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नाग्न्य स्त्रीयों के लिए मोह का कारण है
वस्त्रपात्रादि के विरह में शीतादि के अतिशय से शरीर के विनाश को भी संभावना रहती है तथा नाग्न्य स्त्रीयों के लिए मोह का हेतु है । अतः वस्त्र - पात्रादि धर्मोपकरण को ममतारहित धारण करने से परिग्रहविरमणमहाव्रत में कोई क्षति नहीं आती है । रात्रिभोजनविरमणवत
वीतरागता की सिद्धि
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कहीं रागादिभावों का हास दीखता है, अतः इन भावों का कहीं संपूर्ण अभाव भी हो सकता है । रागादि दोषों का हास वैराग्यादि भावना से भव्यात्मामें होना अनुभवसिद्ध है । एवं रागादि के हेतु, स्वरूप, विषय और फल के चिन्तन से भी हास युक्तियुक्त है । देखिये अशुभकर्मपरमाणुओ से रागादि की उत्पत्ति होती है । रागादिका स्वरूप संक्लेशमय है । धन, स्त्री, परिवार आदि अनित्य पदार्थ इसके विषय है जन्म, जरा, मृत्यु भय और शोक इसके फल है अतः यह चिन्तन भी विवेकियों के लिए निर्वेद का हेतु है। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य की भावना एवं साधना जब प्रकर्ष को पाती है रागादि का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है और आत्मा वीतराग बन जाता है। संकल्प विकल्प स्वरूप अभ्यंतर वृत्तियों का अत्यन्त क्षय हो जाता है । इसी का नाम वीतरागता है। वीतरागता का फल सर्वज्ञता है। सर्वज्ञ सिद्धि
सर्वज्ञता के विरुद्ध वादी का कथन है 'ऋषभदेव सर्वज है यद अर्थवाद है अर्थात् प्रशंसावाक्य है। आचार्यश्री वादी के कथन का निराकरण करते कहते हैं - यह सर्वज्ञता अर्थवाद नहीं अपितु नोदनाफल है । जैसे अग्निहोत्रं जुह्यात् स्वर्गकामः' का फल स्वर्ग हैं वैसे ही ‘सग्गकेवलफलत्थिणा इह तवादि कायव्वं" स्वर्ग एवं केवलज्ञान के अभिलाषी को क्रमश तप और ध्यान करना चाहिए । अतः सर्वज्ञता ध्यान का फल है । तथा ज्ञानतारतम्य से कहीं प्रकर्ष होना चाहिए और यह प्रकर्ष ही सर्वज्ञत्व है। अविसंवादी वचनस्य आगमार्थ से भी सर्वज्ञ सिद्ध होता है एवं वह सर्वज्ञ स्वयं भी उक्तागमार्थ का फल भी है देखिये यहाँ प्रतिभा निखरती है- ॥ गाथा १२७१ ॥
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वादी ऋषभादि असर्वज्ञ हैं । आचार्य श्री
असवंश में नत्र यदि अल्पार्थ विवक्षा में है तो अर्थ यह हुआ कि वह कुछ जानता है। इस पर प्रश्न उठता है कि उसने क्या नहीं जाना ?
वादी यज्ञादि की विधि नहीं जानी है क्योंकि उसने यज्ञादि का उपदेश नहीं दिया है ।
आचार्य श्री उसने यज्ञादि को मिध्यारूप से जाना ही है,
छ रात्रिभोजनविरमणव्रत से दृष्ट लाभ तो यह है कि दिन में लिया भोजन अच्छी तरह पच जाता है इत्यादि । अदृष्टफल हिंसानिवृत्ति रात्रि में सूक्ष्म प्राणी नजर नहीं आते हैं जिनकी हिंसा की पूरी संभावना है ।
आचार्य श्री जो सर्वज्ञ से अन्य हो अथवा सर्वज्ञ विरुद्ध इस प्रकार भावधर्म का प्रतिपादन कर वीतरागता और हो वह असर्वज्ञ है यदि ऐसी मान्यता है तो आपके कथन से ही सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं।
सर्वज्ञ को सिद्धि हुई इत्यादि ग्रन्थ अवलोकनीय है । सर्वज्ञ के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग कमभावी है.
सर्वज्ञसिद्धि के अनन्तर सर्वज्ञभगवन्त के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग क्रमभावी हैं यह भाष्यकार श्री जिनभद्रक्षमाश्रमण का सैद्धान्तिक मत हैं, दोनों उपयोग युगपत् है यह महामति श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरि का मत है, एवं तीसरा मत केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों एक ही हैं अतः दोनो उपयोग भी एक ही है । इन प्रतिपादन, वाद-प्रतिवादादि का न्यास कर आग और युक्तिपुरस्सर समाधानात्मक निष्कर्ष देते हैं केवलज्ञान और केवलदर्शन जीवस्वभाव से ही भिन्न है और इन दोनों का उपयोग क्रमिक है, युगपत् नहीं है । फिर भी ज्ञानोपयोग में ज्ञेयगत सामान्य गौणभावसे और विशेष मुख्यभाव से विषय बनते हैं, क्योंकि सर्व वस्तु में सामान्य और विशेष परस्परअनुविद्ध रहते हैं । इसी प्रकार दर्शनोपयोग में ज्ञेय गत विशेष गौणभाव से और सामान्य मुख्यभाव से विषय बनते हैं ।
श्री जिनभगवान् ही सर्वज्ञ है ।
अन्त में यह सिद्ध करते हैं कि दृष्ट- इष्ट अबाधित वचन से श्री जिन भगवान् हो सर्वज्ञ सिद्ध होते हैं और इन्हीं जिन भगवान् से उपदिष्ट धर्म की साधना कर विशुद्ध चित्त वाले जीव शाश्वत सुख के धाम मोक्ष को पाते हैं।
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क्योंकि यज्ञसंबंधी हिंसा नरकगति का हेतु होने से हेय है । वादी असर्वज्ञ में नञ् अल्पार्थ में नहीं किन्तु अन्यार्थ में है जैसे ब्राह्मण से अन्य अब्राह्मण । अथवा विरुद्ध अर्थ में नञ् जैसे धर्म विरुद्ध अधर्म ।
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मुक्ति में अव्याबाध और शाश्वत सुख
मुक्तात्मा में रागादि का अभाव होने पर जन्मादि का असंभव है। जन्मादि के असंभव के मुक्तात्मा का सुख शाश्वत और अव्याबाध सिद्ध होता है। जन्म के अभाव से न जरा हैं, न