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________________ जीवों का मोक्ष होगा । यह शुभभाव स्व-पर मोक्ष का साधक तृणग्रहणादि से प्रतिबन्दी देकर अन्त में विवेकदर्शन कराया है:होने से पृथ्व्यादि की आपातहिंसा भी फलतः महती अहिंसा है। वस्त्रग्रहण और तृणग्रहण दोनों में से संयमोपकारिता किस में है सो मध्यस्थभाव से सोचो । | द्वितीय महावत । मृषावाद विरमण के निस्पण में अनेकांत बताते हैं. देखें पात्र गाथा ९०५ ॥ एकान्त वचन और अन्य वचन स्वरूप से सत्य होने पात्र के अभाव में गृहस्थके किसी एक ही घर में पाँवो पर भी जो पीडोत्पादक हो वह असत्य है । दृष्टान्त के तौरपर का प्रक्षालन तथा साधुनिमित्त आरंभ-समारंभ होनेसे षड्जीवएकान्तवचनः वेदविहित हिंसा के विरुद्ध वेदांतियों का कथन - निकाय का वध, गृहस्थ के घर भोजन करने से गृहस्थों के "सुख किये सुख होय, दुःख दिये दुःख होय । इत्यादि एकान्तवचन प्रति ममता, भिक्षाटन का त्याग होने से वीर्याचार का अपालन, भी असत्य ही है क्योंकि व्यभिचारग्रस्त है । देखिये - परस्त्री साधु की गोचरी भ्रमर के दृष्टान्त से है वह भी वचनमात्र होने भोगी स्वपर सुख का हेतु है । फिर भी वह सुखनिमित्तक शुभ की आपत्ति, आहारादि लाकर देनेरूप ग्लानसेवा का असंभव कर्म नहीं बांधता है, अपितु नरकादिगमनहेतु अशुभकर्म बांधता इत्यादि दोषों का उद्भावन किया है। है और दुःख पाता है। उपकरणों की सोपयोगिता बताते हैं → रजोहरण और दुःख देनेवाला भी एकान्त दुःख ही पावे ऐसा नियम नहीं मुहपत्ति जीवरक्षाहेतु है तथा इसके दर्शन से स्वयं को 'मुझे स्वार्थ है । लोच (केश-लुञ्चन) स्वपरदुःखहेतु होते हुए भी करने (मोक्ष) साधना है, जागरूकता रहती है । कुत्ते आदि से रक्षणहेतु कराने वाले साधु दिव्यभोगहेतु शुभ कर्म बांधते हैं और सुख दंड है । साधुओं का प्रथम गुण चारित्र है । चारित्र का मूल पाते हैं । ऐसी अनेक बातों का उल्लेख है । अहिंसा है जिसका पालन धर्मोपकरण के बिना अशक्य है । अतः निर्ममभाव से सभी को धर्मोपकरण ग्राह्य है । यद्यपि कोई | तृतीय महावत । जिनकल्पिक धर्मोपकरण के बिना भी चारित्र का पालन करते तीसरे महाव्रत अदत्तादान विरमण के निस्पण में वादी का हैं, लेकिन काल के प्रभाव से अभी. ऐसी धृति, संघयणादि का कथन है कि चोरी भी वाणिज्य की भाँति एक कला है जो अभाव है । अतः धर्मोपकरण ग्राह्य है । श्री गौतमप्रमुख आजीविकाहेतु विहित है। आचार्य श्री प्रतिविधान करते हैं धर्मोपकरण रखनेवाले सिद्ध हुए ही हैं । निष्प्रयोजन देह को चोरी करनेवाले के परिणाम सुन्दर नहीं होते हैं, जिसका धन पी पीडना भी इष्ट नहीं है । आगम में आत्म-पर उभय की पीडा चोरा जाता है उसे दुःख होता है, चोरी करने वाला इस जन्म में का वर्जन कहा है । देखें गाथा ११०६ ॥ अपयश-वध-बन्धादि को पाता है तथा परलोक में भी नरक तीर्थंकर भगवन्तों ने भी सोपकरण धर्म के विधानहेतु दुःखादि पाता है । अतः चौर्य उभयलोक के लिए अहितकर है। , देवेन्द्रदत्त देवदूष्य धारण किया था । यह भी शंका नहीं करनी चतुर्थ महावत चाहिए कि जो राज्य का त्याग करता है वह वस्त्र कैसे ग्रहण चौथे महाव्रत में मैथुनविरमण के प्रतिपादनमें भी व र करेगा ? क्योंकि भिक्षाग्रहण की भाँति वस्त्रग्रहण भी धर्मदेह का वाद-प्रतिवादों का उल्लेख किया है । निष्कर्ष २ सभी आस्तिक पोषक है । तथा - दर्शनकारों द्वारा निषिद्ध, परमसंक्लेश का कारण, गुद्धि वृद्धि, एक | आज्ञापालन से मुक्ति न कि अनुकरण से | प्रसङ्ग में नौ लाख गर्भज पंचेन्द्रिय एवं असंख्य विकलेन्द्रिय जीवों का वध, देह की क्षीणता एवं परलोक में सुगतिरूप देह का नाश, भगवान के शिष्यों के लिए भगवान् का पूर्ण अनुकरण चारित्र में विघ्न, उत्सुकता को अनिवृति, अविवेक की प्रवृत्ति, शक्य नहीं है क्योंकि भगवान् तो अनुत्तर पुण्य के स्वामी हैं, विवेक का नाश इत्यादि दोषों का दर्शन कराकर अंत्यन्त त्याज्य उत्तमोत्तम हैं । हाथी का अनुकरण सूअर कभी नहीं कर सकता . बताया है। है । अतः हमजैसे सामान्य जीवों के लिए उनकी आज्ञा ही प्रमाण होनी चाहिए, न कि सर्वथा उनका अनुकरण । वैद्यके उपदेशानुसार | पंचम महावत औषधादि लेने से रोगी रोगमुक्त है, न कि वैद्य के कपडे पहिनने पांचवें परिग्रहविरमण महाव्रत के निरूपण में प्रसंग से से अथवा उसकी नकल करने से । इसी तरह तीर्थंकर परमात्मा बौद्धो का बुद्ध, धर्म एवं संघ रूप रत्नत्रयी की वृद्धिहेतु परिग्रहपक्ष की आज्ञापालन से जीव कर्मरोग से मुक्त होता है न कि वेषादि का निरास किया है । दिगम्बर भाइयों के प्रति मूर्छा परिग्रह है, द्वारा उनका अनुकरण करने से और न उनकी आज्ञा पाले न कि धर्मोपकरण इत्यादि लम्बी चर्चा में स्थान २ पर देहधारण, बिना ही ।
SR No.006034
Book TitleDharm Sangrahani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitshekharsuri
PublisherAdinath Jain Shwetambar Jain Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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