेन हारिणा । श्लाघ्यस्मरकथाबद्धगीतेन स्तिमितः ॥ १ ॥ कुट्टिमादौ विचित्राणि, दृष्ट्वा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनानन्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अम्बरागुरुकर्पूरधूपगन्धानितस्ततः । पटवासादिगन्धांश्च, व्यक्तमाघ्राय निःस्पृहः ॥३॥ नानारससमायुक्तं, भुक्त्वा मात्रया । पीत्वोदकं च तृप्तात्मा, स्वादयन् स्वादिमं शुभम् ॥४॥ मृदुतूलीसमाक्रान्तदिव्यपर्यङ्कसंस्थितः । सहसाम्भोदसंशब्दश्रुतेर्भयघनं भृशम् ॥५ ॥ इष्टभार्यापरिष्वक्तस्तद्रतान्तेऽथवा नरः । सर्वेन्द्रियार्थसंप्राप्त्या, सर्वबोधनिवृत्तिजम् ॥६॥ ચંદ્રેયતિ સ હૈદ્ય, પ્રશાન્તનાન્તરાત્મના । મુત્તાત્મનતતો નિત્યં સુષમાહુર્મનીષિળ: I૧૭ કૃત્યાદ્રિ” ॥૨૩૮૩ ॥ ગાથાર્થ:- આંખવગેરે બધી જ ઇન્દ્રિયોના ઉત્કૃષ્ટરૂપાદિ વિષયના અનુભવના અંતિમસમયે ઔત્સુકચ-અભિલાષા નિવૃત્ત થવાથી જે સંસારસુખ ઉત્પન્ન થાય છે, તેના જેવું સિદ્ધોનુ સુખ અવ્યાબાધના કારણે જ હોય છે, તેમ શ્રદ્ધા કરવી જોઇએ; કેમકે આવું સંસારસુખ પણ મનોજ્ઞવિષયોના ઉપભોગથી તેઅંગેની ઉત્સુકતાની નિવૃત્તિથી ઉદ્દભવ્યું છે,-નિવૃત્તિરૂપ છે. કહ્યું જ છે કે વેણુ, વીણા, મૃદંગઆદિના નાદથી યુક્ત તથા શ્લાઘ્ય કામકથાથી ગુમ્મિત મનોહર ગીતોથી હંમેશા સ્તિમિત (અનુત્સુક) થયેલો u! ભીંત–ભોયવગેરેમા પોતાના જ લીલાયુક્ત અને આંખને આનંદ દેનારા વિચિત્ર રૂપો જોઇને અનુત્સુક (=ધરાઇ ગયેલો)ારા તથા અમ્બર, અગુરુ, કપૂર અને ધૂપ વગેરેના ગંધ અને સુગંધમય વસ્ત્રોને વ્યક્તરૂપે સુધીને નિ:સ્પૃહ થયેલો (=ગન્ધચ્છાથી રહિત થયેલો.)પ્રજ્ઞા અનેક પ્રકારના રસોથી યુક્ત પ્રમાણસર ભોજન આરોગી અને માત્રા=પ્રમાણોપેત પાણી પીને તથા શુભ સોપારી આદિ સ્વાદિમ ચાવીને તૃપ્ત થયેલો ૫૪ા કોમળ પથારીથી યુક્ત દિવ્ય પલંગમા રહેલો તથા અચાનક વાદળોની અત્યંત ભયજનક ગર્જનાના શ્રવણથી ઇષ્ટ પત્નીથી આલિંગન કરાયેલો અથવા સુરતસુખને અનુભવ્યા બાદ પુરુષ સવૅન્દ્રિયના સર્વવિષયસુખનો બોધ થવાથી ઉત્સુક્તાની નિવૃત્તિથી ાપ-૬ા તે પ્રશાન્ત અન્તરાત્માથી જે સુખ અનુભવે છે, તે મનોહર છે. તેથી જ મુક્ત જીવોને નિત્ય સુખ છે તેમ મનીષીઓ કહે છે. ( મુક્તાત્માઓ સહજ-સદા પ્રશાન્ત-અનુત્સુક હોવાથી નિત્ય સુખી છે.) ગા.... ૫૧૩૮૩૫ * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ -339 * Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + + + + + + + + + + + भोगना + + + + + + + + + + + + + + + + + + संसारसुखमपि औत्सुक्यनिवृत्तिरूपत्वान्मोक्षसमानमभिहितं तन्मा भूदतिविषयामिषलालसानां तत्रेवास्थानिर्बन्ध इति ततः सकाशात् मोक्षसुखे विशेषमाह - ઔસુકચની નિવૃત્તિરૂપે હોવાથી સંસારસુખ પણ મોક્ષસુખસમાન છે, તેમ કહ્યું. તેથી અતિવિષયલાલસાવાળા જીવને સંસારસુખમાં આસ્થા-આગ્રહ ન બંધાઈ જાય, તેથી સંસારસુખથી પણ મોક્ષસુખમાં રહેલી વિશેષતા બતાવે છે. इयमित्तरा णिवित्ती सा पुण आवकहिया मुणेयव्वा । भावा पुणो वि णेयं एगतेणं तई णियमा ॥