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एकान्त अनित्य - नित्य वाद का निरास और परिणामवाद है? समाधान देते हैं → जैसे सण अपथ्य का सेवन करता है की सिद्धि
वैसे ही मिथ्यात्वरूप महाव्याधि से व्याधित जीव दुष्कर्म करता एकान्त नित्य एवं एकान्त अनित्य पक्ष में कार्यकारणभाव
है । देखें गाथा ॥५६७॥ की असंगति दीखाकर निरासपूर्वक परिणामवाद की स्थापना ।
कर्म व्यक्तिरूप से सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है। देखें गाथा १९४ से ४७५ ।
इसे सुबोध करने हेतु आचार्य अतीतकाल का दृष्टान्त रखते हैं।
जैसे अनुभूत वर्तमानता से काल की आदि होने पर भी अतीतकाल देह - प्रमाण आत्मसिद्धि |
प्रवाह से अनादि है । देखिये गाथा ॥५७३॥ देहप्रमाण आत्मसिद्धि के अवसर पर सर्वव्यापी, अंगुष्ठ
भाव-धर्म - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र। प्रमाण, अणुप्रमाण इत्यादि मान्यताओ का देहमात्र में ही चैतन्य, सुखादि लिंग के दर्शन से निरास एवं दीपप्रकाश के दृष्टान्त से जैसा कि आगे कहा - शुद्ध आत्म परिणामरूप अथवा कुंथु और हाथी प्रमाण देह में आत्मा का संकोच-विकास ।। जीवस्वभावरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही भावधर्म है । इसका आत्मस्थ-ज्ञान ही जय को विषय करता है।
निरूपण करते हुए प्रथम सम्यग्दर्शन भव्य आत्मा में कब, कैसे,
किस स्थिति में प्रकट होता है तथा 'जं मोणं तं सम्म' इत्यादि नैयायिकों के प्रति आत्मस्थ ही केवलज्ञान अपनी अचिन्त्य
निश्चयनयसम्मत जो मुक्ति का मुख्य हेतु है तथा उक्त नैश्चयिक शक्तिद्वारा लोहचुम्बक के दृष्टान्त से सर्व ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान
सम्यक्त्वका हेतु 'जैनशासन का राग' विगैरह व्यवहार कर लेता है । देखें गाथा ३७१ ।
नयाभिमत सम्यग्दर्शन का स्वरूपदर्शन । सम्यग्दर्शन की उपस्थिति बौद्धों के प्रति विनाश भावस्वस्य ।
में प्राय जीव का भाव शुभ ही होता है जो शम, संवेगादि लिंगों बौद्धों के प्रति विनाश को भावस्वरूप सिद्ध करते समाधान
से व्यंग्य है इत्यादि मननीय है । देखें गाथा ७८८ से ८१४" देते हैं - जैसे घडा फुटकर कपाल कपालिका रूप में, वैसे ही
ज्ञानके निरूपणमें चन्द्र, चन्द्रिका और बादल के दृष्टान्त दीपक बूझकर अंधकार और कज्जल; समुद्र, सरोवरादि का पानी
से जीव में मति-श्रुत - अवधि - मनःपर्यव एवं केवलज्ञान सूखकर बादल एवं शीत वायु; तथा धूप की निवृत्ति छाया के
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से प्रकट होतो हैं । रूप में उत्पन्न भाव स्वरूप ही है । देखिये गाथा ॥४६२॥
एकेन्द्रिय विगैरह जीवों में ज्ञान का प्रादुर्भाव स्वभाव से तथा इस तरह प्रथम विभाग में आत्मस्वरूप निरूपण के चार ।
पंचेंद्रियजीव में उपदेश; ज्ञान-ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों की द्वारों को कुछ विशेष बातें पेश की । अब दूसरे विभाग की कुछ
भक्ति-बहुमान, आसेवन, वृद्धि, पाठक और अध्यापक की अन्न विशेषता देखेंगें ।
- पान से भक्ति, प्रवचनवात्सत्य, बार-बार ज्ञानोपयोग आदि
से होता है । देखें गाथा ८१५ से ८५५ ॥ कर्म के मूल - उत्तर भेद एवं स्थिति का निरूपण |
चारित्र यह जीव का शुभभाव है जिसके लिंग मूलगुण कर्म और उसके मूल-उत्तरभेद-स्थिति विगैरहका प्राणातिपातविरमणादि पांच महाव्रत एवं छट्ठा रात्रिभोजनविरमण निरूपण । प्रसङ्गसे बौद्धो को मानी हुई अमूर्त वासना का व्रत तथा उत्तरगुण पिण्डविशुद्धि विगैरह है । मूलगुणों का निरूपण खंडन ।
ग्रन्थकार ने साक्षात् किया है एवं उत्तरगुणों के लिए पिण्डविशुद्धि बाहाार्थ की सिद्धि
विगैरह अन्य ग्रन्थों का अतिदेश किया है । विज्ञानवादी बौद्धों के प्रति बाह्यार्थ की सिद्धि में आचार्य प्रथम महावत । कहते हैं कि ज्ञान और शब्द निर्विषयक प्रवृत्त नहीं होते हैं ।
प्रथम महाव्रत की सिद्धि के अवसर पर वेदविहित हिंसा वन्ध्यापुत्र जैसा असत् पदार्थ स्वविषयक ज्ञान का निमित्त भी
का खंडन एवं श्री जिनमन्दिरादि के निर्माण में पृथ्व्यादि जीवो की नहीं होता है अतः एव वन्ध्यापुत्र के विषय में ज्ञान और शब्द
आपात हिंसा होने पर भी निर्मापक का शुभभाव स्वपरमुक्ति (चैत्र, मैत्रादि) प्रवृत्त नहीं होते हैं । एवं संवेदन अर्थविषयक ही
का साधक है । शुभभाव - श्री जिनेश्वर परमात्मा की स्थापना होता है । गौतमबुद्ध का महादान भी बाह्यार्थ की सिद्धि करता
की जायगी । अत एव साधुओ का आगमन होगा । उनके उपदेश है । देखें गाथा ७३७ । ७३८॥
एवं परिचय से प्रतिदिन स्वाध्यायादि द्वारा जीवो में ज्ञानवृद्धि होगी। 'जीव कर्म का कर्ता है' आचार्य के इस कथन पर शंका
परमात्मा के दर्शन से वीतरागता सर्वज्ञतादि परमात्म-गुणों का ज्ञान की जाती है कि सुखाभिलाषी जीव दुःखफलक कर्म क्यों करता
होगा । इसीसे रागादि दोषों का हास होगा और अत्यन्त हास से