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________________ उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से जब प्रकट होता है तब शम, जीव का भोक्तृत्व | संवेगादिक आत्मिकगुणों के आविर्भावरूप सम्यक्त्व, देशविरति, अनुभव (१), लोक (२) और आगमप्रमाण (३) से जीव सर्वविरति आदि व्यपदेश को पाता है । इन शम, संवेगादि के , स्वकृत कर्म का भोक्ता है । देखिये - स्वरूप को देखिये गाथा ८०८ से ८१२ में । इसी बात की संगति (१) सुख-दुःखादि का अनुभव सभी को स्वसंवेदन प्रमाण से के लिए आत्मा, उसका स्वरूप, एवं कर्मसंयोग की सिद्धिहेतु सिद्ध है। ग्रन्थकार प्रथमतः जीव और उसके स्वरूप का निरूपण छ द्वारों में ___ "यह पुण्यशाली है कि इस प्रकार सुख भोग रहा है।" से करते हैं । देखें प्रतिज्ञागाथा ३५ ॥ ऐसा लोग भी कहते हैं । तथा - |जीव और उसके स्वरूप की सिद्धि - "नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि ।" इत्यादि जीव (१) अनादिनिधन, (२) अमूर्त, (३) परिणामी, (४) आगमवचन भी प्रमाण है । देखें गाथा ५४६-५४७ तथा ज्ञाता, (५) स्वकर्म का कर्ता एवं, (६) उसके फलका भोक्ता ५९७ ॥ जीवसिद्धि और उसके स्वरूपनिरूपण में भिन्न २ पशु-पक्षी, सुख-दुःख, लाभ-हानिरूप वैचित्र्यसे अदृष्ट मतों का उल्लेख कर कहीं अकाट्य युक्तियों से, कहीं कर्म की सिद्धि होती है और यह कर्म किसी कर्ता का आक्षेप प्रतिबन्दी से तो कहीं प्रतिभा के बलपर खंडन कर स्वमत करता है । वह कर्ता परलोकगामी जीव ही सिद्ध होता है । देखें का मंडन किया है । देखें गाथा १२९ । नास्तिक के गाथा ॥१५८॥ प्रति प्रतिबन्दीसे अनुमानप्रमाणको सिद्धि आचार्यश्रीकी प्रतिभा से :| जीव की अनादिनिधनता | अनुमानप्रमाण को सिद्धि में | जीव अनादिनिधन है क्योंकि जीव का कोई उपादान कारण नहीं है तथा जिनवचन से आकाश की भाँति नास्तिक - हमने जातिस्मरणज्ञानी को नहीं देखा हैं, अतः अकृत्रिम है । देखें गाथा १५९॥ इसी द्वार में जगत्कर्तृत्ववाद टाळवाट जातिस्मरणज्ञानी नहीं है । का रोचक रीतिसे खंडन गाथा १६० से १९१॥ तक आचार्य - इस तरह तो प्रपितामह का भी अत्यन्त अवलोकनीय है। अभाव सिद्ध होगा क्योंकि 'नही देखा' हेतु उभयत्र तुल्य है । नास्तिक क्षण भर के लिए अवाक रह जाता है । देखें गाथा जीव की अमूर्तता १४९ । कर्ममुक्त जीव (१), अतीन्द्रिय, (२) अच्छेद्यभेद्य, (३) | परस्पर विरोधमात्र के उद्धावन से आत्माका अपलाप असंभव | रूपादि से रहित तथा (४) अनादि परिणामी होने से अमूर्त है । देखिये गाथा ॥१९२॥ आत्मसंबंधी मान्यताओ में परस्परविरोध का उद्भावन कर नास्तिक आत्म-तत्त्व का अपलाप करना चाहता है तब जीव की परिणामिता आचार्यश्री कहते हैं-प्रत्यक्ष दीखते पृथ्वी, पानीआदि पदार्थ सुख-दुःख, बाल्याद्यवस्था का योग, स्मृति, कर्मफल, सांख्यों को प्रकृति के विकाररूप अभिमत हैं, अणु, दूयणुक नारकादिभवभ्रमण एवं मोक्ष इन छ हेतु से जीव परिणामी आदि के क्रम से आरब्ध कार्यरूप नैयायिकोको सम्मत हैं, है । देखें गाथा ॥१९४ ॥ एवं गाथा ३३४ से ३३७॥ विज्ञानवादी बौद्धो को मात्र विज्ञानरूप से इष्ट हैं इत्यादि जीव का ज्ञातृत्व विभिन्न मान्यताएँ होने पर भी पृथ्वी, पानी आदि के अस्तित्व का कोई अपलाप नहीं कर सकता है । ठीक वैसे ही संवेदन से तथा कथञ्चित् ज्ञान से अभिन्नस्वस्पी होने से आत्म-तत्त्व का भी अपलाप नहीं हो सकता है । देखिये छात्मा ज्ञायक है । देखिये गाथा ॥४७६ ॥ गाथा ४६ । |जीव का कर्तव्य बौद्धो के प्रति शाब्दज्ञान में प्रामाण्यसिद्धि | स्वकृत कर्म से ही सुख-दुःखादिका अनुभव होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि जीव कर्मका कर्ता है । किसी विवरणकारने भी बौद्धोके प्रति शाब्दज्ञान में को दुःखी अथवा सुखी देखकर लोग भी कहते हैं - अपने किये प्रामाण्यसिद्धि उपर्युक्त प्रत्यक्षज्ञान की प्रतिबन्दी देकर की का फल भुगत रहा है । देखें गाथा ॥ ५४६ - ५४७॥ है । देखें टीकाग्रन्थ गाथा १६ ।
SR No.006034
Book TitleDharm Sangrahani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitshekharsuri
PublisherAdinath Jain Shwetambar Jain Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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