१३८४॥ (इयमित्वरा निवृत्तिः सा पुनर्यावत्कथिका ज्ञातव्या । भावात् पुनरपि नेयमेकान्तेन सा नियमात् ॥) - इयमिन्द्रियविषयभोगपर्यन्तकालभाविनी औत्सुक्यनिवृत्तिरित्वरा-स्वल्पकालावस्थायिनी, सा पुनः-सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्यनिवृत्तिः सार्वकालिको मुणितव्या । कुत इत्याह- 'भावेत्यादि' यस्मादियमिन्द्रियविषयोपभोगपर्यन्तकालभाविनी औत्सुक्यनिवृत्तिर्नैकान्तेन सर्वथा निवृत्तिरेव, किमित्याह -भावात् पुनरपि-भूयोऽपि प्रवृत्तेः, सा पुनः सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्यनिवृत्तिर्नियमात् एकान्तेनैव निवृत्तिरेव, न पुनर्भूयोऽपि भवतीतियावत् । ततो महदेव सिद्धानां सौख्यमिति, तत्रैव न्यायचक्षुषामास्थानिर्बन्धो युक्त इति ॥१३८४॥ ગાથાર્થ:- ઇન્દ્રિયવિષયોપભોગના પર્યન્તસમયે થતી ઓસ્ક્યનિવૃત્તિ અતિઅલ્પકાળ ટકનારી છે, જયારે સિદ્ધોની સકચનિવનિ કાયમી સમજવી. કેમકે ઇન્દ્રિયવિષયોપભોગના પર્યન્તકાલે થતી ઔક્યનિવૃત્તિ એકાન્ત-સર્વથા નિવૃત્તિરૂપ નથી, કેમકે વિષયોમાં ફરીથી પ્રવૃત્તિ થાય છે. જયારે સિદ્ધોની સૂચનિવૃત્તિ અવશ્ય એકાત્તે નિવૃત્તિરૂપ જ છે, અર્થાત ફરીથી થવાનો સંભવ નથી. તેથી સિદ્ધોનું સુખ ઘણું મોટું છે. તેથી ન્યાયની આંખે જોનારાએ મોક્ષસુખ પ્રતિ જ આસ્થા–આગ્રહ રાખવો જોઇએ. ૧૩૮૪ इय अणुभवजुत्तिहेतूसंगतं हंदि णिद्वितहाणं । अत्थि सुहं सद्धेयं तह जिणचंदागमातो य ॥१३८५॥ (इत्यनुभवयुक्तिहेतुसंगतं हंदि निष्ठितार्थानाम् । अस्ति सुखं श्रद्धेयं तथा जिनचन्द्रागमाच्च ॥) यस्मादितिः-एवमुक्तेन प्रकारेण अनुभवयुक्तिहेतुसंगतम् अनुभवः-स्वसंवेदनं युक्ति:-उपपत्तिः हेतुः- अन्वयव्यतिरेकलक्षणः एभिः संगतं-घटमानकं तस्मात् 'हंदी' त्युपप्रदर्शने, निष्ठितार्थानां-सिद्धानामस्ति सुखमनन्तमिति श्रद्धेयं प्रतिपत्तव्यम् । तथा जिनचन्द्रागमाच्च-अर्हद्वचनाच्चेति ॥१३८५॥ ગાથાર્થ:-આમ •નિકિનાર્થ સિદ્ધોને અનંત સુખ છે તે વાત અનુભવ, યુક્તિ, હેતુથી સંગત-ઘટે છે અને જિનેશ્વરના વચન थी सब छ. श्रद्धेय छे. अनुभ व हन. यु-64पत्ति.तअन्वय-व्यतिरे. .. ५६ 64र्शनार्थ छ. ॥१3८५॥ મોક્ષસુખ અનુપમ इदानीमस्यैवातिशयख्यापनार्थमनुपमतामाचिख्यासुराह - હવે આ સુખની અતિશયતા બતાવતા તેની અનુપમતા બતાવતા કહે છે. ण य सव्वण्णू वि इमं उवमाभावा चएति परिकहितुं । ण य तियणे वि सरिसं सिद्धसुहस्सावरं अत्थि ॥१३८६॥ (न च सर्वज्ञोऽपि इदमुपमाभावात् शक्नोति परिकथयितुम् । न च त्रिभुवनेऽपि सदृशं सिद्धसुखस्यापरमस्ति ॥ न च सर्वज्ञोऽपि-विभुवनभाविभूतभवद्भविष्यद्भावस्वभावसाक्षात्कार्यपि इदं-सिद्धानां सौख्यं यथावत्परिकथयितुं शक्नोति । कुत इत्याह-उपमाऽभावात् । तदभाव एव कथं सिद्ध इति चेत् ? अत आह-'न येत्यादि''चो' हेतौ, यस्मान्न त्रिभुवनेऽपि-भुवनत्रयेऽपि सिद्धसुखस्य सदृशमपरं किंचित्सुखमस्ति, तत उपमाया अभावः ॥१३८६॥ ગાથાર્થ:- ત્રણેય લોકમાં રહેલા ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાલીન ભાવોના સ્વભાવને પ્રત્યક્ષ જાણનારા સર્વજ્ઞ પણ સિદ્ધોના આ સુખનું યથાવત વર્ણન કરવા શક્તિમાન નથી, કેમકે કોઇ ઉપમા જડતી નથી, ‘ઉપમાનો અભાવ કેવી રીતે કહે છો તેવી શંકાનું સમાધાન એ છે કે ત્રણે ય લોકમાં સિદ્ધોના સુખસાથે સરખાવી શકાય તેવું કોઇ સુખ વિદ્યમાન નથી. તેથી ઉપમાનો અભાવ છે. (“ચ પદ હેત્વર્થક છે.) ૧૩૮૬ાા ** * ** *** * ** *** ** हलि -ला -340* * * * * * * * * * * * * * * Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++++++++++++भोलसमद्वार++++++++++++++++++ एत्तो च्चिय अण्णेहिं कण्णाणायं इमम्मि अहिगारे । भणियं घडमाणं पि हु विण्णेयं तंपि लेसेण ॥१३८७॥ (अत एवान्यैः कन्याज्ञातमस्मिन्नधिकारे । भणितं घटमानमपि हु विज्ञेयं तदपि लेशेन ॥ अत एव-उपमाया अभावादेवान्यैरपि-तीर्थान्तरीयैरस्मिन् मुक्तात्मसुखविचारप्रक्रमस्पे अधिकारे कन्याज्ञातं कन्योदाहरणं दर्शितम् । तथा च ते आहः- "स्वयंवेद्यं हि तद्ब्रह्म, ('अस्याऽवाच्योऽयमानन्दः' इति योगबिन्दौ गा. ५०४ तमे प्रथमपादः) कुमारी स्त्रीसुखं यथा । अयोगी न विजानाति, सम्यग्जात्यन्धवद् घट ॥१॥" मिति, तदपि-कन्याज्ञातं 'ह' निश्चितं लेशेन घटमानकमेव विज्ञेयं । अपिरेवकारार्थः ॥१३८७॥ ગાથાર્થ – આમ ઉપમાનો અભાવ હોવાથી જ બીજાતીર્થિકોએ મુક્તાત્માઓના સુખના વિચારના પ્રસ્તાવરૂપ અધિકારમાં કન્યાનું દષ્ટાન્ત બતાવ્યું છે. તેઓ કહે છે કે “તે બ્રહ્મ સ્વયં સંવેદ્ય છે. (આ મુદ્ધનો મોલમાં આ આનંદ અવર્ય છેયોગબિન્દુ વા. ૫૦૪ના પ્રથમપાદનો અર્થ) જેમ કુમારી સ્ત્રીસખને તથા જાત્યન્ત ઘડાનો વિશેષથી જાણી શકતા નથી તેમ અયોગી આ બ્રહ્મને विशेष३५ गत नथी.. या न्यायान्त र अनुशेवटी ४ छ. (पि. रार्थ छ. 'दुनिश्यितार्थमा छ.) ॥१३८॥ न्याष्टान्त - कन्याज्ञातमेव भावयन्नाह - કન્યાના દેષ્ટાન્નનું ભાવન કરતાં કહે છે. कण्णाण ददं पीती अणभिण्णाण पुरुसभोगसोक्खस्स । संगारो पढममिणं जायमिह मिहो कहेतव्वं ॥१३८८॥ (कन्ययो दृढं प्रीतिरनभिज्ञयोः पुरुषभोगसौख्यस्य । संकेतः प्रथममिदं जातमिह मिथं कथयिव्यम् ॥) अभिन्नरजस्का पुरुषेणासंयुक्ता स्त्री कन्या तयोरत एव पुरुषभोगसौख्यस्यानभिज्ञयोदृढम्-अत्यर्थं परस्परं प्रीतिः, तयोश्च कदाचित्पुरुषभोगनिमित्तसुखविचारप्रक्रमे 'संगारों' त्ति संकेतोऽभूत, यथा-प्रथममिदं-पुरुषभोगजं सुखं जातं तत् मिथ:-परस्परं कथयितव्यम्, यस्या एव प्रथमत इदमुपजायते तयाऽन्यतरस्यै नियमान्निवेदनी यमित्यर्थः । ॥१३८८॥ ગાથાર્થ:- અક્ષતયોનિવાળી, પુરુષ સાથે ન જોડાયેલી સ્ત્રી કન્યા છે. પુરુષભોગસુખને નહીં જાણનારી આવી બે કન્યાઓને પરસ્પર અત્યંત પ્રીતિ હતી. કયારેક પુરુષભોગસુખની વિચારણાવખતે બન્નેએ પરસ્પર સંકેત કરેલો કે જે સ્ત્રીને પ્રથમ પુરુષભોગસુખ પ્રાપ્ત થાય તે બીજીને અવશ્ય કહેવું ૧૩૮૮ परिणीता तत्थेक्का वुत्था य कमेण भत्तुणा सद्धिं । पुट्ठा इतरीऍ ततो भणेति णो तीरए कहिउं ॥१३८९॥ (परिणीता तत्रेकोषिता च क्रमेण भर्ना सार्द्धम् । पृष्टा इतरया ततो भणति न शक्यते कथयितुम् ॥) त्रैवं संकेते सति तयोर्मध्ये एका काचनापि परिणीता, क्रमेण च भा सार्द्धमुषिता, इतरया चामुं वृत्तान्तमवगम्य सा गत्वा पृष्टा-'कीदृशं तत्र(व) पुरुषभोगजन्यं सुखमिति' तत एवं पृष्टा सती सा भणति-सखि ! न तत् यथावत्कथयितुं शक्यते, तस्यानन्यसदृशतयोपमाऽतीतत्वात् ॥१३८९॥ ગાથાર્થ:- આમ સંકેત થયાબાદ તે બેમાંથી એક કન્યા પરણી, અને ક્રમશ: પતિ સાથે રહી. બીજીએ આ સમાચાર જાણી એ સ્ત્રી પાસે જઈ પૂછ્યું કે – “પુરુષભોગજન્ય સુખ કેવું ધ્યેય છે?" ત્યારે એ પરણેલી સ્ત્રીએ કહ્યું- “સખી! તે સુખ અનન્ય દેશ હોવાથી તે અંગે ઉપમા આપવી શક્ય ન હોવાથી યથાવત વર્ણવી શકાય તેવું નથી. ૧૩૮૯ स्ट्ठा इतरी ऊढा य कमेणं जाणिऊण तो तीए । गंतूण सयं तुट्ठा जंपति णणु तं तह च्चेव ॥१३९०॥ (एष्टा इतरा ऊढा च क्रमेण ज्ञात्वा ततस्तस्याः । गत्वा स्वयं तुष्टा जल्पति तत् तथैव ॥) ततश्चैवमुक्ता सती सा इतरा-कन्या स्टा, "एषा विप्रतारिता(का) स्वप्रतिज्ञापरिभ्रष्टा जातेति' । कालान्तरे च साऽपीतरा कन्या ऊढा-परिणीता, क्रमेण च भ; सार्द्धमुषित्वा ज्ञात्वा च साक्षादनुभवेन यथावत्पुरुषभोगजं सुखं 'तो' ++++++++++++++++ elee-मास २ - 341 +++++++++++++++ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + भोमसुख द्वार + + ततस्तुष्टा प्रीतमनाः सती तस्याः पार्श्वे यस्या विषये सा रुष्टा आसीत् स्वयमेव सा गत्वा जल्पति - ननु सखि ! तत्पुरुषभोगजं सुखं तथैव - यथा त्वयोक्तं, नान्यस्मै यथावत्परिकथयितुं शक्यत इति ॥१३९० ॥ ગાથાર્થ:- પરણેલી સ્ત્રીનો આવો જવાબ સાંભળી આ લુચ્ચી પોતાની પ્રતિજ્ઞાથી ભ્રષ્ટ થઇ છે” એમ વિચારી એ બીજી (નહીં પરણેલી) કન્યા રોષાયમાણ થઇ. કાલાન્તરે તે કન્યાના પણ લગ્ન થયા. ક્રમશ: પતિસાથે રહને સાક્ષાત્ અનુભવથી પુરુષભોગજ સુખ જાણ્યું. તેથી ખુશ થયેલી તે પ્રથમ પરણેલી સ્ત્રીપાસે જઇને જે વિષયમાં પોતે ગુસ્સે થયેલી તે વિષયઅંગે જ કહે છે કે→ ‘ખરેખર સખી! તે પુરુષભોગસુખ તેવું જ છે, જેવુ તે કહ્યું. ખરેખર આ સુખ બીજાને યથાવત્ કહી શકાય તેવું નથી.’ ૫૧૩૯ના दृष्टान्तमभिधाय दाष्टन्तिके योजनामाह આમ દૃષ્ટાન્ત બતાવ્યું. હવે દાÁન્તિકમાં તેની યોજના કરતા કહે છે. (एवं सिद्धसुखस्यापि प्रकर्षभावं सक एव मुनति ( जानाति ) । अनुभवतः सम्यग् न तु अन्योऽपि अप्राप्ततद्भावः II ) एवं सिद्धसुखस्यापि प्रकर्षभावं 'तउत्ति' सक एव सिद्धो मुणति - जानाति । कुतः ? इत्याह- सम्यगनुभवतस्तस्य सम्यक् स्वयमनुभवात्, न त्वन्योऽपि अप्राप्ततद्भावः - अनवाप्तसिद्धभावः, तस्य सम्यगनुभवाभावात्ं ॥