SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री प्रेमसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः प्रस्तावना धर्मसंग्रहणी ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखने के अवसर पर एक बात याद आ जाती है:- मेवाड (राजस्थान) के पहाड़ी प्रदेश में गरासिया जाति रहती है। जाति रिवाज़ के अनुसार लोकमेलों में हो युवक युवती अपने जीवनसाथी को ढूंढकर कुछ समय के लिए अज्ञातस्थान में चले जाते हैं । पश्चात् युवक अपनी पत्नी को लेकर घर पहुँचता है जहाँ युवक-युवती के माता-पिता ब्राह्मण को बुलवाकर शादी की विधि करा लेते हैं । यह विधि कभी २ विलंब से भी होती है यावत् परिणीत युगल के संतान को शादी की विधि का अवसर आ जाता है । इस स्थिति में एक ही मंडप में पूर्व माता-पिता की शादी - विधि, पश्चात् संतानकी विधि संपन्न होती है । ठीक यही बात प्रस्तावनालेख की है । ग्रन्थ का पूर्वांश प्रकाशित होने के बाद एक लम्बी मुदत बीते यह प्रस्तावना लिखी जा रही है। अस्तु विलंब के लिए क्षमा । ग्रन्थ नाम ग्रन्थ का नाम धर्म-संग्रहणी दो पदों से निष्पन्न है । प्रथम पद धर्म- जो दुर्गति-पात से जीव को थाम दे अथवा सदा के लिए सिद्धिगति में धारण करे। उक्त धर्म संबंधी पदार्थ - आत्मा, कर्मसंयोग, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीतरागता, सर्वज्ञता विगैरह का संग्रह प्रस्तुत प्रकरण में होने से ग्रन्थ नाम सार्थक है । -- स्वरूप : 7 मूल ग्रन्थ प्राकृतभाषा में विवरण सरल संस्कृतभाषा में और अनुवाद गुर्जरभाषा में है । अत एव सर्वजनभोग्य है । संपादन की सुकरता को लेकर ग्रन्थ दो अंशों में विभक्त है । विषयविभाग विषयानुक्रम से सुज्ञेय है फिर भी ग्रन्थ की विशेषता जो नज़र में आई उसका बयान आगे लिखा जा रहा है । मूल ग्रन्थ १३९६ गाथा, विवरणग्रन्थ ११००० श्लोकप्रमाण एवं अनुवादग्रन्थ टीकाग्रन्थ से प्रमाण में कुछ अधिक ही है । भाषा समृद्धि की तरतमता सहज है । ग्रन्थ शैली और ग्रन्थकार : ग्रन्थरचना प्राचीनन्याय की प्रौढप्रतिभासंपन्न शैली में है । 1 लेख प्रथम आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का सैद्धान्तिक ढंग से निरूपण है । तदनन्तर क्रमशः पूर्वपक्ष की विप्रतिपत्ति जिसे युक्ति, आगम और अनुभव के बलपर असंगत सिद्ध कर निरस्त करना। स्वपक्ष की सिद्धि के बाद सम्मतिदर्शक अन्य साक्षीग्रन्थों का प्रदर्शन । सारांश अत्यन्त परोक्ष पदार्थ भी इतने सुस्पष्ट कर दिये हैं कि बुद्धि के आले में शीघ्रस्थान पा जाते हैं। यह कमाल मूलग्रन्थकार आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी की है। जिनका समयविक्रम की आठवीं शती का उत्तरार्ध माना गाया है । १४४४ ग्रन्थों के रचयिता, याकिनीमहत्तरा के धर्मपुत्र और भवविरह अंक से अतीव प्रसिद्ध है । विवरणकार विवरणकार आ. श्री मलयगिरिजी ने मानो प्रतिज्ञा ही की है कि विवरण सुखबोध हो। यह झलक ग्रन्थ में आदि से अन्त तक दीखती है । आचार्य श्री का समय वैक्रमीय बारहवीं शती का उत्तरार्ध है । सरस्वतीदेवी से वरदान पाकर आपने अनेक आगम एवं प्रकरणग्रन्थों पर लाखों श्लोक प्रमाण सुखबोध टीकाग्रन्थ रचे हैं । अनुवादक बात रही अनुवादकार मुनिश्री अजितशेखर विजयजी की । ग्रन्थ पढने से अवश्य ख्याल आ जायगा कि न्यायशैली के इस जटिल ग्रन्थ को रोचक एवं सुबोधशैली में हमारे सामने प्रस्तुत करने में वे एक कुशल कलाकार सिद्ध हुए हैं। अनुवादक यद्यपि वय पर्याय और कद में लघु हैं फिर भी ज्ञानगरिमा से गरिष्ठ हैं । प्रकृति से सरल, सौम्य और मौजी हैं। इतना ही नहीं एक सफल वक्ता भी हैं। ग्रन्थ की विशेषताएं :- धर्म का स्वस्य और आतिभवि अब रही बात ग्रन्थ की विशेषता की धर्म का निरूपण द्रव्य भाव भेदों से । द्रव्यधर्म के भी प्रधान और अप्रधान दो भेद । भावधर्म स्व-पर के उपकाररूप है । यह उपकार शुद्ध आत्मपरिणामरूप ज्ञान-दर्शन- चरित्र में स्व- पर को प्रतिष्ठित करना । यही प्रस्तुत ग्रन्थका विषय है । देखें गाथा ४ से ३३ । यह भावधर्म आत्मापर लगे भिध्यात्वादि कर्मों के - -
SR No.006034
Book TitleDharm Sangrahani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitshekharsuri
PublisherAdinath Jain Shwetambar Jain Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy