Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. २० महानिर्ग्रन्थस्वरुपनिरुपणम्
टीका-'जो' इत्यादि।
यः प्रव्रज्य-दीक्षां गृहीत्वा महाव्रतानि-प्राणातिपातविरमणादि रूपाणि पञ्च महाव्रतानि प्रमादान हेतोश्च सम्यक् नो स्पृशनिम्न पालयति । अनिग्रहात्मा= अनिग्रहः निग्रहरहितः आत्मा यस्य स तथा,-अजितेन्द्रियः, अत एव-रसेषु-मधुरादिषु गृद्धः गृद्धिमान् स मोघप्रवजितः बन्धन-वध्यतेऽनेनेति बन्धनं रागद्ववात्मकं बन्धनं मूलतो न छिनत्ति ।।३९।।
मूलम्-- आउत्तया जस्स य नेत्थि कोइ, इरियाइ भासाइ तहेसणाएं । आयाणनिक्खेव दुगुंछणाए, ने वीरजायं अणुजाइ मैं गं ॥४०॥
इसी बात को इस गाथा द्वारा प्रकट करते हैं-'जो' इत्यादि ।
अन्वयार्थ (जो पव्वइत्ताण-यः प्रवज्य) जो मनुष्य मुनिदीक्षा धारण करके (महव्वयाइं सम्मं च नो फासयइ-महाव्रतानि सग्या नो स्पृ.) शति प्राणातिपातविरमण आदिरूप महावतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता है (से-सः) वह (अणिग्गइप्पा-अनिग्रहात्मा) अजितेन्द्रिय व्यक्ति (रसेसु गिद्ध-रसेषु गृद्धः) मधुर आदि रसों में गृद्धि वाला होता हुआ (मूलओ बंधणं न छिदइ-मूलतः बन्धनं न छिनत्ति) समूल रागद्वेष रूपी बंधन का छेदन करनेवाला नहीं हो सकता है। अर्थात्-जो मनुष्य मुनिदीक्षा धारण करके भी इन्द्रियों का दास बना रहता है और इसी कारण महावतों का सम्यक्रराति से परिपालन नहीं करता है ऐसा व्यक्ति रसों की गृद्धता से रागद्वेष पर विजय नहीं पाता है ॥३९॥
या पातने मा या द्वारा प्रगट ४२१ मां आवे छे---"जो" त्याहि !
मन्वयार्थ - जो पव्वइत्ताण-यः प्रवज्य रे मनुष्य भुनिहीक्षा पार पाने महत्ययाइं सम्मं च नो फासय इ-महाव्रतानि सम्यक् नो स्पृशति प्रातिपात विरभक्ष्य मा६३५ महानानुसारीरीत पासन ४२ता नथी, से-सः ते अनिग्गहप्पा
अनिग्रहात्मा मद्रिय व्यति रसेसु गिद्धे-रसेषु गृद्धः मधुर माहि सोमा द्धिपाणी मनीने मूलओ बंधणं न छिदइ-मूलतो बंधनं न छिनत्ति रागद्वेष३५ी ५ धननु છેદન કરવાવાળે બની શકતો નથી. અર્થાતુ-જે મનુષ્ય મુનિદીક્ષા ધારણ કરીને પણ ઈન્દ્રિયોને દાસ બની રહે છે અને એ જ કારણથી મહાવ્રતનું સમ્યફ રીતિથી પરિપાલન કરતું નથી. એવી વ્યક્તિ રસોની ગૃઢતાથી રાગદ્વેષ ઉપર વિજય મેળવી શકતી નથી. ૩લા
उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3