१३९१ ॥ ગાથાર્થ:– આમ સિદ્ધસુખનો પણ પ્રકર્ષભાવ તે સિદ્ધ જ પોતાના સાચા અનુભવથી જાણે છે. સિદ્ધભાવને નહીં પામેલા બીજાઓ તે જાણી શકતા નથી, કેમકે તેઓને તેનો (-સિદ્ધસુખનો) સમ્યક્ અનુભવ નથી. ૫૧૩૯૧૫ ભગોના અંતાભાવની સિદ્ધિ – अत्र पर आह અહીં પરવાદી કહે છે. एवं सिद्धहस्स वि पगरिसभावं ततो च्चिय मुणेइ । अणुभवतो सम्मं ण तु अण्णो वि अपत्ततब्भावो ॥१३९१ ॥ - धुवभावो सिद्धाणं छम्मासादारओ वि गमणं च । कालो य अपरिमाणो उच्छेदो कह ण भव्वाणं ? ॥१३९२ ॥ (ध्रुवभावः सिद्धानां षण्मासादारतोऽपि गमनं च । कालश्चापरिमाण उच्छेदः कथं न भव्यानाम् ? ॥) ध्रुवभावः - शाश्वतभावः सिद्धानां भवाङ्कुरनिबन्धनकर्मबीजाभावात्, तथा षण्मासादारतोऽपि - अर्वागप्यास्तां षण्मासपर्यन्ते इत्यपिशब्दार्थः, गमनं चान्येषां जीवानां, कालश्चापरिमितमानः, ततः कथं भव्यानामेवमनवरतं मोक्षगमने सति नोच्छेदः प्राप्नोति ?, प्राप्नोतीति भावः ॥ १३९२ ॥ ગાથાર્થ:- પરવાદી:- (૧)સિદ્ધોનો ભાવ શાશ્વત છે, કેમકે સંસારરૂપી અંકુરમાાં કારણભૂત કમરૂપી બીજનો અભાવ છે. તથા (૨) છ મહિનાની પહેલા પણ (છ મહીનાને અંતે તો ખરુ જ.) બીજા જીવોનું સિદ્ધગતિમા ગમન ચાલુ છે. ( એક જીવના મોક્ષ પછી વધુમાં વધુ છ મહિનાની અંદર અવશ્ય બીજો જીવ મોક્ષે જાય છે.) તથા (૩) કાલ અપરિમિત છે. (અને (૪) ભવ્યોની સંખ્યામા વૃદ્ધિ થતી નથી.) તેથી અનંતકાલથી આ પ્રમાણે પરિપાટી ચાલતી હોવાથી અને ભવ્યજીવો સતત મોક્ષે જતા હોવાથી ભવ્યજીવોનો ઉચ્છેદ કેમ ન થાય? અર્થાત્ થવો જ જોઇએ. ૫૧૩૯૨ા अत्राचार्य आह - અહીં આચાર્ય ઉત્તર આપે છે. ते वि अपरिमाण च्चिय जम्हा तेणं ण तेसिमुच्छेदो । समयाण व तीतेणं वोच्छेज्जिज्जऽण्णधा ते तु ॥१३९३ ॥ (तेऽपि अपरिमाणा एव यस्मात् तेन न तेषामुच्छेदः । समयानामिवातीतेन व्युच्छिद्येरन् अन्यथा ते तु ॥) तेऽपि भव्या यस्मादपरिमिता एवानन्तानन्तकसंख्योपेतत्वात्तेन कारणेन न तेषां - भव्यानामुच्छेदो भवति, यथा समयानाम्, अन्यथाऽनन्तानन्तकतयाऽपरिमितत्वानभ्युपगमे ते भव्याः परीत्तानन्तकादिरूपतया अनन्ता अप्यभ्युपगम्यमाना अतीतेन कालेन व्युच्छिद्येरन्नेव, यथा वनस्पतिकायस्थितिः । तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, स च यथास्थानं योजितः ॥१३९३॥ + धर्मसंशि-लाग २ - 342+ + Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ ++++++++++++++भोक्षसपा + +++ + ++ ++ + ++ + ++ ++ + ગાથાર્થ:- ઉત્તરપક્ષ:- ભવ્યજીવો પણ અનન્સાનન્તસંખ્યાથી યુક્ત લેવાથી અપરિમિત છે. તેથી ભવ્યજીવોનો સમયોની જેમ ઉચ્છેદ નથી. (અનંતકાળથી સમય પ્રતિક્ષણ વિનાશ પામે છે છતાં એ અખંડરૂપે અનંતકાળ સુધી એ ચાલતો રહેશે.) નહીંતર તો-જો ભવ્યોને અનન્સાનન્તરૂપે અપરિમિત ન માનો અને પરીઅનન્તાધિરૂપે અનન્તા સ્વીકારો તો અતીતકાલમાં ઉચ્છેદ પામી જવા જોઈએ-ખાલી થઈ જવા જોઇએ, એવી આપત્તિ છે. જેમકે વનસ્પતિની કાયસ્થિતિ અનન્તકાલની હોવા છતાં પૂરી થઇ જાય છે. “'પદ જકારાર્થક છે અને વ્યચ્છેદ સાથે સંબંધિત છે. (જૈનમતે અનન પણ નવ પ્રકારે છે. તેમાં પરીdઅનંત પ્રથમ ત્રણ પ્રકારે છે- જધન્ય-મધ્યમ–ઉત્કૃષ્ટ. જૈનમતે ભવ્યજીવો આઠમે અનન્ત (મધ્યમ અનન્નાનજો) છે, અને સિદ્ધ જીવો પાંચમે અનન્ત (મધ્યમ યુક્તાન) છે. કાયસ્થિતિ- વનસ્પતિઆદિ કો'ક એક જ પર્યાયરૂપે સતત જન્મ-મરણ જેટલા કાળ સુધી થાય તે કાળ કાયસ્થિતિ કહેવાય) ૧૩૯૩ उपसंहारमाह - હવે ઉપસંહાર કરે છે. तम्हाऽतीतेणाणादिणा वि तेसिं जथा ण वोच्छेदो । तह चेवऽणागतेण वि अणंतभावा मुणेयव्वो ॥१३९४॥ (तस्मादतीतेनानादिनापि तेषां यथा न व्यवच्छेदः । तथैवानागतेनापि अनंतभावाद् ज्ञातव्यः ॥ तस्माद्यथाऽतीतेन कालेनानादिनापि तेषां न व्यवच्छेदः तथा चैवानागतेनापि कालेनाव्यवच्छेदो ज्ञातव्यः । कत इत्याह- अनन्तभावात्-अनन्तानन्तकत्वात् ॥१३९४ ॥ ' ગાથાર્થ:- તેથી જેમ અનાદિ એવા અતીતકાલથી પણ ભવ્યોનો વ્યવચ્છેદ ન થયો, તે જ પ્રમાણે અનાગત ભવિષ્યકાલે પણ વ્યવચ્છેદ ન થાય, તે સમજવું, કેમકે ભવ્યજીવો અનંતાનંત છે. જે ભવ્યજીવો પરિમિત જ હોત, તો અત્યારસુધીના વિશાળ અતીતકાલમાં જ તેઓનો ઉચ્છેદ થઈ જાત. આટલો લાંબો અનાદિકાલથી ચાલ્યો આવતો અતીતકાત લેવા છતાં ભવ્ય-જીવોનો ઉચ્છેદ ન થયો તે જ “ભવ્યજીવો અનંતાનંત છે એમ બતાવે છે. તેથી જ ભવિષ્યમાં પણ ઉચ્છેદ નહીં થાય તે સિદ્ધ થાય છે.) ૧૩૯૪u ઉપસંહાર सकलं प्रकरणार्थमुपसंहरति - હવે સકળ પ્રકરણાર્થનો ઉપસંહાર કરે છે. एवमिह समासेणं भणितो धम्मो सुताणुसारेणं । __ आताणुसरणहेतुं केसिंचि तहोवगाराय ॥१३९५॥ . (एवमिह समासेन भणितो धर्मः श्रुतानुसारेण । आत्मानुस्मरणहेतोः केषाञ्चित् तथोपकाराय ॥) . एवम्-उक्तेन प्रकारेण इह-प्रकरणे समासेन-संक्षेपेण नतु विस्तरेण भणितः-उक्तो धर्मो-भावधर्मः सम्यक्त्वादरूपः, श्रतानसारेण-आगमानसारेण । किमर्थमित्याह-आत्मानस्मरणहेतोस्तथा केषांचिदपकाराय चेति ॥१३९५॥ ગાથાર્થ:- આમ આગમાનુસારે સમ્યકત્વાદિ ભાવધર્મનો આ પ્રકરણમાં વિસ્તારથી નહીં, પણ સંક્ષેપથી પોતાના સ્મરણ માટે અને કેટલાક જીવોપર ઉપકાર કરવા નિર્દેશ કર્યો. ૧૩૯પા . काऊण पगरणमिणं पत्तं जं कुसलमिह मया तेण । दुक्खविरहाय भव्वा लभंतु जिणधम्मसंबोधिं ॥१३९६॥ (कृत्वा प्रकरणमिदं प्राप्तं यत् कुशलमिह मया तेन । दुःखविरहाय भव्या लभन्तां जिनधर्मसंबोधिम् ॥) कत्वा प्रकरणमिदं धर्मसंग्रहणिनामकं यन्मया प्राप्तं कुशलमिह-प्रकरणकरणे तेन कुशलेन दुःखविरहाय दुःखाभावाय (भव्याः) लभन्तां जिनधर्मसंबोधिमिति ॥१३९६ ।। પથાર્થ - આ ધર્મસંવહણિ' નામના પ્રકરણની રચના કરીને અહીં પ્રકરણ રચવામાં મેં જે કંઈ કુશળ પુણ્યની પ્રાપ્તિ કરી છે, તે કુશળથી ભવ્ય જીવો દુ:ખથી છૂટવા જિનધર્મની સંબોધિને પ્રાપ્ત કરશે. ૧૩૯દા ટીકાકારકત પ્રશસ્તિ हारिभद्रं वचः क्वेदमतिगम्भीरपेशलम् । क्व चाहं जडधीरेष, स्वल्पशास्त्रकृतश्रमः ॥१॥ तथापि सन्ति ये केचित्, मत्तोऽपि स्तोकबुद्धयः । तेषां लंशावबोधार्थमेष यत्नः कृतो मया ॥२॥ यच्च किंचिदिह क्षुण्णं, प्रज्ञावैकल्ययोगतः । तच्छोध्यं मयि कारण्यमाश्रितैस्तत्त्ववेदिभिः ॥३॥ विषमगंभीरपदार्थां यदिमां व्याख्याय धर्मसंग्रहणिम् । मलयगिरिणाऽपि कुशलं सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥४॥ - +++++++++******* use- 02-343+++++++++++++++ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ એ જ જ * * * * * * * * * * * * ઉપસંહાર * * * * * * * * * * * * * * * * * હરિભદ્રસૂરિજીના અત્યંત ગંભીરભાવોથી યુક્ત વચનો કયાં? અને અતિઅલ્પશાસ્ત્રોના પરિશીલનમાં પ્રયત્ન કરનારો જડબુદ્ધિવાળો હું કયા? (અર્થાત હારિભદ્રવાણી અને મારાવચ્ચે આસમાન-જમીનનું આંતરું છે.) શા છતાં પણ જે કેટલાક મારાથી પણ મંદબુદ્ધિવાળા છે, તેઓના આશિકબોધ માટે મેં આ પ્રયત્ન કર્યો છે. પરા અહીં પ્રજ્ઞાની વિકલતાના કારણે જે કંઇ (અશુદ્ધ) લખાયું હોય, મારા પ્રત્યે કરુણા કરનારા તત્ત્વજ્ઞાનીઓએ એ લખાણમાં સંશોધન કરવા કૃપા કરવી. પાડા વિષમ અને ગંભીર પદાર્થવાળી આ ધર્મસંગ્રહણિની વ્યાખ્યા કરીને મલયગિરિએ જ કંઈ કુશળ પ્રાપ્ત કર્યું હોય, તેનાથી લોકો સિદ્ધિને પામો. u૪ અનુવાદકર્તાની શુભેચ્છા - સંવત ૨૦૪૧ ના ચાતુર્માસમાં પદ્માવતીદેવી પરિપૂજિત શ્રીસહરફાણા પાર્શ્વનાથ ભગવાન(બાબુલનાથ-ચોપાટી)ની છત્રછાયામાં આરંભાયેલી મારી આ ધર્મસંગ્રહણભાવાનુવાદયાત્રા અનેકાનેક સ્થાનોએ પર્યટન કરતી કરતી આજે સંવત ૨૦૪૭ ના ધનતેરસે ગન્ટરસ્થિત શ્રી ચિંતામણિ પાર્શ્વનાથ ભગવાનની છત્રછાયામાં સમાપ્તિને પામી. ઈતિ શુભમ सिद्धान्तमहोदधि - सुविशालसंविग्नगच्छ वृक्षनिर्मापणैकदक्ष स्वर्गस्थाचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजदिव्यप्रभावेन तत्पट्टप्रभावक न्यायविशारद सुसंयममुनिगच्छनायकाचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरी श्वरजी महाराजपरमकृपया तत्पट्टविभूषकस्वप्रतिभोन्मेषप्रकर्षीकृतकर्मसाहित्यस्वर्गस्थआचार्यदेव - श्रीमद्विजय धर्मजित्सूरीश्वरजी महाराजदिव्यदृष्ट्या तत्पट्टालंकारनैकवारसूरिमंत्रपंचप्रस्थानसमाराधकाचार्यदेव श्रीमद्विजय जयशेखरसूरीश्वरजी महाराजशुभाशिषा तच्छिष्यरत्न विद्वद्वर्य मुनिराज श्री अभयशेखरविजयमहाराजकरुणया - तच्छिष्यलेशेन साध्वी चंद्ररत्नाश्रीजीतनुजेन मुनि ___ अजितशेखरविजयेन कृतः शमदमादिगुणप्रवर श्रीकुलचंद्र विजयजी गणिवरसंशोधितोऽयं धर्मसंग्रहणिभावानुवादस्तत्त्ववेदिभिः सुपरीक्ष्य