Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रिवदर्शिनी टीका अ. १७ पापश्रमणस्वरूपम् रित्रोपचारात्मकं च ग्राहित: शिक्षितस्तानेव आचार्यादीन् यो बाल: अज्ञानी रिवसति-निन्दति, स पाप श्रमण इत्युच्यते ॥४॥
इत्थं ज्ञानाचारप्रमादिनमुक्त्वा सम्प्रति दर्शनाचारप्रमादिनमाहेमूलम्--आयरियउवायाणं, सम्म नै पडितप्पए ।
अप्पडिप्रयंए थद्धे, पावसमणे-त्ति वुच्चं ॥५॥ छाया-आचार्योपाध्यायानां, सम्यङ् न परितृप्यति ।
___अप्रतिपूजकः स्तब्धः, पापश्रमण इत्युच्यते ॥५॥ टीका--'आयरिय' इत्यादि ।
थः साधुः आचार्योपाध्यायानाम् आचार्योपाध्यायगुर्वादीन् सम्यक् शास्त्रोक्तरीत्या न परितृप्यति-परितर्पयति-सेवाशुश्रूषादिभिर्न प्रसादयति । तथाअप्रतिापूजका केनचिन्मुनिनोपकृतोऽपि न प्रत्युपकारकः, तथा-स्तब्धः अहङ्कारी, स पपश्रमण इत्युच्यते ॥५॥ को पालन करने की-शिक्षा देते हैं तो (बाले-बालः) यह बाल श्रमण (ते चेव खिंसइ-तानेव खिंसति) उन पर भी रुष्ट होता है, उनकी भी निंदा करने लगता है वह पापत्रमण है ॥४॥
इस प्रकार ज्ञानाचार में प्रमादी का स्वरूप कहकर अब सूत्रकार दर्शनाचार के प्रमादी का स्वरूप कहते हैं
"आयरिय०' इत्यादि।
अन्वयार्थ-जो साधु (आयरिय उवज्झायाणं सम्मं न पडितप्पइआचार्योपाध्यायानां सम्यक न परितृप्यति) आचार्य उपाध्याय आदि गुरुजनोंको शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार सेवा शुश्रूषा आदि द्वारा प्रसन्न नहीं करता है तथा (अप्पडिपूयए-अप्रतिपूजकः) अपने ऊपर उपकार करने वाले मुनिजनोंका भी जो प्रत्युपकार नहीं करता है एवं छे त्यारे बाले-बालः मे मा श्रम ते चेव खिसइ-तानेवखिंसति यमना ५२ રૂષ્ટ થાય છે, એમની પણ નિંદા કરવા લાગે છે, તે પાપભ્રમણ છે. ૪
આ પ્રમાણે જ્ઞાન આચારમાં પ્રસાદીનું સ્વરૂપ કહીને હવે સૂત્રકાર દશનાચારના प्रमादीनु २१३५ ४९ छ-"आयरिय" प्रत्याहि!
___ अन्वयार्थ - साधु आयरिय उवजायाणं सम्मं न पडितप्पइ-आचार्यों पाध्यायानां सम्यक न परितप्यति मायाय याय २६ गुरु नानी शास्रोत पद्धतिना अनुसार सेवा शुश्रूषा परीने तमने प्रसन्नता नथी, तथा अप्पडि
उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3