संशोधनीयस्तत्त्वजिज्ञासुभिश्चाध्ययनीयश्चिरं नन्दताच्च । * * * * * * * * * * * * * * * * ધર્મસંગ્રહણિ-ભાગ ૨ - 344 * * * * * * * * * * * * * * * Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रभारती इय मिच्छत्तुदयातो अविरतिभावाओ तह पमादाओ / जीवो कसायजोगा दुक्खफलं कुणति कम्मति / / / 569 / / જીવ (1) મિથ્યાત્વના ઉદયથી (2) અવિરતિના કારણે (3) પ્રમાદના સેવનથી અને (4) કષાયના યોગથી દુ:ખદાયક કર્મ બાંધે છે. सम्मत्तनाणचरणा मोक्खपहो वनिओ जिणिंदेहिं / सो चेव भावधम्मो बुद्धिमता होति नायव्वो // // 49 // સમ્યકત્વ, જ્ઞાન અને ચારિત્ર મોક્ષમાર્ગ છે, એમ જિનેન્દ્રોમાં વર્ણવ્યું છે. આ મોક્ષમાર્ગ જ ભાવધર્મ છે, તેમ બુદ્ધિમાનોએ સમજવું. गंठित्ति सुदुब्भेदो कक्खडघणस्डगूढगंठिव्व / जीवस्स कम्मजणितो घणरागद्दोसपरिणामो // // 753 // જીવનો કર્મથી થયેલો અતિદુર્ભેદ, કર્કશ, ગાઢ, રૂઢ, અત્યંત ગૂઢ-ગુંચ વળેલો તીવ્રરાગદ્વેષપરિણામ ગ્રંથિરૂપ છે. जिणइ य बलवंतंपि हु कम्मं आहच्चवीरिएणेव / असइ य जियपुव्वोऽवि हु मल्लो मल्लं जहा रंगे // 783 // જેમ સ્પર્ધાના મેદાનમાં ઘણીવાર હારેલો મલ્લ પણ ક્યારેક (પોતાને હરાવનાર) મલ્લને હરાવે છે. તેમ જીવ પણ ક્યારેક પોતાના પરાક્રમથી બળવાન એવા પણ કર્મને જીતે છે. नाणस्स णाणिणं णाणसाहगाणं च भत्तिबहुमाणा / आसेवणवुड्डादी अहिगमगुणमो मुणेयव्वा // // 820 // જ્ઞાન, જ્ઞાની તથા જ્ઞાનના સાધનોના ભક્તિ-બહુમાનપૂર્વક આસેવનવૃદ્ધિ ઉપાસના વગેરે જ્ઞાનાવરણીયના ક્ષયોપશમના હેતુઓ જાણવો. साहुणिवासो तित्थगरठावणा आगमस्स परिवुड्डी / एक्केक्वं भावावइनित्थरणगुणं तु भव्वाणं // // 873 // ગામમાં દેરાસર હોય, તો (1) સાધુઓ ગામમાં સ્થિરતા કરે (2) ગામમાં તીર્થકરની સ્થાપના થાય (3) સાધુસંગથી શ્રાવકોને આગમાર્થનો વર્ધમાન બોધ થાય. આ બધા પ્રત્યેક ભવ્યજીવોને સાક્ષાત્ તીર્થકરની ગેરહાજરીરૂપ ભાવાપત્તિને ઓળંગવામાટે ઉપકારરૂપ બને છે. एवं चिय जोएज्जा सिद्धाऽभव्वादिएसु सव्वेसु / सम्मं विभज्जवादं सव्वण्णुमयाणुसारेणं // // 921 // આ જ પ્રમાણે (પૂર્વોક્ત સમ્યકતાદિની જેમ) સિદ્ધ-અભવ્યઆદિ બધા જ ભાવો અંગે સર્વજ્ઞમતાનુસારે વિભજ્યવાદ - અનેકાંતવાદને સંબંધ કરવો. बहुविग्यो जियलोओ चित्ता कम्माण परिणती पावा / विहडइ दरजायं पि हु तम्हा सव्वत्थऽणेगंतो // // 923 // (1) આ જીવલોક ઘણા વિનોથી વ્યાપ્ત છે. તથા (2) કર્મોની પાપી પરિણતિઓ ખુબ જ વિચિત્ર છે. તેથી કાં'ક થયેલું પ્રયોજન પણ વિઘટિત થાય છે. તેથી સર્વત્ર અને કાન જે વક્તવ્ય છે. उदयक्खयक्खओवसमोवसमा एवऽत्थ कम्मुणो भणिता / दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प / / / 949 // કર્મોના (1) ઉદય (2) ક્ષય (3) ક્ષયોપશમ અને (4) ઉપશમ તીર્થકરોએ (1) દ્રવ્ય (2) ક્ષેત્ર (3) કાળ (4) ભવ અને (5) ભાવને પામીને બતાવ્યા છે.